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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

सहज योग--(प्रवचन--11)

खोलो गृह के द्वार—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 1 दिसंबर ,1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र :


वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म।
जो गुरुपाअ पसण तंहि कि चित्त अगम्म।।1।।

सहजें चित्त विसोहहु चंग।
इह जम्महि सिद्धि मोक्ख भंग।।2।।

सचल णिचल जो सअलाचर।
सुण णिरंजण म करू विआर।।3।।


हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।
हंउ अमणसिआर भवभंजण।।4।।

तित्थ तपोवण म करहु सेवा।
देह सुचिहि ण स्सन्ति पावा।।5।।

देव म पूजहू तित्थ ण जावा।
देव पूजाहि ण मोक्ख पावा।।6।।


सिद्ध सरहपा की परंपरा में चौरासी सिद्ध हुए। चौरासी प्रतीक है चौरासी कोटि योनियों का। चौरासी के प्रतीक का अर्थ है कि प्रत्येक योनि अधिकारी है मोक्ष की। पत्थर भी एक दिन मुक्त होगा, देर-अबेर। भेद है तो समय का। लंबी यात्रा करनी होगी पत्थर को। पत्थर में और मनुष्य में अस्तित्वगत भेद नहीं है, सिर्फ चैतन्य का भेद है। पत्थर सोया है गहरी निद्रा में, मनुष्य थोड़ा-सा जागा है, बुद्ध पूरे जाग गये हैं।
बुद्ध की प्रतिमायें पत्थर की बनाई गईं। इस पृथ्वी पर सबसे पहले बुद्ध की ही प्रतिमायें बनाई गईं। और क्यों पत्थर की बनाई गईं? उसके पीछे छिपा हुआ राज है। इसलिए पत्थर की बनाई गईं कि पत्थर इस जगत में सबसे सोई हुई चीज है और बुद्ध इस जगत में सबसे जाग्रत चैतन्य हैं। दोनों के बीच सेतु बनाया, दोनों के बीच संबंध जोड़ा। पत्थर से लेकर बुद्ध तक एक का ही विस्तार है। पत्थर में भी वही छिपा है जो बुद्ध में प्रगट होता है। पत्थर की प्रतिमा का यही संकेत है।
इन चौरासी सिद्धों की संख्या में यही बात बतायी है कि प्रत्येक योनि अधिकारी है सिद्धावस्था की। यहां कोई भी नहीं है जो सिद्ध होने से वंचित रह सके, यदि निर्णय करे सिद्ध होने का। अगर कोई रोकेगा तो तुम स्वयं ही अपने को रोक सकते हो। इसलिए महावीर ने कहा है: तुम्हीं हो अपने मित्र और तुम्हीं हो अपने शत्रु। सिद्ध होने से अपने को रोका तो शत्रु और सिद्ध बनने में सहयोग दिया तो मित्र। और कोई दूसरा न तुम्हारा मित्र है और न कोई दूसरा तुम्हारा शत्रु है! तुम ही हो अपने नर्क, तुम ही हो अपने स्वर्ग। दोनों तुम्हारे हाथ में हैं। चुनाव तुम्हारा है। निर्णायक तुम हो। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।
और फिर यदि तुमने दुख चुना हो, नर्क चुना हो, तो नाहक दूसरों को दोष मत देना। स्मरण रखना कि यही मैंने चाहा है। जो चाहा है वही तुम्हें मिला है।
इस जगत में बिना चाहे कुछ मिलता ही नहीं। तुम जो चाहते हो वही मिल जाता है। हो सकता है चाह में और मिलने में वर्षों का अंतर हो, कि जन्मों का अंतर हो, पर याद रखना जब भी कुछ तुम्हें मिले तो कहीं न कहीं तुमने चाह के बीज बोये होंगे, अब फसल काट रहे हो। भूल गये हो शायद कि कब ये बीज डाले थे। स्मरण भी नहीं आता। मगर फसल है तो प्रमाण है कि बीज तुमने बोये थे और कभी भी जीवनऱ्यात्रा पर मोड़ लिया जा सकता है। किसी भी क्षण तुम लौट पड़ सकते हो। कोई रोक नहीं रहा है। हर क्षण तुम संसार की राह, संसार के मार्ग को छोड़कर, मोक्ष के मार्ग पर गतिमान हो सकते हो।
इन्हीं चौरासी सिद्धों की परंपरा में तिलोपा भी हुए। अब कुछ दिन हम तिलोपा के साथ चलेंगे। सरहपा और तिलोपा, ये दो नाम चौरासी सिद्धों में बड़े अपूर्व हैं।
तिलोपा का भिक्षु नाम था: प्रज्ञाभद्र। लेकिन अपने गुरु विजयपाद के आश्रम में तिल कूटने का काम ही करते रहे, सो उनका मूल नाम लोग धीरे-धीरे भूल ही गये। फिर तिल्लोपाद या तिलोपा कहने लगे।
यह बात भी बड़ी सोचने जैसी है। तिल कूटने वाला व्यक्ति तिलोपा एक दिन इतना बड़ा सिद्ध हो गया कि आज उसके गुरु विजयपाद का नाम सिर्फ उसी के कारण स्मरण किया जाता है, अन्यथा विजयपाद को कोई जानता भी नहीं। विजयपाद को लोग भूल ही गये होते अगर तिलोपा न होता। तिलोपा के फूल ने विजयपाद के वृक्ष को भी शाश्वत कर दिया और तिलोपा तिल कूटते-कूटते सिद्धावस्था को  उपलब्ध हो गया।
मैंने तुम्हें बहुत बार चीन की एक प्रसिद्ध कहानी कही है, कि एक युवक गुरु के पास पहुंचा और उसने कहा कि मुझे भी जानना है, मुझे भी सत्य जानना है। गुरु ने कहा: सत्य जानना है या सत्य के संबंध में जानना है? शिष्य ने क्षण-भर सोचा, गुरु के पैर पकड़े और कहा: जब आ ही गया आपके पास, तो सत्य के संबंध में क्यों जानूंगा, सत्य ही जानूंगा! फिर गुरु ने कहा: बात थोड़ी कठिन है। सत्य के संबंध में जानना आसान है, सत्य को जानना कठिन। क्योंकि सत्य के संबंध में जानना तो जानकारी है, पांडित्य है; सत्य को जानना तो प्रज्ञा के दीये को प्र्र्रज्वलित करना होगा, तो जीवन को रूपांतरित करना होगा। फिर तू सोच ले: सत्य के संबंध में जानना है कि सत्य जानना है?
उस युवक ने कहा: अब तक तो मैंने कभी इस पर विचार न किया था कि इन दोनों में भेद है, मगर अब तुम्हें देखकर भेद साफ हो गया। पंडित मैंने बहुत देखे हैं, सत्य के संबंध में जाननेवाले बहुत देखे हैं। और अब तक तो सोचता था कि यही जानना है; आज तुम्हें देखकर सारी भ्रांतियां टूट गईं; आज रोशनी पहली दफा देखी; अब तक तो अंधेरे देखे थे। अब तो सत्य ही जानना है। जैसा तुमने जाना वैसा ही जानना है। और कीमत जो भी हो मैं चुकाने को तैयार हूं। ये मेरे प्राण लेने हों तो प्राण ले लो।
गुरु ने कहा: फिर तब तू ऐसा कर, आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं, इनके चावल कूटने का काम सम्हाल ले। और अब दुबारा मेरे पास मत आना। चावल कूट सुबह से सांझ तक। थक जा तो सो जा। सुबह नींद खुले तो फिर चावल कूट। चावल ही कूटता रह। अब न कुछ और सोचना, न कुछ विचारना, न किसी वाद-विवाद में पड़ना। तेरी यही साधना। और अब लौटकर मेरे पास मत आना। जब जरूरत होगी, मैं खुद आ जाऊंगा।
ऐसे बारह वर्ष बीत गये, युवक चावल ही कूटता रहा, चावल ही कूटता रहा। थोड़ा सोचो, रोज सुबह उठ आना, मुंह अंधेरे, जब कोई न जागे, चावल कूटने में लग जाना...क्योंकि जल्दी ही भिक्षु जागेंगे, उनका नाश्ता तैयार होगा। और रात देर तक चावल कूटते रहना, बड़ा आश्रम पांच सौ भिक्षुओं का इंतजाम! और जब थक जाये तो वहीं सो जाता था, उसी कोठरी में जिसमें चावल कूटता था। और सुबह जब आंख खुल आए तो उठकर वहीं चावल कूटना शुरू कर देता था। थोड़े दिन तक पुराने विचार चलते रहे, लेकिन जब विचारों को नया-नया, रोज-रोज भोजन न मिले, तो अपने-आप क्षीण हो जाते हैं, अपने-आप दुर्बल हो जाते हैं, अपने-आप निष्प्राण हो जाते हैं। चावल ही कूटना, चावल ही कूटना...विचार की सुविधा भी कहां थी? धीरे-धीरे विचार क्षीण होते गये, लीन होते गये। वर्ष-दो-वर्ष के बाद तो बस चावल कूटना, चुपचाप, मौन, और चित्त खो गया!
बारह वर्ष बीत गये। बारह वर्ष बीतने के बाद गुरु ने एक दिन घोषणा की कि अब मेरी मृत्यु करीब आती है और मुझे एक व्यक्ति चुनना है जो इस आश्रम का प्रधान होगा मेरे जाने के बाद। तो यह मैंने व्यवस्था खोजी है कि जिस व्यक्ति को भी अनुभव हो गया हो वह मेरे दरवाजे पर रात चार पंक्तियां लिख जाये--ऐसी पंक्तियां, जिसमें उसका सारा अनुभव समाहित हो।
बहुत लोगों ने सोचा। जो प्रधान पंडित था आश्रम का, उसने चार पंक्तियां जाकर लिखीं। प्यारी पंक्तियां लिखीं। पंडित शब्दों के धनी होते हैं, शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं। उसने बड़ी सार बातें लिख दीं। उसने लिखा कि मन एक दर्पण है, जिस पर विचार की, विकार की, वासना की धूल जम जाती है। धूल को झाड़ देना ध्यान है। और जिसकी धूल झड़ गई और दर्पण निर्मल हो गया, वही मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।
बात तो कही पते की। बात तो कह दी कहने योग्य, लेकिन गुरु जब सुबह उठा और उसने ये पंक्तियां लिखी देखीं द्वार पर, तो उसने कहा कि यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल को गूदा है? पंडित भी डर के कारण दस्तखत नहीं कर गया था। उसने भी होशियारी रखी थी। रखनी ही पड़ी थी। पता तो उसे भी था कि मुझे अभी पता नहीं है। यह तो सब शास्त्रों का निचोड़ था। ऐसा दर्पण जैसा चित्त उसका भी अभी हुआ नहीं था। अभी धूल जमी ही थी। जमी थी ही नहीं, खूब जम गई थी। जितने शास्त्र बढ़ते गये थे उतनी धूल जमती गई थी। दर्पण तो न मालूम कहां धूल के अंबार में कहीं खो गया था। यह तो शास्त्रों का सार लिख दिया था, यह अपनी प्रतीति न थी, अपना साक्षात न था। यह अपना अस्तित्वगत अनुभव न था। वह स्वयं इसका गवाह न था। ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। पढ़ा-लिखा आदमी था। तोते की तरह था। सुंदर शब्द जानता था। सुंदर पंक्तियां रची थीं उसने।  इसलिए दस्तखत नहीं कर गया था डर के कारण। उसने सोचा था...मन तो चालबाज होता है, चालाक होता है...उसने सोचा: अगर गुरु प्रशंसा करेगा तो मैं घोषणा कर दूंगा कि मैंने लिखी हैं और अगर गुरु कहेगा कि नहीं, ये पंक्तियां ठीक नहीं, तो मैं चुप ही रह जाऊंगा, बोलूंगा ही नहीं कि मैंने लिखी हैं।
मन सदा बेईमान है। और जितना मन पंडित हो जाता है उतना ही ज्यादा बेईमान हो जाता है। साधारण लोग इस जगत की साधारण-सी बेईमानियां करते हैं, पंडितों के चित्त परमात्मा तक के साथ बेईमानियां करने लगते हैं। गुरु के साथ भी पंडित शिष्य बेईमानी कर गया। सारा आश्रम चकित था, क्योंकि सारे आश्रम के लोगों को लगा कि पंक्तियां सुंदर हैं। इससे श्रेष्ठ और क्या अभिव्यक्ति होगी, धर्म को सार में कह दिया! चार पंक्तियों में कहना था, निचोड़ रख दिया सारे शास्त्रों का। सारे बुद्धों का वचन यही तो है कि चित्त निर्मल हो जाये, निर्दोष हो जाये, कि चित्त का दर्पण धूल-रहित हो जाये; फिर जानने को और क्या है? उसी दर्पण में सत्य की प्रतिछवि बनती है, परमात्मा पहचाना जाता है।
वचन तो ठीक थे, लेकिन गुरु कठोर है। और लोगों को यह बात अच्छी न लगी, क्योंकि और लोग भी पंडित थे, छोटे-मोटे पंडित थे। वह बड़ा पंडित था, बाकी छोटे थे। जंची नहीं लोगों को गुरु की बात। किसी ने तो कहा कि बुढ़ापे में सठिया गया है। किसी ने कहा कि जरूरत से ज्यादा अपेक्षा। बड़े-बड़े बुद्ध भी इससे सुंदर और क्या कहे हैं? यह बात चली, खूब गरमागरम चर्चा थी। चावल कूट रहा था वह बारह वर्ष पहले आया हुआ व्यक्ति, दो भिक्षु उसके पास से गुजरते थे यही चर्चा करते। उनकी बात सुनकर वह हंसने लगा। इन बारह वर्षों में किसी ने उसे हंसते भी नहीं देखा था। उन दोनों युवकों ने पूछा: तुम हंसे क्यों? इसलिए पूछा क्योंकि वह कभी हंसा नहीं, किसी से कुछ बोला नहीं। लोग तो उसको भूल ही गये थे। उसकी कोई गिनती ही नहीं थी आश्रम में। चावल कूटता था, कौन उसकी गिनती करता था। वहां बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे, बड़े साधक थे, योगी थे। कौन इस चावल कूटनेवाले को पूछता था! इसकी तो गिनती कोई साधुओं में थी भी नहीं, भिक्षुओं में थी भी नहीं। यह नाममात्र का भिक्षु था। इसका कुल काम चावल कूटना था, न कभी इसे किसी ने शास्त्र पढ़ते देखा, न कभी किसी ने इसे ध्यान करते देखा। वे दोनों उसकी हंसी सुनकर  हैरान हुए और उन्होंने कहा: तुम पागल तो नहीं हो? तुम हंसे क्यों?
