25
मई 1979; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रशनसार—
1—पूजा—पाठ, योग—ध्यान,
व्रत—उपवास,
साधुता, ये
सब मैने किया;
इतने
अनुभवों से
गुजरा, कुछ
हुआ नहीं; और
आप अनुभव पर
जोर देते हैं।
अब मैं क्या
करूँ?
2—उपासना
यानी क्या?
3—आँख
को निर्मल
करने का उपाय
बताएँ। चारों
ओर राम कैसे
दिखायी पड़े? क्या
ध्यान के जैसे
ही संन्यास का
भी विश्वव्यापी
प्रचार व
प्रसार
आवश्यक है?
पहला
प्रश्न :
आप सदा
अनुभव पर जोर
देते हैं। मैं
सब कर चुका
हूँ——पूजा—पाठ, योग—ध्यान,
व्रत—उपवास!
और कुछ वर्षों
तक पुराने ढब
का साधु भी रह
चुका हूँ। मगर
इस सब अनुभव
से कुछ मिला
नहीं। अब मैं
क्या करूँ?
मैं
अनुभव पर
निश्चय जोर
देता हूँ।
लेकिन अनुभव
और अनुभव में
भी भेद है।
अनुभव अभिनय
मात्र भी हो
सकता है। तब
ऊपर से तो
लगता है अनुभव
से गुजरे और
भीतर से कोई
अनुभव' घटा
नहीं।
कोई
कोरी
मुद्राओं से
गुजर सकता है।
तुम मुस्कुरा
सकते हो और
हृदय में
मुस्कुराहट न
हो। तो
तुम्हें
लगेगा
मुस्कुराहट
के अनुभव से
गुजर गये; और
हाथ कुछ सुवास
लगेगी नहीं।
तुम रो भी
सकते हो।
अभिनेताओं को
नाटक के मंच
पर 'रोते
देखा न! आँसू
भी टपक सकते
हैं झरझर आँसू
टपक सकते हैं,
और लगेगा कि
तुम अनुभव से
गुजरे रोने के,
लेकिन
तुम्हारे
हृदय से आंसू
न आ रहे हों तो
अनुभव से तुम
नहीं गुजरे।
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि हम
थोथी
प्रक्रियाओं
से गुजरते हैं
और उसको अनुभव
मान लेते हैं।
फिर हाथ कुछ
लगेगा नहीं।
मैंने
सुना है, एक
अद्भुत
व्यक्ति हुआ,
वह बडा
व्याकरणविद
था। साठ साल
का हो गया, उसके
पिता उसे रोज
समझाते——पिता
बूढ़े हो गये
थे कोई अस्सी
वर्ष के——कि अब
तो तू राम की
सुध ले। अब तो
प्रभु का
स्मरण कर।
मंदिर कब
जाएगा? ——तू
भी बूढ़ा होने
के करीब आ गया,
साठ साल
पूरे हो गये।
वह
व्याकरणविद
सदा एक ही बात
कहता कि बार—बार
क्या राम का
नाम लेना! आप
तो जानते हैं
कि मैं
व्याकरण का
ज्ञाता हूँ; बार—बार राम
का नाम लो या
बहुवचन में एक
दफे राम का
नाम लो, काम
हो जाएगा। एक
बार जाऊँगा, समग्रता से
नाम ले लूँगा।
साठवाँ
वर्षदिन बेटे
का मनाया जा
रहा था, बाप
ने उसे फिर
याद दिलायी कि
आज तो तू
मंदिर जा ही, आज प्रभु का
स्मरण कर!
उसके बेटे ने
कहा कि आपको
मैं देख रहा
हूँ जीवन भर से
मंदिर जाते, प्रभु का
स्मरण करते, पूजा—पाठ
करते, कुछ
होता दिखायी
पड़ता नहीं।
ऐसे ही मैं भी
आऊँगा—जाऊँगा,
ये धक्के
खाने से क्या
सार है? जाऊँगा
एक दिन! और अगर
आप कहते हैं
आज ही चला जाऊँ
तो आज जाता
हूँ। लेकिन
गया तो फिर
बैठे प्रतीक्षा
मत करना। एक
बार नाम लूँगा।
बाप को तो कुछ
समझ में आया
नहीं वह क्या
कह रहा है, उसने
तो बात मजाक
में ही ली, कहा——जा,
नाम ले!
बेटा
मंदिर में गया
और कहते हैं
उसने एक ही बार
नाम लिया राम
का और नाम
लेते ही गिर
गया और समाप्त
हो गया।
उस
व्याकरणविद
का नाम था——भट्टोजी
दीक्षित। एक
ही बार नाम
लिया! इसको
कहते हैं
अनुभव! मगर समग्रता
से लिया होगा।
रोएँ—रोएँ से
लिया होगा। कण—कण
पुकारा होगा।
स्वाँस—स्वाँस
स्मरण से भर
गयी होगी। सब
दाँव पर लगा
दिया होगा। कह
कर गया था एक
बार नाम लूँगा
और अब
प्रतीक्षा मत
करना। अब राम
में जा रहा
हूँ तो अब काम
की दुनिया में
वापिस क्या
लौटना है? बाप
तो मजाक ही
समझे थे; क्योंकि
बाप तो जीवन
भर नाम लेते
रहे थे।
तो
मैं तुमसे
कहता हूँ
अनुभव अनुभव
में भेद है।
बाप का भी
अनुभव था
मंदिर में
पूजा करने का, प्रार्थना
करने का। रोज
गये थे, रोज
वैसे ही वापिस
लौट आए थे।
कुछ बदला न था,
कुछ नया न
हुआ था, कुछ
स्पर्श ही
नहीं हुआ था।
धूल भी नहीं
खड़ी थी।
इन
दोनों अनुभव
का भेद ख्याल
में लो।
और
जब मै अनुभव
पर जोर देता
हूँ तो मेरा
मतलब——भट्टोजी
दीक्षित वाला
अनुभव। ऐसी
थोथी
प्रक्रियाओं
से कुछ न होगा
कि चले मंदिर, घंटा
बजा आए, पूजा
कर आए, एक
औपचारिकता है
रोज बैठकर
अपने एक कोने
में स्नान के
बाद राम का जप
कर लिया, इससे
कुछ भी न होगा।
अपने को
समग्रता से
उँडेलोगे तब
कुछ होगा। राम
का नाम असली
बात नहीं है, असली बात
अपने को
समग्रता से
उँडेलना है।
फिर तुमने राम
को पुकारा कि
कृष्ण को
पुकारा कि
रहीम को
पुकारा, किसको
पुकारा इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। वे तो
सब नाम गौण
हैं।
परमात्मा का
कोई नाम नहीं
है। लेकिन
समग्रता से
पुकारा, बस,
बात हो
जाएगी।
तुम
कहते हो, मैं
सब कर चुका
हूँ——पूजा—पाठ,
योग—ध्यान,
व्रत—उपवास!
और कुछ वर्षों
तक साधु भी रह
चुका हूँ।
तुमने कुछ भी
नहीं किया है।
तुम भट्टोजी
दीक्षित के
पिता हो। न
तुमने पूजा की
है, न पाठ
किया है, न
योग किया है, न ध्यान; न
व्रत किया है,
न उपवास
किया है, कुछ
भी नहीं किया।
करते तो ऐसा
हो ही नहीं
सकता था कि
हाथ खाली रह जाते।
ऐसा कभी हुआ
नहीं। आग में
हाथ डालोगे तो
जलेगा ही। जल
पीओगे तो
तृप्ति होगी
ही। कोई कहे
कि मैंने आग
में हाथ डाला
और हाथ जला नहीं,
तो एक ही
बात है साफ कि
इसने आग की तस्वीर
में हाथ डाला
होगा, आग
में हाथ नहीं
डाला होगा। आग
की तस्वीर आग— जैसी
लगती है, आग
नहीं है। इसने
' आग ' शब्द
लिख लिया होगा
कागज पर और
उसको हाथ में
रख लिया होगा।
लेकिन ' आग '
शब्द कागज
पर लिखा हुआ
अंगारा नहीं
बनता।
तुम
शब्दों से
खेलते रहे हो, शास्त्रों
से खेलते रहे
हो। अनुभव ऐसे
नहीं होता।
पंडित तुम हो
गये होओगे, मगर प्रज्ञा
का ऐसे जन्म
नहीं होता।
महँगी बात है
प्रज्ञा।
पंडित सस्ता
है, दो
कौड़ी का है, बजार में
मिलता है, कोई
भी खरीद सकता
है। पंडित
होने से सस्ता
दुनिया में
कोई दूसरा काम
नहीं है।
क्योंकि
पंडित 1 आग ' शब्द
से खेलता है, सिर्फ शब्द
से। शब्द का
धनी हो जाता
है, शब्द के
संबंध में
सारी
जानकारियाँ
ले लेता है।
आग शब्द की
व्युत्पत्ति
जानता है——किस
धातु से बनी
है ——सारे ' आग
' शब्द का
इतिहास जानता
है——किन—किन
भाषाओं से
गुजरा है यह
शब्द, इसने
क्या—क्या
अर्थ, रंग,
भावभगिमाएँ
ली हैं, सब
जानता है——मगर
आग से इसका
कोई परिचय
नहीं है।
मैंने
सुना है, एक
युवक एक युवती
के प्रेम में
था। बिल्कुल
पागल था। मगर
युवती थी कि
उसकी तरफ कुछ
ध्यान नहीं
देती थी। बहुत
दिनों तक उसके
पीछे चक्कर
लगाने के बाद भी
जब कोई नतीजा
नहीं निकला और
युवक पूरी तरह
निराश हो गया
तो एक दिन
उसने युवती से
साफ—साफ बात
कर लेने का
निश्चय किया
और हिम्मत
करके उससे कहा——निष्ठुर,
पत्थरदिल, अब मुझे
तुझसे एक ही
सवाल करना है,
बोल जवाब
देगी? पूछूँ?
पूछो, युवती
ने लापरवाही
से कहा। तो
फिर यह बता कि
क्या तू जानती
है प्रेम किसे
कहते हैं? और
क्या तूने कभी
किसीसे प्रेम
किया है? इसके
जवाब में
युवती ने एक
बड़ा संदूक
खोलकर दिखाते
हुए कहा——यह
पूरा संदूक जिन
पत्रों से भरा
है वे
प्रेमपत्र
हैं। इनमें
अनेक युवकों
के फोटो भी
हैं। ये सब
फोटो तुझ जैसे
दिलफेंक
युवकों के ही
हैं। और इस
संदूक में एक
दर्जन के करीब
अँगूठियाँ भी
हैं। ये सब
मुझे भेंट में
मिली हैं।
इतना कहने के
बाद उस युवती
ने युवक से
पूछा——अब तू ही
बता कि प्रेम
के मामले में
कौन ज्यादा
जानता है? तू
ज्यादा
अनुभवी है या
मैं?
तुम्हारी
संदूक में भी
तुम कहते हो
सब है——पूजा—पाठ, योग—ध्यान,
व्रत—उपवास,
साधुता।
लेकिन कुछ कमी
रह गयी; कुछ
मौलिक भूल हो
गयी, कहीं
तुम पहले चरण
पर चूक गये, चले तो तुम
बहुत, लेकिन
दिशा कुछ गलत
थी। चले भी
बहुत, पहुँचे
कहीं नहीं।
क्योंकि चलने
का एक ही
प्रमाण है
मेरे पास——पहुँचो।
पहुँचना ही
प्रमाण है। फल
से परीक्षा
होती है वृक्ष
की। और कोई
परीक्षा नहीं
है। तुम कहो ——मैने
आम बोये और
नीम लग गयी।
तो एक ही बात
है जो सिद्ध
होती है कि
तुमने नीम ही
बोयी थी, आम
समझ कर बोयी
होगी, मगर
बोयी नीम थी।
क्योंकि नीम
के कड़वे फल
नीम में ही
लगते हैं, आम
के पौधे में
नहीं लगते हैं।
फल में पहचान
है वृक्ष की।
तुम
कहते हो ये सब
मैने किया, इतने
अनुभव से मैं
गुजरा, कुछ
हुआ नहीं। और
आप अनुभव पर
जोर देते है'! तुम्हारा यह
अनुभव अनुभव
नहीं है, थोक
है, नपुंसक
है। तुम फिर
से लौट कर
विचार करो। सच
में तुमने
पूजा की 'कब
की थी पूजा, याद है? कैसे
की थी. पूजा? पूजा के
क्षण में
तुम्हारे भाव
कहाँ थे? जब
तुम मंदिर में
झुके थे
परमात्मा की
प्रतिमा के
सामने, तब
तुम वहाँ थे? सच वहाँ थे? या कि बजार
में थे? या
कि दुकान पर
पहुँच गये थे?
या कि
ग्राहकों से
मोल—तोल कर
रहे थे? तुम
वहाँ थे जब तुम
झुके थे ?——या
पास में खड़ी
कोई सुंदर
स्त्री को आँख
के कोने से
देख रहे थे ?तुम वहाँ थे
जब झुके थे? ——कि ख्याल
तुम्हारा लगा
था कि जूते
छोड़ आया हूं
मंदिर के बाहर
कोई चुरा न ले
जाए? अक्सर
लोग जब मंदिर
में झुकते हैं,
उनका ध्यान
जूतों पर लगा
होता है। कोई
जूते न ले जाए।
इससे तो
मुसलमान ही
बेहतर, अपना
जूता अपने साथ
ही रखते हैं।
तुम देखते हो,
मुसलमानों
को नमाज में
छपी हुई
तस्वीरें देखते
हो? सब
अपना—अपना
जूता अपने
सामने रखे हैं।
और उसी जूते
को सिर झुका
रहे हैं। सोच
रहे हैं कि
खुदा की बंदगी
हो ही हे!
तुम्हारी
पूजा तभी पूजा
है,
जब
तुम्हारा
हृदय झुके, तुम्हारा
भाव झुके; जब
तुम सच में ही
झुक जाओ, पूरे—पूरे
झुक जाओ। जब
तुम वहीं होओ,
उस क्षण के
अतिरिक्त
तुम्हारा कोई
अस्तित्व कहीं
और न हो, तुम
समग्ररूप से
वहाँ उपस्थित
होओ, उस
उपस्थिति में
पूजा है। फिर
तुमने फूल कौन—से
चढ़ाए, यह
गौण हैं। चढ़ाए
कि नहीं चढ़ाए,
यह भी गौण
है। हाथ में
थाली का दीया
जला था कि
नहीं जला था, यह भी गौण है।
जब हृदय का
दीया जला हो
तो थाली के
दीये महत्वपूर्ण
नहीं रह जाते।
लेकिन हृदय के
दीये की तो
फिकिर ही नहीं
है, थाली
का दीया जल
रहा है। थाली
का दीया जल
रहा है और
तुम्हारी
आरती उतर रही
है। स्वभावत:
तुम सोचते हो
आरती करते—करते
थक गया——और
आरती एकबार
तुमने नहीं की——अब
क्या सार है, चलो कुछ और
करें। तुम वही—के—वही।
जिस ढंग से
तुमने आरती की
थी, उसी
ढंग से तुम
ध्यान करोगे।
जिस ढंग से
तुमने ध्यान
किया, उसी ढंग
से योग करोगे——तुम
वही—के—वही।
तुम्हारे हाथ
की चीजें
बदलती जाएँगी,
तुम नहीं
बदलोगे। तुम
सभी अनुभवों
से गुजर जाओगे
और कोरे—के—कोरे,
खाली—के—
खाली। और एक
और उपद्रव
तुम्हारे सिर
में बैठ जाएगा
कि कुछ नहीं होता,
अनुभव करके
देख लिया।
तुम
कहते हो——कुछ
वर्षों तक
साधु भी रह
लिया। साधु भी
कोई कुछ
वर्षों तक रहता
है?
साधुता फली
न होगी।
साधुता सहजता
से उमगी न
होगी। साधुता
एक ढोंग, एक
पाखंड रही
होगी। ऊपर से
आवरण स्वीकार
कर लिया होगा।
सोचा होगा, चलो यह भी
करके देख लें,
सब तो करके
देख ही लिया, अब यह भी
करके देख लें,
क्या बना—बिगड़ा
जाता है। कुछ
हाथ नहीं लगा
तो अपने घर
वापिस लौट
जाएँगे।
और
फिर तुम घर
लौट ही आए।
जो
आदमी घर लौटने
का ख्याल लेकर
गया है, वह
लौट ही आएगा।
जिसने पीछे
अपने सीढ़ियाँ
लगा रखी हैं, वह उतर ही
जाएगा।
तुम्हारी
साधुता क्या
थी? वह भी
वैसी ही थी
जैसी
तुम्हारी
पूजा थी, जैसे
तुम्हारा
उपवास था।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूँ——अनुभव
का अर्थ बाहरी
उपचार नहीं है।
अनुभव का अर्थ, आंतरिक
अनुभव, आंतरिक
अनुभूति, आंतरिक
भावोन्माद है।
कुछ भी नहीं
हुआ है
तुम्हें अभी
तक। अब तुम यह
भ्रांति छोड़
दो कि तुम्हें
अनुभव हुआ है,
नहीं तो यह
तुम्हें
अटकाएगी। अगर
मै तुमसे
कहूँगा ध्यान
में उतरो, तुम
कहोगे——सब
करके देख चुका।
मैं तुम्हें
समझाऊँगा
पूजा करो, तुम
कहोगे——मैं सब
करके देख चुका।
और तुमने कुछ
भी करके नहीं
देखा है। लाभ
तो नहीं हुआ, तुम्हारे
करने से एक
हानि हो गयी——अब
तुम कुछ और
करने को
उत्सुक नहीं
रह गये।
इस
बात को
तुम्हारे
हृदय में गहरा
बैठ जाने दो——तुमने
अभी तक कुछ
नहीं किया, तुम्हारा
किया—धरा सब
मिट्टी में
गया है। तुम अ
ब स से शुरू
करो। तुम कोरी
किताब पर
लिखना शुरू
करो। फिर से
समझो, फिर
से शुरू करो, बीच में
अपने ज्ञान को
मत लाओ, क्योंकि
तुम्हारे पास
ज्ञान कुछ भी
नहीं है। तुम
ऐसे समझो जैसे
छोटे बच्चे हो,
सत्य की खोज
का भाव फिर से
जगा है। तुम
पीछे से पर्दा
गिरा दो। अतीत
को भूल ही जाओ,
विस्मृत कर
दो। उससे कुछ
लेना—देना
नहीं है। उतने
दिन व्यर्थ
गये। अब उन
दिनों को आने
वाले भविष्य
को भी व्यर्थ मत
करने दो।
अब
तुम फिर से
सीखो। और इस
बार बाहर की
विधि पर जोर
मत दो, इस बार
अंतर—विधि पर
जोर दो। मैं
तुमसे नहीं
कहता कि मंदिर
में जाकर झुको।
मैं तुमसे
कहता हूँ, जहाँ
झुकने का' भाव
आ जाए, वहीं
झुक जाना। फिर
मंदिर हो कि
मस्जिद, कि
गिरजा हो कि
गुरुद्वारा, कि बजार हो
कि दुकान, कि
वृक्ष हो
सामने कि आकाश,
जहाँ झुकने
का भाव आ जाए
वहाँ झुक जाना।
तुम्हें
कभी झुकने का
भाव नहीं आता? सुबह
सूरज को ऊगते
देख कर झुकने
का भाव नहीं आता?
सूरज ऊग रहा
है यहाँ और
तुम चले मंदिर
की तरफ! इससे बडा
मंदिर और कहाँ
पाओगे? इससे
ज्यादा रोशन
मंदिर और कहाँ
है? इतना
विराट प्रकाश
सामने आ रहा
है और तुम
अभिभूत नहीं
होते? तुम्हारे
भीतर रोमांच
नहीं होता? सुबह के
सूरज को ऊगते
देखकर
तुम्हारे
भीतर कुछ नहीं
ऊगता? तो? मंदिर में
क्या खाक होगा।
आदमी के बनाए
हुए मकानों
में क्या
होगा. रात तारों
से भरी है, आकाश
की चादर तारों
से सजी है, और
तुम्हारा मन
नहीं होता कि
झुक जाओ इस
विस्मय के
समक्ष, इस
रहस्य को पी
लो? हाथ
जोड्ने की
आकांक्षा
नहीं जगती? इन तारों से
नमस्कार कर
लें। इन तारों
से थोड़ी
गुफ्तगू कर
लें। थोड़ा
संवाद हो जाए।
दो बातें हो
जाएँ। जयराम
जी हो जाए।
तारों को देख
कर तुम नहीं
झुके, गीता
के सामने झुक
रहे हो? आदमी
के छापे खाने
में छपी किताब
के सामने झुक
रहे हो? इतनी
बड़ी विराट
किताब आकाश की
खुली है और उस
पर सब
हस्ताक्षर
परमात्मा के——ये
सब चाँद—तारे
उसकी लिखावट
हैं, इनको
पढ़ो, इनको
गुनो।
मै
तुमसे कहता
हूँ——भाव की फिकिर
लो। और भाव के
बहुत क्षण आते
हैं। चौबीस
घड़ी में ऐसा
मौका जरूर आता
है एकाध बार, जब
अंतरभाव उठता
है—, झुक
जाओ! कैसा
अद्भुत है
जगत! अहोभाव
उठता है, एक
कृतज्ञता का
भाव उठता है, धन्यवाद
देने का मन
होता है——पता
नहीं किसे
धन्यवाद दें?
किसने
बनाया है यह
सब रहस्य? नाम
भी नहीं है
उसका कुछ, उसको
पाती भी लिखनी
है तो उसका
पता भी नहीं
है।
झुकने
का मतलब क्या
होता है? झुकने
का मतलब यह
होता है कि
हमें पता नहीं
कि तू किस
दिशा में है, हमें पता
नहीं तेरा नाम
क्या है, हमें
पता नहीं तेरा
ठिकाना क्या
है, हमें
पता नहीं कि
तू है भी या नहीं,
मगर जो
दिखायी पड़ रहा
है वह इतना
विस्मयपूर्ण है
कि तू जरूर
होगा। कि तू
होना ही चाहिए।
यह जो संगीत
बज रहा है
तेरा, यह
जो विस्तार
फैला है तेरा,
यह जो इतनी
सुनियोजित
जगत की
व्यवस्था चल
रही है——अर्थपूर्ण,
सुसंगत, लयबद्ध——यह
जो नृत्य हो
रहा है, उत्सव
हो रहा है, तू
जरूर कहीं
इसमें छिपा
होगा। हम
झुकते हैं तुझ
अज्ञात के
प्रति, तुझ
अनाम के प्रति।
ऐसा जब तुम
झुकोगे, तो
पूजा। वह
मंदिर में जो
तुम घंटी
बजाते हो, वह
पूजा नहीं है,
वह पूजा का
ढोंगे है।
पूजा का क्षण
होगा तो कहाँ
घंटी खोजने
जाओ? पूजा
का क्षण कोई
बँधा—बँधाया
क्षण थोड़े ही
है कि उठे
सुबह, स्नान
किया और चले
मंदिर कि सात
बजे पूजा कर लेंगे।
परमात्मा
शाश्वत है, समय का उससे
कोई संबंध
नहीं बनता। और
परमात्मा सहज
है, जो खुद
भी सहज होते
हैं उन्हीं का
जोड़ बैठता है।
तो तुम
प्रतीक्षा
करो, जब
कभी सहज
प्रार्थना का
क्षण आ जाए, झुक जाना।
मूसा
एक जंगल से
गुजरते थे और
उन्होंने एक
आदमी को झुके
देखा। साँझ हो
गयी थी, सूर्यास्त
हो रहा था। वह
आदमी गड़रिया
था। उसकी
भेड़ें भी
उसीके पास—
पास में—में
करती घूम रही
थीं और वह
उन्हींके बीच
में बैठा
प्रार्थना
में लीन था।
आकाश की तरफ
हाथ जोड़े हुए
थे उसने और
बड़ी मस्ती में
बातें कर रहा
था। मूसा भी
ठिठक गये उसके
पीछे कि क्या
कह रहा है? जो
सुना तो मूसा
बहुत घबडा गये।
यह कोई
प्रार्थना है!
वह
आदमी कह रहा
था कि हे
प्रभु, तू
बहुत अकेला
होगा वहाँ!
मुझे पता है
कभी—कभी जब
रात अकेले
होता हूँ, कैसा
भय लगता है।
तुझे भय नहीं
लगता? तुझे
भय लगता होगा,
मैं आने को
राजी हूँ, तू
मुझे बुला ले।
मैं सदा तेरे
साथ रहूँगा, तेरी छाया
बन जाऊँगा। और
कभी—कभी तु्झे
भूख भी लगती
होगी और कोई
भोजन
देनेवाला
नहीं होता
होगा। मैं
तेरा भोजन भी
बना दूँगा, मुझे भोजन
बनाना भी आता
है। और मैं
तुझे खूब
नहलाऊँगा, धुलाऊँगा
पता नहीं
किसीने तुझे
नहलाया—धुंलाया
कि नहीं; जूँ
पड़ गयी होंगी——मेरी
भेड़ों में पड़
जाती हैं। मगर
देख लो मेरी
भेड़ों को, एक—एक
की सफाई कर
देता हूं। रात
तेरे पैर भी
दबा दूँगा, थक जाता
होगा ——इतना
विराट तेरा
विस्तार है, इसका
निरीक्षण
करते—करते थक
जाता होगा, रात तेरे
पैर भी दबा
दूँगा। तेरे
कपड़े भी धो
दूँगा। तू जो
कहेगा सब कर
दूँगा, तत
मुझे उठा ले, तू मुझे
बुला ले।
मूसा
के बर्दाश्त
के बाहर हो
गया जब उसने
कहा तेरी जूँ
भी बीन दूँगा।
मूसा ने कहा——ठहर
नासमझ! यह प्रार्थना
कैसी
प्रार्थना? बहुत
प्रार्थनाएँ
मैने सुनी, यह तूने
किससे सीखी, कहाँ से
सीखी? वह
तो घबड़ा गया, सीधा—सादा
आदमी, उसने
कहां——मुझे
क्षमा करो, मुझे कुछ
पता नहीं, सीखी
नहीं, खुद
ही बना ली है।
यह तो आप
जानते ही हैं
कि मैं तो
गड़रिया हूँ, पढ़ा—लिखा
नहीं हूँ, शास्त्र
की मुझे क्या
तमीज, संस्कार
जैसी चीज
मुझपर कोई पड़ी
नहीं है, खुद
ही बना ली है।
अब भेड़ों से
बात करता हूँ,
उतनी ही
मेरी भाषा है।
उसी भाषा को
परिमार्जित
करके
परमात्मा से
बात कर लेता
हूं। आप मुझे
सिखा दें। तो
मूसा ने ठीक—ठीक
यहूदियों की
जो प्रार्थना
है, वह
सिखायी। बड़े
प्रसन्न थे
म्सा कि एक
भटके हुए आदमी
को रास्ते पर
लाए।
और
जब उस आदमी को
छोड़ कर मूसा
चले,
तो जैसे ही
एर्कात आया, जोर से एक
आवाज आकाश से
गूँजी कि मूसा,
मैंने तुझे
भेजा था कि तू
लोगों को मेरे
पास लाना, तू
तो लोगों को
मुझसे दूर
करने लगा।
मेरा प्यारा,
तूने उससे
उसकी
प्रार्थना
छीन ली! शब्द
नहीं सुने
जाते हैं, भाव
सुने जाते हैं।
तू वापिस जा, क्षमा माँग!
उससे
प्रार्थना
सीख! मूसा तो
कैप गये। भागे—
गये, उस
गड़रिये को
पकड़ा, उसके
चरणों में
गिरे और कहा—मुझे
क्षमा कर दे, भाई! मैने जो
कहा उसे वापिस
त्रेता हूँ।
परमात्मा की
नजरों में
तेरी
प्रार्थना
स्वीकार हो
गयी है, हमारी
प्रार्थना
अभी स्वीकार
नहीं हुई है।
तू जैसा चाहे
वैसा ही कर।
और मुझे क्षमा
कर दे। मुझसे
बड़ी भूल हो
गयी।
यह
कहानी मधुर है, प्रीतिकर
है, अनूठी
है। सहज, स्वाभाविक,
तब पूजा का
अनुभव होता है।
अभी तो
तुम्हारी
पूजा इतनी ओछी
है!
मैने
सुना है, एक
नगर में कुछ
लोगों ने मिल
कर एक मंदिर
बनाया। सोचा
किसकी मूर्ति
स्थापित करें?
खूब विचार
करने के बाद
ट्रस्टियों
ने यही तय किया
कि राम की
मूर्ति
स्थापित करें,
तो राम की
मूर्ति
स्थापित कर दी।
थोड़े—से लोग
मंदिर आने लगे
जो राम को
मानते थे।
लेकिन जो कृष्ण
को मानते थे, वे मंदिर
नहीं आए। तो
उन्होंने
सोचा कि राम
की मूर्ति हटा
कर कृष्ण की
मूर्ति
स्थापित करें।
तो कृष्ण की
मूर्ति
स्थापित की तो
राम के माननेवालों
ने आना बंद कर
दिया। कृष्ण
को माननेवाले
आने लगे। फिर
उन्होंने
सोचा कि शिव
की मूर्ति
स्थापित करें।
ऐसे वे हर साल
मूर्तियाँ
बदलते गये और
हर साल आने
वाले बदलते
गये। मगर
संख्या वही
थोड़ी—की—थोड़ी
रही।
फिर
उन्होंने
सोचा कि
मूर्ति हटा
दें,
मंदिर को
मस्जिद बना
दें। तो मंदिर
को मस्जिद बना
दिया। तो हिंदुओं
ने आना बंद कर
दिया, मुसलमान
आने लगे। मगर
संख्या वही—की—वही
रही। वे तंग आ
गये। वे चाहते
थे सारा गाँव
आए। वे चाहते
थे सब आएँ।
उन्होंने एक
बूढ़े बुजुर्ग
से सलाह ली कि
हम क्या करें?
उसने कहा. ——तुम
एक होटल खोल
लो। उन्होंने
होटल खोली और
सब आए।
ऐसी
मजेदार दुनिया
है। यहाँ
मंदिर—मस्जिद
के बीच झगड़ा
है,
होटल में सब
जाते हैं।
होटल खोल ली
होगी, नाइट
क्लब बना दिया
होगा, स्विमिंग
पूल डाल दिया
होगा, सब
आने लगे।
हिंदू भी आए, मुसलमान भी
आए, ईसाई
भी आए, सिख
भी आए, पारसी
भी आए, जैन
भी आए, बौद्ध
भी आए। फिर
कौन करता है
फिकिर राम की
और कृष्ण की, सब आए। गलत
में सब राजी
हैं। अद्भुत
है यह दुनिया
और सही में
बडे विवाद हैं।
झूठ में सब
संगी—साथी हैं,
सत्य में
बड़े संप्रदाय
हैं। उपद्रव
करना हो, सब
इकट्ठे हो
जाते हैं।
प्रभु को
स्मरण करना हो,
कोई इकट्ठा
नहीं होता।
तुम
किस मंदिर में
गये थे? कहाँ
तुमने पूजा की?
तुम किस
मस्जिद में
गये, कहाँ
तुमने
प्रार्थना की?
ये सब आदमी
के बनाए हुए
खेल हैं। इनके
जाल को अनुभव
मत समझ लेना।
परमात्मा से
संबंध जोड़ना
है, थोड़ा
प्रकृति से
संबंध जोड़ो।
वही एकमात्र
मंदिर है। वही
असली मस्जिद
है। परमात्मा
से पहचान करनी
है तो उसका जो
निर्माण है, उससे अपने
हृदय को
आदोलित होने
दो, संवादित
होने दो।
तुम्हारे
भीतर हवाओं का
सुर बजने लगे,
वृक्षों की
हरियाली उतरे,
फूलों की
लाली आए, चाँद—तारों
की रोशनी जगे!
तब तुम जानोगे
पूजा क्या है?
मैं उस
अनुभव की बात
कर रहा हूँ।
तुम्हारे
अनुभव की बात
नहीं कर रहा
हूँ।
तुम्हारी
पूजा के कल सब
व्यर्थ हैं और
उठे हैं।
तुम्हारे
ओठों से आप
शब्द सब सीखे
हुए हैं।
तुमने
परमात्मा के
सामने झुककर
कभी सीधी—सीधी
बात की है?
जैसा यह
गड़रिया कर रहा
था। सीधी—सीधी
बात, आमने—सामने।
नहीं, तुम्हारी
बात उधार है।
मैने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
स्त्री के
प्रेम में था।
उसको रोज एक
प्रेमपत्र
लिखता था।
स्त्री भी
हैरान थी, बड़े
अद्भुत
प्रेमपत्र
लिखता था! फिर
प्रेम टूटा तो
उस स्त्री ने
मुल्ला ने जो
अँगूठी दी थी उसे
वापस की।
मुल्ला ने कहा——और
अगर तकलीफ न
हो तो मेरे
प्रेमपत्र भी
वापस दे दो।
उस स्त्री ने
कहा —— लेकिन
प्रेमपत्र
तुम क्या
करोगे? उसने
कहा यह तुम न
पूछो। अब कोई
मेरी जिंदगी
तुम्हारे साथ
खतम थोड़े ही
हो गयी! अब ये
प्रेमपत्र
मुझे फिर
लिखने पड़ेंगे।
अब सच बात
तुम्हें बता
दूँ, अब तो
मामला खतम ही
हो गया, ये
प्रेमपत्र
मैं खुद नहीं
लिखता हूँ, एक पंडित से
लिखवाता हूँ।
इनका पैसा
देना पड़ता है!
ये कोई मुक्त
नहीं हैं! अब
फिर से खर्चा
करना पड़ेगा।
ये तुम मुझे
दे दो, यही
मैं दूसरे नाम
से चला दूँगा,
तीसरे नाम
से चला दूँगा,
इनसे तो
जिंदगी भर काम
चल जाएगा इतने
पत्रों से। एक
प्रेम क्या, न—मालूम
कितने प्रेम
कर लेंगे।
लेकिन
जब तुम किसी
पंडित से
प्रेमपत्र
लिखवाओगे तो
झूठा नहीं हो
जाएगा? तुमने
प्रार्थना भी
तो पंडित से
सीखी है। वह
भी झूठी हो
गयी।
तुम्हारा
अपना कुछ भाव
पैदा होता है,
या कि तुम
बिल्कुल
रेगिस्तान हो?
तुम्हारे
भीतर भाव का
कोई मरूद्यान
नहीं है? कोई
झरना नहीं
बहता? तुमने
वेद से सीख ली
प्रार्थना? तुमने कुरान
से सीख ली
प्रार्थना? ये
प्रार्थनाएँ
काम नहीं
पड़ेगी। ये
तुम्हें असली
अनुभव में
नहीं ले
जाएँगी।
तुम्हें अपनी
प्रार्थना को
जन्म देना
होगा।
तुम्हें अपनी प्रार्थना
बनना होगा।
तुम जब बनोगे
प्रार्थना, तब सुनी
जाएगी, तब
अनुभव होगा।
ऐसी ही
तुम्हारी
बाकी भी सब
बातें हैं।
तुम कहते हो——योग
भी कर चुका, ध्यान भी, व्रत—उपवास
भी। तुमने कुछ
नहीं किया।
उपवास का अर्थ
समझते हो? उपवास
का अर्थ होता
है, परमात्मा
के पास होना।
उप वास। उसके
पास बैठना।
भूखे मरने' से मतलब
नहीं होता।
हाँ, ऐसा
अक्सर हो जाता
है कि उसके
पास बैठे—
बैठे भोजन की
याद नहीं आती,
भोजन भूल
जाता है। असली
उपवास में
भोजन नहीं
होता ध्यान
में, परमात्मा
ध्यान में
होता है, लेकिन
परमात्मा
इतना ध्यान
में होता है
कि देह की सुध—बुध
भूल जाती है, उस दिन भोजन
की याद नहीं
आती यह उपवास।
तुम जब उपवास
करते हो तो
ठीक उल्टा ही
होता है।
तुम्हारे
उपवास को
उपवास नहीं
कहना चाहिए।
इसीलिए तो
हमारे पास
दूसरा शब्द है—अनशन।
अनशन करते हो
तुम, आज
भोजन नहीं लेंगे।
मगर
देखा है, जब
आदमी उपवास का
तय करता है, अनशन करने
चलता है तो
क्या करता है?
——कल भोजन
नहीं लेना है,
आज रात डट
कर ले लेता है।
कल तक की कमी
आज पूरी कर
लेता है। यह
कोई उपवास है?
और कल तुम
दिन—भर क्या
करोगे? तुम
सिर्फ भोजन की
ही याद करोगे।
और क्या करोगे?
भूखा आदमी
और करेगा क्या?
भूखे होने
से तुम
परमात्मा के
पास कैसे बैठ
सकोगे? परमात्मा
के पास बैठने
से कभी—कभी
भूल जाता है
भोजन, लेकिन
भोजन को छोड़ने
से कोई
परमात्मा के
पास नहीं
पहुँचता।
देखना कितनी
सीधी—सीधी बात
है और किस तरह
आदमी ने उल्टी
कर ली है। हाँ,
महावीर ने
उपवास किये थे,
क्योंकि
डूब गये ध्यान
में, अंतर्वास
हो गया, भीतर
पहुँच गये, बाहर की याद
न रही——दिन आया
कब, दिन
गया कब, कुछ
पता न चला, कब
सुबह हुई, कब
साँझ हुई,' कुछ
पता न चला ——डूबे
मस्ती में, भीतर, तो
डूबे ही रहे, मस्ती में
किसको पता चले
कब भूख लगी, कब प्यास
लगी, दिन
बीत गये——उपवास।
लेकिन
दूसरे जो
नकलची हैं, जो
अनुकरण
करनेवाले हैं,
उन्होंने
देखा कि
महावीर ने आज
भोजन नहीं किया——वे
बैठे हैं, वे
यही देखते
रहते हैं कि
कौन क्या नहीं
कर रहा है——आज
महावीर ने
भोजन नहीं
किया, और
महावीर बड़े
मस्त हो रहे
हैं, तो उन्होंने
निष्कर्ष
लिया कि भोजन
न करने से यह मस्ती
आ रही है। बस
यहीं तर्क की
भूल हो जाती
है। और ऐसा
लगता ऊपर से
कि ठीक मालूम
हो रहा है कि आज
महावीर मस्त
हैं और भोजन
नहीं किये हैं,
साफ है कि
भोजन न करने
से मस्ती ——का
रही है। चले
वे भी, उन्होंने
कहा——हम भी उपवास
करेंगे। ऐसी
मस्ती तो हमें
'भी चाहिए।
तुम उपवास कर
लोगे, मस्ती
तो नहीं आएगी,
थोड़ी—बहुत
रही होगी
गस्ती वह भी
चली जाएगी।
भूखा आदमी
क्या मस्त
होगा? खाक
मस्त होगा।
मस्ती से
उपवास आ सकता
है——उपवास गौण
है, मस्ती
प्रमुख है।
लेकिन उपवास
रो मस्ती नहीं
आ सकती।
महावीर
नग्न हो गये।
वह मस्ती में
घटी घटना थी।
इतने सरल हो
गये,
इतने निर्दोष
हो गये, जैसे
छोटा बच्चा
होता है, कब
वस्त्र गिर
गये, पता न
रहा। कब वृक्षों,
पशु—पक्षियों
जैसे हो गये, पता नहीं
रहा। इतने सहज,
इतने
स्वाभाविक, इतने नैसर्गिक,
इतने एकरस
हो गये जगत से! ——गिर
गये वस्त्र!
अगर ठीक से
समझो तो कोई
चेष्टा करके
इस तरह की
नग्नता नहीं
ला सकता।
क्योंकि
चेष्टा में तो
निर्दोष हो ही
नहीं पाओगे और
वही हो रहा है।
जैनमुनि नग्न
हो जाते हैं।
मगर बड़ी चेष्टा
से, पाँच
सीढ़ियाँ हैं।
कोई उनसे पूछे
महावीर ने कब
ये पाँच
सीढ़ियाँ पूरी
कीं? पाँच
सीढ़ियाँ हैं।
पहले इतने
वस्त्र रखो। वस्त्रों
में परिग्रह
कर लो, सीमित।
फिर लँगोटी
रखो। फिर एक
ही लँगोटी रखो।
फिर ऐसे धीरे—धीरे—धीरे—
धीरे अभ्यास
करते—करते—करते
एक दिन ऐसा
आएगा जब तुम
सारे वस्त्र
छोड़ दोगे। इसमें
करीब—करीब
जीवन लग जाता
है।
यह
अभ्यास से आयी
हुई नग्नता और
महावीर की निर्दोषता
से आयी हुई
नग्नता तुम
पर्यायवाची
समझते हो? तो
तुम बिल्कुल
अंधे हो।
महावीर को
नग्नता का
अनुभव हुआ। और
ये सज्जन जो
जैनमुनि बन कर
बैठ गये हैं, उनको सिर्फ
नंगेपन का
अनुभव हो रहा
है। ये बड़ी
अलग बात है।
महावीर ने दिगंबरत्व
जाना।
'
दिगंबर ' शब्द का
अर्थ प्यारा
है। इसका मतलब
होता है, आकाश
ही जिसका
वस्त्र हो गया।
और ये सज्जन
जो अभ्यास कर
रहे हैं, ये
सिकुड़े—सिकुड़े
बैठे हैं।
इन्होंने
अभ्यास कर
लिया, ये
सब सर्कसी हैं।
जैसे सर्कस
में एक अभ्यास
होता है, आदमी
कोशिश करके
अभ्यास कर
लेता है तो
लोग रस्सियों
पर चलना भी
सीख लेते हैं,
तो नग्नता
कोई कठिन बात
नहीं है।
तुम
कहते हो——मैं
साधु भी हो
चुका। जैसे
साधु कोई होने
की बात है। और
फिर ना भी हो
चुके। जैसे यह
कोई ऊपर से
ओढ़ने की चीज
है कि——ओढ ली, उतार
दी। जँची तो
ओढ़ ली, नहीं
जँची ती उतार
दी। साधुता
अतरात्मा है।
कैसे उतारोगे,
कैसे
चढाओगे? यह
—रंग ऐसा नहीं
है कि चढ़े तो
उतर जाए। यह
कोई कच्चा रंग
नहीं है। चढ़ता
है तो चढ़ता है।
हाँ, लेकिन
ऊपर से चढ़ा
लिया तो कितनी
देर खीचोगे! थोड़े—बहुत
दिन मे लगेगा,
भई, कुछ
सार तो हो
नहीं रहा है, साधु भी बन
कर बैठ गये
हैं। कहाँ है
मोक्ष
लक्ष्मी? जैन—शास्त्र
कह्ते है——जब
मोक्ष की
लक्ष्मी
मिलेगी। बैठे
हैं अब आँख
बंद किये, मगर
आंख बद नहीं
है, थोड़ी—थोड़ी
खुली है, देख
रहे हैं कि अब
मोक्ष
लक्ष्मी आती
होगी। अभी तक
नहीं आयी
मोक्ष
लक्ष्मी! कहाँ
हैं अप्सराएँ?
बैठे है आँख
बद किये, कितनी
देर से साधु
बने बैठे हैं
और सब शास्त्र
कहते हैं कि
जब साधु बन कर
जंगल में
बैठोगे तो अप्सराएँ
आएँगी और
नाचेगी, अभी
तक नहीं आयीं!
बड़ी देर लगा
रही हैं। कहाँ
है स्वर्ग का
सुख, अभी
तक कोई किरण
उतरी नहीं!
यह
साधुता है? तुम
व्यवसाय करने
चले। तुम
परमात्मा से
भी चीजें
खरीदने चले।
कुछ चीजें तो
कम—से—कम बजार
के बाहर छोड़ो!
कुछ चीजें
तो ऐसी रहने
दो जो खरीदी
नहीं जा सकतीं।
जिनके लिए
जीवन दाँव पर
लगाना होता है।
ये सारे पाठ
जो तुमने कल
तक सीखे थे, गलत थे।
तोतारटत थे।
तोतों को रटवा
देते हैं न।
राम जपो, तो
तोता राम ही
जपता रहता है।
रटे की बात है।
कोई तोते के
हृदय में थोड़े
ही राम होता
है।
मैंने
सुना है, एक
तोता एक पंडित
के पास था।
खूब राम—राम
जपता था। राम—
राम ही जपता
रहता था दिन—भर।
बड़ा भगत तोता
था। पड़ोस में
एक महिला रहती
थी, उसने
भी एक तोता
पाला। वह तोता
गालियाँ बकता
था। वह बड़ी
परेशान थी।
उसने पंडितजी
को पूछा कि
क्या करना? ये बड़ी
बेहूदी चीज
मैं घर ले आयी
हूँ। देखने
में सुंदर था
तो मैंने खरीद
लिया। और यह
गालियाँ बकता
है। और ऐसे
मौके पर बक
देता है, घर
में मेहमान आए
हों, फिर
यह नहीं
चूकेगा। यह
कुछ—न—कुछ बीच
में छेड़ देगा।
भद्द हो जाती
है। और मैं
इसको लारव
समझाती हँ राम—राम
जपो, वह
मुझे ही गाली
देता है। राम—राम
जपना तो दूर, मुँहफट जबाब
देता है। उस
पंडित ने कहा——तू
एक काम कर। यह
मेरा तोता बड़ा
भगत है, ऐसा
तोता मैने
नहीं देखा, सुबह
ब्रह्ममुहूर्त
में उठ आता है
और जो राम—राम
की गुहार
लगाता है! सारे
घर को जगा
देता है, पास—पड़ोस
के लोगों को
जगा देता है।
फिर उसकी
गुहार चलती ही
रहती है। यह
पिछले जन्म का
कोई बड़ा
पहुँचा हुआ
भगत है। तू ऐसा
कर, अपने
तोते को यहाँ
ले आ। सत्संग
का तो लाभ
होता है न!
उसको साथ रख
दे तो कुछ दिन
रह जाएँगे साथ
दोनों तोते, सत्संग से
सब ठीक हो
जाएगा, यह
बड़ा ज्ञानी है।
यह तेरे तोते
को सुधार देगा।
पंडित
का तोता तो नर
था और उस
महिला का तोता
मादा था। उनको
एक ही पिंजड़े
में रख दिया।
मादा तोते ने
दूसरे दिन
गाली नहीं दी।
लेकिन नर तोता
भी राम—राम
नहीं बोला।
पडित थोड़ा
हैरान हुआ।
उसने पूछताछ
की कि क्या
हुआ,
भगतजी क्या
हुआ? उसने
कहा——अब क्यों
राम—राम जपें?
इसीलिए तो
राम—राम जपते
थे, एक
मादा चाहिए थी।
और मादा से
कहा——तू क्यों
चुप है? उसने
कहा——इसीलिए
तो गालियाँ
बकते थे, एक
नर चाहिए था।
न तो राम—राम
जपने वाले को 'राम—राम से
कोई मतलब था, न गालियाँ
देनेवाले को
गालियाँ देने
से कोई मतलब
था। दोनों के
काम हल हो गये,
झंझट मिट
गयी, भगत
जी भगत जी न
रहे।
तुम
जब राम को
स्मरण करते हो
किसी
आकांक्षा से, तब
तुम झूठ हो।
जब तुम्हारे
भीतर कोई हेतु
होता है तब
तुम झूठ हो।
अहेतुक स्मरण
ही पूजा है, पाठ है, प्रार्थना
है। अहेतुक
स्मरण! किसी
और कारण से
नहीं, सिर्फ
मस्ती से।
परमात्मा से
और क्या कारण
जोड़ना है!
उसका नाम ही
पर्याप्त
आनंददायी है।
और फिर तुम
सीखे हुए शब्द
दोहरा रहे हो!
सीखे हुए
शब्दों को
जाने दो और जो तुमने
साधुता ली थी,
ले ली थी, वह भी लोभ
में ली होगी, कि चलो सब कर
के राव लिया, अब साधु हो
कर देख लें।
इस तरह के लोभ
में यहाँ मत
संन्यास ले लेना,
नहीं तो यह
अवसर भी
चूकोगे। यहाँ
तो संन्यास
मस्ती से आए, तो डूबना।
और इसी लोभ
में यहाँ
ध्यान मत करने
लगना नहीं तो
यहाँ भी
चूकोगे। यह
द्वार जो कि
खुला द्वार है,
यह भी
तुम्हारे लिए
बद ही रह
जाएगा। तुम पर
सब निर्भर है।
जल्दी मत करना,
पुरानी
आदतें बड़ी
मुश्किल से
जाती हैं। तुम
तो बैठना यहाँ,
ध्यान करने
वाले लोग
ध्यान करते हो,
नाचने वाले
लोग नाचते हों,
तुम बैठना।
तुम
प्रतीक्षा
करो जरा, जल्दी
मत करना। उठकर
नाचने मत लगना,
अन्यथा
तुम्हारा नाच
ऊपर—ऊपर होगा।
बैठो, गुनो,
सुनो, नाचने
वालों की
भावभगिमाएँ
देखो। और एक
घड़ी आएगी जरूर,
जब तुम
पाओगे कि भीतर
तुम्हारे कोई
नाच उठा, एक
तरंग उठी, एक
उमग उठी, एक
लहर उठी। उसी
लहर के नाच
में उठ पड़ना
और नाचना तब
तुम पहली दफा
अनुभव करोगे,
मैं किस
अनुभव की बात
कर रहा हूँ।
उस अनुभव को
अनुभव करोगे।
पूछते
हो—अब मैं
क्या करूँ? यहाँ
तो तुम
प्रतीक्षा
करो। सुनो
मुझे, समझो
मुझे, बैठो
यहाँ पास।
ध्यानी ध्यान
करते हों, उनके
पास बैठो।
यहाँ की मस्ती
को जरा
तुम्हारे
भीतर प्रवेश करने
दो। तुम जल्दी
न करो। करने
की जल्दी न
करो। तुम पहले
बहुत जल्दी कर
चुके हो और
उसीमें चूक
गये हो। इस
बार कुछ होने
दो, करना
नहीं है, होने
दो। इस बार
ध्यान हो तो
होने. देना, संन्यास हो
तो होने देना,
रोकना मत, बस। करना भी
मत, रोकना
भी मत। मुझे
मौका दो।
यह
एक
प्रयोगशाला
है। यहाँ सब
मौजूद किया जा
रहा है जो
तुम्हें रूपांतरित
कर सकता है, तुम
सिर्फ खुले
भाव से यहाँ
मौजूद रहो। बस,
तुम्हारा
खुला हृदय
चाहिए। इससे
ज्यादा की कोई
अपेक्षा नहीं।
खुले हृदय में
सब अपने से हो
जाता है।
दूसरा
प्रश्न:
भी संबद्ध
है। पूछा है——उपासना
यानी क्या?
जो
उपवास का अर्थ
है,
वही उपासना
का अर्थ है।
दोनों में जरा
भेद नहीं।
दोनों एक ही
शब्द के
निर्माण है।
उप वास, पास
बैठना, उप
आसना, पास
आसन लगाना।
तुम
जो समझते हो
उपवास का अर्थ
और उपासना का
अर्थ, वह मेरा
अर्थ नहीं।
गुरु के पास
बैठ जाना——उपासना।
सूरज ऊगता हो,
उस ऊगते
सूरज के पास
तल्लीन हो
जाना——उपासना।
पक्षी गीत
गाते हों, आँख
बंद करके उनके
गीतों में लीन
हो जाना, डूब
जाना——उपासना।
जहाँ कहीं
सौंदर्य, सत्य
और शिवम् का आविर्भाव
होता हो, वहीं
आसन मार कर
बैठ जाना, वहीं
अपने हृदय के
द्वार खोल
देना, निमंत्रण
दे देना
परमात्मा को
और प्रतीक्षा करना।
उपासना
निष्क्रिय
प्रतीक्षा है,
अनाक्रामक
प्रतीक्षा है।
चेष्टा शून्य
चेष्टा है।
उपासना
अद्भुत
कीमिया है।
तुम्हारी
चेष्टा से कुछ
चीजें नहीं
होंगी, नहीं
हो सकती हैं।
उन चीजों का
स्वभाव ऐसा है
कि वे चेष्टा
से नहीं हो
सकती हैं।
जैसे रात
तुम्हें नींद
नहीं आ रही हो
तो तुम जो भी
चेष्टा करोगे
उससे नींद आने
में बाधा पड़ेगी,
सहयोग नहीं
मिलेगा; क्योंकि
नींद चेष्टा
से आ ही नहीं
सकती। सब
चेष्टाएँ
नींद को
तोड़नेवाली
हैं। कोई
तुमसे कहता है
कि गिनो एक से
लेकर सौ तक गिनती,
फिर सौ से
लेकर नीचे की
तरफ उतरो एक
तक, फिर एक
से सौ तक जाओ, तुम रात भर
जाते रहोगे
ऊपर—नीचे, थोड़ी—बहुत
नींद भी जो
मालूम हो रही
थी वह भी गँवा
दोगे।
क्योंकि सौ तक
जाना, फिर
सौ से नीचे
उतरना, इसमें
तुम्हें और
जागरूकता की
जरूरत पड़ेगी।
यह तो ध्यान
का उपाय हुआ, नींद का
उपाय न हुआ।
यह तो ध्यान
की विधि है।
क्या
करोगे तुम?
तुम
जो भी करोगे
उसीसे बाधा
पडेगी, क्योंकि
कृत्य और
निद्रा में
विरोध है।
निद्रा कृत्य
से नहीं आती, क्रिया से
नहीं आती। तुम
तो पड़े रहो
बिस्तर पर
निढाल होकर, कुछ मत करो, पड़े रहो, जब
आना होगा आ
जाएगी, तुम्हारे
हाथ में नहीं
है, तुम
खींचतान कर
नींद को नहीं
ला सकोगे, तुम्हारी
मुट्ठी में
नहीं है।
तुम्हारी
पहुँच के बाहर
है। जब आती है
तब आती है।
हाँ, इतना
ही तुम कर
सकते हो कि
अपने को बचाओ
मत। अपने को
उस स्थिति में
छोड़ दो जहाँ
नींद तुम्हें
पकड़ सके। इसी
स्थिति को
पैदा करने के
लिए हम
व्यवस्था कर
रहे हैं।
क्या
है हमारी
व्यवस्था?
घर
में जो कमरा
सबसे ज्यादा
शांत होता है
उसमें आदमी
सोता है।
पर्दे खींच
देते हैं ताकि
अँधेरा हो जाए, अँधेरे
में नींद के
आगमन में
सुविधा होती
है। नींद बड़ी
संकोची है, रोशनी में
नहीं आती।
नींद जब
बिल्कुल
अँधेरा होता
है तब चुपचाप
आती है। जरा
भी शोरगुल हो
तो नहीं आती।
जब सन्नाटा हो
तब आती है।
फिर तुमने
बिस्तर पर
अपने को लिटा
दिया है——बिस्तर
भी हम ऐसा
बनाते हैं कि
सुविधापूर्ण
हो, क्योंकि
असुविधा रहे
कोई तो नींद
नहीं आती।
असुविधा में
मन जागा रहता
है। एक काँटा
गड़ रहा हो तो
मन जागा रहता
है। सिर में
दर्द हो तो मन
जागा रहता है।
तुम बिस्तर पर
लेट गये हो, कंबल ओढ़
लिया है, पर्दे
गिरा दिये हैं,
अँधेरा हो
गया, सन्नाटा
हो गया, कोई
शोरगुल नहीं,
दरवाजे—खिड़कियाँ
बंद कर दीं।
मगर ये कोई
नींद लाने के
उपाय नहीं हैं।
ये सिर्फ नींद
को आने की
सुविधा देना
है।
बस
ऐसी ही उपासना
भी है।
परमात्मा
लाया नहीं जा
सकता, आता है।
अपनी मर्जी से
आता है। आ ही
रहा है, सिर्फ
हम उपासना का
आयोजन नहीं कर
पाते।
जैसे
नींद का आयोजन
करते हो, ऐसे
ही उपासना का
आयोजन करो।
सिर्फ अपने को
छोड़ दो खाली, मुक्त, शांत,
निर्विचार,
शिथिल, एक
विराम पैदा हो
जाए।
फिर
कहाँ तुमने
अपने को छोड़ा, इससे
फर्क नहीं
पड़ता।
परमात्मा के
लिए कोई जगह
ऐसी नहीं जहाँ
वह न पहुँच
जाए। तो किसी
मंदिर—मस्जिद
में विशेषरूप
से जाने की
जरूरत नहीं है।
हाँ, मंदिर—मस्जिद
में जाने का
एक उपयोग हो
सकता है, अगर
और कहीं शांत
स्थान ही न
मिलता हो।
इसलिए मंदिर—मस्जिद
बनाए गये थे।
उनके बनाने का
एक ही आधार था
कि बजार है, भीड़भाड़ है, शांति नहीं
है, एक
स्थान, जहाँ
कोई जाकर शांत
हो जाए——जैसे
नींद का कमरा
होता है, ऐसे
ही उपासना का
एक भवन। वहाँ
लोग स्वच्छ
होकर जाएँगे,
ताजे होकर
जाएँगे, स्नान
करके जाएँगे,
शांति हगेई
वहाँ, बजार
की भीड़भाड़ न
होगी, लोग
जोर—जोर से
बात नहीं
करेंगे, वहाँ
ज्यादा
सुविधा होगी
कि कोई आदमी
विराम में ठहर
जाए, बैठ
जाए।
उपासना
यानी शांत
होकर बैठ जाना।
आसन मार दिया, बैठ
गये।
निमंत्रण दे
दिया कि प्रभु
तू आ। खींचतान
नहीं की जा
सकती। तुम
उसका आंचल पकड़
कर उसे खींच
नहीं सकते।
मगर इतना ही
हो जाए तो
काफी है, अपने—आप
आ जाता है।
आना ही चाहता
है। तुम जितने
आतुर हो, तुमसे
ज्यादा आतुर
परमात्मा है
तुमसे मिलने को।
तुम्हारी
आतुरता तो कुछ
भी नहीं है।
तुम्हारी
आतुरता तो बस
नाममात्र की
आतुरता है—कामचलाऊ
है, कुनकुनी
आतुरता है।
परमात्मा
प्रतिपल आतुर
है। सब तरफ से
तुम्हें घेर
लेना चाहता है,
तुम्हें
हृदय से लगा
लेना चाहता है,
मगर तुम
मौका नहीं
देते। और
तुम्हें हृदय
से भी लगा ले
तो तुम छूट—छूट
जाते हो।
सिर्फ
अपने को शिथिल
छोड़ो, शांत
छोड़ो—कहीं भी!
यह.. .ये पक्षी
बोल रहे हैं, किसी वृक्ष
के नीचे बैठ
कर शिथिल छोड़
दो। यह धूप
तुम्हारे सिर
पर पड़ती है, यह हवा का
झोंका आता है,
ये पक्षी
बोलते हैं, ये सब
परमात्मा का
ही आगमन है, ये उसकी
पगध्वनियाँ
हैं, ये
उसके ही इशारे
है।
उपासना
बड़ा प्यारा
शब्द है।
जापान में
ज़ाज़ेन का जो
अर्थ है, वही
उपासना का
अर्थ है, ज़ाज़ेन
का अर्थ है, बैठना और कुछ
न करना।
उपासना का भी
यही अर्थ है—बैठना
और कुछ न करना।
कृत्य के कारण
ही हमारे
चित्त में
चिंताएं पैदा
हो जाती है।
कृत्य के कारण
ऊहापोह शुरू
हो जाता है।
कृत्य के कारण
तरंगें उठने
लगती हैं। और
जब कुछ कृत्य
नहीं करना है,
सब तरंगें
शांत हो जाती
हैं।
तो
उपासना को तुम
कृत्य मत मानना, अकृत्य
है, चेष्टा
मत मानना, चेष्टा—
रहितता है। कुछ
पाने की वासना
नही है उपासना,
सिर्फ अपने
को हाथ में
छोड़ देना है
परमात्मा के।
जैसे कोई जल
की धार में
अपने को छोड़
दे। और जल की
धार उसे बहा
ले चले। ऐसे
जीवन की धार
में अपने को
छोड़ देने का
नाम उपासना है।
कुछ कहने की
भी बहुत जरूरत
नहीं है। कुछ
बोलने की भी
बहुत जरूरत
नहीं है। हाँ,
कभी—कभी बोल
सहज उठ जाए तो
उठने देना।
मगर सहज बोल!
और तुम चकित
होओगे यह बात
जानकर कि
जरूरी नहीं है
कि सहज बोल
में अर्थ हो।
कभी—कभी भीतर
से हो सकता है
सिर्फ नाद उठे।
जैसे तुमने
शास्त्रीय
संगीतज्ञों
को कभी आलाप
भरते देखा हो,
ऐसा नाद उठे।
ईसाइयों
में एक छोटा—सा
संप्रदाय है।
उनकी एक
प्रक्रिया है——ग्लासोलालिया।
बड़ी
महत्वपूर्ण
प्रक्रिया है।
उपासना जिसको
समझनी हो उसे
ग्लासोलालिया
समझनी चाहिए।
छोटा—सा
संप्रदाय, बहुत
थोड़े—से लोग
उसको मानने
वाले हैं।
क्योंकि वह
बड़ा पागलपन
जैसा मालूम
पड़ता है। उस
संप्रदाय को
माननेवाला
शांत बैठ जाता
है और
प्रतीक्षा
करता है। फिर
भीतर से कुछ
आवाज उठनी
शुरू होती है——भीतर
से, उठाता
नहीं। ऐसा
नहीं है कि
तुम उठाओ——राम—राम,
राम—राम या
ओम्— ओम्, कुछ
उठाता नहीं।
भीतर से
प्रतीक्षा
करता है कुछ
उठे——आssssआऽss,
कुछ भी उठे,
अनर्गल उठे,
उठने देता
है, बोलने
लगता है।
असंगत, अर्थहीन
ध्वनियाँ
पैदा होती हैं।
पागलपन लगेगा,
जो भी दूसरा
देखेगा वह
कहेगा——यह
क्या
प्रार्थना हो
रही है? तुम
पागल हो गये
हो? यह
हिंदू की
प्रार्थना है
कि मुसलमान की,
कि ईसाई की?
यह किसी की
भी नहीं है।
मैं
इसको देववाणी
कहता हूँ। यह
एक विशेष
ध्यान है। और
मस्ती छाने
लगती है। तुम
बोलते नहीं, तुमसे
कोई बोलता है।
तुम सिर्फ
माध्यम बन
जाते हो, आदमी
डोलने लगता है,
मस्ती से
भरने लगता है,
बड़ी मादकता
आ जाती है।
घंटों बीत
जाते हैं, पता
नहीं चलता कि
समय कहाँ गुजर
गया। मगर
सिर्फ एक
हिम्मत उसमें
रखनी पड़ती है
कि लोग पागल
समझेंगे। यह
सहज उद्घोष
होगा। लोग तो
पागल निश्चित
समझेंगे। लोग
तो समझेंगे
दिमाग गया। यह
क्या कर रहे
हो? मगर
अगर तुम एकांत
स्थान खोज सको
अपने लिए तो
मैं तुमसे
कहूँगा——यही
असली उपासना
है।
और
तुम चकित हो
जाओगे। एक
घंटे भर की
देववाणी के
बाद तुम ऐसे
पाओगे जैसे
नहाए जन्मों—जन्मों
के बाद। ऐसे
ताजे हो गये, हल्के
हो गये, जैसे
उड़ सको, पर
लग गये। जैसे
जमीन में कोई
कशिश न रही।
चलोगे और ऐसा
लगेगा कि तुममें
कोई भार नहीं।
मस्तिष्क
एकदम शांत हो
जाएगा। शांत
ही नहीं, शीतल
भी हो जाएगा।
एक भीतर
शीतलता घनी
होगी। तुम
पाओगे न मालम
कितना बोझ
मस्तिष्क से
गिर गया।
कितनी व्यर्थ
की बातें जो
सिर में चलती
थीं, नहीं
चल रही हैं आज।
आज भागदौड़
नहीं रहेगी।
आज तुम्हारे
प्रत्येक कदम
में एक
शालीनता होगी,
एक प्रसाद
होगा।
तुम
इसे करो और
देखो। इसको
मैं अनुभव
कहता हूँ। मैं
तुम्हें बता
नहीं सकता।
जैसे मैंने
कहा आsss आssss आ,
ऐसा मत करने
लगना, कि
मैंने कहा आssss आssss करना
है। जो हो, वही
होने देना।
कभी सार्थक
शब्द भी निकल
आएगा। कभी
निरर्थक शब्द
भी आएगा। मगर
तुम उसके
नियंता मत
होना। तुम उसे
गहरे अचेतन से
उठने देना।
पहले तो तुम
भी चौकोगे, जब उठेगा, तुम भी
डरोगे, एक
भय व्याप्त हो
जाएगा कि यह
क्या हो रहा
है। गये काम
से! यह बंद
होगा कि नहीं
फिर? इसको
चलने देना है
कि नहीं! यह
स्वाभाविक भय
है कि यह उठ
रहा है, हम
तो उठा नहीं
रहे, फिर
चलता ही रहा
कहीं! पत्नी
भी आकर सामने
खड़ी हो गयी और
यह नहीं रुका,
फिर क्या
करोगे? तो
आदमी दबाने की
कोशिश करता है।
उसके ऊपर बैठ
जाना चाहता है
दबाकर कि ऐसी
झंझट में पड़ना
ठीक नहीं है, यह तो
बिल्कुल
शुद्ध
विक्षिप्तता
है।
तुम
अपनी बहुत—सी
विक्षिप्तताओं
को दबाए बैठे
हो। उसीके
कारण तुम
विक्षिप्त हो, उन्हें
निकल जाने दो।
उरं—हें उड़
जाने दो हवा
में। उन्हें
मुक्त कर दो।
और तुम पाओगे
कि तुम्हारे
भीतर पहली बार
स्वास्थ्य का
अनुभव हुआ। एक
घंटा अगर कोई
सहज उपासना
में बैठ जाए, सिर्फ बैठा
रहे, कुछ
करे न और जो हो,
होने दे। तो
एक तो
ग्लासोलालिया
महत्वपूर्ण
प्रत्रि?या
है उपासना के
लिए। दूसरी
प्रकिया है
इंडोनेशिया
में——'लातिहान'। वह भी
महत्वपूर्ण
प्रकिया है।
ग्यासोलालिया
में ध्वनि आने
देने पर जोर है
और लातिहान
में मुद्राओं
को।
शांत
आदमी खड़ा हो
जाता है, लातिहान
में बैठता
नहीं खड़ा होता
है, ताकि
मुद्रा ठीक से
हो सके। सिर्फ
खड़ा रहता है
शांत। छोड़
देता है अपने
को परमात्मा
के हाथ में।
सब तरह से
शिथिल कर देता
है अपने को।
कह देता है——जो
तेरी मर्जी हो,
कर! अचानक
पाता है कि एक
हाथ ऊपर उठा..
.अपना ही हाथ ऊपर
उठते देखना——बिना
उठाए——घबड़ाने
वाला है..
.मुद्रा बनने
लगी, या
शरीर डोलने
लगा। जैसे बीन
बजने लगी और
साँप नाचने
लगा। नाच पैदा
हो जाता है, मुद्राएँ
बनती हैं, सिर
घूमने लगता है,
आदमी चक्कर
खाने लगता है——कुछ
भी हो सकता है,
सब कुछ संभव
है। कूदने
लगता है, फाँदने
लगता है, या
कभी कुछ भी न
हो, शांत
ही खड़ा रहे, कुछ भी न हो, वह भी हो
सकता है।
एक.
घंटे भर का
लातिहान और
तुम पाओगे
जैसे सारे
शरीर में जहाँ—जहाँ
ऊर्जा में
अवरोध थे, सब
पिघल कर बह
गये। एक घंटे
भर बाद तुम
पाओगे तुम्हारा
शरीर ठोस नहीं,
तरल है। एक
अद्भुत नृत्य
से गुजर गये।
मगर इसमें भी
लोग तुम्हें पागल
समझेंगे कि यह
क्या हो रहा
है।
इसीलिए
तो जो प्रयोग
यहाँ चल रहे
हैं,
उनको जो लोग
बाहर से देखने
आ जाते हैं वे
समझते हैं कि
सब पागलपन हो रहा
है; यह
क्या हो रहा
है? यह
कैसा ध्यान? यह कैसी
पूजा, यह
कैसी
प्रार्थना? क्योंकि
उनके पास बँधे
ढाँचे हैं। वे
उन्हीं
ढाँचों को
सोचकर आए हैं
कि कुछ ऐसा हो
रहा होगा; कि
बाबा
मुर्दानंद
बैठे होंगे और
अपनी माला फेर
रहे होंगे।
यहाँ कोई बाबा
मुर्दानंद
नहीं हैं। यहाँ
जीवन है, अपनी
पूरी तरंग में,
अपनी पूरी
मस्ती में, अपने पूरे
आल्हाद में।
लोग यहाँ सोच
कर आ जाते हैं
कि लोग बैठे
होंगे बिल्कुल
अपने झाडों के
नीचे, सूख—साखे,
जिनसे जीवन
जा चुका है, झरने सूख
गये हैं। ऐसे
लोगों को लोग
महात्मा कहते
हैं। और जब इन
महात्माओं के
चेहरे
बिल्कृउल
पीले पड़ जाते
हैं, पीतल
जैसे हो जाते
हैं, तो वे
कहते हैं——देखो
कैसी स्वर्ण
जैसी आभा
प्रगट हो रही
है! जब ये
महात्मा
बिल्कुल म्ख
कर हड्डी—हड्डी
हो जाते हैं, वे कहते हैं——यह
है त्याग, तपश्चर्या!
यह है महिमा!
तुम
खुद भी मूढ़ हो, तुम्हारी
मूढ़ता के कारण
तुम्हारे
महात्मा भी
मूढ़ हैं।
तुम्हारे
पीछे चल रहे
हैं। तुम जिस
बात की प्रशसा
करते हो, वही
करने लग जाते
हैं।
यहाँ
हम किसीकी
धारणाएँ
तृप्त करने को
नहीं हैं।
यहाँ तो हम
जीवन के
प्रयोग कर रहे
हैं। यहाँ तो
जो सहज
नैसर्गिक है, उसको
सुविधा दे रहे
हैं कि प्रगट
हो। उपासना का
मेरे लिए यही
अर्थ है——जो हो
होने देना, तुम तरल हो
जाना। तुम
कठपुतली हो
जाना। और सब
धागे उसके हाथ
में छोड़ देना।
वह नचाए तो
नाचना, वह
रुलाए तो रोना,
वह गवाए तो
गाना, वह
जो करवाए सो
करना। और वह
कुछ न करवाए, बिल्कुल बुत
बनाकर बिठाल
दे तो बुत बने
बैठे रहना।
अपनी तरफ से न
करना, इसे
मैं दोहराता
हूँ फिर—फिर, अपनी तरफ से
कुछ भी न करना।
क्योंकि तुम
इतने. धोखेबाज
हो कि तुम यह
सब काम अपनी
तरफ से कर
सकते हो।
लातिहान
में किसी के
हाथ—पाँव में
मुद्राएँ आ
रही हैं, अब
तुम खड़े देख
रहे हो, तुम
सोचते हो कि
यह मामला क्या
है, हम
क्यों खड़े हैं?
सब को कुछ—न—कुछ
हो रहा है, कोई
क्या कहेगा कि
इन्हें कुछ भी
नहीं हो रहा, तुम भी अपना
हाथ—पैर
हिलाने लगे, मटकाने लगे;
बस तुम चूक
गये। सबके
भीतर से
ध्वनियाँ उठ
रही हैं, तुमने
देखा कि हम ही
चुप बैठे हैं
तो बुध्दू मालूम
होते हैं, अब
जब पागलों के
साथ हो गये
हैं तो पागल
ही हो जाने
में सार है, तुम भी
उठाने लगे
ध्वनि; तुम
चूक गये। और
बाहर से
देखनेवालों
को दोनों
बातें एक—सी
मालूम पडूंगी,
क्योंकि
बाहर से कोई
भेद नहीं किया
जा सकता। कौन
अभिनय कर रहा
है, कौन
अनुभव कर रहा
है, इसका
बाहर से कुछ
भेद नहीं किया
जा सकता। मगर
तुम्हें अपने
भीतर तो साफ
पता चलता
रहेगा कि यह
अनुभव है या
अभिनय। अगर
अभिनय है, तत्क्षण
छोड़ दो। अभिनय
से कोई
परमात्मा तक न
पहुँचा है, न पहुँच
सकता है।
अनुभव से
पहुँचता है।
तीसरा
प्रश्न :
आंख को
निर्मल करने
का उपाय बताएँ।
चारों ओर राम
कैसे दिखायी
पड़े?
प्रियंवदा!
पूछा है तुमने
कि चारों ओर
राम कैसे
दिखायी पड़े!
राम की कोई
धारणा मत रखना
मन में कि खड़े
हैं
धन्रुर्धारी
राम! ऐसी
कल्पना लेकर
चली,
तो जल्दी ही
दिखायी पड़ने
लगेंगे, मगर
वह झूठे राम
हैं। राम से
धनुर्धारी
राम मत समझना,
जब भी मैं 'राम' शब्द
का उपयोग कर
रहा हूँ तो
परमात्मा के
लिए उपयोग कर
रहा हूँ, दशरथ
के बेटे राम
की तस्वीर अगर
तुम्हारे मन में
बैठ गयी, तो
तुम्हारी
कल्पना उस
तस्वीर में
रंग भरने लगेगी।
राम
दशरथ के बेटे
राम से पुराना
शब्द है——इसीलिए
तो उनको राम
का नाम दिया
गया था। वह
राम की एक
अभिव्यक्ति
हैं। जैसे
कृष्ण भी राम
की एक
अभिव्यक्ति
हैं। जैसे
क्राइस्ट भी
राम की एक
अभिव्यक्ति
हैं। तो पहला
तो काम यह
तुम्हारे मन
में साफ हो
जाना चाहिए कि
राम से मेरा
मतलब सिर्फ
परमात्मा से, अल्लाह
से।
राम
प्यारा शब्द
है। मगर राम
को धनुषबाण
इत्यादि लेकर
खड़ा मत कर देना।
थक गये होंगे, काफी
दिन हो गये
खड़े—खड़े। अब
उनसे कहो कि
धनुषबाण रखो,
आप विश्राम
में जाओ। कोई
रूप मत देना
राम को। रूप
दिया कि चूक
हो गयी। रूप
दिया कि खेल
मन का शुरू हो
जाता। आकार
दिया कि तुम
भटके। राम को
निराकार रहने
देना, पहली
बात। अगर सब
जगह राम को
देखना हो तो
निराकार रहने
देना। अगर
आकार दिया तो
फिर आकार में
ही देख सकोगे,
सब जगह न
देख सकोगे।
इसलिए जिसने
धनुर्धारी
राम को ही राम
मान लिया, वह
कृष्ण के
विपरीत हो
जाता है। वह
फिर कृष्ण को
नहीं मानता।
क्योंकि उसने
तो एक रूप पकड़
लिया। अब यह
कृष्ण तो
बिल्कुल
दूसरा रूप है।
यहाँ तो
बाँसुरी है, धनुष नहीं
है। फिर वह
क्राइस्ट को
कैसे माने! यह
तो और भी दूर की
बात हो गयी।
फिर वह
मुहम्मद को
कैसे माने? यह तो फासला
और लंबा होने
लगा। फिर वह
जकड़ गया। फिर
उसने एक धारणा
राम की बना ली,
फिर उसी
धारणा में
आबद्ध हो गया।
वह धारणा उसका
काराग्रह हो
गयी, उसकी
जंजीर हो गयी।
पहली
बात।
अगर
राम को सब जगह
देखना हो तो
कोई रूप मत
देना, रंग मत
देना। नहीं तो
वृक्ष में
कैसे देखोगे?
अब वृक्ष
विचारा मजबूर
है, धनुषबाण
उठा नहीं सकता।
मोर नाचेगा, कैसे देखोगे?
अब नाचे कि
धनुषबाण उठाए!
तो तुम
मुश्किल में पड़
गये। और जिस
राम ने
धनुषबाण
उठाया था, वह
कब के तिरोहित
हो चुके। अब
तो तुम्हें
मंदिर में ही
मिलेंगे वह; पत्थर की
मूर्ति में
मिलेंगे।
इसीलिए पत्थर
की मूर्ति
इतनी
महत्वपूर्ण
हो जाती है।
तुमने रूप तय
कर लिया, उस
रूप से मिलने
वाली चीज तो
पत्थर की
मूर्ति ही हो
सकती है।
क्योंकि मृति
भी तुम्हारी
बनायी हुई है
और रूप भी
तुम्हारा
बनाया हुआ है।
तुम झूठे राम
की धारणा में
बँधे, सब
धारणाएँ झूठी
हैं।
निर्धारणा
में राम का
अनुभव होता है।
तुम्हारा
प्रश्न है——आँख
को निर्मल
करने का उपाय
बताएँ। चारों
ओर राम कैसे
दिखायी पड़े? तो
पहला तो
निराकार का
भाव करो।
निराकार का
भाव करते ही
चारों ओर है
ही राम, दिखायी
पड़ने का सवाल
नहीं है। वही
है। उसके अति—
रिक्त कोई और
नहीं है। सारे
आकार उसके हैं।
निराकार का
मतलब होता शै——
सारे आकार
उसके हैं।
सारी
आकृतियाँ
उसकी हैं। तुम
भी वही हो।
शेष सब भी वही
है। मगर यह भी
सिद्धांत रहे
तो किसी काम
का नहीं है, अनुभव बनना
चाहिए। और
अनुभव के लिये
आँख निश्चित
साफ करनी
जरूरी है।
सरल
उपाय है आंख
को साफ कर
लेने का——प्रेम
से भरे हुए
आँसू। रोओ।
रोने से
प्यारी और कोई
प्रक्रिया
नहीं है। दुख
से मत रोना।
दुख से जो
रोता है उसने
तो रोने की
महिमा जानी ही
नहीं। आनंद से
रोना। आनंद—अश्रु!
आँख स्वच्छ
होने लगती है
आनंद के अश्रुओं
से। बाहर की
ही आँख शुद्ध
नहीं होती, भीतर
की आंख भी
शुद्ध हो जाती
है। दृग्रिg निर्मल हो
जाती है। नहीं
तो परमात्मा
सामने खड़ा
रहता है और
हमें दिखायी
नहीं पड़ रहा।
हमारी आँखों
पर इतनी धूल
जमी है।
यह कौनसा
मुकाम है, ऐं
जज्बे—आर्जू
वे सामने
हैं और नजर
बेकरार है
परमात्मा
सामने खड़ा है
और हम तलाश
रहे हैं। और
नजर बेकरार है
और हम पूछ रहे
हैं कहाँ है!
अक्सर तो ऐसा
हुआ है, तुमने
परमात्मा से
ही पूछा है है
कि कहाँ है? और किससे
पूछोगे? बतानेवाला
भी वही है।
कहाँ खोजोगे
उसे? ——खोजनेवाला
भी वही है।
आँख तो निर्मल
निश्चित होनी
चाहिए——प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। रोना
सीखो! रोना
बड़ी कला है।
सभी को नहीं
आती। पुरुष तो
बिल्कुल भूल
गये हैं।
उन्हें तो याद
ही नहीं रही।
उन्होंने तो
रोने की पूरी
प्रक्रिया का
दमन कर दिया
है। उनकी
आँखें तो जड़
हो गयी हैं, पथरीली हो
गयी हैं। उनकी
आंखों से रौनक
भी चली गयी है।
उनकी आँखें अंधी
हो गयी हैं।
उनकी आंखें
अहंकार से भर
गयी हैं। अहंकार
से भरने के
लिये
उन्होंने आंसुओं
से अपनी आँखों
को वंचित कर
लिया है।
क्योंकि अगर
आँसू बहते
रहें तो
अहंकार बह जाएगा।
इसलिए हम हर
बच्चे को
सिखाते हैं कि
तू मर्द है, रोना मत, रोने
का काम
स्त्रियाँ
करती हैं। तू
कोई लड़की नहीं
है, याद रख।
हम
छोटे—से—छोटे
बच्चे में जहर
भरने लगे अहंकार
का। हम उसे यह
कह रहे हैं कि
मर्द कुछ खास
बात है।
स्त्रियाँ
ठीक है रोती
रहें, इनका
क्या मूल्य
है! इनकी कौन
गिनती? रोने
दो रोना है तो।
अच्छा ही हैं
उलझी रहें काम
में अपने।
लेकिन तुम! तुम्हारे
उपर जिंदगी के
बड़े काम हैं।
रोना मत।
तुम्हें
जिंदगी में
लड़ाई लेनी है,
संघर्ष
लेना है, स्पर्धा
करनी है। रोने
से कहीं चलेगा?
ऐसे बीच
बाजार में खड़े
होकर रोने
लगोगे तो भद्द
हो जाएगी।
हारो तो भी
हँसना, टूटो
तो भी हँसना, मरो तो भी
हँसना, रोना
मत। यही मर्द
का लक्षण है।
टूट जाओ पर
झुकना मत।
और
रोना तो कैसे
शोभा देगा
अहंकारी को? अहंकार
के बड़े विपरीत
है रोना।
पुरुष को हमने
अहंकार
सिखाया है। और
उसका परिणाम
यह हुआ है कि
पुरुष की एक
क्षमता ही खो
गयी है। वह रो
ही नहीं पाता।
और तुम यह
जानकर चकित
होओगे कि
प्रकृति ने
कुछ भेद नहीं
किया है।
स्त्री की आँख
के पीछे उतनी
ही आंसू की
थैलियाँ हैं
जितनी पुरुष
की आँख के
पीछे। दोनों
में बराबर
आँसू की
क्षमता है।
इसलिए
प्रकृति ने
पुरुष को नहीं
रोना है ऐसा कोई
नियम नहीं
दिया है। अगर
ऐसा नियम.
दिया होता, तो पुरुष की
आँख के पीछे
आँसू की
ग्रंथियाँ ही
न होतीं।
स्त्रियों को
ही आँसू की
ग्रंथि दी
होती। जो चीज
जिसको देनी, उसको दी
होती। जैसे
पुरुष को
बच्चे पैदा
नहीं होते हैं
तो उसको गर्भ
नहीं दिया है।
स्ती को गर्भ
दिया है।
लेकिन पुरुष
की आँख में
उतनी ही आँसू
की ग्रंथियाँ
हैं जितनी
स्त्री की आंख
में। इसलिए
प्रकृति ने
चाहा था कि
दोनों रोएँ, दोनों रोने
की कला सीखें।
तो
पुरुष तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया है।
मनसविद
कहते हैं कि
मनुष्यों में
पुरुषों की पीड़ा
के बहुत
कारणों में एक
बुनियादी
कारण उनका न
रोना भी है।
रो ही नहीं
सकते। तो
हल्के नहीं हो
पाते। तुमने
कभी देखा है, तुम
रो लिये हो, हल्के हो
गये हो। कोई
भार बह जाता
है। दुनिया
में और दुगुने
पुरुष पागल
होते हैं स्त्रियों
की बजाय।
क्योंकि
स्त्रियाँ रो
लेती हैं और फुटकर—फुटकर
पागल' हो
लेती हैं।
चिल्लड़? जरा—सी
बात हुई, चिल्ला
ली, नाराज हो
ली, रो ली।
पुरुष थोक
पागल होता है।
इकट्ठा करता
जाता है, इकट्ठा
करता जाता है,
इकट्ठा
करता जाता है,
फिर एक घड़ी
आती है जहाँ
सँभालना
मुश्किल हो जाता
है। दुगुने
पुरुष पागल
होते हैं। और
दुगुने ही
पुरुष
आत्महत्या भी
करते हैं।
हालाँकि
स्त्रियाँ
धमकी बहुत
देती हैं, मगर
करतीं नहीं।
स्त्रियाँ
कहती हैं कि
हम मर जाएँगे,
ऐसा कर
लेंगे, वैसा
कर लेंगे, मगर
करतीं
इत्यादि नहीं।
कभी—कभी नींद
की गोलियाँ भी
ले लेती हैं
तो हिसाब से
लेती हैं कि
कहीं मर ही न
जाएँ।
स्त्रियों
में इतना
पागलपन
इकट्ठा नहीं
हो पाता, उनके
रोने के कारण।
लेकिन पुरुष
आत्महत्या कर
लेते हैं। और
आत्महत्या से
भी बड़ी भयंकर
बात पुरुष की
यह है कि
पुरुष पूरे
जीवन हत्या के
आयोजन करने में
लगा रहता है।
इसलिए इतने
युद्ध होते
हैं दुनिया
में। युद्ध
चलते ही रहते
हैं। कोई भी
बहाना मिल जाए
पुरुष को लड़ने
का, वह
चूकता नहीं।
बस मौका मिल
जाए मारने का,
कोई आडू मिल
जाए हत्या की
कि वह हत्या
करने में लग
जाता है। और
बड़े ऊँचे—ऊँचे
नाम देता है।
राष्ट्र के
लिए, मातृभूमि
के लिए, धर्म
के लिए, ??? धर्म
के लिए, इस्लाम
के लिए, बड़े
ऊँचे—ऊँचे
शब्द देता है,
मामला कुल'
इतना ही है
कि मारना है।
मारना है तो
ऐसे ही मारो, कि मारने के
लिए। कम—से—कम
सचाई तो रहेगी,
कि हमारा
दिल नहीं मान
रहा है अब, अब
हम किसी को
मारेंगे।
लेकिन मारना
एकदम, सीधा—
सीधा मारने
लगो एकदम तो
झंझट होती है।
पहले वह झंडा
ऊँचा रहे
हमारा, या
कुछ और उपाय
करता है। सारे
जहाँ से अच्छा
हिंदोस्तां
हमारा! तुम
पागल हो गये
हो। यही
भ्रांति सभी
को है। कोई
बहाना खोजो।
अच्छे—अच्छे
बहाने खोज लो,
मगर मतलब
पीछे एक है।
मतलब साफ हो——मारना
है। क्योंकि
अगर पुरुष न
मारे दूसरे को
तो फिर उसे
आत्महत्या की
सूझती है।
ख्याल
करना, दूसरे
को मारना और
अपने को मारने
में बुनियादी
फर्क नहीं है,
ये एक ही
ऊर्जा के दो
पहलू हैं। अगर
दूसरे को
मारने का मौका
मिल जाए तो
आदमी अपने को
नहीं मारता।
और अगर दूसरे
को मारने का
मौका मिले ही
न, मिले ही
न, मिले ही
न, तो जो
दूसरे को
मारने की
प्रक्रिया थी,
वह अपने पर
ही लौट आती है।
आदमी
आत्महंता हो
जाता है।
इसलिए तुम
जानकर चकित
होओगे कि जब
भी दुनिया में
बड़ा युद्ध
होता है, आत्महत्याओं
की संख्या
एकदम से गिर
जाती है। जब
पहले
महायुद्ध में
आत्महत्याओं
की संख्या
एकदम से गिर
गयी, तो
मनोवैज्ञानिक
भरोसा ही नहीं
कर सके कि युद्ध
से इसका क्या
संबंध! क्यूँ
ऐसा हुआ? और
दूसरे
महायुद्ध में
तो फिर और भी
जोर से गिरी।
तुम और भी
चकित होओगे
जानकर कि जब
युद्ध होता है
तो कम लोग
पागल होते हैं,
कम डाके
पड़ते हैं, कम
हत्याएँ होती
हैं, कम
अपराध होते
हैं। जरूरत ही
नहीं है और
अपराध करने की,
युद्ध इतना
बड़ा अपराध हो
रहा है। और
इतनी शान से
हो रहा है!
हत्याएँ इतनी
खुली चल रही
हैं, अब
अलग—अलग निजी—निजी
आयोजन क्या
करना, राष्ट्रीय
आयोजन हो रहे
हैं। बड़े
पैमाने पर काम
चल रहा है तो
अब छोटे—मोटे
काम क्या करने
हैं। समूह
काटे जा रहे
हैं, देश
के देश बरबाद
किये जा रहे
हैं, तो अब
इक्के— दुक्के
आदमी को क्या
मारना?
यह
दुनिया का एक
बड़ा
महत्वपूर्ण
राज है। जैसे
हिंदुस्तान
में उन्नीस सौ
सैंतालीस के पहले
हिंदू
मुसलमान लड़ते
थे। तो हिंदू
आपस में नहीं
लड़ते थे। लड़ने
का जब मजा
मुसलमान से ही
मिल गया तो अब
आपस में क्या
लड़ना? मुसलमान
आपस में नहीं
लड़ते थे। फिर
हिंदुस्तान
पाकिस्तान
बँटे। अब वह
मजा तो गया तो
हिंदू हिंदू
से लड़ने लगे।
मुसलमान
मुसलमान से
लड़ने लगे।
तुमने देखा, बँगलादेश और
पाकिस्तान
आपस में लड़
लिये।
मुसलमान
मुसलमान से लड़
गये। भयंकर
हत्या हुई। और
हिंदू छोटी—छोटी
बात पर लड़ते
हैं। यह जिला
महाराष्ट्र
में रहे कि
कर्नाटक में,
लड़ों, छूरे
भोंक दो।
हिंदी
राष्ट्रभाषा
हो कि न हो, छूरे
भोंक दो। छूरा
भोंको, कोई
भी बहाना लो!
भाषा इत्यादि
सब गौण बातें
हैं। दक्षिण
उत्तर का झगड़ा
है, भाषा
भाषा का झगड़ा
है।
जैसे—जैसे
बड़े झगड़े
मिटते जाते
हैं,
छोटे—छोटे
झगड़े फैलते
जाते हैं।
लेकिन मात्रा
आदमी के
उपद्रव की
उतनी ही रहती
है। ' टोटल,
'' सम टोटल ', वह जो पूरा
जोड़ है, वह
उतना—का—उतना
रहता है। बड़ा
झगड़ा खड़ा हो
जाए, छोटे
झगड़े एकदम बंद
हो जाते हैं।
तुमने देखा, चीन ने हमला
किया, फिर
गुजराती—मराठी
का कोई झगड़ा
नहीं। खतम! जब
चीन से ही
झगड़ा हो रहा
है तो अपने ही
आदमियों को
आसपास क्या
मारना!
हिंदुस्तान—पाकिस्तान
का झगड़ा हो
जाए तो
पाकिस्तान
इकट्ठा हो
जाता है। नहीं
हो झगड़ा तो
पाकिस्तान
में भीतर झगड़े
शुरू हो जाते है।
आदमी
आदमी से लड़ने
को उत्सुक है।
कहीं भी लड़ाई
चलनी ही चाहिए।
और इस सारी
लड़ाई के पीछे
एक बुनियादी
कारण है कि
हमने पुरुष को
अहंकार
सिखाया है। और
उसकी आंखों से
हमने आँसू छीन
लिये हैं।
आँसू विन्रम
करते हैं। और
आँसू पवित्र
करते हैं। आँसू
हल्का करते
हैं।
रोओ!
रोने की कला
सीखो! कभी—कभी
अकारण रोओ।
रोने के मजे
के लिए ही रोओ।
कभी शांत बैठ
जाओ और आने दो
आंसुओ को। तुम
सोचोगे ऐसे
कसे आ जाएँगे, कोई
कारण तो चाहिए,
ऐसे कैसे आ
जाएँगे? मैं
तुमसे कहता
हूँ तुम जरा
प्रतीक्षा तो
करो किसी दिन
बैठकर! तुम
चकित होओगे, आते हैं।
क्योंकि
कारण तो जिंदगी
भर रहे हैं, तुम
आंसू रोक कर
बैठे हो। कारण
तो कितने आए
और चले गये, तुम नहीं
रोए हो। और हर
बार आँसू भरे
थे और निकलना
चाहते थे।
उनके बाँध
तुमने बाँध
दिये हैं।
बाँध को टूटने
दो।
बैठो
और रोओ।
सौंदर्य को
देखो
परमात्मा के
और रोओ। संगीत
को सुनो
परमात्मा के और
रोओ। आह्लाद
में रोओ। रोओ
और नाचो।
नृत्य
तुम्हारे
शरीर को
पवित्र कर
जाएगा। आँसू
तुम्हारी
आँखों को
पवित्र कर
जाएँगे।
लेकिन लोग बडे
उल्टे करते
रहते हैं।
जब हँसने—हँसाने
के दिन थे हम
आठ पहर रोते
ही रहे
अब वक्त जो
आया रोने का
हम अश्क बहाना
भूल गये
इस दौरे—तलातुम
में 'वामिक'
कितने ही
सफीने खे डाले
और
अपनी शिकस्ता
किश्ती को
मौजों से
बचाना भूल गये
लोग
यहाँ दूसरों
को बचाने में
लगे रहते हैं
और खुद डूब
जाते हैं। न—मालूम
कितनों की
नावें बचा
लेते हैं और
यह भूल ही
जाते हैं कि
अपनी किश्ती
शिकस्ता होती
जा रही क्ष, टूटती
जा रही है —
डूबी, अब
डूबी, तब
डूबी। यहाँ
लोग दूसरों को
सलाह देते हैं
और अपनी ही सलाह
अपने काम में
नहीं लाते।
जब हँसने—हँसाने
के दिन थे हम
आठ पहर रोते
ही रहे
अब वक्त जो
आया रोने का
हम अश्क बहाना
भूल गये
तुम
पूछते हो —— आँख
को निर्मल
करने का उपाय!
तुम्हें खुद
ही ख्याल आ
जाना चाहिए था, उपाय
तो आँख के साथ
जुड़ा है——आँसू।
मगर शायद आँसू
की प्रक्रिया
भूल गयी होगी।
जिंदगी सख्त
कर गयी होगी, पथरीला कर
गयी होगी; हृदय
को सुखा गयी
होगी, रसधार
नहीं बहती
होगी। उस
रसधार को
उमगाओ। फिर से
बहने दो, आँसुओं
को आने दो, आंखों
को गीली होने
दो। आँखें
गीली होंगी तो
हृदय भी गीला
होगा। और गीला
हृदय
परमात्मा के
निकट हो जाता
है, सूखा
हृदय दूर हो
जाता है।
भक्त
ऐसे ही नहीं
रोए। समझ लिया
था उन्होंने
कि रोना भजन
की गहरी—से—
गहरी
प्रक्रिया है।
भाव जब भीग
जाते हैं, शब्द
क्या कहेंगे
जो आँसू कह
सकते हैं! और
तुमने ख्याल
किया है, जब
भी भाव अतिरेक
होता है तो आंसू
जरूर आते हैं,
फिर चाहे
भाव दुख का हो,
चाहे सुख का
हो, आनंद
का हो, कोई
भी भाव हो। जब
भी भाव अतिरेक
में हो जाता
है, जब
उसकी बाढ़ आती
है, तो आंसूओं
से बहता है।
संगीत
को सुनो और
रोओ। सूर्यास्त
को देखो और
बहने दो
आँसुओं को।
इस
अपूर्व जगत को
अनुभव करो। यह
हमारे होने का
विस्मय, यह
हमारा होना कितना
विस्मयपूर्ण
है! हमारे
होने की कोई
आवश्यकता
नहीं है, कोई
अनिवार्यता
नहीं है, हमारे
बिना दुनिया
बड़े मजे में
होती, कोई
अड़चन न आती।
यह हमारा होना
इतना बड़ा
चमत्कार है!
इस चमत्कार को
नहीं देखते और
क्षुद्र
चमत्कारों की
तलाश में रहते
हो——मदारियों
की तलाश में
रहते हो!
किसीने हाथ से
राख निकाल दी,
अहहss।
इतना बड़ा
चमत्कार हुआ
है कि तुम हो, चैतन्य है, प्रेम है, जीवन है! जो
नहीं होना चाहिए
था, कोई
कारण नहीं
जिसके होने का,
है। तुमने
कमाया नहीं है,
अर्जित
नहीं किया है,
यह
तुम्हारा हक
नहीं है, यह
तुम्हें भेंट
मिली है, यह
प्रसाद अनुग्रह
है। इस
अनुग्रह में
रोओ।
जवानी के
नग्मे हवाओं
ने गाये——मगर
तुम न आये
महकने लगे
मेरी जुल्फों
के साये——मगर
तुम न आये
सुनूँ
अपनी साँसों
में आहट
तुम्हारी
कहाँ जा
छुपी
मुस्कुराहट
तुम्हारी
खड़ी हूँ
मैं पलकों की
चिलमन उठाये——मगर
तुम न आये
इक टीस दिल
की सदा बन गयी
है
नजर हार कर
इल्तजा बन गयी
है
उम्मीदों
के लाखों दिये
झिलमिलाये——मगर
तुम न आये
कभी ले
लिया शामे—गम
का सहारा
कभी रो
दिये नाम लेकर
तुम्हारा
कभी हमने
राहों में
सज्दे बिछाये——मगर
तुम न आये
रोओ, रोना
सज्दा है।
कभी रो
दिये नाम लेकर
तुम्हारा
कभी हमने.
राहों में
नज्दे बिछाये——मगर
तुम न आये
रोओ, विरह
में रोओ, परमात्मा
नहीं मिला है
अब तक इसलिए
रोओ। और फिर
जब मिल जाए तो
इसलिए रोना कि
परमात्मा मिल
गया है। रोना
दोनों समय काम
आता है। जब
नहीं मिला तब
भी, और जब
मिल जाता है
तब भी।
डरो
मत;
भयभीत न होओ।
क्योंकि
मनुष्य जी रहा
है बुद्धि से
और बुद्धि के
आँकडूाएं की
पकड़ में आँसू
नहीं आते।
आँसू दूसरे ही
जगत से आते
हैं, उनका
बुद्धि से कुछ
संबंध नहीं है।
आँसू हृदय से
आते हैं।
इसलिए तुम
रोओगे तो
दूसरे
समझेंगे दुख
में हो, पीड़ा
में हो।
समझाएँगे, सांत्वना
देंगे। उनसे
कहना कि तुम
दुख के कारण
नहीं रो रहे
हो। क्योंकि
परमात्मा का
विरह भी बड़ा
आनंदपूर्ण है।
धन्यभागी हैं
वे जो उसके
विरह में जलते
हैं। क्योंकि
उन्हीं का
मिलन भी होगा।
उसकी याद में बितायी
गयी घड़ियाँ
कीमती घड़ियाँ
हैं। उसके
इंतजार में
बिताये पल
बहुमूल्य हैं।
कट तो गयी
है हिज की रात
कैसे कटी
यह और है बात
यूँ
आए वे रात ढले
जैसे जल
में ज्योत जले
आँख जिन्हें
टपका न सकी
सहरों में
वे अश्क ढले
विरह
की रात भी कट
जाती है। कैसे
कटी,
कहना
मुश्किल है।
शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता। सिर्फ आंसुओ
में ही गीत
उतरते हैं। और
विरह में जो
रोया है, जितना
रोया है, उतने
ही मिलन को
करीब बुला
लिया है। तुम
अगर समग्रभाव
से रो सको तो
इसी क्षण भी
मिलन हो सकता
है। परमात्मा
दूर नहीं है।
सामने ही खड़ा
है। मगर आँखें
धूल से भरी
हैं।
अगर
रो सको, तो
उससे सुंदर
फिर कुछ और
नहीं है। वही
तुम्हारी
उपासना। अगर न
रो सको, तो
फिर कुछ और
उपाय खोजने
पड़ेंगे। रोना
प्रेम की विधि
है। भक्ति की
विधि है। अगर
रोना न बन सके,
तो फिर
ध्यान करना
होगा। ध्यान
भक्तिशून्य
विधि है।
प्रेमरिक्त
विधि है। उसका
नंबर दो है
स्थान। प्रेम
से जो वंचित
ही हो गये हैं,
इस तरह
वंचित हो गये
हैं अब उन्हें
कुछ उपाय नहीं
सूझता, उनके
लिए ध्यान
विधि है।
लेकिन
अभी जिनका
हृदय प्रेम से
भरा है, उन्हें
ध्यान की
चिंता छोड़
देनी चाहिए।
मग्न होओ। कोई
अवसर न चूको
मान होने का।
और हजार अवसर
आते हैं रोज।
अवसर. आते ही
रहते हैं, तुम्हें
जरा पहचान आ
जानी चाहिए।
फूल खिला
बगिया में, नाचो, गाओ,
रोओ। पत्थरों
में फूल खिल
रहे हैं, चमत्कार
हो रहा है! ओस
की बूँद सरकने
लगी घास की
पत्ती पर, और
पूरा सूरज
उसमें चमक आया,
किरणें—
किरणें फूट
गयीं, इंद्रधनुष
रच गया उसके
आसपास, नाचो,
गाओ, रोओ।
तलाशोगे तो हर
घड़ी कुछ—न—कुछ
पा लोगे।
प्रकृति
परमात्मा से
भरी है, लबालब
भरी है। सागर
के गर्जन को
सुनो। उसके
गर्जन के साथ
आत्मसात हो जाओ।
जल्दी ही बादल
आते होंगे, बिजलियाँ चमकेगी,
आकाश
बादलों से
भरेगा, तुम
भी उन बादलों
के साथ आकाश
में तैरो, तिरो।
जरा संबंध
जोड्ने लगो
अपना
परमात्मा के
रहस्य— मय लोक
से। यही उसका
मंदिर है।
और
यहाँ बहुत बार
हँसी भी आएगी, रोना
भी आएगा। और
ऐसी घड़ियाँ भी
आएँगी जब आँसू
भी बहेंगे और
हँसी भी साथ
होगी।
खिलखिलाहट भी
फूटेगी और आँख
से आँसू भी
झरते होंगे।
और जब हँसी और
रोना साथ—साथ
घटते हैं तो
बड़ी
रहस्यपूर्ण
प्रतीति होती
है। बड़ी भाव
की दशा आ जाती
है।
अंतिम
प्रश्न :
ध्यान का
विश्वव्यापी
प्रचार व
प्रसार
अत्यंत जरूरी
हो गया है।
क्या संन्यास
का प्रचार भी
उतना ही
आवश्यक है?
चिन्मय!
ध्यान का
प्रचार और
प्रसार नहीं
करना होता।
प्रचार और
प्रसार से ही
तो सारी बातें
झूठी हो गयी
हैं। लोग तोते
हो गये हैं।
ध्यान का तो
सिर्फ आचार
करना होता है।
प्रचार और प्रसार
तो आचार के
पीछे छाया की
तरह चलते हैं।
मैं
तुमसे यह नहीं
कहता हूँ कि
तुम जाओ और
ध्यान का
प्रचार करो, मैं
तुमसे कहता
हूँ——जाओ और
ध्यान को जीओ।
जोर जीने पर
है। उस जीने
में जो
तुम्हें
मिलेगा, जो
गंध तुमसे
उठेगी, वही
अगर प्रचार बन
जाए तो बन जाए,
लेकिन चेष्टा
से कोई प्रचार
नहीं करना है।
नहीं तो अक्सर
यह हो जाता है
कि लोग भूल ही
जाते हैं कि
ध्यान करना है,
ध्यान का
प्रचार करने
में मजा लेने
लगते हैं। असल
में प्रचार
करना इतना
सस्ता और सरल
है, ध्यान
करना कठिन
मालूम होता है।
यह भूल ही
जाते हैं कि
अपना ध्यान
हुआ या नहीं
हुआ। दूसरे को
ज्ञान देने का
मजा ऐसा है।
क्योंकि
ज्ञान देने
में तुम्हारे
अहंकार की बड़ी
तृप्ति होती
है कि देखो, मैं ज्ञानी
और तुम
अज्ञानी। जब
भी तुम किसीको
ज्ञान देते हो,
तुम ज्ञानी
और वह अज्ञानी।
तो
लोग ध्यान के
प्रचार में लग
जाते हैं, ध्यान
के व्यवहार
में नहीं। यह
खतरा बहुत बार
हो गया है।
कितने ईसाई
मिसनरी हैं
दुनिया में!
दस लाख ईसाई
पादरी हैं
सारी दुनिया
में। ये भूल
ही गये कि
इनको
क्राइस्ट
होना हैं। ये
क्राइस्ट के
प्रचार में ही
लगे हैं। ये
भूल ही गये कि
क्राइस्ट को
भीतर बुलाना
है। फुर्सत
कहाँ? समय
कहाँ? प्रचार
से बचें तब!
फिर प्रचार के
बड़े—बड़े आयोजन
किये जाते हैं।
फिर प्रचार का
शास्त्र
निर्मित करना
होता है।
मुझे
एक बार
निमंत्रण
मिला एक ईसाई
कालेज में, जहाँ
वे पादरियों
को निष्णात
करते हैं।
जहाँ वे पादरी—पुरोहित
तैयार करते
हैं।
उन्होंने
मुझे धुमाकर दिखाया,
मैं देखकर
दंग हुआ। वहाँ
वे हर चीज
सिखाते हैं, छोटी—सें—छोटी
चीज सिखाते
हैं।
पाश्चात्य
ढंग तो हर चीज
के विस्तार
में जाता है।
हर चीज को
कुशल बनाता है।
तो मैंने एक
कमरे में देखा
कि पादरियों
को सिखाया जा
रहा है कि जब
वे बाइबिल के
इस वचन को पढ़ें,
तो किस शब्द
पर ज्यादा जोर
देना, किस
पर कम जोर
देना; किस
शब्द को जोर
से बोलना, किसको
धीरे बोलना, हाथ कब
उठाना, मुद्रा
कैसी प्रगट
करनी। ये भी
सिखाया जा रहा
है! अगर जीसस
के वचन को बोलते
समय तुम्हरे
चेहरे पर
प्रकाश नहीं
आता, तो ही
सिखाना पड़ेगा
यह कि जब जीसस
का यह वचन
बोलो तो
दिखावा करना
है।
मैंने
सुना है, ऐसी
ही किसी कक्षा
में शिक्षक
समझा रहा था
होने वाले
पादरियों को
कि जब तुम यह
वचन जीसस के पढ़ो,
तो
आह्नाहित हो
जाना। चेहरे
पर मुस्कान
फैल जाए, आँखें
चमक उठें। जब
तुम यह स्वर्ग
का वर्णन करो जो
ईश्वर के
राज्य का
वर्णन है..
.जीसस ने जगह—जगह
स्वर्ग के
राज्य का
वर्णन किया
है... जब तुम यह
वर्णन करो, तुम एकदम
अलौकिक
अवस्था में
पहुँच जाना।
भावदशा में आ
जाना, आखें
ऊपर चढ़ जाएँ।
और जब नरक का
वर्णन करें, एक पादरी ने
खड़े होकर पूछा,
तब? तब
तुम्हारा
साधारण चेहरा
जैसा है वैसा
ही काम दे
देगा। कुछ
करने की जरूरत
नहीं, यही
चेहरा ठीक है।
प्रचार
जब प्रमुख हो
जाए,
तो फिर ये
बातें
महत्वपूर्ण
हो जाती हैं।
फिर लोगों को
कैसे ईसाई
बनाया जाए, कैसे
आर्यसमाजी
बनाया जाए, कैसे यह
बनाया जाए, कैसे वह
बनाया जाए, लोग इसी
चिंता में
आतुर हो जाते
हैं।
नहीं, तुम
ख्याल रखना।
मिसनरी
मेरे लिए गदा
शब्द है। यहाँ
कोई मिसनरी न
बन जाए। बचना।
जीओ,
ध्यान को
जीओ। ध्यान
संक्रामक है।
अगर तुम ध्यान
को जीओगे तो
तुम अचानक
पाओगे कि लोग
तुमसे पूछने
लगे तुम्हें
क्या हो गया
है। अगर तुम
ध्यान को
जीओगे, तुम
पाओगे कि
लोगों के' पास
से गुजरते
वक्त लोग एक
क्षण गौर से
तुम्हें
देखते हैं——तुम्हें
क्या हो गया
है? तुम
कुछ भिन्न
मालूम होते हो।
तुम्हारे
आसपास की तरंग
भिन्न मालूम
होती है। तुम
किसी और लय
में आबद्ध
मालूम होते हो।
अगर लोग पूछें,
तो निवेदन
कर देना——प्रचार
नहीं।
क्योंकि
प्रचार में' तो यह
आकांक्षा
होती है कि
दूसरे को
जल्दी अपना
अनुयायी बना
लो। किसी भी
तरह समझा—बुझाकर,
लोभ—भय देकर,
उसे
अनुयायी बना
लो। नहीं, यह
कोई चेष्टा ही
मत करना। किसी
को अनुयायी
बनाने की कोई
जरूरत नहीं है।
तुम्हारा
आनंद अगर उसे
छू ले और वह
आतुर हो जाए, तो अपने
आनंद की विधि
उसे समझा देना।
प्रचार नहीं
है यह, सिर्फ
अपने आनंद में
उसे साझीदार
बना लेना। कोई
भी चेष्टा
जानी—अनजानी
ऐसी न हो
तुम्हारे
भीतर कि यह
मेरी विचारधारा
का हो जाए।
क्योंकि
ध्यान कोई
विचारधारा
नहीं है।
ध्यान तो
समस्त
विचारों से मुक्ति
है।
तुमने
पूछा है——ध्यान
का
विश्वव्यापी
प्रचार व
प्रसार अत्यंत
जरूरी हो गया
है। क्यों? तुम
सोचते हो पहले
आदमी को जरूरत
नहीं थी, आज
ही जरूरत हो
गयी है? ध्यान
की जरूरत तो
सदा से थी।
ध्यान की
जरूरत सदा है।
जैसे
स्वास्थ्य की जरूरत
सदा से थी।
ध्यान है क्या?
आध्यात्मिक
स्वास्थ्य, आंतरिक
स्वास्थ्य।
सदा से जरूरत
है।
हर
समाज, हर समय
अपनी सदी को
समझता है——बडी
महत्वपूर्ण, बड़ी
महत्वपूर्ण, ऐसी कोई सदी
नहीं थी! संकट
के दिन आ गये!
बडी क्रांति
हो रही है! मगर
तुमको पता है,
सदा से यही
भाव रहा है
लोगों को। जरा
किताबें
पुरानी उठाकर
देखो! हर सदी
में लोग यही
सोचते हैं कि
ऐसी सदी कभी
नहीं आयी थी।
बड़ा संकट, बड़ी
क्रांति!
मैने
तो सुना है कि जब
अदम को और हव्वा
को बहिश्त से
निकाला गया तो
जो पहले शब्द
अदम ने बोले
थे वे ये कहे
थे उसने कि हम
एक बहुत संकटकालीन
क्रांतिपूर्ण
समय से गुजर
रहे हैं। पहले
शब्द! पहले
मनुष्य ने! और
तब से आदमी यह
बोलता ही रहा
है। हर समय से
यही बोलता रहा
है। हर समय, हर
काल में यही
बोलता रहा है
कि बस!
आनेवाली पीढ़ियाँ
भी यही कहेंगी
जो तुम कह रहे
हो। आदमी की
जरूरत सदा एक
है। भिन्न
कैसे हो सकती
है? पौधों
को पहले जल
चाहिए था, अब
भी चाहिए।
आदमी को पहले
भी स्वास्थ्य
चाहिए था, अब
भी चाहिए। कल
भी चाहिए होगा।
कुछ बदल नहीं
गया है। आदमी
की बुनियादी
जरूरतें वही—की—वही
हैं और वही—की—कही
रहेंगी।
यह
भी हमारा
अहंकार है कि
हम अपने समय
को खूब बढ़ा—चढ़ाकर, अतिशयोक्ति
करके बताते
हैं। और हम
भूल ही जाते
हैं कि ये
अतिशयोक्तियाँ
सदा की गयी
हैं। जब हम
करते हैं तो
हमें याद नहीं
रहती। जब
दूसरे करते
हैं तो हमें
याद रहती है।
तब हमें लगने
लगता है कि ये
बढ़ी—चढ़ी बात
कर रहे हैं।
लेकिन सभी
अपने अहंकार
की तृप्ति के
लिए हर बात को
बढ़ा—चढ़ाकर
कहते हैं।
एक
माँ अपने बेटे
को कह रही थी, क्योंकि
उसके बेटे ने
आकर उससे कहा
कि —माँ ' माँ!
देख, खिड़की
के बाहर एक
सिंह चल रहा
है। उसकी माँ
ने कहा—— फिर
अतिशयोक्ति!
मुझे दिखायी
पड़ रहा है कि
बिल्ली जा रही
है, और मैं
तुझसे करोड़
बार कह चुकी
हूँ कि अतिशयोक्ति
मत कर, मगर
तू किये ही
चला जाता है।
करोड़ बार! अब
वह इन्हीं
माता जी की
शिक्षा का परिणाम
हैं। सुपुत्र
सिर्फ उन्हीं
के पीछे चल
रहे हैं।
डाँटा माँ ने
बहुत और कहा——जा,
ऊपर जा और
भगवान से
प्रार्थना कर
और माफी माँग
कि अब कभी
अतिशयोक्ति
नहीं करूँगा।
वह बेटा ऊपर
गया, थोड़ी
देर बाद वापिस
आया। माँ ने
कहा——माँगी
क्षमा? उसने
कहा—— मैंने
माँगी, लेकिन
भगवान ने कहा
कि पहले पहल
जब मैने भी बिल्ली
को देखा तो
मैंने भी समझा
कि सिंह आ रहा
है।
आदमी
अपनी
अतिशयोक्तियाँ
परमात्मा तक
फैला देता है।
आदमी अपने झूठ
परमात्मा तक
फैला देता है।
तुम
इसकी चिंता
में न पड़ो।
ध्यान सदा से
जरूरी है। सदा
जरूरी रहेगा, क्योंकि
आदमी सदा
चिंतित रहा है।
अब भी चिंतित
है। कुछ ऐसा
नहीं है कि अब
का आदमी कुछ
ज्यादा चिंतित
हो गया है। ये
सब
भ्रांतियाँ
हैं। इतनी ही
चिंता थी। चिंता
के कारण बदल
गये हैं। आज
से हजार साल
पहले निश्चित
ही कोई आदमी
रात में यह
नहीं सोचता था
चिंतित होकर
कि एक फियेट
गाड़ी खरीदनी
है। कैसे
चिंता करता, फियेट गाड़ी
होती ही नहीं
थी। तो हमको
लगता है कि
आदमी निश्चित
सोता होगा, क्योंकि
फियेट गाड़ी की
चिंता नहीं।
मगर छकड़ा
गाड़ी! क्या
फर्क पड़ता है?
छकड़ा गाड़ी
होनी चाहिए एक।
एक घोड़ा होना
चाहिए मेरे
पास शानदार!
तुम सोच रहे
हो कि एक
इम्पाला गाड़ी
हो, वह
आदमी सोचता था
कि एक घोड़ा हो।
रात उतनी ही
चिंता घोड़े से
हो जाती थी, जितनी
इम्पाला गाड़ी
से होती है।
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
तुम
सोचते हो गरीब
अमीर की चिंता
में कुछ फर्क
होते हैं? कोई
फर्क नqाईं
होते। चिंता
वही होती है, चिंता के
आधार अलग—अलग
होते हैं।
चिंता के कारण
अलग—अलग होते
हैं, चिंता
वही होती है।
सब
सदियों में
आदमी चिंतित
रहा है।
क्योंकि जब तक
ध्यान न फल
जाए तब तक
चिंता चलती ही
रहती है।
ध्यान फले तो
चिंता जाती है।
फिर घोड़े गये, छकड़ा
गाड़ी गयी, सब
गया। ध्यान
आया तो सारी
चिंताएँ गयीं।
अमीर ध्यान
करे तो
चिंताएँ चली
जाती हैं, गरीब
ध्यान करे तो
चिंताएँ चली
जाती हैं।
ध्यान चिंता—
मुक्ति है।
क्योंकि
विचार—मुक्ति
है। क्योंकि
मन—मुक्ति है।
ध्यान
का
विश्वव्यापी
प्रचार व
प्रसार अत्यत
जरूरी हो गया
है। चिन्मय, तुम
खतरनाक बात
पूछ रहे हो।
तुम कह रहे हो
कि करना
पड़ेगा! अत्यंत
जरूरी हो गया
है! लोगों को
बदल कर रखना
पड़ेगा! यही
चलता रहा है
इस दुनिया में।
जब इस्लाम आया
तो मुसलमानों
ने कहा कि
दुनिया को मुसलमान
बना कर रखना
पड़ेगा, इससे
कम में काम
नहीं चलेगा।
ख्याल रखना, उनकी भी बड़ी
अच्छी
आकांक्षा।
क्योंकि
इस्लाम के
बिना उद्धार
कहाँ? अज्ञानी
भटक रहे हैं—कोई
हिंदू है, कोई
ईसाई है, कोई
यहूदी है, इन
अज्ञानियों
को सबको
रास्ते पर
लाना है। जरा
उनकी करुणा तो
देखो! फिर अगर
ये रास्ते पर
अज्ञानी अपने—आप
नहीं आते तो
भी लाना तो है
ही। तो फिर
तलवार से भी
लाना पड़े तो
लाना है। उनकी
दया तो देखो!
तलवार तक
उठायी
अज्ञानियों
को ज्ञान के
रास्ते पर
लाने के लिए!
अगर जिंदा न
आओ तो मुर्दा,
मगर लाना तो
है। जरा उनकी
अनुकंपा का तो
ख्याल' करो!
पाकर ही रहना
है! अच्छी—अच्छी
बातों के पीछे
बड़े खतरनाक
इरादे छिप जाते
हैं।
इस्लाम
अच्छा, सुंदर
भाव है। मगर
तलवार उठा ली।
इस्लाम का
अर्थ होता ह—शाति।
शब्द का अर्थ
होता है, शांति।
और तलवार
उठायी शांति
में से। आदमी
ऐसा अद्भुत है।
ध्यान में से
तलवार उठा
सकता है, जब
शांति में से
उठा ली। करवा
के ही रहना है
ध्यान। जिंदा
करो तो जिंदा,
मुर्दा करो
तो मुर्दा, लेकिन ध्यान
तो करवा के ही
रहेंगे! जिंदा
कि मुर्दा, लेकिन
बदलाहट तो
करवानी है।
ईसाई भी इस
चिंता में लगे
हैं कि सारी
दुनिया को ईसाई
बना देना है।
क्योंकि जो
ईसाई नहीं
होगा वह नर्क
जाएगा। उनका
प्रेम तो
देखो! जरा
उनका प्रेम
परखो! क्योंकि
जो ईसाई नहीं,
वह नर्क
जाएगा।
स्वर्ग भेजने
का एक ही उपाय
है——ईसाई! एक ही
दरवाजा है। तो
जबरदस्ती भी
लेकिन भेजना
तो पड़ेगा ही।
तुम कितने ही
चिल्लाओ कि
मुझे नहीं
जाना है
स्वर्ग, वे
कहते हैं——हम
भेजेंगे।
अनिवार्य हो
गया है, सभी
को जाना पड़ेगा।
और जब स्वर्ग
भी अनिवार्य
हो जाता तो
नर्क हो जाता
है।
अनिवार्यता
में नर्क है।
स्वतंत्रता
में स्वर्ग है।
इस
भाषा में मत
सोचो कि
अत्यंत जरूरी
हो गया है, क्योंकि
इससे खतरा पैदा
होता है। तुससे
भीतर
तुम्हारे शह
भाव उठता है
कि जब अत्यंत
जरूरी हो गया,
अब सब दाँव
पर लगा दो। अब
आदमी को ध्यान
करवा के
रहेंगे।
मैं
एक संस्कृत
विद्यालय में
कुछ दिन
अध्यापक था।
जब पहले—पहल
वहाँ गया, संस्कृत
विद्यालय था,
पुराने
ढर्रे का सब
हिसाब था वहाँ
और संस्कृत
पढ़ने कोई जाता
तो है नहीं
आजकल, तो
सभी
विद्यार्थी
स्कॉलरशिप पर
थे।
स्कॉलरशिप की
वजह ही से
संस्कृत पढ़ने
आए थे, नहीं
तो कौन
संस्कृत पड़ता
है। किसलिए
पढ़ेगा? इसी
बहाने आ गये
थे कि सौ
रुपये महीने
स्कॉलरशिप
मिलती थी तो
भर्ती हो गये
थे। और जब
स्कॉलरशिप
मिलती हो तो
फिर उनसे जो
करवाना हो सो
करवाओ; नहीं
तो स्कॉलरशिप
कट जाए। तो
उनको तीन बजे
रात उठना पड़ता
था। पुरानी
व्यवस्था——
गुरुकुल की!
स्नान करो, प्रार्थना
करो, पूजा
करो। तीन बजे
रात, सर्दी
के दिन '... जब
मैं पहुँचा...
खुद
प्रिंसिपल
सोए रहते।
क्योंकि वह
कोई स्कॉलरशिप
वाले
विद्यार्थी
तो थे नहीं!
प्रोफेसर सब
सोC रहते।
मैं सिर्फ यह
देखने के लिए
उठा कि इन
विद्यार्थियों
पर क्या गुजर
रही है? वे
सब माँ—बहन की
गाली दे रहे——प्रिंसिपल
से लेकर
परमात्मा तक
को। क्योंकि
जब प्रार्थना
अनिवार्य हो
जाए और तीन
बजे उठकर
स्नान करना
पड़े, तो
कोई आसान
मामला है! और
मैं नया—नया
था, मुझे
वे पहचानते
नहीं थे, एक
ही दिन पहले
आया था, तो
मैं सब कुएँ
पर बैठ कर वे
जहाँ स्नान कर
रहे थे——संस्कृत
कालेज, तो
वहाँ कुएँ पर
स्नान करना
पड़े—पानी
डालते जा रहे
और गाली देते
जा रहे। मैं
सब सुना, मैं
बहुत प्रसन्न
हुआ। बिल्कुल
ठीक हो रहा है!
मैने
प्रिंसिपल को
कहा कि आप इन
विद्यार्थियों
को परमात्मा
का दुश्मन बना
रहे हैं। ये
एक दफे इस
कालेज से छूटे, तो
फिर भूलकर
परमात्मा का
नाम नहीं
लेंगे। ये
गालियाँ बकते
परमात्मा को।
ये जबरदस्ती
है। पर
उन्होंने कहा
कि प्रार्थना
तो सिखानी ही
पड़ेगी।
प्रार्थना तो
अच्छी चीज है।
मैने कहा——आप
कहाँ थे तीन
बजे? कहने
लगे——अब मैं
जरा, उम्र
भी मेरी हुई, और फिर काम
में भी देर लग
जाती है रात
में, मैं
तीन बजे उठूँ
तो जरा
मुश्किल है।
मैंने कहा—और
कोई प्रोफेसर
वहाँ नहीं था।
प्रार्थना
इन्हीं
बिचारे गरीब
विद्यार्थियों
के लिए——सब
गरीब
विद्यार्थी, स्कॉलरशिप
पर आए——इन्हीं
के लिए जरूरी
है? नहीं, उन्होंने
कहा कि आप ऐसा
कह रहे हैं, अधिक लोग तो
स्वेच्छा ही
से करते हैं।
तो मैंनें कहा——आप
ऐसा करें, आज
नोटिसबोर्ड
पर मैं लिख
देता हूँ कि
कल सुबह जिनको
स्वेच्छा से
करना हो वे
आएँ और जिनको
स्वेच्छा से न
करना हो वे न आएँ।
मैने
लिख दिया
बोर्ड पर। एक
भी
विद्यार्थी
नहीं आया। मैं
और प्रिसिपल, दोनों।
मैंने कहा——कहिये,
जनाब! कहाँ
गये
विद्यार्थी?
चीजें
थोपी गयी हैं
संसार पर। और
जिन्होंने
थोपी हैं, जरूरी
नहीं है कि
उन्होंने
बुरे कारणों
से. थोपी हों, कारण अच्छे
भी हो सकते
हैं, मगर
थोपना ही बुरा
है। तो न तो
कोई प्रसार
करना है, न
कोई प्रचार
करना है, सिर्फ
जीना है ध्यान
को। उस जीने
से किसीको
सुगंध मिले, कोई चल पड़े
तुम्हारे साथ
चल पड़े। मगर
यह गौण हो, यह
परोक्ष हो।
और
पूछा है——क्या
संन्यास .का
प्रचार भी
उतना ही
आवश्यक है? आवश्यक
किसी चीज का
प्रचार नहीं
है। प्रचार
अच्छी बात ही
नहीं है।
संन्यास का
कैसे प्रचार
करोगे? यही
तो हुआ, अभी
पहला जो मैंने
प्रश्न का
उत्तर दिया, जो सज्जन कहे
कि मैं साधु
हो गया था।
प्रचार में हो
गये होंगे।
प्रचार में
आदमी कुछ—का कुछ
हो जाता है।
आदमी प्रचार
से जीता है।
रोज—रोज
दोहराते रहो
कोई बात, लोगों
को लगने लगती
है अब करना
जरूर है।
तुम
रोज अखबार में
पढ़ते हो कि
नया टूथपेस्ट
आ गया बजार
में। पढ़ते
रहते, पढ़ते
रहते.. .पहली दफे
पढ़ते, तुमको
कुछ खास ध्यान
नहीं आता, निकल
गये, पढ़लिया।
फिर दूसरी दफे,
फिर तीसरी
दफे। जब दो
महीने के बाद
तुम पहुँचते
हो प्रकान पर,
टूथपेस्ट
खरीदने, तुम्हें
अचानक वही नाम
याद आता है जो
दो महीने से
मगर—बार तुम
पर दोहराया जा
रहा है।
रेडियो से भी——बिनाका!
अखबार में भी——बिनाका!
बाजार में भी——बिनाका!
सुंदरियाँ
खड़ी हैं जिनके
चेहरों से बिनाका
की सुगंध आ
रही है!
बिनाका
गीतमालाएँ चल
रही हैं? हर
तरफ।बनाका!
तुम्हारी
खोपड़ी में
बिनाका भर गया।
अब तुम कुछ भी
लाख उपाय करो,
बस बिनाका
ही निकलता है।
दुकान पर गये
कि बिनाका!
तुम सोचते हो
कि मैं अपनी
स्वेच्छा से
चुन रहा द्रूँ।
तुम नहीं चुन
रहे हो। यह
जबरदस्ती हो
गयी, यह
बड़ी सूक्ष्म
जबरदस्ती है।
ऐसे
ही लोग साधु
भी हो जाते
हैं,
संन्यासी
भी हो जाते
हैं; ध्यानी
भी हो जाते
हैं, पूजा—पाठी
भी हो जाते
हैं, मगर यह
सब झूठ है।
प्रचार
से नहीं!
तुम्हारे
जीवन की
ज्योति जले।
जो संन्यास
तुम्हारे
जीवन में आया
है,
इसकी मस्ती
किसी को अगर
मोह ले, तो
ठीक। बस इसकी
मस्ती किसीको
मोह ले तो ठीक।
कोई
आयोजन नहीं
करना है? बहुत
आयोजन हो चुके
मनुष्यजाति
के इतिहास में
आदमी को अच्छा
बनाने के, सब
असफल हो गये
हैं। अब कोई
आयोजन अच्छा
बनाने का मत
करना। आदमी
अच्छा है जैसा
है। तुम अगर
और इससे बेहतर
हो सकते हो तो
हो जाओ। बस
तुम्हारे
बेहतर हो जाने
से ही कोई
क्रांति की
प्रक्रिया
शुरू होती है,
शृंखला
शुरू होती है।
एक दीये से
दूसरा दीया जल
जाता है, दूसरे
से तीसरा दीया
जल जाता है।
और हम आशा कर
सकते हैं कि
अगर असली दीये
जलते रहेंगे
तो कभी यह
पूरी पृथ्वी
दीपमालिका बन
सकती है। मगर
जोर—जबरदस्ती
नहीं।
और
प्रचार जोर—जबरदस्ती
है। वह बड़ी
सूक्ष्म
प्रक्रिया है
लोगों के ऊपर
थोपने की।
नहीं, थोपना
नहीं——न ध्यान,
न संन्यास।
आविर्भाव
होने दो। अपने—आप
आने दो।
सहजस्फूर्त
जो है, वही
सुंदर है, वही
सत्य है, वही
शिव है।
आज
इतना ही।
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