दिनांक
4 अक्टूबर, 1970;
सांध्या,
मनाली (कुल्लू्)
"साधना-जगत
में यज्ञों और
"रिचुअल्स'
का बहुत
उल्लेख है।
यज्ञ की बहुत
विधियां भी हैं।
होमात्मक
यज्ञ की बात
आती है। लेकिन
गीता में जपयज्ञ
और ज्ञानयज्ञ
को विशेष
स्थान दिया
गया है। साथ
ही आपने जप पर
बात करते हुए
अजपा जप के
बारे में कहा
था। तो गीता
के जपयज्ञ,
ज्ञानयज्ञ और अजपा जप
पर भी प्रकाश
डालने की कृपा
करें।'
जीवन
में "रिचुअल' की, क्रियाकांड की अपनी जगह
है। जिसे हम
जीवन कहते हैं,
वह नब्बे
प्रतिशत
"रिचुअल' और
क्रियाकांड
से ज्यादा
नहीं है। जीवन
को जीने के
लिए, जीवन
से गुजरने के
लिए बहुत कुछ
जो अनावश्यक है
आवश्यक मालूम
होता है। आदमी
का मन ऐसा है।
मनुष्यजाति
के पूरे
इतिहास में
हजारों तरह के
"रिचुअल', हजारों
तरह के
क्रियात्मक
खेल विकसित
हुए हैं। ये
सारे-के-सारे
खेल अगर
गंभीरता से ले
लिए जाएं, तो
बीमारी बन
जाते हैं। अगर
ये सारे खेल
की तरह लिए
जाएं, तो
उत्सव बन जाते
हैं। जैसे, जब पहली बार
अग्नि का
आविष्कार
हुआ--और सबसे बड़े
आविष्कारों
में अग्नि का
आविष्कार है।
आज हमें पता नहीं किस आदमी ने सबसे पहले अग्नि पैदा की है, लेकिन जिसने भी पैदा की होगी, उससे बड़ी क्रांति अभी तक नहीं हो सकती है। बहुत कुछ आदमी ने फिर खोजा है। और फिर न्यूटन है, और गेलेलियो है और कोपरनिकस है और केपलर है और आइंस्टीन है और मेक्सब्लांट और हजारों खोजी हैं, लेकिन अब तक भी, हमारी अणु की खोज भी, हमारा चांद पर पहुंच जाना भी उतना बड़ा आविष्कार नहीं है जितना बड़ा आविष्कार उस दिन हुआ था जिस दिन पहले आदमी ने अग्नि पैदा कर ली थी।
आज हमें पता नहीं किस आदमी ने सबसे पहले अग्नि पैदा की है, लेकिन जिसने भी पैदा की होगी, उससे बड़ी क्रांति अभी तक नहीं हो सकती है। बहुत कुछ आदमी ने फिर खोजा है। और फिर न्यूटन है, और गेलेलियो है और कोपरनिकस है और केपलर है और आइंस्टीन है और मेक्सब्लांट और हजारों खोजी हैं, लेकिन अब तक भी, हमारी अणु की खोज भी, हमारा चांद पर पहुंच जाना भी उतना बड़ा आविष्कार नहीं है जितना बड़ा आविष्कार उस दिन हुआ था जिस दिन पहले आदमी ने अग्नि पैदा कर ली थी।
आज
हमें बहुत
कठिनाई होगी
यह सोचकर, क्योंकि
अग्नि आज
बिलकुल सहज
बात है। माचिस
में बंद है।
लेकिन सदा ऐसा
नहीं था। फिर
हमारा जो भी
विकास हुआ है
मनुष्य का, जैसा मनुष्य
आज है, उसमें
नब्बे
प्रतिशत
अग्नि का हाथ
है। फिर हमारे
जो भी
आविष्कार हुए
हैं, वे सब
बिना अग्नि के
हो नहीं सकते।
उन सब की बुनियाद
में वह अग्नि
का
आविष्कर्ता
खड़ा है।
स्वभावतः
जब पहली बार
अग्नि किसी ने
खोजी होगी, तो हमने
अग्नि का भी
स्वागत किया
था उसके चारों
ओर नाचकर। यह
जिंदगी की
बिलकुल सहज
घटना थी।
अग्नि को और
किसी तरह
धन्यवाद दिया
भी नहीं जा
सकता था। और
अग्नि ने एक
केंद्रीय
अर्थ मनुष्य
की जिंदगी में
उस दिन बना
लिया था।
मनुष्य के
सारे पुराने
धर्म, किसी-न-किसी
रूप में अग्नि
या सूरज के
आसपास विकसित
हुए हैं। रात
थी
अंधकारपूर्ण,
खतरनाक, पशुओं
का डर था। दिन
था उजाले से
भरा, निर्भय;
हमला कोई कर
सके, इसके
पहले पता चल
जाता था। तो
सूर्य बड़ा
मित्र मालूम
हुआ। अंधकार
बड़ा शत्रु बन
गया। अंधकार में
खतरे थे, भय
था, उपद्रव
था। सूर्य के
साथ सब खतरे
तिरोहित हो
जाते थे, सब
भय मिट जाते
थे। तो सूर्य
परमात्मा की
तरह खयाल में
आया था। और जब
अग्नि का
आविष्कार कर लिया,
तो
स्वभावतः, रात
के अंधकार पर
भी हमारी विजय
हो गई थी। सूर्य
से भी ज्यादा
अग्नि
प्रीतिकर हो
गई थी। इस अग्नि
के आसपास नाच
का, गान का,
नृत्य का, प्रेम का, उत्सव का
विकसित हो
जाना बिलकुल
स्वाभाविक था।
वह विकसित
हुआ।
कभी
आपने खयाल
किया कि जब
यूरी गागरिन
पहली बार
अंतरिक्ष की
यात्रा करके
लौटा तो सारी
पृथ्वी उत्सव
से भर गई थी।
और यूरी गागरिन
एक दिन में
विश्वविख्यात
व्यक्ति हो
गया था। ठेठ
दूर-देहात के
गांवों में भी
उसका नाम
पहुंच गया था।
लाखों लोगों
ने अपने
बच्चों का नाम
यूरी गागरिन
के ऊपर
रखा--सारी
दुनिया में, बिना
जाति-पांति-धर्म
की फिक्र किए।
यूरी गागरिन
की हैसियत
पाने के लिए
किसी आदमी को
सत्तर-अस्सी
साल मेहनत
करनी पड़ती है,
तब सारी दुनिया
उसे जान पाती
है। इस आदमी
ने कुछ और
नहीं किया, यह सिर्फ
पृथ्वी की जो "आर्बिट' है, उसको
पार कर गया।
लेकिन बड़ी
घटना थी। यूरी
गागरिन
जहां गया, वहीं
लोग दीवाने हो
गए उसके दर्शन
करने को। बड़े
नगरों में लोग
मरे, "एक्सीडेंट'
से, जहां
यूरी गागरिन
गया।
मनुष्य
का मन उस सबके
प्रति उत्सव
से भर जाता है
जो नया है, जिससे नए का
आगमन होता है।
नए बच्चे के
जन्म पर ही हम बैंडबाजा
नहीं बजाते और
उत्सव से भर
जाते, जब
भी इस जगत में
नया कुछ पैदा
होता है, तो
हमारा चित्त
उत्सव से उसका
स्वागत करता
है और उचित है
कि ऐसा हो।
क्योंकि जिस
दिन आदमी नए
के स्वागत में
भी
उत्सवपूर्ण नहीं
रहेगा, उस
दिन समझना
चाहिए कि आदमी
के भीतर कुछ
महत्वपूर्ण
मर गया है।
यह
मैंने इसलिए
कहा कि हम
यज्ञ को समझ
सकें। यह उन
लोगों का
आविष्कार था, जिनकी
जिंदगी में
अग्नि पहली
बार आयी थी और
इस अग्नि के
लिए वे उत्सव
मना रहे थे।
वे इसके चारों
ओर नाच रहे
थे। और जो कुछ
श्रेष्ठ उनके
पास था, उन्होंने
अग्नि को
दिया। क्या दे
सकते थे? उनके
पास गेहूं
था, उन्होंने
गेहूं
दिया। उनके
पास सोमरस
था--उस दिन की
सुरा थी--वह उन्होंने
दी; उनके
पास जो
श्रेष्ठतम
गाय होती, वह
उन्होंने
अग्नि को दी; उनके पास जो
भी था, वह
उन्होंने
अग्नि को भेंट
किया। एक
देवता अवतरित
हुआ था, जिसने
जिंदगी को सब
बदल दिया था।
उसके उत्सव में
उन्होंने सब
यह किया। यह
बहुत सहज था।
लेकिन, यह
बहुत "सोफिस्टिकेटेड'
नहीं था। यह
बिलकुल
ग्रामीण-चित्त
से उठी हुई बात
थी, और
ग्राम ही थे
जगत में, ग्रामीण-चित्त
ही था।
गीता
के समय तक ऐसा
यज्ञ बेमानी
हो गया था। क्योंकि
गीता के समय
तक अग्नि
घर-घर की चीज
हो गई थी।
उसके आसपास
नाचना व्यर्थ
मालूम होने
लगा था। उसमें
गेहूं
फेंकना, मंत्र
पढ़ना
सार्थक नहीं
रह गया था। और
हजारों लोग
इसका विरोध कर
चुके थे इस
बीच की
प्रक्रिया
में। क्योंकि
उनको कुछ भी
पता नहीं था
कि अग्नि का
पहला आगमन जिनकी
जिंदगी में
हुआ था, वे
उसे भगवान की
तरह ही
स्वीकार कर
सकते थे। उनके
लिए उतना बड़ा
वरदान था।
इसलिए गीता ने
फिर शब्दों पर
नई कलमें लगाईं
और कृष्ण ने
नए शब्द ईजाद
किए, ज्ञानयज्ञ। यज्ञ था
शब्द पुराना,
ज्ञान से
उसे जोड़ा।
जैसे अभी
विनोबा ने नई
कलम लगाई, भूदान-यज्ञ।
यज्ञ था शब्द
पुराना, भूदान
से उसे जोड़ा।
कृष्ण
के समय तक
जीवन काफी "सोफिस्टिकेटेड', काफी विकसित
हुआ था। और जब
अग्नि के
आसपास नाचना
अपने-आप में
अर्थपूर्ण न
था। अब तो
ज्ञान की
अग्नि जलाने
की बात कृष्ण
ने उठाई।
लेकिन
स्वभावतः
पुराने
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ता है। अब
अगर नाचना ही
था तो ज्ञान
की ज्योति के
आसपास नाचना
था। और अब कुछ
भेंट भी करना
था तो गेहूं
के दानों से
क्या भेंट
होगी, अब
अपने को ही
दान कर देना
था। ज्ञानयज्ञ
का अर्थ है, ज्ञान की
अग्नि में
स्वयं को जो
समर्पित कर देता
है। ज्ञानयज्ञ
का अर्थ है, कि अब
साधारण अग्नि
से नहीं, ज्ञान
की अग्नि से, जिसमें
व्यक्ति जलता
है और समाप्त
हो जाता है।
यह अग्नि का
प्रतीक लेकिन
जारी रहा।
इसके
जारी रहने के
पीछे बहुत
गहरे कारण थे।
सबसे
बड़ा गहरा कारण
जो था वह यह था
कि अतीत के मनुष्य
की जिंदगी में
सदा ऊपर की
तरफ जाने वाली
चीज सिवाय
अग्नि के और
कोई भी न थी।
पानी नीचे की
तरफ जाता है।
उसे कहीं से
भी डालो, वह नीचे की
जगह खोज लेता
है। अग्नि के
साथ कुछ भी
