दिनांक
27 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—परमात्मा
कहां है, खोजें तो
कहां खोजें?
2—विरह
का, प्रभु-विरह
का कष्ट नहीं
सहा जाता है।
3—हम
भारतीय क्यों
दार्शनिक
प्रश्न ही
पूछते हैं, जबकि
पश्चिमी
संन्यासी
अपने जीवन से
संबंधित
प्रश्न पूछते
हैं?
4—श्री
रामकृष्ण ने
जीव के चार
प्रकार कहे
हैं--बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और
नित्य। इसे
समझाने की
कृपा करें।
पहला
प्रश्न:
परमात्मा
कहां है, खोजें तो
कहां खोजें?
खोजा
कि चूके!
खोजने में ही पहली
भूल हो जाती
है। खोजने का
अर्थ है: यह
मान ही लिया
कि परमात्मा
खो गया है।
परमात्मा कहीं
खो सकता है? जो खो जाये
वह परमात्मा
होगा? खोजने
चले कि चूक की
शुरुआत हुई।
जितना खोजोगे
उतना खो
जायेगा।
खोजने से कभी
किसी ने परमात्मा
पाया नहीं है।
यही तो
उदघोषणा है सरहपा
के सहज-योग
की।
देखा
तुमने, सरहपा
ने परमात्मा
का नाम भी
उल्लेख नहीं
किया! नाम
उल्लेख करने
तक में भूल हो
जाती है, क्योंकि
नाम उल्लेख
किया कि लोग
चले खोजने। परमात्मा
वह है जो सब
खोज छूट जाने
पर मिलता है, खोज मात्र
छूट जाये तो
मिलता है।
क्योंकि खोज का
अर्थ हुआ:
चित्त तना हुआ
है। खोज का
अर्थ है:
वासना। खोज का
अर्थ है:
इच्छा। खोज का
अर्थ है: अभी
नहीं है, कभी
होगा। खोज में
समय आ गया।
मैं यहां हूं
और परमात्मा
कहीं और
है--खोज में
फासला आ गया, अंतराल आ
गया।
परमात्मा
वहीं है जहां
तुम हो। जहां
परमात्मा है
वहीं तुम हो।
हम परमात्मा
के सागर की
मछलियां हैं।
मछली सागर को
खोजने
निकलेगी तो
बड़ी मुश्किल
में पड़
जायेगी। कैसे
खोज पायेगी?
खोजना
नहीं है
परमात्मा
को--जीना है।
और यही सहज-योग
की अदभुत
क्रांति है।
परमात्मा है
ही--पियो!
परमात्मा है
ही नाचो!
परमात्मा में
ही तुम हो, तुम्हारी
श्वास-श्वास
में रमा है--और
तुम पूछते हो
कि परमात्मा
कहां है? कहां
नहीं है? ऐसा
कोई स्थान खोज
सकते हो जहां
परमात्मा न हो?
जो
सर्वव्यापक
है उसका ही
नाम परमात्मा
है। दोहराते
हो तोतों की
तरह कि
परमात्मा
सर्वव्यापक
है और फिर भी
पूछते हो कि
परमात्मा
कहां है!
सर्वव्यापक
का अर्थ हुआ:
वही बाहर, वही भीतर।
सर्वव्यापक
का अर्थ हुआ:
वही बोलने वाले
में, वही
सुनने वाले
में।
सर्वव्यापक
का अर्थ हुआ: जागो
तो वही, सोओ
तो वही।
सर्वव्यापक
का अर्थ हुआ:
सत्य भी वही, सपना भी
वही। ब्रह्म
भी वही, माया
भी वही। भटको
तो भी उसी में
भटक रहे हो।
उससे बाहर
नहीं भटक सकते,
उससे बाहर
कोई स्थान
नहीं है। उससे
बाहर जाना भी
चाहो तो कोई
उपाय नहीं है।
जब
तुम
भ्रांतियों
में पड़े हो तब
भी तुम उसी में
हो, क्योंकि
भ्रांतियां
भी उसी के
सागर में उठी
तरंगें हैं।
इस बात को जो
समझ ले वह सहज
हो जाता है। उसकी
सब खोज गई। अब
कोई
तीर्थ-यात्रा
नहीं करनी है।
अब तो जहां
हैं वही तीर्थ
है; जैसा
है वैसे ही
तीर्थ है। और
फिर तुम्हें
दिखाई पड़ना
शुरू होगा।
आंखें जब
वासना से रहित
होंगी, खोज
से शून्य
होंगी, फिर
तुम्हें
दिखाई पड़ना
शुरू होगा।
फिर वृक्षों
में, चांदत्तारों
में और चांद
में ही नहीं
झील में बनते
चांद के प्रतिबिंब
में भी वही, क्योंकि और
किसका
प्रतिबिंब
बनेगा?
जाग्रत
पुरुष सदा से
कहते रहे कि
ब्रह्म और माया
एक ही हैं।
माया उसीकी ही
ऊर्जा है, उसीकी ही
शक्ति है, उसीकी
छाया है। जो
माया के
विपरीत है उसे
ब्रह्म का कोई
पता नहीं है।
जो माया का
शत्रु है उसे
ब्रह्म का कभी
पता लगेगा भी
नहीं।
क्योंकि माया
में वही रमा
है, राम ही
रमा है।
जिस
दिन तुम्हें
स्वप्न में भी
सत्य की ही
झलक, छांह
दिखाई पड़ने
लगेगी, उसी
दिन क्रांति
घट जायेगी।
मगर तुम हो
खोजी। खोजी का
अर्थ होता है;
चित्त। और
जहां चित्त है
वहां अड़चन है।
खोज से चित्त निर्मित
होता है--यह
पाऊं वह पाऊं,
धन पाऊं पद
पाऊं।
तुम
सोचते हो धन
और पद को पाने
की आकांक्षा
अधार्मिक है
और परमात्मा
को पाने की
आकांक्षा धार्मिक
हैं? तो तुम
भ्रांति में
हो, बड़ी
भ्रांति में
हो। पाने की
आकांक्षा मात्र
ही चित्त की
जन्मदात्री
है। क्या तुम
पाना चाहते हो,
इससे जरा भी
भेद नहीं
पड़ता। तुम
पत्थर पाना चाहते
हो कि हीरा, कोई भेद
नहीं पड़ता।
तुम पृथ्वी
पाना चाहते हो
कि आकाश, कुछ
भेद नहीं
पड़ता। तुम
काशी जाना
चाहते हो कि
काबा, कुछ
भेद नहीं
पड़ता।
तुम्हें कुछ
पाना है, कहीं
जाना है, तो
तुम्हारे
भीतर
उद्विग्नता
होगी, तनाव
होगा और
तुम्हें
भविष्य
खींचेगा, भविष्य
जो कि झूठ है; भविष्य जो
कि नहीं है।
जो है वह तो
अभी है। तुम कहते
हो: कल, वहां।
और जो है वह है
यहां और है
अभी।
चित्त
तनाव है यहां
और वहां के
बीच। अभी और
कभी के बीच जो
तनाव है, उसका
नाम चित्त है।
जिस क्षण
तुम्हारे मन
में कुछ पाने
का खयाल नहीं
उठता उसी क्षण
मन भी गया।
फिर आता है
विश्राम, फिर
आती है शांति।
उसी शांति में
दिखाई पड़ता है।
था तो तब भी जब
दिखाई नहीं
पड़ता था। था
तब भी, लेकिन
अब दिखाई पड़ता
है, क्योंकि
आंख अब धुएं
से भरी नहीं
है।
नाव
है या छांह
शशि की, वह
जलधि के नीर
पर?
कब
लगेगी ज्योति
की वह नाव तम
के तीर पर?
वह
अछूती छांह
शशि की मचलती
हिल्लोलिनी?
ज्योति
का अति क्षणिक
चुंबन तृषित
अधर अधीर पर?
स्वप्न
या आदर्श या
संकल्प, तुम
कुछ भी कहो--
आभरण
है किरण का वह
फूल, तिमिर-शरीर
पर!
मृत्तिका
की पहुंच के
उस पार क्या
सब झूठ है?
टिके
सीमा के न दृग
क्या क्षितिज
की जंजीर पर?
नयन
साक्षर कहां
पढ़ पाए, जिसे
मन गुन रहा;--
सुरभि
ने था लिख
दिया जो छंद
मंद समीर पर!
जो
अगम है, हो
सुगम वह; यह
अतल की कामना;
मुखर
हो लिख दी गई
जो उदधि-उर
गंभीर पर!
वह
अलख का गीत
क्या है, जिसे
शशि लिखता रहा?
असीमा
का प्यार, सीमा की
असीमित पीर
पर!
दिशाएं
पखबाज, स्वर
आकाश, गाता
काल है,
चंद्र-रवि
की वेणु-वीणा
नखत के मंजीर
पर!
नाव
है या छांह
शशि की वह
जलधि के नीर
पर?
कब
लगेगी ज्योति
की वह नाव तम
के तीर पर?
देखी
तुमने छांव
चांद की झील
पर, झील के
नीर पर! वह भी
उतनी ही सत्य
है। छांव ही है,
लेकिन समझ
में आ जाये तो
नाव जितनी
सत्य है और तुम्हें
पार ले जा
सकती है। और
पार जाने का
अर्थ कहीं दूर
जाना नहीं है।
पार जाने का
अर्थ पास आना
है। और जरा
तुम्हें
विराम मिले तो
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाये।
वह
अलख का गीत
क्या है, जिसे
शशि लिखता रहा?
असीमा
का प्यार, सीमा की
असीमित पीर
पर!
दिशाएं
पखबाज...
तब
सारी दिशाएं
वाद्य हो जाती
हैं।
दिशाएं
पखबाज, स्वर
आकाश, गाता
काल है,
चंद्र-रवि
की वेणु-वीणा
नखत के मंजीर
पर!
सारा
जगत एक आह्लाद, एक उत्सव से
भर जाता है, एक नाद से भर
जाता है।
सुनने को कान
चाहिए--और जगत
संगीत है।
देखने को आंख
चाहिए--और जगत
सौंदर्य है।
गुनने को शांत
हृदय
चाहिए--और सभी
तरफ परमात्मा
है। परमात्मा
ही परमात्मा
है। इस क्षण
भी तुम
परमात्मा से
रत्ती-भर दूर
नहीं हो।
लेकिन अगर
पूछा कि खोजने
निकलेंगे, तो
चूक शुरू हो
गई। फिसले। अब
बहुत मुश्किल
हो जायेगी, कहां खोजोगे?
कैसे
खोजोगे?
खोजनेवाला
चित्त
पानेवाला
चित्त नहीं
है। खोजने-वाला
चित्त खोता
चला जाता है।
कुछ चीजें ऐसी
हैं जो बिना
खोजे पायी
जाती हैं; जिन्हें
खोजा कि खोने
का उपाय हो
जाता है। जैसे
नींद, रात
नींद न आती हो,
क्या करोगे?
जो कुछ भी
करोगे उससे
नींद में बाधा
पड़ेगी। अगर
कुछ न किया तो
नींद आ
जायेगी। अगर
पड़े ही रहे, प्रतीक्षा
करते रहे, कि
आये जब आये, तो जरूर आ
जायेगी।
लेकिन अगर उठे,
व्यायाम
किया
तंत्र-मंत्र
पढ़े, दौड़-धूप
की, कुछ
किया कि फिर
नींद मुश्किल
हो जायेगी, क्योंकि
कृत्य तो बाधा
बन जायेगा।
नींद तो विश्रांति
है।
परमात्मा
ऐसे ही आता है
जैसे नींद आती
है। तुम नहीं
खोजते
परमात्मा को।
तुम तो जरा
शांत बैठ जाओ
तो परमात्मा आ
जाये; जैसे
आ ही रहा है, मगर
तुम्हारी
अशांति की
पर्त बीच में
है और मिलन
नहीं हो पाता!
उसकी नाव तो
तुम्हारे
अंधेरे के
किनारे लगने
को तत्पर है।
नाव
है या छांह
शशि की वह
जलधि के नीर
पर?
कब
लगेगी ज्योति
की वह नाव तम
के तीर पर?
वह
लगने को ही है, लगना ही
चाहती है।
तुम्हारे
अंधेरे तट पर
उसकी नाव लगी
ही है, मगर
तुम्हारी
आंखें दूर, बहुत दूर
क्षितिज पर
उलझी हैं। तुम
उसे परलोक में
खोज रहे हो; वह इसी लोक
में मौजूद है।
तुम उसे
मृत्यु के बाद
खोज रहे हो; वह जीवन है।
और तुम उसे
किसी अशरीरी
आत्मा में खोज
रहे हो; वह
पदार्थ भी है
और चेतना भी।
सभी कुछ वही
है।
सहज-योग
की यह मूलभूत आधारशिला
है कि
परमात्मा
खोजना नहीं है; खो जाने की
कला सीखनी है
और वह मिल
जाता है। और विश्राम
में तुम खो
जाओगे। तनाव
में ही तुम होते
हो, इसलिये
आदमी तना रहता
है। एक तनाव
छूटे तो दूसरा
पकड़ लेता है।
धन की दौड़
छूटे तो पद की,
पद की दौड़
छूटे तो धर्म
की; मगर
कोई न कोई दौड़
जारी रहती है।
दौड़ जारी रहे
तो मन जीता
है।
मन
ऐसा ही है
जैसे साइकिल
पर पैडल मारना; जब तक पैडल
चलाते रहोगे
साइकिल चलती
रहेगी, पैडल
रुका कि गाड़ी
रुकी! मन
खोजता ही रहता
है। वह कहता
है कि कुछ
खोजो, कुछ
करो, क्या
बैठो हो! और जो
बैठ गया उसने
पा लिया। जरा
बैठना सीखो।
खोज तो काफी
रहे हो
जन्मों-जन्मों
से और खतरा
यही है कि तुम
अगर खोजोगे तो
तुम्हें
मार्गदर्शन
देने वाले लोग
भी मिल जायेंगे।
इस जगत में यह
अनिवार्य है।
अर्थ-शास्त्र
का नियम है कि
जिस बात की
मांग होती है
उसकी पूर्ति
करने वाले लोग
पैदा हो जाते
हैं। तुम
मांगो भर, कोई न कोई
फैक्ट्री खोल
देगा। तुम
मांगो भर, कोई
न कोई उत्पादक
सामान बनाकर
तैयार कर देगा।
जिस
बात की मांग
होगी उसकी
पूर्ति
करनेवाले मिल
जायेंगे; उसका
बाजार होगा तो
बेचनेवाले
मिल जायेंगे। तुमने
पूछा ईश्वर को
कहां खोजें और
तुम्हें मिल
जायेंगे मार्गदर्शक।
उन्हें पता हो
या न हो, इससे
क्या अंतर
पड़ता है?
मैंने
सुना है, अमरीका
में एक दुकान
पर ऐसे
हेयर-पिन
बिकते थे जो
अदृश्य...।
स्त्रियां तो
दीवानी थीं।
अदृश्य-हेयर-पिन
दिखाई भी न
पड़े किसी को
और लगा भी है
बालों में!
कौन स्त्री न
चाहेगी
अदृश्य हेयर-पिन!
