दिनांक
25 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार :
1—परमात्मा
की परिभाषा
क्या है?
2—जीसस, सुकरात और
मंसूर जैसे
साक्षात
प्रेमावतारों
के शरीर को
जिस
घृणापूर्ण
ढंग से सूली, जहर और कत्ल
दी गयी--उससे क्या
यह सिद्ध नहीं
होता कि
अस्तित्व
बिलकुल तटस्थ
है?
3—क्या
जीवन सच ही बस
एक नाटक है? बात जंचती
भी है और
जंचती भी
नहीं। ऐसा
क्यों?
4—प्रार्थना-शास्त्र
का सार
समझाइये।
पहला
प्रश्न:
परमात्मा
की परिभाषा
क्या है?
परमात्मा
की परिभाषा? परमात्मा और
परिभाषा? परमात्मा
तो उसी का नाम
है जिसकी कोई
परिभाषा नहीं
है। परमात्मा
अर्थात
अपरिभाष्य।
इसलिये
परमात्मा की
परिभाषा
पूछोगे, उलझन
में पड़ोगे। जो
भी परिभाषा
बनाओगे वही गलत
होगी। और कोई
परिभाषा पकड़
ली तो
परमात्मा को
जानने से सदा
के लिये वंचित
रह जाओगे।
परमात्मा
समग्रता का
नाम है। और सब
चीजों की
परिभाषा हो
सकती है
समग्रता के
संदर्भ में, पर समग्रता
की परिभाषा
किसके संदर्भ
में होगी?
जैसे
हम कह सकते
हैं कि तुम
च्वांगत्सु
के छप्पर के
नीचे बैठे हो, च्वांगत्सु
का छप्पर
वृक्षों की
छाया में है, वृक्ष
चांदत्तारों
की छाया में
हैं, चांदत्तारे
आकाश के नीचे
हैं, फिर
आकाश। फिर
आकाश के ऊपर
कुछ भी नहीं।
सब आकाश में
है तो आकाश
किस में होगा?
यह तो बात
बनेगी ही
नहीं। जब सब
आकाश में है
तो अब आकाश
किसी में नहीं
हो सकता।
इसलिये आकाश तो
होगा, लेकिन
किसी में नहीं
होगा।
ऐसे
ही परमात्मा
है। परमात्मा
का अर्थ है, जिसमें सब
है; जिसमें
बाहर का आकाश
भी है और भीतर
का आकाश भी है,
जिसमें
पदार्थ भी है
और चैतन्य भी;
जिसमें
जीवन भी है और
मृत्यु
भी--दिन और रात,
सुख और दुख,
पतझड़ और
बसंत, जिसमें
सब समाहित है।
परमात्मा
सारे अस्तित्व
का संदर्भ है,
उसकी पृष्ठभूमि
है। इसलिये
स्वयं
परमात्मा की
कोई परिभाषा
नहीं हो सकती।
ऐसा
नहीं है कि
परिभाषा न की
गई हों; आदमी
ने परिभाषाएं
की हैं, लेकिन
सब परिभाषाएं
गलत हैं। हो
ही नहीं सकती परिभाषा,
तो ठीक होने
का कोई उपाय
ही नहीं है।
परमात्मा को
जाना जा सकता
है, अनुभव
किया जा सकता
है, जीया
जा सकता है, उसका स्वाद
लिया जा सकता
है; लेकिन
परिभाषा? परिभाषा,
मत पूछो। और
अगर तुमने तय
किया कि पहले
परिभाषा
करेंगे, फिर
यात्रा
करेंगे, तो
न तो परिभाषा
होगी, न
कभी यात्रा
होगी।
परिभाषा
तो छोटी-छोटी
चीजों की हो
सकती है। शब्दों
की सामर्थ्य
कितनी है? शब्द में
कुछ भी कहोगे,
सीमित हो
जायेगा; जैसे
ही कहोगे वैसे
ही सीमित हो
जायेगा।
सत्य, इसीलिए कहते
ही असत्य हो
जाता है। बोले
कि सत्य की
विराटता गई।
लाओत्सु
जीवन-भर चुप
रहा, नहीं
बोला। हजार
बार पूछा गया
सत्य के संबंध
में, चुप
रहा। और सब
चीजों के
संबंध में
बोलता था, लेकिन
सत्य के संबंध
में चुप रह
जाता था। और अंत
में जब बहुत
उस पर आग्रह
डाला गया, जोर
डाला गया कि
जीवन से विदा
लेते क्षण कुछ
तो सूचना दे
जाओ, तुमने
जो जाना था, तुमने जो
पहचाना था, उसकी--तो
उसने जो पहला
ही वचन लिखा
वह था: सत्य बोला
कि झूठ हो जाता
है। कोई बोला
गया सत्य सत्य
नहीं होता। कारण?
सत्य का
अनुभव तो होता
है निशब्द में,
शून्य में,
और जब तुम
बोलते हो तो
शून्य को
समाना पड़ता है
छोटे-छोटे
शब्दों में।
एक
पिता अपने
छोटे बच्चे को
समझा रहा
था--महान नेपोलियन
का प्रसिद्ध
वचन कि इस जगत
में कुछ भी असंभव
नहीं है। वह
छोटा बच्चा
खिलखिलाकर
हंसने लगा।
उसने कहा: गलत!
बाप ने कहा कि
तू कहता है गलत!
नेपोलियन ने
कहा है कि इस
जगत में कुछ
भी असंभव नहीं
है। उस लड़के
ने कहा कि मैं
अभी करके बता
सकता हूं एक
चीज, जो
बिलकुल असंभव
है, क्योंकि
मैं कई दफे
करके देख चुका
हूं। वह भागा,
स्नान-गृह
से उठा लाया
टुथपेस्ट।
टुथपेस्ट को
पिचकाकर उसने
बाहर निकाल
दिया और पिता
से कहा कि
इसको भीतर
करके दिखा दो,
सिद्ध हो
जायेगा कि
नेपोलियन ठीक
कहता है कि गलत
कहता है।
अब
टुथपेस्ट
बाहर निकल आया, इसको भीतर
कैसे करोगे? छोटे बच्चे
ने ठीक किया। छोटे
बच्चे की
सामर्थ्य...समझ
के अनुसार
बिलकुल ठीक
उत्तर दिया, नेपोलियन को
गलत कर दिया!
इस
जगत में बहुत
कुछ है जो
असंभव है। और
सच तो यह है:
वही पाने
योग्य है जो
असंभव है।
विरोधाभास
मालूम होगा।
परमात्मा को
कहना असंभव है, इसलिए
परमात्मा
पाने योग्य
है। कहा जा सकता
होता, किताबों
में लिख दिया
गया होता, स्कूलों
में पढ़ा दिया
गया होता, लोगों
ने कंठस्थ कर
लिया होता।
फिर बात बड़ी
आसान हो गई
होती, बड़ी
सस्ती हो गई
होती, दो
कौड़ी की हो गई
होती। न आज तक
कोई कह सका है
परमात्मा को न
कभी कोई कह
सकेगा; इसलिये
अनुभव सदा ही
क्वांरा है।
जब भी तुम
जानोगे, उधार
नहीं होगा।
तुम ही
जानोगे। और
जानते ही तुम
गूंगे हो
जाओगे। और सब
बोल सकोगे, बस परमात्मा
के संबंध में
एकदम चुप्पी
साध जाओगे।
शब्द
तो बड़े
छोटे-छोटे
हैं। अगर कहो
परमात्मा प्रकाश
है, तो फिर
अंधेरे का
क्या होगा? ऐसा कहा है
शास्त्रों
में कि
परमात्मा
प्रकाश है।
चलो मान लें
इसे परिभाषा,
फिर अंधेरे
का क्या होगा?
फिर अंधेरा
कहां जायेगा?
अंधेरा भी
है, प्रकाश
से कहीं
ज्यादा है।
प्रकाश तो कभी
होता है कभी
नहीं भी होता;
अंधेरा सदा
है, शाश्वत
है। अंधेरे को
कहां रखोगे? अगर कहा
परमात्मा
प्रकाश है, तो अंधेरा
बाहर पड़ गया।
अगर कहा
परमात्मा अंधेरा
है, तो
प्रकाश बाहर
पड़ गया। अगर
कहो परमात्मा
अंधेरा
प्रकाश दोनों
है, तो
विरोधाभास
होता है।
दोनों एक साथ
हो नहीं सकता।
एक ही कमरे
में अंधेरा और
प्रकाश करके
दिखाओ।
प्रकाश करोगे,
अंधेरा खो
जायेगा; अंधेरा
बचाओगे, प्रकाश
न कर सकोगे।
तो दोनों साथ
कैसे होंगे? तब एक असंभव
बात हो गई। तो
यह भी नहीं कह
सकते कि दोनों
है।
फिर
चौथा उपाय यह
है कि कहो कि
दोनों नहीं
है--न प्रकाश
है न अंधेरा
है। वह भी बात
ठीक नहीं, क्योंकि फिर
प्रकाश का
उदभव कहां से
होगा? फिर
अंधेरे का
आविर्भाव
कहां से होगा?
सब उसी से
उमगता है, सब
उसी में वापिस
लीन हो जाता
है।
नहीं, शब्द उसे
नहीं कह
पायेंगे। और
परिभाषाएं तो
शब्दों से
बनती हैं। और
न ही
मूर्तियां
उसे कह पायेंगी,
क्योंकि
मूर्तियां भी
आखिर मनुष्य
गढ़ता है। न
चित्र उसे कह
पायेंगे, न
संगीत उसे कह
पायेगा, न
काव्य। यहां
तक कि तुम अगर
चुप हो जाओगे
तो तुम्हारी
चुप्पी भी उसे
न कह पायेगी, क्योंकि
चुप्पी भी एक
इशारा है। सभी
इशारे छोटे
हैं। उसे मौन
से भी नहीं
कहा जा सकता, मुखरता से
कहने की तो
बात ही अलग है,
क्योंकि
मौन भी सीमित
कर देता है।
अगर तुम कहो
कि मौन से तो
कहा जा सकता
है। पूछा कि
परमात्मा है,
और जिससे
पूछा वह चुप
रह गया। अगर
परमात्मा मौन
है तो फिर
शब्दों का
जन्म कहां से
है? फिर
शब्द कहां से
आते हैं? उसे
शब्द कहो तो
फिर मौन भी तो
है, मौन
कहां से आता
है?
जैसे
ही तुमने
परिभाषा की
वैसे ही उलझन
बढ़ी, घटेगी
नहीं। तुमने
तो पूछा है
घटाने को कि
परिभाषा साफ हो
जाये तो
यात्रा सुगम
हो। लेकिन
परिभाषा साफ
होगी नहीं, और उलझती
जायेगी; जितना
सुलझाओगे
उतनी उलझती
जायेगी। और
परिभाषा में
बहुत उलझ गये
तो
दर्शन-शास्त्र
में डूबे रह
जाओगे। धर्म
से तुम्हारा
कभी संबंध न
हो पायेगा। फिर
तुम व्यर्थ
शब्दों की खाल
निकालते
रहोगे, बाल
की खाल
निकालते
रहोगे, तर्क-जाल
में गिर
जाओगे। और
तर्कों के
जंगल विराट
हैं, उनका
कोई अंत नहीं।
जो उनमें
प्रवेश करता
है, बहुत
मुश्किल हो
जाता है उसका
निकलना।
पांडित्य में
जो भटक गया
उसका लौटना
बहुत मुश्किल
हो जाता है, बहुत दूभर
हो जाता है।
अज्ञानी
पहुंच जाते हैं,
पंडित नहीं
पहुंच पाते।
सौ-सौ
सांचे बना रहा
तू,
किसी
एक में मैं आ
जाऊं!
यह
तो ज्यों
त्रिकोण के
मुख में
वर्गाकार
दंड को रखना!
यह
तो जैसे
कनक-कसौटी पर
हीरे
का मोल परखना!
यह
तो कठिन
असंभव-सा है,
जैसे
गूंगे को पंचम
स्वर!
मानो, कोई चला
मापने
वामन
अपने पद से
अंबर!
तेरे
ये सांचे सब
सीमित,
मैं
असीम किस
भांति समाऊं?
सांचा
तो सीमित ही
होगा। सांचा
तो असीम नहीं
हो सकता, नहीं
तो फिर सांचा
कैसे होगा?
तेरे
ये सांचे सब
सीमित,
मैं
असीम किस
भांति समाऊं?
और
आदमी ने कितने
सांचे
बनाये...जैनों
ने, बौद्धों
ने, ईसाइयों
ने, मुसलमानों
ने, हिंदुओं
ने, पारसियों
ने कितने
सांचे नहीं
ढाले! ये सारी
दुनिया के
धर्म हैं क्या?
परमात्मा
को प्रगट करने
के लिये की गई
चेष्टायें; परमात्मा की
परिभाषा
बनाने के
उपाय।
सौ-सौ
सांचे बना रहा
तू,
किसी
एक में मैं आ
जाऊं!
लेकिन
कोई सांचा उसे
पकड़ नहीं
पाया। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि कोई उसे
नहीं पकड़
पाया। जिसने सब
सांचे तोड़
दिये वह उसे
पकड़ पाया।
जिसने सब शास्त्र
छोड़ दिये वह
उसे पकड़ पाया।
जिसने सारे
संप्रदायों
की सीमाओं का
उल्लंघन कर
दिया वह उसे
पकड़ पाया।
यह
तो ज्यों
त्रिकोण के
मुख में
वर्गाकार
दंड को रखना
ऐसा
ही असंभव काम
कर रहे हो तुम:
त्रिकोण के मुख
में वर्गाकार
दंड को रखना।
यह
तो जैसे
कनक-कसौटी पर
हीरे
का मोल परखना!
सच
है कि सोने को
कसा जा सकता
है पत्थर पर, मगर अगर
हीरे को कसोगे
तो पागल हो
जाओगे? हीरे
को कैसे कसोगे
सोने की कसौटी
पर?
शब्द
बने हैं जगत
की
अभिव्यक्ति
के लिये। शब्द
बने हैं
सामाजिक
आदान-प्रदान
के लिये। शब्द
बने हैं दो
मनुष्यों के
बीच संवाद हो
सके, इसलिए।
यह शब्दों की
सीमा है। शब्द
मनुष्य और परमात्मा
के बीच संवाद
हो सके, इसलिये
नहीं बने।
मनुष्य और
परमात्मा के
बीच कोई भाषा
नहीं है।
लेकिन
दावेदारों का
तो क्या कहना।
दावेदारों की
मूढ़ता का तो
क्या कहना!
