अध्याय -18
(मम्मी पापा का सन्यास लेने जाना)
समय की गति जैसे—जैसे आगे बढ़ रही थी मैं अपनी बीमारी को लगभग भूल गया था। मेरे शरीर पर जो गाँठें पड़ गई थी, बह अब धीरे—धीरे मिटती जा रही थी। और पूरे शरीर पर अब नये मुलायम बाल भी उग आये थे। शायद जैसे—जैसे मेरा शरीर जवान हो रहा था, साथ—साथ शरीर भी बलिष्ठ हो रहा था। वह अपनी अवरोध शक्ति के सहारे खुद ही अपना उपचार भी कर रहा था। मेरे कान एक दम से सीधे खड़े थे। मेरी पूछ बहुत भारी और मोटी थी। मेरी टांगे मेरे शरीर के हिसाब से कुछ अधिक बड़ी हो गई थी। हमारा शरीर भी अलग—अलग हिस्सों में अपना विकास करता है। उसकी एक गति है एक लय है। जब मैंने उसे महसूस किया और जीया तब मैं उसे कुछ—कुछ जाना और समझा पाया। वही सब अनुभव मैं आप को बता रहा हूं। हर प्राणी का विकास कर्म उसकी जीवन शैली के तरीके से होता है।
हमारे शरीर में सबसे पहले कान विकसित होते है। मेरे छोटे मुलायम कान एक दम से आम के पत्ते की तरह बड़े हो गये। आप अगर उस उम्र के कुत्ते को देखेंगे तो आपको कितना अजीब नहीं लगेगा। उस समय उसका शरीर कितना अजीब—बेडौल लग रहा होता है। 7—8 माह में जितने मेरे कान बढ़ सकते थे पुरी उम्र उतने ही रहे।
आप जरा सोचिए छोटा सा मुंह और छाज से दो खड़े उसके कान। खैर इन बातों पर कोई खास गोर नहीं करता। अगर करें भी तो कुदरत के सामने क्या किया जा सकता था। कानों के बाद हमारी टांगों का नम्बर आता है और उसके बाद शरीर का और मेरे हिसाब से सबसे अंत में हमारी पूछ बड़ी होती है। मैं समय—समय पर अपने शरीर पर आ रहे बदलाव को बड़े ही ध्यान से देख रहा था। शरीर के साथ—साथ मेरा मन भी मनुष्य के साथ रहने के कारण विकसित हो रहा था। यह हमारी मजबूरी समझे या वक्त के साथ हमारी खींचातानी। पर हमने भी हार नहीं मानी और मनुष्य के विकास के साथ—साथ हम भी कदम से कदम मिला कर चलते ही रहे। हमें उनकी भाषा तो समझ में नहीं आती थी। क्योंकि प्रत्येक प्राणी की वाणी तो एक जैसी होती है, चाहे वह किसी देश प्रदेश में क्यों न जन्मा हो। परंतु हम भी लोगों में रह कर भी उसकी भाषा को वाणी के रूप में जानते है। चाहे वह अंग्रेज, तमिल, डच, हिन्दी भाषा...उन शब्दों की ध्वनि को पकड़ लेते है। है ना ये चमत्कार जो मनुष्य नहीं कर पाया आज तक हमने कितनी आसानी से कर लिया। आप इस बात को समझे कुत्ता कहीं का भी हो वह एक ही तरह से भोंकेगा। ये नहीं की अंग्रेजी कुत्ता और तरह से भोंकेगा। परंतु मनुष्य तो शायद अपनी वाणी ही भूल गया है। वह भाषा को ही बोल चाल का माध्यम बना लिया था। न जाने कौन सी वाणी होगी...मनुष्य की इसे खोजना अति कठिन है। जहां भी हम रहते है हम उस भाषा के शब्दों के अर्थ की बजाएं उनकी ध्वनि को समझने की कोशिश अधिक करते है। जो बहुत आसन नहीं होता जितना दिखता है। जब कोई बोल रहा होता था तो मैं उसकी आंखें उसका चेहरा बहुत गौर से देखता रहता था। कुछ शब्द जो बार—बार बोले जाते वह तो बड़ी ही आसानी से समझ आ जाते थे। जैसे खाना, नहाना, जाना, सोना इसी तरह से रोज—रोज नए शब्द मेरी याद दाश्त में जुड़ते चले गये। ठीक मेरी ही तरह से दूसरी भाषा का कुत्ता अपने मालिक की भाषा को समझने में सहायक होता होगा। चाहे वह तमिल हो, मलयालम हो अंग्रेजी, हो डच हो या फ्रेंच...आदि...आदि। और दूसरी बात ये जैसे शब्द हो गया खाना तो उसका लाजवाब स्वाद मन मस्तिष्क के सभी द्वारों को खोल देता था। इसी तरह से जैसे नहाना आपने साथ एक भय समेटे था। जैसे जाना के साथ एक आनंद, जैसे जंगल वहां की दौड़ खुशी आदि ये सब सहयोगी बन जाते है।मनुष्य भोजन इतने प्रकार का बनाता था की क्या कहने। उसका स्वाद उसकी सुगंध आपके अचेतन तक को जगा देती थी। हमारी जाती के जंगली भाई बहनों पर इस भोजन का न चखना उसके भौतिक विकास का होना भी एक कारण है। जो उनपर साफ दिखाई देता है। गांव के गली—मोहल्लों के कुत्तों को ही देख लीजिए उनका मन और तरह से काम करेगा। फिर किसी अमीर घर के कुत्ते को ले लीजिए वह गाड़ी में कितने आराम से बैठ जायेगा, उसे ए. सी. का पता होगा। वह टी वी देख और समझ सकता होगा, वह नरम मुलायम गद्दों पर सोता है। तब उसकी सारी उर्जा केवल विश्राम की अवस्था में मस्तिष्क की और बह रही होती है। और बेचारे गली—मोहल्लों या जंगली पशु पक्षियों को जीने के लिए जो प्रयत्न करना पड़ती था। उसके बाद उनके पास भोग—विश्राम की उर्जा ही नहीं बचती। बेचारे किसी तरह से जी रहे होते है। हम कल की या जीवन भर की कोई चिंता नहीं होती। और उन्हें अगले पल का भी कोई पता नहीं।
मनुष्य का विकास भी उसके जीने के अंदाज से ही संभव हुआ है। और मैं भी इस बात को महसूस कर रहा हूं कि नरम मुलायम गद्दों पर और सुस्वाद खाने से हर दिन मस्तिष्क को एक नया आयाम मिलता चला जा रहा था। और प्रत्येक पशु की शारीरिक संरचना उसके भौतिक विकास के सहयोग से ही संभव थी। हमारा शरीर मनुष्य की तरह बहु आयामी तो नहीं है पर काफी लोचदार जरूर था। जैसे आप मेरे शरीर की संरचना को ही देख लीजिए शरीर पतला और बलिष्ठ है पर पूछ एक दम से मोटी लोमड़ी और भेड़िया की तरह।
जो शायद मेरे तेज गति से दौड़ने में सहयोग के अलावा गति भी प्रदान करती थी। पूछ के कारण शरीर हवा में ज्यादा से ज्यादा देर रहेगा जिससे मेरी गति तो तेज होगी ही, साथ—साथ इसके मुझे थकावट भी कम होगी। और में अधिक दूर तक दौड़ कर अपने शिकार को थका सकूंगा। जैसे एक कुत्ता है और उसके पूंछ पर बाल बहुत कम है। जैसे डाबरमैन अब उस की छोटी उम्र में अगर पूछ काट दी जाये तो जो उर्जा उसकी पूछ की और गति कर रही होगी। वह अचानक मस्तिष्क की और गति करने लग जायेगी। अब उसके मस्तिष्क के विकास का यही कारण हो सकता है। परंतु यह हिंसात्मक तरीका है जो सही नहीं लगता मुझे।
उसे एक चीज खोकर दूसरी चीज हासिल करनी होगी। पर घनी मोटी पूछ के बाल वाले कुत्तों के साथ ये अत्याचार है, उसकी पूछ काटना उसे अंग विहीन करने जैसा ही समझो। अब आप एक छोटी सी बात पर गोर करना, जिस नस्ल के कुत्तों के कान खड़े होंगे वह बहुत ही खूंखार और लड़ाके होंगे। और जिन कुत्तों के कान नीचे की और लेटे होंगे, या लटके आम के पत्तों की तरह वह निहायत शरीफ़ किस्म के कुत्ते होंगे। ये सब अनुभव से मैं आप लोगों को बता रहा हूं इसे आस—पास मैंने देखा है, उसे जिया और महसूस किया है। ये कोई थोथा किताबी ज्ञान नहीं बता रहा हूं आपको अपने जीवन का एक अनुभाव दे रहा हूं।
एक श्याम अचानक मुझे घर का माहौल कुछ अजीब से लगने लगा। वातावरण में एक खास तरह की बेचैनी थी। घर का सामान इधर से उधर किया जा रहा था। कुछ सामान एक सूटकेस में रखा जा रहा था। ये सब देख कर मेरा मन किसी अंजान सी आकांक्षा से भारी हुआ जा रहा था। हालांकि जो कुछ भी यहां घट रहा था मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। परंतु अंदर कही कुछ भय की आकांक्षा छू रही थी। लग रहा था जैसे कोई भार ऊपर से डाल कर दबा रहा हो। आज मेरे साथ कोई खेलने को तैयार भी नहीं था। हां हिमांशु भैया जरूर अपनी साइकिल चला रहे थे। दो दिन से कोई बच्चा स्कूल भी नहीं जा रहा था। मैं सब के पास जा—जा कर उनकी आंखें सूंघ—सूंघ कर देख रहा था। उनकी आंखों में एक उदासी झलक रही थी। और बहुत गहरे में कहीं आंसू थम हुए थे। मेरे इस तरह से आँख सूँघने के कारण सब मेरा मजाक भी उड़ाते थे की देखो अब पोनी आकर अब आंखें सुधेगा। पर आज मेरी इस हरकत पर किसी ने कोई मजाक नहीं उड़ाया। ये बात भी कुछ अजीब सी लग रही थी।
दीदी सूटकेस के अंदर सामान रखवाने में मम्मी जी की मदद कर रही थी। वरूण भैया पास बैठ उदास नजरों से सब देख रहे थे। पूरी बात का खुलासा तो तब हुआ जब मुझे याद आया की आज तो पापा जी दुकान पर ही नहीं गये। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। आंधी—पानी या तूफान हो, पापा जी कितने ही बीमार हो, उन्हें दुकान पर जाने से नहीं रोका जा सकता था। पर आज ऐसा क्या है जो पापा जी ये सब नियम तोड़ कर घर पर थे। इस बात की आशंका से में थोड़ा घबरा गया। हो न हो कोई बड़ी घटना घटने वाली थी।
मुझे लगा मम्मी पापा कहीं जा रहे है। या ये मेरा भ्रम है कहीं हम सब घूमने के लिए तो नहीं जा रहे है। फिर लगा क्या सभी चले जायेंगे। तब इतने बड़े घर में अकेला कैसे रह सकूंगा। अपना जीवन यापन कैसे करूंगा। हां कभी—कभार जब में खुले दरवाजे को देख कर बहार भाग जाता था। तब कहीं जरूर एक आधी रोटी का सुखा टुकड़ा मिल जाता था। और मैं उसे भी उठा कर ले आता था। पर इतने भर से मेरा पेट तो नहीं भर सकता था। तब बहार जो कुत्ते रहते है वह कैसे अपना पेट भर पात होंगे। एक प्रकार से हम पालतू जानवरों में सुरक्षा के साथ एक अहंकार भी विकसित हो जाता है।
गली मोहल्ले के कुत्ते या तो हमारे तलवे चाटेंगे या हमारी ठुकाई पिटाई करेंगे। उन से हमारा कोई मेल मिलाप नहीं हो सकता। उस गली के कुत्ते का कितना कठिन जीवन हो जाता है। जो कभी घर में पाला गया हो और उसे बाद में गलियों में छोड़ दिया जाये। इससे तो बेहतर है उसे मार दिया जाये। उस बेचारे की क्रूर उस यातना का कोई अंदाज नहीं लगाया जा सकता। उस पीड़ा को मैंने जब झेला है जब में एक बार घर से बिछुड़ गया था। वो कुछ दिन मेरे जीवन के सबसे पीड़ा दाई दिन थे। जिन्हें याद भर करने से मैं सिहर उठता हूं। जो बेचारे लगातार उसी हालत में जीते है, उस की पीड़ा का वर्णन नहीं किया जा सकता।
सब अगर चले गये तो.....पर जब मैंने ध्यान से देखा तो मुझे एक आस की किरण नजर आई क्योंकि मम्मी पापा के अलावा कोई और बच्चा तो नये कपड़े पहने नहीं हुआ था। सब घर के कपड़े पहने हुए थे। यानि अगर जा रहे है तो मम्मी पापा ही जा रहे हे। पर हम सब अनाथों को किस के सहारे छोड़ कर जा रहे थे। हममें दीदी ही सबसे बड़ी थी उसे भी खाना बनाना नहीं आता था। काश मैं कुछ बोल कर पूछ सकता की आप कहां जा रहे हो। फिर भी मैं जितना कर सकता था मैंने किया मैं पापा जी के पास जा कर उनके हाथ पर अपना पंजा रख दिया। और उनकी और देखने लगा। पापा जी शायद समझ गये और उन्होंने मेरी गर्दन पर प्यार से हाथ फेरा, और मेरे सर को सहलाने लगे कि तुम घबराओ मत हम जल्दी ही आ जायेगे। पर ये सब मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। और मैं बार—बार अपने पैर को पापा जी के हाथ पर रखे ही जा रहा था। कि आप कृपा करके कही भी मत जाइए।
फिर मैंने मम्मी की और देखा, और मैंने उनके कपड़े को अपने मुख के पकड़ लिया। मम्मी जी समझ गई कि पोनी को सब पता चल गया है कि हम कही जा रहे हे। मम्मी ने मुझे अपने सीने से लगा लिया और खुब प्यार किया। और अंदर किचन से जाकर मेरे लिए बिस्कुट भी लेकर आई। पर सच मेरे अंदर कुछ भरा हुआ था। लगता था कि वह किसी तरह से बह जाये। और इसी कारण मनुष्य आंसू बहा कर रोना शुरू कर देता है। उसके अंदर का भारी पन आंखों के ज़रिये बह जाता है। उस बिस्कुट को देख कर मैंने अपना मुख फेर लिया। कौन सी चीज मुझे रोक रही थी। किस कारण मैं अपने को भरा हुआ महसूस कर रहा था। क्यों मेरा मन बोझिल हुआ जा रहा था। एक अजीब सी हलचल एक अजीब सी बेचैनी फेल रही थी वहां के वातावरण में। एक बोझिल भारी पन पारे की तरह से भरा हुआ था हमारे चारों और। इस तरह की बेचैनी इस से पहले मैंने कभी महसूस नहीं की थी।
उस दिसम्बर महा की सीतलता में भी मैं मुझे अंदर से गर्मी महसूस कर रहा था। इतनी देर में घर की घंटी बजी मैं विचारों में खोया हुआ था। अचानक सब भूल कर मैं जोर से दरवाजे की और भागा। अब मैं इतना बड़ा हो गया था कि आने वाले आगंतुक के घुटने तक तो आ ही सकता था। और अगर खड़ा हो जाऊं तो सीने तक। इसलिए आने वाले आगंतुक मुझे भागते हुए अपनी और आते देख कर खड़े हो जाते थे। जो पहली बार आ रहा है। वह तो दरवाजा के अंदर ही नहीं आता था।
अंदर तो वहीं आता था जो घर पर रोज आ रहा हो या परिचित हो। फिर भी मेरे गुस्से को देख कर एक बार तो वह भी डर ही जाता था। अब मैं बड़ा हो रहा था, मेरा घर के अंदर ही नहीं घर पर आने वाले के प्रति कर्तव्य भी अधिक से अधिक बढ़ रहा था। मैं सब आने वालों से पूछना चाहता था कि बतलाओं यहां क्यों आये हो। कहीं कुछ सामान तो नहीं ले जा रहे हो। मेरी नजरों में घर पर आने वाला प्रत्येक व्यक्ति चोर उचक्के ही होता था। फिर वह चाहे कितने ही अच्छे कपड़े क्यों न पहना हो। मैं दूर तक उसका पीछा करता, उसे सूंघना, उसकी हर हरकत को देखता, कहीं ये कुछ उठा तो नहीं रहा। कभी—कभी जब मुझे शक होता तो मैं चुप से उसके पास जा कर उसे घूर्र, घूर्र ...कर के उसे डराने की भी कोशिश करता था। क्योंकि अगर पापा जी मेरी इस हरकत को देखते तो मुझे डाँटते जरूर। पर मैं मोके बेमोके उस पर भोंकता जरूर था। कभी—कभी तो कोई आदमी मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता था। तब मेरा भोंकना देख कर पापा जी मुझे बाँध देते या किसी कमरे में बंद कर देते। तब मुझे और भी अधिक क्रोध आता की न जाने कैसे—कैसे उठाई गिरो को घर में घुसेड़ लेते है। इस मनुष्य में अक्ल तो बहुत है, पर क्या ये सब जान बुझ कर करता है। हम तो कभी इस बात को बरदाश्त नहीं कर सकते कि कोई खराब आदत का हमारी सीमा में आये। वो दोनों अंगतुक को मैं जानता था, वह पहले भी कई बार ध्यान करने के लिए आये थे। लेकिन और दिनों कि अलावा आज उनका आन मुझे कुछ शुभ नहीं लग रहा था। मैं उनके चेहरे को गौर से देखता रहा था। उन्होंने आकर पापा जी के पेर छुए और एक—एक सूटकेस उठा कर चल दिए, मैं ये सब देखता रहा जैसे मेरे अंदर कोई शक्ति ही नहीं बची थी।
जैसे मुझे किसी बोझ ने दबा दिया हो, मैं केवल छटपटा सकता हूं, इस सब लाचारी के कारण मुझे बहुत क्रोध आ रहा था। उसी समय पापा जी ने मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरा.......और मम्मी जी हम सब बच्चों को भरी आँखों से अपने गले लगाया। सब बच्चों और मम्मी जी की आंखों से धार—धार आंसू बह रहे थे। सब सुबक—सुबक कर एक साथ रो भी रहे थे, बस एक मैं ही था जो पत्थर की तरह उन सब के बीच एक अवरोध बन कर खड़ा था। पापा जी हम सब का रोना देख कर हमारे पास आये, प्यार से वरूण और दीदी को समझाया। मेरे सर पर हाथ फेरा, और एक—एक चुम्मी ली और कहने लगे हम बहुत जल्द आ जायेंगे। बस यूं गये और यूं ही आये।
इस भाव और प्रेम को महसूस केवल संवेदना से ही किया जा सकता है। लेकिन हम चाहे कितने ही भावुक हो ले लेकिन हमारा मन इतना भावुक कभी नहीं हो सकता। फिर भी जो पशु मनुष्य के संग साथ रहते है। उनमें कुछ भावुकता का संप्रेषण जरूर प्रवेश कर जाता है। और मेरे अंदर भी जो भावुकता या प्रेम उत्पन्न हुआ है, वह इस घर की वजह से ही समझों। हमारे मन में कोई भी दर्द या पीड़ा ज्यादा देर के लिए ठहर नहीं सकती। क्योंकि मन कम तरलता लिए हुए है हमारा। जैसे पानी में पत्थर फेंको तो लहरे बहुत दूर और देर तक उठती रहती है और यही पत्थर आप रेत में फेंके तो कितनी लहर उठेगी। कुदरत ने हमारे मन को थोड़ा ठोस बनाया है। शायद यही हमारे जीने में सहयोगी भी था।
कुदरत ने अपना काम ठीक प्रत्येक प्राणी की जीवन शैली के हिसाब से निर्धारण किया है। पर आज प्रत्येक प्राणी उससे विच्छिन्न हो गया है। सबने कुदरत के तोर तरीके को ताक पर रख कर अपने जीवन का अंदाज अपनी सुविधा अनुसार ढाल लिया है। कुदरत ने मनुष्य का मन बहुत तरल और संवेदनशील बनाया है। ये मनुष्य मन के विकास क्रम की अति है। फिर इसके बाद क्या...इस विषय में क्या में आपको कह नहीं सकता। शायद मन के पार अमन....। मैं अपने ऊपर गुजरी किसी दुख पीड़ा को एक या दो दिन तक महसूस नहीं कर सकता। शायद दो दिन तो बहुत अधिक है, कुछ घंटे ही समझो। और मनुष्य इस में हफ्तों या महीनों जीता रहता है। पर मैं देख रहा था मनुष्य के संग रहने के कारण पीड़ा और विछोह के साथ डाट—डपट भी मेरे मन पर कई दिन तक छाई रहती थी।
मम्मी पापा के चले जाने के बाद सारे घर में उदासी छा गई। जो काम करने वाली अम्मा अब वह घर नहीं जाती थी। हम सब के साथ ही सोती थी। वहीं खाना भी बनाती थी। बस जब हम सब मिल कर खेलते तो कुछ क्षण के लिए मम्मी पापा को भूल जाते थे। पर वह एक धागे की तरह थी। जो एक टीस को एक माला की तरह पिरोए हुए साथ चल रही थी। और घर के किसी भी प्राणी को उदासी अचानक आ कर घेर लेती थी। न जाने क्यों एक पर जैसे ही उदासी आती सब पर अचानक फैल जाती थी। और ये उदासी मेरे देखे श्याम के समय अधिक आती थी। क्या डूबते सूरज के साथ हमारे शरीर और मन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। सूर्य के डूबने के साथ हमारी जीवन चेतना भी डूबने लग जाती है। प्रत्येक प्राणी जो पृथ्वी से जूड़ा है चाहे वह, धरा हो, पेड़ पौधे हो, जल हो, पक्षी हो, पशु हो, या मनुष्य हो इस सब का प्रभाव आप प्रत्येक पर आता हुआ देख सकते है। हां एक बात है, अलग—अलग किसी पर इसका प्रभाव अधिक और किसी पर इसका कम हो सकता है। ये भी उसकी संवेदना के कारण ही। क्या इस संवेदन शीतलता की कोई अति भी हो सकती है। प्रकृति पल—पल इस संवेदन शीलता का विकास कर रही है। पत्थर से मनुष्य तक...क्या मनुष्य के पार भी कुछ हो सकता है। ये मेरी कलपना के बहार की बात थी। तमस जैसे—जैसे कम हो कर संवेदन शीलता बढ़ती रहती है, उस के साथ—साथ पीड़ा और दर्द भी तो जरूर बढ़ता होगी। एक सोए हुए पत्थर में कम संवेदना के कारण पीड़ा भी कम होगी उसी अनुपात में पेड़ पौधे या फिर मनुष्य को चोट की पीड़ा भी अधिक मात्रा में बढ़ती रहती होगी। लेकिन किसी अति मानव की पीड़ा की कल्पना करना मरे बूते के बहार की बात थी।
अब मैं अपने पर ही लेता हूं मैं भोजन करते हुए कितना स्वाद ले पाता हूं, केवल दाँत से यात्रा पल में आंत तक पहुंच जाती है। और मनुष्य उसे कितनी देर चबा—चबा कर स्वाद ले कर खाता है। स्वाद की गुणवत्ता भोजन में तो नहीं हो सकती हमारे अंदर ही होनी चाहिए। पर यह विषय हमारी जाति के लिए अति कठिन है और दुर्लभ भी। शायद मनुष्य में भी इसे कितने किस अनुपात में ले पाते है कहना कठिन था।
ये एक अति जटिल प्रश्न है। लेकिन अति प्रश्न नहीं है। क्योंकि मेरी बुद्धि में अगर ये प्रश्न आया है तो केवल यहां के माहौल और संग साथ के कारण....अगर मैं इस घर इस माहौल और प्रेम में न जीता तो मैं केवल एक पशु होता और ये सोच विचार मेरे मन में कभी नहीं आते। अब मुझे ही देखो इस मनुष्य के संग साथ रह कर, कुछ आधा—अधूरा सा हो गया हूं। कुछ इधर का, कुछ उधर का, ये एक तनाव है जिसे मैं ही नहीं उस प्रत्येक प्राणी को झेलना पड़ रहा होगा जो अपने स्वभाव के विपरीत जी रहा है। लेकिन यहीं तनाव तो मनुष्य को उतंग की और ले जा रहा है। और शायद दूसरे प्राणियों को भी। इस तनाव में आनंद और पीड़ा का इतना मधुर मिश्रण है। जैसे जलती आग में सीतलता.....लिए हो। है ना अजीब आग और सीतलता को समेटे ...सून का कितना अजीब लगता है। तब जीना कैसा लगता होगा।
भू..... भू...... भू.....
आज इतना ही.....
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