भीड़ थी दुकान
पर। एक स्त्री
ने खरीदा।
डब्बी खोली।
अब दिखाई तो
पड़ते नहीं थे।
उसने पूछा कि
हैं भी न? उस
दुकानदार ने
कहा कि अब आप
से क्या
छिपाना! (परिचित
ही महिला थी।)
तीन सप्ताह से
नहीं हैं, मगर
बिक्री जारी
है।
अदृश्य
चीजों की
बिक्री बड़ी
आसान होती और
परमात्मा से
ज्यादा
अदृश्य क्या? इसलिये
सदियों से
बिक्री चल रही
है। दुकानें हैं,
दुकानदार
हैं, पंडित-पुरोहित
हैं, वे
बेच रहे हैं
अदृश्य
परमात्मा। और
चूंकि अदृश्य
सामान है, किसी
को दिखाई तो
पड़ता नहीं, इसलिए कोई
झंझट खड़ी कर
सकता नहीं। और
फिर उसको देने
के ढंग भी इस तरह
से बनाये गये
हैं कि मिलेगा
मरने के बाद।
अब मरने के
बाद कोई लौटता
नहीं। इसलिये
किसी को मिलता
है कि नहीं
मिलता, इसका
भी कुछ पता
चलता नहीं। और
फिर आदमी को
इतना घबड़ा
दिया है कि वह
सोचता है कि
इंतजाम कुछ कर
ही लेना
चाहिए।। थोड़ा
पुण्य कर लो, थोड़ा दान कर
लो। और दान
उसीको करना है,
उसी पुजारी
को, उसी
पंडित हो, उसी
ब्राह्मण
को--जो
आश्वासन दे
रहा है।
पंडित-पुरोहित
आश्वासनों पर
जीते हैं--उसी
तरह जैसे
राजनीतिज्ञ
आश्वासनों पर
जीते हैं। अब
तुम देखते हो
मजा, हर पांच
साल में चुनाव
होते हैं।
राजनेता आकर आश्वासन
देता है और
तुम फिर मान
लेते हो कि इस
बार पूरे
होंगे। कभी
पूरे नहीं
होते। कहीं
आश्वासन पूरे
करने को दिये
जाते हैं? आश्वासन
देनेवाले को
आश्वासन पूरे
करने से कोई
प्रयोजन नहीं
है; उसे
वोट चाहिए।
तुम बिना
आश्वासन के
वोट नहीं देते,
तो तुम जैसा
आश्वासन चाहो
वैसा आश्वासन
देने को वह
राजी होता है।
एक बार वोट तो
दो, फिर
पांच साल के
लिये मामला
टला। पांच साल
बीतते-बीतते
तुम भूल ही
जाओगे।
जिंदगी की
समस्याएं ही
इतनी हैं कि
कौन
आश्वासनों को
याद रखता है!
पांच साल बाद
वह फिर आकर
खड़ा हो
जायेगा। तुम
अपनी मांगों
में इस तरह
ग्रसित हो कि तुम
यह भी नहीं
देख पाते कि
तुम्हें झूठे
आश्वासन दिये
जा रहे हैं और
कभी पूरे नहीं
होते, फिर
भी तुम जागते
नहीं।
मैंने
सुना है, एक
आदिवासी
इलाके में
राजनेता
चुनाव का प्रचार
करने आया था।
आदिवासी
सीधे-सादे लोग,
नंग-धड़ंग, लंगोटी
लगाये, मुश्किल
से बैठे। मगर
इकट्ठे कर
लिया था गांव
के सरपंच ने
सबको तो राजनेता
का व्याख्यान
सुन रहे थे।
राजनेता ने
कहा कि भाइयो
एवं बहनो! अगर
मुझे तुमने
वोट दिये तो तुम्हारे
गांव में
स्कूल खुलवा
दूंगा। खूब ताली
पिटी।
आदिवासियों
ने कहा:
होया-होया!
राजनेता बहुत
प्रभावित
हुआ। ऐसे तो
उसने बहुत
जिंदाबाद-मुर्दाबाद
की आवाजें
सुनी थीं, मगर
"होया-होया'...यह बिलकुल
नया ही मामला
था! और इस भाव
से आदिवासियों
ने कहा था, ऐसी
प्रसन्नता से
कि वह समझा कि
उसकी बड़ी स्तुति
की जा रही है।
जोश बढ़ गया
राजनेता का, तो उसने कहा
कि इतना ही
नहीं कि स्कूल
खुलवा दूंगा,
अस्पताल भी
खुलवा दूंगा।
तब तो बिलकुल
धूम-धड़ाक मच
गई।
होया-होया! और
जोर से। जोश
राजनेता का
बहुत बढ़ गया।
उसने कहा कि
ट्रेन भी चलवा
दूंगा। फिर तो
आदिवासी खड़े
होकर ताली
बजाकर नाचने
लगे--होया-होया!
राजनेता
की प्रसन्नता
का कोई अंत
नहीं। जोश इतना
आ गया उसे कि
उसने मुखिया
से कहा गांव
के कि जरा
मुझे गांव में
भ्रमण भी करवा
दो, ये बड़े
भले लोग हैं
और इनकी सब
मांगें पूरी
कर दी
जायेंगी।
जो-जो आश्वासन
मैंने दिये, पांच साल
में तुम देखना,
सब पूरे हो
जायेंगे। जरा
मैं गांव का
एक चक्कर लगा
लूं।
मुखिया
उसे लेकर चला।
छोटी पगडंडियां, रास्ते तो
थे नहीं गांव
में, जंगली
गांव।
पगडंडियों के
पास ही लोग
मल-मूत्र करते
हैं तो
मल-मूत्र के
ढेर लगे हैं।
मुखिया ने कहा
कि नेता जी, जरा सम्हलकर
चलना, कहीं
होया-होया में
पैर न पड़ जाये!
तब राजनेता को
अकल आई कि
होया-होया का
मतलब क्या है।
आदिवासी
सीधे-सादे
लोग! उनको तुम
धोखा न दे
सकोगे। वे समझ
रहे हैं कि यह
स्कूल
होया-होया...; अस्पताल और
होया-होया; ट्रेन, बिलकुल
ही होया-होया।
कुछ होनेवाला
नहीं है। जब
मुखिया ने कहा
कि जरा बचकर
चलना, नेता
जी कहीं
होया-होया में
पैर न पड़ जाये,
तब उसे अकल
आई। लेकिन तब
तक बहुत देर
हो चुकी थी।
राजनेता
झूठे
आश्वासनों पर
जी रहा है।
पंडित-पुरोहित
सदियों से
झूठे आश्वासन
पर जी रहे हैं--स्वर्ग
मिलेगा, बैकुंठ
मिलेगा, बहिश्त
मिलेगी। फिर
तुम्हें जो
चाहिये हो बैकुंठ
में बहिश्त
में, सबका
तुम्हें
इंतजाम कर
देता है। जो
चाहिये हर चीज
मिल जायेगी।
मगर मौत के
बाद मिलेगा यह
सब। तुम भी
उससे राजी
रहते हो, क्योंकि
तुम भी
परमात्मा की
झंझट अभी नहीं
लेना चाहते।
तुम भी कहते
हो कि अभी तो
जो कर रहे हैं,
यह पूरा कर
लें, मौत
के बाद
परमात्मा भी
मिल जायेगा।
यह
संसार भी एक
हाथ से सम्हाल
लें, दूसरा भी दूसरे
हाथ से सम्हाल
लें।
तुम
भी यही चाहते
हो कि
परमात्मा अभी
न मिल जाये, क्योंकि अभी
मिल जाये तो
तुम्हारी
जिंदगी बदलेगी।
तुम्हें
जिंदगी बदलनी
ही पड़ेगी।
जरा
सोचो कि
परमात्मा आज
मिल जाये तो
कैसी अड़चन न आ
जायेगी!
तुम्हारी
सारी
योजनायें
अस्त-व्यस्त
हो जायेंगी।
तुमने अब तक
जो सब पुल
बांध रखे थे
सपनों के, धूल-धूसरित
हो जायेंगे।
तुम्हारे ताश
के महल सब गिर
जायेंगे।
तुम्हारी
कागज की नावें
डूब जायेंगी।
अगर परमात्मा
आज मिल जाये
तो तुम सोचते
हो, कैसी
मुसीबत न हो
जायेगी! मैं
तुमसे पूछता
हूं कि अगर
परमात्मा आज
मिले, अभी मिलता
हो, तो तुम
ईमानदारी से
हृदय पर हाथ
रखकर कह सकोगे
कि आज और अभी
तुम उससे
मिलने को राजी
हो? तुम
कहोगे कि इतने
जल्दी नहीं।
अभी दुकान भी
चलानी है। अभी
एक चुनाव भी
लड़ना है। अभी
बच्चे स्कूल
में पढ़ रहे
हैं। और
अभी-अभी तो
मेरी शादी हुई
है। आप सिर्फ
तरकीब बता दें
परमात्मा के
मिलने की कि
कहां मिलेगा,
कब मिलेगा,
जब मुझे
सुविधा होगी
तब मैं खोज
लूंगा।
इसलिये
तुम पूछते हो:
परमात्मा
कहां है? परमात्मा
यहां है! और
तुम पूछते हो
कहां है! और तुम
पूछते हो कि
परमात्मा
कैसे मिलेगा?
परमात्मा
मिला हुआ है!
तुम कैसे उसे
नहीं देख रहे
हो, यही
आश्चर्य है।
तुम कैसे उसकी
तरफ पीठ किये
खड़े हो, यही
आश्चर्य है।
मगर तुम्हें
भी राहत इसी
में है कि फिर
कभी मिले तो
अच्छा । यह
बिबूचन आज ही न
आ जाये। और
पंडित भी इससे
प्रसन्न हैं
कि तुम अभी
नहीं चाहते, तुम कल
चाहते हो। कल
तक की सुविधा
उसको देते हो,
इस बीच वह
तुम्हारा
शोषण कर लेता
है। पंडित का
काम भी चलता
रहता है, तुम्हारी
धार्मिकता भी
चलती रहती है
और जगत जैसा
है वैसा का
वैसा बना रहता
है, उसमें
रत्ती-भर, रंच-मात्र
भेद नहीं करना
पड़ता। यह बड़ी
सुविधापूर्ण
व्यवस्था है।
पंडित पूजा
करता रहता है,
मंदिर-मस्जिदों
में अजान और
घंटनाद होता
रहता है, आरती
उतारी जाती
रहती है और
तुम अपने
संसार की
आपाधापी में
लगे रहते हो, सब वैसा ही
चलता चला जाता
है। और एक मजा
और मन में रख
लेते हो भीतर
ही भीतर कि
मरने के बाद
परमात्मा
मिलेगा, कि
इतना पुण्य
किया कि इतना
दान किया, कि
इतने उपवास
किये, व्रत
किये, कि
इतना
मंत्र-जाप
किया, कि
इतनी माला
फेरी।
परमात्मा भी
तय हो गया। न तो
कुछ छोड़ना पड़ा,
न कुछ
परिवर्तित
होना पड?ा,
न किसी आग
से गुजरना
पड़ा। और पंडित
ने तुम्हें
सुविधा जुटा
दी, उसने
तुम्हें कल का
आश्वासन दे
दिया कि जरूर
मिलेगा, कि
तुम देखो जनेऊ
पहनते हो न, जरूर मिलेगा;
चुटइया बढ़ा
रखी है न, जरूर
मिलेगा; तिलक
लगाते हो न, जरूर
मिलेगा। उसने
सस्ते
आश्वासन दे
दिये और तुम
सस्ते
आश्वासन से
राजी हो गये।
न तुम पाना
चाहते हो न
उसकी देने की
क्षमता है।
परमात्मा
को कोई दे
सकता है? और
जिसे पाना हो उसे
क्षण-भर रुकने
की आवश्यकता
है? अभी
आंख खोलो, इसी
क्षण शांत हो
जाओ--और फिर
वही है।
दिशाएं
पखवाज, स्वर
आकाश, गाता
काल है,
चंद्र-रवि
की वेणु-वीणा
नखत के मंजीर
पर!
फिर
ओंकार का नाद
तुम्हें इसी
क्षण सुनाई
पड़ने लगे। सहज
होओ। खोजने
वाला सहज नहीं
होता। वासना करने
वाला सहज नहीं
होता। छोड़ो सब
वासना, साधारण
हो जाओ।
धार्मिक होने
की भी अस्मिता
मत बनाओ, वह
भी अहंकार है।
साधारण हो
जाओ। इसलिये
सरहपा ने नहीं
प्रयोग किया
परमात्मा
शब्द का--सहज हो
जाने को कहा
है।
साधारण
होकर जी लो, जैसे पशु
जीते हैं, पक्षी
जीते हैं, पौधे
जीते हैं, चांदत्तारे
जीते हैं--ऐसे
साधारण होकर
जीओ। इतना
जरूर भेद
रहेगा तुममें
पक्षी और पौधे
में, कि
तुम्हारी
सहजता में एक
चैतन्य रहेगा,
एक बोध
रहेगा, एक
जागृति
रहेगी। वही
जागृति और
तुम्हारी सहजता
का मिलन हो
जाये तो
परमात्मा घट
गया।
तुम
परमात्मा हो!
और तुम पूछते
हो परमात्मा
कहां खोजें!
खोजनेवाले में
छिपा है वह, जिसे तुम
खोजना चाहते
हो।
दूसरा
प्रश्न:
विरह
का, प्रभु-विरह
का कष्ट सहा
नहीं जाता है।
फिर
कुछ और होगा
वह, प्रभु-विरह
का कष्ट न
होगा।
क्योंकि
प्रभु-विरह का
कष्ट तो एक
सौभाग्य है।
वह कष्ट है ही
नहीं। वह
वरदान है, अभिशाप
नहीं। वह तो
केवल
सौभाग्यशालियों
को मिलता है, धन्यभागियों
को मिलता है।
वह तो बड़ी
मीठी पीड़ा है,
बड़ी मधुर!
जिन्होंने
उसे जाना है
वे ऐसा नहीं
कहेंगे कि प्रभु-विरह
का कष्ट नहीं
सहा जाता। वे
तो नाचेंगे।
वे तो कहेंगे:
यही क्या कम
है कि हमारे
भीतर उसकी
विरह की अग्नि
जली। अनंत हैं
अभागे जिनके
भीतर उसका भाव
ही नहीं
गूंजा। अनंत
हैं अभागे, जिनके कानों
में उसके स्वर
का एक कण भी
नहीं पड़ा, जिनकी
आंखों में
उसका रूप जरा
भी दिखाई नहीं
पड़ा, जो
बिलकुल
अपरिचित जी
रहे हैं--ऐसे
अपरिचित कि
उन्हें पता ही
नहीं है कि
परमात्मा भी
है!
तुम
धन्यभागी हो, अगर
तुम्हारे
भीतर खलबली
मची है, अगर
तुम्हारे
भीतर प्यास
उठी है। इसको
तुम कष्ट न
कहो। इसे कष्ट
कहने में भूल
हो जायेगी।
किसको
होती हैं अ?ता
इस शान की
बरबादियां।
आशियां
हम क्या बनाते, बिजलियां
देखा किये।।
इतनी
शानदार बरबादियां
बहुत कम लोगों
को उपलब्ध
होती हैं। जो परमात्मा
का दीवाना हो
गया, यह एक
शानदार
बरबादी है। यह
तो मृत्यु में
नवजीवन का
संचार है। यह
तो कांटे में
छिपा फूल है...।
उस
जुल्म पै
कुर्बां लाख
करम, उस लुत्फ
पै सदके लाख
सितम।
उस
दर्द के काबिल
हम ठहरे, जिस
दर्द के काबिल
कोई नहीं।।
धन्यभागी
है वह, जिसके
मन में पीड़ा
उठी है; जिसके
मन में ललक
उठी है; जिसको
बोध हुआ है इस
बात का कि
परमात्मा है;
जिसके भीतर
परमात्मा में
डूब जाने की
उमंग समाई है।
लेकिन
अगर तुमने
परमात्मा को
भी कोई वस्तु
समझा हुआ है
और तुम उसे
पाने के लिये आतुर
हो रहे हो
वस्तु समझकर, तो कष्ट
होगा। तब तो
वैसा ही कष्ट
होगा जैसे किसी
को मकान बनाना
है और नहीं
बना पा रहा है,
तो अहंकार
को चोट लगती
है; कि
किसी को कार
खरीदनी है, नहीं खरीद
पा रहा, अहंकार
को चोट लगती
है; कि
किसी को कुछ
और करना है और
नहीं कर पा
रहा है तो
लगता है मैं
भी नाकुछ, दो
कौड़ी का आदमी
हूं, इतना
भी नहीं कर पा
रहा!
अगर
परमात्मा को
भी तुमने कोई
वस्तु समझा है, कोई अहंकार
का आभूषण समझा
है, तो
कष्ट होगा।
लेकिन
परमात्मा कोई
वस्तु नहीं है
और न अहंकार
का कोई आभूषण।
परमात्मा तो एक
मस्ती है। और
निश्चित ही यह
मस्ती ऐसी है
कि शुरू तो
होती है, अंत
नहीं होती। तो
परमात्मा के
प्यारे तो सदा
ही विरह की
पीड़ा में जीते
हैं, सदा
ही क्योंकि
मिल-मिलकर
लगता है, और
मिलने को है।
विरह का अंत
नहीं होता।
ऐसा थोड़े ही
है कि एक दिन
पता चलता है
कि मिल गया
पूरा।
परमात्मा के
मिलने की
शुरुआत होती
है, पूरा
तो परमात्मा
कभी नहीं
मिलता। हमारे
हाथ बड़े छोटे
हैं। हमारा
हृदय बड़ा छोटा
है। उतने बड़े
आकाश को हम
समा भी कैसे
पायेंगे? हमारी
गागर में सागर
बनेगा कैसे? गागर भर भी
जायेगी तो भी
विराट सागर
बाहर मौजूद
रहेगा।
परमात्मा
की प्यास ऐसी
प्यास है कि
जितना तुम
पियोगे उतनी
ही प्यास
प्रज्वलित
होती जायेगी।
मगर यह कोई
दुर्भाग्य
नहीं, यह
कोई पीड़ा नहीं
यह मधुर पीड़ा
है।
देख
वफाए-इश्क का
एक यही उसूल
है।
लमहे
करम के याद रख, साल जफा के
भूल जा।।
वह
जो क्षण-भर को
रस बह जाता हो
वह याद रख और
वर्षों तक भी
रस न आता हो और
रेगिस्तान ही
रेगिस्तान
मालूम होता हो, उन वर्षों
को भूल जाओ।
देख
वफाए-इश्क का
एक यही उसूल
है।
लमहे
करम के याद रख, साल जफा के
भूल जा।।
यह
तो भक्त की
प्राथमिक
साधना है कि
वे छोटे-छोटे
से क्षण भी जो
आ जाते
हैं--उसके
आनंद के, उसकी
लहर, उसकी
बाढ़ के, उसकी
रोशनी
के--उन्हें ही
भर याद रखता
है। वे जो लंबी-लंबी
रातें हैं, जो बिना
उसके बीत जाती
हैं और उसकी
झलक नहीं मिलती,
उन्हें तो
वह याद ही
नहीं रखता।
उनका कोई मूल्य
ही नहीं है।
बहा
करे
दिले-खूं-गुस्ता
अश्क बन-बन कर
हमें
भी जिद है कि
हम
मुस्कुराये
जायेंगे
भक्त
तो
मुस्कुराये
जाता है; यही
क्या कम है कि
उसे पाने की, उसमें लीन
हो जाने की
पीड़ा उठी है!
बहा
करे
दिले-खूं-गुस्ता
अश्क बन-बन कर
हमें
भी जिद है कि
हम
मुस्कुराये
जायेंगे
भक्त
को तो कांटे
गिनने आते ही
नहीं, फूल
ही गिनना आता
है। उसे कांटे
धीरे-धीरे दिखाई
ही नहीं पड़ते,
फूल ही फूल
दिखाई पड़ते
हैं। फिर एक
दिन तो कांटों
में भी फूल
दिखाई पड़ते
हैं।
जब
दिल पर छा रही
हो घटाएं मलाल
की।
उस
वक्त अपने दिल
की तरफ
मुस्कुरा के
देख।।
उदासी
के क्षण आते
हैं, बदलियां
घिर जाती हैं,
लेकिन तब भी
मुस्कुरा कर
देखने की कला
भूल मत जाना।
मुस्कुरा कर
देखते ही
बदलियां छट
जाती हैं, सूरज
निकल आता है।
हमने
भी की थीं
कोशिशें, हम
न तुम्हें
भुला सके।
कोई
कमी हमीं में
थी, याद
तुम्हें न आ
सके।।
जीस्त
की राहतों में
भी गम न तेरा
भुला सके।
लब
से हंसे हज़ार
बार, दिल से
मुस्कुरा न
सके।।
कुफ्ल-सा
ज़बां पै था आंखों
में कुछ
नमी-सी थी।
होश
नहीं कि दिल
का भेद कह गये
या छुपा सके।।
अपने
ही शौक की ख़ता, अपनी ही आंख
का कुसूर।
वह
तो उठा चुका
नकाब, हम न
नजर उठा सके।।
परमात्मा
तो सामने ही
खड़ा है; अगर
भूल हो रही है
तो अपने से हो
रही है।
अपने
ही शौक की ख़ता, अपनी ही आंख
का कुसूर।
वह
तो उठा चुका
नकाब, हम न
नज़र उठा सके।
बस
हम ही अपनी
नजरें झुकाये
खड़े हैं, जमीन
में गड़ाये खड़े
हैं। वह सामने
खड़ा है और उसने
अपना घूंघट भी
उठा लिया है।
सच तो यह है, उसके ऊपर
घूंघट कभी रहा
नहीं। हमारी
आंख पर ही
परदा है।
हमारी आंख ही
धुंधली है।
परमात्मा तो
प्रतिपल आने
को आतुर है, हम ही लेने
को तैयार नहीं
हैं।
हमने
भी की थीं
कोशिशें, हम
न तुम्हें
भुला सके।
कोई
कमी हमीं में
थी, याद
तुम्हें न आ
सके।।
खयाल
रखना, कोई न
कोई अपनी ही
कमी, कोई न
कोई अपनी ही
बाधा दीवाल
बनी है, लेकिन
अकसर ऐसा हो
जाता है कि
अगर भक्त को
समझ न हो और
भक्ति अगर
उधार हो तो वह
शिकायतें
करने लगता है।
वह कहता है अब
सहा नहीं जाता।
अब विरह की
बहुत पीड़ा हो
गई। अब मिलना
ही चाहिए।
उसकी
फल पाने की
आकांक्षा
इतनी गहन है
कि देख ही
नहीं पाता कि
मेरे प्रयास
में कोई भूल
होगी, कि
मेरी प्यास
में कोई भूल होगी,
कि मेरा
पात्र ही
उल्टा रखा
होगा।
अपने
ही शौक की ख़ता, अपनी ही आंख
का कुसूर।
वह
तो उठा चुका
नकाब, हम न
नज़र उठा सके।।
जरा
पहचानो, अपनी
ही नजर की भूल
पहचानो। कहीं
चूक हो रही है।
या तो तुम
परमात्मा को
किसी शक्ल में
देखना चाहते
हो तो चूक हो
गई, फिर
तुम न देख
पाओगे। कोई
चाहता है कि
धनुष-बाण लिये
हुए रामचंद्र
जी दिखाई पड़ें,
बस फिर
तुम्हें कभी
मिलना न हो
पायेगा। और
अगर कभी मिलना
हो जाये तो
समझ लेना कि
तुम्हारी कल्पना
का ही जाल है।
कोई चाहता है
कि बांसुरी बजाते
हुए कृष्ण
मिलें। तुमने
अपेक्षा आरोपित
कर दी। तुम परमात्मा
को वैसा न आने
दोगे जैसा वह
आना चाहता है।
तुम उसे उसकी
नग्नता में न
आने दोगे; उसकी
सत्यता में न
आने दोगे वह
तुम्हारा
लिबास ओढ़कर
आये, वह
तुम्हारा
रंग-ढंग लेकर
आये, वह
तुम्हारी
अपेक्षा पूरी
करे तो फिर
विरह की रात्रि
चलती रहेगी।
फिर उसका कोई
अंत नहीं है।
फिर कोई सुबह
नहीं होने
वाली है।
तुम्हारी धारणाएं
बाधा डाल रही
हैं। तुम
परमात्मा की
कोई धारणा न
रखो मन में।
अपनी सब
धारणाएं छोड़
दो। उससे कहो:
जैसा तू है
वैसा आ। नहीं
हिंदू की तरह,
नहीं ईसाई
की तरह--तू
जैसा है वैसा
आ! मेरी कोई मांग
नहीं है! मेरी
कोई अपेक्षा
नहीं है। तू
जिस ढंग में
आयेगा, अंगीकार
है। तू जिस
रंग में आयेगा,
स्वीकार
है। तेरा
स्वागत है, तू आ। मैं
तुझे हर रंग
में और हर ढंग
में पहचानने
को राजी हूं।
मैंने आंखें
खोलकर रखी
हैं। तू आ!
लेकिन
कोई हिंदू है, कोई ईसाई है,
कोई
मुसलमान
है--और यहीं
अड़चन है: धार्मिक
तो कोई भी
नहीं। तुमने
बड़ा जाल खड़ाकर
रखा है। तुम
जरा देखो, तुमने
अगर सोचा है
कि पीतांबर
पहने हुए
कृष्ण आयें और
अगर वे सफेद
कपड़ों में खड़े
हुए तो तुम्हें
संदेह होने
लगेगा: "अरे, कृष्ण
महाराज और
सफेद कपड़ा।
पीतांबर?' तुम्हारी
धारणा अनुकूल
नहीं पड़ रही।
तुमने मान रखा
है धनुष-बाण
लिये आएं। आज
धनुष-बाण पिट
गया, अब
धनुष-बाण का
कोई मूल्य है?
कभी-कभी
छब्बीस जनवरी
को दिल्ली में
आदिवासी लेकर
पहुंच जाते
हैं, और तो
कहीं कोई
दिखाई नहीं
पड़ता धनुष-बाण
लिये हुए।
उनके भी किसी
काम का नहीं
है अब। वे भी
रखे रहते हैं
छब्बीस जनवरी
के लिये।
छब्बीस जनवरी
को रंग-रोगन
करके पहुंच
जाते हैं
दिल्ली
धनुष-बाण
लेकर। अब धनुष-बाण
का क्या अर्थ
रहा? अब
क्या मूल्य है?
और अगर अभी
भी तुम्हारा
परमात्मा
धनुष-बाण लिये
होगा तो थक
गया होगा, बुरी
तरह थक गया
होगा। उसके
कंधे भी दुखने
लगे होंगे।
तुम क्षमा करो
उसे। उसे
छुट्टी दो। उससे
कहो कि अब तुम
छोड़ो यह
धनुष-बाण। मगर
झगड़ा हो जाये,
अगर
परमात्मा
धनुष-बाण छोड़
दे।
एक
नगर में मैं
मेहमान था, वहां एक
दंगा हो गया, क्योंकि उस
कालेज के
लड़कों ने एक
नाटक किया।
आधुनिक
रामलीला! झगड़ा
हो गया इस पर, क्योंकि
गांव के
पंडित-पुरोहित
बहुत नाराज हो
गये।
दकियानूसी
बहुत नाराज हो
गये। क्योंकि
रामचंद्र जी
और लक्ष्मण जी
और सीता मैया
सब आधुनिक
वेशभूषा में!
सीता मैया
ऊंची एड़ी का
जूता पहने!
झगड़ा हो गया।
वह तो मजाक था
उनका बस, मगर
मूढ़ों की तो
कोई गिनती
नहीं; इस
देश में तो एक
गिनो और हजार
मिल जायें।
झगड़ा हो गया, वहीं झगड़ा
हो गया कि
अपमान हो गया।
धार्मिक भावनाओं
को चोट पहुंच
गई। व्यंग्य
भी समझना लोग भूल
गये हैं।
थोड़ा-सा
हंसी-मजाक
समझना भी भूल गये
हैं। वहीं
मारपीट हो गई।
कुर्सियां
तोड़ डाली गईं,
मंच के
पर्दे फाड़
डाले गये और
लड़कों की
पिटाई कर
दी--कि सीता
मैया को और
ऊंची एड़ी का
जूता! लेकिन
व्यंग्य
प्यारा था, अर्थपूर्ण
था।
सब
बदला जा रहा
है, तो तुम
सोचते हो
परमात्मा
नितनूतन, नया
नहीं हो रहा
होगा? फिर
राम या कृष्ण
या बुद्ध केवल
परमात्मा की
अनुभूतियां
हैं। इन
व्यक्तियों
ने परमात्मा
को जाना। ये
खिड़कियां हैं,
जिनसे
परमात्मा
देखा गया।
लेकिन खिड़की
की चौखट की
पूजा करने मत
बैठ जाना, नहीं
तो आकाश तो
भूल ही जायेगा,
चौखट पकड़
में रह
जायेगी। आकाश
को देखो!
