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गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

सहज योग--(प्रवचन--09)

फागुन पाहुन बन आया घर—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 नवंबर,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—तालमुद का वचन है: "जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्र आचरण कर।' कृपा करके इस वचन का आशय हमें कहिए।

2—कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख लिया नाम जिस पे तेरा! चैन गंवाया मैंने, निंदिया गंवाई; सारी-सारी रात जागूं, दूं मैं दुहाई!

3—बस एक ही प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं।

4—सिद्ध सरहपा ने महासुख की बात कही। यह महासुख क्या है?


5—विश्वास तो नहीं होता था कि कृष्ण के साथ लोग नाचे होंगे। आपके आश्रम  को देखकर भरोसा आया है कि ऐसा भी कभी हुआ होगा।
      हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे,
      आपको देखा, खुदा याद आया।


पहला प्रश्न:

तालमुद का वचन है: "जो तुझे आदिष्ट है, उससे परे भी, उससे ऊपर भी, तू पवित्र आचरण कर।' कृपा करके इस वचन का आशय हमें कहिये।

रेन्द्र! आदिष्ट का अर्थ होता है: जो श्रेष्ठ पुरुषों ने तुमसे कहा है। लेकिन जो दूसरे ने तुमसे कहा है वह उधार होगा। तुम्हारे निज अनुभव में उसकी कोई जड़ें न होंगी। वह आचरण तो बनेगा, अंतःकरण नहीं। तुम चल पड़ोगे।
बुद्ध कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे, कोई कारण नहीं है कि गलत कहें। बुद्ध के वक्तव्य पर बुद्ध की प्रामाणिकता की छाप है, उनके हस्ताक्षर हैं। जो बुद्ध के प्रेम में पड़ गया, जो उनकी आभा से परिचित हुआ, वह उनकी बात मानकर चलेगा। लेकिन फिर भी यह बात तो बाहर से आई है; भीतर से नहीं उमगी है। यह तुम्हारी आत्मा का फूल नहीं है। यह फूल तुम बाजार से खरीद लाये हो। इसकी तुमने माला बना ली है। इसे तुमने गले में डाल लिया है। लेकिन यह फूल तुम्हारी अपनी आत्मा की  बगिया में नहीं खिला है।
इसलिये तालमुद कहता है...आदिष्ट ठीक है। आदिष्ट यानी जिसका आदेश दिया गया है, उसका अनुसरण करो, पर उतने पर ही जीवन की परिसमाप्ति न समझ लेना। उसके पार भी एक आचरण है। वही आचरण धर्माचरण है। आदिष्ट से बनती है नीति; अनुभव से बनता है धर्म। अनुकरण से बनती है नीति; आत्मसाक्षात से बनता है धर्म। शास्त्र कहते हैं, सदगुरु कहते हैं; तुम मानते हो और चलते हो। मगर मान्यता मान्यता है, विश्वास है, ऊपर-ऊपर है। जरा-सी संदेह की किरण आ जायेगी और सब नष्ट हो जायेगा। जरा-सा संदेह का कांटा चुभ जायेगा और गैल भटक जायेगी। तुम्हारी राह को चुका देने में अड़चन नहीं है, कोई भी चुका दे सकता है। कोई भी संदेह तुम्हारे भीतर डाल दे सकता है। क्योंकि श्रद्धा अभी तुम्हारा स्वयं का अनुभव नहीं है, तुम्हारी बुनियाद नहीं है कोई। तुमने मंदिर तो बना लिया, लेकिन बिना आधार के बना लिया है, अधर में बना लिया है। यह गिरेगा। न होने से अच्छा है; मगर यह वास्तविक मंदिर नहीं है।
फिर, नीति सामाजिक घटना है, इसलिये अलग-अलग समाजों में अलग-अलग नीति होती है। दुनिया में हजारों तरह के समाज हैं और हजारों तरह की नीतियां हैं। जो एक की नीति है, दूसरे के लिये अनीति हो सकती है। जो एक के लिए सदाचरण है, दूसरे के लिए असदाचरण हो सकता है। नीति की कोई आत्यंतिक मूल्यवत्ता नहीं है; सामाजिक उपयोगिता है। इसलिये नैतिक होने के लिये कोई आस्तिक होना भी आवश्यक नहीं है। नास्तिक की भी नीति होती है। आखिर रूस कोई अनैतिक देश नहीं है; सच तो यह है कि तथाकथित धार्मिक देशों से कहीं ज्यादा नैतिक है। नास्तिक भी किन्हीं नीति के नियमों को मानकर चलेगा--चलना ही पड़ेगा। जहां एक से ज्यादा लोग हैं वहां कोई-न-कोई नियम जरूरी हो जायेंगे। नहीं तो जीना असंभव हो जायेगा।
नीति का उतना ही अर्थ है, जितना रास्ते पर नियम है बायें चलो, उसका। अमरीका में लोग दायें चलते हैं, भारत में लोग बायें चलते हैं; कुछ भेद नहीं है। नियम विपरीत हैं, मगर कोई-न-कोई नियम मानकर चलना होगा। सब नियमों के भीतर एक नियम स्वीकृत है कि जहां एक से ज्यादा लोग हों वहां नियम की जरूरत है। नहीं तो अड़चन होगी। अगर कोई बायें चले, कोई दायें चले, कोई बीच में चले, तो रास्ते पर दुर्घटनाएं ही दुर्घटनाएं हो जायेंगी। लेकिन बायें चलो, इसका कोई आत्यंतिक मूल्य नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम बायें चले तो स्वर्ग जाओगे। बायें चले तो जल्दी स्वर्ग न जाओगे, दुर्घटना से स्वर्ग न जाओगे, इतना ही तय है। एकदम स्वर्गीय न हो जाओगे। लेकिन बायें चलने से कोई स्वर्ग पहुंच जाओगे, ऐसा मत समझ लेना कि मैं जिंदगी-भर बांये चला तो मैं हकदार हो गया स्वर्ग का। बायें चले तो टांग नहीं टूटी। बायें चले तो रिक्शे के नीचे नहीं आये। बायें चले तो बस के नीचे नहीं पड़े। इतना ही लाभ है। स्वर्ग नहीं मिल जायेगा। और यह भी मत सोचना कि कभी कोई अगर दायें चल गया तो नरक चला जायेगा। न तो दायें चलने से कोई नरक जाता है न बायें चलने से कोई स्वर्ग जाता है, लेकिन जीवन की सुविधा हो जाती है।
सुविधा के लिये नीति है। धर्म सुविधा के लिये नहीं है, सत्य के लिये है। इसलिये नैतिक व्यक्ति का जरूरी नहीं है धार्मिक होना। धार्मिक व्यक्ति जरूर नैतिक होगा, लेकिन नैतिक व्यक्ति आवश्यक रूप से धार्मिक नहीं होता। कोई आवश्यकता नहीं है। नैतिक व्यक्ति न माने ईश्वर को, न माने आत्मा को, तो भी नीति को मानकर चलेगा।
धार्मिक व्यक्ति कौन है फिर? वह--जिसके आदेश बाहर से नहीं आते; जिसके आदेश उसकी अंतरात्मा से उठते हैं; जिसकी अंतरवाणी जाग गई है; जिसकी भीतर की हृदयत्तंत्री बज उठी है; जिसके भीतर का नाद जग गया है और अब जो उस नाद के अनुसार जीता है।
यह तालमुद का वचन प्यारा है: "जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्राचरण कर!' आचरण तभी पवित्र होता है जब आदिष्ट से परे उठ जाओ; जब नीति-नियम से परे उठ जाओ; जब नियम तुम्हारे लिए कर्तव्य ही न हों, बल्कि जीवन की सहजता हो जाये। उसी को सरहपा सहजऱ्योग कह रहे हैं। एक तो होता है कि ऐसा चलने से लाभ होगा, ऐसा करने से समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी। जीवन सुविधापूर्ण रहेगा। अड़चन कम पैदा होगी। ज्यादा सुरक्षा होगी, सम्मान मिलेगा, सत्कार मिलेगा। एक तो ऐसा आचरण होता है; वही नीति का आचरण है।
मां-बाप अपने बच्चों को समझाते हैं कि नीति से चलो, ताकि समाज में प्रतिष्ठा रहे। मगर प्रतिष्ठा क्या है? अहंकार का आभूषण है। शिक्षक स्कूल में समझाते हैं: "ज्ञान अर्जित करो, क्योंकि धनी का धन छिन जाये, मगर ज्ञानी का ज्ञान नहीं छिनता।' मगर यह तो लोभ ही हुआ। छिनने के डर से ज्ञान अर्जित करो! "ज्ञानी की प्रतिष्ठा वहां भी है'--शिक्षक स्कूलों में समझाते हैं--"जहां सम्राटों की भी प्रतिष्ठा न हो। सम्राट भी विद्वान की प्रतिष्ठा करते हैं।' मगर यह सब तो अहंकार को फुसलाना है; यह तो बच्चे के अहंकार को गुदगुदाना है। यह तो उसे अहंकारी बनाने का उपाय है।
सारी नीति अहंकार पर खड़ी होती है; और धर्म, निर-अहंकार पर। इसलिये धर्म और नीति एक अर्थ में विपरीत हैं। तुम चौंकोगे यह जानकर कि धर्म और नीति विपरीत हैं--इस अर्थ में विपरीत हैं कि धर्म अहंकार पर खड़ा नहीं होता। धर्म यह नहीं कहता कि करुणा करो, क्योंकि इससे स्वर्ग मिलेगा। धर्म कहता है: करुणा करो, क्योंकि करुणा करना आनंदपूर्ण है। मिलेगा की बात ही नहीं है, भविष्य की बात ही नहीं है, फल की बात ही नहीं है। करुणा में ही रस है।
जो ध्यान में उतरा है, करुणा करेगा ही। इसलिये नहीं कि करुणा करने से कुछ मिलेगा, बल्कि इसलिये कि कुछ मिल चुका है जो करुणा में बहेगा। उसके भीतर ध्यान में आनंद को जन्माया है। अब आनंद बांटने की आकांक्षा पैदा होती है--वैसे ही जैसे फूल खिलता है तो सुवास लुटती है। कोई फूल सुवास को लुटाता नहीं। फूल खिला कि सुवास लुटी। ऐसे ही ध्यान हुआ कि करुणा बटी। भीतर चित्त शांत हुआ कि तुम्हारे आसपास शांति की सुगंध फैलने लगेगी। भीतर ध्यान की बदली सघन हुई कि प्रेम की बूंदाबांदी शुरू हो जायेगी।
यह अपने से होगा। इसे साधना नहीं पड़ता। इसलिये यह सहज है। नीति साधनी पड़ती है; धर्म सहज है। नीति को पकड़-पकड़कर आरोपित करना होता है; जबरदस्ती थोपना होता है; आग्रहपूर्वक अपने को अनुशासनबद्ध करना होता है। क्योंकि नीति में लाभ है; नीति के विपरीत जाने में हानि है। नीति में सम्मान है; अनीति में अपमान है। ऐसा सोच-विचारकर गणित बिठाकर चालबाज आदमी नीति को आयोजित कर लेता है।
इसलिये अकसर एक चकित कर देने वाली बात अनुभव में आती है कि जिनको तुम अपराधी कहते हो वे तुम्हारे तथाकथित सम्मानित व्यक्तियों से ज्यादा सीधे-सरल लोग होते हैं। तुम उनकी आंखों में झांको तो तुम पाओगे कि तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्माओं से उनकी आंखें ज्यादा निर्मल हैं। क्यों? उनकी आंखों में वैसी ही निर्मलता है जैसी पशुओं की आंखों में है। उन्होंने जबर्दस्ती कुछ नहीं थोपा है; जो हुआ है होने दिया है। उनके भीतर बुराई की सहजता है। इसे समझना। वे पशु के तल पर जी रहे हैं। वहां बुराई सहज है। फिर एक बुद्धों का तल है, वहां अच्छाई सहज है। और पशुओं और बुद्धों के बीच में मनुष्य का तल है; वहां बुराई भी असहज है, भलाई भी असहज है।
मनुष्य के तल पर बड़ा तनाव है। एक हिस्सा पीछे खींचता है कि बुराई की सहजता पा लो। शराब पीने में एक तरह की सहजता है; विस्मरण हो गया चिंताओं का सब, छूट गये झंझट मन के, घड़ी-भर को मस्ती छा गई। तुम देखते हो, शराब पीने वाले लोग अकसर मिलनसार होंगे। जो शराब नहीं पीते हैं, तुम उन्हें उतना मिलनसार न पाओगे। उनमें कोई बुराई ही नहीं है तो उसकी वजह से अकड़ होगी।
मुल्ला नसरुद्दीन डाक्टर के पास गया और कहा कि मेरे सिर में बड़ा दर्द रहता है, जैसे कोई चीज मुझे जोर से सिर को बांधे हुए है, कोई अदृश्य लोहे का घेरा मेरे सिर को जकड़े हुए है! यह दर्द मिटता ही नहीं। यह जिंदगी-भर से मैं तड़प रहा हूं। कोई उपाय बतायें।
डाक्टर ने परीक्षा की और पूछा: शराब पीते हो? मुल्ला ने कहा: नहीं, कभी नहीं।
"सिगरेट पीते हो?'
मुल्ला ने कहा: "नहीं।'
"पान खाते हो?'
"नहीं।'
"सुंघनी सूंघते हो?'
"नहीं।'
"पराई स्त्रियों के पीछे चक्कर काटते हो?'
मुल्ला ने कहा: क्या बातें कर रहे हो फिजूल की? मैं धार्मिक आदमी हूं!
डाक्टर ने कहा: तब मैं समझ गया, यह तुम्हारी धार्मिकता का ही अदृश्य गोल लोहे का घेरा तुम्हारे सिर को कसे हुए है। यही तुम्हारे दर्द का कारण है। तुम्हारा अहंकार का आभामंडल बहुत चुस्त है। थोड़ी-बहुत भूल-चूकें करो तो थोड़े हल्के हो जाओ।
यह डाक्टर ने बात पते की कही। जो आदमी थोड़ी भूल-चूकें करता है, वह दूसरे को भी भूल-चूकें करते पाता है तो क्षमा कर सकता है। जो आदमी भूल-चूक करता ही नहीं, वह किसी को क्षमा भी नहीं कर सकता। इसलिये तुम्हारे साधु-संत कठोर हो जाते हैं, अति कठोर हो जाते हैं। करुणा की बात, लेकिन व्यक्तित्व कठोर हो जाता है। अपने को क्षमा नहीं करते, दूसरे को कैसे करेंगे? अपने पर इतने कठोर हैं तो तुम पर तो और भी ज्यादा कठोर हो जायेंगे। जब अपने को ही सता रहे हैं तो वे किसको छोड़ेंगे? उनका चित्त दूसरे को दंडित करने के लिये बड़ा आतुर और लालायित रहता है। मौका भर मिल जाये उन्हें तुम्हारी कुछ भूल पकड़ लेने का--छोटी-छोटी भूलें, मानवीय भूलें--कि किसी ने पान खा लिया है, कि बस पर्याप्त हो गया नरक जाने के लिये! पागल हो गये हो, कहीं पान खाने से कोई नरक गया है! कि किसी ने धूम्रपान कर लिया तो वह नरक चला गया है!
लेकिन एक बात तुम्हें समझ में आ जायेगी कि जो लोग नीति को मानकर चलते हैं उनके चित्त अकड़ जाते हैं, अस्मिता और अहंकार से भर जाते हैं। साधारणतया जिसको तुम अपराधी कहते हो, कभी जेल-घर में जाकर देखो, तो तुम पाओगे सरल लोग, सीधे लोग। शायद इसलिये भूल कर बैठे। बुराई की एक सहजता पाओगे। या फिर बुद्धों में तुम्हें सहजता मिलेगी--भलाई की सहजता। मध्य में दोनों के आदमी है--अटका हुआ, त्रिशंकु की भांति लटका हुआ। एक हिस्सा पीछे खींचता है कि लौट आओ पशु के जगत में, क्योंकि वहां सरलता थी; एक हिस्सा आगे खींचता है कि चलो बढ़ो बुद्धों के जगत में, क्योंकि वहां सरलता है। मगर जहां मनुष्य है वहां खिंचाव ही खिंचाव है। जो नीति को मानकर चलेगा, खिंचावों से कभी मुक्त नहीं होगा, तनावों से मुक्त नहीं होता; नीति उसके चित्त को और तनती चली जाती है।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि नीचे गिर जाओ, पशु के तल पर चले जाओ। क्योंकि वस्तुतः गिरने के कितने ही उपाय करो गिर न पाओगे, लौट-लौट आना पड़ेगा। जीवन का एक परम नियम है: जो जान लिया गया जान लिया गया, उससे लौटने का अब कोई उपाय नहीं है। जो जान लिया उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। आदमी आदमी हो गया है, पशु को पीछे छोड़ आया है। चेष्टा करके कभी क्षण-दो-क्षण को पशु हो जाये, मगर फिर वापिस लौट आयेगा। अब मनुष्य से पीछे जाने की कोई सुविधा नहीं है। अब तो सहजता पानी हो तो पशुओं में नहीं पाई जा सकती, अब तो परमात्मा में ही पाई जा सकती है। उस सहजता को ही कहा है तालमुद ने, आदिष्ट के ऊपर उठ जाना।
बुद्ध किसी उपनिषद को मानकर थोड़े ही चलते हैं, कि किसी वेद को मानकर चलते हैं। बुद्ध का तो अपना वेद है; अपने ही भीतर उपनिषद जगा है, उसी के अनुसार चलते हैं। इसलिये तनाव नहीं होता, द्वंद्व नहीं होता। जब तुम किसी और की मानकर चलते हो तो दो हो जाते हैं व्यक्ति: एक तो तुम जो चलना नहीं चाहते, जबरदस्ती चलाते हो अपने को; और एक, जो तुम्हें चला रहा है। तुम्हारे भीतर द्वंद्व स्वाभाविक है।
हम छोटे बच्चों को ही द्वंद्व देना शुरू कर देते हैं। छोटा बच्चा अभी खेलना चाहता है, लेकिन पिता ने कहा मत खेलो, शांत बैठो; तो शांत बैठा है। तुमने कभी किसी छोटे बच्चे को शांत बिठाकर देखा? बैठा रहेगा शांत, हाथ-पैर हिलायेगा, सिर अकड़ायेगा, मुंह बनायेगा, करवट बदलेगा। तुमने कहा है शांत, तो बैठा है शांत; मगर उसके प्राण आतुर हैं दौड़ने को, भागने को, नाचने को। अभी ऊर्जा अतिशय है। अभी बाढ़ है ऊर्जा की। अभी वह कैसे बूढ़ों की तरह शांत बैठ जाये? उसके भीतर तुमने द्वंद्व पैदा कर दिया। वह भीतर तो नाचना चाहता है, कूदना चाहता है, दौड़ना चाहता है, तितलियां पकड़ने को निकल जाना चाहता है, वृक्षों पर चढ़ना चाहता है, छप्पर पर खड़े होकर आकाश के तारे तोड़ लेना चाहता है। और तुमने कहा शांत बैठो, तो बैठा है शांत; भीतर-भीतर कुढ़ रहा है; भीतर-भीतर विपरीत हुए जा रहा है तुम्हारे; भीतर-भीतर सोच रहा है कि कैसे छुटकारा हो यहां से। तुमने उसके भीतर दो व्यक्ति पैदा कर दिये: एक, जो बाहर से शांत बनकर बैठा है, परिधि पर; और एक केंद्र पर, जो अभी उछलना-कूदना चाहता है। बस तुमने आदमी के भीतर तनाव का सूत्र डाल दिया। अब जिंदगी-भर यही होगा। उसे करना कुछ है; लोग कहते हैं कुछ करो। वही करेगा, जो लोग कहते हैं। पत्नी कहती है ऐसा करो तो वैसा करेगा। दफ्तर में कोई कहता है ऐसा करो, तो वैसा करेगा। राजनेता कहता है ऐसा करो तो वैसा करेगा। अब यह जिंदगी-भर थपेड़े ही खायेगा। यह आदिष्ट को मानकर चलेगा। यह बड़ा आज्ञाकारी रहेगा। और इसको, जितनी आज्ञाकारिता दिखलायेगा उतना सम्मान मिलेगा। वह सम्मान खुशामद है आज्ञा की। वह सम्मान इसको फुसलाना है।
जो तुम्हारी आज्ञा मानता है, तुम उसको बड़ा समादृत करते हो। तुम कहते हो: अहा, मनुष्य हो तो ऐसा हो। तुम आज्ञाकारी को सम्मान देकर, उसकी स्तुति करके रिश्वत दे रहे हो। और आज्ञाकारी तुम्हारी रिश्वत के जहर से भरता जा रहा है। यह पर्याप्त नहीं है। इससे वह आदमी तो भला रहेगा, किसी की बुराई उससे होगी नहीं, लेकिन उसकी आत्मा कुढ़ती रहेगी, जलती रहेगी--नरकाग्नि में। उसके जीवन में कभी तुम फूल खिलते न देखोगे, उसके जीवन में बसंत न आयेगा।
इसलिये तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमी, जो धार्मिक नहीं हैं मात्र नैतिक हैं, सदा उदास और गंभीर और लंबे चेहरोंवाले मालूम पड़ते हैं। उनके लंबे चेहरे, उनकी उदासी, उनकी गंभीरता ऊपर से थोपी गई है। वे कभी हंसे नहीं हैं। वे कभी नाचे नहीं हैं। वे कभी हंसेंगे भी नहीं। वे कभी नाचेंगे भी नहीं। वे जगत पर एक बोझ हैं। यद्यपि उनसे कभी कोई बुराई न होगी। वे किसी की चोरी न करेंगे। वे किसी की हत्या न करेंगे। मगर किसी की चोरी न करना और किसी की हत्या न करना नकारात्मक हैं।
तालमुद में जहां यह वचन है कि जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्राचरण कर, यह वचन उन दस आज्ञाओं के संबंध में है जो यहूदियों के नियम हैं--टेन कमांडमेंट्स। उन दस आज्ञाओं में यही बताया गया है ऐसा न करो, ऐसा न करो, ऐसा न करो। वे नकारात्मक हैं। आज्ञायें सदा नकारात्मक होती हैं। आज्ञायें कभी विधायक नहीं हो सकतीं। सब नियम नकारात्मक होते हैं: ऐसा न करो...। तो ऐसा न करोगे तो तुमसे कुछ बुराई तो न होगी, यह तो सच है; लेकिन क्या इतना ही जीवन काफी है कि तुमसे कोई बुराई न हो? तो फिर मरने में और जीने में फर्क क्या हुआ? मरे हुए आदमी से भी बुराई नहीं होती। जो मर गया, वह सदा के लिये भला है। अब उससे कभी बुरा न होगा।
तुमने मुर्दों को कभी बुराई करते देखा? मुर्दों को कभी धूम्रपान करते देखा? मुर्दों को कभी तुमने किसी की जेब काटते देखा? मुर्दे तो सदा के लिये भले हो गये।
इसलिये तुमने एक मजे की बात देखी होगी: जैसे ही कोई आदमी मर जाता है, लोग उसकी प्रशंसा करने लगते हैं। मुर्दों की लोग प्रशंसा करते हैं! आदमी मर जाये, बस तत्क्षण प्रशंसा शुरू हो जाती है।
फ्रांस के बड़े विचारक रूसो का एक दुश्मन था, जिससे जिंदगी-भर उसका विवाद चलता रहा और दोनों ने एक-दूसरे को खूब खंडन-मंडन किया। जानी दुश्मन थे। एक-दूसरे का चेहरा नहीं देखते थे। और रास्ते पर अगर मिल जाते थे तो मुंह बचाकर निकल जाते थे या बगल की गली में सरक जाते थे, ताकि आमना-सामना न हो। दुश्मन के मरने की खबर आई। किसी ने आकर खबर दी कि रूसो, पता है तुम्हें, तुम्हारा दुश्मन मर गया है? तो रूसो ने कहा: अगर यह खबर सच है तो मैं यह कह सकता हूं कि वह आदमी महान था। अगर यह खबर सच है। प्रोवाइडेड इट इज ट्रू। तो मैं कह सकता हूं कि, ही वाज़ ए ग्रेट मैन। कि बड़ा आदमी था वह। मगर एक बात पक्की हो जाये कि मर गया हो। अगर न मरा हो तो फिर मैं यह नहीं कह सकता।
मरे आदमी की हम प्रशंसा करने लगते हैं। एक गांव में एक आदमी मरा--राजनेता था गांव का। गांव-भर उससे परेशान था, जैसा नेताओं से लोग परेशान हैं। मरा, तो गांव का नियम था कि जब कोई मर जाये तो उसकी प्रशंसा में कुछ व्याख्यान दिया जाये मरघट पर। कोई व्याख्यान देने को राजी नहीं, क्योंकि बहुत लोगों ने सिर मारा कि कोई एकाध बात तो खोज लें उसकी जिंदगी में जिसकी प्रशंसा हो सके। कोई बात ही न मिले, बात हो तो मिले! गांव-भर उसकी नस-नस से परिचित था। गांव-भर प्रसन्न था कि वे विदा हो गये। यह बड़ा ही अच्छा हुआ। यद्यपि लोग उदासी का ढोंग रचे बैठे थे, मगर अंदर प्रसन्न हो रहे थे। कोई प्रशंसा में बोलने को खड़ा न हो। गांव का नियम यह था कि जब तक प्रशंसा में बोला न जाये, तब तक अर्थी में आग नहीं लगाई जा सकती।
आखिर गांव का एक पंडित खड़ा हुआ। उसने कहा: "भाइयो! नेता जी तो मर गये, मगर अपने पांच भाई छोड़ गये हैं। वह उन पांच भाइयों का स्मरण करो। उन पांच भाइयों के मुकाबले नेता जी देवता पुरुष थे।' इस तरह उसने प्रशंसा की। सीधी तो प्रशंसा का कोई उपाय नहीं था। उन पांच भाइयों के मुकाबले! क्योंकि वे उनसे भी पहुंचे हुए उपद्रवी हैं। उन पांच के मुकाबले नेता जी देवता पुरुष थे! प्रशंसा हो गई, लोग जल्दी से झपटकर आग लगाये। छुटकारा हो!
मरते ही सभी लोग स्वर्गीय हो जाते हैं, चाहे वे दिल्ली में ही मरें, तो भी स्वर्गीय हो जाते हैं! फिर नरक कौन जाता होगा? फिर तो नरक खाली पड़ा होगा, अगर दिल्ली में मरनेवाले लोग स्वर्ग चले जाते हैं। नहीं, लेकिन जो मर गया उसकी हम प्रशंसा करते हैं। यह शिष्टाचार है। अब किसी को, कोई मर गया है, उसको नारकीय तो नहीं कहता। सभी मरनेवालों को हम स्वर्गीय कहते हैं। यह शिष्टाचार है, लेकिन शिष्टाचार के पीछे एक बहुत महत्वपूर्ण बात छिपी है: मुर्दा आदमी अब बुरा नहीं कर सकता। अब किसी का बुरा नहीं कर सकता, इसलिये बेचारे की अब क्या बुराई करो? अब तो बुराई करने के पार हो गया।
जिनको तुम तथाकथित धार्मिक कहते हो, वे मुर्दा लोग हैं, उनसे किसी की बुराई नहीं होती, यह तो सच है; मगर उनके जीवन में उत्सव नहीं है, तो उनका जीवन नकारात्मक है।
ऐसा ही समझो कि कोई किसी गुलाब की झाड़ी की प्रशंसा में कहे कि इस झाड़ी में एक भी कांटा नहीं है। क्या तुम समझोगे यह पर्याप्त है? गुलाबों की झाड़ी की प्रशंसा कि इस झाड़ी में एक भी कांटा नहीं? प्रशंसा तो तब होगी जब कोई कहे इस झाड़ी में कैसे प्यारे फूल खिले हैं! नैतिक व्यक्ति ऐसा होता है, जिसकी झाड़ी में कांटा नहीं है और धार्मिक व्यक्ति ऐसा होता है जिसकी झाड़ी में फूल खिले हैं। इस भेद को स्पष्ट समझ लो। धार्मिक व्यक्ति नाचता है, आनंद-मग्न होता है। धार्मिक व्यक्ति मस्त होता है, मदमस्त होता है! धार्मिक व्यक्ति वह है जिसके जीवन में बसंत आ गया; जिसके जीवन में सुरभि उठी; जिसके जीवन में ज्योति जली। इतना ही काफी नहीं है कि कांटे नहीं हैं; जब तक फूल न हों तब तक तृप्त मत हो जाना।
तालमुद का यही अर्थ है: जो तुझे आदिष्ट है वह तो करो, लेकिन उतने से ही तृप्त मत हो जाना। उतने से मंजिल नहीं आ जाती। उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्र आचरण कर। उसके परे क्या है? क्योंकि आदिष्ट में तो सारे शास्त्र आ गये, सब बाइबिलें, सब वेद, सब धम्मपद, सब कुरान आ गये। आदिष्ट का मतलब है: जो-जो आदेश दिये गये हैं आज तक, वे सब आ गये। उससे परे क्या है? उससे परे तुम्हारी अंतरात्मा है। उससे परे तुम्हारा ध्यान का जगत है। उससे परे तुम्हारे जीवन का केंद्र है।
आदिष्ट तो परिधि को छूता है। जैसे किसी के चेहरे पर हमने रंग रंग दिया; आदिष्ट तो बस मुखौटा बनाता है, लेकिन भीतर तुम्हारी आत्मा को तो कोई नहीं रंग सकता। जब तक कि तुम्हारी आत्मा ही अपने रंग बिखेरने न लगे, जब तक कि तुम्हारी आत्मा में ही इंद्रधनुष न जन्मे--तब तक कोई बाहर से तो नहीं रंग सकता। तुम्हारी आत्मा तक किसी के हाथ नहीं पहुंच सकते, कोई तूलिका नहीं पहुंच सकती, तुम्हीं पहुंच सकते हो, बस केवल तुम्हीं पहुंच सकते हो!
दूर-वीक्षणऱ्यंत्र से तुम व्योम को ही देखते हो?
एक ग्रह यह भूमि भी तो है।
कभी देखो इसे भी यंत्र के बल से।

न समझो यह कि धरती तो
हमारी सेज है, उत्संग है, पथ है,
उसे क्या चीर कर पढ़ना?
यहां के पेड़-पौधे, फूल, नर-नारी
सभी हर रोज मिलते हैं।

अरे, ये पेड़-पौधे, फूल-फल, नर-नारी
किसी प्रच्छन्न लौ के आवरण हैं।
जानते हो, बीज है वह कौन
ये जिसकी त्वचाएं हैं?
ज्ञात है वह अर्थ जो इन अक्षरों के पार भूला है?

दूर पर बैठे ग्रहों की नाप, यह भी शक्ति ही है।
किंतु, नापोगे नहीं गहराइयां
जो छिपी हैं पेड़-पौधे में, मनुज में फूल में?

ला सको तो ज्योतिषी! लाओ मुकुर कोई।
नहीं वह यंत्र केवल क्षेत्रफल, आकार या घन नापने वाला।
किंतु वह लोचन सुरभि से, रंग से नीचे उतर कर
पुष्प के अव्यक्त उर में झांकने वाला।
तुम भी एक फूल हो। तुम्हारे फूल के ठीक अंतर-हृदय में कोई सुवास छिपी है। उसमें झांको, उसको परखो। वहां पहुंचो। उस अंतर्यात्रा पर निकलो। तब वह पवित्र आचरण प्रगट होगा, जो समस्त आदेशों से ऊपर है। तब तुम स्वयं शास्त्र बनोगे। तब तुम स्वयं सत्य की एक अभिव्यक्ति होओगे।
मैं अपने संन्यासियों को निश्चित ही तालमुद के इस वचन की याद दिला देना चाहता हूं। यह वचन महत्वपूर्ण है। मैं चाहता हूं कि जो तुम मुझे सुन रहे हो, जो तुम मेरे साथ चल रहे हो, मेरी ही सुनकर, मेरी ही मानकर मत चलते रहना। मेरी तो इतनी मानो जितने से तुम अपनी जान सको, बस। मेरी इतनी मानो जिससे तुम अपनी अंतरात्मा में प्रवेश कर सको, बस। मेरी अंगुलियों के इशारों को समझो और अपने भीतर डुबकी मारो। वहां तो तुम्हीं को जाना पड़ेगा। वहां तुम्हीं जा सकते हो, कोई और नहीं जा सकता। और उस अनुभव के बाद तुम्हारे जीवन में एक प्रकाश होगा, एक आभा होगी, एक आनंद होगा, एक पवित्रता होगी, एक निर्दोषता होगी। वही धर्म है। और वैसा व्यक्ति ही परमात्मा को जान पाता है।
नैतिक सुविधा से जीता है; सत्य का उसे कभी कोई पता नहीं चलता। धार्मिक को बड़ी असुविधाएं झेलनी पड़ती हैं, लेकिन उसे सत्य का अनुभव होता है। और सत्य के अनुभव के लिये सारी असुविधाएं झेल लेने जैसी हैं। क्यों धार्मिक को असुविधा झेलनी पड़ती है? क्योंकि बहुत बार ऐसा होगा कि तुम्हारी अंतरात्मा का जो उदघोष है वह आदिष्ट के विपरीत पड़ जायेगा, तब अड़चन शुरू होगी। उस समय अपनी ही सुनना। फिर सारे शास्त्र व्यर्थ हैं। फिर सारी मान्यताएं व्यर्थ हैं। फिर तुम्हें जो भी कीमत चुकानी पड़े, चुकाना। अपनी ही सुनना। जब तुम्हारी भीतर की अंतरात्मा आवाज देने लगे, और जब अंतरात्मा की आवाज पैदा होती है तो तत्क्षण पहचान ली जाती है, कि परमात्मा तुम्हारे भीतर बोलने लगा। इतनी प्रामाणिक होती है, इतनी स्वसंवेद्य होती है, इतनी स्व-आलोकित होती है कि तुम भूल में कभी न पड़ोगे। ऐसी भूल कभी नहीं होती कि पता नहीं यह मेरे मन की ही बात हो, मेरी आत्मा की न हो! नहीं, ऐसी भूल कभी नहीं होती। तुम्हें मन की बातों का पता है। जब आत्मा की आवाज गूंजती है तो तुम्हें ऐसी मालूम ही नहीं होती कि मेरी आवाज है; तुम्हें मालूम होती है कि सारा अस्तित्व मेरे भीतर बोला। वह ध्वनि आलोकित होती है, आंदोलित कर जाती है, रोएं-रोएं को कंपा जाती है। जिस दिन वैसी आवाज गूंजती है--इल्हाम कहो उसे, जैसा मुहम्मद ने कहा, या प्रेरणा कहो, या जो भी शब्द तुम देना पसंद करो--जब तुम्हारे भीतर से अनंत बोलता है तब स्वभावतः तुम बहुत-से सामाजिक नियमों के विपरीत पड़ जाओगे। क्योंकि सामाजिक नियम तो सामाजिक सुविधा-असुविधा को सोचकर बनाये गये हैं और अंधों ने ही बनाये हैं। तुम्हारे पास जब अपनी आंखें आ जायेंगी तब थोड़ी मुश्किल होगी। आवश्यक नहीं है कि तुम अंधों से टकराओ। जहां तक बन सके, मत टकराना, क्योंकि उनका कोई कसूर भी नहीं है। लेकिन अगर टकराहट मजबूरी ही हो जाये तो अंतरात्मा की आवाज को झुठलाना भी मत। क्योंकि उसे कोई भी कीमत पर छोड़ना नहीं है; फिर चाहे सब खोना पड़े तो सब दांव पर लगा देना।
काढ़ लो दोनों नयन मेरे,
तुम्हारी ओर अपलक देखना तब भी न छोडूंगा।
तुम्हारे पांव की आहट इसी सुख से सुनूंगा,
श्रवण के द्वार चाहे बंद कर दो।

चरण भी छीन लो यदि,
तुम्हारी ओर यों ही रात-दिन चलता रहूंगा।
कथा अपनी तुम्हारी सामने कहना न छोडूंगा,
भले ही काट लो तुम जीभ, मुझको मूक कर दो।

भुजाएं तोड़ कर मेरी भले निर्भुज बना दो,
तुम्हें आलिंगनों के पाश में बांधे रहूंगा।
हृदय यदि छीन लोगे,
उठेंगी धड़कनें कुछ और होकर तीव्र मानस में।

जला कर आग यदि मस्तिष्क को भी क्षार कर दोगे,
रुधिर की वीचियों पर मैं तुम्हें ढोता फिरूंगा।
जिसने भीतर की आवाज सुनी है, उसके हाथ भी कट जायें तो उसके आलिंगन में बाधा नहीं पड़ती। उसके पैर भी कट जायें तो भी उसकी यात्रा अवरुद्ध नहीं होती। उसकी जीभ भी काट लो तो भी परमात्मा की प्रार्थना जारी रहती है--उसके मौन में, उसके शून्य में। जिसके भीतर अंतरात्मा जगी उसके भीतर अब सारे आदेशों का आदेश आ गया--अपना आदेश आ गया! फिर सब दांव पर लगाने का साहस चाहिए। जिनमें इतना साहस होता है वे ही धार्मिक हो पाते हैं।

दूसरा प्रश्न:

ओशो,
कोरा कागज था यह मन मेरा
लिख लिया नाम जिस पे तेरा
चैन गंवाया मैंने, निंदिया गंवाई
सारी-सारी रात जागूं दूं मैं दुहाई
नैना कजरारे मतवाले, ये न जानें
खाली दर्पण था यह मन मेरा
देख लिया मुख जिसमें तेरा
कोरा कागज था यह मन मेरा।

वीणा! कागज कोरा हो तो इससे बड़ी और कोई बात नहीं, क्योंकि कोरे कागज पर ही वेद उतरते हैं। सिर्फ कोरे कागज पर उपनिषदों का जन्म होता है, कुरानें अवतरित होती हैं सिर्फ कोरे-कागजों पर। जिसने चित्त को कोरा कागज बना लिया, बस उसने सब पा लिया। वहीं तो अड़चन है। वहीं कठिनाई है। तुम्हारे चित्त के कागज इतने गुदे पड़े हैं, इतनी लिखावटें, इतने हाथों से लिख दी गई हैं कि अब उन पर कुछ परमात्मा लिखना भी चाहे तो अंकित न हो सकेगा; अंकित हो भी जाये तो समझ में न आ सकेगा कि क्या लिखा गया है।
मन को कोरा बनाना पहला कदम है परमात्मा की यात्रा में। वही तीर्थ है। जिसने मन को कोरा बना लिया, तीर्थ पहुंच गया। उसका काबा आ गया। अब कहीं जाना नहीं है। अब तो इसी कोरे मन में परमात्मा उतरेगा।
लेकिन मन को कोरा करने में बड़ी अड़चन है। कोई मन हिंदू है तो कोरा नहीं है। कोई मन मुसलमान है तो कोरा नहीं है। कोई मन जैन है तो कोरा नहीं है। कोई मन कम्यूनिस्ट है तो कोरा नहीं है। मन का कोई भी पक्षपात हुआ, कोई भी धारणा हुई, कोई भी दृष्टि हुई, कोई भी दर्शन-शास्त्र हुआ--कि मन कोरा नहीं है। फिर मन गुदा है, न मालूम कितने शब्दों से भरा है। और सब शब्द उधार, सब बासे, सब पराये, दूसरों से लिये हुए, अपना अनुभव कोई भी नहीं। अपना अनुभव तो कोरे मन में जगता है।
तुम्हारे चित्त में इतना शोरगुल है कि अगर परमात्मा अपना इकतारा बजाये भी तो सुनाई पड़ेगा? नक्कारखाने में तूती की आवाज होगी। कहां सुनाई पड़ेगा? जैसे भरे बाजार में एक कोयल बोलने लगे, किसको सुनाई पड़ेगा? लोगों के चित्त इतने उपद्रव से भरे हैं कि परमात्मा बहुत बार आता है तुम्हारे द्वार तक, दस्तक देकर लौट जाता है, तुम उसकी दस्तक सुनते नहीं। बहुत बार तुम्हें झंझोड़ देता है, मगर तुम सोये हो गहरी तंद्रा में; तुम जागते नहीं, तुम और करवट लेकर दुबारा नया सपना देखने लगते हो।
तुम जरा कोरे हो जाओ तो उसका बादल घिरे, बरसे जिस अमृत की तलाश तुम कर रहे हो, वह अमृत बरसने को आतुर है। तुम्हीं तलाश नहीं कर रहे हो, अमृत भी तुम्हारी तलाश कर रहा है। प्यासा ही सरोवर नहीं खोज रहा है, सरोवर भी प्यासे की राह देख रहा है, क्योंकि जब प्यासे की प्यास बुझती है तो प्यासे की ही प्यास नहीं बुझती, सरोवर भी सार्थक होता है। यह बात खूब मन में संजोकर रख लेना।
तुम्हीं नहीं खोज रहे परमात्मा को, परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। जिस दिन मिलन होगा, तुम्हीं आनंदित नहीं होओगे, परमात्मा भी नाच उठेगा। इसलिये कथाएं हैं कि जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बेमौसम फूल खिल गये। ये तो प्रतीक हैं, काव्य-प्रतीक। ये इतना ही बताते हैं कि सारा अस्तित्व आनंदमग्न हो गया--बेमौसम फूल खिल गये, कि सूखे वृक्षों में हरे पत्ते आ गये, कि देवताओं ने आकाश में दुंदुभी बजाई, कि आकाश से फूल झरे, झरते ही चले गये।
नहीं, कोई फूल दिखाई पड़ने वाले झरे हैं, नहीं कोई सूखे वृक्षों पर पत्ते आये हैं, नहीं बेमौसम कोई फूल खिले हैं--इनको तुम ऐतिहासिक तथ्य मत समझ लेना, अन्यथा भूल-चूक हो जायेगी। और जो इस तरह की बातों को इतिहास समझ  लेता है वह बुद्ध को भी झुठला देता है। उसके जीवन में धीरे-धीरे बुद्ध भी एक कहानी और कथा हो जाते हैं--परिकथा, एक मिथ, एक पुराण। उनका यथार्थ खो जाता है।
ये काव्य-प्रतीक हैं। प्यारे प्रतीक हैं, लेकिन कविताएं इतिहास नहीं हैं। कविताएं कुछ कहती हैं, जरूर कुछ कहती हैं--कुछ अलौकिक कहती हैं। मगर कविताएं लौकिक यथार्थ के संबंध में कोई प्रमाण नहीं हैं। अदृश्य के संबंध में संकेत हैं, लेकिन उनको निचोड़कर तुम अगर इतिहास बनाने लगोगे तो मुश्किल हो जायेगी। इतना ही अर्थ है, इतना ही अभिप्राय है कि बुद्ध को जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तो सारा अस्तित्व आनंद-मग्न हो गया। इसको कैसे कहें?...देवताओं ने दुंदुभियां बजाईं, कि फूल आकाश से झरे, झरते ही गये, कि बेमौसम फूल आ गये, कि सूखे वृक्ष हरे हो गये। यह कहने का एक ढंग है, एक लहजा--और सुंदर और प्यारा।
मन जब कोरा हो गया बुद्ध का तो आकाश बरसा। जब तक बुद्ध विचारों से भरे रहे, तब तक यह घटना न घटी; जब निर्विचार हो गये, तब।
इसलिये समस्त धर्मों का मौलिक संदेश एक ही है: निर्विचार हो जाओ। मगर कैसे तुम निर्विचार होओ? तुम तो उन्हीं शास्त्रों को अपने सिर में भरे बैठे हो जो कहते हैं कि निर्विचार हो जाओ।
एक पंडित कुछ वर्ष हुए मुझे मिलने आये। मैं काशी विश्वविद्यालय में मेहमान था। बड़े पंडित हैं। पतंजलि के योग-सूत्रों पर उन्होंने बड़ी भारी व्याख्या लिखी है। मैंने उनसे पूछा: निर्विचार साधा? वे थोड़े चौंके। ऐसा उनसे किसी ने पूछा न होगा। लोगों ने पूछा होगा उनसे कि पतंजलि की निर्विकल्प समाधि का क्या अर्थ है और वह उन्होंने समझाया होगा। मैंने उनसे पूछा: आपको निर्विकल्प का अनुभव हुआ? इधर-उधर देखने लगे। कहा कि नहीं। आपसे कैसे झूठ बोलूं? निर्विकल्प का मुझे अनुभव नहीं हुआ है।
और मैंने कहा: पतंजलि पर जिंदगी हो गई व्याख्या करते आपको, आपको पतंजलि से इतना भी संकेत नहीं मिला कि निर्विचार होना है, निर्विकल्प होना है? वही तो सार है।
कहा: वह तो सार है, मगर मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा। मैं तो नये-नये अर्थ निकालता रहा, नई-नई व्याख्याएं करता रहा, पतंजलि के लिये नये-नये समर्थन खोजता रहा। पाश्चात्य मनोविज्ञान से, विज्ञान से, सबसे मैंने समर्थन खोजकर व्याख्याएं लिखीं।
लेकिन मैंने कहा: निर्विचार कब होओगे? यह तो उलटी ही बात हो गई। अब पतंजलि ही तुम्हारे लिये विचार बन गये। अब यही पतंजलि के शब्द तुम्हारे चित्त में घूमते रहते हैं दिन-रात, तुम इन्हीं पर नई-नई व्याख्याएं, नई-नई सूझ की कलमें लगाते रहते हो। मगर निर्विचार कब होओगे? पतंजलि से कब छुटकारा पाओगे?
बुद्ध का बहुत अदभुत वचन है: अगर मैं तुम्हें राह में मिल जाऊं तो तलवार उठाकर मेरे दो टुकड़े कर देना।
सदगुरु यही कहते रहे हैं कि हम इशारा कर रहे हैं निर्विचार का, कहीं ऐसा न हो कि तुम हमारे ही विचार पकड़ लो!
मन कोरा हो जाये...कोरे मन का अर्थ है: न हिंदू न मुसलमान न ईसाई न जैन न बौद्ध। कोरे मन का अर्थ है: न अब वेद है मन में, न कुरान है, न बाइबिल है। कोरे मन का अर्थ है: अब कोई पक्षपात नहीं, कोई बदली नहीं। खाली आकाश! निर्विचार, निर्विकल्प! बस क्रांति की घड़ी आ गई। मंदिर के द्वार खुलने का क्षण आ गया। अब घिरेंगे मेघ--तुम्हारे विचार के नहीं। परमात्मा सघन होगा तुम्हारे ऊपर।
बुद्ध ने इस अवस्था को धर्म-मेघ-समाधि कहा है। धर्म का बादल तुम्हारे ऊपर घिरेगा और अमृत की वर्षा होगी। बस वीणा! मन कोरा कागज हो, तो वर्षा हो जाये।
धरा की भींगती चूनर खनकते रिमझिमी पायल,
लहर जाता क्षितिज के छोर तक हर प्राण कर घायल!

विरह सावन उमड़ आया मचलती स्नेह की बदली
सजल आकाश के दृग में चमकती रूप की बिजली,
भटकती वायु बन बोझिल पिलाकर मोह की मदिरा
मचल गाता हृदय में नित प्रणय का सिंधु-मधु-लहरा;

मलय का मधुमयी झोंका, विहग कुल का मधुर कलरव,
सिहर जाता विपिन के छोर तक हर प्राणकर पागल।

पपीहा स्वाति की निर्मम बदलियां निरख सकुचाता
सजल संगीत पल पल श्वास से सौ बार दुहराता,
कुसुम दल का उनींदापन मुखर अलि का थिरक चुंबन
पिघलती सांझ की अमराइयों में गंध-मधु-नर्तन,
भटकती कुंज में कोकिल, मयूरी थिरकती बन-बन,
फहर सुधि द्वार तक जाता सुभग सौगात का आंचल।

खिले विश्वास के सरसिज, विहंसते धूलकण में तृण
धरा से झांकते अंकुर, स्वरों में मूल आकर्षण
उमड़ती भाव की गंगा, लहराती साध की यमुना,
बहक जाती तरी निःश्वास की लख सावनी सपना;
बिखरता रूप-रंग-सौरभ, बहारों का खिला शतदल,
बरस जाता निमिष में खोल पलकें बावरा बादल।
एक क्षण में वर्षा हो जाती है। बरस जाता निमिष में खोल पलकें बावरा बादल! जैसे बाहर बादल बरसते हैं, ऐसे ही भीतर भी बादल बरसते हैं। जितना बड़ा आकाश बाहर है इतना ही बड़ा आकाश भीतर है। पर कोरे हो जाओ तो उसका मुख दिखाई पड़ जाये।
तूने कहा वीणा: देख लिया मुख जिसमें तेरा, कोरा कागज था यह मन मेरा।
कोरे हो जाओ तो चारों तरफ मौजूद है। कोरे हो गये कि तुम दर्पण हो गये। फिर उसे खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता। वह आया ही हुआ है। अतिथि आया ही हुआ है, लेकिन आतिथेय बेहोश है, मूर्च्छित है। बादल बरसने को तत्पर हैं, लेकिन तुम्हारा पात्र उल्टा रखा है। बरसे भी तो व्यर्थ जाये।
तुम अपने अहंकार से इतने भरे हो कि तुम्हारे भीतर खाली जगह ही नहीं है। परमात्मा प्रवेश भी पाना चाहे तो कहां स्थान है तुम्हारे भीतर? तुम तो स्वयं ही सिंहासन पर बैठे हो। तुमने तो अपने अहंकार को ही सिंहासन पर बिठा दिया है। खाली करो सिंहासन! रिक्त करो सिंहासन! कोरा करो कागज!

तीसरा प्रश्न:

बस, एक प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं।

माधि, जलना शुरू हो गया है, खोना शुरू हो गया है। खोना शुरू हो गया है, इसलिए तो और खोने की आकांक्षा जगी है। जलना शुरू हो गया है, जलने का रस आना शुरू हो गया है। इसलिए तो पूरे-पूरे जल जाने की अभीप्सा जगी है।
जो इस आग को पहचान लेंगे--स्वाद से; दूर से देखेंगे तो घबड़ा जायेंगे। और अनेक लोग हैं जो दूर से ही इस आग को देख रहे हैं। शायद दूर से स्वयं भी नहीं देख रहे हैं; दूसरों ने दूर से देखा है, उनकी बातें सुन-सुनकर देख रहे हैं।
जो इस आग को अनुभव से देखेंगे, पास आकर देखेंगे, थोड़े निकट, वे निश्चित ही जल जाने को आतुर होंगे, क्योंकि यह जलना ऐसा है जैसे नया जीवन उपलब्ध होता है। और मिटे बिना तो पाया नहीं जा सकता।
धन्यभागी वही हैं जो स्वयं को गंवा देंगे, क्योंकि वही स्वयं को पा लेने का उपाय है।
जब कोई तामीर बेतखरीब हो सकती नहीं।
खुद मुझे अपने लिए बरबाद होना चाहिए।।
इस जगत में बिना मिटाये कुछ भी नहीं बनता। जब कोई तामीर बेतखरीब हो सकती नहीं, जब कोई चीज बन ही नहीं सकती बिना मिटाये, बिना विध्वंस के सृजन होता ही नहीं है...खुद मुझे अपने लिए बरबाद होना चाहिए...तो फिर एक सूत्र समझ लो: मिटना होगा तुम्हें, अगर स्वयं को पाना है। जलना होगा तुम्हें, अगर ज्योतिर्मय हो जाना है।
बीज मिटता है तो वृक्ष होता है और नदी मिटती है तो सागर हो जाती है। जिस घड़ी तुम मिटने को राजी हो गये, उसी घड़ी तुम्हारे भीतर परम का आविर्भाव हो जाता है। वह फिर कभी नहीं मिटता।
तुम तो क्षणभंगुर हो, पानी के बबूले हो; बचे भी तो कितनी देर बचोगे?
ज्यादा देर बच न सकोगे। यहां बचने का कोई उपाय नहीं है। मौत तो आ ही जायेगी। मौत तो मिटा ही जायेगी। और जब मौत मिटा ही देती है तो फिर अपने ही हाथ से छलांग क्यों न लगा लेनी। जो स्वयं मर जाता है वही ध्यान को उपलब्ध हो जाता है। समाधि आत्ममरण है।
और खयाल रखना, मरने से कोई शारीरिक मरने की बात नहीं है। शरीर तो बहुत बार मरा है और फिर-फिर तुम वापिस आ गये। इस बार अहंकार को मर जाने दो कि फिर वापिस आना न होगा। फिर तुम सुगत हो जाओगे। जो ठीक-ठीक चला गया, फिर वापिस नहीं आता।
सुगत बुद्ध का एक नाम है, उसका अर्थ होता है: जो ठीक-ठीक चला गया। इतने ठीक-ठीक चला गया कि फिर वापिस नहीं आता है।
यहां जीवन में कुछ पकड़ने जैसा है भी तो नहीं। कैसे लोग पकड़ लेते हैं इंद्रधनुषों को, यह भी आश्चर्य की बात है! कैसे मृग-मरीचिकाओं में भटकते रहते हैं, यह भरोसा नहीं आता कि कैसे यह चमत्कार घटता है!
पल छिन में धूप कहीं छांव!
खिड़की से दीख रहा खुला आसमान
मेघों के छितराए तिरते जलयान,
गलियों का कोलाहल करता संकेत
सागर को नाप रहा लहरों का पांव।
पल छिन में धूप कहीं छांव।।
फूलों पर बैठ अलि ऊंघ रहा आज
सपन गीत गाता ले भावों का साज,
पल में उड़ जाता फुर फहराके पंख
गंधऱ्हीन फूल बना सपनों के गांव।
पल छिन में धूप कहीं छांव।।
प्राणों की गागर से सांसों की गंध।
रीत गयी बिन पूछे तब का संबंध,
अंतर्मन पूछ रहा उनका घर-द्वार
बिन पूछे उनको बह जाये किस ठांव।
पल छिन में धूप कहीं छांव।।
क्षण-क्षण में सब बदलता है यहां। अभी सुबह, अभी सांझ। अभी जन्म, अभी मौत। अभी बसंत था, आ गया पतझड़। अभी बाढ़ थी नदी में, अब सब सूख गई धार। अभी जवानी, अभी बुढ़ापा। अभी सुख, अभी दुख। अभी सफलता, अभी असफलता।
पल छिन में धूप कहीं छांव!
सागर को नाप रहा लहरों का पांव।
पल छिन में धूप कहीं छांव।
इस जगत में पकड़ने योग्य कुछ है भी तो नहीं। सागर की लहरों पर देखी है झाग, सुबह के सूरज में चमकती झाग, ऐसी लगती है जैसे हीरे-मोती हों! हाथ में लोगे, पानी रह जायेगा। इससे ज्यादा इस जगत में कुछ है भी नहीं। यहां जो जीने की आकांक्षा रखते हैं वे सिर्फ मरते हैं।
समाधि, यह शुभ है कि तुझे जलने का भाव उठ रहा है कि पूरे जल जायें। यहां जो मर जाते हैं--स्वेच्छा से, वे ही शाश्वत जीवन को जान पाते हैं।
जीसस ने कहा है: अपने को बचाना मत, अन्यथा खो दोगे। जीसस ने कहा है: धन्यभागी हैं वे जो अपने को खो देते हैं, क्योंकि फिर वे कभी भी खो न सकेंगे; वे अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं।
यहां एक ही चीज थिर है; उसको एक तरफ से देखो तो उसका नाम ध्यान है, दूसरी तरफ से देखो तो उसका नाम प्रेम है। शेष सब अथिर है। इस जगत में एक ही चीज थिर है। अगर भक्तों की नजर से देखो तो उसका नाम प्रेम है; अगर ज्ञानियों की नजर से देखो तो उसका नाम ध्यान, साक्षी है। मगर वह एक ही घटना है। क्योंकि जहां ध्यान घटता है वहां प्रेम की धारा बह जाती है और जहां प्रेम की धारा बहती है वहां ध्यान घट जाता है। वे दोनों साथ-साथ आते हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मैं नहीं चिर हूं
न तुम हो
प्राण का अस्तित्व शिव से सत्य है
प्रस्फुटित आनंद मन का
सुभग सुंदर है
फूल नश्वर है!
हंसी पागल पंखुड़ियों की
सरस मधु-गंध कलियों की
तरल चिर है
किन्तु
फूल नश्वर है।
दीप की अभिव्यक्ति लौ से दूर है,
शलभ देता प्राण का उत्सर्ग
गाता प्रणय का संगीत
लौकिक देह-बल्ली को
जलाता ज्योति में
स्नेह-क्रीड़ा में निरत
वह सिसकनों में भर रहा स्वर है!
स्नेह ही चिर है!
वह जो पतंगा जल जाता है दीपक पर, उसकी देह तो जल जाती है। देह तो निश्चित जल जाती है। देह तो जल्दी ही पड़ी रह जायेगी राख होकर, मगर जिस प्रेम ने उसे जलाया वह प्रेम शाश्वत है। वह प्रेम बच जाता है।
संन्यास प्रेम की यात्रा है या कहो ध्यान की यात्रा है। वही संन्यासी है जो मेरी आग में मर जाने को पतंगा होकर आ गया है।
तुम जानते हो, गैरिक वस्त्र अग्नि के प्रतीक हैं! तुम उनमें मर जाओ, पूरी तरह, जैसे हो वैसे--तो तुम्हें जैसे होना चाहिये वैसे स्वरूप का आविर्भाव हो।
तूने पूछा: एक ही प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं। यह होना शुरू हो गया है। नहीं तो यह प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न भी समय पर उठते हैं। प्रश्नों का भी अपना क्षण होता है। तुझे रस लग गया मिटने का तो फिर अब ज्यादा देर नहीं है। जिसे मिटने में रस आने लगा, उसे कौन रोक सकता है? उसे इस जगत की कोई शक्ति नहीं रोक सकती। जिसे अपने अहंकार को गला देने में रस आने लगा, उसे अब कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारे अहंकार की पूर्ति में तो हजार लोग बाधाएं डाल सकते हैं, लेकिन तुम्हारे निर-अहंकार की पूर्ति में कोई बाधा नहीं डाल सकता। यह बड़े मजे की बात है!
संसार में कुछ पाना हो तो लोग बाधा डाल सकते हैं, लेकिन परमात्मा में कुछ पाना हो तो कोई बाधा नहीं डाल सकता, कोई की सामर्थ्य नहीं है बाधा डालने की। परमात्मा के साथ तुम्हारा सीधा संबंध है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में कोई खड़ा नहीं रह सकता--कोई पर्वत, कोई पहाड़। हां, संसार में कुछ पाना हो तो हजार अड़चनें हैं। धन कमाना हो तो हजारों लोग धन कमाने निकले हैं। उन सबसे प्रतियोगिता होगी। जरूरी नहीं कि तुम जीतो। बहुत संभावना तो हारने की है। बड़ा पद पाना है।
अब यह साठ करोड़ का देश है। किसी को राष्ट्रपति होना है, तो एक ही व्यक्ति राष्ट्रपति हो सकता है और साठ करोड़ प्रतियोगी हैं। होना तो सभी को है। एक हो पायेगा। बड़ी बाधाएं होंगी। बड़ा उपद्रव होगा। बड़ी छीन-झपट, गलाघोंट प्रतियोगिता होगी। बहुत इसमें मरेंगे, बहुत इसमें टूटेंगे, बहुत इसमें उखड़ेंगे, बहुत विषादग्रस्त हो जायेंगे, बहुत हताश हो जायेंगे, तब कोई एकाध पहुंच पायेगा। लेकिन पहुंचते-पहुंचते वह भी इतना कुट-पिट चुका होगा, इतनी पिटाई हो चुकी होगी उसकी कि पहुंचकर भी किसी मतलब का नहीं होगा--मुर्दे की भांति पहुंच पायेगा।
पहुंचते-पहुंचते लोग मर ही जाते हैं। प्रधान-मंत्री होतेऱ्होते कोई साठ साल का हो जाता है, कोई सत्तर साल का, कोई अस्सी साल का। होतेऱ्होते जिंदगी हाथ से निकल गई होती है और इतना संघर्ष कि उस संघर्ष में प्राणों में जो भी गरिमापूर्ण है, सब मर जाता है। और इतनी वीभत्स प्रतियोगिता, इतनी घृणित प्रतियोगिता, कि जो भी मानवीय है उसकी तो सांसें कभी की घुट गई होती हैं। पहुंचते-पहुंचते आदमी आदमी नहीं रह जाता।
इस जगत में सफल होना विफल होना है, क्योंकि सफलता के लिये जो आत्मा देनी पड़ती है वही तुम्हारी विफलता है। मुफ्त तो कुछ मिलता नहीं; आत्मा बेचो और ठीकरे इकट्ठे कर लो। लेकिन परमात्मा के जगत में बात बिलकुल भिन्न है। वहां कोई प्रतियोगी ही नहीं है। वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां तुम अकेले हो। वहां तुम नितांत अकेले हो। वह यात्रा अकेले की है। कोई बाधा नहीं है। सिर्फ एक बाधा रहती है: वह तुम्हारी ही है।
और समाधि, वह बाधा तेरी टूट गई है। तुम डरो मरने से, बस उतनी बाधा है। तुम भयभीत रहो, उतनी बाधा है। वह भय चला गया है। अब भय की जगह तेरे मन में मिटने की प्रार्थना उठ रही है। और सभी प्रार्थनाएं, सच्ची प्रार्थनाएं मिटने की ही प्रार्थनाएं हो सकती हैं। बस, प्रार्थना उठी तो पूर्ति होने में देर नहीं है।

चौथा प्रश्न:

सिद्ध सरहपा ने महासुख की बात कही। महासुख क्या है?

हले तो समझें कि सुख क्या है? सुख तुम्हें कभी-कभी मिला है, इसलिये सुख को समझना आसान भी होगा। फिर समझें कि दुख क्या है। क्योंकि दुख तो तुम्हें बहुत मिला है। सुख-दुख दोनों समझ में आ जायें तो महासुख की समझ आ सकती है।
सुख क्या है? एक क्षण भर को अहंकार का मिट जाना सुख है। तुम चौंकोगे: अहंकार का मिट जाना सुख! हां, जब भी तुमने सुख जाना है, सोचना अब, विचारना अब, ध्यान करना उन क्षणों का। जब भी तुमने सुख जाना है, अहंकार मिट गया है; वह पक्की कसौटी है। सांझ सूरज को डूबते देखा, पहाड़ों पर सूरज की लालिमा छा गई, बादलों पर रंगीन रंग फैल गये, पक्षी अपने नीड़ों को लौटने लगे, सांझ का सौंदर्य, उतरती रात की गरिमा! किसी पहाड़ी एकांत में तुमने सांझ के सूरज को डूबते देखा, तुम चकित भाव-विभोर हो उठे। सुख की एक पुलक आई और गई। एक लहर आई और तुम नहा गये।
यह कैसे हुआ? सूरज का सौंदर्य इतना प्यारा था, आकाश के रंग ऐसे अनूठे थे, पहाड़ों की शांति इतनी गहरी थी, पक्षियों का नीड़ों को लौटना, उनकी चहचहाहट, सब तुम्हारे हृदय को इस भांति से तरंगित कर दिये कि तुम एक छंद में बंध गये। तुम उस पर्वतीय एकांत में डूबते हुए सांझ के सूरज के साथ, आकाश के साथ एक हो गये। लीन हो गये। एक क्षण को अहंकार विस्मृत हो गया। एक क्षण को तुम भूल गये कि मैं हूं। सूरज इतना था कि तुम एक क्षण को भूल गये कि मैं हूं। बादलों में रंग ऐसे थे कि एक क्षण तुम्हें याद न रही कि मैं हूं। लौटते पक्षी, सांझ का सन्नाटा, पहाड़ का एकांत...तुम भूल गये एक क्षण को, इस शराब में डूब गये एक क्षण को! तुम्हें याद ही न रही कि मैं हूं। बस उसी घड़ी एक लहर उठी। इसी लहर का नाम सुख है।
फिर जल्दी ही तुम वापिस लौट आते हो, क्योंकि सूरज कितनी देर तक सुंदर रहेगा! यहां तो सब पल-छिन का मामला है। अभी था अभी गया। अभी डूब गया। रात गहरी होने लगी। तुम चौंककर उठ आये। लौट पड़ने का समय आ गया। रात अंधेरा हो रहा है, सांप हो, बिच्छू हो, जंगली-जानवर हों! पहाड़ का मौका। तुम वापिस लौट आये। अहंकार फिर अपनी जगह खड़ा हो गया...शंकित, भयभीत। सुख की जो क्षण-भर को झलक मिली थी, खो गई।
ऐसे ही सुख मिलता है। कभी संगीत को सुनते समय...किसी ने वीणा बजाई और तुम तल्लीन हो गये और तुमने कहा: बड़ा सुख मिला! या अपनी प्रेयसी से मिलना हुआ, उसका हाथ हाथ में लेकर बैठे, सांझ के उगते पहले तारे को देखते रहे और तुमने कहा: बड़ा सुख मिला! लेकिन सुख का कोई संबंध न तो सूरज से है न सांझ के तारे से है, न प्रेयसी के हाथ से है, न संगीत से है! अगर तुम समझोगे तो इन सब के बीच तुम एक ही बात पाओगे कि बहाना कोई भी हो, बात एक ही घटती है तुम्हारे भीतर: अहंकार भूल जाता है। और यह तुम्हें समझ में आ जाये तो फिर महासुख को समझने में ज्यादा देर न लगेगी।
महासुख का अर्थ हुआ: अहंकार सदा को भूल जाये; भूला सो भूला, फिर लौटे ही न। दुख का अर्थ होता है: अहंकार। जितना ज्यादा अहंकार होता है उतना ज्यादा दुख। अहंकार की मात्रा से दुख की मात्रा नापी जाती है। इसलिये तुम अहंकारी को बहुत दुखी पाओगे; निर-अहंकारी को उतना दुखी नहीं पाओगे।
तुम खुद ही सोचो। जब भी तुम्हारा अहंकार बहुत सघन होकर तुम्हें पकड़ लेता है कि मैं हूं, कि मैं कुछ खास हूं, तो फिर छोटी-छोटी बातें दुख देने लगती हैं। कोई आदमी जो तुम्हें रोज नमस्कार करता था आज उसने नमस्कार नहीं की; यही छाती में छुरे की तरह चुभ जाती है बात कि अच्छा, तो यह अपने को क्या समझने लगा! इसको मजा चखाकर रहूंगा! इसे बता कर रहूंगा कि मैं कौन हूं!
तुम जहां भी, जब भी अहंकार से भर जाते हो, अड़चन होती है। तुम कभी परदेस गये? तुम कभी विदेशऱ्यात्रा को गये? तुम कभी ऐसी जगह गये, जहां तुम्हें कोई भी न जानता हो? वही यात्रा का सुख है। यात्रा का सुख यात्रा में नहीं है। यात्रा का सुख कश्मीर में नहीं है और नेपाल में नहीं है। यात्रा का सुख इस बात में है कि वहां तुम्हें कोई जानता नहीं है। इसलिये अकड़ने का कोई कारण नहीं है। अकड़ने से सार भी क्या है? वहां कोई नमस्कार भी नहीं करता, कोई कारण नहीं है दुख मानने का। वहां तुम कुछ भी नहीं हो। वहां तुम नाकुछ हो। इसलिये तुम्हें थोड़ा सुख मिलता है। यात्रा का यही सुख है: थोड़ी देर के लिये तुम नाकुछ हो जाते हो। जो समझ लेते हैं, वे अपनी ही जगह नाकुछ हो जाते हैं। इतनी दूर जाने की क्या जरूरत? वे घर में बैठे-बैठे ही नाकुछ हो जाते हैं।
 शून्य में मिलता है सुख। अहं में मिलता है दुख। अहंकार कांटा है। अहंकार पीड़ा है। शून्य संगीतपूर्ण है। लेकिन तुम कभी सोचते ही नहीं इस बात को। तुम्हारा सुख, तुम्हारे सुख के बहुत-से अनुभव, उन सबका निचोड़ निकालो, उन सबका मूल बिंदु खोजो।
सुख क्या है? बतला सकते हो?
पंडुक की सुकुमार पांख या लाल चोंच मैना की?
चरवाहे की बंसी का स्वर?
याकि गूंज उस निर्झर की जिसके दोनों तट
हरे, सुगंधित देवदारुओं से सेवित हैं?
सुख कोई सुकुमार हाथ है,
जिसे हाथ में लेकर हम कंटकित और पुलकित होते हैं?

अथवा है वह आंख
बोलती जो रहस्य से भरी प्रेम की भाषा में?
या सुख है वह चीज स्पर्श से जिसके मन में
कंपन-सा होता, आंखों से
मूक अश्रु ढल कर कपोल पर रुक जाते हैं?

सुख कहां पर वास करता है?
सुख? अरे, यह ज्योतिरिंगन तो नहीं है
जो द्रुमों की पत्तियों की छांह में दिन भर छिपा रहता?

याकि सौरभ पुष्प के उर का?
कि कोई चीज ऐसी जो
हवा में नाचती है रात को नूपुर पहन कर?

सुख! तुम्हारा नाम केवल जानता हूं।
मैं हृदय का अंध हूं;
मैंने कभी देखा नहीं तुमको।
इसलिये प्यारे! तुम्हें अब तक नहीं पहचानता हूं।

पर,कहो, तुम, सत्य ही, सुंदर बहुत हो?
पुष्प से, जल से, सुरभि से
और मेरी वेदना से भी मधुर हो?
तुमने जानकर भी सुख जाना नहीं है। अंधे की तरह कभी सोचा कि सांझ का डूबता सूरज सुख दे रहा है। कभी सोचा कि प्रेयसी से मिलन हुआ, सुख मिल रहा है। कभी सोचा मित्र घर आया है इसलिये सुख मिल रहा है। कभी सोचा सुस्वादु भोजन से। कभी सोचा इससे, कभी सोचा उससे। मगर तुमने कभी मूल बात न पकड़ी।
जब भी सुख मिला हो, किसी घड़ी में, तब एक बात अनिवार्य रूपेण घटती है: अहंकार मिट जाता है। तो फिर अहंकार का मिट जाना ही सुख है; न तो सुख है सूरज का डूबना न उगना।
सुख क्या है? बतला सकते हो?
पंडुक की सुकुमार पांख या लाल चोंच मैना की?
चरवाहे की बंसी का स्वर?
या कि गूंज उस निर्झर की जिसके दोनों तट
हरे, सुगंधित देवदारुओं से सेवित हैं?
नहीं! सुख तो वह घड़ी है जब तुम नहीं हो। मैं सुखी हूं, ऐसा वाक्य भाषा की दृष्टि से सही है, अनुभव की दृष्टि से सही नहीं है, क्योंकि जहां सुख होता है वहां मैं नहीं होता। सुख होता है तो मैं नहीं होता। मैं होता है तो सुख नहीं होता। इसकी क्षणभर को झलक मिलती है तो उसका नाम सुख है और फिर झलक खो जाती है। महीनों-बरसों के लिये, उस अंधेरे का नाम दुख है। और जब यह झलक थिर हो जाती है, यह तुम्हारा स्वभाव बन जाती है--उस घड़ी का नाम महासुख है।
सरहपा ने महासुख शब्द का ऐसा ही प्रयोग किया है, जैसे उपनिषद आनंद का करते हैं। लेकिन क्यों सरहपा ने आनंद शब्द का प्रयोग न किया, महासुख का क्यों किया? उसके पीछे भी कारण है। जब आनंद शब्द का हम उपयोग करते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे सुख का और आनंद का कोई संबंध नहीं है। उससे एक भ्रांति पैदा होती है, जैसे हमारा सुख और आनंद दो अलग ही लोक हैं, इनके बीच कोई सेतु नहीं है। उस सेतु को निर्मित करने के लिये सरहपा ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया, महासुख का उपयोग किया, ताकि तुम्हें यह याद रहे कि तुम दूर कितने ही होओ, लेकिन जुड़े हो।
तुम्हारा सुख कितना ही क्षणभंगुर क्यों न हो, उसी महासुख की एक तरंग है। और यह बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर तुमसे कोई भी संबंध नहीं है उस महासुख का तो तुम उसे पाओगे कैसे? किस धागे को पकड़कर चलोगे उसकी तरफ? और यही सहजऱ्योग का दान है।
सहजऱ्योग कहता है: मनुष्य अभी जहां है वहीं से परमात्मा से जुड़ा है; जरा पहचानने की बात है; जरा गैल पकड़ लेने की बात है। रास्ता है; एक अदृश्य सेतु हमें जोड़े हुए है। हम सुख को तो जानते हैं, तो फिर  महासुख हमसे बहुत दूर नहीं है, विजातीय नहीं है। हम सुख जानते हैं तो महासुख भी जान सकते हैं। हमने बूंद जानी है तो सागर को भी जान लेंगे, क्योंकि सागर बूंदों का जोड़ है, और क्या है? ऐसे ही महासुख सुखों का जोड़ है, और क्या है? सुख होगी बूंद, महासुख होगा सागर। जो भेद है सहजऱ्योग की दृष्टि से, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है।
बस यही सहजऱ्योग का क्रांतिकारी उदघोष है।
शरीर-सुख में और आत्म-सुख में भी जो भेद है वह मात्रा का है--सहजऱ्योग के अनुसार--गुण का नहीं है। बाहर के सुख में और भीतर के सुख में भी जो संबंध है, जो भेद है, वह मात्रा का है। भीतर का महासुख है, बाहर का बिलकुल छोटा-सा सुख है; मगर दोनों जुड़े हैं एक से।
मनुष्य की गरिमा की घोषणा है यह। और मनुष्य कितना ही नीचे गिरा हो, इस बात की खबर है कि तुम जहां हो वहीं से सीढ़ी लगी है।
तुम, हो सकता है, बिलकुल नीचे के पायदान पर हो सीढ़ी के; मगर यह उसी सीढ़ी का पायदान है, जिस सीढ़ी के आखिरी पायदान पर परमात्मा है। यही तंत्र की घोषणा है। सहजऱ्योग तांत्रिक है।
जब मैंने कहा कि संभोग और समाधि दोनों जुड़े हैं, तो वह तंत्र की धारणा को ही प्रस्तावना देनी थी। तंत्र यही कहता है कि संभोग में जो सुख जाना जाता है, वह एक बूंद है और समाधि में जो सुख जाना जाता है, वह एक सागर है, अनंत सागर! मगर दोनों में जोड़ है। दोनों जुड़े हैं।
क्षुद्रतम में भी वही विराट मौजूद है। अणु में भी वही विराट मौजूद है। तुमने अपना द्वार खोला, तुम्हारे छोटे-से द्वार से जो आकाश दिखाई पड़ता है, वह विराट आकाश ही है। उन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है।
सुख को थोड़ा समझो। सुख को थोड़ा जीयो। सुख को थोड़ा पहचानो। जहां सुख मिलता हो उन घड़ियों में अपने को ले जाओ।
यौवन पकता है निमग्न अपने ही रस में।
कला सिद्ध होती जब सुषमा की समाधि में
विपुल काल तक कलाकार खोया रहता है।
वह सब होगा पूर्ण; एक दिन तुम चमकोगे
जैसे ये नक्षत्र चमकते हैं अंबर पर।

बनो संत-से चारु कि जैसे यूनानी थे
जो अदृश्य हैं देव उन्हें पूजा सन्मन से।
और मर्त्य मनुजों से भी मत आंख चुराओ।

परिभाषा मत पढ़ो; न दो उपदेश किसी को;
गुरु से मिले न ज्ञान, भ्रांतियां और सघन हों,
तब जा पूछो बात कहीं एकांत प्रकृति से।
अगर शास्त्र उलझन में डाल देते हों, अगर गुरुओं की बातें सुनकर कुछ समझ में न आता हो और समझ उलझ जाती हो, तो अच्छा हो चले जाओ प्रकृति में। पूछो झरनों से। पूछो वृक्षों की हरियाली से। पूछो केतकी, जुही, बेला के फूलों से। पूछो बदलियों से, चांदत्तारों से। चले जाओ एकांत में। परिभाषा मत गढ़ो बैठकर मत सोचने लगो। बैठकर कुछ नहीं होगा। सोचने से कुछ नहीं होगा। जानने चलो, परिभाषा मत गढ़ो, न दो उपदेश किसी को।
अकसर ऐसा हो जाता है, खुद पता न हो तो आदमी दूसरे को समझाने लगता है। दूसरे को समझाने से ऐसी भ्रांति होती है कि मुझे पता होगा और जब दूसरे समझने लगते हैं और मानने लगते हैं कि हां तुम जानते हो, तो आदमी खुद भी मानने लगता है, कि जब इतने लोग मानते हैं कि मैं जानता हूं तो इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं? एक बड़ा धोखा पैदा होता है। तुम लोगों को समझाकर, अपने को समझा लेते हो कि मैं जानता हूं। न तो परिभाषा गढ़ो। अपनी मनगढ़न्त परिभाषा का कोई अर्थ नहीं है। अनुभव से आने दो परिभाषा। और न दूसरों को समझाने बैठ जाओ।
परिभाषा मत गढ़ो; न दो उपदेश किसी को;
गुरु से मिले न ज्ञान...
अगर न मिल सके गुरु से ज्ञान...। पहली तो बात गुरु मिल सके गुरु न मिल सके, शायद, मिल भी जाये गुरु तो शायद तुम समझ न पाओ वह क्या कह रहा है। शायद उतनी सामर्थ्य तुममें न हो कि किसी मनुष्य के सामने झुक जाओ, क्योंकि मनुष्य के सामने झुकने में अहंकार बड़ी बाधा लाता है। अपने ही जैसे मनुष्य के सामने झुकना अहंकार को बड़ा कष्टपूर्ण हो जाता है। तो चले जाओ एकांत में, किसी वृक्ष के पास झुक जाना; उसमें तो उतनी अड़चन नहीं होगी! किसी झरने के पास झुक जाना। चले जाओ एकांत में। घुटने टेक देना पृथ्वी पर। सिर लगा देना पृथ्वी पर। अगर मंदिरों की चौखट पर सिर पटकने में संकोच लगता है कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और मंदिरों की चौखट पर सिर पटके, तो चले जाओ एकांत में। पृथ्वी पर सिर रख देना। आकाश के तारों से बातें कर लेना। शायद तुम्हें सुख की पुलक मिलने लगे।
गुरु से मिले न ज्ञान, भ्रांतियां और सघन हों,
तब जा पूछो बात कहीं एकांत प्रकृति से।
प्रकृति परमात्मा का प्रगट रूप है। प्रकृति से जो मिलता है, वह सुख है। परमात्मा के प्रगट रूप से जो मिलता है, वह सुख है। और, परमात्मा के अप्रगट रूप से जो मिलेगा, वह महासुख। प्रकृति से क्षण-भर को मिलता है; परमात्मा से शाश्वत मिलता है। पर दोनों एक ही धागे में जुड़े हैं।
इसलिये ठीक ही किया सरहपा ने कि सुख और महासुख शब्द का प्रयोग किया, आनंद का प्रयोग नहीं किया। शब्दों के प्रयोग में भी बड़े अर्थ होते हैं।

पांचवां प्रश्न:

ओशो, विश्वास तो नहीं होता था कि कृष्ण के साथ लोग नाचे होंगे। आपके आश्रम को देखकर भरोसा आया है कि ऐसा भी कभी हुआ होगा।
हम खुदा के कभी कायल ही न थे,
तुम्हें देखा तो खुदा याद आया।

सीताराम! धर्म जब भी जीवित होता है तब नाचता हुआ होता है; जब मर जाता है तब गुरु-गंभीर हो जाता है। धर्म जब जीवित होता है तो हंसता हुआ होता है। धर्म जब जीवित होता है तो आंखों में आंसू भी आनंद के ही आंसू होते हैं।
धर्म जब जीवित होता है तो पैरों में घूंघरु बंधते हैं, बांसुरी पर टेर उठती है, एकतारा बजता है। क्योंकि धर्म के जीवित होने का एक ही अर्थ हो सकता है: उत्सव। धर्म के जीवित होने का एक ही अर्थ हो सकता है: यौवन।
धर्म जब युवा होता है तो कृष्ण जैसे लोग पैदा होते हैं; धर्म जब सड़ जाता है, मर जाता है, तो फिर पंडित-पुरोहित लाश के पास बैठकर लाश की दुर्गंध को ढांकने के लिए चंदन इत्यादि का लेप करते रहते हैं। फिर लाश को कैसे सुंदर बनाया जाए, लाश को कैसे सड़ने न दिया जाए, लाश को कैसे सुरक्षित रखा जाए--यही उनकी चिंतना हो जाती है।
और, जीवित तो धर्म कभी-कभी होता है, क्योंकि कृष्ण जैसा व्यक्ति ही कभी-कभी होता है। मुर्दा धर्म की लंबी परंपराएं होती हैं; कृष्ण तो कभी-कभी घटते हैं। मनुष्य अधिकतर तो मुर्दा धर्मों के साथ रहता है। इसलिए अकसर ऐसा हो जाता है, जब भी कृष्ण घटित होंगे तभी सारा मुर्दा धर्म और उसकी परंपरा उनके विपरीत खड़ी हो जाएगी। कृष्ण जीवित कभी स्वीकार नहीं हो सकते, क्योंकि तुम करीब-करीब मुर्दा जी रहे हो। तुम से मुर्दा धर्म का तो संबंध हो जाता है, जीवित धर्म के साथ तुम नहीं नाच पाते।
तुम नाचना ही भूल गए हो। तुम प्रेम भूल गए हो। तुम प्रेम की भाषा भूल गए हो। इसलिए तुम्हारे चर्च हैं, गुरुद्वारे हैं, गिरजे हैं, मंदिर हैं--सब बाहरी आयोजन तो वहां हो रहा है, भीतर की आत्मा नहीं है। सुंदर पिंजड़े हैं, पक्षी कभी का उड़ गया है, या कि मर गया है। अब पूजा चल रही है। और लोग बड़ी गुरु-गंभीरता से पूजा कर रहे हैं।
यहां तुम्हें देखकर कठिनाई होगी। अगर समझोगे तो ही समझ पाओगे। अगर थोड़ी संवेदनशीलता होगी तो ही समझ पाओगे। नहीं तो तुम हैरान होकर लौटोगे।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: आश्रम ऐसा नहीं होना चाहिए, कि जहां लोग नाच रहे हैं, कि गले मिल रहे हैं, कि प्रसन्न हैं, कि हंस रहे हैं। आश्रम तो गुरु-गंभीर होना चाहिए, कि लोग झाड़ों के नीचे झोपड़े बनाकर बैठे हैं, उदास, माला फेर रहे हैं, कि उनके चेहरों पर मुर्दगी है, कि जीवन में उनके निषेध है, नकार है।
इंग्लैंड से कुछ दिन पहले एक टेलीविजन कंपनी ने आश्रम की फिल्म बनायी है। पता नहीं सरकार को पता नहीं चला या क्या हुआ, वह फिल्म बन भी गई, वह फिल्म इंग्लैंड में प्रदर्शित भी हुई। अब न मालूम कितने पत्र वहां से आए हैं! उन सारे पत्रों में एक बात जरूर स्मरण की गई है और वह यह--"कि आश्रम हंसता हुआ भी हो सकता है! लोग नाचते हुए भी हो सकते हैं, खिलखिलाते हुए भी हो सकते हैं! यह हमारे खयाल में ही नहीं था।' न मालूम कितने लोगों ने लिखा है कि हम उत्सुक हैं आने को। पृथ्वी पर कोई एक जगह तो है, जहां लोग हंसते हैं; जहां परमात्मा जीवन-विरोधी नहीं है; जहां परमात्मा जीवन का ही नाम है।
शायद मोरारजी देसाई इसीलिए परेशान हैं कि इस आश्रम की फिल्में न बनें, देश के बाहर प्रदर्शित न हों, क्योंकि जो तुम नहीं समझ सकते हो वह सारी दुनिया समझ लेगी। क्योंकि तुम तो बहुत जड़ हो गए हो, परंपरा का बोझ इतना है तुम्हारे ऊपर...।
लेकिन पश्चिम से परंपरा का बोझ हट गया है। पश्चिम में धर्म की परंपरा खंडित ही हो गई है। पश्चिम में तो ईश्वर से लोग छुटकारा ही पा लिए हैं। और ईश्वर से छुटकारा हुआ तो उसके साथऱ्ही-साथ उसके पंडित-पुरोहितों से छुटकारा हो गया है, उसके चर्च-मंदिरों से छुटकारा हो गया है। पश्चिम नास्तिक है। नास्तिक का मतलब यह है कि अब परंपरा का, धार्मिक परंपरा का कोई कूड़ा-करकट नहीं है।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मुझमें पश्चिम से आनेवाले लोग बड़ी संख्या में उत्सुक हो रहे हैं, जबकि भारतीय कभी आते भी हैं तो दर्शक की भांति। लेकिन पश्चिम से कोई आता है तो तत्क्षण डुबकी मार लेता है। कारण क्या होगा? उसके पास परंपरा का पक्षपात नहीं है। वह कोई अपेक्षा लेकर नहीं आता। वह यह मानकर नहीं आता कि झोपड़ों में बैठे हुए होने चाहिए लोग, तो ही आश्रम सच्चा है। वह यह मानकर नहीं आता कि लोग उदास होने चाहिए, सूखे होने चाहिए, उपवास करते हुए होने चाहिए। वह यह मानकर नहीं आता, इसलिए उसे कोई अड़चन नहीं होती। वह तत्क्षण जुड़ जाता है। जब कोई भारतीय आता है तो वह हिसाब पहले से रखकर आया है; उसके पास सब मापदंड तय हैं; उसने निर्णय ही ले लिया है कि धर्म कैसा होना चाहिए। धर्म का उसे कुछ पता नहीं है और निर्णय ले लिया है। और जिस धर्म का उसे पता है, वह सिर्फ सड़ी हुई लाश है। पांच हजार साल पहले कृष्ण को उसने देखा होता तो शायद समझता।
अब तो हालत बड़ी अड़चन की है, जो धार्मिक है वह भी नहीं समझता कृष्ण को। और जो नास्तिक है भारत में, वह तो समझेगा ही कैसे?
कल मैं सरिता में एक लेख पढ़ रहा था। सरिता में लेख है कृष्ण के खिलाफ, कि वे हजारों स्त्रियों के प्रेम में पड़े। और यह तो ठीक है, मगर वे कुब्जा नाम की तीन जगह से तिरछी, आड़ी-टेढ़ी स्त्री के प्रेम में भी पड़ गए। खिलाफ और भद्दा लेख है। कोशिश यह बताने की की गई है कि यह सब लम्पटता है। उस पर मुकदमा चल रहा है अदालत में। जिन पंडितों ने अदालत में, विपरीत में वक्तव्य दिए हैं; उनकी बातें और मूढ़तापूर्ण हैं। वे लीपा-पोती करने की कोशिश करते हैं। वे समझाने की बात करते हैं कि नहीं ऐसा इसका मतलब नहीं है, ऐसा इसका अर्थ नहीं है। मगर दोनों की चेष्टा एक ही है मेरे देखे। दोनों में से कोई, जैसे कृष्ण हैं, वैसा स्वीकार करने को राजी नहीं है। क्यों अड़चन है? कृष्ण भोजन करते हैं तो तुम्हें अड़चन नहीं है, स्नान करते हैं तो अड़चन नहीं है; अगर किसी स्त्री से प्रेम हो गया है तो तुम्हें अड़चन है? कृष्ण का न होगा तो किसका होगा?
लेकिन हम डर गए हैं, हम कंप गए हैं। हम तो मानते हैं प्रेम सांसारिक है, प्रेम तो बात ही गलत है। प्रेम और परमात्मा, ये तो विपरीत मामले हैं।
तो कृष्ण के विपरीत जो हैं, जैसे सरिता का लेखक और सरिता का संपादक, उनका तर्क भी वही है कि यह कैसा भगवान! और जो पक्ष में हैं वे केवल सुरक्षा कर रहे हैं। उनको भी भीतर तो शक है कि ऐसा भगवान नहीं हो सकता। इसलिए यह व्याख्या ठीक नहीं है। इसलिए व्याख्या को तोड़-मोड़ करो, यहां-वहां से जमाओ। और संस्कृत भाषा में सुविधा है, एक शब्द के बहुत अर्थ होते हैं, उसको इरछा-तिरछा किया जा सकता है, चालबाजी की जा सकती है। हालांकि कहानी बिलकुल साफ है और कहानी में कोई न तो एतराज होने की जरूरत है न छिपाने की कोई जरूरत है। कृष्ण का प्रेम है। अनेकों से हुआ, अड़चन क्या है? परमात्मा प्रकृति के प्रेम में है, इतना ही तो अर्थ हुआ! अगर परमात्मा प्रकृति के प्रेम में नहीं है तो प्रकृति हो ही न। परमात्मा अनंत रूपों को प्रेम कर रहा है, इसलिए तो अनंत रूप प्रगट हो रहे हैं, नहीं तो अनंत रूप प्रगट न हों। परमात्मा आह्लादित है। कृष्ण उस आह्लाद के एक प्रतीक हैं। इसलिए जब हिंदू हिम्मतवर थे तो उन्होंने कृष्ण को पूर्णावतार कहा।
यह जानकर तुम हैरान होओगे कि हिंदू पुराण एक अदभुत बात कहते हैं। वे कहते हैं कि यह कुब्जा नाम की जो दासी थी कंस की, यह पहले जन्म में जब कृष्ण राम की तरह पैदा हुए थे क्योंकि वे भी विष्णु का ही अवतार हैं, तब भी मौजूद थी। बड़ी सुंदरी थी! और राम से उसकी अनुरक्ति हो गई थी। किस की न हो जाए! राम जैसा व्यक्ति दिखाई पड़े तो कौन मोहित न हो जाए! सिर्फ अंधे शायद मोहित न हों! इसमें कुछ आश्चर्य की तो बात नहीं कि कोई सुंदरी स्त्री राम पर मोहित हो गई थी। मोहित होने में कोई पाप तो नहीं। वह इतनी दीवानी हो गई कि एक रात पहुंच ही गई राम के महल। राम और सीता सो रहे हैं। उसने जाकर राम को आहिस्ते से हिलाया। राम ने आंख खोली। उन्होंने कहा कि तू क्षमाकर और वापिस जा, कहीं सीता न जग जाए! वही पुरानी कथा, पति-पत्नी का उपद्रव, कहीं सीता न जग जाए! राम भी डरे हुए हैं कि कहीं सीता न जग जाए! मगर उसने कहा कि मैं निवेदन करने आई हूं कि मुझे आपसे बहुत लगाव हो गया है, मैं क्या करूं?
तो राम ने कहा कि अगले जन्म में जब मैं कृष्ण होऊंगा...अभी तो मैं मर्यादा पुरुषोत्तम हूं, अभी तो एक पत्नी-व्रत को मानता हूं, अभी तो आदिष्ट के हिसाब से चल रहा हूं, जब अगले जन्म में कृष्ण होऊंगा, तब तू कुब्जा के नाम से पैदा होगी और जब मैं आऊंगा द्वारिका, तू मेरे मामा कंस के घर दासी होगी, तब तेरा आमंत्रण स्वीकार कर सकूंगा।
सीता तो जग गई। सुन ही रही होगी पड़ी-पड़ी, यह सब हो रहा था जो। और नाराज भी हुई, क्योंकि यह कोई बात हुई! यह तो ऐसे ही हुआ कि आज एकादशी है, आज हम शराब न पियेंगे, कल पियेंगे। यह कोई बात हुई! यह तो बात साफ जाहिर हो गई कि राम कह रहे हैं कि अगले जन्म में, अभी इस जन्म में तो फंस गए हैं, यह एकादशी है, एक पत्नी-व्रत ले लिया, मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं! अभी बाई तू जा! अगले जन्म में जब मैं कृष्ण के रूप में पैदा होऊंगा...।
सीता इतनी नाराज हो गई। उन्होंने कहा कुब्जा को कि तू सुंदरी तो होगी क्योंकि राम ने तुझे आशीष दिया, लेकिन मैं तुझे अभिशाप देती हूं कि तू तीन जगह से तिरछी होगी। इसलिए वह कुब्जा हुई। इसलिए वह तीन जगह से आड़ी-टेढ़ी हुई।
मगर एक बात मजे की है इस कथा में, कि राम को मर्यादा अनुभव होती है, कि राम को सीमा का बोध है, कि राम सीमित हैं। जिन्होंने यह कहानी लिखी होगी....ऐसा हुआ या नहीं हुआ, यह सवाल नहीं है...जिन्होंने पुराण में यह कथा जोड़ी वे बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे, एक बात तो जाहिर वे कह रहे हैं कि राम की सीमा है, कृष्ण की सीमा नहीं है! राम तक को कहना पड़ा कि जब मैं कृष्ण की तरह आऊंगा, जब मैं पूर्णावतार होऊंगा, जब मैं परमात्मा का पूरा उल्लास लेकर प्र्रगट होऊंगा, सब रंगों में! अभी तो मैं एक रंग का हूं, जब मैं सातों रंगों का होऊंगा, तब।
बड़े हिम्मत के लोग रहे होंगे तब! जीवित धर्म था तो कृष्ण को उन्होंने पूर्णावतार कहा। राम को अंशावतार कहा। अगर कमजोर लोग होते तो राम को पूर्णावतार कहते, और कृष्ण को तो अवतार भी नहीं कहते, अंशावतार की भी बात कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन कृष्ण को पूर्णावतार कह सके जो लोग, उस समय देश जिंदा रहा होगा। परंपरा की बहुत पकड़ न रही होगी। लोगों के शास्त्र सिर पर ज्यादा नहीं बैठ गए होंगे। अभी मुर्दा धर्म का बहुत बोझ नहीं हुआ होगा। अभी जिंदगी ताजी थी, लोग युवा थे। कृष्ण को भी स्वीकार कर सके!
अब एक मुर्दा देश है। उसमें कोई विपक्ष में लिखता है, उसकी भी नजर वही है कि अगर कृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख हुआ है, अगर यह सच है तो कृष्ण का जीवन फिर धार्मिक जीवन नहीं है। क्यों? प्रेम का धर्म के जीवन से कोई संबंध नहीं? तुम प्रेम को धार्मिक न होने दोगे? तुम धर्म को प्रेमपूर्ण न होने दोगे? तुम धर्म और प्रेम को दुश्मन की तरह ही मानकर चलते रहोगे?
और जो पक्ष में हैं उनमें भी कुछ भेद नहीं। वे कोशिश करते हैं लीपा-पोती करने की। वे कहते हैं कि नहीं इसका ऐसा अर्थ नहीं, इसका वैसा अर्थ नहीं, यह ठीक नहीं, आलोचना करनी ठीक नहीं, वह तो भगवान हैं, उनके लिए सब ठीक है। इसके बड़े गहरे अर्थ हैं, वे कहते हैं, इसके साधारण अर्थ नहीं। हालांकि कुछ गहरे अर्थ बता नहीं पाते हैं कि क्या गहरे अर्थ हैं। मगर दोनों की बात एक संबंध में एक ही है कि कृष्ण को ऐसा नहीं होना चाहिए।
मैं इसलिए उल्लेख कर रहा हूं कि आज देश इतना मर गया है कि यहां आस्तिक और नास्तिक दोनों मुर्दा हैं। जीवन का उल्लास धर्म का सबूत है। और धर्म जब भी होता है तब वह अपूर्व प्रेम की वर्षा अपने साथ लेकर आता है।
मधुमय कंपन ले तन-मन में
फागुन पाहुन बन आया घर।
जीवन की असीम मुसकानें
संचय कर निस्पंद हृदय में,
इंद्रधनुष का बिखराने रंग
लाया फागुन घोल मलय में;
श्रांत पथिक की आशाओं का--
स्वप्न संजो फागुन आया घर!
दुर्गमतम निःश्वासों का फल
निर्वासित होकर हृत्तल से,
सरल हास का सौरभ बिखरा
पोत रहा रोली करतल से
परिमालय अनुराग दृष्टि में--
सृष्टि मधुर फागुन लाया घर!
स्नेहमयी चंदन-सी शीतल
जीवन की लघु परिभाषा यह,
क्षितिजपार के निर्मित नभ से
प्रतिध्वनि आती है अब रह रह,
विश्वासों के अधर-पात्र में
सप्तरंग फागुन लाया भर!
जब भी आता है धर्म, जीवंत, सतरंगा होता है, पूरा इंद्रधनुष होता है। एक स्वर नहीं होता, पूरे सातों स्वर होते हैं। लेकिन आदमी की छाती छोटी पड़ गई है। आदमी बहुत सिकुड़ गया है, विस्तार भूल गया है। खासकर इस देश में हम इतने सिकुड़ गए हैं कि हम अपने ही हाथों अपनी फांसी लगा लिए हैं। हमारी सांसें रुंधी जा रही हैं। हमारा जीवन कठिन हुआ जा रहा है। मगर फिर भी हम जिद्द किए जाते हैं कि हम ऐसे ही जियेंगे। फांसी ही हमारे जीने की शैली हो गई है।
सीताराम! तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम इस इस आश्रम को, इस आश्रम के नृत्य को, इस आश्रम के गीतऱ्हंसी को, मुस्कराहट को देखकर भी  विचलित नहीं हो गए, भाग नहीं गए, दुश्मन नहीं हो गए। नहीं तो मैं एक दोस्त पैदा करता हूं और हजार दुश्मन पैदा होते हैं। तुम भाग्यशाली हो। तुम्हारे पास थोड़ा हृदय है--थोड़ा विस्तीर्ण हृदय है। इसलिए तुम आंख खोलकर देख पाए। जो तुमने देखा है, जो तुम देखने के लिए राजी हो सके हो, वह तुम्हारे जीवन को बदलने वाला भी सिद्ध होगा।
जो बसंत को पहचान ले वह बसंत के रंग में रंग जाता है। यहां बंसत आया है। डूबो इसमें! रंग जाओ इसमें! ऐसी घड़ी इतिहास में कभी-कभी होती है। मुर्दा धर्म तो सदा उपलब्ध होते हैं, जीवंत धर्म कभी-कभी उपलब्ध होता है--जब राख नहीं होती, अंगार होते हैं। लेकिन अंगार तो कुछ थोड़े-से साहसी लोगों को ही आकर्षित कर पाते हैं। नहीं तो ऐसा उल्टा खेल चलता रहता है।
मोरारजी देसाई की कल मैंने एक किताब देखी, गीता पर किताब लिखी है। मोरारजी देसाई कृष्ण को समझ कैसे सकते हैं? गीता पर क्या खाक किताब लिखेंगे! मैंने गीता पर बहुत किताबें देखी हैं। इस देश में जिसको भी लिखना आता है वही गीता पर किताब लिख देता है। तृतीय श्रेणी की इतनी टीकायें गीता पर हैं, मगर मोरारजी देसाई ने उन सबको मात कर दिया! वह तृतीय श्रेणी में भी नहीं आती। एकदम कचरा है। गीता का नाम उसके साथ जोड़ना अपमानजनक है। कृष्ण की पहचान मोरारजी देसाई को  क्या हो सकती है? और अगर मोरारजी देसाई को कृष्ण की पहचान हो जाए, तो फिर सभी मुर्दों को हो जाएगी।
कृष्ण एक जीवंत धर्म हैं। धर्म--अपनी समग्रता में, अपने सब रंगों में! कृष्ण के साथ धर्म कोई नैतिकता नहीं है। कृष्ण के साथ धर्म अस्तित्व है, संपूर्ण अस्तित्व है। समग्र स्वीकार है। वही मेरी दृष्टि भी है--समग्र स्वीकार की।
निश्चित ही हम एक छोटा-सा विश्व बनाने जा रहे हैं--गैरिक संन्यासियों का--जो नाचेगा, जो आह्लादित होगा, जो उत्सव मनायेगा। नाच ही जिसकी पूजा होगी, उल्लास ही जिसकी अर्चना होगी। मस्ती के फूल परमात्मा के चरणों पर चढ़ाने का आयोजन हो रहा है।
तुम समझ सके, तुम नाराज न हो गए; तुम्हारे पास अभी जिंदा आत्मा है--तुम सौभाग्यशाली हो!--ठीक ही तुमने कहा: "हम खुदा के कभी कायल ही न थे, तुम्हें देखा तो खुदा याद आया!' अब डूबो! अब सब होश-हवास छोड़कर डूबो। अब हिसाब-किताब छोड़कर डूबो। नाचो तुम भी! बहुत दिन हो गए, नहीं नाचे। रास फिर हो! फिर बांसुरी बजे! फिर हम परमात्मा को पुकार सकें पृथ्वी पर।
परमात्मा को खोजना एक बात है; वह व्यक्तिगत खोज है। परमात्मा को पुकारना पृथ्वी पर दूसरी बात है; वह सांघिक खोज है। इसीलिए संन्यासियों का यह समुदाय पैदा किया जा रहा है। व्यक्तिगत खोज से आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है, लेकिन जब तक अनंत आत्माएं नाचकर उसे पुकारें न तब तक परमात्मा पृथ्वी पर नहीं आ पाता। दोहरे काम करने हैं। प्रत्येक संन्यासी को परमात्मा को खोजना है--व्यक्तिगत रूप से; और समूहगत रूप से एक इतनी बड़ी चुंबकीय शक्ति पैदा करनी है कि इस पृथ्वी से जहां से परमात्मा का संबंध करीब-करीब विच्छिन्न हो गया है, उसे हम फिर उतार लायें। फिर जगत धर्ममय हो। हो सकता है। अथक चेष्टा और प्रयास चाहिए। और मेरे पास धीरे-धीरे लोग इकट्ठे हुए जा रहे हैं; साहसी, जो वैसी चेष्टा करने को तैयार हैं, जो वैसे अभियान पर जाने को तैयार हैं।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है।
हजारों हैं सफें जिनमें न मैं आई न जाम आया।।
इस जगत का जो ढंग है, सलीका है, बदलने की जरूरत है। निजामे मैकदा साकी! मधुशाला के नियम बदलने की जरूरत है।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है।
हजारों हैं सफें जिनमें न मैं आई न जाम आया।।
यहां कितने लोग हैं, जिनकी प्याली खाली की खाली पड़ी है, जिनमें न कभी कोई शराब आई है न कोई उत्सव उतरा!
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है।
हजारों हैं सफें जिनमें न मैं आई न जाम आया।।
बहार आते ही खूं रेजी हुई वोह सहने गुलशन में।
खिजल कांटे थे यूं फूलों को जोशे इंतकाम आया।।
न जाने कितनी शमाएं गुल हुई कितने बुझे तारे।
तब इक खुरशीद इतराता हुआ बालाए-बाम आया।।
बहुत-से तारों को बुझना पड़ेगा और बहुत-सी शमों को गुल होना पड़ेगा, तब चांद उगेगा। तैयारी करो!
न जाने कितनी शमाएं गुल हुईं कितने बुझे तारे।
तब इक खुरशीद इतराता हुआ बालाए-बाम आया।।
बुलाना है परमात्मा को--उसके सूरज को, उसके चांद को, उसकी रोशनी को! इसके लिए बहुत-से लोगों को अपनी आहुति दे देनी पड़ेगी। बहुत-से लोग मिटें परमात्मा की राह पर, तो परमात्मा की वर्षा इस पृथ्वी पर हो सकती है। और ऐसी वर्षा बहुत जरूरी हो गई है, अन्यथा आदमी बचेगा नहीं।
आने वाले पच्चीस वर्ष मनुष्य के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने वाले हैं: या तो परमात्मा उतरेगा और आदमी बचेगा; अगर परमात्मा नहीं उतर सकता, अगर हम नहीं उसे अपनी आत्माओं में समा सकते, तो आदमी के भी बचने की अब कोई उम्मीद नहीं है। फांसी बहुत कस गई है। आदमी आत्मघात करने को तत्पर है। या तो परमात्मा को पुकारो, या बचने का कोई उपाय नहीं।

आज इतना ही।


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