प्रश्न—सार:
1—कृपया
समझाएं कि मन
और शरीर के
साथ
तादात्म्य
कैसे न बने?
2—मेरी स्वयं
के साथ और आपके
साथ
एकात्मकता
बनते ही मन
अहंकार
की यात्रा पर
निकल पड़ता
है। कि मेरा
कितना अच्छा
विकास हो रहा
है।
कृपया
आप मुझे सहारा
देंगे?
3—झेन
संत जो कि
प्रत्येक
सुबह एक ध्यान
की भांति
हंसते है—
क्या
आपको नहीं
लगता है कि वे
अपने हंसने को
कुछ ज्यादा
ही
गंभीरता
से लेते है।
4—भगवान, ऐसा लगता
है कि मैं
आपके द्वारा
सम्मोहित हो
गया हूं।
पहला
प्रश्न:
मन और
शरीर के साथ
तादात्म्य न
बने— ऐसा संभव
है यह मैं अब
तक नहीं समझ
सका हूं। मैं
स्वयं से कहता
हूं : तुम मन
नहीं हो इसलिए
भयभीत होने की
कोई: जरूरत
नहीं है; स्वयं को
प्रेम करो
संतुष्ट रहो
इत्यादि—
इत्यादि।
कृपया
फिर से समझाएं
कि तादात्म्य
कैसे न बनाया
जाए या कम से
कम यह बताएं
कि मुझे अब तक
भी आपकी बात
समझ क्यों
नहीं आ पायी
है?
यह स्वयं से
कहने की बात
ही नहीं है कि
तुम मन नहीं
हो, कि
तुम शरीर नहीं
हो, क्योंकि
जो ऐसा कह रहा
है वह भी मन ही
है। ऐसे तो
तुम कभी भी मन
के बाहर न आ
पाओगे। यह सब
बातें भी मन
के द्वारा ही
आ रही हैं, इसलिए
तुम मन पर ही
और—और जोर दिए
चले जाओगे। मन
बहुत सूक्ष्म
है, मन के
प्रति बहुत
अधिक सजग रहने
की आवश्यकता है।
मन का उपयोग
मत करो। अगर
तुम मन का
उपयोग करते हो,
तो मन मजबूत
होता चला जाता
है। अगर तुम
मन का उपयोग
करना बंद कर
दो, तो वह
अपने से बिदा
हो जाता है।
अपने मन को
समाप्त करने
के लिए तुम मन
का ही उपयोग
नहीं कर सकते।
तुम्हें यह
बात ठीक से
समझ लेनी है
कि मन का
उपयोग मन की
ही समाप्ति के
लिए नहीं किया
जा सकता है।
जब तुम
कहते हो, ’मैं शरीर
नहीं हूं, ’ तो
यह बात मन ही
कह रहा है। जब
तुम कहते हो, ’मैं मन नहीं हूं,
’ तो यह भी मन
ही कह रहा है।
सच्चाई कों
देखो, कुछ
भी कहने की
कोशिश मत करो।
इसके लिए भाषा
की, और
शब्दों की
आवश्यकता
नहीं है। बस, एक अंतर्दृष्टि,
अपने भीतर
भर देखना है, कुछ भी कहना
नहीं है।
लेकिन
मैं तुम्हारी
तकलीफ समझता
हूं। एकदम प्रारंभ
से ही, बचपन
से हमें
सिखाया गया है
कि देखना नहीं
है बल्कि कहना
है। जब हम कोई
गुलाब का फूल
देखते हैं, तो तुरंत कह
उठते हैं, कितना
सुंदर फूल है।
बस, कहा और
बात समाप्त हो
जाती है।
गुलाब का फूल
खो जाता है —ऐसा
कहकर हमने
उसकी हत्या कर
दी। अब हमारे
और गुलाब के
फूल के बीच
कुछ खड़ा हो
गया। कितना सुंदर
फूल है! इतना
कहना, यह
शब्द दीवार का
काम करता है।
इस तरह
से एक शब्द
दूसरे शब्द तक
ले जाता है, और एक
विचार दूसरे
विचार तक ले
जाता है और इस
तरह से वे
श्रृंखलाबद्ध
रूप से बढ़ते
चले जाते हैं,
वे पृथक
होकर नहीं
बढ़ते हैं। कभी
भी कोई विचार
अकेला नहीं
होता। विचार
हमेशा झुंड
में रहते हैं,
भीड़ में
रहते हैं; विचार
उन पशुओं की
तरह हैं, जो
झुंड में रहते
हैं। इसलिए एक
बार यह कह देना
कि ‘गुलाब
कितना सुंदर
है! ’ इतना
कहते ही हमने
विचारों को
जन्म दे दिया,
हम पटरी पर
आ गए। अब
विचारों की
गाड़ी ने आगे
सरकना शुरू कर
दिया। अब यह ’सुंदर’ शब्द
याद दिलाएगा,
जब किसी
स्त्री को
तुमने कभी
प्रेम किया
था। गुलाब भूल
जाते हैं, सुंदर
शब्द भूल जाता
है, और अब
उसकी जगह होता
है विचार, स्वप्न,
कल्पना, किसी
स्त्री की
स्मृति। और
फिर वह स्त्री
और— और आगे ले
जाएगी। जिस
स्त्री से
तुमने प्रेम किया
था उसका एक
सुंदर कुत्ता
था। बस अब
विचार चले आगे
और आगे! और अब
इस श्रृंखला
का कोई अंत नहीं
है।
अब जरा
मन के काम
करने के ढंग
को देखो कि वह
कैसे काम करता
है, और
उस प्रक्रिया
का उपयोग मत
करो। मन की इस
प्रवृत्ति पर
रोक लगाओ। मन
हमेशा कार्य
करता रहता है,
क्योंकि
हमारा
प्रशिक्षण
प्रारंभ से
इसी तरह से
हुआ है। हम
करीब—करीब
रोबोट की तरह
ही काम करते
हैं, ऐसा
अपने आप ही
होता है, यह
प्रक्रिया
संचालित है।
शिक्षा
की दुनिया में
जो नयी
क्रांति घटित
होने जा रही
है उसकी कुछ
प्रस्तावनाएं
हैं, कुछ
प्रपोजल्स
हैं। उनमें से
एक प्रयोजन है
कि छोटे
बच्चों को
पहले भाषा
नहीं सिखायी
जानी चाहिए।
पहले वे अपनी
दृष्टि को, अपने अनुभव
को परिपक्व
करें। उदाहरण
के लिए, हाथी
के लिए तुम
बच्चे से कहो
कि ’हाथी
सबसे बड़ा
जानवर है।’ तुम सोचते
हो कि तुम कोई
व्यर्थ की बात
नहीं कह रहे
हो, तुम
सोचते हो यह
बात एकदम उचित
है और बच्चे
को इस तथ्य के
बारे में बता
देना चाहिए।
लेकिन हाथी के
बारे में
किन्हीं भी
तथ्यों को बता
देने की जरूरत
नहीं होती।
बच्चे को हाथी
स्वयं देखना चाहिए,
उसे अनुभव
होना चाहिए कि
हाथी कितना
बड़ा जानवर है।
क्योंकि उसे
तो अनुभव से
ही जाना जा
सकता है। जिस
समय तुम कहते
हो, ’हाथी
सबसे बड़ा
जानवर है,’ तुम
कुछ ऐसी बात
कह रहे हो, जो
हाथी का अंश
नहीं है। तुम
क्यों कहते हो
कि हाथी सबसे
बड़ा जानवर है?
इससे तो
तुलना
उत्पन्न हो
गयी, जो कि
तथ्य का
हिस्सा नहीं
है।
हाथी
बस हाथी है, न तो वह
बड़ा है और न
छोटा है।
निश्चित ही
अगर हाथी को
घोड़े के साथ
खड़ा कर दो, तो
वह बड़ा है, या
हाथी चींटी के
पास खड़ा हो तो
वह और भी बड़ा
हो जाता है।
लेकिन जब तुम
यह कहते हो कि
हाथी सबसे बड़ा
जानवर है, तो
तुम चींटी को
बीच में ले
आते हो। तुम
कुछ ऐसी बात
बीच में ले आए
जो
वास्तविकता
का, सच्चाई
का, तथ्य
का हिस्सा
नहीं है। तुम
वास्तविकता
को, सच्चाई
को, तथ्य
को झुठलाने की
कोशिश कर रहे
हो, अब
उसके बीच में
तुलना आ गई।
बच्चे
को स्वयं
देखने दो, उससे कुछ
भी कहो मत।
उसे अनुभव
करने दो। जब
बच्चे को किसी
बगीचे में ले
जाओ, तो
बच्चे से मत
कहना कि वृक्ष
हरे हैं।
बच्चे को ही
अनुभव करने
देना, बच्चे
को उसे
आत्मसात करने
देना। बात
सीधी—साफ है, ’घास हरी है’—उसे कहना
मत। कहकर उसकी
सुंदरता को
नष्ट मत करना।
यह
मेरा अपना
निरीक्षण है, कि बहुत
बार जब घास
हरी नहीं होती
है तब भी वह हरी
ही दिखाई देती
है—और हरे रंग
में भी हजारों
तरह के रंग
होते हैं।
बच्चे से कभी
मत कहना कि
वृक्ष हरे होते
हैं, क्योंकि
तब बच्चे को
केवल वृक्ष
हरा ही दिखायी
देगा—कोई भी
वृक्ष होगा और
वह उसे हरा ही
देखेगा। हरा रंग
कोई एक ही तरह
का नहीं होता;
हरे रंग के
हजारों शेड
होते हैं।
बच्चे
को स्वयं
अनुभव करने दो, बच्चे को
वृक्ष के
अनूठेपन को, पत्ते —पत्ते
को आत्मसात
करने दो।
बच्चे को
समाने दो वृक्ष
को अपने में।
बच्चे को एक
ऐसा स्पंज
बनने दो, जो
अस्तित्व की
वास्तविकता
को, सच्चाई
को, तथ्यात्मकता
को सोख ले, उसे
अपने में समा
ले। और जब
जड़ें ठीक से
बच्चे की
पृथ्वी में जम
जाएं, जब
वह परिपक्व हो
जाए, तब
उसे शब्द —
ज्ञान कराना
उचित है, तब
वे शब्द उसे
विचलित न कर
सकेंगे। तब वे
शब्द उसकी दृष्टि
को, उसकी
सुस्पष्टता
को नष्ट नहीं
कर सकेंगे। तब
बच्चा भाषा का
उपयोग बिना
उद्विग्न और
विचलित हुए कर
पाएगा। अभी तो
भाषा हमें
विचलित कर देती
है।
तो
क्या करें? चीजों को
बिना किसी नाम
के, बिना
किसी लेबल के
चिपकाए, बिना
अच्छा—बुरा
कहे, बिना
किसी विभाजन
के देखना
प्रारंभ करो।
बस, सत्य
को देखो और
बिना किसी
निर्णय के, निंदा और
प्रशंसा के
उसे अपने
अस्तित्व में
उतरने दो। और
फिर जो कुछ भी
हो सत्य को
अपनी नग्नता
में मौजूद
रहने दो। बस, तुम सत्य के
लिए खुले हुए
रहो। और भाषा
का, शब्दों
का उपयोग कैसे
कम से कम किया
जाए यह सीखो।
भीतर चलते हुए
सतत विचारों
को, संस्कारों
को कैसे
विस्मृत किया
जाए यह सीखो।
ऐसा
कोई एकदम से
नहीं हो
जाएगा। इसे
क्रमिक रूप से, धीरे —
धीरे करना
होगा। केवल
तभी अंत में
धीरे — धीरे एक
ऐसी अवस्था
आएगी, जब
तुम अपने मन
को साक्षीभाव
से देख सकोगे।
फिर ऐसा कहने
की भी जरूरत
नहीं है कि ’मैं मन नहीं
हूं।’ अगर
तुम मन नहीं
हो, तो फिर
इस बात को
कहने में भी
क्या सार है? फिर तुम मन
नहीं हो। और
अगर तुम मन हो,
तो यह
दोहराने में
भी क्या सार
है कि तुम मन
नहीं हो? तुम
मन नहीं हो, इसे केवल
दोहराने भर से,
इस बात का
अनुभव या बोध
नहीं हो
जाएगा।
थोड़ा
इस पर ध्यान
देना, कहना
कुछ भी मत। मन
हमारे भीतर
सड़क पर चलते
हुए यातायात
के शोर की
भांति निरंतर
मौजूद रहता है।
उसे ध्यान से
देखना। अपने
को एक ओर हटा
लेना, और
विचारों की
भीड़ को ध्यान
से देखना।
देखना कि यही
है मन। किसी
भी तरह का
प्रतिरोध या
विरोध करने की
कोई आवश्यकता
नहीं है, बस
देखना।
और
देखते —देखते
ही एक दिन
अचानक चेतना
छलांग लगा
लेती है, रूपांतरित
हो जाती है।
चेतना में
आमूल रूपांतरण
घटित हो जाता
है —अगर तुम
द्रष्टा हो, देखने वाले
हो, तो
अचानक तुम
दृश्य से
द्रष्टा में
छलांग लगा जाते
हो, तुम
द्रष्टा हो
जाते हो। उस
घड़ी, उस
क्षण तुम्हें
इस बात का बोध
हो जाता है, कि तुम मन
नहीं हो।
इसे
कहने की कोई
आवश्यकता
नहीं है, यह कोई मन की
कल्पना नहीं
है। उस क्षण, उस घड़ी तुम
जान लेते हो —इसलिए
नहीं कि
पतंजलि कह रहे
हैं, इसलिए
नहीं कि
तुम्हारी
बुद्धि कह रही
है, तुम्हारी
समझ कह रही है,
तुम्हारा
तर्क कह रहा
है। फिर कोई
कारण नहीं होता
है, बस ऐसा
होता है।
तुम्हारे
भीतर सत्य का
विस्फोट हो
जाता है, सत्य
स्वयं को
तुम्हारे
सामने.
उदघाटित कर देता
है, प्रकट
कर देता है।
और तब मन
इतना पीछे छूट
जाता है कि
तुम स्वयं पर
ही हंसोगे कि
अब तक तुमने
माना कैसे कि
तुम मन हो, कैसे
तुमने
विश्वास किया
कि तुम शरीर
हो। तब यह बात
ही अपने आप
में व्यर्थ और
असंगत मालूम होती
है। फिर तुम
अभी तक की
अपनी मूढ़ताओं
पर हसोगे।
‘मन
और शरीर के
साथ
तादात्म्य न बने
—यह मैं अब तक
समझ नहीं सका
हूं।’
यह
प्रश्न पूछ
कौन रहा है?
‘……ऐसा
कैसे संभव है?’
इसे
तुरंत देखो कि
यह प्रश्न पूछ
कौन रहा है : ’ऐसा कैसे
संभव है?’
यह मन
की ही चालबाजी
है, यह
मन ही है जो
तुम्हारे ऊपर
शासन करना
चाहता है। अब
यह मन ही है जो
पतंजलि तक का भी
उपयोग कर लेना
चाहता है।
अब मन
कह रहा है, यह एकदम
सत्य है।
मैंने समझ
लिया है कि
तुम मन नहीं
हो....।’
और अगर
एक बार इस बात
की समझ आ जाए
कि मैं मन नहीं
हूं तो तुम
अति —मन हो
जाते हो। मन
में लोभ उठता
है, मन
कहता है, अच्छा
तो ठीक है, मुझे
तो अति —मन
होना है।
फिर
परम की
प्राप्ति के
लिए, आनंद
के लिए लोभ उठ
खड़ा होता है।
फिर शाश्वत का,
अनंत का, कि परमात्मा
होना है इसका
लोभ मन में उठ
खड़ा होता है।
मन कहता है, अब जब तक मैं
अनंत को, शाश्वत
को उपलब्ध न
हो जाऊं, यह
जान न लूं
मुझे चैन नहीं
मिल सकता कि
यह है क्या।’ मन पूछता है
’इसे कैसे
उपलब्ध कर लूं?’
स्मरण
रहे, मन
सदा यही पूछता
है, किसी
बात को कैसे
करना है। यह
जो ’कैसे ’ है, यह मन
का प्रश्न है।
क्योंकि ’कैसे
’ का अर्थ है.
कोई विधि, कोई
ढंग, कोई
तरीका।’कैसे
’ का अर्थ है,
मुझे वह
तरीका वह विधि
बताओ जिससे
मैं शासन कर
सकूं? मैं
योजनाएं बना
सकूं। इसके
लिए मुझे कोई
विधि दे दो।
मन कोई भी
विधि चाहता है
’बस, मुझे
एक विधि ’दे
दो और मैं इसे
पूरा कर लूँगा।’
और
ध्यान रहे, होश की, जागरूकता की
कोई विधि नहीं
है। जागरूक
होने के लिए
तुम्हें
जागरूक होना
ही पड़ेगा।
इसकी कोई
टेकनीक या
विधि नहीं है।
प्रेम के लिए
कौन सी विधि
है? यह
जानने के लिए
कि प्रेम क्या
है, प्रेम
करना पड़ता है।
तैरने की कौन
सी विधि है? यह जानने के
लिए कि तैरना
क्या है, तैरना
पड़ता है।
निस्संदेह, शुरू —शुरू
में तैरना
थोड़ा ठीक से
नहीं होता, बेतरतीब
होता है। फिर
धीरे — धीरे जब
तैरना आ जाता
है.. लेकिन फिर
भी तैरकर ही
सीखना होता है,
इसके
अतिरिक्त और
कोई उपाय नहीं
है।
अगर
कोई तुमसे
पूछे कि
साइकिल चलाने
की क्या विधि
है? और
तुम साइकिल
चलाते हो—लेकिन
अगर कोई
पूछेगा तो
तुम्हें कंधे
ही उचकाने—
पड़ेंगे। तुम
कहोगे, बताना
मुश्किल है।
साइकिल कैसे
चलाई जाती है
इसकी विधि
क्या है, बताना
कठिन है। कैसे
दो पहियों पर
तुम स्वयं का
संतुलन
बैठाते हो? तुम कुछ न
कुछ तो करते
होओगे। तुम
साइकिल पर संतुलन
तो करते हो, लेकिन किसी
विधि की तरह
नहीं, बल्कि
एक कौशल की
तरह। विधि वह
होती है जो
सिखायी जा
सकती है—और
किसी चीज में
कौशल का होना
वह है जिसे
जानना होता है।
विधि वह है
जिसे सिखाने
में रूपांतरित
किया जा सकता
है, और
कौशल वह है
जिसे सीखा तो
जा सकता है, लेकिन जिसका
प्रशिक्षण
नहीं दिया जा
सकता। इसलिए
धीरे — धीरे
जानो और सीखो।
और जटिलता
से चीजों का
प्रारंभ मत
करो। सीधे जटिल
चीजों पर मत
पहुंच जाओ। यह
अंतिम और
सर्वाधिक
जटिल बात है
मन के प्रति
सजग होना, मन को
देखना और साथ
ही यह जानना
कि मैं मन
नहीं हूं।
इतनी गहराई से
देखना कि तुम
शरीर न रह जाओ,
मन न रह जाओ,
यह अंतिम
है। और सीधे
इन पर छलांग
मत लगाना।
छोटी—छोटी
बातों से
प्रारंभ
करना।
जब
तुम्हें भूख
लगे, तो
बस भूख को
देखना कि भूख
कहा है? भूख
तुममें है या
कहीं तुमसे
बाहर है। अपनी
आंखें बंद कर
लेना, अपने
भीतर के
अंधेरे में
खोजना, भूख
को अनुभव करना
और पता लगाने
की कोशिश करना
कि भूख कहां
है।
जब
तुम्हारे सिर
में दर्द हो, एस्प्रीन
लेने से पहले
थोड़ा उस पर
ध्यान करना।
फिर यह भी हो
सकता है कि
शायद तुम्हें
एस्प्रीन
लेने की जरूरत
ही न पड़े। बस, अपनी आंखें
बंद कर लेना
और इसे महसूस
करना कि सिर
दर्द कहा है? उसका ठीक —
ठीक केंद्र
खोज लेना, और
उस पर अपना
ध्यान केंद्रित
कर देना।
और तुम
जानकर हैरान
होओगे कि सिर
दर्द उतनी बड़ी
बात नहीं है
जितना कि तुम
समझ रहे थे, और सिर
दर्द सारे सिर
में भी नहीं
है। उसका एक केंद्र
बिंदु है —और
जितने अधिक
तुम उस केंद्र
बिंदु के निकट
आओगे, उतने
ही अधिक तुम
सिर दर्द से
दूर होते चले
जाओगे। जितना
ज्यादा सिर
दर्द होता है,
उतना ही तुम
उससे
तादात्म्य
बना लेते हो।
और जितना सिर
दर्द स्पष्ट,
केंद्रित, सुनिश्चित,
सुनिर्धारित,
सीमित होता
है उतने ही
अधिक तुम उससे
दूर होते चले
जाते हो।
फिर
देखते — देखते
एक ऐसा बिंदु
आता है, जो पूरी तरह
से केंद्रित होता
है, कई बार
वह बिंदु खो —खो
जाएगा, लेकिन
फिर जब उस
बिंदु पर तुम
केंद्रित हो
जाओगे तो कहीं
कोई सिर दर्द
न रह जाएगा।
तुम चकित होगे
कि सिर दर्द
चला कहां गया ?इ लेकिन वह
फिर से आ
जाएगा। फिर उस
बिंदु पर ध्यान
केंद्रित करो,
वह फिर मिट
जाएगा। अगर
ध्यान पूरी तरह
से उस बिंदु
पर केंद्रित
हो जाए, तो
सिर दर्द मिट
जाएगा।
क्योंकि पूरी
तरह से ध्यान
केंद्रित
होने पर तुम
अपने सिर से
इतने दूर होते
हो कि तुम सिर
दर्द अनुभव ही
नहीं कर सकते।
इसे प्रयोग
करके देखना, इसे आजमा कर
देखना। छोटी —छोटी
चीजों से शुरू
करना; एकदम
अंतिम पर सीधे
ही छलांग मत
लगा देना।
पतंजलि
ने भी विवेक
के, होश
के, बोध के
इन सूत्रों तक
पहुंचने के
लिए बड़ी दूर की
यात्रा तय की
है। पतंजलि
प्रारंभिक
तैयारी के लिए
जिन आधारभूत
बातों की
आवश्यकता थी
उन बहुत सी
बातों के विषय
में बताते
रहे। जब तक तुम
इन्हें पूरा
नहीं कर लेते,
तब तक
तुम्हारे लिए
मन और शरीर के
साथ स्वयं का
तादात्म तोड़
पाना कठिन
होगा।
इसलिए
इस बारे में ’कैसे ’ की बात कभी
मत पूछना।
इसका ’कैसे
’ के साथ कोई
लेना देना
नहीं है। यह
तो बस समझने की
बात है। अगर
तुम मेरी बात
को समझ सको, तो उसी समझ
से तुम उस
बिंदु को देख
सकोगे। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि तुम उसे
समझ जाओगे।
मैं कह रहा हूं, तुम उसे
देखने में
सक्षम हो
जाओगे।
क्योंकि जब हम
कहते हैं ’ समझना
’ तो बीच में
बुद्धि आ जाती
है, मन काम
करना शुरू कर
देता है।’दर्शन
’ ऐसी कुछ
बात है, जिसका
मन के साथ कोई
संबंध नहीं है।
जब कभी तुम
किसी सुनुसान
मार्ग पर चल
रहे हो और
सूर्य ढल रहा
हो और अंधेरा
उतर रहा हो, और अचानक
तुम देखते हो
एक सांप
रास्ते से
गुजर रहा है।
तो तुम क्या
करोगे? क्या
उस समय
तुम
विचार में
पड़ोगे? तुम सांप के
बारे में
सोचोगे कि
क्या करूं, कैसे करूं, किससे पूछूं?
तुम बस छलांग
लगाकर रास्ते
से हट जाओगे।
वह छलांग का
लगना ही, देखना
है, दर्शन
है, उसका
मनोभाव से या
विचार से कोई
संबंध नहीं है।
उसका सोच—विचार
से कोई लेना —देना
नहीं है। अगर
उस बाबत विचार
भी शुरू होंगे
तो थोड़ी देर
बाद शुरू
होंगे, लेकिन
उस क्षण तो
केवल यह सत्य
देखना ही होता
है, कि
सांप रास्ते
पर है। और जिस
क्षण सांप के
प्रति सचेत
होते हो, वैसे
ही छलांग
लगाकर तुम
रास्ते के
बाहर हो जाते
हो। और ऐसा
होना ही चाहिए,
क्योंकि
किसी भी बात
के लिए मन समय
लेता है और सांप
देर नहीं
लगाता है। मन
से पूछे बिना
ही छलांग
लगानी पड़ती
है। मन तो एक
प्रक्रिया है,
सांप मन से
अधिक फास्ट है,
तेज है।
सांप
प्रतीक्षा
नहीं करेगा और
तुम्हें यह
सोचने का समय
न देगा कि
क्या करना है।
अचानक ही उस
समय मन एक ओर
हो जाता है और
सारी प्रक्रियाएं
अ—मन के
द्वारा
संचालित होती
हैं, तब
शरीर अपने से
कार्य करना
प्रारंभ कर
देता है। जब
भी कभी कोई
ऐसा खतरा आता
है, तब ऐसा
ही होता है।
यही
कारण है कि
लोग खतरे के
लिए इतना
आकर्षण अनुभव
करते हैं।
किसी तेज
भागती कार में
एक घंटे में
सौ मील या
उससे भी अधिक
रफ्तार से
जाने में जो
रोमांच और
पुलक होती है, उसका
क्या कारण है?
तेज
रफ्तार में
गाड़ी चलाने पर
जो रोमांच या
पुलक का अनुभव
होता है, उसके कारण
उस तेज रफ्तार
में मन रुक
जाता है, मन
कार्य करना
बंद कर देता
है, अ —मन की
स्थिति आ जाती
है, इसीलिए
तेज —रफ्तार
से गाड़ी चलाने
का इतना
आकर्षण और
पुलक अनुभव
होती है। जब
तुम हजार मील
प्रति घंटे की
रफ्तार से कार
चलाते हो तो
कहीं कुछ
सोचने का समय
ही नहीं होता
है। उस समय
बिना मन के ही
कार्य करना
होता है। अगर
कुछ हो जाए और
दिमाग अपना
काम शुरू कर
दे, तो तुम
खतम ही हो
जाओगे। एक भी
क्षण बिना
बरबाद किए
तुरंत कुछ करना
पड़ता है।
इसलिए जितनी
ज्यादा तेज
कार की रफ्तार
होगी, उतना
ही मन एक ओर
हटता चला जाता
है, और उस
समय एक गहन
रोमांच का
अनुभव होता है
—जैसे कि अब तक
तो मृत थे और
अचानक तुम
जीवित हो गए, और जैसे कि
पुन: जीवन का
संचार
प्रारंभ हो
गया हो।
खतरे
में, खतरों
से खेलने में,
एक गहन
सम्मोहन होता
है। लेकिन यह
जो सम्मोहन है
वह अ—मन का है, नो —माइंड हो
जाने का
सम्मोहन है।
अगर इस अ —मन की
अवस्था को तुम
किसी वृक्ष के
पास या किसी
नदी के पास या
कि अपने कमरे
में बैठे —बैठे
पा सको तो फिर
किसी भी
प्रकार के
खतरे को उठाने
की कोई आवश्यकता
नहीं है। फिर
यह अ —मन की दशा
कहीं भी हो
सकती है। बस, अपने मन को
उठाकर एक तरफ
रख दो। जहां
कहीं भी तुम
मन को हटाकर
एक ओर रख सको, और बिना मन
को बीच में
लाए चीजों को
सीधा देख सको,
वहीं अ —मन, नो —माइंड की
अवस्था
उपलब्ध हो
जाती है।
मैंने
सुना है:
जावा
में एक एन्थ्रापालेजिस्ट
(मानव विज्ञान
विद) एक ऐसी
छोटी सी जनजाति
के संपर्क में
आया जिनमें
अंतिम संस्कार
की एक विचित्र
प्रणाली
प्रचलित थी।
जब कोई आदमी
मर जाता, तो वे उसे
साठ दिन तक
दबाकर रखते और
फिर उसे खोदकर
बाहर
निकालते। उसे
एक अंधेरे
कमरे में
एक
ठंडी पाटी पर
रख दिया जाता
और जनजाति की
सबसे सुंदर
स्त्रियों
में से बीस
स्त्रियां लाश
के आसपास नग्न
होकर तीन घंटे
तक उत्तेजक
नृत्य करती
थीं।
‘आप
लोग ऐसा क्यों
करते हैं?’ जनजाति
के मुखिया से
एन्धापालेजिस्ट
ने पूछा।
तो
उसने जवाब दिया, ’अगर वह
नहीं उठता है,
तो हमें
पक्का हो जाता
है कि वह मर
गया!’ शायद
निषेध का
आकर्षण इसी
कारण से है।
अगर कामवासना
का निषेध होता
है, तो वह
आकर्षण बन
जाती है।
क्योंकि जो
कुछ भी स्वीकृत
होता है वह सब
मन का हिस्सा
बन जाता है।
इसे समझने की
कोशिश करना।
जो कुछ
भी स्वीकृत
होता है वह मन
का हिस्सा बन
जाता है, वह पहले से
ही नियोजित हो
जाता है।
साधारण व्यक्ति
से यही
अपेक्षा होती
है कि वह अपनी
पत्नी या अपने
पति से प्रेम
करे, यह
बात हमारे मन
का हिस्सा ही
है। लेकिन
जैसे ही
व्यक्ति
दूसरे की
पत्नी के
प्रति रुचि
लेने लगता है,
तो वह हमारे
मन का हिस्सा
नहीं है, वह
हमारे
संस्कारों
में नहीं है, उसके लिए
हमारे मन की
तैयारी नहीं
होती। समाज में
एक निश्चित
प्रकार की
बंधी—बंधायी
स्वतंत्रता
है। समाज उस
बंधी —बंधायी
लकीर से बाहर
सरकने की
स्वतंत्रता
नहीं देता है।
समाज केवल
उतनी ही स्वतंत्रता
देता है
जिसमें हर चीज
सुविधाजनक होती
है, जहां
हर चीज
आरामदायक
होती है —लेकिन
उस आराम और
सुविधा के साथ
सभी कुछ मुर्दा
और मृत भी हो
जाता है। तुम
किसी दूसरे की
पत्नी के
प्रति
आकर्षित हो
जाते हो और हो
सकता है वह
दूसरा आदमी
अपनी पत्नी से
तंग आ चुका हो,
शायद वह
अपने जीवन में
रस भरने का, फिर से अपने
जीवन में
प्राण फूंकने
का कोई उपाय
ही सोच रहा हो —हो
सकता है वह
तुम्हारी ही
पत्नी के
प्रति आकर्षित
हो जाए।
सवाल
किसी विशेष
स्त्री या
पुरुष का नहीं
है। सवाल
निषेध का है, जो
स्वीकृत नहीं
है, जो
अनैतिक है, जो दमित है —जो
तुम्हारे
स्वीकृत मन का
हिस्सा नहीं
है। जो समाज, घर —परिवार
के द्वारा
तुम्हारे मन
में भर दिया
गया है।
जब तक
मनुष्य पूरी
तरह से अ —मन की
अवस्था को
उपलब्ध नहीं
हो जाता, ये आकर्षण
बने ही रहते
हैं।
और
मजेदार बात यह
है कि यह ’आकर्षण
उन्हीं लोगों
के द्वारा
बनाए जाते हैं
जो स्वयं को
नैतिक, विशुद्ध
और धार्मिक
समझते हैं। और
वे जितना अधिक
किसी बात को
अस्वीकार
करते हैं, उतनी
ही अधिक वह
निषेध आकर्षण
का कारण बन
जाता है, उतना
ही अधिक वह
निमंत्रण
देता है
क्योंकि वह निषेध
समाज की बनी —बनाई
लकीर से बाहर
आने का अवसर देता
है वह सामाजिक
सीमाओं से
बचकर भाग
निकलने का
अवसर देता है।
अन्यथा हर जगह
समाज ही समाज है,
हर कहीं तुम
भीड़ से घिरे
हुए हो। यहां
तक कि जब तुम
अपनी पत्नी से
प्रेम कर रहे
होते हो, समाज
तब भी कहीं
बीच में खड़ा
रहता है। तुम
पर किसी न
किसी रूप में
नजर लगाए होता
है।
यहां
तक कि
तुम्हारे
स्वात में भी
समाज मौजूद
रहता हैं, उतना ही
जितना कि कहीं
और मौजूद होता
है। क्योंकि
समाज है
तुम्हारे मन
में, और वह
तुम्हारे मन
के उस
प्रोग्राम
में निहित है
जो समाज और
परिवार ने
तुमको दिए
हैं। तो मन के
माध्यम से वह
कार्य करता
रहता है। वह
एक बड़ा चालबाज
रचना तंत्र
है।
कभी न
कभी, किसी
समय हर एक
व्यक्ति को
ऐसा लगता है
कि बस वही
किया जाए जो
समाज में, परिवार
में स्वीकृत
नहीं है। उस
बात को ही किया
जाए उसी के
लिए ही कह दी
जाए, जिसके
लिए हमेशा
नहीं कहने को
बाध्य किया
जाता है —स्वयं
के ही विरुद्ध
कोई कार्य
किया जाए। क्योंकि
यह स्वयं और
कुछ नहीं है, सिवाय उस
आयोजन के जिसे
समाज ने
तुम्हें पकड़ा
दिया है।
जो
समाज जितना
अधिक कठोर
होता है, वहां उतनी
ही अधिक
विद्रोह की
संभावना होती
है। जो समाज
जितना
स्वतंत्र
होता है, वहां
उतनी ही कम
विद्रोह की
संभावना होती
है। मैं उस
समाज को क्रांतिकारी
समाज कहूंगा,
जहां
विद्रोही खो
जाते हैं, क्योंकि
फिर उनकी कोई
.आवश्यकता
नहीं रहती। मैं
उस समाज को
स्वतंत्र
समाज कहूंगा,
जहां कोई भी
बात अस्वीकृत
न हो; जिससे
किसी के भी मन
में कोई विकृत,
रूग्ण आकर्षण
पैदा न हो।
अगर समाज
नशीले
पदार्थों का
विरोध करता है,
तो नशीले
पदार्थ
व्यक्ति को
आकर्षित
करेंगे, क्योंकि
नशीले पदार्थ
मन को एक ओर
हटा देने का
अवसर देते
हैं। और चूंकि
तुम मन के बोझ
के तले बहुत
ज्यादा दबे
हुए हो, तो
नशीले
पदार्थों में
इसी कारण
आकर्षण मालूम
होता है।
स्मरण
रहे, बिना
स्वयं को
क्षति
पहुंचाए भी
ऐसा हो सकता है।
जब तुम ऐसा
कुछ करते हो
जिसकी
स्वीकृति समाज
नहीं देता है,
तो उससे जो
रोमांच होता
है, वैसा
ही रोमांच अ —मन
की अवस्था के
द्वारा होता
है, लेकिन
उसके लिए कीमत
चुकानी पड़ती
है। उन छोटे बच्चों
को थोड़ा ध्यान
से देखना जो
कहीं छिपकर
सिगरेट पी रहे
हों। उनके
चेहरों को
देखना—उस समय
वे कितने खुश,
कितने
आनंदित होते
हैं। सिगरेट
पीते जाएंगे खांसते
जाएंगे आख से आंसू
बहेंगे, क्योंकि
धुआं भीतर
खींचना, फिर
उसे बाहर
फेंकना केवल
मूढ़ता का ही
काम तो है।
मैं नहीं कहता
कि यह पाप है।
जैसे ही इसे
पाप कहा कि वह
आकर्षण का
कारण बन जाती
है। मैं तो
इतना ही कहता हूं
कि सिगरेट
पीना मूढ़ता है,
इसमें कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं है, यह
कोई
बुद्धिमत्तापूर्ण
कार्य नहीं
है।
लेकिन
किसी छोटे
बच्चे ’ को सिगरेट
पीते हुए
देखना, जरा
उसका चेहरा देखना।
हो सकता है कि
वह किसी तकलीफ
में, पीड़ा
में हो, उसे
श्वास लेने
में तकलीफ हो
रही हो, उसका
जी मितला रहा
हो, आंसू
बह रहे हों, और वह तनाव
भी अनुभव कर
रहा हो —लेकिन
फिर भी खुश
होता है कि वह
ऐसा कुछ कर
रहा है जो कि
स्वीकृत नहीं
है। वह कुछ
ऐसा कर रहा है
जो उसके मन का
हिस्सा नहीं
है, जो
अपेक्षित
नहीं है, जिसकी
अपेक्षा नहीं
की जा सकती।
उसमें वह एक तरह
की आजादी और
स्वतंत्रता
का अनुभव करता
है।
लेकिन
अ — मन होने की
कला को ध्यान
के माध्यम से
बड़ी आसानी से
उपलब्ध किया
जा सकता है।
इस ढंग के
आत्मघाती
तरीके अपनाने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। अगर
तुम यह सीख लो
कि मन को एक ओर
कैसे हटाना है, मन को एक
ओर कैसे हटाया
जा सकता है
जब तुम
पैदा हुए तो
तुम्हारे पास
मन नहीं था, तुमने
बिना किसी मन
के जन्म लिया
है। इसीलिए तुम्हें
अपने जीवन के
कुछ वर्षों की,
उन
प्रारंभिक
वर्षों की—तीन,
चार, पाच
साल की उम्र
की कोई स्मृति
नहीं होती।
तुम्हें उनका
स्मरण नहीं
रहता। क्यों?
तुम थे तो
सही, लेकिन
तुम्हें वे
प्रारंभिक
वर्ष आखिर
क्यों स्मरण
नहीं हैं? क्योंकि
उस समय तक मन
पूरी तरह से
निर्मित नहीं
हुआ था। अगर
तुम पीछे
मुड़कर चार
वर्ष की अवस्था
तक कुछ याद
करने की कोशिश
करो तो कुछ थोड़ा—बहुत
याद भी आ सकता
है, लेकिन
फिर सब भूल
जाता है, फिर
तुम और पीछे
की ओर नहीं जा
सकते, तुम
दो —तीन वर्ष
की बातें याद
नहीं कर सकते।
क्या हो जाता
है? उस समय
भी तुम जीवित
थे। सच तो यह
है सबसे अधिक
जीवंत जितने
फिर कभी नहीं
होते।
वैज्ञानिकों
का कहना है कि
चार वर्ष की
आयु में बच्चा
अपनी संपूर्ण
जानकारी का
पचहत्तर प्रतिशत
हिस्सा सीख
लेता है। चार
वर्ष की आयु
में पचहत्तर
प्रतिशत।
तुमने अपने
जीवन का पचहत्तर
प्रतिशत
हिस्सा पहले
ही सीख लिया
होता है, लेकिन फिर
भी उसकी कोई
स्मृति नहीं
होती है। क्योंकि
मन अभी तक
निर्मित नहीं
हुआ था। अभी
भाषा सीखनी
शेष थी, अभी
चीजों को
पहचानना शेष
था, उन पर
लेबल चिपकाने
थे। जब तक तुम
किसी चीज पर लेबल
नहीं चिपका
देते हो, तब
तक तुम्हें
उसका स्मरण
नहीं रहता। तो
चार वर्ष की
आयु के पूर्व
का स्मरण कैसे
रहे? अपने
मन के किसी
कोने में तुम
उनको .संचित
नहीं कर सकते
हो। तुम्हारे
पास उसका कोई
नाम नहीं होता
है, तो
पहले तो नाम
सीखना होता है,
तब फिर कहीं
उसकी स्मृति
रह सकती है।
बच्चा
बिना मन के
जन्म लेता है।
मैं इस बात पर इतना
जोर क्यों दे
रहा हूं? तुम्हें यह
बताने के लिए
कि तुम मन के
बिना भी इस
अस्तित्व में
रह सकते हो; इसके लिए मन
की कोई
आवश्यकता भी
नहीं है। मन तो
केवल मात्र एक
ढांचा है जो
समाज के लिए
उपयोगी है, लेकिन मन के
उस ढांचे के
साथ बहुत अधिक
तादात्म्य मत
बना लेना।
निर्मुक्त और
खुले हुए रहना
ताकि तुम समाज
के इस ढांचे
के बाहर निकलकर
आ सको। यह
कठिन है, लेकिन
अगर तुम मन से
धीरे — धीरे
बाहर आने लगो
तो एक न एक दिन
तुम मन से मुक्त
होने में
सक्षम हो
जाओगे।
जब तुम
आफिस से घर आओ, तो
रास्ते में ही
आफिस को पूरी
तरह से भूल
जाने की कोशिश
करना। और इस
बात का स्मरण
कर लेना कि अब
तुम घर जा रहे
हो, घर पर
आफिस को साथ
ले जाने की
कोई जरूरत
नहीं है।
कोशिश करना कि
आफिस का स्मरण
न रहे। जब भी आफिस
की याद घर पर
आए उस समय
अपने को झकझोर
लेना और तुरंत
सचेत हो जाना,
और उस याद
से बाहर आ
जाना। इस बात
को खयाल में रख
लेना कि घर
में रहकर घर
में ही रहना
है। और आफिस
जाकर घर को
भूल जाना।
पत्नी, बच्चे,
सभी कुछ भूल
जाना। इस तरह
धीरे — धीरे
तुम्हें मन का
उपयोग करना
सीखना है, न
कि मन
तुम्हारा
उपयोग करे।
हम सो
जाते हैं और
मन का काम
जारी रहता है।
हम बार—बार
कहें भी कि
ठहरो! लेकिन
मन सुनता ही
नहीं है।
क्योंकि हमने
मन को प्रशिक्षित
ही नहीं किया
है हमारी बात
सुनने के लिए।
अन्यथा जैसे
ही उससे कहो
ठहरो! तो उसे
ठहरना ही
चाहिए।
क्योंकि मन एक
यंत्र है।
यंत्र ’नहीं ’ नहीं
कह सकता! जब हम
पंखा चलाते
हैं, तो
उसे चलना ही
पड़ता है, हम
जब पंखा बंद
करते हैं, तो
वह ठहर जाता
है। जब हम
पंखा बंद करते
हैं, तो
पंखा ’नहीं
’ नहीं कह
सकता, वह
नहीं कहता कि
मैं तो थोड़ी
देर और
चलूंगा।
हमारा
मन एक बायो
कंप्यूटर है।
मन एक बहुत ही सूक्ष्म
यांत्रिक
संरचना है, इसका
उपयोग तो है, लेकिन एक
गुलाम की तरह,
मालिक की
तरह नहीं।
तो
थोड़ा और सजग
हो जाओ, चीजों को और
सजगता से
देखने की
कोशिश करो।
अगर हो सके
तुम हर रोज
कुछ क्षण या
कुछ घंटे अ —मन
के बिना
व्यतीत करना।
कभी नदी में
तैरने के लिए जाओ
तो जब अपने
वस्त्र उतारो
तो वहीं कहीं
मन को भी छोड़
देना। असल में
तुम मन को भी
वस्त्रों के साथ
छोड़ने की भाव
मुद्रा बना
लेना। और तब
होशपूर्वक, सजगता के
साथ, और
निरंतर स्मरण
के साथ नदी
में उतरना।
लेकिन मैं ऐसा
बातचीत करने
के लिए नहीं
कह रहा हूं, मैं ऐसा
नहीं कह रहा
हूं कि तुम
स्वयं से बोलते
चले जाओ कि ’नहीं मैं मन
नहीं हूं, ’ क्योंकि
तब यह भी मन ही
तो कहेगा, और
ऐसा कहना भी
मन का ही
होगा। बस, होशपूर्वक
समझपूर्वक शांत
और मौन हो
जाना।
अपने
बगीचे की हरी
घास पर लेटे
हुए, उस
समय मन को भूल
जाना। उस समय
मन की कोई
आवश्यकता भी
नहीं है। अपने
बच्चों के साथ
खेलते समय मन
को भूल जाना।
उस समय भी
उसको याद रखने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। जब
अपनी पत्नी से
प्रेम कर रहे
हो, भूल
जाना मन को
उसकी कोई
आवश्यकता
नहीं है। जब
भोजन करते हो,
तो मन को
ढोने की क्या
आवश्यकता है?
या फिर
स्नान करते
समय स्नानघर
में मन को साथ रखने
का क्या मतलब है?
बस
धीरे — धीरे, धीरे —
धीरे....... और
जरूरत से
ज्यादा करने
की कोशिश मत
करना, क्योंकि
अगर जरूरत से
ज्यादा करने
की कोशिश तुम
करोगे तो तुम
असफल हो
जाओगे। अगर
ऐसा करने की
बहुत कोशिश की
तो फिर कठिन
होगा और
घबराकर कह
उठोगे, ’ऐसा
करना असंभव है।’
नहीं, इसे
धीरे — धीरे, थोड़ा — थोड़ा
करने की कोशिश
करना।
मैं
तुमसे एक कथा
कहना चाहूंगा
कोहन
की तीन बेटिया
थीं, और
वह बहुत ही
व्याकुलता के
साथ उनके लिए
वर की तलाश कर
रहा था। जब एक
युवक कोहन को
ठीक लगा, तो
उसने एकदम से
उस युवक को
पकड़ लेना
चाहा। एक आलीशान
भोज के बाद
तीनों
बेटियां उस
युवक के सामने
आईं। सबसे बड़ी
रेचल, जो
देखने में
एकदम साधारण
सी थी—सच तो यह
है वह देखने
में असुंदर
थी। दूसरी बेटी
ईस्थर, यूं
देखने में तो
बुरी नहीं थी,
लेकिन थोड़ी
मोटी थी —सच तो
यह है वह थोड़ी
ज्यादा ही
मोटी थी।
तीसरी सोनिया,
जो देखने
में बहुत
सुंदर और हर
तरह से बहुत
सुंदर युवती
थी।
कोहन
ने युवक को एक
ओर ले जाकर
पूछा, ’तो
फिर, इनके
बारे में
तुम्हारा
क्या विचार है?’
मेरे पास
देने के लिए
दहेज भी है —दहेज
की फिकर मत
करना। रेचल के
लिए मेरे पास
पांच सौ पाउंड
हैं, और
ईस्थर के लिए
दो सौ पचास
पौंड हैं, और
सोनिया के लिए
तीन हजार
पाउंड हैं।
वह
युवक तो एकदम
अवाक रह गया ’लेकिन
ऐसा क्यों है,
आपकी सबसे
सुंदर बेटी के
लिए इतना
ज्यादा दहेज
क्यों?’
कोहन
ने बात को.
स्पष्ट करते
हुए कहा, ’हा बात ऐसी
ही है कि वह
कुछ —कुछ, थोड़ी
सी, यही कि
वह थोड़ी —बहुत
गर्भवती है।’
तो रोज —रोज
थोड़ा — थोड़ा
होश का गर्भ
धारण करने से
प्रारंभ
करना। एकदम
थोक के भाव
गर्भ धारण मत
कर लेना। बस
थोड़ा— थोड़ा, धीरे —
धीरे होश को
सम्हालना।
एकदम बहुत
अधिक करने की
कोशिश मत करना,
क्योंकि
फिर वह भी मन
की ही चालाकी
होती है। जब
कभी कोई बात
दिखायी पड़ती
है, तो मन
उसे एकदभ से
करने का
प्रयास करता
है। निश्चित
तब तुम असफल
होते हो। और
जब तुम असफल
हो जाते हो तो
मन कहता है, ’देखा न, मैं
तुमसे हमेशा
यही कहता रहा
कि यह असंभव
है।’ छोटे —छोटे
लक्ष्य
बनाना। इंच —इंच
सरकना। कहीं
कोई जल्दी
नहीं है। जीवन
शाश्वत है।
लेकिन
यह मन की ही
चालबाजी होती
है। मन कहता है, ’ अब
तुमने देख
लिया न। अब
इसे तुरंत कर
डालो —मन के
साथ
तादात्म्य
छोड़ दो।’ और
निस्संदेह मन
तुम्हारी
मूढ़ता पर
हंसता है। और
कई—कई जन्मों
से तुम मन को
स्वयं के साथ
तादात्म्य
बनाने के लिए
प्रशिक्षित
करते रहे हो, और फिर एक
क्षण में तुम
उससे बाहर आ
जाना चाहते
हो। यह इतना
आसान नहीं है।
थोड़ा — थोड़ा, धीरे — धीरे, इंच —इंच
अपने मार्ग पर
बढ़ो। और बहुत
ज्यादा की मांग
मत करो, अन्यथा
तुम स्वयं के
ऊपर ही भरोसा
खो बैठोगे। और
एक बार जब
स्वयं के ऊपर
से भरोसा खो
जाता है, तो
फिर मन हमेशा —हमेशा
के लिए मालिक
बन जाता है, मास्टर बन
जाता है।
और लोग
ऐसा ही करने
की कोशिश करते
हैं। कोई आदमी
तीस वर्ष से
सिगरेट पी रहा
होता है और
फिर अचानक एक
दिन वह एक
क्षण में यह
निर्णय ले
लेता है कि अब
वह कभी सिगरेट
नहीं पीएगा।
एक घंटे, दो घंटे तक
तो वह अपने को
रोके रहता है,
लेकिन फिर
एकदम तीव्रता
से सिगरेट
पीने की इच्छा
होने लगती है,
एकदम बड़ी
जबर्दस्त
इच्छा होने
लगती है। तब
व्यक्ति का
पूरा का पूरा
रचना तंत्र ही
गड़बड़ा उठता है,
उसका पूरा
रचना तंत्र
अस्त —व्यस्त
हो जाता है।
फिर धीरे —
धीरे उसे लगने
लगता है कि यह
तो स्वयं के
साथ बहुत ज्यादती
हो गई। उसका
सारा काम—काज
रुक जाता है’, वह फैक्ट्री
में काम नहीं
कर सकता, वह
आफिस में काम
नहीं कर सकता।
बस, उसे
हमेशा सिगरेट
पीने की ही
इच्छा बनी
रहती है।
इससें फिर वह
बहुत अशांत हो
जाता है, और
इसके लिए उसे
बहुत बड़ी कीमत
चुकानी पड़ती
है। फिर एक
समय ऐसा आता
है, जब वह
जेब से सिगरेट
निकालता है, और सिगरेट
पीने लग जाता
है और तब कहीं
जाकर चैन का
अनुभव करता
है।
लेकिन
उसने बहुत ही
खतरनाक
प्रयोग किया
है। उन तीन
घंटों में जब
वह सिगरेट
नहीं पीता, तो वह
स्वयं के बारे
में एक बात
जान लेता है
कि सिगरेट
छोड़ने में वह
असमर्थ है, कि वह कुछ कर
नहीं सकता, कि वह अपने
निर्णय के
अनुरूप कुछ
नहीं कर सकता,
कि उसकी कोई
इच्छा—शक्ति
नहीं है, कि
वह कमजोर और
अशक्त है। तब
यह बात मन में
बैठ जाती है, और हर किसी
के मन में कभी
न कभी इस तरह
की बात बैठ ही
जाती है कभी
तुमने सिगरेट
के साथ इसे आजमाया
होता है, तो
कभी अपने भोजन
को कम करने
में, और
कभी किसी और
बात को लेकर —
और बार —बार
तुम असफल हो
जाते हो। फिर
असफलता
तुममें घर कर
जाती है। धीरे
— धीरे तुम
बहती हुई लकड़ी
के समान हो
जाते हो, तुम
कहते हो, मैं
कुछ भी नहीं
कर सकता हूं।
और अगर
तुम्हें ही ऐसा
लगने लगता है
कि तुम कुछ
नहीं कर सकते,
तो फिर कौन.
कर सकता है?
लेकिन
इन सारी
मूढ़ताओं का एक
ही कारण है, क्योंकि
मन तुम्हारे
साथ चालाकी
करता है। मन हमेशा
उन बातों को
जिन्हें करने
के लिए प्रशिक्षण
और अनुशासन की
जरूरत होती है,
उन्हें भी
करने के लिए
कहता है, और
फिर जब ऐसा
नहीं हो पाता
है तो तुम
नपुंसक अनुभव
करते हो। अगर
तुम नपुंसक और
अशक्त हो जाते
हो तो मन
सशक्त हो जाता
है। अनुपात
सदा यही रहता
है अगर तुम
सशक्त होते हो
तो मन अशक्त
हो जाता है, अगर तुम
सशक्त होते हो,
तो मन सशक्त
नहीं हो सकता
है, अगर
तुम अशक्त
होते हो, तो
मन सशक्त हो
जाता है। वह
तुम्हारी
ऊर्जा से जीता
है, वह
तुम्हारी
असफलता से
जीता है, वह
तुम्हारे
हारे हुए
व्यक्तित्व
द्वारा जीता
है, वह
तुम्हारी
हारी हुई
इच्छा शक्ति
द्वारा जीता
है।
तो कभी
भी जल्दबाजी
मत करना।
मैंने
एक चीनी
रहस्यदर्शी, मेनशियस
के बारे में
सुना है, जो
कि कस्मृशियस
का शिष्य था।
एक बार उसके
पास एक अफीमची
आया और उससे
आकर बोला, मेरे
लिए अफीम
छोड़ना असंभव
है। मैंने सभी
तरीके, और
उपाय आजमा लिए
हैं। अंततः
मैं विफल हो
जाता हूं। मैं
पूरी तरह से
असफल हो चुका
हूं। क्या आप
मेरी कोई मदद
कर सकते हैं?’
मेनशियस
ने उसकी पूरी
बात सुनी। वह
समझ गया कि
उसके साथ क्या
हुआ था. उसने
अफीम छोड़ने के
लिए बहुत
ज्यादा कोशिश
की थी। उसने
उस आदमी को
चाक का एक
टुकड़ा दिया और
उससे बोला, ’ अपनी
अफीम को चाक
के साथ तौलो, और जब भी
तौलो तो लिख
लेना—एक, दो,
तीन, और
दीवार पर
लिखते जाना कि
तुमने कितनी
बार अफीम ली।
और मैं एक
महीने के बाद
फिर आऊंगा।
उस
आदमी ने
मेनशियस के
बताए इस
प्रयोग को
किया। जब कभी
वह अफीम लेता
तो उसे चाक के
बराबर का वजन
रखना पड़ता। और
उसकी चाक धीरे
— धीरे खत्म
होती जा रही
थी, क्योंकि
हर बार उसे
लिखना पड़ता था
एक, फिर
उसी चाक से दो,
तीन लिखना
पड़ता था धीरे —
धीरे वह चाक
खत्म होने को
आ गई। शुरू
में तो उसे
मालूम ही नहीं
पड़ा कि चाक
धीरे — धीरे कम
होती जा रही
है, और उसी
मात्रा में
उसकी अफीम भी
कम होती जा
रही थी, लेकिन
बहुत ही धीरे —
धीरे और
सूक्ष्म ढंग
से कम हो रही
थी।
एक
महीने बाद
मेनशियस जब उस
आदमी को देखने
आया तो वह
आदमी जोरों से
हंसने लगा और
बोला, ’ आपने
मेरे साथ खूब
चालाकी की! और
यह आपकी चालाकी
काम कर रही
है। यह इतने
सूक्ष्म ढंग
से, इतने
धीरे — धीरे
हुआ है कि मैं
इस परिवर्तन
को अनुभव भी नहीं
कर सका, लेकिन
फिर भी
परिवर्तन तो
हो ही रहा है।
आधी चाक खत्म
होने को आई—और
आधी चाक के
साथ, आधी
अफीम भी खत्म
हो गई।’
उस
आदमी से
मेनशियस ने
कहा, ’ अगर
तुम अपने
लक्ष्य तक
पहुचना चाहते
हो तो कभी भी
भागना मत।
धीरे — खरे
चलना।’
मेनशियस
के सर्वाधिक
प्रसिद्ध
वाक्यों में से
एक वाक्य है, ’ अगर
लक्ष्य तक
पहुंचना
चाहते हो, तो
दौड़ना कभी मत।’
अगर तुम सच
में मंजिल तक
पहुंचना
चाहते हो, तो
चलने तक की भी
कोई जरूरत
नहीं है। अगर
तुम सच में ही
पहुंचना
चाहते हो तो
तुम पहले से
ही पहुंचे हुए
हो। इतना धीमे
चलना। अगर यह
दुनिया
मेनशियस, कन्स्पूशियस,
लाओत्सु और
च्चांगत्सु
को सुनें तो
यह एक अलग ही
दुनिया होगी।
अगर तुम उनसे
पूछो कि
ओलंपिक्स
खेलों की
व्यवस्था
कैसे करें, तो वे
कहेंगे, उसे
पुरस्कार दे
दो जो जितनी
जल्दी पराजित
हो जाता है।
प्रथम
पुरस्कार उसे
दो, जो
सबसे धीमे
चलता हो। सबसे
अधिक तेज
दौड़ने वाले को
पुरस्कार मत
देना।
प्रतियोगिता
तो होने दो, लेकिन
पुरस्कार उसे
ही मिलना
चाहिए जो सबसे
पीछे हो।
अगर
जीवन में
व्यक्ति बिना
किसी जल्दी के
आहिस्ता—
आहिस्ता चले, तो बहुत
कुछ की प्राप्ति
हो सकती है, और ’ उस
प्राप्ति में
प्रसाद होगा,
गौरव होगा,
गरिमा
होगी। जीवन के
साथ किसी तरह
की जबर्दस्ती
मत करो। जीवन
किसी
जबर्दस्ती से
रूपांतरित
नहीं हो सकता।
जीवन के
रूपांतरण
की कला
सीखो। बुद्ध
के पास इसके
लिए एक खास
शब्द है; वे इसे उपाय
कहते हैं, निपुण
बनो, बुद्धिमत्ता
से काम लो। यह
एक जटिल घटना
है। जीवन में
प्रत्येक कदम
बहुत ही सजगता
से, ध्यानपूर्वक
और होश से
उठाओ। तुम एक
ऐसे ही खतरनाक
स्थान में चल
रहे हो जैसे
कि दो पहाड़ों
के बीच रस्सी
बंधी हो, और
उस पर तुम चल
रहे हो। जैसे
कोई नट रस्सी
पर चलता है।
जीवन का हर पल,
हर क्षण
संतुलित हो, और किसी
प्रकार की
जल्दी मत करो,
दौड़ने का
प्रयास मत करो,
अन्यथा तुम
जीवन से चूक
जाओगे, तब
जीवन में
असफलता
सुनिश्चित
है।
‘मन
और शरीर के
साथ
तादात्म्य न
बने —ऐसा कैसे
संभव है, यह
मैं अब तक समझ
नहीं सका हूं।
मैं स्वयं से
कहता हूं तुम मन
नहीं हो इसलिए
भयभीत होने की
कोई जरूरत नहीं
है, स्वयं
को प्रेम करो
संतुष्ट रहो।’
इन
सारी
बेवकूफियों
और नासमझियों
को छोड़ो। मन
से कुछ भी मत
कहो, क्योंकि
यह कहने वाला
भी मन ही है।
तुम बस मौन और शांत
रहकर सुनो। मौन
में मन नहीं
बचता। जब मौन
में छोटे —छोटे
अंतराल आने
लगते हैं तो
शब्द भी नहीं
होते मन भी
नहीं होता। मन
भाषा में ही
जीता है, वह
भाषा ही है।
अत: धीरे — धीरे
मौन के
अंतरालों में
सरकना शुरू
करो। कभी —कभी
बस केवल देखो,
जैसे कि तुम
कोई मूर्ख
आदमी हो, जो
सोचता नहीं है,
देखता है।
कभी
जाकर उन लोगों
को देखना
जिन्हें जड—बुद्धि, पागल या
मूर्ख समझा
जाता है। वे
बैठे हैं—वे
देख भी रहे
हैं, लेकिन
फिर भी कुछ
देख नहीं रहे
हैं। वे पूरी
तरह से शिथिल
होकर बैठे
होते हैं, उनके
चेहरे पर एक
सौंदर्य होता
है 1 उनके चेहरे
पर कहीं कोई तनाव
नहीं होता है,
क्योंकि
उन्हें कुछ
करना नहीं है।
वे पूरी तरह
से निश्चित और
मजे में होते
हैं। बस, उन्हें
ध्यान से
देखना।
अगर
प्रतिदिन तुम
किसी पागल की
तरह एक घंटा
बैठो, तो
तुम उपलब्ध हो
सकते हो।
लाओत्सु
ने कहा है, ’मेरे
अतिरिक्त सभी
कोई होशियार
दिखाई देता
है। मैं तो
मूढ़ मालूम
पडता हू।’
सर्वाधिक
प्रसिद्ध
उपन्यासकारों
में से एक उपन्यासकार
फयादोर
दोस्तोवस्की
ने अपनी डायरी
में लिखा है
कि जब वह युवा
था तो उसे एक
बार मिर्गी का
दौरा पड़ा—और
दौरा पड़ने के
बाद पहली बार
उसे समझ आया
कि वास्तविकता
क्या है। दौरा
पड़ने के बाद
हर चीज जैसे
कि एकदम शांत
हो गयी। विचार
रुक गए। दूसरे
लोग डाक्टर को
बुलाने में और
दवाई लाने के
लिए भाग रहे
थे, और
दोस्तोवस्की
आनंदित और खुश
था। मिर्गी के
दौरे ने उसे
नो —माइंड, अ—मन
की झलक दे दी
थी।
तुम्हें
यह जानकर
आश्चर्य होगा
कि ऐसे बहुत से
लोग बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गए थे, जिन्हें
मिर्गी के
दौरे पड़ते थे।
और बहुत से संबुद्ध
लोगों को
मिर्गी के
दौरे पड़ते थे —जैसे
रामकृष्ण
परमहंस।
रामकृष्ण को
दौरे पड़ते थे।
भारत
में हम इसे
दौरा पड़ना
नहीं कहते। हम
इसे समाधि
कहते हैं।
भारत के लोग
होशियार हैं।
जब किसी चीज
को नाम देना
ही है, तो
उसे सुंदर नाम
ही क्यों न
दिया जाए? अगर
हम इस नो —माइंड
या अ —मन कहते
हैं, तो
बात एकदम ठीक
लगती है। अगर
मैं कहूं,
मूर्ख हो जाओ —तो
अशाति, बेचैनी
अनुभव करोगे।
अगर मैं कहूं, नो —माइंड हो
जाओ अ —मन हो
जाओ —तो एकदम
ठीक लगता है।
लेकिन यह अवस्था
ठीक मिर्गी के
दौरे जैसी ही
होती है।
एक
पागल आदमी मन
के नीचे होता
है, और
एक ध्यानस्थ
व्यक्ति मन के
ऊपर, मन के
पार होता है, लेकिन दोनों
ही बिना मन के
होते हैं। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि एक
पागल आदमी
बिलकुल
ध्यानी
व्यक्ति की
तरह ही होता
है —लेकिन
उनमें कुछ न
कुछ समानता
होती है। एक
पागल आदमी को
मन का कुछ पता
नहीं होता है,
और जो
व्यक्ति नो —माइंड,
अ —मन की
अवस्था को
उपलब्ध होता
है उसे भी मन
का पता नहीं
होता है।
दोनों में
बहुत बड़ा फर्क
है, लेकिन
कहीं कोई
समानता भी है।
पागल आदमी और
संबोधि को
उपलब्ध
व्यक्ति के
बीच एक तरह की
समानता होती
है।
सूफी
धर्म में ऐसे
लोग बावरे
कहलाते हैं, उपलब्ध
लोग, संबुद्ध
लोग पागल की
तरह से जाने
जाते हैं। एक
ढंग से वे
पतोल ही होते
हैं। वे मन के
बाहर हो गए
होते हैं।
धीरे —
धीरे अ—मन
होने की कला
को सीख लेना।
अगर तुम्हें
इस परम मूढ़ता
के कुछ पल भी मिल
सकें, जब
कि तुम कुछ भी
नहीं सोच रहे
होते हो, जब
कोई विचार
नहीं होता है,
जबकि तुम
नहीं जानते कि
तुम कौन हो, जब तुम
जानते नहीं कि
तुम क्यों हो,
जब तुम कुछ
भी नहीं जानते
हो, पूरी
तरह से
अज्ञानी होते
हो, गहन
अजान में होते
हो, अज्ञान
की गहन शाति
में होते हो, तो उस शांत
अवस्था में एक
अंतर्दृष्टि
उतरने लगेगी,
कि तुम शरीर
नहीं हो, कि
तुम मन नहीं
हो। ऐसा नहीं
कि तुम इसे
कहते फिरोगे?
तब यह एक
वास्तविकता
होगी। ठीक
वैसे ही, जैसे
सूरज सामने
चमक रहा हो, तो यह कहने
की कोई आवश्यकता
नहीं होती कि
सूरज चमक रहा
है। जैसे कि पक्षी
चहचहा रहे हों,
तो यह कहने
की कोई
आवश्यकता
नहीं होती कि
पक्षी चहचहा
रहे हैं।
पक्षियों की
आवाज सुनी जा
सकती है और
बिना कुछ कहे
कि वे चहचहा
रहे हैं, उसके
प्रति
होशपूर्ण हो
सकते हैं।
धीरे —
धीरे स्वयं को
तैयार करो और
एक दिन तुम
जान जाओगे कि
तुम न तो शरीर
हो और न मन हो—और
न ही तुम
आत्मा भी हो!
तुम एक
रिक्तता, एक खालीपन—एक
शून्यता हो।
तुम हों—लेकिन
फिर कोई बंधन
नहीं है, कोई
सीमा नहीं है,
किन्हीं
सीमाओं के
घेरे में कैद
नहीं हो, फिर
तुम्हारी कोई
व्याख्या या
परिभाषा नहीं
है। उस परम
मौन में
व्यक्ति जीवन
के, अस्तित्व
के परम शिखर
पर पहुंच जाता
है, पराकाष्ठा
पर पहुच जाता
है।
दूसरा
प्रश्न:
जब भी
मेरी स्वयं के
साथ और आपके
साथ एकात्मकता
आ बनती है तो
मेरा मन एक
बड़ी अहंकार
यात्रा पर
निकल पड़ता है
कि मेरा कितना
अच्छा विकास
हो रहा है।
फिर शीघ्र ही
वापस कीचड़ में
गिरना हो जाता
है। कृपया आप
मुझे सहारा
देगे?
फिर से वही? तुम फिर
से कीचड़ में
जा पड़ोगे। तुम
सहारा देने की
बात करते हो? मैं तुम्हें
सहारा नहीं दे
सकता हूं,
मैं तुम्हें
प्रोत्साहित
नहीं कर सकता
हूं। मैं
तुम्हें पूरी
तरह से निरुत्साहित
कर देना चाहता
हूं, ताकि
तुम फिर कभी
कीचड़ में न
गिरो। सहारा
देने की बात
पूछ कौन रहा
है? वही
अहंकार ही तो
पूछ रहा है न
सहारा देने
की।
तुम
अपने
प्रश्नों को
बदलते रहते हो, लेकिन
सूक्ष्म रूप
से वे वही के
वही होते हैं —जैसे
कि तुमने
सच्चाई को, वास्तविकता
को देखने का
निश्चय ही कर
लिया है। अब
तुमने
वास्तविकता
को देख लिया
है, लेकिन
फिर भी तुम
उसे झुठलाना
चाहते हो।
‘जब भी
मेरी स्वयं के
साथ और आपके
साथ एकात्मकता
आ बनती है तो
मेरा मन एक
बड़ी अहंकार
यात्रा पर
निकल पड़ता है
कि मेरा कितना
अच्छा विकास
हो रहा है।
फिर शीघ्र ही
वापस से कीचड़
में गिरना हो
जाता है।’
अगर
अहंकार अपना
सिर उठा रहा
है, तो
देर — अबेर तुम
कीचड़ में
गिरोगे ही।
अगर तुम
अहंकार से
नहीं बच सकते,
तो तुम कीचड़
से भी नहीं बच
सकते।
इसे
समझने की
कोशिश करो।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
यह कहना भी कि ’कल सुबह
फिर सूर्योदय
होगा, ’मात्र
एक अनुमान ही
है। हो सकता
है ऐसा न हो, सूर्योदय
होगा ही ऐसा
कोई निश्चित
नहीं है। ऐसा
अब तक होता
आया है, लेकिन
क्या पक्का है
कि कल सुबह
फिर से सूर्योदय
होगा ही? इस
बारे में
सुनिश्चित
रूप से कुछ भी
नहीं कहा जा
सकता है।
चूंकि
प्रतिदिन
सूरज निकलता
है, इस
आधार पर हम कह
देते हैं कि
कल भी
सूर्योदय होगा।
लेकिन फिर भी
इस वक्तव्य को
वैज्ञानिक वक्तव्य
तो नहीं माना
जा सकता। ऐसा
हो भी सकता है,
ऐसा नहीं भी
हो सकता है।
लेकिन
जहां तक आदमी
का संबंध है, जिस क्षण
उसने जन्म
लिया, तो
जन्म के साथ
ही उसकी
मृत्यु
सुनिश्चित हो
जाती है —कल
होने वाले
सूर्योदय से
भी अधिक
सुनिश्चित।
क्योंकि
वैज्ञानिक भी
नहीं कह सकते
कि ’शायद
तुम्हारी
मृत्यु हो या
शायद
तुम्हारी मृत्यु
न भी हो।’ नहीं,
मृत्यु तो
होगी ही। यह
एकदम
सुनिश्चित है!
क्योंकि जन्म
के साथ ही
मृत्यु भी
घटित हो चुकी होती
है। जन्म ही
मृत्यु है, उसी सिक्के
का ही एक पहलू
है। इसलिए अगर
जन्म होगा, तो मृत्यु
भी होगी ही।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर वक्तव्य
देना ही चाहते
हो तो इतना ही
कह सकते हो कि
अगर सभी कुछ ऐसा
ही रहा, अगर यही
परिस्थिति
रही तो कल फिर
से सूर्योदय
होगा। इसी शर्त
के साथ कि अगर
सभी कुछ इसी
तरह रहा तो।
लेकिन यह बात
मृत्यु पर
लागू नहीं
होती। चाहे
सभी कुछ इसी
तरह रहे या न
रहे, जो
व्यक्ति पैदा
हुआ है वह
मरेगा ही।
मृत्यु ही
जीवन की
एकमात्र
सुनिश्चित
बात जान पड़ती
है —एकमात्र।
बाकी सभी कुछ
अनिश्चित है।
यही
बात अहंकार और
कीचड़ के विषय
में भी सच है। जब
—जब अहंकार आ
जाएगा, तुम कीचड़
में जा पड़ोगे।
क्योंकि
अहंकार और कीचड़
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। जब
व्यक्ति अहंकार
पर सवार हो
जाता है, तो
फिर कीचड़ में
गिरने से भी
नहीं बचा जा
सकता है।
अहंकार की लहर
पर सवार होने —से
बचा जा सकता
है —इससे बचना
संभव है। अगर
अहंकार से बचा
जा सके, तो
फिर कीचड़ से
भी बचना हो
जाता है।
इसलिए एकदम
प्रारंभ से ही
सजग और सावधान
हो जाना।’? कृपया,
आप मुझे
सहारा देंगे?’
तुम
मुझसे पूछते
हो? अगर
मैं तुम्हें
सहारा दे दूं, तो तुम फिर
ऊंचे उड़ने
लगोगे। तुम
फिर सोचने लगोगे
कि तुम जो भी
कर रहे हो, ठीक
कर रहे हो।
नहीं, मैं
तुम्हारे सभी
सहारे छीन
लेने के लिए
हूँ। मैं यहां
पर तुम्हें
निरुत्साही
करने के लिए हूं, मैं यहां पर
तुम्हें
मिटाने के लिए
हूं,
तुम्हें
शून्य करने के
लिए हू ताकि
तुम्हारी
पूरी की पूरी
अहंकार की
यात्रा ही
समाप्त हो
जाए। वरना तुम
फिर —फिर वही
प्रश्न पूछते
रहोगे।
और
मेरा उत्तर
वही रहेगा।
देखने में ऐसा
लगता है जैसे
कि तुम अलग—
अलग प्रश्न
पूछ रहे हो।
तुम अलग — अलग
प्रश्न नहीं
पूछ रहे हो।
और तुम्हें
ऐसा लगता होगा
कि जो मैं
उत्तर दे रहा हूं, वे अलग —
अलग हैं। यह
भी सच नहीं
है। तुम वही
प्रश्न पूछते
हो, तुम्हारे
पूछने का ढंग
अलग — अलग होता
है; मेरा
उत्तर वही
होता है। मुझे
तुम्हारे
कारण उसमें
कुछ फेर —बदल
करना पड़ता है,
वरना मेरा
उत्तर तो वही
का वही होता
है।
मैं
तुम्हें एक
कथा कहना
चाहूंगा :
अलस्टर
आए हुए एक
पर्यटक ने
देखा कि
गुंडों के एक
दुष्ट दल ने
उसे घेर लिया
है।
उनके
सरदार ने बड़े
हीं
अर्थपूर्ण
ढंग से अपने कोशे
को हिलाते हुए
पूछा, ’तुम
कैथोलिक हो या
प्रोटेस्टेंट?’
पर्यटक
को कुछ समझ ही
नहीं आया कि
उसे क्या
उत्तर देना
चाहिए, तो उसने टाल —मटोल
का उत्तर
दिया। वह बोला,
’वास्तव में
तो मैं यहूदी
हू।’
उसकी
चालबाजी ने
विशेष काम
नहीं किया।
सरदार
का अगला
प्रश्न था, ’कैथोलिक
यहूदी या
प्रोटेस्टेंट
यहूदी?’
तुम बच
नहीं सकते हो, प्रश्न
का सामना तो
करना ही पड़ता
है। और प्रश्न
का उत्तर
तुम्हारे
द्वारा आना
चाहिए न कि
मेरे द्वारा।
क्योंकि वह
प्रश्न
तुम्हारा है।
अगर
व्यक्ति के मन
में जिस समय
यह विचार आता
है कि ’मेरा
सब कुछ एकदम
ठीक चल रहा है,
हर काम
बिलकुल ठीक हो
रहा है, ’ उस
अहंकार के
क्षण को देख
सके तो अगली
बार जब ऐसा
विचार आए कि
तुम एकदम ठीक
काम कर रहे हो,
तो इस बात
पर जोर से हंस
देना, खिलखिलाकर
हंस देना। इस
विचार के उठते
ही तुरंत हंस
देना, एक
क्षण भी मत
गंवाना।
अहंकार को
मिटाने में खिलखिलाकर
हंसना अदभुत
रूप से सहयोगी
होता है।
स्वयं पर
हंसों। इसके
पीछे छिपे हुए
सत्य को जरा
समझो फिर से
वही? जोर
से, खिलखिलाकर
हंस देना, और
अचानक तुम
पाओगे कि
तुम्हारे
आसपास कुछ गलत
हो रहा है —और
तब फिर कहीं
कोई कीचड़ नहीं
होगा। कीचड़ का
जन्म अहंकार
के द्वारा ही
होता है, वह
अहंकार का ही
बाई —प्रोडक्ट
है।
इस पर
थोड़ा ध्यान
देना। यह थोड़ा
कठिन है, लेकिन एक
बार तुम्हें
बात समझ में आ
जाए, एक
बार तुम्हें
वह कौशल आ जाए,
तो फिर बात
एकदम आसान हो
जाती है।
और
सहारा देने की, प्रोत्साहित
करने की बात
तो मुझ से कभी
करना ही मत।
बस, कैसे
अधिकाधिक समझ
बढ़े, कैसे
अधिकाधिक
जागरूकता बढ़े
इसकी बात करो,
न कि अहंकार
को सहारा और
बढ़ावा देने
की। बढ़ावा
पाने की भाषा
अहंकार की
भाषा है। तुम
प्रोत्साहन
इसलिए पाना
चाहते हो, ताकि
लोग तुम्हारे
लिए तालिया
बजाए, तुम्हारी
प्रशंसा करें —और
कहें कि तुम
जो भी कर रहे
हो एकदम ठीक
कर रहे हो।
तुम चाहते हो
कि सारी
दुनिया तुम्हें
फूल मालाएं
पहनाए, और
कहे कि तुम
महान हो।
लेकिन ऐसी आकांक्षा
उठती ही क्यों
है?
यह आकांक्षा
इसलिए उठती है, क्योंकि
कहीं गहरे में
तुम अपने
प्रति सुनिश्चित
नहीं हो, तुम्हें
पक्का भरोसा
नहीं है कि
तुम सच में ही
ठीक कर रहे हो
या नहीं। अगर
तुम सच में
ठीक कर रहे हो,
तो तुम्हें
किसी तरह की
प्रशंसा की
कोई आवश्यकता
नहीं होती है।
और अगर तुम सच
में ठीक ही कर रहे
हो, तो फिर
कोई ऐसी आकांक्षा
और लालसा नहीं
बचती कि लोग
तुम्हारे लिए
तालियां बजाए
और तुम्हारी
प्रशंसा करें
और तुम्हें
फूलमालाएं
पहनाएं। इसकी
कोई आवश्यकता
ही नहीं होती।
इसकी
आवश्यकता तभी
होती है, जब हम स्वयं
के प्रति
संदिग्ध होते
हैं, उलझे
हुए, अस्पष्ट,
अनिश्चित
होते हैं —तभी
इसकी
आवश्यकता
होती है।
और
ध्यान रहे, तुम
प्रशंसा करने
वाले लोगों की
भीड़ अपने आसपास
एकत्रित कर
सकते हो, लेकिन
उससे तुम्हें
कोई मदद मिलने
वाली नहीं है।
उससे तुम्हें
कुछ न मिलेगा।
हो सकता है तुम
स्वयं को ही
धोखा दो, लेकिन
उससे तुम्हें
कुछ भी नहीं
मिलेगा, उससे
कुछ भी मदद
नहीं मिलेगी।
यही तो
राजनीति का
खेल है।
राजनीति का
पूरा का पूरा
खेल और कुछ भी
नहीं है, सिवाय
दूसरों से
प्रोत्साहन
और बढ़ावा पाने
के अतिरिक्त
और कुछ भी.
नहीं है। तुम
देश के राष्ट्रपति
बन जाते हो तो
तुम्हें बहुत
अच्छा लगता है,
अपने आपको
ऊंचा और
श्रेष्ठ
अनुभव करने
लगते हो।
लेकिन पहली तो
बात लोगों से
प्रशंसा पाने
की आकांक्षा,
दूसरों से
आदर —सम्मान, बढ़ावा पाने
की आकांक्षा
का होना इसी
बात को
दर्शाता है कि
कहीं गहरे में
तुम बहुत हीन
अनुभव करते हो,
बहुत
इनफीरियर
अनुभव करते हो,
तुम्हारे
लिए स्वयं के
अस्तित्व का
कोई मूल्य
नहीं है। और
इस सबको जानने
के लिए
तुम्हें बाजार
में खड़े होकर
अपनी बोली
लगवाना जरूरी
है।
मैंने
सुना है कि एक
बार मुल्ला
नसरुद्दीन अपने
गधे के साथ
बाजार चला
गया। वह उस
गधे को बेचना
चाहता था, क्योंकि
वह उससे तंग आ
चुका था। वह
खराब से खराब
गधों में से
एक गधा था।
जहां मुल्ला
उस गधे को ले
जाना चाहता
वहा वह कभी
नहीं जाता था,
वह केवल
वहीं जाता
जहां वह जाना
चाहता था। और
इसके अलावा वह
दुलत्तिया
झाड़ता रहता था
और वह कहीं भी,
किसी भी जगह
झंझट खड़ी कर
देता था। और
इस तरह से भीड़
में वह मुल्ला
के लिए
मुसीबतें खड़ी
कर देता था।
अत: उससे तंग
आकर एक दिन वह
उसे बाजार में
बेचने के लिए
ले गया। बहुत
से ग्राहकों
ने गधे के
बारे में
पूछताछ की और
मुल्ला गधे के
बारे में पूरी
कहानी सुनाता
रहा कि यह गधा कैसा
है, और उसे
कितना परेशान
करता है।
मुल्ला की ऐसी
बातें सुनकर
कोई भी
व्यक्ति उसे
खरीदने के लिए
तैयार न हुआ।
भला ऐसे गधे
को कौन
खरीदेगा? और
इसी तरह से
शाम हो गई।
सारे दिन लोग
आते रहे, और
मुल्ला गधे के
बारे में पूरी
बात सच—सच
लोगों को
बताता रहा।
लोग आते, उसकी
बात सुनते और
हंसकर चले
जाते।
फिर एक
आदमी मुल्ला
के पास आकर
बोला, ’तुम
तो एकदम मूढ़
हो। इस तरह से
तो तुम इस गधे
को कभी न बेच
पाओगे, यह
कोई बेचने का
तरीका है। अगर
तुम मुझे थोड़ा
कमीशन दो, तो
मैं इसकी
नीलामी करवा
दूंगा। और तुम
देखना यह सब
मैं कैसे करता
हूं।’
मुल्ला
बोला, ’ठीक
है।’ क्योंकि
मुल्ला भी थक
चुका था।
वह
आदमी एक
कुर्सी पर
जाकर खड़ा हो
गया और जोर—जोर
से चिल्लाने
लगा, ’ आज
तक इतना महान
गधा कभी नहीं
हुआ, जो
सुंदर है, प्रेमपूर्ण
है, आज्ञाकारी
है—यह एक
धार्मिक गधा
है।’ धीरे —
धीरे उसके
आसपास भीड़
इकट्ठी हो गयी
और लोग उस गधे
की बोली लगाने
लगे और उसकी
बोली खूब ऊपर
जाने लगी। गधे
की इतनी कीमत
लगते देखकर
मुल्ला भी
अपने को रोक न
सका। मुल्ला
बोला, ’ठहरो!
मैं इतने
सुंदर गधे को नहीं
बेचना चाहता।
मैं इसे नहीं
बेच सकता।
मुझे इसकी इन खूबियों
का तो पता ही
नहीं था। तुम
अपना कमीशन
वापस ले लो; मैं अपने
गधे को नहीं
बेचना चाहता।’
यही तो
राजनीति है।
तुम्हें अपना
मूल्य नहीं पता
है, तुम
बाजार में
पहुंचकर अपना
प्रचार करो, और अपनी
बोली लगने दो,
और जब लोग
आकर तुम्हारी
कीमत लगाने
लगते हैं, तो
तुम्हें
अच्छा लगता
है। तब
तुम्हें लगता
है कि
तुम्हारा भी
कुछ मूल्य है,
वरना इतने
सारे लोग
क्यों
तुम्हारे
पीछे पागल
होते?
जो
व्यक्ति
स्वयं के
प्रति बोध से
भर जाता है, उसे किसी
तरह के
प्रोत्साहन
की जरूरत नहीं
रहती। स्वयं
के प्रति
जागरूक होने
का प्रयास
करो। सभी
प्रोत्साहन, सभी तरह की
प्रशंसाएं
खतरनाक होती
हैं, क्योंकि
वे तुम्हें और
तुम्हारे
अहंकार को गुब्बारे
की तरह फुला
देती हैं।
अहंकार को इसमें
बड़ा रस आता है,
लेकिन
अहंकार ही
तुम्हारा रोग
है। तुम्हें
किसी तरह के
प्रोत्साहन, सहारे या
बढ़ावे की
जरूरत नहीं है;
तुम्हें
समझ की जरूरत
है। यह सब
देखने के लिए तुम्हें
प्रज्ञा की आख
की आवश्यकता
है।
और मैं
यहां कोई फौज
तैयार नहीं कर
रहा हूं। कि
मैं तुम्हें
प्रोत्साहित
करूं और
तुम्हें प्रेरणा
दूं, और
तुमसे कहूं कि
देश के लिए, धर्म के लिए
जाकर लड़ो —मरो,
अपना
बलिदान कर दो।
मैं यहां कोई
फौज तैयार नहीं
कर रहा हूं, मैं यहां
कोई सेना
तैयार नहीं कर
रहा हूं। मैं
व्यक्ति के, इंडिविजुअल
के निर्माण के
लिए प्रयास कर
रहा हूं। मैं
तुम्हारे साथ
इस बात का सहयोग
देने का
प्रयास कर रहा
हूं जिससे तुम
स्वयं के साथ
एक अनूठी
समस्वरता को
पा लो, कि
तुम जान लो कि
तुम कहां पर
खड़े हो, कि
तुम कौन हो, कि तुम क्या
कर रहे हो और
इसमें
तुम्हें आनंद मिलता
है; क्योंकि
केवल उसी से
जीवन में
अर्थवत्ता
आती है, तुम्हारे
जीवन में फूल
खिलते हैं। और
जब व्यक्ति
अपनी नियति को
उपलब्ध हो
जाता है, तभी
वह आनंदित
अनुभव करता
है।
मैं
यहां तुम्हें
कोई हिंदू
ईसाई या
मुसलमान बनाने
के लिए नहीं
हूं। हिंदू
मुसलमान, ईसाई बनाने
के लिए
प्रोत्साहन
की जरूरत होती
है, उन्हें
राजनीति की
आवश्यकता
होती है। उन्हें
धर्म के नाम
पर एक तरह के
उन्माद और
पागलपन की
आवश्यकता
होती है।
उन्हें धर्म
के नाम पर एक
ऐसी मतांधता
की आवश्यकता
होती है जो
युद्ध कर सके
और लोगों की
हत्या भी कर
सके। उन्हें एक
तरह की हिंसा
की आवश्यकता
होती है, ताकि
वे इस बात के
प्रति
विश्वस्त हो
सकें कि वे
कोई महान
कार्य कर रहे
हैं।
नहीं, मैं यहां
पर तुम्हें
कोई महान
कार्य सिखाने
के लिए नहीं
हूं। मुझे
तुमसे बस एक
ही बात कहनी है,
एक बहुत ही
सीधी—सरल बात,
एकदम छोटी
और साधारण
बात. कि तुम
जान लो कि तुम कौन
हो। क्योंकि
मैं जानता हूं
कि तुम साधारण
नहीं हो, तुम
असाधारण हो।
और जब मैं
कहता हूं कि
तुम असाधारण
हो, तो
इसमें कोई मैं
तुम्हारी
प्रशंसा नहीं
कर रहा हूं, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति उतना
ही असाधारण है,
जितने कि
तुम हो—तुम से
जरा भी कम
नहीं, जरा
भी ज्यादा
नहीं। मेरे
देखे इस संसार
में प्रत्येक
व्यक्ति
बेजोड़ है, अनुपम
है, अनूठा
है। किसी
दूसरे के साथ
तुलना की कोई
आवश्यकता ही
नहीं है।
नहीं, इसके लिए
कुछ प्रमाणित
करने की कोई
आवश्यकता नहीं
है। तुम
प्रमाणित हो
ही। तुम इस
संसार में हो,
अस्तित्व
ने तुम्हें
स्वीकार किया
है, तुम्हें
जन्म दिया है।
परमात्मा का
तुममें वास है
ही। इससे अधिक
तुम्हें और
क्या चाहिए?
तीसरा
प्रश्न:
झेन
संत जो कि
प्रत्येक
सुबह एक ध्यान
की भांति
हंसते है—
क्या आपको
नहीं लगता है
कि वे अपने
हंसने को कुछ
ज्यादा ही
गंभीरता से
लेते हैं।
नहीं
क्योंकि वे
फिर से हंसते
हैं —एक दूसरी
हंसी—पहली
हंसी के कारण ’कि हम
कितने मूढ़
हैं! हम क्यों
हंस रहे हैं?’
अगर
तुम केवल एक
बार ही हंसते
हो, तो
उस हंसी में
गंभीरता हो
सकती है।
इसलिए हमेशा
ध्यान रखो कि
दो बार हंसना
है। पहली बार
केवल हंसी, और फिर
दूसरी बार
हंसी के ऊपर
हंसो। तब तुम
गंभीर नहीं हो
सकोगे।
और झेन
लोग वैसे
धार्मिक लोग
नहीं हैं, जिन्हें
कि तुम
धार्मिक
मानते हो। वे
वैसे नहीं
हैं। झेन कोई
धर्म नहीं है;
झेन एक
दृष्टि है।
उसका कोई
धर्मशास्त्र
नहीं है। उसके
पास
प्रतीक्षा
करने को कुछ
भी नहीं है।
उसके पास जाने
को कोई जगह
नहीं है, उसका
कोई लक्ष्य
नहीं है। झेन
के पास कोई
लक्ष्य या
किसी साध्य
प्राप्ति का
साधन या कोई
विधि नहीं है।
वह परम साध्य
है।
झेन को
समझना बहुत
कठिन है।
क्योंकि अगर
झेन को समझना
हो तो तुम्हें
अपना ईसाई, हिंदू
मुसलमान, जैन
होने को गिरा
देना होगा। वह
सब गिरा देना होगा,
जो तुम अब
तक साथ में
लिए रहे हो।
इन सब नासमझियों
को छोड़ देना
होगा। यह एक
तरह की
रुग्णता है।
झेन को समझना
उसकी आंतरिक
गुणवत्ता के
कारण कठिन
नहीं है, बल्कि
तुम्हारे
अपने बंधे हुए
संस्कारित मन के
कारण समझ पाना
कठिन है। अगर
तुम ईसाई या
हिंदू की
दृष्टि से झेन
को समझना चाहो,
तो नहीं समझ
सकोगे कि झेन
क्या है। झेन
तो एकदम शुद्ध
दृष्टि है। जो
दृष्टि किसी
धर्म, मत, वाद, सिद्धांत
से आच्छादित
है वह झेन को
समझने से चूक
जाएगी। झेन
इतना शुद्ध है
कि अगर एक
शब्द भी मन
में उठा कि
तुम झेन को
चूक जाओगे।
झेन तो संकेत
है, इशारा है।
अभी कल
रात ही मैं पढ़
रहा था। एक
महान झेन संत
चाउ—चो से
किसी ने पूछा, ’ धर्म का
सार क्या है?’ वह मौन पहले
की भाति ही
बैठा रहा, जैसे
कि उसने शिष्य
की बात सुनी
ही न हो। शिष्य
ने फिर से
दोहराया, ’कृपया
बताएं कि धर्म
का सार क्या
है?’ गुरु
जिधर देख रहा
था उधर ही
देखता रहा, उसने शिष्य
की तरफ मुड़कर
भी नहीं देखा।
शिष्य ने फिर
पूछा, ’आपने
मेरी बात सुनी
या नहीं? आप
क्या सोच रहे
हैं?’
गुरु
ने कहा, ’ आयन में लगे
हुए सरू के
वृक्ष की ओर
तो देखो।’
बस
इतना ही। उसका
उत्तर यही है
कि ’ अपान
में लगे हुए
सरू के वृक्ष
की ओर तो क्यौ।’
यह ठीक वैसी
ही बात है
जैसे बुद्ध ने
एक फूल हाथ
में लेकर झेन
के जगत का
शुभारंभ किया
था। वह उस फूल
की ओर एकदम
देखे जा रहे
थे और हजारों
लोग जो उन्हें
सुनने के लिए
वहां एकत्रित
हुए थे समझ ही
न सके कि क्या
हो रहा है।
तब
बुद्ध का एक
भिक्षु
महाकाश्यप जोर
से हंसा।
बुद्ध ने
महाकाश्यप को
बुलाकर वह फूल
उसे दे दिया।
और जो लोग
बुद्ध को
सुनने के लिए
आए थे, उनसे
बुद्ध बोले, ’जो कुछ बोल
कर कहा जा
सकता है, मैंने
तुमसे कह दिया
है। और जिसे
बोल कर नहीं कहा
जा सकता, वह
मैंने
महाकाश्यप को
दे दिया है।’
बुद्ध
ने वह फूल
महाकाश्यप को
देकर बहुत
अच्छा किया।
क्योंकि उस
हंसी के क्षण
में ही महाकाश्यप
भी खिल उठा; उसका
पूरा
अस्तित्व उस
फूल की तरह
खिल गया।
फूल की
ओर देखकर
बुद्ध क्या कह
रहे थे? फूल की ओर
देखकर बुद्ध
कह रहे थे, ’वर्तमान
के इस क्षण
में अभी और
यहीं में रहो।
बस, फूल की
ओर देखो और
फूल ही हो जाओ।’
जौ लोग
बुद्ध को
सुनने के लिए
एकत्रित हुए
थे वे कुछ और
ही सोच रहे थे,
वे किसी और
ही बात की
कल्पना कर रहे
थे। जब चाऊ —चो
ने कहा, ’जरा
सरू के वृक्ष
की ओर देखो, ’ तो उसने कहा,
’ धर्म से
संबंधित सभी
मूढ़ताओं को
गिरा दो, और
क्या सार है, क्या असार
है इसे भी
जाने दो —अभी
और यहीं में
जीओ। देखो, और इसी
देखने में जो
अभी वर्तमान
का क्षण है —उसी
में ही वह सब
उदघटित हो
जाता है जो
धर्म का सार
है।’
झेन
दूसरे धर्मों
से नितांत
भिन्न है, एकदम
भिन्न है। झेन
अद्वितीय है,
अनूठा है।
अगर तुम जड़
धर्म —सिद्धांतों
में जकड़े हुए
हो, किन्हीं
मतवादों में
उलझे हुए हो
तो तुम झेन को
नहीं समझ
सकोगे। मैं
तुमसे एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
पंद्रह वर्ष
की कैथोलिक
युवती से मदर
सुपीरियर ने
पूछा कि ’वह जीवन में
क्या बनना
चाहती है?
युवती
ने उत्तर दिया, ’प्रास्टिटयूट।’
वृद्ध
नन ने
चिल्लाकर
पूछा, ’क्या
कहा?’
युवती
ने शांत भाव
से वही उत्तर
दिया, ’प्राँस्टिटधूट।’
पवित्र
वृद्धा ने कहा, ’ ओह!
संतों की जय
हो। मुझे लगा
तुमने कहा
प्रोटेस्टेंट!
’
इस ढंग
का मन कभी झेन
को नहीं समझ
सकता, वह
उनकी समझ के
बाहर की बात
है। उनका, मन
तो जड़ सिद्धांतों,
मतों और
संप्रदायों
में ही बंटा
रहता है।
झेन
लोग गंभीर
नहीं होते, लेकिन वे
प्रामाणिक
लोग हैं, सच्चे
लोग हैं। और
ये दोनों
बातें नितांत
भिन्न हैं।
उन्हें कभी
गलत मत समझना,
उनके बीच
कभी उलझ मत
जाना। एक
सच्चा आदमी
कभी गंभीर
नहीं होता। वह
प्रामाणिक
होता है। अगर
वह हंसता है, तो वह सच में
हंसता है। अगर
वह प्रेम करता
है, तो वह
सच में ही
प्रेम करता
है। अगर वह
क्रोधित होता
है, तो बस
क्रोधित होता
है, वह
उससे अलग कुछ
दिखाने की
कोशिश नहीं
करता। वह
प्रामाणिक
होता है, सच्चा
होता है। जो
कुछ भी है, जैसा
भी वह है, उसी
रूप में वह
तुम्हारे
सामने स्वयं
को प्रकट कर
देता है। वह
संवेदनशील
होता है। वह
किसी तरह के
मुखौटों. के
पीछे स्वयं को
नहीं छिपाता
है, वह
प्रामाणिक
होता है, सच्चा
होता है। जब
कभी वह उदास
होता है, तो
उदास ही होता
है। और जब कभी
वह रोता है, तो बस रोता
है। वह कुछ
छिपाने की
कोशिश नहीं करता
है, और वह
उसे दिखाने की
कोशिश नहीं
करता है जो वह नहीं
है। वह जैसा
है वैसा ही
रहता है। वह
कभी अपने
केंद्र से
नहीं हटता, और न ही वह
दूसरे के
द्वारा कभी
अपना ध्यान भंग
होने देता है।
लेकिन
गंभीर व्यक्ति
वह है, जो
सच्चा नहीं
होता, जो
प्रामाणिक
नहीं होता, लेकिन फिर
भी वह ऐसा
दिखाने की
कोशिश करता है
कि वह
प्रामाणिक है,
कि वह सच्चा
है। गंभीर
व्यक्ति नकली
होता है; बस,
वह ऐसा
दिखाने की
कोशिश जरूर
करता है कि वह
प्रामाणिक है,
सच्चा है।
वह हंस
नहीं
सकता, क्योंकि
उसे भय होता
है कि अगर वह
हंसेगा तो कहीं
उस हंसी के
माध्यम से
उसका असली
चेहरा दूसरे
लोगों को
दिखायी न दे
जाए। क्योंकि
हंसी बहुत बार
ऐसी चीजों को
प्रकट कर देती
है, जिन्हें
कि व्यक्ति
छिपाने की
कोशिश कर रहा
होता है।
अगर
तुम हंसते हो, तो
तुम्हारी
हंसी यह प्रकट
कर सकती है कि
तुम कौन हो।
क्योंकि हंसी
के क्षण में
तुम शिथिल हो
जाते हो, अगर
शिथिल नहीं हो
सकते हो, तो
तुम हंस नहीं
सकते हो।
हंसना शिथिल
होना है, विश्रांत
होना है। और
अगर तुम शिथिल
और ढीले नहीं
हो सकते हो, तो तुम हंस
ही नहीं सकते
हो। अगर तुम
सच में हंसते
हो तो सभी
तनाव चले जाते
हैं, तुम
शिथिल हो जाते
हो। उस हंसी
में तुम्हारी
कठोरता, संवेदनहीनता
विलीन हो जाती
है। तुम चाहो
तो उदास, निराश
चेहरा लटकाकर
भी रह सकते हो,
लेकिन अगर
तुम हंसते हो
तो अचानक तुम
पाओगे कि पूरा
शरीर तनाव
रहित और शिथिल
हो गया है। और
उस तनाव रहित
क्षण में, उस
विश्रांति के
क्षण में कुछ
ऐसा बाहर आ
सकता है, जिसे
तुम न जाने कब
से छिपाए हुए
थे और नहीं चाहते
थे कि दूसरे
उसे देखें।
इसीलिए तो
गंभीर लोग
हंसते नहीं
हैं। केवल
सच्चे और
प्रामाणिक लोग
ही हंस सकते
हैं —केवल
प्रामाणिक
लोग ही हंसते
हैं। उनकी
हंसी छोटे
बच्चों जैसी
निर्दोष होती
है।
गंभीर
लोग न तो कभी
चीखेंगे, न
चिल्लाएंगे, न रोके—क्योंकि
तब हंसना उनकी
कमजोरी को
प्रकट कर देगा।
और वे यह
दिखाना चाहते
हैं कि वे
मजबूत हैं, शक्तिशाली
हैं। लेकिन एक
सच्चा और
प्रामाणिक
व्यक्ति जैसा
होता है स्वयं
को वैसा ही प्रकट
कर देता है।
वह अपने अंतर—
अस्तित्व की
गहराई तक
तुम्हें ले
जाता है।
झेन
लोग सच्चे और
प्रामाणिक तो
होते हैं, लेकिन
गंभीर नहीं।
कभी —कभी तो
इतने
प्रामाणिक
होते हैं कि
वे धार्मिक ही
मालूम नहीं
होते हैं।
उनके इस तरह
के होने की
कल्पना भी
नहीं की जा
सकती है। इतने
प्रामाणिक कि
वे अधार्मिक
ही मालूम पड़ते
हैं, लेकिन
फिर भी वे
अधार्मिक
नहीं होते
हैं। क्योंकि
झेन में
प्रामाणिक
होना ही
धार्मिक होने
का एकमात्र
उपाय है।
मेरा
भी पूरा
प्रयास यही है
कि तुम्हें
प्रामाणिक
होने में कैसे
मदद मिल सके —न
कि गंभीर होने
में। मैं
चाहता हूं तुम
हंसो, मैं
चाहता हूं तुम
रोओ। मैं
चाहता हू कि
तुम कभी
प्रसन्न होने
के लिए रोओ।
जो कुछ भी तुम
हो, जैसे
भी तुम हो, जैसे
तुम भीतर हो, वैसे तुम
बाहर भी होओ।
अगर तुम अपने
में केंद्रित
हो, अपने
में थिर हो, तभी तुम
जीवंत, प्रवाहमान,
गतिशील, विकासमान
हो सकते हो।
और तभी तुम
अपनी नियति को
उपलब्ध हो
सकते हो।
अंतिम
प्रश्न:
भगवान
मैं आपके
प्रति बहुत
लगाव अनुभव
करता हूं। आप
मेरी अंतिम
शराब हैं मेरा
अंतिम व्यसन हैं
मेरा अंतिम
नशा हैं मैं
कुछ समय के
लिए यहां से
जाना चाहता
हूं और फिर भी
जा नहीं पा
रहा हूं। हर सुबह
घड़ी की तरह
ठीक समय पर
मैं प्रवचन
सुनने के लिए
आ जाता हूं
ऐसा लगता है
कि मैं आपके
द्वारा
सम्मोहित हो
गया हूं।
कृपया कुछ
कहें।
मैं
तुमसे एक कथा
कहना
चाहूंगा। और
उस कथा का आखिरी
हिस्सा
तुम्हारे
प्रश्न का
मेरा उतर है, इसलिए
ध्यान से
सुनना।
एक जॉज
संगीतकार, जो अपने
जीवन में कभी
चर्च नहीं गया
था, वह एक
गांव के किसी
छोटे से चर्च
के पास से गुजर
रहा था। उसने
देखा कि धर्म
उपासना
प्रारंभ होने
वाली है।
जिज्ञासावश
उसने भीतर
जाने का विचार
किया और यह
देखना चाहा कि
आखिर वहा पर है
क्या!
धर्म
उपासना के बाद
वह पादरी के
पास पहुंचा और
बोला, क्या
कहूं आदरणीय,
आपके इतने
अच्छे
प्रवचनों ने
तो मुझे
अभिभूत ही कर
दिया—मुझे तो
सच में उसने
धराशायी कर
दिया। जीज, बेबी, मेरा
तो सिर घूम
गया। वह सब
इतना तूफानी
था, कि
उसने मुझे मार
डाला।
यह सब
सुनकर वह
पादरी तो बड़ा
संतुष्ट हो
गया, लेकिन
फिर भी बोला, ’ठीक है, मैं
आपको धन्यवाद
देता हूं। यह
मेरे लिए बहुत
प्रसन्नता की
बात है, ऐसा
मैं
विश्वासपूर्वक
कहता हूं। फिर
भी —मेरी
इच्छा है कि
पवित्र चर्च
के प्रवेश
द्वार पर आप
इस सामान्य
शब्दावली का
उपयोग न करें।’
लेकिन
वह संगीतकार
बोलता ही गया ’कि मैं आप
से कुछ और भी
कहना चाहूंगा,
श्रीमान।
जब वह तूफानी
औरत रोटी की
तश्तरी लेकर
आयी, तो
सारा दृश्य
मेरे दिमाग पर
कुछ ऐसा छा
गया कि मैंने
पांच का नोट
निकाला।’
‘क्रेजी,
बेबी, क्रेजी!
’ पादरी ने
कहा।
आज इतना
ही।
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