खिड़की आकाश
नहीं है; खिड़की
से सिर्फ आकाश
दिखा। राम से
आकाश दिखा, कृष्ण से
आकाश दिखा। अब
खिड़की की पूजा
करने से क्या
होगा? आकाश
देखो! वह जो
राम में था
विराट, वही
विराट
आयेगा--राम
नहीं आयेंगे।
वह जो कृष्ण
में था विराट,
वही विराट
आयेगा--कृष्ण
नहीं आयेंगे।
लेकिन विराट
को झेलने की
क्षमता नहीं
है।
अर्जुन
चाहता था कि
कृष्ण अपना
विराट रूप
दिखाएं और कथा
है कि कृष्ण
ने अपना विराट
रूप दिखाया।
और जब उसने
विराट रूप
देखा तो वह
कंपने लगा।
उसके हाथ से
गांडीव छूट
गया, थरथरा
गया, पसीना
आ गया। उसने
कहा कि
नहीं-नहीं, आप अपने
वापिस उसी रूप
में आइये, मेरे
सखा के रूप
में।
यह
कथा प्रीतिकर
है। तुम चाहते
हो परमात्मा
उस तरह से आये
तो तुम्हें
रुचिकर हो।
मगर परमात्मा
तो उसी तरह से
आ सकता है
जैसा है। अगर
तुम्हें देर
हो रही है उसे
पाने में तो
उसका कुल कारण
इतना ही होगा
कि तुमने
बहुत-सी
शर्तें लगा
रखी हैं कि
ये-ये शर्तें
पूरी करो। और परमात्मा
किसी की शर्त
पूरी करने को
बंधा नहीं है।
परमात्मा और
शर्त पूरी
करेगा! तुम
बेशर्त हो
जाओ।
अपने
ही शौक की ख़ता, अपनी ही आंख
का कुसूर।
वह
तो उठा चुका
नकाब, हम न
नज़र उठा सके।।
हिंदू
की नजर नहीं
उठ सकती और
मुसलमान की
नजर नहीं उठ
सकती। नजर तो
उसकी उठेगी जो
न हिंदू है न
मुसलमान है।
हिंदू होना
नजर पर पत्थर
है, जैसे
पलकों से
पत्थर बंधा
हो। नजर तो वह
उठेगी जिस पर
कोई पत्थर
नहीं है, जिस
पर कोई बोझ
नहीं है; जो
निर्भार है; जो बच्चे की
तरह सरल और
निर्दोष है।
और जब वैसी
नजर उठती है
तो हैरान होकर
पाया जाता है
कि जिसे हम
खोजना चाहते
थे, जिसे
हम पाना चाहते
थे, वह सदा
से मौजूद था; हम कभी भी पा
लेते। इतने
दिन न पाया तो
अपनी ही नजर
का कसूर था।
और
फिर, उसकी
पीड़ा जो
झेलेगा उसे यह
सत्य भी जल्दी
ही दिखाई पड़
जायेगा--
फितरत
यही अज़ल से है
बर्के-जमाल
की।
उसने
जिसे तबाह
किया तूर कर
दिया।।
जिसे
भी वह मिटाता
है उसके ऊपर
अमृत होकर बरस
जाता है। जिसे
वह मृत्यु
देता है उसे
परम जीवन देता
है। फितरत यही
अजल से है
बर्के-जमाल
की! उस
परमात्मा के
गौरव की, गरिमा
की, उसके
उत्सव की, उसके
महोत्सव की।
यह सदा से
प्रथम से ही
सचाई रही है।
फितरत
यही अज़ल से है
बर्के-जमाल
की।
उसने
जिसे तबाह
किया तूर कर
दिया।।
उसके
हाथों मिट
जाने से बड़ा
कोई सौभाग्य
नहीं। उसके
हाथों मौत हो
जाये, इससे
बड़ा कोई
धन्यभाग
नहीं।
क्योंकि जिसे
वह मिटायेगा
उसे वह
बनायेगा।
मिटने में
बनना है। जैसे
बीज टूट जाता
है, मिट
जाता है, तो
वृक्ष हो जाता
है। ऐसे ही
तुम मिटो।
लेकिन
तुम्हारी
आकांक्षा यह
है कि मैं भी
रहूं और
परमात्मा भी
मिले। बस वहीं
चूक हो रही है।
मैं भी रहूं
और परमात्मा
भी मिले, ये
दोनों बातें
एक साथ नहीं
हो सकतीं। या
तो तुम या
परमात्मा; दो
में से एक चुन
लो। अगर
तुम्हें अपने
को बचाना है
तो परमात्मा
से तुम्हारा
कभी संपर्क न
हो पायेगा और
अगर अपने को
खोना है तो
अभी संपर्क हो
सकता है।
जिन्होंने
उसे चाहा, जिन्होंने
थोड़ा समझा, जिन्होंने
थोड़ा रस लिया
है उसकी शराब
का, जिन्होंने
थोड़ा उसे चखा
है, वे तो
कुछ और कहते
हैं। वे तो
कहते हैं:
उसका इंतजार
भी इतना मधुर
है, कि कौन
फिकिर करता है
मिलन की।
प्रतीक्षा
इतनी प्यारी
है, कौन
फिकिर करता है
मिलन की! मिलन
हो या न हो, किसे
फिकिर पड़ी है!
उसकी
प्रतीक्षा
इतनी प्यारी
है!
कहीं
वोह आके मिटा
दें न इंतजार
का लुत्फ।
कहीं
कुबूल न हो
जाये इल्तज़ा
मेरी।।
और
कभी-कभी तो
भक्त डरने
लगता है कि
कहीं ऐसा न हो
कि मैं
रोज-रोज
प्रार्थना
करता हूं कि
आओ आओ आओ, कहीं
वे आ ही न
जायें! नहीं
तो फिर जो मजा
मैं ले रहा
हूं इंतजार का,
जो गदगद
होकर राह देख
रहा हूं, वह
जो आंखें टिका
रखी हैं
प्रतीक्षा
में, वह जो
हृदय धक-धक
होकर सुन रहा
है पैरों की
आहट--यह जो
इतना सुख बरस
रहा है, इसका
क्या होगा!
कहीं
वोह आके मिटा
दें न इंतजार
का लुत्फ।
कहीं
कुबूल न हो
जाये इल्तज़ा
मेरी।।
कहीं
मेरी
प्रार्थना
स्वीकार न हो
जाये, कभी-कभी
यह डर आने
लगता है। तो
तुम कहते हो:
विरह का, प्रभु-विरह
का कष्ट सहा
नहीं जाता।
नहीं, तुम
समझे ही नहीं
अभी। नहीं तो
मस्त हो जाते।
सहने न सहने
की बात नहीं
है: यह तो बड़ा
लुत्फ है। यह
प्रतीक्षा तो
बड़ी
आनंदपूर्ण
है। उसके पैरों
की आहट सुनना
कि अब आया, अब
आया, कि
द्वार पर हवा
का धक्का लगा
और लगा कि आ
गया...कि सूखे
पत्ते हवा ने
उड़ाये और राह
पर आवाज हुई
और तुम दौड़े
कि आ गया...कि
चांद की छाया
बनी झील में
कि लगा उसकी
नाव तिरी, कि
वह आया। कि
मेरे तम के
किनारे पर
उसकी नाव लगी,
अब लगी!
ऐसी
प्रतीक्षा
गदगद भाव से
की गई हो तो
क्या तुम कह
सकोगे कि सहा
नहीं जाता? तुम तो
कहोगे कि
प्रभु और भी
दे यह पीड़ा, क्योंकि यह
पीड़ा मधुर है।
और
यह पीड़ा
निखारनेवाली
है। इसी पीड़ा
की अग्नि से
जलकर तुम, इसी अग्नि
से निकलकर तुम
कुंदन बनोगे,
शुद्ध
स्वर्ण
बनोगे। भक्त
की भाषा सीखो।
भक्त का सलीका
सीखो। भक्त की
शैली सीखो।
तीसरा
प्रश्न :
ओशो, हम भारतीय
क्यों
दार्शनिक प्रश्न
ही पूछते हैं,
जबकि
पश्चिमी
संन्यासी
अपने जीवन से
संबंधित
प्रश्न पूछते
हैं?
मुकेश
भारती!
दार्शनिक
प्रश्न अकसर
झूठे प्रश्न
होते हैं।
दार्शनिक
प्रश्न अकसर
जीवन के वास्तविक
प्रश्नों को
छिपाने का
आयोजन होते हैं।
दार्शनिक
प्रश्न धोखे
का आयोजन है।
तुम
असली प्रश्न
पूछने से डरते
हो। और असली
प्रश्न अहंकार
का आभूषण नहीं
बनते, नकली
प्रश्न
अहंकार का
आभूषण बनते
हैं।
कोई
आया और उसने
पूछा कि
परमात्मा को
कैसे पाऊं? अब इस
प्रश्न में ही
यह बात छुपी
है कि मैं परमात्मा
का खोजी हूं, कि मैं कोई
छोटा-मोटा
आदमी नहीं हूं,
कि मेरी तो
परम खोज है, आत्यंतिक
खोज। मैं तो
ऊंची बातें
करता हूं! मैं
जिज्ञासु
नहीं हूं, मुमुक्षु
हूं! मोक्ष की
ही मेरी
अभीप्सा है, छोटी-मोटी
क्षुद्र
बातों में मैं
नहीं पड़ता। मैं
कोई छोटा ओछा
आदमी नहीं
हूं। मेरा
प्रश्न देखो,
मेरा
प्रश्न बता
रहा है कि मैं
कौन हूं!
और
असलियत अगर
गौर से देखी
जाये तो इसकी
जिंदगी के
प्रश्न अभी हल
नहीं हुए। अभी
कामवासना से
यह कैसे मुक्त
हो, हल नहीं
हुआ है। मगर
राम की बात
उठा दी। अभी
काम से मुक्त
नहीं हुआ है, राम की बात
उठा दी। राम
की बात उठाने
में ही मजा है,
क्योंकि
राम की बात से
ही अहंकार को
तृप्ति मिलती
है। अब कोई
आकर पूछे कि
कामवासना से
कैसे मुक्त
होऊं, तो
स्वभावतः
अहंकार को चोट
लगती है। जो
चार लोग बैठे
हैं वे
सुनेंगे कि
अरे हम तो
समझते थे आप
ब्रह्मचारी
हैं और आप
कहते हैं
कामवासना से कैसे
मुक्ति हो!
एक
जैन मुनि
मुझसे मिलना
चाहते थे, तो मैंने
कहा: ठीक है।
लेकिन
उन्होंने कहा:
एकांत में
मिलना है।
मैंने कहा:
एकांत की क्या
चिंता? अच्छा
ही होगा आपके
भक्त भी सुन
लेंगे कि क्या
बात होती है।
मगर
वे न माने। जब
मैं उन्हें
मिलने गया तो
उन्होंने कहा
कि अब बाकी
लोग जायें।
कोई तीस-चालीस
आदमी इकट्ठे
हो गये थे, फिर द्वार
उनके एक भक्त
ने अटका दिया।
मैंने पूछा कि
इनको हटाने की
जरूरत क्या? उन्होंने
कहा: आप समझे
नहीं। मैं ऐसे
प्रश्न पूछना
चाहता हूं जो
इनके सामने
नहीं पूछ
सकूंगा। इनके
सामने तो
आत्मा-परमात्मा
और मोक्ष इत्यादि
की ही बातें
कर सकता हूं। सच
तो यह है कि
प्रश्न भी
नहीं पूछ सकता
इनके सामने, उत्तर दे
सकता हूं, क्योंकि
इनको मैं
सिर्फ समझाता
हूं, उपदेश
देता हूं। ये
तो बहुत
मुश्किल में
पड़ जायेंगे
अगर मैं पूछूं
कि कामवासना
से कैसे मुक्त
हुआ जाये, क्योंकि
ये तो मानते
हैं कि मैं
मुक्त हो गया हूं।
आप मेरी तकलीफ
समझो।
वे
आदमी ईमानदार
थे। हिम्मत
नहीं थी इतनी
कि सबके सामने
पूछते, मगर
फिर भी
ईमानदार थे।
उन्होंने कहा
कि मेरी तकलीफ...मुझे
आत्मा
परमात्मा से
कुछ लेना-देना
नहीं, चालीस
साल मेरे खराब
गये हैं। यह
कामवासना मुझे
खाये जा रही
है। मुझे इससे
छुटकारा दिलायें।
मैंने
उनसे पूछा कि
आप अपने
संप्रदाय के
आचार्य को ही
क्यों नहीं
पूछते हैं? वे आचार्य
तुलसी के मुनि
थे। तो मैंने
कहा: आपके तो
बड़े आचार्य
हैं आचार्य
तुलसी, उन्हीं
से क्यों नहीं
पूछते? उन्होंने
कहा: कामवासना
के संबंध में
आपके सिवाय
मैं किसी से
पूछ नहीं सकता,
क्योंकि
कोई भी यह समझ
नहीं पायेगा
और कोई भी यह
मानने को राजी
नहीं होगा कि
मैं अभी
कामवासना से
ग्रस्त हूं।
और फिर, जो
मेरी दशा है
वही मेरे
संप्रदाय के
अन्य साधुओं
की दशा है।
उत्तर उनके
पास भी नहीं
है। वे भी इसी
मुसीबत में
हैं। एक
चुप्पी साधी
हुई है। बात
ही मत करो
इसकी।
पश्चिमी
संन्यासी
थोथा नहीं है; उसके जीवन
के वास्तविक
प्रश्न हैं।
वह ईश्वर इत्यादि
की बात नहीं
पूछता कि
ईश्वर को कैसे
खोजें। वह
नहीं पूछता कि
मोक्ष कैसे
मिले। वह नहीं
पूछता कि
कितने नर्क
हैं और कितने
स्वर्ग हैं।
इन सब बातों
में उसका रस नहीं
है। वह जीवन
के वास्तविक
प्रश्न पूछता
है। वह कहता
है कि मैं
क्रोध से
उद्विग्न हो
उठता हूं, क्रोध
से मेरा कैसे
छुटकारा हो? और मजा यह है
कि क्रोध से
छुटकारा हो
जाये तो स्वर्ग
उपलब्ध होता
है और काम से
छुटकारा हो जाये
तो राम उपलब्ध
हो जाता है।
राम को पूछना नहीं
होता।
मगर
भारतीय मन की
तो बड़ी बेचैनी
हो गई। हजारों
साल का अहंकार
है भारत के
चित्त पर, कि हम
दार्शनिक, धार्मिक
देश, यह
पुण्यभूमि!
जैसे कि और
भूमियां
अपुण्य भूमियां
है। जैसे कई
भूमियां हैं!
भूमि तो एक ही
है, इकट्ठी
है। कहां भारत
खतम होता है? पहले पाकिस्तान
भी पुण्यभूमि
थी, अब
नहीं है।
नक्शे पर लकीर
खिंच जाती है,
पुण्यभूमि
खतम हो गई।
पहले बंगला
देश भी पुण्यभूमि
थी, अब
नहीं है। यह
बड़ा मजा है! तो
राजनेताओं के
हाथ में है
मामला कि क्या
पुण्यभूमि
होगी और क्या
पुण्यभूमि
नहीं होगी।
कौन इसका
निर्णायक है?
नक्शे पर
बदलाहट हो गई
कि भूमि बदल
गई। मगर यह
अहंकार हमारे
भीतर बड़ा गहरा
है, हजारों
सालों से हमने
पाला है।
हमारे
पास कुछ और है
भी नहीं। धन
नहीं है, समृद्धि
नहीं है, शिक्षा
नहीं है, स्वास्थ्य
नहीं है, सब
खो गया है। बस
हमारे पास अब
एक यह थोथी
अकड़ रह गई है, इसलिये इसको
हम छोड़ना भी
नहीं चाहते, वही हमारे
अहंकार का
एकमात्र
सहारा है। और
तो हमारा सब
खो ही गया है।
अब एक ही बात
बची है कि हम
धार्मिक हैं।
वह भी सिर्फ
बात ही बात है;
धार्मिक हम
हैं नहीं।
लेकिन इसको
कैसे छोड़ें? जिसके पास
सब कुछ खो गया
हो, एक
छोटा-सा आसरा
बचा हो, वह
उसी को उछालता
है।
तो
तुम पूछते हो
कि हम भारतीय
दार्शनिक
प्रश्न ही
क्यों पूछते
हैं? तुम
उछालते रहते
हो बताने के
लिये कि हम
धार्मिक हैं।
हम क्षुद्र
बातें नहीं
पूछते।
मेरे
पास भारतीय
आकर यह भी कह
देते हैं कि
आपके पश्चिमी
संन्यासी
व्यर्थ की
बातें क्यों पूछते
हैं। वे
उन्हें
व्यर्थ की
बातें मालूम
हो रही हैं।
एक पश्चिमी
संन्यासी
पूछता है कि
मेरे मन में
बहुत अहंकार
है, क्या
करूं? यह
व्यर्थ की बात
मालूम हो रही
है, क्योंकि
हम तो माने ही
बैठे हैं कि
अहंकार! अहंकार
तो हम में है
ही नहीं! यह
प्रश्न हम
कैसे पूछें? हम तो ऊंची
बात पूछते
हैं। हम तो
हवाई बात
पूछते हैं। हम
तो आकाशी बात
पूछते हैं।
लोग
मेरे पास आकर
पूछते हैं
पश्चिमी कि यह
विचार की
शृंखला नहीं
टूटती, यह
सतत बह रही है,
कोई उपाय है?
