मेरा जंगल में खो जाना
धीरे—धीरे मेरा स्वास्थ ठीक हो रहा था। अब खाना भी हजम होने के साथ—साथ मुझे भूख भी लगने लगी थी। इसीलिए पापा जी मुझे आज कल रोज जंगल में घुमाने के लिए ले जाते थे। पर रविवार या किसी छुट्टी के दिन का तो क्या कहना था। जब पूरा परिवार जंगल में जाने की तैयारी करता तो मेरे सब्र का बांध टूट जाता था। एक—एक पल मुझे युगों की तरह से लगता था। मानो समय रूक ही गया है चल ही नहीं रहा। क्या समय भी हमारी उम्र या प्रत्येक प्राणी का अलग तरह से कार्य करता है। परंतु इस समय की गति को मैं चला भी नहीं सकता और रोक भी नहीं सकता। लेकिन वो पल मेरे लिए इतने भारी—भारी हो जाते थे की काटे नहीं कटते थे। लगता था अभी पंख लगे हम सब जंगल में पहुंच जाए। मुझे जंगल जाने की जो खुशी थी सच में मुझ से बरदाश्त नहीं होती थी। मैं रो—रो कर सारे घर में चक्कर लगता रहता था। क्या कर रहे हो एक दम कछुए की चाल से कहीं काम चलता है।
मेरे साथ बच्चे भी जूते कपड़े पहन कर तैयार हो जाते थे। पर मम्मी और मणि दीदी तो कछुवे की चाल से तैयार होती थी। मुझे लगता क्या जरूरत है इतना सब करने के लिए। कहीं खाना बनाया जाता। कहीं गंदे कपड़े साबुन एक बैग में भरे जाते। वरूण भैया अपना खेलने का सामान साथ ले कर चलते। कई बार तो पापा जी दुकान से भी आ जाते पर हमारी तैयारी पूरी नहीं होती। आखिर में रो—रो कर थक जाता। मुझे दूध पीने के लिए कहा जाता पर मारे खुशी के दूध अंदर जाता ही नहीं था। लगता अभी पंख लग जाये और हम जंगल में पहुंच जाये।
जंगल में जाने के बाद पापा जी तो वरूण और हिमांशु के साथ क्रिकेट खेलने लग जाते थे। दीदी और मम्मी बहते नाले के पानी में कपड़े धोने लग जाती। रह जाता मैं फिर अकेला बेचारा करने को कुछ होता नहीं था। पर वहां एक प्रकार की आजादी थी, चारों और खुला मैदान, वहां मुझे काम की कोई कमी नहीं थी। कही खुदाई की जा रही होती, कहीं तीतरों के पीछे भागा जाता, सूंघ—सूंघ कर कही कानून पेश की जा रह होती, और अपनी सीमा बनने में तो वहां पर कोई बंधन ही नहीं था। जहां आपका मन करें वहीं टाँग उठा कर, दो बूंद, और उस पेड़ तक हो गई अपनी सीमा बन गई। देखा कितना आसान तरीका है अपने आप को यहां का मालिक घोषित करने लिए।
इस बीच कभी—कभी मैं पापा जी हर के पास भाग कर उनके साथ खेलने के लिए चला जाता था। परंतु मेरी और किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। वहां सब अपने खेल में मस्त रहते, मेरी और कोई देखता भी नहीं था। फिर दीदी—मम्मी की याद आती और मुझे लगता अरे वह तो अकेले रह गये फिर उनके पास भाग कर उनके पास चला आता था। कभी उस पानी में धूस जाता जहां मम्मी—दीदी कपड़े धो रही होती। घर पर तो पानी से मुझे बहुत डर लगता था। हालांकि वहां पर मुझे गर्म पानी से नहलाया जाता था। और यहां जंगल का पानी तो एक दम से ठंडा पर यहां पर खेलना अच्छा लगाता था। पानी में बहकर आते पत्तों या फूलों को देख कर में उन्हें पकड़ने की कोशिश भी करता। छपाके मार—मार कर खुब खेलता। कभी साबुन का कोई बुलबुला बन पानी के साथ बहकर आता देखता तो उसे पकड़ने के लिए छलांग लगा देता था। पर वह मेरे छू लेने से पहले ही गायब हो जाता।
कभी पानी में भीग कर मिट्टी में जाकर लेट जाता था। पूरे शरीर को मिट्टी में लोट—पोट करने लग जाता था। तब कितना भला लगता था, आप भीगे हुए हो और एक सुखी मुलायम रेत आपके बदन को अपने से लिपट रही हो। वह आपके गिले बदन से सारा पानी पी खुद गीले हो उठी हो। तब दीदी मुझे देख कर बहुत हंसती थी। और मैं बहुत जोर से भोंक कर उसे डांटने की कोशिश करता था। मैं जानता था मेरे इस भोंकने का कोई बुरा नहीं मानेगा। उलटा और हंसेंगे। फिर जब ठंड लगती तो ऊपर नाला पार कर के उस खुले मैदान में पहुंच जाता जहां पर पापा जी वरूण और हिमांशु के साथ खेल रहे होते। परंतु उनका वहां का खेलना मेरी समझ के बहार की बात थी। कभी—कभी मुझे बुलाया भी जाता पर न तो वहां मुझे बाल ही दिखाई देती थी। न ही वो सब मेरी समझ में ही आता था। तब फिर आप ही बताये मैं वहां क्या करता। भला इतने बड़े मैदान में ये लोग इतनी छोटी सी बाल को देख कैसे लेते है। यही बड़ा अचरज था मुझे। कभी दिखाई भी दे जाती तो वह इतनी दूर होती की एक दो बार से ज्यादा ला भी नहीं सकता था। घर पर जब वरूण भैया और पापा जी क्रिकेट खेलने तो वहां तो मैं वहां बड़े आराम से बाल को देख लेता था। परंतु यहां इस खुले मैदान में खेलने में फर्क है। वहां एक सीमा है, और हम देख समझ सकते है। पर यहां पर नहीं,.......
कपड़े धोने के बाद मम्मी और दीदी उन्हें ऊपर धूप में लाकर घास पर सूखने के लिए डाल रही थी। मैं तब समझ जाता की अब भैया हर का खेल का समय खत्म होने ही वाला है। और सच ही ऐसा होता था। उधर खेलते हुए वरूण—हिमांशु के साथ पापा जी को भी आवाज मार कर बुलाया जाता। चलो अब खाने का समय हो गया है। बस एक ही आवाज में उनका खेल खत्म। मेरा मन पापा जी हर के पास जाने को कर रहा था। लग रहा था उन्हें बुला कर लाऊं। इसी बीच मैं क्या देखता हूं, जहां दीदी कपड़े सूखा रही था। ठीक उसके पीछे एक गाय घास चर रही थी। वह थी तो शांत परंतु मुझे एक शरारत सुझी।
मुझे लगा आज अपनी ताकत अपनी हेकड़ी दीदी को दिखाई जाये। तब उसे भी पता चलेगा की मैं भी कुछ कर सकता हूं। अचानक मैं पीछे मुड़ा और भोंकता हुआ गाय की और भाग। वह गाय वहां पर मस्त घास चर रही थी। उसे वहां पर कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा था। इसलिए पहले तो उसने मेरे भोंकने की और कोई ध्यान ही दिया। शायद बड़ी—बड़ी घास के कारण मैं उसे कहीं दिखाई भी नहीं दे रहा था। लेकिन मेरे अचानक इतने पास भौंकने के कारण जब वह डर कर भागी। तब मुझे और मजा आ गया। अहा.. कि मुझमें भी है कोई बात, देखो गाय को भी डरा दिया। अब क्या था मैं उसके पीछे पूरे जोर से भाग रहा था। सामने बड़ी—बड़ी घास थी। गाय दस कदम भागी और घास के दूसरी और कूद गई। किंतु में तो अपनी जीत और ताकत में मदहोश था। मुझे पता नहीं चला की आगे खतरा भी हो सकता था। जैसे—जैसे गाय डर रही थी मेरा जोश हिलोरे मार रहा था।
लेकिन देखिए मेरा दुर्भाग्य की बीच में छोटा सा नाला था। जो बड़ी—बड़ी घास के कारण मैं देख ही नहीं सकता था। परंतु गाय तो जानती थी। जो बहते पानी के कटाव से बन गया था। और आगे जाकर उस बड़े नाले में ही मिल जाता था। मैं बेपरवाह भाग रह था, जिस का नतीजा यह कि मैं उस नाले के अंदर जाकर गिर गया। नीचे गिरते ही मेरे मुख से प्यांऊ की आवाज आई, देखता क्या हूं कि मैं गहरे अँधेरा में खड़ा था। घास न नाले को बिलकुल ढक लिया था। ये बात गाय तो जानती थी। वह तो शायद रोज ही यहां पर चरने के लिए आती थी। और मैं मुर्ख अपनी हेकड़ी के कारण इस में गिर गया। कुछ देर तो मुझे समझ ही नहीं आया की मैं कहा पर आ गया। दूर कहीं दीदी के हंसने की आवाज आ रही थी। मुझे गुस्सा भी बहुत आ रहा था। पर क्या करूं। अब कैसे बहार निकल सकूंगा मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वहां की गहराई बहुत थी गाय, आदमी या कोई और जानवर भी अगर गिर जाता तो यहां से नहीं निकल सकता था।
दूर दीदी ने मुझे पुकारा, और वह बार—बार आवाज लगा कर मुझे बुला रही थी। मैं और कोई उपाय न देख कर सीधा आगे की और बढ़ता चला दिया। काफी दूर जाने के बाद सूर्य की रोशनी मुझे दिखाई दी। वहां पर घास कम थी। और चारों और से इतने ऊंचे—ऊंचे पेड़े की जड़, कि नीचे क्या है वह भी आप को दिख सकते हो। इस पर मैं समझ गया की जरूर बड़ा नाला आने वाला है। और सच ऐसा ही हुआ। आगे एक दम से बड़ा नाला आ गया। बस फिर क्या था मैं उसी से एक पतली पगडंडी को पकड़ मैं ऊपर की और भागा। बहार निकल कर मैंने एक विजयी निगाहे इधर उधर दौड़ाई। पर वहां कौन था देखने वाला। और दूसरी और दीदी की आवाज सुनाई दी। काफी दूर और मैं उसी दशा में भागा।
काफी देर भागने के बाद मैं उस मैदान में पहुंच गया जहां पर पापा जी और भैया अभी खेल रह थे। मैं उनके पैरों की खुशबु सूँघता हुआ आगे बढ़ा और सामने हिमांशु भैया दिखाई दे गए। अब मेरी जान में जाने आई। मैंने और पास जाकर देखा तो सामने वरूण भैया भी अपने हाथ में कुछ पत्ते पकड़े हुए आ रहे थे। पास ही पापा जी एक पेड़ से पत्ते तोड़ रहे थे। तब में समझ गया की अच्छा ये खाने के लिए ढाक के पत्ते तोड़ रहे है। मैंने पास जा कर कुं....कुं...कुं...कर के सब को बताना चाहा की देखों मैं कितने खतरे में पड़ गया था। और वो मूर्ख दीदी हंस रही थी। आप लोग नहीं जानते...किसी तरह से अपनी जान बचा कर आ गया हूं। परंतु उन्होंने मेरी एक बात पर भी ध्यान नहीं दिया। मैं मन ही मन उदास हो गया।
पत्ते तोड़ने के बाद हम नाले में उतरे, सबने हाथ मुंह धोया। मेरा तो हाथ मुंह पहले ही धुला हुआ था। पापा जी ने उन पत्तों को धोया और हम मम्मी—दीदी की और चल दिये। वो हमारा इंतजार कर रही थी। और मुझे देख कर दीदी ने मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरा और पूछने लगी तुम्हारी गाय कहां है। और हंसने लगी। तब फिर गाय वाली बात सब को पता चल गई। जहां मैं अपनी धाक जमाने वाला था वहीं मेरा मजाक बन गया था। सब लोग जोर से मुझ पर हंसने लगे। मैं दूर जा कर जोर—जोर से भौंकने लगा और अपना गुस्सा दूर गगन में निकलने लगा। तब मम्मी जी हंसते हुए मेरे पास आई और कहने लगी। नहीं पोनी तो बहुत बहादुर बच्चा है।
देखो कितने गहरे नाले से अकेला निकल कर अपने आप बाहर आ गया। और दीदी ने तब मेरे सामने खाना रख दिया। और मैंने प्यार से दीदी जी का हाथ चाट लिया। और भौंक—भौंक कर सबको कहने लगा देखा सबसे पहले मुझे खाना मिला। पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला था। में अपना खाना कुछ ही देर में चटकर गया और बैठ गया भिक्षा मंत्री बन कर। आ गया अपनी औकात पर। खाना खाने के बाद मम्मी पाप विश्राम करने के लिए पास ही उस शीशम की घनी छांव में एक चादर को बिछा कर लेट गये। क्योंकि मम्मी—पापा को तो सुबह बहुत जल्दी उठना पड़ता था। इतना काम करने के बाद उन्हें दिन में थोड़ा तो आराम चाहिए। परंतु हमारी सब की खुशी के लिए वह सब छोड़ कर हमें जंगल में ले आते थे।
परन्तु हम चारों को कहां चैन था। मम्मी जी जब भी जंगल में आती एक या दो बड़ी ब्रेड जरूर ले कर आती थी। अब दीदी और वरूण ने वह ब्रेड उठाई और दूर खुले मैदान को पार कर झाड़ियों के बीच एक—एक कर के फेंकने लगे। वहां पर खुब गहरी झाड़ी थी। पर मैं किसी तरह से उस के अंदर धूस गया। और एक दो ब्रेड के पीस मैंने भी उठा कर खा लिये। पर मेरी समझ में नहीं आ रहा था। यहां पर कोई खाने वाला तो दिखाई नहीं देता। फिर ये ब्रेड किस के लिए डाली जा रही थी। मैंने अपने सर को लाख धुना पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा। तब मैंने कहां चलो मुझे क्या करना किसी के लिए भी होगी हमें क्या रहने दो सब ठीक है जो है अच्छा है।
अब ये लोग जो यही डाल रहे है कुछ सोच कर ही कर डाल रहे होंगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा है ये अलग बात है। तब सब पास की झंडियां में लगे मीठे लाल—लाल बेर खाने लगे। मैं इधर उधर सुंध कर अपनी जिज्ञासा के साथ अपना ज्ञान भी बढ़ा रहा था। कभी मैं दीदी के पास जा कर खड़ा हो जाता और वह मुझे मीठा बेर तोड़ कर देती। मैं उसे मुंह में लेकर चबाता। और मुझे सच वह बहुत स्वादिष्ट लगे। अब तो मैं और भी ज़िद्द कर के मांगने लगा। पर बार—बार दीदी को याद दिलाना पड़ता था। कि मैं भी तुम्हारे पास खड़ा हूं। क्योंकि उसका ध्यान तो बेर तोड़ने में लगा होता था। अब मैं मांग—मांग कर दुःखी हो गया था। तब मैंने आइडिया लगाया क्यों न मैं खुद ही इसे तोड़ कर खा लूँ। तब मैंने खुद ही तोड़ने हिम्मत की और मैं कामयाब भी हो गया।
कितना मुश्किल काम था। कांटे वाली झाड़ी से बैर को तोड़ना। पर अपनी सफलता से जो बैर मैंने तोड़ा उसका स्वाद अनूठा था। अपनी मेहनत का फल सच ही मीठा होता है। अब मेरी इस हरकत को सब अचरज से देख रहे थे। और हिमांशु भैया को चिड़ा रहे थे कि देख पोनी भी खुद बेर तोड़ कर खा रहा है। और तू कांटों से डर रहा है। बीच—बीच में भाग कर मम्मी—पापा जी के पास भी चला जाता था। जो इस समय आराम कर रहे थी। वहां की आजादी मुझे इतनी अच्छी लगती की कह नहीं सकता। इसी तरह से दोपहर हो जाती। कपड़े भी सूख जाते और सब थक भी गये होते थे। लेकिन इस आजादी में ज्यादा देर रूक नहीं सकते थे। क्योंकि पापा जी ने जाकर दुकान भी खोलनी होती थी। हम लोग तीन बजे तक घर पहुंचना ही होता था। वरना तो दादा जी पूरे जंगल को सर पर उठा कर आवाज दे रहे होते...मनसा...मनवा...। पापा जी रास्ते में दुकान पर ही रह जाते थे। हम सब घर पर आ जाते। किसी को सोना होता तो ठीक था। पर बच्चों को स्कूल का भी काम करना होता था। इस बीच मुझे एक कटोरा दूध मिलता था।
फ्रीज का ठंडा दूध पी कर मजा आ जाता था। और में एक कोने में लेट कर सो जाता था। क्योंकि जंगल में तो मैं एक मिनट भी आराम नहीं कर सकता था। अब कोई इसे कुछ भी समझे पर सच जंगल में मुझे सब लोगों की फिकर लगी ही रहती थी। कही दूर बच्चे अकेले होते और कहीं दूर पापा मम्मी। इसलिए रविवार का दिन बहुत मस्त होता था। ये बीमारी के बाद मेरा पहला रविवार था। आज घूमने के करण थकावट तो हुई पर अच्छा भी बहुत लगा। थकावट का क्या है वह तो एक दो दिन में ठीक हो जायेगी। पर घूमना कौन सा रोज—रोज होता है।
धीरे—धीरे मैं लगभग जंगल के सभी रास्तों को जान गया था। और हम ज्यादा तर एक ही रास्ते से होकर जाते थे। अब आगे जंगल कितना बड़ा और गहरा है इस बात का मुझे अंदाज नहीं था। या शायद मेरे अंदर एक अहंकार आ गया था। की अब तो मैं पूरे जंगल के सब मार्ग जान गया हूं। इस सब सोच के कारण ये दुर्घटना घटी थी। जब सब बच्चे स्कूल चले जाते तो पापा जी और मैं कभी—कभी जंगल में चले जाते थे। पापा जी को जंगल के एकांत में बैठना, वहां पशु पक्षियों के फोटो खिचना बहुत भाता था। एक दिन शायद में किसी चीज को सूँघता हुआ काफी आगे निकल गया था। और पापा जी दूसरे वाले नाले को पार करके पेड़ो की और चले गये थे। ये सब रास्ते मेरे जान—पहचाने थे। इसलिए मैंने इस बात की परवाह भी नहीं की। पापा जी एक सुंदर सी जगह पर जो घने झुंड के बीच बैठ कर ध्यान करते थे। मैं आपने ज्ञान को बढ़ाने के चक्कर में काफी पीछे रह गया। जब मैंने इधर उधर देखा तो मुझे पापा जी नजर नहीं आये। और मैं घबराहट के कारण रास्ता भटक गया।
रास्ते को पार कर काफी दूर निकल गया। जब तक मुझे होश आया तो मैं जंगल कि दिशा को भूल गया था। जंगल इतना छोटा नहीं था जितना मैं समझ रहा था। अब मैं पापा जी के पैरो की खुशबु को सूँघ कर इधर उधर खोजने लगा। परंतु वहां मुझे अपने पैरों की खुशबु मिली मैं उसी के सहारे वापस घर की और चलने लगा। परंतु एक स्थान पर काफी पैर छपे थे मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं। वहीं रास्ते जो पापा जी के संग—साथ जाने पहचाने से लगते थे। अब भुल—भुलैयां दिखाई दे रहे थे। दूर तक किसी आदमी का नामों निशान दिखाई नहीं दे रहा था। धूप तेज होकर सर पर चमक रही थी। अब में घबराने लगा कि क्या करूं। शुक्र इस बात का समझो कि श्याम नहीं थी। दिन का समय होने से जंगली जानवरों का डर कुछ कम रहता था। फिर भी जंगल तो जंगल ही था, अगर कोई जंगली जानवर मिल गया तो मैं अकेला भला क्या कर सकता था। वो डर जो मुझे मेरे अंदर से दिखाई दे रहा था।
मैं इधर—अधर भागा परंतु कुछ नहीं सुझा। जहां तक नजर जाती पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे। इतने ऊंचे पेड़ मैंने पहले कभी इस जंगल में नहीं देखे थे। पेड़ तो पहले भी इतने ही ऊंचे थे पर मैं देखने की कोशिश नहीं की थी शायद। तब शायद इसकी जरूरत भी क्या थी। सच मैं बहुत डर गया था। काफी देर दौड़ने के बाद मैं बड़ी और उंची घास में फंस गया। जहां तक मेरी नजर जाती वहां घास ही घास दिखाई दे रही थी। मैं डर कर उलटा भागा। और घास के बहार निकल आया। और वहां खड़ा हो कर अपनी किस्मत को कोसने लगा। कि क्यों में पापा जी का साथ छोड़ कर अलग हो गया। अब तक मैं डरा जरूर था पर हिम्मत नहीं हारी थी। मैंने खड़े हो कर एक बार चारों और देखा। आसमान पर सूर्य चमक रहा था। अब कौन सी बात मुझे मार्ग दिखाए। सूर्य सामने था....और हमारा घर ठीक इसके विपरीत पड़ता था। ये बात मेरी समझ में आई....
यही सोच रहा था। मेरा मन कर रहा था ज़ोर—ज़ोर से रो कर पापा जी को मदद के लिए बुलाऊं। पर डर इस बात का भी था की पास ही कोई जंगली जानवर मेरी आवाज सुन कर मुझ पर हमला न कर दे। इसलिए मैं अपने कदमों की आहट से भी डर रहा था। वही दिल के धड़कने की आवाज जो पहले सुनाई भी नहीं देती थी। आज वो भी मुझे डरा रही थी। सूर्य की और मुख कर के मैं उस खाली मैदान की और चल दिया। जो जंगल मेरा अपना जाना पहचान सा था। आज एक दम से अंजान और कितना पराया लग रहा था। मैं इतनी बार जंगल आया था। और मुझे भ्रम हो गया था की में पूरे जंगल से परिचित हो गया हूं।
करीब आधा घंटा चलने के बाद मुझे लगा की मैं रास्ते के करीब हूं। कुछ गाय—भैंसों के चलने और उनके गले की घंटी की आवाज सुनाई दी। मैंने झाड़ी की ओटा से देखा तो दूर गाय—भैंसों का झुंड रेत उड़ाता चला जा रहा था। उसके पीछे उसका चरवाहा। अपनी लाठी को अपने कंधे पर रख कर कुछ मुख से आवाज निकालता चल रहा था। उसके साथ में दो कुत्ते भी थे। मैं डर उस झाड़ी के पीछे सांस रोक कर बैठ गया। और भगवान से दुआ करने लगा की आज मुझे बचा ले फिर जीवन में ऐसी भूल कभी नहीं करूंगा। पर हवा की विपरीत दशा होने के कारण वह कुत्ते मेरी गंध नहीं ले पाये और धीरे—धीरे आँखों से ओझल हो गये। तब जा कर मेरी सांस में सांस आई। और मैं सतर्क चाल से उस रास्ते की और चल दिया। रास्ते पर पहुंच कर मुझे कुछ उम्मीद बंधी की में घर जा सकता हूं।
जिस तरफ अभी गाय—भेस का झुंड गया था। उस तरफ तो जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी। और यही मेरी लिए अच्छा हुआ। क्योंकि अभी वह झुंड गांव से जंगल की और जा रहा था। और जहां से आयी थी वह रास्ता गांव की और जाता था। बस फिर क्या था। मैंने पूरी ताकत से दौड़ लगाई। और मैं यह देख कर बहुत खुश हुआ की सामने वही दूसरा नाला था जिसे मैंने कितनी ही बार पापा जी के साथ पार किया था। प्यास लगी थी। सो मैंने चलते पानी से कुछ प्यास बुझाई पर वहां की गहराई और शांति के कारण मुझे डर लग रहा था। की कोई मुझे पर आकर अभी हमला कर सकता था।
मैं डर के मारे फटा—फट ऊपर की और भागा। और दूसरे किनारे पर जा कर मैंने चैन की सांस ली। नाले की चढ़ाई के पास ही दो सहमल के वृक्ष थे। जो पूरे जंगल में कहीं से देखे जा सकते थे। उन वृक्षों पर हमेशा तोते, चील, कौवे, और जंगली चिड़ियों की भरमार रहती थी। और मुझे उन की मधुर आवाज बहुत ही अच्छी लगती थी। मैं ऊपर गर्दन कर उन्हें बड़े अरमानों से निहारा रहा था। पर आज भय के कारण मुझे वो सब अच्छा नहीं लग रहा था। जब मन अशांत हो तो आप तनाव को महसूस करते हो। इस बात का अहसास भी मुझे पहली बहार हुआ।
पापा जी भी इन पक्षियों की फोटो खिचते तो मुझे अच्छा लगाता था। और जब इन्हीं आवाजों को में टी. वी पर सुनता और देखता तो मुझे बड़ा अचरज होता था। और मैं बार—बार गर्दन को आड़ी तिरछी करके सुनने की कोशिश करता था। तब मेरी इस हरकत को देख कर सब को बड़ा अचरज होता था। की मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं। पर आज उस आवाज़ को सुन कर भी मैं मंत्र मुग्ध नहीं हो रहा था। पर बार—बार यही सोच रहा था। काश पापा जी दिखाई दे जाये। कहीं से एक बार में भाग कर उनसे लिपट जाऊँ। ऐसा पहली बार हुआ ये बार—बार मैंने किया था। इसके बाद मैं पापा जी से जरा भी दूर नहीं जाउँगा। पापा जी जब ध्यान करते थे तो मैं हमेशा उनसे सट कर बैठता था। चोकीदारा करना तो भूल ही जाता पापा जी से सट कर बहुत गहराई में डूब कर सो जाता था। परंतु सोने पर भी मेरे कान हमेशा काम करते और सतर्क रहते थे। जरा सी आहट और मैं तुरंत जाग जाता था। लेकिन तब भी सतत पापा जी ध्यान में ही डूबे रहते थे।
सच बात तो तब यह होती थी की मुझे वहां डर लग रहा होता था। परंतु पापा जी मेरे पास बैठे है इस आशा में डर कुछ कम हो जाता था। परंतु पापा जी को इस तरह से थिर बैठे और आंखें किए बैठा हुआ देख कर भी हिम्मत बंधी रहती थी। परंतु आज तो किस मनहूस घड़ी में पापा जी से अलग रह गया था। खोजी जासूस बना रहा था, आफत मोल ले ली सच इस तरह मुझे अपने पर बहुत क्रोध आ रहा था। मैं ये सब बार—बार क्यों कर रहा हूं या ये सब क्यों मेरे साथ हो रहा था। कितनी दूर निकल गया इस का मुझे कुछ पता नहीं था। इस बात का मुझे अचरज था की मैं इतना दूर तो नहीं गया था। परंतु अभी तो पापा जी के साथ—साथ ही तो था। शायद घबराकर मैं गलत रास्ते पर भटक गया। भय के कारण मैं विपरीत दिशा में चल दिया। उस समय अगर मैं थोड़ा ध्यान देता तो पापा जी को खोज सकता था। परंतु अब केवल सोच सकता हूं वह समय तो निकल गया।
वहां पर ज्यादा देर खड़ा होने से मुझे डर भी लग रहा था। सो मैं उस रास्ते पर नाक की सिद्ध में भागा। और बिना थकावट महसूस किए दूसरे नाले के पास पहुंच गया। ये नाला बहुत गहरा था। पर मैंने कुछ नहीं सोचा और भाग कर इसे पल में पार कर गया। इस बीच डर कर मैंने एक बार इधर उधर भी देखा। पर वहां पर कोई नजर नहीं आया। न ही कहीं से किसी के पुकारने की आवाज आ रही थी। मैंने बिना समय बर्बाद किए घर की और चलने का निर्णय लिया। कुछ दूर चलने पर तारकोल की वह पक्की सड़क आ गई। जिस पर बनी उस पुलिया पर हम बैठ कर आराम करते थे।
आज कहां आराम था, पर एक उम्मीद थी की मैं सही मार्ग पर चल रहा हूं। जो खोने का भय था वह खत्म हो गया था। बस भटकने का भय रह गया था। सड़क पार कर में आगे बढ़ा और कुछ दूर चलने पर रास्ता तीन हिस्सों में बट गया। अब मेरे लिए नई उलझन शुरू हुई कि किस रास्ते पर चलू। तीनों रास्तों पर आठ—दस कदम जा कर सूंघकर मैंने समझना चाहा। पर बात बनी नहीं। मैं थक गया था। और मेरा रोने को मन कर रहा था। कोई चारा न देख कर मैं उन रास्ते के बँटवारे के बीच में बैठ कर सोचने लगा। कि अब क्या किया जा सकता था। दूर से कोई आदमी आता दिखाई दिया। और मुझे लगा की पापा जी आ गये। और मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
पर जिसे—जैसे वह आदमी नजदीक आ रहा था। उसका चलना। उसकी उँचाई पापा जैसे नहीं लग रही थी। नहीं पर मन बार उस पर पापा जी की छवि आरोपित कर रहा था। कि नहीं ये पापा जी है। परंतु पास आने पर मेरा भ्रम टूट गया था। उस आदमी ने मेरी और एक बार देखा और वह अपने मार्ग पर चला गया। मैं फिर संभल कर बैठ गया। कितनी देर बैठा रहा कुछ पता नहीं। रास्ता एक दम से सून—सान था। इतनी देर में न जाने किस दशा से तीन कुत्ते आ गये। और मुझे अकेला बैठे देख कर मेरी और झपटे।
मैं इस नई मुसीबत के लिए तैयार नहीं था। पर तैयार भी होता तो उन खूंखार तीन कुत्तों का मैं कर भी क्या सकता था। पर जब प्राणों पर आन पड़ती है तो मस्तिष्क भले ही काम न करें पर शरीर अपनी हरकत में आ जाता है। तब मैं एक ही झटके में पास की एक झाड़ी का सहारा ले कर बैठ गया। मेरे तीन और ऊँची झंडियां थी। और सामने तीन खूंखार कुत्ते बड़े—बड़े दाँत निकाले मुझे खा जाने के लिए तैयार थे। परंतु ये समय डरने का नहीं था, सहसा से उसकी टक्कर लेने का था। सो मैं भी आपने पूरे जंगली पन पर आ गया। और अपने नये और चमकदार दाँत निकाल कर प्रतिरोध व्यक्ति करने लगा। कुछ देर वह इसी तरह ग़ुर्राते रहे पर मुझ पर हमला करने की किसी की हिम्मत नहीं थी। बार—बार एक बात मेरे दिमाग में आ रही थी की हम अपनी जाति के इतने दुश्मन क्यों है? मैंने तो उनका कुछ बिगाड़ा भी नहीं था....फिर वो क्यों अपना दुश्मन समझ रहे थे।
वो तीनों कुत्ते मेरे ऊपर हमला न कर सके, इसका शायद ये कारण था कि मैं तीन और से झाड़ियां के बीच में था। वह तीन जरूर थे परंतु मेरे तीन और झाडियों का रक्षा कवच था। उस अवस्था में मुझे घेर कर हमला करना आसान नहीं था। परंतु अगर सामने से वो हमला करते तो उनके घायल होने की भी संभावना थी। क्योंकि मैं अपने नये नुकीले चमकदार दाँत दिखा—दिखा कर उन्हें डरा रहा था। प्रत्येक प्राण पहले अपनी रक्षा चाहता है, फिर वह हमला कर सकता है, एक कुदरती नियम है, क्योंकि हो सकता है मैं अपने नुकीले दाँत उनकी थूथन में गड़ा देता। उनको मैं अपने पैने दाँत दिखा कर उन्हें डरा रहा था। शायद वह और एक दूसरे के भरोसे थे कि कौन पहले हमला करें। या शायद उनकी पल भर कि दादा गिरी भी हो सकती थी। मैं अंदर से गुर्रा भी रहा था और डर के मारे कांप भी रहा था। कितनी देर वह कोशिश करते रहे, परंतु उसे शायद एक ताकत का खेल समझ रहे थे, शायद मुझ पर आक्रमण न कर सकने का एक कारण वह था। वो कहीं जा रहे थे इसलिए वहां ज्यादा देर तक रूके भी नहीं। परंतु मैं बहुत देर उस झाड़ी से नहीं निकला की आस पास खड़े हो मेरे निकलने का इंतजार तो नहीं कर रहे है। अब मैं उन का क्या नुकसान कर रहा था। या मेरी क्या गलती थी। कि वो मुझ पर हमला बोल रहे थे। इन कुत्तों की ही बात नहीं, आप किसी गली मोहल्ले में चले जाये। आपको और कोई कुछ कहे न कहे पर आपकी ही जाति के आपके दुश्मन बन आपको वहां से खदेड़ देंगे।
मैं बैठा हुआ यही सोच रहा था। इतने में किसी के पैरो कही आहट आई। जैसे कोई तेज कदमों से दौड़ता हुआ आ रहा था। मैं झाड़ी से निकल कर रास्ते पर आ कर देखने लगा। एक परछाई सी दौड़ती हुई मेरी और आ रही थी। मुझे लगा हो न हो ये पापा जी है। और दूसरे पल डर गया की अगर न हुए तो......और मेरी आंखों में आंसू भर आये। जैसे—जैसे वह परछाई नजदीक आ रही थी मुझे यकीन हो रहा था कि ये पापा जी ही हो सकते है। सामने से आती सूर्य की चमक मुझे दिग्भ्रमित कर रही थी। पर शायद पापा जी ने मुझे दूर से ही पहचान लिया। और जोर से चिल्लाए....पोनी....पोनी....उतनी मधुर आवाज आज तक मैंने अपने नाम की पहले नहीं सुनी थी। वो मेरे लिए जीवन दायिनी थी।
वो आवाज नहीं थी, मेरे टूटती आस की डोर थी। मेरे बंध होते दिल की धड़कन थी। मेरे जीने की उमंग थी। पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था। फिर उसके बाद मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और इतना तेज गति से पापा की और भागने लगा। और दूर से ही भौंक—भौंक कर अपने गुस्से का इजहार करने लगा। देखा आपने मन का मनोविज्ञान जब तक तुम भयभीत हो मिलने कि दुआ करते है। जब मिल जाते हो तो क्रोध कर अपना आधिपत्य जमाना चाहते हो।
पापा जी मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ गये। और में उछल कर उनका मुख चटाने लगा और रोने लगा। उन्होंने मुझे उठा कर अपने सीने से लगा लिया। और मुझे बेतहाशा चूमने लगे। मैं ये सब देख रहा था उनकी आंखों से पानी बह रहा था। मैं आगे बढ़ कर जीभ से पल में उनकी आंखों के आंसू भी चाट गया। जब इस घटना का घर पर पता चला तो मुझे सब ने प्यार किया और साथ में डांटा भी। देखो ये पापा जी की भी गलती सब ने बताई की आपने इसे अकेला क्यों छोड़ा। और मैं मूक दर्शक बना ये सब देखता रहा की इनमें बेचारे पापा जी की क्या गलती थी। सारी गलती तो मेरी ही है।
लेकिन मेरे इस तरह से तीन तरफ बँटते रास्ते पर इंतजार करने की घटना ने उस पर मरहम का और बुद्धिमानी का काम किया था। मेरी इस चतुराई के कसीदे बार—बार पढ़े गये। पोनी ने जब देखा की रास्ता अब तीन और बंट रहा था.....और वह रास्ते की पहचान भूल रहा था। तब उसने कितनी समझदारी से काम लिया और आगे नहीं बढ़ा.........वह बैठ कर इंतजार करने लगा...इस सब के बीच उसने खतरो का भी सामान कर अपने साहस का परिचय दिया। पोनी बहुत समझदार है इसे इनाम और इकराम से माला—माल कर दिया जाये।
अब बस...भुं....भुं....भुं....
आज इतना ही
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