दिनांक
24 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार :
1—सिद्ध
सरहपा का
सहज-योग और
झेन का
क्षण-बोध क्या
अन्य हैं या
अनन्य? और
क्या सहज-योग
समर्पण का ही
दूसरा नाम
नहीं है?
2—उस
दिन भारत के
संदर्भ में
आपने कहा कि
इस देश की
बुनियादी
समस्या उसके
अंधविश्वास
हैं और यह कि
यह देश समय से
डेढ़ हज़ार वर्ष
पीछे है। क्या
बताने की कृपा
करेंगे कि
विश्वास और
अंधविश्वास
की परख क्या
है? और
क्या आज के
विश्वास कल के
अंधविश्वास
नहीं हो
जायेंगे? क्या
यह भी बताने
की अनुकंपा
करेंगे कि कोई
व्यक्ति या
जनसमूह
समसामयिक
होने के लिए, आधुनिक रहने
के लिए क्या
करे?
3—आप
क्यों इस
मतांधों के
देश में श्रम
कर रहे हैं? परंपराग्रस्त
और रूढ़िवादी
लोग न आपको
समझे हैं न
समझेंगे। मैं
स्वयं तो इस
देश के
अंधविश्वासों
से इतना ऊब
गया हूं कि
सोचता हूं कि
परदेस जा
बसूं। आपका
क्या आदेश है?
पहला
प्रश्न:
सिद्ध
सरहपा का
सहज-योग और
झेन का क्षण-बोध
क्या अन्य हैं
या अनन्य? और क्या
सहज-योग
समर्पण का ही
दूसरा नाम
नहीं है?
नरेन्द्र!
जैसे एक बीज
से वृक्ष पैदा
हो अनेक शाखाओं
वाला और उस पर
अनंत फूल लगें, ऐसे ही एक
बुद्ध के बीज
से बड़ा
बोधि-वृक्ष
पैदा होता
है--बहुत
शाखायें, बहुत
पत्ते, बहुत
फूल, बहुत
फल!
गौतम
बुद्ध के जीवन
में जो
महाक्रांति
घटी उसकी
किरणें सभी
दिशाओं में
फैलीं। झेन भी
उसी बोधि-वृक्ष
पर लगा हुआ एक
फूल है और
सरहपा का सहज-योग
भी। सरहपा
बुद्ध का उतना
ही ऋणी है
जितना
बोधिधर्म।
बुद्ध के एक
शिष्य से झेन
की उत्पत्ति
हुई; दूसरे
शिष्य से, सरहपा
से, सहज-योग
की। पर दोनों
में उस एक ही
वीणावादक के
स्वर गूंज रहे
हैं। ऊपर-ऊपर
भेद होगा, भीतर-भीतर
अभेद है। एक
ही राग गाया
है, वाद्य
अलग हो सकते
हैं। किसी ने
वही राग मुरली
पर गाया है, और किसी ने
वही राग वीणा
पर छेड़ा है।
वाद्य भिन्न
हैं, होंगे
ही। बोधिधर्म के
पास एक तरह का
व्यक्तित्व
है, जिससे
झेन का जन्म
हुआ; सरहपा
के पास दूसरे
तरह का
व्यक्तित्व
है, जिससे
सिद्धों के
सहज-योग का
जन्म हुआ।
जैसे
चांद निकले, झीलों में
भी उसका
प्रतिबिंब
बने, नदियों
में भी, सागरों
में भी, तालोंत्तलैयों
में भी। एक ही
चांद का
प्रतिबिंब है,
लेकिन
प्रत्येक
तालत्तलैया
के जल का अपना
रंग है। किसी
का मटमैला है,
किसी का
स्वच्छ है, किसी का
नीला है, किसी
का स्फटिक मणि
की भांति है, तो उतने भेद
पड़ जायेंगे, पर वे भेद
मौलिक नहीं
हैं।
झेन
का क्षण-बोध
और सरहपा का
सहज-योग एक ही
प्रक्रिया के
दो प्रयोग
हैं। दोनों को
ठीक से समझ
लोगे तो अभेद
दिखाई पड़
जायेगा। और सच
तो यह है, अगर
ठीक से समझोगे
तो अभेद ही
अभेद है। फिर
बुद्ध के दो
शिष्यों में
ही नहीं, बुद्ध
और महावीर में
भी अभेद है; यद्यपि वे
अलग-अलग
परंपराओं के
दीये हैं, मगर
दीये कितने ही
अलग
कुम्हारों के
बनाये हुए हों
उनकी ज्योति
तो एक ही
होगी। और
गहराई से
समझोगे तो फिर
बुद्ध, महावीर,
मूसा, मुहम्मद,
जरथुस्त्र,
लाओत्सु
इनमें भी अभेद
पाओगे
क्योंकि
मिट्टी किसी
देश की हो, दीये
को बनाने वाले
कारीगर अलग
हों, तेल
भिन्न-भिन्न
भरे हों, बातियों
का ढंग
अलग-अलग हो
मगर ज्योति तो
एक ही होगी!
अंधेरे
को तोड़ना उसका
गुणधर्म
होगा।
जैसे
ही तुम्हारी
गहराई बढ़ेगी
वैसे-वैसे अभेद
दिखाई पड़ेगा।
भेद तो उथलेपन
का लक्षण है।
जब तक तुम्हें
भेद दिखाई पड़े
तब तक समझना
कि अभी समझ
नहीं आई, जब
एक ही स्वर
गूंजता हुआ
मालूम होने
लगे, एक ही
ओंकार, फिर
चाहे बुद्ध
हों, चाहे
महावीर, चाहे
जरथुस्त्र, जरा भी भेद न
दिखाई
पड़े--शब्द
भिन्न, ढंग
भिन्न, लेकिन
भीतर का नाद
एक--तभी जानना
समझ का जन्म हुआ।
उस समझ को
प्रज्ञा कहते
हैं। वह समझ
शास्त्रों से
नहीं आती।
शास्त्रों से
आती होती तो दुनिया
में धर्म इतने
झगड़े खड़े न
करते, इतने
उपद्रव न
होते। वह समझ
भीतर
शून्य-भाव हो
तो आती है। वह
समझ शून्य-भाव
का ही स्वाद
है, सुगंध
है। ध्यान की
गहराई में वह
समझ पैदा होती
है।
झेन
कहता है:
क्षण-क्षण
जीयो। इस क्षण
में बीते हुए
क्षणों की कोई
छाया न पड़े।
इस क्षण पर आने
वाले क्षणों की
भी छाया न पड़े, क्योंकि
बीता हुआ क्षण
अगर छाया
मारेगा तो इस क्षण
को बासा कर
देगा। फिर तुम
ताजे न जी
सकोगे। फिर
तुम्हारी
जिंदगी में ऊब
हो जायेगी। फिर
पुनरुक्ति
होगी। फिर तुम
युवा न रहोगे;
तुम समय के
पहले वृद्ध हो
जाओगे। फिर
तुम किसी अर्थ
में जिंदा न
रहोगे; जिंदा
दिखाई पड़ोगे,
मगर मुर्दा
होओगे, क्योंकि
अतीत मुर्दा
का नाम है। जो
जा चुका और अब
नहीं है, उसका
बोझ तुम्हारे
ऊपर नहीं होना
चाहिए। जो क्षण
बीत गया सो
बीत गया। उसे
बीत ही जाने
दो। उसकी धूल
इकट्ठी मत करो,
नहीं तो
चित्त का
दर्पण धूल से
भर गया तो फिर
जो मौजूद है
उसकी
प्रतिछवि न
बना सकेगा। और
फिर तुम जो भी
करोगे वह
प्रतिक्रिया
होगी। वह अतीत
से आच्छादित
होगी। फिर तुम
जो भी करोगे
उसमें चूक
होगी, क्योंकि
वह वर्तमान का
उत्तर नहीं
होगा उसमें।
पूछा कुछ
जायेगा, कहोगे
कुछ।
परिस्थिति
कुछ होगी, प्रत्युत्तर
कुछ होगा, क्योंकि
प्रत्युत्तर
आयेगा अतीत
से। वे परिस्थितियां
जा चुकी हैं।
अब तो हर क्षण
नई परिस्थिति
है।
जैसे
दर्पण के
सामने से कोई
गुजरा और
दर्पण उसकी
तस्वीर पकड़ ले, आदमी तो गया
लेकिन तस्वीर
पकड़ गई, फिर
कोई और गुजरा
उसकी भी
तस्वीर पकड़
ले। ऐसे तस्वीर
पकड़ता
जाये--तो जल्दी
ही वह घड़ी आ
जायेगी कि
दर्पण इतना
तस्वीरों से
भर जायेगा कि
फिर नई
तस्वीरें न बन
सकेंगी और
बनेंगी भी तो
विकृत हो
जायेंगी।
दर्पण की खूबी
यही है: दर्पण
झेन है। इसलिए
झेन फकीरों ने
दर्पण का खूब
उदाहरण लिया
है। वह उनका खास
प्रतीक है। जो
आया, दर्पण
झलका देता है;
जो गया, गया,
दर्पण फिर
खाली। फिर
खाली का खाली।
ताकि फिर जो
सामने आयेगा,
उसे पूरा
झलका सके। ऐसे
दर्पण की
भांति जीने का
नाम झेन है।
और स्वभावतः
जो इस तरह
जीयेगा उसकी
जिंदगी में
बोझ नहीं होगा
और चिंता भी
नहीं। स्मृति
का बोझ नहीं, भविष्य की
चिंतायें नहीं।
उसका क्षण बड़ा
शुद्ध होगा।
उसके क्षण में
बड़ी सुगंध
होगी। उसका
क्षण ऐसे होगा
जैसे इन
वृक्षों का
क्षण--हरा-भरा!
उसका प्रतिपल
अपूर्व
निर्दोषिता
से भरा होगा।
उसकी जिंदगी
में एक सुवास
होगी। उसी
सुवास का नाम
संन्यास है। और
ऐसी अवस्था का
नाम ध्यान है।
उस व्यक्ति को
ध्यान करने
बैठना नहीं
पड़ेगा--वह
ध्यान में ही
उठेगा, ध्यान
में ही बैठेगा,
ध्यान में
ही चलेगा, ध्यान
में बोलेगा, ध्यान में
चुप होगा, ध्यान
में सोयेगा, ध्यान ही
होगा उसका
बिछौना और
ध्यान ही होगी
उसकी ओढ़नी।
ध्यान ही होगा
उसका छप्पर।
ध्यान ही होगा
उसका भोजन।
ध्यान ही उसकी
जीवन-चर्या
होगी। ऐसा समाधिस्थ
पुरुष
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाता है।
सरहपा
का सहज-योग भी
इसी बात को
कहने का दूसरा
ढंग है।
सहज-योग का
अर्थ होता
है--कृत्रिम न
होओ, स्वाभाविक
रहो। अपने ऊपर
आदर्श मत ओढ़ो,
आदर्श
पाखंड लाते
हैं। आदर्शों
के कारण विकृति
पैदा होती है,
क्योंकि
कुछ तुम होते
हो, कुछ
तुम होने की
चेष्टा करते
हो, तनाव
पैदा हो जाता
है। फिर तुम
जो हो वह दब
जाता है, उसमें
जो तुम होना
चाहते हो। इसी
का नाम पाखंड
है।
सरहपा
कहता है: तुम
जैसे हो वैसे
ही जीयो। जरा सोचो, जरा इस पर
ध्यान करो।
तुम जैसे हो
वैसे ही जीयो,
जो परिणाम
हो। धोखा न
दो। अपने को
अन्य मत बतलाओ।
अगर झूठ बोलते
हो तो कह दो कि
मैं झूठा हूं और
भाई मेरे, मुझसे
सावधान रहना,
मैं झूठ
बोलता हूं।
झूठ ही मेरी
चर्या है। इसलिये
कोई मेरा
भरोसा न करे।
कोई भरोसा करे
तो उसकी जोखिम,
वह जाने।
मैं झूठ बोलता
हूं।
जरा
सोचते हो, ऐसा जो आदमी
कह सके क्या
वह सच्चा नहीं
हो गया? इस
कहने में ही
सच्चा हो गया।
इससे बड़ी और
सचाई क्या
होगी कि चोर
आकर तुमसे कह
जाये कि रात जरा
सावधान रहना,
कि मेरी नजर
तुम्हारी
तिजोड़ी पर लगी
है, कि मैं
आदमी चोर हूं,
कि मैं आदमी
भला नहीं हूं,
कि मैं लाख
दोस्ती बनाऊं
तुम सचेत
रहना। ऐसा चोर
चोर है? ऐसा
चोर साधु हो
गया!