भारतीय आकर
पूछता है:
सविकल्प
समाधि क्या, निर्विकल्प
समाधि क्या? निर्बीज
समाधि क्या? सबीज समाधि
क्या? अब
मजा यह है कि
मैं तुम्हें
व्याख्या भी
कर दूं कि
निर्बीज
समाधि क्या, वह तो
निर्बीज शब्द
में ही साफ है
और निर्विकल्प
समाधि क्या, वह भी
निर्विकल्प
शब्द में साफ
है। वे शब्द
पर्याप्त हैं,
और परिभाषा
की कोई जरूरत
नहीं है। और
कितने तो
शास्त्र हैं
तुम्हारे पास!
सवाल यह नहीं
है कि निर्विकल्प
समाधि क्या है;
सवाल यह है
कि तुम
विकल्पों से
घिरे हो, इन
विकल्पों के
पार कैसे जाया
जाये? असली
सवाल
निर्विकल्प
समाधि की
व्याख्या नहीं
है, परिभाषा
नहीं है। असली
सवाल
विकल्पों से
घिरे चित्त को
विकल्पों के
पार ले जाने
की सीढ़ी क्या
है, साधन
क्या है?
मगर
यह स्वीकार
करना कि मेरे
चित्त में रोग
हैं, काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह
है--भारतीय मन
को अंगीकार
नहीं होता है।
ये तो शत्रु
हैं, ये
मैं कैसे
मानूं कि मेरे
भीतर हैं!
तो
कभी-कभी तो
ऐसा हो जाता
है कि दूसरे
के संबंध में
लोग पूछते
हैं। एक आदमी
आया! उसने कहा
कि मेरे मित्र
एक बड़ी अड़चन
में पड़े हैं, आप कुछ
सहायता करें!
मेरे मित्र
नपुंसक हो गये
हैं। वे बड़े
परेशान हैं।
मैंने
इन सज्जन को
कहा कि जरा
मेरी तरफ देखो।
उन्होंने
देखा। मैं
थोड़ी देर उनकी
तरफ देखता
रहा। तो वे
थोड़ा घबड़ाये, थोड़ा परेशान
हुए, थोड़े
बेचैन हुए, इधर-उधर
देखने लगे।
मैंने कहा कि
देखो, तुम
अपने मित्र को
क्यों नहीं
भेज दिये? तुम्हारा
मित्र आ जाता
और कहता कि एक
मेरे मित्र
हैं जो नपुंसक
हो गये हैं।
मैंने कहा:
तुम यह भी
कहने की
हिम्मत नहीं
कर सकते हो, इतने नपुंसक
हो गये हो
क्या, कि
यह तुम्हारी
बीमारी है! यह
तुम्हारे
चेहरे पर लिखी
है।
वे
तो बहुत घबड़ा
गये। नाराज ही
हो गये कि आप
कैसी बात करते
हैं! यह मेरा
सवाल नहीं है।
तो
मैंने कहा:
तुम अपने
मित्र को लेकर
आना और इतना
पक्का है कि
मैं यह हल कर
दूंगा। यह
सवाल हल हो
जायेगा, क्योंकि
सौ में से
निन्यानबे
प्रतिशत जो
लोग नपुंसक
होते हैं, सिर्फ
मनोवैज्ञानिक
रूप से होते
हैं, शारीरिक
रूप से नहीं
होते, सिर्फ
मानसिक रूप से
हो जाते हैं।
और अकसर ऐसा
हो जाता है, जो पुरुष
अपनी पत्नी के
साथ नपुंसक
होता है, वही
वेश्या के साथ
नपुंसक नहीं
होता। असल में
पत्नी से ऊब
गया होता है, उस ऊब के
कारण
नपुंसकता आ गई
होती है। तो
मैंने कहा कि
हल हो जायेगा
मामला, लेकिन
ईमानदारी से।
या तो अपने
मित्र को ले
आओ...वह कौन
मित्र है, मैं
उसको देखना
चाहता हूं, बिना उसे
देखे कुछ हो
नहीं सकता। या
सच-सच कह दो।
इधर-उधर
देखा। कहा: अब
आप से क्या
छिपाना? तकलीफ
तो मेरी ही
है। इतना भी
साहस हम खो
दिये हैं!
अपनी तकलीफ भी
नहीं बता
सकते।
सैद्धांतिक
प्रश्न पूछते
हैं। सोचते
हैं:
सैद्धांतिक प्रश्न
पूछने से बात
हल हो जायेगी।
निर्विकल्प
समाधि क्या है,
यह समझने
में शायद
तुम्हें पकड़
में आ जायेगा
सूत्र कि अपने
विकल्पों से
कैसे मुक्त हुआ
जाये। नहीं, ऐसे पकड़ में
नहीं आयेगा।
क्योंकि जब
तुम निर्विकल्प
समाधि की
व्याख्या
पूछते हो तो
मैं निर्विकल्प
समाधि की
व्याख्या
करूंगा। उस
व्याख्या से
कुछ नहीं होने
वाला। वह
व्याख्या तो पतंजलि
ने कर रखी है।
उसमें अब कुछ
जोड़ा नहीं जा
सकता। परम
व्याख्या हो चुकी।
अब उसमें कुछ
सुधार करने की
जरूरत नहीं है।
आखिरी बात कही
जा चुकी है।
अब तो सवाल यह
है कि उस तक
पहुंचा कैसे
जाये, वह
व्याख्या
मेरा अनुभव
कैसे बने?
लेकिन
तब तुम्हें
जीवन के
प्रश्न पूछने
होंगे।
यथार्थ, जो तुम्हारी
वास्तविक
अड़चन है, वही
पूछनी होगी।
वास्तविक
अड़चन तुम नहीं
पूछते हो, क्योंकि
वास्तविक
अड़चन पूछने से
लगता है कि मैं
भी कैसा
गया-बीता आदमी
हूं। मगर
छिपाने से क्या
होगा? तुम
जो हो हो। और
मेरी दृष्टि
में, जो
आदमी
वास्तविक
सवाल उठाता है
वह गया-बीता आदमी
नहीं है--वही
आदमी है। जो
झूठे सवाल
उठाता है, व्यर्थ
के शाब्दिक
जाल उठाता है,
जो कभी
सीधा-सीधा
सार्थक बात
नहीं उठाता, यहां-वहां
गोल-गोल घूमता
है, पास-पास
इर्द-गिर्द
चक्कर मारता
है, लेकिन
केंद्र पर
नहीं आता--वह
आदमी व्यर्थ
ही समय गंवा
रहा है। मगर
यही हालत है।
कामवासना
तुम्हारी
तकलीफ है और
आकर पूछते हो कि
ब्रह्मचर्य
का क्या अर्थ? गोल-गोल घूम
रहे हो।
कामवासना
तुम्हारी
तकलीफ है तो
कामवासना
क्या है, और
कैसे इसके पार
हुआ जाये, यही
पूछो; ब्रह्मचर्य
की बात मत
उठाओ। मगर
ब्रह्मचर्य शब्द
बहुमूल्य है,
कीमती है।
उसकी बात ही
उठाते से
चारों तरफ
प्रभाव छा
जाता है कि यह
देखो आदमी, ब्रह्मचर्य
में इसका रस
है! तुम छिपा
रहे हो अपने
घाव फूलों
में। और फूलों
में छिपाये
घाव नासूर बन
जाते हैं, याद
रखना।
दार्शनिक
लफ्फाजी मत
करो। जीवन के
तथ्यों को पकड़ो।
और मैं तुम से
यह नहीं कह
रहा हूं कि
दर्शन ने जो
कहा है वह
व्यर्थ है।
जीवन के तथ्य
पकड़ोगे तो एक
दिन उस अनुभव
तक भी पहुंच
जाओगे, जरूर
पहुंच जाओगे!
मगर सीढ़ी चढ़नी
पड़ेगी। अभी से
आकाश की बात
मत उठाओ। अभी
तुम जमीन पर
हो, तो
जमीन की बात
करो। जमीन का
राज समझो। जो
आदमी जमीन का
राज समझ लेगा,
जमीन का
गुरुत्वाकर्षण
समझ लेगा, वही
आदमी
गुरुत्वाकर्षण
के पार हो
सकता है। उसी
समझ में से
पार होने का
रास्ता
निकलता है। वह
आदमी एक दिन
आकाश में उठ
जायेगा।
जिन
लोगों ने पहली
दफा हवाई जहाज
बनाया, वे
कुछ आकाश की
बातें नहीं
किये थे।
जिन्होंने
पहली दफा हवा
में हवाई जहाज
उठाया
उन्होंने
समझा जमीन का
राज, कि
जमीन का
गुरुत्वाकर्षण
कैसा है, कैसे
चीजों को अपनी
तरफ खींचता है,
क्या उपाय
हो सकता है
इसके खिंचाव
के पार जाने
का। जो लोग
चांद पर गये, उनके सामने
सबसे बड़ा सवाल
यही था कि
पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण
बिलकुल छूट
जाये, इसके
लिये क्या
किया जाये? उसकी ही समझ
पैदा हो गई कि
चांद पर जाना
आसान हो गया।
आकाश
की बात करने
से कोई आकाश
नहीं जाता; जमीन को ठीक
से समझ लेने
से आकाश जाता
है। आत्मा की
बातें करने से
कोई आत्मा को
नहीं पाता; देह के राज
को समझ लेने
से, शरीर
के रहस्यों को
समझ लेने से आत्मा
को जान पाता
है।
तथ्यों
को पहचानो, सत्य तक
पहुंच जाओगे।
मगर हम तथ्यों
की बात ही
नहीं करते। हम
तो सीधे
सत्यों की बात
करते हैं। तब
हमारी बातचीत
कोरी बातचीत
रह जाती है--दार्शनिक
चर्चा, जो
बिलकुल
व्यर्थ होती
है, जिसका
कोई मूल्य
नहीं होता, किताबी होती
है। इसलिये
अकसर ऐसा हो
जाता है कि जो
एक के लिये बड़ा
महत्वपूर्ण
सवाल मालूम
होता है, दूसरे
के लिये
बिलकुल
महत्वपूर्ण
नहीं मालूम
होता है।
एक
जैन आकर पूछता
है, निगोद
यानी क्या? अब किसी और
को इसका अर्थ
है...निगोद? कोई
हिंदू नहीं
पूछता निगोद
क्या, कोई
सिक्ख नहीं
पूछता, कोई
मुसलमान नहीं
पूछता, कोई
ईसाई नहीं
पूछता कि
निगोद क्या।
यह जैनों का
शास्त्रीय
शब्द है।
निगोद है वह
दशा, जहां
आत्माएं
संसार में
प्रवेश करने
के पहले इकट्ठी
थीं। निगोद
अंधकार की दशा
है। अति अंधकार
की--जैसे
बच्चा जन्मने
के पहले मां
के गर्भ में
होता है, नौ
महीने अंधकार
में होता है।
ऐसे ही सारी
आत्मायें
अनंत काल तक
अंधकार में
रही हैं; वह
निगोद सारी
आत्माओं का
गर्भ है।
अब
यह जैनों का
पारिभााषिक
हिसाब है। कोई
स्थान तो
बताना होगा कि
आत्माएं कहां
से आईं। जैन
मानते नहीं कि
परमात्मा है।
जैन मानते
नहीं कि
परमात्मा ने
आत्माओं को
बनाया है, क्योंकि वे
कहते हैं कि
अगर आत्मा
बनाई गई तो पदार्थ
हो गई। ठीक ही
बात कहते हैं:
जो चीज बनाई
जाये वह
चैतन्य कैसे
हो सकती है? और जो चीज
बनाई गई, वह
किसी दिन
मिटाई भी जा
सकती है, तो
फिर आत्मा की
शाश्वतता
खंडित हो गई।
तो फिर आत्मा
का कोई मतलब
ही न रहा। फिर
बेकार की
परेशानी हो गई
सब। इसलिये
आत्मा बनाई तो
नहीं गई, फिर
आई कहां से? तो अब उनको
कोई उपाय
खोजना पड़ेगा,
परमात्मा
की जगह उन्हें
कोई सिद्धांत
रखना पड़ेगा--निगोद।
अब
उनसे कोई पूछे
कि निगोद में
आत्माएं कहां
से आईं? आखिर
कहीं से तो आई
होंगी निगोद
में भी। गर्भ
में भी आत्मा
आखिर तो कहीं
से आती है, तो
निगोद में
आत्मा कहां से
गई? मगर
सभी
दर्शन-शास्त्र
एक जगह जाकर
चुप हो जाते
हैं, होना
ही पड़ता है, क्योंकि सब
लफ्फाजी है।
अब उत्तर नहीं
मिलता कि
निगोद में
कहां से गई।
जैन मुनि
नाराज हो जायेगा,
अगर तुम
पूछो कि निगोद
में आत्मा
कहां से आई? वह कहेगा यह
अति प्रश्न है;
जैसा कि
याज्ञवल्क्य
ने कहा था कि
यह अति प्रश्न
है, गार्गी।
क्योंकि
गार्गी ने
पूछा था:
ब्रह्म को
किसने
सम्हाला हुआ
है? पृथ्वी
को आकाश ने
सम्हाला हुआ
है, आकाश
को ब्रह्म ने
सम्हाला हुआ
है। गार्गी ने
पूछा: हे
याज्ञवल्क्य!
ब्रह्म को
किसने
सम्हाला हुआ
है? बस
याज्ञवल्क्य
नाराज हो गये।
और उसने कहा:
तेरा सिर गिर
जाएगा! यह अति
प्रश्न है!
अति
प्रश्न का
मतलब सिर्फ
इतना ही होता
है कि जिसका
उत्तर
तुम्हारे पास
नहीं है। और
सिर गिराने की
धमकी देना, यह तो कोई
अच्छा लक्षण
नहीं हुआ। यह
कोई चर्चा न
हुई। यह तो
सत्संग न हुआ,
लट्ठ उठ गये,
कि बस अब
आगे पूछोगे तो
सिर खोल
देंगे।
हर
दर्शनशास्त्र
एक जगह जाकर
रुक जाता है, क्योंकि
दर्शनशास्त्र
के सब उत्तर
कृत्रिम हैं।
कृत्रिम
उत्तर
आत्यंतिक
तृप्ति नहीं दे
सकते, तो
थोड़ी दूर तक
खींचो--इसको
उसने सम्हाला,
उसको उसने
सम्हाला, लेकिन
आखिर में थक
ही जाओगे। फिर
कहोगे: बस भाई
अब चुप करो।
अब यहां रुक
जाओ। इसके आगे
मत पूछो, क्योंकि
यह तो पूछते
ही रहोगे तो
फिर बात का अंत
ही नहीं हो
पायेगा। बात
का अंत तो
करना ही होगा,
नहीं तो
शास्त्र शुरू
तो हो जायेंगे,
इति कैसे
होंगे? उनका
अंत कैसे होगा,
समाप्ति
कैसे होगी?
