कुल पेज दृश्य

शनिवार, 29 जून 2024

19 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

अध्‍याय -19


(मम्‍मी पापा के बिछोह की पीड़ा)

मम्‍मीपापा से बिछड़ने का अनुभव मेरे लिए नया था। इससे कुछ भय और असुरक्षा का भाव भी मेरे अंदर प्रवेश कर गया था। अब तक जिन मनुष्‍य के संग मैं अपने को सुरक्षित महसूस करता था। वे दोनों ही व्यक्ति मेरे आस पास नहीं थे। एक नया खाली पन मेरे अंदर भर रहा था। जिसमें भय के साथ असुरक्षा भी समाहित थी। जिसके कारण मुझे अपने गहरे में मौत के सन्‍नाटे जैसा महसूस हो रहा था। हालांकि खाना तो मिल जाता था। पर मन में एक भय एक डर हमेशा बना रहता था। परंतु ये सब जो घट रहा था सब मेरी समझ के बहार की बात थी। परिवार के सभी लोग तो यहां पर थे, एक मम्‍मी पापा ही तो चले गये थे। लेकिन वो भी शायद कुछ दिनों के लिए, फिर शायद लोट आये।

क्‍योंकि छोटीछोटी विदाई एक दो दिन की तो पहले भी चलती रहती थी। पर इस बार मेरे सब्र के भी पार की बिदाई हो गई थी। फिर न जाने क्‍यों सब बिखराबिखरा सा लग रहा था। मेरी चेतना जो मुझे ऊपर की और धक्‍के मार रही थी। और मेरा शरीर जो मुझे बांधे हुए था। न में कुछ जान ही पा रहा था, न ही कुछ समझे में आ रहा था। एकदम से अनजाने से लगते थे सब लोग। लगता था किसी और ही घर में किसी और ही लोक में रह रहा हूं। इन दिनों मेरा मन अति अशांत रहता था। मैं अपने को एक कैद में बंधा महसूस कर रहा था। लगता था इस सब को फाड़ कर निकल भागू। परंतु शायद हम इसे कभी नहीं तोड़ सकते। ये मुक्‍ति हमारे भाग्‍य में नहीं है। इस सब को पाने के लिए हमें मनुष्‍य जन्‍म तक की यात्रा करनी ही होगी।

शायद तभी हम को पशु नाम दिया गया है। हम प्रकृति के हाथों बंधे है, शरीर के ज़रिये से, एक लाचारी थी, एक मजबूरी थी। मुझे वो सीढ़ियाँ दिखाई दे रही थी। जिस पर से में चढ़ कर ऊपर जा सकता था। और मुझे ऊपर जाने में सहयोग भी मिल रहा था। पर मेरा शारीरिक विकास इसमें  बहुत बड़ी बाधा बन रहा था। पर इस शरीर को में छोड़ या तोड़ भी नहीं सकता था। तब मेरा होना ही कहां रहता, इस सब के कारण तो मैं था। पर आप समझ सकते है, मेरी लाचारी, जो भाषा के साथ प्रत्येक कदम पर हमारी बेबसी दिखे जा सकती थी। एक प्रकार से मैं बेल गाड़ी के पीछे आपने आप को बंधा हुआ पा रहा था। जो मेरी गति से अधिक तेज चल रही हो और मैं चल कम रहा हूं और उसकी गति के कारण घसीट अधिक रहा हूं।

ऐसा मुझ अपने जीवन पर से गुजरता साफ दिखाई दे रहा था। पर मैं लाचार था, इस घिसटने में एक पीड़ा के साथसाथ सुखद एहसास भी था। आप एक ऐसी आग में खड़े है जो जलाने के अलावा एक सीतलता का आनंद भी प्रदान कर रही हो। तब आपको उस आग में जलना अति सुखद लगने लगेगा। उसमें एक तृप्ति एक शांति पीड़ा से अधिक सूख आपको महसूस करा रही होगी। मैं अपने आप को बहुत अधिक भाग्‍य शाली समझता हूं। कि में इस विकास क्रम में ऐसे मनुष्‍यों का संग साथ मिला, जो मनुष्‍य नहीं देवतुल्य थे। नहीं तो इतना भाग्य ले कर मैं कहां से आया था। एक जंगली मां की गोद में जन्‍म लिया। कौन कल्पना कर सकता है....एक जंगली और फिर अचानक एक देवतुल्य परिवार में। कुछ कर्म का सिद्धांत तो होना जरूर ही चाहिए। जब पहली बार उन कुरूर हाथों ने मुझे उठा लिया था, तब तो मुझे लग रहा था की जीवन मात्र कुछ ही समय की बची है। उस समय मैं कितना डर गया था। परंतु आपने देखा मेरा जीवन चक्र मुझे कहां पहुंच  गया स्‍वर्ग तुल्‍य घर में। मेरे साथ जो मेरी बहन आई थी। वह तो उन पापियों के हाथों एक दिन मारी भी गई। अगर मैं वहां रह जाता तो मैं भी मर जाता। फिर प्रकृति का वो कौन सा अंजान खेल है। जिसमें हम सब एक ही स्‍थान, और समय में रह कर भी भिन्‍नभिन्‍न जीवन जी लेते है। जिसे भाग्‍य के नाम से जाना जाता है। इसी को हिन्‍दू प्रारारभ कहते है। होना तो चाहिए, कुछ कर्म का सिद्धांत वरना एक ही गर्भ में मैं और मेरे दूसरे भाई बहन रहे, एक ही मां का दूध पिया, एक ही खून से हमें सींचे गए, फिर भी सब का भाग्‍य अलगअलग था।

शायद प्रकृति कि गोद या उसके संग में रहकर जो विकास में हजारों जन्‍म में करता। उसे मनुष्य के संग में एक जन्‍म में कर गया। जैसे भोंकने वाली बात को ही ले लीजिए, जब में गली के आपने साथियों को भोंकते सुनता था तो संग भोंकने लग जाता था। पर कुछ ही दिन में समझ गया कि ये सब मेरे बूते के बहार की बात है। मैं क्‍यों भोंकूँ, ये क्‍यों जब आपके मन में प्रश्न आता है तब समझो आप एक नए ही जीवन में प्रवेश कर गए। तब आपकी सारी की सारी अवधारणा चकना चुर हो कर गिरने लग जाती है।

अब मैं घर की घंटी के बजाने के अंदाज से ही समझ जाता है कि कौन आया। कोई परिचित है या अंजान जिसे भोंकना है या नहीं। ये नहीं की मैं पंडित हो गया और ज्ञानी बन गया जिस ने भोंकना ही बंद कर दिया हो। भला हम भोंकना कैसे बंद कर सकते है, पर इसमें एक लय आ गई एक तहजीब समा गई थी। ये नहीं की पगलों की तरह बस भोंकते ही चले जाओ न कुछ देखना न कुछ समझा बस एक भोंका तो सब पीछे चल पड़े भेड़ चाल की तरह से। बाहर गली के कुत्तों को सुनता हूं रात को एक बर अगर उनका भोंकना चालू हो गया तो आप समझ ले कि गई घंटों तक बात। एक दौरा सा पड़ जाता है भोंकने का उन पर। कारण हो या न हो बस उन्हें तो भौंकने से मतलब है। इसके साथ खाने की भूख इतनी कम हो गई थी, कि मैं बस एक ही समय भोजन करता था। वह भी केवल श्‍याम को सुबह दूध वगैरह पी लेता था। जंगल में घूमने जाते समय जब किसी कुत्‍ते को मरे जानवर को खाते हुए अगर देख लेता तो मेरा जी कैसे मिचलाने लग जाता था।

सोचता था इतनी बदबू वाली गंदी सी चीज ये क्‍यों खा रहा है। क्‍या इस सड़ी चीज को खाकर ये बीमार नहीं हो जायेगे। तालाब का गंदा पानी भी अब मुझे नहीं भाता था। ये सब मेरा पतन था या उत्‍थान में समझ नहीं पा रहा था। पर एक खुशी की लहर बह रही थी मेरे अंदर, एक शांति की छाया मुझे अपने में घेरे रहती थी। पहले जितना क्रोध मुझे आता था, वह अब कम हो गया था। पापा जी जब कोई ओशो जी का प्रवचन लगा कर सुनते तो वह मेरे लिए एक लोरी का काम करता। शब्‍द तो मुझे समझ नहीं आते थे। पर वो ध्वनि मुझे बहुत मधुर लगती थी। वो गुंज मुझे एक पंखों पर बिठा कर कही लिए चली जाती थी। जहां से लोट कर जब आता तो ये दुनियां कुछ नई महसूस होती थी। उस नींद और साधारण नींद में दिन रात का अंतर था। वो एक चमत्‍कारी नींद थी। जिस नींद का मैं सदा इंतजार करता रहता था। और चाहता था कि जब मैं मरू तो मैं उसी ध्वनि की तरंग पर बैठ कर मरू (भाग्‍य से ऐसा ही हुआ) पर ये मेरे बस की बात नहीं थी। पर ये सच है आप मानो या न मानो मैं यही सोचता था हमेशा और यहीं मेरी तमन्‍ना थी।

अगर मैं मनुष्‍य के संग साथ नहीं रहता तो उतनी गहरी नींद कभी नहीं सो पाता। क्‍योंकि जीवन का खतरा हर क्षण मुझे घेरे रहता था। पर वो परम सुखद एहसास तो अपने में पूर्णता ही समेटे हुए था। मैं मनुष्‍य के स्‍वभाव और समझ से परिचित हो गया था। वो सुरक्षा जब अंदर एक निश्चिंतता बन गई तो बाद में वह एक जागरण बननी शुरू हो रही थी। एक चमक जो जागरण और नींद के बीच पतली से धारा बन कर बहता है। जो हमें कुदरत ने अनजाने तौर पर उपहार में दी गई है। लेकिन भाग्य देखो यह मनुष्‍य उस से आज अनभीग होता जा रहा है। और अगर सच कहूं तो शायद वो ही ध्यान होगा। हो सकता है मैं गलत हूं...।

धीरेधीर मेरे अंदर की तमस एक जागरण में रूपांतरित होने लगी थी। अंदर की बेहोशी जो अंधकारमय थी, धीरेधीरे वो मेरे शरीर के माध्यम से जीवन पर छानें लग गई थी। जिसे अब मैं खेलते हुए, देखते हुए, चलते हुए, भी महसूस करने लग गया था। एक तृप्‍ति जो गहरे से गहरे तल को कुरेद रही थी। मेरे अंतस की सुप्त दरारों को छेद रही थी। उस सब के बीच मेरे जीवन के साथसाथ मधुरता मेरे मुख में रस बन कर बह रही थी, मेरे अंतस में समा रही थी।

दिन पर दिन बीतते जा रहे थे। एकएक दिन काटे नहीं कर रहा था। हालांकि मैं जानता था, दिनों की लम्‍बाई अधिक नहीं हुई है। वह तो अपनी ही गति से चल रहे थे। पर हमारे जीवन के बहाव में ही कहीं ठहराव आ गया था। जैसे किसी झरने को बीच से अवरोध कर के एक अंजान मार्ग पर मोड़ दिया हो। जैसे किसी कविता के छंदो में परिवर्तन कर उसे ताल वद्धित कर दिया गया हो। दूसरी और मेरे अचेतन के समान्तर तल में कुछ अजीब सा सूनापन मुझे कुरेदे और खाये जा रहा था। ये सब कुछ मुझ अकेले पर ही नहीं गुजर रही था, इसमें घर की चारों चौकड़ी शामिल थी। जैसेजैसे दिन बीत रहे थे उदासी घनी और गहरी होती जा रही थी।

कभीकभी तो उदासी का वो छोर आ जाता था कि लगता था इस का अब कोई अंत नहीं है। अब हमें पूरी उम्र ऐसे ही मम्‍मी पापा के बिना ही जीना होगा। लेकिन अंदर एक आस थी, नहीं ऐसा नहीं हो सकता जरूर हमारे फिर वही पुराने दिन आयेंगे। जब हम किसी से दूर हो जाते है तब हमें उस कि कीमत क्‍यों पता चलती है। शायद एक गहरा खाली पन हो जाता है हमारे अंदर। और उसे हम नहीं भर पाते किसी दूसरी चीजों से। इस बिछोह में पीड़ा ही नहीं एक भय भी मेरे अंदर भर गया था, एक असुरक्षा का, एक काला शाह अँधेरा और पता नहीं उस के पार कोई प्रकाश है या नहीं। न तो भूख ही लगती थी, बस किसी तरह से खा लेते थे मन मार कर, पर उसमें पहले जैसा कोई चाव नहीं था। वरना तो खाने का मुझे इतना शोक था कि जब भी घर में कोई नई या मेरी पसंद की चीजें बनती थी, तो मेरी बाछे खिल उठती थी।

तब उस का इंतजार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो जाता था। एक बार याद है मुझे जब मैं छोटा था, शायद शरदी के दिन थे, उस दिन गाजर का हलवा बन रहा था। मैं बारबार किचन में भागभाग कर जा रहा था। उन दिनों आँगन में लकड़ी जलाने का एक चूल्हा भी होता था। अब मेरे इस तरह से घुसने से मम्‍मी बारबार परेशान हो रहे थे कि कहीं मैं जलते चूल्हे की आग में न जल जाऊँ। आखिर कार मुझे चैन से एक चार पाई के पाए से बाँध दिया गया। पर मुझे कहां सब्र था, नहीं रहा जा रहा था कि इसे बनने में इतनी देर क्‍यों लग रही है, इसे जल्‍दी बनाओ जो भी बना रहे है उसकी सुगंध बहुत सुस्‍वाद है। उसकी खुशबु मेरे नाक में घुस रही थी।

उसी से पता चल रहा था की वो कितनी सुस्‍वाद खाने की चीज बन रही थी। तब मैं उस चारपाई को भी खींच कर उस चूल्हे के पास ले गया था। और रो भी रहा था कि मुझे इतनी दूर क्‍यों बांध दिया और आप सब लोग न जाने क्‍या मजे से खा रहे हो। और मुझे देखने से भी महरूम कर दिया गया। तब मेरे इस तरह से रोने से सब लोगों ने मेरा कैसा मजाक बनाया था। और कुछ क्षण के लिए मैं उस मधुर सुगंध को भूल कर झेप गया था। और सब को भौंकने लगा, फिर भी सब हंस रहे थे।

पर अब तो खाना अंदर जाता ही नहीं था। लगता था गला ही किसी ने बंद कर दिया है। न ही खेलने को मन करता था। कुछ देर हम सब खेलते और बाद में उदास हो जाते। ज्‍यादातर मैं एक कोने में उदास पड़ा रहता था। और अचानक एक दिन इतने दिन की उदासी के बाद कही कोई बिजली कौंधी कुछ नये पन का बहाव महसूस हुआ। ये सब मेरे सोचने से नहीं हो रहा था। एक ऐसा झोंका अचानक उठा जैसे मेरे जलते शरीर में कहीं से शीतलता ने आकर घेर लिया हो। एक ऐसा आयोजन जो शांत और उदास झील में अचानक तरंगों को जगा दे। ये सब अपने आप ही हुआ था। किसी अंजान शक्‍ति के सहारे। पूरे मन और तन पर जो उदासी फैली थी वह न जाने प्रकाश की एक किरण के आगे काफूर हो गई।

मैंने दीदीभैया के पास जाकर उनके चेहरों को देखना चाहा। पर वह तो अभी भी उदास थे। मैं उनके पास जा कर पंजा मारने लगा। और कुं...कुं....कुं कर के रोने लगा। तब भी उनका ध्‍यान मेरी और नहीं हुआ। तब मैं समझ गया की ये सब मेरे ही साथ हो रहा है। इस घर के बाकी लोग उसे महसूस नहीं कर रहे थे। लेकिन मैंने उस अंजान से झोंके को रूकने नहीं दिया। अपने को खुला छोड़ दिया। और उसे बहने दिया। वो मेरे रोंएरेशे में फैलने लगा। कुछ ही देर में सब बात मेरी समझ में आने लग गई। लगता की अभी घर की घंटी बजेगी और मम्‍मीपापा सामने आकर खड़े हो जायेगे।

अब मेरे शरीर की उर्जा मुझे लेटने तक नहीं रहने दे रही थी। लगता था कोई मुझे उठा रहा है। मेरे न चाहने पर भी वह अंजान शक्‍ति मुझे धकेल रही थी। मेरे शरीर में एक प्रकार की खुशी की तरंग फैल रही थी। लगता था की मैं जोर से भौंकू और भागू। मुझे लग रहा था अभी मुझे पंख उग जायेगे और में उड़ कर चाँद सितारों को तोड़ कर पल में नीचे ले आऊँगा। लेकिन जब मुझसे ये सब सहन नहीं हुआ तो फिर भैयादीदी के पास भागा गया और जोरजोर से भोंकने लगा। अब कि बार उन्‍होंने मेरी और देखा। उनको मेरी आंखों में खुशी नजर आई। मैं दीदी के कंधे पर पैर रख कर खड़ा हो गया। शायद वह कुछ पढ़ रही थी। और मैंने उनका मुख चाट लिया। और भोंकता हुआ दूर निकल गया। मेरे इस तरह के व्यवहार से घर का तनाव कुछ कम हुआ। उन लोगों को भी लगा कि जरूर कोर्इ बात है। वरना तो पोनी ने इतने दिन से कभी ऐसा व्‍यवहार नहीं किया था। उस रात मैंने ही नहीं हम सब ने भर पेट खाना खाया। मुझे तो खुशी के मारे रात को नींद भी नहीं आई बारबार रहरह कर ऐसा लगता की अभी पल में घर की घंटी बजी।

और जिसे मैं एक सपना समझ रहा था वह सुबह सच हो गया। अचानक घर की घंटी बजी। हम सब इस के लिए तैयार थे। मैं तो रात से ही घर के दरवाजे के पास बैठ गया था की अब घंटी बजी के तब घंटी बजी। परंतु सब घर के अंदर बैठे थे। मेरे साथ दीदीभैया भी भागे कर आये। मैं दरवाजे के पास पहुंच  कर पंजे मारने लगा। पर उसे खोल नहीं सका। दीदी ने आकर दरवाजा खोला। सामने मम्‍मी पापा खड़े थे। मैं दोनों पैरो के सहारे खड़ा हुआ और प्यार के मारे मम्‍मी जी के मुख में मैंने अपनी जीभ डाल दी। बस फिर क्‍या था, मैं तेजी से आँगन में भाग रहा था। रो रहा था, अपनी खुशी को किसी तरह से निकालने कि कोशिश कर रहा था।

लगता था मेरा ह्रदय इसे बरदाश्त नहीं कर सकता कही ये गुब्‍बारे की तरह से फट न जाये। सब मुझे छूने की कोशिश कर रह थे। पर मैं अनछुआ सा सब के बीच से भाग रहा था। इस तरह के व्‍यवहार के कारण पापा जी की आंखों में आंसू आ गये वह खड़े होकर जोर से ताली बजा कर मुझे उत्साहित कर रहे थे। इसके बाद सब ताली बजा कर मुझे शाबाशी दे रहे थे। आखिर मुझे पापा जी ने पकड़ कर अपने सीने से लगा लिया, मैं रो रहा था। और लग रहा था कि कहीं दूर उड़ जाऊँ जहां मुझे कोई छू न सके। पापा जी चूम कर मुझे प्‍यार करने लगे। मैंने आंखें उठा कर देखा तो सभी मेरे साथ रो रहे थे। एक दूसरे के गले लग रहे थे।

उस रात पापा जी ने हम सब को जब परी की कहानी सुनाई तब मैं भी पापा जी घुटनों पर सर रख कर लेटा था। पापा जी मेरी गर्दन पर प्‍यार से हाथ फेर रहे थे। इस सब के बीच मुझे तो नींद ही आ गई। तब मैंने एक सपना देखा, एक बहुत बड़ा बादल है। एक दम सफेद झक्‍क, रूई के फोहो की तरह। पापा जी उस पर महरून रंग के कपड़े पहने बैठे थे। उस बादल के चारों और काले और सफेद रंग के कपड़े पहने बहुत से लोग नाच रहे है। एक बहुत बड़ा सा वृक्ष है, जिस का तना और पत्‍ते तो दिखाई दे रहे है। पर उस का ऊपरी हिस्सा हमें दिखाई नहीं दे रहा। पेड़ के नीचे बैठे हुए पापा जी के ऊपर पीले रंग के फूल गिर रहे थे।

थोड़ी देर में मैं क्या देखता हूं कि उस वृक्ष पर फूल कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। उसके बाद क्‍या देखता हूं, जिस बादल पर पापा जी बैठे थे। वह अचानक ऊपर की और उठने लग जाता है। सब नाचने वाले लोग कुछ पल के लिए रूक जाते है और खड़े हो कर एक आश्चर्य से उसे देख रहे परंतु केवल नीचे खड़े रह कर। गुब्‍बारे नुमा वह बादल औरऔर छोटा होता जा रहा था। वहां पर नीचे हम अनेक लोग सब नाच रहे थे। अचानक सब का नाच बंद हो जाता है। सब उस उड़ते बादल को अचरज से देख रहे थे। मधुर संगीत की ध्वनि बज रही थी। परंतु उस बादल को कोई रोकने की या पकड़ने की कोशिश थी नहीं कर रहा था। सब के चेहरे पर एक अद्भुत सी खुशी फैली हुई थी। अचानक इस बीच एक बहुत बड़ा आदमी जो काले रंग के कपड़े पहने हुआ था। उसके हाथ में एक बड़ा सा लकड़ी का ऊँचा डंडा था। वह हमारे बीच में आ कर खड़ा हो गया। उस आदमी की ऊँचाई हम देख नहीं पा रहे थे।

फिर वह आदमी इतना बड़ा और बड़ा होता गया की हम उसके नाखून से भी छोटे दिखाई देते है। उसकी आंखें बिजली की तरह चमक रही थी। उसकी सफेद दाढ़ी लंबी और बहुत बड़ी थी। जो हवा में झूल रही थी। वह बादल पर बैठे पापा जी को एक बार देखते है। पापा जी इतने छोटे से दिखाई दे रहे थे एक दम से चींटी की तरह। मानो अभी आंखों से ओझल हुए की तब हुए। तभी अचानक वह आदमी अपने छड़ी वाले हाथ को ऊपर की और उठाता है। और पापा जी जिस बादल पर बैठ कर कहीं दूर आंखों से ओझल होते जा रहे थे। अचानक रूक जाते है और वापस हमारी और लोटना शुरू कर देते है।

जैसेजैसे बादल नीचे की और आता है, सब लोग मस्‍त झूम कर नाचना शुरू कर देते है। चारों और आनंद उत्‍सव का माहोल बन जाता है। आसमान से अब लाल फूलों की वर्षों होने लग जाती है। उन फूलो से वहां नाचते हुए सब लोग सराबोर हो जाते है। नीचे आतेआते बादल बहुत बड़ा हो जाता है, और उस पर बैठे पापा जी जो लाल रंग के कपड़े पहने थे अब एक दम से सफेद रंग के कपड़े पहने वापस आते हुए दिखाई देते है। अब आंखों को भ्रम होता है कि बादल खाली है या उस पर पापा जी बैठे है या नहीं। और अचानक बहुत जोर से प्रकाश होता है। और आसमान से मोतियों की वर्षों होनी शुरू हो जाती है। सब लोग मोतियों से अपनी खाली झोले भर रहे है, पापा जी के घने काले बालों में मोती झूम रहे है। पर उनकी आंखें बंद है, वो हमें देख नहीं रहे है। मैं भोंक कर उनका ध्‍यान अपनी और खींचना चाहता हूं। परंतु मेरी आवाज नहीं निकल पा रही थी।

क्‍योंकि वहाँ और कोई आदमी मेरा परिचित नहीं था। मैं वहां पर बिलकुल अकेला था। और तभी अचानक वह काले चोगे वाला महान पुरूष मेरी और वह जादू की छड़ी से कुछ करता है और मैं भी उन्‍हीं सब जैसा मानव बन जाता हूं। इस बात की मुझे इतनी खुशी होती है की मैं मोती चुनना नहीं चाह कर केवल आनंद से नाचने लग जाता हूं मुझे लगता है अब मैं पापा जी के पास जा कर उन्‍हें कहूं की तुम आंखें खोल कर मुझे देखो क्‍या तुम मुझे पहचान सकते हो कि मैं कौन हूं, नहीं वह तो अपने पोनी को ही खोजेंगे और मेरा रूप रंग बदल गया है.....और मैंने भाग कर पापा जी को आवाज लगानी चाही। पर मेरे मुख से कोई आवाज नहीं निकली। पर देखता हूं पापा जी आंखें खोल कर मुझे देख रहे थे और मंदमंद मुस्करा रहे थे। जैसे उन्‍होंने मुझे पहचान लिया।

यहां मेरा शरीर जो पापा जी की गोद में था, वह डर कर कांप रहा था। साथ ही हिचकिया भी ले रहा था। उसके बाद सब लोगों का ध्‍यान मेरी और जाता है। कहानी सुनाना कुछ देर के लिए बंद हो जाता है। और पापा जी मेरी आंखों में देख कर मेरे सर और गर्दन पर हाथ फेर कर मेरी आंखों देख रहे है। कि जैसे मैं सब समझ गया हूं जो तुम सपना देख रहा था। और फिर हंसने लग जाते है सपने के समय मेरी आंखें लाल और अधखुली हो कर चलने लग जाती थी। और मेरे हाथ पैर भी चल रहे थे जैसे की मैं सच में दौड़ लगा रहा था। जिसके कारण पापा जी समझ गए की मैं सपना देख रहा था। परंतु सपना बहुत ही सुंदर था जो सालों तक मेरे चित पर छाया रहा। सपने भी हमारी दबी इच्छा का प्रतिबिम्ब होता है...जो मन को एक तरह से तृप्त कर जाता है।

भू...... भू...... भू...... आज इतना ही

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें