दिनांक
28 मई, 1976; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सारसूत्र:
जे
तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जथा
पवन परसगि ते
गुडी गगन कूँ
जाय।।
भला
बुरा जैसा
किया, तैसा
निपज्या जीव।
यह
तुम्हरा
तुमकूँ
मिल्या, तुम
क्यूँ मिते न
पीव।।
जैसे
छाया कूप की, बाहरि
निकसै नाहिं।
जन
रज्जब यूँ
राखिये, मन
मनसा हरि माहि।।
साध, सबूरी
स्वान की, लीजै
करि सुविवेक।
वै
घर बैठचा एक
कै,
तू घर घर
फिरहि अनेक।।
साबुन
सुमिरण जल
सतसंग। सकल
सुकृत करि
निर्मल अंग।।
पावेगा
वही, वोही
मूसलमान।
रज्जब
किणका रहम का, जिसकूँ
दे रहमान।।
रज्जब
हिंदू तुरक
तजि, सुमिरहु
सिरजनहार।
पखापखी
सूँ प्रीति
करि, कौन
पहूँचा पार।।
हिंदू
तुरक दून्यूँ
जलबूँदा।
कासूँ कहिये
बामण सूदा।।
रज्जब
समता ज्ञान
बिचारा।
पंचतत्त का
सकल पसारा।।
नारायण
अरु नगर के, रज्जब
पंथ अनेक।
कोई
आवै कहीं दिसि, आगे
अस्थल एक।।
मुल्ला
मन बिसमिल करो, तजौ
स्वाद का घाट।
सब
सूरत सुबहान
की,
गाफिल गला न
काट।।
एक
गये नट नाचि
कै,
एक कछे अब
आय।
जन
रज्जब इक आइसी, बाजी
रची खुदाय।।
एक
मित्र ने पत्र
लिखा है और
पूछा है कि
ससार में इतना
दुख है, दीनता
है, दरिद्रता
है, क्या
यह समय है
ध्यान और
भक्ति की बात
करने का? पहले
दुख मिटे
दुनिया का, शोषण मिटे
दुनिया का, फिर ही
भगवान की खोज
हो सकती हैं।
उनकी बात सच
है। दुनिया
में दुख है, बहुत दुख है।
शोषण है, बहुत
शोषण है।
लेकिन यह दुख
सदा से है। और
मन माने चाहे
न माने, यह
दुख सदा रहेगा।
यह दुख संसार
का ईस्वभाव है।
हम थोड़े—बहुत
हेर—फेर कर ले
सकते हैं, हम
थोड़ा रंग—रोगन
कर ले सकते
हैं, ऊपर—ऊपर
थोड़े अंतर हो
जाएँगे, भीतर
सब वैसा है, वैसा ही
रहेगा।
आदमी
बदलता रहा है
समाज की
व्यवस्था को, राज्य
की व्यवस्था
को, अर्थ
की व्यवस्था
को, लेकिन
कोई बदलाहट
जीवन से दुख
का अत नहीं कर
पायी। कोई
बदलाहट ऐसी
नहीं आ पायी, जिसे हम
क्रांति कहें।
क्रांतियाँ
होती रही हैं,
क्रांति पर
क्रांति आती
रही हैं और
आदमी जैसा है
वैसा है। जीवन
के आधारभूत
नियम छुए भी
नहीं जा सके
हैं—कोई
क्रांति नहीं
छू सकी है, सारी
क्रांतियाँ
हार गयी हैं।
इस जगत में
क्रांति से
ज्यादा असफल
और कोई धारणा
नहीं है। गरीब—अमीर
को मिटा दो, कुछ फर्क नहीं
पड़ता। नये
वर्गभेद पैदा
हो जाते हैं।
फिर शासक और
शासित का भेद
हो जाता है।
मालिक और
गुलाम को मिटा
दो, तो
मालिक और नौकर
आ जाता है।
जैसा आदमी है,
इसके रहते
दुनिया की दुख—व्यवस्था
बदल नहीं सकती।
और
तुम्हारा
तर्क ऊपर से
बिल्कुल ठीक
लगता है कि जब
इतना दुख है, इतनी
पीड़ा है, तो
कैसे राम को
खोजें? पहले
दुख मिटाएँगे,
पहले
क्रांति तो
आने दें, पहले
सब ठीक. तो हो
जाने दें, फिर
राम. को खोज
लेंगे। यह
तर्क सुंदर
लगते हुए भी
बड़ा खतरनाक है।
फिर तुम राम
को कभी खोज न
पाओगे। अच्छा
हुआ बुद्ध ने
ऐसा न सोचा कि
पहले दुख मिट
जाए, फिर
सत्य की तलाश
करूँगा। नहीं
तो बुद्ध अब
भी बुद्धू
होते। अब भी
तुम—जैसे होते।
अच्छा हुआ
सदियों—सदियों
में कुछ लोग
होते रहे जो
इस तर्क से प्रभावित
नहीं हुए।
इस
तर्क से
प्रभावित
होने के पीछे
अचेतन कारण हैं।
सबसे बड़ा कारण
यह है कि तुम
परमात्मा की
खोज टालना
चाहते हो। तुम
कोई मजबूत
कारण चाह्ते
हो जिसके आधार
पर खोज टाली
जा सके, और
टालने का
अपराध भी
अनुभव न हो।
इससे बढ़िया और
कोई तरकीब
नहीं है जो
तुमने सोची है।
दुनिया में
दुख है, पहले
दुख मिटे। न
मिटेगा दुख, न राम की खोज
की झंझट पैदा
होगी। और तर्क
ऐसा सुंदर है
कि राम भी
सामने खड़े हों
तो उनको भी
उत्तर न सूझे।
दुख मिटे। फिर
याद कर लेंगे।
दुख मिटेगा
नहीं। दुख
संसार की
नियति है। यह
कोई दुर्घटना
नहीं है दुख, जैसे वृक्ष
हरे हैं यह
कोई दुर्घटना
नहीं है कि
वृक्ष हरे हैं।
अब तुम कहो कि जब
वृक्ष हरे
नहीं होंगे, तब हम राम का
स्मरण करेंगे।
तो फिर राम का
स्मरण कभी
नहीं होगा।
फिर छोड़ दो
बात, न
वृक्ष
बदलेंगे, न
राम का स्मरण
होगा। तुम कहो
जब आग गरम
नहीं होगी, तब हम राम का
स्मरण करेंगे,
अभी कैसे
करें स्मरण, अभी आग बहुत
गरम है! ठीक
वैसी ही बात
है, संसार
स्वरूपत: दुख
है।
बुद्ध
ने ऐसा नहीं
कहा है कि
संसार
सांयोगिक रूप
से दुख है, संसार
दुख है।
बेशर्त कहा है।
और संसार दुख
है। यहाँ होने
का ढंग दुख
में आवृत है।
इसलिए तुम दुख
को न बदल
सकोगे। संसार
में पैदा ही
जो लोग होते
हैं, वे
दुख की पूरी—कों—पूरी
आयोजना लेकर
आते हैं।
जन्मों—जन्मों
के दुख के घाव
लेकर आते हैं।
जिस व्यक्ति
के दुख के घाव
भर जाते हैं, वह फिर
संसार में
पैदा नहीं
होता। तुम ऐसा
ही समझो कि
अस्पताल में
स्वस्थ आदमी नहीं
जाते हैं, बीमार
ही जाते हैं।
इसलिए तुम अगर
प्रतीक्षा कर
रहे हो कि जिस
दिन अस्पताल
में सब लोग
स्वस्थ— मणी—स्वस्थ
होंगे, उस
दिन हम राम का
भजन करेंगे, तो भजन हो
गया! अस्पताल'
में आता ही
बीमार आदमी है।
और जैसे ही
स्वस्थ हो
जाता है, अस्पताल
से मुक्त हो
जाता है।
स्वस्थ आदमी
अस्पताल में
रुकते नहीं।
बीमार आते हैं,
स्वस्थ
रुकते नहीं, स्वस्थ होते
ही अस्पताल से
छुट्टी हो
जाती है।
इस
संसार को तुम
अस्तित्व का
अस्पताल समझो।
यहाँ दुख
भोगने को हम
आते हैं और
जैसे ही कोई व्यक्ति
यहाँ दुख के
पार हो जाता
है,
जाग जाता है,
वैसे ही इस
संसार से उसका
संबंध टूट
जाता है।
इसलिए ज्ञानी
दुबारा पैदा
नहीं होता। ज्ञानी
के दुबारा
पैदा होने का
उपाय नहीं है।
संसार
दुख है। इसी
बात को ससार
के
क्रांतिकारी
अब तक नहीं समझ
पाए हैं और
व्यर्थ दीवाल
से सिर फोड़
रहे हैं।
क्रांतियाँ
होती रही हैं
और
क्रांतियाँ
हारती रही हैं।
और
क्रांतियाँ
होती रहेंगी
और
क्रांतियाँ हारती
रहेंगी। क्रांति
कभी जीत नहीं
सकती। ऐसा कभी
नहीं हो सकता
कि संसार दुख
न हो। हाँ, दुख
के ढंग बदल
जाएँगे, रंग
बदल जाएँगे, इधर से चोट
खाते थे, उधर
से चोट खाने
लगोगे
इधर से पीटे जाते
थे, उधर से पीटे
जाने लगोगे; एक आदमी छाती
पर बैठा था, वह उतरेगा तो
दूसरा छाती पर
बैठ जाएगा।
अभी
तुमने देखा नहीं? इस
देख में समग्र
क्रांति अभी—अभी
होकर चुकी है।
समग्र क्रांति।
इस देश में छोटी
चीजें तो होती
ही नहीं। और दूसरे
देशों ने क्रांतियां
की, इस देश में
समग्र क्रांति
की। यहां तो गांव
में कोई छोटी—मोटी
सभी हो जाए तो अंतर्राष्टीय
सम्मेलन कहते है।
समग्र क्रांति
अभी होकर चुकी
है। क्या बदला? जरा भी कुछ नहीं
बदला। एक तरह के
लोग छाती पर बैठे
थे, दूसरे तरह
के लोग छाती पर
बैठ गये। और अगर
गोर से उन्हें
खोजो तो तुम फर्क
भी न पाओगे। कि
उनमें क्या भेद
है। वे उसी तरह
के लोग है। उनके
लिए क्रांति हो
गई। क्योंकि अब
वे छाती पर आकर
बैठ गये। अब फिर
क्रांति होगी।
तुम जल्दी ही देखोंगे।
फिर क्रांति महाक्रांति
होगी। फिर ये छाती
पर बैठे लोग उतर
जायेंगे। तीसरी
आजादी ही आने को
है। जल्दी ही
फिर आयोग बैठेगें
और जल्दी ही सवाल
फिर खोजबीन शुरू
हो जाएगी। कि मोरारजी
जी भाई
अपने ‘जीवन
जल’ का प्रचार
क्यों किया? इससे देश की संस्कृति
को हानि पहुंची।
इसका जवाब चाहिए।
क्रांतियां होती
रही है। और क्रांति
होती रहेगी। दर्जनों
क्रांतियां हो
गयी। आदमी के चेहरे
से धूल जरा भी नहीं
हटी। हर क्रांति
और धूल जमा जाती
है। लेकिन तुम
इस तरह से अपने
को धोखा दे सकते
हो। तुम एक बड़ा
प्रबल तर्क खोज
सकते हो, आड
बना ले सकते हो।
चंद रोज और मेरी
जान! फकत चंद
ही रोज
जुल्मकी छांव
में दम लेने पै
मजबूर है हम
और कुछ देर सितम
सह लें, तड़प
लें, रो लें
अपने अजदाद
की मीरास है माजूर
है हम
जिस्म पै कैद
है, जज्बात
पै जंजीरें है
फिक्र महबूब
है गुफ्तार पै
ताजीरें है
अपनी हिम्मत
है कि हम फिर भी
जिये जाते है
जिंदगी क्या
किसी मुफलिस की
कबा है जिसमें
हर घड़ी दर्द
के पैबंद लगे जाते
है
लेकिन अब जुल्म
की मीयाद के दिन
थोड़े है
इक जरा सब्र
की फरियाद के दिन
थोड़े है
अर्सए—दहर
की झुलसी हुई
वीरानी में
हमको रहना
है, पै यूँ
ही तो नहीं
रहना मुँ
अजनबी
हाथों का
बेनाम गराबार
सितम
आज सहना है, पै
यूँ ही तो
नहीं सहना है
यह तेरे
हुस्न से
लिपटी हुई
आलाम की गर्द
अपनी
दोरूजा जवानी
की शिकस्तों
का शुमार
चाँदनी
रातों का
बेकार दहकता
हुआ दर्द
दिल की
बेसूद तड़प
जिस्म की
मायूस पुकार
चंद रोज और
मैरी जान! फकत
चंद ही रोज
मगर
वे चंद रोज
कभी समाप्त
नहीं हुए और
समाप्त नहीं
होंगे।
प्रेमी कहे कि
मैं प्रेम
करूगा जब सार
दुनया म शात
हाग,
सुख हगा, शषण नह हा, वर्गविहीनता
का राज्य होगा,
रामराज्य
होगा तब प्रेम
करूँऊगा, तो
प्रेम नहीं कर
पाएगा। वह
कितना ही कहे—
लेकिन अब
जुल्म की
मीयाद के दिन
थोड़े हैं
इक जरा
सब्र कि
फरियाद के दिन
थोड़े है
—समझा ले
अपने को, लेकिन
जुल्म के दिन
थोड़े नहीं हैं,
फरियाद के
दिन थोड़े नहीं
हैं। कितना ही
तुम कहो—चंद
रोज और मेरी
जान, फकत
चंद ही रोज, मगर अब तक का
सारा इतिहास
दुख का इतिहास
है। क्या उससे
तुम कुछ सीख न
लोगे? अनंत
काल से संसार
में दुख है, तुम चद रोज
में मिटा
सकोगे? फिर
दुख क्या कोई
दुर्घटना है।
अगर
द्रुर्घटना
हो तो मिट जाए।
दुख दुर्घटना
नहीं है, दुख
संसार का
अंतरंग
स्वभाव है।
ऐसे ही समझो
जैसे मृत्यु।
तुम कहो कि जब
दुनिया में
मृत्यु नहीं एच्येगी,
तब हम
परमात्मा को
याद करेंगे, अभी कैसे
याद करें, मौत
द्वार पर खड़ी
है? लाशें
उठ रही हैं, लोग मर रहे
हैं, मृत्यु
का भयंकर
अंधकार छाया
है, इस
मुत्यु की
भयावनी रात
में हम कैसे
प्रभु को याद
करें? कैसे
हम कठोर हो
जाएँ? और
कैसे हम भजन
करें? कैसे
हम नाचे? कैसे
हम गाएँ? कैसे
हम शांत हों? मौत दरवाजे
पर दस्तक दे
रही है! जब मौत
नहीं होगी, तब।
मौत
कोई जीवन में
दुर्घटना
नहीं है। मौत
जीवन का अंग
है,
अनिवार्य
अग है। जन्म
के साथ ही
जुड़ा है। जन्म
है तो मौत है।
शुरुआत है तो
अंत होगा।
प्रारंभ है तो
तुम दूसरे छोर
से बच नहीं
सकोगे। धक्का—धुक्की
देकर थोड़ा—बहुत
टाला जा सकता
है कि आदमी
सत्तर साल में
न मरे, अस्सी
में मरे; अस्सी
में न मरे, नब्बे
में मरे, सौ
में मरे। मगर
तुमने यह देखा
कि आदमी की
उम्र जितनी हम
धका देते हैं
पीछे, उतना
ही दुख बढ़ता
है, घटता
नहीं। जो आदमी
सत्तर साल में
मर जाता है, कम दुखी
मरता है। वह
जो आदमी सौ
साल जी जाता
है, तीस
साल और दुख
खेल कर मरता
है। और
जबर्दस्ती
जिंदगी को बढा
देने का
परिणाम यह
होता है कि
लोग अक्सर
अस्पतालों
में टँगे रह
जाते हैं।
अमरीका
जैसे देश में
जहाँ दवाओं का
बहुत विकास
हुआ है, सैकड़ों
लोग
अस्पतालों
में टँगे हैं।
किसीकी टाँग
बँधी है, किसीके
हाथ बँधे, किसीको
आक्सीजन दी जा
रही है, किसी
को ग्लूकोज
दिया जा रहा
है। यह कोई
जिंदगी है!
मगर बस जीने
का नाम ही अगर
सब कुछ है— जी
जरूर रहे हैं
क्योंकि साँस
लेते हैं, शायद
बोल भी नहीं
सकते—यह कोई
जिंदगी है!
अमरीका
में एक आदोलन
चलता है
वृद्धों की
तरफ से कि
हमें
आत्महत्या का
अइत्बकार
मिलना चाहिए।
यह कभी तुमने
सोचा था
दुनिया में
कभी ऐसा वक्त
आएगा कि लोग
कहेंगे हमें
आत्महत्या का
अधिकार मिलना
चाहिए? मगर
यह वक्त आ गया।
और ज्यादा दिन
नहीं है, इस
सदी के पूरे
होते—होते
दुनिया के सभी
संविधानों
में आत्महत्या
का अधिकार
जन्मसिद्ध
अधिकार
स्वीकार करना पड़ेगा।
क्योंकि जब
तुम आदमी को
जबर्दस्ती
जिल्लाने लगोगे
और वह नहीं
जीना चाहता, क्योंकि
जीने का अब
कोई कारण नहीं
है, कोई
अर्थ नहीं है,
उसका जीवन
सिर्फ नर्क है,
मरना चाहता
है, तुम
मरने नहीं
देते, तुम
जबर्दस्ती
उसे आक्सीजन
दिये जाते हो,
तुम
जबर्दस्ती
नकली हृदय से
उसके हृदय को
धड्काये जाते
हो, तुम
जबर्दस्ती
दूसरे का खून
उसके खून में
डाले जाते हो—
यह कोई जिंदगी
हुई! यह
जबर्दस्ती
हुई। लेकिन
मौत को टाला
नहीं जा सकता,
मौत फिर भी
द्वार पर खड़ी
है। तुमने और
कुरूप कर दी
जिंदगी, बस
इतना ही किया।
कुछ लाभ नहीं
हुआ।
मै
तुमसे यह कहना
चाहता हूँ कि
जीवन जैसा है, करीब—करीब
ऐसा ही रहेगा।
यह बात हमारा
मन स्वीकार
करने को नहीं
होता, मगर
हमारा मन
स्वीकार करे
कि न करे, तथ्य
तथ्य हैं।
उन्हें
झुठलाया नहीं
जा सकता। यहाँ
मौत घटती ही
रहेगी, यहाँ
बीमारी घटती
ही रहेगी।
यहाँ सब
क्षागभंगुर
है।
क्षणभंगुर
में सुख कैसे
घट सकता है? यहाँ दुख
घटता ही रहेगा।
यहाँ हर चीज
मिटने को बनी
है। जहाँ हर
चीज मिटने को
बनी है, वहाँ
कैसे सुख का
साम्राज्य हो
सकता है? असंभव
है।
अगर
राम को याद
करना हो तो कर
लो,
टालो मत। यह
संसार ऐसा ही
चलता रहेगा, तुम यहाँ
नहीं रहोगे।
तुम्हें जो
थोड़े—से दिन
मिले हैं, वे
चूको मत। तुम
उन दिनों का
उपयोग कर लो।
और इस जीवन
में एक ही बात
उपयोग करने—
जैसी मालूम
पड़ती है, वह
यह कि राम से
संबंध जुड़ जाए।
क्रांतियों
का भरोसा छोड़ो,
काफी
क्रांतियाँ
हो चुकीं!
सुर्ख
इंकिलाब आया, दौरे—आफताब
आया
मुंतजिर
थीं ये आँखें
जिसकी इक
जमाने से
अब जमीन
गाएगी हल्के
साज पर नग्मे
वादियों
में नाचेंगे
हर तरफ तराने
से
आ
चुके सुर्ख
इंकलाब—रूस
में घट चुका, चीन
में घट चुका—न
तो वादियों
में तराने गँ_जे, न लोग
नाचे, उल्टी
हालत हो गयी, रूस में लोग
जितने गुलाम
हैं उतने कहीं
भी नहीं। पैर
में इतनी
जंजीरें हैं
जितनी कहीं भी
नहीं। चीन में
जितने लोग
भयभीत हैं
इतने कहीं भी
नहीं। सुर्ख
इंकलाब आ गये,
फूल खिले
नहीं, नाच
जगे नहीं, गीत
उठे नहीं, और
वीणा के तार
टूट गये। मगर
आदमी है कि
इसी तरह की
बातों में
भरोसा किये
जाता है। और
इस तरह की
बातों के
भरोसे— व्यर्थ
के भरोसों में—जीवन
की वास्तविक
खोज को टालता
चला जाता है।
मेरा
तुमसे निवेदन
है कि जीवन का उपयोग
कर लो। और इस
जीवन के दो ही
उपयोग हो सकते
हैं—या तो इस
जीवन को प्रेम
से भर लो, या इस
जीवन को ध्यान
से भर लो। ये
दो मार्ग हैं।
और एक से तुम
अपने को भर लो
तो दूसरा अपने
आप—आ जाता है।
रज्जब
का मार्ग तो
प्रेम का
मार्ग है।
रज्जब का
मार्ग भक्ति
का मार्ग है।
उनके मूल
अद्भुत हैं।
असली
त्र;[ति एक ही है, वह भीतर
घटती है, बाहर
नहीं। सुख का
द्वार एक ही
है; वह
भीतर है, बाहर
नहीं। बहाने
मत खोजो, चालबाजियाँ
मत खोजो, क्योंकि
नुकसान
तुम्हारा है,
किसी और का
नहीं। अच्छे—अच्छे
तर्कों के जाल
में अपने को
लुभाओ मत, क्योंकि
धोखा तुम्हीं
खा रहे हो, कोई
और नहीं। यह
मत कहो कि रात
अँधेरी है, हम दीया
कैसे जलाएँ? रात अँधेरी
है, इसीलिए
दीया जलाओ मैं
तुमसे कहता
हूँ। और
दुनिया में
दुख है, इसीलिए
परमात्मा को
पुकारो मैं
तुमसे कहता दूं।
और दुनिया में
पीड़ा है, परेशानी
है, इसीलिए
थोड़े—से
परमात्मा के
झरोखे खोलों
मैं तुमसे
कहता हूँ।
दुनिया तो ऐसी
ही रहेगी, लेकिन
अगर परमात्मा
का द्वार
जीवंत रूप से
खुला रहे तो
जिनको भी दुख
से पार होना
है, वे हो
सकते हैं। दुख
से पार होना
व्यक्तिगत है।
सभी बहुमूल्य
जीवन की
संपदाछूँ
व्यक्तिगत हैं।
क्रांति भी
वैयक्तिक है।
समूह के पास न
तो कोई आत्मा
है, न समूह
के पास कोई
बोध है, न
समूह के पास
कोई संभावना
है। तुम समूह
से बचो। तुम
अपने समय का
उपयोग कर लो।
ये जो थोड़ी—सी
घड़ियाँ
तुम्हारे हाथ
में हैं, इनसे
अगर किसी तरह
भी परमात्मा
से संबंध जुड़
जाए तो चूको
मत, संबंध
जोड़ लो।
एक भी नामा
सलासल से न
पैदा कर सके
आज
जिंदादिल' असीरों
को न जाने
क्या हुआ
अगर
तुम जिंदा हो, तो
माना कि
जिंदगी में
कैद है, लेकिन
अगर तुम जिंदा
हो तो जंजीरों
से भी गीत पैदा
कर ले सकते हो।
एक भी
नग्मा सलासल
से न पैदा कर
सके
अगर
जंजीरों से
गीत पैदा नहीं
कर सकते, अगर
जंजीरों से
ध्वनि पैदा
नहीं कर सकते,
अगर
जंजीरों से
संगीत पैदा
नहीं कर सकते,
तो तुम पैदा
ही नहीं कर
सकोगे संगीत
कभी। और तुमसे
मैं एक राज की
बात कहना
चाहता हूँ—अगर
तुम अपनी
जंजीरों से
संगीत पैदा कर
लो, तो
जंजीरें उसी
संगीत में ढल
जाती हैं, गल
जाती हैं; जंजीरें
उसी संगीत में
टूट जाती हैं,
बिखर जाती
हैं। संगीत
जितना
जंजीरों को
गलाने में
समर्थ है, उतनी
कोई अग्नि
नहीं। उत्सव
जितना जीवन की
पीड़ा से मुक्त
करने में सहयोगी
है, उतना
कोई और नहीं।
और भक्त उत्सव
जानता है। और
ध्यानी उत्सव
जानता है। जगत
में दुख है, माना, मगर
तुम नाचो। और
यहाँ चारों
तरफ दीवालें
हैं कठोर, मगर
तुम नाचो। और
तुम्हारे पैर
में जंजीरें
हैं, मगर
तुम नाचो। और
तुम अचानक
हैरान हो
जाओगे, अगर
तुम परमात्मा
का हाथ पकड़कर
नाचना शुरू कर
दो, कैद से
तुम मुक्त हो
गये, उसी
नाच में तुम
मुक्त हो गये।
दीवालें गिर
गयीं, जंजीरें
गल गयीं, दुख
गया—संसार गया—और
तुम्हारी
आँखों में एक
नये आकाश का
अवतरण शुरू हो
जाता है। वही
क्रांति है।
बाकी सब समग्र
क्रांतियाँ
क्रांतियां
ही नहीं हैं, समग्र तो
बात ही छोड़ दो!
सब कूड़ा—करकट
है, सब
व्यर्थ की
दौड़धाप है, सब आदमी की
आशाओं का शोषण
है।
दुनिया
के शोषक
तुम्हारी
आशाओं के आधार
पर जीते हैं।
दो—चार—पाँच
साल में तुम
एक तरह के
शोषकों से थक
जाते हो, तुम
दूसरे तरह के
शोषकों को
मौका देने को
तैयार हो जाते
हो। एक
राजनेता चुनाव
में खड़ा हुआ
था, वह
लोगों को समझा
रहा था कि
विरोधियों ने
आपका इतना
शोषण किया, इतनी
ज्यादती की, इतना
अत्याचार
किया, तिजोडियाँ
भर ली हैं
संपत्ति से, तुम्हारे
खून को पी गये
हैं, भाइयो,
एक अवसर
हमें भी दो! और
भाई अवसर देते
हैं। वे एक से
थक गये हैं, वे दूसरे को
अवसर देते हैं।
पाँच साल बाद
इससे थक
जाएँगे, शायद
पहले को फिर
अवसर देंगे।
आदमी
की आशा का
शोषण हो रहा
है। तुम्हारी
आशा बनी है कि
कुछ—न—कुछ ठीक
होने वाला है।
आज नहीं तो कल
सब ठीक हो
जाएगा। यहाँ
कुछ ठीक होता
ही नहीं। इस
बात को तुम सौ
प्रतिशत अपने
हृदय में उतर
जाने दो कि
यहाँ कुछ कभी
ठीक होता ही
नहीं। यहाँ से
तुम पूरे
निराश हो जाओ
तो ही तुम्हारी
अंतर्यात्रा
शुरू हो, तो
तुम आँखें ऊपर
उठाओ। यहीं
अटके रहते हो
कि अब दरवाजा
खुला, तब
दरवाजा खुला,
अब दीवाल
हटेगी, अब
ये आ गये
दीवाल' को
हटानेवाले
असली
क्रांतिकारी,
अब ये तोड़
देंगे सब
जंजीरें! ये
नयी जंजीरें
ढालेंगे। ये
जंजीरें लेकर
आए हैं। रंग
शायद अलग होगा,
शायद
जंजीरें अलग
कारखानों में
ढली होंगी, मगर ये नयी
जंजीरें
ढालेंगे।
तुम्हारे पैर,
तुम्हारी
गर्दन कभी
फाँसी से
मुक्त होने
वाली नहीं है,
जब तक कि
तुम ही अपने
भीतर उसको न
खोज लो जो
अमृत है। उसी
क्षण क्रांति
घट गयी। फिर
कोई कारागृह
नहीं है। फिर
कोई दुख नहीं
है। इस दुख से
भरे संसार में
भी कोई ऐसे जी
सकता है कि
उसके लिए दुख
ही नहीं है।
इसका यह अर्थ
नहीं कि वह
कठोर है। उसके
भीतर करुणा है।
लेकिन करुणा
का यह मतलब
नहीं होता कि
एक आदमी बीमार
पड़ा है तो तुम
करुणा में
उसके पास
बीमार पड़े रहो।
कि एक आदमी रो
रहा है तो तुम
भी उसके पास
बैठ कर करुणा
में रोने लगे।।
कि एक आदमी
नदी में डूब
रहा है तो
करुणा में तुम
भी नदी में
डूब जाओ।
करुणा का अर्थ
होता है, दूसरे
को बचा सको तो
बचाओ, लेकिन
दूसरे को
बचाने की पहली
शर्त ख्याल
रखना — अपने को
बचाना है।
दूसरे को
बचाने की पहली
शर्त अपने को
बचाना है।
तुमने अगर
अपने को नहीं
बचाया, तुम
किसीको भी
नहीं बचा
सकोगे। दूसरे
का दीया जत्रे,
इसकी पहली
शर्त अपना
दीया जलाना है।
क्योंकि
तुम्हारे पास
ज्योति हो तो
शायद तुम
दूसरे के
अनजले दीये को
भी जला दो।
ध्यान और
भक्ति उसी
ज्योति को
जलाने का नाम
है।
इन
सूत्रों को
समझो—
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जथा पवन
परसगि ते गुडी
गगन कूँ जाय।।
बड़ा
प्यारा वचन है।
सारगर्भित भी
बहुत। भक्ति
की जैसी सारी—की—सारी
साधना को एक
छोटे—से वचन
में निचोड़
दिया है।
संतों की यह
खूबी है कि वे
सरलता से बात
कह देते हैं, तुम्हें
पता भी न चले
कि कैसी गहरी
बात कह गये हैं।
इतनी सरलता से
कह देते हैं
कि शायद तुम
सुनो ही न, शायद
तुम्हरे कान
में बात पड़े
ही न। क्योंकि
बात कठिन हो
तो आदमी जरा
होश से सुनता
है, कि
कठिन है कहीं
चूक न जाऊँ।
जब बात
बिल्कुल सरल
होती पै, तो
यूँ ही सुन
लेता है कि
इसमें क्या
खास बात है! अब
यह सूत्र तुम
देखते हो!
सीधा—सादा
है—'
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जया पवन
परसगि ते गुडी
गगन कूँ जाय।।
कोई
खास बात नहीं, पढ़
लोगे, आगे
बढ़ जाओगे।
सत्य सरल ही
होता है।
कहते
हैं—बुद्ध को
जब ज्ञान हुआ, तो
वे सात दिन तक
चुप रहे।
क्योंकि
उन्होंने
सोचा कि मैं
जो कहूँगा लोगों
से, कौन
समझेगा? क्या
तुम सोचते हो
बुद्ध ने यह सोचा
कि मुझे जो
अनुमव' हुआ
है वह बहुत
कठिन है, जटिल
है, उलझाव
भरा है, कौन
समझेगा? नहीं,
अनुभव इतना
सरल था कि
बुद्ध ने सोचा
कि कौन समझेगा?
इतना सीधा—साफ
था कि उलझे
हुए लोग, जटिल
लोग कैसे
समझेंगे? इसलिए
सात दिन चुप
बैठे रहे।
रास्ता न
मिलता था कि
सीधी—सादी बात
को कैसे कह
दें?
दार्शनिक
कठिन बातें
कहते हैं। और
जितनी कठिन
बात हो, समझ
लेना उतनी ही
झूठ है।
कठिनता झूठ का
अंतरंग है।
असल में झूठ
को कठिन और
जटिल होना ही
पड़ता है।
तुमने वकीलों
के दस्तावेज
देखे? कैसे
जटिल होते हैं
कि समझ में ही
नहीं आता कि क्या
कह रहे हैं वे?
शर्त—पर—शर्त
लगाए जाते हैं,’क्लाज़'—पर—'क्लाज़’, एक
वाक्य के पीछे
दूसरा, दूसरे
के पीछे तीसरा
और इतना गोल—मोल
कर देते हैं
कि समझ में ही
न आए, कि
बात क्या है? समझ में आनी
ही नहीं चाहिए।
क्योंकि
लोगों की समझ
में आ जाए कि
बात क्या है
तो झूठ बच
नहीं सकता।
दार्शनिक इस
तरह लिखते हैं
कि तुम्हारी
पकड़ में ही
नहीं आएगा, पन्ने—के—पन्ने
पढ़ जाओगे, उन्होंने
क्या कहा है
हाथ कुछ लगेगा
नइ_ाईं।
ऐसा लगता
रहेगा कि कुछ
बड़ी गहरी बात
कही जा रही है।
कोई बड़ो ऊँची
बात कही जा
रही है। और
खाली—के—खाली
रहोगे। और जिस
दिन समझ में आ
जाएगा, उस
दिन हैरान
होप्रोगे कि
कुछ भी नहीं
था, सिर्फ
लपफाजी थी, सिर्फ बातों
का जाल था।
सिर्फ सुंदर
शब्द थे, उनके
पीछे कोई
आत्मा नहीं थी।
लेकिन
संतों की बात
और है।
अनुभवियो की
बात और है।
सीधी—हापर
होती है। अब
यह बिल्कुल
सीधी—सी बात
है कि—' जे तुम
राम
बुलायल्यौ’, रज्जब कहते
हैं कि मेरी
तरफ से मैं
कोशिश भी करूँ
तो क्या कोशिश
करूँ? मेरे
हाथ बड़े छोटे
हैं। तुम बड़े
दूर हो। तुम
पता नहीं कहाँ
हो—दूर कि पास,
यह भी कहना
मुश्किल है।
तुम्हारा कोई
पता—ठिकाना भी
तुमने नहीं
दिया है। कहाँ
खोजूँ? किस
दिशा में
खोजूँ? कहाँ
पुकारूँ? तुम्हरा
नाम क्या है? तुम्हारा
धाम क्या है? तुम्हारा
नाम भी पता
नहीं है। तुम
अचानक राह पर
मिल जाओ तो
मैं पहचान भी
न पाऊँगा।
क्योंकि
मैंने
तुम्हें पहले
कभी देखा भी
नहीं।’ जे तुम
राम
बुलायल्यौ’।
तब एक ही उपाय
है कि तुम ही
बुला लो। मेरे
आने से तो बात
रही, मेरा
आना तो नहीं
हो पाएगा, मैं
तो जनम—जनम से
खोज रहा हूँ, टटोल रहा
हूँ, भटकता
ही चला जाता
हूँ, जितना
खोजता हूँ
उतना ही खोता
चला जाता हूँ,
मेरे से तो
न हो सकेगा—यह
भक्ति का
बुनियादी
सूत्र है, कि
राम बुलाए तो
ही कुछ हो।
ध्यान
का बुनियादी
सूत्र है—मेरे
किये होगा, भक्ति
का बुनियादी
सूत्र है—उसके
किये होगा।
ध्यान का
भरोसा स्वयं
पर है, भक्ति
का भरोसा
प्रसाद पर है,
अनुकंपा पर
अनुग्रह पर।
बस यही भेद है।
यहाँ दो ही
हैं, एक
मैं और एक तू।
अब दो ही उपाय
हो सकते हैं।
या तो मैं मैं
की सीढ़ियाँ
उतरूँ और मैं
में गहरा जाऊँ—
वही ध्यान है।
और या तू की
अनुकंपा हो, उसकी
अनुकंपा हो, उसकी वर्षा
हो— वही भक्ति।
रज्जब
भक्त हैं।
उन्होंने
चेष्टा से, तप
और व्रत से, साधना से
परमात्मा को
नहीं पाया।
उन्होंने तो
सिर्फ पुकार
कर, रो कर, आँसुओं से
परमात्मा को
पाया है।
उन्होंने तो
छोटे बच्चे की
भाँति पुकार
कर परमात्मा
को पाया है।
वे खोजने नहीं
गये, परमात्मा
उन्हें खोजने
आया है। पुकार
होनी चाहिए।
जैसे छोटा
बच्चा रोने
लगता है—और
करेगा भी क्या?
अभी झूले पर
पड़ा है, झूले
से निकल भी
नहीं सकता, उठ भी नहीं
सकता, चल
भी नहीं सकता,
भूख लगी है,
करेगा क्या?
रोता है, चिल्लाता है,
शोरगुल
मचाता है।
बच्चे
के शोरगुल का
अर्थ समझते हो?
उसका
केवल। इतना ही
अर्थ है कि
माँ का ध्यान
आकर्षित हो
जाए। माँ कहीं
काम में लगी
होगी, चौके
में होगी, बर्तन
मलती होगी, कपड़े सीती
होगी, घर
बुहारती होगी,
पड़ोसियों
से बात करती
होगी, बगीचे
में होगी—माँ
कहीं काम में
लेगी होगी —बच्चा
और तो कुछ कर
नहीं सकता, माँ का नाम
भी उसे पता
नहीं है, अभी
माँ कह कर भी
नहीं बुला
सकता, अभी
जा भी नहीं
सकता, अभी
कोई उपाय उसके
पास नहीं, बिल्कुल
निरुपाय है, लेकिन फिर
भी एक उपाय है—बच्चा
जानता है, वह
जैसे स्वभाव
से ही जानता
है—शोरगुल
मचाने लगता है,
रोने लगता
है, चिल्लाने
लगता है। इतना
ही कर सकता है
वह कि कहीं
माँ हो तो
उसका ध्यान
आकर्षित हो
जाए।
'जे तुम राम
बुलायल्यौ’।
भक्त भी यही
करता है। भक्त
छोटे बालक की
भाँति
परमात्मा को
पुकारता है।
ज्ञानी, ध्यानी
प्रौढ़ आदमी का
प्रयोग है।
भक्ति बालक
जैसी सरलता का
प्रयोग है।
इसलिए भक्तों
में जो भोलापन
मिलेगा, वह
भोलापन
ध्यानियों
में नहीं
मिलेगा।
भक्तों में जो
सरलता और
निष्कपटता
मिलेगी, वैसी
सरलता और
निष्कपटता
औरों में नहीं
मिलेगी। भक्त
में जैसा निर—अहंकार
भाव मिलेगा—भक्त
में अकड़ हो ही
नहीं सकती!
अकड़ क्या, अपने
किये तो कुछ
हुआ नहीं, उसकी
अनुकंपा से
हुआ है। उसकी
अनुकंपा थोड़ी—बहुत
अकड़ भी हो, उसको
भी बहा ले गयी।
उसकी अनुकंपा
ऐसी आयी बाढ़
की तरह कि सब
बहा ले गयी।
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
रज्जब
कहते हैं, मैं
तो तैयार खड़ा
हूँ, तुम
पुकारो भर!
तुम्हारी
पुकार भर आ
जाए, तुम्हारा
संदेश, तुम्हारा
इशारा भर आ
जाए, इतना
भर मुझे अनुभव
में हो जाए कि
किस दिशा में
तुम हो, कहाँ
तुम हो, तुम्हारा
रूप क्या, तुम्हारा
रंग क्या, तुम्हारा
ढंग क्या, बस
जरा—सी मेरे
कान में भनक
पड़ जाए तो मैं
चल पडूँ। मगर
तुम बुलाओ तो
ही यात्रा
शुरू हो!
ध्यानी
का अपना एक
जगत है।
ध्यानी कहता
है—
अपना
जमाना आप
बनाते हैं
अहले—दिल
हम वे नहीं
कि जिसको
जमाना बना गया
ध्यानी
कहता है:
हमें
पतवार अपने
हाथ में लेनी
पड़े शायद
यह कैसे
नाखुदा हैं, जो
भँवर तक जा
नहीं सकते
ध्यानी
कहता है—
मेरे हाथ
हैं तो बनूँगा
खुद मैं अब
अपना साकीए—मैकदा
खुमे—गैर
से तो खुदा
करे, लबे
जाम भी मेरा
तर न हो
मैं
खुद ही
पियक्कड़
बनूँगा और खुद
ही अपना साकी
बनूँगा—खुद ही
पिलाने— वाला, खुद
ही पीनेवाला।
हेरे हाथ
हैं तो बनूँगा
खुद मैं अपना
साकीए—मैकदा
मधुशाला
भी मै बनूँगा, मधु
भी मैं, पीनेवाला
भी मैं, पिलानेवाला
भी मैं।
खुमे—गैर
से तो खुदा
करे, लबे
जाम भी मेरा
तर न हो
दूसरे
के हाथ से तो
मैं अपनी
मदिरा की
प्याली भी छुआ
जाना पसंद
नहीं करता।
ज्ञानी की
सारी यात्रा
अंतर्यात्रा
है,
स्व—यात्रा
है।
स्वाध्याय
उसकी
प्रक्रिया है।
वह अपना
अध्ययन करता
है, अपने
भीतर उतरता है।
अहले
तक्दीर! यह है
मौजिजए—दस्ते
अमल
जो खजफ
मैंने उठाया
वह गुहर है कि
नहीं?
हम
रिवायतके
मुन्किर नहीं, लेकिन’
मजरूह’!
सबकी और
सबसे जुदा
अपनी डगर है
कि नहीं?
ज्ञानी
अपनी डगर
बनाता है।
अपने मार्ग पर
चलता है, अपनी
पगडंडी चुनता
है।
राजमार्गों
पर नहीं चलता,
औरों की
बनायी डगर पर
नहीं चलता।
जिसको
वैसा रुचिकर
लग,
वैसा करे।
वह लंबी
यात्रा है, ध्यान रखना।
सौ ज्ञानी
चलते हैं, एकाध
सफल होता है।
सौ भक्त चले, निन्न्यानबे
सफल हो जाते
हैं। जितने
भक्तों ने
परमात्मा को
जाना है, उतने
ध्यानियो ने
नहीं जाना।
क्योंकि
ध्यानी
बिल्कुल
अकेला है। उसे
कोई सहारा
नहीं है। वह
खुद ही खोजता
फिर रहा है।
भक्त को सहारा
है। भक्त को
आश्वासन है।
भक्त किसी की
शरण गया है।
भक्त को
अस्तित्व पर
भरोसा है।
भक्त कहता है कि
हम इस
अस्तित्व के
अंग हैं, तो
अस्तित्व
हमारी परवाह
करता है। हम
पुकारेंगे तो
अस्तित्व से
कोई ऊर्जा
उठेगी, मार्गदर्शक
बनेगो।
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जथा पवन
परसंगि ते
गुडी गगन कूँ
जाय।।
देखा
तुमने? अदृश्य
हवा के सहारे
पतंग आकाश में
उठ जाती है।
हवा दिखायी
नहीं पड़ती।
जथा पवन
परसगि ते गुडी
गगन कूँ जाय।।
पतंग
आकाश में उठ
जाती है, अदृश्य
हवा के सहारे।
मैने कहा—यह
सूत्र बड़ा
कीमती है।
उसकी अनुकंपा
अदृश्य है, जैसे हवा, भक्त बड़े
आकाशों की
यात्रा कर
लेता है—जथा पवन
परसंगि ते—बस
उसकी अनुकंपा
का सहारा मिल
जाता है उसे।
हाथ दिखायी
नहीं पड़ते, मगर भक्त के
हाथ में आ
जाते हैं।
किसी और को
दिखायी नहीं
पड़ते, मगर
भक्त को
स्पर्श अनुभव
होने लगता हे।
जो पतंग चढ़ाता
है, उसकी
डोर पर हवा का
बल मालूम होने
लगता है, उसकी
अंगुलियों पर
हवा का बल
मालूम होने
लगता है। किसी
और को हवा
दिखायी नहीं
पड़ती, लेकिन
जिसने पतंग
चढ़ायी है उसको
पता होता है, कि हवा में
कितना बल है।
ठीक वैसा ही
भक्त को
परमात्मा का
बल अनुभव होना
शुरू हो जाता
है। किसी
दूसरे को
दिखायी नहीं
पड़ता। किसी
दूसरे को भक्त
दिखाना भी चाहे
तो दिखा नहीं
सकता। लेकिन
भक्त को अनुभव
होने लगता है
कि उसके हाथ
में मेरे हाथ
पड़ गये। सब
ठीक होने लगता
है। कदम ठीक
राह पर पड़ने
लगते हैं। सुख
गहन होने लगता
है। प्रतिपल
शीतलता और
शांति बढ़ती
चली जाती है।
आनंद उमराने
लगता है। भक्त
जानता है ठीक
रास्ते पर हूँ।
उसके हाथ में
मेरे हाथ हो
गये हैं। और
भक्त को उसके
हाथ का स्पर्श
होता है।
ख्याल रखना, भक्त को अंतs
में पूरी
प्रतीति होने
लगती है, साफ
होने लगता है
कि अब मैं
अकेला नहीं
हूँ, कोई
सदा साथ है।
ऐसा
हुआ। मुहम्मद
के पीछे उनके
दुश्मन पड़े थे।
एक पहाड़ पर
भागते हुए एक
गुफा में
मुहम्मद छिप
गये। उनके साथ
उनका एक
दार्शनिक
शिष्य है—बडा
विचारक है, पंडित
है। दोनों हैं,
गुफा में
छिपे बैठे हैं,
दुश्मनों
की घोड़ों की
टाप पास आने
लगी, घबड़ाहट
बढ़ती जाती है,
पर मुहम्मद
निश्चित बैठे
हैं। वह जो
दार्शनिक है,
वह बड़ा
परेशान हो रहा
है, पसीना—पसीना
हो रहा है—यद्यपि
सर्दी है, ठंढी
है, गुफा
बहुत शीतल है,
मगर उसको
पसीना बह रहा
है। मुहम्मद
निश्चित बैठे
हैं। वह
मुहम्मद से
पूछता है—हजरत,
आप बड़े शांत
बैठे हैं
घोड़ों की टाप
सुनायी नहीं
पड़ती? मौत
ज्यादा दूर
नहीं है, यह
वक्त शांत
बैठने का नहीं
है, हम दो
हैं और, दुश्मन
कम—से—कम हजार
हैं, बचना
संभव नहीं है।
मुहम्मद ने
कहा—दो! हम तीन
हैं। उस
दार्शनिक
चारों तरफ
गुफा में देखा
कि कोई और
अँधेरे में तो
नहीं छिपा
बैठा है? वहाँ
कोई भी नहीं
है। उसने कहा—आप
क्या कह रहे
हैं, कोई
नहीं है यहाँ!
