कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--16)

सीखने की सहजता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सोलहवां)
 

दिनांक 3 अक्‍टूबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुल्लू)

"अरविंद को कृष्ण-दर्शन हुए। वे योगी लेले के संपर्क में भी तो आए थे। और पांडिचेरी को प्रयोग का निर्णय क्या भविष्य की पीढ़ियां ही नहीं करेंगी?
एलिसबेली के विषय में आपका क्या खयाल है, जब उसका कहना है कि उसे संदेश मिलते हैं। ये संदेश कौन देता है, कैसे देता है? क्या आपका भी ऐसे किसी मास्टर या गुरु से संबंध है?'

रविंद का कृष्ण-दर्शन जेल की दीवालों में, सींकचों में, जेलर में, स्वयं में है। अगर कृष्ण का दर्शन है, तो किसको पता लगता है कि कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं? अगर पहचानने वाला पीछे बच जाता है, तो "प्रोजेक्शन' है, तो प्रक्षेपण है। अगर कोई कहता है, मुझ कृष्ण के दर्शन हुए, तो कम-से-कम मैं कृष्ण नहीं हूं, इतना पक्का है। जिसे दर्शन होंगे, वह तो भिन्न हो जाता है।

नहीं, जिस विराट सागर-रूप कृष्ण की मैंने बात की है, वह ऐसा नहीं है कि मुझे कृष्ण के दर्शन हुए, वह ऐसा ही है कि मैं नहीं रहा और फिर जो बच गया है वह कृष्ण है। उसे कृष्ण कहें, क्राइस्ट कहें, बुद्ध कहें, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यह हमारी पारिभाषिक शब्दावली की बात होगी कि कौन-सी शब्दावली में हम जन्मे हैं। फिर एक बार कृष्ण के दर्शन हो जाएं और अगर दर्शन प्रक्षेपण न हो, "प्रोजेक्शन' न हो, तो दुबारा लौटना असंभव है। फिर उस दर्शन का खो जाना असंभव है। और, बड़े मजे की बात यह है कि अरविंद की सारी साधना उसके बाद शुरू होती है। जिस योगी लेले की बात उठाई है, उस योगी लेले से वह बाद में मिलते हैं। यह जो योगी लेले से उनका बाद में मिलना है और ध्यान सीखना है--और लेले से उन्होंने ध्यान सीखा--जिस व्यक्ति को अभी ध्यान भी सीखने को बाकी हो उसको कृष्ण के विराट दर्शन हो गए हों, यह नहीं माना जा सकता। और कृष्ण के ही दर्शन हो गए हों तो अब ध्यान सीखकर क्या करियेगा? किसके पास सीखने जाइएगा?
फिर बड़े मजे की बात है कि लेले से उन्होंने जो ध्यान सीखा, वह बहुत छोटी-सी प्रक्रिया थी। बहुत छोटी-सी प्रक्रिया, जिसमें कुछ बड़ा गहरा नहीं था। और यह भी आप जान लें कि उसके बाद ध्यान में उनकी कोई गति नहीं हुई, जितना उन्होंने लेले से सीखा, वह आखिरी चरण था। कुल तीन दिनों वे लेले के साथ ध्यान के लिए बैठे थे, और एक बहुत छोटा-सा प्रयोग था "विटनेसिंग' का, साक्षीभाव का। जिसमें लेले ने कहा कि आप बस बैठ जाएं और अपने विचारों को देखें। उन्होंने विचार देखना शुरू किया, लेकिन भयंकर विचारों का जाल मन पर उतरा। वे बहुत घबड़ाए। लेले ने उन्हें इतना ही कहा कि आप विचारों को ऐसे ही समझें जैसे आपके मस्तिष्क के चारों ओर मक्खियां चक्कर लगा रही हैं और आप बीच में बैठे देखते रहें और उन मक्खियों को चक्कर लगाने दें। तीन दिन सतत वे विचारों का दर्शन करते रहे--कोई भी करे, और सिर्फ देखता रहे तो विचार क्षीण हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं। मन निर्विचार हो जाता है। इसके बाद उन्होंने फिर कोई बात लेले से नहीं सीखी। और इसको उन्होंने आखिरी बात समझ ली। और अरविंद की बड़ी-से-बड़ी भूल यहीं हो गई। यह बिलकुल प्राथमिक चरण था। साक्षीभाव पहला चरण है। साक्षीभाव अद्वैतभाव नहीं है। साक्षीभाव के माध्यम से अंततः अद्वैतभाव की उपलब्धि होती है। पर और कदम आगे बढ़ाने पड़ते हैं। साक्षीभाव भी मिट जाना चाहिए, क्योंकि जब तक मैं साक्षी हूं और किसी का साक्षी हूं, तब तक द्वैत बना रहता है। एक घड़ी आनी चाहिए कि न मैं बचूं, न वह बचे जिसका मैं साक्षी हूं। एक घड़ी चाहिए जब शुद्ध चेतना बच जाए और उस चेतना में तय करना मुश्किल हो जाए कि कौन "सब्जेक्ट' है, कौन "आब्जेक्ट' है; कौन जान रहा है, कौन जाना जा रहा है। जब तक यह साफ है कि कौन जान रहा है और किसको जान रहा है, तब तक द्वैत जारी रहता है। और तब तक मन के बाहर जाना नहीं होता। तब तक मन का अतिक्रमण नहीं होता है। तब तक मन की "ट्रांसेंडेंस' नहीं होती। तो न तो मैं कहूंगा कि अरविंद का अनुभव वास्तविक अनुभव था, क्योंकि जो आए और चला जाए, वह वास्तविक नहीं है। वह स्वप्नवत है। वह "प्रोजेक्शन' है। जो आए और आ ही जाए और फिर जाने का उपाय न हो, वही वास्तविक अनुभव है। जो आए और खो जाए, वह मन का खेल है, मन की लीला है।
ध्यान के संबंध में भी साक्षीभाव की साधना से ऊपर वे कभी नहीं गए। और जिस व्यक्ति से उन्होंने सीखा था, उस व्यक्ति से पीछे उन्होंने कोई संबंध नहीं रखे। उस व्यक्ति के पास संभावना और भी थी आगे ले जाने की, लेकिन जब दुबारा लेले से अरविंद का मिलना हुआ तो अरविंद खुद गुरु हो चुके थे। और लेले से उनका जो दूसरा मिलन है, उसमें उनका जो व्यवहार है, वह बड़ी हैरानी का है। उनकी पूरी चेष्टा ऐसी रही जैसे यह बात भुलाई जा सके कि इस आदमी से कुछ सीखा है। और बहुत थोड़ा सीखा था, बहुत ज्यादा सीखा नहीं था।
मगर बहुत बार ऐसा हुआ है। अरविंद के साथ ही ऐसा हुआ हो, ऐसा नहीं, बहुत बार ऐसा हुआ है कि थोड़ा-सा अनुभव भी रोकने वाला सिद्ध हो जाता है। आनंदपूर्ण होता है और फिर मन वहां ठहर जाता है। इसलिए आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी कठिनाइयां न तो बाहर के धन से आती हैं, न बाहर के संबंधों से आती हैं, आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी कठिनाइयां भीतर के प्राथमिक अनुभवों से आती हैं। वे इतने सुखद हैं, इतने आनंदपूर्ण हैं, इतने "ब्लिसफुल' हैं कि मन होता है यहां ठहर जाओ। और पड़ाव को मुकाम समझ लेने की भूल अरविंद के साथ नहीं, हजारों लोगों के साथ हुई है। पड़ाव को मुकाम समझ लेना बहुत आसान है। सुखद हो पड़ाव, तो मंजिल मान लेने का मन होता है।
और अरविंद ने फिर जितनी भी साधना दूसरों को बताई है, वह लेले की बताई गई साधना से इंच भर आगे नहीं गई है। जिंदगी भर जिन-जिन साधकों को उन्होंने सलाह दी है, उन साधकों को दी गई सलाह में लेले ने उन्हें जो तीन दिन में सिखाया था, उससे इंच भर आगे एक भी बात नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं कि उस साधना के आगे वे कभी गए नहीं। क्योंकि उन्होंने कभी किसी को उसके आगे कोई बात नहीं कही है। बस, वह उतनी ही बात। लेकिन, लेले बेचारा सीधा-सादा आदमी था, उसने दो शब्दों में कह दिया था। अरविंद जटिल चित्त के, बुद्धि के ठीक, निष्णात व्यक्ति हैं, वह उसी बात को हजारों पृष्ठ में रंगते रहे। लेकिन लेले ने जो बताया था उससे इंच भर आगे उन्होंने बताया हो अपनी किसी किताब में, किसी वक्तव्य में, ऐसा नहीं है। उससे ज्यादा वे कुछ बता नहीं पाए। इसलिए मैं कहता हूं, लेले ने तीन दिन में जो उन्हें सिखाया था, उससे आगे वे कभी भी नहीं गए। उनका एक वक्तव्य भी उससे आगे नहीं जाता। साक्षीभाव से ज्यादा कुछ भी फलित नहीं हुआ।
और मैं मानता हूं कि वह भी उन्होंने खो दिया है। क्योंकि फिर वे जिस जाल में लग गए...यह भी जानकर आपको हैरानी होगी कि लेले ने खुद क्या कहा है अरविंद से बाद में? लेले ने कहा है कि तू भ्रष्ट हो गया है। आप जानकर हैरान होंगे। और लेले ने कहा है कि जो तुझे मिला था, वह तूने खो दिया है और तू बकवास में लग गया। और तू सिद्धांतवादी बातों में पड़ा हुआ है। इनसे कोई संबंध अनुभव का नहीं है। लेले का यह वक्तव्य बड़ा अदभुत है। लेकिन अरविंद को मानने वाले इस वक्तव्य की इधर-उधर चर्चा नहीं करते। क्योंकि यह वक्तव्य तो बहुत हैरान करने वाला है। जिस आदमी से सीखा था, उस आदमी का यह वक्तव्य है। यह वक्तव्य बहुत सूचक है। लेले अरविंद को मिला और उसने कहा है कि कृपा करके इस लिखने-पढ़ने के जाल में मत उलझो, अभी तुम पहुंचे नहीं वहां जिसकी तुमने बात शुरू कर दी। लेकिन लेले की इस बात पर भी अरविंद ने कोई ध्यान नहीं दिया है। और जब अरविंद ने ही नहीं दिया है तो अरविंद-भक्त क्यों देने लगे!
