स्वधर्म-निष्ठा
के आत्यंतिक
प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक
27 सितंबर, 1970;
प्रात:
,मनाली (कुलू)
"भगवान
श्री, कृष्ण
का जन्म आज से
कितने वर्ष
पहले हुआ था? इस संबंध
में आज तक
क्या शोध हुई
है? आपका
अपना निर्णय
क्या है? और
क्या
समाधिस्थ
व्यक्ति इसका ठीक
उत्तर नहीं दे
सकता है?'
कृष्ण
कब जन्मे, कब मरे, इसका
कोई हिसाब
नहीं रखा गया
है। न रखने का
कारण है।
जिन्हें
हम सोचते हैं
कि जो कभी
जन्मते नहीं और
कभी मरते नहीं, उनका हिसाब
रखना हमने
उचित नहीं
माना। हिसाब उनका
रखना है, जो
कभी जन्मते
हैं और मरते
हैं। उनका
हिसाब रखने का
क्या अर्थ है,
जो कभी
जन्मते ही
नहीं और मरते
ही नहीं। ऐसा
नहीं है कि
हिसाब हम नहीं
रख सकते थे।
इसमें कोई
कठिनाई न थी।
लेकिन वैसा
हिसाब कृष्ण
के व्यक्तित्व
के बिलकुल ही
खिलाफ पड़ता
है। हमने कोई
तिथि-वार का
हिसाब कभी
नहीं रखा।
पूरब
के मुल्कों ने
अपने
महापुरुषों
के जन्म और
मृत्यु का कोई
हिसाब रखने की
कोशिश नहीं की, पश्चिम के
मुल्कों ने ही
कोशिश की है।
उसका कारण है।
और जब से
पश्चिम का
प्रभाव पूरब
पर पड़ा है, तब
से हमने भी फिकिर
की है। उसका
भी कारण है।
पश्चिम की एक
"धारणा' है,
सभी उन
धर्मों की जो
यहूदी-परंपरा
में पैदा
हुए--चाहे
ईसाइयत, चाहे
इस्लाम--उनकी
धारणा है एक
की जन्म की।
एक जन्म और
मृत्यु के बीच
में सब समाप्त
हो जाता है। न
उसके पीछे कुछ,
न उसके आगे
कुछ। फिर कोई
जन्म नहीं है।
स्वभावतः, जिनकी ऐसी
धारणा हो कि
एक जन्म-तिथि
और मृत्यु-तिथि
के बीच जीवन
पूरा हो जाता
है, न उसके
पीछे, न
उसके आगे जीवन
की कोई यात्रा
है, उन्हें
जन्म और
मृत्यु की
तिथि को अगर
रखने का बहुत
मोह रहा हो तो
आकस्मिक नहीं
है। लेकिन जिन्होंने
ऐसे जाना हो
कि जन्म बहुत
बार होता है, बहुत बार
आता है और
जाता है, अनंत
बार आना होता
है, अनंत बार
जाना होता है,
वह हिसाब भी
रखें तो कितना
हिसाब रखें? कैसे हिसाब
रखें? उनका
हिसाब रखना
उनके अपने ही
विचार को
झुठलाना
होगा। इसलिए
उन्होंने
हिसाब नहीं
रखा।
जानकर
ही यह हुआ है, सोचकर यह
हुआ है, समझ
कर यह हुआ है।
हिसाब नहीं रख
सकते थे, ऐसी
कोई कमी के
कारण नहीं हुआ
है। संवत-सन्
नहीं थे हमारे
पास, ऐसा
नहीं हैं।
दुनिया में
सबसे पुराना
संवत हमने ही
पैदा किया है।
लेकिन जानकर
हमने यह बात
छोड़ दी।
दूसरी
बात पूछी है
कि क्या
समाधिस्थ
व्यक्ति यह
नहीं बता सकता
कि ठीक तारीख
क्या है, जब
कृष्ण पैदा
हुए?
गैर-समाधिस्थ
बता भी दे, समाधिस्थ
बिलकुल नहीं
बता सकता।
क्योंकि समाधि
का समय से कोई
संबंध नहीं
है। समाधि
जहां शुरू
होती है वहां
समय समाप्त हो
जाता है। समाधि
"नॉनटेंपोरल'
है, समय
का उससे कोई
वास्ता नहीं
है। वह
कालातीत है।
समाधि का अर्थ
ही है, समय
के बाहर हो
जाना। जहां
घड़ी-पल मिट
जाते हैं, जहां
परिवर्तन खो
जाता है। जहां
वही रह जाता है
जो सदा से है।
जहां अतीत
नहीं होता, जहां भविष्य
नहीं होता, जहां सिर्फ
वर्तमान रह
जाता है। जहां
घड़ी के कांटे
एकदम ठहर जाते
हैं और नहीं
चलते। समाधि क्षण
में घटित नहीं
होती, क्षण
के बाहर घटित
होती है।
तो
समाधिस्थ तो
बिलकुल नहीं
बता सकेगा।
कृष्ण कब पैदा
हुए और मरे, यह तो बता
नहीं सकेगा, समाधिस्थ यह
भी बता नहीं
सकेगा कि मैं
कब पैदा हुआ
और कब समाप्त
हो जाऊंगा।
समाधिस्थ
इतना ही कह
सकेगा, कैसा
पैदा होना, कैसा मरना।
न मैं कभी
पैदा हुआ, न
मैं कभी
मरूंगा। अगर समाधिस्थ
से हम पूछें
कि यह जो समय
की धारा बह रही
है, यह जो
क्षण आते हैं
और जाते हैं, यह कुछ आता
है, व्यतीत
हो जाता है; कुछ आता है, आर रहा है; कुछ अतीत हो
गया है, कुछ
भविष्य है; इसके संबंध
में क्या खयाल
है? समाधिस्थ
कहेगा, न
कुछ आता है, न कुछ जाता
है। जो यहां
है, वहीं
है। सब वहीं
ठहरा है। जाने
और आने का खयाल,
समय की
धारणा, गैर-समाधिस्थ
मन की धारणा
है--"टाइम एज़
सच'। समय
मन की ही
उत्पत्ति है।
जैसे ही हम मन
के बाहर गए, वहां कोई
समय नहीं है।
इसे दोत्तीन
बातों में
समझने की
कोशिश करें--
समय मन
की उत्पत्ति
है जब हम कहते
हैं, तो बहुत
कारणों से
कहते हैं।
पहला कारण तो
यह है कि अगर
आप सुख में
हैं तो समय
सिकुड़ जाता है।
अगर आप दुख
में हैं तो
समय फैल जाता
है। अगर आप
किसी प्रियजन
से मिल रहे
हैं तो घड़ियां
जल्दी भागती
मालूम पड़ती
हैं, और
किसी शत्रु से
मिलते हैं तो
बड़ी मुश्किल से
गुजरती मालूम
पड़ती हैं। घड़ी
अपने ढंग से
कांटे घुमाए
चली जाती है, लेकिन मन!
अगर रात घर
में कोई मर
रहा है, मरणशैया पर पड़ा है, तो रात कटती
हुई मालूम
नहीं होती।
रात बहुत लंबी
हो जाती है।
ऐसा लगता है
कि अब यह रात
शुरू हुई तो
समाप्त होगी
कि नहीं होगी।
घड़ी अपने ढंग
से घूमती है।
लेकिन ऐसा
लगता है, आज
घड़ी घूम रही
है या नहीं
घूम रही है? कांटे धीमे
चल रहे हैं? लेकिन कोई
प्रियजन आ गया
है, रात
ऐसे बीत जाती
है जैसे क्षण
में बीत गई।
और डर लगता है
कि अब बीती, अब बीती, जल्दी
बीत रही है, घड़ी जल्दी
क्यों चल रही
है? घड़ी जल्दी
नहीं चलती है,
घड़ी अपने
ढंग से चलती
रहती है, लेकिन
मन की
स्थितियों पर
समय का माप
निर्भर करता
है।
आइंस्टीन
से लोग पूछा
करते थे कि
तुम्हारी यह "रिलेटिविटी' की, तुम्हारी
यह जो
सापेक्षता की
धारणा है, यह
हमें समझाओ।
तो आइंस्टीन
कहता था, यह
बड़ा कठिन है।
और शायद जमीन
पर दस-बारह
आदमी हैं
जिनसे मैं बात
कर सकता हूं
इस संबंध में,
सभी से बात
नहीं कर सकता।
लेकिन फिर भी
तुम्हारे समझ
में आ सके, ऐसा
मैं तुम्हें
उदाहरण देता
हूं...आइंस्टीन
इसे समझाने को
एक छोटा-सा
उदाहरण दिया
करता करता था।
वह कहता था, अगर किसी
आदमी को गर्म
स्टोव के पास
बिठा दिया जाए,
तो समय और
तरह से बीतता
है। उसे अपनी
प्रेयसी के
पास बिठा दिया
जाए तो समय और
तरह से बीतता
है। हमारा सुख,
हमारा दुख
हमारे समय की
लंबाई को तय
करता है।
समाधि
सुख और दुख के
बाहर है।
समाधि आनंद की
अवस्था है।
वहां कोई
लंबाई ही नहीं
रह जाती। वहां
समय बचता ही
नहीं। समाधि
के क्षण में
तो कोई नहीं
कह सकता है कि
कृष्ण कब पैदा
हुए, कब विदा
हुए, समाधि
के क्षण में
तो कोई कहेगा
कि कृष्ण हैं ही।
उनका होना
शाश्वत है। और
कृष्ण का होना
ही शाश्वत
नहीं है, होना
तो हमारा भी
शाश्वत है। सब
होना शाश्वत है।
रात आप
स्वप्न देखते
हैं, शायद कभी
खयाल न किया
हो कि स्वप्न
में समय की स्थिति
बिलकुल बदल
जाती है जागने
से। एक आदमी ने
झपकी ली है
क्षण-भर की और
वह सपना देखता
है इतना बड़ा
जिसे देखने
में वर्ष-भर
लग जाए। वह देखता
है उसका विवाह
हो गया, उसके
बच्चे हो गए, वह बच्चों
की शादियां
कर रहा
है--वर्षों लग
जाएं। क्षण-भर
झपकी लगी है
और आंख खुली
है, वह
हमें कहता है,
इतना लंबा
सपना देखा। हम
उससे कहेंगे,
पागल हो गए
हो? इतना
लंबा सपना
क्षण-भर में
कैसे देखोगे?
अभी तो तुम
जागते थे, अभी
तुम जरा-सी
झपकी लिए, आंख
लगी ही थी और
खुल गई, इस
पलक झपने
में तुम इतना
लंबा सपना देख
कैसे सकोगे? वह कहेगा, देख कैसे
सकूंगा नहीं,
मैंने
देखा।
स्वप्न
में मन बदल
जाता है इसलिए
समय की धारणा
बदल जाती है।
गहरी नींद में, सुषुप्ति
में समय नहीं
रह जाता।
इसलिए आप जब बताते
हैं कि रात
बहुत गहरी
नींद आई, तब
भी आप जो समय
का पता लगाते
हैं वह समय का
पता गहरी नींद
से नहीं लगता,
वह कब आप
सोए, और कब
आप जागे, इन
दो छोरों के
बीच में जो
गुजर गया उसका
हिसाब आप रख
लेते हैं।
लेकिन अगर
आपसे कोई पूछे
कि आपको बताया
न जाए कि कब आप
सोए कब आप
जागे, तो
आप कितनी देर
सोए? आप
बता न सकेंगे।
मैं एक स्त्री
को देखने गया,
वह नौ
महीनों से
बेहोश है, और
चिकित्सक
कहते हैं वह
तीन साल तक
बेहोश रहेगी,
और शायद
बेहोशी में ही
मरेगी।
संभावना कम है
कि उसका होश
वापस आए। अगर
तीन साल बाद
वह स्त्री होश
में आई, तो
क्या बता
सकेगी कि वह
तीन साल तक
बेहोश थी? इधर
घड़ी हजारों
बार घूम गई
होगी, इधर कैलेंडर
हजारों बार कट
गया होगा, लेकिन
वह स्त्री कुछ
न बता सकेगी
कि वह तीन साल
बेहोश थी।
सुषुप्ति
में चित्त सो
जाता है, इसलिए
वहां भी समय
का कोई बोध
नहीं रह जाता।
समाधि में
चित्त खो जाता
है, समाप्त
हो जाता है, रहता ही नहीं।
समाधि अ-चित्त,
"नो माइंड' की अवस्था
है।
समाधि
से कोई पता
नहीं चलेगा कि
कृष्ण कब हुए और
कब नहीं हुए।
एक झेन
फकीर हुआ है, रिंझाई।
उसने एक दिन
सुबह अपने
वक्तव्य में कहा
कि पागलो,
कौन कहता है
कि बुद्ध हुए?
