दिनांक 30 मई
1976, श्री ओशो
आश्रम पूना।
सारसूत्र:
नामरदां
भगती नहीं, मरद
गये करि त्याग।
रज्जब
रिधि क्वाँरी
रही, पुरुष—पाणि
नहि लाग।।
छाजन
भोजन दे भगवंत, अधिक
न बाछैं साधू—संत।
रज्जब
यह संतोषी चाल, माँगहि
नाहिं मुलक औ
माल।।
जबलगि
तुझमें तू रहै, तबलगि
वह रस नाहिं।
रज्जब
आपा अरपिदे, तो
आवै हरि माहिं।।
करणी
कठिन रे
बन्दगी, कहनी
सब आसान।
जन
रज्जब रहणी
बिना, कहाँ
मिलै रहिमान।।
हाथघडे
कूँ पूजता, मोललिये
का मान।
माला
तिलक न मानई, तीरथ
मूरति त्याग।
सो
दिल दादू—पंथ
में, परम
पुरुष सूँ लाग।।
पराकिरत
मधि ऊपजै, संसकिरत
सब बेद।
अब
समझावै
कौनकरि, पाया
भाषा भेद।।
बीजरूप
कछु और था, बिरछरूप
भया और।
त्यूँ
प्राकृत में
संस्कृत, रज्जब
समझा ब्यौर।।
बेद
सु बाणी कूपजल, दुखसूँ
प्रापति होइ।
सबद
साखि सरबर
सलिल, सुख
पीवै सब कोइ।।
चाकी
चरखा घसि गये, भ्रमि—भ्रमि
भामिनी हाथ।
सौ
रज्जब क्यूँ
होहिंगे, नर
निहचल तिनसाथ।।
समये
मीठा बोलना, समये
मीठा चूप।
उनहाले
छाया भली, रज्जब
सियाले धूप।।
हमने
सुना था सहने—चमन
में कैफ के
बादल छाए हैं।
हम
भी गये थे जी
बहलाने अश्क
बहाकर आए हैं।।
फुल खिले
तो दिल मुरझाए
शम्अ जले तो
जान जले।
एक
तुम्हारा गम
अपनाकर कितने
राम अपनाए हैं।।
एक
सुलगती याद, चमकता
दर्द, फरोजा
तन्हाई।
पूछ
न उसके शहर से
हम क्या—क्या
सौगातें लाए
हैं।।
सोए
हुए जो दर्द
थे दिल में
आँसू बनकर बह
निकले।
रात
सितारों की
छाओं में याद
वो क्या—क्या
आए हैं।।
आज
भी सूरज डूब
गया बेनूर उफक
के सागर में
आज
भी फूल चमन
में तुझको बिन
देखे मुरझाए
हैं।।
वह
दिन जो प्रभु' को
बिन देखे बीत
गया, व्यर्थ
गया।
आज
भी सूरज डूब
गया बेनूर उफक
के सागर में।
आज
भी फूल चमन
में तुझको बिन
देखे मरझाए
हैं।।
और
जिंदगी ऐसे ही
रीतती चली
जाती है। हाथ
खाली—के—खाली
रह जाते हैं।
और भरे बिना
तृप्ति नहीं।
रोना—ही—रोना
है। चेतना पर
आनंद के कमल
नहीं खिलेंगे।
उसकी मौजूदगी
में ही खिलते
हैं,
उसकी
उपस्थिति में
ही खिलते हैं।
परमात्मा की
प्रतीति होने
लगे, जो
तुम्हारा बीज
है फूट पड़ता
है। उसके बिना
तुम लाख कुछ
करते रहो—धन
इकट्ठा करो, पद—प्रतिष्ठा
कमाओ—आखिर में
पाओगे सब राख
के ढेर लगा
लिये हैं। और
ऐसी ही बहुत
जिंदगियाँ
बीत गयी हैं।
हाथ कुछ भी
नहीं लगा है।
और
यहाँ दो तरह
के लोग हैं।
एक तो वे हैं
जो कमजोर हैं—इतने
कमजोर हैं, इतने
भयभीत हैं कि
परमात्मा
चारों तरफ
मौजूद है, लेकिन
भय के कारण
अटके हुए हैं।
विराट का भय
है, अज्ञात
का भय है, अनंत
का भय है।
सीमा तो
टूटेगी उसके
साथ। मैं तो
मिटेगा उसके
साथ। मैं को
बचाने के कारण,
मैं को
बचाने में लगे
रहने के कारण
हम परमात्मा
से वंचित होते
हैं। और मैं
सिवाय एक
काँटे के क्या
है? मैं
सिवाय एक पीड़ा
के क्या है? मैं ही तो
दुखों का दुख
है। उसको ही
हम बचाने में
लगे रहते हैं।
और उसको बचाने
में उसे गँवा
देते हैं जो
मिल जाता तो
सब मिल' जाता।
शर्त पूरी
नहीं कर पाते
हम।
शर्त
एक ही है
परमात्मा को
पाने की—अपने
को मिटाए जो, वही
उसे पा सकता
है। जो अपने
से भरा है, वह
परमात्मा से
खाली रह जाएगा।
बाँस की पोली
पोंगरी की
भाँति जब तुम
हो जाओगे, मैं—भाव
भीतर कहीं भी
भरा न होगा, तब उसके
स्वर तुमसे
गूँजेंगे। तब
उसकी वाणी
तुमसे उतरेगी।
उसकी वाणी
उतरने को
प्रतिपल राजी
है, तुम
राजी नहीं। और
ध्यान रखना, तुमने
किन्हीं
कर्मों के
कारण उसे नहीं
गँवाया है, तुमने
गँवाया है उसे
भय के कारण।
मगर आदमी बड़ा
कुशल है। वह
अपने बचाव की
बड़ी तरकीबें
खोज लेता है—बडी
दार्शनिक
तरकीबें खोज
लेता है। लोग
कहते हैं—क्या
करें, जन्मों—जन्मों
के कर्म बाधा
बन रहे हैं।
कोई कर्म बाधा
नहीं बन रहा
है। कर्म की
सामर्थ्य
बाधा बनने में
नहीं है—यह
भक्तों की
घोषणा है कि
कोई कर्म बाधा
नहीं बन रहा
है, पापी
से पापी अभी
इसी क्षण
परमात्मा को
याद करे तो
पहुँच जाए।
जैसे अँधेरा
.रोशनी के
पैदा होने में
बाधा नहीं
बनता, ऐसे
ही कोई कर्म
बाधा नहीं
बनता।
क्या
तुम्हारे
जागने में
तुम्हारे
सपने बाधा बन
सकते हैं? अगर
कोई जगाएगा, तो क्या तुम
जगोगे नहीं
क्योंकि तुम
सपना देख रहे
हो’ क्या तुम
यह कहोगे कि
इतने सपने मैं
देख रहा हूँ, मैं जागूँ
कैसे? जागने
में सपने बाधा
नहीं बनते।
हाँ, अगर तुम
सोए रहो तो
सपने जारी
रहते हैं।
कर्म स्वप्न
से ज्यादा
नहीं है।
तुमने जो भी
किया है, सब
स्वप्न है।
कृत्य मात्र
स्वप्न है।
कर्ता का भाव
स्वप्न है।
कर्ता का भाव
ही अहंकार है।
मैने यह किया,
मैने यह
किया, उसीसे
मैं मजबूत हुआ
है। फिर मै' पापी का हो
या
पुण्यात्मा
का, कुछ
भेद नहीं पड़ता।
सुंदर हो कि
कुरूप, कुछ
भेद नहीं पडता।
तुमने अपनी
बाँसुरी में
मिट्टी भर रखी
है कि सोना भर
रखा है इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता, उसकी
वाणी के उतरने
में बाधा पड़
जाएगी। उसके स्वर
तुमसे नहीं
उतर सकेगे।
तुम
हटो तो
परमात्मा आए।
तुम उसके हाथ
में अपनी
बागडोर दो।
स्मरण करो
गीता का, यह
प्रतीक
महत्वपूर्ण
है कि कृष्ण
सारथी बने, अर्जुन रथ
में बैठा, कृष्ण
के हाथ में
बागडोर है। इस
प्रतीक को ठीक
से समझो। तुम
बागडोर उसके
हाथ—में दो।
तुमने अपने
हाथ में रखकर
बागडोर खूब
भटक लिया है।
मगर भय रोकता
है। एक तो भय
रोकता है
मनुष्य को
परमात्मा से
मिलने से।
दूसरा
तुम्हारा
तथाकथित
ज्ञान रोकता
है, तुम्हारा
पांडित्य
रोकता है। इन
दो चीजों के
अतिरिक्त और
कोई चीज नहीं
रोकती। तुमने
ज्ञान के नाम
पर उधार बातें
इकट्ठी कर ली हैं।
उधार
तुम्हारे
जीवन में दीये
नहीं जलेंगे।
जीवन का दीया
तो तुम्हें
अपने भीतर ही
जलाना होगा।
बुद्ध
का अंतिम वचन
था अपने
भिक्षुओं को—अप्प
दीपो भव। अपने
दीये बनो।
बुद्ध जब विदा
होने लगे तो
शिष्य
स्वभावत: रोने
लगे। आंनद तो
बिल्कुल रोने
लगा,
आँख से आँसू
के धारे बहने
लगे। बुद्ध ने
पूछा—तू क्यों
रोता है’ आनंद
ने कहा—आपके
रहते मैं
मुक्त न हो
सका, आपके
रहते दीया न
जला, अब
मेरा क्या
होगा? बुद्ध
ने कहा—जीवन
भर मैंने
तुझसे यही कहा
है कि कोई
दूसरा तेरा
दीया नहीं जला
सकता। दीया तो
तुझे अपना
स्वयं जलाना
होगा। और शायद
यह अच्छा ही
है, मेरी
मृत्यु हो
जातु तो तेरा
दीया जल जाए।
क्योंकि मैं
जब तक मौजूद
हूँ, तब तक
तू इसी आशा
में बैठा है
कि मैं तेरा
दीया जलाऊँगा।
और
ऐसा ही हुआ।
बुद्ध की
मृत्यु के
चौबीस घंटे
बाद आनंद का दीया
जल उठा। वह जो
आशा बना रखी
थी कि कोई
दूसरा दीया
जला देगा; जब
बुद्ध हैं, तो मैं
क्यों फिकिर
करूँ? उनकी
सेवा करूँगा,
वे दीया जला
देंगे। लेकिन
कोई दीया बाहर
से जलाया नहीं
जा सकता। और
अच्छा है कि
जलाया नहीं जा
सकता, नहीं
तो वह रोशनी
भी गुलाम हो
जाती। कोई जला
देता, कोई
बुझा देता। जो
चीज बाहर से
जलायी जा सकती
छुँ, वह
बाहर बुझायी
भी जा सकती है,
याद रखना।
और जो चीज
बाहर से जलायी
नहीं जा सकती,
बाहर से
बुझायी भी
नहीं जा सकती।
ज्ञान न तो
दिया जा सकता
है और न छीना
जा सकता है।
लेकिन
तुम्हारे पास
जो ज्ञान है, वह
ऐसा ही है कि
दिया गया है।
और छीना भी जा
सकता है।
इसीलिए तो लोग
एक धर्म को
मानते हैं तो
दूसरे धर्म का
शास्त्र पढ़ने
से डरते हैं।
डरते हैं
क्योंकि जो
ज्ञान मान कर
रखा है, कहीं
गलत न हो जाए।
उन्हें कोई
तर्क ऐसा न
मिल जाए कि
अपना ज्ञान गलत
हो जाए।
आस्तिक
नास्तिक से
बात करने में
डरता है। यह
कोई आस्तिकता
हुई! यह
नपुंसक
आस्तिकता दो कौड़ी
की है।
यह
भय क्या है? यह
भय यही है कि
कोई तर्क ऐसा
न हो कि मेरे
तर्कों का जो
मैंने जाल बना
रखा है वह टूट
जाए। आत्म—अनुभव
तो है नहीं, शब्द इकट्ठे
कर रखे हैं।
बाहर से शब्द
मिले हैं, कोई
बाहर से जरा
कुशल होगा तो
तुम्हारे
शब्दों को
अस्त—व्यस्त
कर देगा। जो
बाहप्र्र से
आया है, बाहर
से छीना जा
सकता है। भीतर
का भरोसा करना।
तो
एक तो भय
रोकता है, क्योंकि
भय खुलने नहीं
देता। और
दूसरा ज्ञान
रोकता है। इन
दो के
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है।
भक्ति
का भरोसा कर्म
में नहीं है, और
भक्ति का
भरोसा ज्ञान
में भी नहीं
है।
भक्ति
का भरोसा
प्रेम में है।
प्रेम
अद्भुत जादू
है। प्रेम का
अर्थ ही यह
होता हैं—विचार
नहीं, मस्तिष्क
नहीं, हृदय,
भाव। और
प्रेम का अर्थ
ही यही होता
है कि मैं
नहीं, तू।
मैं कर्ता
नहीं, तू
कर्ता। तुम
लाख दोहराते
हो कि ईश्वर
स्रष्टा है, उसने जगत को
बनाया, लेकिन
भीतर गहरे में
तुम यही भाव
रखते हो कि मैं
कर्ता हूँ।
अगर ईश्वर
स्रष्टा है तो
तुम कर्ता
कैसे हो सकते
हो? फिर
वही कर रहा है।
और अगर तुम
कर्ता हो तो
ईश्वर
स्रष्टा नहीं
हो सकता। फिर
तुम कर रहे हो।
इन दो के बीच
स्पष्ट बोध हो
जाए तो भक्ति
आसान हो जाती
है।
रज्जब
के साथ ये
थोड़े—से दिन
हमने बिताए, ये
दिन प्यारे थे।
रज्जब रोज—रोज
नयी सौगात लाए,
नयी भेंट
लाए, रोज—रोज
बहुमूल्य
हीरों—जैसे
वचन उन्होंने
दिये। इनमें
से कोई एक वचन
की भी चोट तुम
पर पड़ जाए तो तुम्हारी
वीणा झंकृत हो
जाए_गी। एक
वचन भी अगर
तुम्हारी समझ
में आ जाए—ख्याल
रखना, मैं
कह रहा हूँ
समझ में आ जाए।
समझ में आना
बड़ी और बात है।
साधारणत:
जिसको तुम समझ
कहते हो, वह
समझ नहीं है।
सीधी—सादी
भाषा है, समझ
में तो आ ही
जाती है। कुछ
ऐसी कठिन बात
तो कही नहीं
है, सरल—सरल
बात है। नगद
बात है। दो और
दो चार, ऐसी
सीधी बात है।
समझ में तो आ
ही जाती है।
यह समझ नहीं
है। यह बुद्धि
की समझ है।
एक
और समझ है जो
बुद्धि से
नहीं होती, जो
तुम्हें
दिखायी पड़ती
है। सुनते—
सुनते रज्जब
को कोई बात दिखायी
पड़ जाती है।
जैसे कोई भाला
चुभ गया।
रज्जब ने कहा
न—धन्य मैं कि
मेरे गुरु ने
मेरी छाती में
भाला भोंक
दिया। उसी
भाले के
भोंकने से भजन
का भाव जमा।
उसी भाले के
भोंकने से मैं
मिटा और
परमात्मा का
मुझे अनुभव
हुआ। ये शब्द
नहीं हैं, तीर
हैं। इनकी
व्याख्या तो
सिर्फ एक
बहाना है कि
तुम्हारा
हृदय खुला हो,
कोई तीर
तुम्हें चुभ
जाए।
नामरदा
भुगती नहीं, मरद
गये करि त्याग।
इस
संसार में
नामर्द वे हैं, जो
भोग ही नहीं
पाते। संसार
को ही नहीं
भोग पाते। और
तुम्हारे
तथाकथित साधु'—संन्यासियों
में
निन्यानबे
नामर्द है; भगोड़े हैं।
बिना भोगे भाग
गये हैं। और
बिना भोगे जो
भागता है, भोग
उसका पीछा
नहीं छोड़ता।
वे पहाड़ों में
बैठ जाएँ, वे
गुफाओं में
छिप जाएँ, भोग
उनका पीछा
नहीं छोड़ सकता।
समझ से तो गये
नहीं, जीवन
अभी व्यर्थ
नहीं हुआ था, अभी जीवन
में सब
सार्थकता
दिखायी पड़ती
थी, शायद
जीवन से भी डर
गये और भाग
गये। ख्याल
रखना, जीवन
से भी डर पैदा
होता है।
बाजार में
संघर्ष है, गलाघोंट
प्रतियोगिता
है, भागने
का मन होता है,
कहीं छिप
जाओ।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जब भी दुकानदार, व्यवसायी,
कामकाज में
लगे लोग बहुत
चिंता से घिर
जाते हैं, तो
बीमार हो जाते
हैं। बीमारी
आती नहीं, उनका
मन पैदा करता है।
ताकि बीमारी
की आडू में
छिप जाएँ। अब
इतना भारी हो
गया बाजार, जिंदगी जीनी
कठिन हुई जा
रही है, रात
नींद नहीं है,
दिन चैन
नहीं है, तनाव
बढ़ता जा रहा
है, तो मन
एक उपाय करता
है, कि अब
इससे भागने का
तो सीधा उपाय
नहीं है, बीमार
हो जाओ। मन एक
नयी बीमारी
बना लेता है।
बीमारी के
पीछे आदमी छिप
सकता है। फिर
कोई यह नहीं
कहेगा कि तुम
भगोड़े हो। अब
तुम क्या
करोगे, अगर
तुम्हें
पक्षाघात हो
जाए तो बिस्तर
पर लेटना ही
होगा। ऐसे
लेटोगे तो
सारी दुनिया
कहेगी कि तुम
कमजोर हो, अभी
संघर्ष का
मौका था तो
भाग गये, तो
आदमी
पक्षाघात
पैदा कर लेता
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सत्तर
प्रतिशत पक्षाघात
झूठे होते हैं,
पैदा किये
होते हैं, मानसिक
होते हैं।
ऐसा
हुआ एक घर में
एक आदमी को दस
साल से
पक्षाघात की
बीमारी थी, लकवा
लगा था. और घर
में आग लग गयी।
जब सारे लोग
भागे, वह
भी भाग कर
बाहर आ गया।
कोई देख कर
भरोसा ही नहीं
कर सका कि वह
तो चलता ही
नहीं था, वह
तो उठता ही
नहीं था
बिस्तर से, वह भाग कैसे
सकता है? मगर
आग लग गयी तो
उसे याद भी न
रहा होगा। आग
लग गयी तो
अचेतन मन ने
जो बीमारी
पैदा की थी वह
वापिस ले ली
होगी। यह खतरा
भारी था।
बाजार का खतरा
तो ठीक है, मगर
आग का खतरा और
बड़ा खतरा था।
अचेतन मन ने
तत्काल
बीमारी वापिस
ले ली। वह
आदमी भाग ही
गया। उसने
सोचा भी नहीं,
विचार भी
नहीं आया, मौका
भी नहीं था, समय भी नहीं
था। बाहर जब
पहुँचा और भीड़
ने कहा— अरे
तुम, और दस
साल से तुम चले
नहीं! वह वहीं
तत्क्षण गिर
पड़ा। वापिस
लौट आया भाव।
तुम
चकित होओगे यह
जानकर कि
मनोवैज्ञानिकों
का यह कहना कि
सत्तर
प्रतिशत लोग
मानसिक पक्षाघात
से घिरे रहते
हैं,
सौ मे से, बड़ी खोजबीन
पर आधारित है।
और इसका सीधा—सा
परीक्षा का
उपाय है। जो
आदमी
पक्षाघात से
भरा है, उसको
सम्मोहित कर
दिया जाता है
और सम्मोहन अवस्था
में कहा जाता
है—उठो, चलो।
वह चलने लगता
है। अगर शरीर
में खराबी
होती तो चल ही
नहीं सकता, चाहे
सम्मोहन हो और
चाहे सम्मोहन
न हो। लेकिन
शरीर में कोई
खराबी नहीं है,
मूर्छा की
अवस्था में
चलने लगता है।
कभी—कभी गहरे
नशे में चलने
लगता है। खूब
शराब पिला दी
और चलने लगता
है। आदमी
बीमारियाँ
पैदा करता है।
तुम
जानते हो, पश्चिम
में इस तरह की
बीमारियाँ
ज्यादा पैदा
होती हैं बजाय
पूरब के।
क्योंकि पूरब
ने धर्म की
आडू में पलायन
का उपाय खोज
लिया है। पूरब
में जिसको
बहुत घबड़ाहट
हो जाती है
संसार से, डर
लगने लगता है,
वह
संन्यासी हो
जाता है। हमने
ज्यादा सुंदर
उपाय खोजा।
किसीको बीमार
होने की जरूरत
नहीं, संन्यासी
हो सकता है, पहाड़ जा
सकता है। लोग
सम्मान
करेंगे। लोग
शोभा— यात्रा
निकालेंगे।
लोग कहैंगे—मुनि
महाराज आए हुए
हैं। स्वामी
जी आए, महात्मा
जी आए हुए हैं।
ये सब भगोड़े
हैं। और ये
वहाँ बैठकर
गुफाओं में भी
भोग का ही चिंतन
करते हैं। कुछ
और चिंतन कर
भी नहीं सकते।
तुम जो
शास्त्रों
में पढते हो
.कि ऋषि—मुनियों
को अप्सराएँ
सताती हैं, कोई
अप्सराएँ
कहीं हैं नहीं
सताने को’ अप्सराओं
को फुरसत कहाँ?
कहाँ से
अप्सराएँ आती
हैं? वही
अधूरा भोग, अनजिआ भोग।
यह वचन
अद्भुत है।
रज्जब कह्ते
है—
नामरदां
भुगती नहीं, मरद
गये करि त्याग।
जो
कमजोर हैं, उन्होंने
तो भोगा ही
नहीं। और
जिन्होंने
भोगा नहीं, उन्होंने
जाना नहीं। और
जिन्होंने
भोगा नहीं, उनका त्याग
व्यर्थ। भोग
से जिसके जीवन
में त्याग आता
है, उसको
मर्द कह रहे
हैं रज्जब।’ मरद
गये करि त्याग’।
उन्होंने
भोगा भी और
भोग कर देखा
भी, जूझे
भी, लड़े भी,
जिंदगी को
पहचाना भी और
देखा कि सब राख
है। किसीके
कहने' से
नहीं मान लिया।
नहीं कि कोइँ
महात्मा कहता
था' कि सब
व्यर्थ है, असार है, छोड़ो
संसार, त्यागो
संसार।
किसीकी बातों
में पड़कर नहीं,
अपने निजी
अनुभव से, चल—चल
कर, संसार
की
मृगमरीचिकाओं
के पीछे दौड़—दौड़
कर, पहुँच—पहुँच
कर पाया कि
वहाँ कुछ नहीं,
रेगिस्तान
है। सिर्फ
भ्रम पैदा
होता है। सब
सपना है। यह
जो अपने निजी
अनुभव से बात
पकती है तो
फिर एक त्याग
फलित होता है,
वह त्याग
मर्द का त्याग
है।
उपनिषद
कहते हैं—तेन
त्यक्तेन
भुन्जीथा।
उन्होंने ही
त्यागा
जिन्होंने
भोगा। यह बड़ा
अद्भुत वचन है।
यह थोड़े—से
अद्भुत वचनों
में से एक है—तेन
त्यक्तेन
भुन्जीथा, जिन्हेंने
भोगा
उन्होंने ही
त्यागा। बिना
भोग के
त्यागोगे
कैसे? क्योंकि
बिना भोग के
ज्ञान कहाँ? बिना भोग के
अनुभव कहाँ? और जो संसार
को ही नहीं
भोग सका, वह
परमात्मा को
भोगने की तो
आशा ही छोड़ दे।
क्योंकि वह
इसके आगे का
कदम है। जो
झूठ को नहीं
भोग सका, वह
सच को क्या
भोगेगा? जो
झूठ के भीतर
उतरने का
सामर्थ्य.
नहीं रखता था,
वह सत्य के
भीतर उतरने
की: सामर्थ्य
नहीं जुटा
पाएगा।
नामरदां
भुगती नहीं, मरद
गये करि त्याग।
यह
संसार में जो
रस है, इस
संसार में
छिपी हुई जो
ऋद्धि—सिद्धि
है—बडी
ऋद्धियाँ—सिद्धियाँ
छिपी हैं, बाहर
की भी और भीतर
की भी। यह
संसार बड़ा
जादू है। यहाँ
बाहर के बड़े
आकर्षण हैं, बड़े लुभावने,
बड़े
मनभावने।
यहाँ भीतर के
भी आकर्षण हैं।
किसी आदमी के
पास धन है और
किसी दूसरे
आदमी के पास
किसी के विचार
पढ़ लेने की
कला है। एक
आदमी के पास
पद है और किसी
दूसरे आदमी के
पास जमीन से
उठ जाने की
कला है। ये
दोनों एक ही
जगत की बातें
हैं।
इसलिए
पतंजलि ने
पूरा एक
अध्याय लिखा
है अपने
सूत्रों में साधकों
को समझाने के
लिए कि ऋद्धि—सिद्धियों
से सावधान
रहना, वे भी
सांसारिक हैं।
बाहर के
प्रलोभन से
बचता है आदमी
तो भीतर के प्रलोभन
आ जाते हैं।
और भीतर के
प्रलोभन
ज्यादा गहरे
हैं। स्वभावत:
तुम अगर भीतर
की किसी
सिद्धि को पा
लो तो तुम
बाहर की कोई
भी सिद्धि
छोड़ने को तैयार
हो जाओगे। जरा
सोचो, कितना
धन छोड़ने को
तुम राजी न हो
जाओगे अगर तुम
आकाश में
पक्षी की
भाँति उड़ सको।
तुम कहोगे—सारे
धन पर लात मार
दूँगा।
क्योंकि ऐसा
अद्वितीय काम,
कोई दूसरा
तो कर ही नहीं
सकता, धन
तो बहुतों पर
है, यह
पक्षी की उड़ान
तो सिर्फ मेरी
विशिष्टता होगी।
हालाँकि
पक्षी की उड़ान
से तुम्हें
कुछ मिलेगा
नहीं।
परमात्मा
तुम्हें
उड़ाना चाहता
तो कौवा बनाता।
उसने तुम्हें
आदमी बनाया
सोच—विचार कर।
तुम उसका
अपमान मत करो।
एक
आदमी
रामकृष्ण के
पास आया। वे
बैठे थे
दक्षिणेश्वर
के मंदिर के
बाहर गंगा के
किनारे। उस
आदमी ने कहा
कि चलें—योगी
था,
प्रसिद्ध
योगी था—चलें
जरा गंगा की
सैर कर आएँ।
दोनों गंगा के
किनारे सैर
करने गये। वह
योगी बोला —चलें
जरा गंगा के
ऊपर भी सैर कर
आएँ। मुझे
पानी पर चलना
आता है।
रामकृष्ण ने
कहा—वह यही
दिखाने उनको
गंगा के
किनारे ले गया
था कि मुझे
पानी पर चलना
आता है—रामकृष्ण
ने कहा, कितने
दिन लगे सीखने
में? उस
योगी ने कहा—अठारह
साल लगे। बड़ी
कठिन
तपश्चर्या से
यह कला हाथ
लगी।
रामकृष्ण खूब
खिलखिलाकर
हँसे।
उन्होंने कहा—इस
कला की कीमत
दो पैसा।
क्योंकि मैं
दो पैसे में
नदी पार हो
जाता हूँ। उन
दिनों सस्ती
दुनिया थी, दो पैसों
में माझी उस
तरफ ले जाता।
दो पैसे की
कला में अठारह
साल गँवाए
तूने? तुम
होश में हो? तुम पागल तो
नहीं हो गये
हो? पानी
पर भी चलोगे
तो क्या होगा?
हवा में भी ?
उड़ोगे
तो क्या होगा
बाहर
की
उपलब्धियाँ
हैं,
भीतर की
उपलब्धियाँ
हैं। लेकिन, दोनों के
पार वही जा
सकता है जो
दोनों को भोग
लेता है। पहले
संसार को भोग
लेना, भोग
को भोग लेना, फिर योग को
भी भोग लेना, और तभी तुम
जानोगे त्याग
क्या है।
नामरदां
भुगती नहीं, मरद
गये करि त्याग।
एक
तो नामर्द है, वह
भोगा ही नहीं
है। और एक
मर्द है, उसने
भोग भी लिया, देख भी लिया,
व्यर्थता
भी पा ली और
चला भी गया।
और मजा यह है
कि बहुत बार
दोनों एक—जैसे
मालूम पड़ेंगे,
इससे
भ्रांति होती
है। क्योंकि
नामर्द भी जा
कर गुफा में
बैठ सकता है
और मर्द भी
गुफा में बैठ
सकता है। और
दोनों एक—जैसे
मालूम पड़ेंगे।
एक ने भोगा
नहीं है, डर
कर आ गया है, एक ने भोगा
है, देख कर,
समझकर, अनुभव
से आ गया है।
दोनों में
फर्क बड़ा होगा।
जमीन—आसमान का
फर्क होगा।
यही
छोटे बच्चे और
संत का भेद है।
छोटा बच्चा
संत जैसा ही
होता है—सरल, निर्दोष।
संत भी छोटे
बच्चों जैसा
होता है—सरल, निर्दोष।
लेकिन छोटे
बच्चे ने अभी
भोगा नहीं है।
अभी भोगेगा।
अभी भोग में
जाना पड़ेगा।
संत भोग कर आ
चुका। छोटे
बच्चे की
यात्रा अभी
शुरू भी नहीं
हुई है, संत
की यात्रा
पूरी हो गयी
है। इसलिए कभी—कभी
बच्चों में
संतत्व लगेगा
और संतों में
बच्चों—जैसा
बालपन।
रज्जब
रिधि क्वाँरी
रही, पुरुष—पाणि
नहिं लाग।।
इस
संसार में जो
भी छिपा है, वह
किसी के भी
हाथ नहीं लगता।
क्यों नहीं
लगता? क्योंकि—नामरदा
भुगती नहीं।
नामर्द के तो
हाथ लगता ही
नहीं इस ससार
में जो छिपा
है, क्योंकि
वह भोगता ही
नही। वह भोग
ही नहीं पाता,
अपनी
कमजोरियों
में छिपा रह
जाता है। वह
सफलता से डरता
है, भयभीत
होता है।
तुम
यह जानकर चकित
होओगे कि
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सफलता का भी
भय है। यह तुम
मानोगे भी
नहीं। पचास
साल लग गये
मनोवैज्ञानिकों
को यह बात सिद्ध
करने में कि
सफलता में एक
तरह का भय है।
लोग सफल नहीं
होना चाहते।
तुम कहोगे यह
बात जँचती
नहीं, क्योंकि
हर आदमी सफल
होना चाहता है,
हर आदमी
कहता है—मैं
सफल होना
चाहता हूँ।
लेकिन जैसे—जैसे
सफलता करीब
आती है, आदमी
घबड़ाने लगता
है। सफलता
आदमी चाहता है
तब तक जब तक
मिलती नहीं।
और कभी हजार
में एकाध को
मिलती है।
इसलिए नौ सौ निन्न्यानबे
इसी भ्रांति
में जीते हैं
कि सफलता
चाहते थे।
जिसको मिल
जाती है, उसको
पता चलता है
कि हाथ तो कुछ
लगा नहीं। यह
दौड़धूप
व्यर्थ गयी।
तब उसे पता
चलता है कि
पहले ही मन
में कोई स्वर
कह रहा था कि
मत दौड़ो, मत
दौड़ो, व्यर्थ
है। भीतर कोई
वृत्ति है
हमारे, जो
कहती है—व्यर्थ
के पीछे मत
दौड़ो।
हालाँकि सारे
लोग दौड़ रहे
हैं इसलिए हम
भी दौड़ते हैं।
क्योंकि हम
अनुकरण से
जीते हैं।
रज्जब रिधि
क्वाँरी रही,
पुरुष—पाणि
नहिं लाग।।
आदमी
के हाथ लगी
नहीं, इस जगत
में जो सम्पदा
छिपी है वह
किसी आदमी के हाथ
नहीं लगी।
नामर्द को
नहीं लगी
क्योंकि उसने
भोगा नहीं, मरद को नहीं
लगी क्योंकि
उसने भोगा और
जाना कि
व्यर्थ है, इसलिए छोड़
कर चला गया।’ रज्जब
रिधि क्वाँरी
रही'। यह
संसार
क्वांरा—का—क्वाँरा
है। नामर्द
विवाहते नहीं,
मर्द जान
लेते हैं यहाँ
कुछ विवाह
योग्य नहीं है।
यह संसार
क्वाँरा—का—क्वाँरा
है।
कितने ही
यहाँ ऐसे कँवल
होते हैं
खिलते
नहीं और व'क्फे—अजल
होते हैं
यह बात
जुदा है कि वह
तामीर न हो
हर जिह्न
में कुछ
ताजमहल होते
हैं
'कितने ही
यहाँ ऐसे कँवल
होते हैं, खिलते
नहीं और वक्फे—अजल
होते हैं। मौत
आ जाती है, बिना
खिले।’ यह बात
जुदा है कि वह
तामीर न हो’।
निर्मित न हो
सके भला, यह
बात अलग है, मगर हर
मस्तिष्क में—'हर जिह्न
में कुछ
ताजमहल होते
हैं'। सभी
अपने ताजमहल
बना नहीं पाते,
कभी कोई
एकाध बना पाता
है। लेकिन जो
बना पाता है, वह बना कर
पाता है कि
व्यर्थ गया; व्यर्थ हुई
मेहनत! जो
नहीं बना पाता,
वह तो थोड़ी
आशा भी रखता
है, जो बना
पाता है, उसकी
आशा भी मर
जाती है। इस
जगत में सफल
आदमी से
ज्यादा असफल
आदमी दूसरा
नहीं होता।
इसलिए
बुद्ध ने महल
छोड़ दिया। वह
सफल आदमी का
अनुभव है।
महावीर ने
साम्राज्य
छोड़ दिया। वह
सफल आदमी का
अनुभव है। राख
पायी, छोड़ते न
तो क्या करते!
तुम्हें
दिखायी पड़ता
है महल छोड़
दिया, उन्हें
दिखायी पड़ता
है कि
उन्होंने राख
छोड़ी।
जब
बुद्ध महल
छोड्कर गये और
उनका सारथी
उन्हेँ जंगल
में छोड़ा तो
सारथी ने कहा—मुझे
कहना नहीं
चाहिए, मैं
तो आपका दास, लेकिन एक
बात कहे बिना
नहीं रह सकता
और यह आखिरी
मौका है, फिर
शायद मिलना हो,
न हो। यह
मैं कहना
चाहता हूँ कि
आप गलती कर
रहे हैं। मुझ
गरीब की बात
सुनें। इतने
सुंदर
राजमहलों को
छोड्कर आप जा
कहाँ रहे हैं?
बुद्ध ने
कहा—राजमहल? पीछे लौट कर
देखा और कहा—मैं
तो केवल आग की
लपटें देखता
हूँ। सारथी को
राजमहल
दिखायी पड़ता
है, बुद्ध
को लपटें
दिखायी पड़ती
हैं। सारथी
महलों के भीतर
गया नहीं है, बुद्ध महलों
के भीतर जी
लिये हैं व्यर्थता
देख ली है।
सफलता जैसी
असफल होती है
और कोई चीज
असफल नहीं
होती।
इसलिए
मेरा तुमसे
कहना है—संसार
से भगोड़ों की
तरह मत भागना।
त्यागी की बात
और है। त्याग
भोग की अंतिम
निष्पत्ति है।
त्याग भोग का
ही फूल है।
भोग से ही
खिलता है।
जैसे कीचड़ में
कमल खिलता है, ऐसे
भोग में त्याग
खिलता है।
कीचड़ से भाग
गये तो फिर
कमल कभी नहीं
खिलेगा। कीचड़
में ही खिलता
हैं और कीचड़
से उठकर खिलता
है। कीचड़ में
ही खिलता है
और कीचड़ के
पार चला जाता
है।
और
जब यह दिखायी
पड़ जाता है कि
यहाँ पाने को
कुछ भी नहीं
है,
तो एक नयी
यात्रा शुरू
होती है। फिर
जंगल जाने की
जरूरत नहीं रह
जाती। वह तो
प्रतीक मात्र
है। एकांत का
प्रतीक है। और
एकांत भीतर है।
वे गुफाएँ जो
बनीं हैं
हिमालय में, वे तो सिर्फ
प्रतीक हैं।
कृष्ण ने कहा
है—हृदय की
गुफा। वही
असली गुफा है।
जैसे ही बाहर
सब व्यर्थ हो
जाता है, बाहर
से आदमी
संतुष्ट हो
जाता है।
दौड़धूप बद हो
गयी। अब एक
नया असंतोष
जागता है, अंतर्खोज
का। धन्यभागी
हैं वे जिनके
जीवन में
अंतर्खोज का असंतोष
जागता है। एक
दिव्य
अतृप्ति :
दुनिया
उल्टो है।
यहाँ लोग बाहर
से असंतुष्ट
हैं और भीतर
से संतुष्ट
हैं। संत वही
है जो बाहर से
सतुष्ट और
भीतर से
असंतुष्ट
होता है। जो
परमात्मा से
कम पर राजी
नहीं होता। जो
कहता है—परमात्मा
मिले। जिसके
भीतर विरह की
आग जलनी शुरू
होती है।
छाजन भोजन
दे भगवंत, अधिक
न बाछैं साधू
संत।
बाहर
बस अब उसकी
इतनी ही माँग
है—छाजन भोजन
दे भगवंत।
भगवान इतना दे
दे;
छप्पर हो, भोजन मिल
जाए। सोने को
कोई रात जगह
मिल जाए, दिन
को शरीर के
लिए दो रोटी
मिल जाएँ।
छाजन भोजन
दे भगवंत, अधिक
न बाछैं साधू
सत।
और
वही साधु है, जिसकी
वासना अधिक की
नहीं है।
अब
अधिक शब्द को
समझना बहुत
उपयोगी है।’ अधिक
न बाछैं’।
मनुष्य धन से
नहीं फँसा है,’ अधिक’
से फँसा है।
धन नहीं
बाँधता
तुम्हें, अधिक
का भाव बाँधता
है। तुम्हारे
पास पाँच हजार
हैं, मन
कहता है दस
हजार चाहिए।
तुम्हारे पास
दस हजार हो
जाएँगे, मन
कहता बीस हजार
चाहिए।
तुम्हारे पास
बीस हजार भी
हो जाएँगे और
मन कहेगा—पचास
हजार चाहिए।
धन से नहीं
बँधा है मन, मन बँधा है
अधिक से। और, और, और।
मन का रूप है—और
चाहिए। इसलिए
गरीब भी उतना
ही बँधा है, अमीर भी
उतना ही बँधा
है। यह .मत सोच
लेना कि गरीब
मुक्त है।
क्योंकि वह भी
और माँग रहा
है। जिसके पास
पाँच कौड़ी हैं,
वह दस कौड़ी
माँग रहा है।
जिसके पास
पाँच करोड़ हैं,
वह दस करोड़
माँग रहा है।
दोनों की माँग
बराबर है, अनुपात
बराबर है, दोनों
दुगुना करना
चाहते हैं, दोनों में
जरा भी भेद
नहीं है।
इसलिए
तुम यह मत सोच
लेना कि गरीब
होने में कोई
गुण है। जैसा
कि इस देश में भ्रांति
हो गयी कि
गरीब होने में
कुछ गुणवत्ता
है। गरीब होने
में कोई गुण
नहीं
है। गुण तो ‘अधिक’
से मुक्त होने
में है। जौ है,
जितना है, पर्याप्त है।
और अधिक की
आकांक्षा
नहीं है।
'अधिक न
बाछैं’। यह
सूत्र प्यारा
है। यह सूत्र
गहरा है।
रज्जब कह सकते
थे—धन न बाछैं
साधू संत।
लेकिन नहीं, धन नहीं कहा,’
अधिक न
बाछैं साधू सत’।
क्योंकि कोई
धन छोड़ सकता
है और धन की
आकांक्षा न
करे और पद की
आकांक्षा
करने लगे। तो
फिर डिप्टी
मिनिस्टर
मिनिस्टर
होना चाहता है,
फिर
मिनिस्टर चीफ
मिनिस्टर
होना चाहता है,
फिर’ अधिक’ की
दौड़ शुरू हो
गयी।
तुम्हारे पास
थोड़ा—सा ज्ञान
है, यह
ज्यादा हो जाए,’अधिक' की
दौड़ शुरू हो
गयी।
तुम्हारा
थोड़ा—सा त्याग
है, थोड़ा
और अधिक त्याग
हो जाए,’ अधिक’
की दौड़ शुरू
हो गयी।’ अधिक’ किसी
भी चीज पर
सवार हो सकता
है—धन पर, पद
पर, त्याग
पर भी, ज्ञान
पर भी—' अधिक’
किसी भी चीज
पर सवार हो
सकता है।’ अधिक’
को ध्यान में
रखना।’ अधिक’ जहाँ
चला गया, और
की माँग न रही,
जो है
पर्याप्त है,
जैसा है
वैसा
पर्याप्त है,
ऐसी चित—दशा
का नाम साधुता
है। यह बड़ी और
बात है।
किसी
आदमी ने महल
छोड़ दिया, तुम
कहते हो—बडा
साधु। मगर यह
हो सकता है
उसने त्याग की
अशर्फियाँ इकट्ठी
करनी शुरू कर
दीं। उसके मन
में त्याग की
गणना शुरू हो
गयी। अब वह
सोचने लगा—स्वर्ग
में मुझे कौन—सा
स्थान मिलेगा?
