जीवन की किरण उतरी
जीवन संघर्ष के वो दिन जीवन में कुछ ऐसे आयाम दे गये जिन्होंने मेरे सम्पूर्ण जीवनी को ही बदल दिया। बिना उन में गुजरें उन्हें वैसे कभी नहीं जान सकता था। उन्हीं दिनों मैंने जाना मनुष्य की उपलब्धि को, उसके प्रेम को, उसकी बौद्धिकता को, उसका स्नेह को, उसके अपने पन को और लगाव को। वह जो सब घटा मेरे अंतस के गहरे तक उतर गया। इस मनुष्य में वो सामर्थ्य है जो अपने संगी साथी के सहयोग देने का। हम दूसरे प्राणी इस विषय में सोच भी नहीं सकते थे। वो पहली रात मेरे तन मन पर बहुत भारी गुजरी थी। मेरे पूरे शरीर में इतनी बेचैनी थी की मैं एक जगह बैठ ही नहीं सकता था। लगता था यहां से उठ कर कही दूर चला जाऊं। कितनी बार उठ—उठ कर मैं कमरे से बहार चला गया। डा0 ने तो मुझे देख कर ही कह दिया था कोई उम्मीद नहीं है। फिर भी मनुष्य उम्मीद नहीं छोड़ता। डा0 ने अपना जो काम करना था वो कर दिया। शायद मेरे शरीर में पानी की कमी हो गई थी कुछ एंटीबायोटिक दवा साथ दे दी थी। वो ही मात्र एक कारण नहीं था, उसके पीछे क्या था....उस दिन मैंने ऐसा कुछ नहीं खाया था.....फिर ये सब क्यों और कैसे हो गया।
ज्यादा उलटी और दस्त के कारण मेरे शरीर का पानी निकल गया था। क्योंकि उस समय तक तो मेरा मुंह तक खुलना ही बंद हो गया था। प्रकृति अपना काम पक्का करती है। मरने से पहले आपके मुंह के कई हिस्सों को बंद कर देगी। आपके जबड़े सख्त हो जायेगे। जिससे आप मरने के कुछ दिन पहले ठोस भोजन मुंह में डाल कर चबा नहीं सकते। क्योंकि वह तंत्र एक दम से बेजान हो जायेगा। बस आप अपने मुंह को सीधा खोल सकते है। जिससे की तरल पर्दाथ ही आपके पेट में जा सके। उसे आपके शरीर को मिटना है, अब उसमें ठोस जाना बंद कर देना होगा। मरने के दो या तीन दिन तक आपके मुख में तरल भी जाना बंद हो जायेगा। उस समय पूरा मुख अकड़ कर बंद हो जायेगा। जबड़ा एक दम से जबरदस्ती बंद हो जायेगा उनके बीच से केवल आप पानी डाल सकते है।
पानी को शरीर आखिरी वक्त तक गृहण करता रहता है। मरने के कुछ क्षण तक भी आप मरीज को पानी पिला सकते हो। जूस या कोई दूसरा तरल पर्दाथ नहीं। पर मेरा तो मुख ही सुख गया था। जो डा0 ने दवाई दी थी वह भी पापा जी बड़े जतन और जबरदस्ती से किसी ड्रॉपर में डाल कर मुझे पीला रहे थे। आधी अधूरी ही अंदर जा पाती थी। मुख की अकड़न के कारण मैं उसे घूमा नहीं सकता था। में जानता था पापा जी जो कर रहे थे, ये सब मेरी भलाई के लिए ही था। पर मैं क्या करूं ये सब जो हो रहा था मेरा इस पर कोई जोर नहीं है। मेरे पूरे शरीर में एक छटपटाहट एक बेचैनी फेल गई थी। और मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। ग्लूकोज चढ़ने के बाद मेरे शरीर में कुछ चेन जरूर मिला था। थोड़ी देर की लिए ठंडक महसूस हुई। और उसके बाद मुझे नींद आने लगी थी। करीब दो घंटे तक मैं खुब सोया। तीसरे दिन फिर मुझे डा0 के यहां जब ले जाया गया तब तक भी मेरी हालत वैसी की वैसी ही थी। बस मेरे प्राण नहीं निकले थे।
साँसे चल रही थी। डा0 को भी बड़ा अचरज हुआ की तीन दिन से यह जीवन और मृत्यु से कैसे संघर्ष कर रहा था। इस बात का उसे यकीन नहीं हो रहा था। परंतु अंदर से बह बहुत खुश था। उनको शायद नहीं पता नहीं होगा की मुझे मौत भी पापा जी के संग से नहीं छीन पा रही थी। पापा जी की सेवा और प्रेम मुझे मरने नहीं दे रहा था। वो घंटों मेरे शरीर को अपनी गोद में ले कर मुझे सहलाते रहते। शायद उनके संग और सेवा का ही फल था की मैं नहीं मरा।
चौथे दिन श्याम को अचानक मैं देख रहा हूं मेरा शरीर उस दवाई को अपने अंदर सहजता से जाने दे रहा है। शायद मौत भी पापा जी के प्रेम के आगे हार गयी। और मुझे अपने संग नहीं ले जा सकी। पापा जी दवाई दे रहे है मैं उन्हें डूबती आंखों से देख रहा हूं, जैसे ही मैंने दवाई को चाटा, पापा जी की आंखों में प्रेम और करूणा आंसू बन बहने लगे। परंतु उस समय भी मैं ज्यादा होश में नहीं था। एक नशा और एक मादकता ने मुझे घेर रखा था। लगता था बस आँख बंद कर के सो जाऊं। एक सुखद गहरी नींद। कोई मुझे छेड़े ना। दीदी ग्लूकोज का पानी मेरे मुंह में डाले जा रहा थी एक इंजेक्शन से। मैं पानी पीने के साथ दीदी को खुली आंखों से निहार रहा था। सच पूछो तो सालों बाद भी उसका वो मीठा खट्टा स्वाद आज भी मेरे मुख में फैल कर पानी ले आता है।
इस सब से दीदी को मेरे जीने की कुछ उम्मीद दिखलाई दी। क्योंकि डा0 ने तो पहले कह दिया था कि अभी कोई उम्मीद नहीं है। शायद इसलिए कि मेरा मुंह अकड़ कर एक दम से बंद हो गया था। आंखें भी वह बहुत गहरे में चली गई थी। पर इतना भर था कि मेरी श्वास चल रही थी। पर ग्लूकोज का पानी मेरे मुख में अंदर जाने से एक उम्मीद की किरण जगी। कुछ घंटों बाद पापा जी मेरे लिए आइस क्रीम लेकर आये। उन्होंने जबरदस्ती मुख खोल कर मेरे मुख में चम्मच से उसे डाली। मैं खाना नहीं चाहता था। कुछ तो बहार गिर गई। कुछ जो मुख में रह गई। उस के कारण मैंने धीरे—धीरे अपने मुंह को हिलाया। अभी भी मुंह काफी अकड़ा हुआ था। पर अंदर का हिस्सा कुछ मुलायम हो गया था। मैंने जीभ से आस पास लगी आइसक्रीम को चाटनें की कोशिश की। शायद यह चार पाँच दिन बाद मेरे शरीर ने कोई खाद्य पदार्थ ग्रहण किया था। उसके बाद में थोड़ा चला। शरीर एक दम सुख कर पिंजर हो गया था।
चलने से मुझे चक्कर आ रहे थे। मैं अपने आप को किसी ऊँचाई पर चलता हुआ महसूस कर रहा था। जैसे की अभी गिरा और तभी गिरा। सारी चीजें हिलती डुलती नजर आ रहा थी। पर अंदर से लगता था दो कदम चलू। चार पाँच कदम के बाद में रूक कर इधर उधर देखने लगा। एक दो गहरी सांस ली। पापा जी ने मेरे सर और पूरे शरीर पर प्रेम से हाथ फेरा। मेरे अंदर एक नई उर्जा का संचार हुआ और मैं दस—पंद्रह कदम चल कर वापस आकर बिस्तरे में लेटे गया। इतना चलने पर ही मैं थक गया। फिर मैंने अपनी आंखें बंद कर ली। कुछ देर इस तरह आँख बंद किए लेटे रहना अच्छा लग रहा था। लेटे रहने और दवाई के कारण मेरे शरीर में कुछ जीवंतता सी महसूस हुई।
कुछ देर बाद जब मैंने आंखें खोली तो मेरी पेट की आंतें कुछ काम करने लगी। इतने दिन से तो पेट का कुछ पता ही नहीं था। अब लगा शरीर ने काम करना शुरू कर दिया। दो—तीन मिनट में इधर उधर देखता रहा। कि मैं कहां पर हूं। सामने ग्लूकोज का पानी भरा था मुझे अंदर से प्यास लगी थी। मैं उठ और उठ कर अपने आप ही उस कटोरे से पानी पीने लग गया। मैं देख रहा था कैसे पानी मेरे गले से होकर पेट तक जा रहा था। इससे पहले ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था। कितनी ही बार मैंने पानी पिया था। परंतु इस तरह से पानी को अपने शरीर के अंदर जाते हुए पहली बार महसूस कर रहा था।
मैंने जी भर कर पानी पिया। शायद मुझे लगा परंतु अधिक से अधिक चार पाँच बार जीभ चला कर। उस का स्वाद कुछ अकबका सा था। पानी पीने के बाद में फिर बहार चला गया। लगा सू—सू कर लूं। कुछ ही बुंदे सू...सू की टपकी शायद सारे शरीर का पानी उलटी और दस्त के सहारे बह गया था। फिर मैं वापस आकर बिस्तरे पर बैठ गया। कुछ देर में पाप जी वो आइसक्रीम का कप ले कर आये थे। दीदी उसे हाथ में ले कर मुझे चटाने लगे। मुझे वह ठंडी और मीठी बहुत अच्छी लग रही थी। मैं धीरे—धीरे उसे चाट रहा था। दीदी के चेहरे पर उतरती तृप्ति को देख रहा था। वह इस तरह से मुझे खाता देख कर उनकी आँखों में एक खास तरह की खुशी फैली हुई थी। जिसे हम पशु कभी महसूस कर सकते थे। शायद हम बंधे है किसी पास में। और मनुष्य मुक्त हो गया। हम केवल अपने पेट के लिए जीते है। और मनुष्य प्रेम और तृप्ति के सहारे उसके पार चला गया है। उसके प्रेम ने उसको पाशविकता के पार दूसरे किनारे खड़ा कर दिया है।
अगले दिन फिर मुझे डा0 के यहां ले जाया गया। और जब मुझे सुई लगाई गई तो में बहुत डर गया मैं लगा छटपटाने। आज मुझे पहली बार वहां पर लेटना अच्छा नहीं लग रहा था। लग रहा था कि किसी कैद में फंस गया हूं। काफी देर तक मुझे जबरदस्ती वहां पर लिटाए रखा गया। मैंने बार—बार अपने को छुड़ाने की नाकाम कोशिश की। पर मेरा मुंह एक पटी से बाँध रखा था और मुझे चारों और से पकड़ रखा उस समय मुझे बहुत भय लग रहा था। अब मेरी समझ आया की न जाने ये लोग मेरा क्या करने वाले है। कोई प्राणी कभी किसी पर भरोसा नहीं करता। जरा सी शरीर में ताकत आने से वह आपने असली रूप में आ जाता है। न जानें क्यों वो खुद को सबसे ज्यादा समझदार समझता है। काफी देर तक उस पर लेटे रहने से मैं बेचैन हो गया था। जब छोड़ा गया तो चेन की सांस ली और जब मेरा मुख से पट्टी खोल दि गई तब मैं सब को भौंकने लगा। की तुम ने मुझे क्यों बाँध दिया, तुम सब बेकार हो...मुझे सता रहे हो....इत्यादि—इत्यादि।
मेरी इस हरकत पर सब लोग बड़ी जोर से हंसने लगे। तब मुझे और भी अजीब लगा की मैं तो गुस्सा कर रहा हूं और ये सब हंस रहे थे। तब पापा जी ने वहां से एक बिस्कुट का बड़ा डिब्बा उठा लिया। और मेरे लिए एक लाल रंग का बजने वाला खिलौना भी। दीदी मुझे दिखा कर कह रही थी पोनी इसे खिलौने से खेलेगा तो मजा आयेगा। मैंने अपनी पूंछ हिला कर हां भर दी। वह खिलोना मेरे पास करीब दो साल तक रहा। मैं बहुत बड़ा होकर भी उस खिलौने से खेलता था। उसे कोई भी उठा लेता तो मैं परेशान हो जाता था। सब परिवार के लोग मेरी इस हरकत पर हंसते की बूढ़ा लोग हो गया परंतु अब भी खिलौनों से खेलता है। एक तो वो ऑक्टोपस और एक जिराफ़ रबर के खिलौने मुझे अंत तक बहुत प्यारे लगते थे। मैं बड़ा होने के बाद भी जब उन खिलौनों से खलता तो मुझे अपने बचपन की याद ही नहीं आती में वहां खुद वहां चला ही जाता था। मेरा बचपन मेरे अंदर से निकल कर बहार आ कर मेरे साथ खेलने लग जाता था।
इस बीच मुझे नींद बहुत आती थी। मैं थोड़ी देर खेलता और थक कर सो जाता। शायद ये शरीर की अपनी प्रकिया है। वो नींद में अपना इलाज खुद ही करता है। और नींद में अपना विकास करता है। पर मुझे ठीक होने मैं ज्यादा दिन नहीं लगे। दस—बारह दिन में काफी ठीक हो गया। इतना की मैं दौड़ कर जंगल जाने के लिए भी तैयार था। अब जैसे—जैसे मेरे शरीर में ताकत आ रही थी, तब मुझे लगता की मैं भागू—दौडूं और खेलूं। मेरा बहुत मन करता की मैं जंगल में जाऊँ और उस नरम मुलायम रेत में दौड़ लगाऊं। आखिर एक दिन मेरे मन की बात पापा जी ने सुन ही ली और एक सुबह जंगल जाने की तैयारी करने लगे। क्योंकि जंगल जाने के लिए पापा जी दूसरे जूते पहनते थे, जो थोड़े से पुराने थे, हाथ में डंडा लेते। मेरी चेन उनके हाथ में होती। तब में एक दम से समझ जाता की अब मजा आयेगा। मैं और पापा जी कभी—कभी अकेले भी जंगल चले जाते थे। क्योंकि बच्चों को तो स्कूल जाना होता था।
इसलिए वह तो छुट्टी के दिन ही जा सकते थे। पापा जी ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया और हम जंगल की और चल दिए। मैं इधर—उधर चारों और देखता हुआ गोद में बैठा बड़ा गर्व महसूस कर रहा था। हमारी दुकान रास्ते में ही पड़ती थी। जब हम दुकान पर पहुंचे तब मैंने देखा वहाँ पर मम्मी जी थी। मम्मी जी ने मुझे अपनी गोद में लेना चाहा पर। परंतु मैं पापा जी से चिपट गया। मुझे लगा की मम्मी जी मुझे अपने पास रख लेगी और मेरा जंगल जाना टल जायेगा। मेरी इस हरकत पर मम्मी—पापा जोर से हंसने लगे की देखो कितना बेईमान है। जब खाना लेना होता तो कैसे मम्मी के पीछे—पीछे दौड़ता है। और अब ऐसा कर रहा है, जैसे मम्मी को जानता ही नहीं। हम हंसी खुशी जंगल की और चल दिये।
गांव की सीमा खत्म होने के बाद पाप जी ने मुझे जमीन पर उतार दिया। कच्ची मिट्टी ने जैसे ही मेरे पैरो को छुआ। मेरे मन को पंख लग गये। में बेतहाशा दौड़ा। पापा जी भी मेरे साथ—साथ दौड़ें और मुझसे आगे निकल गये। मेरे छोटे—छोटे पेर और पापा जी के इतने बड़े पैरो और कदम कहां था हमारा मुकाबला। ऊपर से अभी मैं बीमारी से उठा था। कैसे कर सकता पापा जी का मुकाबला। पर हार जीत की परवाह किसे थी। न किसी को मैडल चाहिए था। यहां तो केवल दौड़ना और उस क्षण का आनंद भर लेना था। पाप जी दो पैरो से खड़ा होकर दौड़ते थे जबकि मैं चार पैरों से दौड़ लगा रहा था। मुझे नहीं पता था कि जब में बड़ा हो जाऊँगा तो पापा जी को पीछे छोड़ दूंगा। इस बात की तो मैं कभी कल्पना ही नहीं था। एक दिन जंगल जाते हुए जब मैंने वरूण भैया को पीछे छोड़ा तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ। फिर तो में पल में वरूण दीदी, हिमांशु भैया को भी पीछे छोड़ने लगा था। हाँ पापा को पीछे छोड़ने के लिए मुझे काफी समय लगा था। पर जब एक बार मुझे भरोसा हो गया कि में सब को पीछे छोड़ सकता हूं। तब तो मेरे अहंकार का कहना ही क्या था। उस मुलायम रेत पर पैर रखते ही मानो मुझे पंख लग जाते थे। बस फिर कोई पकड़ता या गोद में उठाता तो मुझे अच्छा नहीं लगता था। पर थोड़ी ही दूर दौड़ने के कारण मेरी साँसे फूल गई। मेरा सारा शरीर थक गया था। अचानक अंदर से जी मिचलाने लगा। और मुझे चक्र आने लगे। में वहीं बैठ कर पापा जी का इंतजार करने लगा। कुछ ही देर में पापा जी आते दिखाई दिये। पर ये क्या मुझे पूरी पृथ्वी घूमती हुई नजर आ रही थी। में समझ गया था कि अभी में ठीक नहीं हुआ हूं। पापा जी ने पास आ कर मुझे गोद में उठाया। मेरे बदन को सहलाया। मुझे कुछ आराम मिला। मैंने आंखें बद कर ली। थोड़ी ही देर में मुझे लगा की मैं फिर नीचे उतर जाऊं, और में कूं...कूं...कूं.. कर के रोने लगा कि मुझे नीचे उतारो। पापा जी हंसे और उन्होंने मुझे फिर से नीचे उतार दीया।
अब की बार मैं तेज नहीं दौड़ा। अब अपनी कानूनी करवाई करता हुआ चला। एक झाड़ी से मुझे कुछ जानी पहचानी सी खुशबु आई। मैं गर्दन डाल कर सूँघने लगा। इतनी देर में दो तीतर निकल कर फूर्र....से उड़ गये। मैं भी डर के मारे पा यूं....की आवाज कर के पीछे की और भागा। बाद मैं मैंने देखा अरे ये तो तीतर थे। जो मुझे से डरा कर उड़ गये थे। इतनी देर में आगे खाली चोंडा मैदान आ गया। सामने ही तीन चार गाय की तरह से दिखने वाले कुछ पशु चर रहे थे। पापा जी कुछ पीछे थे। में उस खुले मैदान में नरम घास में उछल—उछल कर उन की और दौड़ने लगा। क्योंकि न तो वह गाय लग रही थी, और ने ही घोड़ा। उनके पैरो के निशान को सूंघकर भी मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये कौन सा जानवर था। अब भला आप भी कहेंगे। नाहक परेशानी अपने सर मोल ले रहा हूं। मुझे क्या लेना देना। शायद इसी बात के कारण मनुष्य गहरी तमस में चला गया। वह आस पास की हर वस्तु को जो उसके काम की न हो उसे छोड़ता चला जाता है। पर हम तो नहीं छोड़ सकते, तब हम जीवित रहेंगे कैसे। आस—पास के खतरे का जब तक हमें आभास न हो तो आगे जाना खतरनाक था। अब उन के पैरों के निशान जो कुछ—कुछ घोड़े की तरह लग रहे थे। गाये, बकरी, भेस...आदि के पैर आगे से दो हिस्सों में बटे होते है। जिसके कारण ही शायद वह घोड़े और खच्चर की तरह से तेज नहीं दौड़ पाती है। क्योंकि उनके पैरो की दो फाड़ उनकी आधी उर्जा को दो हिस्सों में बांट देती है। उनकी चौड़ाई जमीन को छू कर अधिक हो जाती है। जबकि घोड़े के पैर नीचे से छोटे होते है एक रूप में। इसी कारण वह कम जमीन को घेरते है। और गुरुत्व शक्ति को जल्दी तोड़ कर उठ जाते है। पर इनके पैर भी गाय तरह से न हो कर घोड़ों की तरह से थे।
उन गाय जैसे दिखने वाले जानवरों का मेरी और अधिक ध्यान नहीं गया। एक तो शायद में छोटा था दूसरा में घास में छुप—छुप कर जा रहा था। मैं बिलकुल उनके नजदीक पहुंच गया। तब उनमें से एक ने मुझे देखा। और अपनी पूछ खड़ी कर ली। वह मुझे गौर से देखने लगी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ की में खतरे में हूं। क्यों कि अगर ये मुझे पर हमला कर देती तो मैं भाग भी नहीं सकता था। बीमारी के कारण मैं कमजोर था। दूसरा घास में इतना तेज दौड़ ही नहीं सकता था। अब वह गाय जैसी दिखने वाला पशु मेरी और बढ़ा। मैं वही पर कान बोच कर बैठ गया। वह मेरी और अपने पैंने सींग कर आगे बढ़ी। इतनी देर में सब पशुओं का ध्यान मेरी और हुआ। अब तो मैं समझ गया मैंने अपनी शामत नाहक ही बुलवाई। पर अचानक सब के कान खड़ हुए और फुर....म्य..मय..कर के इतनी तेज गति से दौड़े की मैं देखता ही रह गया। इतनी तेज दौड़ना वाला पशु मैंने अभी तक जीवन में नहीं देखा था। इतना बड़ा घास का वह मैदान वह पलक झपकते ही पार कर पेड़ो के झुरमुट में गायब हो गई। तब मेरी समझ में आया की अचानक क्या हुआ था। उन्होंने पापा जी को आते देख लिया था। और मानव से सभी पशु—पक्षी डरते है। पापा जी को मैं जब तक दिखाई नहीं दिया था। वह जोर—जोर से मुझे आवाज मार—मार कर बुला रहे थे। पोनी.....पोनी.......पोनी... अब ये शब्द तो मेरी समझ में नहीं आते थे। कि मैं आपने नाम के पुकारने की ध्वनि को पहचान सकता हूं। पर उन शब्दों से जो ध्वनि बनती थी। हम उसी से पहचान करते है। जैसे, पानी, पोनी, खाना, दूध....धीरे—धीरे मेरे मस्तिष्क में शब्दों पहचाने की समता बढ़ती जा रही थी। ये कार्य फिर पूरे जीवन भर चलता रहा लगातार। मैं अपने डर को भूल कर पापा जी आवाज की और तेज गति से दौड़ा। पर चार कदम दौड़ा ही था कि लगा मैं मरा। मेरा पूरा शरीर मौत की लहर सी दौड़ गई, पूरा शरीर कांप गया। मैं और जितनी तेज गति से उछल सकता था उतना ही उछला। मेरे मुख से प्याऊ की भी आवाज नहीं निकली। एक सांप के आकार की उसकी केंचुली फैली हुई थी। जल्द बाजी और डर के कारण मैंने उसे सांप समझ बैठा। सांप की केंचुली को देख कर मैं इतना क्यों डर गया। अब ये सब हमारे अचेतन में कहीं बसा जरूर ही होना चाहिए। वरना तो इस जन्म में मैंने अभी तक सांप क्या होता वह तो कभी जाना ही नहीं था। और नहीं ये विकास मुझे पीढ़ी दर पीढ़ी ही मिला, क्योंकि मैं तो मात्र अपनी मां के साथ एक महीने भर भी नहीं रह सका था। इस छोटी सी उम्र में कितना सीख पाऊंगा। पर ये प्रकृति का विशाल खेल था जिसके हम सब खिलाड़ी मात्र है। मनुष्य ने तो जो जाना होता है, वह अपनी अगली पीढ़ी को सिखाता है बताता है। वह उसके मन और मस्तिष्क का खेल होता है। और हमारा अचेतन उसे अपने अंदर एक खजाने के रूप में समेटता चला जाता है। जो आपके जीवन को एक मार्ग देता है। इसी को हम कर्म का सिद्धांत भी कह सकते है।
खैर वहां से पापाजी और मैं गहरे नाले की और चल दिये। पानी और पेड़ो की अधिकता के कारण वहां पर हवा में कुछ अधिक ठंडक थी। मेरे शरीर में गर्मी के करण मुझे वहां पर बहुत राहत महसूस हो रही थी। नाले के आस पास उगी डाब बहुत ही ऊंची उठ गई थी। उसकी कोमल मुलायम पत्तों को देख कर मेरा खाने को मन हुआ। पर वह मेरी पकड़ के बहार थे। क्योंकि मेरे अंदर पेट में कुछ अजीब सी बेचैनी हो रही थी। लगता था कुछ बहार निकल जाए तो अच्छा होगा। मैंने वहां खड़ा हो कर उस घास को सूंघा और अगले पैरो पर खड़े हो कर तोड़ने की कोशिश की। ये सब पापा जी देख रहे थे। वह समझ गये की मेरा क्या मन कर रहा है। वह हंसे और घास की मुलायम पत्तियां तोड़ कर मुझे खिलाने लगे।
मैंने पूछ हिला कर उन्हें चबा कर अंदर करने लगा। पर ज्यादा पत्ते अंदर नहीं ले जा पाया। पेट ने जवाब दे दिया था। अब में नीचे की और भागा। नरम मुलायम ठंडी रेत में घसीटता चला गया। नाला बहुत ही गहरा था। उसके अंदर की शांति बड़ी अजीब थी। बरसात के दिनों में जब यह भर कर चलता था तो इसे पार करना मौत को दावत देने जैसे था। इसका बहाव बहुत ही तेज और खतरनाक हो जाता था। क्योंकि ऊपर पहाड़ की उंचाईयों से सारा पानी इसी नाले से होकर गुजरता था। इसलिए इसमें बहुत तेज बहाव हो जाता था। आगे जाकर यह नाला दो हिस्सों में बांट जाता था जो इसके बहाव को सोक लेते थे। और ऊपर जाने पर छोटे—छोटे तीनों नाले भी आकर इसी बड़े नाले में गिरते थे। कितनी ही गर्मी हो इसमें आपको हमेशा सितल जल मिलेगा ही। मैं भी भाग कर नीचे उतरा एक बार पीछे मुड़ कर देख भी लेता था कि पापा जी आ रहे है या नहीं। क्योंकि सच बताऊं इस नाले की शांति और गहराई के कारण मुझे बहुत ही डर लगता था। लगता था कोई आस पास की झाड़ियों से निकलेगा और मुझे दबोच लेगा। मैंने घुटनों तक पानी में घुस कर खुब पानी पिया। पेट एक दम टिड्डा हो गया। और मैं दौड़ता हुआ उस पानी को पार कर गया। और भाग कर ऊपर की और चढ़ने लगा। नाले के आस पास उगे ऊंचे वृक्षों की गहराई के कारण वहां दिन में भी बहुत कम धूप आती थी।
सूरज की रोशनी ऊपर की फुनगियों पर ही अटक कर रह जाती थी। ऊपर चढ़ते ही मेरे पेट में उमड़—घुमड़ हुई और मुझे जोर से उलटी आ गई। पर यह पहले जैसी उलटी नहीं थी। इसमें मेरी खाई हुई घास के साथ पीत का पीला पानी था। ये आसान तरीका है आपने पेट के जमा जहर को बाहर निकलने का। जो धीरे—धीरे आपके शरीर में जमा होता चला जाता है। इससे मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। कुछ देर तो सर और आंखें भारी हुई पर थोड़ी ही देर में मैं ठीक महसूस करने लगा। जंगल में आना मेरे लिए वरदान जैसा ही था। क्योंकि मां के पास मैं क्या कुछ सीख पाया। जंगल में प्रकृति का विकास बहुत सरलता और सहजता से होता है। मनुष्य के साथ रह कर मुझे वो सब सीखना पड़ रहा था। जिस की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसके शब्द तो मेरी पहचान में नहीं आते पर बार—बार उच्चारण करने के कारण उनकी ध्वनि मैं समझने लगा था। क्योंकि इसके बिना आपका काम नहीं चल सकता क्या अब तो मेरा रहना ही मनुष्य के संग साथ था। जिससे की उसके बोले शब्दों को समझ सकूं....।
उसके आदर्श उसकी नैतिकता के बिना वहां पर रहना ना मुमकिन ही समझो। अब सामने खाने की कोई वस्तु रखी है। हमें अपने स्वभाव को दबा कर उसे नहीं खाना। कितनी मुश्किल से ये आदत मैंने सीखी थी। सामने खाना हो और उसे छोड़ दिया जाये तो आप बच लिए प्राकृतिक रूप में। पर मनुष्य के संग ऐसा नहीं था। सामने खाना हो आप ने खा लिया तो आपकी शामत आई। बहुत कुछ वह मैंने और मेरी जाति के अनेक साथियों ने ये सब सिख लिया था। और इस सब के कारण हम मनुष्य के ह्रदय के अंदर तक आ बसे थे। उसके घर आँगन में प्रवेश कर गए, ये हमारी जाति के लिए बहुत गर्व की बात थी। एक जंगली और हिंसक प्राणी मनुष्य के संग साथ ही नहीं उसके बेडरूम तक उसके साथ पहुंच गया।
जंगल में जा कर मैं स्वछंद हो जाता था। वहां सूंघकर देखता और हर चीज को समझने की कोशिश करता था। कभी किसी तितली के पीछे भागता। कभी किसी खरगोश के पीछे, कभी किसी जंगली मुर्गी—या तीतर को पकड़ने की नाकाम कोशिश करता। मैं सोच रहा था की अगर मुझे यहां पर जीना होता तो मैं कैसे जीता। कौन मुझे भोजन देता। बहुत जीवट परिवर्ती के ही प्राणी जंगल में जीवित रह सकते है। कुदरत हमारे साथ ही नहीं सभी प्राणियों के साथ कुरूर है। और दूसरी तरफ से देखे तो करूणा वान भी क्योंकि हमारे प्राकृतिक विकास में बहुत जल्दी करती है। वरना अगर मेरी कुदरती विकास प्रकृति ने मेरे अचेतन में न संजोया होता तो। कितनी गड़बड़ हो जाती। मनुष्य को ही देखिये इसकी प्रौढ़ता कितनी देर में आती है। हमारी प्रौढ़ता की तरह से अगर इसे छोड़ दिया जाये तो इसका जीना मुश्किल ही नहीं असंभव है।
अब एक चीज और समझने की है। हजारों पशु पक्षियों में क्यों हम मनुष्य के इतने करीब आ गये। कि डाइनिंग रूम ही नहीं हम किचन और बेडरूम में भी उसके साथ सोने लगे। अगर दूसरे प्राणी ये देखे तो यकीन नहीं होगा। परंतु इसके लिए हमने अपने स्वभाव में अनगिनत बदलाव करने पड़े थे। मनुष्य के अनुरूप उसकी चाहत के अनुरूप ढालना पड़ा। खोया भी बहुत पर उसके बदले पाया भी बहुत। पर जंगल में आकर में अपने पुराने स्वभाव के करीब आ कर उसे जी लेता था। उससे अचेतन में एक खास किस्म की तृप्ति महसूस होती थी। लेकिन देखना आज नहीं कल जंगली जानवरों का आस्तित्व ही खतरे में पड़ ही जायेगा। इस बढ़ती भिड़ के कारण सब जंगल खत्म होते जा रहे थे। मेरी लिए ये थोड़ा और भी कठिन था उन कुत्तों से एक अलग जो शहर में रहते है। मेरा जन्म जंगली पशुओं के मिलन से हुआ और रहना शहरी कुत्तों की तरह था। इसलिए मुझे अधिक मेहनत करनी पड़ रही थी मनुष्य या दूसरे प्राणियों साथ जीने के लिए। टोनी का जीवन मनुष्य के साथ आसान था।क्योंकि उसके पूर्वजों ने वही पूरा जीवन जिया था मनुष्य के संग साथ।
हमारा भी आस्तित्व खतरे में ही है। शायद जंगली जानवर तो उंगलियों पर गिन लो इतने ही बचे होंगे। बढ़ते शहरी करण और गाड़ियों की तादाद से न हमारी जाति के लिए रहने की जगह नहीं बची। और न ही प्रजनन के लिए कोई स्थान बचा। अगर सौ पैदा होते है तो मेरे हिसाब से केवल दस ही बच पाते होंगे। प्रकृति कब तक ढो सकेंगे इस अनुपात को। सड़क पर आते जाते वाहनों को पार करना, एक पूरे जीवन का सबक है। अगर आप बच गये तो नया अनुभव देखने को मिलेगा। वरना तो सब पहले ही अनुभव में खत्म। इस भय को लेकर आपको अगली यात्रा में प्रवेश करना ही होगा।
जीवन बहुत कठिन होता जा रहा था। फिर कुदरती की मार ही नहीं, मनुष्य भी बदल रहा है। उसकी संवेदनशीलता कम होने से हमारा पुश्तैनी राज सिंहासन भैरव के गण वाली बात लोप होती जा रही थी। लोगों के मन में दया कम होती जा रही है। पेट भरना दूभर होता जा रहा है। पर हम पालतू के लिए ये सब सोचने की जरूरत नहीं है। क्योंकि कोई दयावान ही हमें अपने घर में स्थान दे सकता है। रही कंजुसियत की बात तो लाख टके की बात ही इसे समझो की अगर कोई कंजूस है तो वह अगर अपनी कंजूसी तोड़ना चाहता है। तो वह एक कुत्ता जरूर पाल ले। बस टूट गई उसकी कंजूसी पल में। पर कंजूस आदमी हमें पालते ही नहीं। वही लोग हमें पालते है। जिनके ह्रदय में प्रेम और दया हो। एक राज की बात आज आप से कह रहा हूं इसे मेरा अहंकार मत समझना। आप मेरी हर बात को जीवन का एक निचोड़ ही समझो।
अगर आपके घर में प्रेम नहीं है तो आप एक कुत्ते को पाल लो। वह कदम—कदम आपके घर में प्रेम फैला देगा। और दूसरी बात कहीं भी कोई पागल बच्चा हो या बूढ़ा, वह जब भी हम कुत्तों को देखेगा तो लगेगा मारने। जो हमें मार रहा हो...उसे मारता देख कर ही आप समझ सकते हो कि यह आदमी पागल है, या आने वाले किसी जन्म में पागल पन की और बढ़ रहा है। मैं तो इतना दावे के साथ कहता हूं कि किसी पागल को अगर हमारे साथ रख दिया जाये तो चंद दिनों में स्वास्थ हो जायेगा। हम उसके पागल पन का हरण कर लेंगे। पर ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि पागल आदमी हमारे पास आयेगा ही नहीं....फिर कौन सड़क के आवारा और असहाय पर ही दया करेगा। जिन से हमें कोई डर नहीं। हर पल गलियों में किसी की लात....किसी कि घुड़की खाकर जीते जो रहे है। देखो कब तक.... इस सब का मुकाबला करेंगे।
आप भी सोचते होगे। में बहुत चिंतन मनन करता हूं। पर क्या करूं संग साथ का प्रभाव तो होता ही है। दूसरे कुत्तों की अलावा मेरा मस्तिष्क कुछ अलग तरह से काम कर रहा है। खाली उर्जा दर्शन शास्त्र ही बन जाती है। भोग से ही कविता का जन्म होता है। मजदूरी करने के बाद में कहीं कविता फूटती देखी है आपने। साहित्य हो या संगीत यह सभी एक प्रकार की विलासिता ही तो उत्पन होते है।
इस मेरी बात को आप गांठ बंध कर रख सकते हो आपने जीवन के आस—पास घटता हुआ देख सकते हो। आपने देखा होगा कवियों का जीवन, संगीत कारों का जीवन, उन के अंदर कैसा स्त्रैण भाव भर जाता है। उनके हाथ पैर...कितने कोमल मुलायम हो जाते है। इसलिए संगीत के सुनने में एक सूख है एक आनंद है। जो मनुष्य के तन मन को एक विश्राम देता है। उस के अंदर भरे हुए तनाव को निर्झरा करता है। उसे तरो ताजा कर देता है। संगीत मनुष्य की खोजी एक अभूतपूर्व खोज है। वैसे तो प्रकृति ने प्रत्येक प्राणियों में नाद भरा है, जल, वायु, पशु पक्षी सब एक मधुर नाद और ताल की लय में जीवित रहते है।
चलों आज का ज्ञान इतना ही बहुत हुआ।
भू..... भू.....भू......
बस आज का इतना ही ज्ञान नमन।
खाली उर्जा दर्शन शास्त्र ही बन जाती है। भोग से ही कविता का जन्म होता है। मजदूरी करने के बाद में कहीं कविता फूटती देखी है आपने। साहित्य हो या संगीत यह सभी एक प्रकार की विलासिता ही तो 🌹-(पोनी - एक कुत्ते की आत्म कथा से )🍁
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