उस चावल कूटनेवाले ने कहा: मैं हंसा इसलिए कि गुरु ठीक कहते हैं। ये चारों पंक्तियां कूड़ा-करकट हैं। इनका दो कौड़ी मूल्य नहीं।
तो उन युवकों ने पूछा कि क्या तुम कह सकते हो चार पंक्तियां, जो इनसे श्रेष्ठ हों? क्या तुम लिख सकते हो?
उसने कहा: लिख तो मैं न सकूंगा, क्योंकि मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं। लेकिन कह सकता हूं तुम अगर लिख दो तो मैं अभी चलने को तैयार हूं।
वह युवक गया। उसने चार पंक्तियां बोलीं, किसी दूसरे ने दीवाल पर लिख दीं, उसने अपने दस्तखत भी करवा दिये, यद्यपि वह दस्तखत भी कर नहीं सकता था। उसने चार पंक्तियां कौन-सी लिखीं? उसकी पंक्तियां बड़ी अदभुत हैं, झेन साहित्य के इतिहास में बेजोड़ हैं! उसने लिखवाया: मन का कोई दर्पण नहीं, धूल जमेगी कहां? जो ऐसा जान लेता है वही सिद्ध है। मन का दर्पण ही नहीं है तो विचार की धूल जमेगी कहां? जिसने ऐसा जाना, उसने ही सत्य जाना।
और उसने कहा कि लिख दो मेरा नाम भी। और जब गुरु ने ये पंक्तियां देखीं तो गुरु आधी रात उस युवक के पास आया, उसे सोते से जगाया और कहा कि यह सम्हाल मेरा डंडा...झेन गुरु अपना डंडा ही वसीयत में देते हैं।...और यह मेरा चोगा। मगर भाग जा, अभी आधी रात है, जितने दूर निकल सके निकल जा इस आश्रम से। तू मेरा वसीयतदार है, पर मैं जानता हूं इस आश्रम में इतने पंडित हैं वे तेरी हत्या कर देंगे। वे बरदाश्त न कर सकेंगे कि चावल कूटनेवाला और महाज्ञानी हो जाये! तू भाग जा। जितने दूर भाग सके, निकल जा पहाड़ों में। तेरे पास मेरी संपदा है। तूने पा लिया। चावल कूट-कूटकर पा लिया!
चावल कूटते-कूटते ध्यान जम गया। कोई भी कृत्य ध्यान बन जाता है। यहां इस आश्रम में खयाल रखना इस बात का। तिल कूटते-कूटते प्रज्ञाभद्र "सिद्ध तिलोपा' हो गये। यहां इस आश्रम में जब संन्यासियों को कोई काम दिये जाते हैं तो स्मरण रखना इस बात का: कोई काम न तो छोटा है न बड़ा है। अब "कृष्णा' है, गेहूं ही बीनती रहती है; "मंजु' है, चावल ही बीनती रहती है। अब कभी भी इनमें से कोई तिल्लोपाद हो जाये तो हैरान मत होना। यह मत सोचना कि गेहूं बीनने वाला कोई कैसे सिद्ध हो गया।
क्या तुम करते हो, इसका मूल्य नहीं है; किस भांति करते हो, इसका मूल्य है। अगर गेहूं भी बीने, आनंदमग्न हो, शांत चित्त से, समर्पित हो, ध्यानपूर्वक, बोध को रखते हुए, तो बस गेहूं बीनते-बीनते ही सारे जगत की पहेलियां सुलझ जायेंगी। यह मत सोचना किसी दिन अगर "संत' या "दयाल' पहरा देते-देते और ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं...अगर पहरा देना भी जागरूक होकर किया है। और पहरा देना हो तो जागरूक होकर ही किया जा सकता है।
जब किसी सदगुरु के पास तुम हो तो जीवन के सारे छोटे-मोटे कृत्य भी बड़ी महिमा से गौरवान्वित हो जाते हैं। तिल कूट-कूटकर प्रज्ञाभद्र, सिद्ध तिलोपा हुआ और उसने जो वचन कहे वे अपूर्व हैं।
सूत्र--
वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म।
जो गुरुपाअ पसण तंहि कि चित्त अगम्म।
"जो तत्व, जो सत्य मूढ़जनों के लिए अगोचर है वह पंडितों के लिए भी अगम्य है।' सुनते हो! मूढ़ में और पंडित में जरा भेद नहीं, रंच-भर भेद नहीं! और अगर कोई भेद हो तो समझना कि पंडित मूढ़ से भी महामूढ़ होता है। क्योंकि मूढ़ को तो कम-से-कम यह पता होता है कि मैं मूढ़ हूं, इससे एक विनम्रता होती है, एक निरहंकारिता होती है। जानता है कि मेरी क्या पात्रता, मेरी क्या योग्यता! पंडित अपात्र ही नहीं है, जहर-भरा पात्र है। मूढ़ तो सिर्फ अपात्र है, लेकिन खाली है। पंडित अपात्र ही नहीं है, कुपात्र है, जहर-भरा पात्र है। मूढ़ पर तो ज्ञान की वर्षा होगी तो भर जायेगा। पंडित पर तो ज्ञान की वर्षा होगी तो भी न भर पायेगा, क्योंकि वह तो पहले से ही भरा हुआ है। उसमें तो भरने को जगह ही नहीं है।
इसलिए ध्यान रखना: जो लोग सत्य की यात्रा पर चले हैं, वे अगर अज्ञानी हों तो उतना हर्ज नहीं, लेकिन पंडित तो नहीं ही होने चाहिये। पापी हों, चलेगा; पंडित हों, नहीं चल सकता है। पापी क्षमा मांग सकता है और क्षमा किया जा सकता है। लेकिन पंडित क्षमा ही नहीं मांग सकता, तो क्षमा तो कैसे किया जा सकता है? पापी झुक जाता है, जानता ही है कि मैं पापी हूं। पंडित झुक नहीं सकता, उसकी अकड़ भयंकर है।
इस जगत में धन की भी अकड़ इतनी नहीं होती और पद की भी इतनी अकड़ नहीं होती, जितनी पांडित्य की अकड़ होती है। पांडित्य इस जगत में अहंकार का जितना बहुमूल्य आभूषण है, उतनी कोई और चीज नहीं। इसलिए तो तुम ब्र्राह्मण में एक अकड़ देखते हो। उसकी अकड़ क्या है? उसके पास है क्या? शब्द हैं, थोथे शब्द हैं, जो उसने सीख लिए हैं तोतों की भांति, जिन्हें वह दोहराता जाता है ग्रामोफोन के रिकार्ड की भांति।
तिलोपा का यह वचन बड़ा महत्वपूर्ण है। तिलोपा कहते हैं: वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म। मूढ़ के लिए जो अगोचर है वह पंडित के लिये भी अगम्य है। मूढ़ और पंडित में जरा भी भेद नहीं कर रहे हैं। और तुम ऐसा मत सोचना कि तिलोपा कोई ब्राह्मण-विरोधी थे। तिलोपा ब्राह्मण थे! मगर गुरु के आश्रम में, जब विजयपाद ने उन्हें तिल कूटने का काम दे दिया, तो तिलोपा ने यह नहीं कहा कि मैं ब्राह्मण, पंडित और तिल कूटूं! यह काम नीची जातियों से लो, मैं इसके लिए नहीं बना हूं! नहीं गुरु ने कहा तिल कूटो, तो तिलोपा तिल कूटता रहा। और तिल कूटते-कूटते एक दिन सिद्ध हो गया। ऐसा कूटा तिल, इस ढंग से कूटा तिल, इस प्रेम से, इस आनंद से, इस ध्यान से, ऐसी समाधि से कूटा तिल, कि तिल कूटते-कूटते ही सब विसर्जित हो गया। भीतर शून्य का जन्म हो गया।
ठीक कहते हैं कि जो तत्व मूढ़जनों के लिए अगोचर है, वह पंडितों के लिए भी अगम्य है। "सत्य का साक्षात्कार तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है, जिस पर कि सदगुरु प्रसन्न होते हैं।' सुनते हो! गुरु ने कहा कि तिल कूटो और न मालूम कितने वर्षों तक तिलोपा से तिल कुटवाया, फिर भी तिलोपा कहते हैं कि जिस पर सदगुरु प्रसन्न हो जाये। यह भी अनुग्रह है उसका कि उसने तिल कूटने की आज्ञा दी। उसने आज्ञा दी, यही अनुग्रह है। उसने कुछ काम सौंपा, यही अनुग्रह है, यही उसकी प्रसन्नता है। उसने इस योग्य माना यही क्या कम है! साक्षात्कार सत्य का तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है। पांडित्य से नहीं होता सत्य का साक्षात्कार--गुरु के प्रसाद से होता है। और गुरु का प्रसाद किसको मिलता है? उसको ही जो अहंकार को समर्पित करता है।
तो मूल बात यह हुई कि जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता है उसे सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। गुरु तो अहंकार छोड़ने की सिर्फ एक प्रक्रिया है--एक निमित्त, एक बहाना, बस एक बहाना। तुम्हें कठिनाई होगी बिना गुरु के अहंकार छोड़ने में, इसलिए गुरु की जरूरत है। अगर तुम बिना गुरु के अहंकार छोड़ सको तो गुरु के बिना भी घटना घट जायेगी। मगर अति कठिन है। गुरु के रहते भी अहंकार नहीं छूट पाता, तो अकेले में तुम कैसे छोड़ पाओगे? तुम्हें कोई बहाना चाहिए। किसी के चरणों में रखने का मौका हो तो सिर तुम रख दो। कोई चरण ही न हों तो तुम सिर कहां रखोगे?
मगर मैं तुम्हें याद दिला दूं: अगर तुम सिर कहीं भी झुका लो, जहां तुम्हारा सिर झुका, वहीं सत्य तुममें प्रविष्ट हो जाता है। सत्य मिलता उन्हें है जो विनम्र हैं। फिर विनम्रता कहां से सीखी, इससे भेद नहीं पड़ता। लेकिन सौ में निन्यानबे मौकों पर यह करीब-करीब असंभव है बिना गुरु के अहंकार को छोड़ देना। और जो बिना गुरु के छोड़ दे सकते हैं, शुभ है। लेकिन अकसर तो ऐसा हो जाता है कि बिना गुरु के अहंकार छोड़ना तो मुश्किल है, अहंकार के कारण ही कुछ लोग मान लेते हैं कि हम तो बिना गुरु के ही अहंकार छोड़ देंगे। इसलिए यह कोई चकित होने की बात नहीं कि कृष्णमूर्ति जैसे प्रज्ञावान पुरुष के पास तुम्हें इस पृथ्वी के सारे अहंकारी इकट्ठे मिलेंगे, क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु की कोई जरूरत नहीं। कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु के बिना ज्ञान हो जायेगा। और बिलकुल ठीक कहते हैं। जरा भी गलत नहीं है बात। क्योंकि मौलिक बात समर्पण है किसके प्रति यह बात अर्थहीन है। अगर बिना किसी के प्रति निवेदित भी समर्पण हो सके, सिर्फ तुम अपने अहंकार की भूल भर समझ लो, अपने ही भीतर जागकर अपने अहंकार की भूल समझ लो और अहंकार को गिर जाने दो, तो घटना घट जायेगी। क्योंकि घटना घटती है अहंकार के गिरने से।
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। मगर जो लोग सुनने के लिए इकट्ठे होते हैं वे गलत समझते हैं। वे कुछ का कुछ समझते हैं। वे इसलिए इकट्ठे होते हैं कृष्णमूर्ति के पास कि यहां झुकने की कोई जरूरत ही नहीं। न कोई गुरु है न कोई शिष्य है। तो जिनको भी झुकने में अड़चन है वे सभी कृष्णमूर्ति के आसपास इकट्ठे हो जाते हैं। फिर वर्षों बीत जाते हैं, न वे झुकते न क्रांति घटित होती। सुनते हैं कृष्णमूर्ति को और सुन-सुनकर अहंकार को सजाते हैं।
सौ में एक व्यक्ति बिना गुरु के पहुंच सकता है और जो बिना गुरु के पहुंच सकता है उसको हम अपवाद मान लें, उसको हमें नियम के भीतर मानने की कोई जरूरत नहीं। वह तो पहुंच ही जायेगा, उसकी बात ही क्या करनी! कृष्णमूर्ति उसी एक व्यक्ति की बात कर रहे हैं और वह एक व्यक्ति खयाल रखना, कृष्णमूर्ति के पास जायेगा भी नहीं। क्योंकि कृष्णमूर्ति के पास भी क्यों जायेगा? अगर बिना ही गुरु के हो सकता है, इतनी जिसकी क्षमता है समझने की, वह इस बात को समझने के लिये कृष्णमूर्ति के पास थोड़े ही जायेगा। अगर यह बात भी कृष्णमूर्ति के पास जाकर समझनी है तो गुरु की जरूरत तो हो ही गई। यह तो वह समझ ही लेगा। यह तो वह अपने से ही समझ लेगा। यह तो उसकी सहज अनुभूति होगी। उसके ही अंतर्तम में उठेगा यह भाव। वह तो कृष्णमूर्ति को सुनने जायेगा नहीं। जिसके लिये कृष्णमूर्ति बोल रहे हैं, वह उन्हें न कभी सुनने गया है न कभी सुनने जायेगा। और निन्यानबे प्रतिशत लोग जो सुनने जायेंगे, उनके लिये कृष्णमूर्ति बोल नहीं रहे हैं। इसलिये कृष्णमूर्ति के पचास सालों का श्रम बिलकुल पानी में बह गया है। उसका कोई परिणाम नहीं हुआ। जिस एक के लिये बोलते हैं वह तो आयेगा नहीं। वह आयेगा ही क्यों? और जो आते हैं वे तो गुरु की ही तलाश में आये हैं। मगर यह बात सुनकर बड़ा उनका अहंकार प्रफुल्लित हो जाता है कि चलो, सुनो भी, समझो भी, ज्ञान भी इकट्ठा करो और झुकना भी नहीं। अब तक सारे सदगुरुओं ने कहा है: गुरु बिन ज्ञान नहीं। तो तुम यह मत सोचना कि कृष्णमूर्ति उनके विपरीत कह रहे हैं। सदगुरुओं ने निन्यानबे प्रतिशत लोगों का ध्यान में विचार रखा है। वे एक प्रतिशत के लिए नहीं बोले हैं, उसके लिए बोलने की कोई जरूरत ही नहीं है। जो अपने से पहुंच जायेगा उसको निर्देश भी क्या देना है? जो अपने से नहीं पहुंच सकते हैं, उन्हीं के लिये निर्देश देना है।
इसलिये जगत के सारे सदगुरुओं ने कहा: गुरु के बिना ज्ञान नहीं होगा। वे निन्यानबे प्रतिशत के लिये बोले। कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु के बिना ज्ञान होगा। वे एक प्रतिशत के लिये बोलते हैं। और सुननेवाले जो आते हैं, वे निन्यानबे प्रतिशत से आते हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति बोले चले जाते हैं सुननेवाले सुनते चले जाते हैं, कोई परिणाम घटता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। न कहीं कोई रोशनी पैदा होती, न कहीं कोई समाधि के मेघ घिरते, न कहीं कोई अमृत की वर्षा होती।
"जो तत्व, जो सत्य मूढ़जनों के लिए अगोचर है वह पंडितों के लिए भी अगम्य है।' इसलिए जानकारी से धोखा मत खा जाना। कितना तुम जानते हो शास्त्रों को, इससे यह मत सोचने लगना कि तुमने सत्य को जान लिया। कितना ही पांडित्य हो, तुम अज्ञानी हो, यह बात न भूले, तो ही तुम कभी पहुंच पाओगे। यह बात अगर भूल गई तो आंख ऐसी बंद होगी कि फिर खुलना मुश्किल हो जायेगी।
जर्मनी का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ जब भी कोई उसके पास संगीत सीखने आता था तो उससे पूछता था कि तुमने पहले और कहीं संगीत तो नहीं सीखा है? तुम संगीत के संबंध में कुछ जानते तो नहीं हो? तुमने कुछ अभ्यास तो नहीं किया है? अगर कोई कहता कि मैंने कोई अभ्यास नहीं किया है, तो वह एक फीस बताता और अगर कोई कहता कि मैंने काफी अभ्यास किया है, दस वर्षों से श्रम कर रहा हूं, तो उससे दुगनी फीस मांगता। चौंकाने वाली बात थी। कि यह कौन-सा तर्क है, कौन-सा गणित है! जिन लोगों ने अभ्यास किया है उन से दुगनी फीस मांग रहे हो! तो स्वभावतः वे लोग एतराज करते कि हम दस साल मेहनत करके आये हैं, हमसे दुगनी फीस और जो बिलकुल कुछ नहीं जानता, कोरा का कोरा है, उससे आधी! तो वह संगीतज्ञ कहता था: हां, क्योंकि पहले मुझे तुम जो जानते हो उसे मिटाना पड़ेगा। वह श्रम अलग है। उसका भी तो तुम्हें मूल्य चुकाना होगा। जो कुछ भी नहीं जानते, उनके साथ श्रम आधा है, उनसे मैं सीधी ही शुरुआत कर सकता हूं।
यह संगीतज्ञ जरूर कुछ जानता था, कुछ गहरी कुंजी इसके हाथ में थी। पंडितों के साथ बहुत सिरपच्ची करनी पड़ती है और व्यर्थ। यहां तो पंडित आ जाते हैं तो उनको हम बाहर से ही समझा-बुझाकर विदा कर देते हैं। उनके साथ कौन समय खराब करे! समय थोड़ा, समय बहुमूल्य। यह समय तो उन्हीं के लिये है जो पीने को आतुर हैं। पंडित तो सोचकर आया है, कि मैं तो जानता ही हूं। पहले इसकी जानकारी गिराओ; पहाड़ों जैसी जानकारी है, इसके पहाड़ खोदो। और पहाड़ खोदोगे तो यह कुछ तुमसे प्रसन्न नहीं होगा, यह नाराज होगा। यह बहुत नाराज होगा। क्योंकि उन्हीं पहाड़ों में तो इसने अपनी प्रतिष्ठा बनाई है। वे पहाड़ तो इसकी संपदा हैं। उन्हीं पहाड़ों के कारण तो इसकी अकड़ है और तुम उन्हें तोड़ो और यह छोटा होने लगे, क्योंकि जैसे-जैसे पहाड़ कटेगा ज्ञान का, यह छोटा होने लगेगा। और छोटा तो कोई अपने को मान नहीं सकता।
एक सर्द सुबह की बात, एक हाथी धूप ले रहा है। एक चूहा भी उसे देखने चला आया। उसने चारों तरफ उसके चक्कर लगाये, फिर उसने ऊपर सिर उठाकर हाथी से कहा कि भाई तुम्हारी उम्र कितनी? हाथी ने कहा: मेरी उम्र दो साल। था तो दो साल का ही बच्चा, लेकिन हाथी तो हाथी। चूहा कुछ सोच विचार में पड़ गया। हाथी ने पूछा कि और भाई तुम्हारी उम्र कितनी? तो चूहे ने कहा कि उम्र तो मेरी भी दो ही साल है, मगर मेरी तबियत जरा ठीक नहीं रहती।
चूहा भी यह मान तो नहीं सकता कि मैं चूहा हूं...तबियत मेरी जरा ठीक नहीं रहती!
दो गधे धूप में खड़े थे। एक गधा बड़ा प्रसन्न हो रहा था, दुलत्ती झाड़ रहा था और लोट रहा था। दूसरे ने पूछा कि बड़े आनंदित हो, बड़े मस्त हो, बात क्या है? सदा तुम्हें उदास देखा, आज बड़े आनंदमग्न हो रहे हो! बात क्या है?
उसने कहा कि बस अब मजा ही मजा है, आ गई सौभाग्य की घड़ी जिसकी प्रतीक्षा थी। दूसरे गधे ने पूछा कि हुआ क्या, कुछ कहो भी! पहेली न उलझाओ और सीधी-सीधी बात कहो।
उसने कहा: बात यह है कि मैं जिस धोबी का गधा हूं, उसकी लड़की जवान हो गई है। दूसरे गधे ने कहा: लेकिन उसकी लड़की जवान होने से तुम क्यों मस्त हो रहे हो? उसने कहा: तू सुन तो पहले पूरी बात। जब भी लड़की कुछ भूल-चूक करती है तो धोबी गुस्से में आ जाता है और कहता है कि देख अगर तूने ठीक से काम न किया तो गधे से शादी कर दूंगा। अब बस दिन-दो दिन की बात है। किसी भी दिन, जिस दिन लड़की ने कोई बड़ी भूल की और धोबी गुस्से में आ गया...और तुम तो जानते ही हो मेरे मालिक को कि कैसा गुस्से में आता है कि जब मुझ पर गुस्से में आ जाता है तो ऐसे डंडे फटकारता है...कि जिस दिन भी जोश में आ गया उस दिन यह शादी हुई ही हुई है। अब सौभाग्य का दिन आ गया। मगर तुम उदास न होओ, बारात में तुम्हें भी ले चलेंगे।
गधे भी सपने देखते हैं! मूढ़ भी बड़ी-बड़ी ज्ञान की राशियां इकट्ठी कर लेते हैं। उन राशियों को जब तुम काटोगे, तब पीड़ा होगी, अड़चन होगी, दुख होगा। तो पंडित बचाने की कोशिश करेगा, जद्दोज़हद करेगा, सुरक्षा के उपाय करेगा। इसलिये व्यर्थ समय जाया होता है।
जो सत्य की तलाश में निकले हैं, उन्हें पांडित्य को तो गिरा ही देना चाहिये। उन्होंने जो जाना है, सब कचरा है। क्योंकि जब तक स्वयं नहीं जाना तब तक जो भी जाना कचरा है। स्वयं के साक्षात पर ही भरोसा करना। उसी पर श्रद्धा करना। उसी की अथक खोज करनी है। खोदते चले जाना है उस घड़ी तक जब तक कि अपना ही जीवन-जलस्रोत न मिल जाये।
"जो तत्व, जो सत्य मूढ़जनों के लिये अगोचर है वह पंडितों के लिए भी अगम्य है।'
"सत्य का साक्षात्कार तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है जिस पर कि सदगुरु प्रसन्न होते हैं।'
फिर कैसे होगा सत्य का साक्षात्कार? तिलोपा कहते हैं: जिस पर सदगुरु प्रसन्न हो जाये। सदगुरु तो प्रसन्न ही रहता है। इस बात के कहने का क्या अर्थ है कि जिस पर सदगुरु प्रसन्न हो जाये? सदगुरु यानी प्रसन्नता। तो फिर यह शर्त कैसी? सदगुरु तो ऐसे--जैसे सूरज निकला; अब कुछ ऐसा थोड़े ही कि सूरज किसी पर प्रसन्न होगा, उसके घर पर रोशनी होगी और किसी पर अप्रसन्न होगा, उसके घर पर अंधेरा रहेगा। नहीं, लेकिन अर्थ है। सूरज तो निकल आया, तुम्हारे द्वार पर खड़ा है, मगर तुम आंख खोलो तब न। तुम तो आंख बंद किये बैठे हो। तो तुम्हारे लिये तो अभी भी रात है। दिन तो उनके लिये है जिन्होंने आंख खोली। और आंख तो उनकी ही खुलती है, जो अहंकार के घूंघट को हटा देता है। और जब आंख खुलेगी तभी तो तुम जानोगे कि सदगुरु प्रसन्न हुआ। सदगुरु तो प्रसन्न ही है। सदगुरु तो प्रसाद ही है। प्रकाश के अतिरिक्त और सदगुरु कुछ दे भी नहीं सकता। उसके चारों तरफ तो उत्सव की ही तरंग है। मगर उनके लिये ही उत्सव की तरंग है जो नाचने का साहस कर सकें; जो उस तरंग के साथ लीन हो सकें, तल्लीन हो सकें, लयबद्ध हो सकें। तत्क्षण तुम्हें सदगुरु की प्र्रसन्नता का अनुभव होगा। उसका प्रसाद तुम्हारी तरफ बहने लगा। उसकी रोशनी की धारा तुम्हारी तरफ आने लगी।
और सदगुरु तुम्हें देता थोड़े ही है कुछ, सिर्फ तुम्हारे चारों तरफ अपनी प्रकाश की धारा को ऐसा आंदोलित करता है कि तुम्हारे भीतर सोया हुआ प्रकाश उसके आघात में सजग हो जाता है। सदगुरु कुछ और थोड़े ही करता है; सदगुरु का काम वही है जो अलार्म घड़ी का। सुबह तुम नींद में पड़े हो, अलार्म की घंटी बजने लगी, जोर से घंटी बजने लगी। अलार्म की घंटी से तुम्हें जागरण थोड़े ही मिलता है। जागरण तो तुम्हारे भीतर से आता है, लेकिन अलार्म की घंटी वातावरण पैदा कर देती है बाहर, कि उसकी उत्तेजना में तुम्हारे भीतर जो जागरण सोया था रातभर, वह फिर उठ आता है, तुम फिर सजग हो जाते हो।
सदगुरु कुछ देता नहीं। सत्य कोई वस्तु तो नहीं है कि कोई दे देगा। सत्य का कोई हस्तांतरण नहीं होता। लेकिन फिर भी सदगुरु एक अनिवार्य परिस्थिति पैदा कर देता है, जिसमें कि तुम सोये न रह सकोगे। सिर्फ उन्हीं लोगों पर सदगुरु सार्थक नहीं हो पाता, जिन्होंने सोये रहने की जिद ही कर रखी है। तो फिर अलार्म भी क्या करेगा? तुमने अगर जिद ही कर रखी है सोये रहने की, तो तुम करवट लेकर फिर सो जाओगे। और अगर तुमने जिद बहुत गहरी कर रखी है सोये रहने की तो अलार्म बजता रहेगा और तुम भीतर एक सपना देखोगे कि अहा, शिव जी के मंदिर में घंटी बज रही है! तुम एक सपना देख लोगे कि शिव जी के मंदिर में घंटी बज रही है, यह तुमने तरकीब निकाल ली अलार्म से बचने की। अब तुम्हें यह खयाल ही नहीं उठता कि अलार्म बज रहा है और जागना है। शिव जी के मंदिर में घंटी बज रही है। भोलेबाबा का नाम लेकर तुम फिर करवट लेकर सो गये। तुमने बाहर के अलार्म को भीतर का सपना बना लिया।
तो जिसे सोये ही रहना है वह सदगुरु के पास आकर भी...सदगुरु की सारी चेष्टाओं का परिणाम इतना ही होगा उस पर कि उससे वह जानकारी इकट्ठी कर लेगा और पंडित होकार लौट जायेगा। सदगुरु के पास से तुम पंडित होकर भी लौट सकते हो।
जिस आदमी ने झेन गुरु के द्वार पर लिखा था कि मन एक दर्पण है, दर्पण पर विचार की धूल जम जाती है, धूल को झाड़ दो तो धर्म उपलब्ध हो जाता है--वह भी उसी सदगुरु के पास वर्षों से था। और जिस चावल कूटनेवाले ने लिखा कि मन का कोई दर्पण ही नहीं, धूल जमेगी कहां, जिसने ऐसा जान लिया वही सिद्ध है--वह भी उसी सदगुरु के पास था। लेकिन दोनों अलग-अलग ढंग से रहे होंगे। एक को तो मिल गई प्रसन्नता गुरु की और दूसरे को केवल जानकारी हाथ पड़ी।
सदगुरु तो लुटाता है, लेकिन कुछ हैं जो कंकड़-पत्थर ही बीन लेंगे, कुछ हैं जो हीरे-जवाहरातों से भर जायेंगे। हीरे-जवाहरात तुम्हारे भीतर हैं। बाहर के सदगुरु के संघात में तुम्हारे भीतर की संपदा प्रगट होनी चाहिए। तो सार्थक हुआ संग-साथ। तो सत्संग हुआ। और अगर तुमने बाहर के शब्द इकट्ठे कर लिये भीतर, भीतर की संपदा तो वैसी पड़ी रही, इस संपदा पर तुमने बाहर से शब्दों के और-और ढेर लगा दिये, तो तुम जैसे आये थे, उससे भी ज्यादा बुरी स्थिति में जाओगे।
पंडित मत हो जाना गुरु के पास, नहीं तो चूक गये--चूक गये प्रसाद!
खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायान खोलो,
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।
लिये आ रहा फूलों का स्वर्णिम विकास मैं,
लिये आ रहा हूं सुगंध उन्मुक्त बिपिन की;
लिये आ रहा स्वर्णातप अपनी मयूख का,
लिये आ रहा हूं शीतलता मैं हिमकण की।

