न कुछ
भी हुआ है
और न
कुछ भी होगा।
जो
जहां है, वह वहां
है।
मैं
अपने स्वप्न
में राजा बन
गया
और
मेरी प्रजा ने
सम्पूर्ण
पृथ्वी पर
अधिकार जमा
लिया।
मैं
सिंहासन पर
बैठकर शेर की
तरह शासन करने
लगा।
एक
सुखी जीवन
जीने लगा।
पूरा
संसार मेरी
आज्ञा का पालन
करने लगा..।
पर
जैसे ही मैंने
अपने बिस्तरे
पर करवट बदली
सब कुछ
स्पष्ट हो गया
मैं
शेर न होकर
शेरका चाचा था
गांव
का मूर्ख
बैसाखनंदन, एक
साधारण गदहा......।
न कुछ भी हुआ
है, और न
कुछ भी होगा।
जो जहां है,वहां है।
यह
सबसे अधिक
महत्त्वपूर्ण
वक्तव्यों
में से एक है, जो अभी तक
दिए गए हैं।
यह ऐसा ही है
वास्तविकता
जैसी है, वैसी
ही बनी रहती
है। कोई भी
चीज नहीं
बदलती, न
कुछ भी बदल
सकता है।
लेकिन हम अपने
चारों ओर बहुत
से परिवर्तन
घटते हुए
देखते हैं।
हमारे लिए तो
प्रत्येक
वस्तु बदल रही
है। जीवन एक
अनवरत प्रवाह
है।
तब कोई
चीज हमारे साथ
ही गलत हो रही
है। तब वहां
जो परिवर्तन
दिखाई देता है, वह इस
कारण नहीं कि
वह वहां है, बल्कि इसलिए
क्योंकि हम
शाश्वत को
नहीं देख सकते।
हमारी सत्य को,
शाश्वत को
देखने की
असमर्थता ही
हमारे चारों
ओर बातों की
बाढ़ की तरह का
कोलाहल उत्पन्न
कर देती है।
यह हमारी
कांपती
झिलमिलाती
चेतना की
ज्योति के
कारण होता है।
क्या
तुमने एक
अंधेरे कमरे
में कभी
निरीक्षण किया
है? एक
छोटी सी
मोमबत्ती
जलती है तो
उसकी लौ कांपती
झिलमिलाती
रहती है।
क्योंकि उसकी
लौ कांप या
हिल रही है, इसलिए पूरा
कमरा हिलता—डुलता
और बदलता सा
लगता है। यदि
लौ थिर होकर
एक सी जलती
रहे तो कमरे
का हिलना—डुलना
और बदलना रुक
जाता है।
हमारी
चेतना ही
मृगतृष्णा, भ्रम या
स्वप्न सरीखा
संसार
निर्मित करती
है जो हमें
चारों ओर से
घेर लेता है।
इस बात को बहुत
गहराई से समझ
लेना चाहिए क्योंकि
यही सभी
सारभूत
धर्मों का
आधार है।
जहां
तक साधारण समझ
जाती है, यह सत्य है
कि हर चीज
बदलती दिखाई
देती है, यहां
कुछ भी स्थाई
जैसा नहीं
लगता। दो
क्षणों अथवा
एक के बाद आने
वाले दूसरे
क्षण के लिए
भी कोई भी चीज
एक जैसी समान
नहीं दिखाई
देती। कुछ भी
ज्यों की
त्यों, वही
का वही नहीं
दिखाई देता, हर चीज नदी
की भांति
प्रवाहित हो
रही है। यह
सोचना कि कोई
भी वस्तु
स्थाई है, लगभग
असम्भव है।
किसी भी चीज
के बारे में
यह सोचना कि
वह हमेशा, हमेशा
के लिए ज्यों
की त्यों बनी
रहेगी, मन
की समझ के बाहर
की बात है। मन
केवल
परिवर्तशील
जगत के बारे
में जानता है।
मन केवल
स्वप्न या
भ्रम के बारे
में ही जानता है।
मन के द्वारा
जिए जाने वाला
जीवन, सपनों
का ही जीवन है।
माया की धारणा
का यही अर्थ
है। यह
वास्तविकता
के बारे में
कुछ भी नहीं
बताती। स्मरण
रहे माया यह
भी नहीं कहती
कि
वास्तविकता
सच नहीं है, वह यह भी
नहीं कहती, कि अस्तित्व
एक स्वप्न है।
यह केवल यही
कहती है कि
इसे तुम जिस
तरह से देखते
हो, वह
इतना अधिक
मूर्च्छापूर्ण
है, वह
देखने का ढंग
इतना अधिक
अस्थिर और
हिलने—डुलने
वाला है, जिससे
तुम्हारा
अंदर से कंपना
और हिलना—डुलना
तुम्हें
सपनों और
वार्तालाप की
बाढ़ जैसा एक
कोलाहल देता
है। आंतरिक
सत्यनिष्ठा
को उपलब्ध
होने के लिए
समग्र चेतना
का तरल से ठोस
होकर उसका
एकीकरण किया
जाए और तभी
अचानक मछली
बाजार जैसा
कोलाहल
विसर्जित हो
जाता है और
तुम अकस्मात्
उस सत्य के
आमने सामने होते
हो जो शाश्वत
और अति
महत्त्वपूर्ण
है और उसे तुम
परमात्मा भी
कह सकते हो।
संसार और
परमात्मा दो
चीजें नहीं है,
बल्कि एक ही
सत्य दो भिन्न
तरह से दिखाई
देता है। एक
देखा जाता है
मन के द्वारा
और दूसरा अमन
के द्वारा
क्योंकि यदि
मन है वहां, तो कम या
अधिक दृश्य हिलता—डुलता
अस्थिर जरूर
होगा।
मन
स्थिर हो ही
नहीं सकता। का
तुमने कभी
देखा है उसे? मन कुछ
क्षणों के लिए
भी स्थिर नहीं
हो सकता। किसी
दिन तुम अपनी
घड़ी को तुम
सिर्फ देखो, सिर्फ यह याद
रहे कि तुम
घड़ी की ओर देख
रहे हो। और तुम
इस स्मरण को अधिक
देर तक संभाल
रखने में
समर्थ न हो
सकोगे कि तुम
घड़ी को ही
देख रहे हो
यहां तक कि
कुछ सेकिंडों
तक भी नहीं।
तुम्हारा मन
इसी बीच कहीं
और फिसल
जायेगा किसी
की याद में, किसी चीज की
कल्पना में।
कोई अधूरा काम
याद आ जायेगा,
कोई चिंता
कोई योजना
खयाल में आ
जायेगी अथवा तुम
सोचने लगोगे
कि तुम्हें
कहीं और चल
पड़ना चाहिए।
तुम फिर यह
महसूस करोगे
और देखोगे कि
कुछ क्षणों के
लिए तुम यहां
हो ही नहीं।
बार—बार
कोशिश करो, लेकिन मन
इधर—उधर
भागेगा ही। मन
थिर हो ही
नहीं सकता।
इसलिए मन को
थिर करने के
सारे प्रयास
करना असम्भव
है। ऐसी मन की
प्रकृति है ही
नहीं। इसे थिर
बनाने का केवल
एक ही उपाय है,
कि पूरे मन
को जैसा वह है
उसे पूरा
विसर्जित कर
दिया जाये, वास्तविकता
को बिना कुछ
भी सोचे
विचारे सीधे इस
तरह देखा जाये
कि माध्यम के
रूप में भी
वहां मन हो ही
नहीं। तुरंत
देखो, तभी
अचानक
परमात्मा
प्रकट होता है।
तब सभी रूपों
में वह अरूप
दिखाई देता है।
तब तुम जो कुछ
भी देखोगे, उसी के लिए
बाउल गाते हैं
न
कुछ भी हुआ है
और
न कुछ भी होगा
जो
जहां है, वह वहां
है
और जो
वहां नहीं है, वह वहां
नहीं है।
लेकिन जो वहां
नहीं है, मन
उसी को देखे
ही चले जा रहा
है, क्योंकि
जो वहां नहीं
है, हम उसे
भी नहीं देख
सकते जो वहां
है। केवल उस
नकली, प्रक्षेपित
और उस स्वप्न
के कारण ही हम
उस वास्तविक
सत्य को नहीं
देख सकते। जब
हम नकली चीज
को हटा या
गिरा देते हैं,
तो
वास्तविकता
या सच्चाई
प्रकट हो जाती
है।
वास्तविक
सच को खोजने
का कोई दूसरा
अन्य तरीका है
ही नहीं। किसी
भी व्यक्ति को
उस यांत्रिक
प्रणाली को ही
हटा देना होगा, जो
नकलीपन
निर्मित करता
है।
मन एक
प्रोजेक्टर, चित्र
प्रक्षेपित
करने वाला
यंत्र है। तुम
सिनेमाघर में
बैठकर, सामने
पर्दे पर एक
हजार एक चीजें
गुजरती हुई देखते
हो और पर्दा
कोरा तथा खाली
होता है, इस
पर से वास्तव
में सिवाय
छायाओं के और
कुछ भी नहीं
गुजरता। तुम
उस पर्दे को
देखते रहते हो।
और इस बात की
पूरी संभावना
है कि तुम्हें
अपने पीछे
चलने वाले उस
प्रोजेक्टर
का खयाल तक न आये,
जो उन सभी
तस्वीरों की
छायाओं को
प्रक्षेपित कर
रहा है। तुम
उन छायाओं के
साथ लड़ सकते
हो, लेकिन
उन्हें रोकने
का यह कोई
तरीका नहीं है।
तरीका है—पीछे
देखो, एक
सौ अस्सी
डिग्री पर घूम
कर पीछे जाओ
और प्रोजेक्टर
को बंद कर दो।
एक बार
प्रोजेक्टर
रुक गया तो
सामने का
पर्दा कोरे का
कोरा रह
जायेगा।
अचानक वहां
कुछ भी नहीं
होगा, अथवा
होगी कोरे पर्दे
की मात्र
सफेदी। केवल
शाश्वत शून्य
होगा वहां और
क्षण— क्षण
बदलती
तस्वीरों का
संसार गायब हो
जायेगा।
लेकिन इसके
लिए व्यक्ति
को
प्रोजेक्टर
मशीन को बंद
करना होगा।
यहां
ऐसे बहुत से
लोग हैं। जो ध्यान
करने में रुचि
लेने लगते है, लेकिन
गलत रूप में।
वे मन के साथ
लड़ना शुरू कर
देते हैं। वे
मन से लडते
हुए उससे
कुश्ती लड़ते
हैं। तब वे
कभी भी मन को
जीत न पायेंगे।
तब वे एक हार
जाने वाली
लड़ाई लड़ रहे
हैं। यह सम्भव
ही नहीं है, क्योंकि वे
प्रोजेक्टर
को भुला बैठे
हैं। वह
प्रोजेक्टर
है कहां? पहले
उस व्यक्ति को
वह
प्रोजेक्टर खोजना
होगा, जो
उसके ही पीछे
छिपा है। वह
प्रोजेक्टर
तुम्हारे ही
अंदर गहरे में
तुम्हारे
अचेतन में
छिपा हुआ
कामनाएं कर
रहा है और कुछ
होना चाह रही
है। यह वही है
जिसे बुद्ध
तृष्णा कहते
हैं। और कुछ
होना चाह रही
है। यह वही है
जिसे बुद्ध
तृष्णा कहते
हैं। कुछ होने
या बनने की
अनवरत कामना,
कुछ बनना है
बनकर उससे भी
आगे कुछ और
बनना है और
यही कारण है
मन के होने का,
मन अपना
सोचना निरंतर
जारी रखता है।
उस
प्रोजेक्टर
रूपी मन को
कैसे रोका
जाये? यहीं
और अभी में
स्थिर होकर।
किसी भी तरह
कुछ बनने या
कुछ होने का
प्रयास करो ही
मत, तुम जो
कुछ हो उसे
स्वीकार कर लो।
प्रगति या
सुधार करने के
सभी विचारों
को ही छोड़ दो।
अपने आप को
बेहतर बनाने
का विचार ही
त्याग दो। कोई
भी चीज पाने
के सभी खयाल
गिरा दो, क्योंकि
यहां पाने
जैसा कुछ है
ही नहीं। हम
खाली हाथों
यहां आये थे
और खाली हाथों
ही विदा हो जायेंगे
और यदि तुम
सोच रहे हो कि
तुम्हारे हाथ
भरे हुए हैं, तब तुम
स्वयं अपने
आपको बेवकूफ
बना रहे हो।
तब तुम सपनों
को सच्चा मान
रहे हो।
तुम्हारे हाथ
सपनों से भरे
हो सकते हैं।
तुमने
जापानी कराटे
के अनुशासन के
बारे में जरूर
ही सुना होगा।
यह शब्द कराटे
बहुत अधिक
अर्थपूर्ण है।
इसका मूल शब्द
जहां से आया
है, उसका
अर्थ होता है
खाली हाथ।
इसका
कहना है : एक
मनुष्य महान
योद्धा तभी बन
सकता है, जब वह
समग्रता से
खाली होने का
अर्थ समझता है।
यदि कोई भी
मनुष्य यह
समझता है कि
मैं खाली हाथ
ही आया हूं
खाली हाथों ही
मैं विदा हो जाऊंगा
और खाली हाथों
ही मैं यहां
हूं तब यहां खोने
के लिए कुछ है
ही नहीं। उस व्यक्ति
को कौन जीत
सकता है, जिसके
पास खोने के
लिए कुछ है ही
नहीं? उस
व्यक्ति को
भी कौन हरा
सकता है, जिसके
पास खोने को
कुछ भी नहीं
है? उस व्यक्ति
को कौन भयभीत
कर सकता है, जिसके पास
खोने के लिए
कुछ भी नहीं
है। खालीपन या
शून्यता की इस
समझ से ही वह
एक महान योद्धा
बनता है। उसे
हराना असम्भव
है, उसे
लूट लेना
असम्भव है।
उसे जान से
मारना 'भी
असम्भव है
क्योंकि वह
पहले ही से
शून्य है, खाली
है। वह अपने
हाथों में कुछ
भी नहीं पकड़े
हुए है। कोई भी
चीज हाथों में
न लेकर वह
जीवन और
मृत्यु के पार
चला गया है।
जीसस
के भी कहने का
यही अर्थ है, जब वह बार—बार
कहते हैं—
अपने आप को खो
दो। और वे जो
अपने आप को
नहीं खो रहे
हैं, वे खो
देंगे और वे
जो सब कुछ
खोने को तैयार
हैं, वे ही
पायेंगे।
खोने वाले ही
जीत जायेगे, और जीतने
वाले ही खोने
वाले बन
जायेगे। जो
खाली हैं वे
भर दिए जाएंगे
और वे जो अपने
आपको भरने की
कोशिश कर रहे
हैं, खाली
ही बने रहेंगे।
यहां यही
विरोधाभास
अथवा असंगति
है।
सभी
विचारों
खयालों और
कामनाओं के
पीछे, कुछ
होने या कुछ
पाने की उस
वृत्ति को
समझो। यह बीज
के समान ही है।
उसके अंदर गौर
से देखो तुम
अभी और यहीं
क्यों नहीं हो
सकते? ऐसा
क्यों है कि
तुम्हें कहीं
और होने का
खयाल हमेशा
बना रहता है? तुम जैसे हो,
तुम वैसे ही
प्रसन्न
क्यों नहीं रह
सकते? तुम
ऐसा क्यों सोच
रहे हो कि तुम
कल प्रसन्न
होगे? तुम
कल कैसे खुश
हो सकते हो, यदि तुम आज
ही खुश नहीं
हो? क्योंकि
आने वाला कल
इसी क्षण से
जन्म लेने जा
रहा है। इसी
क्षण से ही
अगले आने वाले
क्षण का जन्म
होने जा रहा
है। आज ही आने
वाले कल का
पिता—माता
बनने जा रहा
है। यदि तुम
आज नाखुश हो
तो तुम कल और
भी अधिक नाखुश
होगे। उस समय
तक अप्रसन्न
होने की तुम
कुछ और तरकीबें
सीख चुके
होंगे। तुम
उसका अभ्यास
कर रहे हो, और
तुम कल
प्रसन्न होने
की आशा करते
हो? तब तुम
एक निराशाभरी
लीक पर चले
रहे हो। तुम
कल के लिए
कामना कर रहे
हो, तब तुम
निरंतर उस सभी
से चूके जा
रहे हो जो
यहां अभी है
और केवल यहां,
यही
वास्तविकता
और सच्चाई है।
यदि तुम एक
क्षण के लिए
कामना करने को
एक ओर अलग
हटाकर रख सकते
हो तो मन रूपी
प्रोजेक्टर
रुक जाता है, सपने भी बंद
हो जाते हैं।
और तुम सच्चाई
का सामना करने
में समर्थ हो
जाते हो।
कुछ भी
नहीं घटा।
वास्तविकता
या सच्चाई
जैसी पहले
शुरू से हमेशा
ही रही है, वैसी ही
है। न कुछ भी
हुआ है और न
कुछ भी होगा।
इसलिए
तुम्हारी
सारी कामनाएं
निरर्थक हैं क्योंकि
किसी चीज के
घटित होने के
लिए तुम प्रयास
कर रहे हो।
तुम्हारा
पूरा प्रयास
यही है कि कुछ
घटे, धन, समृद्धि, शक्ति, सत्ता,
सम्मान.....कुछ
तो मिले।
तुम्हारा
पूरा प्रयास
किसी चीज के
घटने के लिए
ही है।
लेकिन
न कुछ भी हुआ
है
और
न कुछ भी होगा।
जो
जहां है, वह वहां
है।
यह
अत्यधिक
महत्वपूर्ण
सूत्र है। इस
सूत्र में
सारे
शास्त्रों का
निचोड़ है। यदि
तुम केवल इन
तीन
पंक्तियों को
ही समझ सको, तो फिर
कोई भी अन्य
चीज समझने की
यहां जरूरत ही
नहीं। अपने
बचपन से लेकर
अपने अब तक के जीवन
की ओर देखो।
हुआ क्या है? बहुत सी
चीजें घटती
दिखाई देती
हैं। लेकिन
वास्तव में
घटा क्या है? तुम ज्यों
के त्यों बने
रहे, तुम्हारी
चेतना भी वैसी
ही बनी रही, और शेष सभी
जो कुछ भी घटा,
केवल ऊपरी
है, उथला
है ,एक
सपने जैसा है।
यदि वह अभी तक
नहीं घटा है,तो फिर
भविष्य में भी
वह कैसे घटेगा?
यहां केवल
वर्तमान ही है,
अतीत और
भविष्य मात्र
स्वप्न हैं।
फिर भी यदि
तुम केवल क्षण
मात्र के लिए
ही सच्चाई में
गहरे उतर कर
उसका सामना
करते हुए उसे
देख सको तो
तुम अपने
प्रयासों की
व्यर्थता पर हंसोगे।
तुम क्या करने
की कोशिश कर
रहे थे? तुम
किसी असम्भव
जैसी वस्तु को
पाने का प्रयास
कर रहे थे, तुम
वास्तविकता
या सत्य के
विरुद्ध
संघर्ष कर रहे
थे, सत्य
जो है, वह
है, वह कुछ
बनना जानता ही
नहीं, वह
तो बस होना है।
वह कोई भी
भविष्य नहीं
जानता, वह
तो पहले ही से
यहां है। वह
यहां हमेशा
पहले ही से
रहा है।
तुम्हें बस
उसे देखना भर
है— और एक बार
यदि तुम उसे
देख सको तो
तुम्हारी सारी
चिंताएं सारी
पीड़ाएं
विसर्जित हो
जाएंगी। तब
तुम कोशिश
करना बंद कर
दोगे, अपने
जूते के फीतों
को खींचकर अलग
फेंक दोगे और
तब तुम केवल
विश्राम
करोगे। तब
वहां कोई तनाव
होगा ही नहीं
तब वस्तुत' तुम प्रसन्न
होना शुरू कर
दोगे, तुम
आनंद का अनुभव
करने लगोगे, जैसे कि तुम
वास्तव में हो
ही।
हम इसे
ठीक से समझ
सकें, उससे
पहले कुछ
चीजें सहायक
होंगी। पहली
बात तो यह कि
सामान्यतया
पूरब का
मनोविज्ञान
मनुष्य के मन
को तीन भागों
में विभाजित करता
है। पहली है
गहरी, बहुत
गहरी नींद, जब वहां कोई
स्वप्न भी
नहीं होते
सुषुप्ति, स्वप्नरहित
निद्रा। इस
स्थिति में
निन्यानवे
प्रतिशत
अचेतन और केवल
एक प्रतिशत
चेतना होती है।
चेतना
का जिसमें
बहुत छोटा सा
ही भाग होता
है—पूरा
महाद्वीप अंधकारमय
होता है, बस रोशनी की
केवल एक किरण
होती है। इसी
किरण के कारण
ही सुबह तुम
कह सकते हो— '' मुझे आज
बहुत गहरी और
प्यारी नींद
आई। वह पूरी तरह
से मौन और
शांत होती है।
उसमें वहां एक
'भी स्वप्न
नहीं होता।’’ चेतना की इस एक
किरण के कारण
ही, तुम
सुबह इसके
बारे में कुछ कह
सकते हो। यदि वहां
कोई भी चेतना
थी ही नहीं, तब यह बात
याद किसे रहती? तब फिर कौन
यह कहता कि
नींद सुंदर और
सुखपूर्ण थी?
बस एक
छोटी सी किरण, बहुत
छोटी सी किरण
सपना में भी
होती है। यह
दूसरी स्थिति
है मन की—स्वप्न
देखने की थोड़ी
सी अधिक चेतना
आस्तित्व में
आती है।
तुम्हें
सामान्य रूप
से याद रहता
है कि तुम अच्छी
तरह सोये। तुम
स्वप्नों का स्मरण
भी कर सकते हो,
उनके पूरे
विस्तार सहित।
यहां तक कि
तुम सपनों की
कहानी, उसका
रंग, ढंग
और उसका मुख्य
विचार भी याद
कर सकते हो।
तुम पूरे
स्वप्न को एक
दूसरे से
संबंधित कर सकते
हो। स्वप्न
में तुम थोड़े
अधिक चेतन
होते हो।
तब तुम
सुबह जागते हो।
वह तीसरी
स्थिति है
जागने वाली
स्थिति, थोड़ी और
अधिक सचेतन।
लेकिन
तुम्हारी
आत्मा का
विराट
महाद्वीप फिर
भी अंधकारमय
ही रहता है।
यहां तक कि
तुम जागते हुए
भी पूरी तरह
जाग्रत नही
होते हो।
तुम्हारी
जागृति की ही
गहराई में
दिवास्वप्न
तैरते रहते
हैं। तुम
उन्हें भली
भांति देख
सकते हो।
किसी
भी क्षण अपनी आंखें
बंद कर लो, एक मिनट
के लिए
विश्राम करो
और तुम वहां
स्वप्नों को
तैरते हुए
देखते हो।
इसलिए ठीक
तुम्हारी
चेतना के ही
नीचे सपनों का
विराट संसार
चलता ही रहता
है, और वह
तुम्हारी
चेतना को
प्रभावित
करता है।
स्वप्न
शक्तिशाली
चीज है। वे
प्रक्षेपण
हैं, वे
तुम्हारी चेतना
पर छाया किये
हुए हैं। और
तुम अपने सपने
की भी गहराई
में फिर एक
तरह की निद्रा
पाओगे। जब रात
तुम गहरी नींद
में होते तो
तो वही फिर घटती
है। जब रात
तुम सोते हो
तो पहले
स्वप्नों से
ही शुरुआत
होती है। यह
दूसरी स्टेज
है। तब तुम और
तुम नींद में
गहरे उतर जाते
हो। तुम फिर
परिधि की ओर
तैरने लगते हो
और यह स्थिति
निरंतर पूरी
रात चलती है, तुम ऊपर
नीचे गति करते
रहते हो। यदि
तुम पूरी रात
में पंद्रह
मिनट के लिए
भी नींद की इस
गहरी पर्त को
स्पर्श कर सको,
तो उतना ही
विश्राम काफी
होता है। यही
कारण है कि जो
लोग ध्यान
करते हैं, उन्हें
अधिक नींद की
जरूरत नहीं
होती, क्योंकि
गहरे ध्यान
में वे आसानी
से अपने अस्तित्व
की गहराई तक
पहुंच जाते
हैं। शेष रात
तो स्वप्न
देखने में
व्यर्थ नष्ट
हो जाती है।
ये तीन
स्थितियां मन
की साधारण
स्थितियां हैं।
पूरब
कहता है—’‘ जब तक तुम
पूर्ण होश को
प्राप्त न कर
लो, तुम्हारा
जीवन यह कभी न
जान पाएगा कि
सत्य या वास्तविकता
है क्या, और
क्या
परमात्मा है।
इस पूरे होश
और परम चैतन्य
का अर्थ है—पूरी
तरह सजग और
होशपूर्ण
होना, जहां
तुम्हारी
चेतना का कोई
कोना भी
अंधेरा न रहे
और पूरा अचेतन
विसर्जित हो
जाये।
फ्रायडवादी इसी
को धीमे— धीमे
अचेतन मन का
विसर्जित
होना कहते हैं।
यह ध्यान, प्रार्थना
और प्रेम की
विधियों
द्वारा विसर्जित
होती है, और
तुम अधिक से
अधिक
होशपूर्ण
होते जाते हो।
एक क्षण ऐसा
आता है, जब
तुम्हारा
अस्तित्व
चैतन्य हो
जाता है प्रकाश
से भर कर
आलोकित हो
उठता है। तब न
तो स्वप्न
होते हैं, और
न नींद ही। तब
केवल होश या
चैतन्य ही
होता है, जो
तुम्हारा
सारभूत तत्व
है। उसी क्षण मैं
तुम यह जानने
में में समर्थ
हो सकोगे कि
बाउलों के इस
गीत का रहसय क्या
है।
न
कुछ भी हुआ है
और
न कुछ भी होगा।
जो
जहां है, वह वहां
है।
और यदि
तुम इसे समझ
जाओ, इसकी
एक झलक भी पा
लो, तब फिर
तुम कैसे इस
अज्ञात
अस्तित्व में
बने रह सकते
हो, तुम
कैसे चिंतित
और
तनावग्रस्त
रह सकते हो और कैसे
बीमारियों का
पोषण कर सकते
हो।
हेनेरी
थोरो कहा करता
था कि मनुष्य
सोचता है कि
सोचना ही उसकी
सम्पत्ति है—मनुष्य
सोचता है कि
विचार करने से
वह धीमे— धीमे
समृद्ध होता
जाता है, तो समृद्ध
होने की
अपेक्षा वह
उसकी बीमारी
ही अधिक है।
हम अधिक से
अधिक इससे
बीमार ही होते
जाते हैं।
इसके द्वारा
अस्तित्व की
सुंदरता कभी
खिलती ही नहीं
इसलिए इसे
समृद्धि
क्यों कहा जाए?
मनुष्य
सोचता है कि
वह अधिक से
अधिक
शक्तिशाली
होता जा रहा
है, और
अपने गहरे में
वह अधिक से
अधिक
शक्तिहीन होता
जाता है। बाहर
परिधि पर तुम
सोचते हो कि
तुम बहुत सी
चीजों को
प्राप्त कर
रहे हो, लेकिन
अपने गहराई
में तुम खाली
और थोथे ही
बने रहते हो।
जितनी शीघ्र
तुम इस असत्य
और थोथेपन का
अनुभव कर लो, उतना ही
अच्छा हो
क्योंकि तब
तुम अपना समय
और शक्ति फिर
व्यर्थ नष्ट
नहीं करोगे।
तब तुम्हारा
पूरा जीवन में
पूरी तरह एक
अलग गुणवत्ता
होगी और खोज
शुरू हो
जायेगी। तब
तुम सपनों के
पीछे नहीं
भागोगे।
और
सपने बहुत
वास्तविक और
सच्चे प्रतीत
होते हैं। वे
असली हैं नही, लेकिन वे
असली जैसे
लगते हैं।
अचेतन या
मूर्च्छित मन
के लिए सपने
यों लगते हैं
मानों केवल वे
ही वास्तविक
हों।
क्या
तुमने इस बात
का निरीक्षण
नहीं किया कि
प्रत्येक रात
गहरी नींद में
भी तुम सपनों
के शिकार बन
जाते हो? तुम फिर यह
सोचना शुरू कर
देते हो, कि
वे वास्तविक
हैं। केवल
सुबह जागने पर
ही तुम्हें
अनुभव होता है
कि वे झूठे थे, बस स्वप्न
मात्र थे, लेकिन
फिर रात में
तुम बार—बार उनका
शिकार बन जाते
हो, और सोचना
शुरू कर देते
हो कि वे सने
दें।
गुरुजियेफ
अपने शिष्यों
से कहा करता
था — ''अपने
सपनों में तुम्हें
जब तक यह
अनुभव न हो कि
वे सपने ही
हैं, तुम जागने
में समर्थ न हो
सकोगे।’’
इसलिए
वह अपने
शिष्यों को
ऐसी विद्यियां
दिया करता था
कि स्वप्न
देखते हुए यह
अनुभव कैसे
किया जाये, कि वह एक
सपना ही है। कैसे
यह पहचान की
जाये कि तुम
एक सपना ही
देख रहे हो।
लेकिन जिस क्षण
तुम सपने को
सपने के रूप
में पहचान
लेते हो वह
टूट जाता है।
वह तुरंत रुक
जाता है। तब
वह वहां हो ही
नहीं सकता।
सपने की पहचान
के साथ ही
तुम्हारे
सपने की मृत्यु
हो जाती है।
वह केवल तुम्हारे
सहयोग और
पहचान के
द्वारा ही
अस्तित्व में
होता है।
तुम्हीं उसे
वास्तविकता
देते हो। तुम
उससे अपने हाथ
खींच लो, वह
औंधा होकर गिर
पड़ेगा और
उसमें कुछ भी
न रहेगा।
स्वप्न में
केवल तभी
शक्ति होती है,
क्योंकि
तुम उसे शक्ति
देते हो।
बाजार
में सड़क पर
चलते हुए लोगों
का निरीक्षण
करो। सड़क के
एक किनारे खडे
होकर जरा
लोगों की ओर
देखो तुम
आश्चर्यचकित
हो जाओगे। यह
स्पष्ट दिखाई
देगा कि वे
जैसे नींद में
चल रहे हैं।
वे नींद में
चलने वाले
रोगियों की
तरह मूर्च्छित
चल रहे हैं।
किसी न किसी
तरह वे
व्यवस्था भर
कर रहे हैं, लेकिन वे
गहरी नींद में
ही चल रहे हैं।
तुम देख सकते
हो कि उनके
होंठ हिल रहे
हैं जैसे मानो
वे किसी से
बातचीत कर रहे
हों, और
वहां है कोई
भी नहीं। यहां
तक कि वे ऐसे
व्यक्ति के
लिए मुद्राएं
बनाते हुए भी
मिल जाते हैं
जो वहां
उपस्थित ही नहीं
है। उनके
चेहरों का
निरीक्षण करो,
उनके
चेहरों पर होश
की कोई आभा
नहीं है एक
गहरी छाया और
बुझापन जैसा
कुछ है, जैसे
मानो किसी तरह
वे अपने को
होश में बनाए
रखना चाहते
हों, लेकिन
किसी भी क्षण
वे नींद और
सपनों में गिर
जाने को जैसे
पहले ही से
तैयार हों।
सपनों के नशे
में गाफिल लोग
चले जा रहे
हैं।
पहले
तुम दूसरों का
ही निरीक्षण
करो, क्योंकि
तुम्हारे लिए
दूसरों का
निरीक्षण करना
ही सरल होगा।
तब फिर तुम
स्वयं अपना
निरीक्षण
करना शुरू कर
दो। तब अपने
आप को रंगे
हाथों पकड़ना
शुरू कर दो।
तब कभी—कभी
सड़क पर चलते
हुए अचानक बस
रुक जाओ और
देखो कि क्या
तुम यहीं हो
अथवा तुम कहीं
किसी सपने में
खो गये हो।
तुम
अपने सपनों के
बारे में
जितने अधिक
सजग हो जाते
हो, तुम
अपनी चेतना
में उतने ही अधिक
आने वाले
अंतराल
देखोगे। जब
वहां सपने
नहीं होते, तो सच्चाई
तक पहुंचा जा
सकता है।
लेकिन हमने
अपने
स्वप्नों में
बहुत अधिक पूंजी
लगा रखी है।
हम भयानक
सपनों से तो
डर सकते हैं, लेकिन फिर
भी हम अभी तक
सपनों से ऊबे
नहीं है। हम
अभी भी मधुर
सपनों से आशा
लगाये बैठे
हैं।
मैंने
सुना है:
एक
व्यक्ति अपने
एक मित्र से
बात करते हुए
कह रहा था—’‘ कल रात
मैंने एक सपना
देखा ‘‘ कैसे
ने अपने मित्र
पाल मैकगिन से
कहा—’‘ और
उसने मुझे एक
बहुत बडा सबक
सिखाया। ‘‘
मैकगिन
ने पूछा— '' वह कौन सा?''
'' मैंने
सपने में देखा
कि मैं रोम
में हूं और पोप
के साथ मेरा
औपचारिक
साक्षात्कार
हो रहा था।’’ उन्होंने
मुझसे पूछा—’‘क्या मैं एक
ड्रिंक लेना
चाहूंगा?'' मैं
सोचने लगा यह
पूछना तो वैसे
ही है जैसे कोई
बत्तख से पूछे
कि क्या तुम
तैरना पसंद
करोगी? और
मैं देख रहा
था बगल ही कप
बोर्ड में
व्हिस्की, लेमन
और शकर (रवी
हुई थी। मैंने
जवाब दिया—’‘ कोई हर्ज
नहीं मैं एक
पेग ले लूंगा।’’
'' हॉट
ड्रिक या
कोल्ड?'' पोप
ने मुझसे पूछा।
'' मैं
हॉट ड्रिंक ही
लेना पसंद
करूंगा। और
मैं यहीं पर
गलती कर बैठा।
उसके मित्र ने
कहा।
मैंने
उत्तर दिया—’‘ मैं तो
इसमें
तुम्हारी कोई
गलती नहीं
देखता।’’
पवित्रतम
पोप उबला पानी
लाने के लिए
किचन की ओर
बड़े और जब तक
वह वापस आते, मेरी आख
खुल गई।
मैकगिन
ने पूछा—’‘ आखिर इस बात
से तुमने क्या
सबक सीखा?''
कैसे
ने कसम खाते
हुए कहा—’‘ अगली बार
मैं कहूंगा
पवित्रता की
मूर्ति श्रीमान।
जब तक पानी
उबलता है तब
तक मैं उसे
ठंडा ही लेना
पसंद करूंगा।’’
हमने
अपने सपनों
में बहुत बड़ी
पूंजी लगाई है।
बिना हमारी सहायता
के वे आ ही
नहीं सकते। हम
ही उनके लिए
द्वार खोलते
हैं। मीठे, मधुर
स्वप्न, सुनहरे
स्वप्न, हमारा
उनसे जैसे
रोमांस हो गया
है, कई
जन्मों से एक
बहुत लंबा
रोमांस। हम
सपनों में
प्रेम
प्रसंगों के
लिए जाने जाते
हैं और वास्तव
में जब हम
उन्हें प्रेम
करते हैं वे वहां
होते हैं
लेकिन वे
निराशा के
सिवा यथार्थ
जीवन में और
कुछ भी नहीं
देते, क्योंकि
वे
वास्तविकता
के विरुद्ध
होते हैं, वे
कभी भी पूर्ण
संतुष्टि
नहीं ला सकते।
वहां ऐसा कोई
रास्ता है ही
नहीं, कि
दो और दो
जोड्ने के बाद
पांच हो जाये।
तुम चाहे जो
कुछ भी करो, दो और दो
मिलकर हमेशा
चार ही होते
हैं 'और
तुम आशा किये
चले जाते हो
कि किसी दिन
वे पांच होने
जा रहे हैं।
तब तुम केवल
एक गणितीय भूल
कर रहे हो।
सपने कभी 'भी
सने होते ही
नहीं, तुम्हारे
विचार कभी
वास्तविकता
के निकट तक
नहीं होते, तुम्हारी आशाएं
कभी मिठे अहसास
नहीं बनतीं, और तुम्हारी
कामना कभी भी पूरी
नहीं होती सभी
का परिणाम
केवल अधिक से
अधिक निराशा
ही देता है।
यही
कारण है कि
बच्चे इतने अधिक
सुंदर लगते है, क्योंकि
वे अभी भी
आशाओं से भरे
हुए हैं, अभी
भी स्वप्नों
में डूबे हैं और
अभी तक उन्होंने
निराशा को
जाना ही नहीं
है। बूढ़े
व्यक्ति बहुत
कुछ मुर्दों
की तरह ही
दिखाई देते
हैं। धीमे—धीमे
उनकी आशाएं
ध्वस्त हो
जाती हैं और
वहां केवल
निराशा ही रह
जाती है, और
जिह्वा पर एक
कसैला सा
स्वाद रह जाता
है। अनुभव
व्यक्ति को
तल्स बना देते
हैं। अनुभव
लोगों से उनका
भोलापन छीन
लेते हैं। और
वे अपनी सभी
आशाएं और
विश्वास खो
बेठते हैं।
लेकिन वास्तव
में यह अनुभव
भी नहीं है
क्योंकि वे
अपने सपनों को
वास्तविकता
में बदलना चाहते
हैं और इसी
कारण वे निराश
होते हैं।
अन्यथा अपने
जीवन के अंत
तक तुम वैसे
ही भोले और
मासूम बने रह
सकते हो, जैसे
कि शुरू में
थे, और
वास्तव में
पहले से ही
कहीं अधिक
क्योंकि जो
भोलापन और
निर्दोषिता
बचपन में घटती
है। वह
प्राकृतिक या
स्वाभाविक
होती है। उसे
किसी अग्नि
परीक्षा से
नहीं, गुजरना
पड़ता वह बहुत
नाजुक होती है।
उसके अंदर तरल
से ठोस और सघन
होने की कोई
प्रक्रिया
नहीं होती। वह
ठीक एक उपहार
होती है, उसे
अर्जित नहीं
करना पड़ता।
लेकिन जब कोई
एक का व्यक्ति
बच्चे जैसा
भोला और
निर्दोष होता
है, तो उसे
कुछ भी नष्ट
नहीं कर सकता।
उसमें एक
सघनता और
एकीकरण होता
है, तब वह
वास्तविक
होती है, क्योंकि
उसने उसे
अर्जित किया
है।
लेकिन
कोई व्यक्ति
यह
निर्दोषिता
और भोलापन कैसे
अर्जित कर
सकता है। अपनी
निराशाओं या
कुंठाओं से
सबक लेकर, अपनी
निराशाओं में
गहरे जाकर और
इस तथ्य को महसूस
करते हुए कि
प्रत्येक
निराशा एक
विशिष्ट स्वप्न
के टूटने से
उत्पन्न हुई
है। यदि तुम
निराशाओं को
नहीं चाहते, तो स्वप्न
देखना छोड दो।
जीवन निराश
होने के लिए
नहीं है, स्वप्न
देखना ही
निराशाओं को
आमंत्रित
करना है।
मैंने
सुना है—मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने पुत्र से
कह रहा था, '' यह
जानने और जांच
करने से
तुम्हें कोई
मतलब नहीं
होना चाहिए कि
मैं तुम्हारी
मां से पहली
बार मिला कैसे,
लेकिन मैं
तुम्हें एक
बात बता सकता
हूं कि उसने
मेरे सीटी
बजाने की आदत
को ठीक कैसे
किया।’’
यदि
तुम्हारा
जीवन ही
तुम्हें सीटी
बजाने और स्वप्न
देखने से
निजात दिला
सकता है, तो उतना ही
काफी होगा? आवश्यकता से
भी अधिक होगा,
और जीवन
तुम्हें उससे
भी अधिक दे
सकता है। यह
एक महान अनुभव
होगा।
लेकिन
होता क्या है? जिस क्षण
एक स्वप्न
हमें निराश
करता है, हम
तुरंत उसके
स्थान पर
दूसरे सपने को
उसकी प्रतिपूर्ति
के लिए ले आते
हैं, और वह
सपना पहले
सपने से भी
बड़ा होता है।
हम कभी भी
वास्तविकता
या सत्य की ओर
नहीं देखते।
हम यह
कहे चले जाते
हैं कि मनुष्य
जो कुछ भी
मांगता या
प्रस्तावित करता
है, परमात्मा
उसको पूरा
करता है। परमात्मा
ने कभी भी
किसी चीज को पूरा
नहीं किया। वह
तुम ही हो, तुम
ही अपने सपनों
में मांगने और
पूरा करने के
दोनों ही काम
करते हो। यह
तुम्हारी ही
अपनी योजना है
जो अपने साथ
उसकी पूर्ति
के बीज साथ
लिए चल रही है
क्योंकि
वास्तविकता
के साथ उसका
कोई तालमेल
नहीं है। वह
तुम्हारी ही
अपेक्षा है, जो निराशा
के बीज अपने
साथ लिए चल
रही है।
यह वही
है जिसे मैं
धार्मिक चर्चा
कहता हूं —
सत्य और
वास्तविकता
की बात सुनना
और सपनों को
गिराना ही
धार्मिक
चर्चा है।
शुरू—शुरू में
यह कठिन सख्त
और श्रमपूर्ण
लगेगी, क्योंकि
सपने इतनी
आसानी से
तुम्हारा
पीछा करते हुए
तुम्हें ऐसे
बहुत से
आश्चर्यजनक
और काल्पनिक
दृश्य
दिखलाते हैं।
सपने महान कवि
की भांति होते
हैं—वे चित्रण
करते हैं। वे
काल्पनिक
दृश्य
काव्यात्मक
रूप से दिखाते
हैं, वे
तुम्हारे
अंदर स्वर्ग
और बहिश्त की
सुंदर आशाएं
निर्मित करते
हैं। ये सभी
स्वप्न ही हैं।
लेकिन तुम
आशाओं में
जीते हो, और
कल के
स्वप्नों की
खातिर तुम आज
की पीड़ाओं और
दुखों को
बरदाश्त करते
जाते हो।
कल के
सपनों का न
देखना या
उन्हें गिरा
देना बहुत
कठिन है, क्योंकि तब
अचानक तुम उन
दुखों के
प्रति सजग हो
जाते हो, जो
आज और यहीं है।
लेकिन स्मरण
रहे, यह
दुख और पीड़ा
गुजरने वाले
कल के सपनों
के टूट जाने
के कारण हैं।
उनका आज से
कोई लेना देना
नहीं है। बीते
हुए कल के
सपनों ने ही
आज यह दुख
निर्मित किए
हैं, आने
वाले कल के
स्वप्न फिर
नये दुख
निर्मित करेंगे।
इसलिए जब तुम
आने वाले कल
के स्वप्नों
को गिरा दोगे,
तुम अचानक
प्रसन्न नहीं
हो जाओगे
क्योंकि बीते
हुए कल के
स्वप्न अभी भी
अटके हुए हैं।
तुमने जो बीज
बोये, उनकी
फसल कौन
काटेगा? लेकिन
जब तुम आने
वाले कल के स्वप्न
छोड़ते हो, तो
आधा काम पूरा
हो जाता है।
बीते कल के
स्वप्न उनकी
निराशाए आखिर
गुजर ही
जायेगी। इसी
को हम भारत
में तापस
कष्टसाध्य
तपस्या कहते
हैं। बीते हुए
कल का स्वप्न
मेरा स्वप्न
था। मैंने ही
उसके बीज बोए
थे, इसलिए
उससे उत्पन्न
दुखों से मुझे
ही गुजरना होगा।
मुझे उस
निराशा और
कुंठा से भी गुजरना
होगा। मैं उसे
स्वीकार करता
हूं वह मेरा
स्वयं का ही
किया गया काम
है। कोई दूसरा
उसके लिए
जिम्मेदार
नहीं है, लेकिन
अब मैं कोई भी
अन्य बीजों को
बोने नहीं जा
रहा हूं।
पहले
आने वाले कल
के स्वप्नों
को गिराओ। तब
धीमे धीमे
बीते कल के
सपनों का
खुमार और प्रभाव
विलुप्त होगा।
तभी एक मनुष्य
सजग बनता है
जब उसकी आंखें
सपनों से नहीं, होश और
सजगता से भरी
होती हैं।
एक बार
ऐसा हुआ
मैकगोनीगल
सड़क पर
डगमगाते
कदमों से
टेलीफोन के
खम्भे से
बिजली के
खम्भे की ओर
फिर वापस जा
रहा था। फादर
डेली ने उसे
रोककर उससे
कहा—’‘ आज
फिर पी ली
शराब?''
'' अरे
आप?'' मैकगोनीगल
ने यह पूछते
हुए स्वयं ही
उत्तर दिया—’‘ हां! मैं ही
हूं। फादर!''
पादरी
ने उसे स्मरण
दिलाते हुए
कहा—’‘ दो
सप्ताह पूर्व
यह शपथ लेने
और वायदा किये
जाने के बाद
कि तुम कभी
शराब नहीं
पियोगे यह तुम्हारा
परमात्मा और
चर्च के खिलाफ
किया गया पाप
है और यह कहते
हुए मुझे बहुत
अफसोस हो रहा
है। ‘‘
'' तो
मुझे देखकर भी
आपको अफसोस हो
रहा होगा।’’
' हां!
वास्तव में
मुझे अफसोस हो
रहा है।’’
'' क्या
यह पक्की बात
है कि आपको
अफसोस हो रहा
है?''
'' हां!
बहुत बहुत
अफसोस।’’
'' तब
यदि आपको इतना
ही अफसोस है।’’
शराबी बोला—’‘
तो मैं आपको
माफ करता हूं
फादर।’’
शराब
पिए हुए अपने
सपनों में भी
हम अपने ही
ढंग से
व्याख्या किए
चले जाते हैं।
हम उन चीजों
को देखे चले
जाते हैं जो
वहां हैं ही
नहीं, हम
उन बातों को
सुने चले जाते
हैं जो कही ही
नहीं गई। हम
वैसा होने का
बहाना बनाए
चले जाते हैं
जो हम वास्तव
में हैं नहीं,
और हम अपने
स्वयं के
चारों ओर एक
सपनों का संसार
निर्मित कर
उसे साथ लिए
चलते हैं।
नशे में
धुत कुछ लोग
एक लोहे की छड़
से लटक रहे थे, तभी
दरवाजा खुला
और किसी ने
चीखते हुए कहा—’‘
मैक ग्वाइट!
तुम्हारे घर
में आग लग गई
है।’’ उनमें
से एक व्यक्ति
तेजी से भागा
और एक ब्लाक
तक तेजी से
दौड़ने के बाद
अचानक एक
अवरोध पर रुक
कर बड़बड़ाया—’‘ नर्क में
जाये वह। उसने
तो विशेष रूप
से मुझसे न
कहकर
मैकग्वाइट से
कहा था और
मेरा नाम तो
मैकग्वाइट है
नहीं।’’
यही है
वह जो
प्रत्येक के
साथ घट रहा है : तुम
अपना नाम नहीं
जानते, तुम अपना
सार तत्व नहीं
जानते, तुम
नहीं जानते कि
तुम हो कौन, तुम यह नहीं
जानते कि तुम
यहां हो क्यों,
और तुम यह
भी नहीं जानते
कि तुम इतनी
तेज दौड़ क्यों
रहे हो?
तुम कहां जा
रहे हो, तुम
क्यों इतनी
जल्दबाजी में
हो?
यहां
तुम्हारी
वास्तविकता
क्या है? तुम कहां जा
रहे हो? कुछ
आदतों मैं
आबद्ध
अनुशासन है, जिसने एक
ढांचे में ढाल
दिया है इसी
को हिंदू लोग
संस्कार कहते
हैं। जन्म—जन्म
से स्वप्न
देखते और
कामनाएं करते
हुए— जो
तुम्हारी एक
वास्तविकता
बन चुकी है।
तुम उसके पीछे
भागते हो, यह
न जानते हुए
भी कि आखिर
क्यों? यह
एक आदत बन
चुकी है। तुम
अपने आप को
रोक नहीं पाते।
तुम हमेशा
भागे— भागे से
रहते हो।
वास्तविकता
यह है और तुम
हमेशा इधर—उधर
आ— जा रहे हो, इसीलिए यहां
मिलना होता ही
नहीं। जब तक
यह मुलाकात या
मिलन घट न
जाये, तुम
कभी भी आनंदित
न हो सकोगे।
आनंद
तब मिलता है
जब तुम
वास्तविकता
के साथ लयबद्ध
होते हो। आनंद
तुम्हारे और
वास्तविकता
अथवा अस्तित्व
के मध्य एक
लयबद्धता है।
अप्रसन्नता
या दुख
तुम्हारे और
सच्चाई के मध्य
लयबद्ध न होना
है।
इसलिए
यदि तुम दुखी
हो तो याद रखो
तुम वास्तविकता
से निश्चित
रूप से भाग
रहे हो। सजग
हो जाओ।
तुम्हें किसी
न किसी तरह
वास्तविकता
के साथ पंक्तिबद्ध
खड़ा होना
जरूरी नहीं है।
तुम्हारे और
वास्तविकता
के मध्य
संघर्ष होना
जरूरी है।
वास्तव में
तुम यथार्थ—सच्चाई
से जीत नहीं
सकते। जीतने
का वहां कोई
रास्ता है
नहीं। तुमने
सभी तरह से
कोशिश करके
देख ली है।
पूरी
मनुष्यता ने
हर सम्भव
तरीके से
कोशिश कर ली
है, लेकिन
वास्तविक
यथार्थ पर
विजय प्राप्त
करने का कोई
रास्ता है ही
नहीं।
तुम्हें
वास्तविकता
के साथ लयबद्ध
होकर उसके साथ
एक गहरी
एकरूपता में
आकर उसका
अनुसरण करना
है।
वास्तविकता
अथवा सत्य एक
महान
आरकेस्ट्रा की
भांति है और
तुम्हें उसके
सुर की एक तान
बनना है उससे
संघर्ष न कर
उसके प्रति
समर्पित हो
जाना, उससे
निवेदन करना
है और उसके
साथ घुल कर
विर्सार्जत
हो जाने के
लिए तैयार
होना है। यह
वही है जिसे
बाउल प्रेम
कहते हैं सत्र
के साथ घुल कर
विसर्जित हो
जाने की
तैयारी, उसके
साथ पिघल कर
उससे मिलकर
वास्तविकता
के साथ एक हो
जाने की
तैयारी। तुम कुछ
चीजों को खो
दोगे अपने
सपनों को, अपनी
वैयक्तिकता
को, अपने
अहंकार को और उससे
अपने अलगाव को।
पानी की एक
बूंद की तरह
तुम इसी
वास्तविकता के
सागर मैं खो
जाओगे, लेकिन
इस बारे में
जरा भी फिक्र
नहीं करनी है,
कर्ण तूम
स्वयं ही सागर
हो जाओगे।
जो कुछ
तुम अब तक रहे
हो : अपने
अहंकार और
अपने नाम और
रूप में सीमित,
अब तुम वह
सब कुछ नहीं
रहोगे।
तुम्हारी
सारी बाड़ और
सीमाएं
विलुप्त हो
जाएंगी। तुम
एक द्वीप नहीं
रहोगे, तुम
महाद्वीप के
एक भाग बन
जाओगे, लेकिन
यह कहना अधिक
उचित है कि
तुम स्वयं
महाद्वीप ही बन
जाओगे।
तुम
अपने आप को
खोकर भी कुछ
भी नहीं खोओगे।
प्रतिरोध
करने से हर
चीज खो जाती
है। लेकिन हम
वास्तविकता
को, इस
अस्तित्व
अथवा इस सत्य
को सदा गलत
समझते रहे हैं।
यदि
वास्तविकता
हमें अपने में
जज्ब करने का
प्रयास करती
है तो वह हमें
मृत्यु के समान
दिखाई देता है।
कई बार, लगभग
प्रत्येक दिन
कोई न कोई
मेरे पास आता
ही रहता है।
ध्यान की
गहराइयों में
उतरते हुए जब
अस्तित्व
हमें अपने में
जज्ब करना
शुरू करता है
तुम डर जाते
हो, क्योंकि
वह तुम्हें
मृत्यु जैसा
दिखाई देता है।
वह है मृत्यु
के समान ही, लेकिन वह
मृत्यु नहीं है।
वह जीवन का
द्वार है
अत्यधिक
समृद्ध, अनंत
और शाश्वत
जीवन का द्वार।
लेकिन हां। वह
एक तरह से
मृत्यु भी है
मृत्यु है
अतीत की, मृत्यु
है तुम्हारी
कि तुम, तुम
न रहे। लेकिन
तब, तुम हो
क्या? तुम?
तुम मरने से
इतने भयभीत
क्यों हो? तुम्हारे
पास खोने के
लिए कुछ भी नहीं
है। केवल एक
संतप्त और
तुम्हारा
अपना दुखी
अस्तित्व, केवल
जन्म—जन्मों
का बंदी जीवन,
जो एक दिन
चिता में जल
जायेगा।
केवल
पीड़ाओं और
वेदनाओं का वह
ढांचा जो जलकर
राख हो जायेगा।
तुम्हारे पास
खोने के लिए
कुछ भी तो
नहीं है। तुम
क्यों इससे
इतने अधिक
लिपटे हुए हो? लेकिन
तुम इसके साथ
बहुत परिचित
और इसके अभ्यस्त
हो गये हो, और
तुम भयभीत हो।
जब कभी गहरे
ध्यान में कभी—कभी
संयोग से या
इत्तिफाक से
तुम सत्य के
निकट आते हो, तो सत्य
तुम्हारे
अंदर फैलना
शुरू हो जाता
है और तुम
भयभीत होकर
उससे भाग खड़े
होते हो।
तुम्हारी
व्याख्या और
नासमझी दूर
होना चाहिए
तुम्हें
सीखना है कि
तुम कैसे सुनो
इस शाश्वत
सत्य की ध्वनि, जिससे जब
वह तुम्हारे
पास आये, तुम
उसका स्वागत
कर सको। यदि
परमात्मा
तुम्हारी ओर
आता है, यदि
तुम उसकी ओर
आगे नहीं बढ़ते,
तो कम से कम
भागना भी मत।
और वह
तुम्हारी ओर
लाखों तरह से
आ रहा है। वह
तुम्हें अपने
काबू में लेना
चाहता है। तुम
पर अपना
अधिकार जमाना
चाहता है। ऐसा
नहीं कि केवल
तुम ही उसे
खोज रहे हो, वह भी
तुम्हें ढूंढ
रहा है।
वास्तव में
तुम्हारी खोज
तो बस नकली है।
तुम परमात्मा
को खोजने की
बात तो करते
हो, लेकिन
वास्तव में वह
तुम्हारा
अर्थ होता
नहीं। तुम
चाहते हो कि
रास्ते से
गुजरते हुए ही
वह तुम्हें
मिल जाए। तुम
इसके लिए कुछ
भी चीज दांव
पर नहीं लगाना
चाहते। तुम
उसे अर्जित
नहीं करना
चाहते। तुम
उसे बिल्कुल
मुफ्त पाना
चाहते हो।
लेकिन उसे
पाने का यह
कोई तरीका
नहीं है।
तुम्हें
स्वयं अपने आप
को रोकना होगा, तुम्हें
सभी कुछ खोना
होगा। लोगों
का यह अर्थ
होता ही नहीं,
और जब
परमात्मा
उनके निकट
पहुंचता है और
वह तुम्हारे
पास आकर अपने
हाथ आगे बढ़ाता
है और मैंने
कई बार उसके
हाथों को
तुम्हारे
निकट आते हुए
देखा है और
मैंने तुम्हें
तुरंत भागते
हुए भी देखा
है और फिर जब
तुम उससे दूर
हो जाते हो, तो तुम फिर
उसे खोजने
लगते हो और
पूछते हो— '' परमात्मा
को कैसे खोजा
जाए?'' अब यह
खेल खेलते हुए
बहुत अधिक समय
गुजर चुका और
यह लगभग
तुम्हारी आदत
ही बन चुकी है
कि जब वह
तुमसे दूर
होता है तुम
उसे खोजते हो
और जब वह
तुम्हारे
निकट आता है, तुम उससे
दूर भाग जाते
हो। इस ढांचे
को अब तोडना
ही होगा।
मैंने
सुना है:
वह एक
रविवार की
सुबह थी, जब
क्लेरिनेट
वादक जो हाल
ही में निकट
के छोटे चर्च
से यहां आया
था, उसने
क्लेरिनेट पर
एक उत्तेजक
धुन बजानी शुरू
कर दी, जिसे
सुनकर उस चर्च
का पादरी भागा
हुआ उसके पास आकर
उससे कहने लगा—’‘
यहां मेरी
ओर देखिये।
क्या आपने कभी
वह धुन सुनी
है अपने
रविवार को पवित्र
बनाए रखिये।’’
वादक
ने कहा—’‘ यदि आप कुछ
धुने सीटी
बजाकर
सुनायें तो
मैं अपनी ओर
से
सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन
करूंगा।’’
हमारी
समझ, हमारी
ही समझ है।
हमारी
व्याख्याएं
हमारी ही
व्याख्याएं
हैं। सावधान
रहें जब
अस्तित्व
तुम्हारे
निकट आये, उसकी
व्याख्या
करने की कोशिश
मत करें। बस
प्रतीक्षा
करें, धैर्य
रखें, अस्तित्व
तुम्हारे पास
और पास आता जा
रहा है, वह
स्वयं सब कुछ
प्रकट कर देगा।
लेकिन इससे
पहले वह अपने
को प्रकट करे,
यदि तुमने
अपने हृदय में
अपनी कोई
व्याख्या बना
ली तो तुम फिर
बंद हो जाओगे।
तुम अपने
द्वार बंद कर
लोगे और तब
वहा यह जानने
का कोई मार्ग
न होगा कि
वास्तव में
क्या घटने जा
रहा था।
ठीक
दूसरी रात एक
सन्यासिन चीख
भी रही थी, और रो भी
रही थी। वह
सक्रिय ध्यान
को देखकर इतना
अधिक भयभीत हो
गई थी, क्योंकि
उसने सक्रिय
ध्यान में एक
सन्यासिन को
लगभग पागल हो
जाते देखा।
उसे देखकर वह
बहुत अधिक डर
गई। उसे भय
हुआ कि यदि
ऐसा कुछ एक
व्यक्ति के
साथ हो सकता
है तो वैसा ही
कुछ उसके साथ
भी हो सकता है।
वह अपने मुंह
से सक्रिय
ध्यान शब्द का
भी उच्चारण
नहीं कर पा
रही थी, क्योंकि
जैसे ही वह
सक्रिय ध्यान
शब्द कहने का
प्रयास करती,
वह कापना और
चीखना शुरूकर
देती। वह ठीक
से याद भी
नहीं कर पा
रही थी कि
आखिर हुआ क्या
था क्योंकि
सक्रिय ध्यान
शब्द कहते ही.....वह
इतना अधिक डर
गई थी कि जो
कुछ उस ध्यान
में हुआ था, वह उस पूरी
घटना को
जोड्ने में
समर्थ न हो पा
रही थी। केवल
टुकड़ों
टुकड़ों में वह
इतना ही बता
सकी कि उस
ध्यान में कोई
लगभग पागल ही
हो गया था और केवल
इतना ही नहीं,
बल्कि जो
पागल हो गया
था, उसने
अपने बगल में
ध्यान करने
वाले का हाथ
पकड़ कर अपनी
ओर खींचना
शुरू कर दिया
था। यह उसके
लिए बहुत
प्रतीकात्मक
बन गया। पागल
व्यक्ति तो
स्वयं पागल हो
गया था, वह
उसे अपने साथ
खींचने की भी
कोशिश कर रहा
था। उसे भय
लगा जैसे वहां
हर कोई पागल
हो जाने वाला
हो।
यदि
तुम पागलपन से
इतने अधिक
भयभीत हो, तो तुम
प्रेम भी नहीं
कर पा सकते, तुम ध्यान
भी नहीं कर
सकते, तुम
प्रार्थना भी
नहीं कर सकते
क्योंकि यह सभी
आयाम एक तरह
से पागल कर
देने वाले
आयाम ही हैं—तुम
मनुष्यता की
सामान्य सीमा
के पार जा रहे
होगे।
तुम्हें
सामान्य, रूटीन
कामकाजी
संसार, सामान्य
तर्क सामान्य
और तथाकथित
सामान्य मनुष्यता
के पार जा रहे
होंगे। तुम
इनका
अतिक्रमण कर
रहे होगे। यह
पागलपन जैसा
लगेगा ही।
बाउल
गाते हैं :
पगले, दीवाने, हम सभी
बावरे ही हैं।
तब
यह संसार किसी
की गरिमा के
अनुपयुक्त
क्यों है?
हृदय
के झरने में
गहरे गोता
लगाओ
तुम
पाओगे कि वहां
उस व्यक्ति की
तुलना में जो
पागल है।
कोई
भी किसी से
बेहतर नहीं है।
पागलपन
दो तरह से
सम्भव है, या तो तुम
सामान्य से
नीचे चले जाओ,
या सामान्य
स्थिति से ऊपर
उठ जाओ। दोनों
ही स्थितियों
में तुम पागल
हो जाओगे। यदि
तुम सामान्य स्थिति
से नीच चले
गये, तो
तुम रुग्ण हो,तो तुम्हें
मानसिक
चिकित्सा की
आवश्यकता है,
जो तुम्हें
खींच कर
सामान्य
स्थिति में ले
आए। यदि तुम
सामान्य
स्थिति के पार
चले गए उसका अतिक्रमण
कर गये, तो
तुम रुग्ण
नहीं हो। तुम
पहली बार ही
वास्तव में
स्वस्थ हुए हो,
क्योंकि
पहली बार ही
तुम
परिपूर्णता
या समग्रता से
भरे हो। तब
भयभीत मत होना।
यदि तुम्हारा
पागलपन जीवन
में अधिक
समझदारी ला
रहा है, तब
डरना कैसा? और स्मरण
रहे वह पागलपन
जो सामान्य से
नीचे होता है,
वह हमेशा
अनैच्छिक
होता है। तुम
उसे स्वयं कर
नहीं सकते, वह अपने आप
होता है। तुम
उसमें खींच
लिए जाते हो।
और वह पागलपन
जो सामान्य
स्थिति से पार
या उससे ऊपर
होता है, वह
ऐच्छिक होता
है तुम उसे
स्वयं कर सकते
हो और क्योंकि
तुम उसे कर
सकते हो, तुम
उसके मालिक
बने रहते हो।
तुम उसे किसी
भी क्षण रोक
सकते हो। यदि
तुम और आगे
नहीं जाना
चाहते हो तुम
वहीं रुक सकते
हो, और यदि
और आगे जाना
चाहते हो तो
तुम और आगे भी
जा सकते हो
लेकिन
तुम्हारा उस
पर हमेशा
नियंत्रण बना
रहता है।
यहां
इन ध्यान
प्रयोगों में
हमारा पूरा
प्रयास
तुम्हें इसी
पागलपन का
स्वाद देना है, जो
सामान्य के
पार है, लेकिन
तुम उसके
मालिक बने
रहते हो। किसी
भी क्षण तुम
वापस आ सकते
हो। यह इस बात
का संकेत है
कि तुम्हें
किसी मानसिक
चिकित्सा की
आवश्यकता
नहीं है। यह
साधारण
पागलपन की सभी
संभावनाओं को
छोड़ सकोगे।
तुम उन्हें
इकट्ठा नहीं
किए जाओगे।
सामान्यत हम
इनका दमन किये
चले जाते है।
वह सन्यासिन
जो इतना अधिक
भयभीत है उसने
अपने अंदर
स्वयं पागलपन
का बहुत अधिक
दमन किया है।
अब वह इसीलिए
ध्यान करने से
डर रही है। वह
उसके लिए किसी
दिन मुसीबत
खड़ी कर सकता
है।
एक दिन
जब प्याला
पूरा भर
जायेगा तो वह
छलकेगा ही और
तब वह उसे
नियंत्रित
करने में समर्थ
न हो सकेगी।
ठीक अभी यही
वह क्षण है जब
उसे रेचन करने
की शुरुआत कर
देनी चाहिए और
दबे पागलपन को
बाहर उलीच
देना चाहिए
जिससे अंदर से
सभी सफाई हो
जाये। लेकिन
जब वह
व्याख्या
करने लगती है
तो भय उठ खड़ा
होता है।
जब
परमात्मा
तुम्हारे
निकट आता है, तुम
देखोगे कि तुम
पागल हो जाते
हो। तुम एक नई
लय में थिरकने
लगोगे।
तुम्हारा
पूरा शरीर
कम्पनों से भर
जायेगा और
तुम्हें
अनुभव होगा कि
तुम्हें एक
ऊर्जा उड़ेल दी
गई है और वह
ऊर्जा
तुम्हारी क्षमता
से कहीं अधिक
विराट होगी।
धीमे— धीमे
तुम्हारी
क्षमता बढती
जायेगी और
आहिस्ते—
आहिस्ते तुम
उसे अपने में जज्ब
करने में
समर्थ होते
जाओगे। धीमे—
धीमे फिर
कंपना और
हिलना
विसर्जित हो
जायेगा और शनै
: शनै तुम
पूरी तरह से
शांत हो जाओगे,
लेकिन
इसमें कुछ समय
लगता है।
बाउल
कहते हैं :
यह
सुंदर और जादू
भरी सरिता
उस
अरूप के रूप
को
प्रतिबिम्बित
करती है।
और
पदार्थ के
सारभूत का
इन्द्रिय
ज्ञान कराती है।
उसके
रूप, गंध, स्वाद
और स्पर्श का
बोध कराती है।
तुम
जीवन का केवल
एक छोटा सा
अंश ही देख
पाते हो,
और
उसी में डबे
हुए एक शराबी
जैसी गफलत में
रहते हो।
तुम
बहुत बहुत
छोटे से
अत्यंत लघु से
लघु अंश से
संतुष्ट हो
जाते हो। जब
कि तुम एक
सम्राट हो
सकते थे और
भिखारी बने ही
संतुष्ट रहते
हो। तुम एक
सम्राट होकर
ही जन्मे हो
लेकिन तुम भिखारी
बने रहने के
अभ्यस्त हो
गये हो और तुम
सोचते हो कि
भिखारी बने
रहना ही
तुम्हारा
व्यवसाय है।
नींद में हम
किसी ऐसी चीज
का स्वप्न
देखते हैं, जो हम हैं
नहीं।
तभी तो
आज की कविता
कह रही है—
न
कुछ भी हुआ है।
और
न कुछ भी होगा।
जो
जहां है, वह वहां
है।
मैं
अपने स्वप्न
में एक सम्राट
बन गया,
और
मेरी प्रजा ने
सम्पूर्ण
पृथ्वी पर
अपना अधिकार
जमा लिया।
मैं
सिंहासन पर
बैठकर सिंह की
ही भांति शासन
करने लगा,
एक
सुखी जीवन
जीने लगा
पूरा
संसार मेरी
आज्ञा का पालन
करने लगा..
पर
जैसे ही अपने
बिस्तरे पर
मैंने करवट
बदली
सभी
कुछ साफ हो
गया।
मैं
शेर न होकर
शेर का चाचा
था
गांव
का मूर्ख
बैसाखनंदन, एक
साधारण सा
गदहा.....था।
अपनी
नींद में करवट
बदलो और तुम
देखोगे: तुरंत
स्वप्न बदल
जाता है। मैं
इसी को
संन्यास कहता
हूं अपनी नींद
में करवट
बदलना, मूर्च्छा से
जागना। करवट
बदलो और तुम
देखोगे कि
स्वप्न बदल
गया। बस इधर
से उधर थोड़ा
सा घूमो और
फिर उसी
स्वप्न को कभी
न पकड़ सकोगे
क्योंकि सपने
सच्चे नहीं है,
वास्तविक
नहीं है। तुम
टूटे हुए सपने
को फिर से
जारी नहीं रख
सकते। एक बार
सपना टूटा, वह हमेशा के
लिए टूट गया।
वह है. पर वहां
उसे पकड़ने का
कोई रास्ता है
ही नहीं। तुम
स्वयं को उस
सपने से फिर
जोड़ नहीं सकते।
और स्वप्नों
में हमारे पास
बहुत सी चीजें
होती हैं।
च्चांग्त्सु
कहता है—’‘ मैंने सपने
में देखा कि
मैं एक तितली
बन गया हूं।
सुबह उठने पर
मैं बहुत अधिक
चिंतित था
क्योंकि एक
बहुत बड़ी
समस्या उठ खड़ी
हुई। यदि सपने
में मैं तितली
बन सकता हूं
यदि च्चांग्त्सु
सपने में
तितली बन सकता
है, तब ठीक
इससे उल्टा
होना भी सम्भव
है। अब तितली
भी सपना देख
सकती है कि
सपने में वह
च्चांग्त्सु
बन गई है। यदि
च्चांग्त्सु
तितली बन सकता
है तो तितली च्चांग्त्सु
क्यों नहीं बन
सकती है।
च्चांग्त्सु
ने अपने सभी
शिष्यों को
इकट्ठा कर
उनसे पूछा—’‘ कृपया मुझे
बताएं मैं कौन
हूं?'' क्योंकि
तितली के
स्वप्न के
अनुसार...।
वास्तव में वह
अपने शिष्यों
को हल करने के
लिए एक कुआन
दे रहा था।
मैं जानता हूं
उसने कभी
स्वप्न देखा
ही नहीं।
च्चांग्त्सु
जैसे लोग
स्वप्न देखते
ही नहीं। जब
स्वप्न आना
रुक जाते हैं
तभी एक
व्यक्ति च्चांग्त्सु
जैसा बनता है।
वह एक कुआन दे
रहा था, एक
बहत सुंदर
कुआन, ध्यान
करते हुए उसे
हल करने के
लिए एक महान
पहेली। जो लोग
इस पर ध्यान
करेंगे वे
पायंगे तुम न
तो च्चांग्त्सु
हो और न तितली—दोनों
ही स्वप्न हैं।
तुम न शेर हो
और न शेर के
चाचा दोनों ही
स्वप्न है।
तुम वही एक हो,
जो स्वप्न
को पहचानता है,
तुम केवल
साक्षी हो।
केवल साक्षी
ही सत्य है।
दिन
में जागे हुए
तुम एक हजार
एक काम करते
हो। रात में
जब तुम सो
जाते हो, तो दिन के
बारे में सब
कुछ मूल जाते
हो, तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारा
पति, तुम्हारे
बच्चे
तुम्हारे
अपने निकट के
लोग भले ही अब
वे वहां न हों।
तुम संसार के
बारे में सब
कुछ भूल जाते
हो। तुम पूरी
तरह से भिन्न
एक नये आयाम
में प्रवेश
करते हो। तुम
अपनी योग्यता
की डिग्री, अपनी
समृद्धि अपना
बैंक बैलेंस
सब कुछ भूल जाते
हो, यहां
तक कि अपना
नाम भी। एक
दूसरे संसार
का सामने
द्वार खुल
जाता है। तुम
दूसरा नाम, दूसरी पहचान,
दूसरी
पत्नी दूसरे
बच्चे और कोई
दूसरे व्यवसाय
में अपने को
व्यस्त देखते
हो। सुबह उठने
पर तुम फिर
अपने को वापस
उसी पुराने
सपने में पाते
हो और यह चलता
ही रहता है।
यदि एक
व्यक्ति
नब्बे वर्ष
जीता है तो वह
तीस वर्ष
स्वप्न
देखेगा। यह
कोई छोटा समय
नहीं है।
तुम्हारा एक
तिहाई समय
सोने में या
स्वप्न देखने
में चला जाता
है। नब्बे में
से तीस वर्ष
तुम्हारे
तथाकथित संसार
के लिए बहुत
बडा समय है।
यह
संसार भी एक
स्वप्न है, यह एक
सामान्य
स्वप्न हो
सकता है, जिसमें
हम स्वप्न भी
एक साथ देखते
हैं। और रात
में सपना
प्राइवेट होता
है, क्योंकि
तुम अकेले ही
स्वप्न देखते
हो, लेकिन
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
स्वप्न
प्राइवेट हो
या सामान्य
स्वप्न तो आखिर
स्वप्न है।
लेकिन तब आखिर
स्वप्न की
परिभाषा क्या
है? तुम
स्वप्न की
व्याख्या
कैसे करोगे, तुम उसे
स्पष्ट कैसे
बनाओगे और तुम
यथार्थ से उसमें
फर्क कैसे
करोगे? पूरब
की व्याख्या
कहती है—यदि
तुम्हारे मन
में वहां कोई
भी विचार है, तब वह सपना
ही है। यदि मन
निर्विचार है
तब वहां जो
कुछ भी है वही सत्य
या
वास्तविकता
है—क्योंकि
विचार
प्रक्रिया ही
बातों की बाढ़
जैसी
प्रवाहित नदी
निर्मित करती
है। वहीं उसे
एक स्थायी
शक्ल जैसी
देती है, जैसे
मानो वह
क्षणिक हो।
तभी
बाउल कहते हैं
मेरे
लिए एक अनजान
व्यक्ति और
मैं
हम
दोनों साथ—साथ
रहते हैं।
लेकिन
फिर भी लाखों
करोड़ों मीलों
की दूरी के साथ।
इसी को
बाउल लोग ' सारभूत
मनुष्य ' या
' आधार मानुष
' कहते हैं।
तुम दो हो एक
तो केंद्र पर
है सारभूत
मनुष्य और
दूसरा है
परिधि पर
अर्जित
मनुष्य। और यह
दोनों एक
दूसरे से बहुत
अधिक दूरी पर
रहते हैं। और
तुमने परिधि
वाले के साथ
बहुत अधिक
तादात्म्य
जोड़ लिया है।
कैसे वापस
केंद्र पर
सारभूत
मनुष्य अथवा
आधार—मनुष्य
तक पहुंचा
जाये? एक
मार्ग है—साक्षी
होना। तुम
चाहे जो कुछ
भी करो, लेकिन
उसके साक्षी
बने रहो। उसे
देखते रहो, उसका
निरीक्षण
करते रहो और
तुम स्वयं का
स्मरण रखना
निरंतर जारी
रखो। सड़क पर
चलते हुए याद
रहे कि
तुम्हारे
अंदर की वह
बिंदु या
सारभूत है, जो तुम्हारे
साथ नहीं चल
रहा है, जो
कभी चला ही
नहीं है, जो
तुम्हारे साथ
चल ही नहीं
सकता। उसके
पास चलने के
लिए पैर नहीं
है, वह
बिंदु ही
तुम्हारा
केंद्र है। उस
केंद्र के
द्वारा ही तुम
अस्तित्व को
अथवा उस
वास्तविकता
या सत्य को
जानोगे जिसके
बाबत बाउल
गाते हैं—
न
कुछ भी हुआ है
और
न कुछ भी होगा
जो
जहां, वह वहां है।
एक बार
तुम उस स्थाई
स्रोत का
स्पर्श कर लो, जो
शाश्वत है तो
तुमने जीवन की
नित्यता का
स्पर्श कर
लिया।
तुम्हारे
समानान्तर ही
चीजें घट रही
हैं। यदि तुम
केंद्र पर हो,
तो तुम
अस्तित्व के
केंद्र को भी
देखने में समर्थ
हो। यदि तुम
परिधि पर हो
तो तुम केवल
जीवन की परिधि
को ही देखने
में समर्थ हो।
यह परिधि
निरंतर बदलती
रहती है।
क्या
तुमने किसी
बैलगाड़ी को
चलते हुए देखा
है? पहिया
घूमता है और
घूमता ही रहता
है, लेकिन
पहिए के
केंद्र पर कुछ
चीज थिर बनी
रहती है।
पहिया उसी थिर
धुरे पर घूमता
रहता है।
पहिये का
घूमना, न
घूमने वाले
थिर धुरे पर
निर्भर रहता
है। ठीक इसी
तरह से
तुम्हारे पास
भी एक धुरा है
वह धुरा थिर
है और
तुम्हारा
व्यक्तित्व
भी एक पहिये
जैसा है, जो
निरंतर
गतिशील रहता
है। तुमने दूर—दूर
की यात्राएं
की हैं, हजारों
जन्मों में
तुम लाखों मील
चले हों और
तुम्हारा
पहिया बहुत सी
सड्कों और
बहुत से
मार्गों को
जानता है, लेकिन
उसका धुरा
वहीं बना रहता
है, जहां
वह है। अब तुम
अस्तित्व को
दो तरह से देख
सकते हो या तो
पहिये से। तब
प्रत्येक
वस्तु तेजी से
बदल रही है, अथवा धुरे
से देख सकते
हो तब वहां
कुछ भी नहीं
बदल रहा है।
न
कुछ भी हुआ है
और
न कुछ भी होगा।
जो
जहां है, वहां ही
रहेगा
जीवन
के इस धुरे को
कैसे खोजा
जाये? कोई
व्यक्ति इसे
साक्षी बनकर
पा लेता है।
भोजन करो
लेकिन याद रखो
कि तुम्हारे
अंदर वहां एक
बिंदु ऐसा है,
जिसने कभी
भी भोजन नहीं
किया। भोजन
शरीर के अंदर
जाता है, तुम्हारी
चेतना
निरीक्षण
कर्त्ता बनी
रहती है। कोई
व्यक्ति
तुम्हारा
अपमान करता है,
क्रोध उठता
है लेकिन तुम
साक्षी बने
रहते हो।
अपमान बाहर से
आता है, क्रोध
परिधि पर उठता
है और तुम
निरीक्षण
करते हुए
केंद्र पर बने
रहते हो। हां,
किसी भी
व्यक्ति ने
कुछ भी किया, तुम्हारी
परिधि को
उत्तेजित
किया और वहां
परिधि पर जो
क्रोध
उत्पन्न हुआ
वह धुंवे के
बादल की तरह
तुम्हें
चारों ओर से
घेर लेता है, लेकिन तुम
तो बुरे पर हो,
वहां से
निरीक्षण कर
रहे हो। तुमने
परिधि से
तादात्म्य
जोड़ा ही नहीं।
तब अपमान बाहर
ही रहा और
क्रोध भी
तुमसे बाहर ही
प्रकट हुआ।
दोनों अलग—
अलग हैं और एक
दूसरे से काफी
दूर हैं।
दोनों ही
तुमसे भिन्न
हैं।
जब यह
सजगता विकसित
होती है, तो धीमे—
धीमे सपने
देखना रुक
जाता है। जब
यह सजगता
जागती है, पहिए
के घूमने की
गति धीमी से
धीमी होती जाती
है, क्योंकि
अब तेजी से
घूमने का
मुद्दा रहा ही
नहीं। तुम कभी
चलते ही नहीं,
गतिशील
होते ही नहीं,
इसलिए पूरी
पृथ्वी की
यात्रा करना
कोई मुद्दा है
ही नहीं। तुम
ज्यों के
त्यों बने
रहते हो, तब
कामनाएं मंद
हो जाती हैं।
एक दिन यह भी
होता है कि
पहिया भी धुरे
की भांति बिना
घूमे हुए थिर
हो जाता है।
यह वह बिंदु
है जहां
बुद्धत्व
घटता है।
बाउल
गाते हैं:
ब्रह्मांड
का सावधानी से
अध्ययन करते
हुए
तुम
अपना समय ही
नष्ट कर रहे
हो।
वह
तो इस छोटे से
भाण्ड में ही
मौजूद है।
इस
छोटी सी देह
ही में उसने
अपना घर बना
लिया है।
वह
तुम्हारी देह
के इस छोटे से
भाण्ड ( बर्तन)
में यहीं
मौजूद है।
वह
परमात्मा का
परमात्मा
वहां है।
सम्राटों
का सम्राट वह
प्रीतम
प्यारा।
ब्रह्मांड
का सावधानी से
अध्ययन करते
हुए तुम अपना
समय ही नष्ट
कर रहे हो। इस
बिंदु से
गतिशील होकर
तुम अपने आपको
अनावश्यक रूप
से कष्ट ही दे
रहे हो, व्यर्थ की
मुसीबत में पड़
रहे हो। अपने
ही अस्तित्व
में गहरे
प्रवेश कर उस धुरे
पर पहुंचो। और
बाउल कहते हैं
कि यह सम्भव
तब है, जब
तुम अति
विनम्र बन जाओ।
तब है, जब तुम
अति विनम्र बन
जाओ।
इसीलिए
वे गाते हैं
मैं
अपने सपने में
एक सम्राट बन
गया,
और
मेरी प्रजा ने
पूरी पृथ्वी
पर अधिकार जमा
लिया।
सपना
सदा अहंकारी
होता है, अहंकार ही
एक स्वप्न है।
मैं
अपने सपने में
एक सम्राट बन
गया।
और
मेरी प्रजा ने
पूरी पृथ्वी
पर अधिकार जमा
लिया।
मैं
एक सिंहासन पर
बैठ गया।
और
शेर की तरह शासन
करने लगा
एक
सुखी जीवन
जीते हुए
संसार
मेरी आज्ञा का
पालन करता था।
यह
केवल अहंकार
ही है
जैसे
ही मैंने अपने
बिस्तरे पर
करवट ली
सब
कुछ साफ हो
गया।
मैं
एक नहीं था
बल्कि शेर का
चाचा था
एक
बैसाखनंदन, गांव का
मूर्ख गदहा....
जब कोई
इसे समझ लेता
है, वह
अति विनम्र बन
जाता है। तभी
कोई कहता है—मैं
तो बस एक
मूर्ख, बैसाखनदन
या गांव का
मूर्ख गधा
मात्र हूं।
बाउल
गाते हैं:
उच्चतम
शिखर तक
पहुंचने के
लिए कार्य
नहीं करना
होता।
विनम्र
बनकर ही तुम
जीवन के
लक्ष्य को
प्राप्त कर
सकते हो।
धंसी
हुई पोली
पृथ्वी पर
बादल जल
उड़ेलते रहते
हैं
लेकिन
सबसे नीचाई पर
कुंए ही
पानी
की सुरक्षा
करते हैं
और
वे एक वरदान
की भांति
सभी
की प्यास
बुझाते हैं।
विनम्र
बनकर। यदि तुम
विनम्र अथवा ' कुछ नहीं '
बनना शुरु
कर दो, तो
स्वप्न
विसर्जित
होना शुरू हो
जायेंगे क्योंकि
केवल अहंकार
के साथ ही
सपनों के आने
की संभावना
होती है।
अहंकार ही
स्वप्न देखता
है, वही
स्वप्नों का
निर्माता या
प्रोजेक्टर
है। यही कारण
है कि सभी
धर्म
विनम्रता और
तुच्छतुम
होने पर जोर
देते हैं।
जीसस अपने
शिष्यों से
कहे चले जाते
हैं:
निर्धन
बनकर ही
परमात्मा के
राज्य में
प्रवेश मिलता
है
वे
धन्यभागी हैं, जो
निर्धन हैं।
वे
धन्यभागी हैं, जो
विनम्र हैं।
उनको
ही
उत्तराधिकार
में पृथ्वी का
राज्य मिलेगा।
किसी
ने भी कभी
निर्धनों को
उत्तराधिकार
में पृथ्वी का
राज्य पाते
देखा नहीं है।
किसी ने कभी
विनम्र लोगों
को भी
उत्तराधिकार में
पृथ्वी का
राज्य मिलते
ही नहीं देखा
है। तब फिर
जीसस क्यों
इसे बार—बार
दोहराये चलते
जाते हैं।
उन्हें स्वयं
क्रास पर चढ़ना
पड़ा फिर भी वे
पृथ्वी का
राज्य पाने
में समर्थ न
हो सकें।
लेकिन वह किसी
दूसरी ही
पृथ्वी के
बाबत बता रहे
हैं, किसी
दूसरे
अस्तित्व के
बारे में, एक
भिन्न सत्य के
बारे में वे
इस पृथ्वी के
बारे में बात
ही नहीं कर
रहे हैं। यह
पृथ्वी तो
अहंकारों का
युद्ध
क्षेत्र है जहां
अहंकार के लिए
ही बहुत बड़ी
प्रतियोगिताएं
हो रही हैं, जहां संघर्ष,
लड़ाइयां और
युद्ध हो रहे
हें।
वे
धन्यभागी हैं, जो
विनम्र हैं।
वे
धन्यभागी हैं, जो
निर्धन हैं।
उन्हीं
को मिलेगा
उत्तराधिकार
में यह पृथ्वी
का राज्य
उनके
कहने का अर्थ
है कि
उत्तराधिकार
में वे अस्तित्व
या सत्य का
साम्राज्य
पाएंगे। वे
व्यक्ति जो
अहंकार में है, उत्तराधिकार
में पृथ्वी कर
साम्राज्य
सपनों में ही
पा सकते हैं, लेकिन उनके
साम्राज्य
व्यर्थ हैं, क्योंकि वे
केवल उनके
अपने सपने भर अन्य
कुछ भी नहीं।
खोजने
या पाने के
लिए
उच्चतम
शिखर पर
पहुंचने के
लिए कार्य
करना ही बाधा
है
विनम्र
बनकर ही तुम
जीवन के
लक्ष्य तक
पहुंच सकते हो।
धंसी
हुई पोली
पृथ्वी पर
बादल
जल उड़ेलते
रहते हैं
लेकिन
सबसे अधिक
नीचाई पर गहरे
कुंए ही
पानी
की सुरक्षा
करते हैं
और
वे एक वरदान
की भांति
सभी
की प्यास
बुझाते हैं।
मैंने
एक कहानी सुनी
है :
विली
जोन्स ने सपने
में देखा कि
वह मर गया है।
दफन करने के
संस्कारों के बाद
उसने अपने आप
को एक अत्यधिक
सजे हुए विशाल
कक्ष में पाया।
उसने एक गद्देदार
कोच पर कुछ
देर विश्राम
किया। लेकिन
कुछ समय या
लगभग एक घंटे
बाद वह वहां
बोर होने लगा।
वह चिल्लाया—’‘ क्या
यहां कोई और
है?'' एक
मिनट बाद
श्वेत परिधान
पहले हुए एक
सेवक प्रकट
हुआ।
उसने
पूछा—’‘ आप
क्या चाहते
हैं?''
विली
ने कहा—’‘ मुझे यहां
क्या मिल सकता
है?''
सेवक
ने कंधे
उचकाते हुए
कहा—’‘ कोई
भी चीज जो आप
लेना पसंद
करें '' विली
ने कुछ चीज
खाने के लिए
मांगी।
सेवक
ने पूछा—’‘ आप क्या
खाना चाहते
हैं? आप जो
भी चाहें आपको
यहां हर वस्तु
मिल सकती है।’’
और जो
कुछ मांगा, वे लोग
खाने को वह सब
कुछ लाये और
वह खाना खाकर सो
गया और उसका
समय मजे से कट
गया। कुछ समय
बाद वह फिर
बोरियत का
अनुभव करने
लगा और अंत
में उसने
चिल्लाकर फिर
सेवक को
बुलाकर आग्रह
किया—’‘ मैं
कुछ काम करना
चाहता हूं।’’
'' मुझे
अफसोस है।’’ सेवक ने
उत्तर दिया—’‘ लेकिन बस
यही एक ऐसी
चीज है, जो
हम आपको
उपलब्ध नहीं
करा सकते।’’
विली
ने चारों ओर
देखा और कहा—’‘ मैं इस
सभी से थक
चुका हूं और
अपने को
अस्वस्थ महसूस
कर रहा हूं।
इससे तो अच्छा
था कि मैं
नर्क में ही
चला जाता।’’
सेवक
ने कहा—’‘ जनाब! जरा
खयाल करें, आप और हैं कहां?''
नर्क ही
वह स्थान है, जहां तुम
कुछ भी कर
नहीं सकते, क्योंकि
करना तो केवल
वास्तविकता
या यथार्थ में
ही होना सम्भव
है। नर्क में
स्वप्न देखना
ही सम्भव है।
कुछ करना
सम्भव ही नहीं।
यदि तुम अपने
सपनों में ही
रह रहे हो, तो
तुम नर्क में
ही रह रहे हो।
तुम एक हजार
एक चीजों का
स्वप्न देख
सकते हो, लेकिन
कोई भी काम कर
नहीं सकते।
जरा
निरीक्षण
करें.....तुम खुश
होना चाहते हो, लेकिन
तुम खुश क्यों
नहीं हो सकते?
अचानक तुम
अपने को असहाय
पाते हो। तुम
खुश होना
चाहते हो, तुम
उसके बारे में
स्वप्न देखते
हो, लेकिन
तुम्हें खुश
होने से कौन
रोक रहा है? खुश कैसे हो?
तब फिर
अचानक तुम
अपने को असहाय
होने का अनुभव
करते हो। तुम
मौन और शांति
चाहते हो, तुम
अपने सपने में
कामना करते हो।
लेकिन
तुम्हें कौन
रोक रहा है? बस मौन हो
जाओ। तब अचानक
तुम पुन: अपने
को शक्तिहीन
पाते हो।
करना या
क्रिया केवल
तभी सम्भव है
जब तुम यथार्थ
के सम्पर्क
में होते हो।
तुम्हारे
अपने कारण ही
स्वप्न सम्भव
है तुम स्वप्न
ही देखते रह
सकते हो।
इसलिए
इसी को अपनी
कसौटी बना लो, यदि तुम
वास्तव में
खुश होना
चाहते हो तब
ऐसा रास्ता
खोजो जिससे
तुम यथार्थ या
वास्तविकता
के सम्पर्क
में बने रह
सको, और
तुम खुश बने
रहोगे। यदि
तुम बस सपने
ही देखते रहे
और वास्तविक
यथार्थ को
पाने का मार्ग
खोजने की
कोशिश नहीं की,
तब तुम
सपनों में ही
रहोगे और अधिक
से अधिक दुखी
होते जाओगे, क्योंकि तुम
बार—बार उसी
खुशी कोही
खोजोगे, जो
घट नहीं रही
है।
किया
है असली
अस्तित्व या
यथार्थ का काम
और सपने देखना
कार्य है—
नकली
अस्तित्व का।
बाउल
कहते हैं—
तुम्हें
मेरी
प्रेमिका की
क्रीड़ास्थली
को देखने के
लिए
एक
अकेले मन के
ही साथ आना
चाहिए।
यदि
तुम्हारा मन
दो टुकड़ों में
बंट गया
तो
तुम उलझन की
नदी में ही तैरते
रहोगे।
और
कभी भी किनारे
तक नहीं
पहुंचोगे।
स्वप्न
देखने वाले का
मन दो हिस्सों
में बंट जाता
है, साक्षी
होने में और
स्वप्न देखने
में। तब तुम
एक नहीं हो, तुम विभाजित
हो। जब तुम
केवल साक्षी
हो तुम एक हो।
तब तुम्हारे
अंदर कोई
द्वैतता नहीं
है। तुम हो
इतना ही काफी
है। इसलिए एक
होने की कोशिश
करो, चित्त
एक ही हो। तुम
जो कुछ भी कर
रहे हो, एक
ही बने रहने
की कोशिश करो।
यह कहना कि
तुम विभाजित
होकर दो हो
जाते हो, एक
भीड़ बन जाते
हो। इन खण्डों
को एक साथ लाओ।
और निरंतर एक
चीज का अनुसरण
करने से
तुम्हें चेतना
के एकीकरण में
सहायता
मिलेगी।
उदाहरण
के लिए ध्यानी, निरंतर
ध्यान ही करने
की कोशिश करते
हैं। वे एक
हजार एक चीजें
या अन्य चीजें
करते हैं, लेकिन
एक चीज करेंट
की भांति
निरंतर अंदर
प्रवाहित
होती रहती है।
जैसे एक
अदृश्य धागा
निरंतर कहीं
नीचे दौड़ता हुआ
स्मरण दिलाता
रहता है। वे
भोजन करते हैं,
वे भोजन को
भी ध्यान बना
लेते हैं। वे
चलते हैं
लेकिन वे चलने
को भी ध्यान
बना लेते हैं।
वे सुनते हैं,
लेकिन वे
बात करने को
भी ध्यान बना
लेते हैं। वे
सुनते हैं, लेकिन वे
सुनना भी
ध्यान बना
लेते हैं। वे
बहुत सी चीजें
करते हैं, लेकिन
वे प्रत्येक
चीज को ध्यान
से जोड़ देते
हैं। इससे
उनका चित्र
विभाजित नहीं
होता, वह
एक ही रहता है।
प्रेम
के पथ का
अनुसरण करने
वाले बाउल
प्रेमियों
में प्रेम
अंतर्प्रवाह
की भांति प्रवाहित
होता रहता है।
वे भोजन करते
हैं, लेकिन
प्रेम के साथ,
वे चलते हैं,
लेकिन उनका
एक एक कदम
प्रेम को
गुनगुनाते
हुए उठता है
क्योंकि
पृथ्वी
पवित्र भूमि
है। वे एक
वृक्ष के नीचे
बैठते हैं, लेकिन बहुत
प्रेम और
श्रद्धापूर्वक
क्योंकि
वृक्ष में
दिव्यता है।
वे किसी की ओर
देखते हैं, लेकिन बहुत
प्रेमपूर्वक
क्योंकि वहां
भी दिव्यता है।
प्रत्येक
स्थान पर वे
अपनी
प्रेमिका को
देखते हैं, अपनी
प्रत्येक गति
में वे अपनी
प्रेमिका का स्मरण
करते हैं। वह
उनकी निरंतर
सुरति बनी
रहती है।
लेकिन
चाहे ध्यान के
पथ पर या चाहे
प्रेम के पथ
पर एक चीज तो
करना ही है।
एक हजार एक
चीजें करते
हुए तुम्हें सभी
को एक चीज से
जोड़ देना है।
यह जोडना और
उस धागे का
अंदर ही अंदर
दौड़ना तुम्हारी
चेतना को एक
नोंक वाला बना
देता है।
तुम्हारा मन
अविभाजित ' एक ' बना
रहता है वह
तुम्हें
एकीकरण देगा।
इस एकीकरण में
स्वप्न
विसर्जित हो
जाते हैं। यह
तुम्हारे
अंदर की भीड़
ही है जो स्वप्न
देखती है।
तुम्हारी वह
विभाजित
चेतना ही है
जो स्वप्न देखती
है। जब इस दो
के विभाजन के
मध्य सेतु बन
जाता है, स्वप्न
विसर्जित हो
जाते हैं।
क्योंकि तब
तुम अभी और
यहीं होने में
इतना अधिक
आनंद लेना
शुरू कर देते
हो, तब
कामना की
फिक्र ही कौन
करता है? आने
वाले कल के
बारे में
सोचने का समय
किसके पास
होता है। आज
ही आवश्यकता
से अधिक है।
अविभाजित
अस्तित्वका
एक क्षण ही
कितना विराट
है, शाश्वतता
से भी कहीं
अधिक विराट।
तब कोई
भी अतीत के
बारे में भी
नहीं सोचता—जो
जा चुका वह जा
चुका। और तब
कोई भी भविष्य
के बारे में
भी नहीं सोचता
जो अभी तक आया
ही नहीं है, वह आया ही
नहीं है अभी।
केवल एकीकृत
एक मन ही
वर्तमान में
गहरे और गहरे डूबता
है और यही
परमात्मा का
द्वार है।
वर्तमान
ही द्वार है
और तुम्हारा
एकीकृत एक चित्त
ही वह कुंजी
है।
आज बस
इतना ही।
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