उपाय करो, उसकी
लपटें सदा ऊपर
की तरफ भागती
हैं। पुराने
मनुष्य के
समक्ष अग्नि
भर एक ऐसी चीज
थी जो सदा ऊपर
की तरफ भागती
है; ऊपर की
तरफ भागना, ऊर्ध्वगमन
ही जिसका
स्वभाव है; जिसे हम
नीचे की तरफ
बहा ही नहीं
सकते। अगर हम उलटी
भी कर दें
जलती हुई लकड़ी
को, तो
लकड़ी ही उलटी
होती है, अग्नि
ऊपर की तरफ ही
भागती रहती
है।
ऊर्ध्वगमन का
प्रतीक बन गई
अग्नि। उसकी
लपटें आकाश की
यात्रा की, अज्ञात की
यात्रा की
सूचक हो गईं।
जमीन के "ग्रेविटेशन',
को तोड़ने
वाली वह पहली
चीज मालूम
पड़ी। पृथ्वी की
जो कोशिश है, उसको तोड़
देती है, उसको
उससे कोई
फिक्र नहीं
है। अग्नि पर
उसका कोई
प्रभाव नहीं
है। एक कारण
तो यह था कि
ऊर्ध्वगमन का
प्रतीक अग्नि
बन गई, इसलिए
जिन्होंने
अग्नि की
लपटों के
आसपास नृत्य
किया था, नाचे
थे, गीत
गाए थे, खुशी
प्रगट की थी, उन्होंने एक
प्रतीक के
अर्थ में भी
वह खुशी प्रगट
की थी कि किस
दिन वह दिन
होगा जिस दिन
हम भी अग्नि
की लपटों की
तरह ऊपर की
यात्रा
करेंगे।
अभी
आदमी का मन
जैसा है वह
सदा नीचे की
तरफ यात्रा
करता है, पानी
की तरह है।
आदमी का मन
जैसा है, वह
सदा नीचे की
तरफ यात्रा
करता है, उसके
नियम पानी के
नियम हैं, वह
नीचे गङ्ढे
खोजता है। उसे
पर्वत-शिखर पर
भी ले जाकर छोड़
दो तो बहुत
जल्दी खाई में
नीचे आकर झील
में विश्राम
करने लगता है।
उसे कितनी ही
ऊंचाई पर ले
जाओ, वह
तत्काल नीचे
की तरफ जाने
को आतुर है।
जैसा मनुष्य
का मन अभी है, वह नीचे
जाने की
आतुरता है।
अग्नि के
आसपास नाचने
वाले ऋषियों
ने घोषणा की
कि हम ऊपर की
तरफ की यात्रा
के सूत्र को
नमस्कार करते
हैं। और हम
अपने भीतर के
प्राणों को
अग्नि जैसा
बनाना चाहते हैं
कि वे ऊपर की
तरफ भागें।
हम उन्हें
नीचे खाई में
भी छोड़ दें, खंदक में भी
छोड़ दें, घाटी
में भी छोड़
दें, तो भी
वे शिखर पर
चले जाएं। यह
बड़ा "सिंबालिक',
बड़ा
प्रतीकात्मक था।
दूसरी
बात अग्नि में
और बड़ी खूबी
की थी और वह और
भी गहरी थी, और वह थी कि
अग्नि पहले तो
ईंधन को जलाती
और फिर खुद ही
जल जाती। पहले
ईंधन राख होता
है, फिर
अग्नि खुद राख
हो जाती है।
ज्ञान के लिए
यह प्रतीक बड़ा
गहरा बन गया।
ज्ञान पहले तो
अज्ञान को
जलाता है। पहले
तो ज्ञान
अज्ञान को
मिटाता है और
फिर ज्ञान ज्ञान
को भी मिटा
देता है।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं, अज्ञानी
तो भटकते ही
हैं अंधकार
में, ज्ञानी
महा अंधकार
में भटक जाते
हैं। निश्चित
ही यह व्यंग्य
में कही गई
बात है उन
ज्ञानियों के
लिए जिनके पास
उधार ज्ञान
है। क्योंकि
जिनके पास
अपना ज्ञान है
वे तो बचते ही
नहीं, उनके
भटकने का तो
उपाय नहीं है।
ज्ञान पहले तो
अज्ञान को
जलाता है; फिर
ज्ञान को भी
जला देता है, ज्ञानी को
भी जला देता
है, पीछे
कुछ भी बचता
नहीं। अग्नि
पहले ईंधन को
जलाती है, फिर
ईंधन जल जाता
है, फिर
अग्नि भी बुझ जाती
है, फिर
अंगारे भी बुझ
जाते हैं, फिर
राख ही रह
जाती है, फिर
सब समाप्त हो
जाता है।
तो
ज्ञान की घटना
जिनके जीवन
में घटी, उनको
दिखाई पड़ा कि
ज्ञान की घटना
अग्नि जैसी है।
पहले अज्ञान
जलेगा, फिर
ज्ञान भी
जलेगा, फिर
ज्ञानी भी
जलेगा और पीछे
तो सिवाय राख
के कुछ बचेगा
नहीं। सब
तिरोहित हो
जाएगा। इतना
शून्य होने को
जो तैयार है, वह ज्ञान की
यात्रा पर
निकल सकता है।
तीसरी
बात। अग्नि की
लपटें हमने
उठते देखी हैं, थोड़ी दूर तक
ही दिखाई पड़ती
हैं, फिर
खो जाती हैं।
अग्नि बहुत
थोड़े दूर तक
दृश्य है, इसके
बाद अदृश्य हो
जाती है।
ज्ञान भी बहुत
थोड़े दूर तक
दिखाई पड़ता है,
या ऐसा कहें
कि थोड़े दूर
तक ज्ञान का
संबंध दिखाई
पड़ने वाले से
रहता है, दृश्य
से रहता है, और इसके बाद
उसका संबंध
अदृश्य से हो
जाता है। फिर
दृश्य खो जाता
है और अदृश्य
ही रह जाता है।
इन सारे
कारणों से
अग्नि बड़ा ही
समर्थ प्रतीक
ज्ञान का बन
गया और कृष्ण ज्ञानयज्ञ
शब्द का उपयोग
कर सके।
ये
प्रतीक अगर
हमारे खयाल
में हों, तो ज्ञानयज्ञ
सदा जारी
रहेगा। अग्नि
के आसपास
निर्मित हुए दूसरे
"रिचुअल' और
यज्ञ तो खो
जाएंगे, क्योंकि
वे परिस्थिति
से पैदा होते
हैं, लेकिन
ज्ञानयज्ञ
सदा जारी
रहेगा। इसलिए
कृष्ण ने यज्ञ
को पहली दफा
परिस्थिति से
मुक्त करके
शाश्वत अर्थ
दे दिया। वेद
जिस यज्ञ की
बात करते थे
वह परिस्थिति
से बंधा था, एक घटना से
जुड़ा था।
कृष्ण ने उसे
उस घटना से मुक्त
कर दिया और एक
शाश्वत अर्थ
दे दिया। अब कृष्ण
के अर्थ में
ही यज्ञ का प्रयोजन
होगा आगे।
उसका अर्थ
कृष्ण के
द्वारा ही
निकल सकता है।
और कृष्ण के
पहले के
अध्याय बंद हो
गए हैं। अब भी
जो कृष्ण के
पहले के यज्ञ की
बात करता है, वह असामयिक,
"आउट आफ डेट',
व्यर्थ की
बात करता है; अब उसमें
कोई अर्थ नहीं
रह गया है, वह
बात समाप्त हो
चुकी है। अब
अग्नि के
आसपास आनंद से
नहीं कूदा जा
सकता, क्योंकि
अग्नि अब
हमारे जीवन
में कोई ऐसी
घटना नहीं है।
वह जपयज्ञ
की भी बात
करते हैं।
कृष्ण जपयज्ञ
की भी बात
करते हैं। जप
के साथ भी वही
राज है, जो
ज्ञान के साथ
है। जप पहले
तो दूसरे
विचारों को जलाएगा, फिर जब दूसरे
विचार जल
जाएंगे, तो
जप का विचार
भी जल जाएगा।
जो शेष रह
जाएगा, वह
अजपा स्थिति
होती है।
इसलिए उसको भी
अग्नि से
प्रतीक बनाया
जा सकता है।
वह भी यज्ञ
बनाया जा सकता
है।
आपके
मन में बहुत
विचार हैं। आप
एक शब्द का जप की
भांति प्रयोग
करते हैं।
सारे विचारों
को हटा देते
हैं, एक ही
विचार पर आप
अपने मन को
डोलाते हैं।
एक घड़ी ऐसी
आती है कि यह
विचार भी
बेमानी हो
जाता है कि
इसको क्यों
दोहराए चले
जाना। जब सब
विचार ही छूट
गए, तो इस
एक को भी
क्यों पकड़े
चले जाना! फिर
यह भी छूट
जाता है। फिर
आप जिस स्थिति
में होते हैं,
वह अजपा स्थिति
है, वहां
जप भी नहीं
है। अग्नि ने
पहले ईंधन
जलाया, फिर
खुद भी जल गई।
लेकिन, खतरा है जप
के साथ, जैसा
कि ज्ञान के
साथ खतरा है।
खतरे सब चीजों
के साथ हैं।
ऐसा कोई भी
रास्ता नहीं
है जिस पर न
भटका जा सके।
ऐसा रास्ता हो
भी कैसे सकता
है! जो भी
रास्ता
पहुंचा सकता
है, उस पर
यात्री चाहे
तो भटक भी
सकता है। सब
रास्ते इस
अर्थों में
भटकाने वाले
की तरह प्रयोग
किए जा सकते
हैं, और
आदमी ऐसा है
कि वह सब
रास्तों को
पहुंचने के
लिए काम में
कम लाता है, भटकने के
लिए ज्यादा
काम में लाता
है। मैंने कहा
कि ज्ञान यज्ञ
है, जैसे
कृष्ण कहते
हैं। लेकिन
आदमी ज्ञान का
अर्थ ले सकता
है पांडित्य,
"इनफॅर्मेशन',
सूचनाएं, शास्त्र, सिद्धांत, शब्द और
इनको इकट्ठा
कर ले सकता
है। तब वह भटक गया।
वैसा आदमी
ज्ञान को
उपलब्ध ही
नहीं हुआ। ज्ञान
के नाम से
उसने कुछ और
ही अपने ऊपर
थोप लिया है।
और ध्यान रहे,
अज्ञान से
इतना नुकसान
नहीं है जितना
मिथ्या ज्ञान
से है। अज्ञान
से इतना
नुकसान नहीं
है, जितना
झूठे, उधार,
बासे ज्ञान से
है। क्योंकि बासे
ज्ञान में कोई
अग्नि नहीं
होती। बासा
ज्ञान समझना
चाहिए कि बुझ
गए अंगारों के
बुझे कोयलों की
तरह है। उसे
कितना ही
इकट्ठा कर लो,
उससे कोई
जीवन
रूपांतरण
नहीं होता है।
लेकिन अगर कोई
ज्ञान का यह
अर्थ ले ले, तो भटकेगा।
ऐसे ही
जप के साथ भी
कठिनाई है। जप
का अगर कोई यह
अर्थ ले ले कि
जप करते-करते
ही पहुंच जाऊंगा, तो गलती में
है। जप
करते-करते कोई
कभी नहीं पहुंचा
है। जप का
उपयोग ऐसा ही
किया जाता है
जैसे पैर में
एक कांटा लग
गया हो और उस
कांटे को हम
दूसरे कांटे
से निकाल देते
हैं। लेकिन
फिर दूसरे
कांटे को पहले
वाले कांटे के
घाव में रख
नहीं लेते
सुरक्षित।
पहला कांटा
निकला कि
दूसरा बिलकुल
वैसे ही बेकार
है, जैसा
पहला है, और
दोनों को
एक-साथ फेंक
देते हैं।
लेकिन हो सकता
है कोई नासमझ!