उठो, उठो, उपधानों पर से शीश उठाओ,
पलक खोल कर देखो, कैसी लाल विभा है।
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे द्वार खड़ा हूं,
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

दारु-सद्म-से निज उर के वातायन खोलो,
वातायन जो बहुत दिनों से बंद पड़े हैं।
और मुझे छितराने दो अपने मंदिर में
आभा, आतप, ओस, पुष्प औ' गंध बिपिन की।

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन, खोलो,
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।
सदगुरु की उपस्थिति तो सूर्य की उपस्थिति है। मगर तुम आंख बंद किये रहो तो सूर्य व्यर्थ हो जाता है। या तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद रखो, परदे डाले बैठे रहो, तो सूर्य व्यर्थ हो जाता है। सूर्य को व्यर्थ करना, सार्थक करना तुम्हारे हाथ में है।
झुको, खुलो, आवरण हटाओ, तो सूर्य सार्थक हो जाये। और मजा यह है कि अगर तुम आवरण हटाओ तो सूर्य कुछ और नहीं करता, सूर्य की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट हो जाती है। सूर्य की मौजूदगी तुम्हारे भीतर सोये हुए महासूर्य को जन्म दे देती है। गुरु से शिष्य तक कुछ जाता नहीं बस गुरु की मौजूदगी में शिष्य के भीतर कुछ घटता है। गुरु को देखकर तुम्हें याद आ जाती अपने भीतर छिपे गुरु की। गुरु के बोध को देखकर तुम्हारा बोध तिलमिला उठता है। गुरु की अग्नि को देखकर तुम्हें स्मरण आता है कि मैं राख में क्यों खो गया हूं; मेरे भीतर भी अंगारा है। गुरु तुम्हें आत्म-स्मरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देता है।
खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन खोलो,
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।
अज्ञानी को पता नहीं है, ज्ञानी को झूठा पता है। दोनों भटके हैं। किसी ऐसे व्यक्ति का संग-साथ अनिवार्य है, जो अज्ञानी भी न हो और तथाकथित ज्ञानी भी न हो; जो जानता हो, अपने निज से जानता हो; जो किन्हीं अतीत के बुद्धों को न दोहरा रहा हो, जो स्वयं बुद्ध हो; जो अतीत के बुद्धों को गवाही दे रहा हो अपनी कि हां तुम भी ठीक थे, मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि तुम भी ठीक थे।
इस भेद को समझ लेना। पंडित कहता है: गौतम बुद्ध ने ऐसा कहा, तो ठीक ही कहा होगा, क्योंकि गौतम बुद्ध ने कहा है। वेद में लिखा है तो ठीक ही लिखा होगा, क्योंकि वेद के मनीषियों ने लिखा है; द्रष्टाओं ने, ऋषियों ने लिखा है। कुरान में कहा है तो ठीक ही कहा होगा क्योंकि परमात्मा मुहम्मद से बोला है। मगर पहले तो तुमने यह मान लिया कि परमात्मा है। यह भी मान्यता हुई। पता नहीं, है या नहीं। फिर तुमने यह मान लिया कि मुहम्मद से बोला है। पता नहीं मुहम्मद से बोला है या नहीं बोला। और कौन जाने मुहम्मद को भ्रांति हो कि परमात्मा मुझसे बोला है! फिर जो बोला गया है वह तो इन्हीं मान्यताओं पर आधारित है कि परमात्मा बोला मुहम्मद से बोला, इसलिए ठीक ही होगा फिर परमात्मा ही बोला हो, मुहम्मद से ही बोला हो तो भी जरूरी क्या है कि परमात्मा ठीक ही बोलेगा? इसका प्रमाण क्या है? इसका आधार क्या है?
इसलिए बुद्ध ने कहा है: मेरी बातों को इसलिए मत मान लेना कि मैं कह रहा हूं। मेरी बातों को तभी मानना जब वे तुम्हारे अनुभव के द्वारा प्रमाणित हों। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, इसे तब तक मत मान लेना जब तक कि तुम्हारी ध्यान की क्षमता ही गवाही न दे दे कि हां ठीक है। किसी और कारण से मत मानना, क्योंकि और सब कारण संदिग्ध हैं। और सब कारणों पर पक्का भरोसा नहीं किया जा सकता है। पक्का भरोसा तो सिर्फ अपनी ही अनुभूति का किया जा सकता है।
पंडित कहता है कि बुद्ध ने कहा, ठीक ही कहा होगा। इतने सच्चरित्र व्यक्ति थे, क्यों गलत कहेंगे? लेकिन यह भी तो हो सकता है, खुद ही गलती में पड़े हों। गलत जानकर न कहा हो, खुद ही भ्रांति खा गये हों। आखिर अच्छे से अच्छे चरित्र का व्यक्ति भी कभी-कभी सांझ के अंधेरे में रस्सी में सांप देख लेता है। अच्छे से अच्छे चरित्र का व्यक्ति, जिसका जीवन सब तरह से कसा गया है, जिसके कभी कोई झूठ नहीं बोला, जिसने कभी कोई बेईमानी नहीं की, चोरी नहीं की, जिसके बाबत सभी सहमत हैं कि वह सज्जन है, उसको भी रात अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी सांप जैसी मालूम पड़ जाती है। तो क्या करोगे? बुद्ध अच्छे व्यक्ति थे, मगर जो उन्होंने सत्य के संबंध में कहा है, धुंधलके में धोखा खा गये हों, कौन जाने!
पंडित कहता है कि वेद कहते हैं, इसलिये ठीक होगा; कुरान कहती है, इसलिए ठीक होगा; बाइबिल कहती है, इसलिये ठीक होगा। प्रज्ञापुरुष इसलिये नहीं कहते कि कुरान कहती है, बाइबिल कहती है, वेद कहता है, बुद्ध कहते हैं, महावीर कहते हैं। जो स्वयं बुद्ध हैं वे कहते हैं: मैंने जाना है और मैंने अपने जानने से पाया है कि वेद ठीक कह रहे हैं। मैं गवाह हूं। बुद्ध ठीक कह रहे हैं, मैं गवाह हूं। कुरान ठीक कह रही है, मैं गवाह हूं।
लेकिन प्रज्ञापुरुष यह भी कहेंगे कि तुम भी तभी मानना जब तुम गवाह हो जाओ, मेरे जैसे जब तुम भी गवाह हो जाओ, उससे पहले नहीं। अपनी ही अनुभूति का भरोसा करना। पराई अनुभूतियों का जो भरोसा करता है उसका जीवन उधार होता है, नगद नहीं होता। और सत्य नगद अनुभव है।
पंडितों से सावधान! शास्त्रों के जानकारों से सावधान! किसी सदगुरु को खोजो, जिसने जाना हो स्वयं। क्योंकि उसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी क्रांति घट सकती है, जैसे एक कोयल बोले और दूसरी कोयल के कंठों में गुदगुदी हो जाये! जैसे कोई गीत गाता है और तुमने नहीं देखा कि तुम्हारे भीतर भी गुनगुन होने लगती है! कि कोई नाचता है तो तुम्हारे पैर भी थिरकने लगते हैं! कि कोई सुंदर वाद्य बजाता है तो तुम अपने हाथ से अपने कुर्सी पर ही ताल देने लगते हो। यह तुमने देखा कि नहीं? यह कैसे घट रहा है? कोई तबला बजा रहा है कि मृदंग ठोंक रहा है, इससे तुम्हारे हाथ ताल क्यों दे रहे हैं? तुम्हारे हाथ का उसकी मृदंग के बजने से क्या संबंध है? कोई वीणा बजा रहा है, तुम्हारा सिर क्यों डोल रहा है? तुम क्यों मस्त हो गये हो? क्योंकि वीणा के बजने से कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। वीणा बजे तो सिर हिलना ही चाहिये, ऐसा नहीं है, क्योंकि अनेकों के नहीं हिलते। और अगर तुम भी तय कर लो कि नहीं हिलाना है तो नहीं हिलेंगे। कोई मृदंग बजाये तो इससे पैर तुम्हारे थाप देने लगें, यह कोई अनिवार्य नहीं है; यह कोई कार्य-कारण का सिद्धांत नहीं है। बजाता रहे कोई मृदंग, तुम्हें अगर नहीं पैर हिलाना तो नहीं हिलाओगे। लेकिन मृदंग के बजने से कभी-कभी पैर हिलते हैं, हाथ से थाप पड़ती है, गर्दन मस्ती में झूमने लगती है। क्या हो रहा है?
बस ऐसी ही घटना सदगुरु के साथ घटती है, सत्संग में घटती है। उसकी मृदंग बज उठी है, तुम्हें भी अपनी मृदंग की याद आ जाती है। तुम्हारे हाथों में भी सिरहन दौड़ जाती है। तुम्हारे भीतर भी विद्युत का प्रवाह होता है। उसकी वीणा बज रही है; उसकी बजती वीणा के तार तुम्हारी वीणा के तारों को हिला देते हैं, जिसकी तुम्हें याद ही न थी। वह नाच उठा है। उसके घूंघर बज रहे हैं। तुम्हारे पैरों में भी घूंघर बांधने की अभिलाषा जग जाती है। तुम्हारे भीतर भी स्मरण आता है कि पैर तो मेरे पास भी हैं, नाच तो मैं भी सकता हूं; अगर यह व्यक्ति नाच सकता है तो मैं क्यों नहीं नाच सकता? उसी हड्डी-मांस-मज्जा का मैं भी बना हूं और उसी प्रकृति से मैं भी आया हूं, उसी स्रोत से मेरा आगमन हुआ है।
कौन, कहां, किस दिशि में प्रच्छन्न
कोई मुझको तनिक बता दे?
बस तनिक! कोई जरा-सी
अंगुली उठा दे!
कौन, कहां, किस दिशि में प्रच्छन्न
कोई मुझको तनिक बता दे?

श्वासों की राहों पर चलता
उर में दीपक सा नित जलता,
दुख में आंसू बन कर ढलता
पल पल परिवर्तन बन छलता
मेरे अकुलाते कानों को
उसका कुछ संदेश सुना दे!

सघन तिमिर में क्षीण प्रकाशा
अमित निराशा में मृदु आशा,
क्षण क्षण गिरते का विश्वासा
जो है भाग्य-खेल का पासा,
मेरे विकल दृगों को कोई
उसका शुभ दर्शन करवा दे!

पथ-दर्शक पाथेय वही है
अंतिम जीवन-ध्येय वही है,
प्यासे उर का पेय वही है
गद्य वही है, गेय वही है,
उस सूनेपन के सरगम की
कोई मृदु झंकार सुना दे!

खोज कहां उसको पाऊंगी
या निज को खोती जाऊंगी?
कौन साधना होगी ऐसी
जिसमें मैं भी खो जाऊंगी?
कौन पंथ पहुंचता उस तक
इतना कोई भेद बता दे!

दुनिया की दुविधा के धागे
उसके उलझे कदम के आगे,
मेरे कुंठित भाव अभागे
कह कब, नई चेतना जागे?
जिसके बल पर चरण बढ़ चलें
मुझको मंजिल तक पहुंचा दे!
बस थोड़ा-सा, तनिक-सा इशारा, एक किरण, एक भनक--और शिष्य के भीतर सोया हुआ प्राण जागने लगता है, आंदोलन शुरू हो जाता है! एक बीज हृदय में पड़ जाये तो हृदय अपनी सारी संपदाओं को लेकर अनंत-अनंत फूलों से भर जाता है, अनंत-अनंत दीये जल उठते हैं। बस कोई एक याद तो दिला दे--जरा-सी, तनिक-सी याद!
"सत्य का साक्षात्कार तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है जिस पर कि सदगुरु प्रसन्न होते हैं।'
सहजें चित्त विसोहहु चंग। इह जम्महि सिद्धि मोक्ख भंग।।
"सहज की साधना से तू चित्त को अच्छी तरह विशुद्ध कर ले। इसी जीवन में तुझे सिद्धि प्राप्त होगी, और मोक्ष भी।'
सदगुरु सदा ही सहज होने का संदेश देता है। सहज का अर्थ होता है: कृत्रिम आवरण, आचरण मत ओढ़ो। झूठे पाखंडों में मत पड़ो। मुखौटे मत लगाओ। जीवन की जैसी सचाई है, नग्न, उसे स्वीकार करो और आनंदमग्न-भाव से उसे जीयो। तुम जैसे हो सुंदर हो। तुम जैसे हो प्रभु को अंगीकार हो। ऐसे ही, बिलकुल ऐसे ही! तुम्हें रंग-रोगन नहीं लगाना है। तुम्हें चेहरे को पोतना नहीं है। जीवन को नाटक का मंच न बनाओ। जीवन को सरलता से जीयो--अकृत्रिम, निष्कपट। जैसे भी हो बुरे-भले, जरा भी भय न खाओ। जैसे भी हो उसके हो। जैसे भी हो उसके बनाये हो। जैसे भी हो उस पर उसके हस्ताक्षर हैं। होगा कसूर तो उसका होगा। तुम नाहक अपने को और सुंदरतर, और श्रेष्ठतर, और शिवतर बनाने की चेष्टा में न लगो, क्योंकि वे सब चेष्टायें अहंकार की ही चेष्टायें हैं। यह कौन है जो तुम्हारे भीतर कहता है मुझे श्रेष्ठ होना चाहिये, कि मुझे साधु होना चाहिये, कि मुझे संत होना चाहिये? यह कौन है जो तुम्हारे भीतर तुमसे कहता है कि तुम ऐसे होओ कि सारा जगत तुम्हें पूजे? यह अहंकार ही है जो तुम्हारे भीतर बोल रहा है। और अहंकार बड़े शास्त्रों के उद्धरण देता है। अहंकार शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता है। यह कहता है: "देखो, किताबों में लिखा है ऐसा होना चाहिये। सत्यवादी बनो, राजा हरीशचंद्र जैसे!' राजा हरीशचंद्र को वह सहज बात थी और तुम्हारे लिये असहज हो जायेगी। तुम राजा हरीशचंद्र नहीं हो। तुम जो हो वही हो। राजा हरीशचंद्र के लिये जो सहज था तुम्हारे लिये असहज हो जायेगा।
महावीर नग्न खड़े हो गये; वह उनके लिये सहज था। तुम नग्न खड़े होओगे; वह तुम्हारे लिये अभ्यास होगा, सहज नहीं। जबर्दस्ती आरोपित करोगे अपने पर। तुम्हारी नग्नता में कपट होगा, नाटक होगा, असत्य होगा, पाखंड होगा।
जो कृष्ण के लिये सहज है वह तुम्हारे लिये सहज नहीं है और जो तुम्हारे लिये सहज है वह कृष्ण के लिये सहज नहीं होगा।
सहज का अर्थ होता है: अपने स्वभाव को परखो और अपने स्वभाव के अनुसार चलो। नहीं कोई आदर्श थोपो अपने ऊपर। सिद्धों का यह अदभुत संदेश है कि अपने ऊपर आचरण न थोपो और कोई आदर्श निर्मित न करो। आदर्श ने ही लोगों को पाखंडी बनाया हुआ है। जितने बड़े आदर्श उतना बड़ा पाखंड। क्योंकि उन आदर्शों को पूरा तो किया नहीं जा सकता। जैसे गुलाब जुही बनना चाहे, जुही बन तो सकता नहीं, तो अब एक ही उपाय है कि गुलाब अपने गुलाबपन को ढांक ले और बाजार से जुही के प्लास्टिक के फूल खरीद लाए और अपने गुलाबपन के ऊपर जुही के फूल थोप दे, मगर वे जुही के फूल झूठे हैं।
तुम जो हो उसी को निखारो, कुछ और होने की कोशिश न करो। यही मेरी देशना भी है। मैं समस्त आदर्शों के विपरीत हूं। मैं तुम्हें कोई आदर्श नहीं दे रहा हूं। इसलिये आदर्शवादी जब यहां आ जाते हैं तो बहुत चौंकते हैं। वे कहते हैं: आप अपने संन्यासियों को कोई आदर्श दें, कोई आचरण का नियम दें, कोई मर्यादा दें।
मैं कौन हूं किसी को नियम, मर्यादा, आदर्श, आचरण देने वाला? मैं तो सिर्फ बोध देता हूं, ताकि बोध को लेकर तुम, परमात्मा ने तुम्हें जैसा बनाया है वैसे जी सको समग्रता से।
मैं तुम्हें पूर्णता का कोई लक्ष्य नहीं देता, बल्कि समग्रता की प्रतीति देता हूं। इन दोनों में बड़ा भेद है। पूर्णता का लक्ष्य होता है--बहुत दूर, ऊपर...ऐसा होना चाहिये मनुष्य को। समग्रता का अर्थ होता है: जैसा मनुष्य है, उसमें ही पूरा लीन हो जाना चाहिये। तुम जो हो बस वही। कोई नाच सकता हो तो नाचे समग्रता से। अब लंगड़े-लूले भी नाचने की कोशिश करें तो गिरेंगे, चारों खाने चित गिरेंगे, और हाथ-पैर तोड़ लेंगे। कोई गा सकता हो तो गाये, लेकिन कौवे अगर कोयल की तरह गाना चाहेंगे तो जहां होंगे वहीं तिरस्कृत होंगे।
एक कौवा भागा जा रहा था। एक कोयल ने पूछा कि चाचा, कहां भागे जा रहे हो, बड़ी तेजी में हो! उस कौवे ने कहा कि मैं पूरब की तरफ जा रहा हूं। यहां के लोग बेहूदे हैं, नासमझ हैं, शास्त्रीय संगीत समझते ही नहीं। मैं जब भी शास्त्रीय संगीत छेड़ता हूं, बस लोग भगाते हैं, ताली बजाने लगते हैं कि हटो, भागो! मैं पूरब की तरफ जा रहा हूं। मैंने सुना है कि पूरब के लोग शास्त्रीय संगीत के बड़े पारखी हैं। मैं तो अब पूरब में ही जाकर अपना गीत गाऊंगा।
कोयल ने कहा: चाचा, जैसी तुम्हारी मर्जी। जहां जाना हो जाओ, मगर खयाल रखो, लोग सब जगह एक जैसे हैं और तुम्हारा शास्त्रीय संगीत कहीं भी पसंद नहीं किया जायेगा। अच्छा तो यही हो कि तुम इसे संगीत समझना छोड़ो। अच्छा तो यही हो कि तुम जैसे हो वैसा अपने को स्वीकार करो।
और ध्यान रखना, तुम जैसे हो जरूरी नहीं कि दूसरे तुम्हें वैसा स्वीकार करें। इसलिए जो सबसे बड़ा प्रश्न है साधक के लिये यही है कि जब दूसरे स्वीकार न करें तो क्या करें? क्योंकि हमारी आम आकांक्षा तो यही होती है कि सब हमें स्वीकार करें। उसी आम आकांक्षा के कारण तो हम झूठे हो जाते हैं। क्योंकि लोग जिसको स्वीकार करते हैं हम वैसा ही अपने को दिखलाने लगते हैं। क्योंकि हमारे मन में बड़ी गहरी आकांक्षा है कि दूसरे सम्मान दें, सत्कार दें।
संन्यासी वही है, जो कहता है: न मुझे सत्कार चाहिये न सम्मान चाहिये, न मुझे अपमान की चिंता है। मैं तो जैसा हूं, वैसा ही जीऊंगा। तुम सम्मान दो तो ठीक, तुम अपमान दो तो ठीक; वह तुम्हारा प्रश्न है, तुम्हारी समस्या है, मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं। न मैं तुम्हारे सम्मान से प्र्रसन्न होऊंगा और न तुम्हारे अपमान से अप्रसन्न होऊंगा। मैं तुम्हारे सम्मान-असम्मान के सिक्कों को कोई मूल्य ही नहीं देता। तुम मुझे चालित न कर सकोगे। और तुम मेरे मालिक न हो सकोगे।
यही तो सिक्के हैं, जिनके आधार पर दूसरे हमारे मालिक हो जाते हैं। लोग कहते हैं: हम सम्मान देंगे, अगर हमारी बात मानकर चलो। स्वभावतः आखिर सम्मान लेना चाहते हो तो कुछ चुकाना भी पड़ेगा। और जब तुम उनकी बात मानकर चलोगे, झूठे हो जाओगे। जिसे सहज होना है उसे इस बात को समझ ही लेना होगा कि न अब मुझे दूसरों से सम्मान चाहिये, न अपमान का भय होगा। अब तो मैं जैसा हूं, हूं; इसकी ही घोषणा करूंगा। इस सहज भाव से चित्त शुद्ध होता है।
तिलोपा कहते हैं: सहज की साधना से तू चित्त को अच्छी तरह विशुद्ध कर ले। क्यों चित्त विशुद्ध हो जाता है सहज की साधना से? क्योंकि जहां पाखंड नहीं है। वहां शुद्धि है। जहां जबरदस्ती कोई चीज आरोपित नहीं की गई है, जहां विजातीय भीतर नहीं लाया गया है, वहां शुद्धि है।
शुद्ध का क्या अर्थ होता है? तुम दूध में पानी मिला देते हो, उसको अशुद्ध क्यों कहते हो? क्या तुम समझते हो अशुद्ध पानी मिला दिया, इसलिये? तो शुद्ध पानी मिला दो, बिलकुल शुद्ध से शुद्ध पानी गंगाजल या डिस्टिल्ड वाटर ले आओ, क्योंकि गंगाजल का आज-कल कोई खास भरोसा नहीं है, डिस्टिल्ड वाटर तुम दूध में मिला दो तो क्या फिर दूध अशुद्ध नहीं होगा। दूध तो फिर भी अशुद्ध होगा। शुद्ध जल शुद्ध दूध में मिलाने से भी अशुद्ध होता है। क्यों? और तुम यह मत सोचना कि सिर्फ दूध ही अशुद्ध होता है, पानी भी अशुद्ध हो रहा है। हालांकि पानी की कोई कीमत नहीं, इसलिये कोई फिकिर नहीं करता; नहीं तो पानी भी अशुद्ध हो रहा है, दूध भी अशुद्ध हो रहा है। यह बड़ा अजीब गणित है। दो शुद्ध चीजें मिल रही हैं और दोनों अशुद्ध हो गईं! अशुद्ध का अर्थ होता है: विजातीय। दूध दूध है, पानी नहीं है। इसलिये तुम कितना ही शुद्ध पानी डालो, तुमने विजातीय डाल दिया, तुमने दूध की स्वाभाविकता नष्ट कर दी। और पानी भी अशुद्ध हो गया, क्योंकि तुमने पानी की स्वाभाविकता भी नष्ट कर दी।
अशुद्धि का अर्थ होता है: मेरे स्वभाव से भिन्न को थोप लेना। शुद्धि का अर्थ होता है: अपने स्वभाव में जीना। जैसा मैं हूं वैसा ही जीना। रंचमात्र समझौते न करना। और जो समझौता नहीं करता वही संन्यासी है। चाहे प्राण जाएं तो जाएं, मगर समझौता नहीं करता। न खुद समझौता करता है, न दूसरे पर दवाब डालता है कि कोई दूसरा उससे समझौता करे।
खयाल रखना: जब भी तुम दूसरे पर दवाब डालोगे कि वह मुझसे समझौता करे, तुम्हें उससे समझौता करना पड़ेगा। मालिक अपने गुलामों के गुलाम हो जाते हैं। होना ही पड़ता है, क्योंकि जिससे भी तुमने समझौते का रिश्ता बनाया उसके साथ समझौते करने पड़ेंगे। तुम्हें भी थोड़ा झुकना पड़ेगा, उसे भी थोड़ा झुकना पड़ेगा। यह तो लेन-देन से चलेगा काम। और मुश्किल हो जायेगी, दोनों अशुद्ध हो जाओगे।
लेकिन लोग अच्छे-अच्छे नामों में अशुद्धियां छिपाते हैं। तुम महावीर बनने की कोशिश मत करना, अन्यथा अशुद्ध हो जाओगे। और तुम बुद्ध बनने की कोशिश मत करना अन्यथा अशुद्ध हो जाओगे। तुम तो तुम ही बनने का भाव रखना। और तुम्हें तुम्हीं रहना हो तो कोशिश की कोई जरूरत नहीं--तुम हो ही! बस इसकी उदघोषणा कर देनी है। और कोई भी कीमत हो, इसको जीना है। तुम्हारा चित्त शुद्ध हो जाये।
यह चित्त शुद्ध करने की सहजऱ्योग की अपनी प्रक्रिया है। तुमने बहुत और बातें सुनी होंगी, चित्त कैसे शुद्ध होता है। कोई कहता है: चित्त शुद्ध होता है जब तुम कामवासना छोड़ोगे। कोई कहता है: चित्त शुद्ध होगा, जब तुम लोभ छोड़ोगे। कोई कहता है: चित्त शुद्ध होगा, जब तुम आसक्ति छोड़ोगे। सहजऱ्योग बड़ी अदभुत बात कह रहा है। सहजऱ्योग कह रहा है: चित्त शुद्ध है, तुम सिर्फ विजातीय मत डालो। यह कोई काम, लोभ, मोह इत्यादि छोड़ने का सवाल नहीं है; इतना ही है कि पाखंड छोड़ दो। जो तुमने ऊपर से ओढ़ लिये हैं वस्त्र, वे फेंक दो। मुखौटे लगा दिये हैं, गिरा दो। और तुम शुद्ध हो। यह शुद्धि की बड़ी और धारणा है।
इसलिये तुम जानकर हैरान होओगे, ये अदभुत सिद्ध हुए चौरासी, मगर इनका कोई संप्रदाय नहीं बन सका। क्यों? क्योंकि तालमेल ही न बैठा लोगों का इनकी बातों से। लोगों ने तो समझा कि ये तो बड़ी खतरनाक बातें हैं। लोगों ने इन चौरासी सिद्धों की परंपरा को कभी भी सामान्य जीवन पर छाया नहीं डालने दी।
मैं तुमसे फिर एक सिद्ध की भाषा बोल रहा हूं। लोग विरोध करेंगे, पंडित विरोध करेंगे, पुरोहित विरोध करेंगे, राजनेता विरोध करेंगे, समाज के अग्रणी विरोध करेंगे, सब तरफ से विरोध होगा। क्योंकि मैं जो भाषा बोल रहा हूं वह सिद्धों की भाषा है। मैं तुमसे यही कह रहा हूं कि तुम अपनी निजता को गौरव दो, गरिमा दो। तुम्हें परमात्मा ने जैसा बनाया है, बस वैसे ही जीयो, बेशर्त! और जरा भी इंच भर भी यहां-वहां हिलना-डुलना मत। और तुम चित्त की विशुद्धि को उपलब्ध हो जाओगे। और जहां चित्त विशुद्ध है वहां परमात्मा उपलब्ध है।
और तिलोपा कहते हैं कि इस जीवन में ही तुझे सिद्धि प्राप्त होगी और मोक्ष भी। और वे यह नहीं कहते कि मरने के बाद। यहीं, अभी! सच्चा धर्म नगद होता है। सिर्फ नकली धर्म उधार होते हैं, वे कहते हैं: मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा। अब कौन मरने के बाद की बात देख आया! कोई मरकर कहता भी नहीं कि क्या मिला, क्या नहीं मिला। मरने के बाद का आश्वासन! इससे बड़ी जालसाजी कोई और हो सकती है? लोगों से तुम कह रहे हो उपवास करो, भूखे मरो, शरीर को सड़ाओ-गलाओ, कांटों पर सोओ, क्योंकि मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा; अभी नर्क में जीयो--भूख में, प्यास में, धूप में। अभी सड़ाओ अपने को, गलाओ, क्योंकि मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा! और कैसे मूढ़जन हैं कि हाथ की आधी रोटी मरने के बाद जो पूरी रोटी मिलेगी उसके लिये छोड़ देते हैं। यह कोई समझदारी तो नहीं। यह कोई जीवन का अर्थपूर्ण गणित तो नहीं। और कितना बड़ा जाल चल रहा है। और ऐसे धोखे पर भी कितने धंधे चल रहे हैं! कितने मंदिर, कितने मस्जिद, कितने गुरुद्वारे! सारा जाल इस पर है कि मरने के बाद यह हो जायेगा।
मैं सूरत में मेहमान था। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि आपको पता है, यहां हमारा एक संप्रदाय है। इस संप्रदाय में बड़ी अजीब धारणा है! उस संप्रदाय के प्रमुख सूरत रहते हैं। धारणा यह है कि कोई भी आदमी मर जाये, वह जो धर्म-प्रमुख हैं उनको दान कर जाता है और धर्म-प्रमुख चिट्ठी लिख देते हैं। परमात्मा के नाम, चिट्ठी लिख देते हैं कि इस आदमी ने लाख रुपये दिये, इसका खयाल रखना। जोग लिखी इत्यादि इत्यादि...। और वह आदमी जब मर जाता है तो उसकी छाती पर वह चिट्ठी रखकर उसको कब्र में रख देते हैं। वह लाख रुपये दे गया, वह तो मिल गया पुरोहित को और एक चिट्ठी पड़ी हाथ मुर्दे के, जो पता नहीं कहीं जायेगा भी कि नहीं जायेगा और जायेगा भी तो चिट्ठी कैसे ले जायेगा?
मैंने उनसे कहा कि तुम एकाध कब्र खोदकर तो देखो, चिट्ठियां वहीं की वहीं पड़ी हैं। तो तुम्हें पक्का हो जायेगा कि चिट्ठी कहीं नहीं गई, चिट्ठी यहीं पड़ी है।
उन्होंने कहा: यह बात तो हमें खयाल में ही न आई। मगर कब्र खोदना ठीक बात नहीं है।
यह तुम्हारी मर्जी, पर मैंने कहा, तुम कब्रें खोद कर देख लो, सब चिट्ठियां मिल जायेंगी तुम्हें वहीं। आदमी अपने शरीर को नहीं ले जा सका, चिट्ठी ले जायेगा? 
मगर धोखे चल रहे हैं। मरने के बाद...! सच्चा धर्म कहता है: अभी, यहीं। मैं तुमसे कहता हूं: आनंद यहां उपलब्ध है। नृत्य यहीं हो सकता है और अभी हो सकता है। तुम कल पर क्यों टाल रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम भी दुख के साथ इतने जुड़ गये हो कि तुम्हें भी यह भरोसा नहीं आता कि आज हो सकता है। तुम्हें भी यही पक्की बात लगती है कि मरने के बाद होगा। तुम दुख के इतने आदी हो गये हो कि जो तुम्हें सुख की बात कहता है, लगता है झूठ ही कहता होगा। सुख और हो सकता है कहीं?
तुम्हारी दुख की आदत तुम्हें शोषण का शिकार बनाती है। तुम्हारी आदत कि सुख अभी हो नहीं सकता, मरने के बाद हो तो हो--रास्ता मिल गया पंडित, पुरोहित, मौलवी को, कि तुम्हें स्वर्ग के बाद के सुंदर सपने दिखा दे और तुम्हें लूटता रहे।
तिलोपा कहते हैं: इसी जीवन में तुझे सिद्धि प्राप्त होगी, और मोक्ष भी। न तो मोक्ष कोई भौगोलिक अवस्था है कि कहीं और...न सिद्धि का मृत्यु से कोई अनिवार्य संबंध है। सिद्धि है तुम्हारी सहज अवस्था का आविर्भाव। तो अभी हो सकता है। और मोक्ष क्या है? आचरण, आदर्श, पाखंड, इन सबसे मुक्ति। तुम्हारे भीतर की स्वतंत्रता की उदघोषणा मोक्ष है। वीणा मौजूद है, शायद तार थोड़े उलझें हों तो सुलझा लो; कि तार थोड़े ढीले हों तो कस लो; कि ज्यादा कसे हों तो थोड़े ढीले कर लो। किसी सत्संग में बैठकर अपनी वीणा को सम्हल जाने दो--और गीत उठेगा!
मैंने गीत कहां गाया है?
अपने ही नीरस जीवन में,
मैंने नव उल्लास भरा है!
अपने सूने प्राण-विपिन में,
प्रिय! मैंने मधुमास भरा है!
अपने ही वीणा के उलझे,
तारों को बस सुलझाया है!
मैंने गीत कहां गाया है?

नहीं मुझे संकोच कि मेरी,
भाषा में कुछ जान नहीं है!
नहीं मुझे संकोच कि भावों
पर सुंदर परिधान नहीं है!
नहीं जगत के लिये लिखा है,
अपना ही मन बहलाया है!
मैंने गीत कहां गाया है!

तुमने ही मेरी खुशियों को,
आंसू पी जाना सिखलाया!
तुमने ही अंतर के स्वर को,
ओंठों पर आना सिखलाया!
तुमने जो कुछ सिखलाया था,
मैंने उसको दोहराया है!
मैंने गीत कहां गाया है?
तुम जरा सम्हल जाओ, परमात्मा तुमसे गीत गाये!
अपने ही नीरस जीवन में,
मैंने नव उल्लास भरा है!
नाचो! उमंग से भरो, उत्साह से भरो!
अपने सूने प्राण-विपिन में,
प्रिय! मैंने मधुमास भरा है!
भीतर उठेगा बसंत! बाहर की ऋतुएं वृक्षों पर आती हैं, तुम्हारी ऋतु भीतर आनेवाली है।
अपने ही वीणा के उलझे,
तारों को बस सुलझाया है!
मैंने गीत कहां गाया है?
गीत गाना ही नहीं पड़ता, बस तार सुलझ जायें कि गीत गाया जाता है! कोई अपूर्व, कोई अनजान हाथ, कोई अलौकिक हाथ तुम्हारी वीणा पर अपनी अंगुलियों को छेड़ देता है।
यहीं है सिद्धि, यहीं है मुक्ति। और जो यहां नहीं है वह कहीं भी नहीं है। और जो यहां है वह सब जगह है। जिसने जीते-जी जीवन का अर्थ समझा, वह मरते-मरते भी जीवन का अर्थ समझेगा। मरकर भी जीवन का अर्थ समझेगा। जो तुम मृत्यु के बाद पाना चाहते हो उसे आज पा लो, तो ही मृत्यु के बाद पा सकोगे, क्योंकि तुम तो तुम ही रहोगे। कौआ पूरब से पश्चिम जाये कि पश्चिम से पूरब जाये कांव-कांव ही करता रहेगा। तुम तो तुम ही रहोगे। मरने से ही क्या हो जायेगा? यही मन, यही अहंकार, यही रोग, यही बीमारियां लेकर तुम नई देह में प्रवेश कर जाओगे। नहीं, कुछ भी न होगा मरने से।
मृत्यु नहीं, जीवन को बदलना है। और जीवन को बदलना है किसी और के आदर्श को मानकर नहीं, अपने स्वभाव को स्वीकार करके।
"जितने सब आचार-व्यवहार हैं वे या तो सचल हैं यह निश्चल।'
सचल णिचल जो सअलाचर।
"किंतु शून्य निरंजन सकल विकल्पों से रहित है। उसका विचार नहीं करना चाहिये; विचार से वह परे है।'
सुण णिरंजण म करू विआर।।
तिलोपा कहते हैं कि आचार-व्यवहार तो विचार की बात है, सोच-विचार की, सामाजिक नीति-व्यवस्था की। जो बात एक जगह आचरण है, दूसरी जगह अनाचरण है। जो बात एक जगह अच्छी समझी जाती है, दूसरी जगह बुरी समझी जाती है। जो एक जाति में शुभ है वही दूसरी जाति में अशुभ है।
एक किताब परसों आई मेरे पास। कीड़े-मकोड़ों को कैसे भोजन बनाया जाये, इस संबंध में। सब कीड़े-मकोड़े! चींटियों पर कैसे चाकलेट चढ़ाकर खाया जाये। और तितलियों को कैसे सुखाकर और तला जाये। किताब का नाम ही है: बटर फ्लाई, बटर फ्लाई! विवेक उस किताब को पढ़ने लगी तो उसे बहुत घबड़ाहट हुई। उसका नाम ही ऐसा है...अंग्रेजी में तो बटर फ्लाई तब कहते हैं जब तुम्हारे पेट में हड़बड़ी मच जाये, तब कहते हैं कि बटर फ्लाई, पेट में बटर फ्लाई पैदा हो गई। अब जब उसने पढ़ा, विवेक ने, कि बटर फ्लाई को कैसे सुखाओ और कैसे तलो और कैसे-कैसे उसके ऊपर चाकलेट चढ़ाओ, तो उसके पेट में गड़बड़ होने लगी। उसने कहा: यह तो बहुत खतरनाक किताब है! क्या ऐसे लोग भी हैं जो तितली खाते हैं और चींटे और चींटियें और इनको इकट्ठा करके कैसे सुस्वादु ढंग से बनाया जाये...।
मैंने उसे कहा कि दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे खाने वाले लोग न हों। चीन में लोग सांप को खाते हैं। सिर काट देते हैं और फिर सांप की सब्जी बनाते हैं। सांप! बिच्छू को भी नहीं छोड़ते! बिच्छू भी जब तला जाता है तो बड़ा कुरमुरा हो जाता है। सारी दुनिया में सब चीजों को खानेवाले हैं। मैंने विवेक को कहा कि तू तो इंग्लैंड में रही, अंडे खाते वक्त तुझे कभी बेचैनी नहीं हुई, मांसाहार करते वक्त तुझे कभी बेचैनी नहीं हुई। तब वह चौंकी कि अब सोच में आता है। सात साल यहां शाकाहारी रहने के बाद अब सोच में आता है कि मैं कैसे अंडे खा सकी, कैसे मांसाहार कर सकी! लेकिन जो मांसाहार करता है उसको यह समझ में नहीं आता कि चींटे खाने में क्या अड़चन है। जो चींटे खाता है वह नहीं मान सकता कि अंडा खाना ठीक बात है।
तुम भी कहोगे कि यह सांप-बिच्छू खाना तो जरा जंचता नहीं, मछली इत्यादि ठीक है। मगर जो सांप-बिच्छू खानेवाले हैं, हो सकता है मछली खाना पसंद न करें। सारे जगत में इतने आचरण हैं और सब अपने आचरण को ठीक मानकर चलते हैं और दूसरे के आचरण को भूल मानते हैं।
तिलोपा कहते हैं: "जितने सब आचार-व्यवहार हैं या तो सचल हैं या निश्चल। किंतु शून्य निरंजन सकल विकल्पों से रहित है।'
तुम आचार-विचारों में मत उलझो। तुम तो उसकी तलाश करो, जो तुम्हारे भीतर है और शून्य है। उस शून्य निरंजन को खोजो, जो समस्त विकल्पों से रहित है; जिसका न कोई पक्ष है, न कोई धारणा है, न कोई नीति है, न कोई अनीति है; जहां न पुण्य है न पाप है। तुम तो उस साक्षी को खोजो जो सब का देखनेवाला है। करने की बात में तो बहुत विकल्प हैं, देखने की बात में कोई विकल्प नहीं है इस बात को खयाल में लेना। कोई आदमी रोटी खा रहा है, कोई अंडा खा रहा है, कोई मछली, कोई सांप। खाने में तो बड़े विकल्प हैं, लेकिन देखने वाला एक ही है। चाहे मछली खाओ चाहे सांप देखने वाला द्रष्टा एक ही है।
अब दो तरह के लोग हैं दुनिया में कुछ लोग यही बदलते रहते हैं कि क्या खायें, क्या न खायें। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे।
एक क्वेकर ईसाई मेरे पास मेहमान हुआ। सुबह, जैसा स्वाभाविक था, मैंने उससे पूछा कि आप दूध लोगे, चाय लोगे, काफी लोगे? उसने कहा: "दूध! आप दूध पीते हैं!' वैसे ही समझ लो कि तुम चीन गये और किसी के घर मेहमान हुए और उसने कहा कि आप सुबह-सुबह नाश्ते में बिच्छू लेंगे कि सांप? तो तुम्हारी क्या गति हो जाये! तुम एकदम चौंककर खड़े हो जाओगे बिच्छू-सांप, मजाक कर रहे हो! यह कोई खाने की चीज है, यह कोई नाश्ता है?...मगर सांप में बड़े विटामिन हैं! नाश्ते जैसा नाश्ता है!
उसने मुझसे ऐसा पूछा कि दूध! एक क्षण को तो मैं भी सकते में आ गया कि बात क्या है, दूध! फिर मुझे खयाल आया कि क्वेकर दूध नहीं पीते क्योंकि दूध को वे खून मानते है। है भी खून। इसलिए तो दूध पीने से खून बढ़ जाता है। मां के स्तन से मां का खून दो हिस्सों में बंट जाता है। उसके लाल कण अलग हो जाते हैं और सफेद कण दूध बन जाते हैं। खून में दो हिस्से हैं सफेद और लाल कण के। मां अपने बच्चे को अपना खून ही तो पिला रही है! क्वेकर कहते हैं: दूध! बहुत बुरी बात है, यह तो मांसाहारी जैसा ही है; खून हुआ कि मांस हुआ, बराबर है। क्वेकर दूध नहीं पीते, दही नहीं खाते, मक्खन नहीं खाते, घी नहीं खाते।
अब भारतीय चित्त तो बड़ी मुश्किल में पड़ जायेगा; दूध तो सात्विक आहार है! दूध से सात्विक और क्या है भारत में? तो जो आदमी सिर्फ दूध ही दूध पीता है, दुग्धाहारी, उसकी तो लोग पूजा करते हैं। और वे सज्जन सिर्फ खून ही खून पीते हैं दुग्धाहारी नहीं कहना चाहिये उनको--रक्ताहारी!
मैं रायपुर में था तो वहां एक आश्रम ही है दूधाधारी आश्रम उसका नाम है; उसमें दूध ही दूध पीना पड़ता है। जब मैं उनके महंत को मिला, मैंने उनसे कहा: यह क्या पाप करवा रहे हो, दूध ही दूध, यह तो खून ही खून है! वे मुझसे बोले: आप कैसी बातें कर रहे हैं! दूध और खून! दूध तो ऋषि-मुनि सदा से पीते रहे हैं। मैंने कहा: ऋषि-मुनि ऋषि-मुनियों कि जानें। अब कौन ऋषि-मुनियों की फिकिर करे, सचाई तो सचाई है।
दू्ध तो रक्त है। तब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी। खाओगे क्या, पियोगे क्या? जीयोगे कैसे? लेकिन कुछ इसी में लगे रहते हैं--इसी आचरण-व्यवहार में लगे रहते हैं। फिर तुम्हारे ऋषि-मुनि दूध पीते रहे, चीन के ऋषि-मुनि खाते रहे सांप को, छोड़ा नहीं ऋषि-मुनियों ने भी!
एक झेन फकीर की प्रसिद्ध कहानी है कि एक मेहमान घर आया है फकीर के और भोजन बना और जब मेहमान आया तो सांप कटे। और जब उस झेन फकीर ने अपना भोजन का कौर उठाया तो बहुत चकित हुआ, क्योंकि सांप को जब बनाते हैं सब्जी तो उसका मुंह काटकर अलग कर देते हैं, क्योंकि उसके मुंह में तो जहर की ग्रंथि होती है, खतरनाक है। उसने पहला ही कौर उठाया कि उसके हाथ में सांप का मुंह आया। तो जिस भिक्षु ने भोजन बनाया था...आश्रम था तो भिक्षु ही भोजन बनाते थे, उसने भिक्षु को बुलाया और कहा: यह क्या है? मगर भिक्षु भी एक अद्भुत भिक्षु था। उसने जल्दी से उसे हाथ में लिया, खा गया। कहा: धन्यवाद, आपने मेरी याद की! खा गया उसको! गुरु बहुत प्रसन्न हुआ। यही किया जा सकता था, और तो क्या?
तो ऋषि-मुनि भी सांप खा रहे हैं। तो ऋषि-मुनियों से कुछ नहीं होगा। और अब ऋषि-मुनि हैं कहां?
एक मां अपने बेटे को कह रही थी कि तू जल्दी उठाकर, सुबह देर तक सोया रहता है, ऋषि-मुनि सदा जल्दी उठते हैं। उस बेटे ने कहा कि नहीं उठते। मुझे पक्का मालूम है ऋषिकपूर नौ बजे के पहले नहीं उठता और दादामुनि अशोककुमार, वे तो दस बजे उठते हैं।
अब तो ऋषि-मुनि भी बदल गये। अब तुम कहां ऋषि-मुनियों की बात छेड़ रहे हो? मगर क्या खाओगे, क्या पियोगे? कुछ तो खाओगे, कुछ तो पियोगे। सांस लेने में भी हिंसा हो रही है। क्योंकि न मालूम कितने कीटाणु एक सांस में मर जाते हैं, लाखों!
तो आचार-व्यवहार पर सहजऱ्योग का कोई जोर नहीं है। सहजऱ्योग कहता है कि आचार-व्यवहार जैसा जहां उचित हो चला लेना, उसकी बहुत चिंता मत करना। इसलिये रामकृष्ण मछली खाते रहे, क्योंकि बंगाली और मछली न खाये...। बंगाल में और मछली न खाओ...! तो जीसस मांसाहार करते रहे और शराब भी पीते रहे। वह स्वीकृत अंग था।
सहजऱ्योग कहता है कि जहां हो, जो सुविधापूर्ण है, जैसा है आचार-व्यवहार लोगों का, और जिसमें तुम बड़े हुए हो, वैसे ही चलाये जाना; उसका कोई मूल्य बहुत नहीं है। असली मूल्य तो किसी और बात का है--वह है शून्य निरंजन सकल विकल्पों से रहित! वह जो तुम्हारे भीतर साक्षी है उसको जगाओ। मछली खाओ कि दूध पियो, मगर साक्षी को जगाये रहो। जानते रहो कि मैं द्रष्टा हूं; मैं खानेवाला नहीं हूं, पीनेवाला नहीं हूं। मैं केवल द्रष्टा हूं, मैं कर्ता नहीं हूं।
और इस निरंजन का, इस सकल विकल्पों से रहित साक्षी का विचार करने मत बैठ जाना कि बैठकर सोच रहे हैं: अहं ब्रह्मास्मि, कि मैं साक्षी हूं! विचार मत करना इसका, इसका अनुभव करना। क्योंकि वह सकल विचारों से परे है, उसका विचार नहीं करना चाहिये। वह विचार से परे है।
हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।
बड़ा क्रांतिकारी उदघोष है: "मैं जगत हूं, मैं बुद्ध हूं, और मैं ही निरंजन हूं!'
हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।
हंउ अमणसिआर भवभंजण।।
"मैं ही मानसिक अकर्ता हूं। और सबका, सब भव का भंजन करनेवाला भी मैं ही हूं।' यह जो भीतर तुम्हारे साक्षी बैठा है, यह जो तुम्हारा आत्यंतिक "मैं', तुम्हारी आत्मा है, यह सब कुछ है; बस इसके प्रति तुम जागो, इसको जगाओ। मैं जगत हूं...और तब तुम पाओगे यही तुम्हारा जगत है। मैं ब्रह्म हूं, मैं बुद्ध हूं, मैं निरंजन हूं, मैं ही सत्य हूं। अनलहक, जो मंसूर ने कहा। और अहं ब्रह्मास्मि, जो उपनिषदों ने कहा। इस घोषणा को और भी गहरा कर दिया तिलोपा ने।
वियोगी हरि ने अपनी प्रसिद्ध किताब संत-सुधा-सार में इस वचन के संबंध में लिखा है कि अद्वैतवादियों की भांति तिलोपा ने भी कहा है: मैं जगत हूं, मैं बुद्ध हूं और मैं ही निरंजन हूं! वियोगी हरि की बात से मैं राजी नहीं हूं। अद्वैतवादी इतनी हिम्मत नहीं करते। वे तो इतना ही कहते हैं कि मैं ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि। वे यह नहीं कहते कि मैं माया भी हूं। वह हिम्मत तो सिर्फ सिद्ध कर सकता है। भेद समझ लेना। वियोगी हरि को भेद साफ समझ में नहीं आया। उन्होंने तो वही उदघोषणा अहं ब्रह्मास्मि की समझी कि वही उदघोषणा यह भी है। "हंउ जग' किसी ब्रह्मवादी ने किसी अद्वैतवादी ने यह नहीं कहा कि मैं जगत भी हूं। इतना तो कहा कि मैं ब्रह्म हूं। ब्रह्म के साथ एक हो जाने में कौन अड़चन है! कौन नहीं हो जाना चाहता! मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू! लेकिन सिद्ध मीठे को भी गप्प कर जाते हैं, कड़वे को भी गप्प कर जाते हैं। सिद्ध की छाती बड़ी है। अद्वैतवादी की छाती उतनी बड़ी नहीं है।
हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।
"मैं जगत, मैं बुद्ध और मैं ही निरंजन। मैं ही मानसिक अकर्ता हूं।'
बस अकर्ता को जान लो तो तुम सब जान लोगे। साक्षी-भाव को पहचान लो तो तुम सब पहचान लोगे।
"भव का भंजन करनेवाला भी मैं ही हूं।' और जिस दिन तुमने साक्षी को जाना उसी दिन सारे भव का भंजन हो गया। हो गये पार सारे स्वप्नों के।
तित्थ तपोवण म करहु सेवा।
देह सुचिहि ण स्सन्ति पावा।।
"न तीर्थ सेवन करो, न तपोवन को जाओ। तीर्थों में स्नानादि करने से मोक्ष-लाभ होने का नहीं।' अगर स्नान करना हो तो साक्षी-भाव में करो। वही तीर्थ है, वही गंगा है। वहीं मुक्त होओगे, वहीं शुद्ध होओगे। व्यर्थ न भटको बाहर।
देव म पूजहू तित्थ ण जावा।
देव पूजाहि ण मोक्ख पावा।।
"न देव-प्रतिमा की पूजा करो, न तीर्थयात्रा। देवाराधन में तुम्हें मोक्ष मिलने का नहीं।'
पत्थरों को मत पूजो, चैतन्य को जगाओ। न देव-प्रतिमा की पूजा करो, न तीर्थयात्रा। बाहर की यात्राओं से भीतर कैसे पहुंचोगे? बाजार भी बाहर है, मंदिर भी बाहर है; तुम भीतर हो। किसी को मारा तो बाहर और किसी की पूजा की तो बाहर; और तुम भीतर हो। देवाराधन से तुम्हें मोक्ष मिलने का नहीं। बाहर से छूटो, भीतर आओ। वह तुम्हारे भीतर मौजूद है।
मैं चेतना के अतल अम्बुधि की लहर,
मैं जागरण का सत्य शिव सुंदर प्रहर,
मैं ज्ञान के आलोक की चेतन किरण,
मैं सृजन-शक्ति अनंत का अलोक कण!
मृत्तिका की देह है मेरा न कारागार,
स्वप्न जीवन मरण भी मेरे नहीं व्यापार,
मैं किसी के हाथ की मादक स्वरों की बीन,
सृष्टि के तागे सम-असम स्वर जिसमें हुए सब लीन!
स्मरण करो, स्मरण करो--कौन हो तुम? तुम साक्षी मात्र हो। तुमने बहुत दृश्य देखे हैं--अच्छे, बुरे, सफलता-असफलता के, दुख के सुख के। तुमने अंधेरे देखे हैं, रोशनियां देखी हैं। यश देखे हैं, अपमान देखे हैं। तुमने जवानी देखी, बुढ़ापा देखा, बचपन देखा। तुमने स्वास्थ्य देखा, बीमारियां देखीं। तुमने सब देखा है, सिर्फ एक तुम्हारे देखे के बाहर रह गया है--देखने वाला। अब उसको देख लो। उसको पहचानते ही मोक्ष, उसको पहचानते ही सिद्धि। और वह तुमसे जरा भी दूर नहीं, वह तुम ही हो।
हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजन।
तिलोपा की इस उदघोषणा के साथ हम कुछ दिन चलेंगे, ध्यान करेंगे। जागना। जगाना भीतर जो सोया है।
खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन खोलो
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

लिये आ रहा फूलों का स्वर्णिम विकास मैं,
लिये आ रहा हूं सुगंध उन्मुक्त विपिन की;
लिये आ रहा स्वर्णाताप अपनी मयूख का,
लिये आ रहा हूं शीतलता मैं हिमकण की।

उठो, उठो, उपधानों पर शीश उठाओ,
पलक खोल कर देखो, कैसी लाल विभा है।
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे द्वार खड़ा हूं,
धूप रोकनेवाला सब आवरण हटा दो।

दारु-सद्म-से निज उर के वातायन खोलो,
वातायन जो बहुत दिनों से बंद पड़े हैं।
और मुझे छितराने दो अपने मंदिर में
आभा, आतप, ओस, पुष्ट औ' गंध विपिन की।

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन खोलो,
मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।
धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

आज इतना ही।


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