दिनांक
26 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सारसूत्र
:
आई
ण अंत ण मज्झ
णउ णउ भव णउ णि
ब्वाण।
एहु
सो परम महासुह
णउ परणउ
अप्पाण।।7।।
घोरान्धारें
चंदमणि जिम
उज्जोअ करेइ।
परम
महासुह एक्कु
खणे दुरि आसेस
हरेइ।।8।।
जब्बे
मण अत्थमण जाइ
तणु तुट्टइ
बंधण।
तब्बे
समरस सहजे
वज्जइ णउ सुछ
ण बम्हण।।9।।
चीअ
थिर करि धरहु
रे नाइ। आन
उपाये पार ण
जाइ।
नौवा
ही नौका टानअ गुणे।
मेलि मेलि
सहजे जाउण
आणे।।10।।
मोक्ख
कि लब्भइ
ज्झाण
पविट्ठो।
किन्तह दीवें
किन्तह
णिवेज्जं।
किन्तह
किज्जइ मन्तह
सेब्बं।
किन्तह
तित्थ तपोवण
जाइ। मोक्ख कि
लब्भइ पाणी
न्हाइ।।11।।
परऊ
आर ण कीअऊ
अत्थि ण दीअऊ
दाण।
सुने
हुए गीतों से
मनहर मधुर
अनसुना गीत,
आंखों-देखे
से सुंदर
अनदेखा मन का
मीत!
जिसके
मन में जितना
कम अनदेखे का
अनुराग,
उसके
प्राणों में
उतनी ही क्षीण
हो चुकी आग!
तन
से मन की
शक्ति अधिक है, प्रबल देह
से प्राण;
पृथ्वी
से आकाश बड़ा
है, जाने से
अनजान!
जिसके
प्राणों में
जितना कम
अनजाना आकाश,
उसका
उतना ही कम
सार्थक
पृथ्वी पर
आवास!
अगम
कंदरा-क्रोड़
जल रहा जहां
दीप निर्धूम;
सार्थक
हैं वे नयन, सकें जो
दीप-शिखा को
चूम!
हैं
प्रकाश के
प्रति जो लोचन
जितने
स्नेह-विहीन,
हैं
उतने ही
दीनऱ्हीन वह
खंडित मुकुर
मलीन!
वह
पंचतल्ला पोत
सदा
धारावाहिक
अविराम;
अगम
शिखर से अगम
सिंधु तक बहना
इसका काम!
तिरता
जाता पोत, प्राण का
पाल बना आकाश;
दृग
से जितना दूर
नियामक, मन
से उतना पास!
धर्म
की खोज अज्ञात
की खोज है; जो अब तक
नहीं जाना, उसकी खोज है;
जिसे अब तक
नहीं पहचाना,
उसकी खोज है।
जिससे अब तक
मिलन नहीं हुआ
उससे मिलने की
अभीप्सा का
नाम धर्म है।
जो जान लिया, वह संसार है;
जो अभी नहीं
जाना, वही
परमात्मा है।
और
परमात्मा
अज्ञात ही
नहीं है, अज्ञेय
भी है।
जान-जानकर भी
जानने को शेष
रह जाता है, ऐसा है।
जितना उसमें
कोई डूबता है
उतनी ही गहराइयों
के और द्वार
खुल जाते हैं।
सुने
हुए गीतों से
मनहर मधुर
अनसुना गीत,
आंखों-देखे
से सुंदर
अनदेखा मन का
मीत!
जगत
वह है जो आंख
से दिखाई पड़
जाता है और
परमात्मा वह
जो आंख से
दिखाई नहीं
पड़ता और उसे
देखना हो तो
आंख बंद करनी
पड़ती है।
संसार को
देखना हो तो
आंख खोलने की
जरूरत है, परमात्मा को
देखना हो तो
आंख बंद करने
की जरूरत है।
धर्म
की सारी कला
आंख बंद करने
की कला है। और
आंख बंद करके
ही वह दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
वह तुम्हारे
अंतर्तम में
विराजमान है।
जिसके
मन में जितना
कम अनदेखे का
अनुराग,
उसके
प्राणों में
उतनी ही क्षीण
हो चुकी आग!
वह
जीवित ही नहीं
है, जिसको
अनजान ने नहीं
पुकारा, और
जिसके
प्राणों में
अभीप्सा नहीं
है--अज्ञेय के
शिखरों को
लांघ जाने की,
अज्ञात
सागरों में
नाव छोड़ने की।
जिसके मन में
कोई आकांक्षा
नहीं है, जो
तट पर छोटे-से
घर बसाकर बस
गया
है--सुरक्षा के
घर, सुविधा
के घर--और
जिसने यात्रा
छोड़ दी है
सत्य के पथ
की--वह आदमी
जीवित ही नहीं
है, या
नाममात्र को
जीवित है।
उसके भीतर आग
नहीं है; वह
बुझी राख है।
धार्मिक
व्यक्ति
प्रज्वलित हो
उठता है, उसके
भीतर एक आग
है। और आग रोज
सघन होती चली
जाती है, त्वरा
रोज बढ़ती चली
जाती है। फिर
उसके भीतर ऐसी
लपट उठती है
जो निर्धूम
होती है।
धुआं
कब उठता है? जब लकड़ी
गीली होती है
तब धुआं उठता
है। जब लकड़ी
बिलकुल सूखी
होती है तो
धुआं नहीं
उठता। धुआं आग
से नहीं उठता,
जैसा आमतौर
से लोग सोचते
हैं, धुआं
लकड़ी में छिपे
पानी के कारण
उठता है; गीलेपन
के कारण उठता
है, आग के
कारण नहीं।
जितनी तुममें
आग होगी, उतना
ही तुम्हारे
जीवन में धुआं
कम होगा। लेकिन
अभी तो
धुआंऱ्ही-धुआं
है, आग तो
कहीं दिखाई
नहीं पड़ती।
वासना ने
तुम्हें बहुत
गीला कर दिया
है; ध्यान
तुम्हें सुखा
दे।
तपश्चर्या
शब्द प्यारा
है। विकृत हो
गया--गलत
लोगों के हाथ
में पड़कर
विकृत हो गया, अन्यथा शब्द
बड़ा प्यारा
है। तप का
अर्थ होता है:
सूखना, सुखाना।
तपश्चर्या का
अर्थ होता है:
तुम्हारे
भीतर का सारा
गीलापन विदा
हो जाये, तुम
बिलकुल सूखी
लकड़ी हो जाओ।
फिर जो आग
प्रज्वलित
होगी, निर्धूम
होगी। फिर
तुम्हारी
आंखें साफ
होंगी। और वह
जो दूर से दूर
वह भी दिखाई
पड़गा। और वह
जो छिपा से
छिपा है उसके
चेहरे से भी
घूंघट हट
जायेंगे।
तन
से मन की
शक्ति अधिक है, प्रबल देह
से प्राण;
पृथ्वी
से आकाश बड़ा
है, जाने से
अनजान!
जिसके
प्राणों में
जितना कम
अनजाना आकाश,
उसका
उतना ही कम
सार्थक
पृथ्वी पर
आवास!
व्यर्थ
रहोगे पृथ्वी
पर, अगर आकाश
से अपरिचित
रहे। अगर जाने
में ही घूमते
रहे तो कोल्हू
के बैल हो।
जाने में
घूमना तो
वर्तुलाकार
घूमना है।
अनजान की
यात्रा ही, प्रतिपल
अनजान की
यात्रा ही, तुम्हें
उसके निकट
लायेगी--जो
शाश्वत है। और
तुम्हारे
जीवन की ऊब
चली जायेगी।
लोगों
को देखते हो, कितने ऊबे
हुए हैं! बोझ
ढो रहे हैं
पहाड़ों का छाती
पर जैसे। न
आंखों में चमक
है जीवन की, न हृदय में
धड़क है जीवन
की, न कोई
गीत उठता है, न कोई आनंद
का पता चलता
है। जी रहे
हैं, क्या
करें मजबूरी
है। जी रहे
हैं क्योंकि
अभी मौत नहीं
आई है। जी रहे
हैं, मौत
की प्रतीक्षा
कर रहे हैं।
यह जीना राख
जैसा जीना है।
और अगर
तुम्हारी जीभ
पर राख का स्वाद
फैल गया है तो
कुछ आश्चर्य
नहीं, क्योंकि
यह जीना जीना
ही नहीं है, यह जीने का
धोखा है। जब
तक आकाश
तुम्हें
पुकारे न...।
पृथ्वी
में तुम गड़ाओ
अपनी जड़ें, मगर उठाओ
अपनी शाखाओं
को आकाश में।
रहो--जो जान
लिया
गया--उसमें, लेकिन खोजते
रहो अनजान को।
यही मेरा अर्थ
है, जब मैं
कहता हूं कि
संन्यस्त भी
रहो और गृहस्थ
भी। गृहस्थ का
अर्थ होता है:
पृथ्वी।
संन्यस्त का
अर्थ होता है:
आकाश। और जैसे
पृथ्वी और
आकाश साथ-साथ
हैं, ऐसे
ही तुम्हारे
भीतर भी दोनों
बातें साथ-साथ
घट रही हैं, तुम जानो या
न जानो। देह
तुम्हारी
पृथ्वी का हिस्सा
है, देह की
जड़ें पृथ्वी
में हैं। और
तुम्हारी आत्मा
आकाश का
हिस्सा है।
तुम्हारे
भीतर अपूर्व मिलन
हो रहा है।
तुम क्षितिज
हो, जहां आकाश
और पृथ्वी मिल
रहे हैं।
लेकिन तुम
आकाश को भूल
ही गये हो, बस
तुम पृथ्वी ही
पृथ्वी हो गये
हो--मिट्टी ही मिट्टी,
मृण्मय ही
मृण्मय; चिन्मय
का तुम्हें
पता ही नहीं
रहा।
अगम
कंदरा-क्रोड़
जल रहा जहां
दीप निर्धूम;
सार्थक
हैं वे नयन, सकें जो
दीप-शिखा को
चूम!
प्रकाश
को चूमना है।
प्रकाश को
आलिंगन करना
है। उस आलिंगन
से ही अर्थ
पैदा होगा और
काव्य जन्मेगा
और तुम्हारे
पैरों में
घूंघर
बंधेंगे। पद घुंघरू
बांध मीरा
नाची रे! तुम
भी नाच सकोगे।
नाचना ही
चाहिए। बिना
नाचे गये तो
व्यर्थ आये व्यर्थ
गये। अवसर चूक
गया।
अगम
कंदरा-क्रोड़, जल रहा जहां
दीप निर्धूम!
और
दूर नहीं है
वह अगम कंदरा!
तुम्हारे ही
हृदय की गुफा
का नाम है। और
वहां दीया जल
रहा है--बिन
बाती बिन तेल!
वहां कोई धुआं
नहीं है, ज्योति
ही ज्योति है।
सार्थक
हैं वे नयन, सकें जो
दीप-शिखा को
चूम!
हैं
प्रकाश के
प्रति जो लोचन
जितने
स्नेह-विहीन,
हैं
उतने ही
दीनऱ्हीन वह
खंडित मुकुर
मलीन!
तुम्हारी
आंखें अगर चमक
खो दी हैं तो
इसीलिये कि
तुमने प्रकाश
का प्रेम ही
नहीं जगाया
है। तुम्हारे
भीतर प्रकाश
का संस्पर्श
ही नहीं हो रहा
है। अंधेरे
में रहोगे, अंधेरे ही
अंधेरे में
रहोगे, तो
आंखें अंधी हो
जायेंगी। ऐसे
ही तो लोगों
की आंखें हो
गई हैं। जिनको
सिर्फ पदार्थ
दिखाई पड़ता है
और परमात्मा
नहीं, उनको
आंख वाला नहीं
कहा जा सकता।
पदार्थ तो कैमरे
की आंख को भी
दिखाई पड़ जाता
है, उसमें
कुछ खूबी नहीं
है। उसकी
तस्वीर तो
कैमरा भी उतार
लेता है। वह
तो कैमरे की
आंख भी समर्थ
है। तुम्हारी
आंख में और
कैमरे की आंख
में कुछ तो
फर्क हो। और
एक ही फर्क
अर्थपूर्ण है,
गरिमापूर्ण
है: तुम उसे
देखने लगो जो
पदार्थ में
छिपा है, जो
पदार्थ की ओट
में छिपा है।
नहीं तो आंखें
तुम्हारी
उदास ही
रहेंगी; हृदय
तुम्हारे
टूटे ही रहेंगे;
वीणा के तार
तुम्हारे कभी
सम्हलेंगे न;
तुम्हारे
भीतर अनाहद का
नाद कभी उठेगा
नहीं।
और
सब तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। तुम बीज
हो परमात्मा
के। मगर अभी
बीज हो, संभावना
हो।
संभावनाओं को
सत्य करना है।
अभी तो एक
स्वप्न हो, अभी सत्य
नहीं है।
जो
विटप के मूल
में है,
डाल
के फल-फूल में
है,
कहो, लघु-आकार वह
क्या चीज है?
--बीज
है!
खेलता
है खेल
लुक-छिप कर,
अवनि
के रेणु-कण से,
सीखता
आरोह या अवरोह
नभ
के वेणु-स्वन
से!
रूप
लघु, छाया बड़ी
है,
विटप
की काया खड़ी
है।
किंतु
छायाधार वह
क्या चीज है?
--बीज
है!
वास्तविक
अतिशय विशद है,
सूक्ष्म
सुपना!
बीज
लघु जितना, बड़ा
वटवृक्ष
उतना!
भूमिगत
तम से निडर है,
दिख
रहा
विद्रुम-शिखर
है,
मौन
अक्षर-सार वह
क्या चीज है?
--बीज
है!
बीज
से कुछ सीखो, क्योंकि तुम
भी बीज हो। और
तुम इस पृथ्वी
पर सर्वाधिक
बहुमूल्य बीज
हो, क्योंकि
तुमसे ही परमात्मा
का फूल खिल
सकता है। वह
स्वर्ण-कमल तुम्हारी
झील में ही
खिलेगा। तुम
पर एक बड़ा दायित्व
है। तुम अगर
बिना
परमात्मा को
जाने मर गये
तो तुमने अपना
दायित्व पूरा
न किया। तुम
बीज की तरह ही
मर गये; टूटे
नहीं, अंकुरित
न हुए; फूले
नहीं, फले
नहीं। और
परितोष, संतोष
उसी को मिलता
है--जो फूला, जो फला।
देखा
है, फूल और
फलों से जब
वृक्ष लद जाता
है, तो
उसके आसपास
कैसी परितोष
की छाया होती
है, कैसे
आनंद का भाव
होता है, परितृप्ति!
आदमी
बांझ ही मर
जायेगा? अधिक
आदमी बांझ ही
मर जाते हैं।
जो होने को हुए
थे बिना हुए
मर जाते हैं।
बीज से कुछ
सीखो। बीज
वृक्ष हो सकता
है, लेकिन
अगर ठीक भूमि
न खोजे तो
नहीं हो
पायेगा।
कंकड़-पत्थर
जैसा ही रह
जायेगा, मुर्दा।
और भूमि खोजनी
पड़ती है और
भूमि में अपने
को गला देना
पड़ता है, मिटा
देना पड़ता है।
बीज जब मरता
है तब वृक्ष होता
है।
खोजो
कोई
स्थल--जहां तुम
मर सको, मिट
सको। खोजो कोई
भूमि--जहां
तुम अपने को
समर्पित कर
सको। जहां तुम
झुक जाओ और
अहंकार गल जाये,
वहीं
तुम्हारे
भीतर से
अंकुरण
होगा--और वह
अंकुरण सच्चा
जीवन है! उस
अंकुरण से तुम
द्विज बनोगे,
तुम्हारा
दुबारा जन्म
होगा। उसके
पहले तुम द्विज
नहीं हो, कोई
भी द्विज नहीं
पैदा होता।
पहला जन्म
मां-बाप से
होता है, दूसरा
जन्म स्वयं को
स्वयं से ही
देना होता है।
धरती
पर भी जड़ जमती
है,
जड़
हो यदि आकाश
में!
बसती
है
आकाश-वासिनी
प्राणवायु
हर श्वास में!
तन
का जीवन शत
वसंत
प्राणों
की आयु अनंत
है!
यहां
क्षितिज की
परिधि, परिधि
के पार
अपार
दिगन्त है!
खुलते
रहते मृण्मय
बंधन--
बंधने
चिन्मय पाश
में!
किसने
बीज बो दिया
जाने
अंतरिक्ष
के क्रोड़ में?
नित
नव शस्य उग
रहे निशि-दिन
धरती
के नौतोड़ में!
कट
जाते हैं
जन्म-जन्म
अनदेखे
के विश्वास
में!
धरती
की मुसकान
क्षणिक है,
धरती
के आंसू अविरल,
प्रतिबिंबित
मानस-नयनों
में
आकुल
अंतर, विश्व
विकल!
जो
न जीया है वही
जीया है
धरती
के इतिहास
में!
प्यारा
वचन है!--
जो
न जीया है, वही जीया है
धरती
के इतिहास
में!
तुम
जिसे जीवन
कहते हो वह
जीवन बिलकुल
व्यर्थ है। उस
तरह जीने वाले
तो जीये ही
नहीं।
जो
न जीया है, वही जीया है,
धरती
के इतिहास
में!
धन
की दौड़ में, पद की दौड़
में, प्रतिष्ठा
की दौड़ में, तुमने जीवन
समझा है? ऐसे
जो लोग जीये, जीये ही
नहीं। जानने
वालों से पूछो,
जागों से
पूछो। वे
कहेंगे: ऐसे
जो जीये वे
जीये ही नहीं।
फिर कौन जीया?
जो बाहर के
प्रति मरा और
भीतर के प्रति
जगा, वही
जीया। जो
परिधि पर नहीं
जीया, केंद्र
पर जीया--वही
जीया।
जो
अंतरात्मा
में जीया वही
जीया। जो
अंतरात्मा
में जीता है
फिर बाहर तो
ऐसे हो जाता
है जैसे जल
में कमल! नहीं
कि बाहर नहीं
जीता--उठता है, बैठता है, चलता है, फिरता
है, सब
करता है जो करना
है; लेकिन
अब न कोई
आसक्ति है, न कोई आग्रह
है, न कोई
पकड़ है। अब
अस्पर्शित
जीता है। अब
बाहर की कोई
धूल उसके
दर्पण को गंदा
नहीं कर पाती।
ज्यों की
त्यों धरि
दीन्हीं
चदरिया, खूब
जतन से ओढ़ी रे
चदरिया! जीता
है, लेकिन
चादर मैली
नहीं हो पाती।
ज्यों की त्यों
धर देता है।
यह
तुम्हारी
संभावना है।
इस संभावना को
पूरा करो। इस
चुनौती को
अंगीकार करो।
मंदिर-मस्जिद
जाने से तुम
धार्मिक न हो
जाओगे। इस
चुनौती को
स्वीकार
करोगे तो
धार्मिक
होओगे।
सरहपा
के सूत्र अति
प्यारे सूत्र
हैं; एक-एक
शब्द को खूब
गहनता से हृदय
में उतारना।
आइ
ण अंत ण मज्झ
णउ णउ भव णउ णि
ब्वाण।
एहु
सो परम महासुख
णउ पर णउ
अप्पाण।।
"सहज
शून्यावस्था
का, समाधि
का न तो आदि है
न अंत है और न
मध्य। न वहां जन्म
है न निर्वाण।
यह अलौकिक
महासुख है। न
इसमें पराये
का भान रहता
है, न
अपना।'
समाधि
है
स्वर्ण-फूल।
जब तक तुम
समाधि न जान
लो तब तक
प्रयास रुके
न। जब तक तुम
समाधि न जान
लो तब तक जीवन
को दांव पर
लगाये जाना, तब तक चले
चलना है, तब
तक नाव खेनी
है--समाधि के
तट तक नाव ले
चलनी है।
समाधि को बिना
जाने जो गया, उसका
आना-जाना
व्यर्थ ही
हुआ। उसने
नाहक ही कष्ट
झेले। उसने
नाहक ही अनंत-अनंत
रास्तों की
धूल खाई, मंजिल
पर पहुंचा ही
नहीं।
समस्याओं
में ही जीयेगा
जो, समाधि को
नहीं जानेगा।
समाधि का अर्थ
होता है: परम
समाधान।
सरहपा
समाधि को कहते
हैं: सहज
शून्य
अवस्था। सहज
का अर्थ होता
है: तुम्हारे
ही भीतर उमगी, तुम्हारे
स्वभाव से ही
निःसृत। असहज
का अर्थ होता
है: ऊपर से
थोपी गई।
तुम्हारा जो
व्यक्तित्व
है अभी, ऊपर
से थोपा गया, असहज है। यह
तुम्हारे ही
भीतर से नहीं
आया है, यह
समाज ने
तुम्हें ओढ़ा
दिया है। कोई
हिंदू-घर में
पैदा हो गया
तो हिंदू है; मां-बाप ने
एक आवरण ओढ़ा
दिया।
हिंदू-घर में
पैदा हो गया तो
वेद पढ़ता है, गीता पूजता
है। और यही
बच्चा जैन-घर
में पैदा होता
तो इसे कभी
फिकिर न आती
गीता की और
वेद की और यह
कभी
हिंदू-मंदिर न
जाता। यह
जैन-मंदिर गया
होता। इसने
महावीर को
पूजा होता।
इसके मां-बाप
ने इसे दूसरे
कपड़े ओढ़ा दिये
होते।
तुम
जो हो अभी, उधार हो, नगद
नहीं।
कृत्रिम हो।
दूसरों ने तुम
पर कुछ रंग
दिया है; अभी
तुमने अपना
रंग जाना
नहीं।
तुम्हारे चेहरे
पर दूसरों ने
मुखौटे लगा
दिये हैं और
आईनों के
सामने खड़े
होकर उन्हीं
मुखौटों को
देखकर तुम
समझते हो यह
तुम्हारा
चेहरा है। यह
तुम्हारा
चेहरा नहीं
है। तुम्हारा
चेहरा और
परमात्मा का
चेहरा भिन्न
ही नहीं है। तुम्हारा
चेहरा वही है
जो तुम जन्म
के साथ लेकर
आये थे--न
जिसका कोई नाम
था; न
जिसका कोई रूप
था; न जो
हिंदू था, न
मुसलमान न
ईसाई न बौद्ध;
जो न शूद्र
था न
ब्राह्मण--जो
बस था! शुद्ध
होना! वह सहज
है।
वह
रूप या वह
अरूप अब भी
तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। कितने ही
कपड़े पहना
दिये गये हों, तुम्हारा
स्वभाव अब भी
उन कपड़ों के
भीतर मौजूद
है। तुम अपनी
नग्नता में अब
भी अगर जाग
जाओ तो उसे
जान लो जो
तुम्हारी
निजता है। मगर
तुमने
तादात्म्य कर
लिया है।
तुमने
वस्त्रों को
जोर से पकड़
लिया है। तुम
कहते हो यही
वस्त्र मैं
हूं! और वहीं
भूल हो गई है, वहीं चूक हो
गई है।
तुमने
अपने नाम को
समझ लिया कि
यह मैं हूं।
नाम लेकर आये
थे? कोई तो
नाम लेकर आता
नहीं है।
तुमने अपनी
भाषा को समझ
लिया कि यह
मैं हूं। भाषा
लेकर आये थे? कोई भाषा तो
लेकर आता
नहीं। न कोई धर्म
लेकर आता है, न कोई देश
लेकर आता है।
ये सब बातें
सिखा दी गई हैं।
ये तुम्हें
तोतों की तरह
रटा दी गई
हैं। तुम तोते
बन गये हो। और
बड़े अकड़ रहे
हो, क्योंकि
तुम्हें वेद
याद हैं, क्योंकि
तुम्हें
कुरान कंठस्थ
है। तुम्हारी
अकड़ तो देखो!
और तुम्हें
जरा भी होश
नहीं है कि
तुम जब आये थे,
न कुरान थी
तुम्हारे पास,
न वेद थे
तुम्हारे
पास। तुम
थे--एक कोरे
कागज थे तुम!
और जब तुम
कोरे कागज थे
तब तुम
परमात्मा से
जुड़े थे। जब
से तुम्हारा
कागज गूद दिया
गया है तब से
तुम समाज से
जुड़ गये हो।
तब से तुम अपने
से टूट गये हो
और भीड़ से जुड़
गये हो। तब से
तुम भीड़ के
हिस्से हो गये
हो, तुम्हारी
आत्मा खो गई
है।
सहज
का अर्थ होता
है, जो
तुम्हारा
स्वभाव है; जो तुम्हें
दूसरे से नहीं
सीखना है, जो
तुम्हें अपने
भीतर तलाशना
है; जिसका
अन्वेषण भीतर
ही करना है।
उतरते जाओ पर्त-पर्त,
छीलते जाओ
अपनी पर्तों
को, उस जगह
तुम्हें
पहुंचना है
जहां "साक्षी'
मिल जाये।
इस शब्द को
समझ लो तो
तुम्हें
सहजऱ्योग की
आधारशिला समझ
में आ जायेगी।
तुम्हारे
भीतर दो चीजें
घट रही हैं।
एक तो साक्षी
है, जो सिर्फ
देखता है, सिर्फ
द्रष्टा है; द्रष्टा से
भिन्न कभी कुछ
भी नहीं है।
और दूसरी
तुम्हारी देह
है, तुम्हारा
मन है, तुम्हारे
संस्कार हैं,
तुम्हारे
विचार हैं। ये
सब तुम्हारे
साक्षी के
सामने से
गुजरते हैं।
मगर तुम
इन्हें सिर्फ
देखते नहीं, इनके साथ
अपना राग-रंग
बना लेते हो, इनके साथ
आसक्ति
निर्मित कर
लेते हो। एक
उदास बदली
तुम्हारे
चित्त पर से
गुजरी, जैसे
आकाश में से
एक बदली
गुजरती है।
आकाश से गुजरती
हुई बदली को
देखकर तुम यह
तो नहीं कहते
हो कि मैं
बदली हूं! अगर
ऐसा कहोगे तो
लोग तुम्हें
पागल
समझेंगे। मगर
यही तुम कर
रहे हो एक गहरे
अर्थ में--यही
पागलपन! तो
जाननेवालों
की नजरों में
तो तुम पागल ही
हो। तुम्हारे
चित्त पर एक
उदासी की बदली
गुजरी, अभी
क्षण पहले तो
धूप थी, कोई
बादल न था, क्षण
पहले तो तुम
मुस्करा रहे
थे, बड़े
आनंदित थे।
फिर पड़ोसी ने
कुछ कह दिया।
दो शब्दों की
भनकार--और
तुम्हारे
भीतर एक उदास
बदली घिर गई!
या किसी ने
तुम्हें ऐसी
नजर से देख लिया
था जो तुम्हें
भाया नहीं। या
जो आदमी तुम्हें
रोज नमस्कार
करता था उसने
नमस्कार न की
आज। तुम्हारे
चित्त पर एक
छाया पड़ गई--एक
उदास बदली घिर
गई। अभी-अभी
सूरज उगा था।
अभी-अभी धूप
थी, अब
अंधेरा हो
गया। अब तुम
बोले कि मैं
उदास हूं।
तुम
भूल कर रहे
हो। तुम यह
उदास बदली
नहीं हो। ना
ही तुम धूप थे, न तुम छाया
हो। पहले भूल
की थी कि मैं
धूप हूं कि
मैं प्रसन्न
हूं, कि
मैं आनंदित
हूं, कि
मैं आनंद
हूं--और अब कि
मैं दुख हूं!
फिर घड़ी बीतेगी
और क्रोध आ
जायेगा और घड़ी
बीतेगी और प्रेम
आ जायेगा।
और
चौबीस घंटे
तुम्हारे
चित्त की राह
पर बहुत-सी
चीजें गुजरती
हैं। यह तो
बड़ा आवागमन है
चित्त का! यह
तो राह है जो
चलती ही रहती है, दिन-रात
चलती रहती है!
इसमें हरेक
यात्री के साथ
तुम जुड़ जाते
हो: और
तुम्हें याद
भी नहीं आता
कि तुम सबसे
भिन्न हो।
दुख-सुख आते
हैं चले जाते
हैं। तुम न तो
आते न जाते। न
तुम्हारा कोई
आना है न जाना
है। दुख-सुख मेहमान
बनते हैं
क्षण-भर को, टिक जाते
हैं तुम्हारे
भीतर थोड़ी देर
को, फिर
विदा हो जाते
हैं। तुम
मालिक हो। तुम
आतिथेय हो, ये तो सब
अतिथि
हैं--आते-जाते
रहते हैं। तुम
इनमें से किसी
के साथ भी
अपने को एक न
करो। एक किया,
तादात्म्य
किया, भ्रांति
हो गई।
बस
चित्त की
भावदशाओं के
साथ
तादात्म्य का
हो जाना ही
संसार है। और
चित्त की
भावदशाओं के
साथ
तादात्म्य का
टूट जाना
साक्षी का
जन्म है। वही
समाधि है।
तुम
सिर्फ देखो।
दुख आये तो
देखो--और
जानते रहो कि
मैं
देखनेवाला
हूं, मैं दुख नहीं
हूं। और तुम
बहुत
चौंकोगे। इस
छोटे-से प्रयोग
को उतारो जीवन
में। यह कुंजी
है। इससे अमृत
के द्वार खुल
जाते हैं। दुख
आये, देखते
रहो। जागे
रहना, क्योंकि
पुरानी आदत हो
गई है, जन्मों-जन्मों
की आदत हो गई
है जल्दी से
दुखी हो जाने
की। कहना कि
मैं
देखनेवाला
हूं, कि
मैं तो सिर्फ
दर्पण हूं, कि दुख की
छाया बन रही
है ठीक। इससे
दर्पण दुखी
नहीं होता।
छाया गई, दर्पण
फिर खाली हो
जाता है। तुम
दर्पण मात्र,
द्रष्टा
मात्र, साक्षी-मात्र।
और फिर देखना,
अचानक
हैरान हो
जाओगे: दुख की
बदली है और
तुम दुखी नहीं
हो! दुख की
बदली वहां है,
तुम यहां हो;
दोनों के
बीच अनंत आकाश
है! दोनों के
बीच अनंत फासला
है, जो कभी
भरा नहीं जा
सकता, कभी
जोड़ा नहीं जा
सकता। उदासी
होगी और तुम
उदास न होओगे,
तुम सिर्फ
निरीक्षण
करोगे।
फिर
खुशी भी आयेगी, अब खुश मत हो
जाना।
क्योंकि दुख
को तो देखने की
आदमी चेष्टा कर
लेता है, क्योंकि
दुखी तो कोई
होना नहीं
चाहता; लेकिन
सुख...सुख को तो
जल्दी से
आलिंगन कर
लेता है, सुख
को तो जल्दी
से ओढ़ लेता
है। सुख के
साथ भी यही
करना। वह भी
बादल है। वह
भी आया-गया
मेहमान है।
ऐसे हर मेहमान
के पीछे चलने
लगोगे तो जिंदगी
टूट
जायेगी--टूट
ही गई है। आये
सुख, देखते
रहना।
अगर
तुम सुख और
दुख दोनों को
देख सको तो
तुम्हारे
भीतर जो
अवस्था पैदा
होगी, उस
अवस्था का नाम
सहज है, साक्षी
है, समाधि
है। पहले तो
क्षण-भर को
बनेगी यह बात,
मगर क्षण-भर
को बनी तो बन
गई। पहले तो
क्षण भर को
झलक मिलेगी
साक्षी की, मगर उतनी
झलक ही काफी
है। स्वाद एक
बार आ जाये, बस तुम चकित
हो जाओगे कि
कितना अपूर्व
रस बहता है उस
क्षण में!
कैसी अमृत की
धार बरस जाती
है! न दुख न
सुख--उस
अवस्था को
सरहपा ने
महासुख कहा है।
न दुख न सुख!
खयाल रखना, महासुख शब्द
से धोखे में
मत पड़ जाना।
शब्द का कोई
उपयोग तो करना
ही पड़ेगा। कोई
उस अवस्था को
आनंद कहता है,
मगर उसमें
भी वही भूल हो
जाती है, क्योंकि
तुम समझते हो
आनंद यानी सुख
ही सुख की महा
राशि। सरहपा
ने महासुख कहा
है, इससे
भूल में मत पड़
जाना।
तुम्हारे सुख
से महासुख का
कोई संबंध
नहीं है।
महासुख तब
अनुभव होता है
जब सुख और दुख
दोनों विदा हो
जाते हैं।
बुद्ध
का शब्द
ज्यादा उचित
है। बुद्ध
शांति शब्द का
उपयोग करते
हैं--परम
शांति! सब
शून्य हो जाता
है। एक
निर्विकार
दशा। कुछ उठता
नहीं कुछ
गिरता नहीं, कुछ आता
नहीं कुछ जाता
नहीं। एक
सन्नाटा! एक अपूर्व
शांति! मगर
महासुख उसमें
है। इसलिये
सरहपा ठीक
कहता है। सहज
शून्य अवस्था
का...! और इस
अवस्था को तुम
जान लो तो
तुम्हें पता
चलेगा: न तो
इसका कोई आदि
है न अंत, न
तो यह कभी
शुरू होती और
न कभी इसका
कोई अंत होता।
और स्वभावतः
जिसका आदि न
हो अंत न हो, उसका मध्य
भी नहीं होता।
यह शाश्वत है।
यह सनातन है।
यही है सनातन
धर्म। हिंदू
धर्म सनातन
धर्म नहीं
है--यही है
सनातन धर्म!
यह सहज, शून्य,
समाधि! वहां
न जन्म है न
निर्वाण।
वहां न कभी कोई
जन्मता है न
कोई मरता है।
वहां समय ही
नहीं है--कैसा
जन्म कैसी
मृत्यु! यह
अलौकिक
महासुख है।
यह
अलौकिक है, पहली बात।
इस लोक में
तुमने जितने
सुख जाने हैं
उनसे इसका कोई
भी संबंध नहीं
है। इस लोक
में जाने गये
सुख और इस
महासुख में
कोई मात्रा का
संबंध नहीं
है--गुण-भेद
है। यह कुछ और
ही ढंग का सुख
है। इस सुख को
कहने के लिए
कोई शब्द नहीं
है, इसलिये
किन्हीं न
किन्हीं
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ता है।
लौकिक शब्दों
का ही उपयोग
करना पड़ता है।
लेकिन शर्त
लगाकर--अलौकिक
महासुख!
"अलौकिक' की
शर्त लगा दी, ताकि तुम
भूल न जाओ।
तुमने
जो सुख जाने
हैं वे
ऐन्द्रिक
हैं। एक सुख
जाना है स्वाद
का। एक सुख
जाना है नाद
का। एक सुख
जाना है रूप
का। तुमने जो
सुख जाने हैं
वे इंद्रियों
के सुख हैं।
वे बाहर से
आये हैं। सुबह
हुई, सुंदर
सूरज निकला और
तुम्हारी
आंखें विमुग्ध
हो गईं और
तुम्हारे
भीतर बड़ा सुख
आया। मगर यह
बाहर से आया
है। यह सहज
नहीं है। यह
तुम्हारे
भीतर नहीं
जन्मा है। यह
पराया है, विजातीय
है। भोजन किया,
स्वाद की
प्रतीति हुई,
सुख मिला यह
भी बाहर से
आया है।
वह
महासुख बाहर
से नहीं
आता--भीतर ही
आविर्भूत
होता है। उसकी
स्फुरणा भीतर
ही होती है।
वह नाद भीतर
बजता है: वह
स्वाद भीतर
उठता है। वह
रूप भीतर सघन
होता है।
इंद्रियों से
नहीं आता--अतीन्द्रिय
है, अलौकिक
है, और महा
है। उसका कोई
पारावार नहीं
है। उसकी बाढ़
आती है। ऐसा
रत्ती-रत्ती,
टुकड़े-टुकड़े
नहीं आता। आता
है तो जैसे
पूरा आकाश टूट
पड़ता है। न
इसमें पराये
का भान रहता
है, न
अपना। और वहां
सब मिट जाता
है--न कोई तू न
कोई मैं। सब
विदा हो जाते
हैं। वहां कौन
तू कौन मैं।
मैंत्तू
का सारा खेल
तो बाहर-बाहर
है। बाहर तुम
अलग हो, मैं
अलग हूं। भीतर
हम सब एक हैं।
हम सभी एक हैं,
ऐसा
नहीं--वृक्ष
और पशु और
पक्षी भी वहां
एक हैं। और
ऐसा ही नहीं
कि हम जो
समसामयिक हैं,
एक हैं--जो
हमसे पहले हुए
हैं वे और जो
हमसे बाद में
होंगे वे, सभी
वहां एक हैं।
एक ही है
वहां। वहां एक
ही सागर है। उसीकी
सब तरंगें
हैं। उसमें
तरंगें उठती
हैं गिरती
हैं। पहले जो
उठी थीं
तरंगें, वे
भी उसी सागर
में उठी थीं; अब जो उठ रही
हैं वे भी उसी
में उठ रही
हैं; आगे
जो उठेंगी वे
भी उसी में
उठेंगी। और
सागर एक है।
उस महासुख के
सागर को जिसने
जान लिया वही
विमुक्त है।
तो
खयाल रखना:
महासुख ऐसी
अवस्था है
जहां सुख नहीं
दुख नहीं, क्योंकि सुख
भी एक
उत्तेजना है
और दुख भी एक उत्तेजना
है। वहां कोई
उत्तेजना
नहीं है।
न
जाने किसलिए
दोनों का साथ
लाजिम था
खुशी
भी हो गयी
रुख़सत जहां
मलाल गया
जिस
दिन तुम्हारा
दुख जायेगा, तुमने जो
सुख जाना है
वह भी चला
जायेगा।
न
जाने किसलिए
दोनों का साथ
लाजिम था
खुशी
भी हो गई
रुख़सत जहां
मलाल गया
लेकिन
तभी महासुख
जन्मता है। तब
तुम एक ऐसे अपूर्व
अनुभव को
उपलब्ध होते
हो, जिसकी
तुम्हें सदा
से तलाश थी।
ठीक-ठीक पता
नहीं था तो भी
तलाश उसी की
थी। हम खोज
उसी को रहे हैं।
हम चाहे जानकर
न खोज रहे हों,
मगर हम खोज
उसी को रहे
हैं, क्योंकि
हमने कभी किसी
क्षण में उसे
जाना है। मां
के गर्भ में
बच्चा उसका रस
लेता है, स्वभाव
में होता है; जैसे ही
पैदा हुआ कि
विभाव शुरू
हुआ। हमने उसे
सिखाना-पढ़ाना
शुरू किया।
हमने उस पर
आरोपण शुरू किये।
नौ महीने डूबा
था एक सुख
में।
अब
छोटा बच्चा जो
मां के पेट
में था, उसकी
इंद्रियां तो
उसे कुछ भी
नहीं दे रही
थीं--न तो उसकी
आंखें खुली
थीं कि रूप
देखता, न
भोजन कर रहा
था कि स्वाद
देखता। उसकी
सारी इंद्रियां
सोई थीं, सारी
इंद्रियां
बंद थीं। एक
कली की भांति
था, पंखुड़ियां
बंद थीं। मगर
पंखुड़ियों के
भीतर सुवास तो
थी! भीतर ही
भीतर वह रस बह
रहा था। भीतर ही
भीतर आनंद की
धारा थी।
जन्मा--और
हमने उसे सिखाना
शुरू किया और
हमने उसे कुछ
का कुछ बनाना
शुरू किया।
हमने उसके
कोरे कागज पर
लिखाई शुरू
की।
और
हमारी भी
मजबूरी है, लिखाई करनी
पड़ेगी। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि लिखाई
मत करो। लिखाई
कुछ न कुछ तो
करनी पड़ेगी।
भाषा सिखानी
पड़ेगी, नहीं
तो बोलेगा
कैसे? और
भाषा सीख लेगा
तो मौन खो
जायेगा। और
भाषा तो
सिखानी ही
पड़ेगी--आवश्यक
बुराई है, बचा
नहीं जा सकता,
नहीं तो
गूंगा रह
जायेगा।
जिंदगी का काम
कैसे चलेगा? कमायेगा
कैसे? दो
रोटी-रोजी तो
कमानी ही
पड़ेगी। कुछ तो
करना पड़ेगा।
लोगों से
बोलेगा कैसे?
तो भाषा तो
सिखानी ही
पड़ेगी। लेकिन
भाषा जैसे ही
भर जायेगी
वैसे ही भीतर
का जो शून्य
था वह खो
जायेगा। यह सौदा
महंगा है, मगर
करना पड़ता है।
और करना ही
पड़ेगा।
इतना
ही ध्यान अगर
मां-बाप, समाज
और परिवार रख
सकें कि जब
भाषा सिखाई जा
रही हो तब एक
कोने में उसे
शून्य को
बचाना भी सिखाया
जा सके तो काम
हो जाये। भाषा
भी सिखाई जाये
और उसको
याददाश्त भी
बनाये रखी
जाये कि तू अपने
भीतर के शून्य
को बिलकुल मत
भूल जाना, चौबीस
घंटे में
कम-से-कम
घंटे-भर को तू
फिर शून्य हो
जाना, तेईस
घंटे भाषा एक
घंटे शून्य हो
जाना...और बच्चे
जितनी जल्दी
शून्य को सीख
लेते हैं, कोई
दूसरा नहीं
सीख सकता, क्योंकि
वे तो हैं ही
शून्य में।
भाषा सिखाने में
अड़चन हो रही
है। अभी शून्य
तो हैं ही, अगर
हम थोड़ा-सा
शून्य बचा
सकें बच्चे का
तो हम उसका
जितना हित
करेंगे उतना
हमारी पूरी
शिक्षा से भी
नहीं होने
वाला है।
और
फिर ऐसी चीजें
तो हम न
सिखायें
जिन्हें बिना
सिखाये चल
सकता है। जैसे
मैंने कहा
भाषा तो सिखानी
पड़ेगी, लेकिन
हिंदू होना
थोड़े ही
सिखाना जरूरी
है, मुसलमान
होना थोड़े ही
सिखाना जरूरी
है। यह तो बिलकुल
व्यर्थ की
सिखावन हैं।
हां, उसे
परमात्मा की
खोज जरूर हम
सिखायें और
उससे कहें कि
तू परमात्मा
को खोजना। यह
जो दिखाई पड़
रहा है इतने
पर ही सब
समाप्त नहीं
हो जाता है; अनदिखाई
पड़ने वाला भी
कुछ है; अनजान
भी कुछ है--तुम
खोजना उसे। और
अगर मां-बाप
सच में अपने
बच्चे को
प्रेम करते
हों तो कभी उसे
मस्जिद भी ले
जायेंगे कभी
गुरुद्वारा
भी, कभी
गिरजा भी कभी
मंदिर भी, क्योंकि
पता नहीं तेरा
मिलना उससे
कहां जो जाये!
तू सब जगह
खोजना। सारे
द्वार उसके
हैं। संकोच मत
करना। और जिद
मत करना कि हम
तो मंदिर में
ही खोजेंगे कि
मस्जिद में ही
खोजेंगे।
अगर
मां-बाप सच
में बच्चों को
प्रेम करते
हों तो वे
सारे मंदिरों
के द्वार उसके
लिये खुले रखेंगे।
वे उससे
कहेंगे: तू
वेद भी पढ़ना, कुरान भी
थोड़ी पढ़ना, गीता भी पढ़ना,
धम्मपद भी।
पता नहीं कहां
किस कोने से
वह किरण उतरे!
पता नहीं तेरा
तालमेल किस
ढंग से उससे बैठ
जाये!
गुरुद्वारे
में बैठे कि
गिरजे में, कौन जाने!
नानक की वाणी
सुनकर बैठे कि
कबीर की, कौन
जाने! मुहम्मद
के वचन सुनकर
बैठे कि महावीर
के, कौन
जाने! हिंदू
मत बनाना, मुसलमान
मत बनाना। हां,
धर्म की
अभीप्सा देना
और धर्म भी
थोपना मत। यह
मत कहना कि
ईश्वर है, क्योंकि
तब तुम
आस्तिकता, थोपने
लगे उसके ऊपर।
इतना ही कहना
कि कुछ अज्ञात
है खोजना और
जब खोजकर मिल
जाये तो ही
श्रद्धा करना,
उसके पहले
श्रद्धा भी मत
करना।
बच्चे
को ऐसा बल
देना--खोज का
बल, साहस, अभियान--कि
बिना माने मत
रुकना; लेकिन
मानना तभी जब
जान लो। उधार
मानना मत कर लेना।
फर्क समझ रहे
हो? सिद्धांत
मत देना, खोज
देना। खोज की
अभीप्सा
देना।
शास्त्र मत देना,
प्यास
देना। और तब
एक दूसरे ढंग
की दुनिया बन सकती
है--अगर
बच्चों के
हृदय खुले रखे
जायें और हम
उन पर
जबरदस्ती धर्मों
का आरोपण न
करें और
जबरदस्ती
धार्मिक बातें
उन्हें न सिखा
दें, बल्कि
उनका हाथ
पकड़कर चलना
सिखायें और
फिर उनका हाथ
छोड़ दें और
उनसे कहें कि
अब तुम अपने
पैरों पर चलने
लगे, अब
तुम खोजो। अब
तुम्हें कहीं
कोई सदगुरु मिल
जाये तो झुक
जाना। फिर वह
हिंदू हो कि
मुसलमान कि
ईसाई, फिकिर
मत करना। काला
हो कि गोरा, फिकिर मत
करना। स्त्री
हो कि पुरुष, फिकिर मत
करना। अगर
तुम्हें कभी
कहीं कोई परमात्मा
का प्यारा मिल
जाये तो समझ
लेना कि यही भूमि
है, इसी
में बीज को
गिरा देना है,
इसी में
समाप्त हो
जाना है, इसी
में नया जन्म
लेना है।
तलाश
तो उसीकी चल
रही है
क्योंकि हमने
उसे जन्म के
पहले जाना था।
और फिर हम
उससे छूट गये
हैं, छिटक गये
हैं।
हुजूमे-रंजो-अलम
में भी है
खुशी की तलाश
मैं
कर रहा हूं
अंधेरे में
रोशनी की तलाश
कितना
ही दुख हो, दुख की अधिकता
में भी हम सुख
की ही तलाश कर
रहे हैं--उसी महासुख
की।
हुजूमे-रंजो-अलम
में भी है
खुशी की तलाश
मैं
कर रहा हूं
अंधेरे में
रोशनी की तलाश
खोज
तो उसीकी ही
चल रही है। जो
जानकर खोज
करेंगे, जल्दी
खोज लेंगे। जो
ऐसे ही बिना
जाने खोज करते
रहेंगे, शायद
जन्मों-जन्मों
तक भटकते रहें
और खोज न हो
पाये। खोज को
सचेतन बना
लेना ही
दीक्षा है।
खोज के प्रति
जागरूक हो
जाना ही, सम्यक
रूपेण खोज के
प्रति होश से
भर जाना ही संन्यास
है।
"वह
शून्य अवस्था
ऐसी है कि न
उसका आदि न
अंत न मध्य। न
जन्म है वहां
न निर्वाण।'
सिंधु
के उस पार
जाने की लहर
को क्या पड़ी
है?
लहर
है हर लहर जल
की, लहर छोटी
या बड़ी है!
जीव
ब्रह्मानंद
रस का कोष
अंतर में
छिपाए!
क्यों
न अंतर्पुरुष
सबका मगन-मन
सहगान गाए!
कंठ
घट का मुक्त, हर क्षण गीत
की नूतन कड़ी
है!
यहां
का जीवन वहां
के लिए
पूर्वाभ्याास
करता,
रंग
के मिस ही सही, पर जीव
नित-नव रास
धरता!
बीतती
है जो घड़ी, लाती निकट
रस की घड़ी है!
ज्ञान
से सह रहा है
दुख, मान कर
सुख को
अनश्वर!
दिव्य
की आराधना में
कर दिए चैतन्य
प्रस्तर!
इधर
लौ, तो उधर
लगती
पुष्प-वर्षा
की झड़ी है!
जीव
नित
आनंद-मंदिर
में सतत
आराधना-रत!
देव-प्रतिमा
की मधुर
मुसकान करती
दिव्य स्वागत!
सिद्धि
मंदिर द्वार
पर कब से सधी
पहरे पर खड़ी है!
कब
से परमात्मा
हमारी राह देख
रहा है! दूर
नहीं है बात, हमारा
स्वभाव उसे
अपने भीतर
लिये हुए है!
सिंधु के उस
पार जाने की
लहर को क्या
पड़ी है? लहर
को कहीं जाना
नहीं है--इस
पार या उस पार।
लहर है हर लहर
जल की, लहर
छोटी या बड़ी
है! हर लहर में
सागर मौजूद है,
इसे
पहचानना, इसकी
प्रत्यभिज्ञा
करनी है।
जीव
ब्रह्मानंद-रस
का कोष अंतर
में छिपाए!
क्यों
न अंतर्पुरुष
सबका मगन-मन
सहगान गाए!
कंठ
घट का मुक्त, हर क्षण गीत
की नूतन कड़ी
है!
सिंधु
के उस पार जाने
की लहर को
क्या पड़ी है?
लहर
है हर लहर जल
की, लहर छोटी
या बड़ी है!
इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता कि लहर
छोटी है कि
बड़ी, सारी
लहरों के भीतर
एक ही सागर
लहरा रहा है।
कहीं जाना
नहीं है, ब्रह्मानंद
तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। जरा मुड़ो
भीतर। और जरा
तुम मुड़ो कि
क्रांति घट
जाये।
इधर
लौ तो उधर
लगती
पुष्प-वर्षा
की झड़ी है।
तुम्हारी
लौ भर लग जाये
भीतर की तरफ
कि बरसने लगते
हैं पुष्प।
बीतती
है जो घड़ी, लाती निकट
रस की घड़ी है!
फिर
तो घड़ी-घड़ी रस
का घट करीब
आने लगता है।
सिद्धि
मंदिर-द्वार
कब से सधी
पहरे पर खड़ी
है!
जरा
देखो भीतर! तुम
जिसे खोज रहे
हो वह वहां
मौजूद है--और
कब से मौजूद
है! अनंत काल
से मौजूद है!
तुम्हारे
भीतर है वह
जिसकी खोज कर
रहे हो।
इसलिये सरहपा
कहते हैं
सहजऱ्योग।
नहीं है बाहर, भीतर है।
नहीं पाना है
भविष्य में, अभी उपलब्ध
है।
फजूल
पांव थकाने से
फायदा क्या है?
अगर
है शौके-बयाबां
तो घर में
पैदा कर।
लोग
नाहक दौड़-धूप
कर रहे
हैं--कोई चला
काबा, कोई
चला काशी, कोई
चला कैलाश।
लोग नाहक
दौड़-धूप कर
रहे हैं।
फजूल
पांव थकाने से
फायदा क्या है?
अगर
है
शोके-बयाबां
तो घर में
पैदा कर।
अगर
जरा भी हिम्मत
है, सच में
अभीप्सा है, रस है, लगाव
है, प्रेम
है परमात्मा
से--तो
तुम्हारे
भीतर ही शून्य
को पैदा कर
लो। और सब हो
जायेगा--काबा
भी, काशी
भी, कैलाश
भी, सब
वहां घटित हो
जायेंगे।
"वहां
न जन्म है न
निर्वाण।
वहां महासुख
है अलौकिक। न
वहां पराया है
कोई न अपना; न कोई मैं न
तू।
होश
किसी का भी न
रख, जलवागहे-नियाज़
में।
बल्कि
खुदा को भूल
जा
सज्दा-ए-बेनियाज़
में।।
वहां
अपने-पराये का
तो होश अलग, परमात्मा तक
का होश छूट
जाता है।
किसको खयाल रह
जाता है, ऐसा
शून्य घटता
है! इसीलिये
सरहपा ईश्वर
शब्द का उपयोग
नहीं कर रहे
हैं, क्योंकि
उस परम अवस्था
में इतना भी
भेद कहां रहता
है--कौन भक्त, कौन भगवान!
होश
किसी का भी न
रख, जलवाागहे-नियाज़
में। प्रेम के
मंदिर में छोड़ो
होश मैं का तू
का। बल्कि
खुदा को भूल
जा सज्दा-ए-बेनियाज़
में। प्रेम की
तल्लीनता में
तो भक्त भगवान
हो जाता है, भगवान भक्त
हो जाता है।
प्रेम की
तल्लीनता में
न तो कोई
पुजारी है, न कोई पूज्य
है। वहां तो
शून्य है।
वहां तो शून्य
का नाद बजता
है। वहां तो
शून्य का
संगीत है: न
कोई बजाने
वाला, न
कोई वाद्य।
इसलिये
अलौकिक घड़ी
है।
घोरान्धारे
चंदमणि जिम
उज्जोअ करेइ।
परम
महासुह एक्कु
खणे दुरि आसेस
हरेइ।।
"जैसे
घोर अंधकार
में चंद्रमणि
उजेला कर देती
है, इसी
तरह यह अपूर्व
महासुख एक
क्षण में ही
संपूर्ण
दुश्चरित्रों
का नाश कर
देता है।'
इस
वचन को खयाल
में लेना, क्योंकि
तुम्हारे
पंडित-पुरोहित
तुम्हें कुछ
और ही समझा
रहे हैं। वे
समझा रहे हैं
कि जन्मों-जन्मों
के कर्म हैं
उनको
जन्म-जन्म लगेंगे
कटने में, जल्दी
होनेवाला
नहीं है कुछ।
लेकिन सरहपा
कहते हैं: एक
क्षण में घटना
घट जाती है, एक पल में!
जैसे अंधेरा
हजारों साल से
घिरा हो तो
क्या तुम
सोचते हो दीया
जलाओगे तो
अंधेरा मिटेगा
नहीं? वह
कहेगा कि मैं
हजारों साल
पुराना
अंधेरा हूं, मैं इतने
जल्दी नहीं
मिट सकता? हजारों
साल तक दीये
जलाओ तब
मिटूंगा? दीया
जला कि अंधेरा
गया! अंधेरे
को कहने का समय
भी कहां बचता
है! फिर हजार
साल पुराना हो
कि करोड़ साल
पुराना हो, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। अंधेरे
के पुरानेपन
का कोई अर्थ
ही नहीं होता।
अंधेरे की कोई
पर्त-दर-पर्त थोड़े
ही जमती है कि
अब करोड़ों साल
का अंधेरा है
तो बहुत गहन
हो गया है।
क्षण-भर का
अंधेरा कि अनंत
काल का अंधेरा,
प्रकाश के
सामने बराबर
है।
ऐसी
ही वह क्रांति
की घड़ी है।
जिसके भीतर
सहज का प्रकाश
हो जाता है, शून्य का
अनुभव, उसके
सारे कर्म एक
क्षण में कट
जाते हैं।
हमने किये, यह बात ही
गलत है। हमने
सपना देखा
करने का। जैसे
रात तुमने
सपने देखे, चोर हो गये, चोरी की, हत्या
की; या
साधु हो गये
और बड़ी
तपश्चर्या
की--और सुबह जब
जागे तो हंसे,
न तो तुम
चोर हुए थे न
तुम साधु हुए
थे। तुम कुछ हो
ही नहीं सकते,
तुम सिर्फ
साक्षी हो।
तुम्हारे
सारे कर्म
भ्रांतियां
हैं। तुम्हारे
सारे कर्म
नाटक हैं, इससे
ज्यादा नहीं;
अभिनय हैं।
फिर चाहे राम
बन जाओ
रामलीला में और
चाहे रावण बन
जाओ, कुछ
भेद नहीं
पड़ता। नाटक ही
है, अभिनय
ही है। परदे
के पीछे न
रावण रावण है,
न राम राम
है। परदे के
बाहर दर्शकों के
सामने
रामलीला चल
रही है।
इसलिये तो
उसको लीला
कहते हैं।
लीला
का मतलब कि बस
खेल है।
ज्यादा मूल्य
मत देना।
ज्यादा अर्थ
मत दे देना।
बस खेल है।
फिर सपना साधु
का हो कि सपना
असाधु का, सपना सपना
है। जिस दिन
जाग जाओगे उसी
दिन अंत हो
जायेगा। जब
जागे तभी अंत
हो गया सारे
सपनों का।
मैं
कर्ता हूं, वह स्वप्न
का भाव है; मैं
साक्षी हूं, यही जागरण
की अवस्था है।
सरहपा
कहते हैं:
जैसे घोर
अंधकार में
चंद्रमणि
उजेला कर देती
है, इसी तरह
यह अपूर्व
महासुख एक
क्षण में ही
संपूर्ण
दुश्चरित्रों
का नाश कर
देता है। अगर
दुश्चरित्र
सचमुच हुए
होते तो फिर
एक क्षण में
नष्ट नहीं हो
सकते थे। फिर
तो समय लगता।
अगर घाव सच
में हों तो भरने
में समय
लगेगा। लेकिन
घाव अगर
भ्रांति ही हो
तो जिस दिन
भ्रांति मिट
गई, उसी
क्षण भर गया।
अगर सांप सच
ही रास्ते पर
हो तो भगाने
में समय लगेगा,
मारने में
समय लगेगा, लेकिन अगर
रस्सी ही हो
और सांप
प्रतीत हुआ हो
अंधेरे में, तो दीये के
जलते ही
समाप्त हो
गया। था ही
नहीं, इसीलिये
समाप्त हो गया
क्षण-भर में।
जो नहीं था, वही क्षण भर
में समाप्त हो
सकता है। जो
था, वह
क्षण-भर में
समाप्त नहीं
हो जायेगा।
जितने समय था,
उतना ही
लंबा समय
लगेगा उसे
समाप्त करने
में। असली
बीमारी हो तो
इलाज करवाना
पड़ेगा; नकली
बीमारी हो तो
किसी बाबा की
विभूति से ठीक
हो जायेगी।
बीमारी नकली
है, नकली
इलाज काम कर
जायेगा।
एक
पागल आदमी को
मेरे पास लाया
गया एक बार।
उसका पागलपन
कोई बहुत बड़ा
नहीं था, छोटा
था, मगर मुश्किल
में तो डाल ही
दिया था उसको।
उसको यह भ्रांति
हो गई थी कि एक
मक्खी उसके
भीतर घुस गई है।
वह मुंह खोलकर
सोता है तो एक
मक्खी भीतर चली
गई। और वह
भिन-भिन
भिन-भिन उसके
भीतर घूमती रहती
है। कभी सिर
में, कभी
पेट में, कभी
हाथ में, कभी
पैर में। और
कुछ पागलपन
नहीं था उसको,
बाकी सब काम
करता सब करता।
मगर यह एक
झंझट थी उसको
काम करते-करते
ही बीच में ही
पेट पकड़कर बैठ
जाये कि पेट
में, कि
सिर पकड़कर बैठ
जाये कि सिर
में, अभी
सिर में आ गई।
उसको
डाक्टरों के
पास ले जाया
गया।
उन्होंने सब
तरह से उसकी
परीक्षा की कि
कहीं ऐसे कोई
मक्खी घुसती
है और ऐसे
मक्खी घुस भी
जाये तो मर जायेगी, ऐसे कहां
घूमती रहेगी?
ऐसे कोई
स्थान थोड़े ही
हैं कि सिर से
चली गई पेट
में और पेट से
चली गई...कोई
ऐसी सुरंगें
थोड़े ही हैं? मगर वह माने
ही न। वह कहे
कि हम आपकी
मानें कि अपने
अनुभव को
मानें? भन-भन
करती है, आवाज
साफ मालूम
होती है।
चलती-फिरती
मालूम होती है,
सरकती
मालूम होती
है।
उन्होंने
कहा: यह सब
तुम्हें वहम
है। मगर वहम कहने
से कोई वहम
मिटता है? उसकी पत्नी
थक गई, परेशान
हो गई। मेरे
पास...किसी ने
कहा कि उनके पास
ले चलो। मैंने
कहा: यह भी बड़ी
झंझट है। ऐसा
मामला मेरे
सामने अभी आया
नहीं कोई, मगर
कोशिश करते
हैं। मैंने उस
आदमी को कहा
कि कहां है इस
समय? तो
उसने कहा:
मेरे सिर में।
तो मैंने उसके
सिर में हाथ
लगाया। और
मैंने कहा कि
भन-भन तो मुझे भी
सुनाई पड़ती
है। वह एकदम
खुश हो गया।
उसने मेरे पैर
छुए। उसने कहा
कि आप एक पहले
आदमी हैं
जिसमें थोड़ी
बुद्धि है।
नाहक फीस...।
अपनी
पत्नी से कहा:
सुन! उन
डाक्टरों को
फीस देती फिरी, वैद्यों को
फीस देती फिरी,
समय खराब
करती
रही।...मैं
तेरे से कह
रहा था कि मक्खी
है। अब सुन!
पत्नी
तो बहुत डरी
जब
मैंने...मैंने
पत्नी को इशारा
किया कि तू
फिकिर मत कर।
वह बहुत डरी
कि मैंने और
अब एक मुसीबत बढ़ा
दी। अब यह
कहेगा कि अब
तो बिलकुल
पक्का ही हो
गया। मैंने
उससे कहा कि
तू चुप रह, मुझे काम
करने दे।
लेकिन मेरी
दोस्ती बन गई
उस पागल से।
और पागलों से
पहले दोस्ती
बनानी जरूरी
होती है। तुम
देखते न, संन्यास
देता हूं!
इलाज के पहले
दोस्ती बना
लेनी जरूरी
होती है।
मैंने
उसको कहा कि
तू बिस्तर पर
लेट, जरा
मक्खी को
घूमने दे सब
तरफ, मैं
देखूं कहां है,
कहां किस
तरफ से निकाली
जाये। आंख बंद
कर दी उसकी।
उसकी आंखों पर
एक टावल उढ़ा
दिया और मैंने
कहा कि तू
शांति से
लेटकर देखता
रह कि कहां है
और जब भी मैं
पूछूं तो
बताना कि यहां
है, इस
वक्त यहां है,
इस वक्त
यहां है, इस
वक्त यहां है।
वह बड़ा खुश
हुआ। पहली दफा
किसी ने उसको
स्वीकार
किया। उसका
चित्त शांत हुआ।
मैं भागा घर
में कि कहीं
से एक मक्खी
पकडूं, क्योंकि
जब तक उसके
सामने मक्खी न
पकड़ी जाये तब
तक वह मानेगा
नहीं, माननेवाला
आदमी नहीं है।
मैं
बामुश्किल एक
मक्खी पकड़
पाया। मक्खी
को एक बोतल
में बंद करके
उसके पास
बैठा। उससे
पूछा अब कहां
है, अब
कहां है, अब
कहां है। जब
उसने कहा कि
बिलकुल इस
वक्त गले के
पास है। मैंने
कहा कि तू
अपना मुंह खोल
और जोर से हवा
को बाहर फेंक।
उसने बड़े जोर
से हवा को बाहर
फेंका। और
मैंने कहा, पकड़ी गई।
उसकी आंख से
परदा उठाया, कहा कि देख
यह मक्खी है।
उसने कहा: यह
बोतल मुझे दो।
अब मैं उन सब
नालायकों को
जाकर
दिखाऊंगा!
जिंदा मक्खी
है! चलेगी
नहीं तो क्या
होगा?
मगर
उसकी भीतर की
मक्खी खतम हो
गई! वह सब
डाक्टरों को
दिखाने गया।
डाक्टरों ने
भी कहा कि अब
हम क्या करें
यह! उनको भी
पता नहीं कि
राज क्या है, सिर्फ उसकी
पत्नी जानती
है। मैंने
उसकी पत्नी को
कहा कि कभी
भूलकर मत
बताना कि जो
किया है मैंने,
क्योंकि
जिस दिन भी
तूने बताया
उसी दिन यह
वापिस इसकी
मक्खी भीतर आ
जायेगी। सो वह
भी चुप है, वह
भी कुछ बोलती
नहीं। पति
कितना ही डींग
मारता है, वह
चुपचाप रहती
है कि ठीक है।
उसे पता है
राज कि न कोई
मक्खी थी, न
कोई मक्खी कभी
निकाली गई--एक
भ्रांति थी।
भ्रांतियां
क्षण में टूट
जाती हैं।
तुमने कोई
संसार किया थोड़े
ही है--सिर्फ
सोचा है।
इसलिये तो मैं
नहीं कहता कि
तुम जाकर जंगल
चले जाओ, घर-द्वार
छोड़ दो। यह तो
सपना बदलना
होगा। इधर बाजार
का सपना देखते
थे, वहां
जाकर गुफा का
सपना देखने
लगोगे; इससे
भेद कहां
पड़ेगा? चोर
को सपने में
समझा-बुझाकर
साधु करवा
दिया, वह
मुनि हो गये; मगर इससे
क्या होगा, सपने वहीं
के वहीं हैं!
पहले चोर थे, अब मुनि हो
गये। साक्षी न
पहले थे, न
साक्षी अब
हैं। तुम भेद
को समझ लो ठीक
से। साक्षी जो
हुआ उसने ही
राह पकड़ी
परमात्मा की।
और साक्षी
होने के लिये
जंगल जाना
जरूरी थोड़े ही
है। साक्षी तो
कहीं भी हो सकते
हो। साक्षी ही
होना है तो
जंगल के हुए
कि बाजार के
हुए; साक्षी
ही होना है तो
झोपड़े के हुए
कि महल के हुए;
साक्षी ही
होना है--तो
इससे क्या भेद
पड़ता है किसके
हुए? आग्रह
क्या कि महल
हो कि झोपड़ा
हो? महल हो
तो महल चलेगा
और झोपड़ा हो
तो झोपड़ा चलेगा।
काम ही अलग हो
गया।
लेकिन
तुम्हारे
साधु-संत
तुम्हें समझा
रहे हैं महल
छोड़ो, झोपड़े
में रहो; जैसे
झोपड़ा सच है
और महल झूठा
है! वे समझा
रहे हैं कि दो
दफे भोजन न
करो, एक
दफे भोजन करो;
जैसे दो दफे
भोजन करना
सपना है और एक
दफे भोजन करना
सत्य है! वे कह
रहे हैं पत्नी
छोड़ो, बच्चे
छोड़ो। हां, शिष्य-शिष्याएं
इकट्ठी करो
चलेगा; जैसे
कि
पत्नी-बच्चे
सपना हैं और
शिष्य-शिष्याएं
सपना नहीं
हैं! और मजा यह
है कि यही
शिष्य-शिष्याएं
किसी के
पति-पत्नी
हैं। यह बड़ा
मजा है कि
किसी का पत्नी
होना सपना है
और किसी की
शिष्या हो
जाना सपना
नहीं है!
सब
संबंध सपने
हैं तो फिर
जहां हो वहीं
जाग जाओ, फिर
भाग-दौड़ क्या
करनी! कहीं
आना-जाना क्या
करना!
जंगल
की तलाश न करो, साक्षी की
तलाश करो, शून्य
की तलाश करो।
और वह
तुम्हारे
भीतर है; उसके
लिये हिमालय
नहीं जाना है।
यह
न उम्मीदी यह
बे यकीनी, यकीनो-उम्मीद
की झलक हैं।
इन्हीं
अंधेरों को
पार करके
यकीनी की
रोशनी मिलेगी।।
हज़ार
हो राख
कल्बे-सागर, मगर इसी राख
में है जौहर।
तलाश
जब अहले-दिल
करेंगे, शरर
की दुनिया दबी
मिलेगी।।
इसी
राख के भीतर
अंगारा दबा
पड़ा है।
न-उम्मीद न हो
जाओ, उदास न हो
जाओ, हताश
न हो जाओ। यह न
उम्मीदी यह बे
यकीनी, यकीनो-उम्मीद
की झलक हैं।
इसी उदासी के
भीतर सब पड़ा
है। तुम्हारे
भीतर सब पड़ा
है। इन्हीं सपनों
के भीतर सब
पड़ा है। सपनों
में दबा सत्य
पड़ा है।
इन्हीं
अंधेरों को
पार करके यकीन
की रोशनी
मिलेगी। इसी
अंधेपन को तोड़
दोगे तो आस्था
की आंखें मिल
जायेंगी।
हज़ार
हो राख
कल्बे-सागर
मगर इसी राख
में है जौहर।
तलाश
जब अहले-दिल
करेंगे, शरर
की दुनिया दबी
मिलेगी।
कितनी
ही राख हो, फिकिर न करो;
इसी राख में
कहीं दबा हुआ
अंगारा है।
जरा तलाश
करोगे, मिल
जायेगा।
अंधकार घना है,
अंधकार
तोड़ना है। मगर
अंधकार सिर्फ
एक ही ढंग से
तोड़ा जा सकता
है कि भीतर की
ज्योति से
हमारा संबंध
हो जाये। बाहर
के अंधकार को
बाहर की रोशनी
से तोड़ा जा
सकता है।
लेकिन अंधकार
तुम्हारे
भीतर छा गया।
भीतर के
अंधकार को
भीतर की रोशनी
से ही तोड़ा जा
सकता है।
चिराग़ेऱ्हुस्न
जलाओ बहुत
अंधेरा है।
नकाब
रुख़ से हटाओ
बड़ा अंधेरा है।
अंधेरा
बड़ा है। तुम
अपने चेहरे से
अगर नकाब उठा
लो तो रोशनी
हो जाये।
अंधेरा बहुत
घना है, लेकिन
अगर प्रेम का
दीया जल जाये
तो रोशनी हो जाये।
चिराग़ेऱ्हुस्न
जलाओ, बहुत
अंधेरा है।
तुम्हारे
भीतर जो
सौंदर्य छिपा
है, उसको
जरा प्रगट
होने दो। वही
है चंद्रमणि।
तुम्हारे
भीतर जो प्रेम
दबा पड़ा
है--वही है
अंगारा! और तुम
अपने को
ओढ़े-ढांके
बैठे हो, हटाओ
इसे!
जिसे
ख़िरद की ज़बां
में शराब कहते
हैं।
वह
रोशनी-सी
पिलाओ, बड़ा
अंधेरा है।
मस्ती
पीनी है। उस
मस्ती के पीने
का नाम ही भजन
है, कीर्तन
है, ध्यान
है। लेकिन अगर
बिना मस्ती के
हो तो सब
क्रियाकांड
है। और सरहपा
क्रियाकांड के
बहुत विरोधी
हैं; जैसे
कि सभी जानने
वाले विरोधी
रहे हैं, रहेंगे!
जैसे किसी को
तुम गले से
लगाओ, गले
से लगाने के
लिए कोई प्रेम
का होना जरूरी
नहीं है।
अभिनेता भी
एक-दूसरे को
गले से लगाते
हैं मंच पर।
तुम भी लगा
लेते हो। तो
आलिंगन
क्रियाकांड
हो गया अगर
भीतर प्रेम
नहीं है। और
अगर भीतर
प्रेम हो और
फिर तुम किसी
को गले से
लगाओ तो बात
कुछ और हो गई।
अब तुम
हड्डियों से
हड्डियां ही
नहीं लगा रहे
हो, अब
आत्मा से
आत्मा भी निकट
आ रही है। मगर
ऊपर से देखने
पर तो दोनों
एक जैसे मालूम
पड़ते हैं।
चाहे कोई बिना
प्रेम के गले
लग रहा हो और
चाहे कोई
प्रेम से गले
लग रहा हो, बाहर
के दर्शक को
तो दोनों
एक-से मालूम
होते हैं।
तस्वीर
उतारोगे, दोनों
की तस्वीर
एक-सी आयेगी, तस्वीर में
कुछ भेद न
पड़ेगा।
यही
एक अड़चन है।
मीरा भी नाची
और जिस पुजारी
को तुम सौ
रुपये महीने
पर रख लेते हो, वह भी आकर
तुम्हारे
मंदिर में नाच
जाता है। मीरा
ने भी आरती
उतारी, मगर
उस आरती में
आत्मा के दीये
जलते थे। और
तुम्हारा
पुजारी जिसे
तुमने नौकर रख
लिया है, वह
भी आरती
उतारता है।
अगर तुम देख
रहे हो तो जरा
देर तक उतारता
है; तुम
अगर न देख रहे
होओ तो जल्दी
से
फूंक-फांककर
भागता है, क्योंकि
और दूसरे के
घर भी उसको
उतारनी है। अभी
और मंदिर पड़े
हैं।
नौकरों
से कहीं
प्रार्थनाएं
हुई हैं! और
तुम खुद भी
इसी तरह
प्रार्थना
करते हो। जिस
दिन मतलब होता
है उस दिन
देखो, किस
तरह पुकारते
हो परमात्मा
को! जिस दिन
मतलब नहीं
होता उस दिन
जल्दी निपटा
देते हो।
एक
छोटे-से बच्चे
से कोई पूछ
रहा था कि तू
रात प्रार्थना
करके सोता है? वह बोला कि
हां। और सुबह
भी प्रार्थना
करके उठता है?
उसने कहा कि
नहीं। तो उसने
पूछा: यह कैसे?
तेरी मां ने
तुझे रात ही
प्रार्थना
करनी सिखाई है,
सुबह नहीं?
मां ने तो, उसने कहा, दोनों दफे
सिखाई है, लेकिन
रात मुझे डर
लगता है सो
मैं
प्रार्थना करता
हूं; सुबह
मुझे किसी का
डर नहीं लगता,
तो क्यों
प्रार्थना
करूं।
छोटा
बच्चा जो कहा
रहा है वही
बड़ों के भीतर
भी छिपा है।
ये बड़ी उम्र
के बच्चे हैं, कुछ भेद
नहीं है। जब
जरूरत होती है
तो मंदिर चले
आते हैं। मुसीबत
होती है तो
हनुमान जी के
मंदिर पहुंच
गये--कि
नारियल
चढ़ाऊंगा, कि
ऐसा करूंगा, कि वैसा
करूंगा। और
पक्का मत
समझना कि इनकी
मुसीबत हल हो
जाये तो ये
याद ही
रखेंगे।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
लौट रहा था
यात्रा से, हज करके लौट
रहा था। जहाज
डूबने लगा, पानी का
जहाज...पुराने
जमाने की
कहानी। बड़ी मुश्किल
हो गई, ऐसा
तूफान कि सारे
लोग बस आखिरी
नमाज करने बैठ
गये। मुल्ला
ने भी आखिरी
नमाज की। अब
सब जा ही रहा
था तो उसने
कहा कि हे
प्रभु, अगर
बचा ले तो सब
दे दूंगा, मैंने
वह जो नौ लाख
की अटारी
बनवाई है वह
भी दे दूंगा।
और
लोग भी चौंके
सुनकर, क्योंकि
वह नौ लाख की
अटारी तो
मुल्ला
दीवाना था
उसके पीछे। वह
दे देगा उसको,
दान कर देगा,
यह किसी को
भरोसा न आया, लेकिन अब
ऐसे कठिन क्षण
में परमात्मा
को भी लालच-लोभ
देना पड़ता है।
कोई खुशामद
यहीं थोड़ी
चलती है, लोग
सोचते हैं
वहां भी चलती
है। कोई
रिश्वत यहीं
थोड़े ही चलती
है, लोग
सोचते हैं
वहां भी चलती
है तो उतने
सारा दांव लगा
दिया। उसने
कहा कि नौ लाख
की अटारी देखते
हो, जिंदगी
लगा दी इसको
बनाने में, दान कर
दूंगा, गरीबों
में बांट
दूंगा! संयोग
की बात, नाव
बच गई। अब
मुल्ला
परेशान हुआ।
लोग भी कहने
लगे के मुल्ला
सबने सुन लिया
है और हज करके
आ रहे हो, कुछ
खयाल करना। अब
मुल्ला बड़ी
मुश्किल में
है। मन में तो
होने लगा कि
नाव डूब ही
जाती तो अच्छा
था। यह कहां
की झंझट मोल
ले ली! मगर कहा
कि ठीक एक दफे
किनारे पर
पहुंच जायें
फिर देखेंगे।
किनारे पर
पहुंचकर वह
टाला-टूल करने
लगा कि अब
करेंगे, तब
करेंगे।
खोज-बीन में
रहा कि कोई
तरकीब निकाल
लें। आखिर
सारे गांव ने
इकट्ठे होकर
कहा कि भाई यह
बात ज्यादती
की है। गांव
को भीर् ईष्या
तो हो ही रही
थी, वह नौ
लाख की अटारी
देखकर सभी की
छाती जली जा
रही थी। ऐसा
मौका कोई
छोड़ना भी नहीं
चाहता था कि
अब इसकी ठीक
से लानत-मलामत
करो...या तो दान
करो इसको या
स्वीकार करो
कि तुम अपराधी
हो। परमात्मा
को कहकर और
मुकर रहे हो। मगर
मुल्ला भी एक
होशियार! उसने
कहा कि दान करेंगे।
कल सुबह अटारी
नीलाम करते हैं
और जो पैसा
आयेगा गरीबों
में बांट
देंगे।
दूसरे
दिन अटारी
नीलाम हुई, मगर एक बड़ी
हैरानी हुई, सारे गांव
के लोग इकट्ठे
हो गये देखने
इसको। दूर-दूर
से लोग खरीदने
वाले आये।
मुल्ला ने कहा
कि यह रही
अटारी! और
अटारी के
सामने बांध दी
एक बिल्ली।
लोगों ने
पूछा: यह बिल्ली
किसलिये? उसने
कहा कि ये
दोनों साथ ही
बिकेंगे।
बिल्ली के दाम
नौ लाख रुपया
और अटारी का
दाम एक रुपया।
लोगों ने कहा:
हद कर रहे हो, बिल्ली के
दाम नौ लाख
रुपया! नौ लाख
की अटारी है, तुमसे भूल
हो रही है।
उसने कहा: भूल
मुझसे कुछ नहीं
हो रही; जो
मैं कह रहा
हूं वह यह है।
दोनों साथ
जिसको खरीदने
हों खरीद ले; नौ लाख की
बिल्ली है, एक रुपये की
अटारी। लोगों
ने सोचा: हमें
क्या मतलब कि
बिल्ली में
दाम लगे कि
अटारी में, नौ लाख की
अटारी मिलती
है और एक
रुपये की बिल्ली
चलेगी। लोगों
ने तो यह सोचा
कि हमें क्या
लेना-देना है
खरीददारों ने
खरीद ली। मगर
गांव बड़ा
हैरान था कि यह
मामला क्या
है! जब सब खरीद
लिये, नौ
लाख तो मुल्ला
ने अपनी जेब
में रखे और एक
रुपया दान कर
दिया।
देखते
हो
चालबाजियां, आदमी की
बेईमानियां!
परमात्मा को
भी मौका आ जाये
तो धोखा देने
में वह छोड़ेगा
नहीं।
परमात्मा भी
रह गया होगा
सिर पीटकर।
उसने भी सोचा
होगा: वाह! वाह
बड़े मियां!
हमने भी न
सोचा था कि
ऐसी तरकीब निकाल
पाओगे।
एक
छोटे बच्चे को
उसकी मां ने
दो चवन्नियां
दीं और कहा कि
एक तो हनुमान
जी के मंदिर
में चढ़ा देना
और एक तू रख
लेना। वह चला, दो
चवन्नियां
उछालता हुआ
बड़ी मस्ती
में। एक
चवन्नी गिरी
जमीन पर सरकी
और नाली में
चली गई।
बच्चे
ने कहा कि
हनुमान जी, अपनी तुम
सम्हालो। अब
मैं तो नाली
में कहां जाऊं,
लेकिन आप तो
सर्वव्यापी
हैं, अंतर्यामी
हैं, सर्वशक्तिमान
हैं, सर्वव्यापक
हैं। जाओ तुम
अपनी सम्हालो,
मैं अपनी
सम्हालता
हूं।
आदमी
दुख में हो, परेशानी में
हो, तो
परमात्मा को
याद कर लेता
है, मगर
उसमें भी
चालबाजी उसकी
कायम रहती है।
अंधेरा
बहुत है, क्रियाकांड
से नहीं
मिटेगा, जीवंत
मस्ती चाहिए।
जिसे
ख़िरद की ज़बां
में शराब कहते
हैं,
वह
रोशनी-सी
पिलाओ बड़ा
अंधेरा है।
इन
शब्दों से वही
रोशनी पियो।
ये मस्तों के
वचन हैं। यह
दीवानों की
वाणी है।
जब्बे
मण अत्थमण जाइ
तणु तुट्टइ
बन्धण।
तब्बे
समरस सहजे
वज्जइ णउ सुछ
ण बम्हण।।
"जिस
क्षण यह मन
अस्त या विलीन
हो जाता है उस
क्षण सारे
बंधन टूट जाते
हैं। उस समरस
सहज अवस्था
में कुछ भी भेद
नहीं रहता--न
शूद्र का न
ब्राह्मण का।'
जहां
मन अस्त हो
जाता है या
विलीन हो जाता
है वहीं समाधि
है।
मन
क्या है? जो
तुम्हें
दूसरों ने
दिया है, उसका
जोड़ मन है। जो
तुम हो, वह
समाधि है।
तुम्हारी
समाधि दूसरों
के द्वारा
दिये गये कचरे
में दब गई है।
इस मन को विदा करो।
जो भी तुम
सोचते हो, मन
है। जो भी तुम
विचारते हो, मन है।
लेकिन वह जो
मन का भी
साक्षी है, न तो सोचता न
विचारता--वह
तो सिर्फ
देखता है। एक
विचार उठा
तुम्हारे
भीतर, एक
विचार उठा, अच्छा या
बुरा कैसा भी
हो, एक
विचार
उठा--तुम
देखते हो उस
विचार को उठते,
उसको रूप
लेते, उसको
बनते, सघन
होते, उसको
जाते, विदा
होते। वह
देखने वाला
तुम हो। और वह
जो विचार है
वह तो बाहर से
आ रहा है।
तुम
जानकर हैरान
होओगे कि तुम
जब किताब पढ़ते
हो तभी विचार
बाहर से आता
है ऐसा नहीं; और जब कोई
तुम्हारे मन
में कोई विचार
डाल जाता है
तब विचार बाहर
से आता है ऐसा
नहीं--विचार
बड़े परोक्ष
मार्गों से भी
आते हैं।
कभी-कभी तुम
बैठे होते हो
शांत और अचानक
उदासी घेर
लेती है। कोई
कारण नहीं
दिखाई पड़ता।
हो सकता है
कोई उदास आदमी
पास से गुजर
गया, उसकी
उदासी की तरंग
तुम में
प्रवेश कर गई।
मन बहुत
संवेदनशील
है। वह प्रत्येक
चीज को पकड़
रहा है। कभी
तुम्हें ऐसा होता
है कि किसी
आदमी के पास
जाते हो और
जाते से ही
प्रसन्न हो
जाते हो; न
उसने कुछ कहा,
न कुछ बोला।
किसी के पास
जाकर अच्छा
लगता है, बस
उसके पास
अच्छा लगता है
और किसी का
मिलना ही
घबड़ाहट पैदा
कर देता है।
उनके दर्शन ही
पर्याप्त
होते हैं कि
तुम्हारा
दिन-भर खराब हो
जाये। तुम
जानते हो इस
तरह के लोगों
को कि उनसे
मिलना हो जाये
तो घंटे दो
घंटे के लिये
चित्त खिन्न
हो जाता है। न
उन्होंने
तुम्हें गाली
दी, न
तुम्हारा
अपमान किया, न कुछ बुरा
किया, न
कोई बुरी बात
कही--बस मिल
गये! रास्ते
पर नमस्कार हो
गई उनसे और
कुछ हो जाता
है।
प्रत्येक
व्यक्ति
प्रतिक्षण
अपने विचारों को
ब्राडकास्ट
कर रहा है। जब
तक रेडियो
नहीं था तब तक
तुम्हें खयाल
भी नहीं था कि
तुम्हारे पास
से विचारों की
तरंगें गुजर
रही हैं। अभी
गुजर रही हैं।
अभी रेडियो
लगा दो यहां, तो अभी पता
चल जाये कि
दिल्ली के
पागल दिल्ली में
क्या कर रहे
हैं! मगर
रेडियो न लगाओ
तो कुछ पता
नहीं चलता।
रेडियो पकड़ता
है जो मौजूद
है उसको। वे
तरंगें गुजर
ही रही हैं।
तुम्हारा चित्त
भी सारी
तरंगों को
पकड़ता रहता
है--अनजाने। तुम
प्रतिपल
तरंगों के
प्र्रभाव में हो।
तुम उठो-बैठो,
चलो-फिरो, लेकिन तुम
तरंगों के
सागर हो। जैसे
मछली पानी में,
ऐसे तुम
तरंगों के
सागर में हो।
और तुम इतने बलशाली
नहीं हो अभी।
तुम अपने
मालिक नहीं हो
अभी, कि
तुम जिस तरंग
को लेना चाहो
लो और जिस
तरंग को न
लेना चाहो न
लो। वैसी
मालकियत तो
साक्षी की
होती
है--सिर्फ
साक्षी की!
तुम तो जल्दी
से कुछ भी पकड़
लेते हो। कुछ
भी कूड़ा-करकट
तैरता हुआ हवा
में आ जाता है
और सिर
तुम्हारा पकड़
लेता है। और न
केवल तुम पकड़
लेते हो--तुम
कहने लगते हो:
यह मेरा
विचार! न केवल
इतना कहते
हो--तुम लड़ने-झगड़ने
को राजी, मारने-मरने
को राजी: यह
मेरा विचार, कि तुमने
मेरे विचार का
खंडन कर दिया!
विचार
किसी के नहीं
होते। विचार
तो सामूहिक हैं।
विचार तो भीड़
के हैं। कोई
विचार मौलिक
नहीं होता।
भूलकर भी मत
सोचना कि कोई
विचार तुम्हारा
है। तुम तो
निर्विचार
हो।
"जिस
क्षण यह मन
अस्त या विलीन
हो जाता है, उस क्षण
सारे बंधन टूट
जाते हैं।' बस इतनी-सी
ही बात है। यह
मन ही तुम्हें
बांधे है। यह
मन गया कि
बंधन गये। यह
मन ही
तुम्हारी जंजीरें
हैं। इस मन
में ही
तुम्हारा
कारागृह है।
यह मन ही है
दीवाल, जिसके
भीतर तुम बंद
हो। इस मन के
हटते ही खुला आकाश
तुम्हारा है,
सारा
अस्तित्व
तुम्हारा है।
और
जब न कोई
विचार रह जाये
तो स्वभावतः
समरस सहज
अवस्था पैदा
होती है। एक
ही रस बहता
रहता है--न सुख
न दुख। एक ही
स्वाद, एक
ही सुगंध। कहो
उसे परमात्मा
की सुगंध या
सत्य की सुगंध
या निर्वाण की,
पर एक ही।
समरस! जरा भी
विषम नहीं। एक
ही स्वर
गूंजता रहता
है--ओंकार का
नाद! फिर न कोई
ब्राह्मण है न
कोई शूद्र।
फिर सारे भेद
गिर गये।
क्योंकि वे भी
विचार के ही
भेद हैं।
तुम्हें बता
दिया कि तुम
ब्राह्मण हो,
तो तुम
ब्राह्मण हो
गये। तुम्हें
कोई बता देता
बचपन से ही कि
तुम शूद्र हो
तो तुम शूद्र
हो जाते। बताई
गई बात है।
लेकिन बताई गई
बातों पर कितने
उपद्रव चलते
हैं!
यह
बीसवीं सदी चल
रही है और इस
देश का
दुर्भाग्य कि
अभी भी यहां
शूद्र जलाए जा
रहे हैं--जिंदा
जलाये जा रहे
हैं! आदमियों
को जिंदा जला
रहे हो, सिर्फ
एक लेबिल लगा
दिया शूद्र
का! आदमियों
को कुओं पर पानी
नहीं मिल रहा
है, क्योंकि
वे कुएं
ब्राह्मणों
के हैं! और ये
देश अपने को
धार्मिक देश
कहता है। यह
कैसा धार्मिक
देश है? यह
कैसा
लोकतंत्र है?
यह कैसी
नपुंसक सरकार
है? जिंदा
आदमी जलाये जा
रहे हैं और
जूं नहीं रेंगती
सरकार के ऊपर!
यह बड़ी
अमानवीय दशा
है और मजा यह
है कि मामला
ही इतना-सा है
कि सिर्फ
लेबिल लगा
दिया एक आदमी
पर।
तुम
देखते हो न, कोई आदमी
आये और
चंदन-मंदन
लगाये, तुम
जल्दी से
झुककर पैर छू
लेते हो, चाहे
वह शूद्र हो!
और अगर
ब्राह्मण भी
आकर कह दे कि
मैं चमार हूं,
तुम जरा सरक
कर खड़े हो
जाते हो।
तुम्हें ब्राह्मण
से और चमार से
थोड़े ही मतलब
है। तुम्हें मतलब
सिर्फ शब्द से
है। लेबिल
पर्याप्त है।
चीजों पर
लेबिल लगाना
हो तो ठीक है, क्योंकि
चीजों पर
लेबिल न हों
तो बड़ी
मुश्किल हो
जाये। अब
दुकान पर
दवाइयां
बेचनेवाले को
लेबिल तो
लगाने ही
पड़ेंगे। तो
चीजों पर तो
ठीक है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन अपने चौके
में ढूंढ रहा
है। उसकी
पत्नी
चिल्लाई कि
तुम्हें आधा घंटा
हो गया ढूंढते, तुम्हें अभी
तक शक्कर का
डब्बा नहीं
मिला! उसने
कहा कि मैं
सारे डब्बे
देख रहा हूं।
उसने
कहा कि जिस
डब्बे पर
मिर्ची लिखी
है वह शक्कर
का डिब्बा है।
अब जब मिर्ची
लिखी हो तो
बेचारा लेबिल
से चल रहा है। मिर्ची
लिखी है, इसलिये
उसमें देख ही
नहीं रहा है।
डब्बों पर तो
ठीक है, मिर्ची
हो तो मिर्ची
लिखना चाहिये
और शक्कर हो
तो शक्कर
लिखनी चाहिये;
मगर
आदमियों पर तो
एक ही
परमात्मा
है--न तो कोई शूद्र
है न कोई
ब्राह्मण।
आदमियों पर
लेबिल मत
लगाओ। आदमी
कोई वस्तु
नहीं है। आदमी
कोई बाजार में
बिकनेवाला
सामान नहीं है।
लेबिल मत
लगाओ। आदमी से
लेबिल हटा लो।
यह समस्त
समाधिस्थ
पुरुषों ने
कहा है, फिर
भी तुम सुनते
नहीं। और
लेबिल लगाकर
कितना उपद्रव
मचाते हो!
मैं
फकत इन्सान
हूं, हिंदू-मुसलमां
कुछ नहीं।
मेरे
दिल के दर्द
में
तफरीके-ईमां
कुछ नहीं।।
जो
थोड़ा-सा भी
जागेगा वह
कहेगा कि न तो
मैं मुसलमान
हूं न
हिंदू--मैं
फकत इंसान
हूं। इतना काफी
है कि मैं
मनुष्य हूं।
मेरे दिल के
दर्द में
तफरीके-ईमां
कुछ नहीं।
मेरे मन में न
कोई भेद-भाव
हैं, न कोई
पक्षपात हैं।
और जो अभी
इंसान भी नहीं
है, वह
धार्मिक कैसे
हो सकेगा? और
जो अभी इंसान
भी नहीं है, वह तो
परमात्मा की
तरफ आंखें
कैसे उठा
सकेगा? लोगों
को तुमने
चीजें बना
दिया है!
न
हिंदू, न
गबरू मुसलमां
बनो।
अगर
आदमी हो तो
इंसा बनो।।
नहीं
तो हलाकत में
ढल जाओगे।
खुद
अपने जहन्नुम
में जल
जाओगे।।
"न
हिंदू, न
गबरू मुसलमां
बनो।' न तो
अग्नि-पूजक
बनो, न
मुसलमान न
हिंदू। अगर
आदमी हो तो
इंसा बनो। एक
ही बात बनने
जैसी है: आदमी
हो तो आदमी ही
बन जाओ। आदमी
ही नहीं बन पा
रहे हो और
तुम्हारे हिंदू-मुसलमान
होने के भेद
तुम्हें आदमी
नहीं बनने दे
रहे हैं। नहीं
तो हलाकत में
ढल जाओगे। बड़ा
पतन होगा। खुद
अपने जहन्नुम
में जल जाओगे।
जल ही रहे हो।
अपने ही पैदा
किये जहन्नुम
में आदमी जल
रहा है।
यह
जमीन सब की
है। यहां कोई
झगड़े की जरूरत
नहीं है। यह
आकाश सब का
है। यहां झगड़े
की कोई जरूरत
नहीं है। यहां
सीमाएं बनाने
की कोई जरूरत
नहीं है।
राष्ट्रों की
कोई जरूरत
नहीं है, मजहबों
की कोई जरूरत
नहीं है। और
मजहबों और राष्ट्रों
के विदा होते
ही इस पृथ्वी
पर गरीबी विदा
हो जाये और इस
पृथ्वी पर
हिंसा विदा हो
जाये और इस
पृथ्वी से
व्यर्थ के
युद्ध विदा हो
जायें। मगर वे
भेद हमारी जान
लिये ले रहे
हैं।
सत्तर
प्रतिशत
मनुष्य का
श्रम युद्धों
की तैयारी में
लग जाता है।
आदमी भूखा है
और सत्तर प्रतिशत
श्रम, सत्तर
प्रतिशत दौलत
आदमी जो पैदा
करता है वह मृत्यु
की सेवा में
लग जाती है।
तीस प्रतिशत
जीवन की सेवा
में और सत्तर
प्रतिशत
मृत्यु की
सेवा में। इस
आदमी को पागल
न कहोगे तो और
क्या कहोगे!
सौ प्रतिशत
जीवन की सेवा
में लगनी
चाहिए, तो
यह पृथ्वी आज
स्वर्ग हो
जाये।
नहीं
तो हलाकत में
ढल जाओगे।
खुद
अपने जहन्नुम
में जल
जाओगे।।
और
यह जहन्नुम बन
गया है। जमीन
पर जहन्नुम
बड़ा होता जा
रहा है। इतने
बम, अब तो
इकट्ठे हैं, और एटमबम, हाइड्रोजन
बम कि अब यह
जल्दी ही जलने
की तैयारी है,
अब ज्यादा
देर न लगेगी।
अब तो समय है
कि हम सारे
भेद छोड़ दें।
इस सारी
पृथ्वी को हम
एक घर घोषित
कर दें। घर यह
हो ही गया है।
टेक्नालाजी
के हिसाब से
पृथ्वी इतनी
छोटी हो गई है
कि अब
तुम्हारी
पुरानी
बकवासें बंद
करो।
अब
तो हालत ऐसी
है कि
न्यूयार्क
में नाश्ता करो, लंदन में
भोजन लो और
पूना में
बदहजमी
झेलो...इतना सब
करीब हो गया
है। अब इस बड़ी
दुनिया को बड़ा
मत कहो, बहुत
छोटी हो गई
है। इस छोटी
दुनिया में, इस छोटे-से
घर में अब
स्वर्ग उतर
सकता है। मगर
आदमी की
पुरानी आदतें
हैं, पुरानी
मूढ़ताएं पीछा
कर रही हैं।
और बजाये स्वर्ग
बनने के
पृथ्वी नर्क
बनती जा रही
है।
चीअ
थिर करि धरहु
रे नाइ। आन
उपाये पार ण
जाइ।
नौवा
ही नौका टानअ
गुणे। मेलि
मेलि सहजे
जाउण आणे।।
"हे
नाविक! चित्त
को स्थिर कर
सहज के किनारे
अपनी नौका
लिये चल।
रस्सी से
खींचता चल और
कोई दूसरा
उपाय नहीं है।'
हे
नाविक!...प्रत्येक
व्यक्ति
नाविक है अनंत
का। प्रत्येक
व्यक्ति माझी
है अनंत का और
प्रत्येक
जीवन नौका है।
हे नाविक!
चित्त को थिर
कर! बस करना
इतना है कि
चित्त की जो
अथिरता है, यह जो चित्त
में विचारों
का जंजाल है, ये जो चित्त
में विचारों
की तरंगें
हैं--ये विदा
हो जायें।
जैसे ही चित्त
में विचारों
की तरंगें न
रहीं, चित्त
न रहा। मन में
तरंगें न रहीं,
मन न रहा।
शांत मन जैसी
कोई चीज नहीं
होती, समझ
लेना। शांत मन
का अर्थ ही
होता है: अमन।
शांत मन का
अर्थ ऐसा नहीं
होता कि अब भी
मन है और शांत
है; जहां
शांति आई वहां
मन गया। मन
अर्थात
अशांति।
इसलिये
जो व्यक्ति
चित्त को थिर
कर लेता है वह
अचानक हैरान
होकर पाता है
कि चित्त के
थिर होते ही
चित्त गया।
चित्त तो
अथिरता का ही
दूसरा नाम था।
वह तो शोरगुल था।
वह तो विचारों
का ऊहापोह था।
वह तो चित्त में
चलते हुए
विचारों की
सतत धारा थी।
सब ठहर गई।
"हे
नाविक, चित्त
को थिर कर सहज
के किनारे!' बड़ा प्यारा
वचन है। सहज
के किनारे
अपनी नौका लिये
चल। और असहज
मत बनना, यह
सरहपा का मूलक
स्वर है, मूल
संदेश है, असहज
मत बनना।
तुम्हारे
जीवन की सहजता
मत खो देना।
अब
एक आदमी सिर
के बल खड़ा है, यह असहजता
है। यह कोई
साधना नहीं है,
यह सिर्फ
मूढ़ता है। अब
सिर के बल खड़ा
होना कृत्रिम
है, असहज
है। परमात्मा
ने चाहा होता
कि तुम्हें सिर
के बल खड़ा करे
तो उसने सिर
के बल ही
तुम्हें खड़ा
किया होता। अब
कोई आदमी
उलटे-सीधे आसन
कर रहा है, शरीर
को इरछा-तिरछा
कर रहा है; जैसे
कि शरीर को
इरछा-तिरछा
करने से कोई
समरसता
उपलब्ध हो
जायेगी! तुमने
जिंदगी को कोई
सर्कस समझा है?
ठीक है, सर्कस
में भर्ती
होना हो तो
शरीर को
इरछा-तिरछा
करना सीखो, उलटा-सीधा
करना सीखो। मगर
इससे कोई
समरसता पैदा
नहीं होगी।
हां, शरीर
चाहे स्वस्थ
भी हो जाये, शरीर शायद
बलिष्ठ भी हो
जाये, शायद
थोड़े वर्ष
ज्यादा भी
जिंदा रह जाओ,
मगर जिंदा
रहने से ही
क्या होने
वाला है? असली
सवाल तो भीतर
के शाश्वत को
जानना है, ज्यादा
दिन और कम दिन
जिंदा रहने की
बात नहीं है।
जिंदगी
शाश्वत है, इसको
पहचानना है।
सदा है; देह
के भीतर भी है
और देह के
बाहर हो जाती
है, तब भी
है--इसे
पहचानना है।
इसके पहचानने
के लिये केवल
शरीर को
उलटा-सीधा
करोगे!
मगर
इस तरह के
कामों में लोग
लगे हैं।
अजीब-अजीब काम
लोगों ने किये
हैं! किसी ने
कान फाड़ लिये
हैं। कनफटे
साधु! खूब मजा
है! कोई नंगा
खड़ा है; जैसे
कि नग्न होने
से कोई
परमात्मा मिल
जायेगा। कोई
बाल लोंच रहा
है, कि बाल
लोंचने से कोई
परमात्मा मिल
जायेगा! कोई
भूखा मर रहा
है, भूखा
मार रहा है।
किसको तुम
भूखा मार रहे
हो? तुम
परमात्मा को
ही भूखा मार
रहे हो, क्योंकि
वही तुम्हारे
भीतर है। कोई
अपने को कोड़े
मार रहा है।
ईसाइयों में
एक संप्रदाय
है फकीरों का,
जो रोज सुबह
उठकर अपने को
कोड़े मारते
हैं और जो
जितने ज्यादा
कोड़े मारता है
वह उतना बड़ा
संत समझा जाता
है। कई फकीरों
ने आंखें फोड़
ली हैं क्योंकि
आंख के कारण
रूप दिखाई
पड़ता है, तो
आंख फोड़ लो।
ये सब उलटे
धंधे हैं।
सरहपा
कहते हैं: सहज
के किनारे...।
जीवन को सहज प्राकृतिक
रखना, जरा
भी उलटा-सीधा
मत करना।
उलटा-सीधा
किया कि चूक
जाओगे।
परमात्मा तो
सहज ही मिल
जायेगा।
"सहज
के किनारे
अपनी नौका को
लिये चल।
रस्सी से खींचता
चल।'
यह
अनुवाद एक
अर्थ में ठीक
है, एक अर्थ
में ठीक नहीं
भी है।
नौवा
ही नौका टानअ
गुणे। गुण के
दो अर्थ होते हैं:
या तो रस्सी
या सदगुण।
यहां रस्सी
अर्थ नहीं हो
सकता। सदगुण
ही अर्थ होगा।
रस्सी का कहां
संबंध? यह
सहज का किनारा,
इस सहज के
किनारे पर
चित्त की, स्थिर
चित्त की नाव,
तो इसमें
सदगुण की
रस्सी।
सदगुण
का क्या अर्थ
होता है? सदगुण
का अर्थ होता
है: जो
तुम्हारे
सत्य से आविर्भूत
हो। झूठ मत
जीना, पाखंड
मत जीना। कुछ
भीतर कुछ बाहर,
ऐसे मत
जीना। जैसे
भीतर वैसे
बाहर। जो
व्यक्ति जैसा
भीतर है वैसा
बाहर है, ऐसा
जीता है--वह
सदगुणी है।
फिर जैसे भी
हो भीतर, फिकिर
मत करना, वैसा
ही बाहर जीना।
तो यही एक
रस्सी है
जिससे तुम
बांध सकते हो
चित्त की नौका
को। और दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
और इतना तुम
कर लो तो सब हो
जाये।
इतना
बुलन्द कर
नज़रे-जलवा-ख्वाह
को।
जलवे
खुद आयें
ढूंढने तेरी निगाह
को।।
अपनी
आंख को इतना
ऊंचा करो कि
उस परमात्मा
का सौंदर्य
खुद तुम्हें
खोजता हुआ
जाये। इतना बुलंद
कर
नज़रे-जलवा-खवाह
को! जलवा
देखने वाली नजर
को बड़ा करो।
चित्त को थिर
करो। जलवे खुद
आयें ढूंढने
तेरी निगाह
को। आते हैं!
मैं गवाही हूं!
आते हैं। जलवे
खुद खोजते चले
आते हैं।
परमात्मा खुद
खोजता चला आता
है। तुम पात्र
तो हो जाओ, परमात्मा
बरस उठता है, हजार-हजार
फूलों में
तुम्हारे
ऊपर।
मोक्ख
कि लब्भइ
ज्झाण
पविट्ठो।
किन्तह
दीवें किन्तह
णिवेज्जं।।
किन्तह
किज्जइ मन्तह
सेब्वं।।
किन्तह
तित्थ तपोवण
जाइ।
मोक्ख
कि लब्भइ पाणी
न्हाइ।।
"भला
ध्यान करने से
कहीं मुक्ति
होती?' कीमती
वचन है। ध्यान
करने से
मुक्ति नहीं
होती, क्योंकि
ध्यान करना
नहीं है।
ध्यान कृत्य
नहीं है, ध्यान
तो साक्षी-भाव
है। ध्यान में
हुआ जाता है, ध्यान किया
नहीं जाता।
ध्यान तो एक
समझ है, ध्यान
कोई कर्म नहीं
है। ध्यान तो
एक बोध है।
तुम ध्यान
थोड़े ही कर
सकते हो। हां,
ध्यान में
हो सकते हो ।
ध्यान एक
अंतर-अवस्था है,
जहां चित्त
थिर हो गया।
चीअ
थिर करि धरहु
रे नाइ । "हे
नाविक! चित्त
को थिर करो और
सहज के किनारे
अपनी नौका को
लिये चलो।' सदगुण की
रस्सी में
बांधकर। ऐसी
अवस्था में
ध्यान अपने-आप
फलित होता है।
ध्यान कोई कृत्य
नहीं है। लोग
सोचते हैं
ध्यान कृत्य
है। उससे
भ्रांति हो
जाती है। तो
लोग कहते हैं
कि अब ध्यान
करने बैठे
हैं। कोई अपनी
माला लिये है;
माला भी
फेरता जा रहा
है, बीच
में देखता भी
जा रहा है कि
दुकान पर कोई
ग्राहक तो
नहीं आ गया; कुत्ता भी
भगाता जा रहा
है, कि
कुत्ता आ गया
तो उसको भगाता
है; बच्चों
को भी इशारे
करता जा रहा
है कि स्कूल जाओ--और
माला भी फेर
रहा है! लोग
दुकान पर ही
बैठे रहते हैं
और अपनी थैली
में माला रखे
रहते हैं और
थैली में माला
चलती रहती है।
यह कृत्य हो गया
कि कोई
राम-राम, राम-राम,
राम-राम जप
रहा है। कुछ
लोग ऐसे जप
रहे हैं कि और
भी काम करते
जाते हैं और
राम-राम भी
जपते जाते
हैं। उनके ओंठ
चलते ही रहते
हैं यंत्रवत।
ये सब कृत्य
हैं।
ध्यान
कृत्य नहीं
है। ध्यान बोध
है। ध्यान जाग्रत
अवस्था है।
तो
ध्यान का अर्थ
साक्षी
समझना। तब तक
तो ठीक। अगर
तुमने कृत्य
समझा तो कृत्य
ही तो हमें
उलझाये है।
फिर ध्यान का
कृत्य
उलझायेगा।
"भला
ध्यान करने से
कहीं मुक्ति
होती है?' खयाल
रखना, "करने'
पर जोर है।
"दीपक दिखाने
और नेवैद्य
चढ़ाने और मंत्र-पाठ
करने से क्या
मुक्ति मिल
सकती है?'
अब तुम
इसी को ध्यान
समझ रहे हो, कोई दीया
दिखा रहा है
भगवान को। अरे
पागलो, भगवान
का दीया तुम
देखो! तुम
भगवान को दीया
दिखला रहे हो!
कोई नेवैद्य
चढ़ा रहा है, कोई
मंत्रपाठ कर
रहा है। चुप
होओ! मौन होओ!
मौन ही मंत्र
है। और
नेवैद्य तो
तुम पर
बरसेगा। फूल
ही फूल गिरेंगे।
"तीर्थ-सेवन
और तपोवन में
जाने से और
पानी में नहाने
से कहीं मोक्ष
लाभ होता है?'
तुमने
मोक्ष को इतना
सस्ता समझा है
कि चले गंगा
नहा आये, कि
हज हो आये! ऐसे
कहीं मोक्ष
होता है? तुम्हारे
कुछ भी करने
से बंधन होता
है। पुण्य भी
बंधन बन जाते
हैं, पाप
तो बनते ही
हैं बंधन।
क्योंकि
कृत्य मात्र
बंधन है। कृत्य
से जागो। और
यह तुम करते
रहे हो
जिंदगी-भर, फिर भी
तुम्हें होश
नहीं आता।
जल
के भी अंधे
पतंगों को न
कुछ अक्ल आई।
आज
भी शमअ की है
गर्मिए-बाजार
वही।।
कितने
पतंगे जल गये, मगर पतंगों
को कुछ अक्ल
आती नहीं और
शमा का बाजार
है कि अभी भी
गर्म है, चल
रहा है! अभी भी
शमा जल रही है
और पतंगे जल
रहे हैं!
जल
के भी अंधे
पतंगों को न
कुछ अक्ल आई।
आज
भी शमअ की है
गर्मिए-बाजार
वही।।
कितने
लोग आये और
चले गये, पूजा-पाठ
करते-करते सड़
गये, सिवाय
व्यर्थता के
कुछ भी न जाना;
लेकिन फिर
भी मंदिर-मस्जिद
जिंदा हैं। आज
भी शमअ की है
गर्मिए-बाजार
वही! फिर भी
पंडित-पुजारी
चल रहे हैं। फिर
भी तीर्थ भर
रहे हैं। फिर
भी कुंभ मेला
और चले करोड़ों
लोग। जिनके
पास खाने को
नहीं है, पीने
को नहीं है, वे भी किसी
तरह
जोड़त्तोड़कर
कुंभ मेला
चले। जिंदगी-भर
इकट्ठा करके
गरीब मुसलमान
चला हज करने।
कितने लोग हज
करके लौट आये
और कितने लोग
तीर्थ नहा आये
और कितने गंगा
में स्नान कर
चुके, हुआ
क्या? नहीं,
कोई पूछता
ही नहीं कि
हुआ क्या।
अंधों की एक जमात
है।
परऊ
आर ण कीअऊ
अत्थि ण दीअऊ
दाण।
एहु
संसारे कवण
फलु
वरूच्छडुहु
अप्पाण।।
"यदि
परोपकार नहीं
किया और न दान
दिया, तो
इस संसार में
आने का फल ही
क्या? इससे
तो अपने आपका
उत्सर्ग कर
देना ही अच्छा
है।'
सरहपा
कहते हैं कि
बजाय तीर्थों
में व्यर्थ समय
गंवाने के, कुछ बांट लो,
कुछ कर सको
दूसरों के
लिये तो कर
लो। बजाय गंगा
में स्नान
करने के, दान
में स्नान
करो--वही गंगा
है। थोड़ा
तुमसे कुछ हो
सके औरों के
लिए, तो
करो। वही
एकमात्र
पुण्य है, क्योंकि
तुम जो दूसरों
के लिये करते
हो वही परमात्मा
तुम्हारे
लिये करेगा।
अगर तुमने दूसरों
के रास्ते पर
कांटे बिछाये
तो तुम अपने
रास्तों पर
हजार गुने
कांटे पाओगे।
और तुमने अगर
दूसरों के
रास्ते पर फूल
बिछाये तो
तुम्हारे
रास्ते फूलों
से भर
जायेंगे।
तुम्हें वही
मिलेगा जो तुम
देते हो।
मकामे-इश्क
को हर आदमी
सीमाब क्या
समझे?
यह
है एक मर्तबा
जो
मावराये-आदमियत
है।।
थोड़ा
प्रेम जगाओ।
प्रेम जग जाये
तो तुम आदमी से
ऊपर उठने लगे, क्योंकि
प्रेम आदमियत
से भी ऊपर है।
थोड़ा प्रेम
में जीयो।
बिखेरता
है जो औरों की
राह में कांटे
वह
हाथ
जख्म-रसीदा
जरूर होता है
जो
दूसरों के
रास्तों पर
कांटे
बिखेरता है, वह हाथ भी
जख्मी हो जाता
है, खयाल
रखना। और जो
दूसरे के
रास्तों पर
फूल बिखेरता
है उसके हाथों
में भी फूलों
की गंध आ जाती
है। तुम वही
हो जाते हो, तुम जो
दूसरों के
लिये करते हो।
तुम्हारा दूसरों
के लिये किया
गया ही
तुम्हारे
जीवन का सार
बन जाता है।
मगर
खयाल रखना, पहले सरहपा
ने कहा: चित्त
शांत हो। सहज
की नाव, सदगुण
की रस्सी से
बांधो। और फिर,
भीतर उठेगा प्रेम।
बांटना उसे।
उस प्रेम के
बांटने का नाम
परोपकार है।
नहीं तो
परोपकार भी
झूठा होगा, अगर सहज के
किनारे न चले।
दयारे-इश्क
है यह, जर्फे-दिल
की जांच होती
है।
यहां
पोशाक से
अन्दाज़ए-इंसा
नहीं होता।।
मुहब्बत
तो बजाये खुद
इक ईमां है
अरे मुल्ला!
मुहब्बत
करनेवाले का
कोई ईमां नहीं
होता।।
जो
प्रेम जान
लेता है फिर
उसे और कोई
धर्म की जरूरत
न रही।
मुहब्बत उसका
धर्म है।
मुहब्बत
तो बजाये खुद
इक ईमां है
अरे मुल्ला!
मुहब्बत
करने वाले का
कोई ईमां नहीं
होता।।
प्रेम
को पहचाना तो
सब पहचाना।
इश्कऱ्ही-इश्क
है जहां देखो।
सारे
आलम में फिर
रहा है इश्क।।
इश्क
माशूक़ इश्क
आशिक है।
यानी
अपना ही
मुब्तला है
इश्क।।
कौन
मकसद को इश्क
बिन पहुंचा?
आरजू
इश्क, मुद्दआ
है इश्क।।
इश्क
है
तर्जेत्तूर
इश्क के तईं।
कहीं
बंदा कहीं
खुदा है इश्क।
वही
है! प्रेम ही
परमात्मा है
और प्रेम ही
उसका प्रेमी
है।
इश्क
है
तर्जेत्तूर
इश्क के तईं।
कहीं
बंदा कहीं
खुदा है
इश्क।।
ध्यान
से प्रेम की
ज्योति प्रगट
होती है। बुद्ध
ने कहा है:
जहां समाधि
फली वहां
प्रज्ञा का प्रकाश
फैलता है, करुणा झरती
है। तो पहले
सहज को अनुभव
करो, शून्य
को अनुभव करो
और फिर जो
तुम्हारे पास
है बांट दो।
पूरी आत्मा को
लुटाये चलो।
जितना लुटाओगे
उतनी आत्मा
बढ़ती जाती है।
शमअ? इक मोम के
पैकर के सिवा
कुछ भी न थी।
आग
जब तन में
लगाई है तो
जान आई है।।
शमा
है ही क्या, सिर्फ मोम
है।
शमअ? इक मोम के
पैकर के सिवा
कुछ भी न थी।
आग
जब तन में
लगाई है तो
जान आई है।।
प्रेम
की अग्नि जिसे
पकड़ लेती है
उसकी शमा जल
जाती है। फिर
तुम मोम ही
नहीं हो, फिर
तुम मिट्टी ही
नहीं हो, फिर
तुम मृण्मय ही
नहीं
हो--तुम्हारे
भीतर चिन्मय
की ज्योति
जगी! फिर तुम
जमीन ही नहीं
हो, आकाश
उतर आया! फिर
तुम सीमा ही
नहीं हो, असीम
से तुम्हारा
गठबंधन हुआ!
असीम से
तुम्हारी
भांवर पड़ी!
परमात्मा
को खोजने
निकलो। उसे
बिना खोजे सब
खोज, और सब खोज
व्यर्थ है।
सुने
हुए गीतों से
मनहर मधुर
अनसुना गीत,
आंखों-देखे
से सुंदर
अनदेखा मन का
मीत!
जिसको
मन में जितना
कम अनदेखे का
अनुराग,
उसके
प्राणों में
उतनी ही क्षीण
हो चुकी आग!
तन
से मन की
शक्ति अधिक है, प्रबल देह
से प्राण;
पृथ्वी
से आकाश बड़ा
है, जाने से
अनजान!
जिसके
प्राणों में
जितना कम
अनजाना आकाश,
उसका
उतना ही कम
सार्थक
पृथ्वी पर
आवास!
अगम
कंदरा-क्रोड़, जल रहा जहां
दीप निर्धूम;
सार्थक
हैं वे नयन, सकें जो
दीप-शिखा को
चूम!
हैं
प्रकाश के
प्रति जो लोचन
जितने
स्नेह-विहीन,
हैं
उतने ही
दीनऱ्हीन वह
खंडित मुकुर
मलीन!
वह
पंचतल्ला पोत
सदा
धारावाहिक
अविराम;
अगम
शिखर से अगम
सिन्धु तक
बहना इसका
काम!
तिरता
जाता पोत, प्राण का
पाल बना आकाश;
दृग
से जितना दूर
नियामक, मन
से उतना पास!
आज
इतना ही।
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