दिनांक
17 जूलाई 1976,
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न:
जब कोई
व्यक्ति
तुमसे घृणा करता
है, तो
तुम क्या करो?
चाहे कोई
व्यक्ति
तुमसे घृणा
करे या कोई
व्यक्ति
तुमसे प्रेम
करे, तुम्हें
इससे कोई फर्क
पड़ना ही नहीं
चाहिए। यदि
तुम ‘हो ‘, तो तुम वैसे
ही बने रहते
हो, और ‘ तुम
नहीं हो ‘ तब
तुम तुरंत बदल
जाते हो। यदि
तुम हो ही
नहीं, तब
कोई भी
व्यक्ति
तुम्हें खींच
सकता है, तुम्हें
धक्का दे सकता
है: तब कोई भी
व्यक्ति तुम्हारा
कोट पकड़ कर
धकिया सकता है
और तुम्हें
बदल सकता है।
तब तुम एक
गुलाम हो, तब
तुम मालिक
नहीं हो।
तुम्हारी
मालकियत तब
शुरू होती है,
जब बाहर जो
कुछ भी घटना
घटे, वह
तुम्हें
बदलती नहीं, तुम्हारा आंतरिक
वातावरण और
आबोहवा वैसी
ही बनी रहती
है।
एक
मनोविश्लेषक
एक अधिवेशन
में भाग ले
रहा था। एक
भाषण के दौरान
एक कुरूप
स्त्री, जो उससे
अगली सीट पर
बैठी हुई थी, उसने उसे एक
चिकोटी काटी।
नाराज होकर वह
लगभग उसे कोई
सख्त
प्रत्युत्तर
देने ही जा
रहा था, तभी
उसने अपना
इरादा छोड़ कर
विचार किया— ‘‘ मुझे
क्रोधित
क्यों होना
चाहिए
आखिरकार यह उसकी
अपनी समस्या
है।‘‘
चाहे
कोई भी
व्यक्ति
तुमसे घृणा
करे या प्रेम, यह उसकी
अपनी समस्या
है। यदि ‘ तुम
‘ उपस्थित
हो, यदि
तुमने अपने
होने को समझ
लिया है, तो
तुम अपने होने
के साथ लयबद्ध
बने रहते हो।
तुम्हारी आंतरिक
लय को कोई भी
भंग नहीं कर
सकता। यदि कोई
व्यक्ति
तुमसे प्रेम
करता है तो
ठीक है, यदि
कोई व्यक्ति
तुमसे घृणा
करता है—तो भी
ठीक है। दोनों
ही तुम्हारे
कहीं बाहर ही
बने रहते हैं।
यह वही है
जिसे हम
मालकियत कहते
हैं, यही
है वह, जिसे
हम बहती तरल
चेतना का
एकीकृत होकर
ठोस बनना और
सभी प्रभावों
और छापों से
मुक्त होना कहते
हैं। तुम पूछ
रहे हो— ‘‘ जब
कोई व्यक्ति
तुमसे घृणा
करता है तो
तुम क्या करो?
मैं कर ही
क्या सकता हूं?
यह उस
व्यक्ति की
अपनी समस्या
है। उसके पास मेरे
साथ करने के
लिए कुछ और है
ही नहीं। यदि
मैं यहां नहीं
होता, तो
उसने किसी
दूसरे
व्यक्ति से
घृणा की होती।
उसे घृणा करनी
ही थी। यदि
वहां कोई भी न
होता और वह
अकेला ही होता,
तो उसने
स्वयं से ही
घृणा की होती।
धृणा करना
उसकी अपनी
समस्या है।
उसका मुझसे
किसी भी तरह
कुछ भी लेना—देना
ही नहीं। मूल
रूप से उसका
मुझसे कुछ
सम्बंध ही
नहीं, मैं
तो बस एक
बहाना भर हूं।
किसी दूसरे
अन्य व्यक्ति
ने भी उसके
लिए बहाना
बनकर वही
कार्य उतनी ही
अच्छी तरह
किया होता।
क्या
तुमने कभी
निरीक्षण
नहीं किया कि
जब तुम क्रोधित
होते हो, तुम बस
क्रोध में
होते हो? ऐसा
नहीं होता कि
तुम्हारा
क्रोध किसी
व्यक्ति
विशेष के लिए
हो। वह
व्यक्ति और
कुछ भी न होकर,
केवल एक
बहाना भर होता
है। क्रोध में
भरे हुए तुम
आफिस से घर
लौटते हो, और
अपनी पत्नी पर
बरस पड़ते हो।
क्रोध में भरे
हुए ही तुम घर
से बाहर निकलोग
हो और आफिस
जाकर तुम
चपरासी, क्लर्क
अथवा इस पर और
उस पर अपना
क्रोध प्रकट करते
हो। यदि तुम
अपने चित्त की
दशाओं का
विश्लेषण करो
तो तुम देखोगे
कि वे तुम्हीं
से सम्बंधित
हैं। तुम अपने
ही संसार में
रहते हो लेकिन
तुम उसे दूसरों
पर
प्रक्षेपित
किए चले जाते
हो।
जब तुम
क्रोध में
होते हो, तो तुम मुझ
पर नहीं, स्वयं
ही पर क्रोधित
हो। जब तुम
घृणा से भरे
होते हो, तो
तुम ही घृणा
से भरे होते
हो, मुझसे
घृणा नहीं
होती तुम्हें।
जब तुम प्रेम
से भरे होते
हो तो तुम ही
प्रेम से
आपूरित होते हो,
तुम्हारा
प्रेम मुझ पर
नहीं होता। एक
बार तुम इसे
समझ लो, तो
तुम संसार में
कमल के पत्ते
की भांति बने
रहते हो। तुम
रहते जल में
हो, लेकिन
जल तुम्हारा
स्पर्श नहीं
करता, वह
तुम्हें छूता
तक नहीं। तुम
रहते संसार
में ही हो, और
फिर भी उससे
अलग रहते हो।
तब कोई भी
व्यक्ति
तुम्हारी
शांति को भंग
नहीं कर सकता,
और न कोई
व्यक्ति
तुम्हारा
ध्यान भंग कर
सकता है।
तुम्हारी
करुणा
प्रवाहित
होने लगती है।
यदि तुम मुझे
प्रेम करते हो,
तो तुम मेरी
करुणा
प्राप्त करते
हो। यदि तुम
मुझसे घृणा करते
हो, तो तुम
मेरी करुणा
ग्रहण न कर
सकोगे—इसलिए
नहीं कि मैं
उसे तुम्हें
दूंगा नहीं।
मैं तो
तुम्हें उसे
निरंतर दे ही
रहा हूं जितनी
अधिक से अधिक
मैं उन लोगों
को दे रहा हूं
जो मुझसे
प्रेम करते
हैं। लेकिन
तुमने ही अपने
द्वार बंद कर
लिए होगे और
तुम उसे ग्रहण
न कर सकोगे।
एक बार
जो बोध को
उपलब्ध हो
जाता है, वह करुणा से
भर जाता है, बेशर्त
करुणा उससे
प्रवाहित
होती है। ऐसा
नहीं कि वह
कुछ क्षणों
में ही
करुणावान होता
है और कुछ
क्षणों में वह
करुणावान
नहीं होता। तब
करुणा उसका
प्राकृतिक
स्वभाव और
स्थायी चित्तवृत्ति
बन जाती है, करुणा उसके
अस्तित्व का
अभिन्न भाग बन
जाती है। तब
तुम जो कुछ भी
करते हो, उसकी
करुणा तुम पर
बरसती ही रहती
है। लेकिन
वहां कुछ क्षण
ऐसे होते है
जब तुम खुले होगे,
तो तुम उसे
ग्रहण कर लोगे,
और कुछ क्षण
वहां ऐसे होते
हैं जब तुम
उसे ग्रहण न
कर सकोगे, क्योंकि
तुम्हारे
हृदय के
द्वारा बंद
होंगे।
इसलिए
घृणा में तुम
उसे ग्रहण न
कर सकोगे, लेकिन
प्रेम में तुम
उसे ग्रहण कर
सकोगे। और तुम
इसका अंतर भी
महसूस कर सकते
हो—क्योंकि एक
व्यक्ति जो
मुझे प्रेम
करता है, विकसित
होना शुरू हो
जायेगा, और
जो व्यक्ति
मुझसे घृणा
करता है, सिकुड़ना
शुरू हो
जायेगा।
दोनों ही पूरी
तरह से इतने
अधिक भिन्न हो
जायेगे, कि
तुम यह भी सोच
सकते हो कि
मैं उस
व्यक्ति को, जो मुझसे
प्रेम करता है,
कुछ अधिक दे
रहा हूं और जो
व्यक्ति
मुझसे घृणा
करता है, अथवा
जो मुझसे
नाराज है अथवा
जिसके द्वार
मेरे लिए बंद
हैं, मैं
उन्हें अपनी
करुणा नहीं दे
रहा हूं।
लेकिन मैं ऐसा
नहीं कर रहा
हूं। बादल
वहां हैं और
वे वर्षा कर
रहे है यदि
तुम्हारा
पात्र टूटा
हुआ नहीं है
तो वह भर
जाएगा, अथवा
यदि तुम्हारा
पात्र टूटा न
भी हो लेकिन औंधा
रखा हुआ हो, तुम तब भी
चूक जाओगे।
घृणा वह
मनःस्थिति है,
जब हृदय का
पात्र औंधा
रखा होता है।
तब वर्षा तो
होती ही रहेगी,
लेकिन तुम
खाली रहोगे, क्योंकि तुम
वहां मेरे
प्रति खुले
हुए नहीं हो, इसीलिए चूक
जाओगे।
एक बार
तुम अपने
पात्र को सीधा
कर लो, जो
ऊपर की ओर
खुला हुआ हो, बस यही है—प्रेम।
प्रेम और कुछ
भी नहीं बल्कि
अपने द्वार
खोलना है, वह
एक ग्राहकता,
एक
निमत्रंण और
एक स्वागत भाव
है, जो कहे—
‘‘ मैं अब
तैयार हूं।
कृपया पधारिए।‘‘
बाउल
गाते चले जाते
हैं— ‘‘ आओ
प्रीतम
प्यारे! मेरे
पास आओ! ‘‘ वे
उसे आने के
लिए आमंत्रित
किए चले जाते
हैं। प्रेम है—
आमंत्रण और
घृणा है—दूर
हटाना, खदेड़ना।
यदि तुम मुझे
प्रेम करते हो,
तो तुम बहुत
अधिक प्राप्त
कर सकोगे—
इसलिए नहीं कि
मैं तुम्हें
विशेष रूप से
कुछ अधिक दे
रहा: लेकिन
यदि तुम मुझसे
घृणा करते हो
तो तुम कुछ भी
प्राप्त ही न
कर सकोगे—इसलिए
नहीं, कि
मैं तुम्हें
नहीं दे रहा
हूं। बल्कि
इसलिए
क्योंकि
तुम्हारे
द्वार बंद हैं।
लेकिन मैं
स्वयं में ही
बना रहूंगा।
मेरा
शरीर के साथ
कुछ भी
तादात्म्य
नहीं है, और न मेरा
कोई
तादात्म्य मन
के साथ रह गया
है। मैं अपने
घर आ गया हूं।
यदि
तुम्हारा
तादात्म्य
शरीर के साथ
जुड़ा है और
कोई तुम्हारे
शरीर पर चोट
करता है तो
तुम क्रोधित
हो जाओगे
क्योंकि वह तुम्हें
चोट पहुंचा
रहा है। यदि
तुम्हारा
तादात्म्य मन
के साथ है और
कोई व्यक्ति
तुम्हारा
अपमान करता है, तो तुम क्रोधित
हो जाओगे, क्योंकि
वह तुम्हारे
मन को चोट
पहुंचा रहा है।
एक बार
तुम्हारा
तादात्म्य
अपने
अस्तित्व के
साथ हो जाये
तो कोई भी
तुम्हें चोट
नहीं पहुंचा
सकता, क्योंकि
किसी भी
व्यक्ति ने
अभी वह खोज
नहीं की है
जिससे
अस्तित्व या
आत्मा पर चोट
पहुंचाई जा
सके।
शरीर
को चोट
पहुंचाई जा
सकती है, मन को घायल
किया जा सकता
है.. लेकिन
आत्मा को तो स्पर्श
तक नहीं किया
जा सकता।
उसे
चोट पहुंचाने
का कोई तरीका
है ही नहीं, उसे
पीड़ित करने का
वहां कोई भी
उपाय है ही
नहीं। उसका
स्वभाव ही
परमानंद है।
तुम मेरे शरीर
को चोट पहुंचा
सकते हो: बहुत
आसान सी बात
है, लेकिन
यदि मेरा
तादात्म्य
शरीर से है तो
मुझे क्रोध
आयेगा, क्योंकि
मैं सोचूंगा
कि तुमने मुझे
चोट पहुंचाई।
यदि तुम मेरा
अपमान करते हो
तब वह चोट मन
तक पहुंचती है।
यदि मेरा
तादात्म्य मन
के साथ है तो
तुम मुझे दुश्मन
लगते हो।
लेकिन न तो
मेरा तादात्म्य
शरीर के साथ
है, और न मन
के साथ। मैं
साक्षी हूं।
इसलिए तुम जो
कुछ भी करते
हो, वह
मेरे साक्षी
के केंद्र तक
कभी पहुचता ही
नहीं। वह पूरी
तरह
अप्रभावित
साक्षी बना
रहता है। एक
बार झूठे जोड़े
गए तादात्म्य
गिर जाते हैं,
तुम्हारी
व्यग्रता भी
समाप्त हो
जाती है, तब
तुम चक्रवात
के केंद्र बन
जाते हो, और
तूफान उग्रता
से तुम्हारे
चारों ओर
घूमता रहता है,
लेकिन अंदर
गहरे में तुम
थिर और शांत
बने रहते हो, तुम्हारे
अस्तित्व का
छोटा सा
केंद्र, जो
कुछ भी घट रहा
है, उससे
पूरी तरह अलग
बना रहता है।
मैंने
सुना है
एक
दार्शनिक, एक
हज्जाम और
गंजा बेवकूफ
तीनों साथ—साथ
यात्रा कर रहे
थे। रास्ता
चलकर उन सभी
को खुले स्थान
पर सोने के
लिए विवश होना
पड़ा, और
खतरे को टालने
के लिए यह तय
किया गया कि
वे बारी—बारी
से देखभाल
करेंगे। पहली
बारी हज्जाम
की आई, जिसने
केवल मजाक में
सोते हुए
दार्शनिक के
सिर पर
उस्तुरा
फेरकर उसे
सफाचट्ट बना
दिया। तब उसने
उसे देखभाल के
लिए जगा दिया।
दार्शनिक ने अपना
हाथ ऊपर उठाकर
अपना सिर
खुजाया और
बोला— ‘‘तुमसे
एक छोटी सी
गलती हो गई
तुमने मेरी
बजाय उस गंजे
बेवकूफ को जगा
दिया है।‘‘
तुम्हारी
पहचान और
तादात्म्य
जोड़ लेना ही
तुम्हारी मूल
समस्या है।
यदि तुमने
शरीर के साथ
तादात्म्य
जोड़ लिया है, तब तुम
निरंतर
कठिनाई में
पड़ने जा रहे
हो, क्योंकि
तुम्हारा
शरीर निरंतर
बदल रहा है, तुम्हारी
पहचान कभी भी
एक बिंदु पर
थिर होकर
विश्राम न कर
सकेगी। एक दिन
शरीर युवा है
और दूसरे दिन वह
वृद्ध जैसा
थका हुआ है।
एक दिन वह
स्वस्थ है तो
दूसरे दिन वह
रुग्ण है। एक
दिन तुम बहुत
युवा और दीप्तिवान
हो, और
दूसरे ही
तुम्हारे
शरीर का ढांचा
निराशा से
टूटा—फूटा और
नष्टप्राय है।
निरंतर शरीर
जैसे एक
प्रवाह में
बहा जा रहा है।
यही
कारण है कि जो
लोग अपने शरीर
के साथ तादात्म्य
जोड़ लेते हैं, वे
निरंतर उलझन
में पड़कर, बिना
यह जाने कि वे
कौन हैं
भ्रमित होते रहेंगे।
तुमने ऐसी चीज
से पहचान बनाई
है जो
विश्वसनीय
नहीं है। एक
दिन वह जन्म
लेती है, और
दूसरे दिन मर
जाती है। वह
निरंतर मर ही
है और निरंतर
बदल रही है।
तुम उसके साथ
आराम से कैसे
रह सकते हो?
