दिनांक
15 जूलाई, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रशनसार—
पहला
प्रश्न:
मुझे
कैसे
प्रार्थना
करनी चाहिए? मैं
प्रार्थना करने
में जो कुछ
अनुभव करता है, मैं नहीं
जानता कि अपने
इस प्रेम की
मैं किस तरह
ठीक से
अभिव्यक्त
करूं?
प्रार्थना
कोई विधि नहीं
है, वह
कोई संस्कार
नहीं है, और
न वह कोई
औपचारिकता है।
यह हृदय का
सहज
स्वाभाविक
उमड़ता उद्रेक
है, इसलिए
यह पूछो ही मत—कैसे?
क्योंकि
यहां कैसे
जैसा कुछ है
ही नहीं, और
' न कैसे
जैसा ' कुछ
हो भी सकता है।
जिस क्षण जो
कुछ घटता है, वही ठीक है।
यदि आंसू
उमड़ते हैं तो
अच्छा है। यदि
तुम कोई गीत
गाने लगते हो
तो यह भी ठीक
है। यदि तुम
नाचने लगते हो,
तो भी ठीक
है। यदि अंदर
से कुछ भी
नहीं आ रहा है
और तुम बस शांत
खड़े रहते हो, तो यह भी ठीक
है। क्योंकि
प्रार्थना, कोई
अभिव्यक्ति
नहीं है, वह
किसी खोल या
आवरण में नहीं
है, वह उस
खोल या आवरण
में बंद उस
सारभूत तत्व
में है।
कभी
मौन ही
प्रार्थनापूर्ण
होता है, तो कभी गीत
गाना
प्रार्थना बन
जाता है। यह
सभी कुछ तुम
पर और
तुम्हारे
हृदय पर निर्भर
करता है।
इसलिए यदि मैं
तुमसे गीत
गाने के लिए
कहता हूं और
तुम गीत इसलिए
गाते हो
क्योंकि ऐसा
करने के लिए
मैंने तुमसे
कहा था, तब
वह प्रार्थना
शुरू से ही
नकली और झूठी
है। अपने हृदय
की सुनो, उस
क्षण को महसूस
करो और उसे
होने दो। और
फिर जो कुछ भी
होता है, वह
ठीक ही होता
है।
तुम्हारे
साथ कभी कुछ
भी नहीं घटेगा, लेकिन वह
तो निरंतर घट
ही रहा है, तुम
उसे घटने की
अनुमति तो दो,
उस पर तुम
अपनी इच्छा मत
लादो। जब तुम
पूछते हो—कैसे?
तो तुम अपनी
चाह थोपने की
कोशिश कर रहे
हो, तुम
कोई योजना
बनाने की
कोशिश कर रहे
हो। इसी तरह
तुम
प्रार्थना से
चूक जाते हो।
इसी कारण सभी
धर्मस्थल और
धर्म, संस्कार
और कर्मकांड
बन कर रह गए
हैं। उनकी एक
तय की गई
निश्चित
प्रार्थना है,
उसका एक
निश्चित रूप
है, एक
अधिकृत और
स्वीकृत किया
गया अनूदित
वर्णन है।
लेकिन कोई भी
व्यक्ति कैसे
प्रार्थना की
शब्दावली को
स्वीकृति
प्रदान कर
सकता है? कोई
भी व्यक्ति
कैसे उसका
अधिकृत वर्णन
तैयार कर
तुम्हें दे
सकता है? प्रार्थना
तो तुम्हारे
अंदर से उठती
और उमगती है, और प्रत्येक
क्षण में उसकी
अपनी
प्रार्थना होती
है, और
प्रत्येक
चित्तवृत्ति
में उसकी अपनी
निजी
प्रार्थना
होती है। यह
कोई भी नहीं
जानता कि
तुम्हारे
आतरिक संसार
में कल सुबह
क्या घटने जा
रहा है? उसे
कैसे निश्चित
और तय किया जा
सकता है?
एक
पहले से तैयार
की गई
प्रार्थना
झूठी और नकली
प्रार्थना है; यह तो
निश्चित रूप
से कहा जा
सकता है। एक
निर्धारित
विधि से तैयार
संस्कारित
प्रार्थना, प्रार्थना
ही नहीं है
उसके बाबत यह
पूरी तौर से
निश्चित रूप
से कहा जा
सकता है। एक
असंस्कारित, सहज
स्वाभाविक
भाव भरी
मुद्रा और कुछ
भी नहीं, एक
प्रार्थना ही
है।
कभी
तुम बहुत
उदासी का
अनुभव कर सकते
हो, क्योंकि
उदासी
परमात्मा से
ही सम्बंधित
है। उदासी भी
दिव्य होती है।
यहां हमेशा
प्रसन्न रहना
भी कोई जरूरी
नहीं है। तब
यह उदासी ही
तुम्हारी
प्रार्थना है।
तब तुम अपने
हृदय को रोने
और बिलखने दो,
और आंखों को
आंसू बरसाने
दो। तब इस
उदासी को ही
परमात्मा की
अर्पित कर दो।
वहां
तुम्हारे
हृदय में जो
कुछ भी हो, उसे
ही उन दिव्य
चरणों में
अर्पित कर दो—वह
प्रसन्नता हो
अथवा उदासी, और कभी—कभी
वह क्रोध या
आक्रोश भी हो
सकता है।
जब कभी
कोई परमात्मा
से नाराज भी
हो सकता है।
यदि तुम
परमात्मा से
नाराज नहीं हो
सकते, तो
तुमने प्रेम
को जाना ही
नहीं। जब कभी
कोई वास्तव
में एक गहरे
उन्माद में हो
सकता है। तब
अपने क्रोध को
ही अपनी
प्रार्थना बन
जाने दो। परमात्मा
से लड़ो—वह
तुम्हारा है
और तुम उसके
हो, और
प्रेम कोई
औपचारिकता
नहीं जानता।
प्रेम में सभी
तरह के संघर्ष
बने रह सकते
हैं। यदि
उसमें लड़ाई और
संघर्ष का
अस्तित्व न हो,
तब वह प्रेम
है ही नहीं।
इसलिए जब कभी
तुम्हें
प्रार्थना
करने जैसा कुछ
भी अनुभव न हो,
तो तुम उसे
ही अपनी
प्रार्थना
बना लो। तुम
परमात्मा से
कहो—’‘ जरा
ठहरो! देखो, मेरा मूड
ठीक नहीं है, और तुम जिस
तरह से यह सब
कुछ कर रहे हो,
यह कृत्य
तुम्हारी
प्रार्थना
करने योग्य नहीं
है।’’
लेकिन
तुम इसे अपने
हृदय का सहज
स्वाभाविक भावोद्वेग
बनने दो
परमात्मा
के साथ कभी भी
अप्रामाणिक
बनकर मत रहो, क्योंकि
यह तरीका उसके
साथ अस्तित्व
में बने रहने
का नहीं है।
यदि तुम
परमात्मा के
साथ ईमानदार
नहीं हो—यदि
गहरे में तो
तुम शिकायत कर
रहे हो और ऊपर
ही ऊपर
प्रार्थना कर
रहे हो? तब
परमात्मा
तुम्हारी
शिकायत की ओर
ही देखेगा, प्रार्थना
की ओर नहीं।
तुम झूठे बन
जाओगे। वह
सीधे
तुम्हारे
हृदय में देख
सकता है। तुम
किसे धोखा
देने अभी यह
क्षण समय का
भाग नहीं है?
की
कोशिश कर रहे
हो? तुम्हारे
चेहरे की
मुस्कान
परमात्मा को
धोखा नहीं दे
सकती, तुम्हारा
वास्तविक
सत्य वह जान
ही लेगा। केवल
वही तुम्हारे
सत्य को जान
सकता है, उसके
सामने झूठ
ठहरता ही नहीं।
इसलिए वहां
सत्य को ही
बने रहने दो।
तुम उसे केवल
अपना सत्य ही
भेंट करो और
कहो— आज मैं
तुमसे नाराज
हूं तुम्हारे
इस संसार से
नाराज हूं
तुम्हारे
द्वारा दिए इस
जीवन से नाराज
हूं। मैं
तुमसे घृणा
करता हूं। और
मैं तुम्हारी
प्रार्थना भी
नहीं कर सकता,
इसलिए
तुम्हें आज
मेरी
प्रार्थना के
बिना ही रहना
होगा। मैंने
अब तक बहुत
सहा है, अब
तुम सहो।
उससे
इसी तरह बात
करो जैसे कोई
अपने प्रेमी
या मित्र या
मां के साथ
बातचीत करता
है। उससे ऐसे
बात करो जैसे
कोई छोटे
बच्चे के साथ
बात सकता है।
मैं एक परिवार
के साथ ठहरा
हुआ था, और वहां मां
ने अपने छोटे
बच्चे को
प्रार्थना करने
का आदेश दिया।
वह बच्चा अभी
सोने के लिए
बिस्तरे पर
जाने के लिए
तैयार नहीं था
और वह कुछ देर
और मेरे पास रहना
चाहता था।
उसकी
प्रार्थना
करने में भी
कोई दिलचस्पी
नहीं थी।
लेकिन वह
परिवार बहुत
अधिक अनुशासन
प्रेमी था
इसलिए
उन्होंने
उससे कहा—’‘ अब
नौ बज गये हैं।
तुम सोने के
लिए जाओ, और
देखो, प्रार्थना
करना भूल मत
जाना।’’
मैं
देख सकता था
कि वह बहुत
नाराज था। वह
अपने कमरे में
गया। मैंने
केवल यह सुनने
के लिए ही, कि वह कैसी
प्रार्थना
करने जा रहा
है, उसका
चुपके से पीछा
गया। अंधेरे
में मैंने उसे
यह कहते हुए
सुना—’‘ हे
परमात्मा तू
बुरे लोगों को
अच्छा बना और
अच्छे लोगों
को बहुत अच्छा
''। वह
जानता था कि
उसके माता और
पिता अच्छे तो
हैं लेकिन वे
बहुत अधिक
अच्छे नहीं
हैं।
मैंने
एक अन्य दूसरे
बच्चे के बारे
में भी सुना
है। मैं एक
परिवार के साथ
एक अतिथि गृह
में ठहरा हुआ
था। पहली रात
बच्चे ने
प्रार्थना की।
वह बच्चा सोते
हुए हमेशा
मद्धिम
प्रकाश जलाये
रखता था, लेकिन उस
रात बिजली चले
जाने से गहन
अंधकार था।
उसके
प्रार्थना
प्रारम्भ
करते ही बिजली
चली गई थी। वह
बिस्तरे से
उठकर अपनी मां
से बोला—’‘ अब
मुझे फिर से
और अधिक
सावधानी से
प्रार्थना करनी
होगी क्योंकि
रात और अधिक
अंधेरी होती जा
रही है।’’ पहले
तो उसने
कामचलाऊ
औपचारिक
प्रार्थना की थी,
लेकिन अब
चूंकि रात
अंधरी हो गई
थी और वहां कोई
प्रकाश भी न
था, इसलिए
वह अधिक भयभीत
था। उसने कहा— ''
मुझे अब फिर
से प्रार्थना
करनी होगी।
मुझे फिर
बिस्तरे से
उठकर कहीं
अधिक सावधानी से
प्रार्थना
करनी होगी
क्योंकि अब
यहां कहीं
अधिक खतरा है।’’
एक
बच्चे बनकर ही
बच्चों की
प्रार्थनाएं
सुनो।
सभी
धर्म कहते हैं
कि परमात्मा
परमपिता है।
वास्तव में
जोर इस बात पर
होना चाहिए कि
मनुष्य एक
बच्चे की
भांति है। जब
हम परमात्मा
को परमपिता
कहते हैं तो
उसका असली
अर्थ यही है।
लेकिन हम लोग
यह भूल गए है—
परमात्मा
परमपिता है, लेकिन हम
लोग उसके
बच्चे नहीं
हैं। इसे भूल
जाओ कि वह
तुम्हारा
पिता है अथवा
नहीं, तुम
बस एक छोटे
बच्चे की
भांति हो जाओ—सहज,
स्वाभाविक
सच्चे और
प्रामाणिक।
मुझसे या किसी
दूसरे से भी
यह पूछो ही मत
कि प्रार्थना
कैसे की जाये?
क्षण को ही
यह तय करने दो,
यह क्षण ही
निर्णायक
होगा और उस
क्षण का सत्य ही
तुम्हारी
प्रार्थना
होनी चाहिए।
यही
मेरा उत्तर है
उस क्षण का
सत्य, वह
चाहे जो भी हो,
जैसा भी हो,
बिना शर्त
तुम्हारी
प्रार्थना बन
जाना चाहिए।
और एक बार उस
क्षण का सत्य
तुम्हारी
सम्पत्ति बन
जाता है, तुम
विकसित होना
शुरू हो जाओगे
और तुम तभी
प्रार्थना के
अतुलित
सौंदर्य को
जानोगे। तुम
पथ में
प्रविष्ट हो
चुके हो।
लेकिन यदि तुम
केवल एक ही
प्रार्थना एक
ही विधि से
दोहराते चले
जाओगे तब तुम
चूक जाओगे।
तुम पथ में
कभी प्रविष्ट
ही न हो सकोगे,
और तुम केवल
उससे बाहर ही
बने रहोगे।
दूसरा
प्रश्न:
प्यारे
भगवान! आपके
बुद्धत्व को
चुराने के लिए
मैं निरंतर प्रार्थनाएं
किए चले जाता
हूं! भगवान, कृपा
करके कम से कम
मुझे
आशीर्वाद दें
जिससे मेरी
प्रार्थना कहीं
अधिक सघन और
जीवंत हो जाये।
यह बहुत
सुंदर है। एक
शिष्य को अपने
सद्गुरु से
बहुत कुछ
चुराना चाहिए
क्योंकि यहां
थोड़ी सी ऐसी
चीजें हैं, जिन्हें
दिया नहीं जा
सकता; केवल
तुम उन्हें ले
सकते हो, मैं
उन्हें
तुम्हें दे
नहीं सकता। उन
वस्तुओं की
प्रकृति या
स्वभाव ही कुछ
ऐसी है कि
उन्हें दिया
नहीं जा सकता,
लेकिन तुम
उन्हें ले
सकते हो। एक
शिष्य को अपने
सद्गुरु से
काफी कुछ
चुराना होता
है। यह प्रश्न
बहुत
महत्त्वपूर्ण
है और मैं
तुम्हें
आशीर्वाद
देता हूं।
लेकिन
अकेली
प्रार्थना से
कुछ नहीं होने
का, क्योंकि
प्रार्थना का
सम्बंध एक
विशिष्ट मार्ग
से है और
बुद्धत्व का
मार्ग दूसरा
है।
प्रार्थना, भक्ति के पथ
का एक भाग है, और भक्त या
सूफी कहता है—’‘
मैं नहीं
चाहता किसी भी
तरह का बुद्धत्व।
मेरे मालिक!
मैं तो आपके
साथ निरंतर एक
हजार एक
जन्मों में, एक हजार एक
खेलों को एक
हजार एक
संसारों में खेलना
चाहता हूं।
मैं इस खेल या
लीला से बाहर
नहीं होना
चाहता, यह
लीला बहुत
सुंदर है, और
मैं इसी का एक
भाग बना रहना
चाहता हूं।
मेरे स्वामी
मुझे इस योग्य
बना, जिससे
मैं सदा अभी
और यहीं तेरे
साथ आख मिचौली
की लीला खेलता
रहूं।’’
प्रार्थना
एक प्रेमी का, भक्ति के
मार्ग का एक
भाग है। एक
प्रेमी, प्रेम
के बंधन को
प्रेम करता है,
वह किसी भी
तरह से उससे
बाहर आने का
प्रयास नहीं
करता। वास्तव
में उसकी केवल
यही
प्रार्थना है
कि उसे इस
योग्य समझा
जाना चाहिए कि
परमात्मा उसे
अपनी लीला में
निरंतर स्थान
देता रहे। वह
खेल, खेल
रहा है और खेल
बहुत सुंदर है।
वह उससे मुक्त
नहीं होना
चाहता।
बुद्धत्व
शब्द, ध्यान
मार्ग से
सम्बंध रखता
है। ध्यानी
कहता है—’‘ बस,
अब बहुत हो
चुका। मैं एक
लम्बी अवधि से
बंधन में बंधा
दुःख झेल रहा
हूं अब तो
मुझे मुक्त
करो।’’ वास्तव
में वह कुछ
मांग ही नहीं
सकता—क्योंकि
ध्यान के
मार्ग पर चलने
वाले व्यक्ति
के लिए
प्रार्थना भी
एक बन्धन है।
महावीर ने कभी
प्रार्थना
नहीं की।
बुद्ध ने कभी
प्रार्थना
नहीं की।
बुद्ध के लिए प्रार्थना
अर्थहीन थी
उन्होंने
उससे अलग रहने
के सारे
प्रयास किए।
इसलिए यदि तुम
बुद्धत्व
चाहते हो, तो
प्रार्थना
करना ही मत, क्योंकि
प्रार्थना एक
बंधन निर्मित
करेगी। यह
प्रेम का
शुद्धतम रूप
है। यह बंधन
बहुत सुंदर और
सुहाना है
लेकिन है बंधन
ही। यदि तुम
उस मार्ग का
चुनाव करते हो,
तब वह ठीक
है। लेकिन तब
उसके लिए
बुद्धत्व ठीक
शब्द नहीं
मैंने
सुना हैं.......?
एक
कुपित मां ने
अपने नवयुवा
पुत्र से पूछा—’‘ तुमने
मुझे बताया
क्यों नहीं कि
तुम मछली का शिकार
करने जाना
चाहते हो?''
उस
बच्चे ने
उत्तर दिया—’‘ क्योंकि
मैं बस
मछलियों के
शिकार के लिए
जाना चाहता था।’’
यदि तुम
वास्तव में
मछली मारने
जाना चाहते हो, तो पूछो
मत, जाओ।
पूछने से कोई
सहायता नहीं
मिलने वाली।
यदि तुम
बुद्धत्व को
उपलब्ध होना
चाहते हो, तब
तुम्हें बिलकुल
अकेले ही रहना
होगा। तब वहां
कोई परमात्मा
है ही नहीं; तब वहां कोई
भी ऐसा नहीं, जो तुम्हारी
सहायता कर सके।
क्योंकि यदि
तुम किसी की
सहायता चाहते
हो, तो वह
सहायता ही एक
बंधन बन
जायेगी। यदि
मैं तुम्हें
मुक्त होने
में सहायता
करता हूं तो
तुम मुझ पर
आश्रित होने
लगोगे। तब
बिना मेरे तुम
मुक्त होने
में समर्थ न
हो सकोगे। ध्यान
के मार्ग पर
सहायता करना
सम्भव नहीं है,
केवल संकेत
दिए जा सकते
हैं। बुद्ध ने
कहा है—’‘ बुद्ध
केवल मार्ग
दिखलाते हैं।
वे वास्तविक
विधि से कोई
सहायता नहीं
कर सकते।
तुम्हें
स्वयं ही अपने
पथ पर आगे
बढ़ना होगा, तुम्हें
अपना प्रकाश
स्वयं बनना
होगा।’’
मैंने
एक घटना के
बाबत सुना है:
मकान
मालिक ने
नसरूद्दीन से
कहा—’‘ मैं
कुछ दिनों के
लिए बाहर जा
रहा हूं और
मैं तुम्हारे
पास सभी
चाभियां छोड़े
जा रहा हूं।
इसमें मेरे
भण्डार गृह की
चाभी के साथ
मेरी सेफ और
रत्नजटित
आभूषणों के
बक्से की भी
चाभियां हैं।
मैं भलीभांति
जानता हूं कि
तुम्हारे
हाथों सब कुछ
सुरक्षित
रहेगा, लेकिन
वास्तव में
मैं आशा करता
हूं कि तुम
उन्हें छुओगे
नहीं।’’
जब
मकान मालिक
अपने सफर से
वापस आया तो
मुल्ला ने
उससे कहा— '' मेरे
मालिक! अब मैं
आपको छोड्कर
जाना चाहता हूं।
''आखिर
क्यों
नसरुद्दीन?''
'' क्योंकि
आप मुझ पर
विश्वास नहीं
करते।’’
'' यह
तुम कैसे कह
सकते हो, जब
मैं अपनी सभी
चाभियां ही
तुम्हारे पास
छोड़ कर गया।’’
'' यह
तो आपने किया
मेरे मालिक
लेकिन उनमें
से कोई भी
चाभी किसी
ताले में लगी
ही नहीं।’’
यदि तुम
वास्तव में
मुझसे
बुद्धत्व चुराना
चाहते हो, तो किसी भी
कुंजी से कोई
ताला खुलेगा
नहीं—इसलिए
नहीं कि मैं
तुम्हें गलत
कुंजियां दे रहा
हूं केवल
इसलिए क्योंकि
दरवाजा पहले
ही से खुला है
और वहां कोई
ताला है ही
नहीं...... और तुम
तालों की खोज
कर रहे हो, जबकि
ताले जैसी
किसी चीज का
अस्तित्व है
ही नहीं।
इसलिए तुम
कुंजी की वजह
से ताले की
खोज कर सकते
हो, और तुम
चूक जाओगे।
दरवाजा पहले
ही से खुला है,
तुम बस
मुझमें
प्रवेश करो और
' वह ' वहां
है। कोई भी
तुम्हारा
मार्ग रोक
नहीं रहा है।
लेकिन
इसमें
प्रार्थना
सहायक न होगी, केवल
ध्यान ही
सहायता करेगा।
ध्यान ही
तुम्हें
स्पष्ट रूप से
देखने की
क्षमता देगा।
महान
जादूगर हुडनी
के जीवन का एक
बहुत सुंदर प्रसंग
है। उसका पूरा
जीवन अत्यधिक
सफलता से बीता; और वह
चमत्कारों का
सफल व्यापारी
था। उसने बहुत
से ऐसे
चमत्कार किए
कि यदि वह
मनुष्यता को
ठगने वाला
व्यक्ति होता,
तो वह बहुत
आसानी से ठग
सकता था।
लेकिन वह एक
बहुत ईमानदार
व्यक्ति था।
वह कहा करता
था—’‘जो कुछ
मैं कर रहा
हूं वह और कुछ
नहीं बल्कि एक
कुशलता है; और उसमें
चमत्कार जैसा
और कुछ भी
नहीं।’’ किसी
भी जादूगर ने
कभी इतना नहीं
किया जितना अधिक
चमत्कार
हुडनी ने
दिखलाया।
उसकी शक्ति पर
विश्वास करना
लगभग असम्भव
था। उसे संसार
के लगभग सभी
अभी यह क्षण
समय का भाग नहीं
है?
कैदखानों
में बडी
सुरक्षा में
रखा गया, और कुछ ही
पलों में वह
उनसे बाहर
निकल आता था।
उसे जंजीरों,
हथकड़ियों, बेड़ियों में
ताले लगाकर
रखा जाता और
कुछ ही क्षणों
में वह बाहर आ
जाता। न
जंजीरें काम
करतीं और न
ताले। कुछ ऐसा
घटता कि वह
तुरंत मुक्त
हो जाता। उसे
मुक्त होने
में मिनिट भी
नहीं, बस
केवल कुछ
सेकिंड ही
लगते।
लेकिन
अपने पूरे
जीवन में केवल
एक बार वह
इटली में असफल
हुआ। वह रोम
के केंद्रीय
कारागार में
बंदी बनाकर रखा
गया और हजारों
लोग उसके बाहर
आने को देखने
के लिए इकट्ठे
हो गए। कई
मिनट गुजर गए
लेकिन उसके
बाहर आने का
कोई चिह्न न
दिखाई दिया।
लगभग आधा घंटा
गुजर गया और
लोगों में
बैचेनी बढ़नी
शुरू हो गई, क्योंकि
ऐसा आज तक कभी
भी नहीं हुआ
था।
''आखिर
हुआ क्या? क्या
वह पागल हो
गया, क्या
वह मर गया
अथवा हुआ क्या?
अथवा क्या
वह महान
जादूगार असफल
हो गया?
आखिर
एक घंटे बाद
वह पसीने से
तरबतर हंसता
हुआ बाहर आया।
लोगों ने उससे
पूछा—’‘ आखिर
आपको हुआ क्या?
एक घंटा? हम लोग तो
सोच रहे थे कि
कहीं आप पागल
तो नहीं हो
गये अथवा कहीं
मर तो नहीं गए?''
यहां तक कि
अधिकारी भी यह
सोच रहे थे कि
चलकर उसे देखा
जाये कि उसके
साथ हुआ क्या?
उसने
उत्तर दिया—’‘उन लोगों
ने मेरे साथ
चालाकी की।
दरवाजे में
ताला लगा ही
नहीं था। मेरी
सारी कुशलता
ताले को खोलने
की है और मैं यह
खोजने की
कोशिश कर रहा
था कि ताला है
कहां, पर
वहां कोई ताला
पड़ा ही न था। दरवाजे
पर ताला लगाया
ही नहीं गया
था, वह
पहले ही से
खुला हुआ था।
थक कर, चिंतित,
परेशान और
उलझन में डूबा
जब मैं गिर
पड़ा और दरवाजे
से ठोकर लगी
तो दरवाजा खुल
गया। इस तरह
मैं बाहर आया;
लेकिन
इसमें मेरी
कुशलता काम न
आई।’’
ठीक
यही मामला
मेरे साथ भी
है।
यही
प्रश्न बोधिधर्म
से भी पूछा
गया था; उसके पास
बहुत सी
कुंजियां थीं।
कोई भी कुंजी
किसी ताले में
लगती न थी, और
वह अधिक से
अधिक
कुंजियां
इकट्ठा ही
किये चले जाता
था।
प्रश्नकर्त्ता
बहुत हिसाब
किताब का चतुर
व्यक्ति है।
अब जब वे
कुंजियां
नहीं लग रही
हैं, वह
मुझसे
आशीर्वाद
मांग रहा है।
मेरे
आशीर्वाद तो
तुम सभी के
लिए हैं ही, तुम चाहे
उन्हें मांगो
अथवा नहीं, लेकिन यह
कुंजियां
किसी काम की
नहीं हैं। इन
सभी कुंजियों
को फेंक दो।
दरवाजा तो
खुला ही हुआ
है। कोई भी
तुम्हारा
रास्ता नहीं
रोक रहा।
लेकिन यदि तुम
बुद्धत्व खोज
रहे हो, तो उसका
मार्ग ध्यान
है। यदि
तुम्हें
शाश्वत लीला
की खोज है तो
बुद्धत्व की
भाषा में
सोचने की कोई
जरूरत ही नहीं
है।
यह
दोनों
निर्दिष्ट
करने वाले
मार्ग भिन्न हैं, पूरी तरह
एक दूसरे से
जुदा। लेकिन
अंतिम परिणाम
एक ही जैसा है।
भक्त या
प्रेमी, परमात्मा
की सुंदर लीला
का भाग बनकर
ही उस बोध को
प्राप्त करता
है, और
ध्यानी इस
लीला को बहुत
सुंदर पाता है
जब उसे
बुद्धत्व
घटता है।
लेकिन दोनों भिन्न
दिशाओं से
भिन्न
विधियों और
भिन्न
व्यवहार के
द्वारा वहां
पहुंचते हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति को
बहुत स्पष्ट
रूप से यह निर्णय
लेना होता है,
अन्यथा तुम
उलझन में पड़
जाओगे। प्रेम
अथवा ध्यान
बहुत
स्पष्टता से
चुन लेना है
और तब उस पथ पर
निष्ठा से थिर
हो जाना है।
अंतिम रूप से
जो दूसरे पथ
पर चलने से
घटित होता है,
वह तुम्हें
भी घटता है, इसलिए
परेशान होने
की जरा भी
जरूरत नहीं।
लेकिन यह
सर्वोच्च
शिखर पर
पहुंचने पर ही
घटता है। सभी
पथ, पर्वत
के शिखर पर
पहुंच कर मिल
जाते हैं, लेकिन
सभी मार्गों
पर अलग अलग
तरह से चलना
होता है।
तीसरा
प्रश्न:
पिछले
जन्य के अनुभवों
करे भ्रम और
पागलपन से
कैसे पहचाना
जाए?
इसकी कोई
आवश्यकता है
ही नहीं: जो सब
कुछ बीत गया
वह पूरा अतीत
ही एक भ्रम
अथवा माया है।
यहां अतीत और
भ्रम के बीच
कोई अंतर है
ही नहीं। जो
कुछ गुजर चुका, वह अब
सत्य रहा ही
नहीं। अब इस
बात को बहुत
गहराई से समझ
लेना है।
बीता
हुआ कल जा
चुका, वह
अब रहा ही
नहीं। अब एक
असली गुजर
जाने वाले कल
और एक
काल्पनिक कल
में अंतर क्या
रहा? उनमें
कोई भी अंतर
नहीं है
क्योंकि
दोनों का अस्तित्व
केवल
तुम्हारे मन
में है—वह
चाहे असली कल
हो या
काल्पनिक कल।
दोनों एक तरह
की कल्पनाएं
ही होंगे। एक
असली बीतने
वाले कल और
नकली कल में
क्या अंतर
होगा? उनमें
कोई भी अंतर
नहीं क्योंकि
दोनों ही नकली
हैं। इन दोनों
का अस्तित्व
नहीं क्योंकि
दोनों ही नकली
हैं। इन दोनों
का अस्तित्व
कहीं भी न
होकर केवल तुम्हारे
मन में है।
पूरा अतीत एक
भ्रम और छलावा
है, पूरा
भविष्य भी एक
भ्रम है, क्योंकि
वह अभी है ही
नहीं, और
इन दो के मध्य
वर्तमान है।
इसीलिए पूरब
में हम पूरे अस्तित्व
को एक भ्रम
अथवा माया
कहते हैं, क्योंकि
दो भ्रमों के
मध्य में
वास्तविक सत्य
का अस्तित्व
कैसे हो सकता है?
और आज भी कल
होने जा रहा
है, आज
निरंतर कल में
से गुजर रहा
है। वर्तमान
निरंतर अतीत
बनता जा रहा
है। लेकिन वास्तविक
सत्य, भ्रम
कैसे बन सकता
है? भविष्य,
अतीत में से
होकर गुजर रहा
है और वर्तमान
केवल उसके
गुजरने का एक
द्वार है, इसके
अतिरिक्त वह
कुछ भी नहीं
है। भविष्य भी
भ्रम है, अतीत
भी एक भ्रम है,
द्वार पर
केवल एक क्षण
के लिए चीजें
प्रकट होकर
असली होने
लगती हैं। यह
किस तरह का
सत्य हो सकता
है? यह भी
भ्रमपूर्ण है।
हिंदू कहते
हैं कि सब
केवल बाह्य
आकृति है, और
असली जैसा कुछ
भी नहीं है।
असली
और वास्तविक
वह होता है जो जीवित
रहे। असली
सत्य वह होता
है जो हमेशा
शाश्वत रूप से
यहां होता है।
सत्य वह होता
है जो समय के
पार हो। नकली
और झूठा वह
होता है जो
समय के अंदर
हो। अतीत, समय के
अंदर बंदी है।
वर्तमान को
झूठा और नकली
के रूप में
सोचना ही कठिन
होगा, लेकिन
शुरुआत अतीत
से करो। अतीत
को झूठा सोचना
बहुत सरल है, क्योंकि वह
घटा अथवा नहीं,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
हो सकता है
वह हुआ ही न हो।
वह केवल
तुम्हारे मन
में ही हो
सकता है, वह
केवल
तुम्हारा
विचार हो सकता
है कि वैसा कुछ
हुआ है। अतीत
के बारे में
झूठा या नकली
सोचना और ऐसा
ही भविष्य के
बारे में भी
सोचना बहुत
आसान है।
इन दो
के बीच ही में
वर्तमान का
संकरा सेतु है।
लेकिन दो नकली
वास्तविकताओं
के बीच असली
या प्रामाणिक
का अस्तित्व
कैसे हो सकता
है? मध्य
का भाग
प्रामाणिक और
सत्य कैसे हो
सकता है, जब
उसके दोनों
छोर असत्य और
नकली हैं, और
जबकि असली
सत्य भी
निरंतर भ्रम
और अवास्तविकता
में बदलता जा
रहा है? नहीं,
यह सभी कुछ
जो अनुभव किया
गया, वह एक
कल्पना है, वह एक
स्वप्न की
सामग्री है।
केवल अनुभव
करने वाला
व्यक्ति ही
सत्य है, केवल
देखने वाला ही
सच्चा है। जो
देखा गया वह
दृश्य एक सपना
है, उसका
दृष्टा, साक्षी
ही केवल सत्य
है।
मनुष्य
जाति के पूरे
इतिहास में
मनुष्य की चेतना
की महानतम
खोजों में से
यह एक महत्त्वपूर्ण
खोज है। इसके
मुकाबले कुछ
अन्य है ही
नहीं। अन्य
सभी खोजें
मात्र बचपने
जैसी चीजें
हैं। यह एक
खोज ही सभी
धर्मों की
आधारशिला है:
कि तुम हो—तुम
एक साक्षी की
भांति हो। एक
स्वप्न के
होने के लिए
भी स्वप्न
देखने वाले की
आवश्यकता
होती हे। एक
स्वप्न, एक स्वप्न
हो सकता है, लेकिन
स्वप्न देखने
वाला स्वप्न
नहीं हो सकता।
धोखा देने के
लिए भी, मुझे
तो अस्तित्व
में होना ही
होग, गलती
करने के लिए
भी, मेरी
या मैं की
जरूरत होगी ही।
बिना मेरे
गलती हो ही
नहीं सकती। यह
साक्षी ध्यान
ही की खोज है।
इसलिए
इस बारे में
फिक्र करो ही
मत, कि
भ्रमों और
पागलपन से
पिछले जन्मों
के अनुभवों को
कैसे पहचाना
जाए। इसमें
पहचानने जैसा
कुछ है ही
नहीं। इसकी
यहां कोई
आवश्यकता है
ही नहीं।
मैंने
सुना है:
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी को
पिछली रात को
देखे गये सपने
के अनुभव के
बारे में बता
रहा था—’‘ वह भयानक
स्वप्न था।
मैं जो के घर
में एक
जन्मदिवस
समारोह में
भाग ले रहा था।
जो की मां ने
तीन फीट ऊंची
एक चाकलेट पका
कर तैयार की
थी, और जब
उसने उसे
काटकर
प्रत्येक
व्यक्ति को उसका
एक—एक टुकड़ा
परोसा तो वह
इतना बड़ा था
कि पेट के नीचे
लटक रहा था।
तब उसने घर
में बनाई कुछ
आइसक्रीम
निकाली। वह भी
उसके पास इतनी
अधिक थी कि
उसने हममें से
प्रत्येक को
सूप का कटोरा
भर— भर कर दी।’’
उसकी
पत्नी ने पूछा—’‘ लेकिन इस
सपने में
भयानक जैसा
क्या है?''
नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया—’‘ ओह! मैं
उसे चख सकता
कि उससे पहले
ही मैं जाग गया।’’
अतीत से
हम निरंतर जाग
रहे हैं।
प्रत्येक
क्षण जागने का
ही क्षण है।
लेकिन हम
निरंतर
भविष्य की
नींद में
गाफिल हो जाते
हैं। इसलिए
प्रत्येक
क्षण नींद और
अंधकार में
फिर से ठोकर
लगने जैसा है।
इसलिए असली
योग्यता
जागने और सोने
के बीच भेद कर
पाना है। किसी
अन्य दूसरी
योग्यता का
कोई मूल्य ही
नहीं है।
इतने
अधिक जागृत
बनने का
प्रयास करो, कि तुम
फिर से गहरी
नींद में सो न
जाओ। इतने
अधिक सजग रहो
कि भविष्य को
तुम्हें फिर से
धोखा देने की
स्वीकृति न
देनी पड़े, जैसे
कि तुम उसे
पहले से देते
आये हो। जो
कुछ अतीत बन
चुका है, लेकिन
एक बार यदि वह
तुम्हारा
भविष्य है, तब तुम उससे
धोखा खाओगे।
अब वह भविष्य
अतीत बन चुका
है, और अब
दूसरा भविष्य
आ रहा है।
प्रत्येक
क्षण भविष्य आ
पहुंचता है और
भविष्य केवल
तुम्हें तभी
धोखा दे सकता
है, यदि
तुम सोये हुए
हो। तब फिर वह
अतीत हो
जायेगा। अब
मैं एक बात
तुमसे कहना
चाहता हूं :
यदि तुम सजग
बने रहे और
तुमने भविष्य
को धोखा देने
की वर्तमान में
अनुमति नहीं
दी, तो
अतीत
विसर्जित हो
जाता है। तब
उसकी कोई
स्मृति भी शेष
नहीं रह जाती,
और उसका कोई
चिन्ह तक नहीं
रह जाता। तब
कोई भी
व्यक्ति कोरी
स्लेट की तरह
हो जाता है, बिना बादलों
के एक आकाश की
भांति, एक
अरहित ज्योति
की भांति।
यही है
वह बुद्धत्व
की दशा—इतनी
अधिक सजगता कि
केवल साक्षी
ही सत्य हो और
अन्य दूसरी
कोई भी चीज न
हो, केवल
वह सतह पर
पानी की लहरों
की भांति हो।
प्रत्येक चीज
बस गुजर रही
है, सब कुछ
केवल बहा जा
रहा है। केवल
एक ही चीज रह
जाती है, और
वह रह जाती है—तुम्हारी
चेतना और
तुम्हारी
सजगता।
लेकिन
हम अतीत के
जाल में फंस
जाते हैं। जो
कुछ सामने से
गुजरता है, किसी भी
तरह उसमें से
कुछ मन में
बना रहता है।
वह गुजर जाता
है, वह वहां
ठहरता नहीं, लेकिन किसी
तरह मन उससे
बंध जाता है।
मैंने
सुना है.... एक
व्यक्ति ने
अपने ऊपर की
मंजिल के
एपार्टमेन्ट
से सीढ़ियों के
नीचे वाले
एपार्टमेन्ट
में खड़े
मुल्ला
नसरुद्दीन से
चीखते हुए कहा—
'' यदि
तुमने अपना
क्लेरीनेट
बजाना बंद
नहीं किया तो
मैं पागल हो
जाऊंगा।’’ नसरुद्दीन
ने उत्तर दिया—’‘
अब तो बहुत
देर हो चुकी
है। मैंने एक
घंटे पहले ही
उसे बजाना बंद
कर दिया था।’’
लोग
निरंतर उन
बातों के बारे
में परेशान
रहते हैं, जो लगभग
बीत चुकी होती
हैं अथवा गायब
हो जाती हैं।
अतीत ही
तुम्हें पागल
बनाता है। तुम
सोचे चले जाते
हो, तुम
अपने घावों को
उघाडते उनसे
खेलते रहते हो
और तुम बार—बार
अपने आप को
चोटिल बनाते
रहते हो। तुम
फिर—फिर अपने
अहंकार को
भोजन देते
रहते हो। ऐसा
प्रतीत होता
है जैसे अतीत
तुम्हारा
खजाना हो, लेकिन
वह और कुछ भी
नहीं, केवल
बुलबुला भर है,
हवा का एक बुलबुला।
और ऐसा ही
भविष्य भी है:
और इन दो के
मध्य वर्तमान
का क्षण है।
सजग रहो, जागरूक
बने रहो। किसी
अन्य तरह की
किसी योग्यता
का कोई भी महत्त्व
नहीं, केवल
एक ही योग्यता
महत्त्वपूर्ण
है, और वह
है सावधान
अथवा असावधान
बने रहने की।
अब मैं
तुमसे यह कह
सकता हूं यदि
तुम असावधान
रहे, तो
जो कुछ घटता
है वह
काल्पनिक है।
यदि तुम सजग
हो, तब जो
कुछ भी घटता
है वही सत्य
है। क्या तुम
अपने भूतकाल
में सजग थे? यदि तब तुम
सजग थे, तो
वही सत्य था।
क्या तुम ठीक
अभी भी सजग हो?
यदि तुम सजग
हो, तो जो
कुछ भी
तुम्हारे
सामने घट रहा
है, वही
सत्य है। क्या
तुम कल भी सजग
बने रहोगे? तब जो कुछ भी
घटेगा, वह
सत्य होगा।
इसलिए
वास्तविक
सत्य अथवा
असत्य के बारे
में भूल ही
जाओ' केवल
अधिक से अधिक
सजग बनने का
प्रयास करो।
सत्य
अथवा झूठ, इस
पदार्थगत
संसार के गुण
नहीं हैं, वे
वैयक्तिक
चेतना के गुण
हैं। बुद्ध के
लिए प्रत्येक
वस्तु सत्य है।
तुम्हारे लिए
जो गहरी नींद
में सोते हुए खर्राटे
भर रहे हो, प्रत्येक
वस्तु नकली और
झूठी है। जरा
इस तरह से भी
विचार करो:
तुम एक कमरे
में सो रहे हो
और दूसरा
व्यक्ति
तुम्हारे
सिरहाने सजग
और जागा हुआ
बैठा हुआ है।
कमरा वही है, दोनों ही
उसी कमरे में
हैं, एक ही
स्थान मे है।
एक गहरी नींद
में सो रहा है—है,
और दूसरा
सजग बैठा हुआ
है। क्या वे
एक ही कमरे
में है? क्या
वे दोनों एक
ही कमरे में
हो सकते है? क्योंकि एक
व्यक्ति जो सो
रहा है वह
स्वप्त देख
रहा है, वह
इस कमरे के अतिरिक्त
अन्य दूसरे एक
हजार एक कमरों
के स्वप्न देख
रहा है। क्या
तुमने कभी उसी
कमरे के बारे
में कोई स्वप्न
देखा है, जिसमें
तुम सो रहे हो?
नहीं, कभी
भी नहीं। एक
स्वप्न हमेशा
किसी और जगह
का होता है।
यही स्वप्न का
कार्य है कि
वह तुम्हें
कहीं अन्य
स्थान पर ले
जाए। जो
व्यक्ति सोया
हुआ है, वह
स्वप्न देख
रहा है। वह इस
कमरे के बारे
में और इस
कमरे की
वास्तविकता
के बारे में
सजग नहीं है।
उसके पास अपना
अलग काल्पनिक
सत्य है। वह
व्यक्ति जो उस
व्यक्ति की
बगल में सजग
बना बैठा है, उसकी सजगता
उसे पूरी तरह
से भिन्न एक
अलग गुण का
सत्य दे रही
है।
बुद्ध
एक गांव से
दूसरे गांव
में टहलते हुए
गतिशील रहते
थे और उनके
साथ उनका
शिष्य आनंद
रहता था, और दोनों दो
भिन्न
संसारों में
रहते थे। आनंद
सोया हुआ
स्वप्न देखता
हुआ चलता था
और बुद्ध बिना
स्वप्नों के
सदा जागे हुए
चलते थे। जब
तुम स्वप्न
नहीं देख रहे
हो, तुम
वास्तविक
सत्य का सामना
कर रहे हो। जब
तुम स्वप्न
देख रहे हो तो
तुम्हारा
केवल तुम्हारे
सजगता के लिए
फिर उसकी
कसौटी क्या है?
अधिक
से अधिक सजग
बनो, तो
संसार अधिक
सत्य बन जाता
है। और भी
अधिक सजग रहने
से संसार और
भी अधिक वास्तविक
और सत्य बन
जाता है। जब
तुम अपनी
चेतना के
सर्वोच्च
शिखर पर होते हो,
तो संसार
इतना अधिक
दीप्तिवान और
सत्य से आलोकित
हो उठता है कि
उसे पदार्थ
कहना भी कठिन
लगता है। ऐसा
व्यक्ति उसे
परमात्मा
कहता है, कुछ
और कहने से
काम चलता ही
नहीं।
वह एक
ऐसा
दीप्तिवान
सत्य और इतनी
शाश्वत वास्तविकता
होती है, कि ऐसे
व्यक्ति को
कहना ही होता
है कि समय जैसे
रुक गया है।
सत्य और
वास्तविकता न
तो अतीत होता
है, न
वर्तमान और न
भविष्य वह
केवल बस होता
है। वह यहीं
और अभी होता
है। अभी, यह
अब समय का भाग
नहीं है। केवल
बुद्धत्व को
उपलब्ध
व्यक्तियों
को ही उसका प्रयोग
करने की
अनुमति होनी
चाहिए
क्योंकि तुम्हारे
‘अब’ अभी
केवल यहां
नहीं है। तुम 'अब' को
क्या कहकर
पुकारोगे? जिस
क्षण तुम उसे ‘अब’ कहते
हो, वह
पहले ही अतीत
बन चुका होता
है। अथवा जिसे
तुम ‘अब’ या ‘अभी’ कहकर पुकारते
हो, पहले
वह अतीत बनता
है, और तब
भविष्य हो
जाता है। तुम
इतने अधिक
सोये हुए हो
कि जिस समय
तुम उस क्षण
को पकड़ने के
लिए आते हो, वह पहले ही
से जा चुका
होता है। वह
बहुत फिसलने
वाला होता है।
‘अभी’ केवल
तभी सम्भव है
जब तुम बहुत
अधिक सजग हो
और तुम्हारे
मन में एक भी
सपना न हो, विचार
की एक भी तरंग
न हो। तभी तुम
पूरी तरह
उपस्थित हो।
जब तुम
उपस्थित हो तो
सत्य भी
उपस्थित है।
जब तुम ‘अभी’
में हो, और
‘अभी’ शाश्वत
हो जाता है।
तब वह कभी भी न
आता है और न
जाता है, वह
बस वहां होता
है। तब कुछ भी
न आता है और न
जाता है।
बुद्ध
के महान शिष्य
बोधिधर्म कहा
करते थे—’‘ बुद्ध कभी
भी रहे ही
नहीं, वह
कभी उत्पन्न
ही नहीं हुए
वह पृथ्वी पर
कभी चले नहीं,
और न
उन्होंने कभी
भी कुछ कहा ही।
उनके एक शिष्य
ने उनसे कहा—’‘ जो कुछ आप कह
रहे हैं, वह
केवल असंगत
प्रतीत होता
है, क्योंकि
बुद्ध कपिलवस्तु
में एक राजा
के यहां
उत्पन्न हुए
उन्हें एक
विशिष्ट नारी
ने जन्म दिया।
उन्होंने
संसार का
त्याग किया।
ये तो सभी
ऐतिहासिक
तथ्य है, और
आप उनसे भी
इंकार किस चले
जाते हैं। और
आप स्वयं
उन्हीं बुद्ध
के अनुयायी
हैं। यदि वह
कभी भी हुए ही
नहीं, यदि
उनका कभी जन्म
ही नहीं हुआ, और वह कभी
पृथ्वी पर चले
ही नहीं, तब
आप किसका
अनुसरण करते
हैं?''
बोधिधर्म
ने उत्तर दिया—’‘ मैं उसका
अनुसरण करता
हूं जो कभी
उत्पन्न ही नहीं
हुआ, कभी
पृथ्वी पर चला
ही नहीं जिसने
कभी एक शब्द का
उच्चारण तक
नहीं किया और
जो कभी मरा ही
नहीं। मैं उसका
अनुसरण करता
हूं वही असली
बुद्ध है। और
अन्य सभी कुछ
जिसे तुम
इतिहास कहते
हो, वह और
कुछ भी नहीं, बल्कि वह
सोये हुए
लोगों के देखे
गये सपने हैं।’’
अब यह
बात समझने
जैसी है। मैं
तुमसे बातचीत
कर रहा हूं यह
एक तथ्य है।
मैं तुमसे बात
कर रहा हूं
तुम मुझे सुने
रहे हो, लेकिन फिर
भी बोधिधर्म बिलकुल
ठीक कहता है:
यह अभी भी एक
स्वप्न हैं
क्योंकि तुम
जागे हुए नहीं
हो। यदि तुम
जाग गए हो तो
तुम समझोगे कि
मैंने एक शब्द
का भी उच्चारण
नहीं किया।
तब तुम
पूरी तरह
भिन्न सत्य को
देख सकोगे, जहां
शब्दों का
उच्चारण नहीं
किया जाता, जहां मौन का
साम्राज्य है,
जहां
शब्दरहित
सत्य का
साक्षात्कार
होता है। यदि
तुम जागे हुए
हो, तो तुम
मुझे प्रयास
रूप से समझ
सकोगे और तुम
समग्र घिरता
को देख सकोगे,
लेकिन यह
तुम्हारे मौन
पर निर्भर
करेगा, यह
तुम्हारी
स्वप्नविहीन
चित्त दशा पर
निर्भर करेगा,
यह तुम्हारे
जागरण पर
निर्भर करेगा।
तब तुम समझ
सकोगे कि
तुम्हारे
सामने जो
व्यक्ति बैठा
हुआ है, वह
वास्तविक
व्यक्ति नहीं
है। तब वह कोई
अन्य है, उसमें
कुछ चीज ऐसी
है जो सभी से
पूरे तरह अलग
है, जो
पूर्ण रूप से
जुदा है, तब
यह सत्य
तुम्हारे आगे
उद्घाटित
होगा।
यही
इसका अर्थ है, जब हम
बुद्ध को
भगवान कहते
हैं। यह
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए
वास्तविकता
और सत्य नहीं
है, बल्कि
यह सत्य केवल
उनके लिए है, जो सजग हो
गये हैं: वे
उसे पहचानते
हैं। जब हम
जीसस को
परमात्मा का
पुत्र कहते
हैं, तो
यही उसका अर्थ
होता है। यह
सत्य सभी के
सामने उद्घाटित
नहीं हुआ, क्योंकि
प्रत्येक यही
जानता था कि
यह व्यक्ति और
कोई भी नहीं, बल्कि जोसेफ
नाम के बढ़ई का
बेटा है, और
जो केवल
व्यर्थ का
दावा कर रहा
था कि वह परमात्मा
का पुत्र है।
लेकिन जो लोग
उनसे प्रेम
करते थे, जो
लोग अत्यधिक
सजग और सचेत
थे, उनकी
इस वास्तविकता
के बारे में, कि जोसेफ
बढ़ई का पुत्र
इस सपनों के
झूठे संसार की
केवल छाया भर
था और उनका
परमात्मा का
पुत्र होना ही
वास्तविक
सत्य था।
लेकिन तुम इस
सत्य को केवल
उसी सीमा तक
समझ सकते हो, जहां तक तुम
स्वयं
प्रामाणिक
हुए हो। इससे
अधिक तुम और
कुछ भी नहीं
कर सकते।
तथ्य, सत्य
नहीं होते।
कोई भी
व्यक्ति तथ्य
तो हो सकता है
पर हो सकता है
वह सत्य न हो, और कोई भी
व्यक्ति सत्य
हो सकता है, पर तथ्य
नहीं। यह शब्द,
तथ्य, लेटिन
भाषा के मूल
शब्द से निकला
है, जिसका
अर्थ होता है—करना।
यह सुंदर शब्द
है। तथ्य वह
होता है जिसके
बारे में तुम
कुछ भी चीज कर
सकते हो।
लेकिन हमारा
करना और कुछ
भी नहीं, बल्कि
सपने देखने
जैसा है। तुम
अपने सपने में
भी बहुत सी
चीजें या काम
कर सकते हो, वे तथ्य हैं।
तुम अपने सपने
के साथ इतने
अधिक आवेश में
आ जाते हो कि
कभी—कभी जब
तुम कोई भयानक
सपना देखते हो
और तब जागने
पर भी तुम फिर
भी कांपते
रहते हो, और
पसीने से
तरबतर होते हो।
भय वहां तब भी
बना ही रहता
है, हृदय
तेजी से धड़कता
रहता है। अब
तुम यह जानते
हो कि वह एक
स्वप्न था, अब तुम यह
जानते हो कि
वह एक बुरा
सपना था और उस बारे
में चिंता
करने की कोई
भी जरूरत नहीं,
लेकिन फिर
भी तुम कांपते
रहते हो। सपना
तुम्हें इतना
अधिक
प्रभावित
करता है कि वह
तुम्हारी
वास्तविकता, तुम्हारे
शरीर और
तुम्हारे मन
में गहरे पैबस्त
हो जाता है।
लेकिन
हम दो तरह की
नींदों में
जिए चले जाते
हैं: एक नींद
तो रात में
आती है जिसे
हम सोना या नींद
कहते हैं और
दूसरी दिन में
होती है जिसे
हम जागना कहते
हैं। यह जागे
हुए सोना है, केवल नाम
भर का जागना
है यह हमारी
आखें तो खुली
रहती हैं, लेकिन
जब तक सोच
विचार पूरी
तरह रुक न जाए
तुम्हारी
असली आख, बोध
की दृष्टि बंद
ही रहती है।
''भ्रमपूर्ण
दृष्टि से
पिछले जीवन के
अनुभवों को
कैसे पहचाना
जाये?''
न तो
इसका कोई
मार्ग है और न
यहां इसकी कोई
जरूरत ही है, और किसी
भी व्यक्ति को
इन बेवकूफी की
चीजों में समय
भी व्यर्थ, बरबाद नहीं
करना चाहिए।
जो जा चुका, वह जा चुका, जो बीत गया वह
पहले ही से एक
भ्रम है, एक
छलावा है।
केवल एक ही
चीज बनी रहती
है और वह है
तुम्हारा साक्षी।
बस उसी को
थामे रहो, उसकी
लीक से हटो मत।
उसे पकड़ना
कठिन होगा, तुम बार—बार
उसकी लीक से
हट जाओगे, लेकिन
तुम्हें बार—बार
अपने को याद
दिलाते हुए
उसे पकडना है।
कई बार तुम
लक्ष्य से चूक
जाओगे, कई
बार तुम्हें
उसकी कुछ
झलकें
मिलेंगी।
लेकिन धीमे—
धीमे अधिक से
अधिक
सम्भावनाओं
के नये द्वार
खुलेंगे। और
यदि तुम कुछ
मिनटों के साथ
ही सजग बने
रहे, तो
तुम्हारे
अंदर से ही एक
नये मनुष्य का
जन्म होगा।
तुम पूरी तरह
भूत, अथवा
भविष्य अथवा वर्तमान
की कोई फिक्र
होगी ही नहीं।
तुम केवल बस
एक भिन्न आयाम
में जीवित
रहोगे, वह
आयाम है
शाश्वतता का
जहां कुछ भी
नहीं गुजरता,
न कुछ भी
जन्मता है, न कुछ भी
मरता है, प्रत्येक
चीज ज्यों की
त्यों बनी
रहती है—शांत,
थिर और मौन।
चौथा
प्रश्न :
मैं
अधिक से अधिक
मैत्री भावना
से ओत—प्रोत
अपने को खेलपूर्ण
होने का अनुभव
करते हुए, ऊर्जा से
भरी हुई हूं
लेकिन मैं बात
बहुत अधिक
करती हूं। मुझे
क्या करना
चाहिए?
इस बारे में
भी खेलपूर्ण
ही रहो। इसे
कोई गम्भीर
चीज मत बनाओ।
बातचीत भी
खेलपूर्ण
तरीके से करो, और यदि
उसे कोई नहीं
सुनता है, तो
इसे भी
खेलपूर्ण
तरीके ही से
लो—क्योंकि
यहां यह जरूरी
नहीं कि किसी
को उसे सुनना
ही चाहिए।
इससे नाराजगी
का अनुभव मत
करो। यदि कोई
तुमसे बात
करने सरलता से
तुम्हारे पास
आता है, तो
उससे बातचीत
करो। यदि कोई
दूसरा
व्यक्ति
तुम्हें
सुनने के मूड में
नहीं है, तो
वह उसकी अपनी
समस्या है।
लेकिन तुम
नाराजगी का
अनुभव मत करो।
बस केवल सजग
बनी रहो कि जब
तुम बात करना
चाहती हो, तो
तुम्हारे
अंदर क्या घट
रहा है। ऐसा
बहुत से लोगों
के साथ होगा।
जब
ध्यान के
द्वारा
तुम्हारे
अंदर ऊर्जा
मुक्त होती है, तो वह
अभिव्यक्त
होने के लिए
सभी तरह के
मार्ग खोजेगी।
यह इस बात पर
निर्भर करता
है कि
तुम्हारे पास किस
तरह की
प्रतिभा है।
यदि तुम एक
चित्रकार हो,
और ध्यान से
ऊर्जा मुक्त
होगी है तुम
अधिक चित्र
बनाओगे, तुम
पागल बनकर
चित्रण करोगे।
तुम सब कुछ
भूल जाओगे, पूरा संसार
भूल जाओगे।
तुम अपनी पूरी
ऊर्जा चित्रण
करने में उडेल
दोगे। यदि तुम
एक नर्तक हो
तो तुम्हारा
ध्यान तुम्हें
एक महान नर्तक
बना देगा। यह
सब कुछ
तुम्हारी
क्षमता, प्रतिभा,
निजता और
तुम्हारे
व्यक्तित्व
पर निर्भर करता
है। इसलिए इसे
कोई भी नहीं
जानता कि क्या
होगा। कभी—कभी
आकस्मिक रूप
से कई
परिवर्तन
होंगे एक
व्यक्ति जो
बहुत शांत था
और कभी अधिक
बात न करता था,
अचानक
बातूनी बन
जाता है। वह
बहुत दमित हो
सकता है। हो
सकता है उसे
कभी भी बात
करने की
अनुमति न मिली
हो। जब ऊर्जा
ऊपर उठती है
और बहती है तो
वह बातें करना
शुरू कर सकता
है।
लेकिन
इस बारे में
फिक्र करने की
कोई जरूरत ही
नहीं। उसका
दमन मत करो।
यदि तुम यह
अनुभव करती हो
कि तुम्हारा
बोलना दूसरों
के लिए भार बन
रहा है, तब बस तुम
अपने कमरे में
बैठकर अकेली
ही बात करो।
वहां अन्य कोई
दूसरा उसे
सुने, इसकी
जरूरत ही नहीं
है। और वास्तव
में कौन सुनता
है? तुम
दीवार से
बातें कर सकती
हो, और यह
कहीं अधिक
मानवीय होगा,
क्योंकि
तुम किसी
दूसरे
व्यक्ति के
लिए कोई दुख
निर्मित नहीं
करोगी। तुम
किसी को
सताओगी नहीं,
और न तुम
किसी अन्य को
बोर करोगी।
किसी ने
मुझे एक सुंदर
घटना लिख कर
प्रेषित की है
:
पैट रैली
अपने पापों को
स्वीकार कर
रहा था—’‘ फादर।
निश्चित रूप
से मैंने
पिछली रात सात
बार संभोग
किया।’’
पादरी
ने पूछा—’‘ कितनी
स्त्रियों के
साथ?'' पैट
ने उत्तर दिया—’‘
ओह मेरे
धर्मपिता!
स्त्री तो
केवल एक ही थी।’’
पादरी
ने कहा—’‘ ठीक है। यह
इतना बुरा पाप
तो नहीं है, जैसा मैंने
सोचा था। पर
वह स्त्री थी
कौन?’‘—’‘ फादर!
वह मेरी ही
पत्नी थी।’’
पादरी
ने कहा—’‘ मेरे पुत्र!
फिर इसमें कुछ
भी तो गलत
नहीं है।
पैट ने
उत्तर दिया—’‘ मेरे
धर्मपिता! मैं
इस बात को
जानता हूं
लेकिन मैं बस
इस बात को
किसी को बताना
चाहता था।’’
यहां ऐसे
भी कुछ क्षण
होते हैं, जब तुम बस
किसी को कुछ
बताना चाहते
हो। यदि तुम
उस बात को न
बताओ तो वह, तुम पर एक
भार बनी रहती
है।
यदि
तुम उसे बता
देते हो, तो तुम उससे
मुक्त होकर
तनावमुक्त हो
जाते हो। यदि
तुम्हें कोई
सहानुभूति से
सुनने वाला मिल
जाए तो अच्छा
है, अन्यथा
तुम स्वयं
अपने से बातें
कर सकती हो।
लेकिन कभी
इसका दमन मत
करो। दमन करने
से अभी यह
क्षण समय का
भाग नहीं है? वह तुम पर एक
बोझ बन जाएगा।
दीवार के ठीक
सामने बैठ जाओ,
और उससे
अच्छी खासी
बात करना शुरू
कर दो। शुरू
में तो यह
तुम्हें थोड़े
से पागलपन
जैसा लगेगा, लेकिन तुम
इसे जितना
अधिक करोगी, तुम इसमें
उतना ही अधिक
सौंदर्य
देखोगी? यह
बहुत कम हिंसक
है। यह किसी
दूसरे
व्यक्ति का भी
समय बर्बाद
नहीं करता, और यह ठीक
वैसे ही कार्य
करता है और
तुम हल्की हो
जाती हो।
दीवार के साथ
अच्छी तरह
बातचीत करने
के बाद तुम
बहुत बहुत
विश्राम का
अनुभव करते हो।
वास्तव में
प्रत्येक
व्यक्ति को
इसे करना चाहिए।
यह संसार कहीं
अधिक बेहतर और
शांत हो जाये,
यदि लोग
दीवारों से
बातचीत करना
शुरू कर दें।
इसे
आजमा कर देखो।
यह एक गहरा
ध्यान बन
जायेगा— भली
भांति यह
जानते हुए भी
कि दीवार नहीं
सुन रही है।
लेकिन मुद्दा
इस बात का है
ही नहीं।
मैंने एक महान
मनोविश्लेषक
के बारे में
सुना है, जो काफी
वृद्ध हो गया
था, लेकिन
उसने फिर भी
छू सात और आठ
घंटे प्रति दिन
मरीजों को
सुनने का
अभ्यास जारी
रखा। उसका एक
शिष्य जो नया—नया
काम सीख रहा
था, वह
मरीजों की
बकवास, मानसिक
उन्माद और
घिसी—पिटी एक
जैसी ही बातें
तीन चार घंटे
सुनकर बहुत
अधिक थक गया।
उसने अपने
वृद्ध गुरु से
एक दिन पूछा—
आप इतना सब
कैसे कर लेते
हैं, क्योंकि
मैं आपको शाम
को भी सुबह
जितना ही ताजा
पाता हूं जब
आप क्लीनिक
में आते है।
मरीजों की सात—
आठ घंटे बकवास
सुनकर भी आप
वैसे ही
ताजादम होकर
यहां से जाते
हैं। क्या आप
कभी थकते नहीं?
मैं युवा
हूं मैं
उन्हें दो तीन
घंटे सुनकर ही
थक जाता हूं।’’
वृद्ध
महाशय हंसते
हुए बोले—’‘ सुनता ही
कौन है?'' फ्रॉयड
ने इसकी
व्यवस्था
बहुत कुशलता
से की थी।
यहां तक कि वह
मरीज के सामने
भी नहीं बैठता
था। वह अपने
मरीज से एक
कोच या
आरामकुर्सी
पर लेट जाने
को कहता था और
उसके सामने एक
पर्दा पड़ा रहता
था और वह उस
पर्दे के पीछे
बैठता था। और
मरीज को कोच
पर लेटे हुए
छत की ओर
देखते हुए बात
करनी पड़ती थी।
यह वास्तव में
बहुत
अर्थपूर्ण था।
पहली बात तो
यह कि जब एक
व्यक्ति लेटा
होता था तो वह
कहीं अधिक
विश्राम
पूर्ण होता था।
बैठे रहने की
अपेक्षा लेटे
हुए वह अपने
गहरे में दबी
बातें बतलाता
था। वह अपने
अचेतन में और
गहराई तक
उतरता था। खड़े—खड़े
एक व्यक्ति
यदि बात करे
तो वह बहुत
अधिक उथली
होगी। यदि वह
बैठ कर बात
करे तो वह
थोड़ा अधिक
गहरे में
उतरता है। उसे
लेट जाने दो
और तब उसे
सुनो, तो
वह अपने अंदर
और गहरे उतरता
है।
और तब, वह सब कुछ
किसी व्यक्ति
के आमने—सामने
नहीं कह रहा
है। जब तुम
किसी का सामना
कर रहे होते
हो, तो
दूसरे की
उपस्थिति ही,
दमन करने वाली
शक्ति के रूप
में कार्य
करती है। तब
तुम उन बातों
को कहना शुरू
कर देते हो
जिन्हें वह
पसंद करे। तब
तुम चीजों को
इस ढंग से
कहना शुरू कर
देते हो कि
दूसरा नाराज न
हो जाये। तब
तुम चीजों को
इस प्रकार
अभिव्यक्त
करने की
व्यवस्था
करते हो जिन
पर उसकी सहमति
प्राप्त कर
सको तुम। तब
दमन बहुत अधिक
होता है और
सत्य कभी भी
बाहर नहीं आ
पाता। जब कोई
भी व्यक्ति
तुम्हारे
सामने नहीं
होता और सामने
केवल छत होती
है, तो
तुम्हें किसी
भी व्यवस्था
करने की कोई
जरूरत नहीं
होती। कमरे की
छत किसी बात
का बुरा नहीं
मानती, तुम
उससे जो चाहो
कह सकते हो।
धीमे— धीमे वह
व्यक्ति गहरे
जाकर सम्बंध
जोड़ लेता है।
अब यहां
फ्रायड के कोच
की भी कोई
जरूरत नहीं है,
केवल
तुम्हारी अब
ही यह काम
पूरा कर देगी।
और अब वहां
किसी दूसरे
व्यक्ति को भी
बैठने की
जरूरत नहीं है,
तुम स्वयं
ही बात कर
सकते हो और
स्वयं ही उसे
सुन सकते हो।
स्वयं से बात
करते हुए
स्वयं सुनना
तुम्हें एक
गहराई देगा, तुम्हें
अपने ही मन के
बारे में एक
गहरी समझ उत्पन्न
होगी।
इसलिए
दीवार से
बातें करो और
उन्हें सुनो।
तुम बात करने
वाली और सुनने
वाली दोनों एक
साथ बन जाओ।
उसका
विश्लेषण मत
करो, कोई
भी निर्णय मत
लो, यह मत
कहो कि यह
अच्छा है और
यह बुरा: ऐसा
कहना चाहिए था
और वैसा नहीं
कहना चाहिए था।
और न चीजों को
शुद्ध या
परिष्कृत
बनाओ, उन
पर कोई भी रंग
और रोगन मत
लगाओ। जो कुछ
भी मन में आए
उसे सीधे साफ
तरीके से बाहर
आने दो—वह
चाहे कितना ही
कुरूप, भद्दा
और असंगत क्यों
न हो? अपने
मन को पूरा
खेल खेलने दो
और तुम बस उसे
देखती रहो। यह
एक बहुत बड़ा
ध्यान बन
जाएगा।
नवविवाहित
युगल, अपने
कुंवारे
मित्रों के
सामने अपने
विवाहित जीवन
की प्रशंसा
में कसीदे
पढते हुए कह
रहा था—’‘ हां!
सचमुच यह
आश्चर्यजनक
है। नाश्ता
करने से पूर्व
हम लोग वह
महान और मधुर
कार्य किया
करते थे। उसके
बाद जब मैं
बाहर जाता था
तो वह छोटी
गुड़िया सी
स्त्री मुझे
एक गहरे
आलिंगन में
बांधकर, दरवाजे
तक आते हुए एक
चुम्बन देती
थी।
मैं
रात के वक्त
घर लौटता था, और भोजन
मेज पर सजा
तैयार मिलता
था। उसके बाद
मैं अपने कमरे
में बैठकर
अखबार पड़ता
रहता था और वह
बर्तन साफ करती
थी। फिर वह
कपड़े बदलकर
आराम से मेरी
बगल में बैठकर
मुझसे
बतियाती रहती
थी। वह बातें
और बातें ही
करती रहती थी,
उसकी बातें
कभी खत्म होने
पर ही नहीं
आती थीं, और
मैं चाहने
लगता था कि वह
बेहोश होकर
नीचे गिर जाए।’’
अभी यह क्षण
समय का भाग
नहीं है?
किसी
भी दूसरे
व्यक्ति को
कभी ऐसा अवसर
न दो कि वह यह
सोचना शुरू कर
दे कि तुम बात
करते—करते
बेहोश होकर
गिर पड़ो। यह
तुम्हारी
अपनी समस्या
है। अथवा तुम
इसके लिए एक
बहुत सुंदर
व्यवस्था कर
सकती हो। इसी
आश्रम में
यहां ऐसे बहुत
से पागल लोग
हैं' तुम
उन्हीं में
किसी अन्य
व्यक्ति को
खोज लो जिसकी
समस्या भी
तुम्हारी
जैसी ही हो।
तब तुम एक
अच्छी
व्यवस्था बना
सकती हो। एक
घंटा तुम
बातचीत करो और
एक घंटा वह
तुम्हारी बात
सुने। एक
दूसरे से
जुड्ने या
सम्बंधित
होने की इसमें
कोई जरूरत
नहीं, इसमें
संगत होने की
भी जरूरत नहीं
और न बातचीत
करते हुए
किन्हीं
नियमों का
अनुसरण करने
की ही कोई जरूरत
है। यह बातचीत
है ही नहीं।
एक घंटा जो
कुछ तुम्हारे
मन में आए उसे
निरंतर बिना
सोचे—समझे
कहते ही जाना
है, और
निश्चित रूप
से फिर
तुम्हें इसकी
कीमत चुकानी
होगी—एक घंटा
फिर तुम्हें
उसकी बकवास
सुननी होगी।
और यह चीज
दोनों के ही
लिए मूल्यवान
होगी।
लेकिन
एक बात याद
रखना चाहिए
कुछ भी दबाना
नहीं है। किसी
चीज का भी जब
दमन किया जाता
है जब वह जहरीली
बन जाती है।
और बातें करना
केवल एक
निर्दोष
कृत्य है, दीवार से
ही काम चलेगा।
जाओ, वृक्षों
के निकट जाओ
और वे बहुत
खुश होंगे क्योंकि
कोई उनसे
बातचीत करता
ही नहीं। वे
हमेशा
प्रतीक्षा
करते रहे हैं।
वे बहुत
कृतज्ञ होंगे
तुम्हारे।
अथवा तुम नदी
या चट्टानों
के पास जाकर
उन्हें अपनी
बातें सुनाओ
लेकिन उनका
दमन मत करो।
धीमे— धीमे
चीजें साफ और
स्पष्ट होने
लगेगी और बातें
करना समाप्त
हो जाएगा। यह
केवल शुरुआत
है, और तब
तुम्हें अपने
अस्तित्व की
गहरी पर्तो को
स्पर्श करने
का अवसर
मिलेगा
बातचीत
तुम्हारे
जीवन की सबसे
उथली पर्त है,
केवल ऊपर
सतह वाली पर्त।
जब ऊर्जा बहती
हुई और नीचे
जाएगी तो नीचे
की पर्ते
कँपना शुरू हो
जायेंगी, उनमें
तरंगें उठने
लगेंगी।
उन्हें उठने
की अनुमति दो।
बहुत शीघ्र जब
बातें खत्म हो
जाएंगी और तुम
अपना कूड़ा कबाड़
जिसे तुम पूरे
जीवन भर ढोती
आई हो, जब
तुम उसे बाहर
फेंक दोगी, फिर शांति
और मौन आयेगा।
और फिर वह मौन
पूरी तरह से
शुद्ध और
क्वाँरा होगा।
तुम
अपनी बातों को
बलपूर्वक दबा
भी सकती हो और
शांत तथा मौन
बने रह सकती
हो, लेकिन
तुम्हारी यह
शांति और मौन
असली और प्रामाणिक
नहीं होगी।
अपने गहरे में
तुम कंपती ही
रहोगी, कहीं
गहरे में किसी
भी क्षण
ज्वालामुखी
का विस्फोट
फूट पड़ने को
तैयार होगा।
तुम उसी ज्वालामुखी
के शिखर पर
बैठी हुए हो।
लोग
बहुत शांत
दिखाई देते
हैं, लेकिन
वे शांत हैं
नहीं। मैं
चाहता हूं कि
तुम वास्तव
में
प्रामाणिक
रूप से शांत
बनो, और
तरीका केवल एक
ही है, गहरे
से गहरा रेचन।
मैं
जानता हूं कि
अमीदा बहुत
अधिक ऊर्जा का
अनुभव करती है।
उसे अपने
ऊर्जा—स्रोतों
पर हल्के से
चोट करनी होगी
और उसे अपने
को अस्तित्व
की जमीन से
जोड़ना होगा।
इसलिए सभी
मार्गों से वह
बहुत
शक्तिशाली
होने का अनुभव
करेगी।
बातचीत करना
मनुष्य जाति
की सबसे अधिक
आधारभूत
विशेषता और
अंश है।
मनुष्य जाति, मनुष्य
जाति इसलिए है,
क्योंकि वह
बातचीत कर
सकती है। किसी
अन्य पशु में
यह क्षमता
नहीं है। और
फिर अमीदा एक
स्त्री है, वह पुरुष भी
नहीं है।
मैंने
सुना है....
एक
स्त्री अपने
पति से कह रही
थी कि नया
पादरी बहुत
अधिक बातूनी
था। फिर उसने
बताया—’‘ मैंने ऐसा
कोई भी
व्यक्ति नहीं
देखा, जो
इतनी तेजी से
बात करता हो।
जो कुछ भी वह
कहता है, उसे
समझना लगभग
असम्भव है।
उसके शब्द एक
दूसरे को
आच्छादित
करते हुए बाहर
निकलते हैं।’’
उसके
पति ने उत्तर
दिया—’‘ मैं
इसका कारण
जानता हूं।
उसके पिता एक
राजनेता थे और
उसकी मां एक
स्त्री थी।’’
अब यह
पूरी तरह से
संगत साथ है।
चूंकि अमीदा
एक स्त्री है:
बातचीत करना
उसके लिए आसान
है और उसके कई
कारण भी हैं।
क्या
तुमने कभी
देखा है ?—छोटी
लड़कियां जब
लड़कों के
सामने बात
करना शुरू
करती हैं तो
लडके पिछड़
जाते हैं।
स्कूल, कालेज
और
विश्वविद्यालयों
में भी जहां
तक भाषा का सम्बंध
है, लड़कियां
हमेशा लड़कों
से बेहतर और
आगे रहती हैं।
वे हमेशा अधिक
अंक प्राप्त
करती हैं और
कहीं अधिक
पारगत होती
हैं। स्त्री
मन और पुरुष
मन के मध्य
कुछ चीजें भिन्न
प्रतीत होती
हैं, पुरुष
मन कहीं अधिक
कर्त्ता या
कार्य करने वाला
है और स्त्री
मन कहीं अधिक बेहतर
बात करने वाला
है। ऐसा इसलिए
भी हो सकता है
क्योंकि जहां
तक पुरुष का
सम्बंध है
उसकी काफी
अधिक ऊर्जा
कार्य करने
में खर्च हो
जाती है: और
जहां तक
स्त्री का सम्बंध
है, उसे
कार्य करने
में इतनी अधिक
ऊर्जा खर्च
नहीं करनी
होती इसलिए
उसकी पूरी
ऊर्जा एक ही
बातें करने की
दिशा की ओर
मुड़ जाती है।
लेकिन
इसमें गलत कुछ
भी नहीं है।
एक अच्छे बात
करने वाले
व्यक्ति में
कुछ चीज मूल्यवान
होती है: वह
बेहतर तरीके
से संवाद और
सम्बंध
स्थापित कर
सकता है।
किसी
कला में
पारंगत होना
सुंदर है, क्योंकि
सूचनाओं का
अधिक संचार
करना सम्भव
होता है। और
एक सुंदर
संभाषण का
अपना अलग
सौंदर्य बोध और
मूल्य है।
लेकिन पहले
अंदर रुकी
बातों की बाढ़
को बाहर निकालना
है। तब चीजें
स्वयं छंट
जायेंगी और
थिर हो जायेंगी।
इस बाढ
के गुजर जाने
के बाद अमीदा
पायेगी कि उसकी
चेतना से बहुत
छोटे—छोटे
वाक्य ही बाहर
आ रहे हैं, लेकिन वे
हीरों जैसे
हैं, और
प्रत्येक
वाक्य अपने आप
में मूल्यवान
है। लेकिन
पहले शब्दों
की इस बाढ़ को
गुजर जाने देना
होगा। यदि इस
बाढ़ को रोका
गया, इसका
दमन किया गया,
तब ये हीरे
जैसे वाक्य
सदा के लिए खो
जायेगे। यही कारण
है कि विश्व
के सभी महान
शास्त्र
सूत्रों में
लिखे गये, क्योंकि
जिन लोगों ने
उन्हें लिखा,
वे रेचन की
बाढ़ से होकर
गुजरे थे। जब
उनका रेचन
पूरा हो गया, तब हीरे
जैसे छोटे—छोटे
वाक्य, सरल,
सुंदर और
सौंदर्य बोध
से भरपूर
चेतना में बुलबुलों
के रूप में
उमगना शुरू
हुए। यह वही
चेतना है, जिससे
वेदों और
कुरान का जन्म
हुआ। और इसी
चेतना से भाषा
के सौंदर्य
बाइबिल का जन्म
हुआ। फिर कभी
इनसे बड़—चढ़
कर श्रेष्ठ
वचन नहीं आए।
जीसस
अशिक्षित थे, लेकिन
कोई भी
व्यक्ति उनके
वचनों की
स्पष्टता को,
जो सत्य तक
गहरे उतर जाते
हैं, उन्हें
मात न दे सका।
इसके पीछे
उनका गहन
ध्यान है।
पतंजलि के
योगसूत्र हों
अथवा बादरायण
के ब्रह्मसूत्र,
अथवा वे
नारद के भक्ति
सूत्र हों—वे
इतने छोटे—छोटे
वाक्यों में
हैं, जितने
अधिक
संक्षिप्त
होने का तुम
केवल विचार कर
सकते हो, ये
लगभग
टेलीग्राफिक
हैं, लेकिन
उनके अंदर
इतना अधिक
ज्ञान भरा हुआ
है कि
प्रत्येक वाक्य
में जैसे
आणविक ऊर्जा
हो। यदि इसका
विस्फोट हो, यदि तुम
इन्हें प्रेम
से अपने अंदर
अपने हृदय में
ले जाओ, तो
जब उनका
विस्फोट होगा
तुम उनके
द्वारा आलोकित
हो उठोगे।
लेकिन
पहले बाढ़ के
पानी को बाहर
निकल जाने दो।
यह एक शुभ
संकेत है कि
दमित भावों की
बाढ़ आई हुई है।
यदि
सहानुभूति से
सुनने वाले
कुछ कान खोज
सको, ये
अच्छा है।
अन्यथा
उन्हें
वृक्षों और
चट्टानों को
सुनाओ, लेकिन
उनका दमन मत
करो।
पांचवां
प्रश्न:
मुझे
सामने खड़ी
मृत्यु दिखाई
देती है। मैं
इसे स्वीकार
करती हूं अथवा
ऐसा जब मैं
सोचती हूं कि
बहुत से लोग
बीमार पड़ते है? और अस्पतालों
में उनकी
मृत्यु भी हो जाती
है? तो मैं
अपने उदर में
भय की इस बड़ी
गांव को पाती हूं।
मैं मृत्यु से
और मरने से इतना
अधिक डरी हुई
हूं कि मैं अपने
को कमल होने
जैसा अनुभव
करती हूं।
मृत्यु एक
समस्या है।
तुम उसे टाल
सकते हो, स्थगित कर
सकते हो, लेकिन
तुम उसे पूरी
तरह मिटा नहीं
सकते।
तुम्हें उसका
सामना करना ही
होगा। उसे
मिटाया जा
सकता है, केवल
तभी जब तुम
उसके साथ अंत
तक पूरे
रास्ते भर
उसके संग
यात्रा करो।
यह
बहुत जोखिम
भरा काम है, और
तुम्हें
अत्यधिक भय
देगा।
तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व
हिलने और
कांपने लगेगा:
मरने का विचार
मात्र ही
स्वीकारने
योग्य नहीं है।
यह इतना अधिक
गलत और
अर्थहीन
दिखाई देता है,
और यदि एक
व्यक्ति को
मरना ही है तो
फिर उसके जीवन
का क्या अर्थ
है? तब मैं
क्यों और
किसके लिए जी
रहा हूं? यदि
अंत में
मृत्यु होनी
ही है तो
क्यों न अभी आत्महत्या
कर ली जाये? प्रत्येक
दिन सुबह उठना
दिन भर कठिन
परिश्रम करना
बिस्तरे पर
सोने के लिए
जाना, सुबह
फिर उठ बैठना
कठोर श्रम
करना और फिर
सो जाना— आखिर
किसके लिए? केवल क्या
अंत में मर
जाने के लिए
ही?
मृत्यु
केवल
आत्मज्ञान की
समस्या है।
मृत्यु के
कारण ही
मनुष्य ने
विचार करना
शुरू किया।
मृत्यु के
कारण ही
मनुष्य
गम्भीर
विचारक और ध्यानी
बना। वास्तव
में मृत्यु के
कारण ही धर्म
का जन्म हुआ।
पूरा श्रेय
मृत्यु को ही
जाता है।
मृत्यु ने
प्रत्येक
व्यक्ति की
चेतना को मथ
दिया। यह
समस्या ऐसी है, जिसे हल
करना है।
इसलिए इसके
साथ गलत कुछ
भी नहीं है।
यह
प्रश्न पूछा
है विद्या ने।
''मैं
मृत्यु को
सामने खड़े
देखती हूं
प्रत्येक व्यक्ति
मृत्यु को
सामने खड़ा ही
देखता है।
मार्टिन
हैडीगर ने कहा
है—मनुष्य
मृत्यु की ओर
ही बढ़ रहा है।
और यही मनुष्य
की
प्राथमिकता
है। जानवर मर
जाते हैं
लेकिन वे यह
नहीं जानते कि
उन्हें मरना
है अथवा वे
मरने जा रहे
हैं। वृक्ष
मरते हैं, लेकिन
वहां उनका
मृत्यु से कोई
आमना—सामना
नहीं होता। यह
प्राथमिकता
मनुष्य की ही
है, कि
केवल वही
जानता है कि
वह मरने जा
रहा है।
इसीलिए
मनुष्य
मृत्यु के पार
भी विकसित हो
सकता है।
इसीलिए वहां
मृत्यु में
गहरे उतरकर
उससे निकल आने
की सम्भावना
है।
’’मैं
स्वीकार करती
हूं और ऐसा ही
मैं सोचती हूं
नहीं, स्वीकार
करना सम्भव
नहीं है। तुम
धोखा दे सकती
हो: तुम यह सोच
सकती हो कि
तुमने उसे
स्वीकार कर
लिया, क्योंकि
उसकी ओर देखना
भी इतना अधिक
कष्टकर लगता
है। यहां तक
कि उसके बारे
मे सोचना भी
इतना कष्टकर
लगता है कि एक
व्यक्ति
सोचता है—’‘हां!
ठीक है, मैं
मरने जा रहा
हूं—इसलिये
क्या किया
जाये? मैं
मरने जा रहा
हूं लेकिन यह
प्रश्न मत
उठाओ। इसके
बारे में बात
तक न करो।’’ कोई
भी व्यक्ति इस
खयाल से दूर
रहता है उसे
एक किनारे अलग
रख देता है, जिससे वह
रास्ते पर न आ
जाये, उसे
केवल अपने
अचेतन में ही
रखता है।
उसकी
स्वीकृति
करना सम्भव
नहीं है।
तुम्हें
मृत्यु का
सामना करना ही
पड़ेगा। जब
तुमने उसका
सामना किया, तो
तुम्हें उसे
स्वीकार करने
की जरूरत ही
नहीं, क्योंकि
तब तुम जानती
हो कि वहां
कोई मृत्यु है
ही नहीं।
और तब
बहुत से लोग
बीमार हो जाते
हैं, अस्पतालों
में भर्ती
होते हैं और
मर जाते हैं और
मैं अपने उदर
में इस भय की
बहुत बड़ी गांठ
पाती हूं वह
कहां है, इसी
समस्या का
समाधान करना
है। उदर ही
ठीक भय का वह
स्थान है, जहां
वह बड़ी गांठ
महसूस होती है,
उसी स्थान
पर मृत्यु
घटित होती है।
जापानी उसी
स्थान को हारा
कहते हैं। बस
नाभि के दो
इंच नीचे वह
बिंदु है, जहां
शरीर और आत्मा
एक दूसरे से
जुड़े होते हैं।
जब तुम्हारी
मृत्यु होती
है, तो यही
वह स्थान है
जहां शरीर से
आत्मा सम्बंध
तोड़ती है।
मरता कुछ भी
नहीं, क्योंकि
शरीर मर नहीं
सकता, क्योंकि
वह पहले ही से
मरा हुआ है।
और तुम मर
नहीं सकते
क्योंकि तुम
स्वयं ही जीवन
हो। केवल
तुम्हारे और
शरीर के बीच
का सम्बंध
टूटता है।
यह
गांठ या
ग्रंथि ही ठीक
वह स्थान है, जहां
कार्य किये
जाना है, इसलिए
उस गांठ से
बचने की कोशिश
मत करो। मैं
विद्या से यह
कहना चाहता
हूं कि तुझे
जब भी उस गांठ
का अनुभव हो, तो वह क्षण
बहुत
मूल्यवान है।
अपनी आखें बंद
कर अपनी पूरी
चेतना उस गांठ
पर ले जा। यही
है हारा। उसका
अनुभव करो ,उसे अनुमति
दो, उसके
पास तुम्हारे
लिए कुछ संदेश
है, वह
तुमसे कुछ
कहना चाहता है।
यदि तुम उसे
अनुमति दो, तो वह
तुम्हें
संदेश देगा।
यदि तुम उसमें
विश्रामपूर्ण
हो जाओ, यदि
तुम उसके अंदर
जाओ, तो
धीमे— धीमे
तुम देखोगे कि
वह गांठ
विसर्जित हो
गई, और उस
गांठ के स्थान
पर एक कमल के
फूल जैसा कुछ खिल
उठा है। यह एक
बहुत सुंदर
अनुभव है। और
तुम यदि फिर
भी और गहरे
जाओ तो तुम एक
सेतु देखोगे,
वह फूल एक
सेतु है। उसके
एक ओर शरीर है
और दूसरी ओर
तुम्हारी आत्मा।
और वह फूल उन
दोनों को जोड़
रहा है, वह
फूल एक सेतु
बना हुआ है।
उस फूल
की जड़ें शरीर
के अंदर फैली
हैं, और
उस फूल की
पंखडिया और
उसकी सुवास ही
आत्मा है। यह
एक जोड्ने
वाला सेतु है।
लेकिन यदि तुम
भयभीत हो गए
और तुम वहां
नहीं गए तो
तुम्हें गांठ
होने जैसा ही,
खिंचाव और
तनाव का अनुभव
होगा।
'' मैं
मृत्यु से और
मरने से इतना
अधिक डरी हुई
हूं कि मैं
पागल होने
जैसा अनुभव
करती हूं।’’
यहां
पागल होने की
कोई जरूरत
नहीं है। पागल
तो तुम होतीं।
यह पूरी तरह
स्वाभाविक है
कि जब कोई भी
व्यक्ति बार—बार
और अनेक बार
अस्पताल में
उपचार के लिए
जाता है और वहां
मरता भी है तो
तुम्हें अपनी
मृत्यु का भी स्मरण
आता है।
इसमें
गलत कुछ भी
नहीं है।
मैंने
सुना है......
एक
बीटनिक एक
मनोविश्लेषक
से भेंट करने
गया और अपनी
बात प्रस्तुत
करते हुए कहा—’‘ आपको
मेरी सहायता
करनी ही होगी।’’
उसने
मस्तक पर बल
डालते हुए
पूछा—’‘ आखिर
आपकी समस्या
क्या है?''
उस
संगीत का
बीटनिक ने कहा—
आखिर वक्त
मेरी सबसे
अधिक मुझे
विवश बनाने वाली
इच्छा है अपनी
दाढी बनाकर
शॉवर के नीचे
स्नान करने की।’’
यदि तुम
अभी अपनी दाढ़ी
शेव कर शावर
स्नान नहीं
करना चाहते, तो एक न
एक दिन
तुम्हें विवश
करने वाली यह
इच्छा कि तुम
आखिरी वक्त
शेव कर शॉवर
स्नान करो, उठेगी ही।
यह कोई भी
समस्या नहीं
है, ठीक
अभी अपनी शेव
कर शावर स्नान
करो।
तुम
मृत्यु को
टालना चाहते
हो। उसका
सामना तो करना
ही होगा, वह जीवन के
सभी कार्यों
का ही एक भाग
है। वह एक
सबसे बड़ा सबक
है जो
प्रत्येक
व्यक्ति को
सीखना ही है।
इस बारे में
पागल बनने की
कोई जरूरत ही
नहीं है, इससे
कुछ भी सहायता
मिलने वाली।
उसके अंदर
प्रवेश करो और
उसका सामना
करो। आज अथवा
कल तुम्हें
अस्पताल में
भर्ती होना ही
पड़ेगा, आज
या कल तुम्हें
बीमार पड़ना ही
होगा और आज या कल
तुम मरने भी
जा रहे हो।
इसलिए उसे
स्थगित किए
जाने की कोई
आवश्यकता नहीं
है। इससे
अच्छा यही है
कि कहीं बहुत
अधिक देर न हो जाये,
तुम उससे
पूर्व ही उसे
भली भांति समझ
लो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीमार पड़ा और
चिंतित होकर
उसने तुरंत
फोन पर मौलवी
से सम्पर्क करते
हुए यह आग्रह
किया कि वह
अगले संसार
में उसकी
भटकती हुई रूह
को सहारा देने
के लिए
प्रतिदिन आकर
प्रार्थना
किया करे। जब
प्रतिदिन की
भांति
प्रार्थना
करने मौलवी उसके
पास आया तो
उसने मुल्ला
नसरुद्दीन को
बहुत खुश आनंद
से किलकते हुए
पाया।
नसरुद्दीन
ने अट्टहास
करते और
उल्लसित होकर कहा—’‘ श्रीमान!
आज मैं बिलकुल
ठीक हूं और
बहुत आनंदित
हूं।
मेरा
डॉक्टर कहता
है कि मैं अभी
दस साल और जिऊंगा, इसलिए अब
आपको फिर यहां
आने की कोई भी
आवश्यकता
नहीं है।’’
लेकिन
तुम बूंद—बूंद
कर गुजरते नौ
वर्ष, ग्यारह
महीने और
उन्तीस दिन
कैसे
गुजारोगे? एक
दिन तो
तुम्हें
मृत्यु का
सामना करना ही
होगा। बेवकूफ
मत बनो, उसे
टालो मत।
क्योंकि यदि
तुम उसे सबसे
आखिरी दिन के
लिए टालोगे, तो बहुत देर
हो चुकी होगी।
यह निश्चित
नहीं है कि वह
आखिरी दिन कब
आयेगा? वह
दिन आज भी हो
सकता है, वह
कल ही हो सकता
है और वह किसी
भी क्षण घटित
हो सकता है।
मृत्यु के
बारे में कोई
भी
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती।
हम
मृत्यु में ही
जीते हैं, इसलिए वह
किसी भी क्षण
हो सकती है।
उसका सामना
करो, उसका
साक्षात्कार
करो और पेट
में वह गांठ
जो ठीक स्थान
पर है, उसका
साक्षात्कार
करना है। वही
वह द्वार है, जिससे तुम
जीवन में
प्रवेश करते
हो और जिससे होकर
ही तुम जीवन
के बाहर उस
पार जाते हो।
अंतिम
प्रश्न:
प्यारे
भगवान! आपके प्रेम
में डूबकर मैं
मिट जाने के
भय से आक्रांत
है, और मैं
समर्पित हूं।
यह पूछा है
प्रेम
पूर्णिमा ने।
मेरा
उत्तर है—तेरा
प्रेम में
डूबना ही तेरे
भय का कारण है
और मैं तुझे स्वीकार
करता हूं।
आज इतना
ही।
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