दिनांक
28 नवंबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार
:
1—आपका
असहाय बालक
रोता है।
आज
अंतरीये करूं
हूं आह्वान, नथी पूजा
आयोजन
केवल
आ मम तन-मन, तव दर्शन
दान।
2—मनुष्य
या तो काम-भोग
की अति में
चला जाता है या
फिर
उसके
विपरीत
काम-दमन की
कुंठा में। इस
विषय में
सहजऱ्योग की
क्या दृष्टि
है?
3—कौन
आया मेरे मन
के द्वारे, पायल की
झनकार लिये!
आंख
न जाने दिल
पहचाने, मूरतिया कुछ
ऐसी
याद
करूं तो याद न
आए, सूरतिया
कुछ ऐसी
पागल
मनवा सोच में
डूबा, एक
अनोखा प्यार
लिए।
4—काम, क्रोध, लोभ,
मोह जैसे
मनोविकारों
एवं अहंकार, मूर्च्छा
जैसी
अवस्थाओं के
ऊपर उठने के
लिए बुद्ध, महावीर और
सारे भारतीय
संतों ने
ध्यान-जागरण,
भजन कीर्तन,
सत्संग
जैसे उपाय ही
कहे हैं। पर
आप क्यों, क्या
जानकर भारतीय
मित्रों के
लिए अन्य उपायों
के साथ
थैरेपी-ग्रुप
जैसे नये उपाय
भी जोड़ रहे
हैं?
5—क्या
प्रेम जीवन की
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
घटना है?
पहला
प्रश्न:
ओशो, आपका असहाय
बालक रोता है।
आज
अंतरीये करूं
हूं आह्वान, नथी पूजा
आयोजन
केवल
आ मम तन-मन, तव दर्शन
दान।
तरु!
उतना काफी है।
रो सके कोई, बस
प्रार्थना
पूरी हो जाती
है। आंसुओं पर
प्रारंभ है, आंसुओं पर
ही अंत। शेष
सब फूल पराये
हैं, आंसुओं
के फूल ही
अपने हैं। शेष
सब, जो भी
आयोजन मनुष्य
करता है, स्थूल
हैं। स्थूल
आयोजन की कोई
आवश्यकता नहीं
है। सूक्ष्म
में भाव उठे, सूक्ष्म में
तरंग
जगे--आंसुओं
में बहे कि
गीतों में, नृत्य बने
कि संगीत--पर
मौलिक बात है
अंतर्तम में
उठे भाव। भाव
उठा कि भक्ति
हो गई।
शायद
किसी को सुनाई
भी न पड़े, जरूरी
भी नहीं है कि
आंख से आंसू
प्रगट ही हों;
आंख गीली हो
जाये, उतना
काफी है। आंख
तक आंसू आयें,
यह भी जरूरी
नहीं है; हृदय
गीला हो जाये,
उतना काफी
है।
हृदय
की आद्रता
प्रार्थना
है।
हरम-ओ-दैर
के कत्बे वोह
देखे, जिसको
फुर्सत है।
यहां
हद्दे-नजर तक
सिर्फ
उनवाने-मुहब्बत
है।।
मंदिर-मस्जिदों
के शिलालेख वे
लोग पढ़ें जिनके
पास फिजूल समय
है।
हरम-ओ-दैर
के कत्बे वोह
देखे, जिसको
फुर्सत है।
यहां
हद्दे-नजर तक
सिर्फ
उनवाने-मुहब्बत
है।।
यहां
तो जहां तक
दिखाई पड़ता है
वहां तक बस
प्रेम ही
प्रेम है। बस
प्रेम ही जीवन
का शीर्षक है।
सिर्फ
उनवाने-मुहब्बत
है: ऐसी
भावदशा का नाम
प्रार्थना
है। फिर न कोई
आयोजन करना
होता है, न
कोई अर्चना
करनी होती, न पूजा के
थाल सजाने
होते हैं।
ये
वृक्ष खड़े हैं
चुपचाप; यह
इनकी
प्रार्थना
है। पक्षी
गाते हैं; वह
उनकी
प्रार्थना
है। आकाश में
बादल भटकते हैं;
वह उनकी
प्रार्थना
है। सागर की
तरफ दौड़ती हुई
नदियां
प्रार्थनारत
हैं। यह सारा
अस्तित्व
प्रार्थना
में लीन है।
आयोजन तो कहीं
भी प्रार्थना
का नहीं हो
रहा; आयोजन
तो सिर्फ आदमी
करता है और
आदमी की भर प्रार्थना
झूठी हो जाती
है। आदमी
मंदिर बनाता है,
मूर्ति
बनाता है, थाल
सजाता है, मंत्र
पाठ करता है; ये सब झूठे
हैं ।
प्रार्थना तो
चल ही रही है--इन
वृक्षों के
सन्नाटे में,
इन बूंदों
की टपटप में।
सारा
अस्तित्व
प्रार्थना
में लीन है।
एक आदमी को ही
प्रार्थना का आयोजन
करना होता है।
सारा
अस्तित्व
प्रार्थना
में डूबा ही
हुआ
है--अहर्निश, दिन और रात, प्रतिपल
प्रार्थना चल
रही है।
परमात्मा में हैं
हम, तो
प्रार्थना के
बाहर कैसे हो
सकते हैं?
जो
तुम्हें कुछ
कहने का भाव आ
जाये, कह
देना; लेकिन
कहने से
प्रार्थना का
कोई संबंध
नहीं है, अनकही
भी पूरी हो
जाती है। हां,
कहने का भाव
आ जाये तो
दबाना मत, रोकना
मत; पीछे
चाहे क्षमा
मांग लेना
परमात्मा से।
बक
गया हूं जुनूं
में क्या-क्या
कुछ
कुछ
न समझे खुदा
करे कोई
प्रार्थना
तो एक मस्ती
है, एक जुनून
है; लेकिन
लोग तो
प्रार्थना का
कितना
क्रियाकांड
बना लिये हैं,
कितना गणित
बिठा लिये
हैं! कितनी
माला फेरनी, कितने नाम
जपने हैं, कितने
मंत्र-पाठ
करने हैं, किस
तरह पानी
चढ़ाना--लोगों
ने तो इतना
हिसाब बना
लिया है।
हमारे पास एक
शब्द है: कुशल।
तुम जानकर
हैरान होओगे,
"कुशल' शब्द
प्रार्थना के
तथाकथित
शास्त्र से
आया है। कुशल
उस आदमी को
कहते थे जो
जंगल से जाकर
प्रार्थना के
लिये सुंदरतम
कुश खोज लाये;
जो
श्रेष्ठतम
कुश खोज लाये,
क्योंकि
कुशों से फिर
पानी
ढालेंगे। यह
बात इतनी
महत्वपूर्ण
हो गई इस देश
में कि कुश
खोज लेने वाले
जो व्यक्ति थे,
जो कुशल
कहलाता
था...कुश लाना
तो अब रहा
नहीं, लेकिन
कुशल शब्द शेष
रह गया। अब
किसी भी कम में
जो होशियार
हैं, उसको
हम कुशल कहते
हैं। किसी भी
काम में जो होशियार
है, उसको
कुशल कहते
हैं! लेकिन
पैदा हुआ था
वह, प्रार्थना
का गणित
बिठाने में जो
कुशल था। उससे
उस शब्द की
यात्रा शुरू
हुई थी।
अब
प्रार्थना का
कुशलता से कोई
भी संबंध
नहीं--प्रार्थना
का संबंध है
निर्दोषता
से। कुशल तो
कभी
प्रार्थना न
कर पायेगा, कुशल तो
चालबाज है।
गणित और परमात्मा
का कोई संबंध
नहीं जुड़ता।
जहां गणित आया,
संबंध टूट
जाता है। गणित
तो लेन-देन की
दुनिया की बात
है, हिसाब-किताब
की दुनिया की
बात है।
प्रेम
का गणित से
क्या
लेना-देना है? प्रेम के
रास्ते अनूठे
हैं।
उनके
तसव्वुरात का
अल्लाह रे
करम।
तनहा
न एक लमहे को
रहने दिया
मुझे।।
उस
परमात्मा के
प्रेम में जो
डुबकी मार
लेता है उसका
ध्यान सतत
भीतर बहता ही
रहता है। धुन
बंध जाती है।
सोओ तो भी धुन
बंधी रहती है, टूटती नहीं।
जैसे श्वास
चलती रहती है
ऐसी उसकी धुन
चलती रहती है।
जस पनिहार धरै
सिर गागर! जैसे
पनिहारिन सिर
पर गागर लेकर
चलती है तो
हाथ का सहारा
भी नहीं देती,
सहेलियों
से बात करती
है, गीत
गाती है, गपशप
करती है, राह
में आ गये
लोगों से
हंसी-ठिठोली
कर लेती है--और
चलती जाती है,
मगर ध्यान
उसका लगा रहता
है गागर में!
ध्यानपूर्वक
सम्हाले रहती
है। जैसे मां
सोती है, आकाश
में बादलों का
गर्जन होता
रहे, बिजलियां
कौंधें, उसे
सुनाई नहीं
पड़ता, लेकिन
उसका बच्चा
जरा कुनमुना
दे और उसे
सुनाई पड़ जाता
है। कैसे? ध्यान
जुड़ा है!
ध्यान का
पतला-सा धागा
बंधा है।
प्रीति का
धागा बड़ा
सूक्ष्म है, लेकिन उतना
काफी है।
उनके
तसव्वुरात का
अल्लाह रे
करम! प्रभु के
ध्यान की धारा
बहती ही रहती
है, यह भी
उसकी अनुकंपा
है। तनहा न एक
लमहे को रहने
दिया मुझे! एक
क्षण को भी
परमात्मा
मुझे अकेला
नहीं रहने
देता; उसका
ध्यान बंधा ही
रहता है। और
फिर ध्यान बंध
जाये तो नर्क
भी स्वर्ग है।
फिर तुम्हें
कोई नर्क नहीं
भेज सकता। फिर
तो नर्क में
भी उसका ध्यान
बंधा रहेगा।
फिर तो विरह
की रात्रि भी
मिलन की
रात्रि है, सुहागरात
है। फिर
तुम्हें उससे
कोई दूर कर ही नहीं
सकता, कोई
उपाय ही नहीं
है। मौत भी
विदा न करेगी,
क्योंकि
मौत में भी
ध्यान बंधा ही
रहेगा।
शबे-हिजरां
की सख्ती हो
तो हो, लेकिन
यह क्या कम
है।
कि
लब पै रातभर
रह-रह के तेरा
नाम आयेगा।।
फिर
कितनी ही विरह
की रात्रि
लंबी हो, क्या
फर्क पड़ता है?
शबे-हिजरां
की सख्ती हो
तो हो! फिर
विरह की कितनी
ही चोट पड़ती
रहे, क्या
फिकिर? लेकिन
यह क्या कम है
कि लब पै
रात-भर रह-रह
के तेरा नाम
आयेगा। हो
जाये लंबी रात
विरह की, चिंता
नहीं और हो
जाये कठोर
विरह की चोट, चिंता नहीं।
जितनी होगी
रात लंबी उतनी
ही तेरी याद
गहन होती
जायेगी।
इंसान
मुसीबत में
हिम्मत न अगर
हारे।
आसां
से वो आसां है, मुश्किल से
जो मुश्किल
है।।
दुनिया
की तरक्की है
इस राज से
बाबस्ता।
इन्सान
के कब्जे में
सब कुछ है अगर
दिल है।।
बस
एक ही बात कर
लेने की है कि
तुम्हारा दिल
उसके साथ
धड़कने लगे, फिर नहीं
कोई जरूरत है
फिर किसी
व्यवस्था-आयोजन
की। इंसान
मुसीबत में
हिम्मत न अगर
हारे। और यही
मुसीबत का
क्षण है, जबकि
हम संबंध जोड़
नहीं पाते, जबकि हृदय
उसके साथ धड़क
नहीं पाता, जबकि हम
दूर-दूर पड़
जाते हैं।
इंसान
मुसीबत में
हिम्मत न अगर
हारे।
आसां
से वोह आसां
है, मुश्किल
से जो मुश्किल
है।।
मुश्किल
से मुश्किल
बात जो है इस
जगत में, वह
परमात्मा से
संबंध जोड़ना
है। लेकिन वही
सबसे आसान से
आसान बात हो
जाती है। बस
एक ही बात कर
लेनी है:
तुम्हारी
धड़कनों में बस
जाये वह।
कोई
मुझे झंझोड़
रहा है!
उड़ने
को प्राणों का
पंछी
पिंजरे
में सिर फोड़
रहा है!!
पिछली
रात, फुहार, चांदनी,
हवा
स्वप्न-से घोल
रही है;
दूर
कहीं
अनुरागमयी--
अध-जगी
फाख्ता बोल
रही है,
घायल
पंछी-सा कुछ
मेरी
छाती
में दम तोड़
रहा है!
कोई
मुझे झंझोड़
रहा है!!
झंझोड़ने
लगे उसकी याद
तुम्हें, जैसे
घायल पंछी
फड़फड़ाने लगे
पर--उड़ने को
आतुर हो जाये
पिंजड़े के
बाहर!
कोई
मुझे झंझोड़
रहा है!!
उड़ने
को प्राणों का
पंछी
पिंजरे
में सिर फोड़
रहा है!!
बस
प्रार्थना हो
गई! यह भाव जगा
कि मुक्त हो जाऊं, कि सारे
बंधन तोड़
दूं--कि टूटना
शुरू हो गये!
पिछली
रात, फुहार, चांदनी,
हवा
स्वप्न से घोल
रही है;
दूर
कहीं
अनुरागमयी--
अध-जगी
फाख्ता बोल
रही है,
घायल
पंछी-सा कुछ
मेरी
छाती
में दम तोड़
रहा है!
कोई
मुझे झंझोड़
रहा है!!
उड़ने
को प्राणों का
पंछी
पिंजरे
में सिर फोड़
रहा है!!
न
तो मंदिर जाओ, न मस्जिद, न
गुरुद्वारा।
जहां बैठ जाओ
वहीं मंदिर बन
जाये, वही
मस्जिद हो
जाये, वही
गुरुद्वारा।
बस हृदय में
याद को जगाओ।
गाता
हूं नित सांझ
सकारे!
तुम्हें
देखने को अधीर
जब
मैं
निर्वासित हो
जाता हूं,
संगीहीन
अंधेरे के
आकुल
क्रंदन
में खो जाता
हूं;
अपने
प्यासे गीतों
के तब
गीले
अंचल फैलाता
हूं,
इस
आशा में, हाय,
कि छू लूं
इन
से ही प्रिय
चरण तुम्हारे!
गाता
हूं नित सांझ
सकारे!!
गाओ!
गुनगुनाओ!
रोओ! नाचो!
गाता
हूं नित सांझ
सकारे!!
तुम्हें
देखने को अधीर
जब
मैं
निर्वासित हो
जाता हूं,
संगीहीन
अंधेरे के
आकुल
क्रंदन
में खो जाता
हूं;
अपने
प्यासे गीतों
के तब
गीले
अंचल फैलाता
हूं!
बस
इतना
पर्याप्त है।
तुम्हारी
प्यास से गीला
आंचल हो, तुम्हारे
आंसुओं की
अंजली
तुम्हारे
आंचल में
हो--बस
पर्याप्त है।
सब हो
गया--सारी
पूजा, सारी
अर्चना सध गई।
फिर न हो
मंत्र, चलेगा;
न हो
शास्त्र, चलेगा;
न हो मूर्ति,
चलेगा। फिर
कोई और आरती
नहीं सजानी; हृदय का
दीया जल जाये।
और
फिर तुम्हें
दोहरा दूं: यह
सारा
अस्तित्व प्रार्थनामय
है, सिर्फ
मनुष्य को
छोड़कर। सिर्फ
मनुष्य ही है
जो पूछता है:
प्रार्थना
कैसे करें? सारा
अस्तित्व
प्रार्थना कर
रहा है। तुम
जरा आंख खोलकर
तो देखो! पहाड़
प्रार्थना
में लीन हैं।
आकाश प्रार्थना
से भरा है।
सागर
प्रार्थना की
ही गुंजार कर
रहे हैं।
सिर्फ आदमी
पूछता है:
कैसे प्रार्थना
करें? और
"कैसे' में
ही चूक हो
जाती है।
"कैसे' की
कोई बात नहीं
है।
कलियों
में
मुस्का-मुस्का
कर
अलबेली
सुकुमार
मालती,
निज
सौरभ के
प्रेम-संदेसे
भेज
भ्रमर से
प्रीति पालती!
गेहविहीना
कोकिल का रव
देख
विजन कानन में
रोता,
आम्रमंजरी
सिहर-सिहर कर
देती
आतुर प्रेम
संदेसा!
रजनी
अंचल में मुख
ढक कर
स्वप्न
विधुर
प्रणयातुर
अंबर,
अश्रुकणों
में बिखरा
जाता
प्रेम-संदेसे
अवनि-वक्ष पर,
खद्योतों
के छिन्न हार
में
प्रेम-संदेसे
गूंथ-गूंथ कर,
चक्रवाक
का क्रंदन ले
निशि--
ऊषा
का अंचल देती
भर!
आम्रमंजरी
सिहर-सिहर कर
देती
आतुर प्रेम
संदेसा।
गेहविहीना
कोकिल का रव
देख
विजन कानन में
रोता।
चारों
तरफ चाहे
कोकिल का
क्रंदन हो और
चाहे
आम्रमंजरी से
उठती हुई सुवास
हो, यह सभी
प्रभु-चरणों
में समर्पित
है। यह सभी उस
प्यारे को
पुकारा जा रहा
है।
कलियों
में
मुस्का-मुस्का
कर
अलबेली
सुकुमार
मालती,
निज
सौरभ के
प्रेम-संदेसे
भेज
भ्रमर से
प्रीति पालती!
यह
जो मालती और
भ्रमर के बीच घटना
घट रही है, यह भक्त और
भगवान के बीच
घटी घटना का
ही एक रूप है।
गेहविहीना
कोकिल का रव
देख
विजन कानन में
रोता,
आम्रमंजरी
सिहर-सिहर कर
देती
आतुर प्रेम
संदेसा!
ये
सब प्रीति की
ही अलग-अलग
भाव-भंगिमायें
हैं। लेकिन
मनुष्य को एक
गलत बात सिखाई
गई है कि प्रेम
और प्रार्थना
विपरीत हैं।
इससे ही अड़चन
हो गई है।
इससे तुम
पूछते हो:
प्रार्थना
कैसे करें? और तुम सब
जानते हो कि
प्रेम कैसे
करें। मगर पंडितों
ने समझाया है
कि
"प्रार्थना
अलग ही बात है;
अलग ही नहीं,
उल्टी बात
है। प्रेम
छोड़ोगे तो
प्रार्थना होगी।'
बस यहीं चूक
हो गई। यहीं
से मनुष्य का
भटकाव शुरू
हुआ। अब
मनुष्य लाख
उपाय करे, समझ
में नहीं आता
कि प्रार्थना
कैसे करूं।
प्रार्थना
प्रेम का ही
निखार है।
प्रार्थना प्रेम
पर ही रखी गई
धार है।
प्रार्थना...अगर
प्रेम फूल है
तो प्रार्थना
सुवास है। और
अगर प्रेम
दीया है तो
प्रार्थना ज्योति
है।
एक
बात तुम्हारे
मन में साफ हो
जाये कि प्रेम
ही प्रार्थना
है, फिर अड़चन
न रह जायेगी।
तुमने अपनी
पत्नी को चाहा,
वह भी
प्रार्थना का
एक ढंग है। और
तुमने अपने बेटे
को चाहा, वह
भी प्रार्थना
का एक ढंग है।
और तुमने अपनी
मां को चाहा, वह भी
प्रार्थना का
एक ढंग है। और
तुमने अपने
मित्र को चाहा,
वह भी
प्रार्थना का
एक ढंग है।
यद्यपि बहुत
दूर उठना है
प्रार्थना को
अभी; जैसे
बीज से सुगंध
दूर है, ऐसे
ही तुम्हारे
प्रेम से
प्रार्थना
दूर है। मगर
बीज में ही
छिपी है। अभी
बीज टूटे, अंकुर
बने, वृक्ष
हो, वषर्ो
लगेंगे, फिर
फूल खिलेंगे,
फिर सुवास
उठेगी--मगर
बीज में सुवास
छिपी थी!
कीचड़
में कमल छिपा
है। और
जिन्होंने
कीचड़ का इनकार
कर दिया, वे
कमल से वंचित
रह जायेंगे।
कीचड़ का
त्यागकर दिया,
फिर वे
पूछेंगे: कमल
कहां से लायें?
और फिर कमल
उन्हें
मिलेगा नहीं।
फिर वे झूठे कमल
बनायेंगे। फिर
वे कमल की
तस्वीरों की
पूजा करेंगे।
परमात्मा
के नाम पर
तस्वीरों और
मूर्तियों की
पूजा हो रही
है और
परमात्मा
चारों तरफ
मौजूद
है--कहीं
तुम्हारे
बेटे की शकल
में, कहीं
तुम्हारे पति
की शकल में, कहीं
तुम्हारे भाई
की शकल में, कहीं
तुम्हारे
मित्र, पड़ोसी
की शकल में!
परमात्मा सब
तरफ मौजूद है।
तुम अपने
प्रेम को सब
दिशाओं से
प्रार्थना
में
रूपांतरित करो।
प्रेम की सब
धारायें
प्रार्थना के
सागर में
गिरने दो। फिर
अड़चन नहीं रह
जाती।
तरु!
कुछ और आवश्यक
नहीं है। तूने
पूछा: "आपका असहाय
बालक रोता है।'
बस
पर्याप्त है।
असहाय होने का
भाव और असहाय
अवस्था से उठा
रुदन: प्रार्थना
पूरी हो गई।
इसके पार और
कोई
प्रार्थना न है, न आवश्यक
है।
दूसरा
प्रश्न:
मनुष्य
या तो काम-भोग
की अति में
चला जाता है या
फिर उसके
विपरीत
काम-दमन की
कुंठा में। इस
विषय में
सहजऱ्योग की
दृष्टि क्या
है--इसे हमें समझाने
की कृपा करें।
योग
चिन्मय!
मनुष्य के
संबंध में
क्यों पूछते
हो? मनुष्य
यानी कौन? मनुष्य
को कहां
खोजोगे? मनुष्य
तो केवल एक
हवाई शब्द है।
कहीं राम मिलेगा,
कहीं रहीम
मिलेगा, मनुष्य
कहीं भी न
मिलेगा। कहीं
अ, कहीं ब, कहीं स; मनुष्य
कहीं भी नहीं
मिलेगा। मनुष्य
तो एक कल्पित
शब्द है। और
जब भी हम
कल्पित
शब्दों के
संबंध में
प्रश्न पूछने
लगते हैं तब
यथार्थ से दूर
हो जाते हैं।
मनुष्य
के संबंध में
न पूछो, स्वयं
के संबंध में
पूछो। क्यों
पूछते हो मनुष्य
या तो काम-भोग
की अति में
चला जाता है
या फिर इसके
विपरीत
काम-दमन की
कुंठा में? जैसे कि यह
तुम्हारा
प्रश्न नहीं
है! पूछ रहे हो
किसी मनुष्य
के संबंध में;
इससे
तुम्हारा कोई
लेना-देना
नहीं है!
पूछने के लिए
पूछ लिया है।
तो अगर पूछने
के लिए पूछ लिया
है--व्यर्थ है;
और या फिर
तुम्हारा
प्रश्न है। तो
सीधा पूछना चाहिये
कि क्यों मैं
काम-भोग की
अति में चला
जाता हूं या
फिर इसके
विपरीत
काम-दमन की
कुंठा में?
प्रश्न
तुम्हारा
होना चाहिये, तो ही तो
तुम्हें
उत्तर दे सकूं;
नहीं तो
मिलेगा जब यह
मनुष्य मुझे
तब इसे उत्तर
दे दूंगा। यह
तुम्हारा
प्रश्न तो है
नहीं।
खयाल
रखो: प्रश्नों
को जितना यथार्थ
बना सको उतना
अच्छा है। और
प्रश्न तुम्हारे
होने चाहिये।
तुम्हें क्या
चिंता मनुष्य
की? मनुष्य
से तुम्हें
लेना-देना
क्या है? पड़ने
दो मनुष्य को
काम-दमन में
या काम-भोग
में, तुम्हारा
क्या प्रयोजन
है? तुम तो
बाहर हो! तुम
तो इस झंझट
में नहीं हो!
यह तुम्हारी
पीड़ा तो नहीं
है। तुम
चिकित्सक के
पास यह तो जाकर
नहीं पूछते:
मनुष्य को
टी.बी. क्यों
हो जाती है, कि मनुष्य
को ऐसा क्यों
हो जाता है
वैसा क्यों हो
जाता है? कि
क्या करें कि
मनुष्य को
टी.बी. न हो? चिकित्सक
भी थोड़ा हैरान
होगा। पूछेगा:
मनुष्य कहां
है? किस
मनुष्य की बात
कर रहे हो? तुम्हें
कोई तकलीफ हो
तो उसका उपचार
हो सके, तो
निदान हो सके,
चिकित्सा
हो सके, विश्लेषण
हो सके। मगर
मनुष्य...मनुष्य
कहीं भी नहीं
है।
मनुष्य
तो एक तरकीब
है आदमी की।
जो बात हम सहज अपने
संबंध में
नहीं पूछना
चाहते, वह
हम मनुष्य के
संबंध में पूछते
हैं। जिन
बातों को हम
टालना चाहते
हैं...।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं: "हमें
मनुष्यता से
बहुत प्रेम
है।' मनुष्यता
से! मनुष्यता
को कैसे
आलिंगन करोगे?
मनुष्यता
का हाथ में
हाथ कैसे
पकड़ोगे? मनुष्यता
से प्रेम बड़ी
होशियार
तरकीब है, बड़ी
चालबाज बात हो
गई यह। मनुष्य
जो तुम्हारे
पड़ोस में रहता
है, उससे
नहीं है; मनुष्य
जो तुम्हारे
घर में रहते
हैं, उनसे
नहीं
है--मनुष्यता!
मनुष्यता से
प्रेम के नाम
पर तुम चाहो
तो जितने
मनुष्यों की
हत्या करना
चाहो कर सकते
हो। यही हुआ
है सदियों
में।
लोग
धर्म के नाम
पर आदमी को
मार रहे हैं।
मनुष्यता के
नाम पर आदमी
को मार रहे हैं।
शांति के नाम
पर, स्वतंत्रता
के नाम पर, लोकतंत्र
के नाम पर, साम्यवाद
के नाम पर।
नामों के
बहाने हैं। और
नाम इतने ऊंचे
हैं कि लगता
है कि अगर
लाख-दो लाख आदमी
मर भी गये
इतनी ऊंची बात
में, तो
हर्ज क्या है?
अडोल्फ
हिटलर आसानी
से तो नहीं
मार सका लाखों
लोगों को, मगर एक बड़ा
शब्द, सिद्धांत,
उसके नाम पर
मार सका।
स्टेलिन
लाखों लोगों
की हत्या कर
सकता था। एक
आदमी की हत्या
भी बिना कारण
करोगे तो
तुम्हें पीड़ा
होगी। लेकिन
मजे से कर
सका...साम्यवाद!
दुनिया
के धमरो ने
इतनी हत्या की
है जमीन पर कि
सारी जमीन
लाशों से भर
दी है, लहू-लुहान
सारा मनुष्य
का इतिहास कर
दिया है। धमरो
ने, जिनसे
शांति की
अपेक्षा होती
है...मगर ऊंचे
शब्द! ऊंचे
शब्दों में
यथार्थ छिप
जाते हैं। शब्द
परदे बन जाते
हैं।
चिन्मय, यह तुम्हारा
प्रश्न है।
पूछना चाहिए
सीधा-सीधा, ईमानदारी से
कि "मैं
काम-भोग की
अति में चला
जाता हूं या
फिर इसके
विपरीत
काम-दमन की
कुंठा में।' तब कुछ आसान
बात हो
जायेगी। तब
कहीं से शुरू
किया जा सके।
तब कुछ उपचार
हो सके। और इस
सब की जड़ में
काम-दमन है।
इन दोनों की
जड़ों में--काम
की अति और
काम-दमन की कुंठा
दोनों की जड़ों
में--काम-दमन
है।
पशु-पक्षी
कोई भी अति
काम में नहीं
जाते। यह होता
ही नहीं।
क्यों? क्योंकि
मौलिक
दुर्घटना अभी
नहीं घटी।
किसी ने
उन्हें काम के
विपरीत नहीं
समझाया है
इसलिये काम को
दबाया नहीं
है। काम को
दबाओ कि काम की
ऊर्जा इकट्ठी
होती है। जिस
चीज को भी
दबाओगे उस की
ऊर्जा इकट्ठी
होती चली जाती
है। जैसे कि
केतली को चढ़ा
दिया तुमने
चूल्हे पर और
चाय होने लगी
गरम और अब
केतली में भाप
इकट्ठी होने
लगी, और
उसके ढक्कन को
दबाये चले जाओ,
कहीं से भी
भाप निकलने न
दो तो
दुर्घटना
होगी, विस्फोट
होगा। किसी की
हत्या भी हो
सकती है। घर
में आग भी लग
सकती है। जो
आसपास हैं, खतरनाक है
वह केतली उनके
लिये, उनका
जीवन भी ले
सकती है।
रोज
तुम
जीवन-ऊर्जा
पैदा कर रहे
हो। फिर उस जीवन-ऊर्जा
को दबाने का
आयोजन चल रहा
है। भाप केतली
में पैदा हो
रही है और भाप
को दबाने की
कोशिश चल रही
है। कब तक
दबाओगे? एक
सीमा आ जायेगी
कि दबा न
सकोगे। जब दबा
न सकोगे, पेन्डुलम
घूम जायेगा
दूसरी अति पर।
फिर एकदम से
तुम पागल की
तरह काम-भोग
में लग जाओगे।
फिर जब
काम-भोग में
पागल की तरह
लगोगे तो
जल्दी ही टूट
जाओगे, जल्दी
ही
विषादग्रस्त
हो जाओगे।
चित्त खिन्न हो
जायेगा।
उदासी छा
जायेगी।
लगेगा सब असार
है। चित्त में
इतनी असारता
मालूम होगी, इतनी
व्यर्थता
मालूम होगी
काम की, कि
फिर तुम दमन
में लग जाओगे
कि चलो वापिस।
बस अब सिलसिला
जारी रहेगा।
यह तुम्हारे
जीवन-भर जारी
रहेगा। लेकिन
शुरुआत दमन से
होती है। अगर
दमन का भाव चला
जाये तो अति
अपने-आप विदा
हो जाती है।
कामवासना
का दमन नहीं
करना है, कामवासना
को
ऊर्ध्वरेतस
बनाना है।
ऊर्जा तो है; अगर तुमने
दबाया तो
विस्फोट
होगा। इसलिये
ऊर्जा का कोई
सृजनात्मक
उपयोग करना
जरूरी है। और
दबाने वाले
सृजनात्मक
उपयोग नहीं
करते। तुम
जानकर चकित
होओगे कि अगर
तुम संगीत में
डूब जाओ, अगर
तुम एक दो
घंटे वीणा बजा
लो
हृदयपूर्वक, तो तुम्हारे
मन में दिनों
तक कामवासना
पैदा नहीं
होगी।
क्योंकि जो
ऊर्जा
कामवासना में
पैदा होती थी
वह संगीत बनकर
प्रगट हो गई।
अगर तुम चित्र
बनाओ या
मूर्ति गढ़ो, अगर तुम
किसी भी ऐसे
कार्य में
अपने को पूरा
संलग्न कर दो
कि उसको करते
समय भूलना हो
जाये अहंकार
का, बिलकुल
भूलना हो
जाये...।
यह
सूत्र समझना।
कामवासना में
भी जो रस
मिलता है थोड़े
से क्षण-भर को, वह अहंकार
को भूलने के
कारण मिलता
है। सूत्र है:
अहंकार का
भूलना।
अहंकार बोझ
है। अहंकार
झूठ है--बड़े से
बड़ा झूठ। उसको
खींचने में
बड़ी तकलीफ हो
रही है। उसको
बनाये रखने
में पीड़ा हो रही
है। उसे
भुलाना चाहता
है आदमी
कभी-कभी, तो
कभी शराब पीकर
भुलाता है, कभी
कामवासना में
उतरकर भुलाता
है। कोई रास्ते
खोजता है कि
किसी तरह यह
भूल जाये। मगर
यह भुलाव क्षण-भर
को होता है, फिर याद
आयेगी।
जो
व्यक्ति जीवन
को सृजनात्मक
बना लेता है...फिर
सृजन किस बात
का, इससे भेद
नहीं
पड़ता--तुम
चाहे भोजन ही
पकाओ, लेकिन
भोजन पकाना
सिर्फ काम न
हो, सृजनात्मक
हो। तुम उसमें
अपने को पूरा
डुबा दो। तुम
अपने को
विस्मृत कर
दो। कोई भी
ऐसा काम
तुम्हारे
जीवन में
चाहिए, जिसमें
तुम अपने को
विस्मरण कर
पाओ। और
जैसे-जैसे यह
काम की गहराई
बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे
कामवासना
अपने-आप क्षीण
होती जाएगी और
तुम्हारे
भीतर
ऊर्ध्वगमन
शुरू हो जाएगा।
अगर
कोई व्यक्ति
गीत गा सके, नाच सके, सितार
बजा सके, कि
बांसुरी बजा
सके कि कोई भी
कार्य कर सके
ऐसा कि जिसमें
घंटों बीत
जायें और अपना
होश न आए, अहंकार
निर्मित न हो,
तो महीनों
तक के लिए
कामवासना
विदा हो
जाएगी। और एक
बार तुम्हें
यह सूत्र हाथ
में लग जाए तो तुम
चकित हो जाओगे
कि कामवासना
कोई पाप नहीं
है--तुम्हारे
भीतर ऊर्जा है,
महत ऊर्जा
है, जिससे
बहुत कुछ पैदा
हो सकता है।
इस जगत में जो
भी सुंदर हुआ
है पैदा, फिर
चाहे वह
ताजमहल हो, चाहे
खजुराहो के
मंदिर हों, चाहे
अजंता-एलोरा
की गुफायें
हों...!
तुम्हें
पता है कि
अजंता-एलोरा
की गुफाएं बौद्ध
भिक्षुओं ने
बनाई हैं!
तल्लीन हो गए होंगे।
खजुराहो, कोणार्क,
पुरी, भुवनेश्वर
के मंदिर
तंत्र-साधकों
ने बनाए हैं, सहजऱ्यानियों
ने बनाए। डूब
गए होंगे। वषरो
लगे होंगे।
जीवन पर जीवन
लग गए होंगे।
एक पीढ़ी में
भी नहीं बना
पाए होंगे, अनेक
पीढ़ियां लग गई
होंगी
तांत्रिकों
की। मगर डूबे
रहे, रसलीन!
और उसी
रसलीनता में
कामवासना से
मुक्त हो गए।
ताजमहल
सूफी फकीरों
की कल्पना है।
बनवाया तो एक
सम्राट ने, मगर
जिन्होंने
योजना दी, वे
सूफी फकीर
हैं।
जिन्होंने
निर्माण किया,
वे भी सूफी
फकीर हैं।
इसलिए ताजमहल
को अगर तुम
पूर्णिमा की
रात
घड़ी-दो-घड़ी
शांत बैठकर
देखते रहो तो
अपूर्व ध्यान
लग जायेगा।
सूफियों के
हस्ताक्षर
हैं उस पर।
आकृति ऐसी है
कि डुबा दे
ध्यान में।
लाखों
बुद्ध की
प्रतिमायें
बनीं, किसने
बनाईं? यह
दुकानदारों
का काम नहीं
है। यह
तकनीशियनों
का काम भी
नहीं है। ऐसी
प्रतिमायें
बुद्ध की बनीं
कि जिनके पास
बैठ जाओ...पत्थर
हैं, मगर
पत्थर में
इतना भर दिया,
पत्थर में
ऐसी आकृति दी,
ऐसा रंग
दिया, ऐसा
रूप दिया, ऐसा
भाव दिया, कि
पत्थर के पास
भी बैठ जाओ तो
तुम्हारे
भीतर कुछ थिर
हो जाए।
चीन
में एक मंदिर
है--दस हजार
बुद्धों का
मंदिर। उसमें
दस हजार बुद्ध
की
प्रतिमायें
हैं। सदियों
में बना।
भिक्षु बनाते
ही रहे, बनाते
ही रहे, बनाते
ही रहे। यह
काम-ऊर्जा का
ऊर्ध्वगमन
है।
लेकिन
इस देश में एक
भ्रांति फैल
गई कि संन्यासी
को कुछ करना
नहीं चाहिए, उसे कुछ
निर्माण भी
नहीं करना
चाहिए।
संन्यासी का
तो कुल काम
इतना है कि वह
सेवा ले, लोगों
से सेवा ले, खुद कुछ भी न
करे। लोग उसके
पैर दबायें बस
इतनी ही उसकी
कृपा बहुत है।
ये संन्यासी
कामवासना को न
दबायेंगे तो
क्या करेंगे?
और जब
कामवासना
दबायेंगे तो
आज नहीं कल
फूटेगी, पीछे
के दरवाजों से
निकलेगी।
योग
चिन्मय के मन
में इस पुराने
संन्यास से छुटकारा
नहीं होता। यहां
भी वह काम में
लगे हैं, मगर
डूबते नहीं
हैं। घड़ी
देखकर काम
करते हैं। यहां
जो डूबे हैं
उनको घड़ी की
कोई चिंता
नहीं रह गई
है।...काम ऐसा
करते हैं कि
करना पड़ रहा
है, मजबूरी
है। आश्रम के
हिस्से हैं तो
कुछ काम करना
पड़ेगा; लेकिन
ऐसा नहीं है
कि डूब जायें,
कि न दिन
देखें न रात, कि काम का रस
हो, कि काम
एक
सृजनात्मकता,
कि जो भी
करने को दिया
गया है वह
तुम्हारी साधना
है। इस तरह
नहीं। साधना
की तरह नहीं
कर पा रहे
हैं। वह
पुराना जो
भारतीय मानस
है कि संन्यासी
को तो बस
ध्यान
इत्यादि कर
लिया बहुत, कि थोड़ा
योगासन
इत्यादि कर लिए
बहुत, बस
पर्याप्त हो
गया।
फिर
ऊर्जा इकट्ठी
होगी। फिर इस
ऊर्जा का क्या
करोगे? फिर
अड़चन आयेगी।
अगर कामवासना
में डूबोगे तो
अति हो जाएगी।
अति होती ही
तब है जब किसी
चीज का दमन हो
गया हो। जैसे
किसी ने कुछ
दिन उपवास किया
हो, फिर
भोजन शुरू
करेगा तो अति
होगी। वह
ज्यादा भोजन
करेगा। लेकिन
जो आदमी रोज
सम्यक भोजन
करता रहा है, वह अति नहीं
करेगा। अति की
कोई जरूरत
नहीं है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
छोटे बच्चे भी, अगर उनको शक
हो कि मां समय
पर भोजन देगी
कि नहीं देगी,
तो अति कर
देते हैं, ज्यादा
दूध पी जाते
हैं, ज्यादा
खाना खा लेते
हैं। लेकिन
अगर पक्का
भरोसा होता है
बच्चे को कि
समय पर भोजन
मिलेगा, जब
जरूरत होगी तब
मिलेगा, तो
ज्यादा खाना
तो दूर, वह
खाने की फिकिर
ही छोड़ देता
है, कि जब
जरूरत होगी
तब। मां उसके
पीछे फिरती है
कि थोड़ा खाना
खा ले, मगर
उसे कोई फिकिर
नहीं, क्योंकि
आश्वस्त है।
तुम
जानकर चकित
होओगे कि
समृद्ध घरों
के बच्चों के
पेट बड़े नहीं
पाओगे, लेकिन
गरीब घर के
बच्चों के पेट
बड़े पाओगे। क्यों?
गरीब घर के
बच्चों के पेट
तो बिल्कुल
सिकुड़े होने
चाहिए, बड़े
नहीं होने
चाहिए। लेकिन
गरीब घर के
बच्चे ज्यादा
खाना खा जाते
हैं। वह गरीबी
का लक्षण
है--वह जो बड़ा
पेट है। वह
बता रहा है कि पता
नहीं कल भोजन
मिले कि नहीं;
सांझ भोजन
मिले कि नहीं;
अभी जब मिला
है तो जितना
करना है कर
लो। वह अति कर
रहा है। वह
भूख का लक्षण
है।
अति
हो जाती है
दमन से। तो एक
दफा अगर तुमने
कामवासना को
दबाया... और
दबाओगे नहीं
तो क्या करोगे, क्योंकि
कहीं
सृजनात्मक
किसी कृत्य
में उसे लगाना
नहीं है, सृजनात्मक
होना नहीं है।
तो इकट्ठी
होती जायेगी।
फिर एकदम से
अति होगी।
विक्षिप्त
ढंग से अति
होगी। और जब
अति होगी तो
थकोगे। अति
होगी तो ऊर्जा
अकारण बहेगी।
अति होगी तो
पीछे तुम खाली
रह जाओगे, रिक्त,
थोथे, चली
हुई कारतूस
जैसे। फिर मन
में विषाद
पकड़ेगा। फिर
वे पुरानी
भारतीय
धारणायें फिर
जोर मारेंगी
कि देखो
ऋषि-मुनि कह
गये हैं कि
कामवासना से
बचना; नहीं
बचे, अब
भोगो। अब
बिलकुल हो गए
खाली, अब
रिक्त; अब
जीवन बिलकुल
बेस्वाद
मालूम पड़ता
है। ऋषि-मुनि
ठीक कहते थे।
फिर
इकट्ठी
करोगे। और जब
ऊर्जा बहुत बढ़
जाएगी तब मन
कहेगा कि यह
तुम क्या कर
रहे हो? अब
यह केतली
फूटने के करीब
आ रही है। अब
फ्रायड और
जुंग और एडलर
ठीक कहते हैं
कि कामवासना का
निष्कासन
होना चाहिए, निकास होना
चाहिए। तो अब
करो निकास। जब
कामवासना दबा
लोगे तो जुंग,
फ्रायड और
एडलर याद
आयेंगे और जब
कामवासना अतिशय
से बह जाएगी
तब सब ऋषि
मुनि तुम्हें
याद आयेंगे।
अब तुम फंस गए
एक द्वंद्व
में। अब इस द्वंद्व
से तुम्हारा
बाहर होना
मुश्किल हो जाएगा।
इस
आश्रम के जो
अंतःनिवासी
हैं उनके लिए
मैं फिक्र कर
रहा हूं यही
कि उनका सारा
जीवन एक
सृजनात्मक
जीवन बन जाए।
संन्यासी
बहुत दिन जी
लिया
असृजनात्मक ढंग
से। उसकी आदत
खराब हो गई
है। वह काहिल, सुस्त, अपाहिज
हो गया है।
कुछ करना ही
भूल गया वह।
खाली बैठे
रहना और
व्यर्थ की
बातें करते
रहना--ब्रह्मचर्चा
इत्यादि--वही
उसका काम हो
गया है। उस
कारण वह अड़चन
में पड़ा है।
मगर
चिन्मय को समझ
नहीं आ रही।
इतने दिन यहां
रहकर भी जो
थोड़े-से लोग
काम में पूरी
तरह नहीं डूबे
हैं, उनमें से
वह अग्रणीय
हैं।
फिर
ये उलझाव खड़े
होते रहेंगे
और सीधा
पूछोगे नहीं; पूछोगे कि
मनुष्य...अब
मनुष्य को
क्या उत्तर दिया
जाए? कौन
है मनुष्य? उसके बाबत
जानकारी होनी
चाहिए, तभी
उत्तर दिया जा
सकता है। मैं
जो भी उत्तर दे
रहा हूं वे
उत्तर तभी
सार्थक होंगे
जब उन उत्तरों
को किसको दिया
गया है
तुम्हें याद
हो, नहीं
तो अड़चन होगी।
ये उत्तर हवा
में नहीं दिये
जा रहे हैं।
ये कोरे थोथे उत्तर
नहीं हैं।
इनका संदर्भ
है।
और
तुमने पूछा कि
इस विषय में
सहजऱ्योग की
दृष्टि क्या
है? जहां
दृष्टि होगी
वहां असहज हो
जाती है बात।
सहजऱ्योग की
कोई दृष्टि
नहीं है।
दृष्टि का मतलब
ही है: असहज।
सहजऱ्योग तो
कहता है: जैसे
हो ठीक हो।
प्राकृतिक हो,
बिल्कुल
ठीक हो।
नैसर्गिक हो,
बिल्कुल
ठीक हो। जब
भूख लगे भोजन
कर लेना और जब
नींद आए तो सो
जाना।
सहजऱ्योग
की कोई दृष्टि
नहीं है, यही
तो उसकी सहजता
है। जब दृष्टि
आती है, अड़चन
शुरू हो जाती
है। अभी भी
तुम दृष्टि
पूछ रहे हो।
तुम पूछ रहे
हो कि बता दें
दृष्टि--"दबायें
कि भोगें? सहजऱ्योग
की क्या
दृष्टि है?' अब दो ही
दृष्टियां हो
सकती हैं--या
तो दबाओ या भोगो।
सहजऱ्योग की
कोई दृष्टि
नहीं है। इसलिए
न दबाने का
सवाल है न
भोगने का सवाल
है। जो सहज
तुम्हारे
भीतर उठे उसे
जियो, स्वीकार
करो, अंगीकार
करो। जो भी
उठे बेशर्त
अंगीकार करो। दृष्टि
को लाने का
मतलब ही यह
होता है कि
तुमने स्वभाव
के ऊपर
सिद्धांत
लादना शुरू कर
दिया।
कोई
पशु-पक्षी
नहीं पूछता कि
दृष्टि क्या
है। मगर तुम
देखते हो
पशु-पक्षियों
को, कितने
सुंदर हैं, कितने सम्यक
हैं, कितने
स्वाभाविक
हैं!
एक
महाकवि वाल्ट
विटमेन ने
जंगल में पशु-पक्षियों
को देखकर एक
कविता लिखी।
उस कविता में
लिखा कि इन
पशु-पक्षियों
को देखकर मैंर्
ईष्या से भर
गया हूं--इतने
सहज, इतने
सुंदर, इतने
समतुल, इतने
संगीतपूर्ण!
जरा भी अति
नहीं! इतनी
सहजता!
अब
तुम थोड़ा सोचो
कि यह कैसी
मनुष्य की
दयनीय अवस्था
है! मनुष्य के
पास चेतना है, इस जगत में
सर्वाधिक बोध
है--और
पशु-पक्षियों सेर्
ईष्या करने की
हालत आ गई है, कि मन होता
है कि
पशु-पक्षी ही
होते तो अच्छा
था! यह हालत
कैसे पैदा हो
गई? यह
किसने पैदा
करवा दी? ये
कौन हैं लोग
जिन्होंने
आदमी के मन
में जहर घोल
दिया?
और
मैं तुम्हें याद
दिलाऊं कि ये
तुम्हारे
तथाकथित
धर्मगुरु तुम्हारे
मन में जहर
घोलने का कारण
हैं। मगर तुम
तो उनकी बातों
को अमृत मानकर
बैठे हो। तुम तो
पंडित-पुरोहितों
के पीछे अंधे
की तरह चले जा
रहे हो--अंधों
के पीछे अंधे!
सहजऱ्योग
की कोई दृष्टि
नहीं है। यही
तो सहज का
अर्थ होता है:
कोई दृष्टि
नहीं! जो
स्वाभाविक है, सुंदर है, स्वीकार है,
स्वागतऱ्योग्य
है। जब जो
तुम्हारे
भीतर उठता हो
उसे चुपचाप
अंगीकार करना;
दृष्टि
लाये तो अड़चन
आएगी। दृष्टि
कहेगी: यह ठीक
नहीं है, मत
करो। यह ठीक
है, इसे
जरा ज्यादा
करो। यह गलत
है, इससे
बचो।
सहजऱ्योग
कहता है: जो है
जैसा
है--परमात्मा
का दान है, परमात्मा की
देन है, परमात्मा
की भेंट है।
तुम उसे
अंगीकार करो।
तुम
बहुत डरोगे।
तुम्हारा डर
आयेगा--तुम्हारी
दमन की
धारणाओं के
कारण--कि
इसमें तो खतरा
है, इसमें
कहीं अति न हो
जाये! अति से
बचने का यही उपाय
है: होगी अति
कुछ दिन, शुरू-शुरू
में अति होगी,
मगर उसका
जुम्मा
सहजऱ्योग का
नहीं है, उसका
जुम्मा
तुम्हारे दमन
करवाने वाले
लोगों का है।
शुरू-शुरू में
अति होगी। कुछ
दिन तक अति
होने देना, ठीक है।
किसी
शाखा को पकड़कर
अगर वृक्ष की
तुम नीचे झुका
लो और फिर
छोड़ो तो शाखा थोड़ी
देर तक कंपेगी, कंपती रहेगी;
मगर हर कंपन
के साथ कंपन
छोटा होता
जायेगा। पहले
बहुत बड़े-बड़े
झोले लेगी, हिचकोले
लेगी; फिर
छोटे झोले
लेगी; फिर
और छोटे; फिर
और छोटे; फिर
और छोटे।
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे एक
घड़ी आयेगी, तुम पाओगे:
शाखा अपनी सम
अवस्था में आ
गई है।
ऐसी
ही चित्त की
दशा है।
तुम्हारा
चित्त खूब खींचात्ताना
गया है, इधर
खींचो उधर
खींचो।
तुम्हारे
भीतर बड़े कंपन
पैदा हो गये
हैं। तो जब
छोड़ दोगे सब
खींचना, तो
थोड़ी देर तक
तो कंपन जारी
रहेंगे, क्योंकि
अनंत-अनंत
जन्मों से
तुम्हारे
चित्त पर गलत
संस्कार हैं।
सभी
संस्कार गलत
होते हैं।
संस्कार
मात्र गलत
होते हैं। सभी
दृष्टियां
गलत होती हैं।
दृष्टि-शून्यता
सच होती है।
दृष्टि-शून्यता
ठीक होती है। दृष्टियों
से मुक्त हो
जाने पर दर्शन
उपलब्ध होता
है। दृष्टि का
मतलब होता है:
एक खास पक्षपात
है।
दृष्टि-मुक्ति
का अर्थ होता
है: अब कोई
पक्षपात नहीं
है। जो है
वैसा है। न
हमें बदलने की
कोई इच्छा है, न अन्यथा
करने की कोई
इच्छा है।
जरा
सोचो, जरा
ध्यान करो!
काश तुम ऐसा
अपने को छोड़
पाओ तो थोड़े
दिन कंपन
होंगे, उनसे
घबड़ाना मत, क्योंकि वह
स्वाभाविक
है। इतने दिन
तक शाखा को
खींचा गया है,
दबाया गया
है, अब
एकदम से छोड़ी
गई है तो
कंपेगी।
लेकिन वह कंपन
हितकर है।
शाखा क्यों
कंपती है
छोड़ने पर? जानते
हो, उसका
वैज्ञानिक
अर्थ क्या है?
तुमने शाखा
को पकड़कर जो
दमन किया था
शाखा की ऊर्जा
का, वह
ऊर्जा शाखा
फेंक रही है
कंपकर।
हिल-हिलकर शाखा
उस ऊर्जा को
निष्कासित कर
रही है। जब
सारी ऊर्जा
फिंक जायेगी,
शाखा ठहर
जायेगी।
तुमने एक
पत्थर हाथ में
लिया और फेंका
आकाश की तरफ।
कितने दूर
जायेगा? उतने
ही दूर जायेगा,
जितनी
ऊर्जा तुमने
पत्थर में
ठोंस दी।
तुमने जो
ऊर्जा पत्थर
में डाल दी, उसके कारण
जायेगा। हो
सकता है पचास
फीट जाये।
इसका अर्थ हुआ
कि तुमने पचास
फीट तक फेंकने
लायक ऊर्जा
अपनी उस पत्थर
में डाल दी थी;
वह विजातीय
थी। वह पत्थर
की अपनी नहीं
थी, उसका
स्वभाव नहीं
थी। पचास फीट
जाकर उसने उस
ऊर्जा से
छुटकारा पा
लिया। जैसे ही
ऊर्जा से छुटकारा
हो गया, पत्थर
गिर जायेगा
वापिस अपने स्वभाव
में।
ऐसे
ही तुम्हारे
चित्त को बड़ी
धारणाओं, दृष्टियों,
पक्षपातों
से लाद दिया
गया है। मेरा
सारा श्रम यही
है तुम्हारे
साथ कि किसी
तरह तुम अपने
स्वभाव में आ
जाओ। और
स्वभाव में
आने के लिये सबसे
पहली बात है
सहजऱ्योग की:
जो है जैसा है
उसे स्वीकार
कर लो। ठीक है,
वैसा ही ठीक
है। अन्यथा
करने की जरा
आकांक्षा न
रहे।
और
दूसरी बात:
कंपन होंगे।
अति भी होगी।
जागरूक रहकर
उस अति को झेल
लेना। वह अति
तुम्हारे विपक्ष
में नहीं है।
उस तरह दबाई
गई ऊर्जा अपना
निष्कासन कर
लेगी। इतना ही
खयाल रखना, फिर दमन
करने में मत
लग जाना। नहीं
तो सिलसिला
जारी रहेगा।
फिर द्वंद्व
के बाहर कभी न
हो पाओगे।
और
जो भी ऊर्जा
तुम्हारी रोज
निर्मित होती
है--भोजन से
निर्मित होती
है, चलने-फिरने
से निर्मित
होती है, श्वास
से निर्मित
होती है--उस
ऊर्जा का
सृजनात्मक
उपयोग करो।
कुछ करो, जिसमें
तुम अपने को
पूरा डुबा दो!
अब
यहां दोनों
तरह के लोग
हैं मेरे
आश्रम में।
जिन्होंने
अपने को पूरी
तरह डुबा दिया
है, उनके फूल
खिले जा रहे
हैं और जो
अपने को नहीं
डुबा रहे हैं,
चालबाजी कर
रहे हैं, उनके
फूल नहीं
खिलेंगे और वे
धीरे-धीरे
अपने-आप पीछे
पड़ते
जायेंगे। वे
धीरे-धीरे दूर
पड़ते
जायेंगे।
मेरे
पास होने का
एक ही उपाय है
कि तुम बेशर्त
भाव से डुबकी
मार जाओ। यह
जो झील मैं
यहां बना रहा
हूं ऊर्जा की, इसमें तुम
पूरी तरह
डुबकी मार
जाओ। बचाने को
है भी क्या? चालबाजियां
अगर जारी रखीं,
अगर चित्त
का गणित चलाकर
रखा, तो
ठीक है, चलाये
रखना; मगर
उससे सिर्फ
तुम खुद ही
धोखा खा रहे
हो, कोई और
धोखा नहीं खा
रहा है। मेरी
कोई हानि नहीं
है, न यहां
और लोगों की
कोई हानि है
तुम्हारे उस तरह
रहने और जीने
से। तुम्हीं
चूकोगे। फिर
तुम पछताओगे।
बुरी तरह
पछताओगे!
क्योंकि ऐसे
अवसर मुश्किल
से आते हैं।
तुम्हें दमन करवाने
वाले
पंडित-पुरोहित
तो लाखों मिल
जायेंगे; तुम्हारे
जीवन को
सृजनात्मक
क्रांति देने
वाला कभी-कभार
मिलेगा।
तीसरा
प्रश्न:
ओशो!
कौन
आया मेरे मन
के द्वारे
पायल की झनकार
लिये!
आंख
न जाने दिल
पहचाने
मूरतिया कुछ
ऐसी
याद
करूं तो याद न
आये सूरतिया
ये कैसी
पागल
मनवा सोच में
डूबा एक अनोखा
प्यार लिये!
कौन
आया मेरे मन
के द्वारे
पायल की झनकार
लिये!
वीणा!
एक ही है आने
को। वही आता
है। रूप हों
अनेक, रंग
हों अनेक--वही
आता है! वही
आता है मधुमास
की तरह, वही
आता है पतझड़
की तरह। वही
आता है
मरुस्थल की
तरह, वही
आता है बसंत
की तरह। वही
एक कभी
सन्नाटे की
तरह, कभी
आंधियों की
तरह। कभी आकाश
से बरसती धूप
में और कभी
घिरी हुई
बदलियों की
बूंदाबांदी
में। मगर आता
एक ही है। कोई
और है ही नहीं
आने को। वही
आने वाला है
और वही उसका
स्वागत करने
वाला है। वही
अतिथि है, वही
आतिथेय है। उस
एक का ही नाम
परमात्मा है।
और जब समझ में
आनी शुरू हो
जाती है बात
तो बड़ा
आश्चर्य होता
है कि इतने दिन
हम कैसे जी
लिये बिना
परमात्मा के,
जबकि वही
था! जिससे भी
मिले थे उसी
से मिले थे। जिससे
भी बोले थे
उसी से बोले
थे। जो भी आया
था उसमें वही
आया था और
द्वार दस्तक
दे गया था। हम
पहचाने क्यों
न?
बे
तुम्हारे मैं
जी गई अब तक।
तुमको
क्या खुद मुझे
यकीन नहीं।।
फिर
यकीन भी नहीं
आता कि
तुम्हारे
बिना कैसे जी
गई, जीवन
कैसे संभव
हुआ! और एक दिन
ऐसा हो जाता
है कि
परमात्मा वह
है, ऐसा भी
नहीं कह सकते;
परमात्मा
यह! ऐसा भी
नहीं कह सकते
कि तू, बल्कि
मैं! मैं और तू
का फासला भी
गिर जाता है।
यह
कैसी बेखुदी
है लिख गया
हूं।
मैं
अपने नाम के
बदले तेरा
नाम।।
तब...तब
जीवन में आनंद
की, अमृत की
वर्षा होती
है।
दैरो-काबे
की जियारत तो
फकत हीला है
जुस्तजू
तेरी लिये
फिरती है
घर-घर मुझको
और
उसी की खोज चल
रही है, फिर
चाहे तुम काबा
जाओ और चाहे
काशी।
दैरो-काबे
की जियारत तो
फकत हीला है।
ये तो सब बहाने
हैं। फकत
हीला! जुस्तजू
तेरी लिये
फिरती है
घर-घर मुझको।
कहीं भी जाओ, खोज उसी की
चल रही है। जब
तुम धन खोजते
हो तो भी उसी
को खोजते हो, क्योंकि वही
परमधन है और
जब तक वह न
मिलेगा, धन
न मिलेगा।
कितना ही धन
मिल जाये, धन
न मिलेगा; तुम
निर्धन के
निर्धन
रहोगे।
और
जब तुम पद
खोजते हो तब
तुम उसी को
खोज रहे हो, क्योंकि वही
परमपद है। और
जब तक वह न मिल
जाये तब तक
तुम किसी भी
पद पर पहुंच
जाओ, तुम
दो कौड़ी के हो,
दो कौड़ी के
रहोगे। कुर्सी
पर कितनी ही
ऊंची रख दो दो
कौड़ियां, इससे
क्या होता है?
राष्ट्रपति
की कुर्सी पर
दो कौड़ियां रख
दो, कौड़ी-कौड़ी
है; कोई
मूल्य में
फर्क नहीं पड़
जायेगा। इससे
कुछ भेद
पड़नेवाला
नहीं है। तुम
कौवे को बिठाल
दो सोने के
पिंजड़े में, मगर जब आवाज
उठेगी तो वही
कांव-कांव--कुछ
भेद न पड़ेगा।
कोयल न हो
जायेगा कौवा
सोने का
पिंजड़ा कुछ भी
न कर पायेगा।
पद पर पहुंचकर
भी तुम वही के
वही रहोगे जो
तुम थे, क्योंकि
जब तक परमपद न
मिल जाये तब
तक कोई पद मिलता
नहीं।
दैरो-काबे
की जियारत तो
फकत हीला है
जुस्तजू
तेरी लिये
फिरती है
घर-घर मुझको
और
जो यह समझ
लिया, वह तो
कहेगा--
मुझे
तमाम जमाने की
आरजू क्यों हो?
बहुत
है मेरे लिए
एक आरजू तेरी
एक
तेरी अभीप्सा
काफी है; सारी
अभीप्साओं को
उंडेल देता है
फिर एक ही अभीप्सा
में।
तुम
जो याद आये तो
सारी कायनात।
एक
भूली-सी कहानी
हो गई।।
फिर
तो सारा जगत
एक कहानी जो
कहीं पढ़ी हो
और भूल-भाल गई
हो, ऐसा हो
जाता है। जैसे
कोई फिल्म में
देखा हो या
कोई सपने में
पढ़ी हुई, सपने
में सुनी हुई
बात हो।
तुम
जो याद आये तो
सारी कायनात।
एक
भूली-सी कहानी
हो गई।।
परमात्मा
याद आना शुरू
हो तो शेष सब
अपने-आप असार
होने लगता है।
तुम्हें बार-बार
कहा गया है
परमात्मा
खोजो। और
तुम्हें
बार-बार यह भी
कहा गया है कि
संसार छोड़ो।
मैं तुमसे
कहता हूं:
संसार मत छोड़ो, परमात्मा ही
खोजो।
परमात्मा को
खोज लोगे, संसार
छूट जाता है।
उतना काफी है।
दीया जला लो, अंधेरा
समाप्त हो
जाता है। दो
बातें जो कहता
है...जो तुमसे
कहे कि भाई
दीया जलाओ और
अंधेरे को धक्के
लगाकर बाहर
निकालो, समझ
लेना कि वह
पागल है, उसे
कुछ पता नहीं
है। न उसका
दीया जला है
और न उसका
अंधेरा कटा है,
नहीं तो ऐसी
बात कह सकता
था कि भाई
दीया जलाओ और
अंधेरे को
धकाकर बाहर
निकालो, कि
भाई दीया जलाओ
और अंधेरे को
देख-देखकर
पहचान-पहचानकर
कोने-कोने से
घर के बाहर
निकल दो! जो
ऐसा कहे, समझ
लेना कि अंधा
है। जिसने भी
तुमसे कहा है
परमात्मा को
खोजो और संसार
को त्यागो, वह अंधा है, उसे कुछ पता
नहीं।
परमात्मा को
पाते ही संसार
अपने-आप
तिरोहित हो
जाता है। पता
ही नहीं चलता,
एक भूली-सी
कहानी हो जाती
है।
यह
चर्ख, यह
खुर्शीद, ये
अंजुम, यह
कमर
यह
कौसे-कुजह, यह दश्त, यह
सब्जएत्तर
यह
सरो, यह साहिल,
ये शगूफे, यह शफक
तुम
होते तो काहे
को भटकती यह
नजर
इतनी
भटकती रही
चांदत्तारे, फूल, सौंदर्य...न
मालूम
कहां-कहां
भटकती रही।
तुम होते तो
काहे को भटकती
यह नजर! आकाश, सूर्य, नक्षत्र,
चंद्रमा, इंद्रधनुष,
मार्ग, हरियाली,
सुंदर पेड़,
नदीत्तट, फूल -पत्ते, ऊषा
संध्याकालीन
सौंदर्य, कल्पनाओं
में, वार्तालापों
में, चित्ताकर्षक
ढंगों में, न मालूम
कहां-कहां
न्यौछावर
होते रहे!
प्रेम-भरी
गुप्त बातों
में।
यह चर्ख, यह खुर्शीद,
ये अंजुम, यह कमर
यह
कौसे-कुजह, यह दश्त, यह
सब्जएत्तर
यह
सरो, यह साहिल,
यह शगूफे, यह शफक
तुम
होते तो काहे
को भटकती यह
नजर
तखैयुल
में जगमगा रहे
हो
छुप-छुप
के यूं जला
रहे हो
आओ-आओ
मेरे मुकाबिल
पीछे
खड़े मुस्करा
रहे हो
यह
फूल-सा लहजा, यह रसीली
आवाज
यह
तेरे तकल्लुम
का दिल-आवेज
अंदाज
यह
लोच, यह नर्मी,
यह घुलावट,
यह कशिश
सद्के
तेरे इक लफ्ज
पै सौ
राजो-नियाज
एक
बार उसकी भनक
भर पड़ जाये कि
सब न्यौछावर
हो जाता है।
सद्के तेरे इक
लफ्ज पै सौ
राजो-नियाज!
उसकी एक झलक
मिल जाये कि
संसार अपने-आप
व्यर्थ हो
जाता है। तुम
होते तो काहे
को भटकती यह
नजर! उसकी
पहचान, उसकी
प्रत्यभिज्ञा
पर्याप्त है।
जरा प्रेम जगाओ।
हजारों
बार दुहराया
गया है लफ्ज
उल्फत का
मैं
तेरे सामने इस
लफ्ज को दुहरा
नहीं सकता
और
तब तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे। प्रेम
से ही
परमात्मा
मिलता है, लेकिन परमात्मा
से तुम यह न कह
सकोगे कि तू
मुझे प्रेम से
मिला।
क्योंकि
प्रेम शब्द का
तो तुमने इतना
दुरुपयोग
किया है।
कहां-कहां
नहीं कहते फिरे,
किस-किस से
नहीं कहते
फिरे। ऐसे लोग
हैं जो कहते
हैं कि मुझे
मेरे मकान से
बहुत प्रेम
है। ऐसे लोग
हैं जो कहते
हैं मुझे आइसक्रीम
से बहुत प्रेम
है। प्रेम
जैसा शब्द तुम
कहां-कहां
नहीं जोड़े
फिरे!
हजारों
बार दुहराया
गया है लफ्ज
उल्फत का
मैं
तेरे सामने इस
लफ्ज को दुहरा
नहीं सकता
मुझे
वहशी बना देती
हैं जब यादें
मुहब्बत की
मेरे
दिल को तेरे
सिवा कोई बहला
नहीं सकता
तेरी
हमदर्द नजरों
से मिला ऐसा
सकूं मुझको
कि
मैं ऐसा सकूं
मरकर भी शायद
पा नहीं सकता
मगर
मैं जिंदगी-भर
दोस्त तेरे
गीत गाऊंगा
और
ऐसे गीत जो
दुनिया में
कोई गा नहीं
सकता।
जब
परमात्मा की
झलक मिलेगी तो
तुम्हारे
भीतर गीतों के
फव्वारे
उठेंगे। पूछा
वीणा तूने--
"कौन
आया मेरे मन
के द्वारे
पायल की झनकार
लिये!
आंख
न जाने दिल
पहचाने
मूरतिया कुछ
ऐसी
याद
करूं तो याद न
आये सूरतिया
ये कैसी
पागल
मनवा सोच में
डूबा एक अनोखा
प्यार लिये!
कौन
आया मेरे मन
के द्वारे
पायल की झनकार
लिये!'
वही
आया है!
पहचानो, जागो!
उसके
अतिरिक्त और
आने को कोई है
ही नहीं।
चौथा
प्रश्न:
काम, क्रोध, लोभ,
मोह जैसे
मनोविकारों
एवं अहंकार, मूर्च्छा
जैसी
अवस्थाओं के
ऊपर उठने के
लिए बुद्ध, महावीर और
सारे भारतीय
संतों ने
ध्यान-जागरण,
भजन-कीर्तन,
सत्संग
जैसे उपाय ही
कहे हैं। पर
आप क्यों, क्या
जानकर भारतीय
मित्रों के
लिए अन्य उपायों
के साथ
थैरेपी-ग्रुप
(समूह-मनोचिकित्सा)
जैसे नये उपाय
भी जोड़ रहे
हैं--कृपा
करके
समझायें।
नरेन्द्र!
समय बुद्ध पर
चुक नहीं गया
है। परमात्मा
की यात्रा
जारी है।
परमात्मा
किसी तीर्थंकर, किसी पैगंबर
पर समाप्त
नहीं हो गया
है। फूल खिलते
रहेंगे, नई
सुगंध बिखरती
रहेगी।
लेकिन
तुम्हारे मन
लकीर के फकीर
हो जाते हैं। तुम
तो बस पकड़कर
बैठ जाते हो।
और तुम्हारी
इस पकड़ के
कारण नया
प्रभात जब
होता है तो
तुम देख ही
नहीं पाते; नया बुद्ध
जब आता है तो
तुम पहचान ही
नहीं पाते।
तुम तो पुराने
बुद्ध की
प्रतिमा से
ऐसे भरे होते
हो कि नए बुद्ध
की प्रतिमा
तुम्हारी समझ
में नहीं आती।
तुम तो पुराने
ही बुद्ध को
बार-बार देखना
चाहते हो। तुम
ऐसे दकियानूस
हो कि तुम
चाहोगे कि बस बुद्ध
उसी की तरह
जैसे आयें वही
के वही आते रहें।
जरा
सोचो तो, यह
दुनिया, कितनी
ऊब से न भर गई
होती, अगर
यहां बस एक ही
तरह के बुद्धपुरुष
आते रहते! बस
समझ लो कि
बुद्ध ही, गौतम
बुद्ध बार-बार
आते रहते, यह
दुनिया कितनी
ऊब से न भर गई
होती! यह
दुनिया बड़ी
सुंदर है। कभी
कृष्ण आते हैं,
तो बुद्ध से
कृष्ण का क्या
लेना-देना? कभी कृष्ण
को किसी वृक्ष
के नीचे ध्यान
करते देखा है?
कोई
प्रतिमा है कृष्ण
की कि वृक्ष
के नीचे
सिद्धासन में
बैठे हों। हां
नाचते जरूर
देखा है। पूरे
चांद की रात, वृक्षों के
तले, बांसुरी
बजाते जरूर
देखा है। और
फिर महावीर हैं,
उनका ढंग और,
उनका रंग
और। और फिर
क्राइस्ट हैं
और फिर मुहम्मद
हैं, फिर
मंसूर हैं, मूसा हैं, जरथुस्त्र हैं,
लाओत्सु
हैं, च्वांगत्सु
हैं, कबीर
हैं, नानक
हैं, सरहपा
हैं। ये
अलग-अलग
ढंग...मगर
तुम्हारी जिद कि
तुम चाहते हो
कि बस एक
टकसाल में आने
चाहिये
बुद्ध। तो जरा
हेर-फेर हुआ
कि बस तुम
अड़चन में पड़े।
तुम
जरा गौर से तो
देखो, दुबारा
कभी भी कोई
बुद्धपुरुष
दोहराया नहीं
गया है। गौतम
बुद्ध दो बार
नहीं होते, बस एक बार।
और न जीसस दो
बार होते हैं,
बस एक बार।
और न महावीर
दो बार होते
हैं, बस एक
बार। इससे
तुम्हें कुछ
बात समझ में
आती है कि
नहीं, कि
परमात्मा रोज
नये रूप लेता
है, रोज
नये आविर्भाव
होते हैं?
सागर
में लहरें
उठती हैं, एक-सी दो लहर
कभी उठती
देखीं? सागर
रोज-रोज नई-नई
लहरें उठाता
है, नये-नये
गीत गाता है।
तुम एक जैसे
दो कंकड़ ही सारी
पृथ्वी पर
खोजकर नहीं पा
सकते हो, दो
जुड़वां भाई भी
बिलकुल एक
जैसे नहीं
होते, तो
दो
बुद्धपुरुष
तो कैसे एक
जैसे होंगे?
कुछ
मैं ही अनूठी
बात नहीं कह
रहा हूं।
जिन्होंने
कृष्ण को पूजा
था और जब
बुद्ध आये
होंगे तो
उन्होंने भी
पूछा होगा कि
कृष्ण तो
बांसुरी
बजाते थे, बांसुरी
कहां है? और
जिन्होंने
महावीर को
पूजा
उन्होंने
जरूर बुद्ध से
पूछा है; इसके
तो प्रमाण हैं,
क्योंकि
दोनों
समसामयिक थे।
जो महावीर को
पूजते थे
उन्होंने
बुद्ध से पूछा
है कि आपने वस्त्र
क्यों नहीं
त्यागे?
इसलिये
जैन बुद्ध को
उस ऊंचाई पर
नहीं मानते जिस
ऊंचाई पर
महावीर को
मानते हैं।
महावीर तीर्थंकर
हैं। महावीर
भगवान हैं।
बुद्ध--महात्मा!
अभी
पहुंचते-पहुंचते
हैं, थोड़ा
फासला है।
पहुंच
जायेंगे।
महात्मा हैं,
भगवान नहीं!
क्यों? बस
वह एक चादर
महात्मा को
भगवान बनने से
रोक रही है।
बुद्ध एक चादर
ओढ़े हुए हैं।
चादर! अड़चन आ
रही है नहीं
तो वे भी
भगवान हो
जायें। भगवान तो
दिगंबर होते
हैं!
और
यह सदा होता
रहा। यह तो एक
देश के उदाहरण
ले रहा हूं; अगर दूसरे
देशों के
उदाहरण लो तो
और मुश्किल हो
जाये। जीसस से
क्या मेल है
बुद्ध का? जरा
भी मेल नहीं
है। दोनों की
प्रक्रिया
अलग, जीवन
का कोण अलग, जीवन को
दिया गया
संदेश अलग।
जीसस
के पास खबर आई
कि लजारस मर
गया, तो जीसस
भागे गये, उसकी
कब्र से लजारस
को उठा लिया
और जिंदा कर दिया।
तुम सोच सकते
हो बुद्ध को
ऐसा करते? बुद्ध
के पास भी ऐसी
घटना घटी। एक
स्त्री का बेटा
मर गया। एक ही
बच्चा था
उसका। पति मर
चुका था। वही
उसकी आंख का
तारा था। वह
रोती घूमने लगी।
लोगों ने कहा:
हम तो क्या
करेंगे, लेकिन
बुद्ध गांव
में हैं, तू
उनके पास
क्यों नहीं
जाती? शायद
महा करुणावान
हैं, कुछ
दया करें।
वह
स्त्री उस
बच्चे को लेकर
गई, बुद्ध के
चरणों में रख
दिया। अब जरा
सोचो, जीसस
के चरणों में
रखा होता तो
जीसस ने जैसे
लजारस को कहा
था, लजारस
उठ और लजारस
उठ गया था--ऐसा
ही वे इससे भी कहते
कि उठ और बात
खतम हो गई होती।
लेकिन बुद्ध
ने क्या किया?
बुद्ध ने उस
स्त्री से कहा
कि ठीक, तेरा
बेटा जाग
जायेगा, उठ
आयेगा; मगर
एक काम तू
पहले कर।
थोड़े-से बीज
मुझे चाहिये
सरसों के।
उसने
कहा कि सरसों
के बीज! आपको
पता है, यह
गांव सरसों की
ही खेती करता
है। यह सारे
गांव के
खेत-खलिहान सरसों
से ही भरे
हैं। कितने
चाहिये? अभी
ले आती हूं।
बुद्ध
ने कहा कि बस
एक मुट्ठी-भर
बीज, काफी हो
जायेंगे।
लेकिन एक बात
खयाल रखना: उस घर
से मांगकर
लाना, जिस
घर में कभी
कोई मरा न हो।
वह
स्त्री तो
इतनी खुशी में
थी कि उसका
बेटा जी
जायेगा, कि
उसे होश ही
कहां था! वह
भागी। इस घर
गई उस घर गई, गांव-भर में
सारे घर-द्वार
खटका डाले, लेकिन सभी
ने कहा कि
तुम्हें
जितना सरसों
चाहिये, बोरों
से भरवा दें, गाड़ी लदवा
दें, गाड़ियों
के ढेर लगवा
दें; मगर
हमारे सरसों
के बीज काम न
आयेंगे, हमारे
घर में तो
बहुत लोग मर
चुके हैं।
बुद्ध ने शर्त
ऐसी लगाई है
कि हम मानते
नहीं कि तुझे
कोई ऐसा घर
मिल सकेगा
जहां कोई मरा
न हो।
सांझ
होतेऱ्होते
उस स्त्री को
होश आया कि यह
तो बुद्ध ने
खूब मजाक
किया। कहां ये
बीज मिलेंगे? सभी घरों
में कोई-न-कोई
मर चुका है।
मरा ही है, पिता
मरा है, नहीं
तो पिता का
पिता मरा है, मां मरी है, नहीं तो मां
की मां मरी है,
कोई-न-कोई
मरा ही है।
असल तो बात यह
है कि घर में जिंदा
जितने लोग हैं,
उससे कई
गुना लोग मर
चुके हैं।
तुम
जरा सोचो तो, तुम हो, तुम्हारी
पत्नी है, बच्चा
है, तीन जन
हो; लेकिन
तुम जिस धारा
से आये हो
तुम्हारे
पिता, उनके
पिता, उनके
पिता, उनके
पिता...बाबा
आदम तक लौटो; फिर
तुम्हारी मां
और उनकी मां
और उनकी मां
और उनकी
मां...और मैया
हव्वा तक
लौटो। कितने
लोग मर चुके
हैं! और तुम
तीन बचे हो
कुल। मृत्यु
की कितनी लंबी
शृंखला है!
अनंत लोग मर
चुके हैं, तब
कहीं तुम तीन
हो। और तुम
तीन भी अभी
गये तभी गये।
कोई ज्यादा
देर टिकोगे नहीं।
सांझ
होतेऱ्होते
उसे गणित समझ
में आ गया।
उसे हंसी भी
आई कि मैं भी
कैसी पागल
हूं! जब सभी को
मर जाना है तो
कोई मेरा बेटा
बच थोड़े ही
जायेगा। सभी
को मरना है तो
फिर अभी मरे
कि कब मरे, क्या फर्क
पड़ता है! आज
मरा कि कल मरा,
क्या फर्क
पड़ता है! फिर
अच्छा ही हुआ
कि मेरा बेटा
मेरे सामने मर
गया। दुख मुझे
उठाना पड़ा। अगर
मैं मरती तो
मेरे बेटे को
दुख उठाना
पड़ता। कोई न
कोई तो मरता।
अच्छा ही हुआ
कि मैंने दुख उठाया,
मेरा बेटा
तो शांति से
मर गया।
लौटी, बुद्ध के
चरणों में गिर
पड़ी। बुद्ध ने
कहा: कहां हैं
वे बीज? उसने
कहा: आप छोड़ें
वह बात। आपने
भी खूब मजाक किया।
यह भी कोई
वक्त था मजाक
करने का? मेरा
बेटा मर गया...!
मगर
अब वह हंस रही
थी और उसने
कहा कि मुझे
दीक्षा दें, क्योंकि
मुझे यह बात
समझ में आ गई, यहां तो
मृत्यु ही
मृत्यु है। इस
मृत्यु के
सागर में हम
कैसे अमृत का
अनुभव कर लें,
इसका उपदेश
दें।
उसने
बेटे की लाश
की तरफ देखा
भी नहीं।
बुद्ध ने उसे
दीक्षा दे दी।
वह
संन्यासिनी
हो गई।
अब
जरा तुम सोचो
फर्क। अगर कोई
ईसाई मौजूद हो
तो बुद्ध से
कहेगा: यह
क्या कर रहे
हैं आप? जीसस
ने तो लजारस
को जिंदा किया
था! तो आप फिर
असली बुद्ध
नहीं हैं, नहीं
तो जिंदा करके
दिखलायें। और
अगर कोई बौद्ध
जीसस के सामने
मौजूद होता और
जीसस को देखता
लजारस को
उठाते तो
कहता: रुको!
बुद्ध ने कहा
था सरसों के
बीज। यह तुम
क्या कर रहे
हो? ये कोई
बुद्धों के
लक्षण हैं? अब मुदर्ो को
जिलाने से
फायदा भी क्या
है। फिर
मरेगा। एक बार
मरकर झंझट मिट
गई, अब तुम
दुबारा
मरवाओगे। और
भ्रांति पैदा
करोगे लोगों
में। बजाये
लजारस के
परिवार को
संदेश दो, कि
यहां तो
मृत्यु सभी की
घटनी है, इसलिये
जल्दी से
जल्दी अपने
भीतर जो छुपा
है उसको पहचान
लो, कहीं मौत
उसके पहले न आ
जाये।
तुम
दोनों में कोई
तालमेल देखते
हो? तुमने
कभी दो
बुद्धपुरुषों
में तालमेल
देखा है? लेकिन
तुम्हारी
मांग सदा यही
रही है। और
तुम्हारी
मांग के कारण
दुनिया में
बहुत नकलची
पैदा हो गये
हैं।
तुम्हारी
मांग के कारण
महावीर जैसे
दिखाई पड़ने
वाले न मालूम
कितने मुनि
हैं, जो
नंगे खड़े हैं;
जो सिर्फ
इसलिए नंगे
खड़े हैं कि जब
तक वे नंगे न
खड़े हो जायें
तुम मानोगे
नहीं कि वे
ज्ञानी हैं।
और कुछ नहीं
है उनके पास, सिर्फ
नंगापन है।
सिर्फ नंगे
खड़े हैं, क्योंकि
इसी से
तुम्हारा
समादर मिलता
है; इसी से
तुम्हारा
सम्मान मिलता
है; इसी से
तुम उनके
चरणों में
झुकते हो।
मेरी
कोई आकांक्षा
तुम्हारे
सम्मान पाने
की नहीं है, न तुम्हारा
समादर पाने की
है। मैं किसी
बुद्धपुरुष
को पुनरुक्त
करने को नहीं
हूं। मैं अपने
ढंग से
जिऊंगा। मैं
अपनी बात
कहूंगा।
इसलिये ये तो
तुम
अपेक्षाएं
छोड़ ही दो, यह
बार-बार नाम
मेरे सामने मत
उठाया करो कि
बुद्ध-महावीर
और ऋषि-मुनि।
तुम मुझे
उबाये दे रहे
हो बार-बार
बुद्धपुरुष
और
ऋषि-मुनियों
के नाम
उठा-उठाकर।
उनका वे
जानें। कहीं
तुम्हारा उनसे
मिलना हो जाये
तो उनसे पूछ
लेना कि आप
सामूहिक
मनोचिकित्सा
क्यों नहीं
करते?
मैं
अपने ढंग से
जिऊंगा। मैं
अपनी कोटि
स्वयं हूं।
मैं किसी की
पुनरुक्ति
नहीं हूं और न
मुझे रस है।
फिर, समय बदल रहा
है। रोज समय
बदलता है। जो
उस दिन की
जरूरत थी वह
बुद्ध ने किया
होगा। जो आज
की जरूरत है, वह मैं
करूंगा। उस
दिन की यह
जरूरत न थी।
लोग सरल थे।
लोग सीधे-सादे
थे। लोग
ग्राम्य थे।
अब
तुम थोड़ा
समझो। अगर एक
लकड़हारा, जो
जंगल में रोज
लकड़ी काटता है,
यहां आये, तो मैं उसे
सक्रिय ध्यान
करने को नहीं
कहूंगा, क्योंकि
वह दिन-भर
सक्रिय ध्यान
करता है। वह काटता
है लकड़ी।
तुमने देखा, अगर तुमको
क्रोध आये जरा
जाकर थोड़ी लकड़ियां
काटना, बड़ा
हलकापन लगेगा
उसके बाद।
एकदम शांति छा
जायेगी; जैसे
कि सब दुश्मन
काट डाले! वह
लकड़ी काटने में
उसकी सारी
हिंसा निकली
जा रही है; उसके
सारे भीतर का
रोष निकला जा
रहा है, क्रोध
निकला जा रहा
है। अगर
लकड़हारा यहां
आये तो उसे
मैं सक्रिय
ध्यान करने को
नहीं कहूंगा।
मैं तो उसे
कहूंगा:
विपस्सना करो,
शांत बैठो,
मौन बैठो।
एक
डाक्टर के पास
एक आदमी आया।
डाक्टर ने
उसकी नब्ज
देखी, थर्मामीटर
लगाकर उसका
तापमान लिया।
सिक्खड़ ही
होगा डाक्टर।
इस तापमान से
भी कुछ समझ
में नहीं आया
और नब्ज देखने
से भी कुछ समझ में
नहीं आया। अभी
नया-नया होगा।
उस आदमी ने
कहा कि और सब
तो ठीक है, लेकिन
तुम रोज
कम-से-कम
मील-भर पैदल
चलने लगो, तो
स्वास्थ्य
ठीक हो
जायेगा।
मील-भर पैदल
चलना जरूरी
है।
वह
आदमी हंसने
लगा। डाक्टर
ने पूछा: तुम
हंसते क्यों
हो? उसने कहा:
मैं पोस्टमैन
हूं। आप यह
सलाह किसी और
को देना। सुबह
से शाम तक
पैदल ही चल
रहा हूं, अब
और एक मील
चलवाओगे? मुझे
कुछ विश्राम
की तरकीब
बतलाओ। मैं
थका-मांदा
हूं।
अब
जो तरकीब औरों
पर काम कर गई
होगी एक मील
चलो, वह इस पर
काम नहीं
करेगी, पोस्टमैन
पर कैसे काम
करेगी?
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन डाक्टर के
घर गया।
डाक्टर ने कहा
कि देखो
नसरुद्दीन, तुम्हें
अपनी
जीवन-चर्या
बदलनी होगी।
भोजन में
येऱ्ये चीजें
छोड़ दो। और
शराब एक बार
से ज्यादा
सप्ताह में
नहीं पीना और
सिगरेट...बस दो
सिगरेट रोज, इससे ज्यादा
नहीं।
नसरुद्दीन
तीन सप्ताह के
बाद आया, जैसा
कि डाक्टर ने
कहा था आना।
उसकी हालत और
भी खराब थी।
पहले तो खुद
ही चलता हुआ
आया था, अब
उसको दोनों
बेटे उसको हाथ
का सहारा देकर
लाये। डाक्टर
ने कहा कि
नसरुद्दीन
तुम्हारी हालत
तो और भी खराब
हो गई, मालूम
होता है तुमने
मेरी सलाह
नहीं मानी। उसने
कहा तुम्हारी
सलाह मानने का
परिणाम है।
शराब तो ठीक, किसी तरह
मैं पी गया, मगर वे दो
सिगरेटें रोज
मेरी जान लिये
ले रही हैं।
मैंने कभी
जिंदगी में
सिगरेट पी
नहीं। अब जो
आदमी सिगरेट
पी रहा हो एक
पैकेट, उससे
कहो कि दो
पीना, ठीक
है। मगर जिसने
कभी पी ही न
हो...।
नसरुद्दीन समझा
कि यह इलाज है,
दो पीना ही
पड़ेंगी।..."वे
दो सिगरेट तो
मेरी जान लिये
ले रही हैं।
डाक्टर साहब,
कुछ और इलाज
बतायें। शराब
तो किसी तरह
पी गया, ठीक
है; मगर ये
दो सिगरेट...
खांस-खांसकर
मर जाता हूं।'
इलाज
अलग होंगे।
व्यक्तियों
पर निर्भर
करेगा। बुद्ध
जिन लोगों से
बात कर रहे थे
वे और थे। खेत
में काम
करनेवाले
किसान थे, लकड़हारे थे,
मजदूर थे, बड़ी संख्या
भोले-भाले
लोगों की थी।
उन भोले-भाले
लोगों के पास
रेचन करने को
कुछ था भी
नहीं। रेचन की
जरूरत तो तब
पड़ती है जब
कुछ दबाया हो।
मनोचिकित्सा
की जरूरत तो
आज के आदमी को
है, क्योंकि
आज का आदमी
इतना दबाये
बैठा है, इतना
सुसंस्कृत हो
गया है कि
उसकी
संस्कृति इतनी
उसकी छाती पर
पत्थर की तरह
पड़ गई है, कि
उसको हटाना
जरूरी है।
रेचन की
आवश्यकता है।
ज्यादा आदमी
ने भोजन कर
लिया है; उसका
भोजन उसके
शरीर से बाहर
फेंक देने की
जरूरत है, क्योंकि
ज्यादा भोजन
जहर बना जा
रहा है।
मनुष्य जितना
सुसंस्कृत हो
गया है उतनी
मुश्किल हो गई
है।
अब
तुम समझ लो
जरा थोड़ा।
तुम्हारा
शरीर बना था
कि दिन में
कम-से-कम
पंद्रह-बीस
मील चल सको, कि दस-पचास
वृक्ष काटना
कठिन न हो, कि
पत्थर तोड़
सको। क्योंकि
जंगल में आदमी
को बड़ी कठिनाई
में जीना पड़ा
था।...कि जंगली
जानवरों से लड़
सको, कि
सिंह से
मुकाबला हो
जाये तो न तो
उस वक्त बंदूकें
थीं और न
तलवारें थीं,
कि हाथ, नंगे
हाथ से तुम
सिंह से भी
जूझ सको।
तुम्हारे
शरीर का पूरा
रसायन-शास्त्र
तो इतना सब
करने के लिये
बना है। लेकिन
आज स्थिति
बिलकुल बदल गई
है। न तो
जंगली
जानवरों से
लड़ते हो तुम। एकाध
किसी मुहम्मद
अली की बात
छोड़ दो, लेकिन
बाकी सब न
जंगली जानवर
से लड़ते हो, न पत्थर
तोड़ते हो, न
लकड़ी काटते
हो। एक दफ्तर
में बैठे
दिन-भर टेबिल
पर काम कर रहे
हो, कि
टिकटें बेच
रहे हो, कि
दफ्तर के
सामने बैठे
मक्खियां मार
रहे हो, कि
फाइल यहां से
वहां रख रहे
हो। और
तुम्हारा पूरा
रसायन शरीर का
उतनी ऊर्जा
पैदा करता है,
उतना श्रम
करने की
क्षमता पैदा
करता है। वह
सारी क्षमता
तुम्हारे
भीतर चक्कर
काटने लगती है।
वह सारी
क्षमता
तुम्हारे
भीतर रोग बन
जाती है, विष
बन जाती है।
उसके
निष्कासन की
जरूरत है।
मनोचिकित्सा
में उसका
निष्कासन
होता है।
फिर
तुम इतने
सुसंस्कृत हो
गये हो कि न तो
तुम्हारी
हंसी असली है
और न तुम्हारा
रोना असली है।
कहीं कोई मर
जाता है तो
तुम झूठे आंसू
भी गिरा देते
हो और कहीं
हंसना पड़े तो
तुम झूठी हंसी
भी हंस देते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
फ्रांस गया।
वहां एक फ्रेंच
मित्र के घर
में कोई
चुटकुले
सुनाने लगा। सारे
फ्रांसीसी जो
भोजन पर आये
थे, लोट-पोट
होने लगे, खूब
हंसने लगे।
मुल्ला उनसे
भी ज्यादा
लोट-पोट होने
लगा। गृहपति
ने कहा कि
नसरुद्दीन, हमें यह पता
ही नहीं था कि
तुम फ्रेंच
भाषा भी समझते
हो! उसने कहा:
"फ्रेंच भाषा
नहीं समझता, लेकिन मुझे
आप लोगों पर
विश्वास है कि
जब आप सब हंस
रहे हो तो
जरूर हंसी की
कोई बात होगी।
मगर उन्होंने
कहा: तुम हम सब
को भी मात
किये दे रहे
हो; हम तो
हंस ही रहे
हैं, तुम
तो लोट-पोट कर
रहे हो। उसने
कहा: जब हंस ही
रहे हैं तो
फिर कंजूसी
क्या करनी! और
भरोसा मुझे
पक्का है कि
जरूर कोई बात
ऐसी हो ही रही
होगी।
मगर
यह हंसना तो
झूठा होगा।
भरोसे से हंस
रहे हो कि
जरूर व्यंग्य
की कोई बात
कही गई होगी!
तुम्हारी
हंसी झूठ, तुम्हारा
रोना झूठ।
मनोचिकित्सा
में तुम्हारे
सत्य उभारे
जाते हैं; तुम्हारी
प्रामाणिकता
को तुम्हारे
धरातल पर लाया
जाता है। और
तुम्हारे
चित्त में
इतने तनाव हैं
कि तुम्हारा
चित्त एक
गुत्थी हो गया
है। ऐसे तनाव
बुद्ध जिन
लोगों से बात
कर रहे थे उनके
चित्तों में
नहीं थे। मैं
बीसवीं सदी के
आदमी के साथ
बात कर रहा हूं।
मुझे बीसवीं
सदी के ढंग की
बात करनी होगी।
नहीं तो मैं
तिथि-बाह्य
मालूम होऊंगा,
मेरा कोई
अर्थ नहीं
होगा।
इसलिये
तुम्हारे
पंडित-पुरोहित
बिलकुल ही व्यर्थ
हैं क्योंकि
वे बात दोहरा
रहे हैं, अभी
भी बैठे हैं
कृष्ण की गीता
लिये। मैं भी
गीता पर बोलता
हूं, लेकिन
तुम ध्यान
रखना: बोलता
वही हूं मैं
जो मुझे बोलना
है; कृष्ण
तो बस बहाना
हैं। अब सरहपा
पर बोल रहा हूं।
अगर तुम्हारा
कहीं सरहपा से
मिलना हो जाये
तो सरहपा
कहेंगे: यह
मैंने कहा ही
नहीं। सरहपा
यह कह भी कैसे
सकते हैं? यह
मैं कह रहा
हूं! सरहपा तो
केवल एक बहाना
हैं, एक
निमित्त।
प्यारे लोग
हैं! इन
प्यारे लोगों के
नामों को मैं
फिर दोहरा
देना चाहता
हूं, ताकि
भूल न जायें।
ये बड़े प्यारे
चरण-चिह्न हैं,
ये मिट न
जायें, पुंछ
न जायें। कोई
इनकी याद
दिलाता रहे।
मगर
जो मैं कह रहा
हूं वह तो मैं
ही कह रहा
हूं। सरहपा के
कंधे पर बंदूक
रखकर, लेकिन
बंदूक मैं ही
चला रहा हूं।
तुम यह मत सोचना
कि मैं सरहपा
की कोई
व्याख्या कर
रहा हूं। उस
तरह का कचरा
काम करने में
मुझे कोई रस
नहीं है। मैं
तो सरहपा के
द्वारा अपनी
व्याख्या करवा
रहा हूं, अगर
तुम ईमानदारी
की बात पूछो।
सरहपा के शब्द
प्यारे हैं, उनका उपयोग
किये ले रहा
हूं; मगर
उन पर रंग मैं
अपना डालता
हूं। और मुझे
ज्यादा फिकिर
इस बात की
नहीं है कि
सरहपा के शब्दों
का ठीक वही
अर्थ रहे जो
सरहपा ने किया
था। मुझे
ज्यादा फिकिर
इस बात की है
कि वैसा अर्थ हो
जैसा
तुम्हारे काम
आ जाये। मुझे
तुम्हारी फिकिर
है, सरहपा
की बहुत फिकिर
नहीं है।
इसलिये पंडित
मुझसे नाराज
भी हैं।
कबीर-पंथ
के जो प्रथम
सबसे बड़े महंत
हैं, उनका कुछ
दिन पहले पत्र
मुझे मिला कि
आप कबीर पर
बोले, यह
बात तो अच्छी
है, मगर
आपने ऐसी
बातें कहीं
हैं जो कि हम
सोच ही नहीं
सकते कि कबीर
ने कहीं हों।
आपको कम-से-कम
किसी
कबीर-पंथी से
पूछ तो लेना
था।
मैं
कबीरपंथी से
पूछूं! मुझे
कबीर मिल
जायें, उनसे
न पूछूं। मुझे
जो कहना है
वही कहूं।
कबीरपंथी से
मुझे क्या
लेना-देना? मैं कबीर को
बीसवीं सदी के
वस्त्र
पहनाऊंगा। वो
कहते हैं कि
झीनी-झीनी
बीनी रे
चदरिया! खूब बीनी
तुमने! अब
पोलिएस्टर
पहनो! अब
चदरिया वगैरह
बीनने की
जरूरत नहीं है;
वह तो मिल
में बीनी जा
रही है। और
अगर तुम अपनी चदरिया
को, साधारण
हाथ से कती
चदरिया को
ज्यों का
त्यों रख गये
तो पोलिएस्टर
को ज्यों का
त्यों रख जाना
और भी आसान
होगा।
मैं
कबीर पर जब
बोल रहा हूं
तो मैं कबीर
को बीसवीं सदी
में बुलवा रहा
हूं। इस भेद
को ठीक से समझ
लेना। और तुम
जब यह कहने
लगते हो कि
बुद्ध ने ऐसा
किया महावीर
ने वैसा किया, तो तुम नाहक
बुद्ध-महावीर
को बीच में
उलझाते हो।
किया होगा।
उनकी वे
जानें। मैं
वही करूंगा जो
मुझे सम्यक
मालूम हो रहा
है। मैं अपने
ही ढंग से
जीऊंगा, किसी
और के ढंग से
नहीं जी सकता।
यह किसी का अनुकरण
नहीं है।
इसलिये तुम
ऋषि-मुनियों
को बार-बार
बीच में मत
लाया करो। वे
प्यारे थे, जब थे, मगर
आज के संदर्भ
में उनका बहुत
अर्थ नहीं रह गया
है और अगर आज
भी तुम उनको
खींचे जाओगे
तो दुर्घटनाएं
होंगी।
यहां
ऐसा रोज अनुभव
में आता है।
अभी कुछ दिन पहले
एक व्यक्ति
आया थाइलैंड
से। वह तीन
साल तक वहां
थाइलैंड में, बौद्ध साधना
करता रहा और
उसने मुझे आकर
कहा कि मैं तो
ऊब गया, थक
गया, बुरी
तरह थक गया।
और वह तो सब
दमन ही दमन
है। यहां आपकी
बातें सुनी तो
मुझे समझ में
आया कि मैंने
तीन साल
गंवाये। मैंने
कहा कि इतनी
जल्दी निर्णय
मत लो, तुमने
जो सीखा है वह
काम पड़ेगा।
गंवाये नहीं। सिर्फ
उसके पहले कुछ
और करना जरूरी
था, वह
उन्होंने
नहीं करवाया,
क्योंकि वे
करवा नहीं
सकते थे। वे
तो सिर्फ लकीर
के फकीर हैं।
वे तो बुद्ध
ने जो करवाया
था उतना ही
करवा रहे हैं।
अब
किसी
पाश्चिमात्य
को...यह
व्यक्ति
हालैंड से
था...किसी
पाश्चिमात्य
को सीधा बिठाल
दो सिद्धासन
पर तो छह
महीने तो उसको
सिद्धासन पर
बैठने में लग
जाते हैं
सीखने में।
पैरों में
दर्द होता है, क्योंकि कभी
जमीन पर बैठा
नहीं। अब लकीर
के फकीर यह तो
मान ही नहीं
सकते कि कुर्सी
पर बैठकर भी
ध्यान हो सकता
है। यह पागलपन
की बात है।
कुर्सी पर
बैठकर ध्यान
हो सकता है।
कोई अड़चन नहीं
है। मगर छह
महीने उसके
पैर ही की
मालिश करवाते
रहे, उसके
पैर मुड़वाते
रहे। जब तक
पद्मासन न लग
जाये, पूर्ण
पद्मासन...एक
पैर ही चढ़े
उतने से तो
अर्ध पद्मासन
होता है; जब
दोनों पैर एक
दूसरे के ऊपर
चढ़ जायें...। अब
वह किसी
हालैंड के
आदमी के दोनों
पैर ऊपर
चढ़वाना एक-दूसरे
के, कठिन
काम तो है। वह
बेचारा लेकिन
सच्चा खोजी था।
उसने कहा कि
ठीक है जो
होगा होगा
टांग ही टूटेंगी
तो टूट
जायेंगी, मगर...।
छह महीने वह
कहता है कि
मुझे सिर्फ यह
पद्मासन में
ही लग जाये।
मैंने सोचा था
पद्मासन क्या
आ जायेगा सब
मिल जायेगा।
फिर बैठ गये
पद्मासन में
और कुछ न
मिला। तो बड़ी
हैरानी हुई कि
छह महीने
बिलकुल बेकार
गये। फिर
श्वास पर ध्यान
रखवाना शुरू
किया, वह
भी मैंने
किया। लेकिन
भीतर उबाल भरा
हुआ है, हजारों
चीजें भरी पड़ी
हैं और तुम
श्वास पर ध्यान
रखे हो। तो वे
हजारों चीजें
मिट नहीं
जायेंगी, वे
दब जायेंगी।
फिर-फिर उभरकर
आयेंगी।
मैंने
उससे कहा कि
तू पहले कुछ
मनोचिकित्साओं
में से गुजर।
पहले रेचन कर
डाल। तेरे
भीतर जो कचरा
है, उसे
निकाल बाहर
फेंक दे। और
तूने जो भी
सीखा है, दोनों
काम आ जायेंगे,
फिकिर मत
कर। पद्मासन
भी काम आ
जायेगा और
विपस्सना, श्वास
पर ध्यान करना
भी काम आ
जायेगा।
लेकिन उसके
पहले कुछ
जरूरी है जो
करना आवश्यक
है। दो हजार
साल में बुद्ध
के पीछे जो मनुष्य
के चित्त पर न
मालूम कितनी
धूल जम गई, उसको
तो साफ करो!
फिर बुद्ध की
प्रक्रिया
काम आ सकती
है।
और
यही हुआ। जब
आठ-दस
मनोचिकित्सा
के प्रयोगों
से वह गुजर
गया, उसने कहा:
आपने ठीक कहा
था। अब जब मैं
पद्मासन में
बैठता हूं तो
जो हल्कापन, जो शांति
मुझे मिलती है,
वह मैंने
कभी सोची ही
नहीं थी।
थाइलैंड में
तीन साल बैठकर
नहीं मिली और
अब जब मैं
श्वास को देखता
हूं तो बात ही
बदल गई है। अब
कोई दमन नहीं है।
अब श्वास को
देखना बिलकुल
निर्भार है, फूल जैसा
हल्का हो गया
है।
महावीर
ने जो साधा, बुद्ध ने जो
साधा, उसे
भी तुम साध सकोगे;
मगर पहले तो
इन पच्चीस सौ
साल में जो
कचरा तुम पर
इकट्ठा हो गया
है, उसकी
सफाई हो जाना
जरूरी है।
मनोचिकित्सा
एक तरह की
सफाई है, एक
तरह का स्नान
है।
तुम
पूछते हो: "काम, क्रोध, लोभ,
मोह जैसे
मनोविकार एवं
अहंकार, मूर्च्छा
जैसी
अवस्थाओं से
ऊपर उठने के
लिये बुद्ध, महावीर और
सारे भारतीय
संतों ने
ध्यान-जागरण,
भजन कीर्तन,
सत्संग
जैसे उपाय ही
कहे हैं। पर
आप क्या जानकर
भारतीय
मित्रों के
लिये अन्य
उपायों के साथ
थैरेपी-ग्रुप
(समूह-मनोचिकित्सा)
जैसे नये उपाय
भी जोड़ रहे
हैं? कृपा
करके
समझाइये।'
पहली
तो बात: मैं
भारतीय नहीं
हूं। मैं इस
पृथ्वी का
हूं। यह सारी
पृथ्वी मेरा
घर है। मैं
उतना ही
भारतीय हूं
जितना मैं
जापानी हूं, जितना मैं
चीनी हूं। मैं
इस पूरी
पृथ्वी को एक
मानकर चल रहा
हूं। मेरी
दृष्टि में
राष्ट्र समाप्त
हो गये हैं, राष्ट्रों
की सीमाएं
विलीन हो गई
हैं। इसलिये तुम
यह "भारत' शब्द
को बार-बार
उठाने की
चेष्ठा छोड़ दो;
मेरे लिये
इसका कोई
मूल्य नहीं
है। यह सिर्फ
एक औपचारिक
बात है; नक्शे
की बात है।
लेकिन मैं
भारतीय हूं
नहीं--उस अर्थ
में भारतीय
नहीं हूं जिस
अर्थ में विवेकानंद
भारतीय हैं।
उन्हें लगता
है भारत कुछ खास,
विशिष्ट
धर्मभूमि, पुण्यभूमि।
मैं
राष्ट्रवादी
नहीं हूं।
राष्ट्रवाद
रोग है! और
संसार काफी
तड़फ लिया है
इस रोग से। अब
यह राष्ट्रवाद
जाना चाहिए।
मैं
अंतर्राष्ट्रीय
हूं। मेरे
लिये गीता
उतनी ही अपनी
है जितनी
बाइबिल और
जितना कुरान।
मैं न हिंदू
हूं, न
मुसलमान, न
ईसाई। जीसस से
मुझे उतना ही
प्रेम है
जितना कृष्ण
से। और
लाओत्सु से
मेरा उतना ही
लगाव है जितना
पतंजलि से।
मैं सारे जगत
की जो
आध्यात्मिक
संपदा है उसकी
वसीयत की
घोषणा करता
हूं। सारे जगत
की
आध्यात्मिक
संपदा की
वसीयत मेरी
है। इसलिये
कोई मुसलमान
मुझसे यह न
कहे कि मैं कुरान
पर क्यों बोला?
कुरान मेरा
है! कोई हिंदू
मुझसे यह न
कहे कि मैं
गीता पर क्यों
बोला? गीता
पर बोलने के
लिये मेरा
हिंदू होना
जरूरी नहीं
है। जैसे
हिमालय को और
हिमालय के
सौंदर्य की
प्रशंसा करने
के लिये मेरा
भारतीय होना जरूरी
नहीं है, और
आल्प्स पर्वत
के सौंदर्य की
चर्चा करने के
लिये मेरा
फ्रांसीसी
होना जरूरी
नहीं है--उसी
तरह गीता, कुरान,
ताओत्तेह-किंग
या धम्मपद, इनकी चर्चा
करने के लिये
मेरा किसी देश
से आबद्ध होना
आवश्यक नहीं
है। सारे जगत
की संस्कृति
मेरी है। सारे
जगत के जाग्रत
पुरुष, वे
दीये कहीं भी
जले हों, किसी
ढंग के रहे
हों, उनकी
ज्योति मेरी
है। इस बात को
तुम कभी भूलना
मत।
मैं
यहां एक अनूठा
प्रयोग कर रहा
हूं, जैसा कभी
नहीं किया गया
है। यह
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
पहली घटना है,
जहां सारे
धर्म एक साथ
डूब रहे हैं, लीन हो रहे
हैं। और बिना
किसी प्रयास
के! यहां बैठकर
हम दोहराते
नहीं कि
अल्लाह ईश्वर
तेरा नाम, सबको
सन्मति दे
भगवान! यह हम
दोहराते नहीं,
मगर यह घटना
घट रही है।
यहां अल्लाह
और ईश्वर एक
के ही नाम हैं,
इसे कहने की
जरूरत नहीं
है--हुए ही जा
रहे हैं एक।
यहां किसी को
पता नहीं चलता
कौन हिंदू है,
कौन
मुसलमान है, कौन ईसाई है,
कौन यहूदी
है, कौन
सिक्ख है।
यहां सब
इकट्ठे हैं।
और
सारे जगत की
संपदा मेरी
है। मैं
आध्यात्मिक
संपदा का अपने
को हकदार
घोषित करता
हूं। उसमें
मैं जरा भी
कुछ छोड़ने को
राजी नहीं
हूं। क्यों
उसे छोटा करूं? पूरा
मनुष्य-जाति
का अतीत
इतिहास मेरा
है। और यही
मैं चाहता हूं
कि तुम्हारा
भी हो जाये। इसलिये
तुम ये बातें
ही छोड़
दो--भारतीय, गैर-भारतीय।
तुम्हें यह
फिकिर ही मिट
जानी चाहिए।
ये चमड़ी के
रंग और ढंग, इन पर तुम
ध्यान न दो।
ये आदतें गलत
हैं। ये संस्कार
ओछे हैं। इनको
विदा करो।
मनुष्यता
एक है और यह
पृथ्वी एक हो
जाये, तो
शांति हो, तो
सौमनस्य हो, तो एक
भाईचारा हो, एक प्रेम
जगे और इस जगत
के न मालूम
कितने कष्ट अपने-आप
समाप्त हो
जायें।
फिर
यहां ध्यान, भजन-कीर्तन,
सत्संग सब
चल रहा है।
लेकिन साथ कुछ
और भी चल रहा
है। कुछ मुझे
भी जोड़ने दोगे
मनुष्य की
आध्यात्मिक
संपदा में या
नहीं? कुछ
मुझे भी उस
संपदा को दान
करने दोगे या
नहीं? थोड़े
से चित्र मुझे
भी भरने दो!
थोड़े रंग मुझे
भी भरने दो! यह
जो
आध्यात्मिक
जगत का
गौरवशाली गीत
है, उसमें
एक कड़ी मेरी
भी जुड़ जाने
दो!
और
तुमसे भी मैं
यही आशा करता
हूं कि कुछ
जोड़कर जाना।
इस जगत को जैसा
पाया था वैसा
ही मत छोड़
देना। थोड़ा
सुंदर कर
जाना। थोड़ा
प्रीति से भर
जाना। थोड़ा
प्रार्थनापूर्ण
कर जाना। कुछ
देकर जाना, तो ही तुम
सार्थक हो।
थोड़ी सुवास
छोड़ जाना, तो
ही तुम जीये, तो ही तुम
ठीक अर्थों
में जीये।
अन्यथा तुम व्यर्थ
जीये।
आखिरी
प्रश्न:
क्या
प्रेम जीवन की
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
घटना है?
प्रेम
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
घटना है, मगर
प्रेम कोई
घटना नहीं है।
प्रेम ही जीवन
है, शेष सब
मृत्यु है।
जिसने प्रेम
जाना उसने जीवन
जाना। जिसने
प्रेम नहीं
जाना उसने
सिर्फ मरना
जाना। उसका
जीवन सिर्फ एक
लंबा आत्मघात
है--आहिस्ता-आहिस्ता
किया गया। वह
रोज-रोज मरता
है, और कुछ
भी नहीं करता।
प्रेम
कोई घटना नहीं
है। जो जीवन
में घटती है--प्रेम
जीवन का ही
दूसरा नाम है।
और जिस दिन तुम्हारे
भीतर यह बोध आ
जाता है कि
प्रेम जीवन का
दूसरा नाम है, तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
नाचने लगता
है।
फजा
पैदा नहीं
करती, कहीं
दीवाना बरसों
से
नहीं
उठता कोई
पैगंबर
वीराना बरसों
से।
प्रेम
खो गया है, इसलिये कोई
पैगंबर पैदा
नहीं हो सकता।
प्रेम खो गया
है, इसलिये
कोई दीवाना ही
पैदा नहीं
होता। लोग बिना
प्रेम के जी
रहे हैं, इसलिये
महावीर पैदा
हों तो कैसे
हों? लोग
बिना प्रेम के
जी रहे हैं, मंसूर पैदा
हों तो कैसे
हों?
तू
इंतिजार में
अपने यह मेरा
हाल तो देख।
कि
अपनी
हद्दे-नजर तक
तड़प रहा हूं
मैं।
जलाले-मश्रबे-मंसूर, ऐ मआज़अल्ला।
किसी
ने फिर न कहा
आज तक खुदा
हूं मैं।
मंसूर
क्या गया, दुनिया उदास
हो गई! मंसूर
क्या गया, दीवाने
मर गये!
जलाले-मशरबे-मंसूर...उस
मंसूर की महिमा
जितनी कहो
थोड़ी है, क्योंकि
हे प्रभु!
किसी ने फिर न
कहा आज तक खुदा
हूं मैं!
कितना समय हो
गया, किसी
ने घोषणा की
थी अनलहक की!
कितनी सदियां
बीत गईं तब
लोगों ने कहा
था, अहं
ब्रह्मस्मि!
आज इतनी
सामर्थ्य
नहीं रह गई।
आज किसी में
इतने जोर का
जुनून नहीं, इतना
दीवानापन
नहीं।
क्यों
ऐसा हुआ? प्रेम
मर गया है। यह
तो प्रेम की
प्रज्वलित अग्नि
ही कह सकती
है--अनलहक! अहं
ब्रह्मस्मि!
यह तो वे ही कह
सकते हैं
जिनके भीतर
अहं बिलकुल नहीं
रहा। जिनके
भीतर जरा भी
अहं रह गया है,
वे अहं
ब्रह्मस्मि
नहीं कह सकते;
उनकी जबान
लड़खड़ा जायेगी;
उनके पैर
थरथरा
जायेंगे; उनकी
आंखों में
अपराध-भाव आ
जायेगा।
प्रेम
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है। प्रेम से
बहुमूल्य कुछ
भी नहीं।
प्रेम जीवन का
निचोड़ है, सार है।
बता
ए वुसअते-कौन
मकां! इसको
कहां रक्खे।
जरा
सा दर्द लेकर
आये हैं, हम
उनकी महफिल
से।।
प्रेम
है परमात्मा
की महफिल की
प्रतीति, कि
यह परमात्मा
की मजलिस जमी
है, कि
उसकी महफिल है,
कि यह
परमात्मा का
सत्संग चल रहा
है। उस बैठक में
से, जो
दर्द पैदा हो
जाता है, जो
मीठी पीड़ा
पैदा हो जाती
है, प्रभु
की प्रतीति से
जो एक मीठा
दर्द प्राणों
में फैल जाता
है, वह
छोटा-सा दर्द
है--और बहुत
बड़ा भी! वह
इतना छोटा है
कि तुम्हारे
हृदय में समा
जाता है और
इतना बड़ा कि
सारे
अस्तित्व में
भी समा नहीं
सकता है।
इसलिये
पूछा जा रहा
है: बता ए
वुसअते-कौन
मकां! हे
विस्तार, हे
आकाश के
विस्तार, मुझे
कोई जगह बताओ,
इसको कहां
रक्खें? जरा-सा
दर्द लेकर आये
हैं हम उनकी
महफिल से! आकाश
भी छोटा है उस
दर्द को रखने
के लिए। और
हृदय भी काफी
बड़ा है। ऐसा
अदभुत वह दर्द
है प्रेम का!
जो
जौके-इश्क
दुनिया में न
हिम्मत आज़मा
होता
यह
सारा
कारवाने-जिंदगी
ग़ाफिल पड़ा
होता।।
ये तो
सिर्फ प्रेमी
थे कि
उन्होंने
पुकार दे दी, नहीं तो
सारी दुनिया
सोई पड़ी होती।
यहां जो थोड़ा-सा
जागरण दिखाई
पड़ता है, वह
कुछ पागल
प्रेमियों के
गीतों के
कारण। कुछ पागलों
ने हिम्मत की।
जो जौके-इश्क
दुनिया में न
हिम्मत आज़मा
होता। वह तो
प्रेम है, जो
कि हिम्मत आजमाता
है, जो कि
दुस्साहस
करता है। यह
सारा
कारवाने-जिंदगी
गाफिल पड़ा
होता। यह
जिंदगी का
यात्री-दल, यह कारवां
बिलकुल
मूर्च्छित
पड़ा होता।
तुम
में जो
थोड़ी-सी जान
है, तुम्हारी
आंखों में जो
थोड़ी-सी चमक
है, वह इस
जगत में हुए
थोड़े से
प्रेमियों का
दान है। उन
थोड़े-से प्रेमियों
ने तुम्हारी
आंख में चमक
दे दी है, और
तुम्हारे
प्राणों में
थोड़ी-सी
ज्योति जला दी
है।
लफ्जों
के परिस्तार
खबर ही तुझे
क्या है?
जब
दिल से लगी हो
तो खमोशी भी
दुआ है।
और
प्रेमी जानता
है कि प्रेम
कोई शब्दों की
बात नहीं। फिर
तो चुप्पी भी
पर्याप्त है।
दीवाने
की तहकीर से
क्यों देख रहा
है।
दीवाना
मुहब्बत की
खुदाई का खुदा
है।।
वह जो
प्रेम का जगत
है, उस प्रेम
के जगत में
प्रेम का
दीवाना ही
परमात्मा है।
चलते
हुए दो काबा, फिरते हुए
दो मंदिर।
चमकी
तेरे कदमों पर
तकदीरे-जबींसाई।।
और
जब भी कोई
प्रेम से भर
गया है, तो उसके
दो पैर नहीं
हैं...
चलते
हुए दो काबा, फिरते हुए
दो मंदिर।
चमकी
तेरे कदमों पर
तकदीरे-जबींसाई।।
आदमी
कितना छोटा है
और कितना बड़ा!
आदमी बड़ा विरोधाभास
है।
न
फर्माओ, नहीं
है आदमी में
ताबे-नज्ज़ारा
संभल
जाओ अब उठती
है
निगाहे-नातवां
मेरी।।
मत
कहो कि आदमी
में परमात्मा
को देखने की
क्षमता नहीं
है। न फर्माओ, नहीं है
आदमी में
ताबे-नज्जारा।
मत कहो कि आदमी
में परमात्मा
को देखने की
क्षमता नहीं
है। संभल जाओ
अब उठती है
निगाहे-नातवां
मेरी। मेरी निर्बल
आंख तुम्हें
देखने को उठती
है, अब
संभल जाओ। यह
बड़ा
विरोधाभासी
वक्तव्य है!
आदमी की
छोटी-सी आंख
है, मगर
परमात्मा को
समा लेती है, इतनी बड़ी
है। आदमी
बिलकुल
निर्बल है, मगर उसकी
निर्बलता ही
उसका बल है।
निर्बल के बल
राम!
संभल
जाओ, अब उठती
है
निगाहे-नातवां
मेरी! प्रेमी
कहता है
परमात्मा से
कि सम्हल जाओ!
अब मेरी कमजोर
नजर उठती है।
मैं दूर तक
देख नहीं सकता,
लेकिन अब
मेरी नजर उठती
है और मैं
तुम्हें देखकर
रहूंगा। यह
मेरी छोटी है
नजर। मेरे हाथ
बड़े छोटे हैं,
मगर
तुम्हें छूकर
रहूंगा। ये
मेरे हाथ बड़े
छोटे हैं, मगर
तुम्हें
आलिंगन में
बांधकर
रहूंगा।
दिल
और तूफाने-गम, घबराके मैं
तो मर चुका
होता।
मगर
इक यह सहारा
है कि तुम
मौजूद हो दिल
में।।
आदमी
छोटा है आदमी
की तरह; लेकिन
दिल में जो
परमात्मा
मौजूद है उसकी
पहचान आ जाये
तो आदमी से
बड़ा फिर क्या
है! और प्रेमी
जमीन पर जीता
है, लेकिन
आकाश को देखता
है; जिंदगी
जीता है, मगर
जिंदगी के पार
खोज उसकी जारी
रहती है।
कौन
जाने आस्मां
से उनको क्या
उम्मीद थी।
मरते-मरते
भी जो सूए
आस्मां देखा
किये।
और
प्रेमी
तो...मरते-मरते
भी आंख उसकी
आकाश में अटकी
रहती है। रहता
जमीन पर है और
जमीन छूता भी
नहीं। आकाश से
उसका लगाव है, विराट से
उसके संबंध
हैं। उसकी
भांवर पड़ गई
विराट से।
प्रेम
से बड़ा कुछ भी
नहीं है, क्योंकि
प्रेम में न
केवल प्रेमी
समा जाता है, प्रीतम भी
समा जाता है!
प्रेम में
परमात्मा समा
जाता है।
प्रेम से बड़ा
कुछ भी नहीं
है।
प्रेम
को महिमा दो
और प्रेम को
जगाओ। बीज
तुम्हारे
भीतर है। बीज
वृक्ष बन सकता
है। थोड़ी हिम्मत
करो, चुनौती
स्वीकार करो।
न
फर्माओ, नहीं
है आदमी में
ताबे-नज्जारा।
संभल
जाओ अब उठती
है
निगाहे-नातवां
मेरी।।
आज
इतना ही।
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