दिनांक
2 दिसंबर ,1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—मैंने
मांगा कुछ, और मिला कुछ
और। मांगी मन
की
मृत्यु--मिली
मन की मगनता।
मेरे मन में
ज्ञानऱ्योग
का महत्व
ज्यादा है, परंतु अब
प्रेम-भक्ति
के भाव भी सघन
हो रहे हैं।
मन और शरीर
जैसे रस के
सरोवर में डूब
गये हों! यह सब
क्या है?
2—जहां
सिद्ध सरहपा
और तिलोपा के
नाम सुदूर तिब्बत, चीन और जापान
में उजागर नाम
हैं, वहां
अपने ही जन्म
के देश में वे
उजागर न हुए--इसका
क्या कारण हो
सकता है?
3—आप
कहते हैं कि
बुद्ध जहां
रहते हैं उनके
आस-पास के
सूखे हुए
वृक्ष भी
हरे-भरे हो
जाते हैं, मगर ये
पूनावासी
क्यों सूखते
जा रहे हैं?
4—मैं
टूटता हूं, मैं डूबता ही
जा रहा हूं।
आपकी शरण आया
हूं। प्रभु, मेरा
स्वीकार करो!
5—जो
सबका
देखनेवाला है
और सबके अंतर
में ही रहता
है, फिर
भी जानने में
क्यों नहीं
आता?
6—आपकी
अनुकंपा का
कैसे धन्यवाद
करूं?
7—हे
परमात्मा!
आपको सुनकर
झूमने लगती
हूं। और विराट
जीवन, सब
रंगों से भरी
दुनिया, यह
अनंत
विस्तार...मैं
कैसे आरती
उतारूं?
पहला
प्रश्न:
मैंने
मांगा कुछ, और मिला कुछ
और। मांगी मन
की
मृत्यु--मिली
मन की मगनता!
मेरे
मन में
ज्ञानऱ्योग
का महत्व
ज्यादा है, परंतु अब
प्रेम-भक्ति
के भाव भी सघन
हो रहे हैं।
यहां बीस
दिनों से
प्रवचन, सक्रिय
और कुंडलिनी
ध्यान में एवं
आश्रम-संगीत
में भी भाग
लेता हूं।
परिणाम-स्वरूप
शांति एवं
शून्यता के
अलावा
रस-लीनता बढ़ती
जाती है। मन
एवं शरीर जैसे
रस के सरोवर
में डूब गये
हों!
यह
सब क्या
है--बताने की
कृपा करें।
आनंद
मनु! जो मांगा
वही मिला।
मांगते समय
मांगनेवाले
को भी शायद
पता नहीं होता
कि क्या मांग
रहा है; यह
तो मिलने पर
ही ठीक-ठीक
पता चलता है।
बीज
बोते समय पता
भी कैसे हो कि
कैसे फूल लगेंगे, कैसे फल
आयेंगे, कैसे
वृक्ष होंगे?
यह तो जब
फूल लग जाते
हैं तभी पता
चलता है। बीज के
साथ तो हमारी
अभीप्सा होती
है, प्रार्थना
होती है, लेकिन
फूल के साथ
हमने जो चाहा
था, जो
सपना देखा था
वह सत्य बनता
है।
तुम
कहते हो:
"मैंने मांगा
कुछ, और मिला
कुछ और।' ऐसा
कभी होता ही
नहीं। जो
मांगते हो वही
मिलता है। तुम
कहते हो:
"मांगी मन की
मृत्यु, मिली
मन की मगनता।'
जो भी मन की
मृत्यु मांगेगा
उसे मन की
मगनता ही
मिलती है, क्योंकि
मन की मगनता
ही मन की
मृत्यु है। मन
की मृत्यु है
तुम्हारा
जीवन। जब तक
मन है तब तक तुम
नहीं। जब तक
मन है तब तक
तुम जीवित ही
कहां हो? तब
तक एक थोथा
जीवन है, एक
झूठा जीवन है,
एक बोझ है, एक भार है, जो ढोते हो।
तब तक तो
मृत्यु ही
मृत्यु है जब
तक मन है। तब
तक तुम्हारा
पूरा जीवन
जन्म से लेकर
मरण तक मृत्यु
की ही एक
धीमी-धीमी
यात्रा है।
आहिस्ता-आहिस्ता
मरने का नाम
ही तुमने जीवन
समझ लिया है।
जब
तुम मन की
मृत्यु
मांगोगे तो
तुमने मृत्यु की
मृत्यु मांग
ली, क्योंकि
मन यानी मृत्यु।
मन मरा तो
मृत्यु मर गई।
फिर है जीवन, फिर है
महाजीवन, फिर
है शाश्वत
जीवन। अमृत के
द्वार खुलते
हैं फिर। फिर
है मगनता, फिर
है नृत्य, उत्सव।
फिर प्रभु के
धन्यवाद में
जीवन सिवाय आनंद
के और कुछ भी
नहीं है।
तुमने
जो मांगा था
वही मिला है, यद्यपि
तुम्हें साफ-साफ
नहीं था कि
तुम क्या मांग
रहे हो। और
ऐसा अकसर हो
रहा है। ऐसा
अकसर अधिक
लोगों के जीवन
की यही कथा
है। कोई धन
मांगता है, मिलती है
निर्धनता--और
तब वह छाती
पीटता है और सोचता
है मैंने
मांगा था धन।
लेकिन धन ने
कभी किसी को
धनी किया? अगर
धन धनी करता
होता तो इस
जगत में जिनके
पास धन है वे
आनंद-मगन हो
गये होते। तो
फिर बुद्ध
राजमहल क्यों
छोड़ते? फिर
महावीर नग्न
क्यों खड़े
होते?
नहीं, धन में धन
नहीं है।
इसलिए
जिन्होंने धन
मांगा उन्होंने
अनजाने
निर्धनता
मांग ली है।
और जब निर्धनता
टूट पड़ेगी, उनकी मांग
जब पूरी होगी,
तब वे छाती
पीटकर
रोयेंगे और वे
कहेंगे: क्या
मांगा और क्या
मिला!
जिन्होंने
पद मांगा है, उन्होंने
हीनता मांग ली
है, दीनता
मांग ली है।
क्योंकि पद पर
होने से कोई कभी
शक्तिशाली
नहीं हुआ है।
शक्तिशाली तो
केवल वे ही
हुए हैं जो ना
कुछ हो गये।
जिन्होंने शून्य
मांगा उन्हें
शक्ति मिली और
जिन्होंने
शक्ति मांगी
उन्होंने
केवल रिक्तता
के अतिरिक्त
कुछ भी न पाया।
तुमने
सुख मांगा, मिला कहां? मिलता तो
दुख है। तब
तुम्हारी समझ
में तर्क नहीं
आता, जीवन
का गणित नहीं
आता। तुम कहते
हो: मैंने सुख
मांगा, सुख
की सारी
चेष्टा भी की
और मिला दुख।
लेकिन सुख तुम
जिसे कहते हो
वह दुख का ही
दूसरा नाम है।
तुम्हें अभी
असली सुख का
पता ही नहीं।
तुमने नकली
सुख मांगा; ऊपर-ऊपर सुख,
भीतर-भीतर
दुख होगा।
तुमने
मृगमरीचिका
मांगी। दूर से
सुहावने
लगेंगे वे ढोल,
पास आने पर
हाथ कुछ भी न
लगेगा, हाथ
खाली के खाली रह
जायेंगे।
अधिक
लोगों के जीवन
का यही अनुभव
है कि उन्होंने
कुछ मांगा और
कुछ मिला।
लेकिन मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं:
तुम जो मांगते
हो वही मिलता
है। कभी
तुम्हारी
मांग गलत होती
है, तो
तुम्हें जो
मिलता है वह
गलत होता है
और कभी तुम्हारी
मांग सही होती
है तो चाहे दुनिया-भर
को लगे कि तुम
गलत मांग रहे
हो...। अब जैसे
कि तुमने मन
की मृत्यु
मांगी, देखने
पर तो लगेगा:
यह भी कोई
मांग हुई? मांगना
था अमृत जीवन,
मांगना था
महाजीवन, मांगना
था
आत्मज्ञान।
मांगी मन की
मृत्यु! यह कोई
मांगना है?
लेकिन
मन की मृत्यु
जो मांगता है
उसे ही मिलता
है
आत्मज्ञान।
और जो
आत्मज्ञान
मांगता रहता
है, उसे कभी
कुछ नहीं
मिलता।
क्योंकि
आत्मज्ञान की
मांग तो मन को
ही मजबूत कर
जाती है। जो
शाश्वत जीवन
को मांगता है
वह तो मृत्यु
से भयभीत है।
और जो मृत्यु
से भयभीत है
वह कैसे
शाश्वत जीवन
जान सकेगा? जो कहता है
मैं सदा-सदा
रहूं, वह
तो डरा हुआ
है। उसे तो
पता है कि
मरना होगा। वह
मरने के खिलाफ
मांग कर रहा
है। वह जीवन
के विरोध में
मांग कर रहा
है। वह जीवन
के विपरीत जाना
चाहता है। वह
नदी में उल्टी
धारा में तैरना
चाहता है।
हारेगा, थकेगा,
टूटेगा।
लेकिन जिसने
कहा कि ले लो यह
मन, ले लो
यह जीवन, इससे
न कुछ मिला है
न कुछ मिल
सकता है, छीन
लो मुझसे मेरी
ये सारी
आकांक्षायें।...इन
आकांक्षाओं
में परमात्मा
की आकांक्षा
भी सम्मिलित
है। इन
आकांक्षाओं
में मोक्ष की
आकांक्षा भी
सम्मिलित
है।...छीन लो
मुझसे मेरी
सारी
आकांक्षायें,
दग्ध कर दो
मेरे वासना के
बीज
को।...जिसने
ऐसा मांगा
उसके जीवन में
अमृत बरस जाता
है।
और
तुम कहते हो
कि
ज्ञानऱ्योग
का महत्व मेरे
मन में ज्यादा
है।
ज्ञानऱ्योग
अकसर सिर में
ही अटका रह
जाता है।
ज्ञानऱ्योग
सिर्फ
जानकारी बनकर
समाप्त हो
जाता है। जब
तक तुम्हारा
हृदय न छू
लिया जाये, जब तक
तुम्हारा
हृदय गदगद न
हो, रस-विभोर
न हो, तब तक
कहां ज्ञान? ज्ञान के
नाम पर
कूड़ा-करकट
इकट्ठा कर
लोगे, जानकारियों
का संग्रह बढ़ा
लोगे।
जानकारियों
के पहाड़ भी
हों तुम्हारे
पास तो भी
रत्ती-भर ज्ञान
नहीं होता।
ज्ञान
से कहीं ज्ञान
होता है? ध्यान
से ज्ञान होता
है; प्रेम
से ज्ञान होता
है। जिसने
प्रेम जाना उसने
परमात्मा
जाना। और जो
शास्त्रों
में ही खोजता
रहा वह घूरे
पर बैठा रहा।
कुछ लोग घूरे
पर बैठकर
खोजते रहते
हैं धन
को--किसी का
पैसा पड़ा हो, किसी का
गहना कचरे में
आ गया हो।
शायद घूरे पर बैठे-बैठे
कोई एकाध पैसा,
कोई एकाध
गहना कभी मिल
भी जाये, मगर
शास्त्रों के
घूरे पर
बैठनेवाले को
उतना भी नहीं
मिलता; वहां
कुछ भी नहीं
है। जो हृदय
के द्वार
खटखटाता है, वह पाता है।
अच्छा
ही हुआ कि
यहां तुम
पागलों की इस
दुनिया में आ
गये, नाच सके,
गा सके, संगीत
में डूब सके, ध्यान कर
सके, मेरी
अटपटी बातें
सुन सके।
धन्यभागी हो!
रस जगा है, इसे
भूल मत जाना।
यह अभी
छोटा-सा अंकुर
है, पौधा
है। इसे
सम्हालना, इसे
प्राणों की
खाद देकर
सम्हालना।
इसे बचा सको
तो एक दिन
तुम्हारे
जीवन में
मुक्ति का फल भी
लगेगा। वह
मगनता की ही
अंतिम
पराकाष्ठा है।
लेकिन
अकसर तो जो
लोग ज्ञान में
उत्सुक होते हैं, प्रेम में
उत्सुक होते
ही नहीं। उनको
तो प्रेम
पागलपन मालूम
पड़ता है। वे
तो कसमें खा
लेते हैं कि
प्रेम की झंझट
में हमें नहीं
पड़ना है। वे
तो सोचते हैं
कि ज्ञान
पर्याप्त है।
वे तो ज्ञान
का गणित ही
बिठालते-बिठालते
समाप्त हो
जाते हैं।
ज्ञान का गणित
कभी बैठता ही
नहीं। प्रेम
की रसायन न हो,
तो ज्ञान का
गणित कभी
बैठता ही
नहीं। और
प्रेम की
रसायन हो, तो
ज्ञान का गणित
एकदम बैठ जाता
है। प्रेम के आधार
पर तो ज्ञान
का मंदिर भी
खड़ा हो सकता
है। लेकिन
प्रेम का आधार
न हो तो
निराधार
मंदिर खड़ा
नहीं हो सकता।
तुम
कितना ही
साज-सामान
इकट्ठा करते
रहो, साज-सामान
पड़ा रहेगा, मंदिर कभी
बनेगा नहीं।
जोड़नेवाला
तत्व ही नहीं
है, ईटें
इकट्ठी करने
से क्या होगा?
सीमेंट भी
चाहिये न!
