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मंगलवार, 25 जून 2024

01-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

अध्याय-01

 (सदमा-उपन्यास)

ऊटी का रेलवे स्टेशन वैसे तो वहां सब पहले की तरह से दिखाई दे रहा था। आज भी रेलगाड़ी में चढ़ने वालों की भीड़ पहले की तरह ही उमड़ी पड़ी थी। स्टेशन हर रोज की तरह से ही चहल पहल थी। परंतु केवल कुछ बदल रहा था तो केवल एक आदमी का जीवन। जो इस भीड़ में भी अपने को कितना असहाय महसूस कर रहा था। बार-बार वह उस छवि को देख लेना चाहता था। कीचड़ में सने उसके वस्त्र माथे से बहता खून। परंतु इस सब से उस भीड़ में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। और न ही किसी का ध्यान उसकी और जा रहा था। सब अपने-अपने प्रिय जनो और सामान के साथ गाड़ी में चढ़ने उतरने में व्यस्त थे। इस सब में सोमू की नजरे केवल एक छवि को ढूंढ रही थी। वह थी उसकी रेशमी। अचानक उसने एक खिड़की में उसे बैठे हुए देखा। उसकी आंखों में नव जीवन को संचार हुआ। अब वह सोच रहा था कैसे मैं एक बार रेशमी की नजरों के सामने आ जाऊं, ताकि वह मुझे देख ले। वह जानता था एक बार अगर उसने मुझे देख लिया तो भाग कर मेरे पास आ जायेगी। सोमू तुम कहां थे, मैं तुम्हारा इंतजार कब से कर रही थी। तुम कहां चले गए थे, ये लोग मुझे न जाने कहां ले जा रहे है। मैं तुम्हें छोड़ कर अब कहीं भी नहीं जाऊंगी।

आसमान पर बादलों का झुरमुट छाया हुआ था। पवन भी सहज सरल मधुर मंथन गति से चल रही थी। जो की प्रत्येक जीव के प्राणों को नव संचार भर रही थी। आसमान पर बादलों का डेरा था। कभी-कभी बीच में हल्की-हल्की फुहार भी गिरने लग जाती थी। ट्रेन पर चढ़ने वालों का चारों और एक रोनक मेला था। अभी गाड़ी के चलने में कुछ देर थी। परंतु सब पहले की तरह से ही होकर भी सब कितना बदला-बदला लग रहा था। आज सोमू को कितना भय और अकेला पन लग रहा था। उसका मन कर रहा था अपनी रेशमी के पास चला जाऊं। वह तो पल भर के लिए भी उससे दूर नहीं रहती थी। जितनी देर के लिए वह स्कूल मैं अपने काम पर जाता था। केवल मन मार कर उतनी देर ही वह नानी के पास रहती थी। देर हो जाये तो कैसे नाराज हो जाती थी। याद है उसे जब वह उसके साथ बाल वत खेलता था। तब एक दिन उसने शरारत करते हुए वह बर्तन अपने गले में फंसा लेने का नाटक किया था। तब वह कैसे असहाय लाचार हो कर रोने लग गई थी। कितना डर गई थी की अब कैसे ये बर्तन मेरे गले से निकलेगा। तभी मैंने वह बर्तन गले से बहार निकाला वह किस तरह से ताली बजा-बजा कर उछल पड़ी थी। कितनी सरल कैसा मासूम भोलापन उससे झरता था। आज सब याद कर उसको एक प्रकार का भय भी लग रहा था। आज वह जरूर उससे नाराज हो रही होगी। तीन दिन हो गए उससे अलग हुए। जब से उसे इलाज के लिए महात्मा जी के आश्रम में भर्ती किया था। तब से वह केवल एक बार ही वहां जा पाया था। तब भी उसकी रेशमी ने उसे नहीं देखा था। क्योंकि वह तो अचेत थी। दूसरे दिन तो उसके माता-पिता ही यहां पर पहुंच गए थे। तब वह कैसे जाता उसकी लाचारी थी। इस बात से वह बहुत अधिक डर गया था।

