दिनांक
26 मई 1976, श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
सिला
सँवारी राजनै, ताहि
नवै सब कोइ।
रज्जब
सिष—सिल गुरु
गढै सोइ पूजि किन
होइ।।
गुरु
ज्ञाता
परजापती, सेवक
माटी रूप।
रज्जब
रज सूँ फेरकै, घरिले
कुंभ अनूप।।
ज्यूँ
धोबी की धमस
सहि, ऊजल होइ
कुचीर।
त्यूँ
सिव तालिब
निरमला, मार
सहे गुरु पीर।।
बिरहिण
बिहरे रैनदिन, बिन
देखे दीदार।
जन
रज्जब जलती
रहै, जाग्या
बिरह अपार।।
बिरहा—पावक
उर बसे, नखसिख
जालै देह।
रज्जब
ऊपरि रहम करि, बरसहु
मोहन मेह।।
भलका
लाग्या भाव का, सेवक
हुआ सुमार।
रज्जब
तलफै तबलगै, मिलै
न मारनहार।।
जैसे
नारी नाह बिन, भूली
सकल सिंगार।
त्यूँ
रज्जब भूला
सकल, सुनि
सनेह दिलदार।।
तन
मन ओले ज्यूँ
गर्लाहं, बिरह—सूर
की ताप।
रज्जब
निपजै देखि
लूँ, यूँ आपा
गलि आप।।
रज्जब
ज्वाला बिरह
की,
कबहूँ
प्रगटै माहिं।
तौ
सीचनि घृत सों
चहौं, करम—काठ
जरि जाहिं।।
दरद
नहीं दीदार का, तालिब
नाहीं जीव।
रज्जब
बिरह बिबोग
बिन, कहाँ
मिलै सो पीव।।
समाअत
जब खनकती है
तरबखानों की
राहों में
तो मंजिल
के तसव्वुर से
कदम ललचा ही
जाते हैं
अगर जेबे—अत्रो—गिरेबा
की हम—अहंगी
सलामत हो
तो नामों
की मुरव्वत के
मुकामात आ ही जाते
हैं
सुनहरी
उंगलियाँ
रुकती हैं जब
साजों की शहरंग
पर
तो नग्मों
की चहकती साँस
रुक जाती है
सीने में
दरोगे—मस्लहत
आमेज भी एक
चीज है लेकिन
छलक जाता
है जहराबे—अलम
हर आबगीने में
तसव्वुर
उम्र की उस हद
पै जाके हांप
जाता है
जहाँ अहले—हवस
बेदाद—पर—बेदाद
करते हैं
ब—मजबूरी
थिरकती है
जबानी बर—सरे—महफिल
बदन के
मुस्कुराते
जाविये
फर्याद करते
हैं
नजर की
नग्मगी, जुल्फों
के बल, होठों
की शीरीनी
यहाँ हर
चीज झूठे
प्यार पर
मजबूर होती है
यहाँ
किरदार के
उजले सनम ढाले
नहीं जाते
यहाँ हर
जिंदगी
गुपतार पर
मजबूर होती है
झरोकों
से महकते हैं
यहाँ हँसते
हुए फाके
यहाँ
चुकता है सौदा
जिंदगी की
इल्तिजाओ का
यहाँ दिन
को बदन तुलते
हैं मीजाने—हुकुमत
में
यहाँ
रातों को जमता
है अखाड़ा
रहनुमाओं का
खरीदारो!
यहाँ हर रात
जश्ने—आम होता
है
यह वह मंडी
है जिसमें
प्यार का
नीलाम होता है
संसार
है प्रेम की
भूल,
प्रेम की
भ्रांति।
प्रेम तो ठीक
है, लेकिन
गलत से हो गया
है। प्रेम तो
सुंदर है, लेकिन
व्यर्थ से हो
गया है। प्रेम
तो शाश्वत है,
लेकिन क्षण—
भंगुर सें हो
गया है। और 'जब प्रेम
झूठा हो जाए, तो सब झूठ हो
जाता है।
क्योंकि
प्रेम हमारा
प्राण है।
प्रेम की
ऊर्जा से
निर्मित है
सारा
अस्तित्व।
नजर की
नग्मगी, जुल्फों
के बल, होठों
की शीरीनी
यहाँ हर
चीज झूठे
प्यार पर
मजबूर होती है
यहाँ
किरदार के उजले
सनम ढाले नहीं
जाते
यहाँ हर
जिंदगी
गुपतार पर
मजबूर होती है
मनुष्य
जब भी प्रेम
करता है, जिससे
भी प्रेम करता
थैं, तो
वस्तुत
परमात्मा की
तलाश में ही
करता है। तुम
जब किसी
स्त्री के
सौंदर्य से
मोहित हुए हो,
तो अनजाने
ही सही, उस
स्त्री के
चेहरे के
दर्पण में तुम्हें
परमात्मा की
कुछ छवि
दिखायी पड़ी है।
तुम्हें होश
हो कि न हो।
तुम जब किसी
रुरुष के
प्रेम में पड़े
हो, तो
तुम्हें कुछ
भनक सुनायी
पड़ी है। दूर
की आवाज सही, साफ—साफ पकड़
में भी न आती
हो, मुट्ठी
भी न बँधती हो,
लेकिन जब भी
तुमने किसीको
चाहा है तो
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूँ कि तुमने
परमात्मा को
ही चाहा है।
लेकिन तुम
अपनी चाहत के
रंग को समझ
नहीं पाए, चाहत
के ढंग को समझ
नहीं पाए।
चाहा कुछ, उलझ
गये कहीं और।
जैसे
खिड़की से किसी
ने सूरज को
ऊगते देखा और
खिड़की के
चौखटे को पकड़
कर बैठ गया, और
खिड़की की पूजा
करने लगा।
खिड़की में कुछ
बुरा भी नहीं
है, सूरज
को दिखाया है
खिड़की ने, तो
धन्यवाद दो, मगर खिड़की
की पूजा करने
बैठ गये! फिर
सूरज का क्या
होगा? खिड़की
लक्ष्य बन
जाती है, माध्यम
होती तो ठीक
थी।
ऐसे
ही हमने किसी
मनुष्य के
चेहरे में
परमात्मा की
झलक पायी, किन्हीं
आँखों में
उसकी शराब उतरती
देखी, किसी
युवा देह में
उसकी बिजली
चमकी, उसकी
बिजली कौंधी,
हम देह को
पकड़कर बैठ गये,
हम आँख की
पूजा करने लगे,
हम रूप के
पुजारी हो गये
अgएएर हम
यह भूल ही गये
कि सब रूप में
अरूप झलकता है,
सब आकार में
निराकार, सब
गुणों में
निर्गुण।
इतनी भर याद आ
जादू, तो जीवन
मे वह पड़ाव आ
जाता है जहाँ
से नयी यात्रा
शुरू होती है।
वह मोड़ आ जाता
है, जीवन 'नर्म का
पहनावा पहन
लेता है, जीवन
धर्म को गीत
गाने लगता है।
संसार
है तो
परमात्मा का
ही प्रेम, लेकिन
माध्यम से हो
गया है। और
माध्यम को हम
इतने जोर से
पकड़ लेते हैं
कि माध्यम जिसे
दिखाने के लिए
है, वह चूक
ही उठाता है।
ऐसा समझो कि
किसी से
तुम्हें
प्रेम हो जाए
और तुम उसके
वस्त्रों को
ही सब कुछ समझ
लो और उसकी
देह की तलाश
ही न करो, तो
तुम्हें लोग
पागल कहेंगे।
संसार पागल है।
तुम्हें किसी
से प्रेम हो
जाए और तुम
उसकी देह पकड़
लो और उसकी आत्मा
की तलाश ही न
करो, यह भी
पहली ही जैसी
भ्रांति है।
क्योंकि देह
वस्त्र से
ज्यादा नहीं
है। तुम्हें किसी
से प्रेम हो
जाए और तुम
उसकी आत्मा को
ही पकड़ लो और
परमात्मा तक
तुम्हारे
प्राण न उठें,
फिर भी भूल
हो गयी। खोदे
चलो। खोजे चलो।
हर जगह से तुम
परमात्मा तक पहुँच
सकते हो।
क्योंकि हर
जगह वही छिपा
है। आवरण
कितने ही हो, आवरण उघाड़े
जा सकते हैं।
न तो आवरणों
को पकड़ना और न
आवरणों से
भयभीत होकर
भाग जाना।
दुनिया
में दो तरह के
काम होते रहे
हैं। कुछ लोग
आवरण पकड़ लेते
हैं— किन्हीं
ने खिड़की की
पूजा शुरू कर
दी है। और
इनकी मूढ़ता को
देखकर कुछ लोग
खिड़की को
छोड्कर भाग गये
हैं। ऐसे भागे
हैं कि खिड़की
के पास नहीं
आते। दोनों ने
भूल कर दी है।
क्योंकि सूरज
खिड़की से ही
देखा जा सकता
है। न तो
पूजनेवाला
देख पाएगा और
न भगोड़ा देख
पाएगा।
संसार
परमात्मा की
खिड़की है।
भोगी भी नहीं
देख पाता और जिसको
तुम योगी कहते
हो,
वह भी चूक
जाता है। भोगी
ने जोर से पकड़
लिया है संसार,
योगी इतना
घबड़ा गया है
भोगी की पकड़
देखकर कि उसने
पीठ कर ली और
भागा जंगल की
तरफ। लेकिन
संसार उसका ही
है। वही यहाँ
तरंगित है। यह
गीत उसका है।
इस बाँसुरी पर
उसी के स्वर
उठ रहे हैं।
बाँसुरी को न
तो पकड़ो, न
बाँसुरी से
डरो, बाँसुरी
से आते हुए
अज्ञात
स्वरों को
पहचानो। फिर
बाँसुरी का भी
सन्मान होगा।
सच्चे
धार्मिक
व्यक्ति के मन
में संसार का
अनादर नहीं
होता, सम्मान
होता है।
क्योंकि यही
तो परमात्मा
से जोड्ने का
उपाय है, यही
तो सेतु है।
सच्चा व्यक्ति
संसार का भी
अनुगृहीत
होता है, क्योंकि
इसी ने
परमात्मा तक
लाया। सच्चा
व्यक्ति अपनी
देह का भी
अनुगृहीत
होता है, क्योंकि
यह देह वाहन
है। सच्चा
व्यक्ति किसी
चीज के विरोध
में ही नहीं
होता। सब
चीजों का
उपयोग कर लेता
है। समझदार
वही है जो जहर
का अमृत की
तरह उपयोग कर
ले। वही कुशल
है, वही
बुद्धिमान
जहर
औषधि बन जाता
है समझदार के
हाथ में। और
नासमझ के हाथ
में अमृत भी
जहर बन सकता
है,
यह याद रखना।
धर्म भी
किन्हीं
लोगों के हाथ
में जहर हो
गया है और
संसार भी
किन्हीं
लोगों के हाथ
में परमात्मा
का दर्शन बन
गया है। इसलिए
सवाल यह नहीं
है कि तुम
कहाँ हो, सवाल
यह नहीं है कि
तुम संसार में
हो कि पहाड़ पर हो,
एकांत में
हो कि भीड़ में
हो, सवाल
यह है तुम्हें
कला आती है या
नहीं? जीवन
का माध्यम की
तरह उपयोग
करने की कला
का नाम धर्म
है।
यहाँ
हर चीज उसके
ही मंदिर की
सीडी है।
पत्थर मत समझो
इन सीढ़ियों को, तक
मत जाओ, अटक
मत जाओ, चढ़ो
और पार उठो।
तब तुम
धन्यवाद
करोगे इन
सीढ़ियों का।
लेकिन जब तक
यह नहीं होता
तब तक यहाँ हर
चीज झूठी हो
जाती है।
हर
चीज झूठी
क्यों हो जाती
है?
क्योंकि
तुम साधन को
साध्य समझ
लेते हो। दस
तभी सब झूठ हो
जाता है। जहाँ
प्रेम भ्रांत
से अटका, वहीं
प्रार्थना का
जन्म असंभव हो
जाता है और
जहाँ प्रेम ने
भ्रांति में
अटकाव न पाया
और भ्रांति के
बीच से अपनी
नाव को खेकर
आगे निकल गया,
वहीं प्रेम
प्रार्थना बन
जाता है। और
जो लोग संसार
की भ्रांति
में नहीं पड़ते,
वे ही
सद्गुरु की
तलाश करते हैं।
सद्गुरु की
तलाश कब शुरू
होती है? कौन
व्यक्ति
सद्गुरु के
हाथ में अपने
को छोड़ेगा? हर ओई नहीं
छोड़ता। कौन
छोड़ता है? कुछ
शर्तें हैं, ख्याल रखना।
पहली
बात,
जिसने सब
तरफ से सिर
मार—पटक कर
देख लिया, जिसने
सब तरफ से
कोशिश करके
देख ली, जो
भी उससे हो
सकता था कर चुका,
और हर जगह
हार गया और हर
जगह पराजय
मिली, हर
जगह दीवाल आ
गयी और द्वार
न मिला, बेस
दिशा में खोजा
वहीं
व्यर्थता हाथ
लगी, जिसके
भीतर अपनी
असफलता का बोध
प्रगाढ़ हो
जाता है कि
मैं मेरे ही
कारण खोज न
पाऊँगा——......क्यों
न खोज पाऊँगा?
क्योंकि हर
असफलता से यह बात
दिखायी पड़ने
लगती है कि
मेरा यह मैं—भाव
ही मेरी सारी
असफलताओं का
आधार है। तो
मैं जो भी
करता हूँ, मेरा
मैं—भाव और मजबूत
होता है। मैं
पूजा करता हूँ,
तो अहंकार
बढ़ता है; मैं
त्याग करता
हूँ तो अहंकार
बढ़ता है, मैं
दान करता हूँ
तो अहंकार
बढ़ता है, मैं
जो भी करता
हूँ, मेरा
कृत्य मेरे
अहंकार को और
भी सजा जाता
है और मजबूत
बना जाता है, और यही
अहंकार मुझे
तोड़ रहा है।
अहंकार
यानी मैं अलग
हूँ। निर—अहंकार
अर्थात मैं इस
विराट के साथ
एक हूँ। जब तक
एक न हो जाएँ
इस विराट के
साथ हम, हम
इसे जान न
पाएँगे। हम
तरसते ही
रहेंगे, हम
भटकते ही
रहेंगे, और
अहंकार बाधा
है। और जो भी
मैं करता हूँ
उससे अहंकार
मजबूत होता है।
विनम्रता भी
साध लो, तो
भी अहंकार
मजबुत होता है।
विनम्र आदमी
का भी बड़ा गहन
अहंकार हो
जाता है कि
मुझसे ज्यादा
विनम्र और कोई
भी नहीं।
मुझसे ज्यादा
निर—अहंकारी ओर
कोई नहीं। यह
भी अकड़ वही है
पुरानी, कुछ
फर्क न पड़ा।
तब धन की अकड़
थी, पद की
अकड़ थी, अब
भी अकड़ है।
अकड़ ने नये
रूप ले लिये, अकड़ नये
द्वार से प्रवेश
कर गयी। सामने
के दरवाजे से
दिखायी भी
पड़ती थी, अब
पीछे के
दरवाजे से आ
गयी। सामने थी
तो बचने का
उपाय भी था, अब उसने' पीछे
से गर्दन पकड़ी।
अब पहचान
मुश्किल हो
जाएगी।
इसीलिए
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं
में जितना
अहंकार होता
है,
उतना किसी
और में नहीं
होता। यह ऐसे
ही नहीं है, अकारण नहीं
है, इसके
पीछे पूरा
विज्ञान है।
महात्मा ने
बड़ी कोशिश की
है। सब त्यागा,
सब सुख छोड़े,
सुविधा
छोड़ी, सुरक्षा
छोड़ी, सब
तरह से अपने
को कष्ट दिये,
तप किया, व्रत—उपवास
किये, योग
.किया, साधन
बिठाये, सब
किया, इस
करने में ही
अहंकार मजबूत
हुआ। तुम ऐसा
समझो, कर्ता
का जहाँ—जहाँ
भाव उठता है, वहाँ—वहाँ
अहंकार को
भोजन मिलता है,
अहंकार में
नया खून पड़ता
है—जब यह बात
दिखायी पड़ती
है कि मैं
बाधा हूँ और
मैं जो भी
करता हूं उससे
मैं मजबूत
होता है, इसलिए
अब मेरे किये
कुछ भी न होगा,
तब आदमी
सद्गुरु की
खोज में
निकलता है। तब
हम उसे खोजें
जिसके किये
कुछ हो सके।
हम किसीके
चरणों में
अपने को गिरा
दें। हम कह
दें कि मैं तो
हार गया, अब
मैं समर्पित
हूँ। अब मुझे
तोड़ो, मुझे
मिटाओ, मुझे
फिर से बनाओ।
पहली बात
स्मरण रखना, जो अपने मैं
की यात्रा से
बुरी तरह
पराजित हो गया
है, वही
व्यक्ति
सद्गुरु के
चरणों में
जाता है।
दूसरी
बात,
जो व्यक्ति
संसार और जीवन
के अनुभव से
इतना ज्यादा
व्याकुल हो
गया है कि अब
अगर यह पूरा
संसार भी उसे
मिलता हो, तो
वह लेने को
राजी नहीं है।
जिसने देख
लिया है कि
यहाँ मिल जाएँ
चीजें तो भी
दुख है, न
मिलें तो भी
दुख है; जीतो
तो दुख है, हारो
तो दुख है।
जिसे हार ही
नहीं पकड़ ली
है बल्कि जिसे
जीत में भी
हार दिखायी पड़
गयी है; जिसने
सब आशाएँ छोड़
दी हैं, जो
आशा से शून्य
हो गया है, वही
व्यक्ति
सद्गुरु के
चरणों में जा
सकता है।
क्यों?
क्योंकि
सद्गुरु के
चरणों में
जाना मृत्यु के
चरणों में
जाना है।
सद्गुरु तो
उठाएगा तलवार
और टुकड़े—टुकड़े
कर देगा।
टुकड़े—टुकड़े
करे तो ही
तुम्हारा नया
जन्म हो, पुनर्जन्म
हो। टुकड़े—टुकड़े
करे तो ही
जन्मों—जन्मों
का कचरा जो
तुम्हारे ऊपर
इकट्ठा हो गया
है, जिसे
तुम समझते हो
कि मैं हूँ, उससे
तुम्हारा
छुटकारा हो।
लेकिन टुकड़े—टुकड़े
होने को, मरने
को वही राजी
हो सकता है
जिसे अब जीवन
में कोई आशा
नहीं रही। अगर
जीवन में थोड़ी
भी आशा रही, तो तुम
कहोगे—— अभी
थोड़ी और कोशिश
कर लूँ; शायद
अब तक नहीं
हुआ है, कल
हो जाए, थोड़ा
और दौड़ लूँ, थोड़े और
उपाय बिठा लूँ,
कौन जाने
सफलता मिल ही
जाए! तो तुम
भाग जाओगे, फिर तुम
मरने को राजी
नहीं हो सकते,
फिर तुम
अपने को दाँव
पर नहीं लगा
सकते।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं——आचार्यो
मृत्यु :।
गुरु तो
मृत्यु है।
गुरु के पास
जाना तभी संभव
है,
जब जीवन
तुम्हें
मृत्यु—जैसा
मालूम पड़ने
लगे। जब
तुम्हें ऐसा
लगे, अब अपने
पास गँवाने को
कुछ है ही
नहीं; या
जो भी है सब
व्यर्थ है, यह तो कोई ले
ले तो अच्छा, कोई लूट ले
तो अच्छा, कोई
छीन ले तो
अच्छा। जब
तुम्हें ऐसा
दिखायी पडने
लगे कि
तथाकथित जीवन
मृत्यु—जैसा
है, तभी
तुम्हें
मृत्यु जीवन—जैसी
मालूम
पड़ेगी। इतनी
बड़ी क्रांति
जब घटती है, तो
कोई सद्गुरु
के चरणों में
जाता है। ये
आज कै वचन
सद्गुरु के
चरणों में
पहुँचकर जो
घटनाएँ घटती
हैं उस संबंध
में हैं।
महत्वपूर्ण
हैं, गहरे
इशारे इनमें
मरे हैं। एक—एक
इशारे को
पकड़ना।
सिला
सँवारी राजनै, ताहि
नवै सब कोइ।
रज्जब सिय—सिल
गुरु गटैद, सोइ
पूजि किन होइ।।
राज
पत्थर से एक
मूर्ति बनाता
है,
एक
मूर्तिकार
मूर्ति गढ़ता
है——राम की, —कृष्ण
की, बुद्ध
की, महावीर
की——हजारों
लोग उसकी पूजा
करते हैं।
पत्थर की
मूर्ति की
पूजा करते हैं।
जानते हैं
भलीभाँति——आदमी
ने गढ़ी है, जानते
हैं भलीभाँति ——पत्थर
पत्थर है, चाहे
कितने ही
सुंदर रूप दो,
प्राण नहीं
डाले जा सकते।
बुद्ध की
मूर्ति में
कितना ही खोजो,
बुद्ध कों न
पा सकोगे।
वहाँ कहाँ
बुद्ध? वहाँ
कहाँ चेतना? वहाँ कहाँ
समाधि? पत्थर
की मूर्ति में
खोजने चलोगे
तो पत्थर—ही—पत्थर
पाओगे। धोखा
है।
प्रसिद्ध
झेन गुरु
इक्कू एक
मंदिर में
ठहरा। रात थी
सर्द, उसे
सर्दी लग रही
थी, उसने
बुद्ध की एक
मूर्ति उठा ली——लकड़ी
की मूर्ति थी——और
जलाकर ताप ली।
जब वह आग
जलाकर ताप रहा
था, मंदिर
के पुजारी ने
मंदिर में
अचानक आग जली
देखी तो वह
जागा, भागा
हुआ आया, देखा
तो भरोसा ही
नहीं आया उसे!
इस आदमी को
साधु समझकर
ठहर जाने दिया
था, यह ऐसा
दुष्कृत्य
करेगा कि
भगवान की
मूर्ति जला
देगा, इसकी
तो कल्पना भी
न— थी! और इक्कू जाहिर
साधु था, सारा
देश उसे जानता
था। पुजारी
भौंचक्का खड़ा
रह गया। इक्कू
ने पूछा—इतने
भौंचक्के
क्यों खड़े हो?
बैठो। आँच
ताप लो, सर्दी
बहुत है। उस
पुजारी ने कहा——तुम
पागल तो नहीं
हो गये हो? भगवान
की मूर्ति जला
दी, महापाप
किया है, इससे
बड़ा पातक नहीं
हो सकता। उसकी
बात सुनकर इक्कू
ने पास में
पड़ी अपनी लकड़ी
उठायी, अपना
डंडा उठाया——और
अब मूर्ति तो
जल चुकी थी, अब राख—ही—राख
थी—राख में
डंडा घुमाने
लगा, जैसे
कुछ खोजता हो।
पूछा उस
पुजारी ने——अब
क्या कर रहे
हो? अब
क्या खोज रहे
हो? उसने कहा——मै
बुद्ध की
अस्थियाँ खोज
रहा हूँ,।
पुजारी को भी
हँसी आ गयी।
उसने कहा——तुम
निश्चित पागल
हो। तुम्हारा
कोई कसूर नहीं,
मेरी ही
गल्ती हो गयी
जो मैंने
तुम्हें भीतर
ठहराया। लकड़ी
की मूर्ति में
कहाँ बुद्ध की
अस्थियाँ? अब
इक्कू।' हँसने
की बारी थी।
वह खिलखिला कर
हँसा। उसने.
कहा—तो फिर दो
मूर्तियाँ और
हैं मंदिर में,
उनको भी ले
आओ, अभी
रात बहुत बाकी
है। तापेंगे,
गपशप
करेंगे।
जो
मूर्ति बुद्ध
की है, उसमें
बुद्ध की
अस्थियाँ भी
नहीं हैं, बुद्ध
की आत्मा तो
कहाँ! उसमें
तो कुछ भी
नहीं है, पत्थर
ही है। लेकिन
हमारी आँखें
रूप से अंधी
हो गयी हैं।
आकृति से हम इस
तरह से जुड़
गये हैं कि
पत्थर में भी
आकृति होती है
तो धोखा हो
जाता है। हमने
आकृतियों से
इतना प्रेम
किया है——कभी
स्त्री से, कभी पुरुष
से, कभी
बेटे से, पत्नी
से, पति से,
माँ से, बाप
से, भाई से,
मित्र से——
हमने
आकृतियों से
इतना प्रेम
किया है, और
धीरे—धीरे हमें
आकृति की ऐसी
पकड़ हो गयी है
कि हम पत्थर
की मूर्ति को
भी नमस्कार
करने लगते हैं।
क्योंकि
आकृति वहाँ
दिखायी पड़ती
है। हम भूल ही
गये कि आकृति
के पीछे आत्मा
से प्रेम किया
जाता है।
हमारी
भ्रांति इतनी
लंबी है, सदियों
पुरानी तूँ, जन्मों—जन्मों
पुरानी है, भ्रांति ऐसी
गहन होकर बैठ
गयी है कि कोई
भगवान की
मूर्ति बनाकर
रख देता है, आकृति
दिखायी पड़ती
है, हम
झुके! कैसी हम
मूढ़ता कर रहे
हैं, इसका
हमें बोध भी
नहीं होता!
होगा भी नहीं,
क्योंकि और
भी हजारों झुक
रहे हैं। जब
इतने लोग झुक
रहे हैं तो हम
सोचते हैं— —ठीक
ही होगा, इतने
लोग गलत नहीं
हो सकते।
जार्ज
बर्नार्ड शा
से किसी आदमी
ने कहा——उसने
कुछ वक्तव्य
दिया था, वक्तव्य
ऐसा था कि कोई
राजी न हो।
बर्नार्ड शा
को ऐसे
वक्तव्य देने
की आदत थी।
जैसे उसने
घोषणा कर दी
कि वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पृथ्वी सूरज
का चक्कर
लगाती है यह
बात गलत है। सूरज
ही पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है। अब
बर्नार्ड शा
कोई
वैज्ञानिक
नहीं है, उसे
कहने का यह
कोई हक नहीं
है। किसीने
जाकर कहा कि
यह आप क्या
कहते हैं? सारी
दुनिया अब
मानती है, सारे
वैज्ञानिक
मानते हैं, कि पृथ्वी
ही सूरज का
चक्कर लगाती
है। इतने लोग
मानते हैं तो
गलत न मानते
होंगे।
बर्नार्ड शा
ने कहा——इतने
लोग मानते हैं,
तो बात सही
हो ही नहीं
सकती। इतने
लोग मानते हैं
तो गलत ही
होगी। भीड़ गलत
के साथ ही
इकट्ठी होती
है। सत्य के
साथ भीड़.
इकट्ठी हो
नहीं पाती।
सत्य को तो
विरले चुनते
हैं। रही मेरे
वक्तव्य की
बात, तो
उसने कहा—मेरे
वक्तव्य का
कारण है। मैं
यह मान ही
नहीं सकता कि
मैं जिस
पृथ्वी पर रहता
हूँ, वह
पृथ्वी किसी
का चक्कर लगाए।
जब मैं यहाँ
रहता हूँ, जब
तक मैं यहाँ
हूँ कम—से—कम, तब तक सूरज
ही इस पृथ्वी
का चक्कर
लगाएगा।
वह
आदमी के
अहंकार की
मजाक उड़ा रहा
है। उसने तो
व्यंग्य में
यहु बात कही
थी,
लेकिन एक
बात उसने बड़ी
सार्थक कही कि
इतने लोग
मानते हैं, तो सही नहीं हो
सकता। हमारा
तर्क यही है
कि इतने लोग
मानते हैं तो
सही होगा ही।
इसलिए सारे
दुनिया के
धर्म इस कोशिश
में लगे रहते
हैं कि उनकी
संख्या कैसे
बढ़ जाए।
क्योंकि
संख्या के बल
से ऐसा लगता
है, उनकी
मान्यता सच हो
जाएगी। तुम भी
इसी कोशिश में
होते हो।
तुम्हें डर
होता है कि
अगर अपनी बात
को मानने वाले
तुम अकेले हो
तो तुम्हें
खुद ही संदेह
होता है कि
जरूर कुछ
गल्ती होगी।
कोई और नहीं
मानता, मैं
अकेला मानता
हूँ। अकेला
मैं ही ठीक!
सारी दुनिया
गलत! ऐसे कैसे
हो सकता है? इतने लोग
गलत नहीं हो
सकते।
इसीलिए
हर आदमी अपने
विचार से
दूसरे आदमी को
राजी करने की
कोशिश करता है।
क्यों? अगर
दूसरा राजी हो
जादू तो भरोसा
आता है कि मेरी
बात जरूर ठीक
होगी, देखो
दूसरे ने भी
मानी।
तुम्हें अपनी
बात पर खुद
भरोसा नहीं है,
दूसरे में
भरोसा पैदा हो
जाए तो
तुम्हें अपनी बात
पर भरोसा आ
जाता है। फिर
भीड़ बढ़ने लगे,
तो भरोसा और
बढ़ने लगता है।
ईसाई चाहते
हैं सारी
दुनिया ईसाई
हो जाए, मुसलमान
चाहते हैं
सारी दुनिया
मुसलमान हो जाए,
हिंदू
चाहते हैं
सारी दुनिया
हिंदू हो जाए।
मतलब क्या है?
किसी को
अपनी बात पर
भरोसा नहीं है।
भीड़ हो तो
भरोसा आ।
जितनी बड़ी भीड़
हो जाए उतना
भरोसा आ जाए।
इतने लोग
मानते हैं तो
ठीक ही मानते
होंगे।
तुम
जरा ख्याल
रखना, सावधान
रहना, सत्य
बहुत थोड़े
लोगों के
पल्ले पड़ता है।
क्योंकि सत्य
को अपने आँचल
में लेने के
लिए मिटने की
तैयारी चाहिए।
झूठ सभी के
पल्ले पड़ जाता
है, क्योंकि
झूठ तुमसे कोई
माँग ही नहीं
करता। झूठ तो
कहता है, मैं
मुफ्त मिलने
को तैयार हूँ,
मैं यह रहा,
तुम बस मुझे
ले लो। और झूठ
सब तर्क देता
हैं कि मैं सच
क्यों? सत्य
कोई तर्क ही
नहीं देता।
सत्य तो सिर्फ
घोषणा करता है।
और घोषणा
महँगी है। जो
भी उसे लेने
जाता है, जल
जाता है, राख
हो जाता है।
राख हो जाता
है, तभी ले
पाता है।
तुम
देखते हो रोज, आदमी
मूर्ति गढ़ रहा
है, फिर
मूर्ति एक दिन
बनकर तैयार हो
गयी, फिर
मंदिर में
उसकी स्थापना
हो गयी, फिर
चले तुम पूजा
करने! तुम्हें
कभी यह मी
ख्याल नहीं
आता आदमी की
बनायी हुई मूर्ति
में कहाँ
परमात्मा
होगा? कैसे
परमात्मा
होगा? परमात्मा
शायद मिल भी
जाए वहाँ जो
परमात्मा का
बनाया हुआ है——किसी
वृक्ष में मिल
जाए भला, किसी
पक्षी में मिल
जाए भला, किसी
आदमी में मिल
जाए, किसी
स्त्री में
मिल जाए, मगर
पत्थर की
मूर्ति जो एक
राज ने बनायी
है, उसमें
कैसे मिलेगा?
राज में मिल
भी जाता, मगर
मूर्ति में
नहीं मिल सकता।
लेकिन तुम
मूर्ति की ही
पूजा करते हो।
लाखों लोग कर
रहे हैं, और
लाखों जन्मों
से तुम कर रहे
हो, आदत हो
गयी है।
आदत
का निचोड़ क्या
है?
निचोड़
इतना है, हम
आकृति से बँध
गये हैं।
आकृति के भीतर
आत्मा है या
नहीं, इसकी
भी हमें चिंता
नहीं रही।
आकृति पूरी हो
तो बस सब ठीक
हो गया। और
मजा यह है कि
आक़ृति भी कहाँ
कोई पूरी होती
है! तुमने
परमात्मा देखा
नहीं, कैसे
तुम उसकी
मूर्ति बना
रहे हो? तुम्हारी
सब मूर्तियाँ
सुंदर
पुरुषों की
मूर्तियाँ
हैं; जिनमें
कभी—कभी
परमात्मा की
झलक उतरी थी।
मगर खिड़की को
पकड़ लिया
तुमने। राम की
मूर्ति खिड़की
का ढाँचा है।
राम जब जिंदा
चलते थे इस
जमीन पर, थोड़े—से
लोगों ने
उनमें देख
पाया होगा
परमात्मा।
बहुत थोड़े—से
लोगों ने। कुछ
थोड़े—से
भक्तों ने, कुछ थोड़े—से
शिष्यों ने, जो झुक गये
होंगे
समग्ररूप से।
इस खिड़की में
से झाँका होगा,
परमात्मा
का अनुभव हुआ
होगा, उन्होंने
घोषणा की कि
राम प्रभु के
अवतार हैं, राम भगवान
हैं। तब से
तुम खिड़की की
पूजा कर रहे
हो। तबसे
धनुर्धारी
राम की मूर्ति
बना ली। यह
खिड़की है। बाँसुरी
बजाते हुए
कृष्ण की
मूर्ति खिड़की
है। समाधि में
बैठे बुद्ध की
मूर्ति खिड़की
है। और कई बार
ऐसा होता है
कि बुद्ध
सामने खड़े हो
तो तुम न
पहचानोगे और
बुद्ध की
मूर्ति रखी हो,
तुम जल्दी
झुक जाओगे, तत्क्षण झुक
जाओगे।
कुछ
और भी मनुष्य
के मन की बात
समझ लेनी जरूरी
है।
मुर्दा
चीज के सामने
झुकने में कोई
अड़चन नहीं होती।
अहंकार को चोट
नहीं लगती।
जीवित
व्यक्ति के
सामने झुकने
में अहंकार को
चोट लगती है।
अपने ही जैसे
व्यक्ति के
सामने झुकना!
आखिर बुद्ध
होंगे भगवान, हैं
तो हमारे जैसे—हड्डी—
मांस—मज्जा!
हमारी जैसी
देह, हमारी
जैसी भूख लगती,
प्यास लगती,
रात थकते और
सोते। बच्चे
थे, जवान
हुए, बूढ़े
हुए, मरे——हमारे
जैसे। बीमार
भी होते थे।
बुद्ध के साथ
एक वैद्य
हमेशा चलता था।
वैद्य का नाम
जीवक था। वह
बुद्ध की देह
की चिंता करता
था। तुम अगर
बुद्ध को
देखने जाते और
तुम जीवक को देखते,
तुम कहते——यह
कैसे भगवान? इनको भी
बीमारी होती
है! भगवान को
कैसे बीमारी?
यह भी थक
जाते हैं! यह
भी बूढ़े होने
लगे! इनके भी हाथ—पैर
कँपने लगे! यह
तो फिर हम
जैसे ही
मनुष्य हैं।
हाँ, तुम्हारी
पत्थर की
मूर्ति में एक
खूबी है——बीमार
नहीं होती, भूख नहीं
लगती, प्यास
नहीं लगती, मूर्ति थकती
नहीं, बैठी
है सो बैठी है;
दिन आ जाए, रात आ जाए, बैठी ही
रहती है!
हिंदू दया
करके उसको
लिटा कर सुला
देते हैं। कि
अब महाराज, सोओ!
तुम्हारे
बैठे—बैठे हम
थके जा रहे
हैं! अब आप
विश्राम करो!
झूले पर लिटा
देते हैं, रजाई
ओढ़ा देते हैं
सर्दी हो तो, पट बंद कर
देते हैं कि
अब झंझट छूटे,
नहीं तो यह
बैठे ही हैं, यह अपनी
बाँसुरी बजाए
ही चले जा रहे
हैं!
आखिर
हमें घर भी
जाना है, और भी
हजार काम हैं,
कोई यही काम
थोड़े ही है! तो
रात को पट
इत्यादि बंद
करके ताला
इत्यादि
लगाकर भगवान
को लिटाकर वह
अपने काम में
गये। सुबह फिर
मंदिर खुलेगा,
फिर उनको
उठाएँगे, दतौन
करवा देंगे
हाथ—मुँह धुला
देंगे, नहला
देंगे, स्नान
करवा के फिर
बिठा देंगे।
एक
बात तुमने
देखी, पत्थर
की मूर्ति में
तुम्हें एक
बात साफ हो जाती
कुए——तुम जैसी
नहीं है।
जीवित आदमी तो
तुम जैसा होता
है। तुम जैसा
और तुम जैसा
नहीं। लेकिन
वह जो दूसरा
हिस्सा है, वह तो शिष्य
को दिखायी
पड़ता है। तुम
जैसा सभी को
दिखायी पड़ता
है।
बुद्ध
जब बुद्ध होकर
अपने घर वापिस
लौटे तो बुद्ध
के बाप को भी
दिखायी नहीं
पड़ा कि वह
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गये
हैं। कैसे
दिखायी पड़े? अक्सर
ऐसा हो जाता
है, जिनसे
हमारे बहुत
लगाव हैं, आसक्तियाँ
हैं, जिनको
हमने सदा जाना
है, उनमें
तो दिखायी पड़ना
बहुत ही
मुश्किल हो
जाता है।
बुद्ध के बाप
को कैसे
दिखायी पड़े? जानते हैं
सदा से इस
छोकरे को!
उनके ही घर
में पैदा हुआ,
उनसे ही
पैदा हुआ, बचपन
से जानते हैं।
बुद्ध द्वार
पर आकर खड़े
हैं और बाप
नाराज हैं। और
बाप अपने
गुस्से में
बके जा रहे है——जैसे
सब बाप बकते
हैं। बाप यानी
जो बके! वह बक
रहे हैं, एकदम
गुस्से में
हैं कि तूने
धोखा दिया, तूने
गद्दारी की, मैं बूढ़ा हो
गया हूँ और
मुझे छोड़ कर
भाग गया, यह
कोई बात है? हुक ही तू
मेरा बेटा है,
इकलौता है,
यह सारा
राज्य तेरे
लिए है, तेरे
ही साथ मेरी
सारी आशा जुड़ी
है, मैं
तुझे माफ कर
दूँगा, तू
अब भी लौट आ, अभी भी
क्षमा माँग ले,
मेरे पास
बाप का दिल है,
मैं तुझे
प्रेम करता
हूँ, तेरी
सब भूल—चूक
माफ कर दूँगा,
चल तू आ गया
है, ठीक, घर लौट आया
है, ठीक, यह क्या भिक्षापात्र
इत्यादि लिए
खड़ा हे! हमारे
परिवार में
कभी किमीने
भिक्षा नहीं
माँगी, हम
सदा—सदा से
सम्राट होते
रहे हैं।
क्यों हमारी
बेइज्जती
करवा रहा है? तू इस गाँव
में भीख
माँगेगा! यह
तेरी राजधानी है,
यहाँ गाँव
के गरीब—गुरबे
तुझे भीख
देंगे! —जो हमसे
पलते है। थोड़ी
शर्म खा, थोड़ी
हमारी
प्रतिष्ठा का
ख्याल कर, थोड़ा
मेरे बुढ़ापे
की तरफ देख!
बुद्धत्व
दिखायी नहीं
पड़ रहा, बेटा
दिखायी पड़ रहा
है। बाप नाराज
है।
बुद्ध
ने पता है
क्या कहा? सब
सुना और जब
बाप थोड़े थक
गये, तब
बुद्ध ने कहा
कि एक बार गौर
से मुझे तो
देखें! जो
आपका घर
छोड्कर गया था,
वही भें? वापिस नहीं
लौटा हूँ। तब
से गंगा का
बहुत पानी बह
गया। मैं कोई
और ही होकर
लौटा हूँ। मैं
आपसे कुछ
माँगने नहीं
आया हूँ, कुछ
देने आया हूँ;
ऋण —चूकाने
आया हूँ। मुझे
कोई संपदा मिल
गयी है। आपका
साम्राज्य
ठीक, मुझे
कोई और बड़ा साम्राज्य
मिल गया है, मैं उसमें
आपको भागीदार
बनाने आया हूँ।
लेकिन बाप तो
बाप! बाप ने
कहा——छोड़, मैं
तुझे सदा से
जानता हूँ!
क्या मैं तुझे
पहचानता नहीं?
तू किसी और
को कहना कि तू
दूसरा होकर
आया है, तू
वही है। मेरा
बेटा।
तुम
समझते हो, कठिनाई
क्या हो रही
है?
कठिनाई
यह —हो रही है——बाप
सिर्फ आकृति
को देख रहे
हैं। भीतर जो
घटना घट गयी
है,
जो नया आकाश
खुला है, जो
प्राण ने नया
निखार लिया है,
जो भीतर नया
नाच उठा है, ऊर्जा का, जो नया
स्वरनाद उठ
रहा है, जो
भीतर ओंकार का
जन्म हुआ है, यह जो भीतर
आज परमात्मा
विराजमान हुआ
है——यह मंदिर
अब खाली नहीं
है, इस
मंदिर का
भगवान आ गया
है——लेकिन
इसको देखने के
लिए तो
शिष्यत्व
चाहिए। देखा,
बाप ने भी
देखा, धीरे—धीरे
झुके, धीरे—धीरे
समझे, देखा,
लेकिन पहले
तो इतना ही
दिखायी पड़ा कि
यह मेरा बेटा
वापिस लौट आया।
मेरा बेटा——इतना
ही दिखायी पड़ा।
जिंदा
आदमी के सामने
झुकने में
अड़चन है। पहली
अड़चन, तुम्हारे
ही जैसा।
तुमसे भिन्न
कहाँ? इसलिए
सारे दुनिया
के धर्म अपने
शास्त्रों में
अपने
सद्गुरुओं को
भिन्न बताने
की कोशिश में
एक—दूसरे से
होड़ करते हैं।
ईसाई कहते हैं
कि जीसस का
जन्म क्वाँरी
कन्या से हुआ।
अब यह मूढ़ता
की बात है।
निपट मूढ़ता की
बात। मगर इसके
पीछे कारण
क्या है? कारण
यही है कि
सिद्ध करना
चाहते हैं कि
तुम्हारे
कृष्ण, तुम्हारे
बुद्ध, तुम्हारे
महावीर कुछ
खास नहीं! खास
हैं जीसस, देखो
क्वाँरी
कन्या से जन्म
हुआ! हुआ
कृष्ण का
क्वाँरी
कन्या से जन्म?
जैसे और
आदमी जन्मते
हैं, ऐसे
ही कृष्ण
जन्मे। अब बड़ा
मुश्किल है, हिंदू एकदम
अपनी कहानी
बदल भी नहीं
सकते! कृष्ण
के संबंध में
कहानी वे पहले
ही लिख चुके।
जीसस की कहानी
नयी है।
महावीर की
कहानी लिखी जा
चुकी थी। अब
बदलाहट की
नहीं जा सकती।
मगर उसने भी
अपने—अपने जी
तोड़ कोशिश की
है। यह बात
उनको ख्याल
में नहीं आयी
थी। उनको
दूसरी बातें
ख्याल में आयी
थीं। उनसे तुम
पूछो तो वे
अपनी दूसरी
बातें बताते हैं।
जैन
कहते हैं कि
महावीर को
सर्प ने काटा
तो उनके शरीर
से खून की जगह
दूध बहा। जब
जीसस को मूली
लगी थी तो खून
बहा था। आदमी
जैसे आदमी!
क्या खूबी!
खूबी थी
महावीर को, काटा
साँप ने, दूध
बहा। पागलपन
की बात है।
अगर शरीर में
दूध भरा हो तो
कभी का दही बन
जाए। कोई साँप
के काटने तक
रुका रहता!
कभी के सड़ गये होते
महावीर। दही—ही—दही
की बास आने
लगती। भक्त भी
दूर—दूर बैठते।
शरीर
से कहीं दूध
निकलते हैं? लेकिन
विशिष्टता
बतानी है।
आदमी के मन की
कमजोरी।
बुद्ध
भी बौद्धों के
हाथ में पड़
गये तो उन्होंने
भी छोड़ा नहीं, उन्होंने
भी कहानियाँ
गढ़ लीं; विशिष्टता
सिद्ध करनी ही
होगी।
बौद्धों ने
लिखा है कि
बुद्ध का जन्म
हुआ, खड़े—खड़े
माँ के पेट से
पैदा हुए। खड़े—खड़े!
और एकदम—पैदा
ही हुए खड़े—खड़े,
इतना ही
नहीं——सात कदम
चले भी। और
सात कदम चलकर
अपने
बुद्धत्व की
घोषणा की।
पागलपन की
बातें हैं!
लेकिन
ये कहानियाँ
गढनी पड़ी। ये
कहानियाँ
इसलिए गढनी
पड़ी हैं ताकि
तुम्हें यह
बात समझ में आ
जाए कि
तुम्हारे
जैसे नहीं हैँ, तुमसे
भिन्न हैं।
तुमसे
बिल्कुल
अनूठे हैं।
मुहम्मद
अपने घोड़े पर
चढ़े—चढ़े सीधे
स्वर्ग चले
गये। कम—से—कम
घोड़ा तो छोड़
जाते! घोड़ा भी
ले गये। कुछ—न—कुछ
हमें बनाना
पड़ेगा।
लेकिन
जब आदमी जिंदा
होता है, तब ये
बातें नहीं
बना सकते तुम।
क्योंकि
जिंदा आदमी
तुम्हारी इन
सारी कहानियों
को खंडित कर
देगा। अगर
बुद्ध होते तो
खुद 'ही
हँसते, वह
कहते——यह क्या
पागलपन है? अगर जीसस
होते तो खुद
ही हँसते। अगर
महावीर होते
तो यह खुद ही
हँसते——जैसा
मैं हँस रहा
हूँ ऐसे ही
महावीर हंसते,
वह खुद ही
कहते——मैं दही
हो जाता।... यह
मैं महावीर से
पूछकर ही कह
रहा हूँ। यही
उन्होंने कहा
होता।
लेकिन
जब एक सद्गुरु
विदा हो जाता
है,
तो शिष्यों
के हाथ में
तूलिका होती
है, फिर वे
रंग देते हैं।
फिर मूर्ति को
गढ़ते हैं सब
तरह से, ऐसा
बनाते हैं कि
वह भिन्न
दिखायी पड़ने
लगे, पृथक
दिखायी पड़ने
लगे, सामान्य
न रह जाए, अद्वितीय
हो जाए। भेद
जितना हो जाए
तुम में और
मूर्ति में, उतना ही शुभ
है, तुम्हें
झुकने. में
उतनी ही आसानी
हो जाती है।
फिर, मुर्दा
गुरु के सामने
झुकने में बड़ा
रस होता है, क्योंकि
मुर्दा गुरु
तुम्हारा कुछ
कर नहीं सकता।
जिंदा गुरु
तुम्हें मार
डालेगा।
मुर्दा गुरु
तुम्हें क्या
मारेगा!
मुर्दा गुरु
के तो मालिक
तुम हो, जिंदा
गुरु
तुम्हारा
मालिक हो
जाएगा। जिंदा
गुरु के सामने
झुकना उसके
हाथों में अपनी
गर्दन देना है।
मुर्दा गुरु ए
सामने झुकने
में कुछ अड़चन
नहीं है।
मुर्दा गुरु
तुम्हारे हाथ
में है। जब
सुलाओ, सोएगा;
जब उठाओ, उठेगा, जब
बिठाओ, बैठेगा,
तुम जो
करवाओगे वैसा
करेगा।
मुर्दा गुरु
तुम्हारे
पीछे चलेगा, जिंदा गुरु
के पीछे
तुम्हें चलना
होगा। वहाँ
अड़चन है। वहाँ
कठिनाई है।
इसीलिए लोग
मूर्ति की
पूजा करते हैं,
अतीत की
पूजा करते हैं,
मुर्दों की
पूजा करते हैं।
जीवित सामने
खड़ा रहे, तो
निंदा करते
हैं, विरोध
करते है, इन्कार
करते हैं।
जिंदा को नहीं
मान सकते।
सिला
सँवारी राजनै, ताहि
नवै सब कोइ।
रज्जब
कह रहे हैं, यह
मजा देखो!
किसी
मूर्तिकार ने
मूर्ति बना दी
है और सब उसके सामने
झुक रहे हैं।
रज्जब सिष—सिल
गुरु गढ़ै
और
गुरु शिष्य को
गढ़ता है, शिष्य
की शिला को
गढ़ता है, तोड़ता
है, काटता
है, नया
रूप देता है——नयी
आत्मा!
सोइ पूजै
किन होइ।।
मुश्किल
से कोई इसको
पूजनेवाला
मिलता है।
मुश्किल से!
देखने वाला
मिलता है, पूजनेवाले
की तो बात ही
छोड़ो! पहचानने
वाला मुश्किल
से मिलता है।
तुमने अपने मन
की यह वृत्ति
देखी? अगर
कोई किसी की
निंदा करता हो
तो तुम
तत्क्षण
स्वीकार कर
लेते हो बिना
विवाद के।
निरीक्षण
करना! कोई आकर
कहता है कि
फलाँ आदमी बड़ा
बेईमान है, तो तुम यह
नहीं कहते कि
भई, पहले
प्रमाण दो तब
मानूँगा। कोई
कहता है कि
फलाँ आदमी बड़ा
जालसाज है, चोर, लुच्चा,
तुम
बिल्कुल मान
लेते हो——तुम
एकदम ऐसा
सत्संग करने
लगते हो इस
आदमी का, एकदम
कान—ही—कान हो
जाते हो, तुम
कहते हो, क्या
बात कही! कुछ
और सुनाओ! यह
तो मुझे पता
ही था कि यह
आदमी ऐसा है, आज तुमने
बिल्कुल
सिद्ध कर दिया।
तुम प्रमाण
नहीं माँगते।
और तुम यही
बात दूसरे से
कहोगे. थोड़ा
और मिर्च—मसाला
मिलाओगे।
लेकिन अगर कोई
किसीकी
प्रशंसा करता
हो, कोई
आकर कहे कि
फलाँ आदमी बड़ा
साधु है, बड़ा
सच्चरित्र, ध्यानी, प्रभु
का प्यारा, तुम कहोगे——छोड़ो
बकवास, देख
लिये बहुत प्रभु
के प्यारे, सब धोखाधड़ी
है! सब पाखड है!
कहाँ के साधु?
कहाँ की
बातें' कर
रहे हो, सतयुग
में होते थे
साधु, अब
यह कलियुग चल
रहा है! यह
पंचमकाल चल
रहा है, अब
कहाँ साधु!
भ्रांति में
मत पड़ो, सावधान
रहना, सब
छुपे लुटेरे
हैं, जरा
नींद लग गयी, जेब कट
जाएगी। तुम लाख
प्रमाण
पूछोगे कि
प्रमाण क्या
है?
और
कठिनाई यह है
कि साधुता के
लिए क्या
प्रमाण हो
सकता है? कठिनाई
यह है कि भीतर
किसीके
परमात्मा की
छबि उतरी, इसका
क्या प्रयाण
हो सकता है? कोई प्रमाण
नहीं हो सकता
है और तुम
प्रमाण पूछते
हो। फिर
प्रमाण दिया
नहीं जा सकता,
तो तुम
हँसते हो, तुम
कहते हो——हम
पहले ही कहते
थे!
अपने
मन के इस खेल
को समझना——निंदा
तुम स्वीकार
कर लेते हो, प्रशंसा
तुम स्वीकार
नहीं करते।
क्यों? क्योंकि
जब भी किसीकी
निंदा होती है,
तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है। तुम कहते
हो—इससे तो हम
ही भले। सारी
दुनिया गंदी
है। इसकी तुम
जो घोषणा करते
हो, उसका
यह मतलब नहीं
होता कि सारी
दुनिया की गंदगी
से तुम्हें
कोई एतराज है,
तुम यही कह
रहे हो कि
मेरे सिवाय यहाँ
सब गड़बड़ है।
इसलिए तुम रोज
जल्दी से सुबह
उठकर अखबार
पढ़ते हो। और
जिस अखबार में
जितनी ज्यादा
हत्याओं की, चोरियों की,
बेईमानियो
की खबरें हों,
उसको उतने
ही रसविमुग्ध
होकर पढ़ते हो।
अखबार पढ़कर
तुम निश्चित
शो जाते हो, चित्त हल्का
हो जाता है।
तुम कहते हों——इनसे
तो हम ही
बेहतर ' इससे
तो हम ही
ज्यादा
सच्चरित्र!
इतना बुरा तो
हमने भी नहीं
किया।
लेकिन
अगर कोई
किसीकी
प्रशंसा करता
हो तो
तुम्हारे मन
में चोट पड़ती
है। तो हमसे
भी कोई बेहतर
है इस दुनिया
में। अहंकार
को अड़चन आती
है। तुम
स्वीकार नहीं
करना चाहते।
तुम्हारे मन
में सहज भाव
अस्वीकार का
उठता है।
रज्जब कह रहे
हैं कि बड़ी
अजीब बात है, कोई
राज पत्थर की
मूर्ति बना
देता है, लोग
पूजने चल पड़ते
हैं, और
कोई गुरु
जीवंत
परमात्मा को
उतार देता है
शिष्यों में,
तो भी पूजा
करने वाला
मुश्किल है।
पूजा करने
वाला दूर, स्वीकार
करने वाला
मुश्किल', अंगीकार
करने वाला
मुश्किल।
स्वीकार—अंगीकार
करने वाला दूर,
जो विपरीत न
हो जाए, विरोध
में न हो जाए, ऐसा आदमी
मुश्किल। जो
मिटाने को
तैयार न हो
जाए, ऐसा
आदमी मुश्किल।
कोई मानने को
राजी नहीं
होता कि तुम
ध्यान को उपलब्ध
हो गये। कोई
मानने को राजी
नहीं होता कि
तुम प्रार्थना
को उपलब्ध हो
गये, कि
तुम्हें
समाधि उपलब्ध
हुई।
गुरु
ज्ञाता
परजापती सेवक
माटी रूप।
शिष्य
तो मिट्टी की
तरह आता है
गुरु के पास।
तोड़ता गुरु, निर्माण
करता, परमात्मा
को आवाहन करता,
स्थिति
बनाता
परमात्मा को
पुकारने को, शिष्य की
क्यारी को
तैयार करता है,
बीज बोता है,
आकाश से
बादलों को
पुकारता है, सूरज को
पुकारता है, सारे
अस्तित्व को
निमंत्रण
देता है कि
क्यारी तैयार
हो गयी है, बीज
भ1ई डाले जा
चुके हैं, आओ
मेघ, बरसो,
आओ सूरज, फेंको अपनी
किरणें! इधर
शिष्य को
तैयार करता है,
उधर
परमात्मा को
आमंत्रित
करता है। गुरु
का यही दो काम
है। इस तरफ
शिष्य की
तैयारी कि वह
पात्र बन जाए
और उधर
परमात्मा को
पुकार, कि
जब शिष्य
पात्र बन कर
तैयार हो तो
परमात्मा
उसमें बरसे और
परमात्मा
उसमें भर जाए।
पत्थरों की
मूर्तियों
में नहीं
परमात्मा उतरता
है। मुण्मय
में परमात्मा
नहीं उतरता, चिन्मय में
परमात्मा
उतरता है।
किसी में
तेरे खदो—खाल
का जमाल न था
बना बना के
मिटाता रहा
हूँ तस्वीरें
तुम
बनाते रहो
तस्वीरें, तुम्हारी
सब तस्वीरें
तुम्हें गलत
मालूम पड़ेगी,
क्योंकि किसी
में भी उसका
नक्श न उतरेगा,
उसका रूप न
उतरेगा, उसका
सौंदर्य न
उतरेगा।
किसी
में तेरे खदो—खाल
का जमाल न था
किसीमें
वह सौंदर्य
नहीं है।
बना
बना के मिटाता
रहा हूँ
तस्वीरें
कितनी
मूर्तियाँ
आदमी ने
परमात्मा की
गढ़ी हैं, मिटायी
हैं, फिर
बनायी हें? कितने चित्र
रंगे हैं, फिर
रंग भरे, फिर
रंग भरे, सदियों
से आदमी यही
करता रहा।
गुरु कुछ और
प्रक्रिया
करता है।
शिष्य को
सिर्फ भूमिका
बनाता है।
शिष्य की
मिट्टी से
सिर्फ घड़ा
तैयार करता है।
परमात्मा भर
जाता है, जब
भी तुम्हारी
पात्रता पूरी
होती है।
तत्क्षण घटना
घट जाती है, एक क्षण का
भी व्यवधान
नहीं होता है।
गुरु ज्ञाता
परजापती...
इसलिए
रज्जब कहते
हैं कि गुरु न
केवल ज्ञाता है, जानने
वाला है
प्रजापति भी
है, निर्माता
भी है।
सेवक माटी
रूप।
रज्जब रज
सूं फेरिकै, घडिले
कुंभ अनूप।।
मिट्टी
को फेर—फेर कर, मिट्टी
को निर्मित कर—कर
के उस अद्भुत
कुंभ को बना
लेता है, उस
अद्भुत घड़े को
बना लेता है—घडिले
कुंभ अनूप——जिसमें
निराकार उतर
आता है, अरूप
उतर आता है, उस अद्वितीय
घड़े को भर
लेता है। कुंभ
का अर्थ यही
होता है। जिस
दिन शिष्य का
घड़ा तैयार हो
गया, जिस
दिन शिष्य की
पाव्रता
तैयार हो गयी,
जिस दिन
शिष्य कुंभ हो
गया, अब
अपनी तरफ से
कोई कमी न रही,
अब सिर्फ
उसकी
प्रतीक्षा है,
अपनी तरफ से
कोई अड़चन—अटकाव
— नहीं है, अपनी
तरफ से सब
बाधाएँ हटा दी
हैं। कुंभ
भीतर के पात्र
का निर्माण है।
ज्यूं
धोबी की धमस
सहि, ऊजल
होइ कुचीर।
और
जैसे धोबी
पीटता है
कपड़ों को और
गंदे कपड़े स्वच्छ
होने लगते——
त्यूं सिष
तालिब निरमला, मार
सहे गुरु पीर।।
जो
गुरु की मार
सहने को तैयार
हो जाता है, वही
निर्मल हो
जाता है। वही
खोजी कुंभ बन
पाता है।
त्यूं सिष
तालिब निरमला, मार
सहे गुरु पीर।
बड़ी
तैयारी चाहिए, बड़ा
साहस चाहिए, जोखिम उठाने
की कूबत चाहिए।
जोखम भारी है!
कौन जाने कुंभ
बनेगा कि नहीं
बनेगा? बना—बनाया
मिट जाए, हाथ
की आधी रोटी
छूट जाए और
पूरी रोटी न मिले,
क्या पता? दुनिया भी
समझदारी कहती
है—हाथ की आधी
रोटी भी दूर
की पूरी रोटी
के लिए मत छोड़ना।
हाथ की आधी
भली।
लेकिन
शिष्य के पास
जाकर तो गणित
पूरा उलटना पड़ता
है। वहाँ
दूसरे गणित
लागू होते हैं।
अगर वहाँ पूरा—पूरा
छोड़ोगे, तो ही
पूरा—पूरा फिर
पाने के हकदार
बनोगे। वहाँ
जरा—सी कंजूसी
की, उतनी
ही कमी रह
जाएगी। उतना
ही घड़े में
छेद रह जाएगा।
निन्यानबे
प्रतिशत गुरु
के साथ रहे और
एक प्रतिशत
साथ न रहे, उतना
ही छेद रह
जाएगा। उतना
ही छेद काफी
है—घडे में
कोई हजार छेद
थोड़े ही जरूरी
हैं उसे खाली
रखने को! एक
छेद भी काफी
है। नाव में
हजार छेद थोड़े
ही चाहिए
डुबाने के लिए,
एक छेद भी
काफी है।
अछिद्र होना
पड़ेगा। सौ
प्रतिशत गुरु
के साथ होना
पड़ेगा।
सौ
प्रतिशत साथ
होना कठिन
मामला है।
दुर्गम है। सौ
प्रतिशत साथ
वे ही हो सकते
हैं,
जो अपने
अहंकार को
पूरा झुकाने
को राजी हों।
अहंकार कहेगा——थोड़ा
सँभाल कर चलो,
थोड़ा बचा कर
चलो, थोड़े
दूर—दूर रहो, अड़चन ज्यादा
आ जाए तो निकल
भागने का अवसर
रहे, एकदम
पास मत चले
जाओ कि निकल न
सको बाहर...
यहाँ मैं
जानता हूँ ऐसे
लोग भी
संन्यस्त हो
जाते हैं जो
फासला रखते
हैं, जो
दूरी—दूरी रखते
हैं, जो
होशियारी से
संन्यासी हैं,
जो कहते हैं
कुछ होता हो
तो देख लें, कुछ न होता
हो तो निकल
भागेंगे; हमेशा
वहाँ खड़े रहते
हैं परिधि पर,
केंद्र तक
नहीं आते, क्योंकि
केद्र पर आ
जाएँगे तो फिर
नहीं भाग सकेगे।
यहाँ
कभी हो जाता
है,
ऐसा होता है,
जिनको जाना
है, या सोच
कर आए हैं कि
पता नहीं
सत्संग जमे न
जमे, वे
दूर बैठ जाते
हैं, किनारे
पर बैठ जाते
हैं, क्योंकि
वहाँ से
निकलने में
सुविधा रहेगी।
अगर जाना हो
बीच सत्संग से
उठकर तो
किनारे से निकल
जाने में
आसानी रहेगी।
ऐसे ही लोग
किनारे पर खड़े
रहते हैं, इस
ख्याल में कि
क्या पता? दोनों
नाव में पैर
रखते हें। एक
पैर गुरु के
नाव में रख
देते हैं, एक
पैर अपना
पुराना संसार
में जमाए खड़े
रहते हैं, कि
अगर कहीं गड़बड़
हो जाए तो ऐसा
न हो कि न घर के
रहे न घाट के!
कहीं ऐसा न हो
कि दोनों गये,
माया मिली न
राम। राम
मिलते हों तो
ठीक, न
मिलते हों तो
कम—से—कम माया
बची रहे।
इतनी
होशियारी से
जो गुरु के
पास आएगा, वह
नहीं आ पाएगा।
होशियार और
गुरु का संबंध
नहीं बनता।
चतुर चूक जाते
हैं। गुरु से
संबंध उनका
बनता है, जो
सरल हैं, भोले—भाले
हैं। जो कहते
हैं? बहुत—से—बहुत
यही होगा न कि
मिटेंगे, ऐसे
रह कर भी क्या
पाया है? चलो,
अच्छे
हाथों से मिटे,
यह भी कम
सौभाग्य नहीं!
ऐसे प्यारे
हाथों से मिटे,
यह भी कुछ
कम सौभाग्य
नहीं! मिटना
तो था ही, मरना
तो था ही, यमदूत
आते, उनके
हाथ से मिटते,
सद्गुरु के
हाथ से मिट
गये, यह
अच्छा! कम—से—कम
मरने में एक
प्रसाद तो
होगा, एक सौंदर्य
तो होगा! कम—से—कम
परमात्मा को
खोजने की राह
पर मिटे, यह
तो आनंद होगा।
धन को खोजते—खोजते
भी मिटते हैं
लोग, हम
परमात्मा को
खोजते—खोजते
मिटे। अगर
कहीं भी कोई परमात्मा
है, अगर
कहीं भी कोई
संभावना है, तो यह भी
क्या कम है कि
हम उसे खोजते
थे। यह भी
क्या कम
सौभाग्य है!
बिरहिण
बिहरे रैनदिन, बिन
देखे दीदार।
शिष्य
तो रात—दिन
गुरु के साथ
हो जाता है।
रात—दिन बिरह
में जीने लगता
है। और गुरु
सिखाएगा क्या? गुरु
उसके मिलन की
बातें करेगा,
ताकि
तुम्हारे
भीतर विरह
पैदा हो। इस
कीमिया को समझ
लेना।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप
परमात्मा के
मिलन की, मोक्ष
की, निर्वाण
की ऐसी बात
करते हैं, इतनी
बात करते हें,
क्यों? सिर्फ
विधि की बात
करें कि उस तक
हम कैसे पहुँचे।
पहुँचेंगे तब
हम देख लेंगे
कि क्या होगा?
यह विधि ही
है। तुम्हें
पता भी नहीं
चल रहा है। यह
परमात्मा के
मिलन की, निर्वाण
की, मुक्ति
की, यह जो
रस की बात कर
रहा हूँ, यह
तुम्हारे
भीतर विरह जगे,
इसलिए।
मिलन में जब
रस जगेगा, तो
ही तो विरह
में अग्नि
पैदा होगी। जब
तुम दीवाने
होने लगोगे
उसे पाने को, जितने तुम
दीवाने होने
लगोगे उतने ही
तुम्हारे
भीतर दिन—रात
एक सतत
अंतर्धारा
बहने लगेगी, आँसू बहने
लगेंगे।
बिरहिण बिहरे
रैनदिन, बिन
देखे दीदार।
खूब उसकी
तस्वीर:
खींचता हूँ, जानते हुए
कि उसकी कोई
तस्वीर नहीं
बन सकती; खूब
उसके रूप—रंग
और सौंदर्य और
आनंद का वर्णन
करता हूँ, जानते
हुए कि कोई भी
शब्द उसके साथ
न्याय नहीं कर
सकते, पर
इसी कारण करता
हूँ—तुम्हारे
भीतर उसके
दीदार का भाव
पैदा हो; तुम्हारे
भीतर यह
महत्वाकांक्षा
पैदा हो, यह
अभीप्सा जगे
कि देखना है, कि सब भी
दाँव पर लगता
हो तो भी
देखना है, कि
परमात्मा को
बिना देखे इस
संसार से नहीं
जाना है', ये
आँखें उसे
देखकर ही बंद
होंगी, ऐसी
उत्कंठा जगे।
कुछ
मुहब्बत के गम, कुछ
जमाने के गम
यूँ भी
नाशाद हम, यूं
भी नाशाद हम
जिंदगी का
सफर है कि
वादा तेरा
जिस जगह से
उठे थे वहीं
हैं कदम
कौन जाने
मुलाकात फिर
हो न हो
आज ही
क्यों न खोलें
फरेबे—करम
दिल की
दूरी तो है
खेल तकदीर का
फासले
क्या नजर के
भी होंगे न कम
चलो
दूरी रहे
परमात्मा से, अनंत
दूरी रहे तो
रहे, कम—से—कम
नजर में तो
परमात्मा आ
जाए। रात दूर
के तारे भी
देखकर एक
रसधार बह जाती
है। तारों को
कुछ हाथ में
ही लेना तो
जरूरी नहीं है।
दिल की
दूरी तो है
खेल तकदीर का
फासले
क्या नजर के
भी होंगे न कम
दीदार
का अर्थ होता
है,
कम—से—कम
नजर का फासला
तो उठे, कम—से—कम
नजर से नजर तो
मिले। अनंत
रहा आए फासला
कोई बात नहीं,
एक बार यह
भरोसा तो आ
जाए, यह
अनुभव तो आ
जाए कि
परमात्मा है।
परमात्मा
शब्द ही न रह
जाए, कहीं
छोटी—सी किरण
कौंध जाए, अनुभव
बन जाए।
आप दिल' के
करीब हैं फिर
भी
अंखि
दीदार को
तरसती है
याद गुजरे
हुए जमाने की
एक नागिन
है दिल को
डसती है
‘आप दिल के
करीब हैं फिर
भी, आँख
दीदार को
तरसती है'।
और परमात्मा
पास है, पास—से—भी
पास, तुम
भी अपने इतने
पास नहीं हो
जितना
परमात्मा तुम्हारे
पास है, लेकिन
फिर भी अंखिं
दीदार को
तरसती है।
देखना चाहते
हैं, पहचानना
चाहते हैं, छूना चाहते
हैं, उसकी
सुगंध लेना
चाहते हैं, उसका स्वाद
लेना चाहते
हैं। यह स्वाद
कैसे जगेगा? यह स्वाद की
अभीप्सा कैसे
पैदा होगी?
सत्संग
का एक ही
प्रयोजन है, जिसने
पा लिया है
उसे, वह
कुछ—कुछ उसकी
कहानी तुमसे
कहे, उसका
गुणगान करे, उसको पाकर
जो उसे मिल
गया और जो
खोया हैं, वह
तुमसे कहे कि
व्यर्थ खोया
है, सार्थक
पाया है, अपना
दिल तुम्हारे
सामने खोल कर
रखे। मगर दिल
तो उन्हीं के
सामने खोल कर
रखे जा सकते
हैं जो झुक
गये हों।
शिष्य के अतिरिक्त
सत्संग नहीं
हो सकता।
सुनने वालों
से सत्संग
नहीं होता, सत्संग कोई
मनोरंजन नहीं
है, सत्संग
कोई सभा नहीं
है, कोई
व्याख्यान
इत्यादि नहीं
है, सत्संग
तो जो खोज रहा
है उसके बीच
और जिसे मिल गया
है उसके बीच
एक नृत्य है
ऊर्जा का। एक
अंतर्मिलन है,
एक भाँति का
अंतर्संभोग
है—आत्मा से
आत्मा का, अस्तित्व
से अस्तित्व
का।
बिरहिण
बिहरे रैनदिन, बिन
देखे दीदार।
जन रज्जब
जलती रहै, जाग्या
बिरह अपार।।
सत्संग
में विरह जगना
शुरू होता है।
आग जलती है
फिर,
ऐसी आग जो
फिर बुझाए
नहीं बुझती, ऐसी आग फिर
जिसे कोई और
जल नहीं बुझा
सकता जब तक कि
परमात्मा का
जल ही न बरसे।
तो सद्गुरु
पर: नाराजगी
भी होती है।
शिष्य —शुद्ध
भी होता है।
कई बार लगता
है, पहले
ही अच्छे थे, चल तो रहे थे,
अपनी जिंदगी
एक ढाँचे में
बँधी जाती थी,
न ज्यादा
होश था, न
ज्यादा फिकिर
थी, सब ठीक—ठाक
था, औरों
जैसे ही थे, यह नयी अभीप्सा
जगा दी, यह
नयी आग पैदा
कर दी। और एक
ऐसी प्यास
जिसको बुझाने
का इस संसार
में कोई उपाय
नहीं, कोई
सरोवर नहीं जो
इस प्यास को
बुझा दे।
सत्संग में
तुम्हें याद
दिलायी जाती
है कि तुम हंस
हो और
मानसरोवर
चलना है। उड़
चल हंसा वा
देश। तुम मजे
से स्वने लगे
थे बगुलों के
साथ, भूल
ही गये थे; अपना
हंस होना, सोचते
थे मैं भी
बगुला हूँ, बगुलों के
साथ बगुला भगत
होकर खड़े हो
गये थे, पूजा
भी कर लेते थे,
मंदिर—
मस्जिद भी हो
आते थे, गुरुद्वारा
भी हो आते थे, सब कर लेते
थे, मगर थे
बगुला भगत!
ऊपर—ऊपर सब था,
भीतर
आकांक्षा
मछली को पकड़ने
की थी। ऊँची—ऊँची
उड़ानें भी
भरते थे, लेकिन
नजर नीचे ही
लगी रहती थी।
रामकृष्ण
कहते थे, चील
बड़ी ऊँची उड़ती
है, मगर
नजर नीचे लगी
रहती है; कहीं
कूड़ा—करकट के
ढेर पर कोई
चूहा मरा पड़ा
हो, नजर
वहाँ लगी रहती
है। बड़ी ऊँची
उड़ती है और
नजर बड़ी नीची
लगी रहती है।
लोग मंदिरों
में बैठे होते
हैं, नजर
दुकानों पर
लगी होती है।
हाथ में माला
जपते रहते हैं,
भीतर राम का
कोई पता ही
नहीं होता, सब तरह की
कामनाएँ उठती
रहती हैं।
सत्संग
का अर्थ है, तुम्हें
झकझोर कर जगा
देना कि तुम
क्या कर रहे
हो? यह
तुम्हारे
योग्य नहीं।
तुम मानसरोवर
के लिए बने हो।
तुम हंस हो।
मगर तब अड़चन
शुरू होती है।
अड़चन यह शुरू
होती है, अगर
हम हंस हैं, मानसरोवर
कहाँ है? मानसरोवर
तो बहुत दूर
लंबी यात्रा
है, दुर्गम
यात्रा है, पहुँच पाओ न
पहुँच पाओ।
मानसरोवर की
प्यास जग गयी,
अब यह ताल—तलैयों
के पास रस
नहीं आता, हंसों
की जमघट में
बैठने का
ख्याल आ गया, अब ये बगुले
जँचते नहीं, अब बड़ी
मुश्किल हो
गयी। अब बड़ी
फाँसी लग गयी।
शिष्य की यही
फाँसी है।
जीसस ने कहा
है, जो
अपनी सूली को
अपने कंधे पर
लेकर चलेंगे,
वे ही पहुँच
पाएँगे। इसी
फाँसी की
चर्चा की है, इसी सूली की
चर्चा की है।
जन रज्जब
जलती रहै, जाग्या
बिरह अपार।।
ऐसा
विरह जगता है
जिसका कोई पार
नहीं है। अपार
को पाने चले
तो अपार विरह
से कीमत चुकानी
पड़ती है।
तेरी
उल्फत की
चिंगारी ने
जालिम! एक
जहाँ फूँका
इधर चमकी, उधर
सुलगी, यहाँ
फूंका वहाँ
फूँका
सब
तरफ आग जल
जाती है। फिर
यहाँ कोई वसंत
मालूम नहीं
पड़ता, सब पतझड—ही—पतझड़
हो जाता है।
देखा तो
खुशी के फूल
खिले, सोचा
तो गमों की
धूल उड़ी
कहते हैं
बहारां लोग
जिसे, वह एक
साया पतझड का
है
जब
समझ आनी शुरू
होती है, जब
गुरु की वाणी
उतरनी शुरू
होती है, जब
गुरु—वाणी कै
अर्थ भीतर
खुलने शुरू
होते हैं, जब
उन शब्दों की
बूंदें भीतर
धीरे—धीरे, धीरे—धीरे
हृदय तक
पहुँचने लगती
हैं, तो
पता चलता हैं——यहाँ
वसंत जिसको
समझा था, वह
पतझड़ का अंग
था। वह केवल
पतझड़ का ही एक
ढंग था। उसके
बिना पतझड़
नहीं हो सकता
था, इसलिए
था। वसंत भी
इसीलिए था
ताकि पतझड़ हो
सके। यहाँ
जिंदगी मरने
का एक ढंग है।
यहाँ जिंदगी
एक लंबा मरण
है, हुक
लंबी मौत का
सिलसिला, धीमे—धीमे
मरते जाना, रोज—रोज
मरते जाना।
यहाँ प्रेम
प्रेम का धोखा
है। यहाँ
प्रकाश बस
बाहर—बाह्र है
और भीतर गहन
अँधेरा है।
यहाँ की सब
रोशनी दो कौड़ी
की है।
'बिरहिण
बिहरे रैनदिन'। जब यह समझ
में आए, तो
फिर न दिन है न
रात है, फिर
तो विरह—ही—विरह
है। बड़ी
कठिनाई होती
है विरह के इन
क्षणों में।
बड़े अनूठे
अनुभव होते
हैं। पल भर, घड़ी भर नींद
भी नहीं लग
पाती कि विरह
जगा जाता है।
आहटों के
फरेब में मत आ
उनका क्या
एतबार सोने दे
जरा—सी
आहट होती है, लगता
है कि शायद आ
गया जिसकी
तलाश थी, जरा
ध्यान में एक
तरंग उठती है,
लगता है आ
गया जिसकी
तलाश थी
जरा प्रार्थना
में रस उमगता
है, लगता
है आ गया
जिसकी तलाश थी।
आहटों के
फरेब में मत आ
उनका क्या
एतबार सोने दे
नींद
लगती ही नहीं।
नींद लग ही
नहीं सकती। जब
विरह जलता है, तो
कैसी नींद? सबसे पहले
नींद जल जाती
है। कैसा
विश्राम? सबसे
पहले विश्राम
जल' .जाता
है। कहाँ
विश्राम? मनुष्य
एक धधकती आग
हो जाता है।
बिरहा—पावक
उर बसै...
आग हृदय
में बस जाती
है।
बिरहा—पावक
उर बसै, नख
सिख जालै देह।
रज्जब
ऊपरि रहम करि, बरसौ
मोहन मेह।।
आग
लग गयी हृदय
में,
एक ही स्वर
गूँजता रहता
है——
रज्जब
ऊपरि रहम करि, बरसौ
मोहन मेह।।
हे
प्रभु, अब
बरसो। अब बरसो।
और कब तक
तड़फाओगे? और
कब तक म्लाओगे?
लाते नहीं
जो मुझको
तसव्वुर में
भी कभी
आते हैं
किसलिए मेरे
बज्में—ख्याल
में?
और
आते नहीं हो, तो
फिर ख्याल में
क्यों आते हो?
और जब मेरी
तुम्हें बाद
नहीं, तो
फिर मेरी याद
में क्यों आते
हो?
लाते
नहीं जो मुझको
तसव्वुर में
भी कभी, तुम्हारे
सपनों में तो
तुम मुझे कभी
नहीं आने देते,
तुम्हारे
विचारों की
तरंगों में
तुम मुझे कभी
याद भी नहीं
करते हो, तुम्हें
तो मेरी सुध
भी नहीं है——
लाते नहीं
जो मुझको
तसव्वुर में
भी कभी
आते हैं
किसलिए मेरे
बज्में—ख्याल
में?
——तो फिर मेरा
क्यों पीछा कर
रहे हो? फिर
मेरे ख्यालों
की दुनिया में
क्यों आए चले जाते
हो? रोता
है भक्त, गिड़गिड़ाता
है भक्त, जलता
है, तडुफता
है, जैसे
कोई मछली को
पानी से निकाल
दे, भर—दुपहरी
में आग—सी
जलती रेत पर
पटक दे, ऐसे
भक्त की दशा
हो जाती है।
इतने विरह से
जो गुजरता हुऐ,
वही उस परम
मिलन को
उपलब्ध होता
है। भक्ति
सस्ती नहीं है।
तुमने
सुना होगा, तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं को
कहते हुए कि
यह कलियुग चल
रहा है और
भक्ति का उपाय
बड़ा सुगम है; इस जमाने के
लिए, इस
समय के लिए भक्ति
का उपाय ही
एकमात्र उपाय
है। तुम
भ्रांति में
मत पड़ जाना।
कौन नासमझ कह
रहा है कि
भक्ति का उपाय
सुगम है? सिर्फ
इसलिए सुगम है
कि इसमें सिद्धासन
मारकर नहीं
बैठना पड़ता? इसलिए सुगम
है कि
शीर्षासन
नहीं करना
पड़ता? इसलिए
स्रुगम है कि
प्राणायाम
इत्यादि नहीं करना
पड़ता? प्राणायाम
और शीर्षासन
और सिद्धासन
कौन—से कठिन
हैं। महीने—दो
महीने के
अभ्यास से आ
जाएँगे। शरीर
की कवायदें
हैं, उनमें
क्या कठिनाई
हो सकती है!
क्या इसीलिए
कठिन हैं कि
इसमें व्रत—उपवास
इत्यादि का
आग्रह है? करोड़ों
लोग बिना व्रत,—
उपवास किये
अधभूखे हैं और
जी रहे हैं, कोई बहुत
कठिन बात नहीं
हो सकती। थोडा
अभ्यास करोगे,
यह भी हो
जाएगा।
अफ्रीका
में एक जाति
सिर्फ एक ही
बार भोजन करती
है। जब तक वे सभ्यता
के और दूसरे
रूपों के
संपर्क में
नहीं आए थे, उन्हें
पता ही नहीं
था कि लोग दो
दफे भोजन करते
हैं। भारत में
हम दो दफे
भोजन करते थे,
जब से
पश्चिम के
संपर्क में आए
तब से पता चला
कि कम—से—कम
पाँच बार किया
जा सकता है।
आस्ट्रेलिया
में एक कबीला
दो दिन में एक
ही बार भोजन
करता है।
सदियों से यही
उनकी आदत है।
शरीर हर
स्थिति .में
समायोजित कर
लेता है अपने
को। एक बार
भोजन करो तो
भी धीरे—धीरे
अभयास हो जाता
है—फिर एक ही
बार भूख लगती
है। और पाँच
बार करो तो
पाँच बार भूख
लगती है। शरीर
और मन आदतों
से जीते हैं।
इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि
उपवास—व्रत
इत्यादि में
कोई बड़ी भारी
दुर्गमता है।
कोई भी कर ले
सकता है। बड़ी
बुद्धिमत्ता
की भी जरूरत
नहीं है। सच
तो यह है, जिनमें
जितनी बुद्धि
कम है, उतनी
आसानी से कर
लेते हें।
बुद्धि है ही
नहीं, सिर
के बल खड़े भी
हो गये तो
तुम्हारा
हर्जा क्या
होने वाला है?
क्योंकि
जिसके पास
बुद्धि है, अगर ज्यादा
देर सिर के बल
खड़ा होगा तो
बुद्धि गँवा
बैठेगा।
तुमने कभी सिर
के बल खड़े
लोगों को बहुत
बुद्धिमान
देखा? कोई
उनके जीवन में
तुमने
प्रतिभा की
चमक देखी?
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर सिर की
तरफ खून का
प्रवाह बहुत
ज्यादा हो जाए—
जोकि
शीर्षासन में
हो जाता है, क्योंकि
खून जमीन की
तरफ बहता है, एकदम से
तीव्र धार खून
की सिर की तरफ
बहती है, सारा
खून सिर की
तरफ जाने लगता
है। साधारण
स्थिति में
तुम जब खड़े
होते हो तो
सिर में सबसे
कम खून
पहुँचता है, क्योंकि
गुरुत्वाकर्षण
के विपरीत खून
को चलना पड़ता
है, उल्टा
जाना पड़ता है,
कठिन चढाई
हो जाती है।
चढ़ाई कठिन है।
जब तुम सिर के
बल खड़े होते
हो; खून
पूरा—का—पूरा
सिर की तरफ
जाता है। खून
की अगर जोर से
बाढ़ चली जाए
सिर की तरफ तो
सिर बड़े छोटे
तंतुओं से
मिलकर बना है——सात
करोड़ तंतुओं
से मिलकर बना
है—बड़े छोटे तंतु।
इतने बारीक
हैं कि बाल भी
तुम्हारा
बहुत मोटा
न्एए०। एक लाख
तंतुओं को एक
के ऊपर एक
रखें तो एक
बाल के बराबर
होता है। जरा
तुम सोचो! और
उनसे
तुम्हारी
प्रतिभा है।
जितने
सूक्ष्म तंतु
होते हैं जिस
आदमी के पास, उसकी प्रतिभा
उतनी ही महान
होती है। सिर
के बल खड़े
होकर वह तंतु
टूट जाते हैं
खून के प्रवाह
में, वे तंतु
नहीं बच सकते।
इसलिए अक्सर
तुम्हारे
योगी जड़ और
बुद्धिहीन दिखायी
पड़ते हैं। कोई
बहुत
बुद्धिमत्ता
की जरूरत भी
नहीं है।
तुम
यह तथाकथित
साधुओं की बात
में मत पड़
जाना, जो कहते
हैं—कलयुग मेँ
भक्ति ही
एकमात्र उपाय
है क्योंकि सुगम
है। सुगम तो
नहीं है।
प्रेम सुगम है?
पागल हुए हो
' होश की
बातें कर रहे
हो? कुछ
प्रेम का पता
है? प्रेम
से दुर्गम और
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
प्रेम जलाता
है, तड़फाता
है, आग में
डाल देता है——
मछली की तरह
तड़फाता है।
बिरहा—पावक
उर बसै, नखसिख
जालै देह।
रज्जब
ऊपरि रहम करि, बरसौ
मोहन मेह।।
कुको
ईमा की कोई
बात नहीं है
इसमें
रास
दुनिया न
जिन्हें आयी
वह दीदार बने
जिनको
पीने का सलीका
है वे प्यासे
हैं 'कतील'
जितने कम—जर्फ
थे इस दौर में
मैख्वार बने
जो
यहाँ की छोटी—मोटी
चीजें पीने
में लगे हैं—शराब
इत्यादि——कमजर्फ
हैं। उनकी कोई
पात्रता नहीं
है,
योग्यता
नहीं है। जो
असली पियक्कड़
हैं, वे तो
परमात्मा को
पीने के लिए
आतुर हैं। और
किसी प्यास को
बुझाने की
उनकी
आकांक्षा नहीं,
किसी और चीज
से प्यास को बुझाने
की उनकी
आकांक्षा
नहीं।
जिनको
पीने का सलीका
है वे प्यासे
हैं 'कतील '
जो
पीना सच में
जानते हैं, वे
उसके मधु की
तलाश कर रहे
हैं, वे
उसकी मधुशाला
खोज रहे हैं, इस संसार की
कोई मधुशाला
उन्हें तृप्त
नहीं कर सकती।
जिनको
पीने का सलीका
है वे प्यासे
हैं 'कतील'
जितने कम—जर्फ
थे इस दौर में
मैख्वार बने
जिनकी
कोई पाढता
नहीं, योग्यता
नहीं, बुद्धि
नहीं, समझ
नहीं, वे
यहाँ छोटी—
छोटी चीज़ें पी
कर मैख्वार बन
गये हैं, पियक्कड़
कहला रहे हैं।
अगर पीना हो
तो परमात्मा
को पीओ। बहुत
बठे रह चुके
गंदे नदी—तालाबों
के किनारे, अब मान—
सरोवर चलो!
उठो हंस, फैलाओ
अपने पंख——उड़ चल
वा देश! यह देश
तुम्हारा देश
नहीं है। यह
घर तुम्हारा
घर नहीं है।
सराय को घर
समझ लिया है।
तलैयों को
मानसरोवर समझ
लिया है।
मर्त्य को
अमृत समझ लिया
है। क्षुद्र
को विराट समझ
लिया है। फिर
अगर दुखी हो
रहे हो तो
आश्चर्य कैसा?
जन रज्जब
जलती रहै, जाग्या
बिरह अपार।।
बिरहिण
बिहरे रैनदिन, बिन
देखे दीदार।
बिरहा—पावक
उर बसै, नखसिख
जालै देह।
रज्जब
ऊपरि रहम करि, बरसौ
मोहन मेह।।
जरूर
वर्षा होती है
परमात्मा की, लेकिन
तभी होती है
जब तुम अपनी
परिपूर्णता
में तडुफते हो।
जब तुम सब
दाँवकुँपर
लगा देते हो।
जब तुमकुछ भी
नहीं बचाते।
सब चतुराई छोड़
देते हो। सब
सौदेबाजी छोड़
देते हो।
गुनगुनाती
हुई आती हैं
फलक से बूँदें
कोई बदली
तेरे पाजेब से
टकराई है
फिर
छनाछन!
तुम्हारी
तडुफ पूरी हो
जाए कि बस! यहाँ
तुम्हारी
तडूफ अपनी
पूर्णता पर
पहुँचती है—सौ
डिग्री——और
वहाँ से वर्षा
शुरू होती है।
गुनगुनाती
हुई आती हैं
फलक से बूँदें
आकाश
से बूँदें
उतरने लगती
हैं——गुनगुनाती
हुई,
गीत गाती
हुई, रक्स
करती हुई, नाचती
हुई।
कोई
बदली तेरे
पाजेब से
टकराई है
परमात्मा
के पाजेब से
टकरा कर कोई
बादल संगीत
बरसा जाता बै, अमृत
बरसा जाता है।
लेकिन
पात्रता विरह
से उत्पन्न
होती है। कुंभ
बनता है पहले
तो, कुम्हार
पीटता मिट्टी
को, चक्के
पर चढ़ाता
ठोंकता——एक
हाथ से चोट
करता है बाहर
से और भीतर एक
हाथ से
सँभालता है; हर चोट को
भीतर से
सँभालता है——ऐसे
घड़ा निर्मित
होता है। फिर
निर्मित हुआ
घड़ा भी कच्चा
होता है जब तक
आग में न डाला
जाए। विरह की
आग में शिष्य
पकता है। विरह
की आग में ही
घड़ा पक्का
होता है, मजबूत
होता है।
भलका
लाग्या भाव का, सेवक
हुआ सुमार।
यह
वचन बड़ा
प्यारा है।
रज्जब कहते
हैं,
जब से तुमने
मेरी छाती में
भाला .भोंक
दिया.. भलका
लाग्या भाव का—जब
से तुमने भाव
का भाला मेरी
छाती में भोंक
दिया.. .सेवक
हुआ सुमार—तब
से हमारी भी
गिनती हो गयी।
तब से हम भी
कुछ हो गये।
तब से हम भी
हैं उसके।
पहले हम नहीं
थे। उसके पहले
हमारी क्या
सुमार थी।
हमारी कौन
गिनती थी!
हमारी कहाँ
गणना थी। उसके
पहले होना न
होने के जैसा
था।
भलका
लाग्या भाव का, सेवक
हुआ सुमार।
तबसे
हम भी कुछ हैं।
मिट कर कुछ
हुए। भाला लगा
तब कुछ हुए।
समर्पित हुए, तब
से हम कुछ हैं।
जब तक अकड़े थे,
ना—कुछ थे।
अहंकार छोड़ा
तो कुछ हुए, अहंकार था
तो कुछ भी
नहीं थे।
भलका
लाग्या भाव का, सेवक
हुआ सुमार
शब्द
बडे प्यारे
हैं। अब हमारी
भी गिनती है।
देर—अबेर होगी, मेघ
हमारा कब आएगा
पता नहीं, मगर
गिनती है, कतार
में हम भी खड़े
हैँ, अब हम
यूँ ही व्यर्थ
नहीं हैं, कच्चे
नहीं हैं कि
मेघ बरसेगा तो
मिट्टी बह जाएगी,
अब हम पक
गये हैं।
तुमने भाला
क्या मारा, पका दिया!
रज्जब
तलफै तब लगै
मिलै न
मारनहार।।
बड़ा
प्यारा वचन है।
हीरों से तौलो
तो भी कीमत न
हो। '
रज्जब तलफै
तब लगै, मिलै
न मारनहार '। जब तक
मारनेवाला
नहीं मिला था,
तभी तक तलफ
थी। अब तो मिल
गये
मारनेवाले! यह
गुरु का अर्थ——मारनहार।
तुमने मिटा
दिया और बना
दिया।
भलका
लाग्या भाव का, सेवक
हुआ सुमार।
रज्जब
तलफै तब लगै, मिलै
न मारनहार।।
तब
तक ही अड़चन थी
जब तक
मारनेवाला न
मिला था। अब
तो राह से लग गये, अब
तो गिनती अपनी
भी हो गयी। अब
देर—अबेर हो
सकती है, कौन
चिंता करता
है! प्रतीक्षा
करनी होगी, कर लेंगे।
कितना ही समय
बीते अब, अब
कोई घबड़ाहट
नहीं है। भाला
चुभ गया हैं—गुरु
को मारनहार
कहा। लेकिन जो
मारन— हार है, वही
जियावनहार भी
है। इधर मारता
है, उधर
जिलाता है। एक
हाथ से ठोंकता
है, दूसरे
हाथ से
सँभालता है।
जैसे नारी
नाह बिन, भूली
सकल सिंगार।
त्यूँ
रज्जब भूल्या
सकल, सुनि
सनेह दिलदार।।
गुरु
की आवाज सुनकर
सब भूल गया, रज्जब
कहते हैं, कि
मैंसब भूल गया।
' जैसे
नारी नाह बिन
भूली सकल
सिंगार '।
जैसे कोई अपने
प्यारे की
प्रतीक्षा
करती हो स्त्री,
तो श्वंगार
करती है।
लेकिन पति
प्यारा न आता
हो, न
आनेवाला हो, तो सब
प्रग्गार भूल
जाता है।
शृंगार के लिए
तो कोई शृंगार
नहीं करता, प्यारे के
लिए शंगार
किया जाता है।
' जैसे
नारी नाह बिन
भूली सकल
सिंगार ', जैसे
प्रियतम नही
आया, नहीं
आता है, तो
सारा शृगार
भूल जाता है, ऐसे ही——'त्यों
रज्जब भूला
सकल'। सारा
संसार भूल गया
उसी क्षण जब
से गुरु की
आवाज सुनी।
क्योंकि तभी
से एक बात
पक्की हो गयी
कि जिस प्यारे
को हम खोज रहे
हैं, वह
संसार मे नहीं
है। हम वहाँ
खोज रहे हैं
जहाँ वह नहीं
है। और हमने
वहाँ अब तक
खोजा ही नहीं,
जहाँ वह है।
त्यूँ
रज्जब भूल्या
सकल, सुनि
सनेह दिलदार।
यह
स्नेह से भरे
हुए गुरु के
वचन सुने, यह
भाला दिल' में
लगा, सेवक
हुआ सुमार।
मुझको अब
तक खुदा से है
शर्मिदगी
ऐ सनमखानए—दिल
के पहले सनम
कुछ तो
होंगी
मुहब्बत की
मजबूरियाँ
कौन सहता
है वर्ना किसी
के सितम
हम ' कतील
' अपनी धुन
में न कुछ सुन
सके
रोकते रह
गये हमको दैरो—हरम
सद्गुरु
जब तुम्हें
पुकारेगा, तो
मंदिर रोकेगे,
मस्जिद रोकेगे,
दुकान
रोकेगी, बजार
रोकेगा, घर
रोकेगा, परिवार
रोकेगा, सब
रोकेगे, सारा
संसार
तुम्हें घेरा
बाँधकर खड़ा हो
जाएगा। तुम
बड़े चकित
होओगै, इस
संसार ने कभी
तुम्हारी
चिंता न की थी,
लेकिन जिस
दिन तुम गुरु की
आवाज सुनोगे,
सारा संसार
तुम्हें
रोकेगा।
लेकिन फिर
रुकना असंभव
है।
हम ' कतील
' अपनी धुन
में न कुछ सुन
सके
रोकते रह
गये हमको दैरो—हरम
फिर
कुछ नहीं
रुकता, फिर
कोई नहीं रोक
सकता। एक बार
आवाज पड़ जाए कान
में। तो आते
रहो जाते रहो,
जहाँ सत्संग
चलता हो बैठते
रहो, आज, कल, परसों,
कौन जाने कब
शुभ घड़ी आ जाए,
कब
तुम्हारे कान
खुले हों, कब
तुम्हारा
हृदय कान के
करीब हो, बात
पड़ जाए? एक
बार भाला लग
जाए, सेवक
हुआ सुमार।
तन मन ओले
ज्यूँ गलहि
बिरह—सूर की
ताप।
और
जैसे ओले गल
जाते हैं सूरज
के ताप में, ऐसेंही
विरह की अग्नि
जब जलती है——तन
मन ओले ज्यूँ
गलहि। तन भी
गल जाता है, मन भी गल
जाता है। जो
नहीं गल सकता,
बस वही शेष
रह जाता है।
तन मन ओले
ज्यूँ गलहिं, बिरह—सूर
की ताप।
रज्जब
निपजै देखि
तूँ, यूँ
आपा गलि आप।।
रज्जब
कहते हैं कि
मैने इस तरह
अपने को गलते
भी देखा और
अपने को निक—
लते भी देखा।
अपने को मिटते
भी देखा और
अपने को बनते
भी देखा। ' रज्जब
निपजै देखि
तूँ यूँ आपा
गलि आप '।
यह चमत्कार
देखा। एक तरफ
अपने को मरते
देखा और एक
तरफ देखा कि
गल गया सब——देह
गल गयी, मन
गल गया, जिसको
कल तक माना था
कि मैं हूँ, वह सब गल गया
और पहली दफे
पहचान आयी
अपने असली आपा
की। जिसकी अब
तक पहचान ही न
थी, अब तब
तो यही जानते
थे कि मन और
देह का जोड़
मैं हूँ। वे
दोनों तो गल
गये और बह भी
गये विरह की
अग्नि में, और तभी भीतर
से कुछ तीसरा
उठा। तीसरा जो
अदृश्य है।
मनुष्य
त्रिवेणी है।
प्रयाग तीर्थ
है,
जहाँ गंगा,
यमुना और
सरस्वती का
मिलन है। गंगा
दिखायी पड़ती
है, यमुना
दिखायी पड़ती
है, सरस्वती
दिखायी नहीं
पड़ती। ये
सिर्फ प्रतीक
हैं। यह
प्यारा
प्रतीक. है।
देह दिखायी
पड़ती है, मन
का भी अनुभव
होता है, आत्मा
का कहाँ पता
चलता है? वह
सरस्वती है।
दोनों उड़ जाते
हैं, देह
और मन और तभी
जो शेष रह
जाता है, जिसके
उड़ने का कोई
उपाय नहीं, वही तुम हो——तत्त्वमसि
श्वेतकेतु।
रज्जब निपजै
देखि. तूं, यूं
आपा गलि आप।
रज्जब
ज्वाला विरह
की, कबहूँ
प्रगटै माहि।
रज्जब
कहते हैं, कभी—कभी
सौभाग्य से
विरह की
ज्वाला
तुम्हारे भीतर
के मंदिर में
प्रकट होती है।
यह हवन की
अग्नि जलती है।
रज्जब ज्वाला
बिरह की कबहूं
प्रगटे माहि,
कभी—कभी ऐसा
सौभाग्य का
क्षण आता है।
और जब ऐसा
क्षण आ जाए तो
चूक मत जाना।
उसे बुझ मत
जाने देना।
उसे बुझा मत
देना। उसे
भुला मत देना।
'तौ सींचनि
घृत सों चहौं.......
सींच
देना अपने
जीवनघृत से कि
भभक उठे, कि
समग्ररूपेण
तुम्हें घेर
ले।
तौ सींचनि
घृत सों चहौं, करम—काठ
जरि जाहिं।।
अगर
ठीक से विरह
की अग्नि को
जल जाने दिया, तो
यह भक्ति का
सूत्र समझ
लेना —
ज्ञानी
कहते हैं, ध्यान
से, बड़े
गहरे ध्यान.
से व्यक्ति
कर्म के जाल
से मुक्त होगा।
कर्म को मानने
वाले कहते हैं,
शुभ कर्मों
को कर—कर के
अशुभ कर्मों
को काट—काट कर
व्यक्ति कर्म
के जाल से
मुक्त होगा।
भक्त कहते हैं,
विरह की
अग्नि, ऐसे
कर्म जल जाते
हैं जैसे लकड़ी
जल जाती है आग में।
विरह शुद्ध कर
जाता है, जैसे
अग्नि शुद्ध करती
है स्वर्ण को,
कुंदन बना
देती है।
तौ सीचनि
घृत सों चहौं, करम—काठ
जरि जाहि।
दरद नहीं
दीदार का, तालिब
नाहीं जीव।
रज्जब
बिरह बिबोग
बिन, कहाँ
मिलै सो पीव।।
और
अगर तुम्हौर
भीतर उसे
देखने की
आकांक्षा नहीं
है,
तो तुम क्या
हो! फिर
तुम्हारी कोई
गिनती नहीं।
तुम थे, नहीं
थे, बराबर।
परमात्मा को
देखने की
आकांक्षा से
ही तुम्हारा
वास्तविक
जन्म शुरू
होता है। इससे
पहले तो तुम
यों ही जीए, नाममात्र को,
सपने में
जीए। जब भी
कोई बुद्ध से
सन्यास लेता
था तो वह कहते थे,
आज से अब
अपनी उम्र
गिनना। सेवक
हुआ सुमार।
एक
बार सम्राट बिंबिसार
उनसे मिलने
आया। और एक
भिक्षु दर्शन
करने आया था।
सम्राट बैठा
था। बुद्ध ने
भिक्षु से
पूछा——तेरी
उम्र कितनी है? उसने
कहा —चार वर्ष।
वह था कोई
सत्तर वर्ष का।
बिंबिसार बड़ा
चौंका। सोचा,
यह क्या हो
रहा है? या
तो मैंने गलत
सुना। उसने
पूछा बुद्ध को
—— मैंने गलत तो
नहीं सुना, यह आदमी
कहता है चार
वर्ष? चालीस
भी कहता तो भी
मैं भरोसा
नहीं करता, क्योंकि यह
निश्चित
सत्तर से कम
का नहीं है, ज्यादा भले
हो; चार
वर्ष? बुद्ध
ने कहा—आपको
पता नहीं, हम
गणना इसी तरह
करते। यह चार
वर्ष पहले
संन्यस्त हुआ।
उसके पहले तो
जिआ कि नहीं
जिआ, उसकी
कौन गिनती? उसकी हम
गिनती ही नहीं
करते। वे तो
रात में बीत
गये, सपनों
में बीत गये।
तुम
रात के सपनों
की गिनती तो
नहीं करते।
अगर कोई तुमसे
पूछेगा——कितना
धन तुम्हारे
पास है? तो
तुम उतना ही
बताओगे जितना
बैंक में है।
तुम उतना नहीं
गिनोगे जितना
तुमने सपनों
में भी देखा
है। वह उसमें
तुम गिनती
नहीं करोगे।
कोई पूछेगा—तुम्हारे
पास क्या है? तो तुम
सपनों को छोड़
देते हो। जब
कोई व्यक्ति
जागता है, तो
उसे पता चलता
है कि अब तक जो
जीवन था वह
नींद ही था।
सोए थे, सपने
देखे थे, उनकी
कोई गिनती
नहीं करता।
दरद नहीं
दीदार का, तालिब
नाहीं जीव।
जब
तक उस
परमात्मा को
पाने की
आकांक्षा
नहीं जगी है, जब
तक उसकी खोज
ने तुम्हें
आतुर नहीं
किया है, जब
तक तुमने उसकी
पुकार नहीं
सुनी है और
तुम उसकी खोज
पर नहीं निकल
पड़े हो, तब
तक तुम क्या
हो! तब तक अपनी
गिनती मत कर
लेना। तब तक
हो सकता है
तुम्हारे पास
बहुत धन हो, बड़ा पद हो, मगर तुम कुछ
भी नहीं। दो
कौड़ी
तुम्हारा
मूल्य नहीं है।
हाँ, जब
तुम उसकी खोज
से भरते हो, तभी
तुम्हारे
भीतर जीवन की
शुरुआत है।
रज्जब
विरह बिबोग
बिन, कहाँ
मिलै सो पीव।।
और
जो विरह के
वियोग से भर
गया है, जो
देखता है कि
मैं हकदार हूँ
परमात्मा को
पाने का, यह
सागर मेरा है
और मैं किनारे
पर तड़प रहा
हूँ, जो
देखता है कि
मानसरोवर
मेरा है और
मैं गंदी तलैया
के किनारे
क्यों बैठा
हूँ, जिसे
यह दिखायी
पड़ती है
अवस्था कि
मेरी आत्यंतिक
संभावना
परमात्मा
होने की है, उससे कम पर
मैं राजी नहीं
होऊँगा, उसको
वियोग पैदा
होगा।
अब
फर्क समझना।
एक
शास्त्र है
हमारे पास, जिसको
हम योग कहते
हैं ——कैसे
परमात्मा से
जुड़े? मगर
योग के पहले
वियोग पैदा
होना चाहिए।
अगर वियोग ही
पैदा न हो तो
जुड्ने का
सवाल ही कहाँ
उठता है? जो
आदमी बिना
वियोगी बने
योगी बन गया
है, उस
आदमी ने गलत
कदम उठा लिया।
पहले वियोग, फिर योग। और
जितनी
तुम्हारे
वियोग की
गहराई होगी, उतनी ही
तुम्हारे योग
की गहराई होगी।
अक्सर लोग
योगी बन बैठे
हैं और वियोग
ने उनको जलाया
ही नहीं था, दग्ध ही
नहीं किया था,
वियोग के
काँटे अभी
चुभे ही नहीं
थे और योग के
फूल खिलाने
में लग गये
हैं, ये
फूल कभी नहीं
खिलेंगे। ये
फूल खिलने
असंभव हैं।
वियोग से बचना
मत। और वियोग
बड़ी पीड़ा है, सच है बड़ी आग
है, लेकिन
आग के बिना
कौन निखरा है?
रज्जब
बिरह बिबोग
बिन, कहाँ
मिलै सो पीव।।
किसको
कब मिला है
प्यारा बिना
विरह के, वियोग
के? अग्नि
में जले बिना
वह प्यारा
किसीको मिला
नहीं, क्योंकि
हम उस प्यारे
के योग्य नहीं
हो पाते। वह
तो मिलने को
उत्सुक है
प्रतिपल, पर
हमारी
पात्रता नहीं
है। उसका मेघ
तो धिर। ही
हुआ है, आकाश
पर तना ही हुआ
है, राजी
है बरसने को, मगर कुंभ
तैयार नहीं
है। करो तैयार
अपने को! जागो
विरह में!
वियोग को पकड़ने
दो तुम्हें एक
ओँधी और
झंझावात की
तरह! उसीसे तो
वास्तविक योग
का जन्म होगा।
तडूफोगे तो
जरूर पाओगे।
जो भी तडूफे
हैं, उन्होंने
पाया है। और
जिस दिन
तुम्हारी
गिनती हो जाए,
उसी दिन तुम
संन्यासी हुए।
जिस दिन
संन्यासी हुए,
उसी दिन
गिनती हुई—सेवक
हुआ सुमार।
धन्यभागी हैं
वे जो सूउमार
हो जाते हैं!
धन्यभागी हैं
वे जो कह सके
कि मिल गया
मारनहार!
सद्गुरु
के बिनांकौन
तुम्हें
मिटाएगा? और
तुम जब तक मिट
ही न जाओ, तब
तक बाधा है।
तुम बाधा हो।
तुम्हारी दीवाल
हट जाए, तो
आकाश अभी
प्रवेश कर जाए।
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
पूछते हैं
कि परमात्मा
और हमारे बीच
बाधा क्या है?
मैं उनसे
कहता हूँ —— तुम
ही बाधा हो।
मैं—भाव बाधा
है। वे कुछ और
सुनना चाहते
हैं। वे सुनना
चाहते हैं कि
पाप बाधा है; तो पुण्य
करें। वे
सुनना चाहते
हैं कि अज्ञान
बाधा है; तो
ज्ञानी हो
जाएँ, पंडित
हो जाएँ। और
जब मैं उनसे
कहता हूँ तुम
ही बाधा हो, तो उन्हें
भला नहीं लगता।
इतनी दूर जाने
की उनकी
तैयारी नहीं
थी। मैं पापी
था तो मैं को
पुण्यात्मा
बनाने को तैयार
थे वे, लेकिन
मैं को छोड़ने
को नहीं। मैं
काला था तो
उसे सफेद
रंगने को
तैयार थे वे, लेकिन मैं
को छोड़ने को
नहीं। मैं
अज्ञानी था तो
ज्ञान से थोप
देने को तैयार
थे वे, मैं
भोगी था तो
मैं को योगी
बना देने को
तैयार थे वे; लेकिन मैं
को छोड़ देने
को नहीं।
भक्ति
का सारसूत्र
स्मरण रखो——मैं
बाधा है। न तो
पाप बाधा है, न
अज्ञान बाधा
है, मैं
बाधा है। मैं
ही पाप है और
मैं ही अज्ञान
है। इस द्वार
से मैं गया, उस द्वार से
परमात्मा
प्रविष्ट हो
जाता है।
तुम
हटो,
राह दो। तुम
भी एक दिन कह
सकोगे——
भलका
लाग्या भाव का, सेवक
हुआ सुमार।
रज्जब
तलफै तब लगै, मिलै
न मारनहार।।
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