दिनांक 31 मई
1976; श्री ओशो
आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—सत्संग
क्या है? सत्संग
की महिमा क्या
है?
2—बात
करनी मुझे
मुश्किल कभी
ऐसी तो न थी
जैसी
अब है तेरी
महफिल कभी ऐसी
तो न थी
..............................................................
उनकी
आँखों ने खुदा
जाने क्या
जादू किया
कि
तबियत मेरी
मायल कभी............
3—कब
तक उलझना होगा
मुझे इन
कीचड़ों में? मुक्ति
के द्वार तक
ले जाने में
मुझे आप सहाय नहीं
करेंगे क्या?.........
4—संन्यासी
जीवन के लक्षण
क्या है? कृपया
समझाएँ।
5—प्रभु
को पाना चाहता
हूँ, लेकिन
मार्ग में
हजार बाधाएँ
खडी है। एक
पार करते ही
दूसरी आ खड़ी
होती है। मुझे
आदेश दें!
पहला
प्रश्न :
सत्संग
क्या है? सत्संग
की महिमा क्या
है?
मैं
यहाँ हूँ, तुम
यहाँ हो, दोनों
के बीच कोई
बाधा नहीं, अवरोध नहीं,
यही सत्संग
है। विवाद
नहीं, संवाद
है, यही
सत्संग है। एक
शून्य यहाँ, एक शून्य
वहाँ, दो
शून्यों का
मिलन सत्संग
है। एक दीया
यहाँ, एक
दीया वहाँ, दो दीयों का
साथ— साथ जल
उठना सत्संग
है।
सत्संग
भाव की एक दशा
है। विचार की
नहीं। सत्संग
हृदय क्;ा
खुला होना है,
जैसे सुबह
कमल खिल जाए
सूरज के लिए।
सूरज और कमल
के बीच सत्संग
है—सूरज दे
रहा है बेशर्त,
कमल ले रहा
है बेशर्त। न
देने में कोई
संकोच है, न
लेने में कोई
संकोच है। न
देने वाला
कृपण है देने
में, न
लेने वाला
कृपण है लेने
में। न देने
वाला है, न
लेने वाला है,
दोनों तरफ
सन्नाटा है, निर—अहंकार
भाव है, वही
सत्संग है। ये
सुबह के
चुपचाप खड़े
वृक्ष, ये
सूरज की बरसती
हुई किरणें, यह पक्षियों
का कलरव, यह
चुपचाप
तुम्हारा
यहाँ बैठे होना,
जब भी
तुम्हारे
भीतर विचार की
धारा बंद हो
जाती है, तभी
सत्संग हो
जाता है।
मैं
शून्य हूँ, जब
तुम विचार से
भरे होते हो, तुम मुझसे
दूर होते हो।
शून्य के पास
आने का उपाय
शून्य होना ही
है। समान ही
समान के पास आ
सकेगा। तुम जब
विचार से भरे
हो, तुम
बहुत दूर हो।
चाँद—तारों पर
कहीं, यहाँ
नहीं। कहीं और,
कहीं और।
हजार स्थान
होने के हो
सकते हैं। मगर
जरा—सी विचार
की तरंग उठी
कि तुम यहाँ
नहीं हो, एक
बात
सुनिश्चित है।
कहीं और होओगे।
सत्संग टूट
गया। धागा टूट
गया। सेतु न
रहा। हम दो
अलग दुनियाओं
में हो गये।
हमारे बीच कोई
संबंध न रहा।
विचार गया—एक
क्षण को भी
चला जाए—
निर्विचार
सघन हुआ, तुम
सिर्फ मौन
वहाँ बैठे रहे,
खुले, उन्मुक्त,
स्वागत
करते, जरा—भी
तुमने अवरोध न
दिया, जरा—भी
तुमने बाधा
खड़ी न की, मैं—भाव
निर्मित न हुआ—एक
क्षण का
अंतराल' काफी
है—वही सत्संग
घट जाता है।
और एक क्षण का
सत्संग इतना
दें जाता है, जितना विचार
का एक पूरा
जीवन भी न दे
सकेगा। अनंत—अनंत
जीवन न दे सकेगे
जो, एक
क्षण का
सत्संग दे
जाता है।
पर
सत्संग कभी—कभी
घटता है।
इसलिए मैं रोज
बोले जाता हूँ।
आज नहीं, घटेगा
कल घटेगा, कल
नहीं परसों
घटेगा कौन
जाने किस घड़ी
में घट जाए? कौन जाने
कौन—सा शब्द
चोट कर जाए? कौन जाने
किस भावदशा
में तुम खुल
जाओ—तुम्हारा
कमल खुले और
तुम सूरज को
पी लो? एक
बार सत्संग लग
जाए, एक
बार जोड़ बैठ
जाए, फिर
तो बार—बार
बैठने लगता है।
एक बार समझ आ
जाए, स्वाद
आ जाए, फिर
तो बार—बार
लेने में अड़चन
नहीं रह जाती,
क्योंकि
सूत्र
तुम्हारे हाथ
आ गया। गणित
पर तुम्हारी
पकड़ हो गयी।
फिर तो तुम
चुपचाप अपने
भीतर उस
भावदशा को कभी
भी बुला ले
सकते हो। फिर
यहाँ बैठने की
भी जरूरत नहीं
है, तुम
दूर हो कहीं, तो भी
सत्संग बन
सकता है। ऐसा
सत्संग बन सके
इसीलिए
संन्यास का
आयोजन किया है।
तुम दूर रह कर
भी जुड़ सको, यही संन्यास
के पीछे सूत्र
है। तुम दूर
रह कर भी मेरे
पास हो सको।
ख्याल
रखना, पास
होकर भी कोई
दूर हो सकता
है। यहाँ कोई
बैठा हो हजार
विचारों से
भरा हुआ, सोचता
हो, विवाद
करता हो, तर्क
करता हो, संदेह
करता हो, अपने
पक्षपात, अपनी
धारणाएँ बीच
में लाता हो, तो दूर है।
और कहीं दूर, हजारों
कोसों दूर, सात समंदर
पार तुम बैठे
चुपचाप और तुम
निर्विचार
हुए और तुमने
कोई तरंग न
उठायी, तुम
निस्तरंग हुए,
तुम्हारी
भीतर की
अंतर्ज्योति
कँपी नहीं, ठहर गयी, उसी
क्षण सत्संग
हो जाएगा।
दूरी मिटी, समय मिटा, काल मिटा, फासले मिटे,
तत्क्षण
तुम करीब आ
गये। सत्संग
करीब आने की
कला है। दूर
रह कर भी करीब
आने की कला है।
बिना छुए छूने
की कला है।
सत्संग एक बड़ी
कीमिया है।
इसलिए उसकी
बहुत महिमा
गायी गयी है।
गुरु
के पास तो हम
पाठ सीखते
सत्संग का, फिर
सत्संग तो
परमात्मा से
ही होना है।
एक बार राज
हाथ में आ जाए,
फिर तो तुम
कभी भी खुल
जाओ, कहीं
भी खुल जाओ—खुलने
का साहस आ जाए
और यह समझ में
आ जाए कि खुलने
से कुछ खोता
नहीं, खुलने
से मिलता है, बंद रहने से
खोता है— यह
महत्वपूर्ण
नियम
तुम्हारी सूझ—बूझ
में प्रविष्ट
हो जाए कि विचार
से कुछ मिलता
नहीं, विचार
नपुंसक हैं, निर्विचार
से मिलता है, निर्विचार
संपदा है; विचार
भिखारी हैं, निर्विचार
सम्राट है, ऐसी तुम्हें
प्रतीति हो
जाए— गुरु के
पास बैठना बस
इस प्रतीति के
लिए है— एक बार
यह प्रतीति हो
गयी, तो जब
गुरु के पास
खुलने से इतना
मिल जाता है, तो परम के
लिए खुलना, सर्व के लिए
खुलना, सारे
आकाश के लिए
खुलना, फिर
कितना न
मिलेगा। फिर
संपदा—ही—संपदा
है। फिर कभी
कोई दीनता
नहीं है। फिर
कोई दुख नहीं,
फिर कोई
दारिद्रय
नहीं। फिर तुम
सम्राट हो, फिर तुम
स्वामी हो।
यह
तो सत्संग का
अंतरतम है।
इस
सत्संग तक
पहुँचने के
लिए प्रभु— की
चर्चा, संतों
के वचन, सद्गुरुओं
की
अनुभूतिसिक्त
वाणी, उस
पर विचार, उसमें
डोलना, उसके
साथ नाचना, मस्त होना, वेद—कुरान—बाइबिल
से थोड़े—से
मदिरा के घूँट
पीना, वह
भी औपचारिक
अर्थों में सत्संग
है। जैसे छोटे
बच्चे को हम
स्कूल में पाठ
पढ़ाते हैं तो
कहते हैं—’ ग’ गणेश
का। ग का गणेश
से कुछ लेना—देना
नहीं है। ग तो
गधे का भी है, कोई गणेश की
बपौती नहीं है।
कहते है—'आ'
आम का।’आ' तो आदमी का
भी है, आम
से कुछ
अनिवार्यता
नहीं है।
लेकिन कुछ भी
बहाना चाहिए
बच्चे को
समझाने के लिए।
बच्चा आ को तो
जानता नही,, आम को जानता
है। आम का
स्वाद उसे
मालूम है, आ
का स्वाद उसे
मालूम नहीं।
आम की तस्वीर
देखी है, आम
का रंग देखा
है, आम
उसकी प्रतीति
में है, आम
को बहाना बना
रहे हैं ताकि
आम के सहोर, आम की सीढ़ी
पर चढ़ कर वह आम
से परिचित हो
जाए। फिर
जिंदगी भर
थोड़े ही ’आ' आम
का, ऐसे ही
करते रहना है!
कि जब भी
किताब पढ़ी, आ आया तो कहा—’आ'
आम का। और ग
आया तो ’न' गधे
का। फिर तो
तुम गधों और
आमों में डूब
जाओगे, फिर
कुछ पड़ नहीं
पाओगे।
क्योंकि हर
शब्द आएगा और
वह किसका? तो
जो लिखा गया
है, वह तो
पकड़ में ही
नहीं आएगा।
फिर
तो भूल जाता
है बच्चा। एक
बात समझ में आ
गयी,
एक बात
पहचान में आ
गयी, फिर
उसका कोई
उपयोग नहीं रह
जाता। साधन की
तरह उपयोग कर
लिया, वह
साध्य नहीं था।
देखी हैं छोटे
बच्चों की
किताबें? उनमें
तस्वीरें बड़ी
होती हैं; फिर
जैसे—जैसे
बच्चा बड़ा
होने लगता है,
तस्वीरें
छोटी होने
लगती हैं।
तस्वीरें बड़ी
रंगीन होती
हैं बच्चों की
किताबों की।
क्योंकि रंग
उसे आकर्षित
करता है। जैसे—जैसे
बच्चा बड़ा
होने लगता है,
तस्वीरें
बिना रंग की
होने लगती हैं
और छोटी होने
लगती हैं।
स्कूल में
पहुँचते—पहुँचते
तस्वीरें
नदारद होने
लगती हैं।
यूनिवर्सिटी
में पहुँचते—पहुँचते
तस्वीरों का
कोई संबंध ही
नहीं रह जाता।
अब बच्चा सीधा—सीधा
पढ़ने लगा।
तो
औपचारिक रूप
से,
साधन रूप से,
प्रभु—चर्चा
सत्संग है।
जहाँ भजन होता
हो, भजन के
भाव में लोग
भींगते हों, वहाँ सत्संग
है। लेकिन
औपचारिक रूप
से ही समझना।
भजन के पार
जाना है, क्योंकि
भजन वैसे ही
है जैसे ’आ' आम
का। वैसे ही ’भजन'
भगवान का।
उसके पार जाना
है। होना तो
अंततः मौन है।
लेकिन सत्संग
की दृष्टि से
सभी बच्चे हैं,
बूढ़े भी
बच्चे हैं।
शामे
फिराक अब न
पूछ,
आयी और आ के
टल' गयी
दिल
था कि फिर बदल
गया,
जा थी कि
फिर सँभल गयी
बज्मे—खयाल
में तेरे
हुस्न की
शम्मअ जल गयी।
दर्द का
चाँद बुझ गया, हिज़
की रात ढल गयी।।
जब तुझे
याद कर लिया, सुबह
महक—महक उठी।
जब तेरा गम
जगा लिया, रात
मचल—मचल गयी।।
दिल से तो
हर मुआमला
करके चले थे
साफ हम।
कहने में
उनके सामने
बात बदल—बदल
गयी।।
आखिरे—शब
के हमसफर ’फैज' न
जाने क्या हुए।
रह गयी किस
जगह सबा, सुबह
किधर निकल गयी।।
बहुत
मुकाम आते हैं, बहुत
पड़ाव आते हैं।
दिल से तो
हर मुआमला
करके चले थे
साफ हम।
कहने में
उनके सामने
बात बदल—बदल
गयी।।
भजन
से शुरू करोगे, हजार—हजार
रंगों में
प्रार्थना
करोगे, हजार
तैयारियाँ
करोगे, सोचोगे
प्रभु का मिलन
हो जाए तो ऐसा
कहैंगे, ऐसा
कहैंगे, यह
कहैंगे, वह
कहैंगे, लेकिन
बात बदल—बदल
जाने वाली है।
और अखीर में
बात बचेगी ही
नहीं। जब
प्रभु के
सामने खड़े
होओगे, सन्नाटा
रह जाएगा।
शून्य ही
बचेगा।
दिल से तो
हर मुआमला
करके चले थे
साफ हम।
कहने में
उनके सामने
बात बदल बदल
गयी।।
न
तो वेद की ऋचा
का उल्लेख कर
सकोगे, न
कुरान की आयत
गुनगुना
सकोगे। नहीं,
कुछ काम न
आएगा; उसका
काम पूरा हो
चुका, वह
वर्णमाला की
शुरुआत थी।
वर्णमाला की
शुरुवात—विचार,
शब्द, शास्त्र।
अंत कहाँ है? अंत
निर्विचार
में है। अंत
है ध्यान में।
अंत है प्रेम
में।
शामे
फिराक अब न
पूछ, आयी
और आके टल गयी
मत
पूछो विरह की
रात! जब भी
भक्त भगवान को
याद कर लेता
है,
विरह की रात
होती भी है और
टल भी जाती है।
शामे
फिराक अब न
पूछ, आयी और
आके टल गयी
दिल था कि
फिर बदल गया, जां
थी कि फिर
सँभल गयी
जैसे
ही याद
परमात्मा की
कर लेता है
भक्त—वह
सत्संग की
शुरुआत—वैसे
ही बदल जाता
है। दिल था कि
फिर बदल गया।
एक दिल है जब
परमात्मा की
याद नहीं। यह
अंधेरा दिल है।
यह अमावस की
रात है। और
परमात्मा की
याद उठी, रोमांच
हुआ, आँख
में आँसू भर
आए, गद्गद
भाव हुआ,’ दिल
था कि फिर बदल
गया,' फिर
अमावस की रात
पूर्णिमा हो
गयी,’ जां
थी कि फिर
सँभल गयी,' वह
जो दुख से जार—जार
हुए जाते थे, कुछ राह न
सूझती थी, सब
उलझा—उलझा
दिखता था, सब
सुलझ गया। जरा—सी
याद की किरण
क्या आ गयी।
याद की किरण
से भी यह हो
जाता है, साक्षात्
से क्या होगा,
उसका तो
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
बज्मे—खयाल
में तेरे
हुस्न की
शम्मअ जल गयी।
बस
ध्यान में, अभी
प्रत्यक्ष
नहीं हुआ है,’ बज्मे—खयाल
में’.. .सिर्फ
ध्यान में... 1
तेरे हुस्न की
शम्मअ जल गयी’..
.तेरे
सौंदर्य का
दीया जला।
सिर्फ ख्याल
में, सिर्फ
विचार में।
दर्द
का चाँद बुझ
गया,
हिल की रात
ढल गयी।।
उसी
क्षण विरह की
रात ढल गयी।
दर्द का चाँद
भी समाप्त हो
गया। तुम
दूसरी दुनिया
में
रूपांतरित हो
गये। तुम एक
दूसरे लोक में
प्रवेश कर गये।
जब
तुझे याद कर
लिया, सुबह
महक—महक उठी।
एक
सुबह है, जो
उनने जानी है
जिन्होंने
परमात्मा को
बिना याद किये
सुबह को
गुजारा है। एक
और सुबह है, जो केवल वे
ही भाग्यशाली
जानते हैं जो
सूरज के ऊगने
के साथ
परमात्मा की
याद को भी
अपने भीतर उगाते
हैं। जो सुबह
तुमने
परमात्मा को
बिना जाने
जानी है, वह
सुबह ऐसी है
जैसे अंधे
आदमी ने सूरज
की तरफ आँखें
उठायी हैं। वह
सुबह ऐसी है, जैसे बहरा
आदमी
शास्त्रीय
संगीत सुनने
चला गया हो।
उपक्रम
दिखायी पड़ेगा,
बहरा आदमी
जाएगा
शास्त्रीय
संगीत सुनने
तो उसे भी
दिखायी पड़ेगा
साज है, संगीतज्ञ
है, तारों
को खींचता है,
मरोड़ता है,
कुछ हो रहा
है, उसे
दिखायी पड़ेगा,
लेकिन
संगीत देखने
की चीज तो
नहीं है, संगीत
तो सुनने की
चीज है, आंख
वहाँ काम नहीं
आती, दिखायी
तो सब पड़ेगा, समझ में कुछ
भी न आएगा कि
हो क्या रहा
है? शायद
थोड़ी बेचैनी
भी होगी कि
लोग क्या बैठे
हैं, क्या
देख रहे हैं? एक आदमी तार
खींचे जा रहा
है, एक
आदमी तबले को
पीटे जा रहा
है, कुछ और
हो नहीं रहा
है; एक
आदमी मुँह में
बाँसुरी लगाए
हुए फूँके जा
रहा है, कुछ
परिणाम नहीं
आता दिखता, सब असंगत
होगा, अर्थहीन
मालूम होगा।
अर्थ तो कान
हों तो होगा।
सुनायी पड़ जाए
तो अर्थ समझ
में आ आएगा।
जिन्होंने
परमात्मा को
बिना याद किये
सुबह के ऊगते
सूरज को देखा, वे
बहरे आदमी की
तरह हैं जिसने
किसी को
बाँसुरी
बजाते देखा।
उन्हें असली
बात समझ में
नहीं आएगी।
उन्हें सूरज
के पीछे छिपे
हुए हाथों का
कोई अनुभव
नहीं होगा।
उन्हें सूरज
के पार भी कोई
महासूर्य है,
जहाँ से
सूरज में
रोशनी उतरती
है, जिसके
बिना सूरज चुक
जाता कभी का, उसका उन्हें
कोई एहसास
नहीं होगा। वे
आदमी को
देखेंगे, हड्डी—मांस—मज्जा
दिखायी पडेगी,
भीतर आत्मा
का अनुभव नहीं
होगा।
जिन्हें जगत
में परमात्मा
का अनुभव नहीं
हो रहा है, उन्हें
मनुष्य में
आत्मा का
अनुभव नहीं हो
सकता। उन्हें
चीजें तो
दिखायी पड़ेगी,
लेकिन
चीजों के बीच
कोइँ जोड़ नहीं
दिखायी पड़ेगा।
जीवन एक
दुर्घटना
मालूम होगी।
सत्संग
जीवन को
सार्थकता
देता है।
देखने का नया
ढंग,
सुनने का
नया ढंग। ऐसा
ढंग जो बिखरी—बिखरी
चीजों को जोड़
देताहै। सबके
बीच तारतम्य
बिठा देता है।
एक प्रसंग और
संदर्भ
परमात्मा का आ
जाता है, सब
चीजों के अर्थ
बदल जाते हैं।
तुमने देखा? किसी से
तुम्हारा
प्रेम है, और
वह तुम्हें एक
चार आने का
रूमाल भेट कर
दे, तो ऐसे
बजार में तुम
किसी को दिखाओगे
तो वह कहेगा—चार
आने का रूमाल
है, क्या
इतना सँभाल कर
चल रहे हो, कोई
कोहनूर हीरा
समझ लिया है? लेकिन
तुम्हारे लिए
कोहनूर हीरा
फीका है।
तुम्हारे पास
एक संदर्भ है
प्रेम का, जो
उस दूसरे आदमी
के पास नहीं
है, उसे
सिर्फ चार आने
की चीज दिखायी
पड़ रही है।
तुम्हारे लिए
चार आने का
सवाल ही नहीं
है, मूल्य
की बात ही
नहीं है, किसी
ने प्रेम से
दिया है—भेंट
है—तुम्हारा
प्यारा उस
छोटे—से रूमाल
में समाया है।
उसकी सुगंध
कोई और न ले
सकेगा, तुम्हीं
ले सकोगे.।
भक्त
को यह जगत
पदार्थ नहीं
रह जाता। चार
आने की चीज
नहीं रह जाता।
इसमें उसका
प्यारा समाया
हुआ है। यह
उसके प्यारे
की भेंट है।
सत्संग उसी
दिशा में कदम
उठाना है।
बज्मे—खयाल
में तेरे
हुस्न की
शम्मअ जल गयी।
दर्द का
चाँद बुझ गया, हिज
की रात ढल गयी।।
जब तुझे
याद कर लिया, सुबह
महक—महक उठी।
जब तेरा गम
जगा लिया, रात
मचल—मचल गयी।।
उसका
मिलन तो दूर, उसका
विरह भी बड़ा
प्यारा है।
उसके विरह में
भी बड़ी मस्ती
है। उसके मिलन
का तो हिसाब
लगाना
मुश्किल है!
गणित बिठाना
मुश्किल है!
लेकिन
धन्यभागी हैं
वे, जिन्हें
उसकी याद भी
आने लगी।
सत्संग
का प्राथमिक
अर्थ है, जहाँ
चार दीवाने
इकट्ठे होते
हों, जहाँ
चार दीवाने
बैठकर
दीवानगी की
बातें करते
हों, जहाँ
चार प्यारे
बैठकर उस
प्रियतम का
गुण— गान गाते
हों, उसकी
याद जगाते हों,
उसका रस
बिखेरते हों—और
कभी—कभी ऐसा
हो जाता है कि
उनके रस
बिखेरने में
उस तक भी रस
पहुँच जाता है
जो खाली आया
था। उनकी गागर
से कुछ उसमें
भी छलक जाता
है।
दोस्तो, उस
चश्म— ओ—लब की
कुछ कहो, जिसके
बगैर।
गुलिस्ताँ
को बात रंगी
है न मयखाने
का नाम।।
फिर नजर
में फूल महके, दिल
में फिर
शम्में जली।
फिर
तसव्वुर ने
लिया उस बज्म
में जाने का
नाम।।
मोहतसिब
की खैर, ऊँचा
है उसीके फैज
से।
रिंद का, साकी
का, मय का, खुम का, पैमाने
का नाम।।
दोस्तो, उस
चश्म— ओ—लब की
कुछ कहो,
सत्संग
का अर्थ होता
है,
जो जानता हो,
जिसे कुछ
खबर मिली हो, वह उसे खबर
दे दे जिसे
अभी खबर नहीं
मिली। जो दो
कदम आगे गया
हो, वह उसे
खबर दे दे जो
दो कदम पीछे
है। पुकार दे
दे कि चले आना,
कि बढ़े आना,
कि आगे और
रसधार है, कि
आगे और
सौंदर्य है।
जिसे दिखा हो,
वह उसके
हृदय में
देखने की
प्यास जगा दे
जिसे अभी दिखा
नहीं। जिसने'
पाया हो, वह बाँटे।
तो सत्संग
दोहरा है। गुरु
की तरफ से
बाँटना है, शिष्य की
तरफ से पीना
है।
दोस्तो, उस
चश्म— ओ—लब की
कुछ कहो, जिसके
बगैर।
गुलिस्ताँ
की बात रंगी
है न मयखाने
का नाम।।
परमात्मा
के बगैर फूल
फूल नहीं रह
जाते।
क्योंकि
फूलने वाला ही
नहीं बचा।
वृक्ष हरे
होते हैं और
हरे नहीं होते, क्योंकि
हरियाली तो सब
उसकी है। उसके
बिना तो सब
सूखा—साखा है।
उसके बिना भी
चाँद निकलता
है, लेकिन
मालिक के बिना
होता है, उदास—उदास
होता है। उसकी
मौजूदगी में,
उसके अनुभव
के साथ चाँद
एक नया ही
अर्थ ले लेता
है, नयी
भावभंगिमा ले
लेता है। छोटी—छोटी
बातें सार्थक
हो उठती हैं।
जिंदगी के
छोटे—छोटे
अनुभव
बहुमूल्य और
गहरे हो जाते
हैं।
दोस्तो, उस
चश्म— ओ—लब की
कुछ कहो, जिसके
बगैर।
गुलिस्ताँ
की बात रंगी
है न मयखाने
का नाम।।
उसके
बिना शराब में
भी नशा नहीं।
नशा तो वही है, असली
नशा तो वही है।
जिसने उसे पिआ,
उसने ही
जाना कि असली
नशा क्या है।
अंगूरों से
ढलनेवाली
शराब में वह
बात नहीं। यह
तो केवल धोखा
है। यह तो
प्रवंचना है।
यह तो झूठा
सिक्का है।
असली सिक्के
की तलाश करो।
तो सत्संग तो
पियक्कड़ों की
जमात है। एक
मधुशाला है।
वहाँ कोई है
जिसकी सुराही
भर गयी है, बह
रही है, जो
भी पीने को
आतुर हैं पी
सकते हैं।
महिमा
तो बड़ी है
सत्संग की।
सत्संग की
महिमा तो
परमात्मा से
भी बड़ी है।
क्योंकि
सत्संग से ही
परमात्मा
मिलेगा।
सत्संग के
बिना कोई
परमात्मा को
अनुभव नहीं कर
पाया है। यह
यात्रा
सत्संग में ही
पूरी हो पाती
है। संन्यास
सत्संग का एक
रूप है—एक ही
रंग में रँग
जाना। बाकी तो
प्रतीक हैं।
एक साथ किसी
यात्रा पर
निकल पड़ना, एक
दिशा में
उन्मुख हो
जाना।
सत्संग
ही घट रहा है
यहाँ। तुम
जीवंत अनुभव
से गुजर रहे
हो। तुम्हें
शाब्दिक
व्याख्या की
कोई जरूरत नहीं
है। तुम्हें
शब्दकोश में
सत्संग का
अर्थ देखने की
आवश्यकता
नहीं है। आँख
बंद करो, अपने
भीतर देखो।
चुप हो जाओ और
समझो। चुप हो
जाओ और सुनो।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान,
बात
करनी मुझे
मुश्किल कभी
ऐसी तो न थी
जैसी
अब है तेरी
महफिल कभी ऐसी
तो न थी
ले
गया छीन के
कौन मेरा
सब्रो—करार
बेकरारी
तुझे ऐ दिल
कभी ऐसी तो न
थी
उनकी
आँखों ने खुदा
जाने क्या
किया जादू
कि
तबियत मेरी मायल
कभी ऐसी तो न
थी
चश्मे
कातिल मेरी
दुश्मनी थी
हमेशा लेकिन
जैसे
अब हो गयी
कातिल कभी ऐसी
तो न थी
तरु,. तू
अब पागल होने
लगी। सत्संग
का यही परिणाम
है। जहाँ पागल
हो जाना
बुद्धिमत्ता
है, ऐसा
विरोधाभास है
सत्संग। बात
करनी मुश्किल
हो जाएगी।
बात करनी
मुझे मुश्किल
कभी ऐसी तो न
थी
इस
बात को ख्याल
में लेना।
जिनके पास बात
करने को कुछ
नहीं है, उन्हें
बात करनी
मुश्किल होती
ही नहीं। वे
बेबात में से
बात निकाले
चले जाते हैं।
जिनके पास बात
करने को कुछ
नहीं है, वे
दिन भर बात
करते रहते हैं।
जब बात करने
को कुछ होता
है, तभी बात
करनी मुश्किल
होती है।
क्योंकि जो
बात करने को
मिलता है जब, तब पता चलता
है कि इसे
