कुल पेज दृश्य

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--142

पाप और प्रार्थना(प्रवचनतीसरा)

अध्‍याय—12
सूत्र—

            क्लेशोऽम्मितरस्लेशमस्थ्यासक्लचेतसाम्।
अव्‍यक्‍ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्‍यते ।। 5।।
ये तु सवींणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। 6।।

किंतु उन सच्चिदानंदघन निरस्कार ब्रह्म में आसक्‍त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में केश अर्थात परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान रहता ह्रै तब क शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है।
और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों की मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को हीं तैलधारा के सदृश अनन्य भक्ति— योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते है, उनका मैं शीघ्र ही उद्धार करता हूं।


 पहले कुछ प्रश्न:

एक मित्र ने पूछा है कि आज के बौद्धिक युग में भक्ति, भाव—साधना का मार्ग कैसे उपयुक्त हो सकता है? श्रद्धा के अभाव में भक्ति—साधना में प्रवेश कैसे संभव है?

 ऐसा प्रश्न बहुतों के मन में उठता है। युग तो बुद्धि का है, तो भाव की तरफ गति कैसे हो सके? दोनों में विपरीतता है; दोनों उलटे छोर मालूम पड़ते हैं।
हमारा सारा शिक्षण, सारा संस्कार बुद्धि का है। भाव की न तो कोई शिक्षा है, न कोई संस्कार है। भाव के विकसित होने का कोई उपाय भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी जीवन की व्यवस्था बुद्धि से चलती मालूम पड़ती है। तो इस बुद्धि के शिखर पर बैठे हुए युग में, कैसे भाव की तरफ गति होगी? कैसे भक्ति की तरफ रास्ता खुलेगा?
जीवन का एक बहुत अनूठा नियम है, वह आप समझ लौ वह नियम है कि जब भी हम एक अति पर चले जाते हैं, तो दूसरी अति पर जाना आसान हो जाता है। जब भी हम एक छोर पर पहुंच जाते हैं, तो दूसरे छोर पर पहुंचना आसान हो जाता है, घड़ी के पेंडुलम की तरह। घड़ी का पेंडुलम घूमता है बाईं तरफ, और जब बाईं तरफ के आखिरी छोर को छू लेता है, तो दाईं तरफ घूमना शुरू हो जाता है।
यह युग बुद्धि का युग है, इतना ही काफी नहीं है जानना। यह युग बुद्धि से पीड़ित युग भी है। इस युग की ऊंचाइयां भी बुद्धि की हैं, इस युग की परेशानियां भी बुद्धि की हैं। इस युग की पीड़ा भी बुद्धि है।
यह सारा आज का चिंतनशील मस्तिष्क परेशान है, विक्षिप्त है। और जैसे—जैसे सभ्यता बढ़ती है, वैसे—वैसे हमें पागलखाने बढ़ाने पड़ते हैं। जितना सभ्य मुल्क हो, उसकी जांच का एक सीधा उपाय है कि वहां कितने ज्यादा लोग पागल हो रहे हैं!
बुद्धि पर ज्यादा जोर पड़ता है, तो तनाव सघन हो जाता है। हृदय हलका करता है, बुद्धि भारी कर जाती है। हृदय एक खेल है, बुद्धि एक तनाव है।
तो बुद्धि की इतनी पीड़ा के कारण और बुद्धि का इतना संताप जो पैदा हुआ है, उसके कारण, दूसरी तरफ घूमने की संभावना पैदा हो गई है।
हम बुद्धि से परेशान हैं। इस परेशानी के कारण हम भाव की तरफ उन्मूख हो सकते हैं। और मेरी अपनी समझ ऐसी है कि शीघ्र ही पृथ्वी पर वह समय आएगा, जब पहली दफा मनुष्य भाव में इतना गहरा उतरेगा, जितना इसके पहले कभी भी नहीं उतरा था।
गांव का एक ग्रामीण है, तो गांव का ग्रामीण भावपूर्ण होता है, लेकिन अगर कभी कोई शहर का बुद्धिमान भाव से भर जाए तो गांव का ग्रामीण उसके भाव का मुकाबला नहीं कर सकता है। क्योंकि जिसने बुद्धि के शिखर को जाना हो और जब उस शिखर से वह भाव की खाई में गिरता है, तो उस खाई की गहराई उतनी ही होती है, जितनी शिखर की ऊंचाई थी। जितनी ऊंचाई से आप गिरते हैं, उतनी ही गहराई में गिरते हैं। अगर आप समतल जमीन पर गिरते हैं, तो आप कहीं गिरते ही नहीं।
तो गांव के ग्रामीण की जो भाव—दशा है, वह बहुत गहरी नहीं हो सकती है। लेकिन शहर के बुद्धिमान की, सुशिक्षित की, सुसंस्कृत की जब भाव—दशा पैदा होती है, तो वह उतनी ही गहरी होती है—उतनी ही विपरीत गहरी होती है—जितने शिखर पर वह खड़ा था।
मनुष्यता बुद्धि के शिखर को छू रही है। और बुद्धि के शिखर को छूने से जो—जो आशाएं हमने बांधी थीं, वे सभी असफल हो गई हैं। जो भी हमने सोचा था, मिलेगा बुद्धि से, वह नहीं मिला।
और जो मिला है, वह बहुत कष्टपूर्ण है।
बर्ट्रेड रसेल जैसे बुद्धिमान आदमी ने कहा है—और इस सदी में जिनकी बुद्धि पर हम भरोसा कर सकें, उन थोड़े से लोगों में एक है रसेल। रसेल ने कहा है कि पहली बार आदिवासियों को एक जंगल में नाचते देखकर मुझे लगा, अगर यह नाच मैं भी नाच सकूं? तो मैं अपनी सारी बुद्धि को दांव पर लगाने को तैयार हूं। अगर यही उन्मूक्त, चांद की रात में यही उन्मूक्त गीत मैं भी गा सकूं, तो महंगा सौदा नहीं है। लेकिन सौदा महंगा भला न हो, करना. बहुत कठिन है।
बुद्धि के तनाव को छोड़कर भाव और हृदय की तरफ उतरना जटिल है। लेकिन पश्चिम में, जो निश्चित ही हम से बुद्धि की दौड़ में आगे हैं, बुद्धि की पीड़ा बहुत स्पष्ट हो गई है। हम स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी बना रहे हैं, पश्चिम में उनके उजड़ने का वक्त करीब आ गया है।
आज अगर अमेरिका में विचारशील युवक है, तो वह पूछता है, पढ़कर क्या होगा? अगर मुझे एम ए. या डाक्टरेट की उपाधि मिल गई, तो क्या होगा? मुझे क्या मिल जाएगा? और पश्चिम के पिताओ के पास, गुरुओं के पास उत्तर नहीं है। क्योंकि बच्चे जब अपने बाप से पूछते हैं कि आप पढ़—लिख गए, आपको जीवन में क्या मिल गया है जिसकी वजह से हम भी इस पढ़ने के चक्र से गुजारे जाएं? आपने क्या पा लिया है?
आज पश्चिम में अगर हिप्पी, और बीटनिक, और युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं। और बुद्धि का भ्रम—जाल टूट गया। एक डिसइलूजनमेंट, सब भ्रम टूट गए हैं।
भ्रम टूटते ही तब हैं, जब कोई चीज उपलब्ध होती है; उसके पहले नहीं टूटते। गरीब आदमी को भ्रम बना ही रहता है कि धन से सुख मिलता होगा। धन से सुख नहीं मिलता, इसके लिए धनी होना जरूरी है। इसके पहले यह अनुभव में नहीं आता। आएगा भी कैसे? अनुभव का अर्थ ही यह होता है कि जो हमारे पास है, उसका ही हम अनुभव कर सकते हैं। जो हमारे पास नहीं है, उसकी हम आशाएं और सपने बांध सकते हैं।
जमीन पर पहली दफा इन पांच हजार वर्षों में, बुद्धि ने पूरा शिखर छुआ है। बुद्धि का भ्रम टूट गया है। और इस भ्रम के टूटने के कारण इस क्रांति की संभावना है कि मनुष्य पहली दफा भक्ति की तरफ उतर जाए। निश्चित ही, इस आदमी की भक्ति गहरी होगी। ऐसा समझें कि एक गरीब आदमी संन्यासी हो जाए, सब छोड़ दे। लेकिन सब था क्या उसके पास छोड़ने को! उसके त्याग की कितनी गहराई होगी? उसके त्याग की उतनी ही गहराई होगी, जितना उसने छोड़ा है। उससे ज्यादा नहीं हो सकती। उसके पास कुछ था ही नहीं। एक सम्राट संन्यासी हो जाए। इस सम्राट के त्याग की गहराई उतनी ही होगी, जितना इसने छोड़ा है।
ध्यान रहे, जब बुद्ध और महावीर सब छोड़कर सडक पर भिखारी की तरह खड़े हो जाते हैं, तब आप यह मत समझना कि ये वैसे ही भिखारी हैं, जैसे दूसरे भिखारी हैं। इनके भिखारीपन में एक तरह की ज्ञान है। और इनके भिखारीपन में एक अमीरी है। और इनके भिखारीपन में छिपा हुआ सम्राट मौजूद है। कोई भिखारी इनका मुकाबला नहीं कर सकता। क्योंकि दूसरा भिखारी फिर भी भिखारी ही है। उसे सम्राट होने का कोई अनुभव नहीं है। इसलिए उसके संन्यास में कोई गहराई नहीं हो सकती।
उसका संन्यास हो सकता है एक सांत्वना हो, अपने को समझाना हो। उसने शायद इसलिए सब छोड़ दिया हो कि पहली तो बात कुछ था भी नहीं, पकड़ने योग्य भी कुछ नहीं था। और फिर दूसरी बात, सोचा हो कि अंगुर खट्टे हैं। जो नहीं मिलता, वह पाने योग्य भी नहीं है। शायद उसने अपने को समझा लिया हो कि मैं त्याग करके परमात्मा को पाने जा रहा हूं। कुछ उसके पास था नहीं। उसके छोड़ने का कोई मूल्य नहीं है।
