अभिनय-से
जीवन के
प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—अट्ठारहवां)
कोई आदमी धन
के त्याग में
आसक्त है। कोई
आदमी शरीर के
शृंगार में
आसक्त है, कोई
आदमी शरीर को
कुरूप करने
में आसक्त है।
लेकिन शरीर को
कुरूप करने
वाला विरक्त
मालूम पड़ेगा,
धन का त्याग
करने वाला
विरक्त मालूम
पड़ेगा, क्योंकि
इनकी आसक्तियां
"निगेटिव' हैं,
नकारात्मक
हैं।
दिनांक
4 अक्टूबर, 1970;
प्रात:,
मनाली (कुन्लू)
"भगवान
श्री, श्रीकृष्ण
कहते हैं कि
निष्कामता और
अनासक्ति से
बंधनों का नाश
होता है और परमपद
की प्राप्ति
होती है।
कृपया इसका
अर्थ स्पष्ट
करते हुए
समझाएं कि किस
साधना या
उपासना से यह
उपलब्धि होगी?
सामान्यजन के लिए सीधे
निष्काम व
अनासक्त होना
तो संभव नहीं
दिखता।'
सबसे
पहले तो
अनासक्ति का
अर्थ समझ लेना
चाहिए।
अनासक्ति
थोड़े-से अभागे
शब्दों में से
एक है जिसका
अर्थ नहीं
समझा जा सका
है। अनासक्ति
से लोग समझ
लेते
हैं--विरक्ति।
अनासक्ति
विरक्ति नहीं
है। विरक्ति
भी एक प्रकार
की आसक्ति है।
विरक्ति
विपरीत
आसक्ति का नाम
है। कोई आदमी
काम में आसक्त
है, वासना
में आसक्त है।
कोई आदमी काम
के विपरीत ब्रह्मचर्य
में आसक्त है।
कोई आदमी धन
में आसक्त है।
आसक्ति
के दो रूप
हैं--किसी के
पक्ष में
आसक्त होना; या किसी के
विपक्ष में
आसक्त होना।
जो विपक्ष में
आसक्त है, वह
भी उतना ही
आसक्त है
जितना पक्ष
में आसक्त है।
अनासक्ति इन
दोनों तरह की आसक्तियों
से मुक्ति का
नाम है। अनासक्ति
का अर्थ है, आसक्त भी
नहीं, विरक्त
भी नहीं।
अनासक्ति
दोनों का
अतिक्रमण है।
इसलिए मैंने
कहा कि
अनासक्ति
थोड़े-से अभागे
शब्दों में एक
है। वह
विरक्ति के
साथ पर्यायवाची
हो गया।
आध्यात्मिक
जगत में ऐसे
बहुत से शब्द
हैं, जो इसी
भांति भ्रांत
हो गए हैं।
वीतराग ऐसा ही
शब्द है।
वीतराग विराग
का
पर्यायवाची
बन गया है।
वीतराग का
अर्थ है, राग
और विराग
दोनों के पार।
महावीर की
धारा में जो
वीतराग का
अर्थ है, कृष्ण
की धारा में
वह अनासक्ति
का अर्थ है।
अनासक्ति और वीतरागता
पर्यायवाची
हैं; लेकिन
महावीर
वीतराग होंगे
राग और विराग
दोनों को
छोड़कर और
कृष्ण
अनासक्त
होंगे दोनों
को स्वीकार
करके। उतना
फर्क है। और
ये दो ही ढंग
हैं। इसलिए
वीतराग और
अनासक्ति की
परिणति तो एक
है, मार्ग
भिन्न हैं।
वीतराग का
मतलब है, जिसने
राग भी छोड़ा
विराग भी
छोड़ा--लेकिन
छोड़ने पर जोर
है। अनासक्त
का अर्थ है, जिसने राग
भी स्वीकारा,
विराग भी स्वीकारा--स्वीकार
पर जोर है।
इसलिए बहुत
गहरे में वीतराग
शब्द भी
निषेधात्मक
है और अनासक्त
शब्द विधेयात्मक
है, वह "पाज़िटिव'
बहुत गहरे
में।
यह जो
अनासक्त
चित्त है, जिसने सब
स्वीकार
किया--और यह
बड़े मजे की
बात है कि
जिसने सब स्वीकार
किया, जैसा
है वैसे के
लिए ही राजी
हो गया, ऐसे
व्यक्ति के
चित्त पर किसी
चीज की कोई
रेखा नहीं
छूटती। हम
किसी चीज को
जोर से पकड़ें,
तो भी रेखा
छूटती है
चित्त पर, किसी
चीज को जोर से
छोड़ें तो भी
रेखा छूटती है
चित्त पर।
लेकिन न हम पकड़ें,
न हम छोड़ें,
चित्त पर
कोई रेखा न
छूटे, ऐसे
चित्त का नाम
अनासक्त।
यह
अनासक्ति, पूछा है, कैसे
साधारणजन को
आए? सभी जन
साधारण हैं जब
तक अनासक्ति न
आ जाए। इसलिए
ऐसा सवाल नहीं
है कि
साधारणजन को
कैसे आए।
अनासक्ति जब
तक न आए, तक
तक सभी साधारण
हैं।
अनासक्ति आ
जाए तभी असाधारणतया
जीवन में फलित
होती है।
इसलिए ऐसा
नहीं है कि
साधारणजन के
लिए अनासक्ति
का और रास्ता
होगा, असाधारणजन के
लिए और होगा।
क्योंकि
असाधारण का एक
ही अर्थ है कि
वह अनासक्ति
को उपलब्ध हुआ
है। कैसे
उपलब्ध हो, ऐसा ही
पूछें। यह
अनासक्ति
कैसे उपलब्ध
हो? इसको
भी समझने के
पहले जरा इसे
समझ लें कि यह
चूक कैसे गई
है--यह अनासक्ति
हमसे चूक कैसे
रही है?
अनासक्ति
कृष्ण की
दृष्टि में
स्वभाव है। हम
चूक कैसे गए
हैं स्वभाव से? इसलिए ऐसा
नहीं है कि
हमें कुछ
साधना है
अनासक्ति में,
इतना ही
जानना है कि
स्वभाव से हम
चूक कैसे गए हैं।
हमने अनासक्ति
खोई कैसे? कोई
व्यक्ति मेरे
पास आया और
उसने पूछा कि
मैं ईश्वर को
खोजता हूं। तो
मैंने उससे
पूछा कि तुमने
खोया कब? और
अगर खोया हो
तो खोज सकते
हो। उसने कहा,
नहीं, मैंने
खोया तो कभी
भी नहीं। तो
फिर मैंने कहा,
खोजना
पागलपन है।
जिसे खोया ही
न हो, उसे
खोजा कैसे जा
सकता है? इसलिए
असली सवाल, मैंने उस
व्यक्ति को
कहा कि यह
नहीं है कि
तुम ईश्वर को
कैसे खोजो, असली सवाल
यह है कि तुम
यह खोजो कि
तुमने ईश्वर
खोया भी है? और अगर
तुम्हें, यह
पता चल जाए कि
मैंने खोया ही
नहीं, तो
खोज पूरी हो
जाती है।
अनासक्ति
स्वभाव है। यह
बहुत मजे की
बात है। चूंकि
अनासक्ति
हमारा स्वभाव
है इसलिए हम
आसक्त भी हो
सकते हैं और
विरक्त भी हो
सकते हैं। अगर
आसक्ति हमारा
स्वभाव हो, तो विरक्त
हम कभी भी
नहीं हो सकते।
अगर विरक्ति
हमारा स्वभाव
हो, तो हम
आसक्त कभी भी
नहीं हो सकते।
एक वृक्ष की शाखा
है। हवा चलती
है पश्चिम की
तरफ तो शाखा
पश्चिम में
झुक जाती है।
हवा चलती है
पूरब की तरफ
तो शाखा पूरब में
झुक जाती है।
वह इसलिए झुक
जाती है कि
शाखा न पूरब
में है, न
पश्चिम में
है। वह बीच
में है। हवाएं
जिस तरफ चलती
हैं, वह
उसी तरफ झुक
जाती है। पानी
को हम गर्म
करते हैं तो
गर्म हो जाता
है, ठंडा
करते हैं तो
ठंडा हो जाता
है, क्योंकि
पानी खुद न
ठंडा है, न
गरम है। अगर
पानी गरम ही
हो, तो फिर
ठंडा न हो
सकेगा; ठंडा
ही हो, तो
फिर गरम न हो
सकेगा। पानी
का स्वभाव
ठंडे और गरम
के पार है।
इसलिए दोनों
तरफ यात्रा
संभव है।
हमारा
स्वभाव अगर
आसक्ति हो, तो फिर
विरक्ति संभव
नहीं है।
लेकिन हम
विरक्त लोगों
को देखते हैं।
अगर हमारा
स्वभाव पकड़ना
ही हो, तो
फिर त्याग
संभव नहीं है,
लेकिन हम
त्याग करते
लोगों को
देखते हैं।
अगर हमारा
स्वभाव
त्यागी हो, तो फिर
आसक्ति कैसे
संभव होगी, हम तो लोगों
को जोर से चीजों
को पकड़े
देखते हैं।
इसका अर्थ
इतना ही कि
हमारा स्वभाव
दोनों नहीं
है। इसलिए हम
जिस तरफ जाना
चाहें जा सकते
हैं। हमारा
स्वभाव दोनों
का अतिक्रमण
करता है इसलिए
हम दोनों तरफ
झुक सकते हैं।
हम आंख खोल
सकते हैं, आंख
बंद कर सकते
हैं, क्योंकि
आंख का स्वभाव
न खुला होना
है न बंद होना
है। अगर आंख
का स्वभाव खुला
होना हो तो
फिर बंद कैसे करियेगा? अगर आंख का
स्वभाव बंद
होने का
अतिक्रमण
करती है।
दोनों के पार
है। खुलना और
बंद होना
बाहरी घटनाएं
हैं। आंख भीतर
न खुली है, न
बंद है सिर्फ
पलक ही झपकते
और खुलते हैं।
बहुत गहरे में
चेतना हमारी
अनासक्त है।
सिर्फ पलक ही
आसक्त होते
हैं और विरक्त
होते हैं।
तो
पहली बात समझ
लेनी जरूरी है
कि स्वभाव
हमारा
अनासक्ति है।
और यह भी
ध्यान रहे कि
जो हमारा
स्वभाव है उसे
ही पाया जा
सकता है, जो
हमारा स्वभाव
नहीं है उसे
हम कभी भी पा न
सकेंगे।
सिर्फ हम वही
पा सकते हैं
जो बहुत गहरे
में हैं ही।
एक बीज फूल बन
जाता है, क्योंकि
गहरे में वह
फूल है ही। एक
पत्थर फूल नहीं
बन जाता
क्योंकि गहरे
को छोड़ दे, उथले
में भी वह फूल
नहीं है।
पत्थर को बो
दें तो पत्थर
ही रह जाता है,
क्योंकि
बहुत गहरे में
वह पत्थर ही
है। बीज को बो
दें, देखने
में दोनों एक
से मालूम पड़ते
थे--पत्थर का
टुकड़ा और
बीज--पत्थर की कंकड़ी और
बीज, लेकिन
जब बोया तब
पता चलता है
कि बीज पत्थर
नहीं था, वह
फूल हो गया।
अब हम कह सकते
हैं कि बीज
फूल था ही, इसलिए
फूल हो गया।
अगर न होता, तो नहीं हो
सकता था। जीवन
के गहनतम
सूत्रों में
से एक है कि हम
वही हो सकते
हैं जो हम हैं
ही--किसी गहरे
तल पर हैं, फिर
हम परिधि पर
भी प्रकट हो
जाएंगे।
अनासक्ति
हमारा स्वभाव
है। आसक्ति या
विरक्ति
हमारा स्वभाव
नहीं है।
इसलिए हम
आसक्त और
विरक्त हो पाते
हैं। और
अनासक्ति
हमारा स्वभाव
है, इसलिए अनासक्ति
पाई जा सकती
है। जो बीज है,
वह फूल बन
सकता है।
यह
अनासक्ति सभी
का स्वभाव है।
ऐसा नहीं कि
किसी का है और
किसी का नहीं।
जहां भी चेतना
है, चेतना
सदा अनासक्त
है। हां, चेतना
का व्यवहार, पलक का झपना
और बंद होना, आसक्त हो
जाता है या
विरक्त हो
जाता है। यह दूसरी
बात ठीक से
समझ
लें--चेतना
अनासक्त है, व्यवहार
आसक्त या
विरक्त है, व्यवहार।
अगर मुझे निपट
अकेला छोड़
दिया जाए, जहां
सिर्फ मेरी
चेतना ही है, तो उस क्षण
में मैं आसक्त
हूं या विरक्त
हूं? नहीं,
उस क्षण में
मैं कोई भी
नहीं हूं।
आसक्ति या विरक्ति
सदा दूसरे के
संबंध में
पैदा होती है।
अगर मैं कहूं
कि फलां आदमी
आसक्त है, तो
आप तत्काल
पूछेंगे, किस
चीज में? क्योंकि
बिना किसी चीज
के आसक्त कैसे
होगा? अगर
मैं कहूं, फलां
आदमी विरक्त
है, तो आप
पूछेंगे, किस
संबंध में? क्योंकि
अकेली
विरक्ति का
कोई अर्थ नहीं
होता।
विरक्ति या
आसक्ति, दोनों
वस्तुओं या
व्यक्तियों,
"पर' से
हमारे संबंध
हैं, "रिलेशनशिप्स'
हैं। वह
हमारा
व्यवहार है, वह हमारा "बिहेवियर'
है, वह
हम नहीं हैं।
यह
