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बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--86

केवल परमात्‍मा जानता है—(प्रवचन—छठवां)


दिनांक 26 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—उपद्रव की स्थितियों के मध्‍य गहरे—और—गहरे कैसे संभव हो सकता है?

2—जब मैं आपसे निकटता अनुभव करती हूं, उन क्षणों में मैं हंसना चाहती हूं।
ऐसा क्यों होता है?

3—इन रोगों का उपचार .कैसे हो; कृपणता, बकवास रहना, अभिनेता व्यक्तिव और अभिमान। क्या इनसे निबटने के लिए ध्यान प्रर्याप्‍त है?

4—में यह व्यक्‍ति जो प्रत्येक सुबह श्वेत वस्त्रों में उस कुर्सी पर बैठता है, कौन है?


प्रश्न: —

शरीर और—और संवेदनशील होता जा रहा है। यह और तेज गति से स्‍पंदित होता प्रतीत होता है। जितना अधिक चेतना और बोध पर कार्य होता है, सचेतन बोध होता जाता हे। पूर्व की ध्‍यान की अवस्‍थाओं या स्‍थितियों से ध्‍यान की न तुलना हो पा रही है। न पहचान बन रही है। शोर और सांसारिक ऊहापोह के मध्‍य में ग्रहणशील, निष्‍क्रिय ध्‍यान के लिए कम समय और अवकाश और शांत परिस्‍थितियां मिल पा रही है। फिर भी कुछ घट रहा है। तार्किक समझ के क्षीण होने की पृष्‍ठभूमि में भी आपके प्रति अगाध श्रद्धा है। यदि आप चाहें तो कृपया समझाएं वास्‍तव में क्‍या घटित हो रहा है? और स्‍पष्‍ट: उपद्रव की स्‍थितयों के मध्‍य गहरे और गहरे जाना कैसे संभव हो सकता हे।