तो उसके
सुननेवालों
ने कहा, आपका
दिमाग तो ठीक
है न? आप और
कहते हैं, कौन
कहता है बुद्ध
हुए? बुद्ध
के ही मंदिर
में रहता है
वह फकीर।
बुद्ध की ही
मूर्ति पर चढ़ाता
है फूल! बुद्ध
की मूर्ति के
सामने नाच
लेता है।
बुद्ध का
प्रेमी है। और
एक दिन सुबह
कहता है, कौन
कहता है कि
बुद्ध हुए? तो लोगों ने
कहा, आप
पागल तो नहीं हो
गए? और उस
रिंझाई ने कहा,
पागल मैं
था। क्योंकि
हो तो वही
सकता है जो एक दिन
न भी हो जाए।
लेकिन जो सदा
है, उसके
होने का क्या
अर्थ! आज मैं
तुमसे कहता हूं,
बुद्ध कभी
नहीं हुए, ये
सब झूठी
कहानियां
हैं। लोगों ने
कहा, शास्त्र
कहते हैं कि
हुए, चले
इस पृथ्वी पर,
उठे-बैठे, बोले, गवाहियां हैं इस बात
की, चश्म?दीद गवाह
हैं। और उस
फकीर ने कहा, छाया चली
होगी, छाया
उठी होगी, छाया
रही होगी।
बुद्ध कभी
उठते, कभी
बैठते, कभी
चलते! "दि शैडो'।
जो
पैदा होता है, जो मरता है, वह हमारी
छाया से
ज्यादा नहीं
है, वह हम
नहीं हैं।
इसलिए जानकर
हिसाब नहीं
रखा गया, सोचकर
हिसाब नहीं
रखा गया। धर्म
इतिहास नहीं है।
इतिहास होता
है उसका जो
आता है, जाता
है--इति
वृत्त--शुरू
होता है, समाप्त
होता है; आदि
होता है, अंत
होता है। धर्म
इतिहास नहीं
है। धर्म सनातन
है। सनातन का
अर्थ होता है,
जो सदा है।
उसमें कोई
तिथियों का
हिसाब नहीं
रखा गया।
इसलिए कोई
समाधिस्थ
व्यक्ति न कह
सकेगा कब पैदा
हुए, कब न
हुए। कहने की
कोई जरूरत भी
नहीं है। कहने
का कोई अर्थ
भी नहीं है।
कहना सिर्फ
नासमझी से
निकलता है। हम
ही कब हुए हैं
और कब नहीं हो
जाएंगे! सदा
से हैं, "इटर्निटी',
शाश्वतता
है।
लेकिन
हमें तो समय
का हिसाब है
पूरे वक्त।
सुबह होती है, सांझ होती
है; घड़ियां
बीतती हैं, गुजरती हैं;
हमें समय का
खयाल है। हम
समय से ही सब
नापते चलते
हैं। हमारे
पास एक गज है
समय का, हम
उससे ही नापते
हैं। हमारा
नापना
स्वाभाविक है,
सत्य नहीं।
हमारी समझ जैसी
है वैसा हमारा
नाप है। हमारा
नाप वैसा ही है
जैसे कुएं के
मेढक ने सागर
से आए मेढक से
कहा था कि
तेरा सागर
कितना बड़ा है?
कुएं में
छलांग
लगाई--आधे
कुएं में--और
कहा, इतना
बड़ा? सागर
से आए मेढक ने
कहा, माफ
कर, तेरे
कुएं से कोई
हिसाब न
बैठेगा! तो
उसने कहा, और
क्या बड़ा
होगा! उसने
पूरी छलांग
लगाई, कुएं
के एक कोने से
दूसरे कोने तक
पूरी छलांग लगाई,
कहा, इतना
बड़ा? लेकिन
जब सागर के
मेढक की आंखों
में फिर भी संदेह
देखा तो उस
कुएं के मेढक
ने कहा, तेरा
दिमाग खराब
मालूम होता है,
कुएं से बड़ी
कोई जगह है! एक
और रास्ता है,
उसने कहा, आखिरी माप
तुझे बताए
देता हूं।
उसने कुएं का
पूरा गोल
चक्कर लगाया
और उसने कहा, इतना बड़ा? सागर के
मेढक ने कहा
कि भाई, तेरे
कुएं से हम
सागर को नापेंगे
तो बहुत
मुश्किल में
पड़ जाएंगे। यह
कोई इकाई ही
नहीं बनती।
कुएं के मेढक
ने कहा, बाहर
हो जाओ कुएं
के! कुएं से
बड़ी कोई चीज
कभी देखी है? आकाश भी
कुएं बराबर ही
देखा है। जब
भी उस कुएं के
मेढक ने ऊपर
देखा तो आकाश
भी कुएं के
बराबर ही
दिखाई पड़ा था।
उसने कहा, आकाश,
जो सबसे बड़ी
चीज है, वह
भी कुएं से
बड़ी नहीं है।
सागर क्या
तुम्हारा
आकाश से भी
बड़ा हो जाएगा।
हम समय
के कुएं में
जीते हैं। सब
चीजें आती हैं, जाती हैं।
सब चीजें बंटी
हैं। कुछ है
जो अतीत हो
गया, कुछ
है जो भविष्य
है, और बड़ा
छोटा-सा क्षण
वर्तमान का
है--जो आता भी नहीं
कि चला जाता
है। हम पूछते
हैं कि किस
क्षण में कौन
हुआ? हम
किसी भी क्षण
में अपने को
अनुभव करते
हैं, किसी
कुएं में कैद,
इसलिए हम
पूछते हैं कि
वे किस कुएं
में थे? किस
क्षण की सीमा
में थे?
नहीं, न जीसस, न
बुद्ध, न
महावीर, न
कृष्ण, कोई
समय की सीमा
में नहीं
बांधे जा
सकते। हम बांधते
हैं, वह
हमारी सीमाओं
का आग्रह है।
जिस दिन
पश्चिम की समझ
और थोड़ी बढ़ेगी,
उस दिन वह
क्राइस्ट के
जन्म-दिन और
मृत्यु-दिन को
भूल जाएगा, छोड़ देगा।
पूरब की समझ
इस मामले में
बहुत गहरी रही
है। इसके कारण
कई अजीब
घटनाएं घट गई
हैं। इसलिए
हमारे जो
सोचने के ढंग
हैं और कहने
के ढंग हैं, वह दुनिया
नहीं समझ
पाती।
अगर हम
तीर्थंकरों
की उम्र की
बात पूछने
जाएं तो कोई
लाखों वर्षों
जीता है, कोई
करोड़ों वर्ष
जीता है। अब
यह कोई कैसे
मानेगा! यह
नहीं हो सकता
है! यह कोई
मानेगा नहीं।
मानने की बात
भी नहीं है।
समझने की बात
है। अगर कुएं
के बराबर होगा;
और क्या
कहेगा! लाख
कुएं के बराबर
होगा, करोड़ कुएं के
बराबर होगा। कोई
संख्या तो
होनी ही चाहिए,
कुएं से ही
नापा जाना
चाहिए सागर।
तो जो अनादि
हैं, जो
सनातन हैं, उनको हम
कहेंगे, करोड़
वर्ष है उनकी
उम्र। लेकिन
वर्ष तो मौजूद
रहेगा ही, उससे
ही हम नापेंगे।
जिनका ओर-छोर
नहीं, तो
हम कहेंगे, जमीन पर
उनके पैर होते
हैं, सिर
आकाश को छूता
है, लेकिन
फिर भी गज और
फीट से नाप
चलेगा। जो
जानते थे, उन्होंने
ये सब नाप, सब
मापदंड तोड़
दिए।
उन्होंने कहा,
हम यह हिसाब
ही छोड़ दें।
हम यह हिसाब
रखते ही नहीं।
बिना हिसाब के
कृष्ण हैं।
समाधिस्थ इस संबंध
में इतना ही
कहेगा, वे
सदा हैं।
"भगवान श्री,
क्राइस्ट
का हिसाब रखा
जा सका, वह
१९७० साल पहले
हुए, तो
क्या कृष्ण का
हिसाब नहीं
रखा जा सकता?'
रखा
जा सकता था।
आसपास जो लोग
थे उन पर
निर्भर करती
है यह बात।
जीसस के आसपास
जो लोग थे, उन पर
निर्भर हुआ।
जीसस ने नहीं
रखा है हिसाब।
क्योंकि जीसस
के अगर वचन
देखो तो
समझोगे। जीसस
का एक वचन
है--अब्राहम
एक पैगंबर हुआ,
जीसस के सैकड़ों
वर्ष
पहले--जीसस से
किसी ने पूछा
कि अब्राहम तो
आपके पहले हुए,
तो जीसस ने
कहा, "नो, बिफोर अब्राहम वाज़,
आइ वाज़'। इसके पहले
कि अब्राहम था,
मैं था।
इसका क्या
मतलब हुआ? जीसस
ने तो "टाइम' तोड़ दिया, जीसस ने तो
समय तोड़ दिया।
अब्राहम तो सैकड़ों-हजारों
साल पहले हुआ।
लेकिन जीसस
कहता है, अब्राहम
होने के पहले
मैं था। लेकिन
जो लोग थे, उनके
पास समय की एक
धारणा थी; उन्होंने
कोई सागर नहीं
देखा था, उन्होंने
कुएं देखे थे।
उनको यह बात
बड़ी "मिस्टीरियस'
लगी और
उन्होंने कहा,
ठीक है, कहते
हैं, कुछ
रहस्य की बात
होगी, लेकिन
वे समझे नहीं
कि वह समय की
धारणा तोड़ने की
बात है।
जीसस
को कोई पूछता
है कि
तुम्हारे
प्रभु के राज्य
में खास बात
क्या होगी? तो जीसस
कहते हैं, "देअर शैल बी टाइम
नो लांगर'।
एक खास बात
होगी कि वहां
समय नहीं
होगा। लेकिन
जो लोग आसपास
थे। रेकॉर्ड
जीसस थोड़े ही इकट्ठा
करते हैं; रेकॉर्ड
कृष्ण थोड़े ही
रखते हैं, रेकॉर्ड
आसपास के लोग
रखते हैं।
कृष्ण के आसपास
जो लोग थे
वैसे लोग जीसस
को नहीं मिले।
इस मामले में,
इस जमीन पर
जो लोग पैदा
हुए उनका
सौभाग्य बहुत
और है। कृष्ण
के आसपास जो
लोग थे वैसे
लोग जीसस को
नहीं मिले।
जीसस के आसपास
क, ख, ग, की कक्षा के
लोग थे। इसलिए
तो उन्होंने
उनको सूली पर
लटका दिया, क्योंकि वह
आदमी इतना
बेबूझ हो गया
कि सिवाय मारने
के कोई उपाय न
रहा। हम कृष्ण
को, महावीर
को या बुद्ध
को सूली नहीं
दिए, इसका
कारण यह नहीं
है कि जीसस से
कुछ कम खतरनाक
लोग थे ये, इसका
कुल कारण इतना
ही है कि हम, एक लंबी
यात्रा है इस
देश की जिसमें
हमने बहुत
खतरनाक लोगों
को सहा है।
जिनमें हमने
बहुत खतरनाक
लोग देखे, जिनमें
हमने बहुत
अलौकिक, अदभुत
आदमी देखे। हम
धीरे-धीरे
राजी हो गए और हमारे
पास कुछ समझ
पैदा हो गई, जिसका हम
उपयोग कर सके।
इसका उपयोग
जीसस के वक्त
में नहीं हो
सका। इसका
उपयोग
मुहम्मद के वक्त
में नहीं हो
सका। मुहम्मद
के पास वे लोग
न थे जो
महावीर के पास
थे। जीसस के
पास वे लोग न
थे जो कृष्ण
के पास थे।
इसलिए फर्क
पड़ा। इसलिए ही
फर्क पड़ा, और
कोई कारण नहीं
है।
यह समझ
लेना चाहिए
ठीक से कि न तो
कृष्ण ने कुछ लिखा
है, न
क्राइस्ट ने
लिखा है, जिन्होंने
सुना है
उन्होंने
लिखा है।
क्राइस्ट
एक गांव में
ठहरे हुए हैं।
भीड़ लगी है
लोगों की
उन्हें देखने, और तभी भीड़
में आवाज आती
है कि रास्ता
दो। जीसस की
मां मिलने आ
रही है। तो
क्राइस्ट
हंसते हैं, और वह कहते
हैं कि मेरी
कैसी मां!
क्योंकि मैं पैदा
कब हुआ! लेकिन
रेकॉर्ड रखने
वालों ने तारीख
तय रखी।
उन्होंने लिख
लिया कि वह कब
पैदा हुए। अब
यह आदमी कहता
है, कैसी
मेरी मां, कौन
मेरी मां? मैं
कब पैदा हुआ? मैं सदा से हूं।
रेकॉर्ड
लिखने वालों
ने यह भी लिख
दिया कि
उन्होंने ऐसा
कहा और यह भी
लिख दिया कि
वह कब पैदा
हुए।
कृष्ण
को जो रेकॉर्ड
लिखने वाले
लोग मिले, वह ज्यादा
समझदार थे।
उन्होंने कहा,
जो आदमी
कहता है मैं
सदा से हूं; जो अर्जुन
से कहता है कि
यह मैं तुम को
ही नहीं समझा
रहा, इसके
पहले मैंने फलाने को
समझाया था, इसके और
पहले मैंने फलाने को
समझाया था; और ऐसा नहीं
है कि तुम को
समझा कर ही सब
चुक जाएगा, मैं आता
रहूंगा और
समझाता
रहूंगा; और
यह जो सामने
लोग खड़े हैं, तुम सोचते
हो मर जाएंगे
तो तुम पागल
हो, नासमझ
हो, यह
पहले भी हुए
और मर गए हैं, और उसके
पहले भी हुए
थे, अभी
मरेंगे और फिर
होते रहेंगे;
इस आदमी की
जन्म-तिथि
लिखना ठीक न
थी, अन्यायपूर्ण
था। नहीं लिखी
गई।
इतिहास
खोज करेगा तो
मुश्किल में
पड़ेगा। क्योंकि
हमने जानकर
रेकॉर्ड गंवाए।
हमने सब उपाय
किए हैं कि
रेकॉर्ड बचाए
न जा सकें।
हमने सब उपाय
किए हैं कि
तिथि का कोई
पता ही न रहे।
उपनिषद किसने
लिखे, वेद
किसने लिखे, लेखक का नाम
जानकर गंवाया
गया है।
क्योंकि वह जो
कह रहा था, वह
कह रहा यह मैं
नहीं कह रहा
हूं, यह
परमात्मा बोल
रहा है, कोई
जरूरत नहीं है,
मुझे छोड़ा
जा सकता है।
मेरे बिना काम
चल सकता है।
पश्चिम में
रेकॉर्ड रखे
हैं। जीसस
जगह-जगह कहते
हैं, यह
मैं नहीं बोल
रहा हूं, वह
परम पिता जो
आकाश में है
वही बोल रहा
है। "नाट आई, बट माई फादर
स्पीक्स'।
लेकिन लिखने
वाला तो
लिखेगा कि
जीसस के वचन हैं।
इस वजह
से यह कोई कमी
नहीं है इस
देश की कि इस
देश के पास
कोई "हिस्टॉरिक
सेन्स' नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि इतिहास का
कोई बोध नहीं
है हमारे पास।
लेकिन इतिहास
के बोध को
हमने जानकर झुठलाया
है, क्योंकि
हमारे पास
इतिहास के
कुएं से भी
बड़ा एक बोध है,
"इटर्निटी'
का, शाश्वतता
का बोध है।
हमें घटनाओं
का उतना मूल्य
नहीं है जितना
घटनाओं के
भीतर छिपी हुई
आत्मा का
मूल्य है।
हमने इस बात
की फिकिन
नहीं कह कि
कृष्ण ने क्या
खाया और क्या पिआ, हमने
इस बात की फिकिर
की कि वह कौन
था कृष्ण के
भीतर जो खाने
को भी देखता
था, पीने
को भी देखता
था। हमने इसकी
फिकिर
नहीं की कि वह
कब पैदा हुए
और कब मरे, हमने
इसकी फिकिर
की कि वह कौन
था जो पैदा
होने में आया
और मौत में
विदा हुआ। वह
कौन था जो
भीतर था। हमने
उस "इनरमोस्ट
स्पिरिट' की,
उस भीतरी
अंतरात्मा की
चिंता की।
उसके लिए कोई
तारीखें
अर्थपूर्ण
नहीं हैं।
"भगवान
श्री, यह
तो ठीक है कि
कृष्ण या क्राइस्ट
जैसे लोगों को
आत्मिक
व्यक्तित्व "इटरनल' है,
लेकिन
वर्णित-शरीर
तो आता है और
जाता है, हम
कृष्ण के
वर्णित-शरीर
की काल-गणना
जानना चाहते
हैं। कृष्ण-लीलाएं कब
हुईं, महाभारत
कब हुआ? ये
स्थूल घटनाएं
तो जानी जा
सकती हैं।
इसकी कुछ
जानकारी हो।'
शरीर
का जिनके लिए
मूल्य है, उनके लिए
स्थूल घटनाओं
का भी मूल्य
है। शरीर को
जो छाया समझते
हैं, उनके
लिए कोई मूल्य
नहीं रह जाता।
कृष्ण कहते ही
नहीं कि यह जो
शरीर दिखाई पड़
रहा है, यह
मैं हूं। जीसस
भी नहीं कहते
कि यह शरीर जो
दिखाई पड़ रहा
है यह मैं
हूं। वे खुद
ही इनकार कर
जाते हैं कि
इस पर खयाल मत
करना, क्योंकि
यह मैं नहीं
हूं, अगर
इसका तूने
हिसाब रखा तो
वह मेरा हिसाब
नहीं होगा।
बुद्ध के मरने
के बाद पांच
सौ वर्षों तक
बुद्ध की कोई
प्रतिमा नहीं
बनाई गई, क्योंकि
बुद्ध ने कहा
था कि तुम
मेरी प्रतिमा बनाना,
इस शरीर की
मत बनाना। मगर
अब कैसे हम
बुद्ध की
प्रतिमा बनाएं।
तो पांच सौ
वर्ष तक बुद्ध
के मरने के
बाद, बुद्ध
जिस वृक्ष के
नीचे बैठते थे,
बोधिवृक्ष--जहां
वह घटना घटी
जिससे वे
बुद्ध हुए--उस
वृक्ष का ही
चित्र बनाकर
जगह नीचे खाली
छोड़ देते थे।
स्थूल-देह
छाया से
ज्यादा नहीं
है। उसके
हिसाब रखने का
कोई प्रयोजन
भी नहीं है।
जिन्होंने भी
उसका हिसाब
रखा है, उन्होंने
इसीलिए हिसाब
रखा है कि
उन्हें सूक्ष्म
का कोई पता
नहीं है, जिन्हें
भी सूक्ष्म का
पता है, उनके
लिए स्थूल
व्यर्थ हो
जाता है। आप
अपने सपनों का
कोई हिसाब
रखते हैं? कौन-से
सपने आपने देखे
और कब देखे? सपने देखते
हैं और भूल
जाते हैं।
क्यों हिसाब नहीं
रखते? क्योंकि
उन्हें सपना
समझ लेते हैं।
कृष्ण की जो
जिंदगी हमें
दिखाई पड़ती है,
वह सपने से
ज्यादा नहीं
है। जीसस ने
कौन-से सपने
देखे, हमने
हिसाब रखा है?
वह हिसाब
हमने नहीं
रखा। हो सकता
है कभी वह
जमाना आए कि
आदमी पूछने
लगे कि
तुम्हारे कृष्ण
हुए तो
उन्होंने कोई
सपने देखे थे
या नहीं देखे
थे? हुए
होंगे तो सपने
तो जरूर देखे
होंगे। और अगर
सपने देखे ही
नहीं तो होने
में भी शक हो
जाता है। यह
बात हो सकती
है कभी, अगर
सपने बहुत
महत्वपूर्ण
बन जाएं और
कोई कौम सपनों
का बहुत हिसाब
रखने लगे, तो
ठीक है, उनका
हिसाब भी
महत्वपूर्ण
हो जाएगा। और
जिस आदमी के
सपनों का हमें
कोई पता न
होगा, उस
आदमी के होने
का भी संदेह
हो जाएगा। जिस
जिंदगी को हम
स्थूल कहते
हैं, कृष्ण
या क्राइस्ट
या महावीर या
बुद्ध उस जिंदगी
को सपना समझते
हैं। और अगर
उनके आसपास के
लोगों को भी
यह समझ में आ
गया हो कि वह
सपना है तो
हिसाब नहीं
रखा जाएगा।
हिसाब नहीं
रखा गया।
हिसाब न रखा
जाना बहुत
सूचक है।
हिसाब रखा गया
होता तो समझा
जाता कि लोगों
ने कृष्ण को
नहीं समझा और
इसलिए हिसाब
रख लिया।
मैं कह
रहा था कि
पांच सौ वर्ष
तक बुद्ध की
प्रतिमा नहीं
बनी। कोई चित्र
नहीं बना। अगर
काई चित्र भी
बनाता था तो वह
बोधिवृक्ष का
चित्र बनाता
था और नीचे
जगह खाली छोड़
देता था, जहां
बुद्ध होने
चाहिए। खाली
जगह! बुद्ध एक
खाली जगह ही
थे। पांच सौ
साल बाद चित्र
और मूर्तियां
बनाई गईं
क्योंकि पांच
सौ साल में वे
लोग खो गए
जिन्होंने
समझा था कि
बुद्ध की
स्थूल जिंदगी
तो सिर्फ सपना
है। और पांच
सौ साल में
लोग प्रमुख हो
गए जिन्होंने
कहा, हिसाब
तो रखना
पड़ेगा--बुद्ध
पैदा कब हुए, बुद्ध मरे
कब, बुद्ध
ने कहा क्या? उनकी शक्ल
कैसी थी? उनका
शरीर कैसा था।
वह सब हिसाब
बहुत बाद में
रखा गया।
ज्ञानियों ने
हिसाब नहीं
रखा, जब
ज्ञानी खो गए
तो
अज्ञानियों
ने हिसाब रखा।
स्थूल शरीर का
हिसाब अज्ञान
से ही जन्मता
है।
और फिर
इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि कृष्ण न भी
हुए हों। कोई
फर्क नहीं
पड़ता। कृष्ण
के होने से
आपको क्या
फर्क पड़ सकता
है? कोई फर्क
नहीं पड़ता।
नहीं, लेकिन
हम कहेंगे कि
नहीं, अगर
कृष्ण न हुए
हों तो हमें
फर्क पड़
जाएगा। क्या
फर्क पड़ जाएगा?
कृष्ण हुए
या न हुए, इससे
कोई फर्क न
पड़ेगा। कृष्ण
के होने की जो
संभावना है
आंतरिक, वह
हो सकती है या
नहीं हो सकती
है, यह
सवाल है। यह सवाल
नहीं है कि
कृष्ण हुए या
नहीं, सवाल
यह है कि ऐसा
व्यक्ति हो
सकता है या
नहीं हो सकता।
हो जाने से
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। हो
सकता है, या
नहीं हो सकता।
अगर हो सकता
है, तो हुए
तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता, और
अगर नहीं हो
सकता है, तो
भी हुए हों तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
समाधिस्थ-चित्त
को तो इससे
कोई प्रयोजन
नहीं है। अगर
मुझसे कोई आकर
कहे कि वह हुए
ही नहीं
क्योंकि कोई
रेकॉर्ड नहीं
है, तो मैं
कहूंगा कि
मानो कि नहीं
हुए। हर्ज
क्या है। सवाल
यह है ही
नहीं।
महत्वपूर्ण
सवाल यह है कि
ऐसा आदमी संभव
है? ऐसे
आदमी की "पासिबिलिटी'
है? अगर
आपके मन को यह
समझ में आ जाए
कि ऐसा आदमी
संभव है, तो
आदमी जिंदगी
बदल सकती है।
यह भी पक्का
हो जाए, पत्थर
मिल जाएं लिखे
हुए कि वह हुए
हैं, सारी
कहानी मिल जाए
और आपका मन इस
बात को मानने
को राजी न हो
कि ऐसा
व्यक्ति हो
सकता है, तो
आप कहेंगे कि
नहीं, लिखा
है पत्थरों पर,
लिखा है
किताबों में,
लेकिन
कहानी होगी, यह आदमी हो
नहीं सकता, क्योंकि
इसकी संभावना
नहीं है।
कृष्ण
के होने की
संभावना है।
इसलिए हुए, इसलिए हो
सकते हैं, इसलिए
हैं भी। लेकिन
आंतरिक
व्यक्तित्व
को ध्यान में
लेने की जरूरत
है।
हमें
तो शरीर दिखाई
पड़ता है, वह
जो आंतरिक है
वह दिखाई नहीं
पड़ता। तो हम
बहुत उत्सुक
होते हैं उस
शरीर में।
बुद्ध मर रहे
हैं और कोई
उनसे पूछता है
कि आप मरने के
बाद कहां
होंगे? तो
बुद्ध उससे
कहते हैं, कहीं
भी नहीं, क्योंकि
पहले भी मैं
कहीं नहीं था।
और जो तुम्हें
दिखाई पड़ रहा
है वह मैं
नहीं हूं, और
जो मुझे दिखाई
पड़ रहा है वह
मैं हूं।
इसलिए बाहर की
जिंदगी सिर्फ
देखी गई एक
कहानी और एक नाटक
हो जाती है।
उसका कोई
मूल्य नहीं
है।
उसका
मूल्य नहीं है, इस बात को
जोर से कहने
के लिए हमने
कोई हिसाब नहीं
रखा है। और हम
की आगे भी
उसका कोई
हिसाब देने
वाले नहीं
हैं।
लेकिन
इस मुल्क का
मन कमजोर पड़ा
है और वह भयभीत
भी हुआ है।
उसे डर पैदा
हो गया है कि
क्राइस्ट तो "हिस्टॉरिक' मालूम पड़ते
हैं, ऐतिहासिक
मालूम पड़ते
हैं, हमारे
कृष्ण की
कहानी मालूम
पड़ते हैं। यह
कृष्ण और
क्राइस्ट के
मुकाबले
हमारे पास कोई
प्रमाण नहीं
है। क्राइस्ट
के लिए तो
प्रमाण है।
मुल्क का मन
कमजोर हुआ है।
हमारा चित्त
भी उन्हीं धारणाओं
से प्रभावित
हुआ है, जिन
धारणाओं ने
क्राइस्ट की
जिंदगी को
बचाकर रखने की
कोशिश की है।
तो हम भी
पूछते हैं, उन्हीं
बातों को, जो
बेमानी हैं।
अच्छा तो होगा
जिस दिन हमारी
हिम्मत फिर बढ़
सके तो हम
उनसे कह
सकेंगे, तुम
भी पागल हो, क्राइस्ट
जैसा आदमी हुआ
और तुम मरने
और जीने की तारीखों
का हिसाब रखते
रहे। तुमने
समय गंवाया।
इतने कीमती
आदमी की बाबत
इतनी
गैर-कीमती
जानकारी रखने
की कोई जरूरत
नहीं है।
इसलिए
मैं कहता हूं, उसकी चिंता
ही न करें।
उसकी चिंता
आपके मन की
खबर देती है कि
आपके लिए
महत्वपूर्ण
क्या है। जन्म
और मरण? शरीर
का होना? घटनाएं?
यह बाहर की
परिधि है जीवन
की। या वह
महत्वपूर्ण
है जो इन सबके
बीच खड़ा है, इन सबके
भीतर खड़ा
है--अलिप्त, असंग? वह
सब जो इनके
भीतर साक्षी
की भांति खड़ा
है, वह
महत्वपूर्ण
है? अगर आप
भी मरने के
क्षण में लौट
कर देखेंगे तो
आपको पूरी
जिंदगी जो बीत
गई, सपने
में और आपकी
जिंदगी में
फर्क क्या रह
जाएगा? आज
भी आप लौटकर
देखें अपनी
पिछली जिंदगी
को तो वह आप
जिए थे सच में,
या सपना
देखा था, इन
दोनों में
फर्क कैसे कर
पाएंगे? आप
कैसे तय कर
पाएंगे कि सच
में ही मैं यह जीआ था जो
मुझे याद आता
है, या
मैंने सपना
देखा था?
च्वांग्त्से
ने एक बहुत
गहरी मजाक की
है। च्वांग्त्से
एक दिन सुबह
उठा और उसने
कहा कि मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया
हूं, सब
इकट्ठे हो जाओ,
मेरी
मुश्किल को हल
करो। उसके
आश्रम के सारे
लोग इकट्ठे हो
गए। बड़े हैरान
हुए, क्योंकि
उन सबकी
मुश्किलें च्वांग्त्से
हमेशा हल करता
था, वह भी
मुश्किल में
पड़ सकता है यह
उन्होंने सोचा
भी नहीं था।
उन्होंने
पूछा, तुम
और मुश्किल
में! हम तो
सोचते थे, तुम
मुश्किल के
पार चले गए। च्वांग्त्से
ने कहा, मुश्किल
ऐसी ही है, जिसको
पार की
मुश्किल कह
सकते हो। तो
उन्होंने कहा,
क्या है
सवाल
तुम्हारा? च्वांग्त्से ने कहा, रात
मैंने एक सपना
देखा कि मैं
तितली हो गया
हूं और फूलों
पर उड़ रहा
हूं। तो
उन्होंने कहा,
इसमें क्या
मुश्किल है? हम सभी सपने
देखते हैं। च्वांग्त्से
ने कहा, मामला
खतम नहीं
होता। सुबह
मैं उठा और
मैंने देखा कि
मैं फिर च्वांग्त्से
हो गया हूं।
अब सवाल यह है
कि कहीं ऐसा
तो नहीं है कि
तितली सो गई
हो और सपना
देख रही हो कि च्वांग्त्से
हो गई है। अगर
आदमी सोकर
सपना देख सकता
है, अगर
आदमी सपने में
तितली हो सकता
है, तो
तितली सपने
में आदमी हो
सकती है। तो
मैं तुमसे यह
पूछता हूं कि
असली क्या है?
रात मैंने
जो सपना देखा
तितली होने का,
वह च्वांग्त्से
सपना देख रहा
था? या, अब
तितली सपना
देख रही है? अब मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
उस
आश्रम के
लोगों ने कहा, यह हमसे हल न
हो सकेगा।
आपने तो हमें
भी मुश्किल
में डाल दिया।
अभी तक तो हम
निश्चिंत हैं
कि रात जो देखते
हैं वह सपना
है, और दिन
में जो देखते
हैं वह असलियत
है। लेकिन च्वांग्त्से
ने कहा, पागलो,
जब रात तुम
जो देखते हो
तो दिन में जो
देखा था वह
भूल जाता है; उसी तरह, जैसे
दिन में जब
तुम जागते हो
तो वह भूल
जाता है जो सपना
था। बल्कि एक
और मजे की बात
है, दिन
में जागकर
रात का सपना
तो थोड़ा याद
भी रह जाता है,
लेकिन रात
में सपने में
सोते वक्त दिन
का जागा हुआ
बिलकुल याद
नहीं रह जाता
है। अगर
याददाश्त
निर्णायक है,
तो रात का
सपना ज्यादा
असलियत होगा
दिन के सपने
से। और अगर एक
आदमी सोया रहे,
सोया रहे और
न जागे, तो
कैसे सिद्ध कर
पाएगा कि जो
वह देख रहा है
वह सपना है।
सपने में तो
सपना सत्य ही
मालूम होता
है। सपने में
तो सपना सपना
नहीं मालूम
होता।
असल
में जिसे हम
जिंदगी कहते
हैं, जिसे हम स्थूल
कहते हैं, वह
कृष्ण जैसे
व्यक्तित्व
के लिए सपने
से ज्यादा
नहीं है। जो
उनके पास थे
उनकी भी समझ
में आ गया है
कि वह सपना
है। इसलिए कोई
हिसाब नहीं रखा
गया। यह जानकर
हुआ है, यह
होशपूर्वक
छोड़ा गया
"रेकॉर्ड' है।
इसके छोड़ने
में सूचना है,
इंगित है
कुछ, कि
इसका हिसाब
तुम भी मत
रखना। इस
हिसाब में पड़ना
ही मत। इसमें
पड़ जाओगे तो
शायद उसका पता
न चल सके जो
हिसाब के बाहर
खड़ा हंस रहा
है।
"भगवान
श्री, हम
पूर्णतया
सहमत हैं, कृष्ण
के संबंध में
हमें जानने की
कोई आवश्यकता
नहीं है कि वह
कब पैदा हुए, कब उनका मरण
हुआ। हमारा
मतलब इससे है
कि कृष्ण कैसे
जिए, उन्होंने
क्या कहा, उनके
जीवन की कथा
का क्या रहस्य
है? अभी-अभी
थोड़ा पहले
आपने कहा कि
धर्म इतिहास
नहीं है, धर्म
सनातन है। फिर
जब कृष्ण गीता
के अध्याय तीन
और श्लोक
पैंतीस में
कहते हैं कि
दूसरे के धर्म
से अपना
गुणरहित धर्म
भी अति उत्तम
है; अपने
धर्म में मरना
भी कल्याणकारक
है, दूसरे
का धर्म भयावह
है, तो
कृष्ण का आशय
किस धर्म से
है? उस
धर्म से जो
रूढ़िगत है, जो
व्यक्तिगत है;
अथवा, उस
धर्म से जो
शाश्वत है, और सनातन है
और सबका है? धर्म को
अच्छा और बुरा,
अपना और
पराया कहने की
क्या जरूरत थी
कृष्ण को?'
बहुत
जरूरत थी।
कृष्ण जब कहते
हैं कि स्वयं
के धर्म में
मर जाना भी
श्रेयस्कर
है--"स्वधर्मे
निधनम् श्रेयः', और दूसरे के
धर्म में मरना
बहुत भयावह है,
तो दोत्तीन
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं।
एक तो
यह कि यहां
धर्म से अर्थ
हिंदू, ईसाई,
मुसलमान, जैन का नहीं
है। यहां जो
धर्म का फासला
वे कर रहे हैं,
वह "स्व' और
"पर' का है।
वह स्व कौन है,
हिंदू है, मुसलमान है,
ईसाई है, इससे कोई
प्रयोजन नहीं
है। यहां जो
सवाल है वह
"निजता' और
"परता' का
है। यहां वे
यह कह रहे हैं
कि तुम नकल
में मत पड़ना,
तुम किसी और
के रास्ते पर
मत चलने लगना।
तुम किसी और
को "इमीटेट'
मत करने
लगना, तुम
किसी और का
अनुकरण मत
करने लगना।
तुम किसी और
के अनुयायी मत
हो जाना। तुम
किसी को गुरु
मत बना देना।
तुम अपने गुरु
रहना। तुम
अपनी निजता को
किसी से
आच्छादित मत
हो जाने देना।
तुम किसी के
पीछे मत चल पड़ना।
क्योंकि कोई
कहीं जा रहा
है, हो
सकता है वह
उसकी निजता हो
और तुम्हारे
लिए परतंत्रता
बन जाए--और
बनेगी ही।
महावीर के लिए
जो निजता है, वह किसी
दूसरे के लिए
निजता नहीं हो
सकती। क्राइस्ट
के लिए जो
मार्ग है, वह
किसी दूसरे के
लिए मार्ग
नहीं हो सकता।
उसके
कारण हैं।
हम
कहीं भी
जाएंगे तो हम
स्वयं होकर ही
जा सकते हैं।
पहुंचकर खो
जाएगा स्व, लेकिन अभी
है। और जिस
दिन स्व खो
जाएगा, उस
दिन पर भी खो
जाएगा। उस दिन
जो धर्म
उपलब्ध होगा,
वह धर्म
शाश्वत है, सनातन है।
लेकिन अभी हम
सागर की तरह
नहीं हैं, नदियों
की तरह हैं।
अभी हर नदी को
अपने रास्ते
से जाना होगा
सागर तक। सागर
में पहुंचकर नदियां भी
खो जाएंगी, रास्ते भी
खो जाएंगे।
लेकिन यह बात
नदियों से की
जा रही है।
कृष्ण नदी से
कहते हैं, अपना
मार्ग छोड़कर
दूसरी नदी के
मार्ग पर मत
पड़ जाना।
दूसरी नदी का
अपना मार्ग है,
अपनी गति है,
अपनी दिशा
है। वह अपने
मार्ग, अपनी
गति, अपनी
दिशा से सागर
तक पहुंचेगी।
और तू भी नदी
है। तू अपना
मार्ग, अपनी
गति, अपना
रास्ता बनाना
और सागर तक
पहुंच जाना।
नदी है तो
सागर तक पहुंच
ही जाएगी। कोई
नदी बंधे-बंधाए
रास्तों पर
नहीं चलती।
कोई जीवन
बंधे-बंधाए
रास्तों पर
नहीं चल सकता।
और जब भी हम
दूसरे का
अनुकरण
करेंगे तब
हमारे लिए
बंधा-बंधाया
रास्ता "रेडीमेड'
मिल जाता
है। तब हम
आत्मघाती
होने शुरू हो
जाते हैं। तब
हम अपने को
मारने लगते
हैं और दूसरे को
ओढ़ने
लगते हैं। अगर
कोई मेरे पीछे
चलेगा, तो
वह अपने को
मारेगा। उसे
ध्यान मुझ पर
रखना पड़ेगा।
जो मैं करता
हूं, वैसा
वह करे। जैसा
मैं जीता हूं,
वैसा वह
जिए। जैसा मैं
उठता हूं, वैसा
वह उठे। वह
अपने को
मारेगा, मुझे
ओढ़ेगा।
और मुझे कितना
ही ओढ़ ले, तो
भी मैं उसके
लिए वस्त्र से
ज्यादा नहीं
हो सकता। मैं
वस्त्र ही
रहूंगा।
गहरे-गहरे में
तो वह वही
रहेगा जो है।
गहरे में तो
वह वही रहेगा
जिसने ओढ़ा
है। वह वह
नहीं हो सकता
जो ओढ़ा
गया है। वह ओढ़ने
वाला तो भीतर
अलग ही खड़ा
रहेगा।
तो
कृष्ण जब कहते
हैं--"स्वधर्मे
निधनम् श्रेयः', तो वह यह
कहते हैं कि
अपने ढंग से
मर जाना भी श्रेयस्कर
है, दूसरे
के ढंग से
जीना भी
श्रेयस्कर
नहीं। क्योंकि
दूसरे के ढंग
से जीने का
मतलब ही जिये
हुए मरना है।
अपने ढंग से
मरने का अर्थ
भी नए जीवन को
खोज लेना है।
अगर मैं अपने
ढंग से मर
सकता हूं, और
मरने में भी
निजता रख सकता
हूं, तो
मेरी मौत भी "ऑथेंटिक' हो जाएगी, प्रामाणिक
हो जाएगी।
मेरी मौत है।
मैं मर रहा हूं।
लेकिन हमने
अपनी जिंदगी
को भी उधार और
"बारोड' कर लिया है, वह भी "ऑथेंटिक'
नहीं है। तो
कृष्ण कहते
हैं, जीवन
में तो
प्रामाणिक
होना। और
प्रामाणिक
होने का एक ही
अर्थ है कि
निजता को
बचाना। चारों
तरफ से हमले
होंगे, चारों
तरफ से लोग
होंगे जो
चाहेंगे कि आओ,
मेरे पीछे आ
जाओ। असल में
अगर कोई और
मेरे पीछे चले
तो मेरे
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिलती
है। अगर एक
चले तो, दो
चलें तो, दस
चलें तो, लाख
चलें तो बड़ी
तृप्ति मिलती
है। तब मुझे
लगता है कि
मैं कुछ ऐसा हूं
जिसके पीछे
चलना पड़ता है।
मैं कुछ हूं।
और जो भी मेरे
पीछे चलेगा, उसे मैं
गुलाम बनाना
चाहूंगा। उसे
मैं पूरी तरह
गुलाम बनाना
चाहूंगा। उस
पर मैं अपनी
आज्ञा, अपना
अनुशासन पूरा
थोप देना
चाहूंगा। मैं
उसकी
स्वतंत्रता
जरा-सी भी
बचने न देना
चाहूंगा।
क्योंकि उसकी
स्वतंत्रता
मेरे अहंकार
को चुनौती
होगी। तो मैं
चाहूंगा वह
मिट जाए। मैं
ही उस पर
आरोपित हो
जाऊं। सभी
गुरु यही
करेंगे।
और जब
कृष्ण यह कह
रहे हैं तब
बहुत अदभुत
बात कह रहे
हैं, जो कि
गुरु कहने की
हिम्मत नहीं
कर सकता, सिर्फ
मित्र कर सकता
है। इसलिए
ध्यान रहे, कृष्ण
अर्जुन के
गुरु नहीं
हैं। सिर्फ
सखा हैं। और
कभी भी गुरु
की जगह खड़े
नहीं होते, सिर्फ मित्र
की जगह खड़े
होते हैं।
गुरु सारथी बनकर
नहीं बैठ सकता
था। गुरु कहता
मैं बैठूंगा
रथ में, तू
सारथी बन।
गुरु कहता मैं
और लगाम पकडूं!
और घोड़ा चलाऊं!
मैं बैठूंगा
रथ में, तू
घोड़ा बन, तू
लगाम बन।
कृष्ण बैठ सके
सारथी बनकर, यह बहुत
अदभुत घटना
है। घटना यह
कहती है कि नाता
मित्रता का
है। मित्रता
में नीचे और
ऊपर कोई नहीं
होता। जब
कृष्ण अर्जुन
से यह कह रहे
हैं कि तू स्व
को खोज, तू
निजता को खोज,
वह जो तेरी "इंडिविजुऍ?लिटी' है, वह जो
तेरा होना है,
उसको
प्रामाणिक
रूप से पहचान
और वही तू बन, तू उससे
भिन्न मत करना,
किस कारण से
उस क्षण
उन्हें यह
कहना पड़ा?
अर्जुन
की पूरी
अंतरात्मा
क्षत्रिय की
है। वह एक लड़ाके
की, एक "फाइटर'
की है। उसका
रोआं-रोआं लड़नेवाले
का है। वह एक
सैनिक है।
बातें वह
संन्यासी की कर
रहा है। बातें
वह कर रहा है
संन्यासी की।
बातें वह भगोड़े
की कर रहा है, योद्धा की
नहीं। है वह
लड़ने वाला।
अगर वह जंगल
में भी
संन्यास लेकर
बैठ जाएगा और
उसे सिंह दिखाई
पड़ेगा, तो
भजन नहीं
करेगा, जूझ
जाएगा। वह आदमी
न तो ब्राह्मण
है, न वह
आदमी वैश्य है,
न वह आदमी
शूद्र है। न
वह श्रम करके
आनंद पा सकता
है, न वह
ज्ञान की
चर्चा करके
आनंद पा सकता
है, न वह धन
कमा कर आनंद
पा सकता है।
उसका आनंद चुनौती
में है। उसका
आनंद कहीं जूझ
जाने में है। वह
किसी अभियान
में ही अपने
को पा सकता है,
किसी "एडवेंचर'
में ही अपने
को पा सकता
है। लेकिन
बातें वह दूसरी
कर रहा है। वह
"स्वधर्म' से
च्युत हो रहा
है। तो कृष्ण
उससे कहते हैं
कि तू लड़ाका
है, तू "एस्केपिस्ट'
नहीं है, तू भगोड़ा
नहीं है, तू
बातें
पलायनवादी की
कर रहा है। तू
कहता है कि ये
मर जाएंगे, कि मैं मर जाऊंगा,
कि मर जाने
से बड़ा बुरा
हो जाएगा, यह
क्षत्रिय ने
मरने-मारने की
बात कब की है।
तू कहीं किसी
और को तो नहीं
ओढ़ रहा है? कहीं
तूने
सुनी-सुनाई
बातें तो नहीं
अपने ऊपर ओढ़
लीं? क्योंकि
सुनी-सुनाई
बातें ओढ़कर
तू कुछ कर न
पाएगा, तू
भटक जाएगा। तू
जो है, उसकी
खोज कर। अगर
तू ब्राह्मण
ही है तो
कृष्ण न
कहेंगे उसको
कि तू लड़।
कृष्ण कहेंगे,
अगर तू
ब्राह्मण ही
है तो जा।
वह
अर्जुन भी
कहने की
हिम्मत नहीं
जुटा सकता कि
वह ब्राह्मण
है। वह
ब्राह्मण है
ही नहीं। उसके
सारे
व्यक्तित्व
की जो धार है, वह तलवार की
है। उसके हाथ
में तलवार हो
तो ही वह निखरेगा।
युद्ध के गहरे
क्षण में ही
वह अपनी आत्मा
को खोज पाएगा।
उसे अपनी
आत्मा और कहीं
मिलनेवाली
नहीं है।
इसलिए वह उससे
कहते हैं कि
अपने धर्म में
मर जाना भी
बेहतर है। तू
क्षत्रिय
होकर मर जा।
अगर तुझे
मारना भी न जंचता
हो, तो मरना
तो जंच ही
सकता है। तू
लड़ और मर जा, लेकिन लड़ने
से मत भाग।
क्योंकि उससे
भागकर तू जियेगा
जरूर, लेकिन
वह मरा हुआ
जीना होगा, वह "डेड लाइफ'
होगी। और
"डेड लाइफ' से
"लिविंग डेथ' बेहतर है।
धर्म
से वहां
प्रयोजन
हिंदू, मुसलमान,
ईसाई से
नहीं है। धर्म
से वहां
प्रयोजन निजताओं
से है। और इस
मुल्क ने निजताओं
को चार बड़े
विभागों में
बांटा है।
जिनको हम वर्ण
कहते रहे हैं,
वह मोटे
विभाजन हैं निजताओं
के। ऐसा नहीं
है कि दो
ब्राह्मण
एक-जैसे होते हैं,
या दो
क्षत्रिय
एक-जैसे होते
हैं। नहीं, दो क्षत्रिय
भी दो-जैसे
होते हैं।
लेकिन फिर भी
क्षत्रिय
होने की एक
समानता, एक
"सिमिलेरिटी'
उनमें होती
है। और मनुष्य
को बहुत
खोज-बीन करके
चार हिस्सों
में बांटा है।
कोई है, जो
सेवा किए बिना
रस न पा
सकेगा। ऐसा
नहीं है कि वह
नीचा है। वहां
भूल हो गई।
वहां
जिन्होंने
जाना था, वह
उनके ऊपर जो
नहीं जानते थे
उन्होंने
नियम ठहरा
दिए।
जिन्होंने
जाना था, उनका
कहना कुल इतना
था कि कोई है
जो सेवा करके ही
कुछ आनंद पा
सकेगा। उससे
उसकी सेवा छीन
ली जाए, वह आनंदरिक्त
हो जाएगा, उसकी
आत्मा खो
जाएगी। अब कोई
स्त्री मेरे
पास आती है, वह कहती है, दो क्षण
मुझे पैर दाब
लेने दें। न
मैंने उससे
कहा, न
मैंने उससे
आग्रह किया, न इस पैर
दाबने से उसे
कुछ मिलेगा, लेकिन उसे
क्या हो रहा
है? वह पैर दाबकर
जरूर कुछ
पाएगी। मुझसे
कुछ मिलेगा
नहीं, अपनी
आत्मा पाएगी।
मुझसे कुछ
नहीं मिल
सकता। लेकिन
अगर सेवा उसका
रस है तो वह
अपनी आत्मा पाएगी,
वह अपनी निजता
पाएगी।
कोई है, जो सब धन छोड़
सकता है ज्ञान
के लिए। भूखा
मर सकता, भीख
मांग सकता, घर-द्वार
छोड़ सकता है।
हमें बड़ी
हैरानी होगी। एक
वैज्ञानिक है,
वह एक जहर
को अपनी जीभ
पर रख सकता है
इस बात का पता
लगाने के लिए
कि आदमी इससे
मर जाता है? मरेगा, लेकिन
ब्राह्मण है
वह, ज्ञान
की उसकी खोज
है। वह अपनी
आत्मा को पा
लेगा, जहर
को जीभ पर रख
कर जान लेगा
कि हां, इससे
आदमी मर जाता
है। इसको शायद
कहने को भी न बचे
वह, या हो
सकता है कह
पाए किसी तरह।
या कुछ जहर तो
ऐसे हैं, जिनको
वह कह न पाएगा,
लेकिन उसका
मर जाना ही कह
देगा। इससे भी
वह तृप्त
होगा। इससे भी
वह अपनी आत्मा
को पा लेगा।
हमें बड़ी
हैरानी होगी
कि पागल है यह
आदमी! हजार
सुख थे इस
दुनिया में, उन्हें
छोड़कर जहर की
जांच करने
गया! कोई और रास्ता
न था? कुछ
और जांच नहीं
कर सकता था? जांच ही कर
लेनी थी तो
कुछ और कर
लेता! इसे
क्या हो गया? इसके चित्त
की जो धारा है,
वह जानने की
है। इसे सेवा
से कोई रस न
मिलेगा। इसे
कोई कितना ही
कहे कि पैर
दबाने से किसी
के मुझे बहुत
रस आता है, यह
कहता है कि
अगर तुम्हें
आता हो, तुम
मेरे पैर दबा
दो। बाकी मैं
तो नहीं
दबाता। मुझे
कुछ नहीं आता।
इसकी समझ के
बाहर पड़ेगा।
कोई है
जो किसी युद्ध
के क्षण
में--वह युद्ध
चाहे किसी
भांति का
हो--उस युद्ध
के क्षण में
ही वह अपनी
पूरी चमक को
पा लेता है।
उसकी पूरी चमक
युद्ध के क्षण
में ही निखरती
है। वह एक
क्षण को उस
जगह पहुंच जाए
जहां सब दांव
पर लग जाता है! वह
जुआरी है, वह बिना दांव
पर लगाए नहीं
जी सकता।
छोटे-मोटे
दांव से उसका
काम नहीं होगा
कि वह रुपये
दांव पर लगा
दे। इससे उसे
कोई तृप्ति न
मिलेगी। वह जब
तक अपने पूरे
जीवन को दांव
पर न लगा दे, जहां कि
पल-पल तय करना
मुश्किल हो
जाए कि जिंदगी
कि मौत, उस
क्षण में ही
उसके भीतर जो
छिपा है वह
प्रगट होगा और
फूल बन जाएगा।
वह क्षत्रिय है।
कोई
है--कोई राकफेलर, कोई
मार्गन--और
बड़े मजे की
बात है कि
मार्गन से किसी
दिन मजाक में
एक सेक्रेटरी
ने कहा कि जब
मैं आपको नहीं
जानता था, तब
तो मैं सोचता ,
सपने देखता
था कि कभी मैं
भी मार्गन हो
जाऊं, लेकिन
जब आपके निकट
आया और निजी सेक्रेटरी
की तरह रहा, तो अब मैं
आपसे कहना
चाहता हूं कि
अगर भगवान मुझे
फिर से मौका
दे, तो मैं
मार्गन तो कभी
न होना
चाहूंगा।
मार्गन से तो
मार्गन का सेक्रेटरी
ही बेहतर है, सेक्रेटरी ने कहा।
मार्गन ने कहा,
तुम्हें
मुझमें ऐसी
क्या तकलीफ
दिखाई पड़ती है?
तो उस सेक्रेटरी
ने कहा, मैं
बड़ा हैरान हूं,
आपके दफ्तर
के चपरासी साढ?
नौ बजे
दफ्तर
पहुंचते हैं;
दस बजे
क्लर्क
पहुंचते हैं,
साढ़े दस बजे सेक्रेटरीज
पहुंचते हैं,
बारह बजे डाइरेक्टर्स
पहुंचते हैं;
तीन बजे डाइरेक्टर्स
चले जाते हैं,
चार बजे सेक्रेटरीज
चले जाते हैं,
पांच बजे
क्लर्क चले
जाते हैं, साढ़े
पांच बजे
चपरासी चले
जाते हैं, आप
दफ्तर सुबह
सात बजे पहुंच
जाते हैं और
शाम को सात
बजे जाते हैं!
तो मैं तो
आपका चपरासी
भी होऊं तो भी
ठीक है। आप यह
क्या कर रहे
हैं?
मार्गन
को वह आदमी न
समझ सकेगा।
मार्गन के पास
वैश्य का
चित्त है। वह
तृप्त हो रहा
है, वह अपनी
आत्मा को खोज
रहा है। वह
हंसता है, वह
कहता है, चपरासी
होकर साढ़े
नौ बजे आने
में कहां वह
आनंद है, जो
मालिक होकर
सुबह सात बजे
आने में है।
माना कि डाइरेक्टर
तीन बजे चले
जाते हैं, लेकिन
डाइरेक्टर
ही हैं बेचारे,
चले ही
जाएंगे। मैं
मालिक हूं। अब
यह व्यक्ति
किसी गहरी
मालकियत में
ही तृप्त हो
सकता है।
इस
मुल्क ने
हजारों-लाखों
व्यक्तियों
का हजारों साल
के अध्ययन के
बाद यह तय
किया था कि
आदमी चार मोटे
विभाजन में
बांटे जा सकते
हैं। इस विभाजन
में कोई
नीचे-ऊपर न था, कोई "हायरेरिकी'
न थी। लेकिन
बहुत जल्दी, जो नहीं
जानते थे
उन्होंने "हायरेरिकी'
तय कर दी कि
कौन नीचे, कौन
ऊपर। उससे
कष्ट खड़ा हो
गया। वर्ण की
तो
अपनी
वैज्ञानिकता
है, लेकिन
वर्ण-व्यवस्था
का अपना दंश
है। वर्ण को व्यवस्था
बनाने की
जरूरत नहीं
है। वह एक "इनसाइट'
है, एक
अंतर्दृष्टि
है मनुष्य के
व्यक्तित्वों
में। और व्यक्तित्व
ऐसे हैं।
तो
कृष्ण अर्जुन
से यह कह रहे
हैं कि तू ठीक
से पहचान ले
तू है कौन! और
तू जो है, उसी
में मर। और तू
जो नहीं है, उसमें जीने
का पागलपन मत
कर। और इस स्व
के होने में
वर्ण ही
पर्याप्त
नहीं है, क्योंकि
वर्ण बहुत
मोटे विभाजन
हैं। दो
व्यक्ति भी
एक-जैसे नहीं
हैं, एक-एक
व्यक्ति अपने
ही जैसा है, "युनीक' है, बेजोड़ है। असल में
परमात्मा कोई
"मेकेनिक',
कोई यंत्रविद
नहीं है, एक
"क्रिएटर' है,
एक स्रष्टा
है। अगर
रवींद्रनाथ
से कोई कहे कि एक
कविता जो आपने
लिखी थी वैसी ही
दूसरी लिख दो,
तो
रवींद्रनाथ
कहेंगे, तुमने
क्या मुझे
चुका हुआ समझा
है? खत्म
हुआ समझा है? क्या मैं मर
गया? जो
कविता मैंने
एक दफा लिख दी,
लिख दी, बात
खत्म हो गई।
अब दुबारा मैं
वही लिखूं
तो मतलब हुआ
कि मेरा कवि
मर चुका। अब
मैं दूसरी
कविता लिख
सकता हूं। कोई
चित्रकार
दुबारा वही
चित्र नहीं
बना सकता है।
एक दफे
बहुत मजे की
घटना घटी। पिकासो
का एक चित्र
तीन या चार
लाख रुपये में
बिका। जिसने
खरीदा था वह पिकासो के
पास दिखाने
लाया और उसने
कहा, यह "ऑथेंटिक'
तो है न, प्रामाणिक
तो है न? आपका
ही है न बनाया
हुआ? कोई
नकल तो नहीं
है? पिकासो ने कहा, "ऑथेंटिक' नहीं है, नकल
है। तूने
मुफ्त पैसा
खराब किया। उस
आदमी ने कहा, क्या कह रहे
हैं आप? लेकिन
आपकी पत्नी ने
गवाही दी है
कि आपने ही बनाया
है। पिकासो
की पत्नी आ गई
और उसने कहा, यह बात तो आप
गलत कह रहे
हैं। यह चित्र
तो आपका बनाया
हुआ है, मैंने
आपको बनाते
देखा है, ये
दस्तखत आपके
हैं, यह
नकल नहीं है। पिकासो ने
कहा, यह
मैंने कब कहा
कि मैंने नहीं
बनाया, यह
मैंने नहीं
कहा। इसका पिकासो
से क्या
लेना-देना है!
इसको कोई दूसरा
चित्रकार भी
उतार सकता था।
इसको बनाते
वक्त मैं
"क्रिएटर' नहीं
था। इसको
बनाते वक्त
मैं सिर्फ "इमीटेटर' था। बस "इमीटेट'
कर दिया
हूं। तो मैं
यह नहीं कह
सकता कि यह
प्रामाणिक
है। पिकासो
का बनाया हुआ
मैं नहीं कह
सकता। पिकासो
का उतारा हुआ!
किसी पिछले पिकासो की
नकल है यह। वह
जो पहला चित्र
था, "ऑथेंटिक'
था, वह
मैंने बनाया
था, वह
मैंने उतारा
नहीं था।
परमात्मा
सृजन कर रहा
है। वह एक-सा
दूसरा पत्ता
नहीं बनाता, एक-सा दूसरा
फूल नहीं
बनाता; एक-सा
दूसरा कंकड़
नहीं बनाता, एक-सा दूसरा
आदमी नहीं
बनाता। और चुक
नहीं गया है।
जिस दिन चुक
जाएगा उस दिन
वह "रिपीट'
करना शुरू
कर देगा। वह
"नान-ऑथेंटिक'
आदमी बनाने
लगेगा। अभी वह
महावीर एक दफे
बनाता है, कृष्ण
एक दफे बनाता
है, बुद्ध
एक दफा, आपको
भी एक ही दफा
बनाता है।
आपको भी
दुबारा नहीं
दोहराया था।
यह बड़ी गरिमा
की बात है, बड़े
गौरव की। आप
एक दफे ही
बनाए गए हैं--न
पहले, न
पीछे, न
आगे। अब आप
नहीं दोहराए
जाएंगे।
तो जो
आप हैं, उसकी
निजता को आप
नकल में मत
गंवा देना, क्योंकि
परमात्मा तक
ने नकल नहीं
की, उसने
आपको नया
बनाया। और आप
कहीं उसको
नकली मत कर
देना। इसलिए
कृष्ण कहते
हैं--"स्वधर्मे
निधनम् श्रेयः'... अपने ही
धर्म में मर
जाना बेहतर
है... "परधर्मो
भयावहः'...
दूसरे का
धर्म बहुत भय
का है। उससे
बचना, उससे
सावधान रहना।
उससे भयभीत
रहना। भूलकर भी
दूसरे के
रास्ते मत
जाना, भूलकर
भी दूसरा बनने
की कोशिश मत
करना। स्वयं बनने
की चेष्टा ही
धर्म है--नदी
के लिए। सागर
के लिए तो न
कोई स्वयं है,
न कोई पर
है। लेकिन वह
सिद्धि की बात
है। वह आखिरी
जगह है जहां
हम पहुंचते
हैं। जहां से
हम चलते हैं, वह वह जगह
नहीं है। जहां
से हम चलते
हैं वहां से
हमें व्यक्ति
की तरह चलना
होगा। जहां हम
पहुंचते हैं
वहां हम
अव्यक्ति हो
जाते हैं।
वहां न कोई
स्व है, न
कोई पर है।
लेकिन उस जगह
पहुंचेंगे आप
स्व की तरह, पर की तरह
वहां आप कभी न
पहुंचेंगे।
उसको ध्यान
में रखकर वह
बात कही गई
है।
"भगवान
श्री, मुझे
लगता है, "स्वधर्मे निधनम् श्रेयः' समझाते हुए
कृष्ण ने
अर्जुन को
दबाया। वह अपने
क्षत्रियत्व
को लांघ कर
शायद
ब्राह्मण
बनना चाहता
था। जब उसे
विषाद हुआ, कारुण्य हुआ,
तब वह
स्वधर्म में
जाता था, कृष्ण
ने रोककर उसको
फिर क्षत्रियत्व
में लाने का
प्रयास किया।
और
दूसरी बात यह
भी है कि आपने
कहा कृष्ण
अर्जुन को
स्वतंत्र
करते हैं, दबाते नहीं।
किंतु, गीता
का जब प्रारंभ
होता है तब
अर्जुन शिष्य
बनकर कृष्ण को
कहता है--"शिष्यस्तेऽहं
शाधि मां त्वां प्रपन्नम्'। बाद में
गीता की सारी
धारा गुजरती
है और उसकी
पूर्णाहुति
पर अर्जुन का
ऐसा वचन मिलता
है--"करिष्ये
वचनं तव'। क्या इससे
यह भनक नहीं
आती कि कृष्ण
ने अर्जुन पर "गुरुडम' स्थापित की,
जिसके
प्रभाव या
दबाव में ही
अर्जुन को
कहना पड़ा--"करिष्ये
वचनं तव'?'
इसमें
दोत्तीन
बातें समझनी
चाहिए।
एक, कि अर्जुन
के
व्यक्तित्व
को थोड़ा भी
समझेंगे, तो
यह नहीं कहा
जा सकता कि
क्षत्रिय
होना उसकी
निजता नहीं
है। वह
क्षत्रिय ही
है। और जब विषाद
उसे पकड़ता
है, तब वह
विषाद क्षण-भर
को आई हुई
घटना है।
अर्जुन को
विषाद पकड़ने
का कारण भी
कोई मर जाएगा,
यह नहीं है,
अर्जुन को
विषाद पकड़ने
का कारण
है--अपने लोग
मर जाएंगे।
अगर अर्जुन के
सामने युद्ध
के मैदान में
सगे-संबंधी न
होते तो
अर्जुन
बिलकुल मूलियों
की तरह उन्हें
काट सकता था।
अर्जुन
को विषाद
हिंसा के कारण
नहीं पकड़ रहा
है, ममत्व के
कारण पकड़ रहा
है। अर्जुन को
ऐसा नहीं लग
रहा है कि
मारना बुरा है
यह तो फिर वह "रेशनलाइजेशंस'
खोज रहा है।
असली
बुनियादी
विषाद तो यह
है कि अपने ही
प्रियजन हैं।
कोई सगे बंधु
हैं, कोई
रिश्तेदार
हैं। गुरु
सामने खड़े हैं,
जिनसे सब
सीखा, वह
द्रोण हैं।
पितामह भीष्म
हैं। कौरव भी
सब भाई हैं, जिनके साथ
बचपन में खेले
और बड़े हुए।
जिनको कभी
सोचा नहीं कि
मारना पड़ेगा।
विषाद का कारण
अगर हिंसा
होती, अर्जुन
अगर यह कहता
कि मारना बुरा
है, मुझे
विषाद पकड़ता
है मारने
से--तो मारता
तो वह बहुत
पहले से रहा था,
यह कोई
मारने से कोई
भय उसे न लगता
था। भय लग रहा
है अपनों को
मारने में। एक
ममत्व उसे पकड़
रहा है। इसलिए
ब्राह्मण
होने की बात
नहीं है, क्योंकि
ब्राह्मण
होने का मतलब
ही है कि ममत्व
छूटे।
सच तो
यह है कि
कृष्ण जो कह
रहे हैं वह
ममत्व छोड़ने
को कह रहे
हैं। अगर
अर्जुन यह
कहता कि मारना
ही मेरे मन
में नहीं उठता, तो कृष्ण ने
ये बातें न
कही होतीं जो
कही हैं। कृष्ण
महावीर को
नहीं समझा सकते
थे। ऐसे
महावीर भी
क्षत्रिय के
घर में जन्मे
थे। व्यवस्था
से क्षत्रिय
थे। जैनियों के
चौबीस
तीर्थंकर ही
क्षत्रिय
हैं। उनमें से
कोई एक भी
दूसरे वर्ण
में नहीं
जन्मा है।
बुद्ध भी
क्षत्रिय
हैं। बड़े
आश्चर्य की
बात है कि दुनिया
में अहिंसा का
विचार
क्षत्रियों से
पैदा हुआ।
कारण है उसका।
जहां हिंसा
सघन थी, वहीं
अहिंसा का
खयाल भी पैदा
हो सकता था।
जहां चौबीस
घंटे
हिंसा-ही-हिंसा
थी, वहीं
अहिंसा का
खयाल भी पैदा
हो सकता था।
इसलिए
क्षत्रियों
से अहिंसा का
खयाल जन्मा।
महावीर को
कृष्ण न समझा
सकते थे।
क्योंकि
महावीर यह
नहीं कह रहे
थे कि ये मेरे
हैं। वे यह
नहीं कह रहे
थे। उनका
विषाद यह नहीं
था कि मेरों
को कैसे मारूं,
मेरों को तो वह
बिलकुल बिना
विषाद के
छोड़कर चले आए
थे। मेरों
को तो कोई
सवाल न था।
नहीं, उनका
प्रश्न ही और
था। वह प्रश्न
यह था कि मारना
ही क्यों? मारने
का प्रयोजन ही
क्या? मारने
का अर्थ ही
क्या? मारने
में धर्म ही
नहीं है, यह
उनका सवाल
होता। और अगर
कृष्ण उनसे
कहते कि "स्वधर्मे
निधनम् श्रेयः', तो वह कहते, मेरा
स्वधर्म यह है
कि मैं न मारूं
और मर जाऊं।
वह कृष्ण से
कहते कि तुम
अपनी बात मुझे
मत कहो। वह
पर-धर्म हो
जाएगा।
अगर
ठीक यही गीता
महावीर से कही
होती, तो
महावीर रथ से
उतरते, नमस्कार
करते और जंगल
चले जाते।
उन्हें कोई फर्क
नहीं पड़ने
वाला था।
अर्जुन को ये
बातें जंच
गईं। जंच गईं,
उसका कारण
यह नहीं है कि
कृष्ण जंचा
सके। जंच गईं
इसलिए कि था
तो वह
क्षत्रिय, "टेंप्रेरी फेज़' आ
गई थी उसमें
इन बातों की, कि ये मर
जाएंगे, ये
मेरे हैं, ये
फलां हैं, ढिकां
हैं। ये
सारी-की-सारी
बातें "टेंप्रेरी'
थीं, इसलिए
कि कृष्ण हटा
सके। यह आकाश
न था उसके मन का,
आ गई बादल
थे, जो
हटाए जा सकते
थे। अगर यह
उसके मन का
आकाश होता तो
कृष्ण के
हटाने का सवाल
न उठता, और
न हटाने की वे
कोशिश करते। न
हटाने के लिए
वह समझाते।
हटाने की बात
ही नहीं उठती
थी। गीता घटती
ही नहीं, अगर
यह कृष्ण के
खयाल में होता
कि यह आकाश है
इसके मन का।
लेकिन आकाश
अचानक नहीं
आता। उसकी पूरी
जिंदगी
अर्जुन की
कहती है कि
उसका आकाश तो
क्षत्रिय का है।
उसका पूरा
जीवन कहता है।
उसका आकाश
नहीं है।
इसलिए
कृष्ण जिसे
हटाते हैं, वह "टेंप्रेरी
फेज' है।
और मैं मानता
हूं कि अगर वह
स्वधर्म होता,
तो अर्जुन
को हटाने की
जरूरत क्या है?
कृष्ण यही
तो कह रहे हैं
कि अपने
स्वधर्म में मर
जाना बेहतर
है। अर्जुन
कहता कि मेरा
स्वधर्म है कि
मैं मर जाऊं, अब आप मुझे
क्षमा करें, अब मैं जाता
हूं। बात खतम
हो गई है।
क्योंकि मेरा
स्वधर्म है कि
मैं मर जाऊं, अब आप मुझे
क्षमा करें, अब मैं जाता
हूं। बात खतम
हो गई है।
क्योंकि कृष्ण
यह कहां कह
रहे हैं कि तू परायी बात
मान ले, वह
यही तो कह रहे
हैं कि जो
तेरा स्वधर्म
है उसे पहचान।
सारी चेष्टा,
पूरी गीता
में, अर्जुन
का जो स्व है
उसे अर्जुन
पहचाने, इसके
लिए है।
अर्जुन के ऊपर
कोई चीज थोपने
की आकांक्षा
नहीं है।
दूसरी
बात आप कहते
हैं, वह भी
सोचने जैसी
है।
मैंने
यह कहा कि
कृष्ण गुरु
नहीं हैं, सखा हैं।
मैंने यह नहीं
कहा कि अर्जुन
शिष्य नहीं
हैं। यह मैंने
कहा नहीं।
अर्जुन शिष्य
हो सकता है, वह अर्जुन
की तरफ से
संबंध है। वह
संबंध कृष्ण
की तरफ से
नहीं है। और
अर्जुन शिष्य
है। वह सीखना
चाहता है।
सीखना चाहता
है, इसलिए
पूछता है।
प्रश्न शिष्य
करते हैं, सीखना
चाहते हैं
इसलिए पूछते
हैं। अर्जुन
पूछता है, पूछने
का अपना
अनुशासन है।
पूछना हो तो
नीचे बैठना
पड़ता है। वह
पूछने का
हिस्सा है।
पूछना हो तो
हाथ फैलाने
पड़ते हैं।
पूछना हो तो
समझने की
उत्सुकता
दिखानी पड़ती
है। पूछना हो
तो विनम्रता
से समझना पड़ता
है। इसमें
कृष्ण नहीं कह
रहे हैं उसको
कि वह विनम्र
हो, इसमें
वह यह नहीं कह
रहे कि वह
नीचे बैठे। वह
गुरु नहीं हैं,
उनकी तरफ से
वह मित्र हैं।
मित्र हैं
इसलिए समझा
रहे हैं। उनकी
तरफ से
मित्रता की ही
बात है। इसलिए
इतना ज्यादा
समझा पाए। अगर
गुरु होते तो
बहुत जल्दी
नाराज हो गए होते।
कहते कि बस, अब बहुत
हुआ। जो मैं
कहता हूं, मान!
संदेह करना
ठीक नहीं, शक
करना उचित
नहीं, गुरु
पर श्रद्धा
रख! जब मैं
कहता हूं लड़, तो लड़!
समझाने की
क्या जरूरत
है! नहीं, इतनी
लंबी गीता
कृष्ण की तरफ
से इस बात की
सूचना है कि
समझाने के लिए
वह निरंतर
तत्पर है।
इसमें कहीं भी
वे जल्दबाजी
में नहीं हैं।
अर्जुन
बार-बार वही
सवाल उठाता
है। सवाल नए
नहीं हैं।
गीता में सब
सवाल घूम-फिर
कर फिर वहीं
हैं। लेकिन
कृष्ण उससे एक
बार भी नहीं
कहते कि तू
फिर वही पूछ
लेता है। तू
फिर वही पूछ
लेता है! (अब क्रियानंद
पूछ रहे हैं, वह बार-बार
वही पूछ रहे
हैं...श्रोताओं
का हास्य...लेकिन
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।)
गुरु
होगा तो नाराज
होगा, कहेगा
कि बस, तुम
यह पूछे चुके,
हम कह चुके,
अब समझो और
मानो। नहीं, यह कोई सवाल
नहीं है। आप
बार-बार पूछते
हो, उसका
मतलब यह है कि
नहीं समझ में
आया, फिर
समझाने की
कोशिश जारी
रहेगी। तो
इतनी लंबी
गीता संभव हो
पाई। यह गीता
कृष्ण का दान
नहीं है, अर्जुन
की कृपा है।
अर्जुन पूछे
चला जा रहा है।
अर्जुन पूछे
चला जा रहा
है। इसलिए
कृष्ण को कहते
जाना पड़ता है।
और बाद में, जो हमें ऐसा
लगता है कि
कृष्ण ने करवा
लिया--जो हमें
ऐसा लगता है
कि कृष्ण ने करवा
लिया, अर्जुन
तो भाग रहा था,
इतना
समझाकर कृष्ण
ने युद्ध में
अर्जुन को डाल
दिया, यह
हमें लग सकता
है। यह हमें
इसलिए लग सकता
है कि अर्जुन
भाग रहा था, फिर भागा
नहीं। युद्ध
किया। लेकिन
कृष्ण पूरे
समय अर्जुन को
मुक्त ही कर
रहे हैं, और
वह जो हो सकता
है, जो
होने की उसकी
क्षमता है, उसे प्रगट
कर रहे हैं।
उसे जाहिर कर
रहे हैं। और
अगर पूरी गीता
सुनकर भी
अर्जुन कहता
है कि सुना सब,
लेकिन मैं
जाता हूं, तो
कृष्ण उसे हाथ
पकड़कर रोकनेवाले
नहीं थे। कोई
रोकने वाला
नहीं था।
बड़े मजे
की बात है कि
कृष्ण ने
युद्ध में भाग
न लेने का
निर्णय लिया
था। खुद वह
युद्ध में
लड़ने वाले
नहीं थे।
युद्ध में
लड़ने वाला
अर्जुन को समझा
रहा है कि
युद्ध में लड़।
खुद वह युद्ध
के बाहर खड़े
हैं। युद्ध
में लड़ने वाला
नहीं है। जरूर
बड़ी महत्व की
बात है।
अर्जुन को भी
अगर यह खयाल आ
जाए कि कृष्ण
अपने को मेरे
ऊपर थोप रहे
हैं...तो उचित
तो यही होता
कि कृष्ण समझाते
कि भाग जा, क्योंकि मैं
खुद ही लड़
नहीं रहा हूं।
कृष्ण का एक
नाम आपको पता
है? वह है, रणछोड़दास--युद्ध से जो
भाग खड़े हुए!
यह रणछोड़दास
समझा रहे हैं
कि लड़। अगर
अपने को ही
थोपना हो
कृष्ण को, तो
कहना चाहिए
बिलकुल ठीक, तू मेरा
शिष्य हुआ, चलो हम
दोनों भाग
जाएं। नहीं, अपने को
थोपने की बात
जरा-भी नहीं
दिखाई पड़ती है।
क्योंकि
कृष्ण सिर्फ
इतना ही कह
रहे हैं कि
ऐसा मैं समझता
हूं कि तू
क्षत्रिय है।
ऐसा मैं तुझे
जानता हूं
बहुत निकट से
कि तू
क्षत्रिय है।
जितने निकट से
तू भी अपने को
नहीं जानता
उतने निकट से
मैं तुझे पहचानता
हूं कि तू
क्षत्रिय है।
तुझे इतना
खयाल दिला रहा
हूं। यह पूरी
गीता में इतना
ही खयाल दिलाने
की बात है कि
तू कौन है। और
फिर जब तुझे खयाल
आ जाए, तुझे
जो भला लगे तू
कर। होता है
वही जो कृष्ण
समझा रहे हैं,
इसलिए हमें
यह खयाल आ
सकता है कि
उन्होंने वही
करवा लिया जो
वे चाहते थे।
लेकिन
कृष्ण कुछ भी
नहीं चाह रहे
हैं। इस अचाह
के कई अदभुत
कारण हैं।
कृष्ण खुद
अकेले लड़ रहे
हैं अर्जुन की
तरफ से, उनकी
सारी फौजें
लड़ रही हैं
दूसरी तरफ से।
लड़ने वालों के
ये ढंग नहीं
हैं। कि खुद
की फौजें
दुश्मन की तरफ
से लड़ें।
कृष्ण लड़ रहे
हैं पांडवों
की तरफ से और
कृष्ण की सारी
फौजें--अकेले
कृष्ण को
छोड़कर--लड़ रही
हैं कौरवों की
तरफ से। लड़ने
वालों के ये
ढंग कभी सुने
नहीं गए! अगर
ये ढंग हैं
लड़ने वालों के
तो सब लड़ने
वाले गलत हैं,
यही आदमी
लड़ने वाला ठीक
है। हिटलर
राजी हो सकता
है कि फौजें
लड़ें दुश्मन
की तरफ से? राजी
नहीं हो सकता।
फौजें
होती इसलिए
हैं कि अपनी
तरफ से लड़ें।
लड़ने वाले का
चित्त लड़ने का
पूरा इंतजाम
करता है। यह बड़ी
अजीब लड़ाई चल
रही है। इसमें
एक आदमी है जो
लड़ रहा है इस
तरफ से, उसकी
सारी फौजें
लड़ रही हैं
दुश्मन की तरफ
से। यह आदमी
कोई लड़ने में
बहुत रसवाला
नहीं है। लड़ने
से इसे बहुत
प्रयोजन नहीं
है। लेकिन
स्थिति लड़ने
की है। और
इसलिए अपने को
भी दो हिस्सों
में बांटा है
उसने, कि
बाद में आप
उसको
दोषारोपित न
कर सकें, दोषारोपण
न कर सकें।
कृष्ण
की स्थिति
बहुत ही अदभुत
है। उनके सारे
व्यक्तित्व
की बनावट बहुत
अदभुत है। और
यह लड़ाई भी
बड़े मजे की है!
सांझ हो जाती
है, युद्ध
बंद हो जाता
है, और सब
एक-दूसरे के
खेमों में
गपशप करने चले
जाते हैं। और
एक-दूसरे से
जाकर पूछने
लगते हैं, आज
कौन मर गया और
कौन क्या हो
गया? संवेदना
भी प्रगट करने
जाते हैं।
सांझ को गपशप
जमती है। बड़ी
अजीब लड़ाई है!
यह लड़ाई ऐसी
नहीं लगती है
कि दुश्मनों
की है।
दुश्मनी जैसे
नाटक है, जैसे
खेल है, जैसे
अपरिहार्यता
है। एक "इनइवीटेबिलिटी'
है जो ऊपर आ
गिर पड़ी है
लेकिन कोई
दुश्मनी नहीं
मालूम पड़ती
है। सांझ हो
जाती है, बिगुल
बज जाते हैं, युद्ध बंद
हो गया है, और
पता लगाना
मुश्किल है कि
कौन कहां है।
सब एक-दूसरे
के खेमों में
चले गए हैं।
और एक-दूसरे के
खेमों में
चर्चा चल रही
है।
दुख-संवेदना
भी है कि कौन
मर गया। अकेले
कृष्ण का ही
मामला ऐसा
नहीं है, बहुत-से
मामले ऐसे हैं
कि कोई उस तरफ
से लड़ रहा है, उसका कोई
साथी इस तरफ
से लड़ रहा है।
और कैसे मजे
की बात है कि
युद्ध समाप्त
हो जाता है और
कृष्ण ही सलाह
देते हैं
पांडवों को कि
वे भीष्म से
जाकर शांति का
पाठ ले लें।
भीष्म से! जो
उस तरफ से
युद्ध का
अग्रणी है। उस
तरफ से युद्ध
का सेनापति
है। युद्ध का
जो सेनापति है
दुश्मन की तरफ
से, उससे
शांति का पाठ
लेने के लिए
है, शिष्य
की तरह बैठ
जाते हैं लोग
जाकर। भीष्म
का जो संदेश
है वह "शांति
पर्व' है।
बहुत अजीब बात
है! बड़ी
"मिरेकुलस' है। दुश्मन
से कभी कोई
शांति का पाठ
लेने गया है!
दुश्मन से
अशांति के पाठ
लिए जाते हैं।
और उसके पास
जाने की जरूरत
नहीं होती।
मरते
हुए भीष्म से
शांति का पाठ
लिया जा रहा है!
धर्म का राज
समझा जा रहा
है! युद्ध
साधारण युद्ध
नहीं है।
युद्ध बहुत
असाधारण है।
और इस युद्ध
के मैदान पर खड़े
हो गए योद्धा
साधारण लड़ाई
में गए हुए
सैनिक नहीं
हैं। इसलिए
इसे गीता
धर्मयुद्ध कह
पाती है। इस
युद्ध को
धर्मयुद्ध
कहने का कारण
है।
कृष्ण
समझा-बुझाकर
युद्ध नहीं
करवा लेते
हैं। कृष्ण
समझा-बुझाकर
अर्जुन के
क्षत्रिय
होने को प्रगट
कर देते हैं।
एक मूर्तिकार
का मुझे स्मरण
आता है। एक
मूर्तिकार एक
पत्थर में मूर्ति
खोद रहा है।
कोई आदमी
देखने आया है
उसके मूर्ति
बनाने को।
पत्थर छिदते
जाते हैं, छेनी पत्थर
काटती चली
जाती है। फिर
मूर्ति उघड़ने
लगती है। फिर
पूरी मूर्ति उघड़ जाती
है। और फिर वह
जो देखने आया
है, वह
कहता है, तुम
अदभुत कारीगर
हो। तुमने
जैसी मूर्ति
को बनाई ऐसी
मैंने किसी को
बनाते नहीं
देखा। वह कहता
है, माफ
करना, तुम
कुछ गलत समझे।
मैं मूर्ति को
बनाने वाला नहीं
हूं, सिर्फ
उघाड़ने
वाला हूं। इधर
से निकलता था,
इस पत्थर
में मुझे
मूर्ति दिखाई
पड़ी, तो जो गैरजरूरी
पत्थर थे वे
भर मैंने अलग
किए हैं। इधर
से गुजरता था,
मूर्ति
मुझे दिखाई
पड़ी इस पत्थर
में कि अरे, इस पत्थर
में एक मूर्ति
छिपी है।
मैंने सिर्फ गैरजरूरी
पत्थर अलग कर
दिए हैं और
मूर्ति जो
छिपी थी वह प्रगट
हो गई है। मैं
बनाने वाला
नहीं हूं, सिर्फ
उघाड़ने
वाला हूं।
अर्जुन
को कृष्ण
सिर्फ उघाड़ते
हैं, बनाते
नहीं। वह जो
था वह उघाड़
देते हैं।
उनकी छेनी
सिर्फ गैरजरूरी
पत्थर अलग कर
देती है। बाद
में जो अर्जुन
होता है, वह
अर्जुन का
होना है, उसकी
निजता है। ऐसा
वह आदमी था।
पर हमें तो लगेगा
कि मूर्ति
बनाई है। यह
आदमी क्या कह
रहा है कि बनाई
नहीं है? हमने
बनाते देखी
है। हमने छेनी
से पत्थर काटते
देखा है।
लेकिन यह एक
मूर्तिकार का
कहना नहीं है,
बहुत मूर्तिकारों
का कहना है कि
उन्हें
मूर्तियां
पत्थरों में पहले
दिखाई पड़ती
हैं, फिर
वे उन्हें उघाड़ते
हैं; पत्थर
बोलते हैं
मूर्तिकार से
कि आओ इधर, इधर
कुछ छिपा है, इसे उघाड़
दो। सभी पत्थर
काम नहीं आते,
सभी पत्थर
बेमानी हैं।
किसी पत्थर
में जहां छिपा
होता है, उस
निजता को उघाड़ा
है। इसलिए
पूरी गीता एक उघाड़ने की
प्रक्रिया
है। उसमें
अर्जुन जैसा
हो सकता था, वैसा प्रगट
हुआ है।
(हां,
क्रियानंद पूछो!...अब
सब पूछने लगोगे
तो मुश्किल हो
जाएगी...हां, बोलो...हां, एक मिनिट...)
"आप
एक शब्द बहुत
इस्तेमाल
करते हैं, और
वह शब्द
है--"अदभुत'।
वही शब्द मैं
आप पर निरूपित
करता हूं, और
मैं आपसे यह
पूछता
हूं--क्या आप
अदभुत नहीं हैं!...और अक्सर
मुझे लगता है
कि मैं भी
अदभुत हूं।'
(गहन
आत्मीय
हास्य...)। इसे
बाद में
लेंगे।
"आपने
कहा कि कृष्ण
अर्जुन के
गुरु नहीं
मित्र हैं, और इसलिए वे
अर्जुन की
लंबी शंकाओं
का धैर्यपूर्वक
स्वागत करते
हैं। लेकिन, गीता में ही
वे अन्यत्र
अर्जुन को
कहते हैं--"संशयात्मा
विनश्यति'। ऐसा वे
अर्जुन के मन
में बार-बार
उठते संशय को
देखकर ही कहते
थे। लेकिन
संशयात्मा
अर्जुन नष्ट
नहीं हुआ, उलटे
कौरव नष्ट हो
गए। कृपया इसे
समझाएं।'
संशयात्मा
विनष्ट हो
जाते हैं, यह बड़ा सत्य
है। लेकिन
संशय के अर्थ
समझने में भूल
हो जाती है।
संशय का अर्थ
संदेह नहीं
है। संशय का
अर्थ "डाउट'
नहीं है।
संशय का अर्थ "इनडिसीसिवनेस'
है। संशय का
अर्थ है, अनिर्णय
की स्थिति।
संदेह
तो बड़े निर्णय
की स्थिति है, संदेह
अनिर्णय नहीं
है। संदेह भी
निर्णय है, श्रद्धा भी
निर्णय है।
संदेह
नकारात्मक
निर्णय है, श्रद्धा
विधायक
निर्णय है। एक
आदमी कहता है,
ईश्वर है, ऐसी मेरी
श्रद्धा है।
यह एक निर्णय
है, एक "डिसीजन'
है। एक आदमी
कहता है, ईश्वर
नहीं है, ऐसा
मेरा संदेह
है। यह भी एक
निर्णय है। यह
"निगेटिव डिसीजन'
है। एक आदमी
कहता है कि
पता नहीं
ईश्वर है, पता
नहीं ईश्वर
नहीं है। यह "इनडिसीसिवनेस'
है। यह संशय
है। संशय
विनाश कर देता
है, क्योंकि
वह अनिर्णय
में छोड़ देता
है।
अर्जुन
को जब कृष्ण
कहते हैं कि
तू संशय में मत
पड़, निर्णायक
हो, निश्चयात्मक
हो, "डिसीसिव'
हो; निश्चयात्मक
बुद्धि को
उपलब्ध हो, तू निश्चय
कर कि तू कौन
है, तू
संशय में मत
पड़ कि मैं
क्षत्रिय हूं
कि मैं ब्राह्मण
हूं कि
संन्यास लेने
को हूं, तू
निर्णय कर; तू स्पष्ट
निर्णय को
उपलब्ध हो
अन्यथा तू विनष्ट
हो जाएगा। "इनडिसीजन'
विनाश कर
देगा, तू
भटक जाएगा, तू खंड-खंड
हो जाएगा। तू
अपने ही भीतर
विभाजित हो
जाएगा और लड़
जाएगा और
टूटकर नष्ट हो
जाएगा। "डिसइंटिग्रेटेड'
हो जाएगा।
संशय
को अक्सर ही
संदेह समझा
गया है और
वहां भूल हो गई
है। मैं संदेह
का पक्षपाती
हूं और संशय
का पक्षपाती
मैं भी नहीं
हूं। मैं भी
कहता हूं, संदेह बहुत
उचित है और
संदेह के लिए
कृष्ण जरा-भी
इनकार नहीं
करते। संदेह
के लिए तो वह
बिलकुल राजी
हैं कि तू पूछ!
पूछ का मतलब ही
संदेह है। तू
और पूछ। पूछने
का मतलब ही
संदेह है।
लेकिन वह यह
कहते हैं कि
तू भीतर संशय
से मत भर
जाना। "कन्फ्यूज्ड'
मत हो जाना।
संभ्रम से मत
भर जाना। ऐसा
न हो कि तू तय
करने में
असमर्थ हो जाए
कि क्या करणीय
है, क्या
न-करणीय है; क्या करूं, क्या न करूं!
"ईदर-ऑर' में मत पड़
जाना। या यह
या वह, ऐसे
मत पड़ जाना।
एक
विचारक हुआ है, सोरेन कीर्कगार्द।
उसने एक किताब
लिखी--"ईदर
ऑर'।
किताब का नाम
है--"यह या वह?' किताब ही
लिखी होती, ऐसा नहीं था,
उसका
व्यक्तित्व
भी ऐसा ही
था--यह या वह? उसके गांव
में, कोपनहेगन में उसका
नाम ही लोग
भूल गए और "ईदर-ऑर'
उसका नाम हो
गया। और जब वह
गलियों से
निकलता, तो
लोग चिल्लाते,
"ईदर ऑर' जा
रहा है।
क्योंकि वह
चौरस्तों पर
भी खड़ा होकर
सोचता है कि
इस रास्ते
जाऊं कि उस
रास्ते से! ताले
में चाबी
डालकर सोचता
है--इस तरफ घुमाऊं
कि उस तरफ! एक
स्त्री को
प्रेम करता था,
रोजीना को। फिर उस
स्त्री ने
विवाह का
निवेदन किया तो
जीवन-भर
निर्णय न कर
पाया--करूं, कि न करूं! यह
"डाउट' नहीं है, यह
"इनडिसीसिवनेस'
है।
तो
कृष्ण जो
अर्जुन से
कहते हैं, वह कहते हैं
तू संशय में
पड़ेगा तो नष्ट
हो जाएगा।
संशय में जो
भी पड़े वे
नष्ट हो गए, क्योंकि
संशय खंडित कर
देगा। तू ही
विरोधी हिस्सों
में बंट
जाएगा।
खंड-खंड होकर
टूटेगा, तुझे
अखंड होना
चाहिए। और
निर्णय से
आदमी अखंड हो
जाता है। अगर
आपने जिंदगी
में कभी भी
कोई "डिसीजन'
लिया है, कभी भी कोई
निर्णय किया
है, तो उस
निर्णय में आप
कम-से-कम क्षण-भर
को तो तत्काल
अखंड हो जाते
हैं। जितना
बड़ा निर्णय, उतनी बड़ी
अखंडता आती
है। अगर कोई
समग्ररूपेण एक
निर्णय कर ले
जीवन में तो
उसके भीतर
"विल', संकल्प
पैदा हो जाता
है। वह एक हो
जाता है, एकजुट,
योग को
उपलब्ध हो
जाता है।
तो
कृष्ण की पूरी
चेष्टा संशय
मिटाने की--संदेह
मिटाने की
नहीं, क्योंकि
संदेह तो तू
पूरा कर, संशय
को मिटा। और, मैं संदेह
का पक्षपाती
हूं। मैं कहता
हूं, संदेह
जरूर करें।
संदेह करने का
मतलब है, उस
समय तक संदेह
की छेनी का
उपयोग करें, जब तक
श्रद्धा की
मूर्ति निखर
न आए। तो
तोड़ते जाएं, तोड़ते जाएं,
आखिर तक
लड़ें, संदेह
करें, किसी
को मान न लें।
तोड़ते जाएं, लड़ते जाएं, तोड़ते जाएं,
एक दिन वह
घड़ी आ जाएगी
कि मूर्ति निखर
आएगी; तोड़ने
को कुछ बचेगा
नहीं। अब
तोड़ना अपने को
ही तोड़ना
होगा। अब कुछ
तोड़ने को न
बचा। मूर्ति पूरी
प्रगट हो गई
है, अब
व्यर्थ पत्थर
अलग हो गए हैं,
अब श्रद्धा
उत्पन्न
होगी।
संदेह
की अंतिम
उपलब्धि
श्रद्धा है और
संशय की अंतिम
उपलब्धि
विक्षिप्तता
है। पागल हो
जाएगा आदमी, कहीं का न रह
जाएगा, सब
खो जाएगा। उस
अर्थ में
समझेंगे तो
खयाल में बात
आ सकती है।
(...ऐसा
एक-दो दिन रख
लेंगे जब सब
पूछ सकेंगे)।
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