शब्दों में
कहना कठिन है;
इसका
निवेदन न हो
सकेगा, इसे
रूप न दिया जा
सकेगा। जब कुछ
कहने को होता
है तो कहना
मुश्किल हो जाता
है। जब तक
कहने को नहीं
है तब तक कह लो
जो कहना है।
बतिया लो। समझ
लो, समझा
लो। जब कुछ
कहने को आएगा,
तो गूँगे हो
जाओगे, बोलते
न बनेगा। फिर
से बोलना
सीखना पड़ता है।
शब्दों पर नये
अर्थों की
कलमें बिठानी
पड़ती हैं।
सामान्य
शब्दों को
असामान्य
अर्थ देने
पड़ते हैं।
भाषा का ऐसा
उपयोग करना
पड़ता है जिससे
भाषाशास्त्री
राजी नहीं
होगा।
तुम्हारा
एक अनुभव है, उस
अनुभव के
अनुकूल
तुम्हारी
भाषा है। जब
अनुभव बदलेगा,
तब क्या
करोगे? तब
तुम्हें नयी
भाषा चाहिए_। उस भाषा को
कोई समझेगा
नहीं। भाषा तो
तुम्हें यही
बोलनी पड़ेगी
जो लोग बोलते
हैं। फिर इस
ढंग से बोलनी
पड़ेगी कि लोग
समझ भी लें।
अड़चन आएगी।
अगर
लोग बिल्कुल
समझ लेंगे
तुम्हारी बात, तो
तूम पाओगे तुम
कुछ कह नहीं
पाए। अगर लोग
बिल्कुल नहीं
समझ पाएँगे तो
लोग कहैंगे—क्या
बकवास लगा रखी
है! तुम्हें
कुछ बीच का
रास्ता खोजना
पड़ेगा। कुछ—कुछ
समझ में आए, कुछ—कुछ समझ
में न आए। यही
सारे संतों को
अनुभव करना
पड़ा है। इसलिए
संतों की भाषा
को
भाषाशास्त्री
सधुक्कड़ी
कहते हैं।
सधुक्कड़ी का
अर्थ होता है —
कुछ—कुछ यहाँ
की, कुछ—कुछ
वहाँ की। थोड़ी—थोड़ी
यहाँ की, थोड़ी—थोड़ी
वहाँ की। एक
कदम इस जमीन
पर और एक कदम
आकाश में। इसीलिए
जो बहुत
सहानुभूति से
समझते हैं, वे ही समझ
पाएँगे। जो
सहानुभूति से
समझने को राजी
नहीं हैं वे कहैंगे—बकवास
है। वे कहैंगे—हमारी
कुछ समझ में
नहीं आता। ये
रहस्य की
बातें बंद करो।
सीधी—साफ बात
कहो। दो और दो
चार होने
चाहिए, ऐसी
बात कहो।
मगर
मुश्किल है
संत की, दो और
दो—चार उसकी
दुनिया में
होते नहीं।
यहाँ एक और एक
मिल कर दो हो
जाते हैं, संत
की दुनिया में
एक और एक
मिलकर एक ही
रहता है, दो
होते ही नहीं।
सच तो यह है—पहले
दो थे, मिलकर
एक हो जाते
हैं। पुराना
गणित काम नहीं
आता।
तुम्हारे पास
जितने शब्द
हैं, सब
द्वंद्व से
भरे हैं। अगर
प्रेम कहो, तो उसके
पीछे घृणा खड़ी
है। क्योंकि
तुम्हारे
प्रेम में कोई
अर्थ ही नहीं
होता बिना
घृणा के। घृणा
प्रेम की सीमा
बनाती है।
जैसे पड़ोसी का
मकान
तुम्हारे घर
की सीमा बनाता
है। अगर
तुम्हारा कोई
पड़ोसी न हो, तो तुम कहाँ
अपनी दीवाल
उठाओगे? कैसे
तय करोगे कि
यह मेरा मकान?
मुश्किल
में पड़ जाओगे।
पड़ोसी चाहिए।
वह सीमा बना
देता है।
दोनों मिल कर
बीच में एक
रेखा खींच
लेते हैं।
प्रेम का अर्थ—बड़ा
बेबूझ मालूम
पड़ता है—घृणा
से आता है।
अगर कोई तुमसे
पूछे—प्रेम
क्या है? तो
तुम कहोगे—जो
घृणा नहीं। और
क्या कहोगे? और फिर धृणा
क्या है? जो
प्रेम नहीं।
यह तो बड़ी
चक्करदार बात
हो गयी। न
प्रेम का पता
मालूम होता है,
न घृणा का
पता मालूम
होता है। रात
क्या है? दिन
नहीं। और दिन
क्या है? रात
नहीं। फिर दिन
क्या है और
रात क्या है? दोनों साथ—साथ
खड़े हैं।
तुम्हारे
जीवन का अर्थ
तुम्हारी
मृत्यु में
छिपा है। और
संत एक ऐसे
जीवन को जानता
है जिसकी कोई
मृत्यु नहीं,
अब वह कैसे
कहे? अगर
तुम्हारा
शब्द उपयोग
में करे—'जीवन,'
तो झंझट है,
क्योंकि
तुम्हारे
शब्द में मौत
अंतर्गर्भित है।
तुम्हारे
शब्द का मतलब
ही यह होता है—जीवन,
जो मौत में
समाप्त होता
है। मौत उसकी
सीमा बनाती है।
मौत उसको
परिभाषा देती
है। मौत में
उसका अर्थ
छिपा है।
संत
कैसे कहे कि
जो मैंने जाना
है,
वह जीवन है?
क्योंकि
वहाँ मौत है
ही नहीं। संत
कैसे कहे कि
जो मैंने जाना
है वह प्रेम
है? क्योंकि
वहाँ घृणा है
ही नहीं। और
संत कैसे कहे कि
जो मैंने जाना
है वह करुणा
है? क्योंकि
वहाँ क्रोध है
ही नहीं। बड़ी
अड़चन हो जाती
है। तुम्हारे
किसी भी शब्द
का उपयोग करो,
द्वंद्व
खड़ा
होता
है। और संत का
अनुभव
निर्द्वंद्वता
का है, अद्वैत
का है। इसलिए
वह चुप रह.
जाता है। या फिर
उसे शब्दों का
ऐसा उल्टा—सीधा
उपयोग करना
पड़ता है, जिससे
भाषाशास्त्री,
दार्शनिक
राजी नहीं
होते।
बात करनी
मुझे मुश्किल
कभी ऐसी तो न
थी
होती
जाएगी रोज—रोज
मुश्किल' तरु,
अब। यह
मुश्किल' बढ़नेवाली
है। यहाँ जो
मुझे ठीक—ठीक
सुन रहे हैं, उनमें से
अधिक गूंगे हो
जाएँगे। बोल
ही न पाएँगे।
मुस्काएँगे, कुछ पूछोगे
तो। हँसेंगे,
कुछ पूछोगे
तो। मगर कह न सकेगे।
हँसेंगे तुम
पर, हँसेंगे
अपने पर भी।
तुम्हारा
प्रश्न भी
व्यर्थ मालूम
होगा, कोई
उत्तर देना भी
सार्थक नहीं
मालूम होगा।
यह गूँगे का
गुड़ है।
बात करनी
मुझे मुश्किल
कभी ऐसी तो न
थी
जैसी अब है
तेरी महफिल
कभी ऐसी तो न
थी
महफिल
तो सदा से ही
ऐसी है, सिर्फ
तरु तू बदल
गयी। और जब
आदमी बदलता है
तो; महफिल
बदल जाती है।
सब ऐसा ही है, मगर जब
तुम्हारे पास
देखने की नयी
आँख आती है, तब अचानक
लगता है कि यह
क्या हुआ? यह
तो कुक और का
और है! ऐसा तो
कभी दिखा नहीं
था! ऐसी तो कभी
पहचान न हुई थी!
सोचो जरा, एक
दिन अचानक तुम
पाओ कि सारे
वृक्ष जीवंत
हैं। कल तक
इनके पास से
गुजरे थे, कभी
सोचा भी न था
कि इनको
जयरामजी कर
लें, इनका
विचार भी न
किया था। और
एक दिन
तुम्हें
दिखायी पड़ा कि
सब जीवंत हैं,
आत्मवान हैं,
तुम्हारी
तरफ टकटकी लगा
कर देख रहे
हैं, संवेदनशील
हैं तुम
जयरामजी कहो
तो उत्तर देंगे—अपनी
भाषा में
देंगे, मगर
अब तुम उस
भाषा को समझ
पाओगे। तुमने
सुना है न
संतों की बहुत—सी
कहानियाँ! वे
कहानियाँ ही
नहीं हैं, और
जैसा तुमने
उनको पकड़ा है
वैसे वे
कहानियाँ ही
हो गयी हैं।
तुमने
सुना होगा, संत
फ्रांसिस
पक्षियों से
बात करता, पौधों
से बात करता, मछलियों से
बात करता।
इसका मतलब ठीक
से समझ लेना।
इसका मतलब यह
नहीं है कि वह
कुछ बात करता
है, जैसे
तुम एक—दूसरे
से बात करते
हो। इसका मतलब
यह है कि अब
पक्षी—पौधे—वृक्ष
सब जीवंत हैं।
सबके पास
व्यक्तित्व
है। अब उनकी
संवेदना उसे
दिखायी पड़ने
लगी है। अब वह
पह्चान लेता
है कि वृक्ष
उदास है, कि
वृक्ष
प्रसन्न है।
कि आज वृक्ष
को उदास देख
कर फ्रांसिस
वृक्ष के पास
आ जाता है, उस
पर हाथ रखता
है, जैसे
कोई उदास आदमी
के कंधे पर
हाथ रखे। कि
कहता है कि
भाई, उठो, जागो, कैसी
उदासी में खो
गये हो! क्यों
इतने उदास बने
हो? सुबह
ज्यादा दूर
नहीं है, रात
सदा न रहेगी, इतने हताश न
हो जाओ।
सत्संग हो गया।
वृक्ष से
सत्संग हो गया।
कभी पक्षियों
से बात कर रहा
है फ्रांसिस।
ऐसा नहीं है
कि पक्षी और
फ्रांसिस एक
ही भाषा बोलते
हैं, अलग—अलग
भाषा बोलते
हैं, लेकिन
फ्रांसिस अब
जानता है कि
व्यक्तित्व है।
तुमने
कभी देखा, तुम
अगर किसी ऐसे
देश में चले
जाओ जहाँ की
तुम भाषा नहीं
समझते और
तुम्हें
प्यास लग आए
तो भी तुम कुछ
मुद्रा तो
प्रकट कर ही
सकते हो। हाथ
की चुल्लू बना
लोगे, मुँह
के पास ले
जाओगे, कहोगे
कि प्यास लगी
है। और दूसरा
आदमी समझ लेगा।
बिना भाषा के
समझ लेगा।
आखिर गूंगे भी
तो अपना काम
चला लेते हैं।
बिना बोले बोल
लेते हैं। ऐसा
ही अर्थ है
संतों की इन
कहानियों का।
जैसी
अब है तेरी
महफिल कभी ऐसी
तो न थी
ऐसी
ही थी तरु, सदा
से ऐसी थी, सदा
से ऐसी ही है।
यह सभा ऐसे ही
जमी है। यह
संसार ऐसी ही
रंग—रेलियों
में डूबा है, ऐसी ही
मस्ती में
डूबा है। यहां
होली— दीवाली
चल ही रही हैं—रोज,
रोज होली, रोज दीवाली।
हमारे पास
आँखें नहीं
हैं, तो हम
देख नहीं पाते
कितने दीये जल
रहे हैं, कितनी
ज्योतियाँ जल
रही हैं। हम
देख नहीं पाते
कितनी
पिचकारियाँ
चल रही हैं।
कितनी गुलाल
उड़ायी जा रही
है। कितनी
मस्ती है, कितना
रास चल रहा है,
हम नहीं देख
पाते।
ऐसा
ही समझो कि
कृष्ण नाचते
हैं,
राधा नाचती
है, गोपियाँ
नाचती हैं, गोप नाचते
हैं और कोई एक आदमी
वहीं वृक्ष के
नीचे सोया है।
रास चल रहा है,
उसीके पास
चल रहा है, रास
की मदमाती
तरंगें उस पर
भी पड़ रही हैं,
मगर वह गहरी
नींद में सोया
है। न बाँसुरी
सुनायी पड़ती,
न कृष्ण के
नूपुर सुनायी
पड़ते, न
राधा का गीत
सुनायी पड़ता,
न गोपियों
का नृत्य
सुनायी पड़ता,
न कुछ
सुनायी पड़ता,
न कुछ
दिखायी पड़ता,
वह आदमी
गहरी निद्रा
में सोया है।
यह जग जाए तो
यह जग कर
कहेगा—
बात करनी
मुझे मुश्किल
कभी ऐसी तो न
थी
जैसे अब है
तेरी महफिल
कभी ऐसी तो न
थी
यह
क्या हो रहा
है?
यह मुझे कुछ
पता ही नहीं
था कि ऐसा भी
होता है! अगर
अचानक एक रात
तुम आँख खोलो
और अपने कमरे
में देखो
कृष्ण को नाचता
हुआ, तो
तुम चौकोगे।
मगर नाच चल
रहा है, मैं
तुमसे कहता
हूँ। कृष्ण घर—घर
में नाच रहे
हैं। द्वार—द्वार
पर नाच रहे
हैं। अनंत—अनंत
रूपों में नाच
रहे हैं। मगर
तुमने एक शकल
बना रखी है, तुम कहते हो
जब वह मोर—मुकुट
बाँधे, इस
रंग के, इस
ढंग के खड़े
होंगे, इस
मुद्रा में, तब हम
पहचानेंगे।
जरा वृक्षों
को गौर से
देखो, मोर—मुकुट
बाँधा हुआ है।
जरा चाँद—तारों
को गौर से
देखो, बाँसुरी
बज रही है।
जरा पक्षियों
को गौर से
सुनो, यही
घूँघर है, यही
उनकी पायल।
गौर से देखो।
तुमने बहुत छोटी
प्रतिमा बना
ली है, प्रतिमा
बहुत बड़ी है।
प्रतिमा इतनी
बड़ी है कि तुम
पूरी प्रतिमा
को एकसाथ न
देख पाओगे, अंग—अंग को
ही देख पाओगे।
ऐसी
प्रतिमाएँ
हैं, विशाल
प्रतिमाएँ।
वे इसी कारण
बनायी गयी हैं।
बड़वानी
मेंएक जैन
प्रतिमा है, बावन
गज ऊँची। बावन
गज! बड़ी
प्रतिमा है।
छ: फीट की तो
छिंगली है पैर
की—एक आदमी की
लंबाई के
बराबर। तुम जब
नीचे. से
देखोगे तो
1ःाऐर—ही—पैंर
दिखायी पड़ते
है, सिर
उठाते—उठाते
जब तुम सिर तक
पहुँचोने, टोपी
गिर जाएगी।
सीढ़ी चढ़कर
जाना पड़ता है,
ऊपर चेहरे
को देखने', आँख
को देखने। अंखि
भी उतनी बड़ी
है। यह किन
लोगों ने इतनी
बड़ी प्रतिमा
बनायी थी? किसलिए
बनायी थी? यह
प्रतीक है।
यह
प्रतीक है कि
परमात्मा को
छोटी—छोटी
प्रतिमाओं
में मत खोज
करना, उसकी
प्रतिमा बड़ी
है। उसकी
प्रतिमा इतनी
बड़ी है कि
सारा ब्रह्मांड
उसकी प्रतिमा
है। इसमें
सीढ़ियाँ और
सीढ़ियाँ चढ़ते
रहोगे, चढ़ते
रहोगे—इकट्ठा
तो तुम इसे
कभी न देख
पाओगे; कभी
छिंगली दिख
गयी तो बहुत, कभी पैर हाथ
में आ गये तो
बहुत
धन्यभागी हो
तुम। कभी एक
आँख दिख गयी
तो बहुत है, क्योंकि वह
एक आँख भी एक
महासागर होगी।
वह पैर भी
हिमालय होंगे।
यह पूरा ब्रह्मांड
रास है। यहाँ
नृत्य चल ही
रहा है। यह
महफिल जमी ही
है। यह उखड़ती
ही मही। यह
शाश्वत है।
ले गया छीन
के कौन आज
तेरा सब्रो—करार
बेकरारी
तुझे ऐ दिल
कभी ऐसी तो न
थी
इसकी
जरा झलक पड़ेगी
तो अड़चन तो
आएगी, बेचैनी
तो आएगी, सब्र
और करार तो
जाएगा। फिर
कैसा चैन? जहाँ
इतना मधुमय
आनंद बरस रहा
हो, वहाँ
तुम इससे
वंचित बैठे हो—फिर
कैसे शांत
बैठे रहोगे? एक ज्वाला
धधकेगी, विरह
का तूफान
उठेगा। वही
तूफान उठ रहा
है। वही तूफान
उठे, यह
मेरा प्रयास
चल रहा है।
मैं तुम्हें
शांति नहीं
देना चाहता, मैं तुम्हें
ऐसी अशांति
देना चाहता हूँ
कि परमात्मा
को पाए बिना
तुम्हें
शांति मिले ही
नहीं। मैं
तुम्हें चैन
नहीं देना
चाहता —अगर
तुम चैन की
तलाश में आए
हो तो तुम गलत
जगह आ गये—मैं
तुम्हें
बेचैन करना
चाहता हूँ।
ऐसा बेचैन कि
तुम्हारी
नींद टूट जाए,
तुम्हारी
सब व्यवस्था
उखड़ जाए; ऐसा
बेचैन कि जब तक
तुम परमात्मा
को ही अनुभव न
कर लो, दुबारा
फिर विश्राम न
कर सको, विराम
न कर सको। एक
दिव्य अंतृरप्ति
तुममें जगाने
की आयोजना चल
रही है। यही
हे सत्संग।
उनकी
आँखों ने खुदा
जाने किया
क्या जादू
कि तबियत
मेरी मायल कभी
ऐसी तो न थी
तुम्हारी
आँख खुले, तो
तुम चकित होकर
पाओगे कि
परमात्मा की
आँख तुम्हारी
तरफ सदा से
टकटकी लगाए
देख ही रही थी।
वह साक्षी है,
वह परम
साक्षी .है, उसकी आँख
तुम्हारा
पीछा कर रही
है। तुम कहीं
भी हो, वह
तुम्हें देख
रहा है। एक
क्षण को भी
तुम उसकी
अंखिं से ओझल
नहीं हो। तुम चाहे
उसकी तरफ पीठ
करो, चाहे
मुँह करो, चाहे
उन्मुख, चाहे
विमुख, मगर
उसकी आँख सदा
तुम्हारी तरफ
है। इसलिए
शास्त्र कहते
हैं—उसके हजार
हाथ हैं, उसकी
हजार आंखें हैं।
क्यों?
जिन्हें
इन प्रतीकों
की
सहानुभूतिपूर्ण
परीक्षा में
उतरने की
आकांक्षा
नहीं है; वे
कपोलकल्पना
कहकर टाल देते
हैं। हजार हाथ?
हजार हाथ
सिर्फ प्रतीक
है। हजार का
मतलब होता है—अनत।
वह तो प्रतीक
है, अब
इससे ज्यादा
बनाना
मुश्किल हो
जाएगा, हजार
ही मुश्किल से
बनते हैं, वह
तो प्रतीक है,
मगर. बात
इतनी है कि
उसके इतने हाथ
हैं जितने यहाँ
लोग हैं। ताकि
हर आदमी को उसका
हाथ मिल सके।
तुम्हारे लिए
भी उसका एक
विशेष हाथ है,
जो तुम्हें
तलाश रहा है, जो तुम्हारे
पीछे चल रहा
है। तुम जिस
दिन चाहोगे, उसी दिन हाथ
उसका हाथ में
आ जाएगा।
तुम्हारे लिए
भी उसकी एक
आँख है, जो
सिर्फ
तुम्हारे लिए
है और किसी के
लिए नहीं। तुम
अद्वितीय हो,
तुम
महिमावान हो,
तुम्हारे
लिए एक
विशिष्ट आंख
है, जो
तुम्हारा ही
पीछा कर रही
है, जो
तुम्हारा ही
साक्षी बनी है,
जो तुम्हें
देखती जा रही
है—तुम्हारे
अच्छे कर्म, तुम्हारे
बुरे कर्म, तुम्हारा
विचार, तुम्हारा
निर्विचार, सब देखा जा
रहा है। जिस
दिन तुम शांत
होकर' निर्विचार
होकर, मौन
होकर ध्यान की
आंख खोलोगे, उसी दिन तुम
पाओगो—अरे, यह आँखू
मेरा पीछा कब से
कर रही है? और
फिर तुम्हारी
जिंदगी में एक
’जादू छाएगा, जो इसके
पहले कभी भी
नहीं था।
तुम्हारी आँख
में भी थोड़ी, उसकी आँख का
रंग आ जाएगा।
तुम्हारी आँख
में उसकी आँख
झलक गयी, तुम्हारी?
आख की गहराई
बढ़ जाएगी।
तुम्हारी आँख
आकाश जैसी हो
जाएगी।
उनकी
आँखों ने खुदा
जाने किया
क्या जादू
कि तबियत
मेरी मायल कभी
ऐसी तो न थी
चश्मे—कातिल
मेरी दुश्मन
थी हमेशा
लेकिन
जैसी अब हो
गयी कातिल।
कभी ऐसी तो न
थी
परमात्मा
को जानने की
यात्रा में वह
घड़ी आती है—मिटने
की घडी—जब
उसकी तलवार
गिरती है और
वह कातिल की
तरह तुम्हें
काटकर दो टुकडे
कर देता है।
जब तुम टूटते
हो,
तभी तुम
उससे मिल पाते
हो। तुम्हारा
होना बाधा है।
तेरा जमाल
निगाहों में
ले के उट्ठा
हूँ,
निखर गयी
है फज़ा तेरे
पैहरन की सी।
नसीम तेरे
शबिस्ता से
होके आयी है,
मेरी सहर
में महक है
तेरे बदन की
सी।।
जरा
अनुभव होने
लगे,
फिर सुबह की
हवा में उसके
बदन की महक
होगी, झरते
फूलों में
उसकी
मुस्कुराहट, रात के
तारों में
उसकी ही मस्ती
का राग।
देर लगी
आने में तुमको, शुक्र
है फिर भी आए
तो।
आस ने दिल
का साथ न छोड़ा
वैसे हम घबराए
तो।।
शफक, धनक,
महताब, घटाएँ,
तारे, नग्मे,
बिजली, फूल।
उस दामन
में क्या—क्या
कुछ है वो
दामन हाथ में
आए तो।।
चाहत के
बदले में हम
तो बेच दें
अपनी मर्ज़ी तक।
कोई मिले
तो दिल का
गाहक कोई हमें
अपनाए तो।।
सुनी
सुनायी बात
नहीं ये अपने
ऊपर बीती है।
फूल
निकलते हैं
शोलो से, चाहत
आग लगाए तो।।
उसको
पाने की
अभीप्सा की आग
जगे कि उस आग
में ही फु_ल
खिलते हैं।
सुनी
सुनायी बात
नहीं ये अपने
ऊपर बीती है।
फूल
निकलते हैं
शोलो से चाहत
आग लगाए तो।।
बस, चाहने
के लिए दीवानापन
चाहिए। छोटी—मोटी
चाहत से काम न
चलेगा, पूरी—पूरी
चाहत चाहिए।
समग्रीभूत।
सारी
आकांक्षाएँ
एक ही
आकांक्षा में
बच जाएँ, नियोजित
हो जाएँ; सारी
आकांक्षाओं
की सरिताएँ एक
ही आकांक्षा का
सागर बन जाएँ
कि परमात्मा
को पाना है, कि पाना ही
है। देर तो
लगेगी—
देर लगी आने
में तुमको, शुक्र
है फिर भी आए
तो।
देर
तो लगेगी, क्योंकि
सारी जीवन—सरिता
को, सारे
जीवन की
सरिताओं को
समग्रीभूत
करना, सब
को एक धारा
में ले आना—अभी
तो हम हजार
धाराओं में बह
रहे हैं।
पश्चिम भी जा
रहे हैं, पूरब
भी जा रहे हैं,
दक्षिण भी
जा रहे हैं, उत्तर भी जा
रहे हैं, ऊपर,
नीचे, सब
तरफ जा रहे
हैं; अभी
तो हम खंड—खंड
हैं, एक
पैर इस तरफ जा
रहा है, एक
पैर दूसरी तरफ
जा रहा है; इसीलिए
तो हम कहीं
नहीं पहुँच
पाते हैं, जहाँ
के तह। गिर
जाते हैं और
मर जाते हैं।
फिर उठते हैं,
फिर जन्मते
हैं, फिर
वहीं खड़े—खड़े
मर जाते हैं।
जरा
सोचो, एक
बैलगाड़ी
जिसमें चारों
तरफ बैल जोत
दिये हैं, सब
बैल अपनी—
अपनी दिशा में
खींच रहे हैं,
बैलगाड़ी
कहीं भी न
जाएगी, अस्थि—पंजर
ढीला हो जाएगा
बैलगाड़ी का, यात्रा हो
ही नहीं सकती।
यात्रा तो तभी
होती है जब
बैल एक दिशा
में जाते हों।
और कभी तुम
ऐसी बैलगाड़ी
में बैठे हो
जिसमें दो बैल
हों लेकिन आपस
में जिनमें
विरोध हो। एक
चले तो दूसरा
न चले। दूसरा
चले तो पहला
रुक जाए।
जिनमें
दुश्मनी हो।
तो भी बड़ा
मुश्किल हो
जाती है। ऐसी
ही तुम्हारी
हालत है, एक
मन करना चाहता
है एक काम, मन
का ही दूसरा
हिस्सा नहीं
करना चाहता।
एक हाथ से
मकान बनाते हो,
एक हाथ से
गिरा देते हो।
पहुँचोगे
कहाँ? और
परमात्मा को
पाने के लिए
समग्रीभूत हो
जाना जरूरी है।
योग का यही
अर्थ है, जुड़
जाना, इकट्ठे
हो जाना।
देर लगी
आने में तुमको, शुक्र
है फिर भी आए
तो।
आस ने दिल
का साथ न छोड़ा
वैसे हम घबराए
तो।।
बड़ी
घबडाहटें भी
आएँगी। बीच—बीच
में बहुत ऐसे
स्थान भी आ
जाएंगे जहाँ
लगेगा मैं' भी
किस पागलपन
में पड़ गया? मैं भी किस
रास्ते पर चल
पड़ा’ पता नहीं
कुछ मिलने को
है भी या नहीं?
क्योंकि
धीरे—धीरे
अकेले हो
जाओगे—वहाँ
कुछ भीड़ तो
जाती नहीं, वहाँ कोई
लाखों—करोड़ों
लोग तो जाते
नहीं, विरले
लोग जाते हैं।
जल्दी ही तुम
पाओगे कि दस—पाँच
जो साथ चले थे,
वे भी धीरे—धीरे
छूट गये।
अकेले रह गये।
तिब्बत
की एक प्राचीन
कथा है। एक
गुरु ने अपने
शिष्य को दूर
पहाड़ों में एक
आश्रम खोलने
भेजा। जब
आश्रम बन गया, उस
शिष्य ने खबर
भेजी कि मुझे
एक सहायक की
जरूरत है। खबर
आयी, महीनों
लगे खबर आने
में क्योंकि
पहाड़ बड़ा दूर था
और पैदल ही
यात्रा होती
थी। जब खबर
पहुँची तो
गुरु ने कहा—ठीक।
उसने अपने
सारे शिष्य
इकट्ठे किये
और सौ शिष्य
चुने। जो
संदेशवाहक
संदेश लेकर
आया था, वह
हैरान हुआ क्योंकि
संदेश तो
सिर्फ इतना था
कि एक साथी और
भेज दें। सौ
भेज रहा है यह
गुरु! उसने
पूछा कि आप
क्या कर रहे
हैं, आपने
पत्नी ठीक सै
पढ़ा? एक
माँगा है।
गुरु ने कहा—सौ
चलेंगे, तब
एक पहुँचेगा।
अगर एक को
पहुँचाना हो
तो सौ चुनने
पड़ने हैं। बात
उसे बिल्कुल
जँची नहीं, हद्द हो गयी,
जरूरत से
ज्यादा हो
गयी! अगर इतना
भी कहता कि दो
चुन लेते हैं
कि चलो एक तो
कम—से—कम
पहुँच जाए—कोई
बीमार पड़
जाएगा, रास्ते
में कोई शेर, सिंह खा
जाएगा, कुछ
झंझट हो जाए, न पहुँच पाए।
सौ? यह जरा
अतिशयोक्ति
हो गयी। लेकिन
जब गुरु कह
रहा है तो
संदेशवाहक
कुछ बोल नहीं
सका। सौ
आदमियों को
लेकर चला।
और
जल्दी ही गुरु
की बात
प्रमाणित होने
लगी। पहले ही
गाँव में
सम्राट मर गया
था—जहाँ वे
रुके पहली रात—उसके
बेटे का
सिंहासन—आरोहण
होने को था।
नब्बे
भिक्षुओं की
जरूरत थी
आशीर्वाद
देने के लिए।
परंपरागत
उनका नियम था।
नब्बे
भिक्षु खोजना
बहुत मुश्किल
था। मगर उस
दिन धर्मशाला
में जब पहुँचे
तो देखा सौ
भिक्षु रुके
हैं। सम्राट
ने खबर भेजी
कि नब्बे
भिक्षु तो रुक
जाएँ; जो भी
तुम पुरस्कार माँगोगे,
दूँगा। बड़ी
मुश्किल पड़ी।
कई डावाँडोल
हो गये।
पुरस्कार
इतना बड़ा था—जो
भी माँगोगे!
तो उन्होंने
सोचा, अब
जाने में सार
क्या’ और फिर
उन्होंने कहा—संदेश
एक के लिए आया
था, यह तो
अतिशयोक्ति
है सौ को
भेजना, यह
फिजूल, बेमानी
बात है, इसमें
कुछ अर्थ नहीं
है, यह
गुरु झक्की' है।
उन्होंने
हजार बहाने
खोज लिए; और
उन्होंने कहा
कि फिर
पुरस्कार
लेकर हम पहुँच
जाएँगे, महीने—पंद्रह
दिन की देर
सही! देर से
क्या बना—बिगड़ा
जा रहा है? और
फिर दस तो जा
ही रहे हैं!
नब्बे तो वहाँ
रुक गये।
दूसरे
गाँव में पड़ाव
पड़ा। उस गाँव
का पुजारी मर
गया था। और
बहुत दिन से
वे तलाश में
थे कि कोई
योग्य व्यक्ति
मिल जाए; दस
भिक्षु! गाँव
के लोगों ने
प्रार्थना की
कि पुजारी की
जरूरत है।
नौकरी भी
अच्छी थी, रहने
की सुविधा भी
अच्छी थी, एक
वहाँ रुक गया।
और
ऐसे ही यात्रा
चलती रही, आदमी
खोते गये।
आश्रम के
पहुँचने के
पहले आखिरी
पड़ाव पर दो ही
आदमी बचे।
संदेहवाहक अब
आश्वस्त होने लगा
कि गुरु झक्की
नहीं है। दो
ही बचे जितना
उसने सोचा था
कि दो ही
भेजना काफी है।
मगर उस रात
उनमें से एक
कट गया। गाँव
में एक
नास्तिक था, उसने आकर
दोनों को
चुनौती दे दी
कि मैं यह कुछ नहीं
मानता। यह
बुद्ध—धर्म, यह बुद्ध, यह सब बकवास
है। मैं
चुनौती देता
हूँ तुम्हें
शास्त्रार्थ
की। एक ने तो
दूसरे से कहा
कि इस झंझट
में मत पड़ो, हमें
पहुँचना है
अपने गुरु तक,
यह शास्त्रार्थ
कितने दिन
चलेगा क्या
पता? अट्ठान्नबे
साथी तो छूट
ही गये हैं, अब और तुम न
छूट जाना मगर
एक तो बोला कि
चाहे अब कुछ
भी हो जाए!
बुद्ध को कोई
लांछना लगाए,
यह मैं
बरदाश्त नहीं
कर सकता। यह
जीवन—मरण का
सवाल है। अगर
यह पूरी जिदगी'
भी लग गयी
इसी
शास्त्रार्थ
में तो भी कोई
हर्जा नहीं
है! तुम जा
सकते हो। मै
तो इसको हरा
कर ही आऊंगा।
वह वहीं रुक
गया। उसके
साथी ने बहुत
समझाया कि
गुरु ने सौ
भेजे हैं, कम—से—कम
दो तो पहुँच
जाओ। मगर उसने
कहा अब कोई
उपाय नहीं है,
मैं चुनौती
अंगीकार कर
लिया हूँ, यह
हमारे धर्म पर
हमला है, यह.
हमारी आत्मा
पर चोट है, मैं
नपुंसक नहीं
हूँ — वह बड़ी—बड़ी
बातें करने
लगा'! उसने
कहा कि मैं तो
यहीं रुकूँगा।
वह रुक ही गया।
जब
संदेशवाहक
पहुँचा, तो एक
ही व्यक्ति
पहुँचा था।
लेकिन उस
आश्रम को
बनाने वाले
गुरु ने कहा —
तो एक साथी आ
गया। यह तो
बताओ गुरु ने
भेजे कितने थे?
संदेशवाहक
ने कहा — क्या
आपको भी यह
ख्याल था कि
गुरु ज्यादा भेजेगा?
उसने कहा कि
निश्चित।
क्योंकि सौ
चलते हैं तब
कहीं एक
पहुँचता है।
मैने एक माँगा
था, क्योंकि
अगर मैं सौ
माँगता तो वह
हजार भेजता।
इसलिए मैने एक
माँगा था कि
सौ तो वह
भेजने ही वाला
है।
ऐसी
ही यात्रा है।
दुर्गम है।
पहाड़ों की है।
यहाँ अगर सौ
साथी चलेंगे, तुम
पाओगे एकाध बच
जाए तो बहुत।
जार्ज
गुर्जिएफ के
जीवन में
उल्लेख है कि
तीस मित्रों
ने—जो बड़े
खोजी थे सत्य
के—यह तय किया
कि हम सारी
दुनिया की
यात्रा करेंगे, अलग—अलग
धर्मों में
प्रवेश
करेंगे—कोई
तिब्बत जाएगा,
कोई भारत, कोई ईरान, कोई मिश्र, कोई चीन, कोई
जापान—और हम
सारे धर्मों
का सार लेकर
फिर इक्ट्ठे
होंगे बारह वर्ष
बाद। और जो—जो
एक आदमी सीख
कर आएगा, वह
हम तीसों
मिलकर
संग्रहीत
करेंगे। और उस
संग्रह में से
हम समन्वय
निकालेंगे।
हम सारे
धर्मों का
निचोड़ खोजना
चाहते
तीस
निकल तो गये, लेकिन
कोई लौटा नहीं।
जब गुर्जिएफ
लौटा बारह साल
के बाद तो
अकेला ही
पहुँचा। वहाँ
कोई आया ही
नहीं। वे संगी—साथियों
का कुछ पता ही
नहीं चला कि
वे कहाँ गये।
कोई किसी के
प्रेम में पड़
गया, खबर
आयी कि उसने
तो विवाह कर
लिया, उसके
तो अब चार—पाँच
बच्चे भी हैं।
कहाँ का सत्य?
किसीने
दुकान कर ली, कमाई भी कर
ली। कोई अच्छी
नौकरी में लग
गया है। कोई
कुछ हो गया, कोई कुछ हो
गया। तीस
साथियों में
से एक भी
वापिस नहीं
आया। बारह साल
लंबा मौका है।
यहाँ
रोज ऐसा मौका
होता है। कोई
व्यक्ति मुझे
वचन देकर जाता
है कि मैं नार्वे
जा रहा हूँ, कि
स्वीडेन जा
रहा हूँ, बस
पंद्रह दिन
में आता हूँ।
तीन साल बाद
लौटता हैं।
तेरे पंद्रह
दिन का क्या
हुआ? आपसे
क्या कहना, हवाई—जहाज
पर एक स्त्री
मिल गयी, उसके
मैं प्रेम में
पड़ गया। बड़ी
झंझट हो गयी, तीन साल लगे
निकलने में।
किसी
झंझट में
उतरना तो आसान
है,
झंझट से
निकलना उतना
आसान नहीं है।
कठिन मामला है।
उलझाव से
उलझाव आते हैं।
कोई
जाता है, लौटता
ही नहीं। पता
ही नहीं चलता
कहाँ गया? फिर
किसीसे खबर
आती है कि वह
तो जेल में है।
क्या हो गया? आदमी आया था,
भला था, ध्यान
करने आया था, संन्यस्त
हुआ था, जेल
में कैसे
पहुँच गया? कि उसने कुछ
जालसाजी करके
पैसा कमाने की
कोशिश की थी।
अब वह तीन साल
के लिए जेल
में हैं। उसके
बाद आएगा।
आदमी करीब—करीब
दुर्घटनाओं
से जीता है।
इसलिए बडा
कठिन है अपने
को समग्रीभूत
रूप से एक
दिशा में
नियोजित कर
देना। इसलिए
देर लग जाती
है।
देर लगी
आने में तुमको, शुक्र
है फिर भी आए
तो।
आस ने दिल
का साथ न छोड़ा
वैसे हम घबराए
तो।।
कई
बार ऐसा लगने
लगेगा—अब रुक
जाएँ। अब और
आगे कहाँ जाना
है?
अब कोई संगी—साथी
भी नहीं बचा।
कई बार निराशा
पकड़ेगी, कई
बार विषाद
आएगा, असफलता
ऐसी लगेगी कि
सफल होना संभव
नहीं है, लेकिन
अगर लगे ही
रहे—जैसे तरु
लगी ही रही है—आस
ने दिल का साथ
न छोड़ा वैसे
हम घबराए तो..
घबराई भी खूब
है, मगर
लगी रही है, लगी रही तो
घड़ी आने के
करीब है।
बात करनी
मुझे मुश्किल
कभी ऐसी तो न
थी
जैसी अब है
तेरी महफिल
कभी ऐसी तो न
थी
शफक, धनक, महताब,
घटाएँ, तारे,
नग्मे, बिजली,
फूल।
उस दामन
में क्या—क्या
कुछ है वो
दामन हाथ में आए
तो।।
परमात्मा
के दामन में
सब है। उसका
दामन हाथ में
आ जाए तो सारा
संसार हाथ में
आ गया। और जो
यहाँ दूसरी
चीजों को
तलाशने चल पड़े
हैं,
उनके हाथ
में कुछ भी न
आएगा। एक के
साधे सब सधै, सब साधे सब
जाए। तुम उसके
दामन को पकड़
लो, तुम
उसको पकड़ लो, शेष सब अपने—आप
आ जाता है।
चाहत के
बदले में हम
तो बेच दें
अपनी मर्जी तक।
बस, इतनी
तैयारी चाहिए।
अपनी मर्जी।
जीसस का अंतिम
वचन था सूली
पर कि प्रभु, तेरी मर्जी
पूरी हो। उसी
क्षण
रूपांतरण हुआ।
जीसस जीसस न
रहे, क्राइस्ट
हो गये। उसी
क्षण
बुद्धत्व
फलित हुआ।
उसके एक क्षण
पहले उन्होंने
कहा था— यह तू
मुझे क्या
दिखा रहा है? यह तू क्या
कर रहा है
मेरे साथ? क्या
तूने मुझे
त्याग दिया? उसमें
शिकायत थी।
उसमें यह बात
थी कि मेरी
मर्जी के
अनुकूल नहीं
हो रहा है। यह
जो हो रहा है, यह मेरे
हिसाब से जैसा
होना चाहिए
वैसा नहीं है।
यह तो कुछ गलत
हुआ जा रहा है,
क्या तूने
मेरा साथ छोड़
दिया? क्या
तूने मुझे
त्याग दिया? लेकिन तभी
उन्हें होश आ
गया कि यहमैं
क्या कह रहा
हूँ? यह तो
मेरी मर्जी आ
गयी। तत्क्षण
उन्होंने बदल
दिया—औंर उस
बदलाहट के साथ
ही क्रांति घट
गयी। कभी—कभी
एक छोटा—सा
वचन। ये चार
छोटे—से शब्द—’तेरी
मर्जी पूरी हो',
जीसस के
जीवन को बदल
गये, समाधि
लग गयी, समाधान
हो गया।
चाहत के
बदले में हम
तो बेच दें
अपनी मर्जी तक।
कोई मिले
तो दिल का
गाहक कोई हमें
अपनाए तो।।
सुनी
सुनाई बात
नहीं यह अपने
ऊपर बीती है।
फूल
निकलते हैं
शोलो से चाहत
आग लगाए तो।।
चाहत
की आग जहाँ लग
जाए,
वहीं सतसंग
है। मैं आग
लिये बैठा हूँ।
तुम जरा पास
आओ, तुम
डरो मत, तुम
पास आते चले
जाओ, यह
भभक, यह
लपट तुम्हें
पकड़ लेगी। आग
के रंग के
कारण ही यह
गैरिक रंग
संन्यास का रंग
रहा है। यह
लपटों का रंग
है। यह
क्रांति का रग
है। तुम्हें
पता नहीं तुम
कौन हो। जलो
तो पता चले।
क्योंकि जलने
में वही जल
जाएगा जो तुम
नहीं हो। और
वह शेष रह
जाएगा जो तुम
हो। कचरा जल
जाएगा, हीरा
बच जाएगा।
सोना कुंदन
होकर निकल
आएगा।
इक इक अंग
उजाला नाचे
किरनें चूमें
गात
हम
सूरजबंसी
होते तो करते
तुझसे बात
मै
तुमसे कहता
हूँ,
तुम
सूरजबंसी हो।
सूरज से बातें
करो, किरणों
से दोस्ती
बनाओ, रोशनी
से विवाह करो,
प्रकाश से
विवाह रचाओ।
भाँवर ही
डालनी हो तो
परमात्मा से
ही डालनी।
उससे कम क्या
भाँवर डालनी।
उससे कम पर तो
तलाक— पर—तलाक
होने वाले हैं।
विवाह तो बस
उसीसे होता है।
हिम्मत
चाहिए, जोखम
उठाने का साहस
चाहिए—दुस्साहस
कहना चाहिए—
और तब यह घड़ी
आती है, जब
कुछ कहने को
होता है और
कहने को शब्द
नहीं मिलते।
जब भीतर गीत
उठता है और
जबान लड़खड़ाती
है। जब भीतर
नाच उठता है
और पैर यहाँ
के वहाँ पड़ते हैं।
कहीं धरो, कहीं
पड़ते हैं।
शुभ
घड़ी है। ऐसी
घड़ी सभी को
खोजनी है।
मेरे पास यह
हो सके, तो ही
तुम मेरे पास
थे। अन्यथा
तुम आते रहे, जाते रहे, मगर पास
नहीं थे।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान, कब
तक उलझना होगा
मुझे इन
कीचड़ों में? मुक्ति कै
द्वार तक ले
जाने में मुझे
आप सहाय नहीं
करेंगे क्या?
मेरा होश
जगाओ, लो
अब मैं तैयार
हूँ मिट जाने
को। लो अब मैं
सूखा पत्ता बन
गयी, जिधर
जी चाहे उड़ा
कर ले चलो
मुझे। लो मैं
पोंगरी बन गयी,
तुम्हीं
उसमें से सुर
निकालों।
मेरी जीवन—नैया
के पतवार तुम
हो! अगर तुमसे
आस न करूँ तो किससे
करूँ? तुम
कुछ न करो, बस
मुझे दीवानी
बना दो। अब इसके
सिवा तुमसे
कोई आशा नही।
मर कर भी
दिखाएँगे
तिरे चाहने
वाले
तिरे
प्यार में
मरना कोई जिसे
बड़ा काम नहीं
मीरा, कीचड़
कहोगी संसार
को तो निकल न
पाओगी। कीचड़
में निंदा
छिपी है।
निंदा के कारण
तुम कीचड़ से
जो कमल निकलते
हैं उनसे
वंचित रह
जाओगी।
कीचड़
कीचड़ ही होती, तो
मामला बड़ा
सीधा—साफ था, इतनी उलझन न
होती। कीचड़
में कमल छिपे
हैं। सो बड़ी
उलझन है। जो
कीचड़ से भागा,
वह कमल से
वंचित रह
जाएगा। और कमल
को ही पाने
चला था, कमल
को पाने के
लिए कीचड़ छोड़ी
थी! तो दुविधा
में हो जाता
है, बड़ी
अड़चन में हो
जाता है, बड़े
द्वंद्व में
पड़ जाता है।
तुम
कहती हो—कब तक
उलझना होगा
मुझे इन
कीचड़ों में? जब
तक तुम कीचड़
समझोगी तब तक
उलझना होगा।
मेरी सारी
चेष्टा यहां
यही है कि
संसार को कीचड़
मत समझो, संसार
में परमात्मा
व्याप्त है; कीचड़ भी
कीचड़ नहीं है,
कीचड़ में भी
वही छिपा है।
जिस दिन
तुम्हें यह
प्रतीति गहन
होने लगेगी, उस दिन कहाँ
छूटना है, कहाँ
जाना है, कहाँ
भागना है!
मुक्ति
तुम्हें
खोजती आए, तो
मजा है! तुम
मुक्ति को
खोजने कहाँ
जाओगे? हिमालय
में कुछ कीचड़
कम है? किसी
आश्रम में
जाकर बैठ
जाओगे वहाँ
कुछ कीचड़ कम
है? कीचड़
से ही बना है
सब कुछ, यह
देह भी कीचड़
से बनी है।
भागो, कहाँ
भागोगे? इसी
कीचड़ के सहारे
भागोगे न। यही
पैर तुम्हें
ले जाएँगे दूर—दूर
तीर्थयात्राओं
पर और यही
कीचड़ से भरा
हुआ सिर
झुकेगा
मंदिरों में,
मस्जिदों
में। जाओगे
कहाँ, मंदिर—मस्जिद
भी कीचड़ से
बने हैं।
कीचड़
सिर्फ कीचड़
नहीं है, तुम्हारे
देखने में अभी
भ्रांति है।
अभी तुमने ऊपर—
ऊपर से देखा।
जरा कीचड़ के
भीतर गौर से
झाँकों, छिपे
हुए कमल हैं, पर्त—दर—पर्त
कमल—ही—कमल
हैं। जरा कीचड़
को अपना सुर
गाने दो। कीचड़
को जरा अपने
कमल निकालने
में सहायता दो।
मैं
तुम्हें कहीं
और नहीं ले
जाना चाहता, यहीं,
जहाँ तुम हो,
वहीं जगाना
चाहता हूँ।
मैं संसार—विरोधी
नहीं हूँ।
लेकिन मैं
तुम्हारी
अड़चन समझता
हूँ, धर्म
ने तुम्हें
सदा से संसार—विरोधी
बातें सिखायी
हैं। तो जब
तुम मेरे पास
आते हो, वे
ही धार्मिक
बातें
तुम्हारे सिर
में घूमती रहती
हैं।
पूछा
है—कब तक
उलझना होगा
मुझे इन
कीचड़ों में? और
यही मैं समझा
रहा हूँ रोज
सुबह—साँझ कि
कीचड़ नहीं है
यहाँ, कमल'
छिपे हैं।
कमल' में
कोई उलझना
होता है? कमल
का रस लो।
प्रभु ने जो
भी दिया है, उसे प्रसाद
की तरह
स्वीकार करो,
कीचड़ मत कहो,
यह प्रभु का
अपमान है, क्योंकि
उसका दान है, उसकी भेट है,
तुम्हें।
जीवन उसकी
भेंट है। इतने
बहुमूल्य
जीवन को तुम
कीचड़ कह रहे
हो।
तुम्हारे
महात्माओं ने
तुम्हें
विषाक्त कर दिया
है। तुम्हारे
तथाकथित साधु—संतों
ने तुम्हारे
मन को बुरे
जहर से भर
दिया है, निंदा
से भर दिया है।
हर चीज की
निंदा कर दी
है। तुम्हारे
जीवन को
विस्तार नहीं
दिया है, सिकोड़
दिया है।
तुम्हें सड़ा दिया
है। और
तुम्हारे
देखने का ढंग
ऐसा गलत हो
गया है, ऐसा
निषधात्मक हा
गया है, कि
हर चीज मे
तुम्हें
बुराई दिखायी
पड़ने लगी है, तुम बस
काँटे गिनते
हो, फूल
देखते ही नहीं।
तुम रातें
गिनते हो, दिन
देखते ही नहीं।
मैंने
सुना है एक
झेन कहानी—
एक
झेन फकीर, किसी
भूल—चूक में
पकड़ लिया गया
और जेल में
डाल दिया गया।
एक राजनेता भी
जेल में बंद
था। दोनों साथ—साथ
ही जेल में
पहुँचे।
पूर्णिमा की
रात थी, चाँद
निकला, दोनों
सींखचों के पास
खड़े हैं।
राजनेता बोला—
हद की गंदगी
है यहाँ।
क्योंकि
सामने एक डबरा
है और डबरे
में कूड़ा—करकट
है। स्वभावत:
राजनेता
नाराज था।
राजनेता जीता
ही नाराजी से
है। जब उसके
पास पद होता
है, तब
दूसरे उस पर
नाराज होते
हैं जो पद
चाहते हैं, और जब उसका
पद छिन जाता
है तब वह
नाराज होता है
उन पर, जिनके
पास पद है। वह
एकदम नाराज था
कि यह शासन
गलत, यह
व्यवस्था गलत,
यह सरकार
गलत; यह
क्या मामला है,
इतनी गंदगी
मचा रखी है, यहाँ डबरा
भरा हुआ है, इसकी सफाई
भी नहीं है।
डबरे में पड़े
टीन के कनस्तर
उसे दिखायी
पड़े।
और
उस फकीर ने
कहा—मेरे भाई, डबरा
बहुत छोटा है,
आकाश बहुत
बड़ा है, आकाश
की तरफ क्यों
नहीं देखते? और चाँद
निकला है, पूरा
चाँद, और
रात बड़ी
प्यारी है! और
तुम्हें डबरे
में कनस्तर
दिखायी पड़ रहा
है टूटा—फूटा
और वहाँ चाँद
का प्रतिबिंब
बन रहा है वह नहीं
दिखायी पड़ रहा
है! कनस्तर से
अपनी किस्मत
क्यों बाँधे
हो? फकीर
ने कहा, तुम
मुझे याद न
दिलाते तो
मुझे डबरे का
पता ही न चलता,
मैं चाँद से
मोहित हो गया
था। चाँद को
देखते, आकाश
को देखते मुझे
यह भी याद न
रही थी कि
सामने सींखचे
हैं और मैं
सींखचे पकड़े
खड़ा हूँ और मेरे
हाथ में
जंजीरें हैं।
पूरे चाँद को
देखते समय
किसको
जंजीरें याद
रह जाती हैं? और जिसको
जंजीरें याद
हों, वह
पूरा चाँद
कैसे देख
सकेगा? ये
देखने के ढंग
हैं। दोनों एक
जगह खड़े हैं, दोनों कै
सामने डबरा है
और दोनों के
सामने चाँद भी
है।
कीचड़? मीरा
कीचड़ मत कहो।
कीचड़ कहोगी तो
कीचड़ हो गयी।
तुम अपनी जिंदगी
और अपनी
दुनिया खुद
बनाती हो। जरा
गौर से देखो, कीचड़ में
चाँद का
प्रतिबिंब बन
रहा है। जरा
गौर से देखो, कीचड़ में
कमल फूलने के
करीब है। जरा
और गौर से
देखो, और
कीचड़ में
तुम्हें
परमात्मा
मिलेगा। यहाँ
सब कुछ उसी से
व्याप्त है।
इस अनुभव को
मुक्ति कहता
हुँ। जिस दिन
तुम्हें हर
चीज परमात्मा
का ही रंग मालूम
पड़ने लगे, उस
दिन मुक्ति।
और
पूछा है—मुक्ति
के द्वार तक
ले जाने में
मुझे आप सहाय नहीं
करोगे क्या?
मैं
दूसरी ही बात
कह रहा हूँ, मैं
कह रहा हूँ—मुक्ति
को कैसे
तुम्हारे
द्वार तक लै आऊँ?
तुम्हें
मुक्ति के
द्वार तक जाने
की कोई जरूरत
नहीं। और
मुक्ति का ऐसा
कोई द्वार है
कहाँ जहाँ तुम
जाओ।
यहूदी
फकीर ठीक कहते
हैं—खास कर
हसीद फकीर—कि
परमात्मा को
खोजना सभव
नहीं है। तुम
राजी हो जाओ, तो
परमात्मा
तुम्हें खोज
लेता है।
परमात्मा
तुम्हें खोज
रहा है। हसीद
फकीर कहते हैं
कि तब से खोज
रहा है जब से अदम
परमात्मा को
छोड़ कर संसार
में आ गया।
कहानी प्यारी
है!
परमात्मा
ने कहा था अदम
को,
पहले आदमी
को, कि तू
इस वृक्ष के
फल मत खाना।
उस वृक्ष का
नाम है, ज्ञान
का वृक्ष। यह
कहानी अद्भुत
है। इससे
ज्यादा
अद्भुत और दूसरी
कोई भी कथा
दुनिया के
किसी शास्त्र
में नहीं है।
क्योंकि इसके
अनूठे अर्थ
हैं, और
इसमें बड़े
जीवन का सार—निचोड़
छिपा है।
ज्ञान के
वृक्ष के फल
मत खाना, नहीं
तो तू मुझसे
वंचित हो
जाएगा।
मगर
उसने ज्ञान के
वृक्ष के फल
खाए। और जब
उसने ज्ञान के
वृक्ष के फल
खाए तो पीड़ित
हुआ,
परेशान हुआ,
अपराध
अनुभव हुआ, डरा कि अब
क्या होगा, मैंने आज्ञा
का उल्लंघन
किया है! और
परमात्मा उसे
खोजता आया—जैसे
वह रोज आता था;
जैसे रोज
साथ चलते थे
दोनों, गपशप
भी करते थे, गीत भी गाते
थे, पास
बैठते थे, उठते
थे—लेकिन आज
अदम एक झाड़ी
के पीछे छिप गया।
और परमात्मा
चिल्लाता
फिरता है—अदम,
तू कहाँ है?
और अदम
झाड़ों के पीछे
छिपा फिर रहा
है। वह
परमात्मा से
बच रहा है। आज
परमात्मा के
सामने
निर्दोष भाव
से खड़े होने
की सामर्थ्य
उसकी नहीं रही।
आज उसने पाप
किया है।
अब
यह बड़े मजे की
बात है, ज्ञान
का फल पाप का
कारण बना।
मेरी भी
प्रतीति यही
है। जितना
आदमी
ज्ञानवान
होता गया है
उतना परमात्मा
से दूर होता
गया है। यह
कहानी पूरे
मनुष्यजाति
के इतिहास की
कहानी है।
जितना आदमी
ज्ञान से भर
जाता है, जितना
उसकी खोपड़ी
में ज्ञान भर
जाता है, उतना
हो प्रेम कम
हो जाता है।
अब यह मीरा तू
भी ज्ञान की
बातें कर रही
है—संसार कीचड़,
और संसार
बंधन; ये
सब ज्ञान की
बातें हैं।
निर्दोष हो!
और परमात्मा
तब से ही
खोजता फिर रहा
कि अदम तू
कहाँ है? मीरा
तुझे भी खोज
रहा है, क्योंकि
सभी अदम हैं।
और सब छिपे
हैं। सबने आड़े
बना ली हैं —
कोई मस्जिद
में छिपा हु, कोई मंदिर
में, कोई
शिवालय में, सब छिपे हैं,
सब डरे हैं।
और मजा यह है
कि घंटे बजा
रहे हैं, प्रार्थनाएँ
कर रहै हैं, अजान कर रहे
हैं और पुकार
रहे हैं कि हे
परमात्मा, तुझसे
मिलन कैसे हो?
और
परमात्मा
तुम्हें खोज
रहा है! और तुम
सब तरह के
उपाय कर रहे
हो कि वह तुम्हें
खोज न ले।
तुम्हें
कहीं जाना
नहीं है, तुम्हें
सिर्फ प्यास
जगानी है।
तुम्हें
सिर्फ
प्रार्थना से
भरना है।
तुम्हारे
भीतर
प्रार्थना की
अग्नि जल उठे,
परमात्मा
तुम्हें
खोजता आ ही
रहा है। उस
अग्नि में
बाधाएँ जल
जाएँगी, अवरोध
जल जाएँगे, ज्ञान जल
जाएगा। वह जो
ज्ञान का फल
खाया है, उसका
वमन हो जाएगा।
तुम पुन:
निर्दोष हो
जाओ
छोटे
बच्चे की
भाँति, मुक्ति
तुम्हें
खोजती आ जाए।
जोग—बिजोग
की बातें झूठी, सब
जी का बहलाना
हो।
फिर भी
हमसे जाते—जाते, एक
गज़ल सुन जाना
हो।।
सारी
दुनिया अक्ल
की बैरी, कौन
यहाँ पर सयाना
हो।
नाहक नाम
धरे सब हमको, दीवाना
दीवाना हो।।
तुमने तो
एक रीत बना ली, सुन
लेना शरमाना
हो।
सब का एक न
एक ठिकाना, अपना
कौन ठिकाना हो।।
नगरी—नगरी
लाखों द्वारे, हर
द्वारे पर लाख
सखी।
लेकिन जब
हम भूल चुके
हैं, दामन
का फैलाना हो।।
हम भी झूठे, तुम
भी झूठे, एक
उसी का सच्चा
नाम।
जिससे
दीपक जलना
सीखा, परवाना
मर जाना हो।।
बस उतना
तुम सीख लो—दीपक
का जलना, परवान
का मर जाना; आँचल फैलाना
सीखो, वही
प्रार्थना है।
नगरी—नगरी
लाखों द्वारे, हर
द्वारे पर लाख
सखी।
लेकिन जब
हम भूल चुके
हैं, दामन
का फैलाना हो।।
परमात्मा
तो खड़ा है
द्वार—द्वार
पर,
मगर हम झोली
नहीं फैलाते।
हमने हृदय बंद
कर रखा है।
हमने ताले जड़
रखे हैं हृदय
पर। हम दामन
का फैलाना भूल
गये, हम
झुकना भूल गये।
झुकना
प्रार्थना है,
दामन का
फैलाना
प्रार्थना. है।
जरा झोली
फैलाओ, जरा
माँगो उससे, मिलेगा; मिला
है, नियम
बदले नहीं हैं।
जीसस का वचन
है—माँगो और
मिलेगा, द्वार
खटखटाओ और
द्वार
खुलेंगे, पूछो
और उत्तर
पाओगे।
नगरी—नगरी
लाखों द्वारे, हर
द्वारे पर लाख
सखी।
लेकिन जब
हम भूल चुके
हैं, दामन
का फैलाना हो।।
बस
उतनी कमी है।
मुक्ति के
द्वार
इत्यादि नहीं
जाना है, दामन
फैलाना सीखो।
और जहाँ तुम
दामन फैलाओगे,
वहीं पाओगे
संपदा बरस गयी
और दामन भर
गया
हम भी झूठे, तुम
भी झूठे, एक
उसी का सच्चा
नाम।
जिससे
दीपक जलना
सीखा, परवाना
मर जाना हो।।
बस
उतनी बात सीख
लो,
दीपक जैसे
जलो, परवाने
जैसे मरने की
तैयारी रखो। तुम्हारी
प्रार्थना पक
जाए, परमात्मा
अभी है, यहीं
है।
कठिनाइयाँ
हैं, अड़चनें
हैं, मुझे
भी पता है।
उलझनें हैं, मुझे भी पता
है। मगर कीचड़
मत कहो। अपमान
मत करो, निंदा
मत करो। जो है,
उसे
स्वीकार करो;
उसी
स्वीकृति में
से रास्ता
मिलेगा।
तूफान हैं, मगर उनको
तूफान कह कर
दुश्मनी मत
बना लो, उन्हें
चुनौती समझो।
सदमें झेलूं
जान पे खेलूँ
इससे मुझे
इन्कार नहीं।
लेकिन
तेरे पास वफा
का कोई भी
मेयार नहीं।।
ये भी कोई
बात है आखिर
दूर ही दूर रहैं
मतवाले।
हरजाई है
चाँद का जोबन
या पंछी को
प्यार नहीं।।
अगर
प्यार है तो
दूरी मिट
जाएगी। अगर
प्रेम है तो
दूरी मिट ही
गयी,
प्रेम के
होने में ही
मिट गयी।
ये भी कोई
बात है आखिर
दूर ही दूर रहैं
मतवाले।
हरजाई है
चाँद का जोबन
या पंछी को
प्यार नहीं।।
लोग
बातें करते
हैं
प्रार्थना की, प्रार्थना
नहीं करते।
लोग कहते
परमात्मा को
पाना है, लेकिन
जरा गौर से
छाती पर हाथ
रखकर सोचना —
सच में पाना
है? और अगर
परमात्मा खड़ा
हो और एक तरफ
सोने का ढेर लगा
हो, और यह
विकल्प
तुम्हारे
सामने हो कि
चुन लो एक, तो
जरा पूछना
अपनी हृदय से
क्या चुनोगे?
तुम कहोगे—परमात्मा
को फिर
देखेंगे, इतनी
जल्दी क्या है,
पहले सोनो
चुन लें। फिर
परमात्मा तो
शाश्वत है, फिर मिल
जाएगा। तुम
चुन लोगे सोना।
जरा सोचना, परमात्मा
सामने खड़ा हो
और पद रखा हो
एक तरफ कि राष्ट्रपति
बन जाओ, चुन
लो कोई एक, और
तुम परमात्मा
को ठुकरा दोगे।
यह कोई प्यास
नहीं
एक जरा—सा
दिल है जिसको
तोड़ के तुम जा
सकते हो।
ये सोने का तोक
नहीं ये चाँदी
की दीवार नहीं।।
मल्लाहों
ने साहिल—साहिल
मौजों की तोहीन
तो कर दी।
लेकिन फिर
भी कोई भँवर
तक जाने को
तैयार नहीं।।
और
भँवर में जाएर
बिना कोई
रास्ता नहीं
है।
फिर से वही
सेलाबे—हवादिस
जाने दो ऐं
साहिल वालो।
या इस बार
सफीना डूबा या
अबके मझधार नहीं।।
एक
दफा तय करना
होता है।
या इस बार
सफीना डूबा या
अबके मझधार
नहीं।।
अब
दो में से कुछ
एक। या तो
डूबेंगे, या
पार उतरेंगे।
या तो नाव
नहीं बचेगी, या मझधार को
नहीं बचने
देंगे। आज दो
में से कुछ एक।
ऐसा संकल्प जब
उठता है, ऐसी
विराट ऊर्जा
तुम्हारे
भीतर जब
सघनीभूत होकर
उठती है, उसी
क्षण
परमात्मा से
मिलन हो जाता
है। तुम माँगो
तो! मिलेगा।
खटखटाओ तो!
द्वार खलेगा।
सदमे
खेलूं जान पे
खेलूँ इससे
मुझे इंकार
नहीं।
लेकिन
तेरे पास वफा
का कोई भी
मेयार नहीं।।
ये भी कोई
बात है आखिर
दूर ही दूर रहैं
मतवाले।
हरजाई है
चाँद का जोबन
या पंछी को
प्यार नहीं।।
एक जरा—सा
दिल है जिसको
तोड़ के तुम भी
जा सकते हो।
ये सोने का तोक
नहीं ये चाँदी
की दीवार नहीं।।
मल्लाहों
ने साहिल—साहिल
मौजों की तोहीन
तो कर दी।
लेकिन फिर
भी कोई भँवर
तक जाने को
तैयार नहीं।।
फिर से वही
सेलाबे—हवादिस
जाने दो ऐं
साहिल वालो।
या इस बार
सफीना डूबा या
अबके मझधार
नहीं।।
और मैं
तो तैयार हूँ
साथ देने को।
मेरी मौजूदगी
और क्या है? इसलिए
यह तो’ सोचो ही
मत कि मैं
तुम्हें साथ
नहीं दे रहा
हूँ। मेरा तो
हाथ फैला हुआ
है, मगर
मीरा, तू
ही अपने हाथ
को बचा रही है।
और होशियारी
से बचा रही है।
और यह भी
बचाने की एक
तरकीब है कि
हम तो जाने को राजी
हैं, कोई
ले जाने वाला
नहीं। भूल
वहीं हो रही
है तेरी जहाँ
तूने संसार को
कीचड कहा।
संसार को कीचड़
जिसने कहा, उससे मेरा
संबंध नहीं
जुड़ पाएगा।
क्योंकि मैं
संसार को कीचड़
नहीं कह रहा
छूँ। मैं तो
संसार को
परमात्मा ही
कह रहा हूँ।
अंधी आँखों से
देखा गया
परमात्मा
ससार मालूम होता
है, जब आँख
मिल जाती है
तो संसार ही
परमात्मा
मालूम होता है।
संसार और
निर्वाण दो
नहीं हैं।
यहाँ एक ही
अस्तित्व है,
उसको देखने
के दो ढंग हैं।
एक अंधे आदमी
का ढंग है, आंख
बँद किये आदमी
का ढंग है और
एक होश वाले
आदमी का ढंग
है।
मैंने
यहीं, इसमें
ही हजार—हजार
कमल खिलते
देखे हैं।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूँ—कीचड़ मत
कहना। और
जिसने इसे
कीचड़ कहा, उसने
परमात्मा के
हाथ की निंदा
कर दी। तुम
पिकासो की
तस्वीर की
निंदा करोगे
तो पिकासो की
निंदा हो गयी।
तुम तानसेन के
संगीत की
निंदा करोगे
तो तानसेन की
निंदा हो गयी।
तुम बगीचे की
निंदा करोगे
तो माली की
निंदा हो गयी।
संसार
की निंदा चल
रही है धर्म
के नाम पर। और
लोग सोचते हैं, यह
धार्मिक बात
है। और सँसार
उसकी कृति है—और
ये वही लोग
कहे चप्पे जा
रहे है। लोगों
का मस्तिष्क
साफ—सुथरा
नहीं है। ये
वही लोग कहे
चले जा रहे
हैं कि संसार
को परमात्मा
ने बनाया और
साथ ही यह भी
कहे जा रहे
हैं कि संसार
कीचड़ है, इससे
बचना, इससे
सावधान रहना।
जो परमात्मा
ने बनाया है, तो बचना, सावधान
रहना। यह बात
फिर शोभा नहीं
देती। या तो
परमात्मा ने
नहीं बनाया, शैतान ने
बनाया है, शैतान
स्रष्टा है, तब बचने की
बात समझ में
आती है। और
अगर परमात्मा
ने बनाया है
तो इसमें डूबो,
उतरो, गहरे
जाओ। उसकी
कृति में
उतरकर ही तुम
कृतिकार को पा
सकोगे। और कोई
उपाय नहीं है।
चौथा
प्रश्न:
संन्यासी
जीवन के लक्षण
क्या हैं? कृपया
समझाएँ।
लक्षण
नहीं हैं, बस
लक्षण है। जल
में कमलवत।
बहुवचन में मत
पूछो, बहुत
लक्षण नहीं
हैं संन्यासी
के, बस एक
ही लक्षण है, एकवचन में
पूछो। जल में
रहे और जल छूए
न।
आखिरी
प्रश्न :
मैं प्रभु
को पाना चाहता
हूँ, लेकिन
मार्ग में
हजार बाधाएँ
खड़ी हैं। एक
बाधा पार करता
हूँ तो दूसरी
आ खड़ी होती है।
मुझे आदेश दें।
बाधाएँ
नहीं हैं, चुनौतियाँ
हैं।
तुम्हारे
भीतर सोए हुए
परमात्मा को
जगाने के लिए
मौके हैं, अवसर
हैं। तुम कब
विधायक ढंग से
सोचना सीखोगे?
तुम कब तक
नकारात्मक
में ही उलझे
रहोगे? इधर
मैं रोज
चेष्टा करता
हूँ कि किसी
तरह नकार से
तुम मुक्त हो
जाओ और विधेय
तुम्हारी
जीवनदशा बन
जाए, लेकिन
तुम खिसक—
खिसक कर नकार
में फँस जाते
हो।’ नहीं’ तुम्हारे
जीवन की शैली
बन गयी है। और
मैं चाहता हूं,’हाँ' तुम्हारे
जीवन की शैली
बने। राह पर
पत्थर पड़ा है, इसको बाधा
क्यों कहते हो,
सीढ़ी क्यों
.नहीं मानते? इस पर चढ़ो, इस पर चढ़ कर
तुम ऊँचाई पर
पहुँच जाओगे।
हर तूफान मौका
है छाती को
बड़ा करने का।
हर कठिनाई
अवसर है जीत
के लिए, जागने
के लिए!
बाधाएँ कहीं
भी नहीं हैं।
जरा देखो, जरा
मेरे ढंग से
देखो, जरा
मेरी आँख से
झाँको, बाधाएँ
कहीं भी नहीं
हैं।
किसीने
तुम्हें गाली
दी,
बाधा आ गयी।
क्योंकि इससे
ध्यान में
बाधा पड़ती है,
चित्त
डाँवाडोल हो
जाता है। बाधा
मान ली तो
बाधा। किसीने
गाली दी, खुश
हो जाओ कि आज
गाली दी, अब
देखें कि ध्यान
में बाधा पड़ती
है कि नहीं? आज तो तय ही
करना है कि
बाधा नहीं
पड़ने देंगे।
गाली दी गयी
है, मगर हम
गाली नहीं
लेंगे। गाली
दी गयी है, मगर
हम अछूते रहैंगे।
गाली आए और
घूमे चारों
तरफ और धुएँ
की तरह उठे और
घेर ले, मगर
भीतर हम
अस्पर्शित रहैंगे।
आज इस अवसर को
न जाने देंगे,
इस आदमी ने
बड़ी कृपा की
सुबह—सुबह
गाली दे दी, अब तो बैठ ही
जाओ ध्यान में,
आज ध्यान और
गाली के बीच
तय कर लो कि
कौन तुम्हारा
मालिक है? यह
अवसर हो गया।
और ध्यान
तुम्हारा
मालिक है और
गाली का कोई परिणाम
न हुआ, तो
तुम अनुग्रह नहीं
करोगे उस आदमी
के प्रति
जिसने गाली दी
थी? सुबह—सुबह
एक मौका दे
गया, बिनमाँगे
मौका दे गया, बड़ी कृपा की,
जाकर
धन्यवाद कर
आना।
सुना
नहीं कबीर ने
कहा है—' निंदक
नियरे राखिए आंगन
कुटी छवाय’।
समझ गये होंगे
राज कि अगर
निंदक पास ही
रख लो—और आंगन
कुटी भी छवा
देना, कहीं
चला न जाए 1 ठीक
से सेवा—सत्कार
करना उसका कि
भाई, यहीं
रह, और रोज
सुबह—सुबह
गाली दिया कर,
और रोज सुबह—सुबह
हम ध्यान
करेंगे। तू
रोज जितनी
मजबूत गाली दे
सके उतनी देना,
जितनी वजनी
दे सके उतनी
देना, तू
कंजूसी मत
करना, तू
दिल खोल कर
देना, तू
बरस पड़ना एकदम
सुबह ही सुबह
और उसी वक्त
हम ध्यान
करेंगे, उसी
वक्त हम भजन
में लगेंगे।
देखेंगे गाली
जीतती कि भजन
जीतता? जिताऐगे
भजन को, हराएँगे
गाली को। यह
बल चाहिए।
तुम
बैठ गये रोने, कहने
लगे कि बाधा
हो गयी। और
तुम्हें तो
ऐसी छोटी—लोटी
बातों से बाधा
पड़ जाती है!
तुम ध्यान
करने बैठे, उधर बच्चे
ने खिलौना
गिराकर आवाज
कर दी, बाधा
हो गयी। निकल
आए, हो गये
दुर्वासा ऋषि
एकदम, देने
लगे अभिशाप
पूरे घर को!
मुझे लोग कहते
हैं कि घर में
एकाध आदमी
धार्मिक हो
जाए तो सारा घर
संकट में पड़
जाता है।
बुड्ढे—ठुड्ढे
अक्सर हो जाते
हैं। माला— वाला
फेरने लगे, किसीने कुछ
गड़बड़ कर दी—कोई
बोल दिया जोर
से, कोई
चीज गिर गयी, कहीं कुछ हो
गया कि बस, उनका
पारा चढ़ गया।
वह सारा घर
सिर पर उठा
लिया, उपद्रव
मचाने लगे।
धार्मिक आदमी
बड़े क्रोधी हो
जाते हैं। यह
तो बड़ी उल्टी
बात हो गयी।
धार्मिक आदमी
और क्रोधी हो,
तो फिर
करुणावान कौन
होगा? नहीं,
चूक वहाँ हो
रही है कि तुम
चीजों को बाधा
समझ रहे हो।
और देखने के
ढंग पर सब
निर्भर है, देखने का
ढंग तुम्हारी
दुनिया का
निर्माता है।
मैं
एक
विश्रामगृह
में मेहमान था।
एक राजनेता, एक
मिनिस्टर भी
उस रात वहाँ
रुके थे। कुछ
बात थी कि सारे
गाँव के
कुत्ते उस
विश्रामगृह
के आसपास लड़
रहे, झगड़
रहे। नेता को
नींद न आए।
मैं सो गया तो
वह उठकर मेरे
कमरे में आए
और उन्होंने
कहा कि आप—मुझे
हिलाया—कहा, आप सो रहे
हैं! मैं तो सो
ही नहीं पा
रहा, एक बज
गया और कुत्ते
हैं कि शोरगुल
मचाए जा रहे
हैं। कई दफे जाकर
इनको बाहर
आदमी को जगाकर
भगवा भी आया, लेकिन वे
फिर वापिस लौट
आते हैं। आज
की रात नींद
संभव नहीं है।
आप किस भाँति
सो रहे हैं? मैंने
उनसे
कहा—आप क्या
समझते हैं
कुत्ते अखबार
पढ़ते हैं कि उनको
पता है कि आज
राजनेता यहाँ
रुके हैं, चलो
घेराव करें, कि हड़ताल
करें, कि
नारेबाजी
करें, कि
फलाने जी
मुर्दाबाद? उनको कुछ
पता नहीं है, वे अपने काम
में लगे हैं, तुम्हारे
लिए विशेष कोई
उन्होंने
आयोजन नहीं
किया है यह, कल भी मैं
इसी
विश्रामगृह
में था तब भी
वे यहाँ थे, तुम नहीं थे
तो भी यहाँ थे,
तुम नहीं
रहोगे तो भी
यहाँ ही रहैंगे,
तुम चिंता न
करो? उन्हें
तुम्हारी कोई
चिंता नहीं है,
उन्हें पता
भी नहीं है।
तुम ये जो भाव
लिये बैठे हो
कि कुत्ते
तुम्हें बाधा
डाल रहे हैं, इससे
तुम्हें अड़चन
आ रही है। तुम
स्वीकार कर लो,
अंगीकार कर
लो, तुम
मौज से सुनने
लगो उनकी आवाज
जैसे संगीत को
कोई सुनता है।
उन्होंने कहा—संगीत?
ये कुत्तों
की आवाज और
संगीत? मैंने
कहा—सुनने—सुनने
की बात है। जो
शास्त्रीय
संगीत नहीं
समझता और जब
संगीतज्ञ
करता है—आ s s s s s, तो वह भी
सोचता है यह
क्या मामला हो
रहा हे?
मैंने
उनसे कहा
मुल्ला नसरुद्दीन
एक दफा गया था
और जब
संगीतज्ञ
बहुत आ s s s s s
करने लगा, तो
उसकी आँख से
एकदम आँसू
गिरने लगे!
उसके पड़ोसी ने
पूछा कि मैंने
कभी मुल्ला
सोचा नहीं था कि
तुम संगीत के
इतने प्रेमी
हो। आँख से
आँसू? उसने
कहा—संगीत जाए
भाड़ में, मै
तुम्हें कहे
दे रहा हूँ कि
यह आदमी मरेगा।
क्योंकि ऐसे
ही मेरा बकरा
मरा था — आ s s s s ।
मुझे आँसू
अपने बकरे की
याद से आ रहे
हैं, संगीत
से मुझे क्या
लेना—देना?
अगर
शास्त्रीय
संगीत किसीको
बकरे का आ s s s s s मालूम
पड़ सकता है, तो कुत्ते
की आवाज में' शास्त्रीय
संगीत सुनने
में कौन—सी
अड़चन है? मैंने
कहा—तुम कोशिश
तो करो, हर्जा
भी क्या है’ ऐसे
भी नहीं सो
रहे, वैसे
भी नहीं सो
पाओगे और क्या
होगा? तुम
जरा कोशिश करो।
तुम स्वीकार
कर लो, शिथिल
भाव से, शांत
भाव से लेट
जाओ, कहो
कि ठीक है, कुत्तो,
भौंको। तुम
लोरी गा रहे
हो। गाओ, बड़ा
आनंद दे रहे
हो।
मजबूरी
— उनका दिल' तो
मेरी बात
मानने का नहीं
हो रहा था, लेकिन
और कोई उपाय
भी नहीं था—कहा,
अच्छा करके
देखते हैं।
सुबह
जब उठे, मैने
पूछा — क्या
हुआ? उन्होंने
कहा — आश्चर्य
की बात है, हालाँकि
मैंने आधे ही
मन से किया, मगर जैसे ही
मैंने किया कुछ
फर्क पड़ गया।
थोड़ी देर तो
मुझे आवाज
सुनायी पड़ती
रही, फिर
मैं कब सो गया
मुझे पता नहीं।
वह जो विरोध
का भाव था, उसके
गिरते ही अतर
पड़ जाता है।
तब बाजार में
भी ध्यान हो
सकता है।
ये गाते
ज़लज़ले, नाचते
तूफान के धारे
हवा की
नियतों से बेखबर
मल्लाह
बेचारे
वो
तूफानोंके हल
चलने लगे
सग्याल खेती
में
वो किश्ती
आके डूबी
गौहरी कतरों
की रेती में
वो टूटी
मौज की शपफ़ाकु
दीवारें
सफीनों पर
वो फिर
लहरें उभर
आयीं इरादों
की जबीनों पर
वो
टकरानेलगी
आवाज नीले
आसमानों से
वो खत्ते—रहगुजर
पर जल उठीं
शमाएँ तरानों
से
हवायें थम
नहीं सकतीं, तलातुम
रुक नहीं सकते
मगर
मौजोहवा के
सामने सर झुक
नह्मईं सकते
सफीने हैं
कि तूफ़ां के
थपेड़े खाए
जाते हैं
मगर
मल्लाह गीत
अपने बराबर
गाए जाते हैं
हैं कितने
गुम कि जिनकी
मय सरूर—अँगेज
होती है
हैं कितने
गीत जिनकी लौ
हवा से तेज.
होती है
खिंचा हो
जिनका खत्ते—रहगुज़र
तूफां के
धारों पर
बड़ी
मुश्किल से
उनको नींद आती
है किनारों पर
तूफानों
में सोना सीखो।
तूफानों में
जीना सीखो।’ हवायें
थम नहीं सकतीं’, और
यह तुम ख्याल
रखना कि
तुम्हारे लिए
हवाएँ रुकेगी
नहीं, तुम्हें
मौका नहीं कि
सब तूफान रुक
जाएँ, सब
हवाएँ रुक
जाएं, सब
उपद्रव मिट
जाएँ दुनिया
से, कि आप
ध्यान करने
बैठे हैं! कुछ
नहीं रुकेगा,
दुनिया
अपने ढंग से
चलती रहेगी।
हवायें थम
नहीं सकतीं, तलातुम
रुक नहीं सकते
और
न आधियाँ रुकेगी।
तुमने दीया
जलाया है
ध्यान का, इसलिए
आँधियाँ नहीं
रुक जाएँगी।
सच तो यह है कि
दीया जला
देखकर
क्षाँधियाँ
और आकर्षित होती
??
हवायें थम
नहीं सकतीं, तलातुम
रुक नहीं सकते
मगर मौजो—हवा
के सामने सर
झुक नहीं सकते
लेकिन
जरा हिम्मत
करो,
ऐसे जल्दी—जल्दी
क्या झुक
जाना!
सफीने हैं
कि तूफ़ां के
थेपड़े खाए
जाते हैं
नावें
थपेड़े खाएँगी
तूफान के। इससे
कुछ बाधा नहीं
आ रही है।
इसको आनंद—
उत्सव समझो।
नाचते हुए आगे
बढ़ो।
सफीने. हैं
कि तूफां के
थपेड़े' खाए
जाते हैं
मगर
मल्लाह गीत
अपने बराबर
गाए जाते हैं
तुम
अपना गीत गाओ, दुनिया
जो कर रही है
उसे करने दो।
तुम अपने गीत की
दुनिया की
सारी
अव्यवस्था के
बीच गा सको, तो ही गाया
जानना।
हैं कितने
गुम कि जिनकी
मय सरूर—अंगेज़
होती है
हैं कितने
गीत जिनकी लौ
हवा से तेज
होती है
छोटे—छोटे
दीये बुझ जाते
है',
बड़ी—बड़ी
लपटें आग की
हवा से और तेज
हो जाती हैं।
तुम परमात्मा
को खोजना
चाहते हो, इसे
लपट बनाओ।
हैं कितने
गीत जिनकी लौ
हवा से तेज
होती है
खिंचा हो
जिनका खत्ते—रहगुजर
तूफां के
धारों पर
और
एक बार
तुम्हें जब यह
पता चल जाएगा
कि जिंदगी का
असली आनंद
तफानों के बीच
निर्द्वंद्व
होने का आनंद
है,
तब तुम चकित
होओगे, हैरान
होओगे कि असली
शांति
किनारों पर
नहीं है, मझधारों
में है, जहाँ
तूफान हैं।
असली ध्यान
बाजार में है।
असली संन्यास
संसार में है।
आज
इतना ही।
(समाप्त)
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