लेकिन जब कोई बुद्ध या महावीर सब छोड़कर जमीन पर भिखारी की तरह खड़ा हो जाता है, तो इस छोड़ने का राज और है। बुद्ध की शान और है। यह बुद्ध कितना ही बड़ा भिक्षापात्र अपने हाथ में ले लें, इनकी आंखों में सम्राट मौजूद रहेगा। और जब ये बुद्ध एक वृक्ष के नीचे सो जाएंगे—इन्होंने महल जाने हैं और यह भी जान लिया है कि उन महलों में कोई सुख न था—तो इनकी नींद वृक्ष के नीचे और है। और एक भिखारी जब वृक्ष के नीचे सोता है, जिसने महल नहीं जाने हैं, वह भी कहता हो कि महलों में कुछ नहीं है, लेकिन उसकी नींद की गुणवत्ता और होगी। ये दोनों अलग तरह के लोग हैं।
हम जिस अनुभव से गुजर जाते हैं, उसके विपरीत जब हम जाते हैं, तो उसकी गहराई उतनी ही बढ जाती है। इसलिए गरीब का जो आनंद है, वह केवल अमीर को मिलता है। गरीब होने का जो मजा है, वह केवल अमीर को मिलता है। और जो अमीर अभी अमीरी से ऊबा नहीं है, उसे जिंदगी के सब से बड़े मजे की अभी कमी है। वह है अमीरी के बाद गरीबी का मजा। और जो आदमी बुद्धि से अभी ऊबा नहीं है, समझ लेना कि अभी बुद्धि के शिखर पर नहीं पहुंचा। जिस दिन शिखर पर पहुंचेगा, उस दिन ऊबकर छोड़ देगा। क्योंकि जो भी आशाएं बंधी थीं, वे इंद्रधनुष साबित होती हैं। दूर से दिखाई पड़ती हैं, पास पहुंचकर खो जाती हैं।
अगर आप अब भी बुद्धि को पकड़े हैं, तो समझना कि काफी बुद्धिमान नहीं हैं। क्योंकि बड़े बुद्धिमान बुद्धि को छोड़ दिए हैं। बड़े धनियों ने धन छोड़ दिया है। बड़े बुद्धिमानों ने बुद्धि छोड दी है। जिन्होंने संसार का अनुभव ठीक से लिया है, वे मोक्ष की तरफ चल पड़े हैं।
अगर आप अभी भी संसार में चल रहे हैं, तो समझना कि अभी संसार का अनुभव नहीं मिला। और अगर अभी भी बुद्धि को पकड़े हैं और छोटे—छोटे तर्क लगाते रहते हैं, तो समझना कि अभी बुद्धि के शिखर पर नहीं पहुंचे हैं। अभी आपको आशा है। और अगर अभी भी रुपए इकट्ठे करने में लगे हैं, तो उसका मतलब है कि अभी रुपए से आपकी पहचान नहीं है। अभी आप गरीब हैं; अभी अमीर नहीं हुए हैं। अमीर तो जब भी कोई आदमी होता है, रुपए को छोड़ देता है। क्योंकि अमीर का भ्रम भंग हो जाता है। और जब तक भ्रम भंग न हो, तब तक समझना कि गरीब है।
गरीब सोच भी नहीं सकता कि अमीरी के बाद आने वाली गरीबी क्या होगी। गरीब तो अमीरी के संबंध में भी जो सोचता है, वह भी गरीब की ही धारणा होती है।
मैंने सुना है, एक भिखमंगा अपनी पत्नी से कह रहा था कि अगर मैं राकफेलर होता, तो राकफेलर से भी ज्यादा धनी होता। उसकी पत्नी ने कहा, हैरानी की बात है! क्या तुम्हारा मतलब है? भिखमंगा कह रहा है कि अगर मैं राकफेलर होता, तो राकफेलर से भी ज्यादा धनी होता। उसकी पत्नी ने कहा, हैरानी है! क्या मतलब है तुम्हारा कि अगर तुम राकफेलर होते, तो राकफेलर से भी ज्यादा धनी होते? उस भिखमंगे ने कहा कि तू समझी नहीं। राकफेलर अगर मैं होता, तो किनारे—किनारे भीख मांगने का धंधा भी जारी रखता। वह जो अतिरिक्त कमाई होती, वह राकफेलर से ज्यादा होती! साइड बाइ साइड वह मैं अपना धंधा भीख मांगने का भी करता रहता। तो राकफेलर से निश्चित मैं ज्यादा धनी होता, क्योंकि जो मैं भिखमंगेपन से कमाता, वह राकफेलर के पास नहीं है।
अगर भिखमंगा राकफेलर होने का भी सपना देखे, तो भी भिखमंगा ही रहता है। सम्राट अगर भिखारी होने का भी सपना देखे, तो भी सम्राट ही रहता है। अनुभव खोते नहीं। जो भी अनुभव आपको मिल गया है, वह आपके जीवन का अंग हो गया।
तो जब कोई बुद्धि के शिखर पर पहुंच जाता है..। थोड़ा सोचें। अगर कभी आइंस्टीन भक्त हो जाए, तो आपके साधारण भक्त टिकेंगे नहीं। ऐसा हुआ है।
चैतन्य महाप्रभु आइंस्टीन जैसी बुद्धि के आदमी थे। बंगाल में कोई मुकाबला न था उनकी प्रतिभा का। उनके तर्क के सामने कोई टिकता न था। उनसे जूझने की हिम्मत किसी की न थी। उनके शिक्षक भी उनसे भयभीत होते थे। दूर—दूर तक खबर पहुंच गई थी कि उनकी बुद्धि का कोई मुकाबला नहीं है। और फिर जब यह चैतन्य इस बुद्धि को छोड़कर और झांझ—मजीरा लेकर रास्तों पर नाचने लगा, तो फिर चैतन्य महाप्रभु का मुकाबला भी नहीं है—इस नृत्य, और इस गीत, और इस प्रार्थना, और इस भाव, और इस भक्ति का।
न होने का कारण है। नाचे बहुत लोग हैं। गीत बहुत लोगों ने गाए हैं। प्रार्थना बहुत लोगों ने की है। भाव बहुत लोगों ने किया है, लेकिन चैतन्य की सीमा को छूना मुश्किल है। क्योंकि चैतन्य का एक और अनुभव भी है, वे बुद्धि के आखिरी शिखर से उतरकर लौटे हैं। उन्होंने ऊंचाइयां देखी हैं। उनकी नीचाइयों में भी ऊंचाइया छिपी रहेंगी
तो इस युग के लिए यह ध्यान में रख लेना जरूरी है कि यह युग एक शिखर अनुभव के करीब पहुंच रहा है, जहां बुद्धि व्यर्थ हो जाएगी। और जब बुद्धि व्यर्थ होती है, तो जीवन के लिए एक ही आयाम खुला रह जाता है, वह है भाव का, वह है हृदय का, वह है प्रेम का, वह है भक्ति का।
आदमी अब पुराने अर्थों में भावपूर्ण नहीं हो सकता। अब तो नए अर्थों में भावपूर्ण होगा। पुराना आदमी सरलता से भावपूर्ण था। उसकी भावना में सरलता थी, गहराई नहीं थी। नया आदमी जब भावपूर्ण होता है, आज का आदमी जब भावपूर्ण होता है, तो उसके भाव में सरलता नहीं होती, गहराई होती है। और गहराई बड़ी कीमत की चीज है।
इसे हम ऐसा समझें, एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा सरल होता है, लेकिन गहरा नहीं होता। गहरा हो नहीं सकता। क्योंकि गहराई तो आती है अनुभव से। गहराई तो आती है हजार दरवाजों पर भटकने से। गहराई तो आती है हजारों भूल करने से। गहराई तो आती है प्रौढ़ता से, अनुभव से। सार जब बच जाता है सब अनुभव का, तो गहराई आती है।
एक का आदमी सरल नहीं हो सकता, लेकिन गहरा हो सकता है। एक बच्चा गहरा नहीं हो सकता, सरल हो सकता है। और जब कोई का आदमी अपनी गहराई के साथ सरल हो जाता है, तो संत का जन्म होता है।
इसलिए जीसस ने कहा है कि वे लोग मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे, जो बच्चों की भांति भोले हैं।
लेकिन ध्यान रहे, जीसस ने यह नहीं कहा है कि बच्चे मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। बच्चे नहीं; जो बच्चों की भांति भोले हैं। इसका मतलब साफ है कि पहली तो बात बच्चे नहीं हैं। तभी तो कहा कि बच्चों की भांति। बच्चे नहीं हैं; जो के हैं सब अर्थों में, लेकिन फिर भी बच्चों की भांति भोले हैं, वे ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
एक बच्चा सरल है, अज्ञानी है। अभी उसकी जिंदगी में जटिलता नहीं है, लेकिन जटिलता आएगी। अभी जटिलता आने का वक्त करीब आ रहा है। जल्दी ही वह भटकेगा, उलझेगा, वासना से भरेगा। जमानेभर की आकांक्षाएं उसे घेर लेंगी। उसकी सरलता के नीचे ज्वालामुखी छिपा है।
गांव का आदमी सरल दिखाई पड़ता है। वह भी बच्चे की तरह सरल है। उसके भीतर वह सारा ज्वालामुखी छिपा है, जो शहर के आदमी में प्रकट हो गया है। उसे शहर ले आओ, वह शहर के आदमी जैसा ही जटिल हो जाएगा। और यह भी हो सकता है, ज्यादा जटिल हो जाए। जब गाव के लोग चालाक होते हैं, तो शहर के लोगों से ज्यादा चालाक हो जाते हैं। क्योंकि उनकी जमीन बहुत दिन से बिना उपयोग की पड़ी है। उसमें चालाकी के बीज पड़ जाते हैं, तो जो फसल आती है, वह आप में नहीं आ सकती। आपकी जमीन काफी फसल ला चुकी है चालाकी की।
गांव का आदमी चालाक हो जाए, तो बहुत चालाक हो जाता है। गांव का आदमी सरल है, लेकिन उसकी सरलता की कोई कीमत नहीं है। उसकी सरलता बच्चे की सरलता है। उसके भीतर ज्वालामुखी छिपा है। वह कभी भी भ्रष्ट होगा। शायद उसे भ्रष्ट होना ही पड़ेगा। क्योंकि इस जगत में भ्रष्ट हुए बिना कोई अनुभव नहीं है। उसे इस जगत से गुजरना ही पड़ेगा। और अगर इस जगत से गुजरकर यह जगत उसे व्यर्थ हो जाए और वह वापस गांव लौट जाए, और वापस लौट जाए उसी ग्राम्य—सरलता में, तो उसकी जो गहराई होगी, वह संत की गहराई है।
विपरीत का अनुभव उपयोगी है। बच्चे को जवान होना जरूरी है। जवान का अर्थ है, वासना। सभी बच्चे जवान हो जाते हैं, लेकिन सभी जवान के नहीं हो पाते हैं! शरीर का हो जाता है, चित्त का नहीं हो पाता। और जिसका चित्त का होता है, वह संत हो गया। चित्त के के होने का अर्थ यह है कि जवानी में जो तूफान उठे थे, वे समझ लिए और पाया कि व्यर्थ हैं।
के भी कहते हैं कि सब बेकार है। कहते हैं; ऐसा उन्होंने पाया नहीं है। अगर कोई चमत्कारी उनसे कहे कि हम तुम्हें फिर जवान !, बनाए देते हैं, तो वे अभी तैयार हो जाएंगे। खो गया है, हाथ से ताकत खो गई है, वासना नहीं खो गई है। मरते दम तक वासना !? पीछा करती है।
सब बच्चे जवान हो जाते हैं, लेकिन सभी जवान के नहीं हो पाते हैं। के तो बहुत थोड़े से लोग होते हैं। के का मतलब है, जिनके लिए जवानी अनुभव से व्यर्थ हो गई। और जो के होकर फिर वापस उस सरलता को पहुंच गए जिस सरलता को लेकर पैदा हुए थे। लेकिन इस सरलता में एक गुणात्मक, क्यालिटेटिव फर्क है। इस सरलता के नीचे जो तूफान छिपा था, ज्वालामुखी, वह नहीं है। इस सरलता को भ्रष्ट नहीं किया जा सकता। यह सरलता बोधपूर्वक है।
बच्चे की सरलता भ्रष्ट की जा सकती है। भ्रष्ट होगी ही; होनी चाहिए। नहीं तो उसके जीवन में गहराई नहीं आएगी। उसे भ्रष्ट भी होना पड़ेगा और उसे भ्रष्टता के ऊपर भी उठना पड़ेगा। जीवन एक शिक्षण है। उसमें भूल करके हम सीखते हैं।
बुद्धि की भूल हमने कर ली है इस युग में। अब अगर हम सीख जाएं, तो हम हृदय की तरफ वापस लौट सकते हैं।
पृथ्वी पर भक्ति के एक बड़े युग के आने की संभावना है। उलटा लगेगा, क्योंकि हमें तो लग रहा है कि सब नष्ट हुआ जा रहा है। लेकिन तूफान के बाद ही शाति आती है। और यह जो नष्ट होना दिखाई पड़ रहा है, यह तूफान का आखिरी चरण है। और इसके पीछे एक गहन सरलता उत्पन्न हो सकती है।
मगर आप, सारी दुनिया कब सरल होगी, इसकी प्रतीक्षा में मत रहें। आप होना चाहें, तो आज ही हो सकते हैं। और सारी दुनिया होगी या नहीं होगी, यह प्रयोजन भी नहीं है। दुनिया हो भी जाएगी और आप नहीं हुए, तो उसका कोई अर्थ नहीं है। आप हो सकते हैं अभी। लेकिन शायद आप भी अभी बुद्धि से ऊबे नहीं हैं। अभी शायद आपको भी यह साफ नहीं हुआ है कि बुद्धि का जाल कुछ अर्थ नहीं रखता है।
आदमी की बुद्धि कितनी छोटी है! इस छोटी—सी बुद्धि से हम क्या हल कर रहे हैं? इस जीवन की विराट पहेली को! कितने दर्शन हैं, कितने शास्त्र हैं, कुछ भी हल नहीं हुआ। बुद्धि अब तक एक नतीजे पर नहीं पहुंची है। अभी तक जीवन की पहेली पहेली की पहेली बनी हुई है। अभी तक कोई जवाब नहीं है।
हजारों साल की निरंतर हजारों मस्तिष्कों की मेहनत के बाद भी जीवन क्या है, इसका कोई उत्तर नहीं है। मनुष्य इतने दिन से कोशिश करके भी बुद्धि से कुछ पा नहीं सका है। जीवन के सभी प्रश्न अभी भी प्रश्न हैं। कुछ हल नहीं हुआ।
धर्म या भक्ति केवल इसी बात की पहचान है कि बुद्धि से एक भी उत्तर मिल नहीं सका। शायद बुद्धि से उत्तर मिल ही नहीं सकता। हम गलत दिशा से खोज रहे हैं। लेकिन यह स्मरण आ जाए, यह खयाल में आ जाए, तो आप दूसरी दिशा में खोज शुरू कर दें।
आपके पास बुद्धि है। अच्छा है होना; क्योंकि अगर बुद्धि न हो, तो यह भी समझ में आना मुश्किल है कि बुद्धि से कुछ मिल नहीं सकता। इतना उसका उपयोग है।
बायजीद ने कहा है कि शास्त्रों को पढ़कर एक ही बात समझ में आई कि शास्त्रों से सत्य नहीं मिलेगा। लेकिन काफी बड़ी बात समझ में आई।
झेन फकीर रिंझाई ने कहा है कि सोच—सोचकर इतना ही पाया कि सोचना फिजूल है। लेकिन बहुत पाया। इतना भी मिल जाए बुद्धि से, तो बुद्धि का बड़ा दान है। लेकिन इसके लिए भी साहसपूर्वक बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए।
हम तो बुद्धि का प्रयोग भी नहीं करते हैं। इसलिए हम बुद्धिमान बने रहते हैं। अगर हम बुद्धि का प्रयोग कर लें, तो आज नहीं कल हम उस जगह पहुंच जाएंगे, जहां खाई आ जाती है और रास्ता समाप्त हो जाता है। वहां से लौटना शुरू हो जाता है।
सभी बुद्धिमान बुद्धि के विपरीत हो गए हैं। चाहे बुद्ध हों, और चाहे जीसस, चाहे कृष्ण, सभी बुद्धिमानों ने एक बात एक स्वर से कही है कि बुद्धि से जीवन का रहस्य हल नहीं होगा। जीवन का रहस्य हृदय से हल होगा।
हा, बुद्धि से संसार की उलझनें हल हो सकती हैं। क्योंकि संसार की सब उलझनें मृत हैं। गणित का कोई सवाल हो, बुद्धि हल कर देगी। और ध्यान रखना, गणित का सवाल हृदय से हल करने की
कोशिश भी मत करना। उससे कोई संबंध नहीं है। विज्ञान की कोई उलझन हो, बुद्धि हल कर देगी। टेक्नालाजी का कोई सवाल हो, बुद्धि कल कर देगी। जो भी मृत है, पदार्थ है, उसकी उलझन बुद्धि हल कर देती है। बुद्धि का उपयोग यही है।
लेकिन जहां भी जीवित है, और जहां भी जीवन की धारा है, और जहां अमृत का प्रश्न है, वहीं बुद्धि थक जाती है और व्यर्थ हो जाती है।
सुना है मैंने कि एक बहुत बड़े सूफी फकीर हसन के पास एक युवक आया। वह बहुत कुशल तार्किक था पंडित था, शास्त्रों का ज्ञाता था। जल्दी ही उसकी खबर पहुंच गई और हसन के शिष्यों में वह सब से ज्यादा प्रसिद्ध हो गया। दूर—दूर से लोग उससे पूछने आने लगे। यहां तक हालत आ गई कि लोग हसन की भी कम फिक्र करते और उसके शिष्य की ज्यादा फिक्र करते। क्योंकि हसन तो अक्सर चुप रहता। और उसका शिष्य बड़ा कुशल था सवालों। को सुलझाने में।
एक दिन एक आदमी ने हसन से आकर कहा, इतना अदभुत शिष्य है तुम्हारा! इतना वह जानता है कि हमने तो दूसरा ऐसा कोई आदमी नहीं देखा। धन्यभागी हो तुम ऐसे शिष्य को पाकर। हसन ने कहा कि मैं उसके लिए रोता हूं क्योंकि वह केवल जानता है। और जानने में इतना समय लगा रहा है कि भावना कब कर पाएगा? भाव कब कर पाएगा? जानने में ही जिंदगी उसकी खोई जा रही है, तो भाव कब करेगा? मैं उसके लिए रोता हूं। उसको अवसर भी नहीं है, समय भी नहीं है। वह बुद्धि से ही लगा हुआ है।
बुद्धि से सब कुछ मिल जाए, जीवन का स्रोत नहीं मिलता। वह वहा नहीं है। बुद्धि एक यूटिलिटी है; एक उपयोगिता है; एक यंत्र ' है, जिसकी जरूरत है। लेकिन वह आप नहीं हैं। जैसे हाथ है, ऐसे बुद्धि एक आपका यंत्र है। उसकी उपयोग करें, लेकिन उसके साथ एक मत हो जाएं। उसका उपयोग करें और एक तरफ रख दें। लेकिन हम उससे एक हो गए हैं।
आप चलते हैं, तो पैर का उपयोग कर लेते हैं। फिर बैठते हैं, तब आप पैर नहीं चलाते रहते हैं। अगर चलाए, तो लोग पागल समझेंगे। पैर चलने के लिए है, बैठकर चलाने के लिए नहीं है। बुद्धि, जब पदार्थ के जगत में कोई उलझन हो, उसे सुलझाने के लिए है। लेकिन आप बैठे हैं, तो भी बुद्धि चल रही है। नहीं है कोई सवाल, तो भी बुद्धि चल रही है!
आज एक मित्र मेरे पास आए थे। वे कह रहे थे, कोई तकलीफ नहीं है, कोई अड़चन नहीं है, सब सुविधा है, लेकिन बस सिर चलता रहता है।
कोई तकलीफ नहीं है, कोई उलझन नहीं है; कोई समस्या नहीं है; फिर सिर क्यों चलता रहता है? उसका अर्थ हुआ कि बुद्धि के साथ आप एक हो गए हैं। अपने को अलग नहीं कर पा रहे हैं।
जो आदमी बुद्धि से अपने को अलग कर लेगा, वही भाव में प्रवेश कर पाता है। और बुद्धि ने अब इतनी पीड़ा दे दी है कि हम अपने को अलग कर पाएंगे; करना पड़ेगा। बुद्धि ने इतना दंश दे दिया है, बुद्धि के कांटे इतने चुभ गए हैं छाती पर कि अब ज्यादा दिन बुद्धि के साथ नहीं चला जा सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि इस बुद्धि के युग में भी श्रद्धा की बड़ी क्रांति की संभावना है।

 एक मित्र ने पूछा है:

कि पाप और पण्य का भेद क्या है? और जब तक मन पाप से भरा है तब तक श्रद्धा, भक्ति, भाव कैसे होगा? प्रार्थना कैसे, होगी, जब तक मन पाप से भरा है? तो पहले मन पण्य से भरे, फिर प्रार्थना होगी!

 ठीक लगता है। समझ में आता है। फिर भी ठीक नहीं है। और नासमझी से भरी हुई बात है।
ठीक लगता है कि जब तक मन पाप से भरा है, तो प्रार्थना कैसे होगी! यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई चिकित्सक कहे कि जब तक तुम बीमार हो, जब तक मैं औषधि कैसे दूंगा! पहले तुम ठीक हो जाओ, स्वस्थ हो जाओ, फिर औषधि ले लेना। लेकिन जब ठीक हो जाओ, तो औषधि की जरूरत क्या होगी? अगर पाप छोड़ने पर प्रार्थना करने का आपने तय किया है, तो आपको कभी प्रार्थना करने का मौका नहीं आएगा। जब तक पाप है, आप प्रार्थना न करोगे। और जब पाप ही न रह जाएगा, तो प्रार्थना किसलिए करोगे? फिर प्रार्थना का अर्थ क्या है?
प्रार्थना औषधि है। इसलिए पापी रहकर ही प्रार्थना करनी पड़ेगी। और दूसरी बात कि पाप हट कैसे जाएगा? बिना प्रार्थना के हट न पाएगा। और बिना प्रार्थना के जो पाप को हटाते हैं, उनका पुण्य उनके अहंकार का आभूषण बन जाता है। और अहंकार से बड़ा पाप नहीं है।
प्रार्थनापूर्वक जो पाप से मुक्त होता है, वही मुक्त होता है। बिना प्रार्थना के पाप से मुक्त होने की बहुत लोग कोशिश करते हैं। कि प्रार्थना की क्या जरूरत? हम अपने को खुद ही पवित्र कर लेंगे। किसी परमात्मा के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। हम खुद ही अपने को ठीक कर लेंगे। चोरी है, तो चोरी छोड़ देंगे। बेईमानी है, तो बेईमानी छोड़ देंगे, ईमानदार हो जाएंगे।
लेकिन ध्यान रहे, कभी—कभी पापी भी परमात्मा को पहुंच जाते हैं, इस तरह के पुण्यात्मा कभी नहीं पहुंच पाते। क्योंकि जो कहता है कि मैं बेईमानी छोड़ दूंगा, वह बेईमानी छोड़ भी सकता है, लेकिन उसकी ईमानदारी के भीतर भी जो अहंकार होगा, वही उसका पाप हो जाएगा।
विनम्रता, ऐसी विनम्रता जो पुण्य का भी गर्व नहीं करती, प्रार्थना के बिना नहीं आएगी।
और फिर आप अगर सच में ही इतने अलग होते जगत से, तो आप खुद ही अपना रूपांतरण कर लेते। आप इस जगत के एक हिस्से हैं। यह पूरा जगत आपसे जुड़ा है। यहां जो भी हो रहा है, उसमें आप सम्मिलित हैं। आप अलग— थलग नहीं हैं कि आप अपने को पुण्यात्मा कर लेंगे। इस समग्र अस्तित्व का सहारा मांगना पड़ेगा।
आदमी बहुत कमजोर भी है, असहाय भी है। वह जो भी करता है, वह सब असफल हो जाता है। अपने को अलग मानकर आदमी जो भी करता है, वह सब टूट जाता है। जब तक इस पूरे के साथ अपने को एक मानकर आदमी चलना शुरू नहीं करता, तब तक जीवन में कोई महत घटना नहीं घटती।
प्रार्थना का इतना ही अर्थ है। प्रार्थना का अर्थ है कि मैं अकेला नहीं हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि अकेला होकर मैं बिलकुल असहाय हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि इस पूरे अस्तित्व का सहारा न मिले, तो मुझ से कुछ भी न हो सकेगा। प्रार्थना इस हेल्पलेसनेस, इस असहाय अवस्था का बोध है। और प्रार्थना पुकार है अस्तित्व के प्रति कि तेरा सहारा चाहिए, तेरा हाथ चाहिए, तेरे बिना इस रास्ते पर चलना मुश्किल है।
तो प्रार्थनापूर्ण व्यक्ति में जब पुण्य आता है, तो वह पुण्य का भी धन्यवाद परमात्मा को देता है, अपने को नहीं। प्रार्थनाहीन व्यक्ति अगर पुण्य भी कर ले, तो अपनी ही पीठ ठोकने की कोशिश करता है; वह भी पाप हो जाता है। इसलिए कई बार तो ऐसा होता है कि निरहंकारी पापी भी परमात्मा के पास जल्दी पहुंच जाता है बजाय अहंकारी पुण्यात्मा के।
सुना है मैंने कि एक साधु, एक फकीर मरा। उसने जीवन में कोई पाप नहीं किया था। इंच—इंच सम्हालकर चला था। जरा—सी भी भूल—चूक न हुई थी। वह बिलकुल निश्चित था कि स्वर्ग के द्वार पर परमात्मा मेरा स्वागत करने को तैयार होगा। निश्चितता स्वाभाविक थी। फिर जिंदगीभर कष्ट झेला था उसने। और पुरस्कार की माग थी। स्वभावत: अकड़ भी थी। जब वह स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचा, तो सिर झुकाकर प्रवेश करने का मन न था। बैंड—बाजे से स्वागत होगा, यही कहीं गहरे में धारणा थी।
लेकिन दरवाजे पर जो दूत मिला, दरवाजा तो बंद था और उस दूत ने कहा कि तुम एक अजीब आदमी हो। तुम पहले ही आदमी हो जो बिना पाप किए यहां आ गए हो। अब हम बड़ी मुश्किल में हैं। क्योंकि यहां के जो नियम हैं, उनमें तुम कहीं भी नहीं बैठते। किताब में लिखा है—स्वर्ग के दरवाजे के नियम की किताब में—कि जो पाप किया हो बहुत, उसे नरक भेज दो; जो पाप कर के प्रायश्चित्त किया हो, उसे स्वर्ग भेज दो। तुमने पाप ही नहीं किया। तुम्हें नरक भेजें, तो मुश्किल है। क्योंकि जिसने पाप नहीं किया, उसे नरक कैसे भेजें! और तुमने पाप किया ही नहीं, इसलिए प्रायश्चित्त का कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हें स्वर्ग कैसे भेजें! दरवाजे बंद हैं दोनों—स्वर्ग का भी, नरक का भी। और तुम्हारे साथ हम क्या करें, लीगल झंझट खड़ी हो गई है।
तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, तुम जमीन पर लौट जाओ, बारह घंटे का हम तुम्हें वक्त देते हैं; हमें झंझट में मत डालो। सदा का चला हुआ नियम है, उसको तोड़ो मत। बारह घंटे के लिए लौट जाओ, और छोटा—मोटा सही, एक पाप करके आ जाओ। फिर प्रायश्चित्त कर लेना। स्वर्ग का दरवाजा तुम्हारा स्वागत कर रहा है। फिर तुम इतने अकड़े हुए हो कि नरक जाने योग्य हो, लेकिन पाप तुमने किया नहीं! और स्वर्ग में तो वही प्रवेश करता है, जो विनम्र है, और विनम्र तुम जरा भी नहीं हो। एक छोटा पाप कर आओ। थोड़ी विनम्रता भी आ जाएगी। थोड़ा झुकना भी सीख जाओगे। और तुमने एक भी पाप नहीं किया, तो तुमने मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवा दिया।
वह फकीर बहुत घबड़ाया। उसने कहा, क्या कहते हैं! मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवा दिया? तो उस देवदूत ने कहा कि थोड़ा—सा पाप कर ले तो मनुष्य विनम्र होता है, झुकता है, अस्मिता टूटती है। और थोड़ा—सा पाप मानवीय है, ह्मूमन है। तुम इनह्मूमन मालूम होते हो, बिलकुल अमानवीय मालूम पड़ते हो। तुम लौट जाओ।
फकीर लौटा। रात उसे देवदूत जमीन पर छोड़ गए। बड़ी मुश्किल खड़ी हुई। उसने कभी कोई पाप न किया था। बारह घंटे का कुल समय था। सूझ में ही न आता था उसको कि कौन—सा पाप करूं! फिर यह भी था कि छोटा ही हो, ज्यादा न हो जाए। और अनुभव न होने से पाप का, बड़ी अड़चन थी। बहुत सोचा—विचारा, कुछ सोच—समझ में नहीं आया कि क्या करूं। फिर भी सोचा कि गांव की तरफ चलूं।
जैसे ही गांव में प्रवेश करता था, एक बिलकुल काली—कलूटी बदशक्ल स्त्री ने इशारा किया झोपड़े के पास। घबड़ाया। स्त्रियों से सदा दूर रहा था। पर सोचा कि यही पाप सही। कोई तो पाप करना ही है। और फिर स्त्री इतनी बदशक्ल है कि पाप भी छोटा ही होगा। चला गया। स्त्री तो बड़ी आनंदित हुई।
रात उस स्त्री के पास रहा, उसे प्रेम किया। और सुबह भगवान को धन्यवाद देता हुआ कि चलो, एक पाप हो गया, अब प्रायश्चित्त कर लूंगा और स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। जैसे ही झोपड़े से विदा होने लगा, वह स्त्री उसके पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा कि फकीर, मुझे कभी किसी ने चाहा नहीं, किसी ने कभी प्रेम नहीं किया। तुम पहले आदमी हो जिसने मुझे इतने प्रेम और इतनी चाहत से देखा। इतने प्रेम से मुझे स्पर्श किया और अपने पास लिया। एक ही प्रार्थना है कि इस पुण्य का भगवान तुम्हें खूब पुरस्कार दे।
फकीर की छाती बैठ गई। इस पुण्य का भगवान तुम्हें पुरस्कार दे! फकीर ने घड़ी देखी कि मुसीबत हो गई, घंटाभर ही बचा है! ये ग्‍यारह घंटे खराब हो गए!
आगे का मुझे पता नहीं है कि उसने घंटेभर में क्या किया। स्वर्ग वह पहुंच पाया कि नहीं पहुंच पाया! लेकिन मुश्किल है कि वह कोई पाप कर पाया हो। उसका कारण है। इस कहानी से कई बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।
पहली बात तो, इतना आसान नहीं है तय करना कि क्या पाप है और क्या पुण्य है, जितना आसान हम सोचते हैं। हम तो कृत्यों पर लेबल लगा देते हैं कि यह पाप है और यह पूण्‍य है। कोई कृत्य न पाप है, न पुण्य है। बहुत कुछ करने वाले पर और करने रकी स्थिति पर निर्भर करता है।
निश्चित ही फिर से सोचिए, हंसिए मत इस कहानी में। जिस स्त्री को कभी किसी ने प्रेम न किया हो, उसको किसी का प्रेम करना अगर पुण्य जैसा मालूम पड़ा हो, तो कुछ भूल है? और अगर परमात्मा भी इसको पुण्य माने, तो क्या आप कहेंगे कि गलती हुई?
वह फकीर भी बाद में चिंता में पड़ गया कि पुण्य क्या है? पाप क्या है? अगर दूसरे को इतना सुख मिला हो, तो पाप कहां है? अगर दूसरा इतना आनंदित हुआ हो कि उसके जीवन का फूल पहली दफा खिला हो, तो पाप कहां है?
