सूत्र:
रामबिन
सावन सह्यो न
जाइ।
काली
घटा काल होइ
आई,
कामनि दगधै
माइ।।
कनक—अवास—वास
सब फीके, बिन
पिय के परसंग।
महाबिपत
बेहाल लाल बिन, लागै
बिरह—भुअंग।।
सूनी
सेज बिथा कहूँ
कासूँ, अबला
धरै न धीर।
दादुर
मोर पपीहा
बोलैं, ते
मारत तन तीर।।
सकल
सिंगार भार
ज्यूँ लागैं, मन
भावै कछु
नाहीं।
रज्जब
रंग कौन सू
कीजै, जे
पीव नाहीं
माहीं।।
भजन
बिन भूलि
पर्यो संसार।
चाहै' पछिम
जात पूरब दिस,
हिरदै नहीं
बिचार।।
बाछै
ऊरध अरध सं
लागै, भूले
मुगंध गँवार।
खाइ
हलाहल जीयो
चाई, मरत न
लागै बार।।
बेठे
सिला समुद्र
तिरन कूँ, सो
सब बूडनहार।
नाम
बिना नाहीं
निसतारा, कबहूँ
न पहुँचै पार।।
सुख
के काज धसे
दीरध दुख, बहे
काल की धार।
जन
रज्जब यूँ जगत
बिगूच्यो, इस
माया की लार।।
ऐगदागर!
मुझे ईमान की
सौगात न दे
मुझको
ईमान से अब
कोई सरोकार
नहीं
मैंने
देखा है इन
आँखों से
मुरव्वत का
मयाल
मुझको
अब मेहरो—मुहब्बत
से कोई प्यार
नहीं
मैंने
इंसान को चाहा
भी तो क्या
पाया है
अब
मेरा कुक खुदा
का भी तलबगार
नहीं
जा
किसी और से
ईमान का सौदा
कर ले
मैं
तेरी नेक
दुआओं का
खरीदार नहीं
हे
गदागर! मुझे
ईमान की
बख्शिश के एवज
ये
दुआ क्यों
नहीं देता कि
मैं जरदार
बनूँ
बेच
डालूँ सरे—बाजार
जमीरे—हस्ती
और
एहसास की
जिल्लत का
अलमदार बनूँ
आदमीयत
का गला काटके
इज्जत पाऊँ
जुल्मके
साये में राहत
का तलबगार
बनूँ
राजे—रोशन
में यतीमों के
घरौंदे लूटूँ
और
बेवाओं की
दौलत का
परिस्तार
बनूँ
ऐ
गदागर! मुझे
हैरान
निगाहों से न
देख
मेरा
कुचला हुआ
एहसास यही
कहता है
देख
इन शिगरफी
चेहरों के शफक—रंग
खतूत
जिनसे
मजबूर घरानों
का लहू बहता
है
देख
इन ऊँचे
मकानात के
तहखानों को
जिनकी
हर साँस में
जहराब घुला
रहता है
देख
ईमान की गिरती
हुई दीवारों
को
जिनकी
तामीर में
इंसान सितम
सहता है
रमि बिन
सावन सहचौ न
जहि ऐ गदागर!
मुझे
ईमान से क्या
है लेना
इससे
मुपिलस की कबा
तक भी नहीं
सिल सकती
ये
जवाँ जिस्म, ये
भरपूर
निगाहें, ये
सरूर——
फिक्रे—इसान
बजुज इनके
नहीं खुल सकती
चार
दिन ऐश से
जीना है मुझे
भी,
लेकिन
हट
के दौलत से
कोई चीज नहीं
मिल सकती
और
दौलत वो
शिकंजा है कि
जिसमें फँसकर
हम
तो क्या
सिलवते—यजदाँ
भी नहीं हिल
सकती
ऐ
गदागर! मुझे
ईमान की सौगात
न दे
जमाना
बदला है। जिस
हवा में रज्जब
ने गीत गाया
था,
वह हवा अब
नहीं।
तो शायद
गत तुम्हार
समझ में आए, न
आए। अब तो
शायद तुम्हारी
समझ में आए।
अब तो ऐसे गीत
समझ में आते
हैं—' ऐ
गदागर! मुझे
ईमान की सौगात
न दे '। हे
भिक्षु, मुझे
धर्म की
बख्शीश मत दे।
मुझे धर्म का
प्रसाद मत दे।
मुझे धर्म की
नसीहत मत दे।
मुझे धर्म का
उपहार मत दे।
ऐं गदागर!
मुझे ईमान की
सौगात न दे
मुझको
ईमान से अब
कोई सरोकार
नहीं
आज धर्म से
किसको क्या
लेना—देना है?
मैने देखा
है इन आँखों
से मुरव्वत का
मयाल
मुझको अब
मेहरो—मुहब्बत
से कोई प्यार
नहीं
लोगों
ने प्यार को
हारते देख
लिया है।
लोगों ने
प्यार को पराजित
होते देख लिया
है। प्रेम की
विजय की बात
कल्पना हो गयी।
और जहाँ प्रेम
कल्पना हो जाए, वहाँ
प्रार्थना के
जन्मने का
सवाल कहाँ? प्रेम ही तो
अपनी अंतिम
उडान में
प्रार्थना बनता
है। प्रेम का
ही सार—निचोड़
तो प्रार्थना
है। झूठे
क्रियाकांड
रह गये हैं।
उनके भीतर से
प्राण निकल
गये हैं। लोग
प्रार्थनाएँ
अब भी कर रहे
हैं, मगर
प्रार्थना
करनेवाले
हृदय कहाँ? लोग अब भी
मंदिरों—मस्जिदों
में जा रहे
हैं। आदत हो
गयी है जाने
की। रिवाज हो
गया है जाने
का।
औपचारिकता है
जाने की।
सामाजिक
व्यवहार है
वहाँ जाना।
जिंदगी के
चलने में स्रुविधा
मिलती है।
उपयोगी है।
लेकिन आदमी के
हृदय से मंदिर
मिट गया है।
तो बाहर के
मंदिर बहुत
काम आ नहीं
सकते। अब भी
लोग राम और
कृष्ण का नाम
लेते हैं, मगर
ओंठ, बस
ओंठ तक ही यह
बात होती है।
हृदय तक इसकी
पहुँच नहीं।
अब कौन प्रभु
के प्रेम में
पागल होता है?
अब तो प्रभु
के प्रेम में
जो पागल होता
है, उसे
लोग बस पागल ही
मानते हैं।
सिर्फ पागल ही
मानते हैं।
ऐ गदागर!
मुझे ईमान की
सौगात न दे
मुझको
ईमान से अब
कोई सरोकार
नहीं
मैंने
देखा है इन
आँखों से
मुरव्वत का
मयाल
म्रुझको
अब मेहरो—मुहब्बत
से कोई प्यार
नहीं
मैने
इंसान को चाहा
भी तो क्या
पाया है
अब मेरा
कुफ्र खुदा को
भी तलबगार
नहीं
और
जब आदमी को
चाह कर कुछ न
मिलता हो, तो
परमात्मा को
भी कोई क्यों 'चाहे? जब
चाहने से आदमी
को कुछ नहीं
मिलता, तो
परमात्मा को
चाहने से भी
क्या मिल' जाएगा?
परमात्मा
को चाहने का
रस तो तभी
जगता है जब आदमी
को चाहने से
कुछ मिलता है।
जब छोटे—छोटे
प्रेम से उसकी
किरणें मिलती
हैं, तो
फिर सूरज की
आकांक्षा
पैदा होती है।
तुमने
अगर किसी एक
आदमी को चाहा
और उसकी चाहत तुम्हारे
जीवन में रंग
भर गयी और
उसके प्रेम ने
तुम्हारे
जीवन को सुगंध
दे दी, तो आज
नहीं कल तुम
परमात्मा के
प्रेम में
पड़ोगे। पड़ना
ही पड़ेगा। कोई
उपाय नहीं
बचने का।
भागोगे कहाँ?
जब
क्षणभंगुर के
प्रेम से ऐसा
रस बहा, तो
शाश्वत के
प्रेम से कैसा
रस न बहेगा? सीधा गणित
है, साफ
गणित है।
बुद्धिहीन से
बुद्धिहीन को
भी समझ में आ
जाएगा। जब एक
फूल से इतनी
सुगंध मिली, तो उस विराट
के साथ संबंध
जुड़ जाने से
कैसा नृत्य नहीं
होगा, कैसा
उत्सव नहीं
होगा? क्षणभंगुर
ने भी नाच दे
दिया था।
क्षणभंगुर जो
पानी के बबूले
की तरह था, वह
भी आंखों को
नयी रोशनी से
भर गया था।
सपने उठे थे
आकाश के। तुम
मिट्टी नहीं
रह जाते जब
तुम किसीके
प्रेम में पड़ते
हो। जब तुम
किसीके प्रेम
में पड़ते हो, देह भूल ही
जाती है।
प्रेम के
क्षणों में
तुम आत्मा हो
जाते हो। वही
अनुभव
परमात्मा के
प्रेम की तरफ
ले जाता है।
मैंने
इंसान को चाहा
भी तो क्या
पाया है
अब मेरा
कुफ्र खुदा का
भी तलबगार
नहीं
जा किसी और
से ईमान का
सौदा कर ले
मैं तेरी
नेक दुआओं का
खरीददार नहीं
आज
की हवा ऐसी है।
और मैं यह
कहना चाहूँगा
कि इस हवा में धार्मिकों
का हाथ है।
तथाकथित
धार्मिकों के
कारण ही यह
हवा है। झूठे
धर्म के कारण
यह हवा है।
थोथे धर्म के
कारण यह हवा
है। धर्म की
लाशें पड़ी हैं, उनसे
यह दुर्गंध उठ
रही है। उनके
कारण आदमी
ईश्वर से
विमुख हो रहा
है। उनके कारण
ईश्वर की तरफ मुँह
करने की
आकांक्षा भी
नहीं जगती।
देखो
तुम्हारे
पंडित—पुरोहितों—पुजारियों
की तरफ, उन्हें
देख कर
तुम्हें कुछ
ऐसा भाव उठता
है कि नाचे और
मग्न हो जाएँ?
उनके जीवन
में भी तो नाच
नहीं है। जन्म
हो गये उनको
घंटियाँ
बजाते
मंदिरों में,
हृदय की
वीणा अभी भी
नहीं बजी।
जन्म हो गये
उन्हें फूल
चढ़ाते
मंदिरों में,
पत्थरों के
सामने झुकते—झुकते
वे भी पत्थर
हो गये हैं; उनकी
प्रार्थनाएँ
नपुंसक, उनके
क्रियाकांड
थोथे, सब
पाखंड है, सब
धोखा है। आंखें
हैं आदमी के
पास, आदमी
एकदम अंधा
नहीं है। इतना
दिखायी पड़ता
है। जन्मों—जन्मों
तक जो मंदिरों
की पूजा और
प्रार्थना से
कुछ न पा सके
हों, उनका
परमात्मा भी
झूठा ही होगा।
कौन उनके
परमात्मा की
तरफ आतुर हो? कौन उनके
परमात्मा को
चाहे?
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूँ——जमीन
आज नास्तिक है
नास्तिकों के
कारण नहीं, तथाकथित
आस्तिकों के
कारण। लोग
ईश्वर के भी
तलबगार नहीं।
देखते हैं
ईश्वर के
तलबगारों का
झूठ, उस
झूठ में अब
कोई सम्मिलित
नहीं होना
चाहता।
इसलिए
तुम्हें थोड़ी
अड़चन होगी। ये
गीत किसी और
हवा में गाये
गये थे। यह
पौधा किसी और
जमीन में ऊगा
था। वह जमीन
बदली हे, लेकिन
फिर भी अगर
थोड़ी
सहानुभूति से
समझोगे, अगर
थोड़े पंडित—पुरोहितों
के जाल को
छोड्कर
समझोगे, तो
बात समझ में आ
जाएगी। नहीं
आए, ऐसा
कुछ नहीं है।
क्योंकि
तुम्हारे भी
गहन तल में, तुम्हारे
हृदय की भी
गहराइयों में,
लाख उपाय
करो परमात्मा
की खोज छिपी
पड़ी है। कोई
आदमी बिना
परमात्मा को
पाए तृप्त
होता नहीं।
उसीको पाकर
संतोष होता है।
और कोई कितना
ही उसकी तरफ
पीठ कर ले, और
कोई कितना ही
नाराजगी में
कह दे कि अब
मैं तेरा
तलबगार नहीं,
नाराजगी एक
बात है, यह
तलब मिट जाने
वाली तलब नहीं।
यह प्यास ऐसी
कोई प्यास
नहीं है कि
तुमने कह दी
और मिट गयी।
यह तो
परमात्मा
बरसेगा
तुम्हारे कंठ
में तो ही
मिटेगी।
यह
प्यास मनुष्य
की संपदा है।
इसी प्यास के
कारण तो आदमी
लाख धर्म के
नाम से पाखंड
चलता रहे, तो
भी धर्म में
थोड़ी न बहुत
उत्सुकता बनी
रहती है। लाख
धर्म के नाम
से शोषण चलता
रहे, मंदिर—मस्जिद—गुरुद्वारे
झूठे हो जाएँ,
तो भी आदमी
कोई नयी राह
खोज लेता है।
कोई नया मार्ग
खोज लेता है।
मंदिर—मस्जिदों
को बचा कर
निकल जाता है,
लेकिन
परमात्मा की
तलाश जारी
रहती है।
प्यास कुछ ऐसी
है, बिना
परमात्मा को
पाये मिट नहीं
सकती।
इसलिए
समझ तो सकोगे, स्वभावत:
क्षमता भीतर
समझने की है, लेकिन ये
गीत और हवा
में गाये गये
थे, कोई और
माहौल में
गाये गये थे।
ये किसी और
तरह के लोगों
ने गाये थे, किन्हीं और
तरह के लोगों
के सामने गाये
थे। वे लोग धीरे—धीरे
विदा हो गये
हैं, वैसी
मस्त
मधुशालाएँ अब
नहीं रहीं, वैसे आनंद
के सत्संग अब
नहीं रहे।
सुनो—
राम बिन
सावन सहयो न
जाइ।
राम
के बिना सावन
सहा नहीं जाता।
राम अर्थात्
परम प्यारा।
नाम कुछ भी दो।
अल्लाह कहो, राम
कहो, रहीम
कहो, जो भी
नाम देना हो, वह परम
प्यारा है।
जिसके बिना सब
फीका है, जिसके
बिना हम हैं
तो लेकिन नहीं
जैसे हैं।
जिसके बिना हम
खाली—खाली हैं।
जिसके बिना
हमारा कोई
मूल्य नहीं।
जिसके बिना हम
जीते जरूर हैं,
मगर जीना
नाममात्र का
जीना है। सच
कहो तो मरते
ही हैं। जिसके
बिना हम जीते
नहीं। बस मौत
ही करीब आती
है और हाथ
लगता क्या है?
रोज— रोज
थोड़ा—थोड़ा
मरते जाते हैं।
चल किस तरफ
रहे हो? पहुँचोगे
कहाँ? बस
मौत में पहुँच
जाते हो। यह
भी कोई जिंदगी
हुई?
जिंदगी
की परिभाषा
क्या है? जिंदगी
की परिभाषा है
कि जो महा
जिंदगी में ले
जाए। जीवन अगर
सच्चा है, तो
उसका अंतिम फल
महा जीवन होगा।
लेकिन इस जीवन
का फल तो
मृत्यु होती
है, यह कैसा
जीवन! यह जीवन
होगा ही नहीं।
कहुाईं कुछ
भूल हो गयी।
कहीं कुछ चूक
हो गयी। कुछ—का—कुछ
समझ बैठे हैं।
परमात्मा के
साथ के बिना
कोई जीवन नहीं
है। उसके साथ
है जीवन। उसके
विरोध में है
मृत्यु। उससे
जो अलग है, वह
मरेगा। जो
उसके साथ है, कभी नहीं
मरेगा।
जीसस
का एक प्यारा
वचन है। आओ, मेरे
साथ हो जाओ, क्योंकि जो
मेरे साथ हैं
वे कभी नहीं
मरेंगे। जो
मेरे साथ हैं,
उनकी कोई
मृत्यु नहीं
है। जीसस क्या
कह रहे हैं? जीसस यह कह
रहे हैं—आदमी
दो ढग से जी
सकता है। एक
ढंग है अलग—
अलग, अहंकार
की भाँति, मैं
की भाँति, परमात्मा
के विरोध में,
असहयोग में,
परमात्मा
से भिन्न। ऐसे
ही अधिक लोग
जीते हैं।
उनके जीवन का
केंद्र मैं है।
मैं ऐसा कर
लूँ, मैं
वैसा हो जाऊँ,
मैं वह पा
लूँ, उनकी
अपनी कुछ
मर्जी है, कोई
आकांक्षा है
जिसे वे पूरी
करना चाहते
हैं। वे
दुनिया को
दिखा देना
चाहते हैं कि
मैं कौन हूँ।
वे यहाँ
हस्ताक्षर कर
जाना चाहते
हैं पत्थरों
पर——खुद तो मिट
जाएँगे लेकिन
नाम रह जाएगा।
समय की रेत पर
वे चिह्न छोड़
जाना चाहते
हैं। पागल हैं
वे, क्योंकि
रेत पर कहीं
कोई चिह्न
छूटे हैं? आएँगी
हवाएँ और
चिह्न मिट
जाएँगे। यहाँ
पत्थर भी रेत
हो जाते हैं।
यहाँ नाम भी
पत्थरों पर
लिखोगे तो
कितनी देर
टिकेगा? और
इस शाश्वत की
विराट
व्यवस्था में
तुम्हारे नाम—धाम
का छूट जाना
सब फिजूल है, सब सपना है।
मगर अहंकार
ऐसे ही जीता
है कि मैं कुछ
कर जाऊँ, कुछ
दिखा जाऊँ, मैं कुछ हो
जाऊँ।
और
अहंकार की
अपनी मर्जी
होती है कि
ऐसा होना चाहिए, ऐसा
होगा तो ही
मैं तृप्त
होऊँगा, ऐसा
नहीं होगा तो
मैं असंतुष्ट
रहूँगा।
इसीलिए तो
इतने लोग
असंतुष्ट हैं
क्योंकि जैसा
तुम चाहते हो,
वैसा नहीं
होता। यह
अस्तित्व
तुम्हारी चाह
से नहीं चल
सकता। यह
तुम्हारी चाह
से चलता तो
कभी का पागल
हो जाता।
क्योंकि
तुम्हारी
इतनी चाहें
हैं। इन सारी
चाहो को पूरा
नहीं किया जा
सकता। एक क्षण
तुम एक बात
चाहते हो, दूसरे
क्षण दूसरी
बात चाहते हो।
यह तो एक आदमी
की बात हुई।
फिर यहाँ इतने
आदमी हैं, इतने
पशु हैं, इतने
पक्षी हैं, इतने पौधे
हैं, इतने
जीवन हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कम—से—कम
पचास हजार
पृथ्वियों पर
जीवन है। इन
सब की चाहें
कैसे पूरी हो
सकती हैं!
अस्तित्व की
चाह पूरी होती
है। आदमी की
चाह पूरी नहीं
होती। हाँ, कभी—कभी
तुम्हारी चाह
पूरी हो जाती
है, तो यही
समझना कि
संयोगवशात्
तुम्हारी चाह
अस्तित्व की
चाह के साथ एक
पड गयी थी।
तुमने कभी भूल—चूक
से वही चाह
लिया था जो
परमात्मा चाह
रहा था। इसलिए
तुम सफल हो
गये। तुम उसी
धारा में बह
गये जिस तरफ
परमात्मा बह रहा
था। कभी—कभी
तुम सफल हो
जाते हो, उसका
कारण यही होता
है।
तुम
कभी सफल नहीं
होते, परमात्मा
सदा सफल होता
है। तुम सदा
हारते हो। सौ
में निन्न्यानबे
मौके पर तो
तुम हारते हो।
इस हार से कुछ
सीखो। इससे एक
बात सीखो कि
मेरी मर्जी
पूरी नहीं हो सकती।
जिस आदमी को
यह दिखायी पड़
गया कि मेरी
मर्ज़ी पूरी
नहीं हो सकती,
उस आदमी को
दूसरी चीज
दिखायी पड़ने
में ज्यादा देर
नहीं लगती कि
परमात्मा की
मर्जी ही पूरी
होती है। तो
मैं उसकी
मर्जी के साथ
एक हो जाऊँ।
तो वह जो करे
वह ठीक। मेरा
उससे कुछ
विरोध न रहे।
मेरा सहयोग
संग हो जाए।
अगर ठीक से
समझो तो इसी
का नाम सत्संग
है। परमात्मा
की मर्जी के
साथ एक हो
जाना। कह देना
कि तू कर। मैं
तेरे हाथ की
बाँसुरी हूँ,
तू बजा, तू
गा। तेरा गीत
मुझसे बहे, मैं बाधा न
बनूँ, बस
इतना काफी है।
फिर जीवन में
कोई असफलता
नहीं है, फिर
कोई विफलता
नहीं है। फिर
कैसी विफलता!
फिर जो होता
है वही सफलता
है। फिर तो
बीच मझधार में
भी जाओ तो वही
किनारा है।
उसकी जो
मर्जी! जिस
आदमी ने. अपनी
मर्जी छोड़ दी,
वही आदमी धार्मिक
है। और जिसने
अपनी मर्जी
छोड़ दी, वही
परमात्मा के
साथ है।
राम
बिन सावन सहचो
न जाइ।
और
जिसको यह बात
समझ में आ गयी, उसे
एक बात दिखायी
पड़ेगी कि सारा
अस्तित्व कितनी
मस्ती और
कितने आनंद से
भरा है! सावन
सदा ही आया
हुआ है। सावन ही—सावन
है। यह
प्रकृति सदा
उत्सव में लीन
है। यहाँ
महोत्सव अखंड
चल रहा है। एक
क्षण को विराम
नहीं है। यह
महोत्सव की
तरंगें उठती
ही जाती हैं।
यह लहरें सदा
टकराती रहती
हैं। यह नृत्य
चलता ही रहता
है चाँद—
तारों का। यह
चारों तरफ जो
विराट उत्सव
चल रहा है, यही
सावन है।
जिसको यह बात
दिखायी पड़ गयी,
उसको एक बात
दिखायी पड़ेगी
कि परमात्मा
के बिना इतना
सौंदर्य कैसे
सहूँ!
परमात्मा के
बिना इतना रस
कैसे सहूँ!
परमात्मा के
बिना इतना
उत्सव उन्माद
ले आएगा, मैं
पागल हो
जाऊँगा। मैं
सह न पाऊँगा, असह्य हो
जाएगा।
ध्यान
रखना, दुख ही
असह्य नहीं
हौते, सुख
भी असह्य हो
जाते हैं। और
अगर तुमने
असह्य होने की
प्रक्रिया के
भीतर झाँका हो
तो तुम बहुत
हैरान होओगे।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
असह्य दुख ऐसा
शब्द बनाना
ठीक नहीं, क्योंकि
कोई दुख असह्य
नहीं हो पाता।
असह्य होने के
पहले ही आदमी
बेहोश हो जाता
है। यह दुख को
अंतरंग
व्यवस्था है।
जब तक सह सकता
है तभी तक होश
रहता है। जैसे
ही सहने के
बाहर होने
लगता है दुख, आदमी बेहोश
हो जाता है।
यह प्रकृति कोई
अंतरंग
व्यवस्था है
तुम्हें दुख
से बचाने की।
तो असह्य दुख
होता ही नहीं।
कहते हैं हम, लेकिन असह्य
दुख होता नहीं।
जब असह्य होता
है तो बेहोश
हो जाते हैं।
उसका पता ही
नहीं चलता।
इसीलिए तो सिर
मे चोट लगती
है, बेहोश
हो गये। पीड़ा
भयंकर है, प्रकृति
तुम्हें बचा
लेती है बेहोश
करके। पीड़ा
नहीं सहने
देती। दुख तो
असह्य होता ही
नहीं। लेकिन
सुख हो सकता
है असह्य।
क्योंकि सुख
को सहने के
लिये प्रकृति
की तरफ से बचाव
की कोई
व्यवस्था
नहीं है। सुख
ऊँचाइयों—सें—ऊँचाइयों
पर जा सकता है।
ऐसी ऊँचाइयों
पर, जहाँ
तुम बिखरने
लगो, जहाँ
तुम टूटने लगो,
जहाँ तुम
टुकड़े—टुकड़े
होने लगो, जहाँ
तुम अपने को
सम्हाल न सको,
जहाँ नृत्य
ऐसा हो जाए कि
तुम खंड—खंड
हो जाओगे। और
अगर जीवन के
उत्सव को
देखोगे तो ऐसा
ही रस तुम में
पैदा होगा।
परमात्मा के
बिना उसे सहा
नहीं जा सकता।
इतना बड़ा सागर
सम्हालना हो
अपने भीतर, तो पात्र भी
इतना ही बड़ा
होना चाहिए।
यह पात्र
उसीका हो सकता
है। यह
पात्रता अपनी
नहीं हो सकती।
राम बिन
सावन सह्यो न
जाइ।
राम
के बिना यह जीवन
का महोत्सव
सहा नहीं जाता।
शायद इसीलिए
लोग जीवन के
उत्सव को
देखते भी नहीं।
वे जीवन में
दुख ही तलाशते
रहते हैं, शिकायतें
ही खोजते रहते
हैं, काँटे
बीनते रहते
हैं, अँधेरी
रातों की
गिनती करते
रहते हैं।
उससे
व्यवस्था ठीक
बनी रहती है।
उगर जीवन का
सुख तुम देखोगे,
तो अकेले
कैसे सहोगे? सुख बाँटना
पड़ता है।
तुमने
कभी सुख की यह
महत्ता समझी? दुख
आदमी अकेले
सहना चाहता है,
सुख बाँटना
चाहता है। जब
कोई दुखी होता
है, द्वार—दरवाजे
बंद करके अपने
कमरे में छिप
जाता है, कहता
है——न मुझे कोई
छेड़ो, न
मुझे कुछ कहो,
न मुझे बाहर
ले जाओ, मुझे
मुझमें डूब
जाने दो, मैं
दुखी हुँ_।
दुखी आदमी कभी—कभी
शराब पीलेता
है, सिर्फ
इसीलिए ताकि
सबसे संबंध
टूट जाएँ। और
दुखी आदमी कभी—कभी
आत्यंतिक
घड़ियों में
आत्मघात कर
लेता है। वह
इसीलिए कि न
रहेगा बाँस न
बजेगी
बाँसुरी। मैं
ही नहीं
होऊँगा, तो
फिर किससे संबंध,
किससे नाता?
लेकिन
जब सुख पैदा
होता है, तो
आदमी बाँटना
चाहता है।
महावीर जब
दुखी थे, जंगल
चले गये। जैन—शास्त्रों
में उसकी बड़ी—बड़ी
कहानियाँ हैं।
लेकिन वह असली
कहानी नहीं है,
वह महावीर
का असली राज
नहीं है, असली
राज तो तब है
जब महावीर
आनंदित हुए—तब
क्या हुआ? तब
वे जंगल से
वापिस बस्ती
लौट आए। अब
बाँटना है।
अकेले जंगल
में क्या
करोगे? हमने
सद्पुरुषों
की जो
कहानियाँ
लिखी हैं, वे
भी अधूरी हैं।
उसमें हमने यह
तो खूब चर्चा
किया है कि वह
कैसे छोड्कर
चले गये——बड़े—बड़े
महल, सोने
के महल, बडे
राज्य, हाथी—घोड़े,
उनकी बड़ी संख्या,
बड़ा धन, बड़ी
दौलत कैसे
छोड्कर चले
गये उसका हमने
बड़ा रसपूर्ण
विवेचन और
वर्णन किया है,
लेकिन
दूसरी बात हम
नहीं कहते कि
वह वापिस क्यों
लौट आए? एक
दिन सब वापिस
लौटे। बुद्ध
भी छ साल के
बाद वापिस आ
गये, महावीर
बारह साल के
बाद वापिस आ
गये——एक दिन
सभी वापिस आ
गये। अब क्या
हुआ था? जब
चले ही गये थे
तो चले ही
जाना था। अब
इसी दुनिया
में वापिस
क्या आना था? लेकिन आना
पड़ा। जब आनंद
फला तो बाँटना
पड़ेगा। आनंद
को सँभाला
नहीं जा सकता।
और आनंद
बाँटने के लिए
सबसे ज्यादा
योग्य पात्र
कौन हो सकता
है?
परमात्मा
सामने हो तो
भक्त नाच ले
मन भर कर। फिर
बाँध ले घूँघर
पैरों में।
फिर नाच ले।
फिर चिंता न
हो। फिर उस
विराट में
अपने सारे
नृत्य को डुबा
दे। नहीं तो
सावन बड़ा भारी
होने लगता है।
तुमने अगर
साधारण जीवन
में प्रेम
किया है, तो भी
सावन भारी
होने लगता है।
उसीको प्रतीक
मान कर रज्जब
ने यह गीत
लिखा है।
प्रेयसी और
मौसम गुजार
लेती है, प्रतीक्षा
कर लेती है, लेकिन जब
सावन आ जाता
है और आकाश
में बादल घिरने
लगते हैं और
भूखी—प्यासी
धरती के तृप्त
होने का क्षण
करीब आने लगता
है, वृक्षों
पर नये पत्ते
आ जाते हैं, नयी रिमझिम
शुरू होती है,
मोर नाचने
लगते हैं, पपीहे
गीत गाने लगते
हैं, कोयल
पुकारने लगती
है, सब तरफ
उत्सव होने
लगता है, फूल
खिलने लगते
हैं, तब
असहय हो जाता
है। राम बिन
सावन सह्यो न
जाइ।
साधारण
प्रेम में भी
प्रीतम के
बिना सावन को
सहना मुश्किल
हो जाता है।
दुर्दिन तो
गुजर जाते हैं, सुदिन
नहीं गुजरते।
दुख तो बिता
लेता है आदमी
अकेले भी—— सच
तो यह है, अगर
तुमने किसीको
प्रेम किया है,
तो उससे तुम
दुख की बात
करना ही न
चाहोगे। तुम
चाहोगे कि दुख
की क्या बात
करनी? दुख
अकेले सह लोगे।
दुख चुपचाप
घूँट की तरह
पी लोगे।
लेकिन जब सुख
उमगेगा, तब
तुम उसके गले
में हाथ डालना
चाहोगे, हाथ
में हाथ लेकर
नाचना चाहोगे।
जो
साधारण प्रेम
की प्रक्रिया
है,
वही
प्रार्थना की
भी है। उन
दौनों में जो
अंतर है, वह
परिमाण का
अंतर है।
लेकिन गुण का
अंतर नहीं है——गुणात्मक
कोई भेद नहीं
है।
परिमाणात्मक
भेद जरूर है।
अनत—अनत गुना
बड़ा है
प्रार्थना का
आनंद। लेकिन
है वह प्रेम
की ही बूँद जो
सागर हो गयी है।
राम बिन सावन
सह्यो न जाइ।
अफसानए—निगाहे—मुहब्बत
न पूछिए
कहते
हें किसको
हस्रे मसर्रत
न पूछिए
वह
मस्त—मस्त रात
वह बाद: बदस्त
रात
उस
मस्त—मस्त रात
की कीमत न
पूछिए
होती
है इक दिल में
खलिशे—बेकरार—सी
वल्लाह
उस नजर की
शरारत न पूछिए
आलम
तमाम आँसुओं
का एक शैल था
मुझसे
फसानए—शबे—फुर्कत
न पूछिए
रातों
को कर रही हूँ
सितारों से
गुपतगू
मुझसे
मेरे जुनूँ की
हिकायत न
पूछिए
क्या
हो गया है
आपकी नज्म: को
क्या कहूँ
हालत
न पूछिए, मेरी
हालत न पूछिए
प्रेम
दीवाना कर
जाता है। और
सावन द्वार पर
दस्तक दे, तो
प्रेम में फिर
ऐसी बाढ़ आती
ड्रै! उसी बाढ़
की चर्चा है।
और फिर यह
प्रेम भी
परमात्मा का
प्रेम! यह कोई छोटे—मोटे
प्रेमी का
प्रेम नहीं, जो आज है कल
नहीं हो जाएगा,
ऐसा प्रेम
जो सदा के लिए
है, आता है
तो जाता नहीं,
जो शाश्वत
है, जो समय
की परिधियाँ
नहीं मानता, जो आकाश से
विराटतर है।
भक्त का भाव
समझो, भक्त
के भीतर की
दीवानगी समझो—
काली
घटा काल होइ
आई,
कामनि दगधै
माइ।।
भीतर—भीतर
आग जल रही है, बाहर
सावन आ गया है,
और प्रियतम
का कोई पता
नहीं। घटायें
घिर गयीं——सुंदर
घटायें, प्यारी
घटायें——लेकिन
प्रियतम के
बिना ये
प्यारी
घटायें, ये
सुंदर घटायें
कैसे प्यारी
लगें, कैसे
सुंदर लगें?
ख्याल
करो,
हमें
प्रकृति में
वही दिखायी
पड़ता है जो
हमारे भीतर
घटता है।
तुम्हारा
प्यारा घर आया
है, तो
अमावस की रात
भी पूर्णिमा
हो जाती है।
और तुम्हारा
प्यारा घर
नहीं आया, तो
पूर्णिमा की
रात भी तो
अमावस ही रहती
है। प्रियतम आ
गया है तो
चाँद नाचता
हुआ मालूम पड़ता
है आकाश में।
तुम्हारा
हृदय नाच रहा
है। चाँद पर
तुम्हारे
हृदय का नाच
प्रतिबिंबित
होने लगता है।
तुम्हारा
प्यारा जा रहा
है, चाँद
अब भी वैसा—का—वैसा
है, लेकिन
तुम्हारा
हृदय रो रहा
है, देखो
चाँद की तरफ
और आंसू टपकते
मालूम पड़ते
हैं चाँद से।
हमें जो बाहर
दिखायी पड़ता
है, वह
भीतर का
प्रतिफलन है।
जो हमारे भीतर
होता है, वही
हमें बाहर के
पर्दे पर
दिखायी देता
है। तो जो
तुम्हें बाहर
दिखायी पड़े, उससे अपने
भीतर का इशारा
लेना। जो तुम्हें
बाहर दिखायी
पड़े, उससे
समझ लेना कि
तुम्हारे
भीतर क्या है?
दर्पण के
सामने खड़े हो
न, जो
चेहरा दर्पण
में दिखायी
पड़ता है वह
दर्पण में
नहीं है, वह
तुम्हारा
चेहरा है। ऐसे
ही हम प्रति
क्षण प्रकृति
के दर्पण के
सामने खड़े है।
वहाँ जो भी
दिखायी पड़ता
है, वह
अपना ही चेहरा
है। उससे अपने
ही चेहरे की
पहचान लेनी है।
'काली घटा
काल होइ आई'। यह मस्त
काली घटा, यह
जो नाचती हुई
घटा चली आ रही
है, यह ऐसे
लगती है जैसे
मौत आ रही है। 'कामनि दगधै
माइ'। और
भीतर—भीतर
मिलन की
आतुरता। छूक
हो जाने की
आतुरता काम है।
काम
का अर्थ समझो।
काम
का अर्थ है——दो
में पीड़ा है, एक
में रस है। एक
हो जाने में
आनंद है।
साधारण
स्त्री—पुरुष
भी जब प्रेम
में गहन भर
जाते हैं, तो
एक हो जाना
चाहते हैं, जुड़ जाना
चाहते हैं। और
वही तो प्रेम
का दुर्भाग्य
है कि एक नहीं
हो पाते।
इसलिए सभी
प्रेम असफल
होते हैं।
क्योंकि
प्रेम की
आकांक्षा यही
है कि एक हो
जाएँ और एक होना
संभव नहीं है।
दो देहें कैसे
एक हो सकती
हैं? क्षण
भर को शायद हो
भी जाएँ, मगर
फिर क्षण भर
के बाद गहन
अँधेरे गर्त,
गहराई में
गिर जाना पड़ता
है। फिर
अँधेरी खाई
में भटक जाना
पड़ता है। और
भी पीड़ा होने
लगती है। वह जो
क्षण भर का
मिलन हुआ था, उससे विरह
और घना हो
जाता है। उसके
संदर्भ में
विरह और भी
प्रगाढ़ हो
जाता है।
संसार में
प्रेम की
आकांक्षा है
कि एक हो जाएँ
और यह
आकांक्षा
पूरी नहीं
होती, यह
आकांक्षा तो
सिर्फ
परमात्मा के
साथ पूरी हो
सकती है। वह
जो तुम्हारे
भीतर काम का
प्रबल वेग है,
वह राम के
साथ ही पूरा
हो सकता है और
कोई उपाय नहीं।
क्योंकि उसके
साथ देह का
मिलन नहीं है,
आत्मा का
मिलन है। वहाँ
सीमाएँ सदा के
लिए खो सकती
हैं। वहाँ हम
डुबकी मार
सकते हैं। कभी
लौटने की फिर
जरूरत नहीं है।
काली घटा
काल होइ आई, कामनि
दगधै माइ।।
कनक—अवास—वास
सब फीके..
सोने
का महल फीका
पड़ गया। सुंदर
वस्त्र फीके
पड़ गये।
कनक—अवास—वास
सब फीके, बिन
पिय के परसंग।
और
जब प्यारे का
प्रसंग न हो
साथ,
प्यारे का
संदर्भ न हो
साथ, सब
फीका पड़ जाता
है। जीवन के
बड़े—से—बड़े
सुख प्रेम के
प्रसंग में
घटते हैं। तुम
अपने जीवन में
भी थोड़ा
अवलोकन करना।
तुम्हारे
जीवन के जो
बड़े—सें—बड़े
सुख के क्षण
आए हैं, वे
अकेले में
नहीं आए हैं, वे प्रेम के
प्रसंग में आए
हैं। जो
तुम्हारे
जीवन में कभी
क्षण भर को
झरोखा खुला है
और अनंत की
झलक मिली है, वह अकेले
में नहीं मिली
है, वह
प्रेम के प्रसंग
में मिली है।
जहाँ भी प्रेम
फलित हुआ है, जहाँ भी
प्रेम पका है,
वहीं जीवन
को देखने का
एक नया प्रसंग,
एक नया
संदर्भ मिल
जाता है।
शब्दों में
अर्थ नहीं
होते——इसे ऐसा
समझो——और न
धटनाओ में
अर्थ होते हैं।
किसी शब्द में
कोई अर्थ नहीं
होता। अर्थ तो
वाक्य में होता
है। जब उस
शब्द को तुम
वाक्य के भीतर
रखते हो, उसमें
अर्थ आ जाता
है। दूसरे
वाक्य में उसी
शब्द का दूसरा
अर्थ हो जाएगा।
तीसरे वाक्य
में तीसरा
अर्थ हो
जाएगा। फिर
वाक्य का भी
अपने में अर्थ
नहीं होता है,
पूरे पृष्ठ
के संदर्भ में
अर्थ होता है।
पृष्ठ का पूरी
प्रुस्तक के
संदर्भ में
अर्थ होता है।
अगर तुम इस
बात को ठीक
तरह से समझोगे
तो इकहरी—इकहरी
घटनाओं में
कोई अर्थ नहीं
होता, घटनाओं
के प्रसंग और
संदर्भ में
अर्थ होता है।
और जितना बड़ा
संदर्भ हो, उतना ही
अर्थ बड़ा होता
जाता है।
बड़े—सें—बड़ा
अर्थ घटता है
परमात्मा के
प्रेम के
प्रसंग में।
क्योंकि वह
बडा—से—बडा
संदर्भ है।
उससे बड़ा फिर
कोई संदर्भ
नहीं। वह
महाकाव्य है।
उसके साथ
जुड़कर
क्षुद्र से
शब्द स्वर्ण
के हो जाते
हैं। उसके साथ
जुड़कर कंकड़—पत्थर
हीरे—मोती हो
जाते हैं।
'कनक—अवास—वास
सब फीके'।
सब है, लेकिन
सब फीका है।
यही तो आज की
दुनिया का
सबसे बड़ा
विचारणीय
प्रश्न है।
मनुष्य इतना
समृद्ध कभी भी
नहीं था जितना
आज है, विज्ञान
ने मनुष्य को
बड़ी समृद्धि
दी है, बड़ी
सुविधा दी है।
सब है, चाँद
पर जाने की
क्षमता है, मगर
परमात्मा से
संदर्भ छूट
गया है।
इसीलिए सब
होते भी आदमी
बिलकुल फीका
है। बिलकुल
कोरा है, खाली
है, रिक्त
है। बाहर धन
का ढेर लग गया
है, स्वर्ण
के महल
निर्मित हो
गये हैं——और
भीतर? भीतर
बड़ी कंगाली है।
भीतर आदमी
बिलकुल
भिखारी है। यह
आज के मनुष्य
की सबसे बड़ी
समस्या है कि
क्या हो गया, क्यों ऐसा
हुआ? भीतर
आदमी को अर्थहीनता
क्यों मालूम
होती है?
दुनिया
के बड़े—सें—बड़े
विचारक जिस
प्रश्न पर
सर्वाधिक
चिंतातुर हैं, वह
प्रश्न है——अर्थवत्ता
का। आदमी की
अर्थवत्ता
क्यों खो गयी
है? लोग
क्यों पूछ रहे
हैं कि जीवन
का अर्थ क्या
है? जीवन
में कोई अर्थ
है भी नहीं, हो भी नहीं
सकता। अर्थ तो
किसी संदर्भ
में होता है।
परमात्मा के
संदर्भ में
अर्थ था, वह
संदर्भ खो गया
है। ऐसा ही
समझो कि
तुम्हें किसी
किताब का एक
पन्ना हवा में
उड़ता हुआ मिल
जाए, तुम
उसे पढ़ जाओ, कुछ अर्थ
समझ में न
आएगा। अर्थ तो
पूरी किताब
में था। या
तुम्हें
कविता की एक
पंक्ति मिल
जाए और अर्थ
समझ में न आए।
अर्थ तो पूरी
कविता में था।
या तुम्हें एक
शब्द मिल जाए
और अर्थ समझ
में न आए। ऐसी
ही हालत आदमी
की हो गयी है, आदमी संदर्भ
से टूट गया है।
उसकी जडें आज
परमात्मा के
साथ जुड़ी हुई
मालूम नहीं
होतीं। अकेला
खड़ा है, पृष्ठभूमि
खो गयी है, समझ
में नहीं आता
मैं कौन हूँ।
कनक—अवास—वास
सब फीके, बिन
पिय के परसंग।
मैं
तलूए—सुबहे—नौसे
अभी मुतमइन
नहीं हूँ
तेरा
हुस्न भी तो
होता किसी
खुशनुमा किरन
में
सरेबाम
पुकारा, लबे—दार
भी सदा दी
मैं
कहाँ—कहाँ न
पहुँचा तेरी
दीद की लगन
में
में
लिये—लिये
फिरा हूँ गमे—जिंदगी
की लाश
कभी
अपनी खिलवतों
में,
कभी तेरा
अंजुमन में
तेरे
गम में बह गया
है मेरा एक—एक
आँसू
नहीं
अब कोई सितारा
जो चमक सके
गगन में
एक
बार उसकी जरा—सी
झलक मिल जाए
कि सारे सितारे
फीके हो जाते
हैं। फिर कोई
सितारा नहीं
चमक सकता। फिर
कोई धन धन
नहीं। ध्यान
की भनक पड़ जाए
कि फिर कोई धन
धन नहीं।
प्रार्थना की
जरा—सी
सुगबुगाहट
भीतर हो जाए, फिर
कोई प्रेम
प्रेम नहीं।
परमात्मा है,
ऐसा आभास
होने लगे कि
फिर इस जीवन
में जो भी अर्थ'
थे वे सब
बदल गये। फिर
एक नये अर्थ
की यात्रा
शुरू हुई।
तीर्थयात्रा
शुरू हुई। अब
तुम ठीक—ठीक
संदर्भ में
आने शुरू हुए।
अब तुम्हें
अपनी जड़ें
मिलीं।
महाबिपत
बेहाल लाल बिन, लागै
बिरह—भुअंग।।
बड़ी
विपत्ति है, बड़ी
बेहाली है, उसके बिना——प्यारे
के बिना।
महाबिपत
बेहाल लाल बिन
लागै बिरह—भुअंग।
और विरह ने
ऐसे पकड़ा है, जैसे भुजग
ने पकड़ लिया
हो। जैसे किसी
भयंकर सर्प की
लपेट में पड़
गये हों। कोई
भयंकर सर्प
कुंडली मार कर
चारों तरफ बैठ
गया हो, ऐसा
उसके विरह ने
पकड़ा है। आज
ऐसा विरह किसीको
पकड़ता नहीं।
दुर्भाग्य है।
क्योंकि
जितना बड़ा
विरह तुम्हें
पकड़े, उतने
ही बड़े मिलन
की आशा है।
विरह ही हमारे
छोटे—छोटे
हैं! तो मिलन
भी हमारे छोटे—छोटे
हैं। विरह और
मिलन में
अनुपात होता
है। जब कोई
परमात्मा के
विरह से
तडूफता है, तो उसके
तडुफने में भी
एक सौंदर्य है।
और एक आदमी धन
के लिए तडूफ
रहा है, उसके
तडुफने में एक
कुरूपता है।
एक आदमी पद के
लिए तडुफ रहा
है, उसकी
तडूफ अमानवीय
है, जंगली
है। उसकी तडूफ
में संस्कृति
नहीं है। उसकी
तडुफ में
मनुष्य के
ऊँचे मूल्यों
का कोई स्थान
नहीं है।
तडुफो
तो किसी बड़ी
बात के लिए
तड़फो। जब तडुफ
ही रहे हो तो
क्षुद्र के
लिए क्या तडूफना!
जब खोजने ही
चले हो, तो
परमधन को खोजो।
और जब यात्रा
ही शुरू की है
तो परमपद की
करना।
सूनी
सेज बिथा कहूँ
कासूँ, अबला
धरै न धीर।
रज्जब
कहते हैं, सेज
सूनी है। सजी
है और सूनी है।
सावन द्वार पर
खड़ा है और सब
सूना पै। ' सूनी
सेज बिथा कहूँ
कासूँ '।
और यह मेरी
व्यथा ऐसी है
कि किससे कहूँ?
इसे तो
जाननेवाले ही
समझेंगे।
धन्यभागी हैं
वे जिनके जीवन
में ऐसी व्यथा
है कि जिसको
कहने के लिए
भी पात्र
खोजना' पड़े!
धन्यभागी हैं
वे जिनकी
व्यथा को
साधारणत: कहा
न जा सके।
उसका अर्थ हुआ
कि परम की
व्यथा उनके
भीतर पैदा हुई
है।
परेशां
रात सारी है
सितारो तुम तो
सो जाओ
सकूने—मर्ग
तारी है
सितारो तुम तो
सो जाओ
हँसो और
हँसते—हँसते
डूबते जाओ
खलाओं में
हमें यह
रात भारी है, सितारो
तुम तो सो जाओ
हमें तो आज
की शब पौ फटे
तक जागना होगा
यही
किस्मत हमारी
है, सितारो
तुम तो सो जाओ
तुम्हें
क्या? आज भी
कोई अगर मिलने
नहीं आया
यह बाजी
हमने हारी है, सितारो
तुम तो सो जाओ
कहे जाते
हो रो—रो कर
हमारा हाल
दुनिया से
यह कैसी
राजदारी हे
सितारो तुम तो
सो जाओ
हमें भी
नींद आ जाएगी, हम
भी सो ही
जाएँगे
अभी कुछ
बेकरारी है, सितारो
तुम तो सो जाओ
शायद
सितारे समझें, आदमी
तो नहीं
समझेगा। आदमी
तो ऐसा नासमझ
हो गया है, ऐसा
पत्थर हो गया
है, ऐसा
पाषाण हो गया
है! किससे
कहें?
सूनी सेज
बिथा कहूँ
कासूँ, अबला
धरै न धीर।
कोई
धीरज नहीं है।
एक भयंकर
अशांति का
जन्म हुआ है।
जीसस
का एक वचन
तुम्हें याद
दिलाता हूँ——
किसीने
जीसस से पूछा
है कि क्या आप
वही हैं जिसके
संबंध में
शास्त्र कहते
हैं कि उसके
आगमन पर
दुनिया में
शांति हो
जाएगी? जीसस
ने उस आदमी को
गौर से देखा
और कहा, मैं
शांति लेकर
नहीं, तलवार
लेकर आया हूँ।
मैं तुम्हें
अशांत करने
आया हूँ। ईसाई
विचारक दो
हजार साल से
इस वचन पर
चिंतन करते
रहे। यह वचन
जीसस ने न कहा
होता तो अच्छा
था। क्योंकि
जीसस तो शांति
के दूत हैं और
यह वचन कि मैं
शांति लेकर
नहीं तलवार
लेकर आया हूँ,
मैं
तुम्हें
अशांत करने
आया हूँ।
लेकिन यह वचन
सार्थक है। और
जीसस ने कहा
तो ठीक ही
किया। मैं
इसके साथ पूरी
तरह सहमत हूँ।
इस दुनिया में
जो भी भगवान
का प्यारा है,
वह तुम्हें
अशांत ही
करेगा। तुम
वैसे शांत हो——शांत
मतलब चल रहे
हो; सब ठीक—ठाक
है। दूकान कर
रहे, बजार
कर रहे, बच्चे
पैदा कर रहे, सो रहे, उठ
रहे, कमा
रहे, जीत
रहे, हार
रहे, जिंदगी
बीत रही है, सब ठीक—ठाक
है——अगर तुम
किसी
परमात्मा के
प्यारे के
निकट पड़ गये
तो यह सब ठीक—ठाक
एक क्षण में
बिखर जाएगा।
क्योंकि पहली
दफे तुम्हें
दिखायी पड़ेगा
तुमने जिंदगी
यूँ ही गँवायी,
कूड़ा— करकट
बीनने में
गँवायी। गहरी
अशांति पैदा
होगी। बड़ी
बेचैनी पैदा
होगी। बड़ा
अधैर्य पैदा
होगा। एक
आध्यात्मिक
असंतोष पैदा
होगा।
एक
असंतोष है
सांसारिक
वस्तुओं के
लिए। वह
असंतोष
अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है। एक असंतोष
है परमात्मा
को पाने के
लिए। वह
असंतोष
धार्मिक आदमी
का लक्षण है।
जो बाहर की
चीजों से
असंतुष्ट हैं, वे
बाहर दौड़ते
रहते हैं। जो
भीतर की
आकांक्षा से
भर जाते हैं, भीतर के
अनुभव के लिए
लालायित हो
जाते हैं, जिन्हें
भीतर का
असंतोष पकड़
लेता है——' डिवाइन
डिसकॅन्टेन्ट
'——जिन्हें
एक दिव्य
असंतुष्टि
पकड़ लेती है, वे भीतर की
खोज पर निकल
जाते हैं।
बाहर
से संतुष्ट हो
जाओ और भीतर
असंतुष्ट हो जाओ!
अभी हालत
तुम्हारी
उलटी है——भीतर
से बिल्कुल
संतुष्ट हो, बाहर
बड़े असंतुष्ट
हो। कहते हैं——यह
मकान छोटा है,
यह दूकान
छोटी है, थोड़ी
बड़ी कर लें; यह धन का ढेर
छोटा है, थोड़ा
बड़ा कर लें, यह पद भी कोई
पद है, थोड़ा
बड़ा पद खोज
लें; अभी
थोड़ी शक्ति है,
लगा लें, अभी थोड़ा
मौका है, अवसर
है। बाहर से
तुम असंतुष्ट
हो और भीतर
तुम देखते भी
नहीं कि भीतर
कुछ भी नहीं
है, तुम
बिलकुल खाली
हो, वहाँ
अँधेरा है।
वहाँ दीया भी
नहीं जला कभी।
और बाहर
दीवाली मना
रहे हो! और
भीतर दिवाला
है।
थोड़ा
भीतर भी देखो।
ये बाहर के
दीये बहुत दूर
तक काम न
आएँगे, जलेंगे
और बुझ जाएँगे।
इनसे कोई
रौशनी न कभी
किसीको मिली
है, न मिल
सकती है। मौत
आएगी और उसका
एक झोंका इन
सबको मिटा
जाएगा। कुछ
ऐसा दीया जला
लो जिसे मौत न
बुझा सके।
सूनी सेज
बिथा कहूँ
कासूँ, अबला
धरै न धीर।
भक्त
बड़ा बेचैन हो
जाता है। इस
बेचैनी के बाद
ही चैन है।
जितनी बड़ी
बेचैनी उतना
ही बड़ा चैन है।
यह बेचैनी
कीमत है जो
चुकानी पड़ती
है उस चैन के
लिए। भक्त बड़ा
दुखी हो जाता
है। तुम क्या
खाक दुखी हो!
तुम्हारा दुख
भी छोटा है, क्षुद्र
शै। भक्त बड़ा
दुखी हो जाता
है। भक्त की
छाती में तो
घाव—ही—घाव रह
जाते हैं।
उसकी आँखों
में आंसू—ही—आंसू
रह जाते हैं।
रुदन के सिवा
उसे कुछ नहीं
सूझता। उसे
चारों तरफ
अँधेरा
दिखायी पड़ता
है और भीतर
रिक्तता
दिखायी पड़ती
है। और एक बात कोई
भीतर गहरे में
कहे चला जाता
है कि चाहो तो सब
बदल सकता है, सावन द्वार
पर खड़ा है, प्यारे
से मिलना भी
हो सकता है!
तुम
उस पीड़ा को
थोड़ा सोचो, बिचारो!
जब सब हो सकता
है और कुछ भी
होता नहीं मालूम
होता। घड़ियाँ
बीतती जाती
हैं
प्रतीक्षा की
और उसकी पगध्वनि
सुनायी नहीं
पड़ती। भक्त न—मालूम
कितनी
भावदशाओं से
ऐसी अवस्था
में गुजरता
जी में
हसरत है
सुनाएँ
उन्हें
अफसानए—गम
कभी
मौका मिले सब
कुछ कहें उनकी
ही कसम
लेकिन
आते नहीं
सुनते नहीं
रूदादे—अलम
कितने
मजबूर हैं
बतलाएँ यह है
कैसा सितम
इस
पै तुर्रा है
कि उल्फत का
भी इकरार करो
हम
को पूजो, हमें
चाहो, हमें
तुम प्यार करो
ऐसे
बेरहम हैं
इंसाफ का भी
पास नहीं
महर
की जर्रा
बराबर भी तो
बू—बास नहीं
ऐसी
बेमेहरी पै भी
दिल कि मेरे
पास नहीं
अब
भी आ जाएँ कि
जीने की कोई
आस नहीं
और
खुद आके कहें
इश्क का इजहार
करो
हमको
पूजो, हमें
चाहो, हमें
तुम प्यार करो
आवाज
सुनायी पड़ती
है——हमको पूजो, हमें
चाहो, हमें
तुम प्यार करो,
मगर कहाँ से
आवाज आती है, स्रोत का
पता नहीं चलता।
कोई पुकार आती
है बहुत दूर
से, या
बहुत गहरे से,
या बहुत
भीतर से, मगर
पता नहीं चलता।
कौन पुकार दे
रहा है, दिखायी
नहीं पड़ता। और
पुकार सघन
होती चली जाती
है। और पुकार
की सघनता के
साथ—साथ भक्त
की पीड़ा सघन
होती चली जाती
है। एक आग
जलने लगती है,
एक विरह की
अग्नि में
भक्त जलता है।
यही असली यज्ञ
है।
बद
करो तुम्हारे
यज्ञ जो तुम
बाहर कर रहे
हो। व्यर्थ न
जलाओ उनमें
गेहूँ और घी, व्यर्थ
न बहाओ इन
चीजों को।
जलाना हो, अपने
अहंकार को
अपने भीतर
परमात्मा की
विरह की आग
में जलाओ।
मिटाना है, अपने को
वहाँ मिटाओ।
वहीं बने वेदी
हवन की। सच्चा
यज्ञ वहीं है,
जीवनयज्ञ
वहीं है। और
जिस दिन तुम
बिल्कुल राख
हो जाओगे, बिल्कुल
राख, उसी
क्षण मिलन हो
जाता है। तुम
मिटे कि मिलन
हुआ।
तुम्हारे
मिटने में ही
मिलन है।
शबे—इंतजार
की कश—म—कश में
न पूछ कैसे
सहर हुई
कभी
इक चिराग जला
दिया, कभी इक
चिराग बुझा
दिया
विरह
की रात लंबी
होती है। कैसे
सुबह होती है, बड़ा
मुश्किल है
कहता।
शबे
इंतजार की कश—म—कश
में न पूछ कसे
सहर हुई
जिनकी
हो गयी सुबह, वे
भी नहीं बता
पाते कि कैसे
हो गयी है।
बड़ी लंबी थी
यात्रा, बड़ी
लंबी थी रात, ' कभी एक
चिराग जला
दिया, कभी
एक चिराग बुझा
दिया, ' किसी
तरह कुछ करते
रहे।
प्रार्थना की,
पूजा की, मंत्र किये,
जाप किये, वह सब बस ऐसा
ही था—कभी एक
चिराग जला
दिया, कभी
एक चिराग बुझा
दिया। मगर उस
सबके पीछे एक
विरह था, वही
असली बात है।
उस सबके पीछे
एक तलाश थी, टटोलना था, वही असली
बात है। खोज
थी। क्या
तुमने खोजने
के लिया किया,
उसका मूल्य
नहीं है बहुत,
बस खोज की
भीतर, इसीका
मूल्य है।
परमात्मा तुम
क्या करते हो
यह नहीं देखता,
तुम क्या
चाहते हो, यही
देखता है।
तुम्हारी
अभीप्साएँ
जाँची जाती
हैं, तुम्हारी
आकांक्षाएँ
पहचानी जाती
हैं।
तुम्हारे
अंतर्भाव पढ़े
जाते हैं।
सूनी सेज
बिथा कहूँ
कासूँ, अबला
धरै न धीर।
दादुर मोर
पपीहा बोलैं
ते मारत तन
तीर।।
और
सबके प्रेमी
उन्हें मिले
जा रहे हैं, भक्त
का प्रेमी उसे
कब मिलेगा? सावन आ गया।
दूल्हनें सज
गयीं, दूल्हे
सज गये, जिनकी
प्रतीक्षा थी
वे प्यारे आने
लगे, प्रेयसियों
को मिलने लगे,
सावन आ गया,
'दादुर मोर
पपीहा बोलैं
ते मारत तनतीर,'
पशु—पक्षी
भी अपने
प्रियतमों को
मिलने लगे, सब तरफ मिलन
की घड़ी आ गयी—
सावन यानी
मिलन की घड़ी——प्यार
सबका पकने लगा,
और भक्त के
भगवान का कोई
पता नहीं।
वहाँ बस अभी
भी अँधेरी रात
है। वहाँ अभी
भी बस
रेगिस्तान है।
वहाँ अभी बस
विरह का ही
स्वाद है।
सिसकियाँ
लेती हुई
गमगीन हवाओं
चुप रहो
अपनी हालत
पर न फूलों को
हँसाओ चुप रहो
सुबह से
पहले न बोलो
हमनवाओ चुप
रहो
सो रहे हैं
दर्द उनको मत
जगाओ चुप रहो
बंद हैं सब
मैकदे साकी
बने हैं
महतसिब
ऐ गरजती
गूँजती काली
घटाओ चुप रहो
धड़कनें
काफी हैं, इजहारे—तमन्ना
के लिए
अपने ओठों
से कभी आगे न
आओ चुप रहो
तुमको है
मालूम आखिर
कौन—सा मौसम
है यह
फसले—गुल
आने तलक ऐ खुशनवाओ
चुप रहो
सोच की
दीवार से लगकर
हैं गम बैठे
हुए
दिल में भी
नामा न कोई
गुनगुनाओ चुप
रहो
बुझ गये
हालात के शोले
तो देखा जाएगा
वक्त से
पहले अँधेरे
में न जाओ चुप
रहो
देख लेना
घर से निकलेगा
न हमसाया कोई
ऐ मेरे
यारो मेरे
दर्द—आश्नाओ
चुप रहो
क्यों
शरीकेगम बनाते
हो किसीको ऐ 'कतील’।
अपनी सूली
अपने काँधे पर
उठाये चुप रहो
'अपनी सूली
अपने काँधे पर
उठाये चुप रहो'। यह भक्त की
जीवन—व्यथा है।
' क्यों
शरीके—गम
बनाते हो
किसीको ऐं 'कतील '! ' दुख
कहो भी तो
किससे कहो? कहने का सार
भी क्या है!
समझेगा कौन? लोग हँसेंगे
ज्यादा—से—ज्यादा।
समझेंगे पागल
हो तुम।
क्यों
शरीके—गम
बनाते हो
किसीको ऐ ' कतील
'!
अपनी सूली
अपने काँधे पर
उठाये चुप रहो
भक्त
को चुपचाप
सहना पड़ता है, चुपचाप
रोना पड़ता है।
मैं उन भक्तों
की बात नहीं
कर रहा हूँ जो
अखंड पाठ करवा
देते हैं।
उन्हें तो
भक्ति का कुछ
पता ही नहीं
है। चौबीस
घंटे शोरगुल
मचवा देते हैं।
मोहल्ले—पड़ोस
के लोगों की
नींद खराब
करवा देते हैं।
भक्ति का तो.
बड़ा चुपचाप
निवेदन है।
रात के अँधेरे
में, एकांत
में। किससे
कहना है अपना
गम, कौन
समझेगा यहाँ?
लोग आँसू
देखेंगे, हँसेंगे।
चुपचाप रो
लेना, चुपचाप
पुकार लेना।
यह बात भीतर
की भीतर रहे।
यह किसी को
पता भी चलाने
की बात नहीं, क्योंकि
आदमी बड़ा
चालबाज है।
कभी—कभी तो
लोगों को पता
चले इसीलिए
आयोजन करने लगता
है। यह सब
आयोजन झूठे हो
जाते हैं। बस
परमात्मा को
पता चले इतना
काफी है। तुम
दूसरों को पता
चलवाने की
कोशीश मत करना।
तुमने
देखा है, अगर
कोई मंदिर में
पूजा कर रहा
हो, दो—चार—दस
आदमी इकट्ठे
हो जाएँ, उसकी
पूजा बड़े जोर—शोर
से होने लगती
है। उसके हाथ
की आरती और
जोर—शोर से
उतरने लगती है।
अगर
फोटोग्राफर
भी आ जाए, अखबारनवीस
भी आ जाएँ, फिर
तो कहना क्या!
वह ऐसा मस्त
हो जाता है कि
कबीरदास जी
क्या हुए
होंगे! कि
बाबा नानक सिर
ठोंक लेते कि
हम भी पीछे पड़
गये! कि मीरा
भी सोचती कि
अब यहाँ नाचना
ठीक है कि
नहीं! लेकिन
जब देखता है
कोई भी नहीं
है देखने वाला,
तो जल्दी से
घंटी—वटी
बजाकर, पानी
इत्यादि छिड़क
कर भाग खड़ा
होता है।
भगवान से तो
कुछ लेना—देना
नहीं है।
तुम्हारे
पूजा—पाठ भी
तुम्हारे
अहंकार की
घोषणाएँ बन
जाते है।
क्यों
शरीकेगम
बनाते हो
किसीको ऐ 'कतील
'!
अपनी सूली
अपने काँधे पर
उठाये चुप रहो
सकल
सिंगार भार
ज्यूँ लागैं, मन
भावै कछु
नाहीं।
रज्जब
कहते हैं—सारा
शृंगार किये
बैठा हूँ।
क्या शृंगार
है भक्त का? अपने
पात्र को
माँजा है, शुद्ध
किया है, अपने
भीतर के
विषाक्त
भावों से
मुक्ति पायी है
——क्रोध छोड़ा
है, मोह
छोड़ा है, लोभ
छोड़ा है, आसक्तियाँ
छोड़ी हैं, ईर्ष्याएँ—
वैमनस्य छोड़े
हैं, द्वैत
छोड़ा है, द्वंद्व
छोड़ा है, तर्क
छोड़ा है, संदेह
छोड़े है—सब तरफ
से अपने को
सजाया है।
क्या है
शृंगार भक्त
का? श्रद्धा
है शृंगार। 'सकल
म्प्रंगार
भार ज्यूँ
लागैं '।
लेकिन जब तक
प्यारा न मिल
जाए तब तक सब
शृंगार भार है।
प्यारा मिल
जाए तब तो बात
ही बदल जाती
है। तब तो रंग
ही बदल जाता
है, तब तो
ढंग ही बदल
जाता है।
चाँदनी
रात फिक्रे—शेरो—सुखन
मैंने
चाँदी के बुत
तराशे हैं
उनमें
तुम रूह फूँक
दो,
वर्ना
मेरे
अपकार सर्द
लाशें हैं
फिर
तुम गीत गाते
रहो,
उनमें
प्राण नहीं। '
मेरे अपकार
सर्द लाशें
हैं, ' मेरी
अभिव्यक्तियों
में कोई प्राण
नहीं। ' उनमें
तुम रूह फूँक
दो; ' तुम
डालो प्राण तो
पड़े प्राण।
ऐसे भी गीत
हैं जब गायक
नहीं गाता, सिर्फ गायक
माध्यम होता
है और
परमात्मा
गाता है। तब
मजा और। तब
आकाश पृथ्वी
पर उतरता है।
और ऐसे भी गीत
हैं जो गायक
ही गाता है; परमात्मा का
उनमें कुछ पता
नहीं होता। तब
वे कितने ही
शब्दों की
दृष्टि से
सुंदर हों, मगर
निष्प्राण
होते हैं।
कवि
और ऋषि का यही
भेद है।
कवि
खुद ही गाता
है,
ऋषि
परमात्मा को
गाने देता है।
दोनों गाते
हैं, दोनों
गायक हैं, ऊपर
से देखने पर
कोई भेद नहीं
है, दोनों
के ओंठ शब्दों
को बनाते हैं,
दोनों के
कंठों से वाणी
निकलती है, मगर एक की
सिर्फ कंठ से
ही आ रही है, और दूसरे की
वैकुंठ से आ
रही है — उसकी
अपनी नहीं है,
बाँस की
बाँसुरी जैसा
है, खाली
है।
कबीर
ने कहा——मैं
बाँस की
पोंगरी, सब
गीत तुम्हारे।
कुछ भूल—चूक
हो जाती हो, मेरी——बाँस
की पोंगरी हूँ,
स्वरों को
बिगाड़ देती
हूँ, बेसुरा
कर देती हूँ, वह भूल—चूक
मेरी। सब
सुंदर
तुम्हारा, सब
असुंदर मेरा।
चूक—चूक मेरी,
ठीक—ठीक
तुम्हारा।
पुण्य हो तो
तुमसे, पाप
हो जाए——मुझसे।
यह भक्त का
भाव है।
चाँदनी
रात फिक्रे—शेरो—सुखन
मैंने
चाँदी के बुत
तराशे हैं
उनमें तुम
रूह फूँक दो
वर्ना
मेरे
अपकार सर्द
लाशें हैं
सकल
सिंगार भार ज्यूँ
लागैं, मन
भावै कछु
नाहीं।
मन
को भाये भी
क्या अब, जब
मनभावन से मन
लग गया तो मन
को फिर कुछ
नहीं भाता। जब
मनमोहन से मन
लग गया तो मन
को फिर कुछ
नहीं भाता।
फिर सब फीका
है। सब स्वाद
बेस्वाद है।
सब स्वर
विसंगीत है।
सब सौंदर्य
सतही है, ऊपर—ऊपर
है। उस प्यारे
की मौजूदगी ही
आZ_ तो
अस्तित्व
साँसें लेता
है, धड़कता
है। रज्जब रंग
कौन सूँ कीजै,
जे पीव
नाहीं माहीं।
आंनद
कैसे करूँ, रज्जब
कहते हैं। ' रज्जब रंग
कौन सूँ कीजै '। कैसे रंग
से भरूँ, कैसे
नाचूँ, कैसे
उत्सव मनाऊँ,
कैसे रास
रचाऊँ, जे
पीव नाहीं
माहीं, अभी
भीतर परमात्मा
आकर मौज्द
नहीं हुआ। वह
आए तो फिर नाच—ही—नाच
है, बिना
आयो— जन के।
चेष्टा भी
नहीं करनी
पड़ती है और
नाच शुरू हो जाता
है। और
परमात्मा
भीतर न हो, तो
हम हजार आयोजन
करें, हमारे
आयोजन सब झूठे
हैं, सब
पाखंड हैं।
धर्म पाखंड हो
गया है हमारे
आयोजनों के
कारण। जब तुम
चेष्टा करके
कुछ करते हो, तब पाखंड
होता है। जब
उसकी मौजूदगी
के अनुभव से
सहज तुम्हारे
भीतर कुछ होता
है, स्वस्फूर्त,
तब धर्म
सच्चा होता है।
सिखाये धर्म
व्यर्थ हैं।
पढ़ लिया गीता
में या कुरान
में और किया, तो बस
आयोजित है।
परमात्मा को
पुकारों भीतर।
उसकी प्रतिमा
वहाँ निर्मित
होने दो।
और
ध्यान रखना, प्यास
हो तो जरूर
बात हो जाती
है। बस पूरी
प्यास चाहिए;
इसके
अतिरिक्त
आदमी के बस
में कुछ भी
नहीं है।
अलग
बैठे थे, फिर
भी आँख साकी
की पड़ी हम पर
अगर
है तिश्नगी
कामिल तो
परवाने भी
आएँगे
तिश्नगी
कामिल, बस
पूर्ण प्यास
चाहिए, साकी
कब तक बचाएगा,
कब तक बच— बच
कर निकलेगा?
अलग
बैठे थे, फिर भी
आँख साकी की
पड़ी हम पर
अगर
है तिश्नगी
कामिल तो
परवाने भी
आएँगे
जरूर
आएँगे जब दीया
जलता है, तो
परवाना आता है।
और जब प्यास
जलती है, तो
प्यारा आता है।
आना ही पड़ता
है। तुमने
शर्त पूरी कर
दी—उतनी ही
शर्त है, बस
प्यास की शर्त
है। तुम्हारी
प्रार्थना
तुम्हारी
प्यास की अभिव्यक्ति
होनी चाहिए और
कुछ भी नहीं।
माँगना मत कुछ
और। कुछ और
चाहना मत।
चाहना तो उसको
चाहना, माँगना
तो उसको
माँगना, और
कुछ मत माँगना।
रज्जब रंग
कौन सूँ कीजै, जे
पीव नाहीं
माहीं।।
रज्जब
कहते हैं—सावन
तो आ गया, नाचना
तो मुझे भी है,
नाचना तो
मुझे भी चाहिए,
सावन का
सम्मान तो
मुझे भी करना
है। पक्षी गीत
गा उठे, बादल
घिर गये, मोर
नाच उठे ——
दादुर मोर
पपीहा बोलैं,
ते मारत तन
तीर——तीर मुझे
भी चुभ रहा है
सावन का, यह
सौंदर्य मुझे
भी जगा रहा है।
यह चारों तरफ
हो रहा उत्सव
और मैं कैसे
अलग—थलग बैठा
रहूँ! मगर
करूँ क्या 'मेरा
प्राणप्यारा
अभी आया नहीं,
उसकी
पगध्वनि भी
मुझे सुनायी
नहीं पड़ रही।
भजन बिन
भूलि पर्यो
ससार।
और
यह हो क्यों
गया?
ऐसा हो कैसे
गया ?——कि
प्यारा नहीं
मिल रहा है।
भजन बिन भूलि
पर्यो संसार। हमने
ही उसकी याद
धीरे—धीरे
गँवा दी है।
भजन का अर्थ
है——उसकी याद, उसकी स्मृति,
सुरति।
हमने ही धीरे—धीरे
उसकी याद भुला
दी। उसने हमें
भुला दिया, ऐसा कोई
भक्त नहीं
कहेगा। ऐसा
लांछन भक्त
भगवान पर लगा
नहीं सकता।
हमने ही भुला
दिया है। हम
ही पीठ करके
खड़े हो गये हैं।
हमने ही कुछ
ऐसा इंतजाम कर
लिया है कि हम
उससे दूर—दूर
हो गये हैं।
परमात्मा हम
से दूर नहीं
है, हम
उससे दूर हैं।
भजन बिन
भूलि पर्यो
संसार।
भजन
को भूल गये
हैं—भजन यानी
परमात्मा के
स्मरण को। और
जो परमात्मा
के स्मरण को
भ्ल जाता है, वह
संसार के
स्मरण से भर
जाता है।
स्मरण तो करना
ही पड़ेगा।
स्मृति में
कोई चीज तो
भरेंगी ही।
अगर अमृत न
भरोगे तो जहर
भरेगा। अगर
शुभ न भरोगे
तो अशुभ भरेगा।
अगर प्रेम न
भरोगे तो घृणा
भरेगी। पात्र
खाली तो रहेगा
नहीं। वह तो
पात्र का गुण
नहीं है खाली
रहना, पात्र
तो भरेगा ही।
अगर सुगंध न
भरेगी तो
दुर्गंध
भरेगी।
ऊर्जा
का नियम है कि
वह कुछ करेगी; ऊर्जा
कृत्य बनेगी।
अगर तुमने
सृजन न किया
तो तुम विनाश
करने में लग
जाओगे। अगर
तुमने
निर्माण न
किया तो तुम
मिटाने में लग
जाओगे। इसके
पहले कि
तुम्हारी
ऊर्जा
विध्वंस बने,
सृजन बनाओ।
और इसके पहले
कि तुम्हारी
ऊर्जा संसार
की स्मृति में
उलझ जाए, खो
जाए.. .जरा
देखते हो कभी,
अपने को भी
सोचते हो कभी?
दिन भर भी
संसार सोचते,
रात बिस्तर
पर पड़े भी
संसार सोचते,
नींद भी
नहीं आती ससार
की याद में ही,
मन उलझा
रहता है—सुबह
से साँझ, साँझ
से सुबह, दिन
और रात, वर्ष
आते और जाते
और तुम संसार
की ही चिंता
में डूबे रहते
हो। और पाओगे
क्या इस चिंता
से? थोड़ी
तो
बुद्धिमानी
बरतो।
भजन बिन
भूलि पर्यो
संसार।
चाहै' पछिम
जात पूरब दिस,
हिरदै नहीं
बिचार।।
और
फिर तुम चाहे
पश्चिम जाओ, चाहे
पूरब जाओ; फिर
चाहे हिदू होओ,
चाहे
मुसलमान; चाहे
इस दिशा में
पूजो, चाहे
उस दिशा में, चाहे
तुम्हारी
काशी इधर हो
और तुम्हारा
काबा वहाँ हो,
कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
जाओ तुम्हें
जहाँ जाना है,
अगर भजन
नहीं किया है——भजन
यानी अगर
परमात्मा का
स्मरण नहीं
जगाया है, संसार
के स्मरण से
भरे हो——तो तुम
काशी भी जाकर
कुछ भेद नहीं
कर पाओगे।
काशी में भी
तुम संसार का
ही स्मरण
करोगे। और
काबा में जाकर
भी तुम संसार
का ही स्मरण
करोगे।
तुम्हारी
माँगें संसार
की ही होंगी।
तुम
जरा सोचो, अगर
मैं तुम्हें ऐसी
एक पहेली दूँ
कि कल सुबह जब
तुम उठोगे, परमात्मा
तुम्हारे
सामने खड़ा
होगा। और
तुमसे पूछेगा——तीन
वरदान माँग लो।
तुम जरा सोचना
कौन—से तीन
वरदान तुम
माँगोगे? किसीको
बताने की
जरूरत नहीं है,
इसलिए धोखा
देने की भी
कोई जरूरत
नहीं है, खुद
ही सोचना कौन—से
तीन वरदान
माँगोगे? तुम
बड़े हैरान
होओगे अपने
वरदानों की
माँग देखकर।
तुम जरूर कुछ
क्षुद्र
माँगोगे।
परमात्मा भी
सामने खड़ा
होगा, तो
तुम उससे चूक
जाओगे।
तुम्हें शायद
ही याद आए कि
तुम कहो कि अब
और वरदान की
क्या जरूरत!
आप मिल गये तो,
बस! तुम्हें
शायद ही यह
याद आए कि तुम
कहो कि नहीं, अब कोई
वरदान नहीं
चाहिए। बस ये
चरण अब सदा
मेरे हाथ में
रहें, इन
चरणों से लगा
रहूँ, इन
चरणों की लौ
लगी रहे, बस
पर्याप्त।
माँग सकोगे
ऐसा? अगर
बहुत सोचोगे—समझोगे
तो कहोगे कि
नंबर तीन पर
इसको माँग लेंगे,
पहले नंबर
दो तो निबटा
लें।
तुम
इस बात को ही न
माँग सकोगे।
तुम्हारा
हृदय तो संसार
की याद से भरा है।
तुम कहोगे——यह
मौका क्यों
चूके? तुम
कहोगे——कि
राष्ट्रपति
बना दो, कि
प्रधानमंत्री
बना दो, कि
दुनिया का
सबसे बड़ा
धनपति बन जाऊँ।
ऐ
गदागर! मुझे
ईमान की सौगात
न दे
मुझको
ईमान से अब
कोई सरोकार
नहीं
मैंने
देखा है इन
आँखों से
मुरव्वत का
मयाल
मुझको
अब मेहरो—मुहब्बत
से कोई प्यार
नहीं
मैने
इसान को चाहा
भी तो क्या
पाया
अब
मेरा कुक खुदा
का भी तलबगार
नहीं
जा
किसी और से
ईमान का सौदा
कर ले
मैं
तेरी नेक
दुआरों का
खरीददार नहीं
भजन
बिन भूलि
पर्यो संसार।
चाहै पछिम
जात पूरब दिस, हिरदै
नहीं बिचार।।
बस
एक बात
तुम्हारी
पक्की हो गयी
कि तुम्हारे हृदय
में परमात्मा
का विचार नहीं
उठता। और सब
विचार उठते
हैं,
अनंत विचार
उठते हैं, एक
विचार चूक गया
है——और वही
सार्थक है। और
जिसने उसे पा
लिया, सब
पा लिया। और
जिसने उसे
गँवा दिया, उसने सब
गँवा दिया। और
तुम जिसे समझ
रहे हो
संपत्ति, वह
विपत्ति है।
दस्ते—पुरखूं
को कफे—दस्ते—निगारा
समझे
हत्यारे
के हाथ को, खूनी
के हाथ को
चितेरे का हाथ
समझे।
दस्ते—पुरखूं
को कफे—दस्ते—निगारा
समझे
कत्लगहु
थी जिसे हम
महफिले—यारां
समझे
और
जहाँ मारा
जाना था, जो
कत्लगह थी, कत्लखाना था——कत्लगह
थी जिसे हम
महफिलें—यारा
समझे। ऐसा ही
हुआ है संसार
में। तुमकुछ—का—ढ़ुछ
समझ रहे हो।
यह कत्लगह है,
यहाँ सभी
मरने को तैयार
खड़े हैं, यहाँ
'क्यू' लगा
है मौत का, इसको
तुम घर समझ
रहे हो?
दस्ते—पुरखूं
को कफे—दस्ते—निगारा
समझे
कत्लगह
थी जिसे हम
महफिले—यारा
समझे
कुछ
भी दामन में
नहीं खारे—मलामत
के सिवा
ऐ
जुनू, हम भी
किसे कूए—बहारां
समझे
अखीर
में पाओगे कि
दामन में
सिवाय काँटों
के और कुछ भी
नहीं।
कुछ
भी दामन में
नहीं खारे—मलामत
के सिवा काँटे—ही—कौटे
इकट्ठे हो
जाएँगे। हो ही
रहे हैं। तुम
वही इकट्ठे कर
रहे हो। तुम
काँटों को फूल
समझ रहे हो।
कुछ भी
दामन में नहीं
खारे—मलामत के
सिवा
ऐ जुनू हम
भी किसे कुए—बहारां
समझे
और
हमने जिसे
बसंत की गली
समझा——कूए—बहारां——हमने
जहाँ समझा था
आनंद घटित
होगा, जहाँ
हमने सोचा था
अमृत की वर्षा
होगी, वहां
सिवान काँटों
के और कुछ भी
नहीं मिला। इस
दुनिया से लोग
हार कर जाते
हैं। जीत कर
भी जा सकते हो।
मगर जीत उसके
साथ है——'राम
बिन सावन सहयो
न जाइ'।
जीत उसके साथ
है, हार
अकेले—अकेले।
जो उसके साथ
हो लेता है, जीत जाता है।
उसे मिल गयी
कूए—बहारां, उसे मिल गये
बसंत के क्षण।
फिर उसके जीवन
में बसंत के
अतिरिक्त कभी
और कुछ नहीं
घटता। फिर
सावन भी है, प्यारा भी
है और मिलन
शाश्वत है।
चाहै पछिम
जात पूरब दिस, हिरदै
नहीं बिचार।।
बाछै अरध
अरध सूँ लागै
भूले मुगध
गँवार।
हे
मूढ़,
हे गँवार, तू चाहता तो
स्वर्ग है, लेकिन बना
लेता नर्क है।
यही हमारा
संसार है। सब
सुख चाहते हैं,
और सब दुख
पाते हैं। सब
प्रतिष्ठा
चाहते हैं और
सब
अप्रतिष्ठा
पाते हैं। सब
सम्मान चाहते
हैं और सब
अपमान पाते
हैं। स्तुति
माँगते हो, गालियाँ
मिलती हैं। ' बाछै अरध
अरध सूँ लागै '
माँगते तो
ऊपर को हो., मिलता
नीचे का है।
आकांक्षा तो
बड़ी ऊँची करते
हो, मगर
परिणाम
बिल्कुल नहीं
देखते कि
परिणाम क्या
है? ' बाछै
अरध अरध सूँ
लागै ', ऊर्ध्वयात्रा
की तो
आकांक्षा है,
मगर
अधोगामी हो
जाते हो। 'भूले
मुगध गँवार'।
'खाइ हलाहल
जीयो चाहै'।
जहर तो पीते
हो और सदा
जीता रहूँ, ऐसी मन में
वासना है। यह
कैसे होगा? यह असंभव हो
नहीं सकता। ' खाइ हलाहल
जीयो चाहै, मरत न लागै
बार '।
जीना चाहते
हैं सदा और जो
सदा है उसके
साथ संबंध
नहीं जोड़ते।
संबंध जोड़ते
उसके साथ जो
क्षणभंगुर है।
और जीना चाहते
हैं सदा। देह
के साथ संबंध
जोड़ते है——जो
आज है और कल
नहीं हो जाएगी।
आत्मा के साथ
संबंध नहीं
जोड़ते——जो कल
भी थी, आज
भी है, कल
भी होगी।
'खाइ हलाहल
जीयो चाहै, मरत न लागै
बार'। और
देर कहाँ लगती
है मरने में।
और रोज तुम
लोगों को मरते
देखते हो, रोज
अर्थी उठाते
हो, रोज
लोगों को मरघट
पहुँचा आते हो,
मगर
तुम्हें यह
ख्याल नहीं
आता कि जल्दी
ही तुम्हारी
घड़ी भी पास आ
रही है। और
तुम्हारी
जिंदगी में
कोई फर्क नहीं
आता।
मैं
छोटा था, तो
मुझे मरघट
जाने का शौक
था। मरघट से
मुझे बहुत
मिला। गाँव
में कोई भी
मरे—इसका कोई
मुझे सवाल ही
नहीं था—मैं
सभी की अर्थी
में जाता था।
जब मैं स्कूल
न पहुँचूँ तो
मेरे शिक्षक
समझ लें कि
कोई मर गया
होगा गाँव में।
जब मैं घर
खाने के वक्त
न पहुँचूँ तो
घर के लोग समझ
लें कि कोई मर
गया होगा गाँव
में——जाओ, भेजो
किसीको मरघट,
पकड़ के लाए!
जब
भी कोई मरता, मैं
उसके साथ मरघट
जाता। और मरघट
पर जाकर दो
हैरानी की
बातें मुझे
हमेशा दिखायी
पड़ती। उधर
आदमी जल रहा
है और लोग
बैठे संसार की
गपशप कर रहे
हैं। इससे मैं
हमेशा
चमत्कृत हुजा।
आदमी जल' रहा
है, कल तक
इससे बातें
करते थे, यह
इनका दोस्त था,
मित्र था, प्रियजन था,
आज वह जल
रहा है, उसकी
अर्थी में आग
लगा दी है, अब
बैठ कर वहीं
आसपास गपशप हो
रही है—संसार
की गपशप हो
रही है कि
फिल्म कौन—सी
लगी है? ऐसी
है? फलाँ
पथादमी का
क्या हाल है? वही बाजार!
इनको
याद भी नहीं आ
रही कि यह
मौततुम्हारी
भी मौत है। यह
घड़ी तो ध्यान
की थी। यह तो
बैठ कर सोचने
की थी। यह तो
विचार की थी।
यह आदमी मर
गया,
यह भी
इन्हीं बातों
को करते मर
गया कि कौन—सी
फिल्म कहाँ
लगी है, और
हम भी इन्हीं
बातों को करते
मर जाएँगे।
लेकिन मुझे
धीरे—धीरे समझ
में आना शुरू
हुआ, वे
अपने को बचाने
के लिए बातों
में उलझाए हुए
हैं। यह आदमी
मर गया, यह
बात दिखायी
नहीं पड़नी
चाहिए।
क्योंकि यह
अस्त—व्यस्त
कर देगी। यह
उनकी जिंदगी
के ढाँचे को
तोड़—मरोड़ देगी।
उनको फिर
परमात्मा को
याद करने को
मजबूर होना
पड़ेगा। फिर
संसार का
स्मरण करने से
काम न चलेगा।
क्योंकि
संसार का
स्मरण करते—करते
रोज लोग मर
रहे हैं।
कब
तुम्हें सुध
आएगी कि हम
उसका स्मरण
करें कि फिर
मरना न हो! और
ऐसा सूत्र
तुम्हारे
भीतर है। और
ऐसी तुम्हारी
संभावना है
तुम अमरत्व के
पुत्र हो! वेद
कहते हैं——'अमृतस्य
पुत्र '।
हे अमृत के
पुत्रो, तुम
क्यों मृत्यु
में उलझ गये
हो? जो
संसार में
उलझा, वह
मृत्यु में
उलझा।
क्योंकि
संसार
मरणधर्मा है।
जिसने प्रभु
को स्मरण किया,
वह अमृत हुआ।
जैसा होना है,
उससे ही साथ
जोड़ लो। जैसा
होना है, उससे
ही दोस्ती कर
लो। दोस्ती
सोच—समझ कर
करना। 'खाइ
हलाहल जीयो
चाहै, मरत
न लागै बार'।
'बैठे सिला
समुद्र तिरन
को', और मज
देखते हो कि
लोग चट्टान
समुद्र में
डाल कर उस पर
बैठकर पार
होने के इरादे
कर रहे हैं।
चट्टान तो
डूबेगी ही
डूबेगी
प्यारे, तुम
भी डूबोगे!
ऐसे तो बिना
ही चट्टान के
भी चलते तो
शायद पहुँच
जाते। धन की
नाव बना रहे
हैं लोग, पद
की नाव बना
रहे हैं लोग, ये चट्टानें
हैं, ये
तुम्हें डुबा
देंगी। इनके
साथ डूबना हो
सकता है। इनके
साथ पार होना
नहीं हो सकता।
'बैठे सिला
समुद्र तिरन
को', अहंकार
की चट्टान
लेकर चले हो, अकड़ लेकर
चले हो? ' बैठे
सिला समुद्र
तिरन को सो सब
बूड़नहार '।
वे सब डूबने
वाले हैं। उस
पार ले
जानेवाली तो
एक ही नाव है?—नानक नाम
जहाज। उसका
नाम ही बस
एकमात्र नाव
है। उसका
स्मरण ही; भजन
बिन भूलि पटयो
संसार।
'
नाम बिना
नाहीं
निस्तारा '।
ये छोटे—से
शब्द, ये
चार शब्द
तुम्हारी समझ
में आ जाएँ तो
तुम्हारी
जिंदगी में
जादू आ जाए।
नाम बिना
नाहीं
निस्तारा, इतनी
भर तुम्हारी
पकड़ हो जाए तो
सब मंदिरों व सब
मस्जिदों के
राज तुम्हारे
हाथों में आ
गये, सब
शास्त्रों की
संपदा
तुम्हें मिल
गयी।
'
नाम बिना
नाहीं
निस्तारा', उसके नाम के
बिना न कोई
कभी पार हुआ
है और न कभी कोई
पार हो सकता
है। ' कबहुँ
न पहुँचै पार '। और जो इस
सत्य. को देख
ले कि उसका
स्मरण पार ले
जानेवाला है,
उसकी
जिंदगी में
इसी क्षण
नृत्य शुरू हो
जाता है। यह
बात ही इतनी आhlादकारी है, उदासी मिट
जाती है, आंखों
में नयी चमक आ
जाती है।
देख
जिंदा से परे
रंगे—चमन जोशे—बहार
रक्स
करना है तो
फिर पाँव की
जंजीर न देख
जरा
पार आँख उठ
जाए,
देख जिंदा
से परे, कारागृह
से जरा ऊपर
देखो, देख
जिंदा से परे
रंगे—चमन जोशे—बहार,
जरा आकाश की
तरफ देखो, जरा
ऊपर उठो अपनी
सीमाओं से—धन—दौलत,
पद—प्रतिष्ठा,
नाम—धाम, इन सीमाओं
के जरा ऊपर
उठो—देख जिंदा
से परे रंगे—चमन
जोशे—बहार, रक्स करना
है तो फिर
पाँव की जंजीर
न देख। और
जिन्हें नाच
करना है, वे
फिर बैठे हुए
पाँव की जंजीर
ही नहीं देखते
रहते। और
जिसने ऊपर की
तरफ देखा और
नाच शुरू हुआ,
उसकी नाच
में सारी
जंजीरें अपने
से टूट जाती हैं।
जंजीरों
के लिए बैठे
रहने की कोई
जरूरत नहीं है।
जंजीरों ने
तुम्हें नहीं
बाँधा है, तुम
नाच भूल गये
हो इसलिए
जंजीरें हैं।
जंजीरें
तुम्हारे नाच
को नहीं रोक
रही हैं, नाच
के न होने के
कारण जंजीरें
निर्मित हो
गयी हैं।
नाम बिना
नाहीं
निस्तारा
कबहुँ न
पहुँचै पार।।
सुख के काज
धसे दीरघ दुख...
देखते
हो मूढ़ता? भूले
मुगध गँवार।
क्या है मूढ़ता
इस जगत की? सुख
के काज धसे
दीरघ दुख।
चाहते तो सुख
हैं और घुसते
जाते दुख में
हैं। माँगते
स्वर्ग हैं और
खोजते जाते
नर्क। और तुम
जानते हो कि
यही हो रहा है।
जितने दिन
तुमने दुख
उठाया है अब
तक, ख्याल
करो', चाहा
तो सदा सुख है
और पाया सदा
दुख, यह
मामला क्या है?
यह गणित
कैसा है? तुम
अब तक खोजते
किसे रहे?
सुख
खोजते रहे। और
पाते क्या रहे? दुख
पाते रहे।
जरूर कहीं भूल
हो रही है।
तुम्हारे
भीतर कोई
बुनियादी
भ्रांति है।
सुख
के काज धसे
दीरघ दुख बqए
काल की धार।
और
इसी में समय
की धारा
तुम्हें
मृत्यु की तरफ
बहाए लै जा
रही है। यह
बदलना होगा।
निजामे—मैकदा
साकी! बदलने
की जरूरत है
हजारो
हैं सफ़े
जिनमें, न मै
आयी, न जाम
आया
कितने
लोग हैं यहाँ
जो जीवन का रस, जीवन
का अमृत बिना
पीए मर जाते
हैं। जिनके
हाथ में न कभी
शराब लगी, न
कभी प्याली
पड़ी।
निजामे—मैकदा
साकी! बदलने
की जरूरत है
मधुशाला
का नियम बदलने
की जरूरत है।
मधुशाला की
व्यवस्था
बदलने की
जरूरत है।
जीवन का ढंग
बदलने की
जरूरत है।
निजामे—मैकदा
साकी! बदलने
की जरूरत है
हजारों
हैं सफ़े
जिनमें, न मै
आयी, न जाम
आया
कितने
लोग हैं, जो
जीवित तो हैं
लेकिन जीवन को
जाने बिना। जो
परमात्मा में
जी रहे हैं
परमात्मा को
पीए बिना।
सागर में हैं
और प्यासे हैं।
इनका कोई
परिचय ही नहीं
हुआ अमृत से।
मैं
तुम्हारी तरफ
देखता हूँ तौ
मेरी समझ में
यह बात नहीं
आती कि तुम
कैसे इंतजाम
किये जा रहे
हो,
तुम कैसे
दुख का आयोजन
किये जा रहे
हो? कब
जागोगे? कब
देखोगे? अपने
हो पैर पर
कुल्हाड़ी
मारे चले जा
रहे हो। भूले
मुगध गँवार।
सुख के काज
धसे दीरघ दुख,
बहे काल की
धार।
जन रज्जब
यूँ जगत
बिगूच्यो, इस
माया की लार।।
इस
तरह सारा जगत
अड़चन में पड़ा
है। और माया
की बुनियादी
भ्रांति क्या
है?
माया की
भ्रांति यही
है कि उसने
नर्क के
दरवाजे पर
स्वर्ग लिख दिया
है। दुख के
दरवाजे पर सुख
लिख दिया
क्रुँ।
विपत्ति. के
दरवाजे पर
संपत्ति लिख
दिया है। बस
चले तुम! तुम
यह देखते ही
नहीं कि वहाँ
हो क्या रहा
है? चले धन
की खोज में!
जरा धनियों की
तरफ तो देखो।
उन्हें मिला
है कुछ? चले
पद की खोज में।
जो पद पर हैं
जरा उनकी
अंतरात्मा
में तो झाँको!
उन्हें मिला
है कुछ? चले
बने सिकंदर।
सिकंदर को
क्या मिला है?
आज तक इस
दुनिया में
किसी धनी ने
कहा है कि मुझे
कुछ मिला? जरा
मनुष्य का
इतिहास पलटो,
सदियों—सदियों
के अनुभव में
तलाशो।
हाँ, कभी—कभी
किसी बुद्ध ने,
किसी
महावीर ने, किसी कृष्ण
ने, क्राइस्ट
ने, कबीर
ने कहा है कि
मुझे मिला है।
लेकिन न तो यह
धन के तलाशी
थे, न पद के
तलाशी थे।
इनकी तलाश तो
राम की थी। यह
संसार के खोजी
ही न थे। ये तो
भजन में भीगे
हुये लोग थे।
इनने कहा है
कि मिला है।
इनकी तुम सुनते
नहीं। इनकी न
सुनने के
तुमने कई उपाय
कर लिये हैं।
तुमने अपने को
इनकी तरफ बज
बहरा कर लिया
है। तुम इनकी
तरफ देखते
नहीं। और कभी
मजब्री में
अगर तुम्हें
देखना भी पड़ता
है तो तुम
कहते हो—महाराज,
ठीक ही कहते
होओगे आप, यह
रही पूजा, आपके
चरण छूए लेते
हैं, मगर
मुझे बख्शो!
ऐ
गदागर ! मुझे
ईमान की सौगात
न दे
मुझको
ईमान से अब
कोई सरोकार
नहीं
मैंने
देखा है इन
आँखों से
मुरव्वत का
मयाल,
मुझको
अब मेहरो—मुहब्बत
से कोई प्यार
नहीं
मैंने
इंसान को चाहा
भी तो क्या
पाया है
अब
मेरा कुफ्र
खुदा का भी
तलबगार नहीं
जा
किसी और से
ईमान का सौदा
कर ले
मैं
तेरी नेक
दुआओं का
खरीददार नहीं
तुमने
बुद्ध से यही
कहा,
तुमने
महावीर से यही
कहा, तुमने
कृष्ण से यही
कहा, क्राइस्ट
से यही कहा, कबीर से यही
कहा, यही
तुम मुझसे कह
रहे हो, यही
तुम्हारे
कहने की आदत
पड़ गयी है। यह
आदत छोड़ो। इसी
आदत में तुमने
बहुत जन्म
गँवाए हैं। इस
जन्म को भी मत
गँवा देना।
जन रज्जब
यूं जगत बिगू—भो, इस
माया की लार।।
इस
माया के पीछे
चल—चलकर, इस
झूठे सूत्र के
पीछे चल—चल कर
लोग बिबूचन
में पड़े हैं, अड़चन में
पड़े हैं, उलझन
में पड़े हैं
और जब मैलोगों
की बात कर रहा हूँ।
तो ख्याल रखना,
तुम्हारी
बात कर रहा
हूँ। नहीं तो
लोग बडे
होशियार हैं,
वे सोचते
हैं——लोगों की
बात हो रही है।
एक
फकीर चर्च में
हर रविवार को
बोलता। और एक
आदमी सदा
सुनने आता, सामने
ही बैठता। और
जब भी प्रवचन
पूरा होता तो
उस फकीर के
पास आता और
कहता कि
बिल्कुल ठीक
किया; जो
बातें कहीं, इसकी लोगों
को बड़ी जरूरत
है। लोगों को!
आखिर फकीर सुन—सुन
कर परेशान
होने लगा। हर
बार यही होता।
कुछ भी कहे वह
और वह आदमी
आता और कहता
कि अच्छा फटकारा!
अच्छी
जूतियाँ
लगायीं, लोगों
को इसकी जरूरत
है!
एक
दिन संयोग की
बात खूब वर्षा
हो गयी, कोई
नहीं आया, अकेला
वही आदमी आया।
फकीर ने सोचा
कि आज का मौका
चूकना नहीं है।
उसने खूब
जूतियाँ
चलायी। उसने
खूब फटकारे
लगायीं। उसने
इधर से मारा, उधर से मारा।
मगर उस आदमी
पर कुछ चोट ही
न पड़े, वह
बड़ा मस्त
बैठा! फकीर भी
थोड़ा हैरान
होने लगा कि
अब तो आज कोई
है भी नहीं, अब यह मस्त
क्या बैठा है!
आज यह क्या
कहेगा? लेकिन
उस आदमी ने जो
कहा सुन लेना
ठीक सें; जाते
वक्त उसने कहा——गजब
कर दिया, खूब
मारा, हालाँकि
आज कुोई आए
नहीं थे। अगर
आए होते, तो
खूब फटकारा, बड़ी जरूरत
थी। इन्हीं
चीजों को
जरूरत थी। कोई
फिकिर न करो, मैं गाँव—गाँव
में जाकर, घर—घर
जाकर लोगों को
कह आऊँगा।
मगर
अपनी तरफ कोई
लेना नहीं
चाहता। लोग
सोचते हैं, ये
दूसरों की
बातें चल' रही
हैं।
मैं
तुमसे कह रहा
हूँ। जब कहता
हूँ लोगों से
कह रहा हूँ, तो
मैं तुमसे कह
रहा हूँ। और
किसी की यहाँ
बात नहीं हो
रही है। और
किसी की बात
करने की जरूरत
भी नहीं है।
जो यहाँ हैं, उनकी बात हो
रही है। यह
बात सीधी—सीधी
है। जो भी मैं
तुमसे कह रहा
हूँ, ठीक
तुमसे कह रहा
हूँ। तुम यह
मत सोचना कि
यह पड़ोसी के
लिए लागू है।
तो यह बच्चू
जो बगल में
बैठा है, यही
धन के पीछे
पागल है; अच्छी
पड़ी! हम तो
पहले ही इसको
समझाते थे, मगर कभी समझा
नहीं। यह जो
बगल में बैठे
हैं नेता जी; अच्छी पड़ी, पद के पीछे
दीवाने हैं।
चुनाव लड़ने की
तैयारी कर रहे
थे, ठीक
मारे गये। मैं
तुमसे कह रहा
हूँ। और जब तक
तुम सीधे—सीधे
लेना शुरू न
करोगे, ये
अमृतदायी वचन
व्यर्थ चले
जाएँगे।
वर्षा होगी और
तुम्हारा घड़ा
खाली—का—खाली
रह जाएगा।
ये
सूत्र अनूठे
हैं,
इन्हें
गुनगुनाना।
ये सूत्र
तुम्हारे समझ
में आने लगें
तोजिंदगी बड़ी
सहल होने लगे।
मुझे
सहल हो गयीं
मजिले वो हवा
के रुख भी बदल
गये
तेरा
हाथ हाथ में आ
गया कि चिराग
राह में जल गये
ये
सूत्र
तुम्हारी समझ
में आ जाएँ तो
तुम्हारे हाथ
में परमात्मा
का हाथ आने
लगे। वह तो
तैयार ही खड़ा
है,
उसने तो हाथ
तुम्हारी तरफ
बढ़ाया ही हुआ
है, कब से
बढ़ाए—बढ़ाए थक
गया है, मगर
तुम हाथ हाथ
में लेते नहीं।
मुझे
सहल हो गयीं
मंजिलें, वो
हवा के रुख भी
बदल गये
तेरा
हाथ हाथ में आ
गया कि चिराग
राह में जल गये
कठिन
नहीं है कि
चिराग राह में
जल जाएँ। कठिन
नहीं है कि
सावन में
प्यारा भी आ
जाए। सावन भी
उसीका है, इसीमें
कहीं छिपा
होगा। यहीं
कहीं होगा पास—
पड़ोस में।
उसके बिना
सावन भी कहाँ?
यह सावन
उसीकी आभा है।
यह सावन उसीकी
तरंग है। यह
सावन उसीकी
छाया है। सावन
आ गया, तो सावन
का मालिक भी आ
ही गया होगा।
थोड़ा खोजें, थोड़ा तलाशें,
थोड़ा
पुकारें, थोड़े
प्यास से भरें।
अलग बैठे
थे फिर भी आँख
साकी कि पड़ी
हम पर
अगर है
तिश्नगी
कामिल तो
परवाने भी
आएँगे
आज इतना।
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