प्रेम सीमेंट
है, जो
ईटों को जोड़
देती है।
तुम्हारे
हाथ
जोड़नेवाला
तत्व लगा है, यह छिटक न
जाये। खयाल
रखना जितनी
बहुमूल्य चीजें
होती हैं उतने
आसानी से छिटक
जाती हैं। व्यर्थ
की चीजें तो
चिपकी रह जाती
हैं, बहुमूल्य
चीजें छिटक
जाती हैं।
क्योंकि बहुमूल्य
को सम्हालकर
रखने में बड़ा
प्रयास करना होता
है। उसे बचाना
हो तो सतत
जागरूकता चाहिये।
यह
जो तुम्हारे
भीतर थोड़ी-सी
रस की बूंद
पड़ी है, यह
सागर हो सकती
है, अगर
सम्हाला।
बहुत
लोगों ने धर्म
को मात्र थोथा
ज्ञान बना लिया
है। उन्होंने
कसमें खा ली
हैं कि वे
प्रेम की झंझट
में न पड़ेंगे।
कारण भी हैं।
जीवन में जिसको
उन्होंने
प्रेम करके
जाना, उसने
इतना कष्ट
दिया है कि अब
वे प्रेम शब्द
से भी चौकन्ने
हो जाते हैं।
कहते हैं न, दूध का जला
छाछ भी
फूंक-फूंककर
पीने लगता है।
उनके जीवन में
जिसे
उन्होंने
प्रेम करके
समझा था उससे
सिवाय पीड़ा के
कुछ भी न
पाया। प्रेम ने
कांटे ही
कांटे बो दिये,
कमल कभी
खिले नहीं।
प्रेम के नाम
से चिंतायें
और चिंतायें
और विषाद और
विफलतायें...।
प्रेम ने ऐसी
अंधेरी रात दे
दी और ऐसे
दुखस्वप्न
दिये कि प्रेम
शब्द सुनते ही
वे चौंक जाते
हैं।
उन्होंने
कसमें खा लीं
कि हम कभी
प्रेम ही न
करेंगे।
मगर
खयाल रखना, प्रेम करना
ही पड़ेगा। और
जब प्रेम की घड़ी
आ जाये तो सब
कसमें छोड़
देना, भय
मत करना।
क्योंकि यह
कोई और ही
प्रेम है। इसे
तुमने जाना ही
नहीं। जिसे
तुमने जाना था
वह प्रेम नहीं
था। इसीलिये
कष्ट पाया।
प्रेम कहीं
कष्ट देता है?
प्रेम बड़ा
मधुमय है, प्रेम
तो मदिर है।
प्रेम से
ज्यादा
मदमस्त करनेवाली
कोई मदिरा
नहीं है। हां,
तुमने गलत
जगह खोजा
होगा। तुमने
व्यक्तियों में
खोजा।
पुरुषों ने
स्त्रियों
में खोजा, स्त्रियों
ने पुरुषों
में खोजा, मां-बाप
ने बच्चों में
खोजा, बच्चों
ने मां-बाप
में खोजा, भाई-बहन
में खोजा, मित्रों
में खोजा। तुम
गलत जगह खोजते
रहे।
अब
कोई अगर रेत
से तेल
निचोड़ना चाहे
और तेल न
निचुड़े, तो
रेत का कोई
कसूर है? रेत
में तेल है ही
नहीं। तुम
जिनके सामने
प्रेम का
भिक्षापात्र
फैलाकर खड़े
हुए थे, वे
भी तो भिखारी
थे तुम जैसे
ही! वे भी
तुम्हारे
सामने
भिक्षापात्र
फैलाये थे। दो
भिखारी एक-दूसरे
के सामने
भिक्षापात्र
फैला दें, क्या
मिलेगा? कैसे
मिलेगा? मालिक
के पास ही मिल
सकता है...या
मालिक! उस
परमात्मा से
ही प्रेम हो
सकता है, उसकी
तरफ आंखें
उठाओ। और
तुम्हारी आंख
थोड़ी-सी उठी, आंख की कोर
में थोड़ी-सी
प्रकाश की
किरण पड़ी है, छोड़ो पुरानी
कसमें!
साकी
की निगाहों
में तो मुजरिम
न बनूंगा
टूटेंगे
तो टूटें मेरे
तौबा के इरादे
वे
तुमने जो
कसमें खा रखी
हैं प्रेम न
करने की, अब
टूटती हों तो
टूट जाने दो।
साकी
की निगाहों
में तो मुजरिम
न बनूंगा
टूटेंगे
तो टूटें मेरे
तौबा के इरादे
तुमने
बहुत बार
कसमें खा ली
होंगी कि अब
प्रेम नहीं, अब प्रेम
नहीं, बहुत
कष्ट पा लिया।
मगर जिससे
तुमने कष्ट
पाया वह प्रेम
था ही नहीं।
मैं
समझता था कि
अब रो न
सकूंगा ऐ जोश
दौलते-सब्र
कभी खो न
सकूंगा ऐ जोश
इश्क
की छांव भी
देखूंगा तो
कतराऊंगा
काबा-ए-अक्ल
से बाहर न कभी
जाऊंगा
आबरू
इश्क के बाजार
में खोते हैं कहीं
जिन्से-हिकमत
के ख़रीदार भी
रोते हैं कहीं
चुभ
सकेगा न मेरे
दिल में इशारा
कोई
नोके-मिज़गां
पे न दमकेगा
सितारा कोई
अब
न याद आयेगा
रंगे-लबो-रुख्स?ार
कभी
दिल
में गूंजेगी न
पाज़ेब की
झंकार कभी
अब
कभी मुझसे न
रूठा हुआ दिल
बोलेगा
अब
तसव्वुर किसी
घूंघट के न पट
खोलेगा
अब
पयाम आयेगा
फूलों का न
गुलशन से कोई
अब
न झांकेगा
महो-साल के
रौज़न से कोई
लेकिन
अफसोस कि ये
संगेऱ्यक़ीं
टूट गया
दामने-सब्र
मेरे हाथ से
फिर छूट गया
जल
उठी रूह में
फिर शम्मअ
सनमख़ाने की
ख़ाके-परवाना
में आग आ गई
परवाने की
जिससे
रातें कभी
रोशन थीं वो जुगनू
जागा
चश्मे-ख़ू
बस्ता में
सोया हुआ आंसू
जागा
अक्ल
की धूप ढली, इश्क के
तारे निकले
बर्फ
महताब से
पिघली तो
शरारे निकले
प्रेम
से तो कसम खा
ही लेनी पड़ती
है, क्योंकि
प्रेम तो
हमारा गलत ही
है। और जिनके
सामने हमने
अपने
मदिरा-पात्र
किये थे वे
साकी नहीं थे।
उनके पास
मदिरा देने को
नहीं थी। वे
खुद ही प्यासे
थे--हम जैसे ही
प्यासे थे। वे
भी साकी की
तलाश में थे।
मैं
समझता था कि
अब न रो
सकूंगा ऐ
जोश...तो बहुत बार
यह खयाल आ
जाता है कि
रो-रोकर भी
क्या पाया? आंसू
गिरा-गिराकर
भी क्या मिला?
तो आदमी तय
कर लेता है...
मैं
समझता था कि
अब रो न
सकूंगा ऐ जोश
दौलते-सब्र
कभी खो न
सकूंगा ऐ जोश
...अब
अपने धीरज को
न कभी खोऊंगा।
अब कभी अधैर्य
न करूंगा। अब
कभी कुछ
चाहूंगा नहीं,
मांगूंगा
नहीं। अब
आंखों को
सम्हालकर
रखूंगा, अब
रोऊंगा नहीं,
अब कभी दिल
गीला न
करूंगा।
इश्क
की छांव भी
देखूंगा तो
कतराऊंगा
काबा-ए-अक्ल
से बाहर न कभी
जाऊंगा
अब
तो अक्ल के
काबा से, अक्ल
के तीर्थ से
कभी बाहर न
निकलूंगा। अब
तो ज्ञान में
ही रहूंगा, अब प्रेम के
पागलपन में
कभी न
उतरूंगा।
इश्क
की छांव भी
देखूंगा तो
कतराऊंगा
काबा-ए-अक्ल
से बाहर न कभी
जाऊंगा
आबरू
इश्क के बाज़ार
में खोते हैं
कहीं
अब
समझदार हो गया
हूं; अब प्रेम
के बाजार में
अपनी इज्जत
गंवाने जानेवाला
नहीं हूं। अब
इतना दीवाना
मैं कभी न बनूंगा।
आबरू
इश्क के बाजार
में खोते हैं
कहीं
जिन्से-हिकमत
के ख़रीदार भी
रोते हैं कहीं
जो
दार्शनिक
विचारों से
भरे हुए लोग
हैं, जिनके
पास दार्शनिक
बुद्धि है, जिन्होंने
दार्शनिकता
सीखी है, ज्ञानयोगी
हैं जो...
जिन्से-हिकमत
के ख़रीदार भी
रोते हैं
कहीं...कहीं
समझदार, पंडित,
ज्ञानी
रोते हैं?
चुभ
सकेगा न मेरे
दिल में इशारा
कोई
नोके-मिज़गां
पे न दमकेगा
सितारा कोई
अब
न याद आयेगा
रंगे-लबो रुख़सार
कभी
दिल
में गूंजेगी न
पाज़ेब की
झंकार कभी
अब
कभी मुझसे न
रूठा हुआ दिल
बोलेगा
अब
तसव्वुर किसी
घूंघट के न पट
खोलेगा
खा
ली थी कसम कि
अब नहीं कोई
घूंघट
उठाऊंगा। मगर
एक घूंघट है
जो उठाना
पड़ेगा उठाना
ही पड़ेगा!
परमात्मा का
घूंघट तो
उठाना ही
पड़ेगा। उस परमप्रिय
या
परमप्रेयसी
की पाजेब की
झंकार तो सुननी
ही पड़ेगी।
अब
पयाम आयेगा
फूलों का न
गुलशन से कोई
अब
न झांकेगा
महो-साल के रौज़न
से कोई
लेकिन
अफसोस कि ये
संगेऱ्यकीं
टूट गया
यह
विश्वास-रूपी
पत्थर टूट
गया।
लेकिन
अफसोस कि ये
संगेऱ्यकीं
टूट गया
दामने-सब्र
मेरे हाथ से
फिर छूट गया
और
वह जो धीरज और
तथाकथित
ज्ञान का आंचल
पकड़ रखा था वह
हाथ से छूट
गया।...अफसोस
नहीं है यह, यह सौभाग्य
की बात है।
लेकिन
अफसोस कि ये
संगेऱ्यकीं
टूट गया
दामने-सब्र्र
मेरे हाथ से
फिर छूट गया।
जल
उठी रूह में
फिर शम्मअ
सनमख़ाने की
अब
उस प्यारे के
मंदिर की शमा
फिर जल उठी, मेरी रूह
फिर पुकारी
जाने लगी।
जल
उठी रूह में
फिर शम्मअ
सनमख़ाने की
ख़ाके-परवाना
में आग आ गई
परवाने की
और
वह जो राख
होकर गिर गया
था, वह
परवाना फिर से
जीवित हो उठा
है। वह जो
प्रेम सोचा था
कि गया, गया
नहीं था, कहीं
छिपकर बैठ रहा
था।
जल
उठी रूह में
फिर शम्मअ
सनमख़ाने की
ख़ाके-परवाना
में आग आ गई
परवाने की
जिससे
रातें कभी
रौशन थीं वो
जुगनू जागा
चश्मे-ख़ूबस्ता
में सोया हुआ
आंसू जागा
अक्ल
की धूप ढली, इश्क के
तारे निकले
बर्फ
महताब से
पिघली तो
शरारे निकले
यह
सौभाग्य की
घड़ी है जब
अक्ल की धूप
ढल जाती है, और प्रेम की
छाया आती है, प्रेम की
रात्रि आती है
और आकाश में
तारे उगते
हैं।
इस
घड़ी को चूक मत
जाना, यह
घड़ी कभी-कभी, बामुश्किल
आती है, क्योंकि
इस जगत में
अक्ल के मंदिर
और मस्जिद तो
बहुत हैं, प्रेम
की
मधुशालायें
बहुत कम हैं।
कभी किसी बुद्ध
के पास, कभी
किसी कृष्ण के
पास, और
कभी किसी जीसस
के पास
मधुशाला होती
है प्रेम की।
वहां आनंद की
शराब ढाली
जाती है और
पीयी जाती है
और पिलायी
जाती है। फिर
तो सदियों तक
उनके नाम के
पीछे
सिद्धांतों
की चर्चा होती
रहती है। शराब
की चर्चा होती
है। शराब शब्द
दोहराया जाता
है फिर। लेकिन
न शराब ढाली
जाती; न
शराब पीयी
जाती, न
पिलायी जाती।
शास्त्रों
में शराब की
चर्चा है।
सत्संग वहां
है जहां शराब
अभी ढलती हो।
अच्छा
हुआ आनंद मनु
कि रसलीनता बढ़
रही है, पियो
और। जितना पी
सको उतना
पियो। जी भर
के पियो!
