दिनांक
22 जून 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
प्रथम
प्रश्न :
प्यारे
ओशो? आपके
निकट बने रहने
की मेरी हमेशा
तीव्र कामना
रहती थी लेकिन
अब आपको देखते
हुए मैं क्यों
आश्चर्य और भय
से भर जाती
हूं।
ऐसा होना ही
चाहिए। उस
व्यक्ति को
बरसते
आशीर्वाद का
अनुभव करना चाहिए
क्योंकि
आदरयुक्त भय
ही केवल वह
गुण है, जो मनुष्य
को धार्मिक
बना सकता है।
केवल वही
द्वार है।
श्रद्धायुक्त
भय, आश्चर्य
के द्वारा ही
तुम अपने
चारों ओर दिव्यता
का अनुभव करते
हो। जिन आंखों
में आदरयुक्त
भय और आश्चर्य
भरा हो वे
परमात्मा को
इंकार नहीं कर
सकतीं, यह
असम्भव है और
वे लोग जो
श्रद्धा, भय
और आश्चर्य
में डूबना भूल
चुके हैं,
परमात्मा
को स्वीकार
नहीं कर सकते।
प्रश्न
परमात्मा का
नहीं है। यह
तुम तीव्र एवं
गहन आश्चर्य
के भाव में
इतनी गहराई से
डूबने में
समर्थ हो
जिससे विचार
प्रक्रिया ही
नहीं, प्रत्येक
वस्तु थम जाये,
अचानक समय
रुक जाये, स्थान
भी मिट जाए और
तुम जहां हो, वहां उसे
तुम रूप और
आकृति न दे
सको कि वह है
क्या और उन
क्षणों में
श्रद्धा और
आश्चर्य के
साथ तुम उस
अद्भुत उपस्थिति
को महसूस कर
सको।
लेकिन
मनुष्य
अत्यधिक आदर
देने से भय से
भर जाता है।
यही कारण है
कि पुराने
दिनों की भाषा
में आदरयुक्त
भय एक धार्मिक
और पवित्र
शब्द था। अब
जब तुम किसी
भयानक चीज को
देखते हो तुम
कहते हो मुझे
व्यग्रता का
अनुभव हो रहा
है। यहा तक कि
शब्द भी अपना
अर्थ खो देते
हैं। लोग तब
भी आदरयुक्त
भय की स्थिति
में होते थे जब
वे प्रार्थना
में गहरे डब
जाते थे, जब वे
दिव्यता के
निकट
सान्निध्य
में होते थे जब
उनके सम्मुख किसी
दिव्यता का
उद्घाटन होता
था, तब वे
आदरयुक्त भय
की भावना से
भर जाते थे।
अब जब वे अति
डरावने, बहुत
बुरे और अति
भयंकरतुम
अनुभव से
गुजरते हैं, तो वे कहते
हैं मैं
आदरयुक्त भय
के अनुभव से गुजर
रहा हूं। यह
शब्द पूरी तरह
भ्रष्ट हो
चुका है। कभी
इसका प्रयोग
सर्वोच्च
शिखर—अनुभव के
लिए होता था।
अब इसका
प्रयोग
निम्रवत
नकारात्मक
अनुभूति के
किया जाता है।
कभी इसका
प्रयोग केवल
विधायक अनुभव
के लिए ही
किया जाता था।
ऐसा हुआ क्यों?
इसके कुछ
कारण है।
जब लोग
किसी के प्रति
अत्यधिक आदर
का अनुभव करते
है। वे इसके
ही साथ—साथ भय का
भी अनुभव करते
हैं। यह
स्वाभाविक है
क्योंकि आदर
देते हुए तुम
उस अज्ञात, अनजाने, अजनबी और
रहस्यमय के
सम्पर्क में
आते हो। तुम
उसे अपने
अधिकार में
नहीं ले सकते,
उस पर
नियंत्रण
नहीं रख सकते,
उसमें हेर—फेर
नहीं कर सकते।
अचानक कुछ चीज
या व्यक्ति जो
तुमसे भी कहीं
अधिक बड़ा और
विराट है, तुम्हें
चारों ओर से
घेर लेता है
और तुम्हें अपने
खो जाने का
अहसास होता है।
भय उत्पन्न
होता है और
तुम भय से
कांपने लगते हो।
सभी
पुराने धर्म
परमात्मा का
वर्णन दोनों
तरह से करते
हैं— अत्यंत
रहस्यमय और गढ़
और साथ ही एक
भयंकर विस्फोटक
शक्ति भी।
रहस्यमय
इसलिए
क्योंकि वह एक
रहस्य है, रहस्य भी
ऐसा जो कभी भी
सुलझ नहीं
सकता और भयकंरतुम
इसलिए
क्योंकि कोई
भी उसके सामने
आते ही डर जाता
है। ये दो
अनुभव एक साथ
होते हैं
लेकिन
तुम्हें पहले
अनुभव की ओर
अधिक ध्यान
देना चाहिए
अन्यथा मंदिर
के द्वार
तुम्हारे लिए
बंद हो जाएंगे।
उसकी
विधायकता पर
अधिक जोर दो
और यह सीखो कि
अज्ञात के
सान्निध्य
में किसी ऐसी
चीज की उपस्थिति
में कैसे बना
रहा जाए
जिसमें तुम
कोई हेर—फेर न
कर सको, उस
रहस्यमय
अनुभूति की
उपस्थिति में
कैसे रहा जाए
जिसके आगे
तुम्हें
समर्पण करना
है, जहां
केवल एक ही
चीज की जा
सकती है और वह
है समर्पण, वही सब कुछ
है और अन्य
कुछ भी सम्भव
नहीं है।
तुम्हें
तो उसका अनुभव
वरदान की
भांति आनंदमय
लगना चाहिए
लेकिन
तुम्हें
श्रद्धायुक्त
भय का अनुभव
जरूर होता ही
है और इसलिए
यह प्रश्न है।
तुम
नकारात्मक
भाग की ओर
अधिक ध्यान देने
के लिए जो
उसकी छाया भर
है, बाध्य
हो जाते हो।
यदि तुम वैसा
करते हो, तो
धीमे— धीमे
तुम अपने आपको
चारों ओर से
बंद कर लोगे।
तब
तुम्हें
आदरयुका भय का
अनुभव नहीं
होगा और यदि
तुम ऐसा अनुभव
नहीं कर सकते
तो तुम परमात्मा
का भी अनुभव
नहीं कर सकते।
वे
कहते हैं कि
दर्शनशास्त्र
का जन्म
आश्चर्य से
होता है। और
धर्म? धर्म
आदरपूर्ण भाव
से उत्पन्न
होता है। और
आश्चर्य तथा
आदरयुक्त भय
के बीच क्या
अंतर है?
जब तुम
आश्चर्य से भर
जाते हो, तुम उसका
संकेत खोजने
की कोशिश करते
हो कि कैसे उस
आश्चर्य को
समाप्त किया
जाए। तुम उस
बारे में
सोचने की
कोशिश करते
हुए उसे साकार
करके देखना
चाहते हो कि
वह है क्या? आश्चर्य एक प्रश्नचिह्न
निर्मित करता
है और तुम
उसके साथ
संघर्ष करना
शुरू कर देते
हो इसीलिए
दर्शनशास्त्र
आश्चर्य के
साथ एक संघर्ष
है। वह
आश्चर्य से
जन्मता है और
तब उस आश्चर्य
को समाप्त करने
की कोशिश करता
है, जिसकी
अभिव्यक्ति
नहीं की जा
सकती, जो
अस्पष्ट है, जिसका
स्पष्टीकरण
खोजा जाता है,
जिससे
आश्चर्य
समाप्त हो जाए।
आश्चर्य को एक
बीमारी (dis—ease)
अथवा एक जटिल
तनाव के रूप
में महसूस
किया जाता है।
इसलिए
दार्शनिक
निरंतर ऐसे
साधन और तरीके
खोजने की
कोशिश करते
हैं, जिससे
वह फिर सरल हो
जाए। वे कोई
उत्तर खोजने
की कोशिश कर
रहे हैं, जिससे
प्रश्न गिर
सके, जिससे
रहस्य फिर
रहस्य न रह
जाए।
दर्शनशास्त्र
आश्चर्य के
विरुद्ध है।
धर्म
श्रद्धायुक्त
भय से जन्मता
है।
श्रद्धायुक्त
भय भी एक
भिन्न गुण का
आश्चर्य ही है, लेकिन
कुछ ऐसा, वस्तुत:
वह गहन प्रेम,
गहरी
कृतज्ञता और
विनम्रता
उत्पन्न करता
है। वह
तुम्हारी
चेतना में एक
ऐसी स्थिति
निर्मित करता
है कि तुम
उसके सामने
झुकना चाहते
हो। यह प्रश्न
हल करने के
लिए नहीं है, बल्कि एक
गहन सम्मान
प्रकट करने के
लिए है।
तुम
घुटनों के बल
झुककर
प्रार्थना
करना चाहोगे।
तुम उसके बारे
में सोचना
पसंद नहीं
करोगे, क्योंकि वह
उतना विराट है
कि उसके बारे
में सोचना ही
असम्भव है।
तुम तो
प्रार्थना
करना चाहोगे,
तुम तो उसके
साथ गहन प्रेम
में डूबना
चाहोगे।
आश्चर्य
श्रद्धायुक्त
भय बन जाता है
जब वह तुम्हारे
अंदर
प्रश्नचिह्न
निर्मित नहीं
करता।
दर्शनशास्त्र
और धर्म के
मध्य यही अंतर
है और तब
दोनों के
मार्ग दो पूरी
तरह विरोधी
दिशाओं में
चले जाते हैं
एक दार्शनिक
विचार और
विचार किए ही
चला जाता है
और एक धार्मिक
व्यक्ति सोच—विचार
छोड़ता चला
जाता है।
परमात्मा
तुम्हारे
अंदर
श्रद्धायुक्त
भय के द्वारा
ही प्रविष्ट
होता है। मैं
हमेशा यहां
बने रहने की
तीव्र कामना
हूं लेकिन न
जाने क्यों
तुम्हें
देखते ही मैं
श्रद्धायुक्त, भय और
आश्चर्य से भर
जाता हूं।
उसे
इसी तरह का
होना भी चाहिए।
यदि तुम
श्रद्धायुक्त, भय या
आश्चर्य के
भाव से नहीं
भरते हो, तो
तुम्हारा
मेरे पास आना
ही व्यर्थ है।
यदि तुम
प्रार्थनापूर्ण
नहीं होते, यदि तुम
मेरे सामने
झुकने जैसे
भाव का अनुभव
नहीं करते, यदि तुममें
समर्पण करने
का भाव
उत्पन्न नहीं होता,
तो तुम मेरे
पास आये ही
नहीं।
शारीरिक रूप
से तुम यहां
हो सकते हो, आध्यात्मिक
रूप से हम लोग
एक दूसरे से
काफी दूर है।
यह कई
बार घटता है।
प्रत्येक दिन
मैं बहुत से
ऐसे लोगों का
निरीक्षण
करता हूं
जिनके पास अभी
भी जीवंत हृदय
है और जिन्हें
श्रद्धायुक्त
भय का अनुभव
हो रहा है।
लेकिन वे उसको
दबाना शुरू कर
देते हैं। वह
ऐसा अनुभव
करते हैं जैसे
मानो वह एक
तरह की बीमारी
हो और उन्हें
उसे प्रकट
नहीं होने
देना है। यदि
वे चिल्लाना
या रोना चाहते
हैं तो अपने आंसू
रोक लेते हैं।
वे पूछने के
लिए अनेक
प्रश्नों के
साथ आते हैं
कि अचानक वे
सभी प्रश्न
वहां नहीं
होते, क्योंकि
श्रद्धायुक्तभय
की
चित्तवृत्ति
में प्रश्न
गिर जाते हैं।
वे अपने
प्रश्न ही भूल
जाते हैं। और
वे इस बारे
में चिंतित हो
जाते हैं कि
उनके प्रश्न
कहां चले गए
और वे अंदर
उत्तेजित, होकर
कुछ ऐसी चीज
खोजने लगते
हैं, जो
उन्हें बांध
सके, जिससे
श्रद्धायुक्त
भय उन्हें
अपने शक्ति पाश
में न बांध ले।
कभी—कभी वे
बेवकूफी भरे
प्रश्न पूछते
हैं, बस
केवल पूछने के
लिए ही जिससे
कोई भी उनके
प्रति सजग न
हो सके कि
उन्होंने
अपनी
आधारभूमि ही
खो दी है और वे
किसी गहरे गढ़े
में गिर पड़े
हैं और वे
उसका
प्रतिरोध
करने में उतने
सक्षम नहीं
हैं और तब वे
मुझसे चूक जाते
हैं। तब वे
मेरे पास आते
जरूर हैं।
लेकिन फिर भी
वे पास आते ही
नहीं।
मेरे
पास आने का
अर्थ है—तैयार
रहना। यह सवाल
प्रश्न पूछने
का नहीं है।
वास्तव में
वहां इसकी
जरूरत है भी
नहीं, बस
केवल मेरे
निकट बने रहने
की बात है, मेरे
साथ एक ही
पंक्ति में
खड़े होने की बात
है। थोड़ी देर
मेरे साथ सांस
लो कुछ देर के
लिए अपने हृदय
की धड़कनें
मेरी धड़कनों
के साथ धड़कने
दो, जिससे
तुम मेरी आंखों
द्वारा देख
सको, जिससे
तुम उसका थोड़ा
सा स्वाद ले
सको, जिसने
मुझे पूरी तरह
अपने अधिकार
में ले रखा है
और मैं आवेशित
हूं।
लेकिन
भय उठ खड़ा
होगा, क्योंकि
जब भी कोई चीज
तुम्हारे मन
से बड़ी होती
है, तो
तुम्हारा मन
कहता है—’‘ आगे
मत बढ़ो, वहां
खतरा हो सकता
है। तुम शायद
वापस लौटने
में समर्थ न
हो सको।’’ और
मन यह भी कहता
है—’‘ यह तो
लगभग पागल है।
अपनी बुद्धि
पर काबू रखो, अपने सोचने
की क्षमता
बनाये रखो, तर्क—वितर्क
करना भूलो मत।
तुम करने क्या
जा रहे हो?''