पाप कृत्य में नहीं है। कृत्य का क्या परिणाम होता है! उसमें भी परिणामों का कोई अंत नहीं है। आपने कृत्य आज किया है, परिणाम हजारों साल तक होते रहेंगे उस कृत्य के। क्योंकि परिणामों की श्रृंखला है।
अगर सारे परिणाम कृत्य में समाविष्ट किए जाएं, तो तय करना बहुत मुश्किल है कि क्या है पाप, क्या है पुण्य। कई बार आप पुण्य करते हैं और पाप हो जाता है। आप पुण्य ही करना चाहते थे और पाप हो जाता है। किस कृत्य को क्या नाम दें! कृत्य सवाल नहीं है।
दूसरी बात इस कहानी से खयाल में ले लेनी जरूरी है कि वह फकीर तो पाप करना चाहता था जान—बूझकर, फिर भी पाप नहीं हो पाया। यह बहुत गहन है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक था पी डी. आस्पेंस्की। उसके शिष्य बेनेट ने लिखा है कि जब पहली दफा उसने हमें शिक्षा देनी शुरू की, तो उसकी शिक्षाओं में एक खास बात थी, जान—बूझकर पाप करना। और हम सब लोग बैठे थे और उसने कहा कि घंटेभर का समय देता हूं तुम जान—बूझकर कोई ऐसा काम करो, जिसको तुम समझते हो कि वह एकदम बुरा है और करने योग्य नहीं है।
बेनेट ने लिखा है कि घंटेभर हम बैठकर सोचते रहे। बहुत उपाय किया कि किसी को गाली दे दें, धक्का मार दें, चांटा लगा दें। लेकिन कुछ भी न हुआ। और घंटा खाली निकल गया और आस्पेंस्की हंसने लगा और उसने कहा कि तुम्हें पता होना चाहिए, पाप को जान—बूझकर किया ही नहीं जा सकता। यू कैन नाट डू ईविल कांशसली। वह जो बुराई है, उसको सचेतन रूप से करने का उपाय ही नहीं है। बुराई का गुण ही है अचेतन होना।
इसलिए फकीर मुश्किल में पड़ गया। वह कोशिश करके पाप करने निकला था।
आप कोशिश करके पाप करने नहीं निकलते हैं; पाप हो जाता है। आपको कोशिश नहीं करनी पड़ती। कोशिश तो आप करते हैं कि न करूं, फिर भी हो जाता है। पाप होता है—कोशिश से नहीं, होशपूर्वक नहीं—पाप होता है बेहोशी में, मूर्च्छा में।
इसलिए पाप का एक मौलिक लक्षण है, मूर्च्छित कृत्य। जो कृत्य मूर्च्‍छा में होता है। वह पाप है। और जा कृत्‍य होशपूर्वक हो सकता है, वही पुण्‍य है। इसको हम ऐसा भी समझ सकते है कि जिस काम को करने के लिए मूर्च्छा अनिवार्य हो, उसको आप समझना कि पाप है। और जिस काम को करने के लिए होश अनिवार्य हो, जो होश के बिना हो ही न सके, होश में ही हो सके, समझना कि पुण्य है। बुद्ध का शिष्य आनंद, कुछ साधु यात्रा पर जा रहे हैं, तो उनकी तरफ से बुद्ध से पूछने खड़ा हुआ कि ये साधु यात्रा पर जाते हैं उपदेश करने। इनकी कुछ उलझनें हैं। एक उलझन का आप जवाब दे दें, बाकी तो मैंने इन्हें समझा दिया है।
तो बुद्ध ने पूछा, क्या उलझन है? तो आनंद ने कहा कि ये फकीर पूछते है—ये सब भिक्षु पूछते है—कि अगर स्त्री के पास रहने का कोई अवसर आ जाए, तो रुकना कि नहीं रुकना? तो बुद्ध ने कहा, मत रुकना। स्त्री से दूर रहना। तो आनंद ने पूछा, और कहीं ऐसी मजबूरी ही हो जाए कि रुकना ही पड़े, तो क्या करना? तो बुद्ध ने कहा, स्त्री की तरफ देखना मत। आख नीची रखना।
यही बात पुरुष के लिए लागू हो जाएगी। इससे कोई फर्क नहीं पडता। स्त्री की तरफ देखना ही मत, आख नीची रखना।
पर आनंद ने कहा कि ऐसा कोई अवसर आ जाए कि आख उठानी ही पड़े और स्त्री को देखना ही पड़े? तो बुद्ध ने कहा, स्पर्श मत करना।
पर आनंद भी जिद्दी था और इसलिए बुद्ध से बहुत—सी बातें निकलवा पाया। उसने कहा, यह भी मान लिया। पर कभी ऐसा अवसर आ जाए—बीमारी, कोई दुर्घटना—कि स्त्री को छूना ही पड़े, तो उस हालत में क्या करना? तो बुद्ध ने कहा, अब आखिरी बात कहे देता हूं होश रखना छूते वक्त। और बाकी सब बातें फिजूल हैं। अगर होश रखा जा सके, तो बाकी सब बातें फिजूल हैं। बाकी उनके लिए हैं, जो होश न रख सकते हों।
जिस कृत्य को भी होशपूर्वक किया जा सके, वह पाप नहीं रह जाता। और अगर पाप होगा, तो किया ही न जा सकेगा। मूर्च्छा जरूरी है। इसलिए मैं पाप की व्याख्या करता हूं मूर्च्छित कृत्य। पुण्य की व्याख्या करता हूं होशपूर्ण कृत्य।
लेकिन आप पुण्य भी करते हैं, तो मूर्च्छा में करते हैं। फिर समझ लेना कि वह पुण्य नहीं है। चार लोग आ जाते हैं और आपको काफी फुसलाते हैं, फुलाते हैं, कि आप जैसा दानी कोई भी नहीं है जगत में; एक मंदिर बनवा दें। नाम रह जाएगा। वे आपकी मूर्च्छा को उकसा रहे हैं। वे आपके अहंकार को तेल दे रहे हैं। वे आपके अहंकार पर मक्खन लगा रहे हैं। आप फूले जा रहे हैं भीतर कि मेरे जैसा कोई पुण्यात्मा नहीं है जगत में! मूर्च्छा पकड़ रही है। इस मूर्च्छा में आप चेक वगैरह मत दे देना। वह पाप होगा। भला उससे मंदिर बने, लेकिन वह पाप होगा। क्योंकि मूर्च्छा में कोई पुण्य नहीं हो सकता।
और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आप चोरी भी करने जाएं, तो होशपूर्वक करने जाना। तो पहली तो बात यह कि आप चोरी नहीं कर पाएंगे। जैसे ही होश से भरेंगे, हाथ वापस खिंच आएगा। किसी की हत्या भी करने जाएं, तो मैं नहीं कहता कि हत्या मत करना। मैं इतना ही कहता हूं कि होशपूर्वक करना। होश होगा, हत्या नहीं हो सकेगी। हत्या हो जाए, तो समझ लेना कि आप बेहोश हो गए थे। और आप बेहोश हो जाएंगे, तो ही हो सकती है। इस जगत में कुछ भी बुरा करना हो, तो बेहोशी चाहिए, नींद चाहिए। जैसे आप नहीं कर रहे हैं, कोई शराब के नशे में आपसे करवाए ले रहा है।
ऐसा हुआ कि अकबर निकलता था एक रास्ते से और एक नंगा फकीर सड़क के किनारे खड़ा होकर अकबर को गालियां देने लगा। अकबर ने बहुत संतुलन रखा। बहुत बुद्धिमान आदमी था। लेकिन अपने सिपाहियों को कहा कि इसको पकड़कर कल सुबह मेरे सामने हाजिर करो।
दूसरे दिन सुबह उस फकीर को हाजिर किया गया। वह आकर अकबर के चरणों में सिर झुकाकर खड़ा हो गया। अकबर ने कहा कि कल तुमने गालियां दीं, उसका तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। क्या प्रयोजन था? उस फकीर ने कहा कि आप जिससे उत्तर मांग रहे हैं, उसने गालियां नहीं दीं। जिसने दीं, वह शराब पीए हुए था। रातभर में मेरा नशा उतर गया। इसलिए आप मुझसे जवाब मांगकर अन्याय कर रहे हैं। जिसने गालियां दी थीं, वह अब मौजूद नहीं है। और मैं जो मौजूद हूं उस वक्त मौजूद नहीं था।
अकबर ने अपने आत्म—संस्मरणों में यह घटना लिखवाई है। और उसने कहा है कि मुझे उस दिन खयाल आया कि निश्चित ही, जो मूर्च्छा में किया गया हो, उसके लिए व्यक्ति को जिम्मेवार क्या ठहराना!
आप जो भी कर रहे हैं.। इसलिए आपको भी लगता है, कभी क्रोध में आप गाली दे देते हैं, किसी को मार देते हैं, बाद में आपको लगता है कि मैं तो नहीं करना चाहता था! सोचा भी नहीं था कि करूं, अब पछताता भी हूं और खयाल आता है कि कैसे हो गया!
आप होश में नहीं थे। निश्चित ही, आपने कोई शराब बाहर से नहीं पी थी। लेकिन भीतर भी शराब के झरने हैं। और बाहर से ही शराब पीना जरूरी नहीं है।
अगर आप शरीर—शास्त्री से पूछें, तो वह बता देगा कि आपके शरीर में ग्रथिया हैं, जहां से नशा, मादक द्रव्य छूटते हैं। जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपका खून तेज चलता है और खून में जहर छूट जाते हैं। उन जहर की वजह से आप मूर्च्‍छित हो जाते हैं। उस मूर्च्छा में आप कुछ कर बैठते हैं, वह आपका किया हुआ कृत्य नहीं है। वह मूर्च्छा है, बेहोशी है।
इस जगत में कोई भी बुराई बिना बेहोशी के नहीं होती। और इस जगत में कोई भी भलाई बिना होश के नहीं होती। इसलिए एक ही भलाई है, होश से भरे हुए जीना, और एक ही बुराई है, बेहोशी में होना।
और इस बात की प्रतीक्षा मत करें कि जब पुण्य से भर जाएंगे पूरे, तब प्रार्थना करेंगे। जैसे हैं, जहां हैं, वहीं प्रार्थना शुरू कर दें। आपकी प्रार्थना भी आपका होश बनेगी। आपकी प्रार्थना भी आपको जगाएगी। आपकी प्रार्थना भी आपकी बेहोशी और मूर्च्छा को तोड़ेगी। और आपकी प्रार्थना का अंतिम परिणाम होगा कि आप एक सचेतन व्यक्ति हो जाएंगे। यह जो सचेतन, जागा हुआ बोध मनुष्य के भीतर है, वही उसे पाप से छुटाता है।
पापों को काटने के लिए पुण्यों की जरूरत नहीं है। पापों को काटने के लिए होश की जरूरत है। और जहां होश है, वहां पाप होने बंद हो जाते हैं। और जहां होश है, वहां पुण्य फलित होने लगते हैं। पुण्य ऐसे ही फलित होने लगते हैं, जैसे सूरज के उगने पर फूल खिल जाते हैं। ऐसे ही होश के जगने पर पुण्य होने शुरू हो जाते हैं। पुण्य करने नहीं पड़ते। आपकी छाया की तरह आपके पीछे चलने लगते हैं। वे आपकी सुगंध हो जाते हैं। वे हो जाते हैं, तब आपको पता लगता है। जब दूसरे आपसे कहते हैं, तब आपको पता लगता है।
लेकिन आदमी बेईमान है, आत्मवंचक है। और आदमी हजार तरकीबें निकाल लेता है अपने को समझाने की, कि मैं तो पापी हूं; मुझसे क्या प्रार्थना होगी! यह आपकी होशियारी है। यह आप यह कह रहे हैं कि अभी क्या प्रार्थना करनी! प्रार्थना आपको करनी नहीं है। करना आपको पाप ही है। लेकिन आप यह भी अपने मन में नहीं मानना चाहते कि मैं प्रार्थना नहीं करना चाहता हूं। आप कहते हैं, मैं ठहरा पापी; मुझसे क्या प्रार्थना होगी? तो किससे प्रार्थना होगी?
आपसे ही प्रार्थना होगी। और पाप प्रार्थना में बाधा नहीं है। यह ऐसा ही है, जैसे आपके घर में अंधेरा हो, और आप कहें कि अंधेरा बहुत है, दीया कैसे जलाए! और अंधेरा इतना ज्यादा है कि दीया जलेगा कैसे! और अंधेरा हजारों साल पुराना है, दीए को बुझाकर रख देगा! नाहक मेहनत क्या करनी। जब अंधेरा नहीं होगा, तब दीया जला लेंगे।
अंधेरा आपके दीए के जलने को रोक नहीं सकता। अंधेरे की ताकत क्या है? पाप से कमजोर दुनिया में कोई चीज नहीं है। पाप की ताकत क्या है? अंधेरा कमजोर है। अंधेरा है ही कहां? दीया जलते ही तिरोहित हो जाएगा। और चाहे हजारों वर्ष पुराना हो, तो भी एक क्षण टिक न सकेगा। और छोटा—सा दीया मिटा देगा। और दीए से अंधेरा यह नहीं कह सकेगा कि मैं हजारों साल से यहां रह रहा हूं और तू अभी अतिथि की तरह आया' और मुझ मेजबान को हटाए दे रहा है! मैं नहीं हटता। नहीं, अंधेरा खड़ा होकर जवाब भी न दे सकेगा। अंधेरा पाया ही नहीं जाएगा।
प्रार्थना के लिए पाप बाधा नहीं है। नहीं तो वाल्मीकि जैसा पापी, राम में ऐसा नहीं डूब सकता था। कि अंगुलिमाल जैसा पापी, बुद्ध में ऐसा लीन नहीं हो सकता था।
पाप बाधा नहीं है। और जब प्रार्थना कोई करता है, तो पाप वैसे ही हट जाता है, जैसे दीया जलता है और अंधेरा हट जाता है। और जले हुए दीए में पाप नहीं होता। जले हुए दीए के साथ जो होता है, उसी का नाम पुण्य है।
तो प्रार्थना को रोकें मत। कल पर टालें मत। स्थतीत मत करें। प्रार्थना को शुरू होने दें।
और क्या फर्क पड़ता है! जब बच्चा पहली दफा चलता है, तो गिरता ही है। अगर कोई भी बच्चा यह तय कर ले कि मैं चलूंगा तभी जब ग़ीरूंगा नहीं, तो चलेगा ही नहीं कभी। और जब पहली दफा कोई तैरना सीखता है, तो दों—चार दफे मुंह में पानी भी भर जाता है और डुबकी भी लग जाती है। लेकिन कोई अगर यह तय कर ले कि तैरूंगा तभी जब पूरी तरह सीख लूंगा, फिर वह कभी तैरेगा नहीं। तैरने के लिए भी बिना सीखे पानी में उतरना जरूरी है। और बच्चा चल पाता है। गिरता है, घुटने टूट जाते हैं। घसिटता है। बार—बार खड़ा होता है, फिर बैठ जाता है। एक दिन चलने लगता है। प्रार्थना भी ऐसे ही शुरू होगी क ख ग से। आप कभी पूरी प्रार्थना पहले दिन नहीं कर पाएंगे। आप पहले ही दिन कोई चैतन्य और मीरा नहीं हो जाने वाले हैं। लेकिन होने की कोई जरूरत भी नहीं है।
और संतों का काम इतना ही है, जो मा—बाप का काम है। बच्चा चलता है, तो मा—बाप उसके उस भूल भरे चलने पर भी इतने प्रसन्न होते हैं! फिर जब वह ठीक चलने लगेगा, तो कोई प्रसन्न नहीं होगा। आपको पता है! जब पहली दफा बच्चा खड़ा हो जाता है डगमगाता, तो घरभर में खुशी और उत्सव छा जाता है। ऐसी क्या बड़ी घटना हो रही है? दुनिया चल रही है! ये और एक सज्जन खडे हो गए, तो कौन—सा फर्क पड़ा जा रहा है? लेकिन उसका यह खड़ा होना, उसका यह साहस, उसका जमीन पर से झुके होने से खड़ा हो जाना, अपने पैरों पर यह भरोसा, मां—बाप खुश हो जाते हैं; बैंड—बाजे बजाते हैं। घर में गीत; फूल सजाते हैं। बच्चा उनका खड़ा हो गया!
जब पहली दफा बच्चा आवाज निकाल देता है, बेतुकी, बेमतलब की, कोई अर्थ नहीं होता, उसमें से मा—बाप अर्थ निकालते हैं कि वह मामा कह रहा है, पापा कह रहा है। वह कुछ नहीं कह रहा है! वह केवल पहली दफा टटोल रहा है। कुछ नहीं कह रहा है। लेकिन बड़ी खुशी छा जाती है। फिर वह भाषा भी अच्छी बोलने लगेगा, बड़ा विद्वान भी हो जाएगा, तब भी यह खुशी नहीं होगी।
संतों का, गुरुओं का इतना काम है कि जब पहली दफा कोई तुतलाने लगे प्रार्थना, तो उसको सहारा दें। पहली दफा जब कोई प्रार्थना के जगत में कदम रखे, तो उसको आसरा दें। इसको उत्सव की घडी बना लें। तो जो आज डांवाडोल है, कल थिर हो जाएगा। जो आज तुतला रहा है, कल ठीक से बोलने लगेगा। आज जो केवल आवाज है, कल गीत—संगीत भी बन सकती है। वे संभावनाएं हैं।
लेकिन पहला कदम बिलकुल जरूरी है। पहले कदम में ही जो चूक करता है...। और चूक एक ही है पहले कदम की। गिरना चूक नहीं है। गलत कदम का उठ जाना चूक नहीं है। गलत उठेगा ही; गिरना होगा ही। चूक एक ही है, स्थगित करना। कि पहला कैसे उठाऊं; कहीं गलती न हो जाए! तो जो रुक जाता है पहले को उठाने से, वही एकमात्र चूक है। बाकी कोई चूक नहीं है।
भूलें करना बुरा नहीं है। भूल करने के डर से रुक जाना बुरा है। भूल को दोहराना बुरा है, एक ही भूल को बार—बार करना नासमझी है। लेकिन पहली दफा ही भूल न हो, ऐसा जो परफेक्शनिस्ट हो, ऐसा जो पूर्णतावादी हो, वह इस दुनिया में मूढ़ की हालत में ही मरेगा। वह कुछ भी सीख नहीं पाएगा।
भूल करें, दिल खोलकर करें। एक ही भूल दुबारा भर न करें।
हर भूल से सीखें और पार निकल जाएं और नई भूल करने की हिम्मत रखें। संसार में भूलें करने से नहीं डरते, तो परमात्मा में भूलें करने से क्या डरना है! और जब संसार भी भूलों को क्षमा कर देता और आप सफल हो जाते हैं, तो परमात्मा भी क्षमा कर ही देगा। क्षमा किया ही हुआ है। और जब पहली दफा कोई तुतलाता है प्रार्थना, तो सारा अस्तित्व खुश होता है, प्रसन्न होता है।
कहा है हमने कि जब बुद्ध को पहली दफा ज्ञान हुआ, तो जिन वृक्षों पर फूल नहीं खिलने थे, खिल गए। झूठी लगती है बात। कहा है हमने कि महावीर जब रास्ते पर चलते थे, तो अगर कोई काटा पड़ा हो, तो महावीर को देखकर उलटा हो जाता था। झूठी लगती है बात। कांटे को क्या मतलब होगा? और बेमौसम फूल खिलते हैं कहीं? कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो सारी दिशाएं सुगंध से भर गईं। भरोसा नहीं आता।
लेकिन अभी रूस में एक प्रयोग हुआ है और रूस के वैज्ञानिक पुश्किन ने घोषणा की है कि पौधे भी आपकी खुशी से प्रभावित होते हैं और खुश होते हैं; और आपके दुख से दुखी होते हैं, पीड़ित होते हैं।
पुश्किन की खोज मूल्यवान है और पुश्किन ने पौधों को सम्मोहित करने का, हिम्नोटाइज करने का प्रयोग किया है। और पुश्किन ने यह भी प्रयोग किया है कि पास में एक गुलाब का पौधा रखा है और एक व्यक्ति को पास में ही बेहोश किया, सम्मोहित किया। जब सम्मोहित होकर कोई बेहोश हो जाता है, फिर उससे जो भी कहा जाए, वह आज्ञा मानता है। पुश्किन ने उस बेहोश आदमी से कहा कि तू आनंद से भर गया है। तेरा चित्त प्रफुल्लित है और सुख की धारा बह रही है।
वह आदमी डोलने लगा आनंद में। उस आदमी के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगाए गए, जो यंत्र पर खबर दे रहे हैं कि उसमें आनंद की लहरें उठ रही हैं; उसका मस्तिष्क नई तरंगों से भर गया है। उसके साथ ही उसी तरह के इलेक्ट्रोड —गुलाब के पौधे पर भी लगाए गए हैं। जैसे ही यह आदमी आनंदित होकर भीतर प्रफुल्लित हो गया और यंत्र ने खबर दी कि वह आनंद से भर रहा है, जिस तरह का ग्राफ उसके मस्तिष्क की तरंगों का बना, ठीक उसी तरह का ग्राफ गुलाब के पौधे से भी बना। और पुश्किन ने लिखा है, गुलाब के पौधे के भीतर भी वैसी ही आनंद की तरंगें फैलने लगीं।
और जब उस आदमी को कहा गया कि तू दुख से परेशान है, तेरी पत्नी की मृत्यु हो गई है, कि तेरे घर में आग लग गई है और तेरा हृदय बैठा जा रहा है; वह दुखी हो गया। उसके हृदय की पंखुड़ियां बंद हो गईं। तरंगों में खबर आने लगी कि वह दुख से भरा हुआ है। ठीक गुलाब के पौधे से भी तरंगें आने लगी कि वह। बहुत दुखी है। उसकी पंखुड़ियां मुरझा गई हैं और बंद हो गई हैं।
आप आनंदित हैं, तो आपके पास रखा हुआ गुलाब का पौधा। भी आंदोलित होता है। तो फिर झूठ नहीं लगता, कुछ आश्चर्य नहीं है कि बुद्ध का भीतर का कमल खिला हो, तो बेमौसम फूल भी आ। गए हों। क्योंकि साधारण आदमी के खुश होने से अगर फूल खुश होते हैं, तो बुद्ध तो कभी—कभी करोड़ वर्ष में कोई बुद्ध होता है। उस वक्त अगर बेमौसम फूल ले आते हों पौधे, तो कुछ आश्चर्य नहीं लगता।
पुश्किन की बात से तो ऐसा लगता है, फूल जरूर खिले होंगे। बुद्ध के पास के पौधे इतने आनंदित हो गए होंगे—ऐसा तो कभी होता है, करोड़ वर्षों में—तों अगर बेमौसम भी थोडे से फूल खिला दिए हों, स्वाभाविक लगता है।
जब आप पहली दफा तुतलाते हैं प्रार्थना, तो यह सारा अस्तित्व खुश होता है। इस अस्तित्व की खुशी ही प्रभु का प्रसाद है।
तो डरें मत। हिम्मत करें। गिरेंगे ही न, फिर उठ सकते हैं। नौ बार जो गिरता है, दसवीं बार उसके गिरने की संभावना समाप्त हो जाती है।
अब हम सूत्र को लें।
किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात विशेष परिश्रम है। क्योंकि देह— अभिमानियों में अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान है, तब तक शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति—योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं, उनका मैं शीघ्र ही उद्धार करता हूं।
इस सूत्र में दो बातें कही गई हैं। एक, कि वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार, निर्गुण, शून्य की उपासना करते हैं। वे भी मुझ तक ही पहुंच जाते हैं, कृष्ण कहते हैं। वे भी परम सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन उनका मार्ग कठिन है। उनका मार्ग दुर्गम है। और उनके मार्ग पर क्लेश है, पीड़ा है, कष्ट है। क्या क्लेश है उनके मार्ग पर?
जो निराकार की तरफ चलता है, उसे कुछ अनिवार्य कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। पहली तो यह कि वह अकेला है यात्रा पर। कोई उसका संगी—साथी नहीं। और आपको पता है, कभी आप अंधेरी गली से गुजरते हैं, तो खुद ही गीत गुनगुनाने लगते हैं, सीटी बजाने लगते हैं। कोई है नहीं वहां। अकेले में डर लगता है। लेकिन अपनी ही सीटी सुनकर डर कम हो जाता है। अपनी ही सीटी, अपना ही गीत!
उस अशात के पथ पर जहां कि गहन अंधेरा है, क्योंकि कोई संगी—साथी नहीं है, और इस जगत का कोई प्रकाश काम नहीं आता है; निराकार का यात्री अकेले जाता है। कोई परमात्मा, कोई परमात्मा की धारणा का सहारा नहीं है। तो पहली तो कठिनाई यह है कि अकेले की यात्रा है।
भरोसा भी हो कि परमात्मा है, तो दो हैं आप। अकेले नहीं हैं। एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक चर्च बनाना चाहती थी। कुल दो पैसे थे उसके पास। और गांव में जाकर उसने कहा कि घबड़ाओ मत, संपत्ति कुछ मेरे पास है, कुछ और आ जाएगी। और जहां संपत्ति है, वहां और संपत्ति आ जाती है। दो पैसे मेरे पास हैं। चर्च हम बना लेंगे।
गांव के लोग बहुत हंसे कि तू पागल हो गई है! दो पैसे से कहीं चर्च बना है! तू अकेली एक फकीर औरत और दो पैसे। बस! इससे हो जाएगा? चर्च बन जाएगा?
उस स्त्री ने कहा कि नहीं, एक और मेरे साथ है। एक मैं हूं, मैं फकीर औरत हूं। और ये दो पैसे हैं। ये भी काफी कम हैं। लेकिन परमात्मा भी मेरे साथ है। तीनों का जोड़ काफी से ज्यादा है। मगर तुम्हें वह तीसरा दिखाई नहीं पड़ता। मुझे वह दिखाई पड़ता है, इसलिए दो पैसे की भी फिक्र नहीं है। और मैं भी फकीर औरत हूं, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हम तीनों मिलकर जरूरत से ज्यादा हैं।
वह जो भक्त का रास्ता है, उस पर परमात्मा साथ है। भक्त कितना ही कमजोर हो, परमात्मा से जुड़कर बहुत ज्यादा है। सारी कमजोरी खो जाती है।
निराकार का पथिक अकेला है, किसी का उसे साथ नहीं है। कठिनाई होगी। अकेले होने से बड़ी और कठिनाई भी क्या है! जिंदगी में कभी आप अकेले हुए हैं? अकेला होने का आपको पता है? जरा देर अकेले छूट जाते हैं, तो जल्दी से अखबार पढ़ने लगते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, किताब उठा लेते हैं। कुछ न कुछ करने लगते हैं, ताकि अकेलापन पता न चले। हमारे जीवन का सारा जाल—परिवार, पति—पत्नी, मित्र, क्लब, होटल, समूह, संघ, मंदिर, चर्च—अकेले होने से बचने की तरकीबें हैं। अकेले होने से घबड़ाहट होती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई थी, तो उसकी लाश के पास बैठकर रो रहा था। नसरुद्दीन का मित्र भी था एक, फरीद। वह उससे भी ज्यादा छाती पीटकर रो रहा था। नसरुद्दीन को बड़ा अखर रहा था। पत्नी मेरी, और ये सज्जन इस तरह रो रहे हैं कि किसी को शक हो सकता है कि इनकी पत्नी मरी हो। नसरुद्दीन भी काफी ताकत लगा रहा था, लेकिन मित्र भी गजब का था, नसरुद्दीन से हमेशा आगे!
भीड़ बढ़ गई थी। कई अजनबी लोग भी इकट्ठे हो गए थे। और नसरुद्दीन को बड़ी बेचैनी हो रही थी। पत्नी के मरने की इतनी नहीं, जितना यह आदमी बाजी मारे लिए जा रहा है! आखिर नसरुद्दीन से नहीं रहा गया, उसने कहा कि ठहर भी फरीद! इतना दुख मत मना, ज्यादा मत घबड़ा। मैं फिर दुबारा शादी कर लूंगा।
लोग बहुत चकित हुए। किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन, अभी पत्नी मरे देर नहीं हुई। लाश घर में रखी है, अभी लाश गरम है। और तुम कह रहे हो, दूसरी शादी कर लोगे! तो नसरुद्दीन ने कहा, कोई शादी करने के लिए तो शादी की नहीं थी। अकेले होने की तकलीफ है। उसके मरते ही मैं फिर अकेला हो गया। और इतना अकेला तब भी नहीं था, जब पहली दफा शादी की थी। अब और ज्यादा अकेला हो गया, क्योंकि साथ का अनुभव हो गया।
रास्ते पर जा रहे हैं। अंधेरे में एक कार निकल जाती है, कार के प्रकाश में आंखें चौंधिया जाती हैं। जब कार चली जाती है, अंधेरा और ज्यादा हो जाता है। पहले इतना नहीं था। पहले कुछ दिखाई भी पड़ता था, अब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
नसरुद्दीन ने कहा कि इस पत्नी की वजह से ही तो अब और जल्दी दूसरी पत्नी की जरूरत है। यह खाली कर गई, बहुत अकेले हो गए।
आपकी पत्नी जब मर जाती है या पति जब मर जाता है, तो जो पीड़ा होती है, वह उसके मरने की कम है, अगर ठीक से खोज करेंगे, तो अकेले हो जाने की ज्यादा है। शायद नसरुद्दीन बहुत नासमझ है, इसलिए तत्काल उसने सच्ची बात कह दी। आप छ: महीने बाद कहेंगे। और अगर जरा मंद बुद्धि हुए, छ: साल बाद कहेंगे। यह दूसरी बात है। लेकिन बात उसने ठीक ही कह दी। अकेले होने की पीड़ा है। किसी को भी हाथ में हाथ लेकर भरोसा आ जाता है कि अकेले नहीं हैं।
तो निराकार का रास्ता तो बिलकुल अकेला है। न पत्नी साथी होगी, न मित्र साथी होगा, न पति। निराकार की जो ठीक साधना है, उसमें तो गुरु भी साथी नहीं होगा। उसमें गुरु भी कह देगा कि मैं सिर्फ रास्ता बताता हूं चलना तुझे है। मैं तेरे साथ नहीं आ सकता हूं। निराकार की आत्यंतिक साधना में तो गुरु कहेगा, तू मुझे छोड़, तभी तेरी यात्रा शुरू होगी। कहेगा कि मुझे पकड़ मत, कहेगा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि अकेले होने की ही साधना है। गुरु का होना भी बाधा है।
इसलिए यह सूत्र कहता है, कृष्ण कहते हैं, अति कठिन है। पहली बात कि अकेला हो जाना होगा। दूसरी बात, अगर परमात्मा की तरफ समर्पण न हो, तो उस अकेलेपन में अहंकार के उठने की बहुत गुंजाइश है। बहुत ऐसा हो सकता है कि मैं हूं। यह मैं की अकड़ बहुत तीव्र हो सकती है, क्योंकि इसको मिटाने के लिए कोई भी नहीं है।
निराकार और मेरा अहंकार, अगर कहीं ये दोनों मिल जाएं तो खतरा है, बड़े से बड़ा खतरा है। क्योंकि अगर मैं कहूं कि मैं ब्रह्म हूं तो इसमें दोनों संभावनाएं हैं। इसका एक मतलब तो यह होता है कि अब मैं नहीं रहा, ब्रह्म ही है; तब तो ठीक है। और अगर इसका यह मतलब हो कि मैं ही हूं अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है, तो बड़ा खतरा है।
इस्लाम ने इस तरह की बात को बिलकुल बंद ही करवा दिया, ताकि कोई खतरा न हो। तो जब अल—हिल्लाज ने कहा कि अहं ब्रह्मास्मि—अनलहक—मैं ही हूं ब्रह्म, तो इस्लाम ने हत्या कर दी। हत्या करनी उचित नहीं है। लेकिन अभी मैं एक फकीर, सूफी फकीर की टिप्पणी पढ़ रहा था अल—हिल्लाज की हत्या पर। तो उसने कहा कि यह बात ठीक नहीं है कि अल—हिल्लाज की हत्या की गई। लेकिन एक लिहाज से ठीक है। क्योंकि अल—हिल्लाज की हत्या करने से क्या मिटता है! अल—हिल्लाज तो पा चुका था, इसलिए हत्या करने से कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस हत्या करने से दूसरे लोग, जो कि अपने अहंकार को मजबूत कर लेते अनलहक कहकर, उनके लिए रुकावट हो गई।
यह बात भी मुझे ठीक मालूम पड़ी। अल—हिल्लाज की हत्या से कुछ मिटता ही नहीं, क्योंकि अल—हिल्लाज उसको पा चुका, जो अमृत है। इसलिए उसको मारने में कोई हर्जा नहीं। अगर उसको न मारा जाए, तो न मालूम कितने नासमझ लोग चिल्लाने लगेंगे। उनके अहंकार का खतरा हो सकता है। तो इस्लाम ने वह दरवाजा बंद कर दिया।
भारत वह दरवाजा बद नहीं किया। क्‍योंकि भारत की आकांक्षा यह रही कि कोई भी दरवाजा बंद न हो, चाहे एक दरवाजे से हजारों वर्ष में एक भी आदमी क्यों न निकलता हो। लेकिन दरवाजा खुला रहना चाहिए। एक आदमी को भी बाधा नहीं होनी चाहिए।
निराकार के मार्ग से हजारों साल में एकाध आदमी निकलता है। लेकिन दरवाजा खुला रखा जाता है। क्योंकि वह जो निराकार के मार्ग से निकलता है, वह भक्ति के मार्ग से निकल ही न सकेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। वह उसी मार्ग से निकल सकेगा। बुद्ध को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। महावीर को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। कोई उपाय नहीं है! वह उनका स्वभाव नहीं है।
मीरा को निराकार के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता, वह उसका स्वभाव नहीं है। सब मार्ग खुले और साफ होने चाहिए। पर मार्ग कठिन है, क्योंकि अहंकार के उठने का डर है। देह—अभिमान मजबूत हो सकता है। खतरा है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, पहुंच तो जाते हैं मुझ तक ही वे लोग भी, जो निराकार से चलते हैं। लेकिन वह स्थिति कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति—योग से निरंतर चिंतन करते भजते हैं, उनका मैं शीघ्र उद्धार करता हूं।
भक्त के लिए एक सुविधा है। वह पहले चरण पर ही मिट सकता है। यह उसकी सुविधा है। ज्ञानी की असुविधा है, आखिरी चरण पर मिट सकता है; बीच की यात्रा में रहेगा। वह रहना मजबूत भी हो सकता है। और ऐसा भी हो सकता है, वह इतना मजबूत हो जाए कि आखिरी चरण उठाने का मन ही न रहे, और अहंकार में ही ठहरकर रह जाए।
लेकिन भक्त को एक सुविधा है, वह पहले चरण पर ही मिट सकता है। सुविधा ही नहीं है, पहले चरण पर उसे मिटना ही होगा, क्योंकि वह साधना की शुरुआत ही वही है। रोग को साथ ले जाना नहीं है। ज्ञानी का रोग साथ चल सकता है आखिरी तक। आखिर में छूटेगा, क्योंकि मिलन के पहले तो रोग मिटना ही चाहिए, नहीं तो मिलन नहीं होगा। लेकिन भक्त के पथ पर वह पहले, प्रवेश पर ही बाहर रखवा दिया जाता है, छुड़वा दिया जाता है।
भक्त अपने कर्मों को समर्पण कर देता है। वह कहता है, अब मैं नहीं कर रहा हूं; तू ही कर रहा है। वह बुरे— भले का भी भाव छोड़ देता है। वह कहता है, जो प्रभु की मर्जी। अब मेरी कोई मर्जी नहीं है। अब तू जो मुझसे करवाए, मैं करता रहूंगा। तेरा उपकरण हो गया। तू सुख में रखे तो सुखी, और तू दुख में रखे तो दुखी। न तो मैं सुख की आकांक्षा करूंगा, और न दुख न मिले, ऐसी वासना रखूंगा। अब मैं सब भांति तेरे ऊपर छोड़ता हूं। यह जो समर्पण है, इस समर्पण के साथ ही अहंकार गलना शुरू हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, उनका मैं जल्दी ही उद्धार कर लेता हूं क्योंकि वे पहले चरण में ही अपने को छोड़ देते हैं।
ज्ञानी का उद्धार भी होगा, लेकिन वह आखिरी चरण में होगा। घटना अंत में वही हो जाएगी। लेकिन कोई अपनी यात्रा के पहले ही बोझ को रख देता है, कोई अपनी यात्रा की समाप्ति पर बोझ को छोड़ता है। और जहां बोझ छूट जाता है अस्मिता का, अहंकार का, वहीं उद्धार शुरू हो जाता है।
कृष्ण जब कहते हैं, मैं उद्धार करता हूं तो आप ऐसा मत समझें कि कोई बैठा हुआ है, जो आपका उद्धार करेगा। कृष्ण का मतलब है, नियम। कृष्ण का मतलब है, शाश्वत धर्म, शाश्वत नियम। जैसे ही आप अपने को छोड़ देते हैं, वह नियम काम करना शुरू कर देता है।
पानी है; नीचे की तरफ बहता है। फिर उसको गरम करें आग से; भाप बन जाता है। भाप बनते ही ऊपर की तरफ उठने लगता है। एक नियम तो ग्रेविटेशन का है कि पानी नीचे की तरफ बहता है। न्यूटन ने खोजी यह बात कि जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है, इसलिए सब चीजें नीचे की तरफ गिरती हैं। लेकिन एक और नियम भी है जो ग्रेविटेशन के विपरीत है। जिसको योगियों ने लेविटेशन कहा है। नीचे की तरफ खींचने में तो कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है, लेकिन ऊपर की तरफ भी एक खिंचाव है, जिसको एक बहुत कीमती महिला सिमोन वेल ने ग्रेस कहा है। ग्रेस और ग्रेविटेशन। नीचे की तरफ कशिश, ऊपर की तरफ 'प्रभु—प्रसाद, ग्रेस।
नियम है। जब आप गिर पड़ते हैं जमीन पर, केले के छिलके पर पैर फिसल जाता है, तो आप यह मत सोचना कि कोई भगवान बैठा है, जो आपकी टाग तोड़ता है। कि खटाक से, आपने गड़बड़ की, केले के छिलके पर फिसले, उसने उठाया हथौड़ा और फ्रैक्चर कर दिया! कोई बैठा हुआ नहीं है कि आपका फ्रैक्यर करे। किस—किस का फ्रैक्यर करने का हिसाब रखना पड़े। नियम है। आपने भूल की, नियम के अनुसार आपका पैर टूट गया। कोई तोड़ता नहीं है पैर। पैर टूट जाता है, नियम के विपरीत पड़ने से टूट जाता है।
ठीक ऐसे ही ग्रेस है। जैसे ही आपका अहंकार हटा, आप ऊपर की तरफ खींच लिए जाते हैं। कोई खींचता नहीं है। कोई ऐसा बैठा नहीं है कि आपके गले में फांसी लगाकर और ऊपर खींचेगा।
उद्धार का मतलब ऐसा मत समझना कि कोई आपको उठाएगा और खींचेगा। कोई नहीं उठा रहा है, कोई उठाने की जरूरत नहीं है। जैसे ही बोझ हलका हुआ, आप ऊपर उठ जाते हैं।
जैसे आप एक कार्क की गेंद ले लें; और उसके चारों तरफ मिट्टी लपेटकर उसे पानी में डाल दें। वह जमीन में बैठ जाएगी नदी की, क्योंकि वह मिट्टी जो चारों तरफ लगी है, उस कार्क को भी डुबा लेगी। लेकिन जैसे—जैसे मिट्टी पिघलने लगेगी और पानी में बहने लगेगी, कार्क उठने लगेगा ऊपर की तरफ। कोई उठा नहीं रहा है। मिट्टी बिलकुल बह जाएगी पिघलकर, हटकर; कार्क जमीन से ऊपर उठ आएगा। पानी की सतह पर तैरने लगेगा। किसी ने उठाया नहीं है। नियम! कार्क जैसे ही बोझिल नहीं रहा, उठ जाता है।
उद्धार का अर्थ है कि आप जैसे ही अपने को छोड़ देते हैं, उठ जाते हैं, खींच लिए जाते हैं।
कृष्ण कहते है, मैं उसको, जो सगुण रूप से, साकार को, एक परमात्मा की धारणा को, उसके चरणों में अपने को समर्पित करता है, अनन्य भाव से निरंतर, सतत उसका स्मरण करता है, वही उसकी धुन, वही उसका स्वर श्वास—श्वास में समा जाता है; रोएं—रोएं में उसी की पुलक हो जाती है, उठता, बैठता, सोता, सब भांति उसी को याद करता है, उसके ही प्रेम में लीन रहने लगता है, ऐसी जो तल्लीनता बन जाती है, उसका मैं शीघ्र ही उद्धार कर लेता हूं।
शीघ्र इसलिए कि वह पहले चरण पर ही बोझ से हट जाता है। ज्ञानी का भी उद्धार होता है, लेकिन आखिरी चरण पर।
तो जिन्हें यात्रा—पथ में अपने को बचा रखना हो और अंत में ही छोड़ना हो, वे निराकार की तरफ जा सकते हैं। जिनको पहले ही चरण पर सब छोड़ देना हो, भक्ति उनके लिए है। निश्चित ही, जो पहले चरण पर छोड़ता है, पहले चरण पर ही मिलन शुरू हो जाता है। जितनी देर आप अपने को खींचते हैं, उतनी ही देर होती है। जितने जल्दी अपने को छोड़ देते हैं, उतने ही जल्दी घटना घट जाती है। यह आत्मिक उत्थान आपके अहंकार के बोझ से ही रुका है। यह खयाल कि मैं हूं इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और जब तक मैं हूं तब तक परमात्मा नहीं हो सकता। और जब मैं मिट जाऊं, तभी वह हो सकता है।
जीसस ने कहा है, जो अपने को मिटाएंगे, केवल वे ही बचेंगे। जो अपने को बचाएंगे, वे व्यर्थ ही अपने को मिटा रहे हैं।
हम अपने को बचा रहे हैं। कुछ है भी नहीं बचाने योग्य, फिर भी बचा रहे हैं!
कुछ ही दिन पहले एक युवक मेरे पास आया था—अमेरिका से लंबी यात्रा करके, न मालूम किन—किन आश्रमों, किन—किन साधना—स्थलों पर भटककर। मुझसे कहने लगा, गुरु की तलाश है। लेकिन अब तक गुरु मिला नहीं। मैंने उससे पूछा, किस भांति गुरु की तलाश करोगे? क्या उपाय है तुम्हारे पास? कैसे तुम जाचोगे? क्या है कसौटी? क्या है तराजू? कोई निकष है, जिससे तुम कसोगे कि कौन गुरु है? तुम्हें पता है कि गुरु का क्या अर्थ है? क्या लक्षण है?
उसने कहा, नहीं; यह तो मुझे कुछ पता नहीं है। तो फिर, मैंने कहा, तुम भटकते रहो पूरी जमीन पर। गुरु कैसे मिलेगा? क्योंकि गुरु से मिलना हो, तो तुम्हें अपने को छोड़ना पड़ेगा। तुमने कहीं किसी के पास कभी अपने को छोड़ा? उसने कहा कि कहीं छोडूं अपने को और कोई नुकसान हो जाए! और आदमी गलत हो, और सच्चा न हो, और धोखेबाज हो। और गुरु तो हो, लेकिन मिथ्या हो, बनावटी हो, और कुछ नुकसान हो जाए!
तो मैंने उससे पूछा, तेरे पास खोने को क्या है, यह पहले तू मुझे बता दे! नुकसान क्या होगा? तेरे पास कुछ खोने को है जो कोई तुझसे छीन लेगा? तेरी हालत ऐसी है कि नंगा आदमी नहाता नहीं, क्योंकि वह सोचता है, नहाऊंगा, तो कपड़े कहां सुखाऊंगा! कि जिसके पास कुछ भी नहीं है, रातभर पहरा देता है कि कहीं चोरी न हो जाए! तू बचा क्या रहा है? तेरे पास है क्या? और जब तेरे पास कुछ है ही नहीं, तो क्या हानि तुझे पहुंचाई जा सकती है? क्या तुझसे छीना जा सकता है? तो तू हिम्मत कर और अपने को बचाना छोड़। क्योंकि जिस दिन तू अपने को बचाना छोड़ेगा, उसी दिन गुरु से मिलने की संभावना शुरू होती है। उसी दिन से तू योग्य बनना शुरू हुआ।
और फिर अगर गलत गुरु भी मिल जाएगा, तो डर क्या है? जो अपने को छोड़ता है पूरी तरह, उससे गलत गुरु भी डरता है। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई अपने को ठीक से छोड़ दे गलत गुरु के पास भी, तो गलत गुरु के लिए भी ठीक होने का रास्ता खुल सकता है। क्योंकि गुरु तो केवल बहाना है। जब कोई अपने को पूरी तरह छोड़ता है, तो वह गुरु को परमात्मा मानकर ही छोड़ता है। और किसी का इतनी सरलता से, इतनी पूर्णता से किसी को परमात्मा मान लेना, अगर वह आदमी गलत हो—अगर सही हो, तब तो इसका रूपांतरण होगा ही—अगर वह गलत हो, तो उसका भी रूपांतरण होगा।
और छोड़ तो रहा है परमात्मा के लिए। वह गुरु तो प्रतीक है। उसके पीछे जो छिपा हुआ है परमात्मा, उसके लिए छोड़ा जा रहा है। लेकिन हम डरे हुए हैं कि कहीं कुछ खो न जाए! जिनके पास कुछ भी नहीं है!
कार्ल मार्क्स ने सारी दुनिया के मजदूरों से कहा है कि सारी दुनिया के सर्वहारा मजदूरो, इकट्ठे हो जाओ, क्योंकि तुम्हारे पास सिवाय हथकड़ियां खोने को कुछ भी नहीं है। यूनाइट आल दि प्रोलिटेरियस, बिकाज यू हैव नथिंग टु क्त, एक्सेप्ट योर चेन्स। सिवाय जंजीरों के खोने को है भी क्या! तो डरते किसलिए हो?
पता नहीं, यह बात कहां तक सच है, क्योंकि ऐसा गरीब आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके पास कुछ न हो। गरीब के पास भी कुछ होता है; कम होता है। भिखमंगे के पास भी कुछ होता है, कम होता है। बिलकुल ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके पास कुछ भी न हो। सांसारिक अर्थों में तो कुछ न कुछ होता है। लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में यह बात बिलकुल सही है कि आपके पास कुछ भी नहीं है; आप सर्वहारा हो। फिर भी डरे हुए हो कि कहीं कुछ चूक न जाए। परमात्मा के पास भी सम्हलकर जाते हो कि कहीं कुछ छिन न जाए!
जो इतना डरा है, भक्ति का मार्ग उस के लिए नहीं है। भक्ति के मार्ग पर तो ट्रस्ट, भरोसा, उसका भरोसा, कि ठीक है। वह मिटाएगा, तो इसमें ही कुछ लाभ होगा। कि वह छीनेगा, तो इसमें कुछ बात होगी, रहस्य होगा। कि वह नुकसान करेगा, तो उस नुकसान से जरूर कुछ लाभ होने वाला होगा। इस भांति जो अपने को छोड़ने को तैयार है, तो उद्धार इसी क्षण हो सकता है।
भक्त के लिए एक क्षण भी रुकने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के लिए जन्मों—जन्मों तक भी रुकना पड़ सकता है, क्योंकि अपनी ही चेष्टा से लगा है। भक्त तो अभी एवेलेबल हो जाता है, इसी वक्त—अगर वह छोड़ दे। और तत्काल नियम काम करना शुरू कर देता है। कृष्ण उसे खींच लेते हैं।
कृष्ण शब्द बड़ा प्यारा है। इसका मतलब होता है अट्रैक्यान, इसका मतलब होता है मैग्नेट। कृष्ण का मतलब होता है, जो खींचता है, आकृष्ट करता है।
कृष्ण एक नियम हैं। अगर आप अपने को छोडने को तैयार हैं, तो नियम आपको खींच लेता है। आप जगत के आत्यंतिक चुंबक के निकट पहुंच जाते हैं। आप खींच लिए जाते हैं—दुख से, पीडा से, अंधकार से। लेकिन स्वयं को गंवाने की हिम्मत चाहिए। स्वयं को मिटाने का साहस चाहिए। स्वयं को गला देने की तैयारी चाहिए।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई बीच से उठे न। जब तक कीर्तन पूरा न हो जाए, बैठें। और कीर्तन में सम्मिलित हों।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें