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शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--92

एकांत अंतिम उपलब्‍धि है(प्रवचनबारहवां)


      

दिनांक  2 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:



1—क्या शिष्य अपने सदगुरु से कुछ चुराता है?



2—क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता है?



3—जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना, धन कमाना, सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना, और क्या यह सब खोजी की खोज को बहुत लंबा नहीं बना देगा?



4—क्या कोई शिष्य हुए बिना आपकी आत्मा से अंतरंग हो सकता है?




पहला प्रश्न: क्या सदगुरू कुछ चुराता है?



 भी कुछ! क्योंकि सत्य को सिखाया नहीं जा सकता, इसे सीखना पड़ता है। सदगुरु तुम्हें केवल प्रलोभित करता है, तुम्हें इसके लिए और—और प्यासा बना सकता है, लेकिन सत्य तुम्हें दे नहीं सकता—यह कोई वस्तु नहीं है। वह इसे सरलता से तुम्हारे नाम हस्तांतरित नहीं कर सकता—यह कोई विरासत नहीं है। तुम्हें इसको चुराना पड़ेगा। तुम्हें आत्मा की अंधेरी रात में कठिन परिश्रम करना पड़ेगा। इसे किस प्रकार से चुराया जाए इसके उपाय तुम्हें खोजने पड़ेंगे। सदगुरु केवल तुम्हें प्रलोभित करता है, वह बस तुम्हें उकसाता है। वह दिखाता है कि वहां कुछ है, एक खजाना—और अब तुमको कठोर परिश्रम करना पड़ेगा। वास्तव में' तो वह हर प्रकार के अवरोध निर्मित करेगा ताकि तुम खजाने तक बहुत आसानी से न पहुंच सको। क्योंकि यदि तुम खजाने तक बहुत सरलता से पहुंच गए, तो तुम विकसित नहीं हुए; तुम उस खजाने को पुन: खो दोगे। यह बच्चे के हाथ में खजाना देने जैसा है। कुंजी खो जाएगी, खजाना खो जाएगा।

इसलिए न केवल तुमको चुराना पड़ता है, बल्कि सदगुरु को इस ढंग से कार्य करना पड़ता है कि तुम केवल तब ही चुरा पाने में समर्थ हो जब तुम तैयार हो चुके हो। उसे अनेक बाधाएं निर्मित करनी पड़ती हैं। वह खजाने को छिपाता चला जाता है। वह तुमको तभी अनुमति देगा जब तुम तैयार हो। बस तुम्हारा लोभ या तुम्हारी अभिलाषा पर्याप्त नहीं है, बल्कि तुम्हारी तैयारी, तुम्हारी तत्परता चाहिए, तुम्हें इसको अर्जित करना पड़ेगा। और यह चोरी करने जैसा है, क्योंकि प्रयास अंधकार में करना पडेगा, और प्रयास बहुत शांतिपूर्ण ढंग से करना होगा। और वहां रास्ते पर हजारों बाधाएं हैं, दूर भाग जाने के लिए प्रलोभन हैं भटक जाने के लिए आकर्षण हैं। सदगुरु की सहायता तो वास्तव में तुम्हें और निपुण बनाने के लिए है, तुम्हें यह दक्षता देने के लिए है कि कैसे पता लगे कि खजाना यहां है या नहीं।

सदगुरु के साथ रहते हुए, उसकी आबोहवा से घिरे हुए, धीरे— धीरे तुममें एक विशेष सजगता का उदय होने लगता है। तुम्हारी आंखें स्वच्छ हो जाती हैं और तुम देख सकते हो कि खजाना कहां है। और तब तुम इसके लिए कठोर परिश्रम करते हो। सदगुरु तुम्हें सुदूर हिमालय के—हिमाच्छादित, धूप में चमकते हुए शिखरों की झलक दे देता है, किंतु यह दूर है और तुम्हें यात्रा करनी पडेगी। यह कठिन होने जा रही है, यह श्रमसाध्य होने जा रही है। इस बात की पूरी संभावना है कि तुम खो सकते हो। इस बात की पूरी संभावना है कि तुम लक्ष्य से चूक जाओ, तुम भटक सकते हो। जितना अधिक तुम शिखर के नजदीक आते हो, चूकने की संभावना और—और अधिक, विराट से विराटतर होती जाती है—क्योंकि जितना तुम शिखर के निकट आते हो उतना ही तुम उसको कम देख पाते हो। तुमको केवल अपनी सजगता से चलना पड़ता है। दूर से तुम शिखर को देख सकते थे, दिशा चूकना कठिन था। लेकिन जब तुम पर्वतों में पहुंच गए हो और तुम ऊपर जा रहे हो तो तुम शिखर को नहीं देख सकते हो। तुमको तो बस अंधकार में टटोलना है, इसलिए यह चोरी करने जैसा ही अधिक है। सदगुरु तुमको इसे सरलता से नहीं देने जा रहा है। इसकी बहुत सरलता से अनुमति दी जा सकती है—द्वार को ठीक अभी खोला जा सकता है—किंतु तुम वहां किसी खजाने को अभी देख पाने समर्थ नहीं हो, क्योंकि अभी तक तुम्हारी आंखें प्रशिक्षित नहीं हुई हैं। और यदि मात्र श्रद्धावश तुम यह विश्वास कर लो कि यह बहुत बेशकीमती है, तो बार—बार तुम्हारी श्रद्धा खो जाएगी। जब तक कि तुम अनुभव न करो और न जानो कि यह मूल्यवान है, यह अधिक समय तक रखा नहीं रह पाएगा, तुम इसको कहीं भी फेंक दोगे।

मैंने एक निर्धन व्यक्ति, एक भिखारी के बारे में सुना था, जो सड़क पर अपने गधे के साथ आ रहा था। गधे की गर्दन में एक सुंदर हीरा लटक रहा था, भिखारी ने इसे कहीं पाया था और सोचा कि यह सुंदर दीखता है, तो उसने अपने गधे के लिए एक छोटा सा गहना, एक कंठहार बना दिया था। एक जौहरी ने उसे देखा। वह उस निर्धन व्यक्ति के पास गया और पूछा, इस पत्थर के लिए तुम क्या कीमत लोगे? निर्धन व्यक्ति बोला. आठ आने लूंगा। वह जौहरी ललचा गया। उसने कहा : आठ आने ?—इस जरा से पत्थर के लिए? मैं तुमको चार आने दे सकता हूं। लेकिन उस निर्धन व्यक्ति ने कहा. बस चार आने के लिए इसे गधे से क्यों अलग करूं? फिर मैं नहीं बेच रहा हूं। जौहरी ने मन में कहा, यह भिखारी बेचेगा अवश्य, इसलिए वह थोड़ी दूर चला गया। वह उसे राजी करने के लिए आता, किंतु इसी बीच एक अन्य जौहरी ने इसे देख लिया। वह एक हजार रुपये देने को राजी था, इसलिए निर्धन व्यक्ति ने तुरंत बेच दिया, क्योंकि पिछला वाला तो आठ आने तक देने को राजी नहीं था। और यह दूसरा जौहरी तो करीब—करीब पागल मालूम पड़ा; उसने एक हजार रुपये का प्रस्ताव रख दिया। पहला जौहरी वापस आया, लेकिन हीरा तो जा चुका था। उसने उस निर्धन व्यक्ति से कहा : तुम मूर्ख हो! तुमने उसे केवल एक हजार रुपये की खातिर बेच डाला, यह लगभग दस लाख रुपये कीमत का था! वह भिखारी हंसने लगा, मैं मूर्ख हो सकता हूं मैं मूर्ख हूं लेकिन अपने बारे में क्या खयाल है आपका? मैं नहीं जानता था कि यह हीरा था, लेकिन आप तो जानते थे, और आपने उसे आठ आने तक में नहीं खरीदा।

तुम्हें हीरा मिल सकता है; यह तुमसे छीन लिया जाएगा। तुम इसको लंबे समय तक रख न सकोगे। जब तक कि तुम स्वयं न समझ लो कि यह कितना मूल्यवान है, इसे चुरा लिया जाएगा। इसलिए तुमको विकसित होना पड़ेगा।

सदगुरु का कार्य बहुत विरोधाभासी है। विरोधाभास यह है कि वह तुम्हें उकसाता है, वह तुम्हें निमंत्रित करता है, और खजाने को छिपाए चला जाता है। उसे साथ ही साथ दोनों कार्य करने पड़ते हैं; उसे तुमको प्रलोभित करना है, राजी करना है, और फिर भी वह तुम्हें आसानी से उस तक पहुंचने भी न देगा। इन दो विरोधाभासी प्रयासों के मध्य : उकसाना, सतत उकसाते रहना...

मैं प्रतिदिन बोले चला जाता हूं : यह और कुछ नहीं, प्रलोभन है, निमंत्रण है। किंतु मैं इसे अंत तक छिपाऊंगा जब तक तुम इसको चुरा पाने में समर्थ नहीं हो जाते। मैं इसे देने नहीं जा रहा हूं इसको दिया नहीं जा सकता। इसे तुम केवल चुरा सकते हो। लेकिन तुम धीरे— धीरे उस्ताद चोर बन जाओगे। प्रलोभन तुम्हें उस्ताद चोर बना देगा। तुम करोगे क्या? मैं तुमको प्रलोभित करूंगा, और तुम्हें दिया कुछ भी नहीं जाएगा। तुम क्या करोगे? तुम यह सोचना आरंभ कर दोगे कि इसको कैसे चुराया जाए।

ठीक समय से पहले कुछ भी घटित नहीं होता, कम से कम सत्य तो अपने उचित समय के पूर्व कभी नहीं घटता। और यदि मैं इसको तुम्हें देने का प्रयास करूं, तो पहली बात यह कि तुम तक कभी न पहुंचेगा। यदि यह पहुंच भी जाता है तो तुम दुबारा इसको खो दोगे। और... यदि मैं इसको तुम्हें दे दूं तो मेरी ओर से यह कोई करुणा का कृत्य न होगा। मेरी करुणा को कठोर होना पड़ेगा। मेरी करुणा को इतना कठोर होना पड़ेगा कि तुम इसके लिए चीख—पुकार मचाते रहते हो, और मैं इसको छिपाता रहता हूं। एक ओर मैं तुम्हें प्रलोभित करता हूं दूसरी ओर मैं इसे छिपाता हूं। एक बार प्रलोभित हो जाओ, तुम धीरे— धीरे और— और दीवानगी से भर उठोगे। तुम उपाय खोजोगे, तुमको उपाय खोजने पड़ेंगे। क्योंकि केवल खोज, अंवेषण, रास्तों की तलाश, अविष्कार, नये रास्तों की खोज, नये रास्तों के बारे में पूछताछ, पुराने ढांचों ग्रे बाहर निकल कर नये ढंग—ढांचे, नये अनुशासन को पाकर, उनके माध्यम से ही तुम विकसित होओगे, तूम समृद्ध होओगे। वास्तव में जिस क्षण तुम विकसित हो जाते हो तत्‍क्षण सत्य तुम्हारे भीतर दीखता है।

व्यक्ति को बस उसको पहचानना भर है, लेकिन यह पहचान कठिन रास्ते से आती है। तुमको हर वह वस्तु जो तुम्हारे पास है दांव पर लगा देनी पड़ती है; चोरी का यही अभिप्राय है। यह कोई व्यवसाय नहीं है; यह कोई मोल— भाव नहीं है। यह चोरी करने जैसा है।

चोर के बारे में सोचो, वह उस चीज के लिए जो अज्ञात है, जिसको वह नहीं जानता कि वास्तव में यह वहां है भी या नहीं, सब कुछ दांव पर लगाता है। वह अपनी संपत्ति दांव पर लगाता है, वह अपना परिवार दांव पर लगाता है, वह अपना खुद का जीवन दांव पर लगा देता है। यदि वह चूकता है और कुछ गलत हो जाता है, तो वह सदा के लिए कारागृह में भेजा जा सकता है। वह एक जुआरी है, बेहद हिम्मतवर। वह कोई व्यवसायी नहीं हुऐ। वह उस वस्तु के लिए जो वहां हो सकती है और नहीं भी हो सकती है, सभी कुछ दांव पर लगा देता है। व्यवसायी के पास एक ध्येय वाक्य होता है, वह कहता है, कभी अपने हाथ की आधी रोटी को भविष्य की कल्पना की पूरी रोटी की खातिर खो मत देना। कभी भी उसके लिए जो तुम्हारे पास नहीं है, इसको खो मत देना जो तुम्हारे पास है। यह व्यवसायी का ध्येय वाक्य, व्यवसायी का मन है।

चोर पूर्णत: दूसरे ध्येय वाक्य का अनुसरण करता है; वह कहता है, उस वस्तु की खातिर जो तुम्हारे पास नहीं है, उस सभी कुछ को जो तुम्हारे पास है, दांव पर लगा दो। अपने स्वप्न के लिए वह अपना यथार्थ दाव पर लगाता है। यह बस एक 'शायद' है। वह अपनी सारी सुरक्षाओं. को, किसी ऐसी वस्तु के लिए जो अत्यंत असुरक्षित है, खतरे में डालता है। यही है जहां साहस की आवश्यकता है।

इसलिए व्यवसायी बनने की अपेक्षा चोर बनो, जुआरी बनो। क्योंकि अज्ञात को केवल तभी पाया जा सकता है जब तुम ज्ञात को त्यागने को राजी हो। जब ज्ञात विलीन हो जाता है, अतात तुम्हारे अस्तित्व में प्रविष्ट हो जाता है। जब सारी सुरक्षा खो जाती है, केवल तभी तुम अज्ञात को अपने भीतर प्रवेश करने का रास्ता देते हो।



दूसरा प्रश्न:



क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता है? क्योंकि मैं उतना बोधपूर्ण नहीं हूं कि बिना गीले हुए, पानी में उतर जाना या बिना जले हुए आग में से गुजर जाना मेरे लिए संभव हो सको क्या व्यक्ति अकेले जीवन का आनंद नहीं ले सकता है?



 म से कम प्रश्नकर्ता तो आनंदित नहीं हो सकता है, क्योंकि वह व्यक्ति जो आनंद ले सकता है कभी प्रश्न न पूछेगा।

यह प्रश्न ही दर्शाता है कि तुम्हारे लिए अकेले आनंद ले पाना असंभव होगा। तुम्हारा एकांत बदतर हो जाएगा और अकेलापन बन जाएगा। तुम्हारा एकांत कोई परिपूर्णता नहीं होगा, तुम्हारा एकांत अकेलापन होगा—रिक्त।

हां, भय के कारण तुम इसमें रुके रह सकते हो। पानी से भीग जाने के भय के कारण, आग में घिर जाने के भय के कारण; भय के कारण तुम रुक सकते हो। अनेक लोग रुक गए हैं। आश्रमों में जाओ, पुराने आश्रमों में जाकर देखो, अनेक लोग भय के कारण रुके हुए हैं।

संबंध एक अग्नि है; यह दग्ध करता है। यह दुष्कर है। किसी के साथ रह पाना करीब—करीब असंभव है। यह एक सतत संघर्ष है। अनेक लोग भाग गए हैं, लेकिन कायर हैं वे। वे वयस्क नहीं हैं, उनका प्रयास बचकाना है। हां, वे अधिक सुविधापूर्ण।' जीवन जीएंगे, यह सच है। जब वहां कोई दूसरा नहीं है, तो निःसंदेह सब कुछ सरलता से चलता है। तुम अकेले रहते हों—किसके साथ क्रोधित होना है? किसके साथ ईर्ष्यालु होना है? किसके साथ संघर्ष करना है? लेकिन तुम्हारा जीवन सारा स्वाद खो देगा। तुम स्वादहीन हो जाओगे, जीवन का कोई रस तुममें न होगा।

अनेक लोग जीवन से भाग जाते हैं क्योंकि जीवन अतिशय है और वे स्वयं को इससे निबटने में सक्षम नहीं पाते हैं। मैं यह सुझाव नहीं दूंगा; मैं कोई पलायनवादी नहीं हूं। मैं तुमसे तुम्हारे जीवन—पथ में संघर्षरत रहने को कहूंगा, क्योंकि अधिक सजग और होशपूर्ण रहने का यही एक मात्र रास्ता है। इतना संतुलित हो जाना है कि कोई भी तुम्हें असंतुलित न कर पाए, इस कदर शांत हो जाना 'है कि दूसरे की उपस्थिति कभी तुम्हें विचलित न कर सके। दूसरा तुम्हारा अपमान कर सकता है किंतु तुम उत्तेजित नहीं होते। दूसरा ऐसी परिस्थिति पैदा कर सकता है जिसमें सामान्यत: तुम पागल हो गए होते, लेकिन अब तुम पागल नहीं होते। तुम परिस्थिति को उच्चतर चेतना के लिए सीढ़ी के रूप में प्रयोग कर लेते हो।

जीवन को एक परिस्थिति, अधिक चेतन, अधिक संतुलित, अधिक केंद्रित और अपनी जड़ों से गहराई में जुड्ने के अवसर के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यदि तुम भाग जाते हो, तो यह ऐसे हुआ जैसे कोई बीज मिट्टी से भाग जाए और ऐसी गुफा में जा छिपे जहां जरा भी मिट्टी न हो केवल पत्थर हों। बीज सुरक्षित हो जाएगा। मिट्टी में बीज को मरना पड़ेगा, मिटना पड़ेगा। जब बीज मिटता है तभी पौधा अंकुरित होता है। फिर खतरे आरंभ हो जाते हैं। बीज के लिए कोई खतरा नहीं था. उसे किसी पशु ने नहीं खाया होता, और किसी बच्चे ने उसे नहीं तोडा होता। अब एक सुंदर हरा अंकुर और सारा संसार उसके विरोध में प्रतीत होता है : हवाएं आती हैं और वे इसे जड़ से उखाड़ने का प्रयास करती हैं, बादल आते हैं, और तूफान आते हैं, और एक छोटा सा बीज अकेले ही सारे संसार के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। वहां बच्चे हैं, वहां जानवर हैं, और वहां माली हैं, और सामना करने के

लिए लाखों समस्याएं हैं। बीज सुविधापूर्वक रह रहा था, वहां कोई समस्या नहीं थी : न हवा, न मिट्टी, न जानवर—कुछ भी समस्या नहीं थी। यह अपने आप में पूरी तरह से बंद था; बीज संरक्षित था, सुरक्षित था।

इसलिए तुम हिमालय की किसी गुफा में जा सकते हो : तुम एक बीज रह जाओगे। तुम अंकुरित नहीं होगे। वे हवाएं तुम्हारे विरोध में नहीं हैं, वे तुमको एक अवसर देती हैं, वे तुम्हें एक चुनौती देती हैं, वे तुम्हें गहराई से जड़ें जमा लेने का एक अवसर देती हैं। वे तुम्हें अपनी जमीन पर दृढ़तापूर्वक खड़े होने को और कड़ी टक्कर देने को कहती हैं। यह तुमको सबल बनाता है।

तुम देखते हो, यहां एक यूकेलिप्टस का एक वृक्ष है। बस उसे बचाने भर को मुक्ता ने जब यह वृक्ष छोटा था तो इसके बराबर में एक बांस लगा दिया था। अब यह इतना लंबा हो गया है, लेकिन अब यह अपने आप खड़ा नहीं हो सकता। बांस अभी भी वहां पर है, और अब यह असंभव प्रतीत होता है, एक बार तुम बांसों को हटा लो पूरा वृक्ष गिर पड़ेगा। सुरक्षा खतरनाक सिद्ध हो जाएगी। अब यह वृक्ष सुरक्षा का आदी हो चुका है। इसकी शक्ति में विकास नहीं हुआ है, यह बचकाना रह गया है।

चुनौतियां विकास के अवसर हैं और जीवन में प्रेम से बड़ी कोई चुनौती नहीं है। यदि तुम किसी को प्रेम करो, तो तुम अत्याधिक अनिश्चितता में हो जाते हो। प्रेम, जिस तरह तुम्हारे कवि कहा करते हैं पूरा गुलाबों की सुगंध से भरा हुआ नहीं है; वे सभी मूर्ख हैं। उन्होंने प्रेम के बारे में स्वप्न देखे होंगे, लेकिन उन्होंने कभी इसे जाना नहीं। यह कोई फूलों की सेज नहीं है। इसमें जितनी तुम कल्पना कर सकते हो उससे अधिक कांटे हैं। गुलाब तो दुर्लभ हैं, यहां और वहा हैं, लेकिन कांटे लाखों हैं। लेकिन जब लाखों कांटों के बीच से एक गुलाब खिलता है तो इसका अपना सौंदर्य होता है। जीवन में प्रेम सबसे बड़ा खतरा है। इसीलिए मैं जोर देता हूं कि यदि तुम वास्तव में विकसित होना चाहते हो तो इस सबसे बड़े खतरे प्रेम को स्वीकार करो और इसमें उतर जाओ।

लोगों ने इससे बचने के अनेक उपाय खोजने के प्रयास किए हैं। कुछ ने संसार छोड़ दिया है। तुम संसार से इतने भयभीत क्यों हो? संसार का भय वास्तव में प्रेम का भय है, क्योंकि जब दूसरे वहां हैं तो संभावना यह है कि तुम किसी के प्रेम में पड़ सकते हो। चारों ओर इतनी अधिक सुंदर आत्माएं, इतने अधिक आकर्षण हैं; तुम कहीं भी फंस सकते हो। खतरा है... भागो! कुछ लोग आश्रमों में भाग गए हैं, कुछ लोग अन्य उपायों से भागे हैं। कुछ लोग विवाहों से भागे हैं। यह भी एक पलायन है। आश्रम एक पलायन है और विवाह भी एक पलायन है—प्रेम से बचने के लिए।

व्यक्ति कभी नहीं जानता कि प्रेम संबंध का परिणाम क्या होने वाला है। यह सदैव डगमगाता रहता है। यह कभी सुविधाजनक नहीं है, यह कभी आरामदायक नहीं है। यह तुम्हारे लिए आनंद के क्षण ला सकता है, लेकिन यह नरक भी लाता है। यह पीड़ापूर्ण विकास है, लेकिन सारा विकास पीड़ापूर्ण होता है। व्यक्ति का विकास पीड़ा के बिना कभी नहीं होता। पीड़ा उसका भाग है एक आवश्यक भाग है। यदि तुम पीडा से बचते हो तो तुम विकास से भी बच जाते हो।

बहुत से लोग कहीं न कहीं रुक जाते हैं। कुछ लोग महत्वाकांक्षा में रुक गए हैं, राजनीतिज्ञ बन गए हैं। उन्हें प्रेम की कोई चिंता नहीं है। वे कहते हैं कि उनको संसार में महान कार्य करने हैं। वे शक्ति के बारे में चिंतित हैं, वे शक्ति का प्रयोग पलायन के लिए करते हैं। कुछ अपने आश्रमों में दफन हो गए हैं; कुछ अपने परिवारों में, विवाह, बच्चे, यह और वह में दफन हो चुके हैं, लेकिन मैं कठिनता से ही किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आता हूं जिसने प्रेम की चुनौती का, वहां जो बड़े से बड़ा तूफान है उसका सामना किया हो। लेकिन जिसने इसका सामना कर लिया है वही विकसित होता है। एक दिन वह इससे बाहर आता है, शुद्ध, निर्मल, परिपक्व।

अब तुम पूछते हो : 'क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता?'

तुम अकेले प्रसन्न हो सकते हो, लेकिन तुम आनंद नहीं ले सकते। एक ढंग से तुम प्रसन्न हो सकते हो, क्योंकि वहां कोई व्यवधान, कोई उपद्रव, कोई संघर्ष नहीं होगा। तुम्हारी प्रसन्नता शांति की भांति अधिक होगी, आनंद की भांति कम। इसमें कोई समाधि की छाया न होगी। आनंद पर समाधि का बहुत प्रभाव होता है, आनंद बहुत कुछ नृत्य की भांति होता है। प्रसन्नता ऐसी है जैसे कि तुम अपने स्नानगृह में गाना गाते हों—स्नानागार गायन—यह बहुत —कुनकुना होता है; तुम इसे अकेले कर सकते हो। तुम इसे सदैव अपने स्नानगृह में करते हो क्योंकि तुम अकेले हो। लेकिन दूसरे लोगों के साथ गायन और नृत्य पूरी तरह उनसे आविष्ट हो जाना, यह आनंद है। आनंद एक बांटने वाली अनुभूति है, प्रसन्नता न बांट सकने वाला अनुभव है।

वे लोग जो कंजूस हैं सदैव प्रसन्नता की तलाश करते हैं, आनंद की नहीं; क्योंकि आनंद को बांटने की आवश्यकता है। तुम अकेले आनंदित नहीं हो सकते। एक विशेष वातावरण की आवश्यकता पड़ती है, एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता पड़ती है, लोगों की, व्यक्तियों की, चेतना की एक विशिष्ट उमंग की आवश्यकता पड़ती है। अकेले, बहुत हुआ तो तुम प्रसन्न ही हो सकते हो।

और स्मरण रखो, प्रसन्नता कोई बहुत खुश होने वाली बात नहीं है।

आनंद वास्तव में उर्ध्वगमन है आनंद है चरम उत्कर्ष, शिखरों की भांति; प्रसन्नता समतल मैदान है : व्यक्ति सुविधापूर्वक बिना कहीं गिर पड़ने के किसी भय के बिना चलता—फिरता रहता है—न चारों ओर कोई घाटी है, न कोई खतरा है। तुम अपनी आंखें बंद करके चल सकते हो। तुम्हें रास्ता पता है, उन रास्तों पर तुम चलते रहे हो, यह रास्ता और वह रास्ता सब पता है। तुम पूरी तरह अचेतन होकर चल—फिर सकते हो।

आनंद को चेतना की आवश्यकता होती है। क्या तुम कभी पहाड़ों पर गए हो? तुम चल रहे हो और बस बगल में ही एक विशाल घाटी फैली हुए है। तुम सजग हो जाते हो। पर्वतारोहण के सौंदर्यों में यह भी एक बात है। वास्तव में यह आनंद पर्वत में नहीं है, आनंद है खतरे में, सतत खतरे में चलना। वहां सदैव मृत्यु चारों ओर है, घाटी तुमको किसी भी क्षण निगल लेने की प्रतीक्षा कर रही है। एक बार तुम्हारे पांव उखड़े, तुम सदा के लिए चले गए। उस खतरे के कारण व्यक्ति बहुत तीक्ष्माता से सजग तलवार जैसा हो जाता है। उस सजगता से आनंद मिलता है।

जब तुम लोगों के साथ संबंधों में रहा करते हो तो तुम सदैव खतरे में हो। जीवन प्रखर हो जाता है। फिर तुम्हारे पास एक जीवनशैली होती है, तब तुम्हारी ऊर्जा बस जक नहीं खाती, यह प्रवाहमान होती है। उन लोगों की ओर देखो जो गुफाओं या आश्रमों में बहुत लंबे समय से रह रहे हैं, तुम देखोगे कि उनके चेहरों पर खास किस्म की जक लग चुकी है। वे जीवंत नहीं दिखाई पड़ेंगे। वे मूढ़ होने की सीमा तक मंदमति होंगे। यही कारण है कि साधुओं ने संसार में कभी किसी सुंदर चीज का निर्माण नहीं किया है। उनके द्वारा कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है। वे अपशिष्ट हैं, वे उर्वर भूमि नहीं हैं। वे नपुंसक सिद्ध हुए हैं।

सारे पलायन तुम्हें और कायर, नपुंसक बना देते हैं। और जितना तुम भागते हो उतना और तुम भागना चाहते हो। सारा पलायन आत्मघाती है।

फिर मेरा क्या अभिप्राय है? क्या मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि कभी अकेले मत रहो? नहीं, जरा भी नहीं। बल्कि मैं कह रहा हूं कि कभी अकेलेपन में मत रहो।

एकांत उस समृद्धि से आता है जिसे तुमने संबंधों के, अनेक संबंधों, अनेक आयामों, अनेक गुणवत्ताओं के माध्यम से सीखा है मां के साथ रह कर, पिता के साथ रह कर, मित्र के साथ रह कर, भाई, बहन के साथ रह कर, पत्नी के साथ, प्रेमिका, प्रेमी के साथ रह कर, मित्रों के, शत्रुओं के साथ रह कर सीखा है।साथ रह कर' ही संसार है। और व्यक्ति को जितना संभव हो सके उतने अधिक संबंधों में रह कर देखना पड़ता है, तभी तुम विस्तीर्ण होते हो। प्रत्येक संबंध तुम्हारी आंतरिक समृद्धि में कुछ योगदान करता है। जितना अधिक तुम लोगों के मध्य उनसे संबंधित होकर फैल जाते हो, उतना ही अधिक तुम्हारा विस्तार हो जाता है। तुम्हारे पास एक और बड़ी आत्मा होती है, और तुम्हारे पास एक और समृद्ध आत्मा होती है। वरना तुम दरिद्र हो जाते हो।

अब मनस्विद उन बच्चों पर कठोर श्रम कर रहे हैं, जिनको अपना पहला और आधारभूत संबंध

नहीं मिला है—बच्चे और मां का संबंध। वे सिकुड जाते हैं। ये बच्चे कभी सामान्य न होंगे। किसी कारण से विस्तीर्ण होने की पहली लालसा नहीं घट पाई है। मां और बच्चे के बीच का संबंध संसार में पहला प्रवेश है।

तुम संसार में अपनी मां के प्रेम के साथ प्रविष्ट होते हो। तुम्हारा संसार में प्रवेश होता है क्योंकि तुम अपनी मां से संबंधित होते हो, और तुम सीखते हो कि किस भांति संबंधित हुआ जाए। वह उष्णता जो मां और बच्चे के बीच प्रवाहित होती है ऊर्जा का पहला आदान—प्रदान है। यह चरम रूप से कामुक है क्योंकि सारी ऊर्जा कामुक है। बच्चा मुस्कुरा रहा है, मां मुस्कुरा रही है, प्रचंड मात्रा में ऊर्जा का आदान— प्रदान हो रहा है। मां बच्चे को दुलार कर रही है, बच्चे का आलिंगन कर रही है, बच्चे का चुंबन ले रही है, एक विराट ऊर्जा बच्चे को दी जा रही है, और बच्चा प्रतिसंवेदन के लिए तैयार हो रहा है। शीघ्र ही वह दिन आ जाएगा जब बच्चा मां का आलिंगन करेगा और उसका चुंबन लेगा। वह अब बड़ा है, न केवल लेने के लिए तैयार, बल्कि देने के लिए भी तत्पर है। यह उसकी पहली सीख है। फिर वह भाइयों और बहनों और पिता और चाचाओं के साथ उठेगा—बैठेगा, और यह वर्तुल और—और बडा और बड़ा होता जाएगा—विद्यालय में, और महाविद्यालय में, और विश्वविद्यालय में और फिर ब्रह्मांड में—व्यक्ति आगे बढ़ता जाता है।

जितना अधिक तुम संबंधित हो उतना ही अधिक से अधिक तुम हो। अस्तित्व की खोज संबंधित होने के माध्यम से होती है। प्रत्येक संबंध एक दर्पण है। यह तुम्हारे अस्तित्व का एक भाग तुम्हें दिखाता है। यह तुम्हारे बारे में कुछ प्रदर्शित करता है। तुम्हारे बारे में यह कुछ प्रतिबिंबित करता है। जब तुम इतने अधिक विकसित हो जाओ और अनंत तक विस्तीर्ण हो जाओ तब अंतिम संबंध परमात्मा से होता है। यह अंतिम संबंध है।

यदि तुम संबंधों से भागते हो, जैसा कि ये तथाकथित धार्मिक लोग करते हैं.. .वे कुछ बहुत असंगत कार्य कर रहे हैं। वे परमात्मा से संबंधित होने में समर्थ नहीं हो पाएंगे, क्योंकि उन्होंने सीखा ही नहीं कि संबंधित किस प्रकार हुआ जाए। उन्होंने नहीं सीखा कि संबंधों में कैसे उतरा जाए। और याद रखो परमात्मा से संबंधित होना महानतम, सर्वाधिक खतरनाक संबंध है।

अभी उसी दिन मैं एक ईसाई, एक बहुत सुंदर व्यक्ति, जो रूस की जेलों में कई साल रहा है, के संस्मरण पढ़ रहा था। तीन साल वह लगातार एक भूमिगत कोठरी में, जमीन से तीस फीट नीचे रहा। लगातार तीन वर्ष तक उसने जरा भी धूप, कोई फूल, कोई तितली, चंद्रमा तक नहीं देखा। उसने संतरी के अतिरिक्त किसी आदमी का चेहरा भी नहीं देखा। तीन साल का यह समय पगला देने वाला था। न पढ़ने के लिए कोई पुस्तक, न करने के लिए कुछ कार्य। उसे तो यह भी नहीं पता था कि इस समय दिन है या रात, बाहर संसार में..सूर्योदय हुआ भी या नहीं। वहां कोई समाचार पत्र भी नहीं था, संसार में क्या हो रहा था इसकी कोई भी खबर नहीं, कुछ भी नहीं। वह पूरी तरह असंबद्ध था। उसने एक काम करना आरंभ कर दिया—आत्यंतिक रूप से सुंदर था यह कार्य, उसने परमात्मा से बात करना आरंभ कर दी। करने को क्या था? और करता भी क्या? तीन वर्ष तक उसने परमात्मा से बातें कीं और धीरे— धीरे वह उपदेश देने लगा। परमात्मा उसका एक मात्र श्रोता था। वह खड़ा हो जाता और वह उपदेश करता। लेकिन वे उपदेश वास्तव में सुंदर थे।

अब कारागृह से बाहर निकल कर उसने उन उपदेशों को एकत्रित किया और उसने उन्हें वैसा ही रखा है जैसा उसने उन्हें परमात्मा से बोला था। वह कहता है, 'अपमानित अनुभव न करें।क्योंकि अनेक बार वह परमात्मा से क्रोधित हो जाता है। व्यक्ति को क्रोधित होना पड़ेगा। क्या मूर्खता है : तीन साल के लिए! वह शास्त्रों से उद्धरण देता है और परमात्मा से कहता है, उसे देखो जो तुमने कहा हुआ है। बाइबिल में तुम कहते हो कि मनुष्य को कभी अकेला नहीं रहना चाहिए। मेरे बारे में क्या? क्या तुम अपने धर्मशास्त्र के बारे में, और अपना वह संदेश जो जीसस के माध्यम से दिया था, उसके बारे में सब कुछ भूल चुके हो? कहां हो तुम? क्या तुमने अपने नियम बदल लिए हैं? एक व्यक्ति को कभी अकेला नहीं होना चाहिए? तो तुमने मुझको तीन साल तक क्यों अकेला रहने के लिए—बाध्य किया? और वह कहता है, याद रहे, फैसले वाले दिन मैं अकेला ही गुनाहगार न होऊंगा, तुम भी वहां गुनाहगार बन कर खड़े रहोगे। न केवल तुम मेरे पापों के बारे में बताओगे, मैं भी तुम्हारे पापों के बारे में बताऊंगा। याद रहे! इसे भूलना मत! यह मामला एक तरफा नहीं होने जा रहा है।

वास्तव में ये संवाद, ये परमात्मा के साथ वार्तालाप सुंदर हैं। उन्हीं वार्तालापों के कारण वह सामान्य रहा। वह कारागृह से पूर्णत: स्वस्थ बाहर आया, उससे भी अधिक सामान्य जैसे मानसिक स्वास्थ्य के साथ वह भीतर गया था—अधिक स्वस्थ। ऐसा सुंदर संबंध.. .और परमात्मा पूरी तरह मौन था। यह क्षुब्ध करता है। तुम बात किए चले जाते हो; वह कुछ नहीं कहता, ही, नहीं—कुछ भी नहीं।

जरा सोचो, तुम बोलते चले जाओ और तुम्हारी पत्नी चुपचाप रहे। वह रसोई में काम करती रहे। तुम पगलाए जा रहे हो और तुम चीख रहे हो और चिल्ला रहे हो और वह खामोशी से अपना काम किए चली जा रही है। कैसा महसूस होगा तुमकी? परमात्मा के संबंध में ऐसा ही घटित होता है 1 व्यक्ति को इसे जीवन में सीखना पड़ता है, तभी तुम परमात्मा से संबंधित हो सकते हो। परमात्मा से संबंधित होना समग्र से संबंधित होना है। निःसंदेह वह समग्र मौन है, और उससे संबंधित होने के लिए बहुत कुशलता की आवश्यकता है—केवल तभी संबंध हो पाता है। जब तुम परमात्मा से संबंधित हो चुके हो और तुम उस में विलीन हों गए हो, तभी एकांत घटता है।

एकांत अंतिम उपलब्धि है।

यही है जिसको पतंजलि कैवल्य कहते हैं : आत्यंतिक एकांत। यह कोई आरंभ में नहीं है, यह अंत में है। यही कारण है कि हम अंतिम अध्याय पढ़ रहे हैं—यह अध्याय एकांत के बारे में है, कैवल्यपाद। योगी का अनेक जन्मों से सारा प्रयास यही है कि किस भांति स्वात तक पहुंचा जाए। यह इतना सस्ता नहीं है। जितना तुम सोचते हो कि तुमने बस घर छोड़ दिया और तुम किसी गुफा में चले गए और तुमको एकांत उपलब्ध हो गया। फिर तो पतंजलि के योग—सूत्र की कोई जरूरत न रही। बस एक ही सूत्र काम कर जाएगा : रेलवे स्टेशन जाओ एक टिकट खरीद लो और हिमालय चले जाओ, बस हो गया। तुम्हें कौन रोक रहा है? तुम्हें रोका कैसे जा सकता है?

लेकिन उस प्रकार से जीवन बहुत सस्ता हो जाएगा, किसी कीमत का न रहेगा। व्यक्ति को इसे सीखना पड़ता है। तुम्हारे सभी संबंधों का खिल जाना एकांत है। तुमने अपने सभी संबंधों की सुगंधों को, अच्छी या बुरी, सुंदर या कुरूप, को एकत्रित कर लिया है, तुम सुगंध एकत्रित करते चले जाते हो। फिर तुम्हारे भीतर एक ज्वाला उठती है। उस एकांत को लक्ष्य होना चाहिए। जिसको अभी तुम एकांत कह रहे हो वह एकांत नहीं है; यह तो बस अकेलापन होने जा रहा है। अकेले में होना, एकांत में होना नहीं है। अकेले होना, कुरूप, रुग्ण, उदास है। एकांत में होना अपने में परम सौंदर्य लिए हुए है; यह एक उपलब्धि है।

'…….क्योंकि मैं उतना बोधपूर्ण नहीं हूं कि बिना गीले हुए पानी में उतर जाना या बिना जले हुए आग में से गुजर जाना मेरे लिए संभव हो सके।

फिर तुम किस प्रकार से बोधपूर्ण होने जा रहे हो? संबंधों में और—और आगे बढ़ो। भाग कर तुम कभी बोधपूर्ण नही पाओगे। तुमको बोधपूर्ण बनने के लिए इन सभी की आवश्यकता है। यदि तुम संसार में रहते हुए बोधपूर्ण न हो सके तो संसार से .बाहर रह कर तुम बोधपूर्ण नहीं हो सकते। अन्यथा तुमको संसार दिया ही किसलिए गया है; तुम संसार में क्यों हो—बोध सीखने के लिए।

जब तुम्हारे रास्ते में बहुत सारे लोग इधर—उधर भाग—दौड़ कर रहे हों, अनेक ऊर्जाएं तुम्हारे चारों ओर आवागमन कर रही हों, और हल करने के लिए यह एक पहेली हो, तो इससे बोध का उदय होगा। ही, एक दिन तुम पानी में चलने में समर्थ हो जाओगे और पानी तुम्हारे पांवों को स्पर्श नहीं करेगा; लेकिन इससे पूर्व कि ऐसा घटित हो तुमको जीवन की अनेक नदियों और सागरो में चलना पड़ेगा। ही, एक दिन तुम आग में चलने में समर्थ हो जाओगे और अग्नि तुमको नहीं जलाएगी; लेकिन इसको अनेक अग्नियों और अनेक दहन अनुभवों से होकर सीखना पड़ेगा, केवल अनुभव से ही व्यक्ति मुक्त होता है। सत्य मुक्त करता है; अनुभव तुमको सत्य देते हैं। बिना अनुभवों के जीवन के लिए कभी निर्णय मत करो। सदैव और अनुभवों के लिए निर्णय लो। भले ही कितना कठिन और दुष्कर हो, लेकिन सदा अनुभव का जीवन चुनो। एक दिन तुम पार चले जाओगे, लेकिन व्यक्ति इसे जान कर ही अतिक्रमण करता है।



 तीसरा प्रश्न:



अभी उस दिन आपने मेरे प्रश्न के उत्तर में जीवन को पूरी तरह से जीने और उसका आनंद लेने को कहा। लेकिन फिर जीवन क्‍या है? काम—भोग में संलग्‍न होने, धन कमाना, सांसारिक इच्‍छाओं की पूर्ति करना, और यही सब कुछ? यदि ऐसा है, तो व्‍यक्‍ति को दूसरों पर और उन सांसारिक वस्‍तुओं पर, जिनको निश्‍चित रूप से आगे जाकर बंधन बन जाना है, निर्भर होना पड़ेगा। और क्‍या यह खोजी की खोज को बहुत लंबा भी नहीं बना देगी?



हां, जीवन यही सब कुछ है जिसकी तुम कल्पना और अभिलाषा कर सकते हो। काम— भोग सम्मिलित है, धन सम्मिलित है, मनुष्य का मन जिसकी अभिलाषा कर सकता है, वह प्रत्येक वस्तु इसमें सम्मिलित है। लेकिन तुम एक अटकाव वाला जीवन जीते हो। प्रश्न को लिखे जाने में भी तुम्हारी निदाएं पूरी तरह स्पष्ट रूप से साफ दिखाई दे रही हैं।

तुम कहते हो. 'अभी उस दिन आपने मेरे प्रश्न के उत्तर में जीवन को पूरी तरह से जीने और उसका आनंद लेने को कहा। लेकिन फिर जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना, धन कमाना, सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, और यही सब कुछ?' निंदा स्पष्ट है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रश्न पूछने से पूर्व ही उत्तर का तुम्हें पता है। तुम्हारी सीख नितांत स्पष्ट है—काम— भोग को काट दो, प्रेम को काट दो, धन को काट दो, लोगों को काट दो। फिर वहां किस प्रकार का जीवन बचेगा?

इसे समझना पडेगा। जीवन शब्द का अपने में, यदि तुम हर बात को काटते चले जाओ तो कोई अर्थ नहीं है। और प्रत्येक बात की निंदा की जा सकती है। भोजन का आनंद लेना ही जीवन है; कोई भी इसकी निंदा कर सकता है; क्या मूर्खता है! बस भोजन को चबाना और इसे भीतर निगल लेना! क्या यही जीवन हो सकता है? फिर श्वास लेना, बस वायु भीतर लेना, इसको बाहर फेंक देना, इसे भीतर लेना, इसे बाहर फेंक देना—कितनी ऊब! और किसलिए? फिर प्रात: शीघ्र ही उठ जाना और संध्या को सोने चले जाना, और कार्यालय जाना और दुकान जाना, और हजारों प्रकार की पीड़ाएं। क्या यही जीवन है? फिर किसी स्त्री के साथ सहवास करना? बस दो गंदे शरीर! किसी स्त्री का चुंबन लेना और कुछ नहीं बल्कि लार और लाखों जीवाणुओं का आदान—प्रदान। जीवाणुओं के बारे में सोचो यह तो स्वास्थ्यदायी भी नहीं है, निश्चित रूप से यह अधार्मिक है। यह स्वास्थ्य के लिए नुकसान पहुंचाने वाला भी है।

तो जीवन क्या है? प्रत्येक बात को समग्र के संदर्भ में लो और यह अर्थहीन, असंगत दिखाई पड़ती है। इसी कारण धार्मिक लोग जीवन को युगों से निंदित करते आ रहे हैं। उनको तुम कोई भी चीज दे दो और वे इसको निंदित करने में समर्थ हो जाएंगे। वे कहेंगे, शरीर है क्या? बस खाल का एक थैला भर है, जिसमें लाखों गंदी चीजें भरी हुई हैं। जरा थैला खोलो और देख लो। और तुम पाओगे कि वे सही हैं। लेकिन क्या तुमने दूसरा प्रश्न पूछा है? ये लोग किसी ऐसी वस्तु की आशा लगा रहे थे जो उनको वहां नहीं मिली। खाल के इस थैले के भीतर क्या तुम सोने की उम्मीद लगा रहे थे, या खाल के थैले में हीरे? क्या तब चीजें बेहतर हो जातीं? दूसरा प्रश्न पूछो, तुम क्या उम्मीद लगा रहे थे? जो शरीर तुम्हारे पास है तुम इससे बेहतर और अधिक सुंदर शरीर को नहीं पा सकते, और तुम भीतर गंदगी देखते रहते हो। तुम उस सुंदर कार्य को नहीं देखते जो यह करता रहता है।

सारा शरीर कितनी गहन कुशलता से, कितनी शांति से, सत्तर, अस्सी या सौ साल तक कार्यरत रहता है। शरीर में कार्यरत ऊर्जा के स्पंदन को, ऊर्जा की धड़कन को देखो। लेकिन ऐसे लोग हैं जो हमेशा कुछ न कुछ गलत खोज सकते हैं। भले ही यह कुछ हो, वे कुछ न कुछ गलत खोज सकते हैं। तुम उनको एक गुलाब दिखाओ और वे उसे पौधे से तोड़ लेंगे और कहेंगे, यह क्या है? यह कुछ ही घंटों में मुर्दा हो जाएगा। हां, यह विदा हो जाएगा, ऐसे सारा सौंदर्य खो जाता है। उन्हें तुम एक सुंदर इंद्रधनुष दिखाओ, और वे कहेंगे, यह भ्रम है। तुम वहां जाओ तुम्हें कुछ न मिलेगा। यह बस प्रतीत होता है कि है। ये महान निंदक जीवन को विषाक्त करने वाले हैं। उन्होंने हर चीज को विषाक्त कर दिया है, और तुमने उनकी बातों को बहुत अधिक सुन रखा है। अब तुम यह पाते हो कि जीवन का आनंद ले पाना तुम्हारे लिए करीब—करीब असंभव हो चुका है। लेकिन तुम यह कभी नहीं सोचते कि जीवन का आनंद ले पाने की इस अक्षमता को तुम्हारे तथाकथित धार्मिक शिक्षकों ने निर्मित किया है। उन्होंने तुम्हारे अस्तित्व को विषाक्त कर दिया है। उस समय भी जब तुम किसी स्त्री का चुंबन ले रहे होते हो तुम्हारे भीतर वे तुम्हें बताए चले जाते हैं, यह क्या कर रहे हो तुम? यह मूर्खता है। इसमें कुछ नहीं रखा है। जब तुम भोजन कर रहे होते हो, वे कहे चले जाते है, तुम क्या कर रहे हो? इसमें कुछ नहीं रखा है। उन निंदकों ने एक बड़ा काम कर डाला है।

और यह मूलभूत समस्याओं में से एक है। प्रशंसा करना कठिन है और निंदा करना सरल है। प्रशंसा करना बहुत कठिन है क्योंकि तुम्हें विधायक रूप से कुछ सिद्ध करना पड़ेगा। केवल तभी तुम प्रशंसा करू सकते हो। एक श्रेष्ठ जर्मन कवि हेनरिक हेन अपने संस्मरणों में लिखता है. एक बार मैं एक बड़े दर्शनशास्त्री हीगल के साथ खड़ा हुआ था, और यह एक सुंदर शीतल रात्रि थी—अंधेरी, शांत, और सारा आकाश सितारों के सौंदर्य से जगमगा रहा था। निःसंदेह कवि ने इसकी प्रशंसा करनी आरंभ कर दी, और उसने कहा, कितना सौंदर्य, कैसा आत्यंतिक सौंदर्य। और उसने आगे कहा, मैं सदैव सोचता था कि यदि व्यक्ति केवल भूइम को देखता है और कभी आकाश को नहीं देखता तो वह नास्तिक हो सकता है। लेकिन एक व्यक्ति जो आकाश की ओर देखता हो वह नास्तिक कैसे हो सकता है? असंभव है यह। लेकिन धीरे— धीरे वह थोड़ा असहज हो गया क्योंकि हीगल पूरी तरह से चुपचाप था, उसने एक शब्द भी नहीं बो ला था। उसने हीगल से पूछा, महोद्रय, आप क्या सोचते हैं? और हीगल ने कहा, मैं कोई सौंदर्य या कोई बात नहीं देख पाता हूं। आप इन सितारों की बात कर रहे हैं? वे और कुछ नहीं बल्कि आसमान का कोढ़ हैं। कोढ़.......!

निंदा कितनी सरल है। यही कारण है कि निंदा करने वाले इतने सुस्पष्ट होते हैं। लोगों ने जीवन के पक्ष में बात नहीं की है, क्योंकि जीवन के बारे में कुछ भी विधायक कहना कठिन है—शब्दों के लिए यह बहुत कठिन ह्रै। निंदक अपनी बात कहने में बहुत कुशल रहे हैं वे निंदा करते रहे हैं और इनकार करते रहे हैं, किंतु उन्होंने तुम्हारे भीतर एक निश्चित मन निर्मित कर दिया है जो भीतर कार्यरत रहता है और तुम्हारे जीवन को विषाक्त करता रहता है।

अब तुम मुझसे पूछते. हो : 'जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना? धन कमाना? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, और यही सब कुछ?'

और सांसारिक इच्छाओं में गलत क्या है? वास्तव मे सभी इच्छाएं सांसारिक हैं। क्या तुमने किसी ऐसी इच्छा को जाना है जो सांसारिक न हो? परमात्मा को तुम किसलिए चाहते हो? और तुम पाओगे कि तुम्हारी इच्छा में सारा संसार छिपा हुआ है। तुम स्वर्ग की इच्छा क्यों करते हो? और तुम पाओगे कि वहां सारा संसार छिपा हुआ है। वे जो जानते हैं कहते हैं कि इच्छा में ही संसार है। वे 'सांसारिक इच्छाएं' नहीं कहते। बुद्ध ने कभी नहीं कहा था, सांसारिक इच्छा। वे कहते हैं, इच्छा ही संसार है, इच्छा जैसी वह है। समाधि के लिए इच्छा, संबोधि के लिए इच्छा भी सांसारिक है। इच्छा करना संसार में होना है, इच्छा न करना संसार से बाहर होना है।

इसलिए_ सांसारिक इच्छा की निंदा मत करो; इसको समझने का प्रयास करो, क्योंकि सभी इच्छाएँ सांसारिक हैं। यही है भय कि यदि तुम सांसारिक इच्छाओं की निंदा करते हो तो तुम अपने लिए नई इच्छाएं निर्मित करना आरंभ कर देते हो, जिनको तुम अ—सांसारिक या दूसरे संसार की कहते हो। तुम कहोगे मैं कोई साधारण मनुष्य नहीं हूं। मैं धन के पीछे नहीं हूं। यह आखिर है क्या? तुम मरते हों—तुम धन को अपने साथ नहीं ले जा सकते। मैं किसी शाश्वत संपदा की खोज, अन्वेषण कर रहा हूं। इसलिए तुम अ—सांसारिक हो, या अधिक सांसारिक हो? वे लोग जो इस संसार की संपत्ति से संतुष्ट हो जाते हैं—जो क्षणिक है, और मृत्यु इसको छीन लेगी—वे सांसारिक हैं। और तुम किसी ऐसी संपदा की खोज कर रहे हो जो स्थायी है, जो सदा और सदा के लिए है, और तुम असांसारिक हो? तुम अधिक चालाक और चतुर प्रतीत होते हो।

लोग सामान्य मानवों से काम संबंध बना रहे हैं—वे सांसारिक हैं। और तुम क्या चाह रहे हो? और कुरान में देखो, बाइबिल में देखो, हिंदुओं के धर्मशास्त्रों में देखो. स्वर्ग में तुम किसकी इच्छा कर रहे हो? सुंदर अप्सराएं स्वर्ण से बनी हुईं, उनकी आयु कभी नहीं बढ़ती है, वे सदा युवा रहती हैं। वे सदा सोलह वर्ष की रहती है—न कभी पंद्रह, न कभी सत्रह—कितने आश्चर्य की बात है। जब शास्त्र लिखे गए थे, तब भी उनकी आयु सोलह वर्ष थी। अब शास्त्र बहुत प्राचीन हो चुके हैं, लेकिन ये अप्सराएं अभी भी सोलह वर्ष की आयु पर रुकी हुई हैं। तुम क्या चाह रहे हो?

मुसलमान देशों में समलैंगिकता प्रभ्रावी रही है, इसलिए उनके स्वर्ग में इसकी भी व्यवस्था है। तुम्हारे पास न केवल सुंदर लडकियां होगी बल्कि तुम्हारे लिए सुंदर लड़के भी उपलब्ध रहेंगे। और इस संसार में अल्कोहल निंदित है, वहां मुसलमानों के स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं। शराब की नदियां! तुम्हें शराबखानों में जाने की जरूरत ही नह्रीं है, तुम तो बस उनमें तैर सकते हो, उनमें डुबकी लगा सकते हो। और तुम इन लोगों को असासारिक कहते हो? वास्तव में वे और कोई नहीं?ल्कि सांसारिक लोग हैं जो इस संसार से इतने निराश हो गए हैं कि अब वे कल्पना में जीते हैं। उनके पासकल्पना का एक संसार है, वे इसको स्वर्ग, जन्नत या कुछ और कहते हैं।

सभी इच्छाएं सांसारिक हैं, और जब मैं यह कहता हूं तो मैं उनकी निंदा नहीं कर रहा हूं मैं केवल एक तथ्य बोल रहा हूं इच्छा करना सांसारिक होना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। परमात्मा ने यह समझने के लिए कि इच्छा क्या है, तुम्हें एक अवसर दिया है। इच्छा को समझने में, इसकी मात्र समझ से ही इच्छा तिरोहित हो जाती है। क्योंकि इच्छा भविष्य में है, इच्छा कहीं और है, और तुम अभी और यहीं हो। तुम अभी और यहीं होना चाहते हो और सत्य अभी और यहीं है, अस्तित्व अभी और यहीं घटित हो रहा है, सभी कुछ अभी और यहीं पर एकाकार हो रहा है, और अपनी इच्छा के साथ तुम कहीं और हो, इसलिए तुम चूकते चले जाते हो। तुम सदैव अतृप्त रहते हो क्योंकि वह जो तुमको तृप्त कर सकता है यहीं बरस रहा है और तुम कहीं और हो।

अभी एकमात्र सत्य है और यहीं एकमात्र अस्तित्व है। इच्छा तुम्हें दूर ले जाती है।

इच्छा को समझने का प्रयास करो, किस भांति यह तुम्हें धोखा देती रहती है, किस प्रकार यह तुम्हें और—और अभियानों पर ले जाती है, और तुम चूकते चले जाते हो। इसलिए जब कभी तुम्हें स्मरण आ जाए, वापस आ जाओ, घर लौट आओ।

इच्छा से संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यदि तुम इच्छा के साथ संघर्ष करोगे तो तुम एक और इच्छा निर्मित कर लोगे। केवल एक इच्छा ही दूसरी इच्छा के साथ संघर्ष कर सकती है। समझ इच्छा के साथ संघर्ष नहीं है। समझ के प्रकाश में इच्छा तिरोहित हो जाती है; जैसे कि जब तुम दीया जलाते हो तो अंधकार मिट जाता है।

इसलिए इन्हें सांसारिक इच्छाएं मत कहो; निंदक मत बनो। समझने का प्रयास करो।

यदि ऐसा है तो व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा, और उन सांसारिक वस्तुओं पर जिनको निश्चित रूप से आगे जाकर बंधन बन जाना है। लेकिन दूसरों पर निर्भर होने में गलत क्या है? अहंकार किसी पर निर्भर होना नहीं चाहता। अहंकार स्वतंत्र होना चाहता है। लेकिन तुम निर्भर हो। तुम अस्तित्व से भिन्न नहीं हो, तुम उसका भाग हो। प्रत्येक चीज आपस में जुड़ी है। हमारा अस्तित्व एक साथ है, एक सहजीविता में है। अस्तित्व एक सहजीवन है तो तुम स्वतंत्र कैसे हो सकते हो?. क्या तब तुम श्वास न लोगे? क्या तब तुम भोजन नहीं करोगे? यदि तुम भोजन करोगे तो तुमको वृक्षों पर, पौधों पर निर्भर होना पड़ेगा। वे तुम्हें भोजन की आपूर्ति कर रहे हैं। क्या तुम पानी नहीं पियोगे? फिर तो तुम्हें नदियों पर निर्भर होना पड़ेगा। और क्या तुमको सूर्य की आवश्यकता नहीं पड़ेगी? तब तो तुम मर जाओगे। तुम स्वतंत्र कैसे हो सकते हो? ' आत्मनिर्भर' एक गलत शब्द है, उतना ही गलत है जितना गलत यह शब्द निर्भर है। आत्मनिर्भरता और पर निर्भरता दोनों गलत हैं। असली बात है, 'परस्पर निर्भरता।हम सभी साथ—साथ हैं, परस्पर निर्भर हैं। राजा तक अपने दास पर उतना ही निर्भर है जितना कि दास राजा पर निर्भर है। यह एक परस्पर निर्भरता है।

ऐसा खलीफा हारुन रशीद के जीवन में हुआ। वह अपने दरबारी विदूषक बोल्लुल के साथ बैठा हुआ था और उसने कहा, बोल्लुल, मैं संसार में सर्वाधिक आत्मनिर्भर व्यक्ति हूं। मैं अनंत शक्ति संपन्न सुलान हूं और मैं जो कुछ भी चाहूं कर सकता हूं। सारा संसार मेरी आशा मानता है। क्या तुम किसी को खोज सकते हो जो मेरे आदेश के अधीन न हो।

बोल्लुल खामोश रहा, फिर वह बोला, हुजूर यह एक मक्खी मुझे बहुत परेशान कर रही है। क्या आप उसे आता दे सकते हैं कि वह मुझे तंग न करे?

हारुन रशीद ने कहा तुम मूर्ख हो। मैं किसी मक्खी को कैसे आदेश दे सकता हूं? और वह मेरी बात नहीं सुनेगी।

बोल्लुल ने कहा : हुजूर क्या आप भूल गए, अभी आप क्या कह रहे थे कि सारा संसार आपके आदेशों का पालन करता है? और यह मक्खी भी जो ठीक आपके सामने मेरे सिर पर बैठी है। मैं इसको भगा देने की कोशिश कर रहा हूं और यह बार—बार आकर मेरी नाक पर बैठ रही है; और मैंने देखा है कि यह आपकी नाक पर भी बैठ चुकी है, हुजूर! और आप इस जरा सी मक्खी को आशा नहीं दे सकते? और सारा संसार आपके आदेश का पालन करता है? कृपया आप दुबारा सोचें।

यह संसार एक परस्पर निर्भरता है।

हारुन रशीद और मक्खियां सभी परस्पर निर्भर हैं, और बोल्लुल हारुन रशीद से अधिक समझदार है। वस्तुत: क्योंकि वह बहुत बुद्धिमान है, इसीलिए उसे मूर्ख समझा जाता है। या शायद ऐसा उसकी बुद्धिमानी के कारण है कि वह स्वयं को मूर्ख कहता हो, क्योंकि मूर्खों के इस संसार में तुमको यह घोषित नहीं करना चाहिए कि तुम एक बुद्धिमान व्यक्ति हो। वरना वे तुमको मार डालेंगे। यह बोल्लुल सुकरात और जीसस से अधिक समझदार प्रतीत होता है। उन्होंने एक गलती की, उन्होंने घोषणा कर दी कि वे समझदार हैं। इसी बात ने संकट उत्पन्न कर दिया। सारे मूर्ख एक साथ एकत्रित हो गए और उन्होंने कहा, हम तुम्हें सहन नहीं कर सकते। तुम किसी बोल्लुल को सूली नहीं चढ़ा सकते। हो सकता है कि वह जीसस और सुकरात से अधिक समझदार हो। वह कहता है, मैं बेवकूफ हूं हुजूर, लेकिन उसकी अंतर्दृष्टि को देखो।

एक बार हारुन रशीद ने एक कविता लिखी। अब प्रत्येक व्यक्ति ने इसकी प्रशंसा की, प्रत्येक व्यक्ति को इसकी प्रशंसा करनी पड़ी। यह बस एक मूर्खता थी। और जब उसने दरबार में बोल्लुल से पूछा, उसने कहा, यह निरी मूर्खता है, हुजूर, मुझ जैसा मूर्ख भी इस जैसी कविता नहीं लिखेगा। निःसंदेह हारुन रशीद बहुत क्रोधित हो गया। बोल्लुल को कारागार में डाल दिया गया, और उसे पीटा गया और उसे भूखा रहने को बाध्य किया गया। सात दिन बाद फिर उसको दरबार में लाया गया। हारुन रशीद ने एक और कविता लिखी थी, और यह कविता पहली से कहीं अधिक परिष्कृत थी। और सारे दरबार ने कहा, वाह, वाह, पुन: बोल्लुल से पूछा गया। उसने कविता को देखा, उसने सुना और तुरंत उठ कर खड़ा हो गया और जाने लगा। सुलान ने पूछा, तुम कहां जा रहे हो? वह बोला, कारागार। मैं फिर वहीं जा रहा हूं। मैं आपको मुझे कारागृह भेजने की तकलीफ नहीं दूंगा। इसकी जरूरत ही क्या है? वह वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति था।

यही विडंबना है कि अनेक बार बुद्धिमान व्यक्ति को खुद को मूर्ख की भांति प्रकट करना पड़ता है। याद रखो, स्वतंत्र होने का प्रयास बहुत मूर्खतापूर्ण है। और यह संभव नहीं है; असंभव है यह। तब तुम और—और हताश हो जाओगे, क्योंकि हमेशा तुम पाओगे कि तुम पुन: निर्भर हो, पुन: अर्त्वित हो। जहां कहीं तुम जाओगे तुम निर्भर रहोगे, क्योंकि तुम अस्तित्व के जाल से बाहर नहीं निकल सकते। हम एक जाल की गांठों की तरह हैं—हमसे होकर ऊर्जाएं बहती रहती हैं। जब बहुत सारी ऊर्जाएं एक बिंदु से होकर गुजरती हैं वह बिंदु विशिष्टता बन जाता है, यही है सारी बात। कागज पर रेखा खींचो, फिर इसके आर—पार एक और रेखा खींचो; जहां ये दोनों रेखाएं एक—दूसरे को काटती हैं, विशिष्टता बन जाती हैं। जहां जीवन और मृत्यु एक—दूसरे को काटते हैं, वहीं तुम हो, मात्र एक उभयनिष्ट बिंदु।

इसको समझ लेना ही सब कुछ है। फिर न तुम पर निर्भर हो, न तुम आत्मनिर्भर हो, दोनों असंगतियां हैं। फिर तुम बस परस्पर निर्भर होते हो, और तुम स्वीकार कर लेते हो।

'यदि ऐसा है तो व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा, और उन सांसारिक वस्तुओं पर, जिनको निश्चित रूप से आगे चल कर बंधन बन जाना है।

किसने कहा तुमसे कि उनको निश्चित रूप से आगे चल कर बंधन बन जाना है? या तो तुम जानते हो या नहीं जानते। यदि तुम्हें पता है तो मुझसे पूछने में कोई सार नहीं; तुम उस बंधन में नहीं पडोगे। यदि तुम नहीं जानते और तुमने इस बात को बस दूसरों से सुन रखा है, तो यह मदद देने वाला नहीं है। तुम संकट में पड़ोगे।

तुम सदा आधे हृदय से जीते रहोगे क्योंकि यह तुम्हारी समझ नहीं है, और केवल तुम्हारी समझ तुम्हें मुक्त कर सकती है।



मैं तुमको कुछ कहानियां सुनाता हूं :



 एक व्यक्ति और उसकी पत्नी ने समझौता किया कि उनमें से जो भी पहले मरेगा वह वापस आएगा और दूसरे को बताएगा कि उस दुनिया में कैसा लगता है।फिर भी एक बात है', पति ने कहा, 'यदि तुम पहले मर जाओ, तो मुझे तुमसे एक वादा चाहिए कि तुम दिन के समय ही वापस आओगी।वह भयभीत था इस समझौते में, आधे मन से सम्मिलित था।

यदि तुमने—दूसरों पर विश्वास किया है—क्योंकि दूसरे कहते हैं कि यदि तुम इस संसार में उठोगे—बैठोगे तो तुम बंधन में पड़ोगे—फिर तो जहां कहीं भी तुम जाओ तुम बंधन में होओगे, क्योंकि यह तुम्हारी समझ नहीं है। समझ तुम्हें मुक्त करती है। और याद रखो, बंधन आगे चल कर नहीं घटित होता है, यह तुरंत बंध जाता है।

जिस पल तुम इच्छा करते हो, ठीक उसी पल बंधन बंध जाता है। यह इच्छा से जन्मता है, और तुममें जैसे ही इच्छा उठी तुम कारागृह में बंद हो जाते हो। यदि तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि है तो तुम तुरंत देख लेते हो कि हरेक इच्छा अपने साथ कारागृह लेकर आती है, और यह आगे चल कर नहीं होता। आगे चल कर......यह 'आगे चल कर' का विचार उठता है क्योंकि दूसरे ऐसा कहते हैं। यह तुम्हारा स्वयं का अनुभव नहीं है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी मूल्यवान नहीं है।

ऐसा एक कोर्ट में घटित हुआ, मैंने देखा है, जज ने कठघरे में खड़े अभियुक्त से कहा कि तुमने धन चुराने के साथ—साथ बेशकीमती गहनों का सैट भी उठा लिया है। जी हां, योर आनर अभियुक्त ने प्रसन्नतापूर्वक कहा। मेरी मां ने मुझे बचपन से ही सिखाया था कि केवल धन ही प्रसन्नता नहीं लाता है।

दूसरों की शिक्षाएं मददगार नहीं होने जा रही हैं। अपने अनुसार तुम उनका सारा अर्थ बदल लोगे। ऐसा अचेतनता में घटेगा, चेतन रूप से नहीं। तुम धम्मपद पढ़ते हो, तुम बुद्ध के वचन नहीं पढ़ते, तुम अपनी व्याख्याएं पढ़ते हो। तुम पतंजलि के योग—सूत्र पढ़ते हो, तुम पतंजलि को नहीं पढते, तुम पतंजलि के माध्यम से अपने आप को पढ़ते हो। इसलिए यदि तुम अज्ञानी हो तो तुम पतंजलि में कुछ ऐसा खोज लोगे जो तुम्हारे अज्ञान की सहायता करता हो। यदि तुम लोभी हो तो तुम पतंजलि में कुछ ऐसा खोज लोगे जो: तुम्हारे लोभ में सहायक हो। यदि तुम लोभी हो, तो तुम कैवल्य के प्रति, मोक्ष के प्रति, निर्वाण .के प्रति लोभ से भर सकते हो। यदि तुम अहंकारी हो तो तुम कुछ ऐसा खोज लोगे जो तुम्हारे अहंकार की सहायता करता हो। तुम एक बड़े स्वतंत्र व्यक्ति बनना आरंभ कर दोगे। तुम निर्भर कैसे हो सकते हो?......ऐसा महान व्यक्ति। तुम किसी और पर निर्भर कैसे हो सकते हो? तुम्हें आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। चाहे तुम कुछ भी पढ़ लो, चाहे कुछ भी सुन लो, जब तक तुम अपने स्वयं के जीवन को समझना आरंभ नहीं करते उसमें तुम सदैव अपने आप को पाओगे।

'और क्या यह खोजी की खोज को बहुत लंबा भी नहीं बना देगा?'

यही लोभ है। भयभीत क्यों हो? परिणाम की इतनी चिंता में क्यों हो? मैं बार—बार सतत रूप से अभी और यहीं होने के लिए कह रहा हूं कल की मत सोचो। और तुम न केवल कल की सोच रहे हो बल्कि तुम भविष्य के जन्मों की भी चिंता ले रहे हो।

और क्या यह खोजी की खोज को बहुत लंबा, अत्यधिक लंबा नहीं बना देगा? इससे भयभीत क्यों हो? अनंतकाल उपलब्ध है। समय की कोई कमी नहीं है। तुम बहुत धीरे, अत्यधिक मंद गति से चल सकते हो; कोई जल्दी नहीं है। यह शीघ्रता लोभ के कारण है। इसलिए जब कभी लोग अधिक लोभी हो जाते हैं, वे बहुत जल्दबाजी में रहते हैं, और अधिक रफ्तार पाने के और—और उपाय खोजते रहते हैं। वे सतत दौडते रहते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि जीवन बीता जा रहा है। ये लोभी लोग कहते हैं, समय धन है। समय धन है? धन बहुत सीमित है, समय असीम है। समय धन नहीं है, समय शाश्वतता है। यह सदैव वहां है और वहां रहेगा और तुम सदा से यहां हो और सदैव यहां रहोगे।

इसलिए लोभ को त्याग दो और परिणाम की चिंता मत लो। कभी— कभी यह घटित हो जाता है, अपने अधैर्य के कारण तुम अनेक चीजों से चूकते हो। यदि तुम मुझको लोभपूर्वक, लोभी मन से

सुन रहे हो तो तुम मुझको नहीं सुन रहे होओगे। अपने' भीतर तुम लगातार बोल रहे होओगे, हां, यह अच्छा है; इसका मैं प्रयास करूंगा। यह मैं कर लूंगा। ऐसा लगता है कि इसके द्वारा, मुझको बहुत शीघ्र लक्ष्य मिल जाएगा। तुम मुझसे चूक गए हो कि मैं क्या कह रहा था, और जो मैं कह रहा था, उसी में लक्ष्य छिपा था।

एक चिकित्सक यहां आया करते थे; अब उनका स्थानांतरण हो चुका है, वे लगातार नोट्स बनाया करते थे। मैंने उनसे पूछा, आप यह क्या करते रहते हैं? वे बोले, बाद में घर जाकर आराम से मैं उनको पड़ता हूं। किंतु मैंने उनसे कहा, आप मुझको 'चूकते जा रहे हैं। आप एक बात सुनते हैं, आप उसको लिखते हैं, इसी समय में मैंने कुछ ऐसा कह दिया जिससे आप चूक गए। फिर आपने कुछ लिखा पुन: आप चूक गए। और जो कुछ भी आपने संकलित किया वे अंश हैं, और आप इनको एक साथ जोड़ नहीं पाएंगे। उनके मध्य के अंतराल को, आप अपने स्वयं के लोभ से, अपनी स्वयं की समझ से, अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों से भर देंगे और वह पूरी बात विनष्ट हो जाएगी।

लक्ष्य यहीं है।

तुमको बस मौन, धैर्यवान, सजग होना पड़ता है। जीवन को परिपूर्णता में जीयो। लक्ष्य स्वयं जीवन में ही छिपा है। यह परमात्मा है जो तुम्हारे पास लाखों ढंगों से आता है। जब कोई स्त्री तुमको देख कर मुस्कुराती है तब याद रखो, यह परमात्मा है जो एक स्त्री के रूप में मुस्कुरा रहा है। जब कोई पुष्प अपनी पंखुड़ियां खोलता है, देखो, निरीक्षण करो—परमात्मा ने अपना हृदय एक पुष्प के रूप में खोल दिया है। जब कोई पक्षी गीत गाना आरंभ करे, उसको सुनो—परमात्मा तुम्हारे लिए गीत गाने के लिए आया है। यह सारा जीवन दिव्य है, पवित्र है। तुम सदैव पवित्र भूमि पर हो। जहां कहीं भी तुम देखते हो, यह परमात्मा है। जिसको तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम करते हो, यह परमात्मा के लिए करते हो। तुम जो कुछ भी हो तुम परमात्मा के लिए भेंट हो। मेरा अभिप्राय यही है, जीवन को जीयो, जीवन का आनंद लो, क्योंकि यही परमात्मा है। और वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका आनंद नहीं ले रहे हो। वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका स्वागत नहीं कर रहे हो। वह आता है और उसको तुम उदास, अकेले, अरुचि से भरे हुए और मंदमति के रूप में मिलते हो।

नाचो, क्योंकि हर क्षण वह अनंत ढंगों से, लाखों रास्तों से, हर दिशा से आ रहा है। जब मैं कहता हूं जीवन को परिपूर्णता में जीयो, तो मेरा अभिप्राय है, जीवन को इस भांति जीयो जैसे कि यह परमात्मा है। और इसमें प्रत्येक बात समाहित है। जब मैं कहता हूं जीवन, तो सभी कुछ समाया हुआ है इसके भीतर। काम सम्मिलित है, प्रेम सम्मिलित है, क्रोध सम्मिलित है, सब कुछ समा गया है। कायर मत बनो। बहादुर बनो और जीवन को इसकी परिपूर्णता में, इसकी पूरी सघनता में स्वीकार कर लो।



अंतिम प्रश्न:



क्‍या कोई आपका शिष्‍य हुए बिना आपकी आत्‍मा से अंतरंग हो सकता है?



 ह ऐसा है जैसे कि तुम पूछो, 'क्या कोई आपके साथ अंतरंग हुए बिना आपके साथ अंतरंग हो सकता है?' शिष्य होना क्या है? शिष्य मात्र एक अभिरुचि, अंतरंग होने की तैयारी मात्र है। शिष्य मात्र एक स्वीकार भाव, स्वीकार करने की, स्वागत करने की तैयारी, है। शिष्य एक मुद्रा है. यदि आप मुझको देते हैं तो मैं उसे अस्वीकार नहीं करूंगा। किंतु तुम शब्दों को लेकर भ्रमित हो। तुमने प्रेम, अंतरंगता में सारी अंतर्दृष्टि खो दी है। यदि तुम शिष्य नहीं हो तो तुम अपनी ओर से अंतरंग नहीं होओगे। मेरी ओर से मैं सभी के प्रति अंतरंग हूं भले ही वे मेरे शिष्य हैं या नहीं। मैं बिना किसी शर्त के अंतरंग हूं।

किंतु यदि तुम शिष्य नहीं हो तो अपनी ओर से तुम बंद हो, इसलिए अकेली मेरी अंतरंगता कार्य नहीं करेगी। यह तुम्हारे साथ जुड नहीं सकेगी। तुम एक बाहरी व्‍यक्ति बने रहोगे। किसी भी तरह से तुम बचाव की अवस्था में रहोगे। निःसंदेह जिसे तुम चाहोगे उसी को तुम चुन लोगे, और जिसको तुम नापसंद करते हो उसे इनकार कर दोगे। शिष्य वह है जो कहता है, ओशो, मैं आपको पूर्णत: स्वीकार करता हूं अब आपके साथ मैं कोई चुनाव नहीं करूंगा—बस पूरी हो गई बात। अब मैं अपना मन छोड़ता हूं आप मेरे मन हो जाइए। मैं आपको सुनूंगा और अपने मन को नहीं सुनूंगा। यदि कोई मत विभिन्नता होती हैं तो मैं आपके साथ रहूंगा अपने मन के साथ नहीं— यही है सारी बात। यदि कोई निर्णय लिया जाना है तो मेरे अपने मन की तुलना में आप मेरे अधिक निकट रहेंगे—यही है सब कुछ।

जो व्यक्ति शिष्य नहीं है वह सीमा रेखा पर खडा रहता है और वह कहता है, जो कुछ मुझको पसंद है या जिस बात से मैं सहमति अनुभव करता हूं मैं चुनाव कर लूंगा; और जो कुछ मैं पसंद नहीं करता और जिससे मैं संतुष्ट नहीं हूं उसे मैं नहीं चुनूंगा। जो कुछ भी तुम्हें पसंद है, तुम्हारे मन को और—और शक्तिशाली बना देगा; जो कुछ तुम्हें नापसंद है इससे तुम्हारे मन का कोई रूपांतरण नहीं होगा। तुम और ज्ञानी हो जाओगे। तुम मुझसे अनेक बातें सीख लोगे, किंतु मुझको तुम नहीं सीखोगे। इसलिए यह तुम पर निर्भर है।

मेरे लिए तुम्हें शिष्य बना लेना कोई प्रश्न नहीं है, यह तुम पर निर्भर है। जब अधिक उपलब्ध है तुम कम के लिए निर्णय करते हो—जैसा है, ठीक है।

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं।

एक चिकित्सक के पास नगर के विभिन्न छोरों से आने वाले दो रोगी आया करते थे, दोनों पुराने अनिद्रा के रोगी थे। उन्हें नींद लाने में सहायता के लिए उसने उनको नींद की गोलियां दीं। एक को हरी गोलियां मिलीं, दूसरे को लाल वाली। एक दिन दोनों अपनी अनिद्रा की समस्या पर चर्चा कर रहे थे और बातचीत के समाप्त होने पर एक व्यक्ति को इतना अधिक क्रोध आया कि वह भाग कर चिकित्सक के पास गया और बोला, ऐसा कैसे होता है कि जब मैं अपनी नींद वाली गोलियां लेता हूं तो मैं सो जाता हूं और स्वप्न देखता हूं कि मैं बंदरगाह का मजदूर हूं और लिवर—मूल पर स्टीमर से निरर्थक सामान उतार रहा हूं तेल और गंदगी से लथपथ हूं जब कि मिस्टर ब्राउन अपनी गोलियां खाते हैं और स्वप्न देखते हैं कि वे बरामूडा के समुद्र तट पर अर्धनग्न सुंदर युवतियों से घिरे हुए लेटे हुए हैं, वे सभी उनको सहला रही हैं, चूम रही हैं, उनका समय शानदार ढंग से कट रहा है?

चिकित्सक ने अपने कंधे झटके और कहा, समझने का प्रयास कीजिए, आप स्वास्थ्य बीमा योजना के सदस्य हैं और श्री ब्राउन एक निजी रोगी हैं।

इसलिए मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं समझने का प्रयास करो!


      आज इतना ही।

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