और तुम
सभी को तर्क
में
प्रशिक्षित
किया गया है।
लेकिन किसी को
भी किसी भी
तरह से प्रेम
करना नहीं
सिखाया गया है।
यह
श्रद्धायुक्त
भय की भावना
केवल
तुम्हारे हृदय
पर किसी चीज
का जोर देने
की कोशिश करना
है, जिसको
समाज द्वारा
और अन्य
शक्तियों
द्वारा और तुम्हारे
मन द्वारा
दबाया गया है।
अथवा अपने
अधिकार में
लेने की कोशिश
की गई है।
मन और
कुछ भी नहीं, बल्कि
तुम्हारे
अंदर बैठा
समाज है, अथवा
वे पुरोहित और
राजनीतिक लोग
जो सत्ता और शक्ति
के पीछे पागल
हैं, वे ही
तुम्हारा मन बन
गए हैं। वे ही
अंदर से
तुम्हें
नियंत्रित
करने का प्रयास
करते हैं। जब
श्रद्धायुक्त
भय और आश्चर्य
का उदय होता है,
तुम जैसे एक
अनंत सागर में
गिर जाते हो, बिना यह
जाने हुए कि
अब आगे क्या
होने जा रहा है?
उन क्षणों
में तुम भाग
जाना चाहते हो,
तुम अपनी आंखें
बंद कर लेते
हो, तुम
किसी तरह अपने
पर नियंत्रण
बनाए रखते हो,
क्योंकि
तुम्हें
हमेशा यही
बताया गया है
कि नियंत्रण
रखने का बहुत
अधिक मूल्य है।
इसीलिए
प्रत्येक जगह
तुम नियंत्रण
किए चले जाते
हो। तुम
विश्वास नहीं
कर सकते
क्योंकि
विश्वास करने
का अर्थ है कि
स्वयं पर से
तुम्हारा
नियंत्रण हट
कर किसी अन्य
के हाथों में
चले जाना। तुम
समर्पण नहीं
कर सकते तुम
प्रेम नहीं कर
सकते और तुम
प्रार्थना
नहीं कर सकते।
यहां तक कि जो
लोग प्रेम कर
रहे हैं, वे
भी समर्पण
नहीं कर सकते,
वे गहरे में
नियंत्रण किए
चले जा रहे
हैं। इसीलिए
हम वास्तविक
शिखर से चूक
जाते हैं। वे
प्रेम करने की
विधियां सिखा
रहे हैं। वे
बहुत चतुरता
से प्रेम करने
वाले बन सकते
हैं। लेकिन वे
प्रेम से चूक
जाते हैं।
क्योंकि
तुम्हारे साथ
उसे कुछ करना
ही नहीं है।
प्रेम
तो तभी घटता
है जब तुम
वहां नहीं
होते। प्रेम
तो तभी घटता
है, जब
तुम अस्तित्व
को सब कुछ
समर्पित कर
देते हो। तब
वहां एक
परमानंद के
शिखर का अनुभव
होता है। तब
तुम अपने
अस्तित्व के
चरम शिखर पर
पहुंचते हो, और तुम पूरे
अस्तित्व को
जैसे हिमालय
के सर्वोच्च
शिखर
गौरीशंकर से
देखते हो।
और तब
एक पूरी तरह
भिन्न हृदय
दिखाई देता है
और वह देखना
ही तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित कर
देता है।
इसलिए
जब तुम मेरे
पास आओ तो
अपने पर
नियंत्रण
खोने के लिए
तैयार हो जाओ।
यही तुम्हारे
यहां आने का
पूरा
उद्देश्य भी है, अन्यथा
यहां आओ ही मत।
यदि तुम कोई
चीज पूछ रहे
हो तो अपनी
जानकारी या
ज्ञान से मत
पूछो।
तुम्हारा
पूछना भी
तुम्हारे
प्रेम से ही
उद्भूत होना
चाहिए।
तुम्हारा
पूछना इसलिए
होना चाहिए कि
तुम कैसे
रहस्य में
गहरे उतर सकी,
न कि उस
रहस्य को
समाप्त करने
के लिए न कि
उसे स्पष्ट
करने के लिए
बल्कि इसलिए
कि कैसे अव्याख्य
शाश्वतता में
गहरे से गहरे
उतरा जाये, क्योंकि यह
वही है जिसे
परमात्मा
कहते हैं।
इसलिए
मेरे साथ
परमात्मा का
थोड़ा सा स्वाद
लो। मुझे एक
द्वार बनने की
अनुमति दो।
परमात्मा से
सीधे
साक्षात्कार
करना तुम्हारे
लिए कठिन होगा।
वह अपनी
परिपूर्णता
में इतना अधिक
प्रकाशमय होगा
कि तुम्हारी आंखें
चुंधिया जायेंगी।
तुम सूर्य की
ओर प्रत्यक्ष
देख ही नहीं
सकते, तुम्हारी
दृष्टि जाती
रहेगी। एक
सद्गुरु का
यही अर्थ होता
है वह तुम्हें
उस मात्रा में
परमात्मा के
दर्शन कराता
है, जिसे
तुम बरदाश्त
कर सकी। वह
तुम्हें
परमात्मा
होम्योपैथिक
दवा की तरह
देता है, और
धीमे— धीमे
उससे अधिक
शक्ति की डोज
देता जाता है।
तुम उसे
अवशोषित करने
में जितने
समर्थ होते हो,
वह उतनी ही
ऊंची शक्ति की
डोज देता है।
एक दिन जब तुम
प्रत्यक्ष
रूप से सूर्य
का सामना करने
में समर्थ हो
जाते हो, वह
बस गायब हो
जाता है। फिर
वह तुम्हारे
और परमात्मा
के बीच रहता
ही नहीं।
यह ठीक
वैसा ही है, जैसे जब
तुम तैरना
शुरू करते हो।
पहले तुम बस
किनारे पर
उथले पानी में
सीखते हो। यह
स्वाभाविक
व्यावहारिक
और
बुद्धिमत्तापूर्ण
है। तब तुम
ज्यों—ज्यों
अधिक से अधिक
समर्थ होते हो,
तुम नदी के
गहरे भाग की
ओर बढना शुरू
कर देते हो।
और तैयार होकर
एक दिन तुम
सागर में जाने
के लिए समर्थ
हो जाते हो।
जब तुम
मेरे पास आते
हो, तो
तुम अपनी
उपस्थिति पर
जोर देने के
बजाए वस्तुत
वहां मुझे बने
रहने की
अनुमति दो।
तुम पिघल कर
मिट ही जाओ, और वहां
मुझे बने रहने
दो। तुम अपनी
सभी खिड़कियां
और दरवाजे
खुले रखो। तुम
अपने द्वारा
मुझे गुजरने
की अनुमति दो।
इस तरह से
बहुत कुछ
घटेगा।
तुम्हारे
प्रश्नों से
कुछ भी घटने
वाला नहीं, क्योंकि वे
और कुछ भी
नहीं, केवल
मन की
उत्तेजना
मात्र हैं।
लेकिन मैं
हमेशा देखता
हूं कि जब लोग
श्रद्धायुक्त
भय का अनुभव
करने लगते हैं,
वे स्वयं
अपने आप की
सुरक्षा करना
शुरू कर देते
हैं। तब वे
पूरे
उद्देश्य को
ही अनकिया कर
देते हैं।
अपना बचाव या
सुरक्षा मत
करो। यदि तुम
अपनी सुरक्षा
करोगे तो मैं
तुम्हारी सहायता
किस प्रकार कर
सकूंगा?
वहां
कोई दूसरा
रास्ता है ही
नहीं—मैं
तुम्हारे
विरुद्ध ही
तुम्हारी
सहायता नहीं
कर सकता। मैं
केवल तुमसे
गहरा सहयोग
मिलने पर ही
तुम्हारी
सहायता कर
सकता हूं। यदि
तुम उसमें
शिरकत करते हो, केवल तभी
यात्रा शुरू
की जा सकती है।
लेकिन
मैंने अनुभव
किया है कि कई
बार बहुत से लोग
अंतर्यात्रा
पर चलना चाहते
हैं, लेकिन
जब वह शुरू
होती है, तो
वे लोग उस जगह
से, जहां
वे खड़े हुए
हैं, बंधना
शुरू कर देते
हैं, और
अपनी जमीन को
खोना नहीं
चाहते। लेकिन
तब यात्रा
कैसे शुरू हो
सकती है। जो
कुछ तुम्हारे
पास नहीं है
और जो कुछ
तुम्हें
प्राप्त करना
है, तो
उसके लिए
तुम्हें अपने
आप को खोना ही
होगा।
जीसस
ने कहा है—’‘ जो लोग
मेरा अनुसरण
करना चाहते
हैं, उन्हें
प्रत्येक चीज
से स्वयं अपने
आप से भी इन्कार
करना होगा। एक
लंबा समय
लगेगा, सद्गुरु
और शिष्य के
मध्य जो कुछ
ठीक इसी क्षण
घट सकता है।
वह अधिक समय
इसलिए लेता है
क्योंकि
शिष्य और कई
तरह से अपने
आपको बचाए चले
जाते हैं और
कई तरह से
अपने को ठीक
होना सिद्ध
करते हैं।’’
बाउल गाते
हैं—
देख......
उसके
लिए अपने ही
देह के मंदिर
में
जरा
झांक कर देखा।
बोलते
हुए गाते हुए
और धुनें
गुनगुनाते
हुए
वह
लुका—छिपी के
खेल का
विशेषज्ञ है।
कोई
भी उसे देख
नहीं सकता।
ओ
मेरे हृदय!
उसे
पकड़ने की
कोशिश मत कर।
तू पूरी
श्रद्धा से
उसको
पाने की केवल
आशा कर सकता
है।
जब तुम
गहन श्रद्धा
युक्त भाव और
आश्चर्य में डूबे
हो और यदि
तुम्हारा इसी
स्थिति में
बने रहने का
साहस है तो
शीघ्र ही
तुम्हारी
चेतना एक सौ
अस्सी डिग्री
का घुमाव लेगी।
वहां तभी वह
घुमाव होगा यदि
तुम इस
श्रद्धायुक्त
भय और आश्चर्य
के भाव से अलग
हुए बिना अपने
विचारों, अपनी
सुरक्षा और
अपनी बात तर्क
से सही सिद्ध
करने की जिद
से इस
भावस्थिति को
प्रदूषित
किये बिना
परिपूर्ण
शुद्ध होकर
कुछ समय इस
बारे में बिना
कुछ भी किए
हुए बस
परिपूर्णता
से बने ही रहो—
तो वहां एक
मोड़ आयेगा।
यह वही
है जिसे ईसाई
धर्मातंरण
कहते हैं।
इसका यह अर्थ
नहीं होता कि
एक हिंदू ईसाई
बन जाता है, यह तो एक
मूर्खता है।
इसका यह भी
अर्थ नहीं कि
एक ईसाई हिंदू
बन जाता है। धर्ग्मातरण
का अर्थ है—तुम्हारी
चेतना में एक
महान मोड़ आना,
घूमकर एक
दिशा परिवर्तन
होना।
रूपांतरण हो
जाना।
यदि
तुम कुछ क्षण
मेरे साथ बने
रहो, बस
केवल शुद्ध
श्रद्धायुक्त
आश्चर्य भाव
से उस भावदशा
को किसी भी
तरह से भ्रष्ट
न करते हुए
कोई भी कैसी
भी कुछ भी चीज
न करते हुए
केवल उसी
स्थिति में
बने हुए उसे
वैसा ही बने
रहने की अनुमति
देते हुए—तो
वहां एक सौ
डिग्री का
घुमाव, परिवर्तन
और धर्मातंरण
होगा ही।
अचानक मैं
गायब हो
जाऊंगा, विसर्जित
हो जाऊंगा और
तुम अपने ही
अस्तित्व के
आमने—सामने
होंगे।
परमात्मा
तुम्हारे ही
अंदर छिप रहा
है।
देखो......
उसके
लिए अपने ही
देह के मंदिर
में देखो।
संसार
के स्वामी के
रूप में
वह
वहीं
विराजमान है।
बोलते, गाते और
धुनें
गुनगुनाते
हुए
वह
लुकाछिपी के
खेल का परम
विशेषज्ञ है।
उसे
कोई भी देख
नहीं सकता.......
क्योंकि
उसे देखने का
प्रयास ही
तुम्हें उससे
पृथक कर देता
है, उसे
देखने का
प्रयास ही उसे
एक वस्तु बना
देता है। और
वह कोई वस्तु
या पदार्थ
नहीं है, वह
तुम्हारी ही
अपनी
वैयक्तिकता
है। अस्तित्व
से घटाकर उसे
एक वस्तु नहीं
बनाया जा सकता।
वह है ही नहीं।
वह कोई खोज
नहीं है, वह
खोजने वाला है।
वह तुम्हारी
ही चेतना है, तुम्हारी
शुद्धतुम
चेतना। वह
तुम्हारा ही ?—अन्तर्आकाश
है। तुम उसे
देख नहीं सकते,
क्योंकि वह
तुम्हारे ही
अन्दर छिपा है।
वहां
एक सुंदर बोध
कथा है...
