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सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–09)

अपने अंदर के अरूप में स्थित हो जाओ—(प्रवचननौंवां)

दिनांक 18 जूलाई 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
बाऊल गीत:
मैरे हृदय!
तू अपने आपको उस वेष में सज्जित कर
जिसमें सभी स्त्रियोचित सार तत्व हों,
तू अपनी प्रकृति और आदतों को बदल कर
ठीक उन्हें उनके विपरीत बना ले।
तभी, जैसे लाखों करोड़ों सूर्यों का विस्फोट होगा
और उसकी चमक तथा प्रकाश में
वह अरूप, हर कहीं विविध रूपों में दिखाई देगा।
तू वह देख सकेगा
लेकिन केवल तभी
यदि तू स्वयं अपने अंदर के
अरूप में स्थित हो जाए।

ह गीत अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह बाउलों के दृष्टिकोण का मूल है। परमात्मा के निकट आने के दो उपाय हैं। पहला है पुरुष चित्त—जो सक्रिय और आक्रामक है, और दूसरा है स्त्रैण चित्त—जो निष्‍क्रिय और ग्राहक है। बाउलों का मार्ग दूसरा है। जैसे कि लाओत्से और च्चांग्त्सु का भी दूसरा ही मार्ग है। महावीर और पतंजलि के पहुंचने का मार्ग पहला है।
पुरुष चित्त सदा खोजता है, और परमात्मा की खोज करता रहता है; जैसे मानो परमात्मा कहीं और है और उसे कहीं खोजना है। स्त्रैण—चित्त केवल प्रार्थना करता है और प्रतीक्षा करता है। स्त्रैण—चित्त का दृढ़ विश्वास है— ‘‘जब मैं पहले ही से तैयार हूं तो परमात्मा मेरे पास आयेगा ही।‘‘ यह परमात्मा ही है, जो उसके पास आता है; ऐसा नहीं कि खोजने वाला परमात्मा के पास जाता है। और वास्तव में तुम परमात्मा को कैसे खोज सकते हो? तुम उसे जानते नहीं; तुम्हें उसका पता—ठिकाना नहीं मालूम, न तुम उसकी दिशा जानते हो, और न तुम उसकी परिभाषा ही जानते हो। और यदि तुम उसके कभी सामने भी पड़ जाओ, तो तुम उसे पहचानोगे कैसे? क्योंकि पहचान केवल तभी सम्भव है, यदि तुम पहले से जानते हो।
एक तरह से सभी खोज व्यर्थ हैं और पुरुष चित्त के कारण ही संसार में नास्तिकता बहुत प्रमुख हो गई है। यह पुरुष चित्त की विफलता ही है; कि नास्तिकता इतनी अधिक प्रचलित हो गई है। पश्चिम में वास्तव में निरीश्वरवाद अथवा नास्तिकता ही महानतम धर्म बन गया है—क्योंकि पश्चिम, पुरुष चित्त प्रधान है। उसके चित्त का झुकाव ही जीतने में है जैसे मानों वहां मनुष्य और परमात्मा के मध्य एक युद्ध चल रहा है, जैसे मानो वहां एक सतत संघर्ष और कुश्ती चल रही है। इसके फलस्वरूप पश्चिम में जो भी प्रयास हुए हैं उससे परमात्मा पूरी तरह मिट गया है। नीत्‍शे ने घोषणा की कि ‘‘ परमात्मा मर गया है।‘‘ नीत्‍शे—पुरुष चित्त का सार तत्व है: सत्ता और शक्ति पाने की इच्छा, अधिकार और नियंत्रण की इच्छा सब कुछ पाने की इच्छा।
यदि तुमउसकीबहुत खोज करोगे तो तुम्हारी खोज ही एक अवरोध बन जाएगी।
कुछ लोग यहां ऐसे भी हुए हैं जो इस मार्ग के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुए— जैसे महावीर और पतंजलि लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं और यह संघर्ष बहुत अधिक दीर्घकालीन और अनावश्यक है। परमात्मा स्वयं तुम्हारी ओर आता है, परमात्मा सदा तुम्हारी ओर आ रहा है।
बाउल कहते हैं— ‘‘ वह तुम नहीं हो, जो उसे खोज रहे हो; यह, ‘ वहही है, जो तुम्हें खोज रहा है।‘‘ ऐसा नहीं है कि तुम उसकी प्रार्थना करते हो। वह ही तुम्हारी प्रार्थना कर रहा है। जरा सुनो, निष्क्रिय ग्राहक बन जाओ। वह तुम्हारा दरवाजा खटखटा रहा है, और अपने कमरे के अंदर तुम उसे खोजने और तलाशने में इतने अधिक व्यस्त हो कि तुम दरवाजे पर उसकी दस्तक तक नहीं सुन सकते। मनुष्य, परमात्मा को खोज ही नहीं सकता, केवल परमात्मा ही मनुष्य को खोज सकता है। यह एक गढ़ सत्य है जो समझ लेने जैसा है, क्योंकि तुम परमात्मा को कैसे खोज सकते हो? तुम उससे कैसे सम्बंध जोड़ोगे? तुम इतने अधिक अंधेरे और मूर्च्छा में हो, तुम इतने अधिक बुझे—बुझे से, सोये—सोये से इतने अधिक अज्ञानी हो—कि तुम उसे खोजने कैसे जाओगे? और तुम जो कुछ भी खोजोगे, वह तुमसे अधिक बड़ा नहीं हो सकता। तुम्हारा परमात्मा, तुम्हारा अपना ही बनाया परमात्मा होगा।
यदि घोड़े परमात्मा को खोजें, तो वे परमात्मा की एक छवि भी बनाएंगे, लेकिन वह छवि एक घोड़े की ही होगी—मनुष्य की नहीं—क्योंकि मनुष्य ने कभी भी घोड़ों के लिए कोई भी काम अच्छा नहीं किया है। और वास्तव में यदि उनकी शैतान के बारे में कोई पौराणिक कथाएं होंगी, तो मनुष्य की छवि का ही शैतान होगा। यदि वृक्ष परमात्मा की खोज कर रहे हैं, तो वे वृक्ष की ही छवि का परमात्मा खोजेंगे, क्योंकि हम अपनी आकृति के पार नहीं जा सकते। हमारी रूप और आकृति ही हमारी सीमा होगी। इसलिए यदि तुम खोजने निकले तो वह तुम्हारा ही परमात्मा होगा, और तुम्हारा परमात्मा लगभग परमात्मा तो नहीं ही है।
उसे ही खोजने दो तुम्हें। उसे इसकी अनुमति दो। उसका हाथ तुम्हारे लिए निरंतर आगे बढ़ता है, केवल स्वीकार भाव से यथावत बने रहो। उससे दूर मत भागो, और इतना ही बहुत है। उसे विधायक रूप से खोजने की कोई जरूरत है ही नहीं, सिर्फ उससे पलायन मत करो। उसे प्रकट होने दो, उसका स्वागत करो, ग्राहक होकर उसे सुनो। उसी ग्राहकता और सुनने में ही वह तुम्हारे अंदर गहरे में प्रविष्ट हो जाएगा। स्त्रैण चित्त बनो, एक स्त्री ही बन जाओ।
बुद्ध एक स्त्री जैसे ही हैं।
वह छ: वर्षों तक खोजते रहे, उन्होंने पुरुष चित्त साधना से पहुंचने का प्रयास किया। वह एक राजा के पुत्र और एक महान योद्धा थे, और उनकी शिक्षा—दीक्षा, युद्ध, लड़ाई और संघर्ष के अनुरूप ही की गई थी। उनके लिए स्वाभाविक था कि वह परमात्मा की खोज करते। उन्होंने प्रयास किया और कठोर प्रयास किया। वह एक गुरु से दूसरे गुरु के पास गए और वह इतने अधिक सत्यनिष्ठ थे कि कोई भी गुरु उनसे यह न कह सका— ‘‘तुम इतना अधिक श्रम करके ठीक नहीं कर रहे हो और इसी कारण तुम नहीं पहुंच रहे हो। वह अपने प्रयास के प्रति इतने अधिक ईमानदार थे कि उनके शिक्षकों ने उनसे कहा— ‘‘ हमारे पास सब कुछ इतना ही था तुम्हें बताने को। और यदि कुछ नहीं घट रहा है तो तुम दूसरे सद्गुरु को खोजो। हम लोग अक्षम हैं। हम इससे अधिक और कुछ भी नहीं कर सकते।‘‘
एक दिन उन्होंने पूरे संसार को त्याग दिया और संन्यासी बन गये— और एक दिन उन्होंने उसकी व्यर्थता समझ कर उसकी तलाश भी छोड़ दी। वह केवल अंधेरे में टटोल रहे थे। उस रात जब उन्होंने खोज करना भी छोड़ दिया तो जैसे एक स्त्री बन गए। उस रात उन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे विश्राम किया, अब वहां करने के लिए कुछ बचा ही नहीं था।
पुरुष करने वाला कर्त्ता है। स्त्री है प्रेम करने वाली एक प्रेमिका वह कर्त्ता नहीं है। पुरुष मस्तिष्क है और स्त्री है हृदय। मनुष्य चीजों का सृजन कर सकता है लेकिन जीवन को जन्म नहीं दे सकता। उसके लिए ग्राहकता की आवश्यकता होती है, पृथ्वी जैसी ग्राह्यता शक्ति। बीज पृथ्वी पर गिरता है और जमीन के नीचे कहीं खो जाता है, और एक दिन एक नया जीवन प्रस्फुटित होता है। इसी तरह से एक बच्चे का जन्म होता है।
परमात्मा को जन्म देने के लिए एक गर्भ की जरूरत होती है और तुम्हें स्वयं को ही जन्म देना होता है। तुम्हें इसके लिए गर्भ बनना होगा।
उस रात्रि बुद्ध एक गर्भ बने, और उन्होंने सब कुछ छोड दिया। अब वहां करने को कुछ भी नहीं था, बस कुछ न करते हुए उसी पर ध्यान करना था। उनके लिए संसार समाप्त हो गया था, वहां कुछ खोजने को था ही नहीं। अब आध्यात्मिक खोज भी समाप्त हो गई थी। प्रत्येक चीज पूरी तरह शांत और घिर हो गई थी। जब वहां खोजने को कुछ बचा ही न था तो वहां कोई कामना भी नहीं थी: जब वहां कोई कामना नहीं बची थी तो वहां विचार भी नहीं थे, और जब वहां न कोई कामना न थी, कोई विचार नहीं थे और न कोई खोज थी, तो अहंकार कैसे बना सकता था वहां। उसका अस्तित्व तभी है जब कर्त्ता हो करने वाला हो। उस क्षण भविष्य भी जाता रहा। जब तुम्हें कुछ करने के लिए कहीं जाना ही नहीं है, तो भविष्य रखने की आवश्यकता ही क्या है? भविष्य की जरूरत एक स्थान की तरह होती है जहां तुम अपनी कामनाएं प्रक्षेपित कर सको। प्रक्षेपण करने के लिए भविष्य की आवश्यकता होती है।
उस रात भविष्य तिरोहित हो गया, वास्तव में समय ही मिट गया। जब तुम एक कर्त्ता नहीं रहे, फिर समय का उपयोग क्या? बुद्ध विश्राम में चले गये। यह विश्राम परिपूर्ण, समग्र और अखण्ड था। उन्होंने स्वयं में ही विश्राम किया—कहीं भी अब जाना नहीं है, अब तो स्वयं ही में विश्राम करना है: न कोई कामना, न कोई विचार, प्रत्येक चीज व्यर्थ सिद्ध हो चुकी थी। वास्तव में जो व्यर्थ सिद्ध हुआ था, पुरुष चित्त की ओर उन्‍मूख मन, जो कर्त्ता है। भोर के समय जब आखिरी शुक्र तारा अस्त हो रहा था, उन्होंने अपने नेत्र खोले। पूरी रात स्वप्‍नरहित सुखद नींद थी, क्योंकि सपने भी कामनाओं से उत्पन्न होते हैं। क्या तुमने कभी इसका निरीक्षण किया है? जब तुम कुछ करना चाहते हो, तो रात में नींद आना कठिन हो जाता है: और सुबह बहुत उत्तेजनापूर्ण होती है। आने वाला कल भी उत्तेजक होता है, क्योंकि तुम्हें कुछ करना है। यदि तुम छुट्टी मनाने हिमालय पर भी जा रहे हो, तो भी तुम रात में सो नहीं पाते, योजनाएं बनाना जारी रहता है। तुम्हें यह करना है, वह करना है, उसका रिहर्सल या अभ्यास चलता रहता है। नींद का आना कठिन हो जाता है...... और सपने
बुद्ध पहली बार गहरी नींद सोए। वह निद्रा, समाधि थी: न कोई विचार न कोई कामना और न कोई स्वप्न। वह अपने केंद्र पर विश्राम में चले गये, और जब उन्होंने अपने नेत्र खोले, तो वह एक छोटे से शिशु के समान थे—एकदम ताजा, युवा। उन्होंने अस्त होते हुए आखिरी तारे को देखा, और जैसे ही तारा मिटा, वह भी मिट गये। वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए। लेकिन बुद्धत्व एक गहरे स्त्रैण चित्त की दशा में घटा।
इसीलिए जैनों और बौद्धों में एक सतत संघर्ष चलता रहता है—क्योंकि महावीर हैं—पुरुष चित्त की ओर उम्मुख, एक योद्धा और विजेता जैसे। महावीर शब्द का भी यही अर्थ है। यह उनका वास्तविक नाम नहीं है, उनका असली नाम तो वर्द्धमान है। लेकिन उन्होंने सत्य पर विजय प्राप्त की। और वह इतने अधिक वीर थे, और उनका साहसिक अभियान इतना अधिक महान था, कि वह महावीर के नाम से स्मरण किए जाते हैं: वह व्यक्ति जो महान साहसिक है। जैनों और बौद्धों के मध्य एक सूक्ष्म संघर्ष बना रहता है। सदियों में एक दूसरे के विरुद्ध वे तर्क—वितर्क करते आये हैं। इसे भली भांति समझा जा सकता है। कारण है—पुरुष चित्त और स्त्रैण— चित्त, यिन और यांग, सक्रिय और निक्रिय, दिन और रात। दिन, प्रतीक है पुरुष का, और रात प्रतीक है स्त्री का। दिन क्रिया—कलाप से भरा हुआ होता है, और रात में होता है बस विश्राम। दिन में चमक है, प्रकाश है क्योंकि वहां सूरज है। तुम सभी चीजों को स्पष्टता से देख सकते हो: तुम जान सकते हो, क्या, क्या है और कौन— कौन है। रात में चारों ओर अंधेरा रहता है। पूरा अस्तित्व अंधेरे की चादर से ढका होता है। तुम पहचान नहीं सकते कि क्या—क्या है, तुम देख नहीं सकते कि तुम कहां हो और तुम कौन हो।
सभी चीजों के विस्तृत वर्णन और सभी सीमाओं के पार यह एक अद्भुत विश्राम है। स्त्री को सदा से ही अंधेरी रात और पृथ्वी की भांति जाना जाता रहा है। उस रात बुद्ध एक स्त्री बन गए और बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए।
बाउल कहते हैं:
ओ मेरे हृदय।
तू अपने आपको उस वेष में सज्जित कर
जिसमें सभी स्त्रियोचित सार—तत्व हों।
एक स्त्री बन जाओ। वास्तव में उनका कहने का तात्पर्य है मनौवैज्ञानिक और आध्यात्मिक रूप में। इसका तुम्हारे शरीर से कोई लेना—देना न होकर तुम्हारे व्यवहार और तौर—तरीकों से है। स्त्री में धैर्य होता है। थोड़ा विचार करें उस पुरुष का, जो नौ महीने तक अपने पेट में बच्चा रखे रहे। तुम कल्पना तक नहीं कर सकते कि एक पुरुष इसे सहने में समर्थ हो सकेगा—यह असम्भव है। एक स्त्री में अपार सहिष्णुता और स्वीकार— भाव होता है। स्त्री की सहनशक्ति पुरुष की अपेक्षा अधिक दृढ़ है। वास्तव में मनुष्य का सेक्स निर्बल है। जहां तक मांसपेशियों का सम्बंध है वह शक्तिशाली हो सकता है, लेकिन मसल्स, शक्ति का मापदण्ड नहीं हैं। सौ लड़कियों के अनुपात में एक सौ पंद्रह लड़कों का जन्म होता है। विवाह की आयु तक आते— आते पंद्रह लड़के मर जाते हैं। प्रकृति को अधिक लड़कों को जन्म देना होता है क्योंकि इनमें से कुछ मर जाने वाले हैं। पुरुष की अपेक्षा स्त्रियां अधिक समय तक जीवित रहती है, लगभग पांच वर्ष अधिक यही कारण है कि तुम संसार में इतनी अधिक विधवाएं देखते हो। रुग्णता और बीमारी का स्त्रियां अधिक प्रतिरोध करती हैं। स्त्रियों में कहीं अधिक सहिष्णुता और स्वीकार भाव होता है। कहां से आती है यह शक्ति?—यह आती है उनकी ग्रहणशीलता से।
जब तुम किसी कार्य को करने वाले कर्त्ता होते हो, तुम अपने आपको थका लेते हो।
एक स्त्री और पुरुष प्रेम कर रहे हैं पुरुष अपने को थका लेता है, स्त्री प्रेम करने के बाद और समृद्ध और पोषित होती है, क्योंकि वह ग्रहणशील छोर है। प्रेम करने में पुरुष अपनी शक्ति खोता है और स्त्री उसे प्राप्त करती है। यही कारण है कि पूरे संसार में स्त्रियों को दबा कर दमित करके रखा जाता है। यदि उन्हें दबा कर न रखा जाये तो वे पुरुषों को मार ही डालें किसी भी पुरुष का, किसी भी स्त्री को संतुष्ट कर पाना असम्भव है। अब आधुनिक खोजी कहते हैं स्त्रियों के पास संभोग के कई उच्च शिखर होते हैं। एक स्त्री रात में एक दर्जन पुरुषों से प्रेम कर सकती है और फिर भी ताजगी का अनुभव करती है और ऊर्जा से भरी रहती है। एक पुरुष केवल एक बार प्रेम करने में थक जाता है। पुरुष अपनी ऊर्जा बाहर फेंकता है और स्त्री उस ऊर्जा को ग्रहण करती है।
ऐसा ही परमात्मा के साथ भी होता है। बाउल कहते हैं— ‘‘स्त्रैण बनकर ग्रहणशील हो जाओ।‘‘ लेकिन स्मरण रहे, जब वे निष्‍क्रिय बने रहने को कहते हैं, तो इसका अर्थ आलसी बनने से नहीं है। आलसी बनना भी सक्रिय बनने जैसा ही है। आलस्य, निष्क्रिय नहीं होता। भले ही वह कार्य न कर रहा हो, लेकिन अपने मन में वह कार्य किए चले जाता है। हो सकता है वह वास्तव में कोई भी कार्य न कर रहा हो, पर अपने मन में वह बहुत से काम किए चले जाता है, औरों से भी कहीं अधिक, क्योंकि उसके पास पूरी ऊर्जा उपलब्ध है और उसे करना कुछ भी नहीं है। वह सोचे चला जाता है और मन ही मन बहुत से काम किए चला जाता है, निष्क्रियता का अर्थ अकर्मण्यता या आलस्य नहीं है, इसका अर्थ है—बहुत आशापूर्ण सहिष्णुता, बहुत सक्रिय सहनशीलता और जीवंत धैर्य। आलसी मनुष्य बुझा—बुझा सा मृतप्राय होता है। निष्क्रियता में मुर्दापन नहीं होता। वह पूरी तरह जीवंत होती है: उसका कुण्ड ऊर्जा से भरा हुआ होता है, लेकिन वह कहीं भी जा नहीं रहा है और न वह किसी खोज में लगा है, वह अपने प्रीतम प्यारे के आने की केवल प्रतीक्षा कर रहा है।
यही कारण है कि स्त्री कभी भी प्रेम प्रसंगों में पहला कदम नहीं उठाती—वह उठा ही नहीं सकती। और यदि एक स्त्री प्रेम प्रसंगों में पहल करती है तब उसे स्त्री— मुक्ति— आदोलन का एक भाग होना चाहिए। तब वह किसी तरह अपना स्त्रीत्व खो रही है। वह प्रतीक्षा करती हैपहल पुरुष की ओर से होना चाहिए। स्त्री प्रतीक्षा करती है—ऐसा नहीं, कि वह प्रेम नहीं करती, वह अत्यधिक प्रेम करती है। कोई पुरुष भी उतनी गहराई से प्रेम नहीं कर सकता—लेकिन वह प्रतीक्षा करती है। वह विश्वास करती है कि चीजें अपने ठीक समय पर घटित होगी, और शीघ्रता करना ठीक नहीं है। एक स्त्री तनावमुक्त होती है, लेकिन ऊर्जा से भरी हुई, इसीलिए स्त्री में एक सौंदर्य होता है। स्त्री शरीर की गोलाई केवल शारीरिक चीज नहीं है —ऐसा ही उसके मनोविज्ञान में भी है। उसकी आकृति गोलाई लिए हुये, चिकनी, उष्ण और धुल जाने को तैयार होती है, लेकिन आक्रामक नहीं होती। निष्कि्रयता का अर्थ है— चूसनाक्रामकता और अहिंसा, यह आलस्य नहीं है।

 मैंने सुना है स्विज लोग, विशेष रूप से वे लोग राजधानी बर्न में रहते हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि वे घोंघे की तरह सुस्त होते हैं, इसलिए एक दिन बर्न में रहने वाले दो मित्र बाहर टहलने के लिए गए। एक घंटे बाद एक मित्र ने कहा— ‘‘ क्रिसमस का त्यौहार बहुत सुंदर होता है।‘‘
जब दूसरा घंटा बीत गया तो उसके मित्र ने उत्तर दिया— ‘‘ हां प्रेम भी बहुत सुंदर होता है।‘‘
काफी समय गुजर जाने के बाद पहले मित्र ने उत्तर दिया— ‘‘ तुम ठीक कहते हो लेकिन क्रिसमस तो अक्सर बार—बार आता है।‘‘

 आलस्य एक तरह की जड़ता है, आलस्य इच्छाविहीन बनना है और आलस्य एक आत्मघात है— धीमा, बहुत धीमा। इसलिए स्मरण रहे, निष्‍क्रियता, ऊर्जा का न होना नहीं है। निष्‍क्रियता ऊर्जा का कुण्ड है जिसमें कम्पन धड़कन और प्रवाह है, जो ग्रहण करने को तैयार है लेकिन चूसनाक्रामक है।

 एक बार ऐसा हुआ एक सूफी रहस्यदर्शी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। उधर से गुजरने वाले एक व्यक्ति ने उससे पूछा— ‘‘आप यहां बैठे क्या कर रहे हैं? आपका घर तो जल रहा है।‘‘
ठीक उसके सामने ही उसका घर जल रहा था।
 ‘‘मैं जानता हूं अजनबी।‘‘ उस तथाकथित सूफी ने उत्तर दिया।
उत्तेजित होकर चीखता हुआ अजनबी बोला— ‘‘तब आप उस बारे में कुछ भी क्यों नहीं कर रहे हैं?‘‘
रहस्यदर्शी ने कहा— ‘‘ मैं कर तो रहा हूं। जब से आग लगना शुरू हुई है। मैं वर्षा होने के लिए प्रार्थना ही तो कर रहा हूं।‘‘

 बाउल आलसी नहीं है। वह क्रिया या कर्म से भरा हुआ है। लेकिन वह निष्‍क्रिय है।
यह विशेषता समझने जैसी है।
तुम प्रयोग के इरादे से कुछ भी न करते हुए बैठ सकते हो और तुम मन को सक्रिय, व्यस्त और सम्बंध बनाते देख सकते हो। तुम अधिक क्रियाकलाप में व्यस्त भी हो सकते हो और मन निष्‍क्रिय बना हुआ। तुम्हारा सभी से अलग भी हो सकता है। वे लोग सक्रिय होने के विरोध में नहीं है। वे अपने अंदर निरंतर व्यस्त बने रहने के विरोध में हैं, क्योंकि तब तुम परमात्मा को अपने अंदर प्रवेश करने के लिए स्थान नहीं दे सकते। तुम द्वार बनाने को उसे पर्याप्त स्थान लेने की भी अनुमति नहीं देते। तुम्हारे अंदर का संसार रही कबाड़ से इस तरह भरा हुआ है कि वह ठहरने को स्थान तक नहीं पा सकता। अंदर गहरे में एक रिक्तता या खाली स्थान की आवश्यकता है, वही आंतरिक शून्यता गर्भ बन जाती है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी क्रिया छोड्कर कुछ करना ही रोक दो, उसे केवल बाहर ही बाहर होने दो। अंदर से स्त्री की भांति शांत, खाली बनकर अपने द्वार खोल कर उसकी प्रतीक्षा करो।
मां के गर्भ में स्त्री का अंडा केवल प्रतीक्षा करता है और कहीं भी नहीं जाता। पुरुष का शुक्राणु तीव्र गति से यात्रा करता हुआ अंदर पहुंचता है। पुरुष शुक्राणु की स्त्री के अंडे तक यात्रा करने के लिए वास्तव में यह दूरी बहुत अधिक है, शुक्राणुओं में एक महान प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती है। पुरुष प्रारंभ ही से प्रतियोगी है, यहां तक कि जन्म लेने के पूर्व ही से। स्त्री से प्रेम करते हुए पुरुष वीर्य के साथ करोड़ों शुक्राणु मुक्त करता है और वे सभी स्त्री के अंडे की ओर तेजी से दौडते हैं। तीव्र गति की आवश्यकता होती है, क्योंकि उन सभी में केवल एक ही अंडे तक पहुंचने में समर्थ होगा। उनमें केवल एक ही नोबेल पुरस्कार विजेता बनने जा रहा है। वहां एक असली ओलम्पिक दौड़ शुरू होती है और यह कोई मामूली दौड़ न होकर जीवन—मरण का प्रश्न है और प्रतियोगिता बहुत बड़ी है लाखों करोड़ों शुक्राणु लड़ते हुए तेजी से दौड़ रहे हैं, मंजिल तक केवल एक पहुंचेगा। कभी—कभी ऐसी भी होता है कि एक ही समय पर दो शुक्राणु पहुंच जाते हैं,इसलिए जुड़वां बच्चे जन्म लेते हैं।
क्योंकि एक बार जब एक शुक्राणु गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है तब उसका द्वार बंद हो जाता है। कभी—कभी दो या तीन शुक्राणु ठीक एक ही समय वहां पहुंचते हैं, द्वार खुला होता है इसलिए तीनों प्रविष्ट हो जाते हैं। तब वहां, दो, तीन अथवा चार और यहां तक कि कभी छ: बच्चों तक का जन्म एक साथ होता है लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। सामान्यतया एक क्षणांश में ही एक शुक्राणु दूसरों से ठीक पहले पहुंच जाता है। द्वार खुला है, एक बार जब एक अतिथि प्रविष्ट हो गया, तो द्वार बंद हो जाता है। लेकिन स्त्री का अंडा वहां केवल निष्क्रिय प्रतीक्षा करता है.. .उसे महान विश्वास होता है।
यही वजह है कि स्त्रियां प्रतियोगी नहीं हो सकतीं, वे लड़ नहीं सकतीं, वे संघर्ष नहीं कर सकतीं। और यदि तुम कहीं ऐसी स्त्री पाते हो, जो लड़ती है, संघर्ष करती है, जो प्रतियोगी है तो उसके स्त्रीत्व में कहीं कुछ चूक हो रही है। शारीरिक रूप से वह एक स्त्री हो सकती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से एक पुरुष है। इसलिए स्मरण रहे, निष्कि्रय होना आलस्य नहीं है। निष्‍क्रियता अपने आप में एक तरह की गतिविधि है, जो तनावमुक्त और विश्रामपूर्ण है।

 दो कछुवे, एक रेगिस्तान में घिसटते हुए चल रहे थे और वे दोनों बहुत प्यासे थे। कुछ देर बाद खोज करते हुए उन्हें एक बड़ी कोकाकोला की बोतल मिली। वे कछुवे जरूर ही अमेरिकन रहे होंगे। वे दोनों खुशी से उछल पड़े। लेकिन शीघ्र ही उन्हें अहसास हुआ कि उनके पास बोतल खोलने की चाभी नहीं है।
उन लोगों ने उसे खोलने का कठोर प्रयास किया लेकिन बोतल खुलने का कोई अवसर वहां था ही नहीं, इसलिए उन्होंने तय किया कि उनमें से एक वापस गांव जाएगा और दूसरा उसकी रखवाली करेगा। एक लम्बा समय बीत गया, पांच घंटे, दस घंटे, एक दिन, दो दिन, पांच दिन और फिर सात दिन। तब पहले कछुवे ने फिर बोतल खोलने का प्रयास किया। तुरंत ही पास ही में भुरभुरी रेत में दुबका दूसरा कछुवा चिल्लाता हुआ बोला— ‘‘ यदि तुम शुरू ही इस तरह करोगे तो मैं गांव कभी जाऊंगा ही नहीं।‘‘

 बाउल बहुत सक्रिय लोग हैं, वे पनचक्की की भांति घूमते हुए नाचते और गाते हैं, और फिर भी जहां तक परमात्मा का सम्बंध है, वे लोग बहुत निष्‍क्रिय हैं। वे कहते हैं— ‘‘ तुम्हें जब भी हमारा खयाल आ जाए कि यही ठीक समय है, तभी आ जाना और तुम हमें प्रतीक्षा करते हुए ही पाओगे। और मैं तो असहाय हूं मैं यह भी नहीं जानता कितुमहो कहां। मैं निरुपाय हूं मैं नहीं जानता कितुम्हेंकैसे ‘‘ खोजा जाए। मेरी केवल यही प्रार्थना है कितुममेरी सहायता करो जिससे मैं
तुम्हेंअनुमति दे सकूं कितुम्हीं, मुझे खोज लो। वे लोग नाचते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, वे गाते हैं और प्रतीक्षा करते हैं। परमात्मा के लिए उनकी यह प्रतीक्षा करना ही उनकी प्रार्थना है।
यदि तुम प्रतीक्षा कर सकते हो, तो तुम एक महान रूपांतरण से होकर गुजरोगे। इसके लिए करना कुछ भी न होगा, करनी होगी केवल प्रतीक्षा—लेकिन इसके लिए महान श्रद्धा की जरूरत है। अन्यथा मन कहेगा— ‘‘ आखिर तुम कर क्या रहे हो? यदि तुम उसे खोजने नहीं जा रहे हो, तो तुम उसे कभी न पा सकोगे।‘‘ ठीक लाओत्से की ही तरह बाउल कहते हैं— ‘‘ तुमने खोजा नहीं कि तुम चूक गये। खोजो मत और उसे पा लो।‘‘ वह यही है तुम्हारा खोजना तुम्हें कहीं और ले जाता है। वह तो पहले ही से आ गया है। मेहमान द्वार पर खड़ा दस्तक दे रहा है। लेकिन तुम्हारे मन के अंदर इतने अधिक विचार भरे है—वहउसकेविचार से भी घिरा हो सकता है और हो सकता है वह उसका ही खयाल कर रहा हो, लेकिन वह इतना अधिक व्यस्त और भरा है कि तुम इस क्षण को सुन ही नहीं सकते और न यहीं और अभी के लिए अपने द्वार खोल सकते हो।
ओ मेरे हृदय!
तू अपने आपको उस वेष में सज्जित कर
जिसमें सभी स्त्रियोचित सार—तत्व हों
तू अपनी प्रकृति और आदतों—को बदलकर
ठीक उन्हें उनके विपरीत बना ले।
पतंजलि इसे उल्टी दिशा में लौटना याप्रत्याहारकहते हैं— ‘‘ स्रोत की ओर वापस लौटना। महावीर इस परिवर्तन कोप्रत्याक्रमण ‘, बाहर न जाकर अपने अंदर लौटकर गिरना कहते हैं। सामान्यतया तुम्हारा मन भविष्योन्मूख है, हमेशा यह कहीं अन्यत्र चला जाता है, और परमात्मा को भविष्य में कहीं और देखता रहता है। बाउल कहते है—वह तो हमेशा यहां ही बहुत प्रारम्भ ही से है। वह भविष्य में नहीं है। वही सभी का कारण है, सभी का वही स्रोत है, इसलिए उसे भविष्य में खोजने की कोई जरूरत ही नहीं है। केवल तुम अपनी ही आत्मा में गहरे उतरो और तुम पाओगे कि वह तुम्हारी घर वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है। वह वहां पहले ही से विराजमान है।
और तुम अपनी प्रकृति और आदतों को
उलटकर उन्हें विपरीत बना लो।
अपनी प्रकृति और आदतों को उलटकर विपरीत बनाने से आखिर उनका क्या मतलब है? सामान्यतया मनुष्य में उतार—चढ़ाव होते रहते हैं। चूसनावश्यक वस्तुएं तुम्हारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं और तुम सारपूर्ण आवश्यक चीजों को खोते चले जाते हो। तुम समुद्र की सीपियों धोंधों, शंखों और रंगीन पत्थरों को इकट्ठा किये चले जाते हो, और एक क्षण के लिए भी तुम इसके प्रति सजग नहीं होते कि तुम अपना जीवन बरबाद कर रहे हो, और केवल वही सबसे मूल्यवान चीज है।

 मैंने सुना है. लुटेरों द्वारा मुल्ला नसरुद्दीन को चाकू मार दिया गया, लेकिन अस्पताल में मरने से पूर्व उसने अपनी पत्नी को एक पत्र लिखा। उसके अंतिम पैराग्राफ में उसने लिखा— ‘‘ मैं बहुत बड़ा भाग्यशाली हूं क्योंकि केवल एक दिन पहले ही मैंने अपना सारा धन और हस्तांतरण करने योग्य बांड, बैंक के लॉकर में रख दिए हैं, इसलिए वास्तव में मैं कुछ भी नहीं खो रहा हूं सिवाय अपने जीवन के।‘‘

 लेकिन जीवन ही सब कुछ है। इसके अतिरिक्त और है ही क्या यहां? यदि तुम अपना जीवन खोकर पूरा संसार भी पा लेते हो, तो भी तुम क्या प्राप्त कर रहे हो? और यदि अपना जीवन पाकर, पूरा संसार भी खो देते हो, तो तुम कुछ भी नहीं खोते। बाउल कहते हैं— ‘‘ तुम्हें अपनी आदतें बदलनी होंगी, तुम्हें अपनी प्रकृति को उलट कर लगभग उसके विपरीत बनाना होगा। ठीक अभी तो परमात्मा की खोज कर रहे हो, तुम्हें उसे अनुमति देनी होगी कि वह तुम्हें खोज सके। ठीक अभी तो तुम भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्त हो जिनमें कोई भी मूल्य अंतर्निहित नहीं है, तुम्हें अपने को आध्यात्मिक मूल्यों के साथ जोड़ना होगा, जिनका वास्तव में शाश्वत मूल्य है। अभी तो तुम जीवन के ही साथ संघर्ष किए जा रहे हो। लगभग प्रत्येक व्यक्ति का यही विश्वास है कि संघर्ष के बाद जो शक्तिशाली है, वही जीवित रहता है, इसलिए वह लड़ता ही चला जाता है, संघर्ष और संघर्ष ही करता रहता है। बाउल कहते है— ‘‘ प्रेम करो, लड़ो मत। परमात्मा को कभी लड़कर या संघर्ष द्वारा नहीं जाना जा सकता। लड़ने से कुछ भी प्राप्त नही होता, और केवल प्रेम से ही द्वार खुलता है।‘‘
ठीक अभी तो हम यह सोचे चले जाते हैं कि भविष्य में किसी दिन हम प्रसन्न, प्रमुदित होकर उत्सव और आनंद मनायेंगे। बाउल कहते हैं— ‘‘ तुम मूर्ख हो, यदि तुम प्रसन्न, प्रमुदित और उत्सवपूर्ण होना चाहते हो, तो किसी चीज की कभी कहां है? ठीक अभी, इसी क्षण तुम हंस सकते हो, नाच सकते हो। यही क्षण पर्याप्त और सब कुछ है उत्सव आनंद मनाओ।‘‘ लोग मेरे पास आते हैं और यदि मैं उनसे कहता हूं— ‘‘ अपने जीवन में उत्सव आनंद मनाओ, ‘‘ तो वे कहते हैं— ‘‘ जी हां! हम इसी वजह से तो यहां आए हैं जिससे यह सीख सकें कि वे स्थितियां कैसे सृजित की जायें, जिनमें हम उत्सव आनंद मना सके! ‘‘ यह स्थिति तो पहले ही से मौजूद है—वृक्ष मस्ती में झूमते हुए नाच रहे है, पक्षी गीत गा रहे है। और उनके पास है ही क्या? उनका न कोई बैंक बैलेंस है, और न उनके पास प्रतिष्ठा और शक्ति है। वे राष्ट्राध्यक्ष अथवा प्रधानमंत्री भी नहीं हैं। लेकिन क्या तुमने कभी वृक्षों और पक्षियों को चिंतन करते, परेशान होते अथवा भविष्य के बारे में सोचते हुए देखा है? नहीं, वे बस सहजता से जीते हैं। आखिर मनुष्य को ही क्या हो गया है?
बाउल कहते हैं— ‘‘ इस क्षण उत्सव आनंद मनाओ।‘‘ यही है वह जिसे जीसस रूपांतरण कहते हैं। एक सौ अस्सी डिग्री घूम जाना, इससे कम से काम नहीं चलेगा। इसी को मैं संन्यास कहता हूं एक सौ अस्सी डिग्री का मोड़, इससे कम से कुछ भी नहीं होगा। यह प्रश्न जीवन को त्यागने का नहीं, यह प्रश्न है—पुरानी आदतें को त्यागने का। यह प्रश्न है केवल अधिक सजग बनने का, और यह देखने का कि क्या सारभूत है और क्या नहीं है। यदि तुम अत्यावश्यक अथवा सारभूत को चुनते चले जाओ, तो देर—सबेर तुम उस सारभूत मनुष्य तक पहुच जाओगे, जिससे बाउलआधार मनुष्यकहते हैं। और इसआधार—मनुष्यतक पहुंचने का मार्ग है—सहज मनुष्य स्वाभाविक और सरल मनुष्य बनना। सहजता और स्वाभाविकता ही प्रार्थना बननी चाहिए लेकिन हम लोग बहुत चालाक और बईमान हैं।

 मैं एक बार एक बहुत योग्य विशेषज्ञ के साथ ठहरा हुआ था। जब हम लोग सोने के लिए जाने लगे, तो वह अपने बिस्तरे पर बैठ गए और कहा— ‘‘ अब मैं प्रार्थना करूंगा।‘‘ इसलिए मैं उनका निरीक्षण करने लगा कि जरा देखूं तो, वह प्रार्थना में करते क्या हैं। उन्होंने आकाश की ओर देखा और कहा—डिटो ‘‘
मैं आश्चर्यचकित रह गया: यह किस तरह की प्रार्थना है? इसलिए मैंने उनसे पूछा— ‘‘ यदि आप बुरा न मानें, और नाराज न हों तो कृपया मुझे बताइये। मैंने कई तरह की प्रार्थनाएं सुनी हैं, लेकिन— ‘‘ डिटो‘‘ यह तो पूरी तरह कुछ नई चीज है।‘‘ उन्होंने कहा— ‘‘ मैं वर्ष में केवल एक बार प्रार्थना करता हूं साल के पहले दिन। और तब उसी प्रार्थना को प्रति दिन दोहराने की आवश्यकता क्या है। मैं कह देता हू—डिटो, पानी ठीक वही प्रार्थना, और परमात्मा इसे जरूर समझ लेगा।‘‘

 अब प्रार्थना भी एक हिसाब—किताब और गणना बन गई। प्रार्थना करने में लोग इतने कंजूस हो गए हैं। वह आज परमात्मा तक से कुछ भी नहीं कहना चाहते।
वास्तव में उनकी मूढ़ता का आधार उनकी ही चालबाजी और बेईमानी है। उनकी मूर्खता का आधार ही उनकी चालाकी और काइयांपन एक प्रज्ञावान व्यक्ति क्षण— क्षण जीता है, उससे स्वयं उत्तर आता है। वह अपने हृदय को आज्ञा देता है कि वह प्रार्थना में जाए वह हृदय पर बलात् कोई चीज थोपता नहीं, वह केवल उसे परमात्मा की ओर बहने की अनुमति देता है। वास्तव में तुम्हें सदा स्मरण रखना चाहिए कि प्रार्थना, परमात्मा का हृदय बदलने के लिए नहीं है, प्रार्थना तुम्हें ही बदलती है। लेकिन लोग प्रार्थना इस तरह से करते हैं, जैसे मानो वे परमात्मा को सलाह या सुझाव दे रहे हों: इसे करना और इसे मत करना।‘‘
यदि सभी प्रार्थनाओं को छोटा करते हुए उनका सार—संक्षेप लिया जाए तो उसका अर्थ होगा कि लोग परमात्मा से कह रहे हैं— ‘‘ मेरे दयानिधान परमात्मा! तू दो और दो को चार मत होने दे। मुझ पर करुणा कर। इस बार तो कम से कम दो और दो पांच बना दे।‘‘
प्रार्थनाएं शिकायतें होती हैं, अपने असंतोष को प्रकट करने का उपाय होती हैं। तब इस प्रार्थना का वजूद ही क्या?
प्रार्थना, परमात्मा को बदलने के लिए नहीं होती, उसे किसी परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं। प्रार्थना तो तुम्हें स्वयं को बदलने के लिए होती है। लेकिन ‘‘ डिटो ‘‘ कहने से तुम कैसे बदल सकते हो? यदि तुम ‘‘ डिटो ‘‘ कहते हो, तो तुम ठीक वैसे के वैसे ही अर्थात् ‘‘ डिटो ‘‘ ही बने रहते हो, वहां बदलने की कोई सम्भावना ही नहीहै। इस बात का सदा स्मरण बना रहे कि प्रार्थना कभी भी परमात्मा को नहीं बदलती। उसे किसी परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं। उसे जैसा होना चहिए वह वही है और उसका अस्तित्व जैसा होना चाहिए वैसा ही परिपूर्ण है। बदलाव की जरूरत तो तुम्हारे अंदर हृदय में होनी चाहिए। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हें बदलती है। जब तुम रोते हो और आंसू बहने लगते हैं, अथवा जब तुम नाचते और गाते हो, वही तुम्हें बदलता है।
वास्तव में, जब तुम्हारी चित्तवृत्ति या मूड कुछ अलग, स्त्रैण और ग्रहणशील होता है, परमात्मा तुम्हारे निकट आ सकता है; तुम उसे आकर्षित करते हो, उसे अनुमति देते हो; तुम उसके लिए खुले द्वार बन जाते हो। प्रार्थना, परमात्मा की ओर अपने को खोलना है। उसके सामने यह हृदय खोल कर रखने जैसा है, जिससे उसकी उपस्थिति तुम्हें बदल सके। और तुम्हारे पूरे जीवन का यही तौर तरीका होना चाहिए। यह प्रश्न दिन में एक बार अथवा वर्ष में एक बार, अथवा जीवन में एक बार प्रार्थना करने का नहीं है, इसे तो वहां प्रत्येक क्षण होना चाहिए।
बाउल कभी भी किसी मंदिर, मस्जिद अथवा किसी गुरुद्वारे में नहीं जाते। वे जहां कहीं भी होते हैं, वे प्रार्थना में ही होते हैं।
जो लोग अस्वाभाविक और असहज होकर जीते हैं, वे विचारों की भीड़ से घिरे रहते हैं, और वे विचार भी उधार के होते हैं। सभी विचार उधार के होते हैं। जानकारी या ज्ञान, जैसा भी है, वह सभी उधार लिया हुआ है। केवल जानना ही शुद्ध और तुम्हारा होता है, लेकिन जानकारी या ज्ञान तुम्हारा नहीं होता। जो लोग सहज सरल और स्वाभाविक नहीं होते, यंत्रवत बन जाते हैं। वे देखते ही नहीं कि क्या स्थिति और क्या प्रकरण है, वे केवल उसे उसी दृष्टि से देखते हैं, जिससे उनके विशेषज्ञ और उनकी विशिष्ट योग्यता उन्हें देखने की अनुमति देते हैं। उनकी आंखों पर तांगे में जुते घोड़े की आंखों पर बंधे चमड़े के पट्टे जैसे बंधे रहते हैं, वे उनसे केवल सामने एक सीध में ही देखते हैं।

 मैंने सुना है मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी छत से नीचे गिरने से भयंकर रूप से घायल व अचेत दशा में अस्पताल लाई गई। सर्जन ने संक्षिप्त जांच के बाद अपना अभिप्राय बतलाने को अपना सिर हिलाया और सहानुभूति पूर्वक आतुर उसके पति की ओर घूम कर बोला— ‘‘ मुल्ला! तुम्हें यह बताते हुए मुझे बहुत अफसोस हो रहा है कि तुम्हारी पत्नी मर चुकी है।‘‘
— ‘नहीं, मैं जीवित हूं।‘‘ अपनी एक आख खोलकर मुल्ला की पत्नी ने कहा, जिसे मुर्दा समझ लिया गया था।
नसरुद्दीन ने डांटते हुए कहा— ‘‘ तुम चुप रहो। क्या डॉक्टर तुमसे बेहतर नहीं जानता?‘‘

 विशेषज्ञ प्रत्येक स्थान पर हर कहीं है। जहां तक सांसारिक चीजों का सम्बंध है, यह अच्छा है, लेकिन आध्यात्मिक आयाम में वहां कोई भी विशेषज्ञ नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिक आयाम यह अनुमति देता ही नहीं कि उसे स्पष्ट किया जाए उसे सिद्धांतों में ढालकर उसे परिभाषित किया जाए। यह न तो रेखागणित है और न बीजगणित, यह मात्र एक काव्य है। यह कोई सीमाएं नहीं जानता, इसीलिए बाउलों के गीत सहज और स्वाभाविक हैं। यह लोग दार्शनिक नहीं है, और न यह आत्मज्ञानी हैं, यह साधारण गीत गाने वाले कवि हैं। और उनकी कविता, शास्त्र के नियमों के अनुरूप नहीं है और उनका काव्य वह नहीं है, जिसे लोग कविता के रूप में जानते हैं। वे किसी मात्रा आदि को नहीं जानते, वे उसकी भाषा के बारे में कोई फिक्र नहीं करते, वे सहज साधारण लोग है। उनका काक उनके हृदय में उमड़ते और उससे बहते भावों का अतिरेक है।
 ‘‘और अपनी प्रकृति और आदतों को उलट कर उन्हें उसके विपरीत बना लो ‘‘
इस सूत्र की कुंजी यही है सचेत बनो, क्योंकि तुम्हारी सभी आदतें अचेतन मन के नियंत्रण में हैं। तुम सभी काम सपने में चलने वाले व्यक्ति की भांति कर रहे हो। सचेत बनो और तुम्हारी आदतें भी बदल जायेंगी, और रूपांतरण घटित होगा। तुम जो कुछ भी कर रहे हो लेकिन उन्हें करते हुए अधिक सचेत या होशपूर्ण बनो। एक यंत्रचालित रोबो न बनकर एक मनुष्य बनो।
बाउल कहते हैं कि एक बार तुम्हारे अस्तित्व में होश या चेतना प्रविष्ट हो गई, तो तुम्हारे अंदर एक नये चरित्र और दृष्टिकोण का उदय होगा, नये—नये पुष्प खिलेंगे, और उस नये वातावरण में नये—नये पक्षी गीत गाते हुए तुम्हारे चारों ओर नये नीड़ बनायेंगे, और उस नई चेतना दृष्टि से, तुम्हें अपने निकटतम सत्य अथवा परमात्मा का अनुभव होगा। परमात्मा सबसे निकटतम सत्य है। वह तुममें है और तुम्हारे बिना भी है। लेकिन परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है, जिस पर चर्चा—परिचर्चा की जाये, उसकी व्याख्या की जाये, वह कुछ ऐसा है, जिसे जिया जाये। वह एक अनुभव है।
वे लोग गाते है—वह मुझसे बातचीत करता है
लेकिन वह मुझे अपने को देखने नहीं देता
वह मेरे हाथों के आस—पास ही गतिशील होता है
लेकिन मेरी पहुंच के बाहर होता है
मैं उसे आकाश और पृथ्वी में
हर स्थान पर खोजता हूं।
मैं कौन हूं? और वह कौन है?
उसे न जानने की गलती के चारों ओर
चक्कर लगाता मैं उसे खोजता हूं।
वह मुझसे बातचीत करता है, लेकिन वह मुझे अपने को देखने नहीं देता। वह मुझे निष्‍क्रिय होने की अनुमति देता है, और सक्रिय होने की आज्ञा नहीं देता। वह मेरे हाथों के निकट ही घूमता रहता है, मैं उसे लगभग स्पर्श कर सकता हूं लेकिन जिस क्षण मैं उसे छूने का प्रयास करता हूं वह दूर चला जाता है। वह मेरे हाथों के निकट ही घूमता रहता है, लेकिन मेरी पहुंच के बाहर होता है, क्योंकि उस तक पहुंचने के लिए फिर क्रियाशील होना होगा। वह तभी तुम्हारे निकट आता है जब तुम केवल प्रतीक्षा कर रहे होते हो। उस पर झपटने की कोशिश मत करो। वह पकड़ में आने वाला नहीं है। जिस क्षण तुम आक्रामक पुरुष चित्त के हो जाते हो, वह चला जाता है, जिस क्षण तुम स्त्रैण चित्त के बन जाते हो, वह वहां होता है।
ओ मेरे स्वामी! मेरे मालिक!
तुम अपने हृदय के द्वारा
मेरी निष्ठा परखते हुए
सत्पथ पर मेरा मार्ग निर्देशन करो।
ठीक वैसे ही
जैसे बिना आपकी बजाई हुई बांसुरी
कभी स्वयं कोई धुन नहीं निकाल सकती
जबकि आप तो बांसुरी पर मधुर तान छेड़ते ही रहते हैं।
 ‘‘ओ मेरे सद्गुरु! तुम अपने हृदय के द्वारा मेरी निष्ठा परखते हुए सत्पथ पर मेरा निर्देशन करो
बाउल कहते हैं— ‘‘ मैं नहीं जानता कि कौन सा ठीक रास्ता या सत्पथ है, तुम्हीं मेरा मार्ग निर्देशन करो। और मुझे लक्ष्य के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं है। आपका ही हृदय इसका निर्णय करे। आप जो कुछ तय करेंगे वही मेरी मंजिल होगी। मेरा पथ प्रदर्शन ठीक वैसे ही करो, जैसे तुम बांसुरी पर धुन बजाते हो। बिना तुम्हारे बजाए स्वयं कोई धुन नहीं निकल सकती।
बाउल, खाली बांस की एक पोगरी बन जाता है। यही है वह निष्‍क्रियता। यदि परमात्मा गीत गाने को तैयार है, तो बाउल उसके गीत को उतनी दूर तक, जितनी दूर तक उसकी क्षमता है, उसे ग्रहण करने को तैयार है—लेकिन वह उसे स्वयं नहीं गा सकता। सभी गीत उसी के गीत हैं। अधिक से अधिक हम तो बांस की खाली पोगरी ही बन सकते हैं, जो रास्ते में कोई अवरोध न बने। यदि यही प्राप्त हो जाता है, तो प्रत्येक चीज प्राप्त हो जाती है। यदि तुम उसके गीत में बाधा न बनो, तो इतना ही पर्याप्त है। मनुष्यता इससे अधिक और कुछ भी नहीं कर सकती।
अपने अंदर बिना हृदय के वह मनुष्य
सामान्य सत्पथ पर चलने के लिए
कैसे खड़ा हो सकता है?
उसके वृक्ष की जडें आकाश में जमी हैं
और उसकी शाखाएं पृथ्वी की ओर लटक रही हैं।
उस वृक्ष में फूल तो खिलोग हैं,
लेकिन उसके लिए कभी उसमें फल नहीं लगते
नदी प्यास से मर रही है
और जला कर नष्ट करने वाली अग्नि
जम कर बर्फ जैसी शीतल हो गई है।
पक्षी जल में अपने घोंसले बनाते हैं।
और वह अपने स्वामी से
श्मशान भूमि में ही मिलता है
सामान्यत: यह जीवन एक अव्यवस्था है। सभी चीजें वहां नहीं है, जहां उन्हें होना चाहिए। प्रत्येक चीज गलत जगह पर रखी है। जड़ें आकाश में जमी हैं, और शाखाएं पृथ्वी की ओर लटक रही हैं। वृक्ष में फूल खिलोंग हैं, लेकिन उसमें कभी फल नहीं आते। नदी वहां बह रही है और कोई व्यक्ति प्यास से मर रहा है। परमात्मा वहां है, लेकिन तुम सिर के बल खड़े हो, इसलिए तुम उसे देख नहीं सकते, अथवा यदि तुम उसे देखते भी हो, तो उसे उसके ठीक और स्पष्ट रूप में न देखकर उसे विकृत रूप में देखते हो।
मन की यांत्रिक व्यवस्था सभी चीजों को खण्ड—खण्ड कर विकृत और अस्पष्ट बना देने की है। इसलिए यदि तुम प्रेम के मार्ग पर हो या ध्यान के मार्ग पर, दोनों मार्गों में एक चीज की जरूरत है, जो मूलभूत आवश्यकता है, वह यह है कि मन को हटाकर एक ओर अलग रख देना चाहिए। मन प्रत्येक चीज को खण्ड— खण्ड कर विकृत रूप में अस्पष्ट देखता है।
लाखों करोड़ों सूर्यो का विस्फोट होगा
और उसके प्रकाश तथा चमक में वह अरूप
हर कहीं विविध रूपों में दिखाई देगा।
परमात्मा भयंकर तीव्र प्रकाश का अनुपम सौंदर्य और चमक का एक अद्भुत अनुभव है। परमात्मा एक शब्द नहीं है, वह एक दिशा है। वह एक विशाल सागर जैसा है जिसमें तुम एक छोटी सी बूंद के समान खो जाते हो।
लाखों करोड़ों सूर्यों का विस्फोट होगा
और उसके तीव्र प्रकाश और चमक में
वह अरूप हर कहीं विविध रूपों में दिखाई देगा।
और एक बार तुमने उसका स्वाद ले लिया, तब प्रत्येक रूप, उसी का रूप बन जाता है। तब उस अरूप का चारों ओर विस्फोट जैसा होता है। लेकिन पहले एक व्यक्ति को उसका स्वाद पाना होगा। यदि मैं तुमसे कहूं कि वह इन हरे वृक्षों में है, वह जो हरा है—यह शब्द ही तुम तक पहुंचेंगे, लेकिन उससे भेंट न होगी। मैं जो कुछ कह रहा हूं तुम उसे समझ जाओगे, पर फिर भी तुम उसे समझ कर भी नहीं समझ पाओगे। तुम शब्दों को समझ लोगे: खोल तुम अपने साथ ढोये जाओगे,लेकिन उस खोल में बंद वह रस खो जायेगा। यदि तुमने उसका स्वाद पा लिया है, तो प्रत्येक वस्तु में उसी का स्वाद और हर चीज में उसी का रूप है। चट्टान में ‘‘ वह हीचट्टान है, वृक्ष में, वही वृक्ष है, फूल मेंवह हीफूल है। सितारों में वह ही सितारा है। तब सभी रूप उसके ही रूप है। अनेक रूपों में लाखों रूपों में वह अपने को अभिव्यक्त कर रहा है। परमात्मा है—एक अभिव्यक्ति, एक प्रत्यक्ष साक्षात्कार—और एक दिव्य अनुभव। यदि तुम स्वयं अपने होने को देख सके तभी तुम उसे समझने में समर्थ हो सकोगे।
यदि तुममे कुछ प्रतिभा या कला है, यदि तुम चित्र बना सकते हो, यदि तुम गीत गा सकते हो, अथवा यदि तुम कोई कविता रच सकते हो, तब जब तक तुम ऐसा कर न लो, तुम प्रसन्नता का अनुभव न कर सकोगे, तुम्हें अपनी पूर्णता का अहसास न होगा।
जब तक अंतिम लक्ष्य तक पहुंच कर तुम्हारा सृजन परिपूर्ण न हो जाये, जब तक तुम्हारा केंद्र ही सृजनात्मक न हो जाये तुम्हें अनुभव होगा कि तुम कहीं किसी चीज से चूक रहे हो। तुम जान भी सकते हो, और नहीं भी जान सकते हो, लेकिन तुम्हें एक रिक्तता का अनुभव होगा, तुम्हें अपने जीवन में एक बड़ा खालीपन सा लगेगा। तुम्हारे पास वह सभी कुछ हो सकता है, जो जीवन तुम्हें दे सकता है, लेकिन यदि तुमने वह अंतर्चेतना नहीं पाई, जो तुम्हारे अस्तित्व को अपने को अभिव्यक्त करने की अनुमति देती है, तब तुम गुलाब की उस झाड़ी की तरह होगे, जिसमें कभी भी फूल नहीं खिलोग। तब गुलाब की झाड़ी उदास बनी रहेगी, क्योंकि बिना गुलाब के गुलाब की झाड़ी ही व्यर्थ होती है। वहां उसके होने का आखिर महत्त्व ही क्या है? एक बाहर उसमें फूल आ जायें, तो गुलाब की झाड़ी को अपने होने का अर्थ और महत्त्व प्राप्त हो गया, गुलाब की झाड़ी सृजनात्मक बनी। उसकी आत्म मुक्त हुई, अब वह किसी बंधन में न रही।
यदि तुम मुझसे पूछो कि मोक्ष या मुक्ति क्या है, तो मेरे लिए तो मोक्ष तब है, जब तुम अपनी आत्मा को बंधन से मुक्त करते हो। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मठों अथवा मंदिरों में जाओ और हिमालय की गुफा में बैठकर अपना समय नष्ट करो। मैं तुमसे सृजनात्मक आयाम की ओर गतिशील होने के लिए कह रहा हूं क्योंकि यही आयाम परमात्मा का भी है। यदि तुम्हारे पास गाने के लिए कोई गीत है, तो गाओ, और वही तुम्हारा मोक्ष होगा। यदि तुम्हारे अंदर कहीं चित्रण करने की चाह, तुम्हें चित्र बनाने को बाध्य कर रही है, तो चित्र बनाना ही तुम्हारे लिए मोक्ष बन जायेगा। नाचो, यदि नृत्य तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है, तब उसे प्रकट होने दो। एक बार उसे अभिव्यक्ति मिली तो वह मुक्त हो जायेगा।
जैसा कि मैं देखता हूं तथाकथित धार्मिक लोग, सृजनात्मक लोगों की अपेक्षा कम धार्मिक हैं। मेरे लिए तुम्हारे तथाकथित महात्मा की अपेक्षा एक कवि कहीं अधिक धार्मिक है, क्योंकि वह सृजनात्मक हैं, और ये सभी लोग तुम्हारे तथाकथित महात्मा से कहीं अधिक धार्मिक हैं। ये लोग लगभग ऐसे मूर्ख लोग हैं, जो अपनी ताजगी खोकर शुष्क होते जा रहे हैं। ये लोग उस गुलाब की झाड़ी की भांति हैं, जिसमें गुलाब के फूल खिलना बंद हो चुके हैं और उन्हें गुलाब की झाड़ी भी कहना ठीक नहीं लगता। वे केवल अपना एकाकी और शुष्क जीवन जैसे किसी तरह काट रहे हैं।
भारत में एक बहुत बड़ा हादसा हुआ: और ऐसे साधु संतों को सम्मान दिया गया, जिनमें कोई सृजनात्मकता थी ही नहीं, और सम्मान देने के कारण मूर्खतापूर्ण
उनमें से कोई व्यक्ति उपवास रख सकता था— अब यह एक असृजनात्मक प्रक्रिया है, अथवा कोई व्यक्ति तपती धूप में घंटों खड़ा रह सकता था— अब यह काम सरकस में करना तो अच्छा है, लेकिन जीवन इससे समृद्ध नहीं होता: अथवा कोई व्यक्ति कांटों की शैथ्या बनाकर उस पर लेट सकता था? इसकी आखिर आवश्यकता क्या है, और ऐसा करके तुम क्या सृजित कर रहे हो? एक व्यक्ति कांटों पर लेटकर बहुत असंवेदनशील बन जाता है, और शरीर में ऐसे कई मृत स्थान हैं, जिन्हें यदि तुम खोजने का प्रयास करो तो उन्हें खोजने में समर्थ हो सकते हो। केवल अपनी पत्नी या पति से कहो कि वे एक कांटा या सुई लेकर तुम्हारी पीठ पर कई स्थानों पर उन्हें चुभायें। तुम देखोगे कि कुछ स्थानों पर तुम्हें पीड़ा का अनुभव होगा और कुछ स्थानों पर कोई अनुभव होगा ही नहीं, यही वे असंवेदनशील स्थान हैं। ये तुम्हारी पीठ के मृत बिंदु हैं। एक व्यक्ति को केवल उन्हें खोजना होता है, कि वे हैं कहां, तब तुम कांटों की शैय्या पर लेट सकते हो। और धीमे— धीमे शरीर सख्त, प्रतिरोधक और सुरक्षित बन जाता है। लेकिन ये लोग सारी संवेदनशीलता खो देते हैं, ये लोग कभी एक गीत को जन्म नहीं दे सकते, ये कभी भी नृत्य नहीं कर सकते। लेकिन भारत में इनके बारे में यह सोचा जाता है कि ये महात्मा हैं। यह एक कुरूपता और मूर्खता है, यह बहुत खतरनाक बात है—क्योंकि पूरा देश असृजनात्मकता की पूजा या सम्मान कर रहा है।
नर्तकों और गायकों का सम्मान करो, कवियों, चित्रकारों का सम्मान करो, सृजनात्मक लोगों का सम्मान करो—क्योंकि परमात्मा की केवल एक ही परिभाषा है कि वह सृजनहार है, उसमें सृजनात्मकता है, इसलिए सर्जक बनना तुम्हारा अपना अधिकार है। तब तुम्हारी जीवन सरिता उसके प्रवाह के समानांतर प्रवाहित होने लगती है। और यदि तुम वास्तव में सर्जक बन जाते हो, तुममें परिपूर्ण सृजनात्मकता आ जाती है, तुम उसकी सरिता में समाहित हो जाते हो। तुम्हारे माध्यम से वही कार्य करना शुरू कर देता है, सारी सृजनात्मकता उसी की होती है, इसीलिए तुम जब भी सृजन करते हो, तुम प्रार्थनापूर्ण होते हो। तुम भले ही मस्जिद अथवा मंदिर जाते हो या नहीं यह बात ही असंगत है।

 बाउल बहुत सृजनात्मक सरल सा और सहज होते हैं। इसे मैं भारत में होने वाली बहुत बड़ी दुर्घटना या हादसा मानता हूं क्योंकि इसी के कारण बहुत सी चीजें लुप्त हो गई: इस देश में प्रतिभा और प्रतिभाशाली लोग ही लुप्त हो गए। उपवास करने में किसी प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं होती, तुम्हें जरूरत होती है एक जिद्दी, सनकी और खच्चर जैसे मस्तिष्क वाले व्यक्ति की, केवल इतना सब ही काफी है, तुम्हें जरूरत होती है, स्वयं को दुःख देने वाले एक निर्दय चित्त और विध्वंसक व्यक्ति की, और इतना ही सब कुछ है।
इसीलिए तुम्हारे तथाकथित, महात्मा और कुछ नहीं, बल्कि स्वयं अपने को दुःख देकर उसमें सुख का अनुभव करने वाले विकृत चित्त के विध्वंसक लोग हैं। यदि तुम किसी अन्य व्यक्ति को भूखा मारो, तो तुम पुलिस द्वारा पकड लिये जाओगे, लेकिन यदि तुम स्वयं को भूखे रखकर अपने को ही मारो ,तो तुम्हें महात्मा समझ कर सम्मानित किया जाता है। लेकिन दोनों ही दशाओं में तुम दुःख और दर्द ही उत्पन्न कर रहे हो।
मैं हजारों साधुओं, मुनियों और भिक्षुओं के सम्पर्क में रहा हूं जिनमें हिंदू जैन और बौद्ध सभी साधु सम्मिलित हैं। ऐसा बहुत कम हुआ है कि मैं इनमें से किसी ऐसे व्यक्ति से मिला हूं जो बुद्धिमान और प्रज्ञावान हो, और मुझे यह देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन ये लोग कुछ विशिष्ट कार्य कर रहे हैं, जो सम्मान योग्य बन गए हैं, और कोई भी व्यक्ति यह पुनर्मूल्यांकन नहीं करता कि यदि तुम असृजनात्मक कार्यो का सम्मान करोगे तो धीमे— धीमे देश और भी अधिक असृजनात्मक होता जाएगा।
तुम जहां कहीं भी सृजनात्मकता देखो, आदर से अपना सिर झुका दो, क्योंकि परमात्मा और कुछ भी नहीं, बल्कि एक सृजनात्मकता है। इसीलिए जहां कहीं भी सृजनात्मकता के हस्ताक्षर हैं, वहां परमात्मा के ही हस्ताक्षर हैं। वह पहले ही से वहां है। भले ही कवि स्वयं इसे न जानता हो, लेकिन कहीं पार से किसी दिव्य चीज के स्पर्श का उसे अनुभव होता रहा है।
रवींद्रनाथ जब भी कविता लिखने के मूड में होते थे, वह अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लेते थे—कभी—कभी तो पूरे दिन, और कभी—कभी तो दो या तीन दिन वह कमरे से बाहर निकलोग ही नहीं थे। वह भोजन के बारे में भी भूल जाते थे, वह बाथरूम तक नहीं जाते थे, और वे अन्य प्रत्येक चीज के बारे में भूल जाते थे। उनका पूरा परिवार और उनके शिष्य चिंतित हो उठते थे। एक बार उन्होंने उनसे कहा— ‘‘ आखिर ऐसा कब तक चलेगा?‘‘ और उन्होंने कहा था कि उनके इस कार्य में कभी भी कोई बाधा न डाली जाए क्योंकि जब भी उनकी चित्त दशा कविता लिखने की होती है, तो वहां परमात्मा होता है। इसलिए उनके कार्य में बाधा डालना, परमात्मा के कार्य में बाधा डालना है। वह रोते रहते, उनकी आंखों में आंसू भरते रहते और जैसे उनका रूप और आकृति ही बदल जाते।
एक बार ऐसा हुआ कि कुछ लोगों का समूह उनसे भेंट करने के लिए आया और वे सभी साथ—साथ चाय पी रहे थे। तभी अचानक रवींद्रनाथ के हाथों से प्याला फिसल गया और उन्होंने अपने नेत्र मूंद लिए। लोग समझ गए उन सभी ने इस सुंदर घटना को क्षण भर के लिए देखा। उनका पूरा चेहरा बदल गया—वह एक अद्भुत दीप्ति, एक नूतन चमक से आलोकित हो उठा, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उनमें प्रविष्ट हो गई हो। वे सभी बिना उन्हें बाधा पहुंचाए धीमे— धीमे चले गए। उनमें केवल एक व्यक्ति रह गया, जो यह देखने के लिए कि आखिर क्या घट रहा है, एक वृक्ष की ओट में छिप गया। वह व्यक्ति वहां पहली ही बार आया था। उसी व्यक्ति ने स्वयं मुझे बताया— ‘‘ मैंने किसी भी व्यक्ति के रूप और आकृति में ऐसा परिवर्तन कभी भी नहीं देखा। धीमे— धीमे रवींद्रनाथ एक मनुष्य नहीं रह गए—वह एक दिव्य मनुष्य बन गये, उनमें जैसे एक दिव्यता और महान आनंदपूर्ण आवेश प्रविष्ट हो गया। और मैं उनके चेहरे पर वह दिव्य आलोक देखता रह गया, और तभी उन्होंने झूमते हुए गुनगुनाना और गीत गाना शुरू कर दिया। वे शब्द जैसे उनसे नहीं आ रहे थे, वे केवल माध्यम बन गये थे। वे तीन दिनों तक उसी भाव दशा में रहे।‘‘
कविता का जन्म सदा तभी होता है, जब कवि खाली बांस की एक पोंगरी बन जाये। चित्र तभी जन्मता है जब चित्रकार अपने विचारों को चित्रण न करते हुए परमात्मा द्वारा अपने अधिकार में ले लिया जाता है। वह आवेशित हो उठता है। स्मरण रहे मैं चाहता हूं—मेरे संन्यासी सृजनात्मक बनें, क्योंकि मैं परमात्मा के निकट आने के लिए अन्य कोई दूसरा मार्ग जानता ही नहीं।
इन सभी असृजनात्मक धर्मों और असृजनात्मक धार्मिक लोगों ने और कुछ भी न करते हुए आपस में तर्क—वितर्क करते हुए और झगड़ते हुए और एक दूसरे की हत्या करते हुए मनुष्यता का बहुत बड़ा नुकसान किया है। किसी अज्ञात और पूर्व कल्पित वस्तु को सत्य मानने की समस्या के सम्बंध में एक चीज बहुत जटिल है कि तुम कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकते। सभी अनुभव धुंधले और अस्पष्ट होते हैं। ईसाई यह सिद्ध नहीं कर सकते कि वे ठीक हैं। हिंदू भी सिद्ध नहीं कर सकते कि वे ठीक नहीं है। नहीं, कोई निर्णय कुछ भी तय नहीं कर सकता, इसलिए वे लोग लड़ते और झगड़ते रहते हैं। पूरी ऊर्जा जो सृजनात्मक बननी चाहिए वह विध्वासात्मक बन जाती है।
यह बात भी याद रखने जैसी हैयदि तुम ऊर्जा का प्रयोग सृजनात्मक रूप से नहीं करते हो, यदि यह ऊर्जा, एक नृत्य, एक हास्य और एक प्रसन्नता नहीं बनती है, तो यही ऊर्जा हानिप्रद और विषैली बन जाएगी। वह विध्वंसक बन जाएगी। यह कहा जाता है कि एडोल्फ हिटलर एक चित्रकार बनना चाहता था लेकिन चित्रकला एकेडेमी ने उसे प्रवेश देने से इंकार कर दिया। जरा विचार करें: तब पूरा संसार पूरी तरह कुछ भिन्न हुआ होता, यदि उसे चित्रकला एकडेमी ने स्वीकार कर लिया होता। फिर वहां द्वितीय विश्व युद्ध हुआ ही न होता। पूरी मनुष्यता पूरी तरह भिन्न हुई होती। लेकिन यह व्यक्ति सृजनात्मक न बन सका। वह सृजनात्मक बनना चाहता था, उसके पास ऊर्जा थी, निश्चित रूप से उसके पास अत्यधिक ऊर्जा थी: उसने पूरे संसार को विनाश के गर्त में धकेल दिया और अन्य कोई भी व्यक्ति कभी ऐसा करने योग्य हुआ ही नहीं। लेकिन यह ऊर्जा वही थी, जो सृजनात्मक बन सकती थी, लेकिन विध्वंसक बनी।

 मैंने सुना है:
एक पिता अपने पुत्र को सीख देते हुए मुक्केबाजी करके झगड़े तय करने के तरीके से होने वाले अनिष्ट के बारे में बतलाते हुए कह रहा था— ‘‘ क्या तुम यह नहीं जानते कि जब तुम बड़े हो जाओगे, तो झगड़ों को निबटाने के लिए फिर तुम अपनी कलाइयों का प्रयोग नहीं कर सकते, और इसलिए तुम्हें शांतिपूर्ण और मित्रतायुक्त साधनों का प्रयोग करते हुए ही किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिए। चीजों का रहस्य जानने के लिए उन्हें समझने की कोशिश करो, तर्क और प्रमाणों के द्वारा यह खोजने का प्रयास करो कि क्या ठीक है और ठीक होने से ही स्थायित्व आता है। स्मरण रहे कि शक्ति से तुम प्रत्येक को ठीक कर सकते। यद्यपि कमजोर व्यक्ति पर शक्तिशाली व्यक्ति विजय प्राप्त कर सकता है, लेकिन फिर भी यह सिद्ध नहीं होता कि जो व्यक्ति निर्बल था, वह गलत था।‘‘
लड़के ने घास पर ठोकर मारते हुए उत्तर दिया— ‘‘ डैड। यह मैं जानता हूं पर यह मामला ही कुछ अलग था।‘‘
— ‘‘अलग? क्यों अलग? कैसे अलग? ऐसी क्या बात थी जिसके बारे में तुम और जोनी बहस कर रहे थे कि तुम्हें उससे लड़ना ही होगा।‘‘
— ‘‘उसने मुझसे कहा कि वह मुझे पीट सकता है और मैं उसे नहीं पीट सकता और यह जानने का वहां केवल एक ही रास्ता था कि हममें में ठीक कौन था?‘‘

 इसे मित्रतापूर्ण साधनों से तय नहीं किया जा सकता। यदि प्रश्न यही होता तो कौन किसे पीट सकता है, तब केवल मारपीट ही निर्णय कर सकती थी। विध्वंसात्मक व्यक्ति हमेशा बहुत अहंकारी होते हैं, क्योंकि वे यह नहीं जानते कि अपने अहंकार को कैसे छोड़ा जाए। सृजनात्मक लोगों को ही निरहंकारिता की झलकें मिलती है। वह निरहंकार होने की स्थिति भलीभांति जानता है। सृजनात्मक क्षणों में वह इतना अधिक अभिभूत हो जाता है कि उसे संसार के पार किसी चीज का स्वाद मिल जाता है। लेकिन एक विध्वंसात्मक वृत्ति का व्यक्ति निरहंकारिता की स्थिति को जानता ही नहीं, उसका अहंकार एक ही केंद्र पर इकट्ठा होकर बहुत शक्तिशाली हो जाता है। और तब पूरे संसार में युद्ध शुरू हो जाता है; हिंदू मूसलमानों से लड़ने लगते हैं मुसलमान, हिंदुओं से लड़ने लगते हैं ईसाई, यहूदियों से और यहूदी, ईसाइयों से लड़ने लगते हैं और पूरे संसार में केवल युद्ध और संघर्ष ही रह जाता है। सृजनात्मक होने से सभी मिलकर एक मधुर संगीत का आस्केस्ट्रा बन सकते थे, लेकिन होता है केवल युद्ध।
धर्म को सृजनात्मक बनना होगा। असृजनात्मक होने के बारे में सोच ऐसी होनी चाहिए जैसे वह मूल रूप से एक पाप है, और सृजनात्मक होने के बारे में सोच ऐसी होनी चाहिए जैसे केवल वही सर्वश्रेष्ठ सदाचार है।
लाखों करोड़ों सूर्यों का विस्फोट होगा
और उसके प्रकाश तथा चमक में
वह अरूप
हर कहीं, विविध रूपों में दिखाई देगा।
यदि तुम ठीक दिशा की ओर गतिशील हो—ग्रहणशील, सृजनात्मक, प्रमुदित, प्रेमपूर्ण और उत्सवपूर्ण हो—तो करोड़ों सूर्यों का विस्फोट होगा और एक दिन तुम अपने अंदर गहरे में अपने केंद्र या अपने तीर्थ पर पहुंच जाओगे।
और वह अरूप
हर कहीं विविध रूपों में दिखाई देगा।
तुम वह देख सकोगे
जो देखा नहीं जा सकता।
लेकिन केवल तभी
जब तुम स्वयं अपने अंदर के
अरूप में स्थित हो जाओ।
स्मरण रहे: तुम यह केवल तभी देख सकते हो यदि तुम अपने में ही अरूप हो सकते हो। यदि तुम उस अरूप को देखना चाहते हो तो तुम्हें अपने अंदर स्वयं ही अरूप बनना होगा, क्योंकि जब केवल वेवलैंथ समान होती है, सहभागिता और अंतर्सवाद तभी संभव है। जब तुम अपने अंदर स्वयं आकृतिहीन या अरूप होते हो, तभी अचानक कुछ चीज जैसे क्लिक कर जाती है, कोई जैसे तुम्हारा द्वार खटखटा देता है और तुम परमात्मा के साथ एक हो जाते हो। वह भी अरूप है और तुम भी अरूप हो, फिर वहां दो अरूप हो ही नहीं सकते। वहां रूप और आकृतियां तो लाखों हो सकती हैं, लेकिन अरूप तो केवल एक ही हो सकता है।
यह अंदर का अरूप अथवा आकृतिविहीनता को कैसे उपलब्ध हुआ जाए? अहंकार को गिरा दो। यह तुम्हें एक सीमा में आबद्ध कर रहा है।मैंशब्द को ही पूरी तरह गिरा दो। इसका प्रयोग केवल बाहर के संसार में करो, यह वहीं उपयोगी है, लेकिन इसे अपने घर में कभी मत लाओ। अपने अंदर कभी भीमैंमत कहो, क्योंकि यह एक सीमा बना देती है, और इसी अवरोध के कारण तुम कभी भी अपने प्रीतम प्यारे के पास जाने में समर्थ न हो सकोगे, और न कभी तुम प्रीतम प्यारे को अपने निकट आने की स्वीकृति देने में समर्थ हो सकोगे। यदि तुम परमात्मा को समझना चाहते हो, तो कुछ न कुछ परमात्मा की ही भांति बनो। सृजनात्मक बनो— यह है पहली बात और दूसरी बात है— अरूप बनो।
कोमल भावनाओं और दीनता के द्वारा
कर्त्तव्यनिष्ठा अथवा माता—पिता के वात्सल्य के द्वारा
अथवा प्रेम के द्वारा शांत होकर
शांति प्रदान करने वाले उन भावों को खोज
जो तेरे साथ ही जन्मते हैं
और तब तू पूरी दृढ़ता से
उनका सम्मान कर!
ओ मेरे हृदय!
क्या तूने कभी हिसाब लगाया है,
कि प्रेम नगर में उसे खोजने के
जाने कितने मार्ग हैं?
अपने जीवन के अनमोल हीरे को पाने के लिए
नासमझी से आशा और अपेक्षा करने की गलती मत कर बैठना।
यह संसार एक उत्सव आनंद का समारोह है
जहां प्रेमी मिलकर
बच्चों की तरह खेल खेलोग हैं।
जीवन के अनमोल हीरे को पाने के लिए
अपनी संवेदनशीलता की प्रकृतियों को केंद्रित कर!
वह रास्ते में जहां तक आ पहुंचा है
प्रत्येक खोजउसीतक पहुंचने की है।
वह रास्ते में जहां तक आ पहुंचा है, प्रत्येक खोजउसीतक पहुंचने की है......।
बाउल कहते हैं किउसतक पहुचने के कोई भी निर्धारित नियम और कानून नहीं है। वहां इसकी कोई विधि भी नहीं है। उस तक पहुंचने का कोई भी राजमार्ग न होकर केवल छोटे—छोटे पदचिन्ह हैं। और प्रत्येक व्यक्ति को उसे अपने ढंग से खोजना होता है। निश्चित ही एक कवि को उसे अपने ढंग से खोजना होता है, एक नर्त्तक या नर्त्तकी को उसे अपने तरीके से खोजना होता है, एक प्रेमी उसे अपने ढंग से खोजता है और एक ध्यानी को उसे अपने ढंग से खोजना होता है। इसलिए तुम्हें कभी वह सभी कुछ सुनना ही नहीं चाहिए जो दूसरे कह रहे हैं सुनो तो अपने भावों और संवेदनाओं की सुनो। तुम स्वयं प्रामाणिक बने रहो, और तुम परमात्मा के प्रति सच्चे और प्रामाणिक बने रहोगे। उसने कुंजी तो तुम्हें पहले ही से सौंप दी है— और वह कुंजी है तुम्हारी संवेदनाएं। कभी भी अनुकरण मत करो ,क्योंकि सभी के लिए एक ही मार्ग नहीं है! यदि तुम मुझे ठीक से समझ गए तो वास्तव में यह धार्मिक संसार, बिना धर्मों का एक संसार होगा—जहां न कोई हिंदू न कोई मुसलामन न कोई ईसाई और न कोई जैन होगा। एक सच्चा और वास्तविक संसार जो धार्मिक होकर सभी धार्मिक लोगों का होगा जहां प्रत्येक व्यक्ति अपने— अपने ढंग से खोज कर रहा होगा। और परमात्मा असीम है, वह किसी मार्ग तक ही सीमित नहीं है।
जीसस कहते हैं— ‘‘ मेरे परमात्मा के महल में बहुत से भवन हैं।‘‘ हां! वहां उसके लाखों द्वार हैं। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति के लिए वहां एक अलग और विशिष्ट द्वार है, तुम्हारे सिवा कोई अन्य व्यक्ति उस द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए अनुकरण मत करो अनुकरण करने से, झूठापन, नकलीपन और अप्रामाणिकता उत्पन्न होती है। केवल अपने ढंग से अनुभव करो और इस बारे में फिक्र मत करो कि दूसरे क्या कहते हैं। यह किसी अन्य व्यक्ति से सम्बंधित बात नहीं है। इसकी भी फिक्र मत करो कि उपासना—स्थल और धर्म—संस्थाएं क्या कहती हैं—केवल अपने हृदय की बात सुनो।
बाउल बहुत ही वैयक्तिक हैं। धर्म को वैयक्तिक ही होना चाहिए क्योंकि यह प्रत्येक अस्तित्व को अलग—अलग तरह से बदलने की विधि है। लेकिन अभी तक सभी धर्मों ने, व्यक्ति की निजता को नष्ट करने और प्रत्येक व्यक्ति को भीड़ का एक भाग बनाने का प्रयास करने के सिवा और किया ही क्या है? उन्होंने व्यक्तिगत लोगों को नष्ट कर, भीड़ भरे समाज का गठन किया है। इस बारे में बाउल विद्रोही है।
वह जिसने अपने प्यारे कल्याण मित्र का—
सौंदर्य देख लिया
वह उसे कभी भी भूल नहीं सकता।
रूप और आकृति तो देखने के लिए होते हैं
न कि संभाषण अथवा बात करने के लिए
जैसे कि सुंदरता की कोई तुलना होती ही नहीं।
जिसने उसके रूप की द्युति
अपने हृदय के दर्पण में देख ली,
उसके हृदय का अंधकार मिट गया।
जीवन मृत्यु की सरिता के मध्य
उसका हृदय
सदा सौंदर्य में भक्ति— भाव से डूबा हुआ
देवताओं को चुनौती देता है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही दृष्टि पर आना होता है, और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही आंखों के द्वारा देखना होता है। तुम मेरी आंखों से नहीं देख सकते और तुम मेरे हाथों के द्वारा उसका स्पर्श नहीं कर सकते। यदि फिर भी मैं तुम्हारा हाथ पकड़करउसकेहाथ पर रख दूं फिर भी वह कभी उस तक पहुंचेगा नहीं क्योंकि तुम पहले से तैयार ही नहीं हो। यदि तुम तैयार हो, तो वह हमेशा तुम्हारी पहुंच में है। बाउलों की दृष्टि में पहले से तैयार होना क्या है—वैयक्तिक।
स्मरण रहे, परमात्मा बहुत मौलिक हैं वह कभी भी ठीक वैसा ही प्रतिरूप फिर नहीं बनाता। एक बुद्ध, एक ही बुद्ध हैं, एक कृष्ण, एक ही कृष्ण है—वह कभी उन्हें दोहराता नहीं। इसलिए गीता और धम्मपद को लादे हुए मत चलो। उन्हें सुंदर साहित्यिक रचना की तरह पढ़ो: उन्हें एक काव्य के रूप में पढ़ो, लेकिन उन्हें धर्म मानकर मत पढ़ो। महान कला और साहित्य के रूप में उनका अध्ययन करो, लेकिन धर्म की तरह नहीं। कुरान के उच्चारण को सुनो—वह अत्यंत सुंदर है, भले ही तुम उसे समझो अथवा नहीं, भले ही तुम उस भाषा को भी जानो या नहीं। कुरान शब्द का अर्थ है—उसका उच्चारण करना, उसे गाना। किसी भी अन्य ग्रंथ से, जो इतनी सुंदरता से गाते हुए पढ़ा जाए इसकी तुलना नहीं की जा सकती। इसमें एक सौंदर्य बोध है, इसमें ध्वनि की अत्यधिक सुंदरता है। इसे सुन कर देखो।
बाइबिल को पढ़ो—जीसस के दृढ़ता से दिए गए साधारण वक्रव्यों या वचनों
का अतिक्रमण करने में कभी भी कोई साहित्य समर्थ नहीं है—लेकिन उसे धर्म मानकर कभी मत पढ़ो। धर्म तो तुम्हें स्वयं ही खोजना होगा। तुम उसमें काव्य पा सकते हो, सुंदर वक्तव्य पा सकते हो। और मैं यह नहीं कर रहा हूं कि उन्हें पढ़ो मत, क्योंकि वे तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति हैं। उन्होंने तुम्हें समृद्ध बनाया है। एक व्यक्ति जिसने बुद्ध के बारे में नहीं पढ़ा है, और जिसने उनके वक्तव्यों और वचनों को नहीं पढ़ा, समकालीन नहीं बन सकता। किसी चीज से वह चूकता रहेगा। यदि तुमने कुरान और बाइबिल को और महावीर की वाणी को नहीं पढ़ा, तब तुम्हें किसी बहुत सारभूत चीज का अभाव बना रहेगा। तुम उसके बिना निर्धन बने रहोगे। उसे पढ़ो— एक महान साहित्य की भांति। उसका आनंद लो, प्रसन्न चित्त बने रहो, लेकिन उस पर विश्वास मत करो। एक कविता विश्वास करने के लिए नहीं होती, वह तो आनंदित होने के लिए होती है।
विश्वास उधार लिया होता है। तुम्हें अपना विश्वास स्वयं खोजना होगा, तुम्हें अपनी श्रद्धा स्वयं खोजनी होगी। कठिन है मार्ग, रास्ते बहुत श्रमपूर्ण हैं। प्रारम्भ में तो पहुंचना लगभग असम्भव दिखाई देता है, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं यह केवल आकृति है। यदि तुम चलना शुरू करोगे, यदि तुम प्रार्थना करना प्रारम्भ कर दोगे, यदि तुम नाचना शुरू कर दोगे और यदि तुम उसके नाम पर गीत गाना शुरू कर दोगे तोवहआ पहुंचता है।

 क्या तुम मेरे अंदर स्थित घर को देखना चाहते हो?
और मेरे हृदय के अमृत का पान करना चाहते हो?
जहां प्रेमी, उत्सव आनंद के समारोह में—
प्रेम—गीत गाते आगे बढ़ते हैं
कहीं तुम उसमें प्रवेश करने में असफल तो नहीं हो जाओगे?
तब उस तक जाने वाले मार्ग में
सौंदर्य का दीप अपने साथ रखना।
अपने लोभ और अपनी वासना को,
संसार की सारी विशेषताओं और तौर—तरीकों को पीछे छोड़ देना।
आरोप और हिंसा।
बूढ़ी होती उम्र, और मृत्यु
प्रातःकाल की उजास और शाम का धुंधलका
वहां रहते ही नहीं।
केवल सतरंगी किरणें
वहां दमकती दीप्ति फैलाती रहती हैं

 जो नहीं देखा जा सकता, तुम वह देखोगे। असम्भव लगने वाला ही घटित होगा। धर्म एक असम्भव और कठिन विद्रोह है। लेकिन यह घटता है—यह विश्वास करना लगभग असम्भव है, पर यह होता है। यह साधारण मन के इतने अधिक पार है: यह तर्क से इतना परे है, यह इतना अधिक बुद्धि के पार है, कि विश्वास करना कठिन हो जाता है, यह घट सकता है— और यह घटता है। मेरी आंखों में झांको, जरा मेरी ओर देखो, निरीक्षण करो और अनुभव करो, कि यह घटा है। यह तुम्हें भी घट सकता है।
तुम वह देख सकोगे
जो देखा नहीं जा सकता।
लेकिन केवल तभी
जब तुम स्वयं अपने अंदर के अरूप में स्थित हो जाओ।
लेकिन इसकी कला केवल यही है कि तुम्हें यह सीखना है कि अपने अंदर अरूप में कैसे स्थित हुए जाये। कैसे वह अहंकार गिराया जाये, जो सभी धर्मों का केंद्र—बिंदु है, कैसे अपने मैं को, स्वयं को पूरी तरह मिटाया जाए इतनी पूर्णता से कि तुम्हारा कक्ष मात्र एक शून्यता रह जाए जैसे तुम बस एक कक्ष, केवल एक स्थान, एक शुद्ध शून्यता भर हो। उसी परिपूर्ण शून्यता में किसी भी व्यक्ति को वह दीखना शुरू हो जाता है, जो देखा नहीं जा सकता, और उसे वह सुनाई देना प्रारम्भ हो जाता है, जिसे सुना नहीं जा सकता, और एक व्यक्ति को उस स्पर्श का अनुभव होना शुरू हो जाता है, जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता, और तब कोई उस बिंदु पर पहुंचता है, जहां सारी खोज, सारी कामनाएं और सारी भटकन विलुप्त हो जाती है। वह परिपूर्ण तृप्त हो जाता है।
यह आशीर्वाद, तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। और यदि तुम इससे चूक रहे हो, तो इसके लिए कोई दूसरा उत्तरदायी नहीं है। केवल तुम, और केवल तुम ही जिम्मेदार हो। यदि तुम इसके चूक रहे हो तो अब और, एक क्षण के लिए भी चूकने की कोई जरूरत नहीं है। एक बार यह बात समझ में आ जाए फिर समस्या क्या है? तुम स्वयं अपने आपको उठाकर एक ओर अलग क्यों नहीं रख सकते? तुम उस स्थिति में क्यों नहीं बने रह सकते, जहां किसी भीमैंका अस्तित्व ही न हो? कभी—कभी ऐसा किसी संयोग से भी घट जाता है। किसी सुंदर महान संगीत को सुनते हुए कभी—कभी ऐसा हो जाता है, कि तुम यह भूल जाते हो कि तुम हो। तुम हो, जितने कभी पहले थे, तुम उससे भी कहीं अधिक हो—कहीं अधिक जमीन से जुड़े हुए कहीं अधिक केंद्रित, लेकिन फिर भी तुम भूल जाते हो कितुमहो। महान संगीत में यह विलुप्त हो जाता है। हिमालय के शिखर का निरीक्षण करते हुए कभी—कभी यहमैंमिट जाता है। यह इतनी अधिक आश्चर्यजनक इतनी अद्भुत, और इतनी अधिक पवित्र है... हिमालय की, बिना किसी के द्वारा स्पर्श की गई, यह अछूती सुध बर्फ कि एक क्षण के लिए तुम अपने ही अस्तित्व के सर्वोच्च शिखर को छू लेते हो, और तुम्हारा अहंकार, कहीं नीचे गहराई में छूट जाता है।
कभी—कभी, यदि रात में तुम अचानक जाग जाते हो, तो एक क्षण के लिए तुम इस बारे में उलझन में पड़ जाते हो, कि तुम कौन हो और कहां हो। यदि तुमने इसे नहीं देखा है, तो अपनी पत्नी या पति से कहो, कि वे एक दिन तुम्हें रात में हिलाकर अचानक जगा दें, फिर देखो, कुछ क्षणों के लिए ही तुम होते हो, लेकिन इस बात का अनुभव नहीं होता है—कि तुम कौन हो? तुम्हारा नाम, तुम्हारी आकृति, और पहचान वहां होती ही नहीं। तुम इतनी गहरी नींद से आ रहे हो, कि अहंकार को वस्त्र पहिन कर वापस आने में थोड़ा समय लगेगा।
ऐसा प्रेम में भी होता है। पास बैठे हुए दो प्रेमी दो नहीं है—उन दोनों के बीच कुछ चीज ऐसी है जो गिर गई है, मिट गई है। अवरोध मिट गए हैं। उन्होंने एक दूसरे को आच्छादित कर लिया है। ऐसा संयोग से भी होता है, लेकिन यदि तुम इसे समझ गए हो, तो धीमे— धीमे तुम अपने में उसे विकसित होने की अनुमति दो। धर्म के बारे में यही सब कुछ है।

 ओ मेरे हृदय।
तू अपने आपको उस वेष में सज्जित कर
जिसमें सभी स्त्रियोचित सार—तत्व हों।
तू अपनी प्रकृति और आदतों को बदल कर
ठीक उन्हें उनके विपरीत बना ले।
तभी जैसे लाखों करोड़ों सूर्यों का विस्फोट होगा,
और उसकी चमक तथा प्रकाश में
वह अरूप, हर कहीं विविध रूपों में दिखाई देगा।
तू वह देख सकेगा
जो देखा नहीं जा सकता,
लेकिन केवल तभी
यदि तू स्वयं अपने अंदर के—अरूप में स्थित हो जाए।

आज इतना ही।



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