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शनिवार, 9 अप्रैल 2016

आनंद योग–(दि बिलिव्ड-02)–(प्रवचन–07)

वे वासना को वासना से ही मारते हैं(प्रवचनसातवां)

दिनांक 16 जूलाई 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

बाऊलगीत:
जो लोग मर गये हैं
पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित है,
और वे प्रेम के अनुभवों
और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं,
वे लोग ही जीवन—मृत्यु की इस सरिता को देखते हुए
अखण्ड सत्य को खोजते हैं, और वे लोग ही
इस नदी को पार कर लेंगे।
हवा के विरुद्ध चलोग हुए
प्रसन्नता पाने की
उनकी कोई चाह ही नहीं है।

वे वासना को
वासना में रहते हुए ही मारते हैं
और बिना तादात्‍म्‍य जोड़े प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं।

 नुष्य की ऊर्जा सक्रिय है, वह एक निरंतर होने वाली प्रगति है। वह एक बहुत सृजनात्मक विकास है, जिसमें हजारों सम्भावनाएं हैं और साथ ही उसके लिए अनंत विकल्प भी खुले हैं। मनुष्य इस अस्तित्व के विकास का आरम्भ है, और उसमें इस अस्तित्व की सभी सम्भावनाएं हैं। मनुष्य का शरीर एक लघु बह्माण्ड है, वह वास्तव में है केवल एक बूंद ही, लेकिन उस बूंद में वह सभी कुछ है, जो एक सागर में होता है, वह वास्तव में है एक बूंद ही, लेकिन चेतना की वह एक बूंद है, और चेतना है सागर जैसा अपार, अनंत, जो कोई सीमाएं नहीं जानती। लेकिन जिस मनुष्य की मैं बात कर रहा हूं वह है—बाउलों का सारभूत मनुष्य— आधार—मनुष्य। तुम भी वही बन सकते हो, लेकिन तुम वह हो नहीं। तुम अभी बीज हो। तुम टूट कर, अंकुरित होकर फल—फूल कर हवाओं में अपनी सुवास बिखेर सकते हो, लेकिन अभी तुम वह हो नहीं। इसे भली भांति स्मरण रखना है।
गुरुजिएफ कहा करता था कि मनुष्य आत्मा के साथ नहीं जन्मता, उसे प्रयास के द्वारा आत्मा निर्मित करनी होती है। मनुष्य का जन्म लेना, केवल एक अवसर और सौभाग्य है, जिसका प्रयोग किया जा सकता है, और उसे बर्बाद भी किया जा सकता है, यह सभी कुछ तुम पर निर्भर है। एक व्यक्ति को स्वयं अपना का सृष्टा बनना होता है। माता—पिता ने तुमको शरीर दिया है, लेकिन असली जन्म तो अभी होना है। और इस असली जन्म के लिए तुम्हें अपनी मां, और अपना पिता स्वयं बनना होगा। असली जन्म तो आंतरिक सृजनात्मकता से होता है। तुम्हें अंदर ही गतिशील होकर, अपने ऊर्जा के स्रोत को खोजना होगा, और इतना ही नहीं, बल्कि उस ऊर्जा के यांत्रिक मार्ग को, और उस यात्रा में आने वाले सभी रास्तों को सचेतन बनाने के लिए बदलना होगा।
सामान्यत: ऊर्जा, नीचे की ओर प्रवाहित होती है। यही कारण है कि बाउल उसे वासना कहकर पुकारते हैं। जब वे उसे वासना कह कर पुकारते हैं, तब वे न तो उसका विरोध कर रहे हैं और न उसकी निंदा कर रहे हैं। यह केवल एक तथ्य है, ठीक जैसे पानी नीचे की ओर ही बहता है। पानी के लिए स्वाभाविक यही है कि वह पहाड़ से नीचे की ओर बहे। लेकिन पानी ऊपर भी उठ सकता है, इतना गर्म करना पडेगा, जिससे वह वाष्प बन सके। गर्मी के एक विशिष्ट तापमान पर, सौ डिग्री पर वह ऊपर की ओर उठना शुरू कर देता है। वही पानी जो बहता हुए पहाड़ से नीचे की ओर जाता था, अब पहाड़ के ऊपर की ओर उठना शुरू हो जाता है।
एक रूपांतरण घटित हुआ है, जिसके लिए केवल ताप की आवश्यकता थी। पूरब में इस ऊर्जा को ताप कहते हैं। ताप का अर्थ होता है—गर्मी, ताप शब्द का अर्थ है अपने आप को उष्ण करना गर्म करना।
बाउल गाते हैं:
जब कामना की अग्नि से सारे अंग जलने लगें
फिर भी समय
उसके रस को वासना की ही आँच पर उबालो
जिससे उसके फल में सूक्ष्मता से मधुरता आ जाये।
उसकी चाशनी को जब तक
नियंत्रित ऊष्मा पर मथा न जाये
वह खमीर उठ जाने से खट्टा हो जाता है
कामनाओं से ही भावनाओं का विकास होता है
और वासना के खुरदुरे वृक्ष के तने से ही प्रेम की कोंपलें फूटती हैं। वासना भी वही ऊर्जा है, जैसी प्रेमी की है, अंतर केवल दिशा का है। वासना की ऊर्जा नीचे की ओर बहती है, और प्रेम पहाड़ी पर ऊपर की ओर चढ़ने का प्रारम्भ है। वासना, ठीक वृक्ष की जड़ों जैसी है, और प्रेम पक्षी के पंखों के समान है—लेकिन ऊर्जा वही है। सभी ऊर्जाएं एक जैसी ही होती हैं। ऊर्जा अपने आपमें तटस्थ होती है। उसके बारे में तुम जब तक सचेतन न हो, वह सृजनात्मक नहीं हो सकती। और पहाड़ से नीचे की ओर जाने की गति विनाशात्मक है: तुम केवल अपने आप को भ्रष्ट कर रहे हो। तुम उसके द्वारा बिखरी तरल चेतना को ठोस बनाकर उसका एकीकरण नहीं कर रहे हो—जिसे गुरुजिएफ क्रिस्टलाइज़ेशन कहता है।
प्रत्येक क्षण तुममें ऊर्जा उडेली जा रही है। अस्तित्व तुममें वायु के द्वारा जल के द्वारा, भोजन के द्वारा, सूरज और चंद्रमा के प्रकाश के द्वारा, एक हजार एक तरीकों और सूक्ष्म प्रभावों से तुम्हें ऊर्जावान बना रहा है। ब्रह्माण्ड तुम्हारे अंदर ऊर्जा उडेले जा रहा है। और तुम इस ऊर्जा के साथ कर क्या रहे हो? तुम इससे कोई भी कार्य कर भी रहे हो अथवा उसे केवल बरबाद कर रहे हो? क्या तुम इससे किसी चीज का सृजन कर रहे हो? क्या तुम इस बिखरी बहती चेतना की ऊर्जा को एक निश्चित स्थान पर ठोस बनाकर उसका एकीकरण कर रहे हो? अथवा वह एक छोर से तुम्हारे अंदर प्रविष्ट होती है और दूसरे छोर के द्वारा बाहर निकल जाती है?
यहां ऐसे बहुत से लोग हैं जो एक पाइप की तरह जी रहे है: तुम शरीर के पाइप में एक ओर से चीजें उड़ेलोग हो, और उसके दूसरे सिरे से बाहर निकाल देते हो। एक पाइप बनकर मत जियो।
जब ऊर्जा तुम्हारे अंदर हो, उसके साथ कुछ करो, जिससे उसका कुछ भाग तुम्हारा स्थाई भाग बन जाये। अन्यथा तुम्हारा पूरा जीवन केवल एक पाइप बना ही रह जाएगा: खाना, पीना, व्यर्थ भाग को बाहर निकाल देना, पेशाब करना—ठीक एक पाइप की तरह। तुम्हारी इस ऊर्जा द्वारा सूक्ष्म रस निर्मित होते हैं। यही सेक्स है, बहुत ही सूक्ष्म रस। अब तुम इसके साथ क्या कर रहे हो? क्या तुम इससे कोई सार्थक कार्य कर रहे हो अथवा इसे केवल बरबाद कर रहे हो?
वासना सेक्स ऊर्जा का सबसे अधिक निम्रतम रूप है, प्रेम इसका सर्वोच्च रूप है। जब तक तुम्हारी वासना प्रेम न बन जाये, तुम लक्ष्य से चूकते रहोगे।
गुरुजिएफ कहा करता था कि मनुष्य में एक विशिष्ट यांत्रिकत्व है, जिसे वह कुंड बफरकहा करता था, यह ठीक कुंडलिनी के ही समानांतर है। कुण्डलिनी एक केंद्र है, लेकिन यह केवल तभी कार्य करता है, जब ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है।कुंड बफरवह केंद्र है, जो तब कार्य करता है, जब तुम्हारी ऊर्जा नीचे की ओर जाती है। इसी कुंड बफरको पिघला कर नष्ट करना है, क्योंकि यही कई जन्मों के निरंतर अभ्यास से बनी यांत्रिकता है। प्रत्येक मनुष्य शरीर में एक विशिष्ट यांत्रिकत्व और एक मार्ग बन जाता है और जिस क्षण ऊर्जा तैयार होती है, वह इसी मार्ग के द्वारा गतिशील होती है। यह मार्ग तुम्हारे अस्तित्व को बाहर ले जाने के लिए वहां पहले ही से है। यदि यही सत्य है और कुछ अन्य होने की सम्भावना ही नहीं है, तब जीन—पॉल—सार्त्र ठीक ही कहता है कि मनुष्य होना एक व्यर्थ की लालसा या उत्कंठा है। तब तुम पृथ्वी पर कुछ दिनों तक जीवित रहते हो, चीजों को भोजन के रूप में लेते हो, उन्हें अवशोषित करते हो, व्यर्थ का भाग बाहर फेंकते हो और इसके अलावा कुछ भी नहीं करते हो। तब इस सभी कुछ का महत्त्व क्या है?
लेकिन सब कुछ यही नहीं है।कुंडबफर ' पिघलाया जा सकता और उस मार्ग को तोड़ा जा सकता है। और एक बार वह मार्ग तोड़ दिया जाए तो दूसरा मार्ग कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। वह मार्ग पहले ही से है और तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसा नहीं कि वह अस्तित्व में नहीं है, वह पहले ही से है। वह तुम्हारे जन्म के साथ ही आया है, लेकिन तुमने अभी तक उसका प्रयोग नहीं किया है। तुमने अपनी ऊर्जा को उसके द्वारा बहने की अनुमति नहीं दी है। वास्तव में वह पहाड़ी पर ऊपर चढने जैसा श्रमपूर्ण कार्य है और पहाड़ी पर जाने के लिए शक्ति, सजगता, संकल्प साहस और श्रद्धा की आवश्यकता होती है.... बहुत सी अन्य चीजों की जरूरत होती है।
प्रेम करना कोई काल्पनिक स्वप्न नहीं है। प्रेम, वासना की छलनी से छनकर ही विकसित होता है, इसका अनुभव मृत्यु होने जैसा है। जैसे चिकनी मिट्टी से प्रेम करने वाला मृग पूरी तरह जीवित ही पृथ्वी में दफन हो जाता है। और मिट्टी में ही बिल बनाकर रहता है। प्रेमी भली भांति जानते हैं कि वासना से प्रेम का नवनीत कैसे निकाला जाता है यद्यपि एक शक्तिशाली व्यक्ति के लिए भी यह पहाड़ पर चढ़ने जैसा कार्य है।
अत्यंत साहसी, वास्तव में दृढ़ संकल्प और सच्ची जोखिम उठाने वाले लोग ही आत्म— अनुभव अथवा आत्म—रूपांतरण के मार्ग की ओर आकर्षित होते हैं। धर्म है, सबसे बड़ी जोखिम उठाने जैसा अदम्य साहस। गौरीशंकर शिखर पर अथवा चांद पर पहुचना भी कुछ नहीं है, लेकिन अपने ही अस्तित्व के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना ही असली बात हैं क्योंकि पहले तो हम इस तथ्य के प्रति ही सजग नहीं है कि शिखर जैसी किसी चीज का भी अस्तित्व है। पहले ही हम इतने अधिक मूर्च्छित हैं कि हम यह भी नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं। हम यह भी नहीं जानते कि हम अपने जीवन के साथ क्या कर रहे हैं?
मैंने सुना है :
एक छोटे विद्युत उत्पादन केंद्र का प्रबन्धक अपना कार्य करते हुए बिजली के चपेट में आकर मर गया। सह—प्रबंधक ने पुलिस, मजिस्ट्रेट और संयंत्र के सभी कर्मचारियों को सूचित किया। उन सभी लोगों ने भय से आक्रांत होकर फर्श पर प्रबंधक के मृत शरीर को पड़ा पाया और वे सभी यह अनुमान लगाने लगे कि इतना अधिक अनुभवी व्यक्ति इतनी अधिक भयंकर भूल कैसे कर सकता है?
सह प्रबंधक ने कहा—’‘मैं केवल एक ही बात सोच सकता हूं कि बेचारे जो ने अपने एक हाथ में केबिल का यह छोर जरूर उठाया होगा।’’
सह प्रबंधक केबिल का एक छोर एक हाथ में उठाकर, बिना सोचे समझे उसे दूसरे हाथ तक ले गया और दूसरे हाथ से सम्पर्क होते ही एक धमाका हुआ।
सह प्रबंधक भी मृत प्रबंधक के शव की बगल में ही मृत पड़ा था लेकिन वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए उस रहस्य को सुलझा कर मरा था।

 मनुष्य मूर्च्छित है। तुम सभी काम किए चले जाते हो, बिना यह जानते हुए आखिर तुम उन्हें क्यों कर रहे हो? यदि तुम्हें थोड़ा भी होश हो, तो तुम वे काम जो किये चले जा रहे हो, उन्हें कर ही नहीं सकते।
हम जो कुछ अपने जीवन के साथ कर रहे हैं, उसे केवल सोये—सोये कर रहे हैं। चेतना विकसित होनी है। तुम जितने अधिक होशपूर्ण होगे, उतनी ही अधिक ऊर्जा अपने आप ऊपर की ओर बहना शुरू हो जायेगी। चेतना ही ऐसी वह कुंजी है, जिससे सारे ताले खुल जाते हैं, चेतना या होश ही वह संकेत है, जिससे पूरी पहेली हल हो जाती है। चेतना के द्वारा ही वासना प्रेम बन जाती है, इसलिए प्रेम कोई अचेतन कृत्य नहीं है।
जब बाउल कहते हैं कि प्रेम ही द्वार है, तो उनका अर्थ उस प्रेम से नहीं होता, जिसे तुम प्रेम कहते हो। तुम्हारा प्रेम उतना ही मूर्च्छित है, जितने तुम्हारे अन्य कृत्य। वह मूर्च्छित हैं, इसी कारण प्रेम में गिरना ' शब्दों से उसे अभिव्यक्त किया जाता है। हां! यह नीचे गिरने जैसा ही है। बाउल जिस प्रेम की बात कहते हैं, वह प्रेम में नीचे गिरना न होकर ऊपर उठना है। वह नीचे गिरना न होकर ऊपर उठना है। इसलिए गलत मत समझो कि बाउल जिस प्रेम की बात कर रहे हैं, तुम्हारा प्रेम है। तुम्हारा प्रेम तो केवल वासना का ही दूसरा नाम है, यह एक सुंदर और अच्छा नाम है। और अच्छे तथा सुंदर शब्दों से सावधान रहो, क्योंकि वे बहुत धोखेबाज हो सकते हैं। यदि तुम वासना पर प्रेम का लेबिल लगा दो, तो तुम अपने लगाये लेबिल से धोखे में पड़ जाओगे।
वासना तभी होती है, जब तुम मूर्च्छित होते हो। तुम एक स्त्री को देखते हो अथवा एक पुरुष को देखते हो, और तुम उसके प्रेम में पड़ जाते हो, और तुम नहीं जानते कि आखिर क्यों, कभी—कभी तो तुम अपने स्वयं के ही स्वर के विरुद्ध, स्वयं अपने को भुलाकर प्रेम में डूब जाते हो।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं—’‘ हम क्या कर सकते हैं आखिर? हम असहाय हैं। हमें प्रेम हो गया है।’’ यह प्रेम बाउलों का प्रेम नहीं है, यह वासना है। जिसे बाउल वासना कहते हैं, वह यही है: मूर्च्छित प्रेम ही वासना है। तब इसकी ऊर्जा नीचे की ओर बहती है। तब यह काम केंद्र से गुजरती हुई फिर इसी संसार में आ जाती है। वासना का ऊर्ध्वगमन ही प्रेम है, लेकिन यह सचेतन या होशपूर्ण होता है। चेतना ही वह सीढ़ी है, जिस पर तुम एक पायदान चढ़ते हुए अधिक से अधिक होशपूर्ण बनते हो। तुम जो कुछ भी करते हो, पूरे होश से करते हो, यहां तक कि चलना, भोजन करना, बिस्तरे पर सोने के लिए जाना, बात करना और सुनना भी एक जीवन की ये सभी छोटी— छोटी चीजें भी जिन्हें तुम करते हो, होशपूर्ण होकर ही करते हो। और जब तुम प्रेम में होते हो, तुम पूरे चैतन्य के ही प्रेम में होते हो। यह प्रेम, तुम्हारे स्वयं अपने ही विरुद्ध नहीं होता। यह ऐसा नहीं होता जो तुम्हें अपने नियंत्रण में ले ले, यह ऐसा नहीं होता, जिसके तुम शिकार हो जाओ, यह वैसा भी नहीं होता, जैसे कोई व्यक्ति चुम्बक की भांति तुम्हें अपनी ओर खींच ले। नहीं, तुम स्वयं ही उसकी ओर सचेतन रूप से गतिशील होते हो।
बाउलों का प्रेम अत्यधिक शीतल होता है। उसमें सजगता की शीतलता होती है। तुम्हारा प्रेम बहुत उतस और उष्ण होता है। उसमें मूर्च्छा का ज्वर होता है।
हम सभी कुंड बफरके द्वारा कार्य करते हैं। ठीक काम केंद्र के मध्य में यह यांत्रिक रूप से कार्य करता है। जो लोग कुंड बफरके द्वारा जीते हैं, वे लोग दो तरह के जीवन जी सकते हैं एक तो अपनी कामनाओं को तुष्ट करने में लगे रहना है और दूसरा है उनका दमन करना—लेकिन दोनों ही एक जैसे ही हैं। सामान्यत जो लोग दमन भरा जीवन जीते हैं उन्हें संत कहा जाता है। यह केवल बेवकूफी है। भिन्न वस्त्रों में ये लोग भी अन्य दूसरों जैसे ही हैं। अपनी कामनाओं को तुष्ट करने में लगे लोगों का जीवन उतना ही मूर्च्छापूर्ण है जितना कि उन लोगों का, जो दमित जीवन जी रहे हैं। वास्तव में ' कुण्ड बफर ' जितना अधिक शक्तिशाली होता है, लोग उतने ही अधिक दमित होते हैं क्योंकि वे उसे नियंत्रित करना चाहते हैं। वे भयभीत रहते हैं। वे भयभीत इसलिए होते हैं क्योंकि वे अपनी कामेच्छाओं के ऊपर अपने अहंकार का नियंत्रण खोने लगते हैं। वे उसे नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं, लेकिन उनका नियंत्रण कामेच्छा को गहरे अचेतन में बलपूर्वक धकेलना जैसा होता है। उसके शिखर पर बैठे हुये निरंतर उन्हें उससे संघर्ष ही करना होता है।
और स्मरण रहे यदि तुम्हें किसी चीज से संघर्ष करना अथवा लड़ना है, तो तुम कभी उसे छोड़ नहीं सकते, और न उसके पार जा सकते हो। उसके साथ लड़ने के लिए तुम्हें उसी तल पर बने रहना होगा। उससे लड़ने के लिए तुम्हें चौबीस घंटे उसकी छाती पर चढ़कर बैठे रहना होगा। वहां कोई अवकाश का दिन नहीं होता, और यदि तुम एक क्षण के लिए भी उसे छोड़ दो, तो वह फिर वहां उपस्थित होकर तुम्हें कामनाओं को तुष्ट करने की ओर धकेलता है।
कामनाओं को तुष्ट करने वाला और उनका दमन करने वाला, यह एक ही तरह के व्यक्ति के दो चेहरे हैं। तुम अपने मठों और आश्रमों में दमन करने वालों की श्रेणी ही के लोग पाओगे और संसार में तुम कामनाओं को तुष्ट करने में लगे लोग पाओगे। प्लेबॉय और तथाकथित संत ये दोनों एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। उन दोनों के मनों में सेक्स ही उमडू घुमड़ रहा है, दोनो की मानसिक जड़ता एक जैसी ही है और दोनों की मानसिक रुग्णता एक जैसी ही है। उनका ' कुण्डबफर ' पिघलने की जरूरत है। और क्या किया जा सकता है?
इसमें एक छोटी सी विधि बहुत सहायक होगी। जब कभी तुम्हारे अंदर सेक्स की कामना उठे, तो वहां उसकी तीन सम्भावनाएं है: पहली है, उनको तुष्ट करने में लग जाओ, सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति यही कर रहा है, दूसरी है—उसका दमन करो, उसे बलपूर्वक अपनी चेतना के पार अचेतन के अंधकार में नीचे धकेल दो, उसे अपने जीवन के अंधेरे तलघर में फेंक दो। तुम्हारे तथा कथित असाधारण लोग, महात्मा, संत और भिक्षु यही कर भी रहे हैं। लेकिन यह दोनों ही प्रकृति के विरुद्ध हैं। ये दोनों ही रूपांतरण के अंतर्विज्ञान के विरुद्ध हैं।
तीसरी सम्भावना है—जिसका बहुत थोड़े से लोग सदैव प्रयास करते हैं। जब भी सेक्स की कामना उठे, तुम अपनी आंखें बंद कर लो। यह बहुत मूल्यवान क्षण है: कामना का उठना ऊर्जा का जाग जाना है। यह ठीक सुबह सूर्योदय होने जैसा है। अपनी दोनों आंखें बंदकर लो, यह क्षण ध्यान करने का है। अपनी पूरी चेतना को काम केंद्र पर ले जाओ, जहां तुम उत्तेजना, कम्पन और उमंग का अनुभव कर रहे हो। वहां गतिशील होकर केवल एक मौन दृष्टा बने रहो। उसकी निंदा मत करो, उसकी साक्षी बने रहो। तुम उसकी निंदा करते हो, तुम उससे बहुत दूर चले जाते हो। और न उसका मजा लो, क्योंकि जिस क्षण तुम उसमें मज़ा लेने लगते हो, तुम मूर्च्छा में होते हो। केवल सजग, निरीक्षण कर्ता बने रहो, उस दीये की तरह जो अंधेरी रात में जल रहा है। तुम केवल अपनी चेतना वहां ले जाओ, चेतना की ज्योति, बिना हिले डुले थिर बनी रहे। तुम देखते रहो कि कामकेंद्र पर क्या हो रहा है, और यह ऊर्जा है क्या?
इस ऊर्जा को किसी भी नाम से मत पुकारो, क्योंकि सभी शब्द प्रदूषित हो गए हैं। यदि तुम यह भी कहते हो कि यह सेक्स है, तुरंत ही तुम उसकी निंदा करना प्रारम्भ कर देते हो। यह शब्द ही निदापूर्ण बन जाता है। अथवा यदि तुम नई पीढ़ी के हो, तो इसके लिए प्रयुक्त शब्द ही कुछ पवित्र बन जाता है। लेकिन शब्द अपने आप में हमेशा भाव के भार से दबा रहता है। कोई भी शब्द जो भाव से बोझिल हो, सजगता और होश के मार्ग में अवरोध बन जाता है। तुम बस उसे किसी भी नाम से पुकारो ही मत। केवल इस तथ्य को देखते रहो कि काम केंद्र के निकट एक ऊर्जा उठ रही है। उसमें उत्तेजना है उमंग है, उसका निरीक्षण करो। और उसका निरीक्षण करते हुए तुम्हें इस ऊर्जा का पूरी तरह से एक नये गुण का अनुभव होगा। उसका निरीक्षण करते हुए तुम देखोगे कि यह ऊर्जा ऊपर उठ रही है। वह तुम्हारे अंदर मार्ग खोज रही है। और जिस क्षण वह ऊपर की ओर उठना प्रारम्भ करती है, तुम्हें अनुभव होगा कि एक शीतलता तुम पर बरस रही है, तुम पर चारों ओर से एक अनूठी शांति, मौन अनुग्रह आशीर्वाद और आनंद की वर्षा हो रही है। अब कोई पीड़ायुक्त है, यह ठीक एक मरहम जैसा है। और तुम जितने अधिक सजग बने रहोगे, यह ऊर्जा उतनी ही ऊपर जाएगी। यदि यह हृदय तक आ सकती है, जो बहुत कठिन नहीं है, कठिन तो है, लेकिन बहुत अधिक कठिन नहीं है.. यदि तुम सजग बने रहे, तो तुम देखोगे कि यह हृदय तक आ गई है। जब यह ऊर्जा हृदय तक आ जाती है तो तुम पहली बार यह जानोगे कि प्रेम क्या होता है।
