दिनांक
28 सितंबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुल्लू)
"श्रीकृष्ण
के गर्भाधान व
जन्म की
विशेषताओं व
रहस्यों पर
सविस्तार
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
और क्राइस्ट
की
जन्म-स्थितियों
से साम्य हो
तो उसे भी
स्पष्ट करें।'
कृष्ण
का जन्म हो, या
किसी और का
जन्म हो, जन्म
की स्थिति में
भेद नहीं है।
इसे थोड़ा समझना
जरूरी है।
लेकिन सदा से
हम भेद देखते
आए हैं। वह
कुछ प्रतीकों
को न समझने के
कारण।
कृष्ण
का जन्म होता
है अंधेरी रात
में,
अमावस में।
सभी का जन्म
अंधेरी रात
में होता है
और अमावस में
होता है। जन्म
तो अंधेरे में
ही होता है।
असल में जगत
की कोई भी चीज
उजाले में नहीं
जन्मती, सब
कुछ जन्म
अंधेरे में ही
होता है। एक
बीज भी फूटता
है तो जमीन के
अंधेरे में
जन्मता है। फूल
खिलते हैं
प्रकाश में, जन्म अंधेरे
में होता है।
असल
में जन्म की
प्रक्रिया
इतनी
रहस्यपूर्ण
है कि अंधेरे
में ही हो
सकती है। आपके
भीतर भी जिन
चीजों का जन्म
होता है वे सब
गहरे अंधकार
में जन्मती
है। बहुत
"अनकांशस
डार्कनेस' में
पैदा होती है।
एक चित्र का
जन्म होता है,
तो मन की
बहुत अतल
गहराइयों में
जहां कोई रोशनी
नहीं पहुंचती
जगत की, वहां
होता है।
समाधि का जन्म
होता है, ध्यान
का जन्म होता
है, तो सब
गहन अंधकार
में। गहन
अंधकार से
अर्थ है, जहां
बुद्धि का
प्रकाश जरा भी
नहीं
पहुंचता। जहां
सोच-समझ में
कुछ भी नहीं
आता, हाथ
को हाथ नहीं
सूझता है।
कृष्ण
का जन्म जिस
रात में हुआ, कहानी
कहती है कि
हाथ को हाथ
नहीं सूझता था,
इतना गहन
अंधकार था।
लेकिन कब कोई
चीज जन्मती है
जो अंधकार में
न जन्मती हो!
इसमें
विशेषता खोजने
की जरूरत नहीं
है। यह जन्म
की सामान्य प्रक्रिया
है।
दूसरी
बात कृष्ण के
जन्म के साथ
जुड़ी है--बंधन में
जन्म होता है; कारागृह
में। किस का
जन्म है जो
बंधन और
कारागृह में
नहीं होता है?
हम सभी
कारागृह में
जन्मते हैं।
हो सकता है कि
मरते वक्त तक
हम कारागृह से
मुक्त हो जाएं,
जरूरी नहीं
है। हो सकता
है हम मरें
भी कारागृह
में। जन्म एक
बंधन में लाता
है, सीमा
में लाता है।
शरीर में आना
ही बड़े बंधन में
आ जाना है, बड़े
कारागृह में आ
जाना है। जब
भी कोई आत्मा
जन्म लेती है
तो कारागृह
में जन्म लेती
है।
लेकिन
इस प्रतीक को
ठीक से नहीं
समझा गया। इस बहुत
काव्यात्मक
बात को
ऐतिहासिक
घटना समझकर
बड़ी भूल हो
गई। सभी जन्म
कारागृह में
होते हैं; सभी
मृत्युएं
कारागृह में
नहीं होतीं।
कुछ मृत्युएं
मुक्ति में
होती हैं। कुछ;
अधिक
कारागृह में
होती हैं।
जन्म तो बंधन
में होगा, मरते
क्षण तक अगर
हम बंधन से
छूट जाएं, टूट
जाएं सारे
कारागृह, तो
जीवन की
यात्रा सफल हो
गई।
कृष्ण
के जन्म के
साथ एक और
तीसरी बात
जुड़ी है और वह
यह है कि जन्म
के साथ ही
उनके मरने का
डर है। उन्हें
मारे जाने की
धमकी है। किस
को नहीं है? जन्म
के साथ ही
मरने की घटना
संभावी हो
जाती है। जन्म
के बाद--एक पल
बाद भी मृत्यु
घटित हो सकती
है। जन्म के
बाद प्रतिपल
मृत्यु
संभावी है।
किसी भी क्षण
मौत घट सकती
है। मौत के
लिए एक ही
शर्त जरूरी है,
वह जन्म है।
और कोई शर्त
जरूरी नहीं
है। जन्म के
बाद एक पल जिआ
हुआ बालक भी
मरने के लिए
उतना ही योग्य
हो जाता है
जितना सत्तर
साल जिआ हुआ आदमी
होता है। मरने
के लिए और कोई
योग्यता नहीं
चाहिए, जन्म
भर चाहिए।
कृष्ण के जन्म
के साथ ही मौत
की धमकी है, मरने का भय
है। सबके जन्म
के साथ वही
है। जन्म के
बाद हम मरने
के अतिरिक्त
और करते ही
क्या हैं? जन्म
के बाद हम
रोज-रोज मरते
ही तो हैं।
जिसे हम जीवन
कहते हैं, वह
मरने की लंबी
यात्रा ही तो
है। जन्म से
शुरू होती है,
मौत पर पूरी
हो जाती है।
लेकिन
कृष्ण के जन्म
के साथ एक
चौथी बात भी
जुड़ी है कि
मरने की बहुत तरह
की घटनाएं आती
हैं,
लेकिन वे
सबसे बचकर
निकल जाते
हैं। जो भी
उन्हें मारने
आता है वही मर
जाता है। कहें
कि मौत ही
उनके लिए मर
जाती है। मौत
सब उपाय करती
है और बेकार
हो जाती है।
उसका भी बड़ा
मतलब है।
हमारे साथ ऐसा
नहीं होता।
मौत पहले ही
हमले में हमें
ले जाएगी। हम
पहले हमले से
ही न बच
पाएंगे।
क्योंकि सच तो
यह है कि
करीब-करीब मरे
हुए लोग हैं, जरा-सा
धक्का और मर
जाएंगे।
जिंदगी का
हमें कोई पता
भी तो नहीं
है। उस जीवन
का हमें कोई
पता ही नहीं
है जिसके
दरवाजे पर मौत
सदा हार जाती
है।
कृष्ण
ऐसी जिंदगी
हैं जिस
दरवाजे पर मौत
बहुत रूपों
में आती है और
हारकर लौट
जाती है। बहुत
रूपों में। वे
सब रूपों की
कथाएं हमें
पता हैं कि
कितने रूपों
में मौत घेरती
है और हार
जाती है।
लेकिन कभी
हमें खयाल
नहीं आया कि
इन कथाओं को
हम गहरे में
समझने की
कोशिश करें।
सत्य सिर्फ उन
कथाओं में एक
है,
और वह यह है
कि कृष्ण जीवन
की तरफ रोज
जीतते चले
जाते हैं और
मौत रोज हारती
चली जाती है।
मौत की धमकी
एक दिन समाप्त
हो जाती है।
जिन-जिन ने चाहा
है, जिस-जिस
ढंग से चाहा
है कृष्ण मर
जाएं, वे-वे
ढंग असफल हो
जाते हैं और
कृष्ण जिए ही
चले जाते हैं।
इसका मतलब है।
इसका मतलब है,
मौत पर जीवन
की जीत। लेकिन
ये बातें इतनी
सीधी, जैसा
मैं कह रहा
हूं, कही
नहीं गई हैं।
इतने सीधे
कहने का
पुराने आदमी
के पास उपाय
नहीं था। इसे
भी थोड़ा समझ
लेना जरूरी
है।
जितना
पुरानी
दुनिया में हम
वापस लौटेंगे, उतना
ही चिंतन का
जो ढंग है वह "पिक्टोरिअल'
होता है, चित्रात्मक
होता है, शब्दात्मक
नहीं होता।
अभी भी रात आप
सपना देखते
हैं, कभी
आपने खयाल
किया कि सपनों
में शब्दों का
उपयोग करते
हैं कि
चित्रों का? सपनों में
शब्दों का
उपयोग नहीं
होता, चित्रों
का उपयोग होता
है। क्योंकि
सपने हमारे
आदिम भाषा हैं,
"प्रिमिटिव लैंग्वेज'
हैं। सपने
के मामले में
हममें और आज
से दस हजार
साल पहले के
आदमी में कोई
फर्क नहीं पड़ा
है। सपने अभी
भी पुराने हैं,
"प्रिमिटिव'
हैं, अभी
भी सपना
आधुनिक नहीं
हो पाया। अभी
भी कोई आदमी
आधुनिक सपना नहीं
देखता है। अभी
भी सपने तो
वही हैं जो दस
हजार साल, दस
लाख साल
पुराने थे।
गुहा-मानव ने
गुफा में सोकर
रात में जो
सपने देखे
होंगे, वही
"एयरकंडीशंड'
मकान में भी
देखे जाते
हैं। बस, कोई
और फर्क नहीं
पड़ा है। सपने
की खूबी है कि
उसकी सारी
अभिव्यक्ति
चित्रों में है।
अगर एक
आदमी बहुत
महत्वाकांक्षी
है तो सपने में
महत्वाकांक्षा
को वह क्या
करेगा? चित्र
बनाएगा। हो
सकता है उसके
पंख लग जाएं
और वह आकाश
में उड़ जाए।
सभी
महत्वाकांक्षी
लोग उड़ने
का सपना
देखेंगे, "एम्बीशस माइंड' उड़ने का
सपना देखेगा। उड़ने का
मतलब है सब के
ऊपर हो जाना। उड़ने का
मतलब है कि
कोई सीमा न
रही ऊपर उठने
की। जितना
चाहो, उठ
सकते हो। पहाड़
नीचे छूट जाते
हैं, आदमी
नीचे छूट जाते
हैं, चांदत्तारे नीचे छूट
जाते हैं और
आदमी ऊपर उठता
चला जाता है।
महत्वाकांक्षा
शब्द का उपयोग
सपने में नहीं
होगा। उड़ने
के चित्र का
उपयोग होगा।
इसलिए तो हम
अपने सपने
समझने में
असमर्थ हो गए
हैं। क्योंकि
दिन में हम जो
भाषा बोलते हैं,
वह शब्दों
की है, रात
जो सपना देखते
हैं, वह
चित्रों का
है। दिन में
जो भाषा बोलते
हैं वह बीसवीं
सदी की है, रात
जो सपना देखते
हैं, वह
आदिम है। इन
दोनों के बीच
लाखों साल का
फासला है।
इसलिए सपना
क्या कहता है,
यह हम नहीं
समझ पाते।
जितना
पुरानी
दुनिया में हम
लौटेंगे--और
कृष्ण बहुत
पुराने हैं, इस
अर्थों में
पुराने हैं कि
आदमी जब चिंतन
शुरू कर रहा
है, आदमी
जब सोच रहा है
जगत और जीवन
के बाबत, अभी
जब शब्द नहीं
बने हैं और जब
प्रतीकों में,
चित्रों
में
सारा-का-सारा
कहा जाता है
और समझा जाता
है, तब
कृष्ण के जीवन
की घटनाएं
लिखी गई हैं।
उन घटनाओं को
"डिकोड' करना
पड़ता है। उन
घटनाओं को
चित्रों से तोड़कर
शब्दों में
लाना पड़ता है।
इसलिए ध्यान
रहे कि
क्राइस्ट का
जीवन भी
करीब-करीब
कृष्ण जैसा ही
शुरू होता है।
उसमें बहुत
फर्क नहीं है।
इसलिए बहुत
लोगों को यहां
तक भ्रम पैदा
हो गया था--अभी
भी कुछ लोगों
को है--कि
क्राइस्ट हुए
ही नहीं, यह
कृष्ण की ही
कथा है जो
यात्रा करके
और जेरूसलम
तक पहुंच गई
है। क्योंकि
जन्म की कथा
में बड़ा साम्य
है। अंधेरी
रात में, मृत्यु
के भय से घिरे
हुए, जीसस
का जन्म होता
है। यहां कंस
धमकी दे रहा है
कृष्ण की
मृत्यु की।
वहां हिरोद
सम्राट जीसस
को हत्या की
धमकी दे रहा
है। यहां कंस
ने बच्चे कटवा
डाले हैं कि
उसका मानने
वाला पैदा न
हो जाए, वहां
हिरोद ने
बच्चे कटवा
डाले हैं कि
उसका मारने
वाला पैदा न
हो जाए।
नहीं, लेकिन
कृष्ण की
कहानी
क्राइस्ट की
कहानी नहीं
है। जीसस अलग
ही व्यक्ति
हैं, अलग
ही उनकी
यात्रा है।
लेकिन प्रतीक
दोनों समान
हैं। और
प्रतीक इसलिए
दोनों समान
हैं कि "प्रिमिटिव
माइंड' एकदम
समान होता है।
यह आपसे कहने
जैसी बात है कि
चाहे अंग्रेज
सपना देखे और
चाहे चीनी
सपना देखे और
चाहे जापानी
सपना देखे, सपने की
भाषा एक है।
हमारी बोलने
की भाषाएं अलग
हैं। "मिथ', पुराण की
भाषा एक है।
तो जो प्रतीक
पुराने मन में
उठे थे कृष्ण
के जन्म के
साथ जुड़ गए, वे ही
प्रतीक जीसस
के जन्म के
साथ जुड़ गए।
लेकिन यह एक
व्यक्ति होने
का भ्रम और एक
कारण से पैदा
हुआ कि जीसस
का नाम तो
जीसस है, लेकिन
बाद में उनके
साथ जुड़ गया
क्राइस्ट। "क्राइस्ट'
शब्द को
कृष्ण शब्द का
रूपांतर माना
जा सकता है।
मैं एक आदमी
को जानता हूं,
जिनका नाम क्रिष्टो
बाबू है।
मैंने उनसे
पूछा कि यह
कैसा नाम है? उन्होंने
कहा, नाम
तो मेरा कृष्ण
है, लेकिन
अंग्रेजी में
लिखते-लिखते
धीरे-धीरे क्रिष्टो
हो गया। मैंने
कहा, हद्द
हो गई बात।
मैंने उनसे
कहा क्या आपको
पता है कि कुछ
लोगों का यह
खयाल है कि
कृष्ण शब्द ही
"क्राइस्ट' हो गया है? इसकी
संभावना है।
जीसस
तो अलग
व्यक्ति हैं।
लेकिन इस बात
की संभावना है
कि कृष्ण शब्द
यात्रा
करते-करते
"क्राइस्ट' हो
गया हो।
क्योंकि जीसस
की "क्राइस्ट'
एक पदवी है,
जैसे कि वर्द्धमान
की पदवी
महावीर है। वर्द्धमान
घर का नाम है।
बाद में जब वे
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
तो महावीर नाम
हो गया। बुद्ध
घर का नाम
नहीं है, गौतम
सिद्धार्थ घर
का नाम है। जब
वे ज्ञान को उपलब्ध
हुए तो बुद्ध
हो गए। जीसस
घर का नाम है।
जब वे ज्ञान
को उपलब्ध हुए
तो क्राइस्ट
हो गए। अब यह
क्राइस्ट
शब्द हो सकता
है कि कृष्ण से
ही गया हो, इसमें
बहुत कठिनाई
नहीं है। यह
कहा जा सकता
है। लेकिन, जीसस का
व्यक्तित्व
अलग
व्यक्तित्व
है। जन्म की
घटनाओं में
जरूर तालमेल
है। दो
व्यक्ति हैं,
वे एक नहीं
हैं। जन्म की
घटनाओं का
तालमेल एक ही
व्यक्ति के
जन्म के कारण
नहीं है। जन्म
की घटनाओं का
तालमेल एक ही
तरह के अचेतन
मन में पैदा
हुए प्रतीकों
का है।
कार्ल
गुस्ताव जुंग
ने मनुष्य के
मन के संबंध
में एक बहुत
अदभुत खोज की
है,
जिस खोज को
वह "आर्च
टाइप' कहते
हैं। वह कहते
हैं, मनुष्य
के गहरे मन
में कुछ "आर्च
टाइप' हैं,
कुछ मनुष्य
के गहरे मन
में बुनियादी
प्रतीक हैं, जो सारी
दुनिया में
समान हैं। वे
दोहराते रहते
हैं।
क्राइस्ट और
कृष्ण की
जन्म-कथा में
वे ही प्रतीक
दोहरे हैं। और
मैंने जैसा
कहा, इस
जन्म को, इस
जन्म की घटना