वह सोमू (सोम प्रकाश) आज जीवन में जो चाहता था कि उसकी रेशमी ठीक हो जाये। वह सब पा कर एक तरफ तो वह कितना खुश था। और दूसरी और उसके मन में हजारों तूफान उठ रहे थे। मानो उसने एक अभूतपूर्व गगन को छू लिया है। आज बादल जो दूर ऊटी के पहाड़ों से उसे देख रहे थे वह भी मन में एक ईशा और जलन के साथ प्रेम बरसा रहे थे। वह बूंदों के रूप धर कर धरा पर झर रहा था। परंतु रेशमी जो महीनों से उसके अंग संग थी। उसका दूख सूख सब सोमू ने अपने अंतस में समा लिया था। उसके संग साथ बाल वत क्रीड़ा के कारण सोम प्रकाश का भी भोला बचपन कहीं जो दबा कुचला था। वह उभर कर बाहर लोट आया था। रेशमी के संग-साथ जीना वह उसके जीवन में एक अद्भुत पूर्ण खुशी लेकर आया था। दिखने में तो साधारण काम था परंतु सच गहराई से देखने पर वह कोई साधारण काम नहीं था। प्रेम क्या है वह सोमू ने इससे पहले कहां जाना था। उसने अपने जीवन में उसे एक अतृप्ति की तरह से ही तो उसे जाना था। परंतु जैसे ही रेशमी उसके जीवन में आई। उसके सूखे सरोवर में मानो दबी प्रेम की बर्फ पिघल गई। कोई झरना बह चला हां माना वह एक सुकोमल बाल वत ही सही। परंतु एक अंकुर तो फूटा। गंगा के उद्गमन को कोई देख कर यह कल्पना भी नहीं कर सकता की। बंगाल की खाड़ी में गिरते-गिरते वह एक विशाल सागर का रूप ले लगी। अब उसके ह्रदय की झील प्रेम के जल से सराबोर हो रही थी। तभी अचानक ये सब घट गया। लगा सब ठीक हो जायेगा परंतु कुदरत की गोद में क्या है ये कोई कैसे जान सकता है। इसी को तो हम होनी अनहोनी कहते है।

मानव जो सोचता है वह सब क्या हो पाता है। अगर हो पाता तो क्या ये मन तृप्त हो उठता शायद नहीं। कल तक वह सोमू सोचता था, अगर रेशमी ठीक हो जाती तो कितना अच्छा होता। परंतु जैसे ही उसके इलाज के लिए वह लेकर गया था। तब वह कितना खुश था। उसके मन में न जाने कितने सपने थे। जब रेशमी ठीक हो जायेगी तो वह क्या मुझे पहचान लेगी। नहीं भी पहचानेगी तो कोई बात नहीं। परंतु उसके सूखे जीवन में एक बसंत तो खिलेगा, उसके लिए इतना क्या कम है। वह अंदर-ही-अंदर एक तृप्ति एक आनंद महसूस कर रहा था।

परंतु अचानक ये सब जो घटा उसकी उसे कल्पना तक नहीं थी। पुलिस रेशमी को पूछती हुई उसके घर तक पहुंच गई। तब नानी ने उसे बतलाया की तुम्हें ढूंढती पुलिस आई तो तब वह कितना डर गया था। क्योंकि उसके मन में जो चोर था वह उसे डरा रहा था। वह भले ही अच्छे काम के लिए रेशमी को उस वेश्यालय से बचा कर ले आया था। परंतु कौन मानेगा इस बात को वह तो सारा इल्जाम उसके सर पर ही तो आयेगा। की हो न हो रेशमी को उसने की अपहरण किया था। तब वह क्या करता। वह डर कर छूप जाता है। वह रेशमी को तो ह्रदय से चाहता था। परंतु उसके मन में एक चोर भी था। वह उसे डरा रहा है। परंतु जैसे ही उसे पता चलता है की रेशमी अब ठीक हो गई है। तो एक बार उसे देखने की चाहत को वह रोक नहीं पा रहा था। वह डरता छुपता-छिपाता स्टेशन की और आता है। न ही उसे गहरे नाले दिखाई देता है। वह पागलों की तरह से किसी भी तरह से स्टेशन पहुंच जाना चाहता है। इस बीच वह एका-एक उंची खाई से गिरता है और एक कार से भी टकरा जाता है। उसकी टाँग भी टूट जाती है। वह सारा कीचड़ से लथ-पथ हो जाता है। परंतु उसका मन कहां रूकने वाला था। वह हिम्मत नहीं हारता और कीचड़ से सना हुआ। सर से उसके खून बह रहा था। टूटी टाँग से किसी तरह से गिरता पड़ता रेलवे स्टेशन पहुंच ही जाता है। रेल गाड़ी स्टेशन पर खड़ी थी वह चलने को तैयार थी। वह हर-डिब्बे में, हर खिड़की में रेशमी देखता हुआ आता है। उसकी आंखें बस अपनी रेशमी को ही ढूंढ रही थी।

जैसे ही वह रेशमी को एक खिड़की में बैठे देखा तो पल भर के लिए उसकी सांसे मानो बंद हो गई थी। वह पल भर के लिए सहमा। की कहीं रेशमी उसे पहचान तो नहीं लेगी। परंतु एक बार उसका चेहरा देखने की लालसा को वह रोक नहीं पा रहा था। परंतु वह खिड़की के पास से गुजर गया एक उड़ती सी चोर नजर से उसने रेशमी को देखा। कुछ दूर जाकर वह वापस फिर उसी खिड़की के पास से गुजरा है। इस बार उसने अपनी आंखें उपर उठा कर रेशमी को जी भर कर देखा। और सच रेशमी न भी उसे देखा। दोनों की आंखें एक दूसरे से टकराई, परंतु उसकी आंखें देख तो रही थी एक दूसरे को। लेकिन उनमें कोई अपने पन का अहसास, कोई प्रेम, कोई परिचय, उन आंखों में नहीं हो रहा था। जैसे की रेशमी ने उसे देख कर भी नहीं देखा। अब वह कुछ कदम फिर पीछे की और लोट पड़ता है। और इस बार वह खिड़की के सामने जाकर खड़ा हो गया। पास के एक बिजली के खंभे का सहारा ले कर। वह खंबे के पीछे से रेशमी को देख रहा था। परंतु वह उसे देख कर भी पहचान नहीं रही थी। ऐसा कैसे हो सकता है। वो बालवत उसका अल्हड़पन। उसका लड़ना रूठना। कितना भाला लगता था सोमू को। वह चाह कर भी उस पर गुस्सा नहीं कर पाता था। उसकी वो शरारतें। वो पागलपन। भी उसे कितनी मधुर लगाती थी।

उसकी भोली हंसी, आज भी सोमू के सामने आकर खड़ी अपनी और रीझा रही थी। तब रेशमी कैसे ये सब भूल सकती थी। अचानक वह साहास कर खंभे की ओट से एक दम से ऐसी जगह खड़ा हो गया जहां उसे रेशमी देख सके। परंतु अचरज है, वह उसे देख रही है। फिर भी अपने पन का कोई भाव नहीं दे रही थी। सोमू की आंखों के सामने वो उसके संग गुजारे महीने, गुजारा हुआ समय मानो एक क्षण के लिए रूक कर जम गया। मानो किसी ने एक बगिया को सजाया था, संवारा था, और देखते ही देखते पल में एक तूफान आकर उसे नष्ट कर गया। वह अवाक सा निस्सहाय सा केवल अपनी उजड़ी बिखरी बगिया को देख भर रहा। अब विचारों का एक तंतु जाल उसे झकझोरे जा रहा था। एक-एक पल युगों की तरह से गुजर रहा था। अचानक वह नीचे बैठ जाता है। उसे केवल वो रेल का डिब्बा दिखाई दे रहा है। उसकी खिड़की में उसकी रेशमी बैठी है। वह इधर उधर भागता है। की कैसे मैं अपनी रेशमी को यकीन दिलाऊं की मैं तुम्हारा सोमू हूं। भागते-भागते वह एक खंबे से टकरा जाता है। उसके सर से खून बहने लग जाता है। परंतु उसको अपने तन का जरा भी होश नहीं रहता। न ही उसे अब दर्द हो रहा था। वह पगलों की तरह से इधर उधर देख रहा है। उसे पास ही एक टूटा सा बर्तन दिखाई दे जाता है। जिसे वह उठा कर वह अपने सर पर रख कर बंदर की हरकत कर अपनी रेशमी का ध्यान अपनी और खिंचने की कोशिश करता है। परंतु रेशमी देखते हुए भी उसे नहीं देख रही थी। कभी वह पगलों की तरह उछल कूद करता है। कभी भालू की तरह से खुजली करता है। कभी वह कुत्ते की तरह से चारों पेरो पर उछल-उछल कर भौंकता है। हरी-प्रसाद, हरि प्रसाद परंतु ये सब भाव प्रेम उसके अनंत में विलीन हो जाते है। इस बीच एक बार रेशमी ने उसे देखा तो उसके होंठों पर एक हल्की से मुस्कुराहट फैली। तब सोमू के मन में एक आशा की किरण जागी। की वह अपनी रेशमी को याद दिला सकता है कि वही उसका सोमू है। परंतु ये सब देख कर रेशमी आपने पास बैठी माता राजेश्वरी मल्होत्रा से कहती है कि ये आदमी मुझे कोई पागल सा लगता है। शायद कुछ खाने के लिए मांग रहा है। पता नहीं शायद पागल है, या कोई तमाशा दिखाने वाला है। उसे शायद भूख लगी होगी उसे देने के लिए कुछ है क्या मां हमारे पास। वह खाने का एक पैकेट खिड़की से बहार हाथ निकाल कर सोमू को देना चाहता है। इतनी देर में रेल ने सीटी दी। अब उसके चलने का समय हो गया था। सोमू बार-बार अपने करतब दिखा कर अपनी रेशमी को रिझाने की कोशिश कर रहा था। उसका ध्यान अपनी और खिंचने की भरसक प्रयास कर रहा था। उसे लगाता था शायद कोई उपाय काम आ जाये। वह अपने गुजरे उन दिनों को उसे याद दिलाने कि कोशिश कर रहा था। कि देखों रेशमी क्या मैं तुम्हारा सोमू हूं?

अचानक रेल गाड़ी रेंगना शुरू कर देती है। रेशमी ने खाने का पैकेट सोमू को देने के लिए आवाज देती है। परंतु सोमू का ध्यान तो केवल उसके चेहरे की और था। उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। गाड़ी धीरे-धीरे अपनी रफ्तार पकड़ने लग जाती है। सोमू भी गाड़ी के साथ-साथ बंदर की तरह से उछल कूद करता साथ-साथ दौड़ता है। रेशमी आखिर हार कर वह खाने का पैकेट हवा में छोड़ देती है। वह छिटक कर पास के किसी कोने में गिर जाता है। उसकी और सोमू का जरा भी ध्यान नहीं जाता। सोमू की बेचैनी पल-पल जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ रही थी। वह और-और बैचेन होता जा रहा था। वह चाहता था की समय ये सब जो घट रहा है, पल भर के लिए ठहर जाये। परंतु कहां ठहर पाता है प्रकृति का ये चक्र। और नहीं ठहर रहा था, सोमू का मन तन भी, वह दौड़ता ही रहता है। उसकी आंखों के सामने अँधेरा छाने लग जाता है, उसे कुछ दिखाई नहीं देता।

उसकी आंखों के सामने से उसका संसार उससे दूर होता चला जा रहा था। वह चाह कर भी उसे रोक नहीं पा रहा था। वही रेशमी कल तक एक पल के लिए भी उससे अलग नहीं होती थी। आज उससे अचानक क्यों दूर चली जा रहा थी? उसका मन कह रहा था ऐसा कैसे हो सकता है। परंतु यह सब उसकी आंखों के सामने घट रहा था। अचानक आसमान पर एक जोर की बिजली की गड़-गडाहट होती है। सारा स्टेशन बिजली के प्रकाश से नहा जाता है। सोमू की आंखों के सामने अँधेरा छा गया। उसकी निगाहें तो दूर जाती उसकी रेशमी पर टिकी थी। वह खिड़की में बैठी उसे देख कर भी कहां देख रही थी। अब वह धीरे-धीरे उसकी आंखों से ओझल हो रही थी। तभी सोमू का सर एक बिजली के खंभे से बहुत जोर से टकरा जाता है। उसकी आंखों के सामने एक दम से अँधेरा छा जाता है। टक्कर इतनी जोर से थी की टकराने के बाद सोमू कम से कम चार-पाँच कदम पीछे उछल कर गिर जाता है।

वह गिर कर भी देख रहा होता है की गाड़ी उससे दूर जा रही थी। वह अपना हाथ उठाकर उसे रोकना चाहता है। यह घटना कर्म इतनी तेजी से गुजरता है कि उसका मस्तक उसे पढ़ नहीं पा रहा था। एक छोटे बच्चे की तरह से दृश्य तो चल रहे थे परंतु वह उसका अर्थ नहीं कर पा रहा था। वह इस सब को घटता हुआ, गुजरता देख भर रहा था। परंतु इस सब के बीच उसका मस्तिष्क शुष्क पड़ता जा रहा था। शरीर धीरे-धीरे अचेत होने लगा था। वह जो गुजर रहा था वह एक स्वप्न की तरह सब भूल ही नहीं रहा था। परंतु अंदर साथ-साथ सब मिटता जा रहा था। जो उस पल वहां पर अभी-अभी घट रहा था वह मात्र एक दर्शक था। या उससे पहले भी वो सब जो उसके तन से होकर मन तक गुजर रहा था। वह सब मानो उसके माथे से खून के रूप में बह कर मिट रहा था। दूर जहां तक नजर जा रही थी आस पास कोई नहीं था। बस दूर जाती हुई उस रेलगाड़ी की आवाज अब मध्यम होती जा रही थी। जैसे उसके जीवन डोर उससे टूट रही हो। वह गिरा हुआ भी जाती रेल को देखे जा रहा है। की वह बस एक बार किसी तरह से वहां पहुंच जाये। खून सोमू के सर और नाक से बह कर जम गया था। परंतु न तो उसके तन में दर्द था और मन तो उसका सो गया था। एक गहरी अचेत अवस्था में उसे इस सब का कोई भास ही नहीं था।

और वह सारी रात इसी अचेतन अवस्था में वहां स्टेशन पर ही पड़ा रहा। आसमान अभी तारों से भरा था। चाँद अभी निकला नहीं था। परंतु चाँद की अनुपस्थिति में भी तारे मानो अपने पूर्ण यौवन पर थे। दूर झींगुर अपनी ताल अविरल गये जा रहे थे। दूर जमीं पर जुगनू भी इतराते खेल रहे थे। आसमान पर तारें और जमीं पर जुगनू कितना विरोधा भाषी था। मानो तारे जमी पर है या जुगनूओं ने पूरे अंबर पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है। वो दोनों कहीं दूर होकर भी आपस में एक भ्रम भी पैदा कर रहे थे। कि तारे तो अचानक जमीं पर नहीं उतर आये। क्योंकि जहां पर तारों की चमक कम हो रही थी। वहां पर जुगनू अपनी चमक से धरा को और-और रोशन कर रहे थे। परंतु यह सब घटते देखने वाला वहाँ पर कोई नहीं था। चारों और एक नीरव शांति छाई थी। सोमू जो अचेत हो वहां पर गिरा पड़ा था। इस और किसी का ध्यान ही नहीं गया था। क्योंकि स्टेशन तो रात को एक दम वीरान हो गया था।

रात की कालिमा ये सब घटता हुआ देख कर उसे अपने आँचल में छिपा लेना चाह रही थी। वह जीवन के उजाले पक्ष को ही नहीं आपके अचेत के काले सायों को भी किस सहजता से अपने अंदर समेटे लेती है। धीरे-धीरे आस पास फैली बैचेनी सब दूख दर्द शांत हो जाता है। गाड़ी के चले जाने के बाद वहां पर एक मरघट की शांति छा गई थी। न वहाँ अब कोई दर्द था, न ही उस दर्द सहने वाला और न ही दर्द देने वाला। वहां था तो केवल शाह घना अँधेरा। मानो जो जहां से आया था सब अपने-अपने स्थान पर चले गए थे। पीछे रह गई एक उसांस जो कि मौन उसे निहार रहा होता है। परंतु उसके पास तो शब्द ही कहां पर होते है। तब वह अपने भाव भंगिमा को कैसे किसी से कह नहीं सकता है। वह तो मोन केवल निहार सकता है,  एक एकांत को। धीरे-धीरे रात होने के कारण सीतलता बढ़ रही थी। परंतु सोम प्रकाश तो अचेत था। उसे इस सब का कोई अहसास नहीं हो रहा था। सोम प्रकाश वहां गिरा हुआ केवल एक रात के अंधेरी में परछाई सी बन कर, केवल एक वस्तु मात्र बन कर रह गया था। न वह उस सब को देख रहा था। और न ही उस दर्द की करहाट को कोई सून व महसूस ही कर सकता था। क्योंकि वह एक ऐसे अंधकार के गर्द में विलीन हो गया था। जहां केवल एक कोहरा ही कोहरा छाया हुआ था। जहां देखो वहाँ तक। परंतु आस पास झींगुरों की अविरल ताने वातावरण गूंज रही थी। वह उस वातावरण की शांति को गुंजायमान कर रही थी।  

 

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