मुहम्मद ने
कहा—तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ेगा और मैं
दिखाना चाहूँ
तो दिखा भी न
सकूँगा।
इसीलिए मैं
निश्चित हूँ
और तुम
निश्चित नहीं हो।
परमात्मा है।
हमारे होने—न—होने
का कोई मूल्य
ही नहीं है, उसके होने
का मूल्य है।
हजार नहीं दस
हजार दुश्मन
हों तो कोई
फर्क नहीं
पड़ता। मिल साथ
है। और उसकी
अकेली मिलता
काम आती है, बाकी कोई
चीज काम नहीं
आती।
मगर
दार्शनिक को
इससे आश्वासन
नहीं आया।
तुमको भी नहीं
आता। ये
कवियों की
बातें ठीक जब
कविता करते हो, लेकिन
यहाँ खतरा है
जिंदगी को, यहाँ कहाँ
कविता काम
आएगी? यहाँ
तलवारें
चाहिए। यहाँ
कविताओं से
लड़ाई नहीं हो
सकती। और
टापें बढ़ती
जाती हैं, आवाज
करीब आती जाती
है, ज्यादा
देर नहीं है—भागने
का कोई उपाय
भी नहीं है
क्योंकि आगे
रास्ता
समाप्त हो गया
है, भयंकर
खड्ड है, यह
गुफा आखिरी है।
और दुश्मन को
भी यह गुफा
दिखायी पड़
जाएगी, क्योंकि
दुश्मन भी
यहीं आकर
रुकनेवाला है,
इसी द्वार
पर, क्योंकि
इसके आगे
खट्टा है। आगे
दुश्मन भी जा
नहीं सकता और
यह बात असंभव
है कि दुश्मन
को यह गुफा
दिखायी न पड़े।
लेकिन थोड़ी ही
देर में
दिखायी पड़ा कि
आवाज धीमी
होने लगी
घोड़ों के
टापों की।
द्रुश्मन
किसी और
रास्ते पर मुड़
गया, गुफा
तक पहुँचा ही
नहीं।
और
मुहम्मद
हँसने लगे, और
उन्होंने कहा—देखा,
तीसरे को
देखा?
हवा
की तरह है, लेकिन
भक्त को अनुभव
होने लगता है।
अनुभव करने की
क्षमता आ जाए।
वह क्षमता रो—रो
कर कमायी जाती
है। वह क्षमता
विरह से कमायी
जाती है।
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जथा पवन
परसगि ते गुडी
गगन कूं जाय।।
मैं
तो कुछ भी
नहीं हूँ, पतंग
हूँ, कागज
की पतंग।
लेकिन पतंग भी
आकाश में उठ
जाती है हवा
के सहारे।
तुम्हारा
सहारा मिले तो
मैं भी क्या न
कर दिखाऊँ? फिर मोक्ष
भी दूर नहीं
है। फिर
बैकुंठ मेरे
हाथ में है।
तुम्हारा
सहारा चाहिए।
तुम्हारे
बिना तो दुख—ही—दुख
है, तुम्हारा
सहारा होते ही
सब रूपांतरित
हो जाता है।
इस जगत में एक
ही क्रांति है
और वह क्रांति
है कि तुम
अनुभव कर लो
कि तुम अकेले
नहीं हो, परमात्मा
तुम्हारे साथ
है।
तुम्हारी
चिंताएँ क्या
हैं?
मुहम्मद
निश्चित
क्यों थे? साथी
था दूसरा, वह
चिंतित क्यों
था? दोनों
की परिस्थिति
एक थी। वह
साथी भी कह
सकता था कि
पहले
परिस्थिति
बदलो, फिर
निश्चित
बैठना। यह किस
तीसरे की बात
कर रहे हो? दुश्मन
सामने है, अभी
मुसीबत आ रही
है, पहले
इसका कुछ इलाज
निकालो ये
बातें काम
नहीं आएँगी।
लेकिन दोनों
की मनोदशा अलग
है। दोनों की
भावदशा अलग है,
परिस्थिति
तो एक है कि
दुश्मन आ रहा
है, मौत
सामने खड़ी है,
खतरा है, भावदशा में
भेद है। एक
पतंग जमीन पर
पड़ी है
क्योंकि उसे
हवा का सहारा
नहीं है और एक
पतंग आकाश में
चढ़ गयी क्योंकि
उसे हवा का
सहारा है।
दोनों पतंग
हैं। भक्त की
पतंग में और
तुम्हारी
पतंग में जरा
फर्क नहीं है,
सिर्फ भक्त
की पतंग को
उसकी अदृश्य
शक्ति का सहारा
है। उस सहारे
को पाने की
तलाश करो। वही
प्रार्थना है।
उस सहारे को
पाने की तलाश
प्रार्थना है।
उसे पुकारों!
रोओ उसके लिए!
उसकी
प्रतीक्षा
करो।
उफक के उस
पार जिंदगी के
उदास लम्हे
गुजार आऊँ
अगर मेरा
साथ दे सको
तुम तो मौत को
भी पुकार आऊँ
कुछ इस तरह
जी रहा हूँ
जैसे उठाए
फिरता हूँ लाश
अपनी
जो तुम जरा
भी दे दो
सहारा तो बारे—हस्ती
उतार आऊँ
बदल गये
जिंदगी के
महवर तवाफे
दैरो—हरम कहाँ
का
तुम्हारी
महफिल अगर हो
बाकी तो मैं
भी परवाना बार
आऊँ
बस, तुम्हारा
पता चल जाए, तो आ जाऊँ
परवाने की तरह।
तुम्हारी
ज्योति
दिखायी पड़ जाए,
तो आ जाऊँ
परवाने की तरह।
फिर कौन फिकिर
करता है मँदिर
और मस्जिद की?
बदल गये
जिंदगी के
महवर..
फिर
तो जिंदगी का
दृष्टिकोण
बदल जाता है।
.
..तवाफे
दैरो—हरम कहाँ
का
अब
कहाँ का मंदिर, कहाँ
की मस्जिद, कहाँ की
परिक्रमा? कहाँ
की काशी, कहाँ
का काबा?
बदल गये
जिंदगी के
महवर तवाफे
दैरो—हरम कहाँ
का
तुम्हारी
महफिल अगर हो
बाकी तो मैं
भी परवाना बार
आऊँ
बस, तुम्हारी
ज्योति की जरा—सी
झलक मिल जाए, तो परवाने
की तरह आ जाऊँ।
वह झलक कैसे
मिले? किसको
मिलती है? जो
भी पुकारता है,
उसको मिलती
है। तुम्हें
नहीं मिली, तो तुमने
पुकारा नहीं।
और कभी पुकारा
भी तो अनास्था
से पुकारा।
जानते हुए
पुकारा कि कौन
है उत्तर देने
वाला’ आकाश
खाली है.।
प्रकारा भी तो
पुकारा नहीं।
पुकार तो
आस्थापूर्ण
हो तभी सच
होती है।
पुकार तो
समग्र हो, तुम्हारा
पूरा हृदय
पुकार में' डूब जाए और
पुकार बन जाए,
तो पुकार
सार्थक होती
है।
रज्जब
कहते हैं—
भला बुरा
जैसा किया, तैसा
निपज्या जीव।
यह
तुम्हरा
तुमकूँ
मित्या, तुम
क्यूँ मिले न
पीव।।
वे
कहते हैं कि
माना कि मैं
कोई ऐसा योग्य
नहीं हूँ कि
तुम मेरी सुनो, कि
तुम मेरी गुनो,
कि तुम मेरी
तलाश करते हुए
आओ, ऐसा
मुझमें कुछ भी
नहीं है, मेरी
कोई पात्रता
का दावा नहीं
है.. .यह भी भक्ति
का अनिवार्य
अंग है।
ज्ञानी
पात्रता का दावा
करता है, भक्त
अपनी अपात्रता
की घोषणा करता
है। भक्त
कहता: है, मुझसे
ज्यादा
अपात्र और कौन
होगा? मुझसे
बुरा कोई भी
नहीं है, भक्त
कहता है। जो
मैं खोजने गया,
तो। मुझसे
बुरा कोई और
पाया नहीं।
भला बुरा
जैसा किया, तैसा
निपज्या जीव।
जो
मैंने भला—बुरा
किया है, वैसा
मैं हूँ। मगर
भला हूँ कि
बुरा हूँ, तुम्हारा
हूँ। इस सत्य
से कोई इन्कार
नहीं किया जा
सकता। यह भक्त
का दावा है।
भक्त अपनी
पात्रता का
दावा नहीं
करता, भक्त
तो इतना ही
दावा करता है
कि मैं तुम्हारा
हूँ। चाहे
बुरा हूँ, चाहे
भला हूँ; सुंदर
हूँ, असुंदर
हूँ; साधु
हूँ, असाधु
हूँ, ये
गौण बातें' हैं, मगर
एक बुनियादी
बात की घोषणा
भक्त जरूर
करता है, वह
कहता है— कुछ
भी हूँ, जैसा
भी हूँ
तुम्हारा हूँ।
इससे इन्कार
नहीं कर सकोगे।
इससे इन्कार
करने का कोई
कारण भी नहीं
है। जो मैंने
किया था बुरा,
तो मैं बुरा
हो गया हूँ और
भला किया था
तो भला हो गया
हूँ, वह
मेरा कृत्य है।
मेरे कृत्य की
पूरी
जिम्मेदारी
मुझ पर है।
लेकिन मैं
तुम्हारा
मेरे कृत्य के
पहले हूँ।
मेरा कृत्य जब
पैदा नहीं हुआ
था, तब भी
मैं तुम्हारा
था, और जब
मेरे सारे
कृत्य समाप्त
हो जाएँगे तब
भी मैं
तुम्हारा
होऊँगा। तो
कृत्यों के
कारण अड़चन मत
डालना।
ज्ञानी, ध्यानी
कर्मवादी
होता है। उसका
आग्रह होता है,
आदमी के
कर्म के
अनुसार सब
होगा। उसके
सोचने का ढंग
तार्किक है।
वह कहता है—जैसा।
कर्म करोगे
वैसा फल पाओगे।
भक्त का बड़ा
अनूठा
दृष्टिकोण है।
भक्त कहता है,
कर्म जैसा
मैं करूँगा
वैसा मैं हो
गया, इससे
कोई एतराज
नहीं है।
लेकिन इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता, मैं
तुम्हारा हूँ,
यह बात फिर
भी वैसी—की—वैसी
बनी रहती है।
अच्छा बेटा और
बुरा बेटा, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता, दोनों
बेटे तो होते
ही हैं। जीसस
ने तो यहाँ तक
कहा है—और
जीसस भक्ति के
मार्ग पर
अनूठे प्रकाश—स्तंभ
हैं—जीसस ने
तो यहाँ तक
कहा है कि
अक्सर यह हो
जाता है—और
तुम भी जीवन
में अनुभव
करोगे जीसस की
बात का और
जीसस की बात
की सचाई का—
अक्सर यह हो
जाता है कि
बाप अपने
बिगड़े बेटे के
संबंध में
ज्यादा सोचता
है'। जो
ठीक—ही—ठीक है,
उसके संबंध
में सोचने की
जरूरत भी क्या
है हे माँ
अपने बिगड़े
बेटे के संबंध
में ज्यादा
चिंतातुर होती
है। साधु तो
भुलाया जा
सकता है, लेकिन
असाधु को कैसे
भुलाओगे? स्वस्थ
तो भुलाया जा
सकता है, लेकिन
अस्वस्थ को
कैसे भुलाओगे?
जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है कि
जैसे कोई
गड़रिया साँझ
को अपनी भेड़ों
को लेकर लौटता
है,
गिनती करता
है और पाता है
कि एक भेड़
कहीं रास्ते
में खो गयी, तो
निन्न्यानबे
भेड़ों को
अँधेरे जंगल
में, खतरे
में छोड्कर—क्योंकि
भेड़िये भी हैं,
चीते भी हैं,
सिंह भी हैं,
खतरा हैं—लेकिन
निन्न्यानबे
भेड़ों को
अँधेरे में
छोड्कर उस एक
भेड़ को खोजने
निकल' जाता
है जो भटक गयी
है। जो कहीं
दूर कहीं
अँधेरे में खो
गयी है। और
इतना ही नहीं,
जीसस ने यह
भी कहा है कि
जब वह उस भेड़
को खोज लेता
है, तो उसे
कंधे पर रख कर
लौटता है।
जीसस
ने ठीक कही
बात। भक्ति का
यह अनुभव है।
जीसस
की और एक
प्रसिद्ध
कहानी है।
एक
बाप के दो
बेटे थे। बडा
तो बड़ा योग्य
था,
कुशल था, साधुचरित्र
था, आचरणवान
था, पिता
का बड़ा आदर
करता था, छोटा
एकदम लंपट था,
जुआरी था, शराबी था, पिता के
प्रति कोई आदर
का भाव भी
नहीं था, सुनता
भी नहीं था, किसीकी
मानता भी नहीं
था, बगावती
था, उपद्रवी
भी था। अंतत:
एक दिन छोटे
बेटे ने कहा
कि हमें अलग—अलग
कर दें
क्योंकि मैं
यह बकवास रोज—रोज
नहीं सुनना
चाहता कि तुम
क्या करो और
क्या न करो!
मुझे जो करना
है वही मैं
करूँगा। मुझे
जो होना है
वही मैं
होऊँगा।
हमारा
बँटवारा कर
दें। बाप ने
भी सोचा कि
झगड़ा होगा
मेरे जाने के
बाद, इन
दोनों बेटों
में बहुत
उपद्रव मचेगा,
क्योंकि
दोनों
बिल्कुल दो
अलग दिशाओं की
तरफ यात्रा कर
रहे हैं, उसने
बँटवारा कर
दिया। छोटा
बेटा तो धन
लेकर शहर चला
गया। क्योंकि
धन गाँव में
अगर हो भी तो
क्या करो? छोटे—मोटे
गाँव में धन
का करोगे क्या?
गाँव का धनी
और गाँव के
गरीब में कोई
बहुत फर्क
नहीं होता। हो
ही नहीं सकता,
क्योंकि
वहाँ उपाय
नहीं है। धन
का फर्क तो
शहर में होता
है, वहाँ
उपाय है।
जैसे
ही उसे धन हाथ
लगा,
वह तो शहर
की तरफ चला
गया, दस
साल फिर लौटा
ही नहीं।
खबरें आती
रहीं कि सब
बरबाद कर दिया
उसने जुए में,
शराब में, वेश्यालयों
में। फिर
खबरें आने
लगीं कि अब तो
वह भीख माँगने
लगा। फिर
खबरें आने
लगीं कि अब तो
रुग्ण हो गया
है, देह जर्जर
हो गयी है, अब
मरा तब मरा की
हालत है। बाप
बड़ा चिंतित है।
रात उसे नींद
नहीं आती।
सोचता ही रहता
है।
एक
दिन खबर आयी
कि बेटा वापिस
आ रहा है।
बेटे
ने सोचा एक
दिन—भीख
माँगने खड़ा था
एक द्वार पर
और इन्कार कर
दिया गया; बड़ा
महल था, महल
देख कर उसे
अपने घर की
याद आयी, उसके
पास भी बड़ा
महल था, ऐसे
ही नौकर—चाकर
उसके पास भी
थे, और आज
यह दशा हो गयी
उसकी कि भीख
माँगने खड़ा है
और नौकर—चाकर
भगा दिये हैं—
उसने सोचा लौट
जाऊँ। क्षमा
माँग लूंगा और
पिता से
कहूँगा, तुम्हारा
बेटा होने के
तो मैं योग्य
नहीं हूँ, इसलिए
बेटे की तरह
वापिस नहीं
आया हूँ, एक
नौकर की तरह
मुझे भी रख लो;
इतने नौकर
हैं तुम्हारे
घर में, एक
मैं भी नौकर
की तरह पड़ा
रहूँगा। ऐसा
सोच घर की तरफ
वापिस चला।
बाप को पता
चला तो बाप ने
बड़े सुस्वादु
भोजन बनवाए और
सारे गाँव को
भोज पर आमंत्रित
किया—बेटा
वापिस लौट रहा
है। बैडंबाजे
बजवाए, संगीत
का आयोजन किया,
जो भी
श्रेष्ठतम
संभव हो सकता
था—गाँव में
दीये जलवा दिये,
फूलों से
द्वार सजाया।
बड़ा बेटा तो
खेत पर काम
करने गया है, वह जब साँझ
को लौट रहा था
उसे गाँव में
बड़ा शोरगुल और
बड़ा उत्सव
मालूम पड़ा, उसने लोगों
से पूछा—बात
क्या है? किसी
ने कहा—बात
क्या है, अन्याय
है, बात
क्या है!
तुम्हें
जिंदगी हो गयी
इस बूढ़े का
पैर दबाते—दबाते,
इसकी ही
सेवा में रत
रहे, तुम्हारा
कभी स्वागत
नहीं किया गया—
न बंदनवार
बाँधे गये, न बाजे बजे, न तुम्हारे
लिए भोजन
बनाये गये, न तुम्हारे
लिए भोज दिये
गये, आज
सुपुत्र घर आ
रहा है!
तुम्हारे
छोटे भाई वापिस
लौट रहे हैं।
राजकुमार
वापिस लौट रहे
हैं! —सब बर्बाद
करके। और यह
अन्याय है। यह
उसके स्वागत
में इंतजाम
किया जा रहा
है।
बडे
भाई को भी चोट
लगी। बात सीधी—साफ
थी,
गणित की थी
कि यह अन्याय
है। गुस्से
में आया घर, बाप से जाकर
कहा कि मैं
कभी आपसे मुँह
उठा कर नहीं
बोला, लेकिन
आज सीमा के
बाहर बात हो
गयी, आज
मुझे कहना ही
होगा, आज
मेरी शिकायत
सुननी ही होगी,
यह मेरे साथ
अन्याय हो रहा
है। बाप ने
कहा— तू नाहक
गरम हो रहा है।
तू तो मेरा है,
तू तो मेरे
साथ एक है।
तेरी मैने कभी
चिंता नहीं की।
चिंता का कोई
कारण तूने
नहीं दिया।
इसलिए तेरा
कभी स्वागत भी
नहीं किया—स्वागत
की कोई जरूरत
न थी। तेरा तो
स्वागत है ही।
लेकिन जो भटक
गया था, वह
वापिस लौट रहा
है। तू अन्याय
मत समझ। जो
भटक गया था
उसका वापिस
लौटना स्वागत
के योग्य है।
वह इस घर में
ऐसा आए
भिखमंगे की
तरह, तो
शुभ न होगा।
अपना सारा मान,
अपनी सारी
मर्यादा खोकर
लौट रहा है, उसे मान वापिस
देना है, मर्यादा
वापिस देनी है।
उसका सम्मान
उसे वापिस
देना है, उसका
आत्मगौरव उसे
वापिस देना है।
अन्यथा वह इस
घर में
गौरवहीन होकर
आएगा।
सब
बर्बाद कर के
आ रहा है, मुझे
मालूम है।
उचित तू जो
कहता है वही
था, गाँव
भी यही कह रहा
है कि उचित
यही था कि
उसके साथ यह
सद्व्यवहार न
किया जाए, लेकिन
मैं कुछ और
देखता हूँ। यह
सद्व्यवहार
उसकी आत्म—प्रतिष्ठा
बन जाएगा, वह
फिर अपने गौरव
को पा लेगा।
वह फिर अपने
पैरों पर खड़ा
हो सकेगा। और
एक बात का उसे
भरोसा आ जाएगा
कि बुरे हो कि
भले, इसका
बाप को फर्क
नहीं पड़ता।
प्रेम बुरे और
भले का फर्क
नहीं करता।
प्रेम बेशर्त
है। जीसस की
इस कहानी को
याद रखना।
भला बुरा
जैसा किया, तैसा
निपज्या जीव।
यह
तुम्हरा
तुमकूँ
मिल्या, तुम
क्यूँ मिले न
पीव।।
शिकायत
करते हैं
रज्जब, वह
कहते हैं—मैं
भला—बुरा, लेकिन
तुम्हारा, और
मैं तुम्हें
पुकारता चला
जाता हूँ, और
मैंने
तुम्हें अपना
मान लिया है, तुम मुझे कब
अपना मानोगे?’
तुम क्यूँ
मिले न पीव’।
प्यारे, तुम
मुझे कब
मिलोगे? और
यह मैं दावा
नहीं करता कि
मैं योग्य हूँ।
फर्क
समझ लेना।
आग्रह
यह नहीं है कि
मैं पात्र छूँ, योग्य
हूँ, मुझे
मिलो, आग्रह
यह है कि तुम
रहमान हो, रहीम
हो, अनुकंपा
वाले हो, तुम्हारी
अनुकंपा को
क्या हुआ? मैं
तो भला—बुरा
जैसा हूँ, ठीक,
फिर भी
तुम्हें याद
करता हूँ; तुमने
मुझे क्यों
याद नहीं किया?
तुम मुझे
क्यों नहीं
पुकारे’ मैं
तो तुम्हें
पुकार रहा हूँ।
ये ओंठ तुम्हारे
नाम लेने के
योग्य नहीं, फिर भी
तुम्हें
पुकार रहा हूँ।
तुमने मुझे
क्यों न पुकारा?’
तुम क्यूं
मिले न पीव’।
तुम एक, एक
बार मेरी तरफ
देख दो, तो
फूल—ही—फूल
खिल जाएँ, मरुस्थल
उद्यान हो
जाएँ।
नहीं जागी
तो इससे मेरी
किस्मत ही
नहीं जागी
जगाने को
सितमगर ने कई
फिरने जगाए
हैं
यह दुनिया
अहले—गम पर तो
हमेशा
मुस्कराती है
हम अपने आप
पर भी
बेतकल्लुफ
मुस्कराए है'
कई गुंचे
चटक उट्ठे कई
कलियाँ महक
उट्ठी
गुलिश्तां
मुस्कराया है, वे
जब भी
मुस्कुराए
हैं
तुम
जरा—सा
मुस्करा दो, तुम्हारे
ओंठ जरा मुझे
हँसते हुए
दिखायी पड़ जाएँ,
तुम्हारी
आँख मुझे देख
रही है यह
मेरे अनुभव
में आ जाए, तुमने
मेरी तरफ देखा,
तुमने मेरी
तरफ आँख उठायी,
बस काफी है।
और कुछ ज्यादा
भी माँग नहीं
है।
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जया पवन
परसगि ते गुडी
गगन कूँ जाय।।
और
मुझे कुछ पता
नहीं है। अपने
घर का पता
नहीं है, तुम्हारे
घर का तो कहाँ
से पता होगा!
कुछ बता तू
ही नशेमन का
पता
मैं तो
बादे—सबा! भूल
गया
हे
सुबह की हवा, मुझे
तो यह भी पता
नहीं कि मेरा
घर कहाँ है? मैं तो ऐसा
खो गया हूँ
संसार में, तू ही बता।
कुछ बता तू ही
नशेमन का पता।
ऐसा
भक्त रोता, पुकारता।
ऐसा भक्त
बातें करता, प्रश्न
उठाता, जवाब
भी देता।
भक्ति का
मार्ग बड़े
अंतरंग
वार्तालाप का
मार्ग है।
शुरू—शुरू में
तो भक्त को
दोनों काम
करने पड़ते हैं—अपनी
तरफ से भी
बोलना पडता है,
भगवान की
तरफ से भी
बोलना पड़ता है।
लेकिन
जल्दीही वह
घटना घटती है,
एक दिन
स्पष्ट अनुभव
में आ जाता है
कि अब मैं भगवान
की तरफ से
नहीं बोल रहा,
भगवान ही
बोल रहा है।
वह तो स्वाद
का भेद है।
समझाया नहीं
जा सकता।
लेकिन इतना
साफ भेद हो
जाता है कि अब
मेरा ही हाथ
मेरे हाथ में
नहीं है, कोई
दूसरा हाथ
मेरे हाथ में
है। क्योंकि
ऐसी ऊर्जा की
तरंग पूरे
जीवन में फैल
जाती है, सब
तरफ सुगंधित
फूल खिल जाते
हैं।
उनकी
आँखों को दिये
थे जो मेरी आंखों
ने
किससे पूछूँ
कि वे पैगाम
कहाँ तक पहुंचे
भक्त
किसीसे पूछ भी
नहीं सकता कि
मैं जो प्रार्थनाएँ
कर रहा हूँ, वे
कहीं पहुँच भी
रही हैं कि
नहीं पहुँच
रही हैं? कहीं
यह मैं मन का
ही खेल तो
नहीं कर रहा
हूँ? भक्त
को यह सवाल
बार—बार उठता
है। मुझे लोग
पूछते हैं कि
कहीं यह हमारे
मन का ही खेल
तो नहीं है? शुरू में मन
का ही खेल है।
लेकिन अगर तुम
खेलते ही चले
गये, अगर
तुम इस खेल' में रचते—पचते
ही चले गये, तो एक दिन
तुम अचानक
पाओगे कि खेल
असलियत बन गया।
एक दिन तुम
अचानक पाओगे,
तुम्हारी
आवाज इस तरफ, उस तरफ कोई
दूसरी आवाज
उठी। और वह
आवाज इतनी
भिन्न है
तुम्हारी
आवाज से कि
तुम पहचान ही
लोगे। कोई
चिंता नहीं
आएगी, कोई
विचार खड़ा
नहीं होगा, कोई संदेह
खड़ा नहीं होगा,
निस्संदिग्ध
पहचान लोगे कि
वह आवाज कोई
और है।
क्योंकि उस
आवाज के साथ
ही तुम्हारे
जीवन में
क्रांति घटनी
शुरू हो जाएगी।
जहाँ काँटे थे,
वहाँ फूल हो
जाएँगे। फिर
कैसे न
पहचानोगे? और
जहाँ अँधेरा
था, वहाँ
दीये जल
जाएँगे। फिर
कैसे न
पहचानोगे? और
जहाँ मृत्यु
खड़ी थी, वहाँ
अमृत की घटा
घिर जाएगी।
फिर कैसे न
पहचानोने? और
जहाँ केवल
शोरगुल ही
शोरगुल' था,
वहाँ ओंकार
का नाद उठेगा।
कैसे न
पहचानोगे? जरूर
पहचान लोगे।
तुम्हारे सिर
में दर्द होता
है, तब तुम
पहचान लेते न
कि सिर
में
दर्द है। और
जब दर्द चला
जाता है, पहचान
लेते न कि सिर
से दर्द चला
गया। हालाँकि
अगर कोई तुमसे
पूछे, कैसे
पहचानते हो, क्या प्रमाण
है कि सच में
सिर से दर्द
चला गया, तो
तुम कोई
प्रमाण न दे
सकोगे। न तो
सिरदर्द है, यह प्रमाण
दे सकोगे।
मैं
छोटा था तो
मेरे स्कूल मे
एक मुसलमान
शिक्षक थे।
बड़े सख्त। कुछ
भी हो जाए, वह
छुट्टी न दें।
और जब वह
कक्षा शुरू
करें तो पहली
बात यह बता दें
कि देखो, सिरदर्द,
पेटदर्द, इस तरह के
दर्द तो बताना
ही मत! हाँ, बुखार
चढ़ा हो तो बता
सकते हो।
क्योंकि जो
दर्द तुम दिखा
नहीं सकते, वह मै मानता
ही नहीं। कि
सिरदर्द हो
रहा है, तो
इसका क्या
प्रमाण कि हो
रहा है कि
नहीं हो रहा
है? कि
तुम्हें
सिर्फ जाकर
बाहर गुल्ली—डंडा
खेलना है? कि
पेटदर्द हो
रहा है, यह
मैं मानता ही
नहीं। इस तरह
के दर्द मैं
मानता ही नहीं।
कुछ मित्रों
ने मिलकर, गाँव
में एक वैद्य
थे उनसे जाकर
प्रार्थना की
कि कुछ ऐसी
दवा दे दो जो
हम बड़े मियाँ
के भोजन में
मिला दें। एक
दफा इनके पेट
में दर्द हो
जाए। पहले तो
वह कुछ जरा
हैरान हुए
वैद्य, फिर
उनको यह बात
जँची कि जब
मैने उनसे यह
कहा कि आप
सुनो तो, यह
कहते हैं कि
इसका प्रमाण
क्या? अब
प्रमाण और कुछ
हो नहीं सकता।
कुछ ऐसी दवा
दे दो! उनसे
दवा ले ली। और
उनका एक
रसोइया था—शादी
उन्होंने की
नहीं थी—वह
रसोइया ही; उसको थोड़ी
रिश्वत
खिलायी, वह
भी प्रसन्न
हुआ, उसने
वह गोली उनके
भोजन में मिला
दी।
जब
वे दूसरे दिन
स्कूल आए और
बीच पढ़ाई में
जब उनको जोर
का दर्द उठा, तो
बिल्कुल गोल
होने लगे। तो
मैंने उनसे
पूछा—आप यह
क्या कर रहे
हैं? बोले —पेट
में दर्द है।
मैंने कहा—हम
मानते ही नहीं,
कोई नहीं
मानता पेट का
दर्द। प्रमाण?
तब उनको समझ
में आया कि
उनके साथ कुछ
षड्यंव किया
गया है।
उन्होंने कहा—मुझे
शक तो हो रहा
था, क्योंकि
मुझे कभी
पेटदर्द होता नहीं।
मगर तुमने ठीक
किया।
क्योंकि
मैंने जिंदगी
में पेटदर्द
जाना ही नहीं,
तो मैं
मानता भी नहीं
था। और मैंने
कहा—सिरदर्द
के बाबत आपका
क्या ख्याल है?
कुछ उपाय
करने पड़ेंगे?
ये चीज़ें भी
होती हैं, बुखार
ही एक बीमारी
नहीं है। उस
दिन से
उन्होंने
कहना बंद कर
दिया कि
पेटदर्द, सिरदर्द,
इन्हें मैं
नहीं मानता।
जब
हो जाए तो ही
अनुभव। और
अनुभव हो तो
ही प्रमाण।
अनुभव के
अतिरिक्त कोई
प्रमाण नहीं
है। तुम्हें
जब होगी यह
घटना कि उसका
हाथ तुम्हारे
हाथ में पड़ेगा, तत्क्षण
तुम जान लोगे।
स्वयंसिद्ध
है यह अनुभूति।
लेकिन जब तक
यह न हो, तब
तक भक्त को
प्रार्थना का
रंग अपने मन
पर फैलाना
पड़ता है।
हम किया
करते हैं
अश्कों से
तवाजअ क्या
क्या
जब
ख्यालों में
वो आ जाते हैं
महमां की तरह
तब
तक तुम आँसुओं
से उनका
स्वागत करते
रहो। प्रेम के
स्वर जगाते
रहो। और यह
चिंता ही मत
करना कि यह मन
का खेल है।
शुरू में तो
यह मन का खेल
होगा ही, क्योंकि
मन में हम खड़े
हैं। तो पहले
कदम तो हमारे
मन के ही ऊपर:
पड़ेंगे। धीरे—धीरे
चलते—चलते मन
के पार जाना
होगा। मन. से
ही मन के पार
जाना है। मन
का ही सीढ़ी की
तरह उपयोग कर
लेना है। मन
का सोपान बनाना
है।
जैसे छाया
कूप की, बाहरि
निकसै नाहिं।
जन रज्जब
यूं राखिये, मन
मनसा हरि माहि।।
रज्जब
कहते हैं, हरि
को ऐसा बसा लो
अपने भीतर
जैसे गहरे
कुएँ की छाया
देखी? बाहर
नहीं निकलती।
जैसे छाया कूप
की। बाहर भरी
दुपहरी, आग
पड़ रही है, कभी
गहरे कुएँ में
गये हो? वहाँ
बड़ी घनी छाया
है। शीतल है।
मगर उस छाया
को, उस
शीतलता को तुम
कुएँ के बाहर
न ला सकोगे।
वैज्ञानिक तो
कहते हैं, अगर
कुआँ काफी
गहरा हो—समझो
दो,सौ फीट
गहरा हो—तो
तुम दिन में
भी आकाश के
तारे देख सकते
हो। अगर तुम
गहरे कुएँ में
चले जाए, दो
सौ फीट गहरे, तो दो सौ फीट
की छाया
तुम्हारी आँख
पर पड़ जाएगी
और तुम्हें
आकाश में तारे
दिखायी पड़
जाएँगे। तारे
तो हैं ही, सूरज
की रोशनी में
दब गये हैं।
सूरज की रोशनी
में दिखायी
नहीं पड़ते।
तारे कहीं
जाते नहीं कि
रात आ जाते
हैं, दिन
चले जाते हैं,
जहाँ—के—तहाँ
हैं, सूरज
की रोशनी में
उनकी रोशनी
लीन हो जाती है।
अगर तुम गहरे
कुएं में उतर
जाओ और
तुम्हारी आँख
और तारों के
बीच में थोड़ी
छाया का
विस्तार हो
जाए, तो
दिन में भी
तारे दिखायी
पड़ जाते हैं।
जैसे छाया
कूप की, बाहरि
निकसै नाहिं।
जन रज्जब
यूँ राखिये, मन
मनसा हरि माहि।।
वैसे
हरि में मन को
लगाये रखो। और
वैसे हरि को
मन में बसाये
रखो। जैसे
छाया कूप की।
अपनी गहरी—से—गहरी
अंतरंग दशा
में हरि को
पुकारते रहो।
अपने रोएँ—रोएँ
में बस जाने
दो। अपनी धड़कन—धड़कन
में समा जाने
दो। जितनी
गहराई तक ले
जा सको अपने
भीतर, ले जाओ
हरि के स्मरण
को। गहरे—सें—गहरे
उतारते जाओ।
यही भजन की
प्रक्रिया है।
भजन
की प्रक्रिया
के चार तल हैं।
चार गहराइयाँ
हैं। एक, जब
तुम ओंठ से
भगवान का नाम
लेते हो। जब
तुम ओंठ से
पुकारते हो—राम,
राम। दूसरा
तल, जब तुम
ओंठ से नहीं
पूउकारते,
सिर्फ कंठ में
ही गुनगुनाते
हो—राम, राम।
ओंठ बंद हैं, कंठ में ही
आवाज चल रही
है। तीसरा तल,
जब तुम कंठ
पर भी नहीं
लाते? सिर्फ
चित्त में ही
विचार चलता है—राम,
राम। कंठ भी
कँपता नहीं।
और चौथा, जब
चित्त भी नहीं
कँपता। सिर्फ
भाव में ही
राम की दशा
होती है। न
राम शब्द होता
है, न वाणी
होती है, न
स्वर होता है,
सिर्फ भाव
होता है। एक
गहन .'1।।।
उस चौथी दशा
में तुम कुएँ
की आखिरी
गहराई में पहुँच
गये—जैसे छाया
कूप न)। वहाँ
जब राम उतर
जाता है, फिर
तुमसे उसे कोई
छीन नहीं सकता।
जब तक वहा
नहीं उतर गया
है, तब तक
तो मन का ही
संबंध रहेगा।
वहाँ उतरते ही
मन तो बाहर का
संबंध हो जाता
है, मनातीत
संबंध हो जाता
है। उस जाप को
ही अजपा कहा
है। जाप तो
गया, लेकिन
स्मरण है। अब
बोल नहीं उठते,
लेकिन भाव
है।
साध, सबूरी
स्वान की, लीजै
करि सुविवेक।
वै घर
बैठघा एक के, तू
घर घर फिरहि
अनेक।।
रज्जब
कहते हैं—' साध,
सबूरी स्वान
की’। सीखना
चाहो तो
किसीसे भी सीख
लो, कुत्ते
से भी सीख लो।
देखा, कुत्ता
एक ही घर, एक
को मालिक बना
लेता है। साध,
सबूरी
स्वान की; वैसा
ही संतोष
चाहिए, एक
को ही चुन
लिया। एक यानी
परमात्मा।
क्योंकि
परमात्मा के
अतिरिक्त और
सब अनेक हैं।
यहाँ पुरुष
बहुत हैं, यहाँ
स्त्रियाँ
बहुत हैं; यहाँ
पद बहुत हैं, प्रतिष्ठाएं
बहुत हैं; यहाँ
एक तो सिर्फ
परमात्मा है।
हालाँकि आदमी
इतना मूढ़ है
कि उसने
परमात्मा को
भी बहुत ढंग
दे रखे हैं।
वह हर चीज को
अनेक बनाने
में कुशल हो
गया है। वह
परमात्मा तक
को अनेक कर
लिया है। वह
कहता है—मस्जिद
का परमात्मा
अलग और मंदिर
का अलग। तभी
तो मस्जिद
वाला मंदिर को
जला देता है, मंदिर वाला
मस्जिद को जला
देता है। यह
भी रू हो गयी
बात! परमात्मा
तो एक है। इस
जगत में और सब
चीजें अनेक
हैं। रज्जब
कहते हैं, कुत्ता
भी एक मालिक
चुन लेता है, तो फिर
संतोष से उसके
द्वार पर बैठा
रहता है।
साध, सबूरी
स्वान की, लीजै
करि सुविवेक।
इतना
तो सीख ही लो, इतना
तो साध ही लो, इतना विवेक
तो करो कि एक
को पकड़ लो।
जन्मों—जन्मों
से अनेक के
पीछे चल रहे
हो।
वै घर
बैठ्या एक के, तू
घर घर फिरहि
अनेक।।
कितने
लोगों के साथ
तुमने संबंध
जोड़े? कितनी
पत्नियाँ? कितने
पति? कितने
बेटे? कितनी
बेटियाँ? अगर
तुम्हें सारे
जन्मों का
हिसाब मिले तो
तुम घबड़ा जाओ।
आंकड़े
सँभालने
मुश्किल हो
जाएँ। कितने
तुमने संबंध
बनाए! और
संबंध बना ही
नहीं। तुम
संबंध बनाते
चले गये और
संबंध बिखरते
चले गये।
तुमने कितनों
को बेटा बनाया,
कितनों को
पिता बनाया, कितनी को
माँ बनाया, पत्नी, पति,
मित्र, सब
संबंध बने और
जैसे पानी पर
खींची लकीरें
मिट जाती हैं
ऐसे मिट गये।
कितने लोगों
के साथ तुमने
हाथ जोड़े, झोली
फैलायी? कितनों
के आगे तुमने
भीख माँगी और
क्या मिला? क्या पाया?
यहाँ
तुम माँग क्या
रहे हो?
हर
एक व्यक्ति
दूसरे से
प्रेम माँग
रहा है। और
प्रेम केवल
परमात्मा से
मिलता है।
प्रेम एक से
मिलता है; अनेक
से नहीं।
प्रेम एक के
आसपास पैदा
होनेवाले
संगीत का नाम
है। अनेक के
आसपास तो झगड़ा
है, झंझट
है, क्रोध
है, घृणा
है, वैमनस्य
है, ईर्ष्या
है, प्रेम
नहीं। तुम
क्या माँग रहे
हो एक—दूसरे
से? तुम
माँग रहे हो—पति
पत्नी से माँग
रहा है—मुझे
भर दो, मैं
खाली हूँ।
पत्नी पति से
माँग रही है
कि मुझे भर दो,
मैं खाली
हूँ। मगर कोई
किसीको भर
नहीं सकता
सिवाय
परमात्मा के।
उसके
अतिरिक्त और
कोई भराव नहीं
है। तुम खाली
ही रहोगे, तुम
माँगते रहो, हाथ जोड़ते
रहो, घुटने
टेके रहो!
और
इसीलिए तो कलह
पैदा होती है।
तुम माँगते हो
और मिलता नहीं।
तो तुम सोचते
हो,
शायद दूसरा
कृपण है, दे
नहीं रहा है।
सभी
प्रेमियों के
बीच एक कलह
चलती रहती है।
पति सोचता है—पत्नी
जितना प्रेम
देना चाहिए
उतना नहीं
देती। मेरी
जरूरत के
अनुकूल प्रेम
नहीं मिल रहा
है। पत्नी
सोचती है—मेरी
जरूरत के
अनुकूल प्रेम
नहीं मिल रहा
है। दोनों यह
सोचते हैं कि
दूसरा धोखा दे
रहा है। कोई
किसीको धोखा
नहीं दे रहा
है। जरा सोचो
तो, दूसरे
के पास होता
तो वह तुमसे
माँगता? यह
बड़े मजे की
बात है।
मैंने
सुना, एक गाँव
में दो
ज्योतिषी
रहते थे। वे
सुबह—सुबह
अपने घर से
निकलते—पड़ोस
में ही रहते
थे—एक—दूसरे
के सामने हाथ
कर देते कि
जरा देखना भाई,
आज कुछ धंधा
ठीक चलेगा कि
नहीं? अब
जब तुम खुद ही
दूसरे से पूछ
रहे हो, अपना
हाथ दिखा रहे
हो और दूसरा
तुमको दिखा
रहा है कि जरा
तू भाई मेरा
देख, कि आज
धंधा चलेगा कि
नहीं?
एक
ज्योतिषी को
जयपुर में
मेरे पास लाया
गया। उनकी फीस
एक हजार एक
रुपया है।
उन्होंने
मुझसे कहा कि
फीस एक हजार
एक रुपया है
मेरी। मैंने
कहा— बिल्कुल
ठीक। हाथ देखा, बड़े
प्रसन्न थे—उनको
मुश्किल से
मिलता है कोई
एक हजार एक
रुपया देने
वाला। जब हाथ
देख—दाख कर वे
सब बातें बता
चुके, तो
मैंने कहा कि
ठीक।
उन्होंने कहा
कि मेरी फीस
का क्या? मैंने
कहा, जब
तुम्हें यही
पता नहीं चला
कि यह आदमी
फीस देने वाला
नहीं है, तो
तुम्हें क्या
खाक पता
चलेगा! तुम
मेरा भविष्य
बता रहे, अपना
भविष्य
तुम्हें पता
नहीं, इतने
निकट का
भविष्य पता
नहीं कि अभी
पाँच मिनट के
बाद यह आदमी
एक पैसा देने
वाला नहीं!
तुम अपना हाथ
घर से देख कर
चला करो।
दो
ज्योतिषी एक—दूसरे
को हाथ दिखाएँ, या
दो भिखमंगे एक—दूसरे
के सामने झोली
फैलाएँ, मिलेगा
क्या? तुम
द्ऋसंरे से
माँग रहे हो
प्रेम, वह
तुमसे माँग
रहा है प्रेम—तुम
पर होता तो
तुम माँगते
क्यों, उस
पर होता तो वह
माँगता क्यों?
और फिर
नाराज हो रहे
हो, फिर
क्रोध हो रहा
है, फिर एक—दूसरे
पर लांछना लगा
रहे हो कि
धोखा दिया गया,
कि मेरे साथ
जैसा होना था
वैसा नहीं हुआ,
अन्याय हुआ!
कोई अन्याय
नहीं कर रहा
है, यहाँ
सब भिखमंगे
हैं, यहाँ
सब खाली हैं।
जो खाली है वह
तुम्हें कैसे
भरेगा? भरे
से माँगो। और
सिवाय
परमात्मा के
यहाँ कोई भरा नहीं
हे।
साध, सबूरी
स्वान की, लीजै
करि सुविवेक।
वै घर
बैठचा एक कै, तू
घर घर फिरहि
अनेक।।
साबुन
सुमिरण जल
सत्संग। सकल
सुकृत करि
निर्मल अंग।।
रज्जब रज
उतरै इहि रूप।
आतम अंबर होइ
अनूप।।
'साबुन
सुमिरण’, परमात्मा
का स्मरण
साबुन जैसा।
सत्संग जल
जैसा है।' इसमें
बड़ी गहरी बात
छिपी है।
सत्संग पहले
तो तुम्हारे
भीतर जो बुरा
है उससे
तुम्हें छुड़ा
देता है। फिर
तुम्हारे
भीतर जो भला
है, उससे
भी तुम्हें
छुड़ा देता है।
तुम्हारे
भीतर जो रोग
है, उससे
भी तुम्हें
छुड़ा देता है
सत्संग और फिर
जो औषधि दी थी
छुड़ाने के लिए,
उससे भी
छुड़ा देता है।
इसलिए उसको जल
कहा है।
कपड़ा
गंदा है, साबुन
घिसी। तो
साबुन कपड़े की
गंदगी तो छुड़ा
देगी, लेकिन
तब साबुन में
फँस गये। अब
साबुन से भी
छूटना होगा।
नहीं तो कपड़ा
गंदा था कि
नहीं, बराबर
हो गया। अब यह
साबुन से
छुटकारा
चाहिए। जल
दोनों काम कर
देता है। पहले
बीमारी से
छुड़ा देता है,
फिर औषधि से
छुड़ा देता है।
पहले संसार से
छुड़ा देता है,
फिर मोक्ष
की वासना से
भी छुड़ा देता
है। पहले
बुराई से, फिर
भलाई से। पहले
पाप से, फिर
पुण्य से। और
जब तुम दोनों
से छूट गये, तभी जानना
कि छूटे। नहीं
तो एक से छ्टे
और दूसरे में
फँस जाते हो।
पाप
अगर लोहे की
जंजीर है तो
पुण्य सोने की
जंजीर है, मगर
जंजीर तो
जंजीर है। पाप
अगर जेल की’ थर्ड
क्लास’ की
कोठरी है, तो
पुण्य’ फर्स्ट
क्लास’ की
होगी— बड़े.
नेताओं के लिए
सुरक्षित रखी
गयी होगी। मगर
भेद नहीं है, दोनों जेल
के भीतर हैं।
पाप में थोड़ी
असुविधा
ज्यादा है, पुण्य में
थोड़ी सुविधा
ज्यादा है, मगर दोनों
जेल के भीतर
हैं। और कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि पापी
जल्दी जाग
जाता है क्योंकि
असुविधा
जगाती है, पुण्यात्मा
सोया ही रह
जाता है, क्योंकि
सुविधा में
नींद आती है।
पापी कभी—कभी
क्षण में
पहुँच गये हैं
परमात्मा तक,
पुण्यात्मा
को बड़ी देर
लगती है।
तुमने
कोई ऐसी कहानी
सुनी है
पुण्यात्मा
के संबंध में
जैसी
वाल्मीकि के
संबंध में
सुनी, या
अंगुलिमाल के
संबंध में
सुनी? अंगुलिमाल
हत्यारा था और
एक क्षण में
बुद्ध की आँख—से—आँख
मिली कि मुक्त
हो गया।
वाल्मीकि
लुटेरे थे, हत्यारे थे,
चोर थे, नारद
से मिलन हो
गया कि बात हो
गयी। फिर मरा—मरा
जप कर—बे पढ़े—लिखे
थे, वाल्या
उनका नाम था, भील थें—राम
तो भूल ही गये,
मरा—मरा जप
कर भी मुक्त
हो गये। ऐसा
तुमने किसी
पुण्यात्मा
के संबंध में
सुना जिसने
धर्मशाला
बनवायी हो, मंदिर
बनवाया हो, प्याऊ
खुलवायी हो, अस्पताल
वनवाया हो, ऐसा तुमने
कोई कहानी ऐसे
आदमियों के
संबंध में
सुनी कि क्षण
में मुक्त हो
गये? मैंने
तो नहीं सुनी!
ऐसा होता ही
नहीं, क्योंकि
पुण्य में
आदमी सो जाता
है। पुण्य का
मजा लेने लगता
है। अब
धर्मशाला बनवा
दी, अब
करना क्या है
और? जिसने
धर्मशाला
बनवा दी, उसको
अगर बुद्ध मिल
भी जाएँ तो वह
बुद्ध को देखता
ही नहीं। उसने
धर्मशाला
बनवायी है! वह
धर्मशाला बीच
में खड़ी हो
जाती है।
बोधिधर्म
चीन गया तो
चीन के सम्राट
ने उससे पहली
बात यह कही कि
मेरा पुण्य
कितना है और
मेरा परिणाम
क्या होगा? मैंने
हजारों बुद्ध
के मंदिर
बनवाए, मैने
बहुत—सी
धर्मशालाएँ
बनवायी, मैंने
बौद्ध
भिक्षुओं के
लिए विहार
बनवाए, एक
लाख भिक्षु
राजमहल से रोज
भोजन पाते हैं
सारे चीन को
मैंने बौद्ध
धर्म में
रूपांतरित कर दिया
है, मेरा
पुण्य का फल
क्या है? बोधिधर्म
खड़ा रहा, कठोरता
से देखा उसने
वू की तरफ और
कहा—कुछ भी
नहीं; नर्क
जाओगे।
सम्राट बू तो
चौंका, क्योंकि
इसके पहले
जितने बौद्ध
भिक्षु आए थे,
सब उसका
गुणगान करते
थे। सब कहते
थे, धन्यभागी
हो आप! आपका
महापुण्य!
सातवें स्वर्ग
में आप
जन्मोगे।
अप्सराएँ
चँवर ढलेंगी।
सोने का
सिंहासन होगा।
और न—मालूम
क्या—क्या
कहानियाँ
गढ़ते होंगे!
यह बोधिधर्म
आया है भारत
से, यह कुछ
अजीब—सा आदमी
मालूम होता है।
पुण्य का कोई
फल' नहीं, उल्टा कहता
है नर्क जाओगे।
और बोधिधर्म
ने कहा—जितने
जल्दी इस
पुण्य से छूट
जाओ, उतने
अच्छे।
सद्गुरु
यही करता है।
सत्संग यही है।
सम्राट वू चूक
गया। वह तो
नाराज हो गया।
पुण्यात्मा
था!
पुण्यात्मा
की तो अकड़
होती है। मुड़ा
और राजमहल की
तरफ चला गया।
उसने जाते
वक्त
बोधिधर्म को
नमस्कार भी
नहीं किया।
बोधिधर्म ने
उसकी राजधानी
छोड़ दी। उसकी
सीमा के बाहर
निकल गया।
बोधिधर्म के
शिष्यों ने
कहा—आप यह
राजधानी
क्यों छोड़ रहे
हैं?
उन्होंने
कहा कि यहाँ
बहुत ज्यादा
पुण्य का उपद्रव
है। मैं पहाड़ी
पर रहूँगा।
और
जब सम्राट वू
मर रहा था, तब
उसे याद आयी।
तब धीरे—धीरे
उसे अनुभव आया
मरणशैया पर
पड़े हुए कि अब मेरे
पुण्य कुछ काम
नहीं आ रहे।
तब उसे अपने
भीतर की
हालतें
दिखायी पड़नी
शुरू कीं कि
मेरे पुण्य
मेरे अहंकार
के ही शृंगार
थे। मैं अकड़
रहा था पुण्य
कर—कर के। अकड़
के कारण ही
मैं बोधिधर्म से
चूक गया। मैं
देख नहीं पाया
कि यह आदमी
कितना अद्भुत
था। क्योंकि
अब खबरें आने
लगीं कि जो भी
बोधि धर्म के
पास पहुँच रहा
है, उसके
जीवन में क्रांति
घट रही है। अब
तड़फा।
बोधिधर्म खुद
ही आया था, द्वार
आए मेहमान को
विदा कर दिया।
सच में ही
मेहमान जैसा
मेहमान आया था,
उसको बिदा
कर दिया। उसका
स्वागत न कर
पाया मैं।
बहुत कष्ट में
सम्राट वू मरा।
मरते वक्त
उसने खबर भेजी
थी—एक बार और आ
जाओ! लेकिन जब
तक खबर पहुँची,
बोधिधर्म
तो छोड़ चुका
था, भारत
के लिए वापिस
लौटने की
यात्रा पर
निकल गया था।
लेकिन
आश्चर्य की
बात है कि
बोधिधर्म
संदेश छोड़ गया
था वू के लिए।
संदेश यही था
कि अगर मरते
वक्त तक भी
तुम पुण्य —से
मुक्त हो जाओ
तो पर्याप्त
है। पुण्य का
एक ही उपयोग
है कि पाप से
मुक्त करा दे।
लेकिन फिर
पुण्य से कौन
मुक्त कराएगा?
वही सत्संग
में घटता है।
सद्गुरु वही
है जो पुण्य
से भी मुक्त
करा दे। नहीं
तो बीमारियाँ
छूट जाती हैं
और लोग दवाइयों
की बोतलें
छाती से लगाये
धूमने लगते
हैं। सब पुण्य
दवाइयों से
ज्यादा नहीं
हैं। लोग
विधियाँ पकड़
लेते हैं। फिर
विधियाँ नहीं
छोड़ते।
इसलिए
यह वचन प्यारा
है—'
साबुन
सुमिरण’। राम
का स्मरण, राम
नाम का स्मरण,
राम जप, यह
साबुन है।’ जल
सत्संग’। इसका
मतलब यह हुआ
कि यह स्मरण
भी एक दिन जाना
चाहिए।
सद्गुरु के
साथ में यह
स्मरण भी चला
जाएगा। यह राम—राम
ही जपते रहे, तो अटक
जाओगे। इससे
यात्रा शुरू
होती है, अंत
नहीं होता।
अंत में तो
अजपा काम आता
है। सब जाप से
मुक्त हो जाना
चाहिए। साबुन
मैल छुड़ा देगी,
जल मैल को
भी छुड़ा देगा
और साबुन को
भी छुड़ा देगा।
सकल सुकृत
करि निर्मल
अंग।।
सत्संग
में नहा कर
सर्वांग
स्वच्छ हो
जाता है।
रज्जब रज
उतरै इहि रूप।
ऐसे
ही मिट्टी
उतरती है। ऐसे
ही धूल—धवाँस
उतरती है। और
अभी तुम
मिंट्टी के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं हो।
अभी तुम
मिट्टी ही हो।
अभी तुमने देह
को ही अपना सब
कुछ मान रखा
है। सतसंग का
अर्थ है, जहाँ
तुम्हें
स्मरण आए कि
तुम देह नहीं
हो। जहाँ यह
मिट्टी से
तुम्हारा
छुटकारा हो।
यह मिट्टी तो
यहीं की है और
यहीं पडी रह
जाएगी। इस
मिट्टी के
भीतर कोई छिपा
है, कुछ
अदृश्य, उससे
पहचान कर लो, उससे संबंध
जोड़ लो।
आतम अंबर
होइ अनूप।।
सत्संग
में ही आत्मा
का वस्त्र
स्वच्छ होकर
दिखायी पड़ता
है। सारी
मिट्टी छूट जाती
है। देह छूट
जाती है, देह
की आसक्ति छूट
जाती है, देह
से संबंध छूट
जाता है, असंग
आत्मा का
अनुभव होता है।
और जहाँ
तुम्हें अपनी
असंग चेतना का
अनु— भव हो जाए,
जहाँ
तुम्हें यह
याद आ जाए कि
मैं चैतन्य
हूँ, अमृत
हूँ, सच्चिदानंद
हूँ, वही
मंदिर, वही
तीर्थ। उससे
अन्यथा तुमने
जो मंदिर और
तीर्थ बना रखे
हैं, सब
उधार, सब
बासे।
.......हिंदू
पावेगा वही, वो ही
मूसलमान।
इसलिए
रज्जब कहते
हैं,
इस अनुभूति
का कोई संबंध
हिंदू और
मुसलमान से
नहीं है। यह
अनुभूति तो एक
है।
हिंदू
पायेगा वही, वो
ही मूसलमान।
रज्जब
किणका रहम का, जिसकूँ
दे रहमान।।
जिसके
ऊपर उसकी कृपा
हो जाएगी, वही
पा लेगा। और
कृपा उस पर हो
जाएगी जो
रोएगा और
पुकारेगा।
शैख तेरे
खुदा की रहमत
को
हर
गुनाहगार से मुहब्बत
है
इस कदर मै
से मुझको
प्यार नहीं
जितनी
मैख्वार से
मुहब्बत है
दोस्त भी
हैं अजीज
दुश्मन भी
गुल' तो
गुल खार से
मुहब्बत है
काँटों
से भी प्रेम
है उसे। बुरों
से भी प्रेम
है उसे। यह मत
सोचना कि
परमात्मा
सिर्फ साधुओं
के लिए है। यह
मत सोचना कि
परमात्मा
सिर्फ
सज्जनों के
लिए है।
परमात्मा
सबके लिए है।
यह मत सोचना
कि हिंदुओं के
लिए है, या
मुसलमानों के
लिए है, परमात्मा
सबके लिए है।
यह भी मत
सोचना कि
सिर्फ
आदमियों के
लिए है, पशु—पक्षियों
के लिए, पौधों
के लिए, पहाड़ों
के लिए, परमात्मा
सबके लिए है।
जहाँ से भी
पुकार उठती है,
उसी तरफ
उसकी ऊर्जा
दौड़ जाती है। बुलाओ
भर, हृदय
से बुलाओ और
तुम खाली न
रहोगे।
रज्जब
हिंदू तुरक
तजि, सुमिरहु
सिरजनहार।
इसलिए
रज्जब कहते
हैं,
छोड़ो हिंदू—मुसलमान
होना, जिसने
सबको रचा है
उसकी याद करो;
जो सबका
स्रष्टा है
उसे गुनगुनाओ।
पखापखी
सूँ प्रीति करि, कौन
पहुँचा पार।।
अब
व्यर्थ के
पक्षपातों
में मत पड़ो, पखापखी
के, यह
पक्ष ठीक, कि
वह पक्ष ठीक।
सिद्धांतों
का सवाल नहीं
है परमात्मा
से, प्रार्थना
का सवाल है।
प्रार्थना से
सिद्धांत का
क्या लेना—देना?
आंसुओं का
सवाल है।
आँसुओं का
सिद्धांत से
क्या लेना—देना?
पुकार का
सवाल है, पुकार
का क्या हिंदू—मुसलमान
से लेना—देना?
पखापखी
सूँ प्रीति
करि, कौन
पहुँचा पार।।
कोई
पक्षपातों
में पड़ कर पार
नहीं पहुँचा
है।
पक्षपातों
में पड़े लोग
पक्षपातों
में ही q_ब गये
हैं। तुम सारे
पक्षपात छोड़ो,
तुम
निष्पक्ष हो
जाओ।
निष्पक्ष जो
है, वही
निर्मल है।
निष्पक्ष जो
है, जिसकी
कोई धारणा
नहीं, जिसकी
कोई आग्रह की
वृत्ति नहीं,
जो यह नहीं
कहता कि मैं
हिंदू, कि
मुसलमान, कि
ईसाई, कि
जैन, कि
बौद्ध, जो
कहता है कि बस
मैं उसका
बनाया हुआ, वह मेरा
बनाने वाला, जो मंदिर
में भी झुक
जाता है, मस्जिद
में भी झुक
जाता है, जो
कुरान की आयत
को भी गुनगुना
त्रेता है
आनंद से और जो
गीता को भी
गुनगुना लेता
है आनंद से, जिसने कोई
भेद नहीं रखे
हैं, जिसने
सब भेद तोड़
दिये हैं, जिसने
सब सीमाएँ अलग
कर दी हैं, जो
असीम के साथ
संबंध जोड़ रहा
है।
ऐसे
ही असीम को
पुकारने का
यहाँ आयोजन हो
रहा है! यहाँ
हिंदू हैं, मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं, जैन
हैं, बौद्ध
हैं, पारसी
हैं, सिक्ख
हैं, यहूदी
हैं, शायद
ही दुनिया का
कोई धर्म हो
जिसका
प्रतिनिधि
यहाँ नहीं है,
यहाँ एक
मिलन हो रहा
है, एक
संगम हो रहा
है। यहाँ
पक्षपात से
मुक्त होने का
उपाय चल रहा
है। कठिन होता
है मुक्त होना,
क्योंकि
बचपन से ही हम
कस दिये गये
हैं पक्षपात
में। लेकिन जो
पक्षपात से
मुक्त नहीं
होता है, वह
पार नहीं होता
है, यह याद
रखना। हिंदू
की तरह कभी
कोई परमात्मा
को नहीं जाना है
और न मुसलमान
की तरह कोई परमात्मा
को जाना है।
जाना तो उनने
हैं जिनने यह
जाना कि हम
भीतर शून्य
हैं, खाली
हैं। शून्य की
क्या पहचान? जो खाली घड़े
की तरह हैं, परमात्मा के
जल से भर गये
हैं। जो भरे
ही हैं पहले
से, कुरान
से, बाइबिल
से, गीता
से, वे
खाली रह जाते
हैं। यह
विरोधाभास
याद रखना, जो
भरे हैं पहले
से, वे
खाली रह जाते
हैं, जो
खाली हैं, वही
भर पाते हैं।
वर्षा होती है
पहाड़ पर, पहाड़
खाली रह जाते
हैं, झीलें
भर जाती हैं।
क्योंकि
झीलें खाली
हैं और पहाड़
अकड़े, भरे
हैं।
हिंदू
तुरक दून्यूं
जलबूँदा।
कासूं कहिये
बामण सूदा।।
दोनों
जल बूँद हैं, पानी
के बबूले। रज
और वीर्य से
बने हुए पानी
के बबूले ही
तो होंगे। रज
और वीर्य पानी
के ही बबूले
हैं।
हिंदू
तुरक दून्यूँ
जलबूँदा।
कासूँ कहिये
बामण सूदा।।
और
किसको ब्राह्मण
कहो,
किसको
शूद्र कहो? सभी समान
रूप से बने
हैं। कोई उपाय
है, किसी
का खून जाँच
करके बताया जा
सकता है कि यह
ब्राह्मण का
खून है कि
शूद्र का? कभी
मरघट चले जाना,
वहाँ
हड्डियाँ
इकट्ठी कर
लेना और फिर
तय करना कि
कौन—सी
ब्राह्मण की
है और कौन—सी
शूद्र की? तुम
पता न लगा पाओगे।
हड्डियाँ तो
बस हड्डियाँ
हैं, खून
तो बस खून है, देह तो बस
देह है। यहाँ
कौन ब्राह्मण,
कौन शूद्र?
कहाँ की
छोटी बातों
में लोग उलझ
गये हैं! और छोटी
में उलझ गये
हैं इसलिए
विराट को गँवा
दिया है।
व्यर्थ में
उलझ गये हैं, इसलिए
सार्थक से
वंचित हैं।
रज्जब
समता ज्ञान
बिचारा।
रज्जब
कहते हैं, जो
जानते हैं
उन्होंने
समता का भाव
सिखाया है। जो
जानते हैं, जिन्होंने
पहचाना है, उन्होंने
सबको समान
देखा है।
पंचतत्त
का सकल पसारा।।
यह
तो पाँच
तत्वों का खेल
चल रहा है।
इसमें कौन
हिंदू, कौन
मुसलमान, कौन
ब्राह्मण, कौन
शूद्र?
नारायण
अरु नगर के, रज्जब.
पंथ अनेक।
जैसे
एक ही नगर के
आने के बहुत
से रास्ते
होते हैं। ऐसे
ही नारायण के
नगर के भी
बहुत से
रास्ते हैं।
नारायण
अरु नगर के, रज्जब
पथ अनेक।
कोई आवै
कहीं दिसि, आगे
अस्थल एक।।
किसी
दिशा से आओ, किसी
मार्ग से आओ, किसी वाहन
पर चढ़ कर आओ—
घोड़े पर, रथ
पर, पैदल, स्वर्ण के
रथ पर, कि
बैलगाड़ी पर—कैसे
आओ, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। किस
वाहन पर, किस
दिशा से, किन
वस्त्रों में,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन अंतिम
मंजिल एक है।
उस एक को ही
ध्यान में रखो।
शेष सब उलझाव
में मत पड़ना, अन्यथा
रास्ते पर
उलझाने वाली
चीज़ें बहुत हैं।
सौ चलते हैं, एकाध पहुँच
पाता है, क्योंकि
निन्न्यानबे
रास्ते में
उलझ जाते हैं।
'
मुल्ला मन
बिसमिल करो’।
मुल्ला
अर्थात पंडित।’
मुल्ला मन
बिसमिल करो,' मन को विलीन
करो, मन को
मारो, मन
को जाने दो।
पंडित तो मन
को भरता है, मजबूत करता
है, शास्त्रों
से सजाता है, मन को रोज—रोज
मजबूत करता
चला जाता है।’ मुल्ला
मन बिसमिल करो’,
जाने दो मन
को, यही गन
तो उपद्रव है।
और यही मन
हिंदू बनाए है,
यही मन
मुसलमान बनाए
है। यही मन
कहता है कि
मैं ब्राह्मण,
तुम शूद्र।
मुल्ला मन
बिसमिल करौ, तजौ
स्वाद का घाट।
मन
को जाने दो।
मन याने
संस्कार समाज
के द्वारा
दिये गये।
उधार संस्कार।
तुम पैदा हुए
थे,
तुम्हें
कुछ पता न था
तुम कौन हो।
ब्राह्मण घर
में पैदा हो
गये, सिखा
दिया गया
ब्राह्मण हो।
अगर ब्राह्मण
घर में पैदा
हुए थे तो भी
तुम्हें
शूद्र के घर
में बड़ा किया
गया होता तो
तुम समझते कि
तुम शूद्र हो।
यह तो मन का संस्कार
मात्र है। यह
तुम नहीं हो।
मुल्ला मन
बिसमिल करो, तजौ
स्वाद का घाट।
दो
चीजें छोड़
देने जैसी हैं।
एक तो
संस्कारों का
जो जाल हमारे
भीतर है, वह
छोड़ देने जैसा
है। और बाहर? इंद्रियाँ
हमें बाहर लिए
जा रही हैं, हमेशा बाहर
लिए जा रही
हैं, दौड़ा
रही हैं बाहर
और भीतर मालिक
बैठा है, और
हम बाहर दौड़े
चले जा रहे
हैं; आँख
कहती है रूप
देखो, और
रूप का बनाने
वाला भीतर
बैठा है, कान
कहते हैं
संगीत सुनो, और संगीतों
का संगीत भीतर
छिपा पड़ा है, हाथ कहते
हैं सुंदर
चीजों को
स्पर्श करो, और जिसके
स्पर्श से सदा
के लिए तृप्ति
हुाए जाएगी, जिसके दरस—परस
से सदा के लिए
तृप्ति हो
जाएगी, वह
भीतर खड़ा राह
देख रहा है कि
कब आओगे, सारी
इंद्रियों के
स्वाद बाहर ले
जा रहे हैं और
तुम उन्हीं का
पीछा कर रहे
हो।
राबिया
अपने झोपड़े
में बैठी थी।
उसके घर एक
फकीर हसन ठहरा
हुआ था। सुबह
हुई,
हसन बाहर आया,
सूरज निकला
था, पक्षी
गीत गाते थे, सुंदर सुबह
थी, उसने
जोर से आवाज
दी कि राबिया,
तू भीतर
क्या करती है?
बाहर आ, परमात्मा
ने बड़ा सुंदर
सबेरा निकाला
है। बड़ी सुंदर
सुबह हुई है।
बड़ा प्यारा
सूरज ऊन रहा
है, बाहर आ!
राबिया ने जो
उत्तर दिया, हसन का सिर
झुक गया। राबिया
ने कहा—हसन, तू बाहर का
सौंदर्य देख
रहा है—सुबह
का, सूरज
का, पक्षियों
का—मै भीतर
उसे देख रही
हूँ जिसके हाथ
से यह सूरज बना,
जिसने यह
सौंदर्य रँगा,
जिस चितेरे
ने यह रंग
आकाश पर फैलाए
और जिस चितेरे
ने यह रूप
बनाया। तूही
भीतर आ, हसन!
बाहर तो बहुत
दिन हो गये
सूरज को ऊगते—
डूबते देख कर।
अब ऐसे सूरज
कौ देख जो न:
कभी ऊगता है, न कभी डूबता
है। तू भीतर आ!
बनाने वाले
मालिक को देख!
इंद्रियाँ
बाहर ले जाती
हैं। इसलिए दो
चीज़ें करने
जैसी हैं। एक
तो मन संस्कार
से मुक्त हो
जाए और
इंद्रियों की
बाहर की दौड़
धीरे—धीरे
शांत हो। आंख
बद हो, कान बंद
हों, हाथ
शिथिल हो जाएँ।
मुल्ला मन
बिसमिल करो, तजौ
स्वाद का घाट।
सब सूरत
सुबहान की, गाफिल
गला न काट।।
और
सभी रंग—रूप
उसीके हैं। और
धर्म के नाम
पर खूब गला
काटे जाते रहे।
हिंदू ने
मुसलमान काटा, मुसलमान
ने हिंदू काटे;
ईसाइयों ने
मुसलमान काटे,
मुसलमानों
ने ईसाई काटे,
यह काट चलती
रही—धर्म के
नाम पर! यह
चमत्कार है
जगत का सबसे
बड़ा। उस परमात्मा
के नाम पर
कितना खून बहा
है, और
सबके भीतर वही
था। हम उसीको
काटते रहे हैं।
हम अब भी
उसीको काट रहे
हैं।
सब सूरत
सुबहान की, गाफिल
गला न काट।।
एक गये नट
नाचिकै, एक
कछे अब आय।
यह
नाटक उसीका है।
एक गया खेल
खेल कर और
दूसरा तैयार
होकर आ गया।
नाटक जारी है।
मगर नाटक के
पीछे छिपा हुआ
एक ही व्यक्ति
है। एक ही का
यह सारा खेल
है।
एक गये नट
नाचिकै, एक
कछे अब आय।।
वही
आता है, वही
जाता है, पहचानो
उसे। वस्त्र
में मत उलझ
जाओ। कभी— कभी
तो ऐसा हो
जाता है, एक
ही अभिनेता कई
पार्ट अदा
करता है और
तुम पहचान
नहीं पाते, क्योंकि कभी
वह दाढ़ी लगाकर
आता है, कभी
पगड़ी बाँधकर
आता है, कभी
सिर घुटा आता
है, कभी इस
रंग. में आता
है, कभी उस
रंग में आता
है—एक ही
अभिनेता कभी
बहुत से पार्ट
करता है और
तुम पहचान
नहीं पाते।
तुम वस्त्रों
में ही अटक
जाते हो। एक
ही है यहाँ
खेल का खेलने
वाला।
तुम्हारे
भीतर, मेरे
भीतर, सबके
भीतर। जो आकर
जा चुके हैं, उनके भीतर
भी वही था। जो
आए हैं, उनके
भीतर वही है, जो आने वाले
हैं, उनके
भीतर वही है।
यह जगत एक
नाटक है, एक
रंगमंच।
एक गये नट
नाचिकै, एक
कछे अब आय।
जन रज्जब
इक आइसी, बाजी
रची खुदाय।।
मगर
वस्तुत: वह एक
ही आता—जाता
है।’ जन रज्जब
इक आइसी’, वह एक
ही आता है,’ बाजी
रची खुदाय’, परमात्मा का
यह खेल, यह
लीला।
लीला
में छिपे
लीलाधर को
पहचानो। रूप
में व्याप्त
अरूप को
पहचानो। धीरे—
धीरे उससे
संबंध जोड़ो जो
अंतरंग है, वाह्य
में मत उलझे
रह जाओ। और
पुकारो। और
प्रार्थना
करो। क्षौर
रोओ। और नाचो।
और ध्यान रखो
सदा, तुम्हारे
किये कुछ भी न
हो सकेगा।
जे तुम राम
बुलायल्यौ, तो
रज्जब मिलसी
आय।
जथा पवन
परसगि ते, गुडी
गगन कूँ जाय।।
यह
तुम्हारी
पतंग आकाश जा
सकती है। यह
आकाश
तुम्हारा है।
उड़ियो पंख
पसार। फेलाओं
पंख,
उड़ जाओ। मगर
उसकी हवा के
सहारे के बिना
यह न हो सकेगा।
और उसकी हवा
अदृश्य है। और
उसकी हवा को
अगर पहचानना
हो, तो
जैसे पतन अपने
को हवा के ऊपर
छोड़ देती है, ऐसे ही तुम
भी समर्पित हो
जाओ।
रामकृष्ण
कहते थे कि
नदी पार करने
के दो ढंग हैं।
एक तो है
पतवार लो हाथ
में, नौका
खेओ। यह
ज्ञानी का, ध्यानी का
ढंग है। और एक,
पतवार लेने
की कोई जरूरत
नहीं, नाव
के पाल खोल दो,
उसकी हवाएँ
तुम्हें उस
पार ले जाएँगी।
फिर पतवार भी
नहीं चलाना
पड़ता। तो
रामकृष्ण
कहते थे, जब
उसकी हवाएँ
तुम्हें ने
जाने को तैयार
हैं तो तुम
नाहक पतवारें
उठाकर मेहनत
कर रहे हो।
परमात्मा
तुम्हें ले
जाने को तत्पर
है,
तुम्हारी
नियति तक ले
जाने को तत्पर
है, तुमने
ही नहीं छोड़ा
है, तुमने
समर्पण नहीं
किया है।
भक्ति
का सार—निचोड़
है एक शब्द—समर्पण।
समर्पण वहाँ
पहुँचा देता
है जहाँ
साधनाएँ नहीं
पहुँचा पातीं।
या पहुँचा भी
पाती हैं तो
बड़े लंबे
चक्कर से पहुँचा
पाती हैं।
साधना ऐसै है
जैसे कोई अपने
ही हाथ को
घुमा—फिरा कर
कान को पकड़े।
समर्पण सीधा—सीधा
है। रज्जब ने
जो कहा है, ये
किसी विचारक
के द्वारा
दिये गय सूत्र
नहीं हैं, एक
अनुभवी, एक
भक्त की भाषा
है। ये कोई
शास्त्र नहीं,
सिद्धांत
नहीं, ये
तो एक प्रेमी
के उद्गार हैं।
तुम भी इन्हें
इसी भाँति
लेना। इनके
साथ विवाद में
मत पड़ जाना।
रज्जब कोई
विवादी नहीं हैं,
पखापखी की
बात ही नहीं
है, रज्जब
किसीके खिलाफ
कुछ नहीं कह
रहे हैं, न
किसीके पक्ष
में कुछ कह
रहे हैं, रज्जब
तो सिर्फ उनके
लिए कुछ इशारे
दे रहे हैं जो
सच में ही
परमात्मा को
पाना चाहते है।
और
फिर तुम्हारी
बात से ही अंत
करूँ:, बैठे मत
रह जाना यह
सोचकर कि संसार
में बहुत दुख
है, इसलिए
मैं कैसे
भक्ति करूँ, कैसे
प्रार्थना
करूँ? नहीं
तो बैठे ही रह
जाओगे। दुख
चलता रहेगा, दुख चलता
रहा है। तुम
चाहो तो दुख
से मुक्त हो
सकते हो।
व्यक्तिगत
रूप से तुम
चाहो तो इस
दुख के पार हो
सकते हो। यह
कारागृह तो
चलता रहेगा
ऐसे ही, लेकिन
कैदी मुक्त हो
सकते हैं। यह
कारागृह नहीं
मिटेगा। और
मजा यह है कि
अगर तुम मुक्त
हो जाओ, तो
तुम दूसरों को
मुक्ति का
कारण बन सकते
हो। अगर
तुम्हारे
भीतर
प्रार्थना का
फल लगे, तो
दूसरे भी थोड़ा
स्वाद ले सकें।
तुम्हारे
भीतर अगर दीया
जले, तो
दूसरों तक भी
उसकी रोशनी
पहुँच सकती है।
तुम
प्रार्थना
करो,
तुम भजन—भाव
में भीगो, शायद
इसी माध्यम से
तुम दूसरों के
जीवन में भी
सुख की थोड़ी—सी
बूँद लाने में
सहयोगी हो सको।
इसके
अतिरिक्त और
कोई दूसरे की
सेवा करने का उपाय
नहीं। तुम
सच्चिदानंद
को पा लो, तो
तुम सेवा भी
कर पाओगे।
सेवा की नहीं
जाती, जिसके
भीतर
परमात्मा सघन
हो जाता है, उससे होने
लगती है।
और
मैं तो एक ही
क्रांति को
जानता हूं—वह
अंतर्क्राति
है। शेष सब
क्रांतियाँ
झूठी हैं।
भुलावे में पत
पड़ना, अन्यथा
तुम इस जीवन
को भी गँवाओगे।
बहुत तुमने
पहले गँवाए
हैं। अब जरा
होश सँभालो।
अब जरा सावचेत
हो जाओ। इस जीवन
को मत गँवा
देना। यह
बहुमूल्य
अवसर है। और
एक बार गेंवाओ
तो कब दुबारा
ठीक—ठीक ऐसा
अवसर मिलेगा,
कहना कठिन
है।
जागो और
पूउकारो उसे, बचने
के बहाने न
खोजों।
आज
इतना ही।
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