दूसरी बात ठीक
से समझ लेनी
जरूरी है कि
आसक्त या
विरक्त हमारा
व्यवहार है।
और इसलिए यह भी
सुविधापूर्ण
है कि जिसके
प्रति आज हम
आसक्त हैं, कल विरक्त
हो सकते हैं।
जिसके प्रति
आज विरक्त हैं,
कल आसक्त हो
सकते हैं। और
ऐसा भी नहीं
है कि कल ही
हों, कभी-कभी
तो ऐसा होता
है, एक ही
क्षण में एक
ही आदमी के
किसी हिस्से
के प्रति हम
आसक्त हैं और
किसी के प्रति
विरक्त होते
हैं। एक ही
चीज के प्रति
भी हमारी
दुविधा होती
है, द्वंद्व
होता है। कहीं
से वह पकड़ने
योग्य लगती है,
कहीं से वह
छोड़ने योग्य
लगती है, लेकिन
एक बात तय है
कि विरक्ति और
आसक्ति हमारा
व्यवहार है, हमारा
स्वभाव नहीं।
व्यवहार का
मतलब है, जिस
में "पर' अनिवार्य
है, जो "पर'
के बिना न
हो सकेगा। जो
अकेले में न
हो सकेगा। और स्वभाव
का मतलब है, जो निपट
अकेले में ही
है। अगर मुझे
बिलकुल ही अकेला
छोड़ दिया जाए
सारी वस्तुओं
से, सारे
लोगों से, सारे
विचारों से, मैं निपट
अपने अकेलेपन
में, "टोटल लोनलीनेस'
में रह जाऊं,
तो वहां मैं
आसक्त रहूंगा
कि विरक्त
रहूंगा? नहीं,
वहां ये
दोनों बातें
असंगत होंगी।
"रेलिवेंस'
नहीं होगा
इनका कोई।
वहां मैं कोई
भी नहीं होऊंगा,
क्योंकि
सारे के सारे
संबंधों के
सूचक शब्द हैं।
वहां मैं असंग
होऊंगा या
वहां मैं
अनासक्त
होऊंगा। यह
मैं समझने के
लिए कह रहा
हूं कि आप इन शब्दों
की पूरी
अर्थवत्ता को
समझ लें, तो
फिर बहुत
कठिनाई नहीं
रहेगी कि कैसे
उपलब्ध हों।
आसक्ति
विरक्ति
संबंध है, "पर' अपेक्षित
है। "पर' के
बिना नहीं
होगा। वह जो "द
अदर' है, वह अनिवार्य
है। इसलिए
आसक्ति भी
गुलामी है और
विरक्ति भी
गुलामी है।
दासता है; क्योंकि
जो दूसरे के
बिना न हो सके,
उसमें हम
कभी स्वतंत्र
नहीं हो सकते।
इसलिए आसक्त
भी एक तरह का
गुलाम होता और
विरक्त भी उलटी
तरह का गुलाम
होता है।
आसक्त के पास तिजोड़ी न
हो, तो
मुश्किल में
पड़ जाता है; विरक्त के
कमरे में रात तिजोड़ी रख
दो, तो
उतनी ही
मुश्किल में
पड़ जाता है।
लेकिन तिजोड़ी
से दोनों का
बड़ा गहरा
संबंध है।
आसक्त के पास स्त्री
न हो, पुरुष
न हो, तो
मुश्किल में
पड़ जाता है; विरक्त के
कमरे में रात
स्त्री को
ठहरा दो, पुरुष
को ठहरा दो, उतनी ही
मुश्किल में
पड़ जाता है।
दोनों गुलाम हैं।
दोनों दूसरों
पर निर्भर हैं--दूसरे
के होने, या
न होने पर, इससे
फर्क नहीं
पड़ता, लेकिन
दूसरा उनके
होने में
अनिवार्य है।
वे दूसरे के
बिना अपने को
नहीं सोच पा
सकते। लोभी धन
के बिना नहीं
सोच पाता, त्यागी
धन के बिना
नहीं सोच
सकता। लेकिन
दोनों के
केंद्र पर
कहीं "पर' सदा
मौजूद रहता
है।
यह
हमारा
व्यवहार ठीक
से समझ लें, तो फिर
व्यवहार में
परिवर्तन से
कोई अंतर नहीं
पड़ता कि आसक्त
विरक्त हो
जाए--अक्सर
होता रहता है,
आसक्त
विरक्त हो
जाते हैं, विरक्त
आसक्त हो जाते
हैं। जो लोग
घनी आसक्ति में
खड़े हैं, जब
वे मुझे मिलते
हैं तब वे सदा
रोते मिलते हैं
कि हम बहुत
बंधन में पड़े
हैं, इससे
छुटकारे का
उपाय क्या है?
जो विरक्त
हैं, जब वे
मुझे मिलते
हैं तो वे
कहते हैं, कहीं
हमने भूल तो
नहीं कर दी? हम जिंदगी
से भाग गए।
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि जिंदगी
में कुछ लोगों
को मिल रहा हो
और वह हमें मिल
रहा है? विरक्त
को सदा खयाल
बना रहता है
कि पता नहीं
आसक्त तो कुछ
नहीं लूट रहा!
आसक्त को सदा
खयाल बना रहता
है कि कहीं
विरक्त तो कुछ
नहीं लूट रहा
है! पता नहीं
विरक्त को
क्या मिल रहा
है, जो
आसक्त सोचता
रहता है, मुझे
नहीं मिल रहा।
दोनों की स्थितियां
भर अलग हैं, परिस्थितियां
भर अलग हैं, मनःस्थितियां अलग नहीं
हैं। दोनों की
मनःस्थितियां
पर-निर्भर
हैं। और
पर-निर्भरता
से न कोई स्वतंत्रता
है न कोई सत्य
है।
पर-निर्भरता
से न कोई आनंद
है न कोई
मुक्ति है।
"पर' ही
बंधन है।
लेकिन
विरक्त कहता
है, तो हम "पर'
को छोड़कर
भाग जाते हैं।
लेकिन उसे पता
नहीं कि जिसे
वह छोड़कर
भागता है, उससे
उसके संबंध
नहीं टूटते, सिर्फ भागने
के संबंध हो
जाते हैं। और
जिसे हम छोड़कर
भागते हैं वह
हमारा पीछा
करता है। वह नहीं
करता पीछा
लेकिन हम
छोड़कर भगे
हैं, उस
कारण ही हम
उससे भयभीत
हैं, हम
उससे डरे हैं,
हम उससे
चिंतित हैं, वही हमारा
पीछा करती है।
और फिर "पर' को छोड़कर जाइयेगा
कहां, सब
जगह "पर' मौजूद
है। सिर्फ एक
जगह को छोड़कर,
स्वयं के
भीतर को छोड़कर,
और तो सब
जगह "पर' मौजूद
है। घर छोड़कर जाइयेगा
तो आश्रम
मौजूद है।
पत्नी-पति को
छोड़कर जाइयेगा
तो
शिष्य-शिष्यायें
मौजूद हैं।
गांव को छोड़कर
जाइयेगा
तो जंगल मौजूद
है। महलों को
छोड़कर जाइयेगा
तो झोपड़ियां
मौजूद हैं।
कीमती वस्तु
छोड़कर जाइयेगा
तो लंगोटियां
मौजूद हैं, नंगापन
मौजूद है। वह
सब मौजूद है।
"पर' को
छोड़कर इस जगत
में भागा नहीं
जा सकता
क्योंकि जगत
ही "पर' है;
तो भागियेगा
कहां? जगत
तो होगा। जहां
भी जाइयेगा
वहां जगत
होगा। इसलिए
जगत को छोड़कर
नहीं भागा जा
सकता, इसलिए
"पर' को भी
छोड़कर नहीं
भागा जा सकता।
क्योंकि "पर' तो रहेगा
ही। हां, नये
रूपों में
प्रगट होगा।
नये-नये रूप
लेगा, लेकिन
नये रूपों से
"पर' नहीं
बदलता। हम
जहां भी होंगे
जगत में, वहां
"पर' होगा,
सिर्फ एक
जगह को छोड़कर।
स्वयं के बहुत
गहरे केंद्र
पर ही "पर' नहीं
है। लेकिन
इसलिए नहीं कि
वहां "पर' प्रवेश
नहीं कर सकता,
बल्कि
इसलिए कि
स्वयं के बहुत
गहरे केंद्र
पर "स्व' भी
मिट जाता है।
"मैं' भी
मिट जाता है, इसलिए "पर' के होने का
उपाय मिट जाता
है।
इसको
अब ऐसे समझिये
कि जब "आप' हैं तब तक
"पर' से
नहीं बच सकते
हैं। एक मैंने
कहा कि जब तक
आप जगत में
हैं, कहीं
भी भागिये
"पर' होगा।
अब मैं दूसरी
बात आपसे कहता
हूं कि जब तक
"आप' हैं, अगर आंख भी
बंद कर लीजिये
और जगत न हो, तो भी "पर' होगा। हां, बंद आंख में
होगा, सपने
में होगा, कामना
में होगा, कल्पना
में होगा, वासना
में होगा, लेकिन
"पर' होगा।
जब तक आप हैं
तब तक "पर' भी
होगा।
स्वभाव
का मतलब है
जहां "स्व' भी मिट जाता
है। इसलिए
स्वभाव भी
अभागे शब्दों
में एक है, क्योंकि
उसका मतलब
होता है, स्वयं
का भाव। लेकिन
जहां स्वभाव
शुरू होता है,
वहां "स्व' मिट जाता
है। स्वभाव का
स्वयं से कोई
संबंध नहीं
है। स्वभाव का
मतलब ही है कि
हमसे होने के
पहले था। हमसे
होने के बाद
होगा; हम
हैं तब भी है, हम नहीं हैं
तब भी है। अगर
मैं बिलकुल भी
मिट जाऊं, मेरा
"मैं' बिलकुल
भी मिट जाए, तब भी शेष रह
जाएगा वह
स्वभाव है।
स्वभाव में "स्व'
शब्द
खतरनाक है।
उससे खतरा
पैदा होता है,
उससे लगता
है कि स्वयं
का होना। नहीं,
स्वभाव का
मतलब है, "द
नेचर'।
स्वभाव का
मतलब है, प्रकृति।
स्वभाव का
मतलब है जो
हमारे बिना भी
है। जब आप रात
सो गए होते
हैं तब "स्व' नहीं होता
है, लेकिन
स्वभाव होता
है। जब गहरी प्रषुप्ति
में होते हैं,
तब "स्व' नहीं
होता, लेकिन
स्वभाव होता
है। जब एक
आदमी
मूर्च्छित पड़ा
है? गहरी
मूर्च्छा में,
"स्व' नहीं
होता, लेकिन
स्वभाव होता
है। सुषुप्ति
और समाधि में
इतना ही फर्क
है कि
सुषुप्ति में
मूर्च्छा के
कारण "स्व' नहीं
होता, समाधि
में अमूर्च्छा
के कारण, जागरण
के कारण, ज्ञान
के कारण, "स्व'
नहीं होता।
तो जब तक "जगत'
है, तब
तक "पर' है
और जब तक "मैं'
हूं तब तक
"पर' है। अब
इसे हम और तरह
से भी ले लें।
जब तक "मैं' हूं, तभी
तब जो मुझे
दिखाई पड़ रहा
है वह "जगत' है। "जगत' मेरे "मैं' के बिंदु से
देखा गया कोण
है। मेरे "मैं'
के बिंदु से
देखा गया सत्य
है। इसलिए "पर'--अगर मेरा
"मैं' मिट
जाए तो "पर' कोई भी नहीं
है, फिर
मैं किससे
बचूंगा और
किससे बंधूंगा?
फिर मैं ही
हूं।
अनासक्ति
स्वभाव है।
कैसे चलें
इसकी तरफ? जो
बड़ी-से-बड़ी
भूल है वह यह
है कि कोई
विरक्ति की तरफ
चल पड़े
अनासक्ति को
पाने के लिए।
खयाल रहे, आसक्ति
उतना बड़ा खतरा
नहीं है
अनासक्ति के
मार्ग पर, क्योंकि
आसक्ति का
चेहरा साफ है।
कोई भूल नहीं
करेगा आसक्ति
को अनासक्ति
समझने की।
कैसे करेगा? कोई भूल
नहीं करेगा धन
को पकड़ने
को अनासक्ति
समझने की।
लेकिन धन को
छोड़ने को अनासक्ति
समझने की भूल
होती रही है, होती है, हो
सकती है।
इसलिए बड़ा
खतरा
अनासक्ति की
यात्रा में
आसक्ति नहीं
है, आसक्ति
का चेहरा
बिलकुल साफ है,
बड़ा खतरा
विरक्ति है, विरक्ति के
चेहरे पर बुर्का
है। विरक्ति
को जो न पहचान
पाए, वह
अनासक्ति के
नाम पर
विरक्ति का
खोटा सिक्का
लेकर घूमता
रहेगा। इसलिए
अनासक्ति की
यात्रा में
विरक्ति से
सावधान रहने
की पहली जरूरत
है। विरक्ति
भी आसक्ति है।
इतना समझते ही
सावधानी
उत्पन्न हो
जाती है।
दूसरी
बात, "पर' कहीं
भी हम जाएं तो
रहेगा। इसलिए
हम उसी जगह
चलें, जहां
"पर' नहीं
रहेगा। हम
भीतर चलें। हम
स्वयं में
चलें। हम अपने
एकांत में
चलें। हम अपने
अकेलेपन में
उतरें। लेकिन
इसका क्या
मतलब है? कि
क्या मैं बाहर
के जगत से आंख
बंद कर लूं तो
एकांत में उतर
जाऊंगा? अकेला हो जाऊंगा?
