नीड़—निर्माण का मजा : जब आंधी हो—(प्रवचन—बाहरवां)
दिनांक 23 मई 1979; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—आप कृष्ण, क्राइस्ट, कबीर,
सभी पर क्यों
बोल रहे है?
2—जंजीर
टूटी नहीं,
नुपुर बन गई
है।
3—भगवान
को ‘किडनेप’
करने का
इरादा।
4—संसार
संन्यास में
बाधाएं डाल
रहा है.....
5—संन्यास
मेरे भाग्य
में है या
नहीं?
6—समाधि
की अंतर्दशा
के संबंध में
कुछ कहें।
पहला
प्रश्न : आप
कृष्ण, क्राइस्ट,
कबीर, सभी
पर क्यों बोल
रहे हैं?
मैं
सभी हूँ! तुम
भी सभी हो।
मुझे याद है, तुम्हें
याद नहीं।
इतना ही भेद
है। मनुष्य की
सारी वसीयत
तुम्हारी है।
मनुष्य की ही
क्यों, अस्तित्व
की सारी वसीयत
तुम्हारी है।
जो भी आज तक
हुआ है, सब
तुम्हारा है।
और जो कल भी
होगा, वह
भी तुम्हारा
है।
तुम्हारे भीतर सारा अतीत छिपा है और सारा भविष्य भी। बुद्ध भी तुम्हारे भीतर हुए! महावीर भी। और आने वाले बुद्ध भी तुम्हारे ही भीतर जगेंगे, जन्मेंगे, जीएँने; चलेंगे, उठेंगे, बोलेंगे। तुम इस विराट के साथ एक हो। इस बात की याद दिलाने के लिए बोल रहा हूँ, सब पर बोल रहा हुं। मनुष्य ने पुराने दिनों में बहुत संकीर्ण घेरे बना लिये थे, उन्हें तोड़ देना जरूरी है। जो कबीर को मानता है, वह कबीर के घेरे में बंद हो जाता है। जो क्राइस्ट को मानता है, वह क्राइस्ट के घेरे में बंद हो जाता है। ऐसे छोटे—छोटे डबरे लोगों ने बना लिये हैं। मैं सारे डबरे तोड रहा हूँ, ताकि सागर प्रगद हो। कबीर का अपना ढंग है; और कृष्ण का अपना; महावीर का अपना और मुहम्मद का अपना। ये ढंग के ही भेद हैं। लेकिन जो जीवनधारा, जो रसगंगा बही है, वह तो एक ही है। ये एक ही रसगंगा के अलग—अलग घाट, अलग—अलग तीर्थ हैं। तुम इन्हें अलग—अलग देखना बंद करो। इन्हें अलग—अलग देखकर बड़ी अड़चन पैदा हुई है। धर्म के नाम पर बहुत खून बहा। धर्म के नाम पर बहुत अधर्म हुआ है। और धर्म के नाम पर बहुत सीमाएँ, पाखंड, औपचारिकताएँ, क्षुद्रताएँ निर्मित हो गयी हैं। वे सब तोड़ देनी हैं।
तुम्हारे भीतर सारा अतीत छिपा है और सारा भविष्य भी। बुद्ध भी तुम्हारे भीतर हुए! महावीर भी। और आने वाले बुद्ध भी तुम्हारे ही भीतर जगेंगे, जन्मेंगे, जीएँने; चलेंगे, उठेंगे, बोलेंगे। तुम इस विराट के साथ एक हो। इस बात की याद दिलाने के लिए बोल रहा हूँ, सब पर बोल रहा हुं। मनुष्य ने पुराने दिनों में बहुत संकीर्ण घेरे बना लिये थे, उन्हें तोड़ देना जरूरी है। जो कबीर को मानता है, वह कबीर के घेरे में बंद हो जाता है। जो क्राइस्ट को मानता है, वह क्राइस्ट के घेरे में बंद हो जाता है। ऐसे छोटे—छोटे डबरे लोगों ने बना लिये हैं। मैं सारे डबरे तोड रहा हूँ, ताकि सागर प्रगद हो। कबीर का अपना ढंग है; और कृष्ण का अपना; महावीर का अपना और मुहम्मद का अपना। ये ढंग के ही भेद हैं। लेकिन जो जीवनधारा, जो रसगंगा बही है, वह तो एक ही है। ये एक ही रसगंगा के अलग—अलग घाट, अलग—अलग तीर्थ हैं। तुम इन्हें अलग—अलग देखना बंद करो। इन्हें अलग—अलग देखकर बड़ी अड़चन पैदा हुई है। धर्म के नाम पर बहुत खून बहा। धर्म के नाम पर बहुत अधर्म हुआ है। और धर्म के नाम पर बहुत सीमाएँ, पाखंड, औपचारिकताएँ, क्षुद्रताएँ निर्मित हो गयी हैं। वे सब तोड़ देनी हैं।
मंदिर, मस्जिद,
गुरुद्वारे,
चर्च, इनके
होने के ढंग
कितने ही अलग
हों, लेकिन
जिसके लिए ये
निर्मित हैं
वह मालिक एक है।
उस मालिक की
तुम्हें याद
दिलाना चाहता
हूँ। फिर जिसे
जिस भाँति रुच
जाए। रुचि भर
का भेद होगा।
किसीको कृष्ण
का ढंग रुचता
है, तो
जरूर उसी ढंग
से चले। उसी
बाँसुरी के
स्वर पर नाचे।
किसीको बुद्ध
का ढंग रुचता
है, तो
बुद्ध के साथ
जोड़ ले नाता।
लेकिन स्मरण
सदा रखे कि
डबरा न बन जाए।
तुम्हारा
बुद्ध का
प्रेम इतना
बड़ा होना
चाहिए कि उसमें
महावीर, मुहम्मद,
क्राइस्ट, जरथुस्त्र
समा जाएँ।
प्रेम अगर
छोटा हो, तो
घृणा' हो
जाता है। छोटा
होने के कारण
ही घृणा हो
जाता है।
इस
पृथ्वी पर
सारे लोग
प्रेम करते
हैं,
फिर भी घृणा
का राज्य है।
क्या होगा
कारण? सारे
लोगों का
प्रेम छोटा—छोटा
है। छोटा
प्रेम घृणा बन
जाता है।
प्रेम तो बड़ा
ही हो तो
प्रेम रहता है।
प्रेम तो
विराट ही हो
तो प्रेम रहता
है। प्रेम का
विराट होना
उसकी
अनिवार्य
लक्षणा है।
आगनों से
प्रेम न करो।
आँगनों में
रहना भी पड़े
तो रहो, मगर
प्रेम तो आकाश
से ही हो।
तुम्हारे
आँगन में भी
जो आकाश है, वह विराट का
ही हिस्सा है।
तुमने एक दीवाल
बना ली है, तुम्हारी
दीवाल अपने
ढंग की है, किसीने
पत्थर रख लिये
हैं, किसीने
ईंटें जोड़ ली
हैं, किसीने
संगमरमर की
दीवाल बना ली
है, मगर यह
दीवालों का
भेद है। वह जो
आकाश
तुम्हारे आंगन
में उतरा है, उसमें कुछ
भेद नहीं है।
किसीका आड़ा है
आँगन, किसीका
तिरछा है, और
किसीने कोई और
रूप दिया है, यह तुम्हारी
मौज।
तुम्हारा
आँगन है, तुम
जैसा चाहो
बनाओ। जिस
आकृति में
चाहो बनाओ।
लेकिन याद
रखना, जो
आकाश उतरा है
उसका कोई आकार
नहीं है। आकाश
निराकार है।
निराकार भूल
गया, आकार
हाथ में पकड़
कर रह गया।
अगिन तो भूल
ही गया, क्योंकि
औंगन तो आकाश
का अंग है, आँगन
को घेरने वाली
दीवाल
महत्वपूर्ण
हो गयी। ऐसे
तुम हिंदू बने,
मुसलमान
बने, जैन
बने, ईसाई
बने। और जितने
तुम मुसलमान
बन गये, हिंदू
बन गये, जैन
बन गये, उतने
ही तुम कम
आदमी हो गये।
आदमी बनो।
सारी वसीयत
तुम्हारी है।
कुरान भी
गूँजे तुम्हारे
भीतर, और
गीता का भी
गीत उठे, सब
तुम्हारा है।
इतने विराट
में से तुम
क्षुद्र को
चुन कर दरिद्र
क्यों होना
चाहते हो? लेकिन
अहंकार
क्षुद्र के
साथ ही संयोग
बना पाता है।
विराट से
संयोग बनाए तो
मौत हो जाती
है। अहंकार को
मिटना पड़ता है।
बूँद सागर से
दोस्ती बनाएगी
तो खो जाएगी।
इससे लोग डरते
हैं। इससे लोग
छोटे—छोटे
आयोजन कर लेते
हैं।
और
फिर जब तुम एक
छोटा—सा आयोजन
कर लेते हो, तो
उससे भिन्न जो
है सब, विपरीत
मालूम होने
लगता है। जो
तुम्हारे साथ
नहीं, वह
दुश्मन मालूम
होने लगता है।
फिर राजनीति
पैदा होती है,
धर्म तो
नष्ट हो जाता
है। यह तो राज—
नीति की भाषा
है कि जो मेरे
साथ नहीं, वह
मेरा दुश्मन।
जो मेरा गीत न
गाए, वह
मेरा दुश्मन।
जो मेरी
बाँसुरी न
बजाए, वह
मेरा दुश्मन।
जो मेरे ढंग
से न नाचे, वह
मेरा दुश्मन।
तो दुनिया में
मित्र तो कम
रह जाते हैं, दुश्मन बहुत
हो जाते हैं।
और
यह सारा जगत
परमात्मा से
व्याप्त है।
इस परमात्मा
से तुम मैली
ही बनाओ सिर्फ।
और ख्याल रखना, लाल
रंग लाल है, हरा रंग हरा
है, नीला
रंग नीला है।
भिन्न हैं
बहुत, मगर
फिर भी अभिन्न
हैं, क्योंकि
हैं तो सभी एक
ही प्रकाश के
अंग। एक ही
इंद्रधनुष के
हिस्से हैं।
और दुनिया
सुंदर है, क्योंकि
सतरंगी है।
यहाँ बहुत
रूपों में
बुद्ध का
अवतरण हुआ है।
बहुत रूपों
में दीया जला
है। परवाने
इसकी फिकर
नहीं करते कि
दीया मिट्टी का
है कि सोने का
है, परवाने
तो दीये को
पहचानते हैं
और दीये के
साथ जोड़ लेते
हैं दोस्ती और
मिट जाते हैं।
दीये की
ज्योति को
पहचानते हैं।
तुम
ज्योति को
पहचान सको, इसलिए
इन सबकी बात
कर रहा हूँ।
तुम विराट हो
सको, इसलिए
इन सबकी बात
कर रहा हूँ।
छोटे न बनो।
बुसअते—बज्मे—जहां
में हम न
मानेंगे कभी
एक ही साकी
रहे और एक
पैमाना रहे
इतनी
बड़ी दुनिया
में,
इतने
विस्तीर्ण
विराट में, इतने असीम
में, तुमने
भी क्या जिद
कर रखी है कि
एक ही साकी
रहे और एक ही
पैमाना रहे!
तुमने भी क्या
जिद कर रखी है
कि इसी
मधुशाला से
पिएँगे! जब कि
सब तरफ उसका
मधु बरसता हो।
बुसअते—बज्मे
जहां में हम न
मानेंगे कभी
एक ही साकी
रहे और एक
पैमाना रहे
सब
सुराहियों से
पिओ। सब
मधुशालाएँ
तुम्हारी हैं।
सब मंदिर—मस्जिद
तुम्हारे हैं।
जहाँ मौज हो, वहाँ
प्रार्थना
करो। जो निकट
पड़ जाए, वहाँ
पूजा करो। जरा
उठो और तुम
चौंक कर पाओगे
कि अगर तुम
मंदिर में भी
पूजा कर पाते
हो और मस्जिद
में भी और गुरुद्वारे
में भी और
शिवालय में भी
और चैत्यालय
में भी, तुम
अचानक पाओगे
तुम्हारे
हृदय का
विस्तार होने
लगा।
तुम्हारी
प्रार्थना
बड़ी होने लगी।
फैलने लगी, विस्तीर्ण
होने लगी।
छोटी—छोटी
प्रार्थनाएँ
लिये चल रहे
हो! इतना बड़ा
आकाश मिल सकता
है, तुम
जमीन पर सरक
रहे हो! और तुम
मुझसे पूछते
हो कि आप
कृष्ण, क्राइस्ट,
कबीर, सभी
पर क्यों बोल
रहे हैं!
एक
और मित्र ने
पूछा है।
उन्होंने
पूछा है कि
अतीत में तो
कोई बुद्धपुरुष
दूसरे
बुद्धपुरुषों
के वचनों पर
नहीं बोला।
उनकी तुम उनसे
पूछ लेना, मेरे
लिए तो कोई
दूसरा नहीं है।
जब बुद्ध पर
बोलता हूँ, तो बुद्ध ही
हो जाता हूँ।
अभी रज्जब पर
बोल रहा हूँ, तो रज्जब ही
हो गया हूँ।
मेरे लिए कोई
दूसरा नहीं है।
वे क्यों नहीं
बोले दूसरों
पर, तुम्हारा
कहीं उनसे
मिलना हो जाए
उनसे पूछ लेना।
मैं क्यों
बोरन रहा हूँ,
इसका उत्तर
तुम्हें दे
सकता हूँ।
मेरे लिए कोई
दूसरा नहीं है।
बुद्धत्व का
स्वाद एक है।
जैसे सब सागर
नमकीन हैं; ऐसे
बुद्धत्व का
स्वाद एक है।
बाहर से चखो
तो प्रेम, भीतर
से चखो तो
ध्यान। अपने
भीतर जाकर
उतरकर चखो तो
ध्यान उसका
स्वाद है और
अपने बाहर
किसीको बाँट
दो तो प्रेम
उसका स्वाद है।
एक पहलू
सिक्के का
प्रेम है, एक
पहलू ध्यान है।
कुछ बुद्धों
ने' एक
पहलू को जोर
दिया, कुछ
बुद्धों ने
दूसरे पहलू को
जोर दिया।
क्योंकि अमुक
को पा लेने से
दूसरा अपने—आप
मिल जाता है।
बुद्ध ने कहा
ध्यान पा लो, प्रेम अपने
से उपलब्ध
होता है। और
मीरा ने कहा
प्रेम पा लो, ध्यान अपने
से उपलब्ध
होता है। तुम
एक पा लो, दूसरा
अपने से मिल
जाता है। मैं
तुम्हें याद
दिला रहा हूँ
कि चाहो तो
तुम दोनों भी
एकसाथ पा लो।
जो तुम्हारी
मर्जी हो, एक
से चलना है एक
से चलो, दूसरा
मिल जाएगा, दोनों को एक साथ
पाना हो तो
दोनों को
एकसाथ पा लो।
मेरे
लिए कोई दूसरा
नहीं है।
उन
मित्र ने यह
भी पूछा है——और
यही नहीं कि
आप दूसरे
बुद्धपुरुषों
के वचन पर
बोलते हैं, आप
ऐसे लोगों का
काव्य भी
उद्धरण कर
देते हैं जो
बुद्धपुरुष
नहीं हैं।
मेरे लेखे
यहाँ कोई भी
नहीं है जो
बुद्धपुरुष न
हो। तुम्हें
पता न होगा।
हो तो तुम वही।
सोए—सोए हो, तंद्रा में
हो, खोए—खोए
हो, मगर हो
तो तुम वही।
बुद्ध ने कहा
है, जिस
दिन मैं बुद्ध
हुआ, उसी
दिन मेरे लिए
सारा
अस्तित्व
बुद्ध हो गया।
मैं भी तुमसे
यही कहता हूँ।
यह हो सकता है
कि जिन कवियों
की पंक्तियाँ
मैं उद्धृत
करता हूँ, उन्हें
भी याद न हो कि
वे कौन हैं।
मगर मैं अपने
को जान कर, अपने
को पहचान कर
इस पहचान को
भी पा लिया
हूँ कि सबके भीतर
वही बोल रहा
है। और कभी—कभी
सोए हुए आदमी
से भी उसकी
ऐसी प्यारी
पुकार उठती
है! और कभी—कभी
सोया हुआ आदमी
भी ऐसे प्यारे
शब्दों में उसकी
अनुगूँज कर
जाता है!
वस्तुत जो भी
श्रेष्ठ
काव्य है, वह
कवि के द्वारा
निर्मित नहीं
होता, कवि
से सिर्फ बहता
है। उस घड़ी
में कवि मिट
गया होता है
और परमात्मा ही
होता है।
ज्यादा देर यह
बात नहीं
टिकती, फिर
कवि लौट आता
है, न केवल
लौट आता है
बल्कि अपनी
कविता पर——जो
उसकी नहीं है,
उससे आयी है,
उससे बही है——उसका
दावेदार हो
जाता है। उस
पर हस्ताक्षर
कर देता है कि
यह मेरी कविता
है। लेकिन जगत
के सारे
विचारशील
कवियों ने यह
कहा है कि जो
भी हमसे
श्रेष्ठ पैदा
हुआ है, वह
हमसे नहीं आया,
हमसे पार
कहीं से आया
है।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
जो भी श्रेष्ठ
है मेरे गीतों
में,
वह मेरा
नहीं है। कहीं—
कहीं कोई पंक्ति
जो अद्भुत
स्वर्णमयी हो
उठी है, वह
मेरी नहीं है।
उसमें चमक
किसी और ही
रोशनी की है।
हाँ, मेरे
ओंठों का
उपयोग हुआ है।
ऐसा ही समझो
कि तुम अपनी
कलम से एक गीत
लिखते हो, अगर
कलम भी बोल
सकती होती तो
कहती कि गीत
मैंने लिखा है।
कलम बोल नहीं
सकती, बस
इतनी ही दिक्कत
है।
कलम
भी बोल सकती
होती तो झंझट
खड़ी हो जाती, कलम
कहती कि मेरे
बिना तो नहीं
लिखा न; मैंने
लिखा है, मैं
मालिक हूँ।
कवि
अपने गहरे
क्षणों में
सिर्फ कलम हो
जाता है।
इसलिए हम सदा
से मानते रहे
हैं कि वेद
अपौरुषेय हैं; उनको
किसी पुरुष ने
नहीं लिखा है।
इसका यह मतलब
नहीं कि पुरुष
ने नहीं लिखा,
पुरुषों ने
ही लिखा है, क्योंकि
लिखावट तो जब
भी होगी कलम
से ही होगी, कलम तो
चाहनी ही होगी,
बिना कलम के
कैसे लिखोगे,
लिखा तो
पुरुषों ने ही
है, मनुष्यों
ने ही है, मगर
जिन्होंने
लिखा, लिखते
क्षण में वे
मिट गये थे।
द्वार हो गये
थे। उनके पार
से आकाश झलका
था, चाँद—तारों
ने रोशनी
फेंकी थी, परमात्मा
उनसे बोल सका
था, उन्होंने
जगह दे दी थी, राह से हट
गये थे, बाधा
न रहे थे, अवरोध
हटा लिये थे, कहा था, मैं
मौजूद हूँ, मेरा उपयोग
कर लो, उपकरण
हो गये थे, निमित्त
मात्र थे।
जैसे कलम
निमित्त मात्र
है। कलम लिखती
नहीं कविता, सिर्फ
निमित्त है
लिखने में; लिखी जाती
है कविता उससे,
मगर आती
कहीं और से है।
वेद ही
अपौरुषेय
नहीं हैं, कुरान
भी अपौरुषेय
है। और बाइबिल
भी। मगर वेद, कुरान और
बाइबिल को हम
मान भी लें
अपौरुषेय, मेरे
देखे तो
साधारण—से—साधारण
कवि में भी
कभी—कभी
अपौरुषेय
तत्व उत्तर
आता है, उसकी
झलक आ जाती है।
उसे पता नहीं,
इतना उसका
ध्यान अभी
गहरा नहीं कि
पहचान ले कहाँ
से यह स्वर
आया, अभी
इतनी गहरी
उसकी प्रज्ञा
नहीं है कि
प्रत्यभिज्ञा
कर ले कहाँ से,
किस द्वार
से यह किरण
उतरी, सोचता
है मेरी ही है,
दावेदार बन
जाता है, लेकिन
जब जागेगा, तो पाएगा कि
मेरा कुछ भी
नहीं है।
तो
ठीक पूछा
तुमने कि मैं
कभी—कभी उनके
उद्धरण भी
देता हूँ
जिनको
साधारणत कोई
बुद्धपुरुष
नहीं कहेगा।
लेकिन मैं तो
वृक्षों की भी
बातें करता
हूँ,
पहाड़ों की
भी बातें करता
हूँ, चाँद—तारों
की भी बातें
करता हूँ, इनमें
भी मेरे लिए
बुद्ध ही सोए
हुए हैं।
वृक्ष में
बुद्ध हरे हैं,
पहाड़ में
बड़ी गहरी नींद
में सोए हैं——जागेंगे
कभी; कभी
वह घड़ी आएगी
जब पहाड़ भी
जागेगा और
बुद्धत्व को
उपलब्ध होगा
और वृक्ष भी
जागेगा और
बुद्धत्व को
उपलब्ध. होगा;
कमी तुम भी
वृक्ष थे और
कभी तुम भी
पहाड़ थे, यात्रा
करते—करते अब
तुम आदमी हो
गये हो, अब
एक कदम और
उठाओगे तो
बुद्ध हो
जाओगे।
तुम्हारे
स्वभाव की
परिभाषा क्या
है?
स्वभाव की
एक ही परिभाषा
है, जो
अंतत:
तुम्हारे
भीतर होगा, वही
तुम्हारा
स्वभाव है। जो
अंतिम शिखर
होगा
तुम्हारा वही
तुम्हारा
स्वभाव है।
क्योंकि वही
तुम्हारा
अंतिम शिखर हो
सकता है जो
तुम्हारे
भीतर सदा से
अंतरतम में
छिपा पड़ा था।
एक बीज है, इसका
स्वभाव तो
पहचान में
नहीं आता। बीज
तो बंद है, पहचानोगे
कैसे? ताले
पड़े हैं बीज
पर, द्वार—
दरवाजे बंद
हैं, कुंजी
भी मिलती नहीं
कोई। इस बीज
को फिर तुम
डाल देते हो
भूमि में, फिर
यह टूटता है, अंकुरित
होता है, फिर
इसमें वृक्ष
पैदा होता है,
फिर एक दिन
तुम पाते हो
कि फूलों से
लद गया वृक्ष;
अब तुम
जानते हो कि
यह बीज का
स्वभाव क्या
था। यह
गुलमोहर था।
यह जो आज
सुर्ख फूलों
से भर गया है, यह लपटों की
तरह आकाश में
इसने फूल उठा
दिये हैं। यह
फूलों से भरा
है, यह
इसका स्वभाव
था। बीज में
तो पहचान में
न आ सका था, लेकिन
फूलों में
पहचान में आ
गया। तुम बीज
हो, बुद्ध
के फूल खिल
गये हैं, मगर
तुम्हारे बीज
में भी यही सब
भरा है।
तुम्हारा बीज
भी इसी सबको
अपने भीतर
लिये है। तुम
छोटे नहीं हो,
तुम कितने
ही छोटे अपने
को बना लिये
हो मगर तुम
छोटे नहीं हो।
तो
मैं तो उनसे
भी चुन लेता
हूँ,
जिनको तुम
साधारणत:
बुद्धपुरुष न
कहोगे। मेरे
लिए बुद्धों
में और
अबुद्धों में
जो भेद है, बड़ा
छोटा—सा है।
जरा—सा है।
बुद्ध जागे
हैं, अबुद्ध
सोए हैं।
स्वभाव में
रत्ती मात्र
का भेद नहीं
है। और कभी—कभी
सोया हुआ आदमी
भी ऐसी बातें
बोल जाता है, कभी—कभी
छोटे बच्चे
ऐसी बातें बोल
जाते हैं कि
बड़े—बूढ़े और
सयाने मात हो
जाएँ। कभी—कभी
छोटे बच्चों
के मुँह से
ऐसी बातें
निकल आती हैं——जो
अभी तुतलाते
हैं, जिन्हें
अभी बोलना भी
ठीक से नहीं
आया——ऐसे सत्य
प्रगट हो जाते
हैं कि जिनके
सामने बड़े—बड़े
सत्य का विचार
करनेवाले
विचारक फीके
पड़ जाएँ, छोटे
पड़ जाएँ। यही
तो जिंदगी का
रहस्य है।
इसलिए मुझे
कोई अड़चन नहीं
होती।
फिर
मैं इसकी
फिकिर नहीं
करता कि कवि
का क्या प्रयोजन
है। कवि के शब्द
ले लेता हूँ, अर्थ
तो मैं अपने
डालता हूँ।
शायद कवि
पढ़ेगा, सुनेगा,
तो खुद भी
चौंकेगा—शायद
ये उसके अर्थ
रहे भी न हों, शायद इस
भाँति उसने
सोचा भी न हो।
उसने तो शायद
शराब का गीत
शराब के लिए
ही लिखा हो, लेकिन जब
मैं उसका गीत
उद्धृत करता
हूँ, तो
मेरे लिए शराब
शराब नहीं रह
जाती, परमात्मा
का आंनदरस हो
जाता है। रसों
वै स। अर्थ तो
मैं अपने डाल
देता हूँ, रंग
तो मैं अपना
डाल देता हूँ।
सुराही मैं
किसीकी उठा
लेता हूँ, रस
तो मैं अपना
डाल देता हूँ।
तुम्हें यह
याद दिलाना
चाहता हूँ कि
तुम बुद्धत्व
से बहुत दूर
नहीं हो। जरा
जागने की बात
है। एक क्षण
में भी हो
सकती है। और
भजन—भाव जग
सकता है, फूल
खिल सकते हैं।
फिर
उन मित्र ने
यह भी पूछा है
कि आपका हर
शब्द काव्य है, फिर
आप बाहर के
काव्य से
क्यों उद्धरण
देते हैं? कौन
बाहर, कौन
भीतर? कहाँ
बाहर, कहाँ
भीतर? ये
बाहर—भीतर के
भेद छोड़ो।
यहाँ सब एक है।
यहाँ न कुछ
बाहर है, न
कुछ भीतर है।
यही मेरा
काव्य है, जिसमें
न कुछ बाहर है,
न कुछ भीतर
है; न कुछ
अपना. है, न
पराया है। इस
एकरसता में
डूबो।
लेकिन
तुम्हें
संकीर्ण
दायरे पसंद
आते हैं।
तुम्हें बड़ी
अड़चन होती है
यह बात मानकर
कि मैं कबीर
पर बोलूं, फरीद
पर बोलूँ, रूमी
पर बोलूँ, तुम्हें
बड़ी अड़चन होती
है।
मैं
एक जैन—संत पर
बोल रहा था, बीच
में फरीद का
मैंने उल्लेख
किया——औंर
फरीद तो
मुसलमान था——एक
सज्जन मेरे
सामने ही बैठे
बड़े मस्त हो
रहे थे, एकदम
चौंके, उठ
कर चल पड़े।
बाद में
उन्होंने
मुझे खबर भेजी
कि आपने जैन—संत
पर बोलते समय
और मुसलमान
फकीर का
उल्लेख किया,
यह बात ठीक
नहीं है। कहाँ
अहिंसा और
कहाँ हिंसा? कहाँ वीतराग
जैन—संत और
कहाँ फरीद? आपने दोनों
की तुलना की!
इससे हमारे
हृदय को बड़ी
चोट पहुँची।
ऐसे
ओछे हो गये
हैं लोग।
उन्हें फरीद
का कुछ पता
नहीं है। फरीद
उतना ही
वीतराग है, जितने
उनके जैन—संत
वीतराग होंगे।
शायद थोड़ा
ज्यादा ही।
उनकी कठिनाई
क्या है? उनकी
कठिनाई यह है
कि उनका जैन—मुनि
तो पत्नी को
छोड्कर चला
गया है और यह
फकीर ने तो
पत्नी नहीं
छोड़ी है। मगर
यह हो सकता है
जो पत्नी को
छोड्कर चला
गया है वह
पत्नी से डरता
हो, भयभीत
हो, पत्नी
के पास रहेगा
तो वासना जगने
की संभावना रही
होगी, और
जो पत्नी के
पास ही रहा
आया, वह
इतना वीतराग
हो कि अब पास
और दूर से
क्या फर्क
पड़ता है? पत्नी
है तो रही' आए।
भीतर की वासना
दग्ध हो गयी
हो तो पत्नी
से भागने की
जरूरत भी क्या
है? कोई पत्नी
से थोड़े ही
भागता है, अपनी
ही वासनाओं से,
अपने ही
रोगों से, अपने
ही भीतर छिपे
हुए साँप—बिच्छुओं
से भागता है।
मगर वे तो
तुम्हारे साथ
ही चले जाते
हैं। मगर हम
ऊपर से देखने
के आदी हैं।
हम तो 'लेबिल'
लगा कर बैठे
हैं। 'लेबिल'
लगा दिये
हैं और अपने—अपने
'लेबिल' को सँभाले
बैठे हैं, और
अपनी सीमा में
दूसरे को
प्रवेश नहीं
करने देते।
मुझसे
सभी नाराज हैं।
होना चाहिए था
सभी को
प्रसन्न, क्योंकि
मैं सभी के
संतों की
बातें कर रहा
हूँ, लेकिन
सभी नाराज हैं।
नाराज इसलिए
हैं कि उनके
ही संत की बात
अगर करता, तो
ठीक था। और
संतों को बीच
में ले आया
हूँ! सभी की
प्रशंसा कर
रहा हूँ! इससे
उनकी सीमाएँ
डगमगा गयी हैं।
इससे उन्हें
बेचैनी पैदा
हो गयी है।
फिर
तुमने
बुद्धपुरुषों
के बीच बड़े
फासले खड़े कर
रखे हैं। जैन
बुद्ध को
ज्ञानी नहीं
मानते। और न
ही बौद्ध
महावीर को
उपलब्ध सिद्ध
मानते हैं। औरों
की तो बात
छोड़ो, इतने
पास—पास ये
दोनों आदमी थे——महावीर
और बुद्ध—फिर
भी दोनों के
अनुयायी
दोनों को
स्वीकार नहीं
कर पाते।
तुम्हारे मन
छोटे हैं, संकीर्ण
हैं। तुम एक
ढाँचा बना
लेते हो। उस
ढाँचे में जो
आ जाए, बस
वही ठीक। मैं
ढाँचे मिटा
रहा हूँ। मैं
तुम्हें उस
दिशा में ले
चल रहा हूँ
जहाँ तुम एक
दिन कह सकोगे——सब
ठीक, जहाँ
किसी ढाँचे के
आधार से न
कहोगे सब ठीक,
बल्कि जीवन
ठीक ही हो
सकता है, गलत
होगा ही कैसे;
सब ठीक, क्योंकि
सब परमात्मा
से व्याप्त है;
सब उसकी
लीला, तो
गलत कैसे होगा?
जिस दिन तुम
गलत में भी
ठीक देख लोगे,
उस दिन
समझना कि
तुमने ठीक को
देखा। जब तक
तुम्हें गलत
अलग और ठीक
अलग दिखता है,
तब तक तुमने
ठीक को अभी
देखा नहीं।
जिस दिन
तुम्हें
अँधेरे में भी
रोशनी दिखायी पड़ेगी,
उसी दिन
जानना कि
रोशनी पहचाने
हो। उसके पहले
तुमने रोशनी
पहचानी नहीं।
मुझे
न तो बुद्धों
में कुछ फर्क
है,
और न
बुद्धों और
अबुद्धों में
कुछ फर्क है।
मेरी दृष्टि
में कोई फर्क
ही नहीं है।
सबका स्वीकार
है, सबका
अंगीकार। और
ऐसा ही
सर्वस्वीकार
तुम्हारे
भीतर जगे, यह
मेरी चेष्टा
है।
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूँघे?
इनको मसला
न करो
कितनी
आज़ुर्दा
मगर भीनी
महक देते हैं
इनको
फेंका न करो
गर्द—आल्द
बुझे चेहरों
को भी समझा
करो
सिर्फ
देखा न करो
हाथ के
छालों का
घट्टों का
मदावा भी
करो
सिर्फ़
छेड़ा न करो
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूँघे?
ये सब सूखे
बेले हैं।
अतीत में
कितने फूल
खिले हैं।
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूँघे
इनको मसला
न करो
कितनी
आज़ुर्दा
मगर भीनी
महक देते हैं
इनको
फेंका न करो
सारा
अतीत अपने
भीतर समा
लेनें जैसा है।
सारा अतीत
तुम्हारा है।
और ध्यान रखना, मैं
परंपरावादी
नहीं हूँ। मैं
नहीं चाहता कि
तुम अतीत से
बँधे रहो। मगर
मैं यह भी
नहीं चाहता कि
तुम अतीत के
शत्रु हो. जाओ।
मैं चाहता हूँ,
अतीत को तुम
अपने में समा
लो और अतीत से
आगे बढ़ो।
जितना हो चुका
है, वह
तुम्हारा है,
और बहुत कुछ
होना है। अतीत
पर रुकना मत।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक, अतीत—उन्मुख।
वे अतीत में
ही अटके रहते
हैं। उनकी
आँखें पीछे की
तरफ फिर गयी
हैं। वे वेद
में ही तलाश
करते रहते हैं।
उनको जो पीछे
हुआ है, वही
ठीक है, आगे
सब गलत है।
फिर इनके
विपरीत दूसरे
तरह के लोग
हैं। वे कहते
हैं, जो
आगे होगा वही
ठीक है। पीछे
जो हुआ है, सब
गलत है। मैं
तुमसे कहता
हूँ, पीछे
जो हुआ है वह
भी ठीक है, आगे
और भी ठीक होने
को है। तुम
पीछे को भी
सँभाल लो, पीछे
की संपदा को
भी सँभालो
अपने में, तुम
ज्यादा
समृद्ध हो
जाओगे। और उसी
समृद्धि की
बुनियाद पर
भविष्य के महल
खड़े होंगे और
भविष्य के
मंदिर उठेंगे।
जो अतीत में
जाना गया है, उससे बहुत
कुछ ज्यादा
भविष्य में
जाना जा सकेगा।
क्योंकि अतीत
के कंधे पर हम
खड़े हो सकते
हैं। इसलिए
बोल रहा हूँ
कबीर पर भी, क्राइस्ट पर
भी, कृष्ण
पर भी, ताकि
तुम इन सब
कंधों का
सहारा ले लो; ताकि तुम इन
सब कंधों पर
खड़े हो जाओ, तुम ऊपर उठो।
कभी
किसी छोटे
बच्चे को बाप
के कंधों पर
खड़ा हुआ देखा
है! फिर उसे
दूर तक दिखायी
पड़ने लगता है।
तुम इन सारे
कंधों का
उपयोग कर लो, ये
तुम्हारी
सीढ़ियाँ हैं।
तुम इन पर
चढ़ते चले जाओ,
ताकि
तुम्हें और
दूर और
विस्तीर्ण
दिखायी पड़ने
लगे। पूजा मत
करो इनकी, इनको
आत्मसात कर लो।
तुम पूजा में
पड़े हो! पूजा
बचने का उपाय
है। मैं
तुम्हें पूजा
नहीं सिखा रहा
हूँ, तुम्हें
आत्मसात करने
की प्रक्रिया
सिखा रहा हूँ।
इसलिए
पुनरुज्जीवित
करता हूँ——अभी
रज्जब पर बोल
रहा हूँ, तो
कोशिश यह है
कि अब तुम
रज्जब को सीधा
पढ़ोगे तो कुछ
तुम्हारे हाथ
में आएगा नहीं,
शब्द रह
जाएँगे, मैं
अपने प्राण
रज्जब में डाल
देता हूँ, जैसे
रज्जब ने बोला
होता वैसे
तुमसे फिर
बोलता हूँ, तुम्हें एक
मौका देता हूँ
रज्जब के साथ
सत्संग कर
लेने का, यह
कोई रज्जब के
ऊपर टीका नहीं
हो रही है, यह
रज्जब के ऊपर
कोई व्याख्या
नहीं हो रही
है, मैं
कोई पंडित
नहीं हूँ, न
कोई
भाषाशास्त्री
हूँ, न कोई
इतिहासज्ञ
हूँ; यह
रज्जब के ऊपर
कोई
व्याख्यान
नहीं हो रहा
है, रज्जब
को निमंत्रित
कर रहा हूँ कि
मेरा उपयोग कर
लो, थोडी
देर को फिर
लोगों को
सत्संग का
मौका दे दो, फिर से
तुम्हारी
वाणी जीवित हो
जाए।
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूंघे?
इनको मसला
न करो
कितनी
आज़ुर्दा
मगर भीनी महक
देते हैं,
इनको
फेंका न करो
तुमने
सूखे हुए बेले
भी कभी सूँधे?
ये
सूखे हुए
बेलों को फिर
से हरा कर रहा
हूँ। ताकि फिर
एक बार
तुम्हारे
नासापुट इनकी
अपूर्व सुगंध
से भर जायें।
कौन जाने कौन—सा
फूल तुमको पकड़
ले और
रूपांतरित कर
जाए। कौन जाने
कौन—सी वाणी
तुम्हारी हृदय—तंत्री
को छू दे। कौन
जाने मीरा
तुम्हें जगाए
कि महावीर
तुम्हें
जगाएँ। कौन
जाने किसकी
पुकार
तुम्हारे सोए
प्राणों को मथ
डाले। इसलिए
सबको बुला रहा
हूँ।
जो
सत्सग
तुम्हें
उपलब्ध हो रहा
है,
वैसा
सत्संग
पृथ्वी पर कभी
किसीको
उपलब्ध नहीं
हुआ था। इसलिए
सबको बुला रहा
हूँ। सारी
गंगा तुम्हें
उपलब्ध करवा
दे रहा हूँ।
जो घाट
तुम्हें रुच
जाए, जहाँ
और जिस नाव
में तुम बैठ
जाना चाहो बैठ
जाओ, पार
उतरना है। पार
उतरना ही है।
कोई भी बहाने
से पार उतरो।
अटके मत रह
जाओ। इसलिए सब
पर बोल रहा
हूँ। मै सब
हूँ। तुम भी
सब हो। मुझे
याद है, तुम्हें
याद नहीं।
तुम्हें याद
दिलाने के लिए
बोल रहा हूँ।
दूसरा
प्रश्न : आपने
कहा, जंजीरें
टूट जाती हैं।
लेकिन मेरी
जंजीरें टूटी
नहीं, पर
अब वही
जंजीरें
नूपुर बनकर बज
रही हैं।
हेमा, यही
मतलब है जंजीर
टूट जाने का।
जंजीर है ही
नहीं। माना है
तो जंजीर है। संसार
है कहाँ? माना
पै तो संसार
है। जागो और
जंजीरें
नूपुर बन जाती
हैं ——यही तो
मजा है——संसार
निर्वाण हो
जाता है।
इसलिए तो मैं
कहता हूँ, संसार
से भागना नहीं
है, जागना
है। भागने में
तो यह बात
हमने मान ही
ली कि संसार में
निर्वाण नहीं
हो सकता।
भागने में तो
हमने यह बात
मान ही ली कि
जंजीरें
सच्ची हें और
तोड़नी पड़ेगी।
जंजीरें झूठी
हैं, सपना
हैं। देखते ही
नूपुर बज उठते
हैं। गुलामी
है नहीं, भ्रांति
है; समझते
ही गुलामी
विसर्जित हो
जाती है।
स्वतंत्रता
का संगीत जगने
लगता है।
छलके न
सुबू और झूम
उठे, कतरा
न मिले और
प्यास बुझे
यह जर्फ़ है
पीनेवालों का
साकी का कोई
एजाज़ नहीं
पीने
का ढंग चाहिए।
पीने की शैली
आनी चाहिए। तो
फिर ऐसी
अद्भुत घटना
भी घट जाती है।
'छलके न सुबू
और झूम उठे, कतरा न मिले
और प्यास बुझे
'। एक बूँद
भी नहीं जाती
कंठ में और
प्यास बुझ जाती
है। सुराही
छलकती भी नहीं
और प्यारने भर
जाते हैं। 'यह जर्फ़ है
पीनेवालों का',
यह
विशिष्टता है
पीनेवालों की,
'साक़ी का
कोई एजाज़ नहीं'——पिलानेवाले
का कोई
चमत्कार नहीं।
पीने का ढंग आ
जाए, पियक्कड़
होने की कला आ
जाए, तो
संसार
निर्वाण है, पदार्थ, परमात्मा
है, और
साधारण से
कृत्य
असाधारण जाते
है। उठना—बैठना
पूजा हो जाती
है। प्रेम
प्रार्थना हो
जाती है। इस
जगत में जो भी
मिलता है, प्रभु
ही मिलता है।
आँख बदली कि
सब बदला।
हेमा, ठीक
कहती है तू कि
जंजीरें टूटी
नहीं हैं, पर
अब वही
जंजीरें
नूपुर बनकर बज
रही हैं। यही
जंजीर के
टूटने का मतलब
है। अब जंजीरें
कहाँ हैं, अब
नूपुर है।
जंजीरें गयीं।
वह हमारी
भ्रांति थी।
जैसे रास्ते
पर किसीने
रस्सी को पड़ा
देखा था और
साँप समझ लिया
था। अब रोशनी
हो गयी, या
दीया जल गया, आंख खुल गयी,
गौर से देखा,
रस्सी है, साँप गया, साँप का भय
गया। ऐसा ही
यह संसार है।
हमने कुछ—का—कुछ
समझ लिया है।
इसलिए
तो मैं कहता
हूँ कि
संबंधों से
भागना मत।
क्योंकि जिस
पत्नी को छोड़—
कर तुम भाग
रहे हो, उसमें
परमात्मा बसा
है। और जिस
पति को छोड्कर
तुम भाग रहे
हो, उसमें
परमात्मा बसा
है। जिम बेटे
को छोड़कर तुम
जंगल जा रहे
हो, उसमें
भी परमात्मा
ही आया हुआ है।
तुम जा कहाँ
रहे हो? परमात्मा
तुम्हें
खोजने कितने
रूप में आया है——पत्नी
के रूप में, बेटे के रूप
में, बेटी
के रूप में, माँ के रूप
में, मित्र
के रूप में, पड़ोसी के
रूप में, परमात्मा
ने कितने रूप
धरे हैं
तुम्हें खोजने
को! तुम्हें
सब तरफ से
तलाश रहा है, तुम जंगल जा
रहे हो!
जागने
भर की बात है, सब
बदल जाता है।
आँसू
मुस्कुराहटें
हो जाते हैं।
कारा—गृह
मंदिर हो जाता
है।
हालते
दिल अयां हो
गयी
खामोशी
तर्जुमा हो
गयी
हालते
जिंदगी का बया
दुखभरी
दास्तां हो
गयी
कोशिशे
इल्तफ़ातो करम
कोशिशे
रायगा हो गयी
दास्ताने
गमे आरजू
जब
बढ़ी बेकरा हो गयी
खुल
गया जिंदगी का
भरम
हर
नफुस इम्तहां
हो गयी
तुमने
हँसकर जो देखा
मुझे
जिंदगी
नग्माख्वां
हो गयी
उसकी
बस एक हँसकर
देख लेने की
बात——'तुमने हँस
कर जो देखा
मझे, जिंदगी
नग्माख्वां
हो गयी। गये
सब रोने के
दिन, गीत
के दिन आ गये——'जिंदगी नग्माख्वां
हौ गयी', जिंदगी
गायक हो गयी।
आँसू
मुस्कुराहट
में बदल जाते
हैं। और जहाँ तुमने
दुख के
अतिरिक्त कुछ
भी न पाया था, वहाँ दुख ही
भर नहीं मिलता
और सब मिलता
है। जहाँ
तुमने नर्क—ही—नर्क
पाया था, अचानक
तुम हैरान हो
जाते हो कि
नर्क गया कहां?
स्वर्ग का
अवतरण हो गया।
स्वर्ग
और नर्क कहीं
और नहीं हैं।
यहीं हैं, तुम्हारी
नजर में हैं, तुम्हारी
दृष्टि
सृष्टि है।
देखने की कला
सीखो, पीने
की कला सीखो।
जिंदगी एक
अवसर है जीने
की कला सीखने
का। इसलिए मैं
तुम्हें जीवन
से जरा भी
नहीं तोड़ना
चाहता। जीवन
से जोड़ना
चाहता हूँ। समग्रीभूत
भाव से तुम
जीवन के साथ
एक हो कर जीवन को
देखो, पहचानो,
जीओ, यहीं
कहीं राज छिपा
है।
तीसरा
प्रश्न: भगवान
दो—तीन दिन से
मैं यहाँ आयी
हूँ। शायद
थोड़े और दिन
रह जाऊँगी।
लेकिन मैं
आपको 'किडनेप'
करने आयी
हूँ। आपके सब
संन्यासियों
को सावधान कर
दें। फिर ऐसा न
हो कि मैंने
बताया नहीं था।
यह सवाल नहीं
है, झाँसा
चिट्ठी है। आप
तो हर रोज
मेरे साथ हैं,
फिर कभी—कभी
भाग भी तो
जाते हैं। अब
आप भाग न
सकेंगे और मैं
नहीं जाऊँगी।
योगिनी, इरादा
बिल्कुल नेक
है। गुरु को
चुराना ही
होता है। गुरु
को चुराकर
अपने हृदय में
बसाना ही होता
है। और उपाय
भी नहीं है।
तुम्हें 'किडनेप'
करने की
मेहनत न करनी
पड़ेगी, मैं
तो खुद ही
तुम्हारे साथ
चलने को राजी
हूँ। जगह दो।
सिंहासन खाली
करो। सिंहासन
से अहंकार को
उतर जाने दो।
तो मैं
तुम्हारे साथ
अभी हो जाऊँ।
और जब—जब
तुम्हारे मन
से, सिंहासन
से अहंकार उतर
जाता है, तब—तब
साथ हो जाता
है। जब—जब
अहंकार फिर
सिंहासन पर
बैठ जाता है, तब—तब साथ
टूट जाता है।
यह सब
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है।
तुम चाहो तो
चौबीस घंटे
मुझे साथ रखो।
तुम्हारी
मर्जी की बात
है।
इसलिए
अगर कुछ करना
है तो वहाँ
भीतर कुछ करना
होगा। वहाँ
याद को सघन
करो। वहाँ से 'मैं—भाव'
को जाने दो।
यह 'मैं—भाव'
इतना गहन
होकर बैठा है,
इतनी गहराई
तक इसकी जड़ें
प्रविष्ट हो
गयी हैं कि
तुम इसकी शाखा—
प्रशाखा
काटते रहो, कुछ नहीं
होगा; नये
अंकुर निकल
आते हैं। इसकी
जड़ काटनी होगी।
जड़
कैसे कटती है?
दो
ही उपाय हैं।
या तो प्रेम
से कट जाती है
जड़,
या ध्यान से
कटती है जड़। दो
में से कोई एक
उपाय चुन लो।
वह मुझे ' किडनेप
' करने का
उपाय है। या
तो प्रेम से, इतने प्रेम
से भर जाओ कि
अहंकार उसमें
डूब ही जाए।
और या, इतने
ध्यान से भर
जाओ कि
जागरूकता
इतनी सघन हो
कि अहंकार है
ही नहीं, यह
दिखायी पड़ जाए।
ध्यानी को
दिखायी पड़
जाता है कि
अहंकार न कभी था,
न है। एक
झूठ था। एक
धारणा थी। और
प्रेमी को
दिखायी पड़
जाता है, क्योंकि
प्रेम अहंकार
को डुबा देता
है। उस झूठी
धारणा को
किसीके प्रेम
में बहा देता है।
बाढ़ आ जाती है
प्रेम की और
अहंकार की
झूठी धारणा बह
जाती है। दो
में से कुछ एक
उपाय है।
और
मैंने तुझे
आनंद योगिनी
नाम दिया है।
इसीलिए दिया
है——ध्यान
तेरा मार्ग है।
ध्यान तेरा
योग है। योग
अर्थात्
ध्यान, जागरूकपन।
और—और जाग।
उठते—बैठते—सोते
एक ही स्मरण
रहे कि जो भी
मैं करूँ, जो
भी मुझसे हो, उसमें
बेहोशी न हो।
चलूँ तो
होशपूर्वक, बैठूँ तो
होशपूर्वक, बस होश को
सँभालो। होश
के संभलते—सँभलते
एक दिन तुम
अचानक पाओगे,
सब घटित हो
गया है।
चौथा
प्रश्न :
संसार
संन्यास में
बाधाएँ डाल
रहा है।
परिवार विरोध
में है; पत्नी
विरोध में है;
समाज विरोध
में है; और
आपकी निंदा
में वे सभी
सहमत हैं। मैं
क्या करूँ?
संसार
बाधा डाले, यह
स्वाभाविक है।
इसमें
अस्वाभाविक
कुछ भी नहीं।
संसार बाधा न
डाले तो
संन्यास की
कोई जरूरत ही
न रह जाए।
संसार बाधा
डालता है, इसीमें
तो चुनौती है।
जो हिम्मतवर
हैं, वे
चुनौती
स्वीकार कर
लेते हैं।
समाज
को छोड़ना नहीं
है। मैं यह
नहीं कह रहा
हूँ कि समाज
को छोड़ना है; मगर
समाज की हर
बात मानने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
व्यक्ति
स्वतंत्र है।
उसकी
अंतःप्रज्ञा
स्वतंत्र है।
अपनी निजता की
घोषणा करो।
संसार तो
संन्यास का
विरोध करेगा।
क्योंकि
संसार नहीं
चाहता कि
तुम्हारे
भीतर निजता हो।
निजता खतरनाक
है समाज के
लिए, संसार
के लिए। संसार
तो चाहता है
कि तुम एक
कुशल यत्न होओ,
बस। आत्मा
तुम में होनी
नहीं चाहिए, आत्मा से
झंझट होती है।
अब एक सैनिक
के पास अगर
आत्मा हो, तो
वह सैनिक नहीं
हो पाएगा।
क्योंकि
आत्मा हो तो
हजार प्रश्न
उठेंगे। वह
पूछेगा कि मैं
गोली इस आदमी
पर क्यों
चलाऊँ? इसने
मेरा कुछ
बिगाड़ा नहीं।
इससे मेरी
पहचान तक नहीं,
दुश्मनी की
तो बात दूर।
द्रुश्मनी के
पहले दोस्ती
तो होनी चाहिए,
कम—से—कम
पहचान तो होनी
ही चाहिए। इसे
मैने पहले कभी
देखा भी नहीं।
इसे मैं क्यों
गोली मारूँ? और जैसे
मेरी पत्नी
मेरे घर राह
देखती है, इसकी
पत्नी भी इसके
घर राह देखती
होगी।
और
मेरे बच्चे
प्रार्थना कर
रहे होंगे कि
मैं मारा न
जाऊँ, और इसके
बच्चे भी
प्रार्थना कर
रहे होंगे कि
यह मारा न जाए।
जैसे मैं रोटी
के लिए अपनी
जिंदगी दाँव
पर लगा दिया
हूँ, ऐसे
ही रोटी के
लिए इसने
जिंदगी दाँव
पर लगा दी है।
हम दोनों संग—साथी
हैं; हम
दुश्मन नहीं
हैं। अगर गोली
चलनी भी होगी
तो हम दोनों
मिलकर तुम पर
गोली चलाएँगे
जो गोली चलाने
की आज्ञाएँ दिलवा
रहे हो। अगर
आत्मा होगी तो
बड़ा खतरा हो
जाएगा।
दुनिया में
सैनिक नहीं हो
सकेंगे। समाज
गुलाम चाहता
है; स्वतंत्र,
विचारशील
लोग नहीं।
संसार चाहता
है ऐसे लोग जो
आज्ञाकारी
हों, बगावती
और विद्रोही
नहीं; कभी
पूछे नहीं कि
ऐसा क्यों
करें। समाज
गुलाम चाहता
है। तुम
इतिहास की
किताबों में
पढ़ते हो कि
पहले गुलामी
होती थी, वह
झूठी बात है।
गुलामी अब भी
है। उतनी की
उतनी है। नाम
बदल गये हैं, ऊपर का रंग—रोगन
बदल दिया गया
है, बात
वही है। समाज
स्वतंत्र
व्यक्ति को
स्वीकार करने
में घबड़ाता है,
क्योंकि
स्वतंत्र
व्यक्ति
स्वतंत्र है,
यही अड़चन है।
वह अपने ढंग
से जिएगा, अपने
ढंग से चलेगा।
तुम एक
स्वतंत्र
व्यक्ति से
जिसके पास
अपनी निजता है
अगर कहोगे कि
यह गणेश जी
हैं, इनकी
पूजा करो। वह
कहेगा कि कहाँ
के गणेश जी, यह मिट्टी
का लौंदा है, तुमने बना
कर खड़ा कर
दिया है! कैसी
पूजा! आदमी की
बनायी चीज की
कैसी पूजा!
पूजा ही करनी
है तो उसकी
करूँगा जिसने
सब बनाया है।
अभी तुम बना
कर तैयार किये
हो, यह
तुम्हारे हाथ
का खिलौना है—फिर
चाहे गणेश जी
कहो, चाहे
हनुमान जी कहो,
चाहे हजार
और नाम रखो——इसकी
मैं कैसी पूजा
करूँ? और
अगर करूँगा भी
तो यह पूजा
झूठी होगी, मेरे हृदय
की नहीं होगी।
आत्मा
होगी तो आत्मा
का स्वर होगा।
आत्मा होगी तो
अंतःकरण होगा।
वह आदमी कहेगा
कि मैं
झुकूँगा नहीं
आदमी की बनायी
हुई चीजों के
सामने।
झुकूँगा उसके
सामने जिसने
सब बनाया है, जिसने
मुझे बनाया है,
जिसने
तुम्हें
बनाया, जिसने
तुम्हारे
गणेश जी बनाए,
उसीके
सामने
झुकूँगा, उसी
मालिक के
सामने
झुकूँगा।
अड़चन खड़ी हो
जाएगी। गणेश—उत्सव
कैसे मनाओगे?
होली का
हुड़दंग कैसे
करोगे? दीवाली
पर लक्ष्मी का
पूजन कैसे
होगा? जिसके
पास थोड़ी भी
बुद्धि है, चैतन्य है, समझ है, वह
कहेगा—सिक्कों
का अर्चन—पूजन
' धन की
पूजा, इस
धार्मिक देश
में और! जहां
लोगों को यह
भ्रांति सवार
है कि हम
दुनिया के
सबसे ज्यादा
आध्यात्मिक
लोग हैं।
दुनिया में
कहीं भी धन की
पूजा नहीं
होती, सिवाय
इस देश को छोड़
कर—और यह
आध्यात्मिक
देश है। और
सारी दुनिया
पदार्थवादी
है! और हम ही
अध्यात्मवादी
हैं! और
दीवाली आ जाती
है तो दीये जलाते
हैं और
लक्ष्मी—पूजन
हो रहा है!
सिक्के का ढेर
लगाये हुए हैं,
उसके सामने
मंत्नोच्चार
हो रहा है! धन
की ऐसी पूजा, ऐसी
निर्लज्ज
पूजा, ऐसी
बेशर्म पूजा
दुनिया में
कहीं नहीं
होती। तुममें
थोड़ी निजता हो,
थोड़ा सोच—विचार
हो, तो तुम
कहोगे—यह मैं
क्या कर रहा
हूँ? चाँदी—सोने
के ठीकरों की
पूजा कर रहा
हूँ! और यह
बुद्ध और
महावीर का देश।
बातें बुद्ध
और महावीर की,
पूजा धन की!
तुम्हें
विसंगति
दिखायी पड़ना
शुरू हो जाएगी।
तुम कैसे इस
सारे ढोंग में
जी सकोगे जो
चलता है? मुश्किल
हो जाएगा ढोंग
में चलना। और
ऐसे हर
व्यक्ति अगर
ढोंग में चलने
को राजी न हो
जाए, तो
समाज बिखरेगा।
यह समाज तो
बिखर जाएगा, एक नया समाज
पैदा होगा। यह
समाज बिखरना
नहीं चाहता——इस
समाज के
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
यह समाज बना
रहना चाहता है।
यह तुम्हें
मिटा कर ही
बना रह सकता
है। यह
तुम्हें मार
कर ही जी सकता
है।
इसलिए
जैसे ही बच्चा
पैदा होता है
समाज उसकी हत्या
करने में लग
जाता है। हर
बच्चे की हत्या
कर दी गयी है।
तुम इस खयाल
में मत रहना
कि तुम जिंदा
हो। तुम्हें
जिंदा होने
नहीं दिया गया
है। तुम्हारे
जिंदा होने के
पहले
तुम्हारी
हत्या कर दी
गयी है। सब
बच्चे बचपन
में ही मार
डाले गये हैं।
फिर लाशें जी
रही हैं।
इसीलिए तो
दुनिया में
इतनी मूढ़ता है, इतना
अंधकार है, इतनी गुलामी
है, इतनी
हिंसा है, इतना
वैमनस्य है।
आदमी नहीं हैं
यहाँ।
और
तुम अगर
संन्यासी
होना चाहते हो, तो
तुम बगावत कर
रहे हो। तुम
यह कह रहे हो
कि मैं अपनी
हत्या नहीं
होने दूँगा।
यह मेरा जीवन
है, मैं
अपने ढंग से
जीऊँगा, मैं
अपने रंग से
जीऊँगा, मुझे
अपना गीत गाना
है, मैं
किसी दूसरे के
ताल पर नाचने
को राजी नहीं हूँ।
नाचना होगा तो
नाचूँगा, नहीं
नाचना होगा तो
नहीं नाचूँगा,
लेकिन तुम
बीन बजाओ और
मैं नाचूँ, यह नहीं हो
सकता।
संसार
बाधा डालेगा।
लेकिन इस बाधा
से घबड़ाने की
कोई जरूरत
नहीं है। इसे
चुनौती बनाओ।
यह मौका है।
इससे टक्कर लो।
हमारी
फितरते आज़ाद
पर क्या—क्या
कमंदे हैं
सुरीली
कितनी आवाजे—सलासिल
होती जाती हैं
उधर: दी जा
रही हैं रपतें
दीवारे जिंदा
को
इधर
आज़ादियों की
फिक्र कामिल
होती जाती है
हवाओं को
इधर जिद्द है
कि एक तिनका न
रह जाए
इधर
फिक्रे नशेमन
और महकम होती
जाती है
यकीनन आ
गया है मैकदां
में तिश्नालब
कोई
कि पीता जा
रहा हूँ
कैफियत कम
होती जाती है
'हमारी
फितरते आज़ाद
पर क्या—क्या
कमंदे हैं '। हमारे
स्वतंत्न
स्वभाव पर
कितनी
बेड़ियाँ हैं, कितनी
दीवालें हैं,
कितनी
जंजीरें हैं!
हमारी
फितरते आजाद
पर क्या—क्या
कमंदे हैं
सुरीली
कितनी आवाजे—सलासिल
होती जाती है
और
यह जो आयोजन
है दासता का, बड़े
कुशलता से
किया है। इतनी
कुशलता से
किया गया है
कि बेड़ियाँ
बजे भी तो
उनमें से
सुरीली आवाज
निकले, उनका
स्वर मोहक हो,
जैसे बीन
बजे, तुम्हें
याद ही न पड़े
कि बेड़ियाँ
हैं। बेड़ियों
को ऐसा सोने—चाँदी
से मढ़ा गया है
कि तुम्हें
भ्रांति होती रहे
कि आभूषण हैं।
छोड़ने की तो
बात दूर, तुम
उन्हें बचाने
में लग जाओगे
कि कोई चुरा न ले
जाए। कारागृह
को इतना रंगीन
रँगा गया है
कि तुम समझते
हो तुम्हारा
घर है।
हमारे
फितरते आज़ाद
पर क्या—क्या
कमंदे हैं
सुरीली
कितनी आवाजे—सलासिल
होती जाती है
उधर दी जा
रही हैं रपतें
दीवारे जिंदा
को
और
रोज—रोज ये
दीवालें बड़ी
की जा रही हैं, कारागृह
मजब्त किया जा
रहा है, नये
पहरे बिठाये
जा रहे हैं।
उधर दी जा
रही हैं रपतें
दीवारे जिंदा
को
इधर
आज़ादियों की
फिक्र कामिल
होती जाती है
लेकिन
अगर हिम्मतवर
आदमी हो तो
जैसे—जैसे
जेलखाने की
दीवाल बड़ी
होती है वैसे—वैसे
आजाद होने की
आकांक्षा गहन
होती है।
इधर
आज़ादियों की
फिक्र कामिल
होती जाती है
चुनौती लो।
हवाओं को
इधर जिद है कि
इक तिनका न रह
जाए
इधर
फिक्रे नशेमन
अनैर महकम
होती जाती है
माना
कि तूफान हैं
और आँधियाँ
हैं,
और संसार है
और परिवार है
और समाज है, और सब मिल।
कर तुम्हारे
संन्यास के
नीड़ को बनने न
देंगे, तुम्हारी
बगावत को वे
काट डालेंगे,
तुम्हारी
आत्मा को
जनमने न देंगे,
माना——
हवाओं को
इधर जिद है कि
इक तिनका न रह
जाए
इधर
फिक्रे नशेमन
और महकम होती
जाती है
अगर
हिम्मत हो तो
नीड़—निर्माण
की हिम्मत
बढ़ाओ, नीड़—निर्माण
की अभीप्सा को
और प्रबल होने
दो, जितने
जोर से तूफान
आए, उतने
जोर से संकल्प
जगे। तूफान
जिद करे कि एक
तिनके को न
बचने देंगे, तुम भी
जिद्द करना कि
नीड़—निर्माण
करके रहेंगे।
यह नीड़—निर्माण
का मजा ही तब
है जब औंधी
में हो।
यकीनन आ
गया है मैकदां
में तिश्नालब
कोई
अब
पता चल जाने
दो मधुशाला को
कि आ गया है
सचमुच में कोई
प्यासा, ऐसे
ही नहीं जाएगा,
बिना पिये
नहीं चला
जाएगा।
यकीनन आ
गया है मैकदां
में तिश्नालब
कोई
कि पीता जा
रहा हूँ
कैफियत कम
होती जाती है
जब
सच्ची कोई
प्यास होती है
तो जितना पिओ, उतनी
प्यास बढ़ती
जाती है, कि
जितना पिओ, कि इधर पीते
जाते हो और
प्यास और सघन
होती जाती है।
संन्यास तो एक
मदिरा है।
हिम्मत करनी
होगी।
पियक्कड़ बनना
होगा। और मैं
जानता हूँ, अड़चनें हैं।
संसार, तुम
कहते हो, संसार
संन्यास में
बाधाएँ डाल
रहा है।
परिवार विरोध
में है।
परिवार के
विरोध के भी
कारण हैं।
क्योंकि
संन्यास के
नाम पर अब तक
जो चला है, वह
परिवार—विरोधी
था। संन्यास
के नाम पर अब
तक जो चला है, वह जीवन—विरोधी
था। पत्नी
घबड़ा रही होगी
कि संन्यासी
हो जाओगे, तो
धर छोड़ दोगे।
समझाओ अपने
परिवार को कि
यह संन्यास का
एक नया आविर्भाव
है। यहाँ कुछ
छोड़ना नहीं है।
यहाँ पत्नी को
छोड्कर भाग
नहीं जाना है,
और न परिवार
को, न
जिम्मेदारियों
को, न
दायित्व को।
सच तो यह है कि
संन्यासी
होकर तुम
जितने अपने परिवार
के लिए
प्रेमपूर्ण
हो सकोगे, उतने
बिना
संन्यासी
होकर नहीं हो
सकोगे। मैं तो
प्रेम सिखा
रहा हूँ।
परिवार
भयभीत होगा, पत्नी
भयभीत होगी—स्वाभाविक
है। तथाकथित
संन्यास के
नाम पर कितनी
पत्नियाँ पति
के रहते विधवा
नहीं हो गयी
हैं! आकड़े
इकट्ठे करो, तुम बहुत
हैरान हो
जाओगे। तुम
कहते हो, महावीर
के पास पचास
हजार लोग
संन्यस्त हुए।
वह तो ठीक।
इनकी पचास
हजार
पत्नियों का
क्या हुआ? उन
पचास हजार
पत्नियों के
साथ छोटे—छोटे
बच्चे होंगे,
उनका क्या
हुआ? उन्होंने
भीख माँगी, यतीमखानों
में पले, बेवक्त
मरे, बीमार
रहे, शिक्षा
मिली नहीं
मिली! ये पचास
हजार जो संन्यासी
हो गये यह तो
ठीक, बड़ा
गौरव का काम
हुआ, लेकिन
पचास हजार जो
पत्नियाँ छूट
गयीं, इनमें
से कितनी को
वेश्या हो
जाना पड़ा, इसका
भी तो कुछ
हिसाब लगाओ!
कितनों को भीख
माँगनी पड़ी।
धर्म के नाम
पर! और उनके
मुँह भी बंद
कर दिये; क्योंकि
पति ने कोई
बहुत बड़ा काम
किया है, बोला
भी नहीं जा
सकता।
यह
पुरानी
संन्यास की
धारणा ऐसी
जीवन—विरोधी
थी,
ऐसी आनंद—विरोधी
थी, हजारों—हजारों
साल की छाप पड़
गयी है लोगों
के मन पर, संन्यास
शब्द से ही
घबड़ाहट हो
जाती है।
संन्यास, और
भीतर एक कंपन
हो जाता है, अचेतन मन
कँप जाता है।
शायद
तुम्हारी यह
पत्नी पहले भी
कभी किसी जन्म
में किसी
संन्यासी के
कारण दुख भोग
चुकी होगी; वह अभी भी
इसके अचेतन तल
में पड़ी होगी
बात——फिर
संन्यास! फिर
वही दुख की
कथा! फिर वही
नर्क! फिर
बच्चों का
क्या होगा? यह कच्ची
गृहस्थी है, इसका क्या
होगा? अगर
यह घबड़ा जाती
हो तो आश्चर्य
नहीं। इसे समझाओ।
यह संन्यास एक
बिल्कृउल नया
जीवन का
दृष्टिकोण है,
एक नया
दर्शन है।
यहाँ हम छोड़ने
को किसीको कह
नहीं रहे हैं।
यहाँ हम भगोड़े
पैदा नहीं कर
रहे हैं। यहाँ
तो हम ऐसे लोग
पैदा कर रहे
हैं जो बीच
बाजार में
ध्यानी हों, और जो
परिवार में
रहकर
परमात्मा को
पाने की अभीप्सा
से भरें। यह
जीवन भी
परमात्मा ने
दिया है, इसे
छोड्कर जाना
परमात्मा के
साथ धोखा करना
है। जो उसने
दिया है, उसकी
भेंट को पूरी
तरह स्वीकार
करो। इसे अवसर
बनाओ। इस अवसर
से अपने को
विकसित करो।
यह एक चुनौती
है। तो
तुम्हारी
पत्नी भी
समझेगी, परिवार
भी समझेगा।
लेकिन
खयाल रखना कि
मेरा संन्यास
ठीक से समझ लेना, कई
बार तो ऐसा हो
जाता है कि
तुम जब मेरा
संन्यास लेते
हो तब
तुम्हारी भी
धारणा यही
होती है कि
तुम भी कोई
पुरानी
प्रक्रिया का
संन्यास ले
रहे हो।
तुम्हारे मन
में भी धारणा
यही बैठी है।
मेरे
से लोग
संन्यास ले
गये हैं, फिर
वे मुझे पत्र
लिखते हैं कि
अब आपने
संन्यास दे
दिया, अब
घर में मन
नहीं लगता, अब काम में
मन नहीं लगता,
और आप घर भी
नहीं छोड़ने
देते! मुझे
आज्ञा दें तो
मैं जंगल जाना
चाहता हूँ।
जंगल जाना
आसान लगता है।
जंगल ही भेजना
होता तो
परमात्मा ने
तुम्हें जंगल
में पैदा किया
होता! बहुतों
को जंगल में
पैदा किया हुआ
है न। तुमको
आदमी बनाया, कुछ तुमसे
आशा रखी है।
तुमको भेड़िया
बनाता, तुमको
जगल में ही
रखता। तुमसे
कुछ बड़ी आशा
रखी है कि तुम
बीच संसार में
रहकर और अपने
भीतर जंगल को
पैदा कर सकोगे।
जंगल में
तुम्हारे
जाने की जरूरत
नहीं है; जंगल
को तुम्हारे
भीतर लाने की
जरूरत है।
हिमालय पर
तुम्हें नहीं
जाना है; हिमालय
को तुम्हारी
आत्मा में
जगाना है।
उतनी ही शांति,
उतना ही
धैर्य, उतना
ही सन्नाटा, उतना ही मौन,
उतना
कुआँरा
सौंदर्य
तुम्हारे
भीतर पैदा होना
है। पशु जंगल
में रहता है, संन्यासी के
भीतर जंगल
बैठा है, इतना
फर्क है। तुम
भी जंगल में
जा कर रहने
लगो, तुम
भी पशु हो
जाओगे। मैं
जंगल जाने के
पक्ष में नहीं
हूँ।
मेरा
संन्यास
लोगों को लगता
है सरल है——जिन्होंने
लिया नहीं——जिन्होंने
लिया है, उनको
पता चलता है
कठिन है।
आमतौर से लोग
यही समझते हैं
कि इन्होंने
संन्यास को
बिल्कुल सरल
बना दिया। कुछ
नहीं छोड़ना है,
न कहीं जाना
है, न कुछ
अड़चन है, घर
में ही रहे, नौकरी भी की,
दुकान भी की,
बच्चे भी, पत्नी भी, सब ठीक और
संन्यासी भी
हो गये।
बिल्कुल सरल
है। तुम्हें
समझ में नहीं
आयी यह बात
अभी। जरा होकर
देखो।
जंगल
में बैठ कर
संन्यास सरल
है। झझट के
बाहर हो गये।
दुकान पर
बैठकर बहुत
कठिन है। अब
ग्राहक में
राम देखना
पड़ेगा। और यही
अड़चन है।
ग्राहक में
राम देखो तो
उसकी जेब कैसे
काटो! जेब
काटो तो राम
नहीं दिखायी
पड़ता। राम
देखो, जेब
नहीं कटती। अब
मुश्किल हुई!
घर में हो और
आसक्त न होओ——आसक्ति
के सारे उपकरण
मौजूद हैं, और आसक्त न
होओ। उपकरण न
हों तो आदमी
अपने को कहीं
भी उलझा ले, रामधुन करता
रहे, जोर—जोर
से हनुमान
चालीसा पढ़ता
रहे; उलझा
ले कहीं अपने
को, भूला
रहे, लेकिन
सामने सारे
उपकरण मौजूद
हैं! जरा चौके
में बैठ कर
जहाँ पत्नी
सुंदर
सुस्वादु
भोजन बना रही
हो, एक दिन
उपवास करो!
उपवास
के दिन
तुम्हें पता
है लोग क्या
करते हैं? मंदिर
चले जाते हैं।
जैन पर्यूषण
में उपवास
करते हैं, तो
फिर घर में
नहीं रहते।
क्योंकि घर
में खतरा है।
बच्चों के लिए
भोजन भी पकेगा,
सुंगध भी
उड़ेगी भोजन की;
चौके से आती
खनकार
बर्तनों की
आवाज, सब
पुकारेगी। आज
बहुत
पुकारेगी। और
दिन तो सुनायी
भी नहीं पड़ती
थी। और दिन तो
अपना अखबार
पढ़ते रहते थे——कौन
सुनता था चौके
में क्या आवाज
आ रही है! लेकिन
आज पेट खाली
है। आज अखबार
पढ़ने में मन
नहीं लगता। आज
मन चौके की
तरफ भाग रहा है।
बच्चे
किलकारी कर
रहे है। बच्चे
कह रहे हैं
माँ से कि आज
खीर बहुत
बढ़िया बनी है।
अब यह प्राण
संकट में पड़
रहे हैं! यह
उपवासी आदमी,
इसकी
मुसीबत समझो
तुम!
तो
यह जाकर मंदिर
में बैठ जाता
है। मंदिर में
और भी उपवासी
बैठे हैं। इसी
जैसे और भी
बुद्धू हैं न!
वे सब वहाँ
बैठे हैं। वे
एक दूसरे को
सहारा देते
हैं। क्योंकि
वहाँ बैठे हैं
शांत बन कर।
भूख सबको लगी
है,
मगर अब वहाँ
के लोग इतने
शांत बैठे हैं,
अपनी फजीहत
कौन कराए। वह
भी शांत बैठे
हैं। मुनि
महाराज का
प्रवचन सुन
रहे हैं।
प्रवचन में
उपवास की
प्रशंसा की जा
रही है। भोजन
का विरोध किया
जा रहा है। जो
आज भोजन कर
रहे हैं, उन
सब का नर्क
जाना निश्चित
है। इससे
चित्त को आनंद
भी आ रहा है कि
ठीक है, बाद
में भटकोगे; बाद में
भोगोगे। आज
मैंने तकलीफ
उठा ली, कोई
बात नहीं; देख
लेंगे, एक—एक
बात का बदला
ले लिया जाएगा।
मन में बड़ा
मजा आ रहा है
कि मैं
पुण्यात्मा
और बाकी सारा
जगत पापी।
बिचारों को
कुछ पता नहीं
है। ऐसे तुम
अपने को समझा
रहे हो।
मेरा
संन्यास ऐसा
है कि तुम घर
में बैठे हो, बाजार
में बैठे हो, सारे उपकरण,
वासना को
जगाने वाली
सारी
चुनौतियाँ, सारे संवेग
उपस्थित हैं,
और वहाँ
निश्चित हो। और
कोई छूती नहीं
है, कोई
चीज आभा नहीं
डालती। तुम
कहते हो, यह
सरल है! फिर
तुम्हें
सरलता और
कठिनता शब्दों
का अर्थ मालूम
नहीं।
ऐसा
ही प्रचार
किया जा रहा
है सारे देश
में कि मेरा
संन्यास सरल
है। आओ, बनो
संन्यासी और
जानो! ऊपर से
सरल दिखायी पड़
रहा है, भीतर
बडी कठिनाई
हैं। गहरी
कठिनाई है।
वे
विरोध करेंगे।
उन्हें पता
नहीं है।
उन्हें समझाओ।
और समझाना
सिर्फ
शाब्दिक नहीं
होना चाहिए, तुम्हारे
व्यक्तित्व
से समझाओ।
मेरे पास आने
से तुम्हारी
पत्नी को पता
चलना चाहिए कि
तुम ज्यादा
प्रेमपूर्ण
हो गये हो, तो
समझा पाओगे, नहीं तो नहीं
समझा पाओगे।
बातचीत से
क्या होता है!
पत्नियाँ
बातचीत तो पतियों
की सुनतीं ही
नहीं, ख्याल
रखना।
पत्नियाँ तो
पतियों की
बातचीत को
बकवास समझती
हैं। तुम बके
जाते हो, वह
सुनतीं नहीं।
पत्नियाँ
ज्यादा
व्यावहारिक
हैं, वे तो
तुम्हारे
व्यक्तित्व
को देखती हैं।
तुम ज्यादा
प्रेमपूर्ण
हो गये हो, तुम्हारे
जीवन में
ज्यादा करुणा
आ गयी है; तुम्हारा
मोह—लोभ कम
हुआ है, तुम्हारी
वासना क्षीण
हुई है? ये
सब बातें सबूत
देंगी।
अब
पत्नी देखती
है तुम हो तो
वैसे ही के
वैसे। शायद और
क्रोधी हो गये।
क्योंकि
ध्यान करने
बैठते हो, बच्चे
ने शोरगुल कर
दिया, आ
गये निकल कर
बाहर
दुर्वासा ऋषि
की भाँति, तैयार
अभिशाप देने
को, जनम—जनम
तक के लिए
नष्ट कर देने
की तैयारी, पत्नी अगर
यह देखेगी तो
उसे भरोसा
नहीं आएगा कि
यह सन्यास कुछ
भिन्न है।
भिन्नता का
अनुभव कराओ।
तुम्हारी
जिंदगी में
थोड़ा नाच आने
दो। तुम्हारी
जिंदगी में
थोड़ी रसधार
बहने दो।
स्त्रियाँ
बहुत
व्यावहारिक
हैं। बुद्धि
से समझाने की
जरूरत नहीं है,
उनके समझने
का एक अलग ढग
है——अस्तित्वगत——
तुम्हें देख
कर वे पहचान
लेंगी, उनकी
ओंखें आंनद के
आसुओ से भर
जाएँगी, वे
तुम्हारे
संन्यास में
सहयोगी बन
जाएँगी। इतना
ही नहीं, वे
स्वयं भी
संन्यास के
लिए आतुर और
उत्सुक हो
जाएँगी।
मैं
तुम्हें जीवन
दे रहा हूँ, तुमसे
जीवन छीन नहीं
रहा हूँ, इसके
प्रमाण दो।
रही
यह बात कि
आपकी सभी
निंदा करते
हैं। मैं क्या
करूँ? या तो
उनके साथ
सम्मिलित हो
जाओ——अगर
संन्यास से
बचना हो। वे
भी बेचारे
इसीलिए निंदा
कर रहे हैं।
मैं उनके लिए
एक खतरा हो
गया हूँ। मेरी
मौजूदगी
उन्हें बेचैन
कर रही है।
मेरी मौजूदगी
उनकी शांति
छीन रही है, उनका संतोष
छीन रही है।
मेरी मौजूदगी
उन्हें याद
दिला रही है
कि कुछ और भी
होने का एक
ढंग है, जिंदगी
और ढ़ंग से भी
जी जा सकती है,
जिंदगी को
एक और रंग भी
दिया जा सकता
है। उनकी
जिंदगी उदास
है, उनकी
जिंदगी
पश्चात्ताप
से भरी है, उनकी
जिंदगी एक हार
है और एक
पराजय का लंबा
लंबा इतिहास
है। मेरी
मौजूदगी
उन्हें यह
ख्याल दिला
रही है कि अब
तक उन्होंने
जो किया, वह
व्यर्थ गया, लेकिन अहंकार
मानने नहीं
देता कि अब तक
जो किया, वह
गलत गया। कौन
मानने को राजी
होता है कि
मैंने जो पचास
साल जिए, वह
अज्ञान में
जिए। पचास साल
अज्ञान में!
कोई मानने को
राजी नहीं होता।
आदमी अपनी
प्रतिष्ठा का
बचाव करता है।
वे
मेरी निंदा
में लगे हैं
क्योंकि
उन्हें अपनी
प्रतिष्ठा
बचानी है। अगर
मैं सही हूँ, तो
वे सब गलत हैं।
यहाँ समझौता
होनेवाला
नहीं है, मैं
कोई
समझौतावादी
नहीं हूँ। या
तो दो और दो
चार होते हैं,
या दो और दो
चार नहीं होते।
मैं तो सीधी
बात कह रहा
हूँ। वह सीधी
बात उनको
बेचैन कर रही
है, तीर की
तरह चुभ रही
है। उनकी निंदा
मेरी निंदा
नहीं है, सिर्फ
आत्मरक्षा है।
वे अपनी
आत्मरक्षा
में लगे हैं।
तो अगर
तुम्हें भी
संन्यास से
बचना हो, तो
तुम भी निंदा
में लग जाओ——
वही उपाय है
बचने का। और, अगर तुम्हें
संन्यास में
जाना हो, तो
उन्हें निंदा
करने दो! उनकी
निंदा से क्या
फर्क पड़ता है?
तुम्हारे—मेरे
बीच जो घट रहा
है, उनकी
निंदा से गलत
नहीं होता।
अगर कुछ घट
रहा है
तुम्हारे—मेरे
बीच, अगर
कोई सेतु बन
रहा है, अगर
प्रेम के धागे
फैल रहे हैं
तुम्हारे—मेरे
बीच, तुम्हारे—मेरे
बीच कोई एक
अनुभव सघन हो
रहा है, तो
उनकी निंदा से
क्या फर्क
पड़ता है? हँस
लेना। उनकी
निंदा से तुम
भी बेचैन हो
जाते हो। उसका
कारण यही है
कि तुम भी अभी
डाँवाडोल हो।
नहीं तो निंदा
बेचैन नहीं
करेगी। मुझे
कोई चिता नहीं
है उनकी निंदा
से——सारी
दुनिया निंदा
करे! अगर
दुनिया को
निंदा करने
में मजा आता
है, तो
उन्हें मजा
लेने दो। मजा
लेने का
उन्हें हक है।
यह उनकी
स्वतंत्रता
है। मुझे इससे
कोई अड़चन नहीं
है।
सच
तो यह है, उनकी
निंदा से
सिर्फ यही
सबूत मिलता है
कि जो मैं कह
रहा हूँ, उसमें
कुछ सच है।
सत्य की सदा
निंदा हुई है।
सत्य के साथ
सदा यही
व्यवहार हुआ
है। वही
व्यवहार मेरे
साथ हो रहा है।
यह व्यवहार
बढ़ता जाएगा।
जैसे—जैसे
मेरे रंग में
लोग रँगेने, जैसे—जैसे
यह हवा फैलेगी,
ये तरंगें
व्याप्त
होंगी पृथ्वी
के कोने—कोने
में, यह
व्यवहार बढ़ता
जाएगा।
कल
मुझे खबर मिली
कि ब्राजील
में ब्राजील
की सरकार ने
मेरे
केंद्रों को
बंद करवा दिया
है। पुलिस ने
हमले किये हैं, केंद्र
बंद कर दिये
हैं। अब
ब्राजील' की
सरकार का मैं
क्या बिगाड़
रहा हूँ! न
ब्राजील कभी
गया हूँ—और न
कभी जाऊँगा।
मेरे
संन्यासी
उनका क्या
बिगाड़ रहे हैं?
मिल—जुल
लेते हैं, नाच
लेते हैं, गीत
गा लेते हैं, ध्यान कर
लेते हैं, प्रेम
की दो बातें
कर लेते हैं, उनका क्या
बिगाड़ रहे हैं?
उन्हें
क्या बेचैनी
हो रही है? उन्हें
क्या अड़चन हो
रही है? यह
बढ़ेगा।
स्विट्जरलैडं
से अभी एक
महिला आयी।
उसने कहा——जब
मैं भारतीय
राजदूतावास
में वहाँ गयी
तो उन्होंने
मुझे लिस्ट दी, उसमें
आठ आश्रमों के
नाम दिये और
साथ में यह भी
कहा कि इन आठ
में से किसी
में भी जाना, मगर पूना
भूल कर मत
जाना। वे आठ
आश्रम कौन—से
हैं? वे
आश्रम वैसे
हैं, दकियानूसी
आश्रम! बाबा
मुक्तानंद; इनके आश्रम
जाना।
क्योंकि इनके
आश्रम से समाज
को कोई खतरा
नहीं है। और
वह महिला यहाँ
आने को तैयार
थी, यहाँ
आना चाहती थी
यहीं आने के
लिए आ रही थी।
उसने गैरिक
वस्त्र पहन
रखे थे; संन्यास
की तैयारी
करके आ रही थी।
तो
राजदूतावास
में उससे कहा
गया कि तेरे
गैरिक वस्त्र
इस बात की
संभावना हैं
कि तू पूना जा रही
है। पूना नहीं
जाना है। अगर
पूना जाना हो,
तो हम आज्ञा
नहीं दे सकते
भारत में
प्रवेश की।
उसे झूठ' बोल
कर आना पड़ा है
कि वह पूना
नहीं जाएगी।
बी.
बी. सी. से कल
पत्र मुझे आया
है। बी. बी. सी.
कोशिश करती है, आधी
फिल्म
उन्होंने बना
ली है इस
आश्रम की, आधे
में भारतीय
सरकार ने उनको
अटका दिया है।
अब वे कोशिश
कर रहे हैं, मगर सरकार
आज्ञा नहीं
देती प्रवेश
की। अगर इस
आश्रम की
फिल्म बनानी
है तो उन्हें
भारत में
प्रवेश की
आज्ञा नहीं है।
इंगलैंड में
भारतीय
उच्चायुक्त
से जाकर बार—बार
मिल रहे हैं
और
उच्चायुक्त
कहता है कि
कोई संभावना
नहीं, हम
आज्ञा दे नहीं
सकते। अब यह
संयोग की ही
बात नहीं है
कि जो व्यक्ति
भारत का
उच्चायुक्त
है लंदन में, वह पूना का
है। उसको अड़चन
होगी, उसको
भारी अड़चन
होगी। वह
सज्जन मुझे
मिल भी चुके
हैं। मुझे जब
मिले थे, तब
भी बेचैन हो
गये थे वह।
क्योंकि मेरी
बातों के साथ
मेल खाना, साहस
चाहिए।
राजनेताओं
में साहस तो
होता ही नहीं।
राजनेता में
कोई आत्मा तो
होती ही नहीं।
वह तो अपनी
आत्मा को बेच
देता है—तभी
राजनेता हो
पाता है। जो
राजनेता
जितनी कुशलता
से अपनी आत्मा
को बेचने में
सफल हो जाता
है, उतनी
जल्दी ऊँचे
पदों पर पहुँच
जाता है।
आत्मा बेच कर
ही पहुँचना
होता है।
यह
उपद्रव बेढ़ता
जाएगा। और भी
देशों से खबरें
आनी शुरू हुई
हैं। जर्मनी
से खबर आयी है
कि अगर हम
जाकर उनसे कहते
हैं कि हमें
पूना जाना है
तो आज्ञा नहीं
मिलती जर्मनी
छोड़ने की।
हमें झूठ
बोलकर आना पड़
रहा है कि हम
कहीं और जा रहे
हैं।
यह
शिकंजा रोज—रोज
गहरा होता
जाएगा। यह
कठिनाई बढ़ने
वाली है।
क्योंकि मैं
एक आग हूँ'।
तुम्हें जो
गैरिक वस्त्र
दिये हैं ये
इसीलिए दिये
हैं, यह आग
का रंग है। और
मैं चाहता हूँ,
यह आग सारी
दुनिया में
फैल जाए। यह
जैसे—जैसे फैलेगी
वैसे—वैसे
कठिनाई आने
वाली है।
निंदा भी
बढ़ेगी, अड़चनें
भी बढ़ेगी, बाधा
भी बढ़ेगी, यह
सब होगा।
लेकिन यह सदा
ऐसा ही हुआ है।
ऐसा ही फिर
होगा यह कूछ
नया नहीं है।
यह आदमी का
सदा से सत्य
के साथ
व्यवहार रहा
है।
डराके
मौजें
तलातुमसे
हमनशीनों को
यही तो हैं
जो डुबोया
किये सफीनों
को
कभी नजर भी
उठायी न सूए—बादए—नाब
कभी चढ़ा
गये पिघलाके
आबगीनों को
हुए हैं
काफिले
जुल्मतके वादियोंमें
रवा
चिरागे—राह
किये, खूंचुकां
जबीनों को
तुझे
न माने कोई, तुझको
इससे क्या ' मजरूह '! चल
अपनी राह
भटकने दे
नुक्तचीनों
को
कोई माने, न
माने, इसकी
तुम फिकिर
छोड़ो।
तुझे
न माने कोई
तुझको इससे
क्या ' मजरूह '!
चल
अपनी राह
भटकने दे
नुक्तचीनों
को
वे
जो निंदा कर
रहे हैं, उनको
निंदा में रस
लेने दो। तुम
अपनी राह चलो।
अगर तुम्हारे
साथ सत्य है, तो धीरे—धीरे
और भी लोग
तुम्हारे साथ
होने लगेंग।
सत्य के साथ
धीरे—धीरे ही
लोग होते हैं।
और थोड़े ही
लोग होते हैं।
क्योंकि
सिर्फ साहसी!
अब महावीर के
साथ कितने लोग
हो गये थे? बुद्ध
के साथ कितने
लोग हो गये थे?
थोड़े ही लोग।
और उनको यह सब
निंदा सहनी
पड़ी थी, जो
तुम्हें सहनी
पड़ रही है।
क्राइस्ट के
साथ कितने लोग
थे? बहुत
थोड़े लोग। और
सारी निंदा
सहनी पड़ी। और
क्राइस्ट को
सूली पर चढ़ना
पड़ा। और
शिष्यों को
जिंदगी भर दुख
झेलना पड़ा——एक
गाँव से दूसरे
गाँव भगाये
गये। यह सब
फिर हो सकता
है, क्योंकि
आदमी वैसा का
वैसा है। और
आदमी की
वृत्तियाँ
वैसी—की—वैसी
हैं।
लेकिन
अगर साहस है, तो
संन्यास के
अतिरिक्त कोई
मार्ग नहीं है।
साहस है, सत्य
के अतिरिक्त
कोई मार्ग
नहीं है।
घबड़ाओ
मत। इस सारी
स्थिति को
उपयोग कर लो।
यह सारी
स्थिति या तो
तुम्हें
रुकावट का
कारण बन सकती
है,
या तुम्हें
धक्का देने का
कारण बन सकती ;
सब तुम पर
निर्भर है।
राह पर पड़ा
हुआ पत्थर, या तो रुक
जाओ, या
पत्थर ण्र चढ़
जाओ, उसे
सीढ़ी बना लो।
इस सारी
स्थिति को
सीढ़ी बनाना है।
पाँचवाँ
प्रश्न भी
इससे ही
संबंधित
प्रश्न है :
संन्यास
मेरे भाग्य
में है या
नहीं?
संन्यास
स्वतंत्रता
है। न तो
भाग्य में
होता, न नहीं
होता।
संन्यास
भाग्य की, बात
ही नहीं है।
जो भाग्य में
है, वह तो
परतंत्रता है।
संन्यास
तुम्हारा
चुनाव हैं——बोधपूर्वक,
स्वेच्छा
से। कोई
व्यक्ति ऐसा नहीं
है कि संन्यास
की बात लिखवा
कर पैदा हुआ है,
कि विधि ने
लिख दी है कि
संन्यासी
होगा, कि
विधि ने लिख
दिया कि
संन्यासी
नहीं होगा।
संन्यास विधि
के बाहर है।
संन्यास
एकमात्र चीज
है जो विधि के
बाहर है। बाकी
सारी चीजें
करीब—करीब
नियत हैं।
तुम
कितने दिन
जिंदा रहोगे, नियत
है। तुम्हारे
माँ—बाप से
कितनी
तुम्हें उम्र
मिली है, वह
नियत हो गया, तुम्हारे
जन्म में ही
नक्शा मिल गया
है। तुम रुरुष
होओगे कि
स्त्री, वह
भी नियत हो
गया माँ—बाप
के द्वारा।
तुम बीमार
रहोगे कि
स्वस्थ, वह
भी बहुत कुछ
नियत हो गया
माँ—बाप के
द्वारा। तुम्हारा
रंग क्या होगा,
रूप क्या
होगा, वह
भी नियत हो
गया। फिर
तुम्हारी
जिंदगी में
सारी वासनाएँ
हैं वह भी तुम
लेकर आए हो।
लेकिन एक बात
भर तुम लेकर
नहीं आए हो, वह तुम्हारी
परम
स्वतंत्रता
है, कि तुम
इस संसार में
निर्वाण को
बना सकोगे या नहीं—
यह तुम्हारी
परम स्वतंत्रता
है। इसकी कोई
नियति नहीं है।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है।
बुद्ध एक नदी
के पास से
गुजरे, उनके
पैरों के
चिह्न गीली
रेत पर बन गये।
और उनके पीछे—पीछे
एक ज्योतिषी आ
रहा है। वह
अभी लौटा है
काशी से बारह
वर्ष ज्योतिष
का अध्ययन
करके। तो अभी
नया—नया जोश
भी है, अध्ययन
का प्रभाव भी
है, प्रयोग
करने की
आकांक्षा भी
है। उसने ये
चरण—चिह्न
देखे रेत पर
बने, उसने
झुक कर नीचे
देखा कि इतने
सुंदर चरण—चिह्न,
और चरण—चिह्नों
में उसने वह
चिह्न देखा जो
केवल चक्रवर्ती
सम्राट को
होता है। वह
तो बहुत हैरान
हो गया।
चक्रवर्ती
सम्राट, इस
छोटे—से गाँव
के पास की इस
गंदी—सी नदी
के किनारे, नंगे पैर
रेत पर चले, भर दुपहरी
में!
चक्रवर्ती
सम्राट, यह
हो नहीं सकता।
उसे तो बड़ी
मुश्किल हो
गयी। उसने कहा—बारह
साल बेकार गये।
या तो मेरा
सारा
ज्योतिषशास्त्र
व्यर्थ हो गया;
और या फिर
चक्रवर्ती
ऐसे घूमने लगे
गाँव—गाँव!
नंगे पैर!
चक्रवर्ती
महल से नहीं
उतरेगा, चक्रवर्ती
सिंहासन से
नहीं उतरेगा,
चक्रवर्ती
अपने रथ से
नहीं उतरेगा——और
नंगे पैर, और
भरी दुपहरी
में, गरम
रेत, और यह
छोटा—सा उजड़ा—सा
गरीब गाँव, सौ—पचास घर!
वह
रेत के ऊपर
बने चरण—चिह्नों
का पीछा करता
हुआ इस आदमी
की तलाश में
गया। बुद्ध एक—
वृक्ष के नीचे
विश्राम कर
रहे हैं।
बुद्ध को देखा
तो और मुश्किल' हो
गयी। आदमी तो
लगता है
चक्रवर्ती
सम्राट जैसा,
मगर है
भिखारी; भिक्षापात्र
बगल में रखा
हुआ है, फटा—सा
चीवर पहन रखा
है, देह
सुंदर है—स्वर्ण
जैसी, चेहरे
पर अपूर्व आभा
है, औखें
ऐसी कि कमल की
पंखुड़ियों
जैसी कोमल, और नंगे पैर;
जूता भी
नहीं है। वह
बुद्ध के पास
आकर बैठा, उसने
कहा——मुझे
अड़चन में डाल
दिया है आपने,
मेरी
गुत्थी सुलझा
दें। मेरे
बारह साल
बेकार गये। ये
जो मैं
शास्त्र लिये
आया हूँ काशी
से——दबाए है
शास्त्र अपनी
बगल में——ये
बेकार हैं।
अगर बेकार हैं,
तो इनको मैं
नदी में डाल
दूँ, बारह
साल बेकार गये,
किसी और काम
में लगूँ।
क्योंकि मेरे
शास्त्र कहते
हैं कि ये चरण—चिह्न
तो केवल
चक्रवर्ती
सम्राट के
होते हैं। यह
पैर में चक्र
का चिह्न है।
आप का पैर देख
लूं। पैर देखा,
चिह्न
बिल्कुल
स्पष्ट है, कहीं कोई
संदेह की बात
नहीं है।
बुद्ध
ने कहा——तुम
परेशान न होओ।
शास्त्रों को
फेंकने की
जरूरत नहीं है; साधारणत:
तुम्हारा
शास्त्र सभी
लोगों पर:
लागू होगा; सिर्फ
संन्यासियों
पर लागू करने
की कोशिश मत करना।
निन्न्यानबे
प्रतिशत
तुम्हारा
शास्त्र लागू
होगा। लेकिन
संन्यास हाथ
की रेखाओं में
नहीं होता, पैर की
रेखाओं में
नहीं होता। और
चक्रवर्ती
सम्राट भी
संन्यासी हो
सकता है।
इसमें कोई
बाधा है? संन्यास
तो किसीके भी
जीवन में फल
सकता है। यह
फूल तो गरीब
के जीवन में
लग सकता है, अमीर के
जीवन में लग
सकता है।
ज्ञानी—अज्ञानी
के जीवन में
लग सकता है, सुंदर—कुरूप
के जीवन में
लग सकता है।
नहीं, संन्यास
का भाग्य से
कोई संबंध नहीं
है। लेकिन
लगता यह है कि
तुम भाग्य की
आडू लेना चाहते
होओगे। तुम
सोचते होओगे,
भाग्य में
होगा तो अपने
से होंगा। और
नहीं होगा
भाग्य में तो
नहीं होगा।
बचना चाह रहे
हो। यह
तुम्हारे
लेने से होगा,
भाग्य से
नहीं होगा। यह
भाग्य
तुम्हारा
बहाना है, यह
तुम्हारी
तरकीब है, यह
तुम्हारी आडू
है। धोखा मत
दो अपने को।
संन्यास नहीं
लेना है, मत
लो। मगर जानकर
कि यह कोई
भाग्य की बात
नहीं है, यह
लिखा हुआ नहीं
है। संन्यास
का अर्थ ही है
भाग्य के पार
जाना, नियति
के पार जाना, बँधे—बँधाए
के पार जाना।
तकदीर का
शिकवा बेमानी, जीना
ही तुझे मंजूर
नहीं
आप अपना
मुकद्दर बन न
सके इतना तो
कोई मजबूर नहीं
यह महफिल, अहले
दिल है, यहाँ
हम सब मैकश, हम सब साकी
तफरीह
करें
इंसानोंमें
इस बज्मका यह
दस्तूर नहीं
वे कौनसी
सुबहें हैं
जिनमें बेदार
नहीं अफसूं
तेरा
वे कौनसी
काली रातें
हैं जो मेरे
नशे में चूर नहीं
सुनते हैं
कि काँटों से
गुल तक हैं
राह में लाखों
वीराने
कहता है
मगर यह अज्मे—जुनूं
सेहरा से
गुलिस्तां
दूर नहीं
'मज़रूंह '! उठी
है मौजे—सदा
आसार लिये
तूफानों के
हर कतरो—शबनम
बन जाए इक जूए—खां
कुछ दूर नहीं
'तकदीर का
शिकवा बेमानी'। भाग्य को
बीच में मत
लाओ। भाग्य की
शिकायत मत
करना कि क्या
करें—मरते
वक्त यह मत
कहना कि क्या
करें, भाग्य
में नहीं थी
प्रार्थना, भाग्य में
नहीं था भजन, भाग्य में
नहीं था संन्यास,
भाग्य में
नहीं थी पूजा।
यह बात मत
करना।
तकदीर का
शिकवा बेमानी
जीना ही मुझे
मंजूर नहीं
आप अपना
मुकद्दर बन न
सके इतना तो
कोई मजबूर नहीं
मजबूरियाँ
बहुत हैं, मगर
इस संबंध में
नहीं हैं।
परमात्मा को
तो प्रत्येक
व्यक्ति पाने
का अधिकारी है।
उसमें कुछ भेद
नहीं है। उस
संबंध में सब
समान हकदार
हैं। यह हमारा
स्वरूपसिद्ध
अधिकार है।
समझो—
कहता है
मगर यह अज्मे—जुनूं
सेहरा से
गुलिस्तां
दूर नहीं
मरुस्थल
से गुलिस्तां
दूर नहीं है।
बहुत पास है।
संसार से
निर्वाण दूर
नहीं है; बहुत
पास है। एक
कदम ही उठाने
की बात है। उस
कदम का नाम ही
संन्यास है।
और वह कदम
प्रत्येक
व्यक्ति का
अधिकार है।
हरम से
मैकदे तक
मजिले—यक उम्र
थी साकी
सहारा गर न
देती लगजिशे
पैहम तो क्या
करते
जो मिट्टी
को मिजाजे—गुल
अता कर देते ऐ
वाइज़!
जमीं से
दूर, फिक्रे—जन्नते—आदम
तो क्या करते
सवाल उनका, जवाब
उनका, सकूत
उनका, खिताब
उनका
हम उनकी
अंजुमन में सर
न खम करते तो
क्या करते
संन्यास
सिर को गंवाने
की कला है।
संन्यास अपने
को मिटाने की
कला है। यह न
होने की कला
है।
सवाल उनका, जवाब
उनका, सकूत
उनका, खिताब
उनका
हम उनके
अंजुमन में सर
न खम करते तो
क्या करते
सुनो
मैं जो तुमसे
कह रहा हूँ।
गुनो जो मैं
तुमसे कह रहा
हूँ। मेरे
बहाने
तुम्हारा
भविष्य तुमसे
बोल रहा है।
उसे पहचानो।
और अगर पहचान
में थोड़ी भी
किरण आ जाती
हो,
तो साहस करो,
उठो, चलो।
सेहरा से
गुलिस्तां
दूर नहीं। पास
ही है। एक ही
कदम की बात है।
मगर
हम नयी—नयी
तरकीबें खोज
लेते हैं। कोई
कहता है——हमारे
कर्म में नहीं।
कोई कहता है ——
हमारे भाग्य
में नहीं। कोई
कहता है —— जब
भगवान की
मर्जी होगी।
और सारी बातों
के लिए तुम ये
बातें नहीं
सोचते। और
सारी बातों के
लिए तुम स्वयं
दौड़ते रहते हो।
सिर्फ जब जीवन
में जरूर कोई
क्रांति की
बात आ जाती है
करीब, तब तुम
थक जाते हो, तब तुम ठिठक
जाते हो, तब
तुम कहने लगते
हो——अब भाग्य
में होगा तो
होगा, अब
मैं क्या कर
सकता हूँ, यह
अपने हाथ की
बात नहीं। ऐसे
तुम बहाना कर
लिये, ऐसे
अपने को बचा
लिये। ऐसे ही
बचते रहे हो
अब तक। और ऐसे
ही जीवन को
गँवाते रहे हो।
मैं तुम्हें
याद दिलाना
चाहता हूँ —और
सब भाग्य में
होगा, और
सब भविष्य के
भीतर आता होगा,
संन्यास
नहीं आता।
संन्यास
स्वेच्छा से
लिया गया
निर्णय है।
संन्यास
तुम्हारी परम
स्वतंत्रता
की घोषणा है।
गुलाम रहना हो
गुलाम रहो, मगर याद
रखना, तुम
अपनी मर्जी से
गुलाम हो। मुक्त
होना हो मुक्त
हो जाओ।
तुम्हारी
मर्जी के बिना
कुछ भी न होगा।
परमात्मा भी
तुम्हारी
मर्जी के बिना
तुम्हें
मुक्त नहीं कर
सकता। इतनी
मनुष्य की
गरिमा रखी है
उसने। इतना
मनुष्य को
सम्मान दिया
है।
आखिरी
सवाल : समाधि
की अंतर्दशा
के संबंध में कुछ
कहें।
समाधि
के संबंध में
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता।
समाधि बात बात
के बाहर की है।
समाधि अनुभव
है। समाधि
कैसे फलित हो
जाए,
यह तो मैं
तुम्हें बता
सकता हूँ
लेकिन समाधि में
क्या है, क्या
होता है समाधि
में, मैं
भी नहीं बता
सकता, कोई
और भी नहीं
बता सकता——न
कभी किसीने
बताया है, न
कभी कोई बता
सकेगा। समाधि
शब्दों में
नहीं समाती।
शब्दातीत
अनुभव है, समयातीत
अनुभव है; सारे
विशेषणों के
पार है, सारी
अभिव्यक्तियों
से दूर है, भावातीत
दशा है।
तुम
पूछते हो
समाधि की
अंतर्दशा के
संबंध में कुछ
कहें। तौ पहली
तो बात, समाधि
के संबंध में
कुछ नहीं कहा
जा सकता।
लेकिन तुम अगर
मेरे पास
बैठना सीख जाओ
तो तुम समाधि
के पास बैठे
हो। तुम अगर
मेरी आँख में'
देखना सीख
जाओ तो तुमने
समाधि में
खाँका। तुम
अगर मेरा हाथ
अपने हाथ में
ले लो तो
तुमने समाधि
का हाथ अपने
हाथ में लिया।
एक
दिन ऐसा हुआ
कि रामकृष्ण
की तस्वीर एक चित्रकार
ने बनायी है
और तस्वीर
लेकर वह आया और
रामकृष्ण ने
तस्वीर देखी
और तस्वीर के
चरणों में सिर
झुका दिया।
खुद की ही
तस्वीर थी।
शिष्य थोड़े
चौंके। शिष्य
थोड़े बेचैन
हुए। पास में
बैठे किसी
शिष्य ने कहा
कि परमहंसदेव, आप
यह क्या कर
रहे हैं? होश
में हैं? यह
तस्वीर आपकी
है, अपनी
ही तस्वीर को
सिर झुका रहे
हैं! रामकृष्ण
ने कहा——भली
याद दिलायी, मैं तो
समाधि को सिर
झुकाया। यह
तस्वीर समाधि'
की है। मेरा
रंग—रूप है, मगर वह तो
गौण है, इस
चित्रकार ने
मेरे भीतर के
भाव को भी रंग
में थोडा—थोड़ा
पकड़ा, रूप
में थोड़ा—थोड़ा
पकड़ा, मै
तो उसी भावदशा
को नमस्कार
किया हूँ।
समाधि
के संबंध में
कुछ नहीं कह
सकता, लेकिन
तुमसे जो बोल
रहा हूँ, वह
समाधि बोल रही
है। तुम जिसे
देख रहे हो, वह समाधि है।
मेरे निकट आओ,
मेरा स्वाद
लो, मेरी
सुराही से
थोड़ी शराब पीओ।
और
दूसरी बात, समाधि
कोई अंतर्दशा
नहीं है——वहाँ
न कुछ अंतर है,
न कुछ बाह्य।
वहाँ अंतर और
बाह्य का भेद
मिट गया है।
कहने को कहते
हैं अंतर्दशा,
मगर वस्तुत:
वहाँ न कुछ
बाहर है, न
भीतर है। वहाँ
सब द्वंद्व
समाप्त हो गये——
बाहर—भीतर भी
द्वंद्व है।
लोग
कहते हैं
समाधि
परमात्मा का
अनुभव है, ऐसी
भी बात नहीं, वहाँ कोई
अनुभव नहीं है,
कोई
अनुभोक्ता
नहीं है। लोग
कहते हैं
समाधि
परमात्मा का
साक्षात्कार
है। कौन
साक्षात्कार
करेगा और
किसका करेगा?
वहाँ दो
नहीं हैं।
ज्ञान में तो
दो चाहिए——ज्ञाता
और ज्ञेय; दर्शन
में दो चाहिए——दृश्य
और दृष्टा।
समाधि तो
एकात्म अनुभव
है। परमात्मा
का दर्शन नहीं
होता, मैं
परमात्मा हूँ,
ऐसा अनुभव
होता है। 'अहं
ब्रह्मास्मि,'
ऐसी
उद्घोषणा है
समाधि।
फिर
दशा शब्द ठीक
नहीं है।
क्योंकि दशा
से ऐसा लगता
है——कोई ठहरी
हुई चीज। जैसे
डबरा, बहता
नहीं। समाधि
सरिता है, गत्यात्मकता
है, ऊर्जा
है, नृत्य
है; अंतर्नृत्य
कहो तो ज्यादा
ठीक, अंतऊर्जा
कहो तो ज्यादा
ठीक, अंतर्प्रवाह
कहो तो ज्यादा
ठीक। जैसे
बिजली कौंधती
है, जैसे
नदी बहती है, ऐसा प्रवाह
है, अनंत
से अनंत तक।
दशा शब्द में
ऐसा लगता है——सब
ठहरा हुआ। इसर्दशा
में दशा शब्द
ठीक—ठीक है।
दुर्दशा में
दशा शब्द
बिल्कुल ठीक
है, सब
ठहरा हुआ है।
समाधि दशा
नहीं है। ऐसा
समझो कि एक
नर्तकी नृत्य
करती है।
नृत्य क्या एक
दशा है? रक्स
करती हुई
नर्तकी का बदन——
'जैसे दीपक
की लौ, जैसे
नागिन का फन
जैसे चटके
कली, जैसे
लहके चमन
जैसे उमड़े
घटा, जैसे
फूटे किरन
जैसे आँधी
उठे, जैसे
भड्के अगन
जैसे पहलू
में दिल, जैसे
दिल में लगन
जैसे
मुड़ती नदी, जैसे
उड़ती पवन
जैसे
तितली का पर, जैसे
भँवरे का मन
जैसे
विरहा का दुख, जैसे
चोरी का धन
जैसे मन
में तडूफ, जैसे
वन में हिरन
——रक्स करती
हुई नर्तकी का
बदन
समाधि——जैसे
दीपक की लौ, जैसे
नागिन का फन।
समाधि——जैसे
चटके कली, जैसे
लहके चमन।
समाधि——जैसे
उमड़े घटा, जैसे
फूटे किरन।
गत्यात्मकता,
ऊर्जा, प्रवाह,
जीवंतता।
परमात्मा कोई
ठहरी हुई चीज
नहीं।
परमात्मा
.शाश्वत
प्रवाह है।
इसीलिए तो
परमात्मा
जीवन है।
परमात्मा
पत्थर नहीं है,
परमात्मा
फूल है। समाधि
को जानो तो ही
जान पाओगे।
मैं राजी
तुम्हें
समाधि में ले
चलने को हूँ, तुम बाहर—बाहर
से मत पूछो।
मैं कुछ
कहूँगा, तुम
कुछ समझोगे।
तुम बाहर—
बाहर से
पूछोगे तो
चूकोगे। आओ, भीतर आओ, द्वार
खुले हैं, दस्तक
भी देने की
कोई जरूरत
नहीं है, आओ,
भीतर आओ। और
अगर तुम जरा
हिम्मत करो इस
देहली के पार
होने की, तो
तुम जान लोगे
समाधि क्या है।
समाधि स्वयं
का मिट जाना
और परमात्मा
का आविर्भाव
है। समाधि
समाधान है।
इसलिए समाधि
कहते हैं उसे।
सारी
समस्याओं का
समाधान। फिर
कोई समस्या न
रही, कोई
प्रश्न न रहा,
कोई चिंता न
रही; सब
शांत हो गया; सब प्रश्न
गिर गये, सब
समस्याएँ
तिरोहित हो
गयीं, एक
शून्य रह गया।
लेकिन उसी
शून्य में
पूर्ण उतरता
है। तुम शून्य
बनो, पूर्ण
उतरने को
तत्पर बैठा है।
तुम्हारी तरफ
से समाधि
शून्य है, परमात्मा
की तरफ से
समाधि पूर्ण
है।
लेकिन
एक बात स्मरण
रखना सदा, जो
भी समाधि के
संबंध में कहा
जाए——मै भी जो
कह रहा हूँ, वह भी
सम्मिलित है——वह
सभी कामचलाऊ
है। पूछा है
तो कह रहा हूँ।
पूछा है तो
कहना पड़ता है।
लेकिन जो है, कहने में
नहीं आता है।
जो हूऐ, वह
जानने में आता
है, अनुभव
में आता है।
मैं कुछ
कहूँगा, शब्दों
का उपयोग करना
पड़ेगा। शब्द
में लाते ही
वह जो विराट
आकाश था समाधि
का, सिकुड़
कर बहुत छोटा
हो गया। और यह
बड़ी असंभव बात
है।
एक
छोटा बच्चा
किताब पढ़ रहा
था। इतिहास की
किताब और उसने
पढ़ा नेपोलियन
का यह प्रसिद्ध
वचन कि संसार
में असंभव कुछ
भी नहीं, वह
खिल खिला कर
हँसने लगा।
उसके बाप ने
पूछा——क्या
बात है? तू
किताब पढ़ रहा
है कि हँस रहा
है? उसने' कहा मैं
इसलिए हँस रहा
हूँ कि यह
इसमें लिखा है——संसार
में असंभव कोई
बात नहीं।
पिता ने भी
कहा——ठीक ही
कहा है, संसार
में असंभव कोई
बात नहीं है।
लड़के ने कहा
फिर रुको, मैने
आज ही सुबह एक
काम करके देखा
है जो बिल्कुल
असंभव है। बाप
ने कहा—कौन—सा
काम? उसने
कहा——मैं लाता
हूँ अभी। वह
भागा, स्नानगृह
से जाकर
टूथपेस्ट उठा
लाया और उसने कहा—
इसमें से पहले
टूथपेस्ट
निकालो, फिर
भीतर करो, यह
असंभव है——नेपोलियन
के जमाने में
टूथपेस्ट
नहीं होता होगा।
इसलिए मुझे
हँसी आ गयी, क्योंकि
सुबह ही मैंने
बहुत कोशिश की,
लाख कोशिश
की मगर फिर
भीतर नहीं
जाता।
समाधि
का अर्थ है—पहले
मन से बाहर आओ; टूथपेस्ट
निकाल लिया।
अब समाधि के
संबंध में
बताने का मतलब
है——टूथपेस्ट
को फिर भीतर
करो, फिर
शब्दों में
लौटो; असंभव
है। शायद
टूथपेस्ट तो
किसी तरह से आ
भी जाए, कोई
उपाय बनाए जा
सकते हैं, लेकिन
शब्द के बाहर
जाकर समाधि का
अनुभव होता है,
फिर शब्द के
भीतर: उसको
लाना असंभव है।
इशारे हो सकते
हैं। वही
इशारे मैंने
किये
ये
सब इशारे हैं——
जैसे दीपक
की लौ, जैसे
नागिन का फन
जैसे चटके
कली, जैसे
लहके चमन
जैसे उमड़े
घटा, जैसे
फूटे किरन
जैसे आँधी
उठे, जैसे
भड़के अगन
जैसे पहलू
में दिल, जैंसे
दिल में लगन
जैसे
मुड़ती नदी, जैसे
उड़ती पवन
जैसे
तितली का पर, जैसे
भँवरे का मन
जैसे
विरहा का दुख, जैसे
चोरी का धन
जैसे मन
में तड़फ, जैसे
वन में हिरन
इशारे।
इनको पकड़ मत
लेना; ये
परिभाषा नहीं
है। मगर अगर व
इशारे
तुम्हें
पुकारने लगें,
ये इशारे
प्यास बन जाएँ,
तुम्हें
खींचने लगें,
एक अदम्य
आकर्षण पैदा
हो जाए, अभीप्सा
जगे कि जानकर
रहेंगे, तो
काम हो गया।
जो मैं यहाँ
बोल रहा हूँ, उससे
तुम्हें
समाधि को नहीं
समझा सकूँगा;
लेकिन जो
मैं बोल रहा
हूँ, अगर
उससे तुम्हारे
भीतर प्यास जग
आए, तो एक
दिन समाधि का
फूल भी
तुम्हारे
भीतर खिलेगा,
तुम्हारा
हक है। अपने
अधिकार की
माँग करो।
आज
इतना ही।
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