को ठीक से
समझें तो यह
सभी के जन्म
की घटना है।
और
कृष्ण शब्द को
भी थोड़ा समझना
जरूरी है।
कृष्ण
शब्द का अर्थ
होता है, केंद्र।
कृष्ण शब्द का
अर्थ होता है,
जो आकृष्ट
करे, जो
आकर्षित करे;
"सेंटर आफ ग्रेविटेशन',
कशिश का
केंद्र।
कृष्ण शब्द का
अर्थ होता है
जिस पर सारी
चीजें खिंचती
हों। जो चुंबक
का काम करे।
प्रत्येक
व्यक्ति का
जन्म एक अर्थ
में कृष्ण का
जन्म है, क्योंकि
हमारे भीतर जो
आत्मा है, वह
कशिश का
केंद्र है। वह
"सेंटर आफ ग्रेविटेशन'
है जिस पर
सब चीजें
खिंचती हैं और
आकृष्ट होती
हैं। शरीर खिंचकर
उसके आसपास
निर्मित होता
है, परिवार
खिंचकर
उसके आसपास
निर्मित होता
है, समाज खिंचकर
उसके आसपास
निर्मित होता
है, जगत खिंचकर
उसके आसपास
निर्मित होता
है। वह जो
हमारे भीतर
कृष्ण का
केंद्र है, आकर्षण का
जो गहरा बिंदु
है, उसके
आसपास सब घटित
होता है। तो
जब भी कोई व्यक्ति
जन्मता है, एक अर्थ में
कृष्ण ही
जन्मता है। वह
जो बिंदु है
आत्मा का, आकर्षण
का, वह
जन्मता है, और उसके बाद
सब चीजें उसके
आसपास
निर्मित होनी
शुरू होती
हैं। उस कृष्ण-बिंदु
के आसपास
"क्रिस्टलाइजेशन'
शुरू होता
है और
व्यक्तित्व
निर्मित होते
हैं। इसलिए
कृष्ण का जन्म
एक
व्यक्ति-विशेष
का जन्मपात्र
नहीं है, बल्कि
व्यक्तिमात्र
का जन्म है।
अंधेरे
का,
कारागृह का,
मृत्यु के
भय का अर्थ
है। लेकिन, हमने कृष्ण
के साथ उसे
क्यों जोड़ा
होगा? मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि जो
कृष्ण की
जिंदगी में
घटना घटी होगी
कारागृह में
वह नहीं घटी
है। मैं यह भी
नहीं कह रहा
हूं कि वह
बंधन में पैदा
हुए होंगे, वे नहीं हुए
हैं। मैं इतना
ही कह रहा हूं
कि वे बंधन
में पैदा हुए
हों या न हुए
हों, वे
कारागृह में
जन्मे हों या
न जन्मे हों, लेकिन कृष्ण
जैसा व्यक्ति
जब हमें
उपलब्ध हो गया
तो हमने कृष्ण
के
व्यक्तित्व
के साथ वह सब
समाहित कर
दिया है जो कि
प्रत्येक
आत्मा के जन्म
के साथ समाहित
है।
ध्यान
रहे,
महापुरुषों
की कथाएं जन्म
की हमसे उल्टी
चलती हैं।
साधारण आदमी
के जीवन की
कथा जन्म से
शुरू होती है
और मृत्यु पर
पूरी होती है।
उसकी कथा में
एक "सिक्वेंस'
होता है, जन्म से
लेकर मृत्यु
तक।
महापुरुषों
की कथाएं फिर
से "रिट्रास्पेक्टिवली'
लिखी जाती
हैं।
महापुरुष
पहचान में आते
हैं बाद में।
और उनकी जन्म
की कथाएं फिर
बाद में लिखी
जाती हैं।
कृष्ण जैसा
आदमी जब हमें
दिखाई पड़ता है
तब तो पैदा
होने के बहुत
बाद दिखाई
पड़ता है। वर्षों
बीत गए होते
हैं उसे पैदा
हुए। जब वह हमें
दिखाई पड़ता है
तब वह कोई
चालीस-पचास
साल की यात्रा
कर चुका होता
है। फिर इस महिमावान,
इस अदभुत
व्यक्ति के
आसपास कथा
निर्मित होती
है। फिर हम
चुनाव करते
हैं इसकी
जिंदगी का, फिर हम "रीइंटरप्रीट'
करते हैं, फिर से
व्याख्याएं
शुरू होती
हैं। फिर से
हम इसके पिछले
जीवन में से
घटनाएं चुनते
हैं, घटनाओं
का अर्थ देते
हैं। इसलिए
मैं आप से कहूं
कि
महापुरुषों
की जिंदगी कभी
भी ऐतिहासिक नहीं
हो पाती है, सदा
काव्यात्मक
हो जाती है।
पीछे लौटकर
निर्मित होती
है।
पीछे
लौटकर जब हम
देखते हज तो
हर चीज प्रतीक
हो जाती है और
दूसरे अर्थ ले
लेती है। जो
अर्थ घटित हुए
क्षण में कभी
भी न रहे
होंगे। और फिर
कृष्ण जैसे
व्यक्तियों
की जिंदगी एक
बार नहीं लिखी
जाती, हर सदी
बार-बार लिखती
है। हजारों
लोग लिखते
हैं। जब
हजारों लोग
लिखते हैं तो
हजार
व्याख्याएं होती
चली जाती हैं।
फिर धीरे-धीरे
कृष्ण की जिंदगी
किसी व्यक्ति
की जिंदगी
नहीं रह जाती।
कृष्ण एक
संस्था हो
जाते हैं, एक
"इंस्टीटयूशन'
हो जाते
हैं। फिर वे
समस्त जन्मों
के सारभूत हो
जाते हैं। फिर
मनुष्य मात्र
के जन्म की
कथा उनके जन्म
की कथा हो
जाती है।
इसलिए व्यक्तिवाची
अर्थों में
मैं कोई मूल्य
नहीं मानता
हूं। कृष्ण
जैसे व्यक्ति
व्यक्ति रह ही
नहीं जाते। वे
हमारे मानस के,
हमारे
चित्त के, हमारे
"कलेक्टिव
माइंड' के
प्रतीक हो जाते
हैं। और हमारे
चित्त ने
जितने भी जन्म
देखे हैं वे
सब उनमें
समाहित हो
जाते हैं।
इसे
ऐसा समझें--
एक
बहुत बड़े
चित्रकार ने
एक स्त्री का
चित्र बनाया--एक
बहुत सुंदर
स्त्री का
चित्र। लोगों
ने उससे पूछा
कि यह कौन
स्त्री है, जिसके
आधार पर इस
चित्र को
बनाया है? उस
चित्रकार ने
कहा, यह
किसी स्त्री
का चित्र नहीं
है। यह लाखों
स्त्रियां जो
मैंने देखी
हैं, सब का
सारभूत है।
इसमें आंख
किसी की है, नाक किसी की
है, इसमें
ओंठ किसी के
हैं, इसमें
रंग किसी का
है, इसमें
बाल किसी के
हैं, ऐसी
स्त्री खोजने
से नहीं
मिलेगी, ऐसी
स्त्री सिर्फ
चित्रकार देख
पाता है। और
इसलिए चित्रकार
की स्त्री पर
बहुत भरोसा मत
करना, उसको
खोजने मत निकल
जाना, क्योंकि
जो मिलेगी वह
नहीं मिलेगी,
साधारण
स्त्री
मिलेगी।
इसलिए दुनिया
बहुत कठिनाई
में पड़ जाती
है क्योंकि हम
जिन स्त्रियों
को खोजने जाते
हैं वे कहीं
हैं नहीं, वे
चित्रकारों
की स्त्रियां
हैं, कवियों
की स्त्रियां
हैं, वे
हजारों
स्त्रियों का
सारभूत हैं।
वे इत्र हैं
हजारों
स्त्रियों
का। वे कहीं
मिलने वाली
नहीं हैं। वे
हजारों
स्त्रियां
मिल-जुल कर एक
हो गई हैं। वह
हजारों
स्त्रियों के
बीच में से
खोजी गई धुन
है।
तो जब
कृष्ण जैसा
व्यक्ति पैदा
होता है, तो
लाखों जन्मों
में जो पाया
गया है, उस
सबका सारभूत
उसमें समा
जाता है।
इसलिए उसे व्यक्तिवाची
मत मानना। वह व्यक्तिवाची
है भी नहीं।
इसलिए अगर उसे
कोई इतिहास
में खोज करने
जाएगा तो शायद
कहीं भी न
पाए। कृष्ण मनुष्य
मात्र के जन्म
के प्रतीक बन
जाते हैं--एक
विशेष
मनुष्यता के,
जो इस देश
में पैदा हुई;
इस देश की
मनुष्यता ने
जो अनुभव किया
है वह उनमें
समा जाता है।
जीसस में समा
जाता है किसी
और देश का
अनुभव, वह
सब समाहित हो
जाता है। हम
अपने जन्म के
साथ जन्मते
हैं और अपनी
मृत्यु के साथ
मर जाते हैं।
कृष्ण के
प्रतीक में तो
जुड़ता ही
चला जाता है।
अनंत काल तक जुड़ता चला
जाता है। उस
जोड़ में कभी
कोई बाधा नहीं
आती। हर युग
उसमें जोड़ेगा,
हर युग
उसमें
समृद्धि
करेगा, क्योंकि
और अनुभव
इकट्ठे हो गए
होंगे। और वह
उस "कलेक्टिव आर्च टाइप'
में जुड़ते
चले जाएंगे।
लेकिन
मेरे लिए जो
मतलब दिखाई
पड़ता है, वह
मैंने आपसे
कहा। ये
घटनाएं घट भी
सकती हैं, ये
घटनाएं न भी
घटी हों। मेरे
लिए घटनाओं का
कोई मूल्य
नहीं है। मेरे
लिए मूल्य
कृष्ण को समझने
का है कि इस
आदमी में ये
घटनाएं कैसे
हमने देखीं।
और अगर इनको
हम ठीक से देख
सकें तो ये
घटनाएं हमें
अपने जन्म में
भी दिखाई पड़ सकती
हैं। और जिस
व्यक्ति को
अपने जन्म में
कृष्ण के जन्म
का तालमेल मिल
जाए, हो
सकता है वह
अपनी मृत्यु
तक
पहुंचते-पहुंचते
अपनी मृत्यु
में भी कृष्ण
की मृत्यु के
तालमेल को
उपलब्ध हो
सके।
"भगवान,
कल आपने कहा
कि "सर्वधर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज',
और कि " मैं
युग-युग में
जन्म लेता हूं
धर्म की संस्थापना
के लिए, साधुओं
के परित्राण
और दुष्टों के
विनाश के लिए',
कृष्ण ने एक
मजाक किया।
मुझे ऐसा लगता
है कि गीता का
कृष्ण तो मजाक
नहीं करता था।
भागवत का कृष्ण
शायद मजाक करता
है। और हमने
एक अजीब तरह
का "अनक्रिटिकल
एटीच्यूड'
अपनाकर गीता के
कृष्ण व भागवत
के कृष्ण को
मिला लिया और
उनको एक ही
व्यक्ति मान
लिया--कि गीता
वाले ने भी
मजाक कर दिया।
तो सोचना
पड़ेगा कि गीता
के कृष्ण के
संबंध में हम
कुछ कहें तो
यह व्यक्ति एक
है, जो
हजार-दो हजार
साल पहले एक
व्यक्ति की
कल्पना का
कृष्ण है।
भागवत का
कृष्ण कोई और
है। और उन
दोनों को एक
करके अगर हम
तालमेल
बिठाना चाहें
तो कहीं-कहीं
बात उल्टी
पड़ेगी। गीता
स्वयं भी इस
तरह है कि
शंकर उसमें
कुछ और देख
रहे हैं, लोकमान्य
तिलक कुछ और
देख रहे हैं, आप कुछ और
अर्थ देख रहे
हैं। तो सोचना
यह होगा कि
क्या गीता
कृष्ण के
जीवनदर्शन का
प्रामाणिक
संकलन है?'
पहली
बात तो यह, कि
कल मैंने कहा
कि साधुओं के
परित्राण के
लिए, और
दुष्टों के
विनाश के लिए,
मैं आता
रहूंगा, इसमें
कृष्ण ने गहरी
मजाक की है।
इस संबंध में
तो जो मैंने कहा
था, कल
मैंने आपसे
कहा। लेकिन
मैंने यह नहीं
कहा कि "सर्वधर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज',
इसमें
कृष्ण ने मजाक
की है, यह
मैंने नहीं
कहा। तो
थोड़ा-सा इस
संबंध में समझ
लें, फिर
और प्रश्न के
आगे बढ़ें।
कृष्ण
जब कहते हैं, सब
धर्मों को
छोड़कर तू मुझ
एक की शरण में
आ--सब धर्मों
को छोड़कर। जगत
में धर्म तो
एक ही हो सकता
है। लेकिन जो
धर्मों को
बहुत देख रहा
है, वह बड़ी
भ्रांति में
पड़ेगा। सब
धर्मों को
छोड़कर, इसका
अर्थ ही यही
है कि विशेषणवाची
जो भी धर्म
हों उसे
छोड़कर। अनेक
को छोड़कर, तू
मुझ एक की शरण
में आ। कृष्ण
यह भी कह सकते
थे कि तू मेरी
शरण में आ।
लेकिन जो शब्द
है, वह
बहुत अदभुत; वह है, "मामेकं शरणं व्रज'। मुझ एक की
शरण में! माम्
एकम्।
यहां कृष्ण
व्यक्ति की
हैसियत से बोल
ही नहीं रहे
हैं, यहां
तो धर्म की
हैसियत से बोल
रहे हैं। यहां
तो वे धर्म ही
हैं। सब
धर्मों को
छोड़कर धर्म की
शरण में आ।
अनेक को छोड़कर
एक की शरण में
आ। एक बात।
दूसरी
बात,
यहां वह यह
बोल रहे हैं, मुझ एक की
शरण में आ।
अगर इसे बहुत
गहरे में हम समझें,
तो यह बहुत
मजेदार बात
है। मैं की
शरण में आ, लेकिन
जब मैं बोलता
हूं मैं, तो
मेरा मैं होता
है। वह आपके
लिए तू हो
जाएगा, मैं
नहीं रह
जाएगा। आपके
लिए मैं तो
आपका ही मैं
होगा, मेरा
मैं नहीं हो
सकता। अगर
कृष्ण का यह
अर्थ हो कि तू
कृष्ण की शरण
में आ, तो
यह तो तू की
शरण हो जाएगी,
यह मैं की
शरण न होगी।
लेकिन कृष्ण
का अगर यही अर्थ
हो कि तू मेरी
शरण में आ, तो
अर्जुन का मैं
कृष्ण नहीं
है। अर्जुन का
मैं, अर्जुन
का मैं है। वह
उसकी शरण में
जाएगा। वह पूरा
स्वधर्म की
शरण में चला
जाएगा।
यह
कृष्ण ने मजाक
में नहीं कहा
है। वह
वक्तव्य बहुत
अदभुत है और
गहरा है। और
इसकी
गहराइयों का
कोई हिसाब
नहीं है।
मनुष्यों ने
जितने भी वक्तव्य
दिए हैं इस
पृथ्वी पर, शायद
ही कोई
वक्तव्य इसकी
गहराई को छूता
हो। अनेक को
छोड़कर एक की, तू को छोड़कर
मैं की, विशेषणवाची धर्मों को
छोड़कर धर्म की
शरण में आ।
लेकिन
इसमें और
गहराइयां
हैं।
अगर
अर्जुन कहे कि
मैं अपने ही
मैं की शरण
में जाऊंगा
तब भी वह
कृष्ण को नहीं
समझा। क्योंकि
शरण में जाने
वाले को मैं
छोड़ देना पड़ता
है। शरण का
अर्थ ही है कि
मैं छूट जाए, समर्पण
का अर्थ ही है
कि मैं न बचे।
अगर अर्जुन
कहे कि मत्त
अपने ही मैं
की शरण में
जाता हूं, तो
भी नहीं समझ
पाया बात को।
शरण का अर्थ
ही है कि जहां
मैं न हो। शरण
का अर्थ ही है कि
मैं को छोड़कर
आ। यह भी बड़ी
कठिन बात और
जटिल बात हो
गई। अपनी ही
शरण में आ, अपने
को छोड़कर।
धर्म की शरण
में आ, धर्मों
को छोड़कर। एक
की शरण में आ, अनेक को
छोड़कर। लेकिन
जिसके पास एक
भी बच रहेगा, उसके पास
अनेक भी बच
रहेगा। एक की
हम कल्पना ही
नहीं कर सकते
अनेक के बिना।
इसलिए जिसे एक
की शरण में
आना है, उसे
एक को भी छोड़
देना पड़ेगा।
संख्या ही छोड़
देनी पड़ेगी।
इसलिए
बाद में जब यह
खयाल में आया
है कि एक शब्द
भ्रांति पैदा
कर सकता है, अनेक
के खिलाफ एक
शब्द भ्रांति
पैदा कर सकता
है, जब बाद
में यह खयाल
में आया, तो
"एक-वाद', हमने
नहीं बनाया, फिर हम
"अद्वैत' की
बात करने लगे।
हमने कहा, एक
की नहीं, दो
की शरण में मत
आ, दो से
बच। फिर एक
कहने में भी
संकोच हुआ, क्योंकि डर
हुआ कि एक
पकड़ा जा सकता
है। इसलिए एक
नया शब्द गढ़ना
पड़ा जो
"निगेटिव' है,
नकारात्मक
है--एक नहीं, "अद्वैत'; दो
नहीं, इतना
ही ध्यान रखना
कि दो न हों।
और स्मरण रहे,
अगर एक भी
बचा तो दूसरा
रहेगा, क्योंकि
एक को जानना
दूसरे के
परिप्रेक्ष्य
में ही, दूसरे
के "पर्सपेक्टिव'
में ही संभव
है। अगर मैं
जान रहा हूं
कि मैं हूं तो
तू के बिना
नहीं जान सकता
हूं। नहीं तो
मैं कहां शुरू
होऊंगा और
कहां खत्म
होऊंगा। तो जो
भी जान रहा है
मैं हूं, वह
तू के विरोध
में ही जान
सकता है। तू
रहेगा ही। तो
ही मैं हो
सकता हूं। अगर
कोई कह रहा है,
एक ही है
सत्य, तो
भी अभी उसका
जोड़ बता रहा
है कि उसे
दूसरा दिखाई
पड़ रहा है, जिसको
वह इनकार कर
रहा है। इसलिए
इस वक्तव्य की
बड़ी गहराइयां
हैं।
पहला
तो स्मरण रखें
कि यह कृष्ण
की शरण के लिए नहीं
कहा गया है।
यह अर्जुन को आत्मशरण
होने के लिए
कहा गया है।
दूसरी बात
खयाल रखें, यह
अर्जुन के
अहंकार की शरण
के लिए नहीं
कहा गया है।
यह निरहंकार
स्वभाव की शरण
के लिए कहा गया
है। तीसरी बात
खयाल रखें कि
यह धर्मों के
त्याग के लिए
कहा गया है और
धर्मों के
त्याग में कोई
विशेष धर्म
नहीं बचता है।
सभी धर्मों के
त्याग के लिए कहा
गया है--सर्वधर्मान्।
ऐसा नहीं कि
हिंदू को बचा
लेना, और
बाकी को छोड़
देना। सबको
छोड़ देना है।
क्योंकि जब तक
कोई किसी धर्म
को पकड़े
है, तब तक
धर्म को
उपलब्ध न हो
सकेगा। जब तक
कि कोई किसी
धर्म को पकड़े
हुए है तब तक
उस निर्विशेष
धर्म को कैसे
उपलब्ध होगा
जो किसी
विशेषण में
नहीं बंधता
है। धर्म को
छोड़ देना, धर्मों
को छोड़ देना, विशेषण को
छोड़ देना, कृष्ण
को छोड़ देना, संख्या को
छोड़ देना, मैं
को छोड़ देना, अहंकार को
छोड़ देना, फिर
जो शेष रह जाए,
वही धर्म
है। यह मजाक
में नहीं कहा
गया है।
और
दूसरी बात जो
पूछी कि हम
फर्क करें
गीता के कृष्ण
का और भागवत
के कृष्ण का।
जिन मित्र ने पूछी
है,
वे थोड़े बाद
में आए; जो
मैं पहले कहा
हूं, उनके
खयाल में नहीं
है, थोड़ी-सी
बात कहूं।
हमारा
मन चाहेगा कि
हम भेद करें।
क्योंकि भागवत
के कृष्ण में
और गीता के
कृष्ण में
तालमेल बिठाना
हमारी बुद्धि
में नहीं पड़
सकेगा। वे बड़े
अलग आदमी
मालूम पड़ते
हैं,
अलग ही नहीं,
विरोधी
आदमी मालूम
पड़ते हैं।
गीता के कृष्ण
बड़े गंभीर, भागवत के कृष्ण
एकदम
गैर-गंभीर।
उनके बीच हम
तालमेल नहीं
बिठा सकेंगे।
तो हम तो
तोड़ना
चाहेंगे कि ये
दो आदमी हैं।
या तो हम
चाहेंगे कि ये
दो आदमी हैं, या फिर
कृष्ण "सिजोफ्रेनिक'
हैं--इसमें
दो आदमी हैं
इस आदमी के
भीतर कि कभी यह
एक तरह की बात
करने लगता है,
कभी दूसरी
तरह की। तो
उनके फिर "पीरियड्स'
होते
हैं--छः महीने
वे शांत होते
हैं, छः
महीने अशांत
होते हैं। कि
छः महीने वे
आनंदित होते
हैं, छः
महीने वे बड़े
उदास हो जाते
हैं। कि सुबह
ठीक होते हैं,
सांझ और कुछ
हो जाते हैं।
या तो हम
समझें कि कृष्ण
"मल्टी-साइकिक'
हैं, बहुत
चित्त हैं
कृष्ण के, बहुचित्तवान हैं, बहुत
आदमी हैं
कृष्ण के
भीतर। एक
रास्ता तो यह
है समझने का।
इसका मतलब हुआ
कि कृष्ण जो
हैं, वह
भीतर खंड-खंड
में बंटे
हैं--विरोधी
खंडों में।
दूसरा
रास्ता यह
है--यह
मनोवैज्ञानिक
का रास्ता
होगा--अगर
कृष्ण को
मनोवैज्ञानिक
समझने जाए, अगर
फ्रायड को हम
कहें कि कृष्ण
का तुम विश्लेषण
करो, तो
फ्रायड कहेगा,
"सिजोफ्रेनिक'। यह आदमी
अनेक चित्तों
में बंटा हुआ
आदमी है। अगर
हम इतिहासज्ञ
से कहें, तो
वह कहेगा कि
यह दो कालों
में घटे हुए
दो आदमी होने
चाहिए, एक
आदमी नहीं हो
सकता। यह
इतिहासज्ञ की
व्याख्या
होगी, क्योंकि
उसकी कल्पना
के बाहर है कि
एक आदमी और
इतने आदमियों
जैसा हो सके।
तो वह कहेगा, भागवत के
कृष्ण कोई और
हैं, गीता
के कृष्ण कोई
और हैं। तो वह
कहेगा कि यह कृष्ण,
वह कृष्ण; वह
दस-पच्चीस कृष्णों
को निर्मित
करेगा कि ये
अलग-अलग हैं।
ये एक नहीं हो
सकते।
लेकिन, मैं
आपसे कहना
चाहता हूं कि
न मैं फ्रायड
की सलाह मानूंगा....मनोवैज्ञानिक
की सलाह मैं
मानने को राजी
नहीं हूं।
नहीं हूं
इसलिए कि "सिजोफ्रेनिक',
खंडित
व्यक्तित्व
कृष्ण जैसे
आनंद को उपलब्ध
नहीं होता है।
न ही मैं
इतिहासज्ञ की
बात मानने को
तैयार हूं, क्योंकि
उसकी तकलीफ भी
उसी बात से उठ
रही है। उसकी
तकलीफ यह है
कि हम कैसे
मानें कि एक
आदमी और यह सब
कर सकेगा। यह
बहुत आदमी
होने चाहिए
अलग-अलग काल
में, या एक
ही काल में, लेकिन होने
चाहिए अलग-अलग
आदमी। जो
मनोवैज्ञानिक
एक ही आदमी के
भीतर करता है
वह इतिहासज्ञ
समय के भीतर
अलग-अलग
व्यक्तियों
को बांटकर
करेगा।
मेरी
तो अपनी
दृष्टि यह है
कि एक कृष्ण
यह हैं और यही
कृष्ण की
महत्ता है।
इसको अगर हम
काट देते हैं
तो कृष्ण
बेमानी हो
जाते हैं।
उनका मूल्य ही
खत्म हो जाता
है। कृष्ण का
महत्व ही यही
है कि वे
एकसाथ सब कुछ
हैं। उनका महत्व
ही यह है कि वे
एकसाथ विरोधी
हैं और उन विरोधों
में एक
"हार्मनी' है।
उन विरोधों
में एक संगीत
है। जो कृष्ण
बांसुरी
बजाकर नाच
सकता, वह
कृष्ण चक्र
लेकर लड़ सकता।
इन दो कृष्णों
में कोई विरोध
नहीं है। जो
कृष्ण मटकी फोड़ सकता, वह कृष्ण
गीता जैसा
गंभीर उद्घोष
कर सकता। जो
कृष्ण चोर हो
सकता, वह
गीता का परम
योगी हो सकता।
ये सब एकसाथ
एक व्यक्ति है,
यही कृष्ण
की महत्ता है।
यही कृष्ण के
व्यक्तित्व
की निजता है।
जो क्राइस्ट
में उपलब्ध नहीं
होगी, बुद्ध
में उपलब्ध
नहीं होगी, महावीर में
उपलब्ध नहीं
होगी, राम
में उपलब्ध
नहीं होगी।
कृष्ण
विरोधों के
बीच समागम
हैं--समस्त
विरोधों का
समागम। और मैं
इसे इसलिए भी
कह पाता हूं कि
मैं देखता हूं
कि इन विरोधों
को विरोधी होने
की कोई वजह
नहीं है।
समस्त जीवन का
सत्य ही विरोधों
का समागम है।
सारा जीवन ही
विरोधों पर खड़ा
है। और उन
विरोधों में
कोई "डिस्कार्डेन्स' नहीं
है। उनमें कोई
विसंगितता
नहीं है, उसमें
संगीत है। जो
आदमी बच्चा
होता है, वही
आदमी बूढ़ा हो
जाता है।
इसमें कोई
विरोध नहीं
है। अगर मैं
आपसे पूछूं
कि किस दिन आप
बच्चे थे और
किस दिन जवान
हुए, तो
बताना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। अगर
मैं आपसे पूछूं
कि अप जवान थे,
अब बूढ़े हो
गए, किस
दिन आप बूढ़े
हुए? तो
बहुत मुश्किल
हो जाएगी।
उनको बांटना
मुश्किल
होगा। शब्दों
में जवानी और बुढ़ापा
विरोधी मालूम
पड़ते
हैं--शब्दों
में। जवानी और
बुढ़ापा
विरोधी मालूम
पड़ते हैं, लेकिन
किस दिन जवानी
समाप्त होती
है और बुढ़ापा
शुरू होता है?
किसी भी दिन
ऐसा नहीं
होता। जवानी
रोज बुढ़ापा
बनती चली जाती
है। हम जवान
को कह सकते
हैं कि यह
होने वाला
बूढ़ा है। हम
बूढ़े को कह
सकते हैं, यह
हो गया जवान
है। और कोई
फर्क नहीं कर
सकते।
हम
शांति और
अशांति को दो
चीजें मानते
हैं,
लेकिन कभी
आपने खयाल
किया कि वह
कौन-सी जगह है
जहां शांति
अलग होती और
अशांति शुरू
होती है।
शब्दों में
विरोधी हैं, "डिक्शनरी' में खोजने
जाएंगे तो
शांति और
अशांति का
विपरीत अर्थ
है। शब्दकोश
में खोजेंगे
तो सुख और दुख
विरोधी हैं, लेकिन
जिंदगी में
देखने जाएंगे
तो पाएंगे कि सुख
दुख बन जाता
है, दुख
सुख बन जाते
हैं। शांति
अशांति हो
जाती है, अशांति
शांति बन जाती
है। जन्म
मृत्यु हो जाती
है, मृत्यु
जन्म हो जाती
है। सुबह सांझ
हो जाती है, दिन अंधेरा
हो जाता है।
प्रकाश
अंधकार बन जाता
है, अंधकार
प्रकाश बन
जाता है। जीवन
समस्त विरोधों
का समागम है।
यहां ऋण और धन
विपरीत नहीं
हैं, एक ही
शक्ति के खेल
हैं।
जीवन
की अगर इस
अर्थवत्ता को
हम देखें, इस
शाश्वत
"हार्मनी' को,
संगीत को हम
देखें, तो
फिर कृष्ण
हमें समझ में
आ सकेंगे।
इसलिए कृष्ण
को हम पूर्ण
अवतार कह सके।
वे जीवन के
पूरे प्रतीक
हैं। बुद्ध
नहीं जीवन के पूरे
प्रतीक हैं।
बुद्ध जीवन
में जो शुभ है,
जो सुबह है,
जो प्रभात
है, जो
प्रकाश है, उसके ही
प्रतीक हैं।
सांझ का क्या
होगा? रात
के अंधेरे का
क्या होगा? पूर्णिमा तो
आप सम्हाल
लेंगे, अमावस
का क्या होगा?
अमृत तो आप
ले लेंगे, जहर
का क्या होगा?
इसलिए
बुद्ध साफ-सुथरे
हैं। इसलिए
कोई नहीं
कहेगा कि फलां
किताब के
बुद्ध अलग हैं
और फलां किताब
के बुद्ध अलग हैं।
कोई कारण नहीं
कहने का। सब
किताबों के बुद्ध
एक हैं। कोई
नहीं कहेगा कि
बुद्ध का "सिजोफ्रेनिक'
है, इसमें
कई खंड हैं, नहीं कोई
कहेगा। एक, अखंड है।
एकरस है।
लेकिन कृष्ण
में यह सवाल
उठेगा।
और हम
बजाय अपने मन
को समझाने के
लिए,
अपनी "कैटेग्रीज'
को बचाने के
लिए कृष्ण को
कई
व्यक्तियों
में बांटें,
इससे अच्छा
होगा अपनी "कैटेग्रीज'
छोड़ें और
अपने इस चित्त
को एक तरफ फेंकें
और कृष्ण को
पूरा देखें।
मैं नहीं कहता
अलग हुए भी
हों तो मुझे फिकिर
नहीं है। मुझे
इसकी चिंता
नहीं है। हो
सकता है कि
ऐतिहासिक
सिद्ध करें कि
फासला है दो
हजार साल का
भागवत के
कृष्ण में और
गीत के कृष्ण
में। मैं
फिक्र न
करूंगा, मैं
कहूंगा, मुझे
फासला नहीं
है। मेरे लिए
तो कृष्ण का
अर्थ ही तभी
है जब यह एक
व्यक्ति है।
अगर यह एक
व्यक्ति नहीं
है, तो
व्यर्थ हो गया,
इसका कोई
अर्थ न रहा।
हुए हों, न
हुए हों, इससे
मुझे प्रयोजन
नहीं है। मैं
मानता हूं कि जीवन
की पूर्णता जब
भी किसी
व्यक्ति में
फलित होगी, तो उसमें
अनेक व्यक्ति
एकसाथ फलित
होंगे। जीवन
की पूर्णता जब
भी किसी
व्यक्ति में फलित
होगी, तो
उसकी असंगतियों
में एक संगति
होगी। उसके
विरोधों में
एक अविरोध
होगा। उसके
व्यक्तित्व
में विरोधी
छोर होंगे, लेकिन जुड़े
होंगे। हो
सकता है धागे
हमें दिखाई न
पड़ें, हमारी
आंखें कमजोर
हैं बहुत।
ऐसा ही
समझें कि अगर
मैं एक मकान
की सीढ़ियों पर
चढ़ रहा हूं, तो
नीचे की सीढ़ी
मुझ दिखाई
पड़ती हो और
बीच की सीढ़ियां
दिखाई न पड़ें
और आखिरी सीढ़ी
दिखाई पड़ती हो,
तो क्या मैं
कभी भी सोच
सकूंगा कि
पहली सीढ़ी और
आखिरी सीढ़ी
में कोई जोड़
है? कभी भी
न सोच सकूंगा।
बीच की सीढ़ियां
भी दिखाई पड़
जाएं तो मैं
कह सकूंगा, पहली और
आखिरी सीढ़ी दो
सीढ़ियां
नहीं हैं, एक
ही सीढ़ी के दो
हिस्से हैं।
पहली सीढ़ी पर
शुरू होती है
यात्रा, आखिरी
सीढ़ी पर पूरी
होती है। यह
एक ही चीज का विस्तार
है। कृष्ण के
व्यक्तित्व
की जो बीच की सीढ़ियां
हैं वह हमें
दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि
हमारे ही
व्यक्तित्व
की बीच की सीढ़ियां
हमें दिखाई
नहीं पड़ीं। वे
जो "लिंक्स' हैं, वे
हमें दिखाई
नहीं पड़ते।
आपने अपनी
अशांति भी
देखी, शांति
भी देखी।
दोनों के बीच
का क्षण देखा?
वह नहीं
देखा है। आपने
प्रेम भी देखा
और घृणा भी
देखी। लेकिन
दोनों के बीच
की यात्रा
देखी है कि
प्रेम किस
भांति घृणा
बनता है? घृणा
किस भांति
प्रेम बनती है?
आपने
मित्रता भी
साधी, शत्रुता
भी साधी, लेकिन
कभी यह देखा
कि मित्रता
किस कीमिया से,
किस
"केमिकल' प्रक्रिया
से शत्रुता बन
जाती है? और
शत्रुता किस
कीमिया से
मित्रता बन
जाती है?
केमिस्ट
हुए--अलकेमिस्ट--जो
इस कोशिश में
लगे थे कि
लोहा सोने में
कैसे बदल जाए।
लेकिन लोग उनको
समझ न पाए।
लोग समझे कि
सच में ही वे
लोहे को सोना
बनाने में लगे
हैं। वे सिर्फ
यह कह रहे थे
कि अगर लोहा
है तो
कहीं-न-कहीं
सोने से जुड़ा
होगा। यह हो
नहीं सकता कि
लोहा और सोना
जुड़ा न हो।
कहीं-न-कहीं
कोई "लिंक', कहीं-न-कहीं
कोई बीच की
कड़ी होगी जो
हमें दिखाई नहीं
पड़ रही है। यह
हो नहीं सकता
कि जगत "अनलिंक्ड'
हो। अगर
वहां फूल खिला
रहा है और
यहां मैं बैठा
हूं तो
कहीं-न-कहीं
कोई "लिंक' होगा।
और अगर मैं
प्रसन्न हूं
तो उस
प्रसन्नता
में फूल की
प्रसन्नता
कहीं भागीदार
होगी। हो सकता
है, कड़ी
हमें दिखाई न
पड़ती हो। और
वहां फूल
कुम्हला जाए
और मैं उदास
हो जाऊं और
कड़ी दिखाई न
पड़े। जीवन जोड़
है, इसमें
सब जुड़ा है।
"अलकेमिस्ट'
कहते थे कि
लोहा है और
सोना है, तो
कहीं जोड़
होगा। हम कोई
रास्ता खोज ही
लेंगे जिसमें
सोना लोहा बन
जाए और लोहा
सोना बन जाए।
इस खोज में
थे। लेकिन
इतनी ही खोज न
थी, वे यह
कह रहे थे कि
जिसको हम नीचा
कहते हैं वह ऊंचे
से जुड़ा होगा।
"द बेसर मस्ट
बी लिंक्ड
विद हायर'।
नहीं तो हो
नहीं सकता।
कहीं-न-कहीं
सेक्स परमात्मा
से जुड़ा होगा।
जुड़ा होना
चाहिये। कहीं-न-कहीं
जमीन आकाश से
जुड़ी होगी।
जुड़ी होनी
चाहिये।
कहीं-न-कहीं
जन्म मृत्यु
से जुड़ा होगा।
जुड़ा होना
चाहिये। बिना
जुड़े हो कैसे
सकता है? संभव
नहीं रह
जायेगा। जड़
कहीं-न-कहीं
चेतना से जुड़ा
होगा। पत्थर
कहीं-न-कहीं
आत्मा से जुड़ा
होगा। जुड़ा
होना चाहिये।
अन्यथा हो
कैसे सकता है?
इस बड़े जोड़
के प्रतीक की
तरह कृष्ण
हैं।
मैं तो
कहता हूं, यह
व्यक्ति हुआ,
ऐसा ही हुआ।
इतिहास
दलीलें जुटाए,
मैं उठाकर
कचरे में फेंक
दूंगा।
मनोवैज्ञानिक
बताए, मैं
कहूंगा
तुम्हारा
दिमाग खराब
है। तुम अभी समझ
न पाओगे।
क्योंकि
तुमने खंडों
का साफ-सुथरापन
समझा है, तुमने
सभी खंडों का
जोड़ अभी नहीं
समझा है।
फ्रायड बहुत
खोज करता है।
जितना वह आदमी
जानता है
क्रोध के संबंध
में, शायद
कम आदमी जानते
होंगे। लेकिन
कोई जरा धक्का
मार दे, तो
क्रोध उसे भी
आ जाता है। तो
यह जानकारी
बड़ी बाहरी हो
गई। पर बहुत
खोज करता है।
फ्रायड जितना
पागलपन के
संबंध में
जानता है शायद
कोई जानता हो।
लेकिन फ्रायड
खुद पागल हो
सकता है, कभी
भी
"पोटेंशियल' है। किसी भी
क्षण पागल हो
सकता है। मौके
आ जाते हैं जब
वह पागलपन
करता है।
मनोवैज्ञानिक
क्या कहता है, इसका
बहुत मूल्य
मेरे लिए नहीं
है, क्योंकि
कृष्ण मन के
बाहर गए
व्यक्ति हैं,
मन के पार
गए व्यक्ति
हैं। कृष्ण मन
के पार गए व्यक्ति
हैं। और एक और
तरह की अखंडता
है, जो
आत्मा की
अखंडता है, जो एक ही साथ
सबमें हो सकती
है, सब
मनों में हो
सकती है, सब
तरह के मनों
में हो सकती
है। इसलिए मैं
एक ही व्यक्ति
मानकर बात
करूंगा।
"गीता
आप प्रामाणिक
वचन मानेंगे
कृष्ण के?'
पूछते
हैं,
गीता को
प्रामाणिक
वचन मानेंगे
कृष्ण के?
कृष्ण
जैसा व्यक्ति
हुआ हो तो
गीता जैसा वचन
प्रामाणिक ही
होगा। यह सवाल
नहीं है कि
कृष्ण ऐसा
बोला कि नहीं
बोला। सवाल यह
है कि कृष्ण
बोलेगा तो ऐसा
ही बोल सकता
है। और अगर
कृष्ण ने न
बोला हो और
व्यास ने ही
गीता लिखी हो, तो
कोई बहुत फर्क
नहीं पड़ता, क्योंकि
व्यास लिख
नहीं सकता अगर
कृष्ण जैसा व्यक्ति
न हो। व्यास
को भी कहना
पड़े--व्यास लिखे,
कोई फर्क
नहीं पड़ता
है--लेकिन
व्यास भी तो
गीता बोलेगा
न! इससे क्या
फर्क पड़ता है?
इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता।
अगर कृष्ण
बोले, व्यास
बोले, कोई
अ, ब, स
कोई और बोले, लेकिन गीता
बोलने के लिए
एक भीतर कोई
चाहिए न! यह
गीता आसमान से
पैदा नहीं
होती। कहीं से
पैदा होती है।
नाम से क्या
फर्क पड़ता है!
उस आदमी का
नाम व्यास है,
कि कृष्ण है,
कि क्या है,
इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता।
इसलिए
मैं उल्टी तरह
से सोचता हूं।
मैं यह नहीं
कहता कि गीता
का वचन
प्रामाणिक
वचन है कृष्ण
का। गीता-वचन
प्रामाणिक है
या नहीं; मैं
यह कहता हूं, गीता है, यह
प्रमाण है, कृष्ण की
खबर है। इस
तरह ही देखता
हूं, गीता
है, यह
बोली गई, यह
कही गई, यह
लिखी गई, यह
अस्तित्व में
है। यह बिना
कृष्ण के
अस्तित्व में नहीं
हो सकती। एक
आदमी तो चाहिए
न जो यह बोले, जो यह लिखे!
वह कौन था, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? उसका
नाम क्या था, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
लेकिन एक
चेतना तो
चाहिए न जिससे
इसका जन्म हो।
गंगोत्री
प्रमाण नहीं
है गंगा के लिए,
गंगा
प्रमाण है
गंगोत्री के
लिए। गंगा है
तो हम कह सकते
हैं कि
गंगोत्री
होगी। चाहे हो
न हो; चाहे
मिले, चाहे
न मिले; चाहे
खोज पाएं या न
खोज पाएं, लेकिन
गंगा है तो
गंगोत्री
होगी। गीता है
तो कृष्ण
होंगे। गीता
से कृष्ण की
तरफ चलना मुझे
उचित मालूम
पड़ता है, क्योंकि
गीता अभी है।
कृष्ण की तरफ
से गीता की तरफ
चलेंगे तो झंझटें
पड़ेंगी।
क्योंकि
उसमें डर हो
सकता है कि
कृष्ण न हों, और तब फिर
गीता संदिग्ध
हो जाए, और
फिर गीता को
हमें कोई और
आदमी खोजना
पड़े। लेकिन, हम बड़े
पागलपन का काम
करते हैं।
"श्रीमद्भागवत में वस्त्रहरण-लीला
के प्रसंग में
कृष्ण का
नैसर्गिक "इरोटिक
गेस्चर' सुस्पष्ट
है। वर्णन है
कि गोपिकाओं
की अक्षत योनियां
देखकर कृष्ण
प्रसन्न हुए।
और वस्त्र
लेने के लिए
लज्जावश गोपिकाएं
गुह्यांग
हाथ से ढांककर
बाहर आती हैं,
तब कृष्ण
कहते हैं कि
तुमने जल
देवता का नग्न
नहाकर
अपराध किया है,
इसलिए पापशमन
हेतु मस्तक पर
दोनों हाथ जोड़
उन्हें
नमस्कार कर
वस्त्र ले
जाओ। बाद में भागवतकार
लिखते हैं
कृष्ण ने कुमारिकाओं
को ठगकर
लज्जा त्याग
करवाया। इस
संदर्भ में निरावरणता
के सर्वप्रथम
पुरस्कर्ता
कृष्ण के आप
समर्थ अनुगामी
हैं, मगर
आपके खयाल और
जर्मनी आदि
देशों के "न्यूडिस्ट
क्लब' के
खयाल में क्या
बुनियादी
फर्क है? वस्त्र
सभ्यता का
प्रतीक है, संस्कृति
चमड़ी है। इस
त्वचा का आवरण
अलग करने से
जो अस्थि-पंजर
दिखाई पड़ेगा,
इससे हम
प्राकृतिक
रूप में दिखाई
पड़ेंगे, मगर
बर्बर भी
दिखाई
पड़ेंगे। यह
खयाल "बैक टु प्रिमिटिज्म,
बैक टु जंगल'
नहीं होगा?
घड़ी के
कांटे को पीछे
घुमाने की
विधि को आप आप बाद
में
"प्रोग्रेस' कह सकोगे?'
पहली
बात,
सिग्मंड फ्रायड का
"लिबिडो' का
खयाल बहुत
कीमती है।
"लिबिडो' को
अगर हम ठीक
शब्द दें, तो
उसका अर्थ
होगा, काम-ऊर्जा,
"सेक्स-एनर्जी'। मनुष्य के
जीवन में ही
नहीं, सारी
सृष्टि के
जीवन में, सृजन
में काम-ऊर्जा
गुह्यतम
छिपी है।
पुराण कहते
हैं, ब्रह्मा
ने जगत बनाया
तो काम से
पीड़ित होकर। सृजन
होगा ही नहीं
कामना के
बिना। समस्त
सृजन कामना से
ही आविर्भूत
होता है। जो
भी है, वह
काम का ही
विस्तार है।
जीवन की समस्त
लीला, जीवन
की सारी
अभिव्यक्ति--चाहे
फूल खिलते हों,
चाहे पक्षी
गीत गाते
हों--काम-ऊर्जा
का ही खेल हो।
ऐसा समझें, जैसे
काम-ऊर्जा का
एक सागर है और
उसमें अनंत-अनंत
लहरें उठती
हैं, अनंत-अनंत
रूपों में।
स्वयं
परमात्मा ही
बहुत गहरे में
काम-ऊर्जा का
केंद्र है।
कृष्ण
के जीवन में
काम-ऊर्जा की
सहज,
निश्छल
स्वीकृति है।
सहज स्वभाव का
अंगीकार है। न
कहीं कोई
निषेध है, न
कहीं कोई दमन
है। जैसा है
जीवन, वैसा
अनुग्रहपूर्वक,
अनुग्रहभाव से उसे जीने
की सहजता है।
इसलिए कृष्ण
की घटनाओं को
जो लोग दबाने,
बदलने, शक्ल
देने की कोशिश
करते हैं, वे
केवल अपनी
अपराध-वृत्तियों,
अपने दमित
काम, अपने
चित्त के
रोगों की खबर
देते हैं।
निश्चित ही यह
कोशिश की जाती
रही है कि जिस
कृष्ण ने गोपियों
के वस्त्र लिए
और वृक्ष पर
चढ़ गए, वह
बहुत छोटे थे।
हमें बड़ी राहत
मिलेगी अगर वे
बहुत छोटे हों।
उससे हम उनको
स्वीकार करने
में सुलभता
पाएंगे।
लेकिन छोटे
बच्चे भी
एक-दूसरे को
नग्न देखना
चाहते हैं।
बहुत छोटा
बच्चा भी
उत्सुक है जानने
को--लड़की भी, लड़का भी। और
यह जिज्ञासा
अत्यंत
स्वाभाविक है।
जैसे ही एक
बच्चे को--वह
चाहे लड़की हो,
चाहे
लड़का--जैसे ही
अपने शरीर का
बोध शुरू होता
है, वैसे
ही उसे यह भी
बोध शुरू होता
है कि लड़की भी है
घर में, बहन
भी है उसकी, जिसके शरीर
में कुछ फर्क
है। लड़की को
भी बोध होता
है कि लड़का है,
उसके शरीर
में कुछ फर्क
है। यह बोध
इतना कठिन न
हो, अगर
लड़के और लड़कियां
सहज ही घर में
नग्न भी होते
हों। लेकिन
बड़े-बूढ़े इतने
कामग्रसित
हैं, इने "आब्सेस्ड'
हैं कि
छोटे-छोटे
बच्चों को भी
जल्दी वस्त्र पहनाने के
लिए आतुर होते
हैं। यह उनकी
आतुरता इतनी ज्यादा
है कि छोटे
बच्चे
एक-दूसरे को
नग्न सहजता से
नहीं देख
पाते। तो
कृष्ण ने ही
कोई, अगर
यह भी मान लें
कि उनकी उम्र
छोटी रही हो, तो नहाती
हुई लड़कियों
के वस्त्र
लेकर वे वृक्ष
पर चले गए हों,
तो इसमें
कुछ बहुत नया
नहीं है। सभी
छोटे बच्चे
लड़कियों को
नग्न देखना
चाहते हैं। न
नदी उपलब्ध है
अब, न
वृक्ष उपलब्ध
हैं अब, न
नदी पर नहाती
हुई लड़कियां
उपलब्ध हैं।
तो बच्चों को
नए-नए रास्ते
खोजने पड़ते
हैं।
फ्रायड
ने एक खेल का
उल्लेख किया
है,
डाक्टर के
खेल का। छोटे
बच्चे
लड़कियों को
बीमार करके लिटाकर
डाक्टर का खेल
शुरू करेंगे
और उनको नग्न
देखना
चाहेंगे। यह
बड़ी सहज
जिज्ञासा है,
इसमें कुछ
बुरा नहीं है।
यह बहुत
स्वाभाविक है
कि हम एक-दूसरे
से परिचित
होना चाहें।
यह हमारे
शरीर-परिचय की
बिलकुल
प्राथमिक कड़ी
है। तो अगर
कृष्ण छोटे भी
रहे हों, तब
भी संभव है।
लेकिन उम्र
ज्यादा भी रही
हो, तब भी
असंभव नहीं
है। हमारे लिए
असंभव हो जाएगा,
कृष्ण के
लिए असंभव
नहीं है।
क्योंकि
कृष्ण जीवन को
सहज जीते हैं,
जैसा है उसे
स्वीकार करते
हैं। और जिस
संस्कृति में
वह पैदा हुए
होंगे, वह
संस्कृति भी बहुत
सहजता को
स्वीकार करती
होगी। अगर
कृष्ण हमारे
समाज में पैदा
हुए होते, तो
हमने इस
उल्लेख को ही
काट दिया
होता। हम इस उल्लेख
को कभी लिखते
ही नहीं। जिन
लोगों ने इस
उल्लेख को
सहजता से लिखा
है, उनके
मन में कोई भी
ऐसा भाव न रहा
होगा कि कुछ गलत
हुआ है। नहीं
तो गलत को हम
छांट देते।
हजारों साल तक
यह सवाल किसी
ने नहीं उठाया
कि कृष्ण कैसा
आदमी है। यह
अभी हमने
उठाना शुरू
किया है। यह
सवाल नहीं
उठाता है। जिस
संस्कृति में कृष्ण
की यह घटना
घटी होगी, वह
संस्कृति
इसको सहज
स्वीकार कर ली
होगी। यह कोई
कृष्ण ही कपड़े
चुराकर अगर
चले गए होते, तो अनूठी
घटना अगर होती,
तो इसकी
निंदा भी
होती। यह और
भी कृष्ण यह
करते रहे
होंगे, ये
और लड़के भी यह
करते रहे
होंगे, ये
और बालगोपाल
भी यह करते
रहे होंगे।
लड़कियां भी
बहुत कम उम्र
की रही होंगी, यह
नहीं माना जा
सकता। इतनी
उम्र की तो
रही होंगी
जहां से
लड़कियों को लड़कियां
होने का बोध
शुरू हो जाता
है। जहां से
शर्म शुरू हो
जाती है। जहां
से वे काम के
मामले में, "सेक्स' के
मामले में, यौन के
मामले में
भिन्न हैं; उनके पास
कुछ छिपाने को
है; जहां
से उन्हें
छिपाने का बोध
शुरू होता है,
वह वही बोध
है जहां से
कोई दूसरा
उन्हें जानने
और देखने को
उत्सुक होता
है। ये दोनों
एक ही घड़ी, एक
ही उम्र की
बात है। तो
कृष्ण जिस
उम्र के रहे
होंगे उससे
बहुत भिन्न
उम्र की लड़कियां
नहीं रही
होंगी। कृष्ण
देखने को
उत्सुक हैं
उन्हें नग्न,
ये लड़कियां
कृष्ण न देख
पाएं, इसके
लिए आतुर हैं।
इस
मामले में एक
बात बहुत समझ
लेनी जरूरी है
कि
पुरुष-चित्त
और
स्त्री-चित्त
में जो बहुत
से फर्क हैं, उनमें
एक फर्क यह भी
है। पुरुष
स्त्री को
नग्न देखना
चाहता है, वह
"वोयूर' है। स्त्री
पुरुष को नग्न
नहीं देखना
चाहती है, इतनी
उसकी
उत्सुकता
नहीं है। वह "वोयूर' नहीं
है। इसलिए बड़े
मजे की बात
है। लेकिन
पुरुष स्त्री
को नग्न देखना
चाहता है।
इसीलिए दुनिया
में इतनी नग्न
स्त्रियों की
प्रतिमाएं हैं।
पुरुषों की
नहीं हैं। और
अगर कहीं
पुरुषों की
नग्न
प्रतिमाएं
हैं, तो वे
उन
संस्कृतियों
में पैदा हुईं,
जो कि
"होमोसेक्सुअल'
थीं। जैसे,
यूनान में
पैदा हुईं।
सुकरात और प्लेटो
के वक्त में
पैदा हुईं, जो कि
"होमोसेक्सुअल'
वक्त है।
जिसमें कि
पुरुष
पुरुषों को भी
काम-विषय
बनाते थे, "सेक्स
आब्जेक्ट'
बनाते थे, तो वह भी
पुरुषों ने ही
बनाई हैं वे
मूर्तियां
नग्न पुरुषों
की।
स्त्रियां
नग्न पुरुषों
में बिलकुल
उत्सुक नहीं
हैं। इसलिए
ऐसी कोई
पत्रिका नहीं
निकलती
जिसमें नग्न
पुरुषों की
तस्वीरें
देखकर
स्त्रियां
प्रसन्न होती
हों, वे
बिलकुल
प्रसन्न नहीं
होतीं। लेकिन
ऐसी बहुत पत्रिकाएं
निकलती हैं
जिनमें नग्न
स्त्रियों की
तस्वीरें
देखकर पुरुष
बड़े प्रसन्न
होते हैं।
स्त्रियों को
समझ में नहीं
आता कि पुरुषों
को यह क्या
पागलपन है।
कभी
आपने शायद
खयाल न किया
हो कि प्रेम
के गहरे-से-गहरे
क्षण में
पुरुष जरूर
स्त्री को
नग्न करना
चाहेगा।
स्त्री उनकी
उत्सुक नहीं
होगी। बल्कि
पुरुष नग्न भी
हो,
तो प्रेम के
गहरे क्षण में
पुरुष की आंख
खुली रहेगी, स्त्री की
आंख बंद हो
जाएगी। अगर
स्त्री का चुंबन
भी लिया जा
रहा हो तो वह
आंख बंद कर
लेगी। देखने
में उसका बहुत
रस नहीं है। "एब्ज़ार्व'
कर लेने में,
पी लेने में,
हो जाने में
उसका रस है, देखने में
उसका रस नहीं
है। पुरुष
देखने में बहुत
रसपूर्ण है।
और पुरुष की
यह देखने की
उत्सुकता है,
यह स्त्री
को छिपने की
उत्सुकता का
जन्म बन जाती
है। वह अपने
को छिपाना
शुरू कर देती
है। इसलिए
स्त्री छिपाए
जा रही है।
लेकिन स्त्री
की बड़ी
मुश्किल है।
अगर वह बहुत
ज्यादा छिपा
ले, तो
पुरुष के लिए
अनाकर्षक हो
जाती है।
इसलिए स्त्री
को दोहरा काम
करना पड़ता है।
छिपाना भी
पड़ता है और
उघाड़ना भी
पड़ता है। उसकी
दोहरी मुसीबत
है। उसको एक
ही चीज से
दोहरे काम
करने पड़ते
हैं। उन्हीं
कपड़ों से
छिपाना पड़ता
है खुद को, उन्हीं
कपड़ों से
उघाड़ना पड़ता
है खुद को। तो
जिन कपड़ों से
स्त्री अपने को
छिपाती है, उन्हीं से उघाड़ने का
भी काम लेती
है। क्योंकि,
छिपाना तो
वह पुरुष की
जो जिज्ञासा
की जो "क्याूरिआसिटी'
है, उससे
वह भयभीत है।
वह उसकी समझ
के बाहर है।
तो अपने को
छिपाती है।
लेकिन इस
पुरुष के लिए
उसे आकर्षक भी
होना है, क्योंकि
इस पुरुष के
लिए अगर वह
आकर्षक नहीं
है तो बेमानी
है। तो उसे
उघाड़ना भी है।
तो स्त्रियां
एक बड़ी जिच
में पड़ी रहती हैं,
सदा--उघाड़ो
भी, ढांको भी। इधर से ढांको, उधर
से उघाड़ो।
यह अंग ढांको,
वह अंग उघाड़ो।
उनको पूरे
वक्त इन दोनों
के बीच एक
तालमेल और एक
संतुलन और एक
"बैलेंस' बनाए
रखना पड़ता है।
तो वे
स्त्रियां
अगर पानी से
अपने गुह्य
अंगों को ढांककर
निकली हों, तो
बिलकुल
स्वाभाविक
है। यह घटना
बड़ी सहज है। और
कृष्ण ने अगर
उनसे कहा हो
कि हाथ जोड़कर
देवता को
नमस्कार करो,
तो यह भी
बिलकुल
स्वाभाविक
है। इसमें कुछ
कठिनाई नहीं
है। यह
पुरुष-चित्त
है। और कृष्ण
सीधे, सहज
पुरुष-चित्त
हैं--कहना
चाहिए, पूरे
पुरुष-चित्त
हैं। और इसके
बाबत न कोई
दमन है, न
कोई विरोध है।
और जिन्होंने
ये कथाएं
लिखीं, वे
भी बड़े सहज
लोग रहे होंगे,
उन्होंने
सीधी-सीधी
बातें लिख दी
हैं, जैसी
थीं। उनके मन
में अभी तक
कोई ऐसा मामला
नहीं आया था, न कोई ऐसे
सिद्धांत आ गए
थे जो कहते कि
यह क्या लिख
रहे हो? और
कृष्ण जिसे
तुम भगवान बना
रहे हो, उसके
बाबत ऐसी बात
लिखकर तुम
दिक्कत डाल
रहे हो। बाद
के लोगों को
बड़ी कठिनाई
होगी कि यह
भगवान कैसा
था! भगवान ही
ऐसा हो सकता
है। इतना सरल और
सहज, इतना "स्पांटेनियस'
भगवान ही हो
सकता है, आदमी
नहीं हो सकता।
आदमी तो "स्पांटनियस'
हो ही नहीं
सकता, वह
तो "प्रीप्लांड'
है। इतना
जरूर मैं
कहूंगा कि
कृष्ण ने यह
"प्लानिंग' न की होगी।
इतना मैं
कहूंगा। इसका
कोई "ब्लू प्रिंट'
नहीं रहा
होगा, कि लड़कियां
अपने अंग छिपा
लेंगी तो मैं
उनसे कहूंगा
कि हाथ जोड़ो।
बस यह हुआ
होगा कि
लड़कियों ने
अंग छिपाए होंगे,
कृष्ण ने
कहा होगा कि
हाथ जोड़ो
नदी के देवता
को, क्या
करती हो? नाराज
कर दिया नदी
के देवता को!
पर यह "स्पांटेनियस',
सहज। और इस
सहजता को इसी
तरह वर्णित
किया जिन लोगों
ने, वे
अदभुत रहे होंगे।
सरल रहे होंगे,
सीधे रहे
होंगे।
घटनाओं में
काट-छांट नहीं
की है। "इम्प्रूवमेंट'
नहीं किया
है कोई घटनाओं
पर। चीजों को
छोड़ दिया है
जैसी वे थीं।
पीछे हमको
कठिनाई होती
चली गई है।
पीछे हम
मुश्किल में
पड़ते चले गए।
ऐसी बहुत
घटनाएं हैं जो
हमें पीछे
दिक्कत में सालती
हैं। क्योंकि
पीछे हमारे नए
सिद्धांत और नई
धारणाएं और नई
नैतिकताएं
नए खयाल दे
देती हैं और
वह हमको पीछे
की तरफ लौटकर
उनको हमें
लागू करना
पड़ता है। फिर
कठिनाई खड़ी हो
जाती है।
तो मैं
तो मानता हूं
कि काम-ऊर्जा
की जो सहजतम
अभिव्यक्ति
हो सकती है, वह
कृष्ण में हुई
है। उसमें
उन्होंने कोई
बाधा नहीं
मानी है। वह
सहज जिए हैं।
और उनके समाज
में, जिसमें
वह थे, उसने
सहज स्वीकार
कर लिया था।
वह समाज भी
सहज होगा।
दूसरी
बात पूछी है, कि
मैं भी
पुरस्कर्ता
हूं। एक अर्थ
में हूं। ऐसा
नहीं कि
वस्त्रों का
विरोधी हूं।
अगर वस्त्रों
का विरोधी हूं,
तो मैं घड़ी
के कांटों को
पीछे की तरफ
घुमाता हूं।
वस्त्रों की
उपादेयता है,
वस्त्रों
का अर्थ है, वस्त्रों का
प्रयोजन है।
लेकिन
वस्त्रों की कोई
नैतिकता नहीं
है, वस्त्रों
की कोई "मॉरलिटी'
नहीं है।
प्रयोजन है।
सर्दी है और
वस्त्र जरूरी
हैं। गर्मी है
और और तरह के
वस्त्र जरूरी
हैं। और आप
रास्ते पर
जाने के लिए
हैं, तो भी
वस्त्र जरूरी
हैं, क्योंकि
कोई आपको नग्न
न देखना चाहे
तो आपको दिखाने
का हक नहीं है,
वह "ट्रेसपास'
है। लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि
कोई हमें नग्न
देखने को राजी
नहीं है तो हम
अपने घर पर भी
नग्न होने को
स्वतंत्र न रह
जाएं, या
किन्हीं घड़ियों
में हम नग्न न
हो सकें। नहीं,
नग्नता और
वस्त्र ऐसे ही
होने चाहिए
जैसे जूते
हैं। घर पर हम
जूता नहीं
पहनकर घूम रहे
हैं, उतार
देते हैं, बाहर
पहनकर चले
जाते हैं।
लेकिन घर में
जूता उतारकर
कोई नहीं कहता
कि तुम नंगे
हो गए। हो तो
गए हैं, पैर
तो नंगे हो ही
गए।
कपड़े
सहजता से लिए
जाएं, उनका
दंश न रह जाए।
और सहजता से
वे तभी लिए
जाएं, उनका
दंश न रह जाए।
और सहजता से
वे तभी लिए जा
सकते हैं जब
नग्नता भी
सहजता से ली
जाए, नहीं
तो नहीं लिए
जा सकते हैं।
तब कपड़े एक
नैतिक अर्थ ले
लेते हैं, जो
उनमें बिलकुल
नहीं है।
मनुष्य ने
बहुत कपड़े ओढ़
डाले। इतने
कपड़े ओढ़ डाले
कि उन कपड़ों
की वजह से उसे
कपड़े उघाड़ने
के हजार तरह
के प्रयत्न
करने पड़ते
हैं। उससे अनैतिकता
पैदा होती है।
मैं
मानता हूं कि
अगर हम नग्नता
को सहज स्वीकार
कर लें, जैसा
कि हम नग्न
पैदा होते
हैं। कपड़ों के
भीतर भी नग्न
ही रहते हैं, नग्न ही
मरते हैं।
परमात्मा ने
हमें नग्न ही
पैदा किया है।
वह सहजता है।
इसका यह मतलब
नहीं है कि हम
नंगे ही रहें।
परमात्मा ने
हमें जैसा
पैदा किया है
उसमें हम बहुत
फर्क करते
हैं। परमात्मा
धूप डाल रहा
है, हम छाता
लगाए हुए हैं।
इसमें हम कोई
परमात्मा का विरोध
नहीं कर रहे
हैं। क्योंकि
छाता लगाने से
जो छाया आती
है वह भी
परमात्मा के
नियम का हिस्सा
है। उसमें कोई
विरोध नहीं
है। सिर्फ हम
हमारे लिए जो
मौज का है वह
हम कर रहे हैं,
और इतनी
स्वतंत्रता
हमें है कि हम
धूप में बैठें
कि छाया में।
लेकिन अगर
किसी दिन कोई
आदमी छाया में
बैठने को
नैतिकता बना
ले और धूप में
जाने को पाप
बना दे, तो
फिर छाया में
बैठना बड़ा
बोझिल हो
जाएगा। और फिर
धूप में जाना
अपराध हो
जाएगा--और
लोग चोरी से
धूप में जाने
लगेंगे, जो
कि बड़ी सहज
बात है।
जिसमें चोरी
से जाने का
कोई कारण न था,
अब अकारण हम
चोरी पैदा कर
रहे हैं, अकारण
हम अनैतिकता
पैदा करवा रह
हैं। अकारण "कंडेमनेशन'
पैदा कर रहे
हैं, अकारण
लोगों को
अपराधी सिद्ध
करवा रहे हैं
और उनको "गिल्ट'
दे रहे हैं,
जिसको देने
की कोई जरूरत
न थी।
तो मैं
मानता हूं कि
नग्नता एक
सत्य है जीवन
का,
उसे सरलता
से स्वीकार
करने की बात
है। उससे भागने
की कोई जरूरत
नहीं है।
भागने के कारण
पच्चीस उपाय
कर रहे हैं।
सड़क-सड़क पर
नंगे पोस्टर लगे
हैं, वे
बिलकुल न
लगेंगे। अगर
हम सहज नग्नता
को स्वीकार कर
लें, अगर
घर में कभी
लोग नग्न भी
बैठते हों, कभी नदी के
किनारे नग्न
नहाते भी हों,
कभी
मित्रों के
बीच नग्न गपशप
भी करते हों, कभी नग्न
बैठकर धूप भी
लेते हों--ऐसा
नहीं कि कपड़े
छोड़कर भाग
जाएं; कपड़े
छोड़कर भागेंगे
तो घड़ी का
कांटा पीछे
लौटेगा। और
अगर कपड़े छोड़कर
भागते नहीं
हैं, नग्नता
को भी स्वीकार
करते हैं, तो
जो लोग नग्न
थे उनको कपड़ों
का जो फायदा
नहीं था, वह
हमें होगा; और जो लोग
सिर्फ कपड़ा
पहने हुए हैं
और कपड़ों से
जो परेशानी
में पड़ गए हैं,
उस परेशानी
में हम न
होंगे। और
इसलिए इसे मैं
विकास
कहूंगा। यह
आगे जाना
होगा। यह
अकेले नंगे
लोगों से भी
आगे जाना होगा,
अकेले कपड़े ढंके
लोगों से भी
आगे जाना
होगा।
र्न्यूडिस्ट-क्लब' बगावत
हैं। "न्यूडिस्ट-क्लब'
एक
प्रतिक्रिया
हैं उस समाज
की जिन्होंने
कपड़े बहुत थोप
दिए हैं। मैं "न्यूडिस्ट-क्लब'
के पक्ष का
नहीं हूं।
यानी इसका
मतलब यह हुआ कि
एक तरफ पूरा
समाज बीमार
होता है और एक
तरफ अस्पताल
बनाते हैं।
मैं कहता हूं,
बीमार ही
क्यों हों! "न्यूडिस्ट-क्लब'
की जरूरत जो
है, वह यह
जो "आब्सेस्ड'
लोग हैं
कपड़े से, इनकी
वजह से पैदा
होती है। अगर
हम "आब्सेसन'
अलग कर लें,
तो "न्यूडिस्ट-क्लब'
की कोई
जरूरत
नहीं रह
जाती। अगर हम
सहजता से घर
में बाप बेटे
के साथ नग्न नहा सके, मां बेटे के
साथ नग्न नहा
सके तो हैरान
होंगे आप इस
बात को जानकर
कि अगर घर में
मां अपने बेटे
के साथ नग्न नहा सके तो
यह बेटा किसी
लड़की को
रास्ते पर
धक्का देने
में असमर्थ हो
जाएगा। इसका
कोई अर्थ नहीं
रह जाएगा। यह
बिलकुल
बेमानी बात हो
जाएगी।
स्त्री और
पुरुष के बीच
का फासला इतना
कम हो जाएगा
कि धक्का
मारकर फासला
कम करने की
कोई जरूरत
नहीं है।
धक्का मारकर
भी फासला ही
कम किया जा
रहा है, और
कुछ किया नहीं
जा रहा है। और
चूंकि
आहिस्ता से
हाथ रखने कोई
उपाय नहीं है,
इसलिए
धक्का मारा जा
रहा है। अगर
कोई स्त्री
मुझे अच्छी
लगे और उसका
हाथ मैं हाथ
में लेकर कहूं
कि मुझे हाथ
बहुत प्यारा लगता
है, एक
क्षण हाथ में
ले सकता हूं, और समाज
इतना सहज हो
कि वह कहे कि
ठीक है, यह
हाथ आपको
प्यारा लगा, धन्यवाद--मेरे
हाथ को इतना
प्यारा लगने
का भी तो
धन्यवाद होना
चाहिए--तो फिर
धक्का मारना
मुश्किल हो
जाएगा। लेकिन
वह नहीं संभव
हुआ है। हम
फूलों को
धक्के नहीं मारते;
हम खड़े होकर
देख लेते हैं,
रास्ते से
गुजर जाते
हैं। अगर कल
फूल कोई कानून
बना लें, और
फूल भी पुलिस
के आदमी खड़े
कर लें और
कहें कि कोई
देखेगा तो ठीक
नहीं होगा, तो फिर
फूलों के साथ
ज्यादती शुरू
हो जाएगी। फिर
अनैतिकता
शुरू हो
जाएगी।
असल
में अति
नैतिकता का
आग्रह
अनैतिकता का
जन्म बन जाता
है,
"टू मच मॉरैलिटी
क्रिएट्स
इम्मॉरैलिटी'। ज्यादा
नैतिक हुए कि
आप अनैतिक
होंगे फिर। तो
बहुत कपड़े पहन
लिए तो "न्यूडिस्ट-क्लब'
है। मैं कोई
"न्यूडिस्ट-क्लब'
के पक्ष में
नहीं, क्योंकि
मैं बहुत कपड़े
वालों के पक्ष
में नहीं। मैं
कहता हूं, सहजता
से जिंदगी
जैसी है उसे
स्वीकार कर
लेना चाहिए।
और कृष्ण बड़े
अदभुत प्रतीक
हैं। वह सहज
जीवन में जो
है, उसकी
सहज स्वीकृति
है।
"भगवान
श्री, आपने
इसकी ओर यथार्थ
इंगित किया कि
आप किसी पक्ष
में नहीं हैं।
पर जैसा कि
आपने अभी कहा
कि किसी का
हाथ प्यारा लगे
तो उस हाथ को
सहज समाज में
आप ले सकें, वह एक "नार्मल
सिचुएशन' हो
सकती है। मगर
तक तो आपसे
यही प्रश्न
पूछना मुनासिब
होगा कि आप "इम्मॉरैलिटी'
की
व्याख्या
क्या करते हैं? क्योंकि
आप हाथ कहेंगे,
ऐसे दूसरा
कोई और अंगों
की मांग
करेगा। क्या उससे
व्यक्ति के
जीवन में "कान्फ्लिक्ट'
नहीं पैदा
हो जाएगी? क्या
कोई पति
दिक्कत में
नहीं पड़ जाएगा?
साथ
दूसरा भी एक
प्रश्न है कि
जो कृष्ण वस्त्रहरण
कर सके, वही
कौरव-सभा में
द्रौपदी का
चीर पूरा भी
कर सके। ये
कृष्ण के
व्यक्तित्व
के दो छोर
हुए। द्रौपदी
का वस्त्र
पूर्ण करते
कृष्ण अलौकिक
हैं, लोकोत्तर
हैं, चमत्कारिक
हैं। क्या यह
केवल अदभुत
दृष्टांत
नहीं हो सकता?
द्रौपदी के
वस्त्र को
पूर्ण करने
वाले कृष्ण काले
थे। श्रीमद्भागवत
में उनके रंग
के वर्णन के
लिए तीन
विशेषण दिए गए
हैं--शुक्ल, पीत और
कृष्ण।
कवियों ने
बहुत-बहुत
कल्पनाएं कीं
कि कृष्ण
क्यों काले
हैं फिर भी
मतवाले हैं, इत्यादि। आप
भी कुछ कहें।'
जहां
तक सहजता का
संबंध है, शरीर
के किसी अंग
में और हाथ
में कोई फर्क
नहीं है। फर्क
हमें दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
फर्क हमने
पैदा कर लिया
है। फर्क निर्मित
है। फर्क है
नहीं। शरीर के
सभी अंग एक जैसे
हैं। हाथ में
और किसी अंग
में कोई फर्क
नहीं है। हमें
फर्क दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
हमने शरीर में
भी खंड कर लिए
हैं। शरीर का
कोई हिस्सा है
जो बैठकखाने
जैसा है, जिसको
सब देख सकते
हैं। शरीर का
कोई हिस्सा है
जो गोडाऊन
जैसा है, जिसके
लिए "लाइसेंस'
चाहिए।
हमने शरीर को
कई हिस्सों
में बांटा हुआ
है। ऐसे शरीर
अखंड और
इकट्ठा है।
इसमें कोई हिस्से
का कोई फर्क
नहीं है। और
जिस दिन मनुष्य
सच में पूरा
स्वस्थ होगा
और सहज होगा, उस दिन कोई फर्क
नहीं होगा।
लेकिन
आपका यह कहना
ठीक है कि इसे
किस सीमा तक? अगर
कोई व्यक्ति
किसी का हाथ
हाथ में ले
लेता है, तो
सोचा जा सकता
है कि ठीक है।
लेकिन, दो
बातें
विचारणीय
हैं। जिस सहज
समाज की मैं बात
करता हूं, या
जिस सहज
संभावना की
बात करता हूं,
दूसरे
व्यक्ति का
हाथ लेते वक्त
जैसे किसी
दूसरे
व्यक्ति को व्यर्थ
ही, अकारण
बाधा डालना
ठीक नहीं है, वैसे ही
दूसरे
व्यक्ति का
हाथ लेते वक्त
व्यर्थ ही, अकारण ही
दूसरे
व्यक्ति को
कष्ट न हो, वह
भी सहजता का
हिस्सा है।
क्योंकि जब
मैं किसी
व्यक्ति का
हाथ लेता हूं
तो किसी
व्यक्ति का
हाथ ले रहा
हूं, और
मेरे लिए
आनंदपूर्ण हो
सकता है उसका
हाथ लेना, लेकिन
अगर उसको
दुखपूर्ण है,
तो उसको भी
स्वतंत्रता
तो है ही। मैं
अपना आनंद
लेने के लिए
हकदार हूं तो
दूसरा भी अपने
आनंद का ध्यान
रखने के लिए
हकदार है। अगर
मुझे अच्छा लग
रहा है किसी
का हाथ हाथ
में लेना तो
यह भी जानना
जरूरी है कि
उसे अच्छा लग
रहा है या
नहीं लग रहा
है। मैं अपने
सुख के लिए
स्वतंत्र हूं
तो वह भी अपने
सुख के लिए स्वतंत्र
है। जहां से
यह दूसरा
व्यक्ति शुरू
होता है वहां
से ही हमारी
स्वतंत्रता
पर दूसरे की
स्वतंत्रता
की
जिम्मेदारी
भी शुरू हो
जाती है। वह
बिलकुल सहज है,
स्वाभाविक।
क्योंकि आप
आएं और मुझे
गले से लगा
लें, लेकिन
मुझे इससे
सिर्फ घबड़ाहट
होती हो, तो
आप आप आनंद
लेने के हकदार
हैं, लेकिन
मैं भी तो
अपनी घबड़ाहट
से बचने का
हकदार हूं।
इसलिए सहज
समाज निवेदन
करेगा। ये
निवेदन ही हो
सकते हैं। और
इनकी
स्वीकृति
अनिवार्य
नहीं है; क्योंकि
दूसरा
व्यक्ति शुरू
हो गया
तत्काल।
मैं
किस बात को
नैतिकता कहता
हूं,
आपने पूछा,
मैं किस बात
को "मॉरेलिटी'
कहता हूं? मैं इस बात
को नैतिकता
कहता हूं। मैं
इस बात को
नैतिकता कहता
हूं कि दूसरे
व्यक्तित्व
का सम्मान, दूसरे
व्यक्ति का
उतना ही
सम्मान जितना
मेरा सम्मान
मेरी दृष्टि
में है, इसको
मैं नैतिकता
कहता हूं।
इसके
अतिरिक्त मेरे
लिए कोई
नैतिकता नहीं
है। और मैं
मानता हूं कि
और जितनी नैतिकताएं
हैं वे सब
इसके नीचे
अपने-आप फलित
होती हैं। दूसरे
व्यक्ति का
मेरे ही जितना
सम्मान
नैतिकता का
मूल है। जिस
दिन मैं अपने
को दूसरे
व्यक्ति के
ऊपर रखता हूं
उसी दिन मैं
अनैतिक हो
जाता हूं। जिस
दिन मैं दूसरे
व्यक्ति का साधन
की तरह उपयोग
करता हूं और
मैं साध्य हो
जाता हूं, उस
दिन मैं
अनैतिक हो
जाता हूं।
प्रत्येक व्यक्ति
अपने-आप में
साध्य है, "एंड'
है। जब तक
मैं इसका
स्मरण रखता
हूं, तब तक
मैं नैतिक
होता हूं।
आपने
पूछा है कि एक
पति को तो
बुरा लगता है।
लग सकता है।
असल में पति
एक प्रकार की
अनैतिकता है।
एक तरह की "इम्मॉरेलिटी' है।
असल में पति
इस बात की
घोषणा है कि
उसने एक पत्नी
को सदा के लिए
अपना साधन बना
लिया है। पति
इस बात की
घोषणा है कि
उसने एक
व्यक्ति को
खरीद लिया है।
पति इस बात की
घोषणा है कि
वह एक व्यक्ति
का मालिक हो
गया है, "ओनरशिप' हो गई है।
व्यक्तियों
की मालकियत
नहीं हो सकती।
मालकियत
सिर्फ
वस्तुओं की हो
सकती है। और व्यक्तियों
की मालकियत
अनैतिक है।
तो
मेरे हिसाब
में तो विवाह
एक अनैतिकता
है। प्रेम एक
नैतिकता है, विवाह
एक अनैतिकता
है। और जिस
दिन दुनिया
अच्छी होगी, उस दिन दो
व्यक्ति जीवन
भर साथ रह
सकते हैं, लेकिन
वह साथ रहना
कोई "कांट्रेक्ट'
नहीं होगा।
यह साथ रहना
कोई सौदा नहीं
होगा, यह
साथ रहना कोई
संस्था नहीं
होगी, यह
साथ रहना उनके
प्रेम का
प्रतिफल
होगा। यह उनका
प्रेम है कि
वे साथ रह रहे
हैं। जिस दिन
प्रेम कानून
बनता है, उस
दिन प्रेम की
हत्या हो जाती
है।
जिस
दिन मैं किसी
स्त्री से कह
सकता हूं कि
मैं हकदार हूं
तुमसे प्रेम
मांगने का, क्योंकि
तुम मेरी
पत्नी हो, उस
दिन प्रेम
कानून बन गया।
उस दिन पत्नी
अगर कहे कि आज
तो मैं प्रेम
के क्षण में
नहीं हूं--और
प्रेम के "मूड'
होते हैं, प्रेम के
क्षण होते
हैं। इस योग्य
बहुत कम लोग
हैं जो चौबीस
घंटे प्रेम
में हैं।
चौबीस घंटे
प्रेम में वही
हो सकता है जो
प्रेम हो गया
है। साधारणजन
तो किसी क्षण
में प्रेम में
होता है, चौबीस
घंटे प्रेम
में नहीं
होता। लेकिन
कानून तो क्षण
नहीं देखेगा।
मैं अपनी
पत्नी से कह सकता
हूं कि मैं इस
वक्त प्रेम
चाहता हूं।
प्रेम मांगा
जा सकता है, क्योंकि तुम
मेरी पत्नी
हो। और उसे
प्रेम देना
पड़ेगा। और जब
प्रेम देना
पड़ता है तब वह
प्रेम नहीं रह
जाता। लेकिन
पत्नी अगर कहे
कि आज तो
प्रेम का क्षण
ही नहीं है, इस क्षण तो
आप मेरे कोई
भी नहीं
हैं--क्योंकि
नाता तो सिर्फ
प्रेम का ही
है, इस
वक्त प्रेम ही
नहीं है--इस
वक्त आप ऐसे
ही पराए हैं
जैसे कोई और
पराया है, तो
कठिनाई खड़ी
होगी कानून
में।
लेकिन
हम यह भी
समझें कि क्या
यह संभव है जो
हमने बनाया है
नीति के नाम
पर?
हमने नीति
के नाम पर
बहुत-सी असंभावनाएं
थोप दी हैं और
उन असंभावनाओं
की वजह से
बहुत
अनैतिकता
पैदा हुई है।
मैं आज एक
व्यक्ति को
प्रेम करता
हूं, क्या
मैं पक्का
वायदा कर सकता
हूं कि कल मैं
किसी दूसरे व्यक्ति
को प्रेम नहीं
करूंगा? कैसे
कर सकता हूं? यह बिलकुल
असंभव है। अभी
कल आया नहीं, अभी वह
व्यक्ति भी
मुझे नहीं
मिला जिससे कि
मेरा प्रेम हो
सकता है, मैं
वायदा कैसे कर
सकता हूं? और
अगर मैंने
वायदा किया, तो कल उपद्रव
यह होगा कि कल
वह व्यक्ति तो
आ जाएगा--वह
मेरे वायदे को
देखता
नहीं--कल वह
चित्त की घड़ी
भी आ जाएगी--वह
भी मेरे वायदे
को नहीं
देखती--कल एक
घटना घट सकती
है जब मैं
किसी के प्रति
प्रेमपूर्ण
हो जाऊं, लेकिन
तब मेरा वायदा
बीच में खड़ा
हो जाएगा। तब
दोहरी कठिनाई
होगी। या तो
मैं चोरी से
किसी के प्रेम
में हो जाऊं, जो कि
अनैतिकता
होगी।
क्योंकि जिस
दिन दुनिया
में प्रेम को
भी चोरी से
किसी के प्रेम
में हो जाऊं, जो कि
अनैतिकता
होगी।
क्योंकि जिस
दिन दुनिया
में प्रेम को
भी चोरी से
करना पड़े, उस
दुनिया में और
क्या है जिसको
हम ईमानदारी
से कर सकेंगे?
एक तरफ यह
होगा कि मैं
चोरी से प्रेम
करूं और दूसरी
तरफ यह होगा
कि जिससे
मैंने प्रेम
का वायदा किया
है उसके साथ
मैं प्रेम का
अभिनय करूं।
क्योंकि अब
उसके साथ
प्रेम कैसे हो
सकेगा! और जिस
दुनिया में
प्रेम का भी
अभिनय करना
पड़ता हो, वहां
किस चीज का
आचरण किया जा
सकेगा?
तो मैं
पति को, विवाह
को अनैतिकताएं
मानता हूं, जो एक
अनैतिक समाज
ने ईजाद की
हैं। और उनके
साथ ही हजार
तरह की अनैतिकताएं
पैदा होती
हैं। जब हम
पति को, पत्नी
को बहुत जोर
से कस देते
हैं, वेश्या
पैदा हो जाती
हैं। फौरन
पैदा हो जाती
हैं। वेश्या
जो है, वह
सती-सावित्रियों
की रक्षा है।
सती-सावित्री
बचानी है तो
वेश्या पैदा
करनी पड़ेगी।
लेकिन
स्त्रियां भी
पसंद करेंगी
कि उनका पति
एक वेश्या के
पास चला जाए, बजाए पड़ोसी की
पत्नी से
प्रेम में पड़
जाए। क्योंकि
प्रेम में "इनवॉल्वमेंट'
है, खतरा
है। पड़ोसी की
पत्नी के
प्रेम में अगर
पति पड़ जाए, तो पत्नी को
खतरा है।
वेश्या के पास
चला जाए तो
कोई खतरा नहीं
है। वह वापस
सुबह लौट
आएगा। और यह
पैसे का सौदा
है, इसमें
कोई खतरा नहीं
है। इसलिए पत्नियां
वेश्याओं के
लिए राजी हो
गईं, प्रेम
के लिए राजी
नहीं हुईं।
अब जब
इस सब को मैं
ऐसा कहता हूं, तो
आप जो कहते हज
ठीक कहते हैं
कि "टैबूज़'
से भरा हुआ
आदमी, हजार
तरह के
संस्थान, हजार
तरह के
संस्कार, हजार
तरह की आदतें,
हजार तरह की
नैतिकताओं
में पला हुआ
आदमी, वह
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाएगा।
मैं आपसे कहता
हूं, वह
बड़ी मुश्किल
में पड़ा ही हुआ
है। मैं जो कह
रहा हूं, उससे
वह मुश्किल के
बाहर जा सकता
है। वह मुश्किल
में पड़ा ही
हुआ है। कहां
है वह आदमी, जो मुश्किल
में नहीं है? सब आदमी
मुश्किल में
पड़े हैं।
लेकिन, अगर
मुश्किल
पुरानी है, तो हमें
दिखाई नहीं
पड़ती। अगर
मुश्किल आदतन
हो गई, तो
दिखाई नहीं पड़ती।
अगर बीमारी
स्थायी है, तो हम उसे
भूल जाते हैं।
मैं जो कह रहा
हूं वह नई
मुश्किल
होगी। नई
मुश्किल
इसलिए नहीं है
कि मैं जो कह
रहा हूं उससे
आदमी की
जिंदगी में मुश्किलें
आएंगी, मैं
जो कह रहा हूं
उससे एक
मुश्किल होगी
कि पुरानी
मुश्किल
आदतें छोड़नी
पड़ेंगी। पुरानी
मुश्किल के
संस्कार
छोड़ने
पड़ेंगे। और
अगर किसी दिन
पृथ्वी इस बात
के लिए राजी
हो सकी कि हम
जीवन को सहज
कर लें, और
जीवन पर असंभावनाएं
न थोपें, तो कृष्ण
जैसे लाखों
व्यक्तित्व
पैदा हो सकते
हैं। कोई एक
ही कृष्ण पैदा
हो, यह
जरूरी नहीं
है। सारी
पृथ्वी कृष्णों
से भर सकती
है।
आखिरी
प्रश्न
उन्होंने
पूछा है कि
कृष्ण के बहुत
रंगों की बात
हुई है। बहुत
रंगों के आदमी
थे! रंगीन
आदमी थे! एक
रंग में उनको
नहीं बताया जा
सकता। इसी
कारण। बहुत
रंग के आदमी
थे। कई रंग
एकसाथ थे उस
आदमी में।
शरीर तो एक ही
रंग का रहा
होगा, लेकिन
आदमी कई रंग
का था। फिर
देखने वाली
आंखों पर बहुत
कुछ निर्भर
करता है कि
कौन-सा रंग
दिखाई पड़ता है।
तो जिनने
जिस आंख से
देखा होगा, उन्हें वे
रंग दिखाई पड़
गए होंगे। हां,
एक आदमी भी
तीन हालातों
में तीन रंग
देख सकता है।
क्योंकि एक ही
आदमी तीन
हालातों में
एक ही आदमी कहां
रहता है? कभी
जब मैं प्रेम
में होता हूं
तब आपको दूसरा
रंग दिखाई
पड़ता है। और
जब मैं क्रोध
में होता हूं
तब दूसरा रंग
दिखाई पड़ता
है। और कभी आप
मेरे प्रति
प्रेम में
होते हैं तब
दूसरा रंग दिखाई
पड़ता है। और
कभी जब आप
मेरे प्रति
क्रोध में
होते हैं तो
दूसरा रंग
दिखाई पड़ता
है। और वे रंग
रोज बदलते
रहते हैं। रंग
प्रतिपल
बदलते रहते
हैं। सब बदलता
रहता है। यहां
थिर कुछ भी
नहीं है। इस
जगत में थिरता
जैसी बात ही
झूठ है। यहां
सब बदल रहा
है। लेकिन, अधिक लोगों
ने उनमें
सांवला रंग ही
देखा। उसके
कुछ कारण हैं।
ऐसा
लगता है कि सांवला
रंग उनकी
थिरता का
स्थायित्व
गुण रहा होगा।
यानी वे सांवले
रंग में ही
अथिर होते रहे
होंगे। वह
चंचल रहे होंगे, सांवले
रंग में ही।
इस मुल्क के
मन में सांवले
रंग के लिए
कुछ आग्रह
हैं। असल में
गोरा रंग उतना
सुंदर कभी भी
नहीं होता, जितना
सांवला रंग
सुंदर होता
है। उसके कई
कारण हैं।
लेकिन आमतौर
से हमें गोरा
रंग सुंदर
दिखाई पड़ता है,
क्योंकि
गोरे रंग की
चमक में
बहुत-सी असुंदरताएं
छिप जाती हैं।
और काले रंग
में कुछ भी
नहीं छिपता, इसलिए काला
आदमी मुश्किल
से कभी सुंदर
होता है। गोरे
आदमी बहुत
सुंदर होते
हैं क्योंकि काला
रंग कुछ
छिपाता नहीं
है, सीधा
प्रगट कर देता
है। सफेदी की
चमक में बहुत-सी
चीजें छिप
जाती हैं।
इसलिए गोरे
रंग के बहुत-से
आदमी सुंदर
दिखाई पड़ेंगे,
काले रंग का
कभी-कभी कोई
आदमी सुंदर
होता है। लेकिन
जब काले रंग
का कोई सुंदर
होता है, तो
गोरे रंग का
सुंदर आदमी
एकदम फीका पड़
जाता है।
इसलिए हमने
राम को भी सांवला,
कृष्ण को भी
सांवला--हमने
जिनको भी
सुंदर देखा
उनको हमने सांवले
रंग में देखा।
सांवले
रंग का
सौंदर्य "रेअरिटी'
है। वह बहुत
"रेअर' है। सफेद
रंग के सुंदर
बहुत लोग होते
हैं। वह कोई "रेअरिटी' नहीं है। वह
कोई बहुत
विशेषता नहीं
है। सफेद रंग
का सुंदर होना
बड़ी साधारण
बात है, सांवले रंग का
सुंदर होना
बड़ी असाधारण
बात है।
कुछ और
भी कारण हैं।
सफेद रंग में
गहराई नहीं होती, "डेप्थ' नहीं होती, फैलाव होता
है। इसलिए
सफेद शक्ल
"फ्लैट' होती
है, "डीप' नहीं होती।
नदी देखी है, जब गहरी हो
जाती है तब सांवली
हो जाती है। सांवले
रंग में एक "डेप्थ' है।
फैलाव नहीं है,
एक "इनटेंसिटी'
है। सांवला
चेहरा चेहरे
पर ही समाप्त
नहीं होता, उसमें भीतर
कुछ "ट्रांसपेरेंट'
भी होता है।
उसमें पर्तें
होती हैं। सांवले
आदमी के चेहरे
के भीतर चेहरे,
चेहरे के भीतर
चेहरों की
पर्तें होती
हैं। हां, गोरा
आदमी "फ्लैट' होता है, उसका
चेहरा साफ, जो है सामने
होता है।
इसलिए गोरे
रंग से बहुत जल्दी
ऊब पैदा हो
जाती है। सांवले
रंग से ऊब
पैदा नहीं
होती। उसमें
नए रंग दिखाई
ही पड़ते चले
जाते हैं। और
कृष्ण जैसा
आदमी ऐसा आदमी
है कि उससे ऊब
पैदा हो नहीं
सकती।
अभी आप
जानकर हैरान
होंगे कि
पश्चिम की
सारी सुंदरियां
सांवला होने
के लिए बड़ी
दीवानी हैं।
सागर के तट पर
लेटी हैं।
किसी तरह धूप
थोड़ी सांवली
कर दे। क्या
पागलपन आ गया
है?
असल में जब
भी कोई
संस्कृति
अपने शिखर पर
पहुंचती है, तब फैलाव कम
मूल्य का रह
जाता है, गहराई
ज्यादा मूल्य
की हो जाती
है। हमको पश्चिम
का आदमी सुंदर
दिखाई पड़ता है,
पश्चिम का
आदमी जानता है
कि अब सौंदर्य
गहराई में
खोजना है, हो
चुकी वह बात।
अब पश्चिम की
सुंदर स्त्री
सांवला होने
की कोशिश में
लगी है। इसलिए
पश्चिम का
सुंदरतम आदमी
भी "ट्रांसपेरेंट'
नहीं होता।
उसका चेहरा बोथला हो
जाता है। वह
सफेद रंग की
खराबी है।
वह
सफेद रंग की खूबियां
हैं,
कि बहुत लोग
सुंदर हो सकते
हैं सफेद रंग
में। सफेद रंग
की खराबी है, कि उसमें
बहुत गहरा
सौंदर्य नहीं
हो सकता। इसलिए
सांवले
रंग पर हमने
देखा। मैं
नहीं मानता कि
कृष्ण सांवले
रहे ही होंगे
यह कोई जरूरी
नहीं है। हमने
सांवला देखा।
इतना प्यारा
आदमी था कि हम
उसको गोरा
नहीं सोच सके।
हमने उनको
सांवला सोचा।
वे सांवले
हो भी सकते
हैं, वह
मेरे लिए गौण
है।
मेरे
लिए तथ्य बहुत
गौण हैं। मेरे
लिए काव्य बहुत
महत्वपूर्ण
हैं। हम न सोच
सके इस आदमी
को गोरा, क्योंकि
यह इतने रंग
का आदमी था, इतना गहरा
आदमी था, और
इसके चेहरे
में झांकते
जाने, झांकते जाने का मन
होता था, डूबते
जाने का मन
होता था।
इसमें और
गहराइयां थीं,
जो उघड़ती
चली जाती थीं।
इसलिए बहुत
रंग में एक
व्यक्ति ने भी
देखा और बहुत
लोगों ने भी
देखा, पर
एक स्थायी रंग
में हमने सोचा
है, वह है
सांवला रंग।
श्याम नाम ही
उनको इसलिए दे
दिया। श्याम
का मतलब है, काले। कृष्ण
का मतलब भी है,
काला। न
केवल हमने
सोचा, बल्कि
हमने नाम भी
जो उन्हें दिए
उसमें सांवलापन
था। श्याम कहा,
कृष्ण कहा,
वे सब काले
रंग के ही
प्रतीक हैं।
और एक
बात उन्होंने
पूछी है कि एक
तरफ उघाड़ते
हैं वस्त्रों
को कृष्ण, दूसरी
तरफ उघड़ती
हुई द्रौपदी
पर वस्त्र
फेंकते हैं।
असल में जिसने
कभी उघाड़ा
नहीं, वह
जिंदगी भर उघाड़ता
ही रहता है।
लेकिन जिसने उघाड़कर
देख लिया, अब
वह वस्त्र ढांक
सकता है।
ढांकने
और उघाड़ने
में एक और बड़ा
फर्क है।
प्रेम
तो उघाड़ने
की आज्ञा दे
सकता है।
प्रेम उघाड़ना
चाहता है।
लेकिन
द्रौपदी
प्रेम से नहीं
उघाड़ी जा
रही थी।
द्रौपदी बड़ी
घृणा से उघाड़ी
जा रही थी।
द्रौपदी को
देखने वाली
आंखें प्रेम
की जिज्ञासा
से भरी हुई आंखें
न थीं। जो
घटना है, उस
घटना का मेरे
लिए मूल्य
नहीं--जैसा
मैं निरंतर
कहता हूं, मेरे
लिए तथ्यों का
कोई मूल्य
नहीं। कोई
चमत्कार ऐसा
घटा हो कि दूर
से कोई कृष्ण ढांकते
रहे हों, मैं
मानता हूं कि
ये सब प्रतीक
हैं। कृष्ण ने
किसी-न-किसी
तरह उस दिन
द्रौपदी को उघाड़ने से
रोका होगा, इतना ही मैं
मानता हूं।
किसी-न-किसी
तरह कृष्ण उस
दिन द्रौपदी
के उघड़ने
में बाधा बन
गए होंगे, इतना
ही मैं मानता
हूं। लेकिन
कवि जब इसको
लिखेगा तो
कविता बन
जाएगी। और जब
कविता बनेगी,
और बाद में
जब हम कविता
को तथ्य बनाते
हैं, तब "मिकरेल' मालूम होने
लगते हैं।
बाकी कविता ही
एकमात्र "मिकरेल'
है और कोई
मामला नहीं
है। कृष्ण
किसी-न-किसी तरह
उस दरबार में
नग्न की जाती
द्रौपदी के
लिए बाधा बन
गए होंगे। वह
बाधा
अनिवार्य हो
गई होगी।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि
कृष्ण का नाम
है कृष्ण, द्रौपदी
का एक नाम
कृष्णा है। सच
तो यह है कि
कृष्ण जैसा
शानदार आदमी
नहीं हुआ और
कृष्णा जैसी
शानदार
स्त्री नहीं
हुई। द्रौपदी
का कोई
मुकाबला नहीं
है। हमने बहुत
सीता और
दूसरों की
चर्चा की है, द्रौपदी की
जरा कम की है।
क्योंकि हमें
बड़ी तकलीफ है
द्रौपदी के
साथ। वह पांच पतियों की
पत्नी है, वह
हमें भारी पड़
गई। लेकिन
ध्यान रखें, एक ही पति की
पत्नी होना भी
बड़ी मुश्किल
बात है। पांच पतियों की
पत्नी होना
असाधारण
स्त्री का काम
हो सकता है।
कृष्ण
का बड़ा प्रेम
है कृष्णा से।
गहरे-से-गहरे
उनकी प्रेयसियों
में से वह है।
इसलिए प्रेम
इस क्षण में
काम न आए तो कब
काम आए। पर वह
बात अलग है।
वह तो कभी
द्रौपदी पर
चर्चा करेंगे, तब।
"भागवत
में उल्लेख
है...जो कृष्ण
पर अहमदाबाद में
हमने बात की
थी और आपने
बताया था कि
शुक्र का
विनियोग होते
हुए भी वसुदेव
और देवकी का
जो संभोग हुआ
था, वह
आध्यात्मिक
संभोग था, जिसकी
वजह से कृष्ण
मिले...मगर
कृष्ण के सोलह
हजार रानियों
या आठ
प्रतिभावान
पटरानियों के
साथ संबंध होने
पर भी कृष्ण
या राम, दोनों
के पुत्र उतने
प्रतिभावान
नहीं हुए। इससे
क्या यह नतीजा
निकल सकता है
कि राम या कृष्ण
ने
आध्यात्मिक
संभोग अपनी
पत्नियों के
साथ किया ही
नहीं?'
इसमें
दो बातें समझ
लेनी उचित
होंगी।
एक तो
आध्यात्मिक
संभोग का यह
अर्थ नहीं है
कि मैं
शारीरिक
संभोग की कोई
निंदा कर रहा
हूं। आध्यात्मिक
संभोग से मेरा
सिर्फ इतना ही
अर्थ है कि दो
व्यक्तियों
के शरीर नहीं
मिले हैं, आत्मा
भी मिली है।
शरीर के मिलन
से पैदा होता है,
वह उन
ऊंचाइयों को
उपलब्ध नहीं
हो सकता, जो
आत्मा के मिलन
से पैदा होता
है और
ऊंचाइयों को
उपलब्ध होता
है। कृष्ण का
जन्म मैं
आध्यात्मिक
संभोग का फल
मानता हूं।
क्राइस्ट का
जन्म भी
आध्यात्मिक
संभोग का फल
मानता हूं।
इसीलिए
क्राइस्ट के
जानने वाले
लोग यह कह सके
कि क्राइस्ट
का जन्म भी हो
गया लेकिन
"मेरी' वर्जिन
बनी रही, क्वांरी बनी रही।
क्योंकि शरीर
के तल पर कोई
वासना और कोई
गहरी कामना न
थी। आत्मा के
तल पर मिलन
हुआ था, शरीर
छाया की तरह
उसके पीछे गया
था। इसलिए छाया
पर उसकी कोई
जिम्मेदारी
नहीं है।
लेकिन
यह सवाल निश्चित
ही
महत्वपूर्ण
है कि फिर
कृष्ण के
बच्चे हैं, राम
के बच्चे हैं,
इनका क्या
हुआ?
इसके
और कारण हैं।
पहला कारण तो
यह है कि कृष्ण
से बड़ा बेटा
तो पैदा होना
असंभव है।
वसुदेव से बड़ा
बेटा पैदा हो
सकता है।
वसुदेव
साधारणजन
हैं। कृष्ण तो
ऊंचाई हैं, आखिरी
से आखिरी जो हो
सकती है।
कृष्ण जैसे
पिता से जो भी
बेटा होगा, वह इतिहास
में सदा भुला
दिया जाएगा।
वह सदा कृष्ण
जैसे व्यक्ति
की छाया में
पड़ जाता है।
जैसे
विंध्याचल
में जो पहाड़
की ऊंचाई बड़ी
ऊंचाई हो सकती
है, वही
ऊंचाई
एवरेस्ट के
पास आकर बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएगी।
चीजें तो दिखाई
पड़ती हैं न!
कृष्ण के पीछे
कोई भी नहीं
दिखाई पड़
सकता। इसलिए
जो लोग "पीक' को छूते हैं
जीवन की, आखिरी
ऊंचाई को छूते
हैं, उनसे
बहुत अच्छे
बेटे नहीं
उपलब्ध हो
पाते। कभी
नहीं हो सके
हैं। न बुद्ध
से हो सका, न
कृष्ण से हो
सका, न राम
से हो सका, न
महावीर से हो सका,
किसी से
नहीं हो सका।
इसका
कारण सिर्फ
इतना है कि
इतनी बड़ी
ऊंचाई पर ये
खड़े हैं कि
लव-कुश कितने
ही ऊंचे हों, राम
की छाया में
ही खो जाएंगे।
ये लव-कुश
किसी और के घर
पैदा हुए होते,
तो ये भी
इतिहास में
नाम छोड़ जाते।
साधारणजन न
थे। लेकिन नाम
छोड़ जाना तो
सदा "रिलेटिव'
और "कंपेरेटिव'
है। राम के
साथ नाम नहीं
छोड़ सकते।
साधारण बेटे न
थे ये दोनों।
राम को साधारण
बेटा हो भी
नहीं सकता।
लेकिन सवाल तो
राम से तुलना
का पड़ेगा इतिहास
में। दशरथ
बहुत साधारण
पिता हैं। दशरथ
को कोई जानता
भी नहीं अगर
रात पैदा न
होते। दशरथ का
कोई अर्थ भी न
होता। राम हुए
हैं इसलिए
दशरथ का कोई नाम
है। छोटे बाप
के घर बड़ा
बेटा पैदा हो
जाता है, तो
बाप भी बड़ा हो
जाता है और
बड़े बाप के घर
बड़ा बेटा भी
पैदा हो जाता
है, तो
छोटा हो जाता
है।
संभोग
तो
आध्यात्मिक
ही था। जो
पैदा हुए हैं
आध्यात्मिक
से ही पैदा
हुए हैं।
लेकिन हमारी
तौल तो
"रिलेटिव' होगी
सदा, "कंपेरेटिव'
होगी, तुलना
होगी।
वह
कहानी हम सबको
पता है कि
अकबर ने एक
लकीर खींची और
दरबार के
लोगों से कहा
कि बिना छुए
इसे छोटा कर
दो। और कोई
उसे छोटा न कर
पाया, और बीरबल
ने एक बड़ी
लकीर उसके पास
खींच दी। उस
लकीर को छुआ
नहीं और वह
लकीर छोटी हो
गई। लकीर उतनी
ही रही।
लव-कुश
जो हैं, हैं, लेकिन राम
की लकीर बहुत
बड़ी है। उसके
नीचे वे एकदम
खो जाते हैं।
राम की लकीर न
होती, तो
लव-कुश भी
दिखाई पड़ते।
इतिहास उनके
भी चरण-चिह्नों
का स्मरण
रखता। लेकिन
उनकी जरूरत न
रही। राम के
पीछे आकर उनका
कोई अर्थ
नहीं।
"लिबिडो',
काम-ऊर्जा
का उल्लेख, आया है।
आध्यात्मिक
संभोग की बात
भी आई है। इसी
कड़ी में एक
बड़ा ही नाजुक
और स्पष्ट
प्रश्न है।
बांसुरी
कृष्ण की है, संगीत के
मधुर सुर राधा
के हैं। गीत
कृष्ण के अधरों
के हैं, उस
गीत की
काव्य-माधुरी
राधा की है।
नृत्य कृष्ण
का है, किंतु
उनके चरणों
में गति और
झंकार राधा की
है। ऐसा
अभिन्न
व्यक्तित्व
है कृष्ण का
और राधा का।
तभी तो हम
राधाकृष्ण तो
कहते हैं, लेकिन
विवाहित होते
हुए भी
रुक्मिणी-कृष्ण
कोई नहीं
कहता। राधा को
कृष्ण से अलग
कर दिया जाए
तो कृष्ण का
जीवन भी औरों
की तरह ही
उदास-उदास और
अधूरा-अधूरा-सा
लगने लगेगा।
और मजे की बात
यह है कि
कृष्ण की अनंत
लीलाओं
के आधारग्रंथ
भागवत में
राधा का कहीं
नाम नहीं आया
है। कोई बात
नहीं। लेकिन
कृष्ण के जीवन
की समग्रता में
शक्ति और प्रेमरूप
राधा का क्या
भावात्मक या
"सेक्सुअल' संबंध है, इस पर
प्रकाश डालने
का एकमात्र
अधिकारी है, भगवान श्री,
आप-जैसा
कृष्ण!'
जो
लोग
शास्त्रों
में खोजते हैं, उनके
लिए बड़ी
कठिनाई रही है
इस बात से कि
राधा का कोई
उल्लेख ही
नहीं है। और
तब कुछ ने तो
यह भी कहना
शुरू कर दिया
कि राधा जैसा
कोई व्यक्तित्व
कभी हुआ भी
नहीं। राधा
बाद के युगों
के कवियों की
कल्पना है।
स्वभावतः जो
इतिहास में
जीते हैं, तथ्यों
में जीते हैं,
उनके लिए
कठिनाई है।
राधा का
उल्लेख बहुत
बाद के
ग्रंथों में
शुरू होता है।
किसी प्राचीन
ग्रंथ में
राधा का कोई
उल्लेख नहीं
होता।
मेरी
हालत बिलकुल
उल्टी है। मैं
मानता हूं कि
राधा का
उल्लेख न होने
का कुल कारण
इतना है कि
राधा कृष्ण से
इतनी एक और
लीन हो गई कि
अलग उल्लेख की
कोई जरूरत
नहीं। जो अलग
थे,
उनका
उल्लेख है। जो
अलग न थी और
छाया की तरह
थी, उसके
उल्लेख की कोई
जरूरत नहीं।
उल्लेख करने के
लिए भी तो
किसी का अलग
होना जरूरी
है। रुक्मिणी
अलग है। वह
कृष्ण को
प्रेम करती हो
सकती है, कृष्णमय नहीं है।
कृष्ण से उसके
संबंध हो सकते
हैं, कृष्ण
में आत्मसात
नहीं है।
संबंध तो उनके
ही होते हैं, जो अलग हैं।
राधा का कोई
संबंध नहीं है
कृष्ण से।
राधा कृष्ण ही
है। इसलिए अगर
उसका उल्लेख न
किया गया हो, तो मैं
मानता हूं
न्याययुक्त
है, उल्लेख
नहीं किया
जाना चाहिए।
तो एक
तो यह बात
खयाल लें, उसके
उल्लेख न होने
का कारण है।
वह छाया की तरह
अदृश्य है।
इतनी भी अलग
नहीं, इतनी
भी भिन्न नहीं
कि उसे कोई
जाने और
पहचाने। इतनी
भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न
नहीं कि कोई
उसे नाम भी दे,
कोई जगह भी
दे। इस कारण।
दूसरी
बात,
यह भी सच है
कि राधा के
बिना कृष्ण का
व्यक्तित्व
एकदम अधूरा रह
जाएगा। अधूरा
इसलिए रह जाएगा
कि मैंने कहा
कि कृष्ण पूरे
पुरुष हैं।
इसको थोड़ा
समझना पड़ेगा।
ऐसे पुरुष
बहुत कम हैं
जगत में, जो
पूरे पुरुष
हों।
प्रत्येक
पुरुष के भीतर
उसका भी स्त्री-अंग
होता है, और
प्रत्येक
स्त्री के
भीतर उसका भी
पुरुष-अंग
होता है। मनस
को जानने वाले
लोग कहते हैं
कि प्रत्येक
स्त्री के
भीतर पुरुष है,
प्रत्येक
पुरुष के भीतर
स्त्री है। जो
फर्क है वह
सिर्फ "डिग्रीज'
का, क्रमों
का है। जिसे
हम पुरुष कहते
हैं, वह
साठ फीसदी
पुरुष है, चालीस
प्रतिशत
स्त्री है।
इसलिए ऐसे भी
पुरुष हैं जो
स्त्रैण
मालूम पड़ते
हैं, और
ऐसी भी
स्त्रियां
हैं जो पुरुष
मालूम पड़ती हैं।
अगर मात्रा
बहुत ज्यादा
है भीतर
स्त्री की, तो पुरुष पर
हावी हो
जाएगी। अगर पुरुष
की मात्रा
बहुत ज्यादा
है, तो
स्त्री पर
हावी हो
जाएगी। लेकिन
इस अर्थों में
भी कृष्ण
पूर्ण हैं, जो मैं कह
रहा था। वे
पूर्ण पुरुष
हैं। उनके भीतर
स्त्री का कोई
तत्व ही नहीं
है। या जैसे मीरा
को मैं कहूंगा,
वह पूरी
स्त्री है।
उसके भीतर
पुरुष का कोई
तत्व ही नहीं
है। और जब भी
कोई पूर्ण
पुरुष होगा, तब एक अर्थ
में अधूरा पड़
जाएगा, उसको
पूरी स्त्री
जरूरी है।
अन्यथा वह
अधूरा पड़
जाएगा। हां, अधूरा पुरुष
जी सकता है
बिना स्त्री
के। उसके भीतर
अपनी स्त्री
भी है, जिससे
काम चलता है।
लेकिन कृष्ण
जैसा पुरुष, अनिवार्य
रूप से उसकी
राधा उसके साथ
खड़ी हो जाएगी।
और उसे पूर्ण
स्त्री
चाहिए।
अब यह
भी बड़े मजे की
बात है कि
पूर्ण स्त्री
और पूर्ण
पुरुष का थोड़ा
अर्थ भी हम
समझें। और भी उसके
अर्थ हैं।
पुरुष
की जो
गहरी-से-गहरी
गहराई है, वह
आक्रामक है, "एग्रेसिव'
है। स्त्री
की
गहरी-से-गहरी
गहराई है, वह
समर्पण की है,
"सरेंडर'
की है। कोई
भी स्त्री
पूरी स्त्री न
होने से कभी
पूरा समर्पण
नहीं कर पाती।
कोई भी पुरुष
पूरा पुरुष न
होने से कभी
पूरा आक्रामक
नहीं हो पाता।
इसलिए दो
अधूरे स्त्री
और पुरुष जब
मिलते हैं, तो निरंतर
कलह और संघर्ष
चलता है।
चलेगा।
क्योंकि
स्त्री के
भीतर कुछ है, जो आक्रामक
भी है। वह
आक्रमण भी
करती है। कुछ है
जो सम्पर्क भी
है, वह
समर्पण भी
करती है। किसी
क्षण में वह
पुरुष के हाथ
भी दाबती है, पैर भी
दाबती है, उसके
पैर पर सिर भी
रखती है। और
किसी क्षण में
वह बिलकुल ही
विकराल हो
जाती है और
पुरुष की
गर्दन दबाने
को उत्सुक हो
जाती है। ये
दोनों रूप
उससे निकलते
हैं। पुरुष
किसी क्षण बड़ा
आक्रामक होता
है, बिलकुल
दबा डालना
चाहता है। और
किसी क्षण वह
बिलकुल दब्बू
हो जाता है और
स्त्री के
पीछे घूमने
लगता है। वे
दोनों उसके
भीतर हैं।
रुक्मिणी
का कृष्ण के
साथ बहुत गहरा
मेल नहीं हो
सकता, उसके
भीतर पुरुष
है। राधा पूरी
डूब सकी, वह
अकेली निपट
स्त्री है, वह समर्पण
पूरा हो गया।
वह समर्पण
पूरा हो सका।
कृष्ण का किसी
ऐसी स्त्री से
बहुत गहरा मेल
नहीं बन सकता
जिसके भीतर
थोड़ा भी पुरुष
है। अगर कृष्ण
के भीतर
थोड़ी-सी स्त्री
हो तो उससे
मेल बन सकता
था। लेकिन
कृष्ण के भीतर
स्त्री है ही
नहीं। वह पूरे
ही पुरुष हैं।
पूरा समर्पण
ही उनसे मिलन
बन सकता है।
इससे कम वह न मांगेंगे,
इससे कम में
काम न चलेगा।
वह पूरा ही
मांग लेंगे।
हालांकि पूरा
मांगने का
मतलब यह नहीं
है कि वह कुछ न
देंगे, पूरा
मांगकर
वह पूरा ही दे
देंगे। इसलिए
हुआ ऐसा पीछे
कि रुक्मिणी
छूट गई, जिसका
उल्लेख था
शास्त्रों
में, जो
दावेदार थी।
और भी दावेदार
थीं, वे
छूटती चली
गईं। और जो
बिलकुल
गैर-दावेदार था,
जिसका कोई
दावा ही नहीं
था, जिसे
कृष्ण अपनी है
ऐसा भी नहीं
कह सकते थे--राधा
तो पराई थी, रुक्मिणी
अपनी थी।
रुक्मिणी से
संबंध संस्थागत
था, विवाह
का था। राधा
से संबंध
प्रेम का था, संस्थागत
नहीं
था--जिसके ऊपर
कोई दावा नहीं
किया जा सकता
था, जिसके
पक्ष में कोई
"कोर्ट' निर्णय
न देती कि यह
तुम्हारी है,
आखिर में
ऐसा हुआ कि वे
जो अदालत से
जिनके लिए
दावा मिल सकता
था, जो
कृष्ण से "मेंटिनेंस'
मांग सकती
थीं, वे खो
गईं, और यह
स्त्री
धीरे-धीरे प्रगाढ़
होती चली गई, और वक्त आया
कि रुक्मिणी
भूल गई, और
कृष्ण के साथ
राधा का नाम
ही रह गया।
और मजे
की बात है कि
राधा ने सब
छोड़ा कृष्ण के
लिए,
लेकिन नाम पीछे
न जुड़ा, नाम
आगे जुड़ गया।
कृष्ण-राधा
कोई नहीं कहता,
राधा-कृष्ण
हम कहते हैं, जो सब
समर्पण करता
है, वह सब
पा लेता है।
जो बिलकुल
पीछे खड़ा हो
जाता है, वह
बिलकुल आगे हो
जाता है।
नहीं, राधा
के बिना कृष्ण
को हम न सोच
पाएंगे। राधा उनकी
सारी कमनीयता
है। राधा उनका
सारा-का-सारा
जो भी नाजुक
है, वह सब
है, जो "डेलीकेट'
है, वह
है। राधा उनके
गीत भी, उनके
नृत्य का
घुंघरू भी, राधा उनके
भीतर जो भी
स्त्रैण है वह
सब है। क्योंकि
कृष्ण निपट
पुरुष हैं, और इसलिए
अकेले कृष्ण
का नाम लेना
अर्थपूर्ण नहीं
है। इसलिए वह
इकट्ठे हो गए,
राधाकृष्ण
हो गए।
राधाकृष्ण
होकर इस जीवन
के दोनों
विरोध इकट्ठे
मिल गए हैं।
इसलिए भी मैं कहता
हूं कि यह भी
कृष्ण की पूर्णताओं
की एक पूर्णता
है।
महावीर
को किसी
स्त्री के साथ
खड़ा करके नहीं
सोचा जा सकता।
स्त्री असंगत
है। महावीर का
व्यक्तित्व
स्त्री के
बिना है। महावीर
की शादी हुई, विवाह
हुआ, बच्ची
हुई; लेकिन
महावीर का एक
पंथ दिगंबरों
का मानता है
कि नहीं, उनका
विवाह नहीं
हुआ, न
उनकी कोई
बच्ची हुई।
मैं मानता हूं
कि शायद ऐतिहासिक
तथ्य यही है
कि उनका विवाह
हुआ हो, बच्ची
हुई हो, लेकिन
मनोवैज्ञानिक
तथ्य दिगंबर
जो कहते हैं
वही ठीक है कि
महावीर जैसे
आदमी के साथ
स्त्री को
जोड़ना ही
बेमानी है।
हुआ भी हो तो
नहीं माना जा
सकता। महावीर
कैसे किसी
स्त्री को प्रेम
करेंगे।
असंभव।
महावीर के
पूरे व्यक्तित्व
में कहीं कोई
वह छाया भी
नहीं है।
बुद्ध के साथ
स्त्री थी, लेकिन छोड़कर
चले गए। क्राइस्ट
के साथ भी
स्त्री को
जोड़ना
मुश्किल है।
वे निपट क्वांरे
हैं। "बैचलर'
होने में
उनकी
अर्थवत्ता
है। इस अर्थ
में भी वह सब
अधूरे हैं। इस
जगत की
व्यवस्था में
जैसे धन
विद्युत
अधूरी है ऋण
विद्युत के
बिना, जैसे
विधेय अधूरा
है निषेध के
बिना, ऐसे
स्त्री और
पुरुष का एक
परम मिलन भी
है। स्त्री और
पुरुष का न कहें,
स्त्रैणता
और पौरुषता का;
आक्रामकता
का और समर्पण
का; जीतने
का और हारने
का।
अगर हम
कृष्ण और राधा
के लिए कोई
प्रतीक खोजने निकलें, तो
सारी पृथ्वी
पर चीन भर में
एक प्रतीक है
जिसे वह "यिन'
और "यांग'
कहते हैं।
बस एक प्रतीक
है, चीनी
भाषा में, क्योंकि
चीनी भाषा तो "पिक्टोरियल'
है, चित्रों
की है, उसके
पास एक प्रतीक
है, जिसे
वे जगत का
प्रतीक कहते
हैं। उसमें एक
गोल वर्तुल है
और वर्तुल में
दो मछलियां
एक-दूसरे को
मिलती
हुई--आधा सफेद,
आधा काला।
काली मछली में
सफेद गोल एक घेरा,
सफेद मछली
में काला एक
घेरा और पूर्ण
एक वर्तुल। दो
मछलियां
पूरी तरह
मिलकर एक गोल
घेरा बना रही
हैं। एक मछली
की पूंछ दूसरे
के मुंह से
मिल रही है, दूसरी मछली
का मुंह पहली
की पूंछ से
मिल रहा है।
और दोनों मछलियां
मिलकर पूरा
गोल घेरा बन
गई हैं। "यिन
एंड यांग'। एक का नाम
"यिन', एक
का नाम "यांग'
है। एक ऋण, एक धन। वे
दोनों मिलकर
इस जगत का
पूरा वर्तुल हैं।
राधा
और कृष्ण पूरा
वर्तुल हैं।
इस अर्थ में भी
वे पूर्ण हैं।
अधूरा नहीं
सोचा जा सकता
कृष्ण को। अलग
नहीं सोचा जा
सकता। अलग
सोचकर वे एकदम
खाली हो जाते
हैं। सब रंग
खो जाते हैं।
पृष्ठभूमि खो
जाती है, जिससे
वे उभरते हैं।
जैसे हम रात
के तारों को नहीं
सोच सकते रात
के अंधेरे के
बिना। अमावस में
तारे बहुत
उज्जवल होकर
दिखाई पड़ने
लगते हैं, बहुत
शुभ्र हो जाते
हैं, बहुत
चमकदार हो
जाते हैं। दिन
में भी तारे
तो होते हैं, आप यह मत
सोचना कि दिन
में तारे खो
जाते हैं। खोएंगे
भी बेचारे तो
कहां खोएंगे!
दिन में भी
तारे होते
हैं--आकाश
तारों से भरा
है अभी
भी--लेकिन
सूरज की रोशनी
में तारे
दिखाई नहीं पड़
सकते। अगर आप
किसी गहरे
कुएं में चले जाएं,
तो दोत्तीन
सौ फीट गहरा
कुआं हो तो
आपको उस गहरे कुएं
से तारे दिन
में भी दिखाई
पड़ सकते हैं।
क्योंकि बीच
में अंधेरे की
पर्त आ जाती
है; फिर
तारे दिखाई पड़
सकते हैं। रात
में तारे आते
नहीं सिर्फ
दिखाई पड़ते
हैं, क्योंकि
अंधेरे की
चादर फैल जाती
है। और अंधेरे
की चादर में
तारे चमकने
लगते हैं।
कृष्ण
का सारा
व्यक्तित्व
चमकता है राधा
की चादर पर।
चारों तरफ से राधा
की चादर
उन्हें घेरे
है। वह उसमें
ही पूरे-के-पूरे
खिल उठते हैं।
कृष्ण अगर फूल
हैं तो राधा
जड़ है। वह
पूरा-का-पूरा
इकट्ठा है।
इसलिए उनको
अलग नहीं कर
सकते। वह युगल
पूरा है। इसलिए
राधाकृष्ण
पूरा नाम है, कृष्ण
अधूरा नाम है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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