कोई घोषणा
करता है कि
संस्कृत
देव-भाषा है।
देव-भाषा! फिर
कोई कहता है
कि नहीं, अरबी
उसकी असली
भाषा है, नहीं
तो कुरान अरबी
में बोलता वह?
फिर कोई
कहता है: नहीं,
अरेमैक...क्योंकि
जीसस अरेमैक
बोले। फिर कोई
कहता है
हिब्रू, क्योंकि
मोज़िज हिब्रू
में बोले।
जरूर मोज़िज हिबू्र
में बोले और
कृष्ण
संस्कृत में
बोले और बुद्ध
पाली में और
महावीर
प्राकृत में;
मगर
परमात्मा की
कोई भी ये
भाषायें नहीं
हैं। परमात्मा
और मनुष्य के
बीच भाषा का
संबंध ही नहीं
बनता।
परमात्मा और मनुष्य
के बीच संबंध
ही तब बनता है
जब सब भाषा गिर
जाती है।
मुखरता तो
मुखरता, मौन
भी गिर जाता
है। न मौन रह
जाता न मुखरता
रह जाती है।
ऐसा सन्नाटा
कि यह भी बोध
नहीं रह जाता
कि मैं चुप
हूं। जब तक
तुम्हें यह
बोध है कि मैं
चुप हूं तब तक
जानना शब्द
अभी मौजूद हैं,
छिपे हैं।
यह बोध भी तो
शब्द में ही
होगा न, जब
तुम सोचोगे कि
मैं चुप हूं!
तुम कैसे
सोचोगे कि मैं
चुप हूं? तुम
कैसे जानोगे
अपने भीतर कि
मैं चुप हूं, जब तुम भीतर
भी जानोगे कि
मैं चुप हूं
तुमने शब्द
बना लिये।
चुप्पी भी
शब्द बन गई।
तुमने कहा मैं
मौन हूं, मौन
भी शब्द हो
गया। तो
मुखरता भी खो
जाये और मौन
की भी याद न रह
जाये, ऐसी
विस्मृति हो,
ऐसी गहन
विस्मृति हो,
ऐसा नशा छा
जाये, ऐसी
मादकता हो, ऐसी मस्ती
हो, ऐसे पी
बैठो
अस्तित्व के
रस को--तब जाना
जाता है।
लेकिन
संस्कृत कोई उसकी
भाषा नहीं है
और न अरबी और न
हिबू्र। कोई भाषा
उसकी भाषा
नहीं है।
दूसरे
महायुद्ध में
जर्मन हार
गये। एक हारा
हुआ सेनापति
एक अंग्रेज
सेनापति से
बात कर रहा था
कि हम हार
कैसे गये? हमारी ताकत
तुमसे कम न थी,
ज्यादा थी।
हमारे सैनिक
तुमसे कमजोर न
थे, ज्यादा
शक्तिशाली
थे। हम हार
कैसे गये? तुम
क्या कारण
पाते हो हमारे
हारने का?
अंग्रेज
सेनापति
हंसा। उसने
कहा: कारण यह
है कि हम हर
युद्ध के पहले
परमात्मा से
प्रार्थना करते
थे। परमात्मा
से की गई
प्रार्थना का
परिणाम है कि
हम जीते और
तुम हारे।
जर्मन
सेनापति ने
कहा: यह तो हद
को गई, प्रार्थना
तो हम भी करते
थे! हर युद्ध
के पहले।
प्रार्थना
कारण नहीं हो
सकती, क्योंकि
हमने कभी
प्रार्थना
में कोई चूक
नहीं की।
अंग्रेज
ने कहा: लेकिन
तुम किस भाषा
में प्रार्थना
करते थे?
जर्मन
ने कहा:
निश्चित, जर्मन
में।
अंग्रेज
बोला: बस, बात
साफ हो गई।
परमात्मा को
जर्मन आती है?
परमात्मा
अंग्रेजी
बोलता है।
वहीं तुम्हारी
चूक है।
दुनिया
में तीन हजार
भाषायें हैं।
हर भाषा का
दावेदार
सोचता है यही
परमात्मा की
भाषा है। होनी
ही चाहिए; जो मेरी
भाषा है वह
परमात्मा की
भाषा होनी चाहिए।
आदमी का
अहंकार ऐसा है
कि उसकी भाषा
परमात्मा की
भाषा, उसका
रंग परमात्मा
का रंग, उसकी
ऊंचाई
परमात्मा की
ऊंचाई, उसका
चेहरा
परमात्मा का
चेहरा। चीनी
जब परमात्मा
बनाते हैं तो
नाक चपटी होती
है उसकी। स्वभावतः
चीनी और उसकी
लंबी नाक
बनायें, कोई
अपना अपमान
करेंगे? और
जब नीग्रो
उसकी प्रतिमा
बनाता है तो
उसके ओंठ बड़े
मोटे होते
हैं। अब नीग्रो
और पतले ओंठ
बनाये...! और
नीग्रो जब
उसकी प्रतिमा
बनाता है तो
बाल घुंघराले
होते हैं। स्वाभाविक।
हम
अपनी प्रतिमा
में परमात्मा
को गढ़ लेते
हैं। हम अपनी
ही छाया में
परमात्मा को
गढ़ लेते हैं।
हमारी भाषा
उसकी भाषा। हमारा
जीवन उसका
जीवन। हमारी
जीवन की शैली
उसके जीवन की
शैली। हमारा
आचरण उसका
आचरण। हमारा शास्त्र
उसके द्वारा
दिया गया
शास्त्र। ये
सब अहंकार के
ही उपाय हैं।
अहंकार पीछे
के रास्ते से
अपने को भर
रहा है।
ये
धार्मिक आदमी
के लक्षण नहीं
हैं। न तो
हमारा चेहरा
उसका चेहरा है, न हमारी
भाषा उसकी
भाषा है, न
हमारा रंग
उसका रंग है।
उसका कोई रंग
नहीं है और सब
रंग उसके हैं।
उसकी कोई भाषा
नहीं और सब
भाषायें उसकी
हैं। वह कभी
नहीं बोला और
जो भी आज तक
बोला गया है, वही बोला।
इतना
विरोधाभास
तुम्हें एक
साथ समझने की
क्षमता हो तो
ही तुम यात्रा
कर पाओगे।
परिभाषा तो
विरोधाभास से बचने
का उपाय है।
परिभाषा का
अर्थ होता है:
साफ-सुथरी
व्याख्या हो
जाये तो हम चल
सकें; दिशा
का निर्देश हो
जाये तो हम चल
सकें।
सौ-सौ
सांचे बना रहा
तू,
किसी
एक में मैं आ
जाऊं!
यह
तो ज्यों
त्रिकोण के
मुख में
वर्गाकार
दंड को रखना!
यह
तो जैसे
कनक-कसौटी पर
हीरे
का मोल परखना!
यह
तो कठिन
असंभव-सा है
जैसे
गूंगे को पंचम
स्वर!
मानो, कोई चला
मापने
वामन
अपने पद से
अंबर!
तेरे
ये सांचे सब
सीमित,
मैं
असीम किस
भांति समाऊं!
नहीं, परमात्मा
किसी परिभाषा
में कभी समाया
नहीं--अनुभव
में जरूर आया
है। अनुभव में
खूब-खूब आया
है! अनुभव में
बाढ़ की भांति
आया है।
परिभाषा न
मांगो, अनुभव
मांगो! शब्द न
मांगो, साक्षात
मांगो।
सिद्धांत न
मांगो, शास्त्र
न मांगो, स्वानुभूति
मांगो।
लोक-लोक
के द्वार खोल
दो,
मैं
कर सकूं
तुम्हारा
दर्शन!
तुम
बैठे थे
अंतर्तम में
जाने, कब से
अंतर्वासी!
मैं
तुमको पहचान न
पाया;
तुम
भी तो प्रभु, रहे उदासी!
कहां
किसे मैं ढूंढ
रहा था?
किसके
लिये विकल था
अब तक?
दो
बूंदें उमडी
आंखों में;
नत
हो गया आप ही
मस्तक!
पूछो
मत, पूछो मत,
मेरा
सुख
क्या है? कैसा
आनंद?
ईर्ष्या
करो, तपो
आजीवन;
समझो, मैं कितना
स्वच्छंद!
आंसू
से भीगी
इच्छाएं
थीं, बन गयीं
यज्ञ की ईंधन!
जैसे
बिजली पकड़ ली
गयी;
चमकी
और हुई हो
निश्चल!
जैसे
पारावार
प्रलय का,
राशि-राशि
जल ही जल केवल!
यह
अबाध उल्लास
ज्योति का,
महा-हर्ष
का झंझानिल
है!
अग्नि-स्फुल्लिंग, छंद-गानों
से
मुखरित
जब हो रहा
निखिल है!
सूर्य, चंद्र, नक्षत्र
और ये
तारक-ग्रह
जैसे अचपल
हों!
जैसे
दिवा-स्वप्न
टूटा हो!
और
नये ही
दिग्मंडल हो,
अवलोकन
करने दो मुझको
क्षण
भर करो
रहस्योदघाटन!
जिस
दिन तुमको
देखा, कोई
वस्तु
देखने की न
रही है;
कोई
काम न कोई
तृष्णा,
अपनी
ही सम्पूर्ण
मही है!
अहे
अनिर्वच, क्या
बतलाऊं?
कैसा
रूप तुम्हारा
है यह!
दिव, नीहार, धूम,
विद्युत, या
तरल
अग्नि का पारा
है यह!
दिग्दिगन्त
के रंध्र खोल
दो;
लहराने
दो
ज्योति-समीरण!
लोक-लोक
के द्वार खोल
दो,
मैं
कर सकूं
तुम्हारा
दर्शन!
प्रार्थना
करो, परिभाषा
न खोजो।
पुकारो, परिभाषायें
न बनाओ। जागो,
खोजो। दूर
नहीं है
परमात्मा।
तुम
बैठे थे
अंतर्तम में
जाने, कब से
अंतर्वासी!
भीतर
ही बैठा है
तुम्हारे।
जिसकी तुम
परिभाषा खोज
रहे हो वह
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
जिसकी तुम
परिभाषा खोज
रहे हो वह
परिभाषा
खोजनेवाले
में छिपा है।
लौटो, आंखें
पलटाओ।
कहां
किसे मैं ढूंढ
रहा था?
किसके
लिये विकल था
अब तक?
जिस
दिन जानोगे उस
दिन चौंकोगे, किसे खोजते
थे? व्यर्थ
ही खोजते थे, व्यर्थ ही
विकल थे। उसे
तो कभी खोया
ही न था, क्षण-भर
को उससे नाता
न टूटा था।
दो
बूंदें उमड़ी
आंखों में;
नत
हो गया आप ही
मस्तक!
प्रार्थना
पूरी हो जाती
है--बस दो
बूंदें आंखों
में उमड़ आयें।
मस्तिष्क
परिभाषा
मांगता है; हृदय प्रेम।
मस्तिष्क
शब्द गढ़ता है
रूखे-सूखे; हृदय गीले
भाव जगाता है,
आंसुओं से
भरे। और
मनुष्य के पास
उसकी पूजा, अर्चना के
लिये और कुछ
भी नहीं है, सिवाय
आंसुओं के। मत
तोड़ो फूल
वृक्षों से, उन फूलों को
तुम पत्थर की
मूर्तियों पर
चढ़ाते रहोगे,
समय गवांते
रहोगे। आने दो
फूल तुम्हारी
आंखों में, तुम्हारे
आंखों के फूल
झरने दो। वे
आंसू ही, वे
गीले आंसू ही
तुम्हें उससे
जोड़ पायेंगे।
परिभाषा तो न
हो सकेगी, लेकिन
एक दिन उल्लास
का अनुभव होगा,
उत्सव
होगा।
यह
अबाध उल्लास
ज्योति का,
महा-हर्ष
का झंझानिल
है!
अग्नि-स्फुल्लिंग, छंद-गानों
से
मुखरित
जग हो रहा
निखिल है!
अगर
तुम शांत होकर, मौन होकर
उसे पुकारोगे,
तुम्हारी
आंखों में
आर्द्रता
होगी प्रार्थना
की, तो तुम
पाओगे एक
विराट उत्सव
चल रहा है।
इसी उत्सव का
दूसरा नाम है
परमात्मा।
अहे
अनिर्वच, क्या
बतलाऊं?
कैसा
रूप तुम्हारा
है यह!
उस
अनिर्वचनीय
का रूप कोई
बतला नहीं सका, कोई बतला
नहीं सका!
जाना है
अनेकों ने और
ऐसे लोगों ने
जाना है कि जो
बड़े धनी थे
शब्दों के। जिनकी
कुशलता बड़ी थी
अभिव्यक्ति
की, वे भी
चुप रह गये, वे भी गूंगे
हो गये।
अहे
अनिर्वच, क्या
बतलाऊं?
कैसा
रूप तुम्हारा
है यह!
दिव, नीहार, धूम,
विद्युत या
तरल
अग्नि का पारा
है यह!
दिग्दिगंत
के रंध्र खोल
दो;
लहराने
दो
ज्योति-समीरण!
लोक-लोक
के द्वार खोल
दो,
मैं
कर सकूं
तुम्हारा
दर्शन!
दर्शन
मांगो, दृष्टि
मांगो, परिभाषायें
नहीं। मैं
तुम्हें यहां
परिभाषा देने
को नहीं हूं।
परिभाषा
चाहिए, पंडितों
के पास जाओ, वहां
परिभाषाएं ही
परिभाषाएं
हैं। अनुभव मांगो
यहां, दर्शन
मांगो यहां, प्रतीति
मांगो।
मैं
तुम्हें नगद
चीज देना
चाहता हूं, उधार चीजें
क्यों मांगते
हो? मेरी परिभाषा
किस काम पड़ेगी
तुम्हारे? एक
सूचना हो
जायेगी, स्मृति
में टंगी रह
जायेगी।
तुम्हारे
जीवन का
रूपांतरण ऐसे
नहीं होगा। आग
मांगो, कि
जल जाओ उसमें,
कि नये का
जन्म हो, कि
पुराने की
मृत्यु।
दूसरा
प्रश्न:
जीसस, सुकरात और
मंसूर जैसे
साक्षात
प्रेमावतारों
के शरीर को
जिस
घृणापूर्ण
ढंग से सूली, जहर और कत्ल
दी गई--उससे
क्या यह सिद्ध
नहीं होता कि
अस्तित्व
बिलकुल तटस्थ
है?
अमृत
सिद्धार्थ, अस्तित्व
तटस्थ भी है
और अत्यंत
प्रीतिपूर्ण
भी। तुम्हें
विरोधाभासों
को समझने की
क्षमता जगानी
ही होगी। और
यह भी खयाल रख
लेना कि अस्तित्व
इसीलिये
तटस्थ है
क्योंकि
प्रीतिपूर्ण
है। और तब
तुम्हें
मुश्किल हो
जायेगी, क्योंकि
तुम सोचते हो:
जो तटस्थ है
वह प्रीतिपूर्ण
कैसे होगा? अगर
अस्तित्व
प्रीतिपूर्ण
है तो जीसस को
बचा लेता? बचाना
ही था। वही तो
जीसस के
विरोधी मांग
कर रहे थे। वे
कहते थे कि तुम
अगर ईश्वर के
बेटे हो तो
देख लेते हैं,
परीक्षा
हुई जाती है।
अगर तुम्हारा
ईश्वर से नाता
है, संबंध
है, जैसा
तुम कहते हो, दावा करते
हो, तो चलो
निर्णय हो
जायेगा, सूली
पर निर्णय हो
जायेगा। अगर
उतर आता एक
हाथ आकाश से
और बरस जाते
फूल और सूली
सिंहासन बन जाती...यही
तो दुश्मन
मांग रहे थे।
वे कहते थे: ये
प्रमाण दे दो।
सूली लग गई, न फूल बरसे, न सूली
सिंहासन बनी,
न कोई आकाश
से दिव्य हाथ
आया, न कोई
चमत्कार हुआ,
न पहाड़ हिले,
न सूरज अस्त
हुआ, कुछ
भी न हुआ, कुछ
भी न हुआ।
जैसे किसी
साधारण आदमी
को सूली दे दी
हो, ऐसे ही जीसस
को भी सूली लग
गई और सब
समाप्त हो
गया। स्वाभाविक
है कि लगे कि
अस्तित्व
बिलकुल तटस्थ है,
अस्तित्व
को कुछ
लेना-देना
नहीं।
लेकिन
थोड़े गहरे
चलो।
अस्तित्व
तटस्थ है, क्योंकि
प्रेमपूर्ण
हैं। ऐसा मैं
क्यों कहता
हूं? अगर
अस्तित्व
प्रेमपूर्ण
है, तो ही
तुम्हारे जीवन
में
स्वतंत्रता
हो सकती है।
मगर स्वतंत्रता
के लिये
अस्तित्व का
तटस्थ होना भी
जरूरी है, नहीं
तो
स्वतंत्रता
नष्ट हो
जायेगी। अगर
अस्तित्व हर
कदम पर बाधाएं
डालने लगे तो
जीवन कारागृह
हो जायेगा।
जीवन कारागृह
नहीं है। परमात्मा
ने तुम्हें
पूरी
स्वतंत्रता
दी है, तुम
जो होना चाहो,
उसकी
स्वतंत्रता
दी है--पापी या
पुण्यात्मा, अच्छे या
बुरे, तुम
जो होना चाहो।
एडोल्फ हिटलर
से लेकर गौतम बुद्ध
तक तुम जो
होना चाहो, परमात्मा ने
तुम्हें पूरी
स्वतंत्रता
दी है।
यह
मनुष्य की
गरिमा है, यह गौरव है।
और यह
परमात्मा की
अनुकंपा है, अपार
अनुकंपा है कि
मनुष्य
स्वतंत्र है।
यह स्वतंत्रता
दी ही इसलिए
है कि
अस्तित्व
प्रीतिपूर्ण
है। प्रेम ही
तो
स्वतंत्रता
देता है और जो
प्रेम
स्वतंत्रता न
दे सके, छोटा
प्रेम है।
परमात्मा का
प्रेम बड़ा है,
इतना बड़ा है
कि तुम उसके
विपरीत भी चले
जाओ तो भी
स्वतंत्रता
है। इस प्रेम
के बड़प्पन को
समझो। इस
प्रेम की
विशालता को
समझो।
तुम
तो छोटे-छोटे
प्रेम जानते
हो। तुम तो
ऐसे प्रेम
जानते हो जो
कि प्रे्रम
नहीं हैं। पति
जरा देर से
आया सांझ घर
कि पत्नी को
संदेह है। इसको
तुम प्रेम
कहते हो? पत्नी
पड़ोसी से
हंसकर बात कर
रही थी कि पति
संदिग्ध हो
गया। इसको तुम
प्रेम कहते हो?
स्वतंत्रता
इसमें
नाममात्र को
नहीं है। प्रेम
के नाम पर
दूसरे के गले
में फांसी
लगानी है।
प्रेम के नाम
पर कब्जा है, मालकियत है।
प्रेम के नाम
पर राजनीति
है।
परमात्मा
का प्रेम ऐसा
प्रेम नहीं है
कि जरा रात
देर से लौटे
कि परमात्मा
खड़ा है सामने
कि कहां रहे
कि जरा-सी
भूल-चूक की, कि खड़ा हो
गया सामने कि
तुमने ऐसा
क्यों किया? परमात्मा का
प्रेम विराट
है, पहली
बात। और उसी
विराट प्रेम
के कारण
परमात्मा
तटस्थ मालूम
होता है। गलत
हुआ होता अगर
परमात्मा ने
जीसस पर फूल
बरसा दिये होते
और सूली
सिंहासन बन गई
होती, गलत
हुआ होता।
क्योंकि फिर
मनुष्य की
स्वतंत्रता न
रह जाती। फिर
मनुष्य को
अपने जीवन को
अपने ढंग से
जीने का
अधिकार न रह
जाता।
तुम
जरा सोचो, अगर ऐसा हुआ
होता तो
दुनिया से
सारे धर्म खो
गये होते, सिर्फ
ईसाइयत बचती।
फिर बुद्धों
का क्या होता,
महावीरों
का क्या होता,
जरथुस्त्रों
का क्या होता?
फिर ये जो
इतने विभिन्न
धर्मों के फूल
हैं और इतना
वैविध्य है
जगत में, यह
सब खो गया
होता--एक उदास
ईसाइयत होती।
नहीं, परमात्मा ने
बाधा नहीं दी।
लोग जो कर रहे
थे करने दिया।
और इस तरह
जीसस को भी एक
अवसर दिया।
जीसस के मन
में भी इसी
तरह का भाव था,
एक क्षण को
जीसस भी डगमगा
गये थे। सूली
जब लगी और हाथ
पर जब खीले
ठोंके गये तो
जीसस ने भी
आकाश की तरफ
पुकार कर कहा
था: हे प्रभु, यह तू क्या
दिखला रहा है?
कहीं भीतर
अचेतन में
छुपी एक कामना
रही होगी कि
समय जब पड़ेगा
तो परमात्मा
काम आयेगा।
मानवीय कामना
है, कौन
नहीं करेगा!
समझ में आती
है कि जब समय
पड़ेगा तो
परमात्मा काम
आयेगा। लेकिन
मैं परमात्मा
से काम लूं
अपने हिसाब से,
इसमें
अहंकार भी है;
और
परमात्मा
मेरी अपेक्षा
पूरी करे, मेरे
ढंग से
व्यवहार करे
इसमें
परमात्मा पर आरोपण
भी है। इसमें
उसकी ही मर्जी
अंतिम है, ऐसा
भाव नहीं है।
क्षण-भर को
जीसस के मन भी
संदेह कंप गया,
एक लहर दौड़
गई और जीसस ने
कहा: हे प्रभु,
तू मुझे
क्या दिखला
रहा है?
देखते
हो, शिकायत
हो गई!
पर
जीसस बड़े
संवेदनशील
व्यक्ति थे, तत्क्षण समझ
गये, एक
क्षण में बात
समझ में आ गई।
वह जो लहर उठ
गई थी जरा-सी
संदेह की, पकड़
लिया उसे। समझ
ली अपनी भूल, झुक गया
सिर। और जीसस
ने दूसरे जो
शब्द कहे तत्क्षण,
वे थे: हे
प्रभु, तेरी
जो मर्जी हो
वही पूरी हो।
मेरी मर्जी पर
ध्यान न देना।
मैं क्या
जानूं कि क्या
ठीक है? मेरी
मर्जी का
मूल्य क्या? तू जानता है
क्या ठीक है।
तू जो करे वही
ठीक! मैं
नतमस्तक हूं!
यह
समर्पण। यह
असली चमत्कार
है। अगर
परमात्मा ने
फूल बरसा दिये
होते, जीसस
जीसस ही रह
जाते, क्राइस्ट
न हो पाते।
अब
तुम समझो
थोड़ा। अगर फूल
बरस गये होते
तो जीसस का
अहंकार भर गया
होता, जीसस
ने कहा होता
कि लो देख लो
अब, अब देख
लो सब, सारे
विरोधी, कि
कौन सच्चा है!
अब यह कसौटी
हो गई। जीसस
का अहंकार
प्रबल हो गया
होता और वहीं
भूल हो गई होती।
जीसस खो गये
होते, भटक
गये होते।
पापियों
से भी बड़ा
अहंकार पुण्य
का होता है। और
इतना बड़ा
पुण्य कि
परमात्मा
उतरे आकाश से
बचाने अपने
प्यारे को, तो अकड़ कैसी
न हो गई होती!
उस अकड़ में
परमात्मा से
संबंध ही जीसस
का सदा के लिए
टूट गया होता।
लेकिन
चमत्कार हुआ।
परमात्मा ने
कुछ भी न किया;
इस न करने
में चमत्कार
है। मगर इसे
देखने के लिये
बड़ी गहरी आंख
चाहिये, सिद्धार्थ।
ऊपर-ऊपर से तो
ऐसा ही दिखा
कि परमात्मा
ने बड़ी उदासी
रखी, बिलकुल
तटस्थ रहा; जीसस मरे कि
नहीं, कोई
जैसे मतलब ही
नहीं था। जरा
भी बीच में
आया नहीं। मगर
और गहरे देखो।
आया। बिना बीच
में आये बीच
में आया, जिसको
लाओत्सु ने
कहा है: वह
बिना किये
करना। बिना
कृत्य के
करना। कृत्य
कुछ भी न किया
और क्रांति
घटी। जीसस को
एक अवसर दिया
कि तू अपनी
आखिरी
अपेक्षाएं भी
छोड़ दे। तू आग्रह
छोड़ दे।
शिकायत का
रेशा भी न रह
जाये।
यह
अवसर दिया
जीसस को । यही
असली घटना थी।
यही महोत्सव
है, जो जीसस
के भीतर घटा।
वे झुक गये।
उस झुकने में
जीसस
क्राइस्ट हो
गये, बुद्ध
हो गये। उसी
झुकने में वह
महापर्व आ गया,
समर्पित हो
गये। बूंद
सागर में गिर
गई और सागर हो
गई।
फिर
यह भी खयाल
रखो कि
तुम्हें जो
मृत्यु मालूम
पड़ती है वह
परमात्मा के
लिये मृत्यु
नहीं है।
तुम्हें लगती
है अड़चन कि
जीसस, सुकरात
और मंसूर जैसे
प्रेमावतारों
को सूली दी गई,
जहर पिलाया
गया, हाथ-पैर
काटे गये, गर्दनें
काटी गईं, परमात्मा
कैसे देखता
रहा? यह
तुम्हारा
देखना और
परमात्मा का
देखना, तुम
सोचते हो एक
जैसा होगा? यह ऐसा ही है
कि बच्चे ने
अपने खिलौने
की गर्दन तोड़
दी, बाप
बैठा देखता
रहा, कुछ
भी न बोला।
दूसरे बच्चे
कहेंगे: यह
बाप कैसा है!
गर्दन तोड़ी गई
और बाप बैठा
देखता रहा! अब
बाप जानता है
कि खिलौना है
और बच्चा आज
नहीं कल गर्दन
तोड़ेगा ही।
खिलौने टूटने
के लिए ही
होते हैं।
लेकिन छोटे
बच्चे को तो
खिलौना
खिलौना नहीं
है; उसे तो
बड़ा जीवित
मालूम होता
है। छोटे
बच्चे तो अपने
खिलौनों को
रात बिस्तर पर
भी ले जाते
हैं, उनको
नहलाते भी हैं,
उनको
खिलाने की भी
कोशिश करते
हैं, घुमाने
भी ले जाते
हैं, उनसे
बातचीत भी
करते हैं।
खिलौना गिर
जाये तो उठाकर
उसको
पुचकारते हैं,
समझाते भी
हैं कि मत रो।
छोटा बच्चा तो
अपने खिलौनों
को जीवित
मानता है।
हमारी भी
बुद्धि उतनी
ही है।
तुम
जब जीसस को
सूली लगते
देखते हो, तब तुम
सोचते हो जीसस
को सूली लग
रही है! जीसस को
तो सिंहासन ही
मिल रहा है।
देह गिर रही
है। देह तो
मिट्टी की है,
खिलौना है।
परमात्मा की
तरफ से देखने
पर देह तो
गिरेगी ही, आज नहीं कल।
देह को कब तक
बचाया जा सकता
है? देह तो
मरणधर्मा है।
और अगर ऐसा
समझो, तो
फिर जीसस से
बेहतर मरने का
ढंग और क्या
होगा? फिर
सुकरात से
बेहतर मरने का
ढंग और क्या
होगा? प्यारा
ढंग चुना।
मृत्यु भी बड़ी
महत्वपूर्ण हो
गई, क्योंकि
जीसस की
मृत्यु से ही
जीसस का
प्रभाव पड़ा
जगत पर, जीसस
की छाया पड़ी
जगत पर। जीसस
की मृत्यु ने
ही मनुष्य को
जीसस के प्रति
आकर्षित
किया।
सुकरात
के जहर ने ही
तो सुकरात के
नाम को आज तक जिंदा
रखा है। ऐसे
भी मरता, खाट
पर मरता, बीमारी
से मरता, मरता
तो ही; लेकिन
जहर देकर मारा
गया, यह
बात मनुष्य की
छाती पर खुद
गई अमिट
अक्षरों में,
जो कभी मिट
न सकेगी।
सुकरात को अब
भुलाया न जा सकेगा।
सुकरात
सदा-सदा याद
रहेगा। शायद
इससे सुंदर और
मृत्यु हो भी
नहीं सकती थी।
सुकरात को कहा
गया था...अदालत
ने कहा था कि
हम तुम्हें क्षमा
कर सकते हैं; तुम जिसको
सत्य कहते हो
वह बोलना बंद
कर दो तो हम
तुम्हें
क्षमा कर सकते
हैं। लेकिन
वायदा करना
होगा कि तुम
चुप रहोगे, अब यह सत्य
की बातचीत बंद
कर दोगे।
सुकरात
ने कहा: बिना
सत्य बोले
जीने से सत्य
बोलकर मरना
बेहतर है।
मृत्यु भी
सत्य के काम आ जायेगी।
मृत्यु भी
सत्य की
सेविका हो
जायेगी। तुम
जहर दो। तुम मुझे
मारो। जीकर
क्या करूंगा? अगर सत्य की
उदघोषणा न कर
सकूं, अगर
सोयों को जगा
न सकूं, अगर
गङ्ढे में
गिरते को रोक
न सकूं, अगर
बीमार का
उपचार न कर
सकूं, तो
जीकर क्या
करूंगा? मुझे
तो जीकर जो
जानना था वह
जान लिया, अब
बांटने के
लिये जी रहा
हूं। अगर
बांटना ही नहीं
हो सकता तो यह
फूल अभी गिर
जाये। अगर
सुगंध बांटनी
ही नहीं है, तो इस फूल को
बचाने से
प्रयोजन भी
क्या है?
नहीं; सुकरात ने
कहा था: सत्य
बोलने का धंधा
मैं बंद नहीं
कर सकता, परिणाम
कुछ भी हो।
तुम्हें
लगता है
सिद्धार्थ कि
इस तरह से
सूली लगी जीसस
को, ईश्वर के
प्यारे बेटे
को; सुकरात
को, सत्य
के इतने बड़े
प्रेमी को; मंसूर को, इतने बड़े
ब्रह्मज्ञानी
को! इस तरह से!
तुम्हें अड़चन
लगती है, क्योंकि
तुम्हें अभी
पता नहीं कि
इस मरणधर्मा
देह में अमृत
छिपा है।
मंसूर
को जरा भी
अड़चन न थी।
मंसूर, जब
सूली लगी, तो
आकाश की तरफ
देखकर
खिलखिलाकर
हंसा था। भीड़
इकट्ठी थी।
भीड़ में से
किसी ने पूछा
कि मंसूर, यह
हंसने का वक्त
है? तुम
होश में हो? पागल तो
नहीं हो गये
हो? किस
लिये हंस रहे
हो?
मंसूर
ने कहा: मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि यह भी खूब
रही! तुम सोच
रहे हो, मुझे
मार रहे हो, तुम मुझे
मारोगे क्या,
तुम मुझे छू
भी नहीं सकते।
तुम्हारे
अस्त्र मुझे
छू भी नहीं
सकते। तुम
मुझे मरोगे
क्या? और
जिसे तुम मार
रहे हो, उसे
तो मैं खुद ही
छोड़ चुका था।
वह मैं हूं, ऐसी तो
धारणा मैंने
कब की त्याग
दी थी। मैं देह
तो हूं ही
नहीं। जिस दिन
मैंने, देह
नहीं हूं, ऐसा
जाना, उसी
दिन तो यह
उदघोष उठा
मेरे भीतर:
अनलहक, कि
मैं परमात्मा
हूं! जिस
अपराध के लिये
तुम मुझे मार
रहे हो...।
अपराध
क्या था मंसूर
का? यही कि
उसने घोषणा कर
दी कि मैं
ईश्वर हूं। यही
अपराध था
मुसलमानों की
नजर में कि
कोई अपने को
ईश्वर घोषित
कर दे, यह
कुफ्र हो गया!
इस अपराध के
लिये तुम मुझे
मार रहे हो, मंसूर ने
कहा कि मैंने
कहा कि मैं
ईश्वर हूं; मगर तुम्हें
पता है कि यह
अपराध मैं
इसीलिए कर सका
कि मुझे पता
चल गया कि मैं
देह नहीं हूं।
जिस दिन जाना
देह नहीं हूं,
उसी दिन
जाना अमृत
हूं।
फिर
किसी ने पूछा
कि आकाश की
तरफ देखकर
क्यों हंस रहे
हो? तो उसने
कहा कि मैं
इसलिये आकाश
की तरफ देखकर हंस
रहा हूं कि कह
रहा हूं
परमात्मा से
कि तू किसी भी
रूप में आ, मैं
तुझे पहचान
लूंगा। आज तू
मौत के रूप
में आया है, मुझे धोखा न
दे सकेगा। मैं
तुझे हर रूप
में जानता
हूं। मौत भी
तू है।
उस
परम दशा में
जीवन और
मृत्यु में
कोई भी भेद
नहीं है, कांटे
और फूल में
कोई भी भेद
नहीं है। जो
जानते हैं, उनकी भावदशा
कुछ और होती
है।
सितम-पर-सितम
कर रहे हैं
वोह मुझ पर।
मुझे
शायद अपना
समझने लगे
हैं।।
जो
नहीं जानते वे
कुछ और सोचते
हैं।
मुहब्बत
नाम है ला
हासिल औ न तमामी
का।
मुहब्बत
है तो दिल को
फारिगे सूदो
जियां कर ले।।
अपूर्व
वचन है:
मुहब्बत नाम
है ला हासिल औ
न तमामी का।
प्रेम है
अपूर्णता और
असफलता का
नाम। तुमने
कभी सोचा भी न
होगा, कि
प्रेम
अपूर्णता और
असफलता का नाम
है! प्रेम है:
असफलता में भी
सफलता जानना,
अपूर्णता में
भी पूर्णता
जानना, मृत्यु
में भी जीवन
जानना। प्रेम
है: हार में भी
जीत जानना।
प्रेम हार का
नाम है। जीत
तो परिणाम है।
मुहब्बत
नाम है ला
हासिल औ न
तमामी का।
मुहब्बत
है तो दिल को
फारिगे सूदो
जियां कर ले।।
और
अगर सच में
तुम्हें
प्रेम है तो
अपने मन को लाभऱ्हानि
के विचार से
मुक्त कर लो।
हानि-लाभ का
भाव बना रहा
तो कभी प्रेम
न कर सकोगे।
फिर मृत्यु
में भी हानि
नहीं है और
जीवन में भी
लाभ नहीं है।
फिर असफलता
में हानि नहीं
है, सफलता
में लाभ नहीं
है। फिर फूलों
की सेज पर मरे
कि कांटों की
सेज पर, भेद
नहीं है। उस अभेद
दशा का नाम
प्रेम है। और
प्रेम ही
प्रार्थना
है। प्रेम की
दुनिया
दीवानों की
दुनिया है। ये
मंसूर, ये
सुकरात, ये
जीसस, इस
जगत के
बड़े-से-बड़े
दीवाने हैं, बड़े-से-बड़े
प्रेमी हैं।
इनको समझने के
लिए तुम्हें
प्रेम के थोड़े
पाठ सीखने
पड़ेंगे।
ज़रा
खुलकर पुकार ए
सूर!
मज्जूबाने-उल्फ़त
को।
यह
दीवाने कहीं
बैठे न रह
जायें बयाबां
में।।
कयामत
का दिन जब
आयेगा...इस्लाम
की धारणा है
कि जब आखिरी
कयामत का दिन
आयेगा तो एक
देवपुरुष उतरेगा
और जोर से
तुरही
बजायेगा, क्योंकि
सब जो मुर्दे
कब्रों में
लेटे हैं वे उठ
जायें। एक तरह
की सूचना मुर्दों
को कि जाग
जाओ। तुरही
बड़ी भयंकर
होगी, उसका
तुमुल नाद
होगा, दिल
को दहला देने
वाली होगी, नरसिंहा का
नाद होगा। जरा
खुलकर पुकार ऐ
सूर! मज्जूबाने-उल्फत
को। कवि कह
रहा है कि जरा
खुलकर बजा
नरसिंहे को, क्योंकि
बाकी लोग तो
उठ जायेंगे, लेकिन यहां
कुछ दीवाने भी
सो रहे हैं, यहां कुछ
प्रेमी भी सो
रहे हैं, यह
दीवाने कहीं
बैठे न रह
जायें बयाबां
में। यहां ऐसे
भी प्रेमी पड़े
हैं कि जिनको
फिकिर ही नहीं
है, न जीवन
की न मृत्यु
की, न
संसार की न
कयामत की। जरा
जोर से बजा
तुरही को, नहीं
तो यहां कुछ
ऐसे लोग हैं, मंसूर जैसे
कि वे मजे से
लेटे ही
रहेंगे।
उन्हें पता ही
न चलेगा कि कब
तेरी तुरही
बजी और कब
तेरी तुरही समाप्त
हो गई। उन्हें
प्रलय का भी
पता न चलेगा। सृष्टि
का अंत आ गया, यह
तुमुल-घोष
होगा और वे
अपनी मस्ती
में पड़े रहेंगे,
यहां ऐसे
दीवाने भी
हैं।
ज़रा
खुलकर पुकार ऐ
सूर! मज्जूबाने-उल्फत
को।
यह
दीवाने कहीं
बैठे न रह
जायें बयाबां
में।।
कहीं
ऐसा न हो कि
प्रलय आये और
गुजर जाये और
इनको पता ही न
चले। मौत का
क्या जीसस को
पता चला होगा? मौत का क्या
मंसूर को पता
चला होगा? आई
और गुजर गई।
यही चमत्कार
है।
अस्तित्व
अत्यंत
प्रेमपूर्ण
है और इसलिये
अत्यंत तटस्थ
है। यह
प्रीतिपूर्ण
तटस्थता है।
यह तटस्थता
उपेक्षा की
नहीं है। यह तटस्थता
प्रीति की है।
अस्तित्व
इतना प्रेम करता
है कि कैसे
तुम्हारे
जीवन में बाधा
डाले, कैसे
अड़चन डाले? इसीलिये
परमात्मा की
उपस्थिति
बिलकुल अनुपस्थिति
जैसी है।
तुम
थोड़ा सोचो, परमात्मा
जगह-जगह
उपस्थित हो, जैसा कि
पंडित-पुरोहित
तुम्हें
समझाते हैं, कि वह सब तरफ
से देख रहा है,
तुम कुछ भी
करो, कहीं
भी जाओ, उसकी
आंख तुम पर
गड़ी हुई है, वह देख रहा
है। वे तुमको
डरवा रहे हैं,
वे तुम्हें
घबड़ा रहे हैं,
वे
तुम्हारे
भीतर भय बैठा
रहे हैं--कि
परमात्मा देख
रहा है, देखो,
सम्हलकर
करना कोई काम
करते हो तो।
मैंने
सुना है कि एक
ईसाई
संन्यासिन
बाथरूम में भी
कपड़े नहीं
उतारती थी।
पूछा किसी ने, क्यों? तो
उसने कहा कि
कहा नहीं है
शास्त्रों
में कि परमात्मा
हर जगह देख
रहा है।...तो वह
तो बाथरूम में
भी देख ही रहा
होगा। मगर उस
मूर्ख को कोई
कहे कि जो
बाथरूम में
देख रहा होगा
वह तो कपड़े के
भीतर भी देख
ही रहा होगा, वह तो
हड्डी-मांस-मज्जा
के भीतर भी
देख ही रहा होगा।
पंडित-पुरोहितों
ने तुम्हें
खूब डरवाया है
कि परमात्मा
तुम पर आंखें
गड़ाये है; जरा
सावधान, ऐसा
मत करना, वैसा
मत करना।
लेकिन
परमात्मा का
प्रेम इतना
विराट है, उसी विराट
प्रेम के कारण
वह उपस्थित है,
मगर
अनुपस्थित हो
गया है। कहीं
उसकी उपस्थिति
बाधा न बन
जाये, क्योंकि
वह मौजूद हो
तो कहीं ऐसा न
हो कि तुम कुछ
काम न कर सको
जो तुम करना
चाहते थे। अब
परमात्मा सामने
बैठा हो और
तुम्हें
धूम्रपान
करना है, अब
मुश्किल खड़ी
हो जायेगी, अब अड़चन हो
जायेगी। कैसे
धूम्रपान करो?
ऐसे तो कोई
दूसरा आदमी भी
बैठा होता है
तो एकदम से
धूम्रपान
करने में अड़चन
होती है। उस
अड़चन को तो
सुलझाने का
उपाय है कि
तुम पहले उसको
पेश करते हो
आप सिगरेट
पियें। वह कहे
नहीं हां या
कुछ, इसके
बाद फिर तुम
पीना शुरू
करते हो। अब
परमात्मा को
सिगरेट
उपस्थित करो,
यह भी बात
जमती नहीं।
मैं
एक दफा यात्रा
में था। पटना
से लौटता था। मेरे
डिब्बे में एक
सज्जन और थे।
अच्छे भले आदमी, डाक्टर थे
बंबई के। अब
उन्हें शराब
पीनी थी। अब
वे बड़ी जरा
हैरानी में
थे। रंग-ढंग
से मैं
साधु-संतों
जैसा मालूम पड़
रहा था, तो
उनको और जरा
अड़चन थी।
मैंने उन्हें
जरा अड़चन में
देखा। मैंने
कहा: तुम
फिकिर न करो।
तुम ऐसा मानो
कि मैं हूं ही
नहीं।
उन्होंने कहा:
आपका मतलब? मैंने कहा:
मैं तुम्हें
कुछ अड़चन में
देखता हूं।
तुम कहो तो
मैं दूसरे
डब्बे में चला
जाऊं।
नहीं-नहीं--उन्होंने
कहा--कैसे
आप...आप बैठें, कहीं जाने
की जरूरत
नहीं। फिर
थोड़ी देर बाद
उन्होंने कहा
कि आप ठीक ही
कह रहे हैं।
असल में मुझे
शराब पीने की
आदत है और
बिना पीये यह
चौबीस घंटे का
सफर मैं न कर सकूंगा।
आप पीयेंगे?
मैंने
कहा कि मैं तो
नहीं पीऊंगा, लेकिन आप
मजे से पीयें,
मुझे कोई
अड़चन नहीं है।
फिर भी उन्हें
थोड़ी-सी
दुविधा बनी
रही।
सज्जन-चित्त
आदमी थे।
उन्होंने
सिगरेट
निकाली। कहा:
आप सिगरेट
पीयेंगे? मैंने
कहा कि सिगरेट
मैं पीता
नहीं। तो
उन्होंने पान
का बटुआ
निकाला कि आप
कम-से-कम पान
लें। मैंने कहा:
मैं पान भी
नहीं खाता। तो
उन्होंने जो
बात कही, वह
मुझे भूली
नहीं।
उन्होंने कहा:
तो फिर आपसे
मित्रता
बनाने का कोई
उपाय नहीं? तो मैंने
कहा: फिर मैं
तीनों पी
लूंगा। अगर मित्रता
का मामला हो
तो शराब भी
पीऊंगा, सिगरेट
भी पीऊंगा, और पान भी खा
लूंगा। अगर
मित्रता का
मामला हो! मगर
इनकी कोई
जरूरत नहीं, मित्रता है
ही। मैं भर
दूंगा
तुम्हारी
प्याली शराब
से, और
क्या करूं? मैं
तुम्हारी
सिगरेट जला
दूंगा, और
क्या करूं? मैं
तुम्हारा पान
तुम्हारे
मुंह दे दूंगा,
और क्या
करूं? मित्रता
इतने से ही हो
जाये तो ठीक
है और नहीं होती
हो तो मैं
तीनों लेने को
भी तैयार हूं।
परमात्मा
तुम्हारे
सामने बैठा हो
तो बड़ी मुश्किल
हो जायेगी, क्या करोगे?
