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गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

सहज योग--(प्रवचन--10)

तरी खोल गाता चल माझी—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 नवंबर,1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

 1—आपने इस प्रवचनमाला को शीर्षक दिया है--सहजऱ्योग। क्या सहज और योग परस्पर-विरोधी नहीं लगते?

2—भक्त प्रभु-विरह  में कभी हंसता है कभी रोता है, यह विरोधाभास कैसा?

3—जाति-बिरादरी वालों ने मुझे छोड़ दिया है। यहां तक कि पंचायत बिठायी और चार व्यक्तियों ने मिलकर मुझे पीटा भी। संन्यास, बाल, दाढ़ी और गैरिक वस्त्र का त्याग करो--ऐसा कहकर मुझे पीटा गया--तथाकथित ब्राह्मणों और पंडितों द्वारा। ऐसा क्यों हुआ? अपने ही पराये क्यों हो गए?


4—क्या यह अच्छा नहीं होगा कि पृथ्वी पर एक ही धर्म हो? इससे भाईचारे में बढ़ौतरी होगी और हिंसा, वैमनस्य और विवाद बंद होंगे।

5—क्या कभी मेरी पूजा-प्रार्थना भी स्वीकार होगी? मैं अति दीन और दुर्बल हूं, कामी, लोभी, अहंकारी...सब पाप मुझ में हैं।

पहला प्रश्न:

आपने इस प्रवचनमाला का शीर्षक दिया है--सहजऱ्योग। क्या सहज और योग परस्पर-विरोधी नहीं लगते?

आनंद मैत्रेय! विरोधी लगते ही नहीं, विरोधी हैं। लेकिन जीवन का कोई भी परम सत्य बिना विरोधाभास के प्रगट हो ही नहीं सकता। जीवन बना है विरोधों से--अंधेरा और प्रकाश, दिन और रात, स्त्री और पुरुष, ऋण विद्युत-धन विद्युत, जन्म-मृत्यु।
जीवन की संरचना विरोधों से है। इसलिए विरोधी विरोधी ही नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक भी हैं। दिन भर श्रम किया खूब तो गहरी नींद सो सकोगे। श्रम और विश्राम विरोधी हैं, पर जिसने श्रम किया है वही गहरा विश्राम कर सकेगा। और जिसने श्रम नहीं किया वह गहरा विश्राम भी न कर सकेगा। तो विरोधी विरोधी ही नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक भी हैं। और जिसने रात्रि गहरा विश्राम किया है वही सुबह जागकर फिर श्रम में संलग्न हो सकेगा। जो रात-भर विश्राम नहीं कर सका वह सुबह श्रम में भी न लग सकेगा।
जीवन को गौर से देखो। सभी तरफ तुम विरोध पाओगे। वृक्ष को ऊपर जाना है तो जड़ों को नीचे जाना पड़ता है। जितना वृक्ष ऊपर जाएगा उतनी ही जड़ें पाताल की तरफ नीचे जाएंगी। अगर वृक्ष सिर्फ ऊपरऱ्ही-ऊपर जाना चाहे, सोचे कि जड़ों को नीचे भेजना तो बड़ी विरोधी बात है, मुझे ऊपर जाना है तो जड़ों को नीचे क्यों भेजूं, जड़ों को भी ऊपर ले चलूं--तो फिर वृक्ष कभी भी ऊपर न जा सकेगा। नीचे जानेवाली जड़ों में ही ऊपर उठी हुई शाखाओं के प्राण हैं।
जब जीवन के विरोधाभास परिपूरक दिखाई पड़ने लगें तब समझना कि तुम्हारे पास तीसरी आंख का जन्म हुआ। यह तीसरी आंख समस्त विरोधों को जोड़ देती है, दो आंखों को एक कर देती है।
सहजऱ्योग जीवन के इसी विरोधाभास को संयुक्त कर लेने का नाम है। सहज का अर्थ है: अक्रिया, अकर्म, विश्राम। योग का अर्थ है: श्रम, क्रिया, यत्न, प्रयास। लेकिन दोनों मिल जाने चाहिए, दोनों संयुक्त हो जाने चाहिए। और जहां भी शब्द और शून्य का मिलन होता है वहीं महासंगीत है। जहां योग का और सहज का मिलन हो जाता है वहां जीवन में परम का अवतरण हो जाता है।
लाओत्सु ने इसी को वू-वे कहा है। वू-वे का अर्थ होता है: अकर्म के द्वारा कर्म, या कर्म के द्वारा अकर्म।
बुद्ध ने छह वर्ष तक अथक योग साधा, फिर वे सहज को उपलब्ध हुए। फिर एक दिन थक गए, साध-साधकर थक गए, खूब सोचा खूब विचारा, जो-जो विधियां संभव थीं कीं। जिसने जो बताया वही किया। सब मार्गों पर चले। मगर मंजिल न मिली सो न मिली। एक दिन थक गए, हताश, सब व्यर्थ हो गया। ऐसी प्रतीति साफ हो गई। उस क्षण योग छूट गया, प्रयास छूट गया। उसी रात निर्वाण घटा। उसी रात समाधि फली।
अब सवाल है कि क्या यह रात्रि बिना छह वर्ष के श्रम के आ सकती थी? तब तो तुम भी आज की रात निर्वाण को उपलब्ध हो जाओ। यह रात्रि विशिष्ट थी। इस रात्रि की विशिष्टता क्या थी? यह छह वर्ष के श्रम के बाद आई थी। यद्यपि यह भी सच है कि इस रात्रि को तुम छह वर्षों का निष्कर्ष नहीं कह सकते हो। यह छह वर्षों के कारण नहीं आई थी, क्योंकि छह वर्षों के कारण आती होती तो श्रम तो बहुत किया था, श्रम के दिनों में ही आ जाती। श्रम के दिनों में नहीं आई--आई विश्राम में। मगर विश्राम बिना श्रम के संभव नहीं है। तो श्रम भूमिका बनती है विश्राम की।
बुद्ध थक गए। उस थकान में चिंतन भी गया, विचार भी गया, योग भी गया, सब समाप्त हो गया। उस रात्रि बिलकुल सहज हो गए, जैसे पशु सहज होते हैं--सिर्फ एक भेद के साथ कि पशुओं को कोई बोध नहीं है, बुद्ध को पूरा बोध है, होश है। उसी रात परम घटना घट गई।
बुद्ध ने सहज को जाना, लेकिन सहज तक पहुंचना एक लंबी यात्रा थी। श्रम से अश्रम में पहुंचे। इसलिए बुद्ध की प्रक्रिया को सहजऱ्योग कहा जा सकता है। सरहपा बुद्ध की परंपरा का ही हिस्सा है। सरहपा भी एक बुद्ध है।
जो लोग तर्क से जीते हैं उन्हें बड़ी कठिनाई हो जाती है। वे कहते हैं: या तो योग या सहज, दोनों कैसे साथ? तर्क एकांगी होता है--और वही तर्क की भ्रांति है, वही तर्क की व्यर्थता है। तर्क एकांगी होता है। तर्क कहता है: या यह या वह। तर्क के सोचने का ढंग ही यही है: एक को चुन लो। लेकिन तर्क से अस्तित्व नहीं चलता।
यह बिजली जल रही है; इस बिजली में ऋण और धन दोनों जुड़े हैं। तर्क कहेगा ऋण ही ऋण से जमा लो या धन ही धन से जमा लो, ऋण-धन दोनों को क्यों जमाना? ये तो विपरीत हैं। मगर बिजली तर्क की नहीं सुनती। बिजली द्वंद्वात्मक है; द्वंद्व से ही जन्मती है। द्वंद्व में ही घर्षण है। जैसे दो चकमक के पत्थर कोई टकराए और आग पैदा हो जाए। तुमसे कोई कहे एक ही चकमक पत्थर से क्यों नहीं पैदा कर लेते हो?
स्त्री और पुरुष के मिलन से जीवन का प्रवाह होता है, बच्चे का जन्म होता है। पुरुष ही पुरुष निपटा लें, कि स्त्रियां ही स्त्रियां  निपटा लें, नहीं यह हो सकेगा। और पुरुष और स्त्री विपरीत हैं।
ऐसा ही योग पुरुष है, सहज स्त्री है। योग है श्रम; सहज है विश्राम। योग है आक्रमक, सहज है स्वीकार। योग जाता बाहर की तरफ; सहज जाता भीतर की तरफ। योग सक्रियता है; सहज निष्क्रियता है। जो सिर्फ योग ही योग साधेगा विक्षिप्त हो जाएगा; क्योंकि उसे विश्राम न मिल सकेगा। उसे सहज की छाया न मिल सकेगी; वह धूप ही धूप में जिएगा, जल मरेगा। और जो सहज ही सहज साधेगा वह सुस्त हो जायेगा, आलसी हो जाएगा, अकर्मण्य हो जाएगा, निस्तेज हो जाएगा। छाया ही छाया में रहेगा, धूप न मिलेगी, तो जीवन कैसे विकसित होगा? धूप भी चाहिए और छाया भी चाहिए। दोनों चाहिए, दोनों का दान है जीवन को।
ऐसा हुआ, एक किसान बहुत परेशान हो गया। हर वर्ष कुछ गड़बड़ कभी कुछ...कभी बाढ़ आ जाए, कभी आंधी तूफान आ जाएं, कभी पाला पड़ जाए, कभी ओले गिर जाएं, कभी वर्षा कम कभी वर्षा ज्यादा। किसान थक गया। एक दिन उसने परमात्मा से कहा कि तुम्हें किसानी नहीं आती। तुमने कभी किसानी की है? तुमने कभी कृषि-शास्त्र को समझा? इधर मेरी जिंदगी बीत गई और तुम्हारी भूल-चूकें देखते-देखते थक गया हूं। एक वर्ष मुझे मौका दे दो, मैं तुम्हें दिखाऊं कि खेती कैसी होती है!
पुराने दिन की कहानी है। परमात्मा उन दिनों बहुत करीब हुआ करता था। इतने फासले न थे, सीधी-सीधी बात हो जाती थी। फासले आदमी ने खड़े कर लिए, अब सीधी बात करनी मुश्किल है। सीधी बात श्रद्धा में हो सकती है। उस किसान ने बड़ी श्रद्धा से आकाश की तरफ मुंह उठाकर कहा था कि एक दफा मुझे, इस साल मुझे मौका दे दो। जिंदगी-भर मैंने तुम्हें मौका दिया और तुम हमेशा जो भी किए, उसमें कोई तुक नहीं है कोई तर्क नहीं है। खेत लहलहा रहा है, खड़ा है कि पाला पड़ गया, कि ओले गिर गए, कि ज्यादा वर्षा हो गई कि कम वर्षा हो गई। कोई नापत्तौल होना चाहिए।
परमात्मा ने कहा: ठीक है, आने वाले वर्ष तू सम्हाल। और आने वाले वर्ष किसान ने सम्हाला और तर्क से सम्हाला। न तो ज्यादा वर्षा हुई, न ओले पड़े, न तूफान, न आंधी, न झंझावात उठे। सब बड़ा शांति से चला। और खेत भी ऐसे बढ़े कि किसान की छाती न फूली समाए। इतने बड़े पौधे कभी हुए न थे। दुगने, आदमी छिप जाए उनमें, इतने बड़े पौधे! कोई बाधा ही न आई थी। किसान ने कहा: अब दिखाऊंगा परमात्मा को! इसको कहते हैं फसल! और बालें बड़ी-बड़ी! और किसान को लगता था कि गेहूं के दाने भी होंगे तो दुगने-तिगने बड़े होंगे। दिखाऊंगा परमात्मा को कि तुम जिंदगी हो गई, यही उपद्रव करते। पूछ लेते उनसे जो जानते हैं।
फिर फसल कटी और किसान छाती पीटकर रोने लगा। बालें तो बड़ी थीं, मगर उनमें दाने न पड़े थे। और उसने परमात्मा से पूछा कि यह माजरा क्या है? परमात्मा ने कहा: तूने शीतलता दी, शांति दी, पर तूफान न दिए। बिना तूफानों के दाने कैसे पड़ सकते हैं? बिना पीड़ा के प्रसव कैसे? तूने सब सुविधा दे दी, मगर सुविधा-सुविधा में जीवन का जन्म ही न हुआ। तूने एक ही चकमक से आग पैदा करने की कोशिश की। इससे पौधे बड़े हो गए, मगर व्यर्थ। तूफान भी चाहिए और आंधी भी चाहिए और पाला भी और कभी ओले भी और कभी ज्यादा वर्षा भी और कभी ज्यादा धूप भी--ताकि चुनौती रहे। ये बालें लड़ ही न पायीं। इनका संघर्ष ही न हुआ। इनके जीवन में द्वंद्व ही न आया।
तुम देखते हो न, धनपतियों के बेटे अकसर बहुत बुद्धिमान नहीं हो पाते! और कारण इतना ही होता है कि न तूफान, न आंधी, न पाला। सब सुविधा, सब सुरक्षा, तो चैतन्य को जगने का अवसर नहीं मिलता। चैतन्य जगता है, जैसे चकमक से आग पैदा होती है। द्वंद्व चाहिए। द्वंद्व का स्वीकार चाहिए।
इसलिए मैंने इसे सहजऱ्योग कहा है। योग जोड़ना ही होगा। श्रम तो तुम्हें करना ही होगा। इतना ही ध्यान रहे कि श्रम मंजिल नहीं है, मार्ग है। मंजिल तो सहज है। मंजिल तो स्वभाव है। पहुंचना तो विश्राम में है। इसलिए जो भी तुम कर सको उस विश्राम को पाने के लिए करना और यह भी ध्यान रखना कि तुम्हारे करने से सीधा-सीधा वह मिलेगा नहीं; लेकिन तुम्हारे करने से ही वह अवसर निर्मित होता है जिसमें विश्राम के फूल खिलते हैं।
उदाहरण के लिए, तुम ध्यान के लिए कितना ही श्रम करो ध्यान नहीं होगा; लेकिन तुम्हारा किया हुआ श्रम रास्ता बनाएगा जिसमें से ध्यान एक दिन उतर आएगा। अकसर ऐसा होता है कि जब तुम ध्यान करने बैठते हो तब ध्यान नहीं होता; लेकिन बैठते रहो, बैठते रहो, बैठते रहो एक दिन अचानक तुम पाओगे, तुम ध्यान करने बैठे भी नहीं थे और ध्यान घटा! हो सकता है, तुम बगीचे में काम करते थे कि सुबह घूमने निकले थे, कि अकेले बैठे थे, कुछ भी न कर रहे थे, घर में कोई भी न था, सन्नाटा था--और अचानक एक ज्योतिपुंज ने तुम्हें घेर लिया। और अचानक तुम्हारे भीतर ऊर्जा छलांगें लेने लगी। और अचानक अतिथि आ गया द्वार पर। अचानक तुमने उसकी दस्तक सुन ली। पहली दफे उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ी, नाद पैदा हुआ। और तुम चौंकोगे, क्योंकि अभी तुम ध्यान करने बैठे ही न थे। लेकिन तुम जो ध्यान करने बैठे हो बहुत बार, उसके बिना यह घटना नहीं घटने वाली थी। और बहुत बार बैठे और नहीं घटी।
ऐसा समझो कि राह पर तुम्हें एक आदमी दिखाई पड़ा और तुम्हें लगा कि चेहरा तो पहचाना मालूम पड़ता है, नाम भी जबान पर रखा मालूम पड़ता है, मगर नहीं आता, नहीं आता याद। बहुत तुमने चेष्टा की। बहुत सिर मारा। पहचाना पक्का मालूम होता है। एक-एक रेखा चेहरे की परिचित है, एक-एक झुर्री परिचित है। उसकी चाल पहचानी हुई है। उसकी आवाज पहचानी हुई है। उसका नाम जबान पर रखा है। मगर नहीं आता। तुमने बहुत हाथ-पैर मारे और नहीं आया, नहीं आया। फिर तुमने कहा, जाने भी दो, क्या करोगे? कोई उपाय नहीं है। उस दुविधा का तुम खयाल करो, जब कभी ऐसा हो जाता है कोई चीज जबान पर रखी मालूम पड़ती है और नहीं आती, तब कैसी तुम संकट की अवस्था में हो जाते हो! मालूम है कि मालूम है और फिर भी नहीं मालूम। फिर तुम थक जाते हो। उस दशा में ज्यादा देर नहीं रह सकते। वह दशा बड़ी बेचैनी की है। तुम छोड़-छोड़कर अखबार पढ़ने लगे कि अपना हुक्का उठा लिया, कि निकल गए बाहर, कि बगीचे में चले आए, कि फूलों को देखने लगे और अचानक इधर हुक्का गुड़गुड़ाया कि उधर एकदम से नाम याद आया! लेकिन जब तुम याद कर रहे थे तब न आया और अब आया। तो क्या तुम सोचते हो तुमने कभी याद ही न किया होता तो भी आता? फिर तो कैसे आता?
इस विरोधाभास को ठीक से समझ लो: जिसने याद किया है, खूब मेहनत की है याद करने की और नहीं याद आ सका, क्योंकि जितना उसने श्रम किया उतना चित्त तनता गया, तनावग्रस्त हो गया। तनावग्रस्त चित्त संकीर्ण हो जाता है। संकीर्ण चित्त में से कुछ भी उठ नहीं सकता, जगह नहीं रह जाती। फिर उसी स्थिति को उसने विश्राम दे दिया। चला गया बगीचे में, अपना हुक्का गुड़गुड़ाने लगा कि अखबार पढ़ने लगा, कि बच्चे के साथ खेलने लगा। चित्त का विश्राम आया, तनाव गया, चित्त की संकीर्णता मिटी, चित्त जरा विराट हुआ--और तत्क्षण अचेतन से उठी लहर और चेतन नहा गया उस लहर में! याद आ गई।
मैडम क्यूरी ने तीन वर्ष तक गणित के सवाल को हल करने की कोशिश की और न कर पायी। वही हुआ जो बुद्ध के साथ हुआ था। वही हुआ जो सभी के साथ सदा हुआ है। उस पर सब दारमदार था। वह सवाल हल हो जाए तो एक बड़ी वैज्ञानिक उपलिब्ध होगी। उसी सवाल के हल होने पर मैडम क्यूरी को नोबल पुरस्कार मिला। मगर तीन साल सारी बुद्धिमता लगा दी, कुछ हल न हुआ और एक सांझ...।
ये कहानियां बिलकुल एक जैसी मालूम होती हैं और इनके पीछे एक ही सूत्र है। एक सांझ थक गई। उसने उस सवाल को छोड़ ही दिया उस सांझ कि अब नहीं। बहुत हो गया, तीन साल खराब हो गए, यह नहीं होना है मालूम होता है। ऐसा सोचकर उस रात वह सोयी और बीच रात सपने में उठी। नींद में ही, सपने में ही सवाल का उत्तर आ गया था। गई टेबल पर नींद में और टेबल पर जाकर सवाल का जवाब लिखकर वापस बिस्तर पर सो गई। सुबह जब उठी और अपनी टेबल साफ करती थी तो चकित हुई: उत्तर मौजूद था! यह आया कहां से, उसे तो याद भी नहीं रही थी! कमरे में कोई दूसरा व्यक्ति था भी नहीं और होता भी तो मैडम क्यूरी जिसको तीन साल में हल नहीं कर पायी उसको दूसरा व्यक्ति कौन हल कर लेता! कमरे में कोई था भी नहीं। ताला भीतर से बंद था, रात जब वह सोयी थी। ताला अभी भी बंद था। कमरे में कोई आ नहीं सकता। फिर उसने गौर से देखा, हस्ताक्षर थोड़े अस्त-व्यस्त थे लेकिन उसी के हैं। तब उसने याद करने की कोशिश की आंख बंद करके, तो उसे याद आया कि उसने एक सपना देखा था रात कि सपने में वह उठी है और कुछ लिख रही है। तब उसे पूरी बात याद आ गई। यह उत्तर उसी के भीतर से आया है। तीन साल तक सतत श्रम करने से नहीं आया है। आज की रात क्यों? तीन साल योग सधा, आज की रात सहज फला। मगर उस योग की खाद है, उस खाद से ही सहज फूल खिलता है।
इसलिए मैंने सहजऱ्योग कहा। विरोधाभासी है। है ही नहीं, दिखाई ही नहीं पड़ता--वस्तुतः है। आभास ही नहीं है, विरोध ही है। सहज और योग में विरोध है। सहज विश्राम है, योग श्रम है; मगर श्रम से ही विश्राम पर पहुंचा जाता है। जैसे जीवन मृत्यु में ले जाता है ऐसे ही श्रम विश्राम में ले जाता है।
श्रम करना, पर ध्यान रखना विश्राम का। बस उतनी स्मृति बनी रहे। श्रम को ही सब न समझ लेना, नहीं तो योग में ही अटक जाओगे, और सहज को ही सब मत समझ लेना, नहीं तो यात्रा शुरू ही नहीं होगी, आलस्य में ही पड़े रह जाओगे। ये दोनों पंख चाहिए ताकि तुम उड़ सको। ये दोनों पैर चाहिए, ताकि तुम चल सको।
इसलिए तुम्हें समस्त विश्व के संतों के वचनों में विरोधाभासी वक्तव्य मिलेंगे। जीसस ने कहा है: जो बचाएगा मिट जाएगा। जो मिट जाएगा, वही बच रहता है। और जीसस ने कहा है: जो अंतिम है वह प्रथम हो जाएगा और जो प्रथम है वह अंतिम पड़ जाएगा। और जीसस ने कहा है: धन्यभागी हैं वे जो दीन हैं, दुर्बल हैं, क्योंकि परमात्मा का राज्य उन्हीं का है। इस देश में भी हमने कहा है: दुर्बल के बल राम! निर्बल के बल राम!
जानते हैं लोग कि ऐसे भी क्षण होते हैं जीवन में जब हार जीत हो जाती है। उसी को हम प्रेम का क्षण कहते हैं। वही प्रेम का जादू है: जहां हार जीत हो जाती है।
हार ही अब तो हृदय की,
जीत होती जा रही है!

वे अधूरे स्वप्न ही जो,
हो नहीं साकार पाए।
एक प्रिय वरदान ले फिर,
इन दृगों में आ समाए।
साधना ही अब हृदय की,
मीत होती जा रही है!
हार ही अब तो हृदय की,
जीत होती जा रही है!
खो दिया अस्तित्व मैंने,
अब किसी का पा सहारा।
हार कर भी कह रहा मन,
मैं न हारा, मैं न हारा।
आज जीवन से मुझे कुछ,
प्रीत होती जा रही है!
हार ही अब तो हृदय की,
जीत होती जा रही है!

बंधनों में बंध गया है,
स्वयं ही उन्मुक्त जीवन।
मुक्ति से प्यारा मुझे है,
कल्पना का मधुर बंधन।
वेदना उर की अमर,
संगीत होती जा रही है!
हार ही अब तो हृदय की,
जीत होती जा रही है!
हार जीत हो जाती है, ऐसा प्रेम का जादू है। और योग सहज हो जाता है, ऐसी समझ की कीमिया है।

दूसरा प्रश्न:

भक्त प्रभु-विरह में कभी रोता है कभी हंसता है, यह विरोधाभास कैसा?

वैसा ही जैसा मैंने अभी तुम्हें सहजऱ्योग के लिए कहा। रोने और हंसने में विरोध दिखाई पड़ता है, है भी, पर गहरे में जोड़ भी है। यहां गहरे में सब विरोध जुड़े हैं, संयुक्त हैं। जो दो शाखाएं आकर वृक्ष की अलग हो गई हैं, वे ही नीचे इकट्ठी हैं। किसी अतल गहराई में आंसुओं में और मुस्कुराहटों में तादात्म्य है।
और भक्त की दशा सभी भंगिमाओं से गुजरती है। कभी रोता है जरूर, कभी हंसता है। कभी आकाश बादलों से घिरा होता है और बड़ी उदासी होती है और सूरज के कहीं दर्शन नहीं होते; और कभी आकाश से सूरज का सोना बरसता है, बदलियों का कोई पता नहीं होता, निरभ्र आकाश होता है, आनंद की मस्ती होती है। कभी भक्त डूब जाता है विरह की पीड़ा में और कभी मिलन के आनंद में नाच उठता है। कभी रोता है, कभी हंसता है।
भक्ति के बहुत पहलू हैं और भक्त सभी पहलुओं से गुजरता है--कभी उदास, कभी उत्फुल्ल; कभी हारा-थका, कभी बड़ा उत्साहित, बड़े उन्माद में; कभी बिलकुल टूटा, जैसे अब जी ही न सकेगा; और कभी ऐसे जैसे अमृत जीवन मिल गया है! ये सारी भाव-भंगिमाएं हैं। ये सब परमात्मा की प्रार्थनाओं के अलग-अलग ढंग हैं। लेकिन भक्त एक तरकीब जानता है कि सभी उसी को समर्पित कर देता है। उदासी भी तो उसी की और उत्साह भी तो उसी का, जीवन भी उसी का, मृत्यु भी उसी की। तो भक्त सभी कुछ उसी पर समर्पित करता जाता है। आती तो बड़ी अदभुत अनुभूतियां हैं। और ऐसा ही नहीं कि बाहर से...जैसा तुमने बाहर से पूछा है कि भक्त विरह में रोता है कभी हंसता है, यह विरोधाभास कैसा? ऐसा ही नहीं कि तुम्हें विरोधाभास मालूम होता है; भक्त को भी भीतर से यह लगता है कि मामला क्या है, मैं पागल तो नहीं हो गया हूं! और कभी-कभी तो ऐसा होता है, आंखों से आंसू झरते हैं और ओंठों पर मुस्कुराहट होती है। कभी ऐसा होता है कि रोता है और नाचता भी है। कभी दोनों साथ-साथ ही घटते हैं। तब तो भक्त बिलकुल ही पागल मालूम होता है। इसलिए भक्तों को लोगों ने दीवाना समझा है।
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री या रब!
हम भी क्या याद रखेंगे कि खुदा रखते थे।।
कभी तो बड़े उदास, बड़े दुख और विषाद के दिन होते हैं।
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री या रब!
हम भी क्या याद रखेंगे कि खुदा रखते थे।।
एक-एक क्षण बिताना मुश्किल हो जाता है। एक-एक क्षण महासंकट हो जाता है। बीतेगा कैसे यह क्षण, यह समझ में नहीं आता है--इतना दुख का बोझ होता है, इतनी विरह की प्रज्वलित अग्नि होती है! भक्त तड़फा जाता है, जैसे मछली तड़फ जाए कोई सागर के बाहर फेंक दे उसे तट पर, तो लेकिन बस ये घड़ियां आती हैं, चली जाती हैं।
यह वहम हो कि हकीकत, सुकूं इसी से है दिल को।
समझ रहा हूं कि तू बेकरार मेरे लिए है।।
भगवान दिखाई भी नहीं पड़ता भक्त को। ऐसे क्षण होते हैं जब बड़ी अंधेरी अमावस की रात होती है। मगर इतने से ही बड़ा सुकूं होता है, बड़ी शांति होती है, बड़ी तसल्ली होती है। यह वहम हो कि हकीकत...और फिर लोग कुछ भी कहें। लोग कहते हैं कि यह सब वहम है, कि भम्र है, कि तेरे मानसिक प्रक्षेपण हैं।
यह वहम हो कि हकीकत, सुकूं इसी से है दिल को।
समझ रहा हूं कि तू बेकरार मेरे लिए है।।
दिखाई नहीं पड़ता परमात्मा कहीं, लेकिन भक्त को ऐसी प्रतीति होती है कि परमात्मा उसके लिए बेकरार है, जैसे वह परमात्मा के लिए बेकरार है। और तब उसे बड़ी शांति भी मिलती है। तब उदास से उदास रात भी अचानक सुबह हो जाती है। तब अमावस से अमावस एकदम से पूर्णिमा हो जाती है। फिर भक्त इसकी भी फिकिर नहीं करता कि यह वहम है कि हकीकत है।
उनकी बेजा भी सुनूं, आप बजा भी न कहूं।
आखिर इन्सान हूं मैं भी, कोई दीवार नहीं।।
फिर कभी जूझ भी बैठता है परमात्मा से। और भक्त ही जूझ सकता है, क्योंकि प्रेमी ही लड़ सकता है। औरों की तो सामर्थ्य क्या?
उनकी बेजा भी सुनूं, आप बजा भी न कहूं।
आख़िर इन्सान हूं मैं भी, कोई दीवार नहीं।।
तो नाराजगी में कभी पूजा भी नहीं करता, द्वार-दरवाजे बंद कर देता है परमात्मा के। कभी प्रार्थना भी नहीं करता और हजार तरह की शिकायतें भी उठती हैं।
न शाख में यह कहीं सूख जायें फूल मेरे।
जो तोड़ना हो तो अब तोड़ इंतिज़ार न कर।।
आखिर सीमा होती है एक!
या यही कह दे कि राहत तेरी किस्मत में नहीं।
मुझको देना है तो दे आज, कयामत में नहीं।।
आखिर प्रतीक्षा भी कब तक? और फिर जानता भी है, समझता भी है--
उनसे शिकवा फजूल है सीमाप
काबले इल्तिफाक तू ही नहीं
शिकायत क्या करूं, यह भी जानता है। मेरी पात्रता क्या है! अभी मैं उनकी करुणा के योग्य भी कहां हूं!
आजुरदा इस कदर हूं सराबे-ख़याल से।
जी चाहता है तुम भी न आओ ख़याल में।।
तंग आके तोड़ता हूं, ख़याले तिलस्म को।
या मुतमइन करो कि तुम्हीं हो ख़याल में।।
कभी ऐसा परेशान हो जाता है याद करते-करते, याद करते-करते, रोते-रोते जार-जार हो जाता है, कि कहता है: इतना थक गया हूं, इतना व्यथित हो गया हूं...आजुरदा इस कदर हूं सराबे-ख़याल से...तुम्हारे खयाल में, तुम्हारे ध्यान में, तुम्हारी स्मृति में इस तरह व्यथित हो गया हूं कि अब तो जी चाहता है तुम भी न आओ खयाल में। मगर बस यह क्षण-भर को बात टिकती है और दूसरे ही क्षण कहता है--
तंग आके तोड़ता हूं, ख़याले-तिलस्म को।
या मुतमइन करो कि तुम्हीं हो ख़याल में।।
मुझे विश्वास दिला दो कि यह तुम्हीं हो जो मेरे खयाल में आए। और नहीं तो तोड़ दूंगा ये सारे विचारों के तिलिस्म को। अगर तुम नहीं हो तो कुछ भी नहीं है।
क्या कहीं भूल गया मुझको बनाने वाला
कि मेरी बात बिगड़ती ही चली जाती है।
क्या कभी मौत के तेवर नहीं इसने देखे।
ज़िंदगी है कि अकड़ती ही चली जाती है।।
हजार रंग हैं भक्ति के। हजार ढंग हैं भक्ति के। सारी ऋतुएं हैं भक्ति की। कभी बसंत है और कभी पतझड़। और कभी वर्षा है और कभी धूप। और कभी सर्दी है और कभी गर्मी।
हज़ार ऐश की सुबहें निसार हैं जिस पर।
मेरी हयात में ऐसी भी इक शबे-ग़म है।।
और भक्त यह भी कहता है गौरव से, कि तेरी याद में जो रात बीती, तेरे विरह में जो रात बीती, वह कुछ ऐसी है कि हजार ऐश की सुबहें निसार हैं जिस पर--कि सुख की, सफलता की, विलास की, वैभव की, हजार सुबहें उस एक रात पर निसार हैं, जो तेरी याद में बीती। क्योंकि तेरी याद पीड़ा तो देती है, मगर पीड़ा बड़ी मधुर है। तेरी याद तिक्त भी बहुत है, मादक भी बहुत है। शराब है न, तिक्त! स्वाद तो कुछ शराब के ढंग का नहीं होता। अनुभव कुछ और होता है, स्वाद कुछ और होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बहुत परेशान थी उसकी शराब पीने की आदत से। सब उपाय कर चुकी। कोई और उपाय न सूझा तो उसने आखिरी उपाय किया। मुल्ला गया है शराब-घर, वह भी पहुंच गई। बुर्के में रहने वाली स्त्री। उसने सोचा कि यह आखिरी चोट होगी, शराब-घर में पहुंच जाए। उसने बुर्का उलट दिया और जाकर मुल्ला की टेबिल के पास की कुर्सी लेकर बैठ गई। मुल्ला तो थरथरा गया, लोग क्या कहेंगे, यह तो हद हो गई! स्त्रियां शराब-घर में! पर्दानशीं स्त्रियां शराब-घर में! मगर मुल्ला कुछ यह कह भी नहीं सकता कि तू यहां कैसे आयी, क्योंकि यही तो उसकी पत्नी उससे जिंदगी भर से कह रही है वहां मत जाओ। और पत्नी ने कहा कि आज मैं भी पीऊंगी। और इसके पहले कि मुल्ला उसे रोके या रोक सके उसने तो ली और बोतल उंडेल दी गिलास में और लेकर पहला घूंट चखा। चखते ही गिलास रख दिया और मुंह में जो शराब गई थी, थूक दी और कहा कि अरे, इतनी तिक्त, इतनी कड़वी! मुल्ला ने कहा: और तू सदा यही समझती थी कि हम मजा कर रहे हैं! अब समझी?
स्वाद तो तिक्त है। विरह का स्वाद तो तिक्त है। शराब जैसा ही है विरह, लेकिन अनुभव बड़ा मादक है, बड़ा आह्लादकारी है।
भला मेरी यह हिम्मत थी कि तुमसे अर्जे-दिल करता।
जबीने बेसिकन देखी तो कुछ कहने की ताब आई।।
मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नज़रें।
तुम्हीं हो सामने या फिर वही तस्वीरे-ख्वाब आई।।
भक्त के अनुभव भक्त ही समझ सकते हैं। दूसरों को तो सब सपने की बातें हैं, कि मानसिक खेल है। भला मेरी यह हिम्मत थी कि तुमसे अर्ज़े-दिल करता...कि अपने हृदय की बात तुमसे कहता कि अपनी शिकायत कि अपनी प्रार्थना कि अपनी मांग तुम्हारे सामने रखता।
भला मेरी यह हिम्मत थी कि तुमसे अर्ज़े-दिल करता।
जबीने बेसिकन देखी तो कुछ कहने की ताब आई।।
तुम्हारा मस्तक देखा और चिंता-रहित देखा और तुम प्रसन्न मालूम हुए और तुम ऐसे लगे कि यह घड़ी है कि अभी कह दूं। मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नजरें। यही कहना है मुझे कि मेरी आंखें इतनी तरस गई हैं तुम्हें देखने के लिए कि कहीं ऐसा न हो कि तरसी नजरें मुझे धोखा दे रही हों।
मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नज़रें।
तुम्हीं हो सामने या फिर वही तस्वीरे-ख्वाब आई।।
कहीं फिर मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूं...। क्योंकि भक्त बहुत बार सपना भी देख लेता है। जिसकी तुम निरंतर याद करते हो वह सपने में भी प्रगट हो जाता है। जिसकी तुम बहुत-बहुत याद करते हो, वह दिन में भी खुली आंखों से भी मौजूद हो जाता है; लेकिन होता सपना ही है।
भक्त सपनों में से गुजरता है। सपनों से गुजर-गुजरकर सपनों की पर्त उघाड़-उघाड़कर एक दिन सत्य का आविर्भाव होता है। और बड़ी मुश्किल में होता है भक्त, क्योंकि परमात्मा इतने करीब मालूम होता है उसे। वे तो कैसे समझेंगे जो जानते ही नहीं कि परमात्मा है? वे भी कैसे समझेंगे जो मानते हैं कि परमात्मा है लेकिन बहुत दूर है, अभी घटने वाला नहीं है, जन्मों-जन्मों में कभी घटेगा, मृत्यु के बाद कभी घटेगा, परलोक में कभी घटेगा!
खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं।
साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं।।
और चिलमन से लगे बैठे हैं, ऐसा भक्त को दिखाई पड़ता है। दिखाई भी पड़ रहे हैं--झीने पर्दे में से, चिलमन में से झलक भी मालूम हो रही है।
खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं।
साफ़ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं।।
तो भक्त की पीड़ा है, भक्त का आनंद भी है।
नज़र का इक इशारा चाहिये अहले-मुहब्बत को।
जब?ीने-शौक झुक जाये जिधर कहिये, जहां कहिए।।
बस राह देखता है कि तुम्हारा इशारा हो जाए, कि गर्दन उतारनी हो तो गर्दन उतार दूं। रोता है, लेकिन जानता है कि मेरे रोने की भी क्या समार्थ्य!
ऐ ग़मे-इश्क तेरे ज़र्फ में कुछ आग भी है?
अपने से ही पूछता है--
ऐ ग़मे-इश्क तेरे जर्फ में कुछ आग भी है?
आंसुओं से तो इलाजेत्तपिशे-दिल न हुआ।।
दग्ध हृदय की चिकित्सा आंसुओं से तो हो नहीं सकी, रो तो मैं खूब लिया, रो तो मैं खूब चुका। अब अपने से ही पूछता है कि मेरे हृदय-पात्र! तुझमें कुछ आग भी है? आग हो तो अब जल।
ऐ ग़मे-इश्क तेरे जर्फ में कुछ आग भी है?
आंसुओं से तो इलाजेत्तपिशे-दिल न हुआ।।
बहुत रो लिया, मगर आग खोजता है अपने हृदय में। और मिल जाती है एक दिन आग। विरह ही तो धीरे-धीरे सघन होकर आग बन जाता है, प्रगाढ़ होतेऱ्होते प्रज्वलित हो उठता है। उसी प्रज्वलित अग्नि में भक्त समाहित हो जाता है, जैसे पतंगा जल जाए शमा पर। और पतंगे की मृत्यु ही उसकी मुक्ति है। भक्त का मर जाना ही उसका मोक्ष है। भक्त जब मर जाता है, फिर न आंसू हैं न हंसी है, न नाच है न गीत है, न दुख है न सुख है। भक्त जब मर जाता है तब महासुख है, शाश्वत सुख है। जहां अहंकार गया वहां परमात्मा ही बचता है; भक्त नहीं बचता, भगवान ही बचता है। उस घड़ी के आने के पहले तो सभी भाव-भंगिमाओं से भक्त को गुजरना पड़ता है।
भक्त का जगत बड़ा रंगीन है। ज्ञानी का जगत बहुत रंगीन नहीं है; उसमें एक ही रंग है, ज्ञानी का जगत इकतारा है; उसमें एक ही स्वर उठता है, एक ही तार है। भक्त के वाद्य पर सब तार हैं। भक्त के पास सभी तरह के वाद्य हैं। भक्त तो समस्त वाद्यों के बीच उठने वाला समवेत स्वर है। भक्त तो सातों रंग लिए हैं--इंद्रधनुष है।
भक्ति की वैविध्यता को समझो। ज्ञानी के पास बहुत रंग नहीं होते। इसलिए ज्ञानी इस जगत को कोई सुंदर काव्य नहीं दे सके। ध्यानी इस जगत को कोई सुंदर संगीत नहीं दे सके। भक्तों ने दिए संगीत। भक्तों ने दिए गीत। भक्तों ने दी मूर्तियां और पत्थरों को सजीव कर दिया! पत्थरों में प्राण डाल दिए। पत्थरों से गीत उठने लगे।
भक्तों ने इस जगत को बहुत सौंदर्य दिया है, क्योंकि भक्त के पास वैविध्य है। और विविधता में ही रस की धारा बह सकती है। ज्ञानी तो होता है मरुस्थल जैसा; भक्त होता है बगीचे जैसा, जिसमें सब तरह के फूल खिलते हैं, सब गंधें उठती हैं।
गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में।
अच्छे रहे जो सायाए-उल्फ़त में आ गये।।
वोह दिल फिर उसके बाद न तारीक हो सका।
जिसमें दीये वोह अपनी नजर से जला गये।।
गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में! बड़ा अदभुत वचन है। धर्मांधता के तथाकथित प्रकाश में कितने यात्रीदल भटक नहीं गए हैं। तथाकथित प्रकाश में अनेक यात्रीदल भटक गए हैं। गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में! कोई हिंदू के प्रकाश में, कोई मुसलमान के प्रकाश में, कोई ईसाई के प्रकाश में। कहने को प्रकाश हैं और यात्रीदल भटक गए हैं। प्रकाश में भटक गए हैं। भरे-दिन भरी-दुपहरी में भटक गए हैं।
गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में।
अच्छे रहे जो सायाए-उल्फत में आ गये।।
लेकिन धन्यभागी हैं वे जो अंधेरे में आ गए प्रेम के! अगर ये प्रकाश हैं, ये मंदिर-मस्जिदों में जलने वाले दीए अगर दीए हैं, तो प्रेमी का फिर इन दीयों से कुछ लेना-देना नहीं। प्रेमी तो कहता है; फिर हम भले, हमारे प्रेम के अंधेरे में भले। हमारे प्रेम का अंधेरा तुम्हारे प्रकाश से बेहतर है, क्योंकि तुम्हारे प्रकाश में हमने यात्रियों को भटकते देखा है और हमारे अंधेरे में हमने यात्रियों को पहुंचते देखा है।
गुम कितने कारवां हुए इमां के नूर में।
अच्छे रहे जो सायए-उल्फत में आ गये।।
वो दिल फिर उसके बाद न तारीक हो सका।
जिस दिल में परमात्मा के प्रेम का दीया जला है, वहां फिर कभी अंधेरा नहीं हुआ है; बाकी तो सब जो बाहर से उधार दीए लेकर चल रहे हैं, भटके हैं--और भटकेंगे और लोगों को भी भटकायेंगे।
वोह दिल फिर उसके बाद न तारीक हो सका।
जिसमें दिये वोह अपनी नज़र से जला गये।।
भक्त तो उसकी आंख को ही दीया मानता है। जब तक उसकी आंख से आंख न मिल जाए तब तक मानता है अंधेरा ही अंधेरा है। और भक्त प्रेम के इस अंधेरे को पसंद करता है बजाए शास्त्रों के उजेले के, क्योंकि शास्त्रों में सिर्फ लोग भटक गए हैं, शास्त्रों के वनों में भटक गए हैं, शब्दों के जाल में भटक गए हैं।
प्रेम एकमात्र उपाय है। अगर जाना हो परमात्मा तक, अगर पहुंचना हो परमप्रिय तक, तो प्रेम का दीवानापन स्वीकार करो। प्रेम का अंधेरा स्वीकार करो, क्योंकि प्रेम की अमावस भी एक दिन पूर्णिमा बनने में समर्थ है। और तथाकथित शास्त्रों की रोशनी सिर्फ तुम्हें उलझाए रखती है, रोशनी का धोखा देती रहती है। भक्त तो दीवाने होते हैं। उनके तो अपने ही ढंग हैं, अपनी ही शैली है।
संगे-दर सर पै है, दर पर नहीं अब सर मेरा।
अहले-काबा मेरे सिज्दों का सलीका देखें।।
वे जो जानकार हैं मंदिर-मस्जिदों के, जरा मेरा ढंग भी देखें, मेरा सलीका भी देखें! हमने परमात्मा के पत्थर पर, उसकी चौखट के पत्थर पर सिर नहीं रखा है--उसके चौखट के पत्थर को ही सिर पर रख लिया है! हम क्या सिर कहीं पटकें, हम तो उसको सिर पर लिए चल रहे हैं!
संगे-दर सर पै है, दर पर नहीं अब सर मेरा।
अहले-काबा मेरे सिज्दों का सलीका देखें।।
और वे जो जानकार हैं, काबे के मंदिरों के, मस्जिदों के, शास्त्रों के, वे जरा प्रेमियों की शैली भी देखें, प्रेमियों की भाव-भंगिमाएं भी देखें, प्रेमियों के तौरत्तरीके भी देखें! प्रेमियों का अदभुत दीवाना शिष्टाचार भी देखें! प्रेमी के रहने के ढंग और, जीने के ढंग और। दीवानगी उसके जीने का सार है। मगर दीवाने ही हैं, जो अतियों को जोड़ पाएं। और दीवाने ही हैं जो विरोधों को जोड़ पाएं। और दीवाने ही हैं जो आंसुओं में और मुस्कुराहटों में सेतु बना लें। दीवाने ही हैं, जो जीवन और मृत्यु को एक जान पाएं। तार्किक वंचित रह जाते हैं; प्रेमी जान लेता है। प्रेम तर्क नहीं है। और जो तर्क से भरे हैं वे प्रेम से वंचित रह जाते हैं। वे अभागे हैं। धन्य है वह, जो प्रेम के जगत में पागल हो सकता है, क्योंकि परमात्मा उसी का है।

तीसरा प्रश्न:

ओशो, जाति-बिरादरी वालों ने मुझे छोड़ दिया है। यहां तक कि पंचायत बिठायी और चार व्यक्तियों ने मिलकर मुझे पीटा भी। संन्यास, बाल, दाढ़ी और गैरिक का त्याग करो--ऐसा कहकर मुझे पीटा गया--तथाकथित ब्राह्मणों और पंडितों द्वारा। न तो मैं उन्हें समझ सका, न वे मुझे समझ सके।
ओशो, ऐसा क्यों हुआ? अपने ही पराये क्यों हो गये हैं?

कृष्णानंद, ऐसा ही होना था, ऐसा ही होता है। इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं हुआ है। जब भी कोई व्यक्ति भीड़ से भिन्न होने लगे तो भीड़ नाराज हो जाती है, क्योंकि तुम्हारी भिन्नता भीड़ के जीवन पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती है। अगर तुम सही हो तो वे गलत हैं। अगर वे सही हैं तो तुम्हें गलत होना ही चाहिए। भीड़ बरदाश्त नहीं करती उस व्यक्ति को जो अपनी निजता की घोषणा करे। भीड़ तो भेड़ों को चाहती है, सिंहों को नहीं। और संन्यास तो सिंह-गर्जना है, सिंहनाद है।
संन्यास का तो अर्थ ही यह है कि अब मैंने छोड़ दिए रास्ते पिटे-पिटाए; लकीर का फकीर अब मैं नहीं हूं। अब चलूंगा अपनी मौज से, अपनी मर्जी से! अब खोजूंगा परमात्मा को अपने ढंग से, अपनी शैली से। सम्हालो तुम अपनी परंपराएं, मेरी अब कोई परंपरा नहीं। मैं अपनी पगडंडी खुद चलूंगा और बनाऊंगा।
संन्यास का अर्थ है कि मैं सत्य की खोज में व्यक्ति की तरह चल पड़ा; किसी भीड़ का अंग नहीं। हिंदू नहीं अब मैं, मुसलमान नहीं अब मैं, ईसाई नहीं अब मैं, जैन नहीं अब मैं। अब सारे धर्म मेरे हैं और कोई धर्म मेरा नहीं।
और तब सारे, जिनको तुम अपने समझते थे, तत्क्षण पराए हो जाएंगे। सबसे पहले वे ही पराए हो जाएंगे, क्योंकि सबसे पहले उन्हीं के साथ तुम्हारा संघर्ष शुरू हो गया। ऐसा नहीं कि तुम उनसे लड़ने चले हो, मगर तुम्हारी यह भाव-भंगिमा, तुम्हारी यह निजता की घोषणा, उनकी आंखों में अपराध हो जाएगी।
कृष्णानंद! उन्होंने वही किया, जिसकी अपेक्षा थी। तुम्हें अपेक्षा नहीं थी इसकी--इसलिए तुम चौंके, इसलिए तुम आश्चर्यचकित हुए। भीड़ सदा से यही करती रही है। और जिनको तुम जाति-बिरादरी वाले कहते हो, उनसे तुम्हारा नाता क्या था? सांयोगिक नाता था। नदी-नाव संयोग। संयोग की बात थी कि तुम एक घर में पैदा हुए, वह घर एक जाति का था, एक बिरादरी का था। मान्यता की बात थी। और सबसे पहले वे ही नाराज होंगे, क्योंकि उन्होंने यह न सोचा था कि तुम और इतनी कूवत, तुम और इतनी जुर्रत कर सकोगे। यह बगावत है। यह विद्रोह है।
अपनी कूवत आज़माकर अपने बाजू तोलकर।
अर्शि-ए-हस्ती में उड़ना है तो उड़ पर खोलकर।।
आकाश में जो उड़ने चला है अपने पंख खोलकर, उसने घोषणा कर दी--अपनी कूवत की, अपनी बाजू की, अपने बाजुओं की।
अपनी कूवत आज़माकर अपने बाजू तोलकर।
अर्शि-ए-हस्ती में उड़ना है तो उड़ पर खोलकर।।
जीवन के आकाश में तो वे ही उड़ सकते हैं, अन्यथा तो लोग सरकते रहते हैं जमीन पर। भीड़ तो उन्हीं की है। और भीड़ तुम्हें बरदाश्त न करेगी। और जब भीड़ तुम्हें चोट पहुंचाए तो परेशान न होना। स्वीकार कर लेना इसे। यह स्वाभाविक है। यह तुम्हारे साथ ही हुआ है, ऐसा नहीं है; यह सभी के साथ हुआ है। यह तो उनके साथ भी हुआ है...जीसस जैसे पुरुषों के साथ भी हुआ है।
जीसस अपने गांव में गए और उनके गांव ने उन्हें पहाड़ पर ले जाकर, धक्का देकर मार डालने का आयोजन किया। उनके ही गांव ने, उनके ही लोगों ने...। उसी दिन जीसस का प्रसिद्ध वचन प्रगट हुआ। जीसस ने कहा: "पैगंबर अपने ही गांव में अपने ही लोगों द्वारा नहीं पूजे जाते।' फिर जीसस दुबारा अपने गांव नहीं गए। कोई सार भी न था।
एक बार एक पटेल ने तीर्थयात्रा करने का फैसला किया। उसने यह भी फैसला किया कि सारी यात्रा पैदल ही करूंगा। जिस समय वह घर से चलने को हुआ, उसने देखा कि जहां उसके साथी-संगाती और रिश्ते-नाती उसे विदा दे रहे हैं, वहीं उसका पालतू कुत्ता भी विह्वल होकर उसकी ओर देख रहा है। उसने सोचा, जब पदयात्रा ही करनी है तो क्यों न इस कुत्ते को भी साथ ले लिया जाए। और सबकी राय लेकर उसने अपनी यात्रा में कुत्ते को भी साथी बना लिया। एक से दो भले!
तीर्थयात्रा के दौरान पटेल जहां-जहां ठहरता, वहां-वहां गांव वाले उसका सत्कार करते, उसे मालाएं पहनाते तथा अच्छी आवभगत करते। इस आवभगत का कुछ अंश कुत्ते को भी मिलता। कहीं-कहीं लोग उसे भी मालाएं पहना देते और खाने को पकवान देते। यात्रा कई महीनों चलती रही और एक दिन धूमधाम से उसका समापन हो गया।
पटेल ने यात्रा का समापन-समारोह किया। लोगों ने पटेल के चरण छुए और उसके साथ-साथ कुत्ते को भी आदर दिया। समारोह की समाप्ति के बाद उस कुत्ते से उसी की गली के दूसरे कुत्तों ने यात्रा के समाचार पूछे। खास सवाल यह कि यात्रा के दौरान मालिक ने तो उसे कोई कष्ट नहीं दिया?
यात्री कुत्ते ने आंखों में आंसू भरकर कहा: भैया! मालिक ने तो मेरी बहुत सेवा की। सारे रास्ते उसने ध्यान रखा कि कहीं मैं भूखा न रह जाऊं, कहीं बिछड़ न जाऊं। मेरी जरूरतों को वह अपनी जान पर भी खेलकर पूरी करता रहा। कष्ट मुझे मालिक से नहीं हुआ, अपनी ही बिरादरीवालों से हुआ। जहां-जहां जिस-जिस गांव से मैं गुजरता वहां-वहां उस-उस गांव के कुत्ते मुझ पर टूट पड़ते और मेरी जान के प्यासे हो जाते। अगर मालिक साथ न होता तो ये बिरादरीवाले मुझे न तो जिंदा छोड़ते न तीर्थयात्रा का पुण्य लेने देते।
सब कुत्तों ने बिरादरी की निंदा के अपराध में उस कुत्ते को जाति से बाहर कर दिया...। क्योंकि बिरादरी की निंदा तो कोई सुन सकता नहीं।
पंडित-पुरोहित, तुम्हारे प्रियजनों ने तुम्हें मारा-पीटा, उन्होंने तुम्हारा त्याग कर दिया है, तुम सौभाग्यशाली हो। इससे उन्होंने स्वीकृति दी है कि तुम्हारा संन्यास सच्चा है।
लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है: ज्ञानी बोले और अज्ञानी नाराज न हों तो समझना कि ज्ञानी ने कुछ कहा ही नहीं। ज्ञानी बोले, अज्ञानी हंसें न, तो समझना ज्ञानी ने जो कहा वह सत्य नहीं है। ज्ञान की बात कही जाए, अज्ञानी तो उसे मूढ़ता की बात समझेगा ही। उन्होंने तुम्हें मारा-पीटा, उन्होंने एक बात स्वीकार कर ली, तुम्हारी विशिष्टता स्वीकार कर ली। उन्होंने मान लिया कि कुछ तुम्हारे जीवन में हुआ है। वे तुम्हारे जीवन से उसे पोंछ देने का आतुर हो गए। तुम्हारे जीवन ने उनको अपने  जीवन के संबंध में सोचने को विवश कर दिया। और सोचना कोई भी नहीं चाहता। सोचना बड़ा कष्टपूर्ण मालूम होता है। कौन झंझट में पड़े सोचने की! सब चुपचाप चलता था, सब ठीक-ठाक चलता था, आप आ गए संन्यास लेकर! जिंदगी चली जाती थी, एक रौ में बही जाती थी। आप गैरिक वस्त्र पहनकर खड़े हो गए। उन सारे लोगों को चौंका दिया। यह तो अब उनकी आत्मरक्षा का सवाल है। उन्होंने तुम पर हमला नहीं किया है। तुम्हारी मौजूदगी ने उनको इतना दहला दिया कि आत्मरक्षा में उन्होंने हमला किया है। यह आक्रमण नहीं है, यह सिर्फ आत्मरक्षा है। वे यह कह रहे हैं कि हम तुम्हें पाठ सिखाएंगे, हम तुम्हें रास्ते पर लाएंगे। तुम रास्ते पर आ जाओगे तो वे बड़े खुश होंगे! उनके रास्ते पर! तो उनके आनंद का अंत न होगा। वे शायद तुम्हारा स्वागत-समारोह भी करें, भोज इत्यादि का भी आयोजन करें। जिन्होंने पीटा है वे ही शायद भोज इत्यादि भी दें।
लेकिन, अगर तुम अपनी राह पर चलते रहे तो उनका विरोध बढ़ता ही जाएगा। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी चिंता का कारण है। कहीं तुम ठीक ही तो नहीं हो, यही चिंता है। हो सकता है तुम ठीक हो और वे गलत हैं, ऐसा संदेह उनके मन में जगा है। उस संदेह को छिपाने के लिए वे मारपीट कर रहे हैं, शोरगुल मचाएंगे। हंसना, आनंद से उसे स्वीकार कर लेना, ताकि उनका संदेह और गहरा हो। अगर तुम आनंद से उनके विरोध को स्वीकार कर लोगे तो तुम उनके भीतर से और भी संदेहों को जगा दोगे कि जब जो व्यक्ति हमारे मारने-पीटने पर भी इतना प्रसन्न है और जरा भी परेशान नहीं है, तो जरूर उसे कुछ हुआ है--कुछ, जो मूल्यवान है!
यही रास्ता है उनको चुनौती देने का। तुम अपना ध्यान करना। तुम अपनी मस्ती में मस्त रहना! जल्दी ही...एक सीमा तक विरोध जाएगा, लेकिन हर चीज की सीमा है और उस सीमा के बाद विरोध ही तुम्हारे प्रति सन्मान में भी बदल सकता है। सब कुछ तुम पर निर्भर है कि क्या तुम धैर्य रख सकोगे। और संन्यासी को धैर्य तो सीखना ही होगा, क्योंकि संन्यासी को जीना होगा समाज में।
मेरा संन्यासी भगोड़ा नहीं है, नहीं तो आसानी थी। तुम भाग जाते हिमालय, उनको भी तकलीफ न होती, तुमको भी तकलीफ न होती। लेकिन तुम वहीं रहोगे, यही तकलीफ है। दुकान पर बैठोगे, बाजार में काम करोगे, तुम्हारी पत्नी होगी, बच्चे होंगे, तुम्हारा घर-द्वार होगा! यही तकलीफ है। वे तुमसे यही कह रहे हैं कि अगर संन्यास लेना है तो हिमालय चले जाओ, सब छोड़-छाड़ दो। फिर सब ठीक है; तुमने उनकी परंपरा का अनुसरण किया।
मैंने जानकर अपने संन्यासी को कहा है कि तुम छोड़ना मत, क्योंकि छोड़ना अब पिटी-पिटाई बात हो गई, अब उसका कोई मूल्य नहीं, वह दो कौड़ी की बात हो गई, जब पहले-पहल लोगों ने छोड़ा था तो उसमें मूल्य था, क्योंकि तब छोड़नेवाले पीटे गए थे।
तुम समझना मेरी बात को। एक दिन, जब पहली दफा छोड़ा था संन्यासियों ने घरों को, परिवारों को, तो वे पीटे गए थे। अब तो वह स्वीकृत हो गई बात। अब उसमें कोई सार नहीं है। इसलिए मैंने तुमने कहा: छोड़ना मत, बाजार में ही रहना, वहीं ध्यान करना, वहीं जीवन को जीना। अब फिर अड़चन मैंने पैदा कर दी परंपरा को। लक्ष्य वही है। छोड़नेवाला भी लीक को छोड़कर जा रहा था, लेकिन अब छोड़नेवाले की लीक बन गई। अब हम छोड़नेवाले की लीक को भी तोड़ रहे हैं। छोड़नेवाले को एक सुविधा थी। हट ही गया समाज से। फिर कभी-कभार आता दो-चार दस साल में तो समाज को उससे ज्यादा अड़चन नहीं होती थी। दिन-दो-चार दिन रुकेगा...तीन दिन से ज्यादा एक जगह रुकने का संन्यासी को आयोजन भी नहीं था...दिन-दो-दिन रुकेगा, चला जाएगा। उससे कुछ जीवन में व्यवधान नहीं पड़ता था।
अब मेरा संन्यासी वहीं पैर जमाकर खड़ा रहेगा। वह जीवन में व्यवधान डालेगा। वह जो उनका चलता हुआ ढर्रा है उसमें हर जगह अड़चन खड़ी हो जाएगी। इसलिए वे नाराज होंगे, यह स्वाभाविक है। चिंता न करो। इस नाराजगी को, उनके विरोध को साधना का अंग समझो। इसे चुनौती मानो। और इसमें अपनी शांति को थिर रखो। अब जब वे तुम्हें मारें-पीटें तो शांत बैठ जाना। और उनकी मारपीट सह लेना। ऐसे शांत बैठे रहना, जैसे परमात्मा फूल बरसा रहा है। उनको अनुभव करने देना तुम्हारी शांति का, तुम्हारे खिले हुए आनंद का और तुम्हारे अनुग्रह के भाव में जरा भी भेद न पड़े। तुम उन्हें धन्यवाद ही देना। जल्दी ही रूपांतरण होगा। उनमें से कुछ की आंखें खुलनी शुरू हो जाएंगी। उनमें से कुछ रात के अंधेरे में, एकांत में, तुमसे मिलने भी आने लगेंगे। वे ही जो तुम्हें मार रहे हैं, जिज्ञासु भी हो सकते हैं। आखिर मारने के द्वारा उन्होंने एक बात तो जाहिर कर दी कि तुम्हारी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बस यही महत्वपूर्ण बात है। जो उपेक्षा नहीं कर सकता उसे या तो घृणा करनी होगी या प्रेम करना होगा। और घृणा से किसी को भी रस नहीं मिलता। इसलिए कोई कितनी देर तक घृणा कर सकता है। तुम अगर धीरज रखो तो घृणा अपने-आप प्रेम में रूपांतरित हो जाती है।
यह सारी मनुष्य-जाति के बगावतियों का अनुभव है कि घृणा प्रेम में रूपांतरित हो जाती है, तुम बस धीरज रखो। तुम्हारे अभी अपने जो थे पराये हो गए हैं, क्योंकि वे अपने थे ही नहीं, सिर्फ दिखावा था। अब पहली दफे तुम्हें अपने मिलेंगे। अब तुम धीरज रखो। अब पराये भी अपने हो जाएंगे। थोड़े ही लोग मिलेंगे, लेकिन उन थोड़े लोगों के साथ एक मैत्री होगी, एक रस बहेगा, एक मस्ती होगी, एक सत्संग जमेगा।
रुकना नहीं है, चाहे कुछ भी हो, रुकना नहीं है। यात्रा जारी रखनी है।
तरी खोल गाता चल माझी
अभी किनारा दूर है!

निर्मम निःश्वासों के पल का
चंचल पंख न फैलाओ,
परिचयहीन व्यथा-सांसों का
हीरक-कण मत बिखराओ,
विस्मृत सपनों के क्षण तो
रह रह आते-जाते रहते
विस्मय-क्रीड़ा के विनिमय-पल
नयनों में है मधु भरते!
सुरभि घोल सांसों में माझी
गा, तट अभी सुदूर है।

तरी खोल गाता चल माझी
अभी किनारा दूर है!
मगर गीत ही गाकर यात्रा पूरी करनी है। कोई तुम्हारे संन्यास में बाधा नहीं डाल सकता है। न तो मारने से संन्यास मारा जा सकता है, न काटने से काटा जा सकता है। और जो मारने से मर जाए और काटने से कट जाए, वह संन्यास ही नहीं; समझना वह दो कौड़ी की बात थी। उसका कोई मूल्य नहीं था। वे तुम्हें कसौटी दे रहे हैं, परीक्षा दे रहे हैं।
नयन के अश्रु रुक जाते,
अधर की आह रुक जाती!
न रोके से मगर आकुल,
हृदय का गान रुकता है!
विकट उत्तुंग शिखरों से,
जलद की राह रुक जाती!
न जीवन दान देने का,
मगर अरमान रुकता है!

युगों से तृषित चातक
प्यास अपनी रोकता आया!
जलद को देख पर उसका,
नहीं आह्वान रुकता है!

मिलन की चाह रुक जाती,
न अंतर्दाह रुक पाती!
किसी के रोकने से कब,
शलभ-बलिदान रुकता है!

लहरियां सिंधु की हिय--
ज्वाल को बरबस छिपा लेती।
न उनके रोकने पर,
विकल तूफान रुकता है!

नयन के अश्रु रुक जाते,
अधर की आह रुक जाती!
न रोके से मगर आकुल,
हृदय का गान रुकता है!
यह संन्यास तो हृदय का गीत है। यह रुकेगा नहीं!
नयन के अश्रु रुक जाते,
अधर की आह रुक जाती!
न रोके से मगर आकुल,
हृदय का गान रुकता है!
यह संन्यास तो परवाने का प्रेम है शमा से। यह रुक नहीं सकता।
मिलन की चाह रुक जाती,
न अंतर्दाह रुक पाती!
किसी के रोकने से कब,
शलभ-बलिदान रुकता है!
पतंगा कभी रुका है? लाख रोको, चल पड़ा ज्योति की तरफ, तो चल पड़ा। संन्यास तो ज्योतिर्मय की खोज है। तमसो मा ज्योतिर्गमय! यह तो परवानों की यात्रा है। अब इसके रुकने का कोई उपाय नहीं है। और इसलिए धन्यवाद करना उनका जो रोकते हैं, क्योंकि उनके रोकने से ही तुम्हारे भीतर कोई चीज संगठित होगी, मजबूत होगी।
याद करो उस किसान को, जिसकी मैंने अभी तुमसे कहानी कही। आएं आंधी, आएं तूफान, वर्षा हो ज्यादा कि धूप पड़े गहन, कि ओले बरसें, कि बिजलियां कड़कें--उन सबसे ही गेहूं का दाना पनपता है, जन्मता है। जिसके जीवन में बिजलियां न चमकीं, बादल न गरजे, उसके जीवन में कभी भी आत्मा का प्रारंभ नहीं होता। उसकी आत्मा सोई ही रह जाती है।

चौथा प्रश्न:

क्या यह अच्छा नहीं होगा कि पृथ्वी पर एक ही धर्म हो? इससे भाईचारे में बढ़ोतरी होगी और हिंसा, वैमनस्य और विवाद बंद होंगे।

ह कैसे हो? इतने ढंग के लोग हैं, इतने रंग के लोग हैं! यह कैसे हो सकता है कि एक धर्म हो? कोई ध्यान  करेगा--बुद्ध की भांति, और कोई नाचेगा कृष्ण की भांति।
धर्म तो भिन्न-भिन्न होंगे, क्योंकि लोग भिन्न-भिन्न हैं। इतने प्रकार के लोग हैं। परमात्मा ने इतना वैविध्य रचा है! तुम तो ऐसी बात कर रहे हो जैसे एक ही किस्म का फूल हो दुनिया में: बस गुलाब ही गुलाब हों, न जुही, न चमेली, न केतकी। दुनिया बड़ी उदास हो जायेगी--गुलाब ही गुलाब! और गुलाब बड़ा प्यारा है, लेकिन गुलाबा का प्यारापन तभी है जब केतकी भी है और केवड़ा भी है और जुही भी है और चमेली भी है और मधुमालती भी है और रजनीगंधा भी है। गुलाब के फूल का रस और आनंद तभी है जब इतने वैविध्य की पृष्ठभूमि है। जरा सोचो एक जगह जिसमें गुलाब ही गुलाब हैं, कौन देखेगा गुलाब को? गुलाब का सारा मजा ही चला जाएगा। घास-पात हो जाएगा। गऊएं चरेंगी, भैंसें चरेंगी। और क्या करोगे?
आखिर कोहिनूर हीरे का मूल्य क्या है? यही न कि वह विशिष्ट, अपने ढंग का अलग है। सारे जगत में कोहिनूर ही कोहिनूर हों, रास्तों के किनारे पड़े हों, कंकड़-पत्थरों की तरह, तो क्या मूल्य होगा? फिर क्या तुम सोचते हो, इंग्लैंड की महारानी कोहिनूर को अपने ताज में लगाएगी? कोई मूल्य ही न रह जाएगा, कंकड़-पत्थर हो गया। कोहिनूर की इतनी कीमत क्यों है, क्योंकि अकेला है, अद्वितीय है, विशिष्ट है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी शीघ्र ही विवाहित होनेवाली पत्नी को हीरे की अंगूठी भेंट की। स्त्री बड़ी खुश हुई। उसने अंगूठी पहनी और कहा कि मुल्ला, हीरा असली है न? मुल्ला ने कहा: अगर असली नहीं है तो मेरे तीन रुपये बेकार गए।
तीन रुपये में कहीं असली हीरे मिलते हैं? तीन रुपये में तो आजकल नकली हीरे भी नहीं मिलते। यह तो नकल की भी नकल होगा। मगर मुल्ला सोच रहा है कि तीन रुपये खर्च किये...तो कह रहा है कि तीन रुपये बेकार गए अगर असली न हो! असली हीरे इतने सस्ते नहीं मिलते। और जितनी विशिष्ट होती है कोई चीज उतनी मूल्यवान होती है।
फिर, वैविध्य में मूल्य होता है। इस जगत में अगर एक ही एक स्वर हो तो बड़ी ऊब पैदा हो जाए। मुल्ला नसरुद्दीन सीखता था सितार बजाना, मगर बस वह एक ही रें रें...रें रें...करता रहता। बस एक ही तार को घिसता ही रहता, घिसता ही रहता, घिसता ही रहता। उसके पड़ोस के लोग परेशान हो गए, पत्नी परेशान हो गई, बच्चे परेशान हो गए। एक दिन सारे मोहल्ले के लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन, हमने बहुत बजानेवाले देखे हैं, मगर तुम अदभुत हो...बस यह रें रें रें रें एक ही स्वर! एक ही तार को घिसते-घिसते तुम थक नहीं जाते? हम सब थक गए हैं। और तार भी बजाओ, कुछ और स्वर भी उठाओ! हमने बहुत बजानेवाले देखे, वे तो काफी हाथ बदलते हैं।
मुल्ला ने कहा कि वे खोज रहे हैं अपना स्वर, मुझे मिल गया है! उनकी अभी तलाश चल रही है, मैंने पा लिया है, अब क्यों खोजूं?
जगत को तुम गौर से देखो, यहां सभी चीजें विविध हैं। यहां हर चीज अनूठी है। यहां अनंत धर्म होने ही चाहिए, क्योंकि यहां अनंत ढंग के लोग हैं। लेकिन अनंत धर्म होने का अर्थ यह नहीं है कि वे लड़ें ही। आखिर जुही को प्रेम करनेवाला गुलाब को प्रेम करनेवाले का सिर तो नहीं काट देता। और गुलाब को प्रेम करनेवाला यह तो नहीं कहता कि जब तक तुम गुलाब को प्रेम न करोगे तब तक तुम्हारा स्वर्ग नहीं हो सकता। गुलाब को प्रेम करनेवाला अगर यह कह देता है कि मुझे जुही नापसंद है, तो जुही को माननेवाले लट्ठ लेकर खड़ा नहीं हो जाता कि हमारी धार्मिक भावना को चोट पहुंच गई, धार्मिक जजबात को चोट पहुंच गई। यह मर्जी-मर्जी की बात है। किसी को गुलाब रुचा है, किसी को कमल रुचा है, किसी को कुछ और रुचा है। इसमें किसी की क्या भावना को चोट पहुंचनी चाहिए? तो तुम्हारी भावना ही गलत है, जिसको चोट पहुंच जाती है।
भावना निजी बात है। तुम्हारी भावना का तुम्हारे भीतर सम्मान है, ठीक है। किसी को किसी और चीज का रस है, वह भी ठीक है।
लोग आनंदित हों, लोग प्रभु-समर्पित हों--किस बहाने होते हैं, किस निमित्त होते हैं, इससे क्या भेद पड़ता है? कोई गीता को पढ़कर मस्त हो गया, बस मस्ती की बात है। कोई कुरान को गुनगुनाते-गुनगुनाते रस में डूब गया, बस रस में डूब जाना बात है।
लेकिन तुम कहते हो: क्या यह अच्छा नहीं होगा कि पृथ्वी पर एक ही धर्म हो? नहीं, यह अच्छा बिलकुल नहीं होगा। जगत बहुत दरिद्र हो जाएगा। जरा सोचो, बस कुरान ही कुरान जगत में, न कोई गीता, न कोई धम्मपद, न ताओत्तेह-किंग, न वेद, न उपनिषद। जरा सोचो, बस बाइबिल ही बाइबिल...हरेक आदमी बाइबिल लिए चला जा रहा है। बड़ी उदास हो जाएगी दुनिया, बड़ी बेरौनक हो जाएगी। धर्म तब एक जीवंत घटना न रह जाएगी--मुर्दा हो जाएगा धर्म। मंदिर भी चाहिए गांव में, मस्जिद भी चाहिए, गुरुद्वारा भी चाहिए, गिरजा भी चाहिए। इन सबसे जिंदगी में रस आता है। इनसे जीवन में अनेक रंग आते हैं। ये सब सुंदर हैं। और तुम्हारे मन में यह खयाल है कि इससे भाईचारे में बढ़ौतरी होगी, अगर एक धर्म होगा और हिंसा-वैमनस्य और वाद-विवाद बंद होंगे--तो तुम गलती में हो।
आदमी जब तक लड़ना चाहता है, नए-नए बहाने खोज लेगा। लड़नेवाले को बहाने चाहिए। लड़ाई असली चीज है।
तुम्हें पता है, भारत उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले एक था! हिंदू-मुसलमान लड़ते थे। बड़ा दंगा-फसाद था। सोचा कि चलो दोनों अलग हो जाएं, पाकिस्तान हिंदुस्तान बन जाए, दंगा-फसाद कम हो जाएगा। तब तक कभी हिंदू हिंदू से न लड़े थे और मुसलमान मुसलमान से न लड़े थे, क्योंकि हिंदू मुसलमान से लड़े रहे थे तो लड़ाई का मजा तो आ ही रहा था। हिंदू-हिंदू से क्यों लड़ें? जैसे ही हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बटवारा हो गया, बड़े आश्चर्य की घटनाएं घटनी शुरू हो गईं। गुजराती-मराठी में विरोध हो गया। उत्तर-भारतीय दक्षिण-भारतीय में विरोध हो गया। हिंदीभाषा गैर-हिंदीभाषी में छुरेबाजी होने लगी। नए बहाने हैं। कोई भी बहाना काफी है। बंबई गुजरात में रहे कि महाराष्ट्र में...करो छुरेबाजी। बंबई वहीं की वहीं है, मगर आदमी छुरेबाजी करने लगे। एक जिला कर्नाटक में रहे कि महाराष्ट्र में...करो छुरे बाजी।
पाकिस्तान में भी वही हुआ। बंगाली मुसलमान पंजाबी मुसलमान से लड़ने लगा। पाकिस्तान दो हिस्सों में टूट गया। अभी भी पंजाब में पंजाबी मुसलमान और सिंधी मुसलमान में झगड़ा है। यह कभी किसी ने सोचा ही नहीं था कि पंजाबी मुसलमान और सिंधी मुसलमान में झगड़ा होगा, पंजाबी मुसलमान और बंगाली मुसलमान में झगड़ा होगा! दोनों कुरान को मानते, दोनों एक ही मस्जिद में जाते, दोनों का एक पैगंबर है--मगर एक बंगाली बोलता है और एक पंजाबी बोलता है और झगड़ा हो गया। और देखा बंगला देश में कितना भयंकर रक्तपात हुआ! मुसलमानों ने मुसलमानों को भून डाला। तुम सोचते थे कि मुसलमान हिंदू का ही झगड़ा होता है, तो तुम गलती में हो। और जैसा पाकिस्तान में हुआ कि बंगला देश अलग हुआ तो मुसलमानों ने मुसलमानों को भून डाला, कभी तुम्हारे देश में होगा तो तुम भी देख लेना, हिंदू हिंदू को भून डालेंगे। जरा दक्षिण उत्तर भारत से अलग होने की कोशिश तो करे, फिर तुम देखना किस तरह हिंदू हिंदुओं को भून डालते हैं! फिर तुम इसकी बिलकुल फिक्र न करोगे कि ये उसी मंदिर में जाते हैं, उसी गीता को मानते हैं। फिर कौन फिक्र करता है!
झगड़े के लिए तो आदमी बहाने खोज लेगा। राजनैतिक विचारधाराओं के झगड़े शुरू हो जाएंगे। आखिर फासिस्ट और कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट, ये भी लड़ते हैं और काटते हैं। इससे कुछ हल न होगा। समझ आनी चाहिए। धर्म एक हो जाएं तो दूसरे बहानों से झगड़ा होगा। आदमी किसी भी बात से लड़ सकता है। तुम चकित होओगे जानकर कि ऐसी छोटी बातों पर आदमी लड़ते हैं...समझ लो कि एक गांव में दो फुटबाल की टीम हैं, उसमें भी झगड़ा हो जाता है। एक फुटबाल की टीम को माननेवाले दूसरी फुटबाल की टीम को माननेवालों को छुरे भोंक देते हैं। और भेद क्या है उनमें...कि एक हरी ड्रेसवाली टीम को मानता है, एक नीली ड्रेसवाली टीम को मानता है। और जब दोनों की प्रतियोगिता होती है टीमों की, तो दोनों के भक्त इकट्ठे हो जाते हैं: फिर मारपीट होनी है, झगड़ा होना है।
कैसी क्षुद्र बातों पर झगड़े होते हैं! जरा गौर से देखो तो तुम एक बात समझ जाओगे कि आदमी झगड़ना चाहता है, वह असली बात है। बहाने कोई भी हो सकते हैं। कोई धर्म से झगड़ा नहीं हो रहा है; आदमी के भीतर झगड़े की वृत्ति है, धर्म निमित्त बन जाता है।
तो धर्म एक हो जाए, इससे झगड़ा नहीं मिट जाएगा। फिर झगड़े मिटाने के लिए धर्म एक करना हो तो पहले तो बहुत झगड़ा करना पड़ेगा, तब एक हो पाएगा, यह भी सोच लो। पहले तो बड़ी मारधाड़ होगी। वही तो हो रही है। मुसलमान भी तो कोशिश यही कर रहे हैं कि एक ही धर्म हो जाए और यही ईसाई कोशिश कर रहे हैं कि एक ही धर्म हो जाए और यही कोशिश बौद्धों की है कि एक ही धर्म...। सभी यही तो कोशिश कर रहे हैं, जो तुमने पूछा। कोशिश अलग नहीं है, उनकी कोशिश एक ही है; हालांकि सबके मन्तव्य अलग हैं। मुसलमान चाहता है कि सारी दुनिया में एक धर्म रह जाए--इस्लाम, बस; एक ईश्वर, एक पैगंबर, एक ही उसका धर्म, दुनिया में सब शांति हो जाएगी। मगर तुम गलती में हो। शिया सुन्नी से लड़ते हैं, छुरेबाजी होती है। हत्याएं होती हैं, आगजनी होती है।
और पहली तो बात है यह कि एक धर्म हो कैसे जाए, कोई पांच हजार साल से यही तो कोशिश चल रही है कि एक धर्म हो जाए। उस एक धर्म की कोशिश में कितनी हत्या हुई है! कौन करेगा एक? और एक करने पर अगर तुम्हें एक भी आदमी ऐसा मिल गया जिसने कहा कि मैं सम्मिलित नहीं होता इसमें, फिर तुम उसका क्या करोगे? इतनी बड़ी दुनिया, चार अरब आदमी हैं, एक आदमी ने कह दिया कि मैं सम्मिलित नहीं होता इसमें, फिर उसका क्या करोगे?...मारो उसको! काटो उसको!
फिर, सारे लोग धार्मिक हैं भी नहीं। अब जैसे रूस है, चीन है; ये तो अब नास्तिक देश हैं। ये तो कहते हैं कि धर्म होना ही नहीं चाहिए, तभी एकता हो पाएगी। एक धर्म नहीं, धर्म होना ही नहीं चाहिए। उनका भी एक खयाल है। वे कहते हैं: धर्म की वजह से झंझट होती है, झंझट ही छोड़ दो। सब धर्मों को विदा कर दो। मगर मजा यह है कि चीन में माओ की किताब की वैसी ही पूजा होती है जैसे कि मुसलमान कुरान की करते हैं और हिंदू गीता की करते हैं। तुम जानकर हैरान होओगे कि माओ की लाल किताब बाइबिल के बाद दुनिया में सर्वाधिक छपी किताब है! और रूस में माक्र्स की किताब का उसी तरह सम्मान है, दास कैपिटल का, जैसे हिंदुस्तान में गीता का और अरब में कुरान का। वही सम्मान!
और खयाल रखना, न तो सम्मान के लिए कोई कुरान को पढ़ता है, न सम्मान के लिए कोई वेद को पढ़ता है और न कोई दास कैपिटल को पढ़ता है। मैं बहुत कम्युनिस्टों को जानता हूं, जिन्होंने दास कैपिटल कभी पढ़ी ही नहीं; मगर वैसे ही जैसे कोई हिंदू वेद को पढ़ता है? चतुर्वेदी भी कहां चार वेद को जानते हैं? बस चतुर्वेदी नाम के हैं। दास कैपिटल, नाम भर याद है उन्हें। दास कैपिटल में क्या लिखा है, इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं है। न हिंदुओं को पता है कि वेद में क्या लिखा है। चौंक जाओगे तुम अगर तुम्हें बताया जाए कि वेद में क्या लिखा है, जैसे कम्युनिस्ट चौंक जाएगा कि दास कैपिटल में क्या लिखा है। ये किताबें अब पूजा की हो गई हैं। अब इन पर झगड़े शुरू होंगे। क्रेमलिन उसी तरह पूजा का स्थान बन गया है जैसे काबा और जैसे काशी और जैसे गिरनार और जैसे जेरूसलम। कोई फर्क नहीं है।
फिर कौन करेगा एक? कैसे करेगा कोई एक? किसको यह हक है एक कर देने का? नहीं, इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। भाईचारा अनेकता में होना चाहिए, तभी भाईचारा है! विविधता में होना चाहिए, तभी भाईचारा है। सारे धर्म जिएं और सारे धर्म मजे से जिएं और सारे धर्म एक-दूसरे को जीने में सहायता दें, तभी भाईचारा है। भाईचारा बड़ी और बात है। भाईचारा मन से लड़ाई की वृत्ति का विदा हो जाना है। बाहर की कोई रूपरेखा बदलने से भाईचारा नहीं पैदा होगा--अंतरात्मा बदलनी चाहिए।
और फिर मेरी नजर में तो, जितना वैविध्य हो उतना अच्छा। मैं तो चाहता हूं: और धर्म हों। मैं तो असल में ऐसा चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना धर्म हो। चार अरब आदमी हैं तो चार अरब धर्म होने ही चाहिए। इससे कम से काम नहीं चलेगा। और तब दुनिया में बड़ी सुगंध होगी।
वुसअते-बज्म? जहां में हम न मानेंगे कभी।
एक ही साकी रहे, और एक पैमाना रहे।।
इतने बड़े विस्तृत जगत में यह बात बेहूदी है कि एक ही साकी रहे, एक ही पैमाना रहे। नहीं, यह हम न मानेंगे।
वुसअते-बज्म? जहां में हम न मानेंगे कभी।
एक ही साकी रहे, और एक पैमाना रहे।।
इतने विस्तार, इतने बड़े आकाश में, इतने अनंत अस्तित्व में एक ही साकी और एक ही मयखाना और एक ही पैमाना...तो जिंदगी बड़ी ओछी हो जाएगी।
सब की अपनी-अपनी राहें
सब राहों से मिलकर बनता
राजमार्ग वह
जिस पर युग के चरण बढ़ रहे!
बढ़ते चरणों को मत रोको
जीवन का सागर असीम है।
जीवन-सत्य नहीं सीमित है
एक व्यक्ति में।

बढ़ते चरणों को मत रोको
जीवन का सागर अगाध है,
जीवन-सत्य नहीं सीमित है
एक दृष्टि में!

रंग-बिरंगे फूल यहां खिलने दो,
रंग-बिरंगे फूलों से
सजती वह थाली,
जो करती जीवन का अर्चन
जो महान है!
जीवन-सत्य नहीं सीमित है
एक रंग में!

सब को अपना सृजन-गीत
मुक्त गाने दो!
सब गीतों से मिलकर बनता
महाराग जो
वंदन करता है जीवन का
जो विशाल है!
जीवन-सत्य नहीं सीमित है
एक गीत में!
जीवन-सत्य को कभी भी सीमित मत करो--न एक गीत में, न एक गीता में! न एक रंग में, न एक ढंग में, न एक शैली में। यह मनुष्य की हिंसात्मक वृत्ति है, जो चाहती है कि दूसरे भी मेरे ढंग से चलें; जो चाहती है, जैसे मैं जगत को देखूं वैसे ही दूसरे भी देखें। यह कोई अच्छे आदमी का लक्षण नहीं है। यह कोई सदपुरुष का लक्षण नहीं है कि मैं जैसा मैं देखता हूं वैसा ही सब देखें; और अगर न देखें तो आंखें फोड़ दो उनकी।
एक मुसलमान खलीफा ने अलग्जेंड्रिया पर हमला किया। अलग्जेंड्रिया में उस समय दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। उस पुस्तकालय में इतनी किताबें थीं कि कहते हैं कि उस पुस्तकालय के नष्ट होने से जितनी जगत की हानि हुई है और किसी चीज से नहीं हुई है। उस पुस्तकालय में इतने हस्तलिखित ग्रंथ थे कि आग लगा दी खलीफा ने तो छह महीने तक आग जली, तब बुझी। उस पुस्तकालय में उन सभ्यताओं का सारा उल्लेख था जो खो गई हैं। अतलांतिस नाम के महाद्वीप  का उल्लेख था, जो सागर में डूब गया। उस पुस्तकालय में अतीत के सारे रहस्यों का संग्रह था, जो सदियों-सदियों में खोजे गये हैं और फिर आदमी भूल जाता है। वह मनुष्य की बड़ी अपार संपदा थी, लेकिन जिस खलीफा ने उसको आग लगाई, वह तुम्हारे जैसा रहा होगा। उसने एक हाथ में मशाल ली और एक हाथ में कुरान लिया और पुस्तकालयाध्यक्ष के पास जाकर कहा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं कि तुम्हारे इस पुस्तकालय में जो है, क्या वह वही है जो कुरान में है? अगर तुम्हारा उत्तर हो कि हां वही है जो कुरान में है, तो फिर इस पुस्तकालय की कोई जरूरत नहीं, कुरान काफी है। और मैं इसे आग लगा दूंगा। और अगर तुम कहो कि इस पुस्तकालय में वह भी है जो कुरान में नहीं है, तब तो इस पुस्तकालय की बिलकुल ही जरूरत नहीं है, क्योंकि जो कुरान में नहीं है वह तो निश्चित ही गलत होगा; अगर वह सही होता तो कुरान में होता ही। तब भी मैं इस पुस्तकालय को आग लगा दूंगा। बोलो तुम क्या कहते हो?
जरा सोचो, वह अध्यक्ष क्या कहे? दो ही उत्तर संभव थे--एक कि जो कुरान में है वही पुस्तकालय में है। खलीफा कहता है: तो आग लगा दूंगा। या दूसरा कि जो कुरान में है उससे बहुत कुछ भिन्न इस पुस्तकालय में है। तब भी खलीफा कहता है कि तब तो और भी जल्दी आग लगा दूंगा। कोई उत्तर नहीं था। अध्यक्ष की आंख से आंसू गिरते रहे। और क्या उत्तर दे सकता था? इस तरह के मूढ़ व्यक्तियों को क्या उत्तर दिए जा सकते हैं? आग लगा दी गई। छह महीने में आग बुझी और मनुष्य-जाति की अपार संपदा नष्ट हो गई।
नहीं, यह धार्मिक व्यक्ति का लक्षण नहीं है। धार्मिक व्यक्ति तो आह्लादित होगा कि कोई कुरान में मस्त होता है कोई गीता में कोई बाइबिल में। मस्ती दुनिया में बनी रहे! किस बोतल से तुम पीते हो...पीनेवाले बने रहें। किस प्याली में तुम पीते हो, इससे क्या लेना-देना है, पीनेवाले बने रहें। यह मधुशाला चलती रहे। यहां से लोग परमात्मा के निकट पहुंचते रहें। कोई पूरब से कोई पश्चिम से, कोई पैदल चलकर, कोई बैलगाड़ी पर, कोई आकाश से उड़कर--कैसे तुम आते हो तुम जानो, तुम्हारी मौज, अपना वाहन तुम तय करो; मगर लोग परमात्मा तक आते रहें, बस इतना ही जरूरी है। न तो एक दृष्टि में सब समाता है, न एक गीत में सब समाता है, न एक रंग में। अस्तित्व विराट है। इस विराट को छोटा न करो।
अलग-अलग हों दीप
मगर है सबका एक उजाला
सबके सब मिल काट रहे हैं
अंधकार का जाला
किसी एक के भी अंतर का
स्नेह न चुकने पाये
तम के आगे ज्योतिपुंज का
शीश न झुकने पाये।
बस इतना ही खयाल रहे। इतना सदभाव पैदा हो। एक धर्म से कुछ भी न होगा--सदभाव पैदा हो। आज धर्म का झगड़ा है, कल संगीत का झगड़ा ले लोगे कि हम तो शास्त्रीय संगीत में मानते हैं, आधुनिक संगीत में नहीं। फिर कहोगे: एक ही संगीत हो। फिर कल भाषा का झगड़ा होगा और कहोगे: एक ही भाषा हो। और कल झगड़ा होगा कि लोगों की लंबाइयां किसी की कम किसी की ज्यादा हैं, एक ही लंबाई हो। और फिर झगड़ा होगा कि किसी की नाक लंबी, किसी की चपटी, किसी के बाल ऐसे, किसी के वैसे, किसी के सफेद बाल किसी के काले बाल और किसी के और रंग के, इन सबको एक करना होगा। तुम करोगे क्या? ऐसे तो तुम आदमी को मिटा डालोगे।
नहीं, स्वीकार करो मनुष्य को उसकी अद्वितीयता में। और प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करो--रंग उसका काला हो कि गोरा, मस्जिद जाता हो कि मंदिर, जरा भी भेद न करो। और इससे कभी बाधा न डालो कि तुम्हारा अपना पक्षपात क्या है। तुम्हारा पक्षपात तुम्हारी निजी बात है। तुम्हारा लगाव क्या है ? तुम्हारा लगाव तुम्हारी बात है। इसे दूसरे पर थोपो मत और न कभी इतने झुको कि दूसरा तुम पर अपना लगाव थोप दे। एक-एक व्यक्ति की निजता का सम्मान बढ़ना चाहिए तो भाईचारा हागा। तो धर्म भी बने रहेंगे, भाषाएं भी बनी रहेंगी, गीत भी अलग-अलग होते रहेंगे--और फिर भी एक महागान पैदा होगा! अलग-अलग पगडंडियां, और सब मिलकर एक राजपथ निर्मित हो सकता है।

आखिरी प्रश्न:

ओशो, क्या कभी मेरी पूजा-प्रार्थना भी स्वीकार होगी? मैं अति दीन और दुर्बल हूं, कामी, लोभी, अहंकारी...सब पाप मुझ में हैं।

स बात का स्वीकार कि सब पाप मुझ में हैं, धर्म की शुरुआत है। यह पहला कदम है। यह पहली सीढ़ी है। यह शुभ है स्वीकार कर लेना कि मैं पापी हूं। इस स्वीकार से ही परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है।
तुम्हारे पाप कितने होंगे? उसकी करुणा बहुत बड़ी है! तुम्हारे पाप भी छोटे-छोटे हैं। उसकी करुणा के सागर के सामने तुम्हारे पापों का क्या मूल्य है? बह जाएंगे तिनकों की तरह। लेकिन स्वीकार हो तो बह जाएंगे, छिपाया तो बच जाएंगे। जिसने अपने पापों को छिपाया उसके पाप बचेंगे और बढ़ेंगे।
यह तो ऐसा ही है कि जैसे तुम चिकित्सक के पास जाओ और अपने घावों को छिपाओ, तो छिपाए घाव और बढ़ जाएंगे, नासूर बन जाएंगे उनमें मवाद पड़ जाएगी, सड़ जाएंगे। चिकित्सक को तो सब उघाड़ कर बता देना होता है।
ऐसे ही परमात्मा परम चिकित्सक है। तुम उसके सामने उघाड़ दो--तुम्हारा काम, तुम्हारा लोभ, तुम्हारा अहंकार। उसे सब पता ही है। छिपाने का कोई प्रयोजन भी नहीं है। तुम कह दो कि मैं ऐसा हूं और जैसा भी हूं मुझे अंगीकार करो। बुरा-भला जैसा हूं, तुम्हारी चरण-रज मुझे भी ले लेने दो।
और, तुम पूछते हो कि क्या कभी मेरी पूजा-अर्चना भी स्वीकार होगी?
स्वीकार से तुम्हारा क्या अर्थ है? क्या तुम चाहते हो तुम्हारी पूजा-अर्चना का कुछ प्रतिफल मिले? कोई पुरस्कार मिले? कोई प्रमाण मिले? तो तुम गलती में हो। तो तुमने पूजा-प्रार्थना अभी जानी नहीं। पूजा-प्रार्थना का फल पूजा-प्रार्थना में ही है। प्रार्थना में ही पूजा का फल है। प्रार्थना में ही पुरस्कार है। बाहर नहीं। फलाकांक्षा छोड़ो।
तुम अगर कुछ मांग रहे हो तो बड़ी भूल से भरे हो। मांगना नहीं परमात्मा से। दे तो धन्यवाद देना और मांगना मत। और तब बहुत बरसेगा। और मांगा तो संबंध टूट गया, क्योंकि जब भी कोई परमात्मा से कुछ मांगता है तो वह यह कह ही रहा है कि मुझे तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है, मुझे मेरी मांग से प्रयोजन है, मैं तुम्हारा उपयोग करना चाहता हूं, तुम्हारा शोषण करना चाहता हूं। चूंकि तुम्हारे बिना नहीं मिलेगा, इसलिए तुमसे मांग रहा हूं। तुम्हारे बिना मिल सकता तो सीधा ही ले लेता।
परमात्मा का अपमान है, जब भी तुम कुछ मांगते हो। और खयाल रखो, धर्म की अत्यंत महत्वपूर्ण बुनियादी बात यह है कि धर्म किसी फल की दौड़ नहीं है, फल के पीछे दौड़ नहीं है। धर्म किसी मंजिल की तलाश नहीं है। धर्म है यात्रा को मंजिल बना लेना; प्रार्थना को ही पुरस्कार बना लेना।
ऐ चश्मे-इंतज़ार! यह आलम है, दीदनी
सदियों का फासिला मेरी शामो-सहर में है
लाखों तसल्लियां हैं, मगर सूरते-सुकूं
मेरी नज़र में है, न दिले-चारागर में है
ऐ दोस्त! मेरी सुस्तरवी का गिला न कर,
मेरे लिए तो खुद मेरी मंजिल सफर में है
जिस दिन तुम्हारी मंजिल सफर में हो जाती है; जिस दिन यात्रा ही तुम्हारा गंतव्य हो जाती है; जिस दिन तुमने पूजा की वही तुम्हारा आनंद था--और उसके पार तुम्हारी कोई मांग नहीं और तुम धन्यवाद देते हो परमात्मा को कि तूने आज पूजा का अवसर दिया उसके लिए अनुगृहीत हूं, क्योंकि न मालूम कितने अभागे लोग हैं जिन्होंने आज पूजा नहीं की होगी; जिन्हें होश ही नहीं पूजा का; या जिन्हें होश भी है तो अभी कल पर टालते जाते हैं। अनेक हैं जिन्हें समय नहीं या समय भी है तो व्यर्थ के कामों में उलझाये रखते हैं। अनेक हैं जिन्होंने सोचा कि यह जिंदगी ऊपर-ऊपर की बस सब कुछ है, जिन्हें भीतर की कोई तलाश नहीं, कोई प्यास नहीं। मैं धन्यभागी हूं कि तूने मुझे आज पूजा का अवसर दिया; मैं धन्यभागी हूं कि तूने मुझे अवसर दिया कि मेरी आंखें मैं आकाश के तारों की तरफ उठा सकूं।
मांगो मत, मांगने से सब अड़चन हो जाती है। मांगनेवाला धार्मिक है ही नहीं। मांगनेवाले में और संसारी में कोई भेद नहीं है। संसारी भी मांग रहा है और फिर संन्यासी भी मांगे तो फिर भेद न रह जाएगा। संन्यासी तो जो मिला है उसका धन्यवाद देता है और संसारी वह है जो मिला है उसकी तो बात ही नहीं करता; जो मिलना चाहिए उसकी आकांक्षा करता है। संसारी आकांक्षा में जीता है; संन्यासी आभार में।
एक कोताह-नज़र, एक जरा दूर-अन्देश।
फर्क कुछ ज़ाहिदो-मैनोश की नीयत में नहीं।।
वह जो शराबखाने में शराब पी रहा है उसमें और वह जो जाकर मंदिर-मस्जिद में प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभु बहिश्त में जहां शराब के चश्मे बहते हैं, मुझे बुला, जल्दी बुला--इन दोनों में क्या फर्क है? एक यहां शराब मांग रहा है, एक वहां शराब मांग रहा है। एक कोताह-नजर...एक की दृष्टि जरा ओछी है, एक जरा दूर-अंदेश...दूसरा जरा दूर तक देख रहा है, परलोक तक देख रहा है। भेद क्या है? एक का लोभ जरा छोटा है, एक का लोभ जरा बड़ा है। एक कहता है यहीं कुल्हड़-भर मिल जाए, चलेगा; दूसरा कहता है, इतने से हमारा दिल राजी नहीं होगा, हमें तो झरने के झरने चाहिए।
एक कोताह-नज़र, एक जरा दूर-अन्देश।
फर्क कुछ ज़ाहिदो-मैनोश की नीयत में नहीं।।
वह तुम्हारे तथाकथित तपस्वी और तुम्हारे तथाकथित भोगी की दृष्टि में कोई फर्क नहीं है। जिसने मांगा वह भोगी--और जिसने धन्यवाद दिया, वह त्यागी! जो मिला है, इतना है, उसके लिए धन्यवाद दो। कितना मिला है! यह स्वर्णिम अस्तित्व! यह मधुमय अस्तित्व! एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है! यह जीवन, यह वर्षा, ये हरे वृक्ष, यह बूंदाबांदी का संगीत! ये वृक्षों से बहती हुई हवाओं का नृत्य! यह क्षण! एक-एक क्षण इतना मूल्यवान है, इसके लिए धन्यवाद कब दोगे?
प्रार्थना धन्यवाद होनी चाहिए। प्रार्थना तभी होती है, जब मात्र धन्यवाद की सुवास उसमें होती है।
जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर!
शलभ के अनुराग ने ही,
दीप को जलना सिखाया।
वर्त्तिका का त्याग ही तो,
तिमिर में आलोक लाया।
ज्योति उज्जवल जागरित है,
नेह का उपहार पाकर।
जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।
एक प्रिय सुधि को संभाले,
एक आशा के सहारे।
फिर रही सरिता दसों-दिशि,
निज तृषित आंचल पसारे।
खो कहीं अस्तित्व देंगे,
प्राण पारावार पाकर।
जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।
अश्रु ही प्यारे उन्हें,
जिनको न विधि मुसकान देता।
शाप ही लेते संजो,
जिनको न विधि वरदान देता।
मन नहीं फूला समाता,
स्नेह की मनुहार पाकर।
जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।
हो भले ही या न हो,
पूजन कभी स्वीकार मेरा।
छीन सकता कौन है पर,
अर्चना-अधिकार मेरा।
साध कुछ बाकी नहीं है,
यह अमर अधिकार पाकर।
जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।
प्रार्थना की तुम्हें सूझ आयी, अब और क्या चाहिए? मिल गए सब पुरस्कार! बरस गया स्वर्ग!
हो भले ही या न हो,
पूजन कभी स्वीकार मेरा।
कौन चिंता करता है अब पूजन को स्वीकार करने की!
हो भले ही या न हो,
पूजन कभी स्वीकार मेरा।
छीन सकता कौन है पर,
अर्चना-अधिकार मेरा।
वही बात बड़ी है--अर्चना का अधिकार; अर्चना का अवसर; अर्चना का बोध।
छीन सकता कौन है पर,
अर्चना अधिकार मेरा।
साध कुछ बाकी नहीं है,
यह अमर अधिकार पाकर।
जो समझते हैं वे प्रार्थना से कुछ मांगते नहीं; उनकी प्रार्थना में मांग नहीं होती। वे प्रार्थना में प्रार्थी नहीं बनते। वे प्रार्थना में सिर्फ आनंदमग्न होते हैं, उत्सव मनाते हैं जीवन का। जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर!
उसने पुरस्कार दे ही दिए हैं; तुम उसके बिना एक क्षण नहीं हो सकते। वह बरसा ही रहा है तुम पर जीवन। वह तुम्हारी जीवन-वर्तिका को जला रहा है। वही तो जल रहा है तुम में। वही तो चल रहा है तुम में। वही तो बोल रहा है तुम में। वही तो सुन रहा है तुममें। उसके अतिरिक्त कोई यहां है नहीं। और तब फिर आंसू भी प्यारे हो जाते हैं।
अश्रु ही प्यारे उन्हें,
जिनको न विधि मुसकान देता।
फिर कौन फिकिर करता है मुसकान की! आंसू भी मुस्कुराने लगते हैं, जब धन्यवाद की यह समझ आ जाती है।
शाप ही लेते संजो,
जिनको न विधि वरदान देता।
वे अभिशाप को भी सजा लेते हैं, छाती से लगा लेते हैं। वे अभिशाप को भी सिर-माथे रख लेते हैं।
शाप ही लेते संजो,
जिनको न विधि वरदान देता।
मन नहीं फूला समाता,
स्नेह की मनुहार पाकर।
जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।
उसी के प्यार का आधार तो तुम्हारे दीपक को जला रहा है। अब और न मांगो। अब यह मत कहो कि क्या कभी मेरी पूजा-प्रार्थना भी स्वीकार होगी! स्वीकार हो ही गई। स्वीकार पहले हो गई, तब तो तुम पूजा कर सके, तब तो तुम प्रार्थना कर सके। उसने तुम्हें पहले ही पुकार लिया, तभी तो तुम पुकार सके। उसने तुम्हें पहले ही चुन लिया, तब तो तुम झुक सके; अन्यथा तुम्हारी सामर्थ्य कहां थी?
और मत समझो अपने को दीन और दुर्बल। इतना बड़ा अधिकार तुम्हारा है। प्रार्थना का, और क्या चाहिए? और कैसा बल चाहिए? इसी अधिकार में तो सारा मोक्ष छिपा है। यही अधिकार का बीज तो एक दिन मोक्ष बन जाएगा। मत चिंता करो दुर्बलता की और मत चिंता करो काम की, लोभ की, अहंकार की। तुम प्रार्थना में डूबो--अहंकार भी जाएगा, काम भी जाएगा, लोभ भी जाएगा। उल्टी बातें मत करो। तुम यह मत कहो कि पहले लोभ जाए, काम जाए, अहंकार जाए, तो मैं प्रार्थना करूंगा। तब तो प्रार्थना कभी न हो सकेगी।
मैं तुम्हें कुछ और ही कहता हूं। मैं उल्टी ही बात कहता हूं। मैं कहता हूं: प्रार्थना करो, अहंकार भी जाएगा, लोभ भी जाएगा, मोह भी जाएगा; ये शर्तें नहीं हैं, जो प्रार्थना करने के लिए पहले पूरी करनी हों। यह तो वैसा ही पागलपन हो जाएगा कि कोई कहे कि पहले अंधेरा हटाओ, फिर दीया जलेगा।
नहीं-नहीं पहले दीया जलाओ, अंधेरा तो दीए के जलते ही मिट जाता है।

आज इतना ही।





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