इस
चोर ने अपनी
स्वाभाविकता
को उदघोषित कर
दिया। इस चोर
ने अपनी निजता
को प्रगट कर
दिया। अब यह
असाधु कैसे हो
सकता है? इसका
पाखंड न रहा।
फिर
एक आदमी है, जो दावा तो
सच बोलने का करता
है और आड़ में
झूठ बोलता है।
जिनको भी झूठ
बोलना है
उन्हें सच
बोलने का दावा
करना होता है,
नहीं तो
उनका झूठ
मानेगा कौन? इसलिये झूठ
बोलने वाला
बार-बार
दोहराता है कि
मैं सच कह रहा
हूं, मैं
बिलकुल सच कह
रहा हूं, मैं
कसम खाकर कहता
हूं कि सच कह
रहा हूं। जब
भी कोई आदमी
बहुत कसम खाने
लगे कि मैं सच
कह रहा हूं तो
सावधान हो
जाना, क्योंकि
यह झूठे का
लक्षण है।
ईसाइयों
का एक छोटा-सा
समूह है, क्वेकर।
वे अदालत में
कसम नहीं
खाते। उन पर
कई मुकदमे चले
हैं, सजायें
काटीं
उन्होंने, लेकिन
अदालत में वे
कसम नहीं
खाते। अदालत
में कसम खानी
पड़ती है कि
मैं शास्त्र
को सामने रखकर
या परमात्मा
को साक्षी
रखकर कसम खाता
हूं कि झूठ न
बोलूंगा।
क्वेकर कहते
हैं कि जो झूठ
बोल सकता है
वह ऐसी कसम भी
खा सकता है, फिर भी झूठ
बोलेगा। झूठ
बोलने वाले को
झूठी कसम खाने
में अड़चन क्या
है? बात तो
ठीक कहते हैं
कि जब झूठ ही
बोलता है कोई
तो उसकी कसम
पर कैसे भरोसा
करते हो? वह
कसम भी झूठ खा
लेगा। और वे
यह भी कहते
हैं चूंकि हम
झूठ नहीं
बोलते, इसलिये
हम यह कसम
कैसे खायें कि
हम झूठ नहीं बोलेंगे।
यह तो कसम
खाने में हमने
मान ही लिया कि
हम झूठ बोलते
थे, कि हम
झूठ बोलते हैं,
कि हम झूठ
बोल सकते हैं
और हम कसम खा
रहे हैं कि झूठ
नहीं
बोलेंगे।
क्वेकर
कसम नहीं
खाते। यह बात
प्रीतिकर है।
कोई सच्चा
आदमी कसम
क्यों खाये? कसम का तो
मतलब ही यह हो
गया कि बिना
कसम खाये जो
बोलते हैं वह
झूठ है। और
फिर जो झूठ ही
बोलता है उसे
कसमों से क्या
भेद पड़ेगा? याद रखना, जो आदमी
बार-बार कहे
कि मैं कसम
खाता हूं, कि
राम जी की
दुहाई, कि
गीता छू ले, कि बाइबिल
पर हाथ रख दे, उससे तो
सावधान ही हो
जाना। सच्चा
आदमी कसम क्यों
खायेगा? सच्चा
आदमी सच बोलता
है; इसकी
दुहाई नहीं
देनी होती; इसको
पुनरुक्त
नहीं करना
होता। लेकिन
झूठे को खुद
ही शक होता
है। झूठे को
भीतर लगा रहता
है कि कौन
मानेगा मेरी,
चलो कुरान
का सहारा ले
लूं, कि
बाइबिल का, कि गीता का, कि चलो राम
को बीच में ले
आऊं, कि
कृष्ण को बीच
में ले आऊं, अल्लाह को
बीच में ले
आऊं; शायद
उनकी आड़ में
काम बन जाये।
बहुत कसमें
खाकर वह आदमी
अपने झूठ को
चलाने का उपाय
बना रहा है, झूठ के लिये
रास्ता बना
रहा है। कसम
खाना कोई अच्छा
लक्षण नहीं
है। कसम झूठे
का लक्षण है।
जो
आदमी जैसा है
वैसा ही अपने
को घोषित कर
दे, रत्ती-भर
इंच-भर अन्यथा
न करे, इसका
नाम है
सहज-योग। तुम
थोड़ा ध्यान
करो इस बात
पर। इस आदमी
के जीवन में
कोई जटिलता न
रह जायेगी।
जटिलता का कोई
कारण ही न
रहा। झूठ जटिलता
पैदा करवाता
है। और झूठ से
मेरा मतलब
बोलने वाले
झूठ से ही
नहीं है, लोग
झूठ जीते भी
हैं। लोग
मुखौटे लगाये
हुए हैं।
मुखौटे के
पीछे कुछ और
है। मुंह में
राम, बगल
में छुरी है।
मुखौटा बड़ा
प्यारा लगा
लेते हैं।
मुखौटे तो
बाजार में
मिलते हैं।
तुम जो चाहो
वह मुखौटा लगा
लो, असली
चेहरा पीछे
छिप जाता है।
जो बड़े
कूटनीतिज्ञ
होते हैं, उनको
देखा, वे
दिन में भी
रात में भी
काला चश्मा
चढ़ाये रखते
हैं, ताकि
उनकी असली आंख
दिखाई न पड़े।
काला चश्मा
रात में भी
कोई आदमी
चढ़ाये हो, सावधान
हो जाना, क्योंकि
काला चश्मा
चढ़ाने वाला
आदमी बेईमान है।
वह यह खबर दे
रहा है कि वह
अपनी असली आंख
तुम्हें नहीं
दिखाना
चाहता। और
आंखें अकसर कह
देती हैं जो
जबान नहीं कह
पाती। तो वह
आंख को ओट में
किये हुए है।
बेईमान आदमी
आंख में आंख
डालकर नहीं
देखता, यहां-वहां
देखता है। उसे
डर लगता है कि
आंख कहीं कह
ही न दे। आंख
कह देती है।
अब
तो
वैज्ञानिकों
ने ऐसे उपाय
खोजे हैं कि
तुम चकित हो
जाओगे। जैसे
एक आदमी कहता
है कि मुझे
स्त्रियों
में कोई रस
नहीं है, मैं
तो
ब्रह्मचारी
हूं, मुझे स्त्रियों
में कोई भाव
ही नहीं उठता।
अब वैज्ञानिकों
ने उपाय खोजे
हैं। एक दस
तस्वीरें उसे
पकड़ा देते हैं,
उनमें एक
तस्वीर कार की
है, एक
मकान की है, एक नदी की है,
पहाड़ की है;
फिर एक
तस्वीर आती है
नग्न स्त्री
की और पूरे वक्त
उस आदमी की
आंख यंत्र से
जांची जा रही
है। यंत्र
उसकी आंख की
तस्वीरें ले
रहा है जैसे
ही नग्न
स्त्री पर आंख
आती है, आंख
के सामने नग्न
स्त्री की
तस्वीर आती है,
उस आंदमी की
आंखें एकदम
फैल जाती हैं;
जो कहता है
कि मुझे कोई
रस नहीं है, उसकी
पुतलियां बड़ी
हो जाती हैं।
तुमने देखा न,
जब तुम धूप
में जाते हो
पुतलियां
छोटी हो जाती
हैं, और जब
तुम छाया में
आते हो
पुतलियां बड़ी
हो जाती हैं।
तुम आईने में
देख सकते हो।
धूप में से आकर
एकदम आईने के
सामने खड़े हो
जाओ, तुम
पाओगे
तुम्हारी
पुतली बड़ी
छोटी है, फिर
धीरे-धीरे बड़ी
होगी, फिर
बड़ी होगी।
जैसे अंधेरा
बढ़ेगा वैसे बड़ी
होगी। मतलब यह
है कि जब
रोशनी ज्यादा
होती है, तो
पुतली छोटी हो
जाती हैं; क्योंकि
उतनी रोशनी
भीतर लेना
उचित नहीं है,
घातक है। और
जब अंधेरा
होता है तो
पुतली बड़ी हो
जाती है, क्योंकि
अंधेरा काफी
है, पुतली
बड़ी होगी तो
तुम देख
पाओगे। जैसे
कैमरे से कोई
तस्वीर उतारता
है, अंधेरे
में उतारता है
तो लैंस को
ज्यादा देर खुली
रखता है; रोशनी
में उतारता है
तो कम देर।
जब
नग्न स्त्री
की तस्वीर
तुम्हारे
सामने आती है
तुम देखने को
इतने उत्सुक
हो जाते हो कि
अनजाने में
तुम्हारी
पुतली बड़ी हो
जाती है। तुम
चाहते हो कि
पूरा-का-पूरा
हड़प जाओ। अब
लाख तुम कहते
रहो कि तुम
ब्रह्मचारी
हो, मगर आंख
बता देगी कि
तुम हो या
नहीं।
तुम्हारे
कहने से कुछ
भी न होगा। इस
छोटी-सी कसौटी
पर तुम्हारे
कितने साधु और
कितने
ब्रह्मचारी
उतर पायेंगे
और मजा ऐसा है
कि इस आंख पर
तुम्हारा कोई
बस नहीं है।
पुतली
तुम्हारे नियंत्रण
में नहीं है
कि तुम जब
चाहो बड़ा कर लो
जब चाहो छोटा
कर लो। इसलिये
धोखा नहीं दे
सकते। जबान
तुम्हारे
नियंत्रण में
है, तुम कह
सकते हो मैं
ब्रह्मचारी
हूं लेकिन पुतली
पर तुम्हारा
कोई बस नहीं
है। पुतली
तुम्हारी
इच्छा की सीमा
के बाहर है।
तुम जब चाहो
तब छोटी जब
चाहो बड़ी, ऐसा
नहीं कर सकते।
वह तो
तुम्हारे
भावावेग से चलती
है। और
भावावेग उठा
कि तत्क्षण
पुतली बड़ी हो
जायेगी।
इसलिये
तो तुम
स्त्रियों को
घूर-घूरकर
देखते हो।
हमारा शब्द
"लुच्चा' बहुत
अच्छा है।
"लुच्चा' का
मतलब होता है
घूर-घूरकर
देखने वाला।
लुच्चा शब्द बनता
है लोचन से, आंख से।
आलोचक शब्द भी
उसी से बनता
है। वह भी घूर-घूरकर
देखता है, इसलिये
उसको आलोचक
कहते हैं।
लुच्चा भी
घूर-घूरकर
देखता है
इसलिये उसको
लुच्चा कहते
हैं। लेकिन
घूर-घूरकर
देखने...तुम
चाहो तो बचा
भी सकते हो, तुम अपनी
गर्दन मोड़ लो,
सुंदर
स्त्री पास से
जा रही है, तुम
गर्दन मोड़ लो,
मगर गर्दन
मोड़ने से कुछ
न होगा, पुतली
तो कह जायेगी,
पुतली तो
बता जायेगी।
पुतली तो खबर
दे देगी।
बेईमान
आदमी
आंख-से-आंख
नहीं मिलाता, इधर-उधर
देखता है, नीचे-ऊपर
देखता है, कहीं-कहीं
देखता है। बात
करता है कहीं,
देखता कहीं
है। और जो बड़े
बेईमान हैं, राजनीतिज्ञ
हैं, कूटनीतिज्ञ
हैं, वे
काला चश्मा
चढ़ा लेते हैं
कि झंझट ही न
रही। वे तो
तुम्हारी आंख
देखते रहेंगे
और तुम्हें उनकी
आंख देखने का
उपाय न रहा, तो पता न चल
सकेगा कि उनकी
असलियत क्या
है। वे जो
कहेंगे उसी पर
भरोसा करना
होगा।
सहज-योग
का अर्थ होता
है: मत करो
जटिल। मत बनो
झूठ। क्योंकि
तुम जितने झूठ
हो जाओगे उतने
ही दुखी हो
जाओगे। झूठ
दुख लाता है, क्योंकि झूठ
के कारण
तुम्हारा
संबंध सत्य से
छूटने लगता है,
टूटने लगता
है। यह
अस्तित्व
सत्य है। इसके
साथ सत्य हो
जाओ तो
तुम्हारा
संगीत जुड़
जाये, तो
तुम्हारी
सरगम बैठ
जाये। तुम
इसके साथ सत्य
हो जाओ तो ही
तुम्हारा छंद
बैठेगा और
तुम्हारे
जीवन में
नृत्य होगा, उत्सव होगा।
इसके साथ तुम
सत्य हो जाओ
तो इसके साथ
लीन हो जाओगे।
और उसी लीनता
में समाधि है।
और अगर तुम
झूठ रहे तो
तुम अलग-थलग
रहोगे।
अस्तित्व
का झूठ से कोई
मिलन नहीं हो
सकता, क्योंकि
झूठ है ही
नहीं। जो है
ही नहीं, उससे
उसका कैसे
मिलन हो जो है?
दोनों में
कोई तालमेल
नहीं हो सकता।
है का मिलन है
से होगा। नहीं
है का मिलन
नहीं है से
होगा। इसलिये
जो आदमी एक
झूठ बोलता है,
उसे फिर
हजार झूठ
बोलने पड़ते हैं।
अब एक झूठ को
बचाने के लिए
दूसरा झूठ बोलो,
क्योंकि
झूठ से सिर्फ
झूठ ही बच
सकता है। झूठ ही
झूठ की
सुरक्षा कर
सकता है। फिर
दूसरे झूठ के
लिए और दस झूठ
बोलो और बोलते
चले जाओ। कभी
तुमने खयाल
किया, एक
झूठ बोलकर तुम
कितनी
मुश्किल में
पड़ गये हो! फिर
चौबीस घंटे
खयाल रखना
पड़ता है कि वह
एक झूठ बोले
हैं उसको बचाये
रखना है, कहीं
भूल-चूक से
निकल न जाये।
और निकल ही
जायेगा।
कितना बचाओगे?
कब तक
बचाओगे? दिन
में न निकलेगा
तो रात निकल
जायेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात नींद में
एकदम बोलने
लगा: कमला!
कमला! पत्नी
एकदम चौंककर
बैठ गई।
पत्नियां तो
दिन और रात
होश में रहती
हैं। उसने
सुना, कमला!
संदेह तो उसे
हो ही रहा था।
संदेह तो पत्नियों
को रहता ही है;
उसके होने
की कोई जरूरत
ही नहीं
होती।...तो अब इस
चुड़ैल का नाम
भी पता चल
गया--कमला! उसी
वक्त हिलाकर
मुल्ला को
उठाया, बोली:
यह कमला कौन
है? मुल्ला
भी सजग हो
गया। पति भी
सजग रहते हैं।
जैसे
स्त्रियां
संदेह से भरी
रहती हैं, ऐसे
पति सजग रहते
हैं। और जिसकी
स्त्री जितने ज्यादा
संदेह से भरी
रहती है, वह
पति उतना ही
ज्यादा सजग
रहता है, नींद
तक में होश
रखता है। समझ
गया कि भूल हो
गई।
उसने
कहा कि यह कमला
कोई नहीं है, घुड़-दौड़
होने वाली है,
उसमें एक
घोड़ी का नाम
है।
खैर
किसी तरह बात
रफा-दफा हो गई, दोनों सो
गये। लेकिन
इतनी आसानी से
कोई पत्नी राजी
तो होती नहीं
कि इतने जल्दी
भरोसा कर ले।
दूसरे दिन
मुल्ला जब
दफ्तर से
वापिस लौटा तो
उसने कहा कि
उस घोड़ी का
फोन आया था, मुल्ला को
पसीना छूट गया,
पकड़े गये!
फोन वगैरह आया
नहीं था।
लेकिन इतना कहने
में ही पकड़े
गये।
झूठ
बोलोगे, ज्यादा
देर नहीं चल
पायेगा। चल ही
नहीं सकता। झूठ
के पैर नहीं
होते । झूठ को
चलना भी पड़ता
है तो सच के
पैर उधार लेने
पड़ते हैं। और
सच के पैर और
झूठ की देह, इन दोनों के
कारण
तुम्हारे
जीवन में एक
द्वंद्व पैदा
हो जाता है।
और एक झूठ
नहीं हजार झूठ
हैं, इसलिये
हजार द्वंद्व
पैदा हो जाते
हैं। इन्हीं
द्वंद्वों
में ग्रस्त
व्यक्ति नर्क
में जीता है।
सहज-योग
का अर्थ होता
है: छोड़ो ये
द्वंद्व, छोड़ो
ये जाल। तुम
जैसे हो वैसे
अपने को
स्वीकार कर
लो। मत दिखाओ
वैसा, जैसे
कि तुम नहीं
हो। जाने दो
सब पाखंड। अगर
कोई व्यक्ति
अपनी संपूर्ण
नग्नता में
अपने को स्वीकार
कर ले तो क्या
हो? क्रांति
घट जाती है।
उस स्वीकार के
साथ ही झेन की
प्रक्रिया घट
जाती है।
झेन
कहता है: अतीत
की मत सोचो, लेकिन जो
आदमी नग्न रूप
से अपने
स्वभाव को स्वीकार
करता है वह
अतीत की
सोचेगा ही
नहीं। अतीत का
लेना-देना
क्या है? जो
गया सो गया।
जो गया सो झूठ
हो गया। और
जिस आदमी को
अपनी सहजता
स्वीकार है और
जिसे अपनी सहजता
से कोई विरोध
नहीं है, वह
भविष्य की
योजनायें
नहीं बनाता कि
कल ऐसा हो
जाऊं, परसों
वैसा हो जाऊं।
वह तो जैसा है
वैसा ही आनंदित
होता है। उसका
भविष्य भी खो
जाता है।
सहज-योग
का अर्थ होता
है: तुम जैसे
हो, तुम्हें
अंगीकार है।
परमात्मा ने
तुम्हें जैसा
बनाया है
इसमें तुम
रत्ती-भर
हेर-फेर नहीं
करना चाहते
हो। तुम परमात्मा
से अपने को
ज्यादा
बुद्धिमान
सिद्ध नहीं
करना चाहते
हो। परमात्मा
ने तुम्हें जैसा
बनाया है उसने
तुम्हें जैसा
रंगा, वही
तुम्हारा रंग
है, वही
तुम्हारा ढंग
है; तुम
उससे अन्यथा
होने की न
आकांक्षा
करते हो न
सपना देखते
हो।
सहज-योग
परमात्मा के
प्रति
अनुग्रह का
बोध है, कि
तूने जैसा
मुझे बनाया
ठीक ही बनाया
होगा और यहीं
से तुम्हें
दूसरी बात भी
समझ में आ
जायेगी। पूछा
है: क्या
सहज-योग
समर्पण का ही
दूसरा नाम
नहीं है? निश्चय
ही नरेन्द्र,
सहज-योग
समर्पण का ही
दूसरा नाम है।
जिस आदमी ने
अपनी सहजता को
अंगीकार किया,
उसने अपने
को परमात्मा
को समर्पित कर
दिया। समर्पित
करेगा तो ही
सहज हो सकेगा।
असहज होना
पड़ता है, क्योंकि
हम अपने ही
पैरों पर खड़े
होने की कोशिश
कर रहे हैं।
जब वही हमें
लिये जा रहा
है, जहां
उसकी मर्जी, जैसी उसकी
मर्जी तो फिर
क्या चिंता
रही, क्या
बोझ रहा? फिर
रख दिया उतार
कर बोझ। फिर
बह चले धार
में। जब अपनी कोई
इच्छा नहीं रह
जाती तो
प्रार्थना
होती है।
नहीं
अपने किसी
मकसद से खाली
कोई भी सजदा।
खुदा
के नाम से
करता है
इन्सां
बन्दगी
अपनी।।
तुम्हारी
तो सब
प्रार्थनायें
झूठी हैं। नाम
तो तुम ईश्वर
का लेते हो
लेकिन बंदगी
तुम अपनी ही
करते हो
क्योंकि मांग
तो तुम अपनी
ही सामने रखते
हो। तुम्हारी
मांग
महत्वपूर्ण है।
परमात्मा का
तुम उपयोग
करना चाहते हो, शोषण करना
चाहते हो, मंदिर
में, मस्जिद
में, गुरुद्वारे
में, जाकर
तुमने जो
प्रार्थना की
है, अगर उस
प्रार्थना
में तुमने कुछ
भी मांगा है, कुछ
भी--मोक्ष
मांगा, धन
मांगा, पद
मांगा, कुछ
भी मांगा--तो
तुमने
परमात्मा को
नंबर दो कर
दिया।
तुम्हारी
मांग
परमात्मा से
बड़ी हो गई।
तुम परमात्मा
का शोषण करने
गये हो।
तुम्हारी
प्रार्थना
प्रार्थना
नहीं है, चालबाजी
है, बेईमानी
है, कूटनीति
हैं। नहीं
अपने किसी
मकसद से खाली
कोई भी सजदा!
और अगर लोगों
की प्रार्थनायें
देखो, उनके
सजदे देखो तो
तुम पाओगे सब
स्वार्थ से भरे
हैं। खुदा के
नाम से करता
है इन्सां
बन्दगी अपनी।
ईश्वर का नाम
लेता है, चरण
परमात्मा के
छूता है, लेकिन
अगर गौर से
देखो तो अपने
ही चरण छू रहा
है। सिर परमात्मा
को झुकाता है,
लेकिन मतलब
है तो सिर
अपने को ही
झुका रहा है। सच
तो यह है, परमात्मा
का सिर अपने
चरणों में
झुकाना चाहता
है। कहता है:
मैं जैसा कहूं
वैसा करो।
मेरी मर्जी से
भिन्न न हो।
मेरी मर्जी
तुझसे ऊपर, तो यह
परमात्मा का
सिर अपने
चरणों में
झुका लेना
हुआ। और इसको
तुम
प्रार्थना
कहते हो? इसको
तुम सजदा कहते
हो? इसको
तुम नमाज कहते
हो?
बशर
के दिल में न
पड़ता जो आरजू
का दाग।
खुदा
गवाह कि अनमोल
यह नगीं
होता।।
बस
एक ही कमी है
आदमी के हीरे
होने में, नहीं तो एक
नगीना
होता--एक
बहुमूल्य
नगीना होता!
जरा-सी चूक पड़ गई
है, दाग पड़
गया है।
देखते
हो, हीरे में
जरा-सा दाग हो,
कीमत गिर
जाती है।
छोटा-सा हीरा
भी बेदाग हो तो
बड़े हीरे से
कीमती होता है,
जो दाग वाला
है। दाग क्या
पड़ गया आदमी
में, कि
हीरा न रहा।
बशर के दिल
में न पड़ता जो
आरजू का
दाग!...आदमी के
दिल में अगर
आकांक्षा का,
इच्छा का, वासना का
दाग न
पड़ता।...खुदा
गवाह कि अनमोल
यह नगीं होता।
फिर बस
तुम्हारे
मूल्य की कोई
सीमा नहीं
आंकी जा सकती।
सहज-योग
का अर्थ है:
नहीं कुछ
मांगेंगे, चुपचाप
जीयेंगे। जो
मिलेगा उसमें
तृप्त, संतुष्ट।
जो नहीं
मिलेगा, जानेंगे
कि उसके न
मिलने में ही
हमारा हित
होगा। ऐसा है
सहज-योग का
भाव-जगत! मिलेगा
तो मानेंगे, परमात्मा की
इच्छा है तो
जरूर हमारा
हित होगा; नहीं
मिलेगा तो भी
मानेंगे
परमात्मा की
इच्छा है तो न
मिलने में ही
हमारा हित
होगा। फूल मिलेगा
तो स्वीकार, कांटा
मिलेगा तो
स्वीकार।
स्वीकृति में
भेद न पड़ेगा।
सफलता हो कि
असफलता, सम्मान
हो कि अपमान, लेकिन भीतर
की प्रार्थना
और भीतर का
अनुग्रह भाव
सतत एक-सा
बहता रहेगा।
इस प्रवाह का
नाम है
सहज-योग।
क्या-क्या
दुआएं मांगते
हैं सब मगर
असर।
अपनी
यही दुआ है, कोई मुद्दआ
न हो।।
एक
ही प्रार्थना
करने जैसी है
कि हे प्रभु, ऐसी
प्रार्थना
करनी आ जाये
जिसमें कोई
आकांक्षा न
हो।
क्या-क्या
दुआएं मांगते
हैं सब मगर
असर।
अपनी
यही दुआ है, कोई मुद्दआ
न हो।।
बस
ऐसी दुआ करनी
आ जाये, ऐसी
प्रार्थना
करनी आ जाये
जिसमें कोई
अभीप्सा नहीं
है, आकांक्षा
नहीं है।
सहज-योग
समर्पण
है--समग्र
समर्पण।
जीवन
के मेरे प्रिय,
अंधकार
हर लो!
नेत्रों
के सम्मुख जो
अंतहीन
फैला है,
कुहरे-सा
तिमिर-वर्ण
अंबर
मटमैला है!
हे
असीम, बाहों
से
मुझको
तुम भर लो!
आओ
तुम किरणों के
रथ
पर चढ़ उज्जवल;
दिशि-दिशि
में छलका दो
अरुणा
प्रभा कोमल!
विहगों
के कंठ मधुर
मेरे
तुम स्वर लो!
जीवन
के मेरे प्रिय,
अंधकार
हर लो!
सहज
भाव से
परमात्मा को
पुकारना।
बिना किसी क्षुद्र
आकांक्षा से
भरे, चुपचाप
जीवन में बहे
जाना। तैरना
नहीं, संघर्ष
नहीं करना, नदी जहां ले
जाये उसी तरफ
चले चलना, क्योंकि
सभी नदियां
अंततः सागर
पहुंच जाती हैं।
अगर कोई
चुपचाप बहता
चले तो
परमात्मा
मिलना
सुनिश्चित
है। परमात्मा
मिला ही हुआ
है, तुम
बहो कि अभी
अनुभव में आ
जाये। तुम जरा
विश्राम करो,
मगर तुम बड़े
जद्दो-जहद में
लगे हो। तुम
बड़ी दौड़-धूप
कर रहे हो, आपाधापी
में पड़े हो।
तुम्हारी
आपाधापी और दौड़-धूप
के कारण जो
तुम्हारे
भीतर बैठा है
वह दिखाई भी
नहीं पड़ता।
तुम इतने उलझे
हो, इतने
व्यस्त हो कि
उसे देखो ही
कैसे जो मौजूद
ही है!
परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है।
इसलिये परमात्मा
को पाना नहीं
है। पाने की
दौड़ छोड़कर जरा
बैठो और
परमात्मा का
अनुभव शुरू हो
जाता है।
उड़
चल अब दूर
कहीं, हंसावर
प्राणों के!
अगम
गगन दूर नहीं, हंसावर
प्राणों के।
मिट्टी
ने गोद
खिला-खिला
तुझे बड़ा किया,
दिया
दिशा-ज्ञान और
पांवों पर खड़ा
किया,
शाश्वत
मत नीड़ बना, यायावर
प्राणों के!
धरती
का सदय हृदय
अंतरिक्ष-वासी
है,
जिसका
तू अंश, धरा
उसकी ही दासी
है!
मिट्टी
की माया तज, मायावर प्राणों
के!
सम्मुख
गन्तव्य-धाम, गति से तू
मुंह न मोड़!
उड़ता
चल अम्बर में, धरती पर
छांह छोड़!
छाया
की बांह न गह, छायाधर
प्राणों के!
हम
शाश्वत नीड़
बनाने में लग
जाते हैं, वहीं भूल हो
जाती है। जीवन
प्रवाह है।
शाश्वत मत नीड़
बना, यायावर
प्राणों के!
जीवन एक
सरित-प्रवाह
है और हम
जगह-जगह पकड़
लेते हैं, जोर
से पकड़ लेते
हैं, आसक्त
हो जाते हैं।
नीड़ बनाने में
लग जाते हैं--शाश्वत
नीड़! जैसे
यहां सदा रहना
है!
सहज-योग
कहता है: यहां
कुछ भी सदा
रहने को नहीं; सभी बहा जा
रहा है, प्रवाहमान
है। सब
क्षण-भंगुर
है। पकड़ो मत, जीयो। और जो
चला जाये उसे
जाने दो, ताकि
जो नया आ रहा
है उसके लिये
तुम्हारा
हृदय खाली हो,
खुला हो।
बीते कलों का
हिसाब मत रखो
और आनेवाले
कलों की चिंता
मत करो। आज जो
आया है, इसे
नाचो, इसे
गाओ, इसे
गुनगुनाओ। और
इसी गीत में
प्रार्थना
पूरी हो जाती
है। इसी गीत
में समर्पण पूरा
हो जाता है।
इसी गीत में
सिद्धों का
सहज-योग सध
गया, झेन
फकीरों का
क्षण-बोध सध
गया। ये एक ही
घटना के दो
पहलू हैं।
दूसरा
प्रश्न:
उस
दिन भारत के
प्रसंग में
आपने कहा कि
इस देश की
बुनियादी
समस्या उसके
अंधविश्वास
हैं और यह कि
यह देश समय से
डेढ़ हजार वर्ष
पीछे है। क्या
बताने की कृपा
करेंगे कि
विश्वास और
अंधविश्वास
की परख क्या
है, और क्या
आज के विश्वास
कल
अंधविश्वास
नहीं हो जायेंगे?
क्या यह भी
बताने की
अनुकंपा
करेंगे कि कोई
व्यक्ति या
जनसमूह
समसामयिक
होने के लिए, आधुनिक रहने
के लिए क्या
करे?
आनंद
मैत्रेय, जैसे
प्रत्येक
व्यक्ति
जन्मता है और
मरता है, उसी
तरह प्रत्येक
विश्वास एक
दिन
अंधविश्वास
बन जाता है।
अंधविश्वास
विश्वास की
लाश है, जिसमें
से प्राणों का
हंसा उड़ गया।
तुमने
अपनी मां को
कितना प्रेम
किया था, फिर
एक दिन मां चल
बसी, अब
उसकी लाश थोड़े
ही रखे बैठे
रहोगे। लाश
रखोगे तो जीना
मुश्किल हो
जायेगा। सारा
घर बदबू से भर
जायेगा। और
ऐसी लाशें
इकट्ठी करते
गये, एक
दिन पिता चल
बसेंगे, ऐसी
लाशें इकट्ठी
करते गये तो
घर में जीना
असंभव हो
जायेगा।
मुर्दे इतने
हो जायेंगे कि
जिंदा रहेंगे
कहां, जिंदा
रहेंगे कैसे?
इसलिए मां
बड़ी प्यारी थी,
लेकिन जब चल
बसी तो तुम
फिर देर नहीं
करते अर्थी
बांधने में।
और तुम अगर
देर करो भी तो
मोहल्ले वाले
जल्दी से
बांधने लगते
हैं। आखिर उनको
भी तो जीना
है। तुम
रोने-धोने में
लगे हो, मोहल्ले
के लोग जल्दी
से बांस, लकड़ी
इकट्ठा करने
लगते हैं; क्योंकि
उनके घर जब
कोई मरता है, तब तुम बांस
लकड़ी इकट्ठा
कर देते हो, यह
पारस्परिक
लेन-देन है।
देर नहीं लगती,
कोई मरा कि
लाश उठी।
पल-पल घर में
लाश रखना कठिन
हो जाता है।
और
ऐसा नहीं कि
तुम्हें मां
से प्रेम न था; खूब था
प्रेम, छाती
पीटकर रो रहे
हो, मगर
फिर भी रोते
रहोगे और ले
चले हंडिया
लटका कर। रोते
रहोगे और चढ़ा
दोगे जाकर
अर्थी पर।
रोते रहोगे और
आग लगा दोगे। यह
करना ही होगा।
ऐसी
ही अवस्था
विश्वास और
अंधविश्वास
की है। विश्वास--जीवंत
जब होता है
सत्य। और जब
सत्य के भीतर
से प्राण तो
उड़ जाते हैं, सिर्फ
क्रिया-कांड
रह जाता है, मगर तुम उसी
क्रिया-कांड
को ढोते रहते
हो--तब अंधविश्वास।
आंखवाला
विश्वास तो
जीवंत होता है,
अंधा
विश्वास
मुर्दा होता
है। जैसे किसी
ने बुद्ध को
देखा, उस
अपूर्व
ज्योति को, और कोई झुक
गया चरणों
में! यह
विश्वास।
झुकने की न तो
योजना बनाई थी,
न झुकने का
कोई इरादा लेकर
आये थे, लेकिन
झुक गये, झुक
जाना पड़ा।
ज्योति ऐसी थी,
प्रभा ऐसी
थी! रुक न सके।
पता ही न चला
कब झुक गये।
यह तो एक
जीवंत घटना
है। और इसमें
रस है और इसमें
गहरे
अभिप्राय
हैं। इसमें
भाव की धड़कन है।
इसमें सांस चल
रही है। जब
कोई बुद्ध को
देखकर, उन
आंखों में
झांककर, उन
चरणों की
महिमा में सिर
रख दिया
है--अपने अनुभव
से, अपनी
प्रतीति से, अपने
साक्षात
से--तब बात और
है। फिर यह
आदमी तो जा
चुका, बुद्ध
भी जा चुके, लेकिन इसके
बच्चे बुद्ध
की प्रतिमा के
सामने झुकते
हैं, क्योंकि
बाप झुका था
बुद्ध के
सामने, फिर
बच्चों के
बच्चे भी
झुकते रहेंगे,
झुकते
रहेंगे।
हजारों वर्ष
बीत जाते हैं।
अब बुद्ध की
प्रतिमा रखी
है और लोग सिर
झुका रहे हैं।
भीतर झुकने का
कोई भाव नहीं
है। हो भी क्या,
पत्थर के
सामने कोई
झुकने का भाव
होता है? न
पत्थर में कोई
महिमा है, न
पत्थर में कोई
प्राण है। वह
तो बुद्ध की
महिमा थी, वह
तो बुद्ध का
अवतरण था, जिसके
सामने
तुम्हारा कोई
पुरखा झुका
था। मगर तुम
क्यों झुक रहे
हो? तुम
कहते हो कि
हमारे-बाप
दादे झुकते
रहे, हम भी
झुकेंगे। तो
झुकते रहो।
मगर तुम्हारा
झुकना
अंधविश्वास
है।
अब
समझने की बात
यह है कि हर
अंधविश्वास
की शुरुआत में
विश्वास होता
है। नहीं तो
पैदा ही कैसे
होगा? कोई
नानक की मस्ती
से मस्त हो
गया। सुना
नानक का गीत, डोल गया, नाच
गया मन, बहार
छा गई, बसंत
आ गया--उस बसंत
में झुक जाना
ही पड़ा। नानक जैसा
फूल खिले और
कोई झुके न, अभागा है, अंधा है; पत्थर
है उसके भीतर,
हृदय नहीं;
निष्प्राण
है। नानक जैसा
फूल खिले और
तुम्हारी
नासापुटों
में श्वास
सुगंध से न भर
जाये, यह
संभव कैसे है?
यह संभव तभी
हो सकता है जब
तुम्हारे पास
कोई संवेदनशीलता
ही न हो। अगर
थोड़ी भी
संवेदनशीलता
है, थोड़ा
भी मनुष्य
तुम्हारे
भीतर जाग्रत
है, जीवित
है, तो झुकोगे
ही। लेकिन फिर
सदियां बीत
गईं, अब
नानक नहीं हैं,
नानक की
मूर्ति भी
नहीं है, लेकिन
कोई
गुरुग्रंथ के
सामने झुक रहा
है।
मैं
एक पंजाबी घर
में मेहमान
था। सुबह-सुबह
उठकर स्नान
करने जा रहा
था तो बीच के
कमरे से जिससे
मुझे गुजरना
पड़ा, वहां
देखकर मैं
हैरान हुआ:
गुरुग्रंथ के
लिये
उन्होंने बड़ा
एक सिंहासन बनाया
हुआ था। नानक
को हृदय के
सिंहासन पर
बैठाया था, वह तो समझ
में आता है, मगर अब
किताब को
सिंहासन पर
बिठा दिया है।
वहां तक भी
बात ठीक थी कि
चलो तुम्हारा
आदर है; चौंका
मैं इसलिए कि
उसी सिंहासन
के पास एक लोटे
में जल भरा
रखा है--चांदी
का लोटा--और
दतौन भी रखी
है। मैंने
पूछा कि यह
क्या है, यह
किसलिए रखी है?
तो
उन्होंने कहा:
गुरुग्रंथ
साहब के लिए
दतौन। अब हद
हो गई। तुमने
नानक के लिए
जाकर लोटे में
दतौन का पानी
ले गये होते, चांदी का
सोने का लोटा
ले गये होते, समझ में आती
बात; अब
किताब के लिये
दतौन रख रहे
हो! तुम होश
में हो कि तुम
पागल हो गये
हो? मगर
इसी तरह होता
है।
मैंने
सुना, एक
आदमी मरा।
उसकी आदत थी
कि भोजन के
बाद रोज उठकर
अपने दांत साफ
करता था एक
लकड़ी के टुकड़े
से। उसके
बच्चे
छोटे-छोटे थे।
बाप मर गया, मां पहले ही
मर गई थी, बच्चों
को कुछ और
ज्यादा याद न
था, लेकिन
एक बात बराबर
उन्हें याद थी
कि आले में चौके
के बाहर ही एक
लकड़ी का टुकड़ा
रखा रहता था और
पिता रोज भोजन
के बाद उस
टुकड़े के साथ
कुछ करता था; क्या करता
था पता नहीं, लेकिन जरूर
कोई बात राज
की रही होगी।
तो उन्होंने
लकड़ी का टुकड़ा
रखा। अब जब
बाप की याद
में रखना है
तो साधारण
लकड़ी का टुकड़ा
क्या रखना, उन्होंने
चंदन की लकड़ी
का टुकड़ा रखा।
और जब रख ही
रहे हैं तो
छोटा-मोटा
क्या रखना, उन्होंने
चंदन की बड़ी
लकड़ी का एक
टुकड़ा रखा, सब नक्काशी
करवाकर। अब
उसका कोई भी
संबंध न रहा
दांत के साफ
करने से। उससे
दांत साफ हो
भी नहीं सकते।
दांत से कुछ
लेना-देना भी
न रहा। फिर
बच्चे बड़े हुए,
उन्होंने
नया मकान
बनवाया। धन
कमाया। अब नये
मकान में
उन्होंने
सोचा कि आले
में रखा है, यह याददाश्त
है अपने
पुरखों की, तो क्यों न
एक छोटा-सा
मंदिर बना
लें। बात जंची
सभी को और अब
धन भी पास में
था, तो
उन्होंने एक
संगमरमर का
छोटा-सा मंदिर
ही बना लिया।
उन्होंने कहा,
अब आले में
क्या रखना।
बाप-दादे गरीब
थे, तो
ठीक...। अब
मंदिर बन गया
संगमरमर का
बड़ा मंदिर, अब उसमें एक
छोटे-से लकड़ी
के टुकड़े को
क्या रखना, तो उन्होंने
एक बड़ा खंभा, पूरा झाड़ का
झाड़ ले आये
होंगे, कटवाकर
चंदन का, उस
पर खूब
नक्काशी करवा
कर उसको लगा
दिया है। मैंने
सुना है कि अब
उसकी पूजा
चलती है, घंटा
बजता है और
पुजारी आता है,
फूल चढ़ाये
जाते हैं। अब
किसी को याद
ही नहीं है कि
कहां से
शुरुआत हो गई
थी बात की।
जो
भी इस जगत में
तुम्हें
अंधविश्वास
दिखाई पड़ रहे
हैं, उनका
प्रारंभ तो
जरूर कभी
विश्वास से ही
हुआ था।
कहीं-न-कहीं
चाहे कितनी ही
बात खो गई हो, चाहे आज
खोजना भी संभव
न रह जाये, चाहे
आज हमारे पास
उपाय भी न रह
गये हों कि हम
पर्त-दर-पर्त
इतिहास में
उतरकर उनकी
खोज कर सकें, लेकिन
कहीं-न-कहीं
प्रारंभ में
कोई-न-कोई
छोटी न मोटी
बात रही होगी।
जिसमें कुछ
सत्य था और जिसको
किसी ने
साक्षात्कार
किया था।
लेकिन फिर
पीछे सभी
चीजें
अंधविश्वास
हो जाती हैं।
विश्वास
का अर्थ होता
है: जो
तुम्हारे
अनुभव से घटित
हो।
अब
मेरे पास लोग
आते हैं। कोई मां
ने संन्यास ले
लिया, वह
अपने बेटे को
ले आती है कि
इसको भी
संन्यास दें।
बेटा भाग रहा
है, वह
उसको पकड़ रही
है कि इसको
संन्यास दें।
बेटा बैठ नहीं
रहा है, बेटा
उठ-उठ जा रहा
है, वह
उसको
जबरदस्ती
बैठा रही है
कि इसको
संन्यास दें।
उसकी गर्दन
पकड़कर उसका
सिर मेरे चरणों
में लगा रही
है। वह इनकार
किये जा रहा है,
वह सिर अलग
कर रहा है। अब
यह कोई
संन्यास होगा?
अब इसको मैं
मना करूं तो
दुखी होती है।
इसको मैं कहूं
कि नहीं, तो
दुखी होती है।
और मैं जानता
हूं उसकी भी
अड़चन, क्योंकि
वह कहती है यह
घर में बेटा
माला मांगता
है। यह कहता
है हम भी
गेरुआ वस्त्र
पहनेंगे, हम
भी माला
पहनेंगे तो
मेरी झंझट खड़ी
कर रखी है।
मगर इस मां ने
तो होशपूर्वक,
बोधपूर्वक
संन्यास लिया
है, इस
बेटे पर
जबरदस्ती
थोपा जा रहा
है। यह यहीं के
यहीं विश्वास
और
अंधविश्वास
दोनों हुए जा रहे
हैं। यह कल
मां विदा हो
जायेगी और यह
बेटा
संन्यासी रह
जायेगा। यह
संन्यासी
बिलकुल थोथा
होगा, इसका
कोई मूल्य
नहीं होगा, कोई अर्थ
नहीं होगा।
मगर इसको
जिद्द रहेगी,
अकड़ रहेगी
कि हमारी मां
संन्यासी थी,
अब मां से
कोई गद्दारी
थोड़े ही
करेंगे। तो
पहनेंगे कपड़ा
और अगर ज्यादा
ही दिल हो
जायेगा दूसरे
कपड़े पहनने का
तो ऊपर-ऊपर
गेरुआ पहन
लेंगे, भीतर-भीतर
जो अपनी मौज
के हैं वे पहन
लेंगे। भीतर
मखमली और
रेशमी कपड़े
पहन लेंगे और
ऊपर गेरुआ
डाले रखेंगे।
या दिन में
गेरुआ पहन
लिया करेंगे,
जब लोग
देखें-दाखें
और रात अपने
घर में मौज से जो
अपने को पहनना
है वह पहनेंगे।
अब यह माला
झूठी हो
जायेगी। अब इस
माला में से
लकड़ी के दाने
विदा हो
जायेंगे, सोने-चांदी
के दाने आ
जायेंगे। अब
यह माला नये-नये
अर्थ लेने
लगेगी। यह एक
आभूषण हो
जायेगी।
तुमने
पूछा है: उस
दिन भारत के
प्रसंग में
आपने कहा "कि
इस देश की
बुनियादी
समस्या उसके
अंधविश्वास
हैं। इस देश
की ही नहीं
सारी दुनिया
की बुनियादी
समस्या
अंधविश्वास
हैं। इस देश
की थोड़ी
ज्यादा।
ज्यादा क्यों? क्योंकि इस
देश में ऐसे
बहुत पुरुष
हुए जिनके आसपास
विश्वास जगा।
इसलिये इस देश
के पास अंधविश्वास
भी ज्यादा
हैं। बुद्ध
यहां हुए, महावीर
यहां हुए, कृष्ण
यहां हुए, अपूर्व
पुरुष यहां
हुए--सरहपा और
गोरख और कबीर
और नानक और
दादू और रैदास
और फरीद...! एक
जागते हुए
दीयों की
परंपरा है। यह
देश तो एक
दीवाली मनाता
रहा है। यहां
दीयों पर दीये
जलते चले गये हैं।
जहां इतने
दीये जले वहां
स्वभावतः
बहुत-से बुझे
दीयों की पूजा
भी होगी; दीये
जब जलेंगे तो
एक दिन
बुझेंगे। और
इतनी हिम्मत
हम नहीं जुटा
पाते कि जब
दीया बुझ जाये
तो उसका
निर्वाण कर
दें, उसको
चले जायें और
सागर में बहा
दें और नमस्कार
कर लें। इतनी
हिम्मत हम
नहीं जुटा
पाते, कोई
भी नहीं जुटा
पाता। मोह लग
जाते हैं, आसक्तियां
बंध जाती हैं।
भय भी पकड़
जाते हैं।।
अब
यहां पूना में
ही एक सज्जन
हैं, पढ़े-लिखे
आदमी हैं, बड़े
ठेकेदार हैं,
धनपति हैं।
उनकी पत्नी
यहां मुझे
सुनने आती है।
वह सुनने नहीं
देना चाहते।
उनको डर है कि
कहीं पत्नी
संन्यासिनी न
हो जाये। तो
उनकी पत्नी ने
मुझे बताया कि
वे इतने आप पर
नाराज हैं कि
आपकी किताब नहीं
पढ़ने देते। तो
मुझे किताब भी
चोरी से पढ़नी पड़ती
है। अगर कभी
उनके हाथ में
किताब पकड़
जाये तो उसको
फेंक देते हैं
घर के बाहर।
और उनकी पत्नी
फिर हंसने लगी
और बोली कि
मजा यह है कि
जब मैं नहीं
देखती तो जाकर
किताब को उठाकर
उसको नमस्कार
करके फिर
वापिस रख देते
हैं। अब
घबड़ाहट भी
लगती होगी कि
फेंक तो दी, मगर कहीं
कोई पाप
इत्यादि न हो
जाये। तो जब
पत्नी नहीं
देखती, तब
उसको नमस्कार
कर लेते हैं।
आदमी
ऐसा अजीब है!
तो कोई मोह से
पकड़े हुए है, कोई भय से
पकड़े हुए है
कि अब छोड़ने
से कोई नुकसान
न हो जाये।
इतने दिन पकड़े
रहे हैं, अब
छोड़ने से कोई
हानि न हो
जाये तो कर ही
लो पूजा क्या
बिगड़ता है, पांच मिनट
रोज सुबह घंटी
बजाकर थोड़ा
पानी छिड़ककर
झंझट मिटा ली।
पांच ही मिनिट
गये, कोई
ज्यादा गया भी
नहीं, हो न
हो कभी भगवान
हो ही, बाद
में मरने के
मुलाकात हो, तो कहने को
तो रहेगा कि
देखो रोज पूजा
करता था! और
नहीं हुआ तो
क्या बिगड़ गया,
ऐसे ही समय
बीत रहा है, पांच मिनट
और गये।
इस
देश में चूंकि
विश्वास घट
सके, ऐसे बहुत
लोग पैदा हुए,
इसलिए
अंधविश्वास
भी खूब घटा।
हर सौभाग्य के
पीछे उसके
दुर्भाग्य की
छाया होती है।
अमीर आदमी ही
गरीब हो सकता
है। गरीब आदमी
गरीब नहीं हो
सकता। गरीब
आदमी को गरीबी
का पता ही
नहीं होता।
अमीर जब गरीब
होता है तब उसे
गरीबी का पता
चलता है। उसके
पास तुलना का
उपाय होता है।
जिन्होंने
सुख जाना है
उन्हें दुख का
पता चलता है।
जो दुख में ही
जीये हैं, उन्हें
दुख का पता
नहीं चलता।
यह
बात जानकर तुम
हैरान होओगे
कि दुनिया में
गरीबों ने कोई
क्रांति नहीं
की है। भला
कार्ल-माक्र्स
और उनके
अनुयायी कुछ
भी कहते रहें, दुनिया में
गरीबों ने कोई
क्रांति नहीं
की। गरीब कभी
क्रांति नहीं
करेंगे, गरीब
क्रांति कर ही
नहीं सकते, क्योंकि
गरीबों को सुख
का कोई आभास
ही नहीं होता,
आशा भी नहीं
होती। अमीर तो
क्रांति
करेंगे क्यों,
क्योंकि
उनके पास तो
सब है, क्रांति
से तो उनको
नुकसान होगा।
उनके पास तो सुख
के सब साधन
हैं। इसलिये
अमीर कभी
क्रांति नहीं
कर सकते, एक
बात तय हो गई।
गरीब कभी
क्रांति नहीं
कर सकते, क्योंकि
सुख का कोई
आभास नहीं।
फिर क्रांति कौन
करता है? क्रांति
करते हैं
मध्य-वर्गीय
लोग, दोनों
के बीच में जो
हैं; जिन्होंने
थोड़ा दुख भी
जाना है और
सुख की भी थोड़ी-सी
प्रतीति है।
मध्य
वर्ग
क्रांतिकारी
वर्ग है।
इसलिये सब उपद्रव
मध्य वर्ग से
पैदा होते हैं
खुद माक्र्स, एंजल्स, लेनिन,
स्टेलिन, सब
मध्य-वर्गीय
लोग हैं। इस
देश में भी, अन्य देशों
में भी, जो
भी क्रांति की
बातें उठती
हैं वे
मध्य-वर्गीयों
से उठती हैं।
इस देश में
तुम जानते हो
कि आजादी का
आंदोलन किनने
चलाया--वकीलों
ने चलाया। कांग्रेस
सिर्फ वकीलों
की संस्था थी
शुरुआत में।
वकीलों ने
क्यों चलाया?