यह जो मैंने कहा कि मौलिक बात की खोज तो व्यक्ति से होती है, इसलिए उसके भूल भरे होने की संभावना ज्यादा होती है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह भूल ही होती है। भूल की संभावना ज्यादा होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह भूल ही होती है, भूल की संभावना ज्यादा होती है। दूसरी बात भी मैंने कही है कि परंपरा से जो बात आती है, उसके सड़ने, गलने की, गंदे हो जाने की संभावना बहुत होती है, लेकिन उसकी सारी सड़ांध और गलन के पीछे भी कहीं किसी सत्य का होना बहुत संभावी है। क्योंकि हजारों-हजारों साल तक लोग अकारण ही, बिलकुल अकारण ही किसी गंदगी को ढो नहीं सकते। हां, किसी हीरे की वजह से कंकड़-पत्थरों को भी ढो सकते हैं, लेकिन हो सकता है वह हीरा कहीं बिलकुल खो गया हो और कंकड़-पत्थर ही दिखाई पड़ते हों।
जो मैंने यह कहा, उसी के कारण दूसरी बात आपको समझाना चाहूंगा। अरविंद कहते हैं, "सुपरामेंटल' की, उस अतिमानस की जो वे बात कर रहे हैं, उसके संकेत वेद में उपलब्ध हैं। इस मुल्क में एक बड़ा अनैतिक कृत्य चलता रहा है। और यह अनैतिक कृत्य चलता रहा है। और यह अनैतिक कृत्य यह है कि इस मुल्क में जो लोग कोई नई बातें खोजते हैं, वे भी साहस नहीं जुटा पाते यह कहने का कि यह नई बात मेरी है। क्यों? क्योंकि इस मुल्क को पता है कि नई बातों के गलत होने की संभावना है। इसलिए इस मुल्क की लंबी परंपरा में एक व्यवस्था बन गई है कि कितनी ही नई बात खोजो, किसी पुराने शास्त्र को आधार बनाओ। सदा यह बताओ कि वह वेद में है, सदा बताओ कि वह उपनिषद में है। सदा बताओ कि ब्रह्मसूत्र में है। इसीलिए वेद, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र का अपना क्या अर्थ है, यह तय करना ही मुश्किल हो गया है। क्योंकि हर आदमी अपने को उनमें थोप कर बताता है। यह पुरानी दुकान की "क्रेडिट' के लाभ लेने के उपाय हैं, और कुछ भी नहीं है। वेद में है या नहीं, इसका सवाल नहीं है। लेकिन दयानंद उसी सूत्र में कुछ और दिखाएंगे, जो उनको सिद्ध करना है। अरविंद उसी सूत्र में कुछ और दिखाएंगे, जो उनको सिद्ध करना है। शंकर कुछ और दिखाएंगे, जो उनको सिद्ध करना है। उस सूत्र की गति हो गई, उसकी बिलकुल मिट्टी पलीद कर दी है। वेदों की, ब्रह्मसूत्र की और उपनिषद की, इन तीनों की इस बुरी तरह से कठिनाई हमने खड़ी की है--और वही हाल गीता का भी किया है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति यह सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि वह जो कह रहा है, वह वही है जो उपनिषद भी कहते हैं, गीता भी कहती है, वेद भी कहते हैं। इसलिए एक बहुत ही अजीब-सी मानसिक व्यभिचार की स्थिति इस देश में पैदा हुई। एक बौद्धिक-व्यभिचार पैदा हुआ है, एक "इंटलेक्चुअल प्रॉस्टिटयूशन' पैदा हुआ है। चीजों को सीधे न कहकर थोपने का आग्रह इतना ज्यादा हो गया, क्योंकि उसी के बल खड़े हो सकते हैं। मैं मानता हूं यह भी आत्मविश्वास की कमी है। अगर अरविंद को कोई सत्य का अनुभव हुआ है, तो वेद उससे उलटा भी कहते हों तो वह भाड़ में जाए, वेद से क्या लेना-देना है? अगर अरविंद को कोई सत्य दिखाई पड़ा है, तो वह निपट निजता में कह सकते हैं कि यह सत्य है। यह मैंने देखा और जाना। लेकिन, भीतर अगर संदेह है, तो फिर वेद का सहारा लिए बिना कोई रास्ता नहीं है। वेद के कंधे पर बैठना पड़ेगा। फिर गीता के कंधे पर बैठना पड़ेगा, फिर उपनिषद के कंधे पर बैठना पड़ेगा। और फिर सबको अपने पीछे खड़ा करके दिखाना पड़ेगा कि जो मैंने जाना, वही जाना।
यह भी ध्यान रहे कि वेद का ऋषि किसी का सहारा नहीं खोजता। उपनिषद का ऋषि किसी का सहारा नहीं खोजता। उसके वक्तव्य सीधे हैं। ब्रह्मसूत्र का ऋषि किसी का सहारा नहीं खोजता, उसके वक्तव्य सीधे हैं। वह कहता है, ऐसा है। लेकिन फिर भारत में एक बौद्धिक पतन की लंबी कहानी है, जिसमें फिर कोई कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि ऐसा है, ऐसा मैं जानता हूं। फिर वे सब कहते हैं, ऐसा है, क्योंकि वेद ऐसा कहते हैं, और जो वेद कहते हैं, वही मैं भी जानता हूं। लेकिन, सीधा वक्तव्य खोता चला गया। अरविंद उस कड़ी में आखिरी हिस्से हैं।
इससे मैं कहता हूं कि रमण ज्यादा ईमानदार आदमी हैं। इससे मैं कहता हूं, कृष्णमूर्ति ज्यादा ईमानदार आदमी हैं। अगर गलती भी करनी है तो भी वेद पर मत थोपो, खुद ही अपने ऊपर लो। अगर ठीक भी खोजना है तो खुद ही अपने ऊपर लो। निर्णय तो हो सके, कल तय तो हो सके कि तुमने जो जाना था उसमें कुछ सार था कि नहीं था। लेकिन उस सबको "कन्फ्यूजन' में डाल दिया जाता है। सारी गवाहियां खड़ी कर दी जाती हैं।
इसलिए मैं मानता हूं कि भारत में दर्शन का वैसा "आनेस्ट', ईमानदार विकास नहीं हो सका जैसा पश्चिम में दर्शन का ईमानदार विकास हुआ है। क्योंकि सुकरात अगर कहता है तो खुद "अथॉरिटी' है, खुद अधिकारी है। अगर कान्ट कुछ कहता है तो खुद अधिकारी है। अगर विट्गिंस्टीन कुछ कहता है तो खुद अधिकारी है। इनमें से कोई भी दूसरे पर अधिकार नहीं खोजने जाता है। कोई भी यह कहने नहीं जाता कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है क्योंकि सुकरात भी ऐसा कहता है। इसलिए पश्चिम में एक ईमानदारी दर्शन की पैदा हुई और उसी ईमानदारी से विज्ञान पैदा हुआ है--उसी ईमानदारी का परिणाम विज्ञान है। क्योंकि विज्ञान बेईमानी से पैदा नहीं हो सकता। हिंदुस्तान में विज्ञान पैदा नहीं हो सका, क्योंकि एक बहुत गहरी बौद्धिक बेईमानी में हम फंसे हैं। यहां यह तय करना ही मुश्किल है कि कौन आदमी क्या कह रहा है। क्योंकि हर आदमी दूसरे की वाणी बोल रहा है। और हर आदमी दूसरे के शब्दों से जी रहा है। और हर आदमी दूसरे शास्त्रों पर खड़ा हुआ है।
मैं तो कहूंगा कि अरविंद का यह आग्रह कि वेद में भी यही है, एक आत्महीनता के बोध से पैदा होता है। इसमें बहुत अनुभव की बात नहीं है, इसमें बहुत आसान सहारे खोजने की बात है। और इस मुल्क का मन है, जो वेद से प्रभावित है; इस मुल्क का मन है जो महावीर से प्रभावित है, बुद्ध से प्रभावित है; इस मुल्क का मन परंपरानुगत है। इसलिए जब एक दफे कोई आदमी सिद्ध कर दे इतनी-सी बात कि ऐसा ही वेद में कहा है, तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं। इस आदमी को अलग से जांचने की फिर हमें कोई जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए वेद की आड़ में यह आदमी स्वीकृत हो जाता है। लेकिन आड़ ही क्यों लेनी? सत्य को किस आड़ की जरूरत है? अगर मुझे कुछ दिखाई पड़ता है तो मैं कहूंगा, ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है। और अगर वेद के ऋषियों को भी ऐसा दिखाई पड़ा होगा तो वे ठीक थे और नहीं दिखाई पड़ा होगा तो वे गलत थे। पर मेरा दिखाई पड़ना मेरे आत्मविश्वास की बात है। मैं वेद की वजह से गलत और सही नहीं हो सकता हूं। मेरे लिए तो मेरी वजह से वेद सही और गलत हो सकते हैं, वह दूसरी बात है। अगर मुझे कोई आकर कहता है कि आप ऐसा कहते हैं और महावीर ने ऐसा कहा है, तो मैं कहता हूं कि अगर महावीर ने ऐसा ही कहा होगा तो वे गलत होंगे। क्योंकि मैं कैसे पक्का करूं कि महावीर ने ऐसा कहा है कि नहीं, इतना मैं दिखाई पड़ता है, तो मैं कहूंगा कि सारी दुनिया गलत होगी लेकिन मुझे जो दिखाई पड़ता है वह ऐसा है। और मैं सिर्फ अपने ही दिखाई पड़ने के लिए गवाह हो सकता हूं। दुनिया भर के दिखाई पड़ने के लिए गवाह नहीं हो सकता हूं।
लेकिन यह तरकीब बड़ी आसान है। यह बड़ी सुविधापूर्ण है। अपने व्यक्तित्व को सीधा-का-सीधा सत्य के सामने आमने-सामने खड़े कर लेने में हजारों साल लगेंगे इतिहास को तय करने में कि आपको मिला कुछ कि नहीं मिला। लेकिन वेद की आड़ में खड़े कर लेने में बड़ी आसानी है। वेद सही, फिर आप भी सही हैं। क्योंकि जो आप कहते हैं, वही वेद में कहा हुआ है। और यह "ट्रिक' बड़ी आसान है। मैं एक छोटी-सी कहानी से समझाऊं--
एकफ्रेंच काउंटेस, शाही परिवार की औरत, और बड़ी "कस्टीडियस', सब चीजों में अपने ढंग से जीने की आदी है। एक "एशट्रे' खरीद लाई थी चीन से। "एशट्रे' पर जो रंग था, उसने कहा कि यही रंग मेरे बैठकखाने में होना चाहिए। बड़े-बड़े चित्रकार बुलाए गए, लेकिन रंग में कुछ फर्क पड़ जाता। वह "एशट्रे' का रंग ठीक-ठीक दीवाल पर न आ पाता। वे चीनी रंग थे, वे रंग भी उपलब्ध न थे। और कितनी ही कोशिश की जाए, ठीक "एशट्रे' के रंगों का तालमेल दीवालों पर नहीं बैठता। बड़े-बड़े चित्रकार आए और हारकर चले गए। फिर एक चित्रकार ने कहा कि मैं यह रंग कर दूंगा, लेकिन एक शर्त पर कि एक महीने तक इस कमरे के भीतर कोई प्रवेश नहीं कर सकेगा। उसने कहा, राजी। किसी भी शर्त पर राजी हूं। वह एक महीने के लिए दरवाजा बंद करके अंदर चला जाता, ताला लगा लेता, कुछ करता रहता, फिर बाहर निकल आता। महीने भर के बाद उसने उसको कहा कि अब आप अंदर आ जाएं। अंदर आकर देखा तो ठीक "एशट्रे' के कलर की सारी दीवालें हो गई हैं। और उस महिला ने उसे लाखों रुपये इनाम दिए। मरते वक्त उस चित्रकार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक ही रास्ता था कि पहले मैंने दीवालें पोत दीं और फिर उसी रंग में "एशट्रे' पोत दी। तब मेल बिलकुल बैठ गया।
यह अरविंद और दयानंद और सब पहले दीवालें पोतते हैं, फिर "एशट्रे' पोतते हैं। पहले अपना सिद्धांत बना लेते हैं, फिर वेद पर पोत देते हैं। फिर उसमें से सब निकाल लेते हैं। फिर संस्कृत और ग्रीक और लैटिन और अरबी, जितनी भी पुरानी भाषाएं हैं वे सब काव्य-भाषाएं हैं, विज्ञान-भाषाएं नहीं हैं। काव्य-भाषाओं में एक खतरा यह है कि एक-एक शब्द चूंकि अनेकार्थी होते हैं, इसलिए कभी तय नहीं किया जा सकता कि मूलरूप से जिस आदमी ने उन शब्दों का प्रयोग किया था, उसका क्या अर्थ है। एक-एक शब्द के दस-दस, बारह-बारह अर्थ होते हैं। और आज किस हिसाब से हम तय करें कि जिस आदमी ने यह वक्तव्य दिया था उसका इन दस-बारह अर्थों में कौन-सा अर्थ है? काव्य के लिए बड़ी अच्छी हैं ये भाषाएं। क्योंकि काव्य में एक शब्द जितना अर्थी हो, उतने रंग आ जाते हैं। कविता की दो कड़ियों में जितने रंग आ जाएं, उतनी कविता गहरी हो जाती है। और हर पढ़ने वाला अपना अर्थ निकाल सकता है। और ढंग-ढंग के लोग प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन विज्ञान ऐसे नहीं चलता। विज्ञान में तो भाषा "एक्जेक्ट' होनी चाहिए। और "अ' का अर्थ "अ' ही होना चाहिए। तो पुरानी कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि विज्ञान पुरानी भाषा में पैदा नहीं हुआ था। और इसलिए विज्ञान अब रोज नई भाषा पैदा करता जा रहा है।
आप जानकर हैरान होंगे कि फिजिक्स जो कि इस समय सर्वाधिक विकसित विज्ञान है, उसने तो धीरे-धीरे भाषा के शब्दों का उपयोग बंद कर दिया और गणित के फार्मूलों का उपयोग शुरू कर दिया। क्योंकि गणित का फार्मूला "एक्जेक्ट' हो सकता है। आदमी के प्रयोग किए गए शब्दों की "एक्ज़ेक्टनेस' संदिग्ध है। उसमें कोई अर्थ हो सकते हैं और हर उपयोग करने वाले का अपना अर्थ हो सकता है। इसलिए आइंस्टीन की किताब सिर्फ वही आदमी समझ सकता है, जिसने बहुत "हायर मैथेमेटिक्स' को समझा हो। आइंस्टीन की किताब को समझने के लिए भाषा का ज्ञान पर्याप्त नहीं रहा, गणित का ज्ञान अनिवार्य हो गया। क्योंकि भाषा गणित बन रही है। और आइंस्टीन जैसे लोगों का खयाल है कि भविष्य की जो विज्ञान की भाषा होगी, वह शब्द को छोड़कर "सिंबल' को ले लेगी गणित के, क्योंकि उसी में ठीक बात कही जा सकती है, अन्यथा कोई भी कुछ अर्थ कर सकता है।