आंख तो हम
रोज बंद करते
हैं, लेकिन
एकांत नहीं
होता।
क्योंकि आंख
बंद करते ही
वे चित्र, वे
प्रतिमाएं, वे प्रतीक,
"इमेजेज'
जो हमने
बाहर से ग्रहण
किए थे, भीतर
से उठने शुरू
हो जाते हैं।
विचार आते हैं,
कल्पनायें आती हैं, स्वप्न
आते हैं, दिवास्वप्न
आते हैं और फिर
हम जगत को ही
देखते रहते
हैं। हां, अब
जो जगत होता
है, वह
कल्पित होता
है। जो बाहर
आंख के था वह
वास्तविक था,
अब उसकी
सिर्फ छायायें
होती हैं, अब
सिर्फ फिल्म
होती है उसकी,
अब वह खुद
नहीं होता।
हम
अपनी आंखों और
मन का उपयोग
बिलकुल "मूवी' कैमरे की
तरह कर रहे हैं--जो
देखते हैं उसे
उतारते चले
जाते हैं; फिर
आंख बंद करके
उसको पर्दे पर
देखते रहते हैं।
फिर वह चलता
रहता है, यह
भी "पर' की
छाया है। यह
भी हट जाए तो
हम "स्व' में
उतरते हैं। हट
सकती है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है। हम
इसे चलाते हैं,
इसलिए यह
चलती है। हम
इसे चलाने में
उत्सुक न रह
जाएं, हमारी
रुचि इसके
चलाने में न
रह जाए तो ये प्रतिमायें
तत्काल गिर
जाती हैं, इनका
कोई अर्थ नहीं
रह जाता।
हमारा रस ही
इन प्रतिमाओं
को चलाने का
मूल आधार है।
विरस भी। ध्यान
रहे, रस ही
नहीं विरस भी।
जिसे हम याद
करना चाहते हैं
वह भी याद आता
है आता है और
उससे भी
ज्यादा वह याद
आता है जिसे
हम भूलना
चाहते हैं।
लेकिन जिसे न
हम भूलना चाहते
हैं, जिसे
न हम याद करना
चाहते हैं, वह अचानक
गिर जाता है।
वह हमारे
चित्त से अर्थहीन
हो जाता है।
वह पर्दे से
हट जाता है।
तो इस
भीतर चलती हुई
फिल्म को अगर साक्षीभाव
से
देखें--सिर्फ
देखें, न
रस लें, न
विरस लें; न
आसक्त हों, न विरक्त
हों इस भीतर
की फिल्म पर
तो थोड़े दिन में
यह साक्षी का
बोध इस फिल्म
को गिराता
जाता है। और
एक क्षण आता
है जब निपट
चेतना अकेली
रह जाती है और
कोई "आब्जेक्ट',
कोई विषय
नहीं होता है--निर्विषय
चेतना रह जाती
है। इस निर्विषय
चेतना में
जिसका अनुभव
होता है, वह
अनासक्ति है।
इस निर्विषय
चेतना से जो
व्यवहार
निकलता है, उसका नाम
अनासक्ति-योग
है। निश्चित
ही व्यवहार
बिलकुल दूसरा
होगा।
जिस
व्यक्ति ने
अपने इस
स्वभाव की
अनासक्ति को
पहचाना, जिसने
जाना कि
मुट्ठी बांध
लेती है, खोल
लेती है, लेकिन
मुट्ठी के
दोनों काम
नहीं हैं
इसलिए दोनों
काम कर पाती
है, अब ऐसा
व्यक्ति बाहर
के जगत में
लौटकर, भीतर
से बाहर आकर
वही नहीं होगा
जो बाहर से भीतर
जाते वक्त था।
अब इसने अपने
चेतना के
दर्पण को
पहचाना, अब
यह चित्त का
उपयोग कैमरे
की तरह नहीं, दर्पण की
तरह करेगा। और
अब इसके चित्त
का संबंध पैदा
नहीं होगा।
संबंध बनेंगे
लेकिन संबंध पैदा
नहीं होगा।
संबंध होंगे
लेकिन असंगता
होगी। यह
प्रेम भी
करेगा ऐसे ही
जैसे पानी पर लकीर
खींची जाती
है। यह लड़ेगा
भी जैसे पानी
पर लकीर खींची
जाती है। इसका
दर्पण लड़ने को
भी दिखलाएगा
और प्रेम को
भी दिखलाएगा।
और यह दोनों
के बाहर, पूरे
समय दोनों के
बाहर चलता
रहेगा। इस
व्यक्ति के
व्यवहार की
स्थिति अभिनय
हो जाएगी, "एक्टिंग'
की हो
जाएगी। और यह
व्यक्ति अब
कर्ता नहीं
होगा, अभिनेता
हो जाएगा।
कृष्ण
अगर कुछ हैं, तो अभिनेता
हैं। और उनसे
कुशल अभिनेता
पृथ्वी पर
नहीं हुआ है।
उन्होंने इस
पूरे जगत को
मंच बना लिया
है। बाकी
अभिनेता एक
छोटे से मंच को
मंच मानते हैं
उन्होंने
पूरी पृथ्वी
को मंच बना
लिया। इससे
क्या फर्क
पड़ता है? दस-पांच
तख्त रखकर हम
मंच बना दें, फिर उस पर अभिनय
चलता है। यह
पूरी पृथ्वी
मंच क्यों
नहीं हो सकती?
इस पूरी
पृथ्वी पर
अभिनय क्यों
नहीं चल सकता?
और अभिनेता
जो है उसे न तो
आंसू बांधते
हैं, न उसे
मुस्कुराहट बांधती
है। जब वह
रोता है, तब
भी रोता नहीं;
जब हंसता है,
तब भी हंसता
नहीं; जब
प्रेम करता है
तब भी प्रेम
करता नहीं, जब लड़ता है
तब भी लड़ता
नहीं; उसकी
मित्रता
मित्रता नहीं,
उसकी
शत्रुता
शत्रुता
नहीं। तब ऐसे
व्यक्ति के
जीवन को अगर
हम कहें तो एक
"ट्राइ-एंगल'
बन जाता है।
ऐसे व्यक्ति
का जीवन
त्रिभुज बन जाता
है। "ट्राइ-एंगल'। हम
त्रिभुज नहीं
हैं। हमारा
तीसरा जो कोण
है, वह जो
"थर्ड एंगल' है, अंधेरे
में डूबा हुआ
है।
हमारे
सिर्फ दो कोण
हमें दिखाई
पड़ते
हैं--आसक्ति, विरक्ति। एक
तीसरा इन
दोनों को जोड़ने
वाला "ट्राइ-एंगल'
का तीसरा
हिस्सा, वह
हमारा अंधेरे
में दबा है।
अनासक्त
व्यक्ति का वह
भी प्रकाश में
आ जाता है।
उसकी पूरी
जिंदगी--दोनों
कोणों पर वह
व्यवहार करता
है। लेकिन
रहता सदा अपने
तीसरे कोण पर।
जब भी दूसरों
से संबंध होता
है तब यह
आसक्त दिखाई
पड़ता है या
विरक्त दिखाई
पड़ता है।
लेकिन वह
सिर्फ दिखाई पड़ना है।
वह "एपियरेन्स'
है। रहता
सदा अपने
तीसरे कोण पर
है। इस तीसरे कोण
पर, इस
"थर्ड एंगल' पर हो जाने
का नाम
अनासक्ति है।
हम सब के पास तीनों
कोण हैं, लेकिन
दो कोण हमारे
आंखों के
सामने और एक
कोण हमारी आंख
के पीछे है।
दो कोण स्पष्ट
हैं, बायें
और दायें साफ
हैं; राग
और विराग साफ
हैं; इधर
कुआं उधर खाई
साफ हैं, और
एक तीसरा कोण
भीतर अंधेरे
में डूबा है, वह तो जब
अपने भीतर
उतरेंगे
एकांत में तभी
हमें स्पष्ट
होगा तभी
रोशनी वहां पहुंचेगी।
और जिसने अपने
तीसरे कोण को
पा लिया, उसने
कृष्ण को पा
लिया। उसने
बुद्ध को पा
लिया, उसने
महावीर को पा
लिया, उसको
कुछ पाने को
बचता नहीं।
क्योंकि एक
बार उसको यह
पता हो गया कि
आसक्त होते
हुए मैं
अनासक्त होता
हूं, विरक्त
होते हुए मैं
अनासक्त होता
हूं, तब
फिर आसक्ति और
विरक्ति खेल
हो गए।
एक
विचारक ने एक
किताब लिखी है, जिसका नाम
है--"गेम दैट पीपुल
प्ले', खेल
जो लोग खेलते
हैं। लेकिन उस
बड़ी किताब में
उसने सब खेलों
की चर्चा की
है, बुनियादी
खेल की नहीं
चर्चा कर
पाया। बुनियादी
खेल यह है कि
अनासक्त रहते
हुए आसक्ति और
विरक्ति का जो
खेल है वह
बुनियादी खेल
है, वह
"अल्टीमेट
प्ले' है।
बहुत कम लोग
खेल पाते हैं
इसलिए उसको
पता नहीं होगा,
उसने उसकी
कोई चर्चा
नहीं की।
अनासक्ति
भीतर उतरने से
उपलब्ध होती
है और भीतर
उतरना साक्षीभाव
से संभव होता
है। इसलिए
जीवन के किसी
भी कोण में
साक्षी होना
शुरू हो जाएं, आप भीतर
पहुंच जाएं।
और जिस दिन आप
भीतर पहुंच
जाएं, उस
दिन आप
अनासक्त हो
जाते हैं।
"भगवान
श्री, आसक्ति
पर आपने अभी
प्रकाश डाला।
इसी के साथ
गीता में
कृष्ण ने दो
बातें और कही
हैं। कर्म से
संन्यास
अर्थात
संपूर्ण कर्म
में कर्तापन
का त्याग और
निष्काम कर्म
अर्थात समत्व
बुद्धि से
कर्मों का
करना। अतएव
अनासक्ति, कर्म-संन्यास
और
निष्काम-कर्म,
इन तीनों
में क्या
रिश्ता या
भिन्नता है? इस पर और
प्रकाश
डालें।'
अनासक्ति
योग मूल है।
और यह
अनासक्ति योग
तीसरा कोण है।
इस कोण से
जीवन के दो
कोण
निकलेंगे। करते
हुए न करना, न करते हुए
करना। एक को
हम
कर्म-संन्यास
कहें, एक
को हम निष्काम
कर्म कहें।
निष्काम कर्म
का अर्थ है, करते हुए न
करना। करते
हुए भी करने
की वासना जहां
नहीं है, करते
हुए भी करने
का आग्रह जहां
नहीं है, करते
हुए भी न करना
आ जाए तो दुख
और पीड़ा जहां
नहीं है, करते
हुए भी करने
का फल न मिले
तो कोई विषाद
नहीं है, करते
हुए भी सब
किया हुआ
अनकिया हो जाए
तो कोई पीड़ा
नहीं है, तो
यह निष्काम
कर्म।
इसको
और हम विस्तार
से थोड़ा
समझेंगे--
न करते
हुए भी करते
हुए पाना। अब
इसे थोड़ा समझना
पड़े, यह और भी
कठिन है।
जिसको
संन्यास
कहें। न करते
हुए करते हुए
पाना। मैं कुछ
भी नहीं करता,
लेकिन आपके
द्वार पर
भिक्षा तो
मांगने आता हूं,
और अगर आपने
चोरी की है और
चोरी का ही
अन्न खाते हैं
तो मुझे भी
चोरी का अन्न
देते हैं। अगर
व्यक्ति सच
में संन्यासी
है तो वह
कहेगा, मैं
भी चोर हूं।
अगर सच में
संन्यासी
नहीं है तो वह
कहेगा मुझे
क्या मतलब तुम
क्या करते हो! मुझे
कोई प्रयोजन
नहीं। अगर
व्यक्ति झूठा
संन्यासी है
तो वह चोरी की
रोटी खाकर चोर
नहीं होगा।
लेकिन अगर
सच्चा
संन्यासी है
तो वह कहेगा
कि नहीं करता
हूं मैं चोरी,
लेकिन मैं
भी भागीदार
हूं। लेकिन यह
तो मैंने कहा
भिक्षा
मांगता है तो।
ऐसा समझ लें
कि भिक्षा भी
नहीं मांगता
है। ठीक
संन्यासी इस
पृथ्वी पर है
अगर, और
वियतनाम में
लोग कट रहे
हैं, तो वह
मानता है कि
मैं भी
जिम्मेवार
हूं। नहीं
करता हुआ मैं
भी भागीदार
हूं। और इस
पृथ्वी पर जो
चेतना
निर्मित हुई
है वह मेरे
बिना तो नहीं
हो सकती है, मैं भी हूं।
अगर इस गांव
में मैं हूं
और इस गांव
में
हिंदू-मुस्लिम
दंगा हो जाए
और न मैं हिंदू
हूं और न
मुसलमान हूं,
मैं सिर्फ
संन्यासी हूं,
तो भी मैं
जिम्मेदार
हूं। जरूर
मैंने भी कुछ
ऐसा किया होगा
जिसने इस झगड़े
को बल दिया।
या हो सकता
मैंने कुछ भी
न किया होगा।
मैं खड़ा देखता
रहा और मेरा
खड़ा देखना भी
झगड़े के लिए
आधार बन सकता
है। संन्यास
का अर्थ यह है,
न करते हुए
भी जानना कि जो
भी हो रहा है, चूंकि मैं
भी हूं, उससे
मैं बच नहीं
सकता, उसमें
मैं भी
भागीदार हूं।
होऊंगा ही, क्योंकि मैं
एक हिस्सा
हूं। और मैं
जो भी करूंगा
उससे विराट फल
आएंगे। अगर
हिंदू-मुस्लिम
लड़ रहे थे और
मैं रास्ते से
चुपचाप निकल
गया तो कम से
कम मैं रोक तो
सकता ही था।
मैंने नहीं
रोका। नहीं
रोकना भी मेरा
कृत्य है।
नहीं रोकने की
भी
जिम्मेवारी
मेरी है।
तो
आमतौर से लोग
जिसे संन्यास
समझते हैं वह
संन्यास नहीं
है, वह
विरक्ति है।
कृष्ण जिसे
संन्यास
समझते हैं वह
बहुत कठिन
मामला है। वह
अनासक्त
व्यक्ति की
स्थिति है। वह
यह कहता है कि
जो मैं नहीं
कर रहा हूं
उसके लिए भी
मैं जिम्मेवार
हूं क्योंकि
मैं भी हूं और
चेतना अंततः
संयुक्त है, इकट्ठी है।
सागर
में आपने
लहरें देखी
हैं लेकिन
शायद ही आपको
कभी खयाल आया
हो, लहरें
आती हुई मालूम
पड़ती हैं, आती
नहीं। आप
कहेंगे, कैसी
बात कर रहे
हैं, लहरें
बराबर आती
हैं! लगता है
कि एक लहर मील
भर दूर से चली
आ रही है और आप
स्नान भी करते
हैं उस लहर में
सागर के तट के
किनारे बैठकर,
तो आप मेरी
कैसे मानेंगे
कि नहीं आ रही
है। लेकिन जो
जानते हैं
सागर को, वे
कहेंगे कि कोई
लहर आती नहीं,
सिर्फ एक
लहर दूसरी लहर
को उठाती है।
वह मील भर की
लहर इस किनारे
तक नहीं आती।
वह मील भर की
लहर जब उठती
है तो पड़ोस
में गङ्ढा
पैदा हो जाता
है, उस गङ्ढे
की वजह से
जहां गङ्ढा
खत्म होता है
दूसरी लहर
पैदा हो जाती
है। वह लहर
अपने उठने से
हजारों लहरों
को उठाती है।
आती नहीं। उस
लहर के हजारों
धक्कों का कोई
धक्का सिर्फ
आता है जब आप
सागर के किनारे
नहाते हैं, तो वह मील भर
से लहर आपके
पास नहीं आती
है। बस सागर
की छाती कंप
गई है उसके
उठने की वजह
से और कंपन
आते हैं आपके
पास। कंपती
हुई जो लहरें
आपको दिखाई
पड़ती हैं वे
इतनी "कंटिन्युअस'
हैं कि आप
कभी फर्क नहीं
कर पाते कि यह
लहर सच में आ
रही है? लेकिन
अगर इस किनारे
से आई हुई लहर
में कोई बच्चा
डूबकर मर
जाए, तो
क्या मील भर
दूर उठी लहर
को जिम्मेवार
ठहरा
सकेंगे--कि तू
जिम्मेवार है?