तो
जैन कहता है
निगोद। मगर
निगोद में
आत्माएं कहां
से आईं, यह
मत पूछो। यह
पूछो तो झगड़ा
हो जाये।
जब
मैं
विश्वविद्यालय
में था तो जब
भी कोई जैन
मुनि आये तो
मेरा काम यही
था कि उससे
ऐसे प्रश्न
पूछ लेना है
जिनके उत्तर न
हों--जैन आये
तो, हिंदू
संन्यासी आये
तो।
एक
दफा तो ऐसा
मजा हुआ कि एक
हिंदू
संन्यासी गांव
में आये--बड़े
प्रसिद्ध
संन्यासी!
जिन्होंने
उनका आयोजन
किया था वे
मेरे पास आये
प्रार्थना
करने कि आप
कृपा करके मत
आना। मैंने
कहा: क्यों? उन्होंने
कहा कि बड़ा
उपद्रव हो
जाता है, सत्संग
ही खराब हो
जाता है। आप
ऐसा प्रश्न
उठाते हो कि
जिसका उत्तर
है नहीं। और
वह हमारे साधु-संन्यासी
नाराज हो जाते
हैं। नाराज हो
जाते हैं तो
उनकी भद्द
होती है, क्योंकि
साधु-संन्यासियों
को नाराज नहीं
होना चाहिए।
मैंने
कहा: प्रश्न
वही पूछने
योग्य हैं, जिनका उत्तर
नहीं है।
जिनका उत्तर
है बंधा-बंधाया,
तोतों की
तरह रटा हुआ, उन प्रश्नों
में क्या रखा
है? वे तो
सभी को मालूम
हैं। क्या
उनका सार है?
दार्शनिक
प्रश्नों का
कोई मूल्य
नहीं है। या तो
उनका उत्तर है, वह
बंधा-बंधाया
है; उनका
कोई मूल्य
नहीं है। या
फिर उनका
उत्तर ही नहीं
है, तब भी
कोई सार नहीं
है।
पूछो
जीवंत
प्रश्न। पूछो
जीवन की
वास्तविकता
से जुड़े
प्रश्न। जीवन
को सुलझाना
है। आकाश की
गुत्थियों
में मत पड़ो।
तुम्हारी
छोटी-सी जिंदगी
की जो गुत्थी
है, उसे
सुलझा लो।
उसके सुलझते
ही सारा अस्तित्व
सुलझ जाता है।
इसलिये
मैं तो
तुम्हें सलाह
दूंगा, मुकेश,
कि भारतीय
आदत छोड़ो।
अच्छा हो
मनोवैज्ञानिक
प्रश्न पूछो,
दार्शनिक
प्रश्नों की
बजाय, क्योंकि
मनोविज्ञान
तुम्हारी दशा
है। वहां तुम
हो। वहीं उलझन
है। वहीं
तुम्हारा रोग
है। और जहां
रोग है वहीं
इलाज किया जा
सकता है।
बुद्ध
ने इस पर बहुत
जोर दिया, लेकिन बुद्ध
को तो हमने
टिकने न दिया
इस देश में।
बुद्ध को तो
हमने उखाड़
फेंका इस देश
से। बुद्ध
अकेले भारतीय
थे, जिन्होंने
दर्शनशास्त्र
को गरिमा और
महिमा नहीं
दी--अकेले
भारतीय!
भारतीय
मनीषियों में
बुद्ध इसलिये
महिमावान हैं
कि उन्होंने
दर्शनशास्त्र
को दो कौड़ी का
बताया। उनसे
कोई दार्शनिक
प्रश्न पूछता तो
वे कहते थे कि
ऐसा हुआ, एक
बार एक आदमी
को जंगल में
तीर लग गया, किसी शिकारी
का तीर लग
गया। वह आदमी
गिर पड़ा। गांव
से वैद्य आया।
वैद्य तीर
निकालने लगा।
वह आदमी
दार्शनिक था,
उसने कहा:
रुको। पहले
कुछ बातों के
जवाब दो। पहले
तो यह कि तीर
सत्य है या
माया? है
भी कि सिर्फ
भ्रांति है?
अब
यह बड़ी झंझट
की बात है कि
तीर है भी या
सिर्फ भ्र्रांति
है! उस वैद्य
ने कहा कि
पहले तीर निकाल
लेने दो, फिर
तुम विवाद
करना और विचार
करना और
दार्शनिकों
से जाकर पूछ
लेना। मैं
वैद्य हूं, मैं कोई
दार्शनिक
नहीं हूं। तीर
सच हो कि झूठ, एक बात
पक्की है कि
अगर तीर थोड़ी
देर और रह गया तुम्हारे
भीतर तो तुम
मर जाओगे।
इतना मैं कह सकता
हूं कि तुम
मरणशैया पर
पड़े हो। मैं
तीर निकालना
जानता हूं, मुझे यह पता
नहीं तीर सच
है कि झूठ।
इतना पता है
कि यह तीर
थोड़ी देर और
रह गया
तुम्हारी देह
में तो तुम मर
जाओगे, तुम्हारा
खून विषाक्त
हो रहा है।
मुझे तीर निकाल
लेने दो।
उस
आदमी ने कहा:
विषाक्त! तो
क्या तीर
विषभरा है? इसका क्या
प्रमाण?
उस
वैद्य ने कहा
ये प्रमाण
इत्यादि बाद
में खोज लेना, क्योंकि अभी
समय नहीं है।
मर गये तो फिर
कोई प्रमाण
खोजने की
सुविधा भी न
रहेगी।
यह
तीर किसने
मारा है? उसने
पूछा।
वैद्य
ने कहा कि यह
मैं कैसे
जानूं कि
किसने मारा है? किसी ने
मारा हो, तीर
लगा है, इसे
निकाल लेने
दो।
यह
मित्र ने मारा
है या शत्रु
ने? वह
दार्शनिक
पूछने लगा।
दार्शनिकता
भी एक तरह की
बीमारी है, अंत-अंत तक
पीछा करती है।
वैद्य ने देखा
कि यह तो बहुत
संक्रामक
दार्शनिक है।
यह रोग बड़ा पुराना
है। उसने चार
आदमियों से
कहा कि पकड़ो
इसको और मैं
तीर निकालता
हूं। इसकी
बकवास में समय
खोना ठीक नहीं
है।
बुद्ध
कहते थे: तुम
जब मुझसे आकर
इस तरह के
प्रश्न पूछते
हो कि आदमी
मरने के बाद
बचता है या
नहीं, स्वर्ग
सात हैं कि
तीन, मोक्ष
कहां है, लोक
में कि
लोकातीत--तब
मुझे यह कहानी
याद आती है कि
तुम मरे जा
रहे हो। जीवन
का तीर
तुम्हारी
छाती में लगा
है। और मैं
वैद्य हूं, मैं यह तीर
निकाल सकता
हूं। मगर तुम
व्यर्थ की
बकवास कर रहे
हो। तुम कहते
हो कि जीवन
सत्य है कि
माया? और
जीवन का तीर
लगा है और तुम
मृत्यु के बाद
की बातें कर
रहे हो। और
तुम कहते हो
कि परमात्मा का
रूप कितना है,
परमात्मा
की कितनी
भुजायें हैं,
कितने सिर
हैं, परमात्मा
का कैसा रूप
है? और मैं
तुम्हारे तीर
में उत्सुक
हूं। तुम्हारा
जीवन का तीर
निकल आये, तुम्हारी
उलझन कट जाये,
तुम सुलझ
जाओ, तुम्हारे
भीतर समाधान
हो, समाधि
हो--फिर ये
सारे उत्तर
तुम खोज लेना
खुद ही। और सच
यह है कि जैसे
ही समाधि
मिलती है, कोई
प्रश्न नहीं
रह जाते, न
कोई उत्तर की
खोज रह जाती
है। समाधि
मोक्ष है। समाधि
में जान लिया
जाता है कि
मृत्यु है ही
नहीं--अमृत ही
है।
समाधि
अनुभव है
परमात्मा का।
फिर कोई पूछता
नहीं कि कितने
हाथ उसके।
क्या बच्चों
जैसी बात कर
रहे हो! कितने
सिर उसके? कहानियां गढ़
रहे हो! न उसके
सिर हैं, न
उसके हाथ हैं
या सभी हाथ
उसके हैं और
सभी सिर उसके
हैं। मगर
समाधि फल जाये
तो सारे उत्तर
मिल जाते हैं।
समाधि
उत्तरों का
उत्तर है।
मगर
बुद्ध को तो
उखाड़ फेंका इस
देश ने। बुद्ध
को तो जीने न
दिया। बुद्ध
की धारा को तो
यहां बचने
नहीं दिया। और
कारण क्या था? कारण यही था
कि इस देश की
दार्शनिक
परंपरा और
बुद्ध ने
तथ्यगत, व्यावहारिक,
यथार्थगत
उपदेश दिया।
लोग तो बुद्ध
के समय में जो
पंडित थे, दार्शनिक
थे, वह यही
कहते थे कि
बुद्ध को पता
नहीं मोक्ष का,
इसलिये वे
कहते हैं यह
प्रश्न ही
बेकार है। पता
ही नहीं है, इसलिये
प्रश्न
बेकार। पता
नहीं है
उन्हें कि
मृत्यु के बाद
क्या होगा, इसलिये
उत्तर नहीं
देते। और
लोगों को यह
बात जंची होगी
कि ठीक है; पता
होता तो उत्तर
देते, पता
है ही नहीं तो
उत्तर कैसे
देते?
और
मैं तुमसे
कहता हूं:
बुद्ध उन
थोड़े-से लोगों
में से थे
जिन्हें पता
है। और पता है, इसलिये
उत्तर नहीं
देते, क्योंकि
तुम व्यर्थ के
उत्तरों में
समय खराब कर
रहे हो।
तुम्हें
उत्तर नहीं, औषधि
चाहिये। मगर
औषधि में कोई
उत्सुक नहीं है।
जो
बुद्ध के साथ
इस देश ने
किया वही यह
देश मेरे साथ
कर रहा है।
मैं तुम्हें
औषधि देना
चाहता हूं।
तुम सुनना चाहते
हो
ब्रह्मचर्य
की महिमा और
मैं बताना चाहता
हूं तुम्हें
काम की जकड़
तुम्हारे
ऊपर। बस अड़चन
शुरू हो गई।
तुम यह सुनना
ही नहीं
चाहते। तुम
ब्रह्मचर्य
की महिमा
सुनना चाहते
हो; जैसे कि
तुमने महिमा
काफी नहीं सुन
ली है! हजारों
साल से सुन
रहे हो, हुआ
क्या है? कामग्रस्त
हो मगर
कामग्रस्तता
का विज्ञान
नहीं समझना
चाहते।
क्योंकि उसे
समझने में ही
यह बात स्वीकार
करनी पड़ती है
कि मैं और
कामग्रस्त, कभी नहीं!
मैं भारतीय
हूं!
पुण्यभूमि
में पैदा हुआ
हूं, मैं
धार्मिक हूं!
कल
जर्मनी से एक
अखबार आया।
बड़े सूझ-बूझ
का संपादक
होगा उस अखबार
का। उसने खबर
छाप दी है कि
मैं जर्मनी आ
रहा हूं और
जर्मनी में
मेरे लिए
आश्रम की जगह
खोजी जा रही
है। और मैं
जर्मनी इसलिए
आ रहा हूं कि
मोरारजी
देसाई एंड
कंपनी मुझे
भारत में नहीं
जीने देना
चाहती।...बड़ा
खोजी होगा!
अभी मैंने कुछ
सोचा भी नहीं
है जर्मनी
जाने का, न
कोई बात...।
लेकिन कही है
उसने पते की
बात!
इस
देश की यह आदत
है पुरानी। यह
देश व्यर्थ की
बातें सुनने
में बड़ा
उत्सुक होता
है। सार्थक कोई
भी बात सुनने
में इस देश को
बड़ी पीड़ा होती
है, क्योंकि
इसके अहंकार
को चोट लगती
है। और फिर सदियों-सदियों
तक हम जिस तरह की
बातें सुनते
रहे हैं
उन्हीं को हम
समझते हैं कि
धर्म-चर्चा
है।
मेरे
पास पत्र आते
हैं कि आप
काम-शास्त्र
पर क्यों बोले? ऋषि-मुनि तो
सदा
ब्रह्मचर्य
पर बोलते हैं।
मैं उनको कहता
हूं कि मैं न
कोई ऋषि हूं, न कोई मुनि
हूं, मैं
एक वैज्ञानिक
हूं! तुम छोड़ो
तुम्हारे ऋषि-मुनि
की बात।
तुम्हारे
ऋषि-मुनि
जानें और तुम
जानो। मैं न
किसी का मुनि
हूं, न
किसी का ऋषि
हूं। मैं एक
वैज्ञानिक
हूं। मैं एक
चिकित्सक
हूं। मैं औषधि
देना चाहता
हूं। मैं सच
में ही इलाज
करने को
उत्सुक हूं।
बीमारी का
दार्शनिक
विश्लेषण
करने में जरा
भी मेरा रस नहीं
है; लेकिन
बीमारी कैसे
काटी जा सके, बीमारी के
पार कैसे जाया
जा सके...? मैं
तुम्हारे
प्राणों में
पड़ गई मवाद को
निकाल देना
चाहता हूं, हालांकि जब
मवाद निकलेगी
तो पीड़ा होगी।
तुम नाराज हो
जाओ पीड़ा से, तो फिर मवाद
नहीं निकल
सकती। और मवाद
निकलेगी तो
बदबू भी फैलेगी।
लेकिन तुम
बदबू भी नहीं
फैलने देना चहते।
तुम कहते हो:
इत्र छिड़क दो
ऊपर से और
रहने दो मवाद
भीतर, बाहर
मत निकालो। अब
जो छिपा है
उसे उघाड़ना
क्यों?
मगर
वह मवाद
तुम्हारे
भीतर बढ़ रही
है, गहरी
होती जा रही
है। तुम सड़ते
जा रहे हो।
यह
देश बुरी तरह
सड़ गया है। इस
देश में अब
जिंदा आदमी कम
हैं, लाशें ही
लाशें हैं। और
दार्शनिक
चर्चा चल रही
है। मुर्दे
इकट्ठे हैं और
सत्संग कर रहे
हैं। और
सत्संग में
ऐसी-ऐसी बातें
होती हैं कि
जिनका किसी से
कोई संबंध
नहीं, कोई
लेना-देना
नहीं।
मुकेश!
यह पुरानी आदत
है इस देश की
और इस देश ने
इस आदत के
कारण बहुत
गंवाया है। अब
यह आदत छोड़
देनी चाहिए।
अब हम पृथ्वी
पर पैर गड़ाकर
खड़े हों, हम
जीवन के
यथार्थ में
अपनी जड़ें
जमायें, ताकि
आकाश में
हमारी
शाखायें उठ
सकें। और जिस वृक्ष
को आकाश में
जितने ऊंचे
जाना हो, उस
वृक्ष को जमीन
में उतनी ही
गहरी जड़ें भेजनी
पड़ती हैं। जो
वृक्ष कहेगा
कि मैं जमीन
में जड़ें नहीं
भेजना चाहता,
मैं तो
सिर्फ आकाश
में उडूंगा, वह पागल है।
वह वृक्ष बढ़
ही नहीं
पायेगा। वह गिरेगा,
बुरी तरह
गिरेगा!
ऐसे
ही हम गिरे
हैं। हम धूल
में पड़े हैं।
हम चिल्लाये
चले जाते हैं
कि हम संसार
का गौरव हैं; हालांकि कोई
और नहीं कहता,
हम ही कहते
रहते हैं कि
हम संसार का
गौरव हैं। दूसरे
लोग आकर देखकर
हम पर दया
करते हैं। हम
संसार का गौरव
नहीं मालूम
होते उन्हें।
लेकिन
यह बात जरूर
सच है कि कुछ
लोग हमारे बीच
हुए थे, जो
संसार का गौरव
थे। लेकिन उन
कुछ लोगों के
कारण कोई सारा
देश धार्मिक
नहीं हो गया
है। एक बुद्ध
के होने के
कारण कोई सारा
देश धार्मिक
नहीं होता, न एक महावीर
के होने के
कारण। ये तो
इक्के-दुक्के
लोग हैं। सच
तो यह है कि
बड़ा आश्चर्य
यही है कि
बुद्ध और
महावीर जैसे
लोग हम जैसे
लोगों के बीच
पैदा हो सके!
अपवाद हैं वे।
और अपवाद से
सिर्फ नियम
सिद्ध होता है,
और कुछ भी
नहीं। बुद्ध
के होने से
सिर्फ यही सिद्ध
होता है कि
बुद्धुओं की
भीड़ है। उसमें
एक आदमी कैसे
बुद्ध हो गया,
यही
आश्चर्य है।
और तुम्हारे
भीतर जो
महाबुद्धू है
वह बुद्धुओं
का ऋषि-मुनि
हो जाता है। स्वभावतः,
वह उनका
अग्रणीय होता
है, अग्रज।
वह उनसे भी
पहुंचा हुआ
है।
इस
देश को एक नई
दिशा की जरूरत
है, जो
यथार्थवादी
हो। मगर अगर
यथार्थ की बात
शुरू करो तो
लोग गाली देते
हैं। लोग मुझे
गाली देते
हैं। वे कहते
हैं कि मैं
नास्तिक हूं
या कि मैं
पदार्थवादी
हूं, भौतिकवादी,
चार्वाक
हूं। अगर
यथार्थ की बात
करो तो तुम
चार्वाक हो
जाते हो। अब
कौन चार्वाक
होना चाहता
है! इसलिए लोग
यथार्थ की बात
नहीं करते।
लोग ब्रह्मचर्चा
करते रहते
हैं।
ब्रह्मचर्चा
करने से वे महाज्ञानी
समझे जाते
हैं।
मैं
तुम्हें
ब्रह्मचर्चा
में नहीं
डुबाना चाहता।
मैं तुम्हें
जीवन की
वास्तविकता
को सुलझाने के
उपाय देना
चाहता हूं। और
वे सुलझ जायें
जीवन की
समस्याएं तो
एक दिन ब्रह्म
को तुम जान
लोगे। ब्रह्म चर्चा
से नहीं जाना
जाता; तुम्हारे
भीतर समाधि की
अवस्था हो जाए,
सब समाधान
हो जाए, तो
जाना जाता है।
ब्रह्म जाना
जा सकता है; उसका
विचार-विमर्श
नहीं करना
होता है।
अब
यह देखो
भारतीय
प्रश्न,
प्रज्ञा
ने पूछा है:
"श्री
रामकृष्ण ने
जीव के चार
प्रकार कहे
हैं--बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और
नित्य। ओशो, इसे समझाने
की कृपा करें।'
अब
प्रज्ञा को
क्या पड़ी
है--बद्ध, मुमुक्षु,
मुक्त और
नित्य...क्या लेना-देना
है? अभी
प्रज्ञा को
समझना चाहिए
कि ईष्या क्या
है? अभी
उसकी उम्रर
ईष्या की है।
अभी उसे समझना
चाहिए कि
वैमनस्य क्या
है? अभी
उसे समझना
चाहिए
कामवासना
क्या है? अभी
उसे समझना
चाहिए क्रोध
क्या है, लोभ
क्या है? नहीं,
उसको समझना
है कि
रामकृष्ण ने
कहा कि बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और
नित्य, ये
जीव के चार
प्रकार
हैं--यह समझना
है! इनको समझकर
क्या होगा? इससे कुछ हल
नहीं होगा।
इससे तेरे
जीवन की प्रज्ञा,
कोई भी
वास्तविक
स्थिति
खुलेगी नहीं,
कोई गांठ
खुलेगी नहीं।
इससे गांठें
और उलझ सकती
हैं, और
अड़चन हो सकती
है।
और
ये शब्द तो
साफ हैं, इनमें
समझने जैसा
कुछ नहीं है।
बद्ध का अर्थ: जो
बंधे हैं।
किसने बांधा
है, यह
समझो। बद्ध का
अर्थ है:
जिनके
प्राणों पर जंजीरें
हैं; जिनकी
चेतना
मूर्च्छित है;
जो कारागृह
में पड़े हैं।
अब क्या कारण
हैं हमारी
मूर्च्छा के?
कौन-सी
जंजीरें
हमारे हाथों
पर हैं? उन
जंजीरें को हम
कैसे तोड़ें? वे टूट
जायें तो
मुक्त का
अनुभव हो
जायेगा।
और
मुमुक्षु का
अर्थ होता है:
जो खोजे कि
बंधनों की जड़, बंधनों का
आधार कहां है:
किस बात से
मैं बंधा हूं,
क्यों बंधा
हूं, कैसे
इस बंधन के
पार जा सकता
हूं--जो इसकी
मुमुक्षा करे,
खोज करे, अन्वेषण
करे। और जो इस
अन्वेषण को
सिर्फ बौद्धिक
रूप से करे वह
मुमुक्षु; जो
इसको
अस्तित्वगत
रूप से कर ले, वह मुक्त।
जो इन बंधनों
को
तोड़त्तोड़कर
जान ले कि एक
निर्बंध दशा
है--वह मुक्त।
शुरू-शुरू
में जब अनुभव
होता है
मुक्ति का तो ऐसा
लगता है: मैं
मुक्त! मैं की
थोड़ी-सी रेखा
शेष रह जाती
है। उस थोड़ी-सी
रेखा के मिट
जाने पर मोक्ष
की दशा बनती
है। मुक्त का
अर्थ होता है
जरा-सी रेखा
रह गयी, आखिरी
छाया कि मैं
मुक्त हूं।
अभी मैं का
थोड़ा-सा भाव
रह गया। जब वह
भाव भी विदा
हो जाता है, तो मोक्ष।
ये
तो शब्द
सीधे-साफ हैं, इनमें अड़चन
नहीं है। मेरे
लिए ज्यादा
विचारणीय यह
है कि प्रज्ञा
को यह प्रश्न
क्यों उठा? अब रामकृष्ण
ने क्या कहा, कहने दो।
प्रज्ञा को यह
प्रश्न क्यों
उठा?
और
प्रज्ञा को
मैं जान रहा
हूं, देख रहा
हूं; प्रज्ञा
यहां
आश्रमवासिनी
है। उसकी
समस्याएं
मुझे पता हैं।
उन समस्याओं
का इस प्रश्न
से कोई संबंध
नहीं है। मगर
इतना अच्छा
प्रश्न पूछा
तो प्रज्ञा
खुश हो रही
होगी कि देखा,
कितना ऊंचा
प्रश्न पूछा!
प्रश्न पूछने
के लिए पूछ
लिया है।
लेकिन
प्रज्ञा, तेरी
जिंदगी से
इसका क्या
संबंध? तेरे
यथार्थ में
झांक, वहां
तो अभी सब
उपद्रव खड़े
हैं!
स्वाभाविक, उन सारे
उपद्रवों के
पार जाना है।
और उन उपद्रवों
को समझना
होगा। अभी
क्रोध को समझ,
काम को समझ,
लोभ को समझ,र् ईष्या को
समझ, हिंसा
को समझ, घृणा
को समझ।
लेकिन
लोग ये प्रश्न
पूछते ही नहीं, लोग बड़ी
ऊंची बातें
पूछते हैं! और
ऊंची बातें पूछने
से ऐसी
भ्रांति हो
जाती है कि हम
ऊंची बातों
में उत्सुक
हैं।
तुम्हारी
श्वासों की
मधुवास
नहीं
अब आयेगी फिर
पास
मधुर
मनुहारें
स्वप्निल
प्यार
फेन-शेष
अब रीता ज्वार
फूल
भी चुभते हैं
बन शूल
हुए
लोग सारे सपने
धूल
अश्रु
बहते हैं सारी
रात
याद
कर-कर के बीती
बात
संजोया
जो जीवन भर
प्राण
हुआ
अभिशाप वही
वरदान
नाव-पतवार
सभी प्रतिकूल
हुए
लो सारे सपने
धूल
जल्दी
ही सब सपने
धूल हो जाते
हैं। जो पहले
से सजग हो
जाये और सपनों
में न पड़े, या पड़े तो
इतनी कुशलता
से पड़े कि जब
बाहर निकलना
चाहे निकल आये,
अन्यथा
जिंदगी एक
सपने से दूसरे
और दूसरे से
तीसरे में
डोलती रहती
है। और जब होश
आता है तब तक
बहुत देर हो
चुकी होती है।
चिड़ियां चुग
गयी खेत, फिर
पछताये होत
का...।
अकसर
ऐसा होता है
कि लोग बुढ़ापे
में जाकर, मरने के
करीब
पहुंच-पहुंचकर
समझ पाते हैं
कि जिंदगी के
असली सवाल
क्या थे--मगर
अब हल कैसे करोगे,
अब बहुत देर
हो गयी। अब तो
बस राम-राम
जपो! राम-राम
जपने से कुछ
हल होता है!
क्रोध भीतर
भरा है, तुम
राम-राम जपो, कैसे हल
होगा? इतना
ही हो सकता है
कि राम-राम
क्रोध में
जपने लगो, और
क्या होगा?...कि राम-राम
ऐसे बोलो जैसे
पत्थर मार रहे
कि छुरा भोंक
रहे! तुमने
देखा, राम-राम
भी अलग-अलग
ढंग से जपते
हैं लोग।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन सुबह घर
से बाहर जाता
था कि उसकी
पत्नी ने कहा
कि सुनो, जरा
नौकरानी को
दो-चार लताड़
देते जाओ।
उसने कहा:
लताड़? और
तू तो कहती थी
कि नौकरानी
बड़ी प्यारी है
और बड़े ढंग से
काम कर रही है!
लताड़ की क्या
जरूरत है?
उसने
कहा कि ढंग से
काम कर रही है, बड़ी प्यारी
है। अभी तक
जितनी
नौकरानियां
आयीं उनमें यह
श्रेष्ठतम
है। मगर आज
जरा लताड़ देते
जाओ, क्योंकि
अगर वह क्रोध
में रहती है, तो जिस दिन
गलीचे और
दरियां साफ
करनी होती हैं
अगर वह थोड़े
क्रोध में
होती है, तो
अच्छी पिटाई
करती है
दरियों की और
सफाई ठीक होती
है। जरा लताड़
देते जाओ। आज
दरियां साफ
करनी हैं।
अब
आदमी क्रोध
में हो और दरी
साफ करने का
मौका मिले, तो तुम समझ
सकते हो...कि
फिर छोड़ेगा
नहीं। आदमी शांत
हो और दरी साफ
करे, तो और
बात होगी।
तुम्हारे
कृत्य में
तुम्हारी
भाव-दशा
समाविष्ट हो
जाती है। जो
आदमी क्रुद्ध
है वह राम-राम
भी क्रोध से
जपेगा। तुम
देख सकते हो, जो आदमी
शांत है वह
राम-राम भी
शांति से
जपेगा। तो
राम-राम जपने
से कुछ नहीं
होता। जो आदमी
कामवासना से
भरा है वह एक
सुंदर स्त्री
को देखकर
जोर-जोर से
राम-राम जपने
लगेगा। मगर
समझ लेना कि
वह दरी पीट
रहा है! वह जोर-जोर
से राम-राम कह
रहा है, भीतर
उफान आ रहा
है। अब वह
जोर-जोर से
राम-राम
कह रहा है; वह किसी तरह
अपने को समझा
रहा है। वह
राम-राम कह कर
अपने काम को
दबा रहा है।
राम-राम
से कुछ हल
नहीं होने
वाला है। हां, जिंदगी में
समस्याएं हल
हो जायें तो
राम का
आविर्भाव हो,
अवतरण हो।
यह तुम्हें
उल्टी बात
लगेगी, क्योंकि
तुम को यही
कहा गया है कि
बस राम-राम जप
लो सब ठीक हो
जायेगा। मैं
तुमसे कहता
हूं: अगर ऐसा
होता तो यह
देश कभी का
ठीक हो गया
होता; राम-राम
यहां सारे लोग
जप रहे हैं। इतना
सस्ता कहीं है
जीवन, इतना
आसान कहीं है
जीवन कि
राम-राम जपने
से सब ठीक हो
जायेगा! सब
ठीक हो जाये, तो राम का
अनुभव होता
है। मैं तुम
से दूसरी ही बात
कहता हूं, बिलकुल
विपरीत बात
कहता हूं।
इसलिए मेरी
प्रक्रिया
भिन्न होगी।
यहां
कोई तीस
थैरेपी का
आयोजन किया है।
लेकिन किसी
भारतीय को उन
थैरेपी-ग्रुपों
में नहीं भेज
पाता।
क्योंकि कोई
भारतीय प्रश्न
ही नहीं पूछता
कि उसे भेजा
जा सके। उन
थैरेपी
ग्रुपों में
सिर्फ
पश्चिमात्य
लोगों को मुझे
भेजना पड़ता
है। चाहता हूं
भारतीयों को
भी भेजूं। मगर
अब प्रज्ञा है, इसको वहां
भेजने से क्या
फायदा होगा, क्योंकि
थैरेपी ग्रुप
में न तो
चर्चा होगी बद्ध
जीव की, न
मुमुक्षु जीव
की, न
मुक्त जीव की,
न मोक्ष की।
प्रज्ञा को
लगेगा क्या
फिजूल की बातें
यहां हो रही
हैं! वहां
क्रोध को
उभारा जायेगा।
वहां
तुम्हारी आग
की लपटों को
पूरी तरह भड़काया
जायेगा, ताकि
तुम अपने
क्रोध को पूरी
नग्न दशा में
देख लो।
प्रज्ञा
वहां घबड़ा
जायेगी। वह
कहेगी यह क्या
हो रहा है, यह तो अधर्म
हो रहा है!
क्योंकि वहां
क्रुद्ध हो
जाते हैं लोग
इतने, तो
थैरेपी के
कमरों की
दीवालों पर
गद्दियां लगवानी
पड़ी हैं।
क्योंकि वे जब
क्रुद्ध हो
जाते हैं तो
दीवालों को
पीटने लगते
हैं, दीवालों
से सिर मारने
लगते हैं। तो
कहीं सिर फूट
न जाये...तो
गद्दियां
दीवाल पर
लगवानी पड़ी हैं।
और कभी-कभी
क्रोध की ऐसी
दशा हो जाती
है कि एक-दूसरे
से जूझ जाते
हैं। मगर यह
क्रोध को पूरा
का पूरा सतह
पर लाने का
प्रयोग है। यह
सतह पर क्रोध
आ जाये, तुम
इसे ठीक-ठीक
देख लो कि
कितनी क्रोध
की आग तुम में
भरी पड़ी है; उसी देखने
में, उसी
अनुभव में
तुम्हारे
भीतर एक
क्रांति घट जायेगी--तुम
साक्षी हो
जाओगे। और
साक्षी होने में
रूपांतरण है।
मगर
भारतीय कैसे
समझें? उनको
लगता है कि ये
तो बड़े उपद्रव
हो रहे हैं।
यह मार-पीट, हिंसा...।
उनको लगता है
कि अहिंसा
सिखानी चाहिए,
मैं तो
हिंसा सिखा
रहा हूं। मैं
हिंसा नहीं सिखा
रहा हूं; अहिंसा
के आने का
रास्ता बना
रहा हूं।
लेकिन अहिंसा
के आने का
रास्ता बनता
ही तब है जब
तुम्हारी
हिंसा का धुआं
पूरा का पूरा
निकल जाये।
तंत्र
के प्रयोग
यहां चल रहे
हैं। उन
प्रयोगों में
तुम्हारी
कामवासना को
पूरा का पूरा
सतह पर ले आने
की चेष्टा है, ताकि कुछ
दबा न रह जाये,
कुछ कुंठित
न रह जाये। सब
ऊपर उभर आये।
उभर आये तो
निकास हो
जाये।
चिकित्सा का
एक अनिवार्य अंग
है: उभार। उसी
चीज से मुक्ति
होती है जिसका
उभार हो जाये।
जैसे कि तुम्हारे
भीतर कोई
बीमारी उबल
रही है और अगर
तुम्हें वमन
हो जाये तो
तुम एकदम
हल्के हो जाते
हो। क्यों
हल्के हो जाते
हो? वह जो
कूड़ा-करकट पेट
में पड़ गया था,
वह जो जहर
पेट में पड़
गया था, तुम्हारे
शरीर ने उसे
बाहर फेंक दिया,
निर्भार हो
गया। ठीक वैसा
ही वमन
कामवासना का भी
होता है, क्रोध
का भी होता है,
लोभ का भी
होता है।
लेकिन
इस तरह की
थैरेपी के
चित्र कुछ
लोगों ने चोरी
से निकाल लिये
हैं। वे
अखबारों में
छपते हैं और
लोग सोचते हैं
कि बड़ा उपद्रव
हो रहा है! यह
तो महाअधर्म
हो रहा है!
क्योंकि उन
थैरेपी में
कभी-कभी लोग
वस्त्र फेंक
देंगे, नग्न
हो जायेंगे।
उन थैरेपी में
किसी तरह की सीमा
नहीं रखनी
पड़ती, ताकि
कुछ भी दमन का
मौका न रहे, सब उभरकर आ
जाये। और यह
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
जब सब उभरकर
ऊपर आ जाता है,
तो एकदम
हलकापन आ जाता
है। फिर ध्यान
सुगम हो जाता
है।
मैं
भारतीयों को
भी भेजना
चाहता हूं उन
चिकित्साओं
में। लेकिन
भारतीय तो
प्रश्न ही
नहीं पूछते।
वे तो आकर
कहते ही नहीं
कि मुझे क्रोध
सता रहा है।
वे तो कहते
हैं: मोक्ष
क्या है? वे
तो यह कहते ही
नहीं कि मैं
कामवासना से
पीड़ित हूं। वे
तो कहते हैं
कि मैंने
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
लिया है। और
उन्हें अगर
मैं भेज दूं
तो वे समझ ही न पायेंगे
कि क्या हो
रहा है। और
जाकर सारे देश
में प्रचार
करेंगे कि बड़ा
अनर्थ हो रहा
है!
मैं
सच में ही कुछ
करना चाहता
हूं यहां।
सिर्फ बातचीत
नहीं, कोई
क्रांति करना
चाहता हूं।
तुम्हारा
जीवन आमूल रूप
से बदल देना
चाहता हूं।
तुम्हें एक
नये तरह का
अनुभव और एक
नयी तरह की
चेतना, एक
नया निखार
देना चाहता
हूं। मगर तब
तुम्हें प्रामाणिक
होना पड़ेगा।
दार्शनिक
होने से न चलेगा,
वैज्ञानिक
होना पड़ेगा।
अब
मैं भारतीयों
को इन
चिकित्साओं
में नहीं
भेजता हूं, तो कुछ
भारतीय यह
समझते हैं कि
हमें इनकी
जरूरत ही नहीं
है, इसलिये
हमें नहीं
भेजा जा रहा
है, कि हम
तो
शुद्ध-बुद्ध
हैं ही। यह तो
पाश्चिमात्य
लोगों को
जरूरत है। ये
हैं भ्रष्ट, इनकी शुद्धि
की जरूरत है।
हम तो नहाये
बैठे हैं।
इसलिये हमें
नहीं भेजा जा
रहा है।
क्षमा
करना, यह
कारण नहीं है।
तुम्हें नहीं
भेजा जा रहा
है, क्योंकि
तुम्हारी अभी
वैज्ञानिक
उत्सुकता भी
नहीं है जीवन
को रूपांतरित
करने में। तुम
लफ्फाजी में
पड़े हो, तुम
शाब्दिक जाल
में पड़े हो।
तुम होशियारी
की बातें करते
हो, तुम
चालबाजी की
बातें करते
हो। तुम्हारे
भीतर बड़ा गहरा
पाखंड बैठा
हुआ है।
इसलिये
तुम्हें नहीं
भेजा जा रहा
है। जैसे ही
तुम पाखंड
छोड़ने लगोगे
वैसे ही
तुम्हें भी मैं
भेजने
लगूंगा।
जैसे-जैसे
तुम्हारी
क्षमता बढ़ेगी
और तुम साहसी
होओगे, तुम्हें
भी भेजने
लगूंगा। तुम
तो अभी बहुत
डर जाओगे। अगर
किसी को मैं
भेज दूं
थैरेपी में, तो उसकी
पत्नी आ
जायेगी कि
नहीं, पता
नहीं थैरेपी
में वह क्या
करें!
एक
मित्र को सिर
में दर्द था
सदा से, वर्षों
से। उनको
मैंने कहा कि
तुम शिआत्सु
नाम की जापानी
मसाज यहां
होती है, वह
जाकर ले लो।
वे लेने गये, उनकी पत्नी
भी पहुंच गयी।
जो लोग मसाज
करते हैं
उन्होंने
मुझे खबर दी
कि उनकी पत्नी
की वजह से बड़ी
झंझट है, वह
वहां खड़ी ही
रहती है छाती
पर! उसकी
पत्नी से पुछवाया।
पत्नी ने कहा
कि मुझे डर है,
क्योंकि
मसाज
करनेवाली
स्त्रियां
हैं, तो
मैं तो वहां
मौजूद
रहूंगी। मुझे
अपने पति पर
भरोसा नहीं
है।
मसाज
करनेवालों ने
मुझे खबर दी
कि जब पत्नी
नहीं होती तो
पति शिथिल
होता है, हलका
होता है।
नब्बे
प्रतिशत सिर
दर्द तो पत्नी
की
गैर-मौजूदगी
में ऐसे ही
चला जाता है।
दस ही प्रतिशत
बचता है, बचता
है वह मसाज से
चला जाता है।
पत्नी क्या आ जाती
है कि तन जाता है
पति, एकदम
अकड़ जाता।
अब
सचाई यह है कि
नब्बे
प्रतिशत वह
पत्नी ही कारण
है सिरदर्द
का। फिर भी
परिणाम हुआ, एक सात दिन
की मसाज से, शिआत्सु से
जन्म-भर का
सिरदर्द चला
गया।
अब
पत्नी उत्सुक
है करवाने को, लेकिन पति
राजी नहीं है।
क्योंकि मेरी
व्यवस्था यह
है कि स्त्रियों
की मसाज पुरुष
करें। पति
राजी था, स्त्रियां
उसकी मसाज कर
रही थीं, उसने
कोई इनकार
नहीं किया था।
लेकिन अब उसकी
पत्नी की मसाज
कोई पुरुष करे,
इससे वह
परेशान है। वह
यह नहीं
चाहता। अब
पत्नी आतुर है,
उत्सुक है,
मगर पति...और
पति तो
परमात्मा है!
पत्नी ज्यादा-से-ज्यादा
खड़ी रही छाती
पर और कुछ न कर
पायी; मसाज
तो हो ही गयी, लेकिन पति
आज्ञा नहीं दे
रहा है।
अब
स्त्री और
पुरुष के शरीर
की ऊर्जाओं के
भेद हैं। जब
पुरुष
स्त्री-शरीर
की मसाज करता
है, तो ऊर्जा
गहरी प्रवेश
करती है।
क्योंकि पुरुष-ऊर्जा
और
स्त्री-ऊर्जा
का मेल हो
जाता है, एक
संगीतबद्धता
पैदा हो जाती
है। अगर
स्त्री ही
स्त्री की
मसाज करे तो
उनकी ऊर्जा
एक-दूसरे को
विकर्षित
करती है।
जैसे
कि तुम चुंबक
को देखते हो, ऋण-चुंबक को
ऋण चुंबक के
पास ले आओ, तो
दोनों दूर हट
जाते हैं। ऋण
चुंबक के पास
धन चुंबक को
ले आओ तो दोनों
पास आकर जुड़
जाते हैं। ऐसे
स्त्री और
पुरुष के ऋण
और धन विद्युत
हैं। उनका ऋण
और धन चुंबक
है। अगर
स्त्री की
मसाज पुरुष
करे तो ही मसाज
गहरी जा सकती
है, नहीं
तो गहरी नहीं
जा सकती। और
पुरुष की मसाज
स्त्री करे तो
ही मसाज गहरी
जा सकती है, नहीं तो
गहरी नहीं जा सकती।
और मसाज इतनी
गहरी जा सकती
है कि तुम्हारे
भीतर के गहरे
से गहरे तल
में भी जो
तनाव हैं उनको
मुक्त कर दे।
उन्हीं
तनावों के
कारण सिरदर्द
था, वह
सिरदर्द
समाप्त हो
गया। अब पति
को अनुभव भी
हो गया है कि
मेरी तकलीफ
दूर हो गयी।
अब पत्नी की
कुछ तकलीफें
हैं, वे भी
दूर हो सकती
हैं। मगर पति
राजी नहीं है।
ऐसी हमारी
भारतीय
बुद्धि है!
तुम्हें
समझ में नहीं
आ सकता है कि
मैं कैसी विपरीत
परिस्थितियों
में काम कर
रहा हूं। सारी
स्थिति
विपरीत है।
तुम्हारी
सारी परंपरा रोग
की पक्षपाती
है। और तुमने
रोग पर इतने
रंग चढ़ा दिये
हैं कि तुम
रोग की पूजा
कर रहे हो! और
अगर आज उन
रोगों को तोड़ा
जाये, तो
तुम्हारी
धारणाएं
टूटेंगी, तुम्हारी
पुरानी
चिंताएं
टूटेंगी, तुम्हारी
पुरानी
परंपराएं
टूटेंगी। और
वह टूटना
थोड़े-से ही
साहसी लोग सह
सकते हैं। और
जो उतनी
हिम्मत नहीं
रखता, उसके
जीवन में कोई
सूरज ऊगने
वाला नहीं है।
यह
जीवन खो
जायेगा। यह
जीवन सदा खो
जाता है। खो
जाने के पहले
इसे सुलझा लो।
मुझको
दुखी किये
जाती है!
सब
आशाएं सूख
चुकी हैं,
उजड़
चुका संसार
प्रणय का,
चिता
जल चुकी, राख
उड़ चुकी,
मातम
तक हो चुका
हृदय का,
फिर
भी एक उमंग न
जाने,
क्यों
कम्बख्त जिये
जाती है!
मुझको
दुखी किये
जाती है!
मरते-मरते
तक तुम किसी
एक गहरी वासना
में भरे ही
रहते हो, वह
छूट ही नहीं
पाती। और वही
वासना
तुम्हारे जीवन
का सबसे बड़ा
उपद्रव है।
उसी वासना का
नाम कामवासना
है। फिर सारी
वासनाएं उसी
से पैदा होती
हैं--शेष
वासनाएं--लोभ,
क्रोध, सब
कामवासना के
ही रूप हैं।
लेकिन
कामवासना
मरते दम तक
भरी रहती है।
क्योंकि उसे
हल करने का
तुम्हें कोई
मौका ही नहीं मिला।
दबाने के तो
सब संस्कार
मिले हैं।
दबाने के लिए
तो सब शिक्षा
मिली है। बहुत
मिले उसकी
निंदा
करनेवाले, लेकिन उसे
समझाने वाला
कोई न मिला। दबा-दबाकर
बैठे रहे उसकी
छाती पर...मगर
वह वैसा ही है
जैसे कोई
ज्वालामुखी
के ऊपर बैठा
हो। वह बैठा
होना बिलकुल
झूठा है। मौत
तुम्हें बड़ा उदास
करेगी। तुम
जिंदगी को
बिना जाने
गुजर गये।
फैल
गयी बालों पर
सफेदी, चौंक
जरा करवट तो
बदल
शाम
से गाफिल
सोनेवाले देख
तो कितनी रात
हुई!
रात-ही-रात
में बीत रहा
है सब।
रात-ही-रात
में बाल पक
जाते हैं।
रात-ही-रात
में बुढ़ापा आ
जाता है, रात-ही-रात
में मौत आ
जाती है। और
तुम जिंदगी के
सवाल पूछते ही
नहीं। तुम रात
में मीठी-मीठी
कहानियां
सुनना चाहते
हो। तुम ऐसी
कहानियां सुनना
चाहते हो जो तुमको
सांत्वना
दें।
मैं
चाहता हूं कि
तुम्हें सत्य
मिले, सांत्वना
नहीं, संतोष
नहीं--सत्य।
अपनी
इच्छा के
प्रलाप में, हाय, हृदय
ने समझ लिया
था
प्रेम
सत्य है, अविनाशी
है, इसको
काल नहीं छू
सकता!
हाय, अभागा समझ न
पाया
यह
है आनी-जानी
छाया;
आशा
छाया, जीवन
छाया;
प्यार, दुलार, जवानी
छाया;
जो
कुछ हमें मिला
है वह सब
सपना-सा खो
जाने को है!
आंखें, हाय, भूल
जाने को, पागल
दिल सो जाने
को है!!
सब
मिट जायेगा।
इसके पहले कि
सब मिट जाये, तुम्हारे
भीतर साक्षी
का जन्म हो
जाना चाहिए।
और साक्षी का
जन्म जिस
भांति हो, उन
सारे
प्रयोगों से
गुजरने की
हिम्मत होनी
चाहिए।
साक्षी जन्म
जाये प्रज्ञा,
तो तू समझ
लेगी बद्धता
क्या है, मुमुक्षा
क्या है, मुक्ति
क्या है, मोक्ष
क्या है? बस
एक साक्षी के
जग जाने से सब
समझ में आ
जायेगा।
और
साक्षी को
जगाना हो, तो जीवन के
यथार्थ के
प्रति जागो।
झूठे आकाशीय सपनों,
सिद्धांतों
में मत उलझे
रहो।
शास्त्रीय
जिज्ञासाएं
मत उठाओ, जीवंत
जिज्ञासाएं
उठाओ। अपनी
वास्तविक समस्याएं
मेरे सामने
रखो। उन्हें
सुंदर-सुंदर सिद्धांतों
में मत छिपाओ।
मैं
तुम्हारे घाव
भर सकता हूं, लेकिन तुम
फूलों में
छिपाओगे
उन्हें तो वे
कैसे भरेंगे?
वे नासूर बन
जायेंगे। वे
कैंसर भी बन
सकते हैं।
आज
इतना ही।
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