वह कहे कि जिस
कांटे ने मेरा
कांटा निकाला,
उसको मैं
कैसे फेंक
सकता हूं। वह
कहे कि शिष्टता
भी तो कम-से-कम
इतना कहती है
कि जिस कांटे
ने मेरा कांटा
निकाला उसको
मैं सम्हाल कर
रखूं। तब यह
आदमी पागल है।
बुद्ध
निरंतर कहते
हैं, बार-बार
एक कहानी वह
कहते हैं कि
एक गांव में कुछ
लोग एक नाव से
उतरे, फिर
जब वे नाव से
नदी के किनारे
उतर गए तो उन
आठों लोगों ने
तय किया--वे
बड़े
बुद्धिमान
थे--उन्होंने
तय किया कि
जिस नाव ने
हमें नदी पार
कराई, उस
नाव को हम छोड़
कैसे सकते
हैं! और
उन्होंने सोचा
कि जिस नाव से
हम नदी पार
किए और जिस पर
हम बैठकर सवार
हुए, अब
उचित है कि हम
उसको अपने ऊपर
सवार करें। तो
उन्होंने नाव
को आठों
आदमियों ने
अपने सिरों पर
उठा लिया और
बाजार की तरफ
चले। गांव में
लोग उनसे
पूछने लगे कि पागलो, हमने
नाव पर तो
बहुत बार
लोगों को देखा,
लेकिन नाव
लोगों पर नहीं
देखी, यह
बात क्या है? वे सब कहने
लगे कि तुम हो
अकृतज्ञ।
तुम्हें "ग्रेटीच्यूड'
का कुछ पता
नहीं है। हम
जानते हैं
अनुग्रह का भाव।
इस नाव ने
हमें नदी पार
करवाई है, अब
इस नाव को
संसार पार
करवा के
रहेंगे। अब तो
सदा यह हमारे
सिर पर रहेगी।
तो
बुद्ध यह मजाक
में कहते हैं
कि बहुत लोग
हैं, जो फिर
साधना को इस
बुरी तरह पकड़
लेते हैं कि वही
साध्य हो जाता
है। नदी पार
करने को नाव
है, सिर पर
ढोने को नाव
नहीं है।
जप का
उपयोग किया जा
सकता है, इस
होश के साथ कि
वह भी एक
कांटा है। और
अगर आपने उसको
कांटा नहीं
समझा और प्रेम
में पड़ गए
उसके, तो
जो दूसरे
विचार आपको
भरे थे वे तो
हट जाएंगे, जप आपको भर
देगा। अब एक
आदमी चौबीस
घंटे राम-राम,
राम-राम कर
रहा है, उसकी
बजाय हो सकता
है जो व्यर्थ
विचारों से भरा
है उसके जीवन
में भी कुछ
सार्थकता
फलित हो जाए, क्योंकि
उसके व्यर्थ
विचारों में
भी कुछ आ सकता
है। इसके पास सिवाय
राम-राम के
कुछ आने को
नहीं है। और
जब यह राम-राम
को छोड़ने को
राजी नहीं
होगा, यह
कहेगा सब
विचारों से
छुटकारा
दिलाया राम-राम
ने, तो अब
मैं कैसे छोड़
सकता हूं, अब
तो मैं नाव को
सिर पर
रखूंगा।
जप को
यज्ञ कहना बड़ी
"सीक्रेट' बात है।
कृष्ण जब जप
को यज्ञ कहते
हैं तो वह कहते
हैं, ध्यान
रखना, जप
भी अग्नि की
भांति है।
पहले दूसरे को
जलाएगा, फिर खुद को जलाएगा, और जब खुद को
जला ले तभी
समझना कि
सार्थक हुआ है।
तो हम
शब्द का उपयोग
कर सकते हैं
दूसरे शब्दों
को बाहर करने
में, लेकिन
फिर उस शब्द
को भी बाहर
करना पड़ेगा।
और अगर मोहग्रस्त
हुए और उस
शब्द को
सम्हालकर रखा
तो जप यज्ञ न
रहेगा, जप
सम्मोहन हो
जाएगा। फिर हम
जप शब्द से ही
"आब्सेस्ड'
हो गए, फिर
हम उसी से
पीड़ित होकर
रहने लगेंगे,
और वही
हमारा पागलपन
बन जाएगा।
इसलिए जो लोग
जप करते वक्त
जप में लीन हो
जाते हैं, वे
लोग जप को फिर
कभी न छोड़
सकेंगे, क्योंकि
लीनता में एक
गहरा संबंध
स्थिर हो जाता
है। जो लोग जप
करते समय
साक्षी बने
रहते हैं, जो
ऐसा अनुभव
नहीं करते कि
मैं जप कर रहा
हूं, बल्कि
ऐसा अनुभव
करते हैं कि
जप मन से हो
रहा है और मैं
देख रहा हूं, वे एक दिन जप
के बाहर जा
सकते हैं। तब
जप यज्ञ हो
जाता है, क्योंकि
तब जप अग्नि
की भांति हो
जाता है। पहले
वह दूसरे
विचारों को
जला देता है, फिर खुद
जलकर राख हो
जाता है। आप
जब खाली रह जाते
हैं, शून्य,
तब आप ध्यान
को, समाधि
को उपलब्ध
होते हैं।
इसलिए
कृष्ण ने
ज्ञान और जप, दोनों के
साथ यज्ञ का
प्रयोग किया।
यज्ञ का प्रयोग
अग्नि के
केंद्र पर है।
और अग्नि के
प्रतीक को हम
समझ लें तो ये
दोनों बातें
भी साफ समझ में
आ सकती हैं।
असल में जो
जलने को तैयार
है, वह
यज्ञ के लिए
तैयार है, जो
मिटने को
तैयार है, वह
यज्ञ के लिए
तैयार है। जो
होम होने को
तैयार है, वह
यज्ञ के लिए
तैयार है। और
तब सब यज्ञ
छोटे पड़ जाते
हैं और जीवनयज्ञ
ही शेष रह
जाता है।
"भगवान
श्री, श्रीकृष्ण
कहते हैं कि ज्ञानीजन
कर्मफल त्याग
कर जन्मरूप
बंधन से छूट
जाते हैं और परमपद को
प्राप्त करते
हैं। तो क्या
कृष्ण जन्म को
बंधन मानते
हैं? आप तो
जन्म को, संसार
को निर्वाण ही
है, ऐसा
कहते हैं।'
कृष्ण
कहते हैं, ज्ञानीजन कर्मफल की
आसक्ति को
छोड़कर, फलासक्ति को छोड़कर जन्मरूपी
बंधन से मुक्त
हो जाते हैं।
ये सब बातें
समझने जैसी
हैं।
पहली
बात, फलासक्ति से मुक्त
होकर। कर्म से
मुक्त होकर
नहीं, फलासक्ति से मुक्त
होकर। कर्म से
मुक्त होने को
नहीं कहा जा
रहा है कि काम
से मुक्त हो
जाने का जोर
ही इसलिए है
कि कर्म पीछे
बचाया गया है।
कर्म तो रहेगा,
फलासक्ति नहीं
रहेगी।
फलासक्ति
से मुक्त होकर
कोई कैसे कर्म
को उपलब्ध
होगा, यह
थोड़ा सोचने
जैसा है। हम
तो अगर फल से
मुक्त हो जाएं
तो कर्म से ही
मुक्त हो
जाएंगे। अगर कोई
आपसे कहे कि
फल की कामना न
करें, और
कर्म करें, तो आप
कहेंगे, मैं
पागल हूं! अगर
फल की कामना
नहीं है तो
कर्म क्यों
होगा? फल
की कामना से
ही तो कर्म होता
है। एक कदम भी
उठाते हैं तो
किसी फल की कामना
से उठाते हैं।
अगर फल की
कामना ही नहीं
होगी, तो
कदम ही क्यों
उठेगा? हम
उठाएंगे ही
क्यों?
इस "फलासक्ति
से मुक्त होकर', इस शब्द ने, जिन लोगों
ने कृष्ण को
सोचा है
उन्हें बड़ी
कठिनाई में
डाला है। और
सबसे बड़ी
कठिनाई
उन्होंने यह
पैदा की है कि
तब उन्होंने
एक बहुत ही
रहस्यपूर्ण
ढंग से फल की पुनर्प्रतिष्ठा
कर दी है। फिर
उन्होंने यह
कहा कि जो फलासक्ति
से मुक्त होते
हैं, वे
मोक्ष को या
मुक्ति को
उपलब्ध हो
जाते हैं। और
मुक्ति और
मोक्ष को फल
की तरह उपयोग
में लाना शुरू
किया है, कि
तुम ऐसा करोगे,
तो ऐसा
मिलेगा। तुम
ऐसा करोगे तो
ऐसा नहीं मिलेगा।
यही तो फल की
आकांक्षा है।
मोक्ष को भी फल
बना लिया। तभी
वे लोगों को
समझा पाए कि
तुम सब और
फलों को छोड़
दो। तो मोक्ष
को अगर पाना
चाहते हो, तो
सब फलों को
छोड़कर ही तुम
मोक्ष को पा
सकते हो।
लेकिन यह तो
कृष्ण के साथ
बड़ी ज्यादती
हो गई। अगर
कृष्ण ऐसा भी
कहते हैं कि
जो सब फलासक्ति
से मुक्त हो
जाते हैं, वे
ज्ञानीजन
जन्मरूपी
बंधन से मुक्त
होते हैं, तो
उनकी मुक्त
होने की जो
बात है वह
सिर्फ परिणाम
की सूचक है। "कांसीक्वेंस'
की खबर है।
वह फल नहीं
है। ऐसा नहीं
है कि जिन्हें
जन्मरूपी
बंधन से मुक्त
होना है, वे
फल की
आकांक्षा छोड़
दें, तब तो
यह फिर फल की
ही आकांक्षा
हो गई। यह
सिर्फ खबर है
कि ऐसा होता
है। फल की
आकांक्षा
छोड़ने से
मुक्ति फलित
होती है, ऐसा
होता है।
लेकिन मुक्ति
की आकांक्षा
जो करता है
उसे तो मुक्ति
कभी फलित नहीं
हो सकती, क्योंकि
वह फल की
आकांक्षा
करता है।
लेकिन हम बिना
फल-आकांक्षा
के कर्म कैसे
करेंगे?
इसे
समझने के लिए
यह देखना
जरूरी होगा कि
हमारी जिंदगी
में दो तरह के
कर्म हैं। एक
कर्म तो वह है
जो हम अभी
करते हैं, कल कुछ कुछ
पाने की आशा
में। ऐसा कर्म
भविष्य की तरफ
से "पुल' है,
खींचना है।
भविष्य खींच
रहा है लगाम
की तरह। जैसे
एक गाय को कोई
गले में रस्सी
बांध खींचे लिए
जा रहा है, ऐसा
भविष्य हमारे
गले में रस्सियां
डालकर हमें
खींचे लिए जा
रहा है। यह
मिलेगा, इसलिए
हम यह कर रहे
हैं। वह
मिलेगा, इसलिए
हम वह कर रहे
हैं। मिलेगा
भविष्य में, कर अभी रहे
हैं। रस्सी
अभी गले में
पड़ी है; हाथ
में जो फंदा
है रस्सी का, वह भविष्य
के लिए है।
मिलेगा, नहीं
मिलेगा, यह
पक्का नहीं
है। क्योंकि
भविष्य का
अर्थ ही यह है
कि जो पक्का
नहीं है।
भविष्य का
अर्थ ही यह है,
जो अभी नहीं
हुआ है, होगा।
लेकिन उस आशा
में हम रस्सी
में बंधे हुए
पशु की तरह
भागे चले जा
रहे हैं।
यह बड़े
मजे की बात है, यह शब्द पशु
बड़ा बढ़िया है।
कभी आपने शायद
खयाल न किया
होगा कि पशु
का मतलब होता
है, जो पाश
में बंधा हुआ
खिंचा जा रहा
है। पशु शब्द
का ही मतलब
होता है, जो
पाश में बंधा
हुआ खिंचा जा
रहा है। तब तो
हम सब पशु हैं,
अगर हम
भविष्य के पाश
में बंधे हुए खिंचे जा
रहे हैं। पशु
का मतलब ही
इतना है कि जो
भविष्य से
बंधा है और
जिसकी लगाम
भविष्य के
हाथों में है
और जो खिंचा
जा रहा है। जो
रोज आज इसलिए
जीता है कि कल
कुछ होगा, कल
भी इसीलिए जियेगा
कि परसों कुछ
होगा। जो हर
दिन आज कल के
लिए जियेगा
और कभी नहीं
जी
पाएगा--क्योंकि
जब आएगा तब आज
आएगा, और
जीना उसका सदा
कल होगा। कल
भी यही होगा, परसों भी
यही होगा, क्योंकि
जब भी समय
आएगा वह आज की
तरह आएगा और
यह आदमी पाश
में बंधा हुआ
पशु की तरह
भविष्य से
खिंचा हुआ कल
में जियेगा।
यह कभी नहीं
जी पाएगा।
इसकी पूरी
जिंदगी अनजियी,
"अनलिव्ड'
बीत जाएगी।
मरते वक्त यह
कह सकेगा कि
मैंने सिर्फ
जीने की कामना
की, मैं जी
नहीं पाया
हूं। और मरते
वक्त उसकी
सबसे बड़ी पीड़ा
यही होगी कि
अब आगे कोई फल
नहीं दिखाई
पड़ता। और कोई
पीड़ा नहीं है।
अगर आगे कोई
फल दिखाई पड़
जाए इसे, तो
यह मौत को भी
झेलने को राजी
हो जाएगा।
इसलिए मरता
हुआ आदमी
पूछता है, पुनर्जन्म
है? मैं
मरूंगा तो
नहीं? वह
असल में यह
पूछ रहा है, कल है अभी
बाकी? अगर
कल हो तो चल
सकता है, क्योंकि
मेरे जीने का
ढंग कल पर
निर्भर है। अगर
कल नहीं है अब,
तो बड़ा
मुश्किल हो
गया। मैं तो
रोज-रोज कल के
लिए जिया और
आज अचानक पाता
हूं कि आज के
साथ ही सब
समाप्त होता
है और कल नहीं
है। "फ्यूचर
ओरियेंटेड
लिविंग' जो
है, वह फलासक्ति
का अर्थ है।
भविष्य-केंद्रित
जीवन।
एक ऐसा
कर्म भी है, जो भविष्य
से खिंचाव की
तरह नहीं
निकलता, बल्कि
"स्पांटेनियस'
है और झरने
की तरह हमारे
भीतर से फूटता
है। जो हम हैं,
उससे
निकलता है। जो
हम होंगे, उससे
नहीं। रास्ते
पर आप जा रहे
हैं, किसी
आदमी का--आपके
सामने चल रहा
है, उसका
छाता गिर गया
है, आपने
उठाया और छाता
दे दिया। न तो
छाता देते वक्त
यह खयाल आया
कि कोई "प्रेसरिपोर्टर'
आसपास है या
नहीं; न
छाता देते
वक्त यह खयाल
आया कि कोई
"फोटोग्राफर'
आसपास है या
नहीं; न
छाता देते
वक्त यह खयाल
आया कि कोई
देख रहा है कि
नहीं देख रहा
है; न छाता
देते वक्त यह
खयाल आया कि
यह आदमी धन्यवाद
देगा कि नहीं;
तो यह कर्म फलासक्तिरहित
हुआ। यह आपसे
निकला सहज।
लेकिन समझें
कि उस आदमी ने
आपको धन्यवाद
नहीं दिया, दबाया छाता
और चल दिया।
और अगर मन में
विषाद की
जरा-सी भी
रेखा आई, तो
आपको
फलाकांक्षा
का पता नहीं
था लेकिन
अचेतन में
फलाकांक्षा प्रतीक्षा
कर रही थी। आप
सचेतन नहीं थे
कि इसके
धन्यवाद देने
के लिए मैं
छाता उठाकर दे
रहा हूं, लेकिन
अचेतन मन मांग
ही रहा था कि
धन्यवाद दो।
उसने धन्यवाद
नहीं दिया, उसने छाता
दबाया और चल
दिया, तो
आपके मन में
विषाद की एक
रेखा छूट गई
और आपने कहा
कि यह कैसा
कृतघ्न, कैसा
अकृतज्ञ आदमी
है! मैंने
छाता उठाकर
दिया और
धन्यवाद भी
नहीं! तो भी
फलाकांक्षा
हो गई। अगर
कृत्य अपने
में पूरा है,
"टोटल', अपने
से बाहर उसकी
कोई मांग ही
नहीं है, तो
फलाकांक्षारहित
हो जाता है।
कोई भी
कृत्य जो अपने
में पूरा है, "सर्किल' की
तरह है; वृत्त
की तरह अपने
को घेरता है
और पूर्ण हो
जाता है और
अपने से बाहर
की कोई
अपेक्षा ही
उसमें नहीं
है। बल्कि
छाता देकर
आपने उसे
धन्यवाद दिया
कि तूने मुझे
एक पूर्ण
कृत्य करने का
मौका दिया, जिसमें कि
कोई आकांक्षा
न थी वह अवसर
मेरे लिए दे
दिया!
फलाकांक्षा
से भरा हुआ व्यक्ति
किसी-न-किसी
तरह की
आकांक्षा, अपेक्षा
से भरा होगा।
लेकिन जब
पूर्ण कृत्य होता
है तो वह इतना
आनंद दे जाता
है कि उसके
पार कोई मांग
नहीं है। फलाकांक्षारहित
कृत्य का मेरी
दृष्टि में जो
अर्थ है वह यह
है कि कृत्य पूर्ण
हो, उसके
बाहर कोई सवाल
ही नहीं है।
वह खुद ही इतना
आनंद दे जाता
है, वह खुद
ही अपना फल है,
कृत्य ही
अपना फल है, आज ही अपना
फल है, यही
क्षण अपना फल
है।
जीसस
एक गांव से
गुजर रहे हैं
और उस गांव के
आसपास लिली के
फूलों के बड़े
खेत हैं और वह
अपने शिष्यों
से कहते हैं
कि देखते हो
इन लिली के
फूलों को? शिष्य बड़ी
देर से देख
रहे थे, लेकिन
नहीं देख रहे
थे, क्योंकि
सिर्फ आंखों
से तो नहीं
देखा जाता, प्राणों से
देखा जाता है।
जीसस ने कहा, देखते हो इन
लिली के फूलों
को? उन्होंने
कहा, देखते
हैं, इसमें
देखने जैसा
क्या है? जैसे
लिली के फूल
होते हैं, वैसे
हैं। जीसस ने
कहा, नहीं,
मैं तुमसे
कहता हूं कि
सोलोमन
भी--सम्राट
सोलोमन भी
अपनी पूरी
प्रतिष्ठा और
गौरव में इतना
सुंदर न था
जितना ये गरीब
लिली के फूल
इस गांव के
किनारे हैं।
जीसस से पूछा
कि सोलोमन से
इनकी आप क्या
तुलना करते
हैं? कहां
सोलोमन! यहूदी
विचार में
कुबेर का
तुलनात्मक
प्रतीक है
सोलोमन। कहां
सोलोमन, कहां
ये गरीब लिली
के फूल, इस
अनजाने गांव
के रास्तों पर
खिले! जीसस ने
कहा कि नहीं, लेकिन देखो
गौर से।
सोलोमन भी
अपनी पूरी "ग्लोरी' में, जब
वह पूरा अपने
वैभव पर था तब
भी इस एक साधारण
से लिली के
फूल के बराबर
सुंदर न था।
कोई
पूछता है कि
क्या कारण है? तो जीसस
कहते हैं, फूल
अभी और यहीं
खिलते हैं, सोलोमन सदा
भविष्य में
रहता है। और
भविष्य का तनाव
कुरूप कर जाता
है। फूल अभी
और यहीं खिलते
हैं। फूलों को
कल कोई पता
नहीं। यही हवा
का झोंका सब
कुछ है, यही
सूरज की किरण
सब कुछ है, यही
पृथ्वी का
टुकड़ा सब कुछ
है; यही
राह, यही
होना, बस
यही सब कुछ है,
इसके बाहर
कुछ होना
नहीं। ऐसा
नहीं कि सांझ
नहीं आएगी।
सांझ अपने से
आएगी। आपकी
अपेक्षाओं से
आती है? आपकी
आकांक्षाओं
से आती है? ऐसा
नहीं है कि इन
फूलों में बीज
नहीं लगेंगे
और फल नहीं
बनेंगे, वे
अपने से लगते
हैं। आपकी
अपेक्षाओं से
लगते हैं? लेकिन
हम उस पागल
औरत की तरह
हैं, जिसके
बाबत हम सबको
पता होगा ही, क्योंकि हम
सब उसकी तरह
हैं।
एक
पागल औरत एक
दिन सुबह अपने
गांव से नाराज
होकर चली गई।
गांव भर के
लोगों ने कहा
कि यह क्या कर
रही हो? कहां
जा रही हो? उसने
कहा कि अब मैं
जा रही हूं, तुमने मुझे
बहुत सताया, अब कल से
तुम्हें पता
चलेगा! पर उन
लोगों ने कहा
कि बात क्या
है? उसने
कहा, मैं
वह मुर्गा
अपने साथ लिए
जा रही हूं
जिसकी बांग
देने पर इस
गांव में सूरज
ऊगा करता था।
अब यह सूरज
दूसरे गांव
में ऊगेगा।
वह दूसरे गांव
पहुंच गई।
सुबह सूरज
ऊगा--मुर्गे
ने बांग दी, सूरज ऊगा, उसने कहा, अब रोते
होंगे नासमझ,
क्योंकि अब
सूरज इस गांव
में ऊग रहा
है।
उस
बूढ़ी औरत के
तर्क में कोई
खामी है? जरा
भी नहीं। उसके
मुर्गे की
बांग देने से
सूरज ऊगता था।
और फिर जब
दूसरे गांव
में भी बांग
देने से सूरज
ऊगा, तब तो
बिलकुल पक्का
ही हो गया न, कि अब उस
गांव का क्या
होगा! मुर्गे
ऐसी भ्रांति
में नहीं पड़ते,
लेकिन मुर्गों
के मालिक पड़
जाते हैं।
मुर्गे तो
सूरज ऊगता है,
इसलिए बांग
देते हैं, मुर्गों के मालिक
समझते हैं कि
अपना मुर्गा
बांग दे रहा
है, इसलिए
सूरज ऊग रहा
है।
हम
सबका चित्त
ऐसा है।
भविष्य तो आता
है अपने से।
वह आ ही रहा है, वह हमारे
रोके न
रुकेगा। कल
आते हैं अपने
से, वे
हमारे रोके न रुकेंगे।
हम अपने कृत्य
को पूरा कर
लें, इतना
काफी है, उसके
बाहर हमें
होने की जरूरत
नहीं है।
कृष्ण इतना ही
कहते हैं कि
तुम्हारा
कृत्य पूरा
हो--"द एक्ट मस्ट
बी टोटल'।
"टोटल' का
मतलब है कि
उसके बाहर
करने को कुछ
तुम्हें कुछ
भी न बचे, तुम
पूरा उसे कर
लिए और बात
खत्म हो गई।
इसलिए वे कहते
हैं कि तुम
परमात्मा पर
छोड़ दो फल।
परमात्मा पर
छोड़ने का मतलब
यह नहीं है कि
कोई नियंता, कहीं
"कंट्रोलर' कोई बैठा है,
उस पर तुम
छोड़ दो, वह
तुम्हारा
हिसाब-किताब
रखेगा।
परमात्मा पर
छोड़ने का कुल
इतना ही मतलब
है कि तुम
कृपा करो, तुम
सिर्फ करो और
समष्टि से उस
करने की
प्रतिध्वनि
आती ही है। वह
आ ही जाएगी।
जैसे कि मैं
इन पहाड़ों में
जोर से चिल्लाऊं
और कोई मुझसे
कहे कि तुम चिल्लाओ
भर, प्रतिध्वनि
की चिंता मत
करो, पहाड़
प्रतिध्वनि
करते ही हैं।
तुम पहाड़ों पर
छोड़ दो
प्रतिध्वनि
की बात। तुम
नाहक चिंतित मत
होओ, क्योंकि
तुम्हारी
चिंता
तुम्हें ठीक
से ध्वनि भी न करने
देगी और फिर
हो सकता है
प्रतिध्वनि
भी न हो पाए, क्योंकि
प्रतिध्वनि
होने के लिए
ध्वनि तो होनी
चाहिए।
फलाकांक्षा
कर्म को ही
नहीं करने देती।
फलाकांक्षा
में उलझे हुए
लोग कर्म करने
से चूक ही
जाते हैं, क्योंकि
कर्म का क्षण
है वर्तमान और
फल का क्षण है
भविष्य।
जिनकी आंखें
भविष्य पर गड़ी
हैं भविष्य पर,
कल पर, फल
पर, तो काम
तो बेमानी हो
जाता है। किसी
तरह हम करते
हैं। नजर लगी
होती है आगे, ध्यान लगा
होता है
आगे--और जहां
ध्यान है, वहीं
हम हैं। और
अगर ध्यान
वर्तमान क्षण
पर नहीं है, तो
गैर-ध्यान में,
"इनअटेंटिविली'
जो होता है,
उस होने में
बहुत गहराई
नहीं होती, उस होने में
पूर्णता नहीं
होती, उस
होने में आनंद
नहीं होता है।
कृष्ण
की फलाकांक्षारहित
कर्म की जो
दृष्टि है, उसका कुल
मतलब इतना है
कि तुम इतना
भी अपना हिस्सा
भविष्य के लिए
मत तोड़ो कि इस
काम में बाधा
पड़ जाए, तुम
इस काम को
पूरा ही कर
लो। भविष्य जब
आए तब भविष्य में
पूरे हो लेना,
कृपा करके
अभी तुम पूरे
हो लो। अभी
तुम इसी में
पूरे हो लो, भविष्य
आएगा। और
तुम्हारे
पूरे होने से
फल निकलेगा।
उसकी तुम
चिंता ही मत
करो, उसे
तुम निश्चिंत
हो परमात्मा
पर छोड़ सकते
हो। इसका मतलब
यह हुआ कि हम
जो कर रहे हैं
वह हमारा आनंद
हो जाए, तभी
हम भविष्य से
और फल से बच
सकते हैं। जो
हम कर रहे हैं
वह हमारे आनंद
से सृजित हो, वह हमारे
आनंद से निकले,
उसका
आविर्भाव
हमारे आनंद से
हो, वह
हमारे भीतर से
झरने की तरह
फूटे--किसी
भविष्य के लिए
नहीं; पशु
की तरह नहीं, झरने की
तरह। झरना
किसी भविष्य
के लिए नहीं
फूट रहा है।
भला आप
सोचते होंगे
कि नदियां
सागर के लिए
बह रही हैं, गलती में
हैं आप। सागर
तक पहुंच जाती
हैं, यह
दूसरी बात है।
नदियां
बहती हैं अपने
वेग से, नदियां बहती हैं
अपने "ओरिजनल
सोर्स' की
क्षमता से। गंगोत्री
की क्षमता से
गंगा बहती है।
सागर तक पहुंचती
है, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। इस
पूरी लंबी
यात्रा में
गंगा को सागर
से कुछ
लेना-देना
नहीं है। सागर
मिलेगा कि
नहीं मिलेगा,
इससे कोई
संबंध ही नहीं
है। गंगा की
भीतरी ऊर्जा
इतनी है कि वह
बहाए लिए जाती
है, बहाए लिए
जाती है, और
हर तट पर गंगा
नाच रही है।
कोई सागर के
तट पर ही
नाचती है, ऐसा
नहीं, हर
तट पर नाच रही
है। पत्थरों
में, पहाड़ों
में, गङ्ढों में, ऊंचाइयों
पर, नीचाइयों में, सुख
में, दुख
में, निर्जन
में, रेगिस्तान
में, वृक्षों
में, हरियाली
में, मनुष्यों
में, न-मनुष्यों
में, वह हर
जगह नाच रही
है। जहां है
जिस तट पर
पहुंचने के
लिए वह किसी
तट से जल्दी
में नहीं है।
फिर एक दिन वह
सागर तक पहुंच
जाती है। सागर
तक पहुंच जाना
उसके जीवन की फलश्रुति
है। वह फल है, लेकिन उस फल
के लिए कहीं
कोई आकांक्षा
नहीं है। एक
झरना फूट रहा
है, अपनी
भीतरी ऊर्जा
से उसका कृत्य
फूटता है। कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि आदमी ऐसा
जिये कि अपनी
भीतरी ऊर्जा
से फूटता रहे।
मेरी दृष्टि
में संन्यासी
में और गृहस्थ
में यही फर्क
है। गृहस्थ रोज
कल के लिए
जीता है, संन्यासी
आज की ऊर्जा
से फूटता है
और जीता है।
आज पर्याप्त
है। कल आएगा, वह भी आज की
तरह आएगा, उसमें
भी हम आज की
तरह जी लेंगे।
मुहम्मद
के जीवन में
एक छोटी-सी
घटना है। मुहम्मद
उन थोड़े-से
संन्यासियों
में हैं जैसे
संन्यासी मैं
दुनिया में
देखना
चाहूंगा।
मुहम्मद को
रोज लोग भेंट
कर जाते हैं।
कोई मिठाइयां
दे जाता है, कोई रुपये
दे जाता है, कोई कुछ कर
जाता है। सांझ
तक जो लोग आते
हैं, खाते
हैं, पीते
हैं, सांझ
को मुहम्मद
अपनी पत्नी को
कहते हैं कि
अब सब बांट दो,
क्योंकि
सांझ हो गई।
तो जो भी होता
है, सब
बांट दिया
जाता है। सांझ
मुहम्मद फिर
फकीर हो जाते
हैं। उनकी
पत्नी उनसे
पूछती भी है
कि यह ठीक
नहीं है, कल
के लिए कुछ
बचाना उचित है,
तो मुहम्मद
कहते हैं कि
जो आज आया था, कल उसकी फिर
प्रतीक्षा
करेंगे। और जब
आज बीत गया, तो कल भी बीत
जाएगा। और फिर
वह अपनी पत्नी
से कहते हैं
कि क्या तू
मुझे नास्तिक
समझती है कि मैं
कल का इंतजाम
करूं? कल का
इंतजाम
नास्तिकता
है। कल का
इंतजाम इस बात
की सूचना है
कि जिस समष्टि
ने मुझे आज
दिया, कल
पता नहीं देगी,
नहीं देगी!
कल का इंतजाम
अश्रद्धा है।
कल का इंतजाम
अश्रद्धा है
जागतिक ऊर्जा
पर, विश्व-प्राण
पर। जिसने
मुझे आज दिया,
वह कल मुझे
देगा या नहीं
देगा, इसलिए
मैं इंतजाम कर
लूं। लेकिन
मैं कितना
इंतजाम कर
पाऊंगा, क्या
इंतजाम कर
पाऊंगा और
मेरे इंतजाम
कहां तक काम
पड़ेंगे।
मुहम्मद कहते
हैं, बांट
दे, कल
सुबह फिर
श्रद्धा से
प्रतीक्षा
करेंगे। मुहम्मद
कहते हैं, मैं
आस्तिक हूं।
तो कल के लिए
बचाकर नहीं रख
सकता, नहीं
तो परमात्मा
क्या कहेगा कि
ऐ मुहम्मद, तेरा इतना
भी भरोसा
नहीं! तो रोज
सांझ सब बंट जाता
है।
फिर
मुहम्मद की
मौत आती है।
मरने की रात, चिकित्सकों
ने कहा है कि
आज वह बच न
सकेंगे। तो
उनकी पत्नी ने
सोचा कि आज तो
कुछ बचा लेना
चाहिए, रात
दवा-दारू की
जरूरत हो सकती
है! खैर, कल
सुबह कोई
लाएगा, वह
तो ठीक है, लेकिन
आधीरात कौन
लाएगा? तो
उसने पांच
दीनार, पांच
रुपये तकिये
के नीचे छिपा
दिए। सांझ को
जब सब बांटा
है, पांच
रुपये छिपा
दिए। रात को
बारह बजे
मुहम्मद बड़ी तड़फन में
हैं, बड़ी
पीड़ा में हैं।
आखिर
उन्होंने
अपनी चादर उघाड़ी
और अपनी पत्नी
से पूछा कि
मैं सोचता हूं,
समझता हूं
कि मालूम होता
है आज गरीब
मुहम्मद गरीब
नहीं है। कुछ
घर में बचा
है। उसकी
पत्नी तो बहुत
घबड़ा गई। उसने
कहा आपको कैसे
पता चला? तो
मुहम्मद ने
कहा कि तेरे
चेहरे को
देखकर पता
चलता है, क्योंकि
आज तू वैसी
निश्चिंत
नहीं है जैसी
सदा निश्चिंत
है। घर में
तूने जरूर कुछ
बचाया है। जो
चिंतित हैं वे
भी बचा लेते
हैं, जो
बचा लेते हैं
वे भी चिंतित
हो जाते हज, वह "विसियस
सर्किल' है।
तो मुहम्मद
कहते हैं, उसे
निकाल और बांट
दे अभी। मुझे
शांति से मरने
दे। आखिरी रात,
कहीं ऐसा न
हो कि
परमात्मा कहे
कि आखिरी रात
मुहम्मद, तू
चूक गया! और जब
मैं उसके
सामने जाऊं तो
अपराधी की तरह
खड़ा होना पड़े।
निकाल कहां है?
उसकी पत्नी
ने घबड़ाहट
में वे पांच
रुपये जो छिपा
रखे थे कि रात
दवा-दारू की
जरूरत पड़े, निकाले।
मुहम्मद ने
कहा, किसी
को भी पुकार
दे सड़क से। तब
उसने कहा, आधी
रात कौन होगा?
उन्होंने
कहा, तू
पुकार दे।
पुकार दी गई
है, कोई
बाहर सड़क पर
भिखारी था वह
भीतर आ गया।
मुहम्मद ने
कहा, देख, आधी रात को
लेने वाला आ
सकता है तो
देने वाला भी
आ सकता है। तू
उसको दे दे।
ये पांच रुपये
दे दे। वे
पांच रुपये
उसे दे दिए गए,
फिर मुहम्मद
ने चादर ओढ़ ली
और वह उनका
आखिरी कृत्य
था उनका चादर ओढ़ना।
मुहम्मद डूब
गए उसी वक्त।
जैसे वे पांच
रुपये अटकाव
थे। जैसे वे
पांच रुपये
बाधा थे। जैसे
वे पांच रुपये
पीड़ा थे। जैसे
वह पांच रुपये
की गांठ उस
संन्यासी को
भारी पड़ रही
थी, रोके
हुए थी।
प्रत्येक
कृत्य और
प्रत्येक
क्षण और
प्रत्येक दिन
अपने में पूरा
होता जाए, तो भी कल आता
है। कल सदा
आता रहा है, लेकिन तब कल
रोज नया होता
है। बासा नहीं
होता। और तब
कल जैसा अभी
आता है, वह
"फ्रस्ट्रेट'
नहीं करता।
कल हमें विषाद
से भर देगा
अगर आज की
हमारी
अपेक्षाओं के
विपरीत पड़ा।
और किन अपेक्षाओं
के अनुकूल
भविष्य पड़ता
है! कभी नहीं
पड़ता।
क्योंकि
भविष्य इतने
विराट पर
निर्भर है और
हमारी
अपेक्षाएं
इतने क्षुद्र
पर निर्भर हैं
कि इस क्षुद्र
की अपेक्षाएं
इस विराट में
कैसे पूरी
होंगी! उनका
कोई पता ही
नहीं चलेगा।
यह ऐसा ही है
जैसे कि नदी
की बहती धार
में एक बूंद
तय करती हो कि
अगर पश्चिम को
कल बहें
तो बड़ा अच्छा।
नदी की पूरी
धार में एक
बूंद कहां
निर्णायक
होगी कि
पश्चिम को बहें।
नदी को जहां
बहना है, बहेगी।
एक बूंद उसके
साथ ही होगी, लेकिन कल
दुखी होगी।
क्योंकि उसने
तय किया था पश्चिम
बहने का और
नदी पूरब बही
जा रही है और तब
विषाद और पीड़ा
भर जाएगी।
अपेक्षाएं, फलाकांक्षाएं,
विषाद, दुख,
"फ्रस्ट्रेशन'
और पीड़ा से
भर जाती हैं, असफलताओं से भर जाती
हैं। जो आदमी
प्रतिपल पूरा
जी रहा है, उसके
जीवन में
विषाद नहीं
है।
इसलिए
जो कर रहे हैं, उस करने में
पूरे हो जाएं
और फल
परमात्मा पर छोड़
दें। ऐसा जो
करेगा, तो
कृष्ण कहते
हैं, वह
जन्म के, जन्मरूपी बंधन से छूट
जाता है। और
वह बड़े मजे की
बात कह रहे
हैं। वह यह कह
रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से।
जन्म बंधन है,
ऐसा वह नहीं
कह रहे हैं।
असल में जो
आदमी फलाकांक्षा
से भरा है, वह
आदमी जन्म
लेने की
आतुरता से भरा
होता है। क्योंकि
फल को पूरा
करने के लिए
कल तो होना चाहिए
न! जो आदमी
फलों में जीता
है, वह
आदमी जन्म
लेने की
आतुरता में
जीता है। उसे
जन्म लेना ही
पड़ेगा। और जो
आदमी फलों में
जीता है उसके
लिए जन्म बंधन
बन जाता है।
वह उसकी
मुक्ति नहीं
रहती। रहेगी
नहीं मुक्ति।
क्योंकि जन्म
का भी आनंद
उसे नहीं है।
आनंद तो उसे
कुछ फल मिलने
का है। जन्म भी
उसके लिए आनंद
नहीं है। जन्म
भी एक अवसर है,
जिसमें वह
कुछ फलों को
पाकर आनंदित
होना चाहता
है। मृत्यु
उसके लिए दुख
होगी, क्योंकि
मृत्यु उसे उन
सब मार्गों को
तोड़ देगी जिन
मार्गों से
भविष्य में
जिआ जा सकता
था। और जन्म
उसके लिए बंधन
मालूम पड़ेगा।
जन्म उसके लिए
इसलिए बंधन
मालूम पड़ेगा
कि वह जीवन को
जानता ही नहीं
है, जो
मुक्ति है। और
एक बार कोई
जीवन को जान
ले, तो
जन्म भी नहीं
रह जाता और
मृत्यु भी
नहीं रह जाती
है। कृष्ण ने
उसमें जो बात
कही है वह अधूरी
है, उसे
पूरा किया
जाना चाहिए।
वह कह रहे हैं,
जन्मरूपी बंधन से
मुक्त हो जाता
है। मैं आपको
कहता हूं, वह
मृत्युरूपी
बंधन से भी
मुक्त हो जाता
है।
इसका
मतलब यह नहीं
है कि जन्म और
मृत्यु बंधन हैं।
इसका मतलब यह
है कि जन्म और
मृत्यु बंधन प्रतीत
होते हैं
अज्ञान में।
ज्ञानी के लिए
तो जन्म और
मृत्यु रह ही
नहीं जाते। यह
जो बंधन की
प्रतीति है, वह अज्ञानी
चित्त की
प्रतीति है।
और जो मुक्ति
की प्रतीति है,
वह ज्ञानी
चित्त की
प्रतीति है।
जन्म बुरा है,
ऐसा वह नहीं
कह रहे। लेकिन
जैसे हम हैं, उनको जन्म
बंधन मालूम
होगा। हम जैसे
आदमी प्रेम तक
को बंधन बना
लेते हैं।
मेरे पास
न-मालूम कितने
मित्रों की
लड़कियों के, लड़कों के
विवाह के
निमंत्रण आते
हैं, उसमें
लिखा रहता है
कि मेरी
पुत्री प्रेम
के बंधन में
बंधने जा रही
है; मेरा
बेटा विवाह के
बंधन में बंध
रहा है। हम प्रेम
को भी बंधन
बना लेते हैं;
जबकि प्रेम
मुक्ति है।
कहना तो यही
उचित होगा कि
मेरी बेटी
प्रेम में
मुक्त होने जा
रही है। हम
कहते हैं, बेटी
प्रेम में
बंधने जा रही
है। हम प्रेम
को भी बंधन
बना लेते हैं।
इसमें प्रेम बंधन
है ऐसा नहीं, हम जैसे हैं,
हम मृत्यु
को भी बंधन
बना लेते हैं।
हम जैसे हैं, हम पूरे
जीवन को ही
बंधन बना लेते
हैं। हम जैसे
हैं हम प्रेम
को भी बंधन
बना लेते हैं।
हम जैसे हैं, हम पूरे
जीवन को ही
बंधनों की एक
शृंखला बना
लेते हैं। जो
व्यक्ति क्षण
में जीता है, वर्तमान में
जीता, फलाकांक्षा
से मुक्त जीता,
अनासक्त
जीता, जो
व्यक्ति जीवन
को अभिनय की
तरह जीता, जो
करता हुआ न
करता है, न
करता हुआ करता
है, ऐसा
व्यक्ति
जिंदगी में जो
भी है उस सबको
मुक्ति बना
लेता है। उसके
लिए बंधन भी
मुक्ति हो
जाते हैं, हमारे
लिए मुक्ति भी
बंधन है। यह
हमारे होने के
ढंग पर निर्भर
करता है।
इसलिए कृष्ण
की बात में
कोई जन्म बंधन
है, ऐसा
जन्म की निंदा
नहीं है, हम
जैसे हैं, हमने
जन्म को बंधन
बनाया है। और
अगर हम फलाकांक्षारहित
होकर जीना
शुरू करें, तो जन्म
हमारे लिए
बंधन नहीं रह
जाएगा। ऐसा
व्यक्ति जीवनमुक्ति
को उपलब्ध
होता है। यही
जीवन मुक्ति।
यहीं है वह
जीवन, अभी
है वह जीवन।
हमारे देखने
पर निर्भर
करता है।
मैंने
सुना है कि एक
विद्रोही
को--एक
विद्रोही
फकीर को, एक
सूफी को किसी
खलीफा ने
कारागृह में
डाल दिया।
उसके हाथों पर
जंजीरें डाल
दीं, उसके
पैरों में बेड़ियां
डाल दीं और वह
सूफी, वह
फकीर जो
निरंतर
स्वतंत्रता
के गीत गाता
था, जेल के सींखचों
में डाल दिया
गया।
सम्राट--वह
खलीफा उससे
मिलने गया। और
उसने पूछा कि
कोई तकलीफ तो
नहीं है? तो
उस फकीर ने
कहा, तकलीफ
कैसी! शाही
मेहमान को
तकलीफ कैसे हो
सकती है! आप
मेजबान, आप
"होस्ट', तकलीफ
कैसे हो सकती
है! हम बड़े
आनंद में हैं।
झोपड़े से
महल में ले
आए। उस सम्राट
ने कहा, मजाक
तो नहीं करते
हो? उस
फकीर ने कहा, जिंदगी को
मजाक समझा, इसीलिए ऐसा
कह पाते हैं।
तो उसने कहा
कि जंजीरें
बहुत बोझिल तो
नहीं हैं? ये
जंजीरें कोई
पीड़ा तो नहीं
देतीं? तो
उस फकीर ने जंजीरों
को गौर से
देखा और उसने
कहा कि मुझसे
बहुत दूर हैं।
मेरे और इन जंजीरों
के बीच बड़ा
फासला है। सो
तुम इस भ्रम
में होओगे कि
तुमने मुझे
कारागृह में
डाला, लेकिन
मेरी मुक्ति
को तुम कारागृह
नहीं बना सकते,
क्योंकि
मैं कारागृह
को भी मुक्ति
बना सकता हूं।
इस पर
ही सब निर्भर
करता है कि हम
कैसे देखते हैं।
उस फकीर ने
कहा, बड़ा
फासला है इन जंजीरों
में और
मुझमें। तुम
कैसे मुझ पर
जंजीरें डालोगे?
मंसूर को
सूली दी गई और
मंसूर के
हाथ-पैर काटे गए
और लाखों लोग
देखने इकट्ठे
थे, लेकिन
मंसूर हंसता
ही रहा, और
उसकी हंसी
बढ़ती ही गई।
जब उसके पैर
काटे, तब
वह जितना हंस
रहा था, जब
हाथ काटे तब
और जोर से
हंसने लगा।
लोगों ने पूछा
कि पागल मंसूर,
यह कोई
हंसने की घड़ी
है? मंसूर
ने कहा कि मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि तुम समझ
रहे हो कि
मुझे मार रहे
हो, और तुम
किसी और को
काटे जा रहे
हो! याद रखना, मंसूर ने
कहा, कि
मंसूर को जब
तुम काट रहे
थे तब वह हंस
रहा था। ध्यान
रखना कि तुम
मंसूर को छू
भी नहीं सकते हो,
काटना तो
बहुत दूर की
बात है। और
तुम जिसे काट रहे
हो, वह
मंसूर नहीं
है। मंसूर तो
वही है जो हंस
रहा है। तब तो
जो जल्लाद
उसको काट रहे
थे, जो
उसके दुश्मन
उसे काट रहे
थे उन्होंने
कहा कि कैसे
हंसता है हम
देखें, उन्होंने
जीभ काट दी
मंसूर की, लेकिन
तब मंसूर की
आंखें हंस रही
थीं। इन लाखों
लोगों ने कहा,
जीभ तो
तुमने काट दी,
लेकिन
मंसूर हंस रहा
है, उसकी
आंखें हंस रही
हैं। उन
जल्लादों ने
उसकी आंखें फोड़ दीं।
लेकिन मंसूर
का चेहरा
हंसता रहा।
उसका रोआं-रोआं
हंस रहा था।
लोगों ने का
तुम इसको न रुला
सकोगे। अब इस
आदमी के पास
काटने को भी
कुछ नहीं बचा,
लेकिन उसका
पूरा
अस्तित्व हंस
रहा है।
जीवन
वैसा ही हो जाता
है, जैसे हम
हैं। जन्म
वैसा ही हो
जाता है, जैसे
हम हैं।
मृत्यु वैसी
ही हो जाती है,
जैसे हम
हैं। यदि हम
मुक्ति हैं, तो जन्म
मुक्ति है, जीवन मुक्ति
है, मृत्यु
मुक्ति है।
यदि हम बंधे
हैं, पाश
में पशु हैं, तो जन्म
बंधन है, जीवन
बंधन है, प्रेम
बंधन है, मृत्यु
बंधन है, सब
बंधन है।
परमात्मा भी
तब एक बंधन की
तरह ही दिखाई
पड़ता है।
"पहले
एक चर्चा में
आपने कहा था
कि पुरुष में
साठ प्रतिशत
पुरुष और
चालीस
प्रतिशत
स्त्री, तथा
स्त्री में
साठ प्रतिशत
स्त्री और
चालीस प्रतिशत
पुरुष होता
है। यदि दोनों
शक्तियों का
पचास-पचास
प्रतिशत
अनुपात हो जाए,
तो क्या वह
शक्ति नपुंसक
होगी? और
परमात्मा को अर्द्धनारीश्वर
क्यों कहा है?'
मैंने
ऐसा नहीं कहा
था कि साठ और
चालीस का
अनुपात होता
है, उदाहरण
के लिए कहा।
अनुपात बहुत
हो सकते हैं। सत्तरत्तीस
भी हो सकता है,
अस्सी-बीस
भी हो सकता है,
नब्बे-दस भी
हो सकता है, इक्यावन-उनचास
भी हो सकता
है। और
पचास-पचास भी
हो सकता है।
और जब
पचास-पचास
होता है, तभी
"एसेक्सुअलिटी'
पैदा हो
जाती है। तभी
वह व्यक्ति
यौन की दृष्टि
से द्वंद्व के
बाहर हो जाता
है, जिसको
हम नपुंसक या "इम्पोटेंट'
कह रहे हैं।
यह बड़े
मजे की बात है
कि इस मुल्क
ने ब्रह्म शब्द
को नपुंसकलिंग
में रखा है।
ब्रह्म पुरुष
है कि स्त्री? नहीं, ब्रह्म
"इम्पोटेंट'
है। वह जो
कि "ऑमनीपोटेंट'
है, वह
जो कि
सर्वशक्तिमान
है, उसको
हमने जो लिंग
रखा है वह नपुंसकलिंग
में रखा है।
क्योंकि वह
कैसे स्त्री हो
सकता है, वह
पक्ष हो
जाएगा। वह
कैसे पुरुष हो
सकता है, वह
पक्ष हो
जाएगा। वह
निष्पक्ष है।
निष्पक्ष है,
तो वह
पचास-पचास
दोनों पूरा है,
तभी
निष्पक्ष हो सकता
है। अर्द्धनारीश्वर
की कल्पना
ब्रह्म की
कल्पना है।
उसमें नारीत्व
और पुरुषत्व
आधा-आधा है।
वह दोनों है एकसाथ।
क्योंकि वह
दोनों नहीं
है। अगर पुरुष
है तो स्त्रीत्तत्व
का इस जगत में
कहां से
आविर्भाव
होगा? अगर
वह स्त्री है,
तो पुरुषत्तत्व
कहां से आएगा,
कहां से
शुरू होगा, कहां से
पैदा होगा? वह दोनों ही
है। एकसाथ
दोनों है।
इसलिए दोनों को
पैदा कर पाता
है।
और हम
जब तक
स्त्री-पुरुष
हैं, तब तक हम
परमात्मा के
टूटे हुए दो
हिस्से हैं।
इसलिए
स्त्री-पुरुष
का आपसी
आकर्षण एक
होने का
आकर्षण है।
स्त्री-पुरुष
का आकर्षण
पूरा होने का
आकर्षण है। वह
आधे-आधे हैं। अर्द्धनारीश्वर
की हमारी
कल्पना और
हमारी
प्रतिमा बड़ी
अनूठी है।
दुनिया ने
बहुत प्रतिमायें
बनाई हैं, लेकिन
अर्द्धनारीश्वर
में जो बहुत
मनोवैज्ञानिक
सत्य है, उसका
कोई मुकाबला
नहीं है। अर्द्धनारीश्वर
में हम इतना
ही कह रहे हैं
कि परमात्मा
दोनों हैं, एक-साथ, और
पूरा है। एक
पहलू उसका
स्त्रैण है, एक पहलू
उसका पुरुष
है। या ऐसा
कहें कि वह
दोनों का
सम्मिलन है, दोनों का
मध्य है; दोनों
का "बियांड'
है, दोनों
का पार है।
यह जो
मैंने कहा कि
परमात्मा को, ब्रह्म को, यह जो मध्य
की स्थिति है,
जीसस ने एक
बहुत अच्छा
शब्द उपयोग
किया है, "यूनचेज़
ऑफ गॉड'।
जीसस ने कहा
है कि जिसे
प्रभु को पाना
है, उसे
प्रभु के लिए
नपुंसक हो
जाना पड़ेगा।
बड़ी अजीब बात
कही है। पर
कही बिलकुल
ठीक है। जिसे
प्रभु को पाना
है, उसे
प्रभु जैसा
होना ही
पड़ेगा। इसलिए
बुद्ध अपनी
पूरी गरिमा
में, या
कृष्ण अपनी
पूरी गरिमा
में न स्त्री
हैं, न
पुरुष हैं।
अपनी पूरी
गरिमा में वे
दोनों हैं।
अपनी पूरी
गरिमा में वे
मिश्रित हैं।
अपनी पूरी गरिमा
में एक अर्थ
में वे "ट्रांसेंडेंटल
सेक्स' हैं,
वे पार हो
गए दोनों
द्वंद्वों के
और दोनों के बाहर
हो गए। लेकिन
हमारे बीच
द्वंद्व है।
मात्राओं का
द्वंद्व है।
और जो
उन्होंने
पूछा कि जो
हमारे बीच
"थर्ड सेक्स' पैदा होता
है कभी, उसका
क्या कारण है?
उसका वही
कारण है। अगर
उसके भीतर "फिजियोलाज़िकली',
शारीरिक तल
पर दोनों तत्व
समान रह गए, तो उसका
लिंग विकसित
नहीं हो पाता
किसी भी दिशा
में। उसकी
जाति ठीक से
विकसित नहीं
हो पाती।
दोनों बराबर
समतुल
शक्तियां
एक-दूसरे को
काट जाती हैं।
यह भी संभव हो
गया है, पहले
तो कभी-कभी
आकस्मिक होता
था कि कोई
स्त्री बाद के
जीवन में
पुरुष हो गई, या कोई
पुरुष बाद में
स्त्री हो
गया।
लंदन
में पीछे एक
बड़ा मुकदमा
चला। और
सनसनीखेज
मुकदमा था। और
मुकदमा यह था
कि एक लड़की और
एक लड़के का
विवाह हुआ, लेकिन विवाह
के बाद वह
लड़की जो थी वह
लड़का हो गई।
और अदालत में
जो मुकदमा था
वह यह था कि उस
लड़की ने धोखा
दिया, वह
लड़का थी ही।
बड़ी कठिनाई
हुई इस मुकदमे
में। उस लड़की
का तो कहना था,
वह लड़की थी,
और वह विकास
उसमें बाद में
हुआ है। लेकिन
तब तक विज्ञान
इस संबंध में
बहुत साफ नहीं
था। लेकिन अभी
इधर
बीस-पच्चीस
वर्षों में विज्ञान
बहुत साफ हुआ।
और घटनाएं
बहुत तरह की
घटी हैं, जिनमें
"सेक्स'-रूपांतरण
हुआ, जिनमें
कोई पुरुष
स्त्री हो गया,
कोई स्त्री
पुरुष हो गई।
अगर यह "मार्जिनल
केसेज' हैं, अगर उन्चास और
इक्यावन का
"मार्जिन' है,
तो बदलाहट
कभी भी हो
सकती है।
थोड़े-से
"केमिकल' फर्कों
से बदलाहट हो
सकती है। और
अब, अब तो
बहुत
सुविधापूर्ण
हो गई है बात
और भविष्य में
बहुत ज्यादा
दिन नहीं हैं
कि कोई आदमी जिंदगी
भर पुरुष रहने
का ही कष्ट
भोगे, या
कोई स्त्री
जिंदगी भर
स्त्री रहने
के ही चक्कर
में रहे। इसमें
बदलाहट कभी भी
की जा सकती
है। यह "सेक्स'
जो है, यह
रूपांतरित हो
सकेगा, क्योंकि
उसके "केमिकल'
सूत्र सारे
खयाल में आ गए
हैं कि अगर एक
"केमिकल' की
मात्रा बढ़ा दी
जाए
व्यक्तित्व
के शरीर में,
"हारमोन्स'
बदल दिए
जाएं, तो
उस
व्यक्तित्व
में स्त्री
प्रगट हो सकती
है--फिर पुरुष
स्त्री हो
सकता है, स्त्री
पुरुष हो सकती
है।
स्त्री
और पुरुष एक
ही तरह के
व्यक्ति हैं, सिर्फ
मात्राओं के
फर्क हैं
उनमें कुछ। उन
मात्राओं के
कारण
सारी-की-सारी
बात है।
अर्द्धनारीश्वर
इस बात की
सूचना है कि
विश्व का
मूलस्रोत न तो
स्त्री है न
तो पुरुष है।
वह दोनों
एकसाथ हैं।
लेकिन क्या मैं
आपसे यह कहूं
कि वह जो "इम्पोटेंट' हैं, नपुंसक
है, वह
परमात्मा के
ज्यादा निकट
पहुंच जाएगा?
यह मैं नहीं
कह रहा हूं।
परमात्मा
दोनों हैं और
नपुंसक दोनों
नहीं हैं।
इस
फर्क को आप
खयाल में ले
लेना।
परमात्मा
दोनों हैं एकसाथ, और जिसे हम
नपुंसक कहें,
वह दोनों
नहीं है।
नपुंसक हमारा
सिर्फ अभाव है,
"एब्सेंस'
है। और
परमात्मा भाव
है, "प्रेजेंस'
है।
परमात्मा में
स्त्री और
पुरुष दोनों
हैं। इसलिए अर्द्धनारीश्वर
की प्रतिमा है,
उसमें आधी
स्त्री है, आधा पुरुष
है। हम
परमात्मा को नपुंसक
जैसा भी बना
सकते थे, जिसमें
न स्त्री होती,
न पुरुष
होता; लेकिन
वह अभाव होता।
परमात्मा
दोनों का भाव
है, दोनों
की "पाज़िटिविटी'
है। और जिसे
हम नपुंसक
कहते हैं, वह
बेचारा दोनों
का अभाव है।
उसके पास कोई
व्यक्तित्व
नहीं है, इसलिए
उसकी पीड़ा का
कोई अंत नहीं
है। इसलिए जब
जीसस कहते हैं,
"यूनचेज़ ऑफ गॉड, तब
वह बिलकुल कह
रहे हैं कि
परमात्मा में,
परमात्मा
के लिए वे न
स्त्री रह
जाएं, न
पुरुष हो जाएं;
और तब वे
दोनों रह
जाएंगे, दोनों
हो जाएंगे।
"जैन-शास्त्रों
में क्यों कहा
है कि
स्त्रियों के
लिए मोक्ष
नहीं है?'
बात
जरा बदल
जाएगी। एक
सवाल छोटा-सा
पूछा है। बात बदल
जाएगी, इसलिए
थोड़े में करें,
फिर हम
ध्यान के लिए
बैठेंगे।
पूछा है कि
जैन-शास्त्रों
में क्यों कहा
है कि
स्त्रियों के लिए
मोक्ष नहीं
है। उसका कारण
है कि
जैन-शास्त्र
पुरुष-चित्त
के द्वारा
निर्मित
शास्त्र हैं।
जैन-साधना
पुरुष-साधना
है। जैन-साधना
की पूरी प्रक्रिया
"एग्रेसिव'
है, आक्रामक
है। और इसलिए
जैन-शास्त्र
सोच नहीं सकता
कि स्त्री को
कैसे मोक्ष हो
सकता है? अगर
कृष्ण के भक्त
से हम पूछें
तो वह बहुत
मुश्किल में
पड़ेगा! वह
कहेगा, स्त्री
के सिवाय और
किसी का मोक्ष
हो ही कैसे सकता
है! पुरुष का
मोक्ष होगा
कैसे! क्योंकि
कृष्णभक्त
अगर पुरुष भी
हैं, तो
अपने को
स्त्री बनाकर
कृष्ण के
प्रेम में पड़ता
है। मीरा जब
गई वृंदावन और
वहां के मंदिर
में प्रवेश पर
उस पर रोक
लगाई गई, क्योंकि
प्रवेश में, उस मंदिर
में जो पुजारी
था वह
स्त्रियों को
नहीं देखता
था। और जब
मीरा को रोका
तो मीरा ने कहा,
एक सवाल उन
पुजारी से पूछ
लो कि क्या
कृष्ण के अलावा
और कोई पुरुष
भी है? और
कृष्ण के
पुजारी होकर
अभी तक पुरुष
बने हुए हो? तो उस
पुजारी ने कहा,
उसको आने
दो। मेरी भूल
मुझे पता चल
गई, मैं
गलती में था।
तो कृष्ण के
आसपास तो "पैसिव',
समर्पण, "सरेंडर',
वह जो
स्त्री का
चित्त है वह।
महावीर
के आसपास
पुरुष-चित्त
की गति है।
महावीर स्वयं
पुरुष-चित्त
के साधक हैं।
उनकी सारी साधना
पुरुष-चित्त
की साधना है, इसलिए
महावीर सोच भी
नहीं सकते, मान भी नहीं
सकते कि
स्त्री मोक्ष
जा सकती है।
तो महावीर की
परंपरा में
स्त्री को
थोड़ी प्रतीक्षा
करनी पड़े, उसे
एक पर्याय और
लेनी पड़े, एक
बार पुरुष
होना पड़े, फिर
ही वह जा सकती
है। और मैं
मानता हूं कि
इसमें गलती
नहीं है। अगर
महावीर की ही
साधना करनी हो
तो दुनिया में
कोई स्त्री
नहीं कर सकती।
स्त्रैण-चित्त
ही महावीर की
साधना नहीं कर
सकता। सिर्फ
पुरुष-चित्त
ही कर सकता
है। और अगर
पुरुष चित्त की
साधना करनी हो,
तो कृष्ण के
साथ बहुत
कठिनाई है। हो
नहीं सकती।
पुरुष-चित्त
का कृष्ण से
तालमेल नहीं
बैठेगा।
ये
हमारे जो दो
चित्त हैं, इन दो चित्तों
पर सब कुछ
निर्भर करता
है।
फिर
कल सुबह बात
करेंगे।
thank you guruji
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