सर्द
मीना का
तसव्वुर, सुर्ख़
पैमाने की याद
ऊद
की खुशबू में
फिर आई है
मैख़ाने की याद
गोशा-ए-दिल
में पछाड़ें खा
रही है देर से
मस्त
झोंकों में
जुनूं के रक्स
फर्माने की
याद
आई
है रह-रहके
गिरती
बिजलियों के
रूप में
एक
शब पर्दा
उठाकर उनके दर
आने की याद
परमात्मा
ने, परम
प्रेमी ने, परम प्रेयसी
ने तुम्हारा
द्वार
खटखटाया है, सुनो। उसने
तुम्हारा
पर्दा उठाया
है, स्वागत
करो! उसे भीतर
आने दो।
जाने
दो सारा ज्ञान, दो कौड़ी का
है सारा
ज्ञान।
क्योंकि असली
ज्ञान तो
प्रेम में ही
पकता है। एक
ज्ञान है, जो
स्मृति है और
एक ज्ञान है
जो प्रेम है।
स्मृति का
ज्ञान किसी
मूल्य का
नहीं--उधार और
बासा। प्रेम
से जो ज्ञान
जन्मता है वही
है नगद, वही
है सच्चा
क्योंकि वही
है तुम्हारा।
तुम्हारे
भीतर जन्मता
है। तुम्हारे
भीतर उसका गर्भाधान
होता है वह
तुमसे ही पैदा
होता है।
दूसरा
प्रश्न:
जहां
सिद्ध सरहपा
और सिद्ध
तिलोपा के नाम
सुदूर तिब्बत, चीन और
जापान में
उजागर नाम हैं,
वहां अपने
ही जन्म के
देश में वे
उजागर न हुए--इसका
क्या कारण हो
सकता है?
यह
देश पांडित्य
से पीड़ित देश
है। इस देश का
बड़े से बड़ा
दुर्भाग्य
यही है कि इस
देश की छाती पर
पांडित्य का
बोझ है। भारी
बोझ है, सदियों
पुराना बोझ
है! इसलिए जब
भी कोई सरहपा,
कोई तिलोपा,
कोई कबीर, कोई गोरख
आवाज देता है
तो पंडितों के
शोरगुल में खो
जाती है। और
पंडित बड़ी
संख्या में
हैं, सरहपा
तो कोई कभी एक
होगा।
पंडितों की तो
बड़ी जमात है, और जब सरहपा
जैसा व्यक्ति
कुछ कहता है
तो स्वभावतः
पंडितों के
विपरीत जाती
है उसकी बात।
जायेगी ही...।
पंडितों के
पास सिद्धांत
हैं, तर्कजाल
हैं। और जब
सरहपा बोलता
है तो सत्य बोलता
है। सत्य का
तर्क से क्या
लेना-देना? सत्य का
सिद्धांतों
से क्या
लेना-देना? सत्य का
सूरज निकलता
है तो
सिद्धांतों
की रात टूटने
लगती है। सत्य
का सूरज
निकलता है तो
सिद्धांतों
के बादल
बिखरने लगते
हैं। घबड़ाहट
फैल जाती है।
और
पंडितों के
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
वही उनकी रोजी
है। वही उनका
जीवन है।
सरहपा जैसे
लोग उनके पैर
के नीचे की
जमीन खींच
लेते हैं। यह
बरदाश्त नहीं
किया जा सकता।
पंडित बड़ा
शोरगुल मचाते
हैं। सरहपा की
आवाज खो जाए
शोरगुल में, इसकी पूरी
चेष्टा करते
हैं।
आनंद
मैत्रेय, तुम
तो कम-से-कम यह
मत पूछो, क्योंकि
तुम तो यह रोज
यहां होते देख
रहे हो। मेरी
आवाज को दबा
देने की सब
तरह से कोशिश
की जा रही है, हर कोशिश की
जा रही है।
मेरी आवाज
लोगों तक न पहुंच
सके, या
पहुंचे तो
इतनी विकृत
होकर पहुंचे
कि उन्हें समझ
में ही न आ सके,
या वे कुछ
का कुछ समझें,
इसकी सारी
चेष्टा की जा
रही है। यह तो
यहां घट रहा
है। तुम सरहपा
की क्यों
पूछते हो? यह
कोई
सैद्धांतिक
चिंतन की बात
ही नहीं है तुम्हारे
लिए; यह
तुम्हारे
सामने घट रहा
है; यह
तुम्हारे साथ
घट रहा है।
मेरी आवाज
दूर-दूर के
देशों में
सुनी जा रही
है। तुम जानकर
हैरान होओगे,
यूनानी
भाषा में किताबें
अनुवादित हो
रही हैं, अंग्रेजी
में, जर्मन
में, स्पेनिश
में, डच
में, इटालियन
में, फ्रेंच
में, डेनिश
भाषा में, जापानी
में, सारी
दुनिया की
भाषाओं में
किताबें
अनुवादित हो
रही हैं, लेकिन
भारतीय
भाषाओं में
नहीं--बंगाली
में नहीं, तमिल
में नहीं, तेलगु
में नहीं, पंजाबी
में नहीं, उर्दू
में नहीं।
यूनान में
अनुवादित हो
रही हैं और
जापान में
अनुवादित हो
रही हैं और
फ्रांस में
अनुवादित हो
रही हैं और
हालैंड में
अनुवादित हो
रही हैं और
इंग्लैंड, जर्मनी,
इटली, स्पेन,
मैक्सिको, ब्राजील, डेनमार्क और
अमरीका में
अनुवादित हो
रही हैं। यह
तुम्हें थोड़ा
हैरान
करनेवाली बात
मालूम होती है,
मगर होनी
नहीं चाहिए।
यह तो घट रहा
है, फिर घट
रहा है। यही
बार-बार घटता
रहा है। तिलोपा
को तिब्बत में
लोग जानते हैं,
बड़े आदर से
जानते हैं।
जगत में जो
थोड़े-से बुद्धपुरुष
हुए हैं, उनमें
तिलोपा एक
हैं--और बहुत
ज्योतिर्मय!
और जापान में
भी जानते हैं
और चीन में भी
जानते हैं और
कोरिया में
भी। सारा
एशिया जानता
है, सिवाय
भारत को
छोड़कर।
क्या
हुआ? यह कैसा
दुर्भाग्य? भारत के सिर
पर पांडित्य
बहुत चढ़कर बैठ
गया है। बड़े
शास्त्र और उन
शास्त्रों को
दोहराने वाले
तोते इतने हैं
कि उन तोतों
के बीच में जब
कोई आदमी सीधा-सीधा
हृदय से बोलता
है तो तोते
नाराज हो जाते
हैं। क्योंकि
तोतों को साफ
दिखाई पड़ने लगता
है, अगर इस
आदमी की आवाज
सुनाई पड़ गई
लोगों को तो हमारी
आवाज का क्या
होगा? हम
तोतों का क्या
होगा? सारे
पंडित इकट्ठे
हो जाते हैं।
अब
तुम चकित
होओगे कि मेरे
खिलाफ हिंदू, मेरे खिलाफ
मुसलमान, मेरे
खिलाफ जैन, मेरे खिलाफ
बौद्ध--जो आपस
में सब
एक-दूसरे के दुश्मन
हैं, लेकिन
मेरे विरोध
में सब इकट्ठे
हो जाते हैं। मेरे
खिलाफ अगर
जनसंघी हो, चलो समझ लो
कि ठीक है; लेकिन
कल मैंने देखा
कि कम्युनिस्ट
पार्टी ने
प्रस्ताव
किया है कि
मुझे भारत में
जमीन या आश्रम
बनाने का कोई
सहारा सरकार
को नहीं देना
चाहिए, कम्युनिस्ट
पार्टी ने।
जनसंघी और
कम्युनिस्ट
पार्टी इस
मामले में
सहमत हो
जायेंगे। बड़े आश्चर्य
की बात मालूम
पड़ती है, मगर
नहीं होना
चाहिए
आश्चर्य की, क्योंकि यही
सदा होता रहा
है। यह आवाज
ऐसी है!
अंधों
के जगत में
प्रकाश की बात
करनी हो तो बड़ी
खतरनाक है; वे तुम्हारी
आंख फोड़
देंगे।
क्योंकि उनको
अपनी आंखें
सुधार करना तो
बहुत लंबा और
महंगा काम
मालूम पड़ता है,
लेकिन
तुम्हारी
आंखें फोड़
देना ज्यादा
आसान मालूम
पड़ता है।
कहां
यह देहर कुहना
और कहां
जौके-जवां
मेरा
कोई
दुनिया नई
होती, कोई
आलम नया होता
यह
बड़ी पुरानी
सड़ी-सड़ाई
दुनिया है।
कहां यह देहर
कोहना और कहां
जौके-जवां
मेरा। और जब
भी सत्य बोलता
है तो कहां
सत्य की नई-नई
ताजी जबान, जैसे सुबह
की ओस, कि
सुबह की पहली किरण
और कहां यह
सड़ी-गली
दुनिया! इसमें
मेल नहीं बैठ
पाता। कोई
दुनिया नई
होती, कोई
आलम नया होता!
कोई नई दुनिया
हो, कोई
नया आलम हो, तो सत्य की
नई आवाज
पहचानी जा सके,
पकड़ी जा
सके।
मगर
ऐसा तो अब तक
नहीं हो सका
और संदिग्ध है
कि कभी हो
सकेगा।
क्योंकि
दुनिया की आदत
सड़े होने की
हो गई है।
जितना पुराना
सत्य हो उतना
ज्यादा लोग
अंगीकार करते
हैं, जबकि
सत्य नितनूतन
होता है। लोग
झगड़ा करते हैं
कि किसकी
किताब ज्यादा
पुरानी है।
हिंदू कहते
हैं हमारे वेद
सबसे ज्यादा
पुराने।
इतिहासज्ञ
मानते हैं कि
तीन हजार साल
या ज्यादा से ज्यादा
पांच हजार साल
से ज्यादा
पुराने नहीं
हैं, लेकिन
हिंदू इससे
राजी नहीं
हैं। बाल
गंगाधर तिलक
ने लिखा है कि
कम से कम
नब्बे हजार
वर्ष पुराने
हैं, कम से
कम! वैज्ञानिक
इतिहासज्ञ
कहते हैं कि
ज्यादा से
ज्यादा तीन
हजार, बहुत
खींचो तो पांच
हजार। लेकिन
लोकमान्य तिलक
कहते हैं कि
नब्बे हजार कम
से कम। क्यों,
इतना आग्रह
क्या है
पुराना
खींचने का? धारणा यह है
कि जितना
पुराना सत्य
होगा उतना ही
बहुमूल्य, क्योंकि
इतने दिन से
लोग मान रहे
हैं तो कुछ होगी
ही बात तभी
मान रहे हैं।
लेकिन
जैन कहते हैं
कि ऋग्वेद से
भी ज्यादा पुराने
हम हैं, क्योंकि
ऋग्वेद में
हमारे पहले
तीर्थंकर का नाम
उल्लेख है।
बात तो पते की
कहते हैं।
क्योंकि जब
ऋग्वेद में
हमारे पहले
तीर्थंकर का
नाम उल्लेख है
तो हमारा पहला
तीर्थंकर
ऋग्वेद से पुराना
होना ही
चाहिए। और
इतने सम्मान
से नाम उल्लेख
है कि ऋग्वेद
के समसामयिक होते
तो इतना
सम्मान नहीं
मिल सकता था।
समसामयिक को
तो हम सम्मान
देना जानते
नहीं, सिर्फ
अपमान देना
जानते हैं। तो
बात में वजन है।
जरूर पुराने
हो चुके होंगे
जब ऋग्वेद
लिखा गया।
इतने पुराने
हो चुके होंगे
कि लोग आदर देने
लगे होंगे।
लोग आदर ही
पुराने को
देते हैं, खयाल
रखना। तो बात
तो ठीक है। तब
तो फिर जैन धर्म
हिंदू से भी
पुराना धर्म
है।
मगर
यही दावे औरों
के भी हैं।
जितना पुराना
हो सके उतना
पुराना करो।
क्यों? क्योंकि
पुराने की साख
है। जैसे
दुकानों की साख
होती है न, पुरानी
दुकान, साख
भी बिकती है
बाजार में!
सिर्फ साख के
लाखों रुपये
मिल सकते हैं,
सिर्फ
पुराने नाम के,
क्योंकि यह
दुकान पुराने
दिन से चल रही
है इतने दिन
से चली है तो
इस बात का
प्रमाण है कि
कुछ बल होगा
तभी चली है।
मगर
असत्य सत्य से
बहुत ज्यादा
पुराने हैं। सच
तो यह है
असत्य सदा ही
पुराने होते
हैं। असत्य नए
हो ही नहीं
सकते। नया तो
केवल सत्य हो
सकता है, क्योंकि
सत्य ही जीवंत
होता है।
असत्य मुर्दा
होते हैं।
परमात्मा रोज
नया है।
परमात्मा न पांच
हजार साल
पुराना है न
पचास हजार साल
पुराना है।
परमात्मा
प्रतिपल नया
है, नितनूतन
है। यही तो
उसकी
शाश्वतता है
कि वह कभी
पुराना नहीं
पड़ता। उस पर
कभी धूल नहीं
जमती। उसका दर्पण
सदा ही
दमदमाता रहता है
बिना धूल के।
परमात्मा की
ज्योति के पास
कभी धुआं इकट्ठा
नहीं होता
सदियों का।
उसकी ज्योति
निर्धूम है।
तिलोपा
बोले होंगे, ऐसे जैसे
मैं तुमसे बोल
रहा हूं। यही
हुआ होगा जो
मेरे साथ हो
रहा है। कुछ
आश्चर्य न
होगा कि मेरे
जाने के बाद भारत
में लोग मुझे
भूल जाएं और
भारत के बाहर
लोग याद रखें।
कुछ आश्चर्य न
होगा। यहां के
मंदिर-मस्जिद
सत्य को कभी
भी स्वीकार न
कर सकेंगे। और
मंदिर-मस्जिद
के सामने ही
तुम सत्य की
मधुशाला खोलो
तो अड़चन तो
होगी ही।
खुदा
के हाथ है
बिकना न बिकना
मै का ऐ साकी!
बराबर
मस्जिदे-जामअ
के हमने तो
दुकां रख दी
अब
जामा मस्जिद
के सामने
दुकान रखकर
बैठोगे शराब
की तो झंझट तो
आने ही वाली
है। और ये सब
शराब के
दुकानदार
हैं--तिलोपा, सरहपा, कबीर,
गोरख। सभी
जानने वाले
तुम्हारे लिए
मस्त होने का एक
संदेश लेकर आए
हैं। मगर यहां
सब जानने वाले
हैं। यहां सभी
को भ्रांति
है। रास्ते के
किनारे बैठा
भिखमंगा भी
जानता है कि
वेद में क्या है,
उपनिषद में
क्या है! कुछ
भी न जानता हो,
लेकिन
दो-चार शब्द
तो उसे भी याद
हैं; वह भी
कह सकता है:
अहं
ब्रह्मास्मि!
तत्वमसि! ऐसे-ऐसे
वचन तो उसे भी
याद हैं।
कल
मैंने एक घटना
पढ़ी कि एक
गांव के चौपाल
में चर्चा
चलती थी।
रामायण की बात
उठ गई, तो
गांव का पंडित
बोला: "अरे बा
में का है। एक
थो राम, एक
रावण। बा ने
बा की तिरिया
हर लई। बा ने
बा को राजान्ना।
तुलसी ने रचदओ
पोथन्ना!' लीजिये
चार
पंक्तियों
में और रामायण
समाप्त! सब तो
कह दिया अब, बचा और क्या
कहने को!
इस
देश के पास
पिटे-पिटाये
शब्द इकट्ठे
हो गए हैं, थोथे! और इस
देश को यह
भ्रांति हो गई
है कि हम धार्मिक
हैं, पुण्यभूमि
है!
और
जब भी सत्य
आएगा तब इस
देश की जमी
हुई आधारशिलाएं
हिलने लगेंगी।
जब भी सत्य
आएगा तब
तुम्हारे
स्तंभ कंपने
लगेंगे। तुम
अपना मकान
बचाओगे कि
सत्य को सम्हालोगे?
चीन
और तिब्बत में
तिलोपा और
सरहपा को
सम्मान मिल
सका, क्योंकि
चीन और तिब्बत
में पांडित्य
का ऐसा बोझ
कभी नहीं रहा।
सारा एशिया
बुद्ध को
स्वीकार कर
सका, सिर्फ
भारत को छोड़कर,
क्योंकि
बुद्ध की बात
ताजी थी, नई
थी। और एशिया
के विराट
चित्त में
कहीं कोई बोझ
नहीं था, कोई
भारी बोझ नहीं
था। सरलता से
लोग बुद्ध को समझ
सके। यहां
समझना
मुश्किल हो
गया। यहां से तो
हमने जड़ें ही
काट दीं बुद्ध
की।
और
सरहपा-तिलोपा
बुद्ध की
परंपरा में ही
आते हैं। ये
भी
बुद्धपुरुष
हैं--उसी धारा
के, उसी धारा
में उठी लहरें
हैं! मौजूद जब
थे तब तो कुछ
प्रेम करने
वाले उनके
आस-पास इकट्ठे
जरूर हो गये
थे। मौजूद जब
थे, जब
उनकी ज्योति
जलती थी, तो
लोग लाख इनकार
करते रहें तो
भी ज्योति के
पास कुछ
परवाने तो आ
ही जायेंगे, कुछ प्राण
तो आंदोलित हो
ही जायेंगे।
लेकिन जैसे ही
तिलोपा विदा
होते हैं देह
से, वैसे
ही हमारा गहन
अंधकार वापिस
घिर जाता है। इस
देश का बड़े से
बड़ा
दुर्भाग्य है,
कि यह देश
नया होने की
कला भूल गया।
और इस बात का
हम गौरव करते
हैं। हम
निरंतर इस बात
को दोहराते
हैं, हमारे
राजनेता इस
बात को
दोहराते हैं
कि आज यूनान
कहां है, मिस्र
कहां है, बेबीलोन
कहां है, असीरिया
कहां है? खो
गईं सारी
सभ्यतायें, लेकिन हम! हम
अभी भी हैं!
न
तो मिस्र खो
गया है, न
यूनान खो गया
है। कोई खो
नहीं गया, लेकिन
हां, वे
रोज नए होते
चले गए हैं। उन्होंने
नए-नए आवरण ले
लिए, नए
वस्त्र
अंगीकार कर
लिये। हम अपने
पुराने ही
वस्त्रों को
पकड़े बैठे
हैं। सड़ गये
हैं पुराने
वस्त्र वे
हमें भी सड़ाये
डाल रहे हैं।
हम दीनऱ्हीन
हो गए हैं।
मगर हम अपने
वस्त्रों को पकड़कर
बैठे हैं। हम
छोड़ नहीं
सकते। हमारे
बाप-दादे भी
इन्हीं को
पहनते थे, उनके
बाप-दादे भी
इन्हीं को
पहनते थे।
हम
अतीतोन्मुख
हैं। हम पीछे
की तरफ नजर
लगाए हुए हैं।
जिंदगी चलती
है आगे की तरफ
और हमारी आंखें
पीछे की तरफ।
हम ऐसे
ड्राइवर हैं, जिसकी गाड़ी
तो आगे की तरफ
जा रही है
लेकिन जो देख
पीछे की तरफ
रहा है। तो
अगर हम रोज
गङ्ढों में
गिरते हैं और
रोज दुर्घटना हो
जाती है तो
आश्चर्य नहीं
है। देखना भी
आगे होगा।
भविष्य
की तरफ देखो।
पीछे तो उड़ती
धूल है अब, जहां से तुम
गुजर चुके।
उसी धूल का
गुणगान मत करते
रहो।
जब
भी कोई सदगुरु
जागेगा, जीयेगा,
तो वह
तुम्हारी
आंखों को
भविष्य की तरफ
मोड़ना चाहता
है। और
तुम्हारी
गर्दन को लकवा
लग गया है; वह
पीछे देखने की
आदी हो गई है, वह आगे देख
ही नहीं सकती।
हमारे सब
स्वर्णयुग अतीत
में थे, हो
चुके।
रामराज्य हो
चुका, अब
क्या होना है।
जो अच्छा घटना
था घट चुका, अब क्या
घटना है! आगे
तो बस कलियुग,
और गहन
कलियुग है!
यह
उदास-निराश
सभ्यता है।
इसके प्राणों
में अब कोई भी
जीने की
आतुरता नहीं
रह गई। यह
मरणधर्मी
सभ्यता है।
इसलिए जब भी
कोई जीवंत
व्यक्ति पैदा
होता है, तुमसे
उसके तालमेल
नहीं बैठ
पाते। हां, कुछ
हिम्मतवर लोग
उसके पास
इकट्ठे हो
जाते हैं, मगर
कुछ इस बड़ी
भीड़ में। जैसे
ही दीया बुझ
जाएगा, वे
थोड़े-से लोग
जैसे सागर में
शक्कर खो गई, ऐसे खो
जायेंगे।
वे
ही समझ सकते
हैं
सरहपा-तिलोपा
को, जो समझने
के लिए ही
तत्पर हैं; जो सारे
पक्षपात
छोड़ने को राजी
हैं। प्रेमी समझ
सकते हैं, ज्ञानी
नहीं समझ
सकते। पंडित
नहीं समझ सकते।
सत्य के खोजी
समझ सकते हैं।
शास्त्रों से
बंधे लोग नहीं
समझ सकते।
जिनकी
अभीप्सा मुक्त
है और जिनकी
धारणायें
मुक्त हैं और
जो कहते हैं
अभी हमें पता
नहीं है, हम
जानना चाहते
हैं--वे ही समझ
सकते हैं। और
तब जरूर
तिलोपा जैसे
व्यक्ति की
अंगुलियां
तुम्हारे
हृदय की वीणा
को छेड़ दे
सकती हैं। मगर
तुम्हें आना पड़ेगा
अपनी वीणा को
लेकर उनके
पास।
मुसकान, पुष्प, चुंबन,
सुगंध से
भरो प्रमन
सुरभित, प्रसन्न; मादक निशीथ
का मंद पवन।
मन
की तरंग पर
दीप धरो,
रस
का प्रकाश
फैलाओ री!
आओ, बरसाओ
अलस-दृष्टि से
अंग-अंग
पर अमृत, चमेली-जुही
कुसुम-रज, केसर, चंद्रविभा,
चंदन।
मैं
विरह-विकल,
मैं
श्रांत, क्लांत,
मैं
मूर्च्छित
हरियाली, मुझको
दो वारिधार।
मैं
बजने को हूं
विकल, दसों
अंगुलियों से
मोहिनी!
झंकृत करो, झंकृत करो
तार।
जब
कोई प्राणों
से ऐसा
पुकारता है कि
हे प्रिय, कि हे
प्रीतम! झंकृत
करो, झंकृत
करो तार! मैं
बजने को हूं
विकल, दसों
अंगुलियों से!
झंकृत करो, झंकृत करो
तार! जब कोई
इतनी
प्रार्थना, इतने समर्पण
से किसी
जाग्रत पुरुष
के पास आता है
तो वीणा बजती
है। लेकिन जो
अपने अहंकार
से भरे हैं, जो सोचते
हैं कि वे
पहले से ही
जानते हैं; वे तो आयें क्यों?
प्रयोजन
क्या आने का? उनका अहंकार
उन्हें कैसे
आने देगा?
इस
देश का
सौभाग्य था कि
यहां अनंत
बुद्ध पैदा
हुए और एक
दूसरी दृष्टि
से देखो तो इस
देश का दुर्भाग्य
है। काश, वे
बुद्धपुरुष
कहीं और पैदा
हुए होते तो
शायद हमने
उन्हें थोड़ा
सम्मान भी
दिया होता!
क्योंकि
जितना जो निकट
होता है उससे
हम उतने ही दूर
हो जाते हैं।
जितना जो दूर
होता है उसको
जानने की
हमारी आतुरता
भी उतनी ही
सघन होती है।
इस
संबंध में ही
सुमित्रा ने
पूछा है: ओशो
आप कहते हैं
कि बुद्ध जहां
रहते हैं उनके
आस-पास के
सूखे हुए
वृक्ष भी
हरे-भरे हो
जाते हैं, मगर ये
पूनावासी
क्यों सूखते
जा रहे हैं? जब हजारों
मील दूर
काठमांडू
वाले सिर्फ
आपकी आवाज
सुनकर अपने को
रोक नहीं पाते
हैं, वे
आनंद से पूछते
हैं कि क्या
ओशो यहां नहीं
आयेंगे? मैं
तो सिर्फ इतना
ही कह पाती
हूं कि ओशो
यहां हैं।
यद्यपि इतने
से ही उनका मन
तो नहीं भरता।
आशीष रजनीश
ध्यान केंद्र
में रोज नए-नए
पत्ते ही नहीं,
फूल भी
नए-नए खिल रहे
हैं। ऐसा
क्यों हो रहा
है? इस पर
प्रकाश देने
की कृपा करें।
सुमित्रा!
यही होता रहा
है, यही सदा
का नियम है।
पूना का
दुर्भाग्य कि
मैं यहां हूं।
जब तक मैं
यहां हूं तब
तक पूना के
लोगों से मेरा
संबंध न जुड़
सकेगा। मैं
यहां से हटूं
तो थोड़ा संबंध
जुड़े। संकोच
है आने में।
इस मधुशाला के
द्वार पर
प्रवेश करने
की भी हिम्मत
चाहिए।...लोग
देख लेंगे तो
क्या कहेंगे
कि आप और वहां!
भय है कि फिर
लौटकर क्या
उत्तर देंगे
बाजार में भीड़
को, घर में
परिवार को? पत्नी आये
तो डरती आती
है कि लौटकर
पति को उत्तर
क्या देगी? पति आये तो
डरता आता है
कि लौटकर
पत्नी को उत्तर
क्या देगा, कि आप और
वहां!
फिर, पूना
महाराष्ट्र
की काशी है; यहां पंडित
ही पंडित हैं!
एक तो पंडित
और फिर महाराष्ट्रियन...एक
तो करेला और
नीम चढ़ा! तो और
अड़चन हो जाती
है।...तो बड़ी
अकड़ है। अकड़
को न छोड़ें तो
यहां आने का
उपाय नहीं।
अकड़ छोड़ सकते
नहीं।
और
कभी-कभी तो
ऐसा हो जाता
है कि अकड़ भी न
हो...सभी पंडित
हैं भी
नहीं...अकड़ भी न
हो, तो भी जो
पास ही उपलब्ध
है, तो आज
नहीं तो कल, कल नहीं तो
परसों, कभी
हो आयेंगे, जल्दी क्या
है!
लंदन
में एक सर्वे
किया गया। कि
लंदन का जो टावर
है, उसे
देखने
दुनिया-भर से
लोग आते हैं; लंदन में
कितने लोग हैं
जिन्होंने
उसे नहीं देखा?
दस लाख
आदमियों ने
लंदन में उसे
नहीं देखा था।
लंदन का टावर,
जिसे देखने
सारी दुनिया
से लोग आते, दस लाख आदमी
लंदन में ही
रहते हैं
जिन्होंने
नहीं देखा! जो
मनोवैज्ञानिक
यह सर्वे कर
रहे थे, उन्होंने
उन लोगों से
पूछा कि क्यों?
तो लोगों ने
कहा कि कभी भी
देख लेंगे, जल्दी क्या
है?
दूसरे
महायुद्ध में
जब हिटलर लंदन
पर बम फेंकने
की आयोजना
करने लगा और
बम गिरने लगे
और यह खबर फैल
गई कि उसकी
नजर लंदन के
टावर को गिरा
देने की है, तो हजारों
लोग जो
जिंदगी-भर से
लंदन में रहे
थे और टावर
नहीं देखा था,
वे टावर
देखने पहुंच
गए। कतारें लग
गईं। पूछा टावर
के
अधिकारियों
ने कि आज
अचानक इतने
लोग क्यों? तो उन्होंने
कहा, हमने
खबर सुनी है कि
हिटलर बम
गिराने वाला
है; गिर
जाये बम, उसके
पहले देख लेना
जरूरी है। हम
तो यहीं रहते
हैं तो कभी भी
देख लेते, यह
खयाल था; मगर
अब जब बम ही
गिरने वाला है,
तो अब देख
लेना उचित है।
मैं
जबलपुर
वर्षों रहा।
जबलपुर में इस
जगत का, इस
पृथ्वी का एक
सुंदरतम स्थल
है--भेड़ाघाट।
मेरे हिसाब
में शायद
पृथ्वी पर
इतनी सुंदर
कोई दूसरी जगह
नहीं है। दो
मील तक नर्मदा
संगमरमर की
पहाड़ियों के
बीच से बहती
है। दोनों तरफ
संगमरमर की
पहाड़ियां
हैं। एक तो
संगमरमर की
पहाड़ी...हजारों
ताजमहल का
सौंदर्य
इकट्ठा! फिर
बीच से नर्मदा
का बहाव। बड़ा
अपूर्व जगत
है! मैं अपने
एक वृद्ध
प्रोफेसर को,
जिन्होंने
मुझे पढ़ाया था,
दिखाने ले
गया। वे आनंद
से रोने लगे।
बूढ़े हो गए
थे। अब तो जा
भी चुके
दुनिया से। जब
मैं उन्हें
नाव में
बिठाकर अंदर
ले गया तो वह
कहने लगे कि
यह जो मैं देख
रहा हूं, यह
सच में है? क्योंकि
मुझे लगता है
सपना। नाव को,
उन्होंने
कहा कि किनारे
लगाओ मांझी, मैं इन
संगमरमर की
पहाड़ियों को
छूकर देखना चाहता
हूं कि ये सच
में हैं? पूर्णिमा
की रात में
इतना ही जादू
हो जाता है।
भरोसा
नहीं आता कि
इस पृथ्वी पर
इतना सौंदर्य हो
सकता है!
लेकिन जबलपुर
में ऐसे
हजारों लोग
हैं, जो तेरह
मील दूर
भेड़ाघाट
देखने नहीं
गये। उनके
घरों में
मेहमान आते
हैं जो
भेड़ाघाट
देखने के लिए
आते हैं। मगर
उनको खयाल
नहीं आया कि
देखने जाना
है। इतने पास
है, कभी भी
देख लेंगे। जो
पास होता है, उसे कभी भी
देख लेंगे।
तुम्हें
अगर भरोसा न
हो तो तुम
चैतन्य और
चेतना से
पूछना। बंबई
मैं वर्षों
रहा। जिसा
मकान में मैं
रहा, वुडलैंड
में, उसी
में चेतना और
चैतन्य रहते
थे, उसी
मकान में रहते
थे, मगर
मुझे मिलने
कभी आए नहीं।
एक ही मकान
में थे। सोचा
होगा: कभी भी
मिल लेंगे। और
फिर डर भी रहा
होगा कि
वुडलैंड के और
दूसरे रहने
वाले लोग, पता
चल जाए उन्हें
कि उस दीवाने
के पास ये भी जाने
लगे, तो
झंझट होगी।
फिर जब मैं
बंबई छोड़ दिया
तब वे यहां आए
और तब ऐसे
डूबे कि फिर
लौटे ही नहीं
बंबई। फिर
संन्यस्त
होकर यहीं रह
गए। फिर भूल
ही गए बंबई, छोड़ दिया सब
धंधा, छोड़
दिया सब
काम-धाम। इतनी
हिम्मत दिखाई,
पूना में आ
गया तो। और
बंबई में थे
तो इतनी भी हिम्मत
नहीं थी कि
मुझसे मिल
लेते। ऐसा
मनुष्य का मन
है।
जबलपुर
जो मुझे कभी
मिलने नहीं आए, वे अब यहां
मिलने आते
हैं। अब यहां
आकर वे मुझे
पत्र लिखते
हैं कि हम
जबलपुर से हैं,
इसलिए हमसे
तो आपको मिलना
ही पड़ेगा। मैं
उनको पूछता
हूं, जबलपुर
में कहां थे? मैं जबलपुर
कोई बीस साल
था; जबलपुर
तुम कभी मिलने
नहीं आए, न
मैंने
तुम्हें कभी
देखा, न
तुम्हें मैं
जानता हूं। आज
तुम यहां
दावेदार होकर
आते हो! वे
पत्र लिखते
हैं कि हम तो
जबलपुर से हैं,
इसलिए हमें
तो विशेष
मिलने का मौका
मिलना ही
चाहिए।
ऐसा
ही अदभुत जगत
है यह!...तो
सुमित्रा, काठमांडू के
लोग
सौभाग्यशाली
हैं। इतने दूर
हैं कि उनके
मन में आतुरता
आती होगी, प्रेम
जगता होगा, यहां दौड़
आने का भाव
होता होगा।
सुमित्रा
दौड़ी आती है।
वृद्ध है, उम्र हो गई, मगर भागी
आती है। सब तकलीफें
झेलकर
काठमांडू से
यहां आना, इसलिए
उसको
स्वाभाविक
सवाल उठा है
कि आप कहते हैं
कि जहां बुद्ध
होते हैं वहां
सूखे वृक्ष भी
हरे-भरे हो
जाते हैं।
मैंने
ठीक ही कहा है; इन वृक्षों
के संबंध में
कहा था, आदमियों
के संबंध में
नहीं कहा था।
वृक्ष तो तू
देख कितने हरे-भरे
हैं! पूना के
आदमियों के
संबंध में मैंने
कुछ नहीं कहा
है। और न
बुद्ध के ही
जीवन में
कहानी है। ऐसा
तो है कि जब
बुद्ध गुजरते
थे कहीं से तो
सूखे वृक्ष
हरे हो जाते; मगर बुद्धू
ज्ञानी हो
जाते थे, ऐसा
कहीं नहीं है;
कि मूढ़ों को
कुछ बोध आ
जाता था, ऐसा
किसी कथा में
उल्लेख नहीं
है। असमय में
फूल खिल जाते
थे वृक्षों
में, यह तो
है; लेकिन
असमय में
किन्हीं के
भीतर ध्यान का
कमल खिल जाता
था, ऐसा
नहीं है।
वृक्ष
सीधे-सरल हैं, भोले-भाले
हैं; आदमी
जैसे जटिल
नहीं हैं।
वृक्ष न तो
ब्राह्मण हैं
न पंडित हैं, न चतुर्वेदी
न त्रिवेदी न
द्विवेदी।
एक
मित्र मुझे
पत्र लिखते
थे। कुछ भूल
हो गई। मैं
समझता था वे
द्विवेदी हैं, तो उत्तर
में मैं उनको
द्विवेदी लिख
देता था। वे
थे त्रिवेदी।
आखिर
उन्होंने एक
बार मुझे लिखा
कि मुझे
बार-बार
द्विवेदी
लिखते हैं, इससे मुझे
दुख होता है; मैं
त्रिवेदी
हूं। तो मैं
उन्हें
चतुर्वेदी
लिखने लगा। मैंने
कहा कि पुराना
सब हिसाब पूरा
हो जाए। चलो तुम
चारों वेद के
जानेवाले
सही।
वृक्ष
इतने मूढ़ नहीं
हैं; कौन
द्विवेदी, कौन
त्रिवेदी, कौन
चतुर्वेदी! न
हिंदू हैं
वृक्ष, न
मुसलमान, न
ईसाई। न
उन्हें कुरान
से कुछ लेना, न धम्मपद से
कुछ लेना।
वृक्ष तो
सीधे-सादे हैं;
भोले-भाले
हैं।
परमात्मा में
हैं। इसलिए
वृक्ष हरे हो
गए होंगे और
उनमें फूल भी
लग गए होंगे, इस पर भरोसा
आता है। यह
कहानी कितनी
ही असंभव मालूम
पड़े, संभव
हो सकती है, लेकिन अगर
एक भी ऐसा
उल्लेख होता
कि बुद्ध निकले
और एक बुद्धू
बैठा था और वह
एकदम से
ज्ञानी हो गया,
तो मैं न
मानता। यह तो
मैं मान सकता
हूं कि वृक्ष
में फूल आ गए
होंगे; हो
सकता है।
क्योंकि
वृक्षों को
मैं भी जानता हूं
और आदमियों को
भी मैं जानता
हूं। आदमियों ने
तो पत्थर मारे
बुद्ध को। यह
हो सकता है कि
वृक्ष का फल
टपकने-टपकने
को हो और
वृक्ष ने रोक
लिया हो कि नीचे
बुद्ध बैठे
ध्यान कर रहे
हैं, कहीं
चोट न लग जाए।
यह हो सकता
है। मगर
आदमियों ने
पत्थर मारे।
आदमियों ने
चट्टानें
सरकाई पहाड़ों
से कि बुद्ध
जहां नीचे
ध्यान कर रहे
हैं, चट्टान
की लपेट में आ
जायें। कहते
हैं, चट्टान
ऐसा बचाकर
निकल गई।
आते-आते बचाकर
निकल गई।
पागल
हाथी छोड़ा
बुद्ध के ऊपर, आदमियों ने!
और कहते हैं, जब हाथी
बुद्ध के पास
आया तो सिर
झुकाकर खड़ा हो
गया। पागल
हाथी में भी
इतना बोध है, मगर छोड़ने
वालों की क्या
कहो! और जिसने
छोड़ा था वह
कोई दूर का
आदमी न था, बुद्ध
का चचेरा भाई
था, देवदत्त।
चचेरे भाई को
सर्वाधिक
पीड़ा थी, क्योंकि
दोनों एक साथ
बड़े हुए, समान
उम्र के थे।
फिर बुद्ध को
इतनी प्रतिभा
मिल गई, बुद्ध
को ऐसी महिमा,
बुद्ध ऐसे
ज्योतिर्मय!
और देवदत्त
वैसा का वैसा
रहा।र् ईष्या
जगी। बुद्ध के
परिवार के लोगों
मेंर् ईष्या
जगी, गांवों
के लोगों
मेंर् ईष्या
जगी, स्वजन
प्रियजनों
मेंर् ईष्या
जगी। जो निकट
थे उनमेंर्
ईष्या जगी। जो
दूर थे
उनमेंर् ईष्या
नहीं जगी। जो
दूर थे वे तो
पास आना चाहे।
जो पास थे वे
दूर होने लगे।
ऐसे मनुष्य के
जीवन की व्यवस्था
है।
फिर
मैं जो सिखा
रहा हूं, वह
कुछ ऐसा है...कि
कसूर मेरा है।
कसूर सरहपा और
तिलोपा, कसूर
बुद्ध और
महावीर का है।
लोगों का क्या
कसूर है? लोग
तो जैसे हैं
वैसे हैं। जो
उन्हें बदलना
चाहते हैं, कसूर होगा
तो उन्हीं का
होगा।
मैं
जो बातें कह
रहा हूं, वे
अंगारे हैं।
जो दग्ध होना
चाहते हैं, केवल वे ही
अपनी झोली
फैलाकर उन
अंगारों को ले
सकते हैं। जो
जल जाने को
तैयार हैं, सिर्फ
परवानों के
लिए ये बातें
हैं, सबके
लिए नहीं।
इसलिए
ऐसा भी मत
सोचो कि पूना
में कोई भी
नहीं आ रहा
है। परवाने तो
आ गए हैं, परवाने
यहां मौजूद
हैं। परवाने
तो थोड़े ही होंगे।
इस
बात को भी
खयाल में रख
लेना, काठमांडू
में दस पच्चीस
लोग इकट्ठे
होते हैं, नाचते
हैं, गीत
गाते हैं, तो
तुम्हें लगता
है काठमांडू
में इतने लोग
उत्सुक हो रहे
हैं!
दस-बीस-पच्चीस
लोग पूना में
भी उत्सुक
हैं। पूरा
पूना उत्सुक
नहीं है, पूरा
काठमांडू भी
उत्सुक नहीं है।
इसलिए यह
अनुपात भी
खयाल में
रखना। फिर मैं
काठमांडू में
मौजूद नहीं
हूं, इसलिए
जो मुझमें
उत्सुक हैं वे
मुझमें उत्सुक
हैं, शेष
मेरे दुश्मन
नहीं हैं।
जहां मैं
मौजूद होऊंगा
वहां तो बंट
ही जाना पड़ेगा
लोगों को; या
तो मित्र या
शत्रु, बीच
में नहीं रह
सकते। बीच में
रहने का कोई
उपाय नहीं है।
ये मेरे जैसे
आदमियों का
भाग्य ही नहीं
है कि कोई
आदमी बीच में
रह सके; उसे
या तो मित्र
हो जाना पड़ेगा
या शत्रु हो
जाना पड़ेगा; या तो मेरे
प्रेम में पड़े
या मेरे प्रति
घृणा से भर
जाए; मुझसे
संबंध तो
जोड़ना ही
पड़ेगा।
अब
इसमें फर्क पड़
जाता है।
काठमांडू में
या रंगून में
या टोकियो में
जो मुझे प्रेम
करते हैं, वे मुझे
प्रेम करते
हैं, शेष
को मुझसे कोई
संबंध नहीं है,
कुछ
लेना-देना
नहीं है। यहां
पूना में जहां
मैं मौजूद हूं
वहां एक भी
व्यक्ति
तटस्थ नहीं रह
सकता; या
तो प्रेम या
घृणा, कोई
न कोई नाता
मुझसे बनाना
ही पड़ेगा। मैं
इतना मौजूद हूं
कि कुछ न कुछ
नाता बनाना ही
पड़ेगा। यहां
कोई व्यक्ति
तुम्हें पूना
में ऐसा नहीं
मिलेगा जो कहे
हमें कुछ
लेना-देना
नहीं, न हम
पक्ष में हैं
न हम विपक्ष
में। ऐसा आदमी
नहीं मिलेगा।
यह स्वाभाविक
है।
फिर, जो मैं कह
रहा हूं, वह
बात ही आग की
है।
मेरा
कुफ्रे-मुहब्बत
है
फरोग़े-जाद-ए-ईमां।
वोह
शमए-दैर हूं
मैं रोशनी
जिसकी हरम तक
है।।
मेरा
कुफ्रे-मुहब्बत
है। मैं तो
प्रेम का धर्म
सिखा रहा हूं।
मैं तो कुछ और
ही धर्म सिखा
रहा हूं।
जिसको कि
तथाकथित
धार्मिक लोग
कुफ्र कहेंगे, मुझे तो काफिर
कहेंगे।
क्योंकि मैं
परमात्मा
नहीं सिखा रहा
हूं, प्रेम
सिखा रहा हूं।
क्योंकि मैं
जानता हूं जिसने
प्रेम सीख
लिया उसे
परमात्मा मिल
ही जाता है, परमात्मा की
बात ही उठानी
व्यर्थ है। और
परमात्मा की
बातों में जो
उलझ गया उसके
जीवन में कभी
प्रेम ही पैदा
नहीं हो पाता,
तो
परमात्मा
कैसे मिलेगा?
मेरा
कुफ्रे-मुहब्बत
है
फरोगे-जाद-ए-ईमां।
और जो मैं
सिखा रहा हूं, वह न तो
हिंदू का है न
मुसलमान का है
न ईसाई का है; वह सारे
धर्मों की
सीमाओं के पार
है। सारे धर्मों
की जो
सार-वस्तु है
वह मैं कह रहा
हूं। और सार
को तो कितने
लोग पहचानते
हैं? असार
से परिचय है।
हिंदू सोचता
है जनेऊ पहन
लिया तो वह
हिंदू हो गया
है। जनेऊ से
क्या हिंदू का
लेना-देना है?
कि चोटी बढ़ा
ली तो हिंदू
हो गया। चोटी
से क्या हिंदू
का लेना-देना
है? कि
मुसलमान
सोचता है कि
खतना हो गया
तो मुसलमान हो
गया। खतने से
क्या मुसलमान
का लेना-देना
है?
क्षुद्र
और असार बातों
को लोग समझ
लेते हैं धर्म।
इसलिए जब तुम
कभी सार की
बात करो तो
उनकी निन्यानबे
प्रतिशत
बातों की तो
बात होती ही
नहीं। वे
निन्यानबे
प्रतिशत
बातें उनके
जीवन में बड़ी
महत्वपूर्ण
हो गई हैं। तो
जब भी कभी धर्म
की कोई बात कही
जाएगी, वह
न तो हिंदू
होगी, न
मुसलमान, न
ईसाई। सभी
नाराज हो
जायेंगे।
वोह
शमए-दैर हूं
मैं रोशनी
जिसकी हरम तक
है। मैं मंदिर
का ऐसा दीया
हूं जिसकी
रोशनी मस्जिद तक
पड़ रही है, मस्जिद तक
जा रही है।
वोह शमए-दैर
हूं मैं रोशनी
जिसकी हरम तक
है। जिनको
दिखाई पड़ेगा,
वे तो चकित
हो जायेंगे कि
मुझमें मंदिर
और मस्जिद एक
हो गये हैं, कि मैं दीया
तो मंदिर का
हूं लेकिन
मेरी रोशनी
मस्जिद पर पड़
रही है। लेकिन
जो लोग नहीं
समझ पायेंगे...और
कम ही लोग समझ
पायेंगे।
नासमझ ज्यादा
हैं, उनकी
भीड़ है। वे
मेरी प्रेम की
बातें और मेरी
प्रेम की
उपासना से बड़े
परेशान
होंगे।
परिस्तारे-मुहब्बत
की मुहब्बत ही
शरीअत है।
यह
जो प्रेम की
उपासना है; इसके लिए
कुछ और चाहिए
नहीं; इसकी
कोई और शैली
नहीं होती; इसका कोई और
क्रियाकांड
नहीं होता।
परिस्तारे-मुहब्बत
की मुहब्बत ही
शरीअत है।
किसी
को याद करके
आह कर लेना
इबादत है।।
मैं
तो छोटी-सी
बात कर रहा
हूं--सूत्र की
बात--आधारभूत, बीज की बात।
परिस्तारे-मुहब्बत
की मुहब्बत ही
शरीअत है। बस
मुहब्बत ही
उसकी शैली है।
मुहब्बत ही
नियम है, मुहब्बत
ही अनुशासन
है। किसी को
याद करके आह कर
लेना इबादत
है। बस काफी
है, तुम्हारी
आंख से दो
आंसू टपक गए
प्रेम के, कि
तुम्हारी
आंखें उठीं
आकाश की तरफ
आनंदमग्न, कि
तुम नाच लिए
क्षण भर को, कि तुम डूब
गए इस विराट
अस्तित्व के
सौंदर्य में--बात
हो गई। न पढ़ी
कुरान, न
पढ़े वेद के
मंत्र--और बात
हो गई! बिना
बात किए बात
हो गई। इसे
कितने लोग समझ
पायेंगे? थोड़े
ही लोग समझ
पायेंगे। और
जो समझ
पायेंगे उन्हें
बड़ी वेदना से
गुजरना होगा,
क्योंकि
प्रेम असह्य
वेदना में ले
जाता है।
प्रेम
अग्नि है।
जैसे सोना
तपाया जाता है
आग में, सुमित्रा
ऐसे ही प्रेम
की आग में
तपना होता है।
वह
तो सोने को हम
आग में डाल
देते हैं। अगर
सोने को खुद
ही आग में
गिरने की
स्वेच्छा से
चुनाव की
सुविधा हो तो
कोई सोना आग
में न गिरे, भाग ही खड़ा
हो कि हमें
नहीं पड़ना आग
में। उसे क्या
पता कि आग में
पड़ने से ही
परिष्कार है!
दो, निरंतर टीस
दो, छोड़ो न
मुझको,
मांस
में यों ही
शलाकाएं
चुभाओ,
देह
को यों ही रहो
धुनती, तपाती,
एंठती
मेरी
मनोरम वेदने!
हर
टीस, हर एंठन
नया कुछ स्वाद
लाती है;
तोड़
कर पपड़ी हृदय
में ताजगी
भरती,
और
आत्मा को चुभन
देकर जगाती
है।
तुम्हारे
श्याम पंखों
की कड़क-सी
फड़फड़ाहट पर
उमंगों
की उड़ानें और
भी ऊपर
पहुंचती हैं;
व्यथा
से चीखता तन, किन्तु आत्मा
गीत है गाती,
जलाती
आग जो तुम वह
किसी
खरतर अनल का
ताप पीकर शांत
हो जाती।
दिवस
निस्तेज थे जो
अब
नयी कुछ रौशनी
उनमें दमकती
है,
भुवन
जो शुष्क था
उसमें, न
जाने,
विभा
यह किस अलभ
सौंदर्य की
क्षण-क्षण
चमकती है
सभी
कुछ दिव्य है, नूतन प्रखर
है
चतुर्दिक
प्रेरणा
निर्माण की
लहरा रही है;
चुभन
है, टीस है, अथवा मुझे
तंत्री बना कर,
रगों
की तांत पर
कोई परी कुछ
गीत गा रही
है।
वेदना
को जो समझेंगे
और वेदना में
से जो गुजरेंगे
वे हैरान हो
जायेंगे।
वेदना
निखारती है, मांजती है।
और प्रेम
करोगे तो
वेदना में
पड़ना ही
पड़ेगा। प्रेम
सस्ता सौदा
नहीं है। और
लोगों ने धर्म
को बहुत सस्ता
बना रखा है।
प्रेम महंगा
सौदा है; प्राणों
से कीमत
चुकानी होती
है। जो चुका
सकते हैं; वे
ही मेरे पास
आयेंगे।
शमा
जल गई है, परवानों
को निमंत्रण
दे दिया गया
है; अब जो
परवाने होंगे,
आयेंगे।
तुम औरों की
चिंता भी मत
करो
सुमित्रा।
उनकी मौज, उनकी
स्वतंत्रता।
अगर उन्हें
मुझे घृणा करनी
है तो उन्हें
घृणा करने दो।
अगर उन्हें
मेरा अपमान
करना है तो
उन्हें अपमान
करने दो। उन्हें
अगर मुझसे
शत्रुता रखनी
है तो शत्रुता
रखने दो। उनकी
फिकिर ही न
लो। उनके
संबंध में चिंतन
करके समय
गंवाओ भी मत।
जब उनकी घड़ी
आयेगी, जब
उनका समय
पकेगा, जब
उनके जीवन में
परमात्मा की
पुकार सुनाई
पड़ेगी...अगर
मैं यहां हुआ
तो मेरी आवाज
खींच लेगी उन्हें,
अन्यथा
किसी और की।
कोई और शमा
उनके जीवन को
बदलने का कारण
बनेगी।
मगर
सब ऋतु आने पर
ही होता है।
तुम जो मेरे पास
आ गए हो, आकस्मिक
नहीं है।
तुम्हारी ऋतु
आ गई। तुम तैयार
हो, इसलिए
आ गए हो। जो
तैयार नहीं
हैं, जब
तैयार होंगे,
तब आ
जायेंगे। मैं
नहीं रहा तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता, कोई
और होगा। जब
भी कोई सत्य
को खोजना
चाहता है तो
कोई न कोई
मार्गदर्शक
उपलब्ध हो
जाता है। जब
भी शिष्य
तैयार होता है,
गुरु प्रगट
हो जाता है।
चौथा
प्रश्न:
मैं
टूटता हूं।
मैं डूबता ही
जा रहा हूं।
आपकी शरण आया
हूं। प्रभु, मेरा
स्वीकार करो।
वेदांत
सागर! और भी
टूटना है, और भी
बिखरना है, और भी डूबना
है। मिट ही
जाना है। मरण
को अंगीकार
करो। इस मन को
तो तोड़ ही
डालना है। इसे
तो बिलकुल ही
समाप्त कर देना
है। तभी तुम
जानोगे कि तुम
कौन हो।
और
बहुत-सी
असफलतायें
मार्ग में
मिलेंगी, और
बहुत-से कष्ट
भी। मंजिल आये,
इसके पहले
मार्ग में न
मालूम कितने
कांटे हैं।
मार्ग
कंटकाकीर्ण
है। घबड़ा न
जाना।
मैं
नहीं
दुर्भाग्य के
सम्मुख
झुकूंगा।
आज
जीवन में हुआ
असफल भले ही!
एक
पल को साधना
की भावना सोई
नहीं,
और
जाऊं हार, ऐसी बात भी
कोई नहीं,
मैं
नहीं सुनसान
राहों पर
थकूंगा
दूर, बेहद दूर हो
मंजिल भले ही!
मैं
नहीं
दुर्भाग्य के
सम्मुख
झुकूंगा
आज
जीवन में हुआ
असफल भले ही!
आज
छाया है अमावस-सा
अंधेरा सब तरफ,
पर, अभी कल
मुसकराएगा
सबेरा सब तरफ,
मैं
न मन की पंगु
दुविधा में
रुकूंगा
पास
में चाहे न हो
संबल भले ही!
मैं
नहीं
दुर्भाग्य के
सम्मुख
झुकूंगा
आज
जीवन में हुआ
असफल भले ही!
बहुत
बार हार हाथ
लगेगी।
हारऱ्हारकर
ही तो कोई
जीतने की कला
सीखता है।
मिट-मिटकर ही
तो कोई हो
पाता है। बहुत
बार हाथों में
कांटे
चुभेंगे। जो
फूल बीनने चला
है, उसे
कांटों से
चुभने की
तैयारी रखना
ही चाहिए।
जल्दी
न करो। अधैर्य
न करो। चलते
चलो।
हिम्मत
न हारो!
कंटकों
के बीच
मन-पाटल
खिलेगा एक दिन
हिम्मत
न हारो!
यदि
आंधियां आएं तुम्हारे
पास
उनसे
खेल लो,
जितनी
बड़ी चट्टान वे
फेंकें
तुम्हारी ओर
उसको
झेल लो!
तुम
तो जानते हो
आजकल
बरसात के दिन
हैं;
गगन
में खलबली है,
दौर-दौरा
है घटाओं का,
तुम्हारे
सामने
अस्तित्व हो
उनका सदाओं
का!
लरजती
बिजलियां;
माना,
तुम्हारे
सामने हो खेल
आतिशबाजियां
नाना!
निरंतर
राह पर चलते
रहोगे तो
तुम्हारा
लक्ष्य तुमसे
आ मिलेगा एक
दिन!
हिम्मत
न हारो!
कंटकों
के बीच
मन-पाटल
खिलेगा एक
दिन!
हिम्मत
न हारो!
हारने
का तो कोई
कारण ही नहीं
है। हार तो
जीत की सीढ़ी
है।
तुम
कहते हो: "मैं
टूटता हूं, मैं डूबता
ही जा रहा
हूं।' जरा
भी भय न करो।
मूर्तिकार
मूर्ति को
बनाता है तो छैनी
उठाकर तोड़ता
है पत्थर को।
काश, पत्थर
को होश होता
तो चिल्लाने
लगता कि मत
काटो मुझे, मत तोड़ो
मुझे। वह तो
भला है कि
पत्थर को कुछ
होश नहीं; टूट
जाने देता है
अपने अंगों को,
भंग हो जाने
देता है। और
एक दिन उभरती
है प्रतिमा
बुद्ध की, कि
जीसस की।
ऐसे
ही तुम भी जब
आते हो तो एक
अनगढ़ पत्थर
हो। मुझे
उठाने दो छैनी, मुझे चलाने
दो हथौड़ा।
मुझे तोड़ने दो
तुम्हें। बीच
में ही भाग मत
जाना।
हिम्मत
न हारो! घटना
घटेगी। अगर
टिके रहे, अगर रुके
रहे, तो एक
दिन तुम्हारे
भीतर भी बुद्ध
की प्रतिमा
प्रगट होगी।
सभी के भीतर
बुद्ध की
प्रतिमा छिपी
है। हर पत्थर
के भीतर छिपी
है। बस जरा-सा
व्यर्थ का
असार हिस्सा
तोड़ देना है।
वही तुम्हारा
मन है। वही
तुम्हारी
तृष्णा है, वासना है।
उसे जरा काट
देना है।
काटना पीड़ादायी
है, क्योंकि
कितने जन्मों
से हमने उसे अपना
माना है; आज
अचानक छोड़ते,
विदा करते
अड़चन होती है,
बेचैनी
होती है, घबड़ाहट
होती है।
और
तुम कहते हो:
"प्रभु, मेरा
स्वीकार करो!'
वह तो मैंने
किया है।
मैंने उनका भी
स्वीकार किया
है।
जिन्होंने
मुझे स्वीकार
नहीं किया है।
मेरी तरफ से
स्वीकार
पूर्ण है। अड़चन
आयेगी, तुम्हारी
तरफ से आयेगी,
मेरी तरफ से
कोई अड़चन नहीं,
कोई बाधा
नहीं। मैं तो
तुम्हें दूर
की यात्रा पर
ले जाने को
तत्पर हूं।
पुकारे चला
जाता हूं।
मैंने तो
स्वीकार किया
ही है। तुम
स्वीकार कर
सको, वहां
अड़चन आती है।
और स्वाभाविक
है कि अड़चन तुम्हें
आये, क्योंकि
टूटना
तुम्हें
पड़ेगा। अंग
भंग तुम्हारे
होंगे। पीड़ा
तुम्हें
झेलनी पड़ेगी।
हिम्मत
न हारो!
कंटकों
के बीच
मन-पाटल
खिलेगा एक दिन,
हिम्मत
न हारो!
पांचवां
प्रश्न:
ओशो, जो सब का
देखनेवाला है
और सबके अंदर
में ही रहता
है, फिर भी
जानने में
क्यों नहीं
आता? वह
सर्व का
द्रष्टा और
साक्षी जो है,
वह कैसे
जानने में आता
है? कृपया
समझायें।
बालकृष्ण
चैतन्य, इसीलिये
वह जानने में
नहीं आता
क्योंकि वह सबका
जाननेवाला
है। तुम्हारे
भीतर जो जानने
वाला तत्व है
वही वह है।
उसे तुम कैसे
जानोगे? और
किससे जानोगे?
जिसको भी
तुम जानोगे वह
तुम नहीं हो।
जो भी तुम जान
लोगे, जान
लेना कि यह
मैं नहीं हूं।
यही तो
नेति-नेति की
प्रक्रिया
है। जो भी जान
लिया जाये, कहना: नेति, यह मैं
नहीं। मैं तो
जाननेवाला
हूं। मैं जाना
जा नहीं सकता।
मैं विषय नहीं
हो सकता ज्ञान
का, मैं तो
ज्ञाता हूं।
मैं दृश्य
नहीं हो सकता,
मैं तो
द्रष्टा हूं।
द्रष्टा
को कैसे दृश्य
करोगे? और
दृश्य अगर
द्रष्टा को कर
दोगे तो वह
फिर किसके
सामने दृश्य
होगा? यह
तो ऐसे ही है
जैसे कि तुम
एक चमीटे से
उसी चमीटे को
पकड़ने की
कोशिश करो, पागल हो
जाओगे। जरा
कोशिश करना एक
दिन, चमीटे
से उसी चमीटे
को पकड़ने की
कोशिश करना।
पगलाने
लगोगे। थोड़ी
ही देर में
घबड़ाने
लगोगे। अपनी
आंख से अपनी
ही आंख को
देखने की
कोशिश करना।
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
सबको तो देख
लेती है आंख, अपने को
नहीं देख सकती,
कैसे
देखेगी अपने
को? और
अपने को देख
लेगी तो
तत्क्षण जो
देख लिया गया,
उससे भिन्न
हो गई। आंख को
तो केवल तुम
दर्पण में देख
सकते हो। मगर
दर्पण में जो
तुम देखते हो
वह आंख की
केवल छांई है,
परछांई है,
आंख नहीं
है।
इसलिये
आत्मज्ञान तो
प्रेम में ही
होता है; प्रेम
दर्पण है।
जिससे तुम
प्रेम करते हो
वह दर्पण बन
जाता है।
उसमें
तुम्हें अपनी
प्रतिछवि
दिखाई पड़ जाती
है। मगर वह
छांई है। खयाल
रखना, दर्पण
में तुमने जो
देखा है वह
केवल छाया
मात्र है।
प्रेम में
स्वयं ही छाया
मात्र दिखाई
पड़ती है।
लेकिन
बस प्रेम
निकटतम है, जो ज्ञान के
आता है; और
इसके बाद फिर
कोई और ज्ञान
नहीं है। अगर
तुमने आंख बंद
करके अपने को
देखना चाहा, तुम अपने को
कभी न देख
सकोगे।
"आत्मज्ञान'
बड़ा
विरोधाभासी
शब्द है।
आत्मज्ञान का
वस्तुतः अर्थ
वैसा नहीं है
जैसा शब्द का
है। आत्मज्ञान
का अर्थ होता
है: जहां
जानने को कुछ
भी न बचा, देखने
को कुछ भी न
बचा, कोई
दृश्य न रहा, कोई विषय न
रहा; जहां
सब विषय-वस्तु
खो गई; जहां
सिर्फ
देखनेवाला
बचा। ऐसा नहीं
कि तुम इसको
देख लोगे; मगर
जहां सिर्फ
देखनेवाला
बचा उसकी
अनुभूति होगी,
उसकी अंततः
प्रतीति होगी,
कि अब अकेला
मैं ही बचा, अब बस मैं ही
हूं, अब
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। इस
शून्य अवस्था
में आत्मज्ञान
घटता है।
मगर
आत्मज्ञान
शब्द से
भ्रांति में
मत पड़ जाना, क्योंकि
आत्मज्ञान से
ऐसा ही लगता
है कि जैसे हम
और किसी को
जानते हैं ऐसे
ही आत्मा को
भी जानेंगे; जैसे वृक्ष
दिखाई पड़ रहा
है, ये
स्तंभ दिखाई
पड़ रहे हैं, ये लोग
दिखाई पड़ रहे
हैं, ऐसे
ही एक दिन हम
भीतर
बैठे-बैठे देखेंगे--यह
रही आत्मा! तो
तुम गलती में
हो। आत्मा को
तुम कभी भी इस
तरह न देख
पाओगे।
आत्मज्ञान
का इतना ही
अर्थ है कि
देखने को कुछ
भी न रहेगा, तो देखने की
जो क्षमता है
वह स्वयं की
प्रतीति
करेगी।
प्रतीति!
सिर्फ एहसास!
सिर्फ
हल्की-हल्की
अनुभूति। तुम
पकड़ न लोगे झपटकर
कि यह रही
आत्मा, कि
मिल गये।
किसको मिलोगे?
वहां दो
नहीं हैं, वहां
एक है। कौन
जानेगा? किसके
द्वारा जाना
जायेगा?
तुम
पूछते हो: "जो
सब का
देखनेवाला है
और सबके अंदर
में ही रहता
है, फिर भी
जानने में
क्यों नहीं
आता?' इसीलिए!
इसीलिए जानने
में नहीं आता
है!
नित
हृदय-गति में
निरंतर
धड़कनों
से कौन हो तुम?
प्राण
पर मेरे
अंधेरा
छा
रहा दुख की
घटा का,
आज
तो दुर्लभ बना
है
देखना
तेरी छटा का
श्वास
के स्वर में
निरंतर
सरगमों
से कौन हो तुम?
चिर
व्यथा के विकट
पथ में
थक
रहे पद आज
मेरे,
और
खोजे मिल न
पाते
धूमिल
से पद-चिह्न तेरे,
शांत
से, विश्रांति
में गति-
से
निरंतर कौन हो
तुम?
मिट
न पाते आज
मुझसे
सबल
सुधि के चित्र
तेरे,
अश्रु
बनकर ढुलक
जाते
हृदय
के ये रत्न
मेरे
आज
अविरल यातना
में
सांत्वना
से कौन हो तुम?
श्वास
भी परिहास
करते
आज
थकते जा रहे
हैं,
सघन
तम में पंथ पर
पद
अब भटकते जा
रहे हैं,
चिर-निराशा
के तिमिर में
आस
दीपक कौन हो
तुम?
अश्रु
तेरी अर्चना
को,
ढुलक
जाते नित
अजाने
पीर-दीपों
से दिवाली
उर
उगा है अब
मनाने
मौन
दीपक की शिखा
में
उजाले
से कौन हो तुम?
नित
हृदय-गति में
निरंतर
धड़कनों
से कौन हो तुम?
उसकी
तो सिर्फ ऐसी हल्की-हल्की
प्रतीति होगी, आभास होगा।
लेकिन तुम उसे
देख न पाओगे।
तुम उसे हाथ
में पकड़ न
पाओगे। वह
अपरिहार्य-रूपेण
द्रष्टा है और
दृश्य नहीं हो
सकता है।
इसलिये क्या
करें? फिर
क्या करें? एक ही काम
किया जा सकता
है: दृश्य को
विदा करो। जो-जो
दृश्य है उसे
विदा करते
जाओ।
दृश्य-पटल पर
कोई दृश्य न
रह जाये।
कभी
तुमने खयाल
किया कि तुम
सिनेमा गये
फिल्म देखने, फिल्म चली, सफेद कोरे
पर्दे पर
धूप-छाया का
खेल शुरू हुआ,
तुम तल्लीन
हो गये। जब
तुम फिल्म को
देखने में
पूरे तल्लीन
हो जाते हो, जब कथा
तुम्हारे
प्राणों को
पकड़ लेती है, तब तुम्हें
अपनी याद नहीं
रह जाती...तब
तुम भूल जाते
हो कि मैं
देखनेवाला
हूं। तब दृश्य
ही सब कुछ हो
जाते हैं, द्रष्टा
शून्य हो जाता
है। द्रष्टा
की विस्मृति
हो जाती है, दृश्य सब
कुछ हो जाते
हैं। अगर
दृष्य कोई
दुखांत होता
है, तुम्हारी
आंखों से
झर-झर आंसू
टपकते हैं।
अगर दृश्य कोई
उत्तेजक होता
है तो तुम कुर्सी
को छोड़कर रीढ़
सीधी करके बैठ
जाते हो। अगर
दृश्य कोई
भयानक होता है
तो तुम्हारे
मुंह से आवाज
तक निकल जाती
है। लेकिन फिर
फिल्म समाप्त
हुई, पर्दा
फिर कोरा हो
गया, धूप-छाया
का खेल विलीन
हो गया। तब
तुम खयाल करना,
एकदम से
चौंककर
तुम्हें खयाल
आता है अपना, कि अरे
फिल्म खतम हो
गई, अब घर
चलें। उठे
तुम। इस दो
घंटे तक तुम
बिलकुल भूल
गये थे कि तुम
हो कोई और
तुम्हारा घर
भी है कोई, कि
पत्नी घर राह
देखती होगी।
सब भूल गये
थे। न कोई
चिंता थी न
कोई फिकिर थी।
तुम ही न थे तो
कैसी चिंता
कैसी फिकिर!
अब सब लौट आया
एकदम से। होश
आया। अपना होश
आया। आंखें
साफ करके चल
पड़े घर की
तरफ।
यह
जगत एक
चित्र-कथा है।
यहां तुमने और
सब देखा है
मगर और सबको
देखने में
अपने को भूल
गये हो, अपनी
याद नहीं रही
है। क्षीण-सी
भी याद नहीं रही
है।
संन्यास
का इतना ही
अर्थ है: अपनी
याद को जगाओ।
अब धीरे-धीरे
द्रष्टा को
सजग करो। और
जैसे-जैसे
द्रष्टा
जगेगा वैसे-वैसे
जगत का पट
शून्य होता
जाएगा। समाधि की
अवस्था का
अर्थ इतना ही
होता है कि
जहां दृश्य सब
खो गये और
द्रष्टा
अकेला रह गया।
पर्दे पर कुछ
भी नहीं है अब, फिल्म खतम
हो गई, अब
घर जाने के
सिवा कुछ भी न
बचा। यह घर
जाती चेतना
मुक्त चेतना
है। यह अपने
स्रोत में
जाती चेतना
मुक्त चेतना
है। यही
निर्वाण है।
ध्यान
के सारे
प्रयोग मौलिक
रूप से एक ही
काम करते
हैं--विधियां
कितनी ही
भिन्न हों मगर
मौलिक
प्रयोजन एक
है--कि कैसे
तुम्हारे चित्त
के पर्दे पर
चलते हुए
चित्रों को
विदा किया
जाये।
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे
सारे चित्र
विदा हो जाते
हैं, खाली एक
शून्य रह जाता
है तुम्हें
घेरे हुए। उसी
शून्य में
आत्मस्मरण
होता है।
स्मरण कहना ठीक
होगा, दर्शन
कहना ठीक नहीं
होगा; ज्ञान
कहना ठीक नहीं
होगा, बोध
कहना ठीक
होगा। एक बोध
जग उठता है:
मैं साक्षी हूं।
और
खयाल रखना, जब मैं कह
रहा हूं कि
ऐसा बोध जगता
है कि मैं साक्षी
हूं, ऐसे
शब्द नहीं
बनते कि मैं
साक्षी हूं।
यह तो मुझे
तुमसे कहना पड़
रहा है इसलिए
शब्दों से कह
रहा हूं। बस
ऐसा बोध होता
है, निःशब्द
बोध--मैं साक्षी
हूं! बस उसी
क्षण में
क्रांति घट
गई। उसी क्षण
में दृश्य से
तुम द्रष्टा
पर छलांग लगा
गये। वही
छलांग
निर्वाण है।
वही छलांग परम
आनंद है। गये
सब दुख, गये
सब
सुख--महासुख
आया अब! आनंद
का आविर्भाव हुआ
अब!
छठवां
प्रश्न:
ओशो, कल्पवृक्ष
के नीचे जो
मांगो, वह मिलता
है--ऐसा सुना
है। मगर यहां
वह भी वृक्ष है,
जिसके नीचे
बिना मांगे
मिलता है! और
खूब-खूब मिलता
है! ओशो, आपकी
अनुकंपा का
कैसे धन्यवाद
करूं?
मुक्ति!
गाओ, नाचो! तुम
जितना नाचो
उतना
तुम्हारा
धन्यवाद। तुम
जितना गाओ
उतना
तुम्हारा
धन्यवाद। मुझे
सीधा धन्यवाद
देने की जरूरत
ही नहीं है।
मस्त हो जाओ।
मस्ती से
जीयो। रस से
भरपूर जीयो।
एक-एक क्षण
रस-मग्न हो, आनंद-विभोर
हो--बस वही
धन्यवाद है।
मुझे
धन्यवाद देने
की कोई और
जरूरत ही नहीं
है; तुम्हें
आनंदित देख
लूंगा, मुझे
धन्यवाद मिल
गया।
यह
किसकी पहचान
अधर का गान
हुई जाती है!
जिसकी
सुधि में
तारों ने,
आंखों
में रात बिता
दी,
उसकी
ही छबि नयनों
में,
छविमान
हुई जाती है!
यह
किसकी पहचान
अधर का गान
हुई जाती है!
नहीं
जानती कैसे
होगा,
चित्र
अधूरा पूरा!
धूमिल-सी
रेखा भी,
अंतर्ध्यान
हुई जाती है।
यह
किसकी पहचान
अधर का गान
हुई जाती है!
श्वास-पृष्ठ
पर कैसे लिख
दूं,
अंतरत्तम
का लेखा!
चिर-पीड़ा
भी अधरों की,
मुसकान
हुई जाती है!
यह
किसकी पहचान
अधर का गान
हुई जाती है!
स्वप्न
मिलन की बात,
प्राण
इतना तुम-मय
हो बैठे!
दो
पल की देरी, युग का
व्यवधान
हुई जाती है!
यह
किसकी पहचान
अधर का गान
हुई जाती है!
मुझसे
तुम्हारी
पहचान हो तो
तुम्हारे अधर
पर गान होना
चाहिए। इसके
अतिरिक्त
मेरे संन्यासी
का और कोई
लक्षण नहीं
होगा, और
कोई चरित्र
नहीं होगा, और कोई आचरण
नहीं होगा।
मेरा संन्यास
जाना जायेगा
उसके आनंद-भाव
से। मेरा
संन्यासी
पहचाना
जायेगा उसकी
मस्ती से।
मेरे
संन्यासी को
परमात्मा की
शराब पी लेनी
है।
औरों
ने कुछ और
लक्षण दिये
होंगे।
किन्हीं ने कहा
है कि तुम
अपने चरित्र
को सम्हालना।
किन्हीं ने
कहा है कि तुम
अपने
व्यक्तित्व
को ऐसा बनाना, वैसा बनाना,
शुद्ध
करना। मेरे
संन्यासी की
पहचान एक ही
होगी: उसका
प्रतिपल उत्सवमय
होना। वही
तुम्हारा
धन्यवाद है।
मेरी पहचान
तुम्हारे अधर
का गान हो
जाये, बस।
आखिरी
प्रश्न: हे
परमात्मा, आपको सुनकर
झूमने लगती
हूं।
अस्तित्व सब
दिशा से बोध
बरसा रहा है
यह झेलने की
क्षमता देने की
कृपा करें। और
यह विराट जीवन,
सब रंगों से
भरी दुनिया, यह अनंत
विस्तार...मैं
कैसे आरती
उतारूं?
आरती
कैसे करूं
गोसाईं
तुम्हीं
व्यापि रहे
व्यापि
रहे सब ठाईं
आरती
कैसे करूं
गोसाईं!
तरु, जब ऐसा लगे
कि आरती कैसे
करूं गोसाई, तभी आरती हो
पाती है। जब
तक तुम सोचते
हो कि आरती की
जा सकती है, तब तक आरती
नहीं होती।
आदमी के किये
क्या हो सकता
है! हम जो भी
करेंगे, छोटा
है; हमारे
हाथ की उस पर
छाप होती है।
हम उस विराट की
आरती भी
करेंगे तो
हमारी आरती भी
छोटी होती है।
हम तो विवशता
का ही निवेदन
कर सकते हैं।
हम अपनी असहाय
अवस्था में रो
सकते हैं।
आरती
कैसे करूं
गोसाईं
तुम्हीं
व्यापि रहे
व्यापि
रहे सब ठाईं
आरती
कैसे करूं
गोसाईं!
यही
भाव आरती है।
आरती का कोई
संबंध
थालियों से
नहीं है--फूल
सजाई गई, धूप-दीप
जलाई गई। आरती
का संबंध भाव
की एक दशा से
है--असहाय!
इतना दिया है
परमात्मा ने,
इतना, हम
धन्यवाद भी
दें तो हमारी
जबान छोटी है।
हमारे शब्द
ओछे हैं। हम
सिर भी उसके
चरणों पर रखें
तो हमारे सिर
में भी क्या
है, भुस ही
तो भरा है। हम
अपने को
निछावर भी कर
दें तो भी
क्या खाक, क्योंकि
हम उसी की देन
हैं, उसी
को वापिस दे
दिया।
त्वदीयं
वस्तु गोविंद तुभ्यमेव
समर्पये! तेरी
चीज थी, तुझी
को लौटा दी, धन्यवाद भी क्या
है! इतनी
असहाय अवस्था
की जो प्रतीति
है, वही
आरती है।
जो
मेरी
जीवन-वीणा के
तारों
में स्वर बन
लहराया।
जिसने
स्वयं हाथ
फैलाकर
मेरी
पूजा को
अपनाया।
जग
उसको पाहन कह
दे,
पर
मैं पाहन कह
पाऊं कैसे?
मन
का गीत सुनाऊं
कैसे?
जिसका
गृह आलोकित
करने
रवि-शशि
स्वयं दीप्त
हो जाते।
जिसके
चरणों पर
ढुलने को
शत-शत
सागर उमड़े
आते।
उस
आराधित के
चरणों पर
आंसू
अर्ध्य चढ़ाऊं
कैसे?
मन
का गीत सुनाऊं
कैसे?
सागर
भी उसके चरणों
पर अपने को
चढ़ा रहे हैं, हमारे आंसू
तो कितने छोटे
हैं! हमारे
आंसुओं का
अर्ध्य...कहां
अनंत-अनंत
सागर उसके चरणों
पर लोट रहे
हैं! हम दीये
भी जलायें
आरती के थाल
में तो क्या
होगा? चांद
भी उसी के
लिये जलता है
और सूरज भी
उसी की आरती
है और सारे
तारे, अनंत
तारे उसकी
आरती में
परिभ्रमण कर
रहे हैं।
जिसका
गृह आलोकित
करने
रवि-शशि
स्वयं दीप्त
हो जाते।
जिसके
चरणों पर
ढुलने को
शत-शत
सागर उमड़े आते
उस
आराधित के
चरणों पर
आंसू
अर्ध्य चढ़ाऊं
कैसे?
मन
का गीत सुनाऊं
कैसे?
बड़ी
कठिनाई है, भक्त की बड़ी
कठिनाई है।
अवाक रह जाता
है भक्त, मौन
रह जाता है, शब्द नहीं
बनते और जब
शब्द नहीं
बनते तभी आरती
है। निःशब्द
आरती है। कुछ
कहा नहीं जाता
और सब कह दिया
जाता है।
जो
मेरी
जीवन-वीणा के
तारों
में स्वर बन
लहराया।
जिसने
स्वयं हाथ
फैलाकर
मेरी
पूजा को
अपनाया।
जग
उसको पाहन कह
दे,
पर
मैं पाहन कह
पाऊं कैसे?
मन
का गीत सुनाऊं
कैसे?
और
जब गीत गाने
का प्राण होता
है लेकिन गीत
गाने की
असमर्थता
होती है, तब
वह स्वयं ही
तुम्हारी
पूजा को अपने
हाथ से ले लेता
है। और मजा तो
तभी है। तुमने
चढ़ाया, इसमें
मजा नहीं है; उसने लिया, तब मजा है।
तुम्हारे
चढ़ाने में तो
तुम्हारा ही
खेल है। लेकिन
जिस दिन भक्त
शून्य-भाव से
असहाय अनुभव
करता है उस
क्षण
परमात्मा
स्वीकार कर
लेता है--खुद
ही स्वीकार कर
लेता है। उसके
हाथ स्वयं ही
बढ़े चले आते
हैं। तब जीवन
में बसंत छा
जाता है। तब
खूब फूल खिल
जाते हैं।
उलट
गयी अबीर की
झोली!
स्वर्ण
मुकुट सज्जित
गिरि से उषा
ने खेली होली!
डाल-डाल
पर पंछी बोले
कलियों
ने अवगुंठन
खोले,
बहने
से सुरभित
समीर के
कोमल
तरु पल्लव दल
डोले!
मुक्त
भ्रमर करने के
हित सरजित ने
पलकें खोलीं!
उलट
गयी अबीर की
झोली!
जब
उसका हाथ
हमारी तरफ
बढ़ता है तो
सारा जगत अपने
को हम पर
उंडेल देता
है--सारे
रंगों में, सारे स्वरों
में! सारा जगत
पूरे सरगम से
गीत गा उठता
है।
भक्त
शून्य हो तो
भक्ति पूर्ण
हो जाती है, क्योंकि
शून्य में ही
पूर्ण उतरता
है।
आरती
कैसे करूं
गोसाईं
तुम्हीं
व्यापि रहे
व्यापि
रहे सब ठाईं
आरती
कैसे करूं
गोसाईं
यही
आरती है तरु!
इसी में डूब, इसी में
धीरे-धीरे खो
जाओ।
दिया
जिन्होंने
स्नेह
सभी
का ऋण मुझ पर
है,
मेरा
क्या है
मैं
तो लघु दीपक
की बाती!
दान
उन्हीं का
किरण-जाल यह
मेरा
क्या है,
कोमल
कर
जो
सौंप गये
ज्वाला की
थाती!
जलने
के पल ही तो
हैं
जीवन
की घड़ियां,
संध्या
की उषा से
जोड़ें
ऐसी
कड़ियां!
मिट्टी
का यह पात्र
सलोना
मेरा
क्या है,
दो
निशि भी तो
इससे
नाता जोड़ न
पाती!
मैं
तो चलती नहीं
राह
कैसी, क्या
जानूं?
रुदन
हंसी को भिन्न
कहो
मैं कैसे
मानूं!
प्राणों
को दी व्यथा
जिन्होंने
सब
कुछ उनका!
मेरा
क्या है
रिक्त
हाथ मैं
आती-जाती!
मेरा
क्या है
मैं
तो लघु दीपक
की बाती!
हमारे
हाथ तो खाली
हैं।
आरती
कैसे करूं
गोसाईं
तुम्हीं
व्यापि रहे
व्यापि
रहे सब ठाईं
आरती
कैसे करूं
गोसाईं!
हमारे
हाथ तो रिक्त
हैं। मगर
रिक्त हाथ ही
पर्याप्त
हैं। इसी
रिक्तता में
वह उतरेगा।
उतरता है, उतरता रहा
है। जब भी
भक्त का पात्र
खाली और शून्य
हुआ है, तभी
वह आ गया है और
पात्र भर गया
है।
प्राणों
को दी व्यथा
जिन्होंने
सब
कुछ उनका!
मेरा
क्या है
रिक्त
हाथ मैं आती
जाती!
मेरा
क्या है
मैं
तो लघु दीपक
की बाती!
भक्त
अपने को मिटा
देता है; वही
उसकी आरती है।
भक्त नहीं हो
जाता है; वही
उसकी आरती है।
आज
इतना ही।
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