वह कहेगी, मैंने डुबाया
नहीं, मैं
गई नहीं तट पर
कभी। मैं सदा
यहीं हूं। मील
भर का फासला
उस बच्चे के
डूबने में और
मेरे होने
में। न, कृष्ण
कहते हैं कि
अगर वह लहर
संन्यासी है,
वह कहेगी कि
मैंने डुबाया
क्योंकि मैं
सागर का
हिस्सा हूं।
उस तट पर गई या
नहीं यह सवाल
नहीं। उस तट
पर जो गया है
उसमें भी मेरा
हाथ है।
इस जगत
में कहीं भी
कुछ घट रहा है, संन्यासी
उसमें अपने को
कर्ता मानता
है जो उसने
किया ही नहीं।
यह बड़ा कठिन
है। कर्म करते
हुए अपने को
अकर्ता मानना
इतना कठिन
नहीं है। हालांकि
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं, लेकिन
संन्यासी की
यह दृष्टि
हमारे खयाल
में नहीं है।
संन्यास की
हमारी कुल
इतनी दृष्टि है
कि जो छोड़कर
चला जाता है, जो कहता है, अब मैंने
छोड़ ही दिया
तो मेरी क्या
जिम्मेवारी
है? जब
मैंने छोड़ ही
दिया तो मेरी
क्या
जिम्मेवारी
है! लेकिन यह
जगत पूरा का
पूरा सागर की
छाती पर उठी
हुई लहरों
जैसा है।
इसमें कोई लहर
यह नहीं कह
सकती कि मैं
जिम्मेवार
नहीं हूं जो
"पैटर्न' बन
रहा है उसमें।
जिंदगी बड़ी
जटिल है, उसमें
भी चेतना के
सागर में
लहरें हैं।
मैं एक शब्द
बोलता हूं, मैं कल नहीं
रहूंगा लेकिन
उस शब्द के
परिणाम अनंत
काल तक जगत
में आते
रहेंगे। कौन
होगा जिम्मेवार?
मैं नहीं
बोलता हूं, चुप खड़ा रह
जाता हूं, लेकिन
मेरी चुप्पी
के परिणाम इस
जगत में अनंत
काल तक प्रभावी
होते रहेंगे।
कौन होगा
जिम्मेवार? मैं नहीं
रहूंगा! यह हो
सकता है कि
जिस लहर के धक्के
से यह किनारे
की लहर उठी वह
अब न हो, और
बच्चा डूबकर
मरा तब वह लहर
कहेगी कि न तो
मैं किनारे गई,
और जब बच्चा
डूबकर
मरा तब तो मैं
थी ही नहीं।
तो उस लहर को
आप किसी अदालत
में जिम्मेवार
न ठहरा सकेंगे,
कोई मुकदमा
न चला सकेंगे,
लेकिन
कृष्ण की
अदालत में वह
लहर भी मुकदमे
में फंस
जाएगी। कृष्ण
कहेंगे कि
तेरा होना या
न होना, दोनों
अर्थों में इस
विराट जाल को
पैदा करता है।
इसमें तू
भागीदार है ही,
इसलिए न
करते हुए भी
जानना कि कर
रही है। यह एक पहलू
है, इसका
अर्थ संन्यास
है। ऐसा आदमी
संन्यासी नहीं
है जो कहता है
कि हमारा क्या
जुम्मा?
अब
हिंदुस्तान
में संन्यासी
थे
हजारों-लाखों
की संख्या
में। यह मुल्क
गुलाम था। वे
संन्यासी
कहते, हमें
क्या मतलब? इस मुल्क की
गुलामी का
हमें क्या
मतलब! हमें तो
कोई फर्क ही
नहीं पड़ता, हम तो
संन्यासी
हैं। लेकिन उन
लाखों
संन्यासियों
का यह भाव भी
इस मुल्क को
गुलाम बनाने
में सहयोगी
है।
जिम्मेवारी
उनकी है, वे
भाग नहीं
सकते।
संन्यासी
किसी भी
जिम्मेवारी
से भागेंगे
नहीं।
संन्यासी का
मतलब ही यह है
कि जो दूसरे
की
जिम्मेवारी
है वह भी अपनी
है। वह जो
दूसरे का पाप
है, वह भी
अपना है। वह
जो दूसरे का
पुण्य है, वह
भी अपना है।
क्योंकि हम
अलग-अलग कहां
हैं? अगर
दूसरा नहीं है
तो फिर मैं न
करते हुए भी
करता हूं।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है। अगर न
करते हुए कोई
कर्ता हो जाए
तो अनासक्त हो
जाएगा। क्योंकि
अब तो अपना
कर्म और पराया
कर्म का कोई फासला
नहीं रहा। अब
मैं किसको छोड़ूं
और किससे भागूं? अगर मैं
चोरी न करूं
तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जमीन पर
चोरी चलती
रहेगी। मैं
चोरी करूं तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। तो अब
इसको मैं अपना
मानूं, इसका
कोई अर्थ नहीं
रहा है। अगर
सभी कुछ का मैं
भागीदार हूं,
सभी पाप
मेरे हैं, सभी
युद्ध मेरे, सभी शांतियां
मेरी, तो
अब, मैं
किसको छोड़ूं
और किसको पकड़ूं!
अब पकड़ने
न पकड़ने
का कोई सवाल न
रहा। सभी हाथ
मेरे हैं अगर,
तो इन दो
हाथों को
छोड़कर अगर भाग
भी जाऊंगा
तो क्या फर्क
पड़ता है? और
सभी आंखें अगर
मेरी हैं तो
अगर मैंने
अपनी दो आंखें
फोड़ भी
लीं, तो
क्या फर्क
पड़ता है? और
अगर सभी घर
मेरे हैं तो
मैं एक घर
छोड़कर जंगल
चला गया तो
क्या फर्क
पड़ता है?
संन्यास
का अर्थ है कि
यह जो कर्म का
विराट
"पैटर्न' है,
यह जो जाल
है, इसमें
हम भागीदार
हैं, हम
इसके हिस्से
हैं। इसलिए न
करते हुए
जानना कि मैं
कर रहा हूं।
ठीक दूसरा
पहलू कृष्ण
कहते हैं, करते
हुए जानना कि
मैं नहीं कर
रहा हूं। अब
तो वह भी कठिन
मालूम पड़ेगा।
इस बात को
समझने के बाद
वह और भी कठिन
हो जाएगा। ऐसे
साधारणतः वह
सरल मालूम पड़ता
है। आदमी कहता
है कि हम
अभिनेता बनकर
कर सकते हैं।
लेकिन, बड़ी
है कठिन बात
वह भी। सच तो
यह है कि जो
अभिनेता होता
है वह भी कई
बार चूक जाता
है और कर्ता हो
जाता है।
अभिनय करते
वक्त भी
पच्चीस दफे
चूक जाता है
और कर्ता हो
जाता है।
अभिनय जो आदमी
करता है वह जब
अपने अभिनय
में पूरा लीन
होता है, तब
वह यह भूल
जाता है कि
अभिनय कर रहा
हूं। तब तो वह
वही हो जाता
है जो वह कर
रहा है। तब वह
आविष्ट हो
जाता है, अध्यास
हो जाता है, तब वह वही हो
जाता है जो वह
कर रहा है।
इस
अध्यास को
थोड़ा समझना
जरूरी है
अभिनेता के।
क्योंकि जब
अभिनेता को
अध्यास पकड़
जाता हो, भ्रम
पकड़ जाता है
कि मैं यही हो
गया, तो हम
जो जी रहे हैं
हम फिर
अभिनेता कैसे
हो पाएंगे।
राम की सीता
खोए तो राम
अभिनेता कैसे
हो पाएंगे? अगर रामलीला
में भी सीता
खोती हो और
रामलीला में
बने राम के भी
असली आंसू आ
जाते हों, आ
जाते हैं, कई
बार। क्यों न
आ जाते होंगे?
जब देखने
वालों के आ
जाते हैं, जो
रामलीला देख
रहे हैं, जो
कि राम भी
नहीं बने हैं,
जब वे रोने
लगते हैं, तो
जो सच में राम
बना है वहां
उसकी स्थिति
तो और जरा
गहरे में है।
वह दर्शक तो
नहीं है।
कर्ता तो है, अभिनेता ही
सही, लेकिन
कर रहा है।
अगर उसकी सीता
खो जाती है और वह
रोने लगता हो
और वे आंसू
थोड़ी देर के
लिए असली आंसू
हो जाते हों
तो हैरानी
नहीं है। हो
जाता है।
अभिनेता भी
भूल जाता है
उन क्षणों में
कि मैं अभिनय
कर रहा हूं।
तो हम तो जीवन
में हैं। वहां
यह जानना कि
हम अभिनय कर
रहे हैं, बड़ी
कठिन है, बड़ी
"आरडुअस'
बात है।
लेकिन, जो
हम कर रहे हैं,
अगर उसे हम
ठीक से पहचान
लें, तो
तत्काल दिखाई
पड़ने लगेगा कि
यह हम अभिनय
कर रहे हैं!
रास्ते पर आप
गुजर रहे हैं
और किसी ने कहा,
कहिये, कैसे
हैं, और आप
कहते हैं, बिलकुल
ठीक हैं! और
खयाल में भी
नहीं आता कि
क्या आप कह
रहे हैं। एक
क्षण वहीं रुक
जाएं और गौर
से देखें, बिलकुल
ठीक हैं? तो
तत्काल पता
चलेगा कि जो
आपने कहा है, वह
अभिनय-वचन था।
एक आदमी मिलता
है और उसको आप नमस्कार
करते हैं और
कहते हैं कि
देखकर आपको बड़ा
आनंद हुआ। रुक
जाएं एक क्षण,
पीछे लौटकर
देखें, आनंद
हुआ है? तब
दिखाई पड़
जाएगा, अभिनय
कर रहे हैं।
जिंदगी
के क्षणों और
क्षणों में
कभी-कभी जब आप
कर्ता होते
हैं, एक क्षण
रुक जाएं और
लौटकर पीछे
देखें कि जो आप
कर रहे हैं, वह है? किसी
से कहते हैं
कि मेरे प्रेम
का तेरे लिए
कोई अंत नहीं,
तेरे बिना
मैं जी न
सकूंगा।
लेकिन कितने
प्रेमी मरे
हैं? लौटकर
जरा पीछे
देखें: नहीं
जी सकेंगे? और अभिनय
साफ हो जाएगा।
जिंदगी में
चारों तरफ मौके
खोज लें, रुक
जाएं, एक
क्षण को पीछे
देखें, और
देखें कि जो
आप कह रहे हैं,
कर रहे हैं,
वह क्या है?
अभिनय आप
तभी समझ
पाएंगे जब
अभिनय दिखाई
पड़ने लगें।
मैं नसरुद्दीन
की कहानी
निरंतर कहता
रहता हूं। एक
सम्राट की
पत्नी से उसका
प्रेम है। रात
चार बजे वह
विदा हो जाता
है और अब
दूसरे गांव जा
रहा है। तो वह
उससे कहता है
कि तेरे बिना
मैं कैसे रह
सकूंगा! एक-एक
पल बिताना
मुश्किल हो
जाएगा। तुझसे
ज्यादा सुंदर, तुझसे
ज्यादा
प्रेमी कोई भी
नहीं है। वह
स्त्री उसकी
ये बातें
सुनकर रोने
लगी है। नसरुद्दीन
ने लौटकर देखा,
उसने कहा कि
माफ कर, ये
बातें मैंने
दूसरी
स्त्रियों से
भी कही हैं।
ये बातें
मैंने दूसरी
स्त्रियों से
भी कही हैं।
उनसे भी मैंने
यही कहा है कि
तेरे बिना पल
भर न रह
सकूंगा, लेकिन
मैं हूं। और
मैं रहूंगा, क्योंकि कल
मुझे फिर किसी
स्त्री से
कहने का मौका
आ सकता है। और
यह तो मैंने
सभी
स्त्रियों से
कहा है कि
तुमसे ज्यादा
सुंदर कोई भी
नहीं है। वह
स्त्री बहुत
नाराज हो जाती
है, वह
बहुत दुखी हो
जाती है। नसरुद्दीन
कहता है, मैं
तो सिर्फ मजाक
करता हूं। वह
फिर खुश हो जाती
है।
अब यह
जो आदमी है नसरुद्दीन, यह आदमी समझ
सकता है कि
जिंदगी अभिनय
है। यह आदमी
पहचान सकता है
कि जिंदगी
अभिनय है।
लेकिन यह
स्त्री को
पहचानना बड़ा
मुश्किल पड़
जाएगा कि
जिंदगी अभिनय
है। ऐसा नहीं
है कि अभिनय
होने से
जिंदगी कुछ
खराब हो जाती
है। सच तो यह
है कि अभिनय
होने से
जिंदगी बड़ी
कुशल हो जाती
है। इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, योग
तो कर्म की
कुशलता है।
असल में जब
जिंदगी अभिनय
हो जाती है, तो दंश चला
जाता है, पीड़ा
चली जाती है, कांटा चला
जाता है, फूल
ही रह जाता है,
जब अभिनय ही
करना है तो
क्रोध का किसलिए
करना, पागल
हैं? जब
अभिनय ही करना
है तो प्रेम
का ही किया जा
सकता है।
क्रोध का
अभिनय करने का
क्या प्रयोजन
है? जब
अभिनय ही करना
है तो फिर
क्रोध का
सिर्फ पागल
अभिनय
करेंगे। जब
अभिनय ही करना
है तो प्रेम
का ही हो सकता
है। जब सपना
ही देखना है
तो
दीनता-दरिद्रता
का क्यों
देखना, सम्राट
होने का देखा
जा सकता है।
अपने
कृत्यों को
झांक-झांकर
देखने से
धीरे-धीरे पता
चलता है कि
मैं अभिनय कर
रहा हूं। पिता
का अभिनय कर
रहा हूं, बेटे
का अभिनय कर
रहा हूं, मां
का अभिनय कर
रहा हूं, पत्नी
का अभिनय कर
हां हूं, पति
का अभिनय कर
रहा हूं, प्रेमी
का अभिनय कर
रहा हूं, मित्र
का अभिनय कर
रहा हूं। यह
दिखाई पड़ना
चाहिए। इसको
आप एक-एक
कृत्य को "एटामिकली',
एक-एक को
अणु में पकड़
लें, और
देखें कि क्या
हो रहा है। और
आप बहुत हंसेंगे।
और हो सकता है,
बाहर आंसू
गिर रहे हों
और भीतर हंसी
आनी शुरू हो
जाए कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं! हो सकता
है, बाहर
कुछ और हो रहा
हो, भीतर
कुछ और होना
शुरू हो जाए।
और तत्काल आप
इस स्थिति को
समझ पाने में
समर्थ होते
चले जाएंगे।
जैसे-जैसे यह
साफ होगा, वैसे-वैसे
जिंदगी अभिनय
हो जाएगी।
एक झेन
फकीर मर रहा
है। मरते वक्त
उसने मित्रों
से पूछा, कि
मुझे जरा कुछ
बताओ, क्योंकि
मरे तो बहुत
लोग हैं, मैं
भी मरना चाहता
हूं, लेकिन
कोई नये ढंग
से मरें!
कब तक पुराने
ढंग से मरते
रहेंगे? उन्होंने
कहा, आप
कैसी बातें कर
रहे हैं, मरना
कोई मजाक है!
उस फकीर ने
कहा कि तुमने
कभी किसी आदमी
को चलते-चलते
मरते हुए सुना
है? चल रहा
हो, और मर
गया हो, लोगों
ने कहा, ऐसा
तो सुना नहीं!
फिर भी एक
बूढ़े ने कहा
कि ऐसी कहानी
मैंने पढ़ी है
कि एक दफा एक
फकीर चलता हुआ
मर गया था! उस
मरने वाले
फकीर ने कहा
कि फकीर ही
चलते हुए मर
सकता है! मर
गया होगा! छोड़ो
इस ढंग को।
तुमने कभी
किसी को
खड़े-खड़े मरते
हुए सुना है? किसी ने कहा
कि हां, मुझे
ऐसा पता है कि
एक आदमी एक
बार खड़े-खड़े
मर गया था। तो
उस फकीर ने
कहा कि जो ढंग
से जिंदा रहा
हो, वह ढंग
से मरता है।
मर सकता है।
अच्छा तुमने
कभी यह सुना
है कि कोई
आदमी शीर्षासन
करते हुए मर
गया हो? उन्होंने
कहा, न
सुना, न
सोच सकते।
शीर्षासन
करके कैसे कोई
मरेगा! तो उस
फकीर ने कहा, फिर यह ढंग
अपने लिए ठीक
रहेगा। वह
शीर्षासन लगाकर
खड़ा हो गया और
मर गया।
अब बड़ी
मुसीबत हुई उस
"मॉनस्ट्री' में। उस
आश्रम में बड़ी
कठिनाई पड़ गई,
क्योंकि
इसको उतारें
कैसे! बड़े
डरने लगे। एक
तो यह आदमी
खतरनाक मालूम
पड़ा कि जो
शीर्षासन
लगाकर कहे कि
अच्छा चलो, शीर्षासन
लगाकर मर जाते
हैं! यह पता
नहीं मरा है
कि नहीं मरा? या क्या हो
गया है? सब
तरफ से
जांच-पड़ताल की,
पाया कि न
श्वास का कोई
पता है, न
धड़कन का कोई
पता है, वह
मर ही गया।
लेकिन यह
शीर्षासन कर
रहा हो मुर्दा,
तो कौन
उतारे! और
पीछे कोई झंझट
न पड़े। और यह
मुर्दा कोई
साधारण मालूम
होता नहीं। तो
वे सब, जिन्होंने
कहा था
तुम्हारे
बिना हम एक
क्षण न रह
सकेंगे, वे
भी उसको उतारने
को तैयार नहीं
थे। तब किसी
ने कहा कि इसकी
बहन भी साध्वी
है और वह पास
की एक "मॉनेस्ट्री'
में रहती
है। वह इसकी
बड़ी बहन है।
और जब भी यह कोई
उपद्रव करता
था तो उसको
लोग बुलाकर
लाते थे, इसको
ठीक करवाने के
लिए। तो अब हम
कुछ नहीं समझ
सकते, उसको
बुला लिया
जाए। वह बड़ी
बहन कोई नब्बे
वर्ष की बूढ़ी
औरत, वह
आई। उसने अपना
डंडा जोर से
बजाया और कहा
कि जिंदगी भर
की मजाक मरते
वक्त बैठ गया
और उसने कहा
कि बाई, नाराज
मत हो, हम
ढंग से मरे
जाते हैं।
हमें क्या
फर्क पड़ता है!
फिर वह आदमी
बैठ गया और मर
गया। और उसकी
बहने ने लौटकर
भी नहीं देखा,
वह अपना
डंडा लेकर
वापिस चली गई।
उसने कहा कि यह
क्या बातचीत
कर रखी है कि
मरने में तो
कम-से-कम
परंपरा निभाओ!
वह आदमी बैठकर
फिर लेट गया
और मर गया।
अब यह
जो आदमी है, अगर मृत्यु
के क्षण में
अभिनय कर सकता
है, तो
इसकी पूरी
जिंदगी एक
अभिनेता की
जिंदगी है।
इसको मैं
कहूंगा यह
निष्काम कर्म
है। तब सब खेल
हो जाता है।
तब जिंदगी एक
खेल है। तब हम
सारी चीजों को
खेल की तरह ले
सकते हैं।
लेकिन हम पहचानेंगे
अपने भीतर के
अभिनेता को
अपने कृत्यों
में, तभी
यह हो पाएगा।
आप अभिनय कर न
सकेंगे। आप
अभिनय कर ही
रहे हैं, इस
सत्य को
पहचानना है।
तो यह नहीं
कहते हैं, कृष्ण
कि तुम अभिनय
करो। अगर कोई
अभिनय करेगा तो
अभिनय करने
में कर्ता बन
जाएगा और
गंभीर हो
जाएगा, क्योंकि
कर्ता तो
रहेगा ही वह, अभिनय का
कर्ता हो
जाएगा। कृष्ण
यह नहीं कह रहे
हैं कि तुम
अभिनय करो।
कृष्ण यह कह
रहे हैं, तुम
जो करते हो
उसे मैं जानता
हूं कि वह
अभिनय है। तुम
भी जानो। तुम
भी पहचानो।
तुम भी खोजो।
और जिस दिन
दिख जाए कि वह
अभिनय है, उस
दिन तुम करते
हुए अकर्ता हो
जाओगे। उस दिन
ढंग की बात
है।
फिर जो
दो हिस्से
उन्होंने
बांट दिए, निष्कामकर्मी का और
संन्यास का, वह ढंग की
बात है। वह
किसकी क्या
पसंद है, इसकी
बात है। कोई
करते हुए न
करने वाला हो
जाएगा, कोई
न करने वाला
होते हुए करने
वाला हो
जाएगा। वह दो
तरह के लोग
हैं जगत में।
वह हमारे
"टाइप' की
बात है। जैसे
मैं मानता हूं
कि पुरुष के लिए
आसान पड़ेगा कि
वह करते हुए न
करने वाला हो जाए।
स्त्री के लिए
आसान पड़ेगा कि
वह न करने वाली
होती हुई करने
वाली हो जाए।
उसके "टाइप' के फर्क
हैं। स्त्री
का जो चित्त
है, वह "पैसिव'
है। पुरुष
का जो चित्त
है, वह "एक्टिव'
है। पुरुष
का जो चित्त
है, वह
करने वाले का
है। स्त्री का
जो चित्त है, वह न करने
वाले का है।
स्त्री को अगर
कुछ करना भी
हो, तो वह न
करने के ढंग
से करती है।
पुरुष को कुछ
न भी करना हो, तो वह करने
वाले की तरह
हमला कर देता
है। मोटा विभाजन
कर रहा हूं।
मोटा इसलिए
कहता हूं कि
पुरुषों में
कोई
स्त्रैण-चित्त
लोग हैं और
स्त्रियों
में कोई
पुरुष-चित्त स्त्रियां
हैं। स्त्री
कुछ करना भी
चाहे, तो
उसकी सारी
व्यवस्था
न-करने की
होगी। अगर वह
किसी को प्रेम
भी करती है।
सब तरफ से
छिपायेगी, इस
प्रेम को वह
न-करना
बनायेगी। और
पुरुष अगर प्रेम
न भी करता हो, तो भी वह
इतना उपाय
करके प्रगट
करेगा कि
चारों तरफ से
घेर लेगा और
प्रेम की
वर्षा कर देगा
कि मैं प्रेम
करता हूं।
पुरुष और
स्त्री-चित्त
के कारण ही--और
दो ही तरह के
चित्त हैं जगत
में, स्त्रियां
और पुरुष मैं
नहीं कह रहा
हूं, स्त्री-चित्त
और
पुरुष-चित्त--ऐसी
स्त्रियां भी
हैं जो हमला
करती हैं
प्रेम में और
ऐसे पुरुष भी
हैं जो प्रतीक्षा
करते हैं
प्रेम में।
इसमें कोई कठिनाई
नहीं है। ये
दो चित्त हैं।
"फीमेल माइंस--फेमिनिन
माइंड' और
"मेल माइंड'। कृष्ण ने
इन दो चित्तों
को ध्यान में
रखकर ही दो
हिस्से कर
दिए।
संन्यास
का तो मतलब एक
ही है, हिस्से
दो हैं। अगर
स्त्रैण-चित्त
का प्रतीक्षारत
व्यक्तित्व, समर्पण करने
वाला, खोने
वाला, "पैसिव माइंड' अगर
इस दिशा में
जाएगा, तो
वह कहेगा कि
न-करता हुआ। न
करना ही उसकी
व्यवस्था
होगी, और
न-करने के बीच
अपने को कर्ता
जानना उसका अनुभव
होगा। इसलिए
स्त्री अगर, कभी "इनशिएटिव'
नहीं
लेती--किसी
चीज का, कोई
पहल नहीं
करती। इसलिए
पुरुष कई बार
धोखे में भी
पड़ता है।
लेकिन स्त्री
बहुत
भलीभांति जानती
है कि पहल
उसने ली है।
लेकिन उसकी
पहल प्रतीक्षा
वाली पहल है।
वह एक शब्द न
कहेगी प्रेम
का। और अगर
पुरुष उससे
प्रेम के शब्द
न कहे, तो
वह दुखी हो
जाएगी, हालांकि
उसने एक शब्द
नहीं कहा है।
वह दुखी हो
जाएगी, क्योंकि
उसके न कहने
में भी उसकी
पहल तो जारी है--बाकी
उसकी पहल
प्रतीक्षा
करने वाली है।
अगर पुरुष
प्रेम के शब्द
न कहे और सीधा
प्रेम करने
लगे, तो
किसी स्त्री
को कभी पसंद
नहीं आएगा। क्योंकि
उसका प्रेम वह
स्त्री पहचान
ही नहीं पाएगी,
जब तक कि वह
आक्रामक न हो
जाए। जब तक कि
पुरुष का
प्रेम आक्रमण
न करेगा, तब
तक स्त्री मान
ही नहीं सकेगी
कि वह प्रेम कर
रहा है। इसलिए
बहुत शांत
पुरुष, जिसका
प्रेम
आक्रामक नहीं
है, स्त्री
को कभी तृप्ति
नहीं दे पाता
है। और ऐसा
व्यक्ति भी, जो उतना
कीमती भी नहीं
है, उतना
अर्थपूर्ण भी
नहीं है, लेकिन
अगर उसका
प्रेम
आक्रामक बन
जाए तो वह स्त्री
के लिए बड़ा रस
दे पाता है, क्योंकि
उसका आक्रमण
बताता है कि
वह कितना प्रेम
करता है! उसका
आक्रामक होना
बताता है कि वह
कितना चाहता है!
स्त्री अगर
आक्रामक हो
जाए तो किसी
पुरुष को कभी
तृप्ति नहीं
दे पाती, क्योंकि
तब वह पुरुष
जैसी हो जाती
है।
ये जो
चित्त के दो
विभाजन हैं, इस विभाजन
के कारण दो
हिस्से
हैं--करते हुए
न करता हुआ
जानना, न
करते हुए करता
हुआ जानना, ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
"भगवान
श्री, एक
तकलीफ और पैदा
हो गई है।
जैसे आज
"प्राइवेट सेक्टर'
और "पब्लिक
सेक्टर', दो
में इतना अंतर
है कि अगर
हमने
"प्राइवेट सेक्टर'
को नष्ट कर
दिया तो "इनशिएटिव'
खत्म हो
जाता है। और "इनशिएटिव'
खत्म हो
जाने से गति
रुक जाती है।
तो अनासक्ति
में उतर जाने
पर या निष्काम
में उतर जाने
पर या कर्म-संन्यास
में उतर जाने
पर ऐसा लगता
है कि जो पहल है,
जो
स्फूर्ति है,
जो "इनशिएटिव'
है, वह
सारी चीज "कन्वर्ट'
हो जाती है
निष्क्रियता
में। इसकी
संभावना तो
है।'
ऐसा
हो सकता है, अगर उलटा
व्यक्तित्व
हो। जैसा
मैंने कहा, दो तरह के
व्यक्तित्व
हैं। मैंने
कहा, एक
व्यक्तित्व
जिसको
स्त्रैण
व्यक्तित्व कहें,
जो कि न
करते हुए करने
वाले का है।
अगर स्त्रैण
व्यक्तित्व
संन्यासी हो
जाए, तो
निष्क्रियता
आ जाएगी।
क्योंकि वह उस
व्यक्तित्व
का स्वभाव
नहीं है।
दूसरा, जैसा
मैंने कहा
पुरुष व्यक्तित्व,
जो कि करने
वाले में ही न
करने वाले को
जान सकता है; करे, करेगा
तो ही, करना
तो उसका जीवन
ही होगा, अब
इस करने के
भीतर वह जान
सकता है कि
मैं अकर्ता
हूं। यह जाना
जा सकता है।
अब अगर ऐसा
व्यक्ति, न
करने की
दुनिया में
उतर जाए और
फिर जानना चाहे
कि मैं कर्ता
हूं तो
निष्क्रिय हो
जाएगा।
निष्क्रियता
फलित होती है
विपरीत
व्यक्तित्व
के कारण। इसलिए
बहुत साफ-साफ
चुनाव जरूरी
है और
प्रत्येक व्यक्ति
को समझना
जरूरी है कि
उसका "टाइप' क्या है।
अपने से उलटे
को चुनने से
कठिनाइयां पैदा
होती हैं।
अपने से उलटे
को चुनकर
सिर्फ एक ही
फल हो सकता है
कि हमारा
समस्त जीवन
क्षीण हो जाए।
उलटे को भर
चुनने की भूल
न हो, तो
कर्म फैलेगा,
बड़ा होगा।
तेजी, निखार
आएगा, प्रखरता
आएगी, निखर जाएगा
कर्म।
क्योंकि
पुरुष-चित्त
का कर्म अगर
कहीं से भी
बाधा पाता है,
तो उसके
कर्ता होने से
बाधा पाता है।
अगर कर्ता
विदा हो जाए
और सिर्फ कर्म
ही रह जाए, तो
कर्म की गति
का अनुमान ही
लगाना
मुश्किल है।
वह पूर्ण गति
को उपलब्ध हो
जाएगा।
क्योंकि कर्ता
होने में
जितनी शक्ति
खर्च होती थी
वह भी अब कर्म
को मिलेगी और
कर्म पूर्ण हो
जाएगा, "टोटल
ऐक्ट' पैदा
हो जाएगा।
स्त्री को कर्म
करने में
जितनी कठिनाई
पड़ती है, वह
अगर उससे
मुक्ति मिल
जाए उसे, और
वह अपने अकर्म
में पूरी राजी
हो जाए, तो
उसके अकर्म से,
उसके न करने
से विराट कर्म
का जन्म होगा।
क्योंकि सारी
शक्ति उसको
उपलब्ध हो
जाएगी। उसके ढंग
में फर्क
होंगे। लेकिन
हम अक्सर भूल
में पड़ जाते
हैं। हम अक्सर
अपने से
विपरीत
व्यक्तित्व को
चुन लेते हैं।
उसका भी कारण
आप समझ लें।
हमारी
पूरी जिंदगी
में आकर्षण
विपरीत का होता
है--"दि अपोजिट' का। पूरी
जिंदगी में।
पुरुष स्त्री
को पसंद करता
है, स्त्री
पुरुष को पसंद
करती है।
हमारी पूरी जिंदगी
जैसी है, उसमें
विपरीत
आकर्षक होता
है। अध्यात्म
में यही उपद्रव
बन जाता है।
उसमें भी हम
विपरीत को चुन
लेते हैं।
अध्यात्म
विपरीत की
यात्रा नहीं है,
अध्यात्म
स्वभाव की
यात्रा है।
अध्यात्म उसका
पाना नहीं है,
जो आकर्षक
है। अध्यात्म
उसका पाना है,
जो मैं हूं
ही। लेकिन
जीवन की
यात्रा में
विपरीत
आकर्षक है।
मैंने
एक कहानी सुनी
है कि एक
द्वीप पर--एक
छोटे-से द्वीप
पर सागर में, अनजान किसी
कोने में लोग
एक बार बिलकुल
निष्क्रिय हो
गए और तामसी
हो गए।
उन्होंने सब
काम-धंदा
बंद कर दिया।
जो मिल जाता, खा-पी लेते
और पड़ रहते, सो जाते। उस
द्वीप के ऋषि
बड़े चिंतित
हुए, उन्होंने
कहा कि अब
क्या करें!
लोग सुनते ही
नहीं--क्योंकि
तामसी हो गए
हो, यह भी
तो सुनने कोई
नहीं आता था।
ऋषि बहुत डुंडी
भी पीटते तो
पीटकर आ जाते,
लेकिन कोई
आता नहीं
सुनने उनको।
आलसी हो गए हो,
यह सुनने तो
वही आएगा न जो
थोड़ा बहुत
आलसी नहीं है।
तो ऋषि बहुत
परेशान हुए।
कोई रास्ता न सूझे।
गांव
धीरे-धीरे
मरने लगा, सिकुड़ने लगा। तब
उन्होंने कहा
कि अब बड़ी
कठिनाई हो गई! क्या
किया जाए, क्या
न किया जाए!
तो
गांव के एक
बहुत वृद्ध
आदमी से जाकर
उन्होंने
सलाह ली, तो
उसने कहा, अब
एक ही उपाय
बचा है कि पास
में एक द्वीप
है, सब
स्त्रियों को
उस पर भेज दो, सब पुरुषों
को इस पर रहने
दो। पर
उन्होंने कहा,
इससे क्या
होगा? उसने
कहा, वे
जल्दी नाव
बनाने में लग
जाएंगे। वे
स्त्रियां भी
जल्दी तैयारी
करने में लग
जाएंगी। इनको
बांटो। अब
उनका पास-पास
होना ठीक
नहीं। विपरीत
को विपरीत ही
खड़ा कर दो, फिर
जल्दी
सक्रियता
गूंजने
लगेगी।
जवानी
में आदमी
सक्रिय
इसीलिए होता
है, बुढ़ापे
में
निष्क्रिय
इसीलिए हो
जाता है। और कोई
कारण नहीं है।
जवानी में
पूरे पुरजोश
उसमें
स्त्रीत्व और
पुरुषत्व
होता है। वे
दोनों नाव
बनाने में लग
जाते हैं और यात्रायें
करने में लग
जाते हैं। बुढ़ापा
आते-आते सब थक
जाता है।
स्त्री पुरुष
को जान लेती
है, पुरुष
स्त्री को जान
लेता है, विपरीतता
कम हो जाती
है। वह जो "अपोजिट'
का आकर्षण
है, परिचित
होने से विदा
हो जाता है, बुढ़ापे में
आदमी शिथिल हो
जाता है।
जिंदगी
के सहज नियम
में विपरीत
आकर्षक है, और अध्यात्म
के सहज नियम
में स्वभाव, विपरीत
नहीं। इसीलिए
भूल होती है।
इसलिए अध्यात्म
जिन-जिन
मुल्कों में
फैलता है वे
निष्क्रिय हो
जाते हैं। यह
मुल्क हमारा
निष्क्रिय हुआ।
और उसका कुल
कारण इतना है
कि विपरीत का
आकर्षण वहां
भी खींचकर ले
गए। तो वहां
जो पुरुषगत
साधना जिसे
चुननी चाहिए
थी उसने स्त्रीगत
साधना चुन ली
और जिसे स्त्रीगत
साधना चुननी
चाहिए थी उसने
पुरुषगत
साधना चुन ली।
वे दोनों
मुश्किल में
पड़ गए। पूरा
मुल्क
निष्क्रिय हो
गया। जिसको
मीरा होना
चाहिए था वे
महावीर हो गए,
जिसको
महावीर होना
चाहिए था वह
झांझ-मंजीरा लेकर
मीरा हो गया, वह दिक्कत
हो गई। दिक्कत
हो ही जाने
वाली है।
इसलिए
भविष्य के
अध्यात्म की
जो सबसे बड़ी
वैज्ञानिक
प्रक्रिया
मेरे खयाल में
आती है, वह
यह है कि हम
साफ इस सूत्र
को करें कि
"बायोलाजी' का जो नियम
है वह "स्प्रीचुअलिटी'
का नियम
नहीं है। जीवनशास्त्र
जिस आधार से
चलता है--वह
विपरीत के
आकर्षण से चलता
है, अध्यात्म
विपरीत का
आकर्षण नहीं
है, स्वभाव
में निमज्जन
है। वह दूसरे
तक पहुंचना नहीं
है, अपने
तक पहुंचना
है। लेकिन
जिंदगी भर का
अनुभव बाधा
डालता है।
मैंने
सुना है कि जब
पहली दफे
बिजली आई, तो फ्रायड
के घर एक आदमी
मेहमान हुआ।
और उसने कभी
बिजली नहीं
देखी थी। उसने
तो हमेशा
लालटेन देखी
थी, दीया
देखा था, वह
मेहमान हुआ, उसको सुलाकर
फ्रायड कमरे
के बाहर चला
गया। वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ा, प्रकाश
में नींद न आए।
तो उसने सीढ़ियां
लगाकर, किसी
तरह खड़े होकर फूंकने की
कोशिश की, लेकिन
फूंकने
से बिजली बुझे
न। अब वह आदमी
भी क्या करे, उसकी कोई
गलती नहीं!
उसका एक ही
अनुभव था कि
दीये फूंकने
से बुझ जाते
हैं। उसकी
परेशानी का
अंत नहीं है।
सामने बटन लगी
है, लेकिन
बटन से कोई संबंध
नहीं है। उसके
चित्त में बटन
कहीं दिखाई ही
नहीं पड़ती।
आखिर अनुभव ही
तो हमें
दिखलाता है।
उसको बटन भर
नहीं दिखाई
पड़ती, वह
सारे कमरे में
सब तरह की खोज
करता है कि
माजरा क्या
है! चढ़कर
बल्ब को सब
तरफ से देखता
है कि कहां से
द्वार है
इसमें जिसमें
से फूंक मार दूं।
कहीं कोई फूंक
का द्वार नहीं
दिखता। नींद आती
नहीं, करवट
बदलता है, फिर
खड़ा होता है, लेकिन
पुराने अनुभव
से ही जीता
है। डर लगता
है कि जाकर
कहूं तो लोग
कहेंगे, कैसे
नासमझ, तुम्हें
दीया बुझाना
भी नहीं आता? तो रात जाता
भी नहीं, पूछने
में भी भयभीत
है। सुबह जब उठता
है, और
फ्रायड जब
कमरे में आता
है तो देखता
है, बिजली
जली है। वह
पूछता है, क्या
बिजली बुझाई
नहीं? उसने
कहा, बुझाई
तो बहुत, बुझी
नहीं। अब
तुमने पूछ ही
लिया तो अब
निवेदन कर
दूं। रात भर
इसी को बुझाने
में गया।
क्योंकि इसके
जलते नींद
नहीं आती और
यह है कि बुझती
नहीं। फ्रायड
ने कहा, पागल
हुए हो। यह
रही बटन!
लेकिन उस आदमी
के अनुभव में
बटन का कोई
सवाल नहीं
उठता था। उस
आदमी को हम
दोषी नहीं
ठहरा सकते।
हमारे
जिंदगी भर का
अनुभव विपरीत
के आकर्षण का
अनुभव है।
इसलिए जब हम
अध्यात्म के
जगत में पहुंचते
हैं, जहां कि
यात्रा बिलकुल
बदल जाती है, हम उसी
अनुभव से दीये
फूंकते
चले जाते हैं,
बटन का हमें
खयाल नहीं
होता। यह भूल
बड़ी लंबी है
और पुरानी है।
इसलिए जिस
मुल्क में
अध्यात्म
प्रभावी हो
जाता है वह
निष्क्रिय हो
जाता है। और
जिस मुल्क में
"सेक्स' प्रभावी
होता है वह
सक्रिय होता
है। इसलिए
दुनिया की सभी
सक्रिय
सभ्यतायें
कामुक
सभ्यतायें
होती हैं। और
दुनिया की सभी
निष्क्रिय
सभ्यतायें
आध्यात्मिक
होती हैं। ऐसा
होना आवश्यक
नहीं है। ऐसा
अब तक हुआ है।
इसलिए
जिस मुल्क में
काम मुक्त हो
जाएगा, "फ्री
सेक्स' होगा,
उस मुल्क की
"एक्टिविटी' एकदम बढ़ जाएगी।
उसकी
"एक्टिविटी' का हिसाब
नहीं रहेगा!
अगर हम
प्रकृति में
चारों तरफ नजर
डालें तो
"एक्टिविटी'
"सेक्स' से
ही पैदा होती
है। वसंत में
फूल खिलने
लगते हैं, और
किसी कारण से
नहीं; पक्षी
गीत गाने लगते
हैं, और
किसी कारण से
नहीं; पक्षी
घोंसले बनाने
लगते हैं, किसी
और कारण से
नहीं; सबके
पीछे काम और
"सेक्स' की
ऊर्जा है।
पक्षी वह
घोंसला बना
रहा है जो उसने
कभी बनाया
नहीं। उस अंडे
को रखने की
तैयारी कर रही
मादा जो उसने
कभी रखा नहीं।
लेकिन सब तरफ
गुनगुन हो गई
है, सब तरफ
गीत चल रहा है,
सब तरफ भारी
क्रिया पैदा
हो गई है, वह
"बायोलाजिकल'
"एक्टिविटी'
है। आदमी भी
अभी एक ही तरह
की एक्टिविटी
जानता है, "बायोलाजिकल'। इसलिए जिन
मुल्कों में
"सेक्स' स्वतंत्र
है, उन
मुल्कों में
मकान आकाश को
छूने लगेंगे।
वह घोंसला
बनाने का ही
विस्तार है।
कोई और बड़ी बात
नहीं है। जिन
मुल्कों में
मुक्त होगा
काम, उन
मुल्कों में
नाच, रंग, गीत पैदा हो
जाएंगे; रंग-बिरंगे
कपड़े फैल
जाएंगे। वह
वही पक्षियों
के गीत और मोर
के पंख, उन्हीं
का विस्तार
है। कोई बहुत
अंतर नहीं है।
जिन
मुल्कों में
हम कहेंगे कि
हम जीवशास्त्र
के विपरीत
चलते हैं, और नियम जीवशास्त्र
का ही
मानेंगे--विपरीत
से आकर्षित
होंगे--वहां
सब उदास, शून्य
हो जाएगा।
वहां मकान झोंपड़े
रह जाएंगे, जमीन से लग
जाएंगे; वहां
सब गतिविधि
क्षीण हो
जाएगी, वहां
कोई गीत नहीं गाएगा, गीत
गाता हुआ आदमी
अपराधी मालूम
पड़ेगा; वहां
रंग-बिरंगे
कपड़े खो
जाएंगे, वहां
रंग-रौनक, सौंदर्य
खो जाएगा, वहां
सब उदास, दीन-हीन
और क्षीण हो
जाता है।
अब
मेरा अपना
मानना यह है
कि दोनों के
अपने नियम हैं, और ठीक पूरी
संस्कृति
दोनों नियमों
पर खड़ी होती
है। ठीक
संस्कृति
काम-मुक्त
होगी। काम में
आनंद लेगी, काम में
उल्लसित होगी,
तो क्रिया
पैदा होगी।
विराट क्रिया
का जाल
फैलेगा। और
ठीक अध्यात्म,
ठीक "टाइप' के चुनाव से
अगर होगा, तो
आध्यात्मिक
क्रिया का जाल
फैलेगा।
कृष्ण ठीक
अपने "टाइप' में हैं।
बुद्ध अपने
"टाइप' में
हैं, महावीर
अपने "टाइप' में हैं।
इसलिए कृष्ण
एक तरह की
क्रिया करते हैं,
लेकिन ऐसा
नहीं है कि
बुद्ध कोई
क्रिया नहीं
करते। बुद्ध
का जीवन भी
क्रिया का
विराट जाल है।
महावीर भी एक क्षण
शांत नहीं
बैठे हैं।
चालीस वर्ष
सतत एक गांव
से दूसरे गांव,
एक गांव से
दूसरे गांव
भाग रहे हैं, भाग रहे
हैं। अपना ढंग
है उनकी
क्रिया का।
युद्ध पर लड़ने
वह नहीं जाते
हैं, लेकिन
किसी और बड़े
विराट युद्ध
में वह संलग्न
हैं; किसी
चीज को तोड़ने,
मिटाने, बनाने
में संलग्न
हैं। बुद्ध
बांसुरी नहीं
बजाते, लेकिन
बुद्ध की वाणी
में किसी और
बड़ी बांसुरी का
स्वर है। इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। लेकिन बुद्ध
ने अपना "टाइप'
पा लिया। "आथेंटिक', प्रामाणिक
रूप से बुद्ध
ने वह पा लिया
जो वह हो सकते
हैं--वह हो गए
हैं। कृष्ण ने
पा लिया जो वह हो
सकते हैं--वह
हो गए हैं।
पीछे चलने
वाले साधक
अक्सर "टाइप' की भूल में
पड़ते हैं।
"टाइप' का "कन्फ्यूजन',
इसकी मैंने
पीछे बात की, वह वही मतलब
है--"स्वधर्मे
निधनम् श्रेयः'। वह अपने
निजता में मर
जाना
श्रेयस्कर, और दूसरे के
धर्म को
स्वीकार कर
लेना भयावह।
"टाइप को
कैसे समझें'?
"टाइप' को समझने
में बहुत
कठिनाई नहीं
है। एक तो
रास्ता यह है
कि जो तुम्हें
आकर्षित करता
हो, समझना
वह तुम्हारा
"टाइप' नहीं
है। सीधा
सूत्र, वह तुम्हारा
"टाइप' नहीं
है। उससे बचना,
उससे
सावधान रहना।
और जो तुम्हें
विकर्षित करता
हो, उस पर
जरा चिंतन
करना, वह
तुम्हारा
"टाइप' होगा।
अब यह बड़ी
मुश्किल की
बात है, जो
तुम्हें
विकर्षित
करता हो, "रिपल्सिव'
सिद्ध होता
हो, वह
तुम्हारा
"टाइप' है।
जैसे, पुरुष
कैसे पहचाने
कि मैं पुरुष
हूं? अगर
पुरुषों के
प्रति उसे कोई
प्रेम-लगाव
पैदा न होता
हो, पहचान
ले। और क्या
रास्ता है? पुरुष उसे
आकर्षित नहीं
करते, वह
विकर्षक है।
स्त्री कैसे
समझे कि वह
स्त्री है? स्त्री को
देखकर ही
दिक्कत होती
हो, और
अड़चन पैदा हो
जाती हो। दो
स्त्रियों को
पास रखना बड़ी
कठिन बात है।
वह विकर्षक
है। वे
एक-दूसरे के
लिए आकर्षक
नहीं हैं, "रिपल्सिव'
हैं।
एक-दूसरे को
हटाती हैं।
एक-दूसरे की
तरफ उनकी
आकर्षण की
धारा नहीं
बहती, विकर्षण
की धारा बहती
है। इसलिए दो
स्त्रियों को
साथ रखने से
बड़ी कठिनाई और
कुछ नहीं है।
जो
तुम्हें
आकर्षित करे, पहला समझ
लेना कि यह
तुम्हारा
"टाइप' नहीं
होगा। जो
तुम्हें
आकर्षित करे,
वह
तुम्हारा
"टाइप' होगा।
यह बड़ी कठिन
और जटिल बात
है। और इसलिए
बड़े मजे की
बात है, आमतौर
से जिन चीजों
की तुम निंदा
करते हो और जिनके
तुम खिलाफ हो,
वे
तुम्हारी होंगी,
वे
तुम्हारे
भीतर होंगी।
जो आदमी
दिन-रात "सेक्स'
का विरोध
करता है, उसकी
खबर मिलती है
कि उसके भीतर
"सेक्सुअलिटी'
होगी। यह
बड़ा जटिल है।
लेकिन खयाल
में ले लिया
जाए तो बहुत
आसान हो
जाएगा। जो
आदमी दिन-रात
धन की निंदा
करता हो, जानना
कि वह
धन-लोलुप है।
जो आदमी संसार
से भागता हो, जानना कि
संसारी है।
मैं यही कह
रहा हूं कि आपका
विपरीत जो है,
वह आपके लिए
आकर्षक होता
है। इसलिए जो
आपको आकर्षित
करे, समझना
कि वह आपका
"टाइप' नहीं
है।
"कभी
यह आकर्षित
करे, कभी
वह आकर्षित
करे तो?'
तो
उसको समझना कि
तुम "कन्फ्यूज्ड
टाइप' हो।
समझे न! उसका
और कोई मतलब
नहीं होता।
"समान व्यसन
हों तो
पुरुष-पुरुष
में मैत्री हो
जाती है!'
पूछते
हैं कि समान
व्यसन हो, तो मैत्री
हो जाती है।
बहुत-सी
बातें इसमें
खयाल लेनी
पड़ेंगी। समान व्यसन
की जो मैत्री
है, वह एक ही
"टाइप' के
लोगों में भी
हो सकती है।
लेकिन समान
व्यसन उनकी
मैत्री का
आधार होगा।
उनके बीच कोई
मैत्री नहीं
होगी, व्यसन
ही उनकी
मैत्री का
सेतु होगा।
अगर व्यसन छूट
जाए, तो
मैत्री
तत्काल टूट
जाएगी। अगर दो
आदमी शराब
पीते हैं, तो
उनमें मैत्री
हो जाती है।
शराब पीने के
कारण। एक ही
काम दोनों
करते हैं, इसलिए
मैत्री हो
जाती है।
लेकिन मैत्री
नहीं है कोई
भी। क्योंकि
मैत्री सदा
अकारण होती है।
मैत्री सदा
अकारण होती
है। अगर कारण
है, तो
मैत्री नहीं,
सिर्फ
"एसोसिएशन' है, साथ
है।
साथ और
मैत्री में
फर्क है।
हम दो
आदमी एक
रास्ते पर चल
रहे हैं, साथ
हो जाता है। यह
कोई मैत्री
नहीं है। फिर
मेरी मंजिल का
रास्ता मुड़
जाता है अलग, आपकी मंजिल
का अलग, तो
हम अपने
रास्तों पर
चले जाते हैं।
एक रास्ते पर
चलने वाले दो
राहगीर जैसे
बीच में साथ
हो जाते हैं, ऐसे एक
व्यसन पर चलने
वाले दो लोग
साथ हो जाते हैं।
लेकिन यह
मैत्री नहीं
है। सच तो यह
है कि मैत्री
सदा विपरीत
व्यक्तित्वों
में होती है।
विपरीत
व्यक्तित्वों
में मैत्री
होती है।
इसलिए मैत्री
जितनी गहरी
होगी, उतने
विपरीत
व्यक्तित्व
होंगे।
क्योंकि यह "कांप्लीमेंट्री'
होते हैं।
मित्र जो हैं,
वे एक-दूसरे
को "कांप्लीमेंट्री'
होते हैं, एक-दूसरे के
परिपूरक होते
हैं। इसलिए
अक्सर ऐसा हुआ
है कि दो
बुद्धिमान
लोगों में
मैत्री नहीं
हो सकेगी। वे "कांप्लीमेंट्री'
नहीं हैं।
उनमें कलह हो
सकती है, मैत्री
नहीं हो सकती।
अगर
बुद्धिमान से
किसी की
मैत्री होगी
तो वह
निर्बुद्धि
से होगी, वह
"कांप्लीमेंट्री'
है। दो
शक्तिशाली
व्यक्तियों
में मैत्री
नहीं हो
सकेगी। असल
में दो समकक्ष
और ठीक एक
दिशा से आए
हुए
व्यक्तियों
में मैत्री
नहीं हो सकेगी।
दो कवियों में
मैत्री
मुश्किल है।
दो चित्रकारों
में मैत्री
मुश्किल है।
और अगर होगी, तो उसके
कारण उनके
चित्रकार
होने से अन्य होंगे।
क्योंकि एक
व्यक्ति में
बहुत-सी बातें
हैं। दोनों
शराब पीते
होंगे, यह
हो सकती है
मैत्री कि
दोनों जुआ
खेलते होंगे,
यह हो सकती
है मैत्री।
लेकिन यह
संग-साथ है, यह मैत्री
नहीं है।
मैत्री का
नियम भी
विपरीत का ही
है। मैत्री
प्रेम का ही
एक रूप है।
इसलिए
मनोवैज्ञानिक
तो यह कहते
हैं कि अगर दो
पुरुषों में
बहुत गहरी
मैत्री है, तो
किसी-न-किसी
गहरे अर्थों
में वे
"होमोसेक्सुअल'
होने
चाहिए। अगर दो
स्त्रियों
में बहुत गहरी
मैत्री है, तो वह
"होमोसेक्सुअल'
होनी
चाहिए। एकदम
से राजी होना
बहुत मुश्किल हो
जाता है, लेकिन
इसमें सचाइयां
हैं। इसलिए आप
देखेंगे कि
बचपन जैसी
मैत्री फिर
बाद में कभी
निर्मित नहीं
होती।
क्योंकि बचपन
में एक "फेज'
"होमोसेक्सुअलिटी'
का हर आदमी
की जिंदगी में
आता है। लड़के,
इसके पहले
कि लड़कियों
में उत्सुक
हों, लड़कों
में उत्सुक
होते हैं। लड़कियां,
इसके पहले
कि लड़कों में
उत्सुक हों, पहले
लड़कियों में
उत्सुक होती
हैं। असल में "सेक्स
मेच्योरिटी'
होने के
पहले, काम
की दृष्टि से,
यौन की
दृष्टि से
परिपक्व होने
के पहले कोई
काम-भेद
बुनियादी
नहीं होता।
लड़के-लड़कों
में उत्सुक
होते हैं। लड़कियां-लड़कियों
में उत्सुक
होती हैं।
इसलिए बचपन की
सहेलियां
और बचपन के
मित्र
चिरस्थायी हो
जाते हैं। सेक्स
के जन्म के
बाद जब सेक्स
अपने पूरे
प्रभाव में
प्रगट होता है,
तो जो लोग
सहज स्वस्थ
हैं, लड़के
लड़कियों में
उत्सुक होना
शुरू हो जाएंगे,
लड़कियां लड़कों में
उत्सुक होना
शुरू हो
जाएंगी।
पुरानी
मित्रताएं और सहेलीपन
शिथिल होने
लगेंगे। या
याददाश्तें
रह जाएंगे।
धीरे-धीरे नई मैत्रियां
बननी शुरू
होंगी जो "अपोजिट'
से होंगी, विपरीत से
होंगी। हां, कोई पच्चीसत्तीस
परसेंट
लोग नहीं पार
कर पाएंगे इस
स्थिति को।
इसका मतलब है
कि उनकी
"मेंटल एज' पिछड़ गई। उसका
मतलब है कि वह
मानसिक रूप से
अस्वस्थ हैं।
ऐसा हो
सकता है कि एक
लड़का
अठारह-बीस साल
का हो गया, फिर भी
लड़कियों में
उत्सुक नहीं
है और लड़कों में
ही उत्सुक है,
तो उसकी
मानसिक उम्र पिछड़ गई।
यह मानसिक रूप
से बीमार है, इसकी
चिकित्सा की
जरूरत है। अगर
कोई लड़की पच्चीस
साल की होकर
भी लड़कियों
में ही उत्सुक
है, लड़कों
में उत्सुक
नहीं है, तो
उसके मनस के
साथ कोई
बीमारी हो गई
है, कोई
दुर्घटना घट
गई है, यह
स्वस्थ नहीं
है। इसका यह
मतलब नहीं है
कि बाद में मित्रतायें
नहीं होंगी, बाद में मित्रतायें
होंगी, लेकिन
वे "एसोसिएशन'
की होंगी।
एक ही क्लब
में आप ताश
खेलते हैं, मित्रता हो
जाएगी। एक ही धंदे में
काम करते हैं,
मित्रता हो
जाएगी। एक ही
सिद्धांत को
मानते हैं, कम्युनिस्ट
हैं दोनों, तो मित्रता
हो जाएगी। एक
ही गुरु के
शिष्य हो गए
हैं तो
मित्रता हो
जाएगी। लेकिन
ये मित्रतायें
वैसी मित्रतायें
नहीं हैं जैसा
कि यौन-जन्म
के पहले एक
गहरा प्रगाढ़
मैत्री का
संबंध होता
है। इसलिए
बचपन की मैत्री
फिर कभी नहीं
लौटती। वह लौट
नहीं सकती।
उसका आधार खो
गया।
और
विपरीत में
बड़ा गहरा
आकर्षण है।
अगर आप इसको
ऐसा भी समझें
तो थोड़ा खयाल
में आ जाएगा।
आप अक्सर देखेंगे, नंगे फकीर
के पास कपड़ों
को प्रेम करने
वाले लोग
पहुंचेंगे।
त्यागी के पास
भोगी इकट्ठे
हो जाएंगे। जो
खूब खाने-पीने
में मजा लेते
हैं वे किसी
उपवास करने
वाले की पूजा
करने लगेंगे।
अब यह बड़े मजे
की बात है।
महावीर नग्न
थे और जैन कपड़ा
बेचने का ही
काम करते हैं!
कैसे जैनों ने
कपड़े बेचने का
काम चुन लिया,
थोड़ा सोचने
जैसा है। जरूर
कपड़े को प्रेम
करने वाले लोग
महावीर के
इर्द-गिर्द
इकट्ठे हो गए।
महावीर सब
छोड़कर दीन हो
गए, हिंदुस्तान
में महावीर को
मानने वाले
सबसे ज्यादा
समृद्ध हैं।
यह आकस्मिक
नहीं है, "एक्सिडेंटल'
नहीं है, ये घटनायें
इनके
ऐतिहासिक
कारण हैं। असल
में महावीर ने
जब सब छोड़ा तो
जो सबसे
ज्यादा प्रभावित
होंगे वे ही
होंगे जो सब पकड़े हुए
हैं। क्योंकि
वे कहेंगे, अरे, हम
एक पैसा नहीं
छोड़ सकते हैं,
और इस आदमी
ने तो सब छोड़
दिया, लात
मार दी! भगवान
है यह आदमी! यह
जो उनका
आकर्षण है
चित्त का, यह
उनकी पकड़ की
वजह से।
त्यागी
महावीर से
बिलकुल
प्रभावित
नहीं होगा, वह कहेगा, क्या किया
तुमने? इसमें
है ही क्या? राख को लात
मार दी तो मार
दी। इसमें
कौन-सी बड़ी बात
है। लेकिन जो
उस राख को
समझता था हीरा
है, वह
फौरन महावीर
के चरणों में सिर
रख देगा कि
मान गए, आप
हैं आदमी! हम
एक पैसा नहीं
छोड़ सकते और
तुमने सब छोड़
दिया। तुम
हमारे गुरु
हुए।
फिर जो
कुछ नहीं छोड़
सकता, उसके
मन में छोड़ने
की कामना सदा
बसती रहती है।
जो कुछ नहीं
छोड़ सकता है, वह भी सोचता
है कि बड़ा दुख
झेल रहा हूं पकड़ने से, कब वह दिन
आएगा जब सब
छोड़ दूं! तो जो
सब छोड़ देता
है, वह
उसका आदर्श बन
जाता है फौरन,
कि इस आदमी
को वह दिन आ
गया जिसकी
मुझे अभी प्रतीक्षा
है। कोई बात
नहीं, अभी
मैं तो नहीं
हो सका, लेकिन
तुम हो गए। हम
तुम्हें
भगवान तो मान
ही सकते हैं।
इसलिए
त्यागियों के
पास भोगी इकट्ठे
हो जाएंगे। यह
बड़ा "मेग्नेटिक'
काम है, जो
अपने-आप चलता
रहता है। इसको
अगर हम पहचान
लें तो हम
सारी दुनिया
की चेतना को "मेग्नेटिक
फील्ड्स'
में बांट
सकते हैं कि
किस तरह
दुनिया की
चेतना
आकर्षित होती
रहती है, बनती
रहती है, मिटती
रहती है। अजीब
काम चलता रहता
है जो दिखाई
नहीं पड़ता ऊपर
से।
तो जब
भी आप किसी से
आकर्षित हों, तो एक बात
पक्की समझ
लेना कि इस
आदमी से बचना।
यह आपका "टाइप'
नहीं है, यह उल्टा
"टाइप' है।
"कांप्लीमेंट्री'
है।
अध्यात्म की
यात्रा में
सहयोगी न होगा,
संसार की
यात्रा में
साथी हो सकता
है। अध्यात्म
की यात्रा में
आपको अपनी ही
खोज करनी
पड़ेगी, स्वधर्म
की। मैं कौन
हूं, उसकी
ही खोज करनी
पड़ेगी। वह खोज
हो जाए, तो
आप जीवन को
बिना छोड़े, गति को बिना
छोड़े, कर्म
को बिना छोड़े
अकर्म को
उपलब्ध हो
जाएंगे।
संसार को बिना
छोड़े सत्य को
उपलब्ध हो
जाएंगे। सब
जैसा है वैसा
ही रहेगा, सिर्फ
आप बदल जाते
हैं। सब जैसा
है, ठीक
वैसा ही
रहेगा। सिर्फ
आप बदल जाते
हैं। और जिस
दिन आप बदल
जाते हैं, उस
दिन सब बदल
जाता है, क्योंकि
जो सब दिखाई
पड़ता है वह
आपकी दृष्टि है।
"भगवान श्री,
श्रीकृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं कि
यदि तू सुख-दुख,
लाभ-हानि, जय-पराजय को
समान समझ कर
युद्ध करेगा,
तो तू पाप
को नहीं, स्वर्ग
को उपलब्ध
होगा। यह
क्यों और कैसे
संभव है? क्या
हिंसा तब
हिंसा की घटना
न रह जाएगी?'
इसमें
दोत्तीन
बातें खयाल
लेनी चाहिए।
पहली
तो बात यह कि
कृष्ण कहते
हैं कि हिंसा
एक असत्य है, जो हो नहीं
सकती। भ्रम है,
जो संभव
नहीं है। कोई
मारा नहीं जा
सकता। "न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे'।
शरीर को मार
डालने से वह
नहीं मरता जो
पीछे है; और
शरीर मरा ही
हुआ है। इसलिए
शरीर मरता है,
यह कहना
व्यर्थ है।
कृष्ण
पहले तो यह
कहते हैं कि
हिंसा असंभव
है। क्या यह
मतलब है कि
कोई भी जाए और
किसी की हिंसा
करे? नहीं, कृष्ण
यह कहते हैं
कि हिंसा तो
असंभव है, लेकिन
हिंसक-वृत्ति
संभव है। तुम
किसी को मारना
चाहो, यह
संभव है; कोई
नहीं मरेगा, यह दूसरी
बात है।
तुम्हारे
मारने से कोई
नहीं मरेगा, यह दूसरी
बात है। तुम
मारना चाहते
हो, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। तुम
मारना चाहते
हो, इसमें
पाप है; उसके
मरने का तो
कोई सवाल नहीं
है, वह तो
मरेगा नहीं।
हिंसा में पाप
नहीं है, हिंसकता
में पाप है।
तुमने तो
मारना ही चाहा,
वह नहीं मरा
यह दूसरी बात
है। तुम्हारी
चाह तो मारने
की है। कोई
नहीं बचेगा, इसमें पुण्य
नहीं है; कि
कोई बचेगा, इसमें पुण्य
नहीं है।
तुमने बचाना
चाहा, इसमें
पुण्य है। एक
आदमी मर रहा
है, सब
जानते हुए कि
मरेगा, तुम
बचाने की
कोशिश में लगे
हो। यह
तुम्हारी बचाने
की कोशिश से
वह बचेगा नहीं,
मर जाएगा कल,
लेकिन
तुम्हारी
बचाने की
कोशिश में
पुण्य है। पाप
दूसरे को नुकसान
पहुंचाने की
वृत्ति है, पुण्य दूसरे
को लाभ
पहुंचाने की
वृत्ति है।
और
कृष्ण तीसरी
जो बात कहते
हैं, वे कहते
हैं कि अगर तू
पाप और पुण्य,
अगर तू सुख
और दुख, दोनों
के पार उठ जा, तो फिर न पाप
है, फिर न
पुण्य है। फिर
कुछ भी नहीं
है। फिर न हिंसा
है, न
अहिंसा है, अगर तू इन
दोनों के ऊपर
उठ जाए और जान
ले कि उस तरफ
हिंसा नहीं
होती, तो
मैं नाहक
हिंसा करने के
खयाल से क्यों
भरूं? और
उस तरफ कोई
बचता नहीं, तो मैं नाहक
बचाने के
पागलपन में
क्यों पड़ूं?
अगर तू सत्य
को देखकर अपनी
वृत्तियों को
भी समझ ले कि
ये वृत्तियां
व्यर्थ
हैं--असंभव
हैं--अगर तू इन
दोनों बातों
को ठीक से समझ
ले, तो तू
स्वर्ग को
उपलब्ध हो ही
गया। हो जाएगा
ऐसा नहीं, हो
ही गया।
क्योंकि हो
जाने का क्या
सवाल है? ऐसी
स्थिति में, जहां सुख और
दुख, लाभ
और हानि, जय
और पराजय, हिंसा
और अहिंसा, सब समान हो
गई हैं, समत्व उपलब्ध हुआ,
ऐसी स्थिति
में स्वर्ग
मिल ही गया।
अब कुछ स्वर्ग
बचा नहीं पाने
को । ऐसी
स्थिति में, ऐसी समत्व
बुद्धि को ही
कृष्ण योग
कहते हैं।
वह
कहते यह हैं
कि दो तरह की
भ्रांति है।
एक भ्रांति तो
यह कि कोई
मरेगा। और एक
भ्रांति यह कि
मैं मारूंगा।
एक भ्रांति यह
कि कोई बचेगा
और एक भ्रांति
यह कि मैं बचाऊंगा।
ये दोनों ही
भ्रांतियां
हैं। अगर पहली
भ्रांति छूट
जाए, कि कोई
मरता नहीं, कोई बचता
नहीं, जो
है वह है, अगर
यह पहली
भ्रांति छूट
जाए, तो
फिर एक दूसरी
भ्रांति बचती
है कि कोई
नहीं मरता तो
भी मैं मारने
की कोशिश करता
हूं तो पाप
है। कोई नहीं
बचता तो भी
मैं बचाने की
कोशिश करता
हूं, तो
पुण्य है।
लेकिन पाप और
पुण्य भी
अधूरा अज्ञान
है। आधा। आधा
अज्ञान बच
गया। अगर यह
भी पता चल जाए
कि न मैं किसी
को बचाता, न
कोई बचता; न
मैं किसी को
मारता, न
कोई मरता; अगर
यह पूरा ही
चला जाए, तो
ज्ञान है। फिर
ऐसे ज्ञान
वाले व्यक्ति
को जो हो रहा
है, वह
होने देता है।
बाहर, भीतर,
कहीं भी जो
हो रहा है वह
होने देता है।
क्योंकि अब न
होने देने का
कोई सवाल
नहीं। तब वह
"टोटल एक्सेप्टिबिलिटी'
को, समग्र
स्वीकार को
उपलब्ध हो
जाता है।
तो
कृष्ण अर्जुन
से यही कहते
हैं कि तू सब
देख और
स्वीकार कर और
जो होता है, होने दे; तू
धारा के खिलाफ
लड़ मत, तू
बह। और फिर तू
स्वर्ग को
उपलब्ध हो
जाता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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