दिनांक
14 जूलाई 1976;
श्री
ओशो आश्रम
पूना।
बाऊलगीत—
यह
मनुष्य का
शरीर जो
श्वांस लेता
है,
प्राणवायु
पर ही जीवित
रहता है।
और
उसके पार वह
अदृश्य दूसरा
जो
पहुंच के बाहर
है—
वह
विश्राम करता
है।
और
दो के मध्य
में
एक
और मनुष्य
रहस्य कडी
की भांति
गतिशील है
जिसका
शरीर मन, हृदय
और भावों का
अनुसरण करता
हुआ
आराधना
ही में रत
रहता है।
इन
तीनों के बीच
यह
एक लीला हो
रही है
ओ
मेरे खोजी
हृदय!
तू
किसे खोज रहा
है?
जीवन
और मृत्यु के
दोनों
द्वारों के
मध्य
एक
और द्वार भी
है,
जिसे
पूरी तरह
स्पष्ट नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि
वह मृत्यु के
द्वार पर
फिर
से जन्म लेने
में समर्थ है,
और
वह है शाश्वत
प्रेम।
मृत्यु
से पहले ही मर
जाना
जीवित
रहते हुए भी
मर
जाने जैसा है।
धर्म
अत्यंत ही
जटिल चीज है।
उसकी गढ़ता
और जटिलता
समझने जैसी है।
यहां विश्व
में कोई सात
तरह के धर्म
हैं। पहली तरह
का धर्म
अज्ञान से
उद्भूत है।
क्योंकि लोग
अपने अज्ञान
को बरदाश्त
नहीं कर सकते, इसलिए
वे उसे छिपाते
हैं। यह मानना
कठिन होता है
कि कोई
व्यक्ति कुछ
भी नहीं जानता,
यह अहंकार
के विरुद्ध है।
लोग विश्वास
करते हैं।
उनके विश्वास
की पद्धति, उनके अहंकार
की रक्षा करती
है। यह सहायता
भी करती है
लेकिन बहुत
दूर तक जाने में
यह बहुत
हानिकारक है।
प्रारम्भ में
यह विधि
सुरक्षा करती
दिखाई देती है,
लेकिन
अंतिम रूप से
यह बहुत
विध्वंसक है।
इसका मूल
स्रोत ही
अज्ञान में है।
धर्म
एक रोशनी है, एक
प्रकाश है, धर्म एक समझ
है, धर्म
है—होशपूर्ण
रहना और धर्म
है एक
प्रामाणिकता।
लेकिन
मनुष्यता का
बहुत बड़ा भाग
इस पहली तरह के
ही धर्म में
रहता है। यह
केवल
वास्तविक
यथार्थ को
टालना भर है; यह उस
रिक्तता को
झुठलाना भर है
जो व्यक्ति अपने
अस्तित्व में
महसूस करता है
और यह अपने
अज्ञान की
अंधेरी काली
खाई से बचने
का प्रयास भर है।
पहली
तरह के धर्म
के लोग कट्टर
और उन्मादी
होते हैं। वे
यह भी बरदाश्त
नहीं कर सकते
कि संसार में
दूसरी तरह के
धर्म भी हो
सकते हैं।
उनका धर्म ही
केवल मात्र
धर्म है, क्योंकि
वे अपने
अज्ञान से
इतने अधिक डरे
हुए हैं कि
यदि यहां कोई
दूसरा धर्म भी
है, तो वे
संदेही हो
सकते हैं तब
उनके अंदर
संदेह उठ सकता
है। तब वे
इतने अधिक
निश्चित नहीं
हो सकेंगे।
निश्चयात्मकता
प्राप्त करने
के लिए ही वे
बहुत अधिक
दुराग्रही बन जाते
हैं, पागलपन
की सीमा तक
हठी बन जाते
हैं। वे दूसरे
धर्मों के
शास्त्र पढ़
नहीं सकते, वे सत्य के
सम्बंध में
दूसरे के मतों
और नाजुक मत
भेदों को सुन
तक नहीं सकते,
वे दूसरे
लोगों के
परमात्मा के
बाबत रहस्यों और
ज्ञान को
बरदाश्त नहीं
कर सकते। उनका
परमात्मा ही
एकमात्र
परमात्मा है
और उनके लिए
उनका पैगम्बर
ही केवलमात्र
अकेला
पैगम्बर है।
इसके
अतिरिक्त
प्रत्येक चीज
को वे पूरी
तरह नकली
मानते हैं। ये
लोग पूर्ण और
बेशर्त होने
की भाषा में
बात करते हैं,
जब कि एक
समझदार
व्यक्ति सदैव
तुलनात्मक
होता है।
इन
लोगों ने धर्म
को बहुत अधिक
हानि पहुंचाई
है,
क्योंकि
इन्हीं लोगों
के कारण धर्म
अपने आपमें
थोड़ा मूढ़तापूर्ण
दिखाई देता है।
याद
रहे,
तुम्हें इस
पहली तरह के
धर्म का शिकार
नहीं बनना है।
लगभग नब्बे
प्रतिशत
मनुष्यता
पहली तरह के
धर्म में ही
रहती है, और
यह किसी भी
तरह से अधर्म
की अपेक्षा
बेहतर स्थिति
नहीं है। यह
इससे भी
निकृष्ट हो
सकती है—
क्योंकि एक
अधार्मिक
व्यक्ति हठी
या दुराग्रही
तो नहीं होता।
एक अधार्मिक
व्यक्ति कहीं
अधिक खुला हुआ
होता है, कम
से कम दूसरों
को सुनने के
लिए तैयार
होता है; वह
सभी बातों पर
तर्क वितर्क
करने, बातचीत
करने, उसे
खोजने और जांच
करने के लिए
तैयार रहता है;
लेकिन पहली
तरह के
धार्मिक लोग
कुछ भी सुनने
तक को तैयार
नहीं होते।
जब
मैं
विश्वविद्यालय
में एक छात्र
था,
तो मैं अपने
एक मित्र
प्रोफेसर के साथ
ठहरा करता था।
उनकी मां
कट्टर हिंदू
थीं, पूर्ण
रूप से
अशिक्षित, लेकिन
बहुत अधिक
धार्मिक। एक
दिन जाड़े
की रात में, जब कमरे के
आतिशदान में
आग जल रही थी, मैं ऋग्वेद
पड़ रहा था।
इतने में वे
मेरे पास आकर बोलीं—’‘ तुम इतनी
देर रात तक
आखिर क्या पढ़
रहे हो?'' केवल
उन्हें चिढ़ाने
के लिए मैंने
कहा—’‘ मैं
कुरान पढ़ रहा
हूं।’’ मेरे
ऊपर जैसे उछल
कर उन्होंने
मुझसे ऋग्वेद छीन
कर आतिशदान
में जलती हुई
आग में फेंक
दिया और
क्रोधित होकर
मुझसे प्रश्न
किया—’‘ क्या
तुम मुसलमान
हो?'' तुमने
मेरे घर में
कुरान लाने का
साहस कैसे किया?''
अगले
दिन मैंने
उनके पुत्र
अर्थात् अपने
मित्र
प्रोफेसर से
कहा—’‘
आपकी मां तो
मुसलमान लगती
हैं—क्योंकि
इस तरह की चीज
तो अभी तक
केवल मुसलमानों
के द्वारा की
जाती रही है।
मुसलमानों
ने विश्व का
सबसे अधिक बड़ा
और मूल्यवान
पुस्तकों का
खजाना
सिकंदरिया का
पूरा पुस्तकालय
ही जला दिया।
उस पुस्तकालय
में विश्व की
प्राचीन
सभ्यता की
बहुमूल्य
विरासत थी। वह
पुस्तकालय
इतना विशाल था
कि उसमें लगाई
आग छ: महीने तक
जलती रही।
उसकी
पुस्तकों को
पूरी तरह जलने
में छ: माह लगे।
और जिस
व्यक्ति ने
उसे जलवाया, वह
एक मुसलमान
खलीफा था।
उसका तर्क, पहली तरह के
धर्म का तर्क
है। वह अपने
एक हाथ में
कुरान और
दूसरे हाथ में
जलती हुई मशाल
के साथ, पुस्तकालयाध्यक्ष के सामने
आकर बोला— '' मेरा
एक सरल सा
प्रश्न है। इस
विशाल
पुस्तकालय
में लाखों
करोड़ों पुस्तकें
है.......... ''
उन
पुस्तकों में
वह सब कुछ था, जो
मनुष्यता ने
उस समय तक
जाना और सीखा
था, और
वास्तव में
उसमें उससे
कहीं अधिक
ज्ञान था जितना
हम अब जानते
है।
उस
पुस्तकालय
में लीमूरिया
और अटलांटिस
के सम्बंध में
प्रत्येक
सूचना थी और अटलांटिस
की उस सभ्यता
के पूरे
शास्त्र और
ग्रंथ थे, और
वह सम्यता
और पूरा
महाद्वीप, अटलांटिक
महासागर के
गर्भ में समा
गये। वह
सर्वाधिक
प्राचीनतम
पुस्तकालय था;
जिसमें उस
समय तक के सभी
ग्रंथों को
सुरक्षित रखा
गया था। यदि
वह अभी भी रही
होती, तो
आज मनुष्यता
पूरी तरह
भिन्न होती—क्योंकि
हम अभी भी उन
चीजों की खोज
कर रहे हैं, जो पहले ही
खोजी जा चुकी
थीं।
इस
खलीफा ने कहा—’‘ यदि
इस पुस्तकालय
की सभी
पुस्तकों में
वह ज्ञान
उपलब्ध है जो
कुरान में है
तब इन
पुस्तकों की
कोई आवश्यकता
नहीं, यह
आवश्यकता से
अधिक है। यदि
इनमें कुरान
से अधिक कुछ
है, तो वह
गलत है।’’
तब
उसको तुरंत
नष्ट करना जरूरी
है। हर तरह से
उसे नष्ट किया
ही जाना था।
यदि उसमें वह
सब कुछ है, जो
कुरान में है
तब वह
आवश्यकता से
अधिक है। फिर
अनावश्यक रूप
से इतने बडे
पुस्तकालय का
प्रबंध किए
जाने की जरूरत
क्या? एक
कुरान ही काफी
है। और यदि
तुम कहते हो
कि उसमें
कुरान से भी
कहीं अधिक चीजें
और ज्ञान है, तो उस सभी को
गलत होना ही
चाहिए
क्योंकि
कुरान ही
सर्वोच्च
सत्य है।
एक
हाथ में कुरान
और दूसरे हाथ
में जलती मशाल
लेकर, उसने
कुरान के नाम
पर पुस्तकालय
में आग लगाना शुरू
किया। उस दिन
बहिश्त में
मुहम्मद जरूर
बहुत रोये
और बिलखे
होंगे, क्योंकि
उनके ही नाम
पर उस
पुस्तकालय को
जलाया जा रहा
था। यह है—पहली
तरह का धर्म।
सदैव सजग बने
रहो, क्योंकि
प्रत्येक
मनुष्य में
ऐसा ही हठी और
दुराग्रही
मनुष्य बैठा
हुआ है।
कल रात
मैं पढ़ रहा था......
दो
असाधारण रूप
से झक्की और
दुराग्रही बूढों की
एक जैसी ही
ख्याति थी। जब
वे दोनों किसी
भी स्थिति में
एक दूसरे से
आमने—सामने
उलझ जाते थे, जहां
किसी एक को
झुकाना होता
था। तो प्राय:
मामले को
सुलझाने के
लिए तीसरे व्यक्ति
को दखल देना
होता था। एक
दिन ये दोनों
जिद्दी के, सूखी घास के
ढेर को अपनी अपनी गाड़ी
पर लादे हुए
एक तंग रास्ते
पर मिले।
दोनों ने दृढ़
निश्चय कर
लिया था कि वे
एक दूसरे की
गाड़ी को
गुजरने के लिए
एक इंच जगह भी
न देंगे।
अंत
में एक बूढ़े
से दूसरे से
कहा—’‘
मैं यहां
उतनी अवधि तक
प्रतीक्षा
करने को तैयार
हूं जितनी देर
तक तुम
प्रतीक्षा
कराना चाहते
हो।’’ इतना
कहकर उसने
अपना अखबार निकाला
और उसे पढ़ना
शुरू कर दिया।
दूसरे
बूढ़े ने अपने
पाइप में
तम्बाकू भरी
और बहुत संतोष
के साथ धुंआ उडाने लगा।
आधे घंटे की
खामोशी के बाद
वह आगे की ओर
झुककर, पड़ोस
में बैठै
के से बोला—’‘ जब तुम
अखबार पूरा पढ
चुको तो
क्या उसे पढ़ने
के लिए मुझे
देने में आपको
कोई आपत्ति तो
नहीं होगी?''
इस
तरह का
दुराग्रही और
हठी मनुष्य, प्रत्येक
मनुष्य के
अंदर ही रहता
है। और यह
मनुष्य जाति
की सबसे
निम्नतम कोटि
है। ऐसा
मनुष्य
हिंदुओं में
भी है, मुसलमानों,
ईसाइयों, बौद्धों और
जैनों में भीं—ऐसा
मनुष्य
प्रत्येक
मनुष्य के
अंदर ही निवास
करता है और
प्रत्येक
मनुष्य को इस
जाल में न फंसने
के प्रति
सावधान और सजग
रहना है। केवल
तभी तुम
उच्चतम तलों
के धर्मों की
ओर उन्मुख हो
सकोगे। इस
पहली तरह के
धर्म के साथ
समस्या यह है
कि हम लोग
लगभग इसी में पले
बड़े हैं। हम
लोग उसके आदी
हो गए हैं, इसलिए
वह लगभग
सामान्य जैसे
लगने लगा है।
वह हमारा
ढांचा बन गया
है। एक हिंदू
इस विचार के
साथ पाला—
पोसा जाता है
कि दूसरे सभी
धर्म गलत हैं।
यदि उसे
सहनशील बनना
भी सिखाया जाए
तो वह सहनशीलता
उस व्यक्ति की
अपनी होती है
जिससे वह उन
दूसरों के
बाबत जानता है
जो उसे नहीं
जानते। एक जैन
पूरी तरह से
इस विश्वास के
साथ पाला—पोसा
जाता है कि
केवल वह ही
ठीक है और
अन्य सभी दूसरे
लोग अज्ञानी
है। वे ठोकरें
खा रहे हैं और
अंधेरे में
टटोल रहे हैं।
यह अनुशासन और
आदतें
तुम्हारे
अंदर इतनी गहराई
से प्रविष्ट
हो जाती हैं।
कि तुम यह भी
भूल सकते हो
कि ये सभी
थोपे गये संस्कार
और आदतें हैं
और तुम्हें
उनसे ऊपर उठना
है।
मुल्ला नसरुद्दीन
अपने एक मित्र
को उसकी हाथ
की रेखाएं
देखकर उसका
भविष्य बतला
रहा था। उसने
कहा—’‘
तुम निर्धन,
दुखी और
अप्रसन्न ही
बने रहोगे जब
तक कि तुम साठ
वर्ष के नहीं
हो जाते।’’
तब
उसके मित्र ने
आशान्वित
होकर पूछा—’‘ तब
उसके बाद क्या
होगा?'' नसरुद्दीन ने उत्तर
दिया—’‘ उस
समय तक तुम उस
सभी के
अभ्यस्त हो
चुके होगे।’’
यही
समस्या है, कोई
भी व्यक्ति एक
निश्चित
अनुशासन और
आदतों के
ढांचे का
अभ्यस्त हो
जाता है और यह
सोचना शुरू कर
देता है, जैसे
मानो वही उसका
स्वभाव हो, अथवा जैसे
मानो वही सत्य
हो।
इसलिए
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपने अंदर इस
सबसे निम्न
सम्भावना को
खोजते समय
बहुत सजग और
सचेत होना
चाहिए जिससे
वह उसके जाल
में पकड़ा न जा
सके।
कभी—कभी
हम अपने जीवन
को रूपांतरित
करने के लिए
कठिन कार्य
करते हैं और
हम पहली तरह
के धर्म में
ही विश्वास
किए चले जाते
हैं। तब किसी
क्रांति होने
की सम्भावना
नहीं है।
क्योंकि तुम
ऐसी चीज को
पाने का
प्रयास कर रहे
हो जो बहुत निम्न
तल की है, और वह
वास्तव में
धार्मिक नहीं
हो सकती। पहली
तरह का यह
धर्म, केवल
नाममात्र का
ही धर्म है; उसे धर्म
कहकर पुकारना
ही गलत है।
एक
मनुष्य दूसरे
से कह रहा था—’‘ मेरा
डॉक्टर दामाद
एक पीलिया से
पीले पड़े मनुष्य
का पिछले बीस
वर्षों से
इलाज कर रहा
है। आखिर उसने
यह खोज की कि
वह व्यक्ति
चीनी था।’’
दूसरे
व्यक्ति ने
कहा—’‘
आखिर
वास्तविकता
भी तो कोई चीज
है? और
कितनी भयानक
बात है कि
उसने उसे ठीक
कर दिया।’’
किसी
व्यक्ति का
बीस वर्षों तक
पीलिया रोग का
इलाज किए जाना, जो
एक चीनी भी हो
सकता है, लेकिन
वह कितने समय
तक उस इलाज से
अपनी रक्षा कर
सकता है? यदि
तुम निरंतर एक
गलत
दृष्टिकोण से
स्वयं अपने
ऊपर कार्य
करते रहो, तो
तुम अपनी
प्रकृति और
स्वभाव छोड़ते
चले जाओगे।
तुम उसी तरह
से कार्य करना
शुरू कर दोगे,
जिस तरह से
तुम कार्य
करना चाहते हो।
हां! तुम्हारी
आदत ही
तुम्हारा
दूसरा स्वभाव या
प्रकृति बन
सकती है।
दुर्भाग्य से
वह कभी—कभी
पहला स्वभाव
बन जाता है, और मूल
प्रकृति पूरी
तरह भुला दी
जाती है।
पहले
तरह के धर्म
का प्रमुख गुण
है कि वह अनुकरण
करने को कहता
है। वह अनुकरण
करने का आग्रह
करता है:
बुद्ध का अनुकरण
करो,
जीसस का
अनुकरण करो, महावीर का
अनुकरण करो
लेकिन अनुकरण
अवश्य करो।
किसी भी
व्यक्ति का
अनुकरण करो।
स्वयं के होकर
मत रहो, किसी
और जैसे बनो।
और यदि तुम
बहुत अधिक
जिद्दी और हठी
हो तुम अपने
आपको किसी और
जैसा बनने को
विवश कर सकते
हो।
तुम
किसी दूसरे
व्यक्ति जैसे
कभी न हो
सकोगे। अपने
गहरे में तुम
वैसे हो ही
नहीं सकते।
तुम वैसे ही
बने रहोगे, लेकिन
तुम अपने आप
पर बल प्रयोग
कर सकते हो जिससे
तुम लगभग किसी
दूसरे जैसे
दिखना शुरू हो
जाओगे।
प्रत्येक
व्यक्ति अपनी
अनूठी निजता
के साथ जन्म
लेता है और
प्रत्येक
व्यक्ति की एक
अपनी अलग
नियति होती है।
अनुकरण करना
अपराध है, यह
अपराधी होने
जैसा है। यदि
तुम बुद्ध
बनने का
प्रयास करते
हो, तुम
बुद्ध की नकल
तो कर सकते हो;
बुद्ध जैसे
दिखाई भी दे
सकते हो, बुद्ध
की तरह चल भी
सकते हो, उनकी
ही तरह बातचीत
भी कर सकते हो,
लेकिन तुम
चूक जाओगे।
तुम
जीवन में वह
सभी कुछ चूक
जाओगे, जो वह
तुम्हें देने
के लिए तैयार
है। क्योंकि
बुद्ध केवल एक
बार ही होते
हैं, प्रकृति
कभी अपने आपको
दोहराती नहीं
है। परमात्मा
इतना अधिक
सृजनात्मक है
कि वह कभी भी
किसी चीज को
दोहराता नहीं।
तुम वर्तमान
में, अतीत
में अथवा
भविष्य में भी
ठीक अपने जैसा
कोई दूसरा
मनुष्य नहीं
खोज सकते। ऐसा
आज तक कभी हुआ
ही नहीं।
मनुष्य होना
कोई यांत्रिक
प्रक्रिया
नहीं है। वह
फोर्ड की
कारों की तरह
नहीं है, जिनके
पुर्जे जोड़कर तुम
ठीक एक जैसी
लाखों कारों
का उत्पादन कर
सको। मनुष्य
के पास अपनी
आत्मा है, वह
वैयक्तिक है।
अनुकरण करना
विष तुल्य है।
कभी किसी का
भी अनुकरण
करना ही नहीं;
अन्यथा तुम
पहली कोटि के
धर्म का शिकार
बन जाओगे, जो
अपने आप में
किसी भी तरह
धर्म है ही
नहीं।
तब
वहां धर्म की
एक दूसरी कोटि
है। दूसरी
श्रेणी का
धर्म भय पर
आधारित है।
मनुष्य भयभीत
है,
यह संसार
उसके लिए एक
अजनबी संसार
है, और
मनुष्य
सुरक्षित
होना चाहता है,
सुरक्षा
चाहता है।
बचपन में माता
और पिता
सुरक्षा करते
हैं। लेकिन
यहां ऐसे
लाखों लोग हैं
जो अपने बचपन
के पार जाकर
आगे कभी
विकसित ही
नहीं हो पाते।
वे वहीं अटक
कर रह जाते
हैं; और वे
अभी भी अपने
माता और पिता
की जरूरत महसूस
करते है। इसीलिए
वे परमात्मा
को परमपिता
अथवा मातृशक्ति
कहकर पुकारते
है। उन्हें
अपनी सुरक्षा
के लिए एक
दैवी—पिता की
आवश्यकता
महसूस होती है;
क्योंकि वे
स्वयं अभी तक
यथेष्ट
परिपक्व या विकसित
नहीं हो सके
हैं। उन्हें
किसी सुरक्षा
की जरूरत है।
एक
मनोवैज्ञानिक
विन्नीकोट, जो
कई वर्षों से
छोटे बच्चों
की एक विशिष्ट
समस्या पर
कार्य कर रहा
था, उसने
बहुत सी सुंदर
चीजें खोजी।
उनका उल्लेख
करना
प्रसंगानुकूल
है।
तुमने
छोटे बच्चों
को अपने ' टेडी बियर ' अथवा
अपने प्रिय
किसी विशिष्ट
खिलौने, अथवा
किसी गुड्डे,
गुड़िया कम्बल अथवा
किसी ऐसी चीज
के साथ खेलते
और उसे निरंतर
साथ रखते देख
होगा; जिसका
व्यक्तित्व
उसके लिए
विशेष
अर्थपूर्ण है।
' टेडी बियर ' अर्थात्
छोटे भालू का
खिलौना ही लो,
जिस बच्चे
को वह प्रिय
होता हे, तुम
उसे किसी
दूसरे से बदल
नहीं सकते।
तुम उससे कह
सकते हो कि हम
इससे कहीं
अच्छा दूसरा खिलौना
ला देंगे, लेकिन
उससे कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता। बच्चे
का उसी टेडी
बियर के
खिलौने के साथ
एक प्रेम
सम्बंध जुड़ जाता
है। उसका अपना
' टेडी बियर ' ही
अनूठा होता है,
तुम उसे
किसी दूसरे से
बदल नहीं सकते।
वह गंदा हो
जाता है, फट
जाता है, उससे
गंध आने लगती
है, लेकिन
बच्चा उसे ही
हमेशा अपने
साथ रखता है।
तुम उसके
स्थान पर कोई
दूसरा नया
खिलौना लाकर
उसे हटा नहीं
सकते। माता—पिता
को उसे
बरदाश्त करना
ही होता है।
यहां
तक कि उसे
सम्मान भी
देना पड़ता है, अन्यथा
बच्चा नाराज
होकर रूठ जाना
है। यदि माता—पिता,
बच्चे के
साथ यात्रा पर
बाहर भी जाते
हैं, तो भी
उन्हें टेडी
बियर को
बरदाश्त करते
हुए उससे लगभग
परिवार के एक
सदस्य जैसा
व्यवहार भी
करना होता है।
वे जानते हैं
कि ऐसा करना बेबकूफी
है लेकिन
बच्चे के लिए
वह बहुत
महत्त्वपूर्ण
है।
उस
बच्चे के लिए ' टेडी
बियर ' का
आखिर क्या
महत्त्व है? बच्चे के
बाहर के संसार
में वह
वास्तविक
यथार्थ का एक
भाग है।
निश्चय ही वह
मात्र एक
कल्पना नहीं
है; वह एक
वैयक्तिकता
मात्र भी नहीं
हैं; और न
वह एक सपना है,
क्योंकि
यथार्थ में वह
वहां है।
लेकिन वह
समग्र रूप से
वहां नहीं है;
क्योंकि
बहुत से बच्चों
के उसके साथ
सपने जुड़े हैं।
वह एक वस्तु
हैं, पदार्थगत है लेकिन
उसके साथ बहुत
अधिक
वैयक्तिकता
भी जुड़ी हुई
है। बच्चे के
लिए तो वह
जैसे जीवंत है।
बच्चे ने उस ' टेडी बियर ' में
बहुत सी चीजें
प्रक्षेपित
कर रखी हैं।
वह ' टेडी बियर ' से
बातचीत करता
है, कभी—कभी
उससे नाराज
होकर उसे दूर
फेंक भी देता
है और तब यह
कहते हुए—मुझे
अफसोस है। उसे
वापस उठा लाता
है। उसके पास
लगभग मनुष्य
जैसा एक
व्यक्तित्व
है। बिना ' टेडी
बियर ' के
वह सो नहीं
सकता। उसे पकड़कर
हृदय से लगाकर
ही वह सोने
जाता है और
अपने को सुरक्षित
महसूस करता है।
' टेडी बियर ' के
साथ रहते हुए
उसके लिए
संसार ठीक है,
उसकी हर चीज
ठीक है। बिना टेडी बियर
के वह अचानक
अपने को अकेला
पाता है।
इसलिए
' टेडी बियर ' के
अस्तित्व का
पूरी तरह से
एक नया आयाम
है; जो न तो
काल्पनिक या
वैयक्तिक है
और न वस्तुगत।
विन्नीकोट
इसे अंतरिम या
क्षणिक
क्षेत्र कहता
है जो थोड़ा—सा पदार्थगत
है और थोड़ा सा
वैयक्तिक।
बहुत से बच्चे
शरीर से तो
विकसित हो
जाते हैं, लेकिन
उनका आत्मिक
रूप से कोई
विकास नहीं
होता, और
उन्हें अपने
पूरे जीवन में
अपने टेडी
बियर की जरूरत
बनी रहती है।
मंदिरों में
तुम्हारे
परमात्मा की
मूर्ति और कुछ
भी नहीं, वह
' टेडी बियर ' ही
है। इसीलिए जब
एक हिंदू हिंदू
मंदिर में
जाता है, वह
कुछ ऐसा देखता
है वहां, जो
एक मुसलमान
नहीं देख सकता।
मुसलमान तो
केवल पत्थर की
एक मूर्ति ही
देख पाता है।
हिंदू कुछ ऐसी
चीज देखता है
वहां, जो
कोई दूसरा
नहीं देख पाता,
क्योंकि
मूर्ति उसका टेडी बियर
ही है। एक
वस्तु के रूप
में तो वह
वहां है ही, लेकिन वह
पूरी तरह पदार्थगत
नहीं है।
उसमें पूजा
करने वाले की
काफी अधिक
वैयक्तिक भी
प्रक्षेपित
है, जो एक
स्क्रीन या
सिनेमा के
पर्दे की
भांति कार्य
करती है।
तुम
एक जैन मंदिर
में जाते हो।
तुम एक हिंदू
हो सकते हो, लेकिन
जैन मंदिर में
श्रद्धा उठने
जैसी तुम किसी
भी बात का
अनुभव न करोगे।
कभी—कभी तुम
थोड़ी सी
नाराजगी भी
महसूस कर सकते
हो, क्योंकि
महावीर अपनी
मूर्ति में बिलकुल
नग्न खड़े हैं।
तुम किसी
सम्मान जैसी
चीज का अनुभव
न करते हुए
जितनी शीघ्रता
से संभव हो
सके, बाहर
निकलना
चाहोगे।
लेकिन तभी
वहां एक जैन
अत्यधिक
सम्मान की भावना
के साथ आता है,
क्योंकि वह
मूर्ति ही
उसका टेडी
बियर है और
वहां बहुत
सुरक्षा का
अनुभव करता है।
इसलिए
जब कभी भी तुम
भयभीत होते हो, तुम
परमात्मा का
स्मरण करना
शुरू कर देते हो।
तुम्हारा
परमात्मा
तुम्हारे भय
का बाई—प्रोडक्ट
है, वह भय
से ही स्वत:—
उत्पन्न हुआ
है। जब तुम
अच्छा महसूस
करते हो और
भयभीत नहीं होते,
तुम कोई
फिक्र करते ही
नहीं। वहां
उसकी कोई
जरूरत ही नहीं
है।
तो
दूसरी तरह का
धर्म भय की ओर उन्मुख
है। यह बहुत
रुग्ण है, यह
लगभग मानसिक
बीमारी जैसा
है क्योंकि
तुममें परिपक्रता
केवल तभी आती
है, जब तुम
यह महसूस करते
हो कि तुम
अकेले हो और
तुम्हें
अकेला ही रहना
है, और
तुम्हें
वास्तविक
यथार्थ या
सत्य जो कुछ भी
वहां है, उसका
सामना करना है।
ये क्षणभंगुर टेडी—बियर
या मूर्तियां
केवल
तुम्हारी ही कल्पनाऐं
है और वे
तुम्हारी
सहायता नहीं
कर सकेंगी।
यदि कुछ भी
होने जा ही
रहा है, तो
वह होगा ही, ये टेडी
बियर
तुम्हारी
रक्षा न कर
सकेंगे। यदि
मृत्यु होने
जा रही है तो
वह होगी ही।
तुम परमात्मा
को पुकारते ही
जाओ, पर
तुम्हारे पास
सुरक्षा आने
से रही। तुम
केवल भयभीत
होने के कारण
ही उसे पुकार
रहे हो, जब
कि वास्तव में
तुम किसी को
भी नहीं पुकार
रहे हो।
हो
सकता है, जोर जोर से
बुलाना, तुम्हें
थोड़ा साहस
देता हो। हो
सकता है तुम
प्रार्थना कर
रहे हो..........
प्रार्थना
तुम्हें एक
निश्चित साहस
देती है, लेकिन
उत्तर देने के
लिए वहां कोई
परमात्मा है
नहीं। वहां
ऐसा कोई भी
नहीं है, जो
तुम्हारी
प्रार्थना का
उत्तर दे।
लेकिन यदि
तुम्हारा ऐसा
कोई खयाल है
कि वह है वहां,
जो
तुम्हारी
प्रार्थना का
उत्तर दे, तो
तुम्हें इस
विचार से थोडा
सा सुकून और
शांति मिलती
है।
एक बार
मैंने देखा कि
मुल्ला नसरुद्दीन
बहुत
भक्तिभाव से
प्रार्थना कर
रहा है। जब वह
अपनी नमाज
खत्म कर चुका
तो मैंने उससे
पूछा—’‘ मुल्ला!
लगता है तुम
जरूर किसी
समस्या से जूझ
रहे हो और
इसीलिए इतनी
गहरी भक्ति से
प्रार्थना कर
रहे थे। कृपया
तुम मेरे एक
प्रश्न का
उत्तर दो, क्या
कभी तुम्हारी
प्रार्थना
सुनी गई और
उसका उत्तर
तुम्हें मिला?''
उसने उत्तर
दिया—’‘ हां!
एक तरह से या
दूसरी तरह से।’’
लेकिन
यदि
प्रार्थना का
उत्तर एक तरह से
या दूसरी तरह
से मिलता है
तो इसमें खास
बात क्या है।
हां! कभी—कभी
वह तथ्यों के
साथ घट जाती
है और कभी यह
तथ्यों के साथ
नहीं भी घटती, लेकिन
तुम्हारी
प्रार्थना से
तथ्य ज्यों के
त्यों बने
रहते हैं, उनमें
कुछ भी फर्क
नहीं पड़ता।
इससे
तुम्हारे मन
में थोडा
सा फर्क जरूर
पड़ता है, पर
वास्तविकता
में कोई अंतर
नहीं पड़ता।
भय
पर आधारित या
उससे उद्भूत
धर्म,' मत करो '
वाला धर्म
है, यह मत
करो, वह मत
करो—क्योंकि
भय नकारात्मक
है। मूसा के
दस आदेश, ये
सभी भय पर
आधारित हैं—यह
मत करो, वह
मत करो—सुरक्षा
के लिए अपने
आप में बंद
होकर रह जाओ, कभी कोई
जोखिम मत उठाओ,
कभी किसी
खतरनाक
रास्ते की ओर बढ़ो ही मत,
और वास्तव
में अपने आप
को जीवंत बने
रहने की अनुमति
ही मत दो। ठीक
जैसे कि पहली
कोटि का धर्म,
मूढ़तापूर्ण और उन्मादी
था, दूसरी
कोटि का धर्म
भी वैसा ही
नकारात्मक है।
यह तुम्हें एक
विशेष तरह की जकड़न और
बंधन देता है।
इसमें बचपना
है। यह
सुरक्षा की
खोज के लिए है,
जो कहीं भी
सम्भव है ही
नहीं, क्योंकि
जीवन का
अस्तित्व
असुरक्षा में
ही है।
परमात्मा का
अस्तित्व
जैसे एक
असुरक्षा, खतरा
और जोखिम भरा
है।
भयोम्मुख
धर्म की कुंजी
है—नर्क जैसा
शब्द और
वास्तव में
दमन,
निरंतर दमन,
यह मत करो।
दूसरी कोटि के
धर्म का
मनुष्य हमेशा
भयभीत रहता है—क्या
खाया जाये, क्या न खाया
जाये, उस
स्त्री से
प्रेम किया
जाये अथवा न
किया जाये, वह घर बनाया
जाये या न
बनाया जाये।
और तुम जिस
चीज का भी दमन
करते हो, तुम
उससे कभी भी
मुक्त नहीं हो
सकते और
वास्तव में
अधिक से अधिक
तुम उसकी
शक्ति के
शिकंजे में
होते हो।
क्योंकि जब
तुम किसी चीज
का दमन करते
हो तो वह तुम्हारे
अचेतन में
गहरे चली जाती
है। वह
तुम्हारी
जड़ों तक पहुच
कर तुम्हारे
पूरे अस्तित्व
को विषमय बना
देती है।
मैंने
सुना है: एक
वृद्ध
व्यक्ति, जो
प्रत्येक
कार्य समय
देखकर नियमित
रूप से करता
था, पहली
बार एक फिल्म
देख रहा था।
वह बहुत ही
धार्मिक
मनुष्य के रूप
में जाना जाता
था, जो
अपनी
प्रार्थनाएं
नियमित रूप से
किया करता था,
अपने सभी
कर्तव्यों का
पूरी तरह
निर्वाह करता
था और ऐसा कहा
जाता था कि वह
कभी भी समस्या
उत्पन्न करने
वाली किसी भी
स्थिति में
कभी भी पड़ा ही
नहीं।
संक्षेप
में वह बहुत
सरल व्यक्ति
था—लेकिन अंदर
से वह इतना
सरल नहीं था।
फिल्म में एक
स्थान पर कई
सुंदर
लड़कियों का झुंड
स्क्रीन पर
आता दिखाई
दिया। तैरने
के तालाब तक
पहुंचने के
लिए उन्होंने
रेल की पटरी
पार की और
तरणताल पर
पहुंच कर गोताखोरी
के लिए वे
अपने कपड़े
उतारने लगीं।
पहले
उन्होंने
अपने जूते
खोले, मोजे
अलग किये फिर
अपनी कमीजें
और स्कर्ट उतारीं
और बस वह आगे
कुछ और उतारने
जा रही थीं......
तभी एक मालगाड़ी
तीव्र गति से धड़धड़ाती
हुई स्क्रीन
पर प्रकट हुई
और वह दृश्य
छिप गया। जब मालगाड़ी
गुजर गई, तो
अगले दृश्य
में लड़कियों
को पानी में
उछलते कूदते
और खेलते हुए
दिखलाया गया।
समय
के पाबंद उस
बूढ़े व्यक्ति
ने उस फिल्म
को बार—बार कई
बार देखा। आखिरकार
गेटकीपर ने
उसके कंधे को थपथपा कर
उससे पूछा—’‘ क्या
आपको अपने घर
नहीं जाना है?''
समय
के पाबंद उस
वृद्ध ने
उत्तर दिया—’‘ मैं
यह सोच रहा था
कि कभी तो वह
वक्त आयेगा जब
यह रेलगाड़ी
लेट हो जायेगी।’’
अपने
अंदर गहरे में
तुम हमेशा वह
साथ लिए चलते
हो,
जिसका
तुमने दमन
किया है। तुम
धर्म का
अनुसरण एक
संस्कार की
भांति करते हो,
लेकिन वह
तुम्हारा
हृदय कभी भी
नहीं बनता।
मैंने
एक घटना के
बाबत सुना है:
सदियों तक योरोप
में बसे
यहूदियों को
संगठित दण्ड
का शिकार बनना
पड़ा जिसे
सामूहिक
अत्याचार, मारपीट
अथवा ' पोगरोम ' कहा
जाता था। यह
दण्ड देने की
प्रक्रिया
प्राय: हुआ
करती थी अत:
यहूदियों में
उसके प्रति एक
मजाक की भावना
विकसित हो गई।
पौलैण्ड
के एक छोटे से कस्वे में
सिपाहियों ने आस्ट्रोवस्की
के घर में
जबरन प्रवेश
किया। उसके
परिवार में
उसके साथ उसकी
पत्नी, तीन लड़कियां, दो पुत्र और
उसकी वृद्ध
धार्मिक मां
भी थी। उसकी
प्रसिद्धि
चारों ओर एक
संत जैसी थी।
सिपाहियों का सार्जेन्ट
चीखते हुए
बोला—’‘ सभी
लोग एक लाइन
में खडे
हो जाओ। हम
सभी पुरुषों
को मारते—मारते
अधमरा कर
देंगे और सभी
स्त्रियों के
साथ बलात्कार
करेंगे।’’
ओस्ट्रोवस्की ने
गुहार लगाते
हुए कहा—’‘ जरा रुकिये
श्रीमान! आप
मुझे और मेरे
बेटों को चाहे
जितना भी मारें
पीटें, मेरी पत्नी
और लड़कियों को
चाहे जैसे भी
गाली गलौज कर
अपमानित करें
लेकिन मेरी
प्रार्थना है
कि मेरी मां
के साथ
बलात्कार न
करें।
वह
पछत्तर
वर्ष की
वृद्धा है और
बहुत धार्मिक
है।’’
वृद्ध
महिला चीखते
हुए बोली—’‘ शटअप!
तुम खामोश रहो।
आखिर ' पोगरोम ' तो एक ' पोगरोम ' ही होता
है।’’
स्मरण
रहे,
दमन, स्वतंत्रता
की ओर ले जाने
वाला मार्ग
नहीं है। दमन
करना अथवा
अपने भावों को
रोकना, उन्हें
शब्दों
द्वारा
अभिव्यक्त
करने से भी कहीं
अधिक बुरा है,
क्योंकि
शब्दों
द्वारा
अभिव्यक्ति
से उस मनुष्य
को एक न एक दिन
उससे मुक्त हो
ही जाना है, लेकिन दमन
के द्वारा
मनुष्य के मन
में वह चीज हमेशा
घुमड़ती
और घूमती ही
रहती है। केवल
जीवन ही
तुम्हें
स्वतंत्रता
देता है। एक
जिया हुआ जीवन
ही तुम्हे
स्वतंत्रता
देता है, और
बिना जिया हुआ
जीवन आकर्षक
बना रहता है, और तुमने
जिन भावों का
दमन किया है, वे मन में
घूमते ही रहते
हैं।
तिरासी
वर्ष के विधुर
स्थूलोवित्व
ने मियामी बीच
स्थित
वृद्धाश्रम
में रहने से साफ
इंकार करते
हुए अपने
पुत्र के
सामने घोषणा
करते हुए कहा—’‘ मैं
कोई भी चीज खा
ही नहीं सकता,
जब तक यहूदी
की धार्मिक
विधि ' कोशर ' पद्धति
से उसे तैयार
न किया जाए।’’
उसका
पुत्र कई
हफ्ते ऐसा
स्थगन खोजता
रहा और अंत
में उसे एक
ऐसा स्थान मिल
ही गया जहां
यहूदियों के
धार्मिक
नियमों के
अनुसार भोजन ' सर्व
' किया
जाता था। उसने
अपने पिता को
उसी वृद्ध
निकेतन में
भेज दिया जहां
' कोशर ' विधि से
तैयार भोजन ही
उसके पिता को
परोसा जाए और
उनकी भावनाओं
की रक्षा हो
सके।
तीन
दिनों बाद
उसके पुत्र को
ज्ञात हुआ कि
वृद्ध महाशय, वृद्ध—निकेतन
छोड्कर
होटल फाउन्टेनब्यू
चले गए हैं।
उसका पुत्र
होटल मैनेजर
से पिता के
कमरे की चाभी
लेकर, सीढ़ियां चढ़कर
उनके कमरे में
दरवाजा खोलकर
जा पहुंचा और
देखा कि उसके
पिता भूरे
बालों वाली एक
सुंदरी के साथ
पलंग पर लेटे
हैं और वे
दोनों पूरी
तरह नग्र
हैं।
उलझन
में पड़े लड़के
ने प्रश्न
किया—’‘ पापा!
आपने ऐसा
क्यों किया?'' वृद्ध महाशय
ने उत्तर दिया—’‘
लेकिन यह तो
देखो जरा, मैं
इस होटल का
भोजन नहीं ले
रहा हूं।’’
जो लोग भयवश
संस्कारों के
द्वारा जीवन
जीते हैं वे
एक चीज से तो
दूर रह सकते
हैं,
लेकिन वे
किसी दूसरे
जाल में फंस
जाते हैं, क्योंकि
उनके पास उनकी
अपनी समझ नहीं
है। वह केवल
भय से उत्पन्न
हुई समझ है।
वे उससे डरे
हुए हैं कि
उन्हें नर्क
में जाना होगा।
एक
सच्चा धर्म
तुम्हें
निर्भयता
देता है, बस
इसी को
मापदण्ड बना
लो। यदि धर्म
तुम्हें भय
देता है, तब
वास्तव में वह
धर्म है ही
नहीं।
तीसरी
कोटि का धर्म, लोभ
से उत्पन्न
होता है।
लोभ
से उत्पन्न
धर्म कहता है—' यह
करो '। और
जैसे भय से
उत्पन्न होने
वाले धर्म की
कुंजी है—नर्क
जैसा शब्द, तो लोभ से
जन्म धर्म की
कुंजी है—स्वर्ग
का शब्द।
प्रत्येक
कार्य इस तरह
से करना है, जिससे इस
संसार के पार
दूसरा संसार
पूरी तरह सुरक्षित
रहे, और
मृत्यु के बाद
भी तुम्हारी
प्रसन्नता और
सुख की पूरी
गारंटी हो।
'
यह करो ', ऐसे
करो ' अथवा
लोभ से जन्मा
धर्म औपचारिक
संस्कार गुस्त,
महत्त्वाकांक्षी
और कामनाओं की
ओर उन्तुख
होता है। वह
कामनाओं से
भरा हुआ होता
है।
मुसलमानों, ईसाइयों और
हिंदुओं के
स्वर्ग की अवधारणाओं
को जरा गौर से
देखो। उनकी
मात्रा और
डिग्री में
अंतर हो सकता
है, लेकिन
यह बहुत
अद्भुत बात है
यह सभी लोग
अपने इस जीवन
में जिन चीजों
से इंकार किए
चले जाते हैं,
वे बड़ी
मात्रा में उन
सभी चीजों की
स्वर्ग से सुविधाएं
चाहते हैं।
स्वर्ग को
पाने के लिए
यहां इस जीवन
में तुम्हें
ब्रह्मचर्य
से रहना होगा,
तभी वहां
सोलह वर्ष की
आयु पर रुक
जाने वाली चिर
युवा सुंदर
अप्सराएं तुम्हें
उपलब्ध होंगी।
मुसलमान कहते
हैं—’‘ यहां
शराब का सेवन
मत करो, लेकिन
स्वर्ग में
शराब की नदियां
बह रही हैं।
चिंता करने की
कोई बात नहीं।’’
लेकिन
यह सब कुछ
बकवास लगता है।
यदि यहां कोई
भी चीज गलत है, तो
वह गलत ही है।
वह स्वर्ग में
कैसे ठीक और
अच्छी हो सकती
है? तभी
उमर खैय्याम
ठीक ही कहता
है। वह कहता
है' यदि
बहिश्त में
शराब की नदियां
बह रही हैं तो
हम लोग यही से
उसका अभ्यास
करना क्यों न
शुरू कर दें, क्योंकि यदि
हम बिना
अभ्यास किए
वहां जाते हैं,
तो वहां
बहिश्त में
रहना कठिन
होगा। इसलिए
इस जीवन में
उसका थोड़ा सा
पूर्वाभ्यास कर
लिया जाए
जिससे हमारे
अंदर उसका
स्वाद और उसके
लेने की
क्षमता
उत्पन्न हो
जाए।’’ तब
उमर खैथ्याम
की बात अधिक
तर्कपूर्ण
प्रतीत होती
है। वास्तव
में वह
मुसलमानों के
बहिश्त की
धारणा के
विरुद्ध उसका
मखौल उड़ा रहा
है। यह
मूर्खतापूर्ण
है, पूरी
धारणा ही
मूर्खता से
भरी है। लेकिन
जो लोग हैं, वे इस लालच
के कारण ही
धार्मिक बने
हुए हैं।
एक
चीज निश्चित
है यहां जो
कुछ तुम
इकट्ठा करोगे, वह
तुमसे यही छीन
लिया जाएगा।
मृत्यु अपने
साथ सब कुछ ले
जाती है।
इसलिए लालची
लोग यहां कुछ
ऐसी चीज
इकट्ठी करना
चाहते है, जिसे
मृत्यु अपने
साथ न ले जा
सके। लेकिन
इकट्ठा करने
का विचार, संग्रह
करने की चाह
ज्यों की
त्यों बनी
रहती है। अब
वह पुण्य का
संचय कर रहा
है। दूसरे
संसार में
पुण्य ही वह
सिक्का है, अत— वह यहां पुण्यों
का संग्रह किए
चले जा रहा है,
जिससे वह
दूसरे संसार
में हमेशा—हमेशा
के लिए वासना
और प्रेम में
जी सके। इस
कोटि का
मनुष्य मूल
रूप से संसारी
है। उसका
दूसरा संसार
और कुछ भी
नहीं, बल्कि
इस संसार का
ही एक
प्रक्षेपण है।
चूंकि उसकी
कामनाएं हैं,
उसकी कुछ महत्त्वाकांक्षाएं
हैं, और
चूंकि उसके
पास शक्ति
प्राप्त करने
की वासना है, इसलिए वह
कार्य करेगा,
लेकिन उसका
करना हृदय से
न होगा। वह एक
तरह का
नियंत्रित
कार्य होगा।
जाड़ों
में मुल्ला नसरुद्दीन
अपने युवा
पुत्र के साथ बैलगाड़ी हांकता
गांव जा रहा
था। बर्फ गिर
रही थी और ऐसे
में बैलगाड़ी
बर्फ में धंस
गई। अंत में
वे एक फार्म
हाउस में
पहुंचे, जहां
रात रुकने के
लिए उनका
स्वागत किया
गया। घर बहुत
ठंडा था और
ऊपर की मंजिल
के जिस कमरे में
उन्हें रुकने
को कहा गया वह
तो बर्फ के
बक्से की तरह
ठंडा था। अपने
अंडर बियर के नाड़े को
कसते हुए
मुल्ला कूदकर
मुलायम
बिस्तर पर लेट
गया और अपने
को सिर तक कम्बल
से ढक लिया।
उसके युवा
पुत्र को अपने
मन में थोड़ा
सा बुरा लगा।
उसने
कहा—’‘
माफ करें
डैडी! क्या आप
ऐसा नहीं
सोचते कि बिस्तरे
में जाने से
पहिले आपको
प्रार्थना
करना चाहिए था।’’
मुल्ला ने
कम्बल के नीचे
ही अपनी एक आख
घिर कर उत्तर
दिया—’‘ मेरे
बेटे! इस जैसी
स्थिति आने पर
मैं प्रार्थना
को आगे के लिए
सुरक्षित रख
लेता हूं।’’
तब
चीजें केवल
परिधि पर होती
हैं। लालच भय
और अज्ञान ये
सभी केवल
परिधि पर हैं।
ये
तीन तरह के
धर्म हैं— और
ये तीनों एक
दूसरे से मिले
हुए हैं। तुम
ऐसा कोई भी
व्यक्ति नहीं
खोज सकते जो
शुद्ध रूप से
पहली, दूसरी
या तीसरी कोटि
के धर्म का हो।
जहां कहीं भी
लोभ और लालच
होता है, वहां
भय भी होता है,
जहां भय
होता है, वहां
लोभ होता है, और जहां लोभ
और भय दोनों
एक साथ होते
हैं, वहां
अज्ञान होता
है—क्योंकि वे
बिना उनके
अस्तित्व में
हो ही नहीं
सकते। इसलिए
मैं किसी
शुद्ध कोटि के
बाबत कह ही
नहीं रहा हूं।
मैं उनका
श्रेणीबद्ध
विभाजन केवल
इसलिए कर रहा
हूं जिससे तुम
उन्हें ठीक से
समझ सको।
अन्यथा यह
तीनों मिले
हुए हैं।
ये
धर्म की तीन निम्नतम
कोटियां हैं।
इन्हें धर्म
कहकर पुकारना
भी नहीं चाहिए।
तब
वहां एक चौथी
कोटि भी है
तर्क—वितर्क
हिसाब—किताब
और चालाकी का
धर्म।
यह
धर्म, ' करो ' और ' मत
करो ' का
जोड़ है— यह
सांसारिक
भौतिकवादी, अवसरवादी, बुद्धिगत, सैद्धांतिक
शास्त्रसम्मत
और परम्परावादी
धर्म है। यह
पंडितों और
विद्वान
शास्त्रज्ञों
का धर्म है, जो तर्क के
द्वारा
परमात्मा के
अस्तित्व को सिद्ध
करने का
प्रयास करते
हैं और जिनका
ख्याल है कि
जीवन के
रहस्यों को
बुद्धि के
द्वारा समझा
जा सकता है।
इस
तरह के धर्म, धर्मशास्त्रों को जन्म
देते हैं। यह
वास्तव में
धर्म न होकर उसकी
धुंधली
सी कार्बन
अनुकृति हैं।
लेकिन सभी
पूजा घर इसी
पर आधारित हैं।
जब संसार में
कोई बुद्ध, मुहम्मद, कृष्ण या
क्राइस्ट
अस्तित्व में
होता है तो पंडित,
विद्वान और
चालाक
बुद्धिजीवी
लोग उनके चारों
ओर इकट्ठे हो
जाते हैं। वे
कठिन परिश्रम
करना शुरू कर
देते हैं आखिर
जीसस के होने
का अर्थ क्या
है? वे एक
धर्मशास्त्र,
एक पंथ, एक
मत और पूजाघर
का सृजन करना
शुरू कर देते
है। ऐसे लोग
बहुत सफल होते
हैं, क्योंकि
वे बहुत अधिक
तर्कपूर्ण
होते हैं। वे
लोग तुम्हें
परमात्मा
नहीं दे सकते,
वे तुम्हें
सत्य भी नहीं
दे सकते, लेकिन
वे तुम्हें
महान संगठन
देते हैं। वे
तुम्हें
कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट
चर्च देते हैं।
वे तुम्हें
महान
धर्मशास्त्र
देते हैं, जिसमें
वास्तविक
अनुभव जैसा
कुछ भी न होकर,
केवल
बुद्धि का
करतब और
चालाकी मात्र
होती है। उनकी
पूरी इमारत
कुछ ऐसी होती
है, जैसे
मानो कोई ताश
का एक घर
बनाता हो और
हल्की सी हवा
चलने पर वह घर
ध्वस्त हो
जाता हो। उनकी
पूरी इमारत
कुछ ऐसी होती
है जैसे मानो
कोई कागज की
नाव नदी में
खेने का
प्रयास कर रहा
हो। वह ठीक
असली नाव जैसी
दिखाई तो देती
है, उसकी
आकृति ठीक नाव
जैसी ही होती
है, लेकिन
वह कागज की
नाव होती है।
वह बेजान है, वह पहले ही
से मृत है।
तर्क—वितर्क,
कागज की नाव
जैसा ही है, और जीवन को
तर्क—वितर्क
द्वारा नहीं
समझा जा सकता।
मैंने
एक अमेरिकन के
बारे में सुना
है'
एक अत्यंत
धनी अमेरिकन
को यह पक्का
यकीन हो गया
कि आणुविक
युद्ध उसके
आसपास बस होने
ही जा रहा है, और उसने यह
पक्का इरादा
कर लिया कि वह
तब भी जीवित
रहेगा। उसने एरीजोना
के मरुस्थल के
मध्य में एकड़ों
जमीन खरीदी और
मजदूरों, मिस्त्रियों की भर्ती
करते हुए उसने
उनसे जमीन के
पांच मील नीचे
एक घर बनाने
का आदेश दिया।
इसे पचास गज
मोटे सीसे के
खोल से ढका
गया और इसमें
बिजली
उत्पादन का
ऐसा संयंत्र लगाया
गया, जो दस
वर्षों तक
ताजी हवा, रोशनी
और गर्मी दे
सके। उसमें
ठंडे जमे हुए
भोज पदार्थ, पानी, सिगार,
शराबें और
अन्य पेय उस
अवधि के
प्रयोग के लिए
इकट्ठे किये
गये, और
इसके ही साथ
विलासितापूर्ण
जीवन में सहायक
जितनी भी
चीजें सोची जा
सकती थीं, वे
सभी जुटाई गईं।
पूरा काम तीन
वर्षों में
पूरा हुआ और
उसके बनाने
में पांच सौ
हजार मिलियन
डालर खर्च हुए।
उसका
मालिक गर्व से
भरा हुआ, मरुथल
में उसका
निरीक्षण
करने के लिए
गया और वहीं
एक रेडइंडियन
ने उसकी पीठ
में तीर मारकर
उसकी हत्या कर
दी।
यह
जीवन ऐसा ही
है तुम उसके
सभी प्रबंध
करते हो और
उसे समाप्त
करने के लिए
केवल एक तीर
काफी है।
मनुष्य का
जीवन बहुत
नाजुक है।
मनुष्य तर्क
से इस सत्य या
वास्तविकता
को कैसे समझ
सकता है? मनुष्य
इतना अधिक
सीमित है, उसकी
समझ की दृष्टि
इतनी अधिक
छोटी है। नहीं,
तर्क के
द्वारा वहां
उसे जानने का
कोई मार्ग है
ही नहीं। तर्क—वितर्क
के द्वारा
दर्शनशास्त्र
का जन्म होता
है, लेकिन
किसी सच्चे
धर्म का नहीं।
सामान्यत
धर्म के यह
चार रूप ही
जाने जाते हैं।
पांचवा, छठा
और सातवां ही
सच्चे धर्म
हैं। पांचवा
धर्म प्रज्ञा
या समझ पर
आधारित है। वह
तर्क और
बुद्धि पर
आधारित न होकर
समझ पर आधारित
है। और बुद्धि
और प्रज्ञा
अथवा समझ में
बहुत बड़ा अंतर
है।
बुद्धि
तर्क निष्ठ
होती है, जब कि
प्रज्ञा
असंगत या विरोधामास
अपने में
समाहित किए
बहुत होती है।
बुद्धि विश्लेषाणात्मक
होती है और
प्रज्ञा
संश्लेषणात्मक।
बुद्धि
विभाजन करती
है, किसी
चीज को समझने
के लिए उसे
खण्ड—खण्ड
करती है।
विज्ञान
बुद्धि, विभाजन,
विश्लेषण
और विच्छेदन
पर आधारित है।
प्रज्ञा
चीजों को एक
साथ जोड़ती है,
खण्ड से उसे
अखण्ड बनाती
है, क्योंकि
महान समझों
की एक समझ यही है
कि अखण्ड के
द्वारा ही खण्डों
का अस्तित्व
होता है, और
उससे विपरीत
कुछ नहीं होता।
और अखण्ड केवल
सभी खण्डों
का योग न होकर,
उस योग से
भी कुछ अधिक
होता है।
उदाहरण के लिए
तुम्हारे पास
एक गुलाब का
फूल है, तुम
एक वैज्ञानिक
या तार्किक के
पास जाकर उससे
कहते हो—’‘ मैं
इस गुलाब के
फूल को समझना
चाहता हूं यह
आखिर है क्या?''
वह करेगा
क्या? वह
उसका
विच्छेदन
करेगा, वह
उन सभी तत्वों
को अलग— अलग कर
देगा, जिनसे
फूल बना है।
जब तुम फिर
उसे जाकर देखोगे
तो पाओगे तो
फूल तो नष्ट
हो गया। फूल
के स्थान पर
तुम वहां लेविल
लगी कुछ शीशियां
देखोगे।
उसके सभी सत्य
अलग— अलग कर
दिए गए लेकिन
एक चीज
निश्चित है, वहां किसी
भी शीशी में
तुम सुंदरता
का लेबिल
लगा न पाओगे।
सौंदर्य
कोई पदार्थ
नहीं है, और
सौंदर्य उसके खण्डों
में नहीं होता।
एक बार तुम
फूल का
विच्छेदन कर
देते हो, एक
बार जब फूल की अखण्डता नष्ट
हो जाती हैं
उसका सौंदर्य
भी लुप्त हो
जाता है।
सौंदर्य तो
उसके अखण्ड
होने में होता
है?ए यही
वह गरिमा है
जो अखण्ड से
आती है। यह
सभी तत्वों के
जोड़ से कुछ
अधिक होता है।
तब वहां केवल
खण्ड ही होते
हैं। तुम एक
मनुष्य के
शरीर की चीर—फाड़ या
विच्छेदन कर
सकते हो, और
जिस क्षण तुम
उसे काटते हो,
जीवन
विलुप्त हो
जाता है। तब
तुम केवल एक
मृत शरीर या
मुर्दा पाते
हो। तुम जान
सकते हो कि
उसके शरीर में
कितना एलूमिनियम
और कितना आयरन
है अस्सी
प्रतिशत अथवा
कितने प्रतिशत
पानी या अन्य
चीजें है तुम
सभी अंगों, फेफड़ों, गुर्दों
आदि की
प्रक्रिया
समझ सकते हो, उस शरीर में
प्रत्येक चीज
है, लेकिन
केवल एक ही
चीज नहीं है और
वह है—जीवन।
जो एक चीज
वहां नहीं है
वही सबसे अधिक
मूल्यवान है।
जिसे हम
वास्तव में
समझना चाहते
हैं, वह एक
चीज ही वहां
नहीं है और
उसके
अतिरिक्त हर
चीज वहां है।
अब
वैज्ञानिक भी
इस तथ्य के
प्रति सजग
होने लगे हैं
कि जब तुम
मनुष्य के रक्तप्रवाह
में से रक्त
लेकर उसका
परीक्षण करते
हो तो वह, वही
रक्त नहीं।
मनुष्य के रक्तप्रवाह
में बहते हुए
वह जीवंत था, और उसमें
जीवन की धड़कन
थी। अब वह
केवल मृत रक्त
है। वह वही
नहीं हो सकता
क्योंकि अब
गेस्टाल्ट
बदल गया है।
तुम गुलाब के
फूल में से
उसका रंग ले
सकते हो, लेकिन
क्या यह वही
फूल का जीवंत
रंग है? वह
उस जैसा लगता
जरूर है, लेकिन
ठीक वैसा हो
ही नहीं सकता।
उसकी वह सुगंध
कहां चली गई? वह जीवंतता
और नाजुकता
कहां चली गई? अब उसमें
जीवन की वह
धड़कन कहां है?
जब वे सभी
उस गुलाब के
फूल में थीं, तो उनका
पूरी तरह से
एक भिन्न
संयोजन था, और तब वहां
जीवन था। वह
अपनी
उपस्थिति से
भरा उसे प्रकट
कर रहा था।
उसके हृदय में
परमात्मा ही धड़क रहा था।
उसे तोड़ लिया
गया, उसके
सभी खण्ड
उसमें है, लेकिन
तुम यह नहीं
कह सकते कि
उसके सभी खण्ड
वैसे ही हैं।
वे हो भी नहीं
सकते, क्योंकि
खण्डों
का अस्तित्व,
अखण्ड होने
में ही है।
बुद्धि
विच्छेदन कर
विश्लेषण
करती है। वह
विज्ञान का एक
उपकरण है।
प्रज्ञा धर्म
का एक उपकरण
है,
वह दोनों को
जोड़ता है।
इसीलिए
अध्यात्म के
सबसे बड़े
विज्ञान को हम
योग कहते हैं।
योग का अर्थ
है वह विधियां,
जो जोड़ती
हैं। योग का
अर्थ है चीजों
को एक साथ
रखना।
परमात्मा
सबसे बड़ा जोड़
है, सभी
चीजों को एक
साथ रखने वाला।
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है, परमात्मा
एक उपस्थिति
है, एक ऐसी
उपस्थिति, जिसमें
पूरा
अस्तित्व एक
महान
लयबद्धता में
कार्य करता है—
सभी वृक्ष और
पक्षी, पृथ्वी,
सितारे
चंद्रमा और
सूरज, नदियां और सागर यह
सभी एक साथ
मिलकर ही
परमात्मा है।
यदि तुम इनका
विच्छेदन करो
तो तुम कभी भी
परमात्मा को न
पाओगे। एक
मनुष्य के
शरीर का
विच्छेदन करो,
तुम उसकी उपस्थिति
कहीं नहीं
पाओगे, जो
उसे जीवंत
बनाता है।
प्रज्ञा
या समझ सभी
चीजों को एक
साथ जोड्ने
की विधि है।
एक
प्रज्ञावान
व्यक्ति बहुत
संश्लेषणात्मक
होता है। वह
सदैव उच्चतम
अखण्ड की ओर
देखता है, क्योंकि
उच्चतम अखण्ड
ही अर्थपूर्ण
है।
उसकी
दृष्टि सदैव
उच्चतम तल की किसी
वस्तु की ओर
होती है, जिसमें
जो निम्नतम है
वह धुल कर
उसका एक भाग बनकर
ही कार्य करने
लगता है और
अखण्ड के साथ
लयबद्ध होकर
वह संगीत की
एक तान की तरह
कार्य करते
हुए अखण्ड के आस्केस्ट्रा
को अपना
योगदान देता
है, और
उससे पृथक
नहीं होता।
प्रज्ञा
सदैव उच्च तल
की ओर, जबकि
बुद्धि निम्नतल
की ओर किसी
कारणवश ही
गतिशील होश है।
यह
बिंदु बहुत
नाजुक है, कृपया
इसे ठीक से
समझें।
बुद्धि
किसी कारण की
ओर जाती है, जबकि
प्रज्ञा
लक्ष्य की ओर
जाती है।
प्रज्ञा
भविष्य की ओर,
जबकि
बुद्धि अतीत
की ओर गतिशील
होती है। बुद्धि
प्रत्येक
वस्तु को
घटाकर उसके निम्नतम
भिन्न के अंश
तक पहुंचा
देती है। यदि
तुम उससे पूछो
कि प्रेम क्या
होता है, बुद्धि
तुरंत कहेगी—वह
और कुछ भी
नहीं, बल्कि
सेक्स ही है, जो प्रेम का निम्नतम
अंश है। यदि
तुम उससे पूछो
कि प्रार्थना
क्या है, बुद्धि
कहेगी—वह और
कुछ भी नहीं
बल्कि दमित
सेक्स ही है।
प्रज्ञा
अथवा समझ से
पूछो कि सेक्स
क्या है, तो वह
कहेगी कि वह
और कुछ भी
नहीं बल्कि
बीज रूप में
प्रार्थना ही
है। उसी में
प्रेम की
संभावना छिपी
हुई है।
बुद्धि उसे
घटाकर निम्नतम
तल पर ले जाती
है, वह
प्रत्येक
वस्तु का महत्त्व
कम करते हुए
उसे निम्नतम
तल तक ले जाती
है। बुद्धि से
पूछो—कमल का
फूल क्या होता
है? वह
कहेगी—वह कुछ
भी न होकर एक
भ्रम है
क्योंकि उसका
वास्तविक
यथार्थ तो
कीचड़ है—क्योंकि
कमल कीचड़ में
से ही निकल कर
ऊपर खिलता है
और मुर्झा कर
फिर कीचड़ में
ही समा जाता
है। कीचड़ ही
एकमात्र सत्य
है और कमल तो
केवल एक भ्रम
अथवा मायाजाल
ही है, वास्तविक
सत्य तो कीचड़
है— क्योंकि
कमल, कीचड़
से ही उत्पन्न
होता है और
मुर्झा कर फिर
कीचड़ में ही
वापस समा जाता
है। कीचड़ ही
वास्तविक
यथार्थ है और
कमल तो केवल चला
जाता है। समझ
अथवा प्रज्ञा
से पूछो—कीचड़
क्या है, और
वह कहेगी—’‘ उसमें
कमल को
उत्पन्न करने
की क्षमता है।’’
तब कीचड़
अदृश्य हो
जाती है और
लाखों कमल खिल
उठते हैं।’’
प्रज्ञा
उच्च से
उच्चतम तल की
ओर जाती है और
उसका पूरा
प्रयास यही
रहता है कि वह
अस्तित्व के
सर्वोच्च
शिखर तक पहुचे, क्योंकि
चीजों की
स्पष्ट रूप से
अभिव्यक्ति
निम्नतम तल से
न होकर उच्चतम
तल के द्वारा
ही की जा सकती
है। तुम निम्न
तल से उसे
स्पष्ट न कर
अस्पष्ट ही कर
देते हो। और
जब निम्नतम
ही अधिक
महत्त्वपूर्ण
हो जाता है तो
सारा सौंदर्य
खो जाता है, जो शुभ और
सत्य है वह
रहता ही नहीं।
प्रत्येक
वस्तु में जो
कुछ भी
महत्त्वपूर्ण
है,
वह खो जाता
है, और तब
तुम चिल्लाते
हो—’‘ इस
जीवन का अर्थ
क्या है?
पश्चिम
में विज्ञान
ने प्रत्येक
चीज का मूल नष्ट
कर उसे घटाकर
पदार्थ बना दिया
है। अब
प्रत्येक
व्यक्ति जीवन
के अर्थ के बारे
में चिंतित है, क्योंकि
अर्थ तो
उच्चतम अखण्ड
में ही होता
है।
जरा
देखो, तुम
अकेले हो, तुम
अनुभव करो—जीवन
का क्या अर्थ
है? तुम
किसी स्त्री
से प्रेम करो,
उसका एक
निश्चित अर्थ
प्रकट होता है।
अब दो, एक
बन जाते हैं—यह
थोड़ा सा उच्च
तल है। एक
अकेला
व्यक्ति, एक
प्रेमी युगल
से थोड़े से निम्नतल
पर है। एक
प्रेमी युगल
थोड़े से उच्च
धरातल पर है।
दो चीजें एक
साथ जुड़ गईं।
दो विपरीत ऊर्जाएं
एक दूसरे में
समाहित हो गईं।
स्त्रैण और
पुरुष, निष्क्रय
और सक्रिय
ऊर्जाओं का एक
वर्तुल उत्पन्न
हो गया, जो
कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण
है।
यही
कारण है कि
भारत में
हमारे पास
अर्द्ध नारीश्वर
की अवधारणा है।
शिव की आकृति
में आधी
स्त्री और आधा
पुरुष चित्रित
किया गया है।
अर्द्ध नारीश्वर
की अवधारणा
कहती है कि
पुरुष आधा है
और स्त्री भी
आधी है। जब एक
पुरुष और एक
स्त्री गहन
प्रेम में
मिलते हैं, तो
एक उच्चतम
वास्तविकता
का जन्म होता
है, जो
निश्चित रूप
से अधिक जटिल
और अधिक महान
होता है, क्योंकि
दो ऊर्जाएं
मिल रही हैं।
तब
एक बच्चे का
जन्म होता है, अब
वहां एक
परिवार है—जो
कहीं अधिक
अर्थपूर्ण है।
अब पिता को
अपने जीवन में
एक अर्थ का
अनुभव होता है,
कि बच्चे को
अब पालपोस
कर बड़ा करना
है। वह बच्चे
को प्रेम करता
है, कठोर
परिश्रम करता
है, लेकिन
अब कार्य करना
केवल कार्य
नहीं रह जाता।
वह अपने बच्चे
के लिए अपने प्रियपात्र
के लिए और
अपने घर के
लिए कार्य कर
रहा है। वह
कार्य करता है
लेकिन कार्य
करने की
कठोरता और
तनाव खो जाता
है। वह कार्य
को अब घसीटता
नहीं। दिन भर
थक कर वह
नाचता हुआ घर
आता है। बच्चे
के चेहरे पर
मुस्कान
देखकर वह
अत्यधिक प्रसन्न
हो जाता है।
एक प्रेमी
युगल की
अपेक्षा एक
परिवार का तल
अधिक उच्च है,
और इसी तरह
और भी ऊंचे तल
हैं।
परमात्मा और
कुछ भी नहीं
है, बल्कि
वह सभी के जोडकर,
वह सभी का
सबसे बड़ा
परिवार है।
यही
कारण है कि
मैं गेरुवा
वस्त्रधारी
अपने
संन्यासियों
को अपना
परिवार कहता
हूं। मैं
चाहता हूं कि
तुम सभी उसी
अखण्ड में
समाहित होकर
खो जाओ। मैं
तुम्हें
समग्र
अस्तित्व में
इतना अधिक अवशोषित
हुआ देखना
चाहता हूं कि
तुम्हारी
वैयक्तिकता
भी बनी रहे, लेकिन
तुम इस महान एक्य के, जो तुमसे
कहीं अधिक
महान है, एक
भाग बन जाओ।
तुरंत जीवन का
अर्थ प्रकट हो
जाता है जब
तुम इस महान
एकीकरण के एक
भाग बन जाते
हो।
जब
कोई कवि एक
कविता लिखता
है,
अथवा जब कोई
नर्त्तक
नाचता है तो
जीवन का अर्थ प्रकट
हो जाता है।
जब कोई मां
बच्चे को जन्म
देती है— अर्थ
प्रकट हो जाता
है। तुम्हें
प्रत्येक चीज
से काटकर
अकेला छोड़ दिया
जाए तुम एक
निर्जन टापू
की तरह
अर्थहीन होकर
रह जाते हो।
सभी के साथ जुड़कर
तुम
अर्थपूर्ण हो
जाते हो। तुम
पहले से बड़े, उस समग्र
अस्तित्व के
भाग बन जाते
हो, और इस
बड़े होने में
ही एक अर्थ है।
इसी कारण मैं
कहता हूं कि
जिस सबसे बड़े,
महान और
अखण्ड की
कल्पना या
धारणा की जा
सकती है, वही
परमात्मा है
और बिना
परमात्मा के
तुम जीवन के
सर्वोच्च
अर्थ को
प्राप्त न कर
सकोगे।
परमात्मा कोई
व्यक्ति की
भांति नहीं है,
वह कहीं
किसी सिंहासन
पर नहीं बैठा
है। ये सारे
विचार केवल
मूर्खतापूर्ण
हैं।
परमात्मा
अस्तित्व की
सम्पूर्ण
उपस्थिति है,
वही
अस्तित्व है
और वही
अस्तित्व का
आधार भी है।
परमात्मा
का अस्तित्व
वहीं है, जहां
जोड़ है, एक्य है, जहां
कभी भी योग
होता है, वहीं
परमात्मा
अस्तित्व में
आता है। तुम
अकेले चल रहे
हो, परमात्मा
अभी सोया हुआ
है। तभी अचानक
तुम किसी को
देखते हो और
मुस्कराते हो,
परमात्मा
जाग गया है, क्योंकि
दूसरा आ गया
है। तुम्हारी
मुस्कान, सम्बंध—विच्छेद
न कर, सम्बंध
जोड़ती है, वह
एक सेतु बन
जाती है।
तुमने दूसरे
की ओर एक सेतु
उछाला है।
दूसरे से भी
उत्तर आता है,
वह भी
मुस्कराता है।
तुम दोनों के
बीच एक खाली
स्थान उभरता
है, मैं
उसी को
परमात्मा
कहता हूं—एक
छोटी सी धड़कन।
जब तुम किसी
वृक्ष के निकट
जाते हो और
उसके निकट
बैठते हो, तुम
पूरी तरह
वृक्ष के अस्तित्व
को भूले हुए
हो। परमात्मा
अभी गहरी नींद
सोया हुआ है।
तभी अचानक तुम
वृक्ष की ओर
निहारते हो, तभी वृक्ष
के प्रति
तुम्हारी
संवेदना
जागृत होती है,
और
परमात्मा जाग
जाता है।
जहां
कहीं भी प्रेम
होता है, वहीं
परमात्मा
होता है। जहां
कहीं भी से
प्रत्युत्तर
आता है, वहीं
परमात्मा
होता है।
परमात्मा एक
शून्य स्थान
है, जहां
कहीं भी एकता
घटती है, वह
अस्तित्व में
आता है। इसी
कारण—मैं कहता
हूं कि प्रेम
ही परमात्मा
की शुद्धतम
सम्भावना है,
क्योंकि यह
दो ऊर्जाओं का
सूक्ष्म और
रहस्यमय योग
है। इसीलिए बाउलों का
आग्रह है कि
प्रेम ही
परमात्मा है।
परमात्मा को
भूल जाओ, प्रेम
ही सब कुछ
करेगा। लेकिन
प्रेम को कभी
मत भूलना, क्योंकि
परमात्मा
अकेला कुछ
नहीं कर सकता।
प्रज्ञा
अंतर करना
जानती है, वह
एक समझ है।
इसका बीज
मंत्र है—सत्य
या सत्। वह
मनुष्य जो
प्रज्ञा से
चलता है वह
सत् अर्थात्
सत्य के पथ पर
ही चलता है।
प्रज्ञा से
उच्च, धर्म
का छठवां
तल है। मैं
इसे ध्यान का
धर्म कहता हूं।
ध्यान
है सजगता, स्वाभाविकता,
सहजता, जिसे
बाउल कहते हैं—सहज—
मानुष, स्वयं
प्रवर्तित
मनुष्य। यह है—अपरम्परागत,
जड़ों से
जुड़ी हुई, क्रांतिकारी
वैयक्तिकता
और
स्वतंत्रता।
इसका बीज शब्द
है—चित्त अथवा
चेतना। ठहरी
हुई स्थिर
बुद्धि का ही
सर्वोच्च रूप
है प्रज्ञा।
यह प्रज्ञा या
समझ बुद्धि का
शुद्धतम
स्वरूप है।
सीढ़ी वही है।
इसी सीढ़ी से
बुद्धि नीचे
जाकर अधोगामी
होती है और
इसी सीढ़ी से
प्रज्ञा
उच्चतम तल पर
ले जाती है, लेकिन सीढ़ी
एक ही है।
ध्यान में
सीढी फेंक दी
जाती है। अब
उसी सीढ़ी पर
नीचे या ऊपर
जाने की कोई
भी गति होती
ही नहीं। अब
कोई गति न
होकर अपने
अंदर अपने ही
डूबने की गतिशून्यता
होती है।
प्रज्ञा
और बुद्धि
दोनों ही किसी
दूसरे व्यक्ति
की ओर उन्मुख
होती हैं।
बुद्धि दूसरे
व्यक्ति को
काटती है जब
कि प्रज्ञा, दूसरे
व्यक्ति से
तुम्हें
जोड़ती है।
इसलिए यदि तुम
ठीक से समझ
जाते हो, तो
पहले चार तरह
के धर्म, जिन्हें
मैं धर्म कहता
ही नहीं, वे
उधार अथवा
नकली धर्म हैं।
असली धर्म तो पांचवीं
कोटि से ही
प्रारम्भ
होता है, और
यह धर्म का
सबसे नीचे का
स्वरूप है, लेकिन यही
असली है। छठी
तरह का धर्म
है— ध्यान, चेतना
या चित्। कोई
भी ऐसा एक
व्यक्ति अपनी
ओर ही मुड़ता
है। वह बस
होना भर रहने
का प्रयास
करता है। यही
है वह स्थान
जहां झेन का
अस्तित्व है।
यह धर्म की
छठी कोटि है। '
झेन ' शब्द
का अर्थ ही है—
ध्यान या मेडीटेशन।
तब
आती है धर्म
की सर्वोच्च
कोटि—सातवां
तल: समाधि और
परमानंद का
धर्म। जैसे कि
पांचवे
कोटि के धर्म
का बीजाक्षर
सत या सत्य है
और छठवें कोटि
के धर्म, ध्यान
का बीजाक्षर
चित् अथवा
चैतन्य है, इस सर्वोच्च
धर्म का
बीजाक्षर है—
आनंद चारों ओर
से बरसता हुआ
परमानंद। सत्
चिद् और आनंद
यह तीनों
बीजाक्षर हैं—सत्य,
चेतना और परमानद।
बाउल, सातवीं
तरह के धर्म—उत्सव
आनंद, गीत,
नृत्य और
परमानंद से
जुड़े लोग हैं।
उनका अत्यधिक
प्रसन्न बने
रहना ही ध्यान
बन जाता है, क्योंकि एक
ही व्यक्ति
ध्यानपूर्ण
भी हो सकता है
और उदास भी।
एक ही व्यक्ति
ध्यानपूर्ण
होकर शांत भी
बन सकता है और
वही व्यक्ति
परमानंद से
चूक भी सकता है।’’
एक
ही व्यक्ति
ध्यानपूर्ण
होकर शांत भी
बन सकता है और
वही व्यक्ति
परमानंद से
चूक भी सकता है।
क्योंकि
ध्यान
तुम्हें पूरी
तरह चिर और
शांत बना सकता
है लेकिन जब
तक नृत्य नहीं
घटता, तुम
किसी चीज से
चूक रहे हो।
शांति बहुत
अच्छी चीज है,
लेकिन
उसमें किसी
चीज की कमी है,
उसमें
परमानंद नहीं
है। जब शांति
ही आनंद से
नृत्य करना
शुरू कर देती है,
तो परमानंद
घटता है। जब
शांति, सक्रिय
बन जाती है, और अतिरेक
से प्रवाहित
होने लगती है,
वह परमानन्द
बन जाती है।
जब परमानंद एक
बीज के अंदर
समा जाता है, वह शांति
होती है। और
जब बीज
अंकुरित होता
है तो केवल
इतना ही नहीं;
बल्कि
वृक्ष भी
विकसित होता
है, फूल भी
खिलते हैं, उसमें, और
जब बीज ही
विकसित होकर
फूल बन जाता
है, तब वही
समाधि है। यही
धर्म की
सर्वोच्च
कोटि है।
शांति
को नृत्य करना
है और मौन को
गुनगुनाना है।
और जब तक
तुम्हारा
सबसे अधिक अन्तर्गम
का अनुभव
हास्य नहीं
बनता, उसमें
किसी चीज की
कमी है। कुछ
अब भी किए
जाना है। इसी
स्थान पर बाउल
प्रवेश करते
हैं। उनका धर्म
है—परमानंद।
और अब आज के
लिए यह गीत—
यह मनुष्य
जो श्वांस
लेता है
प्राणवायु
पर ही जीवित
रहता है,
और इसके
पार वह अदृश्य
दूसरा
जो पहुंच
के बाहर है, विश्राम
करता है।
और दो के
मध्य में एक
और मनुष्य
रहस्यमय
कड़ी की भांति
गतिशील है।
जिसका
शरीर मन, हृदय
और भावों का
अनुसरण करता
हुआ
आराधना ही
में रत रहता
है।
वह
मनुष्य जो
सांस लेता है, और
वह मनुष्य जो
सभी के पार
रहता है..... .इन दो
के मध्य में
इन्हें जोड्ने
वाला तीसरा
मनुष्य भी है:
शरीर, मन
और आत्मा, अथवा
तुम ईसाइयों
की
त्रिमूर्ति—परमात्मा,
उसके पुत्र
और पवित्र
शैतान का भी
उपयोग कर सकते
हो।
शरीर
ही वह मनुष्य
है,
जो श्वांस
लेता है।
श्वांस लेने
के द्वारा ही
शरीर जीवित
रहता है। सांस
तुम्हारे
शरीर के अंदर
जाती है, वह
तुम्हें
प्राण ऊर्जा
देती है, तुम्हारे
जीवन को जीवऊर्जा
देती है। बिना
श्वांस लिए
शरीर नष्ट हो
जाएगा, क्योंकि
बिना श्वांस
लिए शरीर बाहर
के वातावरण से
टूट कर अलग हो
जाएगा।
वातावरण, तुम्हारे
अस्तित्व में
अपना
अस्तित्व
निरंतर उड़ेल
रहा है।
श्वांस अंदर
लेना, श्वांस
बाहर छोड़ना—वातावरण
इसी के द्वारा
तुम्हें
निरंतर जीवंत
और प्रवाहित
बनाये रखता है।
बाउल
कहते हैं—यह
शरीर ही पहला
मनुष्य है।
तब
उसके पार एक
दूसरा है, जिसे
सांस लेने की
जरूरत नहीं
होती, जो
शाश्वत रूप से
वहां
विराजमान है,
जिसे किसी
भी चीज की
जरूरत नहीं
होती। वही
परमात्मा है बाउलों का।
वे उसे सारभूत
मनुष्य अथवा
आधार मनुष्य
कहते हैं और
दो के मध्य मन
है, जिसे
बाउल हृदय
कहते हैं, यही
पवित्र शैतान
है। इसका
अस्तित्व दो
के मध्य जोड्ने
वाली कड़ी की
भांति है।
पूरा
कार्य, मन
अथवा हृदय ही
में किए जाना
है। एक छोर पर
तो शरीर का अस्तित्व
है, और
दूसरे छोर पर
परमात्मा है।
अनुशासन अथवा
साधना का पूरा
कार्य हृदय ही
में किये जाना
है। ध्यान के
बारे में इतना
ही सब कुछ
किये जाना है।
यह मनुष्य जो
श्वांस लेता
है
प्राणवायु
पर ही जीवित
रहता है।
और इसके
पार वह अदृश्य
दूसरा
जो पहुंच
के बाहर है,
विश्राम
करता है।
ओर दो के
मध्य में एक
और मनुष्य
रहस्यमय
कड़ी की भांति
गतिशील है
जो, शरीर
हृदय और भावों
का अनुसरण
करता हुआ
आराधना ही
में रत रहता
है।
बाउल
कहते हैं कि
पूजा या
आराधना करने
से ही कुछ
नहीं होने का
लेकिन आराधना
हो तो समझ से
जानते हुए।
शरीर को मन और
हृदय की पूजा
करनी चाहिए और
हृदय को पूजना
चाहिए उस
अदृश्य को।
इसी को वे लोग
समझ से जानते
हुए पूजा, आराधना
करना कहते हैं।
अपने शरीर को
मन और हृदय का
अनुसरण करने
दो, अपने
शरीर को अपने
भावों का
अनुसरण करने
दो और अपने
भावों को इस
अदृश्य
अज्ञात का
अनुसरण करने
दो। तुम तभी
एक आराधक पर
भक्त हो। तब
पूजा करना
सामान्य
संस्कार नहीं
रह जाता जिसे
तुम पूजा करना
में जाकर करते
हो, तब
पूजा या
आराधना कुछ
ऐसी चीज होती
है जिसे तुम
अपने शरीर और
अस्तित्व के
मंदिर में
भावों के
द्वारा करते
हो।
इन तीनों
के बीच
यहां एक
लीला हो रही
है,
ओ मेरे
खोजी हृदय।
तू किसे
खोज रहा है?
और
बाउल कहते हैं
यहां एक लीला या
खेल हो रहा है।
यह तीनों, शरीर,
हृदय और
आत्मा एक
दूसरे का पीछा
करते हुए दौड़ रहे
हैं।
ओ मेरे
खोजी हृदय।
तू किसे
खोज रहा है?
यह
शब्द लीला या
खेल समझने
जैसा है। यह
चीज पूरब का
ही अनूठापन है।
पश्चिम में इस
तरह की धारणा
या विचार कभी
उठा ही नहीं।
पश्चिम में परमात्मा
की धारणा, कार्य
करने वाले
कर्त्ता के
रूप में की
जाती है, न
कि खिलाड़ी
के रूप में
वहां
परमात्मा की
धारणा सृष्टि
की रचना करने
वाले के रूप
में है और यह
कसौटी बहुत
गम्भीर—प्रतीत
होती है।
लेकिन लीला की
धारणा तो एक
हास— परिहास, अथवा एक खेल की
है। पूरब में
हम लोगों ने
जाना है कि
परमात्मा गम्भीर
नहीं है और न
धर्म को ही
उदास और
गम्भीर होना
चाहिए।
परमात्मा
सबसे महान खिलाड़ी
या अभिनेता है।
जो एक विराट
लीला में
संलग्न है।
जैसे
एक चित्रकार
अपनी तूलिका
से कैनवास पर
रंगों द्वारा
चित्रण करने
का खेल खेलता
है,
तब उसे खेल
या रास से कुछ
नये का जन्म
होता है।
चित्र दो तरह
से बनाया जा
सकता है: तुम
बहुत गम्भीर
होकर उसे बना
सकते हो, तब
तुम ठीक एक
यांत्रिक रूप
से कार्य करने
वाले एक
साधारण
चित्रकार
होगे। तुम उस
चित्र को पूरी
कुशलता से
चित्रित कर दोगे,
लेकिन
उसमें किसी
चीज की कभी
बनी रहेगी, उसमें आत्मा
न होगी। एक
यांत्रिक
मनुष्य और एक
कलाकार के
मध्य यही अंतर
होता है।
कलाकार किसी
योजना को
बनाकर कार्य
नहीं करता। वह
बस कैनवास के
सामने बैठ
जाता है, और
ब्रुश व
रंगों से
खेलने लगता है।
वह बच्चे से
भी कहीं बड़ा खिलाड़ी
होता है। उसके
खेल से ही कुछ
नई चीज उमगती
हैं। आधुनिक
चित्र को
समझने के लिए
यही सबसे
अच्छा तरीका
है।
आधुनिक
चित्रकला, पश्चिमी
से कहीं अधिक
पूरबी है। पिकासो
पश्चिमी से
कहीं अधिक
पूरबी है
क्योंकि वह ब्रश
और रंगों से
खेलता है। यही
कारण है कि
आधुनिक
चित्रकला को
समझना बहुत
कठिन है।
शास्त्रीय और
परम्परागत
चित्र को
समझना बहुत
सरल है। वह
जीवन को ठीक
वैसा ही जैसा
वह है चित्रित
करती है, वह
मूल की कार्बन
कापी या
प्रतिलिपि है।
वह फोटोग्राफों
की तरह
यांत्रिक है।
आधुनिक चित्र
को समझना बहुत
कठिन है। उसे
समझना उतना ही
कठिन है जितना
कि फूलों को
समझना। किसी
व्यक्ति ने पिकासो से
उसके चित्र को
देखने के बाद
उससे पूछा—’‘ आखिर इसका
अर्थ क्या है?
पिकासो ने कहा—’‘ कोई
भी व्यक्ति
वृक्षों और
पक्षियों से
जाकर यह नहीं
पूछता—कि
तुम्हारे
होने का क्या
अर्थ है? तुम
मेरे पास आकर
मुझसे यह
क्यों पूछते
हो? मुझे
अकेला छोड
दो। पौधों और
फूलों से जाकर
पूछो कि आखिर
वे क्यों है?
एक
महान लीला चल
रही है।
वनस्पति
शास्त्री अब
इस बात के
प्रति सजग होने
लगे हैं कि
पौधों और
फूलों में कोई
चीज बहुत अनूठी
और अर्थपूर्ण
है। वे अब
इसके प्रति
सजग हो गये
हैं,
कि
तितलियां या भरि या
अन्य कीट
फूलों के साथ
खेल खेलते हैं
और उनकी नकल
उतारते हैं, वे फूलों को
धोखा देकर
छकाते हैं।
तितलियों
फूलों की नकल
उतारते हुए
उन्हें खिजाती
हैं। और दूसरी
ओर फूल भी
तितलियों और
अन्य कीड़ों
की नकल उतारते
हैं, उनके
साथ खेलते हैं
और यह खेल या
लीला चलती ही
रहती है। छिपकलियां
और गिरगिट, चट्टानों की
नकल उतारती
हैं और
चट्टानें उनकी
नकल उतारती
हैं। लुका
छिपी की यह
महान लीला
उनके बीच
निरंतर चल रही
है।
यह
लीला एक बहुत
सुंदर धारणा
है। वह
तुम्हें
अत्यधिक क्या, पूरी
तरह विश्राम
में ले जाती
है। यदि
परमात्मा ही
इस खेल में
शामिल है तो
गम्भीर होकर
उदास लटके
चेहरे बनाने
की कोई जरूरत
ही नहीं है और
अधिक
खेलपूर्ण हो
जाओ। जीवन एक
खेल है। जीवन
की ओर बिना
गम्भीर हुए
जरा खेल पूर्ण
दृष्टि से
निहारो, तुम्हें
बहुत बड़ा अंतर
दिखाई देगा।
जब
तुम अपने आफिस
जाते हुए सड़क
पर चलते हो, तब
तुम्हारा मन
पूरी तरह
मित्र होता है,
तनावपूर्ण
महत्त्वाकांक्षी
चिंतित और खिंचा—खिंचा
सा। उसी सड़क
पर तुम सुबह
टहलने निकलते
हो। सड़के
वही है, उसके
किनारे खड़े
वृक्ष भी वही
हैं, पक्षी
भी वही हैं, वही आकाश है
और वहीं तुम
हो, और
आसपास से
गुजरते हुए
लोग भी वही
हैं। लेकिन जब
तुम सुबह
टहलने के लिए
जाते हो, तो
तुम्हें कोई
भी खिंचाव या
तनाव नहीं
होता है
क्योंकि तुम
विशेष रूप से
किसी खास
स्थान पर नहीं
जा रहे हो। वह
केवल सुबह का
टहलना भर है, तुम उसका
मजा ले रहे हो,
और तुम
खेलपूर्ण हो।
प्रार्थना
करना भी एक
खेल हैं।
इसलिए यदि तुम
मंदिर जाते हो
और बहुत
गम्भीर बन
जाते हो तो
तुम मंदिर से
चूक जाओगे।
मंदिर भी
हंसते
मुस्कराते
हुए जाओ, मंदिर
भी उत्सव आनंद
मनाने के लिए
जाओ।
बाउल
गाते हैं—
मुझे
स्वयं अपने
होने का भी
कोई ज्ञान
नहीं,
यदि केवल
एक बार मैं यह
जान पाता—
कि मैं कौन
हूं
तो वह
अज्ञात भी
जाना जा सकता
था।
परमात्मा
तो बहुत निकट
ही है
लेकिन फिर
भी बहुत दूर—
जैसे मेरे
बिखरे केशों
के पीछे
कोई पहाड़
छिपा हो।
मैं डाकर
से देहली के
दूर—दूर
नगरों की
यात्रा करते
हुए
निरंतर
उसे खोजता
रहता हूं
लेकिन मैं
अपने ही घुटनों
के चारों ओर
ही
घूमता
रहता हूं।
मेरी अपनी
ही आकृति और
रूप में
परमात्मा
जीवंत है।
केवल हृदय
की शुद्धता ही
मुझे उस तक
ले जाएगी।
मैं जितना
अधिक वेद
शास्त्रों का
अध्ययन करता
हूं
मैं उतनी
ही उलझन में पड़कर भटक
जाता हूं
आंखों के
होने के
बावजूद भी
मैं अंधा
हूं।
केवल मेरे
हृदय की
शुद्धता ही
मुझे उस तक
ले जाएगी।
मेरे अपने
ही रूप और
आकृति में
परमात्मा
जीवित है।
लेकिन कभी
भी अपने जीवन
में
मेरा उस
मनुष्य से एक
बार भी कभी
आमना सामना नहीं
हुआ,
जो मेरे ही
अपने छोटे से
कक्ष में
विराजमान है।
तूफानों और आधियों के
गुबार में
मेरी आंखें
अंधी बनकर कुछ
भी देख नहीं
पातीं,
यहां तक कि
जब वह नाचता
है
मेरे हाथ
उसके हाथों तक
पहुंचने से
पहले ही
असफल हो
जाते हैं।
जैसे वह
संसार के साथ
सदा सदा
के लिए
व्यस्त हो
गया है
मैं खामोश
रहता हूं—
जब वे लोग
उसे जीवन के
मूल तत्व
जल, अग्नि,
पृथ्वी और
वायु कहकर
पुकारते हैं
जब कि यह
निश्चित नहीं
है
कि वह
इन्हीं में से
किसी एक में
है।
मैं अभी तक
अपने ही अंदर
अपने छोटे
से कक्ष अपने
हृदय को ही
नहीं जान पाया
हूं
फिर मैं
किसी और को
जिसे मैं
जानना चाहता
हूं
कैसे जान
सकता हूं?
बाउल
कहते हैं यदि
तुम अपने ही
छोटे से कमरे
या हृदय को
जान लो, तो
तुम सभी को
जान लोगे—क्योंकि
वह उसी कमरे
में ही तो
छिपा है। वह
सांस लेते हुए
मनुष्य के
शरीर में ही
बसा है। वह
प्रज्ञा, चेतना
और ध्यान बनकर
तुम्हारे ही
मन में बसा है
और फिर भी
तुम्हारे पार
है। आहिस्ते—
आहिस्ते
तुम्हारा
शरीर भावों और
अनुभूतियों
का अनुसरण करे,
फिर उन्हें
उस अज्ञात का
अनुसरण करने
दो। पोथियों
की जानकारी के
द्वारा नहीं,
अनुभव के
द्वारा आगे बढ़ो, और
केवल तभी
तुम्हारी
परमात्मा के
साथ लयबद्धता
हो सकेगी।
वह कहीं भी
नहीं रहता—
न तो
असंख्य
सितारों की
भूल भुलइयों
में
और न असीम
शून्य
विस्तार में।
तुम उसे
नहीं पाओगे
नीतिशास्त्रों
अथवा वेदों के
पाठ में।
इन सभी के
अस्तित्व के
पार
वह मनुष्य, यहीं
रहता है—
रूप में भी
अरूप बनकर
मेरे
अंगों के
मंदिर का
श्रृंगार
बनकर।
वह
पंचतत्वों के
सहज स्वाभाविक
शरीर में ही
भावों और
अनुभूतियों
के साथ
दीप्तिवान हो
रहा है।
पंचतत्वों
और पदार्थ से
बना यह शरीर
सहज और स्वाभाविक
है। यह शरीर
ही उसका मंच
है और वह
मनुष्य यहीं
है।
यदि
तुम अपने हृदय
को ही
पहचानने
में असफल हो
गए,
तो जो महान
और अज्ञात है
उसे तुम
कैसे जान
सकोगे?
चारों
दिशाओं में
फैले इस
अस्तित्व के
साथ
लयबद्ध
होकर
इसे अपने
हृदय पात्र
में भर लो
फिर जो दूर
से भी दूर है
वह
तुम्हारे
निकट होगा।
अज्ञात का
तुम्हें बोध
होगा
और वह
अप्राप्य
मनुष्य,
तुम उसे
प्राप्त कर
सकोगे।
उस
असीम, अछोर
अज्ञात और
अपरिचित के
लिए अपने हृदय
के द्वार खोल दो।
शास्त्र—ज्ञान
के साथ आगे
गतिशील मत
होना क्योंकि
ज्ञान का अर्थ
है जिसे तुम
पहले ही से
जानते हो। इसी
कारण वेद
तुम्हारी
सहायता न कर
सकेंगे। वेद
का अर्थ होता
है—ज्ञान। वेद
शब्द का अर्थ
ही है—जानना।
इसका मूल वेद
से ही आता है—
जिसका अर्थ है
जानना।
इसीलिए बाउल
निरंतर वेदों
की आलोचना
करते हैं। वे
कहते हैं—ज्ञान
से कोई भी
सहायता नहीं
मिलने वाली।
अज्ञात की ओर
आगे बढ़ो
और प्रतीक्षा
करो, उस
अज्ञात की, जो तुम्हारा
द्वार
खटखटाये। तुम
बस सजग
आशापूर्ण ग्राहयता
और भाव भरे
हृदय से खेलपूर्ण
रहते हुए उसकी
प्रतीक्षा
करो। जीवन और
मृत्यु के
द्वारों के
मध्य
एक अन्य
द्वार भी
सामने ही खुला
है.....
जिसे
स्पष्ट नहीं
किया जा सकता।
वह जो
मृत्यु के
द्वार पर
फिर से
जन्म लेने में
समर्थ और
योग्य है,
जो मृत्यु
से पहले ही
जीते हुए
ही मर जाता है,
वही प्रेम
में डूबा
व्यक्ति ही
अमर हो जाता
है।
एक
बहुत ही
महत्त्वपूर्ण
रहस्य यह है
कि जीवन और
मृत्यु के दो
द्वारों के
मध्य एक अन्य
द्वार भी है......
उस द्वार को
हम प्रेम कहकर
पुकारते हैं।
क्या तुमने
उसे देखा है? जीवन
और मृत्यु के
मध्य वहां
सिवाय प्रेम
के और कुछ भी तो
नहीं घटता।
यदि तुम जीवन
और मृत्यु के
बीच प्रेम से
चूक गए तो तुम
जीवन में मिले
पूरे अवसर से
ही चूक जाओगे।
तुम ज्ञान
इकट्ठा कर
सकते हो, तुम
मूल्यवान
पत्थरों और
रत्नों को
इकट्ठा कर
सकते हो, तुम
धन सम्पत्ति,
पद
प्रतिष्ठा और
शक्ति का संचय
कर सकते हो, लेकिन यदि
तुम प्रेम से
चूक गये तो
तुम असली
द्वार से ही
चूक गये।
पहला
द्वार जो जन्म
का द्वार है, वह
दूसरे द्वार
के द्वारा
प्रेम के
द्वार में प्रविष्ट
होने का अवसर
देता है। जीवन
और मृत्यु के
मध्य ही प्रेम
है। वास्तव
में जीवन का
अस्तित्व
केवल इसीलिए
है, जिससे
वह प्रेम और
प्रेम घटने का
अवसर दे सके।
यदि तुम उससे
ही चूक गये तो
पूरे जीवन से
ही चूक गये।
यदि तुम उससे
नहीं चूके, और शेष सभी
कुछ से चूक
गये, तो
तुमने न कुछ
भी खोया और न
तुम किसी से
भी चूके।
और
यह प्रेम का
द्वार ही असली
मृत्यु है। वह
दूसरी मृत्यु
सबसे अंत में
आयेगी, यह
असली मृत्यु
नहीं है, क्योंकि
तुम जीवित
रहोगे।
तुम्हारा फिर
से पुनर्जन्म
होगा। जैसे
मृत्यु के बाद
जन्म होता है,
इसीलिए
जन्म मृत्यु
का अनुसरण करता
है। यह दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। लेकिन
यदि तुम प्रेम
के द्वार में
प्रविष्ट हो
गये, तब
तुम मर जाओगे
और तुम तब
इतनी पूर्णता
से मर जाओगे
कि तुम्हारा
फिर कोई दूसरा
जन्म न होगा और
वास्तव में
फिर कोई
मृत्यु भी
नहीं होगी।
प्रेम ही
वास्तविक और
सच्ची मृत्यु
है, क्योंकि
अहंकार पूरी
तरह विसर्जित
हो जाता
साधारण
मृत्यु में
केवल शरीर मरता
है,
अहंकार फिर
भी बना रहता
है, और यही
तुम्हें नये
जन्मों में ले
जाता है।
पुनर्जन्म का
यही अहंकार ही
धागा है। एक
बार यह धागा
टूट जाये, तो
जड़ ही टूट
जाती है, तुम
पदार्थगत
संसार से
विलुप्त हो
जाते हो तुम
दृश्य संसार
से अदृश्य में
चले जाते हो, जो सभी के
पार है, वही
दूसरा किनारा
है।
जीवन और
मृत्यु के
द्वारों के
मध्य
एक अन्य
द्वार भी
सामने ही खुला
है,
जिसे
स्पष्ट नहीं
किया जा सकता।
वह जो
मृत्यु के
द्वार पर
फिर से
जन्म लेने में
समर्थ और
योग्य है,
जो मृत्यु
से पहले ही
जीते हुए
ही मर जाता है
वही प्रेम
में डूबा व्यक्ति
ही
अमर हो
जाता है।
यही है वह, जिसे
बाउल मृत्यु
का असली द्वार
कहते हैं।
मृत्यु से
पहले ही मर
जाना
मरकर भी
जीवित रहने
जैसा है।
यदि
तुम मरने से
पहले ही मर
सकते हो, वही
तुम हो, यदि
तुम प्रेम के
द्वार में
होकर गुजर
सकते हो, यदि
तुम जीवित
रहते हुए मर
सकते हो, तब
तुम्हारे लिए
कोई मृत्यु है
ही नहीं। तब
तुम अमर बन
गये, तब
तुम शाश्वत हो,
तब तुम एक
परमात्मा हो।
तब तुम इस पदार्थगत
संसार के कोई
भाग नहीं हो, जहां शरीर
आकृतियां
ग्रहण करते
हैं, और
जहां शरीर की
आकृतियां मिट
जाती हैं। तब
तुम सभी रूपों,
आकृतियों
जन्म और
मृत्यु के पार
हो जाते हो।
यह पार जाने
का तत्व
तुममें पहले
ही से है।
मनुष्य
अभी यहां है।
वह ठीक अभी, इस
क्षण में यहां
है। लेकिन
तुम्हें
प्रेम के
रसायन से होकर
गुजरना होगा,
अन्यथा तुम
इसे कभी न जान
सकोगे।
बाउल गाते
हैं:
प्रेमी
आराधक के लश
का
और
वास्तविक
सत्य तक
पहुंचने का
वर्णन
करने के लिए
सभी शब्द
और बातें
व्यर्थ हैं।
प्रेम का
अमृत पीकर ही
वह प्रेमी
आराधक
उस अदृश्य
मनुष्य के
चेहरे को देख
सकता है
उस महान
अप्राप्त को
वही प्राप्त
कर सकेगा।
मैं उस
मनुष्य को
कैसे पकड़ सकता
हूं
जो सभी की
पकड़ के बाहर
है?
वह नदी के
उस दूसरे
किनारे पर
रहता है
और मेरी आंखों
की त्वचा
मेरी
दृष्टि पर
पर्दा डाल
देती है।
यह
शरीर ही
तुम्हारी
दृष्टि पर
आवरण डाल देता
है। यदि तुम
शरीर के साथ
बहुत अधिक तादाम्य
जोड़ लेते हो, तो
वही अवरोध बन
जाता है। इस
विधि को उलट
दो: शरीर को
हृदय का
अनुसरण करने
दो, न कि
हृदय शरीर का
अनुसरण करे।
यदि हृदय को
शरीर का
अनुसरण करना
पड़ा तो शरीर अवरोध
बन जाता है।
तब तुम उस
दूसरे किनारे
पर नहीं पहुंच
सकते। यदि
शरीर, हृदय
का अनुसरण
करता है, तो
शरीर ही नौका
बन जाता है।
कहां है
चंद्रमा का वह
घर?
और कौन
कैसे बनाता है
एक दूसरे
के पीछे घूमते
आते—जाते
रात और
दिनों का यह
अनूठा चक्र?
पूर्णमासी
की रात्रि में
निकले पूर्ण
चंद्र में
लगे ग्रहण
को सभी जानते
हैं।
लेकिन कोई
भी
महीने की
सबसे अंधेरी
रात में
काले वर्ण
के चंद्रमा के
बारे में
कुछ भी
जांच पड़ताल
नहीं करता।
वह व्यक्ति, जो
आकाश में
पूर्ण
चंद्रमा के
उदय होने
और सबसे
अंधेरी रात
में व्याप्त
चंद्रमा
को भी
जानने में
समर्थ है
वही
व्यक्ति
स्वर्ग, पृथ्वी
और पाताल
अर्थात
तीनों लोकों
के गौरव को
जानने का
दावा करने
का अधिकार
रखता है।
''
वह व्यक्ति
जो आकाश में
पूर्ण
चंद्रमा के
उदय होने और
सबसे अंधेरी
रात में भी
चंद्रमा को
देख पाता है.....
.यह बाउलों
का प्रेम की
अनुभूति का ही
वर्ण है। एक
प्रेमी ही
मृत्यु से भी
जीवन का सृजन
करने में
समर्थ है, वह
कोई भी
चमत्कार कर
सकता है। यही
कारण है कि
प्रेम के बारे
में यहां इतना
अधिक भय है।
मैंने हजारों
व्यक्तियों
को, जब वे
प्रेम के
द्वार में
प्रवेश करते
हैं, भय से
कांपते हुए
देखा है।
प्रेम करने से
इतना अधिक भय
उत्पन्न
क्यों होता है?
एरिक
फ्रोम ने
एक बहुत सुंदर
पुस्तक लिखी
है,
जिसमें वह
कहता है कि
प्रेम सबसे
अधिक जोखिम भरी
चीजों में से
एक बहुत
खतरनाक चीज है।
और प्रेम के
बारे में यहां
मनुष्यता को
सबसे अधिक भय
लगता है। जो
लोग प्रेम के
बोर में
बातचीत करते
हैं, वे
केवल अपने आप
को धोखा देने
के लिए ही बात
कर सकते हैं।
उनकी बातचीत
उन्हें केवल
यह अहसास
दिलाने की प्रतिपूर्ति
कर सकती है कि
वे प्रेमी हैं।
लेकिन लोग
प्रेम से
भयभीत हैं। वह
उन्हें भयभीत
करता है
क्योंकि लोग
प्रेम से
भयभीत हैं। वह
उन्हें भयभीत
करता है
क्योंकि
प्रेम मृत्यु
है। तुम्हें
अपने अहंकार
को पूरी तरह
गिराना और मिटाना
होता है। यह
आत्मघात करने
जैसा है। भय
का होना स्वाभाविक
है, लेकिन
यदि तुम काफी
साहसी हो तो
तुम उससे गुजर
सकते हो, यदि
तुम अपने
कंधों पर
प्रेम की सलीब
ढोते चल सकते
हो, तो
तुम्हारा
पुनर्जन्म
होना निश्चित
है। जिस क्षण
अहंकार गिरता
है, उसी
क्षण
तुम्हारा नया
जन्म होता है।
वह
व्यक्ति
जो प्रेम
के
अंतर्निहित
उसके स्वभाव
को जानता है
वह निर्भय
होता है।
वह केवल
अपने ही रूप
को
जो उसकी आंखों
के सामने
जीवंत होता है,
प्रेम
करता है।
अपनी
प्रसन्नता
में ही
वह अपने ही
घर के अंदर
होता है।
वह अकेली
तीव्र चाह से
ही
प्रबल
कामवासना को
शांत करता है
वह
परमात्मा के
हृदय पर प्रेम
का धावा बोलता
है
जो सभी
लोगों के हृदय
पात्रों को मथ कर
प्रेम—नवनीत
उत्पन्न करता
है
ऐसा करते
हुए वह अपने
आप को
उसके
शाश्वत प्रेम
में डूबा हुआ
ही पाता है।
तुम अपने
हृदय रूपी घर
की भली भांति
देखभाल करो
क्योंकि
उसी में वह मन
मनुष्य निवास
करता है।
प्रेम भरी आंखों
की काली
पुतलियों से
दृष्टि उस
पर केंद्रित
कर दो।
पारे लगे
शीशे के दर्पण
पर
उसकी छवि
तुम्हें
तैरती दिखाई
देगी।
इस पृथ्वी
की क्रीड़ा
स्थली पर
उसकी गहन
खोज करते हुए
छिन्न—भिन्न
होते दांव पेंचों
की तरह
तुमने
कितना अधिक
समय व्यर्थ
गंवा दिया।
अब इस प्रेम—समारोह
में सम्मलित
होकर
उमड़ते
भावों से उसे
खोजो
और इस
प्रेम—महोत्सव
में डूब ही
जाओ।
बाउल
कहते हैं कि
केवल बौद्धिक
खोज से कोई
सहायता नहीं
मिलने वाली।
बस,
केवल प्रेम—महोत्सव
में सम्मलित
हो जाओ: यही है
वह जिसे
प्रार्थना और
आराधना कहते
हैं।
नाचते, गाते
उत्सव आनंद
मनाते, इस
परमानंद में
डूब ही जाओ।
तुम अपने
माध्यम से
परमात्मा को
लीलामय होकर खेलने
की अनुमति दो,
अपने
खेलपूर्ण
होने को ही
तुम अपनी
प्रार्थना, और केवल
उत्सव आनंद को
ही तुम अपनी
पूजा बना लो।
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