साधनारहित
सिद्धि के परमप्रतीक
कृष्ण—(प्रवचन—बारहवां)
दिनांक
1 अक्टूबर,
1970;
प्रात:,
मनाली (कुल्लू्)
"भगवान
श्री, कृष्ण
का
व्यक्तित्व, कृष्ण की
बांसुरी, कृष्ण
की राधा, कृष्ण
के रास से
लेकर सुदर्शन
चक्र तक हमें
बहुत कुछ
जानने का मौका
मिला। आज एक
नया स्वरूप
कृष्ण का आपकी
वाणी से, आपके
मुख से सुनने
के लिए हम सब
उत्सुक हैं। हम
चाहेंगे कि आप
कृष्ण से
संबंधित उनकी
साधना, उनका
दर्शन, उनसे
संबंधित
उपासना पर
अपने विचार
प्रस्तुत
करें, ताकि
हम कृष्ण के
दूसरे स्वरूप
को भी जान
सकें। कृष्ण
ने तो केवल एक
अर्जुन का मोह
भंग किया था, यहां पर हम
सब अर्जुन
बैठे हुए हैं
और सब मोह से
ग्रसित हैं, उन सबका मोह
भंग करने के
एकमात्र
अधिकारी आप हैं।
भगवान
श्री, गत
पांच दिनों
में आपने मक्खनचोर
और रासलीला
करते हुए
कृष्ण को
विराट जीवन की
पूर्णता का या
योग की
पूर्णता का
केंद्र बताया।
यदि
सूक्ष्मता से
आपकी दृष्टि
को समझें और
यह कहें कि
रासलीला आदि
जीवन के सत्य
हैं और गीता
के कृष्ण अथवा
कृष्ण की गीता
जीवन का निचोड़
है, जीवन
का सार
है--क्योंकि
आपने भी कहा
कि गीता प्रमाण
है कृष्ण का, ऐसा नहीं
कहा कि
रासलीला
प्रमाण है
कृष्ण का। आपने
कहा कि महावीर
और बुद्ध एक
आयामी, "वन डायमेंसनल'
हैं और
इसीलिए शायद
पूर्ण नहीं
हैं। और, यह
भी आपने ही
कहा है कि
महावीर छठवें
और सातवें को
पाकर योग की
पूर्णता को
पाए हैं। तो
क्या जीवन में
रासलीला हुई,
या कुछ
उलटा-सीधा
करना पड़ा, इसलिए
कृष्ण पूर्ण
ठहरे या कि
गीता जैसे
ग्रंथ को देने
के कारण पूर्ण
हुए?
एक
बात और कि
महावीर के
जीवन में जीवन
की पूर्णता न
निखरी, तो
क्या उनके
पहले के तेईस तीर्थंकरों
को भी उन
बहु-आयामों का
खयाल नहीं आया
था?
यदि
हम दमन को न
लें, तो
फिर संयम का
क्या अर्थ है?
दमन को छोड़
दें तो साधना
में संयम की क्या
स्थिति है?'
सबसे
पहले पूर्णता
का अर्थ समझ
लेना चाहिए।
पूर्णता भी
एक-आयामी और
बहु-आयामी हो
सकती है। एक
चित्रकार
पूर्ण हो सकता
है चित्रकला
में, लेकिन
इससे वह
वैज्ञानिक की
तरह पूर्ण
नहीं हो जाता।
एक वैज्ञानिक
पूर्ण हो सकता
है विज्ञान
में, लेकिन
इससे वह संगीतज्ञ
की तरह पूर्ण
नहीं हो जाता।
तो पूर्णता का
एक अर्थ तो
"वन-डायमेंसनल'
है। इसलिए
मैं महावीर, बुद्ध या
जीसस को पूर्ण
कहता हूं
एक-आयामी अर्थों
में। कृष्ण को
बहुत दूसरे
अर्थों में
पूर्ण कहता
हूं, बहु-आयामी,
"मल्टी-डायमेंसनल'
अर्थों
में। जीवन के
जितने आयाम
हैं, जीवन
की जितनी
दिशाएं हैं, उनमें से हम
सारी दिशाओं
का त्याग करके
एक दिशा में
पूर्ण हों, यह संभव है।
इस तरह की
पूर्णता भी
परम सत्य तक ले
जाती है। वह
नदी भी सागर
पहुंच जाती है,
जो एक ही
धारा बनाकर
बहती है। वह
नदी भी सागर पहुंच
जाती है जो
हजार धाराओं
में टूटकर
सागर की तरफ
बहती है। सागर
तक पहुंचने के
लिए इस संबंध
में कोई भेद
नहीं है।
महावीर भी
सागर में
पहुंच जाते
हैं, बुद्ध
भी और कृष्ण
भी। लेकिन
महावीर एक
धारा की भांति
पहुंचते हैं,
कृष्ण अनंत
धाराओं की
भांति
पहुंचते हैं।
इसलिए
कृष्ण की
पूर्णता
बहु-आयामी है।
वह एक-आयामी
नहीं है, "मल्टी-डायमेंसनल'
है। इससे
कोई यह न समझ
ले कि महावीर
वहां नहीं पहुंच
पाते, सातवें
शरीर के पार, बिलकुल
पहुंच जाते
हैं। लेकिन
कृष्ण बहुत-बहुत
मार्गों से
वहां पहुंचते
हैं, और
बिना किसी
जीवन के तत्व
का निषेध किए
पहुंचते हैं।
महावीर या बुद्ध
निषेध किए
बिना नहीं
पहुंचते हैं।
इसलिए महावीर
और बुद्ध के
जीवन में
निषेध का, "निगेशन'
का
अनिवार्य
तत्व है।
कृष्ण के जीवन
में निषेध का
कोई तत्व नहीं
है। कृष्ण का
जीवन पूरी तरह
"पाजिटिव',
पूरी तरह
विधायक है।
महावीर कुछ
छोड़कर पहुंचते
हैं, कृष्ण
सबको आत्मसात
करके पहुंचते
हैं।
इसलिए
मैंने कृष्ण
की पूर्णता को
भिन्न कहा है।
इससे कोई ऐसा
न समझे कि
महावीर
अपूर्ण हैं।
इतना ही समझे
कि उनकी
पूर्णता
एक-आयामी है, कृष्ण की
पूर्णता
बहु-आयामी है।
और भविष्य के मनुष्य
के लिए
एक-आयामी
पूर्णता का
बहुत अर्थ नहीं
होगा। भविष्य
के मनुष्य के
लिए बहु-आयामी
पूर्णता का ही
अर्थ होगा।
इसका एक और
खयाल ले लेना
जरूरी है कि
जो
व्यक्तित्व
भी एक दिशा से
पूर्ण होता है
वह अपने जीवन
में ही दूसरी
दिशाओं का
निषेध नहीं कर
रहा है, उसके
एक दिशा से
पूर्ण होने के
कारण दूसरी
दिशाएं दूसरे
लोगों के जीवन
में भी
निषिद्ध होती
हैं। जो
व्यक्ति अपने
जीवन में सब
दिशाओं से
यात्रा करता
है, उसके
कारण विभिन्न
दिशाओं से
यात्रा करने
वाले एक-आयामी
सब तरह के
लोगों को
सहारा मिलता है।
जैसे हम यह
सोच ही नहीं
सकते कि कोई
चित्रकार या
कोई
मूर्तिकार या
कोई कवि
महावीर की चिंतना
के आधार पर
कभी ब्रह्म को
उपलब्ध हो
सकता है। यह
हम सोच ही
नहीं सकते।
महावीर की
साधना एक-आयामी
उनके जीवन में
ही नहीं बनेगी,
जो उस साधना
को समझेंगे
उनके जीवन में
भी शेष सारी
दिशाओं का
निषेध हो
जाएगा। यह हम
सोच ही नहीं
सकते कि कोई
नर्तक भी और
ब्रह्म को
उपलब्ध हो
सकता है।
महावीर के साथ
नहीं सोच सकते
हैं। कृष्ण के
साथ सोच सकते
हैं। एक नर्तक
भी और सारी
दिशाओं को छोड़
दे और सिर्फ
नाचता ही चला
जाए और नृत्य
में डूबता चला
जाए, तो उस
क्षण को
उपलब्ध हो
सकता है जिस
क्षण को महावीर
ध्यान से
उपलब्ध होते
हैं। यह कृष्ण
के साथ संभव
है।
तो
कृष्ण अपने
जीवन से समस्त
दिशाओं को
भागवत-स्वरूप
प्रदान कर
देते
हैं--समस्त
दिशाओं को। समस्त
दिशाएं कृष्ण
के साथ पवित्र
हो जाती हैं।
महावीर के साथ
सभी दिशाएं
पवित्र नहीं
होतीं। जिस
दिशा से वे
यात्रा करते
हैं, वही दिशा
पवित्र होती
है। और उसके पवित्र
होने के कारण
अनिवार्य रूप
से शेष अपवित्र
हो जाती हैं।
और उसके
पवित्र होने
के कारण
अनिवार्य रूप
से शेष
अपवित्र हो
जाती हैं। शेष
का गहरा "कंडमनेशन'
और निंदा
अपने-आप हो
जाता है। ऐसा
महावीर के साथ
ही नहीं होता
है, बुद्ध
के साथ भी
होता है, क्राइस्ट
के साथ भी
होता है।
मुहम्मद के
साथ भी होता
है। राम के
साथ भी होता
है। शंकर के
साथ भी होता
है।
कृष्ण
एकमात्र ऐसे
व्यक्ति हैं
जिसको हम कह सकें
कि जिसने
समस्त जीवन को, समस्त
दिशाओं को
पवित्रता
प्रदान कर दी
है। और किसी
भी दिशा से
गया हुआ
व्यक्ति
ब्रह्म तक पहुंच
सकता है। इस
अर्थों में वह
"मल्टी-डायमेंसनल
हैं। खुद के
जीवन में ही
नहीं, दूसरों
के जीवन के
लिए भी "मल्टी-डायमेंसनल'
हैं।
बांसुरी
बजाकर भी कोई
ब्रह्म को
उपलब्ध हो
सकता है, क्योंकि
बांसुरी की भी
अंतिम क्षण
अवस्था समाधि
की हो जाएगी।
लेकिन महावीर
या बुद्ध के
साथ बांसुरी
बजाकर कोई
ब्रह्म को
उपलब्ध नहीं
हो सकता। ऐसी
कोई संभावना
उनके
व्यक्तित्व
में नहीं है
जो बांसुरी को
भी इतनी गरिमा
दे दे, जितनी
ध्यान और
समाधि को है।
इसका कोई उपाय
नहीं है। मीरा
उपलब्धि के
मार्ग पर नहीं
हो सकती, महावीर
के हिसाब से।
राग के ही
मार्ग पर है।
और राग कभी भी
परमात्मा तक
नहीं पहुंचा
सकता, महावीर
की दृष्टि में,
वैराग्य ही पहुंचाएगा।
कृष्ण के साथ
विरागी भी
पहुंच जाता है,
रागी भी
पहुंच जाता
है। इस अर्थों
में मैंने कहा
कि कृष्ण की
पूर्णता का
कोई मुकाबला
नहीं है, कोई
उपमा नहीं है।
दूसरी
बात पूछी गई है
कि क्या तेईस
तीर्थंकर, महावीर को
भी छोड़ दें तो
उनके पहले के
तेईस तीर्थंकर,
वे कोई भी
पूर्णता को
उपलब्ध नहीं
हुए? वे सब
पूर्णता को
उपलब्ध हुए।
लेकिन
एक-आयामी पूर्णता
को ही उपलब्ध
हुए। और
एक-आयामी
पूर्णता के
कारण ही
जैन-विचार
बहुत व्यापक
नहीं हो सका।
हो नहीं सकता।
महावीर को मरे
ढाई हजार वर्ष
हो गए हैं, आज
भी जैनियों की
संख्या
तीस-पैंतीस
लाख से ज्यादा
नहीं है। थोड़ा
सोचने जैसा है
कि महावीर जैसी
प्रतिभा का
आदमी जिस
विचार को मिला
हो--अकेला
नहीं, और
पीछे तेईस तीर्थंकरों
का विराट
दर्शन मिला
हो--वह विचार
तीस-पैंतीस
लाख लोगों तक
पहुंचा? अगर
महावीर के
जमाने में
तीस-पैंतीस
आदमी भी उनसे
प्रभावित हो
जाएं, तो
इतने बच्चे
पैदा हो
जाएंगे। कारण
क्या है कारण
है। "वन-डायमेंसनल'
है, बहु-आयामी
नहीं है। बहुत
दिशाओं को
स्पर्श नहीं
करता, एक
ही दिशा को
स्पर्श करता
है। इसलिए
बहुत विभिन्न
तरह के लोगों
को प्रभावित
नहीं कर सकता।
बहुत विभिन्न
तरह के लोग उस
आयाम में अपने
को मौजूं नहीं
पा सकते।
फिर
बड़े मजे की
बात यह है कि
यह जो पच्चीस
लाख जैन हैं, अगर इनकी
तरफ भी हम
ध्यान दें तो
हम बहुत हैरानी
में पड़
जाएंगे। यह भी
महावीर के साथ
इनमें से अनेक
लोग वैसा
व्यवहार कर
रहे हैं जैसा
व्यवहार कृष्ण
के साथ तो
उचित है, महावीर
के साथ अनुचित
है। महावीर के
सामने आरती
लेकर घुमा रहे
हैं। कृष्ण के
साथ चल सकता है।
महावीर के साथ
नहीं चल सकता।
महावीर की भी भक्ति
चल रही है!
उसका मतलब यह
है कि जैन
घरों में जो
पैदा हुए हैं,
उनका चित्त
भी उस आयाम
में नहीं
बैठता है। वह बहुत
थोड़े-से लोगों
का आयाम है।
तो जैन घर में पैदा
होने की वजह
से आदमी जैन
तो रहा चला
जाएगा, लेकिन
वह उस सबको
सम्मिलित कर
लेगा जो कि
महावीर के
आयाम का नहीं
है। भक्ति आ
गई है जैन में;
उपासना आ गई
है, प्रार्थना
आ गई है, पूजा
आ गई है, इनका
कोई संबंध
महावीर से
नहीं है। यह
सब महावीर के
साथ अनाचार
है। महावीर के
व्यक्तित्व में
इनके लिए कोई
गुंजाइश नहीं
है लेकिन वह
जो जैन है, उसके
व्यक्तित्व
की तकलीफ है।
उसके व्यक्तित्व
में इसके बिना
तृप्ति नहीं
है। तो महावीर
के साथ यह सब
जोड़े चला जा
रहा है।
इसलिए
और दूसरी बात
आपसे कहूं कि
"वन-डायमेंसनल' जितने भी
व्यक्तित्व
हैं, इनके
साथ निरंतर
अनाचार होगा।
सिर्फ "मल्टी-डायमेंसनल'
व्यक्ति के
साथ अनाचार आप
नहीं कर सकते।
क्योंकि आप
कुछ भी करें, उसके लिए वह
राजी हो सकता
है। कृष्ण के साथ
हजार तरह के
लोग राजी हो
सकते हैं, महावीर
के साथ सिर्फ
एक "पर्टिकुलर
टाइप' राजी
हो सकता है।
इस वजह
से मैंने कहा
कि वह जो
चौबीस
तीर्थंकर हैं
वे सब एक रूप
हैं, एक ही
यात्रा पर
हैं। उन सबकी
एक ही दिशा है,
एक ही उनकी
साधना है। ऐसा
नहीं है कि वे
नहीं पहुंच जाते
हैं, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं, वे
बिलकुल पहुंच
जाते हैं।
अंतिम क्षणों
में ऐसा नहीं
है कि जो
कृष्ण को
मिलता है वह
उन्हें नहीं
मिलता। वह
उन्हें मिल
जाता है। हजार
धाराओं में
नदी बहकर सागर
पहुंचे कि एक
धारा में
पहुंचे, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? सागर
में पहुंचकर
तो सब बात
समाप्त हो
जाती है।
लेकिन एक धारा
और एक मार्ग
पर बहने वाली
नदी सारी
पृथ्वी को नहीं
घेर सकती, यह
समझना चाहिए।
हजार धाराओं
में बहने वाली
नदी सारी
पृथ्वी को भी
घेर सकती, यह
समझना चाहिए।
हजार धाराओं
में बहने वाली
नदी सारी
पृथ्वी को भी
घेर सकती है।
एक धारा में
बहने वाली नदी
के तट पर जो
वृक्ष हैं
उनको पानी मिल
सकता है, हजार
धाराओं में
बहने वाली नदी
हजार मार्गों पर
जो वृक्ष हैं
उनकी जड़ों को
पानी दे पाती
है। वह फर्क
है। उस फर्क
को इनकार नहीं
किया जा सकता।
उतने फर्क को
ध्यान में
रखना जरूरी
है। बहु-आयामी
से मैंने इतना
ही कहना चाहा
है।
तीसरी
बात पूछी गई
है कि दमन को
छोड़ दें तो
संयम का क्या
अर्थ है?
साधारणतः
वैराग्य की
भाषा में संयम
का अर्थ दमन
ही है।
वैराग्य की
भाषा में संयम
का अर्थ दमन
ही है। इसलिए
जैन शरीर-दमन
शब्द का भी
उपयोग करते
हैं। शरीर को
दबाना है, दमन करना
है। लेकिन, कृष्ण की
भाषा में संयम
का अर्थ दमन
नहीं हो सकता।
क्योंकि
कृष्ण किस
हिसाब से संयम
का अर्थ दमन
कर सकते हैं? कृष्ण की
भाषा में संयम
का अर्थ
बिलकुल और है।
शब्द भी बड़ी
दिक्कत देते
हैं। क्योंकि
शब्द तो एक ही
होते
हैं--चाहे
कृष्ण के मुंह
पर हों और
चाहे महावीर
के मुंह पर
हों। संयम, शब्द एक ही
है। लेकिन
अर्थ बिलकुल
भिन्न है। क्योंकि
ओंठ भिन्न हैं
और उनका
प्रयोग करने
वाला आदमी
भिन्न है। और
उसमें जो अर्थ
है, उस
व्यक्तित्व
से आता है।
शब्द में जो
अर्थ है, वह
"डिक्शनरी' से नहीं
आता।
"डिक्शनरी' से सिर्फ
उनके लिए आता
है जिनके पास
कोई
व्यक्तित्व
नहीं है।
जिनके पास
व्यक्तित्व
है, उनके
लिए शब्द का
अर्थ भीतर से
आता है। कृष्ण
के ओंठ पर
संयम का क्या
अर्थ है, यह
महावीर को
समझे बिना
नहीं कहा जा
सकता। महावीर
के ओंठ पर
संयम का क्या
अर्थ है, यह
महावीर को
समझे बिना नहीं
कहा जा सकता।
संयम का अर्थ
महावीर से
निकलेगा, या
कृष्ण से
निकलेगा। अब
कृष्ण को
देखते हुए कहा
जा सकता है कि
अर्थ दमन नहीं
हो सकता। क्योंकि
अगर दुनिया
में कोई भी
आदमी, "अनसप्रेस्ड'
आदमी हुआ है,
तो वह
कृष्ण।
तो
संयम का क्या
अर्थ होगा?
ऐसे
मेरी समझ में, संयम का
बहुत गहरा
अर्थ दमन नहीं
है। संयम शब्द
बहुत अदभुत
है। संयम का
मेरे लिए अर्थ
है, संतुलन,
"बैलेंस'। संयम का
मेरे लिए अर्थ
है, न इस
तरफ, न उस
तरफ--बीच में, मध्य में।
त्यागी
असंयमी
है--त्याग की
तरफ, भोगी
असंयमी
है--भोग की
तरफ। भोगी एक
छोर छू रहा है,
त्यागी
दूसरा छोर छू
रहा है। ये दो
"एक्सट्रीम' हैं। संयम
का अर्थ है, अन-अति, "एक्सट्रीम'
नहीं, बीच
में। कृष्ण के
ओंठों पर संयम
का अर्थ है, मध्य में। न
त्याग, न
भोग। या, त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण
त्याग। यही
अर्थ हो सकता
है संयम का
कृष्ण के ओंठों
पर। त्यागपूर्ण
भोग, या भोगपूर्ण
त्याग; या
न त्याग न
भोग--संयम का
ऐसा अर्थ
होगा। जो कहीं
भी झुकता नहीं
अति पर, वह
व्यक्तित्व
संयमित है।
एक
आदमी है, धन
के पीछे पागल
है। बस इकट्ठा
किए जाता है, तिजोड़ी भरे चला
जाता है, यह
असंयमी है। धन
इसका साध्य हो
गया, अति
हो गई इसके
जीवन की। एक
दूसरा आदमी धन
से पीठ करके
भागता है। लौटकर
नहीं देखता, भागता ही
चला जाता है।
और सदा डरा
हुआ है कि कहीं
धन न मिल जाए।
यह भी असंयमी
है। इसके लिए
धन का त्याग
वैसे ही साध्य
बन गया जैसे
किसी के लिए
धन का इकट्ठा
करना साध्य
था। संयमी कौन
है? कृष्ण
के अर्थों में
जनक जैसा आदमी
संयमी है।
अन-अति संयम
है, "नॉन-एक्स्ट्रीमिटी'
संयम है।
मध्य में होना
संयम है। भूखा
मरना संयम
नहीं है, ज्यादा
खा लेना संयम
नहीं है, सम्यक
आहार संयम है।
उपवास संयम
नहीं है--भूख की
तरफ असंयम है।
ज्यादा खा
लेना संयम
नहीं है--भोग
की तरफ असंयम है।
सम्यक
आहार--जितना
जरूरी है बस
उतना ही; न
ज्यादा, न
कम--संयम है।
कृष्ण के
ओंठों पर संयम
का अर्थ "बैलेंस'
है, संतुलन
है, संगीत
है। जरा ही
यहां-वहां हटे
कि कुआं और खाई
हैं। और दो
तरफ आदमी हट
सकता है--राग
की तरफ हट सकता
है, विराग
की तरफ हट
सकता है। घड़ी
का "पेंडुलम'
हमने देखा
है। वह बायें
से हटता है तो
सीधा दायें
जाता है, बीच
में रुकता
नहीं। दायें
से हटता है तो
सीधा बायें
जाता है, बीच
में रुकता
नहीं। और एक
और बहुत मजे
की बात है जो
घड़ी के "पेंडुलम'
से समझ लेनी
चाहिए कि जब
घड़ी का पेंडुलम
बायें तरफ
जाता है तो हमें
दिखता है
बायें तरफ जा
रहा है, लेकिन
बायें तरफ
जाते समय पूरे
समय दायें तरफ
जाने का "मोमेंटम'
इकट्ठा कर
रहा है। जब
घड़ी का "पेंडुलम'
बायीं तरफ जा रहा
है तब वह दायीं
तरफ जाने की
शक्ति इकट्ठी
कर रहा है।
बायें तरफ
जाते हुए
दायें तरफ
जाने की शक्ति
इकट्ठी होती
है। दायें तरफ
जाते हुए
बायें तरफ
जाने की शक्ति
इकट्ठी होती
है। जो अनशन
कर रहा है, वह
ज्यादा खाने
की तैयारी कर
रहा है। जो
ज्यादा खा रहा
है, वह
अनशन की
तैयारी कर रहा
है। जो राग
में डूब रहा
है, वह
विराग की
तैयारी कर रहा
है। जो विराग
की तरफ दौड़
रहा है, वह
राग की तरफ दौड़ेगा।
दोनों अतियां
सदा जुड़ी होती
हैं। सिर्फ वह
"पेंडुलम'
न जो बायें
जा रहा है, न
दायें जा रहा
है, बीच
में खड़ा हो
गया है, वह
कहीं भी जाने
की तैयारी
नहीं कर रहा
है--न वह बायें
जाने की
तैयारी कर रहा
है, न वह
दायें जाने की
तैयारी कर रहा
है। और यह जो मध्य
में खड़ा हो
गया "पेंडुलम'
है, यह
संयम का
प्रतीक है।
असंयम
"लेफ्टिस्ट' या "राइटिस्ट'
दो तरह का
होता है। संयम
का अर्थ है, मध्य। कृष्ण
के ओंठों पर
यह अर्थ है।
कृष्ण के
ओंठों पर
दूसरा अर्थ
नहीं हो सकता।
इस अर्थ को हम
अगर वास्तविक
जीवन में
समझने जाएंगे
तो क्या होगा?
इसे
वास्तविक
जीवन में
समझने जाएंगे,
वस्तुतः
जीवन की गहराई
में, तो
इसके दो अर्थ
होंगे। ऐसा
व्यक्ति न तो
त्यागी कहा जा
सकता है, न
तो भोगी कहा
जा सकता है, या दोनों
कहा जा सकता
है। पर ऐसा
व्यक्ति दोनों
में एकसाथ
होगा। उसके
भोग में त्याग
होगा, उसके
त्याग में भोग
होगा। इस संयम
के अर्थ से त्यागवादी
कोई परंपरा
राजी न होगी। त्यागवादी
परंपरा के लिए
संयम का अर्थ
विराग होगा, असंयम का
अर्थ राग
होगा। जो राग
को छोड़ता है और
विराग की तरफ
जाता है, वह
संयमी है।
कृष्ण त्यागवादी
नहीं हैं और
कृष्ण
भोगवादी भी
नहीं हैं। अगर
उन्हें हम
कहीं भी रखें
तो वह ठीक
चार्वाक और
महावीर के बीच
में खड़े हो
जाएंगे। वे
भोग में
चार्वाक से
पीछे न होंगे
और त्याग में
महावीर से
पीछे न होंगे।
इसलिए
अगर चार्वाक
और महावीर का
कोई "मिक्सचर' बन सकता हो, अगर इन
दोनों का कोई
सम्मिलन बन
सकता हो, तो
वह कृष्ण है।
इसलिए कृष्ण
के ओंठों पर
सारे शब्दों
के अर्थ भिन्न
होंगे। शब्द
वे ही हैं, अर्थ
भिन्न हो
जाएंगे। उनके
व्यक्तित्व
से अर्थ
निकलेगा।
दूसरा
सवाल पूछा है, कृष्ण की
उपासना, साधना
क्या है?
कृष्ण
के
व्यक्तित्व
में साधना
जैसा कुछ भी नहीं
है। हो नहीं
सकता। साधना
में जो मौलिक
तत्व है, वह
प्रयास है, "इफर्ट' है। बिना
प्रयास के
साधना नहीं हो
सकती। दूसरा
जो अनिवार्य
तत्व है, वह
अस्मिता है, अहंकार है।
बिना "मैं' के
साधना नहीं हो
सकती, करेगा
कौन! कर्ता के
बिना साधना
कैसे होगी? कोई करेगा, तभी होगी।
साधना
शब्द ठीक से
अगर बहुत गहरे
में समझें तो अनीश्वरवादियों
का है। साधना
शब्द, जिनके
लिए कोई
परमात्मा
नहीं है, आत्मा
ही है, साधना
शब्द उनका है।
आत्मा साधेगी
और पाएगी।
उपासना शब्द
बिलकुल उलटे
लोगों का है।
आमतौर से हम
दोनों को
एकसाथ चलाए
जाते हैं।
उपासना शब्द
उनका है, जो
कहते हैं
आत्मा नहीं, परमात्मा
है। सिर्फ
उसके पास जाना
है, साधना
कुछ भी नहीं।
उपासना का
मतलब है, पास
जाना। पास
बैठना--उप-आसन,
निकट होते
जाना, निकट
होते जाना। और
निकट होने का
अर्थ है, खुद
मिटते जाना, और कोई अर्थ
नहीं है। हम
उससे उतने ही
दूर हैं, जितने
हम हैं। जीवन
के परम सत्य
से हमारी दूरी,
हमारा
"डिस्टेंस' उतना ही है, जितने हम
हैं। जितना
हमारा होना है,
जितना
हमारा "मैं' है, जितना
हमारा "इगो'
है, जितनी
हमारी आत्मा
है, उतने
ही हम दूर
हैं। जितने हम
खोते हैं और
विगलित होते
हैं, पिघलते
हैं और बहते हैं,
उतने ही हम
पास होते हैं।
जिस दिन हम
बिलकुल नहीं
रह जाते, उस
दिन उपासना
पूरी हो जाती
है और हम
परमात्मा हो
जाते हैं।
जैसे बर्फ
पानी बन रहा
हो, बस
उपासना ऐसी है
कि बर्फ पिघल
रहा है, पिघल
रहा है। साधना
क्या कर रहा
है बर्फ? साधना
करेगा तो और
सख्त होता चला
जाएगा।
क्योंकि
साधना का मतलब
होगा कि बर्फ
अपने को बचाए।
साधना का मतलब
होगा कि बर्फ
अपने को सख्त
करे। साधना का
मतलब होगा कि
बर्फ और "क्रिस्टलाइज्ड'
हो जाए।
साधना का मतलब
होगा कि बर्फ
और आत्मवान
बने। साधना का
मतलब होगा कि
बर्फ अपने को
बचाए और खोए
न।
साधना
का अर्थ अंततः
आत्मा हो सकता
है। उपासना का
अर्थ अंततः
परमात्मा है।
इसलिए जो लोग
साधना से जाएंगे, उनकी आखिरी
मंजिल आत्मा
पर रुक जाएगी।
उसके आगे की
बात वह न कर
सकेंगे। वह
कहेंगे अंततः
हमने अपने को
पा लिया।
उपासक कहेगा,
अंततः हमने
अपने को खो
दिया। ये
दोनों बातें बड़ी
उलटी हैं।
बर्फ की तरह पिघलेगा
उपासक और पानी
की तरह खो
जाएगा। साधक
तो मजबूत होता
चला जाएगा।
इसलिए कृष्ण
के जीवन में
साधना का कोई
तत्व नहीं है।
साधना का कोई
अर्थ ही नहीं
है। अर्थ है
तो उपासना का
है।
उपासना
की यात्रा ही
उलटी है।
उपासना का
मतलब ही यह है
कि हमने अपने
को पा लिया, यही भूल है।
हम हैं, यही
गलती है। "टु
बी इज द ओनली बांडेज"।
होना ही
एकमात्र बंधन
है। न होना ही
एकमात्र
मुक्ति है।
साधक जब कहेगा
तब वह कहेगा, मैं मुक्त
होना चाहता
हूं; उपासक
जब कहेगा तो
वह कहेगा, मैं
"मैं' से
मुक्त होना
चाहता हूं।
साधक कहेगा, मैं मुक्त
होना चाहता
हूं। मैं
मोक्ष पाना चाहता
हूं। लेकिन
"मैं' मौजूद
रहेगा। उपासक
कहेगा, "मैं'
से मुक्त
होना है। "मैं'
से मुक्ति
पानी है।
उपासक के
मोक्ष का अर्थ
है, "न-मैं'
की स्थिति।
साधक के मोक्ष
का मतलब है, "मैं' की
परम स्थिति।
इसलिए कृष्ण
की भाषा में
साधना के लिए
कोई जगह नहीं
है; उपासना
के लिए जगह
है।
अब यह
उपासना क्या
है, इसे हम
थोड़ा समझें।
पहली
तो बात समझ
लें कि उपासना
साधना नहीं है, इससे समझने
में आसानी
बनेगी।
अन्यथा
भ्रांति
निरंतर होती
रहती है। और
उपासक हममें
से बहुत कम
लोग होना
चाहेंगे, यह
भी खयाल में
ले लें। साधक
हममें से सब
होना चाहेंगे।
क्योंकि साधक
में कुछ खोना
नहीं है, पाना
है। और उपासक
में सिवाय
खोने के कुछ
भी नहीं है, पाना कुछ भी
नहीं है। खोना
ही पाना है, बस। उपासक
कौन होना
चाहेगा? इसलिए
कृष्ण को
मानने वाले भी
साधक हो जाते
हैं। कृष्ण के
मानने वाले भी
साधना की भाषा
बोलने लगते हैं।
क्योंकि वह
भीतर जो
अहंकार है, वह साधना की
भाषा बुलवाता
है। वह कहता
है, साधो, पाओ, पहुंचो।
उपासना
बड़ी कठिन बात
है, "आरडुअस'। इससे
ज्यादा "आरडुअस',
इससे
ज्यादा कठिन
कोई बात ही
नहीं
है--पिघलो, मिटो, खो
जाओ। निश्चित
ही हम पूछना
चाहेंगे कि
क्यों मिटें?
मिटकर क्या फायदा
है? साधक
कितनी ही ऊंची
बात बोले, फायदे
की बात में ही
सोचेगा। उसका
मोक्ष भी उसका
ही सुख है।
उसकी मुक्ति
भी उसकी ही
मुक्ति है।
इसलिए साधक
बहुत गहरे
अर्थों में
स्वार्थी हो
तो आश्चर्य
नहीं। स्व
अर्थ से वह
ऊपर कभी उठ भी
नहीं पाएगा।
उपासक स्व
अर्थ के ऊपर
उठेगा, इसलिए
उपासक
परमार्थ की
बात बोलेगा।
वह परम अर्थ
की बात बोलेगा,
जहां स्व खो
जाता है। इस
उपासना का
क्या अर्थ होगा,
और यह
उपासना की
क्या गति होगी
और क्या
यात्रा होगी?
बड़ी कठिन
होगी समझना यह
बात। इसलिए पहले
ही आपको कह
देता हूं कि
साधना शब्द को
बिलकुल ही हटा
दें। उसकी जगह
ही नहीं है, फिर हम
उपासना को
समझने चलें।
जैसा
मैंने कहा, उपासना का
अर्थ है, निकट
आना, "टु बी
नियरर'। तो दूरी
क्या है, "डिस्टेंस'
क्या है? एक तो दूरी
है जो हमें
दिखाई पड़ती है,
"फिजिकल
स्पेस' है।
आप वहां बैठे
हैं, मैं
यहां हूं, हम
दोनों के बीच
एक फासला है, एक
"डिस्टेंस' है। मैं
आपके पास आ
जाऊं, आप
मेरे पास आ
जाएं, भौतिक
दूरी समाप्त
हो जाएगी। हम
बिलकुल पास-पास,
हाथ में हाथ
लेकर, गले
में गले डालकर
बैठ जाएं, दूरी
खत्म हुई।
लेकिन दो आदमी
गले में हाथ
डाले हुए भी
कोसों दूरी पर
हो सकते हैं। एक
"इनर स्पेस' है। एक
भीतरी दूरी है,
जिसका
"फिजिकल' दूरी
से कुछ भी
संबंध नहीं
है। और दो
आदमी कोसों
दूर होकर भी
बड़े निकट हो
सकते हैं। और
दो आदमी गले
में हाथ डालकर
दूर हो सकते
हैं। तो एक तो
दूरी है जो
हमसे बाहर है।
और एक दूरी है
जो मन की है और
हमारे भीतर
है। उपासना
भीतर की दूरी
को मिटाने की
विधि है। लेकिन
भक्त भी बाहर
की दूरी
मिटाने को
आतुर रहता है।
वह भी कहता है,
सेज बिछा दी
है, आ जाओ!
वह भी कहता है,
कब तक तड़पाओगे,
जाओ! वह भी
बाहर की दूरी
मिटाने को
आतुर रहता है।
लेकिन एक बड़े
मजे की बात है
कि बाहर की
दूरी कितनी ही
मिट जाए, दूरी
बनी ही रहती
है हम कितने
ही पास आ जाएं,
बाहर से हम
पास आते ही
नहीं। पास आना
बिलकुल ही
आंतरिक घटना
है। इसलिए
उपासक उस
परमात्मा के
पास भी हो
सकता है जो
दिखाई ही नहीं
पड़ता। जिससे
"फिजिकल' दूरी
मिटाने का कोई
उपाय ही नहीं
है, उसके
पास भी पास हो
सकता है।
यह जो
"इनर स्पेस' है हमारी, यह कैसे
पैदा होती है?
यह जो भीतर
की दूरी है, यह कैसे
पैदा होती है?
बाहर की
दूरी हम समझते
हैं कि कैसे
पैदा होती है।
अगर मैं आपसे
दूर चलने लगूं,
आपसे हटने
लगूं, आपकी
तरफ पीठ कर
लूं और भागने
लगूं, तो
बाहर की दूरी
पैदा हो जाती
है। आपकी तरह
मुंह करने
लगूं और आपकी
तरफ चलने लगूं,
आपकी दिशा
में, तो
बाहर की दूरी
कम हो जाती
है। भीतर की
दूरी कैसे
पैदा होती? भीतर की
दूरी चलने से
पैदा नहीं
होती, क्योंकि
भीतर तो चलने
की कोई जगह
नहीं है। भीतर
की दूरी होने
से पैदा होती
है; कितना
सख्त मैं हूं,
उतनी ही
भीतर की दूरी
होती है। और
कितना तरल मैं
हूं, उतनी
ही भीतर की
दूरी टूट जाती
है। और अगर
मैं बिलकुल
तरल हो जाऊं
कि मैं भीतर
कह सकूं कि मैं
हूं ही नहीं, शून्य हो
गया, तो
भीतर की दूरी
समाप्त हो
जाती है।
उपासना
का अर्थ शून्य
होना है।
उपासना का अर्थ
न-कुछ होना
है--"नथिंगनेस', "नॉन-बीइंग'। मैं नहीं
हूं, इस
सत्य को जान
लेना उपासक हो
जाना है। मैं
हूं, इस
तथ्य को जोर
से पकड़े
रहना
परमात्मा से
दूर होते जाना
है। मैं हूं, यह घोषणा ही
हमारी दूरी
है।
रूमी
ने गीत लिखा
है।
एक
प्रेमी अपनी
प्रेयसी के
द्वार को
खटखटाता है।
सूफियों का
गीत है, जो
कि उपासना को
जानते हैं।
शायद पृथ्वी
पर उपासना को
जानने वाले
थोड़े ही लोग
हैं, वे
सूफी हैं।
कृष्ण को अगर
कोई ठीक से
समझ सकता है
तो वह सूफी ही
समझ सकते हैं।
ऐसे वे मुसलमान
फकीर हैं, लेकिन
इससे क्या
बनता-बिगड़ता
है। सूफी गीत
है
जलालुद्दीन
रूमी का कि
प्रेमी ने
द्वार
खटखटाया है
प्रेयसी का।
भीतर से आवाज
आई, कौन हो?
तो प्रेमी
ने कहा, मैं
हूं, पहचानी
नहीं? फिर
भीतर से कोई
आवाज नहीं
आती। फिर
प्रेमी द्वार
खटखटाये चला
जाता है और
कहता है मेरी
आवाज नहीं
पहचानती, मैं
हूं! तब भीतर
से बड़ी
मुश्किल से
इतनी भर आवाज
आती है कि जब
तक तुम हो, तब
तक प्रेम के
द्वार नहीं
खुल सकते। कब
खुले हैं मैं
के लिए प्रेम
के द्वार! तो
जाओ, उस
दिन आना जिस
दिन मैं न रह
जाओ। वह
प्रेमी वापस
लौट जाता है।
वर्ष
आते हैं, जाते
हैं। वर्षा और
धूप और चांद
और सूरज, वर्षों
के बाद वह
वापिस लौटता
है। वह द्वार
पर दस्तक देता
है। भीतर से
फिर वही सवाल
कि कौन है? लेकिन
अब वह प्रेमी
कहता है, अब
तो तू ही है।
तो रूमी की
कविता यहां
पूरी हो जाती
है। वह कहता
है द्वार खुल
जाते हैं।
लेकिन मैं
मानता हूं कि
रूमी उपासना
को पूरा नहीं
समझ पाया।
कृष्ण तक नहीं
पहुंच पाई
रूमी की समझ।
गया थोड़ी दूर,
रुक गया।
अगर मैं इस
कविता को लिखूं
तो मैं कहूंगा
कि फिर वह
प्रेयसी भीतर
से कहती है कि
जब तक तू भी है,
तब तक मैं
होगा ही। छिपा
होगा।
क्योंकि तू का
बोध मैं के
बिना नहीं
होता। चाहे
कोई मैं कहता
हो या न कहता
हो, जब तक
तू है, तब
तक मैं मौजूद
होगा ही। छिपा
होगा, अप्रगट होगा, अंधेरे
में दब गया
होगा, मन
के किसी कोने-कांतर में
बैठ गया होगा,
लेकिन होगा
ही। क्योंकि
कौन कहेगा तू?
तू को कहने
के लिए मैं
होना ही
चाहिए। यह
सिर्फ तराजू
बदल लिया, पहलू
बदल लिया। बात
कुछ हुई नहीं,
बात कुछ बनी
नहीं। तो मैं
अगर इस कविता
को लिखूं
तो कहूंगा कि
फिर वह कह
देती है कि जब
तक तू है, तब
तक मैं कैसे
मिट सकता है? अभी तू मैं
को खोकर आया, अब तू को भी
खोकर आ। लेकिन
जब मैं भी खो
जाएगा और तू
भी खो जाएगा, तो क्या
प्रेमी आएगा?
तब मेरी
कविता बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएगी, क्योंकि
फिर वह आएगा
कैसे? आएगा
किसके पास? आएगा कहां? नहीं, फिर
वह आएगा नहीं।
फिर आने की
कोई बात न रही,
फिर जाने की
कोई बात न रही,
क्योंकि
फासला, वह
"इनर
डिस्टेंस' भी
टूट गया
जिसमें
आया-जाया जा
सकता है। वह
जो भीतर का
फासला था वह
टूट गया, वह
तो मैं और तू
का फासला था।
इसलिए मेरी
कविता आखिर
में आकर बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएगी। हो सकता
है रूमी ने
इसीलिए कविता
वहीं खत्म की।
क्योंकि आगे
फिर कविता को
खत्म कैसे
करेंगे? वहां
जाकर कविता
एकदम टकरा
जाएगी जिंदगी
की चट्टान से
और टूट जाएगी।
क्योंकि फिर
आएगा कौन? आएगा
किसके पास? आएगा क्यों?
जब तक आता
है, तब तक
फासला है। और
जब मैं और तू न
रहे तो कोई फासला
नहीं, जो
जहां है उसे
वहीं मिल जाता
है।
उपासना
के लिए कहीं
पहुंचना नहीं
होता। जहां हम
हैं, वहीं
घटित हो जाती
है। किसी के
पास नहीं
पहुंचना होता,
बस अपने से
मिटना होता है
और पास
पहुंचना हो जाता
है।
"भगवान
श्री, कृपया
मार्टिन बूबर
के संदर्भ में
कुछ कहें?'
पूछा
है कि मार्टिन
बूबर के
संदर्भ में भी
कुछ कहें।
मार्टिन
बूबर की
सारी-की-सारी
चिंतना मैं और
तू के "इंटीमेसी', मैं और तू के
"रिलेशनशिप', मैं और तू के
संबंधों पर
है। मार्टिन बूबर
गहरे-से-गहरे
लोगों में से
एक है। लेकिन
गहराई कितनी
ही हो, वह उथलेपन का
ही दूसरा छोर
है। सच्ची
गहराई तो उस
दिन शुरू होती
है जिस दिन
आदमी न उथला
रह जाता है और
न गहरा रह
जाता है। जिस
दिन उथला और गहरापन
दोनों मिट
जाते हैं।
मार्टिन बूबर
ने बड़ी गहरी
बातें कही
हैं।
गहरी-से-गहरी
जो बात है वह
यह है, यह
सारे जीवन का
सत्य मैं और
तू के अंतर्संबंधों
में समाया हुआ
है।
एक
नास्तिक है, एक
अनीश्वरवादी
है, एक है
जो मानता है
कि सिर्फ
पदार्थ है।
उसका जगत मैं
और तू का जगत
नहीं है। उसका
जगत मैं और वह
का जगत है। "आई
एंड इट'।
तू है ही
नहीं।
क्योंकि तू
होने के लिए
दूसरे में
आत्मा को
स्वीकार करना
जरूरी है।
नास्तिक का
जगत, "आई
एंड इट', मैं
और वह का जगत
है। इसलिए
नास्तिक का
जगत बड़ा जटिल
है, क्योंकि
खुद को तो वह
मैं कहता है और
आत्मवान होने
की घोषणा करता
है, और शेष
सबको मैं से
हीन कर देता
है और वह बना
देता है।
पदार्थ बना
देता है, वस्तुएं
बना देता है।
अगर मैं जानता
हूं कि आत्मा
नहीं है, तो
आप मेरे लिए
पदार्थ से
ज्यादा नहीं
हैं, फिर
मैं तू किसको
कहूं? तू
तो जीवंत
व्यक्ति को
कहा जा सकता
है।
इसलिए
मार्टिन बूबर
कहता है कि
आस्तिक का जगत
मैं और वह का
जगत नहीं है, "आई एंड दाउ',
मैं और तू
का जगत है। जब
मेरा मैं तू
कह पाता है जगत
को, तो
आस्तिक का जगत
है। मैं नहीं
कहूंगा। मैं
कहूंगा, यह
आस्तिक भी
बहुत गहरे में
अभी नास्तिक
है। क्योंकि
अभी तो मैं और
तू में जगत को
बांट पाता है।
या ऐसा कहें
कि यह
द्वैतवादी
आस्तिक का जगत
है। लेकिन द्वैतवादी
चूंकि झूठा है,
इसलिए
द्वैतवादी
आस्तिकता का
भी कोई अर्थ
नहीं होता। एक
अर्थ में
नास्तिक अद्वैतवादी
होता है।
क्योंकि वह
कहता है, एक
ही है, पदार्थ।
एक अर्थ में नास्तिक
अद्वैतवादी
होता है, क्योंकि
वह कहता है, एक ही है, पदार्थ;
और एक अर्थ
में आत्मवादी अद्वैतवादी
होता है, क्योंकि
वह कहता है, एक ही है, पदार्थ;
और एक अर्थ
में आत्मवादी अद्वैतवादी
होता है, क्योंकि
वह भी कहता है,
एक ही है, आत्मा है।
अब मेरा मानना
है कि एक ही से
एक पर जाना
बहुत आसान है,
दो से एक पर
जाना बहुत
कठिन है।
इसलिए
द्वैतवादी
नास्तिक से भी
ज्यादा उलझन
में होता है।
क्योंकि किसी
दिन अगर
नास्तिक अद्वैतवादी
को यह दिखाई
पड़ जाए कि
पदार्थ नहीं
है, आत्मा
है, तो
यात्रा
तत्काल बदल
जाती है। एक
तो वह मानता
ही था। वह एक
क्या है, इसकी
व्याख्या पर झगड़ा था।
वह पदार्थ है
कि परमात्मा
है? लेकिन
द्वैतवादी की
झंझट और गहरी
है। द्वैतवादी
मानता है, दो
हैं। पदार्थ
भी है, परमात्मा
भी है। इसे एक
पर पहुंचना
बहुत मुश्किल
है।
बूबर
द्वैतवादी
है। वह कहता
है, मैं और
तू। लेकिन
उसका द्वैतवाद
बहुत मानवीय
है। क्योंकि
वह मैं को मिटा
देता है। तू
का दर्जा देता
है दूसरे को भी,
आत्मा का
दर्जा देता
है। लेकिन मैं
और तू के बीच
संबंध ही हो
सकते हैं, एकता
नहीं हो सकती,
ऐक्य नहीं
हो सकता।
संबंध कितने
ही गहरे हों, तब भी फासला
बना ही रहता
है। अगर मैं
आपसे संबंधित
हूं, कितना
ही गहरा
संबंधित हूं,
तब भी मेरा
और आपका संबंध,
मुझे और
आपको दो में तोड़ता है।
संबंध जोड़ता
भी है, तोड़ता भी है। वह
दोहरे काम
करता है।
जिससे हम
जुड़ते हैं, उससे हम
टूटे हुए भी
होते हैं। जिस
जगह हमारा जोड़
होता है, वही
हमारी टूट भी
होती है। जो
हमारा सेतु है,
वही हमें दो
तटों में भी
तोड़ देता है।
जो सेतु जोड़ता
है, वह तोड़ता
भी है। असल
में जोड़ने
वाली कोई भी
चीज तोड़ने
वाली भी होती
है। होगी ही।
अनिवार्य है।
इसलिए दो कभी
एक नहीं हो
पाते, कितने
ही गहरे संबंध
हों, संबंध
कभी भी एक
नहीं हो पाते।
इसलिए गहरे से
गहरा संबंध भी
दो बनाए रखता
है। प्रेम का
संबंध कभी भी
एक नहीं हो
पाते। इसलिए गहरे
से गहरा संबंध
भी दो बनाए
रखता है।
प्रेम का
कितना ही गहरा
संबंध हो, उसमें
दो नहीं
मिटते। और जब
तक दो नहीं
मिटते, तब
तक प्रेम
तृप्त नहीं हो
सकता। इसलिए
सब प्रेम
अतृप्त होते
हैं।
दो तरह
की अतृप्तियां
हैं प्रेम
की--प्रेमी न
मिले तो, और
मिल जाए तो।
प्रेमी न मिले
तो यह अतृप्ति
होती है कि
जिससे मिलना
चाहा था वह
नहीं मिला, और प्रेमी
मिल जाए तो यह
अतृप्ति होती
है कि जिससे
मिलना चाहा था
वह मिल तो गया,
लेकिन
मिलना कहां हो
पा रहा है!
फासला खड़ा ही
है। दूरी बनी
ही है। पास आ
गए हैं बहुत, लेकिन कहां
दूरी मिटती
है! इसलिए कई
बार, जिसको
अपना प्रेमी
नहीं मिलता वह
भी उतना दुखी
नहीं होता, जितना दुखी
वह हो जाता है
जिसे उसका
प्रेमी मिल
जाता है।
क्योंकि
जिसको नहीं
मिलता उसे एक
आशा तो रहती
है कि कभी मिल
सकता है। इसकी
वह आशा भी टूट
जाती है, कि
अब क्या होगा?
मिल तो गया
है, लेकिन
मिलना नहीं हो
पा रहा है।
असल
में कोई मिलन
मिलन नहीं बन
सकता, क्योंकि
मिलन में
संबंध ही है
और संबंध दो
बनाए रखता है।
इसलिए
मार्टिन बूबर
मैं और तू के
गहरे संबंधों
की बात करता
है, जो बड़ी
मानवीय है। और
इस जगत में, जो कि
निरंतर
पदार्थवादी
होता चला गया
है, मार्टिन
बूबर की
बात भी बड़ी
धार्मिक
मालूम होती है,
लेकिन मुझे
मालूम नहीं
होती। मैं तो
कहूंगा, यह
बात धार्मिक
नहीं है, सिर्फ
समझौता है, यह मैं और तू
के बीच अगर
एकता न हो सके,
तो कम-से-कम
संबंध ही हो।
प्रेम
और उपासना में
यही फर्क है।
प्रेम संबंध
है, उपासना
असंबंध है।
असंबंध का
मतलब यह नहीं
कि दो
असंबंधित हो
गए। असंबंध का
मतलब यह कि दो
के बीच से
संबंध गिर
गया।
"रिलेशनशिप' भी गिर गई।
वह जो संबंध
था, वह भी
गिर गया; अब
दो दो ही न रहे,
वह एक ही हो
गए। यह जो एक
हो जाना है, यह उपासना
है।
इसलिए
प्रेम का अगला
कदम उपासना
है। और जिसे हम
प्रेम करते
हैं उससे हम
तब तक पूरी
तरह नहीं मिल
सकते जब तक वह
दिव्य न हो
जाए, भागवत न
हो जाए, भगवान
न हो जाए। दो
मनुष्यों का
मिलन असंभव है।
उनका मनुष्य
होना ही बाधा
देता रहेगा।
दो मनुष्य
ज्यादा-से-ज्यादा
संबंधित हो
सकते हैं। दो परमात्मत्तत्व
ही मिल सकते
हैं, क्योंकि
फिर तोड़ने
वाला कोई भी
नहीं रह जाता।
जोड़ने
वाला भी कोई
नहीं रह जाता।
इसलिए
मार्टिन बूबर
ज्यादा-से-ज्यादा
प्रेम पर
पहुंच सकता
है। कृष्ण
उपासना पर पहुंचते
हैं। उपासना
बहुत और बात
है, उपासना
बहुत ही और
बात है। वहां
दूसरा भी मिट गया
है, मैं भी
मिट गया हूं।
और हम दोनों
के मिटने पर जो
शेष जाता है,
"दैट ह्विच
रिमेन्स',
वह विस्तार
जो बाकी रह
गया, उसे
हम क्या नाम
दें? उसे
हम पदार्थ
कहें? उसे
हम आत्मा कहें?
उसे मैं मैं
कहूं? उसे
मैं तू कहूं? उसे हम कोई
भी नाम दें वे
गलत होंगे।
इसलिए जो परम
उपासक हैं वे
चुप रह गए हैं,
उन्होंने
उसके लिए कोई
नाम नहीं
दिया। उन्होंने
कहा वह अनाम
है, "नेमलेस'
है।
उन्होंने कहा,
उसका कोई
छोर नहीं है, उसका कोई
प्रारंभ नहीं
है, उसका
कोई अंत नहीं
है। उन्होंने
कहा, उसका
कोई नाम नहीं,
उसका कोई
रूप नहीं।
उन्होंने कहा,
उसका कोई
आकार नहीं।
उन्होंने कहा,
उसे कोई
शब्द नहीं
दिया जा सकता।
वे चुप रह गए हैं।
वे मौन रह गए
हैं।
परम
उपासक मौन रह
गया है, उस
सत्य के संबंध
में उसने कोई
घोषणा नहीं की,
क्योंकि
सभी घोषणाएं
द्वैत में गिर
जाती हैं।
मनुष्य के पास
ऐसा कोई शब्द
नहीं है, जो
द्वैत में न
ले जाता हो।
हम शब्द का
उपयोग किए
नहीं कि हमने
जगत को दो में
तोड़ा नहीं।
इधर हमने शब्द
का उपयोग किया,
वहां चीजें
दो में टूटीं।
ऐसे ही हम
किसी प्रिज्म
में से सूर्य
की किरण को
निकालें तो वह
सात हिस्सों
में टूट जाती है।
ऐसे ही हमने
भाषा से किसी
सत्य को
निकाला कि वह
तत्काल दो में
टूट जाती है।
भाषा का प्रिज्म
हर सत्य को दो
में तोड़ देता
है और दो में टूटते
ही सत्य असत्य
हो जाता है।
इसलिए परम उपासक
चुप रह गया, मौन रह गया।
नाचा है, बांसुरी
बजाई है, गीत गाया है,
इशारे किए
हैं, लेकिन
घोषणा नहीं
की। घोषणा
शब्दों में
होती है।
"गेस्चर' से
जाहिर किया
है। नाचकर कहा
है कि क्या है
वह। हंस कर
कहा है कि
क्या है वह।
चुप रहकर कहा
है कि क्या है
वह। हाथ के
इशारे उठा दिए
हैं आकाश की
तरफ और कहा है कि
क्या है वह!
लेकिन, चुप
रह गया है।
पूरे
व्यक्तित्व
से कहा है कि क्या
है वह।
गदर के
वक्त में, एक संन्यासी
को एक अंग्रेज
सैनिक ने छाती
में संगीत मार
दी। निकलता था
संन्यासी।
मौन था वर्षों
से, तीस
वर्ष से बोला
नहीं था। और
जिस दिन मौन
लिया था उस
दिन किसी ने पूछा
था कि क्यों
मौन लेते हो? तो उसने कहा
था, जो
बोला जा सकता
है वह बोलने
योग्य नहीं है
और जो बोलने
योग्य है, वह
बोला नहीं जा
सकता। तो
सिवाय मौन के
और मैं क्या
करूं? तो
तीस वर्ष से
वह मौन था।
गदर चल रही थी,
बगावत चल
रही थी, अंग्रेज
शंकित थे, नग्न
वह संन्यासी
रात के अंधेरे
में उनके कैंप
के पास से गुजरता
था। उन्होंने
उसे पकड़ लिया।
समझा कि कोई जासूस
होगा। कोई "डिटेक्टिव'
होगा। पूछा
उससे, कौन
हो? अगर वह
कुछ उत्तर भी
दे देता, तो
भी शायद वे
समझ जाते, लेकिन
वह चुप रहा, हंसता रहा।
जब वे पूछते, कौन हो, तो
वह हंसता। तब
तो पक्का हो
गया कि वह
जासूस है और
बोलने की भी
तैयारी नहीं
दिखाता। तब
उन्होंने
उसकी छाती में
संगीन भोंक
दी। तीस वर्ष
से जो मौन था, वह मरते
वक्त हंसा और
उसने एक शब्द
कहा, मरते
वक्त उसने
उपनिषद का एक
महावाक्य कहा,
कहा:
"तत्त्वमसि, श्वेतकेतु'। उस संगीन
भोंकने वाले
सैनिक से उसने
कहा कि तू भी
वही है, जो
मैं हूं। और
तू पूछता है
कि तू कौन है!
इशारे
हैं। या फिर
असंगत
भाषा...कबीर की
भाषा को लोगों
ने
संध्या-भाषा
कहा है।
संध्या-भाषा का
मतलब यह है कि
न पक्का पता
चले कि दिन है
कि रात है।
बात ऐसी हो कि
पक्का पता न
चले कि हां है
कि ना। पक्का
पता न चले कि
तुम स्वीकार
करते हो कि
अस्वीकार; तुम आस्तिक
हो कि नास्तिक,
तुम मानते
हो कि नहीं
मानते हो; जिस
भाषा में कुछ
पक्का पता न
चले, उस
भाषा को
संध्या-भाषा
कहा है। इसलिए
कबीर की भाषा
का अभी भी
अर्थ तय नहीं
हो पाता।
कृष्ण की भाषा
का भी नहीं हो
सकता।
जिन्होंने भी
सत्य को कहा
है, उनकी
संध्या-भाषा
हो गई।
क्योंकि वे
दोनों को साथ-साथ
कहेंगे, हां
और ना को, या
दोनों को
साथ-साथ इनकार
कर देंगे और
हमारी भाषा
में कोई
तर्क-व्यवस्था
में वे नहीं
बैठ पाएंगे।
इसलिए मौन रह
गए वे लोग, जिन्होंने
जाना उसे जहां
मैं और तू
दोनों खो जाते
हैं।
"भगवान श्री,
सार्त्र
कहता है, "एक्ज़िस्टेंस प्रिसीड्स
इसेंस'। आप
"इसेंस' को
"एक्ज़िस्टेंस'
के पहले
मानते हैं? या
कि दोनों का
कैसा संबंध आप
करते हैं? और
इधर साधना
शिविर में आए
हुए लोग भी
गड़बड़ में पड़
गए हैं कि वे
उपासना शिविर
में आए हैं, या साधना
शिविर में?'
गड़बड़
में डालना
मेरा काम है।
साधना और
उपासना के बीच
का फासला गिर
जाए, तो शिविर
का मतलब समझ
में आ गया।
सार्त्र
या
अस्तित्ववादी
ऐसा मानते हैं, "एक्ज़िस्टेंस प्रिसीड्स
इसेंस'।
बड़ी अजीब बात
है। क्योंकि
दुनिया में
ऐसा मुश्किल
से कभी माना
गया है। इससे
उलटी बात सदा
मानी जाती रही
है। दुनिया के
जितने
तत्व-चिंतन हैं,
उन सबका
मानना है, "इसेंस
प्रिसीड्स
एक्ज़िस्टेंस'।
इसे
समझ लें।
सार्त्र
के पहले या
अस्तित्ववादियों
के पहले जितने
जितने भी
तत्व-चिंतन
हैं, वे यह
मानते हैं कि
बीज वृक्ष के
पहले है।
स्वभावतः।
सार्त्र कहता
है, वृक्ष
बीज के पहले
है। सारा
चिंतन
साधारणतः कहेगा
कि अस्तित्व
के पहले आत्मा
है, तभी तो
अस्तित्व हो
सकेगा।
सार्त्र कहता
है, अस्तित्व
पहले है, फिर
आत्मा है।
क्योंकि
अस्तित्व ही न
होगा तो आत्मा
कैसे गठित
होगी।
कृष्ण
के संदर्भ में
क्या मतलब
होगा? असल
में
तत्व-चिंतन की
सारी लड़ाइयां
बड़ी बचकानी
हैं, बहुत "चाइल्डिश'
हैं। वे
सारी लड़ाइयां
तत्व-चिंतन की
जो मनुष्य
जाति ने अब तक
बड़े-से-बड़े
दार्शनिकों
के द्वारा की
हैं, वे
बच्चों के
छोटे-से सवाल
में समाहित हो
जाती है कि
मुर्गी पहले होती
है कि अंडा।
बड़े-से-बड़ा
तत्व-चिंतन, बड़े-से-बड़ी "फिलासफी' इस छोटे-से
मुद्दे पर लड़ती
रही है। जो
जानते हैं, वे कहेंगे
कि मुर्गी और
अंडा दो नहीं
हैं; इसलिए
कौन पहले है
यह सिर्फ
नासमझ पूछ
सकता है और
बड़ा नासमझ
उत्तर दे सकता
है।
अगर हम
ठीक से समझें
तो अंडे का
मतलब क्या
होता है? अंडे
का मतलब क्या
होता है? अंडे
का कुल मतलब
छिपी हुई
मुर्गी होता
है। मुर्गी का
क्या मतलब
होता है? छिपा
अंडा होता है।
अंडा और
मुर्गी दो
चीजें अगर
होतीं, तो
कौन "प्रिसीड'
करता है यह
सवाल सार्थक
था। कौन पहले
है, यह
सार्थक था
सवाल, अगर
अंडा और
मुर्गी दो
चीजें होतीं।अंडा
और मुर्गी एक
ही चीज है। या
एक ही चीज को
हमारे देखने
के दो ढंग
हैं। या एक ही
चीज की दो
क्षणों में
दिखाई पड़ने की
स्थितियां
हैं! लेकिन दो
चीजें नहीं
हैं। अंडा और
मुर्गी एक ही
चीज की दो "फेज'
हैं, एक
ही चीज के
प्रगट होने के
दो ढंग हैं।
बीज और वृक्ष
दो चीजें नहीं
हैं। जन्म और
मृत्यु दो
चीजें नहीं
हैं। एक ही
चीज के होने
के दो ढंग हैं,
या, या
हो सकता है कि
हम पूरी तरह
देख नहीं पाते
इसलिए हम दो
में तोड़कर
देखते हैं।
दृष्टि हमारे
पास छोटी है।
जैसे समझ लें
कि एक बड़ा
कमरा हो, एक
बड़ा भवन हो, एक छोटा-सा
छेद हो, और
उस छेद में
मैं आंख गड़ाए
देखता हूं।
पूरा कमरा
दिखाई नहीं
पड़ता। छेद के
पहले मुझे एक
कुर्सी दिखाई
पड़ती है। फिर
मैं आंख को और
घुमाता हूं, मुझे तीसरी
कुर्सी दिखाई
पड़ती है। मैं
पूछ सकता हूं
कि इन तीन
कुर्सियों
में पहले कौन
है? लेकिन
कमरे में, कमरे
के भीतर जाकर
मैं क्या
कहूंगा? कौन
पहले है, सब
"साइमलटेनियस'
हैं। वह
तीनों कुर्सियां
एकसाथ हैं।
लेकिन जिस छेद
से मैंने देखा
था वहां पहले
एक कुर्सी
दिखाई पड़ी, फिर दूसरी
कुर्सी दिखाई
पड़ी, फिर
तीसरी कुर्सी
दिखाई पड़ी।
पहले कौन था? कमरे के
भीतर जाकर मैं
पूछूंगा
कि पहले कौन
है? मैं
कहूंगा, तीनों
कुर्सियां
साथ हैं।
एक लेबोरेट्री
आक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी
में, जिसने
अभी इस सदी की
श्रेष्ठतम
खोजें की हैं।
मैं मानता हूं
कि भविष्य के
लिए सबसे बड़ा
काम उस
प्रयोगशाला
में हो रहा
है। उस
प्रयोगशाला का
नाम है, "डिलाबार लेबोरेट्री'। एक बड़ी
चमत्कारपूर्ण
घटना जो घटी
है, वह यह
है कि एक कली
का फोटोग्राफ
लेते वक्त कली
का फोटो नहीं
आया, फूल
का फोटो आ
गया। बहुत
"सेंसिटिव
फिल्म' से।
अब तक जो सबसे
ज्यादा
संवेदनशील
फिल्म बन सकी
है, उस
फिल्म के
सामने कली
रखने से गुलाब
की--थी तो कली, फोटो आ गया
गुलाब के फूल
का। बड़ी
कठिनाई हो गई।
क्योंकि अभी
कली फूल हुई
नहीं है, होगी।
तब बड़ी
मुश्किल की
बात हो गई। जो
कली अभी फूल
हुई नहीं है, उसका फोटो
कैसे आ गया! या
तो किसी बहुत
रहस्यपूर्ण
जगत में वह
फूल अभी भी हो,
चूंकि यह
सिर्फ हमें
दिखाई नहीं पड़
रही है और
कैमरा उसे देख
पाया जो हम
नहीं देख पा
रहे। शायद
कैमरा कमरे के
भीतर जाकर देख
पाया, जहां
कली और फूल "साइमल्टेनियस'
हैं। हमारी
आंख कमरे के
बाहर से देखती
थी जहां पहले
कली है, फिर
फूल है। लेकिन,
शायद कोई
भूल हो गई हो।
शायद इस कैमरे
की फिल्म पहले
ही "एक्सपोज'
हो गई हो।
हजार बातें
हैं, किसी
फूल का फोटो
पहले आ गया है,
भूल-चूक हो
गई हो। कुछ
"केमिकल' गड़बड़
हो गई हो। तो
प्रतीक्षा
करनी पड़ी कि
जब तक कली फूल
न बन जाए। फिर
वह कली फूल बन
गई। और तब बहुत
मुश्किल हो
गई! क्योंकि
जो वह फूल बनी,
उसका फोटो
ही पहले पकड़ा
गया था। वह
फोटो कोई
"केमिकल' भूल
न थी, वह
इसी फूल का
फोटो है। "डिलाबर
लेबोरेट्री'
के छोटे-से
कमरे में घटी
यह घटना बड़ी
मुश्किल में
डाल देती है।
इसका
मतलब यह हुआ
कि हमारे
देखने के ढंग
की वजह से एक
दफा हमें अंडा
दिखाई पड़ता है, फिर एक दफे
मुर्गी दिखाई
पड़ती है।
लेकिन, अगर
कृष्ण जैसी
आंख हो देखने
की हमारे पास,
तो मुर्गी
अंडा क्या
एकसाथ नहीं
दिखाई पड़ सकते?
हमें बड़ी
मुश्किल
पड़ेगी।
क्योंकि यह
तर्क के बाहर
का मामला हो
गया। लेकिन, विज्ञान
बहुत से तर्क
के बाहर के
मामलों को पिछले
पच्चीस सालों
में स्वीकार
कर रहा है।
एक और
आपको उदाहरण
दूं, उससे
खयाल आ सके।
ताकि ऐसा न
लगे कि मैं
कोई अवैज्ञानिक
बात कह रहा
हूं। आज से
पचास साल तक कभी
कोई सोच भी
नहीं सकता था,
लेकिन इधर
पचास वर्षों
में बड़ी
मुश्किल पड़ी। जैसे
ही हम अणु का
विस्फोट किए
और "इलेक्ट्रांस'
की खोज किए,
वैसे एक बड़ी
कठिनाई आई जो
मनुष्य जाति
के सामने पहली
दफे आई। और वह
यह थी कि इलेक्ट्रान
को हम क्या
कहें? क्योंकि
कभी "इलेक्ट्रान'
का फोटो ऐसा
आता है जैसे इलेक्ट्रान
"वेव' है, लहर है; और
कभी ऐसा आता
है जैसे
"पार्टिकल' है, कण
है। और कभी एक
ही साथ दो
कैमरे फोटो
लेते हैं, तो
एक कैमरे में
फोटो आता है,
"वेव' का
और दूसरे
कैमरे में
फोटो आता है
कण का। अब कण
और लहर में
बड़ा फर्क है।
इसको क्या
कहें? इसको
लहर कहें? अगर
लहर कहते हैं
तो यह कण नहीं
हो सकता। अगर
कण कहते हैं
तो यह लहर
नहीं हो सकता।
इसलिए अंग्रेजी
में एक नया
शब्द ईजाद हुआ
जो अभी दुनिया
की दूसरी भाषा
में नहीं हुआ,
क्योंकि
दुनिया की
दूसरी भाषाएं
उस गहराई पर नहीं
पहुंचीं,
वह है--"क्वांटा'। एक नया
शब्द बनाना
पड़ा। "क्वांटा'
का मतलब है,
"बोथ साइमल्टेनियसली,
वेव एंड
पार्टिकल'।
मगर "क्वांटा'
बड़ा
"मिस्टीरियस'
मामला है। "क्वांटा' का मतलब
होता है, दोनों
एकसाथ--लहर भी
और कण भी। हां,
मुर्गी भी
और अंडा भी--"क्वांटा'।
तो
सार्त्र से
मैं राजी नहीं
हूं, न
सार्त्र के
विरोधियों से
राजी हूं। जो
कहते हैं कि
अस्तित्व
पहले, फिर
आत्मा; जो
कहते हैं
आत्मा पहले, फिर
अस्तित्व, उनमें
से किसी से
मैं राजी नहीं
हूं। मेरा
मानना है, अस्तित्व
और आत्मा एक
ही सत्य को
देखने के दो ढंग।
हमारी कमजोर
नजर की वजह से
हम दो में तोड़कर
देखते हैं।
अस्तित्व ही
आत्मा है।
"इसेंस इज
एक्ज़िस्टेंस,
एक्ज़िस्टेंस इज
इसेंस'।
अस्तित्व
आत्मा है, आत्मा
अस्तित्व है।
ये दो चीजें
नहीं हैं। इसलिए
जब हम कहते
हैं कि आत्मा
का अस्तित्व
है, तो हम
गलत भाषा का
उपयोग करते
हैं। जब हम
कहते हैं, परमात्मा
का अस्तित्व
है, तब भी
हम गलत भाषा
का उपयोग करते
हैं। क्योंकि
परमात्मा का
अस्तित्व है,
इसका मतलब
यह हुआ कि
परमात्मा कुछ
है और उसका अस्तित्व
है।
नहीं, अगर हम ठीक
से समझें तो
हम कहेंगे, परमात्मा
अस्तित्व है।
परमात्मा का
अस्तित्व है,
गलत है। फूल
का अस्तित्व
है, क्योंकि
कल फूल का
अस्तित्व
नहीं भी हो
जाएगा। लेकिन
परमात्मा का
अस्तित्व कब
नहीं होगा? जो कभी
अनस्तित्व
में नहीं जा
सकता, उसका
अस्तित्व
नहीं कहा जा
सकता। हम कह
सकते हैं कि
मेरा
अस्तित्व है।
क्योंकि कल
मेरा अस्तित्व
नहीं होगा।
लेकिन
परमात्मा का
अस्तित्व है,
ऐसा नहीं कह
सकते।
क्योंकि ऐसा
कभी भी नहीं
होगा जब उसका
अस्तित्व न
हो। इसलिए
परमात्मा का अस्तित्व
है, यह
भाषा की भूल
है। "गॉड एक्जिस्ट्स',
यह गलत बात
है। परमात्मा अस्तित्व
है, "गॉड इज एक्ज?िस्टेंस',
यह ठीक है।
लेकिन
भाषा हमेशा
दिक्कत में
डालती है।
क्योंकि जब हम
कहते हैं, "गॉड इज एक्जिस्टेंस',
परमात्मा
का अस्तित्व
"है', तो वह
है शब्द भी
बहुत झंझट का
है। क्योंकि
परमात्मा इस
तरफ, अस्तित्व
उस तरफ, और
इससे, "है'
से "रिलेटेड'। इधर
परमात्मा, उधर
अस्तित्व, और
"है' से
जुड़ा हुआ।
इसलिए फिर
इसमें एक शब्द
और गिराना
पड़ेगा। "गॉड इज एक्जिस्टेंस',
ऐसा न कहकर
कहना पड़ेगा, "गॉड मीन्स
इजनेस'।
जुड़ा नहीं, अर्थ करना
पड़ेगा।
परमात्मा का
अर्थ है, होना।
परमात्मा का
अर्थ है, अस्तित्व।
है शब्द भी
पुनरुक्ति
है। इतना भी
हम कहें कि
ईश्वर है, तो
पुनरुक्ति
है। क्योंकि
"है' का
मतलब भी ईश्वर
होता है, और
ईश्वर का अर्थ
भी "है' होता
है। जो "है', उसका नाम
ईश्वर है।
इसलिए कठिनाई
है बड़ी भाषा की।
और जैसे उसमें
भीतर प्रवेश
करते हैं, इसलिए
जो जानता है
वह कहता है, छोड़ो झंझट, चुप
रह जाओ, कौन
कहे कि ईश्वर
है? जो कहे
वह अलग हो जाए!
किसको कहो कि
ईश्वर है? जिसको
कहो, वह "आब्जेक्ट'
बन जाए! तो
चुप ही रह
जाओ।
एक झेन
फकीर के पास
कोई गया और
उससे पूछता है, ईश्वर के
संबंध में कुछ
कहो। तो वह
हंसता है, डोलता
है। फिर वह
पूछता है, कुछ
कहो भी, हंसने-डोलने
से क्या होगा?
तो वह और
जोर से नाचता
है। वह कहता
है, क्या
पागल तो नहीं
हो? हम
कहते हैं, कुछ
कहो! तो वह
फकीर कहता है,
मैं कहता
हूं लेकिन तुम
सुनते नहीं।
तो उस आदमी ने
कहा कि गजब की
बातें कह रहे
हैं, खुद
पागल हो, मुझको
भी पागल बनाते
हो! एक शब्द
तुम बोले
नहीं। तो उस
फकीर ने कहा, अगर मैं
बोलूंगा तो
गलती हो
जाएगी। अगर
नहीं बोलने से
नहीं समझ सकते
हो तो जाओ, वहां
समझो जहां बोलकर
समझाया जा रहा
है। लेकिन बोलकर
समझाने से परम
तत्व में गलती
हो ही जाएगी।
इसलिए हम बोल
सकते हैं
आखिरी क्षण तक,
लेकिन
बिलकुल आखिरी
क्षण पर बोलना
रुक जाएगा।
उसके बाद चुप
रह जाना
पड़ेगा।
विट्गिंस्टीन
ने अपने सारे
जीवन के बाद
एक छोटा-सा
वाक्य लिखा
है। और वह
वाक्य बहुत
अदभुत है।
उसने लिखा है, "दैट ह्विच
कैन नाट बी
सेड, मस्ट नाट बी सेड'। जो नहीं
कहा जा सकता, उसे कहना ही
नहीं चाहिए।
लेकिन, इतना
तो कहना ही
पड़ता है। अब विट्गिंस्टीन
मर गया, नहीं
तो उससे मैं
कहता, इतना
तो कहना ही
पड़ता है कि जो
नहीं कहा जा
सकता उसे नहीं
नहीं कहना
चाहिए। और
इससे क्या फर्क
पड़ता है कि
कितना कहते
हैं! कुछ तो
कहना ही पड़ता
है। हां, उसने
पहली किताब
में कहा है, पहली किताब
में "टैक्टेसस'
में उसने यह
बात कही है कि
जो कहा जाएगा
वह भाषा में
ही कहा जाएगा।
यह थोड़ी दूर
तक ठीक है। क्योंकि
अगर "गेस्चर' को भी कहना
समझें, तो
वह भी एक भाषा
है। एक गूंगा
हाथ उठाकर कह
देता है--पानी
पीना है। वह
भी भाषा है, गूंगे की
भाषा है। इसलिए
हम तो कहते ही
रहे हैं कि
परमात्मा जो है
वह गूंगे का
गुड़ है। लेकिन
उसका मतलब यही
है कि गूंगे
की भाषा में
कहना पड़ेगा।
लेकिन कहेंगे
जो भी हम किसी
भी ढंग से, नाच
कर कहें--मौन
रहकर कहें तो
भी हम कह रहे
हैं--और इसलिए
जो है, वह
हमारे सब कहने
के पार छूट
जाएगा। इसलिए
लाओत्से ने विट्गिंस्टीन
से बहुत गहरी
बात कही है।
लाओत्से ने
कहा, सत्य
कहा कि असत्य
हो जाता है, इस इतना ही
कहा जा सकता
है। इसलिए जो
जानते हैं वे
चुप रह जाते
हैं।
"भगवान
श्री, आप
बहुधा कहते
हैं कि मैं जब
पूर्ण होता है
तब वह सर्व
अर्थात "न-मैं'
हो जाता है।
उपर्युक्त
कथन का अभी आप
खंडन कर रहे हैं।
इसमें लगता है
कि केवल
शब्दों की "इम्फेसिस'
भर बदल रहे
हैं आप। पूर्ण
मैं और न-मैं
क्या एक नहीं
है?'
कोई
अंतर नहीं है।
क्योंकि
पूर्ण मैं का
मतलब ही इतना
होता है कि तू
नहीं बचा अब
बाहर, सब तू
मैं में समा
गए और जब सब तू
मैं में समा
जाएंगे तो
इसको मैं कहने
का कोई अर्थ
नहीं रह जाता।
इससे उलटा भी
कह सकते हैं
कि हमारा मैं
तू में समा
गया, लेकिन
जब मेरा मैं
तू में समा
गया, तो तू
को तू कहने का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता। इसलिए
चाहे मैं
पूर्ण कहें हम,
चाहे मैं
शून्य कहें हम,
ये दोनों एक
ही बात को
कहने के दो
ढंग हैं। मैं पूर्ण
हो जाए तो
शून्य हो जाता
है, मैं
शून्य हो जाए
तो पूर्ण हो
जाता है। कहां
से हम कहते
हैं, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
परम सत्य को
अगर हम हां
कहें, तो
भी ठीक है, न
कहें तो भी
ठीक है।
क्योंकि परम
सत्य के संबंध
में हां के
भीतर न
सम्मिलित
होगी और न के
भीतर हां
सम्मिलित
होगा। इसलिए
परम सत्य के
संबंध में हम
कुछ न भी कहें
तो भी ठीक है, और बहुत कुछ
कहें, कहते
रहें अनंत काल
तक, तो भी
पूरा नहीं
होता। और चुप
रह जाएं और
कुछ भी न कहें,
तो भी पूरा
हो जाता है।
सत्य
को, जो है, उसे जब भी हम
किसी दृष्टि
से देखते हैं
तब कठिनाई में
पड़ते हैं। और
हम सब दृष्टि
से देखते हैं।
हम कहीं खड़े
होकर देखते
हैं। कोई जगह
से देखते हैं।
कोई धारणा से
देखते हैं।
कोई भाव से
देखते हैं।
कोई विचार से
देखते हैं।
कहीं-न-कहीं
कोई "कन्सेप्शन'
है हमारा, उससे खड़े
होकर हम देखते
हैं। जब तक
हमारी कोई
धारण है, कोई
दृष्टि है, तब तक जिस
सत्य को हम
देखेंगे वह
अपूर्ण होगा,
अधूरा होगा,
खंड होगा, अंश होगा।
इतना भी हम
जानें कि वह
अंश है, खंड
है, तो भी
ठीक है। लेकिन
हर दृष्टि
घोषणा करती है
कि मैं पूर्ण
हूं। और जब
दृष्टि घोषणा
करती है कि
मैं पूर्ण हूं,
और जब
दृष्टि कहती
है कि मैं
दर्शन हूं, तब बड़ी
भ्रांति खड़ी
हो जाती है।
दृष्टि इतना ही
कहे कि मैं
दृष्टि हूं तब
कोई खतरा नहीं
है।
दर्शन
तो उसी दिन
उपलब्ध होगा
जिस दिन कोई
दृष्टि न
होगी। आप किसी
दृष्टि से न
देख रहे होंगे, आप किसी जग
से न देख रहे
होंगे, आप
सब जगह से देख
रहे होंगे, एक साथ सब
जगह हो गए
होंगे, उस
दिन दर्शन
उपलब्ध होगा।
उस दर्शन को
कहने के दो
ढंग हो सकते
हैं। दो ही
ढंग हमारे पास
हैं--निषेध के
या विधेय के।
या तो हम
निषेध का उपयोग
करें, जैसा
बुद्ध ने
उपयोग किया और
कहा कि
निर्वाण है, शून्य है; या, जैसा
शंकर ने उपयोग
किया और कहा
कि ब्रह्म है,
पूर्ण है।
और मजा यह है
कि शंकर और
बुद्ध दोनों
विपरीत मालूम
पड़ते हैं और
दोनों बिलकुल
एक बात कहे
चले जाते हैं।
दोनों एक ही
बात कहते हैं,
सिर्फ उनकी
भाषा का मोह
भिन्न है।
शंकर विधायक
शब्द को पसंद
करते हैं, वह
कहते हैं, ब्रह्म
है। बुद्ध
नकारात्मक
शब्द को पसंद
करते हैं, वह
कहते हैं, शून्य
है।
अगर
मुझसे पूछें
कि मैं क्या
कहूं, तो
मैं कहूंगा कि
शून्य का एक
नाम ब्रह्म है
और ब्रह्म का
एक नाम शून्य
है। और जहां
बुद्ध और शंकर
दोनों मिल
जाते हैं, वहां
भाषा खत्म हो
जाती है। वहां
से असली बात शुरू
होती है।
"भगवान
श्री, आपने
यह तो स्वीकारा
कि पूर्ण मैं
और न-मैं में
कोई फर्क नहीं
है, लेकिन
इसके पहले आप
अपनी चर्चा
में कह चुके
हैं कि साधना
पूर्ण मैं की
दिशा में ले
जाती है। और
आपने साधना और
उपासना में
बहुत फर्क
किया; लेकिन
बाद में आप
दोनों को एक
मान रहे हैं।'
नहीं, मैंने यह
नहीं कहा कि
साधना पूर्ण
मैं की दिशा
में ले जाती
है। मैंने कहा,
साधना मैं
की दिशा में
ले जाती है।
अगर साधना पूर्ण
मैं की दिशा
में ले जाए, तो फिर
उपासना में
कोई फर्क नहीं
है। लेकिन साधना
नहीं ले जा
पाती, और
इसलिए साधक को
एक दिन मैं को
भी खोना पड़ता
है। वह मैं की
ही दिशा में
ले जाती है।
क्योंकि पूर्ण
मैं तभी हो
सकता है जब
मैं खो जाए।
इसलिए साधक को
एक छलांग और
लगानी पड़ेगी
अंत में। एक
साधना करके वह
मैं को पाएगा,
आत्मा को
पाएगा; उसे
अंत में आत्मा
को भी खोने की
छलांग लगानी
पड़ेगी। और अगर
वह नहीं लगाता,
तो वह एक
कदम पहले रुक
जाएगा। उपासक
जो छलांग पहले
ही दिन लगा
लेता है, वह
साधक को अंतिम
दिन लगानी
पड़ेगी--वह
मैंने पीछे
बात की है।
साधक, साधना,
प्रयास एक
जगह ले जाएंगे
जहां मैं बच जाऊंगा और
सब खो जाएगा।
अब इस मैं को
भी खोना
पड़ेगा। उपासक
पहले ही क्षण
से मैं को
खोने की बात
करता है। इसलिए
अंत में उसके
पास खोने को
कुछ नहीं
बचता। खोने को
ही नहीं बचता।
तो जो
काम साधक को
अंत में करना
पड़ता है वह
उपासक को
प्रथम करना
पड़ता है। और
मेरी अपनी समझ
यह है कि जो काम
अंत में करना
ही हो, उसे
प्रथम ही कर
लेना उचित है।
इतनी देर तक
इस झंझट को
ढोना उचित
नहीं है। जिस
बोझ को फेंक ही
देना हो, और
पहाड़ के अंतिम
शिखर पर जहां
जाकर सब बोझ
छोड़ देना हो, इसको इतनी
पहाड़ी तक कंधे
पर ढोने का भी
कोई प्रयोजन
नहीं है।
उपासक यह कहता
है कि तुम
पहाड़ के नीचे
ही कंधे का
बोझ रख दो, क्योंकि
आखिरी शिखर पर
पहुंचने के
पहले यह बोझ
छोड़ना पड़ेगा।
उस ऊंचाई पर
यह बोझ नहीं
ले जाया जा
सकता है।
लेकिन हम कहते
हैं कि नहीं, जब तक ले
जाया जा सकता
है तब तक हम ले
चलें, जब
आएगा मौका तब
देख लेंगे। तो
हम पूरा पहाड़
बोझ ढोते हैं।
आखिरी शिखर के
पहले तो छोड़ना
पड़ता है।
उपासक नीचे ही
छोड़ आता है, वह इतने
ढोने से बच
जाता है। इतना
फर्क है। आखिरी
शिखर पर फर्क
नहीं रह
जाएगा। लेकिन,
जब आखिरी
शिखर पर इतनी
दूर तक खींचा
गया बोझ छोड़ने
का क्षण आएगा,
तब उपासक
मजे से बढ़ता
रहेगा और साधक
अड़चन में
पड़ेगा।
क्योंकि जिसे
इतनी दूर तक
खींचा, उसके
साथ राग और
मोह तो बन ही
जाता है। और
मन करेगा कि
पहाड़ चढ़ कर आए,
इतनी दूर तक
खींचा, अब
अंत में छोड़े!
हां, रोएगा
कि इसको अगर
ले जा सकें तो
अच्छा है। या सोचेगा
कि यहीं टिक
जाएं, थोड़ी
दूर न भी गए तो
क्या हर्ज है,
अपने बोझ के
साथ ही रुक
जाएं। यह
समस्या उसके सामने
खड़ी होगी। यह
उपासक के
सामने पहले
दिन ही खड़ी
होगी, नीचे
ही पहाड़ के।
उसकी भी
कठिनाई तो है।
कठिनाई यह है
कि साधक बोझ
को ले जाता
दिखाई पड़ेगा,
और उसको
लगेगा कि कुछ
लोग तो लिए जा
रहे हैं और मुझे
यहीं छोड़ना पड़
रहा है। कहीं
ऐसा न हो कि ये
शिखर पर साथ
लिए पहुंच
जाएं और मैं
गरीब यहीं छोड़
जाऊं! और आखिर में
पता चले कि यह
तो पहुंच गए
बोझ के साथ और
मैं खाली हाथ
पहुंच गया।
इसलिए
साधक की
कठिनाई अंत
में है, उपासक
की कठिनाई
प्रथम है। अब
नहीं कहा जा
सकता, "टाइप'
हैं दुनिया
में। किसी को
अच्छा लग सकता
है एक, किसी
को अच्छा लग
सकता है
दूसरा। लेकिन
कृष्ण को
समझते वक्त
मैं आपसे कहना
चाहता हूं कि
कृष्ण का जगत
उपासक का है।
"भगवान
श्री, आप
जो सात-आठ साल
से
धर्मचक्र-प्रवर्तन
कर रहे हैं, उसका
केंद्रीय
तत्व ध्यान
मालूम पड़ता
है। तो कृपया
बताएं कि
ध्यान और
उपासना में
क्या फर्क है
और आपके
धर्मचक्र-प्रवर्तन
का केंद्रीय
सूत्र ध्यान
और साधना है, कि उपासना
है?'
मेरे
लिए कोई फर्क
नहीं है। मेरे
लिए कोई भी
फर्क नहीं है।
मेरे लिए
शब्दों से कोई
भी फर्क नहीं
पड़ता। सत्य का
सवाल है। मैं
ध्यान में भी
उसी सत्य को
कहता हूं, उसी सत्य को
प्रार्थना
में भी कह
देता हूं; उसी
सत्य को साधना
में भी कहता
हूं, उसी
सत्य को
उपासना में भी
कह देता हूं।
मेरे लिए फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन कृष्ण
के संदर्भ में
आप पूछते हैं,
तब फर्क है।
महावीर के
संदर्भ में
पूछेंगे, तब
फर्क है।
महावीर के लिए
योग शब्द
उपासना नहीं
है। महावीर
उपासना शब्द
के लिए राजी
नहीं होंगे।
महावीर साधना
के लिए राजी
होंगे, बुद्ध
साधना के लिए
राजी होंगे। "एम्फेटिकली'
उनका जोर
साधना पर
होगा।
क्राइस्ट
उपासना के लिए
राजी होंगे, कृष्ण
उपासना के लिए
राजी होंगे, मुहम्मद
उपासना के लिए
राजी होंगे।
उनका "एम्फेटिक'
शब्द
उपासना होगा।
मेरे
लिए कोई झंझट
नहीं है। मेरे
लिए कोई कठिनाई
नहीं है।
इसलिए बहुत
बार ऐसा लगेगा
कि कल मैंने
जो कहा, आज
उससे उलटा कह
रहा हूं। मैं
बिलकुल मजे से
कह सकता हूं।
मुझे कोई अंतर
नहीं पड़ता।
अभी कृष्ण पर
बोल रहा हूं, इसलिए
उपासना की बात
कर रहा हूं; पिछले वर्ष
महावीर पर बोल
रहा था, इसलिए
साधना की बात
कर रहा था।
अगले वर्ष
क्राइस्ट पर
बोलूंगा तो
कुछ और बात
करूंगा। मेरे
लिए चूंकि
जैसा सत्य
दिखाई पड़ता है,
उस सत्य के
दिखाई पड़ने
में अब मेरे
लिए कोई फर्क
नहीं रह गया
है कि कौन के
लिए क्या फर्क
है। लेकिन जब
आप कृष्ण को
समझने जाते
हैं, तब
मैं कृष्ण पर
साधना शब्द
रखूं, तो
कृष्ण के साथ
अन्याय होगा।
वह कृष्ण का
शब्द नहीं है।
जैसे महावीर
के ऊपर मैं
नाचने को थोप
दूं...मेरे लिए
कोई फर्क नहीं
है; महावीर
शांत खड़े हैं
एक पहाड़ की
कंदरा में, वे जिस आनंद
में हैं उस
आनंद में, और
कृष्ण एक
वृक्ष के नीचे
बांसुरी बजा
रहे हैं, उस
आनंद में, मेरे
लिए कोई फर्क
नहीं
है...लेकिन अगर
कोई कहे कि
महावीर और
कृष्ण के लिए
फर्क नहीं है,
तो मैं राजी
नहीं होऊंगा।
महावीर नाचने
को राजी न
होंगे। कृष्ण
महावीर की तरह
आंख बंद करके
वृक्ष के नीचे
नग्न खड़े होने
को राजी न
होंगे। मेरे
लिए दिक्कत
नहीं है, मेरे
लिए कठिनाई
नहीं है।
इसलिए जब आप
महावीर को
समझने की
मुझसे बात
करेंगे, तो
मैं न कह
सकूंगा कि
महावीर नाचते
हैं। इसलिए जब
आप महावीर को
समझने की
मुझसे बात
करेंगे, तो
मैं न कह
सकूंगा कि
महावीर नाचते
हैं। मैं कैसे
कह सकूंगा? यह महावीर
के साथ अन्याय
हो जाएगा। आप
कृष्ण को समझ
रहे हैं तो
मैं न कह
सकूंगा कि
कृष्ण आंख बंद
करके और वृक्ष
के नीचे ध्यान
करते हैं। यह
मैं न कह
सकूंगा।
वृक्ष के नीचे
कृष्ण ने सदा नाच
किया है, ध्यान
कभी नहीं
किया।
कृष्ण
ने कभी ध्यान
ही किया है, इसकी भी कोई
खबर नहीं है।
महावीर कभी नाचें, साधना
के पहले भी, वह भी नहीं
है संभव। तो
जब मैं कृष्ण
की बात कर रहा
हूं, इसलिए
उपासना शब्द
पर जोर दे रहा
हूं। मेरे लिए
अंतर नहीं है।
मेरे लिए कोई
अंतर नहीं है,
मेरे लिए तो
साधना भी एक
"टाइप' के
लोगों के लिए
जरूरी है, उपासना
भी एक "टाइप' के लोगों के
लिए जरूरी है।
और मैं दोनों
में सत्य को
देखता हूं और
दोनों का सत्य
मैंने आपसे
कहा कि दोनों
की अड़चन है, दोनों की
सुविधा है।
लेकिन फिर भी
दोनों को ठीक
से साफ-साफ
समझ लेना आपके
लिए उपयोगी
है। मेरे लिए
जरा भी उपयोगी
नहीं है दोनों
में फासला
करना। आपके
लिए तो निर्णय
करना पड़ेगा कि
आप साधक की
यात्रा पर जाते
हैं कि उपासक
की यात्रा पर
जाते हैं। मेरे
लिए कोई
यात्रा नहीं
है, मुझे
किसी यात्रा
पर जाना नहीं
है। मुझे इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है कि
मुझे कोई
उपासक समझे कि
साधक समझे, कि दोनों न
समझे, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता है। आपके
लिए मैं दोनों
चीजों को
साफ-साफ
अलग-अलग कर
देना चाहता हूं,
क्योंकि
आपके लिए तो
निर्णय लेना
होगा। आपको तो
तय करना होगा
कि आप किस ढंग
के आदमी हैं।
आपके लिए क्या
निकट होगा। आप
उपासना के
निकट से पहुंच
पाएंगे कि
साधना के निकट
से पहुंच
पाएंगे।
जिन्हें पहुंचना
है उन्हें तय
करना पड़ेगा, जिन्हें
जाना है
उन्हें तय
करना पड़ेगा।
जो जहां खड़े
हैं वहीं
पहुंचे हुए
समझ रहे हैं, उनके लिए
कोई सवाल नहीं
है। अगर किसी
दिन आपको यह
समझ में आ जाए
कि न कहीं
जाना है, न
कहीं पहुंचना
है, तब न
उपासना शब्द
सार्थक है, न साधना
शब्द सार्थक
है। तब आप
दोनों पर हंस
सकते हैं और
कहते हैं कि
दोनों तरह की
बातें पागलपन
की होंगी, क्योंकि
हम तो वहीं
खड़े हैं जहां
हैं। जहां पहुंचना
है वहां तो हम
हैं ही।
एक झेन
फकीर एक गुफा
के बाहर सोता
रहता है। और
जिस गुफा के
बाहर वह सोया
है वह तीर्थयात्रियों
का मार्ग है, जहां से
पहाड़ पर
तीर्थयात्री
जाते हैं। जो
भी वहां से
गुजरता है, उस फकीर को
सोया देखकर
कहता है कि
अरे, तुम
यहां क्यों
पड़े हो? तीर्थयात्रा
पर नहीं चलना
है? तो वह
फकीर कहता है,
तुम जहां जा
रहे हो, हम
वहां पहुंच गए
हैं। फिर
लौटता हुआ कोई
उससे पूछता है
कि अरे, तुम
यहीं पड़े हुए
हो! ऊपर तक
नहीं गए? तो
वह कहता है, तुम जहां से
आ रहे हो, हम
वहीं रहते
हैं। और वह
वहीं पड़ा रहता
है। तो वह न
कभी तीर्थ
करने गया, न
कभी जाएगा, और यात्री
अपना सिर
ठोंककर आगे बढ़
जाते हैं कि
पागल है!
लेकिन वह कहता
है कि तुम
जहां जा रहे हो,
हम वहां हैं
ही। तुम जहां
से आ रहे हो, हम वहां सदा
से हैं।
ऐसे
आदमी को न
साधना का अर्थ
है, न उपासना
का अर्थ है।
तो मैं कभी
साधना की बात करता
हूं, कभी
उपासना की, कभी दोनों
के पागलपन की
भी बात
करूंगा।
लेकिन अगर आप
ठीक-ठीक
समझेंगे, तो
विरोधाभास
दिखाई नहीं
पड़ेगा, विरोधाभास
है नहीं।
"एक
जगह और
विरोधाभास लग
गया। आपने कहा
कि कृष्ण जन्म
से ही सिद्ध
हैं और महावीर
साधक हैं। जबकि
कश्मीर के
शिविर में
आपने महावीर
के बारे में
कहा कि
उन्होंने
पिछले जन्मों
में ही अपनी
सारी साधना
पूरी कर ली
थी। इस जन्म
में उन्हें
कुछ भी साधना
नहीं करनी थी,
केवल
अभिव्यक्ति
करनी थी। तब
महावीर भी
जन्म से ही
सिद्ध हुए, कृष्ण जैसे
ही हुए।'
नहीं, ऐसा मैंने
नहीं कहा।
मैंने इतना ही
कहा है कि महावीर
जो भी हुए हैं,
वह होकर हुए
हैं। चाहे वह
पिछले जन्म
में साधना की
हो, या
उससे जन्म में
साधना की हो, इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। वह
जो भी हुए हैं,
साधना से
हुए हैं। उनकी
सिद्धावस्था
के पहले साधना
की यात्रा है।
कृष्ण किसी
जन्म में कभी
भी साधना नहीं
किए।
"सीधे पूर्ण हो
गए?'
हमें
कठिनाई लगती
है। हमें
कठिनाई लगती
है कि सीधे
पूर्ण हो गए? हमें लगता
है कि आड़े-तिरछे
चलकर ही पूर्ण
हो सकते हैं।
हमें लगता है...वह
वही फकीर का
सवाल, वह
फकीर यही तो
कह रहा है।
उससे आने-जाने
वाले लोग कहें
कि अच्छा, तुम
यहीं पड़े-पड़े
पहुंच गए! हम
तीर्थ तक चलकर
पहुंचे, तुम
यहीं पड़े
पहुंच गए! ऐसा
हो नहीं सकता।
लेकिन वह फकीर
यह कहता है कि
अगर तुम यहीं
पड़े-पड़े नहीं
पहुंच सकते, तो ऊपर चढ़कर
भी कैसे पहुंच
जाओगे! जहां
पहुंचना है, वह कोई ऐसी
चीज नहीं है
जिसके लिए
यात्रा जरूरी
हो। लेकिन
"टाइप' है
कुछ, जो
बिना यात्रा
किए नहीं
पहुंच सकते।
जिन्हें अपने
घर भी आना हो
तो दस-पांच
दूसरों के घर
के दरवाजे खटखटाए
बिना नहीं आ
सकते। अपने घर
का भी जिन्हें
पता लगाना हो,
तो दूसरे से
पूछकर ही आ
सकते हैं। यह
"टाइप' का
फर्क है।
महावीर और
कृष्ण के
"टाइप' का
फर्क है।
महावीर बिना
साधना किए
पहुंचेंगे ही
नहीं। असल में
महावीर राजी
भी न होंगे, वह भी समझ
लेना चाहिए।
अगर
महावीर को कोई
कहे कि बिना
साधना के यह
रखा-रखाया
मिलता है, तो महावीर
कहेंगे, क्षमा
करें, ऐसा
हम न लेंगे, क्योंकि
जिसको अर्जित
नहीं किया, उसको ले
लेना चोरी है।
महावीर
कहेंगे कि
जिसको अर्जित
नहीं किया, जिसके लिए
साधा नहीं, उपाय नहीं
किया, उसे
ले लेना चोरी
है। हम न
लेंगे। अगर
महावीर को
मोक्ष कोई दान
में मिलता हो,
ऐसा रास्ते
के किनारे पड़ा
हुआ मिलता हो,
तो महावीर
को जैसा मैं
समझता हूं, वह फिर ठुकराकर
आगे चले
जाएंगे, वह
कहेंगे ऐसा हम
न लेंगे। हम
तो पाएंगे, अर्जित
करेंगे, खोजेंगे।
जिस दिन
मिलेगा, उस
दिन लेंगे।
अधिकारी बनें
तो लेंगे।
कृष्ण कहेंगे
कि जिसको
पाने-खोजने से
मिलता हो, उसको
पाकर भी क्या
करेंगे!
क्योंकि जो
पाने से नहीं
मिल सकता, वह
खो भी सकता
है। हम तो उसी
को पाएंगे जो
पाने-वाने
से नहीं मिलता,
जो है ही।
यह "टाइप' का
फर्क है। ये
व्यक्तित्व-भेद
हैं। इसमें ऊंचे-नीचे
की बात नहीं
कह रहा हूं।
यह व्यक्तियों
के भेद हैं।
यह कृष्ण और
महावीर दो तरह
के बड़े गहरे
व्यक्तित्वों
का भेद है।
महावीर के लिए
वही सार्थक है
जो मिलता है
खोज से, उघाड़ा जाता है, श्रम
से पाया जाता
है। इसलिए
महावीर का नाम
ही श्रमण हो
गया। और
महावीर की
पूरी परंपरा
का नाम
श्रमण-परंपरा
हो गया।
महावीर कहते
हैं, जो भी
मिलेगा वह
श्रम से
मिलेगा। श्रम
के बिना पाया
हुआ सब चोरी
है। चाहे
परमात्मा भी
मिल जाए बिना
श्रम के तो वह
कुछ-न-कुछ
जालसाजी है, कहीं-न-कहीं धोखाधड़ी
है।
कहीं-न-कहीं
कोई छल-कपट
है। लेकिन
महावीर कहते
हैं कि हमारा
स्वाभिमान
नहीं कहता कि
बिना श्रम के
हम कुछ पा
लें। हम तो
मेहनत करेंगे और
जितना मिल
जाएगा उतने के
लिए राजी
होंगे। इसलिए
महावीर की
भाषा में, महावीर
के
भाषाशास्त्र
में प्रसाद और
"ग्रेस' जैसा कोई
शब्द नहीं है।
प्रयास, श्रम,
पुरुषार्थ,
साधना, संघर्ष,
ऐसे शब्द
हैं। होंगे
ही। इसलिए
महावीर की पूरी
परंपरा
श्रमण-परंपरा
है।
हिंदुस्तान
में दो
परंपराएं
हैं--श्रमण और
ब्राह्मण।
ब्राह्मण-परंपरा
का अर्थ है, जो मानते
हैं ब्रह्म हम
हैं ही, होना
नहीं है।
श्रमण-परंपरा
का अर्थ है कि
ब्रह्म हमें
होना है, हम
हैं नहीं। और
दो तरह के ही
लोग हैं। और
मैं मानता हूं
कि ब्राह्मण
तरह के लोग
बड़े न्यून हैं।
ब्राह्मण भी
नहीं हैं।
जिनको हम
ब्राह्मण समझते
हैं, वे भी
ब्राह्मण
नहीं हैं।
क्योंकि इस
बात के लिए
हिम्मत
जुटाना कि हम
बिना पाए पा
लेंगे, हम
बिना अधिकारी
बने अधिकारी
हैं, हम
बिना गए
पहुंचे हैं, बड़ा मुश्किल
है! साधारण मन
कहता है, पाना
ही होगा, श्रम
करना ही होगा,
कुछ किए
बिना कैसे
मिलेगा! हमारा
सब गणित कहता
है, साधन
के बिना साध्य
नहीं; श्रम
के बिना
उपलब्धि नहीं,
प्रयास के
बिना पहुंचना
कैसा? इसलिए
ब्राह्मण तो
कभी-कभी
दो-चार सदियों
में एकाध आदमी
होता है। बाकी
सब श्रमण हैं,
चाहे वे
अपने को जैन
श्रमण मानते
हों कि न मानते
हों। इसलिए
बुद्ध और
महावीर के बड़े
भेद होते हुए
भी दोनों की
परंपरा को
श्रमण नाम मिल
गया--दोनों की
परंपरा को।
क्योंकि
बुद्ध का भी
आग्रह--बिना
पाए नहीं
मिलेगा, खोजना
पड़ेगा। कृष्ण
ब्राह्मण
हैं। वे कहते
हैं, ब्रह्म
हम हैं ही।
और मैं
किसी एक को
गलत और दूसरे
को सही नहीं
कह रहा हूं, यह ध्यान
में रखना।
क्योंकि मुझे
दोनों की ठीक
दिखाई पड़ते
हैं। उसमें
कुछ बहुत
कठिनाई नहीं
है। ये दो तरह
के सोचने के
ढंग, दो
तरह के
व्यक्तित्व, दो तरह के
चित्त, उनकी
यात्राएं
हैं।
"एक
अंतिम बात पूछूं,
कृष्ण अपने
पिछले जन्मों
में कभी-न-कभी
तो अपूर्ण और
अज्ञानी रहे
ही होंगे!'
अपूर्ण
और अज्ञानी तो
महावीर भी
किसी जन्म में
नहीं रहे हैं।
सिर्फ पता
उनको इस जन्म
में चला है।
और कृष्ण को
सदा से पता
है। अपूर्ण और
अज्ञानी तो आप
भी नहीं हो।
अपूर्ण और
अज्ञानी तो कोई
भी नहीं है; बस पता चलने
की देर है। जो
फर्क है, वह
अपूर्ण होने
का नहीं है, वह बोध का
है।
यहां
सब आदमी सोए
हुए हैं, सूरज
निकला हुआ है,
एक आदमी
जागा हुआ है।
यह जो आदमी
जागा हुआ है और
ये जो आदमी
सोए हुए हैं, इन दोनों के
लिए सूरज
निकला हुआ है।
सूरज के निकलने
में कोई फर्क
नहीं है। एक
आदमी जागा हुआ
है, उसे
पता है कि
सूरज निकला है,
बाकी सोए
हैं, उन्हें
पता नहीं है
कि सूरज निकला
है। जब वे
जागेंगे, वे
कहेंगे, अरे,
अब सूरज
निकला! नहीं, उचित यही
होगा कि वे
कहें कि सूरज
तो निकला था, हम अब जागे
हैं। अपूर्ण,
अज्ञानी न
महावीर हैं, न कृष्ण हैं,
न आप हो।
लेकिन
कृष्ण अपने को
किसी भी तल पर
कभी भी ऐसा नहीं
जानते, इसलिए
कोई चेष्टा
नहीं करते। किसी
तल पर महावीर
चेष्टा करके
जानते हैं कि
अपूर्ण और
अज्ञानी नहीं
हैं, पूर्ण
हैं और ज्ञानी
हैं। जिस दिन
वे जानते हैं,
उस दिन यह
भी जान लिया
जाता है कि यह
होना उसका सदा
से था। सिर्फ
पता अब चला।
और क्या फर्क
पड़ता है कि
किसी को दो
जन्म पहले चला
और किसी को दो जन्म
बाद चला! हमको
बहुत दिक्कत
मालूम होती है।
किसी को दस
जन्म पहले चला
और किसी को दस
जन्म बाद चला,
क्योंकि हम
"टाइम' में
जीते हैं।
हमारा सारा
सवाल यह है कि
कौन पहले, कौन
पीछे? लेकिन
जगत में समय
का न हो
प्रारंभ है, न कोई अंत
है। इसमें आगे
और पीछे का
क्या मतलब है?
आगे और पीछे
का तभी तक
मतलब है जब तक
अंत और आदि को
हम मानते हों।
अगर समय का
कोई प्रारंभ
ही नहीं है, तो मुझसे दो
दिन पहले जिसे
ज्ञान मिला, उसे मुझसे
पहले मिला? और अगर समय
का कोई अंत ही
नहीं है, तो
मुझे दो दिन
बाद मिला, मुझे
उससे बाद में
मिला?
नहीं, ये बाद और
पहले तभी
सार्थक हो
सकते हैं जब
आगे-पीछे खंभे
लगे हों कि
वहां समय खत्म
हो जाता है, वहां समय
शुरू होता है।
अगर कभी समय
शुरू होता हो,
तो उसको
मुझसे दो दिन
पहले मिल गया।
उस खंभे से
नाप की जा
सकती है कि यह
आदमी दो दिन
पहले मुझसे
पहुंचा। आगे
के खंभे से नाप
की जा सकती है
कि मैं दो दिन
बाद पहुंचा
हूं। लेकिन
अगर पीछे कोई
प्रारंभ न हो
और आगे कोई अंत
न हो, तो
कौन पहले
पहुंचा और कौन
पीछे पहुंचा?
पहले और
पीछे पहुंचने
की धारणाएं
हमारी समय की
धारणाएं हैं।
और जो भी
पहुंचते हैं,
वे समयातीत,
कालातीत, "बियांड टाइम' पहुंच
जाते हैं।
इसलिए
एक मैं
अजीब-सी बात
आपसे कहूं कि
जिस क्षण
महावीर
पहुंचते हैं, उसी क्षण
कृष्ण
पहुंचते हैं।
मगर यह बड़ा
मुश्किल
होगा। इसे
थोड़ा समय को
समझकर फिर
समझना पड़ेगा।
जिस
क्षण कोई भी
पहुंचा है इस
जगत में, उसी
क्षण सब
पहुंचते हैं।
इसे ऐसा समझें
थोड़ा-सा। एक
बड़ा वर्तुल हम
बनाएं, एक "सर्किल'
बनाएं। "सर्किल' के बीच में
एक "सेंटर' हो।
और "सर्किल' से, परिधि
से हम कई
रेखाएं
"सेंटर' की
तरफ खींचे।
परिधि पर
रेखाओं में
फासला होगा, दो रेखाओं
में दूरी
होगी। फिर
दोनों रेखाएं
केंद्र की तरफ
चलती हैं, तो
दूरी कम होती
जाती है। फिर
वे जब केंद्र
पर पहुंचती
हैं तो दूरी
समाप्त हो
जाती है।
परिधि पर दूरी
होती है, केंद्र
पर दूरी
समाप्त हो
जाती है।
"टाइम' की
जो "सरकमफरेंड'
है, समय
की जो परिधि
है, उस पर
महावीर एक दिन
छलांग लगाकर
केंद्र पर पहुंचते
हैं। समय की
परिधि पर
कृष्ण और महावीर
के बीच फासला
है। मेरे और
कृष्ण के बीच
फासला है।
आपके और मेरे
बीच फासला है।
लेकिन जिस दिन
केंद्र पर
पहुंचते हैं
उस दिन कोई
फासला नहीं रह
जाता। समय के
केंद्र पर
फासले समाप्त हो
जाते हैं।
लेकिन यह सब
कठिन है। यह
खयाल में लेना
कठिन है, क्योंकि
हम परिधि पर जीते
हैं और हमें
"सेंटर' का
कोई पता नहीं
है।
इसे
ऐसा भी समझ
लें। एक बैलगाड़ी
का चाक चलता
है। तो चाक
चलता है, लेकिन
कील खड़ी रहती
है। और बड़े
मजे की बात तो
यह है कि खड़ी
हुई कील पर ही
चाक चलता है।
चलता उसके
आधार पर है, जो नहीं
चलती है। चाक
कई मील चल
जाएगा और चाक
कहेगा कि दस
मील की यात्रा
की, और अगर
कील से पूछें
कि कील तूने
कितनी यात्रा
की, कील
कहेगी, मैं
वही हूं।
लेकिन बड़े मजे
की बात है जिस
कील पर चाक दस
मील चल गया, वह कील
जरा-सा भी
नहीं चली। तो
चाक कैसे चला
होगा, जब
कील नहीं चली
जरा भी? और
कील तो यही
कहेगी कि मैं
वही हूं, मैं
बिलकुल चली ही
नहीं। और चाक
कहेगा, मैं
दस मील चल
गया। और कील
और चाक एक ही
साथ जुड़े हैं।
तो चाक जो कील
से जुड़ा है, दस मील चल
गया, और
कील जो चाक से
जुड़ी है
बिलकुल नहीं
चली--ये दोनों
बातें एकसाथ
कैसे हो सकती
हैं? ये
एकसाथ हो जाती
हैं। हम रोज गाड़ी
में देखते
हैं। ये इसलिए
हो जाती हैं
कि कील "सेंटर'
पर है और
चाक परिधि पर
है। कील
"सेंटर' पर
है और चाक
परिधि पर है।
परिधि पर
इतिहास, समय
है। और कील पर
सत्य है, ब्रह्म
है।
महावीर
और कृष्ण एक
ही क्षण वहां
पहुंचते हैं।
और जब वे वहां
पहुंचते हैं
तो ऐसा पता
नहीं चलता है
कि कौन पहले
पहुंचा और कौन
पीछे पहुंचा।
लेकिन जहां
परिधि पर जीने
वाले लोग हैं, चाक पर जीने
वाले लोग हैं,
वहां कोई
कभी पहुंचता
है, कोई
कभी पहुंचता
है, कोई
कभी पहुंचता
है, ये सब
समय के फासले
हैं। समय के
फासले वहां नहीं
हैं, क्योंकि
समय के बाहर समय
का कोई फासला
नहीं है।
इस पर
कल थोड़ी बात
करेंगे, कुछ
और पहलुओं से,
तो खयाल में
आ सकता है।
"भगवान
श्री, मेरी
एक प्रार्थना
है। वह यह है
कि समय बहुत कम
बचा है, इसलिए
सायंकाल आप
स्वतंत्र
प्रवचन दें।
गीता में जो
कुछ भी आप
हमारे लिए उपादेय
और हितकर
मानें, वह पांच
भागों में
बांटते हुए
पांच
प्रवचनों में
हमें दें। और
प्रातःकाल
उन्हीं
प्रवचनों पर
प्रश्नोत्तर
का अवसर रहे।'
नहीं, वह ठीक नहीं
पड़ेगा। मुझे
जो कहना है, वह मैं कह
लूंगा। उसकी फिकिर ही न
करें। आप क्या
पूछते हैं, इससे बहुत
फर्क नहीं
पड़ता। मुझे
क्या कहना है,
मैं वही
कहता हूं।
इसमें कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं