गीदड़ों का घेराव
वैसे तो कल ही हम सब जंगल में घूमने के लिए गये थे। परंतु आज जब जंगल में जाने की तैयारी हो रही थी तो मेरा मन खुशी के मारे बल्लियों उच्छल रहा था। जिस दिन हम जंगल में जाते थे उस दिन अक्सर रविवार का दिन या छूट का दिन होता था। लेकिन ये भी अजीब बात थी कि उस दिन कोई न कोई व्यक्ति जरूर ध्यान करने के लिए आ जाता था। उस दिन खास कर मुझे किसी का भी आना फूटी आंखों नहीं सुहाता था। मुझे लगता कि न जाने क्यों पापा जी नाहक किसी को भी घर में आने देते थे। और फिर यह देख कर तो और भी बुरा लगता की वह खाना भी यहीं खाते है। मुझे लगता कि इन लोगों को एक बार डरा कर किस तरह से भगा दूँ। मैं भोंकता भी खुब उन्हें गुस्से में डराने की कोशिश भी करता, परंतु मुझसे वे लोग डरते कम ही थे। शायद मेरी उम्र के हिसाब से अभी में बच्चा ही तो था।
मुझे ये भी पता था कि अगर मैंने किसी को काट लिया तो पापा जी गुस्सा करेंगे। पर मैं इस गुस्से को अपने मन में ही दबा कर रह जाता था। वरना तो मेरे दाँत तो कुलबुलाते थे बस एक बार उनके पैर में दांत गाड दूं। अब देखो हम कुत्तों में ये बीमारी कहां से आई, इतने वफादारी क्यों? देखों इस बात को लेकर कि क्यों लोग हमारे घर में आते है, वह पूरा दिन मेरा इसी तनाव में गुजरता था। एक और बात मैं किसी पर भी भरोसा नहीं करता था, मुझे शक की भी बीमारी थी। मुझे सब चौर और उठाईगीरे ही लगते थे, लगता की जरा आँख बची नहीं कि ये कुछ न कुछ उठा कर ले जायेगे।
इसलिए में आने वाले को कभी भी अकेले नहीं छोड़ता था। ध्यान के लिए सब अंदर जाते तो मेरा भी बहुत मन करता परंतु भीड़ के कारण मुझे बहार निकाल दिया जाता। पूरे ध्यान समय में मैं दरवाजे के बाहर उनका इंतजार करता रहा था। ध्यान के बाद कुछ लोग जो आस—पास रहते थे वे तो चले जाते थे। लेकिन कुछ जो दूर से आते थे वह तो खाना आदि खाकर ही जाते। उनके जाने के बाद तब मुझे कहीं चैन मिलता था। उस दिन घर पर मम्मी जी के लिए बहुत काम हो जाता था। मम्मी पाप को एक मिनट का भी आराम नहीं मिल पाता था। पापा जी खाना खाने के बाद ही दुकान पर निकल जाते। मम्मी जी कुछ देर आराम करती फिर उसके बाद चाय बनाती थी। हम सब को दूध मिलता। और मम्मी पापा जी की चाय ले कर दुकान पर चली जाती थी।
पर आज कुछ उलटा हो गया। मम्मी चाय लेकर गई। और पाप जी को घर पर आते देख कर मुझे कुछ अलग ही अहसास हुआ। अचानक मेरी बाछें खिल गई। लगा की हम जंगल में घूमने जाने वाले है। और सच में ऐसा ही हुआ। मुझे बहुत ही सुखद लग रहा था। मेरे पैर जमीन पर नहीं टीक रहे थे। ऐसा लगता था कि सारी दुनियां का सबसे भाग्यशाली मैं ही हूं...क्यों जंगल में जाना अनजाने ही मुझे बहुत अच्छा लगा था। इसका कारण भी मुझे पता नहीं था।
मैं नाच—नाच और रौ—रौ कर पागल हो रहा था। कि जल्दी क्यों नहीं करते इतनी देर क्यों लगा रहे हो, एक—एक मिनट युगों की तरह लग रहा था। न जाने इस आदमी को तैयार होने में कितनी देर लगती है। लो हम तो तैयार हो गये, पहनी गले में चेन....और लगे खींचने पकड़ने वाले की हमें परवाह नहीं की दर्द होगा या बेचारा गिरेगा। लेकिन बच्चे है कि तैयार ही नहीं हो रहे थे, कोई पानी की बोतल उठा रहा है....कोई अपने जुतो के फिते बांध रहा था। किसी तरह से आखिर काफिला जंगल की और चल ही दिया। कल के बेर खाने के बाद बच्चों ने और बेर खाने की जिद्दी की होगी की हम आज भी बेर खाने है। मुझे इस सब से क्या मतलब, मुझे तो जंगल में जाने का बहाना चाहिए। जैसे—जैसे हवा में ठंडक बढ़ती थी वैसे—वैसे दिन छोटे होने लग जाते थे। अब श्याम से रात होने में ज्यादा देर नहीं थी।
बच्चे बेर की झाडियों के पास जल्दी से जल्दी पहुंच जाना चाहते थे। रास्ते में आज हमें दादा जी भी मिल गए। बच्चे ज़िद्द करने लगे की आप भी हमारे साथ बेर खाने चलो। तब दादा जी कहने लगे अब रात जल्दी हो जाती है। जल्दी आना जंगल में ज्यादा दूर नहीं जाना। मम्मी की भी यही राय थे। सितम्बर—अक्तूबर दिन रात में करीब एक घंटे का फर्क हो जाता है। हम सब जंगल की और तेज कदमों से चल दिये। सूर्य अभी आसमान पर ही था। पर इस समय उसकी तेजी कुछ कम हो गई थी। हम सब भाग—भाग कर एक दूसरे को पीछे छोड़ते धूल उड़ाते हवा से बातें करते कुछ ही देर में जंगल में पहुंच गये। और बच्चों के साथ आज पापा जी भी बेर खा रहे थे।
मैं पापा जी के पास ही बैर मांगने गया। क्योंकि मैं जानता था कि पापा जी की गति सब से तेज है बेर तोड़ने में। अगर कल भी पापा जी हमारे साथ बेर तोड़ने के लिए आ जाते तो सब को इतने बेर तोड़ कर दे देते की आज किसी को आने का मन ही नहीं होता। पापा जी ने देखते ही देखते हिमांशु भैया की दोनों जेब भर दी। वह सबसे खुश था। और दिखा रहा था कि देखो मेरे पास कितने बैर है।
मैं भी अंदर ही अंदर जलन महसूस कर रह था। कि पापा जी ने हिमांशु भैया को इतने बैर दे दिये मुझे तो दिए ही नहीं। बस खाने के लिए तो दो—चार दिए थे। परंतु मेरे पास तो न कपड़े थे न जेब फिर मैं रखता कहां पर। हालांकि सर्दी के दिनों में आपना कोट पहनता था। परंतु उसमें भी जेब तो नहीं थी। उसे पहन कर मैं कितने गर्व से घूमता था। पर ये बाद की बात है पहले अब बेर और जंगल का आनंद लेते है।
इन थोड़ी सी झाड़ियों से बेर खा हम आगे बढ़े। न जाने क्यों आज नाला भी बहुत जल्दी आ गया। लगा हम हवा से बातें करते हुए आ गये थे। मैं भाग कर जल्दी से पानी में घूस गया। पानी उस समय घुटनों—घुटनों ही था। पानी पी कर मैं उसमें खेलने लगा। हवा में ठंडक होने पर भी मुझे गर्मी लग रहा थी। उस समय पानी में जाना बहुत अच्छा लग रहा था। पर सब लोगों को जल्दी से जल्दी आगे जाना था। अभी तो एक नाला और पार करना पड़ेगा। फिर उसके बाद और झंडियों शुरू हो जायेगी जहां पर अधिक बेर थे। परंतु सूर्य है की हमसे भी तेज गति से अपने घर जाने के लिए आतुर था। दूर डूबते सूर्य की तिरछी किरणें पानी में पड़ कर बहुत तेज चमक रही थी। जो सीधी आंखों में पड़ने के कारण आंखें खुली भी नहीं जा रही थी। दूसरे नाले में पहुंच कर सब ने पानी पिया। और पापा जी ने हिमांशु को गोद में ले कर नाले को पार करवाया।
वरूण भैया और दीदी तो बड़े मजे से कूद गए। मैं तो खुद ही पानी में खेल रहा था। और सब को दिखा रहा था की है किसी की हिम्मत जो मेरे से मुकाबला करें। अपनी इस एक तरफा विजय पर इतराते हुआ सबसे आगे भाग रहा था। श्याम होने में अभी काफी देर थी। ऊंचे पेड़ों पर पक्षी आ—आ कर अपना सोने का स्थान बना रहे थे। उनके मधुर गीत अलग—अलग नाद के बाद भी मन को बहुत अच्छे लग रहे थ। उनकी वह चहक पूरे जंगल में गुंज रही थी। बीच—बीच में मोर भी अपनी दर्द भरी पुकार सूना रहा था। कुछ पक्षी आपस में लड़ झगड़ रहे थे, अपनी जगह खाली करने के लिए, अपने सोने के स्थान के लिए हो सकता है कल जहां वो सोए थे आज किसी दूसरे ने अपना डेरा डाल लिया होगा। ये लड़ना झगड़ना भी एक प्रकार से उनका खेल ही था। ये रैन बसेरा हर श्याम इसी तरह से जंगल में होता होगा, परंतु कहां कोई इसे निहार सकता था यहां आये बिना। उनका कलरव गान...मानो आज के दिन का धन्यवाद है प्रकृति को...कि उसे जीने का मोका दिया....कोई शिकायत नहीं सब अपने—अपने स्थान के लिए एक दूसरे से लड़—झगड़ कर अधिकार जता रहे थे।
अचानक दूर झाड़ियों से एक खरगोश निकल कर भागा, यह सब इतनी अचानक हुआ की मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। परंतु दूसरे ही पल मुझे खरगोश दौड़ता दिखाई दिया मैं पूरी ताकत लगा कर उसके पीछे भागा। पर ये कोई पालतू खरगोश थोड़े ही था। जिसे मैं पकड़ पाता। वह तो दो ही जम्प में आँखों से ओझल हो गया था। और मैं अपनी जगह खड़ा हो कर सुस्ताता रह गया। मैं समझने की कोशिश कर रह था की अब कहां निकल आया। इतनी देर में जंगली मुर्गी एक झाड़ी से निकल कर कुं....कुं...कुं...कर के र्फू..र..र से उड़ गई। एक बार तो मैं डर गया कि ये किसने हमला कर दिया मेरे ऊपर। तभी मुझे पापा और दीदी की आवाज सुनाई दी। जो मेरे अचानक यू भागने के कारण घबरा कर मेरे पीछे आ रहे थे। उन्हें लगा की पोनी पर कोई खतरा न आ गया हो। ये जंगल है इसमें दूर जाना ठीक नहीं कहीं से भी कोई जंगली जानवर आप पर हमला कर सकता था। पर मैं इस सब से अंजान था। मेरा तो दौड़ना भागना ही एक खेल था।
जैसे—जैसे हवा मैं ठंडक बढ़ रही थी दिन छोटे और सुहाने होते जा रहे थे। गर्मीयों में तो सूर्य अस्त होने के कई घंटे बाद भी गर्मी बनी रहती थी। पर अभी सूर्य डूबा भी नहीं था। कि हवा ठंडी हो गई थी। नाला पार कर सब झाड़ियों से लाल—लाल बेर तोड़ कर खाने में लग गये। बीच—बीच में तोड़—तोड़ कर सब अपनी जेब में भी भर रहे थे। मैं भी कभी दीदी के पास कभी पापा जी के पास जा कर बेर मांग—मांग कर खाने लगा। मैं और हिमांशु भैया दोनों एक जैसे थे। न वो बैर तोड़ सकता था और न मैं। बस कोई हमें तोड़ कर दे तो ठीक है। उन झाड़ियों में बेर कम थे और कांटे ज्यादा इसलिए उन झाडियों के बेर हमेशा स्वादिष्ट होते थे। एक दो बार मैंने कोशिश भी की और कामयाब भी हुआ। और मजा भी बहुत आया। पर नाक पर कांटों का चुभन का बहुत दर्द होता था। मैं जब कोई बैर तोड़ लेता तो कभी दीदी को दिखाता कभी हिमांशु भैया को चिड़ाने की कोशिश करता की देखो मैंने भी एक बेर तोड़ कर खाया। इस बात पर दीदी और वरूण भैया ताली बजा कर मेरा उत्साह बढ़ाते। और मैं फूल कर कुप्पा हो जाता था।
धीरे—धीरे सूर्य डूब रहा था। उसका लाल—लाल गोला कितना बड़ा लग रहा था। अब उससे आती किरणें आंखों में कम चूब रही थी। पर मैंने देखा जब सूर्य डूबता है तो उसके आस पास बादलों का झुंड जरूर इकट्ठा हो जाता था। जैसे—जैसे सूर्य डूब रहा था। हवा की ठंडक के कारण और कुछ मेरे पानी में भीगने कारण मुझे ठंड लग रही थी। रह—रह कर मेरे शरीर से झुरझुरी सी उठ रही थी। इस पर किसी का ध्यान नहीं गया था। क्योंकि सब अपने—अपने बेर तोड़ने में तल्लीन थे। सब को पता था अभी थोड़ी ही देर में श्याम ढल जायेगी और फिर यहां से जाना होगा। दिन का समय होता तो शायद बच्चे खेलते भी। पर इस समय तो सब बेर खाने का मन बना कर आये थे।
अचानक पास की झाड़ी में से कुछ अजीब सी गंध महसूस हुई, मेरा ध्यान उधर की और गया। मेरे उस और जाते ही वहां पर कुछ सरसराहट हुई। मुझे लगा कुछ गड़बड़ है। और मैं पापा जी के पास जाकर खड़ा हो कर उधर देखने लगा। पर पापा जी का ध्यान मेरी और नहीं था। वह बेर तोड़ने में मगन थे। बीच—बीच में बेर चख कर भी देख लेते थे कि इस झाड़ी के मीठे है या नहीं।
उधर सूर्य डूब गया। अचानक अंधकार ने अपना आस्तित्व प्रकृति पर फलाना शुरू कर दिया था। जैसे अंधकार सूर्य की किरणों के लौटने का ही इंतजार कर रहा था। एक छद्म रूप में। पर शायद पापा जी बेर तोड़ने में समय को भूल गये थे। बच्चों को क्या भय होगा जब पापा जी उनके साथ थे। तभी दूसरी बार मुझे झाड़ियों की और से गंध आई और मैं उस और धीरे—धीरे बढ़ने लगा। बिलकुल पास जाकर में डर के मारे जोर—जोर से भोंक कर पापा जी की और भागा। मेरे इस तरह से भोंकने से पापा जी को कुछ खतरे का एहसास हुआ।
क्योंकि हमारा भोंकना मात्र भोंकना नहीं है। कभी वह किसी को डरा रहा होता है। कभी किसी के रोने से उसकी और हमदर्दी दिखा रहा होता है। कभी अधिकार का भोंकना होता है। कभी डर और भय का। आप ध्यान से सुनोगे तो आप समझ सकते है कि मेरे भोंकने के प्रकार समय और स्थिति में भिन्न हो जाते है। आप जिसे भोंकना समझते है वहीं तो हमारी भाषा है। मेरे इस तरह भयभीत होकर भौंकने के कारण पापा जी सतर्क हो गये। और इतनी देर में झाड़ी के अंदर से एक पूछ जो घास के रंग की थी वह दौड़ती हुई दिखाई दी। उसके साथ ही दूर कहीं गीदड़ों की हुंकार सुनाई दी। शायद वह मनुष्य को आगाह कर रहे थे। कि अब जंगल को तुम छोड़ दो अब निशा, रात होने वाली है, आप लोग अब यहां से जाओ। अब हमारे खाने—व बाहर निकलने का समय हो गया है। इतने सारे गीदड़ों की आवाज इतने पास से आने के कारण मैं बहुत डर गया था। मैं पापा जी के पास जा कर कुं..कुं....कुं...करके रोने लगा। पापा जी भी शायद खतरे को भांप गये थे। लेकिन ये बात उन्होंने बच्चों पर जाहिर नहीं होने दी। बच्चों ने भी गीदड़ों की हुंकार को सुना। और शायद वह भी कुछ समझ गये।
पापा जी ने हिमांशु भैया को गोद में उठा लिया और दीदी को कहने लगे की चलो घर चलते है। मम्मी जी वहां पर हमारा इंतजार कर रही होगी। और देखो सूरज भी डूब गया हमें पता ही नहीं चला और अब तो रात भी घिरने लगी थी। आवाज को सुनो गीदड़ भी अब कह रहे है। कि अब तुम घर जाओ अब हमारी बारी है बैर खाने की। हम सब तेज कदमों से घने जंगल से घर की और चलने लगे। पास ही झाड़ियों से सरसराहट लगातार हमारा पीछा कर रही थी। दबे पेर बिना आवाज किए...घास का हिलना ही दिखाई दे रहा था। और कूं—कूं की आवाज करके में डर रहा था। हम लोग जल्दी—जल्दी घने जंगल में से खुले मैदान में पहुंच गये। यहाँ पर झाड़ियां थोड़ी कम थी। चारों और रोंझ—कैर के बड़े—बड़े पेड़ थे। उनकी ऊँचाई और खुले पन के कारण हम दूर तक देखे सकते थे। कहीं—कहीं पर झाडियों का कोई—कोई झूंड भी बीच में बड़ा जरूर था। परंतु मैदान होने के कारण हमें चारों और दिखाई दे रहा था।
भाग्य से शायद आज पूर्णिमा की रात भी थी। सूर्य के अस्त होते ही दूसरी और आसमान पर बहुत बड़ा चाँद आ धमका था। पापा जी ने सब को कहां देखो कितना सुंदर चाँद है। इस पर कुछ देर के लिए सब ने खड़े हो कर चाँद को निहारा। पर कोई और समय होता तो सब खूब देर बैठ कर उसके दर्शन करते। परंतु ये समय उचित नहीं था इस सब करने के लिए। हमें अपने आस पास गीदड़ों की सुगबुगाहट महसूस हो रही थी। धीरे—धीरे उनकी दूरी कम—से कम होती जा रही थी। अब भी हम गांव से 3—4 मील दूर थे। आज दूर तक न तो गाय न कोई ग्वाला भी नजर नहीं आ रहा था। जंगल आज एक दम सुनसान हो गया था। वरना तो भेड़—बकरियां चराने वाले, जंगल से लकड़ी काटने वाले कोई न कोई राहगीर मिल ही जाता था।
चाँद अपने पूरे यौवन पर आ रहा था, सुरमई अंधेरे में अब अपनी रोशनी चारों और फैला रहा था। चाँद की रोशनी में पेड़ कैसे छद्म सौंदर्य लिए दिखाई दे रहे थे। प्रकाश की रोशनी उनके गूढ़ सौंदर्य को बलात उघाड़ देती है। और चाँद उस सौंदर्य में एक रहस्य भर देता है। हम सब सूखी घास को चीरते तेज कदमों से चले जा रहे थे। कभी—कभी मेरे पैर में भांखडी (एक प्रकार का कांटा) चुब जाता थी। और मैं एक पैर पर कुछ देर चल कर उसे निकाल देता था। पर उस कांटे का जहर काफी देर तक दर्द करता था। परंतु ये समय नहीं था इस दर्द को महसूस करने का अब तो खतरे का समय था। इसलिए इन छोटी—छोटी बातों परवाह किए बिना हम तेज कदमों से आगे बढ़ रहे थे।
घास खत्म हो रही थे और सामने ही चौड़ा रास्ता नजर आ रहा था। तब मेरी जान में जान आई। पर खतरा अभी भी कम नहीं हुआ था। रास्ते पर पहुंच कर पापा जी ने कहां चलो भागते है। पापा जी ने हिमांशु को अपनी गोद में लिया और सब बच्चों को आगे कर पीछे रह कर दौड़ रहे थे। सबसे आगे वरूण भैया थे, उनके पीछे मैं और मेरे पीछे दीदी। हम सब के बाद में पापा जी थे। क्योंकि पाप जी हिमांशु को अपनी पीठ पा लाद कर दौड़ रहे थे। मुझे भी बहुत मजा आता था जब पापा जी मुझे अपनी गोद में उठ कर दौड़ते थे। तो उन ऊंचे नीचे गिरते झटको का आनंद ही अलग था। पर अब तो मैं बड़ा हो गया था। अब हमने पहला नाला पार कर लिया था।
चारों और शांति थी। पक्षी भी शोर मचा कर चुप सो गये थे। कभी—कभी किसी टटिहरी की कर्ण भेदी आवाज वातावरण को और रहस्यमय बना जाती थी। पापा जी हमारे पीछे चाक चौबंद चल रहे थे। उनके हाथ में एक मोटा लकड़ी का सोटा हमेशा साथ रहता था। पीछे से गीदड़ों की आवाज बार—बार आ रही थी। अब वह एक झुंड में नहीं कई झुंडों में बिखर गये थे। कभी आवाज दक्षिण की तरफ से आती और कभी पीछे से कभी उत्तर की और से। मैं डर भी रहा था और दौड भी रहा था। चाँद की चांदनी में रास्ता दूर तक चमकता साफ दिखाई दे रहा था। पर पास की झाड़ियों में देख पान मुमकिन नहीं था। पहले नाले को पार करके हम खुले मैदान में दौड़ रहे थे। वहां पर शीशम, बबूल और रोंझ के ऊंचे—ऊंचे वृक्ष थे। दूर कहीं जंगली गायों का झुंड मैदान में आराम कर रह था। चाँद की इस चाँदनी में भी कैसे मिट्टी के टीबों का आकार लिए बहुत सुंदर लग रहा था। बीच—बीच में दूर...कहीं किसी भयभीत मोर की दर्द भरी आवाज पूरे वातावरण एक भय भर रही थी।
वहीं कुछ नवयुवक सांड आपस में अपनी ताकत की आज़माई कर रहे थे। जिसके कारण वहां पर धूल का एक गुब्बार सा खड़ा हो गया था। कुछ छोटे बछड़े अपने मां के पास सट कर सो रहे थे। मां पास बैठी मजे से जुगाली कर— कर के झाग के गोले बना रही थी। मैं सोचता था ये ही तो वह दूध है जो मैं पीता हूं....
भागने के कारण सबकी साँसे फूल रही थी। उसके साथ पसीना भी आ रहा था। परंतु रूकने को कोई तैयार नहीं था। पहले नाले और दूसरे नाले तक आने में हमने कम से कम दस मिनट का समय लगा। अब सामने दूसरा बड़ा नाला दिखाई दे रहा था। उसका रास्ता काफी चौड़ा था। हम जैसे ही नाले के पास पहुंचे, एक झाड़ी के अंदर से सांप निकल कर भागने लगा। शायद वह बेचारा रास्ते में विश्राम कर रहा था। और हमारे पैरों की आहट पा कर डर गया। वरूण भैया सबसे आगे थे। मैं उसके पीछे, सांप मेरे और वरूण भैया के बीच में दौड़ रहा था। पापा जी और दीदी हमारे पीछे थे। पापा जी ने जैसे ही सांप को देखा वरूण भैया को आवाज दी की तुम्हारे पीछे सांप है, रूकना मत तेज दौड़ जितना तेज दौड सकते हो।
वरूण भैया के साथ मैं भी पूरी ताकत लगा कर भागा। मानो हम जीवन की दौड़—दौड़ रहे थे...और सच ही वरूण भैया ने गजब कि चपलता से जो फर्राटा लगाया। अगर वह किसी खेल प्रतियोगिता में भागता तो जरूर उसे कोई मैडल मिल ही जाता। भैया की इस दौड़ को देख कर सब अचरज से भर गये थे। मुझे लगता था मैं सबसे तेज दौड़ता हूं...मैं तो ठगा से देखता ही रह गया। सांप भी मारे डर के और तेज से दौड़ रहा था। सब एक दूसरे से डर कर दौड़ रहे थे.....कोई किसी को मार नहीं रहा था। परंतु अंदर एक सुरक्षा का बचाव का नियम काम कर रहा था। नाले की ढलान के कारण हमारी गति और तेज हो गई और रेत के कारण सांप की गति कुछ कम हो गई। पापा जी खतरे को देख रहे थे। और हमें निर्देश देते जा रहे थे। मानो पीछे से हमारी दौड़ की कामेंट्री कर रहे हो।
मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा था पर शायद वरूण भैया समझ रहे थे। और मैं तो वरूण भैया और सांप के पीछे दौड़ रहा था। अब नीचे उतरने के बाद जैसे ही पानी का नाला दिखाई दिया तब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करना होगा। तभी पापा जी ने आवाज लगाई वरूण नाले को कूद जाओ और वरूण भैया छपाक से उस चौड़े नाले को पलक झपकते ही कूद कर पार कर गया। मैं पीछे से सांप को भागते हुए देख रहा था कि अगर इसने वरूण भैया पर हमला किया तो मैं इस पर जरूर हमला कर दूंगा। पीछे से पापा जी तो आ ही रहे थे। अब सांप वरूण भैया के पीछे दौड़ रहा था न वह मुझसे डर कर दौड रहा था। सब अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रहे थे। लेकिन सांप तो पानी को पार नहीं कर सकता था। वह दाई और मुड़ गया। वह बेचारा अपनी जाने बचाने के लिए पास की झाड़ियों में घूस गया। मैंने भी कोशिश की कूदने की परंतु में बीच पानी में ही गिर गया और फटा—फट दूसरे किनारे निकल गया। कुछ देर के लिए तो सब के प्राण अधर में अटक गये थे।
पानी में भीग जाने के कारण और मिट्टी में सन जाने के कारण मेरा हाल बेहाल था। परंतु एक खुशी भी थी की हमने कितनी बहादुरी दिखाई। सब नाले को पार कर ऊपर चढ़ कर रूक गये। सब की साँसे तेज चल रही थी। पापा जी ने हिमांशु को गोद से नीचे उतारा। और वरूण भैया के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहां कि वरूण तूने बहुत तेज फर्राटा मारा। देखो इन दोनों ने सांप को भी पीछे छोड़ दिया। और इस तरह से हमारा उत्साह बढ़ा कर भय कम करने लगे। वैसे जंगल में हमें रोज एक या दो सांप देखने को मिल ही जाते थे। पर इस तरह से सांप के साथ दौड़ पहली बार लगाई थी। सब हंस रहे थे। और पापा जी ने मेरे को गोद में उठा कर मेरी मिट्टी को झाड़ने के साथ—साथ मुझे प्यार दुलार भी किया। मैं भी खुशी के मारे पूंछ हिला रहा था। दीदी जो हममें सबसे बड़ी थी वह खतरे को समझ रही थी। और बार—बार वरूण भैया का पसीना पोंछने के साथ—साथ दुलार भी कर रही थी। हिमांशु भैया ने पास जा कर वरूण भैया का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे देखता रहा। खतरे के समय हम सब सुकड़ कर कैसे एक दूसरे के नजदीक आ जाते है। दूर अब भी गीदड़ों की हंकार आ रही थी। पर अब हम उनकी पकड़ के बहार थे। दोनों नाले पार करने के बाद गांव की सीमा आ जाती थी।
जहां देर तक लोग दशा मैदान को आते रहते थे। अब हम घर के नजदीक थे। श्याम अब रात में बदल चुकी थी। पर चाँद की चाँदनी भूगड़े (सफेद) की तरह खीली इतरा रही थी। हम सब धीरे—धीरे घर की और चल दिये। पापा जी ने सब को कहा की मम्मी जी को ये सांप वाली बात मत बताना। वरना नहीं तो फिर हमें जंगल में नहीं आने दिया जायेगा। मैं भी अपनी पूछ हिला रहा था। परंतु शायद एक मैं ही ऐसा था जो उस बात पर पक्का अमल कर सकता था। वरना तो किसी न किसी के मुख से कभी ने कभी ये बात निकल ही जायेगी। इतनी देर में दादाजी की आवाज सुनाई दी।
मनवा...मनवा....दादा जी दीदी को मनवा कह कर पुकारते थे। जब हमारे इतनी देर तक घर नहीं पहुंचे। तब शायद मम्मी जी ने उन्हें हमें ढूंढने के लिए के लिए भेजा दिया होगा। पास आ कर दादा जी ने हिमांशु भैया का हाथ पकड़ लिया और पापा जी को लगे डांटने। कि बच्चों को इतनी रात तक जंगल में घुमाना अच्छी बात नहीं। शुक्र है सांप की बात का उन्हें पता नहीं था, वरना तो बेचारे पापा जी की और भी शामत आ जाती।
खुशी के साथ एक रोमांच से भर कर हम घर की और चल दिए। चाँद हमें देख रहा था...और हमारा पीछा कर रहा था। मानो कह रहा है...इस सुंदर एकांत को छोड़ कर तुम कहां जा रहे हो...परंतु हमें घर की और जाना ही था। वह हमें रह—रह कर लुभा और बुला भी रहा था। परंतु चाँद का क्या...वह तो आसमान में था, और हम ज़मीं पर, उसे कौन से सांप और गीदड़ों का भय था......परंतु वह अकेला ही उस आसमान में विचरता रहता है और न जाने सदियों से कितने भटके हुए लोगों को मार्ग दिखा है। मैंने चाँद को देखा और मन ही मन उसे धन्यवाद दिया की सच ही तु महान है....नमन है तुझे। सच उस दिन उसकी आभा और सौंदर्य देखने जैसा था। नमन
इस तरह से एक सुंदर दिन का अंत भी सुखद हुआ....
भू..... भू...... भू.......
आज इतना ही।
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