जब
परमात्मा ने
संसार बनाया, उसने इसी
पृथ्वी पर
रहना शुरू
किया। लेकिन
उसके लिए वहां
बहुत बड़ी
मुसीबत हो गई।
शिकायतों और
हर वक्त की
शिकायतों के
कारण वह ठीक
से सो भी नहीं
पाता था और
सारे वह लोगों
की समस्याओं
को हल किया
करता था और
रात में भी वे
उसका दरवाजा
खटखटाते रहते
थे और वहां
संसार की हालत
सुधारने की
बाबत बहुत
सारे
सुझान्त्र भी
थे जिन्हें
प्रारंभ करते
हुए ही वह
लगभग पागल
जैसा हो गया।
ऐसा लगता था
जैसे मानो
कहीं भी कुछ
भी ठीक न हो
रहा हो—लाखों
सलाह देने
वाले थे मगर
वह सभी की
सुनते—सुनते
थक गया। यदि
वह एक मनुष्य
की सलाह सुनता
तो एक हजार एक
लोग वहां उसका
विरोध करने
वाले थे। वहां
कोई भी काम
करना बहुत
मुश्किल था।
उसने अपने
मंत्रियों और
सलाहकारों से
पूछा—’‘ आखिर
किया क्या
जाये? मैं
किसी जगह जाकर
छिप जाना
चाहता हूं।’’
किसी
ने सुझाव दिया—’‘ आप गौरी
शंकर शिखर पर
कों नहीं चले
जाते? अभी
तक वहां कोई
भी नहीं पहुंच
सका है। आप
वहां अपना घर
बना सकते हैं।’’
उसने
कहा— '' तुम
भविष्य नहीं
जानते। बस कुछ
ही मिनटों
बाद... '' परमात्मा
के लिए वे कुछ
मिनट ही थे, हमारी
शताब्दिया
उसके लिए क्षण
मात्र हैं, — 'बस कुछ ही
मिनटों के बाद
यह मनुष्य
हिलेरी वहां
पहनेगा और तब
फिर वही
मुसीबत फिर से
शुरू हो जाएगी।’’
और फिर
किसी ने कहा—’‘ चांद पर
क्यों नहीं?'' उसने कहा— '' वह भी कुछ ही
मिनटों का
सवाल है।
शीघ्र ही मनुष्य
चंद्रमा पर
चहलकदमी
करेगा। इससे
किसी भी चीज
का समाधान न
निकलेगा। यह
तो बस आधिक से
अधिक स्थिति
को थोड़ा
स्थगित करने
जैसा होगा।’’
तब
बूढ़ा मंत्री
उसके निकट आया
और उसके कानों
में कुछ कहा
और वह चांद की
बांहों में? बहुत खुश
होकर बोला—’‘ ठीक! यही
समाधान सबसे अधिक
पूर्ण दिखाई
देता है।’’
उस के
व्यक्ति ने
सुझाव दिया था—’‘ आप स्वयं
मनुष्य के
हृदय के अंदर
जाकर छिप जाइए।
वहां वह आपको
न खोज सकेगा।
और यदि वह
आपको वहां खोज
भी लेता है तो
वह मनुष्य
इतना अधिक
प्रज्ञावान
होना चाहिए कि
वह आपके लिए
कोई मुसीबत
खड़ी न करेगा।
हिलेरी
मुसीबतें
उत्पन्न कर
सकता है, लेकिन
आपको अपने
अंदर खोज लेने
वाले बुद्ध ऐसा
नहीं कर सकते,
क्योंकि
जिस समय वे
आपको अपने
अंदर खोज
लेंगे, वे
लोग भी लगभग
आपके ही समान
हो जाएंगे।
उनकी न तो कोई
शिकायतें
होगी, न
उनके कोई
प्रश्न होंगे।
वे आप जैसे ही
शांत और मौन होगे
और उतने ही
गहरे होंगे
जितने आप
स्वयं हैं।
जिस समय वे
अपने अंदर आप
तक पहुंचेगे
वे पूरी तरह
रूपांतरित हो
चुके होंगे।
उनकी
अंतर्यात्रा
एक परिवर्तन
ला देगी उनमें।
परमात्मा
तुम्हारे ही
अंदर छिपा है, लेकिन
तुम वहां
परमात्मा को
प्रत्यक्ष
रूप से नहीं
देख सकते, क्योंकि
तुम यह नहीं
जानते कि वहां
कैसे पहुंचा
जाये।
एक
विधि या एक
रास्ता तो
ध्यान है तुम
अपने विचारों
को छोड़ना शुरू
करो। एक दिन
जब कोई भी
विचार न होगा, न उसकी
कोई तरंग होगी
और तुम अमन
में होंगे, तुम वहां
पहुंच जाओगे।
धर्मातंरण घट
जाएगा। और
दूसरा रास्ता
है प्रार्थना।
वह सन्यासिन
जिसने यह
प्रश्न पूछा
है—रामाभारती
है। उसका पथ, प्रेम और
प्रार्थना
बनने जा रहा
है। यही कारण
है कि वह इतना
अधिक श्रद्धा
से भरे आश्चर्य
भाव का अनुभव
कर रही है। जब
वह मेरे निकट
आती है तो
मैंने उसे
लगभग कांपते
हुए देखा है, जैसे मानो
कोई अज्ञात
हवा उससे होकर
गुजर रही है।
मैंने उसके
हृदय को एक
अज्ञात लय में
धड़कते हुए
देखा है।
प्रेम ही उसका
मार्ग है। उसे
इसी
श्रद्धायुक्त
भय और आश्चर्य
के गुण का जो
बहुत दुर्लभ
होता है, प्रयोग
कर लेना है।
बहुत कम लोगों
को इसकी
अनुभूति होती
है। यह चीज
संसार से
लुप्त होती जा
रही है।
लोग
बहुत अधिक
बुद्धि प्रधान
हो गए हैं।
अधिकतर लोग
अपने सिर या
बुद्धि के जाल
में ही अटके
रहते हैं। वे
लोग हृदय की
भाषा भूल ही
गए हैं।
श्रद्धायुक्त
भय और आश्चर्य
उसी भाषा की
लिपि है। इसका
अनुभव करो, उसे
अनुमति दो कि
वह तुम्हें
अपने अधिकार
में लेकर
तुम्हें
आवेशित कर दे।
यह तुम्हें
अपने गहनतुम
मंदिर में, जो अपना ही
अस्तित्व है,
ले जायेगी।
वहां एक संवाद
घटित होगा और
उसी क्षण में
तुम्हारी
चेतना में एक
महान मोड़
आयेगा। अचानक
वह दृष्टि
मेरी ओर न
देखते हुए
स्वयं को ही
देखना शुरू कर
देगी। परमात्मा
को जानने का
केवल यही
मार्ग है।
दूसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो! जब आप एक
ज़ेन सदगुरु की
भांति बोलते
हुए हमें बता
रहे थे कि
हमें अपना
मार्ग चुनकर
उसी से बंधे
रहना चाहिए? तब मैने
महसूस किया कि
निश्चित रूप
से मेरा मार्ग
बुद्धिप्रधान
ध्यान का है? क्योंकि मैं
कभी भी किसी क?ए समर्पण
करने में
समर्थ न हो सकूगी लेकिन
अब बाउल
रहस्यदर्शियों
पर आपका एक
प्रवचन सुनने
के बाद मुझे
ऐसा लग रहा है
जैसे मैं किसी
के प्रेम में
बीमार कॉलेज
की कोई छोकरी
बन गई हूं पथ
कैसे चुना जाए
तब आपका कोई
मार्ग है ही
नहीं कैसे
अपना ही दिया स्वयं
बना जाये,
जब आपके
प्रकाश से
प्रत्येक
सुबह मैं
चकाचौधं से भर
जाती हूं।
मैं तुम्हारी
कठिनाई समझ
सकता हूं
लेकिन यह जानबूझकर
निर्मित की जा
रही है। मैं
तुम्हें एक
मार्ग से
दूसरे मार्ग
पर कई बार
फेंकूंगा, क्योंकि
तुम्हारे लिए
केवल वही एक
रास्ता है, जिससे तुम
खोज सको कि
तुम्हारा
मार्ग कौन सा
है। कभी—कभी
मैं तुम्हें
प्रेम और
प्रार्थना की
ओर जाने के
लिए विवश
करूंगा।
तुम्हें
दोनों के ही
स्वाद की
जरूरत होगी, केवल तभी
तुम इस बारे
में निर्णय ले
सकोगी, अन्यथा
नहीं। केवल
मुझे सुनकर ही
तुम कोई
निर्णय नहीं
कर सकती
क्योंकि जब तुम
मुझे सुन रही
हो, तुम
मुझसे बहुत अधिक
प्रभावित हो
जाती हो।
इसलिए
यह मेरी
कार्यविधि का
एक भाग है, एक मैं
ध्यान पर
बोलता ' और
दूसरे दिन मैं
प्रेम पर
बोलता हूं।
मैं तुम्हें
दोनों ही
मार्गों का स्वाद
देना चाहता हूं,
क्योंकि वह
स्वाद ही
निर्णय होगा।
केवल वही तै
करेगा तुम्हारा
कौन सा मार्ग
है तुम्हें
कहां वास्तव
में बहने का
अनुभव होता है,
तुम्हें
कहां वास्तव
में स्वाभाविकता
का अनुभव होता
है। कहां
चीजें स्वत' आने आप घटती
हैं, 'गो
तनों उनके जोर
नहीं लगाना
पड़ता वही
तुम्हारा
मार्ग है।
लेकिन उसे
जानौगी कैसे?
जब तुम मुझे
सुनती हो, जब
मैं प्रेम के
बारे में
चर्चा कर रहा
होता है। तुम
उससे
प्रभावित हो
जाती हो, यह
एक तरह का
सम्मोहन है।
जब मैं प्रेम
के बारे मैं गुनगुनाने
और गाने लगता
हूं तो तुम
उससे
सम्मोहित हो
जाओगी। तुम
सोचने लगोगी—’‘
हां! यही
मेरा पथ है।’’ लेकिन यह तो
बस मेरे
द्वारा
निर्मित एक
लहर है। वह
तुम्हारी लहर
भी हो सकती है।
वह तुम्हारी
लहर नहीं भी
हो सकती है।
और तुम उसे
जान नहीं सकती।
और
तुम्हारा
पूरा जीवन
दूसरों के
द्वारा इतना अधिक
आदतों और
अनुशासन के
सांचे में ढल
चुका है कि तुम
दूसरों से
बहुत शीघ्र
प्रभावित हो
जाती हो। तुम
तुरंत बाहर से
विचार और
प्रभाव ले
लेती हो। यदि
तुम मुझे
ध्यान पर
बोलते हुए
सुनती हो, तुम उससे
प्रभावित हो
जाती हो। यही
कारण है कि
साधारण
सद्गुरु वह सब
कुछ नहीं करते,
जो मैं यहां
कर रहा हूं।
वे निरंतर
अपने पूरे
जीवन भर एक ही
मार्ग पर चलने
का आग्रह करते
हैं। लेकिन तब
बहुत से लोग
केवल उसी
मार्ग का अनुसरण
करते हैं, क्योंकि
उनके सद्गुरु
ने निरंतर उस
बारे में इतना
अधिक आग्रह
किया था कि वे
उसका अनुसरण
करने लगे। वह
उनका मार्ग
नहीं भी हो
सकता है।
इसलिए बिना
किसी बाहर के
नियंत्रण के
स्वतंत्र
मार्ग ही मेरा
मार्ग है, यह
एक नया प्रयास
है।
मैं
सभी तरह के
मार्गों और
सभी तरह की
विधियों पर
चर्चा करता
रहूंगा। शुरू—शुरू
में तुम्हें
यह सब कुछ
बहुत
उलझनपूर्ण लगेगा, लेकिन यह
ऐसा लगे, यही
मेरा मतलब है।
मैं तुम सभी
को इतना अधिक
हक्का—बक्का
कर देना चाहता
हूं कि तुम
लोग किसी के
भी द्वारा
प्रभावित
होने की बात
भूल ही जाओ।
मेरा पूरा
प्रयास यही है
कि तुम्हें
वापस तुम्हारे
स्वयं के पास
फेंक दिया जाए।
तुम कितने समय
तक ऐसे करते
रह सकते हो? एक दिन तुम
ध्यान के बारे
में सोच रहे
होते हो, और
तब मैं प्रेम
की चर्चा करने
लगता हूं। और
तुम प्रेम के
बारे में
सोचना शुरू कर
देते हो। मैं
फिर जब ध्यान
के बारे में
बोलूंगा तब
फिर तुम्हारे
लिए यही
समस्या खड़ी
होगी। तुम
कितनी लंबी
अवधि तक मुझसे
और मेरे वचनों
से प्रभावित
होती रहोगी।
एक दिन या
अगले दिन तुम
कहोगी—’‘ अब
मुझे कुछ तै
कर लेना है।
यह शख्स तो
मुझे पागल बना
देगा।’’
जे.
कृष्णमूर्ति
कहा करते थे—’‘ कभी किसी
से प्रभावित
मत होना।’’ लेकिन
वह बहुत ही
नियमित
व्यक्ति थे, सिद्धांतों
में बहुत दृढ़।
और उनकी
नियमितता की
उनके अनुसरण
करने वालों पर
गहरी छाप पड़
गई थी। वह कहा
करते थे—’‘ कभी
किसी से
प्रभावित मत
होना। लेकिन
वह चालीस
वर्षों तक
इतनी
नियमितता से इस
वक्तव्य को
दोहराते रहे
कि लोग उस
बारे में उन्हीं
से प्रभावित
हो गए। वे
कहते, क्योंकि
कृष्णमूर्ति
कहते हैं—’‘ कभी
किसी से
प्रभावित मत
होना, हम
किसी से भी
प्रभावित
होने नहीं जा
रहे हैं, लेकिन
यह भी उनका
प्रभाव ही तो
है।’’
जो कुछ
कृष्णमूर्ति
कहते थे, मैं ठीक वही
कर रहा हूं।
वह सिर्फ कह
भर रहे थे, और
मैं उसे कर
रहा हूं।
मैं
तुम्हें
प्रभावित
होने की भी
अनुमति नहीं
दूंगा। यदि
भले ही तुम
उसे चाहते ही
क्यों न हो, वहां और
कोई मार्ग ही
नहीं है—’‘ मैं
उसे निरंतर
बदलता रहूंगा।
मैं कुछ बीज
आज बोऊंगा, कल मैं
उन्हें वापस
खोद लूंगा।
मैं आज कुछ
नये पौधे
लगाऊंगा कल वह
भी नहीं रहेंगे,
तुम आखिर कब
तक मेरी
प्रतीक्षा
करोगे?
एक दिन
तुम कहोगे— '' जरा
प्रतीक्षा
करें, अब
मुझे मार्ग
चुन लेने दें।
यह सब बहुत हो
चुका अब।
लेकिन उस समय
तक तुम्हारी
चेतना इस
मार्ग से उस
मार्ग और उससे
इसकी ओर इतनी
अधिक बार एक
पटरी से दूसरी
पटरी पर आ—जा
चुकी होगी और
तुम्हें
दोनों की कुछ
झलकें भी मिली
होंगी। तुमने
थोडा सा स्वाद
प्रेम और
प्रार्थना का,
थोड़ा सा
स्वाद ध्यान
का, कुछ
योग का, थोड़ा
सा स्वाद मीरा
और चैतन्य का
और थोड़ा सा
स्वाद बुद्ध
और महावीर का
भी जरूर लिया
होगा। तुमने
दोनों का ही
स्वाद लिया
होगा, और
तब तुममें से
ही एक निर्णय का
उदय होगा। और
वह मेरे कारण
नहीं, तुम्हारे
ही कारण होगा।
और जब कोड चीज
तुम्हारे
कारण ही
उद्भूत होगी तो
वह असली होगी,
वह प्रामाणिक
होगा। तह
रूपांतरण
करती है, वह
रूप और आकृति
बदल देती है
और वह तुम्हें
दूसरे संसार में
ले जाती है।
यदि वह केवल
एक प्रभाव है,
क्योंकि
मैं इस बारे
में कुछ चीज
निरंतर बार——बार
कहता रहा हूं
तब वह
तुम्हारे मन
की गहराई में
ठीक एक सुझाव
की भांति अपनी
जड़ें जमा लेती
है। तुम यह
सोच सकते हो
कि तुमने
मार्ग तै कर
लिया लेकिन वह
तुम्हारा
अपना निर्णय
नही होता।’’
कृष्णमूर्ति
ने एक भी
विरोधाभासी
वक्तव्य कभी
दिया ही नहीं, बस एक ही
बात निरंतर
दोहराते रहे।
उनका समझाने
के लिए दिया
गया विवरण सरल
और स्पष्ट
है? उस
बारे में वहां
कोई भ्रम है
ही नहीं।
तुम
उससे सहमत हो
अथवा सहमत न
हो, यह
दूसरी बात है— लेकिन
इस बारे में
वहां कोई भी
भ्रम नहीं है।
कोई भी यह
नहीं कह सकता
कि वे चकित कर
रहे हैं, या
तुम्हें उलझन
में डाल रहे
हैं। तुम यह
तो कह सकते हो
कि वह ठीक है, तुम उसे गलत
भी कह सकते हो,
लेकिन यह
नहीं कह सकते कि
वह भ्रम पूर्ण
है।
मेरे
बारे में तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं
ठीक हूं अथवा
गलत हूं। अधिक
से अधिक तुम
कह सकते हो कि
मैं तुम्हें
उलझन में
डालकर हक्का—बक्का
कर रहा हूं।
लेकिन मेरी
पूरी
कार्यप्रणाली
ही यही है कि
तुम्हें
जितना उलझन
में डाल सकूं, डालूं।
तुम कितनी
अवधि तक मुझे
अनुमति दोगे कि
मैं तुम्हें यहां
से हटाकर वहां,
अथवा वहां
से यहां हटा
सकूं? एक
दिन तुम चिललाओगे
— '' आप अपने
हाथ अब अलग
रखिये। अब मैं
निर्णय लेना
चाहता हूं।’’ और वह
निर्णय
तुम्हारा
अपना होगा। और
वह इसलिए नहीं
आयेगा
क्योंकि वह
विश्वास से
आया है, वह
दोनों
मार्गों के
वास्तविक
अनुभव के बाद
आया है। जब तुम
सभी मार्गों
का स्वाद ले
लोगे तब तुम
आसानी से
निर्णय ले
सकोगे 'गैर
तब तुम उस
निर्णय के साथ
जीवन भर रह
सकोगे।
यदि
तुम मुझसे प्रभावित
होते हो और तब
कोई निर्णय
लेते हो, तो कल तुम किसी
और से भी
प्रभावित हो
सकते हो, और
तब तुम दूसरा
निर्णय ले
लोगे। और यदि
मेरे प्रभाव
में आ सकते हो
तुम तो कल किसी
और के भी
प्रभाव में आ
सकते हो। इसी
तरह से लोग एक
सद्गुरु से
दूसरे के पास
जाते रहते हैं।
यहां
आकर किसी अन्य
दूसरी जगह
जाने की कोई
जरूरत नहीं है, क्योंकि
मेरे अंदर ही
सभी सद्गुरु
एक साथ हैं।
तुम यहीं बने
रह सकते हो और
सद्गुरु
बदलता रहेगा,
तुम्हें
कहीं और जाने
की आवश्यकता
ही नहीं। मैं
निरंतर स्वयं
अपने कहे को
ही उलटता रहता
हूं इसलिए
वहां कोई
समस्या है ही
नहीं।
तुम्हें और
कहीं जाने की
कोई जरूरत ही
नहीं, तुम
बस वहीं बने
रह सकते हो, जहां हो।
लोग
सद्गुरु
बदलते रहते
हैं, क्योंकि
एक दिन
तुम्हें कोई
बात प्रभावित
करती है और
तुम उस बारे
में आवश्यकता
से अधिक उत्तेजित
हो जाते हो और
तब वहा
मधुयामिनी
होती है लेकिन
वह समाप्त भी
हो जाती है।
जिस किसी भी
चीज की शुरुआत
होती है उसका
अंत भी होता
है। कुछ दिनों
बाद अति
उत्साह
समाप्त हो
जाता है। अब
सभी बातों से
पहचान हो जाती
है। अति
उत्साह
इसीलिए था
क्योंकि चीज
नई और अपरिचित
थी। इसकी
यांत्रिकता
को समझने का
प्रयास करें।
तुम एक
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाते हो, क्योंकि वह
नई है। उसकी
शारीरिक
संरचना उसके
शरीर के अंगों
का अनुपात, उसका चेहरा
और उसकी आंखें,
भौहें उसके
बालों का रंग,
जिस तरह वह
चलती है, जिस
तरह वह मुड़ती
है। उसकी हर
चीज नई है।
उसका पूरा
क्षेत्र
अज्ञात है।
तुम उसके
क्षेत्र के
बारे में पूरी
खोज करते हो, वह तुम्हें
आमंत्रित कर
रही है, वह
स्वयं एक
निमंत्रण है।
तुम सम्मोहित
हो जाते हो, उसके आकर्षण
में बंध जाते
हो, और जब
तुम उसके हो
जाते हो, उसके
आकर्षण में
बंध जाते हो
और जब तुम
उसके पास
पहुंचने की
कोशिश करते हो,
वह दूर
भागना शुरू कर
देती है। यह
खेल का एक भाग
है। वह जितनी
अधिक दूर
भागती है। वह
उतनी ही
आकर्षक हो
जाती है। यदि
वह सरलता से
कह देती है— '' हां मैं
राजी हूं।’’ तो आधा
उत्साह उसी
क्षण मुर्झा
जाता है।
वास्तव में
तुम सोचने
लगते हो कि
कैसे उससे दूर
भाग लिया जाए।
इसलिए वह
तुम्हें अपना
पीछा करने का
अवसर देती है।
लोग उतने
प्रसन्न कभी
नहीं होते, जितना उसके
प्रेम को
जीतने में
प्रसन्न होते हैं,
क्योंकि वह
पीछा करने
जैसा होता है।
पुरुष
आधारभूत रूप
से एक शिकारी
है, जब
वह स्त्री के
पीछे भागता
हुआ उसका पीछा
करता है, उसके
पीछे भागता है
और स्त्री इधर—उधर
अपने को
छिपाने का
प्रयास करती
है, टालती
है, नहीं
कहती है।
पुरुष अधिक से
अधिक उत्तप्त
होता है।
चुनौती और
अधिक बढ़ती
जाती है कि
स्त्री को किसी
तरह जीतना है।
अब वह उसके
लिए मर जाने
के लिए तैयार
हो जाता है
अथवा वह सब
कुछ करता है
जो
करनाना
आवश्यक है
लेकिन हर दशा
में स्त्री को
जीतना ही है।
उसे यह सिद्ध करना
है कि वह कोई
सामान्य
पुरुष नहीं है।
लेकिन एक बार
जब उनका विवाह
हो जाता है तो
प्रत्येक
चीज... क्योंकि
पूरी
दिलचस्पी तो पीछा
करने में थी, पूरी
दिलचस्पी तो —अपरिचित
रहने में थी, पूरी दिलचस्पी
तो तब थी, जब
स्त्री
प्रत्यक्ष
रूप से अविजित
लगती थी।
लेकिन अब उसे
जीत लिया गया
है अब फिर
कैसे पुरानी
दिलचस्पी बनी
रह सकती है? अधिक से
अधिक कोई ऐसा
बहाना बना
सकता है, लेकिन
दिलचस्पी
नहीं रह सकती।
सभी चीजें
ठंडी होना
शुरू कर देती
हैं। वे लोग एक
दूसरे से ऊबना
शुरू कर देते
हैं। क्योंकि
अब वहां दूसरी
स्त्रियां
हैं और फिर उनके
नए क्षेत्र
हैं, वे
आकर्षित करती
हैं, उत्तेजित
बनाती हैं और
आगे बढ़ने को
प्रोत्साहित
करती हैं।
यही सब
कुछ विचारों
के साथ भी
घटता है। तुम
एक तरह के
विचारों की ओर
आकर्षित होते
हो, लेकिन
कुछ समय
गुजरने पर तुम
उससे परिचित
हो जाते हो।
अपनी जान—पहचान
बढ़ा लेते हो, मिलन
मधुयामिनी
गुजर जाती है
और प्रेम का
नशा ठंडा पड़
जाता है। अब
तुम किन्हीं
नये विचारों
में रुचि लेना
शुरू कर देते
हो, कुछ नई
बातें
तुम्हें फिर
से एक नई
उत्तेजना देती
हैं, तुम्हें
झिझोड़ती हैं।
जिस तरह से
कोई पुरुष एक
स्त्री से
दूसरी के पीछे
और एक स्त्री
एक पुरुष से
दूसरे पुरुष
की ओर भागती
है, वैसे
ही तुम एक
विचारधारा से
दूसरी विचार
धारा की ओर, एक मार्ग से
दूसरे मार्ग
की ओर, तथा
एक सद्गुरु से
दूसरे
सद्गुरु की ओर
भागते हो। इस
तरह की खोज
तुम्हें कभी
यथेष्ट समय
देगी ही नहीं,
जिससे
विश्वास और
श्रद्धा
निर्मित हो
सके।
भारत
में
मध्यप्रदेश
के बस्तर जिले
में आदिवासी
अंचल में एक
आदिम कबीले के
लोग लगभग तीन
चार हजार वर्ष
पुरानी
परम्पराओं
में जीते हैं।
वे बिलकुल भी
समकालीन नहीं
है, लेकिन
उनसे कुछ चीज
सीखी जा सकती
हैं। उसके
समुदाय में एक
चीज ऐसी घटित
हुई है, जो
इससे पहले कभी
भी, कहीं
भी नहीं हुई, और वह यह है
कि एक बार
पुरुष जब एक
स्त्री से विवाह
कर लेता है तो
फिर कभी कोई
तलाक होता ही
नहीं। तलाक लेने
की वहां अनुमति
है, लेकिन
फिर भी वहां
कोई तलाक लेता
या देता नहीं।
और एक बार पुरूष
ने स्त्री से
विवाह कर लिया
तो वह उसके
साथ हमेशा
वफादार रहता
है, और इसी
तरह स्त्री भी
पुरुष के
प्रति
सत्यनिष्ठा
निभाती है।
पुरुष कभी भी
किसी दूसरी
स्त्री में
किसी भी तरह
की दिलचस्पी
लेता ही नहीं,
और न स्त्री
ही किसी दूसरे
पुरुष में
दिलचस्पी
लेती है।
उन्होंने यह
चमत्कार किया
कैसे? उन्होंने
इसे बहुत
मनोवैज्ञानिक
तरीके से किया
है।
उसके
समाज का ढांचा
ऐसा है कि
प्रत्येक
लड़के को
प्रत्येक
लड़की से मिलने
और उसके साथ
घुलमिल जाने
की पूरी छूट
है और यही छूट
प्रत्येक लड़की
को प्रत्येक
लड़के से भी
मिलने की है।
इसलिए कबीले
का हर लडका
प्रत्येक
लड़की को भली
भांति जानता
है और
प्रत्येक
लड़की भी कबीले
के प्रत्येक
लड़के को
भलीभांति
जानती है।
वास्तव में
समय आने पर जब
लड़के और
लड़कियों की रुचि
सेक्स में
जागृत होती है, वे रात
में अपने घरों
में नहीं रहते।
उनके
गांव के बीच
एक मंदिर जैसी
चीज एक बड़े झोंपड़े
के रूप में
होती है, जिसे वे
घोटुल कहते
हैं।
एक बार
एक लड़का जब
लड़कियों में
दिलचस्पी
लेने लगता है, तो उसे
घोटुल में
जाकर ठहरना
होता है और जब
कोई लड़की
लड़कों में
दिलचस्पी
लेने लगती है
तो उसे भी
घोटुल में
जाकर रहना
होता है। गांव
की सभी
लड़कियां और
सभी लड़के ये
सभी घोटुल में
ही रहते हैं
और एक दूसरे
से प्रेम करते
हैं। केवल एक
चीज पर ही जोर
दिया जाता है,
घोटुल का
अधीक्षक यह
आग्रह करता है
कि किसी भी
लड़के या लड़की
को एक दूसरे
के साथ तीनों
दिनों से अधिक
नहीं रहना
चाहिए।
उन्हें एक
दूसरे को इस
तरह बदलते
रहना चाहिए जिससे
विवाह करने से
पूर्व वे सभी
एक दूसरे के
बारे में भली
भांति जान लें,
और तब वे
चुनाव कर सकते
है।
जब तुम
अपने समुदाय
की सभी
स्त्रियों को
जानने के बाद
निर्णय करते
हो, तो
वह निर्णय उस
निर्णय से
पूरी तरह
भिन्न होता है
जो समाजों में
लिया जाता है।
तुम दूसरी
स्त्रियों को
नहीं जानते, एक बेहतर
स्त्री और एक
बेहतर पुरुष
की हमेशा संभावना
होती है। तब
तुम करोगे
क्या? एक
अधिक दिलचस्प
व्यक्तित्व
वहां हमेशा
बना रहेगा, तब वहां
आकर्षण होगा,
वहां
विकर्षण होगा
और तब वहां
समस्याएं
होंगी।
यह
बहुत छोटी
आबादी के गांव
हैं, जिनमें
अधिक से अधिक
जन समुदाय दो
सौ या तीन सौ
से अधिक नहीं
होता।
प्रत्येक
लड़के को हर
लड़की को जानने
समझने की छूट
होती है। जब
वह सभी
लड़कियों को
जान लेता है
और सभी लड़कियां
भी सभी लड़कों
को ठीक से जान
लेती हैं तभी
एक लड़का और एक
लड़की विवाह
करने का
निर्णय लेते
हैं। विवाह
होने से पूर्व
भी उन्हें साथ—साथ
रहने को एक
वर्ष कर समय
और दिया जाता
है, जिससे
वे अंतिम
निर्णय ले
सकें— क्योंकि
निर्णय लेने
से पूर्व एक
दूसरे को भली
भांति न जानना
खतरनाक होता
है। निर्णय केवल
तभी लिया जा
सकता है, क्योंकि
वे एक दूसरे
को भली भांति
जानना चाहते
हैं। लेकिन एक
बार जब वे एक
दूसरे को भली
भांति जान लेते
हैं, तब
फिर उनके
निर्णय से
होगा क्या? इसीलिए
उन्हें एक
दूसरे को एक
वर्ष या दो
वर्ष अथवा
जितने समय की
उन्हें जरूरत हो,
वे साथ—साथ
रह सकते हैं।
लेकिन
जब एक बार वे
विवाह करने का
निर्णय ले लेते
हैं, तो
वास्तव में वह
निर्णय बहुत
ठोस और पक्का
होता है, वह
परिपूर्ण और
बेशर्त होता
है क्योंकि अब
सभी जीतने
वाली बात चली
गई। शिकार
करने वाली बात,
और पीछा
करना भी चला
गया। उस
समुदाय में
विवाह से
पूर्व ही
मधुयामिनी हो
जाती है, जो
कहीं अधिक
तर्कपूर्ण
मनोवैज्ञानिक
और मनुष्य मन
के लिए अधिक
प्रामाणिक
होती है।
विवाह से
पूर्व ही
मधुयामिनी या
सुहाग रात्रि।
विवाह केवल
तभी सम्पन्न
किया जाता है,
जब
सुहागरात्रि
समाप्त हो
चुकी होती है।
जब दो व्यक्ति
एक दूसरे को
भली भांति जान
लेते हैं, साथ—साथ
रहने का
निर्णय लेते
हैं। अब यह
किसी स्त्री
को जीतने का
अथवा किसी नवीनता
का प्रश्न
नहीं रह जाता,
वे विवाह का
निर्णय इसलिए
नहीं करते, क्योंकि वे
एक दूसरे को
जानना चाहते
हैं, वे
विवाह करने का
निर्णय इसलिए
लेते हैं, क्योंकि
वे एक दूसरे
को जानते हैं।
यह पूरी तरह
भिन्न बात ही
होती है।
लेकिन
अब घोटुल की
यह प्रथा उन
समुदायों से
भी समाप्त
होती जा रही
है। वे लोग हम
लोगों के
द्वारा सभ्य
बनाये जा रहे हैं, उन्हें
बदलने को विवश
किया जा रहा
है, क्योंकि
यह प्रथा
अनैतिक
प्रतीत होती
है। कम से कम
ईसाई हिंदू और
जैन समाज को
तो वह अनैतिक
दिखाई ही देती
है। उनके
समुदाय को
नष्ट किया जा
रहा है, उनके
घोटुल को एक
वेश्यावृत्ति
करने का घर समझा
जाता है।
इसलिए उन्हें
उनके अनुभव के
विरुद्ध
प्रशिक्षित
किया जा रहा
है। उन्हें
घोटुल प्रथा
समाप्त करने
के बारे में
और इस अनैतिक
स्थिति को
रोकने के बारे
में सिखाया जा
रहा है।
लेकिन
मनुष्य पूरी
तरह मूढ दिखाई
देता है। वे
लोग अनैतिक
नहीं है, वे बहुत
नैतिक, सरल
और सहज लोग
हैं। लेकिन
ईसाई उनके बीच
कार्य करते
हुए उनका ईसाई
धर्म में
रूपांतरण
करने का
प्रयास कर रहे
हैं। उन लोगों
ने बहुत से
गरीब लोगों का
ईसाई धर्म में
धर्मातंरण कर
लिया है। अब
वहां के समाज
से घोटुल गायब
होते जा रहे
हैं, और
सबसे अधिक ठोस
और दृढ़
प्रणाली इस
तरह से नष्ट
की जा रही है।
वास्तव में हम
लोगों को उनसे
कुछ सीखना
चाहिए।
मेरी
पूरी विधि ही
तुम्हें आध्यात्मिक
विकास के लिए
सभी सम्भव
अवसर दिए जाने
की है, जिससे
तुम्हें ठीक
मार्ग का
अनुभव हो सके।
और यह अनुभव
तुम्हारे
द्वारा ही आना
है। वह मेरे
द्वारा नहीं
आने का, और
न वह मेरे
प्रभाव के
द्वारा ही आने
का है।
तुम्हें
प्रभावित न कर
पाने के दो ही
रास्ते हैं, एक
रास्ता तो यह
है कि कुछ बोला
ही न जाए।
कहीं ऐसी जगह
जाकर गायब हो
जाना चाहिए
जहां कोई निकट
आ ही न सके।
बहुत से लोगों
ने ऐसा किया
भी है, लेकिन
यह विधि काम
में आती दिखाई
नहीं देती। इस
विधि में कोई
करुणा नहीं है।
दूसरी विधि है—तुमसे
संवाद
स्थापित कर
तुम्हें उस
बारे में
बताया जाए जो
मैंने
प्राप्त किया
है जो कुछ
मैंने जाना है
और जिसका
मैंने स्वाद
लिया है। ऐसा
किया भी गया
है, लेकिन
तब लोग
प्रभावित हो
जाते हैं। वे
इतने अधिक
प्रभावित हो
जाते हैं कि
वे अपने
स्वभाव के
विरुद्ध लगभग
घसीट लिए जाते
हैं। ऐसा होना
भी खतरनाक है।
यदि सौ लोग
प्रभावित हो
जायें तब
उनमें से दस पंद्रह
या अधिक से
अधिक बीस लोग
लक्ष्य तक पहुंचेंगे
और अस्सी लोग
अपने स्वभाव
के विरुद्ध चलेगे।
मेरा
प्रयास
तुम्हें सभी
संभावनाएं
उपलब्ध कराना
है। मैं चाहता
हूं कि
सम्भावनाओं
के द्वार
तुम्हारे लिए
खुले रहें, जिससे
तुम गतिशील हो
सको, तुम
बदल सको, तुम
अपना समय ले
सको और अपना
हर कदम आगे
उठा सको। और
तब एक दिन
तुम्हें एक
विशिष्ट
अनुभूति होगी,
और वह
अनुभूति
तुम्हारी
अपनी अनुभूति
होगी उसका
मुझसे कोई भी
लेना—देना
नहीं होगा। तब
तुम उस बिंदु
पर पहुंचोगे,
जब विवाह
घटता है : तब एक
विशिष्ट पथ के
साथ तुम्हारा
गठबंधन होता
है।
मैं
दूसरे
मार्गों के
बारे में
बातचीत करना जारी
रखूंगा, लेकिन उसी
क्षण से तुम
मुझे सुनोगे,
तुम मुझसे
प्रेम करोगे,
तुम मेरे
प्रति कृज्ञत
होगे। लेकिन
यदि मैं कुछ
ऐसा कहता हूं
जो तुम्हारे
मार्ग के
विरुद्ध जाये,
तो तुम मुझे
नहीं चुनोगे,
तुम उससे
प्रभावित
नहीं होगे।
यदि कोई चीज
तुम्हारे
मार्ग के
अनुसार तुम्हें
उपयुक्त लगती
है, तुम
उसे चुनोगे
लेकिन वह
निर्णय
तुम्हारे चुने
हुए मार्ग का
होगा। अब कोई
भी चीज जो
इसके साथ
उपयुक्त लगती
है, तुम
उसे लोगे और
जो भी चीज
उपयुक्त नहीं
लगती तुम उसे
नहीं लोगे। और
तुम यह नहीं
कहोगे, '' वह
गलत है।’’ तुम
जानते हो कि
किसी अन्य
मार्ग के लिए
वह उपयुक्त है।
इसलिए वह किसी
और के लिए ठीक
हो सकती है।
लेकिन
एक बार तुमने
अपना मार्ग
चुन लिया तो
जो कुछ भी मैं
कहूं तुम उसे
चुनने में
समर्थ हो
सकोगे। तुम
चुनने वाले
बनोगे, तुम्हारे
पास एक आंतरिक
मापदंड होगा
कि क्या ठीक
है और क्या
ठीक नहीं है।
मैं
यहां बहुत तरह
के लोगों के
लिए हूं। मैं
एक आयामी नहीं
हूं। मैं यहां
सभी तरह के
लोगों के लिए
हूं और मैं उन
सभी के लिए
बोल रहा हूं।
धीमे— धीमे
मुझे सुनते
हुए मेरी ओर
ध्यान मग्न
होकर, तुम
अपने अनुभव के
द्वारा
निर्णय लिए
जाओगे। लेकिन
मैं बोलता ही
रहूंगा, तुम
मुझे सुनने से
प्रेम करोगे,
तुम उसे
समझने से
प्रेम करोगे लेकिन
तुम्हें वह
अप्रिय नहीं
लगेगा। एक बार
तुम्हारा घोटुल
में रहने के
बाद विवाह ये।
गया, तब वह
तुम्हें
अप्रिय न
लगेगा, तब
वहां कोई तलाक
नहीं होगा।
तुमने
पूछा है—’‘ जब आप एक झेन
सद्गुरु की
भांति बोलते
हुए हमें यह
बतला रहे थे
कि हमें अपना
मार्ग चुनकर
उसी से बंधे
रहना चाहिए तब
मैंने महसूस
किया कि निश्चित
रूप से मेरा
मार्ग
बुद्धिप्रधान
ध्यान का है, क्योंकि मैं
कभी भी किसी
को भी समर्पण
करने में
समर्थ न हो
सकूंगी।
लेकिन अब बाउल
रहस्यदर्शियों
पर आपका एक
प्रवचन सुनने
के बाद मुझे
ऐसा लग रहा है
जैसे मैं।rकसी
के प्रेम में
बीमार कॉलेज
की कोई छोकरी
बन गई हूं। पथ
कैसे चुना जाए
जब आपका कोई
मार्ग है ही
नहीं? कैसे
अपना दीया
अपने आप स्वयं
बना जाए जब
आपके प्रकाश
से प्रत्येक
सुबह मैं
चकाचौंध से भर
जाती हूं।’’
एक दिन
तुम इससे
संतृप्त हो
जाओगी। एक दिन
एक सुबह तुम
अपने होने में
जागोगी, तुम अपनी
जरूरतों के
प्रति सजग
होगी और तुम
अपनी ही दिशा
की ओर तुम
होशपूर्ण
होगी। एक बार
वह दिशा समझ
में आ गई, एक
बार उसकी
पहचान हो गई, तब वहां कोई
समस्या ही
नहीं रह जाएगी।
लेकिन उसके
लिए
प्रतीक्षा
करनी होगी, उसमें समय
लगता है। और
इससे पहले वह
घटना घटे, मुझे
तुम्हें उस
स्थान से हटा
देना होगा, तुम्हें मोड़
देकर एक पटरी
से दूसरी पटरी
पर यहां से
वहां कर देना
होगा।
मुझे
खेद है.....लेकिन
मुझे यह करना
ही होगा।
बाउल
गाते हैं—
एक
अंधा व्यक्ति
सीधे
स्वाभाविक पथ
पर
गलत
कदम कैसे उठा
सकता है?
तुम
स्वयं अपने
में ही सहल
सरल बने रहो।
और
उस मार्ग को
खोजो
जिसका
जन्म
तुम्हारे ही
अंदर हुआ है।
यह वही
मार्ग है, जिसके
लिए मैं यहां
प्रयास कर रहा
हूं मैं एक दाई
हूं। मैं
तुम्हारे लिए
कोई चीज सृजित
करने नहीं जा
रहा हूं वह
पहले ही से
तुम्हारे
गर्भ में सृजित
हो चुकी है।
वह पहले ही से
तुम्हारे आंतरिक
गर्भ की समाधि
में सृजित हो
चुकी है। अधिक
से अधिक मैं
सरलता से उसके
जन्म लेने में
तुम्हारी
सहायता कर
सकता हूं।
अधिक से अधिक
यदि कुछ चीज
गलत हो जाती
है, तो उस
बाधा को दूर
करने में मैं
तुम्हारी
सहायता कर
सकता हूं।
लेकिन शिशु तो
तुम्हारे
अंदर पहले ही
से तैयार है
मैं तो केवल
एक ' मिडवाइफ
' या दाई हूं।
एक बार
तुमने अपना
शिशु पा लिया, अपनी
दिशा पकड़ ली, तब पथ तो
बहुत सहज और
सरल है।
एक अंधा
व्यक्ति
सहज
सरल पथ पर
गलत
कदम कैसे उठा
सकता है?
तुम
बस अपने में
ही सहज सरल
बने रहो।
और
उस मार्ग को
खोजो
जिसका
जन्म
तुम्हारे ही
अंदर हुआ है।
परमात्मा
का वर्णन करने
वाले
प्रज्ञापूर्ण
शब्द
अंधेरे
कक्ष में उस
सम्पदा की खोज
नहीं कर सकते।
अंधेरे
में कुछ भी
खोजना
भ्रमपूर्ण है।
अवरोध
और बंधन तोड़कर
खुले आकाश की
ओर देखो
चांद
की बांहों में
वह अरूप
एक
सुंदर रूप ले
चुका है।
मैं उस
सम्पदा और उस
खजाने के बारे
में भले ही
कितना ही
क्यों न बताऊं
लेकिन
तुम्हारी आंखों
के चारों ओर
अंधेरा घिरा
है। मेरा
वर्णन
तुम्हें
प्रभावित
करता है, तुम्हारे
अंदर लालच
उत्पन्न करता
है। तुम भी उस
महान खजाने के
मालिक बनना
चाहते हो, लेकिन
तुम्हारी आंखें
अंधकार से भरी
हैं।
यदि वह खजाना
ठीक तुम्हारे
सामने भी पड़ा
हो, और
मैं तुमसे
उसका वर्णन कर
रहा होऊं, तुम
उस वर्णन से
प्रभावित भी
हो जाते हो
लेकिन फिर भी
तुम उस खजाने
के लिए प्रति
होशपूर्ण नहीं
हो जो
तुम्हारे ही
सामने पड़ा हुआ
है। मेरा
वर्णन उसे
पाने में
तुम्हारी कोई
भी सहायता
करने वाला
नहीं है।
परमात्मा
का वर्णन करने
वाले
प्रज्ञापूर्ण
शब्द
अंधेरे
कक्ष में
सम्पदा की खोज
नहीं कर सकते।
अंधेरे
में कुछ भी
खोजना
भ्रमपूर्ण है।
अवरोध
और बंधन तोड़कर
खुले आकाश की
ओर देखो
चांद
की बांहों में
वह अरूप
एक
सुंदर रूप ले
चुका है।
इसलिए
मेरे शब्दों
से भी प्रभावित
मत होना, और मुझे
सुनते हुए ऐसा
अनुभव करना
शुरू मत करना,
कि यकीनी
रूप से वही
तुम्हारा
मार्ग है।
लेकिन मैं
जानता हूं कि
यह होना
स्वाभाविक है,
आखिर यह
मनुष्य का मन
है। कई बार
तुम्हें पूरे
यकीन के साथ
यह अनुभव होगा
कि यही मेरा
मार्ग है।
लेकिन अगले ही
दिन वह बदल
जायेगा।
इसलिए थोड़ा सा
हिचकते हुए उस
यकीन के बारे
में पक्के मत
हा जाना, अनिश्चित
बने रहना।
जब मैं
झेन पर चर्चा
कर रहा था तो
तुमने महसूस किया
था कि यकीनी
रूप से वही
तुम्हारा
मार्ग है। अब
मैं बाउलों पर
बोल रहा हूं।
स्मरण रहे कल
मैं किसी और
पर या किसी
अन्य के बारे
में चर्चा शुरू
कर सकता हूं।
इसलिए कम से
कम इस बार तो
अपने अनुभव पर
पूरा यकीन मत
करना। मुझे
सुनना, लेकिन जो भी
सुनो उस पर
पूरा यकीन मत
करना। जरा
प्रतीक्षा
करना, वहां
कोई भी जल्दी
नहीं है।
धैर्यवान बनो,
बस सुनती ही
रहना, लेकिन
जो महसूस हो, उस पर पूरा
यकीन मत करना,
क्योंकि
यकीनी रूप से
निश्चित हो
जाना बहुत खतरनाक
है। केवल
अनुभव पर पूरा
विश्वास तभी
करना जब तुम्हारा
अपना बच्चा
जन्म ले, जब
तुम्हें उस
मार्ग की दिशा
का बोध स्वयं
हो जाये।
और तुम
इस अंतर को
देखने में
समर्थ होगी, क्योंकि
वह बहुत अधिक
भिन्न है। यह
मेरे कारण
नहीं होगा, अब तुम यह
देखने में
समर्थ होगी, कि यह वह
मार्ग नहीं है
जो तुमने
मुझसे प्रभावित
होकर जाना था।
यहां
प्रभावित
होने जैसा कुछ
है ही नहीं।
अचानक
तुम्हारे ही
अंदर एक महान
शक्ति का ऊर्ध्वगमन
होने लगता है,
और यह पूरी
तरह से
निश्चित है।
लेकिन तुम यह
देखने में
समर्थ हो
सकोगे, कि
यह मेरी ओर से
मेरे प्रभाव
के कारण नहीं
है। कभी—कभी
जो कुछ मैं कह
रहा हूं यह
उससे उल्टा भी
हो सकता है।
कभी—कभी यह तब
सम्भव हो जाता
है, यदि
तुम एक मार्ग
से दूसरे
मार्ग की ओर
कई बार आये
गये हो और उसे
बदलते रहे हो—मैं
प्रेम के बारे
में चर्चा कर
रहा हूं और प्रेम
के बारे में
मुझसे सुनते
हुए तुम्हारे
अंदर यह
निश्चित
विश्वास हो
जाता है कि यह
मेरा मार्ग
नहीं है, मेरा
मार्ग तो
ध्यान है, अथवा
उससे उल्टा भी
हो सकता है।
यह कहना कठिन
है कि तुम
यकीनी रूप से
यह जानने में
कैसे समर्थ
होगे कि यह
यकीन किसी प्रभाव
के द्वारा
नहीं आ रहा है।
लेकिन मैं
जानता हूं कि
तुम इसे करने
में सफल हो
सकोगे।
जब
तुम्हारे सिर
में दर्द होता
है तुम उसे
जानते हो, यह भी ठीक
इसी तरह का है।
सिर में दर्द
होने पर तुम
किसी से यह
पूछते नहीं— '' कृपया मुझे
बताएं कि यह
सिर दर्द ही
है और वास्तव
में यह मुझे
हो रहा है?'' नहीं।
तुम उसे
जानोगे। जब
वास्तविक
यकीन और
निश्चितता
जागती है तो वह
स्रुटिक की
भांति स्पष्ट
और साफ होती
है, एक प्रकाश
के स्तम्भ की
भांति होती है।
और बस उसके
उत्पन्न होते
ही तुम धुलकर
साफ हो जाते
हो।
बस
केवल उसके
जागने या उठने
से ही तुम एक
नये, पूरी
तरह से नूतन
अस्तित्व का
अनुभव करते हो,
जैसे की नया
जन्म हुआ हो।
यदि बौद्धिक
नहीं होता, इसका अनुभव
केवल सिर में
नहीं होता, तुम्हें
इसका अनुभव
अपने पूरे
शरीर में अपने
पूरे सिर और
अपने पूरे
हृदय में होगा,
तुम्हारा
रोम—रोम और
तुम्हारी
समग्रता उसे
महसूसेगी। जब
ऐसी
निश्चितता और
यकीन जन्मता
है, तभी यह
आस्था और
श्रद्धा होती
है। लेकिन
दूसरों से
प्रभावित
होने के बाद, तुम जो कुछ
भी पाते हो, वह और कुछ भी
नहीं, बल्कि
केवल एक विश्वास
होता है।
विश्वास एक
बहुत ही
नपुंसक चीज है,
वह कभी भी
किसी को बदल
नहीं पाता।
तीसरा
प्रश्न :
प्यारे
ओशो? अनुसरण करने, विचार करने
और समझ के
मध्य क्या
अंतर है? प्रतिक्रिया
और
प्रत्युत्तर
विश्वास और
श्रद्धा,
सहानुभूति और
करुणा तथा
संचार और
सम्पर्क के मध्य
भी इसी तरह
क्या अंतर है?
सोचना या
विचार—विमर्श
करना, समझ
की
अनुपस्थिति
है। तुम सोचते
इसलिए हो
क्योंकि तुम
उसे समझ नहीं
पाते। जब समझ
उत्पन्न होती
है, विचार
विसर्जित हो
जाते हैं। यह
एक अंधे
मनुष्य के
अपना मार्ग
टटोलने जैसा
है जब वहां आंखें
होती हैं, तुम
रास्ता
टटोलते नहीं,
वह तुम्हें
दिखाई देता है।
समझ आंखों के
समान है, तुम
देखते हो, तुम
टटोलते नहीं।
सोच टटोलने
जैसा है। यह न
जानना कि क्या
चीज क्या है, तुम सोचे
चले जाते हो, अनुमान
लगाये चले
जाते हो।
सोचना
तुम्हें ठीक
उत्तर नहीं दे
सकता क्योंकि
जो कुछ ज्ञात
या जाना हुआ
है, सोचना
केवल उसी को
दोहरा सकता है।
तुम बार—बार
सोचे और सोचे
ही जा सकते हो,
कुछ भी नहीं
होता। विचार—विमर्श
या सोचने की
अज्ञात के लिए
कोई दृष्टि होती
ही नहीं। क्या
तुमने कभी
अज्ञात के
बारे में
सोचने की कोशिश
की है? तुम
सोचोगे कैसे?
तुम केवल
उसी के बारे
में विचार कर
सकते हो, जिसके
बारे में तुम
जानते हो, यह
दोहराने जैसा
है। तुम बार—बार
सोचो और सोचे
ही जा सकते हो;
तुम पुराने
विचारों की ही
नई संगत बना
सकते हो, लेकिन
वास्तव में
नया कुछ भीं
नहीं होता।
समझ ताजी होती
है, नूतन
होती है। उसके
अतीत से कुछ
भी लेना—देना
नहीं होता।
समझ तो अभी और
यही है। वह
वास्विकता के
अंदर एक
अंतर्दृष्टि
है।
सोच—विचार
के साथ वहां
प्रश्न ही
प्रश्न होते
हैं, और
कोई उत्तर
नहीं होते।
यद्यपि कभी—कभी
जब तुम्हें
महसूस होता है
कि तुमने
उत्तर पा लिया
है तो यह भी इस
कारण ऐसा लगता
है क्योंकि
किसी भी
व्यक्ति को यह
अथवा वह कुछ न कुछ
निर्णय लेना
ही होता है।
वह
वास्तव में
उत्तर होता
नहीं है, लेकिन
तुम्हें
कार्य करने के
लिए कुछ न
कुछ निर्णय
लेना ही होता
है, इसलिए
कोई भी उत्तर
ग्रहण करना ही
होता है। और यदि
तुम अपने
उत्तर की
गहराई में
झांको, तो
तुम उससे उठते
हुए एक हजार
एक प्रश्न
वहां पाओगे।
समझ के पास
प्रश्न नहीं
है, केवल
उत्तर होते
हैं—क्योंकि
उसके पास आंख
हैं।
सोचना
उधार होता है।
तुम्हारे सभी
विचार
तुम्हें
दूसरों के
द्वारा दिए गए
हैं। उनका
निरीक्षण करो—क्या
तुम ऐसा एक भी
विचार खोज
सकते हो जो
तुम्हारा अपना
हो, प्रामाणिक
रूप से
तुम्हारा ही
हो, जिसका
जन्म तुमसे
हुआ हो? वे
सभी उधार के
हैं। उनके
स्रोत ज्ञात
या अज्ञात हो
सकते हैं, लेकिन
वे सभी उधार
के हैं। मन
ठीक एक
कम्प्यूटर की
भांति कार्य
करता है लेकिन
कम्प्यूटर
द्वारा उत्तर
तभी दिए जा
सकते हैं, जब
उसमें उत्तर
पहले ही से ' फीड ' किए
गए हों।
तुम्हें सारी सूचनाएं
सप्लाई करनी
होती हैं, केवल
तभी वह
तुम्हें
उत्तर दे
सकेगा। यह सब
कुछ वही है जो
मन किए जा रहा
है।
मन एक
जैविक—कम्प्यूटर
की भांति है।
तुम उसमें
जानकारियां
सूचनाएं और सभी
आंकड़े
संग्रहीत
करते जा रहे
हो, संग्रह
से ही उत्तर
देता है। यह
कोई वास्तविक
उत्तर नहीं
होता, यह
केवल मृत अतीत
से आया उत्तर
होता है।
और समझ
क्या है? समझ शुद्ध
प्रज्ञा है।
शुद्ध बुद्धि
या प्रज्ञा
मूल रूप से
तुम्हारी
अपनी होती है।
तुम इसे लेकर
ही उत्पन्न
होते हो।
प्रज्ञा कोई
तुम्हें
दूसरा नहीं दे
सकता।
तुम्हें
जानकारी दी जा
सकती है।
लेकिन
प्रज्ञा नहीं।
प्रज्ञावान
होना तुम्हारा
अपना ही
धारदार
अस्तित्व है।
गहरे ध्यान के
द्वारा ही कोई
व्यक्ति अपने
अस्तित्व को
धारदार बनाता
है, ध्यान
के द्वारा ही
कोई व्यक्ति
उधार विचारों
को छोड़ता है, अपने स्वयं
के अस्तित्व
को विकसित
करता है, अपनी
मौलिकता में
सुधार करता है,
अपने बचपन
का भोलापन
निर्दोषिता
और ताजगी फिर
से प्राप्त
करता है। इसी
नूतन ताजगी से
जब तुम कुछ भी
करते हो, तुम्हारा
कृत्य समझ से
उद्भूत होता
है। और तब
प्रत्युत्तर
अभी और यहीं
से पूरी समग्रता
से आता है और
वह
प्रत्युत्तर
चुनौती के कारण
आता है, न
कि अतीत की
जानकारी के
कारण।
उदाहरण
के लिए ' कोई भी
व्यक्ति तुमसे
कोई प्रश्न पुछता
है — '' तुम
क्या कर रहे
हो?'' तुम
तुरंत मन के
अंदर जाते हो और
उसका उत्तर
खोजते हो। तुम
तुरंत ही मन
के तलघर या
स्टोरहाउस
में जाते हो, जहां तुमने
सारी जानकारियां
संग्रहीत कर
रखी हैं और
वहां उसका
उत्तर खोजते
हो—तब इसे
सोचना या
विचार करना
कहते हैं। कोई
भी व्यक्ति
तुमसे एक
प्रश्न पूछ्ता
है, और तुम
खामोश रह जाते
हो तुम प्रश्न
के अंदर बेधक
दृष्टि से
देखते हो, स्मृति
में नहीं
बल्कि प्रश्न
के अंदर, तुम
प्रश्न का
सामना करते हो
उससे मुठभेड़
होती है
तुम्हारी, यदि
तुम उसे नहीं
जानते तो कह
देते हो मैं
नहीं जानता।
उदाहरण
के लिए कोई
व्यक्ति
पूछता है
परमात्मा का
अस्तित्व है
अथवा नहीं।
तुम तुरंत
कहते हो—’‘ हां!
परमात्मा है।’’
यह उत्तर कहां
से आ रहा है? तुम्हारी
स्मृति से
ईसाई स्मृति,
हिंदू
स्मृति या
मुस्लिम धर्म
की स्मृति से?
तब यह उत्तर
लगभग व्यर्थ
और निरर्थक है।
यदि
तुम्हारे पास
साम्यवादी
स्मृति है, तो तुम कहोगे—नहीं,
वहां कोई भी
परमात्मा
नहीं है। यदि
तुम्हारी
स्मृति
कैथोलिक है तो
तुम कहोगे—’‘ हां! वहां
परमात्मा है।’’
यदि
तुम्हारे पास
बौद्ध धर्म की
स्मृति है तो तुम
कहोगे—’‘ वहां
कोई तुम्हारे
परमात्मा
नहीं है।
लेकिन यह सभी
उत्तर स्मृति
से ही आ रहे
हैं। यदि तुम
एक समझदार
व्यक्ति हो, तो तुम
सामान्य रूप
से प्रश्न को
सुनोगे, तुम
प्रश्न के
अंदर गहरे
जाओगे तुम बस
उसका निरीक्षण
करोगे। यदि
तुम नहीं
जानते हो तो
तुम कहोगे—’‘ मैं नहीं
जानता।’’ यदि
तुम जानते हो,
केवल तभी
तुम कहोगे—’‘ मैं उसे
जानता हूं और
जब मैं कहता
हूं अगर तुम
जानते हो, तो
मेरा इससे
अर्थ है, क्या
तुमने उसका
अनुभव किया है।
एक
समझदार
व्यक्ति
सच्चा और
प्रामाणिक
होता है। यदि
वह कहता है— '' मैं नहीं
जानता तो उसका
अज्ञान मन की
जानकारी की
अपेक्षा कहीं
अधिक
मूल्यवान है,
क्योंकि कम
से कम उसका
अज्ञान, अज्ञान
के बारे में
उसकी
स्वीकृति
सत्य के निकट
है। कम से कम
वह बहाना
बनाने की
कोशिश तो नहीं
कर रहा है, वह
दम्भी नहीं है।’’
निरीक्षण
करो, और
तुम देखोगे कि
तुम्हारे सभी
उत्तर तुम्हारी
स्मृति से आ
रहे हैं। तब
ऐसा तरीका
खोजने का
प्रयास करो
जहां स्मृति
कार्य नहीं
करती और केवल
शुद्ध चेतना
ही कार्य करती
है। यही है वह
जिसे ' समझ '
कहते हैं।
मैंने
सुना है—
एक
डॉक्टर ने एक
रोगी के कमरे
में प्रवेश
किया। पांच
मिनट पश्चात
वह बाहर आया
और उसने पेचकस
मांगा। तब वह
फिर अंदर मरीज
के पास चला
गया। अगले
पांच मिनट बाद
वह फिर बाहर
आया और उसने छैनी
और हथौड़ी
मांगी। बुरी
तरह से
उत्तेजित
रोगिणी का पति
और अधिक समय
तक अपने को
रोक न सका।
उसने गुहार
लगाते हुए
पूछा—’‘ डॉक्टर!
परमात्मा के
लिए मुझे बताओ,
मेरी पत्नी
के साथ क्या
कुछ गलत है?''