यदि
तुमने मन के
साथ
तादात्म्य
जोड़ लिया, तब वहां
और भी अधिक
कठिनाई होगी।
क्योंकि शरीर
का तो कम से कम
एक निश्चित
ढांचा है, वह
बदलता तो है
लेकिन यह
बदलाव बहुत
धीमे— धीमे
होता है। तुम
कभी भी इस
परिवर्तन का
अनुभव नहीं कर
पाते। यह
परिवर्तन
बहुत खामोशी
से होता है और
इसमें वर्षों
लग जाते हैं, और वास्तव
में तभी एक
विशिष्ट
परिवर्तन होता
है। एक बच्चा
एक रात में
जवान नहीं हो
जाता और एक व्यक्ति
रातों रात का
नहीं हो जाता।
इसमें वर्षों
लग जाते हैं
और यह
परिवर्तन बहुत
धीमी गति से
होता है, और
इतने सूक्ष्म
और छोटे
परिवर्तन
होते है कि कोई
व्यक्ति इनके
प्रति कभी सजग
नहीं हो पाता।
लेकिन मन के साथ
तुम निरंतर एक
उपद्रव में
पड़े रहते हो, उसमें
प्रत्येक
क्षण
परिवर्तन
होता रहता है।
एक क्षण में
तुम अपने को
परम
भाग्यशाली
होने का अनुभव
करते हुए इस
संसार के शिखर
पर होते हो, और दूसरे ही
क्षण तुम नर्क
में होते हो
और आत्महत्या
करने के बारे
में सोचने
लगते हो। इस
मन के साथ तुम
कैसे पहचान
बना सकते हो? आत्मा वह है,
जो सदैव
शाश्वत रूप से
जस की तस बनी
रहती है। उसका
कोई रूप या
आकृति नहीं है,
इसलिए वह
बदल नहीं सकती,
उसके पास
कोई विषय
सामग्री नहीं
होती, इसलिए
भी वह नहीं
बदल सकती।
आत्मा बिना
किसी विषय
सामग्री के
अरूप होती है।
उसका कोई नाम
रूप नहीं होता—पूरब
में हम इसी को
नाम रूप से
परे ‘ कहते
हैं। केवल यह
दो ही चीजें
बदलती हैं—नाम
और रूप। वह
इनमें से कोई
भी नहीं है।
वह बस केवल
होना भर है, सभी विषय
सामग्री और
रूप से रिक्त।
एक बार तुम इस
रिक्तता या
शून्यता मे ‘प्रविष्ट हो
जाओ, फिर
कुछ भी
तुम्हें
परेशान नहीं
कर सकता, क्योंकि
वहां परेशान
करने वाला कोई
है ही नहीं।
कोई भी
तुम्हें चोट
नहीं पहुचा
सकता, क्योंकि
वहां अंदर कोई
भी या कुछ भी
चोट पहुंचाने
वाला है ही
नहीं।
तब यदि
तुम मुझसे
घृणा करते हो, तो
तुम्हारी
घृणा का तीर
मुझसे होकर गुजर
जाएगा, लेकिन
वह मुझे चोट
नहीं पहुंचा
सकता, क्योंकि
वहां कोई है
ही नहीं। तुम
मुझे अपना
लक्ष्य नहीं
बना सकते।
चाहे तुम
मुझसे प्रेम
करो अथवा घृणा,
तुम मुझे
अपना निशाना
नहीं बना सकते।
इसलिए इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। और मैं
कुछ करता ही
नहीं हूं। मैं
बस अपने स्वयं
में बना रहता
हूं।
एक दिन
मुल्ला
नसरुद्दीन
मुझसे कह रहा
था— ‘‘हां!
मैं कभी
राजनीति में
कुछ हुआ करता
था, पर
उससे पहले दो
वर्ष मैंने इस
शहर में
कुत्तों को
पकड़ने का
कार्य किया, और अंत में
मुझे उस नौकरी
से हाथ धोना
पड़ा।‘‘
मैंने
उससे पूछा— ‘‘ आखिर मामला
क्या है? क्या
मेयर को बदलने
का मामला है
या कुछ और बात है?
उसने
उत्तर दिया— ‘‘ नहीं!
मैने अंत में
कुत्ता पकड़ ही
लिया।‘‘
और यही
बात मैं तुमसे
भी कहना चाहता
हूं: अंत में
मैंने कुत्ता
पकड़ ही लिया।
अब मेरे करने
को कोई काम
बचा ही नहीं।
मैं बेकार और
बेरोजगार हूं।
मैं कुछ भी कर
ही नहीं रहा
हूं: सारी
कामनाएं लुप्त
हो गई हैं, सभी कुछ
करना छूट गया
है। मैं बस यहां
हूं। मैं केवल
तुम्हारे लिए
ही यहां हूं।
यदि तुम मुझसे
प्रेम करते हो,
तुम महान
स्वागत के साथ
मुझे प्राप्त
कर सकोगे, और
तुम्हारा
अत्यधिक
कल्याण होगा।
यदि तुम मुझसे
घृणा करते हो,
तो तुम चूक
जाओगे, और
जिम्मेदारी
तुम्हारी
होगी। अब यह
तुम पर है कि
तुम चुनाव करो।
लेकिन मैं कोई
भी कार्य कर ही
नहीं रहा हूं।
दूसरा प्रश्न:
आप
ध्यान अथवा
भक्ति दोनों
में से किसी
एक का अनुमोदन
कर रहे हैं
मैं दोनों को
सहायक याता है
दोनों एक ही
लक्ष्य की ओर
ले जाती है? वह है—
परमानंद? जब
कभी मैं अनुभव
करता हूं कि
मैं वह हूं
अथवा वस्तुत:
यह अर्थात वही
सारभूत मनुष्य
हूं और कभी—कभी
मैं तीव्र
भावोद्वेग
में एक भक्त
बन जाता है नाचते
गाते हुए
प्रार्थना
करते हुए उसके
बारे में खेली
दिव्य लीलाओं
की चर्चा करता
हूं क्या मैं
दोनों एक साथ
हूं? मेरी
सच्ची
प्रकृति क्या
है? मेरे
विकास के लिए
आप किस मार्ग
का सुझाव देगे?
आपसे
संन्यास लेने
के बाद पंद्रह
महीने आपके
साथ रहते हुए? मृत्यु
का भय तो चला गया
है? शरीर ‘उसका‘ दिव्य
मंदिर बन चुका
है, और मन
उसके प्रयोग
के लिए एक
वाद्य— यंत्र
बन गया है!
आपके सभी वचन
बहुत मधुर है, लेकिन उससे
भी कहीं अधिक
ध्यान और मधुर
है आपका मौन? जिससे मैं
अपने जीवन का
दिशा—निर्देश
प्राप्त करता
हूं: कुछ करो
ही मत,
स्वीकार करो, अभिनय करो
जो मेरे विकास
के लिए बहुत
अच्छी तरह
कार्य कह रहा
है
कृपया
बोध देने की
अनुकम्पा
करें।
यदि चीजें
इतने सुंदर
रूप से होती
जा रही हैं, तो फिर
क्यों समस्या
खड़ी कर रहे हो?
क्या तुम
अपनी
अंतर्दृष्टि
को स्वीकार
नहीं कर सकते?
क्या
तुम्हें
हमेशा एक गवाह
की जरूरत है? क्या
तुम्हें
हमेशा किसी
अन्य व्यक्ति
की स्वीकृति
की आवश्यकता
पड़ती है? यदि
मैं चला गया
तो तुम उलझन
में पड़ जाओगे।
जब तुम इतनी
अधिक
प्रसन्नता का
अनुभव कर रहे हो,
तो क्या यह
प्रसन्नता ही
अपने आप में
पर्याप्त
प्रामाण नहीं
है कि तुम ठीक
मार्ग पर हो।
लेकिन
अपने जीवन में
कई बार तुम
इतनी अधिक गलतियां
कर चुके हो कि
तुम्हें
स्वयं पर से
विश्वास उठ
गया है।
यह फिर
से सीखने और
समझने की एक
बहुत मूलभूत बात
है— ‘‘ तुम
स्वयं पर
विश्वास करो।‘‘
जब
प्रत्येक चीज
बहुत सुंदर
रूप से हो रही
है और तुम
परमानंद तथा
प्रसन्नता का
अनुभव कर रहे
हो, तो यह
भूल जाओ— ‘‘कि
मैं क्या कह
रहा हूं। उसके
बारे में
फिक्र करो ही
मत। तुम जानते
हो कि सभी ठीक
से हो रहा है।
अपने स्वयं के
अनुभव के
प्रति संशय और
संदेह उत्पन्न
क्यों कर रहे
हो?
मैंने
सुना है........
मुल्ला
नसरुद्दीन
डेट्रोइट की
यात्रा करते हुए
रास्ते में
पड़ने वाले
दृश्य देखता
जा रहा था। जेफरसन
एवेन्यू पर
आकर बस के
ड्राइवर ने
दिलचस्पी के
सभी स्थानों
के बारे में
बताना शुरू किया।
उसने
माइक से घोषणा
की— ‘‘ अपनी
दाहिनी ओर हम
डॉज हाउस देख
रहे हैं।‘‘
मुल्ला
ने पूछा— ‘‘ क्या जोन
डॉज?‘‘
‘‘जी
नहीं श्रीमान
होरेस डॉज।
अपनी बात जारी
रखते हुए उसने
आगे बताया— ‘‘ वहां दूर
बाएं कोने पर
‘ हम फोर्ड
हाउस ‘ देख
रहे हैं।‘‘
मुल्ला
ने सुझाव देते
हुए कहा— ‘‘ कोई नही—हेनेरी
फोर्ड।‘‘
‘‘जी
नहीं श्रीमान,
एडसेल
फोर्ड। और
जेफरसन के आगे
जाने पर बाएं
मोड़ के पास हम
क्राइस्ट
चर्च देखेंगे।‘‘
क्या
जीसस
क्राइस्ट? अथवा मैं
फिर गलत हूं? मुल्ला
नसरुद्दीन ने
भेड़ की तरह
मिमियाते हुए
पूछा।
मैं
समझता हूं कि
तुमने अपने
जीवन में कई
बार चीजों को
गलत ही पाया
है और तुमने
अपना आंतरिक
अनुभव—ज्ञान
ही खो दिया है।
तुम्हारा
स्वयं पर से
विश्वास जाता
रहा है।
तुम्हारा
आत्मविश्वास
खो गया है, इसीलिए
तुम्हें
दूसरों से
पूछना पड़ता है।
यदि तुम
परमानंद का भी
अनुभव कर रहे
हो, तो भी
तुम्हें किसी
अन्य व्यक्ति
से पूछना होगा—
‘‘क्या मैं
ठीक हूं?‘‘
परमानंद
का अनुभव
पर्याप्त
संकेत है।
इसलिए
अब दो
सम्भावनाएं
है: या तो
तुम्हें वास्तव
में परमानंद
का वैसा ही
अनुभव हो रहा
है, जैसा
तुम अपने
प्रश्न में
लिख रहे हो—तब
इसमें मुझसे
पूछने की कोई
जरूरत ही नहीं
है: अथवा तुम
केवल कल्पना
कर रहे हो कि
तुम उसे जानते
हो— और इसीलिए
तुम मुझसे पूछ
रहे हो। यह
बात भी अपने
अंदर गहरे उतर
कर तुम्हें ही
तय करनी होगी,
क्योंकि
काल्पनिक
परमानंद, कोई
आनंद है ही
नहीं। तुम
उसकी कल्पना
कर सकते हो।
मनुष्य की
कल्पना शक्ति
अपरिमित है।
तुम उन चीजों
की कल्पना कर
सकते हो
क्योंकि मैं
निरंतर
परमानंद की
चर्चा करता
रहता हूं प्रेम,
ध्यान और
शिखर अनुभव के
बारे में
बताता रहता हूं।
तुम उन शब्दों
को पकड़ सकते
हो, और
तुम्हारा लोभ
तुम्हारे साथ
ही लीला खेलना
शुरू कर सकता
है, जैसे
तुम उस दिव्य
परमात्मा के
साथ ही लीला
खेल रहे हो।
तुम्हारा
लालच
तुम्हारे साथ
ही लीला खेल
सकता है, और
तुम्हें यह
सभी विचार दे
सकता है।
लेकिन यदि यह
सभी कुछ
काल्पनिक है
तो तुम्हें
हमेशा संशय बना
रहेगा, क्योंकि
अपने गहरे में
तो तुम जानते
ही हो कि यह
केवल
काल्पनिक कथा
है। यदि
तुम्हारे
मामले में ऐसा
ही है, तब
तुम्हारा
पूछना पूरी
तरह
अर्थपूर्ण है।
यह तय
तुम्हें ही
करना है। यदि
ऐसा वास्तव
में घटित हो
रहा है और तुम
वास्तव में
आनंदित हो, यदि यह एक
तथ्य है और
तुम कोई
कल्पना नहीं
कर रहा हो, तब
तुम ठीक
रास्ते पर चल
रहे हो—क्योंकि
परमानंद के
अनुभव के
अतिरिक्त
इसका और कोई
संकेत है ही
नहीं।
जब तुम
परमानंद का
अनुभव कर रहे
हो तो तुम ठीक उसी
मार्ग पर चल
रहे हो, जिस पर
तुम्हें आगे
बढ़ना चाहिए।
क्योंकि केवल
यह आनंद तभी
बढ़ता है जब
तुम परमात्मा
के निकट
पहुंचते जाते
हो, और
किसी अन्य
तरीके से ऐसा
अनुभव
होता ही
नही। यदि तुम परमात्मा
से दूर जा रहे
हो तो पीड़ा और
वेदना उत्पन्न
होती है। तुम
अधिक से अधिक
निराशा का
अनुभव करते हो, तुम्हें
अधिक से अधिक
ऊब और कष्टों का
अनुभव होता है।
कष्टो का होना
ही इस बात का संकेत
है कि तुम भटक गए
हो, यह एक स्वाभाविक
संकेत है कि तुम
सत्य के मार्ग
से दूर हो गए हो।
परमानंद केवल
यही बतला रहा
है कि तुम
अखण्ड के साथ
मिलने उसकी ही
सीध में जा
रहे हो। सभी
चीजों में एक लय
बद्धता आ जाती
है, क्योंकि
प्रीतम का
उद्यान निकट
आता जा रहा है
शीत्तलमंद सुगंध
वायु का अनुभव
होता है, जो
अपने साथ
फूलों की
सुवास, ताजगी
और एक नूतन
उल्लास और
उमंग साथ ला
रही है। तब
समझना, तुम
प्रीतम
प्यारे के नंदन
कानन की और ही बढे
जा रहे हो। हो
सकता है, तुम
अभी इसे देख
नहीं सकते, लेकिन तुम्हारी
दिशा ठीक है।
इसलिए स्वयं
पर श्रद्धा
रखो। लेकिन
यदि तुम केवल
कल्पना ही कर रहे
हो तो अपनी
सारी
कल्पनाएं
गिरा दो।
तीसरा
प्रश्न :
दर्शन
के समय जिस
तरह से आपने
मुझे बताया था, उससे
स्पष्ट है कि
मेरा ध्यान है—
समग्रता से यहीं
और अभी में
जीना। आपने यह
स्पष्ट कर
दिया था कि
मुझे आशा में
नहीं जीना है।
टी: एस इलियट
ने कहा है— ‘‘मैने
अपनी आत्मा से
कहा— शांत हो
जा और बिना कोई
आशा किए
प्रतीक्षा कर,
आशा के लिए
आशावादी बनना
गलत चीज है!
प्रेम के बिना
भी प्रतीक्षा
कर, प्रेम
के लिए, होने
वाले प्रेम की
आशा करना गलत
है। यद्यपि वहा
फिर भी दृढ़
विश्वास है? लेकिन दृढ़
विश्वास या
आस्था प्रेम
और आशा यह सभी,
प्रतीक्षा
कराती हैं ‘‘ भगवान? इस
पर आप क्या
कहेगे?
यह प्रश्न है
प्रदीपा का।
वह
पूरी तरह ठीक
से समझ गई है, जो मैं
उसे दिखाने का
प्रयास कर रहा
हूं। परिपव्कता
तभी आती है, जब तुम बिना
आशा के जीना
शुरू कर देते
हो। आशा बहुत
बचकानी होती
है। तुम परिपव्क
तभी बनते हो, जब तुम
भविष्य में
आशा को
प्रक्षेपित
नहीं करते।
वास्तव में
तुम समझदार या
परिपव्क तभी
होते हो, जब
तुम्हारे पास
कोई भविष्य
नहीं होता, तुम केवल
क्षण— क्षण
में जीते हो—क्योंकि
यहां केवल यही
वास्तविकता
अथवा सत्य है।
अतीत में धर्म,
इस बारे में
चर्चा किया
करते थे कि
यहां इसके बाद
क्या होगा। वे
धर्म के
बचकाने और अपरिपव्क
दिन थे। अब
धर्म ‘यहीं
और अभी ‘ के
बारे में बात
करता है, धर्म
अब बीते युग
के पार आया है।
वेदों, कुरान
और बाइबिल का
मूलभूत
लक्ष्य यहां
के बाद की
चर्चा है।
लेकिन अब
मनुष्य की
बुद्धि इतनी
अधिक बचकानी नहीं
है। इस तरह का
परमात्मा और
इस तरह का
धर्म अब मृत हो
चुका है। वह
भविष्य का
धर्म था, वह
आशा का धर्म
था।
अब
पूरे विश्व
में एक दूसरी
तरह का धर्म
अपना दावा
प्रस्तुत कर
रहा है, और यह धर्म
है—वर्तमान
में यहीं और
अभी के बारे
में जीने का।
यहां के सिवा
कहीं और नहीं
जाना है और
यहां रहने के
लिए कोई दूसरा
समय या स्थान
है भी नहीं, केवल यही
स्थान और यही
समय है—यहीं
और अभी। इसी
क्षण में जीवन
को बहुत त्वरा
से जीना है।
वह मनुष्य जो
आशा में जीता
है, जीवन
में बिखर जाता
है। वह जीवन
को फैला देता
है और वह विरल
बन जाता है।
और जब वह बहुत
अधिक संकरा और
तंग हो जाता
है, तो वह
कभी प्रसन्न
नहीं हो सकता।
प्रसन्नता का
अर्थ है
तीव्रता और
अत्यंत गहराई।
यदि तुम अपनी
आशा का वितान
भविष्य में
फैला दो, तो
जीवन बहुत
सिकुड़ जाएगा
और अपनी गहराई
खो देगा।
जब मैं
कहता हूं सभी
आशाओं को छोड़
दो, तो
मेरे कहने का
अर्थ है कि इस
क्षण को इतनी
अधिक त्वरा से
जी लो कि
भविष्य की कोई
आवश्यकता ही न
रह जाए। तब
वहां एक मोड़
आता है, एक
रूपांतरण
होता है।
तुम्हारे लिए
समय की गुणात्मकता
बदल जाती है
और वह शाश्वत
बन जाता है।
तुम आशा के
साथ कर ही
क्या सकते हो?
वास्तव में
तुम क्या आशा
कर सकते हो? तुम नूतन या
आने वाले
अनजाने
भविष्य के लिए
कोई आशा नहीं
कर सकते। तुम
केवल उस
पुराने से ही
आशा कर सकते
हो, जो
पहले कभी घटा
था—हो सकता है
वह थोड़े से
यहां— वहां के
संशोधन के साथ,
कुछ अधिक
सजे रूप में
हो। लेकिन आशा
और कुछ भी
नहीं, बल्कि
बीता अतीत
तुमने किसी
चीज को जीकर
देखा, तुमने
किसी चीज का
अनुभव किया और
तुम अब बार—बार
उसके लिए ही
आशा कर रहे हो।
यह एक दोहराना
मात्र है, इसकी
गति चक्राकार
है।
आशा करने
का अर्थ है—
अतीत का
भविष्य में
पुन:
प्रक्षेपण।
तुमने कल एक
व्यक्ति से
प्रेम किया था, तुम आने
वाले कल भी
उसी व्यक्ति
से प्रेम करना
चाहते हो। और
तुम जानते हो
कि कल का
अनुभव तृप्तिदायक
नहीं था, इसीलिए
तुम आशा कर
रहे हो। कल
यथेष्ट नहीं
था, आशा
इसीलिए है। कल
तुम किसी चीज
से चूक गए। अब
वही चूका गया
अंतराल
तुम्हें कष्ट
दे रहा हैं, वह पीड़ा
सृजित कर रहा
है। तुम आशा
करते हो कि कल
फिर वही
व्यक्ति
तुम्हें
प्रेम करने को
उपलब्ध होगा,
और कल
वास्तव में
प्रेम मिलेगा।
पर
बीते गए कल और
आने वाले कल
के मध्य आज है।
यदि तुम वास्तव
में प्रेम
करना चाहते हो
तो उसे आज ही
यहीं और अभी क्यों
नहीं करते? अन्यथा
जब आज, कल
बन जाएगा, तुम
फिर से
प्रक्षेपण
करना शुरू कर
दोगे। अधूरे
अनुभव ही
प्रक्षेपित
किए जाते हैं।
अधूरी
कामनाओं को ही
प्रक्षेपित
किया जाता है।
यदि तुम इस
क्षण समग्रता
से सच्चा
प्रेम करते हो,
तो तुम फिर
से इस क्षण के
बारे मे कभी
विचार तक न
करोगे। वह
समाप्त हो
चुका वह पूरा
हो चुका, वह
पूर्ण है। वह
अब विसर्जित
हो गया और
अपने पीछे कोई
चिन्ह तक न
छोड़ गया।
यह वही
है जिसे
कृष्णमूर्ति
कहते हैं— ‘समग्रता
से किया गया
कर्म।‘ समग्रता
से किया गया
कर्म कोई कर्म
निर्मित नहीं
करता। वह कर्म
की कोई शृंखला
सृजित नहीं
करता, वह
कोई बंधन
उत्पन्न नहीं
करता। यदि वह
समग्रता से
किया गया है, तो तुम फिर
कभी उसका
स्मरण तक नहीं
करते, वहां
उसकी कोई
आवश्यकता ही
नहीं है।
हम
केवल उसी बात
का स्मरण रखते
हैं, जो
अधूरी रह गई
हो। मन की
प्रवृत्ति
चीजों को पूरा
करने की है।
और तुम्हारे
पास इतने अधिक
अधूरे अनुभव
हैं: वे
भविष्य में
तुम्हें
प्रक्षेपित
किए चले जाते
हैं। अतीत जा
चुका है— अब
अतीत में
उन्हें पूरा
किए जाने का
कोई भी उपाय
नहीं है, और
वर्तमान
तुम्हारे
हाथों से तेजी
से फिसला जा
रहा है, इसलिए
तुम नहीं
समझते कि वह
कोई जरूरी चीज
है, क्योंकि
वर्तमान में
उन्हें पूरा
किए जाने की
कोई सम्भावना
नहीं है।
भविष्य बहुत
लम्बा है: तुम
यह जीवन, अगला
जन्म, यह
संसार, और
दूसरा संसार
भी
प्रक्षेपित
कर सकते हो—तुम
अनंत समय तक
को प्रक्षेपित
कर सकते हो।
तुम्हें चैन
तभी मिलेगा।
तुम कहते हो, ‘‘ मेरा कोई भी
नुकसान नहीं
हुआ है, क्योंकि
कल है वहां, फिर वहां
अगला जन्म
होगा।‘‘ धीमे—
धीमे तुम एक
गलत ढांचे के
जाल में फंसते
जा रहे हो।
नहीं, आशा कोई
भी ठीक चीज
नहीं है।
वर्तमान में
ही इतनी अधिक
गहराई, और
इतनी अधिक
पूर्णता से
जियो कि कुछ
भी शेष न रह
जाये। तब वहां
प्रक्षेपण
नहीं होंगे।
तुम बहुत
आसानी से
वर्तमान का
कोई भी भार
लिए बिना कल
की ओर गतिशील
हो जाओगे। और
जब वहां बीता
हुआ कल
तुम्हारे
अंदर नहीं घूम
रहा है, तब
वहां कोई आने
वाला कल भी
नहीं होगा। जब
तुम्हारे
चारों ओर अतीत
नहीं लटक रहा,
तब वहां कोई
भविष्य भी
नहीं है।
प्रदीपा
ने इसे ठीक से
समझ लिया है, इसी कारण
मैं उसे
समझाने का
प्रयास कर रहा
हूं आशा एक
बीमारी है, यह मन का एक
रोग है। यह
आशा ही है, जो
तुम्हें जीने
की अनुमति
नहीं दे रही
है। आशा कोई
मित्र नहीं है,
स्मरण रहे:
यह तुम्हारी
शत्रु है। आशा
के ही कारण
तुम हर चीज कल
पर टालोग चले
जाते हो।
लेकिन कल भी
तुम वैसे ही
बने रहोगे और
कल भी तुम
किसी भविष्य
की आशा करोगे।
और इस तरह तुम
अनंत काल तक
जा सकते हो और
चूके जा सकते
हो। कल पर
टालना बंद करो।
और कौन जाने, भविष्य
तुम्हारे लिए
क्या प्रकट
करने जा रहा है?
इस बारे में
जानने का कोई
उपाय है ही
नहीं। यह तो
शुरुआत है और
सभी विकल्प
खुले हुए हैं।
वास्तव में
क्या घटने जा
रहा है, इसकी
कोई
भविष्यवाणी
नहीं कर सकता।
लोगों ने बहुत
कोशिश करके
देख ली।
इसी
वजह से लोग
ज्योतिषियों
के पास अथवा ‘ आई चिंग
‘ के पास
जाते हैं और
दूसरी तरह के
उपाय करते हैं।
‘ आई चिंग ‘ लोगों को
सम्मोहित किए
चले जाता है, और ज्योतिषी
लोगों को
प्रभावित किए
चले जाते हैं।
लोगों को
ज्योतिष में
अभी भी एक
महान शक्ति दिखाई
देती है। आखिर
क्यों ?—क्योंकि
लोग जिस चीज
से चूक रहे
हैं, वे
भविष्य के लिए
उसकी आशा कर
रहे हैं। वे
कुछ संकेत
जानना चाहते
हैं कि आगे
क्या होने जा
रहा है, जिससे
वे उस तरह से
प्रबंध कर
सकें। ये
चीजें बनी ही
रहेंगी, भले
ही
वैज्ञानिकता
ने यह भी
सिद्ध कर दिया
है कि सभी कुछ
व्यर्थ है। यह
चीजें बनी ही
रहेंगी, क्योंकि
यह प्रश्न
विज्ञान का न
होकर मनुष्य की
आशा का है।
जब तक
आशा नहीं छोडी
जाती, ‘ आई
चिंग ‘ भी
नहीं मिट सकता।
मनुष्य के मन
पर इस बड़ी
शक्ति का
प्रभाव हो ही,
क्योंकि
तुम आशा की
डोरी से बंधे
हुए हो। तुम
भविष्य के
बारे में छोटे—छोटे
संकेत जानना
चाहते हो, जिससे
तुम आश्वस्त
होकर आगे बढ़
सको, तुम
अधिक विश्वास
से प्रक्षेपण
कर सको, और
तुम बहुत सी
चीजों को टाल
सको।
यदि
तुम आने वाले
कल के बारे
में कुछ बातें
जान लो, तो मेरा
खयाल है कि
तुम आज भी जी न
सकोगे। तुम
कहोगे— ‘‘ इसकी
आवश्यकता
क्या है? हम
कल जी लेंगे।‘‘
यहां तक कि
कल के बारे
में बिना कोई
भी बात जाने
हुए भी तुम
वही कर रहे हो।
कल कभी नहीं
आता... और जब वह
आता है, वह
हमेशा आज ही
होता है। और
तुम यह जानते
ही कि आज कैसे
जिया जाए?
इसलिए
तुम एक बड़े
जाल में फंसे
हुये हो। इस
पूरे ढांचे को
ही ध्वस्त कर
दो। आशा ही मनुष्य
का बंधन है, आशा ही ‘ समसार ‘ है
और आशा ही
संसार है। एक
बार जब तुम
आशा छोड़ देते
हो, तुम एक
संन्यासी बन
जाते हो, तब
तुम्हें फिर
कहीं भी नहीं
जाना है।
मैंने
सुना है……
एक दिन
मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत ही गहरी
ध्यान ही
मुद्रा में
अपने कुत्ते
के
निकट
बैठा हुआ, एकल नाटक
में अभिनय
करते हुए कह
रहा था— ‘‘ तुम
केवल एक
कुत्ते हो, लेकिन मैं
चाहता हूं कि
काश! मैं
तुम्हारे जैसा
ही होता। जब
तुम सोने के
लिए जाते हो
तो बस तीन बार
चारों ओर
घूमते हो और
लेट जाते हो।
जब मैं
बिस्तरे पर
सोने जाता हूं
तो उससे पहले
मुझे सारे दिन
किए काम को
समेटना होता
है, बिल्ली
को कमरे से
बाहर निकालना
होता है, और
कपड़े उतारने
होते हैं और
तभी मेरी
पत्नी की आख
खुल जाती है
और वह बड़बड़ाने
लगती है, और
तभी बेबी जाग
जाता है और
रोने लगता है,
और मुझे उसे
गोद में लेकर
घर में घूम—घूम
कर उसे बहलाना
होता है और तभी
मैं बिस्तरे
पर सोने जा
सकता हूं
जिससे सुबह
ठीक समय पर
मैं फिर उठ
सकूं। जब तुम
सोकर उठते हो,
तो तुम अपने
अंगों को
फैलाकर
अंगड़ाई लेते
हो, अपनी
गर्दन को थोड़ा
सा हिलाते—डुलाते
हो और जाग
जाते हो। मुझे
उठते ही आग
जलानी होती है,
उस पर केतली
रखकर चाय
बनानी होती है,
पत्नी के
साथ थोड़ी नोंक—झोंक
के बाद मुझे
स्वयं नाश्ता
तैयार करना होता
है। तुम सारे
दिन बड़े मजे
मारते मस्ती
से लेटे रहते
:हो और मुझे
सारा दिन काम
करते हुए ढेर
सारी मुसीबतों
का सामना करना
होता है। जब
तुम मर जाओगे,
तो बस हमेशा
के लिए मर
जाओगे और जब
मैं मरूंगा तो
मुझे फिर कहीं
और जाना होगा।‘‘
इस— ‘‘फिर कहीं और
‘ को ही नर्क
कहकर पुकारो,
या स्वर्ग
कहकर, लेकिन
‘ कुछ कहीं ‘ है, और
परमात्मा है—यहीं,
और तुम
हमेशा कहीं न
कहीं जा ही
रहे हो।
परमात्मा
तुम्हारे
चारों ओर है, और तुम
हमेशा उससे
चूक रहे हो, क्योंकि तुम
वर्तमान से
चूक रहे हो।
परमात्मा के
पास केवल एक
ही काल है— और
वह है वर्तमान
उसके लिए
भूतकाल और
भविष्यकाल का
अस्तित्व ही
नहीं है।
मनुष्य, वर्तमान
में न रहकर, भूतकाल या
भविष्य में
रहता है, परमात्मा,
भूत और
भविष्य में न
होकर वर्तमान
में रहता है।
इसलिए दोनों का
मिलन कैसे हो?
हम भिन्न
आयामों में जी
रहे हैं, या
तो परमात्मा,
भूत और
भविष्य में
रहना शुरू कर
दे तब यह मुलाकात
हो जाती है, लेकिन तब वह
परमात्मा न
रहेगा, वह
ठीक तुम्हारे
जैसा एक
सामान्य
मनुष्य होगा:
अथवा तुम
वर्तमान में
जीना शुरू कर
दो—तभी होगा
मिलन। लेकिन
तब तुम एक
साधारण
मनुष्य नहीं
रह जाओगे, तुम
दिव्य बन
जाओगे। केवल
दिव्य का ही
दिव्य के साथ
मिलन हो सकता
है, केवल
समान ही समान
के साथ मिल
सकता है।
आशा
छोड़ दो।
आशा के
ही कारण तुम
परमात्मा से
चूके जा रहे हो।
और समस्या है—यही
दुष्चक्र:
जितने अधिक
तुम परमात्मा से
चूकते हो, तुम उतनी
ही अधिक आशा
करते हो:
जितना अधिक
तुम आशा करते
हो, अधिक
चूक जाते हो।
एक बार गहरे
में तुम आशा
को, उसके
ढांचे और अपने
पर उसकी पकड़
को समझ और देख लो,
तो उसी समझ
और दृष्टि से
आशा अपने आप
गिर जाएगी।
अचानक तुम
यहीं और अभी
होगे, और
देखोगे, जैसे
मानो
तुम्हारी आंखों
के आगे पड़ा
पर्दा हट गया,
तुम्हारी
ज्ञानेंद्रियों
के आगे पड़ा
आवरण हट गया।
तुम अत्यधिक
ताजे और युवा
बन जाओगे और
देखोगे कि तुम
चारों ओर पूरी
तरह से एक
आलोकित और नूतन
संसार में हो।
वृक्ष हरे
होंगे लेकिन
एक अलग तरह की
अत्यधिक गहरी
हरियाली होगी
और उस हरेपन
में एक आलोक, एक प्रकाश
और एक दीप्ति
होगी। यहां
तुम्हारी आंखें
ही हैं, जो
केवल धूल से
ढकी हैं, जो
अपने चारो ओर
हर कहीं तितली
के पंखों के
विविध रंग
नहीं देख
सकतीं।
आशा को
त्याग दो।
लेकिन
मैं जब भी
किसी व्यक्ति
से आशा
त्यागने को
कहता हूं तो
वह सोचता है
कि मैं उसे
निराश बनने के
लिए कह रहा हूं।
नहीं, मैं
ऐसा नहीं कर
रहा हूं। जब
तुम आशा का
त्याग कर देते
हो तो वहां
निराश बनने की
कोई सम्भावना
ही नहीं रह
जाती, क्योंकि
केवल आशा के
ही कारण
निराशा का
अस्तित्व है।
तुम आशा करते
हो, और वह
पूरी नहीं
होती, तभी
निराशा
जन्मती है।
तुम आशा करते
हो और तुम बार—बार
आशा किए जाते
हो, लेकिन
परिणाम कुछ
निकलता नहीं,
तभी निराशा
का जन्म होता
है। निराशा है
एक निष्फल आशा।
जिस
क्षण तुम आशा
छोड़ देते हो, निराशा
भी गिर जाती
है। तुम केवल
बिना आशा और
बिना निराशा
के होते हो।
और यही सबसे
अधिक सुंदर
क्षण है, जो
एक मनुष्य को
घट सकता है, क्योंकि इसी
क्षण वह
व्यक्ति
परमात्मा के
राज्य में
प्रवेश करता
है।
चौथा
प्रश्न:
आपके
सभी कुछ बताने
के बावजूद भी
मैं अभी भी
ध्यान के
मार्ग और
प्रेम के
मार्ग के मध्य
किसी एक का चुनाव
नहीं करना
चाहता! मेरा
हृदय इस संसार
को बहुत अधिक
प्रेम करता है? और कहना
चाहिए कि यही
मेरे लिए पर्याप्त
है? और
मेरा मन
समर्पण को दीन
हीन मानकर
उसका उपहास
करता है!
गुरुजिएफ एक
चौथे मार्ग की
बात करता है? जिसमें शरीर?
हृदय और मन
सभी एक साथ
संलग्र होते
हैं? क्या
इस मार्ग का
अनुसरण करने
की कोई
सम्भावना
नहीं है?
अपनी
चालबाजी के
प्रति सजग हो
जाओ। तुम यहां
समर्पण नहीं
कर सकते और
तुम सोचते हो
कि तुम
गुरुजिएफ के
प्रति समर्पण
करने में समर्थ
हो सकोगे? समस्या
मेरे या
गुरुजिएफ के
साथ नहीं है, तुम्हारी
समस्या है
मेरे साथ, कि
तुम समर्पण
नहीं कर सकते।
और गुरुजिएफ
बहुत सख्त, दोषों को
क्षमा न करने
वाला कठोर
सद्गुरु था, बोधिधर्म के
बाद जितने भी
अभी तक खतरनाक
सद्गुरु हुए
हैं, वह
उनमें से एक
था। समस्या
तुम्हारे साथ
ही है। देखने
की जरूरी बात
यह है— जब मैं
प्रेम पर
चर्चा करता
हूं तो लोग
मेरे पास आते हैं
और कहते हैं— ‘‘ यह हमारे
लिए कठिन है, क्या हम
ध्यान नहीं कर
सकते? और
यदि मैं उनसे
ध्यान करने के
लिए कहता हूं
तो वे कहते
हैं— ‘‘ यह तो
इतना अधिक
कठिन है। क्या
वहां कोई और
दूसरा मार्ग
नहीं है? वे
टालना चाहते
हैं।
अब तुम
पूछ रहे हो—क्या
हम गुरुजियेफ
का अनुसरण
नहीं कर सकते? मैं एक
बात पूछ रहा
हूं तुमसे: ‘‘ क्या तुम
अनुसरण करने
को तैयार हो? अनुसरण करना
कठिन है।
अनुसरण करने
का अर्थ है—समर्पण
करना। अनुसरण
करने का अर्थ
होता है कि अब
तुमने मन और
बुद्धि उठाकर
एक ओर रख दी।
गुरुजिएफ तो
अभी एक बहाना
है, इसलिए
अपने अंदर तुम
यह सोच सकते
हो, ‘‘ यदि
मैं इस
व्यक्ति के
प्रति
समर्पित नहीं
हूं तो कम से
कम मैं
गुरुजिएफ के
प्रति तो
समर्पण करने
को तैयार हूं।‘‘
लेकिन तुम
गुरुजिएफ को
खोजने कहां जा
रहे हो? और
यदि तुम कभी
उसके सामने पड़
भी गए तो तुम
दूसरे
सद्गुरुओं के
बारे में
सोचना शुरू कर
दोगे, क्योंकि
वहां बहुत सी
अन्य
सम्भावनाएं
भी हैं। तुम
यही प्रश्न
गुरुजिएफ से
भी पूछोगे... कि
मेरे लिए आपको
समर्पण करना
तो कठिन है, और शरीर मन
और आत्मा
तीनों पर एक
साथ कार्य करना
बहुत कठिन है—क्योंकि
अलग से इनमें
से एक पर ही
कार्य करना कठिन
है। तीनों
चीजों पर एक
साथ कार्य
करना और भी
अधिक जटिल और
श्रमपूर्ण
होने जा रहा
है। इसलिए तब
तुम कह सकते
हो—क्या मैं
बाउलों के पथ
का अनुसरण
नहीं कर सकता?
इसी
तरह से तुम
अपने अनेक
जन्मों में
यात्रा करते
रहे हो। स्मरण
रहे, तुम
इस पृथ्वी पर
नये नहीं हो।
और स्मरण रहे,
तुम कई
सद्गुरुओं के
साथ रहे हो—
अन्यथा तुम
यहां होते ही
नहीं। तुम
पूरी तरह भूल
गए हो, लेकिन
तुम कई बार
चूके हो। यह
कोई पहला अवसर
नहीं है कि
तुम चूके जा
रहे हो। हो
सकता है तुम
बुद्ध के साथ
भी उनके पथ पर
चले हो जीसस
के भी साथ चले
हो सकते हो।
यहां ऐसे लोग
हैं, जिन्हें
मैं जानता हूं
कि निश्चिय ही
वे जीसस के
साथ चले हैं, लेकिन वे
उन्हें चूक गए।
यहां ऐसे भी
लोग हैं जो
बुद्ध के साथ
चले हैं, और
चूक गए।
लेकिन
खोज जारी रहती
है।
जब भी
कोई व्यक्ति
मुझसे
संन्यास लेना
चाहता है तो
पहली चीज, जो मैं
खोजने का
प्रयास करता हूं
कि वह व्यक्ति
नया है अथवा
पुराना पापी
है। अब तक मैं
ऐसे किसी
व्यक्ति के
सम्पर्क में नहीं
आया, जिसने
धर्म में पहली
बार ही
दिलचस्पी ली
हो और ताजा व
नया हो। नहीं,
वह व्यक्ति
कई सद्गुरुओं
के साथ रहता
हुआ कई मार्गों
पर यात्रा कर
चुका है, पर
कहीं भी वह
समग्र रूप से
कभी रहा ही
नहीं। अब तुम
भी इस अवसर से
चूक सकते हो।
मैंने
सुना है— एक
युगल ने अपनी
साठ से
उनहत्तर वर्ष
की आयु में
अपने विवाहित
जीवन के
पैंतालीस
वर्ष, जो
जितना कलह और
संघर्ष से भरे
थे, उतने
ही प्रेम से
भी भरे हुए थे,
किसी तरह
आखिर गुजार ही
दिए। जब पति
अपने
पैंसठवें
जन्मदिवस के
दिन आफिस के
घर लौटा तो
उसकी पत्नी ने
उसे दो सुंदर
टाई उपहार में
दीं। वह इतना
अधिक भावुक हो
उठा कि उसकी
पत्नी को रात्रि
भोजन घर पर न
पका कर, शीघ्र
ही नहा धोकर
और कपड़े बदलकर
उसे रात्रि भोजन
के लिए कहीं
बाहर चलने को
कहा। वे
कोमलता से भरे
प्रेम के
दुर्लभ क्षण
थे। कुछ
मिनटों के बाद
जब पति कपडे
बदल कर सुहानी
शाम नगर के
किसी होटल में
गुजारने के
लिए सीढ़ियां
उतर कर नीचे
आया तो वह
उपहार में
मिली टाइयों
में से एक टाई
पहने हुए था।
उसकी पत्नी ने
अपनी हुक्म
देने वाली
अपनी तार्किक
शक्ति और आदत
के वशीभूत
होकर एक क्षण
के लिए उसे
घूरते और गुर्राते
हुए कहा— ‘‘ आखिर
बात क्या है, क्या दूसरी
टाई अच्छी
नहीं है?‘‘
लेकिन
अब एक व्यक्ति
एक बार में एक
टाई ही तो पहन
सकता है: ‘‘आखिर बात
क्या है, क्या
दूसरी टाई
अच्छी नहीं है?‘‘
यदि
तुम केवल तर्क—वितर्क
ही करना चाहते
हो, तब
तुम गुरुजिएफ
का अनुसरण कर
सकते हो।
लेकिन अभी जो
अवसर तुम्हें
उपलब्ध है, उस अवसर को
यह केवल टालना
भर होगा। आखिर
कुछ तो करो।
यदि तुम
गुरुजिएफ का
अनुसरण करना
चाहते हो, तो
गुरुजिएफ का
ही अनुसरण करो,
लेकिन
कृपया अनुसरण
तो करो। तुम
स्वयं अपने ही
साथ चालबाजी
के खेल मत
खेलो। एक
व्यक्ति बहुत
चालाक हो सकता
है, एक
व्यक्ति
स्वयं अपने को
ही धोखा दे
सकता है। यह
कोई बहुत अधिक
खतरनाक बात
नहीं है। जब
तुम दूसरों को
धोखा देते हो,
क्योंकि
देर—सबेर वे
लोग जान ही
लेंगे कि तुम
उन्हें धोखा दे
रहे हो। यह
बहुत देर तक
नहीं चल सकता।
लेकिन जब तुम
स्वयं को ही
धोखा दे रहे
हो, तो यह
बहुत कठिन बात
है। इसे खोजने
आखिर कौन जा
रहा है? तुम
यहां अकेले ही
हो, और यदि
तुम ही धोखा
दे रहे हो
मैंने
सुना है कि एक
व्यक्ति
रेलगाड़ी से
यात्रा कर रहा
था। वह स्वयं
अकेले ही ताश
खेल रहा था।
उसी डिब्बे
में बैठा एक
दूसरा
व्यक्ति उसे
खेलोग देख रहा
था और तभी
उसने सजग होकर
देखा कि वह व्यक्ति
स्वयं अपने आप
को ही धोखा दे
रहा था। वह
खेलने वाला
अकेला था और
वह दूसरा
व्यक्ति सजगता
से देख रहा था
कि वह स्वयं
ही को धोखा दे रहा
था।
आखिर
उसने टोकते
हुए कहा— आखिर
यह मामला क्या
है? आप
यह कर क्या
रहे हैं? क्या
आप नहीं समझते
कि आप स्वयं
अपने को ही धोखा
दिए चले जा
रहे हैं?
उस
व्यक्ति ने
उत्तर दिया—मैं
ऐसा ही अपने
पूरे जीवन भर
करता रहा हूं। ‘ दूसरे
व्यक्ति ने
पूछा— ‘‘क्या
आप स्वयं अपने
आपको धोखा
देते नहीं पकड़
सकते?‘‘
उसने
उत्तर दिया— ‘‘ मैं
बहुत अधिक
चालाक हूं।‘‘
चालाकी
करना एक बहुत
बड़ा विरोध बन
सकता है, क्योंकि
चालाकी करना,
बुद्धिमानी
या प्रज्ञा
नहीं है।
बेईमानी के
लिए चालाकी एक
अच्छा नाम है।
इसके प्रति
सजग बनो।
यदि
तुम गुरुजिएफ
के पथ का ही
मुनसरण करना
चाहते हो, तो जरूर
करो अनुसरण, यह पूरी तरह
ठीक है, वह
मार्ग पूर्ण
रूप से ठीक है।
लेकिन
तब तुम यहां
अपना समय
व्यर्थ नष्ट
कर रहे हो? उसी
मार्ग का
अनुसरण करो।
फिर तुम किसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हो? लेकिन
यदि तुम यहां
हो, तब
गुरुजिएफ और
अन्य हर चीज
को भूल जाओ।
यदि तुम यहां
मेरे साथ बने
रहना चाहते हो,
तब मेरे साथ
यहीं बने रहो,
जिससे कुछ
चीज वास्तव
में घटे।
लेकिन
यह एक सामान्य
बात है, इसमें
असाधारणता
कुछ भी नहीं:
लोग अपने
सद्गुरुओं को
बदलोग रहते
हैं, वे एक
स्थान से
दूसरे स्थान
जाते रहते हैं।
वे जब यह
महसूस करने
लगते हैं कि
वे काफी अधिक
बढ़ चुके हैं
और वे उसके
प्रति
प्रतिबद्ध होकर
किसी उलझन में
पड़ सकते हैं, तो वे उसे
बदल देते हैं।
वे कहीं और
फिर से यही
खेल खेलना
शुरू कर देते हैं।
जब वे वहां भी
यह अनुभव करते
हैं कि वह
क्षण आ पहुचा
है और उन्हें
कुछ चीज करनी
ही होगी—वे
फिर स्थान बदल
देते
यह एक
विवाह सम्बंध
है मेरे
सान्निध्य
में रहने का
अर्थ ही मेरे
साथ विवाह
करने जैसा है।
लोग मेरे साथ
उसी बिंदु तक
ठहरते हैं, जहां तक
प्रेम सम्बंध
जारी रहता है।
एक बार जब
प्रतिबद्ध
होने की, उसमें
डूबने की
समस्या आती है,
वे भयभीत हो
उठते हैं। तब
वे किसी दूसरे
मार्ग के बारे
में विचार
करना शुरू कर
देते हैं। फिर
उन्हें कोई भी
मार्ग चलेगा—क्योंकि
वास्तव में यह
प्रश्न मार्ग
का है ही नहीं।
यह प्रश्न है
समर्पण का।
किसी भी मार्ग
के प्रति
समर्पण करो, सत्य
तुम्हें
घटेगा ही—क्योंकि
वह किसी मार्ग
के कारण नहीं
घटता, वह
घटता है केवल
समर्पण के
कारण।
कुछ
वर्ष पहले एक
राजनीतिक
नेता को एक किसान
अपने इक्के पर
गांव ले जा
रहा था। तभी
एक उड़ता हुआ
पतंगा, इक्के के
घोड़े के सिर
के चारों ओर
और कुछ देर बाद
उन नेता के
सिर के चारों
ओर चक्कर
लगाने लगा।
उस
राजनेता ने
किसान से पूछा— ‘‘ चचा! यह
किस तरह का
पतंगा है?‘‘ बूढ़े
किसान ने
उत्तर दिया— ‘‘ यह घुड़मक्सी
है।‘‘
‘‘ घुड़मक्सी?
वह क्या
होती है?‘‘
‘‘ सिर्फ
यह एक ऐसी
मक्खी है, जो
घोड़े, खच्चरों
और गधों के
सिरों के ऊपर
ही मंडराती रहती
हैं। चूंकि वह
मक्खी अभी भी
नेताजी के सिर
पर मंडरा रही
थी इसलिए उन्हें
थोड़े से
परिहास करने
का अवसर दिखाई
दिया और
उन्होंने कहा—
‘‘ कहीं
तुम्हारे
कहने का यह
मतलब तो नहीं
कि मैं एक
घोड़ा हूं?‘‘
‘‘नहीं।
आप निश्चित
रूप से एक
घोड़े नहीं है
‘‘
ठीक है, फिर
तुम्हारे
कहने का क्या
यह अर्थ है कि
मैं एक खच्चर
हूं? किसान
ने कुछ उत्तेजित
होकर कहा— ‘‘ आप
खच्चर कैसे हो
सकते है?‘‘ तब
उस राजनेता ने
आग्रहपूर्वक
पूछते हुए कहा—
‘‘ अब चचा! जरा
मेरी ओर देखकर
बताइये, क्या
मैं आपको एक
गधा दिखाई
देता हूं? निश्चित
रूप से आपके
कहने का यह
अर्थ हरगिज नहीं
हो सकता कि आप
मुझे गधा कहें।‘‘
‘‘नहीं
श्रीमान्! मैं
आपको गधा कैसे
कह सकता हूं
और आप मुझे
गधे जैसे
दिखाई भी नहीं
देते। लेकिन
आप जरा समझिए
आप उस
घुडमक्सी को
तो बेवकूफ
नहीं बना सकते।‘‘
बहुत
चालाक मत बनो
और न चालाकी
दिखाओ, क्योंकि तुम
परमात्मा
अथवा
अस्तित्व को
मूर्ख नहीं
बना सकते। तुम
केवल स्वयं को
ही मूर्ख बना
सकते हो।
अंतिम
विश्लेषण में
तुम अपने सिवा
किसी भी अन्य
व्यक्ति को
मूर्ख नहीं
बना सकते।
इसलिए अपने
उठाये
प्रत्येक कदम
का, जो
तुम्हारा मन
उठाता है, निरीक्षण
करो। मैं यह
नहीं कर रहा
हूं कि मेरा
अनुसरण करो।
मैं कह रहा
हूं— अनुसरण
करो। कहीं भी
जहां कहीं भी
तुम्हारा
हृदय तुम्हें
ले जाए जहां
भी तुम अपने
और सद्गुरु के
मध्य एक
विशिष्ट
लयबद्धता का
अनुभव करो, वहीं जाओ, और उन्हीं
का अनुसरण करो।
लेकिन अनुसरण
करो। केवल
विचार करने से
ही कोई सहायता
नहीं मिलने
वाली।
तुम इस
अस्तित्व को
मूर्ख नहीं
बना सकते।
पांचवां
प्रश्न—
आश्रम
के बाहर रहना
कभी—कभी मेरे
लिए बहुत कठिन
हो जाता है? क्योंकि
मैं देखता हूं
कितने कठोर लोग
है वहा जो एक
दूसरे को कुचलते
हुए चलते हैं
इससे मुझे
बहुत चोट पहुंचती
है? जब कभी
शारीरिक पीड़ा भी
होती है और
मैं अपने को
एक छोटे बच्चे
की भाति पाता
हूं जिस पर
सरलता से आघात
किया जाता
सकता है।
मैं
इस स्थिति में
कैसे क्या
करूं? मुझे बताने
करई कृपा
करें।
इस संसार में
सदा से ही
समस्याएं रही
हैं, और
यह संसार भी
हमेशा से ऐसा
ही रहा है और
यह संसार ऐसा
रहेगा भी। यदि
तुम बाहर काम
करना शुरू करो,
तो
परिस्थितियों
को बदलने, लोगों
को बदलने, एक
काल्पनिक
आदर्श संसार
के बारे में
सरकार को
बदलने, आर्थिक
राजनीतिक और
शिक्षा जगत के
ढांचे को बदलने
का विचार करते
हुए ही, तुम
खो जाओगे। यह
एक जाल है, जिसे
राजनीति कहते
हैं। इसी तरह
बहुत से लोग
अपना जीवन
बरबाद कर देते
हैं। इसके
बारे में बहुत
स्पष्ट रूप से
यह समझ लो: ठीक
अभी तुम ही वह
व्यक्ति हो, जो अपनी
सहायता स्वयं
कर सकते हो।
अभी तो तुम
किसी भी
व्यक्ति की
कोई सहायता नहीं
कर सकते। इससे
केवल एक आंतरिक
संघर्ष ही हो
सकता है, जो
कवल मन की ही
एक चाल है।
तुम अपनी ही
समस्याओं को
समझो, तुम अपने
ही मन और उसकी
व्यग्रता को
समझो और पहले इसे
ही बदलने की
कोशिश करो।
ऐसा
बहुत से लोगों
के साथ होता
है: जिस क्षण
वे किसी भी
तरह के धर्म, ध्यान और
प्रार्थना की
ओर रुचि लेने
लगते हैं, तुरंत
ही मन उनसे
कहता है— ‘‘तुम
यहां चुपचाप
बैठे आखिर
क्या कर रहे
हो, संसार
को तुम्हारी
जरूरत है, वहां
बहुत से गरीब
लोग हैं, वहां
बहुत संघर्ष,
हिंसा और
आक्रमण है।
तुम मंदिर में
प्रार्थना
करते हुए आखिर
क्या कर रहे
हो? जाओ और
लोगों की
सहायता करो।‘‘
तुम उन
लोगों की कैसे
सहायता कर
सकते हो, क्योंकि
तुम भी ठीक
उन्हीं जैसे
हो। तुम उनके
लिए और अधिक
समस्याएं ही
सृजित कर सकते
हो, लेकिन
उनकी कोई
सहायता नहीं
कर सकते। इसी
तरह से सभी
क्रांतियां
हमेशा असफल हो
गईं। कोई भी
क्रांति अभी
तक सफल नहीं
हुई, क्योंकि
क्रांतिकारी
भी उसी नाव
में सवार थे।
एक धार्मिक
व्यक्ति वह है,
जो इस बात
को समझता है—मैं
बहुत बौना हूं
मैं बहुत
सीमित हूं। इस
सीमित ऊर्जा
से यदि मैं
स्वयं को ही
बदल सकता हूं
तो वह एक
चमत्कार होगा।‘‘
और यदि
तुम स्वयं को
ही बदल सकते
हो, यदि
तुम पूरी तरह
से एक भिन्न
अस्तित्व हो
जाओ, तो
तुम्हारी आंखों
में एक नये
जीवन की
दीप्ति होगी
और तुम्हारे हृदय
की धड़कनों में
एक नया गीत गज
रहा होगा, तब
तुम दूसरे
लोगों के लिए
भी सहायक हो
सकते हो, क्योंकि
तब तुम्हारे
पास कुछ चीज
ऐसी होगी जिसे
तुम बांट
सकोगे।
ठीक
दूसरे दिन
शिवा ने मुझे
बाशो के जीवन
का एक सुंदर
प्रसंग भेजा।
बाशो जापान की
हाइकू
कविताओं का
महान कवि है, वह हाइकू
कविताओं का
कुशल कारीगर
है। लेकिन वह
केवल एक कवि
ही नहीं है।
कवि बनने से
पूर्व वह एक
रहस्यदर्शी
था, इससे
पहले कि वह
सुंदर
कविताओं में
माधुर्य बरसाना
शुरू करता, वह स्वयं
अपने ही
केंद्र पर
गहरे में रस—वर्षा
से भीग उठा।
वह एक ध्यानी
था। यह कहा
जाता है कि जब
वह एक युवा था,
तभी वह एक
यात्रा में
प्रविष्ट हुआ।
यह यात्रा
स्वयं को
खोजने का
प्रयास था।
कुछ समय बाद
जंगल में उसे
एक छोटे बच्चे
के रोने की
आवाज सुनाई दी—हो
सकता है। उस
समय वह एक
वृक्ष के नीचे
ध्यान में था
या ध्यान करने
का प्रयास कर
रहा था, कि
तभी उसने जंगल
में एक छोटे
बच्चे के रोने
की अकेली आवाज
सुनी। तब उसने
अपना सामान
उठाया, और
बच्चे को उसके
अपने भाग्य पर
छोड्कर अपने रास्ते
पर आगे बढ़ गया।
अपनी
डायरी में
उसने लिखा: ‘‘ पहले एक
व्यक्ति को वह
सब कुछ करना
चाहिए जिसकी
उसे स्वयं के
लिए आवश्यकता
है, तभी वह
व्यक्ति
दूसरों के लिए
कुछ कर सकता
है।‘‘
यह
बहुत कठोर
दिखाई देता है
एक बच्चा जंगल
में अकेला रो
रहा है और यह
व्यक्ति इस
बात पर ध्यान
कर रहा है कि
वह उसके लिए
कुछ करे अथवा
नहीं।, क्या वह उस
बच्चे की कुछ
सहायता कर
सकता है, क्या
सहायता करना
ठीक होगा अथवा
नहीं। एक
असहाय अकेला
बच्चा भयानक
जंगल में मर
सकता है— और
बाशो इस पर
ध्यान करता है
और अंत में
निर्णय लेता
है कि वह किसी
और की सहायता
कैसे कर सकता
है, जब कि
उसने अभी तक
स्वयं की ही
सहायता नहीं
की है। वह
स्वयं अभी
निर्जन जंगल
में भटक रहा
है और स्वयं
अपने आप में
एक छोटे बच्चे
की तरह अकेला
है। फिर वह
कैसे किसी
अन्य दूसरे की
सहायता कर सकता
है?
यह
घटना बहुत
कठोर दिखाई
देती है, लेकिन है
बहुत
अर्थपूर्ण है।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
जंगल में यदि
तुम्हें कोई
रोता और चीखता
हुआ बच्चा
मिले तो उसकी सहायता
मत करो। लेकिन
इसे समझने का
प्रयास करे:
अभी तुम्हारा
स्वयं का दिया
नहीं जला है
और तुमने
दूसरे की
सहायता करनी
शुरू कर दी।
तुम्हारा आंतरिक
अस्तित्व अभी
तक पूर्ण
अंधकार में है
और तुमने
दूसरों की
सहायता करना
प्रारम्भ कर
दिया।
तुम
स्वयं अभी तक
दुख झेल रहे
हो और तुम
लोगों के सेवक
बन गये। तुम
अभी तक आंतरिक
क्रांति के
द्वारा स्वयं
ही नहीं गुजरे
हो और तुम एक
क्रांतिकारी
बन गए। यह
विचार ही
निरर्थक और
व्यर्थ है, लेकिन यह
प्रत्येक
व्यक्ति के मन
में उठता जरूर
है। दूसरों को
सहायता करना
इतना अधिक सरल
दिखाई देता है।
वास्तव में
जिन लोगों को
स्वयं अपने
आपको बदलने की
जरूरत है, वे
ही लोग हमेशा
दूसरों को
बदलने में
दिलचस्पी
लेते हैं। यह
एक व्यवसाय बन
जाता है
जिसमें
व्यस्त होकर
वे स्वयं को
भूल सकते हैं।
यह जो
कुछ भी है, मैंने
इसका
निरीक्षण
किया है।
मैंने ऐसे
बहुत से समाज
सेवकों को
देखा है, सर्वोदयी
लोगों को देखा
है, और
मैंने इनमें
से एक भी
व्यक्ति ऐसा
कभी भी नहीं
देखा जिसके
पास किसी की
भी सहायता
करने के लिए
कोई
अंतर्प्रकाश
हो। लेकिन वे
प्रत्येक
व्यक्ति की
सहायता करने का
कठोर प्रयास
कर रहे हैं।
वे समाज को
बदलने के लिए
उसके पीछे
पागलों की तरह
लगे हुए हैं
और वे सभी
लोगों और उनके
मन को बदलना
चाहते हैं, लेकिन वे
पूरी तरह यह
भूल ही गए है
कि उन्होंने
ऐसा अभी स्वयं
अपने लिए ही
नहीं किया है।
लेकिन लोग
व्यस्त बने
रहते हैं।
एक बार
एक पुराने
क्रांतिकारी
और समाजसेवी मेरे
साथ ठहरे हुए
थे। मैंने
उनसे पूछा— ‘‘ आप अपने
कार्य में
पूरी तरह खो
चुके हैं।
क्या कभी आपने
इस बात पर
विचार किया है
कि जो कुछ आप
वास्तव में
चाहते हैं, यदि वैसा ही
किसी चमत्कार
से रातों रात
हो जाए तो
अगली सुबह से
फिर आप क्या
करेंगे?
वह
हंसे—पर वह
हंसी पूरी तरह
खोखली हंसी थी—लेकिन
तब वे थोड़ा
उदास हो गए।
उन्होंने कहा— ‘‘यदि यह
सम्भव हो जाये,
तब मेरे
करने के लिए
फिर कुछ होगा
ही नहीं। यदि
यह संसार ठीक
वैसा ही हो
जाए जैसा कि
मैं चाहता हूं
तब मेरे करने
के लिए फिर
कुछ होगा ही नहीं।
मुझे आघात सा
लगेगा और मैं
वैसी दशा में
आत्महत्या भी
कर सकता हूं।‘‘
ये सभी
इसी में
व्यस्त हो गए
हैं, यही
विचार निरंतर
उनके मन में
घूमते रहते
हैं। और
उन्होंने एक
ऐसे हठ को
चुना है जो
कभी भी पूरा
नहीं हो सकता।
इसलिए जन्मों—जन्मों
तक तुम दूसरों
को बदलने के
काम में व्यस्त
बने रह सकते
हो। पर ऐसा
करने वाले तुम
होते कौन हो?
यह भी
एक तरह का
अहंकार है: कि
दूसरे लोग आपस
ही में एक
दूसरे के
प्रति बहुत
कठोर हैं और
वे एक दूसरे
को कुचलते हुए
आगे बढ़ रहे
हैं। केवल यह
विचार मात्र
कि दूसरे लोग
निर्दय और कठोर
हैं। तुम्हें
यह महसूस
कराता है कि
तुम बहुत कोमल
हो। नहीं, तुम ऐसे
नहीं हो। यह
तुम्हारी एक
तरह की
महत्त्वाकांक्षा
ही है: लोगों
की सहायता करना,
उदार और
कोमल बनकर
सहायता करना,
जिससे उनकी
सहायता कर तुम
और अधिक दयालु
और करुणावान
बन सको।
खलील
जिब्रान ने एक
छोटी सी कहानी
लिखी है वहां
एक कुत्ता था।
उसे देखकर कोई
भी व्यक्ति
उसे एक महान
क्रांतिकारी
कह सकता था।
वह शहर भर के
कुत्तों को
हमेशा यही
शिक्षा दिया
करता था— ‘‘ केवल व्यर्थ
ही भौंकते
रहने के कारण
ही हम लोग
विकसित नहीं
हो पा रहे हैं।
तुम लोग अपनी
ऊर्जा भौंकने
में व्यर्थ
बरबाद कर रहे
हो।‘‘
एक
डाकिया
गुजरता है और
अचानक एक
पुलिस वाला या
एक संन्यासी
सामने से
निकला नहीं कि
कुत्ते किसी
भी तरह की
वर्दी के
विरुद्ध हैं, किसी भी
व्यक्ति के
ऊपर से नीचे
तक एक ही तरह के
कपड़े हों, और
चूंकि वे
क्रांतिकारी
हैं, फौरन
वे भौंकना
शुरू कर देते
हैं।
वह
नेता सभी से
कहा करता था— ‘‘बंद करो
भौंकना। अपनी
ऊर्जा व्यर्थ
नष्ट मत करो, क्योंकि यही
ऊर्जा किसी
उपयोगी
सृजनात्मक कार्य
में लगाई जा
सकती है।
कुत्ते पूरी
दुनिया पर
शासन कर सकते
हैं, लेकिन
तुम लोग
व्यर्थ ही
अकारण अपनी
ऊर्जा भौंकने
में नष्ट कर
रहे हो। इस
आदत को छोड़ना
होगा। केवल
यही तुम्हारा
पाप और अपराध
है, यही
मूल पाप है।‘‘
सभी कुत्तों
को यह सुनकर
हमेशा यह
अहसास होता था
कि वह बिलकुल
ठीक और
तर्कपूर्ण
बात कह रहा था ‘तुम लोग
आखिर क्यों
भौंकते चले
जाते हो? और
ऊर्जा भी
व्यर्थ नष्ट
होती है, कोई
भी कुत्ता
भौंक— भौंक कर
थक जाता है।
दूसरी ही सुबह
वह फिर भौंकना
शुरू कर देता
है और फिर रात
होने पर ही वह
थकता है। आखिर
इस सभी की
क्या तुक है?
वे सभी
अपने नेता की
कही बात को
समझ सकते थे, लेकिन वे
यह भी जानते
थे कि वे लोग
बस कुत्ते भर
हैं, बेचारे
विवश कुत्ते।
आदर्श बहुत
महान था और
उनका नेता
वास्तव में एक
ज्ञानी था, क्योंकि वह
जिस बात का
उपदेश दे रहा
था, वह
वैसा कर भी
रहा था। वह
कभी भी भौंकता
नहीं था। तुम
उसका चरित्र भली
भांति देख
सकते हो, उसने
जिस बात का
उपदेश दिया, स्वयं उसी
के अनुरूप चला
भी।
लेकिन
धीमे— धीमे
निरंतर उससे
उपदेश सुनते
सुनते वे लोग
आखिर थक गए।
एक दिन
उन्होंने तय
किया—वह उनके
नेता का जन्मदिवस
था और
उन्होंने यह
निर्णय लिया
कि कम से कम आज
की रात, अपने नेता
की बात का
सम्मान रखते
हुए वे रात भर
भौंकेगे नहीं
और यही उनका
नेता के लिए
उपहार होगा।
इसकी अपेक्षा
वे किसी और
बात से इतने
अधिक खुश न हो
सकते थे। उस
रात सभी
कुत्तों ने
भौंकना बंद कर
दिया। यह बहुत
कठिन और
श्रमपूर्ण था।
यह ठीक उसी
तरह था, जैसे
तुम ध्यान कर
रहे हो तो
विचारों को
रोकना कितना
कठिन हो जाता
है। उन सभी के
लिए वैसी ही
समस्या थी वह।
उन्होंने
भौंकना बंद कर
दिया, जब
कि वे हमेशा
भौंका ही करते
थे। और वे लोग
कोई महान संत
नहीं थे, बल्कि
मामूली
कुत्ते थे।
लेकिन
उन्होंने
कठिन प्रयास
किया। यह बहुत
श्रमपूर्ण था।
वे सभी आंखें
बंद किए अपनी—
अपनी जगह छिपे
हुए थे। आंखें
बंद कर दांत
भींचे हुए वे
खामोश बैठे थे,
न वे कुछ
देख सकते थे
और न कुछ सुन
सकते थे। वजह
एक महान
अनुशासन का
पालन कर रहे
थे।
उनका
नेता पूरे शहर
में चारों ओर
घूमा। वह बहुत
उलझन में पड़
गया। वह उपदेश
किन्हें दे? अब
शिक्षा
किन्हें दे? आखिर यह हुआ
क्या—पूरी तरह
शांति व्यास
है चारों ओर।
तभी अचानक जब
आधी रात गुजर
चुकी थी, वह
इतना अधिक
उत्तेजित हो
उठा, क्योंकि
उसने कभी सोचा
तक न था कि सभी
कुत्ते उसकी
बात सुनेंगे।
वह भली भांति
जानता था कि
वे लोग कभी
उसकी बात सुनेंगे
ही नहीं
क्योंकि
कुत्तों के
लिए भौंकना एक
स्वाभाविक
बात थी। उसकी
मांग
अप्राकृतिक
और
अस्वाभाविक
थी, लेकिन
कुत्तों ने
भौंकना बंद कर
दिया। उसकी
पूरी
नेतागीरी
दांव पर लगी
हुई थी। आखिर
कल से वह
करेगा क्या? क्योंकि वह
केवल उपदेश और
शिक्षा देना
जानता था।
उसकी पूरी
शासन
व्यवस्था
दांव पर लगी
हुई थी। और तब
पहली बार उसने
महसूस किया, क्योंकि वह
निरंतर सुबह
से लेकर रात
तक उन्हें
शिक्षा और
उपदेश ही देता
रहता था, इसी
वजह से उसे
कभी भी भौंकने
की जरूरत महसूस
नहीं होती थी।
उसकी ऊर्जा
उसी में इतनी
अधिक लगी हुई
थी, कि वह
एक तरह का
भौंकना ही था।
लेकिन
उस रात कहीं
भी, कोई
भी गलती करता
मिला ही नहीं।
और उस उपदेशक
कुत्ते में
भौंकने की
तीव्र लालसा
शुरू हो गयी।
एक
कुत्ता आखिर
एक कुत्ता ही
तो होता है।
तब वह एक अंधेरी
गली में गया
और उसने
भौंकना शुरू
कर दिया। जब
इसे दूसरे
कुत्तों ने
सुना तो सोचा
कि किसी एक
कुत्ते ने
समझौते को तोड़
दिया है, तब उन्होंने
कहा— ‘‘फिर
हमीं लोग आखिर
यह दुख क्यों
सहे?‘‘ पूरे
शहर ने ही
जैसे भौंकना
शुरू कर दिया।
तभी उस नेता ने
वापस लौटकर
कहा— ‘‘अरे
मूर्खों! तुम
लोग भौंकना कब
बंद करोगे? क्योंकि तुम
लोगों के
भौंकने से ही
हम लोग केवल
कुत्ते ही
बनकर रह गए
हैं, अन्यथा
पूरे संसार पर
हमारा अधिकार
होता।‘‘
यह बात
भली भांति याद
रहे, कि
एक समाज सेवक
और एक
क्रांतिकारी
असम्भव की मांग
कर रहे हैं—लेकिन
यह बात उन्हें
व्यस्त बनाए
रखती है। और
जब तुम दूसरी
समस्याओं में
व्यस्त रहते
हो, तो तुम
स्वयं अपनी ही
समस्याओं को
भूल जाते हो, यही
तुम्हारी
प्रवृत्ति है।
पहले तुम अपनी
समस्याओं को
सुलझाओ, क्योंकि
तुम्हारा मूल
दायित्व यही
है।
एक
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक
ने मजाक—मजाक
में एक खेत
खरीदा। वह हर
बार खेत में
हल चलवा कर
उसमें खुदी
तंग नालियों
में बीज बिखेर
देता था, तभी कांव— कांव
करते काले
कौओं की फौज
झपट्टा मारते
हुए बोये
बीजों को झपट
लेती थी। अंत
में अपने गर्व
को यों कौओं
द्वारा निगला कर
ध्वस्त होते
देख उस
मनोवैज्ञानिक
ने अपने
पुराने पड़ोसी
मुल्ला
नसरुद्दीन से
कुछ करने का
अनुरोध किया।
मुल्ला
नसरुद्दीन डग
भरता हुआ खेत
में गया और वह
पूरे खेत में
इस तरह घूमता
रहा जैसे वह
बीज बो रहा हो, लेकिन वह
बिना बीजों के
ही बीज बोने
का अभिनय कर
रहा था। कौए
झपट्टा मारकर
नीचे उतरे, बीज न पाकर
उन्होंने कांव—
कांव कर
संक्षिप्त
विरोध
व्यक्ति किया,
फिर वे उड़
गए। मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अगले दिन और
फिर उससे अगले
दिन भी बार—बार
उसी
प्रक्रिया को
दोहराया और हर
बार कौओं और
चिड़ियों को
भ्रमित और
भूखा वापस
लौटा दिया।
अंत में चौथे
दिन उसने खेत
में बीज बो
दिए एक भी
कौवे ने वहां
आने की फिक्र
नहीं की।
जब उस
मनोवैज्ञानिक
ने मुल्ला को
धन्यवाद देने
का प्रयास
किया तो
मुल्ला खरखरी
आवाज में बोला— ‘‘ठीक सीधा—सादा
मनोविज्ञान
है यह तो। क्या
कभी आपने इसके
बाबत सुना
नहीं?‘‘
स्मरण
रहे—यह बहुत
सीधा सरल
मनोविज्ञान
है—दूसरों के
मामलों में
नाक मत धुसाओ।
यदि वे कोई
चीज गलत कर
रहे हैं, तो यह उनके
ऊपर है कि वे
उसे महसूस
करें। कोई
दूसरा अन्य
व्यक्ति
उन्हें इसका
अहसास नहीं
करा सकता। जब
तक वे स्वयं
यह निर्णय
नहीं लेते कि
उसे महसूस
करने का अन्य
कोई तरीका
वहां है ही
नहीं, तुम
व्यर्थ ही
अपना
मूल्यवान समय
और ऊर्जा नष्ट
ही करोगे।
तुम्हारी
पहली
जिम्मेदारी
यही है कि तुम
स्वयं को ही
बदलों। और
अपना
अस्तित्व ही
रूपांतरित हो
जाता है, तो
चीजें अपने आप
घटना शुरू हो
जाती हैं। तुम
एक दीप्तिवान
प्रकाश बन
जाते हो और
तुम्हारे
प्रकाश के
द्वारा वे
अपनी राह
खोजना शुरू कर
देते हैं। ऐसा
नहीं कि तुम
उनके पास जाते
हो, यह भी
नहीं, कि
तुम उन्हें
देखने और
समझने को विवश
करते हो।
तुम्हारा
प्रकाश, तुम्हारी
आलोकित
दीप्ति ही
पर्याप्त
आमंत्रण होता
है: और लोग आना
शुरू हो जाते
हैं। प्रकाश
की जिसको भी
आवश्यकता
होगी, वह
आयेगा ही।
किसी भी
व्यक्ति के
पीछे जाने की
कोई जरूरत है
ही नहीं, क्योंकि
तुम्हारा
जाना ही
मूर्खता होगी।
कोई भी
व्यक्ति किसी
को भी उसकी
इच्छा के विरुद्ध
आज तक नहीं
बदल सका।
चीजों के घटने
का यह तरीका
है ही नहीं।
यह एक सीधा
सरल
मनोविज्ञान
है, क्या
कभी तुमने
सुना नहीं
इसके बाबत? केवल तुम
स्वयं के ही
साथ बने रहो।
छठवां
प्रश्न:
मैं
निराश हूं!
मैं चाहती हूं
कि कुछ ऐसा घटे
जिससे मैं
अधिक से अधिक
ऊर्जा प्राप्त
कर गहरे तथाता
में जा सकूं। अंत
में मुझे
प्राय: कुछ
क्षणों को ऐसा
अनुभव होता है
जैसे मैं कहीं
किसी चीज में गिरती
ही चली जा रही
हूं, यह अनुभव
समुंद्र में
गिरने जैसा
अथवा आकाश में
छाए विशाल अद्भुत
और सुंदर
बादलों के बीच
खो जाने जैसा
होता है!
लेकिन यह
अनुभव जितना
ही प्रगाढ़
होता है? तो
इसका दूसरा भाग
जो उतना ही
शक्तिशाली है?
वह मेरे, अहंकार है? जो मुझे
खामोश कर मुझे
फिर से सो
जाने को बाध्य
करता है और
कहता है— कि हर
चीज काल्पनिक
और गोबर जैसी
है? यह
विचार इतना
अविश्वसनीय
पर प्रबल होता
है कि मुझ
संकल्प शक्ति
जैसी कोई चीज
दिखाई ही नहीं
देती।
मैं पूरी तरह
शक्तिहीन
होने का अनुभव
करती है, जो
मुझे असहायता
और निराशा का
अहसास कराती
है और कभी—कभी
मैं
कुंठाग्रस्त
हो जाती हूं। कृपया
मेरी सहायता करें।
लगता है, तेरे मन में
कुछ
गलतफहमियां
हैं। यह
अहंकार नहीं
है जो तुझे यह
संदेश देने का
प्रयास कर रहा
है कि तू
कल्पना में
विचरण कर रही
है। लेकिन
कल्पनाएं
बहुत सुंदर
होती है और तू
कल्पना ही में
विचरण कर रही
है। तू मीठे
मधुर स्वप्न
देख रही है।
यह
अहंकार नहीं
है जो तुझे
नीचे खींचता
है, अहंकार
वह है, जो
स्वप्न देख रहा
है और जो
कल्पनाओं में
ले जा रहा है।
वह भाग जो
तुझे स्वप्न
से नीचे की ओर
खींचना चाहता
है वह तेरा
होश और चेतना
है। तू इस
सम्बंध में
भ्रमित हो रही
है। चेतना
सदैव तुझे
वास्तविक
यथार्थ मे
वापस लाती है।
वास्तव में
अहंकार है—एक
स्वप्न, यह
एक झूठी
मानसिक
दृष्टि है।
अहंकार कभी भी
किसी भी
व्यक्ति को
कल्पनाओं में
जाने .से
रोकता नहीं है,
क्योंकि
अहंकार
कल्पनाओं का
पोषण करता है।
अहंकार ही
सबसे बड़ी
कल्पना और सनक
है। फिर वह
कल्पनाओं में
जाने से तुझे
कैसे रोक सकता
है? वह
चाहता है कि
तू स्वप्न
ही देखती रहे,
वह चाहता है
कि तेरे
स्वप्न भी
दूसरे संसार
के महान सपने
हों।
यह
अहंकार नहीं
है जो तुझे इस
पृथ्वी पर
नीचे खींच रहा
है। जो भाग
तुझे
वास्तविक
यथार्थ संसार
में नीचे खींच
रहा है, वह तेरी
चेतना है, लेकिन
तू चेतना की
निंदा कर रही
है और तू अधिक से
अधिक
कल्पनाओं में
जाना चाहती है।
नहीं तू पूरी
तरह गलतफहमी
में पड़ गई है।
‘‘मैं
अधिक से अधिक
ऊर्जा का
अनुभव करती
हूं और चाहती
हूं कि मुझे
गहराई में
जाकर तथाता का
अनुभव घटे।
अंत के कुछ
क्षणों में
मुझे ऐसा लगता
है जैसे मैं
कहीं किसी चीज
में नीचे
गिरती जा रही
हूं। यह अनुभव
समुद्र में
गिरने जैसा
अथवा आकाश में
छाए विशाल, अद्भुत और
सुंदर बादलों
के बीच खो
जाने जैसा होता
है
यह सब
कुछ कहीं भी
नहीं है, ये सभी
तुम्हारी
कल्पनाएं हैं।
‘‘लेकिन
यह अनुभव
जितना प्रगाढ़
होता है, तो
इसका दूसरा
भाग जो उतना
ही शक्तिशाली
है, वह
मेरा अहंकार
है, जो
मुझे खामोश कर,
फिर से सो
जाने को बाध्य
करता है और
कहता है—कि हर
चीज काल्पनिक
है।‘‘
यह
गोबर जैसा ही
है, लेकिन
यह तुम्हें
कठोर और
अरुचिकर लगता
है।
मैं
तुम्हें एक
घटना के बाबत
बताना चाहता
हूं—
लंदन
स्कूल की एक
शिक्षिका की
कक्षा में सभी
धर्मों और सभी
देशों के
बच्चे एक साथ
मिले—जुले
पढ़ते थे। एक
दिन उसने
कक्षा में
प्रश्न किया— ‘‘ अभी तक
जितने भी महान
मनुष्य हुए
हैं, उनमें
सबसे अधिक
महान कौन था? और जो छात्र
ठीक उत्तर
देगा। उसे एक
शिलिंग
मिलेगा।‘‘
पहला
बच्चा
अमेरिकन था।
उसने उत्तर
दिया— ‘ जार्ज
वाशिंगटन।
अगला बच्चा था
पेट्रिक ओ ‘ कैली और
उसने उत्तर
दिया—सेंट
पेट्रिक ही
अभी तक हुए
मनुष्यों में
सबसे अधिक
महान था। तब
बारी आई एक भारतीय
बच्चे की
जिसने गौतम
बुद्ध का नाम
लिया, और
एक चीनी बच्चे
ने लाओत्से को
महानतम बतलाया।
तब
पंक्ति में
अगला बच्चा
ऐबे था जिसने
बिना किसी
हिचक के उत्तर
दिया— ‘‘जीसस।‘‘
शिक्षिका
ने उसे तुरंत
एक शिलिंग
दिया और उससे
पूछा— ‘‘ मुझे
बताओ, ऐसा
कैसे हुआ कि
तुमने एक
यहूदी होते
हुए भी, जो
जीसस के
क्राइष्ट
होने पर
विश्वास नहीं
करता, उन्हें
अभी तक हुए
महान लोगों
में उनके होने
का उल्लेख
किया?‘‘
ऐबे ने
उत्तर दिया— ‘‘ अपने
हृदय की गहराई
में मैं जानता
हूं कि सबसे
अधिक महान तो
मोजेज ही थे, लेकिन
व्यापार तो
आखिर व्यापार
है।‘‘
अपने
हृदय की गहराई
में तुम भी
जानती हो कि
यह सभी
कल्पनाएं
गोबर जैसी ही
हैं। इसी वजह
से तुम बार—बार
इसी पृथ्वी की
ओर खींच ली
जाती हो।
पृथ्वी पर
वापस उतरो, कल्पना
से कोई सहायता
मिलनी वाली
नहीं।
वहां
एक काव्य है, यह अलग
तरह का काव्य
है जो
वास्तविक
यथार्थ से
उमगता है।
हां! वहां
बहुत सुंदर
मेघों की
घटाएं हैं और
वहां असीम
विराट सागरों
का सौंदर्य भी
है, लेकिन
वह अस्तित्व
से तभी
उत्पन्न होता
है, जब
तुम्हारी
जड़ें पृथ्वी
में हों। तब
वहां
वास्तविकता
अर्थात् सत्य
और सौंदर्य के
मध्य कोई भी
संघर्ष नहीं
होता। वह
सौंदर्य और
कुछ भी नहीं
होता बल्कि
सत्य स्वयं
अपने
सम्पूर्ण
सौंदर्य को
अभिव्यक्त करता
है। लेकिन अभी
तो तुम जो कुछ
भी कर रही हो, वह कल्पनाएं
हैं। इसलिए इस
दबाव को हटाओ
और तुम अपने
आग्रह को बदलो।
यह अहंकार है,
जो तुम्हें
कल्पनाओं के
आकाश में
उड़ाये लिए जा
रहा है, और
वह तुम्हारी
चेतना है जो
तुम्हें नीचे
पृथ्वी की ओर
खींच रही है।
चेतना
को अधिक से
अधिक कार्य
करने की
अनुमति दो और
सपने देखने
में अधिक समय
नष्ट मत करो।
मैंने
सुना है.....
दो
मछुवारे अपने
पिछले दिन के
अनुभव एक दूसरे
को बतला रहे
थे। एक ने कहा
कि कल उसने
तीन सौ पौंड
वजन की सोलोमन
मछली पकड़ी।
दूसरे
ने टोकते हुए
कहा— ‘‘ लेकिन
कोई भी सोलोमन
मछली कभी भी
तीन सौ पौंड वजन
की होती ही
नहीं।‘‘
‘‘तो भी,
जो मछली
मैंने पकड़ी, वह तीन सौ
पौंड वजनी ही
थी। पर तुमने
क्या पकड़ा?‘‘
दूसरे मुछवारे
ने उत्तर दिया— ‘‘ कुछ खास
नहीं। सिर्फ
जंग लगा एक
पुराना योग लैंप
मेरे जाल में
आया। लेकिन
उसके पेदे पर
खुदा हुआ था— ‘‘ क्रिस्टोफर
कोलम्बस की
सम्पत्ति 1492‘‘। और जब
मैंने उस लैंप
को खोला तो
मैं देखकर हैरान
रह गया कि
उसमें एक
मोमबत्ती जमी
खड़ी थी और तुम
जानते हो कि
वह मोमबत्ती
उस समय भी जल
रही थी।
पहले
मछुवारे ने
अगला कदम
उठाते हुए कहा— ‘‘ अब हमें
दोनों
कहानियों को
इकट्ठा करके
आगे चर्चा
करना चाहिए
यदि तुम इस
नारकीय
मोमबत्ती को
बुझा हुआ मान
लोगे तो मैं
सोलोमन मछली
का वजन दो सौ
पाउण्ड कम कर
सकता हूं।‘‘
एक
व्यक्ति
चाहता है कि
उसके पास मीठे
मधुर अनुभव
हों, और
एक व्यक्ति
सुंदर
अनुभवों की
इच्छा करता है।
लेकिन केवल
इच्छा भर करने
से तुम उन्हें
प्राप्त नहीं
कर सकते, तुम
केवल उनके
बारे में
स्वप्न देख
सकते हो। तुम
केवल कामना
करने के
द्वारा ही
उन्हें प्राप्त
नहीं कर सकते,
बल्कि तुम
स्वयं कठोर
परिश्रम करके
ही उन्हें
प्राप्त कर
सकते हो।
अत्यधिक
प्रयास करने
की आवश्यकता
होती है। तभी
एक दिन सत्य
उद्घाटित
होता है। और
तब उसकी जो
कांति और दमक
होती है, वह
किसी भी सपने
में कभी भी हो
ही नहीं सकती।
क्योंकि सपना
केवल सपना ही
है, वह मन
का ही एक
विचार है, भले
ही उस विचार
में कई रंग
भरे हों, लेकिन
फिर भी वह एक
विचार ही है।
जब सत्य प्रकट
होता है तो वह
पूरी तरह
भिन्न होता है,
वह किसी भी
स्वप्न की
अपेक्षा
लाखों गुना
अधिक सुंदर
होता है। सपने
देखने में
व्यर्थ समय
नष्ट मत करो, इस शरीर में
रहते हुए ही, पृथ्वी पर
ही चलो और
अपने होश में
वापस आओ।
अंतिम
प्रश्न:
यह
प्रश्न है
दिव्या का
प्यारे
सदगुरू! मैं
प्रेम और ध्यान
के सम्बंध में
कुछ और नहीं
सुनना चाहती:
वे दोनों मेरे
लिए एक ही हैं
मैं सत्व खोज
रही हूं और आप
ही उसके साधन
हैं मेरी
भक्ति और मेरी
प्रार्थनाएं? केवल
कृतज्ञता की
ही
अभिव्यक्ति
है प्रेम बस
है और मैं हूं
कभी—कभी मुझे
आश्चर्य होता
हैं कि आप हैं
भी अथवा नहीं, या मैं ही
निरंतर आपको
सृजित किये जा
रही हूं,
अथवा क्या
मेरा
अस्तित्व? आपके
अस्तित्व से
पृथक है! यदि
आप इतने अधिक
सुंदर हैं तो मुझे
परमात्मा
जरूर बनना है
आपके प्रति
मेरा प्रेम, मेरी
कृतज्ञता ही
केवल निश्चित
है? जो बनी
ही रहती है?
और यही सत्य
है। मैं जितना
कुछ जानती हूं, लेकिन
फिर भी
प्रत्येक बार
जब आपको यह
कहते हुए
सुनती हूं—
प्रेम अथवा
ध्यान तभी आप मुझे
पकड़ पाते हैं
कि मैं अपने
केंद्र से दूर
हूं,
क्योंकि सभी
श्रेणियां
कार्य है: मैं
यह हूं अथवा
वह? यह
हमें अभी
समझना है!
आपके निकट
पहुंचाना
कितनी सुंदर
यात्रा है।
बहुत—बहुत
धन्यवाद
दिव्या।
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