अभी तक प्रेम के नाम पर तुम एक नकली चीज ढोये चले जा रहे हो। जब यह ऊर्जा हृदय चक्र पर आती है तो प्रेम में रूपांतरित हो जाती है। एक बार प्रेम में रूपांतरित हो जाये, एक बार वह समझ बनकर मर्म को बेध जाये, एक बार तुम उसका अनुभव कर लो, तो तुम्हारा अस्तित्व शुद्ध होने का अनुभव करेगा। तुम्हें कुंवारे होने का अनुभव होगा, तुम्हें इतना पवित्र और निर्मल होने का अनुभव होगा कि तुम यह सोच भी नहीं सकते कि स्वर्ग कहीं और भी है। तुम जानोगे कि वह तुम्हारे ही अंदर है। और तब स्वर्ग एक सत्य बन जाएगा, तब वह धर्मशास्त्रों की कल्पना मात्र न होगा, वह लगभग एक भूगोल बन जाएगा। तुम ठीक से जान जाओगे कि वह कहां है, और परमात्मा फिर एक कल्पना भर नहीं रह जाएगा। उस शुद्धता में, उस मौन में और प्रेम की उस परिपूर्णता में तुम देखोगे—परमात्मा है— एक सिद्धांत के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वयं सिद्ध सत्य के रूप में, एक तथ्य, एक प्रमाण, निचोड़ और प्रकृति तथा तर्क के पार के निष्कर्ष के रूप में नहीं, बल्कि वह बस सामान्य रूप से वहां है। उससे इंकार करने का वहां कोई मार्ग ही नहीं। वह वहां इतना अधिक है कि तुम अपने आपसे तो इंकार कर सकते हो, लेकिन तुम परमात्मा से इंकार नहीं कर सकते। परमात्मा की वास्तविकता के सामने तुम स्वयं अपने आपको इतना अधिक धुंधला पाओगे, कि तुम कह सकते हो— '' मैं नहीं भी हो सकता हूं लेकिन 'वह' है।
वह उसकी पहली झलक होगी। वह ऊर्जा और भी ऊंचाई पर चढ़ सकती है। जब वह कंठ स्थित विशुद्ध चक्र तक आती है, वह प्रार्थना बन जाती है। लोग प्रार्थना तो करते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि प्रार्थना क्या होती है—’‘ क्योंकि प्रार्थना प्रेम का सबसे अधिक सूक्ष्म और परिष्कृत रूप है। यदि तुम हृदय चक्र के द्वारा उठती ऊर्जा के साथ गतिशील नहीं होते, तो तुम प्रार्थना तक नहीं जा सकते, तब वहां कोई अन्य मार्ग है ही नहीं। किसी भी व्यक्ति को हृदय चक्र के द्वारा ही जाना होगा। कंठ के चक्र के कारण ही, क्योंकि विशुद्ध चक्र में ही प्रार्थना का अस्तित्व है, और वह वहां ही घटित होती है, लोगों ने प्रार्थना को संस्कारित करना शुरू कर दिया है। लोगों ने प्रार्थनाएं रची हैं, वे कुछ कहते हुए आग्रह करते हैं। लेकिन कंठ चक्र का प्रयोग करते हुए और परमात्मा से कहकर कुछ मांगना प्रार्थना करना नहीं है। प्रार्थना का सम्बंध कंठ के चक्र के साथ तो है, लेकिन मौखिक रूप प्रार्थना के उच्चारण से नहीं है। वह है तो इसी चक्र का अनुभव, और यह अनुभव ठीक ऐसा है, जैसे एक शिशु को पहली बार मां के स्तनपान से होता है। यह अनुभव तुम्हारे कुछ कहने से नहीं होता बल्कि तुम कुछ चीज प्राप्त करते हुए उसका अनुभव करते हो। परमात्मा से कुछ भी कहना और मांगना प्रार्थना नहीं है, बल्कि परमात्मा से कुछ चीज प्राप्त करना ही प्रार्थना है। परमात्मा, मां बन जाता है, मां का स्तन बन जाता है। प्रार्थना से तुम्हारा पोषण होता है। हां, उसका अस्तित्व कंठ चक्र में ही है और वहीं घटित होती है, क्योंकि कंठ का चक्र ही पोषण प्राप्त करने वाला चक्र भी है। कंठ चक्र ही वह प्रथम चक्र है, जो सबसे पहले शिशु में कार्य करना शुरू करता है, क्योंकि बच्चे को वायु अनी होती है जो कंठ चक्र के द्वारा ही घटती है। और तब उसे दूध चूसना होता है, और यह क्रिया भी कंठ चक्र के द्वारा ही होती है। प्रार्थना ठीक वायु को चूसने जैसी जीवन्त है अथवा वह मां के स्तन से दूध चूसने जैसी है।
इसीलिए जीसस कहते हैं—’‘ जब तक तुम छोटे शिशु जैसे नहीं बन जाते, तुम परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते।’’ वह कंठ चक्र की ही बात कर रहे हैं। लेकिन ईसाइयों ने पूरी तरह से वह लीक ही छोड़ दी। वह प्रतीकात्मक रूप में कह रहे हैं कि तुम फिर से एक शिशु बन जाओ और अपने कंठ चक्र से वही ऊर्जा चूसना शुरू कर दो जो जीवन है। अब यहां वास्तव में मां का स्तन और दूध अदृश्य
क्या तुमने प्रार्थना में लीन किसी व्यक्ति को देखा है ?—वह अनुग्रह में उससे मिलकर एक हो जाता है, वह कितना शांत, कितना विश्रामपूर्ण दिखाई देता है, जैसे उसे अपना घर मिल गया हो। एक छोटे शिशु को दूध पीते हुए और मां के स्तन के चूचक को मुंह में लिए सोते हुए देखो, वह अपने मां के स्तन के साथ गहरी नींद में विश्राम कर रहा है। उस शिशु के चेहरे का निरीक्षण करो, वह चेहरा एक संत का चेहरा भी है, जब वह कंठ चक्र पर पहुंच जाता है और प्रार्थना उमगती है।
प्रार्थना कुछ ऐसी चीज नहीं है, जिससे तुम परमात्मा के लिए कुछ करते हो। प्रार्थना तो कुछ ऐसी चीज है जिससे तुम अपने लिए परमात्मा को कुछ करने की स्वीकृति देते हो। प्रार्थना एक ग्राह्यता है। वह तुम्हारे द्वारा किया जाने वाला कोई कार्य न होकर एक निष्क्रिय स्वागत है। प्रार्थना, परमात्मा से कुछ कहने या निवेदन करने की बात नहीं है। इसके विपरीत यह परमात्मा को सुनना है। यह ' उसकी ' भेंट को पहले से तैयार होकर प्राप्त करना है। उसकी भेंट को तुम्हारे लिए प्राप्त करना कठिन है, क्योंकि तुम्हारे अपने विचार हैं और तुम्हारे पास अपनी योजनाएं हैं। तुम उससे कहे चले जाते हो कि हमें ठीक मार्ग दिखलाओ—'ऐसा करो, तब मैं प्रसन्न हो सकूंगा।
हमारे पास लोकोक्ति है कि मनुष्य प्रस्तावित करता है और परमात्मा निस्तारित करता है। यह मूढ़तापूर्ण कहावत है, इसमें मात्र मूर्खता है। मामला ठीक इससे उलटा है—परमात्मा प्रस्तावित करता है और मनुष्य निस्तारित किए चले जाता है, क्योंकि तुम्हारे पास स्वयं अपनी योजनाएं हैं।
तुम उसकी बात कभी सुनते ही नहीं, तुम सोचते हो कि तुम उसकी अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान हो। तुम उसे परामर्श दिए चले जाते हो—’‘ ऐसा करो, वैसा मत करो—’‘ तुम यही सब तो अपनी प्रार्थना में कहते हो।
एक सच्ची प्रार्थना में परमात्मा को सुझाव देने जैसा कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि तुम एक गहन कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उसे धन्यवाद दो। परमात्मा तुम पर जो कुछ भी बरसा रहा है, उसे केवल स्वीकार करना ही प्रार्थना है। प्रार्थना तो उसकी भेंट को स्वीकार करना है।
लेकिन यह सभी कुछ होता है कंठ चक्र में ही। यह प्रेम का सर्वोच्च रूप है। और जब तुम और भी उच्चतम शिखर, अपने सातवें चक्र सहस्रार पर जाते हो, तब वहां समाधि घटित होती है, जो सर्वोच्च परमानंद है, जहां खोजते—खोजते, खोजने वाला खो जाता है, जहां तुम बिलकुल बचते ही नहीं, जहां तुम और परमात्मा अपनी सीमाएं खोकर एक हो जाते हो।
एक सीमा का दूसरी सीमा को आच्छादित करना, कंठ चक्र से ही शुरू हो जाता है: सीमाएं धुंधली होने लगती हैं, वे बहुत स्पष्ट नहीं रह जातीं। लेकिन फिर भी तुम्हारा पृथक अस्तित्व होता है। तुम्हारा केंद्र पृथक और परमात्मा का केंद्र पृथक होता है। प्रार्थना में तुम दोनों मिलोग हो, एक दूसरे की सीमा का अतिक्रमण करते हो। एक तरह से दोनों की परिधिया एक दूसरे से मिल जाती हैं, लेकिन केंद्र फिर भी पृथक बने रहते हैं। तुम्हारी ऊर्जा जितनी ऊपर उठती है, अधिक से अधिक केंद्र एक दूसरे के निकट आते हैं। सातवें चक्र सहस्रार पर तुम्हारे सभी केंद्र एक बन जाते हैं। तब वहां केवल एक ही केंद्र होता है। यही उसका अर्थ है जब जीसस कहते हैं—’‘ मैं नहीं बल्कि मेरे परमपिता मुझमें निवास करते हैं।’’ अब खोजने वाला और जिसकी खोज की गई, वे दो नहीं रहे। अंतिम मुलाकात सम्पन्न हो गई, प्रेम की अंतिम खिलावट हो गई, पूर्णता को उपलब्ध होकर वह फल—फूल चुका। जब काम केंद्र ऊर्जा से धड़क रहा है, उसमें कम्पन हो रहे हैं, जब वह नदी की भांति प्रवाहित हो रहा है—तो कामनाओं की तुष्टि अथवा उनके दमन के मध्य चुनाव किए बिना, यदि तुम निरीक्षण कर्त्ता बनकर मध्य में बने रहे, तो एक विशाल रुपान्तरण स्वयं अपने से घटित होता है।
इसलिए अगली बार जब तुम्हें तीव्र कामवासना का अनुभव हो, तो दो आसानी से उपलब्ध विकल्पों—कामना तुष्टि अथवा उसके दमन की ओर गतिशील न होकर ठीक मध्य में बने रहना, और फिर तुम एक ऐसे स्थान पर हो, जहां से दरवाजा खुल सकता है।
वह हमेशा मध्य ही में खुलता है।
बुद्ध इसी मार्ग को मध्य मार्ग, मज्झिम निकाय कहते हैं। वह कहते हैं—’‘ हर कहीं, अति पर जाना ही मत। सदा मध्य ही का चुनाव करना। ठीक मध्य ही सभी के पार है। यदि तुम दो विपरीत छोरों तथा दो विरोधों के ठीक मध्य स्थान खोज सके तो तुम उनके पार चले गये, तुम्हारा रूपान्तरण हो गया। रूपांतरण का द्वार ठीक मध्य ही में खुलता है और मध्य में बने रहना ही सभी के पार जाना है।
जब तुम काम केंद्र पर एक साक्षी की भांति खड़े निरीक्षण कर रहे हो, ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है।कुंड बफरपिघलना शुरू हो जाता है और कुण्डलिनी कार्य करना शुरू कर देती है। कुण्डलिनी ही ठीक मार्ग है, और ' कुण्ड बफर ' का मार्ग गलत है। और कुण्ड बफर इसलिए गतिशील है, क्योंकि हम अनेक जन्मों से इतनी अधिक मूर्च्छा में जीते रहे हैं कि कुण्डलिनी कार्य कर ही नहीं सकती, वह सुप्त पड़ी है। कुण्डलिनी को चेतना के ईंधन की जरूरत है। यदि चेतना की यह गैस नहीं है तो कुण्डलिनी कार्य नहीं कर सकती।कुण्डबफर ' तो मूर्च्छा के साथ कार्य करता है।
इसलिए यह तुम पर निर्भर है: यदि तुम मूर्च्छा ही में जिए चले जाते हो तो कुण्ड बफर अपना कार्य करता रहेगा, लेकिन यदि तुम चेतना में या होशपूर्वक जीते हो, तो अचानक तुम्हारा जीवन बदल जाता है। तुम अपने अस्तित्व के आंतरिक केंद्र की ओर गतिशील हो जाते हो, जहां गहरे में आत्मा का निवास है।

 एक मनुष्य, जो मूर्खों के एक सक को साथ ले चलने में अत्यधिक सफल था, जब उससे पूछा गया कि तुम इन जिद्दी गधों को किस तरह व्यवस्थित कर लेते हो?

 उस मनुष्य ने स्पष्ट करते हुए बताया—’‘ जब वे आगे नहीं बढ़ते तो मैं जमीन से मिट्टी उठाकर उनके मुंह में डाल देता हूं। यह निश्चित बात है कि वे उसे उसे थूक देते हैं, लेकिन नियमानुसार वे फिर चलना शुरू कर देते हैं।
उस व्यक्ति ने पूछा—’‘ तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि यह इसका ही प्रभाव होता है?''
'' मैं निश्चित तो नहीं हूं लेकिन मैं सोचता हूं कि इससे उनके विचारों का प्रवाह बदल जाता है।’’

 यदि तुम साक्षी होने की शुरूआत करते हो, तो कोई भी यह ठीक—ठीक नहीं जानता कि तुम्हारी ऊर्जा कैसे गतिशील होना प्रारम्भ हो जाती है, लेकिन किसी न किसी तरह ऐसा होता है। हो सकता है यह तुम्हारे विचारों का प्रवाह बदल देती हो। यह एक बहुत बड़ा आघात होता है।
तुम स्वयं प्रयास करो—तुम क्रोधित हो, तुम्हारा क्रोध बढ़ता जा रहा है, तभी अचानक तुम सजग हो जाओ। अपने शरीर को हिलाओ—डुलाओ, और सजग बन जाओ, और देखो क्या होता है? अचानक तुम देखोगे कि कोई चीज तुम्हारे हाथों से फिसल गई है, और तुम्हारा क्रोध अब जाता रहा। अब किसी भी तरह क्रोध करना बेवकूफी लगता है। अथवा जब तुम्हें क्रोध आये तो किसी और के चेहरे पर थप्पड़ मारने के स्थान पर जिससे कोई भी सहायता मिलने वाली नहीं, तुम अपने ही चेहरे पर थप्पड़ मारो। जब भी तुम्हें क्रोध आये, स्वयं अपने ही गाल पर थप्पड़ मारो, और देखो, क्या होता है। जो यांत्रिक व्यवस्था, रुटीन रूप से करने जा रही थी, अचानक आघात पहुचाने से वह कार्य नहीं कर सकती।
यदि तुम अपने चेहरे पर थप्पड़ मारते हो, तो तुम्हारे अंदर एक होश जागृत होता है, यह होश या चेतना तुम्हारे अचेतन ढांचे को तोड़ देता है। इसलिए जब कभी तुम इसे बदलना चाहो, तो स्मरण रहे—होश ही इसकी कुंजी है। अन्यथा हम लगभग एक तरह के पागलपन में जी रहे हैं। थोड़े से लोग तो पागलखानों में बंद हैं और शेष उसके बाहर हैं। लेकिन एक भी समझदार मनुष्य को खोज पाना कठिन है। अंतर केवल डिग्री का है। क्या तुमने इस मामले का कभी निरीक्षण किया है, क्या तुम कभी इस बात से भयभीत हुए हो—कि जो व्यक्ति पागल बन गया है, वह कुछ दिनों पूर्व ठीक तुम्हारे जैसा ही था। कोई भी व्यक्ति कभी यह सोच भी नहीं सकता था कि वह कभी पागल हो जाएगा, और अब वह पागल है। क्या ऐसा तुम्हारे साथ भी नहीं हो सकता?
अमेरिका के सबसे महान मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह पहली बार एक पागलखाना देखने गए तो वह घर बहुत उदास होकर लौटे। वह ज्वरग्रस्त होकर लौटे। उनकी पत्नी बहुत चिंतित हुई। उसने पूछा—’‘ आखिर हुआ क्या? जब तुम यहां से गए थे तो पूरी तरह ठीक थे।’’
उन्होंने उत्तर दिया—’‘ मुझसे बात मत करो। मैं बात करने की मनःस्थिति में हूं ही नहीं।’’
और वह कम्बल ओढ़ कर लेट गए और दो तीन दिनों तक बीमार रहे। प्रत्येक चिंतित था। डाक्टर ने भी उन्हें देख कर कहा—’‘ कुछ भी गलत नहीं है। यह ठीक हैं।’’ तब उन्होंने बतलाया कि उनके साथ हुआ क्या ?—’‘पागलखाने में बहुत से पागलों को देखकर अचानक मेरे मन में एक खयाल आया—कि ऐसा मेरे साथ भी तो हो सकता है।’’
इस खयाल ने उन्हें अंदर से कंपा दिया, फिर वह वैसे ही व्यक्ति नहीं रहे, बल्कि इस घटना ने उन्हें बहुत सजग बना दिया।
तुम्हारे मन के अंदर पागलपन निरंतर बना ही रहता है— और तुम इसे जानते हो। तुम इसे न जानने की व्यवस्था कर कैसे सकते हो, वह तो तुम्हारे अंदर एक अंतर्प्रवाह की भांति रहता है। परिधि पर तुम ठीक से सब कुछ व्यवस्थित कर लेते हो।

 मैंने सुना है एक पादरी को एक पागलखाने में रहने वाले लोगों को उपदेश देने का अवसर मिला। अपने प्रवचन के दौरान उसने नोट किया कि उनमें से एक मरीज ने उसे सबसे अधिक ध्यान देकर सुना, उसकी आंखें एक कील की तरह उनके चेहरे पर जैसे गड़ गईं, और उसका शरीर आतुरता से आगे झुक गया। उसका इस तरह रुचि लेना उन्हें बहुत प्रशंसापूर्ण लगा। प्रवचन के बाद पादरी ने देखा कि उस व्यक्ति ने पागलखाने के अधीक्षक से कुछ कहा। इसलिए जितनी भी. शीघ्र सम्भव हो सका, पादरी ने उनसे पूछा—’‘ क्या इस व्यक्ति ने आपसे मेरे उपदेश के बारे में कुछ कहा?''
—’‘जी हां।’’
— 'अगर आपको एतराज न हो तो क्या आप बता सकते हैं कि उसने आपसे क्या कहा?''
अधीक्षक ने टालने का बहुत प्रयास किया लेकिन उपदेशक आग्रह ही करता
रहा
अंत में उसने कहा—’‘ जो कुछ उस व्यक्ति ने कहा वह यह वाक्य था— '' जरा सोचें यह तो पागलखाने के बाहर हैं और मैं अंदर हूं।’’
      तुम पागलखाने के बाहर हो सकते हो, और अन्य कोई व्यक्ति उसके अंदर हो सकता है, लेकिन अंतर कुछ डिग्री का ही है। जब तक तुम होशपूर्ण या सचेतन नहीं हो जाते, तुम हमेशा ही पागलपन के सीमांत पर, हमेशा अंदर से उबलोग हुए पहले से तैयार बैठे हो। कोई भी छोटी सी चीज सिद्ध कर सकती है कि ऊंट की पीठ पर लदे बोझ पर एक तिनके का भी भार लादने से वह नीचे भी बैठ सकता है। कोई भी छोटी सी चीज, कोई भी छोटी सी घटना, और तुम सीमा रेखा लांघ सकते हो।
मूर्च्छा में जीना, वास्तव में जीना है ही नहीं। होशपूर्ण बनना सचेतन रूप से गतिशील होना जो कुछ तुम्हारे मन में घट रहा हो, अपने मन से पृथक रहकर उस सभी के प्रति सजग और सचेत रहना, क्योंकि जब तुम किसी चीज का निरीक्षण करते हो तो तुम और तुम्हारी चेतना उस वस्तु से पृथक बनी रहती है— और यही इसका रहस्य है। यदि तुम अपने विचारों का निरीक्षण करते हो, तो तुम अपने विचारों से पृथक हो जाते हो, तुम्हारा उनके साथ कोई तादात्म्य नहीं रह जाता। और जब तुम्हारा उनसे तादात्म्य नहीं रह जाता, तुम उन्हें सहयोग नहीं देते और तुम अपने विचारों को और ऊर्जा नहीं दिए चले जाते और वे धीमे— धीमे विजर्सित हो जाते हैं। जब मेजबान रुचि न ले तो मेहमान स्वयं चले जाते हैं। वे प्राय: इतनी अधिक शीघ्रता से नहीं आते, और यदि वे आते भी हैं, तो अधिक समय तक नहीं ठहरते। उनके बीच अंतराल आने लगते हैं—एक विचार आता है और चला जाता है और तब कुछ मिनट गुजर जाते हैं और दूसरा कोई विचार नहीं आता। इसी अंतराल में तुम सत्य का साक्षात्कार करते हो। तब तुम्हारे और सत्य या वास्तविकता के बीच कोई पर्दा नहीं होता। बिना आवरण या पर्दे के ही सत्य का साक्षात्कार होता है, और यही परमात्मा
आज का गीत है:
वे जो मर गए हैं
पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित हैं।
और वे प्रेम के अनुभवों
और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं।
वे लोग ही जीवन—मृत्यु की
इस सरिता को निहारते हुए, अखण्ड सत्य को खोजते हैं, और वे ही इस नदी को पार कर लेंगे।
हवा के विरुद्ध चलोग हुए
प्रसन्नता पाने की
उनकी कोई चाह ही नहीं है।
वे वासना को वासना में रहते हुए ही मारते हैं।
और बिना तादात्‍म्‍य जोड़े
प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं।
अत्यधिक अनूठे सूत्र हैं, बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण सूत्र.... ''वे जो मर गए हैं, पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित है।’’ तुम कैसे मर भी सकते हो और फिर भी पूरी तरह जीवित भी बने रहे सकते हो? यदि तुम अपने शरीर के साक्षी बन जाओ, तब तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो। शरीर का ही जन्म होता है और शरीर की ही मृत्यु होने जा रही है, जिस क्षण तुम जानते हो, कि तुम शरीर नहीं हो, तुम जानते हो कि तुम न कभी जन्मे थे और न कभी तुम्हारी मृत्यु होगी। इसलिए एक अर्थ में तुम पूरी तरह जीवित बन जाते हो, शाश्वत रूप से जीवित—इसी को जीसस कहते हैं— ' अकूत संपदा से भरा जीवन, अतिरेक से बहता हुआ जीवन।तब तुम कभी भी खाली नहीं हो सकते: तुम्हारा कोई प्रारम्भ नहीं होता और न तुम्हारा कोई अंत हो सकता है, तुम चिर स्थायी और शाश्वत ऊर्जा हो। तब तुम एक ओर तो पूरी तरह जीवित हो, और क्योंकि तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो, तब वह जीवन जिसके बारे में तुम सोचा करते थे कि वह शरीर में है, अब और वहां है ही नहीं।
शरीर पहले ही मर चुका है। तुम उसका प्रयोग करते हो, तुम उसमें रहते हो, लेकिन तुम अब उसके साथ तादात्म्य नहीं जोड़ते।
वे जो मर गए हैं
पर फिर भी वे पूरी तरह जीवित हैं
वे प्रेम के अनुभवों और उसकी सुवास को
भली भांति जानते हैं
और वे लोग ही इस सरिता को पार कर लेंगे
और जब तुम पूरी तरह सजग हो और अब और शरीर के प्रति आसक्त नहीं हो, अब और शरीर के साथ तुम्हारा तादात्म्य नहीं रह गया है, तुम्हारे अंदर अब और यह विचार नहीं रह गया कि तुम शरीर हो, तभी प्रेम का उदय होता है। जिस क्षण तुम मात्र शरीर नहीं रह जाते, तुम्हारे अंदर का ' कुण्ड बफर ' टूट जाता है—क्योंकि ' कुण्डबफर ' केवल तभी बना रह सकता है, जब तुम शरीर से तादात्म्य जोड़ लेते हो। कुण्डबफर, शरीर का ही एक भाग है।
अब जो कुछ मैं कहने जा रहा हूं उस बारे में सावधान और होशपूर्ण हो जाओ।कुण्डबफर ' तो शरीर का एक भाग है और ' कुण्डलिनी ' शरीर का भाग नहीं है। कुण्डलिनी तुम्हारा भाग है, वह तुम्हारी अपनी चेतना का एक भाग है। इसलिए लोग, और यहां ऐसे बहुत से हैं.... यहां तक कि कुछ डॉक्टरों ने भी यह खोजने का प्रयास किया है कि कुंडलिनी का शरीर में कहां अस्तित्व है। यहां तक कि कुछ लोगों ने यह सिद्ध करने की भी मूर्खता की है कि उसका अस्तित्व यहां अथवा वहां है, वह इस केंद्र अथवा उस केंद्र में है।
कुण्डलिनी इस भौतिक शरीर का भाग है ही नहीं। और गुरुजिएफ ठीक था: यदि लोग यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि कुण्डलिनी शरीर का ही एक भाग है, तब वे जो कुछ भी सिद्ध करते हैं वह कुण्ड बफर है, न कि कुण्डलिनी। वहां गुरुजियेफ से कोई भी व्यक्ति यह कहने वाला था ही नहीं कि कुण्डलिनी आत्मा या चेतना का एक भाग है, न कि शरीर का और सभी तथाकथित हिंदू योगी, विशेष रूप से आधुनिक योगी, वे हर तरह से जब भी वे इस बारे में कुछ भी लिखते हैं, वे विज्ञान का ही अनुकरण करते हैं। वे यह दिखाने और सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि योग एक विज्ञान है। तब वास्तव में वे इसी दृष्टिकोण के शिकार बन जाते हैं, जिसके शिकार वैज्ञानिक हैं' उनका दृष्टिकोण शरीर के साथ ही प्रारम्भ होता है और वे सोचते हैं कि यह शरीर ही सब कुछ है। इसीलिए वे यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि कुण्डलिनी कहीं न कहीं इस भौतिक शरीर में है और वह शरीर विज्ञान के अंतर्गत कार्य करती है।
गुरुजिएफ कहा करता था कि ये लोग कुण्डबफर के बारे में बातचीत कर रहे हैं: '' उनकी कुण्डलिनी कुण्डलिनी न होकर कुण्डबफर ही है, उसका नकली अस्तित्व है।’’ जब तुम शरीर के साथ बहुत अधिक तादात्म्य जोड़ लेते हो, तब यह नकली कुण्डलिनी तुम्हारे शरीर में ऊपर की ओर उठती है, तुम्हारी चेतना में नहीं। जब तुम्हारा शरीर के साथ कोई तादात्म्य नहीं रह जाता, तो कुण्डबफर विसर्जित हो जाता है। वास्तव में यह कुण्डबफर ही है, जहां से तुम्हारा शरीर से तादात्म्य जुड़ा हुआ है। यही कारण है सेक्स लगभग प्रेम का समानार्थक बन जाता है। जब एक स्त्री का मासिक धर्म बंद हो जाता है तो वह सोचना शुरू कर देती है कि उसका जीवन समाप्त हो गया। जब एक पुरुष को यह पता चलता है कि अब उसमें सेक्स की दृष्टि से पुंसत्व नहीं रहा तो वह यह अनुभव करना शुरू कर देता है कि वह अब व्यर्थ हो गया है। ये गलत दृष्टिकोण इस वजह से बने रहते हैं क्योंकि हमने काम केंद्र के साथ बहुत अधिक तादात्म्य जोड़ लिया है।
यदि साक्षी का उदय हो जाये, तो तुम शरीर से पृथक हो, और तुम जानते हो कि तुम उससे अलग हो—ऐसा नहीं कि तुम उसे दोहराते हो, ऐसा भी नहीं कि चूंकि वेद कहते हैं कि तुम अपने शरीर से पृथक हो, इसलिए तुम उसे दोहराते हो, उसका मंत्र जाप करते हो और उसका निरंतर जाप तुम्हें यह भ्रमित विचार दे देता है कि हां, तुम शरीर से पृथक हो। इससे कोई सहायता मिलने की नहीं। तुम्हारा स्वयं का जानना, अपना अस्तित्वगत अनुभव ही सहायता कर सकता है, अन्य और कुछ भी नहीं। यदि तुम जानते हो कि तुम शरीर नहीं हो, तो अचानक प्रेम का उदय होता है: ऊर्जा हृदय चक्र की ओर गतिशील होना शुरू हो जाती है।
इस हृदय का अस्तित्व फेफड़ों के मध्य नहीं है। यह हृदय शरीर का भाग नहीं है, फेफड़े शरीर का एक भाग है। और हृदय की धड़कन के बारे में तुम जो कुछ सोचते रहे हो, यह केवल फेफड़ों की धड़कन है।
इस धड़कन के पीछे एक अन्य धड़कन है। तुम इसका खयाल इस तरह से कर सकते हो: फेफड़े और हृदय समानांतर हैं। फेफड़े, शरीर का भाग हैं और हृदय आत्मा का। कुण्डबफर और कुण्डलिनी समानांतर हैं: कुण्डबफर, शरीर का भाग है और कुण्डलिनी आत्मा का। सेक्स और प्रेम समानांतर है: सेक्स शरीर का भाग है और प्रेम आत्मा का। संसार और परमात्मा समानांतर है: संसार का सम्बंध शरीर से है, और परमात्मा का आत्मा से। शरीर और आत्मा का भी अस्तित्व समानांतर है, ठीक दो समानांतर रेखाओं की भांति जो हमेशा साथ—साथ तो रहती हैं लेकिन फिर भी कहीं आपस में मिलती नहीं। वे हमेशा से साथ—साथ हजारों जन्मों से एक दूसरे के समानान्तर दौड़ रही हैं और मिलती कहीं भी नहीं। वे एक दूसरे को प्रभावित करती हैं लेकिन उनका मिलना कभी भी नहीं होता। वे एक दूसरे को रंग सकती हैं। जब तुम बहुत अधिक शरीर और मन के नियंत्रण में रहते हो, तुम्हारा शरीर और मन आत्मा को लगभग अपने नियंत्रण में ले लेता है। जब तुम शरीर से पृथक हो जाते हो, तुम्हारा उससे तादात्म्य नहीं रह जाता, तो तुम्हारी आत्मा, तुम्हारे शरीर और मन को अपने नियंत्रण में ले लेती है।
साधारणतया तुम्हारी आत्मा ही गुलाम बनी रहती है और शरीर मालिक बना रहता है। लेकिन जब यह रूपांतरण होता है, तो समझ का उदय होता है। आत्मा फिर से अपना स्वामित्व प्राप्त करती है और शरीर अपने ठीक स्थान पर आकर सेवक बन जाता है, एक बहुत आज्ञाकारी सेवक।
वे जो मर गए हैं
पर फिर भी पूरी तरह जीवित हैं
और वे प्रेम के अनुभवों और उसकी सुवास को भली भांति जानते हैं।
वे लोग ही जीवन मृत्यु की
इस सरिता को देखते हुए, अखण्ड सत्य को खोजते हैं
और वे लोग ही इस नदी को पार कर लेंगे।
अखण्ड सत्य, योग, सभी भागों का मिलकर एकीकरण, बहती तरल चेतना का रवे की तरह ठोस होकर केंद्र पर घनीभूत हो जाना, केंद्रित हो जाना अथवा तुम उसे जिस तरह से भी पुकारना चाहो—वही लक्ष्य है। उसे देखते हुए तटस्थता से देखते हुए.. .यही कुंजी है, जिसे मैं साक्षी होना कहता हूं।
जीवन मृत्यु की सरिता की ओर देखते हुए वे अखण्ड सत्य को खोजते हैं।
वहां तुम्हारे ही अंदर एक सरिता जीवन की और दूसरी मृत्यु की बह रही है। शरीर ही मृत्यु की सरिता है और आत्मा ही जीवन—सरिता है। आत्मा कभी नहीं मरती और शरीर सदा जीवित नहीं रहता। आत्मा—शरीर दोनों साथ—साथ रहते हैं और शरीर आत्मा के जीवन को प्रतिबिम्बित करता है। यह आत्मा के जीवन के साथ ही प्रकाशवान होता है। यह जीवन जैसे उधार लिया हुआ है, यह चन्द्रमा की भांति है। चंद्रमा के पास अपनी स्वयं की किरणें नहीं होती, वह सूर्य को प्रतिबिम्बित करता है। किरणें सूर्य से आती है और चंद्रमा की सतह से टकरा कर वापस लौटती हैं, चंद्रमा उन्हें प्रतिबिम्बित करता है लेकिन तुम उन्हें ऐसे देखते हो, जैसे मानो वे चंद्रमा से ही आ रही हो।
यह ऐसा है, जैसे तुम यदि कमरे में एक छोटा सा दिया जला दो, और बाहर गुजरता हुआ कोई व्यक्ति शीशे की खिड़की द्वारा अंदर दिखाई दे। खिड़की का शीशा दीये के प्रकाश को बाहर भी फैलाता है, लेकिन प्रकाश खिड़की के शीशे से नहीं आ रहा है, वह तो कमरे के अंदर जलोग दीये से आ रहा है, शीशा उसे प्रतिबिम्बित कर रहा है।
तुम्हारा शरीर जीवन को प्रतिबिम्बित करता है—तुम्हारा शरीर आत्मा के जीवन प्रकाश से ही आलोकित है। यही कारण है, जब आत्मा कहीं शून्य से मिल जाती है, शरीर मृत हो जाता है। शरीर सदा से मृत ही था। जाकर कमरे के अंदर दीये को बुझा दो, और खिड़की भी अंधेरे में डूब जायेगी। वह हमेशा अंधेरी थी ही, क्योंकि उसके पास अपना कोई प्रकाश न था।
शरीर मृत्यु की एक सरिता है, और यदि तुम शरीर के साथ आसक्ति को बनाए ही रखते हो, तो तुम बार—बार मृत्यु की नदी में गिरते रहोगे। तुम जन्म लोगे और मर जाओगे, तुम्हारा फिर जन्म होगा और फिर तुम्हारी मृत्यु होगी—इसी को हिंदू कहते हैं—जन्म मरण का चक्र: अपने ही अंदर गहरे जाओ, और उस जीवन के सत्रोत की खोज करो। यह शरीर से पूरी तरह भिन्न है। उसने शरीर को ही अपना घर बनाया है, लेकिन वह शरीर नहीं है। वह जीवन—सरिता का प्रवाह है। उनका निरीक्षण करते हुए उनकी ओर देखते हुए साक्षी रहते हुए... इन दोनों, जीवन और मृत्यु की सरिता के पार, वे उस अखण्ड सत्य को खोजते हैं।
और एक बार तुम्हारी समझ, जीवन और मृत्यु के बारे में—कि वह हैं क्या? पूर्ण हो जाए; तुम अखण्ड हो जाते हो, केंद्रित हो जाते हो। क्योंकि तब शरीर में तुम्हारा कोई केंद्र नहीं रह जाता, तब वहां फिर कोई भ्रम नहीं रह जाता कि तुम शरीर में हो। तब तुम अचानक अपने अस्तित्व के असली केंद्र के प्रति, अपने सबसे अंदर, गहरे में स्थित समाधि के प्रति सचेत होते हो।
हवा के विरुद्ध चलते हुए
प्रसन्नता पाने के लिए
उनकी कोई चाह ही नहीं होती।
बाउल कहते हैं कि सच्चे खोजियों की प्रसन्नता पाने की कोई चाह, हवा के विरुद्ध चलने की होती ही नहीं। वे बस जीवन सरिता के साथ बहते हैं। वे जीवन से कोई भी चीज मांगते ही नहीं, वे केवल प्राप्त करते हैं। जीवन उन्हें जो कुछ देता है, वे उसी में मस्त, प्रमुदित रहते हैं, लेकिन उनकी कोई मांग नहीं रह जाती। वे कभी तैरते नहीं, वे धारा के विरुद्ध तैरने का प्रयास ही नहीं करते, वे केवल धारा के साथ बहते हैं। यही है उनका समर्पण।

 उनका यहां एक सुंदर गीत है....
अरे उतावले अधीर निष्ठर।
तू आग में भुनने क्यों जा रहा है?
अपने हृदय की कली
को
तू क्यों बलात खिलने के लिए विवश कर रहा है?
जिससे बिना समय का मोल चुकाये
उसकी सुवास कली से मुक्त होकर
चारों ओर व्याप्त हो जाए।
तू मेरे स्वामी—मेरे परमात्मा की ओर देख
कलियां शाश्वत रूप से
स्वयं अपने आप खिल रही हैं,
उन्हें कभी कोई जल्दबाजी होती ही नहीं।
तू अपने भयानक लालच की वजह से
दिन के घंटों पर निर्भर है,
इसके अतिरिक्त, तू और कर ही क्या सकता है?
तू अपनी प्रेमिका की गुहार सुन
और उसे व्यथित मत कर।
ओ मेरे हृदय के स्वामी।
जीवन सरिता अपने आप में मग्न
सहज स्वाभाविक रूप से बही चली जा रही है।
ओ मेरे अधीर मन।
तू उसके शब्दों में छिपे मौन को सुन।
बाउल कहते हैं, किसी भी चीज को बलात् करने का प्रयास मत करो। जीवन को एक गहरे स्वीकार भाव से जियो। जरा देखो, परमात्मा करोड़ों फूल, कलियों पर बलप्रयोग किये बिना प्रति दिन खिला रहा है, वह कभी शीघ्रता नहीं करता, धैर्य से प्रतीक्षा करता है और उन्हें खिलने के लिए उनको समय देता है। बाउल कहते हैं— '' प्रत्येक चीज अपने ठीक समय पर स्वयं घटती है, प्रत्येक चीज अपना मौसम आने पर स्वयं अपने आप होती है। प्रतीक्षा करो। अधीर मत हो, और न शीघ्रता करो। सारी जल्दीबाजी करना ही लालच है, और यह एक सूक्ष्म—संघर्ष है। जो कुछ घटने जा रहा है, वह घटेगा ही, तुम्हें अस्तित्व से लड़ने की कोई जरूरत है ही नहीं। तुम उस पर श्रद्धा कर सकते हो, तुम उसे समर्पण कर सकते हो।
यह समझ लेने जैसा है :
यदि यह तुम्हारे अंदर आबोहवा का एक भाग बन जाये, तो यह तुम्हें अत्यधिक आनंद देगा। जब तुम आगे और कोई भी चीज प्रस्तावित नहीं करते हो, तब कोई भी व्यक्ति तुम्हें निराशा नहीं दे सकता। तुम्हारे पास न तो कोई योजना है, और न ही तुम्हारा कोई लक्ष्य है। तुम कहीं भी नहीं जा रहे हो और तुमने बस अपने आपको ' उसके ' हाथों में छोड़ दिया है, और जहां कहीं भी ' वह ' तुम्हें चाहता है, तुम्हें ले जाता है।
' तेरा साम्राज्य आयेगा और तेरा ही किया हुआ होगा ‘‘ उसकी ' इच्छानुसार ही होने दो' बाउलों का यही तरीका है। यह है समर्पण, प्रेम और श्रद्धा का मार्ग। बाउल कोई योगी नहीं है, निश्चित रूप से ' हठयोगी ' तो वह है ही नहीं बाउल एक प्रेमी है, एक भक्त है। उसका विश्वास है कि परमात्मा उसे किसी अज्ञात संसार में ले जा रहा है, और वह सुंदर होना ही चाहिए क्योंकि ' वह ' उसे ले जा रहा है। नदी सागर की ओर बही चली जा रही है, उसे जाना ही चाहिए क्योंकि यह ' उसकी ' नदी है। बच्चों जैसा यह विश्वास और श्रद्धा ही केवल उसका मार्ग है।
हवा के विरुद्ध चलोग हुए
प्रसन्नता पाने की उनकी कोई चाह नहीं है।
वे वासना को
वासना के साथ रहते हुए ही मारते हैं
और उससे तादात्‍म्‍य जोड़े बिना ही
प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं।
इसी कारण बाउल कहते हैं, यदि वासना का भी अतिक्रमण करना है, तो वह वासना के द्वारा ही।’’ यदि, क्रोध का रूपांतरण करना है तो वह क्रोध के द्वारा ही होगा। वे उस रसायन को जानते हैं कि कैसे विष को अमृत में बदला जाए। वे यह नहीं कहते कि यह विष है, इसे फेंक दो। वे कहते हैं—इसका रूपांतरण करो, अमृत इसके पीछे या अंदर ही छिपा हुआ है। विष तो केवल उसका बाहरी खोल है। उसके अंदर छिपे सारतत्व को खोज लो, प्रेम वासना के पीछे ही छिपा है। आत्मा, शरीर के पीछे ही छिपी है। परमात्मा संसार के पीछे ही छिपा है। उसे फेंको मत। वह कोई अत्यधिक मूल्यवान चीज तुम्हारी ओ उछालेगा। हो सकता है तुम अभी भी सजग न हो कि उसका कितना अधिक मूल्य है। तुम सोचते हो कि वह एक पत्थर है। एक जौहरी बनो। इसी को बाउल कहते हैं—' रसिक ', स्वाद पारखी होना। उसका स्वाद जानने के तरीके खोजो और जानो कि वह है क्या? उसके अंदर छिपी वास्तविकता अथवा सत्य के प्रति सजग बनो, उसके द्वार खोलकर उसके अंदर जाओ। वह एक कोहेनूर भी हो सकता है, उसे फेंको मत। यदि परमात्मा ने तुम्हें पत्थर दिया है तो वह कोहेनूर होना ही चाहिए— अन्यथा वह तुम्हें देता ही क्यों? तुम उसकी अपेक्षा अपने को बुद्धिमान मत मानो, उसकी प्रज्ञा और मेधा को ही सर्वोत्कृष्ट मानो। उस पर श्रद्धा रखो। यदि उसने तुम्हें एक पत्थर दिया है, तो वह एक कोहेनूर होना ही चाहिए उसे एक बहुत मूल्यवान हीरा होना ही चाहिए। यह उसकी दी हुई भेंट है, यह अन्यथा हो ही नहीं सकती।
इसलिए वासना में भी वे साधारण संन्यासियों के समान नहीं है। वे उससे लड़ते नहीं, वे उसके गहरे में जाकर खोज करते हैं, वे उसका रसायन खोजने का प्रयास करते हैं। कोई चीज तो वहां होनी ही चाहिए अन्यथा और मनुष्य को तो उसने किसी भी पशु की अपेक्षा कहीं अधिक दिया है। पशुओं में सेक्स मौसमी होता है। वर्ष में एक बार या दो बार ही वे कामुक होते हैं, अन्यथा सेक्स विसर्जित हो जाता है। मनुष्य चौबीसों घंटे, साल के बारह महीने, तीन सौ पैंसठ दिन, प्रति क्षण कामुक ही बना रहता है। कोई चीज वहां उसमें होनी ही चाहिए। मनुष्य को इतनी अधिक काम ऊर्जा आखिर क्यों दी गयी? वह केवल संतान उत्पन्न करने के कारण ही नहीं हो सकती—क्योंकि पशु ठीक पूर्णता से उसे कर रहे हैं। यदि मनुष्य ऋतु आने पर ही कामुक बनता, तो एक तरह से सभी चीजें कहीं अधिक बेहतर रही होती, वर्ष में एक बार एक महीने के लिए और शेष ग्यारह महीने तुम स्वतंत्र रहते। तुम इस बीच हजारों कार्य कर सकते थे और इस बारे में फिक्र करते ही नहीं। वर्ष में एक महीना यथेष्ट होता।
लेकिन मनुष्य को इतनी अधिक काम ऊर्जा आखिर क्यों दी गई? यह केवल बच्चों के उत्पन्न करने के लिए ही नहीं हो सकती। यह महान कोष किसी दूसरी वजह से दिया गया है: यह अपने साथ अत्यधिक सजग और सचेत बनने की एक छिपी हुई सम्भावना साथ लिए चल रही है। इसी ऊर्जा को प्रेम की ऊर्जा बनना है और इस प्रेम को प्रार्थना बनना है, और इस प्रार्थना को परमानंद का सर्वोच्च शिखर बनना है। संतान उत्पन्न करने वाला भाग, जहां तक मनुष्य का सम्बंध है, बहुत छोटा है। उसमें कोई अन्य चीज जो बहुत अधिक मूल्यवान है, छिपी हुई है। परमात्मा तुम्हें कोई भी चीज बिना किसी विशिष्ट कारण के नहीं दे सकता।
वे वासना को
वासना के साथ रहते हुए ही मारते हैं
और उससे तादात्‍म्‍य जोड़े बिना ही
प्रेम नगर में प्रवेश करते हैं
जब वासना रूपांतरित हो जाती है तो तुम उससे निरासक्त बने ही प्रेमनगर में प्रवेश करते हो। स्मरण रहे—यह उनकी प्रेम की परिभाषा है। यदि प्रेम के साथ आसक्ति और लगाव है, तो वह वासना है। यदि प्रेम में कोई बंधन या आसक्ति नहीं है, केवल तभी वह वासना नहीं है। जब तुम वासना में डूबे हो, तब तक वास्तव में दूसरे के बारे में सोच भी नहीं सकते, अपने प्रेमिका या प्रेमी के बारे में भी नहीं सोच सकते। तुम केवल अपने उद्देश्य के लिए ही दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हो। और वास्तव में फिर वहां आसक्ति पर लगाव होगा ही, क्योंकि तुम दूसरे पर नियंत्रण करना चाहोगे और तुम उस पर अपना अधिकार हमेशा के लिए करना चाहोगे, क्योंकि कल भी तुम्हें उसकी आवश्यकता हो सकती है, और परसों भी तुम्हें उसकी जरूरत पड़ सकती है। तुम एक प्रेमी या प्रेमिका चाहते हो, जिस पर तुम अपना अधिकार और नियंत्रण रखना चाहते हो।
प्रेम एक उपहार है: तुम्हें इसकी फिक्र करनी ही नहीं चाहिए कि वह कल वहां तुम्हारा स्वागत करने के लिए होगा अथवा नहीं। क्योंकि एक प्रेमी तो अपना प्रेम वृक्षों और चट्टानों को भी दे सकता है। एक प्रेमी तो उसे आकाश की शून्यता को भी दे सकता है। एक प्रेमी तो बस खिल सकता है और अपनी सुवास, यदि वहां लेने को कोई भी न हो, तो उसे हवाओं के द्वारा चारों ओर बिखेर सकता है। जरा खयाल करें : बुद्ध, बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं, बिलकुल अकेले ऐसा नहीं कि वहां कोई उसे ग्रहण कर रहा है, लेकिन उसे ग्रहण करने के लिए परमात्मा या अस्तित्व वहां हमेशा ही रहता है, अपने कई रूपों में, और कई तरीकों से वह उसे ग्रहण करता है। वासना एक लोभ है, वासना एक बंधन है, वासना में परिग्रह है। प्रेम को किसी पर अधिकार या नियंत्रण करने की जरूरत नहीं है, प्रेम कोई आसक्ति जानता ही नहीं, क्योंकि प्रेम, लोभ नहीं है। प्रेम एक उपहार है। यह एक सहभागिता है। तुमने कुछ पाया है, तुम्हारा हृदय भरा हुआ है, तुम्हारे फल पक गए हैं। तुम्हारी तीव्र उत्कंठा है कि कोई व्यक्ति आए और उसमें सहयोगी बने। यह देना बेशर्त है, यदि कोई सहभागी नहीं भी बनता है, तो भी कोई बात नहीं। लेकिन तुम इतने अधिक भरे हुए हो कि तुम निर्भर होना चाहते हो—जैसे बादल, जल से भरे होते हैं, और वे बरसते हैं। कभी वे जंगल में, कभी वे पहाड़ पर और कभी रेगिस्तान में जल बरसाते हैं, लेकिन वे वर्षा अवश्य करते हैं। यह बात, कि उन्होंने जल कहां बरसाया, असंगत है। वे इतने अधिक भरे हुए हैं कि उन्हें तो बरसना ही हैं।
एक प्रेमी, प्रेम से इतना भरा हुए होता है, कि वह एक बादल बन जाता है, वह प्रेम जल से भरा हुआ होता है: हो उसे बरसना ही होता है। उसका बरसना सहज और स्वाभाविक है।
तथा कथित प्रेमी
प्रेम की सुवास को
बहुत कम जान पाते हैं
एक प्रेमी अकेले प्रेम के लिए ही जीता है
जैसे मछली केवल जल में ही जीवित रहती है।
वह प्रेमी महान है
जो रात—दिन प्रेम कर सकता है
आराधना और प्रार्थना के साथ
जो प्रेम भरा मिलन घटित हो रहा है—
वह उसके प्रति
पूरी तरह समर्पित है।
पुरुष हो अथवा स्त्री
वह अभी भी अकेला ही है।
लेकिन वह प्रेमी तभी बनता है
जब उन दोनों की आत्माएं मिलती है।
सामान्यतया एक पुरुष अकेला है, एक स्त्री भी अकेली है। वहां अकेलापन है। भले ही यदि तुम किसी पुरुष अथवा स्त्री अथवा किसी मित्र से जुड़े हो, और यदि यह केवल वासना का ही सम्बंध है, तो भी तुम अकेले ही रहोगे। क्या तुमने कभी इसका निरीक्षण नहीं किया? एक स्त्री से बंधना, अथवा एक पुरुष से बंधना, लेकिन इस बंधन के बावजूद, अकेलापन रहता ही है। कहीं न कहीं गहरे में एक दूसरे के साथ कोई संवाद नहीं होता, तुम एक निर्जन द्वीप की तरह सभी से कटे रहते हो। तुम्हारे बीच संवाद असम्भव प्रतीत होता है। प्रेमी सामान्यतया एक दूसरे के साथ कभी बातचीत करते ही नहीं, क्योंकि प्रत्येक बात से तर्क—वितर्क उत्पन्न होता है और प्रत्येक बात संघर्ष ले आती है। धीमे— धीमे वे मौन बने रहना सीख लेते हैं, धीमे— धीमे वे यह सीख जाते हैं कि किसी भी तरह दूसरे से दूर रहा जाए अथवा उसे टाला जाए अथवा अधिक से अधिक उसे बरदाश्त किया जाए। लेकिन वे रहते हैं अकेले ही। यदि दूसरा वहां है भी, फिर भी वहां एक रिक्तस्थान रहता है, आंतरिक स्थान अतृप्त बना रहता है।
बाउल कहते हैं :
पुरुष हो अथवा स्त्री
वह अभी भी अकेला ही है।
लेकिन एक व्यक्ति प्रेमी तभी बनता है
जब उनकी आत्माएं मिल जाती हैं।
यह प्रश्न दो शरीरों का नहीं है, यह प्रश्न दो शरीरों के मिलने, एक दूसरे का आलिंगन करने और एक दूसरे में प्रवेश करने का ही नहीं है। प्रश्न है दो आत्माओं के एक दूसरे की गहराई में जुड़ जाने का। जब दो आत्माएं एक दूसरे के आर—पार एक दूसरे को समझती हैं, तब अकेलापन हमेशा के लिए विसर्जित हो जाता है। तब पूरी तरह से एक नूतन संसार उदित होता है, जहां तुम कभी भी अकेले नहीं हो सकते। तुम अखण्ड बन जाते हो।
पुरुष आधा है, स्त्री भी आधी है।
जब प्रेम होता है तो अखण्डता घटती है।
विष और अमृत
जब एक दूसरे में मिल जाते हैं,
ठीक उस बजने वाले और सुने जाने वाले संगीत की तरह
जो अकेला एक कृत्य बन जाता है।
मनुष्य का हृदय
सभी अधूरेपन से मुक्त है,
और शाश्वत रूप से बोध को उपलब्ध है। वह जैसे भलाई और बुराई को देखता है,
ठीक वैसे ही समय और स्थान को देखता है।
एक शिशु मां के स्तन से
जीवनदायी दूध चूसता है
और उसी स्त्री के स्तन पर लगी जोंक
उसका रक्तपान करती है।
''विष और अमृत मिलकर एक हो जाते हैं—’‘ प्रेम और वासना भी मिलकर एक हो जाते हैं, जीवन और मृत्यु मिलकर एक हो जाते हैं। यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम क्या चुनने जा रहे हो? एक शिशु मां के स्तन से दूध पीता है, और एक जोंक उसी स्तन से रक्त चूसती है। यह तुम्हीं पर निर्भर है। वासना बुरी नहीं है, लेकिन प्रेम और वासना मिलकर एक हो गए हैं।
प्रेम का चुनाव करो, वासना में से निकाल कर प्रेम को बाहर लाओ। अपने जीवन को एक सजगता से भरा जीवन बनने दो, जिससे तुम जो कुछ भी करो, वह इतने होश या चेतना से किया जाये, कि केवल जो कुछ मूल्यवान है, वही चुना जाए और जो निर्मूल्य है उसे छोड़ दिया जाए।
पूरा जीवन और कुछ भी नहीं, बल्कि मृत्यु के विरुद्ध जीवन को चुनने का एक महान प्रयास है, यह वासना के स्थान पर प्रेम को चुनने का, संसार के स्थान पर परमात्मा को चुनने का और झूठ, धोखा तथा असत्य की बजाय, सत्यम् शिवम् और सुंदरम को चुनने का एक महान प्रयास है।
ओ मेरे हृदय!
तू किस उलझन में पड़ा है?
जैसे—जैसे दिन गुजरते जाते हैं
तुझे उत्तराधिकार में मिली सम्पत्ति
लुटकर कपूर सी उड़ती जाती है
और तू सपनों में खोया हुआ,
केवल दिन रात ऊंधता ही रहता है।
और पांच घरों में रहते हुए भी
तेरा उन पर कोई नियंत्रण नहीं
ओ मेरे हृदय!
लुटेरा तेरे साथ ही
तेरे ही कक्ष में विश्राम कर रहा है।
लेकिन तू इसे कैसे जान और देख सकता है
तेरी आंखें तो नींद और मूर्च्छा से मूंदी हुई हैं।
यही बेखबरी और मूर्च्छा है, सजगता का अभाव है: '' ओ मेरे हृदय! लुटेरा तेरे ही साथ, तेरे ही कक्ष में विश्राम कर रहा है, लेकिन तू इसे कैसे जान और देख सकता है? तेरी आंखें तो नींद और मूर्च्छा से मुंदी हुई हैं।’’ अपनी आंखें खोल! निरीक्षण कर, तेरे अंदर और बाहर क्या कुछ घट रहा है। जीवन और मृत्यु की सरिता के प्रति सजग बन, और धीमे— धीमे जीवन की सरिता में बहते हुए उसके साथ एक और अखण्ड हो जा।
जब भाव और अनुभव उमड़ कर मिलोग हैं
तो प्रेम के सोते फूट पड़ते हैं
दो अलग—अलग रूप और आकृतियां
अपने को एक मानकर
एक ही पथ पर चल पड़ते हैं।
दो प्रेमी हृदय
दो समानांतर सरिताओं की भांति भागे चले जा रहे हैं,
पर प्रेम के परमात्मा तक पहुचने के लिए
मार्ग बहुत लम्बा है।
यदि तुम्हारा प्रेम, वासना न होकर केवल प्रेम है, तब धीमे— धीमे तुम पाओगे कि तुम और तुम्हारी प्रेमिका दोनों साथ—साथ गाते और नाचते हुए उस सर्वोच्च—प्रेमी की ओर बढे चले जा रहे हैं, उस स्थान की ओर, जहां वह प्रीतम प्यारा रहता है, और केवल वहीं कोई भी व्यक्ति विश्राम पा सकता है। तब तुम अपने अंतिम घर की ओर बढ़ रहे हो। लेकिन यदि वहां वासना है, तब तुम कहीं भी गतिशील ही नहीं हो रहे हो।
वासना है—एक रुके हुए जल के तालाब की तरह मृत, और प्रेम है एक बहती हुई नदी की भांति। और यदि तुम किसी से प्रेम करते हो, तो तुम दोनों की सरिताए एक दूसरे के समानांतर सागर की ओर दौड़ रही हैं। यह अच्छा है कि तुम अपनी प्रेमिका के साथ नाचते हुए यह अच्छा है कि तुम अपने हाथ में उसका हाथ थामे हुए और अच्छा होगा यदि तुम उसके साथ हृदय से हंसते गाते हुए चलो। लेकिन स्मरण रहे यदि तुम्हारा जीवन एक रुके जल का तालाब बन जाता है, तब समझना, वह वासना है। प्रेम तो सदा बहता और सक्रिय होता है, जबकि वासना बासी और थिर, अथवा रुकी हुई होती है
सौंदर्य के सार—तत्व को
उसके चेहरे पर टकटकी लगाकर देखते हुए
प्रेम के दर्पण में
तुम उसके दृश्य रूप में उस अरूप को देखो।
उसके हाथों में आकर अग्नि शीतल हो जाती है,
और चांदी जैसे शुभ्र बर्फ के ढेले
अग्नि की ज्वाला बन जला देते हैं।
प्रेम एक चमत्कार है। एक बार प्रेम घट जाये, तो निरंतर चमत्कार होते ही रहते हैं: हाथों में आकर अग्नि शीतल हो जाती है और चांदी जैसे शुभ्र बर्फ के ढेले, अग्नि की ज्वाला बन जला देते हैं।
प्रेम का अपना ही एक अलग संसार है। वासना एक पृथक कानून और नियम के अंतर्गत जीवित है। रहस्यदर्शी इसे वासना का नियम अर्थात गुरुत्वाकर्षण का नियम कहकर पुकारते हैं: जिसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति नीचे की ओर खींच लिया जाता है। और प्रेम का नियम अनुग्रह का नियम है: कोई भी व्यक्ति ऊपर की ओर खींच लिया जाता है।

 मैंने सुना है : एक सूफी रहस्यदर्शी किसी व्यक्ति के घर में ठहरा हुआ था, और उसके बारे में लोगों का खयाल था कि वह एक पागल है, इसलिए पूरा परिवार थोड़ा भयभीत था। वह रहस्यदर्शी विश्वास करने योग्य न था, वह कभी भी कुछ भी कर सकता था। लेकिन वह एक महान रहस्यदर्शी के रूप में भी जाना जाता था, इसलिए वे लोग उसे घर से भी नहीं निकाल सकते थे और वे सभी इस बात से भी भयभीत थे।’’ उसे रात में कहां रखा जाये, उसे कहां सोने दिया जाये '' इसका खयाल रख उन्होंने तलघर में उसका बिस्तर बिछाया।
अचानक आधी रात में उन्होंने ऊपर छज्जे से उसके खिलखिलाकर हंसने की आवाज सुनी। वे उसकी हंसी को तुरंत पहिचान गये, वह उसी पागल की ही हंसी थी।
लेकिन वह ऊपर छज्जे पर कैसे पहुच गया? उसे तो तलघर में रखा गया था। वे लोग सीढ़ियां चढ़कर ऊपर भागे: वह पागलों की तरह वहां हंसे ही जा रहा था, और हंसते हुए छज्जे पर ही लोटपोट हो रहा था।
उन्होंने पूछा—’‘ आखिर हुआ क्या? आप यहां कैसे आ गए?'' उसने कहा— '' मैं इसी वजह से तो हंस रहा हूं। मैं नीचे तलघर में सो रहा था और तभी चमत्कारों का एक चमत्कार हुआ। अचानक मैं नीचे से ऊपर आकर गिरा। मैं इसीलिए हंस रहा हूं।’’

 यह कहानी बहुत सुंदर है। रहस्यदर्शी ऊपर की ओर चले जाते हैं। प्रेम भी ऊपर की ओर उठाता है। यह एक दूसरे संसार का भाग है, ऐसा एक अन्य नियम के अंतर्गत होता है: वह है अनुग्रह का नियम।
आकाश की प्राचीरों पर
प्रकाश फूटने लगा है
और अंत में वह कृपा निधान
सुबह टहलता हुआ आखिर आ ही पहुंचा,
और मैंने उसे अपने चेहरे के निकट ही मौजूद पाया।
उगते प्रेम—सूर्य की ऊष्मा से
रात की चमक पिघलने लगी है
और पत्तियों पर पड़ी ओस नीचे टपक रही है
मुर्झाये फूल फिर से खिलने लगे हैं
और पंख फड़फड़ाते पक्षी उड़ रहे हैं।
प्रेम ही वह उगता हुआ सूर्य है
और वासना ही आत्मा की अंधेरी रात है।
ओ मेरे असंवेदनशील हृदय!
तू अपने ही शरीर में
अपने स्वभाव की स्वयं खोजकर
जब तक तू अपने सारतत्व को नहीं जान लेता
परमात्मा की पूजा पाठ से कुछ भी नहीं होने वाला।
इसी शरीर में सात स्वर्गों का निवास है
इस जीवन सरिता की यात्रा में
तू गलतियां ही करेगा।
क्योंकि तूने कभी भी
अपने मित्रों और शत्रुओं को पहचानना सीखा ही नहीं
जो तेरे अपने ही शरीर में जीवित हैं।
इसलिए आधारभूत कार्य है अपने ही शरीर में बसे मित्र और शत्रुओं को जानना। मुख्य कार्य यह जानने का है कि तुम किस तरह के हो और किस तरह के नहीं हो, जिससे तुम मृत्यु और जीवन, वासना और प्रेम तथा कुण्ड बफर और कुण्डलिनी के मध्य होने वाले भेद को पहचान सको।
यहां से तुम्हें कहीं और जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी घटने जा रहा है वह तुम्हारे ही अंदर घटने जा रहा है। इस शरीर में वहां सभी कुछ दिया गया है, वह सभी कुछ पहले ही से दिया गया है। केवल थोड़े से अंतर को समझने के लिए थोड़े से होश और सजगता की जरूरत है। अपने ही अस्तित्व को प्रकाश में लाओ। बाहर संसार की ओर से आंखें बंद कर अपने ही अंदर अपनी आंखें खोलो। तुम्हारे ही शरीर में लघु रूप में पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।
रहस्यदर्शी कहते हैं: जैसा ऊपर है, वैसा ही नीचे है।
हिंदू कहते हैं: जो कुछ भी ब्रह्म में है, और जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वह सभी कुछ मनुष्य में भी है।
मनुष्य पूरे ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा नक्‍शा है। तुम्हारे ही अंदर सीमित और असीमित दोनों का ही अस्तित्व है, तुम्हारे ही अंदर पदार्थ और चेतना दोनों ही हैं: तुम्हारे ही अंदर निम्रतम और उच्चतम दोनों का ही अस्तित्व है।
नीत्‍शे कहा करता था कि मनुष्य दो खाइयों और दो अनतताओं के बीच एक तनी हुई रस्सी की भांति है।
हां! मनुष्य एक रस्सी है, एक सेतु है। तुम एक सीढी हो: जिसका एक भाग पृथ्वी पर टिका है, और दूसरा भाग जिसे तुम कभी भी देख नहीं सकते, वह परमात्मा के चरणों से लगा है। इसे देखो, इसे पहचानो, और ठीक दिशा को महसूसो और गतिशील हो जाओ। बस चलना शुरू कर दो।
 आज इतना ही।


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