नहीं, उसने
खूब उपाय खोजा
है कि बिलकुल
तिरोहित हो गया
है। चारों तरफ
वही है। उसी
ने तुम्हें
घेर रखा है--भीतर
भी वही, बाहर
भी वही, लेकिन
बिलकुल
अनुपस्थिति
है। यह उसके
प्रेम का
प्रतीक है।
तुम्हारे
जीवन में बाधा
न हो। तुम्हें
पूरी
स्वतंत्रता
मिलनी चाहिए।
परमात्मा की
अनुपस्थिति
तुम्हारी
स्वतंत्रता की
आधारशिला है।
वह जगह-जगह
खड़ा मिल जाये,
तुम्हारे
जीवन से सारा
गौरव, सारी
गरिमा
तिरोहित हो
जायेगी। फिर
तुम साधु भी
हुए तो झूठे
होओगे। नहीं,
अभी
तुम्हें
असाधु भी होना
हो तो
परमात्मा कहता
है: हो लो, तुम्हारा
हक है। और
असाधु होकर
असाधु की पीड़ा
पाकर जब तुम
साधु होओगे तो
असली साधुता
पैदा होती
है--असली
साधुता भय से
पैदा नहीं
होती--असाधुता
के कष्ट, नर्क
से पैदा होती
है।
परमात्मा
तटस्थ है, क्योंकि
प्रेमपूर्ण
है। और
परमात्मा
प्रेमपूर्ण
है क्योंकि
तटस्थ है।
परमात्मा
के संबंध में
सदा याद रखो।
बार-बार तुम्हें
याद दिलाता
हूं कि वहां
विरोधाभास समाप्त
हो जाते हैं, वहां
तटस्थता और प्रेम
में विरोध
नहीं रह जाता।
भरपूर है उसकी
तटस्थता
प्रेम से, आपूर
है। और उसका
प्रेम बिलकुल
तटस्थ है। फिर
तुम्हारी
दृष्टि से जो
मृत्यु है
उसकी दृष्टि
से मृत्यु
नहीं है।
कौन
कहता है कि
मौत अंजाम
होना चाहिए।
जिंदगी
का जिंदगी
पैगाम होना
चाहिए।।
जिंदगी
कहीं मौत पर
समाप्त हो
सकती है? कैसे?
यह उल्टा हो
कैसे जायेगा?
जिंदगी मौत
बन सकती है? असंभव है।
जिंदगी तो और
बड़ी जिंदगी
बनती है। जिंदगी
तो जिंदगी ही
बन सकती है।
आम के वृक्ष में
आम के फल लगते
हैं, नीम
के वृक्ष में
नीम के फल
लगते हैं।
जीवन के वृक्ष
में मृत्यु के
फल लग कैसे
सकते हैं? और
अगर तुम्हें
दिखाई पड़ते
हों कि मृत्यु
के फल लग रहे
हैं, तो
तुम्हारे
देखने में
कहीं भूल-चूक
होगी।
मृत्यु
सिर्फ परिधान
का बदलना है, अपने
वस्त्रों का
बदलना है।
वस्त्र
जराजीर्ण हो
जाते हैं तो
आदमी बदल लेता
है, लेकिन
वस्त्रों की
बदलाहट
मृत्यु नहीं
है।
कौन
कहता है कि
मौत अंजाम
होना चाहिए।
मौत
परिणाम नहीं
है जीवन का।
कौन
कहता है कि
मौत अंजाम
होना चाहिए।
जिंदगी
का जिंदगी
पैगाम होना
चाहिए।
है
भी। जिंदगी और
बड़ी जिंदगी
में प्रवेश
करती जाती है।
जिंदगी और बड़ी
जिंदगी होती
चली जाती है।
तुम देह में
सीमित नहीं
हो। तुम देह
में आवास कर
रहे हो, मगर
तुम देह ही
नहीं हो। घड़ा
टूट गया, इससे
घड़े का जल
थोड़े ही टूट
जाता है। घड़े
का जल मुक्त
हो जाता है।
बंधा था, अब
मुक्त हो गया।
ऐसे
ही जीसस का
घड़ा टूट गया
सूली पर।
लोगों ने घड़ा
फोड़ा और समझे
कि जीसस को
मार लिया।
इतना आसान
नहीं है। जीसस
के साथ दो
चोरों को भी
सूली लगी थी, बीच में
जीसस, एक
तरफ चोर, दूसरी
तरफ चोर।
अपमान के लिये
जीसस के, कि
तुम्हें हम
चोरों से
ज्यादा नहीं
गिनते। चोरों
के साथ सूली
दी गई थी।
जीसस को तो
पता है कि
भीतर शाश्वत
विराजमान है।
उनके बाएं एक
चोर है, दाएं
एक चोर है; उनको
पता नहीं। वे
जरूर मर रहे
हैं। वे जरूर
पीड़ित हो रहे
हैं। वे जरूर
हैरान हो रहे
हैं। उनका
कष्ट असीम है।
लेकिन उन दो
चोरों में भी
भेद है। एक
चोर न तो
जानता है कि
आत्मा है, न
मानता है कि
आत्मा है।
दूसरा चोर
जीसस को देखता
है, उनके
चेहरे पर गुलाब
के फूल जैसी
लालिमा देखता
है। मृत्यु के
क्षण में भी!
उनकी आंखों
में गहरी
शांति देखता है।
उनके चारों
तरफ प्रेम की
आभा देखता है।
जीसस
के अंतिम वचन
थे परमात्मा
से कि हे
प्रभु, इन
सबको माफ कर
देना, जो
लोग मुझे सूली
दे रहे हैं, क्योंकि
इन्हें पता
नहीं कि ये क्या
कर रहे हैं!
एक
चोर जो कि
आत्मा को
मानता भी नहीं, जानता भी
नहीं, वह
तो हंस रहा है,
वह तो जीसस
की मजाक उड़ा
रहा है। उसने
तो जीसस से
मरने के पहले
कहा कि हम तो
खैर चोर हैं, सो ठीक, सूली
लग रही है, आपका
क्या? आप
तो बड़े संत, आप तो
दावेदार थे कि
आप ईश्वर के बेटे
हो, इकलौते
बेटे हो। आपका
क्या हुआ? मर
रहा है खुद
लेकिन फिर भी
अपना व्यंग्य
किये जा रहा
है। जीसस की
मजाक उड़ा रहा
है। वह यह कह रहा
है कि ठीक हम
को लग रही है
सूली, वह
तो हम चोर हैं,
लगनी
चाहिये, तुम्हें
क्यों लग रही
है? एक
अर्थ में वह
प्रसन्न है कि
जीसस को भी लग
रही है, क्योंकि
तब बुरा और
भला सब बराबर
हो जाता है। मौत
में न कोई
पुण्य का भेद
है न पाप का
भेद है। झंझट
सब खतम हो
जाती है। आगे
कुछ भी नहीं
है। यह जीसस
तक मर रहा है।
उसके भीतर जो
अपने जीवन के
प्रति
पश्चात्ताप
होगा, वह
भी इस कारण
नहीं हो रहा
है कि जब जीसस
की भी यह गति
हो रही है तो
अच्छा करके भी
क्या कर लिया?
हमने ही
बुरा किया तो
कौन बुरा किया?
फल तो बराबर
हुआ जा रहा है,
दोनों की
मौत घट रही
है।
मगर
दूसरा चोर
जीसस की शांति
को देखा, पहचाना।
उसने जीसस से
कहा कि हे
प्रभु, मैंने
तो नहीं जानी
आत्मा और
मैंने तो नहीं
जाना
परमात्मा, न
कभी
प्रार्थना की,
चूक ही गया;
मगर यही
क्या मेरा कम
धन्यभाग कि
आपकी छाया में
मर रहा हूं!
यही मेरा
महापुण्य है!
जीसस
ने उसकी आंखों
में देखा और
कहा: तू घबड़ा मत, तू बचा लिया
गया है। क्या
मतलब है जीसस
का कि तू बचा
लिया गया है? इस भाव में
ही बचाव हो
गया है। सारे
पाप धुल गये
इस भाव में
ही।
सदगुरु
के पास क्षणभर
भी बैठ जाना
स्नान है। गंगा
में बैठने से
शायद पाप न भी
धुलें, क्योंकि
गंगा आखिर जल
ही है--बाहरी
जल है; धूल-धवांस
धुल जाये शरीर
की, आत्मा
की तो कैसे
धुलेगी? लेकिन
ऐसी गंगाएं भी
हैं जहां
आत्मा की
धूल-धवांस भी
धुल जाती है।
जीसस ने कहा:
तू फिकिर मत
कर, तू बचा
लिया गया है।
मरने के आखिरी
क्षण उस चोर
ने कहा कि
प्रभु, फिर
कब दर्शन
होंगे? जीसस
ने कहा: आज ही!
शरीर को गिर
जाने दे।
दर्शन तो हो
ही गये और
दर्शन तो जारी
रहेंगे। आज ही
दर्शन होंगे।
गिरने दे शरीर
को। संबंध जुड़
गया। दर्शन
जारी रहेगा।
दोनों
चोर...लेकिन एक
अंधा और एक
आंखवाला। एक मर
कर फिर पैदा
होगा। फिर चोर
हो जायेगा; लेकिन दूसरे
ने खूब
सम्हाला, खूब
कुशलता से
सम्हाला।
आखिर-आखिर
गिरते-गिरते
सम्हल गया, फिसलते-फिसलते
सम्हल गया।
सारी जिंदगी
के पाप धुल
गये।
तुम्हारी तरफ
से मत
सोचो--जीसस, मंसूर, सुकरात
की तरफ से
सोचो।
गम
एक इम्तहान था
इन्सान के
लिए।
जो
लोग अहले-जौक
थे, वोह
मुसकरा दिए।।
जो
पारखी हैं वे
तो जिंदगी में
जब दुख आता है
तो मुस्कराते
हैं, क्योंकि
हर दुख
परीक्षा है और
हर दुख कसौटी
है। और हर दुख
निखारता है और
हर दुख
तपश्चर्या
है। और हर दुख
से गुजरकर
तुम्हारे
जीवन का कुंदन
रोज-रोज शुद्ध
होता जाता है।
और जो व्यक्ति
जीवन के परम
दुख से
गुजरा...फांसी
परम दुख है, एक क्षण में
सारे जीवन की
पीड़ा इकट्ठी
हो गई...उससे जो
गुजरा, उस
गुजरने में, उस पार होने
में, उसने
आखिरी
परीक्षा
उत्तीर्ण कर
ली।
तुम्हारी
तरफ से देखने
पर लगता है कि
परमात्मा कुछ
भी न बोला, चुप रहा, तटस्थ
है। परमात्मा
को जो करना था
उसने किया। जो
करने योग्य था
किया। यह
परीक्षा थी।
यह परीक्षा
जरूरी थी।
जीसस, मंसूर,
सुकरात इस
परीक्षा से
उत्तीर्ण हो
गये--पताकायें
फहराते
परमात्मा में
लीन हो गये
होंगे! दुख जब
आये तो ऐसे ही
सोचना कि दुख
निखारता है, कि दुख
मांजता है, कि दुख से
मंज-मंजकर ही
वह घड़ी आती है
जब सोने में
सुगंध पैदा
होती है।
तीसरा
प्रश्न:
क्या
जीवन सच ही बस
एक नाटक है? बात जंचती
भी है और जंचती
भी नहीं। ऐसा
क्यों?
जीवन
तब तक नाटक
नहीं है जब तक
तुम जागे
नहीं। तुम तो
ऐसे सोये हो
कि नाटक तक को
जीवन समझ लेते
हो तो तुम
क्या खाक जीवन
को नाटक
समझोगे?
देखा है
सिनेमा-गृह
में? जानते हो
भलीभांति कि
परदे पर कुछ
भी नहीं है, धूप-छाया का
खेल है, मगर
आंखों में
आंसू आ जाते
हैं। कोई
दुखांत दृश्य आ
गया कि तुम
जार-जार रोने
लगते हो। और
तुम जानते हो,
फिर भी भूल
गये। नाटक को
जीवन समझ
लिया! खैर फिल्म
को जाने दो, फिल्म में
तो कुछ न कुछ
तस्वीरें
दिखाई पड़ती हैं,
भ्रांति हो
जाती है; लोग
उपन्यास पढ़ते
हैं और कोई
दुखांत दृश्य
आ गया और
आंखें गीली हो
जाती हैं। और
जानते हैं कि
कागज पर
स्याही के
धब्बों के सिवाय
कुछ भी नहीं
है। मगर फिर
भी भूल हो
जाती है।
कभी
भूत-प्रेत की
कहानी
पढ़ते-पढ़ते रात
को डर नहीं
लगा है? कहानी
पढ़ रहे हो, जानते
हो कहानी है, मगर जरा
पत्ता खड़क गया
बाहर, कि
एक खरगोश भाग
गया बगीचे में,
कि बिल्ली
ने छलांग लगा
दी चौके में, कि छाती धक
हो जाती है।
अपना ही लंगोट
जो तुमने
सूखने डाल
दिया है रस्सी
पर, वही
लगता है कि
कोई आदमी हाथ
फैलाये खड़ा
है। भलीभांति
पता है अपना
ही लंगोट है, रोज इसी
लंगोट को
बांधकर जय
हनुमानजी कर
के व्यायाम
करते हैं।
अपना ही लंगोट
है--मगर अब
हनुमानजी भी
काम नहीं आते।
घबड़ाहट में
पढ़ने लगे
हनुमान-चालीसा,
कि पता नहीं
कौन खड़ा है
हाथ फैलाये!
किताब जो पढ़
रहे थे, उसका
भूत-प्रेत, उसकी कथा, पकड़ ली मन को,
डर गये। अब
पेशाब लगी है,
लेकिन
स्नानगृह तक
जा नहीं सकते,
उतना
रास्ता तय
करने में
घबराहट मालूम
होती है।
तुम
तो नाटक को
जीवन समझ लेते
हो! तो मैं
समझा: तुम
कहते हो, क्या
जीवन सच ही
मात्र एक नाटक
है? जागोगे
तो ही समझ
पाओगे। सोये
रहे तो नाटक
भी सच है, जीवन
का तो कहना ही
क्या! जीवन तो
इतना बड़ा नाटक
है--सत्तर साल,
अस्सी साल
चलता है। सतत
चलता है! मंच
बड़ी है; पूरी
पृथ्वी उसकी
मंच है। और
सारा जगत
अभिनय कर रहा
है। दर्शक भी
अभिनेता हैं;
अभिनेता भी
दर्शक हैं।
मंच ही मंच
है।
कैसे
समझ पाओगे? सोये-सोये न
समझ पाओगे। ये
तो जाग्रत
व्यक्तियों
के वक्तव्य
हैं कि जगत
नाटक है। तुम
कहते हो: बात
जंचती भी और
जंचती भी
नहीं। जंचती इसलिये
कि सत्य है, तो सत्य की
जब चोट पड़ती
है तो समझ में
भी आता है कि
बात तो ठीक
है। और फिर
जंचती भी नहीं
क्योंकि नींद
गहरी है। और
जगत को नाटक
मान लेने में तुम्हारे
बहुत-से
न्यस्त
स्वार्थ
टूटेंगे। तुम
एक स्त्री के
प्रेम में हो,
दीवाने हो,
स्त्री
मिलनी ही
चाहिए, नहीं
तो जीवन बेकार
गया! अब तुमसे
कोई कहता है: जगत
नाटक है! तुम
कैसे मानो? क्योंकि जगत
नाटक तो वह
स्त्री भी
नाटक, प्रेम
भी नाटक सब
बेकार हो गया।
तुम कहोगे: अभी
रुको, मानेंगे
बाद में। पहले
ये स्त्री तो
मिल जाये!
कोई
कहता है: जगत
नाटक है।
तुम्हें एक
महल बनाना है।
तुम कहते हो:
जरा रुको, महल तो बन
जाने दो! नाटक
ही सही, मगर
महल तो बन
जाने दो। फिर
मान लेंगे।
अभी मान लेंगे
तो महल का
बनना असंभव हो
जायेगा।...क्योंकि
जिसने जगत को
नाटक मान लिया
उसकी वह जो आपाधापी
थी वह जो
महत्वाकांक्षा
का ज्वर था, दौड़ थी, वह
सब क्षीण हो
जायेगी। वह जो
दीवानापन
था--धन इकट्ठा
करने का, पद
पर पहुंच जाने
का, वह सब
शिथिल हो
जायेगा। तुम
कहते हो: इस
चुनाव में तो
लड़ लेने दो! एक
बार तो
कम-से-कम
राज्य का मंत्री
हो जाऊं, न
सही केंद्र का,
राज्य का ही
सही, एक
दफा तो हो
जाऊं, फिर
मान लूंगा
नाटक! अभी
सपना
प्रीतिकर
देखने की
इच्छा हो रही
है। अभी मत
कहो कि सपना
है!
इसलिये
लोग कहते हैं:
जब मौत करीब
आयेगी तब मान
लेंगे कि जगत
माया है, नाटक
है। बूढ़े अकसर
इस तरह की
बातें करने
लगते
हैं--नाटक, माया,
लीला। मगर
यही जिंदगी-भर
उपद्रव करते
रहे और अभी भी
इन्हें मौका
मिल जाये तो
उपद्रव से
चूकें नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
चला जा रहा था
रास्ते से। नुमाइश
भरी थी।
भीड़-भाड़ थी।
पहने चूड़ीदार
पाजामा और
अचकन और
गांधीवादी
टोपी और
बिलकुल पहुंचा
हुआ भगत मालूम
हो रहा था। एक
सुंदर-सी स्त्री
दिखाई पड़ गई।
अब बूढ़ा हो
गया है और
कहता है: जगत इत्यादि
सब माया है!
मगर जब एक
सुंदर स्त्री
दिखाई पड़ जाये
तो ऐसे
सिद्धांतों
की बातों में कौन
पड़ता है! एक
धक्का दे लेने
का मन हो ही
गया। मन ही तो
है, धक्का दे
दिया। उस
स्त्री ने भी
चौंककर देखा। उम्र
होगी कम-से-कम
उसके पिता के
बराबर--मुल्ला
नसरुद्दीन
की। कहा कि
शर्म नहीं आती,
बाल सफेद हो
गये!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि बाई, बाल तो सफेद
हो गये, मगर
दिल अभी भी
काला है। और
धक्का बालों
ने थोड़े ही
मारा है, धक्का
तो दिल ने
मारा है।
दिल
जब तक काला
है--काला
अर्थात सोया है, गहन अंधकार
में--तब तक तुम
कुछ भी करो, जगत को तुम
नाटक न मान
सकोगे। बात
जंचती है, क्योंकि
बात में सत्य
है। सत्य में
हमेशा एक आकर्षण
होता है। सत्य
का एक सम्मोहन
होता है। सत्य
को सुनते ही
बात जंच ही
जाती है।
क्योंकि क्या
करोगे? सत्य
सत्य है, उसका
आघात पड़ता है।
प्राण गवाही
देते हैं। मगर
बीच में तुम्हारा
वासनाओं का
बड़ा जाल है।
वह जाल
तुम्हें उलझाता
हुआ कहता है:
होगा यह सत्य,
लेकिन अभी
समय नहीं
आया--ये तो
संन्यास की
बातें हैं। यह
तो बाद में, जब आदमी
मरने लगता है
तब।
गिरी
यवनिका
रंगमंच पर, क्या अवशेष
रहा?
श्याम
यवनिका पर
विधि का
अलिखित
अभिलेख रहा!
नहीं
रह गए
सूत्रधार, नट-नटी और
प्रेक्षक;
मैं
भव को अनुभव
की आंखों से
बस देख रहा!
पार्श्वभूमि
में
दिखनेवाले
जंगल-महल गए!
हुए
अदृश्य दृश्य
वे, जिनसे
दिल थे दहल गए!
नट
ने भेस उतार
दिया, सिंगार
नटी ने भी;
हुआ
गया-आया, जिससे
दस दर्शक बहल
गए;
चली
गई घर नटी, अलग हो
सूत्रधार तक
से;
जमुहाई
ले रहा विदूषक, थक निज बक-झक
से;
रंगमंच
का राजा अब बन, जन सामान्य
खड़ा;
रहा
पसीना पोंछ
विकट
प्रतिनायक
मस्तक से!
नाटक
की माया-सी
दुनिया
आनी-जानी है!
यह
जीवन रूपक है, जीवन
रूपकहानी है!
जब
यह बात कही
जाती है, समझ
में आती है। न
समझना चाहो तो
भी समझ में आती
है। सत्य का
अपना बल है।
तुम लाख चाहो
कि दो और दो
पांच हों, लेकिन
जब दो और दो
चार हैं, ऐसा
कहा जाता है
तो सत्य का
अपना बल है।
बात एकदम समझ
में आती है।
दो और दो पांच
हो भी कैसे सकते
हैं? दो और
दो चार ही हो
सकते हैं।
लेकिन
तुम्हारे मन
में अभी गणित
फैला है, कि
हो जाये कोई
चमत्कार कि दो
और दो पांच हो
जायें।
तुम
देखते हो, कैसी-कैसी
कल्पनाएं
तुम्हारे मन
में चलती हैं
कि रास्ते के
किनारे
चलते-चलते धन
से भरी थैली
मिल जाये! तुम
जानते हो
मिलती-करती
नहीं, यह तो
कई दफे सोच
चुके हो। मगर
मिल जाये, कौन
जाने मिल ही
जाये!
मन
सपनों को मान
लेने के लिए
आतुर है। सत्य
की भनकार मन
की इस आतुरता
के पार भी
पहुंच जाती है, इसलिये बात
जंचती भी है
और नहीं जंचती
है। यह तुम्हारे
मन के विपरीत
है, तुम्हारी
आत्मा के
अनुकूल है।
इसलिये एक
तुम्हारा
अंतर्मन तो
कहता है ठीक
और तुम्हारे
मन के जंजाल
कहते हैं:
नहीं-नहीं ऐसा
कैसे हो सकता
है--जगत और
नाटक! इतने
लोग क्या पागल
हैं? इतने
लोग दौड़े चले
जा रहे हैं तो
क्या सब नासमझ
हैं? जहां
इतने लोग जा
रहे हैं तो
ठीक ही होगा, कुछ पाने को
ही होगा।
लोग
तो भीड़ को
देखकर चलते
हैं, जिस तरफ
भीड़ जा रही
है। धन की तरफ
जा रही है तो धन
की तरफ। पद की
तरफ जा रही है
तो पद की तरफ।
जिस तरफ भीड़
जाती है, लोग
चल पड़ते हैं।
लोग अपने चलने
से थोड़े ही चलते
हैं--भीड़
चलाती है। तुम
अपने वश से
थोड़े ही जी
रहे हो। लोगों
ने तुम्हारे
जीवन में
आकांक्षाएं
और वासनाएं दे
दी हैं। कोई पड़ोस
में कार खरीद
लाया, कल
तक तुम्हें
कार खरीदने का
खयाल ही न था, अब यह पड़ोसी
कार ले आया, अब अड़चन
हुई।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी ने एक
दिन उससे कहा
कि अब हमें यह
मोहल्ला
बदलना पड़ेगा, क्योंकि
पड़ोस के दो
लोग और अच्छे
मोहल्लों में
चले गये हैं, उन्होंने
ज्यादा कीमती
मकान किराये
पर ले लिये
हैं। उनकी
स्त्रियां
मिल जाती हैं
रास्ते पर तो
बड़ी दयनीयता
मालूम होती
है।
तो
मुल्ला की
पत्नी ने कहा:
हमें भी बदलना
पड़ेगा। अभी
मुल्ला की
हैसियत बदलने
की थी भी नहीं।
मगर एक दिन वह
बड़ा उत्साह से
भरा हुआ
आनंद-मस्त घर
आया और उसने
कहा: मस्त रहो, खुश हो जाओ!
पत्नी ने कहा:
क्या, कहीं
कोई मकान खोज
लिया? उसने
कहा: मकान
नहीं खोजा। इस
मकान के मालिक
ने किराया
दुगना कर
दिया। अब हम
भी दुगना
किराया
चुकायेंगे।
अब तुम कोई
फिकिर न करो।
अब कोई अपमान
अनुभव न करो।
कोई
कार खरीद ले
तो तुम्हें
कार खरीदनी
है। कोई बड़ा
मकान बना ले, तुम्हें बड़ा
मकान बनाना
है। कोई कुछ
कर ले तो तुम्हें
भी करना है।
तुम बस जी रहे
हो दूसरों को
देख देखकर।
दूसरे
तुम्हें
तुम्हारा
जीवन दे रहे
हैं।
तुम्हारा
जीवन उधार है,
अनुकरण है।
तुम कार्बन-कापी
हो।
और
जब कभी तुम
सुनोगे कि
जीवन नाटक है, तो समझ में
तो आयेगा, क्योंकि
नाटक ही तो
तुम कर रहे
हो। जब
तुम्हें
हंसना नहीं था,
तुम हंसे।
और जब तुम्हें
रोना नहीं था
तब तुम रोये।
और तुम्हें
पता है कि
नाटक किया। और
जिस मालिक को
तुम चाहते हो
कि गर्दन उतार
दें इसकी, उसके
सामने पूंछ
हिलाते हो।
जानते हो कि
नाटक है। और
तुम तुम्हारे
सामने जो पूंछ
हिलाता है उसको
भी तुम जानते
हो कि मौका
मिल जाये तो
यह गर्दन
काटेगा। अभी
पूंछ हिला रहा
है, वक्त
की बात है, वक्त-वक्त
की बात है।
तुम जानते हो
कि सब नाटक चल
रहा है। पत्नी
से तुम कहते
हो: तुझसे
मुझे बड़ा
प्रेम है। और
तुम्हें पता
है कि तुम
क्या कह रहे
हो! प्रेम नाममात्र
को नहीं है।
प्रेम शब्द
तुम्हारे
ओठों पर
बिलकुल झूठा
है। तुमने कभी
किसी को प्रेम
नहीं किया।
तुमने अपने को
ही प्रेम नहीं
किया, तुम
किसी को क्या
प्रेम करोगे?
लेकिन कहना
पड़ रहा है।
कहना जरूरी
है। जिंदगी
में सुगमता
आती है। तुम
अपने बच्चों
से कह रहे हो कि
हम तुम्हारे
लिये मर रहे
हैं। कौन मरता
है? बच्चे
मर जाते हैं, कोई मां-बाप
आत्महत्या
नहीं कर लेते
हैं! हालांकि
तुम कहे जा
रहे हो कि हम
तुम्हारे
लिये मर रहे
हैं। और ऐसा भी
नहीं है कि
प्रमाण
तुम्हारे पास
नहीं हैं। तुम
मेहनत कर रहे
हो, मजदूरी
कर रहे हो, दुकान
चला रहे हो और
तुम कहते हो:
और किसके लिये,
बच्चों के
लिये! तो क्या
तुम सोचते हो
कि जिनके
बच्चे नहीं
हैं वे
दुकानें नहीं
चला रहे हैं, कुछ कम
दुकानें चला
रहे हैं।
जिनके बच्चे
नहीं हैं वे
कहते हैं:
हमारे बच्चे
नहीं हैं, दुकानें
न चलायें तो
करें क्या? हमें अपने
लिये कमाना
होगा, कल
बुढ़ापा आयेगा,
कोई बच्चे
तो हैं नहीं
जो हमारी
फिकिर करेंगे।
अब
देखते हो मजा!
जिनके बच्चे
हैं वे कहते
हैं अब हम
रुकें कैसे!
हमें कमाना
पड़ेगा, बच्चे
जो हैं!
बच्चों के
लिये कुछ तो
इंतजाम कर
दें! जिनके
बच्चे नहीं
हैं वे कहते
हैं कि हम न
कमाएं तो क्या
करें, कल
बुढ़ापा आयेगा,
बीमारी
आयेगी, बच्चे
तो हैं नहीं
कि फिकिर
करेंगे! धन
होगा, बैंक
में बैलेंस
होगा तो
जिंदगी चलेगी,
नहीं तो
मुश्किल हो
जायेगी।
मेरे
पास लोग आते
हैं जो कहते
हैं कि हम
बच्चों से
परेशान हैं।
जिंदगी नष्ट
हो गई। और लोग
आ जाते हैं, रोते हैं कि
बच्चे नहीं
हैं, जिंदगी
नष्ट हुई जा
रही है। आदमी
बड़ा अजीब मालूम
होता है।
बच्चे हों तो
जिंदगी नष्ट
हो रही है, बच्चे
न हों तो
जिंदगी नष्ट
हो रही है! तुम
देखोगे कब कि
यह सब नाटक
तुम फैलाये
चले जाते हो? बहाने कुछ
भी हों, मगर
नाटक एक ही
है। किसी तरह
अपने को
व्यस्त रखना
है। उलझाये
रखना है। किसी
तरह अपने को
अपना पता न
चले, ऐसी
मूर्च्छा
बनाये रखनी
है। फिर नशा
चाहे बच्चों
का हो, चाहे
पद का हो, चाहे
धन का हो, कोई
न कोई नशा
चाहिए।
नाटक
कहने का अर्थ
है कि तुम जिस
तरह जी रहे हो, यह
सत्य-जीवन
नहीं है।
तुम्हारे
चेहरे पर मुखौटे
हैं।
तुम्हारे
असली चेहरों
का दूसरों को तो
क्या खाक पता
चलेगा, तुम्हें
भी पता नहीं
है। जब कोई
झेन फकीरों के
पास जाता है
तो वे फकीर
कहते हैं: एक
बात खोज लो तो
सब मिल
जायेगा--अपना
असली चेहरा
खोज लो। और
असली चेहरा
जरा मुश्किल
मामला है।
मैंने
सुना है: एक
हिप्पी एक नाई
की दुकान पर बाल
बनवा रहा था।
कोई आधा घंटा
बाल बनाने के
बाद नाई ने
कहा कि भाई, क्या कभी
तुम जल-सेना
में नौकरी
करते थे? उसने
कहा: अरे, तुम्हें
कैसे पता चला?
उसने कहा:
नहीं, तीन
परतें बालों
की काटने के
बाद, यह
जल-सेना की
टोपी...टोपी
मिली है। इससे
मैंने सोचा कि
शायद जल-सेना
में काम करते
रहे होगे।
तुम्हारे
अगर चेहरे
उघाड़े
जायेंगे तो
तुम बड़ी
हैरानी में
पड़ोगे--कौन-सी
टोपी मिलेगी, कौन-से
चेहरे
मिलेंगे, क्या-क्या
चीजें
मिलेंगी बीच
में। न मालूम
कितना खोदना
पड़ेगा, तब
तुम्हें कहीं
असली चेहरा
मिलेगा।
ध्यान
की प्रक्रिया
असली चेहरे की
तलाश है। पर
मुखौटों पर
मुखौटे...और
ऐसे कस गये
हैं, ऐसे
चुस्ती से कस
गये हैं कि
तुम्हारे
शरीर के
हिस्से हो गये
हैं। उन्हें
छीलने में भी
पीड़ा होगी।
प्याज जैसे
कोई छीलता है,
ऐसे छीलना
पड़ता है नाटक
को। और जब सब
छिलके निकल
जाते हैं तब
तुम्हारे हाथ
में शून्य रह
जाता है। वही
तुम्हारा
असली चेहरा
है। तब तुम
नाटक के पार
हुए। शून्य
में प्रविष्ट
हुए कि नाटक
के पार हुए, कि परदा
गिरा, कि
अब न तुम राम
हो न रावण। अब
तुम कोई भी
नहीं हो। अब
तुम शून्य हो
गये। अब
विश्राम की
घड़ी आई। इसको
ही मोक्ष कहा
है।
मोक्ष
का अर्थ है:
जीवन की सारी
प्रवंचनाओं
से जाग जाना; देख लेना
सारी
प्रवंचनाएं
कि कहां-कहां
धोखा कर रहा
हूं। जरा
पहचानना शुरू
करो, कब-कब
तुम मुखौटे ओढ़ते
हो। जरा
पहचानना शुरू
करो। और तुम
चकित होओगे कि
चौबीस घंटे
अकेले में भी
बैठे होते हो
तब भी तुम
विश्राम में
नहीं होते।
एक
आदमी ने
मुल्ला
नसरुद्दीन के
द्वार पर दस्तक
दी। उसकी
पत्नी भी उसके
साथ थी।
मुल्ला ने दरवाजा
धीरे से खोला, जरा-सा
खोला। बाहर
खड़ा मित्र भी
हैरान हुआ।
मित्र से
ज्यादा हैरान
तो उसकी पत्नी
हुई, क्योंकि
मुल्ला
बिलकुल नंगा
था। हैरानी की
बात इतनी ही
नहीं थी कि
नंगा था, क्योंकि
अपना-अपना घर
है, कोई
नंगा रहना
चाहे क्या
अड़चन! एक टोप
भी लगाये हुए
था। अब नंगा
और टोप लगाये,
यह और एक
हैरानी की बात
थी। पत्नी से
न रहा गया।
पत्नी ने कहा:
और तो सब ठीक है,
आपका घर है,
आपको जैसे
रहना हो रहें;
मगर यह टोप?
मुल्ला
ने कहा: अब यह न
पूछो। इसके
पीछे भी राज है।
उसने कहा: आप
बता ही दो, नहीं तो यह
जिज्ञासा
हमें खाये
जायेगी, रात-भर
सो भी न
सकेंगे।
मुल्ला ने
कहा: नंगा इसलिये
हूं कि इस समय
घर मुझे मिलने
कोई आता ही नहीं।
तो
फिर टोप क्यों
लगाये हो?
तो
उसने कहा: कभी
भूल-चूक से
कोई आ ही जाये, इसलिये।
आदमी
ऐसे-ऐसे
इंतजाम करके
रखा है। अकेले
में बैठे हैं, कोई आता भी
नहीं तो नंगे
बैठे हैं। मगर
शायद कोई आ ही
जाये तो टोप
तो लगाये रखो!
मुल्ला
नसरुद्दीन से
उसका एक मित्र
कह रहा था कि
कुछ लोगों से
मैं बहुत
परेशान हूं: आ
जाते हैं और
बहुत बोर करते
हैं। पड़ोसी
हैं, उनसे
छुटकारा भी
नहीं होता।
शिष्टाचारवश
उनको सुनना भी
पड़ता है। और
ऐसा बोर करते
हैं! और वही-वही
बातें सुना
चुके हैं बहुत
बार। तुम्हें
मैंने कभी
किसी से
परेशान नहीं
होते देखा, राज क्या है?
मुल्ला
ने कहा: इसका
एक राज है।
मैं हमेशा अपनी
टेबिल के पास
एक छड़ी और
अपनी टोपी
रखता हूं। छड़ी
और टोपी से
क्या होगा? उस आदमी ने
पूछा। रखे रहो
छड़ी और टोपी, जिसको सताना
है वह
सतायेगा।
उसने
कहा: इतना आसान
नहीं है। जैसे
ही मैं किसी
आदमी को आते
देखता हूं, जल्दी से
टोपी लगाकर
छड़ी उठा लेता
हूं।
उस
आदमी ने पूछा:
मैं फिर भी
नहीं समझा, इससे होगा
क्या? टोपी
लगाकर छड़ी भी
उठा लोगे...!
उसने
कहा: तुम समझे
नहीं, बात
सीधी-साफ है, इसके पीछे
गणित है, इसके
पीछे चाल है, इसके पीछे
कूटनीति है।
वह आदमी पूछता
है: कहीं जा
रहे हैं, कहीं
से आ रहे हैं? कोई छड़ी और
टोपी लगाये
बैठा है या
खड़ा है, तो
कहीं से आ रहे
हैं कहीं से
जा रहे हैं।
तो मुल्ला
कहता है: अगर
देखता हूं कि
आदमी काम का
है, तो
कहता हूं बाहर
से आ रहा हूं:
बैठिये, विराजिये।
और देखा कि
आदमी बेकाम है;
बोर करेगा
तो कहता हूं:
बाहर जा रहा
हूं, नमस्कार!
तुम
जरा सावधान
रहना, कोई
आदमी छड़ी रखे
हो, टोपी
लगाये हो तो
पक्का मत समझ
लेना कि वह आ
रहा है कि जा
रहा है। वह हो
सकता है कि
सिर्फ एक मुखौटा
बनाये हुए है।
वह तुमसे बचने
की कोशिश कर
रहा है।
हम
एकांत में भी
चेहरे बनाये
रखते हैं।
नाटक का इतना
ही अर्थ है।
और संसार नाटक
है, यह तो तुम
तभी जान पाओगे
जब तुम समझ
पाओगे कि तुम
नाटकीय हो। और
इस नाटक के
कारण हमारा
स्वभाव विकृत
हो गया, हम
विभाव में जी
रहे हैं। कुछ
थे कुछ हो
गये। कुछ होना
था, कुछ
होकर समाप्त
हुए जा रहे
हैं।
प्याला
पी रहा सुरा, प्यासा पीने
वाला
प्याला
पी रहा सुरा, प्यासा पीने
वाला!
ढाली
क्यों
प्राणों की तन
में तुमने
हाला?
कंचन
की चौकी पर
बैठे ही रहे
देव;
रिस-रिस
कर, रीत गई
मानस की
मधुशाला!
प्यासे
हैं मनोभाव, मरणोन्मुख
हैं अभाव;
जीना
क्यों संभव हो, रिसते यदि
रहे घाव!
पूछ
रहे मुझसे यों
मेरे प्रभु
अंतर्मय,
कैसे
विपरीत हुआ
मुझसे मेरा
स्वभाव?
कहां
हो गई है गांठ?
पूछ
रहे मुझसे यों
मेरे प्रभु, अंतर्मय,--
कैसे
विपरीत हुआ
मुझसे मेरा
स्वभाव?
परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है, तुम्हारा
सत्य, तुम्हारी
प्रामाणिकता
है। मगर कैसे
सब खो गया? तुम
नाटक में पड़
गये। तुम
नाटकीय हो
गये। तुम अभिनय
करने लगे। तुम
भूल ही गये
तुम क्या हो? और तुम
कुछ-का-कुछ
दिखाने लगे।
और हर आदमी
कुछ-का-कुछ
दिखा रहा है।
तुम
अपने में ही
पहचानो। तुम
दूसरों की
फिकिर में मत
पड़ जाना कि
दूसरे क्या कर
रहे हैं और
क्या नहीं कर
रहे हैं। तुम
अपने में ही
पहचानो। तुम
अपने को ही
जांचते रहो और
तुम्हें
जिंदगी की
सारी नाटकीयता
समझ में आ
जायेगी, सारा
प्रपंच समझ
में आ जायेगा
और तुम अपना
नाटक छोड़ दो।
बस तुम्हारे
नाटक का गिर
जाना ही संन्यास
है। वही असली
संन्यास है।
संन्यास
का अर्थ है: रह
लिये नाटकीय
बहुत, अब
सरलता से
जीयेंगे, सहजता
से जीयेंगे।
जैसे हैं वैसे
ही जीयेंगे, अन्यथा न
दिखायेंगे।
हो जो परिणाम
सो हो, अपनी
प्रामाणिकता
न खोयेंगे, किसी कीमत
पर न खोयेंगे।
हर मूल्य
चुकायेंगे, मगर स्वभाव
के विपरीत न
जायेंगे।
और
तुम चकित
होओगे, शुरू-शुरू
में अड़चन होगी,
जरूर अड़चन
होगी, क्योंकि
तुमसे जिनके
भी संबंध थे
अब तक तुम्हारे
नाटकीय रूपों
से थे। जब तुम
अपना नाटक छोड़ोगे
तो सब संबंध
अस्त-व्यस्त
हो जायेंगे।
तुम्हारे जो
निकट प्रियजन
हैं परिजन हैं
वे सभी नाराज
हो जायेंगे
क्योंकि उनसे
तुमने अब तक
झूठे मुखौटे
ओढ़कर नाते
बनाये थे।
किसी स्त्री
से तुमने कहा
था कि तेरे
अतिरिक्त
मुझे कोई
सुंदर नहीं दिखाई
पड़ता, बस
तू ही है, तू
ही मेरी
नूरजहां, तू
ही मेरी
मुमताज महल, तू ही सब कुछ
है! अब अगर
तुमने नाटक
छोड़े तो यह बात
भी जायेगी। और
जाते ही अड़चन
शुरू होगी।
क्योंकि उस
स्त्री ने
सारा नाता इसी
आधार पर बनाया
था। सत्य आयेगा
तो असत्य के
जो तुमने ताश
के घर बनाये हैं,
एक ही झोंके
में गिरने
लगेंगे। अब
तुम यह न कह सकोगे,
क्योंकि
तुम जानते हो,
तुम्हें और
स्त्रियों
में भी
सौंदर्य
दिखाई पड़ता
है। कहते नहीं
थे, छिपाते
थे। दिखाई
नहीं पड़ता था,
ऐसा नहीं
है। जिस आदमी
को एक स्त्री
में सौंदर्य
दिखाई पड़ता है
उसे और
स्त्रियों
में भी सौंदर्य
दिखाई पड़ेगा,
क्योंकि
सौंदर्य किसी
एक पर समाप्त
कैसे होगा? सौंदर्य का
बोध एक पर
समाप्त कैसे
होगा? हां,
जिसे अब कोई
स्त्री-पुरुष
ही नहीं दिखाई
पड़ता, उसकी
बात अलग लेकिन
उसको फिर एक
में भी मुमताज
और एक में भी
नूरजहां नहीं
दिखाई पड़ेगी।
तुमने
अगर अपना जीवन
अब तक नाटकीय
ढंग से बनाया
था और ऐसे ही
बनाया था, तो आज अचानक
तुम सच्चे
होने लगोगे तो
सब तरफ से
अड़चन आयेगी, सब तरफ से परेशानी
आयेगी। यह
परेशानी
झेलनी पड़ेगी।
इस परेशानी को
मैं
तपश्चर्या
कहता हूं।
तपश्चर्या का
अर्थ धूप में
खड़े होना, शीत
में खड़े होना
नहीं है। वह
तो झूठी
तपश्चर्या
है। असली
तपश्चर्या है
अपने अब तक के
बनाये गये
नाटकीय
मुखौटों को
अलग करना और
फिर जो परिणाम
होने वाले हैं
उनको झेलना।
कष्ट होंगे, मगर हर कष्ट
तुम्हारी
चेतना की
गहराई को बढ़ा
जायेगा। और हर
पीड़ा
तुम्हारे
जीवन को नई
ऊंचाइयां दे
जायेगी। और हर
आग तुम्हें
निखारेगी। और
जल्दी ही तुम
पाओगे कि नाटक
कर-करके जीवन
गंवाया था, अब नाटक
छोड़कर जीवन
पाया है।
आखिरी
प्रश्न:
प्रार्थना-शास्त्र
का सार
समझाइये!
प्रार्थना
का कोई
शास्त्र नहीं
है। शास्त्र
तो बुद्धि के
होते हैं, हृदय का कोई
शास्त्र नहीं
होता।
प्रार्थना भाव
है, विचार
नहीं है।
तो
प्रार्थना के
आंसू हो सकते
हैं, प्रार्थना
की
मुस्कुराहट
हो सकती है, प्रार्थना
का नृत्य हो
सकता है, प्रार्थना
की तन्मयता हो
सकती है, लेकिन
प्रार्थना का
कोई शास्त्र
नहीं हो सकता।
और अगर कोई
प्रार्थना का
शास्त्र
बनायेगा तो वह
बुनियाद से ही
गलत होगा।
प्रार्थना
तो प्रेम की
सुवास है, इसका
शास्त्र कैसे
बनेगा?
तो
पहली तो बात:
प्रार्थना का
कोई शास्त्र न
है, न कभी
होगा।
प्रार्थना हो
सकती है। और
प्रार्थना
उन्हीं के
जीवन में होती
है जिनका
शास्त्रों से
छुटकारा हो
जाता है। जब
तक शास्त्र
तुम्हारी
छाती पर बैठे
हैं तब तक
प्रार्थना का
अंकुर नहीं
निकल सकेगा, प्रार्थना
का बीज नहीं
टूटेगा।
शास्त्रों ने
ही तो सुखा
डाला है
तुम्हें।
सिद्धांतों
ने ही तो
तुम्हें
मरुस्थल बना
दिया है--ऐसे
मरुस्थल कि
कहीं मरूद्यान
भी दिखाई नहीं
पड़ता। सब
रूखा-सूखा हो
गया है।
प्रार्थना
तो आर्द्रता
है, गीलापन
है, रसमयता
है।
प्रार्थना का
छंद होता है, शास्त्र
नहीं होता।
प्रार्थना की
गीत-भंगिमा
होती है, प्रार्थना
की मुद्रा
होती है।
प्रार्थना की एक
अंतस-दशा होती
है, लेकिन
उस अंतस-दशा
को समझाने
वाले कोई
सिद्धांत
नहीं हैं।
प्रार्थना
सिद्धांतों
की पकड़ के
बाहर है, सिद्धांतों
के चमीटे में
जो पकड़ में आ
जाये उसे
प्रार्थना मत
समझना। फिर
प्रार्थना न
हिंदू होती, न ईसाई, न
मुसलमान--प्रार्थना
तो हार्दिक
होती है।
जीवन
की अंधियारी
रात हो उजारी!
धरती
पर धरो चरण
तिमिरत्तोमऱ्हारी
परमव्योमचारी!
चरण
धरो, दीपंकर, जाए कट
तिमिर-पाश!
दिशि-दिशि
में चरण-धूलि
छाए बनकर
प्रकाश!
आओ, नक्षत्र-पुरुष,
गगन-वन-विहारी--
धरा
क्यों बिसारी?
आओ
तुम, दीपों को
निरावण करे
निशा!
चरणों
में
स्वर्णहास
बिखरा दे
दिशा-दिशा!
पाकर
आलोक, मर्त्यलोक
हो सुखारी--
नयन
हों पुजारी!
जीवन
की अंधियारी
रात हो उजारी!
धरती
पर धरो चरण
तिमिरत्तोमऱ्हारी
परमव्योमचारी!
प्रार्थना
तो पुकार है।
प्रार्थना तो
विरह की पुकार
है। वह जो
अदृश्य है
उससे
प्रार्थना है
कि दृश्य हो
जाओ। वह जो
अचिंतनीय है
उससे प्रार्थना
है: मेरे
चिंतन पर छाया
डालो। वह जो
दूर है, उसे
पास बुलाने का
आग्रह है।
प्रार्थना
विरह है।
प्रार्थना
रुदन है। प्रार्थना
पुकार है।
प्रार्थना
शास्त्र तो
कतई नहीं है। प्रार्थना
आस्था
है--विचार
नहीं, संदेह
नहीं।
मेरा
मन
मंत्र-लुब्ध
गहन-गुहा-द्वार
बंद!
दूर
कहीं
मंत्र-दीप
जलता
है मंद-मंद!
दीपक
से दूर नयन,
नयनों
की मंद
दृष्टि!
जैसा
मैं क्षुद्र, दिखी
वैसी
ही
ज्योति-सृष्टि!
चितवन
भयभीत, इसे
अभय
करो चिदानंद!
मेरे
हित बंद सही
तुमको
तो खुले
द्वार!
तम-भ्रम
को, मंत्रेश्वर,
हर
लो कर
कर-प्रसार!
अंधे
को तुम न दिखो,
तुम
को दिख रहा
अंध!
मेरी
अक्षमता के--
कारण
तो हैं अनेक;
परिणति
है प्रबल, और
दुर्बल
मेरा विवेक!
अवगुन-गुन-जाल
जटिल;
काटो, तो कटें फंद!
कारण
से कर्म कठिन,
कर्मों
का नहीं अंत!
सीमा
मेरी असीम,
करुणा
प्रभु की
अनंत!
करुणामय
शब्द-ब्रह्म,
मेरा
अज्ञान--छंद!
मन
को दो
ज्योति-बोध;
देखूं
मैं
प्रणत-भाल--
पदत्ताल
साष्टांग
प्रणत
उपकृत
उदंड काल,
पद-रज
को शीश धरे
अनुनय-नत
दिग्गयंद।
प्रार्थना
तो पुकार है
कि मैं असहाय, मुझे सहारा
दो! मेरे किये
कुछ न हो
सकेगा, तुम
कुछ करो!
प्रार्थना तो
ऐसे है जैसे
छोटा बच्चा
रोये, भूखा
बच्चा रोये।
उठ भी नहीं
सकता झूले से,
इतना छोटा।
इतना असहाय कि
मां को खोज भी
नहीं सकता।
जानता भी नहीं
कि मां कहां
होगी, रोता
है। बस वही
रोना
प्रार्थना
है। ऐसे ही तो
मनुष्य है--असहाय।
इतना छोटा कि
कहां खोजे उस
विराट को, किस
दिशा में जाये?
न उसका पता
है न ठिकाना
है। लेकिन रो
तो सकते हैं
हम।
दीपक
से दूर नयन,
नयनों
की मंद
दृष्टि!
इतना
तो कह सकते
हैं कि तुम
इतने दूर हो, दीया इतने
दूर है, प्रकाश
इतना दूर है, कि मेरी
आंखों को कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता है सिवाय
अंधेरे के।
दीपक
से दूर नयन,
नयनों
की मंद
दृष्टि!
अभाग्य
पर अभाग्य। एक
तो दीया दूर, फिर आंखों
की दृष्टि
मेरी बहुत
छोटी है।
थोड़ी-सी दूर
तक ही तो आदमी
देख सकता है।
चार कदम ही तो
देख सकता है।
देखने की
क्षमता कितनी?
जैसा
मैं क्षुद्र, दिखी
वैसी
ही
ज्योति-सृष्टि!
और
मैं ही छोटा
हूं, इसलिये
जो भी मैंने
देखा वह भी
छोटा है। मेरी
आंखें ही छोटी
हैं। तुम
विराट हो।
तुम्हें देखने
के लिये विराट
आंख चाहिए।
वैसी मेरे पास
आंख नहीं है।
चितवन
भयभीत, इसे
अभय
करो चिदानंद!
और
मैं कप रहा
हूं और मैं डर
रहा हूं।
चितवन
भयभीत, इसे
अभय
करो चिदानंद!
मेरे
हित बंद सही,
तुमको
तो खुले
द्वार!
सुनते
हो? समझो
इसे--
मेरे
हित बंद सही,
तुमको
तो खुले
द्वार!
मैं
न आ सकूं, छोटा
बच्चा न जा
सके, मां
तो आ सकती है!
मैं न आ सकूं, तुम तो आ
सकते हो! मेरे
हित सब द्वार
बंद हैं, समझ
लो; मगर
तुम्हारे
लिये तो कोई
द्वार बंद
नहीं हैं।
मेरे
हित बंद सही,
तुमको
तो खुले
द्वार!
तम-भ्रम
को, मंत्रेश्वर,
हर
लो कर
कर-प्रसार!
अंधे
को तुम न दिखो,
तुमको
दिख रहा अंध!
मैं
अंधा हूं।
मुझे तुम नहीं
दिखाई पड़ रहे।
लेकिन तुम तो
आंख ही आंख हो, मैं तो
तुम्हें दिख
रहा हूं। मैं
तुम्हें न खोज
पाऊं, लेकिन
तुम मुझे खोज
लो। तुम्हें
क्या अड़चन है?
प्रार्थना
इस बात का
निवेदन है कि
मैं तो नहीं
खोज पा रहा
हूं, तुम तो
खोज सकते हो!
अंधे
को तुम न दिखो,
तुमको
दिख रहा अंध!
परमात्मा
तुम्हें तब तक
नहीं खोज सकता
जब तक कि तुम
निवेदन न करो।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में बाधा नहीं
डालेगा।
इसलिये तुम
निवेदन करो तो
उसकी तरफ से हाथ
आने शुरू हो
जाते
हैं।तुम्हारे
निवेदन की ही
कमी है।
मेरी
अक्षमता के--
कारण
तो हैं अनेक;
परिणति
है प्रबल, और
दुर्बल
मेरा विवेक!
अवगुन-गुन-जाल
जटिल;
काटो, तो कटें
फंद।
प्रार्थना
का इतना ही
सार है कि
मेरे किये कुछ
भी न हो सका।
मेरे किये
उलझन बढ़ी, जाल बढ़ा।
मेरे किये तो
जो सुलझा था
वह भी उलझ गया।
अब तुम
सुलझाओ। मैं
समर्पण करता
हूं।
परिणति
है प्रबल; और
दुर्बल
मेरा विवेक!
मेरी
अक्षमता के--
कारण
तो हैं अनेक;
अवगुन-गुन-जाल
जटिल;
काटो, तो कटें
फंद।
तुम
काटो तो कट
जायें। और
निश्चित कट
जाते हैं, पुकारे भर
कोई। भरपूर मन
पुकारे।
परिपूर्ण मन
पुकारे।
समग्रता से
उठे आह, पहुंच
जाती है उस
तक। और उस तक
एक बार भी
तुम्हारा
निवेदन पहुंच
जाये तो रात
टूटे, सुबह
हो, तो आ
जाये भोर।
भोर
हो जायेगी, रात ढल
जायेगी,
मुस्करा
दो कि दुनिया
बदल जायेगी!
आंख
खोलो कि
प्राची अरुण
हो सके,
भैरवी
की लहर भी
तरुण हो सके!
स्नेह
की ओस ठंडी
हवा में सिहर
कामना
के कमल के नयन
धो सके!
मैं
बटोही निशा का
भ्रमाया हुआ,
मैं
बटोही तिमिर
का सताया हुआ!
दृष्टि-धनु
पर किरण-शर
चढ़ा छोड़ दो,
राह
मेरी अंधेरी
उजल जायेगी!
भोर
हो जायेगी, रात ढल
जायेगी!
मुस्करा
दो कि दुनिया
बदल जायेगी!
भावना
के कुसुम
मुस्कराने
लगें,
प्यार
की बेलियां
लहलहाने लगें,
रूप
की ज्वाल से
गुदगुदा दो
तनिक,
लालसा
के मधुप
गुनगुनाने
लगें!
जिंदगी
के विटप को
प्रभा दो नई,
सांस
के पल्लवों को
हवा दो नई!
काल
के व्योम में
चहचहाती हुई
कल्पना
कोकिला-सी
निकल जायेगी!
भोर
हो जायेगी, रात ढल
जायेगी,
मुस्करा
दो कि दुनिया
बदल जायेगी!
ज्योति
के शर चलाओ
तिमिरत्तोम
में,
रूप
के रवि! चढ़ो
काल के व्योम
में!
चेतना
बन पलो सृष्टि
के प्राण में,
चिर
पुलक बन जगो
देह में, रोम
में!
तुम
हंसो, प्राण
मेरे करें
आरती,
वंदना
में उमड़ती रहे
भारती;
हूं
नयन-अंजली में
लिये अश्रुजल;
देव!
क्या अंजली यह
विफल जायेगी!
भोर
हो जायेगी, रात ढल
जायेगी,
मुस्करा
दो कि दुनिया
बदल जायेगी।
अपनी
अंजली में
आंसू भरकर
पुकारो।
प्रार्थना
एक कला है, शास्त्र
नहीं।
प्रार्थना
प्रेम की कला
का ही नाम है; प्रेम की
कला की
पराकाष्ठा
है। दो हिस्से
हैं प्रार्थना
के--पहला, कि
मैं असहाय हूं,
कि मैं अंधा
हूं, कि
मेरे लिये
द्वार बंद हैं,
कि मेरी
सीमा है, कि
मैं क्षुद्र
हूं, कि
मेरे भटकाव के
अनंत-अनंत
कारण हैं, कि
अनंत-अनंत
कर्मों का जाल
रुकावट है; दूसरा कि
तुम आओ, कि
तुम आ सकते
हो। द्वार
मेरे लिये बंद
हैं, तुम्हारे
लिये बंद
नहीं। कि मैं
भटक गया हूं, कि मैं बहुत
दूर निकल गया
हूं तुमसे, लेकिन तुम
मुझसे दूर
नहीं निकल गये
हो। तुम्हारे
बिना तो मैं
जी ही कैसे
सकूंगा? तुम्हीं
तो मेरी
श्वासों की
श्वास हो, मेरे
प्राणों के
प्राण हो!
मेरी पहचान
भूल गई, मेरी
प्रत्यभिज्ञा
खो गई, तुम
मेरे सामने भी
खड़े हो जाओगे
तो मैं पहचान न
सकूंगा। मेरी
विस्मृति
गहरी है। मगर
तुम्हारा
स्मरण तो अपार
है। तुम याद
करो। मैं इतना
ही कर सकता
हूं कि रोऊं।
ज्योति
के शर चलाओ
तिमिरत्तोम
में,
रूप
के रवि! चढ़ो
काल के व्योम
में!
चेतना
बन पलो सृष्टि
के प्राण में,
चिर
पुलक बन जगो
देह में, रोम
में!
तुम
हंसो, प्राण
मेरे करें
आरती,
वंदना
में उमड़ती रहे
भारती;
हूं
नयन-अंजली में
लिये अश्रु-जल;
देव!
क्या अंजली यह
विफल जायेगी!
भोर
हो जायेगी, रात ढल
जायेगी,
मुस्करा
दो कि दुनिया
बदल जायेगी!
आज
इतना ही।
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