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शुक्रवार, 14 जून 2024

16 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

अध्‍याय -16


(मेरी पहली दीपावली)

शायद वह मेरी पहली दीपावली थी। और इस घर में मनाई जाने वाली आखिरी थी। क्‍योंकि फिर इस घर में मैंने कभी बच्चों को दीपावली मनाते नहीं देखी। आप सोचते होंगे ये भी कैसी पागल पन की बात हुई। परंतु मैं जो कह रहा हूं, उसे सुनने के बाद तब आप भी सोचने को मजबूर हो जायेगे की मैं अपनी जगह एक दम ठीक हूं। क्‍योंकि इस घर की पहली दीवाली ही मेरी भी अंतिम दीवाली थी। पहली दीवाली भी शायद बच्‍चों के लड़कपन के कारण मनाई गई थी। तब आप सोचोगे कि बच्‍चे एक ही साल में इतने बड़े और समझदार हो गये। अचानक दीपावली जैसा महत्‍व पूर्ण त्‍यौहार भी उन्‍हें प्रभावित नहीं कर सका। परंतु शायद अगले वर्ष परिवार में किसी जवान चाचा की मृत्‍यु हो गई थी।

ठीक दीवाली दो चार दिन पहले। और दीपावली के लाये हुए सब पटाखे धरे के धरे ही रह गये थे। देश में दस दिन के राम लीला उत्सव के ठीक इक्‍कीस दिन बाद दीवाली आती है। इसे पूरे भारतवर्ष में खुशी का पर्व माना जाता है। राम ने सीता को रावण के हाथों से छूड़ा कर वनवास के चौदह वर्ष पूरे करने पर जब भगवान राम अपने घर की और चले पड़े थे। कहते है कि लंका से अयोध्या तक का यह सफर इक्कीस दिन में पूर्ण किया था। और ठीक उस अमावस की रात भगवान राम अपने घर पहुंचे। हिन्दुओं की गणना और इतिहास में आप गलती नहीं ढूँढ पाओगे। हजारों साल बाद भी तिथि समय सब एक दम पीढ़ी दर पीढ़ी सही चलता आ रहा है। आप सोचते होंगे की मुझे इस बात का ज्ञान कहां से आया तो समझ लिजिए आप भी की पापा जी ने जो कहानी उन दिनों सुनाई थी वह दीपावली और दशहरे पर्व के विषय में थी। इसलिए मुझे भी याद है।

मैं छत पर चढ़ कर बड़े ही अचरज से आस पास के घरों को देख रहा था। चारों और प्रकाश की जगमगाहट थी। इधर दीदी, वरूण भैया भी दीवारों पर मोमबत्ती जल कर प्रकाश कर रहे थे। एक कतार से जलती मोमबत्तियाँ कितनी सुंदर लग रही थी। छत पर चढ़कर जब पूरे गांव को देख रहा था, तो अचरज से भरा मेरा मन कोई कल्पना नहीं कर रहा था। क्या ये सच है, कितना सुंदर लग रहा था प्रत्येक गांव का घर। जहां तक नजर जाती थी केवल प्रकाश ही प्रकाश दिखाई दे रहा था। प्रत्येक छत प्रकाश से नहाई हुई तारा मंडल सी दिख रही थी। दीदी और वरूण भैया ने हमारी छत पर मोमबत्तियां खूब सूंदर तरह से  सजाई थी। मैं उन मोमबत्तियों के पास जाकर सूंघने की कोशिश करने लगा। मुझे क्‍या पता था की वह गर्म है, और मेरा नाक जल गया। में जलन के कारण तड़प गया और उसे भौंकने लगा कि यह कितनी खतरनाक वस्‍तु थी। दीदीऔर वरूण भैया इन्हें हाथ में लिए धूम रहे थे। मुझे गुस्‍सा भी आया और इन लोगों के दिमाग पर हंसी भी आई। की ये मनुष्‍य बनता तो इतना समझ दार है, पर समझ इसमें बिलकुल नहीं के बराबर थी।

देखा आपने कुदरत का करिश्मा। जंगल में सांप की कांचली को देख कर में भय से कांप गया था। जब की वो सांप भी इससे पहले कभी नहीं देखा था। और यहां जो आँखों के सामने आग जल रही थी। उसे नहीं पहचान सका की वह जला देगी। क्‍योंकि प्रत्‍येक पशु पक्षी मनुष्‍य का विकास क्रमबद्ध से हुआ है। हमें ये संस्कार कुदरती तोर पर अपने पूर्वजों का दिया हुआ वरदान था। जो उन्‍हें ने जाने कितनी मेहनत और प्राणों की बलि देकर प्राप्त हुआ था। अनुभव से उसे आपने अचेतन में समेटना और आने वाली पढ़ी को हस्तांतरित कर दिया। वे सब उसे अपनी अगली पीढ़ी को दान स्‍वरूप देते चले आ रहे थे। जैसे हम गोली की आवाज से कितना डर लगता है। क्योंकि ये भय कहीं दबा है अचेतन में।

अब आप जरा सोचो जो हमारा पहला पूर्वज होगा वह गोली से अंजानअनभिग जरूर रहा होगा। वह नहीं जानता होगा की गोली कितनी खतरनाक है। ये किसी को मार भी सकती है। तब कोई गोली से मरा होगा, तब वह उसका अनुभव बना होगा। इसी तरह एकएक अनुभव फिर पीढ़ी दर पीढ़ी शरीर की संरचना में स्वयंमेव ही वह भय या अनुभव हमारे मांसमज्जा में समाता चला आ रहा होगा। प्रत्येक मृत्यु या खतरा हमें एक सीख देता होगा। और वही अनुभव हमें जीने में और जानने में मदद करता आ रहा है। जैसे आज प्रत्येक कुत्ता सड़क पार नहीं कर सकता परंतु कुछ कुत्ते जो रोज सड़क पार करते है, भीड़ में मनुष्य के साथ खड़े हो कर जाने का इंतजार करते है। लेकिन एक गांव या दूर दराज का कुत्ता जिसने मोटर गाड़ी की गति नहीं जानी वह उसकी चपेट में आकर मर जायेगा। तब जाकर वह अनुभव बनेगा। एक अनुभव उस कुत्ते को जीतेजी जान गया और दूसरा उसे जानते हुए मरा। कितना भेद है दोनों के अनुभव में।

मेरे नाक के जल जाने से दीदी हंस रही थी और वरूण भैया उसे सहलाने के लिए पास आये। परंतु मैं डर के मारे दूर भाग गया। क्‍योंकि उसके हाथ में मोमबत्ती थी। मैं बारबार अपनी नाक को चाट कर उसकी जलन कम करने की कोशिश कर रहा था। और पछता भी रहा था कि मैंने क्‍या आफत ले ली। और दीदी को देखो मुझ पर हंस रही थी। भला ये भी कोई बात हुई। की किसी को चोट लग जाये और वह रो रहा हो आप हंसे। यह तो असभ्यता वाली बात हुई।

मुझे दीदी पर क्रोध आ रहा था। मैं बारबार उसे भौंक रहा था। परंतु इस अनुभव से ये जान गया की ये जलने वाली चीज खतरनाक बहुत होती है। चारों और से पटाखों की आवाज आ रही थी। पर उस समय मैं जवान था। उन पटाखों की आवाज से डर नहीं लगता था। लेकिन वह पटाखों का भय जो जवान शरीर झेल रहा था, आपने अंतिम दिनों में ढोल की आवाज सुन कर कांप जाता था। की अब ढोल के बाद पटाखे जरूर चलेगें। ऐसेऐसे पटाखे चल रहे थे जिससे की आकाश में अचानक प्रकाश फैल जाता और रंग बिखर कर कितना सुंदर फूल बन जाता। वह देखने में बहुत सुंदर लगता था, मन करता था इसे बारबार देखता ही रहूं। उसके बाद बहुत जोर से एक आवाज होती तब मैं अचानक सहम जाता। परंतु ये जानता था की वह बहुत दूर है, इसलिए उससे खतरा कम था। देखने में वह नजारा जितना सुंदर लगता रहा था। अंदर से मुझे उतना ही खतरनाक भी लग रहा था। की अगर ये रोशनी सर के ऊपर गिरी तो, इतनी जलती चीज से कितनी जलन होगी। पूरा घर मोमबत्तियों के प्रकाश से जगमग रहा था। मैं बहुत खुश हो कर कभी छत पर जाता कभी मम्‍मी जी के पास रसोई में जहां वह न जाने क्‍या खाने के लिए बना रही थी। क्‍योंकि मैं जानता था, मम्‍मी ही सब को खाना बना कर खिलाती थी। और कितने प्रकार के, नयेनये व्यंजन बनाती थी। एक से एक कितने सुस्‍वाद समेटे होते थे वो अपने में। उनकी खुशबु भर से मेरे मुंह से पानी टपकने लग जाता था। मैं मम्‍मी जी के पास खड़ा होकर जानने की कोशिश कर रहा कि आज जब घर इतना सज़ा है। तो खाने को भी जरूर कोई बहुत निराली चीज बनी होगी। क्‍योंकि जब भी घर में कुछ अधिक लोग ध्‍यान करने कि लिए आ जाते थे। तब मैं समझ जाता की आज खाना विशेष तरह का बना होगा। और ऐसा ही होता। खीर पूरी और सब्‍जी सब कितनी मजेदार लगती थी खाने में।

तब उन सब को खा कर मैं बहुत खुश होता था। और लगता ये लोग रोज क्‍यों नहीं आते इनके आने से इतना मजेदार खाना बनता है। उस दिन मुझे भी कुछ अच्‍छा और ज्‍यादा खाने को मिलता था। अगर सब एकएक टुकड़ा भी देते तो दस टुकड़े खाने को मिल ही जाते थे। इसके अलावा मेरे हिस्‍से का तो मुझे मिलता ही था। उस दिन में इतना खा जाता की चलना भी दूभर हो जाता था। ये हमारी आदत और नीयत की बात थी। आप को बता रहा हूं किसी से कहना मत। वरना क्‍या कभी मैं जब से आया हूं इस घर में क्या भूखा सोया हूं। भूख क्‍या है, वह तो मैंने होश में कभी जानी ही नहीं। फिर भी अंदर से लगता की अब जो मिल जाये खा लूं फिर मिले न मिले। परंतु ऐसा क्यों होता था इसे न तो मैंने कभी जानने की कोशिश की न ही इसकी कोई जरूरत थी।

मम्‍मी ने मेरी और देखा और हंसने लगी। और कहने लगी पोनी आज तुझे मैं बहुत बढ़ियां और मजेदार चीज खिलाऊंगी। मैं जब पहली बार इस घर में आई तो मेरी सास ने मुझे इसे बड़े चाव से मुझे खिलाया था। तब मैं इसे खाने के बाद बहुत हैरान रह गई थी। तू भी देखना हैरानी के साथ खुश भी होगा। सजाने का काम खत्‍म कर बच्‍चे अपनेअपने पटाखे ले कर आँगन में आकर बैठ गये। हिमांशु भैया अभी छोटा था पटाखों से मेरी ही तरह बहुत दूर ही रहता था। उसे जो पटाखे मिले थे उसने सब दीदी और वरूण को बांट दिये। पर दीदी भी पटाखों से डरती थी।

वरूण भैया इसमें कुछ ज्‍यादा ही दिलेर थे। परंतु डर तो वो भी रहे थे। वरूण भैया भी पटाखे में आग लगा कर भाग कानों में अंगुलि डाल कर खड़े हो जाते थे। उसके बाद आसमान में रंगीन प्रकाश फैलता जाता। और जोर का धमाका होता। दिल कांप जाती। मुझे अचरज भी होता की ये मनुष्‍य कितना मुर्ख है। क्‍यों इस तरह की चीजें चलाता है, जो तुम्‍हें डराये। तुम्‍हारे मन मस्तिष्क को भय से भर दे। पर ये बात उस समय मेरी समझ में नहीं आती थी। की ये सब विकास के क्रम में उस का नियम है। मनुष्‍य ने जितना विकास किया है। उतना ही सुरक्षित हो गया है। जंगल में रहता था। चौबीस घंटे मृत्‍यु का भय सताता ही रहता उसे।

जरा आँख लगी नहीं कोई जंगली जानवर मार देगा आपको। या कोई जहरीला प्राणी आपने दंश से खत्‍म कर देगा। उसे बहुत सतर्क जीवन जीना होता वहां पर। जो बहुत होश और ताकत वाला था वही जी पाता था। पर विकास ने उसे आराम परस्‍त बना दिया था। क्‍योंकि मैं जब घर में रहता हूं या सोता हूं तो मुझे चारों और कोई भय नहीं लगता। फिर भी पिछली संरचना के कारण जरा सी आवाज के कारण चौंक कर उठ जाता हूं। फिर भोंकना तो एक आदत ही बन गया था। चाहे आपको समझ आये या न आये बस भोंको। और इस मनुष्‍य को कोई फर्क ही पड़ता। शायद जीवन में जितना सुख और सुरक्षा आयेगी। हमारी तमस उतनी ही अधिक होगी, और इसके साथसाथ हमारा सम्मोहन बढ़ता चला जायेगा।

उधर हम सब बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। कि कब पापा जी दुकान से आये सब का इंतजार करने का ढंग अलगअलग था। पर बच्‍चों को तो पता नहीं शायद कल सुबह स्‍कूल जाना था या नहीं जाना था। अगर उन्‍हें स्कूल जाना होता तो जल्‍दी से सो जाना चाहिए था। लेकिन हो सकता है कल भी बच्चों की छुट्टी हो। जिस दिन छुट्टी होती उस रात सब पापा जी का इंतजार करते थे। क्‍योंकि उस रात पापा जी का कहानी सुनाने का दिन होता था। और पापा जी के आने के बाद सब की खुश का क्‍या कहना पर सबसे ज्‍यादा खुशी का इजहार मैं ही पूछ हिला कर करता था। बच्‍चे तो कभीकभार ताली बजा कर करते थे। सब पापा जी को घेर कर बैठ जाते और कहानी सुनाने की जीद्द करते। पापा जी रात को कम ही खाना खाते थे, शायद मेरी याद में मैंने कम ही देखा था उन्हें खाते हुए।

केवल एक गिलास दूध पीते थे। इस दृश्‍य का मैं भी एक साक्षी हूं। चाहे मुझे आप कितना ही बुद्धू समझ किंतु उन महफिल में मैं भी सब के साथ बैठ कर कहानी सुनता था। इस सभा का मैं भी जरूर सदृश्य बनता था। बीचबीच में पूंछ हिला कर बताता रहता की मैं सो नहीं रहा सब सून रहा हूं सब को बताता रहता था। और तब सब मेरी और बड़ी अजीब नजरों से देखते थे। एक अचरज और विषमय भरी नजर से जैसे कि ये सब जो मैं कर रहा हूं मुझे नहीं करना चाहिए। पर मैं करता था और मुझे वहाँ बैठना बहुत अच्‍छा लगता था। जब पापा जी कहानी सूना रहे होते तो मैं केवल उनकी ध्‍वनि को सुनता था। वो शब्‍द शायद ही मेरी समझ में कुछ आते होंगे, परंतु वहां शब्दों के पार भी कुछ बह रहा होता था। जिसे मैं आंखें बंद कर उस अपने अंतस में समेटने की कोशिश करता था। शब्‍द तो हमारी समझ में आ भी जाते है तो कुछ क्षण में लुप्त हो जाते है। धाराप्रवाह अनवरत बहने वाला प्रसाद अनमोल होता है। वहाँ का माहौल, वहां की शांति मेरे गहरे में उतरती चली जाती थी। वो नींद की तरह से जरूर होती थी, परंतु इतना मैं जानता था की वह नींद नहीं थी।

वह क्षण मेरे जीवन के अनमोल क्षणों में एक होता थे। बच्‍चे एक दो कहानी सुनने के बाद और कहानी की ज़िद्द करते पर पापा जी अगले दिन के लिए कह कर उन्‍हें सुला देते थे। पर आज तो मुझसे ज्‍यादा बच्‍चे इंतजार कर रहे थे। क्‍योंकि जो बड़ेबड़े पटाखे आदि आये हुए थे। उन्‍हें तो वह चला नहीं सकते थे। छोटे मोटे पटाखे और फुलझड़ियां चल कर अपना समय काट रहे थे। पर उन्‍हें खुद चला कर उन्‍हें आनंद भी आ रहा था। आज किसी को खाने की न ही भूख थी और न ही सुध थी। पर मैं तो मम्‍मी जी के पास चला गया जहां पर वह चूरमा बना रही थी।

अब वह भी मुझे आया देख कर खुश हुई की चलो कोई तो मेरे पास आया। वरना मम्‍मी जी कब से खाना बना कर आवाज लगा रही थी। पर कोई आने को तैयार ही नहीं था। मम्‍मी जी ने मुझे दालचूरमा दिया। वाह क्‍या लजीज मीठा मुलायम और स्वादिष्ट था। एक तरफ तो नमकीन दाल और दूसरी तरफ मीठा चूरमा। सच इतना स्‍वाद भोजन मैंने अपने जीवन में कभी नहीं खाया। मनुष्य भी कमाल का है, इस पापिन जीभ के स्वाद के कारण प्रत्येक प्राणी को अपने बस में कर लेता है।

पापा जी के आने के बाद सब बच्चों ने उन्‍हें घेर लिया। और अपनेअपने पटाखे दिखाने लगे। मैं भी उस जमात में खड़ा हो गया एक मूक दर्शक की तरह। क्‍योंकि मैं तो एक पक्का नकलची था, जो बच्चे करते मैं तो उनकी देखा देखी करने की कोशिश करता था। चाहे वो मेरी समझ में आये या न आये। देखो बच्चे भी अपने उन्माद में या भाव प्रवाह में ऐसे बह गये की वो सब भूल गये की ये पटाखे उनके लिए पापा जी ही तो खरीद कर लाये थे। पर उन्होंने सब पटाखे बारीबारी से पापा जी को दिखलाये की देखो मेरे पास कितने खतरनाक पटाखे है। जो कोई भी चलायेगा तो डर जायेगा। तब उन पटाखों को ले कर हम सब छत की और चल दिये। उधर मम्‍मी जी को अपने खाने की फिकर थी। वह बारबार आवाज दे रही थी। परंतु मेरे अलावा आज उनकी कोई नहीं सुन रहा था।

आज मेरे अलावा कोई खाना खाने को तैयार नहीं था। सब अपनेअपने खेल तमाशों में उलझे हुए थे। चारों और बम्‍बपटाखों की आवाज से गांव गुंज रहा था। मानो ख़ुशियों की फुलझड़ियां चारों और फैल रही थी। पापा जी मम्‍मी जी के पास गए और कहने लगे की उपर चलो पहले बच्‍चों के साथ छत पर चल कर पटाखे चला लेते है। फिर उसके बाद सब मिल झुल कर आज चूरमा खायेंगे। आज का बना चूरमा एक प्रसाद था जो सालों से इस गांव-घर में परम्परा से चला आ रहा था। आप इसे ढक कर रख दो। सो मम्‍मी बेचारी को आखिर हार मान कर हमारे साथ छत पा आकर बैठना ही पड़ा। हिमांशु भैया भाग कर मम्‍मी जी को गोद में छुप गया। छत का आँगन जो खूला था पीछे बड़ा ध्यान का कमरा था। जिसके अंदर हम दिन में ध्यान करते और रात को पापा जी अकेले वहां सोते थे। पर उसके बाद भी छत काफी बड़ी थी। चारों और इँट की जाली बनी थी। पापा जी एक शीशे की बोतल उठाई और छत के बीचों बीच रख दी। मैं बड़े गोर से देख रहा था और सूंघ कर समझने की कोशिश भी कर रहा था। कि ये सब क्‍या करने की कोशिश कर रहे है...ये क्या माजरा है। ये सब चीजें जो आज हो रही थी मेरे लिए नई थी।

सब लोग इस बात के कारण मेरा मजाक बनाने लगे। कि देखो पोनी अपने को बहुत ज्ञानी समझता है। परंतु ये मेरी परम्परा से मिली आदत थी। जो मेरे रोंए रेशे में समाई थी। पापा जी ने दीदी से एक पटाखा जो देखने में काफी लंबा था उसे अपने हाथ में लिया। उसे उन्‍होंने उस बोतल में खड़ा कर दिया। फिर एक मोमबत्ती हाथ में ले कर दीदी को आपने पास बुलाया दीदी थोड़ी सी डर रही थी। पर इतने लोगों में यही तो वह क्षण था जब अपनी वीरता दिखाने का परम सौभाग्‍य मिल रहा हो होता है, आपको। फिर चाहे आप कितना ही डर रहे हो। आप उस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहेंगे। फिर इसी साहस के दम पर साल भर अपनी बहादुरी की धौंस हम सब पर जमा सकती थी। इसलिए डरने के कारण वह रुकी नहीं क्‍योंकि उसे बहादुरी का मैडल मिल रहा था। और दूसरा पापा जी के साथ होने से शायद उसे थोड़ी हिम्‍मत भी आई होगी। फिर अपने हाथ की जलती मोमबत्ती को पापा जी ने दीदी के हाथ में थमाते हुए कहां। लो इस की बत्ती में आग लगाओ। दीदी ने कांपते हाथों से उस पकड़ा। तब पापा जी ने दीदी के हाथ को अपने हाथ से पकड़ कर आगे बढ़ा दिया और उस पटाखे की बत्ती में मोमबत्ती से आग लगा दी। दीदी ने डर के मारे अपना मुख फेर लिया। सब डर रहे थे पर मुझे उन दिनों जार कम ही डर लगता था। शायद में भय से अंजान था। इसलिए। कुछ देर सु...सु....सु...की आवाज और प्रकाश हुआ उसके बाद, तेज अंगारे छोड़ती कोई चीज आसमान कि और उड़ चली। हाए ये कैसा गजब....इतनी देर में मैंने गर्दन ऊपर की और की वह ऊपर और ऊपर जा रही थी। काले आसमान की और मैंने पहली बार देखा, कि ये काला आसमान कितना सुंदर लगता था।

आसमान को हम कहा देख पाते है हमारा जीवन तो जमीन पर देखते ही खत्‍म हो जाता है। मेरी जाति के कितने ही प्राणी पूरा दिन पेट की आग के कारण दीन दुनिया के लातघूसे दुतकारा खाते फिरते थे। झूठकूट खा कर किसी तरह से जीवन यापन करते है। और एक दिन जीवन के बोझ तले दब कर मर जाते है। एक बुरी मौत, वरना तो कोई क्‍यों बदनाम करेगा की कुत्‍ते की मौत मरोगे। खेर ये सब तो जीवन का ही एक हिस्‍सा था। जिसे प्रत्येक को भोगना था अब इस भोगने के साथ भाग्य को भी जोड़ा जा सकता था। आज खुशी के समय में इसे ना ही याद किया जाये तो अच्छा होगा। फिर अचानक एक जोर का प्रकाश चारों और फैल गया। जैसे कि अचानक सारा आकाश जो अभी तक रंग हीन काला था। वो अनंत रंगों के प्रकाश में नहा गया। चारों तरफ तेज प्रकाश जिसके कारण आँखें चिंदियाँ कर बंद हो गई।

कुछ देर बाद जब मैंने फिर आसमान की और देखा तो मैं बस देखता ही रह गया। रंगों की एक छतरी आसमान पर बन गई। मानो आसमान पर किसी ने सुंदर चित्रकारी कर दी हो। कुछ क्षण बाद एक बहुत जोर की आवाज हुई। बच्‍चों ने तालियाँ बजा कर उस सब का स्‍वागत किया। मैं भी खुशी के मारे पागल हो गया। और बारीबारी से सब के पास जा कर अपनी खुशी दिखाने की कोशिश कर रहा था। इस बीच मेरी दुम जोरजोर से गोल आकार में घूम रही थी। क्‍योंकि मैं हाथ से ताली बजा अपने मनोभावों को प्रकट नहीं कर सकता था। मेरी पूछ ही मेरी सहयोगी थी। जो मेरी चापलूसी में या खुशी में मेरे भाव को दूसरों तक पहुंचा सकती थी। इसलिए तो लोग कुत्‍ते की पूछ का मुहावरा दोहराते रहते है।

पर इस माहोल में भी कुछ ऐसा था जो मेरी समझ के परे था। मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि ये लोग अपने सब सामान को क्‍यों बरबाद कर रहे थे। मुझे तो घर का कूड़ा ले जाने वाली पर भी बहुत क्रोध आता था। हालांकि मैं उसे कुछ कह नहीं पाता था। क्‍योंकि वही लोग तो मुझे जंगल से लेकर आये थे। भला इस बात को मैं कैसे भूल सकता था। इस सब के कारण उनके प्रति मेरे मन में कुछ दिन के लिए जो घृणा और क्रोध था। परंतु अब वह सब तिरोहित हो कर प्‍यार और एहसान में बदल गया था। फिर भी अपनी आदत के अनुसार यदा कदा उनको भौंक जरूर देता था ताकि अपनी डुयुटी पूरी हो जाये।

अब जब भी उस आकाश तूली को छोड़ा जाता मैं उस को पकड़ने की नाकामयाब कोशिश करता। मेरे इस व्यवहार को देख कर सब ताली बजाते। मैं बारबार उसकी गति के करण हार जाता था। और दूसरी और हिमांशु भैया और मम्‍मी जी कानों में उँगली डाले दूर बैठे डर रहे थे। मेरे डर के ऊपर अब साहस न कब्‍जा जमा लिया था। इसलिए मैं बारबार उनके पास जाकर भोंक कर उन्‍हें जताने की कोशिश कर रहा था भला इसमें भी डरने की क्‍या बात थी।

पर एक बात मेरी समझ के परे थी कि ये मनुष्‍य भी कैसा है, अपने ही हाथों अपने ही घर के सामान को घर के बहार आग लगा कर फेंक रहा है। ये तो वही बात हो गई की घर फूंक तमाशा देखना। इस बात पर मुझे इसके दिमाग पर दया भी आ रही थी और क्रोध भी आ रहा था। इसलिए कभी में मम्‍मी जी के पास जा कर कुं....कुं....कुं कर या भोंक कर उन्‍हें समझाने की कोशिश‍ कर रह था कभी उनका हाथ चाट कर कह रहा था कि ये सब रोको पर मेरी बात किसी ने भी नहीं सूनी।

आप समझ सकते है मेरी मजबूरी। एक तो मैं ऐसे प्राणियों के साथ जी रहा था। जिसकी भाषा, सोच सब मेरी समझ के परे थी। फिर सबसे तनाव वहां पर आता था, जहां आप उन्हें कुछ कहना चाहते थे। और वो आपको किसी भी राय के काबिल नहीं समझते। फिर वहीं बातें मुझे अधिक से अधिक तनाव देती रही थी। कई बार बातों को बताने के लिए हमें बहुत जोर का क्रोध करना पड़ता था। मुझे इस मनुष्‍य की बुद्धि पर तरस भी आता और अपनी बुद्धि को रोकना भी होता लगाम डाल कर। एक ही हाथ से दोनों चीजों को सम्हालना अति कठिन था। बहुत मुश्किल होती थी, जब आप दो घोड़ों पर सवारी कर रहे होते हो। तब आपको बीच से चिल्लाना पड़ेगा या धूल धमास होकर नीचे जमीन पर गिरना ही पड़ेगा।

दीवाली का उत्सव पूरी रात चला। मम्‍मीपापा और बच्चे तो अपने बम्‍ब पटाखे चला कर सो गये। पर दूर दराज पूरी रात में उनकी आवाज सुनता रहा। मेरे लिए ये नई बात थी। हां इस आवाज से अंदर एक डर था जो जाना पहचाना सा महसूस होता था। पर ये बात पक्‍की थी इस से पहले इस जन्‍म में इस आवाज से मैं परिचित नहीं था। फिर ये डर क्‍यों? जो मेरे प्राणों को अंदर से कांपा रहा था खास कर अब इस अकेले पन में। क्योंकि जब मैं सब लोगों के साथ तो यह डर मुझे महसूस नहीं हो रहा था। परंतु अब अकेला समझ कर इसने मुझे घेर लिया था शायद। क्या कारण हो सकता था...... इस भय को मैं बहुत गहरे से महसूस कर रहा था। क्‍या ये सब मेरे पीछे से मुझे मेरे वंश वाद की ही देन थी। या कोई और बात। जैसे हमें मरने का अनुभव एक बार ही होता है। और इसे अनुभव भी नहीं कहना चाहिए। क्‍योंकि अनुभव तो वह होता है जिस जान कर आप उसके पार खड़े होकर आप उसे महसूस कर सके। और मृत्‍यु तो सब मिटा देती है। आप उस समय बेहोश हो जाते हो। फिर भी अंदर एक डर क्यों बन जाता है। जैसे इस अनुभव को लाखोंकरोड़ों बार जान कर भी हम कहां जान पाते हैं। ये एक चिरथार्त सत्‍य था। अब कोई इसे कबूल करें या नहीं ये उसका भ्रम मात्र ही कहलायेगा। वाकई एक बात तो आज की रात में थी। आज घर में रात के समय इतनी चहल पहल पहली बार हुई और ये मेरी लिए एक नई बात थी। जीवन के कितने सुंदर पड़ाव मनुष्य ने बना रखे है। जिन में क्षण भर रूक कर तरो ताजा हो उठता है। एक प्रकार से मन का स्नान है। इससे पहले तो पापा जी दुकान से जब घर आते तो बच्‍चे सो चूके होते या कभी रात में बिस्‍तरे में लेटेलेटे उनका इंतजार कर रहे होते की पापा जी अब  कहानी सुनाईये। पर आज तो घर पर एक उत्‍सव था एक मेला था। एक अपूर्व आनंद बरसा और यहीं है मनुष्‍य की महिमा की वो पेट के अलावा भी किसी और आयाम में भी जीता है।

जो पृथ्‍वी को कोई और प्राणी नहीं जानता। न समझता और न ही चाह कर भी उस में जी सकता है.......

भू..... भू...... भू........

आज इतना ही...

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