तो यह जो, यह सुविधा जो है इस देश में--यह सब जगह है जहां-जहां पुराने ग्रंथ हैं, और सब पुराने ग्रंथ पुरानी भाषाओं में हैं, और पुरानी भाषाएं काव्य के आसपास निर्मित हुई थीं। इसलिए जानकर हैरानी होगी कि हिंदुस्तान में वैद्यक के ग्रंथ भी कविता में लिखे हुए उपलब्ध हैं। थोड़ा सोचने जैसा मामला है। असल में कविता ही लिखने का ढंग थी, बोलने का। उसके कारण थे। उसके कारण थे, क्योंकि लिखना बहुत बाद में आया और याददाश्त रखकर ही शास्त्रों को मन में रखना पड?ता था। कविता को याद रखना आसान है। गद्य को याद रखना मुश्किल है, पद्य को याद रखना आसान है। उसमें एक तुक के कारण सुविधा है, वह याददाश्त में रह जाती है। इसलिए सब वेद, सब उपनिषद, सब गीताएं, सब पुराण काव्य की भाषा में पद्यबद्ध हैं। ताकि उन्हें याद रखना आसान हो। हजारों साल तक याद रखना पड़ा, लिखने का उपाय न था। मगर उस याद रखने के लिए कविता ने सुविधा दी, लेकिन अर्थ की सुविधा खो गई। इसलिए अब हर आदमी को सुविधा है कि जो अर्थ वेद में करना चाहे, कर ले। मगर अब मैं मानता हूं कि किसी भी आदमी को ऐसा अर्थ करने नहीं जाना चाहिए। नहीं जाना चाहिए इसलिए कि यह बहुत बचकाना खेल हो गया, इसमें कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। और क्यों सहारा खोजा जाए! क्यों न ऐसा कहा जाए कि मुझे ऐसा दिखाई पड़ता है। हो सकता है वेद भी ऐसा कहते हों। कहते हों तो ठीक होंगे, न कहते हों तो गलत होंगे। कोई वेद ने ठेका ले रखा है सदा के लिए ठीक होने का? कि पीछे के लोगों को सिर्फ सिद्ध करना होगा कि जो वेद ने कहा है, वह ठीक कहा है। मुझे नहीं दिखाई पड़ता।
और जो मैंने कहा कि पांडिचेरी में जो प्रयोग हो रहा है वह व्यर्थतम प्रयोग हैं अध्यात्म के क्षेत्र में, इसको भविष्य को तय करने की जरूरत नहीं है। यह तो अध्यात्म की प्रक्रिया को समझ कर आज तय किया जा सकता है। अगर एक आदमी पानी को गरम कर रहा है नीचे आग जला कर, तो यह भविष्य के बच्चे तय नहीं करेंगे कि यह भाप बनेगा, यह हम अभी तय कर सकते हैं कि भाप बन जाएगा। लेकिन अगर चूल्हे में आग की जगह बर्फ रखी जा रही है, तो यह कोई भविष्य के बच्चे तय नहीं करेंगे कि पानी भाप नहीं बनेगा, बर्फ बन जाएगा, यह हम तय कर सकते हैं। भविष्य के बच्चों पर छोड़ने का कोई खास सवाल नहीं है। अध्यात्म भी एक विज्ञान है। अध्यात्म कोई ज्योतिष-शास्त्र नहीं है, कोई हस्तरेखा-विज्ञान नहीं है, कोई सामुद्रिक नहीं है। अध्यात्म के अपने गणित के सूत्र हैं। इसलिए उलटी प्रक्रियाओं से कुछ हल होने वाला नहीं है, यह आज कहा जा सकता है। और भविष्य अगर तय करेगा तो इतना ही तय करेगा कि मैंने जो कहा था वह ठीक था, कि अरविंद ने जो किया था वह ठीक था। भविष्य और कुछ तय नहीं करेगा।
जगत में समस्त विकास वैयक्तिक है। जगत में समस्त विकास वैयक्तिक है, "इंडिविजुअल' है। उपलब्धि "काज्मिक' है, उपलब्धि ब्रह्मांडगत है। लेकिन गति, विकास व्यक्तिगत है। जगत में समस्त चेतना की अभिव्यक्ति व्यक्तिगत है। मूल स्रोत समष्टिगत है, अभिव्यक्ति व्यक्तिगत है। सागर समष्टि है, लहर सदा व्यक्ति है। चेतना जहां भी दिखाई पड़ेगी हमें, व्यक्ति दिखाई पड़ेगी। हां, जब व्यक्ति की चेतना को खोएंगे तो समष्टि की चेतना का अनुभव शुरू होगा। लेकिन मैं अपनी चेतना को खोकर अनुभव करूंगा। मेरे अनुभव के साथ आपका अनुभव नहीं हो जाएगा।
एक पुराना सूत्र खयाल में लेना जरूरी है।
जिन लोगों ने सबसे पहले कहा कि एक ही आत्मा है सबमें, तो जो मानते थे कि अनेक आत्माएं हैं, उन्होंने कहा, तब तो एक आदमी मरे तो सबको मर जाना चाहिए। और एक आदमी दुखी हो तो सबको दुखी हो जाना चाहिए। ठीक कहते हैं, उनकी दलील दुरुस्त है। अगर चेतना एक ही है हम सबके भीतर, जैसे कि घर में बिजली एक ही है, अगर ऐसी चेतना हममें सब एक ही है और उसके बीच कहीं कोई दीवालें नहीं हैं, व्यक्ति और व्यक्ति में टूट नहीं गई है चेतना, तो मैं जब दुखी होऊंगा तो आप कैसे सुखी रह सकेंगे? अगर मेरी चेतना जुड़ी हुई है आपसे, तो मेरा दुख आप में प्रवेश कर जाएगा और जब मैं मरूंगा तो आप कैसे जिंदा रह सकेंगे? मैं मरूंगा तो आपको मरना पड़ेगा। इस तर्क के आधार पर वे लोग मानते रहे कि आत्मा एक नहीं है, सबमें अलग-अलग हैं। मैं उनके तर्क को बहुत ठीक नहीं मानता। क्योंकि यह मानता हूं कि बिजली एक घर में सारे बल्बों में एक है, लेकिन अगर एक बल्ब को फोड़ दें तो सब बल्ब  नहीं फूट जाएंगे। हालांकि सारी बिजली को हटा लें, तो सब बल्ब बंद हो जाएंगे। "मेन स्विच आफ' कर दें, तो सब बल्ब बुझ जाएंगे। लेकिन एक-एक बल्ब का अपना "स्विच' भी है। और एक-एक "स्विच' को बंद करते रहें तो एक-एक बल्ब बंद होता रहेगा। और बिना "स्विच' के भी एक बल्ब को फोड़ दें तो वह तो खो जाएगा।
लहरें सब अलग हैं, उनके नीचे जुड़ा हुआ सागर एक है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जब एक लहर गिरेगी तो सब लहरों को गिरना चाहिए और जब एक लहर उठे तो सब लहरों को उठना चाहिए। एक लहर गिरेगी तो एक लहर गिरेगी। बाकी लहरें उठ सकती हैं, कोई रोकने वाला नहीं है। अगर हम ऐसा इसके विपरीत सोचते हुए चलें कि समष्टि-चेतना, ब्रह्म-चेतना, परमात्मा उतर आए, तो मुझमें और आप में क्या फर्क कर पाएगा फिर! "मेन स्विच आफ' हो गया।
इसलिए अरविंद जो कल्पना कर रहे हैं--कल्पना कहता हूं--कल्पना सुखद है। बहुत कल्पनाएं सुखद होती हैं, लेकिन सुखद होने से कल्पनाएं सही नहीं हो जाती हैं। यह बड़ी सुखद कल्पना है कि परमात्मा हम सब पर अवतरित हो जाए। लेकिन अगर मैं अज्ञानी रहने का तय किए हुए हूं, तो अरविंद की कोई ताकत नहीं है कि मुझ पर परमात्मा को उतरवा दें, न परमात्मा की खुद की कोई ताकत है कि मुझ पर उतर आए। इतनी स्वतंत्रता तो मुझे देंगे न कि मैं अज्ञानी रह सकूं। और जिस दिन अज्ञानी रहने की स्वतंत्रता न रह जाएगी, उस दिन ज्ञान का कितना मूल्य होगा? उस दिन तो ज्ञान एक परवशता होगी, ज्ञान भी एक गुलामी होगी, जो आपकी छाती पर सवार हो जाएगा।
अरविंद की जो कल्पना है, देखने में सुखद, भीतर बहुत भयावह है। नहीं, मैं ऐसा नहीं देखता हूं। आज तक की मनुष्यजाति का इतिहास ऐसा नहीं कहता। आज तक की मनुष्य जाति का इतिहास यही कहता है कि व्यक्ति-चेतना उठती है और परमात्म-चेतना में लीन हो जाती है। जब लीन होती है तो उसमें परमात्म-चेतना भी उतर जाती है। फिर तय करना मुश्किल होता है कि बूंद सागर में गिरी कि सागर बूंद में गिर गया, एक दफा बूंद गिरे। लेकिन गिरती सदा बूंद ही है, अब तक सागर को बूंद में गिरते नहीं देखा गया है। गिर जाने के बाद तय करना मुश्किल है कि कौन किसमें गिरा! एक दफा बूंद गिर जाए सागर में, तो फिर तय करना मुश्किल है कि सागर बूंद से मिला कि बूंद सागर से मिली। मिल जाने के बाद तो तय करना मुश्किल है कि कौन किससे मिला, कौन किसमें गिरा, लेकिन मिलने के पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है कि सागर बूंद में गिरा हो। अरविंद इसकी कामना कर रहे हैं कि सागर बूंद में गिर जाए। लेकिन किसी दिन अगर सागर बूंद पर गिरेगा, तो मैं मानता हूं, बूंद इनकार ही करेगी। बूंद को बूंद होने का हक है। सागर इनकार नहीं करता है बूंद को गिरने से, क्योंकि बूंद गिरने से सागर का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, कुछ कम-ज्यादा नहीं होता। सागर को पता ही नहीं चलता बूंद के गिरने से। बूंद को ही पता चलता है, जब वह सागर में गिरती है कि मैं सागर में गिरी, बूंद को ही पता चलता है कि मैं सागर से एक हो गई, मैं सागर हो गई। सागर ने कभी ऐसा वक्तव्य नहीं दिया कि मैं बूंद से एक हो गया। कभी परमात्मा का कोई वक्तव्य नहीं है कि मैं व्यक्ति से एक हो गया। सब वक्तव्य व्यक्तियों के हैं कि मैं परमात्मा से एक हो गया। लेकिन सागर अगर बूंद पर गिरे तो बूंद कह भी सकती है कि कृपा करो, तुम मुझे मिटा ही दोगे! और तुम्हारा गिरना मुझ पर भारी हो जाएगा।
तो मैं मानने को राजी नहीं हूं कि "काज्म?िक कांशसनेस', ब्रह्मांड-चेतना व्यक्ति के ऊपर गिरेगी, जैसा अरविंद का खयाल है। और समस्त मनुष्य जाति के अनुभव के विपरीत है वह बात इसलिए भविष्य को नहीं छोडूंगा। और फिर अरविंद एक अर्थ में अतीत हो गए। अब वह नहीं हैं जमीन पर। अरविंद ने और भी वक्तव्य दिए थे जो निपट नासमझी के सिद्ध हुए हैं।
अरविंद ने कहा था कि मैं "फिजिकली इम्मार्टल' हूं, मैं शरीर रूप से अमृत हूं। और मजा यह है कि वह अंधे भक्त जो अभी भी आशा कर रहे हैं कि परमात्म-चेतना उन पर उतर आएगी, वे यह भी माने बैठे हुए थे कि अरविंद "फिजिकली', शरीरगत रूप से अमर हैं, उनकी मृत्यु नहीं हो सकती। और जिस आदमी में परमात्मा उतर आया हो--और अरविंद का खयाल यह था कि परमात्मा आत्मा तक ही नहीं उतरेगा, "फिजिकल बॉडी' तक उतरेगा। ये जो भौतिक शरीर के अणु हैं, यह भी परमात्मरूप हो जाएंगे जब वह उतरेगा; तो फिर मृत्यु कैसे घटित हो सकती है? तो तर्क तो ठीक ही था, इसी के संदर्भ में था तर्क कि जब परमात्मा उतर ही आएगा और शरीर के कण तक उतर जाएगा, "मैटर' तक उतर जाएगा, प्रकृति तक उतर जाएगा, तो फिर मृत्यु का क्या सवाल है? इसलिए अमृत्यु की बहुत लोगों ने बातें की हैं, लेकिन वह आत्मिक अमरत्व की बातें की हैं, अरविंद पहले आदमी हैं पृथ्वी पर जो भौतिक अमरत्व की, "फिजिकल इम्मार्टलिटी' की बात करते थे।
लेकिन इस तरह की बात करने में एक बड़ा फायदा है कि जब तक मैं नहीं मरा हूं, तब तब आप मुझे हरा नहीं सकते। और जब मैं मर ही गया तो मुझे आप क्या हराइयेगा। जब तक अरविंद जिंदा थे, दलील सही थी। कैसे सिद्ध करियेगा कि यह बात गलत होगी! और जब मर गए, तो अब किसके सामने सिद्ध करने जाइएगा? लेकिन आश्चर्य यह नहीं है कि अरविंद मर गए। अरविंद के मरने के चौबीस घंटे तक जो मां नाम की महिला उस आश्रम में हैं, उन्होंने मानने से...राजी नहीं हुई वह कि वह मर सकते हैं। उन्होंने यही माना कि वह गहरी समाधि में चले गए हैं। और तीन दिन तक शरीर को बचाने की कोशिश की, इस आशा में, क्योंकि इस मुल्क की एक पुरानी धारणा है कि योगी का शरीर "डिसइंटीग्रेट' नहीं होता है। योगी का शरीर, मरने के बाद सड़ता नहीं। लेकिन तीन दिन बाद जब अरविंद के शरीर से बदबू छूटने लगी तब बड़ी मुश्किल हुई। फिर इसको जल्दी से दफनाना पड़ा। क्योंकि वह खबर अगर सब जगह पहुंच जाए, तो जैसा अभी पूछा गया कि यह मुल्क बहुत समझदार है और हर किसी को योगी नहीं कह देता, तो यह मुल्क मानता है कि योगी मर जाए तो उसके शरीर से बास नहीं आनी चाहिए, तो फिर क्या होगा? फिर जब बास आने लगेगी तो यह मुल्क कहेगा कि अरे, हम बड़ी गलती में थे, यह आदमी योगी नहीं है। तो इसको जल्दी दफनाओ और यह खबर मत फैलने दो। और आज भी अरविंद आश्रम में बैठे हुए नासमझों में बहुत ऐसे हैं जो मानते हैं कि वह वापिस लौट आएंगे, क्योंकि वह "फिजिकली इम्मार्टल' हैं।
ये जो नासमझियां हैं, हमारे ये जो अंध-विश्वास हैं, ये बड़े विचारणीय हैं। हम क्या-क्या पागलपन की बातें करते हैं! मैं न तो मानता हूं कि योगी के शरीर में कोई विशेषता हो जाती है कि उसमें सड़ांध न आए। सड़ेगा। ऐसा नहीं है कि नहीं सड़ेगा। क्योंकि जिस योगी का शरीर सड़ेगा ही नहीं, वह मरेगा ही किसलिए? आखिर सड़ने से तो मरना आता है। हमारी मृत्यु जो है, बुढ़ापा जो है, वह "डिसइंटीग्रेशन' की शुरुआत है। जब योगी बूढ़ा हो जाएगा, और जब योगी का शरीर बाकी सब नियम पालन करेगा, बचपन से जवानी में जाएगा, जवानी से बुढ़ापे में जाएगा, बुढ़ापे से मौत में जाएगा, तो सिर्फ एक नियम चूक जाएगा उसका कि मरने के बाद उसका शरीर सड़ेगा नहीं? सड़ेगा। इससे कोई संबंध नहीं है। उसके भीतर की आत्मा ज्ञान को उपलब्ध हुई थी कि ज्ञान को नहीं उपलब्ध हुई थी, इससे उसके शरीर के सड़ने-न सड़ने का कोई भी संबंध नहीं है। कोई "रेलिवेंस' नहीं है। और आत्मा तो दोनों हालत में आपके भीतर है, चाहे आप योगी हैं, चाहे आप योगी नहीं हैं। आत्मा की मौजूदगी में तो कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ आत्मा के बोध में फर्क पड़ता है कि योगी जानता है कि मैं आत्मा हूं, और आप नहीं जानते। लेकिन इस बोध से शरीर के सड़ने-न सड़ने का कोई भी संबंध नहीं है। फिर योगी बीमार भी पड़ता है। फिर हमें झूठी कहानियां गढ़नी पड़ती हैं, फिर हमें परेशानियां होती हैं।
महावीर को मरने के पहले छः महीने पेचिश की बीमारी थी। अब जैनियों को कहानियां गढ़नी पड़ीं, क्योंकि महायोगी को पेचिश की बीमारी हो जाए! और वह भी उसको जिसने महा-उपवास किए हों! उसका तो पेट कम-से-कम बिलकुल ठीक ही होना चाहिए। पेचिश और महावीर को! तो फिर हम सबका क्या होगा? महावीर तो खाते-पीते ही नहीं। कथा तो यह है कि बारह साल में उन्होंने तीन सौ पैंसठ दिन खाना खाया--कभी तीन महीने छोड़कर, कभी दो महीने छोड़कर, कभी चार महीने छोड़कर एक दिन खाना खाया। अब इस आदमी को कभी पेचिश हो जाए! हालांकि मेरे हिसाब से इस आदमी को ही होनी चाहिए। क्योंकि यह जो खाने के साथ अनाचार होगा, तो पेट को नुकसान पहुंचेंगे। तो मेरे लिए तो संगतिपूर्ण है। यानी मैं मानता हूं कि इसमें संगति है कि पेचिश हुई छः महीने। लेकिन महावीर को महायोगी मानकर जो चल रहा है उसकी बड़ी दिक्कत है, क्योंकि वह साथ में यह मानता है। मेरे लिए कोई दिक्कत नहीं आती, महायोगी होने से पेचिश होने की कोई बाधा मुझे नहीं पड़ती। मैं महायोगी को इतना बड़ा मानता हूं कि पेचिश से कोई खास नुकसान नहीं हो जाता। लेकिन कुछ हैं, जिनके लिए पेचिश हो गई तो महायोगी कैसे! तो उनको कहानी गढ़नी पड़ी कि यह पेचिश साधारण नहीं है, यह गोशालक के द्वारा मंत्र द्वारा फेंकी गई पेचिश है, जिसको महावीर ने झेल लिया है। करुणावश पी गए हैं और उसको झेल रहे हैं। जब योगी बीमार पड़ता है तो हमें कहना पड़ता है, यह किसी की ली गई बीमारी है। बड़ा मजा यह है कि योगी को आप खुद बीमार तक न होने देंगे! तो वे यह कहेंगे कि किसी की ली गई बीमारी है--कोई बीमार था, योगी ने उसकी बीमारी ले ली।
हम कैसी नालायकी की बातों में पड़े हुए हैं! इसका कोई मतलब नहीं है! अरविंद मरे, शरीर सड़ा, "फिजिकल इम्मार्टलिटी' की बात बेमानी हो गई--पहले ही बेमानी थी। लेकिन पहले यह कहा जाता है कि अभी आप कैसे कह सकते हैं, अभी तो अरविंद जिंदा हैं। लेकिन तब भी हम कह सकते थे, क्योंकि आज तक पृथ्वी पर "फिजिकल इम्मार्टलिटी' संभव नहीं हुई। उसके कारण हैं। उसके कारण हैं, कि जो भी चीज...जैसे बुद्ध ने कहा है--ठीक कहा है--कि जो भी चीज जोड़ से बनती है वह टूटेगी, क्योंकि सब जोड़ों की सीमा है। एक पत्थर को मैं फेंकूंगा, तो वह गिरेगा, क्योंकि मेरे हाथ की ताकत है फेंकने के लिए। वह ताकत जब चुक जाएगी और "रेसिस्टेंस' टूट जाएगा, तो पत्थर गिर जाएगा। ऐसा कोई पत्थर नहीं हो सकता कि मैं फेंकूं और फिर गिरे ही न। दूरी बढ़ सकती है, लेकिन गिरेगा। जन्म होगा, मृत्यु होगी। हां, ऐसा योगी "फिजिकल इम्मार्टलिटी' को उपलब्ध हो सकता है जो जन्म ही न ले। एकदम "फिजिकली' मौजूद हो जाए पृथ्वी पर--स्वयंभू--खड़ा हो जाए एकदम जमीन पर आकर। किसी माता-पिता से जन्म न ले। अब बड़ा मजा यह है कि एक छोर को तो आप मानते हैं कि माता-पिता से जन्म लेंगे और दूसरे छोर को नहीं मानते कि मृत्यु होगी। इस जगत में दोनों छोर सदा साथ हैं। जो माता-पिता से जन्मेगा, वह मरेगा। क्योंकि माता-पिता "इम्मार्टल' को पैदा नहीं कर सकते। दो शरीर ही हैं वे बेचारे, दो शरीर जो पैदा करेंगे वह शरीर के नियमों से चलेगा। और शरीर के नियमों से मरेगा। यह इतना सीधा-सा गणित भी, लेकिन हम कहेंगे जब तक अरविंद नहीं मरते तब तक आप कुछ नहीं कह सकते।
मैं कहता हूं, मैं कह सकता हूं। उनके मरने के लिए राह देखने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह सीधा गणित और विज्ञान का सूत्र है। इसमें उनकी कल्पनाओं से बाधा नहीं पड़ती, इसमें उनके अनुमानों से कोई अर्थ नहीं है। और फिर मजा यह है कि मर जाने के बाद किससे कहियेगा? अब वह मर गए, अब किससे कहियेगा? अब अरविंद से कोई विवाद का उपाय न रहा। और आप कहते हैं कि पांडिचेरी में जो हो रहा है वह बाद की पीढ़ियां तय करेंगी। तो यह पीढ़ी तो मूढ़ बन ही जाएगी वहां जाकर। इसका क्या होगा? इस पीढ़ी का क्या होगा जो वहां बैठकर मूढ़ता कर लेगी? इसको बनने दें? भविष्य की पीढ़ियां तय करेंगी, लेकिन यह पीढ़ी मर जाएगी।
नहीं, भविष्य के लिए नहीं रुका जा सकता है। ये भी आदमी कीमती हैं जो वहां बैठकर काम में लगे हैं। इनको भी खबर पहुंचानी जरूरी है कि तुम जो कर रहे हो, उसे एक दफा पुनर्विचार कर लो। परमात्मा कभी नहीं उतरता व्यक्ति तक, व्यक्ति ही परमात्मा तक जाता है। लेकिन जाकर जो अनुभव होता है, वे ऐसे ही होता है कि परमात्मा ही उतर आया, वह बिलकुल दूसरी बात है। उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है।
एलिस बेली के संबंध में एक सवाल पूछा है। एलिस बेली का खयाल है कि कोई मास्टर "के' तिब्बत की किन्हीं गुफाओं, हिमालय की किन्हीं कंदराओं से उसे संदेश देते रहे।
इसकी बहुत संभावना है। इसमें बहुत सच्चाइयां हैं।
असल में ऐसी आत्माएं हैं, शरीर से हट गई हैं लेकिन जिनकी अनुकंपा इस जगत से नहीं हट गई है। ऐसी आत्माएं हैं, जो अपने अशरीरी जगत से भी इस जगत के लिए निरंतर संदेश भेजने की कोशिश करती हैं। और कभी अगर उन्हें "मीडियम' उपलब्ध हो जाए, कोई माध्यम उपलब्ध हो जाए, तो उसका उपयोग करती हैं।
ऐसा कोई बेली के साथ पहली दफा हुआ हो, ऐसा नहीं है। ए.पी.सिनेट ने भी ठीक वैसे ही माध्यम का काम इसके पहले किया था। उसके पहले लीडबीटर ने भी, कर्नल अल्काट ने भी, एनीबेसेंट ने भी, ब्लावट्स्की ने भी, इन सबने भी इस तरह के माध्यम के काम किए थे। इसका एक लंबा इतिहास है। ऐसी आत्माओं से संबंधित होकर, जो आत्मिक विकास के दौर में हमसे आगे की सीढ़ियों पर हैं, बहुत कुछ जाना जा सकता है और बहुत कुछ संदेशित किया जा सकता है, "कम्यूनिकेट' किया जा सकता है।
ठीक इसी तरह का बहुत बड़ा प्रयोग, जो असफल हुआ, वह ब्रह्मवादियों ने जे.कृष्णमूर्ति के साथ करना चाहा था। बड़ी व्यवस्था की थी कि कृष्णमूर्ति को उन आत्माओं के निकट संपर्क में लाया जाए जो संदेश देने को आतुर हैं, लेकिन जिनके लिए माध्यम नहीं मिलते। और कृष्णमूर्ति की पहली किताबें, "एट द फीट आफ द मास्टर', या "लाइव्स आफ अलक्यानी', उन्हीं दिनों की किताबें हैं। इसलिए जे.कृष्णमूर्ति उनके लेखक होने से इनकार कर सकते हैं, करते हैं। वे उन्होंने अपने होश में नहीं लिखी हैं। "एट द फीट आफ द मास्टर'--"गुरुचरणों में'--बड़ी अदभुत किताब है। लेकिन कृष्णमूर्ति उसके लेखक नहीं हैं। सिर्फ माध्यम हैं। किसी आत्मा के द्वारा दिए गए संदेश उसमें संगृहीत हैं।
बेली का भी दावा यही है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक इसे इनकार करेंगे। क्योंकि मनोविज्ञान के पास अभी कोई उपाय नहीं है जहां से वह स्वीकार कर सके। पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी कुछ भी पता नहीं है कि मनुष्य के इस शरीर के बाद और शरीर भी हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी यह भी बहुत स्पष्ट पता नहीं हो पा रहा है--मैं मनोविज्ञान कह रहा हूं, "साइकिक साइंसेज' की बात नहीं कर रहा हूं, "साइकोलॉजी' की बात कर रहा हूं। पश्चिम का जिसको हमें कहना चाहिए ऑफिसियल साइकोलॉजी, आक्सफर्ड, कैंब्रिज और हार्वर्ड में जो पढ़ाई जाती है विद्यार्थी को, वह जो मनोविज्ञान है--उस मनोविज्ञान को अभी इन सबका कोई भी पता नहीं है कि मनुष्य अशरीरी स्थिति में भी रह सकता है। और अशरीरी स्थितियों से भी संदेश दिए जा सकते हैं। और ऐसी बहुत-सी आत्माएं हैं जो निरंतर संदेश देती रही हैं, इस सदी में ही नहीं।
महावीर के जीवन में बहुत उल्लेख हैं। महावीर एक गांव के किनारे खड़े हैं--मौन हैं। एक ग्वाला अपनी गायों को उनके पास छोड़कर और यह कहर कि मैं थोड़ी देर में आता हूं, जरा मेरी गायों को देखते रहना, गांव वापस चला गया। महावीर मौन खड़े हैं इसलिए हां भी नहीं भर सकते, ना भी नहीं कर सकते। कुछ नहीं कहा है, वह जल्दी में यह सोचकर कि देखता रहेगा यह आदमी, कुछ काम भी नहीं कर रहा है, नंगा खड़ा है गांव के किनारे, वह अंदर चला गया है। लौट कर जब आया है, तब तक गायें चल पड़ी हैं और जंगल के अंदर खो गई हैं। उस आदमी ने समझा कि यह बड़ा बेईमान आदमी मालूम पड़ता है, गायें चोरी करवा दीं इसने, गायें चोरी हो गईं। तो उसने मारा, पीटा, ठोंका; उनके कान में कील ठोंक दिए। और कहा, बहरे हो! लेकिन वह फिर भी चुप रहे, क्योंकि वे चुप ही खड़े हैं।
तो एक कथा है कि इंद्र ने आकर महावीर को कहा कि मैं आपकी रक्षा का कोई उपाय करूं? अब यह इंद्र कोई व्यक्ति नहीं है। यह इंद्र अशरीरी एक आत्मा है, जो इतने निरीह, निपट सरल आदमी पर हुए व्यर्थ के अनाचार से पीड़ित हो गई है। लेकिन महावीर ने कहा, नहीं। अब यह बड़े मजे की बात है कि महावीर ग्वाले से नहीं बोले और इंद्र से कहा, नहीं। तो निश्चित ही यह "नहीं' भीतर कहा गया है, बाहर नहीं कहा गया है। नहीं तो ग्वाले से ही बोल देते। इसमें क्या कठिनाई थी? इसलिए यह इंद्र से जो बात है, यह "इनर' है, यह भीतरी है, यह "साइकिक' है, "एस्ट्रल' है। यह महावीर ने ओंठ नहीं खोले हैं अभी भी, उनके ओंठ बंद ही हैं। यह बात किसी और तल पर हुई है, नहीं तो महावीर का मौन टूट गया--वह बारह साल के लिए मौन हैं--यह मौन नहीं टूटा। इस पर महावीर के पीछे चलने वालों को बड़ी कठिनाई आती है कि इसको कैसे हल करें, क्योंकि अगर यह इंद्र कोई आदमी है तो फिर यह महावीर बोल गए और मौन टूट गया। और जब इंद्र ही से तोड़ दिया, तो गरीब ग्वाले ने क्या बिगाड़ा था, उससे ही तोड़ लेते! लेकिन न तो मौन टूटा, क्योंकि ऐसे मार्ग हैं जहां बिना वाणी के वाणी संभव है, जहां बिना शब्द के बोला जा सकता है और जहां बिना कानों के सुना जा सकता है, और ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अशरीरी हैं।
महावीर ने कहा, नहीं; क्योंकि तुम्हारे द्वारा रक्षित होकर मैं परतंत्र हो जाऊंगा। मुझे असुरक्षित ही रहने दो, लेकिन वह मेरी स्वतंत्रता तो है। अगर तुमसे मैंने रक्षा ली, तो मैं तुमसे बंध जाऊंगा। तो मुझे असुरक्षित रहने दो। असल में महावीर यह कह रहे हैं कि ग्वाला मुझे इतना नुकसान नहीं पहुंचा सकता, जितना तुमसे सुरक्षा लेकर मुझे पहुंच जाएगा। उसे माने दो, उससे कुछ हर्जा नहीं होगा; बाकी तुमसे रक्षा लेकर तो मैं गया, तब तो तुम मेरी "सिक्योरिटी' बन गए, तुम मेरी सुरक्षा बन गए।
बुद्ध को जब पहली दफा ज्ञान हुआ, तो देवताओं के आने की कथा है कि देवता आए और बुद्ध से प्रार्थना करने लगे--क्योंकि बुद्ध सतत सात दिन तक बोले ही नहीं ज्ञान के बाद। उन्हें ज्ञान हो गया लेकिन वाणी खो गई। अक्सर ऐसा होगा ही। जब ज्ञान होगा, वाणी खो जाएगी। अज्ञान में बोलना बहुत आसान है। क्योंकि कोई डर ही नहीं है कि क्या बोल रहे हैं। जिसका हमें पता नहीं है, उस संबंध में बोलना बहुत सुविधापूर्ण है। क्योंकि भूल होने का भी कोई डर नहीं है। बुद्ध को ज्ञान हुआ, वाणी खो गई, सात दिन वे चुप बैठे रहे, देवता उनके आसपास हाथ जोड़े खड़े रहे और प्रार्थना करते रहे, बोलो। सात दिन बाद वे सुन पाए। देवताओं ने प्रार्थना की कि आप नहीं बोलेंगे तो जगत का बड़ा अहित होगा। लाखों वर्षों में ऐसा व्यक्ति पैदा होता है। तो आप चुप न रहें, आप बोलें!
ये देवता कोई व्यक्ति नहीं हैं। ये वे आत्मायें हैं, जो आतुर हैं कि एक व्यक्ति को उपलब्ध हो गया है। जो वे खुद कहना चाहती हों आत्मायें जगत से, लेकिन उनके पास अब शरीर नहीं है, इस व्यक्ति के पास अभी शरीर है और यह कह सकता है, और इसको वह मिल गया है जो कहा जाने योग्य है, और पृथ्वी पर ऐसी घटना मुश्किल से, मुश्किल से कभी-कभी घटती है। तो वे आत्मायें प्रार्थना करती हैं कि आप कहें। आप कहें। बुद्ध को बामुश्किल राजी कर पाती हैं कहने को। लेकिन बुद्ध का वे माध्यम की तरह उपयोग नहीं कर रही हैं। संदेश उनका और बुद्ध की वाणी नहीं है। बुद्ध का अपना नहीं संदेश है, अपनी ही वाणी है।
एलिस बेली जैसे व्यक्ति गलत नहीं कह रहे हैं। लेकिन वे सही कह रहे हैं, इसको सिद्ध करना उनके लिए बहुत मुश्किल मामला है। वे केवल माध्यम हैं। माध्यम इतना ही कह सकता है कि मुझे ऐसा सुनाई पड़ता है, यह सही है? यह मेरे ही मन का खेल नहीं है, वह कैसे सिद्ध करेगा? यह मेरा ही "अनकांशस' नहीं बोलता है, यह कैसे सिद्ध करेगा? यह मैं ही अपने को किसी "डिसेप्शन' में नहीं डाल रहा हूं, यह कैसे सिद्ध करेगा? बहुत मुश्किल है। माध्यम को सिद्ध करना मुश्किल है। इसलिए बेली को मनोवैज्ञानिक हरा सकते हैं।
और आखिरी सवाल पूछा है कि क्या मेरा किसी इस तरह के मास्टर या ऐसे किसी गुरु से संबंध है?
नहीं, उधार काम मैं करता ही नहीं। मेरा संबंध सिर्फ मुझसे है। तो जो भी मैं कह रहा हूं वह मैं ही कह रहा हूं। उसकी भूल-चूक, उसके सही-गलत होने का सारा जिम्मा मुझ पर है। किसी "मास्टर' से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। और अगर मैं किसी को "मास्टर' बनाऊं, तो डर यह है कि फिर मैं किसी का "मास्टर' बन सकता हूं। वह काम मैं करता नहीं। न मैं किसी का शिष्य हूं, न किसी को शिष्य बनाने का सवाल है। निपट जो सीधा मुझे दिखाई पड़ रहा है, वह मैं कह रहा हूं, इसलिए मुझे कोई सिद्ध करने जाने की जरूरत नहीं है कि "मास्टर' होते हैं कि नहीं होते हैं। मैंने सिर्फ बात कही है आपसे। वे होते हैं कि नहीं होते हैं, इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। इतना मैं कहता हूं कि शरीर छूट जाने के बाद बुरी आत्मायें भी बच जाती हैं, जिन्हें हम प्रेत कहते हैं। अच्छी आत्मायें भी बच जाती हैं, जिन्हें हम देवता कहते हैं। इन देवताओं के लिए पश्चिम में जो नया शब्द है "मास्टर' का, वह पकड़ गया है। इन देवताओं ने सदा संदेश भेजे हैं। वे आज भी संदेश भेजने के लिए सदा उत्सुक हैं। प्रेतात्माओं ने भी, बुरी आत्माओं ने भी संदेश भेजे हैं। अगर आपके मन की स्थिति ऐसी हो कि प्रेतात्मा आपको संदेश दे सके, तो बराबर देगी। और बहुत बार आदमियों ने ऐसे काम किए हैं जो उन्होंने नहीं किए हैं, किसी ने उनसे करवाए हैं। बुरे आदमियों ने भी करवाए हैं। बुरी आत्मायें भी आपसे काम करवा लेती हैं, जो आपने नहीं किया है। इसलिए जरूरी नहीं है कि जब अदालत में एक आदमी कहता है कि यह हत्या मैंने नहीं की, मेरे बावजूद हो गई है, तो पक्का नहीं है कि वह आदमी झूठ ही कहता हो। यह हो सकता है। ऐसी आत्मायें हैं, जिन्होंने निरंतर हत्यायें करवाई हैं। ऐसे घर हैं जमीन पर जिन पर उन आत्माओं का वास है कि उस घर में जो भी रहेगा, वे उनसे हत्या करवा लेंगी। बदले हैं लंबे भी; पीढ़ियों ही नहीं चलते झगड़े, जन्मों भी चलते हैं।
एक व्यक्ति को मेरे पास लाया गया--एक युवक को मेरे पास लाया गया। जिस मकान में वह रह रहा है, अभी कोई दो साल पहले, तीन साल पहले वह उस मकान को खरीदे और उसमें आए, तब से उस लड़के में कुछ गड़बड़ होनी शुरू हो गई। और उसका सारा व्यक्तित्व बदल गया। वह सौम्य था, विनम्र था, वह सब खो गया। वह दंभी, अहंकारी, हिंसक, हर चीज की तोड़-फोड़ में उत्सुक, जरा-सी बात में लड़ने को आतुर हो गया--अचानक जिस दिन घर में वह आया। अगर यह धीरे-धीरे होता तो पता भी न चलता। एकदम से "पर्सनैलिटी चेंज' हुई, एकदम से व्यक्तित्व बदला। वह मेरे पास लाए। उन्होंने कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। और जैसे ही उसको घर के बाहर ले जाते हैं, वह फिर ठीक हो जाता है। जब मेरे पास लाए तो वह ठीक था। वह कहने लगा, मैं खुद ही मुश्किल में हूं। अब अभी मैं बिलकुल ठीक हूं। लेकिन न-मालूम उस घर में जाकर क्या होता है कि मैं एकदम गड़बड़ हो जाता हूं।
उसको बेहोश किया, उसको सम्मोहित किया और उससे पूछा। तो ग्यारह सौ साल लंबी कहानी! कोई आदमी ग्यारह सौ साल पहले उस खेत का मालिक था, जहां वह मकान है। और ग्यारह सौ साल से वह निरंतर कोई पैंतीस हत्यायें करवा चुका। उसने सब वक्तव्य दिया कि मैं तो इससे जब तक हत्या न करवा लूं, तक तक छोड़ने वाला नहीं हूं। और ग्यारह सौ साल से निरंतर वह उस परिवार के लोगों की हत्या करवा रहा है, जिसके द्वारा उसकी हत्या ग्यारह सौ साल पहले की गई थी। उसकी हत्या की गई थी। और तब से वह प्रेत है और उस जगह बैठा है। और जिसने उसकी हत्या की थी, जिस परिवार ने, जिस दस-पंद्रह लोगों ने उसकी हत्या में हाथ बंटाया था, निरंतर उनकी हत्या में वह संलग्न है, वे किसी रूप में, वे कहीं पैदा हों, वह उनकी हत्या करवा रहा है।
बुरी आत्मायें भी अपने संदेश पहुंचाने की चेष्टा करती हैं। बहुत बार आप इस खयाल में होंगे कि आप कर रहे हज, आप नहीं कर रहे होते। बहुत बार आपसे ऐसा अच्छा कृत्य हो जाता है जो कि आप खुद ही नहीं सोच सकते कि मैं कर सकता था! दूसरे की बात छोड़ें, दूसरा तो मानता ही नहीं कि किसी ने अच्छा किया, आप खुद भी नहीं मान पाते कि इतना अच्छा मैं कर सकता था जो मैंने किया। उसमें भी कोई संदेश काम करते चले जाते हैं।
बेली के वक्तव्य में कोई गलती नहीं है, लेकिन बेली अपने वक्तव्यों को सिद्ध न कर पाएगा। कोई नहीं कर पाता। ब्लावट्स्की नहीं कर पाई अपने वक्तव्यों को सिद्ध। और मैंने इस बीच एक बात कही, उसको थोड़ा और समझा दूं। मैंने कहा कि कृष्णमूर्ति के साथ एक बहुत बड़ा प्रयोग किया जा रहा था, जो असफल गया। एक बहुत बड़ा प्रयोग था कि जिनको हम देवलोग की आत्मायें कहें, उनमें बहुत-सी आत्मायें एक-साथ उत्सुक होकर इस व्यक्ति में एक ऐसी चेतना को जन्माना चाहती थीं जैसा कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण, इस तरह की बड़ी चेतना इस व्यक्ति के भीतर प्रवेश कर जाए। ऐसी कोई चेतना आतुर है। असल में बुद्ध का ही एक आश्वासन अभी प्रतीक्षा कर रहा है। बुद्ध का एक आश्वासन है कि ठीक समझना कि मैं ही मैत्रेय के नाम से एक बौर और लौट आऊंगा। तो मैत्रेय नाम का बुद्ध-अवतार आतुर है, लेकिन उसके योग्य शरीर उपलब्ध नहीं हो रहा है। उसके योग्य ठीक संस्थान और "मीडियम' उपलब्ध नहीं हो रहा है। "थियोसॉफी' का सारा-का-सारा आयोजन, कोई सौ वर्ष की निरंतर श्रम-व्यवस्था एक ऐसे व्यक्ति को खोजने के लिए थी, जिसमें मैत्रेय की आत्मा प्रवेश कर जाए। इसलिए तीन-चार व्यक्तियों पर मेहनत उन्होंने शुरू की, लेकिन सभी असफल हुआ। सर्वाधिक मेहनत कृष्णमूर्ति पर की गई थी, लेकिन वह नहीं हो सका। और नहीं होने के कारण में, अति मेहनत ही कारण बनी। सारे लोग इतने चेष्टारत हो गए, चारों तरफ से इतना दबाव डाला गया कि स्वभावतः कृष्णमूर्ति का अपना व्यक्तित्व विद्रोही और बगावती हो गया। वह "रिएक्ट' कर गया। उसने अंततः इनकार कर दिया कि--नहीं!
और उसके बाद चालीस साल हो गए, लेकिन कृष्णमूर्ति "रिएक्शन' से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। वह अभी भी उन्हीं के खिलाफ बोले चले जा रहे हैं। वह कुछ भी बोलते हैं, उसमें उनकी खिलाफत मौजूद है ही। बहुत गहरे में वह पीड़ा अभी भी मौजूद है, वह घाव एकदम भर नहीं गया। लेकिन, थोड़ी गलती हो गई। कृष्णमूर्ति की हैसियत के आदमी को दूसरे की आत्मा के प्रवेश के लिए राजी नहीं किया जा सकता। थोड़ी और कमजोर आत्मा चुननी थी। फिर उन्होंने कृष्णमूर्ति से कमजोर आत्मायें चुनीं लेकिन उसकी भी तकलीफ है। उतनी कमजोर आत्मा उस आत्मा के प्रवेश के योग्य नहीं बन पाती। वह पात्र छोटा पड़ जाता है। और मैत्रेय की आत्मा उसमें प्रवेश न कर पाए। और जो पात्र बड़ा पड़ सकता है, वह खुद अपनी आत्मा में इतना गहरा है कि वह किसी आत्मा के प्रवेश के लिए राजी क्यों हो? इसलिए बचपन में तो कृष्णमूर्ति को उन्होंने किसी तरह राजी रखा, लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी और उनकी "अवेयरनेस' बढ़ी और उनकी खुद की चेतना का जन्म हुआ, वैसे-वैसे इनकार बढ़ता चला गया। एक बहुत बड़ा प्रयोग सफल नहीं हो सका और मैत्रेय की आत्मा आज भी भटकती है।
लेकिन कठिनाई बड़ी है, और कठिनाई यही है कि जो राजी हो सकते हैं उसके लिए, वह योग्य नहीं है और जो योग्य हैं, वह राजी नहीं हो सकते। इसलिए कहा नहीं जा सकता कि कितनी देर लगेगी मैत्रेय के व्यक्तित्व को उतरने में। उतर भी सकेगा जल्दी, यह भी संभावना रोज सिकुड़ती जाती है। क्योंकि अब तो कोई बड़ा आयोजन भी नहीं है उसकी तैयारी के लिए। अब तो आकस्मिक आयोजन ही काम कर सकता है। वैसा ही आयोजन सदा काम किया है, अतीत में। कोई बुद्ध के लिए किसी व्यक्ति को राजी नहीं करना पड़ा। एक गर्भ उपलब्ध हो गया और बुद्ध प्रवेश कर गए। और महावीर के लिए किसी को राजी नहीं करना पड़ा, एक गर्भ उपलब्ध हो गया और महावीर प्रवेश हो गए। लेकिन उतने श्रेष्ठ गर्भ उपलब्ध होने मुश्किल होते चले गए हैं।

"गीता के सात सौ एक श्लोकों का परायण करने में कम-से-कम चार घंटे लग जाते हैं। तो क्या कुरुक्षेत्र के रण-मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य में जब श्रीकृष्णार्जुन-संवाद हुआ, उस दरम्यान चार घंटे तक युद्ध स्थगित कर दिया गया?'

बिलकुल ठीक है। बैठिये।

"आपने कहा था कि ज्यादा-से-ज्यादा एक साल तक शरीर छोड़ने के बाद आत्मा दूसरा जन्म ले लेती है। आज कहा कि ग्यारह सौ साल तक खून करवाती रही एक प्रेतात्मा?'

हां, ये विशेष स्मृति वाले लोग हैं। साधारण स्मृति की बात कर रहा था मैं, ये विशेष स्मृति वाले लोग हैं। और हमारे बीच विशेष स्मृति वाले लोग भी हैं।
कर्जन ने अपने संस्मरणों में एक घटना लिखी है। कर्जन ने लिखा है कि उसके पास एक विशेष स्मृति का आदमी राजस्थान से लाया गया। विशेष शब्द भी छोटा पड़ जाता है उसकी स्मृति के लिए। वह सिर्फ राजस्थानी के अतिरिक्त कोई भी भाषा नहीं जानता है। तीस भाषा बोलने वाले लोग लार्ड कर्जन के वाइसराय-भवन में बिठाए गए--तीस भाषा बोलने वाले लोग। और उन तीसों से कहा गया कि वे एक-एक वाक्य अपनी-अपनी भाषा को खयाल में ले लें। फिर वह राजस्थानी, ठेठ गंवार, गांव का आदमी पहले आदमी के पास गया और वह अपनी भाषा के वाक्य का पहला शब्द उसे बताएगा, फिर एक जोर का घंटा बजाया जाएगा। फिर वह दूसरे के पास जाएगा, वह अपनी भाषा के अपने वाक्यों का पहला शब्द उसे बताएगा। फिर जोर से घंटा बजाया जाएगा। ऐसा वह तीस लोगों के तीस वाक्यों का पहला शब्द लेकर पहले आदमी के पास वापिस लौटेगा। अब वह दूसरा शब्द बताएगा, फिर घंटा, और ऐसा चलेगा। ऐसा घंटों की लंबी यात्रा में वे तीस आदमी अपने तीस वाक्य बता पाएंगे, और हर शब्द के बाद तीस शब्दों का अंतराल होगा। और बाद में उस आदमी ने तीसों आदमियों के तीसों वाक्य अलग-अलग बता दिए कि इस आदमी का पूरा वाक्य यह है, इस आदमी का पूरा वाक्य यह है, इस आदमी का पूरा वाक्य यह है। अब ऐसा आदमी अगर प्रेत हो जाए, तो ग्यारह सौ साल बहुत कम हैं। ऐसे आदमी के लिए ग्यारह सौ साल बहुत कम हैं, यह ग्यारह लाख साल तक भी याद रख सकता है। विशेष स्मृति की बात है।
और आप जो पूछते हैं, वह बहुत कीमती सवाल है। ठीक पूछते हैं। चार घंटे लग गए! अगर हम गीता को पढ़ें तो चार घंटे लगते हुए मालूम पड़ते हैं। चार घंटे तक युद्ध रुका रहा होगा? संभव नहीं मालूम होता। कोई तो सवाल उठाता कि यह क्या हो रहा है? हम यहां युद्ध करने आए, हम कोई यह लंबा गीता का पाठ सुनने नहीं आए, यह कोई गीता-ज्ञान यज्ञ नहीं है कि यहां चार घंटे तक गीता का पाठ चले।
चार घंटे विचारणीय हैं।
अगर हम इतिहासज्ञ से पूछेंगे, तो वह कहेगा कि कुछ बात ऐसी होगी कि गीता तो थोड़े में कही गई होगी, फिर बाद में उसका विस्तार किया गया। अगर हम महाभारत के जानकारों से पूछें, तो वे कहेंगे गीता जो है, वह प्रक्षिप्त है। यह जगह मौजूं है ही नहीं। ऐसा मालूम होता है कि महाभारत पहले लिखा गया और फिर किसी कवि ने इस मौके को चुनकर अपनी पूरी कविता इसमें डाल दी, लेकिन यह जगह मौजूं नहीं मालूम पड़ती। युद्ध के स्थल पर इतने बड़े संदेश देने का कोई अवसर नहीं है, कोई उपाय नहीं है।
मैं क्या कहूंगा? न तो मैं मानता हूं कि प्रक्षिप्त है गीता, न मैं मानता हूं कि पहले संक्षिप्त में कही गई और फिर बड़े में कही गई। एक छोटे-से उदाहरण से समझाऊं तब खयाल में आ जाए।
विवेकानंद जर्मनी गए और डयूसन के घर मेहमान हुए। और डयूसन पश्चिम में उन दिनों "इंडोलाजी' का, भारतीय ज्ञान का बड़े-से-बड़ा पंडित था। उस कोटि के एक ही दो आदमी, जैसे मेक्समूलर का नाम गिना सकते हैं। फिर भी कई मामलों में मेक्समूलर से भी डयूसन की अंतर्दृष्टि गहरी है। उपनिषदों को पश्चिम में समझने वाला वह पहला आदमी है। गीता को समझने वाला भी पश्चिम में वह ठीक पहला आदमी है। डयूसन का अनुवाद ही लेकर शापेनहॉर सड़क पर नाचा था। गीता का अनुवाद डयूसन का जब शापेनहॉर ने पहली दफा पढ़ा, तो सिर पर रखकर वह बाजार में नाचने लगा। और उसने कहा, यह किताब पढ़ने जैसी नहीं है, नाचने जैसी है। और शापेनहॉर साधारण आदमी नहीं था, असाधारण रूप से उदास आदमी था। उसकी जिंदगी में नाच बहुत मुश्किल बात है। एकदम उदास है, उदास और दुखवादी था। "पेसिमिस्ट' था। मानता ही यह था कि जिंदगी दुख है। और सुख सिर्फ आगे आने वाले दुख में डालने की तरकीब है। जैसे कि हम मछली को आटा लगाकर कांटा डाल देते हैं। बस, आटा है सुख। असली चीज कांटा है, जो दुख है। आटे में फंस जाओगे, कांटा चुभ जाएगा। तो सुख का इतना ही मूल्य मानता था, जितना मछली के लिए आटा मानता है। वह शापेनहॉर डयूसन का अनुवाद लेकर नाचा था। उस डयूसन के घर विवेकानंद मेहमान थे।
डयूसन ने जर्मन भाषा में लिखी एक किताब जिसे वह पढ़ रहा था, कई दिन से मेहनत कर रहा था। आधी पढ़ चुका था। जब विवेकानंद उसके पास गए थे तो वह आधी पढ़ रहा था। उसने कहा, यह बड़ी अदभुत किताब है। विवेकानंद ने कहा कि घंटे भर के लिए मुझे भी दे दो। पर उसने कहा, आप तो ज्यादा जर्मन जानते नहीं। तो विवेकानंद ने कहा कि जो ज्यादा जर्मन जानते हैं क्या वे समझ ही लेंगे? उसने कहा, यह जरूरी नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा, उलटा भी हो सकता है कि जो कम जर्मन जानता हो, वह भी समझ ले। खैर, मुझे दो। पर डयूसन ने कहा, आप दोत्तीन दिन ही तो यहां मेहमान होंगे, पंद्रह दिन तो मैं मेहनत कर चुका, अभी आधी ही पढ़ पाया हूं। विवेकानंद ने कहा कि मैं डयूसन नहीं हूं, मैं विवेकानंद हूं। खैर, वह किताब दे दी गई और घंटे भर बाद विवेकानंद ने वह किताब वापस कर दी। डयूसन ने कहा कि क्या! किताब पढ़ गए! विवेकानंद ने कहा, पढ़ ही नहीं गए, समझ भी गए। डयूसन ऐसे छोड़ने वाला आदमी न था। उसने दस-पांच प्रश्न पूछे, जो हिस्सा वह पढ़ चुका था उस बाबत, और विवेकानंद ने जो समझाया तो डयूसन तो दंग रह गया। उसने कहा कि आप समझ भी गए! कैसे यह हुआ, यह चमत्कार कैसे हुआ? विवेकानंद ने कहा, पढ़ने के साधारण ढंग भी हैं, असाधारण ढंग भी हैं।
हम सब साधारण ढंग से पढ़ते हैं, इसलिए जिंदगी में दस-पांच किताबें भी पढ़ पाएं, समझ पाएं, तो बहुत है। और ढंग भी हैं। और असाधारण ढंगों की बड़ी सीढ़ियां हैं। ऐसे लोग भी हैं जो किताब को हाथ में रखें और आंखें बंद करें और किताब फेंक दें। लेकिन वे "साइकिक' ढंग हैं, वे बहुत आंतरिक ढंग हैं।
तो मेरा अपना मानना जो है वह मैं आपको कहूं, कृष्ण ने यह गीता कोई प्रकट वाणी में अर्जुन से नहीं कही है। यह बड़ा "साइकिक कम्यूनिकेशन' है, इसका किसी को पता ही नहीं चला है। यह आसपास जो युद्ध में खड़े हुए लोग हैं, उन्होंने यह नहीं सुनी है। नहीं तो भीड़ लग जाती वहां। वहां सभी इकट्ठे हो जाते, कम-से-कम पांडव तो इकट्ठे हो ही जाते। चार घंटे गीता चलती, उधर कुछ भी हो सकता था; नहीं इस चार घंटे में कम-से-कम कृष्ण जैसा आदमी बोलता हो तो कम-से-कम पांडव तो सब इकट्ठे हो ही जाते। कौरव भी इकट्ठे हो सकते थे। कुछ भी हो सकता था, हमला भी हो सकता था, कुछ भी हो सकता था। लेकिन नहीं, यह कृष्ण और अर्जुन के बीच "इनर कम्यूनिकेशन' है। वह "साइकिक कम्यूनिकेशन' है। यह ठीक शब्दों में बाहर कहा नहीं गया, यह भीतर बोला गया है, भीतर पूछा गया है। और इसकी खबर सबसे पहले आसपास खड़े लोगों को नहीं चली। सबसे पहले संजय को पता चला।
अब यह भी बड़े मजे की बात है कि वह इतने दूर बैठा है संजय और अंधे धृतराष्ट्र से कहता है। अंधा धृतराष्ट्र पूछता है कि मेरे बेटे क्या कर रहे हैं युद्ध में? कौरव-पांडवों के बीच जो चल रहा है वहां, क्या हो रहा है? ये बहुत मीलों का फासला है। संजय उस कथा को कहता है कि वहां वे धर्म के क्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हो गए हैं। वहां यह सब हो रहा है। वहां अर्जुन दुविधा में पड़ गया है। वहां अर्जुन जिज्ञासा कर रहा है। वहां कृष्ण ऐसा समझा रहे हैं। यह भी "टेलिपैथिक कम्यूनिकेशन' है। यह संजय के पास कोई उपाय नहीं है, कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है उसको कहने का। तो दो आदमियों ने गीता सुनी सबसे पहले। पहले सुनी अर्जुन ने, उसके साथ सुनी संजय ने, उसके बाद सुनी धृतराष्ट्र ने, उसके बाद सुनी जगत ने। फिर उसके बाद सब फैलाव हुआ। बाकी यह कोई बाहर कही गई बात नहीं है। इसलिए चार घंटे हमें लगते हैं गीता को पढ़ने में क्योंकि हम बाहर पढ़ते हैं। चार क्षण में भी हो गई हो, यह भी संभव है। एक क्षण भी न लगा हो, यह भी संभव है।

"भगवान श्री, जैन-इतिहास के आधार पर जैनों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे। घोर तपश्चर्या के बाद वे ही हिंदुओं के घोर अंगिरस ऋषि के नाम से प्रचलित हुए। और अध्यात्म ज्ञान की परंपरा में गुहय-ज्ञान के क्षेत्र में वे श्रीकृष्ण के "लिंक' रहे। आपकी इस संबंध में क्या दृष्टि है? क्या ऐसा संबंध होता है? क्योंकि आपने ही कहा कि कृष्ण का होना आंतरिक कारणों पर अवलंबित था। वे आंतरिक कारण क्या थे--गुहयज्ञान के संदर्भ में?'

नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई हैं। और यह उन दिनों की कथा है, जब हिंदू और जैन दो धारायें नहीं बने थे। हिंदू और जैन महावीर के बाद स्पष्ट रूप से टूटे और अलग धारायें बने। नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई हैं और जैनों के बाईसवें तीर्थंकर हैं। लेकिन नेमिनाथ और कृष्ण के बीच किसी तरह का कोई "इज़ोटेरिक' संबंध नहीं है। किसी तरह का कोई गुहय-ज्ञान का संबंध नहीं है। उसका कारण है। क्योंकि नेमिनाथ एक बहुत ही विभिन्न प्रकार की "वन डायमेंशनल' परंपरा के हकदार हैं। नेमिनाथ, जैनों की जो चौबीस तीर्थंकरों की परंपरा है जिसने संभवतः त्याग की "डायमेंशन' में इस "पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रयोग किया है। इस पृथ्वी पर इतनी लंबी परंपरा और इतने अदभुत व्यक्तियों की इतनी बड़ी कड़ी कहीं भी नहीं हुई है।
जैनों के पहले तीर्थंकर ऋग्वेद के समकालीन, या थोड़े-से पूर्वकालीन हैं। क्योंकि ऋग्वेद में पहले तीर्थंकर के प्रति इतने सम्मानवादी शब्द हैं, जो कि समकालीन लोग समकालीन के प्रति इतनी शिष्टता कभी नहीं दिखलाते। वे शब्द इतने आदरपूर्ण हैं कि ऐसा लगता है कि यह आदमी आदृत तब तक हो चुका होगा। थोड़ा-सा वक्त बीत गया होगा। क्योंकि समकालीन आदमी के प्रति इतने सम्मानजनक शब्द--अभी तक मनुष्य इतना सभ्य नहीं हो पाया है! पर इतना तो पक्का है कि वह समकालीन हैं, क्योंकि उनका नाम उपलब्ध है, और आदर से उपलब्ध है। वेद से लेकर महावीर तक हजारों साल का फासला है। इतिहास निर्णय नहीं कर पाता कि वे हजार साल कितने हैं। पश्चिम के नाप-जोख के जो ढंग हैं उस नाप-जोख के ढंग से पहले तो वे हजार-डेढ़ हजार साल से ज्यादा फासला नहीं जोड़ पाते थे, क्योंकि "क्रिश्चियनिटी' एक बहुत गहरे पक्षपात से भरी है कि पृथ्वी को बने ही...जीसस के चार हजार साल पहले सृष्टि ही बनी। तो अब वह कोई छः ही हजार साल ही जगत की सृष्टि के हुए, तो इसमें हिंदुओं की और जैनों की काल-गणना का तो उपाय ही नहीं है। क्योंकि जब सृष्टि ही केवल छः हजार साल पहले बनी हो, तो वह लाखों साल के लंबे हिसाब का कहां हिसाब होगा।
तो इसलिए जिन लोगों ने पहली दफा पश्चिम की काल-गणना के हिसाब से यहां सोचना शुरू किया, उन्होंने हजार-डेढ़ हजार साल के "स्पैन' में सारी बातों को बिठाने की कोशिश की, लेकिन वह सच नहीं है। और अब तो "क्रिश्चियनिटी' को अपनी काल-गणना का ढंग छोड़ देना पड़ा है। लेकिन बड़े मजेदार लोग हैं, अंधविश्वास भी बड़े मुश्किल से छूटते हैं। अब तो जमीन में ऐसी हड्डियां मिल गईं, जो लाखों साल पुरानी हैं। लेकिन एक मजे की बात आपसे कहूं--अंधविश्वासियों को कोई प्रमाण डिगा नहीं सकता। एक ईसाई "थियोलॉजियन' ने, जब ये हजारों-लाखों साल पुरानी, तीनत्तीन, चार-चार, पांच-पांच लाख साल पुरानी हड्डियों का आविष्कार हुआ और जमीन से मिलीं, तो क्या कहा? उसने कहा, कि भगवान के लिए सब कुछ संभव है। जब उसने पृथ्वी बनाई, तो उसमें ऐसी हड्डियां भी उसने डाल दीं जो पांच लाख साल पुरानी मालूम पड़ सकती हैं। आदमी का मन!
लेकिन अब विज्ञान की काल-गणना लंबी हुई है। तिलक ने तो तय किया वेद को कम-से-कम नब्बे हजार-वर्ष--कम-से-कम। नब्बे न भी हों, तो भी लंबा काल है। हजारों साल तक वेद सिर्फ स्मरण रखे गए हैं। फिर हजारों साल से लिखे हुए हैं। और जितना काल उनका लिखे हुए बीता है, उससे भी बहुत बड़ा काल उनका अनलिखा बीता है। उसमें ऋग्वेद में जैनों का पहला तीर्थंकर मौजूद है। और चौबीसवां तीर्थंकर तो बहुत ही ऐतिहासिक प्रमाणों से पच्चीस सौ साल पुराना है। यह जो चौबीस तीर्थंकरों की लंबी परंपरा है, यह पृथ्वी पर त्याग के "डायमेंशन' में सबसे बड़ी परंपरा है। इसका कोई मुकाबला पृथ्वी पर कहीं भी नहीं है। और भविष्य में भी कहीं हो सकेगा, बहुत मुश्किल है। क्योंकि अब वह "डायमेंशन' ही धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई। इसलिए यह बात बहुत सार्थक मालूम पड़ती है कि चौबीसवें तीर्थंकर के बाद पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं होगा। क्योंकि त्याग का "डायमेंशन' जो है, वह सूख गया। अब उस त्याग के "डायमेंशन' की कोई सार्थकता नहीं रही भविष्य के लिए। लेकिन अतीत में वह बड़ा सार्थक "डायमेंशन' था। नेमिनाथ उसमें बाईसवीं कड़ी हैं। कृष्ण के वे चचेरे भाई हैं। कभी-कभी कृष्ण का उनसे मिलना भी होता है। गांव से नेमिनाथ निकलते हैं, तो कृष्ण उनको सम्मान देने जाते हैं। यह भी बड़े मजे की बात है। नेमिनाथ गांव से निकलते हैं तो कृष्ण सम्मान देने जाते हैं। नेमिनाथ कभी कृष्ण को सम्मान देने नहीं गए।
त्यागी किसी को सम्मान दे, यह बड़ा मुश्किल है। बहुत कठिन है। त्यागी बड़ा कठोर हो जाता है, बड़ा पथरीला हो जाता है। उसके लिए व्यक्ति-संबंध और राग का कोई मूल्य नहीं रह जाता। तो ऐसा समझें कि कृष्ण की तरफ से नेमिनाथ चचेरे भाई हैं, नेमिनाथ की तरफ से कोई भाई-वाई नहीं है। क्योंकि नेमिनाथ कभी कुशल-क्षेम पूछने भी नहीं गए। उससे कोई संबंध नहीं है। वह तो राग की दुनिया के बाहर हैं, विराग का "डायमेंशन' है, जहां सब संबंध छोड़ देने हैं, असंग हो जाना है; जहां कोई अपना नहीं है, जहां कोई है ही नहीं जिससे कोई संबंध जोड़ने की बात हो। लेकिन अगर कोई सोचता हो कि नेमिनाथ से कोई "इज़ोटेरिक' बात, कोई गुहय-बात कृष्ण को मिली हो, ऐसा नहीं है। क्योंकि नेमिनाथ कृष्ण को कुछ भी नहीं दे सकते हैं। चाहते तो कृष्ण से कुछ ले सकते थे। उसके कारण हैं। क्योंकि कृष्ण "मल्टी-डायमेंशनल' हैं। कृष्ण बहुत कुछ जानते हैं जो नेमिनाथ नहीं जानते--नहीं जान सकते। नेमिनाथ जो जानते हैं, उसे कृष्ण जान सकते हैं, पहचान सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।
कृष्ण का व्यक्तित्व समग्र को आच्छादित करता है। नेमिनाथ का व्यक्तित्व एक दिशा को पूरा-का-पूरा जीता है। इसलिए नेमिनाथ कीमती व्यक्ति थे कृष्ण के युग में, लेकिन इतिहास पर उनकी कोई छाप नहीं छूट जाती। त्यागी की कोई छाप इतिहास पर नहीं छूट सकती। इतिहास पर त्यागी की क्या छाप छूटेगी? उसकी एक ही कथा है कि उसने छोड़ दिया। एक ही घटना है जो इतिहास अंकित करेगा कि उसने सब छोड़ दिया। कृष्ण का व्यक्तित्व सारे हिंदुस्तान पर छा गया। सच तो ऐसा है कि कृष्ण के साथ हिंदुस्तान ने जिस ऊंचाई को देखा, फिर वह दुबारा नहीं देख पाया। कृष्ण के साथ उसने जो युद्ध लड़ा, महाभारत, फिर वैसा युद्ध नहीं लड़ पाया। फिर हम छोटी-मोटी लड़ाइयों में, टुच्ची लड़ाइयों में उलझे रहे।
महाभारत जैसा युद्ध कृष्ण के साथ संभव हो सका। और ध्यान रहे, साधारणतः लोग सोचते हैं कि युद्ध लोगों को नष्ट कर जाते हैं। लेकिन हिंदुस्तान ने तो कृष्ण के बाद, महाभारत के बाद कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। हिंदुस्तान को तो सबसे ज्यादा समृद्ध होना चाहिए था, नष्ट होने का कोई कारण नहीं। लेकिन आज पृथ्वी पर वे ही कौमें समृद्ध हैं, जो बड़े युद्धों से गुजरी हैं। युद्ध नष्ट नहीं कर जाते, युद्ध सोई हुई ऊर्जा को जगा जाते हैं। असल में युद्ध के क्षणों में ही कोई कौम अपनी चेतना के, अपने होने के, अपने अस्तित्व के शिखरों को छूती हैं। चुनौती के क्षण में ही हम पूरे जगते हैं। तो महाभारत के बाद ऐसे जागरण का कोई क्षण नहीं आया जब हमने पूरी तरह अपने को जाना हो।
पिछले दो महायुद्ध जहां गुजरे हैं, एक कथा है उनकी कि वे टूटे और मिटे। लेकिन वह अधूरी है कथा। जापान नष्ट हो गया था बुरी तरह। लेकिन सिर्फ बीस साल में, जैसा जापान कभी नहीं था, वैसा फिर प्रगट हो गया। जर्मनी टूट कर बिखर गया था। दो युद्ध गुजरे उसकी छाती पर। लेकिन पहला युद्ध उन्नीस सौ चौदह में गुजरा और बीस साल बाद वह फिर दूसरा युद्ध लड़ने के योग्य हो गया। और कोई नहीं कह सकता कि दस-पांच वर्षों में वह फिर तीसरा युद्ध लड़ने के योग्य नहीं हो जाएगा। यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि हमने युद्ध का एक ही पहलू देखा है कि वह नष्ट कर जाता है। हमने दूसरा पहलू नहीं देखा कि वह हमारी सोयी हुई प्रसुप्त चेतना को जगा जाता है। और हमने यह नहीं देखा कि उसकी चुनौती में हमारे वे जो अंश बेकाम पड़े रहते हैं, सक्रिय हो उठते हैं। "क्रिएटिव' हो उठते हैं। असल में विध्वंस की छाया में, विध्वंस के साथ सृजन की क्षमता और आत्मा भी पैदा होती है। वे भी जीवन के दो पहलू हैं, इकट्ठे। और कृष्ण, जो इतने रागरंजित हैं, जो इतने नृत्य-गान में मस्त हैं, जो गीत और बांसुरी में जिए हैं, वे उस युद्ध को स्वीकार कर लेते हैं। इस स्वीकृति में कोई विरोध नहीं पड़ता। और इतने बड़े युद्ध के वे कारण बन जाते हैं।
नेमिनाथ जैसे व्यक्ति इतिहास पर कोई रेखा नहीं छोड़ जाते। इसलिए बहुत मजे की बात है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में पहले तीर्थंकर का उल्लेख हिंदू ग्रंथों में है। फिर पार्श्वनाथ का थोड़ा-सा उल्लेख हिंदू ग्रंथों में है, तेईसवें तीर्थंकर का। और बाईसवें तीर्थंकर का अनुमान किया जाता है कि घोर अंगिरस के नाम से जिस व्यक्ति का उल्लेख है, वह नेमिनाथ है। महावीर तक का उल्लेख हिंदू ग्रंथों में नहीं है। इतने प्रभावी व्यक्ति, लेकिन इतिहास पर कोई रेखा नहीं छोड़ जाते। असल में "रिनंसिएशन' का मतलब ही यह है, त्याग का मतलब ही यह है कि हम इतिहास से विदा होते हैं। हम उस घटनाक्रम से विदा होते हैं जहां चीजें घटती हैं, बनती हैं, बिगड़ती हैं। हम उस तरफ जाते हैं जहां न कुछ बनता है, न कुछ बिगड़ता है, जहां सब शून्य है।
कृष्ण से सीखने को हो सकता है नेमिनाथ के लिए, लेकिन नेमिनाथ सीखेंगे नहीं। कोई जरूरत नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। और नेमिनाथ के पास एक धरोहर है। उनके पीछे इक्कीस तीर्थंकरों की एक बड़ी धरोहर है, एक बड़े अनुभव का सार उनके पास है। और उस यात्रा-पथ पर जहां वे चल रहे हैं, उस यात्रा-पथ पर उनके पास पर्याप्त पाथेय है। उनको कुछ सीखने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। इसलिए नमस्कार वगैरह होता है, कुछ लेन-देन नहीं होता, कुछ आदान-प्रदान नहीं होता। ऐसे कृष्ण कभी नेमिनाथ बोलते हैं तो वहां भी सुनने चले जाते हैं। इससे कृष्ण की गरिमा ही प्रगट होती है। इससे महिमा ही प्रगट होती है, सीखने की सहजता ही प्रगट होती है। नहीं, कृष्ण ही वह कर सकते हैं। क्योंकि जिसे जीवन के सब पहलुओं में रस हो, वह कहीं भी सीखने जा सकता है। वह किसी को भी गुरु बना सकता है। वह किसी से भी सीख ले सकता है। लेकिन, नेमिनाथ से कुछ कृष्ण को अंतस्तल पर उपलब्ध होता हो, ऐसी कोई जरूरत ही नहीं है। ऐसा कोई कारण ही नहीं है।

"कृष्ण ने किस नास्तिकता से गुजर कर इतनी गहरी आस्तिकता पायी?'

जो गहरा आस्तिक है, वह गहरा नास्तिक होता ही है। सिर्फ उथले आस्तिक उथले नास्तिकों के विरोध में होते हैं। झगड़ा सदा उथलेपन का है। गहरे में कोई झगड़ा नहीं है। झगड़ा सिर्फ नासमझ आस्तिकों का नासमझ नास्तिकों से है। समझदार आस्तिक नास्तिक से झगड़ने नहीं जाएगा। समझदार नास्तिक आस्तिक से झगड़ने नहीं जाएगा। क्योंकि समझ कहीं से भी आ जाए, एक पर पहुंच जाती है। आस्तिक कहता क्या है? आस्तिक इतना ही कहता है कि परमात्मा है। लेकिन जब आस्तिकता की गहराई बढ़ती है तो परमात्मा दूसरा नहीं रह जाता। मैं ही परमात्मा हो जाता हूं। नासमझ आस्तिक कहता है, वहां है परमात्मा; कहीं और। समझदार आस्तिक कहता है, यहीं है परमात्मा; यहीं। नास्तिक कहता है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। अगर नास्तिक और गहरी समझ में जाए तो उसका भी मतलब यही है कि कहीं कोई परमात्मा नहीं है। मतलब, जो है, उसके अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है, जो है, वही है। वह उसे प्रकृति का नाम देता है।
नीत्से का एक वचन है, और नीत्से गहरे-से-गहरे नास्तिकों में एक है। उतना ही गहरा, जितना कोई आस्तिक कभी गहरा होता है। नीत्से का एक वचन है कि यदि कहीं भी कोई परमात्मा है तो मैं बर्दाश्त न कर पाऊंगा, क्योंकि फिर मेरा क्या होगा? यानी वह यह कह रहा है कि अगर कहीं भी कोई परमात्मा है, मैं बर्दाश्त न कर पाऊंगा, मेरा क्या होगा? तब मैं कहां खड़ा होता हूं फिर? और अगर किसी को परमात्मा होना ही है, तो मेरे होने में हर्ज क्या है? मैं ही परमात्मा हो जाऊंगा। अब यह घोर नास्तिक है। यह कहता है, कोई परमात्मा नहीं है, क्योंकि मतलब यह है कि जो है वही परमात्मा है। यह अतिरिक्त परमात्मा को सोचने की बात गलत है। गहरा आस्तिक भी यही कहता है कि अतिरिक्त परमात्मा नहीं है। जो है वही परमात्मा है।
मैंने गहरी आस्तिकता और गहरी नास्तिकता में कभी कोई फर्क नहीं देखा। असल में आस्तिक विधेयवाची शब्दों का प्रयोग करता है, इतना ही फर्क है। और नास्तिक निषेधवाची शब्दों का प्रयोग करता है, इतना ही फर्क है। इसलिए जो विधेयवादी आस्तिक था उसने बुद्ध को, महावीर को नास्तिक कहा है। बुद्ध और महावीर राजी नहीं हैं नास्तिक मानने को अपने को। सांख्य या योग उथले आस्तिक को नास्तिक दिखाई पड़ते हैं। लेकिन सांख्य और योग नास्तिक नहीं हैं। नास्तिक उस अर्थों में नहीं हैं जिस अर्थों में दिखाई पड़ते हैं। सिर्फ वे जो शब्द का प्रयोग करते हैं, वह निषेध का है। कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति उथले आस्तिकों को नास्तिक मालूम पड़ सकते हैं, क्योंकि वह जो शब्द का प्रयोग करते हैं वह "निगेटिविटी' के शब्द हैं, वह "निगेटिव माइंड' पर उनका जोर है। और मुसीबत यह है कि कोई भी शब्द का हम उपयोग करें, दो ही उपाय हैं--या तो "पाजिटिव' शब्द का उपयोग करें, या "निगेटिव' शब्द का उपयोग करें।
आस्तिक कह रहा है, जो है, वह ईश्वर है। वह विधेयात्मक वक्तव्य दे रहा है। नास्तिक कह रहा है, जो है, वह ईश्वर नहीं है। वह निषेधात्मक वक्तव्य दे रहा है। ऐसे भी लोग हुए हैं जो इन दोनों गहराइयों को स्पर्श करते हैं। जैसे उपनिषद कहते हैं, नेति-नेति। उपनिषद कहते हैं, यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। और जो है, वह कहा नहीं गया है। ऐसे नास्तिक भी आधा कहता है, आस्तिक भी आधा कहता है। "नीदर दिस, नॉर दैट'। न यह, न वह। दोनों ही आधी-आधी बातें कहते हैं। हम पूरी कहते हैं, और पूरी कही नहीं जा सकती है। इसलिए हम चुप रह जाते हैं। वे लोग भी। कृष्ण को किसी नास्तिकता से गुजरने का कारण नहीं है, क्योंकि कृष्ण किसी उथली आस्तिकता को पकड़ने के लिए आतुर भी नहीं हैं। असल में कृष्ण जो है उसका इतने गहनता में स्वीकार करते हैं कि उसे क्या नाम दिया जाता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसे ईश्वर कहो, उसे प्रकृति कहो--उसे अनीश्वर कहो तो भी क्या फर्क पड़ता है! जो है वह है। ये पौधे फिर भी हंसेंगे, ये फूल फिर भी खिलेंगे, ये बादल फिर भी चलेंगे, यह पृथ्वी फिर भी होती रहेगी, ये चांदत्तारे घूमते रहेंगे, यह जीवन उतरेगा और विदा होगा, लहरें बनेंगी और मिटेंगी। ईश्वर है या नहीं, यह सिर्फ नासमझों का विवाद है। जो है, उसे क्या फर्क पड़ता है, "दैट व्हिच इज', उसमें क्या फर्क पड़ता है।
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था और उस गांव के दो बूढ़े आदमी मेरे पास आए। एक उसमें जैन था और एक उसमें ब्राह्मण था। वे दोनों पड़ोसी थे। दोनों बूढ़े, और उनका विवाद लंबा था। असल में सब विवाद लंबे होते हैं, क्योंकि विवाद में कोई अंत तो आता नहीं। वे लंबे होते चले जाते हैं। आदमी चुक जाते हैं और विवाद चलते जाते हैं। उन दोनों का विवाद लंबा था। कोई साठ साल के ऊपर दोनों की उम्र थी। वे मुझसे मिलने आए और उन्होंने कहा कि हम एक सवाल लेकर आए हैं जो कि हमारे बीच कोई पचास साल से चलता है। मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं, यह सज्जन ईश्वर को मानते हैं। आपका क्या कहना है? मैंने कहा, आपने विवाद पूरा कर लिया, तीसरे के लिए उपाय कहां है? आधा-आधा आप बांट चुके हैं। अब मैं कहां खड़ा होऊं? फिर मैंने उनसे पूछा कि चालीस-पचास साल से आप विवाद करते हैं, कुछ तय नहीं हो पाता? मेरी दलीलें मुझे ठीक लगती हैं, इनकी दलीलें इन्हें ठीक लगती हैं। न मैं इनको गलत कर पाता, न यह मुझे गलत कर पाते। तो मैंने उनसे कहा कि आपको पता है, यह आपकी जिंदगी में चालीस-पचास साल चला, मनुष्य की जिंदगी में कितना लंबा है यह विवाद? आज तक कोई आस्तिक किसी नास्तिक को समझा पाया? कोई नास्तिक किसी आस्तिक को समझा पाया? क्या इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के पास कहीं आधी-आधी दलीलें तो नहीं हैं। क्योंकि दोनों अपनी-अपनी दलील पर मजबूत हैं। और कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्य का आधा-आधा छोर पकड़े हुए हैं? इसलिए दोनों को हाथ में छोर दिखाई पड़ता है। और उससे विपरीत छोर को वे कैसे मान सकते हैं कि वह भी होगा!
मैंने कहा कि मैं तुम्हारे विवाद में न पड़ूं, तो सहयोगी हो सकता हूं। क्योंकि अगर मैं विवाद में पड़ जाऊं तो ज्यादा-से-ज्यादा यही होगा कि मैं एक पक्ष में खड़े होकर दलीलें दूं। क्या उससे कोई अंतर पड़ेगा? तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि अब तुम दोनों जाओ और इस बात को देखने की कोशिश करो कि दूसरा जो कह रहा है, क्या उसमें भी सत्य हो सकता है? अब तुम इसकी फिक्र छोड़ दो कि मैं जो कह रहा हूं उसमें सत्य है--उसमें है ही। उसके लिए मैं राजी हूं, तुम जो कह रहे हो उसमें सत्य है। अब रह गया इतना कि दूसरा जो कह रहा है उसे असत्य मानकर ही मत चलो, उसमें भी खोजो कि क्या सत्य है? फिर मैंने उनसे कहा कि और अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर है, पक्का हो जाए, "गारंटीड', कोई लिखकर दे दे, और यह निर्णय हो जाए कि ईश्वर है, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा, करना क्या है? मैंने कहा और अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर नहीं है, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा, नहीं, करना क्या है? तो फिर मैंने कहा कि इस व्यर्थ विवाद में क्यों पड़े हो? तुम ईश्वर नहीं है तो भी श्वास लेते हो। इनका ईश्वर है, तो भी यह श्वास लेते हैं। तुम ईश्वर को नहीं मानते तो भी प्रेम करते हो। यह ईश्वर को मानते हैं तो भी प्रेम करते हैं। तुम ईश्वर को नहीं मानते तो ईश्वर तुम्हें दुनिया के बाहर निकाल कर नहीं कर देता, तुम्हें स्वीकार करता है। यह ईश्वर को मानते हैं तो इनको किसी सिंहासन पर नहीं बिठा दिया है उसने। वह इनकी भी फिक्र नहीं करता है। अब जब ऐसी स्थिति हो, तो इस विवाद का कितना अर्थ है!
नहीं, ईश्वर और अनीश्वर को लेकर, आस्तिक और नास्तिक को लेकर "लिंग्विस्टिक' भूल हो गई है। सिर्फ भाषा की भूल हो गई है। और हमारी अधिक "फिलासफी', तत्त्वचिंतन जिसे हम कहते हैं, तत्त्वचिंतन नहीं है, "फिलालाजी' में की गई भूलें हैं, भाषाशास्त्र में की गई भूलें हैं। और भाषाशास्त्र की भूलें ऐसी हैं कि अगर उनको हम सत्य मानकर चल पड़ें, तो बड़े उपद्रव बन जाते हैं। समझ लो कि एक गूंगा आदमी है और नास्तिक है, और एक गूंगा आदमी है और आस्तिक है। इनके बीच विवाद कैसे चलेगा? ये क्या करेंगे जिससे कि ये कहें कि मैं आस्तिक हूं और एक कहे कि मैं नास्तिक हूं? एक दिन को सोचें कि चौबीस घंटे के लिए हमारी भाषा खो जाए, तो हमारे विवाद कहां होंगे? चौबीस घंटे के लिए आपकी भाषा छीन ली जाए, बस, धर्म वगैरह नहीं। धर्म वगैरह आप सम्हालकर रखिये। शास्त्र वगैरह नहीं, बिलकुल छाती से लगा रखिये। सिद्धांत वगैरह नहीं, आपको जो मानना हो तो मानते रहिये। चौबीस घंटे के लिए अगर आपकी भाषा छीन ली जाए, तो कहां होगा हिंदू, कहां होगा मुसलमान, कहां होगा आस्तिक, कहां होगा नास्तिक? और आप तो होंगे फिर भी भाषा के बिना। वह क्या होंगे आप? वह होना ही धार्मिक होना है।
एक छोटी-सी घटना और अपनी बात मैं बंद करूं। मैंने सुना है, मार्क ट्वेन एक मजाक किया करता था। वह मजाक किया करता था कि एक बार ऐसा हुआ कि सारी पृथ्वी के लोगों ने तय किया कि अगर हम सब मिलकर किसी एक क्षण में जोर से चिल्लाएं तो चांद तक आवाज पहुंच सकती है। और अगर चांद पर कोई होगा तो सुन लेगा और जवाब भी आ सकता है, वे लोग अगर इकट्ठे होकर जवाब दें। क्योंकि चांद पर आदमी की आंखें बहुत दिन से गड़ी हैं। चांद से संबंध जोड़ने का मन बड़ा पुराना है। बच्चा पैदा नहीं होता और चांद से संबंध जोड़ना शुरू कर देता है। तो सारी पृथ्वी के लोगों ने एक खास दिन नियत किया और ठीक बारह बजे दोपहर सारी दुनिया के लोग जोर से हुंकार करेंगे--हूऽऽ की आवाज करेंगे, इकट्ठे। चांद तक आवाज पहुंच जाएगी, शायद उत्तर मिल सकेगा, अगर कोई वहां होगा तो सुनाई पड़ जाएगा।
फिर यह हुआ, वह दिन आ गया। और बारह बजे की आतुरता से लोगों ने सड़कों पर और गांवों में फैलकर प्रतीक्षा की। पहाड़ों पर, चोटियों पर, सब तरफ लोग फैल गए पूरी पृथ्वी पर। ठीक बारह बजे और एकदम सन्नाटा छा गया, कोई चिल्लाया नहीं। क्योंकि सबने सोचा कि मैं सुन तो लूं कि हूऽऽ की आवाज! सारी पृथ्वी चिल्लाएगी तो एक मौका मैं न चूकूं चिल्लाने में, मैं सुन लूं। तो उस दिन बारह बजे जैसा सन्नाटा हुआ पृथ्वी पर, ऐसा कभी नहीं हुआ था।
अगर ऐसा सन्नाटा कभी हो जाए, तो जो दिखाई पड़ता है वह सत्य है। ऐसा सन्नाटा अगर भीतर हो जाए और भाषा और शब्द सब खो जाएं, तो जो दिखाई पड़ता है वह सत्य है।
सत्य का आधा हिस्सा आस्तिकों के पास है, सत्य का आधा हिस्सा नास्तिकों के पास है। और आधा सत्य असत्य से सदा बदतर होता है। क्योंकि असत्य को छोड़ा भी जा सकता है, आधे सत्य को छोड़ा भी नहीं जा सकता। वह सत्य मालूम पड़ता है। और ध्यान रहे, सत्य तोड़ा नहीं जा सकता, काटा नहीं जा सकता। इसलिए अगर आपके पास आधा सत्य है, तो सिर्फ आधे सत्य का सिद्धांत हो सकता है। सिद्धांत काटा जा सकता है, सत्य को काटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए न नास्तिक सत्य है, न आस्तिक सत्य है। दोनों आधे-आधे सत्यों के शब्दों को पकड़कर लड़ते रहते हैं।
कृष्ण को पूरा ही स्वीकार है। इसलिए कृष्ण को आस्तिक कहें, तो गलती हो जाएगी। कृष्ण को नास्तिक कहें, तो गलती हो जाएगी। कृष्ण को क्या कहें बिना गलती किए, कहना मुश्किल है।


1 टिप्पणी: