24 मई 1976;
श्री रजनीश
आश्रम।पूना
सूत्र:
मार
भली जो सतगुरु
देहि। फेरि—बदल
औरे करि लेहि।।
ज्यूँ
माटी कूँ कुटे
कुँभार।
त्यूँ सतगुरु
की मार विचार।।
भाव
भिन्न कछु औरे
होइ। ताते रे
मन मार न जोइ।।
जैसा
लोहा घड्रै
लुहार। कूटि—काटि
करि लैवै सार।।
मारै
मारि मिहरि
करि लेहि। तो
निपजै फिरि
मार न देहि।।
ज्यूँ
साँटी संपुट
में आनि। सूधी
करै तीरगर
पानि।।
मन
तोड़न का नाहीं
भाव। जे तुछ
तूटि जाय तो
जाव।।
ज्यूँ
कपड़ा दरजी के
जाय। टूक—टूक
करि लेहि बनाय।।
दादू
दीनदयाल गुरु, सो
मेरे सिरमौर।
जन
रज्जब उनकी
दया, पाई
निहचल ठौर।।
रज्जब
कूँ अज्जब मिल्या, गुरु
दादू दातार।
दुख
दरिद्र तब का
गया, सुख
संपत्ति अपार।।
रज्जब
नर नारी सकल, चकवा
चकवी जोड।
गुरु—बैन
बिच रैन में, किया
दुहूँ घर फोड़।।
गरु
दीरध गोबिंद
सूँ, सारै
सिष्य सुकाज।
रज्जब
मक्का बड़ा परि, पहुँचे
बैठि जहाज।।
कामधेनु
गुरु क्या कहै, सिष
नि:कामी होइ।
रज्जब
मिलि रीता
रह्या, मंदभागी
सिष जोइ
उदास
हैं आस्मां के
तारे
बुझे—बुझे
हैं सभी नजारे
हसीं
बहारें भी रो
रही हैं
लुटा
है यूँ मेरा
आशियाना
यह
अनुभव सभी का
है। यह अनुभव
संसार का है।
यहाँ सिर्फ
आदमी लुटता है, उजडता
है, बसता
नहीं। यहाँ
बसने का कोई
उपाय नहीं। यह
बस्ती नहीं है,
मरघट है।
यहाँ सिर्फ
मृत्यु के
लिये
प्रतीक्षा
में खड़े हुए
लोग हैं——पंक्तिबद्ध।
आएगी जब घड़ी, उठ जाएँगे।
कभी भी आ सकती
है घड़ी। यों
तो उसी दिन आ
गयी जिस दिन
जन्म हुआ।
जन्म के साथ—ही—साथ
मौत आ गयी
छाया की भाँति।
जिसका जन्म
हुआ, अब
मृत्यु से न
बच सकेगा।
जन्म में ही
मृत्यु
निश्चित हो
गयी, थिर
हो गयी।
जहाँ
मृत्यु ही
घटनी है, जहाँ
उजडूना ही है,
वहाँ जो
बसने का ख्याल
रखते हैं, वे
नासमझ हैं। और
जहाँ सिर्फ एक
ही बात
निश्चित है और
सब अनिश्चित
है, जहाँ
सिर्फ मृत्यु
निश्चित है, वहाँ जो घर
बनाते हैं, वे व्यर्थ
ही बनाते हैं।
यह घर उजडेगा।
और इस कर के
बनाने में
पीड़ा उठायी, फिर इस घर के
उजड़ने में
पीड़ा उठानी
पड़ेगी। यहाँ
पीड़ा—ही—पीड़ा
है। यहाँ दुख—ही—दुख
है। संसार दुख
का सागर है।
ऐसा जिसे
अनुभव होता है,
वही
परमात्मा की
तलाश में
निकलता है।
जिसने इस घर
को ही असली घर
समझ लिया, फिर
उसकी खोज बंद
हो गयी।
जिसे
दिखायी पड़ा कि
यह नीड़ असली
नीड़ नहीं है, असली
नीड़ की तलाश
करनी है अभी, ज्यादा—से—ज्यादा
सराय है, रात
भर को रुक गये
हैं, सुबह
हुए चलना
पड़ेगा; पड़ाव
है ज्यादा से
ज्यादा, मंजिल
नहीं है यह, उनके जीवन
में अज्ञात की
तलाश शुरू
होती है। उस
अज्ञात को हम
जो भी नाम
देना चाहे दें,
परमात्मा
कहें, मोक्ष
कहें, निर्वाण
कहें, सत्य
कहें, समाधि
कहें, ये
सिर्फ नामों
के भेद हैं।
लेकिन इनकी
खोज के पहले
यह अनिवार्य
है अनुभव हो
जाना कि यहाँ
घर बन नहीं
सकता। यहाँ
घोंसले
बिगड़ेने को ही
बनते हैं।
यहाँ सब
आशियाने उजड़
जाते हैं।
उजड्ना यहाँ
का स्वभाव है।
बसना धोखा है,
उजड्ना
सचाई है। बसना
भ्रांति है।
थोड़ी—बहुत देर
कोई सपना देख
सकता है बसने
का, लेकिन
सपने सपने हैं।
कितनी देर
भुलाए रखोगे
अपने को सपने
में?
जो
जितनी जल्दी
सपने को सपने
की भाँति देख
ले,
उतना
बुद्धिमान है।
कोई
युवावस्था
में देख लेता
है, कोई
बुढ़ापे तक में
नहीं देख पाता।
तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
की एक ही
कसौटी है——जितने
जल्दी तुम यह
देख लो कि यह
कागज की नाव' है जिसमें
तुम बैठे हो, यह डूबेगी; अब डूबी, तब
डूबी; और
यह रेत पर
बनाया गया घर
है, यह गिरेगा;
अब गिरा, तब गिरा।
इसके पहले कि
घर गिर जाए, जो इस घर से
मुक्त हो जाता
है, इस घर
के लगाव से
मुक्त हो जाता
है, मोह से
मुक्त हो जाता
है, उसके
जीवन में एक
किरण उतरती है——परमात्मा
की खोज शुरू
होती है।
फूल
पै धूल, बबूल
पै शबनम, देखनेवाले
देखता जा
अब
है यही इंसाफ
का आलम, देखनेवाले
देखता जा
परवानों
की राख उड़ा दी
वादे—सहर के
झोंकों ने
शमअ
बनी है पैकरे—मातम
देखनेवाले
देखता जा
एक
पुराना मदफन
जिसमें' दफ्न
हैं लाखों
उम्मीदें
—छलनी—छलनी
सीनए—आदम
देखनेवाले
देखता जा
एक
तेरा ही दिल
नहीं घायल
दर्द के मारे
और भी हैं
कुछ
अपना कुछ
दुनिया का भय
देखनेवाले
देखता जा
जरा आंख
खोलों और जरा
देखों। तो
क्या पाओगे
यहां? एक पुराना
मदफन जिसमें दफ्न
हैं लाखों
उम्मीदें।
खुद को क्या
पाओगे? एक
पुरानी कब्र,
जिसमें
हजारों—हजारों
आकांक्षाओं
की मृत्यु घट
चुकी है; जिसमें
हजारों
अभीप्साएँ मुर्दा
होकर गिर गयी
हैं, सड़
गयी हैं।
एक
पुराना मदफन
जिसमें दफन
हैं लाखों
उम्मीदें
छलनी—छलनी
सीनए आदम
देखनेवाले
देखता जा
और
यहाँ हर हृदय
छलनी—छलनी हो
गया है। किसी
तरह सम्हाले
है अपने को और
चल रहे हैं, बात
और है। मगर
पैर सबके डगमगा
गये हैं।
हवाएं ऐसी हैं,
आधियाँ ऐसी
हैं। नावें सब
डाँवाडोल हैं।
लेकिन कुछ हैं
जो नावों को
किसी तरह
सम्हालने में
ही सारा जीवन,
सारी ऊर्जा
लगा देते हैं।
पानी में बहा
दी उन्होंने
जीवन की
बहुमूल्य संपदा।
कुछ हैं जो यह
देखकर कि यहाँ
जीवन में
शाश्वत कुछ भी
नहीं है, सब
क्षणभंगुर है,
मुड़ जाते
शाश्वत की और।
उस मुड़ने में
ही क्रांति
घटित होती है।
उसी व्यक्ति
के जीवन में
धर्म का जन्म
होता है।
न
शास्त्र पढ़ने
से होगा यह, न
मंदिर—मस्जिद
जाने से होगा
यह, यह तो जिदगी
का दुख रूप
देखोगे तो
होगा। जीवन को
ठीक—ठीक
पहचानोगे तो
होगा। राम—राम
जपने से नहीं
होगा। तुम ऊपर
राम—राम जपते
रहोगे, भीतर
काम अपने सपने
सजाता रहेगा।
तुम मालाएँ
फेरते रहोगे,
भीतर
अँधेरा घर
बसाए बैठा
रहेगा। तुम
बाहर के दीये
जलाते रहोगे,
भीतर गहन
अँधेरी रात
अमावस बनी
रहेगी। जीवन
को देखो!
और
जीवन दिखायी न
पड़े,
इसके हमने
बड़े उपाय कर
रखे हैं। करने
ही पड़ेंगे।
अगर जीवन का
दुख सभी को
दिखायी पड़ने
लगे, तो यह
जो राग—रंग
दिखायी पड़ता
है, यह जो
आशा—उमंग—उत्साह
दिखायी पड़ता
है, यह सब
एकदम तिरोहित
हो जाए। ये जो
लोग दिखायी
पड़ते हैं चले
जा रहे हैं, बड़ी तीव्रता
से, इनकी
गति टूट जाए।
इन्हें साफ हो
जाए कि यहाँ
कोई मंजिल कभी
किसीको मिली
नहीं। फिर
कैसे दौड़
सकेंगे? फिर
किसके लिए दौड़ना
है? फिर ये
जो सपने बना
रहे हैं और
योजनाएँ बना
रहे हैं और
चिंताएँ कर
रहे हैं, और
विचार और उ;हापोह कर
रहे हैं——क्या
करें, क्या
न करें——सब
एकदम
भस्मीभूत हो
जाएगा।
हमने
एक दुनिया बना
ली है, असली
दुनिया से
बचने के लिए
हमने एक
विचारों का
जाल खड़ा कर
लिया है, अपने
चारों तरफ
विचार की एक
पर्त— बना ली
है, उसके
माध्यम से ही
दुनिया को
देखते हैं। हम
अपनी आशाओं के
चश्मों से ही
दुनिया को देखते
हैं। फिर
दुनिया हमें
रंगीन दिखायी
पड़ने लगती है।
चश्मे का रंग
दुनिया का रंग
मालूम होने
लगता है। और
बचपन से हर
बच्चे को उसके
माँ—बाप चश्मे
देते हैं, महत्वाकांक्षा
देते हैं, वासना
देते हैं——कुछ
हो जाना, कुछ
बन कर बता
देना, नाम
रख लेना, यश
कमा लेना, पद,
प्रतिष्ठा,
धन। हर एक
को हम यही
आशाओं का पाठ
पढ़ाते हैं। और
ये सब आशाएँ
एक दिन व्यर्थ
हो जाती हैं।
ये सब आशाएँ
झुठी सिद्ध
होती हैं।
यहाँ किसीकी
भी
महत्वाकांक्षा
कभी पूरी नहीं
हुई। ऐसा जगत
का स्वभाव
नहीं किसीकी
महत्वाकांक्षा
पूरी करे। तब
परमात्मा की
खोज शुरू होती
है।
असार
दिख जाए संसार
में,
तो फिर सार
को बिना खोजे
कैसे रहोगे? औंख मुड़ती
है, और
दिशाओं में
गति शुरू होती
है।
बहिर्याता
बंद होती है, अंतर्यात्रा
शुरू होती है।
और ध्यान रखना,
अंतर्यात्रा
का ही दूसरा
नाम
तीर्थयात्रा
है। अगर
तुम्हारा
तीर्थ बाहर है
तो तुम्हारा
तीर्थ संसार
का हिस्सा है।
जाओ काशी, जाओ
काबा, ये
तीर्थ नहीं हैं।
तीर्थ तो एक
ही है——भीतर
जाओ; जहाँ
राम मिले, वहाँ
जाओ, जहाँ
शाश्वत मिले,
वहाँ जाओ। न
तो काबा में
मिलेगा, न
काशी में, न
कैलाश में।
बाहर की
यात्रा चाहे
तुम धर्म के
नाम पर करो और
चाहे धन के
नाम पर, बाहर
की ही यात्रा
है। और बाहर
की यात्रा
तुम्हें भीतर
न लाएगी।
बाहर
कुछ मिलता ही
नहीं। इस बात
को मानने में
पीड़ा होती है, क्योंकि
हमारा सब किया
अनकिया हो
जाता है। हमने
अब तक जो भी
जिंदगी में
दाँव लगाये
हैं, वे सब
व्यर्थ हो
जाते हैं। हम
देखना नहीं
चाहते।
एक
मेरे परिचित
थे,
उनकी पत्नी
मेरे पास आयी।
उसने कहा कि
.शक है कि मेरे
पति को केंसर
है, मगर वे
डाक्टर के पास
नहीं जाते। वे
कहते हैं——मुझे
कोई बीमारी ही
नहीं है, तो
मैं जाऊँ
क्यों? मैने
उन मित्र को
बुलाया।
मैंने कहा
तुम्हारी
पत्नी परेशान
है। वे बोले
व्यर्थ
परेशान है। जब
मैं बीमार ही
नहीं हूँ तो
मैं डाक्टर के
पास जाऊँगा
क्यों? मैने
उनसे कहा जब
तुम बीमार ही
नहीं हो, तो
डाक्टर के पास
जाने में इतना
डर क्या है? पत्नी का मन
रह जाएगा, मुझे
भी दिख रहा है
कि तुम बीमार
नहीं हो, और
डाक्टर को भी
दिख जाएगा, कोई डाक्टर
तुम्हारी
पत्नी की
मानकर बीमार थोड़े
ही समझ लेगा।
अब वे बड़ी
मुश्किल में
पड़ गये। शक तो
उन्हें भी है,
भीतर डर तो
उन्हें भी है।
इसी डर के
कारण डाक्टर
के पास नहीं
जा रहे हैं कि
कहीं शक सच्चा
साबित न हो
जाए। कहीं ऐसा
न हो कि केंसर
हो ही। पर
मेरे पास आ
गये तो
मुश्किल में
पड़ गये, अब
उनको उत्तर
देते न सूझे।
मैंने कहा, पत्नी परेशान
है, यह
बीमार हो
जाएगी इस तरह
परेशान होते—होते;
रात सोती
नहीं, यही
फिक्र लगी
रहती है; इसका
भ्रम मिटा दो
तुम बिल्कुल
ठीक मालूम हो
रहे हो, डाक्टर
को भी ठीक
मालूम होओगे,
मगर इसका
भ्रम टूट
जाएगा, इसको
शांति मिल
जाएगी; इसकी
खातिर तुम चले
जाओ। अब मना
करने का कोई
उपाय न रहा।
मैं
उन्हें
डाक्टर के पास
ले गया। मैं
साथ ही उनके
गया,
क्योंकि
मुझे डर था
रास्ते मे वे
पत्नी को कुछ—न—कुछ
कह कर भाग खड़े
होंगे।
डाक्टर से
उन्हें डर लग
रहा था। और
वही हुआ, केंसर
उन्हें था। वे
एकदम रोने लगे।
मैंने उन्हें
कभी रोते नहीं
देखा था। और
कहने लगे कि
आपने ही मुझे
मुसीबत में
डाला। जैसे
किं मैंने
उनको केंसर
करवा दिया। सब
ठीक—ठाक चल
रहा था, अब
मुझे मुश्किल
में डाल दिया,। मैने कहा, मुश्किल में
तुम थे। अब.
कुछ उपाय खोजा
जा सकता है।
लेकिन
उनकी
तर्कसरणी
समझते हो? उनकी
तर्कसरणी इस
संसार में अधिक
लोगों की
तर्कसरणी है।
इसीलिए लोग
सद्गुरुओं के
पास नहीं जाते।
डर है कि वहाँ
रोग दिखायी न
पड़ जाए। भय है
कि कहीं जीवन
की व्यर्थता
समझ में न आ जाए।
फिर क्या
करेंगे? कहीं
हाथ खाली हैं,
ऐसा अनुभव
में न आ जाए
अभी तो मुट्ठी
बाँध रखी है
और भरोसा कर
रखा है कि
हीरे—जवाहरात
हाथ में हैं।
उस भरोसे में
मजा है। उस
भरोसे से ही
जीए जा रहे
हैं। गर्मी है,
उत्साह है।
कहीं कोई
सद्गुरु हाथ
खोलकर दिखा न
दे कि सब मिट्टी
है यहाँ, न
कोई हीरे हैं,
न कोई
जवाहरात हैं।
क्योंकि तुम
एकदम गिर
पड़ोगे स्वर्ग
से। एकदम
सिंहासन से
उतरइ जाओगे। तुमने
अपने टूटे—फूटे
मकान को महल
समझ रखा है।
सद्गुरु के
पास जाओगे तो
झकझोर कर दिखा
देगा कि यह
टूटा—फूटा
झोपड़ा है; कहाँ
का महल, किस
सपने में पड़े
हो?
क्रोध
भी आएगा
सद्गुरु पर।
सदा
से सद्गुरुओं
पर लोगों को
क्रोध आया है।
यह क्रोध
आकस्मिक नहीं
है। इस क्रोध
के पीछे बड़ा
मनोविज्ञान
है। तुमने ऐसे
ही थोड़े
महावीर को
गालियाँ दीं।
तुमने ऐसे ही
थोड़े बुद्ध को
पत्थर मारे।
तुमने ऐसे ही
थोड़े सुकरात
को जहर पिला
दिया। कोई
व्यर्थ झंझट
करने जाता है? हर
किसी को तो
कोई पत्थर
नहीं मारता।
साधु—संतों की
तो लोग पूजा
करते हैं।
उनके चरणों
में फूल चढ़ाते
हैं उनसे
आशीर्वाद
लेने जाते हैं।
तो इस दुनिया
में दो तरह के
साधु—संत हैं।
एक साधु—संत, जो तुम्हें
सांत्वना
देते हैं।
उनकी तुम पूजा
करते हो। जो
तुम्हें
सांत्वना
देता है, जो
कहता है——आपको
और केंसर, कभी
नहीं हो सकता।
हाथ की रेखाओं
में ही नहीं है।
मैंने हाथ देख
कर बता दिया।
आपको और
केंसर! कभी
नहीं हो सकता।
आप जैसे
सरलचित्त
व्यक्ति, सेवाभावी,
मंदिर—मस्जिद
जानेवाले, गीता—
कुरान
पढ़नेवाले, आपको
केंसर! कभी
नहीं। यह तो
नास्तिकों को
होता है।
चित्त
प्रसन्न हुआ।
आप अपने घर आ
गये। कोई
सांत्वना दे
तो तुम प्रसन्न
होते हो।
तुम
ख्याल रखना, ये
दो तरह के
साधु—संत इस
जमीन पर सदा
रहे हैं।
तुम्हें
सांत्वना
देनेवाला
तुम्हारे
घावों को
छिपानेवाला, तुम्हारे
घावों पर दो
फूल रख
देनेवाला
तुम्हें
प्यारा लगता
है, हालाँकि
वह तुम्हारा
दुश्मन है। वह
तुम्हारे
संसार को
उजड़ने न देगा।
वह तुम्हें
भटकाए रखेगा।
मगर तुम भटकना
चाहते हो।
इसलिएऊ
भटकाने वाले
तुम्हें
प्यारे मालूम
पड़ते हैं। कभी
सौ में एक ऐसा
साधु भी होता
है, जो
तुम्हें
सांत्वना
नहीं देता।
वरन विपरीत
तुम्हारी
सारी
सात्वनाएँ
छीन लेता है।
तुम्हारी
सारी आशाएँ
छीन लेता है।
तुम्हारी आँख
से सारे सपने
खींच लेता है।
ऐसे संतों को
तुम पत्थर
मारोगे ही।
तुम हजार उपाय
खोजोगे। इस
व्यक्ति से
तुम्हारे
भीतर भय पैदा
हो गया। इसने
तुम्हें कँपा
दिया। मगर यही
सद्गुरु है।
निन्न्यानबे
तो सब
असद्गुरु हैं,
मिथ्या, झूठे।
वे तो
तुम्हारे
संसार का ही
शृंगार हैं।
तुम्हारी
दुकान, तुम्हारी
बाजार, तुम्हारी
वासनाओं—कामनाओं
का ही हिस्सा
हैं। तुम उनको
जहर देने वाले
नहीं हो। और न
तुम उनको
पत्थर मारोगे।
तुम तो उनकी
पूजा करोगे।
लेकिन
बुद्ध को तुम
पत्थर मारोगे।
दादू को तुम
सताओगे। कबीर
को तुम परेशान
करोगे। तुम
परेशान करोगे
इसलिए कि कबीर
की मौजूदगी
तुम्हें परेशान
कर रही है।
तुम्हारा
जिम्मा नहीं; कसूर
है तो कबीर का
ही है। कबीर
तुम्हारी
पर्त—पर्त को
उघाड़ कर रखे
दे रहे हैं।
तुम्हारे घाव
उघाडे दे रहे
हैं, दबा—दबा
कर तुम्हारी
मवाद तुम्हें
दिखाए दे रहे
हैं।
तुम्हारे
भीतर से घाव
और तुम्हारे
नासूर और
तुम्हारे
केंसर तुम्हारी
आंखों में
उघाड़कर ला रहे
हैं। तुम
नाराज हो
जाओगे 1 जिन
मिल की मैंने
तुमसे बात की,
वे जितने
दिन जिंदा रहे,
मुझसे
नाराज रहे।
फिर मेरे पास
नहीं आए। उनकी
नाराजगी का
कारण साफ है।
मैं उन्हें
द्रुश्मन
मालूम पड़ रहा
हूँ, क्योंकि
सब ठीक चल रहा
था, अब वे
डगमगा गये, अब वे घबड़ा
गये।
ईश्वर
की तलाश तो
तुम्हारा
संसार
बिल्कुल डगमगा
जाए तो ही
शुरू हो सकती
है। इससे कम
में तलाश शुरू
नहीं होती।
अगर तुम्हारे
पैर जरा भी
संसार में जमे
रहें तो तुम
कहोगे, अभी
क्या जल्दी है?
अभी थोड़ी देर
और रस ले लें।
थोड़ी देर और
मजा कर लें।
थोड़ी देर यह
उत्सव और चलता
है चल लेने
दें। जल्दी
क्या है, परमात्मा
प्रतीक्षा कर
सकता है। वह
तो शाश्वत है,
सदा है, फिर
खोज लेंगे।
तुम परमात्मा
को कल पर
टालते जाओगे
अगर तुम्हारे
पैर जरा भी
जमीन पर रुके।
सद्गुरु वही
है जो
तुम्हारे पैर
के नीचे से
सारी जमीन
खींच ले।
नाराज न होओगे
तो क्या करोगे?
मैं
जानता हूँ, जिन्होंने
सुकरात को जहर
दिया, तुम्हारे
जैसे ही लोग
थे। परेशान हो
गये थे। अदालत
में जिसने तय
किया कि
सुकरात को जहर
दिया जाए, उसने
सुकरात को दो
विकल्प भी
दिये थे।
अदालत ने यह
कहा था कि अगर
तुम एथेंस छोड़
दो तो हमें तुम्हारी
कोई चिंता
नहीं है। फिर
तुम जिंदा रहो,
तुम्हें जो
करना है करो।
अगर एथेसं
नहीं छोड़ते हो
तो मृत्यु की
सजा। क्योंकि
एथेंस के
नागरिक तुमसे
परेशान हो गये
हैं। दूसरा
विकल्प, अगर
तुम एथेंस में
ही रहना पसंद
करो तो अब तक
तुम जो काम कर
रहे थे, वह
बंद कर दो।
लोगों को
जगाने का काम
बंद करो। लोग
नहीं जगना
चाहते। तुम
सत्य की बात
करनी बंद करो।
अगर लोगों को
असत्य प्रिय
है तो उनकी
स्वतंत्रता
है, उनको
असत्य प्रिय
रहने दो। तुम
यह लोगों का
पीछा मत करो।
तुम लोगों को
बेचैन मत करो।
लोगों के
घावों में
उंगुलियाँ
डालकर
उन्हें
दिखाओ मत कि
ये घाव हैं।
दर्द होता है, पीड़ा
होती है।. तो
तुम चुप हो
जाओ। अगर तुम
चुपचाप रहो, हमें कोई
एतराज नहीं, जिंदा रह
सकते हो। ...
लेकिन सुकरात
ने कहा——एथेंस
मैं छोड्कर
जाऊँ कहाँ? जहाँ जाऊँगा
वहीं यह
मुसीबत फिर से
पैदा हो जाएगी।
क्योंकि वहाँ
भी ऐसे ही लोग
हैं। वे भी
नाराज होंगे।
रही मेरे चुप
हो जाने की
बात, वह
संभव नहीं है।
सत्य तो
बोलेगा, कीमत
कुछ भी चुकानी
पड़े। सत्य
अनबोला नहीं
रहेगा। सत्य
की तो घोषणा
होगी। यह मेरे
वश में नहीं
है, सुकरात
ने कहा, कि
मैं रोक लूँ।
मैं हूँ कहाँ
अब? सत्य
ही है। और जो
होना है, वही
होगा। फिर तुम
चिंता न करो।
मरना तो मुझे
है ही, आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, मरूँगा तो
हई। ऐसे मरा, वैसे मरा, क्या फर्क
पड़ता है? तुम्हें
जो सजा देनी
है, तुम दे
दो। तुम मुझे
बचने के उपाय
मत बताओ, क्योंकि
इस जिंदगी में
बचने का कोई
उपाय ही नहीं।
यह जिदगी ही
विकल्प नहीं
देती, यहाँ
मौत निर्णीत
है। तो कब मरे—आज
कि कल कि
परसों, कैसे
मरे——बीमारी
से मरे, बिस्तर
पर मरे, कि
जहर देकर मारे
गये, कि
सूली पर लटका
कर मारे गये।
क्या फर्क
पड़ता है? मौत
आती ही है।
किस ढाँचे में
आती है, किस
शैली से आती
है, इससे
जरा भी भेद
नहीं होता।
सुकरात
पर लोग नाराज
नहीं थे ऐसे
ही,
कारण था।
जिस
आदमी के जीवन
में संसार में
अभी लगाव है, वह
सद्गुरुओं से
नाराज होगा।
तुम तो गुरुओं
के पास भी
इसीलिए जाते
हो कि संसार
की कुछ
आकांक्षा
पूरी हो जाए।
ऐसे भूले—भटके
लोग मेरे पास
भी आ जाते हैं।
एक ही बार आते
हैं, क्योंकि
दोबारा फिर
उनके आने का
कोई उपाय नहीं
रह जाता। वे
समझ जाते हैं
कि यह स्थान
नहीँ है। वे
मेरे पास आ
जाते हैं कि
चुनाव में खड़ा
हुआ दँ, आशीर्वाद
दे दें।
तुम्हें
चुनाव में
जिताने का
आशीर्वाद कोई
सद्गुरु देगा?
सद्गुरु
आशीर्वाद
देगा कि जितनी
जल्दी हार जाओ,
उतना अच्छा।
हारे को
हरिनाम। हारो
तो हरि का नाम
याद आए। जीतो
तो कैसे याद
आएगा ' जीत
में तो अकड़
बढ़ती चली
जाएगी। मेरे
पास भी लोग आ
जाते हैं, वे
कहते हैं, कि
व्यवसाय शुरू
कर रहा हूँ, आपके
आशीर्वाद से
शुरू करना है।
मैं कहता हूँ,
तुम कहीं और
जाओ। मेरे
आशीर्वाद से
शुरू करोगे, व्यवसाय
चलेगा ही नहीं।
मेरा
आशीर्वाद तो
एक ही हो सकता
है कि तुम्हारे
सब व्यवसाय
टूट जाएँ। मगर
तब तुम नाराज
न होओ तो क्या
होओ? तुम
फिर मुझसे
बदला न लो तो
क्या करो? तुम
फिर अराने
रास्ते खोजोगे
मुझसे बदला
लेने के।
तुम्हारी
तकलीफ भी मैं
समझता हूँ।
तुम्हारी
तकलीफ भी
स्वाभाविक है।
इसलिए
एक बात ख्याल
रखना, तभी आज
के सूत्र समझ
में आ सकेंगे।
संसार व्यर्थ
है ऐसी
तुम्हारी
थोड़ी प्रतीति हो
जाए तो
सद्गुरु से
संबंध जुड़
सकता है।
अन्यथा
तुम्हारे
संबंध असद्गुरुओं
से ही जुड़ेंगे,
क्योंकि
तुम उनके पास
भी संसार की
ही सुरक्षा के
लिए जाओगे।
तुम उनसे भी
धन माँगोगे, पद माँगोगे,
प्रतिष्ठा
माँगोगे।
पुत्र
माँगोगे, पुत्री
माँगोगे, व्यवसाय
माँगोगे, धंधा,
सफलता, बस
तुम संसार ही
माँगोगे।
किसी—न—किसी
बहाने
तुम्हारे मन
में संसार की
ही आकांक्षा
होगी। और
जिसके मन में
संसार की
आकांक्षा है,
वह
असद्गुरु के
पास ही जा
सकता है। उसका
मेल असद्गुरु
से ही पड़ सकता
है।
मुझसे
लोग कभी—कभी
आकर पूछते हैं
कि निर्णय कैसे
करें कि
सद्गुरु कौन
है?
मैं उनसे
कहता हूँ—तुम
इसकी फिकिर ही
मत करो, तुम
क्या निर्णय
करोगे कि
सद्गुरु कौन
है? तुम
इतनी ही फिक्र
कर लो कि
तुम्हारा
संसार चुक गया?
फिर
तुम्हें
असद्गुरु से
संबंध जुड़ ही
नहीं सकता।
क्योंकि
असद्गुरु दे
सकता है संसार
की ही वासनाएँ,
ससार के ही
प्रलोभन, संसार
की ही
महत्वाकांक्षाएँ।
उसके
आशीर्वाद
सांसारिक हैं।
तुम्हारा
संबंध ही
असद्गुरु से
नहीं जुड़ सकता।
इसलिए सवाल यह
नहीं है कि हम
सद्गुरु को
कैसे पहचानें,
सवाल यह है
कि हमारे भीतर
अगर संसार की
आकांक्षा
क्षीण हो गयी
है, तो
तुम्हारा
जिससे संबंध
बैठेगा, जिससे
तुम्हारा
प्रेम हो
जारागा, वह
सद्गुरु ही
होगा। असद्गुरु
को तो तुम
तत्क्षण देख
लोगे।
क्योंकि तुम
ध्यान
माँगोगे, वह
धन का
आशीर्वाद
देगा। तुम
परमात्मा
माँगोगे, वह
पद का
आशीर्वाद
देगा। तुम कुछ
माँगोगे, वह
कुछ देगा।
तुम्हारी
औंखें साफ—
साफ देख लेंगी
कि वह जो दे
रहा है, यह
वही संसार है
जिसे तुम छोड
आए, या
जिसे तुम देख
आए कि व्यर्थ
है।
कोई
निर्णय नहीं
कर सकता कि
सद्गुरु कौन
है,
असद्गुरु
कौन है? लेकिन
यह निर्णय तो
तुम कर ही
सकते हो कि
तुम्हारे
भीतर संसार का
रस चुक गया है
या शेष है? अगर
चुक गया, तो
तुम जिसे भी
पा लोगे वह
सद्गुरु होगा।
और
जिस व्यक्ति
के जीवन में
संसार का रस
चुक गया है और
परमात्मा की
खोज शुरू हो गयी
है,
उसे
सद्गुरु
खोजना ही होगा।
क्योंकि
परमात्मा से
सीधा— सीधा
संबंध बनाना
करीब—करीब
असंभव है। मैं
कहता हूँ—करीब—करीब
असंभव है, क्योंकि
कभी—कभी बन
जाता है। मगर
निन्न्यानबे
मौकों पर नहीं
बनता।
निन्न्यानबे
मौकों पर बीच
में एक सेतु
की जरूरत पड़ती
है। वही सेतु
सद्गुरु है।
हम तो समो चके
हैं तुझे साँस—साँस
में
यह
और बात हे कि
तुझे आग ही
नहीं
क्या
हो सकेगा इसका
मदावा शराब से
यह
जिंदगी का गम
है,
गमे—आशिकी
नहीं
अहले—वफा
में ऐसे भी
कुछ नामुराद
हैं
जिनको
तेरी जफा भी
मठयसर हुई
नहीं
ऐ
' शाद '! क्या
बात है कि
बज्मे—हयात
में
शमग़ु
तो जल रही हैं, मगर
रोशनी नहीं
यहाँ
जल तो रहे हैं
दीये सब तरफ, मगर
रोशनी नहीं हो
रही है, क्योंकि
अभी तुम्हारे
पास आँखे—ही
उन दीयों की
रोशनी देखने
के योग्य नहीं
हैं। सूरज तो निकला
हुआ है, मगर
तुम अँधेरे में
हो। तुम्हें
आँख खोलने की
याद ही भूल
गयी है। तुम
आँख बंद किये
खड़े हो और
सूरज को देखना
चाह रहे हो!
सद्गुरु का
इतना ही अर्थ
है, सद्गुरु
तुम्हें सूरज
नहीं दे देगा,
सद्गुरु
सिर्फ
तुम्हें आँख
खोलने की कला
दे देगा, सूरज
तो मौजूद है।
सद्गुरु
तुम्हें
परमात्मा नहीं
दे देगा, परमात्मा
तो मौजूद ही
है, न देना
है, न लेना
है, लेकिन
सद्गुरु
तुम्हरे भीतर
सरंगमबिठा
देगा कि वह
परम संगीत
सुनायी पड़ने
लगे। सद्गुरु
तुम्हें
सुनने की कला
दे देगा ताकि
तुम्हारे कान
उस मधुर रव को
सुन लें, जो
प्रतिपल
मौजूद है।
तुम्हारे कान
अभी केवल शोरगुल
सुनने में
समर्थ हैं।
बाजार का
उपद्रव सुनने
में समर्थ हैं।
हंगामा होता
हो तो सुन
लेते हैं। भीड़—भाड़
की आवाज हो, शोरगुल हो, नारे हों, सुन लेते
हैं। वह जो
भीतर ओंकार का
नाद हो रहा है,
उसे नहीं
सुन पाते। वह
अति सूक्ष्म
है।
कोई
संगीतज्ञ से
संबंध जोड़ना
पड़ेगा, जो
धीरे—धीरे एक—एक
कदम
सूक्ष्मता
में तुम्हें
उतारता जाए।
किसीका हाथ
पकड़ना होगा
जिसे देखना आ
गया है। अंधे
आदमी को
रास्ता पार
करना हो तो
किसीका हाथ
पकड़ लेता है।
और कभी—कभी तो ऐसा
हो जाता है कि
जिसका हाथ
पकड़ा है, हो
सकता है वह भी
अंधा हो, मगर
यह भरोसा कि किसीका
हाथ पकड़ा है
बल दे देता है।
कभी—कभी ऐसा
भी हुआ है कि
जिन्होंने
परमात्मा को नहीं
जाना है, उनको
भी जिन्होंने
प्रेम और
श्रद्धा से
स्वीकार कर
लिया है वे
परमात्मा तक
पहुँच गये हैं।
गुरु तो
निमित्तमात्र
है।
ऐसी
घटना भी घटती
है।
मैंने
सुना, एक अंधा
आदमी राह के
किनारे खड़ा
रास्ता देख
रहा है कि कोई
आ जाए और उसे
पार करा दे।
तभी एक और
आदमी भी आकर
खड़ा हो गया
पास में, वह
भी अंधा है और
किसीकी राह
देख रहा है।
दोनों ने एक—दूसरे
का हाथ टटोला,
दोनों ने यह
समझा कि चलो, आ गया कोई; दोनों
रास्ता पार कर
गये। उस पार
जाकर दोनों ने
एक दूसरे को
धन्यवाद दिया
कि बड़ी कृपा
की कि मुझे
पार करवा दिया।
दूसरे ने कहा
कि आप क्या
कहते हैं, कृपा
आपने की कि
मुझे पार करवा
दिया। तब पता
चला राज कि
दोनों अंधे थे।
मगर यह भरोसा
आ गया कि कोई
हाथ पकड़े है, यात्रा सुगम
हो गयी।
श्रद्धा
आ जाए तो
शक्ति आ जाती
है। फिर अगर आंखवाले
आदमी का हाथ
मिल जाए तब तो
कहना क्या? मैं
तो सिर्फ यह
उदाहरण के लिए
कह रहा हूँ कि
कभी—कभी अंधों
ने भी एक—दूसरे
का साथ देकर
पार करवा दिया
है; तो आंखवाले
का हाथ मिल
जाए तब तो
कहना क्या?
दीये
जले हुए हैं, सूरज
निकला हुआ है,
फूल खिले
हुए हैं, सिर्फ
तुम्हें कला
भूल गयी है।
तुम्हारी
संवेदना
क्षीण हो गयी
है। तुम जड़ हो
गये हो। नं
तुम्हें
सुनायी पड़ता,
न तुम्हें
दिखायी पड़ता,
तुम्हारे
हृदय में अब
कोई धड़कन नहीं
है। प्रेम बरस
रहा हे।
जीसस
ने कहा है—ईश्वर
प्रेम है। हम
सुन भी लेते
हैं,
मगर समझ में
नहीं आता।
प्रेम बरस रहा
है। इस क्षण
भी बरस रहा है।
ऐसी कोई घड़ी
नहीं है जब
तुम्हारे ऊपर
प्रभु— का
प्रेम नहीं
बरस रहा है।
एक क्षण को भी
उसका प्रेम का
बरसना बंद हो
जाए, तुम्हारे
जीवन का सेतु
टूट जाए। उसके
प्रेम से ही
तुम जी रहे हो।
उसके प्रसाद
से ही तुम
श्वाँस ले रहे
हो। उसका
प्रसाद ही
तुम्हारा
अस्तित्व है।
मगर पहचान
नहीं रह गयी
है, बोध
नहीं रह गया
है। जिसे बोध
हो, उसके
साथ मैत्री
बना लेने का
नाम सद्गुरु
को खोजना है।
वो
रिंदे पाकबाज
हैं छूलें अगर
हमें
दोजख
की आग को भी
गुलिस्तां
बनाएँ हम
उन
पियक्कड़ों से
जरा दोस्ती हो
जाए जो
परमात्मा को
पी कर बैठे
हैं।
जिन्होंने
परमात्मा की
शराब पी ली है, जिन्होंने
वह पवित्र
शराब पी ली है——
वो
रिदे पाकबाज
हैं,
छूलें अगर
हमें
दोजख
की आग को भी
गुलिस्तां
बनाएँ हम
बस
इतना हो जाए
तो नरक की आग
भी गुलिस्तां
बन जाए, तो
नरक की आग में
भी फूल खिल
जाएँ, तो
नरक का अँधेरा
भी रोशनी हो
जाए। नरक कहीं
है ही नहीं
सिवाय
तुम्हारी आँख
के बंद होने
के। कहीं और
नरक नहीं है।
तुम्हारा
अंधापन ही
तुम्हारा
नर्क है। आँख खुल
जाए तो स्वर्ग—ही—स्वर्ग
है। स्वर्ग के
अतिरिक्त
यहाँ कुछ है
ही नहीं। यह
सारा—का—सारा
स्वर्ग। है यह
अस्तित्व सब
रूपों का
स्वर्ग है।
लेकिन यह मैं
जानता हूँ कि
लोग नर्क में
जी रहे हैं।
यह बड़ी अड़चन
की बात है, अस्तित्व
पूरा—का—पूरा
स्वर्ग है और
मजा ऐसा है कि
लोग नर्क में जी
रहें हैं——कभी
कोई स्वर्ग
में जीता है।
कैसे
संबंध जुड़े इस
स्वर्ग से? कैसे
घटना घटे? कैसे
ये अंधेरी, रात कटे? कैसे
ये विरह के
क्षण पूरे हों?
किसी
पियक्कड़ को
खोज लो। किसी
मतवाले को खोज
लो। और मतवाले
सदा हैं। तुम
नहीं खोज पाते
हो उसका कारण
एक ही है सिर्फ
कि तुम हमेशा
पुराने
मतवालों को
खोज रहे हो, जो अब नहीं
हैं। कोई
बुद्ध को खोज
रहा है, बुद्ध
अब नहीं हैं।
यह तो बात ऐसी
साफ है कि अब
बुद्ध नहीं
हैं। कोई
महावीर को खोज
रहा है, महावीर
अब नहीं हैं।
और मजा यह है
कि तुम जब
महावीर मौजूद
थे तब तुम महावीर
को नहीं खोज
रहे थे, तब
तुम कृष्ण को
खोज रहे थे।
और जब कृष्ण
मौजूद थे, तब
तुम किसी और
को खोज रहे थे।
तुम हमेशा
मुर्दों को
खोजते हो। और
परमात्मा सदा
जीवित रूप में
मौजूद होता है।
तुम्हारे
मंदिरों में
तुम मुर्दों
की पूजा कर
रहे हो और
परमात्मा
कहीं जिंदा है,
चल रहा है, उठ रहा है, बैठ रहा है।
अभी गीत कहीं
गाया जा रहा
है, तुम
भगवद्गीता पढ़
रहे हो। तुम
कुरान की
आयतें रट रहे
हो, कहीं
अभी आयतें उतर
रही हैं। कहीं
परमात्मा अभी
फिर पुकार रहा
है, लेकिन
तुम वेद में
उलझे हो, और
कहीं वेद रचे
जा रहे हैं, कहीं एक—एक
शब्द ऋचा है।
मगर
तुम्हारी
कठिनाई यह है
कि तुम सदा
मुर्दे को
पूजते हो। मुर्दे
को पूजने के
पीछे कारण है।
मुर्दे की
प्रतिष्ठा है, हजारों
साल की
प्रतिष्ठा है।
तुम बाजार में
जीने के आदी
हो। बाजार में
पुराने की ' क्रेडिट ' होती है।
नाम बिकता है।
नये को कौन
खरीदता है? नये को
बेचना
मुश्किल है।
नयी चीज भी
चलानी हो तो
लोग पुराना
नाम खरीद लेते
हैं। पुराने
नाम के खूब दाम
मिलते हैं।
तुम अगर नयी
साबुन बनाओ और
लक्स टॉयलेट
साबुन का नाम
खरीद लो, तो
बिकेगी, बिक
जाएगी, कोई
फिक्र न करेगा
कि नयी है कि
पुरानी।
लेकिन नयी
साबुन बनाओ तो
बिकना आसान
नहीं है। नाम
चाहिए——लोग
नाम खरीदते
हैं। लोग नाम
से परिचित हैं।
लोग विज्ञापन
खरीदते हैं——हजारों
साल का
विज्ञापन है।
मैंने
सुना है, अमरीका
का एक बहुत
बड़ा करोड़पति
एंड्रयू कारनेगी
विज्ञापनों
के बड़े खिलाफ
था। वह कभी ' एडवरटाइजमेंट
' देता
नहीं था किसी
अखबार में।
लेकिन एक
अखबार का
मालिक उसके
पीछे ही पड़ा
था। वह कितना
ही उसको भगाता,
वह फिर लौट—लौट
कर दों—चार
दिन में आ
जाता। उसको
भरोसा था कि
वह राजी कर
लेगा। एक दिन
सुबह—मणी—सुबह
पहुँचा, एंडूबू
कारनेगी ने
कहा——भई, आ
गये फिर तुम, मुझे
विज्ञापन
देने नहीं हैं।
उसने पूछा—लेकिन
क्यों नहीं
देने हैं? आप
मुझे एक दफे
ठीक—ठीक समझा
दें, मैं
दोबारा न आऊँ।
क्यों नहीं
देने हैं।
तर्क क्या है?
उसने कहा कि
मेरी चीजें
बिक ही रही
हैं, मैं
क्यों
विज्ञापन दूँ?
लोग मेरी
चीजों को खरीद
ही रहे हैं, लोगों को
पता ही है, विज्ञापन
की मुझे कोई
जरूरत नहीं है।
तभी पहाड़ी के
ऊपर बने हुए
चर्च की
घंटियाँ बजने
लगी। उस
विज्ञापन
माँगनेवाले अखबार
के मालिक ने
कहा——आप सुनते
हैं? यह
चर्च कितने
दिनों से वहाँ
है? एंड्रयू
कारनेगी ने
कहा कि यह सौ
साल पुराना चर्च
है। उस अखबार
के मालिक ने
कहा——अभी भी यह
सुबह—शाम
घंटियाँ
बजाता है कि
नहीं? नहीं
तो लोग भूल
जाएँगे। ये
घंटियाँ
विज्ञापन हैं
कि मैं अभी
हूँ, कि
मुझे भूल मत
जाना। और कहते
हैं एंड्रयू
कारनेगी थोड़ी
देर चर्च की
घंटियाँ
सुनता रहा, और उसने
विज्ञापन
देना शुरू कर
दिया। उसे बात
समझ में आ गयी।
लोग विज्ञापन
को अर्थ देते
हैं, मूल्य
देते हैं।
अब
वेद का
विज्ञापन
पुराना है।
इसीलिए तो सभी
धर्मो के लोग
यह सिद्ध करने
की कोशिश करते
हैं——हमारी
किताब सबसे
ज्यादा
पुरानी है।
वैज्ञानिक
शोध से पता
चलता है कि
वेद पाँच हजार
साल से पुराने
नहीं हैं।
लेकिन
लोकमान्य
तिलक कहते हैं——नब्बे
हजार साल
पुराने हैं।
हिंदू तो कहते
हैं——सनातन
हैं। हम कोई
सालों में
गिनती नहीं
करना चाहते।
क्योंकि
सालों में
गिनती करना
खतरनाक है।
कोई दूसरी
किताब निकल आए
जो ज्यादा
पुरानी हो!
सनातन हैं।
सदा से हैं।
ऐसा कभी था ही
नहीं जब वेद
नहीं थे। यह
इतना आग्रह
क्यों है?
जैनों
से पूछो, जैन
कहते हैं जैन—धर्म
हिंदू धर्म से
पुराना है।
हमारे
तीर्थंकर
सबसे ज्यादा
पुराने हैं।
दलीलें खोजते
हैं। वे कहते
हैं, हमारे
पहले
तीर्थंकर का
नाम ऋग्वेद
में उपलब्ध है।
और आदर से
उपलब्ध है। तो
उसका मतलब यह
हुआ कि जब
ऋग्वेद लिखा
गया, तब भी
हमारा धर्म था,
हमारा पहला
तीर्थंकर हो
चुका था। और
इतने आदर से
उल्लेख किया
गया है पहले
तीर्थंकर का
जैसा कि हम
समसामयिक
आदमी का कभी
नहीं करते।
समसामयिक की
तो हम निंदा
करते हैं। हम
तो आदर ही
पुराने का
करते हैं।
हमारी तो आदर
की प्रक्रिया
ही पुराने के
लिए है। तो वे
कहते हैं, इतने
आदर से उल्लेख
किया है पहले
तीर्थकर का, इससे सिद्ध
होता है कि
तीर्थंकर को मरे
हजारों साल हो
चुके होंगे।
अगर समसॉमयिक
होते
तीर्थंकर तो
एक तो आदर ही नहीं
होता, नाम
का उल्लेख भी
नहीं हो सकता
था। तो ऋग्वेद
से ज्यादा
पुराना जैन
धर्म है।
सब
की चेष्टा यही
है कि उनकी
किताब, उनका
धर्म सबसे
ज्यादा
पुराना हो।
क्यों ?' पुराने
की प्रतिष्ठा
है। पुराने के
साथ परंपरा
जुड़ जाती है।
हजारों साल का
इतिहास, कहानियाँ,
कथाएँ, घटनाएँ
जुड़ जाती हैं।
बल पैदा हो
जाता है। जब
नया पैदा होता
है तो उसके
साथ न कोई
परंपरा होती
है, न कोई
कहानियाँ
होती हैं, न
कोई पुराण
होते हैं। मगर
परमात्मा सदा
ही नया है।
परमात्मा सदा
नूतन है——नित
नूतन है।
तुम्हारी
अड़चन यही है
कि तुम पुराने
में खोजते, हो और नहीं
पाते। और
पुराने में
खोजने के कारण
तुम पडित के
हाथ के शिकार
हो जाते हो।
क्योंकि
पंडित पुराने
का धंधा करता
है। पंडित
पुराने से
जीता है।
पंडित परंपरा
का शोषण करता
है। तुम्हारी
परंपरा की
आकांक्षा का
पडित ठीक—ठीक
शोषण कर लेता
है। फिर
तुम्हें
पंडित के हाथ
पड़ जाना होता
है।
और
पंडित
तुम्हें
सांत्वना दे
सकता है, सत्य
नहीं। सत्य तो
उसे खुद भी
नहीं मिला।
उसके हाथ में
भी मुर्दा
शब्द हैं। वह
मुर्दा
शब्दों से ही
तुम्हें भर
देगा।
तुम्हारे मस्तिष्क
में भी मुर्दा
शब्द डाल देगा।
सद्गुरु
की खोज तो तभी
हो सकती है जब
तुम एक बात
समझ लो कि अब बुद्ध
तो मिलेंगे
नहीं, अब किसी
जीवित बुद्ध
को तलाशना है।
अब महावीर तो
मिलेंगे नहीं,
अब किसी
जीवित महावीर
को तलाशना है।
और यह भी
ख्याल रखना कि
महावीर एक दफा
ही एक ढंग के
होते हैं।
दूसरी दफा उसी
ढंग के नहीं
होते। इस जगत
में
पुनरुक्ति
नहीं होती। यह
भी एक अड़चन है
खोजी के लिए।
तुमने एक
ढाँचा बना
लिया है। चलो,
ठीक, आज
के महावीर को
खोज लेंगे, मगर आज का
महावीर
प्राकृत भाषा
नहीं बोलेगा।
कैसे बोलेगा?
आज का
महावीर हो
सकता है हिंदी
बोले, मराठी
बोले, गुजराती
बोले; और
तुम प्राकृत
बोलनेवाले
महावीर को
खोजोगे, क्योंकि
मूल महावीर ने
प्राकृत बोली
थी। नहीं
पाओगे।
महावीर
का एक ढंग था, एक
'जीवन—दृष्टि
थी, एक
शैली थी।
अद्वितीय थी,
अनूठी थी, मगर इस
दुनिया में
कार्बन कॉपी
होतीं ही नहीं।
और कार्बन
कॉपी खतरा है।
अगर तुम
महावीर को
खोजने गये तो
किसी कार्बन कॉपी
के चक्कर में
पड़ जाओगे।
कहीं—न—कहीं
लोग हैं जो
कार्बन कॉपी
कर रहे हैं, जो ठीक
महावीर जैसे
ही चल रहे हैं,
उठ रहे हैं,
बैठ रहे हैं,
वैसे ही
भोजन कर रहे
हैं, उसी
ढंग से नग्न
हैं, उसी
ढंग का
उन्होंने
आचरण बना लिया
है, उनके
चक्कर में तुम
पड़ जाओगे। और
ध्यान रखना, परमात्मा
कभी पुनरुक्त
नहीं होता।
परमात्मा सदा
ही अद्वितीय
है, बेजोड़
है। महावीर बस
एक बार होते
हैं, दुबारा
नहीं होते——न
तो महावीर के
पहले कभी हुए
थे, न
महावीर के बाद
कभी होंगे।
मुहम्मद एक ही
बार होते हैं,
दुबारा
नहीं होते हैं।
मगर इसका मतलब
यह नहीं hऐ
कि परमात्मा
होना बंद हो
जाता है।
परमात्मा रोज
नये रूप लेता
है। परमात्मा
सृजनात्मक है।
नये
को पहचानने की
क्षमता चाहिए, तो
सद्गुरु
मिलेगा। अगर
पुराने की पकड़
है तो तुम्हें
नकलची मिलेंगे,
नेता मिलेंगे;
कुशल
अभिनेता मिल
जाएँगे; पंडित
मिलेंगे, पुजारी
मिलेंगे, पुरोहित
मिलेंगे, अनुयायी
मिलेंगे, मगर
मौलिक अनुभव
को उपलब्ध
व्यक्ति नहीं
मिल पाएगा। इस
सारी पक्षपात
की धारणा को
आँख से उतार
कर जो खोजने
निकलता है, उसे निश्चित
सद्गुरु मिल
जाता है।
सद्गुरु सदा
मौजूद है। इस
पृथ्वी पर ऐसा
कभी नहीं होता
जब परमात्मा का
दीया कहीं—न—कहीं
प्रगाढ़ होकर न
जलता हो। ऐसा
हो ही नहीं
सकता। उसकी
अनुकंपा अपार
है। उसकी
अनुकंपा का ही
तो यह प्रमाण
होगा कि अब भी
वह आदमी से
निराश नहीं
हुआ है, अब
भी कहीं उतरता
है, अब भी
कहीं पुकारता है,
वैसे ही
जैसे पुराने
दिनों में
पुकारता था अब
भी पुकारता है।
मगर तुम्हें
उसकी नयी भाषा
समझनी होगी, नया रंग—ढंग
समझना होगा।
वह आज के
अनुकूल होगा।
और सदा ही
चँकि नया होगा,
इसलिए जो
लोग पुराने
नक्शे लेकर
चलेंगे उन्हें
वह कभी भी
नहीं मिल
पाएगा। वह
किसी पुराने
नक्शे के
ढाँचे में
बैठेगा नहीं।
इसलिए बड़ी
खुली आंख
चाहिए। लेकिन अगर
तुम खोज में
निकले हो, अगर
सच में ही खोज
तुम्हारे
रोएँ—रोएँ को
पकड़ ली, तो
यह घटना घटेगी।
हंगामें
उठ रहे हैं
मेरी साँस—साँस
से
सर
से कदम तक इक
दिले—बेकरार
हूँ
अगर
तुम्हारे
रोएँ—रोएँ में
बेकरारी है, बेचैनी
है, खोजना
ही है सद्गुरु
को, प्यास
है, सघन
प्यास, ज्वलंत
प्यास, तुम्हारा
रोआँ—रोआँ जल
रहा है——
हंगामें
उठ रहे हैं
मेरी साँस—साँस
से
सर
से कदम तक इक
दिले—बेकरार
हूँ
तो
देर नहीं
लगेगी।
जितनी
प्रगाढ़ होगी
अभीप्सा, उतने
ही शीध्र मिलन
हो जाता है।
और सद्गुरु से
पहली दफा आँख
मिली कि बस
बात हो गयी।
यह भी पहली
आँख का प्रेम
है। पहली
दृष्टि। बस
आँख तुम्हारी
साफ होनी
चाहिए, पुराने
कूड़ा—करकट से
भरी नहीं होनी
चाहिए, आँख
साफ हो, एक
बार सद्गुरु
से मिली तो
बात हो गयी।
दुश्मनों
ने तो दुश्मनी
की है
दोस्तों
ने भी क्या
कमी की है
अक्ल
से सिर्फ जहन
रौशन था
इश्क
ने दिल में
रोशनी की है
यह
प्रेम की घटना
है। यह महा
प्रेम की घटना
है। 1 इश्क ने
दिल में रोशनी
की है, अक्ल से
सिर्फ जहन
रौशन था '।
शास्त्रों से
ज्यादा—से—ज्यादा
बुद्धि में
थोड़ी रोशनी हो
सकती है। मगर
वह रोशनी बहुत
काम की नहीं, उधार है, बासी
है, परायी
है। अपनी
रोशनी तो हृदय
में उठती है।
अपनी लपट तो
हृदय में जगती
है। ' अक्ल
से सिर्फ जहन
रौशन था, इश्क
ने दिल में
रोशनी की है '।
जब
तुम्हारे
भीतर प्रकाश
धड़कता है हृदय
में,
तब तुम ठीक
रास्ते पर आ
गये। खोजो उन
आँखो को जिनको
देखते ही
प्रेम जग जाए।
खोजो उन हाथों
को जिनके
स्पर्श से ही
प्रेम जग जाए।
फिर सब सुगम
हो जाता है।
ऐसी
ही तो घटना
रज्जब के जीवन
में घटी। घोड़े
पर सवार, बारात
जाती थी कि
दादू दयाल बीच
में आकर खड़े हो
गये, आंख—से—आंख
मिली और बस
बात हो गयी।
बात की बात हो
गयी। उतार कर
फेंक दिया सिर
से मौर, दादू
के चरणों में
सिर रख दिया—दादू
को सिरमौर बना
लिया।
मार
भली जो सतगुरु
देहि। फेरि
बदल औरे करि
लेहि।।
सस्ता
नहीं है
सद्गुरु का
साथफिर।
सद्गुरु
मारेगा, मिटाएगा,
तोड़ेगा।
हिम्मतवर ही
उसके पास हो
सकते हैं। जो
सांत्वना की
तलाश में गये
थे वे तो दूर
से ही भाग खड़े
होंगे। तुम तो
गये थे कि कोई
तुम्हारे गले
में फूलमाला
पहनाएगा और
वहाँ गर्दन
काटी जाने लगी,
तुम कैसे
टिकोगे? गर्दन.
कटवाने की
हिम्मत हो तो
ही टिकोगे।
सिर रख दिया
चरणों में, इसका मतलब
समझते हो? इसका
मतलब सिर्फ
औपचारिक नहीं
होता, इसका
मतलब सिर्फ यह
कोई प्रणाम
करने का कोई
ढंग नहीं है, सिर रख दिया
चरणों में
इसका मतलब
होता है——यह
रही गर्दन, काटना हो
काटो। मैं ना—नुच
नहीं करूँगा।
हटेगी नहीं यह
गर्दन। उठा लो
तलवार और काट
दो, यहीं
इसी मस्ती से
कट जाऐंगा, शिकायत नहीं
होगी; इसी
आनंद—अहोभाव
से मर जाऊँगा,
मिट जाऊँगा।
मुझे मिटा दो।
मैं अपने ढंग
से रह कर देख
लिया हूँ और
पीड़ा के अतिरिक्त
कुछ भी न पाया,
अब म्उझे
मिटा दो, अब
मुझे जला दो, मेरी मृत्यु
बनो, मेरी
सूली बन जाओ।
यह अहंकार
मुझे जन्मों—जन्मों
तक सताया है।
इस अहंकार से
न—मालूम मैंने
कितने—कितने
सपने देखे, कितने विषाद
सहे, इस
अहंकार ने
मुझे कहाँ—कहाँ
नहीं भटकाया
है, इस
अहंकार में
बहुत भटक चुका
हूँ, अब
तुम इसे मिटा
दो। मुझमें
मेरा—भाव न रह
जाए, मेरी
खुदी मिटा दो।
चरणों
में सिर रखना
सिर्फ
नमस्कार नहीं
है। इसलिए
पश्चिम के लोग
थोड़े हैरान
होते हैं——यह
भी कोई
नमस्कार करने
का ढंग है कि
किसी के पैरों
में सिर रखो!
उन्हें पता
नहीं यह
नमस्कार का
ढंग ही नहीं
है। इसका
नमस्कार से
कुछ लेना—देना
नहीं है। यह
तो कुछ और ही
बात है। यह तो
समर्पण का भाव
है। यह तो
समर्पण की
घोषणा है कि
यह रहा सिर, अब
जो मर्जी हो वैसा
करो।
'
मार भली जो
सतगुरु देहि '। रज्जब
कहते हैं ——
उससे ज्यादा
प्यारी
दुनिया में और
कोई चीज नहीं।
सद्गुरु की
मार। और
मारेगा सब तरफ
से, क्योंकि
न— मालूम
कितना कचरा है
सदियों—सदियों
पुराना जो
छीनना है। और
जिसे तुम संपत्ति
समझकर पकड़े
बैठे हो। और
तुम्हारे भीतर
न—मालृम कितने
रोग हैं जिन
रोगों को नष्ट
करना है। उन
रोगों को
तुमने अब तक
अपना जीवन
जाना है।
तुम्हारे
भीतर न—मालूम
कितने न्यस्त
स्वार्थ हैं——काम
है, क्रोध
है, लोभ है,
मोह है।
तुम्हारे
भीतर न—मालूम
कितनी
विषाक्त
मनोदशाएँ हैं,
उन सब को
मिटाना है। एक—एक
करके काटना है।
तुम्हें
तैयार करना है।
मार भली जो
सतगुरु देहि।
फेरि बदल औरे
करि लेहि।।
जो
उस मार को
झेलने को राजी
हो जाता है
स्वागत से, सन्मान
से, श्रद्धा
से, फेरि
बदल औरे करि
लेहि, गुरु
उसे बदल कर
कुछ—का—कुछ कर
लेता है——और ही
बना देता है!
रूपांतरण हो
जाता है। इंच—इंच
काटना पड़ता है।
इसलिए थोड़े—से
हिम्मतवर
योद्धा ही
सद्गुरुओं के
पास रुकते हैं।
कमजोर भाग
जाते हैं।
कमजोर भागने
के लिए न—मालूम
कितने उपाय
खोज लेते हैं,
कितने तर्क
खोज लेते हैं।
गुरु की
याद में रंग
भी बहुत, नूर
भी बहुत
न—मालूम
क्या—क्या
उनके मन में
विचार उठ आते
हैं और भाग
खड़े होते हैं।
मगर ध्यान
रखना, वे सब
भागने के लिए
व्यवस्थाएँ
है, पलायन
की
व्यवस्थाएँ
हैं।
ज्यूँ
माटी कूँ कुटै
कुँभार।
त्यूँ सतगुरु
की मार विचार।।
और
जब सतगुरु
मारे, उठे
उसकी तलवार, काटने लगे
तुम्हारी
गर्दन, तो
रज्जब कहते है——सोचना
अपने मन में, क्योंकि मन
तो भागने को
होगा, और
मन कहेगा
इसलिए थोड़े ही
आए थे; आए
थे कि थोड़ा
ज्ञान हो जाए,
आए थे कि
थोड़ी शांति हो
जाए, आए थे
कि थोड़ा सुख
हो जाए, आए
थे कि थोड़ी
संपदा मिल जाए,
आए थे कि
थोड़ा सम्मान
बढ़े, आए थे
कि दुनिया में
थोड़ा कुछ कर
दिखाएँ—नाम छोड़
जाएँ, कुछ
हस्ताक्षर
बना जाएँ——कोई
गर्दन कटाने
तो आए नहीं थे।
यह क्या होने
लगा?
'
ज्यूँ माटी
कूँ कुटै
कुँभार '।
तो रज्जब कहते
हैं, जाकर
देखना, जैसे
कुम्हार माटी
को कूटता है, बिना कूटे
माटी तैयार
नहीं होती; तुम भी माटी
हो, अभी
माटी से
ज्यादा नहीं
हो, क्योंकि
अभी मृत्यु ही
तुम्हारे
जीवन की
लक्षणा है।
हाँ, तुम्हारी
माटी में कहीं
अमृत भी छिपा
है, मगर
कूट—कूट कर
उसे मुक्त
करना होगा।
तुम्हारी देह
में आत्मा भी
दबी पड़ी है, मगर उसके
लिए राह बनानी
होगी। अभी तो
तुम देह—ही—देह
हो। अभी तो
तुम शरीर—ही—शरीर
हो——माटी और कुछ
भी नहीं, बस
माटी।
'
ज्यूं माटी
कूँ कुटै
कुँभार '।
तो गुरु
उठाएगा अपने
शस्त्र, कूटना
शुरू करेगा, मृत्यु से
अमृत को अलग
करना है, जड़
से चेतन को
अलग करना है, निद्रा से
होश को अलग
करना है।
ज्यूँ
माटी कूँ कुटै
कुँभार।
त्यूँ सतगुरु
की मार विचार।।
सदा
ध्यान रखना, जब
मार पड़े तो
घबड़ा मत जाना।
सोचना कि ठीक,
कुम्हार के
हाथ में पड़
गया हूँ, अब
माटी पिटती है,
अब कुछ होगा।
फेरि—बदल औरे
करि लेहि।
निजामे—आलम
बदल रहा है, खुदा
भी शायद नया
बनेगा
नये—नये
से हैं सब
मुजाविर, नयी—नयी
सी हैं
खानकाहें
रहे—तलब
में जो थक के
बैठें, मेरी
नजर में वे
बुलहविस हैं
रहे—तलब
में कयाम कैसा? रहे—तलब
में कहाँ
पनाहें
जो
खोजने चला है, सच
में ही खोजने
चला है, जो
सत्य का खोजी
है, सत्यार्थी
है, रहे—तलब
में कयाम कैसा,
फिर वह
सोचता नहीं कि
दाँव पर क्या
लगाना और क्या
बचाना। रहे—तलब
में कहाँ
पनाहें। फिर वह
शरण भी नहीं
लेता। अपनी
गर्दन छिपाता
भी नहीं। गुरु
बरसता है तो
वह छाता नहीं
तान लेता।
गुरु बरसता है,
वह अपने
चारों तरफ
बचाव के लिए
आयोजन नहीं कर
लेता, रक्षा
का इंतजाम
नहीं करता।
रहे—तलब में
कहाँ पनाहें।
और, 'रहे—तलब
में जो थक के
बैठें, मेरी
नजर में वे बुलहविस
हैं '। और
जो गुरु के
पास आकर जल्दी
ही थक जाएँ, उसका मतलब
इतना ही है कि
अभी संसार से
उनका मन मूक्त
नहीं हुआ था, अभी संसार
में कुछ लगाव
बना था, अभी
संसार में
वासना बनी थी,
यूँ ही चले
आए थे, कच्चे—कच्चे
चले आए थे, अभी
पके नहीं थे, अभी परिपक्व
नहीं थे; सुन
इप्ल—या होगा
कि संसार
व्यर्थ है, मगर जाना
नहीं था, पढ़
लिया होगा कि
सब संसार माया
है, मगर यह
अपनी अनुभूति
नहीं थी। ' रहे—तलब
में जो थक के
बैठें ', और
जो कहें कि बस
थक गये, जरा
में थक जाएँ, ' मेरी नजर
में वे
बुलहविस हैं '। वे
वासनाग्रस्त
लोग हैं, भूल
से आ गये। ' रहे—तलब
में कयाम कैसा?
' विश्राम
कैसा? सत्य
को खोजने जो
चला है, वह
दाँव पर लगाता
है, कुछ भी
बचाता नहीं——रहे—तलब
में कहाँ
पनाहे? और
वह कोई
रक्षावरण
अपने चारों
तरफ खड़ा नहीं
करता——न
बुद्धि के, न विचार के, न देह के। सब
तरह से अपने
को खुला छोड़
देता है।
'
भाव भिन्न
कछु औरे होइ '। और जब गुरु
मारता है, तो
यह मत सोचना
कि नाराज है।
गुरु और
नाराज! असंभव।
यह मत सोचना कि
तुम्हारा
अपमान कर रहा
है। गुरु और
किसीका अपमान
करे! असंभव।
'भाव भिन्न
कछु औरे होइ '। उसका भाव
कुछ और है।
कोई कुम्हार
मिट्टी को पीट
रहा है तो अपमान
थोड़े ही कर
रहा है, सच
में सम्मान कर
रहा है। इस
मिट्टी को
चुना है, कि
इस मिट्टी से
कुछ मूर्ति
बनानी है। और
भी मिट्टियाँ
थीं बहुत, उनको
नहीं कूटा है,
नहीं पीटा
है, उनको
योग्य नहीं
समझा है। जब
मूर्तिकार एक
पत्थर पर छेनी
लेकर जुट जाता
है तोड्ने, तो पत्थर का
अपमान नहीं है,
सम्मान है।
पत्थर तो बहुत
थे दुनियाँ
में, इस
पत्थर को चुना
है, इस
पत्थर से
भगवत्ता
निर्मित होगी,
इस पत्थर
में कुछ
विशिष्टता है।
भाव भिन्न
कछु औरे होइ।
ताते रे मन
मार न जोइ।।
इसलिए
मार पर ध्यान
मत देना, भाव
पर ध्यान देना।
गुरु क्या कर
रहा है इसका
ध्यान ही मत
देना, सदा
खोजना उसकी
आकांक्षा
क्या है? और
वहाँ तुम सदा
अनुकंपा
पाओगे। वहाँ
तुम सदा करुणा
पाओगे। वहाँ
तुम सदा प्रेम
पाओगे। और
जितना ज्यादा
प्रेम होगा, गुरु उतना
ही कठोर होगा।
जैसा लोहा
घडै लुहार।
कूटि—काटि करि
लैवै सार।।
लोहे
जैसे ही कठोर हो
तुम,
कठिन हो तुम,
आग में
तुम्हें
गलाना होगा, तो ही तुम
तरल हो पाओगे।
आग में
तुम्हें
गलाना होगा, तो ही तुम
नरम हो पाओगे।
जैसा लोहा
घडै लुहार।
कूट—काटि करि
लैवै सार।।
और
कूटेगा और
काटेगा, तभी
सार उत्पन्न
हो सकेगा।
जैसे तुम हो, ऐसे तो असार
हो। अनगढ़
पत्थर हो। कि
मिट्टी का ढेर
हो। कि लोहा
हो।
मारै
मारि मिहरि
करि लेहि '।
एक हाथ से
मारता है गुरु
और जो मार को
झेल लेता है, उसी क्षण
पाएगा उसकी
मेहेर, उसकी
अनुकपा की
वर्षा भी
दूसरे हाथ से
हो रही है।
मगर उसको ही
पता चलेगा जो
मार खेल लेगा
स्वागत से। जो
भाग खड़ा होगा,
वह उसकी
मेहेर से
वंचित रह
जाएगा, उसकी
अनुकंपा से
वंचित रह
जाएगा। ' मारै
मारि मिहरि
करि लेहि '।
ऐसे मारता है,
फिर पुचकार
लेता है। चोट
करता है, फिर
सहलाता है।
फिर—फिर चोट
करेगा। और हर
चोट पहली चोट
से ज्यादा
गहरी होती
जाएगी। और हर
चोट के बाद, हर गहरी चोट
के बाद गहरी
अनुकंपा
तुम्हें
उपलब्ध होने
लगेगी। ऊपर से
जो देखेगा, उसे कुछ समझ
न आएगा। ये
भीतर के राज
हैं, उनपर
ही खुलते हैं
जो भीतर
प्रवेश करते
हैं।
मारै मार
मिहरि करि
लेहि। तो
निपजै फिरि
मार न देहि।।
यह
मार तब तक
चलती रहती है
जब तक कि
तुम्हारे
भीतर का दीया
न जल जाए; ज्ञान
कोई दृष्टि
पैदा न हो जाए,
साक्षी का
जन्म न हो जाए,
सार का
आविर्भाव न हो
जाए।
‘तो निपजै
फिरि मार न
देहि '। और
जब इस दृष्टि
का जन्म हो
जाता है, फिर
कोई मार नहीं
है। फिर गुरु
तो मारता ही
नहीं, फिर
मृत्यु भी
नहीं मार सकती।
फिर मार ही
नहीं है, फिर
मृत्यु ही
नहीं है। फिर
अमृत है। मगर
उस अमृत के
पहले बहुत बार
मरना होता है।
और धन्यभागी
हैं वे जो
गुरु के हाथ
से बहुत बार
मरने को तैयार
होते हैं।
ज्यूँ
साँटी संपुट
में आनि। सूधी
करै तीरंगर
पानि।।
जैसे
तीर
बनानेवाला
तीर को सँडूसी
से पकड़ता है, हथौड़ी
से कूटता है, सीधा करता
है। 'ज्यों
साँटी संपुट
में आनि, ' जैसे
तीर को पकड़
लिया हो
सँडुसी सै तीरंगर
ने, ऐसा
गुरु शिष्य को
पकड़ ,लेता
है। छूटना
मुश्किल हो
जाता है।
भागना
मुश्किल हो
जाता है। जो
पहले ही भाग
गये, पकड़
के पहले भाग
गये वे भाग
गये, जो
पकड़ में आ गये,
वे नहीं भाग
पाते।
ज्यूँ
साँटी संपुट
में आनि। सूधी
करै तीरंगर
पानि।।
तुम्हारे
तीर बड़े इरछे—तिरछे
हैं। इनसे कोई
लक्ष्यभेद
नहीं हो सकता।
चलाओ कहीं, पहुँचेंगे
कहीं। ये
सीधैं ही नहीं
हैं। तीर को
तो सीधा होना
चाहिए तो ही
लक्ष्य—भेद हो
सकता है।
तुम्हारी सब
चाल इतनी
तिरछी है, तुम
इतने तिरछे
चलते रहे हो
जन्मों—जन्मों
में कि
तुम्हारा कुछ
पक्का नहीं, कहो कुछ, करो
कुछ, करना कुछ
चाहते थे——तुम्हारा
कुछ पक्का.
नहीं है।
अमरीका
का प्रसिद्ध
विचारक और
लेखक मार्कट्वेन
एक सभा से
व्याख्यान
करके लौटा।
उसकी पत्नी ने
उसके घर आने
पर पूछा——व्याख्यान
कैसा रहा? मार्कट्वेन
ने पूछा——कौन—सा
व्याख्यान? जो मैं देना
चाहता था, वह
?या जो
मैंने दिया, वह? या अब
जो मैं सोचता
हूँ जो मुझे
देना चाहिए था,
वह? कौन—सा
व्याख्यान?
आदमी
पर्त—दर—पर्त
तिरछा है। तुम
भी जानते हो।
कहते कुछ——मुँह
कुछ कहता, आँख
कुछ कहती, मुँह
से हाँ करते
हो, आँख न
कहती है, मुँह
से न कहते हो, आँख हाँ
कहती है; और
भीतर कुछ और, भाव कुछ और; न तुम कहे की
सुनोगे, न
तुम भाव की
सुनोगे, करोगे
तुम जब तक न—मालृम
क्या करोगे? कुछ पक्का
नहीं है। आदमी
बिल्कुल
तिरछा—तिरछा
है, सीधा
नहीं है। गुरु
को इस तीर को
सीधा करना
होगा।
तुम्हारी
वाणी, तुम्हारे
विचार, तुम्हारे
आचरण, तुम्हारे
अस्तित्व को
एक तारतम्यता
देनी होगी, एक
सुसंबद्धता
देनी होगी, एक संगति
देनी होगी।
तुम अभी
विवादग्रस्त
हो। तुम्हारे
भीतर बहुत
दिशाएँ चल रही
हैं।
तुम्हारा एक
हाथ पश्चिम जा
रहा है, एक
हाथ पूर्व जा
रहा है, एक
पैर दक्षिण जा
रहा है, एक
पैर उत्तर जा
रहा है, तुम
चारों दिशाओं
में चारों
धामों की
यात्रा पर एक
साथ निकल पड़े
हो। चारों धाम
इकट्ठे कर
लेने का इरादा
है। तुम कहीं
नहीं
पहुँचोगे।
क्योंकि तुम
पहुँच सकते हो
तभी जब तुम
समग्रीभूत
होकर एक दिशा
में गति करो।
ज्यूँ
सीटी संपुट
में आनि। सूधी
करै तीरंगर
पानि।।
और
कठिनाइयाँ तो
होंगी——मिट्टी
कूटी जाएगी, लोहा
गलाया जाएगा,
पत्थर तोड़ा
जाएगा, तीर
को कूटा जाएगा,
पीटा जाएगा,
सींखचों
में पकड़ा
जाएगा।
हमने
भी इक सुबह की
खातिर
जलते—बुझते
रात गुजारी
दुख
की धूप में
सूख के अक्सर
फलती
है जीवन की
क्यारी
दुख
की धूप में
सूख के अक्सर, फलती
है जीवन की
क्यारी। इस
दुख को
आनंदभाव से
स्वीकार कर
लेने का नाम ही
तप है। गुरु
और शिष्य के
बीच जो संबंध
है, वही
तपश्चर्या है।
'
मन तोड़न का
नाहीं भाव '। तुम्हें
तोड़ना नहीं
चाहता गुरु, तुम्हें
बनाना चाहता
है। मगर बनाने
के लिए तोड़ना
पड़ता है।
मन तोड़न का
नाहीं भाव। जे
तुछ तूटि जाय
तौ जाव।।
और
जो टूट जाते
हों,
उनका
जिम्मा
उन्हीं पर है।
वे तुच्छ हैं,
निकम्मे
हैं, समझे
नहीं बात, गुरु
का हथौड़ा देखा
और भाग खड़े
हुए, एकाध
चोट खायी और
भाग खड़े हुए, इतना भी
मौका न दिया
कि चोट के बाद
मेहेर बरस जाती।
ऐसा
रोज यहाँ हो
रहा है।
क्योंकि यह तो
प्रयोगशाला
है। यहाँ लोग
बनाए— मिटाए
जा रहे हैं।
यहाँ
मिट्टियाँ
कूटी जा रही
हैं। यहाँ
लोहे गलाए जा
रहे हैं। यहाँ
रोज यह होता
है,
कोई
व्यक्ति जरा—सी
बात उसके
विपरीत पड़ जाए,
एक शब्द
उसके विपरीत
पड़ जाए, बस
फिर दुबारा
दिखायी नहीं
पड़ता। फिर जो
भागा सो भागा।
फिर वह लौट कर
नहीं देखता।
वह यह भी मौका
नहीं देता कि
जो चोट की गयी
थी, उसको
सहलाने का समय
दे देता। वह
इतना भी मौका
नहीं देता कि
जो मार की गयी
थी, उस मार
के पीछे जो
करुणा की
वर्षा होने
वाली थी, उसका
भी थोड़ा स्वाद
ले लेता। बस
वह भाग ही
जाता है।
तुच्छ आदमी
धैर्यवान
नहीं होता। और
ये रास्ते
धीरज के
रास्ते हैं।
जीवन को
रूपांतरण
करना धीरज की
बात है।
'
जे तुछ तूटि
जाय तौ जाव '। और अगर कोई
टूट जाता हो
तो ध्यान रखना,
वह अपने ही
कारण टूट गया।
' मन तोड़न
का नाहीं भाव '।
शिष्य
को तो
प्रतीक्षा
में होना
चाहिए, अनंत
धैर्य में
होना चाहिए।
इस
कदर थे तेरी
खातिर गोशबर
आवाज हम
जब
कली चटकी तेरे
पैगाम का धोखा
हुआ
शिष्य.
को तो ऐसा
होना चाहिए कि
कान—ही—कान हो
जाए जब गुरु
बोले, आँख— ही—आंख
हो जाए जब
गुरु को देखे,
हाथ—ही—हाथ
हो जाए जब गुरु
का हाथ उसे
छूए।
इस
कदर थे तेरी
खातिर गोशबर
आवाज हम
ऐसी
टकटकी लगाकर
सुन रहे थे, ऐसा
कान हो गये थे——
इस
कदर थे तेरी
खातिर गोशबर
आवाज हम
जब
कली चटकी तेरे
पैगाम का धोखा
हुआ
इधर
फूल भी खिला
हो,
जरा—सी आवाज
हुई हो—फूल के
खिलने में कोई
बड़ी आवाज नहीं
होती——जब कली
चटकी तेरे
पैगाम का धोखा
हुआ, लगा
तेरा कोई
संदेश आया।
ऐसे ही संदेश
आते हैं। इतने
धैर्य में, इतनी शांति
में, इतने
अहोभाव में; कली चटकने
की तरह ही
संदेश आते हैं।
हथौड़ों की चोट
है और कलियों
का चटकना भी
है। हथौड़ों की
चोट को ही मत
देखते रहना, क्योंकि
पीछे कली भी
चटकनेवाली है।
हथौड़े की चोट
में ही खो गये,
तो चूक गये।
अवसर द्वार
आया था, भर
जाते तुम, सदा
के लिए भर
जाते, खाली—कें—खाली
रह गये।
ज्यूँ
कपड़ा दरजी के
जाय। टूक—टूक
करि लेहि बनाय।।
बनाने
के पहले टुकडे—टुकड़े
करना जरूरी है।
क्यों? क्योंकि
तुम गलत ढंग
से जुड़ गये हो।
तुम्हारे सब
अंग गलत ढंग
से जुड़ गये
हैं।
तुम्हारा हाथ
वहाँ है जहाँ पैर
होना था, तुम्हारा
पैर वहाँ है
जहाँ सिर होना
था, तुम्हारा
सिर वहाँ है
जहाँ पेट होना
था। तुम कहोगे
यह भी कोई बात
हुई?
जार्ज
गुर्जिएफ ने
इसका बहुत
गहरा
विश्लेषण
किया है——इस
सदी का एक
सद्गुरु।
उसने लिखा है
कि जब किसी
आदमी के
मस्तिष्क में
कामवासना
चलती है, तो
उसका मतलब हुआ——यौनकेंद्र
मस्तिष्क में
चला गया।
यौनकेंद्र पर
कामवासना की
ऊर्जा रहे, यह
स्वाभाविक।
लेकिन
मस्तिष्क में
चली जाए, यह
विकृति। जब कोई
आदमी भाव भी
खोपड़ी से करने
लगता है, तो
गड़बड़ हो गयी; भाव हृदय
में होना
चाहिए, हृदय
उसका केंद्र
है। तो हृदय
और मस्तिष्क
मिश्रित हो
गये, गड्डमड्ड
हो गये, खिचड़ी
बन गयी।
तुम्हारे सब
अंग—प्रत्यंग
गलत जुड़ गये
हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि मेरा विचार
है कि मेरे
भीतर आपके
प्रति
श्रद्धा पैदा
हो रही है।
मैं पूछता हूँ——विचार?
श्रद्धा
पैदा होती है
तो विचार नहीं
होता।
श्रद्धा का
विचार से कोई
संबंध नहीं है।
श्रद्धा तो
विचारातीत है।
श्रद्धा में
विचार कहाँ? संदेह में
विचार होता है,
संदेह
विचार है, श्रद्धा
विचार से
मुक्ति हें।
इसीलिए तो
विचार
करनेवाले
आदमी को
श्रद्धा करने
वाला आदमी
अंधा मालूम
होता है। उसकी
बात में बल है।
वह कहता है——सब
श्रद्धा अंधी
होती है, क्योंकि
विचार की जगह
नहीं है उसमें,
तर्क का
उपाय नहीं है
उसमें। जब कोई
कहता है कि
मेरा विचार है
कि मेरे मन
में आपके
प्रति
श्रद्धा पैदा
हो —रही है, तो
वह सिर से
श्रद्धा कर
रहा है जो कि
गलत बात है।
श्रद्धा का
केंद्र वहाँ
नहीं है, श्रद्धा
का केंद्र
हृदय है।
जब
तुम किसीके
प्रेम में पड़
जाते हो और जब
तुम प्रेम की
बात करते हो, तुमने
ख्याल किया, अचानक ही
तुम्हारा हाथ
अपने हृदय पर
चला जाता है
जब तुम प्रेम
की बात करते
हो। कोई ऐसा
नहीं करता कि
अपने सिर पर
हाथ रखकर कहे——
मुझे तुमसे
प्रेम हो गया
है'। अगर
ऐसा कोई आदमी
करे तो क्या
होगा? इसका
मतलब है कि सब
गड़बड़ हो गया।
जब प्रेम होता
है तो हाथ
हृदय पर जाता
है, हृदय
प्रेम का केंद्र
है। तर्क का
केंद्र
मस्तिष्क है।
तुम भीतर
बिल्क़ुल
गड्डमड्ड हो
गये हो।
तुम्हारे सब
तार गलत—सही
जुड़ गये हैं।
कुछ—कन् कुछ
हो गया है।
जैसे यंत्र के
अंग—प्रत्यंग
गलत जुड़ गये
हों।
सब
तुम्हारे
भीतर है। ऐसा
ही समझो कि
कार है खड़ी
द्वार पर, सब
उसके भीतर है,
लेकिन
चीजें गलत—सलत
जुड़ी हैं——जहाँ
इंजन होना
चाहिए, वहाँ
इंजन नहीं है,
जहाँ ब्रेक
होनी चाहिए, वहाँ ब्रेक
नहीं है, वे
कहीं और जुड़े
हैं; सब
अस्त— व्यस्त
हो गया है, यह
गाड़ी चल नहीं
सकती।
तुम्हारी भी
जीवन की गाड़ी
कहाँ चल रही
है? तुम्हारी
जीवन की गाड़ी
शाब्दिक
अर्थों में
गाड़ी है। यह
शब्द सुनते हो?
गाड़ी हम
बनाये हुए हैं
उस चीज के लिए
जो चलती है, लेकिन गाड़ी
को मतलब होता
है——गड़ी; चलने
वाली नहीं।
तुम्हारी
गाड़ी बिल्कुल
गड़ी है, सच
में गाड़ी है, चलती—वलती
नहीं, कहाँ
चलना है, कहाँ
जाना है, यहीं
गड़े—गड़े मर
जाना है। लोग
वहीं पैदा
होते हैं, वहीं
मर जाते हैं, इंच भर जीवन
में यात्रा
नहीं होती——
वही—के—वही मर
जाते हैं जैसे
आए थे। और सब
लेकर आए थे।
तो गुरु
तोड़ेगा।
ज्यूँ
कपड़ा दरजी के
जाय। टूक टूक
करि लेहि बनाय।।
पहले
काटेगा। जहाँ—जहाँ
गलत अग ज्रुडू
गये हैं, सब
काट देगा। कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है न, तुम
गिर पड़े, हड्डी
टूट गयी, रिसर
हड्डी गलत जुड़
गयी। तो सर्जन
को फिर से
तोड़नी पड़ती है।
फिर ठीक से
जोड़नी पड़ती है।
सद्गुरु
सर्जन है। और
तुम्हारी
हड्डियाँ ही
गलत नहीं जुड़ी
हैं,
तुम्हारा
सब कुछ गलत
जुड़ गया है।
क्योंकि
तुमने अज्ञान
में सब जोड़
लिया है।
तुम्हें कुछ
पता ही नहीं
था क्या कहाँ
होना चाहिए। '
टूक टूक करि
लेहि बनाय '। तोड़ने में
पीड़ा भी होगी
लेकिन।
त्यूँ
रज्जब सतगुरु
का खेल। ताते
समझि मार सब
झेल।
लेकिन
इसको खेल की
तरह लेना।
सतगुरु का खेल
समझना।
त्यूँ
रज्जब सतगुरु
का खेल। ताते
समझि मार सब
खेल।।
खेल
ही समझ कर
झेलो तो झेल
पाओगे। अगर
बहुत गंभीर हो
गये,
बहुत
परेशान हो गये,
बहुत बेचैन.
हो गये, तो
भाग जाओगे।
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
अगर कोई आदमी
ऑपरेशन की
टेबल से बीच
में भाग जात, तो जितनी
हालत पहले
खराब थी उससे
ज्यादा खराब हालत
अब हो जाएगी।
पहले ही ठीक थे।
इसलिए जो लोग
अधकचरे
धार्मिक हो
जाते हैं, उनकी
दुर्गति बहुत
है, उनकी
दुर्दशा बहुत
है। या तो
ऑपरेशन की
टेबल पर ही मत
जाना।
मैंने
सुना है ऐसा
हुआ था। एक
नेता जी का
ऑपरेशन हुआ।
उनका
मस्तिष्क
निकाल कर
चिकित्सक
उसको साफ कर
रहे थे——नेताओं
का मस्तिष्क
साफ करने की
जरूरत पड़ती ही
है। असल में
हर साल नेताओं
के मस्तिष्क
को निकाल कर, साफ—सुथरा
करके फिर से
रखना चाहिए।
वे साफ—सुथरा
कर रहे थे, समय
लग रहा था साफ—सुथरा
करने में——नेता
जी का
मस्तिष्क, समय
लगेगा ही——तभी
एक आदमी भागा
हुआ भीतर आया
और उसने कहा ——
नेता जी, नेता
जी, आप पड़े
यहाँ क्या कर
रहे हो? आप
प्रधानमंत्री
हो गये। वे
नेता जी तो
उठे और चलने
लगे।
डाक्टरों ने
कहा —— रुको भाई,
कहाँ जा रहे
हो? आपका
मस्तिष्क अभी
खोपड़ी के बाहर
है। उसने कहा——अब
हमें
मस्तिष्क की
जरूरत ही क्या,
प्रधानमंत्री
हो गये! अब
मस्तिष्क
सम्हालकर रखना,
अब हमें कोई
जरूरत नहीं है।
ऑपरेशन
की टेबल से
बीच में मत
भाग जाना।
नहीं तो और
दुर्दशा हो
जाती है। मेरा
भी यह अनुभव
है,
जिन्होंने
कभी ध्यान
नहीं किया, वे ही ठीक
हैं। लेकिन जो
आधा—धूधा
ध्यान कर लेते
हैं, वे और
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
जिन्होंने
कभी योग नहीं
किया, वे
ही ठीक हैं।
जिन्होंने
कुछ आधा—धूधा
योग कर लिया, वे और
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
पुराना भी सब
अस्तव्यस्त
हो जाता है, नया जम नहीं
पाता, उनके
भीतर एक तरह
की अराजकता हो
जाती है। एक
तरह की
विक्षिप्तता
हो जाती है।
और इस दुनिया
में ऐसे बहुत—से
लोग हैं, जिनकी
हालत
विक्षिप्त है।
बीच से भाग
गये है।
सद्गुरु
के चरणों में
जाओ तो पीछे
के सब सेतु तोड़
ही देना, लौटने
का उपाय ही मत
रखना, सीढ़ी
गिरा देना; तो ही यह काम
हो पायेगा। और
तो ही यह काम
अपने सर्वांग
सुंदर रूप में
हो पाएगा।
लेकिन जाते भी
हम हैं। और
जाते भी हम
कहाँ हैं? आधे—आधे
जाते हैं। आधे—आधे
जाते हैं तो
भागने का खतरा
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
परसों ही
किसीने पत
लिखकर पूछा ——
संन्यस्त
होना चाहता
हूँ, लेकिन
अगर गैरिक
वस्त्र और
माला न पहनूँ
तो? तो
काहे के लिए
संन्यस्त
होना चाहते
हो!! इतना—सा भी
न कर सकोगे——यह भी
कोई बड़ा काम
है तुम समझ
रहे हो? गेरुआ
वस्त्र पहन
लिया, माला
पहन ली, तुम
समझ रहे हो
कोई बहुत बड़ा
काम कर लिया? कोई सात
समुद्र लाँघ
लिये? कोई
गौरीशंकर का
पहाड़ चढ़ गये? किसी रंग का
कपड़ा तो पहनते
ही होगे न! तो
गैरिक का पहन
लिया! और जरा—सी
माला गले में
लटका ली, तुम
समझे कि
सिद्धपुरुष
हो गये! मगर यह
भी नहीं हो
सकता है।
इसमें भी शर्त
लगा रहे हो कि
ऐसे ही
संन्यास मिल
जाए, यह भी
न करना पड़े।
और आगे फिर जो
करना है, उसका
क्या होगा? यह तुम्हारी
हालत तो ऐसी
है कि ऑपरेशन
को आए और बोले
कि अगर टेबल
पर न लेटना
पड़े तो चलेगा?
हालाँकि
टेबल पर लेटना
कोई ऑपरेशन
नहीं है, टेबल
पर लेटने से
ही कोई सब कुछ
नहीं हो गया, मगर जो आदमी
टेबल पर लेटने
को ही राजी
नहीं है, इसका
ऑपरेशन कैसे
करोगे?
ये
तो केवल' स्वीकृति
की सूचनाएँ
हैं कि हम
राजी हैं, हमें
भरोसा है। यह
सिर्फ इंगित
हैं।
मगर
आदमी अधूरा है।
और अधूरेपन के
भाव को छिपा
भी नहीं पाता, वह
प्रगट हो जाता
है——किसी—न—किसी
रूप में प्रगट
हो जाता है।
रोज मैं अनुभव
करता हूँ, लोग
मेरे पास आते
हैं, हजारों
लोग मेरे
संपर्क में आए
हैं, देखता
हूँ उनको, कोई
चरण में भी
झुकता है तो
दोनों बातें
एकसाथ दिखायी
पड़ती हैं—एक
हिस्सा झुकना चाह
रहा है, एक
नहीं झुकना
चाह रहा है।
झुकना भी
चाहता है, नहीं
भी झुकना
चाहता। वह जो
नहीं झुकना
चाहता, वह
भी प्रगट है, वह भी जाहिर
है।
ऐसा
हुआ कि एक
नेता जी को
किसी आदमी ने
होटल में
उल्लू का
पट्ठा कह दिया।
नाराज हो गये, मानहानि
का मुकदमा चला
दिया। मुल्ला
नसरुद्दीन को
अपनी गवाही
में ले गये।
जिस आदमी ने
उनको उल्लू का
पट्ठा कहा था,
उसने कहा कि
मैंने किसीका
नाम नहीं लिया
और वहाँ तो कम—से—कम
पचास आदमी थे,
तो यह कैसे
सिद्ध किया जा
सकता है कि
मैने नेता जी
को ही उल्लू
का पट्ठा कहा?
मैंने
किसीका नाम
लिया ही नहीं।
मैने तो सिर्फ
इतना ही कहा
था कि देखो, ये उल्लू के
पट्ठे! वहाँ
तो पचास आदमी
थे।
मजिस्ट्रेट
को भी बात तो
जमी। उसने
मुल्ला
नसरुद्दीन से
कहा कि तुम
गवाह हो, तुम
कहते हो कि इस
आदमी ने नेता
जी को उल्लू
का पट्ठा कहा
था? नसरुद्दीन
ने कहा——निश्चित
इसने नेता जी
को उल्लू का
पट्ठा कहा था।
लेकिन
मजिस्ट्रेट
ने कहा——यह
आदमी कहता है
वहाँ पचास
आदमी थे और
इसने नाम
किसीका लिया
नहीं, तुम्हें
कैसे
निश्चयपूर्वक
यह भरोसा है
कि इसने नेता
जी को ही
उल्लू का
पट्ठा कहा? नसरुद्दीन
ने कहा —— वहाँ
नेता जी को
छोड्कर उल्लू
का पट्ठा कोई
था ही नहीं।
ये अकेले
उल्लू के
पट्ठे वहाँ थे।
इसलिए हमें
पक्का भरोसा
है इसने नेता
जी को ही कहा
है।
छिपे
भाव प्रगट हो
जाते हैं।
कहाँ तक
बचाओगे? कैसे
बचाओगे? तुम्हारे
अंतरतम में जो
पड़ा है, वह
आज नहीं कल
बाहर आ जाता
है।
ध्यान
रखना, सद्गुरु
से संबंध जोड़ो
तो पूरा—पूरा
जोड़ना, कहीं
भीतर कुछ दबा
मत लेना। कुछ
दबाने की
जरूरत हो तो
अभी रुकना, अभी समय
नहीं आया, अभी
ऋतु नहीं आयी,
थोड़ी और
प्रतीक्षा
करना।
प्रतीक्षा कर
लेना बेहतर है,
लेकिन बीच
से भाग जाना
खतरनाक है।
क्योंकि बीच
से जो भाग गया,
उसकी
जिंदगी फिर
कभी
सुव्यवस्यित
न हो पाएगी।
पहले की
जिंदगी तो
मिलेगी ही
नहीं——वह तो
गयी——और जो
मिलनेवाली थी,
जिसकी आशा
में पहली को
गँवा दिया, उसकी अब कोई
संभावना न रही।
क्योंकि वह
सद्गुरु के
द्वारा ही मिल
सकती थी। ऐसा
समझो कि कपड़ा
दर्जी ने काटा
और तभी कपड़ा भाग
गया। अब इस
कपड़े की क्या
गति होगी, तुम
सोचो! इससे
पहले ही ठीक
थे, कम—से—कम
थोक थान में
तो थे, इकट्ठे
तो थे। अब यह
चिंदी—चिंदी
हो गया। थोड़ा
रुको। इसमें
रूप आने दो, रंग आने दो, आकृति उभरने
दो।
त्यूं
रज्जब सतगुरु
का खेल। ताते
समझि मार सब
खेल।।
इसको
खेल ही समझना।
तो ही झेल
पाओगे।
गंभीरता से ले
लिया, तो जरा—सी
बात चोट कर
जाएगी। क्यों?
क्योंकि
गंभीरता
वस्तुत:
अहंकार की ही
छाया है। यह
मैं तुमसे
कहूँ, यह
तुम ठीक से
ख्याल में
पकड़ो——गंभीरता
अहंकार का ही
एक रूप है।
निर—अहंकार
सरल होता है, छोटे बच्चे—जैसा
होता है, सब
चीज खेल—खेल
में ले लेता
है। और खेल—खेल
में लो तो
हल्का है सब, सरलता से हो
जाएगा। दादू
दीनदयाल गुरु,
सो मेरे
सिरमौर।
शाब्दिक
अर्थों में भी
यह सच है।
दूल्हा अपना
मौर उतार कर
रख दिया था और
चरण नह लिये
थे दादू के, उनको
सिरमौर बना
लिया था; दुल्हन
को लेने जा
रहा था, दुल्हन
की तो फिक्र
छोड़ दी थी और
असली दुल्हन
की तलाश में
लग गया था, प्रेम
की खोज थी, लेकिन
गलत दिशा में
बहा जाता था
दादू की आँख मिली
और असली प्रेम
फलित हो गया।
दादू दीनदयाल
गुरु, सो
मेरे सिरमौर।
यूँ जुज्बे—जिदगो
हुई जाती है
तेरी. याद
जैसे
कोई शराब मिला
दे शराब में
ऐसा
मिल जाना
चाहिए शिष्य
को गुरु से कि
जरा फासला न
रहे——जैसे कोई
शराब मिला दे
शराब में——जरा—सा
भी फासला न
रहे। शराब और
पानी में भी
मिलाओ तो थोड़ा—सा
फासला रह जाता
है।
यूँ
जुज्बे—जिदगी
हुई जाती है
तेरी याद
गुरु
की याद ऐसी
बैठ जानी
चाहित्——
जैसे
कोई शराब मिला
दे शराब में
फिर
घटनाएँ घटनी
शुरू होती हैं——त्वरा
से,
तीव्रता से;
छलाँगें
लगनी शुरू
होती हैं, इंच—इंच
कदम नहीं उठते,
मील—मील कदम
उठ जाते हैं।
जन रज्जब
उनकी दया, पायी
निहचल ठौर।।
और
उनकी दया से
वह जगह मिल
गयी,
जहाँ से कोई
भी नहीं डिगा
सकता, मौत
भी नहीं डिगा
सकती। जिसको
कृष्ण ने
स्थितप्रज्ञ
की अवस्था कहा
है——पायी
निश्चल ठौर।
जैसे दीया जले
और हवा का कोई
झोंका उसे
कँपा न सके, अकं—प हो। जन
रज्जब उनकी
दया, पायी
निहचल ठौर।।
और
रज्जब कहते
हैं,
अपने कुछ
सामर्थ्य से
नहीं, उनकी
कृपा से। सभी
शिष्यों का
यही अनुभव है,
अपने
प्रयास से
नहीं होती
क्रांति, उनके
प्रसाद से।
रज्जब कूँ
अज्जब मिल्या, गुरु
दादू दातार।
याद
करो दादू के
वे वचन जो
घोड़े पर सवार
रज्जब से
उन्होंने' कहे
थे—
रज्जब तैं
गज्जब किया
घोड़े
पर सवार रज्जब
जा रहा है, बारात
निकली है, दूल्हा
बना है बीज
में रोक कर
घोड़े को दादू
ने कहा था——
गुरु की
याद में रंग
भी बहुत, नूर
भी बहुत
रज्जब तैं
गज्जब किया, सिर
पर बाँधा मौर।
आए थे
हरिभजन कूँ, चले
नरक की ठौर।।
यह तूने
क्या किया? उसका
जवाब दे रहे
हैँ रज्जब——
रज्जब को
अज्जब मिल्या, गुरु
दादू दातरि।
अज्जब
का अर्थ होता
है——अलौकिक।
यहाँ है मौर
यहाँ का नहीं।
संसार में है
और संसार का
नहीं। लोक में
है और अलौकिक।
कुछ पार का है।
और जिसमें
तुम्हें पार
की झलक मिले, वही
तो गुरु है।
उसीके चरण में
झुकना। जहाँ
से तुम्हें
कोई किरण
दिखायी पड़े, जो बहुत दूर
से आ रही है, जिसके स्रोत
का भी तुम्हें
अनुमान नहो
सके। जिसकी
आँख में झाँको
तो ऐसा सागर
दिखायी पड़े किजिसका
कोई किनारा न
मिले।
रज्जब कूँ
अज्जब मिल्या, गुरु
दादू दातार।
सद्गुरु
देता है, अकारण
देता है, इसलिए
उसको दातार
कहा है। उसे' उत्तर में
कुछ भी मिलने
वाला नहीं है।
तुम्हारे पास
कुछ है भी
नहीं जो तुम
उसे दे सको।
कोई कीमत भी
नहीं है जो
चुकायौ जा सके।
कोई मूल्य भी
नहीं है जिससे
तुम खरीद सको।
रज्जब कूँ
अज्जब मिल्या, गुरु
दादू दातार।
दुख
दरिद्र तब का
गया
तब
का। उसी क्षण
चला गया। तत
छन चला गया।
जिस क्षण आँख
मिल गयी गुरु
से,
दुख दरिद्र
तब का गया, ऐसा
नत्दुएाईं कि
फिर धीरे—धीरे
गया, उसी
क्षण चला गया।
' सुख
संपत्ति अपार ',
और सुख की
संपत्ति मिली।
अब
ख्याल रखना, इसकी
व्याख्या
करनेवालों ने
यही अनुवाद कर
दिया है
संपत्ति का——धन।
संपत्ति का
मतलब धन नहीं
होता। साधुओं
की भाषा में
नहीं होता।
साधुओं के वचन
हैं, यहाँ
तुम सांसारिक
अर्थ मत कर
लेना।
संपत्ति
बड़ा प्यारा
शब्द है। इस
शब्द को ठीक
से समझना हो, तो
तुम्हें बहुत
से शब्दों का
ख्याल करना
पड़ेगा। समाधि,
समाधान, संबोधि,
सम्यक्त्व,
सम्पत्ति, ये सब एक ही
धातु से बने
हैं——सम। सम का
मतलब है, जो
ठहर गया, जिसके
लिए सब समान
हो गया, सुख
और दुख बराबर
हो गये, सफलता—विफलता
बराबर हो गयी,
जीवन और
मृत्यु समतौल
हो गये।
सम्पत्ति का:
अर्थ, समाधि।
सम्पत्ति का
अर्थ, सम्यक्त्व।
सम्पत्ति का
अर्थ, समाधान।
सम्पत्ति का
अर्थ, समता,
सम्बोधि।
सम्पत्ति का
अर्थ, सम्पदा।
पर सब के भीतर
ख्याल रखना एक
ही शब्द है——सम।
जिसको तुम
सम्पत्ति
कहते हो, वह
तो विपत्ति है,
उसको
सम्पत्ति
कहना ही नहीं
चाहिए। वहां
कहाँ समता है?
वहाँ कहाँ
सम्यक्त्व है?
वहाँ कहाँ
जीवन की शांति
है? जिसको
तुम सम्पदा
कहते हो, उसको
विपदा कहनी
चाहिए। तुम
विपदा को
सम्पदा कहते
हो और विपत्ति
को सम्पत्ति
कहते हो। वही
तुम्हारी
भ्रांति है।
इसलिए
इस वचन का ऐसा
अर्थ मत कर
लेना कि एकदम
छप्पर टूट गये
और वर्षा हो
गयी मोहरों की।
छप्पर टूटे
जरूर, मगर यह
छप्पर नहीं, और छप्पर।
और मोहरें भी
बरसी जरूर, मगर वे
मोहरें नहीं
जो सरकारी
टकसालों में
ढाली जाती हैं,
मगर वे
मोहरें जो
अनंत से उतरती
हैं, शाश्वत
से उतरती हैं,
जो
परमात्मा की
टकसाल में
ढाली जाती हैं।
दुख
दरिद्र तब का
गया, सुख
संपत्ति अपार।।
रज्जब नर—नारी
सकल चकवा चकवी
जोड़—
यह
बड़ा प्यारा
वचन है
गुरु बैन
बिच रैन में, किया
दुहूँ घर फोड़।।
रज्जब
कह रहे हैं कि
नर नारी सकल
चकवा चकवी जोड़।
सारी प्रकृति
दो में बँटी
हैं—स्त्री और
पुरुष।
स्त्री पुरुष
में आकर्षित
है,
पुरुष
स्त्री में
आकर्षित है।
इसी आकर्षण
में परमात्मा
चूका जा रहा
है। इसी
आकर्षण में
वस्तुत: जिसे
खोजना चाहिए,
उसकी खोज
नहीं हो पाती।
और इस आकर्षण
से कुछ मिलता
नहीं है।
स्त्री को
पुरुष मिल
जाता है, पुरुष
को स्वी मिल
जाती है, लेकिन
मिलता कुछ भी
नहीं। हाथ कुछ
नहीं आता। सब
सपना है।
रज्जब नर
नारी सकल, चकवा
चकवी जोड़।
यह
सारी—की—सारी
संसार की जो
व्यवस्था है, यह
एक को दो में
तोड़कर की गयी
है। एक को दो
हिस्सों में तोड़
दिया गया है।
वे दोनों एक—दूसरे
से मिलना
चाहते हैं, मिलने को
आतुर हैं, मिल
नहीं पाते।
मिलन हो भी
जाता है तब भी
मिलन नहीं
होता। यही तो
प्रेमियों का
कष्ट है कि
कितने ही पास आ
जाएँ फिर भी
दूरी बनी रहती
है। और कितने
ही कितने मिल
जाएँ, फिर
भी मिलन कहाँ
होता है? मिल—
मिल कर छूटना
हो जाता है।
पास आ—आ कर दूर
हो जाते हैं।
विवाह हो—होकर
तलाक हो जाते
हैं। क्षणभर
को सुख. मिलता
है और तत्क्षण
दुख की वर्षा
हो जाती है।
जरा प्रेम और
फिर घृणा। यह
द्वंद्व चलता
रहता है, क्योंकि
इस द्वंद्व के
नीचे मूल
द्वंद्व है——नर
नारी सकल चकवा
चकवी जोड़——विपरीत
का द्वंद्व' है।
पुरुष—स्त्री, ये
दो
विपरीतताछुँ
हैं। जैसे ऋण
और धन विद्युत।
दोनों एक—दूसरे
से आकर्षित हो
रहे हैं, और
विकर्षित भी।
पास भी आना
चाहते हैं और
दूर भी हट रहे
हैं। संसार
द्वंद्व है।
द्वंद्व को दो
हिस्सों में
तोड़ा जा सकता
है—नर नारी।
चीन में इस
विचार को बहुत
गहनता तक ले
जाया गया हे——यिन
यांग।
ताओवादी
परंपरा में इस
विचार पर बहुत
खोज की गयी है
कि सारा
अस्तित्व
द्वद्व में
बँटा है। और
जब तक आदमी इस
द्वद्व में ही
उलझा रहता है,
तब तक कोई
निस्तार नहीं
है, कोई
छुटकारा नहीं
है। एक स्त्री
से मन ऊब जाता
है, फिर
टूसरी स्त्री
में अटक जाता
है। एक पुरुष
से मन ऊब जाता
है, फिर
दूसरे पुरुष
में अटक जाता
है। यह
अंतद्रुनि
प्रक्रिया है।
तुम्हें
दुनिया के
सारे पुरुष
मिल जाएँ और
सारी
स्त्रियाँ, तो भी तुम
तृप्त न हो
सकोगे।
ज्या
पाल सार्त्र
का एक पात्र उसके
एक नाटक में
कहता है कि
मुझे अगर
दुनिया की
सारी
स्त्रियाँ
मिल जाएँ तो
भी मैं तृप्त
न हो सकूँगा।
तुम भी जरा
सोचना—— तृप्त
हो सकोगे सारी
स्त्रियाँ
मिल जाएँ तो? तत्क्षण
तुम पाओगे कि
नहीं, कुछ
फिर भी खाली
रहेगा। यह
पात्र भरता
नहीं, जब
तक परमात्मा
से न भरा जाए।
यह विपरीत से
नहीं भरता, यह बाहर
दूसरे से नहीं
भरता, इसकी
खोज तो अंतरतम
में करनी होती
है।
रज्जब नर
नारी सकल, चकवा
चकवी जोड़।
गुरु—बैन
बिच रैन में
और
बीच आधी रात
में,
जबकि मिलन
होने ही होने
को था, ऐसा
लगता था अब
हुआ, तब
हुआ.. .और ठीक ही
कह रहा है
रज्जब, बारात
जा रही थी, अभी
मिलन हुआ, अभी
हुआ, अभी
सुख की वर्षा
होने को है, और उस बीच
गुरु आ गया। ' गुरु बैन
बिच रैन में '.. .आधी रात. .' किया
दुहूँ घर फोड़ ',
दोनों घर
गिरा दिये। न
स्ही की तरह
बचने दिया
मुझे, न
पुरुष की तरह
बचने दिया
मुझे।
द्वंद्व गिरा
दिया। दोनों
घर गिरा दिये।
मुझे
निर्द्वंद्व
में पहुँचा
दिया। द्वैत
मिटा दिया, मुझे अद्वैत
में पहुँचा
दिया। इसीकी
तलाश थी।
स्त्री के
माध्यम से इसी
अद्वैत की
तलाश हो रही
है।
क्या
खोजते हो तुम
स्त्री के
माध्यम से? किसीके
साथ एक होना
हो जाए। पुरुष
के माध्यम से
क्या खोजते हो?
एक ऐसा क्षण
मिल जाए जहाँ
हम अस्तित्व
के साथ लीन हो
गये।
यूँ जज्बे—जिंदगी
हूई जाती है
तेरी याद
जैसे कोई
शराब मिला दे
शराब में
यही
खोज रहे हो।
मगर यह होता
नहीं। इस तरह
तो नहीं होता।
बड़ी उलटी
प्रक्रिया से
होता है। अपने
भीतर जाने से
मिलना होता है, अपने
बाहर जाने से
दूरी बढ़ती
जाती है।
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर अंतरतम
में बैठा है परमात्मा।
एक विराजमान
है तुम्हारे
भीतर। बाहर तो
दो है। बाहर
तो होने ही
वाला दो——मैं
और तू। भीतर
सिर्फ एक है।
और जितने तुम
भीतर जाओगे, उतने ही तुम
पाओगे उसका
रूप मैं का
रूप नहीं है, क्योंकि मैं
के लिये तो तू
की जरूरत है।
जैसे—जैसे
भीतर जाओग वैसे—वैसे
पाओगे न तू
रहा, न मैं
रहा। जहाँ मैं
भी मिट गयी, तू भी मिट
गयी, जहाँ
मैं—तू मिट
गयी, वहाँ
तत्क्षण उस एक
का अनुभव हो
जाता है जिसको
हम खोज रहे
हैं जन्मों—जन्मों
से; जिसके
लिए यात्रा चल
रही है।
'.......किया दुहूँ
घर फोड़ '।।
कौन—से
दो घर फोड़
दिये? मैं और
तू के घर फोड़
दिये। मिटा
दिया पूरुष—स्त्नी
का भाव।
गुरु दीरघ
गोबिंद सूँ, सारै
सिष्य सुकाज।
शिष्य
जो भी माँगता
था,
खोजता था, सब गुरु की
छाया में पूरा
हो जाता है।
सारै सिष्य
सुकाज। सब हो
जाता है। जो
कर—कर के नहीं
हुआ था, वह
सिर्फ गुरु की
मौजूदगी में
हो जाता है।
गुरु दीरघ
गोबिंद सूँ।
क्योंकि गुरु
गोविंद से
जुड़े हैं।
तुम्हें
गोविंद से तो
जुड़ना
मुश्किल है, क्योंकि
तुम्हारी
गोविद से अभी
कोई पहचान नहीं,
लेकिन गुरु
से जुड़ सकते
हो। गुरु से
जुड़ते ही तुम
भी गोविंद से
जुड़ गये।
रज्जब मक्का
बड़ा परि
पहुँचै बैठि
जहाज।।
बहुत
दूर है मक्का, मगर
बैठ गये जहाज
में तो पहुँच
गये।
परमात्मा
बहुत दूर है, मगर बैठ गये
गुरु की नाव
में तो पहुँच
गये। सारै
सिष्य सुकाज।
कामधेनु
गुरु क्या कहै, जो
सिष निकामी
होइ।
रज्जब
मिलि रीता
रह्या, मदभागी
सिष जोइ।।
अगर
तुम रीते रह
जाओ गुरु को
पाकर, तो
तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
तुम्हारी
जिम्मे— वारी
कहाँ है? कि
तुम निकम्मे
थे। गुरु ने
जो कहा, तुमने
किया नहीं।
गुरु ने जहाँ
चलाया, तुम
चले नहीं। तुम
निकम्मे थे।
'
कामधेनु
गुरु क्या कहै
'। गुरु तो
कामधेनु है, तुम्हें जो
चाहा था सब
होनेवाला था,
मगर तुम चले
नहीं, उठे
नहीं, सुना
नहीं, गुना
नहीं। तुम
आलसी ही बने
रहे। तुम अपनी
तंद्रा में ही
पड़े रहे।
कामधेनु
गुरु क्या कहै, जो
सिष निकामी
होइ।
तो
गुरु कहता
रहता है, कहता
रहता है, कहता
रहता है, शिष्य
अपनी
अकर्मण्यता
में, अपनी
निद्रा में
सुनता रहता, सुनता रहता——सुनता
ही नहीं। जोड़
बनता नहीं, क्रांति
घटती नहीं, आग जलती
नहीं।
रज्जब
मिलि रीता
रह्या, मंदभागी
सिष जोइ।।
रज्जब
कहते हैं अगर
कोई रीता रह
जाए गुरु के पास
जाकर, तो
मदभागी है, अभागी है।
लेकिन बड़ा
उल्टा मामला
है। अगर तुम गुरु
के पास जाकर
रीते रह जाओ, तो कहोगे यह
गुरु किसी काम
का नहीं। हम
रीते रह गये, साफ है कि इस
गुरु के पास
कुछ है नहीं, नहीं तो
हमको मिल जाता।
तुम यह नहीं
सोचते——जो कि
सोचना चाहिए——कि
कहीं ऐसा तो
नहीं है किं
मेरी मटकी ही
उल्टी रखी, गुरु बरस
रहा है और मैं
भर नहीं पाता।
या मेरी मटकी
फूटी है। भर
भी जाता है तो
सब बिखर जाता
है। या मेरी
मटकी गंदी है।
मेघ से वर्षा
होती है
स्वच्छ और
मेरी मटकी में
आते—आते सब
गंदगी हो जाती
है, सब
नाली का कीचड़
मच जाता
मटकी
साफ करो। थोड़ा
कृत्य तो करना
पड़े मटकी साफ
करने में।
थोड़ी
अकर्मण्यता
छोड़ा। मटकी
में छेदछाद
हों,
उन्हें भरो।
मटकी उल्टी
पड़ी हो, उसे
सीधा करो। बस
ये तीन काम
तुम कर लो, भर
जाओगे, निश्चित
भर जाओगे। फिर
तेरी याद दिल
की जुल्मत में
इस
तरह आयी
रंगोनूर लिये
जैसे
एक सीमपोश
दोशीजा
मकबरे
में जला रही
हो दिये
तुम
खुलो तो
परमात्मा
उतरे। तुम
गुरु के लिए
खुलो तो गुरु
तो उतरे—ही—उतरे, उसके
साथ परमात्मा
उतर आए। उसके
सहारे तुम
परमात्मा तक
पहुँच जाओ, परमात्मा
तुम तक पहुँच
जाए।
फिर
तेरी याद दिल
की जुल्मत में
इस
तरह आयी
रंगोनूर लिये
जरा
खुलो, तो रंग
भी बदूत है
गुरु की याद
में और नूर भी
बहुत है।
रोशनी भी बहुत,
उत्सव भी
बहुत। फूलों
के सब रंग हैं
वहाँ, प्रकाश
के सब ढंग हैं
वहाँ। फिर
तेरी याद दिल
की जुल्मत' में
——और तुम्हारा
दिल बिल्कुल
अंधकार है, अमावस है——
इस
तरह आयी
रंगोनूर लिये
जैसे
एक सीमपोश
दोशीजा
——जैसे कोई
सफेद वस्त्र
पहने हुए एक
क्वाँरी——
मकबरे
में जला रही
हो दिये
ऐसी
पवित्र
क्वाँरी, सफेद
कपड़ों में कोई
स्त्री मकबरे
में दीया जला
रही हो, ऐसी
ही तुम्हारे
भीतर एक
पवित्र गंगा
बह जाती है।
एक क्वाँरी
गंगा बह जाती
है। अछूते जगत
से स्पर्श
होता हैं।
पर
तैयारी दिखाओ।
मिटने की
तैयारी चाहिए।
मिटे बिना न कोई
कभी हुआ है, न
हो सकता है।
धन्यभागी हैं
वे जो गुरु के
पास मिटने को
तैयार हैं, क्योंकि
सारे जगत का
आनंद उनका
होगा। इस जगत
के सारे उत्सव
उनके होंगे।
उनकी अमावस
समाप्त हो
जाएगी। और
उनके जीवन में
पूर्णिमा का
उदय होगा।
पूरा चाँद तुम्हारा
है, इरा
आकाश तुम्हारा
है, लेकिन
हकदार तुम तभी
हो पाओगे जब
तुम अपने
अहंकार से
बिल्कुल खाली
हो जाओ। उस
अहंकार को चढ़ा
देने का नाम
ही शिष्यत्व
है।
आज
इतना ही।
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