दिनांक
20 जुलाई, 1970;
सी. सी.
आई. चैंबर्सं,
मुम्बई।
"कृष्ण
के
व्यक्तित्व
में आज के युग
के लिए क्या-क्या
विशेषताएं
हैं और उनके
व्यक्तित्व
का क्या
महत्त्व हो
सकता है? इस
पर कुछ प्रकाश
डालें?'
कृष्ण
का
व्यक्तित्व
बहुत अनूठा है।
अनूठेपन की
पहली बात तो
यह है कि
कृष्ण हुए तो
अतीत में, लेकिन
हैं भविष्य
के। मनुष्य
अभी भी इस
योग्य नहीं हो
पाया कि कृष्ण
का समसामयिक
बन सके। अभी
भी कृष्ण
मनुष्य की समझ
से बाहर हैं।
भविष्य में ही
यह संभव हो
पाएगा कि
कृष्ण को हम
समझ पाएं।
इसके
कुछ कारण हैं।
सबसे
बड़ा कारण तो
यह है कि
कृष्ण अकेले
ही ऐसे व्यक्ति
हैं जो धर्म
की परम
गहराइयों और
ऊंचाइयों पर
होकर भी गंभीर
नहीं हैं, उदास
नहीं हैं, रोते
हुए नहीं हैं।
साधारणतः संत
का लक्षण ही रोता
हुआ होना है।
जिंदगी से
उदास, हारा
हुआ, भागा
हुआ।
कृष्ण
अकेले ही नाचते
हुए वयक्ति
हैं। हंसते
हुए, गीत
गाते हुए।
अतीत का सारा
धर्म दुखवादी
था। कृष्ण को
छोड़ दें तो
अतीत का सारा
धर्म उदास, आंसुओं से
भरा हुआ था।
हंसता हुआ
धर्म मर गया है
और पुराना
ईश्वर, जिसे
हम अब तक
ईश्वर समझते
थे, जो
हमारी धारणा
थी ईश्वर की, वह भी मर गई
है।
जीसस
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह कभी
हंसे नहीं।
शायद जीसस का
यह उदास
व्यक्तित्व
और सूली पर
लटका हुआ उनका
शरीर ही हम
दुखी-चित्त
लोगों को बहुत
आकर्षण का
कारण बन गया।
महावीर या बुद्ध
बहुत गहरे
अर्थों में इस
जीवन के विरोधी
हैं। कोई और
जीवन है परलोक
में,
कोई मोक्ष
है, उसके
पक्षपाती
हैं। समस्त
धर्मों ने दो
हिस्से कर रखे
हैं जीवन
के--एक वह जो
स्वीकार
योग्य है और
एक वह जो
इनकार के
योग्य है।
कृष्ण
अकेले ही इस
समग्र जीवन को
पूरा ही स्वीकार
कर लेते हैं।
जीवन की
समग्रता की
स्वीकृति
उनके
व्यक्तित्व
में फलित हुई
है। इसलिए, इस
देश ने और सभी
अवतारों को
आंशिक अवतार
कहा है, कृष्ण
को पूर्ण
अवतार कहा है।
राम भी अंश ही
हैं परमात्मा
के, लेकिन
कृष्ण पूरे ही
परमात्मा
हैं। और यह
कहने का, यह
सोचने का, ऐसा
समझने का कारण
है। और वह
कारण यह है कि
कृष्ण ने सभी
कुछ आत्मसात
कर लिया है।
अल्बर्ट
श्वीत्ज़र
ने भारतीय
धर्म की
आलोचना में एक
बड़ी कीमत की बात
कही है, और वह
यह कि भारत का
धर्म
जीवन-निषेधक,
"लाइफ
निगेटिव' है।
यह बात बहुत
दूर तक सच है, यदि कृष्ण
को भुला दिया
जाए। और यदि
कृष्ण को भी
विचार में
लिया जाए तो
यह बात एकदम
ही गलत हो
जाती है। और श्वीत्ज़र
यदि कृष्ण को
समझते तो ऐसी
बात न कह
पाते। लेकिन
कृष्ण की कोई
व्यापक छाया
भी हमारे
चित्त पर नहीं
पड़ी है। वे
अकेले दुख के
एक महासागर में
नाचते हुए एक
छोटे-से द्वीप
हैं। या ऐसा
हम समझें कि
उदास और निषेध
और दमन और
निंदा के बड़े मरुस्थल
में एक बहुत
छोटे-से नाचते
हुए मरूद्यान
हैं। वह हमारे
पूरे जीवन की
धारा को नहीं
प्रभावित कर
पाए। हम ही इस योग्य
न थे, हम
उन्हें
आत्मसात न कर
पाए।
मनुष्य
का मन अब तक तोड़कर
सोचता रहा, द्वंद्व
करके सोचता
रहा। शरीर को
इनकार करना है,
आत्मा को
स्वीकार करना
है। तो आत्मा
और शरीर को लड़ा
देना है।
परलोक को
स्वीकार करना
है, इहलोक
को इनकार करना
है। तो इहलोक
और परलोक को लड़ा देना
है। स्वभावतः,
यदि हम शरीर
का इनकार
करेंगे, तो
जीवन उदास हो
जाएगा।
क्योंकि जीवन
के सारे रस-स्रोत
और सारा
स्वास्थ्य और जीवन
का सारा संगीत
और सारी
संवेदनाएं
शरीर से आ रही
हैं। शरीर को
जो धर्म इनकार
कर देगा, वह
पीतवर्ण
हो जाएगा, रक्तशून्य हो जाएगा।
उस पर से लाली
खो जाएगी। वह
पीले पत्ते की
तरह सूखा हुआ
धर्म होगा। उस
धर्म की मान्यता
भी जिनके मन
में गहरी
बैठेगी, वे
भी पीले पत्ते
की तरह गिरने
की तैयारी में
संलग्न, मरने
के लिए उत्सुक
और तैयार हो
जाएंगे।
कृष्ण
अकेले हैं जो
शरीर को उसकी
समस्तता में स्वीकार
कर लेते हैं, उसकी
"टोटलिटी'
में। यह एक
आयाम में नहीं,
सभी आयाम
में सच है।
शायद कृष्ण को
छोड़कर...कृष्ण
को छोड़कर, और
पूरे
मनुष्यता के
इतिहास में
जरथुस्त्र एक
दूसरा आदमी है,
जिसके बाबत
यह कहा जाता
है कि वह जन्म
लेते से हंसा।
सभी बच्चे
रोते हैं। एक
बच्चा सिर्फ
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
जन्म लेकर
हंसा। यह सूचक
है। यह सूचक
है इस बात का
कि अभी हंसती
हुई मनुष्यता
पैदा नहीं हो
पाई। और कृष्ण
तो हंसती हुई
मनुष्यता को
ही स्वीकार हो
सकते हैं।
इसलिए कृष्ण
का बहुत
भविष्य है।
फ्रायड-पूर्व
धर्म की जो
दुनिया थी, वह
फ्रायड-पश्चात
नहीं हो सकती
है। एक बड़ी
क्रांति घटित
हो गई है, और
एक बड़ी दरार
पड़ गई है
मनुष्य की
चेतना में। हम
जहां थे
फ्रायड के
पहले, अब हम
वहीं कभी भी
नहीं हो
सकेंगे। एक
नया शिखर छू लिया
गया है और एक
नई समझ पैदा
हो गई है। वह
समझ समझ लेनी
चाहिए।
पुराना
धर्म सिखाता
था आदमी को
दमन और "सप्रेशन'।
काम है, क्रोध
है, लोभ है,
मोह है, सभी
को दबाना है
और नष्ट कर
देना है। और
तभी आत्मा
उपलब्ध होगी
और तभी
परमात्मा
उपलब्ध होगा।
यह लड़ाई बहुत
लंबी चली। इस
लड़ाई के
हजारों साल के
इतिहास में भी
मुश्किल से
दस-पांच लोग
हैं जिनको हम
कह पाए कि उन्होंने
परमात्मा को
पा लिया। एक
अर्थ में यह
लड़ाई सफल नहीं
हुई। क्योंकि
अरबों-खरबों
लोग बिना
परमात्मा को
पाए मरे हैं।
जरूर कहीं कोई
बुनियादी भूल
थी। यह ऐसा ही
है जैसे कि
कोई माली करोड़
हजार पौधे
लगाए और एक
पौधे में फूल
आ जाएं, और
फिर भी हम उस
माली के
शास्त्र को
मानते चले जाएं,
और हम कहें
कि देखो एक
पौधे में फूल
आए! और हम इस बात
का खयाल ही
भूल जाएं कि
पचास करोड़
पौधे में अगर
एक पौधे में
फूल आते हैं, तो यह माली
की वजह से न आए
होंगे, यह
माली से किसी
तरह बच गया
होगा पौधा, इसलिए आ गए
हैं। क्योंकि
माली का
प्रमाण तो बाकी
पचास करोड़
पौधे हैं
जिनमें फूल
नहीं आते, पत्ते
नहीं लगते, सूखे ठूंठ
रह जाते हैं।
एक
बुद्ध, एक
महावीर, एक
क्राइस्ट अगर
परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाते हैं, द्वंद्वग्रस्त धर्मों के
बावजूद भी, तो यह कोई
धर्मों की
सफलता का
प्रमाण नहीं
हैं। धर्मों
की सफलता का
प्रमाण तो तब
होगा, माली
तो तब सफल
समझा जाएगा, जब पचास करोड़
पौधों में फूल
लगें और एक
में न लग पाएं,
तो क्षमा
योग्य है। कहा
जा सकेगा कि
यह पौधे की
गलती हो गई।
इसमें माली की
गलती नहीं हो
सकती। पौधा बच
गया होगा माली
से, इसलिए
सूख गया है, इसलिए फूल
नहीं आते हैं।
फ्रायड
के साथ ही एक
नई चेतना का
जन्म हुआ और वह
यह कि दमन गलत
है। और दमन
मनुष्य को
आत्महिंसा
में डाल देता
है। आदमी अपने
से ही लड़ने
लगे तो सिर्फ
नष्ट हो सकता
है। अगर मैं अपने
बाएं और दाएं
हाथ को लड़ाऊं
तो न तो बायां
जीतेगा, न
दायां जीतेगा,
लेकिन मैं
हार जाऊंगा।
दोनों हाथ
लड़ेंगे और मैं
नष्ट हो जाऊंगा।
तो दमन ने
मनुष्य को
आत्मघाती बना
दिया, उसने
अपनी ही हत्या
अपने हाथों कर
ली।
कृष्ण, फ्रायड
के बाद जो
चेतना का जन्म
हुआ है, जो
समझ आई है, उस
समझ के लिए
कृष्ण ही
अकेले हैं जो
सार्थक मालूम
पड़ सकते हैं।
क्योंकि
पुराने
मनुष्यजाति
के इतिहास में
कृष्ण अकेले
हैं जो दमनवादी
नहीं हैं। वे
जीवन के सब
रंगों को
स्वीकार कर लिए
हैं। वे प्रेम
से भागते
नहीं। वे
पुरुष होकर
स्त्री से
पलायन नहीं
करते। वे
परमात्मा को
अनुभव करते
हुए युद्ध से
विमुख नहीं
होते। वे
करुणा और
प्रेम से भरे
होते हुए भी
युद्ध में
लड़ने की
सामर्थ्य
रखते हैं।
अहिंसक-चित्त
है उनका, फिर
भी हिंसा के
ठेठ दावानल
में उतर जाते
हैं। अमृत की स्वीकृति
है उन्हें, लेकिन जहर
से कोई भय भी
नहीं है। और
सच तो यह है, जिसे भी
अमृत का पता
चल गया है उसे
जहर का भय मिट
जाना चाहिए।
क्योंकि ऐसा
अमृत ही क्या
जो जहर से फिर
डरता चला जाए।
और जिसे
अहिंसा का सूत्र
मिल गया, उसे
हिंसा का भय
मिट जाना
चाहिए। ऐसी
अहिंसा ही
क्या जो अभी
हिंसा से भी
भयभीत और
घबड़ाई हुई है!