तुम्हारे
शास्त्र भरे
पड़े हैं इसी
तरह की बातों
से, कि
इतना त्याग
यहाँ करोगे तो
वहाँ कितना
भोग होगा।
यहाँ एक रुपया
छोड़ोगे, वहाँ
एक करोड़ गुना
मिलेगा। यह तो
लॉटरी हो गयी।
यह तो पुराने
ढंग की, धार्मिक
किस्म की
लॉटरी हो गयी।
यह तो प्रलोभन
ही हुआ। एक
रुपया इसलिए
छोड़ा कि करोड़
रुपये
मिलेंगे। यह
तो’ अधिक’ की
दौड़ हो गयी।
इससे बड़ी और
क्या दौड़ होगी?
संसार में
भी इतना नहीं
मिलता है। एक
से एक करोड़
कहीं मिलता
है! ’स्मगलिंग'
करो तो बात
और है। मगर एक
से कोई एक
करोड़ नहीं
मिलता।
स्वर्ग में
यहाँ एक का
त्याग करो
वहाँ करोड़ गुना
मिलता है, ऐसा
जिन्होंने
सोचकर त्याग
किया, उन्होंने
त्याग किया? उन्होंने
त्याग ईकया ही
नहीं। उन्हें
कुछ समझ में
आया नहीं। वे
एक नये जाल
में पड़ गये।
छाजन भोजन
दे भगवंत, अधिक
न बाछैं साधू
संत।
ये’
अधिक’ के फूल
ही हमें भटका
रहे हैं। ये
दूर से बड़े
लुभावने लगते
हैं और जब पास
जाओ तो कुछ
नहीं मिलता।
ऐसे जीता
हूँ जैसे शीशे
के
टूटे
हिस्से को
जोड़ता है कोई,
या तरसती
हुई उमंग के
साथ,
ख्वाब में फूल
तोड़ता है कोई।
बस
सपने के फूल
हैं,
झूठे फूल
हैं, इनको
ही तोड़ते रहो
और इकट्ठे
करते रहो —और
अधिक, और
अधिक और अधिक।
और तुम भटकते
रहोगे।’ अधिक’ की
व्यर्थता से
जो जाग गया, वही साधु है।
रज्जब यह
संतोषी चाल, माँगहि
नाहिं मुलक औ
माल।।
कुछ
भी नहीं
माँगता।
संतोषी की यही
चाल है कि
उसकी माँग चली
गयी। और जहाँ
माँग चली गयी, वहाँ
तुम भिखारी न
रहे, मंगने
न रहे। जहाँ
माँग गयी, वहीं
तुम सम्राट
हुए।
स्वामी
राम अपने को
बादशाह कहते
थे। जब वह
अमरीका गये और
वहाँ भी
उन्होंने
अपने को
बादशाह कहना
जारी रखा—यहाँ
तो लोग समझते
हैं,
यहाँ तो लोग
सदियों से
पहचानते हैं
कि हम बादशाह
किसको कहैं—अमरीका
में भी जब
उन्हेंने
अपने को
बादशाह कहना
जारी रखा तो
लोगों ने पूछा
कि यह जरा समझ
के बाहर है, आपके पास
कुछ नहीं है, दो
लँगोटियाँ
हैं, आप
बादशाह किस
हैसियत से
कहते हैं अपने
को? आपका
साम्राज्य
कहाँ है? राम
ने अपनी छाती
पर हाथ रखा और
कहा—यहाँ।
खिलखिलाकर
हँसे और
उन्होंने कहा
कि तुमने ठीक
याद दिलाया, दो
लँगोटियाँ
हैं, इनकी
वजह से मेरी
बादशाहत थोड़ी
कम है। यह भी न
होती तो मेरी
बादशाहत पर
कोई सीमा ही न रह
जाती, बस
यह दो
लँगोटियों की
सीमा है। मैं
इसीलिए अपने
को बादशाह
कहता हूँ कि
मेरी कोई माँग
नहीं है। मैं
मँगना नहीं
हूँ, भिखारी
नहीं हूँ। रही
साम्राज्य की
बात, वह
मेरे भीतर है।
यूनान
का प्रसिद्ध
दार्शनिक
डायोजनीज
नग्न रहता था
और एक
भिक्षापात्र
रखता था। जैसा
बुद्ध रखते थे, महावीर
रखते थे। एक
दिन जा रहा था
नदी के किनारे,
प्यास लगी
थी, नदी के
पास पहुँचा, भिक्षापात्र
में पानी भरने
को ही था, तभी
एक कुत्ता
भागा हुआ आया,
छलाँग लगा
कर नदी में
कूदा, दिल
भर कर पानी
पिया और जाने
लगा।
डायोजनीज उसे
गौर से देखता
रहा, उसने
अपना
भिक्षापात्र
नदी में छोड़
दिया और बहा
दिया और कहा—जब
एक कुत्ता
बिना
भिक्षापात्र
के पानी पी लेता
है, तो मैं
नाहक इसको
ढोता फिरता
हूँ। मैं भी
ऐसे ही पी
लूँगा। जब
कुत्ता पी
लेता है तो
मैं भी पी
लूँगा। यह
भिक्षापात्र
भी किसलिए ढोए
फिरूँ?
संतोष
की एक चाल है, एक
ढंग है, एक
शैली है। क्या
है वह शैली? उसका आधारभूत
नियम क्या है?
माँग नहीं।
जो भी है, जैसा
भी है, ठीक
है। यहाँ सब
ठीक ही होता
है। क्योंकि
परमात्मा
रखवाला है।
छाजन भोजन दे
भगवंत। वह
देता ही है।
वृक्षों को
देता है, पशु—पक्षियों
को देता है, आदमी को न
देगा! आदमी उसकी
श्रेष्ठतम
कृति है, उसकी
चिंता न लेगा?
यह
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति
उपेक्षा से
भरा नहीं है।
यह अस्तित्व
तुम्हें भी
उतना ही प्रेम
करता है जितना
पशु—पक्षियों
को, वृक्षों—पहाड़ों—नदियों
को। देगा
भगवान, जो
जरूरत है देगा।
इसका
यह भी मतलब
नहीं है कि
तुम आलसी हो
जाओ। क्योंकि कर्म
की भी जरूरत
है,
वह भी भगवान
दे रहा है।
कुछ करना है, वह भी भगवान
करा रहा है।
अब यह ख्याल
रखना कि इन
सूत्रों से
कभी—कभी गलत
अर्थ निकाल
लिये गये हैं।
यह पूरा देश
गलत अर्थ
निकाल कर बड़ी
झंझटों में पड़
गया है। इस
देश ने कहा कि
सब ठीक है, जब
भगवान ही देगा
तो फिर हमें
क्या करना है!
अजगर करै न
चाकरी.. .विश्राम
करेंगे.. .पंछी
करैं न काम, दास मलूका
कह गये सबके
दाता राम। अब
करना क्या है?
अब चादर ओढ़
कर सोएँगे।
इसने इस देश
को गरीब— से—गरीब
बना दिया, दीन—सें—दीन
बना दिया।
तुमने देखा
पक्षी चादर ओढ़
कर सोए हैं? काम में लगे
हुए हैं। सुबह
से काम में लग
जाते हैं, साँझ
तक काम चलता
है। लेकिन
फर्क इतना ही
है कि काम से
कर्ता का भाव पैदा
नहीं होता।
अजगर चाकरी
करने तो नहीं
जाता, लेकिन
भोजन की तलाश
करता है।
लेकिन तलाश
मैं कर रहा
हूँ, ऐसा
नहीं, परमात्मा
ही कर रहा है।
जो
भी तुम कर रहे
हो,
वह
परमात्मा कर
रहा है। और तब
अनावश्यक
कृत्य अपने—आप
विलीन हो
जाएँगे।
आवश्यक बच
रहेगा। उस
आवश्यक की
सूचना ही इन
शब्दों में दी
है—छाजन, भोजन।
इतना ही
आवश्यक है। कि
छप्पर मिल जाए,
कि रोटी मिल
जाए।
फिर
ये
आवश्यकताएं
भी भिन्न—भिन्न
लोगों की
भिन्न—भिन्न
हो सकती हैं।
फिर दूसरी भूल
मत कर लेना—
नहीं तो वह
भूल भी हुई है—कि
जब छाजन और
भोजन की बात
हो गयी, तो हर
आदमी को बस
इतने पर राजी
होना चाहिए।
लेकिन लोगों
की जरूरतें
अलग हैं।
किसीको
बाँसुरी
चाहिए और गीत
गूँजना चाहता
है। उसको छाजन—भोजन
से काम न
चलेगा। उसे
बाँसुरी भी
चाहिए।
किसीको वीणा
बजानी है, उसके
भीतर कोई स्वर
छिपे हैं जो
प्रगट होना चाहते
हैं, कोई
छंद मुक्त
होना चाहता है,
तो उसे वीणा
भी चाहिए होगी।
मगर यही छाजन—
भोजन है उसका।
इसलिए इस
भ्रांति में
मत पड़ना कि सब
लोग लँगोटी
लिये ही खड़े
हैं।—अपना एक—एक
डंडा रख लिया
है! नहीं तो
फिर भ्रांति
हो जाएगी।
प्रत्येक
व्यक्ति की
निजता है। और
परमात्मा
क्या करवाना
चाहता है, उससे
करवाएगा। मगर
तुम करनेवाले
मत रह जाना।
तुम सिर्फ
होने देना।
तुम अपने को
उसके हाथ में
छोड़ देना—इतनी
ही बात है।
नहीं तो बड़ी
भूलें हो जाती
हैं।
एक
जैन—मुनि मेरे
पास मेहमान थे।
उन्हें कहीं
पत्र लिखना था, वह
मुझसे बोले—आप
पत्र लिख दें।
क्योंकि जैन—मुनि
को पत्र लिखने
की आज्ञा नहीं
है। क्योंकि
पत्र लिखो तो
कलम रखनी पड़ती
है पास, कागज
रखना पास। अब
कागज—कलम पास
रखो तो
संन्यास में
बाधा पड़ जाती
है। मैंने कहा—कागज—कलम
से बाधा पड़
जाएगी
संन्यास में!
तो दो कौड़ी का
यह सन्यास हुआ।
पर उन्होंने
कहा—शास्त्र
में लिखा है
कि कुछ भी
रखना नहीं है
पास में। कागज—कलम
तो लिखा ही
नहीं है
शास्त्र में
कि रखना है।
साफ निर्देश
है, क्या—क्या
रखना है, उसमें
कागज—कलम का
निर्देश नहीं
है।
तो
फिर मैंने कहा—पत्र
मत लिखवाओ।
मैं क्यों
पत्र लिखूँ
तुम्हारा? कहाँ
शास्त्र में
लिखा है कि
किसी और से
पत्र लिखवाना।
जब पत्र लिखने
की जरूरत है, जब पत्र
लिखा जाना
चाहता है, तो
लिखो। लिखना
तुम्हीं को
पड़ेगा, मैं
कागज—कलम दे
सकता हूँ। मैं
लिखने वाला
नहीं हूँ। मैं
क्यों लिखूँ
तुम्हारा
पत्र। मुझे
अपना पत्र
लिखना है, तुम्हें
अपना पत्र
लिखना है।
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना गीत गाना
है, अपना
नृत्य नाचना
है। दूसरे के
कंधों पर बंदूके
मत रखो।
तो
मैं यह तुमसे
नहीं कह रहा
हूँ कि तुम सब
बैठ जाना घरों
में जाकर कि—’छाजन
भोजन दे भगवंत', अब
क्या करना? बहुत नासमझी
हो चुकी है उस
तरह की। नहीं,
दुकान तुम
चलाना, लेकिन
जब भोजन मिले
तो जानना
भगवान ने दिया
है। नौकरी तुम
करना, मजदूरी
तुम करना, पत्थर
तुम तोड़ना, लेकिन जब
पुरस्कार
मिले तो आकाश
की तरफ आँख उठाकर
धन्यवाद देना,
अनुग्रह का
स्वीकार करना —'छाजन भोजन
दे भगवंत'।
जो भी मिलता
है, उसकी
तरफ से मिलता
है। और ऐसी
भावदशा में
तुम पाओगे कि
व्यर्थ की
दौड़धूप बंद हो
गयो।
सथिक
बहुत थोड़ा है।
सार्थक बहुत
सीमित है।
निरर्थक का
कोई अंत नही
है। लोग
निरर्थक
चीजें इकट्ठी
करते रहते हैं।
जिनकी उन्हें
जरूरत ही नहीं
है। मगर क्या
करें, पड़ोसी
खरीद लाया है।
पड़ोसी ने कार
ले ली, अब
तुम्हारी
छाती पर उसकी
कार घर्रघर्र
करती है। जब
भी उसकी कार
स्टार्ट होती
है, तुम्हारी
छाती कँपती है।
तुम्हारा
चित्त बेचैन
हो जाता है।
तुम्हें कोई
जरूरत नहीं है,
कल तक
तुम्हें
जरूरत की याद
भी न थी, मगर
यह पड़ोसी कार
क्या ले आया, मुश्किल खड़ी
कर दी।
तुम्हें कार
खरीदनी पड़ेगी।
चाहे उधार
लेकर खरीदो, चाहे जीवन
की अनिवार्य
जरूरतों को
काट कर खरीदो,
मगर कार
खरीदनी पड़ेगी।
अब तुम्हारे
पोर्च में कार
खड़ी होनी
चाहिए। चाहे
उस कार को खड़ा
करने में तुम
बिक जाओ, कोई
फिकिर नहीं, मगर कार खड़ी
होनी चाहिए।
फिर
कार अकेली
थोड़े आती है—इस
दुनिया में
कोई बीमारी
अकेली नहीं
आती है, बीमारी
के साथ और
बीमारियाँ
आती हैं—कार
ही खड़ी कर
लोगे पोर्च में
तो तुम अचानक
पाओगे कि यह
पोर्च जँचता
नहीं। यह
पोर्च साइकिल
टिकाने के
लायक था, इसमें
साइकिल टिकती
थी और भली
लगती थी, अब
यह कार खड़ी हो
गयी, मगर
पोर्च नहीं
जमता। अब बड़ा
मकान चाहिए।
फिर बड़े मकान
के लायक
तुम्हारे पास
फर्नीचर नहीं।
जो फर्नीचर था
वह उस छोटे
मकान में खूब
मौजूं था, बड़े
मकान में
बिल्कुल
फटीचर हो गया।
अब उसका कोई
मूल्य नहीं है,
अब नया
फर्नीचर
चाहिए। अब नया
फर्नीचर है, नया मकान है,
नयी कार है,
इस पत्नी का
क्या करो’ यह
बिल्कुल जमती
नहीं। यह गाँव
की गँवार।
इसको कार में
बिठा कर कहाँ
ले जाओ। सब
गड़बड़ हो गया!
और कार किसलिए
लाए थे? क्योंकि
पड़ोसी ले आया
था। पड़ोसी
इसलिए ले आया
होगा कि उसके
दफ्तर में किसी
आदमी ने खरीद
ली थी। उसके
दफ्तर में
किसी और को
देख लिया होगा।
या फिल्म में
देख ली होगी
एक कार और दिल
भा गयी होगी।
आदमी
व्यर्थ को
इकट्ठा करने
में लग जाता
है। तब उसकी
जीवनधारा
मरुस्थल में
खो जाती है।
तो
मैं तुमसे यह
नहीं कहता हूँ
कि तुम कुछ
करना मत।
अकर्मण्यता
मैं नहीं सिखा
रहा हूँ।
लेकिन जो भी
तुम करो, वह
सार्थक हो। और
यह भी नहीं कह
रहा हूँ कि
तुम्हारा
सार्थक दूसरों
जैसा ही होना
चाहिए। हर एक
व्यक्ति की
निजता है।
उसको अपनी
निजता से
सोचना और जीना
है।
कृष्ण
की जरूरत थी
तो उन्होंने
बाँसुरी बजायी।
कृष्ण
बाँसुरी न
बजाते तो
पृथ्वी बड़ी
खाली रह जाती; समृद्धि
पृथ्वी की कम
होती। जरा
सोचो, कृष्ण
न हुए होते और
बाँसुरी न
बजायी होती और
राधा न नाची
होती। इस जगत
में कुछ कमी
रह जाती। कुछ
अधूरा—अहgऊरा
रह जाता। कोई
स्थान खाली रह
जाता। अब तुम
कृष्ण को
जबर्दस्ती
महावीर बना कर
नग्न खड़ा मत
करो। नहीं तो
राधा नाचेगी
नहीं। और नग्न
कृष्ण के
आसपास राधा
नाचेगी तो बात
जँचेगी भी
नहीं। मोर—मुकुट
वाला कृष्ण ही
चाहिए।
बाँसुरी
बजाता कृष्ण
चाहिए। रास रच
सके, ऐसी
सुविधा।
लेकिन
मैं यह नहीं
कह रहा हूँ कि
महावीर भी
बाँसुरी
बजाएँ। वह भी
जँचेगी नहीं।
नंग—धड़ंग खड़े
होकर बाँसुरी
बजाएँगे, ऐसे
ही पागल मालूम
होते थे और
पागल मालूम
होंगे कि अब
बाँसुरी तो न
बजाओ कम—से—कम!
चुपचाप खड़े
रहो। बाँसुरी
बजाते तो मत
निकलो रास्ते
से! बाँसुरी
ही बजानी है
तो कम—से—कम
कपडे तो पहन
लो। और ये रास
तो न रचाओ; अगर
नग्न खड़े हो
तो चुपचाप
अकेले खड़े रहो।
महावीर
न होते तो भी
कुछ कमी रह
जाती। उनकी
नग्नता ने भी
एक पवित्रता दी
है,
एक निर्दोष
भाव दिया है।
उन्होंने
अपना गीत गाया
है।
इसलिए
मैं तुम्हें
यह भी याद
दिला दूँ कि
अपनी निजता से
जीओ। अपने
भीतर खोजो—
परमात्मा कौन—सा
गीत. तुमसे
गाना चाहता है? उसे
गाने दो, तुम
बाधा न बनो।
रज्जब यह
संतोषी चाल, माँगहि
नाहिं मुलक औ
माल।।
न
तो मूल्क
माँगो, न माल
माँगो। माँगो
ही मत। जीओ।
माँगना क्या
है, वस्तुत:
दो। दो ढंग हैं
इस दुनिया में
जीने के। एक
मँगने का ढंग
है, माँगने
वाले, भिखमगे
का, और एक
सम्राट का ढंग
है, देने
वाले का।
तुम्हारे पास
इतना है कि तम
दोगे तो
चुकेगा नहीं।
तुम जरा अपना
गीत गाओ और
नये गीत आने
लगेंगे। तुम
जरा अपना स्वर
छेड़ो और नये
स्वर उठने लगेंगे।
तुम जरा नाचो
और तुम पाओगे
पैर में नयी—नयी
ध्वनियाँ आती
जा रही हैं, उतर रही हैं।
तुम जरा देना
शुरू करो—
अपना प्रेम दो,
अपना आनंद
दो, अपना
रस बाँटो, और
तुम पाओगे
जितना तुम
बाँटते हो
उतना तुम्हारे
भीतर के कुएँ
से बहाव बढ़
रहा है, बाढ़
आ रही है।
देने वाला
पाता है कि
बढ़ता जाता है।
माँगने वाला
पाता है कि
घटता जाता है।
माँगने वाले
के पास सामान
इकट्ठा होता
जाता है, आत्मा
कम होती जाती
है। देने वाले
के पास सामान
हो या न हो, आत्मा
बड़ी होती चली
जाती है। और
वही असली तत्व
है।
रज्जब यह
संतोषी चाल, माँगहि
नाहिं मुलक औ
माल।।
और
यह केवल मर्द
ही कर सकते
हैं— देने की
हिम्मत, लुटाने
की हिम्मत।
नामरदा भुगती
नहीं, मरद
गये करि त्याग।
त्याग
को अगर तुम
मेरी भाषा में
समझो, जो मैं
त्याग को अर्थ
देता हूँ। मैं
अर्थ देता हूँ
त्याग को
बाँटने का।
देने का। जोर
इस बात पर
नहीं है कि
तुमने छोड़ा, जोर इस बात
पर होना चाहिए
कि तुमने दिया।
फर्क
समझ लेना
दोनों बातों
में।
छोड़ने
वाले का जोर
सिर्फ छोड़ने
पर होता है कि मैने
संसार छोड़
दिया। देने
वात्रे का जोर
इस बात पर होता
है कि जो मेरे
पास था, मैने
बाँटा। जिसको
जरूरत थी, उसको
दिया। जो ले
जाना चाहता था,
उसको दिया।
देने वाले का
जोर वस्तु में
कोई बुराई है
इसमें नहीं है,
कि वस्तु को
छोड़ देने से
ही, त्याग
कर देने से ही
सब कुछ हो
जाएगा। देने
वाले का जोर
प्रेम में है।
दोनों में
फर्क बड़ा है।
एक आदमी है जो
सारा धन छोड़
कर जंगल चला
गया। लेकिन इस
धन का क्या
हुआ? त्याग
तो दिया इसने,
बाँटा नहीं।
इस
देश में बहुत
त्यागी हुए, लेकिन
बाँटने वाले
नहीं हुए। अगर
कोई छोड़कर चला
गया धन, तो
उसके परिवार
में रहा, उसके
लोगों के पास
रहा, उसके
बेटों के पास
रहा, उसकी
पत्नी के पास
रहा। बाँटा
नहीं। त्यागी
बन गया, बिना
बाँटे। त्याग
में कहीं चूक
हो गयी। बाँट
देना था, उछाल
देना था।
इसलिए
मैं महावीर को
त्यागी नहीं
कहता।
क्योंकि
महावीर ने
बाँटा, उछाला।
महावीर को मैं
दाता कहता हूँ,
त्यागी
नहीं। दिया, सब बाँट
दिया। सारे
गाँव को
इकट्ठा कर
लिया और जो
उनके पास था, सब बाँट
दिया। जिसको जो
ले जाना था, ले जाए।
गाँव के बाहर
जब जा रहे थे
तो आखिरी गाँव
का आदमी जो
पहुँच नहीं
पाया महल तक, किसी काम
में उलझ गया
होगा 1 उसे कुछ
पता नहीं था
क्या हो रहा
है, खेत पर
रह गया होगा, गाय भटक गयी
होगी उसको
खोजने चला गया
होगा—एक आदमी
भर नहीं पहुँच
पाया था, वह
महावीर को अंत
में मिला जब
वे गाँव छोड़
रहे थे, उसने
कहा—औंर मेरा
क्या’ सब को
कुछ—कुछ मिल
गया। तो उनके
पास जो चादर
थी, वह दे
दी। इस तरह वह
नग्न हुए।
नग्नता कोई
साधी गयी बात
नहीं थी, सहज
फलित हुई। यह
आदमी न आया
होता, तो
शायद महावीर
ने चादर न
छोड़ी होती। अब
कुछ और था
नहीं देने को,
और यह आदमी
भीतर की कोई
बात नहीं समझ
सकता था, महावीर
इसको उपदेश
देते, इसकी
समझ के बाहर
था। यह ऐसा ही
होता जैसे
छोटा बच्चा
खिलौना माँग रहा
है और तुम उसे
भगवद्गीता दे
रहे हो। वह
फेंक देगा
उठाकर कि रख
लो अपनी किताब।
मुझे गुड़ूउा
चाहिए, कि
गुड्डी चाहिए।
यह आदमी आया
था, यह
कहता था कि
सबको सब कुछ
मिल गया, मुझे
कुछ भी नहीं
मिला, क्या
मैं खाली हाथ
रह जाऊँ? अपनी
चादर उतार कर
दे दी। चादर
बहुमूल्य थी—सम्राट
की चादर थी।
फिर
लँगोटी ही रह
गयी। जंगल से
गुजरते थे, गुलाब
की झाड़ी में
लँगोटी का एक
हिस्सा फँस
गया, तो
हँसे, और
उन्होंने कहा,
तो तू यह भी
ले ले। सोचा
कि गुलाब की
झाड़ी कह रही
है कि अब मुझे
क्या? सब
दे आए थे, यह
गुलाब की झाड़ी
माँगती है कि
और मेरा क्या?
तो कहा—यह
तू ले ले। अब
उस लँगोटी को
भी क्या
निकालना
गुलाब की झाड़ी
से! तो लँगोटी
भी छोड़ दी।
मगर यह छोड़ना
सिर्फ त्याग
नहीं है। मैं
फिर जोर देकर
कहना चाहता
हूँ—महावीर
दाता थे। दिया,
यह गुलाब की
झाड़ी को दिया।
इसमें जोर
देने पर है।
इसकी महिमा और
है। मर्द ही
कर सकेगे।
मौत अपनी न
अमल अपना न
जीना अपना
खो गया
शोरिशे—गेती
में करीना
अपना
नाखुदा
दूर, हवा
तेज, करीं
कामे—नहंग
वक्त है
फेंक दे लहरों
में सफीना
अपना
हिम्मत
चाहिए।
मौत अपनी न
अमल अपना न
जीना अपना
यहाँ
कुछ भी अपना
नहीं है, फिर
तुम डरते क्या
हो? यहाँ
सब चला ही
जाएगा, फिर
तुम डरते क्या
हो? यहाँ
पकड़ कर क्या
बैठे हो, सब
छिन जाएगा।
मौत अपनी न
अमल अपना न
जीना अपना
खो गया
शोरिशे—गेती
में करीना
अपना
और
जीवन की
भागदौड़ में
तुम यह बात
भूल ही गये हो, यह
जिंदगी की
शैली ही भूल
गये, यह
संतोष कि चाल
ही भूल गये कि
यहाँ कुछ भी
अपना नहीं है,
पकड़ना क्या
है?
खो गया
शोरिशे—गेती
में करीना
अपना
तुम्हें
जीवन का ढंग
ही भूल गया है, जीवन
को जीने की
शैली ही भूल
गयी है, करीना
भूल गया।
भीड़भाड़, संसार
की आपाधापी, दौड़धूप, तुम
उसमें ऐसे उलझ
गये हो कि
तुम्हें पूक
सीधा—सा सत्य
भी दिखायी
नहीं पड़ता कि
यहाँ कुछ भी अपना
नहीं है। इसको
अपना कहने में
ही भूल है।
'नाखुदा दूर’,
माझी का कुछ
पता नहीं है,’ हवा तेज’, तूफान
तेज है, आँधी
उठी है,’ करीं
कामे—नहंग’, बड़ी लहरें
उठ रही हैं, सब तरफ से
तूफान घिर रहा
है,’ वक्त
है फेंक दे
लहरों में
सफीना अपना,’ और यही समय
है जब नाव को
छोड़ना पड़ता है।
सिर्फ मर्द ही
कर पाते हैं।
नामरदां
भुगती नहीं, मरद गये करि
त्याग। छोड़ दो
अपनी नाव।
माझी नहीं है,
किनारे का
कुछ पता नहीं
है, लेकिन
इस किनारे को
छोड़ने से मत
डरो, क्योंकि
इस किनारे पर
कुछ भी अपना
नहीं है।
रज्जब यह
संतोषी चाल।
जबलगि
तुझमें तू रहै, तबलगि
वह रस नाहिं।
बस
तुम्हारी
मौजूदगी के
कारण वह रसधार
नहीं बह रही
है—तुम चट्टान
हो,
तुम अटकाए
हो झरने को।
परमात्मा
झरना चाहता है,
बहना चाहता
है, तुम्हारे
द्वार खटका
रहा है, लेकिन
तुम द्वार—दरवाजे
बद किये, साँकल
चढ़ाए, ताला
मारे बैठे हो।
कितने रूपों
में तुम्हारे
पास आना चाहता
है, मगर
तुम्हारे
भीतर जगह नहीं,
अवकाश नहीं।
तुम्हारे
भीतर इतनी भी
जगह नहीं है
कि एक हवा का
झोंका भी
तुम्हारे
भीतर आ जाए।
इतने तुम मैं
से भरे हो। और
मैं को तुम
फुलाए चले
जाते हो।
जबलगि
तुझमें तू रहै, तबलगि
वह रस नाहिं।
वह
परमात्मा रस
है। बहे तो
जगह तो लगे न!
थोड़ा अवकाश दो, थोड़ा
स्थान रिक्त
करो, सिंहासन
से उतरो, सिंहासन
उसे दो, तुम
सिंहासन पर
बैठे—बैठे
भिखमंगे ही हो
गये हो और कुछ
भी नहीं हुआ, उसे बिठाओ, उस राजा को
बिठाओ, उस
राजा के साथ
तुम भी राजा
हो जाओगे।
उसके सत्संग
में, उसका
पारस पत्थर
तुम्हें छू ले
तो तुम भी
सोने हो जाओगे।
और सोना भी
ऐसा कि जिसमें
सुगंध हो।
जबलगि
तुझमें त् रहै, तबलगि
वह रस नाहिं।
रज्जब आपा
अरपिदे, तो
आवै हरि माहि।।
और
कुछ तुमसे
भगवान माँगता
नहीं। और तुम
सब चढ़ाते हो।
कभी आरती
उतारते, कभी
फूल चढ़ाते, कभी बकरे
काटते, कभी
गायें काटते—आदमी
भी काटे हैं
तुमने—तुम और
सब चढ़ा आते हो
अपने को
छोड्कर, आपे
को छोड्कर। और
वही माँगा जा
रहा है। तुम
भुलावे दे रहे
हो। तुम
परमात्मा के
साथ भी
प्रवंचना के
खेल खेलते हो।
वृक्षों के
फूल तोड़कर चढ़ा
देते हो, अपने
फूल चढ़ाओ’ दूसरों
को चढ़ा देते
हो।
बुद्ध
एक गाँव से
गुजरते थे।
वहाँ एक वेदी
पर एक बकरा
काटा जा रहा
था। बड़ा
शोरगुल मच रहा
था। बड़ी
भीड़भाड़ थी।
लोग बड़े
आनंदित थे—इनको
लोग धार्मिक
कृत्य समझते
रहे हैं। अब
भी चल रहे हैं।
मनुष्य का
अभाग्य! अब भी
चल रहे हैं और
इनको धार्मिक
कृत्य समझा जा
रहा है।
बीसवीं सदी आ
गयी,
बुद्ध को
गुजरे पच्चीस
सौ साल हो गये,
अभी भी बकरे
काटे जा रहे
हैं! बुद्ध ने
पूछा काटने
वाले से कि
जरा एक मिनट, एक मिनट रुक
जाओ, मुझे
एक छोटी—सी
बात का जवाब
दे दो, इस
बकरे को क्यों
काटा जा रहा
है? ब्राह्मण
कुशल था, होशियार
था—ब्राह्मण
ही था, पंडित
था—उसने कहा
कि इसलिए काटा
जा रहा है कि
इस बकरे की
आत्मा को
स्वर्ग
मिलेगा। धर्म
में जो बलि
जाता है, स्वर्ग
जाता है। तो
बुद्ध ने कहा—फिर
तू आपने बाप
को क्यों नहीं
काटता? अपने
को क्यों नहीं
काटता? ला,
तलवार दे, तेरी गर्दन
उतारे देते
हैं। तू अपने
को ही काट ले, जब स्वर्ग
जाने का इतना
सरल उपाय है—और
बकरा बेचारा
जाना भी नहीं
चाहता, वह
कह रहा है कि
मुझे नहीं
जाना!
जबर्दस्ती बकरे
को स्वर्ग भेज
रहा है! और
तुझे जाना है।
तो
वह ब्राह्मण
घबड़ाया। उसने
सोचा नहीं था
कि बात इस ढंग
से हो जाएगी।
बुद्धों के
पास बातों के
ढंग बदल जाते
हैं। कुछ और
उसे सूझा नहीं
तो बुद्ध के
चरणों में गिर
पड़ा। बुद्ध ने
कहा—यह अब कुछ
मतलब की बात
हुई। ऐसा ही
तू अगर चरणों
में गिरे
परमात्मा के, परम
सत्य के—चरणों
में गिरने की
बात है—तो सब
हो जाएगा।
आपे
को काटना है।
और यह काटना
ऐसा है कि खून
की एक बूँद भी
नहीं गिरती।
यह काटना ऐसा
है कि वस्तुत:
कुछ काटना
नहीं पड़ता, आपा
है ही नहीं, सिर्फ
भ्रांति है।
तुम हो कहाँ? तुमने सिर्फ
एक भ्रांति
बना ली है कि
मैं हूँ। है
तो परमात्मा
ही, तुम तो
सिर्फ उसीके
सागर में एक
तरंग हो; आज
हो, कल
नहीं हो जाओगे,
कल नहीं थे,
कल फिर नहीं
हो जाओगे, सागर
सदा है। आपे
को जाने दो।
रज्जब आपा
अरपिदे, तो
आवै हरि माहि।।
तो अभी इसी
क्षण
परमात्मा
तुममें
प्रवेश कर जाए।
मिट—मिट कर
मुहब्बत में, यूँ
तुझको पुकारे
जाते हैं।
कट—कट के
दरिया की तह
में जिस तरह
किनारे जाते
हैं।।
ऐसा
ही भक्त को
करना पड़ता है।
कट—कट के दरिया
की तह में जिस
तरह किनारे
जाते हैं।।
जैसे
किनारा कटता
जाता है, कटता
है, ऐसे
भक्त कटता
जाता है, कटता
जाता है, एक
दिन पाता है—सारा
आपा बह गया।
जिस क्षण आपा
नहीं बचता, उसी क्षण
परमात्मा
अनुभव में आता
है। परमात्मा
था ही, शायद
आपे ने आँखों
पर पर्दा डाल
रखा था।
इक बार
मुझे अक्ल ने
चाहा था भलाना।
सौ बार
जुनू ने तेरी
तस्वीर दिखा
दी।।
ऐसा
पागलपन चाहिए
कि आपे को चढ़ा
दो।’ रज्जब
आपा अरपि दे’।
यह होशियारी
जिनके जीवन
में हो गयी है
उनसे नहीं हो
सकेगा। इसके
लिए तो
हिम्मतवर
चाहिए, मर्द
चाहिए, पागल
चाहिए, जुनून
चाहिए।
इक बार
मुझे अक्ल ने
चाहा था
भुलाना।
और
अक्ल तुम्हें
भुलाएगी, अक्ल
तुम्हें
कहेगी—यह क्या
कर रहे हो? अपने
को चढ़ा रहे हो!
अक्ल तुमसे
कहेगी—मत करो
ऐसा। बुद्धं
शरणं गच्छामि!
मत करो ऐसा, अपने को मत
चढ़ाओ। क्यों
चढ़ो तुम
किसीके चरणों
में? बुद्धि
सब तरह से
तुम्हें अटकाएगी,
भरमाएगी।
अगर जुनून हो,
अगर
दीवानगी हो, तो ही चढ़ा
पाओगे।
दीवानगी हृदय
की भावना है, बुद्धि
सांसारिक समझ
है।
करणी कठिन
रे बंदगी
और वही
बंदगी है—आपा
को अरपि दे।
करणी कठिन
रे बंदगी, कहनी
सब आसान।
जन रज्जब
रहणी बिना, कहाँ
मिलै रहिमान।।
बंदगी
कठिन है, क्योंकि
झुकना कठिन है।
अहकार झुकना
नहीं चाहता, झुकाना
चाहता है।
सारी दुनिया
को झुकाना
चाहता है, झुकना
नहीं चाहता।
करणी कठिन
रे बंदगी, कहनी
सब आसान।
इसलिए
लोगों ने करनी
तो छोड़ दो है, कहनी
शुरू कर दी है।
लोग
प्रार्थना की
बातें करते
हैं। मंदिर
में जाते हैं
और कहते है—हे
प्रभु, तुम्हारी
शरण आया हूँ।
और प्रभु देख
रहे है कि न तो
तुम यहाँ आए
हों—शरण की तो
बात ही दूर, तुम यहाँ आए
ही नहीं हो, तुम्हारा मन
बाजार में है,
कि और हजार
दूसरी जगहों
पर है। कि
तेरे चरणों
में सिर
झुकाता हूँ।
मगर सिर ही झुकता
है, भीतर
तुम अकड़े खड़े
रहते हो। सब
झूठ है। लोगों
ने बातें करनी
शुरू कर दी
हैं। लोग कहते
हैं— हे
पतितपावन! मुझ
पापी का
उद्धार करो।
मगर यह तुम कह
रहे हो सिर्फ
होशियारी से।
तुमने एक क्षण
को भी अपने को
पापी स्वीकार
नहीं किया है।
और अगर कोई
बाजार में
तुमसे कह दे
कि ऐ पापी, कहाँ
जा रहे हो? तो
तुम उस पर
अदालत में
मानहानि का
मुकदमा चलाओगे,
कि इसने
मुझे पापी कहा।
यह कौन है
मुझे पापी
कहने वाला? तुम
परमात्मा के
सामने जब अपने
को पापी घोषणा
करते हो, तब
तुमने सोचकर किया
है? कि भजन
कंठ कर लिया
है, कंठस्थ
कर लिया है, कहते रहते
हो, मशीन
की तरह, ग्रामोफोन
के रिकार्ड की
तरह?
करणी कठिन
रे बंदगी, कहनी
सब आसान।
इसलिए
लोगों ने
प्रार्थना को
करना तो बंद
कर दिया है, कहना
शुरू कर दिया
है।
प्रार्थना
करना तो जीवंत
घटना है, प्राण
की घटना है—शब्द
की नहीं, वाणी
की नहीं। बोल
खो जाते हैं
प्रार्थना
में—बोल कहाँ
बचेगा? कहने
को है क्या? लेकिन लोग
बड़े लपफाज हो
गये हैं, वे
परमात्मा से
भी बड़ी
गुफ्तगू कर
लेते हैं, बड़ी
बातें कर लेते
हैं; ऊँची—ऊँची
बातें, सिद्धांत
की बातें करके
घर लौट आते
हैं। ये
प्रार्थनाएँ
झूठी हैं।
सच्ची
प्रार्थना तो
मौन होगी। तुम
झुक जाओ, एक
गहन भाव में, अहंकार
तिरोहित हो
जाएगा, मन
थिर हो जाएगा,
सब रुक
जाएगा, जैसे
जगत का सारा
प्रवाह रुक
गया—मन का
प्रवाह रुका
तो जगत का
प्रवाह रुक ही
जाता है, क्योंकि
मन का प्रवाह
ही जगत का
प्रवाह है—उस
घड़ी में कोई
नहीं बचा, तुम
नहीं बचे अपने
भीतर, आपा
चढ़ गया, वहीं
हरि का आगमन
हो जाता है।
जन रज्जब
रहणी बिना, कहाँ
मिलै रहिमान।।
मगर
कहने से कुछ
भी न होगा।
कितने ही जोर
से चिल्लाते
रहो,
नमाज करो, प्रार्थना
करो—कबीर ने
कहा है,’ क्या
बहरा हुआ
खुदाय’, इतने
जोर—जोर सै
चिल्ला रहे हो?
और अब तो
लोग
लाउडस्पीकर
लगा लेते हैं,
अखंड
कीर्तन करवा
देते हैं—कीर्तन
कम ही होता
हैं, अखंड
कीरंतन—सारे
मुहल्ले को
उपद्रव में
डाल देते हैं,
शोरगुल मचा
देते है—अखंड
शोरगुल—और
माइक भी लगा
देते हैं, जैसे
भगवान को
सुनने में
अड़चन आ रही
होगी। अब कोई
चुपचाप थोड़े
ही प्रार्थना करता
है, प्रार्थना
का बड़ा आयोजन
करना पड़ता है,
बड़ा शोरगुल
मचाना पड़ता है
—विज्ञापन
करना पड़ता है।
यह सब धोखा है।
असली
प्रार्थना
मौन है। दो
आँसू गिर जाएँ
मौन में, बस
बहुत हैं।
आँखें गीली हो
जाएँ, बस
बहुत है।
टपके जो
अश्क, बलवले
शादाब हो गये।
कितने
अजीब इश्क के
आदाब हो गये।।
बस
दो आँसू
पर्याप्त हैं, वे
पहुँच जाएँगे,
सुन लिए
जाएँगे।
इक हर्फ इक
तवील शिकायत
से कम नहीं,
इक बूंद इक
बहरकी वुसअत
से कम नहीं,
निकले खुlऊसे—दिल
से अगर वक्ते
नीमशब,
इक आह इक
सदी की इबादत
से कम नहीं।
'इक आह’, बस
एक आह निकल
जाए भाव से
भरी,’ इक आह
इक सदी की
इबादत से कम
नहीं’। और तुम
सौ साल इबादत
करते रहो, दो
कौड़ी की है।
बात बस से
निकल चली है
दिल की
हालत सँभल चली
है
अब जुनू हद
से बढ़ चला है
अब तबीयत
बहल चली है
जैसे—जैसे
प्रार्थना का
पागलपन बढ़ेगा—पागलपन
ही है, क्योंकि
मौन निवेदन
करना है, चुपचाप
कह देना है, शब्दों को
बीच में नहीं
लाना है, भाव
से भाव की बात
हो जाए, भाव
से भाव का
सेतु जुड़ जाए।
हाथ घड़े
कूँ पूजता, मोल
लिये का मान।
रज्जब
अघडू अमोल की, खलक
खबर नहिं जान।।
रज्जब
कहते हैं—मूढो, हाथ
घड़े कूँ पूजता?
आदमी ने
परमात्मा की
मूर्तियाँ गफ
ली हैं, हाथ
से गढ़ी हुई
मूर्तियों को
पूज रहा है, अपनी ही
बनायी हुई
मूर्तियों को
पूज रहा है, खिलौनों के
सामने झुक रहा
है। तो पहले
तो वाणी—शब्द—की
कोई जरूरत
नहीं, और
तुम्हारे
मंदिर—मस्जिद,
इनकी कोई
आवश्यकता
नहीं।
तुम्हारी
मूर्तियाँ
तुम्हारी ही
बनायी हुई मूर्तियाँ
हैं। तुम्हीं
गढ़ लेते हो।’ मोल
लिये का मान’, फिर बजार से
खरीद लाते हो
और उसका बड़ा
सम्मान करने
लगते हो।
किसको धोखा दे
रहे हो?
हाथ घड़े
कूँ पूजता, मोल
लिये का मान।
रज्जब
अघडु अमोल की...
अगर
खोजना ही हो, तो
अघड, जो
आदमी का बनाया
हुआ नहीं है।
जिसने आदमी को
बनाया है, उसको
खोजो। आदमी के
बनाए हुए में
क्या हो सकता
है?
‘रज्जब अघडू
अमोल की’।
और उसे खोजो
जिसका कोई मोल
चुकाया नहीं
जा सकता।
हमारे पास है
क्या जो हम
उसका मूल्य
चुका दें?’ खलक
खबर नहीं जान’,
इस दुनिया
को उसकी कुछ
खबर ही नहीं
रही, अपने
बनाए हुए
खिलौनों में
भटक गयी यह
दुनिया।
माला तिलक
न मानई, तीरथ
मूरति त्याग।
सो दिल
दादू—पंथ में, परम
पुरुष सूँ लाग।।
रज्जब
कहते हैं, मालाएँ
फेरते रहो
बैठे हुए, कुछ
भी न होगा। मन
का फेरा रोको।
परमात्मा को
तुम्हारे
भीतर फिरने दो।’
तीरथ म्रति
त्याग’, क्या
करोगे जाकर
तीरथ’ काशी
जाओ कि काबा
जाओ, क्या
पाओगे? सब
आदमी के बनाए
हुए हैं। तीरथ
मूरति त्याग।
सो दिल
दादू—पंथ में, परम
पुरुष सूँ लाग।।
जो
इतनी हिम्मत
करता है—’ मरद
गये करि त्याग’— कि
मूरत छोड़ दी, तीरथ छोड़
दिये, शास्त्र
छोड़ दिये, शब्द
छोड़ दिये, जो
ऐसे मरद हैं, साहसी हैं,’ सो दिल दादू—पंथ
में’, ऐसे
दिलवालों का
ही सद्गुरुओं
के मार्ग पर
स्वागत हो
सकता है।’ सो
दिल दादू—पंथ
में, परम
पुरुष सूँ लाग’।।
और ऐसे ही लोग
उस परमपुरुष
को पा सकेगे।
उसकी
याद तभी आएगी
जब आदमी के
बनाए हुए
परमात्माओं
से तुम मुक्त
हो जाओगे। और
वह तुम्हारे
भीतर बैठा है
और तुम आदमी
की बनायी हुई
चीजों के
सामने उसे
झुका रहे हो!
अगर भुकना ही
हो,
वृक्षों के
सामने झुक
जाना—कम— से—कम
उसके बनाए तो
हैं, कम—से—कम
उसके हाथ तो
इन पर लगे हैं,
उसकी
तूलिका ने तो
इनमें रंग भरे
हैं— पहाड़ों
के सामने झुक
जाना, आकाश
के तारों के
सामने झुक
जाना, पशु—पक्षियों
के सामने झुक
जाना, आदमियों
के सामने
झ्रुक जाना—कम—
से—कम उसकी
कुछ भनक तो है।
लेकिन नहीं, तुम अपने
बनाए
परमात्मा के
सामने झुकते
हो। वह सस्ता
है, उसमें
कुछ हिम्मत की
जरूरत नहीं, उसकी तुमसे
कोई माँग नहीं
है। मुर्दा
मूरत माँगेगी
भी क्या, तुमसे
कहेगी भी क्या?
जब उठाओगे,
उठ आएगी, जब सुलाओगे,
सो जाएगी; नहलाओगे, नहा लेगी, भोग लगा
दोगे, बैठी
रहेगी, और
फिर भोग
तुम्हीं
उठाकर कर लोगे—खूब
खेल रचा है!
धर्म के नाम
पर कैसी मूढ़ता
चल रही है, इसका
अंत नहीं।
आप
मुश्किल था
सँभलना ऐ
दोस्त।
तू मुसीबत
में अजब याद
आया।।
इस
मुसीबत की घड़ी
में परमात्मा
तुम्हें याद आ
जाए तो ही कुछ
सँभलना हो
सकता है। जरा
आँख खोलो! जरा
उसकी छबि
देखो!
बेरंग
फजाओं में
सितारे घोलें
जुल्मत की
लगाई हुई गिरहैं
खोलें
इस सम्त
जरा कीजिए
चेहरा अपना
हम चश्मा—ए—महताब
में आँखें धो
लें
उसका
चाँद जैसा
प्यारा मुख—चाँद
में उसका ही
मुख है—सूरज
जैसा जलता हुआ
ज्वलंत मुख—सूरज
में उसका ही
मुख है—भले थे
लोग जो सूरज
के सामने झुक
गये,
भले थे वे
लोग जो चाँद
के सामने झुक
गये। आदमी
विराट के
सामने झुकना
ही भूल गया है।
अब तो तुम
अपने बनाए
मंदिरों में
झुक रहे हो; और तुम्हें
याद भी नहीं
आती कि तुम
क्या कर रहे
हो’
पराकिरत
मधि ऊपजै, संसकिरत
सब बेद।
अब समझावै
कौन करि, पाया
भाषाभेद।।
तुम
भाषाओं के भेद
में ऐसा झगड़
रहे हो जिसका
हिसाब नहीं!
असली काम कब
करोगे? लोग
इसीमें लड़ रहे
हैं कि
संस्कृत के
लिखे वेद सच
हैं, कि
प्राकृत में
बोले गये
महावीर के वचन
सच हैं, कि
पाली में बोले
गये बुद्ध के
बचन सच हैं, कि अरबी में
लिखी कुरान सच
है, कि
अरेमैक में
कहे गये जीसस
के वचन सच हैं?
कौन सच है, कौन—सी भाषा
सच है? ये
सब भाषाओं के
भेद हैं, पीछे
सत्य एक है।
और उस सत्य को
इन भाषाओं से
नहीं पकड़ा जा
सकता। हाँ, उस सत्य को
तुम समझ लो तो
ये सब भाषाएँ
तुम्हें समझ
में आ जाएँ।
ये सब कहने के
ढंग हैं, मगर
जिसको कहा गया
है, वह एक
है। हजार
उंगलियाँ
चाँद को दिखा
रही हैं, उंगलियों
को मत पकड़ो, चाँद को
देखो। चाँद एक
है, उंगलियाँ
हजार हैं।
लेकिन
उंगलियों को
लोग पकड़ कर
बैठ गये हैं।
कोई ने वेद
पकड़ लिया है, किसीने
कुरान, किसीने
बाइबिल। ये
उंगलियाँ हैं।
फिर उंगलियों
की पूजा चल
रही है।
बीजरूप
कछु और था, वृक्ष
रूप भया और।
त्यूं
प्राकृत में
संस्कृत, रज्जब
समझा व्यौर।।
रज्जब
कहते हैं—ब्यौरे
को समझो।
ब्यौरे में ही
भेद है, मूल
तो एक ही है।’ वीजरूप
कछु और था’। जब
बुद्ध बोले तो
जो उनके भीतर
था बीज, वह
कुछ और था। जब
बोले तो कुछ
और हो गया।
क्योंकि
बुद्ध तो अपनी
भाषा में
बोलेने।
स्वभावत:, बुद्ध
राजा के बेटे
थे, तो
उनकी भाषा बड़ी
परिष्कृत थी—
सम्राट की
भाषा थी। कबीर
तो अपनी भाषा
में बोलेंगे।
जुलाहे थे तो
जुलाहे की
भाषा थी। अब
क्यू तो तुम
सोच ही नहीं
सकते कभी कि
बुद्ध ऐसा भजन
लिख सकते थे
जैसा कबीर ने
लिखा कि—झीनी
झीनी बीनी रे
चदरिया। बाप—दादे
कभी बीने थे
चदरिया? चदरिया
बीनने का कुछ
पता था बुद्ध
को? कबीर
ही कह सकते हैं
ये—झीनी झीनी
बीनी रे
चदरिया।
तुम
देखोगे, प्रत्येक
संत की वाणी
उसके अनुभव से
आएगी। जीसस
बोलते है बढ़ई
के बेटे की
तरह।
स्वाभाविक।
शंकराचार्य
की वाणी और है—परिष्कृत
है, सूक्ष्म
है, दार्शनिक
की है। कबीर
की वाणी बेपढ़े—लिखे
आदमी की है।
कबीर कहते हैं—मसि
कागद छूआ नहीं।
कभी छूआ ही
नहीं कागज और
स्याही। तो
जिसने कागज और
स्याही कभी
नहीं छुई उसकी
वाणी और ही
तरह की होगी—गाँव
की होगी, ठेठ
देहात की होगी,
किसान की
होगी, मजदूर
की होगी—और
उसकी वाणी में
एक बल होगा, जो पंडित की
वाणी में नहीं
होता। पंडित
की वाणी
सूक्ष्म होती,
नाजुक होती
है, सुंदर
होती है, मगर
उतनी जीवंत
नहीं हो सकती।
कबीर तो ऐसा
है जैसे सिर
पर कोई डंडा
मार दे। बुद्ध
ऐसे हैं जैसे
कोई फूलझड़ी
तुम्हारे सिर पर
मारे। जैसे
कोई फूल बरसा
दे। चोट दोनों
करते हैं, मगर
दोनों की
चोटों में भेद
हो जाता है।
बुद्ध से वे
ही लोग
आकर्षित
होंगे जो उस
परिष्कृत
भाषा को समझ
सकते हैं।
सारे भाषा—भेद
हैं।
फिर
स्वभावत: जब संस्कृत
में एक बात
कही जाएगी तो
उसका एक ढंग
होगा, हिब्रू
में और ढंग
होगा। एक देश
में एक ढंग
होगा, दूसरे
देश में दूसरा
ढंग होगा। एक
परंपरा में एक,
दूसरी
परंपरा में
दूसरा। मगर
बीज एक है।
बुद्ध के भीतर
जो हुआ और
कबीर के भीतर
जो हुआ और
रज्जब के भीतर
जो पृ आ, बीज
एक है। बीजरूप
कछु और था, बिरछरूप
भया और।
त्यूँ
प्राकृत में
संस्कृत, रज्जब
समझा ब्यौर।।
ब्यौरे
में भेद है, मगर
मूल में भेद
नहीं है। और
जो ब्यौरे में
ही पड़ गये और
ब्यौरे की ही
नकल करने लगे,
वे चूक गये,
वे नकली हो
गये।
बाँसुरी
हाथ में पकड़े
मुँह पर छिड़के
नीला रंग
सब ही किसन
बनें तो राधा
नाचे किसके
संग
उधार
कृष्ण हैं।
बाँसुरी हाथ
में पकड़ी है, और
मुंह पर नीला
रंग भी छिड़क
लिया है—
बाँसुरी
हाथ में पकड़े
मुँह पर छिड़के
नीला रंग
सब ही किसन
बनें तो राधा
नाचे किसके
संग
इसीलिए
तुम्हारे साथ
राधा नहीं नाच
पा रही है।
तुम्हारा रंग
झूठा है।
कच्चा रंग है, भीतर
से नहीं आया
है।
अंतरयामी
के दर्शन को
अंतरज्ञानी
जाए
'सहबा जी’ बनबास
से कोई राम
नहीं बन पाए
सिर्फ
बनवास चले
जाने से कोई
राम नहीं बन
जाता। कि चले
गये वन, रख
लिये धनुषबाण,
ले ली सीता
जी भी साथ
अपनी और
लक्ष्मण जी को
भी कहा—आओ तुम,
और चक्कर
काटते रहे
जंगल में, इससे
कुछ तुम राम
नहीं हो जाओगे।
मगर यही हो
रहा है। लोग
वेद कंठस्थ
करते हैं और
सोचते हैं
ज्ञान के
स्रोत पर
पहुँच गये।
वेद तो
उच्छिष्ट है।
वेद से तो
सिर्फ इतना ही
पता चलता है
कि कोई पहुँच
गये थे, उनकी
थोड़ी—सी भनक
उन शब्दों में
है। अगर
ब्यौरों में
गये तो चूक
जाओगे, अगर
मूल में गये
तो शायद पकड़
लो। और मूल
में जाने के
लिए भीतर जाना
पडता है।
बीजरूप
कछु और था, बिरछरूप
भया और।
त्यूं
प्राकृत में
संस्कृत, रज्जब
समझा ब्यौर।।
बेद सु
बाणी कूपजल, दुखसूं
प्रापति होइ।
रज्जब
प्यारी बात
कहते हैं—' बेद
सु बाणी कूपजल’।
जैसे कोई बहुत
गहरे कुएँ में
पानी भरा हो, ऐसी वेद की
वाणी है। बड़ी
मुश्किल से
मिलती है—उतरो
कुएँ में, जाओ
कुएँ में या
बाल्टी लाओ, या रस्सियाँ
इकट्ठी करो।’ बेद
सु बाणी कूपजल’।
कबीर का भी एक
वचन है, जिसमें
उन्होंने कहा
है—भाषा बहता
नीर। वेद तो
ऐसा है, कुएँ
के जल जैसा।
संस्कृत तो
ऐसी है, कुएँ
के जल जैसी।
और जो सामान्य
भाषा है, जिसमें
सारे संत बोले—नानक,
कबीर, दादू,
रज्जब—जिसमें
सारे संत बोले,
वह तो बहता
हुआ नीर है।
कुएँ
के जल की कुछ
खराबियाँ हैं।
एक तो यह, वह
बहता हुआ नहीं
है इसलिए सड़
जाता है। बहता
हुआ नीर
स्वच्छ रहता
है। ताजा रहता
है। फिर कुएँ
से जल को पाना
हो तो उपाय
करने होते हैं।
बह रहा है, जो
पानी बह रहा
है उसमें कुछ
उपाय नहीं
करने होते, जब चाहो तब
पी लो—सीधा—सीधा
पी लो। वेद को
समझना हो तो
व्याख्या में
जाना पड़ता है,
वेद को
समझना हो तो
मध्यस्थ
चाहिए।
वेद सु
बाणी कूपजल, दुखसूँ
प्रापति होइ।
बड़े
दुख से मिलना
होता है। सार
खोजने में बड़ी
मुश्किल होगी।
सबद साखि
सरबर सलिल, सुख
पीवै सब कोइ।।
लेकिन
ये जो संतों
के शब्द हैं, सामान्यजन
जो परमात्मा
को पाए हैं
इनके जो शब्द
हैं, ये
शब्द ऐसे हैं
जैसे सरिता
तुम्हारे
गाँव के पास
से बहती हो।’ सबद
साखि सरबर
सलिल', या सरोवर,’
सुख पीवै सब
कोइ’, कोई
भी पी सकता है।
किसी
पांडित्य की,
किसी
पुरोहित की, किसी बीच
में मध्यस्थ
की कोई जरूरत
नहीं।
मध्यस्थ
बड़े खतरे पैदा
करते हैं।
गीता पर एक
हजार टीकाएँ
हैं। अगर एक
हजार टीकाएँ
पढ़ो,
तो एक बात
पक्की है कि
फिर गीता
तुम्हें कभी समझ
में न आएगी।
तुम पागल ही
हो जाओगे एक
हजार टीकाएँ
पढ़ते—पढ़ते।
तुम होश ही गँवा
दोगे। इतना
कूड़ा—करकट
तुम्हारे सिर
में इकट्ठा हो
जाएगाकि किसी
शब्द का अर्थ
निश्चित नहीं
रह जाएगा। सब
अनिश्चित हो
जाएगा। इतने
वाद और विवाद
उठ आएँगे कि
तुम उस जंगल
में खो जाओगे।
इसलिए संतों
ने सीधी—सादी
बोलचाल की
भाषा का उपयोग
किया है। ताकि
बीच में
पुरोहित की
जरूरत न रह
जाए।
चाकी चरखा
घसि गये, भ्रमि—भ्रमि
भामिनी हाथ।
तो रज्जब
क्यूँ
होहिंगे, नर
निहचल तिनसाथ।।
जरा
देखो तो अपने
हाथों की तरफ, घट्टे
पड़ गये हैं, चरखे और
चक्कियाँ
चलाते रहे हो
जन्मों—जन्मों
से।’ चाकी
चरखा घसि गये’,
सब घिस गया
है,’ भ्रमि—भ्रमि
भामिनी—हाथ'। अब कब तक
इसी चाकी को
चलाते रहना है?
कब तक यही
आटा पीसते
रहोगे? कब
तक यही पत्थर
तोड़ते रहोगे?
कब तक यही
संसार के ताने—
बाने बुनते
रहोगे?
चाकी चरखा
घसि गये, भ्रमि—भ्रमि
भामिनी हाथ।
रज्जब
कहते हैं—मैं
तो सँभल गया।
मैने तो ये
हाथ चक्की से
हटा लिये।
मैने तो ये
हाथ परमात्मा
के हाथ में दे
दिये।
तो रज्जब
क्यूं
होहिंगे नर
निहचल तिनसाथ।।
अब
तो परमात्मा
मेरे साथ है, मैं
परमात्मा के
साथ हूँ, अब
दुबारा मैं
नहीं होऊँगा।
अब लौटूँगा
नहीं। अब
आऊँगा नहीं।
अब इस चक्की
को चलाने आने
की कोई जरूरत
नहीं है। अब
ये चरखा मेरे
लिए समाप्त
हुआ। यह
तुम्हारे लिए
भी समाप्त हो
सकता है।
रज्जब
सीधे—साधे
आदमी हैं—साधारण
जन—इसलिए बार—बार
कहते हैं ’जन
रज्जब'।
साधारणजन, कोई
विशिष्टता
नहीं है, सामान्य
हैं, सामान्य
से भी सामान्य।
फिर भी पा
लिया, परम
पा लिया। तुम
भी पा सकते हो।
राम
ने पाया, तो
पक्का नहीं है
कि तुम पा
सकोगे, क्योंकि
राम के संबंध
में कहानी
जुड़ी है कि अवतार
हैं। वह तो
पाए ही हुए
हैं पहले से, वह तो आए ही
ऊपर से हैं—उतरे
हैं ऊपर से।
हम सामान्यजन!
बुद्ध ने पाया,
महावीर ने
पाया, ये
सब तीर्थंकर,
अवतार, ये
बड़े—बड़े लोग, विशिष्ट लोग।
रज्जब कहते
हैं—’ जन रज्जब,। मैं कुछ
विशिष्ट नहीं
हूँ, तुम्हारे
जैसा ही
साधारणजन, मैंने
भी पा लिया, तुम भी पा
सकते हो।
ध्यान
रखना, संतों
की उद्घोषणा
बड़ी
महत्वपूर्ण
है। इस
उद्घोषणा ने
तुम्हें
मुक्ति का
द्वार खोल दिया
है। प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए मुक्ति का
द्वार खोल
दिया है। धर्म
को विशिष्टों
से छीन लिया
संतों ने और सामान्यजनों
को बाँट दिया।
आखिरी
सूत्र हृदय
में सँभाल
लेना—
समये मीठा
बोलना, समये
मीठा चूप।
उनहाले
छाया भली, रज्जब
सियाले धूप।।
दुख
आएगा, सुख
आएगा; जीवन
आता, मौत
आती; सब
आते, जाते।
द्वंद्य का ये
खेल चलता रहता
है—जैसे रात—दिन,
अँधेरा—उजेला।
इसको चुपचाप
देखो साक्षी
बन कर।’ समये
मीठा बोलना’, एक समय होता
है जब मीठा
बोलो और एक
समय होता है जब
चुप रह जाओ।
जैसे बोलने और
चुप रहने में
एक लय है, ऐसे
ही जीवन और
मृत्यु में एक
लय है।
'
उनहाले
छाया भली’। और
जब धूप के दिन
हों, तो
छाया में बैठ
रहो। यह साधना
का सूत्र दे
रहे हैं। यह
आखिरी सूत्र
अति बहुमूल्य
है। जब धूप हो,
छाया में
बैठ जाओ,—' उनहाले
छाया भली, रज्जब
सियाले धूप’—और जब सर्दी
पड़ती हो, तब
धूप में बैठते
रहो। ऐसा सरल
जीवन चाहिए।
झेन
फकीरों की याद
करो।
बोकोजू
से किसीने
पूछा है कि
तुम्हारी
साधना क्या है? तो
वह कहता हैं—मेरी
साधना कुछ और
नहीं है, जब
भूख लगती है, भोजन कर
लेता हूँ, जब
नींद आती है
तब सो जाता
हूँ। उस आदमी
ने कहा—लेकिन
यह तो सभी
करते हैं।
बोकोजू ने कहा—सभी
यह करें, तो
सभी पा लें।
लोग भोजन भी
करते हैं और
हजार काम उनके
मन में चलते
रहते हैं।
सोते भी हैं
और हजार सपने
उनमें डोलते
रहते हैं। मैं
जब सोता हूँ
तो बस सोता
हूँ। और जब
भोजन करता हूँ
तो बस भोजन
करता हूँ। यही
मेरी साधना है।
एक
दूसरे झेन
फकीर से
किसीने पूछा
कि जब तुम ज्ञान
को उपलब्ध न
हुए थे, तब
क्या करते थे?
वह कहता था—मैं
गुरु के चरणों
में रहता था, लकड़ियाँ
काटता था
आश्रम के लिए,
पानी भर
लाता था कुएँ
से। उस आदमी
ने पूछा कि अब
तो तुम स्वयं
संबोधि को
उपलब्ध हो गये,
अब तुम क्या
करते हो? उसने
कहा—अब भी' मैं
लकड़ी काटता
हूँ और कुएँ
से पानी भर
लाता हूँ। उस
आदमी ने पूछा—
फिर फर्क क्या
है’ उस फकीर ने
कहा—फर्क बहुत
है और ऐसे कुछ
भी नहीं। तब
मैं सोया—सोया
सब कर रहा था, अब सब जागे—जागे
कर रहा हूँ।
बस इतना ही
फर्क है। ऐसे
बाहर से देखो
तो कुछ फर्क
नहीं, तब
भी लकड़ी काटता
था, कुएँ
से पानी भर
लाता था।
यह
सूत्र सारे
झेन—जीवन का
सार—सूत्र बन
सकता है—
समये मीठा
बोलना, समये
मीठा चूप।
जैसी
घड़ी हो, वैसे
हो जाना।
चुपचाप, बिना
संघर्ष किये,
सहज भाव से।
जब बोलने की
जरूरत हो, बोल
देना, जब
चुप रहने की
जरूरत हो तब
चुप रह जाना।
‘उनहाले छाया
भली’…...और जब
धूप पड़ती हो
तो वृक्ष की
छाया में बैठ
गये...’ रज्जब
सियाले धूप’…..और जब सर्दी
आ जाए, तो
धूप में बैठ
गये। बस इतना
ही सरल जीवन
होना चाहिए—इतना
ही सहज जीवन
होना चाहिए।
यह सहजता ही
धर्म का सार
है—सहजयोग।
साधो, सहज
समाधि भली!
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