वकीलों को
क्या आजादी से
लेना-देना? इस देश में
सब तरह के लोग
थे, किसी
को चिंता नहीं
थी, वकीलों
को क्यों थी? वकीलों को
थोड़ा रस आ गया
अंग्रेजों के
साथ रहने
का--पद का, प्रतिष्ठा
का, अदालतों
का। तुम जानकर
यह हैरान
होओगे कि जिन
लोगों ने इस
देश में
क्रांति की वे
सभी लोग
पश्चिम में शिक्षित
होकर आये
थे--मध्य
वर्गीय लोग
थे। पश्चिम
में देखकर आये
थे, स्वतंत्रता
का थोड़ा सुख
लेकर आये थे।
इस
देश में
क्रांति न
होती अगर
मैकाले न हुआ
होता। लोग
कहते हैं कि
मैकाले ने इस
देश को गुलाम
बनाया और मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि
मैकाले ही इस
देश की आजादी
का पिता है।
अगर
अंग्रेजों ने
कोशिश न की
होती शिक्षा
देने की इस
देश के लोगों
को, यहां कभी
क्रांति न
होती।
क्योंकि
क्रांति आई
शिक्षित
लोगों से, अशिक्षित
लोगों से नहीं,
पंडित-पुरोहितों
से नहीं, वेद
के, उपनिषदों
के ज्ञाताओं
से नहीं--जो
लोग पश्चिम से
शिक्षा लेकर
लौटे, जो
वहां का थोड़ा
रस लेकर लौटे।
सुभाष
ने लिखा है कि
जब मैं पहली
दफा यूरोप पहुंचा
और एक अंग्रेज
चमार ने मेरे
जूतों पर पालिश
किया तो मेरे
आनंद का
ठिकाना न रहा।
अब जिसने अपने
जूतों पर
अंग्रेज को
पालिश करते
देखा हो, वह
वापिस आकर इस
देश में
अंग्रेज के
जूतों पर पालिश
करे, यह
संभव नहीं। अब
मुश्किल खड़ी
हुई।
मैकाले
इस देश की
आजादी का पिता
है। उसी ने उपद्रव
खड़ा करवाया।
अगर मैकाले इस
देश के लोगों को
अंग्रेजी
शिक्षा न देता, पढ़ने देता
उन्हें
संस्कृत मजे
से और पाठशालाओं
में रटने देता
उनको गायत्री,
कोई हर्जा
होने वाला
नहीं था। वे
अपना जनेऊ लटकाये,
अपनी
घंटियां
बजाते हुए
शांति से अपने
भजन-कीर्तन
में लगे रहते।
उसने लोगों को
पश्चिम में जो
स्वतंत्रता
फली है उसका
स्वाद दिलवा
दिया। एक दफा
स्वाद मिल गया,
फिर अड़चन हो
गई।
अभी
तुम देखते हो, ईरान में
क्या हो रहा
है? ईरान
के सम्राट को
जो परेशानी
झेलनी पड़ रही
है वह उसके
खुद ही के
कारण। ईरान
अकेला
मुसलमान देश
है जहां
शिक्षा का ठीक
से व्यापक
विस्तार हुआ
है और ईरान के
शहंशाह ने
शिक्षा पर बड़ा
जोर दिया।
ईरान समृद्ध
है, शिक्षित
है--सारे
मुसलमान
देशों में! और
यही नुकसान की
बात हो गई। अब
वे ही शिक्षित
लोग और समृद्ध
लोग अब चुप
नहीं रहना
चाहते; अब
वे कहते हैं, हमें हक भी
दो, अब
हमें
प्रजातंत्र
चाहिए; अब
हम राज्य करें,
इसका भी
हमें मौका दो।
और कोई मुसलमान
देश में
उपद्रव नहीं
हो रहा है, क्योंकि
लोग इतने गरीब
हैं, इतने
अशिक्षित हैं,
मान ही नहीं
सकते, सोच
ही नहीं सकते
कि हमें और
राज्य की
सत्ता मिल
सकेगी, असंभव!
असंभव को कौन
चाहता है? जब
संभव दिखाई
पड़ने लगती है
कोई बात, जब
हाथ के करीब
दिखाई पड़ने
लगती है कि थोड़ी
मेहनत करूं तो
मिल सकती है, तब उपद्रव
शुरू होता है।
इस
देश में शूद्र
हजारों साल से
परेशान हैं, कोई बगावत
नहीं उठी। उठ
नहीं सकती थी।
अंबेदकर जैसे
व्यक्ति में
बगावत उठी, क्योंकि
शिक्षा का
मौका
अंग्रेजों से
मिला।
यह
जीवन का एक
तथ्य है समझने
जैसा कि न तो
गरीब बगावत
करते हैं न
अमीर बगावत
करते
हैं--बगावत
मध्य-वर्गीय
लोग करते हैं।
सारी
क्रांतियां
मध्य-वर्गीय
लोगों से पैदा
होती हैं।
विचार की, अर्थ की, समाज
की--सारी
क्रांतियां!
थोड़ा अनुभव
होना चाहिए।
इस देश को
विश्वास का
अनुभव है, बहुत
अनुभव है।
विश्वास की
छाया और
विश्वास की
शांति इस देश
ने जानी है।
इसको पता है
कि बुद्धत्व
जैसी घटना भी
घटती है। इसकी
प्रतीति इसको
है। इसलिये
अगर बुद्ध न
हों तो चलो
बुद्ध की
प्रतिमा ही
सही, मगर
किसी न किसी
चीज को यह पकड़
लेता है।
दूसरे
मुल्कों में
इतना
अंधविश्वास
नहीं है, क्योंकि
विश्वास के
इतने मौके ही
नहीं। अमरीका
में अंधविश्वास
नहीं है, क्योंकि
अमरीका ने न
तो कभी कोई
बुद्ध जाना न कोई
महावीर जाना न
कोई कृष्ण
जाना। अमरीका
इस अर्थ में
गैर-अंधविश्वासी
है। और असंभव
है तब तक
अंधविश्वास
पैदा होना, जब तक कि
विश्वास पैदा
न हो जाये।
सुख हो तो दुख
का बोध होता
है। धन हो तो
गरीबी का बोध
पैदा होता है।
विश्वास का
अनुभव हो तो
अविश्वास की छाया
निर्मित होती
है। फिर
अविश्वास से
डर पैदा हो तो
आदमी
अंधविश्वास
को पकड़कर किसी
तरह बैठा रहना
चाहता है।
समझो
कि तुम्हारे
घर में अंधेरा
है और तुमने दीये
की रोशनी देखी
है, अब तुम
अंधेरे से
राजी नहीं हो
सकते। और दीया
बुझ गया और
अंधेरे से तुम
राजी नहीं हो
सकते। तुम
जानते हो कि
रोशनी होती है,
रोशनी थी, रोशनी फिर
हो सकती है।
लेकिन अब
रोशनी नहीं है
और अंधेरा ही
अंधेरा है। अब
तुम एक ही काम
कर सकते हो, कम-से-कम तुम
उस दीये को तो
पकड़कर बैठे रह
सकते हो, जिसमें
रोशनी घटी थी।
इस आशा में कि
शायद फिर घटे।
तो दीये को ही
पकड़े रहो। तुम
दीये की ही पूजा
करने लगोगे
उसी याददाश्त
में--रोशनी की
याददाश्त
में। फिर
तुम्हारे
बच्चे भी दीये
की पूजा
करेंगे।
क्योंकि
बच्चों को यह
खयाल होता है
कि जो मां-बाप
करते हैं, वह
अगर हम न करें
तो गद्दारी हो
गई। तुम बच्चों
को सिखाते भी
यही हो कि हम
जो करते हैं
वही तुम भी
करना, नहीं
तो गद्दारी हो
जायेगी। फिर
दीये की पूजा शुरू
हो जाती है।
अब
यह बड़े मजे की
बात है कि
रोशनी से दीये
की पूजा शुरू
हुई, लेकिन अब
जबकि दीये की
पूजा शुरू हो
गई तो अब
रोशनी कभी
पैदा न हो सकेगी;
क्योंकि
दीये की पूजा
करके आदमी
निपट जाता है,
रोशनी की
तलाश ही नहीं
करता। सोचता
है, दीये
की पूजा काफी
है।
तो
विश्वास से
अंधविश्वास
पैदा होते
हैं। और एक
बार
अंधविश्वास
पैदा हो जायें
तो फिर विश्वास
पैदा होना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
इसलिये
मैं तुमसे
कहता हूं कि
अंधविश्वास
तोड़ो ताकि फिर
विश्वास की
धारा बह सके, फिर तुम
श्रद्धा के
वास्तविक
सत्व को खोज
सको।
"उस
दिन भारत के
प्रसंग में
आपने कहा कि
इस देश की
बुनियादी
समस्या उसके
अंधविश्वास
हैं और यह कि
यह देश समय से
डेढ़ हजार वर्ष
पीछे है। क्या
बताने की कृपा
करेंगे कि
विश्वास और
अंधविश्वास
की परख क्या
है?'
जीवंत
हो तो विश्वास, मृत हो तो
अंधविश्वास।
तुम्हारा
अपना हो तो विश्वास;
उधार हो, बासा हो, माता-पिता
का हो, पूर्वजों
का हो, पुरखों
का हो, तो
अधंविश्वास।
"और
क्या आज के
विश्वास कल
अंधविश्वास
नहीं हो
जायेंगे?'
निश्चित
हो जायेंगे।
मैत्रेय के
पूछने का प्रयोजन
यह है कि जब आज
के विश्वास कल
के अंधविश्वास
हो जायेंगे तो
हम विश्वास ही
क्यों पैदा करें? आज के बच्चे
कल बूढ़े नहीं
हो जायेंगे? तो बच्चे
पैदा करना बंद
कर दो। और जो
आज जन्मा है
कल मरेगा या
नहीं? तो
क्या जन्म की
प्रक्रिया को
नष्ट कर दें? और जो फूल
सुबह खिला है,
सांझ
कुम्हलायेगा
या नहीं? गिरेगा
या नहीं धूल
में फिर वापिस?
तो इस कारण
क्या सुबह
खिले फूल का
आनंद छोड़ दें?
जो सूरज उगा
है, सांझ
डूबेगा या
नहीं? और
जो देह अभी
स्वस्थ है, कल रुग्ण
होगी या नहीं?
इस कारण
क्या
स्वास्थ्य को
छोड़ दोगे? क्या
सुबह के सूरज
को विदा कर
दोगे? दीया
जला है, इसलिये
फूंककर बुझा
दोगे कि क्या
फायदा?
प्रश्न
पूछने का अर्थ
यह है कि अगर
सभी आज के विश्वास
कल
अंधविश्वास
हो जायेंगे तो
फिर सार ही
क्या? नहीं,
फिर भी सार
है। जब तक
विश्वास हैं
तब तक उनसे तुम्हें
रोशनी मिलेगी
और जो उस
रोशनी में चल
लेंगे, वे
पहुंच
जायेंगे। कल
जरूर वे
अंधविश्वास
हो जायेंगे, इसलिये यह
चेतावनी देते
जाना चाहिए
बार-बार कि जब
कोई विश्वास
अंधविश्वास
हो जाये तो
उसकी अर्थी
उठा लेना।
रोना-धोना, लेकिन हंडी
लेकर, और
चल पड़ना अर्थी
को: राम-राम
सत्य है! मरघट
पर जाकर
अंधविश्वास
को जला आना।
थोड़ी पीड़ा भी
होगी, लेकिन
अंधविश्वास
को सम्हालकर
मत रखना।
सदगुरु
के दो काम हैं:
एक तो तुम्हें
श्रद्धा दे, तुम्हारे
जीवन में
अनुभव का
मार्ग बताये;
और दूसरा, तुम्हें
सचेत करे कि
जब श्रद्धा मर
जाये और उसकी
जगह केवल अंधी
श्रद्धा रह
जाये तो उसे
विदा कर देना,
जाकर नदी
में डुबा आना,
कि मरघट पर
जला आना। अपने
बच्चों को
अंधी श्रद्धा
मत दे जाना।
इतना जरूर
उनको याद दिला
जाना कि
श्रद्धा जैसी
कोई चीज होती
है, हमने
जानी थी; बुद्ध
जैसे लोग होते
हैं, हमने
जाने थे--तुम
भी खोजना।
अपने बुद्ध की
प्रतिमा
उन्हें मत
पकड़ा जाना, लेकिन अपने
बुद्ध का
अनुभव जरूर
उन्हें सुना जाना।
उसकी कथा
उन्हें जरूर
बता जाना।
उसका गीत जरूर
उनके कान में
गुनगुना जाना,
ताकि उनके
भीतर गूंज
होती रहे; एक
न एक दिन कभी
वे भी तलाश पर
निकलें।
लेकिन अपना
गुरु उन्हें
मत पकड़ा जाना;
उसमें गलती
हो जाती है, वहीं गलती
हो जाती है।
तुम्हारा मोह
यह होता है कि
मेरा गुरु
मेरे बेटे का
भी गुरु होना
चाहिए। क्यों?
मैं
हूं, तुम्हारे
लिये जिंदा
हूं, तुम
मेरे लिये
जिंदा हो। इन
दोनों
जिंदगियों के
बीच में कुछ
घटेगा। जब मैं
कल जा चुका होऊंगा,
तुम्हारे
बच्चों और
मेरे बीच कैसे
कुछ घटेगा? हां, इतना
जरूर तुम अपने
बच्चों को बता
जाना कि इस तरह
की घटना घटती
है, खोजना;
हमें मिल
गया था, तुम्हें
भी मिल
जायेगा। कोई न
कोई मिल
जायेगा--कोई
जाग्रत पुरुष;
तुम उसके
चरणों में
झुकना। मगर
तुम मेरी
तस्वीर या
मेरी मूर्ति
अपने बच्चों
को मत पकड़ा
जाना। क्योंकि
मैं तुम्हारे
लिये मूर्ति
नहीं हूं, मैं
तुम्हारे
लिये एक जिंदा
अनुभव हूं।
तुम्हारे
बच्चों के
लिये मैं एक
मुर्दा
मूर्ति रहूंगा।
वे मेरी पूजा
कर देंगे, पानी
डालकर स्नान
करवा देंगे, दतौन रख
देंगे, मगर
मूर्ति के
लिये इनका कोई
अर्थ नहीं
होगा। यह सब
व्यर्थ होगा।
और चूंकि वे
इस मूर्ति में
उलझे रहेंगे,
इसलिये कोई
जिंदा गुरु
उनके द्वार से
भी गुजरेगा तो
वे देखेंगे
नहीं। वे
कहेंगे: हमें
जरूरत ही नहीं,
हमारे गुरु
तो हैं, हम
तो उनकी पूजा
करते हैं, हम
तो उनको मानते
हैं।
अब
एक महिला अभी
यहां आई। उसका
रस मुझमें जगा
है, नहीं तो
दूर अमरीका से
आती न। वृद्ध
महिला है।
लेकिन एक बड़ी
अड़चन आ गई।
अड़चन यह है कि
वह कहती है कि
बचपन से ही
मैं मानती रही
हूं कि जीसस
मेरे गुरु हैं,
अब दो गुरु
कैसे बनाऊं? मैंने उसको
कहा कि अगर
जीसस तेरे
गुरु हैं तो तू
यहां आई ही
क्यों? अगर
जीसस के गुरु
होने से काम
पूरा हो गया
तो काम पूरा
हो गया। अगर
जीसस के गुरु
होने से काम पूरा
नहीं हुआ तो
जीसस तेरे
गुरु कैसे? बात खतम
कर!...जीसस रहे
होंगे तेरे
बाप-दादों के गुरु।
यह पुश्तैनी
तुझे हक मिल
गया।
यह
कोई धन ऐसा
थोड़े ही है कि
वसीयत में मिल
जाये। बाहर का
धन वसीयत में
मिलता है, भीतर का धन
वसीयत में
नहीं मिलता।
और बाहर के धन
और भीतर के धन
के ढंग ही अलग
होते हैं।
तुम्हारे बाप
मरेंगे तो
उनकी तिजोड़ी
पर तुम हकदार हो
जाओगे। लेकिन
तुम्हारे बाप
मरेंगे तो
उनके
आनंद-अनुभूति
के, उनके
समाधि के, उनके
ध्यान के तुम
हकदार नहीं हो
जाओगे। भीतर का
धन ऐसे नहीं
दिया जाता कि
उसकी वसीयत कर
दी कि मरते
वक्त जैसे
वसीयत लिख गये
कि मेरा सारा
धन मेरे बेटे
का और मेरी
समाधि भी, और
मेरा ध्यान भी
इसीका। कि
मेरे चार बेटे
हैं तो चारों
समाधि को बांट
लेना।
ध्यान
या समाधि
बांटी नहीं
जाती, न दी
जाती न ली
जाती।
तो
अब यह महिला
आई दूर से, मगर चूक
जायेगी। अब
उसको एक अड़चन
आ रही है। उसके
पति भी आये
हैं, पति
संन्यस्त हो
रहे हैं, अब
और अड़चन खड़ी
हो गई।
उसने
मुझे कल फिर
पत्र लिखा कि
एक और अड़चन आ
गई। मैं तो
अड़चन में थी
ही कि क्या
करूं क्या न
करूं, अब
पति संन्यस्त
हो रहे हैं, तो कहीं ऐसा
तो नहीं हो
जायेगा कि पति
के गुरु एक, मेरे गुरु
दो, तो हम
दोनों में भेद
हो जाये और हम
एक-दूसरे के विपरीत
पड़ जायें?
अगर
जीसस से
तुम्हारे
जीवन में
शांति आ गई तो
बात समाप्त हो
गई। तुम्हारे
पति के जीवन
में मुझसे
शांति आयेगी
तो विरोध कैसे
पड़ जायेगा? दो शांतियां
सदा एक हो
जाती हैं। दो
अशांतियों
में विरोध हो
सकता है। मगर
पत्नी को कोई
शांति
इत्यादि आई
नहीं है, नहीं
तो यहां तक
आती क्यों?
"जीसस'
सिर्फ एक कोरा
शब्द है, जिसका
कोई मूल्य
नहीं है। जीसस
को तुम्हारा अनुभव
क्या है? तुमने
जीसस को जाना
कहां? जीसस
की आंख में
तुमने आंख
कहां डाली? जीसस का हाथ
तुमने कहां
पकड़ा? पकड़ना
भी चाहोगे तो
कैसे पकड़ोगे?
जीसस
और तुम्हारे
बीच दो हजार
साल का फासला
हो गया। इन दो
हजार सालों
में हजारों
पोप और पादरी
तुम्हारे और
जीसस के बीच
में खड़े हो
गये हैं। बड़ी
दीवाल है। चीन
की दीवाल भी
इतनी बड़ी
दीवाल नहीं!
अब इस दीवाल को
खोदते-खोदते-खोदते
तुम असली जीसस
की तलाश करोगे, मर जाओगे, पहुंच न
पाओगे। फिर उन
दो हजार सालों
में जीसस पर
इतनी टीका, इतनी
टिप्पणी थोप
दी गई है कि यह
पता लगाना कि
जीसस का खुद
का वचन क्या
है, करीब-करीब
असंभव बात है।
जीसस हुए भी
या नहीं, इसका
भी पूरा-पूरा
निर्णय लेना
असंभव है। तो
फिर कृष्ण की
तो क्या कहो, और मुश्किल
हो गई, और
फासला है।
सदगुरु
तो समसामयिक
ही हो सकता
है। जो अभी देह
में हो, वही,
तुम देह में
हो तो तुमसे
संबंध जोड़
सकता है।
नहीं
मैत्रेय!
चूंकि
विश्वास
अंधविश्वास
हो जायेंगे, इस डर से
विश्वास छोड़े
नहीं जा सकते।
तुम तो जी लो
विश्वास से।
तुम तो
श्रद्धा का
आनंद ले लो।
तुम तो मस्त
हो लो; पीछे
आने वाले उनकी
वे जानें।
इतना भर कर
जाना कि उनके
लिये अड़ंगे
खड़े मत कर
जाना। उनको
अपने आग्रह
में मत बांध
जाना, अपना
पक्षपात मत दे
जाना। उनको दे
जाना स्वतंत्र
खोज की
आकांक्षा, अभीप्सा।
उनको बता
जाना: हमने
खोजा था और
हमने पा लिया
था कोई, जिसके
पास बैठकर
हमने स्वर्ग
का संवाद
सुना! जिसके
पास बैठकर
हमने स्वर्ग
का संगीत
सुना। जिसके
साथ चलकर हमने
दो कदम
परमात्मा की
रोशनी अनुभव
की, हमने
ध्यान जाना; हमें समाधि
के थोड़े-से
फूल झड़े; तुम
भी खोजना।
यह
जगत परमात्मा
से भरा है और
इस जगत में
परमात्मा
बहुत-बहुत
रूपों में
प्रगट होता
रहता है। जब
तुम पुराने रूपों
से बहुत
आग्रहपूर्ण
हो जाते हो तो
नये रूप देखने
मुश्किल हो
जाते हैं। तब
अड़चन खड़ी हो जाती
है।
अब
मेरे पास अगर
कोई मुसलमान आ
जाता है तो
मुसलमान
मौलवी कहता है
उससे, कि
मुसलमान होकर
तुम वहां जा
रहे हो! यहां
कमी क्या है? अपनी कुरान
में तो सब
लिखा है। कोई
हिंदू आना
चाहता है तो
हिंदू
पुरोहित
रोकता है कि
वहां जाने की
क्या जरूरत है?
ये वे ही
लोग हैं जो
पहले भी रोक
रहे थे। जब
महावीर जिंदा
थे, तो भी
ये रोक रहे
थे। ये वे ही
लोग हैं, जब
मुहम्मद
जिंदा थे तब
भी रोक रहे
थे। ये जिंदगी
के दुश्मन हैं,
ये मौत के
पक्षपाती हैं,
ये मुर्दों
के पूजक हैं।
तुमसे
मैं जरूर यह
कहना चाहता
हूं कि अपने
बच्चों को तुम
जिज्ञासा दे
जाना, मुमुक्षा
दे जाना, खोज
की आतुरता दे
जाना। प्यास
दे जाना, मगर
कोई बंधे हुए
सिद्धांत मत
पकड़ा जाना। तो
तुम्हारा जो
विश्वास था, तुम्हारे
बच्चों के
लिये कभी अंधविश्वास
न होगा। तुम
पर निर्भर है।
अपना विश्वास
किसी पर मत
थोपना। अपने
बच्चों को
प्रेम दो, अपने
विश्वास
नहीं। अपने
बच्चों को
प्रेम दो, अपने
सिद्धांत
नहीं। अपने
बच्चों को
सत्य की अभीप्सा
दो, मगर
सत्य के
शास्त्र
नहीं। तो जगत
में धीरे-धीरे
विश्वास पैदा
हो और अंधविश्वास
के पैदा होने
की जरूरत न रह
जाये।
मगर
फिर भी यह कोई
सौ प्रतिशत
बचाने की
व्यवस्था
नहीं है, क्योंकि
कुछ हैं जो
विश्वास में
पड़ना ही नहीं चाहते;
जो
अंधविश्वास
को ही पकड़ना
चाहते हैं, उनको नहीं
रोका जा सकता
है। उनका
न्यस्त स्वार्थ
अंधविश्वास
में है।
अंधविश्वास
की कुछ
खूबियां हैं, वह भी समझ
लो। क्यों लोग
उनको पकड़ते
हैं? एकदम
पागल नहीं हैं
लोग। लोग भी
बड़े होशियार हैं,
लोग बड़े
चालबाज हैं।
लोग बड़े गणित
से काम चलाते
हैं। वे
अंधविश्वास
को पकड़ते हैं
तो उसके पीछे
उनका तर्क है।
तर्क क्या है?
एक तो यह कि
अंधविश्वास
में कभी कोई
झंझट नहीं
होती।
अंधविश्वास
में बदलना
नहीं पड़ता
स्वयं को।
अंधविश्वास
तुम्हें जैसा
है वैसा ही
रहने देता है;
तुम्हारे
जीवन को जरा
भी नहीं छूता,
जरा चोट
नहीं करता।
जीवंत
विश्वास
तुम्हारे जीवन
को बदलेगा, वह आग है।
उसमें से
गुजरोगे तो
जलोगे।
हालांकि
जलोगे तो ही
निखरोगे, मगर
जलन के क्षण
तो कठिन होते
हैं, पीड़ा
के होते हैं।
अंधविश्वास
राख है। अच्छा
शब्द कहो तो
विभूति। खूब
मलो, शरीर
पर लगाकर बैठे
रहो, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। कभी
अंगारे थे।
मुझसे
एक सज्जन
मिले। कहने
लगे कि आप ऐसा
चमत्कार
क्यों नहीं
दिखाते जैसा
सत्य
साईंबाबा
दिखाते हैं, विभूति? मैंने
कहा कि मैं
अंगार पैदा
करता हूं, विभूति
वगैरह तो
अपने-आप पैदा
हो जायेगी, जब अंगार
बुझ जायेंगे
तो विभूति
पैदा हो जायेगी।
अंगार खाने
हों तो मेरे
पास आओ। अंगार
चबाने हों तो
मेरे पास आओ।
विभूति वगैरह
में क्या रखा
है? वह तो
राख अपने-आप
पैदा हो जाती
है। हर अंगारा
आखिर में राख
होकर पड़ा रह
जायेगा। फिर
बांट लेना
विभूति, लगा
लेना सिर पर
और चख लेना
विभूति। मगर
विभूति से कुछ
भी न होगा।
अंगार! अंगार
चाहिए।
जीवित
गुरु के पास
होना आग के
पास होना है।
अंधविश्वास
में एक सुविधा
है। अंधविश्वास
एक खिलौना है।
मजे से खेलो, कोई खतरा
नहीं है।
अंधविश्वास
आग नहीं है, कागज पर बनी
हुई आग की
तस्वीर है।
छाती से लगाओ,
सिर पर रखो,
कुछ हर्जा
नहीं होने
वाला, तुम
जल नहीं
जाओगे।
विश्वास
अग्नि है, अग्नि
की तस्वीर
नहीं। छुओगे
कि बदलाहट
शुरू होगी।
तो
जो बदलना ही
चाहते हैं, जो जीवन को
दांव पर लगाने
को ही तत्पर
हैं, जो
कहते हैं, जिंदगी
में रोशनी
चाहिए, मरने
के पहले अमृत
को जानना
है--ऐसा जिनके
मन में भाव है,
वे ही लोग
विश्वास से
जुड़ेंगे। मगर
सौ में निन्यानबे
प्रतिशत लोग
इतनी झंझट में
नहीं पड़ना चाहते।
वे कहते हैं:
जिंदगी सब ठीक
चल रही है, हम
मजे में हैं।
मगर थोड़ा-सा
संदेह कभी-कभी
किन्हीं-किन्हीं
क्षणों में मन
को पकड़ लेता
है कि मरना तो
होगा एक दिन
और ईश्वर के
सामने खड़े होंगे
और वह पूछेगा
कि कहो, कुछ
किया था? तो
बड़ी मुश्किल
होगी, क्योंकि
अपना इतिहास
तो बस इतना ही
है कि इस होटल
से उस होटल
में गये; इस
क्लब से उस
क्लब में गये;
इस फिल्म से
उस फिल्म में
गये; इस
स्त्री को
छोड़ा उस
स्त्री को
पकड़ा! यही अपनी
कथा है। ईश्वर
के सामने कहने
में बड़ी लज्जा
आयेगी, क्योंकि
एक क्लब से
दूसरे क्लब
जाते बीच में
किसी मंदिर
में थोड़ा सिर
झुका लें तो
ठीक रहेगा, कम-से-कम
कहने को तो
कुछ रहेगा कि
जब एक क्लब से दूसरे
क्लब जा रहे
थे, बीच
में हनुमान जी
का मंदिर पड़ा
था तो हमने सिर
झुकाया था; कि जब एक
स्त्री को
छोड़कर दूसरी
स्त्री से विवाह
किया था तो हम
मंदिर में गये
थे, हमने
फूल चढ़ाये थे,
नारियल भी चढ़ाया
था। और जब
हमने एक धंधे
को छोड़कर
दूसरा धंधा
किया था तो
हमने
तुम्हारी याद
रखी थी। कुछ
कहने को
रहेगा।
मन
में आदमी के
संदेह पैदा
होते हैं, क्योंकि मौत
तो है! कैसे
झुठलाओ, मौत
तो है! और कहीं
मौत के बाद
बचे फिर, पक्का
नहीं हो पाता
मौत के बाद
क्या है, बचेंगे
कि नहीं? अगर
बिलकुल पक्का
हो जाये कि
नहीं बचेंगे
तो तुम
अंधविश्वास
भी छोड़ दो।
विश्वास तो
पकड़ने का सवाल
ही नहीं उठता
फिर, फिर
अंधविश्वास
भी छोड़ दो।
अगर यह
निर्णायक रूप
से सिद्ध हो
जाये कि मौत
के साथ सब
समाप्त हो
जाता है तो
फिर तुम
हनुमान जी की
मूर्ति पर सिर
न झुकाओ। फिर
क्या प्रयोजन
रहा? फिर
क्यों नारियल
खराब करो।
क्या अर्थ? इतना समय और
थोड़ा धन कमाओ।
इतना समय और
थोड़ा रेडियो
सुनो। इतना
समय और थोड़ा
अखबार पढ़ो।
इतना समय कुछ
और कर लो। समय
क्यों खराब
करो? मगर
तय हो नहीं
पाता कि मौत
के बाद क्या
है! न इस तरफ तय
होता न उस
तरफ। न तो यही
तय हो पाता कि
बचेंगे। अगर
यह बिलकुल
पक्का हो जाये
कि बचेंगे, तो विश्वास
पकड़ लो। तो
तुम किसी
सदगुरु की तलाश
करो। न यह
पक्का होता कि
नहीं बचेंगे।
अगर यह हो
जाये तो
अंधविश्वास
भी छोड़ दो। इस
दुविधा में कि
पता नहीं
बचेंगे कि
नहीं बचेंगे,
तुम तरकीब
खोजते हो। तुम
कहते हो कि
थोड़ा-बहुत कुछ
करते रहो, थोड़ा-बहुत
कुछ करते रहना
ठीक है।
मेरे
एक मित्र हैं, कृष्णमूर्ति
को तीस साल से
सुनते हैं, मुझे भी
सुनते हैं। न
ईश्वर को
मानते, न
मंत्र को, न
पूजा न
प्रार्थना को,
कुछ नहीं।
एक दिन उनके
बेटे ने मुझे
आकर खबर दी कि
उनको
हार्ट-अटैक हो
गया है और आप आ
जायें, शायद
घड़ी-दो-घड़ी के
मेहमान हैं।
आपके आने से ठीक
होगा। उनको
बड़ी राहत
मिलेगी।
तो
मैं गया। मैं
गया तो मैं
बहुत चौंका।
चुपचाप उनके
कमरे में
प्रविष्ट
हुआ। क्योंकि
उनकी हालत
खराब थी, वे
आंखें बंद
किये राम-राम
जप रहे!
राम-राम, मुझे
भरोसा ही नहीं
आया! मैंने
उन्हें
हिलाया। मैं
भूल ही गया
उनको हृदय का
दौरा पड़ा है।
मैंने कहा:
जाने दो हृदय
के दौरे को
भाड़ में, यह
तुम क्या कर
रहे हो? राम-राम!
तीस साल
कृष्णमूर्ति
को सुना, दस
साल से मुझे
भी सुनते
हो...राम-राम!
उन्होंने
कहा कि अब आप
यह बात रहने
दो, अभी मत
उठाओ! अभी यह
मरने का मामला
है। कौन जाने
हो ही! अब अभी
यह सिद्धांत,
दार्शनिक
सिद्धांत न
छेड़ो। अभी तो
मुझे राम-राम
कर ही लेने
दो। अगर हुआ
तो कम-से-कम
कहने को तो
रहेगा कि
आखिरी वक्त
में याद कर
लिया था।
ऐसा
आदमी हिसाब से
चल रहा है, कुशलता से
चल रहा है, इंतजाम
कर के चल रहा
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन छाता लेकर
बाजार की तरफ
जा रहा था।
बीच में पानी
आ गया। तो
उसके साथी ने
कहा कि, नसरुद्दीन,
छाता खोल
क्यों नहीं
लेते? उसने
कहा कि छाता
खोलने से कोई
सार नहीं, छाता
टूटा हुआ है
और छेद ही छेद
हैं। तो उसने
कहा: तो फिर
इसको बड़े
मियां साथ
क्यों लिये
फिर रहे हो? तो मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा: मैंने
सोचा कौन जाने
पानी गिरने ही
लगे!
ऐसी
हालत है
अंधविश्वासी
की: छाता है।
काम का नहीं
है, कोई
हर्जा नहीं, मगर छाता
जैसा तो दिखाई
पड़ता ही है कम
से कम! कौन जाने
पानी गिरने ही
लगे, तो
साथ तो रख ही
लो छाता। एक
आत्मविश्वास
तो बना रहेगा
कि छाता पास
है, हालांकि
काम नहीं पड़ने
वाला छाता, अगर पानी
गिरेगा तो
छेद-ही-छेद
हैं, टूटा-फूटा
है।
मगर
ऐसी आदमी की
अवस्था है।
तुम जरा अपनी
भी जांच करना।
तुम श्रद्धा
से मंदिर गये
हो? तुम अपने
अहोभाव से
मंदिर गये हो?
तुम कभी
झुके हो मस्ती
में, मदमस्त
होकर? नहीं,
वही छेदों
वाला छाता
है--कौन जाने
हो ईश्वर तो चलो
झुक ही लो! मगर
तुम्हारा
झुकना झूठा
है। छेद वाला
छाता है, काम
नहीं पड़ेगा।
तुम किसको
धोखा दे रहे
हो?
तो
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
सौ प्रतिशत
गारंटी है कि
तुम अपने
बच्चों को अंधविश्वास
नहीं दे जाओगे
तो वे
अंधविश्वास नहीं
अपने खुद पैदा
कर लेंगे। सौ
में निन्यानबे
बच्चे तो पैदा
करेंगे। तुम
नहीं दोगे तो
वे खुद ही
पैदा कर
लेंगे। तुम न
पकड़ाओगे तो
खुद ही पकड़
लेंगे।
क्योंकि
अंधविश्वास
में एक तरह की
सुरक्षा है, कम-से-कम
सुरक्षा की
भ्रांति तो
है। और अंधविश्वास
में एक तरह की
बचाव की
सुविधा है: न
तो बदलना पड़ता
है, न जलना
पड़ता है और
फिर भी
धार्मिक होने
का मजा आ जाता
है। इसीलिए तो
लोग मंदिर चले
जाते हैं, मस्जिद
चले जाते हैं,
गुरुद्वारा
चले जाते हैं,
चर्च चले
जाते हैं, रविवार
को हो आये
चर्च। पुरुष
जाकर रविवार
को मिलजुल
लेते हैं, गपशप
कर लेते हैं
चर्च में।
चर्च से किसी
को लेना-देना
नहीं।
स्त्रियां
अपना गहना, साड़ी
इत्यादि
दिखला आती हैं;
उनको भी कोई
चर्च से मतलब
नहीं है।
मैं
जैन मंदिर में
एक दफा बोलने
गया। मैं तो
देखकर हैरान
हुआ कि सारी
स्त्रियां
खूब गहने पहने
बैठी हुई हैं, सबने
साड़ियां पहन
रखी हैं। कोई
किसी की साड़ी
का पोत देख
रही है, कोई
किसी का गहना
देख रही है।
मैंने कहा:
मुझे तुम
किसलिए ले आये
हो यहां? न
मेरे पास साड़ी
है, न मेरे
पास गहना है।
किसको पोत
दिखाऊं, किसका
पोत देखूं? यहां तो
मामला ही कुछ
और चल रहा है!
तो जो मुझे ले
गये थे, उन्होंने
कहा कि अब आप
तो जानते ही
हैं मंदिर ही
एकमात्र जगह
है जैन
स्त्रियों के
लिये, जहां
वे अपनी साड़ी
और अपने गहने
पहनकर आयें और
तो कहीं कोई
जगह नहीं है।
अभी इतनी
पढ़ी-लिखी भी
नहीं कि रोटरी
क्लब चली
जायें कि
लाइंस क्लब
चली जायें, इतनी आधुनिक
भी नहीं हैं।
यह मंदिर ही
इनका रोटरी
क्लब, यह
मंदिर ही इनकी
लाइंस-क्लब, जो भी समझो
यही है। यहीं
इन्हें सब नाच
नाचना है। और
कहीं जाने की
जगह भी नहीं
है। यहीं इनका
मिलन होता है।
तो सारा गांव,
सारे गांव
की स्त्रियां
यहीं इकट्ठी
होकर अपनी
साड़ी, अपना
गहना दिखला
लेती हैं। और
साड़ी गहने का
मजा ही यह है
कि वह दूसरे
को दिखलाई
पड़ना चाहिए, नहीं तो
उससे मजा ही
क्या? तुम्हारी
तिजोड़ी में
बंद रहे, उससे
सार क्या है?
तुमने
उस स्त्री की
कहानी सुनी है
न, जिसने
चूड़ियां
खरीदी थीं नई
और महीने भर
चटकाती फिरी,
बजाती फिरी,
मगर किसी ने
न पूछा, तो
उसने अपने घर
में आग लगा
ली। और जब
छाती पीट-पीटकर
खूब हाथ
हिला-हिलाकर
चिल्लाने लगी
कि बरबाद हो
गई, बरबाद
हो गई, तब
एक स्त्री ने
उससे पूछा कि
बाई और तो सब
ठीक है, बरबाद
तो तू हो गई, मगर चूड़ी कब
खरीदीं? तो
उसने कहा कि
अरी नासमझ, अगर पहले ही
पूछी होती तो
घर में आग
क्यों लगती?
आदमी
के चाहे घर
में आग लग
जाये, कोई
फिकिर नहीं, मगर चार
लोगों को पता
तो चल जाये कि
मेरे पास भी
कुछ है। और तो
कुछ है भी
नहीं भीतर का,
बाहर ही
बाहर का है।
मंदिर-मस्जिद
में लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं, उनके
प्रयोजन और ही
हैं।
परमात्मा
उनका प्रयोजन
नहीं है। जो
उन्हें वहां
उपदेश दे रहे
हैं उनका
प्रयोजन कुछ
और है, परमात्मा
उनका भी
प्रयोजन नहीं
है। धर्मों के
पीछे राजनीति
चलती है, गहन
राजनीति चलती
है। धर्मों के
समूह राजनीति
के अड्डे हैं।
मगर
अंधविश्वास
आदमी को चाहिये,
क्योंकि
सभी लोग इतने
हिम्मतवर
नहीं हैं, साहसी
नहीं हैं।
अगर
तुम चाहते हो
एक दुनिया, जहां
अंधविश्वास न
हों, तो
साहस पैदा
करना होगा।
ऐसा अदम्य
साहस कि या तो
हम पकड़ेंगे
सत्य को, फिर
चाहे कितनी ही
आग बरसे, कोई
फिकिर नहीं; और अगर हमें
सत्य नहीं
पकड़ना है तो
सत्य के नाम
पर हम झूठे
सत्य न
पकड़ेंगे। या
तो हम आस्तिक होंगे
तो ऐसे आस्तिक,
जिन्होंने
परमात्मा को
जाना; या
फिर हम
नास्तिक ही
रहेंगे। मगर
ईमानदार नास्तिक
रहेंगे।
मेरी
यही देशना है:
या तो बनो
असली आस्तिक
या कम-से-कम
असली नास्तिक
तो रहो। इन
दोनों के बीच
में
अंधविश्वासी
है--न असली
आस्तिक न असली
नास्तिक। है
तो नास्तिक, आस्तिकता की
चादर ओढ़े हुए
है, राम-राम
की चदरिया ओढ़े
है, और
भीतर बैठा
नास्तिक।
भीतर शक है, बाहर से
विश्वास ओढ़ा
हुआ है। यह
अंधविश्वास की
स्थिति है।
और
तुमने पूछा:
"क्या यह भी
बताने की
अनुकंपा करेंगे
कि कोई
व्यक्ति या
जन-समूह
समसामयिक
होने के लिये, आधुनिक रहने
के लिए क्या
करे?' एक ही
बात: जो जा
चुका जा चुका।
जो है है और जो
अभी नहीं है
अभी नहीं है।
तो है से
संबंध जोड़ो। सब
अर्थों में है
से संबंध
जोड़ो। तुम वह
भोजन तो नहीं
करते जो तीन
हजार साल पहले
दुनिया में था,
या कि करते
हो? उस
संबंध में तुम
बिलकुल
समसामयिक हो।
तुम भोजन वही
करते हो जो आज
उपलब्ध है।
कपड़े तुम वे तो
नहीं पहनते जो
तुम्हारे
पुरखे पहनते
थे। उस संबंध
में तुम
बिलकुल
समसामयिक हो।
तुम टेरेलिन
पहनते हो, टेरिकाट
पहनते हो। और
अब मोरारजी
देसाई कोशिश
कर रहे हैं कि
खादी भी असली
न रह जाये, खादी
भी नकली हो
जाये। उसमें
भी अस्सी
प्रतिशत
कृत्रिम
सिंथेटिक
धागे मिला
दिये जायें। अब
तो खादी भी
आधुनिक होने
की कोशिश कर
रही है! कपड़े
तुम आधुनिक
पहनते हो, भोजन
तुम आधुनिक करते
हो, श्वास
तुम आधुनिक
लेते
हो--लेकिन
धर्म के मामले
में भर तुम
आधुनिक नहीं
हो! क्योंकि
धर्म में
तुम्हारा कोई
रस नहीं है, नहीं तो तुम
उसमें भी
आधुनिक
होओगे। न तो
बुद्ध के समय
के तुम कपड़े
पहनते हो, न
बुद्ध के समय
का भोजन करते
हो; लेकिन
बुद्ध के समय
की पूजा क्यों
कर रहे हो? पूजा
में तुम्हें
रस ही नहीं
है। तुम कहते
हो: कोई भी हुई
चलेगी, क्या
लेना-देना है!
जिस
बात में
तुम्हें रस है, उसमें तो
तुम
अत्याधुनिक
होने की कोशिश
करते हो। एक
साल बीत जाती
है तो नई साल
की कार का माडल
खरीदते हो।
नहीं खरीद
पाते तो दिल
में बेचैन
होते हो। अगर
कोई उपाय ही
नहीं होता तो कम-से-कम
कार की प्लेट
नई लगा लेते
हो। एम्बेसडर
तो पुरानी है,
मगर लगा
लिया
एम्बेसडर
मार्क थ्री।
कम से कम इतना
ही धोखा, क्योंकि
बाकी
एम्बेसडर तो
एक ही जैसी है,
एम्बेसडर
तो कभी दूसरी
जैसी होने
वाली है नहीं,
वह तो वैसी
ही वैसी रहने
वाली है। मगर
मार्क थ्री तो
बाजार में मिल
जाता है, वह
तो लगा लिया।
खुद को ही
धोखा दे रहे
हो, दूसरों
को धोखा दे
रहे हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
साथ एक दिन
मैं उसकी गाड़ी
में उसके घर
गया। गर्मी के
दिन, भयंकर आग
बरस रही और वह
खिड़कियां न
खोले। मैंने कहा:
मुल्ला तू
पागल है, तू
पसीने से
तरबतर है, मैं
पसीने से
तरबतर...! उसने
कहा: चाहे जान
चली जाये, मगर
इज्जत का सवाल
है। मैंने
कहा: इसमें
इज्जत का सवाल
है? खिड़की
क्यों नहीं
खोलता? उसने
कहा: लोग क्या
समझेंगे कि
गाड़ी
एअरकंडीशन
नहीं है।
जान
चली जाये, उसने कहा, उसकी कोई
फिकिर नहीं है;
मगर गाड़ी
एअरकंडीशंड
है, यह
मोहल्ले
वालों को पता
होना ही
चाहिए। पसीना
पसीना है, गाड़ी
से उतरते से
ही गिर पड़ा
बिस्तर पर, चारों खाने
चित्त, आधा
घंटे में
सम्हल पाया।
मैंने कहा कि
मुल्ला ऐसी
एअरकंडीशन से
क्या फायदा? उसने कहा:
कुछ भी हो जाये,
मगर इज्जत
तो आदमी को
बचानी ही होती
है। तुम गाड़ी
के संबंध में
आधुनिक हो, मकान के
संबंध में
आधुनिक हो, कपड़ों के
संबंध में
आधुनिक हो--सब
बातों में आधुनिक
हो--सिर्फ
धर्म के संबंध
में पूछते हो
कि आधुनिक
कैसे हों!
शायद तुम होना
ही नहीं चाहते
आधुनिक। नहीं
तो जब तुम सब
चीजों में
आधुनिक हो
जाते हो, तो
धर्म के संबंध
में क्या अड़चन
है। अगर तुम कार
का नया माडल
पसंद करते हो,
अगर तुम में
थोड़ी भी
बुद्धि होगी
तो तुम धर्म का
भी नये-से-नया
संस्करण पसंद
करोगे, स्वभावतः।
मोरार
जी देसाई ने
अहमदाबाद में
कहा: मेरे संन्यासी
उन्हें मिले
तो उन्होंने
कहा कि मैं इस
बात से मैं
बहुत नाराज
हूं कि आप
अपने गुरु की
तुलना महावीर
से क्यों करते
हैं? उनकी
तुलना महावीर
से नहीं की जा
सकती। उन मित्रों
ने मुझे आकर
कहा। मैंने
कहा: इस बात
में मैं
मोरारजी
देसाई से सहमत
हूं। तुम
क्यों मेरी
तुलना महावीर
से करते हो? मेरी तुलना
महावीर से
नहीं की जा
सकती, क्योंकि
महावीर ढाई
हजार साल
पुराना माडल
है। कुछ मेरी
इज्जत की भी
तो फिकिर करो!
यह तो ऐसे ही
हुआ कि
मर्सिडीज
बैंज अठहत्तर
का माडल और तुम
फोर्ड का नंबर
ऐट टी माडल...।
तुम कुछ मेरी
इज्जत की भी
फिकिर करो।
ढाई हजार साल
बीच में गुजर
गये हैं, ढाई
हजार साल का
लाभ मैंने
लिया है। उस
ढाई हजार साल
का महावीर को
कुछ भी पता
नहीं। तुम महावीर
को क्यों बीच
में लाते हो?
मैंने
कहा: अब
दोबारा
मोरारजी
देसाई को मिलो
तो कह देना कि
हमारे गुरु
बहुत नाराज
हुए! उन्होंने
भी यही कहा कि
यह बात बिलकुल
गलत है, कभी
भूलकर ऐसा
नहीं करना
चाहिए।
तुम
अगर हर चीज
में
अत्याधुनिक
हो तो धर्म के संबंध
में क्यों
नहीं? धर्म
के संबंध में
तुम प्राचीन
को क्यों मूल्य
देते हो? सच
तुम धार्मिक
होना नहीं
चाहते। ये
तुम्हारे
बहाने हैं। ये
टालने की
तरकीबें हैं।
ये उपाय हैं
तुम्हारे।
कृष्ण के
जमाने के रथ
में तो नहीं
चलते हो? जीसस
तो गधे पर
चलते थे, तुम
तो गधे पर
नहीं चलते हो।
अब ईसाई होकर
और कार में
चलना शोभा
नहीं देता। जब
ईसा मसीह खुद ही
गधे पर चलते
थे तो तुम
ईसाई होकर कार
में चल रहे हो!
उस संबंध में
तुमने बदल ली
है बात।
लेकिन
ठीक उसी तरह
और सारी चीजें
भी गतिमान हैं।
परमात्मा रोज
नये फूल
खिलाता है।
परमात्मा रोज
मसीहा भी पैदा
करता है।
परमात्मा रोज
नये तीर्थंकर
भी पैदा करता
है। परमात्मा
रोज नये
पैगंबर भी
भेजता है।
परमात्मा थक
नहीं गया है।
मगर तुम
पुरानों को
पकड़कर बैठ
जाते हो।
पुरानों को
पकड़ने में
सुविधा है; कुछ करना
नहीं पड़ता।
धोखा भी हो
गया कि धार्मिक
हैं और कुछ
करना भी नहीं
पड़ता। कभी-कभी
पूजा कर ली, कभी-कभी फूल
चढ़ा दिये, झंझट
मिटा ली।
निश्चिंत हो
रहे। नये को
पकड़ोगे तो
मुसीबत
आयेगी।
मेरे
साथ चलोगे तो
मुसीबत
आयेगी।
महावीर के साथ
चलने से अब
क्या मुसीबत
है? कोई
मुसीबत नहीं
है। लेकिन
मेरे साथ
इंच-इंच मुसीबत
होगी। और वही
मुसीबत है, जो रूपांतरण
करती है।
आखिरी
प्रश्न:
ओशो, आप क्यों इस
मतांधों के
देश में श्रम
कर रहे हैं? परंपराग्रस्त,
और
रूढ़िवादी लोग
आपको न समझे
हैं, न समझेंगे।
मैं स्वयं तो
इस देश के
अंधविश्वासों
से इतना ऊब
गया हूं कि
सोचता हूं कि
कहीं परदेश
में जा बसूं।
आपका क्या
आदेश है?
लोग
सब जगह एक
जैसे हैं।
लोगों में कुछ
खास भेद नहीं
है। यहां एक
तरह के
अंधविश्वास
हैं, वहां
दूसरी तरह के
अंधविश्वास
हैं। कोई बुनियादी
अंतर नहीं है,
थोड़ा-बहुत
मात्रा का
अंतर होगा।
क्या
तुम सोचते हो
कि मैं अमरीका
चला जाऊं तो मेरी
बात ज्यादा
सुगमता से
समझी जा
सकेगी। नहीं!
जैसे यहां
हिंदुओं को
विरोध है, मुसलमानों
को विरोध है, जैनों को
विरोध
हैं--वहां
ईसाइयों को
विरोध होगा, कैथलिकों को
विरोध होगा, प्रोटेस्टेंटों
को विरोध
होगा।
तुम
जानकर चकित
होओगे कि मैं
तो बाहर गया
ही नहीं कभी, लेकिन
प्रोटेस्टेंट
चर्च ने अपने
जासूस यहां
भेजे हैं, क्योंकि
जर्मनी से
बहुत-से युवक
आकर संन्यस्त
हो गये हैं।
प्रोटेस्टेंट
चर्च को इससे
बहुत हानि हो
रही है। मैं
उनके लोगों को
बिगाड़ रहा
हूं। मेरा काम
ही बिगाड़ना है!
अब जर्मनी के
चर्च को चिंता
पैदा हुई है।
उन्होंने
जासूस भेजे
हैं यहां कि
यहां के संबंध
में सारी
बातें किसी भी
तरह गलत-सलत
प्रचारित की
जायें जर्मनी
में। जर्मनी
मैं कभी गया
नहीं हूं, लेकिन
जितनी मेरी
चर्चा इस समय
जर्मनी में है
उतनी भारत में
नहीं है। शायद
ही कोई अखबार
हो जर्मनी का
जो मेरी चर्चा
से नहीं भरा
है। इस दो
महीने में ऐसा
लगता है कि
कोई सामूहिक
षडयंत्र है; सारे अखबार,
सारे
पत्र-पत्रिकायें...।
क्योंकि
जर्मनी से बड़ी
संख्या
युवकों की आई
है।
और
स्वाभाविक है
कि जर्मनी से
युवकों की बड़ी
संख्या आये।
जर्मन कौम में
थोड़ी हिम्मत
है, थोड़ा बल
है। यह अकारण
नहीं है, आकस्मिक
नहीं है उनका
आना। थोड़ा बल
है। जर्मन सरकार
परेशान है; उसने भी
जासूस भेजे
हैं कि यहां
जांच-पड़ताल की
जाये, कि
मामला क्या
है! मैं जरूर
लोगों को
सम्मोहित कर रहा
हूं क्योंकि
जो यहां आता
है, फिर
लौटता ही
नहीं!
तुम
सोचते हो मैं
जर्मनी जाऊं
तो मुझे चैन
मिलेगा? मुश्किल
होगी, यही
इसी तरह की
मुश्किल
होगी। कोई भेद
न पड़ेगा। सच
तो यह है, हिंदू-जाति
कितनी ही
मतांध हो, पर
हिंदू-जाति से
ज्यादा उदार
जाति इस
दुनिया में और
कोई भी नहीं
है। इसे
स्वीकार करना
ही होगा। कितनी
ही मतांध हो, कितनी ही
अंधविश्वासी
हो, लेकिन
हिंदू-जाति से
ज्यादा उदार
कोई जाति दुनिया
में नहीं है।
यहूदी
जीसस को
बर्दाश्त न कर
सके, सूली पर
लटका दिया।
यूनानी
सुकरात को
बर्दाश्त न कर
सके, जहर
पिला दिया। और
मुसलमान तो
जाहिर ही हैं
कि अत्यंत
मतांध हैं; उन्होंने
मंसूर को मार
डाला, और
फकीरों को
मारा। भारत
अकेला देश है
जहां हमने
बुद्धों पर, महावीरों पर
थोड़ी-बहुत
झंझटें कीं, पत्थर फेंक
दिये, गाली-गलौज
दे दी, नाराज
रहे हम उन पर, मगर हमने
कोई सूली नहीं
लगा दी, हमने
कोई गोली नहीं
मार दी। हमने
उन्हें भी
धीरे-धीरे स्वीकार
कर लिया, आत्मसात
कर लिया।
जो
मैं कह रहा
हूं, वह किसी
भी देश में
मुसीबत
लायेगा और इस
देश से ज्यादा
मुसीबत
लायेगा।
तुम
कहते हो कि आप
क्यों
परंपराग्रस्त, रूढ़िवादी
लोगों के साथ
परेशान हो रहे
हैं? मैं
परेशान नहीं
हो रहा, मैं
पूरा मजा ले
रहा हूं!
परेशान तो
रूढ़िवादी और
परंपरावादी
हो रहे हैं।
मैं क्यों
परेशान होने
लगा! चिंता तो
उन्हें हो रही
है। बेचैन तो
वे हैं। कुछ
जायेगा तो
उनका जायेगा,
मेरा क्या
जाना है? मुझसे
झंझट लेकर
उनके ही कुछ
आदमी वे खो
सकते हैं।
मेरे पास तो
कुछ खोने को
नहीं है। मेरी
कोई हानि होने
का कारण नहीं
है। और मैं
अगर परेशान
होऊं किसी बात
से तो मैं
करना ही बंद
कर दूं, क्योंकि
परेशानी में
मुझे कुछ रस
नहीं है।
तो
जो भी मैं कर
रहा हूं, मैं
उसे आनंद से
कर रहा हूं।
और जो भी हो
रहा है उसे
आनंद से देख
रहा हूं।
लेकिन
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं।
तुम्हें
हैरानी होती
होगी: क्यों
इतना श्रम
करूं? और
तुम इतने
अंधविश्वासों
से ऊब गये हो, तुम कहते हो
कि मैं परदेश
ही चला जाऊं।
कुछ भेद न
पड़ेगा। परदेश
में तुम इसी
तरह के लोग
पाओगे।
ग़म
नहीं तो
लज्ज़ते-शादी
नहीं।
बे असीरी
लुत्फे-आजादी
नहीं।।
और
जहां दुख नहीं
है वहां सुख
नहीं होता। और
जहां कारागृह
नहीं है वहां
स्वतंत्रता
का अनुभव भी
नहीं होता। सब
द्वंद्व
साथ-साथ चलते
हैं। अंधेरे
के साथ-साथ
रोशनी और जन्म
के साथ-साथ मृत्यु, सब द्वंद्व
साथ-साथ चलते
हैं। मतांधता
तो रहेगी दुनिया
में, फिर
भी हमें दीये
जलाने
हैं--मतांधता
में ही दीये
जलाने हैं। अब
कोई सिर पीटकर
बैठ जाये कि अंधेरा
बहुत है, क्या
रोशनी करने से
फायदा? मजा
ही यही है कि
अंधेरा है और
रोशनी करनी
है। अंधेरा है
तभी तो रोशनी
करने का मजा
है। और इतना
अंधेरा कभी भी
न था जितना आज
है। इसलिये
जितना मजा आज
रोशनी करने का
है, इतना
मजा भी कभी
नहीं था।
बुद्ध
के शिष्य यह
आनंद नहीं ले
सकते थे जो तुम
ले सकते हो, क्योंकि
इतना अंधेरा न
था। आज अंधेरा
बहुत है।
मशालें जलानी
हैं! अंधेरे
के कारण
मशालें जलाना
थोड़े ही बंद
कर देंगे।
अंधेरे के कारण
मशालें और
जलायेंगे।
अंधेरे की जिद
है तो रोशनी
की भी अपनी
जिद होगी।
मौजों
की सयासत से
मायूस न हो
फानी।
गिरदाब
की हर तह में
साहिल नज़र आता
है।।
लहरों
के वेग से
उदास न हो
जाओ।
मौजों
की सयासत से
मायूस न हो
फ़ानी।
गिरदाब
की हर तह में
साहिल नज़र आता
है।।
भंवर
की गहराई में
जरा देखोगे तो
हर भंवर की
गहराई में
किनारा दिखाई
पड़ेगा। देखने
का ढंग आना
चाहिए। देखने
का ढंग बदलो।
स्थान बदलने
से कुछ भी न होगा।
यहां से छोड़कर
कहीं और चले
जाओगे, क्या
होगा? थोड़े-बहुत
भेद से इसी
तरह के लोग, इसी तरह के
अंधविश्वास
हैं।
कदम
बढ़ाओ खिज़ा नसीबों!
वोह मंज़िलें
मुन्तज़िर हैं
अपनी।
जहां
पहुंचकर
निगाहो-दिल को, बहार की
ताज़गी
मिलेगी।।
उस
आदमे-नौ की
आमद-आमद, है
जिसके इदराक
की दमक से।
समाज
को बांकापन
मिलेगा, हयात
को दिलकशी
मिलेगी।।
थोड़ी
हिम्मत बढ़ाओ।
कदम बढ़ाओ खिजा
नसीबों! आज माना
कि पतझड़ है और
कहीं फूल
दिखाई नहीं
पड़ते, मगर
थोड़े कदम
बढ़ाओ। कदम
बढ़ाओ खिजां
नसीबों! वोह
मंज़िलें
मुन्तज़िर हैं
अपनी। बहार की
मंजिलें राह
देख रही हैं।
बसंत
प्रतीक्षा कर
रहा है। जहां
पहुंचकर
निगाहो-दिल को,
बहार की
ताजगी
मिलेगी। दिल
और आंख दोनों
ही तृप्त हो
जायेंगे।
थोड़ा बढ़ो।
थोड़े कदम
बढ़ाओ।
उस
आदमे-नौ की
आमद-आमद।...एक
नये आदमी को
लाना है इस
पृथ्वी पर।
नया आदमी आने
की तैयारी में
है। तुम जरा
स्थल तैयार
करो, बगीचे को
तैयार करो, भूमि को
तैयार करो।
सींचो, खाद
डालो! उस
आदमे-नौ की
आमद-आमद। नया
आदमी बस आने-आने
को है। किस
घड़ी आ जायेगा,
कहना मुश्किल
है। उस
आदमे-नौ की
आमद-आमद, है
जिसके इदराक
की दमक
से।...जिसके
बोध की दमक भी
काफी है, जिसके
आने की भनक भी
काफी है, जिसके
पैरों की
जरा-सी आवाज
भी काफी मधुर
है। समाज को
बांकापन
मिलेगा, हयात
को दिलकशी
मिलेगी।
जिंदगी मस्त
हो सकती है।
समाज फिर एक
बांकेपन से, एक रंगीनी
से भर सकता
है।
इंद्रधनुष
फिर पैदा हो
सकते हैं।
उदास
न हो जाओ, भागकर
कहां जाओगे? और भागकर
जहां भी जाओगे
इसी तरह के
लोग पाओगे।
भागकर पाओगे
कि जिन लोगों
को छोड़ आये हो,
वे ही लोग
बेहतर थे।
तेरी
ग़रीबी का क्या
मदावा कि तू
है अहसास का सताया।
रहा
अगर तेरा जहन
मुफलिस तो हर
जगह मुफलिसी
मिलेगी।।
खला-ए-ज़हनी
को अपने पुर
कर, नहीं तो
जीना भी होगा
दूभर।
यह
ज़ेबे-फितरत
रही जो खाली
तो सारी
दुनिया तही
मिलेगी।।
वतन
को तू छोड़ दे
मगर, क्या, गमे-वतन
तुझको छोड़
देगा?
वोह
साज़ की हो, कि मतरुबा
की हर इक सदा
दुखभरी
मिलेगी।।
वहां
जो अहले वतन
मिलेंगे तो
वोह भी
तसवीरे-गम
मिलेंगे।
अदा-अदा
गमज़दा मिलेगी, नज़र-नज़र
शबनमी
मिलेगी।।
यहां
का जब तज़करा
छिड़ेगा, तो
उन फिज़ाओं में
दम घुटेगा।
बुझी-बुझी
होगी शमअ? दिल की, धुआं-धुआं
ज़िंदगी
मिलेगी।।
न
कर मुझे मौत
के हवाले, वतन से ऐ दूर
जानवाले।
यहां
तड़पती हैं आज
लाशें, यहीं
पे कल ज़िंदगी
मिलेगी।
यह
ज़र्द पत्ते
सिमट-सिमटकर
समेट ही लेंगे
अपने बिस्तर।
चमन
सलामत, बहार
इक दिन तवाफ
करती हुई
मिलेगी।।
नया
ज़माना, नया
सबेरा, नई-नई
रोशनी
मिलेगी।
यह
रात जब ले
चुकेगी हिचकी, हयात इक
दूसरी
मिलेगी।।
यह
रात टूटने को
है। यह रात एक
हिचकी पर टूट
जायेगी। यह
ज़र्द पत्ते
सिमट-सिमटकर
समेट ही लेंगे
अपने बिस्तर।
ये सूखे पत्ते
चले जायेंगे
अपने-आप। ये
सूखे पत्ते
खाद बन
जायेंगे बहार
के लिये, बसंत
के लिये।
यह
ज़र्द पत्ते
सिमट-सिमटकर
समेट ही लेंगे
अपने बिस्तर।
चमन
सलामत, बहार
इक दिन तवाफ
करती हुई
मिलेगी।।
जल्दी
ही तुम पाओगे:
बसंत आ गया, बहार
परिक्रमा कर
रही है! सब तुम
पर निर्भर है।
भागने से कुछ
न होगा, जागने
से कुछ हो
सकता है।
नया
ज़माना, नया
सबेरा, नई-नई
रोशनी
मिलेगी।
यह
रात जब ले
चुकेगी हिचकी, हयात इक
दूसरी
मिलेगी।।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें