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रविवार, 24 अप्रैल 2016

सहज योग--(प्रवचन--03)

देह गेह ईश्वर का—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 नवंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

 1—अब इस देह में ज्यादा रहने का मन नहीं होता। इससे विदा लेने का मन है। लेकिन आपके लिए जी पीछे खींचता है। मैं बता नहीं सकती कुछ भी। मुझे कुछ भी लिखने को नहीं आता है। क्या कहूं?

2—आप राजनीति पर वक्तव्य देते हैं तो फिर आपको राजनीतिज्ञ क्यों न माना जाए?

3—सिद्ध सरहपा ने कहा कि जब तक स्वयं को न जान लो तब तक किसी को शिष्य न करना। इस पर कुछ और कहें।

4—आपने कहा है जीवन को लीला समझो। कैसे? और यदि जीवन माया-मात्र है तो इस जीवन की आवश्यकता क्या है?

5आप हज़ारों लोगों को संन्यास क्यों दे रहे हैं?



पहला प्रश्न:

अब इस देह में ज्यादा रहने का मन नहीं होता है, इससे विदा लेने का मन है। लेकिन आपके लिए जी पीछे खींचता है। मैं बता नहीं सकती कुछ भी। मुझे कुछ भी लिखने को नहीं आता है। ओशो, क्या कहूं?

नंद भारती, देह तो मंदिर है। और जो देवता के पक्ष में है वह देवता के गृह के विपक्ष में नहीं हो सकता। परमात्मा ने आवास किया है इस देह में। इस देह को सन्मानो, स्वीकारो और इस देह के लिए परमात्मा के प्रति अनुग्रह अनुभव करो।
लेकिन मैं जानता हूं कहां से यह विचार, देह को छोड़ने का, उठता है बार-बार। सदियों-सदियों से तुम्हें देह की दुश्मनी सिखाई गई है। सदियों-सदियों से एक ही संस्कार दिया गया है कि शरीर शत्रु है, शरीर को नष्ट करना है, शरीर को छोड़ना है; शरीर में फिर न आना पड़े, ऐसा उपाय करना है। शरीर को इतनी गालियां दी गई हैं कि स्वभावतः यह संस्कार खून, हड्डी, मांस-मज्जा में मिल गया है। जबकि सचाई बिलकुल उल्टी है: मन को छोड़ना है, तन को नहीं छोड़ना है। मन मनुष्य-निर्मित है; तन तो परमात्मा की भेंट है। शरीर न तो हिंदू होता न मुसलमान होता; शरीर न तो कम्यूनिस्ट होता न फेसिस्ट होता। शरीर तो बस शरीर है। शरीर तो बड़ी शुद्ध दशा है। उपद्रव तो मन का है। कहीं हिंदू है मन, कहीं मुसलमान है मन; कहीं इस शास्त्र को मानता है, कहीं उस शास्त्र को और सदा लड़ने को तत्पर है। और अशांति मन के कारण है, तन के कारण नहीं। सारा उपद्रव मन के कारण है और मन तुम्हें तोड़े डाल रहा है, पीसे डाल रहा है खंड-खंडों में। एक खंड खींचता पूरब, एक खींचता पश्चिम। इस मन को छोड़ो।
लेकिन मन को तो न छोड़ोगे, तन को छोड़ने की तैयारी है! मरना है तो मन में मरो। मन समाज का दिया हुआ है। मन मां-बाप ने दिया, परिवार ने, समाज ने, स्कूल ने, विश्वविद्यालय ने। मन उधार है। तन तो परमात्मा से सीधा जुड़ा है; मन के जुड़ने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि मन कृत्रिम है। मन तो ऐसे है जैसे प्लास्टिक के फूल। तन तो ऐसे है जैसे वृक्ष खड़े हैं अपनी जड़ों को फैलाये भूमि में। तन तो अब भी परमात्मा से जुड़ा है; एक क्षण को भी जोड़ टूटेगा कि श्वास अवरुद्ध हो जायेगी, कि हृदय की धड़कन बंद हो जायेगी।
परमात्मा तो तुम्हारे तन के द्वार से ही तुम्हारे भीतर आ रहा है, मन के द्वार से नहीं। मन के द्वार से तो परमात्मा के आने का कोई उपाय ही नहीं, झूठे द्वार से सत्य आये भी तो कैसे आये? सत्य तो सच्चे द्वार से ही आता है। जब तपी दुपहरी में, प्यास से थके-मांदे, एक घूंट ठंडा जल पीते हो, तब जो तृप्ति तुम्हारे भीतर होगी, वह तृप्ति उसी परमात्मा की है; या कि थके-मांदे, ठंडी जलधार के नीचे बैठकर स्नान कर लेते हो, तो जो देह पर ताजगी फैल जाती है वह उसी परमात्मा की है। जब नाचते हो और रोआं-रोआं पुलकित हो जाता है, तो कौन पुलक उठा है तुम्हारे भीतर? वही परमात्मा! आकाश से पड़ती धूप के नीचे, कि चांदत्तारों के नीचे, कि वृक्षों के पास बैठकर, जो ताजगी की लहरों पर लहरें आती हैं, जो जीवन नये-नये रंगों और रूपों में तुम्हें घेर लेता है, वह तन के माध्यम से हो रहा है।
आंख के माध्यम से तुमने परमात्मा को देखा है, तब उसे सौंदर्य कहा है; और कान के माध्यम से जब तुमने परमात्मा को देखा है, तो उसे संगीत कहा है। न होगा कान, खो जायेगा संगीत; न होगी आंख, खो जायेगा रूप, खो जायेगा सौंदर्य। इतने अपूर्व अनुभव को इतने जल्दी खो देने की आकांक्षा क्यों है? यह आकांक्षा आत्मघाती है; लेकिन धर्म की आड़ में छिप जाती है तो हम आत्मघात को आत्मघात नहीं समझते, हम उसे साधना समझने लगते हैं।
यह जानकर तुम्हें आश्चर्य होगा कि जैसे ही कोई समाज अधार्मिक हो जाता है वहां आत्महत्याओं की संख्या बढ़ जाती है। इस तथ्य के कारण इस देश के बहुत-से पंडित-पुरोहित, साधु-महात्मा इस तरह की घोषणायें करते रहते हैं कि देखो, जो-जो देश अधार्मिक हो गये हैं वहां आत्मघात बढ़ गया है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि असली कारण क्या है। असली कारण यही है कि आत्मघात तो यहां भी चल रहा है, लेकिन यहां धर्म की आड़ में चल रहा है। जिन देशों में धर्म की आड़ टूट गई है वहां आत्मघात सीधा चलता है। किसी को मरना है तो वह जहर खा लेता है, कि गोली मार लेता है। यहां किसी को मरना है तो उपवास करता है, लेकिन उपवास से कोई जल्दी नहीं मरता, वर्षों लग जायेंगे, मरते-मरते वर्षों लग जायेंगे। आदमी बिना भोजन के तीन महीने जी सकता है, इकट्ठा नब्बे दिन तक आदमी बिना भोजन के जी सकता है। उपवास करते रहोगे कि आठ दिन का, दस दिन का, पंद्रह दिन का, फिर कुछ दिन उपवास, फिर भोजन, फिर उपवास--जीते रहोगे। और तुम चकित होओगे यह बात जानकर कि मनोवैज्ञानिकों ने बहुत-से प्रयागों से यह सिद्ध किया है कि भोजन अगर कम लिया जाये तो आदमी ज्यादा जी जाता है। चूहों पर प्रयोग किये गए हैं: अगर उन्हें पूरा भोजन दिया जाये तो वे जल्दी मर जाते हैं; अगर और ज्यादा भोजन दिया जाये तो और जल्दी मर जाते हैं। उनकी जरूरत से आधा भोजन दिया जाये तो दुगुना जीते हैं। क्यों? किस कारण ऐसा होता होगा? कम भोजन दिया जाये तो देह पर भोजन को पचाने का जोर कम पड़ता है। भोजन से शक्ति तो मिलती ही है, लेकिन भोजन से शक्ति पाने में शरीर को शक्ति गंवानी भी पड़ती है--उसे पचाने में। अगर न्यून भोजन दिया जाये, इतना भोजन दिया जाये जिससे शरीर चलता रहे और पचाने का बोझ न पड़े, तो आदमी लंबा जी सकता है। इसलिए उपवास करने वाले लोग लंबे जी जाते हैं। मगर उनकी आकांक्षा मरने की थी। कोई धूप में खड़ा है, जबकि छाया में बैठने का तन आग्रह करता था। कोई प्यासा बैठा है, जबकि तन कहता था जल चाहिए। और कोई कांटों पर लेटा है।
शरीर को तुम सता रहे हो। शरीर को सताने के पीछे छिपी हुई आत्मघात की आकांक्षा है।
सिग्मंड फ्रायड ने मनुष्य के जीवन में दो महत वृत्तियां स्वीकार की हैं। एक को उसने कहा है जीवेषणा, कि आदमी जीना चाहता है, कि आदमी आनंद से जीना चाहता है, कि आदमी खूब जीना चाहता है, जी भर के जीना चाहता है। यह आकांक्षा पैंतीस वर्ष की उम्र तक प्रगाढ़ होती है। अगर सत्तर वर्ष को हम आदमी की औसत उम्र मान लें तो पैंतीस वर्ष की उम्र में पहाड़ का आखिरी शिखर आ गया, ऊंचाई आ गई; फिर ढलान होगी। रेखा पहुंच गई ग्राफ की ऊंचाई पर अब इसके बाद उतार शुरू होगा। पैंतीस साल की उम्र तक जीवेषणा, जिसको फ्रायड ने इरोस कहा है, वह प्रगाढ़ होती है। फिर पैंतीस साल के बाद मृत्यु की आकांक्षा, जिसे उसने थानोटोस कहा है, वह प्रगाढ़ होने लगती है। फिर आदमी मरने की आकांक्षा करने लगता है। फिर थकने लगता है, टूटने लगता है।
इसीलिए जो देश जवान होते हैं वे जीवन की आकंाक्षा से भरे होते हैं और जो देश पुराने हो जाते हैं, जराजीर्ण हो जाते हैं, वे मरने की आकांक्षा से भरे होते हैं। यह देश काफी पुराना है। इस देश जैसा कोई दूसरा देश दुनिया में नहीं है। यह देश काफी पुराना हो गया है। इसके भीतर रोएं-रोएं में मरने का भाव बैठ गया है। इसलिए जब भी हम किसी को इस तरह के काम करते देखते हैं जो मृत्यु के अनुकूल हैं, हम सम्मान देते हैं। हम उसे तपश्चर्या कहते हैं। हमारे मन से जीवन का उल्लास जा चुका है।
फिर से तुम वेदों को उठाकर देखो। पांच हजार साल पहले लिखे गये वेद कुछ और कहते हैं। तब जीवन का उल्लास था। तब ऋषि आकांक्षा करते थे: "हे प्रभु, हमारे ऊपर बरसो, कि हम कम-से-कम सौ वर्ष जीयें, शतायु हों!' तब यह देश जवान रहा होगा। तब इस देश की धमनियों में जीवन का रक्त बहता रहा होगा। वेदों के ऋषि कहते हैं: "धन मिले, धान्य मिले, हमारी फसलें उगें, हमारी गौवों के स्तनों में दूध बढ़े!' तुम जरा सोचते हो, ऋषि और ऐसी प्रार्थना करें! लेकिन ये प्रार्थनाएं बड़ी प्रीतिकर हैं, बड़ी सूचक हैं। ये यह कह रही हैं कि अभी देश जवान है; अभी लोग बूढ़े नहीं हो गये हैं; अभी लोग जीने की आतुरता से भरे हैं; अभी जीवन को उत्सव बनाना है।
फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम पुराने होते गए वैसे-वैसे जीवन की आकांक्षा तिरोहित होती गई। अब तो धार्मिक आदमी हम उसको कहते हैं जो आते से कहता है कि आवागमन से छुटकारा कैसे हो! अब तो हम धार्मिक आदमी उसको कहते हैं जो जीना नहीं चाहता; जो कहता है: मैं मरूं, कि मुझे मरना है। इतनी हिम्मत भी नहीं कि तत्क्षण मर जाये। वैसी हिम्मत भी जवानों में होती है। आखिर तत्क्षण मरने की हिम्मत के लिए भी तो थोड़ा बल चाहिए, वह बल भी खो गया है। एक तरह की नपुंसकता है, एक तरह की निर्बलता है। मरना है, मगर मरना भी ऐसे है कि अपने-आप हो जाये। अगर दो कदम चलकर मरना पड़े तो दो कदम भी कौन उठाये!
इस हताशा को देखो। इस हताशा से जागो। यह कोई ढंग नहीं है। इस तरह कोई परमात्मा का मंदिर निर्मित न होगा।
पूछा है तूने आनंद भारती: "अब इस देह में ज्यादा रहने का मन नहीं होता।' मन की मानेगी? पूछा है: इससे विदा लेने का मन है।' मन की मानेगी? और मैं समझा रहा हूं रोज-रोज नित-नित एक ही बात, कि मन को जाने दो। तन भी प्यारा है, आत्मा भी प्यारी है। अगर कुछ कुरूप है तो दोनों के बीच में खड़ा हुआ मन है। विचारों का जाल जंजाल है। तन कोई पाप नहीं करवाता। सारे पाप मन के हैं।
जरा सोचो, तुम्हारे भीतर सत्य दो चीजें हैं। एक देह सत्य है, क्योंकि देह प्रकृति है। देह विज्ञान का सत्य है। और एक तुम्हारे भीतर आत्मा है सत्य, क्योंकि आत्मा परमात्मा है। आत्मा धर्म का सत्य है। इन दोनों के बीच में खड़ा तुम्हारा मन है, जो सत्य नहीं है--जो केवल विचारों का ऊहापोह है; जो केवल सपनों का जाल है; जो केवल संस्कारों की ही राशि है। और यह झूठा मन तुम्हारे भीतर के दो सत्यों को तोड़ रहा है, जुड़ने नहीं देता। आत्मा को देह से नहीं जुड़ने देता।
इस मन को जाने दो! इसके जाते ही तुम चकित हो जाओगे। इसके जाते ही इस जगत का सबसे बड़ा चमत्कार घटता है। क्या है वह चमत्कार? वह चमत्कार है कि तब तुम अचानक देखते हो कि आत्मा और देह दो नहीं हैं। दो जब तक मालूम होते थे, जब तक कि मन था, तब तक मालूम होते थे। मन के कारण दो मालूम पड़ते थे। मन के बीच में एक रेखा खींच दी थी।
मन ऐसा ही है जैसे राजनीति के द्वारा खींची गई पृथ्वी पर रेखायें हैं--यह हिंदुस्तान यह पाकिस्तान। नक्शों पर खींची रेखायें हैं। कहीं पृथ्वी टूटती नहीं। पृथ्वी अखंड है। पृथ्वी एक है। लेकिन राजनीति रेखायें खींच देती है। ऐसे ही मन ने रेखा खींच दी है--यह रहा तन, यह रही आत्मा।
जरा मन को जाने दो! कभी शांत और मौन बैठकर देखना जब मन न हो, मन की तरंगें न हों, मन का व्यापार न चलता हो, तब जरा देखना कि तुम दो हो या एक? तुम पाओगे तुम एक हो। तुम पाओगे कि देह तुम्हारी आत्मा का प्रगट रूप है और आत्मा तुम्हारी देह का अप्रगट रूप। तुम पाओगे देह तुम्हारी आत्मा की स्थूल अभिव्यक्ति है। और आत्मा तुम्हारी देह के भीतर छिपा सार है।
देह फूल है, आत्मा सुगंध है।
देह शब्द है, आत्मा शब्द में प्रगट अर्थ है।
देह वीणा है, आत्मा वीणा में छेड़ी गई झंकार है।
नहीं भेद है जरा, दोनों एक हैं। परमात्मा और प्रकृति भिन्न नहीं हैं, संयुक्त हैं।
यह परमात्मा की देह है विश्व और इसका विस्तार। और सूक्ष्म में छोटे पैमाने पर वही तुम्हारे भीतर घटा है। मनुष्य प्रतिछवि है सारे विराट की, ब्रह्मांड की। ब्रह्मांड पिंड में प्रगट हुआ है। तुम्हारे भीतर वह सब कुछ है जो इस विराट विस्तार में है--छोटे पैमाने पर है।
आत्मा को जानने के लिए देह को छोड़ना नहीं है। आत्मा को जानने के लिए देह को जानना है, क्योंकि आत्मा देह का ही छिपा हुआ रूप है। आत्मा देह का ही राज है, रहस्य है। हां, मन को जाने दो भारती, मन को विदा करो।
आत्मा का गेह देह, देह को संवारो!
मंदिर के लिए पर न देव को बिसारो!
इतना भर खयाल रहे कि मंदिर के लिए देवता न बिसर जाये। इसका यह अर्थ नहीं कि मंदिर को बिसार दो। मंदिर को साफ करो, सुथरा करो, सजाओ, बंदनवार लगाओ, दीये जलाओ। मंदिर प्यारा है। देवता का विस्मरण न हो। देवता के कारण ही प्यारा है। वह जो मंदिर के गर्भगृह में देवता विराजमान है उसको न भूलना। लेकिन यह मंदिर उस देवता का शत्रु नहीं है, उसकी सुरक्षा है।
आत्मा का गेह देह, देह को संवारो!
मंदिर के लिए पर न देव को बिसारो!
पूजा का दीप हृदय; स्नेह डाल, बालो!
देव के पुजापे को तुम स्वयं न खा लो!
पुष्प दीप अक्षत धर, आरती उतारो!

देह गेह ईश्वर का, धरा देह पावन;
नागरिक पुजारी हैं, नगर-ग्राम आसन;
आसन पर कौन? अरे, कोटि नयन वारो!

मत्सर मद मोह द्रोह प्रतिक्रिया त्यागो!
आत्मा के मंदिर में सोओ मत, जागो!
सूर्य उगा, क्षितिज खुला, जीत कर न हारो!
मन को जाने दो--मन तुम्हें सुला रहा है। मन एक नींद है। मन को जाने दो क्योंकि मन ही है--मत्सर, मद, मोह, द्रोह।
मत्सर मद मोह द्रोह प्रतिक्रिया त्यागो!
आत्मा के मंदिर में सोओ मत, जागो!
सूर्य उगा, क्षितिज खुला, जीत कर न हारो!
आत्मा का गेह देह, देह को संवारो!
मंदिर के लिए पर न देव को बिसारो!
यही तो मैं सिखा रहा हूं। मेरी देशना यही है, क्योंकि प्रकृति और परमात्मा एक है, कि स्थूल और सूक्ष्म विपरीत नहीं। जैसे दिन और रात जुड़े हैं और सर्दी और ग्रीष्म जुड़े हैं; जैसे स्त्री और पुरुष जुड़े हैं; जैसे ऋण और धन जुड़े हैं; जैसे निषेध और विधेय जुड़े हैं; जैसे जन्म और मृत्यु जुड़े हैं--ऐसे ही परमात्मा और प्रकृति जुड़े हैं, देह और आत्मा जुड़ी है। मेरी शिक्षा आत्मघात की नहीं है, मेरी शिक्षा आत्म-उत्सव की है।
जीयो, जी भर जीयो!
अमर-जीवन-कामना में अमृत ही मत पीयो!
जीयो, जी भर जीयो!

यदि अमृत जग में कहीं, तो है न वह सुरत्तरु चरण में;
स्वेद में है, रक्त में है, अश्रु में, जीवन-मरण में;
पंचरंगी प्राण जल की क्षण-चपल मछलियो!
जीयो, जी भर जीयो!

मीन का क्या हित करेगा अमृत? उसका सत्व पानी!
अनुभवों के मध्य जीवन, अनुभवी ही तत्व-ज्ञानी!
तीर-वासी मुनि बनो मत, लहर चिरत्तरूणियों!
जीयो, जी भर जीयो!

डरो मत सुख-दुख भंवर से, लगाओ चूबक अतल में!
डूब कर उबरो, उबर कर डूब जाओ पुनः जल में;
सप्त सप्तक धर, मुहुर्मुहु सांस लो, मुरलियो!
जीयो, जी भर जीयो!

अतल हो या सुतल, सुंदर सकल संकेतस्थली है;
देह धर आत्मा किसी अभिसार के पथ चली है;
ठठक कर मत अटक जाओ वेणु, सुन हरनियो!
जीयो, जी भर जीयो!

दान ले यदि शीश का वह वेणु का वादक, अहेरी,
नाद-लुब्धा मुग्ध-नयना, दान में करना न देरी;
मरणध्रुव धन्वतरी है, रुधिर की धमनियो!
जीयो, जी भर जीयो!

आर जीवन, पार जीवन, मरण मणिमय देहली है,
दीप अनुभव का, शिखा में लौ लगाए बेकली है;
वरो मत निर्वाण, ज्वाला बन जले बिन, दीयो!
जीयो, जी भर जीयो!
जल लो, जी लो, ज्योतिर्मय हो लो! जल्दी क्या है? प्रभु जिस दिन पायेगा कि अब देह की कोई जरूरत न रही, हटा लेगा देह भी। पर उस पर छोड़ो। यह तुम्हारी मन की आकांक्षा न हो। न तो मांगना कि ज्यादा जीऊं, न मांगना कि कम जीऊं। मांगना ही मत। जो हो उसे अंगीकार करना। जो हो उसे स्वीकार करना। जब जीवन दे तो जीवन और जब जीवन न दे तो निर्वाण। लेकिन तुम अपनी अपेक्षा आकांक्षा को आरोपित न करो।
और अंतिम बात, जो तुम्हें शायद और भी चौंकाये: जिस दिन तुम मांगना बंद कर दो उसी दिन फिर इस पृथ्वी पर लौटने की जरूरत नहीं रह जाती। मगर अभी मांग जारी है। एक नई मांग है कि अब देह नहीं चाहिए, कि अब देह से छूटना है। यह नई मांग हो गई। यह निर्वाण की मांग हो गई। यह मोक्ष की मांग हो गई। और जब तक मांग है, मोक्ष कहां? जब तक मांग है तब तक आवागमन से मुक्ति कहां है? मांग ही तो लाती है। मांग वासना है।
भिखारियों का कोई मोक्ष नहीं होता। सम्राट बनो। और सम्राट बनने का ढंग है: जीयो, जी भर जीयो! परमात्मा ने जीवन दिया है, धन्यवाद से जीयो। और जिस दिन ले ले उस दिन धन्यवाद से दे देना वापिस। दिया उसने, लिया उसने। तुम बीच में न आना। इस भावदशा को मैं संन्यास कहता हूं: तुम बीच में न आना।
जो है उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना संन्यास है। और जिसमें ऐसी परमस्वीकृति फलित होती है उसका मोक्ष हो ही गया, जीते-जी हो गया। वह जीवन-मुक्त है।

दूसरा प्रश्न:

आप राजनीति पर वक्तव्य देते हैं, तो फिर आपको राजनीतिज्ञ क्यों न माना जाये?

केशवराम! संगीत पर वक्तव्य देने से कोई संगीतज्ञ नहीं हो जाता, न काव्य पर वक्तव्य देने से कोई कवि हो जाता है। राजनीति पर वक्तव्य देने से मैं राजनीतिज्ञ कैसे हो जाऊंगा? काश, ऐसा होता होता तो मोरारजी देसाई धर्म पर वक्तव्य देते हैं, अब तक धार्मिक हो गये होते! वक्तव्य देने से न कोई कवि होता, न कोई धार्मिक होता, न कोई राजनीतिज्ञ होता है। कवि होना हो तो कृत्य और संगीतज्ञ होना हो तो कृत्य और राजनीतिज्ञ होना हो तो कृत्य और धार्मिक होना हो तो कृत्य...। कृत्य निर्धारक है।
मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूं। लेकिन धार्मिक व्यक्ति को राजनीति पर वक्तव्य देने का उतना ही अधिकार है जितना राजनीतिज्ञों को धर्म पर वक्तव्य देने का अधिकार है। जब अंधे भी आंखवालों के संबंध में वक्तव्य दे सकते हों, तो आंखवालों को तो कुछ अधिकार है अंधों के संबंध में वक्तव्य देने का, या नहीं? राजनीतिज्ञ को संकोच करना चाहिए धर्म पर वक्तव्य देने में। उसे पता क्या, उसे अनुभव क्या? धर्म उसके लिए बहुत दूर की बात है। धर्म उसकी चिंतना और चेतना से विपरीत बात है। न उसने ध्यान किया है, न उसने अंतस की शांति जानी है। जीता है महत्वाकांक्षा में--महत्वाकांक्षा के तनाव और चिंता में। फिर भी तुम उसके धर्म पर दिये गये वक्तव्यों पर कोई एतराज नहीं उठाते हो!
मैं राजनीति पर वक्तव्य दे सकता हूं। पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर घाटियों के संबंध में वक्तव्य दिया जा सकता है। सच तो यह है कि पहाड़ की चोटियों से ही घाटियां ठीक से दिखाई पड़ती हैं। कहते हैं न--विहंगम दृष्टि...जब पक्षी उड़ता आकाश में तो उसे जमीन ठीक-ठीक दिखाई पड़ती है। जो जमीन पर ही घसिट रहे हैं, उन्हें जमीन दिखाई नहीं पड़ती। उन्हें जमीन ही नहीं दिखाई पड़ती, तो उन्हें चोटियां शिखर की तो कैसे दिखाई पड़ेंगी? लेकिन जो शिखर पर खड़ा हो, उसे घाटियां दिखाई पड़ती हैं; घाटियों का अंधेरा दिखाई पड़ता है; घाटियों में भटकते हुए लोग दिखाई पड़ते हैं। और अगर शिखर से कोई पुकारे घाटियों के लोगों को, तो तुम्हें ऐतराज होता है?
अगर मुझे दिखाई पड़ता हो अपने शिखर पर खड़े होकर कि अंधे लोगों की एक जमात, एक ऐसी दिशा में बढ़ रही है जहां जाकर खड्ड में गिरेगी, तो क्या तुम सोचते हो मैं चुप देखता रहूं, आवाज भी न दूं? और अगर आवाज दूं, तुम्हें संदेह होता है कि कहीं मैं भी तो राजनीतिज्ञ नहीं हूं! चिकित्सक तुम्हें तुम्हारी बीमारी के संबंध में जगाता है, इससे बीमार नहीं हो जाता; तुम्हारी बीमारी का निदान करता है। इससे क्या तुम यह समझोगे कि वह भी बीमार हो गया?
राजनीति में मेरा कोई रस नहीं है। होने का कोई उपाय भी नहीं है। राजनीति पैदा होती है महत्वाकांक्षा से। मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। भगवत्ता को जान लेने के बाद और क्या महत्वाकांक्षा हो सकती है? भगवत्ता को पहचान लेने के बाद अब और इसके ऊपर कौन पद हो सकता है?  जिस दिन तुम जान लोगे अपने भीतर छिपे भगवान को, उसी क्षण तुम्हारी भी सारी महत्वाकांक्षाएं गिर जायेंगी।
सच तो यह है, महत्वाकांक्षा वस्तुतः भगवत्ता की ही तलाश है--गलत दिशा में, मगर है तलाश भगवत्ता की। एक आदमी धन की दौड़ में लगा है, अगर तुम मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा कि धन की दौड़ में भी उसी परम धन की खोज चल रही है--गलत ढंग से चल रही है, मगर उसी परम धन की खोज चल रही है। आदमी को निर्धनता काटती है। गरीबी घाव बन जाती है...। चाहता है किसी तरह गरीबी के घाव भर ले, यह घाव भर ले। किसी तरह मिटा दे यह दीनता। यह दीनता शोभती नहीं, भाती नहीं। चित्त रमता नहीं। एक दुख स्वप्न मालूम होता है--कैसे इसके बाहर आ जाऊं? धन इकट्ठा करता है इस आशा में कि शायद धन हो जायेगा तो दीनता, भीतर की दरिद्रता मिट जायेगी। लेकिन बाहर का धन भीतर की दरिद्रता को मिटाये भी तो कैसे मिटाये? धन बाहर है, दरिद्रता भीतर है; दोनों का तालमेल होता नहीं। मगर आकांक्षा सही थी, दिशा गलत थी। धन पाने के बाद एक-न-एक दिन, एक-न-एक दिन यह समझ में आ ही जायेगा कि चूक हो गयी, धन भी भीतर खोजना था। अगर भीतर दरिद्रता थी तो भीतर का धन ही उसे भर सकता था।
और ऐसी ही पद की खोज है। तुम बाहर पद खोज रहे हो, वह भी भीतर के छिपे परम पद की खोज है। तुम कुछ भी हो जाओ, राष्ट्रपति हो जाओ, प्रधानमंत्री हो जाओ, यह हो जाओ, वह हो जाओ, तुम्हारी दीनता न मिटेगी। तुम्हारी पदऱ्हीनता न मिटेगी। बड़े-से-बड़े पद पर बैठकर भी तुम पाओगे, तुम वैसे-के-वैसे खाली, वैसे-के-वैसे सूने, वैसे-के-वैसे रिक्त--वही-के-वही। सिंहासन पर बैठ जाने से तुम्हारे भीतर थोड़े ही संपदा बरस जायेगी। एक भिखारी को सिंहासन पर बिठाल दो, इससे क्या होगा? भिखारी भिखारी है। हां, सिंहासन पर बैठकर थोड़ा अकड़ लेगा, थोड़ा शोरगुल मचा लेगा, थोड़ा मंच पर रौब बांध देगा; मगर भीतर तो जानेगा कि मैं भिखारी हूं। क्या फर्क पड़ेगा? पद की तलाश भी एक दिन उस जगह ले आती है, जहां पता चलता है कि तलाश तो ठीक थी, मगर दिशा गलत थी। पद खोजना था भीतर, क्योंकि पदऱ्हीनता भीतर मालूम हो रही थी।
मेरे लेखे कुछ भी तुम खोजो तुम परमात्मा को ही खोज रहे हो जाने-अनजाने।
जो जानकर खोजने लगा, निश्चित ही उसके कदम फिर राजनीति में नहीं पड़ सकते। उसके कदम फिर कैसे पड़ सकते हैं बाहर की खोज में? जिसे मिलना ही शुरू हो गया, उसकी यात्रा बदल गयी। और जिसे मिल ही गया हो उसका तो कहना ही क्या?
मेरा कोई रस राजनीति में नहीं है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर मैं देखूं कि देश गङ्ढे में गिर रहा हो, तो चुपचाप खड़ा रहूं। इतनी क्रूरता भी मुझमें नहीं है। इतनी क्रूरता धार्मिक व्यक्ति में हो ही नहीं सकती; होनी भी नहीं चाहिए। इतनी उपेक्षा भी नहीं होनी चाहिए। साधारण आदमी भी अगर किसी को देखेगा कि जा रहा है यह गिरने, चट्टान के नीचे गिरेगा तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगा--वह भी दौड़कर आवाज देगा कि रुक जाओ, उस तरफ मत बढ़ो। मानो-न-मानो तुम्हारी मर्जी। तुम्हें गिरना ही हो तो तुम गिरोगे। तुम्हें गिरने में रस लगा हो तो तुम गिरोगे। मगर एक बात तय रहेगी कि मुझसे यह न कह सकोगे कि मैंने पुकार न दी थी।
तुम कहते हो: "आप राजनीति पर वक्तव्य देते हैं तो फिर आप को राजनीतिज्ञ क्यों न मान लिया जाये? राजनीतिज्ञ होने के लिए वक्तव्य देना आवश्यक भी नहीं होता। मौन होकर भी आदमी राजनीतिज्ञ हो सकता है। विनोबा भावे को देखते न, वक्तव्य तो देते नहीं, मौन हैं, मगर फिर भी राजनीति चलती है।
कुछ महीनों पहले इंदिरा और इंदिरा के कुछ साथी विनोबा भावे के आश्रम में इकट्ठे हुए और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया, वक्तव्य दिया कि उन्होंने आशीर्वाद दिया है। फिर दो दिन बाद विनोबा ने सोचा-विचारा होगा कि ये आशीर्वाद महंगा पड़ सकता है। राजनीतिज्ञ तो सोच-सोचकर कदम रखता है। राजनीतिज्ञ मेरे जैसा थोड़े ही बोलता है कि फिर हो जो हो! कोई राजनीतिज्ञ इस तरह मोरारजी से बात कर सकता है जैसे मैं करता हूं? राजनीतिज्ञ हजार गणित बिठाकर बात करता है। मेरा कोई गणित नहीं है। मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। न मुझे कुछ पाना है, न कुछ मेरे पास है जिसे कोई छीन सकता है। और जो मेरे पास है उसे कोई छीन नहीं सकता। और जो मेरे पास है उससे ज्यादा इस जगत में कुछ है नहीं पाने को, इसलिए क्या हिसाब-किताब?
दो दिन बाद विनोबा ने देखा कि हिसाब-किताब में गड़बड़ होगी, नुकसान होगा--बदल गये! अखबारों में वक्तव्य दे दिया कि मैंने आशीर्वाद नहीं दिया है। जब इंदिरा प्रधानमंत्री थी और विनोबा के आश्रम में जाती थी, तो विनोबा उन्हें आमंत्रित करते थे। विनोबा के संदेशवाहक जाकर उन्हें दिल्ली निमंत्रण देते थे। और विनोबा द्वार पर उनका स्वागत करने आते थे। लेने भी, भेजने भी, द्वार तक विदा करने आते थे। फिर जब इंदिरा प्रधानमंत्री न रही, तो संदेश भेजना तो दूर कि आओ; इंदिरा जब आयी, अपने-से आयी तो विनोबा फिर द्वार पर लेने नहीं आये और न विदा करने आये। और विनोबा नहीं आये सो तो ठीक ही है, आश्रमवासी भी द्वार पर स्वागत करने नहीं आये! इसे मैं राजनीति कहता हूं!
इंदिरा प्रधानमंत्री थी, मैंने कभी उसकी प्रशंसा नहीं की। ये कहीं राजनीति के ढंग हैं? और अब जब कि इंदिरा की प्रशंसा करने वाला इस देश में कोई भी नहीं है, मैं प्रशंसा कर रहा हूं। ये कोई राजनीति के ढंग हैं? यह तो अंधों को भी समझ में आ जाये कि ये राजनीति के ढंग नहीं हैं। यह तो बिलकुल उल्टी राजनीति हो गयी; ऐसे कहीं राजनीति चलती है!
फिर अभी इंदिरा जीती, तो विनोबा मौन हैं; जब उनको खबर दी गयी कि इंदिरा जीत गयी, तो खुशी में उन्होंने ताली बजाई। अखबारों में खबर छप गई कि विनोबा ने खुशी में ताली बजाई, मस्त हो गये!
फिर दो दिन बाद वक्तव्य, कि वह मैंने ताली इंदिरा की जीत के कारण नहीं बजाई थी, वह तो उस क्षण संयोगवशात मैं मौज में था।
उसी क्षण मौज में थे, क्षण भर पहले नहीं, क्षण-भर बाद नहीं!
एकदम खूब संयोग बैठा कि उसी क्षण मस्ती आयी ताली बजाने की! दो दिन बाद फिर हिसाब-किताब बिठाया होगा कि यह ताली बजाना महंगा पड़ सकता है।
राजनीति हमेशा हिसाब-किताब है, गणित है, चालबाजी है चालाकी है। मैं तुमसे कहता हूं: मैं राजनीति पर वक्तव्य देकर भी राजनीतिज्ञ नहीं हूं और विनोबा चुप रहकर, मौन रहकर, बिना वक्तव्य दिये भी राजनीतिज्ञ हैं। राजनीति जीवन की एक शैली है, वक्तव्य और गैर-वक्तव्य से कुछ भी नहीं होता। अगर मुझ में थोड़ी भी राजनीति होती तो यह कोई समय था कि मोरारजी का मैं विरोध करूं और इंदिरा का समर्थन करूं? चौंकी तो इंदिरा भी। मोरारजी ही नहीं चौंके, इंदिरा भी चौंकी। इंदिरा ने कहा भी अपने किसी साथी को, वह मुझे खबर देकर गये। उन्होंने कहा कि यह आश्चर्य की बात है कि आज तो इस देश में मेरा हाथ पकड़ने वाला कोई भी नहीं; उन्होंने क्यों वक्तव्य दिया मेरे समर्थन में?
मोरारजी आज मेरे दो संन्यासियों को दिल्ली में मिल रहे हैं। शर्त उन्होंने रखी है कि मिलना बिलकुल ही एकांत में होगा। और यह भी शर्त रखी है कि मिलने में जो भी बातचीत होगी, उस संबंध में अखबारों में कोई चर्चा नहीं होनी चाहिए। यह शर्तों के साथ मिलना हो रहा है। मोरारजी भी हैरान हैं, क्योंकि क्यों मैं उनके विरोध में बोल रहा हूं!...क्योंकि ये मेरे वक्तव्य अत्यंत गैर-राजनीतिपूर्ण हैं।
मैं वही कहता हूं जो मुझे ठीक लगता है, उसमें कोई प्रयोजन नहीं है। उसमें कोई फलाकांक्षा नहीं है। उसमें क्या परिणाम होगा, इसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन जब मुझे जो लगता है, वैसा मैं कहूंगा और वैसा मैं कहता रहूंगा। अगर मैं वैसा न कहूं तो कौन और कह सकेगा? सनद तो रहेगी कि मैंने कहा था। जब भी मैं देखूंगा कुछ गलत हो रहा है, तो जरूर कहूंगा।
अब यह जरूरी थोड़े ही है कि तुम मुझे गलत-सलत भोजन परोस दो और मैं कहूं कि यह कड़वा है, और तुम मुझसे कहो कि आप पाकशास्त्री हैं, जो आप इसको कड़वा कह रहे हैं? अब भोजन को कड़वा कहने के लिए मेरे लिए पाकशास्त्री होना जरूरी भी नहीं है। अगर यह शर्त हो कि पाकशास्त्री हुए बिना कोई भोजन पर वक्तव्य नहीं दे सकता, तब तो बड़ी मुसीबत हो जाये। तब तो फिर कोई जहर भी परोस दे तो खाना पड़े! क्योंकि तुम कोई पाकशास्त्री तो नहीं हो, जो तुम वक्तव्य दो!
मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं, लेकिन जन्मों-जन्मों में, लंबी यात्रा में राजनीति के सब खेल देखे हैं। शिखर पर आज आ गया हूं, लेकिन जन्मों-जन्मों तक तो घाटियों में मुझे भी वैसे ही अंधेरे में टटोलना पड़ा है जैसे तुम टटोल रहे हो। ये चोटें मैंने भी खायी हैं। इन गङ्ढों में मैं भी गिरा हूं। ये सब परिचित गङ्ढे हैं। इसलिए जब भी जो मैं कह रहा हूं वह ऐसा नहीं है कि बिलकुल ही अपरिचित बातों के संबंध में कुछ कह रहा हूं।
कहावत है: हर संत का अतीत होता है और हर पापी का भविष्य।
मैंने संसार का सब जाना है, जैसा तुम जान रहे हो। इसलिए संसार की किसी भी स्थिति और घटना के संबंध में मैं वक्तव्य देने का हकदार हूं। और हक मेरा और बढ़ गया, क्योंकि मैंने कुछ और भी जाना है जो तुम नहीं जान रहे हो। और उस कुछ और के जानने से ही परिप्रेक्ष्य बड़ा हो जाता है, दृष्टि विहंगम हो जाती है। दूर की चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़तीं।
जैसे कोई आदमी जमीन पर खड़ा है और कोई आदमी वृक्ष पर बैठा है। एक बैलगाड़ी रास्ते पर आ रही है। जमीन पर जो आदमी खड़ा है उसे अभी दिखाई नहीं पड़ती कि बैलगाड़ी आ रही है। अभी दूर है। लेकिन वृक्ष पर जो बैठा है उसे दिखाई पड़ती है कि बैलगाड़ी आ रही है। जमीन पर खड़े आदमी के लिए बैलगाड़ी अभी भविष्य है, अंधकार में है; वृक्ष पर बैठे आदमी के लिए वर्तमान है, अंधकार में नहीं है, प्रकाश में है।
जितनी ऊंचाई तुम्हारी चेतना की बढ़ेगी, उतनी ही चीजें जो औरों के लिए भविष्य में हैं, तुम्हारे लिए वर्तमान हो जायेंगी। उतनी ही चीजें जो औरों के लिए अतीत हो गयी हैं, वे भी तुम्हारे लिए वर्तमान में होंगी। इसी बात की अंतिम तर्कसरणी...जैन कहते हैं कि महावीर त्रिकालज्ञ हैं। उसका अर्थ कुछ और नहीं है--उसका इतना ही अर्थ है कि ऊंचाई इतनी बढ़ गयी है कि अब अतीत भी वर्तमान है, भविष्य भी वर्तमान है--अब सिर्फ एक ही काल बचा, वर्तमान; अब तीन काल नहीं बचे। लेकिन मूढ़ताएं तो ऐसी होती हैं कि लोग उसमें भी जिद में पड़ गये हैं, लोग समझते हैं कि महावीर को हर विस्तार का पता है, कि दो हजार साल बाद चूहड़मल-फूहड़मल बंबई में एक होटल खोलेंगे, इसका भी पता है। यह कोई मतलब नहीं है। मतलब केवल इतना है कि जैसे-जैसे चित्त की ऊंचाई बढ़ती है, वैसेऱ्ही-वैसे उस ऊंचाई के कारण सारा विस्तार वर्तमान में समा जाता है। उसमें कोई चूहड़मल-फूहड़मल की दुकान नहीं होती।
मैं जिस जगह से देख रहा हूं, वहां से मैं राजनीति जो कर रही है इस देश में और इस देश को जिस गङ्ढे में ले जा रही है, वह भी दिखाई पड़ रहा है। या तो चुप रहूं...चुप रहूं, क्योंकि अगर बोलूंगा तो मेरे काम को परेशानी होगी, मेरे काम को हानि होगी। लेकिन तब मैं तुमसे कहता हूं: मेरा चुप रहना राजनीति होगी। तुम जरा समझने की फिक्र करना।
यहां मेरे एक संन्यासी हैं। जर्मन सम्राट के पोते हैं। ग्रीक की महारानी कल बंबई से गुजरती थीं, तो उसने उन्हें बुलाया था। वह उनकी मौसी है। ग्रीक की महारानी उनकी मौसी है, इंग्लैंड की महारानी उनकी मौसी है। यूरोप के करीब-करीब सारे राजघरों में उनके कुछ-न-कुछ संबंध हैं। महारानी ने उनको कहा कि मैंने तुम्हें यहां सावधान करने को बुलाया है कि यह आश्रम जल्दी ही सरकार बंद कर देगी। क्योंकि मुझे विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि सरकार खिलाफ होती जा रही है। तुम्हें अगर कभी अड़चन आये, तुम्हें जरूरत हो, तो मैं सदा तुम्हारी सहायता को तत्पर हूं। तुम मेरे पास चले आना।
फिर महारानी का भोजन था यूनान के दूतावास में, तो वहां भी विमलकीर्ति, मेरा संन्यासी, वहां रानी उनको साथ ले गयी। राजदूत ने भी यही कहा कि तुम्हारे आश्रम पर खतरे के बादल हैं।
ये खतरे के बादल मेरे वक्तव्यों के कारण हैं। अगर मुझ में थोड़ी भी राजनीति होती तो मैं चुप रहता; या जो सत्ता में हैं, उनकी झूठी प्रशंसा करता। क्योंकि उनकी प्रशंसा से हजार काम हो सकते हैं। लेकिन उनकी प्रशंसा से देश का जो भी दुर्भाग्य हो उससे मुझे क्या लेना-देना है! अगर मैं राजनीतिज्ञ होता, राजनीति मेरे चित्त में होती, तो मुझे अपना प्रयोजन होता। उनसे मैं हजार काम ले सकता था। लेकिन मुझे किसी से कोई काम नहीं लेना है। परमात्मा मुझसे जो काम करवा ले, करवा ले, उसकी मर्जी। और कभी-कभी वह मुझसे राजनीति पर वक्तव्य भी दिलवा लेता है तो मैं क्या करूं?

तीसरा प्रश्न:

सिद्ध सरहपा ने कहा कि जब तक स्वयं को न जान लो तब तक किसी को शिष्य न करना। इस पर कुछ और कहें।

ह तो बात बिलकुल सीधी-साफ है, और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। जो तुमने न जाना हो उसे किसी को मत जतलाना, क्योंकि तुम जतलाओगे वह गलत ही होगा, अनुमान होगा, उधार होगा, बासा होगा। तुम्हारी स्वयं की अनुभूति अगर नहीं है तो उसमें प्राण कैसे होंगे? ज्ञान तो होगा मगर निष्प्राण होगा; शास्त्रीय होगा, स्वानुभूत न होगा। और इसी तरह के लोगों ने मनुष्य को भटका दिया है। इसलिए सरहपा ठीक कहते हैं।
इस दुनिया में इतना अधर्म न हो जितना है, अगर तथाकथित धार्मिक लोग उन बातों को कहना बंद कर दें जो उनके अनुभव पर आधारित नहीं हैं। अगर सारे धार्मिक लोग एक बात की कसम ले लें कि हम उतना ही कहेंगे जितना जाना है, इस दुनिया में बड़ी अपूर्व क्रांति घट जाये। झूठ के आधार पर परमात्मा का आगमन नहीं हो सकता है। और जो तुमने नहीं जाना है वह झूठ है। और तुम ऐसे रंग गये हो पक गये हो झूठ में कि तुम्हें याद भी नहीं आती कि तुम झूठ बोल रहे हो। जब कोई तुमसे पूछता है, ईश्वर है? और तुम कहते हो--हां, ईश्वर है! तब तुम्हें खयाल आता है कि तुमने जाना? तुमने पहचाना? तुम्हारा अनुभव है? तुमने स्वाद लिया? नहीं, ये प्रश्न ही नहीं उठते। ये प्रश्न ही तुमने काटकर फेंक दिये हैं। तुम इतने बचपन से इस बात को मानते रहे हो, यह जहर तुम्हें घुटी में घोंटकर पिलाया गया है, कि अब तुम्हें याद ही नहीं आती कि तुम्हें पता नहीं है ईश्वर का, कि तुम एक झूठ बोल रहे हो, कि तुम बेईमान हो, कि तुम पाखंडी हो। नहीं, यह कोई बात खयाल में नहीं आती। जब कोई तुमसे पूछता है, ईश्वर है? तुम बड़ी सरलता से कहते मालूम पड़ते हो कि हां, है--अगर भारत में पैदा हुए, अगर किसी धार्मिक देश में पैदा हुए। अगर रूस में पैदा हुए तो उतनी ही झूठ को तुम उतनी ही सरलता से बोल देते हो कि नहीं, ईश्वर नहीं है। क्योंकि वही सिखाया गया है।
रूस के स्कूलों में समझाया जा रहा है, ईश्वर नहीं है; तुम्हारे स्कूलों में समझाया जा रहा है ईश्वर है। दोनों बातें उधार हैं। दोनों दूसरे तुम्हें समझा रहे हैं। और जो तुम्हें समझा रहे हैं उन्हें भी पता नहीं है। ऐसे कैसे धर्म की तलाश होगी? और फिर तुम्हारी बात मानकर जो चल पड़ता है वह गङ्ढे में गिरेगा। इसलिए सरहपा कहते हैं कि यह तो ऐसा ही है कि जैसे अंधे अंधों को रास्ते बतायें, फिर दोनों अगर कुएं में गिर पड़ें तो आश्चर्य कैसा? यह तो बड़ी सीधी-सादी बात है, पर बड़ी महत्वपूर्ण।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि जब भी तुम बोलो तो बहुत सावधानी से बोलना, क्योंकि बोलते तुम करीब-करीब ग्रामाफोन रिकार्ड की भांति हो, उसमें सावधानी होती ही नहीं, सावधानी की जरूरत ही नहीं होती; सब रटा हुआ है, बोल देते हो।
एक पादरी तोते खरीदने गया था एक दुकान पर, उसका तोता मर गया था। उसने कहा: कोई शानदार तोता चाहिए, दाम की कोई फिकिर न करो। बहुत तोते देखे लेकिन उसे पसंद नहीं आया, फिर एक तोता उसे दिखाई पड़ा--अमेज़ान के जंगल से लाया गया तोता था, बड़ा जानदार तोता था, बड़ा शानदार तोता था। ऐसा तोता उसने कभी देखा नहीं था, उसने कहा कि यह...। पर दुकानदार ने कहा कि इसे मैं बेचना नहीं चाहता। यह बड़ा अनूठा तोता है।
क्या इसका अनूठापन है, पादरी ने पूछा। दुकानदार ने कहा: देखते हैं आप, इसके बाएं पैर में एक छोटा-सा धागा बंधा है, जरा-सा इसका धागा खींच दो, किसी को पता भी नहीं चलेगा, यह तत्क्षण बाइबिल के वचन दोहराता है। और इसके दाएं पैर में भी धागा बंधा है, देखते हो, पतला धागा, किसी को दिखाई भी नहीं पड़ेगा, तुम चुपचाप इसको खींच दोगे, बस इसको इशारा मिल जायेगा, यह तत्क्षण ईसाइयों की जो प्रार्थना है वह दोहरा देता है।
पादरी ने कहा: और अगर दोनों धागे एक साथ खींच दो? तोता बोला: अरे बुद्धू! तो मैं चारों खाने चित्त नीचे गिर पडूंगा।
तोतों में भी इतनी अकल है, इतनी अकल आदमियों में भी नहीं रही है अब। तोता भी इतना जानता है। दोहरा देगा बाइबिल के वचन और दोहरा देगा प्रार्थना--मगर वह दोहराना है, उस दोहराने का कोई मूल्य नहीं है। इसी तरह तुम दोहरा रहे हो, मगर तोता भी इतना बुद्धू नहीं था जितने लोग बुद्धू हो गये हैं। जब पादरी ने कहा कि अगर दोनों धागे एक साथ खींचे तो क्या होगा, तो तोता भी चौंका, उसने कहा: हद हो गई, अरे बुद्धू! चारों खाने चित्त गिर पडूंगा।
तुम जब कोई बात कहो, क्षण-भर रुक जाना, पुनर्विचार कर लेना। तुम्हारे अनुभव से आती है, तो ही कहना। और उतनी ही कहना जितनी अनुभव से आती हो, एक रत्ती ज्यादा नहीं। एक इंच आगे मत बढ़ना अपने अनुभव से। यह जगत रोशन हो जाये अगर लोग उतनी ही बात कहें जितनी उनके अनुभव की है। इस जगत में सचाई का तूफान आ जाये।
यह दुनिया झूठ में दबी जा रही है। और बड़े-से-बड़े झूठ वे हैं जिनको तुमने सच मान लिया है। मैं यह नहीं कह रहा कि ईश्वर नहीं है, मैं यह कह रहा हूं कि तुम जब तक न जान लो, कुछ मत कहना। कहना: मुझे पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। मुझे पता होगा कभी तो जरूर निवेदन करूंगा, अभी मैं भी तलाश में हूं। मुझे कुछ पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं।
जरा सोचो, ऐसा कहते ही तुम कैसे निर्भार हो जाओगे, कैसे हलके! और ऐसा कहते ही तुमने दूसरे आदमी को एक दिशा दे दी--ईमानदारी की, अन्वेषण की, खोज की, तलाश की। तुमने दूसरे आदमी में भी एक ज्योति जला दी; यह ज्योति ज्यादा मूल्यवान है उस झूठी बात से जो तुमने उससे कह दी होती कि हां, ईश्वर है, मैं मानता हूं। और तुम हजार तर्क देते, वे सब तर्क भी बासे होते; उन तर्कों का कोई मूल्य नहीं है।
आज तक ईश्वर के पक्ष में कोई तर्क दिया नहीं जा सका है, न विपक्ष में दिया जा सका है। ईश्वर तर्क की बात ही नहीं है; न तो सिद्ध किया जा सकता है तर्क से, न असिद्ध किया जा सकता है तर्क से। ईश्वर तो अनुभव है। और न ईश्वर हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई; न कुरान में है, न बाइबिल में, न वेद में। ईश्वर तो तुम्हारे स्वानुभव में है। और तुम्हारे अतिरिक्त कोई उसका गवाह नहीं हो सकता, तुम उसके साक्षी बनो।
सरहपा ठीक कहते हैं।
पीछे करना अध्ययन, बंधु, तुम औरों का;
हो सावधान, पहले अपना अध्ययन करो!
पीछे दिखलाना आंखें औरों को, पहले--
अपने प्रति तो तुम बंद न अपने नयन करो!
हो सावधान, पहले अपना अध्ययन करो!

जीते-जीते थक गया, जब कि जीने वाला,
तज कर्म, सजा कर मंच, बन गया अभिनेता!
वह कोई और न था, तुम ही कच्चे साधक,
जिसने अपने को समझ लिया जीवन-जेता!
मन नहीं, वचन के शूर, रूप धरने वाले;
तुम उतर मंच से, भार मौन का वहन करो!
हो सावधान, पहले अपना अध्ययन करो!

अभिमान तुम्हारा व्यर्थ--कि तुम साधक, विनम्र!
तुम निरभिमान होने का मत अभिमान करो!
कह दिया किसी ने यदि, तुम हो ज्ञानी-ध्यानी;
यह बात मान कर, मत उसका अपमान करो!
यश फूलों का परयंक नहीं, अंगारा है;
तुम शयन करो इस पर, आपे का दहन करो!
हो सावधान, पहले अपना अध्ययन करो!

उपदेश, सुभाषित शब्दों के घड़िया-जड़िया--
जाने क्या क्या तुम समझ बैठते अपने को!
मत समझो जग को मूर्ख, बनो मत मूर्खराज;
समझो न सिद्धि तुम, अपना अहम पनपने को!
तुम बात उड़ाओ नहीं, चुराओ नहीं आंख;
कच्चे घट हो, जी भर कर ज्वाला सहन करो!
हो सावधान, पहले अपना अध्ययन करो!
अभी कच्चे घड़े हो, अभी पको। कच्चे घट हो, जी भरकर ज्वाला सहन करो! अभी तो तुम्हारे भीतर व्यर्थ की बकवास है। तुम उतर मंच से, भार मौन का वहन करो! अभी तो तुम्हारे भीतर बड़ा अहंकार है, वही अहंकार तो तुम्हें सुझाव देता है कि मार्ग-दर्शन करो लोगों का; लोगों को चलाओ, रास्ता बताओ, ज्ञान दो!
तुम शयन करो इस पर, आपे का दहन करो!
यश फूलों का परयंक नहीं, अंगारा है;
तुम शयन करो इस पर, आपे का दहन करो!
अभी खुद की आंखें बंद, तुम दूसरों की खोलने चले!
अपने प्रति तो तुम बंद न अपने नयन करो!
पीछे दिखलाना आंखें औरों को, पहले--
अपने प्रति तो तुम बंद न अपने नयन करो!
पीछे करना अध्ययन, बंधु तुम औरों का;
हो सावधान, पहले अपना अध्ययन करो!
पहले तो स्वयं को पढ़ो, फिर पढ़ाना। पहले जागो, फिर जगाना। पहले आंख खोलो, आंख पाओ, फिर तुम्हें चेष्टा न करनी पड़ेगी। जिन्हें तलाश है वे खुद ही तुम्हें ढूंढते चले आयेंगे। वे सदा चले आते हैं। तुम्हारा दीया जले तो दूर अंधकार में भटकते हुए लोग उस धीमी-सी दीये की ज्योति को देख चल पड़ेंगे, तुम्हारी तलाश शुरू हो जायेगी। जिन्होंने जाना है उनसे लोग पूछने चले आए; उन्हें जा जाकर किसी को कहना भी नहीं पड़ता है, कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
सरहपा ठीक कहते हैं। उनकी बात को गांठ बांध लो।

चौथा प्रश्न:

आपने कहा है जीवन को लीला समझो। कैसे? और यदि जीवन माया मात्र है, तो इस जीवन की आवश्यकता क्या है?

जीवन को लीला समझो, इस बात को कहने का यह अर्थ नहीं है कि जीवन लीला नहीं है और तुम्हें लीला समझना है। जीवन लीला है, तुम समझो चाहे न समझो। जीवन का लीला होना तुम्हारे समझने पर निर्भर नहीं है। जीवन का लीला स्वभाव है। यह सत्य है: तुम समझ लो तो तुम्हारे जीवन में सत्य से मिलने वाली शांति का आविर्भाव होगा; तुम न समझो तो असत्य से मिलने वाली अशांति का विस्तार होगा। तुम समझ लो तो संगीत पैदा हो जायेगा क्योंकि तुम्हारा तालमेल बैठ जायेगा विराट से; तुम न समझो तो तुम तालमेल के बाहर पड़े रहोगे, तुम्हारा छंद विराट के छंद के साथ न बैठेगा। वही दुख है।
दुख क्या है? विराट के छंद से पृथक-पृथक रहना; अपनी ढाई चावल की खिचड?ी अलग पकाना, दुख है। जिस दिन तुम इस विराट उत्सव में सम्मिलत हो जाते हो, इस विराट संगीत में एक अंग बन जाते हो, बस उसी दिन सुख है, उसी दिन शांति है, उसी दिन आनंद है।
जीवन लीला है, इसका क्या अर्थ? जीवन गंभीर नहीं है। परमात्मा गंभीर कैसे हो सकता है! गंभीरता तो उदासी है। उदासी तो रुग्णता है, उदासी तो विषाद है। उदासी तो उनमें होती है जिनकी अपेक्षायें हैं और फिर अपेक्षायें पूरी नहीं होतीं तो उदासी होती है। परमात्मा की कोई अपेक्षा नहीं है, इसलिए उदासी कैसी? परमात्मा विषाद को कैसे उत्पन्न होगा? परमात्मा तो सदा ही आनंदमग्न है।
यह जगत परमात्मा ने प्रयोजन से नहीं बनाया है, क्योंकि प्रयोजन तो उसका होता है जिसको कुछ पाना हो, आकांक्षा हो। परमात्मा तो वह है जिसके पास सब है, कुछ पाने को नहीं है, कुछ और ज्यादा हो नहीं सकता। फिर उसने जगत को क्यों बनाया है? इसलिए इस देश के मनीषियों ने ठीक बात कही, दुनिया के किसी और मनीषी ने इस गहन बात को नहीं पकड़ पाया है। सारी दुनिया में लोग यही कहते रहे कि परमात्मा ने जगत को रचा है, बनाया है, सृष्टि की है; इसके पीछे कोई प्रयोजन है, कोई महत प्रयोजन है। और यह बात आदमी के मन को जमती भी है, क्योंकि हम सब प्रयोजन से जीते हैं।
तुम एक दुकान खोलते हो तो कोई लीला थोड़े ही है। तुम एक दुकान खोलते हो, धन कमाना है। तुम शादी करते हो तो कोई लीला थोड़े ही है। तुम गंभीरता से शादी करते हो; घर बसाना है, बच्चे पीछे छोड़ जाना है। नहीं तो कौन करेगा श्राद्ध, और कौन तुम्हारी खोपड़ी तोड़ेगा मरघट पर, हालांकि बच्चे ऐसे हैं कि जिंदा में ही तोड़ देते हैं। पुराने जमाने में मरने तक रुकते थे, अब वे एकदम जल्दी में हैं। हर चीज जल्दी में हो रही है।
तुम प्रयोजन से जीते हो, तो तुमने परमात्मा को भी अपने हिसाब ही से सोच लिया है कि वह भी प्रयोजन से जी रहा होगा। जरूर कोई लक्ष्य होगा, शायद हमको पता नहीं है, मगर लक्ष्य तो होगाऱ्हीऱ्होगा। लेकिन परमात्मा का कोई लक्ष्य नहीं हो सकता। वह तो वहीं है जहां होना है। वह तो पहुंचा ही हुआ है। कोई मंजिल तो नहीं है, मंजिल पर ही है।
परमात्मा इस जगत को किसी प्रयोजन से नहीं रचता। फिर क्यों? हमारे सामने सवाल उठता है: फिर क्यों? ऊर्जा है। छोटे बच्चों को देखा? एक बच्चा बैठा है, कुछ नहीं तो बैठे-बैठे ही डोल रहा है, करवट बदलता है। तुम उससे कहते हो: शांत बैठो! वह शांत बैठे कैसे? ऊर्जा है, शक्ति का प्रवाह है, शक्ति ऊपर से बह रही है। बाढ़ आई है शक्ति की, वह चुप कैसे बैठे? बच्चे नाच रहे हैं, कूद रहे हैं, दौड़ रहे हैं; तुम उनसे पूछो--प्रयोजन? तो वे चौंकेंगे कि यह भी कोई बात हुई? नाचना काफी है, प्रयोजन क्या? या फिर तुम कवियों से पूछो कि तुमने जो गीत गाये--प्रयोजन? अगर किसीने प्रयोजन से गीत गाया हो तो वह कवि ही नहीं है। वह कहे कि इसलिए गीत गाया कि राजा की स्तुति करनी थी, तो वह कवि ही नहीं है, तुकबंद है। उसके गीतों का कोई मूल्य नहीं है।
रवींद्रनाथ जैसे कवि से पूछो तो वह कहेंगे, ऊर्जा का सहज आविर्भाव है। मेरे वश में न था, गाना ही पड़ा, प्रयोजन कुछ भी नहीं। गीत जैसे अपने से फूटा है! जैसे वृक्षों से फूल फूटे हैं, और पक्षियों के कंठ से सुबह गान निकले हैं, और रात आकाश तारों से भर गई है--प्रयोजन क्या है?
पाबलो पिकासो चित्र बना रहा था, कोई आदमी आकर खड़ा हो गया, गौर से देखता रहा, फिर उसने पूछा--इस चित्र के बनाने का प्रयोजन क्या है? पिकासो ने अपने सिर पर हाथ मार लिया। उसने कहा: तुम पहाड़ों से नहीं पूछते, तुम वृक्षों से नहीं पूछते, तुम चांदत्तारों से नहीं पूछते, मेरे क्यों पीछे पड़े हो? यह जो पास में गुलाब का फूल खिल रहा है, इससे पूछो कि प्रयोजन क्या है? और अगर गुलाब का फूल खिल सकता है निष्प्रयोजन, तो क्या इतना हक मुझे नहीं है कि निष्प्रयोजन मैं रंग फैलाऊं कैनवस पर, चित्र बनाऊं निष्प्रयोजन?
संगीतज्ञ जब अपनी परम गहराई में उतरता है तो संगीत का कोई लक्ष्य नहीं होता, संगीत अपने में ही अपना लक्ष्य होता है। कला--कला के लिये। लीला का वही अर्थ है।
परमात्मा दुकानदार नहीं है, कलाकार है--लीला का इतना ही अर्थ है। परमात्मा गणित से नहीं जी रहा है, काव्य से जी रहा है--इतना ही लीला का अर्थ है। लीला का अर्थ है, यह खेल है। परमात्मा के पास इतनी ऊर्जा है कि करे क्या, तो फूल बनाता है, पक्षी बनाता है, लोग बनाता है। और देखो कैसा रंग-बिरंगा जगत! अदभुत जगत है। यह ऊर्जा की बाढ़ है।
पश्चिम के बड़े रहस्यवादी कवि ब्लेक ने कहा है: इनर्जी इज डिलाइट, ऊर्जा आनंद है। यह वक्तव्य उपनिषद के वक्तव्यों जैसा वक्तव्य है--उसी कीमत का, उसी मूल्य का। जहां ऊर्जा है वहां ऊर्जा बहेगी और आनंद प्रगट होगा। वहां नृत्य होगा, गीत गाये जायेंगे, फूल खिलेंगे। और ऊर्जा अजस्र है, अनंत है, इसलिए खेल जारी रहेगा।
तो मैंने जब तुमसे कहा कि जीवन को लीला समझो, तो मैंने यह नहीं कहा कि तुम समझोगे तो जीवन लीला होगा; मैंने इतना ही कहा है कि जीवन तो लीला है ही, तुम समझोगे तो तुम्हें सदबुद्धि आयेगी। तुम्हारे नहीं समझने से जीवन में कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन तुममें फर्क पड़ता है। ठीक-ठीक समझोगे तो जोड़ बैठ जायेगा, तरंग बैठ जायेगी। तुम्हारे तार परमात्मा के तार के साथ कंपने लगेंगे। और अगर तुमने ठीक-ठीक न समझा, तुम कुछ का कुछ और समझते रहे तो तुम्हारे तार अलग-थलग चलते रहेंगे। उसका नाच चलता रहेगा, तुम अलग अकेले पड़ जाओगे।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं जिसने परमात्मा का लीलामय रूप समझा और उस लीलामय रूप में अपने को सम्मिलत कर दिया। अधार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं जो प्रयोजन से जी रहा है। समझ लेना जरा मेरी व्याख्या को, क्योंकि अगर मेरी व्याख्या ठीक से समझ में आई तो तुम्हारे तथाकथित धार्मिक कहे जाने वाले निन्यानबे प्रतिशत लोग मेरी व्याख्या के हिसाब से अधार्मिक हो जायेंगे और बहुत-से लोग जिन्हें तुमने कभी भी धार्मिक की तरह नहीं सोचा वे धार्मिक हो जायेंगे।
मैं दोहरा दूं मेरी परिभाषा: धार्मिक वह है जो परमात्मा की लीला के साथ संयुक्त हो गया है; जिसने अपने जीवन को भी लीला बना लिया, जिसे अब न कहीं जाना है, न कुछ होना है, न कुछ पाना है--स्वर्ग भी नहीं, बैकुंठ भी नहीं, मोक्ष भी नहीं, कुछ नहीं पाना है। यह क्षण पर्याप्त है। यह क्षण पूरा-पूरा मन को भर रहा है, प्राणों को भर रहा है। आह्लाद है यहां और अभी। इसी आह्लाद में बाढ़ आई है तो कभी नाच पैदा हुआ, तो कभी गीत पैदा हुआ। वे ही नाच, वे ही गीत प्रार्थनायें हैं।
धार्मिक व्यक्ति वह है जिसने जगत का लीलामय रूप समझा और उसके साथ एक हो गया। तब बहुत-से कवि, जिनको तुम कभी धार्मिक नहीं समझते, मेरे हिसाब से धार्मिक हो जायेंगे। बहुत-से नर्तक, बहुत-से संगीतज्ञ, बहुत-से चित्रकार...मेरे हिसाब से सारे कलाकार परमात्मा के ज्यादा निकट हैं, बजाये तुम्हारे तथाकथित तपस्वियों के, तुम्हारे तथाकथित मुनियों के, साधुओं के। क्योंकि तुम्हारे साधु प्रयोजन से चल रहे हैं। पूछो किसी साधु से कि उपवास क्यों कर रहे हो? तो वह कहता है: मोक्ष जाना है। यह दुकान ही है। यह नया फैलाव हुआ सौदे का। पूछो किसी साधु से कि तुम सिर के बल क्यों खड़े हो? वह कहता है: बैकुंठ जाना है, कि परमात्मा को प्रसन्न कर रहा हूं। परमात्मा पागल है कि तुम सिर के बल खड़े होओगे तो प्रसन्न होता है! अगर परमात्मा को सिर के बल ही खड़ा करना था तो तुम्हें सिर के बल ही खड़ा किया होता; इतनी बड़ी भूल तो न करता कि तुम्हें पैरों के बल खड़ा करता। अगर परमात्मा को उपवास में इतना ही रस था तो तुम्हें पेट ही क्यों दिया था? तुम्हारे पेट में पहले ही पत्थर भर दिये होते; न लगती भूख, न होता उपद्रव। अगर परमात्मा को तुम्हें उदास ही देखना था, तो हंसी की क्षमता क्यों दी थी? तो तुम्हारे होठों पर मुस्कुराहट आने का उपाय क्यों रचा था? अगर परमात्मा तुम्हें उदास ही जानना चाहता था तो तुम्हें उदास ही बनाया होता, तुम्हें उदासी में ही रंगा होता। तुम्हें मुर्दा ही पैदा किया होता। तुम्हें जिंदगी न दी होती और जिंदगी के सारे रंग न दिये होते और जिंदगी का इतना बड़ा इंद्रधनुष न फैलाया होता। न होते वृक्ष हरे, न खिलते फूल, न पक्षी गीत गाते।
लेकिन परमात्मा ने तुम्हें आनंद के लिए तत्पर किया है और तुम प्रयोजन के कारण परेशान हो। तुम कहते हो: हर चीज में प्रयोजन होना चाहिए। माला भी फेरते हो तो आनंद से नहीं; नजर लगाये बैठे हो कि कितनी बार...एक हजार बार माला फिर जाये तो फिर परमात्मा प्रसन्न होगा!
एक घर में मैं मेहमान था। उन सज्जन ने सारा घर भर रखा है। किताबें ही किताबें, किताबें ही किताबें। वह राम-राम लिखते रहते हैं। बस उनका पूरा काम सुबह से शाम तक किताबें खराब करना...राम-राम, राम-राम। वह मुझसे कहने लगे: आप देखते हैं, इतना मैंने राम लिख डाला, करोड़ों राम लिख डाले हैं! इसका मेरा क्या फल होगा, आप मुझे कहिये।
मैंने कहा: फल! अगर कहीं नर्क है तो पड़ोगे नर्क में। उन्होंने कहा: नर्क में! आप मजाक करते हैं?
मैंने कहा: इतनी किताबें खराब कीं, बच्चों के काम आ जातीं, स्कूल में बंटवा देते। बच्चों में राम देख लेते, उनको किताबें दे देते, राम के काम आ जातीं किताबें। तुमने व्यर्थ ही खराब कर दीं। और अगर तुम्हें लिखने की ही धुन थी कि बिना लिखे रुक ही नहीं सकते थे तो कम-से-कम स्लेट-पट्टी पर लिखते रहते और मिटाते रहते। किताबें क्यों खराब कीं?
वह कहने लगे: आप पहले आदमी हैं जो इस तरह की बात कर रहे हैं। यहां तो मेरे घर में जो आता है वही कहता है: "आहा! आप भी धन्यभागी हैं।' आपने संदेह पैदा कर दिया। जो भी आता है वह कहता है कि आप तो पुण्य-लोक जायेंगे, इतना राम लिख डाला!
मैंने उनसे कहा कि एक आदमी मरा, जिंदगी भर राम-राम ही करता रहा था। और धीरे भी नहीं करता था, जोर से करता था। जोर से ही नहीं करता था, लाउड-स्पीकर लगाकर करता था कि मोहल्ले-भर के लोगों को भी मुफ्त ही पुण्य मिलता रहे। ऐसे कई लोग हैं जो मुफ्त पुण्य देते हैं मोहल्ले वालों को; चाहे उनको सोना हो मगर वे कहते हैं राम-राम...! वे कहते हैं अखंड कीर्तन हो रहा है। अखंड कीरंतन को वे अखंड कीर्तन कहते हैं।
वह आदमी मरा। संयोग की बात, उसके समाने ही एक और आदमी रहता था, जो बिलकुल नास्तिक था, वह भी मरा। एक ही दिन मरे। धार्मिक ने तो समझा कि बेचारा जायेगा नर्क यह, मैं जाऊंगा स्वर्ग। और जब देवदूत लेने आये और उसको ले चले नर्क की तरफ तो उसने कहा: ठहरो भाई, तुमसे कुछ भूल हो रही है। नर्क उसको ले जाओ, जिसने कभी राम का नाम न लिया। मैं तो राम-राम ही जपता रहा।
उन्होंने कहा: हमसे कुछ भूल नहीं हो रही। यह कोई भारतीय सरकार का दफ्तर नहीं है कि भूल हो जाये। यह कोई सरकारी काम नहीं है, ईश्वरीय काम है, यहां भूल-चूक होती ही नहीं। तुमको नर्क भेजा है, उसको स्वर्ग।
उसको स्वर्ग! उसने कहा: निश्चित भूल है। पहले मुझे परमात्मा से मिलना है।
खैर दोनों परमात्मा के सामने मौजूद किये गये। नास्तिक की आंखों से तो आंसू बह रहे थे। वह तो भरोसा ही नहीं कर सकता था कि मुझे और स्वर्ग! और आस्तिक की आंखों से आग बरस रही थी कि मुझे और नर्क? और उसने जाते से ही कहा कि सुनते हैं, जिंदगी बिता दी चिल्ला-चिल्लाकर। अकेला ही नहीं चिल्लाया, मोहल्ले भर पर आवाज लगाई, लाउड-स्पीकर लगवाया, खर्चा भी किया, अखंड कीर्तन करता रहा--और इसका यह फल! मुझे नर्क क्यों भेजा जा रहा है?
परमात्मा ने कहा : इसीलिये कि तुमने जिंदगी-भर मुझे भी नहीं सोने दिया, अब तू स्वर्ग में रहेगा और लाउड-स्पीकर लगायेगा, झंझट खड़ी होगी। यहां देवी-देवताओं को सोने दे भैया। तू नर्क जा। वहां लगाना लाउड-स्पीकर। वहां तुझे जो करना हो करना।
"और इस नास्तिक को यहां क्यों बुलाया जा रहा है?'
उसने कहा : इससे मैं इसीलिये प्रसन्न हूं, तेरे कारण। तूने मुझे इतना सताया है कि मैं इस पर खुश हो गया कि इसने एक भी दफे मेरा नाम नहीं लिया, एक भी दफे परेशान नहीं किया तेरे कारण मैं इस पर खुश हो गया हूं।
तुम जब भी किसी काम में लगे हो, अगर उसमें परिणाम की आकांक्षा है तो वह काम सांसारिक हो गया, दुकानदारी हो गई, व्यवसाय हो गया।
मैं तुमसे कहता हूं : संसार लीला है। इसलिये मैं अपने संन्यासी को गंभीर होने को नहीं कह रहा हूं। उससे कह रहा हूं : जीवन को मौज से लो हलके-हलके, नाचते-नाचते, मुस्कुराते-मुस्कुराते। यही तुम्हारी प्रार्थना है, यही तुम्हारी उपासना है।
और तुम पूछते हो : "और यदि जीवन माया मात्र है तो इस जीवन की आवश्यकता ही क्या है?'
ठीक है, तर्क और गणित वाले विचार में ऐसा प्रश्न उठेगा ही। या तो होना चाहिए गंभीर मामला, तब तुम राजी हो। कोई महत प्रयोजन होना चाहिए। अगर कोई प्रयोजन नहीं है, तब सवाल उठता है: तो फिर इसकी जरूरत ही क्या है?
उत्सव की तुम्हें कोई जरूरत ही दिखाई नहीं पड़ती! सहज आनंद की तुम्हें कोई अर्थवत्ता ही नहीं मालूम होती। कभी सुबह घूमने गये हो? और अगर कोई पूछ ले कि इसका प्रयोजन क्या है, क्यों जा रहे हो घूमने, कहां जा रहे हो? और तुम कहो कि सिर्फ घूमने जा रहे हैं, इसमें कहां जाने का क्या सवाल है, सिर्फ घूमने निकले हैं! और वह कहे, तो फिर निकले ही क्यों, उत्तर चाहिए! अगर या तो दफ्तर जा रहे हो, ठीक; दुकान जा रहे हो, ठीक; कारखाने जा रहे हो ठीक; पत्नी बीमार है, दवा लेने जा रहे हो, ठीक; कि नोन तेल लकड़ी के लिए जा रहे हो, ठीक--घूमने, तफरी के लिये! तुमने कोई लखनऊ समझ रखी है? यह पूना है, पुण्य की नगरी है, कहां जा रहे हो? यह कोई लखनऊ तो नहीं! तो फिर तुम्हें बहाने खोजने पड़ते हैं। तुम कहते हो कि स्वास्थ्य के लिये, कि मैं प्राकृतिक चिकित्सा में विश्वास करता हूं, कि मेरा तीर्थ है उरली कांचन, सेहत बनाने के लिए जा रहा हूं।
तब दूसरा आदमी राजी हो जाता है कि तब फिर ठीक है, तो जाओ। मगर काश तुम कहो कि बस घूमने के लिए घूम रहा हूं! यह सुबह, यह ताजी हवा, ये पक्षी, यह सूरज का उगना, यह फिर प्रभात, यह फिर एक सुबह का आगमन...पर्याप्त है! ऐसे ही मजे में निकल पड़ा हूं! ऐसी मस्ती में! तो दूसरा आदमी पूछेगा: फिर निकले ही क्यों?
हमने जिंदगी को ऐसा गणित में कस लिया है कि गणित के बाहर हम कुछ भी नहीं होने देते! कुछ भी नहीं! हर चीज गणित के शिकंजे में कस गई है।
तो तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक है कि फिर माया क्यों? अगर मानते ही नहीं हो कि माया क्यों, तुम्हें उत्तर चाहिए ही चाहिए, तो यह रहा उत्तर--
दिखती पहले धूप रूप की,
दिखती फिर मटमैली काया!
दुहरी झलक दिखा कर अपनी
मोह-मुक्त कर देती माया!
देखा एक सुंदर स्त्री को, पड़ गये मोह में, प्रेम में। फिर एक दिन पाया कि वृद्ध हो गई, झुर्रियां पड़ गईं चेहरे पर, अब बड़ी विरक्ति होने लगी। पहले देखा दूर सुहावना दृश्य, फिर पास गये कुछ भी न पाया। दूर से देखा इंद्रधनुष; पास गये, मुट्ठी में कुछ भी न आया।
दिखती पहले धूप रूप की,
दिखती फिर मटमैली काया!
दुहरी झलक दिखा कर अपनी
मोह-मुक्त कर देती माया!

असंभाव्य भावी की आशा;
पूर्ति चरम शाश्वत अपूर्ति की;
ललक कलक में झलक दिखाती
अनासक्त आसक्तिमूर्ति की!
अंत सत्य को सुगम बनाती
हरि की अगम अछूती छाया!

मन में हरि, रसना पर षड्रस,
अधर-धरे मुसकान सुहानी;
हरि तक उसे नचाती लाती,
हरि की जिसने बात न मानी!
शकुन दिखा, हर अंधतनय को
हरि-माया ने खेल खिलाया!

संज्ञाहत हो या अनात्मरत,
आत्ममुग्ध या आत्मप्रवंचक;
पहुंचाया है हर झूठे को
माया ने झूठे के घर तक;
लग्न लगा कर, मोहमग्न को
मृगजल-जलनिधि पार कराया!

अपनी समझ, जिसे हर कोई
करता रहता मेरीत्तेरी
वह अनेक जन-मन-विलासिनी
एक मात्र श्रीहरि की चेरी!
मैंने इस सहस्ररूपा को
राममयी, कह, शीश झुकाया!
अगर तुम कहते हो प्रयोजन चाहिए ही चाहिए...अगर मानो मेरी बात तो मत पूछो प्रयोजन, सब लीला है...मगर चित्त मानता ही न हो, गणित ने ऐसा शिकंजा कसा हो, तो फिर ऐसा समझो कि माया तुम्हें जगाने का एक उपाय है। माया तुम्हें चेताने का एक उपाय है।
दिखती पहले धूप रूप की,
दिखती फिर मटमैली काया!
दुहरी झलक दिखाकर अपनी
मोहमुक्त कर देती माया!
शायद हरि तक तुम सीधे जा भी नहीं सकते। पहले पड़ोगे किसी सुंदर स्त्री के प्रेम में, सुंदर पुरुष के प्रेम में। लेकिन जल्दी ही सौंदर्य तिरोहित हो जाता है। हाथ रिक्त, खाली रह जाते हैं।
ऐसे बार-बार चूक-चूक करके, भूल-भूल करके, एक दिन तुम्हें याद आती है कि अब उसी को प्रेम करें जो शाश्वत है; अब उसी को चाहें, जिसे चाह लेने से सब चाहें मिट जाती हैं; अब उसी को पा लें जिसे पा लेने से फिर कुछ और पाने को शेष नहीं रह जाता।
हरि तक उसे नचाती लाती,
हरि की जिसने बात न मानी!
तुम सीधे-सीधे न मानो तो माया तुम्हें मना देती है। भटको, टूटो, रोगग्रस्त होओ, हजार पीड़ाओं से भरो, सड़ो--सीधे नहीं मानते तो भटक-भटककर मानो, जागो!
लगन लगाकर मोहमग्न को
मृगजल-जलनिधि पार कराया!
मैंने इस सहस्ररूपा को
राममयी कह, शीश झुकाया!
लेकिन जो जानते हैं वे माया को भी नमस्कार करेंगे, यह भी उसी का खेल है। मैं तुमसे कहता हूं: माया को छोड़ना मत, यह भी उसी की छाया है। परमात्मा प्रिय है, उसकी छाया भी प्रिय है। इसलिए मैंने अपने संन्यासी को कहा: त्याग नहीं, संसार से पलायन नहीं। इसी छाया को अगर ठीक से समझ लोगे तो इसी छाया के माध्यम से तुम उसे समझ लोगे जिसकी यह छाया है।
पर फिर भी मैं तुमसे कहता हूं: हलके-हलके! गुरु-गंभीर न हो जाना। सदियों से गुरु-गंभीर धर्म ने मनुष्य की बड़ी हत्या की है। सारे मंदिर उदास हो गये; मस्जिदें, मंदिर, चर्च मरघटों जैसे हो गये।
त्यागी मत बनना। भोग में कहीं छिपा है भगवान, उसे वहीं तलाश करना। जब तुम भोजन करो तो कहीं स्वाद में उसे तलाश करना।
इसलिए तो अदभुत वचन कह सके उपनिषद: अन्नं ब्रह्म। यह कोई छोटे-मोटे लोगों ने नहीं कहा, छोटे-मोटे लोग तो अस्वाद सिखाते हैं। उपनिषद कह सके: अन्नं ब्रह्म, अन्न ब्रह्म है। सब सौंदर्य उसकी ही झलक है; जैसे चांद आकाश में निकला और झील में उसकी झलक पड़ी। जब कोई स्त्री या कोई पुरुष तुम्हें सुंदर मालूम पड़ता है तब झील में तुमने चांद देखा। सूफी फकीर जुन्नेद जब भी किसी सुंदर स्त्री को देखता था, भाव-विभोर होकर उसकी आंख से आंसू बहने लग जाते। रास्तों पर खड़ा हो जाता था। अनेक बार उसके शिष्यों ने कहा: अच्छा नहीं मालूम होता, आप जैसा प्रसिद्ध पुरुष, आपके सैकड़ों शिष्य आप किसी सुंदरी स्त्री को देखकर एकदम ठिठक कर खड़े हो जाते हैं!
जुन्नेद ने कहा: सुंदर स्त्री उसकी झलक है। उसकी आंख से आंसू बहने लगते थे, कृतकृत्य हो जाता था।
जुन्नेद मुझे जमता है। सुंदर स्त्री में भी उसकी झलक है, सुंदर पुरुष में भी उसकी झलक है। झलक मात्र ही है, इसलिए जल्दी ही खो जायेगी। चांद बना झील में, एक कंकड़ गिर जायेगा कि उपद्रव हो जायेगा, एक कंकड़ गिर जायेगा कि सब चांद खो जायेगा, सब झील में हलचल मच जायेगी।
देर नहीं है यहां, सब क्षणभंगुर है; मगर छाया तो उसी की है। माना कि झील में बना चांद जरा-से कंकड़ के गिरने से खो जाता है, मगर इससे भी क्या यह सिद्ध तो नहीं होता कि जो चांद झील में बन रहा है वह असली चांद की छवि नहीं है। झील में देखो चांद को और फिर तलाश में निकल जाओ असली चांद की। झील में देखो चांद को, फिर आकाश में खोजने लगो। संसार में देखो परमात्मा को, फिर आकाश में खोजने लगो। मगर संसार को छोड़कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं है, झील को त्यागने की कोई भी जरूरत नहीं है। झील को जिसने त्याग दिया वह शायद आकाश की तरफ आंख भी न उठा पाये, कौन उसे याद दिलायेगा? कौन उसे बतायेगा कि आकाश में चांद निकला है? उसकी आंखें जमीन में गड़ी रहेंगी, और जमीन में प्रतिबिंब नहीं बनते, झील में प्रतिबिंब बनते हैं।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: राग की, रंग की, इस अपूर्व माया को छोड़कर मत भागना। भगोड़े मत बनना, जगोड़े बनो। जागो।

आखिरी सवाल:

आप हजारों लोगों को संन्यास क्यों दे रहे हो?

संन्यास का अर्थ जानते हो? संन्यास का अर्थ है--मेरा अर्थ--जीवन को जीने की कला। जीवन को सम्यक रूपेण जीना। लोग जीना भूल गये हैं, इसलिए हजारों लोगों को संन्यास दे रहा हूं।
लोग भूल ही गये हैं कि जीना कैसे। और जिन्होंने भुलाने में सहयोग दिया है उन्हें अब तक संन्यासी समझा जाता रहा है। इसलिए संन्यास नाम मैंने चुना, ताकि प्रायश्चित हो जाये। प्रायश्चित के निमित्त। मैं कुछ और नाम भी चुन सकता था, मैं कोई और वस्त्र भी चुन सकता था, लेकिन मैंने संन्यास ही नाम चुना और मैंने गैरिक वस्त्र ही चुने, क्योंकि गैरिक वस्त्रों पर और संन्यास पर बड़ी कालिख लग गई है। इनके कारण ही बहुत-से लोग जीवन का छंद भूल बैठे हैं, भगोड़े बन गये हैं। इसी सीढ़ी से भागे हैं, इसी सीढ़ी से वापिस लाना है। और संन्यास के नाम पर जो कालिख लगी है उसको मिटा देना है। संन्यास को अब नाचता हुआ, आनंदमग्न रूप देना है। संन्यास को एक नया संस्कार देना है, एक नई संस्कृति देनी है।
अब जिसे मैं संन्यास कह रहा हूं उसका पुराने संन्यास से कुछ भी लेना-देना नहीं है, वह उसके ठीक विपरीत है। इसलिए अगर पुराने संन्यासी मुझसे नाराज हों तो तुम आश्चर्य न करना, स्वाभाविक है। उन्होंने तो कभी सोचा ही नहीं है कि ऐसा भी संन्यास हो सकता है। संन्यास, जो संसार में पैर जमाकर खड़ा हो; संन्यास, जो घर, परिवार, प्रिजयनों के विपरीत न हो। संन्यास के नाम पर कितने घर उजड़े हैं, तुम्हें पता है? लुटेरों ने इतने घर नहीं उजाड़े, हत्यारों ने इतनी स्त्रियों को विधवा नहीं किया है, दुष्टों ने इतनी माताओं को रोता नहीं छोड़ा है--जितना संन्यासियों ने। मगर अच्छे नाम के पीछे कुछ भी चले, छिप जाता है, नाम भर अच्छा हो। तो तुम रो भी नहीं सकते। कोई संन्यासी हो गया घर-द्वार छोड़कर, अब पत्नी रो भी नहीं सकती। देखते हो, कैसी तुमने गर्दन कस दी है लोगों की! पत्नी को लोग समझायेंगे: तू धन्यभागी है, कि तुझे ऐसा पति मिला जो संन्यासी हो गया! अब यह पत्नी आटा पीसेगी, कि चक्की चलायेगी, रोती रहेगी; मगर यह अपने आंसुओं को वाणी न दे सकेगी। यह किसी से कह भी न सकेगी और पतिदेव कभी अगर नगर में आयेंगे, संन्यस्त हो गये हैं अब, तो उनके चरण छुएगी और ऊपर-ऊपर मानेगी कि धन्यभागी हूं मैं और भीतर जानेगी अभागी। इसके बच्चे अनाथ हो गए। और कौन जाने कितनी स्त्रियां वेश्याएं न हो गई होंगी और कितने बच्चे भिखमंगे न हो गए होंगे, कितने बच्चे गैर-पढ़े-लिखे न रह गए होंगे, कितने बच्चों को दवा न मिली होगी और मर न गए होंगे! कितने मां-बाप बुढ़ापे में असहाय न हो गए होंगे, उनके हाथ की लकड़ी न छूट गई होगी।
तुम जरा देखो तो, अगर संन्यास के नाम पर हुआ जो अब तक का भगोड़ापन है, हजारों साल का, उसका हिसाब लगाया जाये तो हिटलर और तैमूरलंग और चंगीज खां और नादिरशाह और महमूद गजनवी, इन सबने जो भी अत्याचार ढाये, सबके इकट्ठे भी जोड़ लो तो उनका कुल जोड़ संन्यास के द्वारा हुए अत्याचारों के मुकाबले कुछ भी नहीं है।
मगर बात अच्छी है। झंडा संन्यास का है, उसके पीछे सब छिप जाता है, सब खून छिप जाते हैं।
मैं इस सारी कहानी को नया ढंग देना चाहता हूं। संन्यास को मैं पहली बार पृथ्वी के प्रेम में संलग्न करना चाहता हूं, क्योंकि मेरे लिये पृथ्वी और परमात्मा में भेद नहीं है, अभेद है। यह एक महत क्रांति है, जो घट रही है। पृथ्वी का संगीत खो गया है, आनंद खो गया है। जीवन की रसधार छिन्न-भिन्न हो गई है। तुम्हें ऐसी बातें सिखाई गई हैं जिनके कारण तुम ठीक से जी ही नहीं सकते। तुम्हें जीवन-विरोध सिखाया गया है, जीवन-निषेध सिखाया गया है। तुम्हें आत्मघाती वृत्तियों की निरंतर उपदेशना दी गई है। तुम नाच भूल गये हो। तुम गीत भूल गये हो। वीणा पड़ी है तुम्हारे हृदय की और तुम तार नहीं छेड़ते। संन्यास एक नई झंकार को जन्म देना है।
क्यों कस रहे हो तार को?
क्या जन्म देना है नई झंकार को?
कहीं पर कुछ शिथिल करते
और कर कसते कहीं;
नियति के कर कौन चालित
कर रहा, यदि तुम नहीं?
नियति धरती रही किसके हेतु
साज-सिंगार को?
क्यों कस रहे हो तार को?
क्या जन्म देना है नई झंकार को?

अवनि की तूंबी बनी है,
गगन के परदे लगे;
प्राण का है तार, जिसमें
नित्य नूतन स्वर जगे;
लिए बैठी गोद में यों
नियति सृष्टि-सितार को!
क्यों कस रहे हो तार को?
क्या जन्म देना है नई झंकार को?

विलंबित बेकल अंगुलियां
खोजती झंकार को;
नाद के हे सिंधु, अब तो
बिंदु की बौछार हो!
मिला दो स्वर्लोक में अब
सार और असार को!
क्यों कस रहे हो तार को!
क्या जन्म देना है नई झंकार को?
हां, निश्चय ही, जन्म देना है नई झंकार को। संन्यास तुम्हारे तारों का कसना है।
मिला दो स्वर्लोक में अब
सार और असार को!
पृथ्वी और परमात्मा को, देह और आत्मा को, सार और असार को मिला देना है। एक ही संगीत का अंग बना देना है। स्थूल वीणा पर सूक्ष्म संगीत उठता है, विरोध नहीं है। दोनों में तालमेल है। दोनों में एक का ही विस्तार है।
अवनि की तूंबी बनी है,
गगन के परदे लगे;
प्राण का है तार, जिसमें
नित्य नूतन स्वर जगे;
लिए बैठी गोद में यों
नियति सृष्टि-सितार को!
क्यों कस रहे हो तार को?
क्या जन्म देना है नई झंकार को?
प्रकृति लिए बैठी है सितार को अपनी गोदी में और तुम भूल गए बजाना। तुम्हें याद ही न रही। तुम्हारा तारों से संबंध ही छूट गया। तुम्हारी अंगुलियों की कला जाती रही। तुम्हारे पास पैर हैं, पैरों में छिपी नाच की क्षमता है, उसे जगाना है।
संन्यास इस जगत को फिर से एक उत्सव बनाने की कला है। इसलिए हजारों-हजारों को संन्यास दूंगा। रंग देना है सारी पृथ्वी को बसंत के इस रंग से। गैरिक रंग बसंत का रंग है। मधुमास लाना है पृथ्वी पर, इसलिये संन्यास दे रहा हूं।
पर याद रखना, भूलकर भी मेरे संन्यास को पुराने संन्यास से एक मत समझ लेना। यह बात ही और है। यह आयाम ही और है। मगर प्रवेश करोगे तो ही स्वाद पा सकोगे। अब तुमने पूछा है तो जरूर तुम्हारे मन में भी संन्यास लेने की कहीं-न-कहीं छिपी हुई कोई कामना होगी, नहीं तो पूछते ही क्यों? कहीं सुगबुगाता होगा कोई बीज टूटने को। कहीं आतुर हो गई होगी कोई बात। कोई तार तुम्हारे भीतर भी झनझना उठा होगा।
और जानने का एक ही उपाय है: होना। संन्यास कोई ऐसी बात नहीं कि तुम बाहर-बाहर दर्शक की तरह खड़े होकर देखते रहो, पूछते रहो, हजारों लोगों को संन्यास मैं क्यों दे रहा हूं? जरा यह भी तो पूछो कि हजारों लोग संन्यास क्यों ले रहे हैं! जरूर हजारों लोगों के हृदय में कुछ बज उठा होगा। मैंने उनके तार कहीं छू दिये हैं।
आओ तुम भी पास! तुम भी वीणा लिये बैठे हो! तुम्हारे भी तार कसें। तुमसे भी संगीत जनमे। तुमसे भी नाद का जन्म हो। ओंकार प्रतीक्षा कर रहा है तुमसे भी बहने को। आओ बहायें ओंकार को, जगायें ओंकार को, ताकि तुम्हारी नियति पूरी हो सके।
वही व्यक्ति सम्यक रूपेण जीता है जो परमात्मा को जान लेता है और वही सम्यक रूपेण मरता है जो परमात्मा को जानकर मरता है।

आज इतना ही।





1 टिप्पणी:

  1. चिन्मय लोक की यात्रा का अनुभव कराता हुआ आलेख/ प्रवचन, अनिर्वचनीय प्रतीति।

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