और ऐसी आत्मा
भी क्या जो
शरीर से भी
डरती हो और
बचती हो! और
ऐसे परमात्मा
का क्या अर्थ
जो सारे संसार
को अपने
आलिंगन में न
ले सकता हो। तो
कृष्ण
द्वंद्व को
एक-साथ
स्वीकार कर
लेते हैं और
इसलिए
द्वंद्व के
अतीत हो जाते
हैं। "ट्रांसेंडेंस'
जो है, अतीत
जो हो जाना है,
वह द्वंद्व
में पड़कर
कभी संभव नहीं
है; दोनों
को एक साथ
स्वीकार कर
लेने से संभव
है।
तो
भविष्य के लिए
कृष्ण की बड़ी
सार्थकता है।
और भविष्य में
कृष्ण का
मूल्य निरंतर
बढ़ता ही जाने
को है। जब कि
सबके मूल्य
फीके पड़
जाएंगे और
द्वंद्व-भरे
धर्म जब कि
पीछे अंधेरे
में डूब
जाएंगे और
इतिहास की राख
उन्हें दबा
देगी, तब भी
कृष्ण का
अंगार चमकता
हुआ रहेगा। और
भी निखरेगा
क्योंकि पहली
दफे मनुष्य इस
योग्य होगा कि
कृष्ण को समझ
पाए। कृष्ण को
समझना बड़ा
कठिन है। कठिन
है इस बात को
समझना कि एक
आदमी संसार को
छोड़कर चला जाए
और शांत हो
जाए। कठिन है
इस बात को
समझना कि
संसार के संघर्ष
में, बीच
में खड़ा होकर
और शांत हो।
आसान है यह
बात समझनी कि
एक आदमी
विरक्त हो जाए,
आसक्ति से
संबंध तोड़कर
भाग जाए और
उसमें एक
पवित्रता का
जन्म हो। कठिन
है यह बात समझनी
कि जीवन के
सारे उपद्रव
के बीच, जीवन
के सारे
उपद्रव में
अलिप्त, जीवन
के सारे धूल-धवांस के
कोहरे और आंधियों
में खड़ा हुआ
दिया हिलता न
हो, उसकी
लौ कंपती न
हो--कठिन है यह
समझना। इसलिए
कृष्ण को
समझना बहुत
कठिन था।
निकटतम जो
कृष्ण के थे
वे भी नहीं
समझ सकते हैं।
लेकिन पहली
दफा एक महान
प्रयोग हुआ
है। पहली दफा
आदमी ने अपनी
शक्ति का पूरा
परीक्षण कृष्ण
में किया है।
ऐसा परीक्षण
कि संबंधों में
रहते हुए असंग
रहा जा सके, और युद्ध के
क्षण पर भी
करुणा न मिटे।
और हिंसा की
तलवार हाथ में
हो, तो भी
प्रेम का दिया
मन से न बुझे।
इसलिए
कृष्ण को
जिन्होंने
पूजा भी है, जिन्होंने
कृष्ण की
आराधना भी की
है उन्होंने
भी कृष्ण के
टुकड़े-टुकड़े
करके किया है।
सूरदास के
कृष्ण कभी
बच्चे से बड़े
नहीं हो पाते।
बड़े कृष्ण के
साथ खतरा है।
सूरदास
बर्दाश्त न कर
सकेंगे। वह
बाल कृष्ण को
ही...। क्योंकि बाल
कृष्ण अगर
गांव की
स्त्रियों को छेड़ देता
है तो हमें
बहुत कठिनाई
नहीं है।
लेकिन युवा-कृष्ण
जब गांव की
स्त्रियों को छेड़ देगा
तो फिर बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। फिर
हमें समझना
बहुत मुश्किल
हो जाएगा, क्योंकि
हम अपने ही तल
पर तो समझ
सकते हैं। हमारे
अपने तल के
अतिरिक्त
समझने का
हमारे पास कोई
उपाय भी नहीं
है। तो कोई है
जो कृष्ण के
एक रूप को चुन
लेगा, कोई
है जो दूसरे
रूप को चुन
लेगा। गीता को
प्रेम करने
वाले गीता की
चर्चा में न
पड़ेंगे, क्योंकि
कहां राग-रंग
और कहां रास
और कहां युद्ध
का मैदान!
उनके बीच कोई
तालमेल नहीं है।
शायद कृष्ण से
बड़े विरोधों
को एक-साथ पी
लेने वाला कोई
व्यक्तित्व
ही नहीं है।
इसलिए कृष्ण
की एक-एक शकल
लोगों ने पकड़
लिया। है। जो
जिसे
प्रीतिकर लगी
है, उसने
छांट लिया है,
बाकी शकल को
उसने इनकार कर
दिया है।
गांधी
गीता को माता
कहते हज, लेकिन
गीता को
आत्मसात नहीं
कर सके।
क्योंकि
गांधी की
अहिंसा युद्ध की
संभावनाओं को
कहां रखेगी? तो गांधी
उपाय खोजते
हैं; वह
कहते हैं यह
जो युद्ध है, यह सिर्फ
रूपक है, यह
कभी हुआ नहीं।
यह मनुष्य के
भीतर अच्छाई
और बुराई की
लड़ाई है। यह
जो
कुरुक्षेत्र
है, यह कोई
बाहर युद्ध का
मैदान नहीं है,
और ऐसा नहीं
है कि कृष्ण
ने कहीं
अर्जुन को किसी
बाहर के युद्ध
में लड़ाया
हो। यह तो
भीतर के युद्ध
की रूपक-कथा
है। यह एक "पैरेबल'
है, यह
एक कहानी है।
यह एक प्रतीक
है। गांधी को
कठिनाई है।
क्योंकि
गांधी का जैसा
मन है, उसमें
तो अर्जुन ही
ठीक मालूम
पड़ेगा। अर्जुन
के मन में बड़ी
अहिंसा का उदय
हुआ है। वह युद्ध
छोड़कर भाग
जाने को तैयार
है। वह कहता
है, अपनों
को मारने से
फायदा क्या? और वह कहता
है, इतनी
हिंसा करके धन
पाकर भी, यश
पाकर भी, राज्य
पाकर भी मैं
क्या करूंगा? इससे तो
बेहतर है मैं
सब छोड़कर
भिखमंगा हो जाऊं।
इससे तो बेहतर
है कि मैं भाग
जाऊं और सारे दुख
वरण कर लूं, लेकिन हिंसा
में न पडूं।
इससे मेरा मन
बड़ा कांपता
है। इतनी
हिंसा अशुभ
है।
कृष्ण
की बात गांधी
की पकड़ में
कैसे आ सकती
है?
क्योंकि
कृष्ण समझाते
हैं कि तू लड़।
और लड़ने के
लिए जो-जो
तर्क देते हैं,
वह ऐसा
अनूठा है कि
इसके पहले कभी
भी नहीं दिया
गया था। उसको
परम अहिंसक ही
दे सकता है, उस तर्क को।
कृष्ण
का तर्क यह है
कि जब तक तू
ऐसा मानता है
कि कोई मर
सकता है, तब तक
तू आत्मवादी
नहीं है। तब
तक तुझे पता
नहीं है कि जो
भीतर है, न
वह कभी मरा है,
न कभी मर
सकता है। अगर
तू सोचता है
कि मैं मार सकूंगा,
तो तू बड़ी
भ्रांति में
है, बड़े
अज्ञान में
है। क्योंकि
मारने की
धारणा ही
भौतिकवादी की
धारणा है। जो
जानता है, उसके
लिए कोई मरता
नहीं है। तो
अभिनय
है--कृष्ण
उससे कह रहे
हैं--मरना और मारना
लीला है, एक
नाटक है।
इस
संदर्भ में यह
समझ लेना उचित
होगा कि राम के
जीवन को हम
चरित्र कहते
हैं। राम बड़े
गंभीर हैं।
उनका जीवन
लीला नहीं है, चरित्र
ही है। लेकिन
कृष्ण गंभीर
नहीं हैं। कृष्ण
का चरित्र
नहीं है वह, कृष्ण की
लीला है। राम मर्यादाओं
में बंधे हुए
व्यक्ति हैं,
मर्यादाओं के बाहर वे
एक कदम न बढ़ेंगे।
मर्यादा पर वे
सब कुर्बान
कर देंगे।
कृष्ण के जीवन
में मर्यादा
जैसी कोई चीज
ही नहीं है।
अमर्याद।
पूर्ण
स्वतंत्र। जिसकी
कोई सीमा नहीं,
जो कहीं भी
जा सकता है।
ऐसी कोई जगह
नहीं आती जहां
वह रुके, ऐसी
कोई जगह नहीं
आती जहां
भयभीत हो और
कदम को ठहराए।
यह अमर्यादा
भी कृष्ण के
आत्म-अनुभव का
अंतिम फल है।
तो हिंसा भी
बेमानी हो गफ
है वहां, क्योंकि
हिंसा हो नहीं
सकती। और जहां
हिंसा ही
बेमानी हो गई
हो वहां
अहिंसा भी
बेमानी हो जाती
है। क्योंकि
जब तक हिंसा
सार्थक है और
हिंसा हो सकती
है, तभी तक
अहिंसा भी
सार्थक है।
असल में हिंसक
अपने को मानना
भौतिकवाद है,
अहिंसक
अपने को मानना
भी उसी
भौतिकवाद का
दूसरा छोर है।
एक मानता है
मैं मार
डालूंगा, एक
मानता है मैं मारूंगा
नहीं, मैं
मारने को राजी
नहीं हूं।
लेकिन दोनों
मानते हैं कि
मारा जा सकता
है।
ऐसा
अध्यात्म
युद्ध को भी
खेल मान लेता
है। और जो
जीवन की सारी
दिशाओं
को--राग की, प्रेम
की, भोग की,
काम की, योग
की, ध्यान
की, समस्त
दिशाओं को एक
साथ स्वीकार
कर लेता है, उस समग्रता
के दर्शन को
समझने की
संभावना रोज बढ़ती
जा रही है, क्योंकि
अब हमें कुछ
बातें पता चली
हैं, जो
हमें कभी पता
नहीं थीं।
लेकिन कृष्ण
को निश्चित ही
पता रही हैं।
जैसे
हमें आज जाकर
पता चला है कि
शरीर और आत्मा
जैसी दो चीजें
नहीं हैं।
आत्मा का जो
छोर दिखाई
पड़ता है, वह
शरीर है; और
शरीर का जो
छोर दिखाई
पड़ता है, वह
आत्मा है।
परमात्मा और
संसार जैसी दो
चीजें नहीं
हैं।
परमात्मा और प्रकृति
जैसा द्वंद्व
नहीं है कहीं।
परमात्मा का
जो हिस्सा
दृश्य हो गया
है, वह
प्रकृति है।
और जो अब भी
अदृश्य है, वह परमात्मा
है। कहीं भी
ऐसी कोई जगह
नहीं है जहां
प्रकृति खत्म
होती है और
परमात्मा
शुरू होता है।
बस प्रकृति ही
लीन
होते-होते-होते-होते
परमात्मा बन
जाती है।
परमात्मा ही
प्रगट
होते-होते
प्रकृति बन
जाता है।
अद्वैत का यही
अर्थ है। और
इस अद्वैत की
अगर हमें
धारणा स्पष्ट
हो जाए, इसकी
प्रतीति हो
जाए, तो
कृष्ण को समझा
जा सकता है।
साथ ही
भविष्य में और
क्यों कृष्ण
की सार्थकता
बढ़ने को हैं
और कृष्ण
क्यों मनुष्य के
और निकट आ
जाएंगे? अब
दमन संभव नहीं
हो सकेगा। बड़े
लंबे संघर्ष और
बड़े लंबे
ज्ञान की खोज
के बाद ज्ञात
हो सका है कि
जिन शक्तियों
से हम लड़ते
हैं वे
शक्तियां
हमारी ही हैं,
हम ही हैं।
इसलिए उनसे
लड़ने से बड़ा
कोई पागलपन
नहीं हो सकता।
और यह भी
ज्ञाता हुआ है
कि जिससे हम
लड़ते हैं, हम
सदा के लिए
उसी से घिरे
रह जाते हैं।
और यह भी
ज्ञात हुआ है
कि जिससे हम
लड़ते हैं उसे
हम कभी
रूपांतरित
नहीं कर पाते।
उसका "ट्रांसफार्मेशन'
नहीं होता।
अगर
कोई व्यक्ति
यौन से लड़ेगा
तो उसके जीवन
में
ब्रह्मचर्य
घटित हो सकता
है तो एक ही
उपाय है कि वह
अपनी काम की
ऊर्जा को कैसे
रूपांतरित करे।
काम की ऊर्जा
से मैत्री
साधनी है।
क्योंकि हम
सिर्फ उसी को
बदल सकते हैं
जिससे हमारी
मैत्री है।
जिसके हम
शत्रु हो गए, उसको
बदलने का सवाल
नहीं। जिसके
हम शत्रु हो गए
उसको समझने का
भी उपाय नहीं
है। समझ भी हम
उसे ही सकते
हैं जिससे
हमारी मैत्री
है।
तो जो
हमें
निकृष्टतम
दिखाई पड़ रहा
है वह भी श्रेष्ठतम
का ही छोर है।
पर्वत का जो
बहुत ऊपर का
शिखर है, वह, और पर्वत के
पास की जो
बहुत गहरी खाई
है, ये दो
घटनाएं नहीं
हैं। ये एक ही
घटना के दो
हिस्से हैं।
यह जो खाई बनी
है, यह
पर्वत के ऊपर
उठने से बनी
है। यह जो
पर्वत ऊपर उठ
सका है, यह
खाई के बनने
से ऊपर उठ सका
है। ये दो
चीजें नहीं
हैं। ये पर्वत
और खाई हमारी
भाषा में दो हैं,
अस्तित्व
में एक ही चीज
के दो छोर
हैं।
नीत्शे
का एक बहुत
कीमती वचन है।
नीत्शे ने कहा
है कि जिस
वृक्ष को आकाश
की ऊंचाई छूनी
हो,
उसे अपनी
जड़ें पाताल की
गहराई तक पहुंचानी
पड़ती हैं। और
अगर कोई वृक्ष
अपनी जड़ों को
पाताल तक
पहुंचाने से
डरता है, तो
उसे आकाश तक
पहुंचने की
आकांक्षा भी
छोड़ देनी पड़ती
है। असल में
जितनी ऊंचाई,
उतने ही
गहरे भी जाना
पड़ता है।
जितना ऊंचा
जाना हो उतना
ही नीचे भी
जाना पड़ता है।
नीचाई और
ऊंचाई दो
चीजें नहीं
हैं, एक ही
चीज के दो
आयाम हैं और
वे सदा
समानुपाती हैं,
एक ही
अनुपात में
बढ़ते हैं।
मनुष्य
के मन ने सदा
चाहा कि वह
चुनाव कर ले।
उसने चाहा कि
स्वर्ग को बचा
ले और नर्क को
छोड़ दे। उसे
चाहा कि शांति
को बचा ले, तनाव
को छोड़ दे।
उसने चाहा शुभ
को बचा ले, अशुभ
को छोड़ दे।
उसने चाहा
प्रकाश ही
प्रकाश रहे, अंधकार न रह
जाए। मनुष्य
के मन ने
अस्तित्व को
दो हिस्सों
में तोड़कर
एक हिस्से का
चुनाव किया और
दूसरे का
इनकार किया।
इससे द्वंद्व
पैदा हुआ, इससे
द्वैत हुआ।
कृष्ण दोनों
को एक-साथ
स्वीकार करने
के प्रतीक
हैं। और जो
दोनों को
एक-साथ स्वीकार
करता है, वही
पूर्ण हो सकता
है। नहीं तो
अपूर्ण ही रह
जाएगा। जितने
को चुनेगा,
उतना
हिस्सा रह
जाएगा; और
जिसको इनकार
करेगा, सदा
उससे बंधा
रहेगा। उससे
बाहर नहीं जा
सकता है। जो
व्यक्ति काम
का दमन करेगा,
उसका चित्त
कामुक-से-कामुक
होता चला
जाएगा। इसलिए
जो संस्कृति,
जो धर्म काम
का दमन सिखाता
है, वह
संस्कृति कामुमता
पैदा करवाती
है।
काश
कृष्ण को माना
जा सका होता, तो
शायद दुनिया
से कामुकता
विदा हो गई
होती। लेकिन
कृष्ण को नहीं
माना जा सका।
बल्कि हमने न
मालूम
कितने-कितने
रूपों में
कृष्ण के उन हिस्सों
का इनकार किया
जो काम की
स्वीकृति हैं।
लेकिन अब यह
संभव हो जाएगा,
क्योंकि अब
हमें दिखाई पड़ना शुरू
हुआ है कि काम
की ऊर्जा, वह
जो "सेक्स
एनर्जी है, वही
ऊर्ध्वगमन करके
ब्रह्मचर्य
के उच्चतम
शिखरों को छू
पाती है। जीवन
में किसी से
भागना नहीं है
और जीवन में
किसी को छोड़ना
नहीं है, जीवन
को पूरा ही
स्वीकार करके
जीना है। उसको
जो समग्रता से
जीता है वह
जीवन की
पूर्णता को उपलब्ध
होता है।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
भविष्य के
संदर्भ में
कृष्ण का बहुत
मूल्य है और
हमारा
वर्तमान रोज
उस भविष्य के
करीब पहुंचता
है जहां कृष्ण
की प्रतिमा
निखरती जाएगी
और एक हंसता
हुआ धर्म, एक
नाचता हुआ
धर्म जल्दी
निर्मित
होगा। तो उस धर्म
की बुनियादों
में कृष्ण का
पत्थर जरूर रहने
को है।
"महाभारत
युद्ध में
कृष्ण एक
प्रमुख
भूमिका में
थे। वे चाहते
तो युद्ध रोक
सकते थे।
लेकिन वैसा
नहीं हुआ। और
परिणाम--एक
भारी विध्वंस!
स्वभावतः
विध्वंस की
भारी
जिम्मेदारी
कृष्ण पर जाती
है। क्या
कृष्ण के लिए
यह उचित था--या उन
पर लांछन लग
सकता है?'
युद्ध
और शांति के
संबंध में भी
बात वही है।
फिर हम चाहते
हैं कि शांति
ही बचे, संघर्ष
न बचे। फिर हम
चुनाव शुरू
करते हैं। और
जगत जो है, वह
द्वंद्वों का
सम्मिलन है।
और जगत जो है, वह विरोधी
स्वरों का
समवेत संगीत
है। जगत इकसुरा
नहीं हो सकता।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी कोई
वाद्ययंत्र
बजाता था। और
वह तार पर एक
ही जगह उंगली
रखकर घंटों
उसी को रगड़ता
रहता। उसके घर
के लोग तो
परेशान हो ही
गए थे, उसके
पास-पड़ोस के
लोग भी परेशान
हो गए थे। और अनेक
लोगों ने उससे
प्रार्थना की
कि हमने बहुत वाद्य
बजाने वाले
देखे, लेकिन
सभी का हाथ
सरकता है, सभी
के भिन्न स्वर
निकलते हैं, तुमने यह
क्या राग ले
रखा है? तो
उस आदमी ने
कहा, वह
अभी ठीक स्थान
खोज रहे हैं, मैंने ठीक
स्थान पा लिया
है। तो मैं अब
एक ठीक स्थान
पर रुका हुआ
हूं। मुझे अब
कोई खोज की जरूरत
नहीं है।
हमारा
मन कर सकता है
कि हम एक ही
स्वर चुन लें
जीवन का।
लेकिन एक ही
स्वर सिर्फ
मृत्यु में हो
सकता है। जीवन
विरोधी स्वरों
पर ही खड़ा
होगा। तुमने
अगर कभी किसी
मकान के दरवाजे
पर "आर्च' बना
देखा हो, तो
उसमें विरोधी ईंटें
दोनों तरफ से
लाकर हम मकान
के द्वार पर
अड़ा देते हैं।
विरोधी ईंटें
एक-दूसरे के
विरोध में खड़े
होने की वजह
से भवन को उठा
लेती हैं। कोई
सोच सकता है
कि ईंटें
एक ही दिशा
में लगा दी
जाएं। फिर भवन
गिरेगा, फिर
भवन बनेगा
नहीं।
जीवन
की सारी
व्यवस्था
विरोधी
स्वरों के तनाव
पर है। युद्ध
भी उस तनाव का
हिस्सा है। और
युद्ध ने
नुकसान ही
पहुंचाए, ऐसा
जो सोचते हैं,
वह गलत
सोचते हैं, वह अधूरा
देखते हैं।
अगर हम
मनुष्यता के
विकास को समझने
चलें तो हमें
पता चलेगा।
मनुष्यता के
विकास का
अधिकतम
हिस्सा
युद्धों के
माध्यम से हुआ
है। आज मनुष्य
के पास जो कुछ
है वह सब उसने
प्राथमिक रूप
से युद्धों
में खोजा है।
अगर आज हमें
दिखाई पड़ते
हैं कि सारी
पृथ्वी पर रास्ते
फैल गए हैं, तो पहली दफे
रास्ते
युद्धों के
लिए बने थे, फौजों को भेजने के
लिए बने थे।
वह दो आदमियों
को मिलाने के
लिए नहीं बने
थे, बारात
ले जाने के
लिए नहीं बने
थे, वह
युद्ध के लिए
बने थे पहली
बार। जितने भी
साधन हैं--अगर
आज हम बड़े
मकान देख रहे
हैं, तो पहले
बड़ा मकान नहीं
बना था, बड़ा
किला बना था
और वह युद्ध
की जरूरत थी।
पहली दीवाल
दुश्मन के
खिलाफ लड़ने के
लिए बनाई गई।
फिर दीवालें
बनीं, फिर
अब आकाश को
छूते हुए मकान
हैं। आज हम
सोच भी नहीं
सकते कि आकाश
को छूता हुआ
मकान युद्ध की
जरूरत है।
मनुष्य के पास
जितनी भी
संपन्नता है
और जितने भी
साधन हैं और
जितना भी
वैज्ञानिक
आविष्कार है,
वह सब युद्ध
के माध्यम से
हुआ।
असल
में युद्ध ऐसे
तनाव की
स्थिति पैदा
कर देता है, ऐसी
चुनौती कि
हमारे भीतर जो
सोयी
शक्तियां हैं,
उन सबको जागकर
सक्रिय होना
पड़ता है।
शांति के क्षण
में हम आलस्य
में हो सकते
हैं, तमस
में हो सकते
हैं, युद्ध
हमारे राजस को
उभारता है।
हमारे भीतर सोयी
हुई शक्तियों
को चुनौती के
मौके पर उठना
ही पड़ता है।
इसलिए युद्ध
के क्षण में
हम साधारण
नहीं रह जाते,
हम असाधारण
हो जाते हैं।
और मनुष्य का
मस्तिष्क
अपनी पूरी
शक्ति से काम
करने लगता है।
और युद्ध में
एक छलांग लग
जाती है
मनुष्य की
प्रतिभा की, जो कि शांति
के कालों में,
वर्षों में,
सैकड़ों वर्षों में
नहीं लग पाती।
अनेक
लोगों का ऐसा
खयाल है कि
अगर कृष्ण ने
महाभारत का
युद्ध रोका
होता तो भारत
बहुत संपन्न
होता। और भारत
ने बड़े विकास
के शिखर छू
लिए होते। बात
इससे बिलकुल
उलटी है। अगर
कृष्ण जैसे
दस-पांच लोग
भारत के
इतिहास में
हमें मिले
होते और हमने
एक महाभारत
नहीं, दस-पांच
महाभारत लड़े
होते तो हम
विकास के शिखरों
पर होते।
महाभारत
को हुए अंदाजन
पांच हजार से
ज्यादा वर्ष
हुए होंगे।
पांच हजार
वर्षों में
फिर हमने कोई
बड़ा युद्ध
नहीं किया।
बाकी हमारी
लड़ाइयां बहुत
दिवालिया, "बैंकरप्ट'
हैं। बाकी
हमारी लड़ाइयों
की बड़ी कोई
कीमत नहीं है।
वे छोटे-मोटे
झगड़े हैं।
उनको युद्ध
कहना भी ठीक
नहीं है। पांच
हजार वर्षों से
हमने कोई बड़ा
युद्ध नहीं लड़ा। अगर
युद्ध की वजह
से हानि होती
है और विध्वंस
होता है, तो
हमें पृथ्वी
पर सबसे
ज्यादा
संपन्न और विकासमान
होना चाहिए
था। लेकिन
हालतें उलटी
हैं। जिन
मुल्कों ने
युद्ध लड़े हैं,
वे बहुत
विकासमान हैं
और बहुत
संपन्न हैं।
पहले
महायुद्ध के
बाद लोग सोच
सकते थे कि
जर्मनी अब सदा
के लिए टूट
जाएगा, लेकिन
दूसरे
महायुद्ध में
जर्मनी पहले
महायुद्ध के
जर्मनी से अनंतगुना
शक्तिशाली
होकर प्रगट
हुआ--सिर्फ
बीस साल के फासले
पर। कोई सोच
भी नहीं सकता
था कि पहले महायुद्ध
के बाद दूसरा
महायुद्ध
जर्मनी कर सकेगा।
दो-चार सौ साल
तक भी कर
सकेगा, इसकी
भी संभावना
नहीं थी।
लेकिन बीस साल
में जर्मनी अनंतगुना
शक्तिशाली
होकर बाहर आ
गया। पहले
महायुद्ध ने
उसकी
शक्तियों को
जिस तीव्रता
पर पहुंचा दिया,
उस तीव्रता
का उसने उपयोग
कर लिया।
अभी
पिछले दूसरे
महायुद्ध में
लगता था कि अब
शायद युद्ध
कभी होना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा, और जो
देश सबसे
ज्यादा मिटे
थे--जर्मनी और
जापान--वह
दोनों के
दोनों फिर
संपन्न होकर
खड़े हो गए। आज
जापान को
देखकर कोई कह
सकता है कि
बीस साल पहले
एटम बम इसी
मुल्क पर गिरा
था? आज
जापान को
देखकर कोई
नहीं कह सकता।
हिंदुस्तान
को देखकर जरूर
हम कह सकते
हैं कि यहां
एटम बम गिरते
ही रहे होंगे।
हमारी
दुर्दशा देखकर
लगता है कि
यहां जैसे
युद्ध होता ही
रहा होगा।
महाभारत
के कारण
हिंदुस्तान
का अहित नहीं
हुआ। महाभारत
की छाया में
हिंदुस्तान
में जो शिक्षक
पैदा हुए, वे
सब
युद्ध-विरोधी थे।
और उन्होंने
महाभारत का
शोषण किया। और
कहा कि ऐसा
युद्ध और ऐसी
हिंसा। नहीं,
अब न युद्ध
करना है, न
ही अब हिंसा
करनी है। अब
लड़ना नहीं है।
महाभारत के
पीछे कृष्ण की
क्षमता के
व्यक्तियों की
शृंखला नहीं
हम पैदा कर
पाए। अन्यथा
महाभारत में
जिस ऊंचाई को
हमारे देश की
चेतना की लहर
ने छुआ था, हम
हर बार उससे
ज्यादा ऊंचाई
की लहर को छू
सकते थे। और
शायद आज हम
पृथ्वी पर
सबसे ज्यादा
संपन्न और
सबसे ज्यादा
विकसित समाज
होते।
यह भी
सोचने जैसा है
कि महाभारत
जैसा युद्ध विपन्न
समाजों में
घटित नहीं
होता। युद्ध
के लिए भी
संपन्न होना
जरूरी है। और
संपन्नता के
लिए भी युद्ध
का घटना जरूरी
है। असल में
वह चुनौती के
क्षण हैं।
कृष्ण ने जिस
युद्ध में
हमें उतारा था, वह
युद्ध में अगर
हम सतत उतरे
होते...क्योंकि
इसे हम सोचें,
आज
करीब-करीब
पश्चिम उस जगह
है जहां
महाभारत के
दिनों में हम
पहुंच गए थे।
आज जितने
अस्त्रों-शस्त्रों
की बात है, करीब-करीब
वे सभी
अस्त्र-शस्त्र
किसी-न-किसी रूप
में महाभारत
में प्रयोग
किए गए। बड़ा
संपन्न, बड़ा
प्रतिभाशाली
और बहुत
वैज्ञानिक
उन्नत शिखर
था। उस युद्ध
से कुछ हानि
नहीं हो गई।
उस युद्ध के
बाद यह निराशा
का क्षण हमें
पकड़ा। उस
निराशा के
क्षण का
दुरुपयोग
हुआ। उस निराशा
के क्षण ने
पश्चिम में भी
पकड़ा है कुछ
को। पश्चिम भी
भयभीत हो गया
है। और पश्चिम
का अगर पतन
होगा, तो
वह पश्चिम में
जो शांतिवादी
है उसकी वजह
से होगा। अगर
पश्चिम ने
शांतिवादी की
बात मान ली, तो पश्चिम
पतित हो
जाएगा। वह
वहीं पहुंच
जाएगा, जहां
महाभारत के
बाद हम
पहुंचे।
हिंदुस्तान
ने शांतिवादी
की बात मान
ली। इसलिए
पांच हजार
वर्ष का लंबा
चक्कर चला।
इसे थोड़ा
सोचना जरूरी
है। कृष्ण युद्धवादी
नहीं हैं, लेकिन
युद्ध को भी
जीवन के खेल
का हिस्सा
मानते हैं। युद्धखोर
नहीं हैं, किसी
को मिटाने की
कोई आकांक्षा
नहीं है, किसी
को दुख देने
का कोई खयाल
नहीं है, युद्ध
न हो उसके
सारे उपाय
उन्होंने कर
लिए थे, लेकिन,
जीवन की और
सत्य की और
धर्म की कीमत
पर युद्ध को
बचाने के लिए
राजी न थे।
आखिर किसी भी
चीज के बचाने
की एक सीमा
है। आखिर
युद्ध को भी तो
हम इसीलिए
नहीं करना
चाहते कि जीवन
को कोई नुकसान
न पहुंचे।
लेकिन अगर
युद्ध के न
होने से ही
जीवन को
नुकसान
पहुंचा जा रहा
हो, तो फिर
क्या अर्थ रह
जाएगा? आखिर
शांतिवादी
यही तो कहता
है कि युद्ध न
हो, कि
कहीं शांति
खंडित न हो
जाए। लेकिन
अगर युद्ध के
न होने से ही
शांति खंडित
हो रही हो, तो
फिर एक
निर्णायक
युद्ध की
सामर्थ्य
चाहिए।
तो
कृष्ण असल में
युद्धखोर
या युद्धवादी
नहीं हैं, लेकिन,
युद्ध से
भयभीत और
युद्ध से भागे
हुए पलायनवादी
भी नहीं हैं।
कृष्ण कहते
हैं, युद्ध
न हो तो ठीक।
लेकिन युद्ध
होना ही हो, तो भागना
ठीक नहीं हैं।
और अगर युद्ध
होना ही हो, और ऐसा क्षण
आ जाए कि
मनुष्य के
मंगल के लिए
और मनुष्य के
हित के लिए
युद्ध
अनिवार्य हो
जाए तो इस
अनिवार्य
युद्ध को फिर
आनंद से
स्वीकार करना।
फिर उसे बोझ
की तरह ढोना
भी ठीक नहीं
है। क्योंकि
जो बोझ की तरह
युद्ध में
जाएगा फिर
उसकी हार
सुनिश्चित
है। जो सिर्फ
रक्षा के लिए
युद्ध में
जाएगा, उसकी
हार भी
सुनिश्चित
है। क्योंकि
रक्षा के भाव
से भरा हुआ "डिफेंसिव'
जो चित्त है,
वह लड़ने में
सामर्थ्य और
शौर्य नहीं
दिखा पाता। वह
सिर्फ बचाव के
उपाय करता
रहता है और सिकुड़ता
जाता है। तो
कृष्ण लड़ने को
भी आनंद बनाने
को कहते हैं।
दूसरे को दुख
पहुंचाने का
सवाल नहीं है।
लेकिन जिंदगी
में चुनाव सदा
अनुपात के
हैं--शुभ फलित
होगा या अशुभ?
जरूरी नहीं
है कि युद्ध
से अशुभ ही
फलित हो। कभी
न युद्ध करने
से अशुभ फलित
हो सकता है।
अब यह देश
हमारा एक हजार
साल तक गुलाम
रहा। यह हमारे
युद्ध करने की
क्षमता की क्षीणता
का परिणाम था।
पांच हजार
वर्ष से गरीब
और दीन-हीन, यह हमारे
शौर्य और
हमारे
व्यक्तित्व
में जो अभय
चाहिए उसकी
कमी का परिणाम
है। जो फैलाव
चाहिए, विस्तार
का जो भाव
चाहिए, उसकी
कमी का परिणाम
है।
तो
कृष्ण के कारण
नुकसान नहीं
हुआ,
कृष्ण की
शृंखला नहीं
पैदा हो सकती,
हम और कृष्ण
पैदा नहीं कर
सके, इसलिए
नुकसान हुआ।
और कृष्ण के
युद्ध के बाद
स्वाभाविक था
कि
निराशावादी
स्वर प्रमुख
हो। सदा होता
है। और
निराशावादी
शिक्षक लोगों
को समझाएं कि
व्यर्थ है यह
सब। और देखो
कितनी हानि हो
गई। और वह
स्वर हमारे मन
में बैठ गया, और पांच
हजार साल से
हम डरी हुई
कौम हैं। और
जो कौम मरने
से डर जाए, युद्ध
से डर जाए, वह
कौम बहुत गहरे
में जीने से
भी डर जाती
है। तो हम
जीने से भी डर
गए हैं। हम
कंप रहे हैं--न
हम जी रहे हैं,
न हम मर रहे
हैं। हम दोनों
के बीच में एक
त्रिशंकु की
भांति हैं।
अब
मेरी समझ यह
है कि
बर्ट्रेंड
रसल,
या गांधी, या विनोबा, इनकी बात
अगर दुनिया
मान लेगी तो
नुकसान होगा।
युद्ध से भय
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन अब पृथ्वी
युद्ध के लिए
बहुत छोटी पड़
गई है, यह
बात जरूर सच
है। असल में
युद्ध के लिए
भी जगह चाहिए।
हमारे पास
साधन इतने बड़े
हो गए हैं कि
अब पृथ्वी पर
युद्ध नहीं हो
सकता, यह
बात जरूर सच
है। लेकिन यह
इसलिए सच नहीं
है कि
शांतिवादी की
बात भय के
कारण मानने
योग्य है, यह
इसलिए सत्य है
कि अब हमारे
पास साधन बड़े
हैं, पृथ्वी
छोटी है। अब
पृथ्वी पर युद्ध
बिलकुल
बेमानी है। अब
युद्ध की शकल
बदलेगी, अब
युद्ध का
विस्तार और
बढ़ेगा। चांदत्तारों
पर, मंगल
पर, ग्रहों-उपग्रहों
पर कहीं युद्ध
शुरू होंगे। वैज्ञानिकों
का अंदाज है
कि अंदाजन
पचास करोड़
ग्रह होने
चाहिए सारे
जगत में, जिन
पर जीवन होगा।
कम-से-कम। तो
आज जो भयभीत
हो गया है कि
हाइड्रोजन बम
मत बनाओ और एटम
बम मत बनाओ, अगर इसकी, भयभीत आदमी
की बात को मान
लिया गया, तो
इस जगत के
विस्तार पर जो
अभियान हो
सकता है, जो
यात्रा हो
सकती है, वह
नहीं हो
सकेगी। और
पृथ्वी जरूर
उस जगह पहुंच
गई है जहां
युद्ध बेमानी
है। लेकिन यह
इसलिए नहीं
हुआ है...यह भी
समझने जैसी
बात है।
युद्ध
आज अर्थहीन हो
गया है, इसलिए
नहीं कि
शांतिवादी की
बात समझ में आ
गई, युद्ध
इसलिए
अर्थहीन हो
गया है कि
युद्ध के विज्ञान
का पूरा विकास
हो गया है, "टोटल वार' का विकास हो
गया है। युद्ध
इतना समग्र हो
गया है अब कि पृथ्वी
पर लाना
बिलकुल
बेमानी है, क्योंकि
युद्ध का तभी
तक कोई अर्थ
है जब कोई जीतता
हो और कोई
हारता हो। अब
जो युद्ध है
उसमें कोई
जीतेगा नहीं,
कोई हारेगा
नहीं। उसमें
दोनों एक-साथ
मर जाएंगे। अब
युद्ध का
पृथ्वी पर कोई
मतलब नहीं है।
और मैं मानता
हूं कि इसी
वजह से पृथ्वी
अब एक हो
जाएगी, अब
एक "ग्लोबल
विलेज' से
ज्यादा उसकी
हालत नहीं है।
एक छोटा-सा
गांव जमीन हो
गई है। शायद
गांव से भी
छोटी। दो गांव
के बीच यात्रा
में जितना समय
लगता था, अब
पूरी पृथ्वी
का चक्कर
लगाने में
उतना समय नहीं
लगता है। तो
पृथ्वी इतनी
छोटी हो गई है
कि अब युद्ध
पृथ्वी पर
बेमानी है। और
पृथ्वी पर अगर
युद्ध होता है
तो वह नासमझ
बात होगी। इसका
यह मतलब नहीं
है कि युद्ध न
हो, इसका
यह मतलब भी
नहीं है कि
युद्ध अब नहीं
होंगे, युद्ध
तो होते
रहेंगे।
लेकिन अब नई भूमियों
पर होंगे। नई
यात्राएं
होंगी उनकी, और नए अभियान
होंगे। युद्ध
बंद नहीं हुआ,
इतने
समझाने वालों
के बाद भी। वह
बंद नहीं हो सकता,
वह जीवन का
हिस्सा है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
युद्ध से
क्या-क्या पैदा
हुआ। अगर हम
बहुत गौर से
देखें, तो
हमारे सारे
सहयोग की, कोआपरेशन की सारी
व्यवस्था
युद्ध के लिए
पैदा हुई। "कोआपरेशन
फॉर कांफ्लिकट'। सारा
सहयोग संघर्ष
के लिए है।
अगर जमीन पर युद्ध
न हो तो कोई "कोआपरेशन',
कोई सहयोग
भी नहीं होगा।
तो
कृष्ण को
समझना बहुत
जरूरी है।
कृष्ण शांतिवादी
नहीं हैं, कृष्ण
युद्धवादी
नहीं हैं। असल
में वाद का
मतलब ही होता
है कि दो में
से हम एक को
चुनते हैं।
कृष्ण अ-वादी
हैं। कृष्ण कहते
हैं, शांति
से शुभ फलित
होता हो तो
स्वागत है।
युद्ध से शुभ
फलित होता हो
तो स्वागत है।
मेरा मतलब
समझाने का
है--कृष्ण
कहते हैं
जिससे मंगल-यात्रा
गतिमान होती
हो, जिससे
धर्म विकसित
होता हो, जिससे
जीवन में आनंद
की संभावना
बढ़ती हो, स्वागत
है उसका। ऐसा
स्वागत चाहिए
भी।
हमारा
देश अगर कृष्ण
को समझा होता, तो
हम इस भांति
नपुंसक न हो
गए होते। हमने
बहुत
अच्छी-अच्छी
बातों के पीछे
बहुत-बहुत
न-मालूम कैसी कुरूपताएं
छिपा रखी हैं।
हमारी अहिंसा
की बात के
पीछे हमारी
कायरता छिपकर
बैठ गई है।
हमारे
युद्ध-विरोध
के पीछे हमारे
मरने का डर
छिपकर बैठ गया
है। लेकिन
हमारे युद्ध न
करने से युद्ध
बंद नहीं होता,
हमारे
युद्ध न करने
से कोई और हम
पर युद्ध जारी
रखता है। हम
लड़ने न जाएं
इससे लड़ाई बंद
नहीं होती, सिर्फ हम
गुलाम बनते
हैं। और फिर
भी हम लड़ाइयों
में घसीटे
जाते रहे। यह
बड़े मजे की
बात है। हम
नहीं लड़े, कोई
हम पर हावी हो
गया, हमें
गुलाम बना
लिया और फिर
हम उसकी फौजों
में लड़ते ही
रहे। लड़ाई तो
कुछ बंद नहीं
हुई। कभी हम
मुगल की फौज
में लड़े, कभी
हम तुर्क की
फौज में लड़े, कभी हम हूण
की फौज में
लड़े। हम खुद ही
न लड़े, गुलाम
भी रहे और
अपनी गुलामी
को बचाने के
लिए लड़ते रहे।
फिर हम
अंग्रेज की
फौज में लड़े।
लड़ाई तो बंद
नहीं हुई। हां,
इतना ही हो
गया कि हम
अपनी
स्वतंत्रता
के लिए लड़ते, अपने जीवन
के लिए लड़ते, फिर हम अपनी
परतंत्रता के
लिए लड़े कि
हमारी परतंत्रता
कैसे बनी रहे,
इसके लिए भी
हमारा आदमी
मरता रहा। यह
दुखद फलर
हुआ। यह
महाभारत के
कारण नहीं। यह
फिर से हम महाभारत
की हिम्मत न
जुटा पाए, उसके
कारण।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि कृष्ण को
समझना थोड़ा मुश्किल
तो है। बहुत
आसान है समझ
लेना एक
शांतिवादी की
बात,
क्योंकि वह
एक पहलू चुन
लेता है। बहुत
आसान है युद्धवादी
की बात--एक
हिटलर, एक मुसोलिनी,
एक चंगेज, एक तैमूर,
नेपोलियन, सिकंदर--युद्धखोरी
की बात समझने
में भी बहुत
मुश्किल नहीं
है क्योंकि वह
कहते हैं कि
युद्ध ही जीवन
है। शांतिवादी
हैं--रसल हैं, गांधी
हैं--उनकी बात
भी समझ लेनी
बहुत आसान
हैं। वह कहते
हैं कि नहीं, शांति ही
जीवन है।
कृष्ण की बात
समझनी बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
वह कहते हज कि
जीवन दोनों द्वारों
से गुजरता है।
वह शांति से
भी गुजरता है,
वह युद्ध से
भी गुजरता है।
और अगर
तुम्हें शांति
बनाए रखनी है
तो तुम्हें
युद्ध की
सामर्थ्य रखनी
होगी। और अगर
तुम्हें
युद्ध जारी
रखना है तो
तुम्हें
शांति में
तैयारी भी
करनी होगी। ये
दो पैर हैं
जीवन के।
इनमें से एक
को भी काटा तो
लंगड़े और पंगु
हो जाते हैं।
चंगेज और तैमूर
और मुसोलिनी
भी लंगड़े हैं
और गांधी और
रसल भी लंगड़े
हैं। इनके
एक-एक पैर
हैं। इनसे गति
नहीं हो सकती।
और इसलिए अगर
एक-एक पैर वाले
आदमी रहें, तो फिर "पीरियाडिकल
फैशन' रहता
है। एक पैर मुसोलिनी
का और एक पैर
गांधी का।
दुनिया ऐसी
चलती है। दो
पैर तो चाहिए
ही--एक पैर मुसोलिनी
का चलता है, एक गांधी का
चलता है। एक
फैशन मुसोलिनी
की होती है, फिर एक फैशन
गांधी की होती
है। जब मुसोलिनी
अपना युद्ध कर
लेता है और
हिटलर और स्टेलिन
अपने युद्ध को
गुजार जाते
हैं, तब
रसल और गांधी
और बिनोबा
की बात हमको
एकदम अपील
करने लगती है।
दस-बीस साल
इनकी बात अपील
करती है, तब
तक यह इतना लंगड़ा
पैर ज्यादा
देर नहीं चलता,
दूसरे पैर
की जरूरत पड़
जाती है, फिर
कोई माओ खड़ा
होगा, फिर
कोई खड़ा होगा,
फिर युद्ध
बीच में आ
जाएगा।
कृष्ण
के पास दोनों
पैर हैं।
कृष्ण लंगड़े
आदमी नहीं
हैं। और मैं
मानता हूं कि
दोनों पैर प्रत्येक
के पास होने
चाहिए। जो
आदमी लड़ न सके, उसमें
कुछ कमी होती
है। और जो
आदमी लड़ न सके,
वह आदमी ठीक
अर्थों में
शांत भी नहीं
हो सकता। वह लंगड़ा हो
जाता है। जो
आदमी शांत न
हो सके, वह
विक्षिप्त हो
जाता है। और
जो आदमी शांत
न हो सके वह
लड़ेगा कैसे? लड़ने में एक
निर्णायक बात
तय होनी है कि
सारी दुनिया
को शांतिवादी
बनाना है? एक
तरह का मुर्दापन
छा जाएगा। जो
कि संभव नहीं
है, कोई
मानेगा नहीं।
शांतिवादी
अपना जुलूस
निकालता
रहेगा और
शांति के झंडे
लगाता
रहेगा--कोई
मानने वाला
नहीं है, कोई
जीवन रुकता
नहीं है--युद्धखोर,
अपनी युद्ध
की तैयारी
करता रहेगा।
फैशन बदलते
रहते हैं।
दस-बीस साल
उसका प्रभाव
रहता है, दस-बीस
साल इनका
प्रभाव रहता
है। और ये
दोनों एक-दूसरे
के साझे में
काम चलाते
हैं।
कृष्ण
की बात समग्र
जीवन की है, और
अगर हमारी समझ
में आ जाए तो न
तो शांति को
छोड़ने की
जरूरत है, न
युद्ध को
छोड़ने की
जरूरत है।
युद्ध के तल
रोज बदलते
जाएंगे, निश्चित
ही। क्योंकि कृष्ण
कोई चंगेज
नहीं हैं।
किसी की हत्या
करने के लिए, किसी को दुख
देने के लिए
उनकी कोई
आतुरता नहीं
है। लेकिन
युद्ध के तल
बदलते
जाएंगे।
अब हम
देखें कि
युद्ध कितने
प्रकार से तल
बदलता है।
अगर
आदमी आदमी से
न लड़े, तो सब
आदमी मिलकर
प्रकृति से
लड़ना शुरू कर
देते हैं। अब
यह जरा सोचने
जैसी बात है
कि जिन कौमों
में युद्ध
चलते रहे, उन्हीं
कौमों में
विज्ञान भी
विकसित हुआ, क्योंकि
लड़ने की
क्षमता है
उनमें। वह
आदमी से भी
लड़ते हैं, जब
फिर वक्त
मिलता है तो
प्रकृति से भी
लड़ लेते हैं।
लेकिन हमारी
कौम ने
महाभारत के
बाद प्रकृति
से भी कोई
लड़ाई नहीं
लड़ी। बाढ़ से
भी नहीं लड़े, आंधी से भी
नहीं लड़े, पहाड़
से भी नहीं
लड़े, प्रकृति
के किसी
तत्त्व से
नहीं लड़े, इसलिए
विज्ञान
विकसित नहीं
हो सका।
क्योंकि वह तो
प्रकृति से
लड़ेंगे तो
विकसित होगा।
आदमी लड़ता रहे
तो आज जमीन की
प्रकृति से
लड़ेगा और जमीन
के राज खोल
लेगा, कल
वह चांदत्तारों
की प्रकृति से
लड़ेगा; उसका
अभियान
रुकेगा नहीं।
इसलिए
ध्यान रहे कि
जो समाज युद्ध
में डूबे और उबरे, वे
ही समाज चांद
पर भी अपने
आदमी को उतार
पाए हैं। हम
नहीं उतार पाए,
शांतिवादी
नहीं उतार
पाया। और चांद
आज नहीं कल, युद्ध के अर्थ
में बड़ा कीमती
है। जिसके हाथ
में चांद होगा,
उसके हाथ
में पृथ्वी
होगी।
क्योंकि आने
वाले युद्ध की
मिसाइल्स
जिसके हाथ में
चांद पर लग
जाएंगी, पृथ्वी
उसके हाथ में
होगी। इसलिए
अब झगड़ा
पृथ्वी से हट
गया है। अब यह
तो सब जिसको
कहें कि "फिलस्फाइज्ड़'
हैं--वियतनाम
है, या कम्बोडिया
है, या कुछ
और है; हिंदुस्तान-पाकिस्तान
हैं--यह सब कोई
लड़ाई-झगड़े
नहीं हैं, ये
सिर्फ नासमझों
के चित्त को उलझाए
रखने की
तरकीबें हैं।
कि वह यहां
उलझे रहेंगे।
असली लड़ाई अब
दूसरे तल पर
शुरू हो गई
है। चांद पर
जाने की दौड़
का बहुत गहरा
अर्थ दूसरा ही
है। वह अर्थ
यह है कि
जिसके हाथ में
कल चांद होगा,
उसको
पृथ्वी पर कोई
चुनौती देने
का उपाय नहीं रह
जाएगा। उसके
एटम और उसके
हाइड्रोजन बम
की तोपें चांद
से पृथ्वी की
तरफ लगी
होंगी। एक-एक मुल्क
के ऊपर उड़कर
बम गिराने की
जरूरत न रह
जाएगी, मुल्क
अपने-आप बम की
तोप के सामने
आते रहते हैं
चौबीस घंटे
में। वह घूमती
रहती है
पृथ्वी और
पूरे वक्त
सामने आते
रहते हैं, अपने-आप।
कोई अलग-अलग
किसी मुल्क पर
जाकर एटम को
गिराने की
जरूरत नहीं
है। तो इसलिए
इतनी दौड़ थी, और इतना
खर्च
करके--कोई एक
अरब अस्सी करोड़
डालर खर्च हुआ
एक आदमी को
चांद पर
उतारने में।
यह कोई खेल
नहीं था, इसमें
कुछ कारण है
पीछे। और कौन
पहले उतार देता
है यह जरूरी
था।
यह दौड़
अब वैसी ही है
जैसे एक दिन
दौड़ आज से कोई तीन
सौ साल पहले
यूरोप से
एशिया की तरफ
लग गई थी और
सारे जहाज
एशिया की तरफ
भागे जा रहे
थे--पोर्तगीज
भी,
स्पैनिश भी
और अंग्रेज भी,
और सब, फ्रेंच
भी और जर्मन
भी, सब
भागे जा रहे
थे। तीन सौ
साल पहले जैसे
एशिया की जमीन
पर कब्जा करना
जरूरी हो गया
था विस्तारवादी
के लिए, विकास
के लिए। अब वह
बेमानी हो गया,
अब कोई मतलब
नहीं। एशिया
के लोग समझ
रहे हैं कि
हमारी
स्वतंत्रता
की लड़ाई ने
हमको आजाद
किया है, इसमें
आधी ही सचाई
है। आधी सचाई
तो दूसरी है, और वह यह है
कि अब एशिया
की जमीन पर
कब्जा करने का
कोई मतलब नहीं
रह गया है, अब
वह बात खतम हो
गई है। वह दौर
खतम हो गया
है। अब तो
कहीं लड़ाई और
दूसरी जमीन पर
कब्जा करने की
है। वहां
दृष्टि और जगह
चली गई है, अब
वहां दौड़ है।
कल चांदत्तारों
पर और दूर तक
दौड़ हो जाएगी।
शक्ति का एक
अभियान है
जीवन। उस
अभियान में जो
मुर्दानगी
को पकड़ लेते
हैं, वह
धीरे-धीरे
नष्ट हो जाते
हैं।
हम ऐसी
ही नष्ट हो गई
कौम हैं। और
इसलिए भी कृष्ण
का संदेश बड़ा
अर्थपूर्ण
है--हमारे लिए
ही हीं, मैं
मानता हूं कि
पश्चिम भी उस
जगह खड़ा हो
गया है जहां
उसे निर्णायक
लड़ाई शायद
पृथ्वी पर एक बार
और लड़नी
पड़े। निश्चित
ही पृथ्वी पर
नहीं होगी, अगर पृथ्वी
के
प्रतियोगियों
में भी लड़ाई
होगी तो चांद
या मंगल पर
होगी। पृथ्वी
पर कोई अर्थ
नहीं है लड़ाई
लड़ने का, क्योंकि
दोनों मर
जाएंगे। अगर
उन दोनों को
भी लड़ना है तो
उन दोनों को
भी किसी दूसरे
ग्रह-उपग्रह
पर ही लड़कर
तय करना पड़ेगा
कि कौन जीतता
है।
इस
निर्णायक
लड़ाई में भी
क्या होगा, शायद
हालतें फिर
वैसी ही खड़ी
हो गई हैं
जैसी महाभारत
के समय।
महाभारत के
समय भी दो वर्ग
थे। एक वर्ग
था जो निपट
भौतिकवादी था,
जिसकी पूरी
दृष्टि शरीर
के अतिरिक्त
किसी को स्वीकार
नहीं करती थी।
जिसकी दृष्टि
भोग के अतिरिक्त
किसी तरह के
योग के लिए
कोई क्षमता न रखती
थी। आत्मा का
होना न होने
की बात थी।
जिंदगी थी भोग,
लूट-खसोट।
जिंदगी शरीर
से और शरीर की
इंद्रियों के
बाहर कोई अर्थ
न रखती थी। एक
वर्ग। उसी
वर्ग के खिलाफ
वह संघर्ष हुआ
था। कृष्ण को
उस संघर्ष को
करवाना पड़ा
था। जरूरी हो
गया था कि शुभ
की शक्तियां
कमजोर और
नपुंसक सिद्ध
न हों, वह
अशुभ की
शक्तियों के
सामने खड़ी हो
जाएं।
आज फिर
करीब-करीब
हालत वैसी हो
गई है और हो
जाएगी बीस साल
के भीतर। एक
तरफ भौतिकवाद, "मटीरियलिज्म'
अपनी पूरी
ताकत के साथ
खड़ा हो गया
जाएगा, और
दूसरी तरफ फिर
कमजोर ताकतें
होंगी शुभ की।
शुभ में एक
बुनियादी
कमजोरी है। वह
लड़ने से हटना
चाहता है।
अर्जुन भला
आदमी है।
अर्जुन शब्द
का मतलब होता
है, सीधा-सादा।
तिरछा-इरछा
जरा-भी नहीं।
अ-रिजु।
बहुत
सीधा-सादा
आदमी है। सरल
चित्त है।
देखता है कि
फिजूल की झंझट
कौन करे, हट
जाओ। अर्जुन
सदा ही हटता
रहा है। वह जो
अ-रिजु
आदमी है, जो
सीधा-सादा
आदमी है, वह
हट जाता है।
वह कहता है, मत झगड़ा
करो, जगह
छोड़ दो। कृष्ण
अर्जुन से
कहीं ज्यादा
सरल हैं, लेकिन
सीधे-सादे
नहीं। कृष्ण
की सरलता की
कोई माप नहीं
है। लेकिन
सरलता कमजोरी
नहीं है, और
सरलता पलायन
नहीं है। वह
जम कर खड़े हो
गए हैं, वे
नहीं भागने
देंगे। शायद
फिर पृथ्वी दो
हिस्सों में
बंट जाएगी।
सदा ऐसा होता
है, कि निर्णायक,
"डिसीसिव मॉमेंट' आ जाते हैं, जब फिर लड़ने
की बात होती
है। उसमें
गांधी और विनोबा
और रसल काम
नहीं पड़ेंगे।
क्योंकि एक अर्थ
में वे सब
अर्जुन हैं।
वे कहेंगे, हट जाओ; वे
कहेंगे, मर
जाओ लेकिन लड़ो
मत।
कृष्ण
जैसे
व्यक्तित्व
की फिर जरूरत
है जो कहे कि
शुभ को भी
लड़ना चाहिए।
शुभ को भी
तलवार हाथ में
लेने की
हिम्मत रखनी
चाहिए।
निश्चित ही
शुभ जब हाथ में
तलवार लेता है, तो
किसी का अशुभ
नहीं होता।
अशुभ हो नहीं
सकता।
क्योंकि लड़ने
के लिए कोई
लड़ाई नहीं है।
लेनि
अशुभ जीत न
पाए, इसलिए
लड़ाई है।
तो
धीरे-धीरे दो
हिस्से दुनिया
के बंट जाएंगे, जल्दी
ही, जहां
एक हिस्सा
भौतिकवादी
होगा और एक
हिस्सा स्वतंत्रता,
लोकतंत्र, व्यक्ति और
जीवन के और
मूल्यों के
लिए होगा। लेकिन
क्या ऐसे
दूसरे शुभ के
वर्ग को कृष्ण
मिल सकते हैं?
मिल सकते
हैं। क्योंकि
जब भी मनुष्य
की स्थितियां
इस जगह आ जाती
हैं जहां कि
कुछ निर्णायक
घटना घटने को
होती है, तो
हमारी स्थितियां
उस चेतना को
भी पुकार लेती
हैं उस चेतना
को भी जन्म दे
देती हैं। वह
व्यक्ति भी
जन्म जाता है।
इसलिए भी मैं
कहता हूं कि
कृष्ण का
भविष्य के लिए
बहुत अर्थ है।
और जब साधारण,
सीधे-सादे,
अच्छे
आदमियों की
आवाजें
बेमानी हो
जाएंगी--क्योंकि
बुरा आदमी
अच्छे आदमी की
आवाजों
से न डरता है, न भय खाता है,
न रुकता है।
तो वह बढ़ता
चला जाता है।
बल्कि अच्छा
आदमी जितना सिकुड़ता
है, बुरे
आदमी के लिए
उतना ही
आनंदपूर्ण हो
जाता है।
महाभारत
के बाद
हिंदुस्तान
में बहुत
अच्छे आदमी
हुए--बुद्ध
हैं,
महावीर
हैं--इनकी
अच्छाई की कोई
कमी नहीं है। इनकी
अच्छाई की कोई
सीमा नहीं है।
लेकिन इनकी अच्छाई
के प्रभाव में
मुल्क सिकुड़
गया। हमारा
चित्त सिकुड़
गया। और उस सिकुड़े
हुए चित्त पर
सारी दुनिया
के आक्रामक
टूट पड़े।
आक्रमण करने
ही हम नहीं
जाते हैं, आक्रमण
को बुलाते भी हमीं हैं।
और जब तुम
किसी को मारते
हो, तभी
तुम
जिम्मेवार
नहीं होते, जब तुम किसी
की मार खाते
हो तब भी तुम
जिम्मेवार
होते ही हो।
क्योंकि किसी
के चेहरे पर
चांटा मारना
भी एक कृत्य
है जिसमें
पचास प्रतिशत
तुम
जिम्मेवार हो,
पचास
प्रतिशत वह आदमी
जिम्मेवार है
जिसने चांटे
को निमंत्रित
किया है। सहा,
"पैसीविटी'
दिखाई, स्वीकार
किया, बुलाया
कि मारो। अगर
तुम पर कोई
चांटा मारता है
तो पचास "परसेंट'
तुम भी
जिम्मेवार
होते हो, तुम
बुलाते हो।
अच्छे
आदमियों की एक
लंबी कतार
ने--निपट
अच्छे
आदमियों की
लंबी कतार
ने--इस मुल्क
के मन को
सिकोड़ दिया, और
हमने बुलाया,
आमंत्रण
दिया कि आओ।
हमारा
आमंत्रण
मानकर बहुत
लोग आए।
उन्होंने
हमें वर्षों
तक गुलाम रखा,
दबाया, परेशान
किया। अपनी
मौज से वे चले
भी गए। लेकिन
हम अभी भी, हमारी
मनोदशा संकोच
की ही है। हम
फिर किसी को बुला
सकते हैं। अगर
कल माओ प्रवेश
कर जाए इस
मुल्क में, तो उसके लिए
जिम्मेदार
अकेला माओ
नहीं होगा। लेनिन
ने बहुत
वर्षों पहले
एक
भविष्यवाणी
की थी कि मास्को
से कम्यूनिज्म
पेकिंग
और कलकत
होता हुआ लंदन
पहुंचेगा।
उसकी
भविष्यवाणी बड़ी
सही मालूम
पड़ती है। पेकिंग
तो पहुंच गया।
कलकत्ते
में उसकी
पगध्वनि
सुनाई पड़ने
लगी है। लंदन
ज्यादा दूर
नहीं है। अब कलकत्ते
में कम्यूनिज्म
को प्रवेश
करने में कोई
कठिनाई नहीं
है; क्योंकि
भारत का का मन सिकुड़ा
हुआ है। वह आ
जाएगा, उसको
स्वीकार करके
देश और दब
जाएगा।
इसलिए
इस देश को तो
कृष्ण पर
पुनर्विचार
करना ही
चाहिए।
"कृष्ण
यदि आज होते
तो यह विश्व
जो दो गुटों
में बंटा है, उसमें किस
गुट का पक्ष
लेते?'
असल
में जब भी ऐसे
संकट का क्षण
होता है जब कि
निर्णय करना
हो कि कौन शुभ
है,
कौन अशुभ है,
तो सदा ही
कठिनाई होती
है। उस दिन भी
आसान नहीं थी
बात। क्योंकि दुर्योधन
ही नहीं था उस
तरफ, उस
तरफ भीष्म भी
थे, उस तरफ
अच्छे लोग भी
थे। और कृष्ण
ही नहीं थे, अर्जुन ही
नहीं थे इस
तरफ, इस
तरफ भी बुरे
लोग थे।
निर्णायक
क्षण में तय करना
सदा ही
मुश्किल होता
है। लेकिन, मूल्य कुछ
निर्धारण
करते हैं।
दुर्योधन
किसलिए
लड़ता था? आदमी
उसके पास
अच्छे थे या
बुरे, यह
उतना, बड़ा मूल्यवाननहीं
है, वह लड़ किसलिए
रहा था? उस
लड़ने के मूल्य
क्या थे, "वैल्यूज' क्या थे? कृष्ण
अगर लड़ने को
प्रेरित कर
रहे थे अर्जुन
को तो मूल्य
क्या थे? एक
तो बड़े-से-बड़ा
जो निर्णायक
मूल्य था वह
था न्याय, "जस्टिस'। न्याय क्या
है? न्याययुक्त
क्या था? तो
आज फिर हमें
निर्णय करना
पड़े कि
न्याययुक्त
क्या है, न्याय
क्या है? अब
जैसे मेरी समझ
में
स्वतंत्रता
न्याय है, परतंत्रता
अन्याय है। जो
"ग्रुप', जो
वर्ग, जो
गुट मनुष्य को
किसी तरह की
परतंत्रता
में ढकेलता हो,
वह अन्याय
का पक्ष है।
उस तरफ अच्छे
आदमी भी हो
सकते हैं, क्योंकि
अच्छे आदमी भी
जरूरी नहीं है
कि बहुत दूरद्रष्टा
हों।
"कनफ्यूज्ड' होते हैं।
उनको भी पता
नहीं हो सकता
है कि वह जो कर
रहे हैं वह
बुरे पक्ष में
जा रहा है।
स्वतंत्रता
बहुत ही कसौटी
की बात है।
मनुष्य की
स्वतंत्रता
जिस बात से
बढ़ती हो, ऐसा
समाज, ऐसा
जगत चाहिए।
जिस बात से
स्वतंत्रता
कम होती हो, ऐसा समाज और
ऐसा जगत नहीं
चाहिए।
स्वभावतः जो लोग
परतंत्रता भी
लाना चाहें, वे भी
परतंत्रता
शब्द का उपयोग
नहीं करेंगे। क्योंकि
उस शब्द का तो
कोई उपयोग सुनके
ही हट जाएगा।
वे भी ऐसे शब्द
खोजेंगे
जिनसे
परतंत्रता
आती हो, लेकिन
परतंत्रता का
भाव न पता
चलता हो। ऐसा
एक नया शब्द
समानता है, "इक्वालिटी'। यह शब्द
बहुत चालाकी
से भरा हुआ
है। और कुछ लोग
हैं जो
स्वतंत्रता
को एक तरफ काट
कर समानता की
गुहार पर हैं।
वे कहते हैं, समानता
चाहिए। वे यह
भी कहते हैं
कि समानता के
बिना
स्वतंत्रता
कैसे हो सकती
है? वे
कहते हैं, प्राथमिक
चीज समानता
है। और वे यह
भी कहते हैं, समानता के
बिना
स्वतंत्रता
कैसे हो सकती
है? और यह
बात समझ में
पड़ेगी अनेकों
को कि ठीक ही तो
बात है, जब
तक सब लोग
समान नहीं हैं
तो सब लोग
स्वतंत्र कैसे
हो सकते हैं।
और तब इस
समानता को
लाने के लिए
अगर
स्वतंत्रता
भी काटनी
पड़ती हो तो
फिर हम तैयार
हो जाते हैं।
अब यह
बड़ा मजेदार
तर्क है।
समानता इसलिए
लानी है कि
स्वतंत्रता आ
सके,
और
स्वतंत्रता
इसलिए काटनी
पड़ती है
क्योंकि
समानता लानी
है। और एक बार
स्वतंत्रता खोने
के बाद उसे
लाना बहुत
असंभव है। उसे
कौन लाएगा? मैं तुमसे
कहता हूं, यहां
सब इकट्ठे हैं,
मैं इन सबको
कहता हूं कि
तुम सबको समान
करने के लिए
सबको पहले
जंजीर पहनानी
पड़ेगी।
क्योंकि
जंजीर बिना पहनाए, किसी
का सिर बड़ा है,
किसी के हाथ
लंबे हैं, किसी
के पैर छोटे हैं,
इन सबको
काटा नहीं जा
सकता। तो सबको
समान करने के
लिए पहले
जंजीरें डाल
दी जाती हैं, फिर सबके
हाथ-पैर काटकर
हम सबको समान
कर देंगे।
लेकिन जो सबको
समान करेगा, वह तो असमान
रह ही जाएगा।
वह तो आपके
बाहर रह जाएगा,
उसके हाथ तो
खुले होंगे, जंजीरें
नहीं होंगी और
उसके हाथ में
तलवार होगी।
और एक बार जब
सबके हाथों
में जंजीर
रहेगी और कुछ
लोगों के हाथ
में तलवारें
होंगी और हाथ-पैर कट चुके
होंगे, तब
तुम करोगे
क्या?
ऐसा
खयाल था
माक्र्स का कि
एक बार समानता
लाने के लिए
स्वतंत्रता
खोनी पड़ेगी, व्यक्तिगत
स्वतंत्रता
नष्ट करनी पड़ेगी;
एक अधिनायकशाही,
एक "डिक्टेटरशिप'
चाहिए होगी;
फिर जब पूरा
हो जाएगा काम
समानता का तब
स्वतंत्रता
दे दी जाएगी।
लेकिन जिनके
हाथ में इतनी
ताकत होगी
सबको समान
करने की, वह
स्वतंत्रता
देंगे? लक्षण
नहीं दिखाई
पड़ते हैं।
बल्कि जितनी
ताकत उसकी बढ़
जाती है और
जितना आदमी
पंगु हो जाता
है, उतनी
ही
स्वतंत्रता
की बात ही खतम
हो जाती है, क्योंकि तुम
पूछ नहीं सकते,
आवाज भी
नहीं उठा सकते,
बगावत नहीं
कर सकते।
समानता
की आड़ में
स्वतंत्रता कटेगी। और
स्वतंत्रता
एक बार कट जाए, तो
लौटना बहुत
मुश्किल
मामला है।
क्योंकि जब स्वतंत्रता
कट जाती है तो
काटनेवाला
स्वतंत्रता
की भविष्य की
संभावनाओं को
भी काट देता
है। और दूसरी बात
यह है कि
स्वतंत्रता
तो एक बिलकुल
ही सहज तत्व
है। जो
प्रत्येक को
मिलना चाहिए
और समानता
बिलकुल असहज
बात है जो मिल
नहीं सकती। यह
अ-मनोवैज्ञानिक
है कि हम आदमी
को समान करें।
आदमी समान हो
नहीं सकता।
आदमी समान है
नहीं। आदमी
मूलतः असमान
है, स्वतंत्रता
जरूर चाहिए, और इसलिए
स्वतंत्रता
चाहिए कि
प्रत्येक व्यक्ति
जो हो सकता है
वह हो सके, उसे
उसका पूरा
मौका चाहिए।
तो
मेरी दृष्टि
में
स्वतंत्रता
का पक्ष कृष्ण
का पक्ष है, समानता
का नहीं हो
सकता।
स्वतंत्रता
हो तो
धीरे-धीरे
असमानता कम हो
सकती है।
ध्यान रहे, मैं कह रहा
हूं, असमानता
कम हो सकती
है। यह नहीं
कह रहा हूं कि समानता
आ सकती है।
स्वतंत्रता
रहे तो असमानता
धीरे-धीरे कम
हो सकती है।
लेकिन समानता
अगर जबर्दस्ती
थोप दी जाए, तो
स्वतंत्रता कम
होती चली
जाएगी।
जबर्दस्ती
थोपी कोई भी
चीज परतंत्रता
का ही पर्याय
है। तो मूल्य
चुनने पड़ेंगे।
व्यक्ति का
मूल्य कीमती
है।
सदा से
ही जो अशुभ है, वह
व्यक्ति को
मूल्य नहीं
देना चाहता, क्योंकि
व्यक्ति ही
विद्रोह का
तत्व है। इसलिए
अशुभ की
शक्तियां
समूह को मानती
हैं, व्यक्ति
को नहीं मानतीं।
और यह भी
जानकर तुम
हैरान होओगे
कि अगर तुम्हें
कोई अशुभ
कार्य करना हो,
तो व्यक्ति
से करवाना
बहुत मुश्किल
है, समूह
से करवाना सदा
आसान है। एक
अकेले हिंदू से
मस्जिद में आग
लगवानी बहुत
मुश्किल है।
हिंदुओं की
भीड़ से लगवानी
बहुत आसान है।
एक अकेले
मुसलमान से एक
हिंदू बच्चे
की छाती में
छुरा घुसवाना
बहुत कठिन है,
लेकिन
मुसलमान की
भीड़ से बहुत
आसान है। असल
में जितनी बड़ी
भीड़ होती है, आत्मा उतनी
कम हो जाती
है। क्योंकि
आत्मा के होने
का जो तत्व है
वह व्यक्तिगत
दायित्व है, "इंडिवीजुअल रिसपांसिबिलिटी'
है। जब मैं
तुम्हारी
छाती में छुरा
भोंकता हूं, तो मेरा
अंतःकरण कहता
है कि क्या कर
रहे हो? लेकिन
जब मैं सिर्फ
एक भीड़ के साथ
चलता हूं और आग
लगती है, तो
मैं सिर्फ भीड़
का एक हिस्सा
होता हूं, मेरा
अंतःकरण कभी
भी नहीं कहता
तुम क्या कर
रहे हो? मैं
कहता हूं, लोग
कर रहे हैं।
हिंदू कर रहे
हैं, मैं
तो सिर्फ साथ
हूं। और कल
मुझे कभी
व्यक्तिगत
रूप से
जिम्मेदार
नहीं ठहराया
जा सकता। अशुभ
जो है वह सदा
ही समूह को
आकर्षित करना
चाहता है।
अशुभ जो है वह
भीड़ पर निर्भर
करता है। और अशुभ
चाहता है कि
व्यक्ति मिट
जाए, भीड़
रह जाए। शुभ
व्यक्ति को
स्वीकार करता
है और चाहता
है भीड़
धीरे-धीरे खतम
हो जाए, व्यक्ति
रह जाएं।
व्यक्ति
रहेंगे तो
संबंध रहेंगे,
लेकिन वह
भीड़ नहीं होगी,
वह समाज
होगा।
अब इसे
भी थोड़ा समझ
लेने जैसा है, जहां
व्यक्ति हों,
वहीं समाज
हो सकता है।
और जहां
व्यक्ति की
सत्ता कम हो
जाए वहां
सिर्फ भीड़
होती है, समाज
नहीं होता।
समाज और भीड़
में इतना ही
फर्क है।
व्यक्तियों
के अंतर्संबंध
का नाम समाज
है, लेकिन
व्यक्ति होने
चाहिए। मैं
स्वतंत्र रूप
से तुमसे, स्वतंत्र
व्यक्ति के
साथ जब
संबंधित होता
हूं, तो
समाज होता है।
एक जेलखाने
में समाज नहीं
होता, सिर्फ
भीड़ होती है।
कैदी भी
संबंधित होते
हैं, एक-दूसरे
को देखकर
हंसते भी हैं,
एक-दूसरे को
सिगरेट-बीड़ी
भी भेज देते
हैं, लेकिन
भीड़ होती है, समाज नहीं
होता। वे सब
वहां इकट्ठे
किए गए हैं।
अपनी
स्वतंत्रता
का उनका चुनाव
नहीं है। इसलिए
स्वतंत्रता, व्यक्ति, व्यक्तित्व,
आत्मा, धर्म
और अदृश्य और
अज्ञात की
संभावना जिस
पक्ष की तरफ
प्रबल
होगी--प्रबल
कह रहा हूं, क्योंकि
निर्णायक
नहीं होता
बहुत कि इस
पक्ष के तरफ
है और इसकी
तरफ बिलकुल
नहीं है। राम
और रावण लड़ते
हों, तो भी
पक्का नहीं
होता, बहुत
साफ नहीं
होता।
क्योंकि रावण
में भी थोड़ा
राम तो होता
है और राम में
भी थोड़ा रावण
तो होता ही
है। कौरवों में
भी थोड़ा पांडव
तो होता है, पांडवों में
भी थोड़ा कौरव
होता ही है।
ऐसा अच्छे से
अच्छा आदमी
नहीं है
पृथ्वी पर
जिसमें बुरा
थोड़ा-सा न हो।
और ऐसा बुरा
आदमी भी नहीं
खोजा जा सकता,
जिसमें
थोड़ा-सा अच्छा
न हो। इसलिए
सवाल सदा अनुपात
का और प्रबलता
का है।
स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म,
ये मूल्य
हैं, जिनकी
तरफ शुभ की
चेतना साथ
होगी।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं