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गुरुवार, 20 जून 2024

सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

सदमा - (उपन्यास)

भूमिका:

बात उन दिनों (1981) की है, जब हमारी नई-नई शादी हुई थी। अब इसे शादी कहना ही उच्चित होगा। क्योंकि उस जमाने में प्रेम विवाह को कोई विवाह नहीं मानता था। और शादी के एक साल बाद ही बाद बेटी का जन्म हो गया। फिर अचानक न जाने क्या हुआ की बेटी जन्म के नौ महीने बाद ही मोहनी अचानक बीमार हो गई थी। बीमारी भी ऐसी की वह कुछ न कह पा रही थी और न ही समझ या समझा पा रही थी। ये हमारे दोनों के जीवन का प्रथम अंधकार काल था। मैं एक ऐसे भवंर जाल में फंस गया था कि अपना दूख किसी को कह भी नहीं सकता। क्योंकि हमने खुद ही ये मार्ग चुना था, प्रेम विवाह कर के! अब किस से फरियाद या शिकायत की जाये। सो मोहनी के साथ-साथ उस नौ महीने की बेटा का भी मुझे ख्याल रखना पड़ता था। और समाज या परिवार उस समय आप को किस खाने वाली और मजाक की नजर से देख रहा होता है। उसे तो शब्दों में कैसे कह सकूंगा। हम सब को तो बीमारी का एक ही कारण नजर आ रहा था। यह की हमने जो प्रेम विवाह, या उनके माता-पिता और परिवार से मोहनी के नाते का टूट जाना ही हो सकता है। जिस के विषय में हम दोनों अधिक कुछ नहीं कर सकते थे। ज्यादा से ज्यादा हम उन्हें संदेश दे सकते थे। मोहनी की हालत ठीक नहीं है, वह धीरे-धीरे अधिक बीमार या लगभग पालग हो रही थी। परंतु अकसर ऐसे जाति गत प्रेम विवाहो में, इस हालत में भी माता पिता का दिल कभी नहीं पिघलता। अकसर माता पिता अपनी बेटी के साथ ऐसा व्यवहार करते है कि वह हमारे लिए मर गई है। फिर भी मेरे कुछ मित्र मोहनी के घर ये संदेश देने के लिए गये की इस समय भाभी (मोहनी) की हालत कुछ ठीक नहीं है। वह धीरे-धीरे इस अवस्था में पहुंच गई थी की एक दिन उसने मुझे तक को नहीं पहचाना छोड़ दिया।

उन दिनों मनोचिकित्सक भी लगभग न के बराबर हुआ करते थे। वैसे इस तरह की बीमारी अगर आज भी किसी को हो जाती है तो केवल दस प्रतिशत लोग ही उसकी दवा खरीद पाते है। बाकी सब को तो पागल मान लिया जाता है। और बेचारे गली मोहल्लों या पागल खानों में अपनी बीमारी के साथ ही मर जाते है। मैंने उस समय हर संभव इलाज मोहनी का कराया। परंतु करीब वह उस बीमारी में तीन साल तक झेलती ही रही। और अचानक उस समय से एक ऐसे तांत्रिक से ठीक हो गई जिस बात पर में विश्वास नहीं करता था। परंतु उस टोने टोटके को न तो उस समय में कारगर मानता था और न आज। परंतु ये जरूर मानता हूं की उस टोने टोटके ने मोहनी के ठीक होने में मेरा सहयोग किया। उसे में ह्रदय से स्वीकार करता हूं।

आप मनुष्य के चित की उस अवस्था के विषय में सोचिए। जब उसका कोई प्रिय एक पाषाण अचेत अवस्था सा आपके सामने है। जो न किसी दूख को न किसी दर्द को न खुशी को ही महसूस कर सकता है। और न ही वह अपने भावों को दूसरों पर प्रकट कर सकता है। वह एक जीवित मूर्ति रूप बन गई थी। जिसे अगर में अपने हाथ से खान खिलाऊं तो खायेगी, मैं नहलाऊं तो नहायेगी। न कपड़े बदल सकती थी, बस एक भय का वातावरण में हर पल जीती रहती थी। ऊपर से सोने पर सुहागा की हम प्रेम विवाह कारण समाज से कट गए था। इसलिए न मोहनी का परिवार और न मेरा परिवार भी मेरे साथ नहीं था। परंतु केवल एक मेरी मां ने मेरा उस दुःख दर्द में सम्पूर्ण ह्रदय से हम दोनों का साथ दिया। उस समय के मां के प्रेम को किसी भी कीमत पर न उतारा जा सकता है। और न ही उसे भुलाया जा सकता है। परंतु मोहनी ने ठीक होने से पहले भी और बाद में भी, मां के अंतिम दिनों में जो सेवा की उसे देख कर मन को जो तसल्ली मिली उसे शब्दों में बाधा नहीं जा सकता। जो काम मैं भी नहीं कर सकता था वह सब मोहनी ने मां के लिए किए। और हमारी बेटी उस समय मात्र नौ महीने की थी।

मोहनी की बीमारी के साथ-साथ उसकी भी देख भाल का जिम्मा मेरे उपर थी। वो समय मेरे लिए अति कठिन था। ऐसे में आपके सामने रास्ते तो अनेक होते है। परंतु उन पर मंजिल है या नहीं ये नहीं कहा जा सकता था। उस समय की पीड़ा और दर्द ने लगभग मेरे तन मन को ही नहीं मेरे अचेतन तक को झक झोर दिया था। उस समय पता नहीं इतना साहास और संकल्प मुझमें कहां से आ गया और मैं उस सब दूख दर्द और पीड़ा में से कितनी आसानी से गुजर गया। आज खड़ा हो कर जब उसे देखता हूं तो मन को बहुत आनंद आता है। कि क्या ये सब मुझे से हुआ था।

उन्हीं दिनों एक फिल्म आई थी। ‘’सदमा’’ जो मुझे लगभग अपनी ही कहानी लगी। हालांकि कहानी में कोई समानता नहीं थी। और न ही बीमारी में कोई समानता थी। लेकिन अगर समानता थी तो उसके इलाज में थी। कमल हासन उस लड़की को जो कि एक बाल बुद्धि हो गई थी। उसकी मानसिक उम्र केवल 8 या 9 साल भर रह गई थी। उसके संग साथ जो जीवन जी रहा था। वो सब मेरे साथ भी मोहनी की बीमारी में लगभग समान्तर ही चल रहा था। अगर सही मायने में देखे तो ये हालत उस फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर बालू महिंद्रा की भी थी। क्योंकि उसकी दूसरी पत्नी शोभा ने भी 1980 में उसी स्थिति में आत्म हत्या कर लेती है। ये उनकी दूसरी पत्नी थी। तब भी हम तीन समांतर रेखाओं के बीच भी सब समान होने पर भी समान नहीं था। फिल्म देखते हुए ही मुझे अपनी जीवन की सच्चाई का ज्ञान हो गया था। तब से ही में उस अधुरी कहानी को पूरा करने के लिए सोच रहा था।

उस समय को गुजरे हुए आज करीब चालीस साल बीत गये। और आज फिर इस समय मोहनी उसी स्थिति में दोबारा बीमार हो कर पहुंच गई है एक बार। हालांकि सब लोग इस बात का विश्वास नहीं करते की वह ओशो के ध्यान से जुड़ने पर भी इस अवस्था में कैसे पहुंच गई। लेकिन ये सत्य है। परंतु मैं देख रहा हूं न तो बहार की किसी घटना से ही इस हालात का कोई कारण है, और अगर है तो केवल अंदर से। जो देखने में लगभग एक समान ही लगते है परंतु सच होते नहीं। पहली बार की बीमारी में बाहर की क्रिया भी भिन्न थी। शायद समय और स्थान के कारण जो आज से चालीस साल पहले थी। और न ही उसके अंतस में जो चल रहा था, वह भी जो चालीस साल पहले की घटनाओं से भिन्न था। अब वह इस बीमारी में वह मुझे पहचानती है। परंतु भय भीत पहले से कहीं अधिक रहती है। उस समय मुझे पहचान ही नहीं पा रही थी। परंतु साधना का जगत भी अति रहस्य अपने में समेटे चलता है। लगभग पागल और बुद्ध में एक महीन पतली झीनी सी लकीर होती है ‘’होश’’ की। कई बार साधक किसी स्थिति या साधना की गहराई के कारण अचानक अति गहरे में पहुंच जाता है। जैसे की आप प्रकाश से अचानक एक अंधेरे कमरे में प्रवेश कर जाओ तो वहाँ आप क्या उन सब चीजों को भली प्रकार देख सकेंगे। नहीं! उसके लिए समय लगेगा। ऐसा ही इस बार मोहनी के साथ हुआ है। जिस होश के तल पर चल रही थी। अचानक वह एक गहरे में उतर गई। अगर सही से कहूं तो वह उस गहरे में गिर गई। वह सब सुन्दरता के साथ-साथ भयभीत करने वाली घटना भी है। और अचानक वह इस अवस्था में पहुंच कर घबरा गई। परंतु मैं उसकी इस हालत को जानता हूं। इसके लिए आज के विज्ञान का भी सहारा ले रहा हूं। ताकि उसके अचेतन में जो भय की एक धुंधली सी चादर है, उस में वह उलझ न जाये, घबरा न जाये, अपनी हिम्मत न हार जाये। आज करीब ढाई साल से वह इस पीड़ा और संताप को झेल रही है। परंतु आज मेरे आस पास, सूख सुविधा है। ओशो के ध्यान की विधियां भी है, बेटे या बेटी साथ है। और अंग्रेजी दवाई का इलाज का भी सहयोग है। इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि वह आज नहीं तो कुछ महीनों में पहले की तरह से अपने ध्यान के मार्ग पर आ जायेगी। और उसके बाद फिर जीवन में वहीं उत्सव संगीत होगा।

बेटी कह रही थी पापा आप तो उस समय भी नहीं घबराये जब आपके आस पास कोई भी नहीं था। आपने अकेले ही इतना संघर्ष किया था। उस समय न कारण ही और न बीमारी का ही पता था। परंतु अब तो हमारे पास वो सब है जिसके लिए आदमी हजारों जन्म से तरसता है। एक गुरु ओशो और ध्यान का जीवन जिसमें एक आनंद उत्सव है। पैसा सुख सुविधा और इसके अलावा एकांत में जीने का भरपूर समय। फिर मैं देख रही हूं कि ऐसा क्यों हुआ मम्मी के साथ। ये एक विचित्र और रहस्य से भरा विषय है। लोग मुझे से आकर पूछते है। इतना ध्यान करने के कारण भाभी क्यों बीमार हुई। अब मैं क्या जवाब दूं। क्योंकि मैं जितना मोहनी को समझता हूं, जानता हूं तो ये होना उसके जीवन एक स्वाभाविक था। क्योंकि जन्मों का जो भय उसके अचेतन में दबा हुआ था। वह एक दिन मार्ग में आकर आपको घेर ही लेगा। परंतु अगर आपके साथ गुरु है या साथ संग चलने वाला हमसफर साधक है। तो आप अधिक भाग्य शाली है। मैं जितना मोहनी को समझ रहा हूं अगर उनकी शादी किसी बिना ध्यान करने वाले के साथ हुई होती तो शायद वह उसे नहीं समझ सकता था। और उन्हें लगभग पागल घोषित कर दिया होता। शायद पिछले जन्मों भी वह इस सब को झेलते हुए मरी है। परंतु इस बार उस पर ओशो का प्रेम झर रहा है। सो इस बार वह इस सब को भेद कर प्रकाश में आ जाये और इस भय  से मुक्त हो जायेगी। शायद हमारे जीवन में मिलने का ये भी एक कारण है। जो भी है मैं तो इतना जानता हूं कि मोहनी संसारी जीवन में तो मुझे से कदम से कदम मिला कर उस गति से नहीं चल रही थी परंतु अध्यात्म में वह मुझ से कहीं अधिक आनंद उत्सव में डूब रही थी।

इस सब बीमारी के आने से पहले मैंने उसे हजारों बार चेताया और समझाया। अपने संग साथ लेकर काफी स्थानों पर उसे लेकर घूमा। वह खूद भी एक समय तक समझ रही थी की ये सब जो मेरे साथ घट रहा है, ये पूर्व में जो घटा था उसी का एक पुर्नलोकन है। उसने भी साहस किया उस उंचाई पर की मैं रूक जाऊं वह करीब तीन से चार साल तक उससे पार होने की कोशिश लगाता करती रही। परंतु इसके साथ-साथ उसकी गहराई भी बढ़ रही थी। उसे मैंने अकेले भी कई बार एकांत ध्यान के लिए आश्रमों में भेजा की तुम्हारे अचेतन में जो एक अंधकार है। जो तुम्हारे अंदर एक भय है। उसे देखों संग साथ में तुम दूसरे लोगों से बात करो, मिला झूला करो, अपने अंदर के भय के प्रति सजग हो जाओ, घर से कहीं अधिक ये भय आश्रम में ध्यान के स्थान पर अधिक सजग हो उठता है। इसलिए उसके भय को कम करने के लिए अकेले भी उसे कम से कम पाँच बार देहारादून और मेहसाणा आश्रम में अकेले भेजा। परंतु होश और अचेतन की गहराई में विभेद हो गया था। वह उस उंचाई पर थी की सम्हल नहीं सकी और एक अंधकार की गर्त में गिर गई। तब मेरे एक मित्र शालव जो अकसर मुझसे मिलने या संग चाय पर चर्चा के लिए आ जाते थे। ऐसे ही अचानक भय और मोहनी की बीमारी की चर्चा चल पड़ी। तब मेरे मुख से निकला की एक बात को तुम समझ लो ये कोई पागल पन नहीं है। परंतु बहार से देखने में ऐसा ही लगता है।

अगर ये सब मेरे साथ घटा होता तो आप हंसेगें में अपने को भाग्यशाली समझता और बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया होता। जो मेरे लिए सौभाग्य शाली हो सकता है उसके लिए भी तो होना चाहिए। वह उस से डर गई है। बस यही भेद है। केवल मैं उसे पहचानता हूं। और धीरे-धीरे एक दिन उसे फिर उस अचेतन से बहार ले कर आऊंगा। ये सब जो मैं झेल रहा हूं ये मेरे लिए एक तप है, साधना है, कोई संघर्ष नहीं है। और आज मैं इस कहानी को लिख देना चाहता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं फिल्म जो अधुरी रह गई उसे कैसे पूरी किया जा सकता है। क्योंकि अगर नेहा लता ठीक हुई है, तो सोम प्रकाश के प्रेम के कारण। दवा ने सहयोग किया जैसे किसी दल-दल में फंसे हुए को हाथ का सहयोग मिले। तब उस मित्र ने कहां की आप इस कथा को लिखते क्यों नहीं। लिखना तो मैं 40 साल से इसे चाहता था। परंतु मन तो इसे सालो से टाले ही जा रहा था। तब उस मित्र की बात मुझे ऐसी लगी की ये प्रकृति का आदेश है।

फिर आप जरा सोचो इस चित की अवस्था में किसी कहानी को लिखना अति कठिन ही नहीं दुरूह भी था मेरे लिए। फिर भी मुझे उस मित्र के बोल किसी और लोक के आदेश से लगे और रात मैंने इसे लिखने की कोशिश की। पहले दिन मुश्किल से एक पन्ना ही लिख पाया। परंतु फिर तो अचानक अचेतन से शब्द एक धारा प्रवाह बहना शुरू हो गये। फिर धीर-धीर दो तीन दिन में एक अध्याय को लिखा जिस में कमल हासन को स्टेशन पर छोड़ कर नेहालता चली जाती है। उस लिखे हुए के विषय में अपनी बेटी और बेटों के अलावा और कई मित्रों को भेज कर सुझाव मांगा की आप को ये दृश्य कैसा लगा। जो मैंने लिखा है। सब ने कहां की आप इसे लिखें और फिर तो न जाने किसी ने मेरा हाथ थाम लिया और कौन आकर अंदर से इस सब को लिखने में मेरा सहयोग कर रहा है। इस मैं अपने अंदर एक पूर्णता से देख रहा हूं। तब मैंने इस कहानी को लिखना शुरू किया और मात्र तीन-चार महीने में इसे पूर्ण कर दिया।

पहले मैं कॉपी पर लिख कर खूद ही टाईप करता था। परंतु इस कहानी को पहली बार मैंने कॉपी पर लिखा ही नहीं। सीधा कम्पयूटर पर टाईप करना शुरू कर दिया है। आप इस कहानी को जब पढ़ेंगे तो आपको हर जगह इस बात की छाप मिलेगी की इस कहानी को मैंने जीया है, जाना है, और भोगा है। मैं इस कहानी का लेखक ही नहीं एक सूत्रधार ही नहीं भोगता भी हूं।

ये मेरा पहला ‘’उपन्यास’’ है, इससे पहले मैंने कहानी संकलन या ‘’पोनी-एक कुत्ते की आत्म कथा’’ ही लिखी थी। परंतु उपन्यास में भी मैं सत्य घटना को ही संग ले कर चल रहा हूं। इस में मिर्च मशाल नहीं डाल रहा हूं। क्योंकि ये उपन्यास एक जीवित कथा है। जो आने वाली पीढ़ी के लिए भी बहुत उपयोगी, और सहयोगी सिद्ध हो सकती है। क्योंकि आज पृथ्वी पर सबसे अधिक अगर कोई बीमारी बढ़ रही है। तो वह है तनाव, चिंता, फोबिया, चिड़चिडापन, अवसाद, मनोविक्षिप्ति या सब मनोरोगो का कारण एकांत या भय ही होता है। या पिछले हमारे सिंचित संस्कार। परंतु युरोप तो इस बात को मानता ही नहीं इसलिए वह कभी भी इस जड़ पर नहीं जा सकता। वह तो इस बीमारी के पत्तों को ही सिंचे जा रहा है। और पौधा धीरे-धीरे मर रहा है। इसे हम देख नहीं पा रह और न ही समझ पा रहे है।

मैंने अपने पूरे जीवन में जो भोगा है। उस सब से यही जाना है। और एक निचोड़ निकाला है, की इस तरह की जितनी भी मानसिक बीमारियां होती है, उनके कारण तो अनेक हो सकते है। परंतु इलाज केवल एक ही है। और वो है ‘’प्रेम’’ और ‘’होश’’ है। होश को हम ऐसे तो प्राप्त नहीं कर सकते परंतु प्रेम को तो हम आदान प्रदान भी कर सकते है। मैंने इस बात को चालीस साल पहले जब मोहनी बीमार थी तब भी महसूस किया था। और आज जब ये लिख रहा हूं तब भी इसे महसूस कर रहा हूं। फिल्म एक अलग माध्यम है। परंतु उपन्यास में एक स्वतंत्रता होती है पाठक के मन में वह अपनी कल्पना के पंखों पर बैठ कर एक आनंद सागर में विचरण कर सकता है। जैसे आपकी मनोदशा और मेरी मनोदशा एक समान नहीं है। आप को और मुझे जो पढ़ने को दिया जायेगा वह समय और स्थान के अनुसार भिन्न प्रभाव दिखलायेगा।

पाठक शायद इतने लम्बें अंतराल के बाद इस कहानी के कुछ पहलुओं से वंचित रह सकते है। क्योंकि आज का युवा समझ ही नहीं सकता की 1978 में जब हम एक संदेश पत्र के द्वारा भेजते थे तो उसका जवाब आने में कम से कम 15 दिन लग जाते थे। परंतु वो प्रेम वो दर्द वो शिकायत जो शब्दों में जब वहां पहुंचती थी। तो वह वहां जाकर एक दम से सजीव हो उठती थी। कहानी में जो दिखलाया गया था की नेहा लता को एक वैद्य के इलाज से ठीक कर दिया जाता है। परंतु आप उस से पहले की क्रिया प्रतिक्रिया को कैसे भूल सकते है। वह लड़की सोम प्रकाश के साथ किस तरह से खेलती है, उसके साथ बाल सखा रूप में रहती है। वह उस समय अपने आप को कितना खूला छोड़ देती है। अपने ह्रदय के साथ तन और मन के आँगन की पूरी विशालता को खोल देती है। माना की उसकी मानसिक उम्र उस समय सात या आठ साल की है परंतु उसका शरीर तो 23 साल का युवा है। उस मासूमियत को सोम प्रकाश ने जीवित रखा। वह उसे नहलाता भी होगा उस को कपड़े भी पहनाता होगा। वह रात उसके साथ प्रेम वश आकर सो जाती भी होगी। आप सोचो सोम प्रकाश के प्रेम में कितनी उच्चता व पवित्रता रही होगी।

वह एक दोस्त से लेकर पिता का कार्य कर रहा था। औरत में एक शक्ति होती है, प्रकृति रूप से। वह तो आपके देखने की निगाह को ही पल में पहचान लेती है। दूसरी और वह लोहार जिस नजर से उसे देखता है वह पल में पकड़ लेती है। परंतु सोम प्रकाश के लिए सम्पूर्ण को छोड़ सकती है। इस सब से सोम प्रकाश का प्रेम उसके अंतस के गहरे उतरता चला गया। और ऊँट जब बैठने वाला था तो वैद्य जी ने अपना काम कर दिया। वह भी घटना एक सुंदरता लिये हमारे सामने आती है।

और अंत में बस मैं इतना कहना चाहता हूं कि हम किसी भी अपूर्णता को पूर्ण नहीं कर सकते है। यह मात्र हमारा भ्रम होता है। ये उपन्यास मैंने लिख भी दिया परंतु जब शुरू किया था कि मैं इसे पूर्ण कर दूंगा ऐसा मैंने सोचा था। परंतु वह आज मैंने इसे पूर्ण कर दिया तब भी आज यह अधूरा ही रह गया। मेरे लाख प्रयत्न के बाद भी। सच पहली कहानी जो फिल्म में दिखलाई गई है वह नेहालता की वह एक का दुर्घटना में अपनी याद दाश्त खो देती है। वह मात्र एक ‘’हादसा’’ से अधिक कुछ नहीं था। परंतु उसे ‘’सदमा’’ तो नहीं कहां जा सकता। ‘’सदमा’’ तो उस युवक यानि सोम प्रकाश को लगा है। क्योंकि सदमे के लिए आपके अचेतन पर चोट लगना जरूरी है। शरीर की चोट वो काम नहीं कर सकती। जो अचेतन पर भावों की चोट अधिक गहरे में काम करती है।

तब सोम प्रकाश के इलाज और नेहा लता के इलाज एक समान नहीं हो सकता। शरीर पर लगी चोट के कारण हम अगर अपनी याद दाश्त पर कोई प्रभाव देखते है तो वह समय पाकर भर जाती है। परंतु अचेतन मन की चोट तो अति संवेदन शील है। उसको भरने के लिए समय या दवा इतनी महत्व पूर्ण तो है। अगर इस काम को कोई अति महत्वपूर्ण बनाता है, तो वह प्रेम का अतिसार चाहिए। एक कोमल मधुर संवाद। जो केवल विश्वास और स्नेह से लवरेज हो। मैंने यहीं सब महसूस किया और इसी सब को अपने पात्रों में उतारने की भरपूर कोशिश की आप जब इसे पढ़ेंगे तो आप ही बतला सकेंगे कि मैंने अपने पात्रों के साथ कितना न्याय किया या अन्याय किया। परंतु आप जब इस कहानी को पढ़ना शुरू करेंगे तो मुझे विश्वास है आप उस किनारे पर ही जाकर दम लेंगे।

इस कहानी में कोई चकाचौंध नहीं है, न ही कोई रहस्य है। न ही इसके लिए इस कहानी में कोई स्थान है और न ही कहानी के पात्र इस बात की मंजूरी देते है। घटनाओं में मैंने सिधा सपाट सरल शब्दों में ही उकेरने की कोशिश की है।

मनसा-मोहनी

दसघरा

3 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य (करुण )धटनाओं के केंद्र में जो किरदार होते हैं और उसमें भी जो एकदम केंद्र-बीच में होते हैं जिस पर कहानी के सब किरदार रूपी पत्ते-पन्ने टिके हुए होते हैं फिर भी वह मानों सबसे अछूता,अस्पर्शनीय,अस्पृह,...... होता हैं | शायद अतीत के भयावह की सूक्ष्म रेखा जो केश से भी सूक्ष्म होती हैं वह कब,कैसे,कहाँ पर जाग्रत हो उठती हैं यह किसको पता होता हैं लेकिन हाँ सुखद,शांतिदायक,आहालादक,आनंदपूर्ण बात यह हैं कि आप दोनों पास ओशो की विरल,अमूल्य संपति-धन ध्यान हैं जिसमें जितनी समर्पण शक्ति होती हैं उतनी लूटा सकते हैं और माँ ने सचमुच अपने को इस ध्यान-प्रेम के प्रवाह में इतना डुबो दिया की अचेतन मे रही भय की सूक्ष्म रेखा भी अपने को भरने के लिए लालायित हों उठी ! यही तो ओशो की करुणा हैं कि माँ को इस जन्म में इसी पुनित-पावन धारा में बहने को, तैरने को,अपने को मुक्त छोड़ने के लिए ध्यान-समर्पण की ठोस नींव-आधारभूमि उपलब्ध करा दी जिससे अब यह सूक्ष्म रेखा कितना भी आधात-प्रत्याधात करे फिर भी मकान रूपी शरीर को अब कोई हानि नहीं होगी इतना ही नहीं बल्कि अब माँ का आत्मिक शरीर-देह ओर ही पुलकित,आनंदित,जींवत,युवा होंगे ! सचमुच ओशो की करुणा अपंरपार हैं ! ओं प्यारे ओशो ! माँ पर आपकी सदाऐ करुणा रहो 🙏🙌🙏

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  2. सच ह्रदय के भाव जो शब्द बनते न बनते बिखर जाते है..... अगर किसी तरह से उन्हें पिरो भी दिया जाये शब्दों में उन में डूबने वाले समझने वाले अति दूर्लभ होते है....आप देवी रागनी जी सच बहुत गहरे उतर कर शब्दों के पार जो कहा जाने वाला था उसे भी पढ़ और समझ लेती हो.....आपके ये शब्द ओशो का वरदान है हम दोनों के लिए....मानों ओशो ने आशिष दे दिया हो.....नमन है हम दोनों की और से प्रेम

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