मैं
अभी तक स्वयं
नहीं जानता।
डॉक्टर ने
उत्तर दिया, '' मैं अभी
तक अपना बैग
ही नहीं खोल
पाया हूं।’’
यद्यपि
जब कभी तुम
कहते हो— '' मैं नहीं
जानता '' तो
यह जरूरी नहीं
है कि वह
उत्तर
तुम्हारी समझ
से ही आया यह
भी हो सकता है
कि तुम अभी तक अपने
बैग को ही
नहीं खोल पाये
हो। यह भी
सम्भव है कि
तुम अपनी
स्मृतियों का पिटारा
न खोल सके हो, अथवा तुम
स्मृतियों के
भंडार में उसे
न खोज पा रहे
हो— तुम्हें
समय की जरूरत
हो। तुम कहते
हो, मैं
नहीं जानता; तुम कहते हो
मुझे समय
दीजिये। मुझे
इस बारे में
जरा सोचने
दीजिए।’’
लेकिन
सोच कर तुम
करोगे क्या? यदि तुम
जानते हो तो
जानते हो, यदि
तुम रग नहीं
जानते तो नहीं
जानते। तुम
उसके बारे में
क्या सोचने जा
रहे हो? लेकिन
नम कहते हो—’‘ मुझे समय
दीजिए मैं
उसके बारे में
सोचूंगा।’’
तुम कह
क्या रहे हो? तुम कह
रहे हो— '' मुझे
थोड़ा सा समय
दीजिए मुझे अपने
मन के
स्टोरहाउस
में जाकर उसे
खोजना होगा।
और वहां इतना
अधिक कूड़ा कर्कट
वर्षों से
इकट्ठा पड़ा है
कि उसे खोज
पाना बहुत
मुश्किल है।
लेकिन तुम कहते
हो—’‘ मैं
कोशिश करूंगा।’’
ध्यान
करो और मन के
इस तलघर या
स्टोर हाउस से
मुक्त हो जाओ।
ऐसा नहीं है
कि यह तलघर
उपयोगी नहीं
है, इसका
प्रयोग किया
जा सकता है, लेकिन तुम्हें
इसे समझ का
प्रतिस्थापन
नहीं बनाना
चाहिए। एक
समझदार
व्यक्ति सभी
चीजों को
प्रत्यक्ष रूप
से सीधे देखता
है। उसकी
अन्तर्दृष्टि
सीधी होती है,
लेकिन वह
संग्रहीत
स्मृति का
प्रयोग करते
हुए उत्तर तक
पहुंचने में
अन्तर्दृष्टि
की सहायता
करता है। वह
प्रत्येक
वस्तु तुम्हें
स्पष्ट रूप से
प्रति
संवेदित करने
के लिए अपनी
सभी संग्रहीत
स्मृतियों का
प्रयोग कर
सकता है लेकिन
वह जो कुछ
प्रतिसंवेदित
करने का
प्रयास कर रहा
है वह उसका
अपना है। शब्द
उधार के हो
सकते हैं, भाषा
भी उधार ली
हुई ही होगी, उसे उधार
लेना ही होता
है, सामान्य
विचार भी उधार
के हो सकते
हैं, लेकिन
वह उधार का
नहीं होता जो
वह तुम्हें
प्रतिसंवेदित
करने की कोशिश
कर रहा है।
कन्टेनर या
विषयसामग्री
रखने वाली
वस्तु तो स्मृति
से आयेगी
लेकिन विषय
सामग्री उसकी
अन्तर्दृष्टि
की होगी।
और
वास्तव में एक
व्यक्ति जो
समझदार नहीं
है। निरंतर ही
ढेर सारे
विचारों का
शिकार हो जाता
है, क्योंकि
उसके अंदर कोई
अन्तर्दृष्टि
नहीं है, जो
उसे केंद्र दे
सके। उसके पास
विचारों की
भीड़ है। जो एक
दूसरे से
असम्बद्ध हैं,
यहां तक कि
वे एक दूसरे
के घुर विरोधी
हैं। एक दूसरे
के
विरोधाभासी
हैं, उनमें
गहरा सक्रिय
विरोध है।
उसके अंदर एक
भीड़ है।
वे एक
जैसे समूह और
समाज के नहीं
हैं, वे
विचारों की
भीड़ की तरह मन
के अंदर शोर
गुल कर रहे
हैं इसलिए यदि
सोचते—विचारते
तुम उस भीड़ के
साथ बहुत दूर
तक चले जाते
हो, तो एक
दिन तुम पागल
हो जाओगे।
अत्यधिक विचार
पागलपन
उत्पन्न कर
सकते हैं।
आदिम
समाज में
पागलपन होना
दुर्लभ बात थी।
जितना अधिक
समाज सभ्य
होता जाता है, उतने ही
अधिक लोग पागल
होते जाते हैं।
और सभ्य समाज
में वे लोग
अधिक पागल
होते हैं, जिन्हें
बुद्धि से काम
करना होता है।
यह है
दुर्भाग्यपूर्ण
लेकिन यह एक
वास्तविकता
है कि किसी
अन्य धंधे की
अपेक्षा
मनोविश्लेषक
ही अधिक पागल
होते हैं
क्यों? बहुत
अधिक सोचने से।
इतने अधिक
विरोधी
विचारों की एक
साथ व्यवस्था
करना बहुत
कठिन हो जाता
है। उनकी
व्यवस्था
करने में
तुम्हारा
पूरा अस्तित्व
कोलाहलपूर्ण
और
अव्यवस्थित
हो जाता है।
समझ
अकेली एक होती
है। समझ
केंद्र में
होती है। वह
सरल होती है, जब कि
विचार बहुत
जटिल होते हैं।
एक
पत्नी का
गुलाम पति एक
मनोविश्लेषक
के पास गया और
उससे कहा—’‘ मुझे हर
रात एक ही
भयानक स्वप्न
आता है। हर
रात मैं सपने
में देखता हूं
कि मैं बाहर
सुंदर स्त्रियों
के साथ एक
जहाज में बैठा
प्रेमालाप कर
रहा हूं।’’
मनोविश्लेषक
ने कहा—’‘ तो इसमें
भयानक होने
जैसी क्या बात
है?''
उस
व्यक्ति ने
कहा—’‘ क्या
आपने कभी बारह
स्त्रियों से
एक साथ प्रेमालाप
करने का
प्रयास किया
है?''
यही
उसकी समस्या
थी—’‘ बारह
स्त्रियों से
कैसे एक साथ
प्रेमालाप
किया जाए? यहां
तो एक स्त्री
से ही
प्रेमालाप
करना कठिन है।’’
विचार
करना, हजारों
हजार
स्त्रियों से
चारों ओर से
घिरे हुए उससे
प्रेमालाप
करने जैसा है।
स्वाभाविक
रूप से कोई भी
व्यक्ति इस
स्थिति में
पागल हो जाता
है। समझदार
होना बहुत सरल
है, तुम्हारा
विवाह एक ही
अंतर्दृष्टि
से होता है।
लेकिन वह
अंतर्दृष्टि
एक प्रकाश की
भांति कार्य
करती है, जैसे
वह एक टार्च
हो, तुम
जहां कहीं भी
टार्च का
प्रकाश
केंद्रित करते
हो, रहस्य
उद्घाटित हो
जाते हैं, तुम
जहां कहीं भी
टार्च से फोकस
करते हो, अंधेरा
विसर्जित हो
जाता है।
अपनी
छिपी हुई समझ
को खोजने का
प्रयास करो…….. उसका
रास्ता है.? विचारों को
विसर्जित
करना। और
विचारों को
गिराने की
वहां दो ही
सम्भावनाएं
हैं या तो
ध्यान अथवा
प्रेम।
दूसरी
चीज है—प्रतिक्रिया
और
प्रत्युत्तर।
प्रतिक्रिया
होती है
विचारों से और
प्रत्युत्तर
आता है समझ से।
प्रतिक्रिया
होती है अतीत
से और
प्रत्युत्तर
हमेशा
वर्तमान और
आता है। लेकिन
साधारणतया
हमारे अंदर
प्रतिक्रिया
होती है—हमारे
पास हर चीज
पहले ही से
अंदर तैयार है।
कोई भी
व्यक्ति कुछ
भी कर रहा है
और हमारे अंदर
प्रतिक्रिया
होती है। जैसे
मानो किसी ने
मेरा बटन या
स्विच दबा दिया
हो। कोई भी
व्यक्ति
तुम्हारा
अपमान करता है
तुम क्रोधित
हो जाते हो।
ऐसा पहले भी
हुआ है हर बार
ठीक ऐसा हमेशा
ही होता है।
यह लगभग एक
बटन दबाने
जैसा हो गया
है। कोई भी
व्यक्ति उस
बटन को दबा
देता है और
तुम क्रोधित
हो जाते हो।
वहां एक क्षण
के लिए भी तो तुम
प्रतीक्षा
नहीं करते, जहां तुम
उस स्थिति को
देख सको
क्योंकि वह
स्थिति भिन्न
हो सकती है।
जो
व्यक्ति
तुम्हारा
अपमान कर रहा
है, वह
ठीक भी हो
सकता है, हो
सकता है उसने
तुम्हारे
सामने केवल सच
को ही
उद्घाटित
किया हो और उसी
कारण तुम अपना
अपमान होना
समझ रहे हो।
अथवा वह पूरी
तरह गलत भी हो
सकता है, या
वह व्यक्ति
गंदा भी हो
सकता है।
लेकिन
तुम्हें उस
व्यक्ति की ओर
देखना होगा।
यदि वह ठीक है
तो तुम्हें
उसे धन्यवाद
देना चाहिए
क्योंकि उसने
तुम्हारे
प्रति करुणा
ही प्रदर्शित
की है, तुम्हारे
हृदय तक उसने
मित्रवत होकर
सत्य सम्प्रेषित
किया है। यह
हो सकता है
उससे तुम्हें
चोट पहुंची हो,
लेकिन
इसमें उसका
कोई दोष नहीं।
अथवा वह
व्यक्ति
मूर्ख और
अज्ञानी हो
सकता है, जिसे
तुम्हारे
बारे में कुछ
भी ज्ञात न हो
और उसने बिना
सोचे—समझे कुछ
भी बक दिया हो।
तब फिर
क्रोधित होने
की कोई जरूरत
ही नहीं है, वह व्यक्ति
बस गलत है।
कोई भी
व्यक्ति उस
बात के लिए
जरा भी चिंतित
नहीं होता, जो गलत हो।
जब तक उसमें
कुछ भी सत्य न
हो तुम उस
बारे में कभी
भी उतेजित
नहीं हो सकते।
तुम उस पर हंस
सकते हो जो
पूरा का पूरा
इतना अधिक
मूर्खतापूर्ण
और बेतुका है।
अथवा वह
व्यक्ति ही
गंदा है, और
यही उसका
तरीका है। वह
प्रत्येक
व्यक्ति का
अपमान करता
रहा है। इसलिए
विशेष रूप से
वह तुम्हारे
लिए कोई खास नहीं
कर रहा है, वह
ऐसा अपने साथ
ही कर रहा है
और बस किस्सा
खत्म। इसलिए
वास्तव में
कुछ भी करने की
जरूरत है ही
नहीं। वह
व्यक्ति है ही
इसी तरह का।
किसी
व्यक्ति ने गौतम
बुद्ध का
अपमान किया।
उनके शिष्य
आनंद ने कहा—’‘ मुझे
बहुत अधिक
क्रोध आ रहा
है और आप मौन
हैं। आपको कम
से कम मुझे यह
अनुमति तो
देना चाहिए कि
मैं उसे ठीक
कर सकूं।’’
बुद्ध
ने कहा—’‘ तुम मुझे
चकित कर रहे
हो। पहले उसने
मुझे चकित
किया, और
अब तुम मुझे
चकित कर रहे
हो। जो कुछ वह
कह रहा था, वह
बस असंगत था।
वह हम लोगों
से संबंधित है
ही नहीं, इसलिए
उसके अंदर
जाने से लाभ
क्या? लेकिन
तुमने मुझे और
भी
आश्चर्यचकित
कर दिया, तुम
बहुत अधिक
क्रोधित हो गए
तुम क्रोध ही
बन गए। यह
बेवकूफी और
मूढ़ता है।
किसी और की
गलती के लिए
स्वयं अपने आप
को सजा देना
मूर्खता है।
तुम अपने आप
को दंड दे रहे
हो। शांत हो
जाओ। क्रोध
करने की वहां
कोई आवश्यकता
है ही नहीं, क्योंकि
क्रोध तो
अग्नि की
ज्वाला है।
तुम स्वयं
अपनी ही आत्मा
को क्यों जला
रहे हो? यदि
उस व्यक्ति ने
कुछ गलती की
है, तो तुम
स्वयं अपने आप
को सजा क्यों
दे रहे हो? यह
मूर्खतापूर्ण
है कि हम
प्रतिक्रिया
व्यक्त करें।’’
मैंने
सुना है :
एक
व्यक्ति अपने
एक मित्र को
बतला रहा था—’‘ अपनी
पत्नी को खुश
करने के लिए
मैंने सिगरेट
और शराब पीना
तथा ताश खेलना
भी छोड़ दिया।’’
उसके मित्र
ने कहा—’‘ तब
तो इस बात से
उसे बहुत खुश
होना चाहिए।’’‘'
नहीं ऐसा
नहीं हुआ। अब
प्रत्येक समय
वह मुझसे बात
करना शुरू तो
करती है पर वह
किस चीज के
बारे में बात
करे, यह
उसके खयाल में
नहीं आता।’’
लोग
यंत्रवत् एक
रोबोट की तरह
जीते हैं। यदि
तुम्हारी
पत्नी सिगरेट
शराब पीने से
तुम्हें
रोकने के लिए
ही तुमसे
निरंतर झगड़ती
रहती है और
तुम सोचते हो
कि यदि तुम
पीना बंद कर
दो तो वह खुश
हो जाएगी तो
तुम गलत सोच
रहे हो। यदि
तुम सिगरेट
पीते हो, वह अप्रसन्न
होती है, यदि
तुम पीना बंद
कर देते हो, वह तब भी
अप्रसन्न ही
रहेगी—क्योंकि
तब वह तुमसे
झगड़ा करने का
कोई अन्य बहाना
नहीं ढूंढ
पाएगी।
एक
स्त्री ने
मुझसे कहा कि
वह यह नहीं
चाहती कि उसका
पति दोषरहित
हो।
मैंने
पूछा—’‘ आखिर
ऐसा क्यों?''
उसने
उत्तर दिया—’‘ क्योंकि झगड़ा
करने से मुझे
प्रेम है।
यदि
पति में कोई
दोष या बुराई
है ही नहीं, तो तुम
क्या करने जा
रही हो? तुम
तो सिर्फ घाटे
में ही रहोगी।’’
तुम
स्वयं अपना और
दूसरों का
निरीक्षण करो
और देखो, वे लोग किस
तरह यंत्रवत्
आचरण करते
हैं: जैसे वे
मूर्च्छित
हों, अथवा
नींद में चलने
वाले व्यक्ति
की भांति आचरण
कर रहे हों।
प्रतिक्रिया
मन की होती है।
और
प्रत्युत्तर
अमन से आता है।
विश्वास
और श्रद्धा—ठीक
फिर वैसा ही
विश्वास होता
है मन का, विचार। का ' श्रद्धा आती
है अमन से, वह
जन्मती है
सजगता और समझ
से।
पहाड के
निकट एक गांव
में ऐसा हुआ
कि एक शिकारी
ने गाइड से
कहा— '' यह
पहाड की चोटी
तो बहुत
खतरनाक
प्रतीत होती है।
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है कि
उन्होंने
चेतावनी देने
वाला कोई
बोर्ड भी नहीं
लगाया।’’
स्थानीय
गाइड ने
स्वीकार करते
हुए कहा—’‘ वह एक बोर्ड
दो वर्षों तक
टांगे रहे।
लेकिन जब इस
चोटी से कोई
नीचे गिरा ही
नहीं, तो
उन्होंने उस
बोर्ड को नीचे
उतार लिया।’’
विश्वास
अंधा होता है।
तुम विश्वास
करते हो
क्योंकि
तुम्हें
विश्वास करना
सिखाया गया है, लेकिन यह
कभी भी बहुत
गहरे तक नहीं
जाता, क्योंकि
इसमें स्थिति
की कोई समझ ही नहीं
होती। यह केवल
एक अनावश्यक
धागा है, ठीक
कुछ ऐसी चीज
है जो तुममें
जोड़ दी गई है।
उसका जन्म और
विकास तुमसे
नहीं हुआ है।
यह केवल उधार
लिया हुआ है
इसलिए यह कभी
भी तुम्हारे
अस्तित्व को
भेदता नहीं।
कुछ दिनों तक
तुम इसे साथ
लिए चलते हो, और तब यह
देखकर कि यह
अनुपयोगी है
और इसके रहते
कुछ भी तो
नहीं घट रहा है,
तुम उसे
उठाकर एक ओर
अलग रख देते
हो। यहां ईसाई
लोग हैं, जो
ईसाई नहीं है,
यहां हिंदू
हैं पर वे
हिंदू नहीं है।
वे केवल उन
विश्वासों के
कारण हिंदू
हैं, जिनका
उन्होंने कभी
उपयोग नहीं
किया, उन
विश्वासों को
उनके द्वारा
कभी भी सम्मान
नहीं दिया गया।
उनका खयाल है
कि वे ईसाई
हिंदू या
मुसलमान हैं
लेकिन तुम एक
मुसलमान कैसे
हो सकते हो, यदि तुमने
अपने विश्वास
को जिया ही
नहीं। लेकिन
विश्वास को
जिया नहीं जा
सकता। यदि कोई
भी व्यक्ति
अधिक सजग बनकर
जीवन का निरीक्षण
करता रहे तो जीवन
से स्वयं
उत्तर आते हैं
और धीमे— धीमे
श्रद्धा का
जन्म होता है।
श्रद्धा
तुम्हारी
अपनी है, विश्वास
किसी और पर
किया जाता है।
विश्वासों को
गिरा दो जिससे
श्रद्धा का
जन्म हो सके
और विश्वासों
के साथ
संतुष्ट मत हो
जाना अन्यथा
श्रद्धा का कभी
जन्म होगा ही
नहीं।
अब
सहानुभूति और
करुणा. फिर
वही बात '' प्रश्नकर्त्ता
ने एक ही चीज
को बार—बार
पूछा है।
सहानुभूति मन
की होती है, तुम्हें लगता
है कि कोई
व्यक्ति
मुश्किल में
है, कोई
व्यक्ति दुखी
है। तुम इससे
के कष्ट के
बारे में
सोचकर उसकी
सहायता करते
हो। तुम्हें
दूसरों की
सहायता करना,
सेवा करना,
कर्त्तव्य
परायण बनना, एक अच्छा
इंसान बनना, एक सुंदर नागरिक
बनना, अथवा
यह और वह बनना
सिखाया गया है।
तुम्हें
सिखाया गया है,
इसलिए
तुम्हें
सहानुभूति का
अनुभव होता है।
करुणा का
तुम्हारे
सिखाने से कोई
भी लेना—देना
नहीं है।
करुणा एक
शक्ति के रूप
में जब किसी
के प्रति जन्मती
है तो उस
व्यक्ति को
जिसे दुख
वेदना का अनुभव
हो रहा होता
है, वैसी
ही पीड़ा उसे
भी होती है, यह
सहानुभूति
नहीं होती।
करुणा उठती है।
जब तुम किसी
भी व्यक्ति को
जैसा वह है, उसे वैसा ही
देखते हो। और
जब तुम उसे इतनी
समग्रता से
देख सकते हो
कि तुम्हें वह
सब कुछ महसूस
होना शुरू हो
जाता है जो उस
स्थिति में वह
व्यक्ति
महसूस कर रहा
होता है।
कुछ
लोग एक मछुवे
को पीट रहे थे।
रामकृष्ण
परमहंस गंगा
में नाव
द्वारा एक किनारे
से दूसरे
किनारे की ओर
दक्षिणेश्वर
के पास जा रहे
थे। दूसरे
किनारे पर कुछ
लोग एक
व्यक्ति को
पीट रहे थे।
रामकृष्ण नदी
की धारा के
बीच में थे कि
अचानक उन्होंने
चीखना, चिल्लाना और
रोना शुरू कर
दिया। वह
चिल्ला—चिल्ला
कर कह रहे थे— '' रुक जाओ, मुझे
पीटो मत।’’
जो लोग
उनके आसपास
बैठे हुए थे, उनमें
उनके शिष्य तक
यह समझ न सके
कि यह सब कुछ
क्या हो रहा
है? उन्होंने
उनसे पूछा—’‘ आपको कौन
पीट रहा है? आपको पीट ही
कौन सकता है? आप क्या कह
रहे हैं
परमहंस देव? आप पागल तो
नहीं हो गए?''
उन्होंने
कहा—’‘ देखो!
वे लोग मुझे
उस दूसरे
किनारे पर पीट
रहे हैं।’’ तब
उन लोगों ने
देखा कि कुछ
लोग वहां एक
व्यक्ति को
पीट रहे हैं
और रामकृष्ण
ने कहा—’‘ मेरी
पीठ देखो।’’ उन्होंने
अपनी पीठ उघाड
कर दिखाई—वहां
चोट के निशान
थे और वहां
खून बह रहा था।
यह विश्वास
करना असम्भव
था। वे लोग
शीघ्रता से उस
किनारे
पहुंचे और उस
व्यक्ति को
पकड़ लिया जो
पीटा जा रहा
था। उन्होंने
उसकी पीठ उघाड़
कर देखी, वहां
भी चोट के ठीक
वैसे ही निशान
थे। यह है
किसी भी
व्यक्ति की
पीड़ा को उसी
स्थिति में
अपने को रखकर
महसूस करना, जिससे जो
कुछ दूसरे के
साथ घट रहा है
वैसा ही घटना
तुम्हारे साथ
भी होने लगे।
तभी करुणा
जागती है।
लेकिन यह सभी
स्थितियां
अमन की हैं।
अब संचार और
सहभागिता या
अंतर्संवाद.......
संचार
है मन द्वारा
मौखिक, बौद्धिक और
मानसिक रूप से
विचारों और
सूचनाओं का
आदान—प्रदान।
अंतर्सवाद और
सहभागिता है
अमन की चीज।
गहन मौन में
ऊर्जा का
हस्तांतरण, निःशब्द एक
हृदय से दूसरे
हृदय की ओर एक
उछाल, अभी और
यहीं; तुरंत
और बिना किसी
माध्यम के।
सबसे
आवश्यक और
सारभूत चीज जो
स्मरण रखने की
है वह
तुम्हारे
जीवन को दो
भागों में
बांटती हैं।
वह पूरे संसार
को भी दो
संसारों में
बांटती है उसी
सारभूत
वस्तु
को यदि तुम
विचारों के
पर्दे या स्क्रीन
द्वारा देख
रहे हो, तब तुम जिस संसार
रह रहे हो, वह
संसार है
विश्वास का, विचारों का
और सहानुभूति
का। यदि तुम
उसी सारभूत
वस्तु को
स्पष्ट
पारदर्शी आंखों
से देख रहे हो,
तब
तुम्हारे बोध,
या ज्ञान
में जैसी वे
हैं, तब
तुम उनमें कोई
किसी चीज का
प्रक्षेपण
नहीं करते। तब
तुम्हारे पास
एक समझ होती
है, तब तुम
ध्यान में
होते हो। तब
पूरा संसार
बदल जाता है।
और मन के साथ
समस्या यह है
कि वह तुम्हें
धोखा दे सकता
है। वह सहानुभुति
उत्पन्न करता
है वह नकली
सिक्के बनाता
है करुणा के
स्थान पर वह
सहानुभूति
उत्पन्न करता
है, जो एक
नकली सिक्का
है। इसी तरह
सहभागिता और
अंतर्संवाद
के सामने मन के
द्वारा
सूचनाओं और
विचारों का
आदान—प्रदान
नकली सिक्के
की भांति है।
श्रद्धा के
सामने
विश्वास भी एक
नकली सिक्के की
भांति है।
स्मरण
रहे, मन
प्रतिस्थापन
देने की कोशिश
करता है।
तुम्हें किसी
चीज के अभाव
का अनुभव हो
रहा है। मन
उसके स्थान पर
कुछ और उस
जैसी ही चीज
की प्रतिपूर्ति
करता है। बहुत
सजग बने रहो, क्योंकि मन
जो कुछ भी
करने जा रहा
है, वह एक
धोखा ही बनने
जा रहा है। मन
सबसे बड़ा
धोखेबाज है, वह सबसे बड़ा
छलिया है। वह
तुम्हारी
सहायता करता
है, वह
तुम्हें सान्त्वना
देने की कोशिश
करता है और
तुम्हें कुछ
चीज देता भी है।
उदाहरण
के लिए यदि
दिन में तुमने
उपवास रखा है
तो रात तुम
सपनों में
भोजन देखोगे, बड़े
शानदार
होटलों में
विश्राम
करोगे अथवा राजाओं
के महलों में
सुस्वादु
भोजन करने के
लिए आमंत्रित
किए जाओगे।
क्यों ?—तुम
पूरे दिन भूखे
रहे हो, अब
भूख के कारण
सोना कठिन हो
रहा है। मन
भोजन का
प्रतिस्थापन
स्वप्न
निर्मित करके
देता है।
क्यों? तुम
पूरे दिन भूखे
रहे हो, अब
भूख के कारण
सोना कठिन हो
रहा है। मन
उसका
प्रतिस्थापन
स्वप्न
निर्मित करता
है।
क्या
तुमने इस बात
का निरीक्षण
नहीं किया कि
रात में जब
तुम्हारा
मसाना फूल
जाता है और तुम
बाथरूम जाना
चाहते हो, लेकिन
तुम्हारी
नींद में इससे
बाधा पड़ेगी।
मन तुरंत एक स्वप्न
निर्मित करता
है कि तुम
बाथरूम में हो।
तब तुम फिर
सोने जा सकते
हो। वह
तुम्हें एक प्रतिस्थापन
देता है। यह प्रतिस्थापन
तुम: शांत और
संतुष्ट करने
के लिए है यह
असली नहीं हैं,
लेकिन कुछ समय
के लिए यह
सहायक होता है।
इसलिए
मन द्वारा दिए
गए आश्वासन से
सावधान रहो।
वास्तविकता
खोजो, क्योंकि
वास्तविक
यथार्थ ही
आवश्यकता की
गति कर सकता
है। आश्वासन
केवल माग को
आगे के लिए टाल
देगा। वे कभी
भी उन्हें पूरा
नहीं कर सकते
हैं। तुम रात
सपने में
जितना भी भोजन
करना चाहो, कर सकते हो, तुम भोजन के
रंग, गंध, स्वाद और हर
चीज का आनंद
ले सकते हो, लेकिन उससे
तुम्हारा
पालन पोषण न
हो सकेगा।
विश्वास
तुम्हें
श्रद्धा की पूरी
गंध दे सकता
है, उसका
रंग और स्वाद
भी दे सकता है।
तुम उसमें
आनंदित भी हो
सकते हो, लेकिन
वह तुम्हारा
पोषण नहीं
करेगा। पोषण
तो केवल
श्रद्धा कर
सकती है।
हमेशा
याद रहे, जिससे भी
तुम पुष्ट
होते हो, तुम्हारा
विकास होता है
वही सच्ची और
प्रामाणिक
चीज है और जिस
चीज से केवल
आश्वासन
मिलता है, वह
बहुत खतरनाक
है। क्योंकि
इस आश्वासन के
कारण फिर तुम
वास्तविक
भोजन की खोज
ही न करोगे।
यदि तुमने
स्वप्नों में
रहना ही शुरू
कर दिया, और
वास्तविक
सच्चा भोजन
नहीं किया, तो धीमे—
धीमे बिखर
जाओगे, विसर्जित
हो जाओगे, सूख
कर मर जाओगे।
इसलिए
कार्यवाही
तुरंत करो। जब
कभी मन किसी
जरूरत का
प्रतिस्थापन
देने का
प्रयास करे, उसकी बात
सुनो ही मत।
मन बहुत बड़ा
सेल्समैन और
बहुत अधिक पथ
भ्रष्ट करने
वाला है। वह
तुम्हें
समझाता है और
तुमसे कहता है—’‘
ये चीजें
बहुत सस्ती
हैं। श्रद्धा
को खोजना बहुत
अधिक कठिन है,
क्योंकि
उसके लिए
तुम्हें अपने
जीवन को जोखिम
में डालना
होगा, विश्वास
बहुत सरल और
सस्ता है। तुम
उसे मुफ्त ही
पा सकते हो।’’
वस्तुत—
बहुत से
व्यक्ति पहले
ही से तैयार
बैठे हैं — 'यदि तुम
उनके विश्वास
स्वीकार करने
को तैयार हो
जाओ, तो वे
उसके साथ
तुम्हें कुछ
और भी चीज
देने को तैयार
हैं। ईसाई
बनने, हिंदू
बनने या
मुसलमान बनने
के लिए लोग
तुम्हारा
महान स्वागत
सत्कार और
सम्मान करने
को तैयार हैं।
हर चीज उपलब्ध
है बस उनके
विश्वास को
स्वीकार कर लो।
विश्वास न
केवल सस्ता है,
वह अपने साथ
बहुत सी अन्य
चीजें को भी
साथ ला सकता
है। श्रद्धा
खतरनाक है। वह
कभी भी सस्ती
नहीं है।
तुम्हें इसके
लिए जीवन दांव
पर लगाना होगा।
इसके लिए साहस
की जरूरत है, लेकिन केवल
एक साहसी
व्यक्ति ही
धार्मिक बन सकता
है।’’
आज बस
इतना ही।
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