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सोमवार, 4 अप्रैल 2016

आनंद योग--(दि बिलिव्ड-02)--(प्रवचन--04)

मध्‍य में रूकने का स्‍मरण रहे—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 13 जूलाई 1976;
श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न :
प्यारे ओशो! मैने सुना है:..... एक मनोवैज्ञानिक
अपने ही जुड़वां पुत्रों के साथ एक प्रयोग करना चाहत था!
वह उन्‍हें अपने साथ समूह चिकित्सा के कमरे में ले गया और
प्रत्येक लड़के को स्वयं अलग—अलग कमरे में रखा! आइक
के कमरे में उसने टी: वी: पर पर विज्ञापित, कठिनता से बिकने
वाले खिलौनों का ढेर इक्‍कठा कर रखा था। क्‍योंकि परीक्षण से
वह नकारात्‍मक दृष्‍टिकोण का, शिकायतें करने वाला

निराशावादी पाया गया था! माइक के कमरे में उसने की खाद
कर बहुत बड़ा डेर इकट्ठा कर दिया  माइक आशावादी है।
एक घंटे बाद ताला खोलकर उसने आइक के कमरे में प्रवेश
किया वहां आइक खिलौने के बाद खिलौना उछालते हुए
शिकायत कर रहा था— यह खिलौना किसी भाई काम का
नहीं है, और यह तो कुछ करता ही नहीं।
जैसे ही उसने दूसरे कमरे का दरवाजा खोला वह कुछ क्षणों
तक तो अपने लड़के को खोजने में असमर्थ रहा लेकिन तभी
उसने उसकी आवाज सुनी जो कह रहा था— '' यहां एक टट्टू
जरूर होना चाहिए! यह? एक टट्टू या खच्चर जरूर होनी
चाहिए।''
और जब वह दृष्टिगत हुआ तो जहां लीद की खाद पड़ी हुई थी,
वहां वह उसे उत्तेजित होकर फर्श खोदता हुआ दिखाई दिया
क्योंकि वह उसके नीचे टट्ठू के होने की आशा का रहा था!
मैने कमरे बदल लिये है, और मैं टट्टू के निकलने की आशा में
अपनी नजर जमाये हुए हूं।
निराशावाद और आशावाद के सम्बंध में जो पहली चीज समझ लेने जैसी है वह यह है कि वे अलग नहीं हैं। वे भिन्न दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी आकृति से धोखे में मत पडो। वे एक ही घटना के केवल दो विपरीत ध्रुव हैं। एक निराशावादी, एक आशावादी बन सकता है। एक निराशावादी ठीक एक आशावादी ही है जो अपने सिर के बल ठीक उल्टा खड़ा हुआ है। वे दो भिन्न व्यक्ति हैं, वे दो भिन्न आयाम नहीं है। स्मरण रहे, कमरे बदलने का कोई मूल्य नहीं। दोनों ही कमरों से बाहर निकलकर खुले आकाश के नीचे आओ, जहां न आशावाद और न कहीं निराशावाद का कोई अस्तित्व है। जब दोनों ही चले जाते हैं, तुम तभी विश्राममय हो सकते हो, क्योंकि दोनों ही गलत हैं।

स्थिति का विश्लेषण करो। निराशावादी, चीजों, के अंधेरे पक्ष की ओर ही
देखे चले जाता है और उजले पहलू से इंकार किए चला जाता है; वह केवल आधे
सत्य को ही स्वीकार करता है। आशावादी व्यक्ति, चीजों के अंधेरे पक्ष से इंकार
किए चला जाता है और केवल उजले पक्ष को ही स्वीकार करता है, वह भी आधा
सत्य है। इनमें से कोई भी पूर्ण सत्य को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि पूरा सत्य
गर्मी और जाड़ा, परमात्मा और शैतान अंधकार और प्रकाश अच्छा और बुरा तथा जीवन और मृत्यु दोनों ही एक साथ है। दोनों एक ही व्‍यायाम कर रहे है वे आधे से इंकार कर रहे है और शेष दूसरे आधे को स्वीकार कर रहे हैं। दूसरा आधा भाग भी उतना ही आधा है जितना पहले वाला आधा भाग; वहां उनमें कोई भी अंतर नहीं है। यदि निराशावादी गलत है तो आशावादी भी गलत है। दोनों ही, सत्य जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे चुनाव करते हैं।
दोनों ही कमरों से बाहर निकल कर अचुनाव के खुले आकाश के नीचे आओ। चुनाव करो ही मत। सत्य जैसा है, उसे वैसा ही रहने दो। अपनी चित्त वृत्ति के अनुसार उसमें रंग मत भरो। उसकी तथ्यात्मकता को देखने का प्रयास करो, अपनी चित्त वृत्ति की प्रकृति को उससे मत जोड़ो। उसे न तो आशा भरी दृष्टि से और न निराशा भरी दृष्टि से देखो। न विधायक बनो और न नकारात्मक—यही है वह उच्चतम चेतना, जो सम्भव है।
लेकिन आशावाद प्रार्थना करता है, क्योंकि संसार अधिक या कम निराशावादी ही है। लोगों के लटके लम्बे चेहरे हमेशा शिकायतें करते हुए झुंझलाते रहते हैं। आशावाद से गुजरते हुए जीना सुंदर है, क्योंकि लोग कांटों की ही हमेशा बात करते रहते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना सौभाग्य है जो फूलों और सुवास की बात करता है। पर गलत वह भी है।

 मैं तुम्हें एक अन्य प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं।
एक बार मैं एक अस्पताल में मुल्ला नसरुद्दीन को देखने गया, जो एक कार दुर्घटना के कारण वहां भर्ती था। मुल्ला बुरी तरह से जख्मी था' उसकी एक टांग टूट गई थी, दोनों हाथों में फ्रैक्चर थे; गले की हड्डी भी टूट गई थी। उसके सिर और चेहरे पर भी जख्म थे, और कई पसलियां भी टूट गई थीं। उसका पूरा शरीर पट्टियों और टेप से पूरी तरह ढक गया था और केवल दो आंखें और मुंह ही खुला हुआ था। मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं थे, लेकिन मैंने महसूस किया कि मुझे कुछ जरूर कहना चाहिए। इसलिए मैंने मुल्ला से पूछा—’‘नसरुद्दीन! तुम्हें आज कैसा अनुभव हो रहा है? मेरा खयाल है यह टूटी हड्डियां और जख्म तुम्हें बहुत अधिक पीड़ा दे रहे होंगे। क्या तुम्हें बहुत अधिक कष्ट हो रहा है?''
नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ नहीं, कोई ज्यादा नहीं दर्द सिर्फ तब होता है, जब मैं हंसता हूं।’’

 ऐसे व्यक्ति से मिलना अच्छा लगता है। ऐसा बहुत कम होता है लेकिन यह सामान्य प्रकार के मामलों जितना ही गलत है। सौ में निन्यान्वे लोग निराशावादी होते हैं। वे पीडा और दुखों की ओर ही न केवल देखते हैं वे उनकी प्रतीक्षा भी करते हैं। वे ऐसे समझते हैं कि कुछ न कुछ घटना घटने ही जा रही है, जो गलत होगी ही, वे उसके लिए पहले ही से तैयार हैं। यदि वैसा नहीं होता है, तो वे बहुत निराश हो जायेगे, लेकिन वे किसी नकारात्मक चीज की, अंधेरे पक्ष के घटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से गलत हैं, लेकिन तब ऐसे लोगों के कारण और ऐसे लोगों का ही बहुमत है—दूसरे तरह के लोग, जो बहुत कम और दुर्लभ हैं, वे मूल्यवान बन जाते हैं: ऐसा व्यक्ति वह है, जो काले बादलों को प्रकाशमय विद्युत के लिए देख रहा है, जो अंधेरे में उगती सुबह का इंतजार कर रहा है। जब रात बहुत अंधेरी होती है, वह प्रतीक्षा करता है, क्योंकि जानता है कि अब सुबह बहुत निकट है। वह सदा आशा से भरा हुआ होता है। लेकिन मैं पुन: इस बात पर जोर देता हूं कि दोनों ही गलत हैं, क्योंकि जीवन काला और सफेद दोनों है। वास्तव में जीवन स्लेटी है। एक अति या छोर पर वह सफेद दिखाई देता है तो दूसरी अति या छोर पर वह काला दिखाई देता है, लेकिन दोनों के ठीक मध्य में वह और कुछ न होकर स्लेटी रंग की शेड होता है।
ऐसा कोई व्यक्ति, जो उन दोनों को समझता है, चुनाव रहित हो जाता है। वह न तो निराशावादी होता है और न आशावादी। तुम उसे किसी भी कमरे में न पाओगे। तुम उसे अप्रसन्न या उदास भी नहीं पाओगे और न तुम उसे प्रसन्नता और अति उत्साह से उछलता हुआ पाओगे। बुद्धों का यही लक्ष्य है: वे न दुखी और पीड़ित हैं और न वे किसी परमानंद में डूबे हैं। वे कोई भी उत्तेजना जानते ही नहीं, वे केवल शांत और मौन हैं। यही है वह जिसे वे आध्यात्मिक आनंद अथवा सच्चिदानंद कहते हैं। सच्चिदानंद प्रसन्नता नहीं है, क्योंकि प्रसन्नता में एक तरह की उत्तेजना होती है एक तरह का ज्वर होता है। पर देर—सबेर तुम उससे थक जाओगे, क्योंकि यह अस्वाभाविक है। देर—सबेर तुम्हें अपने को बदलना ही होगा, तुम्हें अप्रसन्न होना ही होगा। सच्चिदानंद न तो नकारात्मक है और न विधायक यह सभी का अतिक्रमण है, यह द्वंद्व के पार है। एक व्यक्ति शांत, केंद्रित, चिंतामुक्त और अद्विग्न बना रहता है। अच्छा या बुरा जो भी घटता है, वह दोनों को ही स्वीकार करता है, क्योंकि वह जानता है कि जीवन दोनों का जोड है।
यह व्यक्ति सच्चा और प्रामाणिक है। वह पूरी तरह बिना कोई प्रतिक्रिया के बना रहता है। यदि तुम लम्बी अवधि तक निराशावादी रहे हो, तो एक दिन तुम्हें बहुत आसानी से यह महसूस होगा कि तुम अनावश्यक रूप से दुःखी और अप्रसन्न बने रहे हो, इसलिए तुम अपना ' रोल ' बदलते हो। तुम फिसलते हुए आशावादी बन जाते हो। लेकिन अब तुम एक अति से दूसरी अति पर चले गए हो।

 मैं तुम्हें एक प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन एक विशाल डिपार्टमेंटल स्टोर में अपनी पत्नी के लिए नायलोन के रफ कपड़े खरीदने के लिए गया। अपनी लापरवाही से वह एक काउटंर पर लगी पागल भीड़ में फंस गया, जहां मोलभाव करने वाली बिक्री चल रही थी। उसने शीघ्र ही अपने को धक्के खाते एक बुरी तरह से उत्तेजित स्त्री के पैर से अपने पैर के दबने का अनुभव किया। जितने समय तक सम्भव था वह खड़ा रहा, तब अपना सिर झुकाकर वह सिर और कोहनियों से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ा। उस स्त्री ने कहा—’‘ तो यह तुम हो। क्या तुम एक भद्र मनुष्य की भांति व्यवहार नहीं कर सकते?''
नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ अब और अधिक नहीं। मैं एक घंटे से एक भद्र पुरुष की भांति ही व्यवहार कर रहा था। अब मैं एक स्त्री की भांति व्यवहार कर रहा हूं।’’

 यहां एक स्थिति ऐसी आती है जब कोई भी अपने एक ही तरह के रोल से बुरी तरह थक जाता है। निराशावादी व्यक्ति भी एक दिन यह महसूस करता है— '' क्यों? आखिर क्यों मैं अंधेरे पक्ष की ओर ही देखे चला जाऊं? आखिर क्यों मैं गुलाब की झाड़ी मैं कांटों को ही गिनता रहूं? वह कांटों के बारे में भूलकर गुलाबों को गिनना शुरू कर देता है—लेकिन दोनों ही आधे हैं। तुम एक आधे से दूसरे आधे की ओर गतिशील हो जाते हो, और पूर्णता उतनी ही दूर बनी रहती है जितनी पहले थी।
गुलाब की झाड़ी में कांटे और फूल दोनों ही हैं। वे दोनों वहां एक दूसरे के साथ—साथ ही रहते हैं। वे एक दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं, वे एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं। वास्तव में कांटे, फूल की रक्षा करते हैं। वे दोनों गुलाब की झाड़ी के पूर्ण अंगिक अस्तित्व हैं। और ऐसा ही जीन भी है। अच्छे और बुरे दोनों साथ—साथ जुड़े हैं, पापी और संत दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं और जीवन और मृत्यु भी दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। एक ठीक और सही समझ तभी आती है, जब तुम इन विपरीत ध्रुवों को समझ जाते हो। और इसी समझ से, तुम दोनों के पार चले जाते हो। तब तुम शांत बने रहते हो—क्योंकि वहां न तो कुछ भी प्रसन्न होने के लिए है और न इस बारे में कुछ भी दुखी होने के लिए।
स्मरण रहे, यदि तुम प्रसन्न हो, तो अपने अचेतन की गहराई में कहीं न कहीं तुम अप्रसन्ना की सम्भावना भी लिए चल रहे हो, क्योंकि तुम प्रसन्न केवल तभी हो सकते हो, यदि तुम अप्रसन्न भी हो सकते हो।
दोनों सम्भावनाएं साथ—साथ बनी रहती हैं। वे अगल— थलग नहीं की जा सकतीं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए यदि तुम एक पहलू को फेंक देते हो, तो तुम दूसरे को भी उसी के साथ फेंक देते हो। यदि तुम एक पहलू को रखते हो तो दूसरा भी तुम्हारे ही साथ रहता है। यदि तुम अपने चेतन मन में निराशावादी बन जाते हो, तो अपने अचेतन में तुम आशावादी बने रहोगे। यदि तुम चेतन मन में आशावादी हो, तो तुम अपने अचेतन मन में निराशावादी बने रहोगे।
प्रसन्नता और अप्रसन्नता दोनों ही साथ—साथ रहती हैं। तुम जब चाहो, उनका ' रोल ' या अभिनय बदल सकते हो। वास्तव में लोग यह रोल बदलते ही रहते हैं: सुबह तुम आशावादी होते हो और शाम आते— आते तुम निराशावादी बन जाते हो। इसी कारण भिखारी भीख मांगने सुबह—सुबह आते हैं—क्योंकि सुबह बहुत से लोगों को आशावादी बना देती है। शाम होते होते पूरे जीवन की गंदगी को जानने के बाद लोग निराशावादी बन जाते हैं, वे थक कर क्रोधी और हताश हो जाते हैं। भिखारी शाम को भीख मांगने नहीं आते, क्योंकि कौन उन्हें भीख देने जा रहा है उस समय? सुबह लोग अधिक खुले और उदार होते हैं, सुबह का सूरज फिर से आशा की किरणें लेकर आता है। रात बीत चुकी है '' हो सकता है कुछ अच्छा घटने जा रहा हो।’’ लोग अधिक विधायक होते हैं। शाम होते होते लोग नकारात्मक बन जाते है।
दिन में तुम अपने ' रोल ' कई बार बदलते हो यदि तुम थोड़े से भी सजग हो, तो तुम समझ जाओगे, एक क्षण पूर्व ही तुम आशावादी थे, और एक क्षण बाद ही तुम निराशावादी बन गये। छोटी—छोटी चीजें वातावरण बदल देती है, सम्बंध और रिश्ते बदल देती हैं, किसी व्यक्ति की छोटी सी मुद्रा या मुखाकृति, तुम्हारा रोल बदल देती है। क्या तुमने इसका कभी निरीक्षण किया है? तुम उदास बैठे हो और तभी कोई व्यक्ति आता है और वह व्यक्ति हंसी मजाक करने वाला है, वह जोक सुनाता है और हंसता—हंसाता है—तुम भूल ही जाते हो कि तुम उदास थे, और हंसना शुरू कर देते हो। तुम हंस रहे थे, तभी कुछ ऐसे मित्र आ गये, जो सभी उदास थे; वे अपने साथ उदासी का मौसम साथ लेकर आते हैं और तुम उसमें अपने स्थान से हट जाते हो।
जैसा कि मैं देखता हूं प्रत्येक मनुष्य दोनों ही सम्भावनाओं के साथ जन्म लेता है। तुम्हें दोनों की ही व्यर्थता समझकर उनके पार जाना है। यह वह मौन ही है; जो द्वैत की पूर्ण अनुपस्थिति है। इसलिए कृपया अतिवादी बनने से दूर रहो। अतिरेक से हमेशा बचना चाहिए क्योंकि कोई भी अति, असत्य का मूल है। वास्तव में संसार में वहां कोई भी झूठ नहीं है, केवल सत्य और अर्द्धसत्य हैं। सभी आधे सच ही झूठ हैं; और सत्य कभी आधा नहीं होता वह पूर्ण ही होता है।
मन की प्रवृत्ति हमेशा अतिरेक की ओर जाने की होती है—तुम ऊंचाई की ओर जा रहे हो, तब तुम्हें नीचाई की ओर घाटी में भी जाना है, पहले ऊपर की ओर जाना है तब फिर नीचे आना है। तुम ' यो—यो ' की भांति आते—जाते हो और कभी भी सजग नहीं बन पाते कि दोनों ही व्यर्थ हैं। पुरानी घड़ी की पेंडुलम की तरह तुम एक अति से दूसरी अति की ओर जाते हो। एक बार पेंडुलम यदि मध्य में रुक जाये, तो घड़ी रुक जाती है। एक बार तुम मध्य में रुक जाओ, समय विलुप्त हो जाता है। तब तुम इस संसार के भाग नहीं रह जाते। घड़ी रुक जाती है. तब तुम शाश्वत अस्तित्व के एक भाग बन जाते हो।
जरा पेंडुलम का बाएं से दाएं गति करने का निरीक्षण करो। एक बहुत अजीब चीज घट रही है वहां। जब पेंडुलम दाईं ओर जाता है तो तुम उसे दाईं ओर जाता हुआ देखते हो। उसे मिस्त्री से पूछो: वह कहेगा कि जब पेंडुलम दाहिनी ओर जा रहा है वह बाईं ओर जाने के लिए संवेग प्राप्त कर रहा है, और जब वह बाईं ओर जा रहा है, तो वह दाईं ओर जाने के लिए संवेग प्राप्त कर रहा है। इसलिए जब तुम दुःखी होते हो तो तुम प्रसन्न होने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो। जब तुम प्रसन्न होते हो तो तुम दुःखी होने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो। जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो, तुम घृणा करने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो, और जब तुम घृणा कर रहे होते हो, तो तुम प्रेमपूर्ण होने के लिए संवेग प्राप्त कर रहे होते हो।
एकबार तुम इस सूक्ष्म यांत्रिकता को समझ जाओ कि मन हमेशा अतियों अथवा पराकाष्ठा की ओर ही गतिशील होता है, तुम मन के साथ सहयोग करते हुए ही रुक सकते हो। आशावाद और निराशावाद दोनों मन के ही अंदर हैं और एक समझदार प्रामाणिक मनुष्य उन दोनों के पार है।

 एक बार ऐसा हुआ मुल्ला नसरुद्दीन एक स्थानीय डिपार्टमेंटल स्टोर में नौकरी पाने के लिए प्रार्थनापत्र देने को तैयार हुआ। एक मित्र ने उसे बताया—उस स्टोर की नीति किसी अन्य व्यक्ति को नौकरी न देकर एक कैथोलिक ईसाई को ही नौकरी पर रखना है और यदि वह वहां नौकरी चाहता है तो उसे अपने कैथोलिक ईसाई होने का झूठ बोलना पड़ेगा।
नसरुद्दीन ने नौकरी पाने के लिए प्रार्थनापत्र दिया और वहां के कार्यकत्ताओं ने चलन के अनुसार प्राय: पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न पूछे। तब उसने मुल्ला से पूंछा— तुम किस चर्च को मानने वाले हो? ‘‘
नसरुहीन ने उत्तर दिया—’‘ मैं एक कैथोलिक हूं। वास्तव में मेरे पिता एकपादरी और मां नन थीं।

 पूरे रास्ते में, याद रहे—मध्य में रुक जाना है। वहीं संतुलन लायेगा, वही तुम्हें केंद्रित बनायेगा। पहली बार तुम्हें शांत और ध्यानपूर्ण होने का अनुभव होगा और तुम दोनों को स्वीकार करने में समर्थ हो सकोगे। तुम्हारा स्वीकार भाव समग्र होना चाहिए। तुम इसलिए प्रसन्न आनंदित और उत्तेजित नहीं होगे क्योंकि वहां गुलाब हैं। तुम देखोगे कि वहां दोनों ही हैं और दोनों ही अच्छे हैं और दोनों की ही आवश्यकता है। लेकिन तुम अप्रमावित, अस्पर्श और बिना बिंधे रहोगे, बिना कांटों से खरोंच लगे हुए भी और फूलों से भी बिना प्रभावित हुए। यही वह लक्ष्य है।

 दूसरा प्रश्न: मुझे करने की इतनी बुरी तरह जरूरत है और चूंकि वह मेरे पास नहीं है? इसीलिए मैं पीड़ित हूं मैं इतना साहस कह? खोजूं जिससे मैं अपने मारने वाले पर भी श्रद्धा कर सकूं?

 जो लोग स्वयं पर श्रद्धा करते हैं, वे ही दूसरों पर भी श्रद्धा कर सकते हैं। जो लोग स्वयं पर श्रद्धा नहीं करते, वे किसी पर भी श्रद्धा नहीं कर सकते। आत्मविश्वास से ही श्रद्धा कर जन्म होता है। यदि तुम स्वयं अपने पर ही श्रद्धा नहीं रखते हो— तब तुम मुझ पर भी श्रद्धा नहीं कर सकते—तुम किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकते। क्योंकि यदि तुम स्वयं पर ही विश्वास नहीं कर सकते तो तुम अपने विश्वास पर कैसे विश्वास कर सकते हो? वह तुम्हारा विश्वास बनने जा रहा है। यह हो सकता है, तुम्हें मुझ पर विश्वास हो, लेकिन यह तुम्हारा विश्वास है—तुम मुझ पर तो विश्वास करते हो, पर तुम स्वयं पर विश्वास नहीं करते। इसलिए यह प्रश्न मेरे बारे में न होकर, यह एक गहरा प्रश्न तुम्हारे सम्बंध में ही है।
और कौन हैं वे लोग, जो स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं कर सकते? कहीं कोई चीज उनके साथ गलत हो गई है।
पहली बात तो यह कि यह वे लोग हैं, जो स्वयं एक बहुत अच्छी छवि नहीं रखते, वे स्वयं के प्रति ही निंदा से भरे हुए हैं। वे हमेशा अपराध बोध से ग्रस्त होने के साथ सदा गलत होने का ही अनुभव करते हैं। वे हमेशा रक्षात्मक होते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे गलत नहीं है, लेकिन अपने गहरे में वे यह अनुभव करते हैं कि वे गलत हैं।
यह वे लोग हैं जो किसी तरह प्रेमपूर्ण वातावरण से चूकते रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं अपने आप पर विश्वास नहीं कर सकता, उसकी गहरी जड़ों में मां के साथ कुछ समस्या होनी जरूरी है। कहीं न कहीं मां और बच्चे के सम्बंधों में वैसा नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। क्योंकि बच्चे के अनुभव में मां ही सबसे पहले आने वाली व्यक्ति होती है, और यदि मां बच्चे पर विश्वास करती है, यदि मां बच्चे को प्रेम करती है तो बच्चा भी मां पर विश्वास करना और उससे प्रेम करना शुरू कर देता है। मां के माध्यम से बच्चा संसार के बारे में सजग होता है। मां ही वह खिड़की है, जहां से वह अस्तित्व में प्रवेश करता है। और धीमे— धीमे यदि बच्चे और मां के मध्य एक सुंदर सम्बंध बनने लगता है, उनके बीच एक गहरी संवेदनशीलता, ऊर्जाओं का गहराई तक हस्तांतरण और खिलावट होती है..... .तब बच्चा दूसरों पर भी विश्वास करना शुरू कर देता है। क्योंकि वह जानता है कि उसका पहला अनुभव सुंदर था और उसके सोचने को ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि दूसरा अनुभव भी सुंदर न हो। उसके पास विश्वास करने का प्रत्येक कारण होता है कि यह संसार सुंदर है।
यदि तुम्हारे बचपन में तुम्हारे चारों ओर एक गहरे प्रेम का वातावरण था, तो तुम धार्मिक बनोगे, विश्वास का उदय होगा। तुम विश्वास करोगे, विश्वास करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण बन जाएगा। सामान्य रूप से तुम किसी पर भी अविश्वास नहीं करते, यदि कोई व्यक्ति तुममें अविश्वास सृजित करने की सख्त कोशिश न करे—केवल तभी तुम उस पर अविश्वास करोगे। लेकिन अविश्वास करना एक अपवाद होगा। एक व्यक्ति तुम्हें धोखा देता है और विश्वास को तोड्ने के लिए अपनी पूरी कोशिश करता है। हो सकता है उस व्यक्ति पर विश्वास नष्ट हो जाए लेकिन इससे तुम पूरी मनुष्यता पर अविश्वास करना शुरू नहीं कर दोगे। तुम कहोगे—’‘ यह तो ऐसा एक व्यक्ति है और वहां लाखों मनुष्य हैं एक मनुष्य के कारण सभी पर अविश्वास क्यों किया जाए? लेकिन यदि मूल विश्वास में ही कमी रह गई और तुम्हारे तथा तुम्हारी मां के मध्य ही कुछ चीज गलत हो गई, तब अविश्वास ही तुम्हारा मूल गुण बन जाता है। तब सामान्यतया स्वाभाविक रूप से तुम अविश्वास करने लगते हो। वहां फिर किसी को कुछ भी सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं होती। तुम मनुष्य पर अविश्वास करने लगते हो, और तब यदि कोई व्यक्ति यह चाहता है कि तुम उस पर विश्वास करो, तो उसे बहुत कठिन कार्य करना पडेगा। और तब तुम उस पर सशर्त विश्वास करोगे। और तब भी वह विश्वास, समझ से उद्भूत न होगा। वह बहुत संकीर्ण होगा; उसका लक्ष्य केवल एक व्यक्ति ही होगा।’’
यही समस्या है। प्राचीन युग में लोग बहुत विश्वासी होते थे। श्रद्धा और विश्वास, मनुष्य का साधारण गुण होता था। तब उसे विकसित करने की कोई आवश्यकता नहीं होती थी। वास्तव में यदि कोई व्यक्ति संदेह पूर्ण और एक महान नास्तिक बनना चाहता था तो एक बड़े प्रशिक्षण की आवश्यकता होती थी, उसे अनुशासन बद्ध और अपने सिद्धांत के प्रति पक्का बनना होता था। सामान्य रूप से लोग श्रद्धावान थे, क्योंकि उनके प्रेम के सम्बंध अत्यधिक गहरे थे। आधुनिक संसार में प्रेम विलुप्त हो गया है बच्चे अब ऐसे परिवारों में जन्म लेते हैं, जहां उनके मां बाप के बीच प्रेम नहीं है। जब बच्चों का जन्म होता है मां उनकी अधिक देखभाल नहीं करती—वह यह फिक्र नहीं करती कि उनके साथ क्या हो रहा है। वास्तव में वह नाराज है क्योंकि बच्चे शोर शराबा कर उसके जीवन में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। स्त्रियां बच्चों से दूर रहना चाहती हैं और यदि उनका जन्म हो ही जाता है, तो उसे वे जीवन की एक दुघर्टना या दुर्योग मानती हैं और वहां उनका बच्चों के प्रति एक गहरा नकारात्मक दृष्टिकोण है। बच्चा मां से यही नकारात्मक दृष्टिकोण प्राप्त करता है; शुरू से ही उसके हृदय को विषाक्त कर दिया जाता है। वह मां पर विश्वास कर ही नहीं सकता।
केवल तीन या चार दिन पूर्व ही यहां आश्रम में प्राइमल थेरेपी ( अपने अतीत को पुन: जीते हुए मूल स्रोत पर पहुंचने की विधि) लेने वाले एक संन्यासी ने मुझे बताया कि इस प्रयोग में वह बचपन की एक स्मृति से होकर गुजरा। उसे याद आया और वह अपने अंदर यह देख सका कि उसकी मां ने उसका दम घोंटकर उसे मारने का प्रयास किया था। अपने बचपन को पुन: जीते हुए पूरी स्मृति में वह उस घटना को देख सका। अब उसका पूरा अस्तित्व कांपने और डोलने लगा और वह एक सामान्य मनुष्य नहीं है, वह स्वयं एक मनोविश्लेषक है। अब वह बहुत सी चीजें समझता है, जो उसने पहले कभी नहीं समझी थी: वह इतना मृतवत क्यों बना रहता है, ठीक एक पत्थर की शिला की भांति, अप्रवाहित, वह क्योंकि किसी पर विश्वास नहीं कर पाता, वह क्यों सरलता से प्रेम में गतिशील नहीं हो पाता, क्यों उसे इतना अधिक कठिन प्रयास करना पड़ता है और फिर भी कहीं न कहीं कोई चीज गलत हो जाती है। वह जलधारा की भांति प्रवाहित नहीं हो पाता है— क्योंकि मां ने उसका दम घोंटने का प्रयास किया था।
मूल श्रद्धा ही खो गयी, निहित मूल श्रद्धा ही जाती रही: '' मां ने भी मुझे मारने का प्रयास किया? तब फिर किस पर विश्वास किया जाये?’‘— असम्भव। अब यह संसार केवल शत्रुतापूर्ण ही लगता है। प्रत्येक को यहां संघर्ष करना पड़ता है; वही जीवित रह पाता है जो योग्य और शक्तिशाली होता है।
कई बार मुझे स्वयं आश्चर्य होता है: किसी भी व्यक्ति को चार्ल्स डार्विन का मनोविश्लेषण अध्ययन करना चाहिए। उसके और उसकी मां के बीच कुछ न कुछ चीज जरूर ही गलत होना चाहिए तभी उसने—’‘ जो शक्तिशाली और योग्य है संघर्ष में वहीं बच पाता है—’‘ जैसी कल्पना को जन्म दिया। इसी तरह से किसी भी व्यक्ति को प्रिंस क्रोपाटकिन का भी मनोविश्लेषण और अध्ययन करना चाहिए। उसका अपनी मां के साथ ऐसा गहरा प्रेमपूर्ण रिश्ता जरूर रहा होगा।
'' केवल सर्वाधिक शक्तिशाली ही जीवित रह पाता है '' के स्थान पर अंतर्सहयोग के सिद्धांत का प्रतिस्थापन किया। उसने कहा—’‘ जीवन में कहीं कोई संघर्ष है ही नहीं, बल्कि वहां एक सहयोग है। वास्तव में जब एक चीता झपटकर किसी पशु का शिकार कर उसे अपना आहार बनाता है, तो वह भी एक सहयोग है। इसे वह कैसे स्पष्ट करता है? वह कहता है—वास्तव में जिस क्षण चीता अपने शिकार पर झपटता है, शिकार होने वाला पशु विश्रामपूर्वक आसानी से स्वयं मर जाता है। वहां कोई संघर्ष नहीं होता। शिकार होने वाला पशु चीते का सरलता से आहार बन जाता है। जब तुम वृक्ष से एक सेब तोड़कर खाते हो तो सेब और तुम्हारे मध्य एक सहयोग होना जरूरी है। अन्यथा वह सेब तुम्हारे शरीर में जाकर मुसीबत खड़ी कर सकता है। वह तुमसे संघर्ष होने की स्थिति में तुम्हारे साथ लड़ेगा। वह अपने आपको यह अनुमति नहीं देगा कि तुम्हारा शरीर उसे अवशोषित कर हजम कर जाये, वह शत्रुतापूर्ण ही बना रहेगा। लेकिन वह साधारण रूप से तुम्हारे अंदर जाकर स्वयं घुल जाता है; तुम्हारा रक्त और तुम्हारी हड्डियां बन जाता है; तुम्हारा मांस बनता हौपूछो चार्ल्स डार्विन से: जब कभी दो मित्र एक दूसरे के गहरे प्रेम में होते हैं, वे एक दूसरे के लिए मरने तक को तैयार रहते हैं। डार्विन कहता है—कि यह केवल बहाने हैं। गहरे में वहां संघर्ष, युद्ध, प्रतियोगिता और ईर्ष्या है।
दर्शनशास्त्र का जन्म किसी हताशा या अवसाद के क्षणों में नहीं हुआ है। दर्शनशास्त्र तो तुम्हारे अपने अस्तित्व से जन्मा है, तुम्हारे अपने जीवंत अनुभव से उत्पन्न हुआ है। यदि बच्चा अपनी मां के साथ गहरे प्रेम में रहा है और मां ने भी उस पर अपना प्रेम बरसाया है तो यही भविष्य के लिए सभी विश्वास का प्रारम्भ है। तब वह बच्चा स्त्रियों के साथ अधिक प्रेम पूर्ण सम्बंध बनायेगा वह अपने मित्रों के साथ कहीं अधिक प्रेमपूर्ण होगा और एक दिन सद्गुरु को समर्पण करने में सफल हो सकेगा— अंतिम रूप से वहीं पूरी तरह से परमात्मा में स्वयं घुलकर एक हो जाने में समर्थ हो सकेगा। लेकिन यदि मूल सम्बंध ही से तुम चूक गये हो तो बुनियाद ही खोखली है। तब तुम्हें कठोर प्रयास करना होगा, लेकिन यह अधिक से अधिक कठिन होता जाता है। यही सब कुछ मैं प्रश्नकर्त्ता के बारे में अनुभव कर रहा हूं। मुझे श्रद्धा करने की इतनी बुरी तरह जरूरत हैं..... .हां, क्योंकि श्रद्धा पालन पोषण करती है। बिना विश्वास के तुम भूखे बने रहते हो, क्षुधा ग्रस्त होते हो। विश्वास ही जीवन के लिए सबसे अधिक सूक्ष्म पोषक तत्व है। यदि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते तो तुम वास्तव में जीवित ही नहीं हो। तुम सदा भय ग्रस्त रहते हो, तुम जीवन से नहीं, चारों ओर मृत्यु से घिरे रहते हो। अपने अंदर यदि गहरा विश्वास हो, तो पूरा दृश्य पटल बदल जाता है। तब तुम अपने शाश्वत घर में होते हो और वहां कोई संघर्ष होता ही नहीं। तब तुम इस संसार में एक अजनबी नहीं हो। तब तुम एक विदेशी नहीं हो; तुम किसी और दुनिया से नहीं आए हो। तुम इसी संसार के हो और और यह संसार तुम्हारा अपना है। यह संसार तुम्हारे यहां होने से प्रसन्न है—यह संसार तुम्हारी रक्षा कर रहा है। गहरी सुरक्षा का यह अहसास तुम्हें साहस देता है और तुम्हें अनजाने रास्तों पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
मां जब घर में होती है तो बच्चा साहसी बना रहता है। क्या तुमने इसका कभी निरीक्षण किया है? वह बाहर सड़क पर भी जा सकता है, वह उद्यान में घूमने भी जा सकता है और वह एक हजार एक काम कर सकता है। जब मां नहीं होती वहां, वह तभी बस अंदर जाकर भयभीत बना बैठा रहता है। वह अब बाहर नहीं जा सकता, क्योंकि अब वहां सुरक्षा नहीं है; सुरक्षा का कवच नहीं है वहां अब वहां का वातावरण पूरी तरह विदेशी है।

 एक बार ऐसा हुआ
मैं एक मित्र के साथ ठहरा हुआ था। वे दोनों पति—पत्नी किसी विवाह संस्कार में भाग लेने गये हुए थे और उन्होंने अपने छोटे बच्चे को घर पर खेलते रहने को छोड दिया था और मुझसे कहा था—कृपया आप इसे देखते रहियेगा, और मैं उसका निरीक्षण कर रहा था—वह बाहर पोर्च में खेल रहा था। वह गिर पड़ा, उसने अपने चारों ओर देखा और फिर मेरी ओर देखा। मैंने भी उसकी ओर खामोशी से देखा। उसने एक क्षण तक यह महसूस करते हुए कि चोट रोने और चीखने योग्य है अथवा नहीं, प्रतीक्षा की। लेकिन मैं इतना अधिक तटस्थ बना रहा जैसे मैं वहां उपस्थित था ही नहीं, इसलिए उसने अपने कंधे उचकाये, जैसे कह रहा हो—’‘ यह सज्जन तो किसी काम के नहीं ‘‘, और वह फिर अपने खेल में व्यस्त हो गया। आधे या एक घंटे बाद जब माता—पिता वापस लौटे, उसने रोना शुरू कर दिया। मैंने उससे कहा—’‘ अब तुम्हारा यह रोना अतर्कपूर्ण है। आधा घंटा गुजर गया, अब तुम्हारी चोट तुम्हें कष्ट नहीं दे सकती ''। उसने उत्तर दिया—’‘ प्रश्न यह नहीं है। लेकिन आपने मुझे ऐसी पथरीली दृष्टि से देखा था, इसलिए मैंने सोचा कि यदि चोट लगी हैं तो लगी है, रोना चीखना व्यर्थ है। आखिर उसकी जरूरत क्या है? अब मेरी मां वापस लौट आई हैं। अब वह एक भिन्न वातावरण में है— अब वह रो सकता है, क्योंकि वह जानता है कि अब वहां कोई ऐसा है जो उसे सान्‍तवना दे सके जो उसकी चोट को महसूस कर सके कोई ऐसा है वहां, जो उसी परवाह कर सके।
यदि तुमने अपने ऊपर गहरे बरसते प्रेम और विश्वास में बचपन व्यतीत किया है तो तुम स्वयं अपने ही बारे में एक सुंदर छवि बना लेते हो। यदि तुम्हारे माता— पिता वास्तव में एक दूसरे से गहरा प्रेम करते रहे हैं और वे तुम्हें पाकर बहुत प्रसन्न रहे हैं; क्योंकि तुम्हीं उनके प्रेम की चरम सीमा, उनके प्रेम—संगीत की तेज होती हुई धुन, उनके प्रेम की वास्तविकता और उनके गहरे प्रेम से उत्पन्न हुए गीत हो। तुम्हीं इस बात के प्रमाण और गवाह हो कि उन दोनों में आपस में कितना अधिक प्रेम रहा है। तुम्हीं सृजन हो उनका: वे तुम्हें स्वीकार करते हैं, तुम जैसे भी हो, वे तुम्हें वैसे ही स्वीकार करते हैं और तुम्हें लेकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। यदि वे तुम्हारी सहायता करने की कोशिश करते हैं, तो बहुत प्रेम पूर्ण तरीके से ही तुम्हारी सहायता करते हैं। यदि कभी वे यह कहते भी हैं—’‘ यह काम मत करो ‘‘, तुम्हारा उससे न तो हृदय दुःखता है और न तुम्हें अपमान का अनुभव होता है। वास्तव में तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारे बारे में परवाह की जा रही है।
लेकिन जब तुम उनका प्रेम नहीं पाते और तुम्हारे माता—पिता यह कहे चले जाते हैं—’‘ इस काम को मत करो और इस काम को करो, और धीमे— धीमे बच्चा यह समझना शुरू कर देता है।—’‘ जैसा मैं हूं मैं उस रूप में उन्हें स्वीकार नहीं हूं और जब मैं कुछ विशिष्ट काम करता हूं तभी मुझे प्रेम किया जाता है, और यदि मैं उन विशिष्ट कार्यों को नहीं करता हूं तो मुझे प्रेम नहीं मिलता है, और यदि मैं कुछ अन्य काम करता हूं तो मुझसे घृणा की जाती है।’’
इसलिए वह सिकुड़ना शुरू कर देता है। उसका जैसा स्वाभाविक अस्तित्व है उसे न तो स्वीकार किया जाता है और न उससे प्रेम किया जाता है। उसे सशर्त प्रेम मिलता है क्योंकि श्रद्धा खो गयी है। तब वह कभी भी अपनी सुंदर छवि बनाने में समर्थ न हो सकेगा। क्योंकि वे मां की आंखें हैं, जिनमें पहली बार तुम उसकी प्रतिबिम्बित होती प्रसन्नता, अनुग्रह, भावना की तरंगें और परमानंद देखते हो और जानते हो कि तुम उसके लिए मूल्यवान हो और सहज स्वाभाविक रूप से उसकी दृष्टि में तुम्हारा कुछ मूल्य है। तब श्रद्धा करना और समर्पण करना बहुत आसान हो जाता है, क्योंकि तुम भयभीत नहीं हो।—लेकिन यदि तुम जानते हो कि तुम गलत हो, तब तुम हमेशा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हो कि तुम सही हो। लोग तर्कपूर्ण बन जाते हैं। तर्क करने वाले सभी लोग बुनियादी रूप से ऐसे वे लोग हैं, जिनकी स्वयं उनकी दृष्टि में ही सुंदर छवि नहीं है। वे रक्षात्मक और बहुत संवेदनशील होते हैं। यदि वहां ऐसा कोई तर्क वितर्क करने वाला व्यक्ति है और तुम उससे कहते हो—’‘ यह कार्य तुमने गलत किया है '' तो वह तुरंत नाराज होकर तुम पर झपट पड़ेगा। वह छोटी सी मित्रतापूर्ण आलोचना भी सहन नहीं कर सकता। लेकिन यदि उसकी स्वयं के बारे में अच्छी छवि है, तो वह सुनने ओर सीखने को तैयार रहता है, वह दूसरों के दिए परामर्श को सम्मान देने को तैयार रहता है। हो सकता है वे ठीक हों, और यदि वे ठीक हैं और वह गलत है, तो भी वह फिक्र नहीं करता, क्योंकि उसे फिक्र नहीं होती। वह अपनी ही दृष्टि में अच्छा बना रहता है।
लोग बहुत हृदयस्पर्शी होते हैं—वे आलोचना पसंद नहीं करते, वे यह नहीं चाहते कि कोई उनसे यह कहे कि यह काम करो अथवा कोई कहे कि वह काम करो। और ये लोग सोचते हैं कि वे समर्पण नहीं कर सकते किसी के आगे, क्योंकि वे शक्तिशाली हैं। ये लोग केवल रुग्ण हैं, मानसिक रोगी हैं। केवल एक शक्तिशाली स्त्री या पुरुष ही समर्पण कर सकता है, दुर्बल व्यक्ति कभी समर्पण नहीं कर सकता। क्योंकि वे सोचते हैं कि समर्पण करने से उनकी दुर्बलता सारे संसार में प्रकट हो जायेगी। वे जानते हैं कि वे दुर्बल हैं, वे अपनी हीनता की ग्रंथि को .भली भांति जानते हैं, इसलिए वे झुक नहीं सकते। यह करना उनके लिए बहुत कठिन है, क्योंकि झुकने का अर्थ यह स्वीकार करना होगा कि वे हीन हैं। केवल एक श्रेष्ठ व्यक्ति ही झुक सकता है, हीन मनुष्य कभी भी नहीं झुक सकते। वे किसी दूसरे व्यक्ति का सम्मान भी नहीं कर सकते क्योंकि वे स्वयं का ही सम्मान नहीं करते। वे यह भी नहीं जानते कि सम्मान होता क्या है, और वे समर्पण करने से सदा भयभीत रहते हैं, क्योंकि समर्पण का अर्थ है उनकी दुर्बलता।
स्मरण रखें, समर्पण तभी सम्भव है, यदि तुम अत्यधिक शक्तिशाली हो; तुम्हें समर्पण के बारे में कोई चिंता नहीं है, क्योंकि तुम जानते हो कि तुम समर्पण भी कर सकते हो और फिर भी तुम दुर्बल नहीं होगे। तुम समर्पण कर सकते हो और अपनी संकल्प शक्ति भी नहीं खोओगे। वास्तव में समर्पण के द्वारा तुम यह दिखला रहे हो कि तुम्हारे पास महान संकल्प की शक्ति भी है।
इसलिए यदि तुम यह अनुभव करते हो कि श्रद्धा करना कठिन है, तब तुम्हें वापस जाना होगा। तुम्हें अपनी स्मृतियों को गहरे खोद कर देखना होगा। तुम्हें अपने अतीत में लौटना होगा। तुम्हें अपने मन से अतीत के प्रभावों को साफ करना होगा। तुम्हारे पास अतीत के कूड़े कर्कट का एक बड़ा ढेर होना जरूरी है, तुम्हें उस भार से मुक्त होना होगा।
इसे करने की यही एक कुंजी है यदि तुम लौट कर अपने जीवन में वापस जा सको, केवल स्मृतियों में नहीं बल्कि फिर वही जीवन फिर से जी सको। इसे एक ध्यान बना लो। प्रत्येक दिन, रात में सोने से पूर्व, एक घंटे बस अतीत में वापस लौटो। वह सभी कुछ खोजने का प्रयास करो, जो तुम्हारे बचपन में घटा था। तुम जितने गहरे जा सको, उतना ही अच्छा है—क्योंकि हम बहुत सी उन चीजों को छिपा रहे हैं, जो कभी घटी थीं लेकिन हम उन्हें चेतना तल तक ऊपर आने की अनुमति नहीं देते। उन्हें सतह तक आने की अनुमति दो। प्रत्येक दिन वापस लौटते हुए तुम्हें गहरे और गहरे में जाने का अनुभव होगा। पहले तुम्हें कुछ वहां की घटनाएं याद आयेंगी, जब तुम चार या पांच वर्ष के थे, और तुम उसके पार जाने में समर्थ न हो सकोगे। अचानक तुम्हें चीन की दीवार जैसे प्रतिरोध का सामना करना होगा। पर धीमे— धीमे और गहरे जाने पर तुम देखोगे कि और गहरे तुम तीन वर्ष..... .दो वर्ष के हो। लोग उस बिंदु तक पहुंच जाते हैं जब गर्भ से उनका जन्म हुआ था। यहां कुछ ऐसे भी लोग हैं जो गर्भ की स्मृतियों तक पहुंचे हैं और यहां ऐसे भी लोग हैं जो उसके भी पार अपने पूर्व जन्म में, जब उनकी मृत्यु हुई थी, वहां तक भी पहुंचे हैं।
लेकिन यदि तुम उस बिंदु तक पहुंच सकते हो, जहां तुम्हारा जन्म हुआ था और तुम उन क्षणों को फिर से जी सकते हो, तो तुम्हें गहरी पीड़ा और दर्द से गुजरना होगा। तुम्हें लगभग ऐसा अनुभव होगा, जैसे मानो तुम्हारा फिर से जन्म हो रहा हो। तुम्हारी भी वैसी ही चीख निकल सकती है जैसे जन्म के समय बच्चा पहली बार चीखता है। तुम्हें दम घुटने का अनुभव होगा, जब गर्भ से बाहर आने पर बच्चे को पहली बार दम घुटने जैसा अनुभव होता है, क्योंकि कुछ क्षणों तक वह सांस लेने में समर्थ नहीं होता है। उस समय उसे बहुत अधिक दम घुटने का अनुभव होता है; तब वह चीखता है और सांस कर रास्ता खुल कर सांस चलना शुरू हो जाती है, और फेफड़े काम करना शुरू कर देते हैं। तुम्हें चलकर उसी बिंदु तक पहुंचना है।
वहां से तुम्हें फिर वापस लौट आना है। प्रत्येक रात्रि फिर से वहीं जाओ और वापस लोटो। इसमें लगभग कम से कम तीन माह से लेकर नौ माह तक का समय लगता है और प्रत्येक दिन तुम्हें अधिक भार मुक्त होने का अनुभव होगा, तुम अधिक से अधिक हल्के होते जाओगे और साथ ही साथ विश्वास का भी जन्म होगा। एक बार अतीत स्पष्ट हो जाये और तुम वह सभी कुछ देख लो, जो पूर्व में तुम्हारे साथ घटा था, तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे। यही वह कुंजी है यदि तुम अपनी स्मृति में किसी भी बात या घटना के प्रति सजग हो जाते हो, तो तुम उससे मुक्त हो जाते हो। सजगता ही तुम्हें मुक्त करती है और मूर्च्छा ही बंधन निर्मित करती है। तभी विश्वास करना सम्भव हो सकेगा।
जब तुम यहां मेरे साथ हो, तुम फिर से दूसरे गर्भ में ही हो, तुम फिर से दूसरे जन्म की प्रतीक्षा कर रहे हो। यही एक सद्गुरु का काम होता है—कि वह तुम्हें दूसरा जन्म दे, तुम्हें द्विज बनाये, तुम्हारा पुनर्जन्म हो। एक जन्म तो माता और पिता देते हैं और दूसरा जन्म गुरु या सद्गुरु देता है। तुम फिर से एक दूसरे गर्भ में हो, वह आत्मिक गर्भ है। तुम्हें अपने शरीर के गर्भ के साथ पूरी तरह सभी हिसाब बंद कर देना है। तुम्हें अपने शारीरिक जन्म के साथ जो भी बंधन शेष हो, उसे गिरा देता है, जिससे तुम मेरे साथ पूरी तरह अभी और यहीं हो सको।
अपने प्रश्न में तुम कहते हो—’‘ मुझे श्रद्धा की इतनी बुरी तरह जरूरत है..... .हां! यह बात बहुत जरूरी है एक व्यक्ति जो श्रद्धा नहीं कर सकता, उसे बुरी तरह श्रद्धा की जरूरत होती है। और एक ऐसा व्यक्ति जो श्रद्धा कर सकता है वह इसकी जरूरत के प्रति सजग भी नहीं होता। जरूरत तभी उठती है, जब तुम भूखे होते हो।
मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच गए हैं कि प्रेम ही भोजन है। केवल बीस वर्ष पूर्व यदि किसी ने यह कहा होता कि प्रेम एक सूक्ष्म जीवन सफूर्ति है, तो वैज्ञानिक यह सुनकर हंसे होते। उन्होंने सोचा होगा—’‘ तुम एक कवि हो, यह सब बकवास है।’’ लेकिन अब वैज्ञानिक खोजें कहती हैं—’‘ प्रेम एक भोजन है।’’ जब बच्चे को भोजन दिया जाता है, वह उसके शरीर का पोषण करता है और यदि उसे प्रेम नहीं दिया जाता, तब उसकी आत्मा विकसित नहीं होती। उसकी आत्मा अपरिपक्व और अविकसित रह जाती है।
अब वहां ऐसे तरीके और विधियां हैं; जिससे यह माना जा सके कि बच्चे को प्रेम दिया गया अथवा नहीं; क्या उसे वह प्रेम की उष्णता दी गई, जिसकी उसे जरूरत थी अथवा नहीं दी गई। तुम बच्चे की जरूरत की हर चीज देकर उसका पालन—पोषण करो, अस्पताल में उसकी डाक्टरों द्वारा पूरी देखभाल भी करो, लेकिन केवल उसकी मां को उससे दूर कर दो, उसे दूध, दवा, देखभाल सभी कुछ दो, लेकिन न तो उसे आलिंगन में लो और न उसे चूमो और स्पर्श करो। इस सम्बंध में बहुत से प्रयोग किए गए। वह बच्चा धीमे— धीमे स्वयं अपने आप सिकुड़ने लगता है। वह रुग्ण हो जाता है, और अधिकतर तो उसकी मृत्यु ही हो जाती है, जिसका कोई कारण दृष्टिगत नहीं होता। और यदि वह बच भी जाता है, वह निम्‍नतम धरातल पर ही जीवित रहता है। वह अल्पमति या एक छू बन कर रह जाता है। वह जीवित रहेगा, लेकिन वह हमेशा केवल एक किनारे पर जीवित रहेगा। वह जीवन की गहराई में न उतर सकेगा, उसके पास ऊर्जा होगी ही नहीं। बच्चे को हृदय से लगाना, उसे शरीर की गर्मी देना ही उसका सूक्ष्म भोजन है। अब धीमे— धीमे यह बात भली भांति जानी जा चुकी है।
अब मैं तुम्हारे लिए यह भविष्यवाणी करना चाहता हूं: बीस या तीस वर्ष बाद मनोवैज्ञानिक यह भी जानेगे कि श्रद्धा इससे भी उच्च तल का भोजन है, वह प्रेम से भी बड़ी शक्ति है.? .प्रार्थना जैसी। श्रद्धा है—प्रार्थनापूर्ण होना, लेकिन यह बहुत अधिक सूक्ष्म है। तुम इसे अनुभव कर सकते हो। यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है तो मेरे साथ रहते हुए अचानक तुम देखोगे कि तुम एक महान साहसिक अभियान पर चल पड़े हो और तुरंत तुम्हारे जीवन में एक परिवर्तन होना शुरू हो गया है। यदि तुम्हारे पास श्रद्धा नहीं है तो तुम वहीं खड़े रहोगे। मैं कितना भी बोले चला जाऊं, मैं तुम्हें कितना ही खींचे चले जाऊं तुम जड़ होकर खड़े ही रह जाओगे— और इस तरह तुम मुझे चूकते चले जाओगे। अपनी श्रद्धा को जन्मने दो। तुम्हारे और मेरे मध्य वही श्रद्धा ही एक सेतु बन जायेगी। तब साधारण शब्द भी दीसिवान हो उठेंगे, केवल तभी मेरी उपस्थिति एक गर्भ बन सकती है, और तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकता है।
तुम पूछ रहे हो—’‘ मुझे श्रद्धा करने की इतनी बुरी तरह जरूरत है, और चूंकि वह मेरे पास नहीं है, मैं इसीलिए पीड़ित हूं। मैं इतना साहस कहां खोजूं जिससे मैं मारने वाले पर भी श्रद्धा कर सकूं।’’
हां! मैं ही तुम्हें मारने वाला हूं लेकिन एक खास तरह से। मुझे तुम्हें मारना ही होगा क्योंकि केवल यही रास्ता है जिससे तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके। मुझे तुम्हारे मुरतीत से तुम्हें पूरी तरह काट देना होगा, मुझे तुम्हारी जीवन कथा नष्ट करनी ही होगी, केवल तभी नये का जन्म हो सकता है।
लेकिन यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है, तो तुम मरने के लिए तैयार रहोगे। यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है, तो तुम जानते हो—मरकर जीवित हो उठना निश्चित है। मैं इस बात की गारंटी नहीं दे सकता; वहां गारंटी देने का कोई रास्ता ही नहीं है। केवल श्रद्धा ही वह गारंटी है। मैं उसके बारे में चर्चा कर सकता हूं मैं उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति कर सकता हूं लेकिन उससे तुम्हारे अंदर केवल स्वप्न सृजित होंगे, वह गारंटी नहीं होगी। मैं तुम्हें यह बता सकता हूं कि मेरे साथ क्या घटा है, मैं तुम्हें उस और जाने का प्रलोभन दे सकता हूं लेकिन वह कोई गारंटी नहीं होगी।
'' कौन जानता है? यह शख्स केवल झूठ बोल रहा हो अथवा यह व्यक्ति झूठ .। भी बोल रहा हो, लेकिन वह केवल विभ्रम में भी हो सकता है?'' इसे सिद्ध कैसे। किया जाये? यह कोई ऐसी चीज नहीं, जिसे में तुम्हें दिखा सकता हूं। यदि तुम्हें श्रद्धा है तब वहां गारंटी है। तुम्हारे श्रद्धा ही तुम्हारी गारंटी है।
तुम मुझ पर श्रद्धा भी दो तरह से कर सकते हो। इस बात को भी ठीक से समझ लेना है, क्योंकि इनमें से एक रास्ता, गलत रास्ता है।
तुम मुझ पर श्रद्धा कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें असुरक्षा और अकेलेपन का अनुभव होता है। तुम विवश होकर बलात् श्रद्धा कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें मेरे साथ सुरक्षित होने का अधिक अनुभव होता है। इसी तरह से बहुत से लोग चर्चों मठों, संस्थाओं और संगठित धर्मों के साथ जी रहे हैं। कोई ईसाई है, कोई हिंदू है; यह एक निश्चित सुरक्षा देती है। तुम अकेले नहीं हो—करोड़ों ईसाई और करोड़ों हिंदू तुम्हारे साथ हैं।’’ इतने अधिक लोग गलत कैसे हो सकते हैं? उन्हें ठीक होना ही चाहिए ' —इसलिए तुम भीड़ को पकड़ते हो, अपने को हिलगा लेते हो उसे साथ, सिर्फ इसीलिए क्योंकि तुम भयभीत हो। श्रद्धा उत्पन्न हो सकती है—क्योंकि भय है वहां—तब यह एक नकारात्मक श्रद्धा है—इससे तुम्हारा पुनर्जन्म न होगा। वास्तव में यह नूतन जन्म लेने में बाधक बनेगा। श्रद्धा तो प्रेम से ही उत्पन्न हो सकती है। तभी वह ठीक और सच्ची है।
जो लोग विश्वास करते हैं, क्योंकि वे भयभीत हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि वे किसी के साथ बंध जायें, उसके साथ लटक जायें, वे भयभीत हैं और वे सहारे को किसी का हाथ चाहते हैं, वे आकाश की आरे देखते हैं और केवल अभय का अनुभव करने के लिए ही परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। क्या तुमने कभी देखा है? कभी अंधेरी सुनसान सड़क से गुजरते हुए तुम रात में सीटी बजाना शुरू कर देते हो, अथवा गाना शुरू कर देते हो—इसलिए नहीं कि उससे तुम्हें कोई सहायता मिल जायेगी। लेकिन एक तरह से वह सहायता भी करती है। गाने या गुनगुनाने से तुम उष्णता का अनुभव करते हो, तुम उसमें व्यस्त हो जाते हो और भय का दमन हो जाता है। सीटी बजाने से तुम्हें अच्छा लगने लगता है। तुम यह भूल जाते हो कि तुम अंधेरे में हो और यह खतरनाक है, लेकिन इससे वास्तविक यथार्थ में कोई असली परिवर्तन नहीं होता। यदि वहां भय और खतरा है, तो वह अभी भी वहां है। वास्तव में वह पहले से कहीं अधिक हैं, क्योंकि एक व्यक्ति जो गाने में व्यस्त है, अधिक आसानी से लूटा जा सकता है, क्योंकि वह कम सजग होगा। सीटी बजाते हुए वह कम सावधान रहेगा। वह सीटी बजाने के साथ अपने चारों ओर एक भ्रम खड़ा कर रहा है। तो यदि तुम्हारी श्रद्धा भय से उत्पन्न हुई है तो इससे यही अच्छा है कि तुम वह श्रद्धा करो ही मत, क्योंकि वह नकली है।

 मैंने सुना है:
मुल्ला नसरुद्दीन हजामत बनाने बाली ऊंची कुर्सी पर चढ़कर बैठ गया और नाई से पूछा—’‘ वह हज्जाम कहां है जो इस बगल वाली कुर्सी पर हजामत बनाता था?''
हज्जाम ने उत्तर दिया—’‘ ओह! वह एक दुःखद प्रसंग है। मैदे व्यापार से घबडा कर वह इतना अधिक निराश हो गया कि एक दिन जब एक ग्राहक ने उससे कहा—कि वह मालिश नहीं कराना चाहता तो बस उसकी खोपड़ी उलट गई और उसने उस्तुरे से ग्राहक का गला काट दिया। अब वह सरकारी पागलखान में भर्ती है। पर श्रीमान! बस मैं यूं ही पूंछ रहा हूं क्या आप मालिश कराना पसंद करेंगे?
मुल्ला नसरुद्दीन ने तुरंत उत्तर दिया—’‘ जरूर! पूरी तरह से।’’

 तुम भय के कारण—’‘ जरूर, पूरी तरह से '' कह सकते हो, लेकिन यह श्रद्धा न होगी। श्रद्धा तो प्रेम से जन्मती है, और यदि तुम यह पाते हो कि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते, तब तुम्हें कठोर श्रम करना होगा। तुम्हारा अतीत बहुत अधिक बोझिल हैं, उसमें कूड़े कर्कट का ढेर है। तुम्हें उसे साफ करना होगा, भार रहित बनाना होगा।

 तीसरा प्रश्न:
मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है! वहां ऐसी कोई शक्ति जरूर होनी चाहिए जो पूरे ब्रह्माण्ड की एक साथ संभाले हुए है! लेकिन स्वयं अपनी ही गहराई में मैं वहां किसी परमात्मा का अथवा आपका, अथवा इस बात का कि परमात्मा मेरे साथ है अनुभव नहीं कर पाता! मैं यह अनुभव करता हूं जैसे मैं स्वयं इस धमकी भरे संसार में जैसे असुरक्षित हूं और कहीं खो गया हूं! मुझे तभी आराम मिलता है जब मैं अकेला होता हूं! मैं उस मूल श्रद्धा से चुका जा रहा हूं! जो जानकारी या ज्ञान मैने इकट्ठा किया है? जिन भावनाओं को मैने महसूसा है? और जो अनुभव मुझे प्राप्त हुए है, वे आंतरिक श्रद्धा की ओर मेरा पथ प्रशस्त नहीं करते
कृपया क्या आप मेरी सहायता कर सकते हैं?
हली बात, विश्वास एक बहाना है। किसी भी चीज में विश्वास मत करो। विश्वास एक झूठी श्रद्धा है। वह तुम्हें यह अहसास कराती है। जैसे मानो तुम्हें श्रद्धा हो। यह ' जैसे मानो ' वाली श्रद्धा है; यह खतरनाक है। यदि तुमने दिव्यता जैसी किसी भी चीज का अनुभव नहीं किया है, तो कृपया ईमानदार बने रहो। श्रद्धा करने की कोई जरूरत नहीं है और वहां परमात्मा पर भी विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा को एक तार्किक व्यायाम जैसा मत बनाओ। प्रश्नकर्त्ता कह रहा है, '' मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है। वहां ऐसी कोई शक्ति जरूर होनी चाहिए जो पूरे ब्रह्माण्ड को एक साथ संभाले हुए है।’’ यह एक तर्क का मुद्दा है: अस्तित्व अथवा ब्रह्माण्ड वहां है और सभी चीजें भी वास्तव में एक साथ गतिशील हैं, प्रत्येक वस्तु बहुत सुंदरता से एक साथ चली जा रही हैं, इसीलिए तर्कपूर्ण मन कहता है—वहा कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जो सभी को एक साथ संभाले हुए है। जब अस्तित्व वहां है, इसलिए कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जिसने यह सभी कुछ सृजित किया है।
लेकिन तर्क के द्वारा परमात्मा तक नहीं पहुंचा जा सकता। केवल प्रेम के द्वारा ही परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। परमात्मा कोई प्रकृति और तर्क के पार का निष्कर्ष नहीं है। यही कारण है कि वैज्ञानिक परमात्मा या सत्य तक कभी भी नहीं पहुंच सकते। और वे लोग जो वास्तव में विचारक हैं, उन्होंने हमेशा परमात्मा से इंकार किया है—क्योंकि यदि तुम वास्तव में विचार का चिंतन कर रहे हो, तुम परमात्मा पर विश्वास नहीं कर सकते। परमात्मा, निरर्थक और असम्भव प्रतीत होता है, वह सच जैसा लगता ही नहीं।
लेकिन तर्क तुम्हें एक नकली विचार दे सकता है। वह सामान्य रूप से कहता है कि जब तुम संसार को एक साथ चलते हुए देखते हो तो तुम सोचते हो कि कोई ऐसा है जो सभी को एक साथ संभाले हुए है। इतना कहना ही काफी है कि यह अत्यधिक विराट संसार एक साथ चला जा रहा है—’‘ मैं यह नहीं जानता कि क्यों, मैं यह भी नहीं जानता कि कौन इसे संभाले हुए है, अथवा कोई ऐसा है, जो इसे संभालता हैं।’’ यह निष्कर्ष ठीक नहीं है; स्मरण रहे, कि तुम यह जानते नहीं। यह अज्ञान ही अत्यधिक सहायक होगा, क्योंकि यह अज्ञान, ईमानदार प्रामाणिक और सच्चा होगा।
तुम सोचते हो कि यह संसार सभी को एक साथ लेकर ऐसे ही कैसे चले जा रहा है, और इसी कारण वहां परमात्मा जरूर होना चाहिए। यहां ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो कहते हैं कि ठीक इसीलिए ही कि संसार ऐसे ही चले जा रहा है, वहां परमात्मा हो ही नहीं सकता। क्योंकि यदि वहां परमात्मा है, तो कभी—कभी वह भी, संसार में ऐसा कोई व्यक्तित्व होगा ही। यह सब कुछ इतना यांत्रिक है: सितारे परिभ्रमण किए चले जाते हैं, सूर्य रोज उगता है यह पृथ्वी घूमे ही चले जा रही है, लोग जन्म लेते हैं फल और बीज वृक्षों पर लगते हैं और बीज मौसम आने पर फिर वृक्ष बनते हैं। यह इतना अधिक यांत्रिक प्रतीत होता है कि बहुत से दार्शनिक कहते हैं—क्योंकि यह संसार पूरी तरह से ठीक ठीक चले ही जा रहा है, तो उसके पीछे कोई व्यक्ति हो ही नहीं सकता। क्योंकि कभी—कभी एक व्यक्ति बदल भी जाता है और जब कभी वह बहुत ऊब भी जाता है। एक दिन सोचता है—’‘ अब आम के बीजों से सेब उत्पन्न होंगे।’’
यदि संसार में वहां कोई व्यक्तित्व है, तो जरा सोचो—’‘ पिकासो की एक वैसी ही पेंटिंग क्या प्रतिदिन आयेगी? यदि पिकासो के घर के बाहर वैसी ही पेंटिंग प्रतिदिन आती रहे तो इससे क्या सिद्ध होगा कि वहां अंदर कोई व्यक्ति बैठा १ अथवा वहां कोई यांत्रिक व्यवस्था हैं? तुम घर के अंदर कभी नहीं जाते हो। तुम यह भी नहीं जानते कि अंदर कौन है, केवल एक पेंटिंग प्रतिदिन मशीनी ढंग से बाहर आ रही है। ठीक वहीं पेंटिग, प्रत्येक चीज ठीक वैसे ही पूर्ण, क्या यह सिद्ध करेगा कि अंदर पिकासो जैसा एक महान पेंटर है? अथवा इससे यह सिद्ध होगा कि वहां अंदर कोई यांत्रिक व्यवस्था है जो उत्पादन किये जा रही है? यहां ऐसे दार्शनिक भी हैं जो कहते हैं कि क्योंकि संसार एक यांत्रिक व्यवस्था से चल रहा है तो वहां उसके पीछे कोई व्यक्तित्व हो ही नहीं सकता। अब क्या किया जाये?''
तुम कहते हो—जब संसार या सृष्टि है: तो वहां सृष्टिकर्त्ता या सृष्टा भी होना चाहिए। ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो कहते हैं—यदि सृष्टि को सृष्टा की आवश्यकता है तब सृष्टा को किसी और सृष्टा की जरूरत होगी। उस सृष्टा को आखिर बनोयगा कौन? और यदि तुम यह कहते हो सृष्टा को किसी और सृष्टा की जरूरत नहीं है— तो मूर्ख मत बनो। तब वे कहते हैं—’‘ तब सृष्टा की भी क्या आवश्यकता है? जब सृष्टा बिना सृष्टा के हो सकता है। तब सृष्टि भी स्वयं बिना किसी सृष्टा के हो सकती है।’’ जैसे ही तुमने यह सिद्धांत बुनियादी रूप से स्वीकार कर लिया कि कोई भी चीज बिना सृजित किए हुए भी अस्तित्व में हो सकती है—वैसे ही संसार या सृष्टि भी बिना सृष्टा के हो सकती है। यदि तुम तर्क में धंसते चले जाओगे तो तुम मुसीबत में पड़ोगे।

 मैं तुम्हें एक प्रसंग बताना चाहता हूं।
चाय घर में एक के प्रोफेसर ने कहा—तर्कशास्त्र का एक सबक है—’‘ यदि प्रदर्शन नौ बजे शुरू होता है और रात्रि भोजन का समय छ: बजे है, मेरे लड़के को खसरा निकला हुआ है और मेरा भाई कैडीलाक कार चला रहा है तो बताओ मेरी आयु क्या है?''
मुल्ला नसरुद्दीन ने तुरंत उत्तर दिया—’‘ चौरासी वर्ष।’’‘' बिलकूल ठीक।’’ प्रोफेसर ने कहा—’‘ अब तुम यहां मौजूद दूसरे लोगों को बतलाओ कि तुम ठीक उत्तर तक किस तरह पहुंचे?''
नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ यह बहुत आसान है। मेरे एक चाचा हैं, जो बयालीस वर्ष के हैं और वह आधे पागल हैं। इस हिसाब से आपको चौरासी वर्ष का होना चाहिए।’’

 यदि तुमने परमात्मा को तर्क शास्त्र का एक व्यायाम बना दिया तो तुम पागल हो जाओगे। तार्किक जांच पड़ताल के जाल से कोई भी व्यक्ति कभी समझदार बनकर बाहर नहीं आता। कोई भी समझदार होकर कभी वापस लौटा ही नहीं है क्योंकि आयाम पूरी तरह भिन्न है—उसका तर्क से कुछ लेना देना है ही नहीं। यह कुछ ऐसी चीज है जिसे हृदय के साथ किय जाना है, यह कुछ चीज प्रेम के साथ करने जैसी है।
'' मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है '' कृपया विश्वास मत करें, क्योंकि यह विश्वास ही एक चट्टान बन जायेगा और तुम्हें गहरे उतरने की अनुमति नहीं देगा। सामान्य रूप से इतना ही जानो कि तुम उसे नहीं जानते। अपने अज्ञान को स्वीकार करो। उसे विश्वास की आडू में छिपाओ मत क्योंकि अज्ञान से भी एक सम्भावना होती है, लेकिन झूठी उधार ली गई तार्किक जानकारी से कोई सम्भावना ही नहीं होती। तार्किक जानकारी बंजर है, जब कि प्रेम उपजाऊ है।
'' मैं विश्वास करता हूं कि वहां परमात्मा है। वहां ऐसी कोई शक्ति जरूर होना चाहिए जो पूरे ब्रह्माण्ड को एक साथ संभाले हूए है—’‘ यह परमात्मा तक पहुंचने का कोई तरीका नहीं है—’‘ लेकिन स्वयं अपनी ही गहराई में मैं वहां किसी परमात्मा का अनुभव नहीं कर पाता।’’ सचमुच...... आखिर तुम अनुभव करोगे कैसे? हृदय में तुम तर्क के किसी कथन या निष्कर्ष का कैसे अनुभव कर सकते हो?'' दो और दो चार होते हैं, यह निश्चित रूप से ठीक है—लेकिन क्या तुम तर्क पूर्ण निष्कर्ष से प्रेम कर सकते हो? क्या तुम दो धन दो चार से प्रेम कर सकते हो? और यदि कोई भी इससे इंकार करता है, तो क्या तुम उसके लिए क्योंकि वह सच है शहीद बनने का तैयार हो सकते है? तुम कहोगे—उसके बारे में सब कुछ भूल जाओ। यदि तुम कहोगे—उसके बारे में सब कुछ भूल जाओ। यदि तुम दो में दो जोड़कर पांच बनाना चाहते हो तो बना लो, पर मैं उसके लिए अपना जीवन नष्ट क्यों करूं?
कोई भी नहीं मरता, कोई भी एक तर्क पूर्ण कथन या निष्कर्ष के लिए जीवन को दांव पर नहीं लगाता। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। यदि कोई इससे इंकार करता है तो उसे वैसा ही रहने दो। दो और दो मिलाकर चार होना पूरी तरह सच है लेकिन यह परमात्मा की श्रेणी का सत्य नहीं है; यहां तक कि यह लैला और मजनू की भी श्रेणी का भी सच नहीं है। यदि तुम्हारे तर्क को गलत सिद्ध कर दिया जाये तो कुछ भी गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता। तुम अपने तर्क में परिवर्तन कर सकते हो। लेकिन यदि तुम्हारा प्रेम गलत सिद्ध हो जाता है तो तुम फिर से वही व्यक्ति कभी भी नहीं हो सकते। यदि तुम्हारा प्रेम गलत सिद्ध होता है, तो तुम ही गलत सिद्ध हो जाते हो। यदि तुम्हारा तर्क गलत सिद्ध हो जाता है, तो कुछ भी गलत सिद्ध नहीं होता। तुम अपने तर्क को बदल सकते हो, तुम उससे अप्रभावित बने रह सकते हो।’’ मैं स्वयं अपनी गहराई में परमात्मा का अनुभव नहीं करता।’’—क्योंकि विश्वास से अनुभव तक का यहां कोई रास्ता है ही नहीं। वे एक दूसरे से सम्बंधित नहीं हैं। इसलिए विश्वास के बारे में भूल ही जाओ। अन्यथा फिर इसकी एक खतरनाक सम्भावना है तुम यह बहाना बना सकते हो कि तुम अनुभव कर रहे हो।
बहुत से लोग बहाने बनाते हैं। वे चर्च, मंदिर और मस्जिद में जाते हैं और वे बहाना बनाते हैं कि वे परमात्मा का अनुभव कर रहे हैं। उनका यह अनुभव वास्तविक अनुभव नहीं है। तुम देख सकते हो कि मंदिर में उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। मंदिर के बाहर तुम उसी आदमी को फिर कहीं न देख पाओगे, जैसा मनुष्य तुमने मंदिर के अंदर देखा था। तुम उसे वैसा ही बाजार के बीच न पाओगे। वह उसका केवल एक मुखौटा था: वह अनुभव करने का कठोर प्रयास कर रहा था। वह नकली आंसू बहाने के साथ—साथ रोने और बिलखने के लिए तैयार था। वे आंसू घड़ियाली आंसू थे। तुम उसे प्रार्थना करते हुए देख सकते हो, लेकिन उसके हृदय में कुछ भी नहीं उमग रहा है—उसके अंदर प्रेमाग्नि नहीं है, तीव्र भावोद्वेग ही नहीं है उसकी प्रार्थना केवल मौखिक शब्द मात्र हैं। वह उन शब्दों को दोहराये चले जाता है, जिसे दोहराने के लिए उसे बताया गया है; यह ठीक तोता रटंत जैसा है। भावनाएं तभी उठती हैं; अनुभव तभी होता है जब तुम अत्यधिक कठोर और निष्ठा से भरा जीवन जीते हो।
परमात्मा में विश्वास के बारे में भूल ही जाओ, उसकी वहां कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ यही जानो कि तुम नहीं जानते हो।’’ मैं नहीं जानता हूं इसी निष्ठा से प्रारम्भ होना चाहिए। हो सकता है परमात्मा—हो, हो सकता है, वह नहीं हो; मुझे खोज करनी है। अब कहां खोजा जाए उसे और कैसे खोजा जाये? यदि वहां है परमात्मा, तो उसे वृक्षों पक्षियों और पशुओं का परमात्मा भी तो होना चाहिए वह अकेला मनुष्यों का ही तो परमात्मा नहीं है। वृक्ष कोई भी तर्क नहीं जानते, पशु पक्षी भी कोई तंर्क—वितर्क नहीं जानते। यदि वहां परमात्मा है तो, ' उसे ' सभी का परमात्मा होना चाहिए। तर्क का प्रमुख क्षेत्र बहुत सीमित होता है, वह केवल छोटा सा भाग होता है, पूरे संसार का एक बहुत छोटा सा भाग। गणितीय हिसाब किताब और तर्क वितर्क के लिए मनुष्यता के पास मन का केवल एक छोटा सा ही कोना है।
तर्क की बात भूल ही जाओ, यदि परमात्मा है, तो उसे सभी का परमात्मा होना चाहिए। उस तक पहुंचने की शुरुआत यों करो, जैसे वृक्ष करते हैं। उस तक पहुंचने की शुरुआत सरिताओं की भांति करो, जो सागर से मिलने उस तक दौड़ पड़ती है, उस तक पक्षियों की भांति पहुंचो और उस तक पहुंचने की शुरुआत अपने समग्र अस्तित्व के द्वारा करो। नृत्य करो अपनी गहराइयों के साथ। परमात्मा को भूल ही जाओ, केवल समग्रता से नृत्य करने में ही डूब जाओ—क्योंकि एक दिव्य नृत्य करते हुए उस भावदशा में एक क्षण को मन विसर्जित हो जाता है, और तुम्हें समग्र और पूर्ण होने का अनुभव होता है। जब तुम प्रामाणिकता के साथ नृत्य कर रहे होते हो और गति तीव्र होती है तो मन कार्य नहीं कर सकता। मन रुक जाता है और तुम अमन में छलांग लगा जाते हो।
तुम होते हो लेकिन तुम तब मन नहीं होते, और तुम उन क्षणों में तर्क की भाषा में नहीं सोचते। तुम एक वृक्ष बन जाते हो, तेज हवा के साथ झूमते और डोलते हुए एक वृक्ष अथवा एक फूल, एक बहती नदी, एक चट्टान अथवा एक सितारा बन जाते हो, लेकिन तुम तर्क के उस छोटे से सीमा क्षेत्र को, जो तुम पर अधिकार जमाये हुए था, छोड़ देते हो। अकस्मात् तुम्हें किसी के सम्पर्क में होने का अनुभव होना शुरू होने लगेगा। तुम्हें लगेगा जैसे किसी अज्ञात ऊर्जा ने तुमसे सम्पर्क जोड़ा है और तुम्हें भी किसी के सम्पर्क में आने का अहसास होगा। एक नर्त्तक ही धार्मिक बनता है, उसे वैसा होना ही होता है। कोई गीत गुनगुनाओ— और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई धार्मिक गीत ही गाओ। यदि गाना सच्चा और प्रामाणिक है, तो वही धार्मिक है। उसके शब्द क्या हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दौड़ो तैसे, कोई भी काम करो, और करते हुए उस कार्य में खो जाओ।
मैं इसीलिए ध्यान की सक्रिय विधियों पर जोर देता हूं: नृत्य करना, गीत गाना, संगीत, ताईची, कराटे। कुछ करो, क्योंकि जब तुम कुछ करते हो तो तुम वृक्षों, पक्षियों और पशुओं के महान संसार का एक भाग बन जाते हो। वे करने वाले हैं, वे विचारक नहीं है। जब तुम कुछ कार्य करते हो, तो अकस्मात् अस्तित्व की एकता के विराट सागर में डूब जाते हो।
तब वहां यह अनुभव होता है कि परमात्मा है। लेकिन यह परमात्मा, ईसाइयों, हिंदुओं और मुसलमानों का परमात्मा नहीं है। यह परमात्मा तुम्हारा अपना परमात्मा है। इसका बाईबिल गीता और कुरान से कोई लेना—देना नहीं है। यह परमात्मा तुम्हारा परमात्मा है। इस परमात्मा का तर्कशास्त्र, तर्क के पार के निष्कर्षों, दर्शन शास्त्र और संस्कारों से कुछ लेना देना नहीं है। यह वह परमात्मा है, जिसे तुमने महसूसा है, उसमें जीकर उसका अनुभव किया है।
तब..... .तुम तभी जानोगे, और इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं।
लोग शास्त्रों से सीख रहे हैं और सबसे महान शास्त्र जो तुम्हें अस्तित्व द्वारा दिया गया है, वह बिना खुले रह जाता है। और शास्त्रों के द्वारा तुम पाते हो केवल विचार।

 मैंने सुना है......
मुल्ला नसरुद्दीन तलाक के बारे में अपने वकील से मिलने गया।
वकील ने उससे पूछा—’‘ तलाक देने के लिए तुम्हारे खयाल में तुम्हारे पास क्या आधार हैं?''
मुल्ला ने उत्तर दिया—’‘ यह मेरी पत्नी के शिष्टाचार के बाबत है। भोजन की मेज पर बैठने की उसकी बुरी आदतों से वह पूरे परिवार की गौरव गरिमा को नष्ट करती है।’’
वकील ने कहा—’‘ यह बुरी बात है। लेकिन आपका विवाह हुए कितना समय बीत चुका?''
मुल्ला ने उत्तर दिया—’‘ नौ वर्ष।’’
वकील ने कहा—’‘ यदि आप उसके मेज पर बैठने की आदतों और तौर तरीकों को नौ वर्ष तक सहते रहे तो मैं यह नहीं समझ पा रहा कि अब आप उसको तलाक क्यों देना चाहते हो?''
नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ मैं पहले इसे स्वयं नहीं जानता था। मैं आज सुबह ही शिष्टाचार पर एक पुस्तक खरीद कर लाया हूं।’’
तुम पहले पुस्तकें पढ़ते हो, तब तुम जीवन के बारे में कुछ निर्णय लेते हो। पहले जीवन में गतिशील बनो और तभी पुस्तकों के बारे में कोई निर्णय लो। और तब तुम्हें आश्चर्य होगा कि गीता, कुरान और बाइबिल तीन अलग— अलग पुस्तकें न होकर केवल एक ही पुस्तक है। तब बुद्ध, क्राइस्ट और कृष्ण तीन व्यक्ति नहीं रह जाते, बल्कि तीनों स्वर एक ही व्यक्ति के स्वर होते हैं।
लेकिन पहले यदि तुम पुस्तकों के तर्कपूर्ण जाल में फंस जाते हो, तब तुम जीवन को जानने में कभी भी समर्थ न हो सकोगे। अधिक सहज स्वाभाविक बनने का प्रयास करो। परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल ही जाओ। उस परमात्मा के साथ रहो, जो तुम्हें पहले ही से चारों ओर से घेरे हुए है, वह तुम्हारे चारों ओर फैला है। इसी क्षण कोयल कूकती हुई अपनी प्रार्थना कर रही है, पक्षी भी चहचहाते हुए प्रार्थना ही कर रहे हैं। जरा वृक्षों की ओर देखो, कि वे कितने प्रार्थनापूर्ण हैं? पूरा अस्तित्व ही प्रार्थना में निमग्न है और तुम क्या कर रहे हो, तुम बैठे हुए अपने खोपड़ी के अंदर परमात्मा के बारे में विचार कर रहे हो कि वह है अथवा नहीं? '' उसका अस्तित्व होना ही चाहिए क्योंकि यह संसार इतनी सुंदरता से एक साथ चलता चला जा रहा है।’’
यह संसार सभी के साथ मिलकर सुंदरता से गतिशील है। तुम भी सभी के साथ मिलकर उसके एक भाग बन जाओ, इस सहभागिता में घुल ही जाओ। जब नदी बही चली जा रही है, तुम उसमें कूदते क्यों नहीं? तुम नदी किनारे आंखें बंद किए बैठे हुए सोच रहे हो—नदी को वहां जरूर होना चाहिए क्योंकि.....? ये सभी '' क्योंकि '' आदि भूल ही जाओ।
आंतरिक श्रद्धा केवल तभी जन्मती है जब तुम्हारा परमात्मा से जीवंत सम्पर्क होता है। जो कुछ भी तुम करना चाहो, कर सकते हो पर कृपया केवल मात्र सिर या बुद्धि के होकर मत रह जाना। सिर या बुद्धि के साथ गलत कुछ भी नहीं है यदि वह तुम्हारी समग्रता में साथ कार्य करती है। गलत तब होता है जब वह एक भाग बनकर समग्रता पर नियंत्रण करना प्रारम्भ कर देती है। अपने सिर से उतार कर चेतना को नीचे पेट या नाभि पर ले जाओ। वापस लौटकर तुम होशपूर्ण बनो, कहीं अधिक भूमि या मिट्टी से जुड़ो।
बाउलों का यही संदेश है: अधिक प्रामाणिक और सच्चे बनो। जब तुम प्रामाणिक होते हो तो परमात्मा भी प्रामाणिक होता है; जब तुम सच्चे होते हो, तो परमात्मा भी सच्चा होता है—क्योंकि जब तुम सच्चे होते हो, तुम अस्तित्व के सत्य के साथ सम्पर्क बनाने में समर्थ होते हो। जब तुम प्रामाणिक होते हो तुम अचानक समग्र अस्तित्व के साथ लयबद्ध हो जाते हो। जब तुम नकली होते हो, तभी यह समस्या उठ खड़ी होती है कि परमात्मा अस्तित्व में है अथवा नहीं, इससे बस इतना ही प्रदर्शित होता है कि तुमने पूर्ण अस्तित्व के साथ लयबद्धता खो दी है। फिर से लयबद्ध हो जाओ, पंक्तिबद्ध होकर अस्तित्व की सीमा रेखा में फिर गिर पड़े। अधिक सच्चे और अधिक प्रामाणिक बनने के लिए वापस लौट आओ।
सभी धर्मों का भी यही पूरा संदेश है यदि वह धर्म, धर्म जैसा है। यही कारण है कि बुद्ध और महावीर परमात्मा के बारे में कुछ बात करते ही नहीं : वे कहते हैं : '' सच्चे और प्रामाणिक बनो, और तुम परमात्मा ही हो जाओगे।’’ केवल सच्चे बनने से ही तुम सत्य के निकट आ जाते हो। यह बहुत सरल है। क्या तुम इतनी साधारण सी बात भी नहीं समझ पाते कि सच्चे बनने से ही तुम सत्य के निकट आ जाते हो?
विश्वास झूठा है, उधार का ज्ञान भी झूठा है। वह सभी कुछ गिरा दो जो उधार लिया हुआ है। कुछ समय के लिए तुम अपने को दीन होने का अनुभव करो क्योंकि तुम्हारी बटोरी गई जानकारी तुम्हें एक बहुत बड़ा अहंकार देती है, कि मैं जानता हूं। यह जानना, कि तुम कुछ भी नहीं जानते तुम कुछ दिनों तक बहुत निर्धन होने का अनुभव कर सकते हो, तुम्हें एक भिखारी जैसा होने का अनुभव हो सकता है। लेकिन यदि तुम पहले ही प्रामाणिक बनने को तैयार हो, तो अचानक एक दिन संवाद घटित हो जाता है। जब तुम उधार ली गई जानकारी को खो देते हो, तो तुम्हारे अंदर से कुछ चीज उमगती और जन्मती है जो न जाने कब से प्रतीक्षा कर रही थी। तुम्हारे अंदर ही से कुछ उठता है, कोई सुवास जैसा, जो तुम्हारी पूरी चेतना को सुवास से भर देता है। परमात्मा जो कुछ भी है वह यही है।
परमात्मा और कुछ भी नहीं है, बल्कि जीवन ही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा एक ऊर्जा है, तुम ही हो परमात्मा। परमात्मा ही वह ऊर्जा है जिससे वृक्ष वृक्ष है। सितारों में भी वही परमात्मा की ही ऊर्जा है। प्रत्येक वस्तु जिस सामग्री से बनी है, परमात्मा वही सामग्री और कच्चा माल है। परमात्मा सृष्टा न होकर सृष्टि है। इस क्षण भी तुम परमात्मा के ही सागर में हो, लेकिन वह तुम्हारे बहुत निकट है और तुम ही उससे बहुत दूर अपने सिर और बुद्धि में उलझे हो। बुद्धि को हृदय से जोड्ने वाले सेतु से ही तुम चूके जा रहे हो।

 अंतिम प्रश्न: प्यारे ओशो! मैं आपके सम्बंध में इतना अधिक सनकी और पागल हूं कि मैं आपके पास कैसे आऊं?
सी कारण मैं सनकी लोगों को आकर्षित करता हूं क्योंकि मैं स्वयं सनकी हूं। लेकिन सनकी अथवा पागल व्यक्ति बहुत सुंदर होते हैं। ये लोग ही संसार में केवल समझदार लोग है। बाउल शब्द का भी यही अर्थ है। बाउल का अर्थ होता है—बावरा दीवाना, पागल। मैं एक बाउल हूं और मैं बाउलों को ही अपनी ओर इसी कारण आकर्षित करता हूं।
आज इतना ही।

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