योग—सूत्र:
(विभुतिपाद)
बहिरकल्पिता
वृत्तिर्महाविदेहा
तत: प्रकाशावरणक्षय:।।44।।
चेतना
के आयाम को
संस्पर्शित
करने की शक्ति
मनस शरीर के
परे है, अत:
अकल्पनीय है,
महाविदेह
कहलाती है.।...इस
शक्ति के
द्वारा
प्रकाश पर
छाया हुआ आवरण
हट जाता है।
स्थूल
स्वरूपस्वान्वयार्थवत्वसंयमाक्सजय:।।
45 ।।
उनके
स्थूल, सतत,
सूक्ष्म, सर्वव्यापी
और क्रियाशील
स्वरूप पर
संपन्न हुआ
संयम,
पंचभूतों, पाँच तत्वों
पर आधिपत्य
ले आता है।
ततोउणिमादिप्रादुर्भाव:
कायसंपत्तद्धर्मानाभिधातश्च।।
46।।
इसके
उपरांत अणिमा
आदि, देह
की संपूर्णता
और देह को
बाधित करने
वाले
तत्वों
के निर्मूलन
की उपलब्धि
प्राप्त
होती है।
रूपालावण्यवलवज्रसंहननत्वानि
कायसंपत्।।
47।।
सौंदर्य, लावण्य, शक्ति और
वज्र सी
कठोरता,
ये सभी
मिल कर
संपूर्ण देह
का निर्माण
करती है।
पतंजलि का
योग—सूत्र कोई
दार्शनिक
व्यवस्था
नहीं है। यह
अनुभवात्मक
है। यह एक
उपकरण है, जिससे
कुछ किया जाना
है। लेकिन फिर
भी इसमें एक
दर्शन समाहित
है। यह भी
तुम्हें इस
बात की
बौद्धिक समझ
देने के लिए
कि तुम कहा जा
रहे हो, क्या
खोज रहे हो।
यह दर्शन
प्रयोग करने
जैसा है, उपयोगी
है, इससे
उस क्षेत्र का
जिसकी सीमाओं
का तुम अन्वेषण
करने जा रहे
हो संपूर्ण
चित्र खिंच
जाता है; लेकिन
इस दर्शन को
समझना पड़ेगा।
पतंजलि
के दर्शन के
बारे में पहली
बात, मनुष्य
के
व्यक्तित्व
को वे पांच
बीजों, पांच
शरीरों में
बांटते हैं।
उनका कहना है
कि तुम्हारे
पास सिर्फ एक
शरीर ही नहीं
है; तुम्हारे
पास पर्त दर
पर्त देहें
हैं; वे
पांच हैं।
पहले शरीर को
वे 'अन्नमय
कोष', भोजन—काया,
पार्थिव—देह
कहते हैं। जो
पृथ्वी से बनी
है और लगातार
भोजन द्वारा पोषित
होती रहती है।
भोजन पृथ्वी
से मिलता है।
यदि तुम भोजन
करना छोड़ दो
तो तुम्हारा
अन्नमय कोष
क्षीण होने
लगेगा। अत:
व्यक्ति को इस
बात के प्रति
बहुत सजग रहना
पड़ता है कि वह
क्या खा रहा
है, क्योंकि
उसका निर्माण
इसी से हो रहा
है, और यह
उसे लाखों ढंग
से प्रभावित
करता है, क्योंकि
देर—अबेर
तुम्हारा
भोजन मात्र
खाद्य
सामग्री ही नहीं
रहता, यह
तुम्हारा
रक्त, तुम्हारी
अस्थियां, तुम्हारी
मांस—मज्जा बन
जाता है। यह
तुम्हारे
अस्तित्व में प्रवाहित
होकर तुम्हें
प्रभावित
करता है। अत:
भोजन की
शुद्धता एक
परिशुद्ध
अन्नमय कोष, एक शुद्ध
भोजन—काया
निर्मित करती
है।
और अगर
पहला शरीर
शुद्ध है, हलका है,
निर्भार है,
तो ही दूसरे
शरीर में
प्रवेश करना
सुगम हो जाता
है। अन्यथा यह
कठिन होगा, तुम बोझिल
होते हो। क्या
तुमने कभी इस
बात पर गौर
किया है कि जब
भी तुमने अधिक
मात्रा में और
भारी भोजन
किया हो, तो
तुरंत ही
तुम्हें एक
आलस्य की
अनुभूति, एक
नींद सी महसूस
होने लगती है।
तुम्हारा मन
सो जाने की
मांग करने
लगता है, तुरंत
ही जागरूकता खोने
लगती है। जब
पहला शरीर
बोझिल हो तो
तीक्ष्ण बोध
का जागना कठिन
हो जाता है।
अत: सभी
धर्मों में
अनाहार इतना
महत्वपूर्ण हो
गया है। लेकिन
अनाहार का
विज्ञान है और
इसे मूढ़तापूर्वक
नहीं अपनाया
जाना चाहिए।
अभी उस
रात को ही एक
संन्यासिनी
मुझसे कह रही थीं
कि वह उपवास
करती रही है
और उसका सारा
शरीर, समग्र
अस्तित्व, अस्तव्यस्त,
पूर्णत:
अव्यवस्थित
हो गया है। अब
उसका पेट ठीक
ढंग से कार्य
नहीं कर रहा
है। और जब
आमाशय ठीक से
कार्य न कर पा
रहा हो तो सारा
शरीर कमजोर हो
जाता है।
जीवंतता
क्षीण होने
लगती है और
तुम जिंदा नहीं
रह पाते। तुम
धीरे— धीरे
असंवेदनशील
और अंततः मृत
हो जाते हो।
लेकिन
अनाहार
महत्वपूर्ण
है। जब कोई
अन्नमय कोष की
क्रिया विधि
को समझ चुका
हो, तो
ही इसको
अत्यधिक
सावधानी
पूर्वक
अपनाया जाना
चाहिए। इसको
किसी ऐसे
व्यक्ति के
दिशा
निर्देशन में,
जो अपने
अन्नमय कोष के
सारे आयामों
में गतिमान हो
चुका हो, न
सिर्फ गतिमान
वरन वह उसके
पार भी जा
चुका हो, और
जो अन्नमय कोष
को एक साक्षी
की भांति देख
सकता हो, के
उचित मार्ग—निर्देशन
में किया जाना
चाहिए।
अन्यथा
अनाहार घातक
हो सकता है।
इसके
बाद भोजन की
उचित मात्रा
और उचित
गुणवत्ता का
अनुपालन करना
होता है। फिर
अनाहार की
जरूरत नहीं
रहती।
फिर भी
अन्नमय कोष
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
यह तुम्हारा
पहला शरीर है।
और अधिकतर लोग
अपने पहले
शरीर से इतने
चिपके होते
हैं कि कभी
दूसरे की ओर
गतिमान नहीं
होते। लाखों
लोगों को इस
बात का बोध ही
नहीं है कि उनके
पास पहले के
पीछे छिपा हुआ
एक गहरा शरीर
एक दूसरी देह
भी है। पहली
पर्त बहुत
स्थूल है।
दूसरे
शरीर को
पतंजलि 'प्राणमय कोष',
ऊर्जा—शरीर,
विद्युत—काया
कहते हैं।
दूसरा
विद्युत
क्षेत्रों से
बना है। इसी
शरीर पर
एक्युपॅक्चर
कार्य करता है।
दूसरा शरीर
पहले से अधिक
सूक्ष्म है।
और जो लोग
पहले से दूसरे
की ओर बढ़ने
लगते हैं वे
अत्यधिक
आकर्षक, चुंबकीय,
सम्मोहक और
ऊर्जा—पुंज बन
जाते हैं। यदि
तुम उनके पास
जाओगे तो स्फूर्ति
और जीवंतता
महसूस करोगे।
यदि
तुम ऐसे
व्यक्ति के
पास जाते हो
जो सिर्फ अपने
अन्न—शरीर में
जी रहा है, तो तुम
रिक्तता
अनुभव करोगे,
वह तुम्हें सोख
लेगा। अनेक
बार तुम ऐसे
लोगों के
संपर्क में
आते हो और यह
महसूस करते हो
कि वे तुम्हें
सोखते हैं। जब
वे हट जाते
हैं तो तुम्हें
खालीपन का, रिक्तता का
अहसास होता है,
जैसे कि
किसी ने ऊर्जा
को शोषित कर
लिया हो। पहला
शरीर शोषक है,
और यह बहुत
स्थूल भी है।
यदि तुम अन्न—शरीर
उन्मुख लोगों
के साथ बहुत
अधिक रहते हो,
तो तुम सदा
बोझिलता, तनाव,
ऊब, नींद
और ऊर्जा
विहीनता का
अनुभव करोगे,
सदा अपनी
ऊर्जा के
निचले पायदान
पर रहोगे और उच्चतर
विकास में
लगाने के लिए
तुम्हारे पास
कोई ऊर्जा
नहीं बचेगी।
इस
प्रकार का, पहले
प्रकार का, अन्नमय कोष
उन्मुख
व्यक्ति खाने
के लिए जीता है—वह
खाता है और
खाता है और
खाए चला जाता
है। और यही
उसका संपूर्ण
जीवन है। एक
अर्थ में वह
बचकाना रहता
है। संसार में
आकर जो सबसे
पहला काम करता
है वह है हवा
खींचना और दूध
अना। बच्चे को
संसार में आकर
पहला कार्य
भोजन—काया की
सहायता का
करना पड़ता है,
और यदि कोई
भोजन से आसक्त
रहता है, तो
वह बचकाना बना
—रहता है।
उसके विकास
में बाधा आती
है।
यह
दूसरा शरीर, प्राणमय
कोष, तुम्हें
नई
स्वतंत्रता
देता है, तुम्हें
ज्यादा आकाश
देता है।
दूसरा शरीर
पहले से. बड़ा
है, यह
तुम्हारे
भौतिक शरीर तक
ही सीमित नहीं
है। यह भौतिक
शरीर के अंदर
है और यही
भौतिक शरीर के
बाहर है। यह
सूक्ष्म वायु
की, ऊर्जा—मंडल
की भांति
तुम्हें घेरे
हुए है। अब तो
उन्होंने
सोवियत रूस
में यह खोजा
है कि इस
ऊर्जा—शरीर के
चित्र लिए जा
सकते हैं। वे
इसे बायो—प्लाज्मा
कहते हैं, लेकिन
इसका सही
अभिप्राय है,
प्राण। इस
ऊर्जा, एलान
वाइटल, या
जिसे ताओवादी 'ची' कहते
हैं, का अब
चित्र खींचा
जा सकता है।
अब यह करीब—करीब
वैज्ञानिक
बात है।
और
सोवियत रूस
में एक बड़ा
अविष्कार, किया गया
है, वह यह
कि इस के
पूर्व
तुम्हारा
भौतिक शरीर
किसी रोग से
पीड़ित हो, ऊर्जा
शरीर इससे छह
माह पूर्व ही
पीड़ित हो जाता
है। फिर यही
भौतिक शरीर को
घटता है। यदि
तुम्हें टीबी.
या कैंसर या
कोई और बीमारी
होने वाली हो
तो तुम्हारे
ऊर्जा शरीर
में छह माह
पूर्व से इसके
लक्षण दिखने
लगते हैं।
भौतिक शरीर का
कोई परीक्षण,
कोई जांच
कुछ नहीं
दर्शाता है, लेकिन
विद्युत शरीर
इसे दिखाने
लगता है। पहले
यह प्राणमय
कोष में प्रकट
होता है, तभी
यह अन्नमय कोष
में प्रविष्ट
होता है। अत:
अब वे कहने
लगते हैं कि
बीमार पड़ने से
पूर्व ही किसी
व्यक्ति का
इलाज करना
संभव है। यदि
ऐसा संभव हो
गया तो मानव—जाति
रोगी नहीं
होगी। इसके
पहले कि तुम
अपनी बीमारी
के बारे में
जानो, किरलियान
विधि द्वारा
लिए गए
तुम्हारे
फोटो बता
देंगे कि
तुम्हारे
भौतिक शरीर को
कोई बीमारी
होने वाली है।
इसे प्राणमय
कोष में ही
रोका जा सकता
है।
यही
कारण है कि
योग में श्वसन
की शुद्धता पर
इतना ज्यादा
जोर दिया जाता
है। क्योंकि
प्राणमय कोष
एक सूक्ष्म
ऊर्जा से निर्मित
है जो श्वास
के साथ
तुम्हारे
शरीर के भीतर
संचारित होती
है। यदि तुम
ठीक से श्वास
लेते हो तो
तुम्हारा प्राणमय, कोष
स्वस्थ, समग्र
और जीवंत रहता
है। ऐसा
व्यक्ति कभी
थकान अनुभव
नहीं करता, वह सदा कुछ
भी करने को
तत्पर रहता है,
ऐसा
व्यक्ति सदा
प्रतिसंवेदी
रहता है, सदा
ही वर्तमान पल
की
प्रतिसवेदना
हेतु, इस
क्षण की
चुनौती
स्वीकारने के
लिए तैयार रहता
है। वह सदा
तैयार है। तुम
उसे किसी भी
क्षण बिना
तैयारी के
नहीं पाओगे।
ऐसा नहीं है
कि वह भविष्य
की योजना बनाता
है, नहीं, बल्कि उसके
पास इतनी
ऊर्जा है कि
जो कुछ भी हो वह
प्रतिसवेदना
हेतु तैयार है।
उसके पास
ऊर्जा का
अतिरेक होता
है। ताई—ची
प्राणमय कोष
पर कार्य करता
है।
प्राणायाम
प्राणमय कोष
पर कार्य करता
है।
और यदि
तुम जानते हो
कि प्राकृतिक
रूप से श्वास
कैसे ली जाए, तो तुम
अपने दूसरे
शरीर तक
विकसित हो
जाओगे। और
दूसरा शरीर
पहले शरीर से
अधिक ताकतवर
है। और दूसरा
शरीर पहले
शरीर की तुलना
में ज्यादा
दिन जीवित
रहता है।
जब कोई
मरता है तो
लगभग तीन दिन
तक तुम उसका
बायो—प्लाज्मा
देख सकते हो
कभी कभी इसे
गलती से उसका
भूत समझ लिया
जाता है।
भौतिक शरीर मर
जाता है, लेकिन ऊर्जा
शरीर सतत
गतिशील रहता
है। और जिन
लोगों ने
मृत्यु के
बारे में गहरे
प्रयोग किए
हैं, वे
कहते हैं कि
जो व्यक्ति मर
गया है उसे यह
विश्वास करने
में कि वह मर
गया है, तीन
दिन तक बहुत
कठिनाई होती
है, क्योंकि
वही रूप, पहले
से ज्यादा
जीवंत, पहले
से ज्यादा
स्वस्थ, पहले
से ज्यादा
सुंदर उसके
चतुर्दिक
होता है। यह
इस पर निर्भर
है कि
तुम्हारे पास
कितना बड़ा
बायो—प्लाज्मा
है, यह
तेरह दिन या
और ज्यादा भी
अस्तित्व में
रह सकता है।
योगियों
की समाधियों
के आस—पास...
भारत में
जिन्होंने
समाधि उपलब्ध
कर ली है उनके
शरीर को .छोड़
कर हम सभी के
शरीर जला देते
हैं। हम एक
निश्चित कारण
से उनका शरीर
नहीं जलाते।
जब शरीर को
जला दिया जाता
है तो बायो—प्लाज्मा
पृथ्वी से दूर
जाने लगता है।
तुम इसे कुछ
दिन अनुभव कर
सकते हो, लेकिन फिर
यह ब्रह्मांड
में विलीन हो
जाता है।
लेकिन यदि
भौतिक शरीर
बचा हुआ हो तो
बायो—
प्लाज्मा
इससे जुड़ा रह
सकता है। और
ऐसे व्यक्ति
का जो समाधि
को उपलब्ध कर
चुका है, जो
सबुद्ध हो
चुका है, यदि
उसका बायो—प्लाज्मा
उसकी समाधि के
आस—पास रह .सके,
तो इससे
बहुत से
व्यक्ति
लाभान्वित
होंगे। इसी भांति
कई लोगों ने
अपने गुरु को
देहत्याग के
बाद साकार
देखा है।
अरविंद
आश्रम में, अरविंद
के शरीर को
विनष्ट नहीं
किया गया, जलाया
नहीं गया, समाधि
में रखा गया
है। कई लोगों
का अनुभव है
कि जैसे
उन्होंने
अरविंद को
इसके आस—पास
देखा है। या
कभी—कभी
उन्होंने, अरविंद
जिस प्रकार
चला करते थे, वैसी ही
पदचाप सुनी है।
और कभी—कभी वे
उनके सम्मुख आ
खड़े होते हैं।
ये अरविंद
नहीं हैं, यह
बायो—प्लाज्मा
है। अरविंद तो
जा चुके, लेकिन
बायो—प्लाज्मा,
प्राणमय
कोष, सदियों
तक बना रह
सकता है। यदि
कोई व्यक्ति
अपने प्राणमय
कोष के साथ सच में
ही लयबद्ध था,
तो यह बना
रह सकता है।
यह अपना निजी
अस्तित्व
बनाए रख सकता
है।
स्वाभाविक
श्वसन क्रिया
समझ लेनी
चाहिए। छोटे
बच्चों को
देखो, वे
स्वाभाविक
ढंग से श्वास
लेते हैं। यही
कारण है कि वे
ऊर्जा से इतने
भरपूर होते हैं।
मां—बाप थक
जाते है, परंतु
वे नहीं थकते।
एक
बच्चा दूसरे
बच्चे से कह
रहा था, मुझमें इतनी
ऊर्जा है कि
मेरे जूते सात
दिन में ही फट
जाते हैं।
दूसरा बोला :
यह तो कुछ भी
नहीं, मेरे
अंदर इतनी
ऊर्जा है कि
मेरे कपड़े तीन
दिन में पहनने
लायक नहीं
रहते हैं।
तीसरे
ने कहां. यह भी
कुछ नहीं है, मैं तो
ऊर्जा से इतना
ओतप्रोत हूं
कि एक घंटे
में ही मेरे
माता— पिता
हताश हो जाते
हैं।
अमरीका
में उन्होंने
एक ऐसा प्रयोग
किया कि एक
अत्यांधिक
ऊर्जावान
व्यक्ति, जिसकी
पहलवान जैसी
देह थी और जो
बहुत शक्तिशाली
था, से एक
छोटे से बच्चे
की नकल करने
को और उसका अनुसरण
करने को कहा
गया। जो कुछ
भी बच्चा करे,
पहलवान को
वही करना था, बस आठ घंटे
तक उसकी नकल
उतारना था।
चार घंटे में
ही पहलवान की
हालत पतली हो
गई, वह थक
कर गिर पड़ा, क्योंकि
बच्चे ने इसका
बहुत आनंद
लिया और उसने,
उछलना, कूदना,
चीखना, चिल्लाना
शुरू कर दिया।
और पहलवान को
तो उसकी नकल करना
ही था। पहलवान
शिथिल पड़ गया,
वह बोला, वह मुझे मार
ही डालेगा, आठ घंटे? मैं
नहीं बर्क। अब
मैं और कुछ
नहीं कर सकता।
वह एक महान
मुक्केबाज था,
लेकिन
मुक्केबाजी
एक अलग बात है।
तुम एक बच्चे
से मुकाबला
नहीं कर सकते।
यह
ऊर्जा कहां से
आती है? यह प्राणमय
कोष से आती है।
बच्चा
स्वाभाविक
ढंग से श्वास
लेता है, तो
निसंदेह अधिक
प्राण भीतर
लेता है, ज्यादा
ची उसमें जाती
है, और यह
उसके उदर में
एकत्रित हो
जाती है। उदर
संचय का स्थान
है, कुंड
है। बच्चे का
निरीक्षण करो
यही है श्वास
लेने का उचित
ढंग। जब एक
बच्चा श्वास
लेता है, उसका
वक्ष पूर्णत:
अप्रभावित
रहता है। उसका
उदर ऊपर और
नीचे होता है।
वह तो जैसे
पेट से ही
श्वास लेता है।
सारे बच्चों
का एक अलग सा
पेट होता है; ऐसा पेट
उनके श्वास
लेने के ढंग
और ऊर्जा के कुंड
के कारण होता
है।
श्वास
लेने का उचित
ढंग यही है।
याद रखो, अपना वक्ष बहुत
ज्यादा उपयोग
में नहीं लाना
है। कभी कभार
आपातकाल में
यह इस्तेमाल
किया जा सकता
है। तुम अपनी
जान बचाने को
दौड़ रहे हो, तब सीने का
प्रयोग किया
जा सकता है।
यह आपातकालीन
उपाय है। जब
तुम उथली, तेज
श्वास ले सकते
हो और दौड़
सकते हो।
लेकिन
सामान्यत: तो
छाती का प्रयोग
नहीं किया
जाना चाहिए।
और एक बात याद
रखनी है, छाती
का उपयोग आपात
स्थिति में ही
किया जाना चाहिए,
क्योंकि
आपात स्थिति
में
स्वाभाविक
श्वास चलना
कठिन है, क्योंकि
यदि तुम
स्वाभाविक
श्वास लेते
रहे तो तुममें
इतनी थिरता और
शांति रहेगी
कि न तुम दौड़
सकोगे, न
तुम लड़ सकोगे।
तुम इतने
विश्रांत और
अखंड होगे, बुद्ध की
भांति; और
आपात स्थिति
में—जैसे घर
में आग लगी हो।
यदि तुम
स्वाभाविक
ढंग से श्वास
लेते रहे, तो
तुम कुछ भी
बचा नहीं
पाओणे। या
जंगल में कोई
चीता तुम पर
छलांग लगा दे
और तुम
स्वाभाविक
ढंग से स्वास
लेते रहे, तो
तुम्हें कोई
चिंता ही न
होगी। तुम
कहोगे, 'ठीक
है, वह जो
करना चाहता है
करने दो।' तुम
अपने को बचाने
लायक भी न
रहोगे।
अत:
प्रकृति ने एक
आपात उपाय
दिया है, छाती का
प्रयोग आपात
विधि है। जब
कोई चीता तुम
पर हमला करे
तो तुम्हें
स्वाभाविक
श्वसन क्रिया
छोड़नी पड़ेगी,
और तुम्हें
छाती से श्वास
लेनी पड़ेगी।
तब तुम्हारे
पास दौड़ने, संघर्ष करने
या ऊर्जा के
त्वरित उपयोग
की अधिक
क्षमता हो
जाती है। और
आपातकालीन
परिस्थितियों
में केवल दो
विकल्प होते
हैं, भागो
या लड़ो। दोनों
के लिए बड़ी
सतही लेकिन
सघन ऊर्जा की,
ऊपरी, लेकिन
हलचल भरी, तनाव
पूर्ण स्थिति
की जरूरत होती
है।
अब अगर
तुम छाती से
ही श्वास लिया—करते
हो, तुम्हारे
मन में अनेक
तनाव आने
लगेंगे। यदि
तुम लगातार
छाती से ही
श्वास लेते हो
तो तुम सदा
भयभीत रहोगे।
क्योंकि छाती
से श्वास लेना
सिर्फ भयंकारी
परिस्थितियों
के लिए है। और
अगर तुमने इसे
आदत बना लिया
है तो तुम
लगातार, भयभीत,
तनावग्रस्त,
सदा भागने
को आतुर रहोगे।
कहीं शत्रु
नहीं है, लेकिन
तुम शत्रु के
वहां होने की
कल्पना कर लोगे।
इसी भांति
विभ्रामकता
निर्मित होती
है।
पश्चिम
में भी कुछ
लोगों ने, अलेक्येंडर,
लावेन या
दूसरे जीव—ऊर्जा
वालें लोगों
ने, जो जीव—ऊर्जा
पर कार्य कर
रहे हैं, इस
घटना को देखा
है। यह ऊर्जा
ही प्राण है।
उन्होंने यह
अनुभव किया कि
जो लोग भयभीत
है, उनकी
छाती
तनावग्रस्त
है और वे बहुत
उथली श्वास
लिया करते हैं।
यदि उनकी
श्वास को गहरा
किया जा सके, कि वह उदर को,
हारा
केंद्र को छूने
लगे, तब
उनका भय
तिरोहित हो
जाता है। यदि
उनकी मांस—पेशियों
को विश्रांत
किया जा सके, जैसा कि
रोल्फिंग में
किया जाता है..
.इदा सेल्फ ने
शरीर की आंतरिक
संरचना को
परिवर्तित
करने की कुछ
सुंदर विधियां
अविष्कृत की
हैं, क्योंकि
अगर तुम कई
वर्षों से गलत
ढंग से श्वास
लेते आ रहे हो
तो तुमने मांस—पेशियों
का एक ढंग
विकसित कर
लिया है, यह
ढंग तुम्हें
उचित ढंग से
या गहरी श्वास
नहीं लेने
देगा और बीच
में अवरोध बन
जाएगा। और यदि
तुम कुछ सेकंड
याद रख सको कि
गहरी श्वास
लोगे; फिर
जब तुम अपने
कौम में उलझ
जाओगे, तुम
पुन: उथली छाती
से श्वास लेना
शुरू कर दोगे।
मांस—पेशियों
के ढंग को
बदलना पडेगा।
एक बार यह
पेशी विन्यास
बदल जाए, भय
मिट जाता है, तनाव खो
जाता है।
रोलफिग
अत्यधिक
सहायक होती है।
लेकिन काम तो
प्राणमय कोष
दूसरे शरीर, बायो—प्लाज्मा
बॉडी, जीवन—ऊर्जा
देह, ची
शरीर, या
जो कुछ भी नाम
तुम इसे देना
चाहो, पर
हो रहा होता
है।
एक
बच्चे को
ध्यान से देखो,— यही
श्वास लेने का
स्वाभाविक
ढंग है, और
उसी प्रकार से
श्वास लो।
जबतुम श्वास
भीतर लो तब
अपने पेट को
ऊपर उठने देना
और श्वास
छोड़ते समय पेट
को भीतर आने
दो। इस बात को
ऐसी लय में' होने दो कि यह
तुम्हारी
ऊर्जा का एक
गीत, एक
नृत्य, एक
लयबद्धता, एक
समस्वरता सा
बन जाए। और
तुम इतना
विश्रांत
इतना जीवंत, इतना
ऊर्जस्वी
अनुभव करोगे,
जिसकी
तुमने कभी
कल्पना भी न
की होगी कि
इतनी जीवंतता
संभव है।
अब आता
है तीसरा शरीर
'मनोमय
कोष', मनस—शरीर।
तीसरा दूसरे
से बड़ा, दूसरे
से सूक्ष्मतर,
दूसरे से
उच्चतर है।
पशुओं के पास
दूसरा शरीर तो
है परंतु
तीसरा शरीर
नहीं है।
जानवर कितने
प्राणवान
होते हैं। एक
शेर को चलते
हुए देखो।
कितनी
सुंदरता, कितना
प्रसाद, कैसी
शान है।
मनुष्य को
इससे सदा
ईर्ष्या रही
है। एक हिरन
को दौड़ते हुए
देखो। कैसा
निर्भार सा, कितनी ऊर्जा,
कैसी महत
ऊर्जा की घटना
है। मनुष्य को
सदा इससे
ईर्ष्या रही
है। लेकिन
मनुष्य की
ऊर्जा उच्चतर
की ओर बढ़ रही है।
तीसरा
शरीर मनोमय
कोष, मनस—शरीर
है। यह विराट
है, दूसरे
से अधिक
विस्तृत है।
और यदि तुम
इसका विकास
नहीं करते, तो तुम मनुष्य
होने की
संभावना
मात्र बने
रहोगे, वास्तविक
मनुष्य नहीं
होंगे।’मैन'
शब्द मन, मनोमय से
आया है।
अंग्रेजी
शब्द 'मैन'
भी संस्कृत
मूल 'मन' से आता है।’मैन' का
हिंदी अर्थ
मनुष्य भी उसी
मूल 'मन', मनस से आया
है। यह मन ही
है जो तुम्हें
मनुष्य बनाता
है। लेकिन करीब—करीब,
तुम्हारे
पास यह है
नहीं। इसके
स्थान पर
तुम्हारे पास
एक संस्करित
यांत्रिकता
है। तुम
अनुकरण से
जीते हो। ऐसे
में तुम्हारे
पास मन नहीं
होता। जब तुम
अपनी स्वयं की,
सहजस्फूर्त
जिंदगी जीना
शुरू कर देते
हो, जब
अपने जीवन की
समस्याओं का
हल तुम खुद
करते हो, जब
तुम
उत्तरदायी हो
जाते हो, तो
ही तुम मनोमय
कोष में
विकसित होने
लगते हो। तब
मनस शरीर
विकसित होता
है।
सामान्यत:
तुम हिंदू
मुसलमान या
ईसाई हो तब तुम्हारे
पास उधार का
मन होता है यह
तुम्हारा मन
नहीं है। हो
सकता है कि
जीसस मनोमय
कोष के महत्
विस्फोट को
उपलब्ध हुए
हों, और
फिर लोग बस
उसी को दोहराए
जा रहे हैं।
यह पुनरुक्ति
तुम्हारा
विकास नहीं
बनेगी। यह
पुनरुक्ति एक
रुकावट होगी।
पुनरुक्ति मत
करो बल्कि
समझने की
कोशिश करो। और—
और जीवंत, प्रामाणिक
और उत्तरदायी
बनो। यदि
भटकने की
संभावना भी हो
तो भटक जाओ।
क्योंकि अगर तुम
गलती करने सेइrइr बहुत
ज्यादा डरे
हुए हो तो
विकसित होने
का कोई उपाय
नहीं है।
गलतियां
अच्छी बात है।
गलतियां की
जानी चाहिए।
वही गलती
दुबारा कभी न
करो। लेकिन
गलती करने से
कभी डरो मत।
वे लोग जो
गलतियां करने
से बहुत डरे
हुए हैं कभी
विकसित नहीं
होते। वे आगे
बढ़ने से भयभीत
हैं, अत:
अपने स्थान पर
जमे रहते हैं।
वे जीवित नहीं
हैं।
मन का
विकास तभी
होता है जब
तुम
परिस्थितियों
का सामना, मुकाबला,
स्वयं के
भरोसे करते हो।
उन्हें
सुलझाने के
लिए तुम अपनी
ऊर्जा प्रयोग
में लाते हो।
सदा राय मत
मांगते रहो।
अपने जीवन की
बागडोर अपने
हाथ में थामो।
जब मैं कहता
हैं, अपने
अनुसार जीयो
तो मेरा यही
अभिप्राय है। तुम
मुश्किल में
पड़ोगे, दूसरों
का अनुगमन
करना
सुरक्षित है,
समाज के
पीछे चलना, बंधी—बधाई
लीक पर चलना, परंपरा का, शास्त्रों
का अनुकरण
करना, सुविधाजनक
है। यह बहुत
आसान है
क्योंकि हर
कोई अनुकरण कर
रहा है—तुम्हें
तो बस झुंड का
मुर्दा
हिस्सा भर
बनना है, तुम्हें
तो भीड़ जहां
जा रही है
उसके साथ जाना
है, इसमें
तुम्हारी कोई
जिम्मेवारी
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारा मनस—शरीर,
तुम्हारा
मनोमय—कोष, इससे
अत्यधिक
पीड़ित होगा, इसका विकास
नहीं होगा।
तुम्हारे पास
अपना निजी मन
नहीं होगा, और तुम बहुत
कुछ, बहुत
सुंदर और कुछ
ऐसे से चूक
जाओगे जो
उच्चतर विकास
के लिए सेतु
है।
अत: सदा
याद रखो, जो कुछ भी
मैं तुमसे
कहता हूं तुम
इसे दो ढंग से
ग्रहण कर सकते
हो। तुम इसे
मेरी
प्रमाणिकता
मान कर अपना
सकते हो।’ ओशो
ने ऐसा कहा है,
अत: सत्य ही
होना चाहिए।’
तब तुम पीड़ा
उठौओगे, तब
तुम्हारा
विकास नहीं
होगा। जो कुछ
भी मैं कहता
हूं उसे सुनो,
समझने की
कोशिश करो, इसे अपने
जीवन में
उतारो, देखो
यह कैसे कार्य
करता है, और
फिर अपने निजी
निष्कर्षों
पर पहुंचो। वे
समान हो सकते
हैं, वे
समान नहीं हो
सकते हैं। वे
पूर्णत: एक से
कभी नहीं हो
सकते।
क्योंकि
तुम्हारा एक
अलग
व्यक्तित्व, एक अनूठा
अस्तित्व है।
जो कुछ भी मैं
कह रहा हूं
मेरा निजी है।
बड़े गहरे ढंग
से इसकी जड़ें
मेरे भीतर
उतरी हुई हैं।
तुम उन्हीं
निष्कर्षों
तक पहुंच सकते
हो, परंतु
वे हूबहू एक
से नहीं होंगे।
अत: मेरे
निष्कर्ष
तुम्हारे
निष्कर्ष
नहीं बना दिए
जाने चाहिए।
तुम मुझे
समझने का
प्रयास करो, तुम सीखने
की कोशिश करो,
लेकिन
तुम्हें
मुझसे
जानकारी
एकत्रित नहीं करना
चाहिए, तुम्हें
मुझसे
निष्कर्ष
एकत्रित नहीं
करना चाहिए।
तब तुम्हारा
मनस शरीर
विकसित होगा।
लेकिन
लोग त्वरित
विधि अपनाते
हैं। वे कहते
हैं, 'यदि
आपने जान लिया
1 बात खतम।
हमें प्रयास
और प्रयोग
करने की जरूरत
ही क्या है? हम आपमें
विश्वास
करेंगे।’ विश्वासी
का कोई मनोमय
कोष नहीं होता।
उसके पास एक
छद्य मनोमय कोष
है, जो
उसके
अस्तित्व से
नहीं आया है
वरन बाहर से जबरन
आरोपित कर
दिया गया है।
अब
मनोमय कोष से
उच्चतर, मनोमय कोष
से विराट, यह
है. 'विज्ञानमय
कोष', यह है
भाव— शरीर। यह
बहुत—बहुत
विस्तीर्ण है।
अब इसमें कोई
कारण नहीं है,
यह
तर्कातीत है,
अत्यधिक
सूक्ष्म हो
गया है, यह
है भाव—बोध।
यह वस्तुओं के
स्वभाव में
सीधे देख लेना
है। यह उनके
बारे में
सोचने का
प्रयास नहीं
है। आंगन में
एक सरू का
वृक्ष है, तुम
बस उसे देखते
हो, तुम
इसके बारे में
सोचते नहीं, भाव में 'किसी
के बारे में' कुछ नहीं
होता। तुम बस
वहां मौजूद
होते हो, ग्रहणशील
होकर, और
सत्य स्वयं
अपनी प्रकृति
तुम पर
उदघाटित कर
देता है। तुम
प्रक्षेपित
नहीं करते।
तुम किसी तर्क,
निष्पत्ति,
या ऐसी किसी
बात की तलाश
में नहीं होते।
तुम तो खोज भी
नहीं रहे होते।
तुम मात्र
प्रतीक्षारत
होते हो, और
सत्य प्रकट हो
जाता है, यह
एक उदघाटन है।
भाव—शरीर
तुम्हें
क्षितिज की
सीमाओं के
बहुत आगे ले
जाता है, लेकिन
अभी एक शरीर
और है।
यह
पांचवां शरीर
है. 'आनंदमय
कोष', आनंद—काया।
यह वास्तव में
पहुंच के पार
है। यह शुद्ध आनंद
से निर्मित है।
भाव का भी
अतिक्रमण हो
गया है।
याद
रहे, ये
पांच बीज, मात्र
बीज हैं, इनके
पांचों के पार
है तुम्हारी
वास्तविकता।
ये तुम्हें
घेरे। हुए बीजावरण
मात्र हैं।
पहला बहुत
स्थूल है, छह
फीट के शरीर
में तुम लगभग
पूरे ही समाए
हुए हो। दूसरा
उससे बड़ा है, तीसरा और भी
बड़ा है, चौथा
इससे भी बड़ा, और पांचवां
बहुत बड़ा है। लेकिन
फिर भी ये
बीजावरण हैं।
सभी सीमित हैं।
यदि सारे
बीजावरण गिरा
दिए जाएं और
तुम अपनी
वास्तविकता
में अनावृत
खड़े हो, तो
तुम असीम हो।
यही कारण है
कि योग कहता
है : तुम
परमात्मा हो!
अहं—ब्रह्मास्मि।
तुम्हीं हो वह
ब्रह्म! अब
तुम स्वयं ही
परम सत्य हो, अब सारे
अवरोध गिराए
जा चुके हैं।
जरा
इसे. समझने की
कोशिश करना।
ये अवरोध
तुम्हें
वर्तुलों के
रूप में घेरे
हुए हैं। पहला
अवरोध
अत्याधिक
कठोर है। इसके
पार जाना बहुत
कठिन है। लोग
अपनी भौतिक
देह में सीमित
रहते हैं और
सोचते हैं कि
यह भौतिक जीवन
ही सारा जीवन
है। इसमें मत
ठहरो। भौतिक—शरीर, ऊर्जा—शरीर
के लिए एक
सोपान मात्र
है। ऊर्जा—शरीर
भी, मनस—शरीर
के लिए एक
सोपान है। यह
भी भाव—शरीर
के लिए स्वयं
मैं एक चरण है।
वह भी आनंद—काया
के लिए एक
सीढ़ी है। और
आनंद—काया से
तुम छलांग
लगाते हो, अब
कोई सीढ़ियां
नहीं हैं, तुम
अपने
अस्तित्व के
अतल शून्य में,
जो शाश्वत
और अनंत है, छलांग लगा
देते हो।
ये
पांच बीज हैं।
इन पांच बीजों
से संबंधित? पंचभूतों,
पांच
महातत्वों के
लिए योग के
पास एक अलग
देशना है।
जैसे कि
तुम्हारा
शरीर भोजन, पृथ्वी से
निर्मित है, पृथ्वी पहला
तत्व है। याद
रखो, इसका
इस धरती से
कुछ लेना—देना
नहीं है। तत्व
का अर्थ यह है
कि जहां भी
पदार्थ है। यह
पृथ्वी है; यह पदार्थ
पृथ्वी है, यह स्थूल
पृथ्वी है।
तुममें यह
शरीर है; तुम्हारे
बाहर सबकी
देहें हैं।
सितारे भी इसी
मिट्टी से बन—
हैं। जो भी
अस्तित्व
रखता है
मिट्टी से बना
है, मृण्मय
है। पहला आवरण
पार्थिव है।
पांच
भूतों का अर्थ
है : पांच
महातत्व—पृथ्वी, अग्नि जल,
वायु,
आकाश।
तुम्हारा
पहला शरीर
अन्नमय कोष, भोजन—काया
से पृथ्वी
संबंधित है।
अग्नि
तुम्हारे
दूसरे शरीर
ऊर्जा—शरीर, बायो—प्लाज्मा,
ची, प्राणमय
कोष से
संबंधित है, इसमें अग्नि
का गुण होता
है। तीसरा जल
है, यह
मनोमय कोष, मनस—शरीर से
संबंधित है, इसमें जल का
गुण होता है।
मन का
निरीक्षण करो,
कैसे यह
प्रवाह की
भांति, सदा
गतिशील, नदी
की भांति, गतिमान
रहता है। चौथा
है वायु, लगभग
अदृश्य, तुम
उसे देख नहीं
सकते, फिर
भी यह वहा
होती है, तुम
इसे मात्र
अनुभव कर सकते
हो, यह 'भाव—शरीर,
विज्ञानमय
कोष से
संबंधित है।
और तब आता है
आकाश, ईथर,
तुम इसे
अनुभव नहीं कर
सकते, यह
हवा से भी
अधिक सूक्ष्म
हो जाता है।
तुम इसका
विश्वास कर
सकते हो, श्रद्धा
कर सकते हो कि
यह वहां है।
यह शुद्ध आकाश
है, यह
आनंद है।
लेकिन
तुम शुद्ध
आकाश से
शुद्धतर, 'शुद्ध आकाश
से भी
सूक्ष्मतर हो।
तुम्हारा
यथार्थ ऐसा है
कि करीब—करीब
वह है ही नहीं।
यही कारण है
कि बुद्ध कहते
हैं : अनन्ता, अनात्मा।
तुम्हारा
आत्म अनात्म
जैसा है, तुम्हारा
अस्तित्व
करीब—करीब
अनअस्तित्व
जैसा है।
अनअस्तित्व
क्यों? क्योंकि
यह सारे स्थूल
तत्वों से
काफी परे है।
यह मात्र होना
है। इसके बारे
में कुछ कहा
नहीं जा सकता
है, कोई
व्याख्या
इसके लिए
पर्याप्त
नहीं है।
ये हैं
पांच भूत, पांच
महातत्व, जो
तुम्हारे
भीतर के पांच
कोषों, शरीरों
से संबंधित
हैं।
फिर
तीसरा विचार
सूत्र। मैं
चाहता हूं कि
तुम इन सभी को
समझ लो, क्योंकि जिन
सूत्रों पर हम
चर्चा करने जा
रहे हैं उनको
समझने में वे
उपयोगी होंगे।
अब बात आती है
सात चक्रों की।
चक्र का
वास्तविक
अर्थ
अंग्रेजी
शब्द 'सेंटर'
से नहीं है।
सेंटर शब्द
इसे परिभाषित
या वर्णित या
ठीक से अनुवादित
नहीं कर सकता।
क्योंकि जब हम
कहते है
केंद्र तो यह
कोई स्थिर चीज
प्रतीत होता
है। और चक्र
का अर्थ है
कोई गतिशील
चीज। चक्र
शब्द का अर्थ
है : पहिया, घूमता
हुआ पहिया।
अत: चक्र
तुम्हारे
अस्तित्व में
एक गतिशील केंद्र
है, करीब—करीब
एक भंवर, एक
बुलबुला, एक
चक्रवात के
केंद्र की
भांति। यह
गतिशील है, यह अपने
चारों और एक
ऊर्जा
क्षेत्र
निर्मित करता
है।
सात
चक्र। पहला एक
सेतु है और
अंतिम भी एक
सेतु है, शेष पांच, पांच
महाभूतों, पांच
महातत्वों और
पांच बीजों से
संबंधित हैं।
काम एक सेतु
है, तुम्हारे
और स्थूलतम, प्रकृति, कुदरत के
बीच।
सहस्त्रार, सातवां चक्र
भी एक सेतु है,
तुम्हारे
और अतल शून्य,
परम के बीच
एक पुल। ये
दोनो सेतु हैं
शेष पांच चक्र
पांच तत्वों और
पांच शरीरों
से संबंधित
हैं। यह है
पतंजलि की
व्यवस्था की
रूप—रेखा। याद
रहे कि यह
स्वैच्छिक है।
इसे एक उपाय
की भांति
प्रयोग किया
जाना है एक सिद्धांत
की भांति इस
पर परिचर्चा
नहीं करनी है।
यह किसी
धर्मशास्त्र
का कोई
सिद्धात नहीं
है। यह मात्र
एक उपयोगी
मानचित्र है।
तुम किसी
क्षेत्र में,
किसी
अनजाने, अनूठे
देश में जाते
हो, और तुम
अपने साथ एक नक्शा
लेकर जाते हो।
वह नक्शा
वास्तव में उस
क्षेत्र को
चित्रित नहीं
करता, एक
क्षेत्र को
कोई नक्शा
कैसे चित्रित
कर सकता है? नक्शा
कितना छोटा
होता है, वह
क्षेत्र
कितना विशाल। नक्शे
पर नगर एक
बिंदु होते
हैं। ये बिंदु
बड़े—बड़े शहरों
से कैसे
संबंधित हो
सकते हैं? नक्शे
पर सड़के सिर्फ
एक रेखा की
भांति होती
हैं। सड़के
सिर्फ एक रेखा
कैसे हो सकती
हैं? पहाड़ों
का बस एक
निशान होता है,
नदियों का
बस एक रेखांकन
होता है। और
छोटी—मोटी
नदियों को तो
छोड़ दिया जाता
है। केवल बड़ी
नदिया अंकित
की गई होती
हैं। यह एक
मानचित्र है;
यह कोई
सिद्धांत
नहीं है।
केवल
पांच शरीर
नहीं हैं, बहुत से
शरीर हैं, क्योंकि
दो शरीरों के —बीच
में उनको
जोड्ने के लिए
एक और चाहिए, और इसी
भांति और, और।
तुम एक प्याज
की तरह हो
पर्त दर पर्त,
लेकिन ये
पांच
पर्याप्त है।
हूं.... .ये खास
देहे हैं, मुख्य
शरीर। अत:
इसके बारे में
ज्यादा चिंता
न करो। हूं.., क्योंकि
बौद्ध कहते है
कि सात शरीर
हैं और जैन
कहते है कि नौ
शरीर हैं। कुछ
भी गलत नहीं
है और कुछ
विरोधाभास भी
नहीं है, क्योंकि
यह सिर्फ नक्शे,
की बात है।
यदि तुम विश्व
का मानचित्र
देख रहे हो तो
बड़े शहर और
बड़ी नदियां भी
उसमें नहीं
दिखेंगी। यदि
तुम एक देश का नक्शा
देख रहे हो, तो ऐसी कई
चीजें
दिखेंगी जो
विश्व के नक्शे
में नहीं थीं।
और अगर तुम एक
प्रांत का नक्शा
देखो, तो
कई और चीजें
प्रकट हो
जाएंगी। और
यदि एक जिले
का नक्शा देख
रहे हो निःसंदेह
और अधिक। और
एक ही शहर का
तब और बहुत
चीजें...। और
यदि बस एक
मकान का तब और
और.....। चीजें
प्रकट होती
जाती है, यह
इस पर निर्भर
होता है।
जैन
कहते हैं, नौ; बुद्ध
कहते हैं, सात;
पतंजलि
कहते हैं, पांच।
ऐसी
विचारधाराएं
हैं जो बस तीन
की बात करती हैं।
और वे सभी सही
हैं, क्योंकि
वे किसी तर्क
पर परिचर्चा
नहीं कर रहे
हैं, वे
तुम्हें
कार्य करने के
लिए कुछ उपकरण
मात्र दे रहे
हैं।
और
मेरे देखे
पांच लगभग सही
संख्या है।
क्योंकि पांच
से अधिक, बहुत हो
जाता है और
पांच से कम
बहुत थोड़ा।
पांच करीब—करीब
सही जान पड़ते
हैं। पतंजलि बहुत
संतुलित
विचारक हैं।
अब इन
चक्रों के
बारे में कुछ
बातें। पहला
चक्र, पहला
गतिशील चक्र
है काम का—मूलाधार।
यह तुम्हें
प्रकृति के
साथ जोड़ता है,
यह अतीत के
साथ जोड़ता है,
और यही
भविष्य के साथ
जोड़ता है:—।
तुम्हारा
जन्म दो
व्यक्तियों
की काम—क्रीड़ा
से हुआ था। तुम्हारे
माता—पिता की
काम—क्रीड़ा
तुम्हारे
जन्म का कारण
बन गई। तुम
अपने माता—पिता
से और उनके
माता—पिता से
और उनके माता—पिता
से और इसी
भांति और पीछे
तक काम—केंद्र
द्वारा जुड़े
हो। सारे अतीत
से तुम काम—केंद्र
द्वारा ही
संबंधित हो, और यह धागा
काम—केंद्र
द्वारा जुड़ता
चला गया है।
और यदि तुम
किसी बच्चे को
जन्म दो तो
तुम भविष्य से
जुड़ जाओगे।
जीसस
ने कई बार और
बड़े कठोर ढंग
से जोर देकर
कहा है, 'यदि तुम
अपनी माता से
और अपने पिता
से घृणा नहीं
करते, तुम
मेरे पास आकर
मेरा अनुगमन
नहीं कर सकते।’यह बात करीब—करीब
कठोर, लगभग
अविश्वसनीय
जान पड़ती है
कि जीसस जैसे
व्यक्ति, भला
वे इतने कठोर
शब्द क्यों
बोलेंगे? और
वे तो करुणा
के अवतार हैं
और वे साक्षात
प्रेम हैं। वे
क्यों कहते
हैं, 'यदि
तुम. मेरा
अनुगमन करना
चाहते हो, तो
अपनी माता से
घृणा करो, अपने
पिता से घृणा
करो। इसका
अभिप्राय है :
काम— प्रसंग
से बाहर निकलो।
वे जो कह रहे
हैं उसका
प्रतीकात्मक
अर्थ है : काम—केंद्र
के पार जाओ।
तबै तत्क्षण
तुम अतीत से
और संबंधित
नहीं रहते, भविष्य से
और संबंधित
नहीं रहते।
यह काम
है जो तुम्हें
समय का हिस्सा
बनाता है। एक
बार तुम काम
से पार चले
जाओ, तुम
शाश्वत का एक
भाग बन जाते
हो, समय का
भाग नहीं रहते।
तब अचानक केवल
वर्तमान का ही
अस्तित्व
बचता है। तुम
वर्तमान हो, लेकिन अगर
तुम खुद को
काम—केंद्र
द्वारा देखते
हो तो तुम
अतीत भी हो, क्योंकि
तुम्हारी आंखों
में तुम्हारी
माता और तुम्हारे
पिता का रंग
होता है, और
तुम्हारे
शरीर में
लाखों
पीढ़ियों के
परमाणु और
कोशिकाएं
विद्यमान
होंगी।
तुम्हारी
सारी रचना, जैव संरचना
एक लंबे
सातत्य का
हिस्सा है।
तुम एक बड़ी
श्रृंखला की
कडी हो।
भारत
में यह कहा
जाता है कि जब
तक तुम एक
संतान को जन्म
न दो तुम अपने
माता—पिता का
कर्ज नहीं
चुका सकते।
यदि तुम चाहते
हो कि अतीत का
ऋण 'तुम
से हट जाए, तो
तुम्हें
भविष्य
निर्मित करना
पड़ेगा। यदि
तुम वास्तव
में ऋण—मुक्त
होना चाहते हो,
तो अन्य कोई
उपाय नहीं है।
तुम्हारी मां
तुम्हें
प्रेम करती थी,
तुम्हारे
पिता तुम्हें
प्रेम करते थे,
अब तुम क्या
कर सकते हो? वे विदा हो
चुके। तुम मां
बन सकती हो
बच्चों की, तुम उनके
पिता बन सकते
हो और प्रकृति
का ऋण उसी कोष
में जमा कर
सकते हो जहां
से तुम्हारे
मां—बाप आए, तुम आए, तुम्हारे
बच्चे आएंगे।
काम एक
महत श्रृंखला
है। यह विश्व
की, संसार
की सारी
श्रृंखला है,
और यह
दूसरों से
जुड़ाव है।
क्या तुमने इस
पर ध्यान दिया
है? जिस पल
तुम कामुक
अनुभव करते हो,
तुम दूसरे
के बारे में
सोचने लगते हो।
जब तुम कामुक
अनुभव नहीं
करते, तुम
कभी भी दूसरे
के बारे में
नहीं सोचते।
जो व्यक्ति
काम से परे है,
वह दूसरे से
भी परे है। वह
समाज में रह
सकता है, पर
वह समाज में
नहीं होता। वह
भीड़ में चल
रहा होता है, पर वह अकेला
चलता है। और
ऐसा व्यक्ति
जो कामुक है, वह अकेला
एवरेस्ट के
शिखर पर बैठा
हुआ हो सकता
है, लेकिन
वह दूसरे के
बारे में
सोचेगा। उसे
ध्यान करने के
लिए चंद्रमा
पर भेजा जा
सकता है परंतु
वह दूसरे के
बारे में ही
ध्यान करेगा।
काम
दूसरों से
जुड्ने का
सेतु है। जैसे
ही काम
तिरोहित होता
है श्रृंखला
भंग हो जाती
है। पहली बार
तुम एक
व्यक्ति बन
जाते हो। यही
कारण है कि
लोग भले ही
काम से
अत्यधिक ग्रस्त
हैं, लेकिन
वे इसके साथ
कभी प्रसन्न
नहीं होते, क्योंकि
इसके दोनों
तरफ धार है।
यह तुम्हें
दूसरों से
जोड़ता है, यह
तुम्हें
वैयक्तिक
नहीं होने
देता। यह
तुम्हें तुम
नहीं होने
देता है। यह
तुम्हें
ढांचों में, गुलामियों
में, बंधनों
में रहने को
बाध्य करता है।
लेकिन अगर तुम
नहीं जानते कि
इसका अतिक्रमण
कैसे हो, तो
तुम्हारी
ऊर्जा को
प्रयोग करने
का यही एक मात्र
रास्ता है। यह
एक सुरक्षा
वाल्व बन जाता
है।
जो लोग
पहले चक्र, मूलाधार
पर ही जीते
हैं केवल मूढ़
कारण से जीते
हैं। वे ऊर्जा
निर्मित किए
चले जाते हैं
और जब वे इससे
अति बोझिल हो
जाते हैं तब
वे उसे फेंकते
रहते हैं। वे
खाते हैं, वे
कार्य करते
हैं, वे
सोते हैं, वे
ऊर्जा
निर्मित करने
के बहुत से
कार्य करते हैं।
फिर वे कहते
हैं, इसका
क्या करें? यह बहुत
भारी है। फिर
वे इसे फेंक
देते हैं। यह
एक बड़ा दुष्चक्र
प्रतीत होता
है। जब वे इसे फेंक
देते हैं तो
फिर खालीपन
अनुभव; करते
हैं। वे इसे
नये ईंधन से, नये भोजन से,
नये कार्य
सेर पुन: भरते
हैं और फिर जब
ऊर्जा वहां
होती है तो वे
बहुत भरापन
महसूस हो रहा
है। कहते हैं,
किसी भांति
इससे भी
छुटकारा पाना
है। और काम
सिर्फ एक
छुटकारा बन
जाता है, ऊर्जा
एकत्रित करने,
ऊर्जा
फेंकने, ऊर्जा
एकत्रित करने,
ऊर्जा
फेंकने का एक
दुश्चक्र।
यह बेतुका जान
पड़ता है।
जब तक
तुम्हें इस
बात का पता
नहीं लगता कि
तुम्हारे
भीतर कुछ
उच्चतर
केंद्र भी हैं, जो इस
ऊर्जा को
समाहित कर
सकते हैं, सृजनात्मक
रूप से
प्रयुक्त कर
सकते हैं, तुम
इसी काम के दुष्चक्र
में बंधे
रहोगे।
इसीलिए तो
सारे धर्म
किसी भी भांति
काम नियंत्रण
पर जोर देते
हैं। यह
दमनकारी हो
सकता है, यह
खतरनाक हो
सकता है। यदि
नये चक्र नहीं
खुल रहे हैं
और तुम ऊर्जा
को बांधे चले
जाते हो, उसकी
निंदा करते
हुए, दबाते
हुए उसके' साथ
जबरदस्ती
करते हुए, तो
तुम एक
ज्वालामुखी
पर बैठे होते
हो। किसी भी
दिन विस्फोट
होगा, तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे। तुम
पागल हो जाने
वाले हो। तब
बेहतर यही है
कि इससे
छुटकारा पा
लिया जाए।
लेकिन ऐसे
केंद्र हैं जो
इस ऊर्जा को
सोख सकते हैं,
और महत्तर
अस्तित्व, और
महानतर
संभावनाएं
तुम्हारे
सामने
उदघाटित हो
सकती हैं।
याद
रखो, हम
पिछले कुछ
दिनों से
दूसरे केंद्र
की, काम—केंद्र
के निकट, हारा
की, मृत्यु
के केंद्र की
चर्चा कर रहे
हैं। यही कारण
है कि लोग काम
के पार जाने
से भयभीत हैं,
क्योंकि
जिस क्षण
ऊर्जा —काम से
पार जाती है, यह हारा
केंद्र को
छूती है और
व्यक्ति
भयग्रस्त हो
जाता है। यही
कारण है कि
लोग प्रेम में
गहरे उतरने से
भी भयभीत हैं,
क्योंकि जब
तुम प्रेम में
गहरे उतरोगे
तो काम—केंद्र
ऐसी लहरें
निर्मित
करेगा कि इन
लहरों के
द्वारा
केंद्र में
प्रविष्ट
होने से भय उपजेगा।
अत: मेरी
पास अनेक लोग
आते हैं, वे पूछते
हैं, हम
अन्य लिंगी से
इतना भयभीत
क्यों हैं? पुरुषों से
या स्त्रियों
से, हम
इतना
भयाक्रांत
क्यों महसूस
करते हैं?
यह
अन्य लिंगी का
भय नहीं है।
यह स्वयं
कामवासना का
ही भय है।
क्योंकि यदि
तुम काम में
गहरे उतरो, तो वह
केंद्र और
सक्रिय हो
जाता है। बड़े
ऊर्जा—
क्षेत्र
निर्मित करता
है। और वे
ऊर्जा—
क्षेत्र हारा—केंद्र
को
अध्यारोपित
करना आरंभ कर
देते हैं।
क्या तुमने इस
पर ध्यान दिया
है? काम—क्रिया
के
चरमोत्कर्ष
पर तुम्हारी
नाभि के ठीक
नीचे कुछ
गतिशील होता
है, कंपित
होता है। यह
कंपन हारा से
काम—केंद्र के
सम्मिलन का है।
यही कारण है
कि लोग काम से
भी भयभीत हो
जाते हैं।
विशेषत: लोग
गहन अंतरंगता,
काम के
चरमोत्कर्ष
से भयभीत होते
हैं। लेकिन
दूसरे केंद्र
का भेदन, इसका
खुलना और
इसमें
प्रविष्ट
होना अनिवार्य
है। जब जीसस
कहते हैं, जब
तक कि तुम मरने
को तैयार न्
हो, तुम्हारा
पुनर्जन्म
नहीं हो सकता
है, तो
उनका
अभिप्राय यही
है।
अभी दो
या तीन दिन
पहले ही, ईस्टर के
दिन किसी ने
पूछा था, ‘आज
ईस्टर है, ओशो,
क्या आप कुछ
कहेंगे?' मेरे
पास कहने के
लिए एक ही बात
है, कि हर
दिन ईस्टर है,
क्योंकि
जीसस के पुनर्जीवित
होने का, उनकी
सूली और
पुनर्जीवन का,
उनकी
मृत्यु और
उनके
पुनर्जन्म का
दिन ही ईस्टर
है। यदि तुम
हारा केंद्र
में जाने को
.तैयार हो तो हर
दिन एक ईस्टर
है। पहले
तुम्हें सूली
लगेगी, तुम्हारा
क्रास
तुम्हारे
भीतर हारा—केंद्र
में है। तुम
उसे पहले से
ही अपने साथ
लिए हो, तुम्हें
बस इस की ओर
जाना है और
तुम्हें इसके माध्यम
से मरना है, और तभी हो
जाता है
पुनर्जीवन।
एक बार
तुम हारा—केंद्र
में मर जाओ, मृत्यु
खो जाती है।
तब पहली बार
तुम एक नये
जगत, एक
नये आयाम से
परिचित होते
हो। तब तुम
हारा से
उच्चतर
केंद्र, नाभि—केंद्र
को देख सकते
हो। और यह
नाभि— केंद्र
पुनर्जीवन बन
जाता है, क्योंकि
नाभि—केंद्र
हीं सर्वाधिक ऊर्जा
संरक्षक
केंद्र है। यह
ऊर्जा का
संचायक
और एक
बार तुमने जान
लिया कि तुम
काम—केंद्र से
हारा में चले
गए हो, अब
तुम यह भी जान
लेते हो कि
अंतर्यात्रा
की संभावना है।
तुमने एक
द्वार खोल
लिया है। अब
जब तक तुम
सारे द्वार न
खोल लो तुम
आराम नहीं कर
सकते। अब तुम
देहरी पर नहीं
रुके रह सकते,
तुमने महल
में प्रवेश पा
लिया है। तब
तुम एक के बाद
एक द्वार खोल
सकते हो।
ठीक
मध्य में है
हृदय का
केंद्र। हृदय—केंद्र
उच्चतर और
निम्नतर को
विभाजित करता
है। पहला है
काम केंद्र, फिर हारा,
फिर नाभि, और फिर आता
है हृदय—केंद्र।
इसके नीचे तीन
केंद्र हैं, इससे उपर
तीन केंद्र
हैं। हृदय है
एकदम बीच में।
तुमने
सोलोमन की
मुद्रा देखी
होगी। यहूदी
धर्म में
विशेष कर
कव्वाली विचारधारा
में सोलोमन की
मुद्रा
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
प्रतीकों में
से एक है।
सोलोमन की सील
हृदय—केंद्र
का प्रतीक है।
काम अधोगामी
है, अत:
काम अधोमुखी
त्रिभुज की
भांति है।
सहस्त्रार
ऊर्ध्वगामी
है, अत:
सहस्त्रार एक
ऊर्ध्व
उन्मुख
त्रिभुज है।
और हृदय ठीक
मध्य में है, जहां काम
त्रिकोण
सहस्त्रार के
त्रिकोण से मिलता
है। दोनों
त्रिभुज
मिलते हैं, एक दूसरे
में विलीन हो
जाते हैं और
यह षटकोणीय
सितारा बन
जाता है, यही
है सोलोमन की
सील। सोलोमन
की सील हैं—हृदय।
एक बार
तुमने हृदय—केंद्र
खोल लिया, तो तुम
उच्चतम
संभावनाओं के
लिए उपलब्ध हो
जाते हो। हृदय
से नीचे तुम
मानव रहते हो,
हृदय के पार
तुम अति—मानव
बन जाते हो।
हृदय—केंद्र
के बाद है कंठ—चक्र, फिर है
तीसरी आख का
केंद्र, और
फिर सहस्रार।
हृदय
है प्रेम की
अनुभूति।
हृदय है प्रेम
से आप्लावित
होना, प्रेम
ही हो जाना।
कंठ है
अभिव्यक्ति, संवाद, बांटना
इसे, दूसरों
को देना। और
अगर तुम
दूसरों को
प्रेम देते हो,
तो तीसरी आख
का केंद्र
सक्रिय हो
जाता है। एक
बार तुम देना
आरंभ कर दो, तुम ऊंचे और
ऊंचे जाने
लगते हो। एक
व्यक्ति जो
लिए चला जाता
हो, वह
नीचे, नीचे
और नीचे चला
जाता है। जो
व्यक्ति दिए
चला जाए, वह
उच्चतर, उच्चतर
और उच्चतर
होता जाता है।
कंजूस होना
सबसे बुरी
अवस्था है, जिसमें आदमी
गिर सकता है।
और दानी वह
महत्तम
संभावना है, जिसको
व्यक्ति
उपलब्ध हो
सकता है।
पांच
शरीर, पांच
महाभूत, और
पांच केंद्र
और दो सेतु।
यही है रूप—रेखा,
मानचित्र।
इस ढांचे के
पीछे योगियों
का सारा
प्रयास है कि
हर कहीं संयम
आए, इस
प्रकार
व्यक्ति
प्रकाश से
ओतप्रोत
ज्ञानोपलब्ध
हो जाए।
अब
सूत्र :
'चेतना
के आयाम को
संस्पर्शित
करने की शक्ति,
मनस—शरीर के
परे है, अत:
अकल्पनीय है
महाविदेह
कहलाती है। इस
शक्ति के
द्वारा
प्रकाश पर
छाया हुआ आवरण
हट जाता है।’
जब तुम
मनस—शरीर का
अतिक्रमण कर
लेते हो, तो पहली बार
तुम्हें यह
पता लगता है
कि तुम मन नहीं
हो वरन साक्षी
हो। मन से
नीचे
तुम्हारा
इससे
तादात्म्य
बना हुआ है।
एक बार तुम
जान लो कि
विचार, मानसिक
प्रतिबिंब, धारणाएं, वे सभी
विषयवस्तु
हैं, तुम्हारी
चेतना में
तैरते बोदल
हैं, तुम तत्क्षण
उनसे अलग हो
जाते हो।
'चेतना
के आयाम को
संस्पर्शित
करने की शक्ति
मनस—शरीर से
परे है, अत:
अकल्पनीय है
महाविदेह
कहलाती है।’
तुम
देहातीत हो
जाते हो।
महाविदेह का
अर्थ है. जो
देह के पार है, जो अब
किसी शरीर में
सीमित नहीं
रहा, जो यह
जान गया कि वह
स्थूल हो या
सूक्ष्म, देह
नहीं है, जिसने
यह जान लिया
कि वह असीम है,
उसकी कोई
सीमा नहीं है।
महाविदेह का
अर्थ है : जो यह
जान गया कि अब
उसकी कोई सीमा
न रही। सारी
सीमाएं सीमित
करती हैं, बांध
लेती हैं, और
वह उन्हें तोड़
सकता है, छोड़
सकता है और
अनंत आकाश के
साथ एक हो
सकता है।
स्वयं
को असीम की
तरह जानने का
यह क्षण वही
क्षण है।
'इस
शक्ति के
द्वारा
प्रकाश पर
छाया आवरण हट
जाता है।’
तब वह
आवरण गिर जाता
है जो
तुम्हारे
प्रकाश को
छिपाए हुए था।
तुम एक प्रकाश
की भांति हो
जो कई—कई
आवरणों से
ढंका है। धीरे—
धीरे एक—एक
आवरण हटाया
जाना है। इससे
और—और प्रकाश
अनावृत होता
जाएगा।
मनोमय—कोष, मनस—शरीर
एक बार गिर
जाए, तुम
ध्यान बन जाते
हो, तुम अ—मन
हो जाते हो।
यहां हमारा
पूरा प्रयास
मनोमय कोष से
पार जाने का
है, कैसे
इस बात के
प्रति
बोधपूर्ण हुआ
जाए कि मैं
विचार—प्रक्रिया
नहीं हूं।
'उनके
स्थूल, सतत,
सूक्ष्म, सर्वव्यापी
और क्रियाशील
स्वरूप पर
संपन्न हुआ
संयम, पंचभूतों,
पांच
तत्वों पर
आधिपत्य ले
आता है।’
यह
पतंजलि के
सर्वाधिक
सारगर्भित
सूत्रों में
से एक है और
भविष्य के
वितान के लिए
अति
महत्वपूर्ण
है। एक न एक
दिन वितान इस
सूत्र का अर्थ
खोज ही लेगा।
वितान पहले से
ही इस पथ पर
अग्रसर है। यह
सूत्र यह कह
रहा है कि
संसार के सभी
तत्व, पंच
महाभूत—पृथ्वी,
वायु, अग्नि
आदि, शून्य
से जन्मते हैं
और पुन:
विश्रांति के
लिए शून्य में
समा जाते हैं।
हर चीज शून्य
से आती है और
थक जाने पर विश्राम
हेतु पुन:
शून्य में समा
जाती है।
अब
विज्ञान, विशेषत:
भौतिकविद इस
बात से राजी
हैं कि पदार्थ
शून्य से
जन्मा है। वे
पदार्थ में
जितना गहरे
उतरे उतना ही
अधिक उन्होंने
खोजा कि वहां
पदार्थ जैसा कुछ
भी नहीं है।
जितना गहरे वे
गए, पदार्थ
और—और
अप्राप्य
होता गया और
अंतत: उनके
हाथ कुछ न लगा।
कुछ न बचा, मात्र
रिक्तता, एक
शुद्ध अंतराल।
इस शुद्ध
अंतराल से हर
चीज का जन्म
होता है। यह
अतर्क्य
प्रतीत होता
है, लेकिन
जीवन
अतार्किक है।
आधुनिक
संपूर्ण
वितान अतर्क्य
प्रतीत होता
है। क्योंकि
यदि तुम तर्क
से आबद्ध रहो
तो तुम सत्य
में प्रविष्ट
नहीं हो सकते।
और निसंदेह जब
तर्क और
यथार्थ में
चुनाव करने की
बात हो तो तुम
तर्क को कैसे
चुन सकते हो? तुम्हें
तर्क का
परित्याग
करना पड़ता है
अभी
पचास साल पहले
जब
वैज्ञानिकों
को पता लगा कि
क्वांटा, विद्युतकण
बड़े ही अजीब
ढंग से
व्यवहार करता
है, एक झेन
मास्टर की
भांति, अविश्वसनीय,
बेतुका...।
कभी—कभी वे
तरंग की भांति
दिखते हैं और
कभी—कभी कणों
की भांति
दिखते हैं। अब
इसके पहले यह
स्पष्ट
अवधारणा थी कि
कोई चीज या तो
कण हो सकती है
या तरंग। वही
एक चीज उसी
क्षण .में
दोनों एक साथ
नहीं नहीं हो
सकती है। एक
कण और एक तरंग?
इसका अर्थ
हुआ कि कोई
चीज बिंदु और
रेखा दोनों, एक ही समय
में एक साथ है।
असंभव। यूक्लिड
राजी न होगा।
अरस्तु तो बस
इंकार करेगा,
कि तुम पागल
हो गए हो।
बिंदु बिंदु
होता है, और
रेखा एक
पंक्ति में
अनेक बिंदुओं
का नाम है, अत:
यह कैसे संभव
है कि कोई
बिंदु उसी समय
एक बिंदु रहते
हुए रेखा भी
हो। बेतुकी
बात है यह।
यूक्लिड तथा
अरस्तु ही
मान्य थे। बस
पचास साल पहले
ही उनका सारा
ढांचा ढह गया,
क्योंकि
वैज्ञानिकों
को पता लगा कि
क्वांटम, विद्युतकण,
दोनों
प्रकार से एक
ही समय में
व्यवहार करता
है।
तर्कशास्त्रियों
ने विवाद खड़े
कर दिए और उन्होंने
कहा, 'यह
संभव नहीं है।’
भौतिकविदों
ने कहा, 'हम क्या कर
सकते है? यह
संभव या असंभव
का प्रश्न
नहीं है, यह
ऐसा है। हम
कुछ नहीं कर
सकते। यदि
क्वांटम
अरस्तु की
नहीं मान रहा
है, तो हम
क्या कर सकते
हैं? यह इस
ढंग से
व्यवहार कर
रहा है, और
यदि क्वांटम
गैर—यूक्लिड
ढंग से
व्यवहार कर
रहा है और
यूक्लिड की
ज्यामिती का
अनुगमन नहीं
कर रहा है. तो
हम क्या कर
सकते हैं? यह
इस ढंग से
व्यवहार कर
रहा है। और हमें
सत्य तथा
वास्तविकता
के व्यवहार को
ही स्वीकारना
पड़ेगा।’ मानव
चेतना के
इतिहास के बड़े
निर्णायक
क्षणों में से
एक है यह बात।
फिर ऐसा
विश्वास सदा
से था कि किसी
चीज से ही कोई
और चीज बन
सकती है। बात
बहुत सीधी और
सहज है, ऐसा
होना ही चाहिए।
ना—कुछ में से
कुछ कैसे निकल
सकता है। तो
पदार्थ मिट
जाता है, और
वैज्ञानिक इस
निष्कर्ष पेर
पहुंचे कि सब
कुछ ना—कुछ से
ही जन्मा है
और सब कुछ पुन:
ना—कुछ में ही
विलीन हो जाता
है। अब वे
ब्लैक होल्स
(कृष्ण—विवर)
की बात कर रहे
हैं। ये ब्लैक
होल्स विराट
शून्यता के
छिद्र हैं।
मैं इसे विराट
ना—कुछपन कह
रहा हूं
क्योंकि यह ना—कुछपन
मात्र कोई
अनुपस्थिति
नहीं है। यह
ऊर्जा से अपूरित
है, लेकिन
यह ऊर्जा ना—कुछपन
की है। वहां
पाने के लिए
कुछ भी नहीं
है, किंतु
वहां ऊर्जा है।
अब वे कह रहे
हैं कि
अस्तित्व में
कृष्ण—विवर
होते हैं। वे
सितारों के
समांतर हैं।
सितारे
सकारात्मक
हैं, और हर
सितारे के
समांतर एक
ब्लैक होल है।
सितारा 'है',
ब्लैक होल 'नहीं है।’ और हर तारा
जब थक जाता है,
बोझिल हो
जाता है तब
ब्लैक होल बन
जाता है। और
हर ब्लैक होल
जब आराम कर
चुका होता है
तो तारा बन
जाता है।
पदार्थ
अ—पदार्थ में
परिवर्तित
होता रहता है।
पदार्थ अ—पदार्थ
बन जाता है, अ—पदार्थ
पदार्थ बन
जाता है। जीवन
मृत्यु बन
जाता है, मृत्यु
जीवन बन जाती
है। प्रेम
घृणा बन जाता
है, घृणा
प्रेम बन जाती
है।
ध्रुवीयताएं
लगातार बदलती
रहती हैं।
यह
सूत्र कहता
.है 'उनके
स्थूल, सतत,
कम, सर्वव्यापी
और क्रियाशील
स्वरूप पर
संपन्न हुआ
संयम, पंचभूतों,
पांच
तत्वों पर
आधिपत्य ले
आता है।’
पतंजलि
यह कह रहे हैं
कि यदि तुम
अपने साक्षीभाव
के सच्चे
स्वरूप को समझ
गए हो, और
तब तुम एकाग्र
होते हो, तुम
किसी पदार्थ
पर संयम साधते
हो, तो तुम
इसे प्रकट या
लुप्त कर सकते
हो। तुम चीजों
को मूर्तमान
करने में
सहायक हो सकते
हो क्योंकि वे
ना—कुछ से आती
हैं। और तुम
चीजों को
अमूर्त होने
में सहायक हो
सकते हो।
भौतिकविदों
के लिए यह अब
भी जानना शेष
बचा है कि यह
संभव है या
नहीं। यह तो
घट रहा है कि
पदार्थ बदलता
है और अपदार्थ
बन जाता है, अपदार्थ
बदलता है, पदार्थ
बन जाता है।
इन पचास सालों
में उन्हें
अनेक बेतुकी
बातें पता लगी
हैं। यह युग
सर्वाधिक
क्षमतावान
युग है, जिसमें
इतना अधिक
ज्ञान का
विस्फोट हुआ
है कि इस सबको
एक व्यवस्था
में सीमित कर
पाना लगभग असंभव
प्रतीत होता है।
व्यवस्था
कैसे बनाई जाए?
पचास साल
पहले तक स्वयं
में संपूर्ण
सिद्धात बनाना
बहुत सरल था।
अब असंभव है।
वास्तविकता
ने हर तरफ से
अपनी
उपस्थिति इस
भांति दर्ज
कराई है कि
सारे मतवाद, सिद्धांत, प्रणालियां
छिन्न—भिन्न
हो गए हैं।
वास्तविकता
इन सभी की तुलना
में कहीं
ज्यादा सिद्ध
हुई है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, ऐसा हो
रहा है।
पतंजलि का
कहना है कि
ऐसा किया जा
सकता है। यदि
ऐसा घट रहा है
तो उसे घटने
पर बाध्य
क्यों नहीं
किया जा सकता?
जरा देखो।
तुम पानी गर्म
करते हो, सौ
डिग्री पर यह
भाप बन जाता
है। आग की खोज
किए जाने से
पूर्व भी, यह
सदा से होता
रहा है। सूर्य
की किरणें
सागर और
नदियों से
पानी वाष्पित
कर रही थीं और
बादल बन रहे
थे और पानी
नदियों में
फिर वापस आ
रहा था, पुन:
भाप बन रहा था।
फिर आदमी ने
आग खोज ली, और
उसने पानी को
गर्म करना, इसको
वाष्पित करना
शुरू कर दिया।
जो कुछ
भी घट रहा है, उसे घटित
करवाने के लिए
विधियां और
उपाय खोजे जा
सकते हैं। यदि
यह पहले से ही
हो रहा है, तो
यह
वास्तविकता
के विपरीत
नहीं है। अब
तुम्हें
सिर्फ यह
ज्ञात करना है
कि इसे कैसे
घटाया जाए यदि
पदार्थ अ—पदार्थ
बन जाता है, अ—पदार्थ
पदार्थ बन
जाता है, यदि
चीजें
ध्रुवीताएं
बदलती हैं, चीजें ना—कुछ
में खो जाती
हैं और चीजें
ना—कुछ में से
प्रकट हो जाती
है, यदि यह
सब कुछ पहले
से ही हो रहा
है—तो पतंजलि
का कहना है कि
ऐसी विधियां
और उपाय खोजे
जा सकते हैं
जिनके द्वारा
इन्हें घटित करवाया
जा सके। और वे
कहते हैं कि
यह है उपाय, यदि तुमने
पांच बीजों के
परे, अपने
अस्तित्व को
.पहचान लिया
है तो तुम
चीजों को
मूर्तमान या
चीजों को
अमूर्त कर
सकते हो।
वैज्ञानिक
कार्यकर्ताओं
के लिए अब भी
यह खोजना बाकी
रह गया है कि
यह संभव है या
नहीं। किंतु
यह सत्य सदृश
प्रतीत होता
है। इसमें कोई
तार्किक
समस्या नहीं
दिखती।
'इसके
उपरांत अणिमा,
आदि, देह
की संपूर्णता,
और देह को
बाधित करने
वाले तत्वों
की शक्ति के
निर्मूलन की
उपलब्धि
प्राप्त होती
है।’
और अब
आती हैं आठ
सिद्धियां, योगियों
की आठ
शक्तियां।
पहली है अणिमा,
और फिर
लघिमा और
गरिमा आदि।
योगियों की ये
आठ शक्तियां
हैं कि वे
अपने शरीर को
अदृश्य कर
सकते हैं, या
वे अपने शरीर
को छोटा, इतना
छोटा बना सकते
हैं कि यह
दिखाई ही न
पड़े, या वे
अपने शरीर को
इतना बड़ा कर
सकते हैं, जितना
चाहे उतना बड़ा
कर लें। शरीर
को छोटा, बड़ा,
या पूर्ण
अदृश्य बनाना,
या कई स्थानों
पर एक साथ
प्रकट होना, यह सभी उनके
नियंत्रण में
होता है।
यह
असंभव प्रतीत
होता है, लेकिन जो
कुछ भी असंभव
लगता था वह
देर— अबेर
संभव होता
जाता है।
मनुष्य के लिए
उड़ना असंभव था,
किसी को इस
पर यकीन नहीं
था। राइट
ब्रदर्स को
सिरफिरा, सनकी
समझा जाता था।
जब उन्होंने
अपने पहले
वायुमान का
अविष्कार
किया, वे
इसे लोगों को
बताने से इतने
भयभीत थे, कि
यदि उन्हें
पता लग गया तो
इन्हें पकड़ कर
अस्पताल में
भरती कर दिया
जाएगा। पहली
उड़ान, पूरी
तरह से किसी
को बताए बिना,
केवल यही
दोनों वहां थे,
संपन्न की
गई। और
उन्होंने
अपना पहला
वायुयान एक
तहखाने में
छिप कर बनाया,
ताकि कोई भी
यह जान न पाए
कि वे क्या कर
रहे हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति को
विश्वास था कि
वे पूर्णत:
पागल हो चुके
हैं, भला
कभी कोई उड़ा
है? उनकी
पहली उड़ान
मात्र साठ
सेकेंड की थी—केवल
साठ सेकेंड्स—लेकिन
इसने सारे
इतिहास को, सारी मानवता
को, अदभुत
रूप से बदल
दिया। यह संभव
हो गया। कभी
किसी ने सोचा
भी न था कि
परमाणु को
विभाजित किया
जा सकता है।
यह विखंडित
हुआ, और अब
मानव पुन:
पहले जैसा कभी
नहीं हो पाएगा।
ऐसी
बहुत सी बातें
घटी हैं
जिन्हें सदा
असंभव समझा
जाता रहा था।
हम चांद पर
पहुंच गए। यह
असंभव का
प्रतीक था।
दुनिया की सभी
भाषाओं में 'चांद को
छूने की कोशिश
मत करो' जैसी
अभिव्यक्तियां
हैं। इसका
अभिप्राय है,
असंभव की
अभीप्सा मत
करो। अब ये
कहावतें हमें
बदलनी पड़ेगी।
और सच तो यह है
कि एक बार हम
चांद पर पहुंच
गए, अब कोई
भी हमारा
रास्ता नहीं
रोक सकता है।
अब हर चीज
उपलब्ध हो गई
है, यह
केवल समय का
सवाल है।
आइंस्टीन
ने कहा था कि
यदि हम एक ऐसा
वाहन आविष्कृत
कर सकें जो
प्रकाश के वेग
से चलता हो तो व्यक्ति
यात्रा करता
रहेगा और उसकी
आयु नहीं बढ़ेगी।
यदि वह एक ऐसे
अंतरिक्षयान में
जाता है जो
प्रकाश के वेग
से चलता है, और उस समय
वह तीस साल का
हो, तो जब
वह तीस साल की
यात्रा के बाद
लौटेगा तो वह
तीस साल का ही
होगा। उसके
मित्र और भाई—बंधु
तीस साल बड़े
हो चुके होंगे।
उनमें से कुछ
तो मर भी चुके
होंगे। लेकिन
वह यात्री तीस
साल का ही
होगा। कैसी
बेतुकी बात कह
दी। आइंस्टीन
का कहना है कि
जब कोई प्रकाश
के वेग से
यात्रा करता
है तो समय और
इसका प्रभाव
मिट जाता है।
एक व्यक्ति
अनंत आकाश की
यात्रा पर
जाकर पाच सौ
वर्ष बाद वापस
आ सकता है।
यहां के सारे
लोग मर चुके
होंगे, उसे
कोई नहीं
पहचानेगा, और
वह किसी को
नहीं
पहचानेगा
किंतु वह उसी
उम्र का होगा।
तुम्हारी आयु
पृथ्वी की गति
के कारण बढ़
रही है। यदि
वह प्रकाश के
समान हो जाए; जो वास्तव
में अत्यधिक
है, तो
तुम्हारी आयु
बिलकुल भी न
बढ़ेगी।
पतंजलि
कहते हैं कि
अगर तुमने इन
सभी पांच शरीरों
का अतिक्रमण
कर लिया हो, इन सभी
पांच तत्वों
के पार जा
चुके हो तो
तुम ऐसी अवस्था
में हो कि जिस
चीज का तुम
चाहो नियंत्रण
कर सकते हो।
मात्र एक
विचार कि तुम
छोटा होना
चाहते हो, तुम
छोटे हो जाओगे।
यदि तुम बड़ा
होना चाहते हो,
तो बड़े हो
जाओगे। यदि
तुम अदृश्य
होना चाहोगे
तौ तुम अदृश्य
हो जाओगे।
यह कोई
अनिवार्य
नहीं कि
योगियों को
इसे करना ही
चाहिए। ऐसा
कभी सुना नहीं
गया कि
सबुद्धों ने
यह किया।
पतंजलि ने
स्वयं भी ऐसा
किया हो इसकी
जानकारी नहीं
है। पतंजलि
क्या कह रहे
हैं, वे
सारी
संभावनाओं को
उदघाटित कर
रहे हैं।
वस्तुत:
जो व्यक्ति
अपने उच्चतम
अस्तित्व को
उपलब्ध कर
चुका हो, वह किसलिए
छोटा होने की
सोचेगा? किसलिए?
वह इतना
मूर्ख नहीं हो
सकता। किसलिए?
वह क्यों
हाथी जैसा
होना चाहेगा?
इसमें क्या
सार है? और
वह अदृश्य
क्यों होना
चाहेगा? लोगों
के कुतुहल, उनके
मनोरंजन में
वह रस नहीं ले
सकता। वह
जादूगर तो
नहीं है। लोग
उसकी वाह वाही
करें उसे
इसमें कोई रस
नहीं होगा।
किसलिए? वास्तव
में जिस क्षण
कोई व्यक्ति
अपने अस्तित्व
की परम ऊंचाई
पर पहुंचता है
उसकी सारी इच्छाएं
खो जाती हैं।
जब
आकांक्षाएं
तिरोहित हो
जाती हैं तभी
सिद्धियां
प्रकट होती हैं।
दुविधा तो यही
है कि
शक्तियां तभी
आती हैं जब तुम
उन्हें
प्रयोग करना
नहीं चाहते
वस्तुत: वे
सिर्फ तब आती
हैं, जब वह
व्यक्ति जो
सदा से उन्हें
पाना चाहता था,
मिट गया
होता है।
अत:
पतंजलि यह
नहीं कह रहे
हैं कि योगी
लोग ऐसा करेंगे।
कभी उन्होंने
ऐसा किया हो
ऐसी कोई
जानकारी भी
नहीं है। और
कुछ लोग जो
इन्हें करते
हैं, वस्तुत:
वे इन्हें कर
नहीं सकते वे
केवल चालबाज
हैं।
अब
सत्य
साईंबाबा
जैसे लोग
स्विस घड़ियों
को प्रकट किए
जा रहे हैं।
ये सभी
चालबाजिया है
और किसी को भी
इन चालबाजियों
के झांसे में
नहीं पड़ना
चाहिए। जो कुछ
भी सत्य
साईंबाबा कर
रहे हैं, वह सारे
संसार में
हजारों
जादूगरों
द्वारा, बहुत
सरलता से किया
जा सकता है, किंतु तुम
कभी जादूगरों
के पास जाकर
उनके पैर नहीं
छूते, क्योंकि
तुम जानते हो
कि वे चालबाजी
कर रहे हैं।
लेकिन अगर ऐसा
कोई व्यक्ति
जो धार्मिक
समझा जाता है,
यही
चालबाजी कर
रहा हो, तो
तुम सोचते हो
कि यह चमत्कार
है।
पतंजलि
के योग—सूत्रों
का यह भाग
तुम्हें यह
बताने के लिए
है कि ये
बातें संभव
हैं, लेकिन
वे कभी
वास्तविक
नहीं हो पातीं,
क्योंकि जो
व्यक्ति इनकी
कामना रखता था,
इन
शक्तियों के
माध्यम से
अहंकार की
पूर्ति करना
चाहता था, अब
वहां नहीं
होता।
चमत्कारिक
शक्तियां
तुमको तब
उपलब्ध होती हैं
जब तुम उनमें
उत्सुक नहीं
रहते। यह
अस्तित्व की
व्यवस्था है।
यदि तुम कामना
करोगे, तुम
अक्षम रहोगे।
यदि तुम कामना
न करो, तो
तुम अतिशय
सामर्थ्यवान
हो जाते हो।
इसे मैं
बैंकिंग का
नियम कहता हूं।
यदि तुम्हारे
पास धन नहीं
है, कोई
बैंक तुम्हें
धन नहीं देगा,
यदि
तुम्हारे पास
धन है तो हरेक
बैंक तुम्हें धन
देने को तैयार
है। तुम्हें
जब जरूरत नहीं
है, सब कुछ
उपलब्ध है, जब तुम्हें
जरूरत है, कुछ
भी नहीं मिलता।
’सौंदर्य,
लालित्य, शक्ति और बज
सी कठोरता ये
सभी मिल कर
संपूर्ण देह
का निर्माण करते
हैं।’
पतंजलि
इस शरीर की
बात नहीं कर
रहे हैं। यह
शरीर सुंदर हो
सकता है, परंतु
परिपूर्ण
सुंदर कभी
नहीं हो सकता।
दूसरा शरीर
इससे अधिक
सुंदरे हो
सकता, तीसरा
और भी ज्यादा
क्योंकि वे
केंद्र के निकट
आ रहे होते
हैं। सौंदर्य
तो केंद्र का
है। जितना दूर
यह जाएगा उतना
ही यह सीमित
हो जाएगा।
चौथा शरीर तो
और भी सुंदर
है। पांचवां
तो करीब—करीब
निन्यानबे
प्रतिशत
संपूर्ण है।
लेकिन
वह जो
तुम्हारा
अस्तित्व, तुम्हारा
यथार्थ है, सौंदर्य, लालित्य, शक्ति और वज्र
सी कठोरता
उसमें है। यह
वज सी कठोरता
है, और उसी
समय कमल की
मृदुलता भी है।
यह सुंदर है
किंतु
सुकुमार नहीं—सशक्त
है। यह
शक्तिपूर्ण
है, पर
मात्र कठोर
नहीं है।
इसमें सारे
विपरीत मिल
जाते हैं..
.जैसे कि कमल का
फूल हीरों से
बना हो या कमल
के फूलों से
हीरा बना हो, क्योंकि
वहां पुरुष और
स्त्री का
सम्मिलन और अतिक्रमण
होता है।
क्योंकि वहां
सूर्य और
चंद्रमा
मिलते हैं और अतिक्रमण
हो जाता है।
योग के
लिए .हठ
पुराना शब्द
है।’हठ' शब्द
अत्यधिक
महत्वपूर्ण
है।’ह' का
अर्थ है सूर्य।’ठ' का
अर्थ है :
चंद्रमा। और 'हठ' का अर्थ
है. सूर्य और
चंद्रमा का
मिलन। सूर्य
और चंद्र का
मिलन योग है, यूनियो
मिस्टिका है।
हठ
योगियों के
अनुसार
मनुष्य के
शरीर में ऊर्जा
की तीन धाराएं
होती हैं। एक
को 'पिंगला'
कहते हैं, यह दाईं
धारा है, मस्तिष्क
के बाएं
हिस्से से
जुड़ी है—सूर्य—नाड़ी।
फिर दूसरी धारा
है 'इड़ा', बाईं धारा, दाएं
मस्तिष्क से
जुड़ी है—चंद्र—नाड़ी।
और तब एक
तीसरी धारा है,
मध्यधारा, सुषुम्ना, केंद्रीय, संतुलित, यह सूर्य और
चंद्रमा
दोनों से एक
साथ मिल कर बनी
है।
सामान्यत:
तुम्हारी
ऊर्जा या तो 'पिंगला' द्वारा
गतिमान होती
है या 'इड़ा'
द्वारा।
योगी की ऊर्जा
सुषुम्ना
द्वारा
प्रवाहित
होने लगती है।
यह कुंडलिनी
कहलाती है। तब
ऊर्जा इन
दोनों दाएं और
बाएं के ठीक
मध्य से
प्रवाहित
होती है।
तुम्हारे
मेरुदंड के
साथ ही इन
धाराओं का अस्तित्व
है। एक बार
उर्जा
मध्यधारा से
प्रवाहित
होने लगे, तुम
संतुलित हो
जाते हो। तब
व्यक्ति न
स्त्री होता
है न पुरुष, न कोमल न
कठोर, या
दोनों पुरुष—स्त्री,
कोमल और
कठोर।
सुषुम्ना में
सारी
ध्रुवीयताएं
विलीन हो जाती
हैं और
सहस्रार
सुषुम्ना का
शिखर है।
अगर
तुम अपने
अस्तित्व के
निम्नतम
बिंदु मूलाधार, काम—केंद्र
पर रहते हो, तो तुम्हारी
गति या तो 'इड़ा'
से होगी या 'पिंगला' से
होगी, सूर्य—नाड़ी
या चंद्र—नाड़ी,
और तुम
विभाजित
रहोगे। और तुम
दूसरे की खोज
करते रहोगे, तुम दूसरे
की कामना करते
रहोगे, तुम
स्वयं में
अधूरापन
अनुभव करोगे,
तुम्हें
दूसरे पर
आश्रित रहना
पड़ेगा।
जब
तुम्हारी
अपनी ऊर्जाएं
अंदर मिल जाती
हैं तो काम—ऊर्जा
का विस्फोट, ब्रह्मांडीय
चरम ऊर्जा का
विस्फोट, घटता
है, जब इड़ा
और पिंगला मिल
कर सुषुम्ना
में समा जाती
हैं, तब
व्यक्ति पुलक
से, पुलक
के सातत्य से
भर उठता है।
तब व्यक्ति
आनंदित, निरंतर
आनंदमग्न
रहता है। तब
इस आनंद का
कोई अंत नहीं
है। फिर वह
व्यक्ति कभी
नीचे नहीं आता,
तब वह कभी
भी अधोगामी
नहीं होता।
व्यक्ति शिखर
पर ही रहता है।
ऊंचाई का यह
बिंदु
व्यक्ति का
अंतर्तम
केंद्र, उसका
समग्र
अस्तित्व बन
जाता है। इसे
फिर से खयाल
में ले लो, मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि यह
एक मानचित्र
है। हम
किन्हीं
वास्तविक
चीजों की बात
नहीं कर रहे
हैं। ऐसे भी
मूढ़ लोग हो गए
हैं, जिन्होंने
मानव शरीर का
विच्छेदन
करके यह देखने
की कोशिश भी
की कि इड़ा और
पिंगला और
सुषुम्ना
कहां हैं और
वे उन्हें
कहीं नहीं
मिलीं। ये
सिर्फ संकेत
हैं, प्रतीक
हैं। ऐसे भी
मूढ़ हुए हैं
जिन्होंने
चक्रों की खोज
में कि वे
कहां हैं, मानव—
शरीर का
विच्छेदन
किया है। एक
चिकित्सक ने
भी यह सिद्ध
करने के लिए
कि कौन सा
चक्र, शरीर
क्रिया
वैज्ञानिकों
के हिसाब से, बिलकुल ठीक—ठीक
किस स्थान पर
हैं, एक
पुस्तक लिख
डाली है। ये
मूढ़तापूर्ण
कोशिशें हैं।
योग उस
ढंग से वैज्ञानिक
नहीं है।
प्रतीकात्मक
है यह; योग
एक महत प्रतीक
है। यह कुछ
दिखाता रहा है
और जब तुम
अंतस में उतरोगे,
तुम इसे
पाओगे, लेकिन
इसे खोजने के
लिए शरीर का
विच्छेदन कोई उपाय
नहीं है। शव—परीक्षण
के द्वारा
तुम्हें ये
चीजें नहीं मिलेंगी।
ये जीवंत
घटनाएं हैं।
और ये सारे
सूत्र मात्र
प्रतीकात्मक
हैं, उनसे
बंधना नहीं है
और न उनसे कोई
आसक्ति बांधो,
न कोई
अवधारणा बनाओ,
तरल बने रहो।
संकेत ग्रहण
करो और यात्रा
पर निकल पड़ो।
एक
शब्द और है, ऊध्वरेतस।
इसका अर्थ है:
ऊर्जा की
ऊर्ध्वगामी
यात्रा। अभी तुम
काम—केंद्र पर
टिके हुए हो, और इस
केंद्र से
ऊर्जा का
अधोगमन होता
रहता है। ऊध्वरेता
का अर्थ है कि
तुम्हारी
ऊर्जा ऊपर की
ओर जाने लगी
है। यह एक
नाजुक, बहुत
सूक्ष्म घटना
है और इसके
साथ कार्य
करते समय बहुत
सावधान रहना
पड़ता है। यदि
तुम सचेत नहीं
हो तो बहुत
संभावना है कि
तुम विकृत
व्यक्ति बन
जाओ। यह
खतरनाक है। यह
एक सांप की
तरह है, तुम
एक सांप से
खेल रहे हो।
यदि तुम्हें
नहीं पता कि
क्या करना है,
तो खतरा है।
तुम जहर के
साथ खेल रहे
हो।
और
अनेक लोग
विकृत हो चुके
हैं, क्योंकि
ऊर्ध्वगमन के
लिए, ऊध्वरेता
होने के लिए उन्होंने
अपनी काम—ऊर्जा
को दमित करने
की कोशिश की।
वे ऊपर को कभी
नहीं गए। वे
सामान्य
लोगों से भी
अधिक विकृत हो
गए।
मैं एक
कहानी पढ़ रहा
था। एबी ने
अपने मित्र
इस्सी से कहा, ही, मैं
अपने पुत्र को
लेकर डरा हुआ
हूं। एक बड़ी
निराशाजनक
स्थिति पैदा
हो गई है।
तुम्हें पता
है कि उसे
वैसी शिक्षा
दिलाने के लिए,
जो हमने
प्राप्त नहीं
की, हमने
कितना संघर्ष
किया। मैंने
उसे देश के
सर्वश्रेष्ठ
बिजनिस स्कूल में
पढ़ने भेजा, और अब क्या
हुआ? वह
मेरी
परिधानों की
फैक्ट्री में
दस बजे सुबह
आता है, ग्यारह
बजे चाय वगैरह
के लिए वक्त
बरबाद करता है,
बारह बजे
लंच के लिए उठ
जाता है, दो
बजे से पहले
लौटता नहीं, और दो से चार
माडल्स के साथ
यूं ही समय
गुजारता है।
कितना बेकार
सिद्ध हुआ वह
बड़ा होकर।
इस्सी
ने कहा : एबी, तुम्हारी
परेशानी तो
कुछ भी नहीं
है, मेरी
तो तुमसे हजार
गुनी ज्यादा
है। तुम्हें
पता है कि
हमने अपने
पुत्र को वह
शिक्षा
दिलाने के लिए,
जो हमें
नहीं मिली, कितना
संघर्ष किया
है। मैंने उस
देश के
सर्वश्रेष्ठ
बिजनिस स्कूल
में पढ़ाया। और
अब क्या होता
है? वह
सुबह दस बजे
मेरी
फैक्ट्री में
आता है, ग्यारह
बजे वह चाय के
लिए समय खराब
करता है, बारह
बजे लंच के
लिए उठ जाता
है, दो बजे
से पहले लौटता
नहीं, और
दो से चार बजे
के बीच वह
माडल्स के साथ
समय बिताता है।
कितना बेकार
सिद्ध हुआ वह
बड़ा होकर!
लेकिन
इस्सी यह
मुझसे हजार
गुनी खराब
स्थिति कहां
हुई? यह
तो वही कहानी
है जैसी मैंने
तुम्हें बताई
है।
एबी, तुम एक
बात भूल रहे
हो, मेरा
पुरुष
परिधानों का
काम है।
समझे? यदि तुम
यह नहीं जानते
कि काम—ऊर्जा
के साथ क्या
किया जाए और
तुम इसके साथ
यूं ही खिलवाड़
करने लगे तो
या तो
तुम्हारी
ऊर्जा
आत्मरति की या
समलैंगिकता
की और मुड़
जाएगी या
हजारों
प्रकार की
विकृतियों
में से कुछ भी
हो सकता है।
अत: बेहतर यही
है कि इसे
जैसी यह है
वैसी ही रहने
दो। इसीलिए
सदगुरु की
आवश्यकता है।
वह जो जानता
है कि तुम
कहां हो, तुम
किधर जा रहे
हो, और अब
क्या होने
वाला है, वह
जो तुम्हारा
भविष्य देख
सकता है और वह
जो देख सकता
है कि ऊर्जा
ठीक मार्ग पर
प्रवाहित हो
रही है या
नहीं। अन्यथा
तो यह पूरा
संसार ही काम
विकृतियों के
झंझट में उलझा
हुआ है।
दमन
कभी मत करना।
विकृत होने से
बेहतर है कि
सामान्य और
स्वाभाविक
बने रहो।
लेकिन केवल
सामान्य होना
पर्याप्त
नहीं है। और
ज्यादा की
संभावना है।
रूपांतरण करो।
ऊध्र्वरेता
होने का मार्ग
दमन का नहीं—रूपांतरण
का है। और यह
केवल तब हो
सकता जब तुम
अपने शरीर को
शुद्ध करो, मन को
शुद्ध करो, तुम वह सारा
कचरा फेंक दो
जो तुमने शरीर
और मन में
एकत्रित कर
रखा है।
शुद्धता, प्रकाश,
निर्भारता
के साथ ही तुम
ऊर्जा के
ऊर्ध्वगमन
में सहयोगी हो
पाओगे।'
साधारणत:
यह कुंडली
मारे सांप की
भांति होती है; इसीलिए
हम इसे
कुंडलिनी, या
कुंडली कहते
हैं। कुंडली
का अर्थ है : 'सर्पिल—वर्तुल।’
जब यह अपना
सिर उठाती है
और ऊपर की ओर
जाती है तो यह
अदभुत अनुभव
है। जब भी यह
किसी उच्चतर
केंद्र से
गुजरती है, तुम्हें
उच्चतर से
उच्चतर अनुभव
घटेंगे।
प्रत्येक
केंद्र पर
बहुत कुछ तुम
पर उदघाटित होगा,
तुम एक
महाग्रंथ हो
जाओगे। लेकिन
ऊर्जा को केंद्रों
से होकर
गुजरना पड़ता
है, तभी वे
केंद्र
तुम्हारे
समक्ष अपना
सौंदर्य, अपनी
देशना, अपना
काव्य, अपना
गीत, अपना
नृत्य
उदघाटित करते
हैं। और
प्रत्येक
केंद्र का
ऊर्जा शिखर
अपने निम्नतर
केंद्र से श्रेष्ठर
होता है।
काम—
भोग का शिखर
अनुभव
निम्नतम है।
हारा का शिखर
अनुभव उच्चतर
है। उससे भी
उच्चतम है
नाभि का शिखर
अनुभव। हृदय
का, प्रेम
का, और भी उच्चतर
है। तब उससे
उच्चतर है कंठ,
सृजनात्मकता,
सहभागिता
का। फिर उससे
उच्चतर है
तीसरी आख, जीवन
जैसा है उसे
वैसा ही देखने
की दृष्टि, बिना किसी
प्रक्षेपण के—सत्य
को निर्धूम
देखने की
स्पष्ट
दृष्टि का अनुभव।
और सातवें
केंद्र
सहस्रार का तो
उच्चतम है।
यह एक
मानचित्र है।
यदि तुम चाहो, तो तुम
ऊपर की ओर जा
सकते हो, ऊध्वईरेता
हो सकते हो।
लेकिन कभी भी
सिद्धियों, शक्तियो के
लिए ऊध्र्वरेता
बनने की कोशिश
मत करना; ये
मूढ़ताएं हैं।
तुम कौन हो यह
जानने के लिए
ऊध्वईरता
बनने का
प्रयास करो।
शक्ति के लिए
नहीं शांति के
लिए शांति को
अपना लक्ष्य
होने दो, शक्ति
नहीं।
यह
अध्याय
विभूतिपाद
कहलाता हैं।
विभूति का
अर्थ है : 'शक्ति।’ पतंजलि
ने यह अध्याय
सम्मिलित
इसलिए 'किया
कि उनके शिष्य
और वे लोग जो
उनका अनुसरण कर
रहे हैं, उन्हें
सावधान किया
जा सके कि
रास्ते में
बहुत सी
शक्तियां घट
सकती हैं, किंतु
उनमें
तुम्हें
उलझना नहीं है।
एक बार तुम
शक्ति में
उलझे, एक
बार तुम शक्ति
के फेर में
पड़े, तुम
परेशानी में
पड़ जाओगे। तुम
उस बिंदु से
बंध जाओगे और
तुम्हारी
उड़ान थम जाएगी।
और व्यक्ति को
उड़ते ही जाना
है, परम
अंत तक, जब
तक कि शून्यता
न खुले और तुम
ब्रह्मांडीय
आत्मा में
पुन: समाहित
हो जाओ।
शांति
को होने दो
तुम्हारा
साध्य।
आज इतना ही।
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