 हली बात, और सर्वाधिक आधारभूत बातों में से एक बात सदैव याद रखनी है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म अराजकता में ही होता है। और कोई अन्य उपाय है भी नहीं। यदि तुम दुबारा जन्म पाना चाहते हो, तुम्हें परिपूर्ण अव्यवस्था से होकर गुजरना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारे पुराने व्यक्तित्व को छिन्न—भिन्न करना पड़ेगा। तुम टूट कर बिखर जाओगे। तुमने अपने बारे में जो कुछ भी विश्वास किया था वह धीरे— धीरे खोने लगेगा। वह सब जिससे तुमने अपना तादात्म्य किया हुआ था, मंद, धुंधला हो जाएगा। वह ढांचा जो समाज ने तुम्हें दिया हुआ है, वह चरित्र जो समाज ने तुम्हारे ऊपर थोप दिया था, खंड—खंड होकर गिर पड़ेगा। पुन: तुम बिना चरित्र के खड़े हो जाओगे जैसे कि तुम अपने जन्म के समय पहले दिन थे।
सब कुछ अस्त—व्यस्त हो जाएगा, और उस अराजकता में से, उस शून्यता में से तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। इसीलिए मैं बार—बार कहता हूं कि धर्म बड़ी हिम्मत की बात है। यह मृत्यु है, एक विराट मौत, लगभग आत्महत्या, स्वैच्छिक रूप से तुम मर जाते हो। और तुम नहीं जानते कि क्या होने जा रहा है, क्योंकि तुम यह जान भी कैसे पाओगे कि क्या होने जा रहा है? तुम तो मृत हो, इसलिए श्रद्धा की आवश्यकता होती है।
इसीलिए साथ में, सतत रूप से, अराजकता के साथ ही साथ मेरे प्रति एक श्रद्धा विकसित हो रही है, फिर भयभीत होने की कोई आवश्यकता न रही। श्रद्धा सम्हाल ही लेगी। यदि साथ में श्रद्धा इसके साथ ही साथ न विकसित हो रही होती, तब खतरा हो सकता है, तब व्यक्ति विक्षिप्त हो सकता है। अत: वे लोग जिनमें श्रद्धा नहीं है, उनको वास्तव में ध्यान में नहीं उतरना चाहिए। यदि वे ध्यान में उतरेंगे, वे मरने लगेंगे, और उनको खड़े हो पाने के लिए कोई भूमि, कोई सहारा देने वाला माहौल नहीं मिलेगा।
अनेक लोग मेरे पास आते हैं और मुझसे पूछते हैं, 'यदि हम संन्यास न लें तो क्या आप हमारी सहायता नहीं करेंगे?' मैं तुम्हारी सहायता हेतु तैयार रहूंगा, किंतु तुम इसे लेने के लिए तैयार नहीं होओगे। क्योंकि यह केवल मेरे देने का प्रश्न नहीं है, यह तुम्हारे लेने का भी प्रश्न है। मैं उड़ेल रहा होऊंगा, लेकिन यदि श्रद्धा नहीं है तो तुम इसको ग्रहण नहीं कर पाओगे। और जब कोई श्रद्धा नहीं तो इसको तुम पर उड़ेलने का कोई औचित्य भी नहीं है। तुम जितना ग्रहणशील होगे उतनी मात्रा को ही ग्रहण करोगे। संन्यास तुम्हारी गहरी श्रद्धा का प्रतीक भर है, इसे दर्शाता है कि अब तुम मेरे साथ जा रहे हो—जब सारा तर्क कहे मत जाओ, तब भी, जब तुम्हारा मन प्रतिरोध करे और कहे, यह तो खतरनाक है, तुम असुरक्षा के संसार में जा रहे हो, तब भी। जब तुम्हारा मन तुम्हें, तुम्हारे चरित्र और तुम्हारे रंग—ढंग को बचाने का प्रयास करें, तब भी, यदि तुम मेरे साथ जाने को तैयार हो, तो तुम्हारे भीतर श्रद्धा है।
श्रद्धा कोई भावनामात्र नहीं है; यह भावुक होना नहीं है। यदि तुम सोचते हो कि यह केवल भावुक लोगों के लिए है, तो तुम गलत हो। गहरी भावुकता में तुम कह सकते हो, मुझको श्रद्धा है, लेकिन यह कोई बहुत सहायक नहीं होने जा रहा है, क्योंकि जब सभी कुछ खो रहा होगा, तब जो पहली चीज खोएगी वह तुम्हारी श्रद्धा है। यह बहुत कमजोर, नपुंसक है। श्रद्धा को इतना गहरा और ठोस होना चाहिए कि यह भावुकता जैसी न हो, यह कोई भावदशा नहीं है, यह तुम्हारे भीतर का कुछ ऐसा स्थायी भाव है, कि चाहे जो कुछ भी हो, कम से कम तुम श्रद्धा नहीं खोओगे।
यही कारण है कि मैं तुमसे छोटी चीजें करने के लिए कहता हूं। वे अर्थपूर्ण नहीं दिखाई पड़ती हैं। मैं गैरिक वस्त्र पर जोर देता हूं। कभी—कभी तुम सोचते होगे क्यों? इसमें क्या बात है? क्या मैं गैरिक वस्त्रों के बिना ध्यान नहीं कर सकता? तुम ध्यान कर सकते हो; यह बात जरा भी नहीं है। मैं तुमसे कुछ ऐसा करवा रहा हूं जो तर्कयुक्त नहीं है। गैरिक वस्त्रों के लिए कोई कारण नहीं है, इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। कोई व्यक्ति किसी भी रंग के कपड़े पहन कर ध्यान कर सकता है और शान को उपलब्ध हो सकता है। मैं तुमको कुछ तर्कहीन बातें परीक्षण की भांति दे रहा हूं कि तुम मेरे साथ चलने को तैयार हो। मैं तुमको मूर्ख बना देने के लिए तुम्हारे गले में माला डाल देता हूं जिससे तुम संसार में मूर्ख की भांति जाओ। लोग तुम्हारे ऊपर हंसेंगे, वे सोचेंगे कि तुम पागल हो गए हो। यही तो मैं चाहता हूं क्योंकि यदि तुम मेरे साथ तब भी चल सके, जब कि मैं तुम्हें लगभग पागल बनाए दे रहा हूं तो ही मुझे पता लगता है कि जब वास्तविक संकट आएगा तुम श्रद्धावान रहोगे।
तुम्हारे चारों ओर ये संकट कृत्रिम रूप से खड़े किए गए हैं। वे बिना किसी कारण के आत्यंतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। उनकी महत्ता तर्क से गहरी है। सभी सदगुरुओं ने यह किया है।
जब इब्राहीम, एक सूफी सदगुरु अपने सदगुरु के पास दीक्षा के लिए आया, इब्राहीम एक सुलान था, और सदगुरु ने उसको देखा और उसने कहा : अपने वस्त्र त्याग दो, मेरा जूता ले लो और नंगे होकर बाजार में जाओ और मेरे जूते को अपने सर पर मारो। उसके पुराने शिष्यगण, वे लोग जो चारों ओर बैठे हुए थे, उन्होंने कहा : यह बहुत कठोरता है, ऐसा क्यों? आपने हमसे कभी ऐसा नहीं कहा? आपने हमसे कभी गी कहा—नग्न हो जाओ और बाजार जाओ और अपने सिर पर आपके जूते को मारो, आप सुलान इब्राहीम के प्रति इतने कठोर क्यों हैं?
सदगुरु ने कहा : क्योंकि उसका अहंकार तुम्हारे अहंकार से बड़ा है। वह एक सुल्तान है, और मुझे उसे गिराना है, वरना आगे का कार्य संभव न हो सकेगा।
लेकिन इब्राहीम ने कोई सवाल न पूछा, उसने बस वस्त्रो का त्याग कर दिया। यह उसके लिए अत्याधिक कठिन रहा होगा—उसी राजधानी में जहां वह सदैव सुल्तान की तरह रहा था, उसको हमेशा से करीब—करीब अतिमानव की भांति समझा गया था, गलियों से गुजरना, जिसमें वह कभी गया भी न था, और उस पर भी नग्न होकर, अपने सर पर जूता मारते हुए। लेकिन वह गया, शहर में घूमा। उसकी हंसी उड़ाई गई, बच्चों ने उसके ऊपर पत्थर फेंकना शुरू कर दिए—स्व भीड़, एक बड़ी भीड़ उसका उपहास और हंसी उड़ाने लगी, जैसे कि वह पागल हो गया हो। लेकिन वह नगर में चारों ओर घूमा और वापस लौट आया।
सदगुरु ने कहा : तुम्हें स्वीकार किया जाता है, अब सब कुछ सम्भव है, तुम खुल गए हो।
तो इसका क्या कारण है? यदि तुम समझो, तो तुम समझ जाओगे कि वह उसके अहंकार को तोड्ने का एक उपाय है। जब अहंकार चला जाता है, श्रद्धा आ जाती है।
संन्यास तो बस एक उपाय है, एक ढंग है, यह देखने का, क्या तुम मेरे साथ आ सकते हो? मैंने तुम्हारे लिए इसे करीब—करीब नामुमकिन बना दिया है—मेरे चारों ओर उड़ने वाली अफवाहें। मैं उन्हें सहारा देता रहता हूं। और मैं तुमसे भी कहूंगा कि जितनी अफवाहें निर्मित कर सकते हो तुम भी करो। सत्य की चिंता मत करो, अफवाहें उड़ाओ। जो लोग इन अफवाहों के बावजूद मुझसे संपर्क करने में समर्थ हो पाएंगे, वे ही उचित, साहसी, हिम्मतवर लोग होंगे। उनके लिए बहुत कुछ संभव है।
इसलिए पहली बात यहां पर उपद्रव बहुत जान कर निर्मित किया गया है। इसलिए ऐसा मत सोचो कि यह किसी प्रकार की समस्या है। नहीं यह एक उपाय है।
और हर किसी के पास जाकर उपद्रव के बारे में मत पूछो, वरना वह सोचेगा कि तुम पागल हो रहे हो। मनोचिकित्सक के पास जाकर मत पूछो क्योंकि सारी मनोचिकित्सा, मनोविश्लेषण लोगों की एक बहुत ही गलत ढंग से सहायता करने के प्रयास में संलग्न हैं। वे तुम्हें एक समायोजित व्यक्ति बनाने की कोशिश करते हैं। यहां मेरा पूरा प्रयास तुम्हारे सभी समायोजन तोड्ने के लिए है। जिसे मैं सृजनात्मक उपद्रव कहता हूं इसे वे कुसमायोजन कहेंगे। और वे चाहते हैं कि हर कोई सामान्य हो जाए, बिना कभी यह सोचे हुए कि कौन सामान्य है।
समाज, बहुमत, भीड़ सामान्य है। कहां है कसौटी? किसे सामान्य के रूप में सोचा जाना चाहिए? कोई मापदंड नहीं है। भारत में किसी बात को सामान्य समझा जाएगा; उसी बात को चीन में सामान्य नहीं माना जाएगा। कोई बात जिसे स्वीडन में सामान्य समझा जाता है; उसी को भारत में सामान्य नहीं समझा जाएगा। प्रत्येक समाज का विश्वास है कि अधिकतर लोग सामान्य हैं। ऐसा नहीं है। और किसी व्यक्ति को भीड़ के साथ समायोजित होने के लिए बाध्य करना कोई रचनात्मकता नहीं है, यह बहुत प्राणहीन करने वाला कृत्य है।
समायोजन उन लोगों के लिए अच्छा हो सकता है जो समाज को प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है। प्रत्येक समाज पुरोहितों, शिक्षकों, मनोचिकित्सकों का उपयोग बगावती लोगों को वापस लाने के लिए, उन्हें तथाकथित सामान्यपन और समायोजन में वापस धकेलने के लिए करता है। वे सभी स्थापित समाज की, यथास्थिति की सेवा करते हैं। वे सभी उस वर्ग की सेवा करते हैं जो प्रभावशाली है।
अब वे सोवियत रूस में यही कर रहे हैं। यदि कोई व्यक्ति साम्यवादी नहीं है तो कुसमायोजित है। वे उसको मानसिक चिकित्सालय में रखते हैं, वे उसको अस्पताल में भरती करा देते हैं। वे उसकी चिकित्सा करते हैं। अब सोवियत रूस में साम्यवादी न होना एक प्रकार की बीमारी है। कैसी मूर्खता है? उनके पास शक्ति है। वे तुम्हें बिजली के झटके देंगे, वे तुम्हारा मस्तिष्क निर्मल, ब्रेन—वॉश करेंगे, वे तुम्हें शामक औषधियां देंगे ताकि तुम मंदमति हो जाओ। और जब तुम अपनी आभा, अपनी मौलिकता खो चुके होओगे, जब तुम अपनी निजता खो चुके होओगे और तुम व्यक्तित्व विहीन हो गए होओगे, वे तुमसे कहते हैं, 'अब तुम सामान्य हो।
याद रखो, मैं यहां तुम्हें सामान्य बनाने या समायोजित करने के लिए नहीं हूं। मैं यहां तुमको अविभाजित व्यक्ति बनाने के लिए हूं। और तुम भी अपनी नियति के अतिरिक्त अन्य किसी मानदंड को पूरा करने के लिए नहीं हो। मैं तुम्हें सीधे ही देख रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुमको 'इसकी' भांति हो जाना है; क्योंकि इसी प्रकार तो तुम्हें विनष्ट किया गया है, इसी प्रकार तुम्हारे तथाकथित चरित्र का निर्माण किया गया है। यही चरित्र एक रोग है, यह बीमारी है, इसी प्रकार से तुम बंध गए हो, पीडित हो। मुझको इसे विनष्ट, छिन्नभिन्न करना पड़ेगा, ताकि तुम मुक्त हो सको, ताकि पुन: तुम ऊंची उड़ान भरना आरंभ कर सको, पुन: तुम अपने स्वयं के अस्तित्व के रूप में सोचना आरंभ कर दो, पुन: तुम एक व्यक्ति बन सको।
समाज ने इसे इतना अधिक प्रदूषित कर दिया है, तुम्हें इतना अधिक भ्रष्ट कर दिया है, कि जब भी ऊहापोह की अवस्था आती है तुम भयभीत हो जाते हो—हो क्या रहा है? क्या मैं दीवाना हुआ जा रहा हूं। एक बहुत प्रसिद्ध कहानी' मैंने सुनी है, जब महारानी मेरी अमरीका यात्रा पर गईं और उनको सर्वाधिक प्रसिद्ध मनस्विद से मिलने को कहा गया।
परिचारिका ने सम्मानपूर्वक महारानी मेरी को भीतर आमंत्रित किया और मनस्विद से बोली : मैं रूमानिया की महारानी से आपकी भेंट करवाना चाहूंगी।
मनस्विद ने महारानी की ओर देखा और पूछा : कितने समय से वे सोचा करती हैं कि वे महारानी हो गई हैं?
क्योंकि मनस्विद सदैव उन्हीं लोगों की चिकित्सा कर रहा है जिनमें से कोई सोचता है कि वह सिकंदर है, कोई सोचता है कि वह चंगीज खान है, कोई सोचता है कि वह हिटलर है, कोई सोचती है कि वह क्लियोपेत्रा है। अत: निःसंदेह वह सोच ही न पाया कि महारानी मेरी रोमानिया की सम्राशी स्वयं आई हैं। उसने सोचा, और कोई स्त्री पागल हो गई है, कितने समय से वे सोचा करती है कि वे महारानी हो गई हैं? मैंने एक और कहानी सुनी है
एक मनोचिकित्सक के पास एक रोगी को उसके मित्र लेकर आए, उन्होंने चिकित्सक को बताया कि वह व्यक्ति विभ्रमों से पीड़ित है कि बहुत शानदार किस्मत उसकी प्रतीक्षा में है। वह दो पत्रों की अपेक्षा कर रहा था जो उसे सुमात्रा में रबड़ की पौध और दक्षिण अफ्रीका में कुछ खानों के नामों के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे।
यह एक पेचीदा मामला था, और मैंने इस पर कठोर परिश्रम किया है, मनोचिकित्सक ने अपने कुछ साथियों को बताया, और जैसे ही मैंने उस व्यक्ति को ठीक कर दिया, दोनों पत्र आ गए।
सचेत रहो। वे दो पत्र वास्तव में आ सकते हैं।
और भयभीत मत हो। भय उठता है, क्योंकि जैसे ही तुम अकेले चलना आरंभ करते हो भय उठ खड़ा होता है। व्यक्ति को असुरक्षा अनुभव होती है। शक उठ खड़ा होता है कि क्या मैं सही हूं? क्योंकि सारी भीड़ तो एक दिशा में जा रही है, तुमने अकेले चलना आरंभ कर दिया है। भीड़ के साथ संदेह कभी नहीं उठता, क्योंकि तुम सोचते हो. लाखों लोग इस दिशा में जा रहे हैं, इसमें कुछ तो बात होना चाहिए, कुछ है अवश्य। भीड़ का मन तुम पर हावी हो जाता है। इतने अधिक लोग गलत नहीं हो सकते, उन्हें सही होना चाहिए।
मैंने एक मनोवैज्ञानिक के बारे में सुना है जो पिकनिक पर गया था। वे ठीक स्थान खोजने के प्रयास में थे; तभी समूह के एक सदस्य ने उनको आने के लिए कहा। यह एक सुंदर स्थान है, वह बोला, सही स्थान। विशाल वृक्ष, छाया, साथ में प्रवाहित होती नदी, और पूर्णत: शांत।
मनोवैज्ञानिक ने कहा. हां, दस लाख चीटियां गलत नहीं हो सकतीं।
दस लाख चीटियां गलत नहीं हो सकतीं। जहां भी पिकनिक स्पॉट हो चीटियां एक साथ एकत्रित हो जाती हैं—मक्खियां और चीटियां। यही है हमारे भीतर का गणित, कि इतने सारे लोग, कि वे गलत नहीं हो सकते हैं। अकेले में व्यक्ति का सर चकराता है। भीड़ के साथ, इस ओर, उस ओर, सामने, पीठ पीछे, चारों तरफ लोग, व्यक्ति को बिलकुल ठीक लगता है। इतने सारे लोग जा रहे हैं; वे ठीक दिशा में ही जा रहे होंगे। और प्रत्येक व्यक्ति यही सोच रहा है।
कोई नहीं जानता कि वे कहां जा रहे हैं। वे जा रहे हैं क्योंकि सारी भीड़ जा रही है। और यदि तुम प्रत्येक व्यक्ति से निजी तौर पर पूछो, क्या तुम ठीक दिशा में जा रहे हो? वह कहेगा, मुझे नहीं पता, क्योंकि सारा संसार जा रहा है, इसीलिए मैं जा रहा हूं।
यहां पर मेरा सारा प्रयास तुम्हें सामूहिक मन से बाहर लाने के लिए, तुम्हें एक अविभाजित व्यक्तित्व बनाने में सहायता देने के लिए है। आरंभ में तुमको ऊहापोह का सामना करना पड़ेगा। और गहरी श्रद्धा की आवश्यकता होगी, आत्यंतिक श्रद्धा की आवश्यकता पड़ेगी। अन्यथा तुम सामूहिक मन से बाहर तो आ सकते हो, लेकिन हो सकता है कि तुम व्यक्तिगत मन में न आ सको, तब तुम पागल हो जाओगे। यही तो खतरा है। श्रद्धा के बिना ध्यान में जाना खतरनाक है। मैं तुम्हें इसमें जाने के लिए नहीं कहूंगा, मैं तुमसे कहूंगा कि सामान्य रहना बेहतर है, चाहे सामान्य रहने का कुछ भी अर्थ हो। समाज के साथ समायोजित होकर रहो। लेकिन अगर वास्तव में तुम एक महत्, महानतम अभियान पर जाने के लिए तैयार हो तो श्रद्धा करो। और तब ऊहापोह के लिए प्रतीक्षा करो।
तुम जितना अधिक सजग हो जाते हो, तो निःसंदेह तुम इसके प्रति कम बोधपूर्ण होते हो। क्योंकि कोई जरूरत नहीं है। सजग होना पर्याप्त है। सजग होने का बोध एक तनाव बन जाएगा। आरंभ में ऐसा ही है। तुम कार चलाना सीखना शुरू करते हो, निःसंदेह तुम ज्यादा परेशान होते हो, तुम्हें बहुत सी चीजों का खयाल रखना होता है—पहिया, गियर, क्लच, एक्सीलेरेटर, ब्रेक, सड़क, और यदि तुम्हारी पत्नी पिछली सीट पर बैठी हो.. .व्यक्ति को अत्याधिक होशपूर्ण होना पड़ता है, क्योंकि बहुत सारी चीजों को एक साथ सम्हालना पड़ता है। आरंभ में यह करीब—करीब असंभव ही प्रतीत होता है। फिर क्रमश: हर समस्या मिट जाती है, तुम आराम से कार चलाते रहते हो, तुम किसी मित्र से बात कर सकते हो, तुम रेडियो सुन सकते हो, तुम कोई गाना गा सकते हो या तुम ध्यान कर सकते हो। और फिर भी वहां कोई समस्या नहीं होती,



अब ड्राइविंग एक सहज स्‍फूर्त घटना बन चुकी है। तुम इसको जानते हो, अत: अब इसके प्रति आत्म— चेतन होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
जब तुम ध्यान करते हो तो ठीक यही घटता है। आरंभ में तुम्हें चेतना के प्रति बोधपूर्ण होना पड़ता है। इससे एक तनाव, एक थकान आती है। धीरे— धीरे, जैसे—जैसे होश प्रगाढ़ होता है तब इसके प्रति सजग रहने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, यह अपने से ही श्वसन क्रिया की भांति होता रहता है, तुमको इसके प्रति सजग रहने की कोई आवश्यकता नहीं, यह स्वत: होता है। वास्तव में तो ध्यान के बाद की अवस्थाओं में यदि तुम अपनी जागरूकता को लेकर बहुत अधिक चिंतित होते हो, तो यह एक अवरोध होगा, जैसे कि यदि तुम अपनी श्वास प्रक्रिया के प्रति सजग हो जाओ तो तुम तुरंत ही इसकी प्राकृतिक लयबद्धता को भंग कर दोगे। यह स्वाभाविक रूप से जारी रहती है, तुम्हें बीच में पडने की कोई आवश्यकता नहीं है।
और बोध को इतना स्वाभाविक हो जाना चाहिए.. .केवल तब ही यह संभव है; तुम सो रहे हो तब भी, बोध का प्रकाश सतत है, प्रदीप्त है, ज्योति जलती रहती है—जब तुम गहन निद्रा में हो तब भी।
और प्रश्न के बारे में अंतिम बात, तार्किक समझ के क्षीण होने की पृष्ठभूमि में भी आपके प्रति श्रद्धा अगाध है। तार्किक समझ तो समझ जरा भी नहीं है। यह नाम का भ्रम है। तर्क के माध्यम से व्यक्ति कभी कुछ नहीं समझता। व्यक्ति को जो अनुभव होते हैं बस वह उन्हीं को समझता है। तर्क एक झूठ है। यह तुम्हें भ्रामक अनुभूति देता है कि हां, तुम समझ चुके हो।
केवल अनुभवों के माध्यम से ही व्यक्ति समझता है, केवल अस्तित्वगत अनुभूति के माध्यम से ही समझ संभव है।
उदाहरण के लिए, यदि मैं प्रेम के बारे में बात करता हूं तुम इसको तार्किक रूप से समझ लेते हो, क्योंकि तुम भाषा जानते हो, तुम्हें शब्द—विज्ञान की जानकारी है, तुम्हें शब्दों का अर्थ पता है, तुम वाक्यों की संरचना से परिचित हो, और तुम्हें इसके लिए प्रशिक्षित क्रिया गया है, इसलिए तुम समझ जाते हो कि मैं क्या कह रहा हूं; लेकिन तुम्हारी समझ प्रेम के बारे में होगी, यह प्रेम की बिलकुल ठीक समझ नहीं होगी। यह प्रेम के बारे में होगी, यह प्रत्यक्ष समझ नहीं होगी। और प्रेम के बारे में तुम चाहे कितने ही तथ्य और सूचनाएं एकत्रित करते चले जाओ, तुम इस संकलन के माध्यम से कभी प्रेम को जानने में समर्थ नहीं हो सकोगे। तुम्हें प्रेम में उतरना पड़ेगा, तुम्हें इसका स्वाद लेना पड़ेगा, इसमें विलीन होना पड़ेगा, साहस करना होगा, केवल तब तुम प्रेम को समझ पाओगे।
तार्किक समझ तो बस एक बहुत उथली समझ है। और अधिक अस्तित्वगत बनो। यदि तुम प्रेम के बारे में जानना चाहते हो, तो पुस्तकालय में जाने और दूसरों ने प्रेम के बारे में क्या कहा हुआ है उनका मत जानने के स्थान पर प्रेम में उतर जाना उत्तम है। यदि तुम ध्यान करना चाहते हो, पुस्तकों से ध्यान के बारे में सब कुछ सीखने के बजाय सीधे ही ध्यान में जाओ, इसका अनुभव लो, इसका आनंद लो, इसमें प्रवेश करो, इसको अपने चारों ओर घटने दो, इसे अपने भीतर घटने दो, तभी तुम जान लोगे।
तुम बिना नृत्य किए ही कैसे जान सकते हो कि नृत्य क्या है? इसे पुस्तकों के द्वारा जानना असंभव है। यहां तक कि किसी नर्तक को नृत्य करते हुए देख कर जानना भी काफी कठिन है, तब भी यह जानना नहीं है, क्योंकि तुम इसका बाह्य रूप देखते हो, बस शरीर की हलचल। तुम नहीं जान सकते कि नर्तक के भीतर क्या घट रहा है? उसमें कैसी लयबद्धता उत्पन्न हो रही है? कैसी चैतन्यता, कैसा बोध, कैसा मणिभीकरण, कैसा संकेंद्रण उसमें निर्मित हो रहा है? तुम इसे देख नहीं सकते, तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकते। बाहर से यह उपलब्ध नहीं है, और तुम नर्तक के भीतरी संसार में प्रवेश नहीं कर सकते। वहां पहुंचने का एकमात्र उपाय है—नर्तक बन जाना है।
जो कुछ भी सुंदर, गहन और श्रेष्ठ है उसे जीना ही पड़ता है।
श्रद्धा जीवन की श्रेष्ठतम बातों में से एक है। प्रेम से भी श्रेष्ठ; क्योंकि प्रेम घृणा को जानता है। श्रद्धा को इसके बारे में कुछ भी नहीं पता। प्रेम अभी भी द्वैत में है, घृणा का भाग छिपा रहता है, यह अभी छूट नहीं पाया है। तुम एक क्षण में ही अपने प्रिय से घृणा कर सकते हो। कुछ भी इसका कारण बन सकता है और घृणा वाला भाग ऊपर आ जाता है और प्रेम वाला भाग नीचे चला जाता है। प्रेम में यह केवल आधा भाग ही है जिसे तुम प्रेम कहते हो, बस सतह के ठीक नीचे घृणा सदैव प्रतीक्षारत रहती है कि छलांग लगा कर तुम पर कब्जा जमा सके। और यह तुम्हारे ऊपर हावी हो जाती है। प्रेमी लड़ते रहते हैं, सतत संघर्ष। किसी व्यक्ति ने प्रेम के बारे में एक पुस्तक लिखी है, उसका शीर्षक सुंदर है दि इंटीमेट एनिमी, अंतरंग शत्रु। प्रेमी शत्रु भी है।
किंतु श्रद्धा प्रेम से श्रेष्ठतर है, यह अद्वैत है। इसे घृणा का जरा भी पता नहीं है। यह किसी ध्रुवीयता, किसी विपरीत को नहीं जानती है। यह बस एक ही है। यह शुद्धतम प्रेम है—घृणा से परिशुद्ध किया गया प्रेम, प्रेम जिसने घृणा के भाग को पूर्णत: त्याग दिया है, प्रेम जो खट्टे अनुभव, कटु अनुभव में नहीं बदल सकता, प्रेम जो लगभग अपार्थिव, दूसरे संसार का हो चुका है।
अत: केवल वे ही, जो प्रेम करते हैं, श्रद्धा कर सकते हैं। यदि तुम प्रेम और श्रद्धा से बचना चाहते हो, तो तुम्हारी श्रद्धा बहुत निम्न स्तर की होगी, क्योंकि यह अपने साथ घृणा वाला भाग सदैव लिए हुए होगी। तुम्हें पहले अपनी ऊर्जा को प्रेम में से गुजारना होगा, ताकि तुम प्रेम और घृणा के द्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो सको। तब वह हताशा होगी जो घृणा वाले भाग से आती है, फिर अनुभव के माध्यम से एक समझ का जन्म होगा और तब तुम घृणा वाले भाग को त्याग सकते हो। तभी शुद्ध प्रेम, परम सार, शेष रहता है। पुष्प भी वहां नही होता, बस सुगंध मात्र होती है, तब तुम श्रद्धा में ऊर्ध्वगमन करते हो।
निःसंदेह इसका तार्किक समझ से कुछ भी लेना देना नहीं है। वास्तव में तो तार्किक समझ जिस मात्रा में खोती है उतनी ही श्रद्धा उत्पन्न होगी। एक अर्थ में श्रद्धा अंधी और एक अर्थ में श्रद्धा दृष्टि की एक मात्र सुस्पष्टता है। यदि तुम तर्क से सोचो तो श्रद्धा अभी दिखेगी। बुद्धिवादी सदैव श्रद्धा को अंधा कहेंगे। यदि तुम श्रद्धा को अनुभव के माध्यम से देखो तो तुम हंसोगे, तुम कहोगे, मुझे पहली बार अपनी 'आंखें उपलब्ध हुई हैं। तो वहां श्रद्धा ही एकमात्र सुस्पष्टता है। दृष्टि, क्रोध और घृणा के किसी बादल के बिना अत्यंत पारदर्शी, नितांत निर्मल हो जाती है।

 प्रश्न: — दो—तीन माह पूर्व प्रवचन के दौरान मैं खूब रोया करती थी। जब आप भले ही कोई हंसी की बात न कहे रहे हो। तब भी। जब मैं आपके निकटमा अनुभव करती हूं उन क्षणों में मैं हंसना और हंसना चाहती हूं। ऐसा क्‍यों है?

 लेकिन क्यों? किसलिए? हंसो। इसे एक प्रश्न और समस्या क्यों बनाती हो?
यह कृष्ण राधा ने पूछा है। पहले वह पूछा करती थी : 'मैं क्यों रो रही हूं?' अब किसी प्रकार से, किसी चमत्कार से वह रो नहीं रही है, बल्कि हंस रही है; लेकिन समस्या बनी हुई है।
हमें समस्याओं से क्यों चिपकते हैं? भले ही तुम प्रसन्नता अनुभव करो, अचानक मन कहता है क्यों? जैसे कि प्रसन्‍नता भी कोई बीमारी है। व्याख्या की आवश्यकता पड़ती है, तार्किक व्याख्या की आवश्यकता होती है; वरन प्रसन्नता भी मूल्यवान न होगी।
यह सतत जारी है। मैं देखता हूं लोग मेरे पास आते हैं, वे परेशान हैं, वे पूछते हैं, क्यों? मैं समझ सकता हूं जब तुम पीड़ा अनुभव कर रहे हो तो यह पूछना स्वाभाविक है, मैं समझ सकता हूं कि व्यक्ति पूछता है, क्यों? लेकिन मैं जानता हूं कि उनका 'क्यों' उनके संताप से गहरा है। शीघ्र ही वे प्रसन्नता भी अनुभव करने लगते हैं, और पुन: वे वहां हैं—बहुत परेशान, क्योंकि वे प्रसन्न हैं। अब 'क्यों' पीड़ा है।
मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं
एक मनोचिकित्सक के कार्यालय में एक व्यक्ति आता है और कहता है, डाक्टर साहब, मैं तो पागल हुआ जा रहा हूं मैं सोचता रहता हूं कि मैं जेब्रा हूं। हर बार जब मैं दर्पण में खुंद को देखता हूं अपने पूरे शरीर को काली धारियों से भरा हुआ पाता हूं।
मनोचिकित्सक ने उसको शांत करने का प्रयास किया—शात हो जाएं, शांत हो जाएं—चिकित्सक कहता है, अब बस शांत हो जाएं, घर जाएं और ये गोलियां खा लें, रात्रि में अच्छी नींद सोए, और मैं आश्वस्त हूं कि काली धारियां पूरी तरह से मिट जाएंगी।
तो वह बेचारा घर चला जाता है और दो दिन बाद लौटता है। वह कहता है, डाक्टर साहब, मुझको बहुत फायदा हुआ है। क्या आपके पास सफेद धारियों के लिए भी कोई गोली है?
लेकिन समस्या जारी रहती है।'
एक बार ऐसा हुआ, कोई व्यक्ति एक पागल नवयुवक को मेरे पास लेकर आया। उस नवयुवक के मन में एक भ्रामक विचार था कि सोते समय उसकी नाक या मुंह से होकर एक मक्खी उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई है और यह उसके भीतर भिनभिनाती रहती है। इसलिए निःसंदेह वह बहुत परेशानी में था। वह इधर को मुड़ता, उधर को मुड़ता और अपने अंदर घूमते दरवेशों के कारण ढंग से बैठ भी न पाता, वह सो भी नहीं सकता, एक सतत उपद्रव। इस आदमी के साथ क्या किया जाए? इसलिए मैंने उनसे कहा : तुम बिस्तर पर लेट जाओ, दस मिनट आराम करो, और जो किया जा सकता है हम करेंगे।
मैंने उसे एक चादर ओढ़ा दी जिससे वह देख न सके कि क्या हो रहा है, और कुछ मक्खियां पकड़ने को सारे घर में इधर—उधर दौड़ता फिरा। यह मुश्किल था, क्योंकि मैंने पहले कभी मक्खी पकड़ी नहीं थी। लेकिन लोगों को पकडने के अनुभव से सहायता मिली। किसी भी तरह से मैं तीन मक्खियां पकड़ सका। उन्हें मैंने एक बोतल में बंद किया उस आदमी के पास लाया, उसके ऊपर कुछ ऊटपटांग तरह से हस्त संचालन किय तब उसे आंखें खोलने को कहा और उसे मैंने वह बोतल दिखाई।
उसने उस बोतल को देखा। वह बोला, जी हां, आपने कुछ मक्खियां पकड़ ली हैं, लेकिन ये छोटी वाली हैं, बड़ी वाली अभी भी भीतर हैं—और वे बहुत बड़ी हैं। अब मामला कठिन हो गया। इतनी बड़ी मक्खियां कहां से लाई जातीं? उसने कहा : मैं आपका बहुत—बहुत आभारी हूं कम से कम आपने छोटी मक्खियों से छुटकारा दिला दिया है, लेकिन बडी मक्खियां वास्तव में बहुत बड़ी हैं।
लोग उलझे रहते हैं। यदि तुम एक ओर से उनकी सहायता करो, वे उसी समस्या को दूसरी ओर से ले आएंगे—जैसे कि निश्चित तौर से उसकी गहरी जरूरत हो। इसको समझने का प्रयास करो। समस्या के बिना जीना बेहद कठिन है, मानवीय स्तर पर करीब—करीब असंभव। क्यों? क्योंकि समस्या तुम्हें घबड़ा देती है। समस्या से तुम्हें कार्य मिल जाता है। समस्या से तुम्हें किसी व्यस्तता के बिना व्यस्तता मिल जाती है। समस्या तुम्हें उलझाए रखती है। यदि कोई समस्या न हो तो तुम अपने अस्तित्व की परिधि से चिपके नहीं रह सकते'। तुम केंद्र द्वारा आकर्षित कर लिए जाओगे।
और तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र रिक्त है। बिलकुल पहिए के धुरे की भांति होता है यह। रिक्त धुरे पर पूरा पहिया घूमता है। तुम्हारा अंतर्तम केंद्र रिक्त, कुछ नहीं, ना—कुछपन, शून्य, खाली, खाई की भांति है। तुम उस खालीपन से भयभीत हो, इसलिए तुम पहिए की परिधि से चिपके रहते हो, अथवा यदि तुम थोड़े साहसी हो तो अधिक से अधिक तुम तीलियों से चिपके रहते हो; लेकिन तुम धुरे की ओर कभी नहीं बढ़ते। व्यक्ति भयभीत, कंपित अनुभव करने लगता, है।
समस्याएं तुम्हारी सहायता करती हैं। सुलझाने के लिए कोई समस्या हो तो तुम भीतर कैसे जा सकते हो? लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, हम भीतर जाना चाहते हैं, लेकिन कुछ समस्याएं हैं। वे सोचते हैं, क्योंकि समस्याएं हैं इसीलिए वे भीतर नहीं जा रहे हैं। असली बात बिलकुल दूसरी है; क्योंकि वे भीतर जाना नहीं चाहते, वे समस्याएं निर्मित करते हैं।
इस समझ को अपने भीतर जितना संभव हो सके उतनी गहराई तक उतर जाने दो, तुम्हारी सभी समस्याएं बनावटी हैं।
मैं तुम्हारी समस्याओं का, बस शिष्टाचारवश उत्तर दिए चला जाता हूं। वे सभी बनावटी, बुनियादी रूप से अर्थहीन हैं। लेकिन वे तुमको स्वयं की उपेक्षा करने में सहायता देती हैं, वे तुम्हें भटकाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भीतर कैसे जा सकता है? पहले तो इतनी सारी समस्याएं पड़ी हैं सुलझाने के लिए। लेकिन एक समस्या सुलझती है कि तुरंत दूसरी उठ खड़ी होती है। और यदि तुम निरीक्षण करो, देखो, तो तुम्हें पता लगेगा कि दूसरी समस्या में भी वही गुणधर्म है जो पहली में था। इसको सुलझाने का प्रयास करो; तीसरी आ जाती है, विकल्प तुरंत तैयार है।
मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं :
मनोचिकित्सक : तुम किशोरवय बच्चे एक उपद्रव हो। तुम्हारी भीतर उत्तरदायित्व की कोई भावना ही नहीं है। भौतिक पदार्थों के बारे में भूल जाओ और विज्ञान, गणित और उन जैसे विषयों के बारे में सोचो। तुम्हारी गणित कैसी है?
रोगी : कोई बहुत अच्छी तो नहीं है।
मैं तुम्हारी तथ्यात्मक सूचना के लिए एक परीक्षण करूंगा। अब मुझे कोई नंबर बताओ।
रायल 3447, यही वह स्टोर है जिसमें मेरी प्रेमिका कार्य करती है।
मुझे कोई फोन नंबर नहीं चाहिए, बस कोई साधारण सा नंबर बता दो।
ठीक है, सैंतीस।
यह ठीक है, अब कृपया दूसरा नंबर बताओ।
बाईस।
और फिर।
सैंतीस।
अच्छा, ठीक है, देखो यदि तुम चाहो तो तुम्हारा मन दूसरी दिशाओं में भी कार्य कर सकता  है। बिलकुल ठीक, 37, 22, 37, क्या फिगर है?
पुन: गर्लफ्रेंड पर वापसी, यदि फोन नंबर से नहीं तो आकड़ों से यही चलता चला जाता हैं, अनंत तक।
सारतत्व को देखो। पहली बात तो कि तुम समस्याएं क्यों निर्मित करना चाहते हो? क्या वे वास्तव में समस्याएं हैं? क्या तुमने अपने आपसे सर्वाधिक मूलभूत प्रश्न पूछा है : क्या वास्तव में समस्याएं हैं, या तुम उन्हें निर्मित कर रहे हो, और तुम उन्हें निर्मित करने के आदी हो गए हो, और तुम उनके साथ रहते हो और यदि समस्याएं न हो तो अकेलापन अनुभव होता है? तुम संतापग्रस्त भी रहना पसंद करोगे, लेकिन तुम रिक्त होना नहीं चाहोगे। लोग अपनी पीड़ाओं तक से चिपकते हैं किंतु रिक्त होने को राजी नहीं हैं।
मैं रोज इसे देखता हूं। एक दंपति आते हैं। दोनों वर्षों से झगड़ रहे हैं, वे कहते हैं कि पंद्रह वर्षों से वे लड़ा करते हैं। पंद्रह वर्षों से विवाहित हैं और लगातार लड़ रहे हैं और एक—दूसरे के लिए नरक निर्मित कर रहे हैं। तब तुम अलग क्यों नहीं हो जाते? तुम पीड़ा से क्यों चिपक रहे हो? या तो बदल जाओ या अलग हो जाओ। अपना सारा जीवन बर्बाद करने में क्या सार है? लेकिन मैं देख सकता हूं कि क्या घट रहा है। वे अकेले होने के लिए तैयार नहीं हैं। कम से कम पीड़ा से उनको साथ तो मिलता है। और वे नहीं जानते कि अब यदि वे अलग हो जाते हैं वे अपने जीवन को किस भांति संचालित करने जा रहे हैं। वे लगातार चलने वाले संघर्ष, क्रोध, बकवास, लड़ाई और हिंसा के एक निश्चित ढांचे में समायोजित हो चुके हैं। उन्होंने इसकी तरकीब सीख ली है। अब वे नहीं जानते कि किसी और के साथ, एक अलग परिस्थिति में, भिन्न व्यक्तित्व के साथ, कैसे रहा जाए। किसी और के साथ कैसे रहा जाए? वे और कुछ जानते भी नहीं उन्होंने संताप की एक विशिष्ट भाषा सीख ली है। अब वे इसमें क्षमता और कौशल अनुभव करते हैं। किसी नये व्यक्ति के साथ होने का अर्थ है दुबारा अ ब स से आरंभ करना। पंद्रह साल एक निश्चित कार्य व्यापार में संलग्न रहने के बाद व्यक्ति कहीं और जाने में भयग्रस्त अनुभव करता है।
मैंने एक बड़े फिल्म स्टार के बारे में सुना है, जो एक मनोचिकित्सक के पास गया और बोला, मुझमें संगीत की कोई प्रतिभा नहीं है, अभिनय की कोई योग्यता नहीं है। मैं कोई खूबसूरत, सजीला व्यक्ति नहीं हूं। मेरा चेहरा कुरूप है, मेरा व्यक्तित्व बहुत दुर्बल है। मुझे क्या करना चाहिए? और वह एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता है।
इस पर वह मनोचिकित्सक बोला. लेकिन आप अभिनय छोड़ क्यों नहीं देते? यदि आपको लगता है कि आप में कोई प्रतिभा नहीं है, कोई मेधा नहीं है, और यह वह कार्य नहीं है जिसे आपको करना है, तो आप इस कार्य से हट क्यों नहीं जाते?
उसने कहा : क्या? इसमें बीस साल काम करने के बाद, और अब जब कि मैं करीब—करीब एक प्रसिद्ध सितारा बन चुका हूं?
तुम्हारी पीड़ाओं में भी तुम्हारा निवेश है। देखो। जब एक समस्या हटे बस देखो, वास्तविक
समस्या तुरंत ही किसी और पर स्थानांतरित हो जाएगी। यह ऐसा ही है जैसे कोई सर्प अपनी केंचुली उतारता रहता है, लेकिन सांप वही रहता है। यह 'क्यों?' ही सर्प है। जब तुम रोया करती थी तब भी यही चिंतित था। अब रोना बंद हो चुका है, तुम हंस रही हो। सांप अपनी पुरानी केंचुली से बाहर आ गया है। अब समस्या है, क्यों?
क्या तुम बिना किसी 'क्यों' के जीवन को नहीं सोच सकतीं? तुम जीवन को समस्या क्यों बना लेती हो?
एक व्यक्ति किसी यहूदी से बात कर रहा था, और वह व्यक्ति प्रश्नों के उत्तर को अन्य प्रश्नों द्वारा देने की यहूदी आदत से बहुत नाराजगी अनुभव कर रहा था। नाराज होकर अंत में उस व्यक्ति ने कहा : तुम यहूदी लोग प्रश्नों का उत्तर प्रश्नों द्वारा ही क्यों दिया करते हो?
यहूदी ने उत्तर दिया : हम ऐसा क्यों न करें?
लोग एक वर्तुल में घूमते चले जाते हैं। हम ऐसा क्यों न करें, फिर एक प्रश्न पूछ लिया गया।
जरा इस के भीतर देखो। यदि तुम हंस रही हो, सुंदर है यह बात। वास्तव में यदि तुम मुझसे पूछो तो रोना भी सुंदर बात थी, इसमें कुछ भी गलत नहीं था। यदि तुम मुझसे वास्तव में पूछती हो, तब मैं कहूंगा जो कुछ भी है, स्वीकारो। यथार्थ को स्वीकार करो, और तब रोना भी सुंदर है, और 'क्यों?' की पूछताछ में उलझने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि यह पूछताछ तुम्हें तथ्यात्मकता से भटका देती है। तब रोना महत्वपूर्ण नहीं है—तुम क्यों रो रही हो। कारण की तलाश करते हुए, तब वास्तविक खो जाता है और तुम कारण का पीछा करती रहती हो, यह कहां है? तुम्हें कारण कहां मिल सकता है? तुम कारण कैसे पा सकती हो? तुम्हें संसार की प्राथमिक उत्पत्ति तक जाना पड़ेगा, वहां कभी कोई आरंभ नहीं हुआ था।
जरा सोचो। क्यों?' का उत्तर देने के लिए आत्यंतिक रूप से तुम्हें संसार के बिलकुल आरंभ तक जाना पड़ेगा। और कोई आरंभ कभी था ही नहीं। संसार हमेशा से, सदा और सदा रहा है।
जीने के लिए किसी प्रश्न की आवश्यकता नहीं है। और उत्तरों की प्रतीक्षा मत करो, प्रश्नों को गिराना आरंभ कर दो। जीयो, और तथ्य के साथ जीयो। रोना—चिल्लाना हो, रोओ। इसका आनंद लो। यह एक सुंदर घटना है, विश्रांतिदायक, निर्मल करने वाली, शुद्ध करने वाली। हंसना सुंदर है, हंसो। हंसी को अपने ऊपर मालकियत कर लेने दो। ऐसे हंसो कि तुम्हारा सारा शरीर इससे आंदोलित और इसके साथ कंपित हो। यह शुद्ध करने वाला होगा, यह जीवंतता देने वाला होगा, यह तुम्हें पुन: ताजगी से भर देगा।
लेकिन तथ्य के साथ रहो। कारणों में मत जाओ। अस्तित्वगत के साथ रहो इसकी चिंता मत लो कि यह इस भांति क्यों है, क्योंकि इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता है। बुद्ध ने अपने शिष्यों से कई बार कहा, प्रश्न मत पूछो, कम से कम पराभौतिक प्रश्न तो पूछो ही मत, क्योंकि वे मूढ़ताएं हैं। यथार्थ के साथ रहो।
जीवन आत्यंतिक रूप इतना सुंदर है, इसे अभी क्यों नहीं जी रही हो? रोना, यह जीवन की एक मुद्रा है, हंसना भी जीवन की एक मुद्रा है। कभी कभी तुम दुखी होती हो। यह जीवन की एक मुद्रा, एक भाव— दशा है। सुंदर है। कभी कभी तुम आनंदित हो और हर्ष से प्रफुल्लित हो रही हो, और नृत्य कर रही हो। यह भी अच्छा और सुंदर है। जो कुछ भी घटता है, इसे स्वीकार करो, इसका स्वागत करो, और इसके साथ रहो; और तुम देखोगी कि धीरे धीरे तुमने प्रश्न पूछने की और जीवन से समस्याएं निर्मित करने की आदत त्याग दी है।
और जब तुम समस्याएं निर्मित नहीं करती, जीवन अपने सारे रहस्य खोल देता है। यह उस व्यक्ति के सम्मुख कभी नहीं खुलता जो प्रश्न पूछता चला जाता है। जीवन अपने को अनावृत करने को तैयार है यदि तुम इसे समस्या न बनाओ। यदि तुम समस्या बनाती हो तो तुम्हारा यह निर्माण ही तुम्हारी आंखें बंद कर देता है। तुम जीवन के प्रति आक्रामक हो जाती हो।
वैज्ञानिक प्रयास और धार्मिक प्रयास के बीच यही भेद है। वैज्ञानिक एक आक्रामक व्यक्ति है, जो सदा जीवन से सत्य छीनने का प्रयास करता है, जीवन को सत्य प्रदान करने के लिए बाध्य करता है— करीब—करीब बंदूक की नोक पर, हिंसक ढंग से। धार्मिक व्यक्ति जीवन के समक्ष बंदूक के साथ खड़ा होकर प्रश्न नहीं पूछा करता। धार्मिक व्यक्ति जीवन के साथ बस विश्रांत हो जाता है, बहता है इसके साथ, और जीवन धार्मिक व्यक्ति के लिए इतने अधिक रहस्य उदघाटित कर देता है, जो वह वैज्ञानिक के सामने कभी न करता। वैज्ञानिक तो सदा मेज से नीचे गिरने वाले जूठन के टुकड़ों को एकत्रित करता रहता है। वैज्ञानिक को कभी अतिथि की भांति निमंत्रण नहीं मिलने वाला है। जो जीवन को प्रेम करते हैं, इसका स्वागत करते हैं, इसे किसी प्रश्न के साथ नहीं बल्कि श्रद्धापूर्वक, हर्ष के साथ स्वीकार करते हैं, वे ही अतिथि बन जाते हैं।

 प्रश्न: इन रोगों का बिलकुल सही उपचार कैसे हो?

हला : कृपणता।
दूसरा. बकवास करना, पूर्णत्व की चिंता करते रहना।
तीसरा : अभिनेता व्यक्तित्व, अर्थात सदैव ऐसा व्यवहार करना जैसे कि यह कोई नाटक हो।
चौथा : अभिमान, इसमें उसके बारे में अभिमान सम्मिलित है जिसे मैंने बाद में अपनी शांतिमयता के रूप में सोचना आरंभ कर दिया है।
क्या इनसे निबटने के लिए ध्यान पर्याप्त है, या किसी अतिरिक्त चीज की आवश्यकता पड़ती है, जैसे कि होशपूर्वक उनमें अति तक संलग्न हो जाना, या उन्हें नजर अंदाज करने का प्रयास, या शायद सचेतन रूप से उनकी उपेक्षा करना?
कृपणता तुम्हारे भीतर करीब—करीब एक अंत—निर्मित गुण बन चुकी है। समाज का पूरा ढांचा इसे निर्मित करता है। यह चाहता है कि तुम लोगों से चीजें छीन लो और दो मत। यह तुम्हें महत्वाकांक्षी बनाता है, और महत्वाकांक्षी व्यक्ति कृपण हो जाता है। महत्वाकांक्षा कोई भी हो, सांसारिक, असांसारिक— लेकिन महत्वाकांक्षी व्यक्ति कृपण हो जाता है। क्योंकि वह सदैव भविष्य की तैयारी कर रहा है, वह जीना और बांटना सहन नहीं कर सकता। वह कभी भी अभी और यहीं नहीं होता। यदि उसके पास धन है, तो यह धन भविष्य के लिए है, अभी के लिए नहीं है। और भविष्य में तुम किस भांति बांट सकते हो? बांटना तो केवल वर्तमान में ही संभव है। उसके पास अपने बुढ़ापे के लिऐ बन है। या लोग हैं जिनके पास उनका चरित्र और सद्गुण, उनके भविष्य के जीवन के लिए, स्वर्ग के लिए हैं। वे इसी समय कैसे बांट सकते हैं? वे संचय कर रहे हैं, भविष्य में कभी घटने वाली किसी बड़ी घटना की तैयारी में संलग्न हैं। इस समय वे निर्धन हैं।
सभी महत्वाकांक्षी लोग निर्धन हैं, और उनकी निर्धनता के कारण वे कृपण हो गए हैं। वे सभी कुछ पकड़ते चले जाते हैं। व्यर्थ की चीजें वे जोड़ते रहते हैं।
एक व्यक्ति के साथ मैं रहा करता था। मैं यह देख कर हैरान था कि उनका पूरा घर एक कबाड़खाना था। उस घर में तो रहना भी कठिन था; वहां कोई स्थान बचा ही न था। और वे जो भी मिले लगातार
एकत्रित किए चले जाते थे। एक दिन मैं टहलने गया था, उनको मैंने सड़क के किनारे पड़ा हुआ साइकिल का एक हैंडिल उठाते हुए देखा, बस एक हैंडिल। उन्होंने चारों तरफ देखा, और उन्हें दिखा कि उन्हें कोई भी नहीं देख रहा है, वे हैंडिल उठा कर अपने घर ले आए, जब मैं वापस लौटा, मैं उनके घर चला गया और कहा, 'वह हैंडिल कहां है?'
वे थोड़ा सा घबडाए, उन्होंने कहा : क्या आपने इसे देखा था?
मैं वहां था।
लेकिन वे कहने लगे, यह एक अच्छी चीज है। और कौन जानता है? धीरे— धीरे मैं पूरी साइकिल एकत्रित कर सकूं। और इसमें गलत भी क्या है? और मैंने इसको चुराया नहीं है, कोई इसको फेंक गया था।
इस भांति वे चीजें एकत्रित करते चले गए—व्यर्थ की वस्तुएं—लेकिन वे सदैव भविष्य के बारे में सोचते रहते हैं। किसी दिन ये चीजें उपयोगी हो जाएंगी; किसी दिन उनकी जरूरत पड़ सकती हैं। कौन जाने?
तुम अपने घर में ऐसा नहीं कर रहे होओगे, लेकिन तुम सभी अपने हृदय में यही करते हो। यदि तुम अपने हृदय में, अपने मन में उतर कर देखो, तुम्हें यह कबाड़खाने जैसा लगेगा। तुमने कभी इसे साफ नहीं किया है। तुम इसमें कचरा भरते जाते हो, और फिर तुम भारी हो जाते हो, और तब तुम बोझिलता अनुभव करते हो, और तब तुम उपद्रव में फंसा हुआ अनुभव करते हो। और फिर आंतरिक कुरूपता का जन्म होता है।
लेकिन संताप के आधार को समझने का प्रयास करो। यह भविष्य में कहीं और रहने के विचार में निहित है। यदि तुम्हें अभी और यहीं रहना हो तो तुम कभी कृपणतापूर्वक नहीं जी सकते? क्योंकि तुम बांट सकते हो। कोई भी चीज किसलिए एकत्रित की जाए? संचय किस लिए? ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है, कल हो ही, यह नहीं भी हो सकता है। बांटा क्यों न जाए? आनंदित क्यों न हुआ जाए? इसी क्षण जीवन तुम्हारे भीतर खिल रहा है। इसका आनंद लो, इसे बांटो। क्योंकि इसको बांटने से यह सघन हो जाता है। बांटने से, यह और अधिक जीवंत हो जाता है। बांटने से इसकी वृद्धि होती है और विकास होता है।
अत: सारी बात यह समझ लेना है कि भविष्‍य नहीं है। भविष्य को महत्वाकांक्षी मन द्वारा निर्मित किया जाता हैं। भविष्य समय का हिस्सा नहीं है। यह महत्वाकांक्षा का भाग है। क्योंकि महत्वाकांक्षा को गति करने के लिए स्थान की आवश्यकता होती है। तुम महत्वाकांक्षा को अभी तृप्त नहीं कर सकते। तुम जीवन को अभी और यहीं परितृप्त कर सकते हो, लेकिन महत्वाकांक्षा को नहीं। महत्वाकांक्षा जीवन के विपरीत है, जीवन विरोधी है।
जरा स्वयं को और दूसरों को देखो। लोग तैयारी कर रहे हैं, किसी दिन वे जीना आरंभ करेंगे। वह दिन कभी नहीं आता। वे करते जाते हैं तैयारी और वे मर जाते हैं। यह कभी नहीं आएगा क्योंकि यदि तुम तैयारियों में बहुत अधिक संलग्न रहे तो, वह एक लगाव बन जाएगा। तुम बस तैयार होंगे, तैयारी करोगे और तैयारी करते चले जाओगे। यह इसी भांति है कि कोई व्यक्ति भविष्य के किसी उपयोग के लिए भोज्य पदार्थों का संचय करता चला जाए और भूखा रहता रहे, भुखमरी का शिकार हो जाए, और मरने लगे। यही तो है जो लाखों व्यक्तियों के साथ घट रहा है। वे बहुत अधिक सामान से घिरे हुए, जिसका उपयोग किया जा सकता था, मर जाते हैं। वे सुदरतापूर्वक जी सकते थे।
तुम्हारी महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त और कोई तुम्हारा रास्ता नहीं रोक रहा है।
अत: कृपणता महत्वाकांक्षा का भाग है।
यह प्रश्न बोधिधर्म ने पूछा है। वह बहुत महत्वाकांक्षी है। सांसारिक अर्थों में नहीं—उसे बड़ा मकान नहीं चाहिए उसे बड़ी कार की जरूरत नहीं है, उसे बड़े बैंक एकाउंट की आवश्यकता नहीं है। नहीं, उस ढंग से वह सरल है, बहुत सरल, लगभग महात्मा। उसके पास ज्यादा कुछ नहीं है और उसे इसकी चिंता भी नहीं है। लेकिन वह संबुद्ध होना चाहता है। यही है उसकी समस्या। और उसको संबुद्ध हो जाने की बहुत जल्दी है।
सारी मुढ़ताओं को गिरा दो। अभी और यहीं जीयो। भविष्य में किसी संबोधि की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम अभी यहीं जीयो, तुम संबुद्ध हो। जिस दिन तुम यह जान लोगे कि जीवन को इसी समय, अभी यहीं जीया जाना चाहिए तुम संबुद्ध हो। जब व्यक्ति कभी अतीत के बारे में नहीं सोचता और न ही भविष्य की सोचता है। यह पल पर्याप्त है, अपने आप में काफी है। सारा संताप खो जाता है।
संताप है क्योंकि तुम— जीने में समर्थ नहीं हो। इसलिए तुम लक्ष्य निर्मित करते हों—संबोधि एक लक्ष्य है, इससे तुम्हें एक अनुभूति मिलती है कि तुम महत्वपूर्ण हो, कि तुम कुछ कर रहे हो, तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण है तुम कोई अर्थहीन जीवन नही जो रहे है।, तुम एक महान आध्यात्मिक खोजी हो। सभी अहंकार की यात्राएं हैं।
संबोधि कोई लक्ष्य नहीं है। यह परिणाम है। तुम इसे खोज नहीं सकते। तुम इससे कोई लक्ष्य नहीं बना सकते। यह इच्छा की वस्तु नहीं बन सकता है। जब तुम इच्छा रहित होकर अभी यहीं जीना आरंभ कर देते हो, अचानक यह वहां होती है। परिणाम है यह। यह ऊर्जस्वी जीवन, एक जीवंत व्यक्तित्व का— इतना जीवंत और इतना सघन, इतना प्रज्वलित, कि इसी क्षण में वह समय में इतना गहरा उतर जाता है कि वह शाश्वत को स्पर्श कर लेता है, का परिणाम है।
समय में दो गतियां है। पहली, एक पल से दूसरे पल की ओर—क्षैतिज—अ से ब को, ब से स को, स से द को। इसी भांति तुम जीया करते हो, इसी प्रकार से इच्छा चलती हैं—क्षैतिज। एक वास्तविक रूप से जीवंत व्यक्ति, संवेदनशील, जागरूक व्यक्ति अ से ब की ओर नहीं जाता, वह अ में गहरे उतरता है, अ में और गहरे उतरता है, और गहरे और गहरे और गहरे, उसकी गति ऊर्ध्वाधर होती है।
जीसस के क्रास का यही अर्थ है। क्रास ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज दोनों है। क्रास के क्षैतिज भाग पर जीसस के हाथ फैले हैं। उनका पूरा शरीर ऊर्ध्वाधर भाग पर है। हाथ कर्म के प्रतीक है; कर्म क्षैतिज दिशा में गति करते हैं। अस्तित्व ऊर्ध्वाधर दिशा में गतिमान होता है।
अत: कर्म में बहुत अधिक डूबे मत रहो, अस्तित्व में और—और डूबो। और यही है ध्यान का सब कुछ। बिना कुछ किए होना सीखना है यह। कैसे हुआ जाए बिना कुछ किए। बस होना। और तुम इसी क्षण में गहरे और गहरे और गहरे उतरना आरंभ कर देते हो। और समय मैं यही ऊर्ध्वाधर गति शाश्वतता है।
तुम्हारे भीतर दोनों मिलते हैं—समय और शाश्वतता। अब इसका निर्णय तुम्हीं को करना है। यदि तुम महत्वाकांक्षा में जाते हो, तुम्हारी गति समय में होगी; और समय में मृत्यु का अस्तित्व है। यदि तुम इच्छा में गति करो तो तुम समय में जाओगे और समय में मृत्यु का अस्तित्व है। मृत्यु, अहंकार, इच्छा, महत्वाकांक्षा वे सभी क्षैतिज रेखा के अवयव हैं।
यदि तुम इसी क्षण में खोदना आरंभ करो और ऊर्ध्वाधर गति करो, तुम निर अहंकार हो जाते हो, तुम इच्छा विहीन हो जाते हो, तुम महत्वाकांक्षा शून्य हो जाते हो। लेकिन अचानक तुम जीवन से प्रज्जलित हो उठते हो, तुम जीवन की घनीभूत ऊर्जा हो। परमात्मा ने तुमको अधिकृत कर लिया है।
ऊर्ध्वाधर गति करो, और सारे संताप खो जाते हैं।
बकवास करना, पूर्णत्व की चिंता करते रहना, यह भी तुम्हारे ऊपर थोपा गया है। तुम्हें पूर्ण होना सिखाया गया है। वास्तविक बात समग्र होना है, पूर्ण नहीं; कोई भी पूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्णता एक स्थिर बात है। जीवन है गति। जीवन में कुछ भी पूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि अधिक पूर्णता, और अधिक पूर्णता संभव है। यह विकसित होता जाता है, कोई अंत नहीं हैं इसका। एक सतत विकास है यह, सातत्य है! यह सदा विकासमान है, सदैव क्रांति घटती है इसमें। यह कभी उस बिदु पर नहीं आता जहां तुम कह सको, 'अब यह पूर्ण हैं।
पूर्णता एक छद्म विचार है, लेकिन अहंकार इसे चाहता है। अहंकार पूर्ण होना चाहता है, अत: यह तुमसे बकवास करता रहता है—पूर्ण हो जाओ। तब यह तनाव, पागलपन और विक्षिप्तताएं निर्मित करता है और अहंकार बनाए चला जाता है; अहंकार के खेल। अभी उसी दिन मैं एक परिभाषा पढ़ रहा था। इस परिभाषा में बताया गया है, न्यूरोटिक वह व्यक्ति है जो हवाई किले बनाता है, और साइकोटिक व्यक्ति वह है जो उन किलों में रहता है, और मनोचिकित्सक वह है जो किराया जमा करता है। यदि तुम न्यूरोटिक या साइकोटिक बनना चाहते हो तो पूर्ण होने का प्रयास करो।
और अभी तक पृथ्वी पर जितने भी धर्म हैं—संगठित धर्म, चर्च—लोगों को पूर्ण होना सिखाते रहे हैं। जीसस ने उसे नहीं सिखाया, ईसाईयत ने सिखाया है। बुद्ध ने उसे नहीं सिखाया, लेकिन बौद्ध धर्म ने सिखाया है। सभी संगठित धर्म लोगों को पूर्ण होना सिखाते रहे हैं। बुद्ध, जीसस, लाओत्सु, उन्होंने कुछ बिलकुल भिन्न बात कही है; उन्होंने कहा, समग्र हो जाओ। समग्र' में और 'पूर्ण होने' में क्या अंतर है? पूर्ण होना क्षैतिज रेखा है, पूर्णता भविष्य में कहीं है। समग्र होने को इसी क्षण में किया जा सकता है, इसी क्षण, यहां, अभी; इसे किसी समय की आवश्यकता नहीं है। समग्र हो जाना, प्रमाणिक हो जाना, तुम हो जाना—जों कुछ भी तुम हो, जैसे भी तुम हो, वही हो जाना है।
सामान्यत: तुम एक बहुत ही सीमित जीवन जीते हो। तुम अपनी ऊर्जा को पूरा खेल नहीं खेलने देते। विखंडित है जीवन। तुम किसी से प्रेम करना चाहते हो, लेकिन तुम पूरी तरह प्रेम नहीं करते। अब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने प्रेम को पूर्ण प्रेम बना दो। यह संभव नहीं है, क्योंकि पूर्ण प्रेम का अभिप्राय होगा कि अब और विकास संभव ही न रहा। यह मृत्यु हो जाता है। मैं कहता हूं अपने प्रेम को पूरा, समग्र बनाओ। प्रेम समग्रतापूर्वक करो। जो कुछ भी तुम्हारे भीतर है, इसे पकड़ कर मत रखो 1 इसे पूरी तरह दो, पूर्णता में दो। दूसरे में पूरी तरह प्रवाहित हो जाओ:, .रोको मत। यही एक मात्र चीज है जो तुम्हें समग्र बना देगी।
यदि तुम तैर रहे हो, पूरी तरह तैसे। यदि तुम चल रहे हो, पूरी तरह चलो। चलने में बस चलना ही बन जाओ, और कुछ भी नहीं। यदि तुम खा रहे हो, तो पूरी तरह खाओ।
किसी व्यक्ति ने एक बड़े झेन मास्टर चो चाऊ से पूछा : अपनी संबोधि के पूर्व आप क्या किया करते थे?
उसने कहा : मैं लकडियां काटा करता था और कुएं से पानी लाया करता था।
उस व्यक्ति ने पूछा : अब, जब कि आप संबुद्ध हो चुके हैं, आप क्या किया करते हैं?
उसने कहा : वही, मैं लकड़ियां काटता हूं और कुएं से पानी लाता हूं।
वह व्यक्ति थोड़ा चकराया, उसने कहा : लेकिन तब अंतर क्या है?
चो चाऊ ने कहा : अंतर बहुत है। पहले मैं साथ ही साथ बहुत सी चीजें और भी करता रहता था। लकड़ी काटते समय मैं अनेक चीजों के बारे में सोचता। कुएं से पानी लाते समय मैं अनेक चीजों के बारे में सोचता, लेकिन अब मैं बस पानी लाता हूं मैं बस लकड़ी काटता हूं। यहां तक कि काटने वाला भी खो चुका है। बस काटना, बस काटना; वहां कोई नहीं है।
यह तुम्हें समग्रता की अनुभूति देगा। समग्रता को अपना सतत अवधान बनाओ। इसे स्मरण रखो। पूर्णता का विचार त्याग दो। यह तुम्हें तुम्हारे माता—पिता, अध्यापकों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, चर्चों.. .द्वारा दिया गया है.. .लेकिन उन सभी ने तुम्हें विक्षिप्त बना दिया है। सारा संसार विक्षिप्तता से पीड़ित हो रहा है।
एक मां अपने छोटे से बच्चे को एक मनोचिकित्सक के पास ले गई, और उसने पूछा, डाक्टर, क्या दस वर्ष का कोई बच्चा एलिजाबेथ टेलर जैसी फिल्म स्टार से विवाह कर सकता है?
डाक्टर ने कहा : निःसंदेह नहीं, मैडम, यह नितांत असंभव है।
मां ने अपने छोटे से बच्चे की ओर देखा और बोली : देखो, मैंने तुमसे क्या कहा था? अब बाहर जाओ और तलाक ले लो।
न केवल बच्चा विक्षिप्त है, मां भी है—और मां उससे अधिक ही है। विक्षिप्त लोग विक्षिप्त बच्चों को जन्म देते हैं।
अनेक बार लोग मुझसे पूछते हैं—अनुराग ने बहुत बार पूछा है—मैंने कभी उत्तर नहीं दिया—आप अपने संन्यासियों को बच्चे पैदा करने की अनुमति क्यों नहीं देते? आप डाक्टर फड़नीस को इतना अधिक कष्ट क्यों देते हैं? पहले मैं चाहूंगा कि तुम विक्षिप्तता से मुक्त हो जाओ; वरना तुम विक्षिप्त बच्चों को जन्म दोगे। यह संसार विक्षिप्तता से भरा हुआ है। कम से कम इसे बढ़ाओ मत। मेरा जनसंख्या से कोई लेना देना नहीं है; यह राजनेताओं की चिंता है। मेरी चिता है विक्षिप्तता। तुम विक्षिप्त हो, अपनी इसी विक्षिप्तता से तुम बच्चों को जन्म देते हो।
वे तुम्हारे लिए भी एक उपद्रव हैं। क्योंकि तुम अपने आपसे इतना ऊबे हुए हो कि तुम्हें कुछ उपद्रव चाहिए। बच्चे सुंदर उपद्रव हैं। वे और ज्यादा परेशानियां उत्पन्न करते हैं। तुम्हारी परेशानियां पुरानी हो चुकी हैं, तुम उनसे ऊब चुके हो। तुम भी नई परेशानियां चाहोगे। पति पत्नी से ऊब गया है, पत्नी पति से ऊबी हुई है। वे चाहेंगे कि कोई उनके मध्य आकर खडा हो; एक शिशु। अनेक शादियां बच्चों के कारण बची हुई हैं। वरना वे बिखर गई होती। एक बार बच्चे हो जाएं मां बच्चों के प्रति जिम्मेवारी के बारे में सोचने लगती है, पिता बच्चों के प्रति कर्तव्य के बारे में विचारना आरंभ कर देता है। अब एक सेतु है।
और माता और पिता दोनों अपनी स्वयं की समस्याओं, चिंताओं और पागलपन से बोझिल हैं। इन बच्चों को वे क्या देने जा रहे हैं? क्या है देने के लिए उनके पास? वे प्रेम के बारे में बात करते हैं, किन्तु वे हिंसक है। उनका प्रेम पहले से ही विषाक्त है, वे नहीं जानते प्रेम क्या है, और फिर प्रेम के नाम पर वे उत्पीड़न करते हैं। प्रेम के नाम पर वे बच्चों में जीवन को नष्ट करने का प्रयास करते हैं। वे उनका जीवन सांचे में डाल देते हैं। प्रेम के नाम पर वे मालकियत करते हैं, वे अधिकार जमाते हैं। और निःसंदेह बच्चे बहुत असहाय हैं, इसलिए जो तुम करना चाहते हो करो। उनको पीटो, उन्हें उस प्रकार से या उस प्रकार से ढाल दो, अपनी अतृप्त इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को ढोने के लिए उन्हें बाध्य करो, ताकि जब तुम मर जाओ तो वे तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं लादे होंगे और वे उसी मूढ़ता को करने के प्रयास में रहेंगे जिसे तुम करने की कोशिश कर रहे हो।
मैं चाहूंगा कि तुम बच्चों को जन्म दो, लेकिन पिता बनना, मां बनना इतना सरल नहीं है।
एक बार तुम समग्र हो, फिर मा बन जाओ, पिता बन जाओ, तब तुम ऐसे बच्चे को जन्म दोगे जो स्वतंत्रता होगा, जो स्वास्थ्य और समग्रता होगा, जो अनुग्रह से भरा होगा, और वह संसार के लिए एक भेंट होगा। और वह संसार को जैसा यह है उससे कुछ बेहतर बनाएगा। अन्यथा नहीं, वरना तुम ही पर्याप्त हो!
'आप मुझको उस व्यक्ति के साथ एक ही कमरे में क्यों रखते हैं?' क्रोधित रोगी ने पागलखाने के डाक्टर से पूछा।
अस्पताल में भीड़ अधिक हो गई है, डाक्टर ने समझाया। क्या वह कोई परेशानी पैदा कर रहा है? परेशानी, अरे वह तो पागल है! वह कमरे में चारों ओर यह कहते हुए देखता रहता है, 'न शेर हैं, न चीते हैं, न हाथी हैं', और सारे समय कमरा उन से भरा रहता है!
पागल लोग सोचते हैं कि दूसरे पागल हैं। पागल लोग कभी नहीं सोचते हैं कि वे पागल हैं। एक बार कोई पागल यह पहचान ले कि वह पागल है, तो वह सामान्य होने के रास्ते पर चल पड़ता है।
अपने पागलपन को देखने का प्रयास करो, इसे पहचानो। इससे तुम्हें सामान्य होने में सहायता मिलेगी।
बकवास करना, पूर्णत्व की चिंता करते रहना। समग्र होने का प्रयास करो। अन्यथा यह पूर्णत्व तुम्हें पगला देगा। समग्र हो जाओ। जो कुछ तुम करना चाहते हो करो, लेकिन इसे समग्रतापूर्वक करो। इसमें विलीन हो इसमें पिघल— जाओ, और तुम्हें धीरे—धीरे अपने अस्तित्व में खिलावट मिलने लगेगी। फिर, तब वहां तुम्हारे भीतर पूर्णता का कोई खयाल न बचेगा।
लेकिन तुम अपूर्ण विभाजित, खंड—खंड हो। इसीलिए लगातार यह विचार उठता रहता हैं, कैसे पूर्ण हुआ जाए? समग्र हो जाओ, और यह विचार अपने आप से गिर जाएगा।
'अभिमान' और 'अभिनेता व्यक्तित्‍व'। नि:संदेह वे लोग जो पूर्ण। होने के लिए प्रयास रत हैं, अभिनेता व्यक्तित्व ही बन जाएंगे। उनके पास मुखौटे होंगे, वे स्वयं को मुखौटों के पीछे छिपा लेंगे। वे दूसरों को अपनी सच्चाई नहीं देखने देंगे। वे सदैव कुछ कुछ का कुछ दिखाने का प्रयास करेंगे, वे पाखंडी बन जाएंगे। वे सदा अभिनय करने की कुछ दिखाने की कोशिश करेंगे। उन्हें पता है कि वे कौन हैं, और वे सिद्ध करने का प्रयास करेंगे कि वे कोई और हैं।
और कठिनाई यह है कि भले ही वे दूसरों को समझाने में सफल न हो पायें लेकिन—स्वयं को समझा पाने में वे सदैव सफल हो जाते हैं। इसी प्रकार से विक्षिप्तता का आरंभ होता है।
चाहे जो भी मूल्य हो, बस स्वयं हो जाओ। चाहे जो भी मूल्‍य हो, स्वयं हो जाओ। निष्ठावान बनो। आरंभ में बहुत भय होगा, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम एक महान व्यक्ति हो, और अचानक तुम स्वयं करेगा, लेकिन को एक सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट कर देते हो। भय होगा, अहंकार आहत अनुभव करेगा, लेकिन इसे आहत अनुभव करने दो। वस्तुत: इसे भूखा रहने और मर जाने दो। इसको मर जाने मैं सहायता दो सामान्य हो जाओ, सरल हो जाओ और तुम अधिक समग्र हो जाओगे और तनाव विलीन हो जाएंगे और लगातार अभिनय करने की कोई जरूरत न रहेगी। लगातार अभिनय करते रहना, प्रदर्शन के झरोखे.. सतत खड़े रहना, बस देखते रहना कि लोग क्या सोच रहे हैं, और तुम्हें यह सिद्ध करने के लिए कि तुम विशिष्ट हो, क्या करना पड़ेगा—यह कितना बड़ा तनाव है। लेकिन जरा दूसरों के बारे में भी सोच लो, वे भी यही काम कर रहे हैं।
सारा संसार बहुत अधिक चिंता में है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति कुछ ऐसा सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है जो वह नहीं है, और दूसरे भी वही कर रहे हैं। और कोई यह देखना नहीं चाहता कि तुम महान हो। वे जानते हैं कि तुम महान नहीं हो, क्योंकि वे तुम्हारी महानता में कैसे विश्वास कर सकते हैं? वे स्वयं ही महान हैं। तुम भी जानते हो कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई और महान नहीं है। भले ही तुम ऐसा न कहो, लेकिन गहरे में हर व्यक्ति यही विश्वास करता रहता है।
मैंने सुना है कि अरब देशों में एक मजाक प्रचलित है कि जब भी परमात्मा किसी नये मनुष्य की रचना करता है उसके साथ वह एक चाल खेलता है। वह उसके कान में फुसफुसाता है, मैंने अब तक जितने व्यक्ति बनाए हैं तुम उनमें सर्वश्रेष्ठ हों—महानतम। किंतु वह ऐसा प्रत्येक व्यक्ति के साथ करता रहा है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वयं की महानता को लेकर आश्वस्त है।
पृथ्वी पर चलने का प्रयास करो। यथार्थ वादी बनो। और यदि तुम सामान्य हो, तो तुम अचानक अनेक द्वारों को खुलता हुआ देखोगे, जो तुम्हारी तनावग्रस्त अवस्था के कारण बंद थे। विश्रांत हो जाओ। और निःसंदेह अभिमान बार बार अनेक रूपों 'मैं आ जाता है, अत: निरीक्षण करो। और सदा याद रखो कि यह सूक्ष्म ढंगों से आएगा, इसलिए अपने निरीक्षण को और शुद्ध, सही, सजग बनाओ।
ही, ध्यान से काम चल जाएगा। और किसी बात की आवश्यकता नहीं है। बस जरा सा ध्यान और करो, जिससे कि तुम चीजों को स्पष्टता से देख सको।

 प्रश्न :

ओशो, धीरे—धीरे मुझे अनुभव है कि आप मैं है। किंतु फिर यह व्‍यक्‍ति जो श्‍वेत वस्‍त्रों में प्रत्‍येक सुबह उस पर बैठता है कौन है?

 जी. ओ के, अब मुझे इस गुप्त संकेत जी. ओके का अर्थ समझाने दो। यही मेरा उत्तर है।
लंदन हास्पिटल केर 'चिकित्सकों ने एक नवागत डाक्टर को सारा अस्पताल दिखाया। उसने फाइलिंग की व्यवस्था को देखा और उनके द्वारा अपनाई गई संकेताक्षर व्यवस्था के अच्छे विचार से प्रभावित हुआ—डिप्थीरिया के लिए डी, मीजिल्स के लिए एम, टधूबर क्‍यूलोसिस के लिए टी बी, और इसी प्रकार से और सब। सभी बीमारियां पूरी तरह से नियंत्रण में थी सिवाय एक के जिसका संकेताक्षर था— जी. ओ के।
मैंने देखा है कि आपके यहां एक सत्यानाशी महामारी है, जी. ओ के। उसने कहा : लेकिन यह जी. ओ के है क्या बला?
ओह! उनमें से एक ने कहा : जब हम निदान नहीं कर पाते हैं हम लिख देते हैं : जी. ओके, गॉड ओनली नोज, केवल परमात्मा जानता है।
मैं नहीं जानता कि यहां इस कुर्सी पर बैठा हुआ और तुमसे बात करता हुआ यह व्यक्ति कौन है। केवल परमात्मा जानता है। जी. ओ के।
आज इतना ही। 

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