इहलौकिक
जीवन के समग्र
स्वीकार के
प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 26
सितंबर, 1970;
मनाली (कुलू)
"भगवान
श्री, आपको
श्रीकृष्ण पर
बोलने की
प्रेरणा कैसे
व क्यों हुई? इस लंबी
चर्चा का मूल
आधार क्या है?'
सोचना
हो, बोलना हो,
समझना हो, तो कृष्ण से
ज्यादा महत्वपूर्ण
व्यक्ति
खोजना
मुश्किल है।
ऐसा नहीं कि
और
महत्वपूर्ण
व्यक्ति हुए
हैं, लेकिन
कृष्ण का
महत्व अतीत के
लिए कम और
भविष्य के लिए
ज्यादा है। सच
ऐसा है कि
कृष्ण अपने समय
के कम से कम
पांच हजार
वर्ष पहले
पैदा हुए। सभी
महत्वपूर्ण
व्यक्ति अपने
समय के पहले
पैदा होते हैं,
और सभी
गैर-महत्वपूर्ण
व्यक्ति अपने
समय के बाद
पैदा होते
हैं। बस
महत्वपूर्ण
और गैर-महत्वपूर्ण
व्यक्ति में
इतना ही फर्क
है। और सभी साधारण
व्यक्ति अपने
समय के साथ
पैदा होते हैं।
महत्वपूर्ण
व्यक्ति अपने
समय के बहुत
पहले पैदा हो
जाता है। और
कृष्ण तो अपने
समय के बहुत
पहले पैदा हुए
हैं। शायद आनेवाले
भविष्य में हम
कृष्ण को
समझने में योग्य
हो सकेंगे।
अतीत कृष्ण को
समझने में
योग्य नहीं हो
सका।
और यह
भी खयाल कर
लें कि जिसे
हम समझने में
योग्य नहीं हो
पाते, उसकी
हम पूजा करना
शुरू कर देते
हैं। जो हमारी
समझ के बाहर
छूट जाता है, उसकी हम
पूजा करने
लगते हैं। या
तो हम गाली देते
हैं, या
प्रशंसा करते
हैं, दोनों
ही पूजाएं
हैं--एक शत्रु
की है, एक
मित्र की है।
जिसे हम नहीं
समझ पाते, उसे
हम भगवान बना
लेते हैं। असल
में अपनी नासमझी
को स्वीकार
करना बहुत
कठिन होता है।
दूसरे को
भगवान बना
देना बहुत
आसान होता है।
लेकिन दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
जिसे
हम नहीं समझ
पाते उसे हम
क्या
कहें--उसे हम
भगवान कहना
शुरू कर देते
हैं। भगवान
कहने का मतलब
है कि जैसे हम
भगवान को नहीं
समझ पा रहे हैं
वैसे ही इस
व्यक्ति को भी
नहीं समझ पा
रहे हैं। जैसा
भगवान बेबूझ
है, वैसा ही
यह व्यक्ति भी
अबूझ है। जैसे
भगवान रहस्य
है, वैसा
ही यह व्यक्ति
भी रहस्य है।
जैसे भगवान को
हम नहीं छू
पाते, पकड़
पाते, स्पर्श
कर पाते, वैसे
ही इस व्यक्ति
को भी नहीं छू
पाते, नहीं
पकड़ पाते।
जैसे भगवान
सदा ही जानने
को शेष रह
जाता है वैसा
ही यह व्यक्ति
भी सदा जानने
को शेष रह
जाता है।
समय के
पहले जो लोग
पैदा हो जाते
हैं, उनकी
पूजा शुरू हो
जाती है।
लेकिन अब वह
वक्त करीब आ
रहा है जब
कृष्ण की पूजा
से अर्थ नहीं
होगा, कृष्ण
को जीना शुरू
हो सकेगा, कृष्ण
को जिया जा
सकेगा। ठीक
इसीलिए कृष्ण
को चुना चर्चा
के लिए, क्योंकि
आने वाले
भविष्य के
संदर्भ में
सबसे सार्थक
व्यक्तित्व
उन्हीं का
मुझे मालूम पड़ता
है। तो दोत्तीन
बातें इस
संबंध में
आपसे कहूं।
एक बात, कृष्ण को
छोड़कर दुनिया
के समस्त
अदभुत व्यक्ति--चाहे
महावीर, चाहे
बुद्ध, चाहे
क्राइस्ट, या
कोई और--ये सभी
परलोक के लिए
जी रहे थे।
आने वाले किसी
जीवन के लिए, आने वाले
किसी लोक के
लिए; परलोक
के लिए, मोक्ष
के लिए, स्वर्ग
के लिए।
मनुष्य का
पूरा अतीत
पृथ्वी पर
इतना दुखद था
कि पृथ्वी पर
तो जीना ही
संभव नहीं था।
मनुष्य का
पूरा अतीत
इतनी पीड़ाओं,
इतनी "सफरिंग',
इतनी
कठिनाइयों का
था कि इस
पृथ्वी के
जीवन को
स्वीकार करना
मुश्किल था।
तो अतीत के
समस्त धर्म
पृथ्वी को
अस्वीकार
करने वाले
धर्म हैं, सिर्फ
एक कृष्ण को
छोड़कर। कृष्ण
इस पृथ्वी के पूरे
जीवन को पूरा
ही स्वीकार
करते हैं। वे
किसी परलोक
में जीने वाले
व्यक्ति नहीं,
इसी पृथ्वी
पर, इसी
लोक में जीने
वाले व्यक्ति
हैं। बुद्ध, महावीर का
मोक्ष इस
पृथ्वी के पार
कहीं दूर है, कृष्ण का
मोक्ष इसी
पृथ्वी पर, यहीं और अभी
है।
इस
जीवन की, जिसे
हम जानते हैं,
इस जीवन की
इतनी गहरी
स्वीकृति
किसी व्यक्ति ने
कभी भी नहीं
दी है। आने
वाले भविष्य
में पृथ्वी पर
दुख कम हो
जाएंगे, सुख
बढ़ जाएंगे और
पहली बार
पृथ्वी पर त्यागवादी
व्यक्तियों
की स्वीकृति
मुश्किल हो
जाएगी। दुखी
समाज त्याग को
स्वीकार कर
सकता है, सुखी
समाज त्याग को
स्वीकार नहीं
कर सकता। दुखी
समाज में
त्याग, संन्यास,
"रिनंसिएशन';
क्योंकि
दुखी समाज में
कोई कह सकता
है, सिवाय
दुख के जीवन
में क्या है, हम छोड़कर
जाते हैं।
सुखी समाज में
यह नहीं कहा
जा सकता कि
जीवन में
सिवाय दुख के
क्या है। अर्थहीन
हो जाएगी यह
बात।
इसलिए त्यागवादी
धर्म की कोई
बात भविष्य के
लिए सार्थक
नहीं है, विज्ञान
उन सारे दुखों
को अलग कर
देगा जो
जिंदगी में
दुख मालूम
पड़ते थे।
बुद्ध ने कहा
है, जन्म
दुख है, जीवन
दुख है, जरा
दुख है, मृत्यु
दुख है, ये
सब दुख हैं।
दुख अब मिटाए
जा सकेंगे।
जन्म दुख नहीं
होगा--न मां के
लिए, न
बेटे के लिए।
जीवन दुख नहीं
होगा, बीमारियां
काटी जा सकेंगी।
जरा नहीं
होंगी और
बुढ़ापे से
आदमी को जल्दी
ही बचा लिया
जा सकेगा और
जीवन को भी
लंबा किया जा
सकता है। इतना
लंबा किया जा
सकता है कि अब
विचारणीय यह
नहीं होगा कि
आदमी क्यों मर
जाता है, विचारणीय
यह होगा कि
आदमी इतना
लंबा क्यों जीये? यह
बहुत निकट
भविष्य में सब
हो जाने वाला
है। उस दिन
बुद्ध का
वचन--जन्म दुख
है, जरा
दुख है, जीवन
दुख है, मृत्यु
दुख है, बहुत
समझना
मुश्किल हो
जाएगा। उस दिन
कृष्ण की
बांसुरी
सार्थक हो
सकेगी। उस दिन
कृष्ण का गीत
और कृष्ण का
नृत्य सार्थक
हो सकेगा। उस
दिन जीवन सुख
है, यह
चारों ओर नाच उठेगी
घटना। जीवन
सुख है, इसके
फूल चारों ओर
खिल जाएंगे।
इन फूलों के
बीच में नग्न
खड़े हुए
महावीर का
संदर्भ खो
जाता है। इन
फूलों के बीच
में जीवन के
प्रति पीठ करके
जानेवाले
व्यक्तित्व
का अर्थ खो
जाता है। इन
फूलों के बीच
में तो जो नाच
सकेगा वही
सार्थक हो
सकता है।
भविष्य में
दुख कम होता
जाएगा और सुख
बढ़ता जाएगा, इसलिए मैं
सोचता हूं कि
कृष्ण की
उपयोगिता रोज-रोज
बढ़ती
जानेवाली है।
अभी तक
हम सोच नहीं
सकते कि
धार्मिक आदमी
के ओठों
पर बांसुरी
कैसे है। अभी
तक हम सोच ही
नहीं सकते हैं
कि धार्मिक
आदमी और मोर
का पंख लगाकर
नाच कैसे रहा
है। धार्मिक
आदमी प्रेम
कैसे कर सकता
है, गीत कैसे
गा सकता है।
धार्मिक आदमी
का हमारे मन
में खयाल ही
यह है कि जो
जीवन को छोड़
रहा है, त्याग
रहा है, उसके
ओंठों से गीत
नहीं उठ सकते,
उसके ओंठ से
दुख की आह उठ
सकती है। उसके
ओंठों पर
बांसुरी नहीं
हो सकती है।
यह असंभव है।
इसलिए कृष्ण
को समझना अतीत
को बहुत ही
असंभव हुआ।
कृष्ण को समझा
नहीं जा सका।
इसलिए कृष्ण
बहुत ही
बेमानी, अतीत
के संदर्भ में
बहुत
"एब्सर्ड', असंगत
थे। भविष्य के
संदर्भ में
कृष्ण रोज संगत
होते चले
जाएंगे। और
ऐसा धर्म
पृथ्वी पर अब
शीघ्र ही पैदा
हो जाएगा जो
नाच सकता है, गा सकता है, खुश हो सकता
है। अतीत का
समस्त धर्म
रोता हुआ, उदास,
हारा हुआ, थका हुआ, पलायनवादी,
"एस्केपिस्ट'
है। भविष्य
का धर्म जीवन
को, जीवन
के रस को
स्वीकार करने
वाला, आनंद
से, अनुग्रह
से नाचने वाला,
हंसने वाला
धर्म होने
वाला है।
जीवन
की यह जो
संभावना
है--जीवन की यह
जो भविष्य की
संभावना है, इस भविष्य
की संभावनाओं
को खयाल में
रखकर कृष्ण पर
बात करने का
मैंने विचार
किया है। हमें
भी समझना
मुश्किल
पड़ेगा, क्योंकि
हम भी अतीत के
दुख के
संस्कारों से
ही भरे हुए
हैं। और धर्म
को हम भी
आंसुओं से जोड़ते
हैं, बांसुरियों से नहीं।
शायद ही हमने
कभी ऐसा आदमी
देखा हो जो कि
इसलिए
संन्यासी हो
गया हो कि
जीवन में बहुत
आनंद है। हां,
किसी की
पत्नी मर गई
है और जीवन
दुख हो गया है
और वह
संन्यासी हो
गया। किसी का
धन खो गया है, दिवालिया हो
गया है, आंखें
आंसुओं से भर गई
हैं और वह
संन्यासी हो
गया। कोई उदास
है, दुखी
है, पीड़ित
है, और
संन्यासी हो
गया है। दुख
से संन्यास
निकला है।
लेकिन आनंद से?
आनंद से
संन्यास नहीं
निकला। कृष्ण
भी मेरे लिए
एक ही व्यक्ति
हैं जो आनंद
से संन्यासी
हैं।
निश्चित
ही आनंद से जो
संन्यासी है
वह दुख वाले
संन्यासी से
आमूल रूप से
भिन्न होगा।
जैसे मैं कह
रहा हूं कि
भविष्य का
धर्म आनंद का
होगा, वैसे
ही मैं यह भी
कहता हूं कि
भविष्य का
संन्यासी
आनंद से
संन्यासी
होगा। इसलिए
नहीं कि एक
परिवार दुख दे
रहा था इसलिए
एक व्यक्ति
छोड़कर
संन्यासी हो
गया, बल्कि
एक परिवार
उसके आनंद के
लिए बहुत छोटा
पड़ता था। पूरी
पृथ्वी को
परिवार बनाने
के लिए
संन्यासी हो
गया। इसलिए
नहीं कि एक
प्रेम जीवन
में बंधन बन गया
था, इसलिए
कोई प्रेम को
छोड़कर
संन्यासी हो
गया, बल्कि
इसलिए कि एक
प्रेम इतने
आनंद के लिए
बहुत छोटा था,
सारी
पृथ्वी का
प्रेम जरूरी
था, इसलिए
कोई संन्यासी
हो गया। जीवन
की स्वीकृति
और जीवन के
आनंद और जीवन
के रस से
निकले हुए संन्यास
को जो समझ
पाएगा, वह
कृष्ण को भी
समझ पा सकता
है।
नहीं, भविष्य में
अगर कोई कहेगा
कि मैं दुख के
कारण संन्यासी
हो गया तो हम
कहेंगे कि दुख
से कोई संन्यासी
कैसे हो सकता
है। और दुख से
जो संन्यास
निकलेगा वह
आनंद में ले
जाने वाला
नहीं होगा।
दुख से जो
संन्यास
निकलेगा वह
ज्यादा-से-ज्यादा
उदासी में ले
जा सकता है, आनंद में
नहीं ले जा
सकता।
क्योंकि दुख
से जो संन्यास
निकलेगा वह
दुख को कम ही
कर सकता है ज्यादा-से-ज्यादा,
आनंद को
पैदा नहीं कर
सकता। दुख की
स्थितियों को
छोड़कर आप दुख
को कम कर
लेंगे, लेकिन
आनंद को
उपलब्ध नहीं
हो सकते। आनंद
से जिस
संन्यास का
जन्म होगा, जो गंगा
आनंद से पैदा
होगी, वही
आनंद के सागर
तक पहुंच सकती
है। क्योंकि तब
आनंद को बढ़ाना
ही साधना
होगी। अतीत की
साधना दुख को
कम करने की
साधना थी। और
दुख को कम
करने वाला
साधक दुख को
कम कर लेगा, लेकिन यह
"निगेटिव', नकारात्मक
होगा, ज्यादा-से-ज्यादा
उपलब्धि उसकी
उदासी की होगी,
जो दुख का क्षीणतम
रूप है। इसलिए
संन्यासी
हमारा उदास, हारा हुआ, भागा हुआ है,
जीता हुआ, जीवंत, आनंद
से नाचता हुआ
संन्यासी
नहीं है।
कृष्ण
मेरे लिए आनंद
के संन्यासी
हैं। आनंद के
संन्यास की
संभावना के
कारण जानकर ही
मैंने चुना कि
उन पर बात
करूं। ऐसा
नहीं है कि
कृष्ण पर
बातें नहीं की
गईं। लेकिन
कृष्ण पर
जिन्होंने
बातें की हैं
वे भी दुख से
भरे हुए
संन्यासी थे।
इसलिए कृष्ण
की आज तक की
व्याख्या
कृष्ण के साथ
अन्याय करती
रही है। करेगी
ही। अगर शंकर
कृष्ण की
व्याख्या
करेंगे तो एक
उलटा ही आदमी
कृष्ण की
व्याख्या कर
रहा है। शंकर
की व्याख्या
कृष्ण के साथ
न्यायसंगत
नहीं हो सकती।
कृष्ण की
व्याख्या
अतीत में संगत
हो ही नहीं
सकी। क्योंकि
जो
व्याख्याकार
थे, जो कृष्ण
पर कह रहे थे, बोल रहे थे, वे सब दुख से
आए हुए थे। वे
इस जगत को
माया सिद्ध
करना चाहते थे,
वे इस जगत
को दिव्य कह
रहे हैं।
इसलिए कृष्ण के
लिए सब
स्वीकार है।
अस्वीकार है
ही नहीं। "टोटल
एक्सेप्टबिलिटी'
का, समस्त
को स्वीकार
लेने का ऐसा
व्यक्तित्व
कभी पैदा ही नहीं
हुआ है।
धीरे-धीरे
रोज जब हम बात
करेंगे तो
बहुत-सी बातें
खयाल में आ
सकेंगी।
लेकिन मेरे
लिए कृष्ण शब्द
भविष्य के लिए
इंगित और बहुत
सूचक है। इसलिए
इस पर बात
करने को तय
किया है।
"आपने
अभी कहा कि
बुद्ध और
महावीर जैसे
संन्यासी दुखवादी
हैं। लेकिन
संन्यास उनके
वैभवपूर्ण
जीवन से निकला
है, संन्यास
उनके वैभव का
अगला चरण है, इसलिए उसके
आधार में आप
दुख को नहीं
रख सकेंगे।'
नहीं, मैंने
महावीर और
बुद्ध को दुखवादी
संन्यासी
नहीं कहा।
अतीत का
संन्यास दुखवादी
था। महावीर का
व्यक्तित्व
भी अगर हम
देखें, और
बुद्ध का
व्यक्तित्व
अगर देखें, तो भी जीवन
को छोड़ने वाला
है। महावीर और
बुद्ध दुखवादी
हैं, ऐसा
मैंने नहीं
कहा, क्योंकि
मैं महावीर और
बुद्ध को
मानता हूं कि उन्होंने
पाया है।
महावीर का दुख
बहुत भिन्न है।
महावीर का दुख
सुख की ऊब है।
बुद्ध का दुख
सुख से ऊब
जाना है। उनका
दुख सुख का
अभाव नहीं है,
"एब्सेंस'
नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि महावीर को
सुख की कमी थी
इसलिए वे
संन्यासी हो
गए। न, अति
सुख हो जाए तो
सुख व्यर्थ हो
जाता है। लेकिन
फिर भी वे सुख
को छोड़कर गए।
छोड़ना उन्हें
अब भी सार्थक
है। सुख तो
निरर्थक हुआ,
लेकिन
छोड़ना सार्थक
रहा। कृष्ण को
सुख भी व्यर्थ
है, छोड़ना
भी व्यर्थ है।
कृष्ण के लिए
व्यर्थता की
गहराई बहुत
ज्यादा है।
समझें।
अगर
मैं किसी चीज
को पकड़ता
हूं, तो भी
मेरे लिए
उसमें कुछ
अर्थ है। और
अगर मैं उसे
छोड़ता हूं तो
भी निषेधात्मक
अर्थ है। नहीं
छोडूंगा तो
दुख पाऊंगा।
इतना अर्थ तो
है ही। महावीर
और बुद्ध का संन्यास
दुख से निकला
है, ऐसा
मैं नहीं
कहता। सुख से
ही निकला। सुख
की ऊब से
निकला। वे
किसी और बड़े
सुख की खोज
में इस सुख को
छोड़कर चले गए।
कृष्ण में
उनसे भेद है।
कृष्ण किसी बड़े
सुख की खोज
में इस सुख को
छोड़कर नहीं
जाते, इस
सुख को भी उस
बड़े सुख की
खोज की सीढ़ी
ही बनाते हैं।
इसे छोड़कर
नहीं जाते। इस
सुख में और उस सुख
में उन्हें
विरोध नहीं
दिखाई पड़ता।
वह जो बड़ा सुख
है, इसी
सुख का
विस्तार है।
वह इसी गीत की
अगली कड़ी है, वह इसी
नृत्य का अगला
चरण है। वह जो
बड़ा सुख है, वह जो आनंद
है, वह इस
सुख का विरोधी
नहीं है।
बल्कि कृष्ण
के लिए इस सुख
में भी उस बड़े
आनंद की ही
झलक है, यह
इसकी ही
शुरुआत है।
बुद्ध
और महावीर भी
सुख से ही
जाते हैं, लेकिन उनकी
दृष्टि छोड़ने
की दृष्टि है।
वह जो छोड़ने
की दृष्टि है
वह हम दुखवादियों
को और भी
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ी है।
बुद्ध और महावीर
सुख से ऊबकर
गए हैं, लेकिन
हम दुखी लोगों
को ऐसा लगा है
कि दुख से ही
गए हैं। तो
बुद्ध और
महावीर की
व्याख्या भी हमने
जो की है वह भी दुखवादियों
की व्याख्या
है। जैसे
कृष्ण के साथ
अन्याय हुआ, उससे थोड़ा
कम सही, लेकिन
बुद्ध और
महावीर के साथ
भी अन्याय हुआ
है।
हम
दुखी हैं। हम
जब छोड़कर जाते
हैं तो दुख के
कारण छोड़कर
जाते हैं।
बुद्ध और
महावीर जब
छोड़कर जाते
हैं तो सुख के
कारण छोड़कर
जाते हैं। हममें
और बुद्ध और
महावीर में भी
फर्क है।
हमारे छोड़ने
का मूल आधार
दुख होता है, उनके छोड़ने
का मूल आधार
सुख होता है।
हैं तो वे भी
सुख से ही गए
हुए संन्यासी,
लेकिन
कृष्ण और
उनमें भी एक
फर्क है और वह
फर्क यह है कि
वे सुख को
छोड़कर गए हैं,
कृष्ण
छोड़कर नहीं जा
रहे हैं।
कृष्ण
स्वीकार कर ले
रहे हैं जो
है। असल में
सुख को छोड़ने
योग्य भी नहीं
पा रहे हैं।
भोगने योग्य
का सवाल ही
नहीं है, छोड़ने
योग्य भी नहीं
पा रहे हैं।
जीवन जैसा है
उसमें कुछ भी
रद्दोबदल
करने की कृष्ण
की कोई इच्छा
नहीं है।
एक
फकीर ने कहीं
कहा है अपनी
एक प्रार्थना
में कि हे
परमात्मा, तू तो मुझे
स्वीकार है
लेकिन तेरी
दुनिया नहीं।
सभी फकीर यही
कहेंगे कि तू
तो मुझे
स्वीकार है, लेकिन तेरी
दुनिया नहीं।
ये नास्तिक से
उलटे हैं।
नास्तिक कहता
है, तेरी
दुनिया तो
स्वीकार है, तू नहीं।
आस्तिक कहता
है, तेरी
दुनिया तो
स्वीकार नहीं
है, तू
स्वीकार है।
ये दोनों एक
ही सिक्के के
दोहरे पहलू
हुए। कृष्ण की
आस्तिकता
बहुत अदभुत
है। कहना
चाहिए, कृष्ण
ही आस्तिक
हैं। तू भी
स्वीकार है, तेरी दुनिया
भी स्वीकार
है। और यह
स्वीकृति इतनी
गहरी है कि
कहां तेरी
दुनिया
समाप्त होती है
और कहां से तू
शुरू होता है,
यह तय करना
मुश्किल है।
असल में तेरी
दुनिया भी
तेरा फैला हुआ
हाथ है और तू
ही तेरी
दुनिया का
छिपा हुआ अंतर्मम
है। इससे
ज्यादा कोई
फर्क नहीं है।
कृष्ण
समस्त को
स्वीकार कर
रहे हैं, इसे
ध्यान में
रखना जरूरी
है--दुख को भी
नहीं छोड़ रहे
हैं, सुख
को भी नहीं
छोड़ रहे हैं।
जो भी है उसे
छोड़ ही नहीं
रहे, छोड़ने
का भाव ही
नहीं है।
छोड़ने की बात
ही नहीं है।
छोड़ने से ही, अगर हम ठीक
से समझें तो
व्यक्ति शुरू
हो जाता है।
जैसे ही हम
छोड़ते हैं, मैं शुरू हो
जाता हूं।
लेकिन अगर हम
कुछ छोड़ते ही
नहीं, तो
मेरे होने का
उपाय ही नहीं
है। इसलिए
कृष्ण से
निरहंकारी
व्यक्तित्व
खोजना
मुश्किल है।
और निरहंकारी
हैं इसलिए ही
उन्हें
अहंकार की बात
करने में भी
कोई कठिनाई
नहीं होती है,
वह अर्जुन
से कह सकते
हैं--तू सबको
छोड़कर मेरी शरण
में आ जा। यह
बड़े मजे की
बात है, यह
बड़े अहंकार की
घोषणा है।
इससे ज्यादा "इगोइस्ट' घोषणा क्या
होगी कि कोई
आदमी किसी से
कहे--तू सबको
छोड़कर मेरी
शरण में आ जा!
लेकिन हमको भी
दिखाई पड़ता है
कि यह अहंकार
की घोषणा है, कृष्ण को
दिखाई नहीं
पड़ा होगा? इतनी
अकल तो रही ही
होगी, जितनी
हममें है।
इतना तो कृष्ण
को भी दिखाई
पड़ सकता है कि
यह अहंकार की
घोषणा है, लेकिन
इसे वे बड़ी
सहजता से कर
सके। यह वही
आदमी कह सकता
है, जिसके
पास अहंकार हो
ही नहीं। यह
वही आदमी कर सकता
है, आ जा
मेरी शरण में,
जिसको मेरे
का कोई पता
नहीं है।
इसलिए जब वह कह
रहे हैं कि आ
जा मेरी शरण
में, तब वह
यही कह रहे
हैं कि शरण
में आ जा। छोड़
दे सब। अपना
होना छोड़ दे
और जीवन जैसा
है उसे
स्वीकार कर
ले।
बड़े
मजे की बात है, कृष्ण
अर्जुन को कह
रहे हैं कि तू
युद्ध में लड़
जा। अगर दोनों
की बातों को
देखें तो
अर्जुन ज्यादा
धार्मिक
मालूम पड़ता
है। कृष्ण की
बात बहुत
धार्मिक नहीं
मालूम पड़ती।
कृष्ण कहते
हैं, लड़।
अर्जुन कहता
है, मारूंगा,
दुख होगा, पीड़ा होगी, अपने हैं, प्रियजन हैं,
संबंधी हैं,
मित्र हैं,
गुरु हैं।
इनको मारूंगा,
बहुत दुख
होगा। इन सबको
मारकर मैं
बड़े-से-बड़ा सुख
भी न चाहूंगा।
इससे तो बेहतर
है कि मैं भाग
जाऊं और भीख
मांग लूं।
आत्मघात कर
लूं, वह भी
सरल मालूम
पड़ता है बजाय
इन सबको मारने
के। कौन
धार्मिक होगा
जो कहेगा कि
कृष्ण को जो अर्जुन
कह रहा है वह
गलत कह रहा
है। सभी धार्मिक
कहेंगे, ठीक
कहता है; अर्जुन
के मन में
धर्म-बुद्धि
पैदा हुई है।
लेकिन कृष्ण
उससे कहते हैं
कि तू विचलित
हो गया; तेरी
धर्म-बुद्धि
नष्ट हो गई
है। क्योंकि
कृष्ण यह कहते
हैं कि तू
पागल, तू
सोचता है किसी
को मार सकेगा!
कोई मरता है
कभी! तू सोचता
है कि ये जो
खड़े हैं, तू
इन्हें बचा
सकेगा? कोई
किसी को बचा
सका है कभी? तू सोचता है,
तू युद्ध से
बच सकेगा, तू
अहिंसक हो
सकेगा। लेकिन
जहां "मैं' है,
खुद को
बचाना है, वहां
अहिंसा हो
सकती है कभी?
नहीं, जो आ गया है
उसे स्वीकार
कर, अपने
को छोड़ और लड़।
जो सामने है
उसमें डूब। सामने
युद्ध है।
सामने कोई
मंदिर नहीं
है। सामने कोई
प्रार्थना
नहीं चल रही
है, सामने
कोई
भजन-कीर्तन
नहीं हो रहा
है कि उसमें
डूब। सामने
युद्ध है।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, इसमें
तू डूब। अपने
को छोड़। तू
कौन है! और एक
बहुत मजे की
बात कहते हैं
कि जिन्हें तू
देखता है कि
मरेंगे, मैं
जानता हूं कि
वे पहले ही मर
चुके हैं। वे
सिर्फ मरने की
प्रतीक्षा कर
रहे हैं, तू
ज्यादा-से-ज्यादा
निमित्त हो
सकता है। तू
अपने को ऐसा
मत मान कि तू
मार रहा है, क्योंकि तब
तू निमित्त न
रह जाएगा, कर्ता
हो जाएगा। तू
ऐसा भी न मान
कि अगर तू छोड़कर
भागेगा तो तू
सोचेगा, कि
तूने बचाया; तब भी भ्रम
होगा। तेरे
बचाने से ये न
बचेंगे, तेरे
मारने से ये न
मरेंगे। तू
इसमें पूरा हो,
इसमें पूरा
डूब। जो तुझ
पर आ गया है, तू उसे पूरा
निभा। और पूरा
तू तभी निभा
सकता है जब तू
अपनी बुद्धि
को छोड़े। तू
यह छोड़े कि मैं
हूं, और
मैं के
दृष्टिकोण से
देखना छोड़।
इसको अगर ठीक
से समझें तो
इसका मतलब
क्या हुआ?
इसका
मतलब यह हुआ
कि अगर कोई
"मैं' के
दृष्टिकोण को
छोड़े तो कर्ता
न रह जाएगा, अभिनेता ही
रह सकता है।
मैं राम हूं
और मेरी सीता
खो जाए तब मैं
जिस भांति
रोऊंगा, एक
रामलीला में
काम करूं और
सीता खो जाए, तब भी
रोऊंगा। हो
सकता है रोना
मेरा असली राम
के रोने से
ज्यादा कुशल
हो। होगा ही।
क्योंकि असली
राम को
"रिहर्सल' का
कोई मौका नहीं
है। सीता एक
ही बार खोती
है। जब खो
जाती है तभी
पता चलता है।
इसकी कोई पूर्व
तैयारी भी
नहीं होती है।
और राम पूरे
कर्ता की तरह
डूब जाते हैं।
चिल्लाते हैं,
रोते हैं, दुखी हैं, पीड़ित हैं।
इसलिए राम को
इस देश ने कभी
पूर्ण अवतार
नहीं कहा।
पूरे अभिनेता
वे नहीं हैं। "एक्टिंग' अधूरी है।
करते हैं। और
चूक-चूक जाते
हैं। कर्ता हो
जाते हैं।
इसलिए राम के
व्यक्तित्व
को हम "चरित्र'
कहते हैं।
अभिनेता का
कोई चरित्र
नहीं होता। अभिनेता
की लीला होती
है, खेल
होता है।
इसलिए कृष्ण
के चरित्र को
हम "लीला' कहते
हैं।
कृष्ण
की है लीला, वह
कृष्ण-लीला
है। राम का है
चरित्र, वह
है चरित्र।
चरित्र बड़ी
गंभीर चीज है।
उसमें होना
पड़ता है, चुनाव
करना पड़ता है
कि यह करना है
और यह नहीं करना
है, यह शुभ
है और यह अशुभ
है। अर्जुन
चरित्रवान बनना
चाहता था और
कृष्ण उसको
लीलावान
बनाने के लिए
उत्सुक हैं।
अर्जुन कहता
था मैं यह न
करूं, यह
बुरा है, और
यह करूं जो
अच्छा है।
कृष्ण कहते
हैं जो आ जाता
है, तू
अपने को बीच
में खड़ा मत कर
और जो आ जाता
है उसे होने
दे। यह पूर्ण
स्वीकृति है।
इस पूरी स्वीकृति
में कुछ भी
छोड़ना नहीं
है। बड़ी कठिन
है बात।
क्योंकि पूर्ण
स्वीकृति का
मतलब है, न
अब कुछ अशुभ
है, न कुछ
शुभ है। न
अच्छा है, न
बुरा है; न
सुख है, न
दुख है। पूर्ण
स्वीकृति का
मतलब है कि
हमारी जो
द्वंद्वात्मक
सोचने की
व्यवस्था है,
वह जो हम दो
में तोड़कर
ही सोचते हैं,
न कोई
मरेगा। इसलिए
तू बेफिक्री
से खेल। कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि वह जो तेरे
द्वंद्व में
सोचने की आदत
है कि यह ठीक
है, यह मैं
करूं और यह
ठीक नहीं है, यह मैं न
करूं, यह
तू छोड़; इस
पृथ्वी पर जो
भी है वह
परमात्मा है,
इसलिए ठीक
और गैर-ठीक का
फासला नहीं
किया जा सकता।
बड़ी
कठिन है यह
बात।
नैतिक
मन को बड़ी
कठिन पड़ेगी।
इसलिए कृष्ण
नैतिक मन को
जितने कठिन
पड़े हैं, उतना
अनैतिक आदमी
कठिन नहीं
पड़ता। अनैतिक
आदमी को नैतिक
आदमी निपट
जाता है कहकर
कि बुरा है।
कृष्ण को क्या
कहे? बुरा
कहते भी नहीं
बनता, क्योंकि
आदमी बुरा
दिखाई पड़ता
नहीं। अच्छे कहने
की हिम्मत
जुटाने वाले
बहुत कम लोग
हैं, क्योंकि
अच्छा कहो तो
यह आदमी ऐसी
बातों में अर्जुन
को डाल रहा है
कि जो बुरी
हैं।
इसलिए
गांधी जी ने
जब कृष्ण पर
बात शुरू की
तो उनको बड़ी
कठिनाई हो गई।
क्योंकि सच तो
यह था कि
गांधी जी से
मेल-जोल था
अर्जुन का, कृष्ण का
कोई भी
मेल-जोल नहीं
हो सकता। कृष्ण
युद्ध में कुदा
रहे हैं, गांधी
क्या करें!
कृष्ण इतने
बुरे हों कि
साफ-साफ तय हो
जाए कि बुरे
हैं, तो
गांधी
छुटकारा पा
सकते हैं।
लेकिन वह
साफ-साफ तय हो
नहीं सकता, क्योंकि
कृष्ण को बुरा
और भला दोनों
स्वीकार हैं।
वह भले भी
हैं--चरम कोटि
के भले हैं और
चरम कोटि के
बुरे हैं एक
साथ। तो उनका
भोलापन तो साफ
है। उनका
बुरापन भी है।
उस बुरेपन
को गांधी क्या
करें। तो
गांधी को
सिवाय इसके कोई
उपाय नहीं रह
जाता कि वह
कहें यह सारा
युद्ध "पैरेबल'
है, कहानी
है; "मिथ' है, पुराण-कथा
है, युद्ध
कभी हुआ नहीं।
क्योंकि
कृष्ण असली
युद्ध में
कैसे अर्जुन
को उतार सकते
हैं, अगर
युद्ध असली
में हुआ हो तो
फिर युद्ध
हिंसा हो
जाएगी। तो
गांधी को एक
ही उपाय है कि
वह कहें कि यह
सारी कथा है।
और यह जो
युद्ध हो रहा
है, यह
असली युद्ध
नहीं है। और
गांधी पुराने
द्वंद्व पर
वापस लौट जाते
हैं जिसके
खिलाफ कृष्ण
हैं, वह
कहते हैं, यह
अच्छाई और
बुराई का
युद्ध है। ये
पांडव अच्छे
हैं, और ये
कौरव बुरे हैं,
और वह
पुराना अच्छे
और बुरे का
द्वंद्व वापस
खड़ा कर लेते
हैं कि अच्छाई
और बुराई का
युद्ध हो रहा
है, और
कृष्ण कह रहे
हैं कि अच्छे
की तरफ से लड़।
यह रास्ता
उन्हें खोज लेना
पड़ा। पूरी कथा
को झूठ कहना
पड़ा। पूरी कथा
को काव्य कहना
पड़ा। लेकिन
गांधी
को...बहुत वक्त
हुआ, कृष्ण
और गांधी के
बीच पांच हजार
साल का फासला
पड़ता है, इसलिए
किसी पांच
हजार साल
पुरानी कहानी
को "मिथ' कहना,
कल्पना
कहना कठिन
नहीं है।
जैनों
को इतना फासला
नहीं था।
इसलिए जैन
कृष्ण की कथा
को कहानी नहीं
कह सके, वह
घटना घटी है।
जैन-चिंतन
उतना ही
पुराना है जितना
वेद पुराने
हैं। जैनों के
पहले तीर्थंकर
का नाम वेद
में उपलब्ध
है। हिंदू और
जैनों की
प्राचीनता
बिलकुल बराबर
है। जैन इनकार
नहीं कर सकते
थे कि युद्ध
नहीं हुआ, और
कृष्ण ने
युद्ध नहीं
करवाया।
लेकिन जैन
क्या करें, अगर उनको भी
सुविधा होती
तो जो गांधी
ने किया, जो
कि बहुत गहरे
मन से जैन
थे--शरीर से
हिंदू थे, मन
से जैन
थे--गांधी तो
पुराण कहकर
टाल सके पर जैन
नहीं टाल सकते
थे, वह
समसामयिक थे।
उनको कृष्ण को
नर्क में डालना
पड़ा। उन्हें
अपने
शास्त्रों
में लिखना पड़ा
कि कृष्ण नर्क
गए। इतनी बड़ी
हिंसा करवा के
आदमी नर्क न
जाए, तो
फिर चींटी न
मारने वाले का
क्या होगा? और इतनी बड़ी
हिंसा करके भी
कोई नर्क न
जाए, तो
मुंह पर पट्टी
बांधने वाले
को स्वर्ग
कैसे मिलेगा? बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। कृष्ण
को नर्क में
डालना ही
पड़ेगा।
लेकिन
यह समसामयिक
लोगों का
वक्तव्य है।
अगर वक्त
ज्यादा गुजर
जाता तो कृष्ण
की अच्छाई इतनी
थी कि नर्क
में डालना
मुश्किल हो
जाता। मुश्किल
उनको भी पड़ा।
इसलिए उनको
दूसरी कहानी
भी गढ़नी
पड़ी। आदमी तो
अदभुत था यह।
युद्ध तो
करवाया था, वह सच है।
नाचा था
स्त्रियों के
साथ, वह सच
है।
स्त्रियों के
कपड़े उघाड़कर
झाड़ पर बैठ
गया था, वह
भी सच है।
आदमी अच्छा था,
काम बुरे
किए थे, वह
भी सच है। तो
नर्क में
डालकर भी तो
चैन नहीं पड़
सकता न, इतने
अच्छे को नर्क
में डाल दें
तो फिर अच्छे
आदमी भी तो
संदिग्ध हो
जाएंगे कि
इतना अच्छा
आदमी नर्क में
डाल दिया!
अच्छे
आदमियों को
फिर पक्का
नहीं हो सकता
स्वर्ग जाने
का। इसलिए
जैनों को
दूसरी बात भी
तय करनी पड़ी
कि कृष्ण
आनेवाले कल्प
में पहले जैनत्तीर्थंकर
होंगे। नर्क
में डालना पड़ा,
आनेवाले
कल्प में पहले
तीर्थंकर की
जगह भी देनी
पड़ी। यह "बैलेंस',
संतुलन
खोजना पड़ा, क्योंकि इस
आदमी को नर्क
में भेजने
जैसा आदमी तो
नहीं है।
लेकिन भेजना
ही पड़ेगा, क्योंकि
वह नैतिकता
कहती है कि यह
आदमी ठीक तो
नहीं है। और
इस आदमी का
व्यक्तित्व
कहता है कि यह
आदमी तो
तीर्थंकर होने
योग्य है। तो
यही रास्ता बन
सकता था कि इसे
अभी फिलहाल
नर्क में डालो,
भविष्य में
पहला
तीर्थंकर
बनाओ।
आनेवाले--जब सारी
सृष्टि नष्ट
हो जाएगी और
पहली फिर से
सृष्टि शुरू
होगी तो पहला
तीर्थंकर। यह
"कांपनसेशन'
है, यह
सांत्वना है
अपने मन को, कृष्ण को
इससे कुछ लेना-देना
नहीं है! अपने
मन को कि इस
आदमी को नर्क
में डालते हैं,
इसके लिए "कांपनसेशन'
भी करना
पड़ेगा। गांधी
के लिए सुविधा
है कि वह एक
साथ निपटा दें
दोनों बात। न
नर्क में
डालें, न
पहला
तीर्थंकर बनाएं,
पूरी कहानी
को कह दें
कहानी है।
युद्ध कभी हुआ
नहीं सिर्फ एक
प्रबोधकथा
है। अच्छाई और
बुराई के बीच
युद्ध हो रहा
है। गांधी की
भी तकलीफ वही
है जो जैनों
की है, वह
अहिंसा की
तकलीफ है।
अहिंसा नहीं
मान सकती कि
हिंसा की कोई
भी जगह हो
सकती है। वह
वही तकलीफ है
जो शुभ की
तकलीफ है। शुभ
कैसे माने कि
अशुभ की भी
कोई सुविधा हो
सकती है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, जगत
द्वंद्व का
मेल है; वहां
दोनों एक-साथ
हैं। न ऐसा
कभी हुआ कि
हिंसा न हो, न ऐसा कभी
हुआ कि अहिंसा
न हो। इसलिए
जो भी एक को
चुनते हैं वह
अधूरे को
चुनते हैं और
कभी भी तृप्त
नहीं हो सकते।
ऐसा कभी भी
नहीं हुआ कि
अंधेरा न हो, ऐसा कभी
नहीं हुआ कि
प्रकाश न हो।
इसलिए जो एक
को चुनते हैं
वे अधूरे को
चुनते हैं। और
अधूरे को चुनने
वाला तनाव में
पड़ा ही रहेगा,
क्योंकि वह
आधा मिट सकता
नहीं, वह
सदा मौजूद है।
और मजा
तो यह है कि
जिस आधे को हम
चुनते हैं वह
उस बाकी आधे
पर ही ठहरा
होता है जिसको
हम चुनते नहीं, यद्यपि
इनकार करते
हैं।
सारी
अहिंसा हिंसा
पर ही खड़ी
होती है। और
सारा प्रकाश
अंधेरे के ही
कारण होता है।
सारी भलाई
अशुभ की ही
पृष्ठभूमि
में जन्मती और
जीती है। सब
संत दूसरे छोर
पर वे जो बुरे
आदमी खड़े हैं, उनसे ही
बंधे होते
हैं। "पोलेरिटीज'
जो हैं वे सभी
एक-दूसरे से
बंधी होती हैं,
ऊपर नीचे से
बंधा है, बुरा
भले से बंधा
है, नर्क
स्वर्ग से
बंधा है। ये
ध्रुव हैं एक
ही सत्य के और
कृष्ण कहते
हैं, दोनों
को स्वीकार
करो, क्योंकि
दोनों हैं।
दोनों से राजी
हो जाओ, क्योंकि
दोनों हैं।
चुनाव ही मत
करो। अगर कहें
तो कृष्ण पहले
आदमी हैं, जो
"च्वॉइसलेसनेस',
चुनावरहितता की बात करते
हैं। वह कहते
हैं, चुनो
ही मत। चुना
कि भूल में
पड़े, चुना
कि भटके, चुना
कि आधे का
क्या होगा? वह आधा अभी
है। और हमारे
हाथ में नहीं
है कि वह नहीं
हो जाए। हमारे
हाथ में कुछ
भी नहीं है, वह है। हम
नहीं थे तब भी
था, हम
नहीं होंगे तब
भी होगा।
लेकिन
नैतिक मन या
जो अब तक
धार्मिक समझा
जाता रहा है, उसकी बड़ी
कठिनाई है। वह
द्वंद्व में
जीता है, वह
शुभ और अशुभ
को बांटकर
जीता है। उसका
सारा मजा अशुभ
की निंदा में
है, तभी वह
शुभ में मजा
ले पाता है।
संत का सारा
मजा असंत के
विरोध में है,
अन्यथा वह
मजा नहीं ले
पाता। स्वर्ग
जाने का सारा
सुख नर्क में
गए लोगों के
दुख पर खड़ा
है। अगर
स्वर्ग में जो
लोग हैं उनको
एकदम पता चल
जाए कि नर्क
है ही नहीं तो
स्वर्ग के लोग
एकदम दुखी हो
जाएंगे। अगर
नर्क है ही
नहीं तो बेकार
सब मेहनत गई।
और वे चोर और
वे बदमाश, जिन्हें
नर्क भेजना
चाहा था वे सब
स्वर्ग में ही
आ गए हैं।
क्योंकि वे
जाएंगे कहां।
स्वर्ग में जो
रस है वह नर्क
में दुख भोगने
वाले लोगों पर
खड़ा है; अमीर
का जो सुख है
वह गरीब की
गरीबी में है,
अमीर की
अमीरी में
नहीं है।
अच्छे आदमी का
जो सुख है वह
बुरे आदमी के
बुरे होने में
है, अच्छे
आदमी के अच्छे
होने में
नहीं। इसलिए
जिस दिन सारे
लोग अच्छे हो
जाएंगे उस दिन
साधु का मजा
चला जाएगा।
साधु बिलकुल
अर्थहीन
मालूम पड़ेगा।
हो सकता है
साधु कुछ
लोगों को
तैयार करे कि
तुम असाधु हो
जाओ क्योंकि
मेरा क्या
होगा। उसका
कोई अर्थ नहीं
है। इस जगत की
सारी अर्थवत्ता
विरोध में है,
और इस जगत
को जो पूरा
देखेगा वह
पाएगा कि जिसे
हम बुरा कहते
हैं वह अच्छे
का ही छोर है।
जिसे हम अच्छा
कहते हैं, वह
बुरे का छोर
है।
कृष्ण चुनावरहित
हैं, कृष्ण
समग्र हैं, "इंटीग्रेटेड'
हैं और
इसलिए पूर्ण
हैं। इसलिए
हमने किसी
दूसरे
व्यक्ति को
पूर्ण होने की
बात नहीं कही।
क्योंकि वह
अधूरा होगा
ही। राम कैसे
पूर्ण हो सकते
हैं, वह
अधूरे होंगे
ही। आधे का
उनका चुनाव
है। जो नहीं
चुनता वही
पूरा हो सकता
है। लेकिन जो
नहीं चुनता
उसे
कठिनाइयों
में पड़ना
पड़ेगा, क्योंकि
उसकी जिंदगी
में वह भी
कभी-कभी दिखाई
पड़ेगा जो
अंधेरा है और
वह भी कभी-कभी
दिखाई पड़ेगा जो
उजेला है।
उसकी जिंदगी
धूप-छांवों
का ताल-मेल
होगी। उसकी
जिंदगी सीधी
और एकरस नहीं
हो सकती। एकरस
जिंदगी उनकी
ही हो सकती है जिनका
चुनाव है। एक
जिंदगी के
कोने को वे
साफ-सुथरा कर
सकते हैं, लेकिन
जिस कचरे को
उन्होंने
हटाया है वह
जिंदगी के
किसी दूसरे
कोने में
इकट्ठा होता
रहेगा। लेकिन
जिसने पूरे ही
मकान को
स्वीकार कर
लिया है और
कचरे को भी
स्वीकार कर
लिया है और
धूप को भी, और
अंधेरे को भी,
और...अब उसका
क्या होगा। उस
आदमी के बाबत
हम अपनी
दृष्टि से नजर
बना सकते हैं।
हमारा चुनाव
ही हमारी नजर
होगी। हम कह
सकते हैं कि
यह आदमी बुरा
है, क्योंकि
हम बुरा अगर
देखना चाहें
तो उसमें दिखाई
पड़ जाएगा। हम
कह सकते हैं
यह आदमी भला
है, क्योंकि
हम भला देखना
चाहें तो
उसमें दिखाई पड़
जाएगा। और
उसमें दोनों
हैं। दोनों भी
हमारी भाषा की
वजह से कहना
पड़ते हैं, उसमें
तो एक ही है।
लेकिन उस एक
के ही दोनों
पहलू हैं।
इसलिए, बुद्ध और
महावीर को मैं
मानता हूं कि
उनका चुनाव
है। वे शुभ
हैं, पूर्ण
शुभ हैं और
इसलिए पूर्ण
नहीं हो सकते।
क्योंकि
पूर्ण में वह
अशुभ का क्या
होगा? बुद्ध
और महावीर और
कृष्ण को एक
साथ खड़ा करें तो
हमें बुद्ध और
महावीर
ज्यादा जंचेंगे।
ज्यादा
आकर्षक मालूम
होंगे, ज्यादा
साफ-सुथरे और निखरे
दिखाई
पड़ेंगे। वहां
धब्बा ही नहीं
है उनकी चादर
पर। चादर
बिलकुल
साथ-सुथरी है।
एकदम शुभ्र है।
उसमें काले की
कोई गोट भी नहीं
है। महावीर और
कृष्ण अगर
साथ-साथ खड़े
हों तो हमें
भी महावीर ही जंचेंगे।
कृष्ण
थोड़े-थोड़े
संदेह में छोड़
जाएंगे। कृष्ण
सदा ही संदेह
में छोड़ गए
हैं। इस आदमी
में दोनों
बातें एक साथ
हैं। यह
महावीर जैसा
शुभ्र भी है, और अशुभ में
किस को रखें
महावीर के
मुकाबले? यह
चंगेज या
हिटलर जैसा
अशुभ भी होने
की हिम्मत रखता
है। अगर हम
महावीर को
युद्ध में
तलवार लेकर
खड़ा कर
सकें--जो हम कर
न सकेंगे--तो
वैसा है यह आदमी।
या अगर हम
चंगेज को राजी
कर लें कि वह
महावीर जैसा
हो जाए, सब
छोड़कर नग्न
खड़ा हो जाए, शांत और
निर्मल हो
जाए--जो हम न कर
सकेंगे--तो
वैसा है यह
आदमी। लेकिन
इस आदमी के
साथ क्या करें,
निर्णय
क्या करें? कृष्ण के
साथ सब निर्णय
टूट जाते हैं
जो निर्णय
लेते ही नहीं।
कृष्ण के साथ
निर्णय लेने
वाला चित्त
बहुत जल्दी
भाग जाएगा।
क्योंकि जब उसे
शुभ्र दिखाई
पड़ेगा तब पैर
पकड़ लेगा और
जब अशुभ दिखाई
पड़ेगा तब क्या
करेगा?
इसलिए
कृष्ण के
भक्तों ने भी
चुनाव किया है
। अगर सूर
कृष्ण की बहुत
चर्चा करते
हैं तो बालपन
की बहुत चर्चा
करते हैं। बाद
का हिस्सा छोड़
देते हैं। सूर
की हिम्मत के
बाहर है। सूर
तो बहुत कमजोर
हिम्मत के
आदमी हैं।
आंखें फोड़
ली हैं एक
स्त्री को
देखने के डर
से। अब जरा
सोचने जैसा है
कि सूरदास ने, कहीं ये
आंखें किसी
स्त्री के
प्रेम में न
डाल दें और
कहीं ये आंखें
किसी वासना
में न ले जाएं,
आंखें फोड़
ली हैं; यह
आदमी, यह
आदमी कृष्ण को
पूरा स्वीकार
कर सकेगा? बड़ा
प्रेम है सूर
का कृष्ण से, शायद कम ही
लोगों का ऐसा
प्रेम रहा है,
तो फिर क्या
करे यह? कृष्ण
को इसे दो
हिस्सों में
बांटना
पड़ेगा। बालपन
के कृष्ण को
यह पकड़ लेगा, युवा कृष्ण
को यह छोड़
देगा।
क्योंकि युवा
कृष्ण समझ के
बाहर है।
क्योंकि युवा
कृष्ण समझ में
आ सकता था अगर
आंखें फोड़
लेता। सूरदास
से संगत बैठ
जाती। लेकिन
युवा कृष्ण की
आंखें--ऐसी
आंखें ही कम
लोगों के पास
रही होंगी।
इतनी स्त्रियां
आकर्षित हो
जाएं ऐसी
आंखें पाना
बहुत मुश्किल
है। बड़ा
मुश्किल है।
बड़ा सवाल यह
नहीं है कि
इतनी
स्त्रियां
आकर्षित हुईं,
बड़ा सवाल यह
है कि एक ही
आदमी की आंखों
पर। यह आकर्षण
असाधारण रहा
होगा। ये
आंखें "मेग्नेटिक'
रही होंगी,
ये आंखें
बड़ा चुंबक रही
होंगी।
सूरदास के पास
इतनी कीमती
आंखें नहीं
थीं। क्योंकि
सूरदास ही
उत्सुक थे, कोई स्त्री
उत्सुक थी
इसका मुझे पता
नहीं है।
सूरदास
कैसे चुनाव
करेंगे, क्या
करेंगे? तो
बच्चे को पकड़
लेंगे, स्वीकार
कर लेंगे कि
बाल-कृष्ण।
इसलिए कृष्णों
पर रचे गए
शास्त्र भी
चुनाव के
शास्त्र हैं। सूरदास
किसी और कृष्ण
को पकड़ते
हैं, केशवदास किसी और
कृष्ण को पकड़ते
हैं। केशव
बाल-कृष्ण में
बिलकुल
उत्सुक नहीं हैं।
केशव का मन
राग और रंग का
मन है। केशव
का मन युवा का
मन है। वह आंख फोड़ने
वाला मन नहीं
है। रात भी
आंख बंद करनी
न पड़े ऐसा मन
है। तो केशव
क्या करेंगे?
केशव
बाल-कृष्ण की
बात ही भूल
जाएंगे, उससे
कुछ लेना-देना
नहीं है। वह
उस कृष्ण को चुन
लेंगे जो नाच
रहा है। इसलिए
नहीं कि कृष्ण
के नाच को समझ
रहे हैं वह, बल्कि इसलिए
कि नाचनेवाला
उनका मन है।
इसलिए कृष्ण
पर नाचना थोप
देंगे। उस
कृष्ण को पकड़
लेंगे जो
स्त्रियों के
वस्त्र लेकर
वृक्ष पर चढ़
गया है नग्न
छोड़कर। इसलिए नहीं
कि कृष्ण जिस
तरह उन
स्त्रियों को
नग्न छोड़ गया
था, उसे
केशव समझ सकते
हैं, बल्कि
इसलिए कि
स्त्रियों को
नग्न करना
चाहते हैं। तो
केशव का अपना
चुनाव है, सूर
का अपना चुनाव
है।
भागवत अलग
कृष्ण की बात
करती है, गीता
अलग कृष्ण की
बात करती है।
ये सब चुनाव बंट
गए हैं।
क्योंकि यह
आदमी पूरा है
और इसे पूरा
पचा लेने का
साहस पूरे
आदमी में ही
हो सकता है।
अधूरा आदमी
इसमें से बांट
लेगा, छांट
लेगा, कहेगा
इतने तक ठीक, इसके आगे
आंख बंद कर
लेते हैं, इसके
आगे तुम नहीं
हो। या इसके
आगे होओगे भी
तो वह कहानी
है। या इसके
आगे होओगे भी
तो नर्क में
फल पाओगे। और
इसके आगे भी
तुम थे तो
हमारे काम के
नहीं हो।
हमारे काम के
यहां तक।
इसलिए कृष्ण
के
व्यक्तित्व
पर मील के
पत्थर लगा दिए
गए हैं। सबने
अपना-अपना
हिस्सा बांट
लिया है। जिसको
जो प्रीतिकर
लगता है वह
चुन लेता है।
लेकिन कृष्ण
एक सागर की
तरह हैं, जिसमें
हम अपने घाट
भला बना लें, वह घाट पूरे
सागर पर नहीं
बनता, वह
हमारे घाट की
ही जमीन पर
बनता है, हम
पर ही बनता
है। वह सागर
का बंधन नहीं
है। वह हमारी
समझ की सूचना
है।
इसलिए
मैं तो पूरे
कृष्ण की बात
करूंगा। इसलिए
बात बहुत जगह
अबूझ हो
जाएगी। और बात
बहुत मुश्किल
में डाल देगी।
और बात बहुत
जगह आपकी समझ
के बाहर जाने
लगेगी। वहां
आप समझ के
बाहर चलने की
भी हिम्मत
करना। नहीं तो
आप अपनी समझ
की जगह रह
जाएंगे और मील
का पत्थर आ
जाएगा और उसके
आगे का कृष्ण
आपके काम का न
रह गया। और
कृष्ण अगर हैं
काम के तो
पूरे-के-पूरे
हैं। कोई भी
व्यक्ति पूरा ही
काम का होता
है। काट-काटकर
मुर्दा अंग
हाथ में आते
हैं, जिंदा
आदमी समाप्त
हो जाता है।
इसलिए
जिन्होंने भी
कृष्ण को काटा
है, किसी
के हाथ में
हाथ कृष्ण का,
किसी का पैर
है, किसी
की आंख है, किसी
का गला है।
लेकिन पूरे
कृष्ण हाथ में
नहीं हो सकते।
पूरे कृष्ण को
हाथ में होने
की तो एक ही
संभावना है कि
आप पूरे को
बिना चुने
समझने को राजी
हो जाएं, और
यह समझना बड़े
आनंद की
यात्रा होगी,
क्योंकि इस
समझने में आप
भी पूरे हो
सकते हैं। इस
समझने में आप
का भी पूरा
होना यह शुरू
हो जाएगा। अगर
इस समझने के
लिए आप राजी
हुए और चुनाव
न किया, तो
आप अचानक भीतर
पाएंगे कि आप
के भी विरोधी
छोर
घुलने-मिलने
लगे, आप
में भी
धूप-छांव एक
होने लगी।
आपके भीतर भी
वह जो कटा-कटा
व्यक्तित्व
है, वह
अखंड होने
लगा। आप भी
योग को उपलब्ध
होने लगे।
कृष्ण के योग
का एक ही अर्थ
है, अखंड, एक हो जाना।
योग की
दृष्टि अखंड
ही हो सकती
है। योग का
मतलब है, "दि
टोटल', जोड़।
इसलिए कृष्ण
को महायोगी कहा
जा सकता। योगी
तो बहुत हैं, लेकिन वे भी
योगी नहीं हैं,
क्योंकि
जोड़ वहां नहीं
है, सब
चुनाव है। "च्वाइसलेसनेस'
वहां नहीं
है।
इस
अखंड कृष्ण की
चर्चा कठिन तो
पड़ेगी, बहुत
कठिन पड़ेगी, क्योंकि
बुद्धि की जो "कटेग्रीज़'
हैं, बुद्धि
के सोचने के
जो मापदंड हैं,
वे बंटे हुए
हैं। बटखरे
हैं बुद्धि के,
बांट हैं।
इससे बहुत
फर्क नहीं
पड़ता है कि
किसी के पास
पुराने बांट
हैं और किसी
के पास नए बांट
हैं। इससे
फर्क नहीं
पड़ता कि
मीट्रिक प्रणाली
के बांट हैं
कि पुराना सेर
और पुराना पाव
और छटांक है, इससे कोई
बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
बुद्धि चाहे
पुरानी हो, चाहे नई; बुद्धि
चाहे अतीत की
हो, चाहे
आज की; चाहे
"अल्ट्रा
माडर्न' हो, चाहे
"अल्ट्रा
एनशिएंट'
हो; चाहे
कितनी ही
प्राचीन
बुद्धि
हो--शास्त्रों
की हो--और चाहे
कितनी ही नई
हो--विज्ञान
की हो--इससे
फर्क नहीं
पड़ता। बुद्धि
का एक धर्म
है। वह बांटकर
चलती है, तोड़कर
चलती है।
निर्णय करती
है, यह ठीक
और यह गलत।
अगर
आपको कृष्ण को
समझना हो, तो इन दस
दिनों में
निर्णय ही मत
करना। इन दस दिनों
में सुनना, समझना, निर्णय
मत करना। और
जहां-जहां
नासमझी की जगह
आ जाए कि अब
समझ में नहीं
आता, वहां-वहां
फिकिर मत
करना और
नासमझी में भी
जाने की
हिम्मत करना।
"इर्रेशनल'
बहुत जगह आ
जाएगा, क्योंकि
कृष्ण को "रेशनल'
नहीं बनाया
जा सकता।
कृष्ण को
बुद्धिगत
नहीं बनाया जा
सकता। और वह
जो अबुद्धि है,
या
बुद्धि-अतीत
जो है, वह
भी वहां है।
वह जो
बुद्धि-अतीत
है, वह जो
"ट्रांसेंड' करता है, बुद्धि
के पार चला
जाता है, वह
भी वहां है।
इसलिए
कृष्ण को
तर्कयुक्त
ढांचों में
बिठाना असंभव
है। वह तर्क
मानते नहीं, वह खंड
मानते नहीं।
वह सब खंडों
में बहते चले जाते
हैं। वह हमारे
घाट मानते
नहीं, सब
घाटों को छूते
हैं। इसलिए
कठिनाई तो
पड़ेगी। बड़ी
कठिनाई यही पड़ेगी
कि आपका घाट
चुकने लगेगा
और कृष्ण न चुकेंगे।
वह कहेंगे, मैं आगे भी
हूं।
तुम्हारा घाट
भी मैं छूता
हूं, लेकिन
और घाट भी मैं
छूता हूं। मैं
बुरे के घाट
पर भी लहरें
पहुंचाता हूं,
भले के घाट
पर भी लहरें
पहुंचाता
हूं। शांति का
मेरा छोर नहीं,
और युद्ध
में मैं चक्र
लेकर भी खड़ा
हो जाता हूं।
प्रेम का मेरा
अंत नहीं, लेकिन
तलवार से
गर्दन भी काट
सकता हूं।
संन्यासी मैं
पूरा हूं, लेकिन
गृहस्थी होने
में मुझे कोई
पीड़ा नहीं है।
परमात्मा से
मेरा बड़ा लगाव
है, लेकिन
संसार से
रत्ती भर कम
नहीं है, संसार
से भी उतना ही
है। न मैं संसार
के लिए
परमात्मा को
छोड़ सकता, न
मैं परमात्मा
के लिए संसार
को छोड़ सकता
हूं। मैंने तो
पूरे के लिए
राजी होने की
कसम ले ली है।
मैं हर रंग
में रहूंगा।
इसलिए
कृष्ण को अभी
तक पूरा भक्त
नहीं मिला। अर्जुन
भी नहीं था।
नहीं तो इतनी
मेहनत न करनी पड़ती।
युद्ध के मैदान
पर गीता जैसा
लंबा वक्तव्य
देना पड़ा हो, तो हम सोच
सकते हैं
अर्जुन कैसा
शंकाशील, कैसा
संदेही, कैसा
तर्क उठाने
वाला--सब तरह
की कोशिश की
होगी; युद्ध
के क्षण में, रणभेरी बज चुकी हो, सेनाएं
आमने-सामने
खड़ी हो गई हों,
युद्ध का
घंटानाद शुरू
हो गया हो और
वहां इतनी
लंबी गीता समझानी
पड़े। तो
अर्जुन राजी
नहीं हो गया
होगा। उसकी बुद्धि
बार-बार जोर
मारती रही है
कि आप ऐसा भी कहते
हो और आप ऐसा
भी कहते हो।
वह बार-बार
सवाल जो उठाता
है, वह "कंट्राडिक्शन'
के हैं। वह
कृष्ण से कहता
है कि आपमें
विरोधाभास
है। आप एक तरफ
ऐसा भी कहते
हो और दूसरी
तरफ ऐसा भी
कहते हो! यह आप
दोनों बातें
कहते हो! उसके
सारे सवाल
गीता में बड़े
तर्कसंगत
हैं। वह यही
कह रहा है कि
तुम यह भी कहते
हो और यह भी
कहते हो? दोनों
बातें एक साथ!
तो फिर मेरी
समझ में नहीं आता।
अब तुम मुझे
फिर से समझाओ।
समझा नहीं पाते।
समझा नहीं
पाएंगे--कृष्ण
जैसा पूरा
व्यक्ति भी
समझा नहीं
पाता। समझाने
से थक जाते
हैं तो फिर दूसरा
उपाय करना
पड़ता है। अपने
को पूरा दिखा
देते हैं। यह
समझाने का कोई
उपाय नहीं। यह
आदमी मानता ही
नहीं, और
यह तर्क जो
उठाता है ठीक
ही उठाता है।
कृष्ण भी
समझते हैं कि
यह तर्क ठीक
ही है, क्योंकि
एक बात इससे
उलटी पड़ती है,
एक बात इससे
उलटी पड़ती
है--दोनों
"इनकंसिस्टेंट'
हैं। तो
इसको समझाओ
कैसे! अर्जुन
यही कहता है कि
"कंसिस्टेंसी'
चाहता हूं,
संगति
चाहता हूं; हे कृष्ण!
संगति बताओ!
तुम जो कहते
हो उससे मुझे
भ्रमजाल में
मत डालो, उससे तुम
मुझे "कन्फ्यूज्ड'
मत करो।
लेकिन कृष्ण
उसका
"कन्फ्यूज' किए चले
जाते हैं। वह
दोनों बातें,
एक वक्तव्य
देते नहीं कि
तत्काल दूसरा
देते हैं जो
इसका खंडन कर
जाता है।
करुणा, ममता
भी समझाए चले
जाते हैं, हिंसा
भी करवाने की
बात कहे चले
जाते हैं।
ऐसा जो
आदमी है, उसके
पास फिर एक
उपाय ही रह
गया। थक गया
सब। थक गए
बुरी तरह। वह
अर्जुन मानता
नहीं, और
युद्ध की घड़ी
बढ़ी जाती है, और युद्ध पर
सब सारथी और
सब योद्धा, सब तैयार
हैं, लगामें खिंच गई हैं
और यह आदमी
मानता नहीं।
और इसी आदमी
पर सब निर्भर
है। यह भाग
जाए तो सब
गड़बड़ हो जाए।
यह सारा खेल, यह सारा
नाटक, यह
बड़ा इतना
इंतजाम, यह
सब व्यर्थ हो
जाए। वह उसको
समझाए जाते
हैं, आखिर
थक जाते हैं, फिर वह उसको
अपना पूरा रूप
ही दिखा देते
हैं। पूरे रूप
को देखकर वह
घबड़ा जाता है।
कोई भी घबड़ा
जाएगा। पूरे
रूप का मतलब
ही यह है, पूरे
रूप का मतलब ही
यह है कि वह
सारे
विरोधाभासों
के साथ इकट्ठे
मौजूद हो जाते
हैं। उनके
भीतर सब दिखाई
देने लगता
है--जन्म भी और
मरण भी, एक
साथ। हमें
सुविधा पड़ती
है, सत्तर
साल पहले जन्म
होता है, सत्तर
साल बाद मरना
होता है।
दोनों में
इतना फासला
होता है, कि
हम व्यवस्था
बिठा लेते हैं
कि जन्म अलग
चीज, मृत्यु
अलग चीज। एक
साथ जन्म और
मृत्यु दिखने लगते
हैं उनके
भीतर। एक साथ
जगत बनता है
और विसर्जित
होता दिखाई
पड़ने लगता है।
एक साथ बीज और
वृक्ष दिखाई
पड़ने लगते
हैं। एक साथ
प्रलय आती है
और सृजन होने
लगता है। तो
वह घबड़ा जाता
है। वह कहता
है कि अब बंद
करो अपना यह
रूप। मैं मर जाऊंगा!
मैं इसे और
नहीं देख सकता,
इसे बंद
करो! लेकिन
इसके बाद वह
सवाल नहीं उठाता।
इसके बाद एक
बार उसे दिखाई
पड़ जाता है कि
जिन्हें हम
असंगतियां
कहते हैं, विरोध
कहते हैं, वे
एक ही सत्य के
हिस्से हैं, तो अब वह
सवाल नहीं उठाता
है, वह
युद्ध में चला
जाता है। इसका
यह मतलब मत समझ
लेना कि वह
राजी होकर गया
है। राजी होकर
नहीं जा पाता
है। दिखाई पड़
गया उसे, लेकिन
उसकी बुद्धि
सवाल उठाती
है। बुद्धि का
काम ही सवाल
उठाना है।
तो
जितने सवाल
आपको मुझसे
उठाने हों, उठाना, लेकिन
कृष्ण को समझने
में सवाल मत
उठाना। सवाल
आप उठाना, आपकी
सारी बुद्धि
मुझ पर लगाना,
लेकिन
कृष्ण बहुत
जगह बुद्धि को
छोड़कर निर्बुद्धि
में प्रवेश
करने लगेंगे,
वहां बहुत
धैर्य की, बहुत
साहस की--उससे
बड़ा कोई साहस
नहीं--वहां जरूरत
पड़ेगी, वहां
चलने को राजी
होना। आपका
प्रकाशित क्षेत्र
खो जाएगा।
अंधेरा शुरू
होगा। आपके
द्वार-दरवाजे
वहां दिखाई
नहीं पड़ेंगे,
वहां
साफ-सुथरे
रास्ते नहीं
होंगे, वहां
सब
"मिस्टीरियस'
और
रहस्यपूर्ण
हो जाएगा।
वहां चीजें
पुरानी शक्ल
और पुरानी
रूपरेखा और
पुराने आकार
में नहीं
होंगी। वहां
सब आकार
डांवाडोल हो
जाएंगे। वहां
सब संगतियां
गिर जाएंगी, सब विरोध
गिर जाएंगे और
तभी आपको उस
विराट के निकट
पहुंचने का
मौका मिल
सकेगा। और अगर
आप राजी हुए
तो कुछ ऐसा
नहीं है कि
अर्जुन की कोई
विशेष
योग्यता थी कि
उसको विराट
दिखाई पड़े।
ऐसी कोई विशेष
योग्यता का
पात्र न था, सभी उतनी
योग्यता के
पात्र हैं, और जो सवाल
अर्जुन ने
उठाए थे वह
कोई भी उठा सकता
है। लेकिन अगर
आप भी उस
रहस्यपूर्ण
में, उस
"मिस्टीरियस'
में, वह
जो बुद्धि के
पार चला जाता
है, चलने
को राजी हुए, तो विराट की
प्रतीति आपको
भी हो सकती
है। वह विराट
आपके सामने भी
आ सकता है। उस
विराट को ही
लाने की मैं
कोशिश करूंगा,
उस विराट का
व्यक्तिवाची
नाम कृष्ण है,
कृष्ण से
कुछ बहुत
लेना-देना
नहीं है। वह
जो विराट है, समस्त का
जोड़ है, उसका
ही प्रतीकवाची
नाम कृष्ण है।
इसलिए
बहुत बार
कृष्ण से
चर्चा इधर-उधर
छूट जाएगी तो
उससे घबड़ा मत
जाना। मैं तो
उस विराट की
तरफ ही पूरे
समय कोशिश
करूंगा। और अगर
आप राजी हुए
तो वह घटना घट
सकती है। और
कुरुक्षेत्र
में ही घटे, ऐसा कुछ
नहीं है, मनाली
में भी घट
सकती है।
"भगवान श्री,
चर्चा को
आगे बढ़ाने के
पहले पीछे का
एक "प्वाइंट' छूट गया था
जो स्पष्ट कर
लूं। बुद्ध की
दुख की धारणा
जीवन का तथ्य
है और तथ्य को
सामने रखने में
क्या गलती है? जैसा
सामान्य जीवन
अभी है, क्या
उसमें दुख
नहीं है?'
दुख
जीवन का तथ्य
है; लेकिन
दुख ही जीवन
का तथ्य नहीं
है, सुख भी
जीवन का तथ्य
है। और जितना
बड़ा तथ्य दुख
है, उससे
छोटा तथ्य सुख
नहीं है और जब
हम दुख को ही
तथ्य मानकर
बैठ जाते हैं
तो अतथ्य हो
जाता है।
"फिक्शन' हो
जाता है, क्योंकि
सुख कहां छोड़
दिया। अगर
जीवन में दुख ही
होता तो बुद्ध
को किसी को
समझाने की
जरूरत न पड़ती।
और बुद्ध इतना
समझाते हैं
लोगों को, फिर
भी कोई भाग तो
जाता नहीं। हम
भी दुख में रहते
हैं, लेकिन
फिर भी भाग
नहीं जाते।
दुख से भिन्न
भी कुछ होना
चाहिए जो अटका
लेता है, जो
रोक लेता है।
किसी को प्रेम
करने में अगर
सुख न हो, तो
इतने दुख को
झेलने को कौन
राजी होगा। और
कण भर सुख के
लिए पहाड़ भर
अगर आदमी दुख
झेल लेता है, तो मानना
होगा कि कण भर
सुख की
तीव्रता पहाड़
भर दुख से
ज्यादा होगी।
सुख भी सत्य
है।
समस्त त्यागवादी
सिर्फ दुख पर
जोर देते हैं, इसलिए वह
असत्य हो जाता
है। समस्त
भोगवादी सुख
पर जोर देते
हैं, इसलिए
वह असत्य हो
जाता है।
भौतिकवादी
सुख पर जोर
देते हैं
इसलिए वह
असत्य हो जाता
है, क्योंकि
वे कहते हैं, दुख है ही
नहीं। वे कहते
हैं, दुख
है ही नहीं, सुख ही सत्य
है। तब ध्यान
रहे, आधे
सत्य असत्य हो
जाते हैं।
सत्य होगा तो
पूरा ही होगा,
आधा नहीं हो
सकता। कोई कहे
जन्म ही है, तो असत्य हो
जाता है।
क्योंकि जन्म
के साथ मृत्यु
है। कोई कहे, मृत्यु ही
है, तो असत्य
हो जाता है, क्योंकि
मृत्यु के साथ
जन्म है।
जीवन
दुख है, ऐसा
अगर अकेला ही
प्रचारित हो,
तो यह अतथ्य
हो जाता है।
हां लेकिन, जीवन
सुख-दुख है, ऐसा तथ्य
है। और अगर
इसे और गौर से
देखें, तो
हर सुख के साथ
दुख जुड़ा है, हर दुख के
साथ सुख जुड़ा
है। अगर इसे
और गहरे देखें
तो पता लगाना
मुश्किल हो
जाएगा कि दुख
कब सुख हो
जाता है, सुख
कब दुख हो
जाता है। "ट्रांसफरेबल'
है, "कन्वर्टिबल'
भी है। एक
दूसरे में
बदलते भी चले
जाते हैं। रोज
यह होता है।
असल में "एम्फेसिस'
का ही शायद
फर्क है। जो
चीज आज मुझे
सुख मालूम पड़ती
है, कल दुख
मालूम पड़ने
लगती है। जो
कल मुझे सुख
मालूम पड़ती थी,
आज दुख
मालूम पड़ने
लगती है। अभी
मैं आपको गले लगा
लूं, सुख
मालूम पड़ता
है। फिर
मिनट-दो मिनट
न छोडूं, दुख शुरू हो
जाता है। आधा
घड़ी न छोडूं
तो आसपास
देखते हैं कि
कोई
पुलिसवाला
उपलब्ध होगा
कि नहीं होगा।
अब यह कैसे
होगा छूटना? इसलिए जो
जानते हैं, वे आपके
छूटने के पहले
छोड़ देते हैं।
जो नहीं जानते,
वे अपने सुख
को दुख बना
लेते हैं और
कोई कठिनाई
नहीं है। हाथ
लिया हाथ में
नहीं कि छोड़ना
शुरू कर देना,
अन्यथा
बहुत जल्दी
दुख शुरू हो
जाएगा। हम सभी
अपने सुख को
दुख बना लेते
हैं। सुख को
हम छोड़ना नहीं
चाहते, तो
जोर से पकड़ते
हैं, जोर
से पकड़ते
हैं तो दुख हो
जाता है। फिर
जिसको इतने
जोर से पकड़ा
फिर उसको
छोड़ने में भी
मुश्किल हो
जाती है।
दुख को
हम एकदम छोड़ना
चाहते हैं।
छोड़ना चाहते हैं, इसलिए दुख
गहरा हो जाता
है। पकड़े
रहें, दुख
को भी तो थोड़ी
देर में
पाएंगे सुख हो
गया। दुख का
मतलब है कि
शायद हम
अपरिचित हैं,
थोड़ी देर
में परिचित हो
जाएंगे। सुख
का भी मतलब है,
शायद हम
अपरिचित हैं,
और थोड़ी देर
में परिचित हो
जाएंगे। और
परिचय सब बदल
देगा।
मैंने
सुना है एक
आदमी के बाबत, वह एक नए
गांव में गया।
किसी आदमी से
उसने रुपये
उधार मांगे।
उस आदमी ने कहा,
अजीब हैं आप
भी! मैं आपको
बिलकुल नहीं
जानता और आप
रुपये मांगते
हैं। उस आदमी
ने कहा, मैं
अजीब हूं कि
तुम! मैं अपना
गांव इसलिए
छोड़कर आया, क्योंकि
वहां लोग कहते
हैं, हम
तुम्हें भली
भांति जानते
हैं, कैसे
उधार दें? और
तुम इस गांव
में कहते हो
कि जानते नहीं
हैं, इसलिए
न देंगे। तो
जब भलीभांति
जान लोगे तब
दोगे? लेकिन
पुराने गांव
में सब लोग
भलीभांति
जानते थे। और
वहां इसलिए
नहीं देते थे।
अब मैं कहां
जाऊं? ऐसा
भी कोई गांव
है, जहां
मुझे भी रुपये
उधार मिल सकें?
हम सब
भी, हम जो तोड़कर
देखते हैं
उससे कठिनाई
शुरू होती है।
नहीं, ऐसा
कोई गांव नहीं
है। सब गांव
एक जैसे हैं।
ऐसी
कोई जगह नहीं
है जहां
सुख-ही-सुख
है। ऐसी कोई
जगह नहीं है
जहां
दुख-ही-दुख
है। इसलिए स्वर्ग
और नर्क सिर्फ
कल्पनाएं
हैं। वह हमारी
इसी कल्पना की
दौड़ है। एक
जगह हमने
दुख-ही-दुख
इकट्ठा कर
दिया है, एक
जगह हमने
सुख-ही-सुख
इकट्ठा कर
दिया है। नहीं,
जिंदगी
जहां भी है
वहां सुख भी
है, दुख भी
है। नर्क में
भी विश्राम के
सुख होंगे और
स्वर्ग में भी
थक जाने से
दुख होंगे।
बर्ट्रंड
रसल ने कहीं
एक बात कही है
कि मैं स्वर्ग
न जाना
चाहूंगा, क्योंकि
जहां
सुख-ही-सुख
होगा, वहां
सुख कैसे
मालूम पड़ेगा?
जहां कोई
बीमार ही न
पड़ता होगा, वहां
स्वास्थ्य का
पता चलेगा? नहीं पता
चलेगा। और
जहां भी चाहिए
वह मिल जाता
होगा, वहां
मिलने का सुख
होगा? मिलने
का सुख न
मिलने की
लंबाई से आता
है। इसलिए तो
जो चीज मिल
जाती है, समाप्त
हो जाती है।
प्रतीक्षा
में ही सब सुख
होता है। जब
तक नहीं मिलता,
नहीं मिलता,
सुख-ही-सुख
होता है। मिला
कि हाथ एकदम
खाली हो जाते
हैं। हम फिर
पूछने लगते
हैं, अब
किस के लिए
दुखी हों? अर्थात
अब हम किसके
लिए सुख मानें
प्रतीक्षा
में? अब हम
किसकी
प्रतीक्षा
करें? अब
हम क्या पाने
की राह देखें,
जिसमें सुख
मिले?
रथ
चाइल्ड नाम का
एक बहुत बड़ा अरबपति मर
रहा था। एक
कहानी उसके
बाबत प्रचलित
है, पता नहीं
सच है या झूठ।
उसने अपने
बेटे से कहा कि
तूने देख ही
लिया होगा
मेरी जिंदगी
से कि अरबों
रुपये हों, तब भी सुख
नहीं मिलता।
धन सुख नहीं
है, संपत्ति
सुख नहीं है।
उसके बेटे ने
कहा, देख
लिया आपकी
जिंदगी से, लेकिन एक
बात भी देखी
कि धन पास में
हो तो अपने मन
का दुख चुना
जा सकता है।
उस बेटे ने
कहा, धन
पास हो, तो
"यू कैन हैव योर ओन
च्वाइस आफ सफरिंग।
एण्ड दि
च्वाइस इज
ब्लिसफुल'। उसने कहा
कि वह जो
चुनाव है, वह
बड़ा सुख का
है। इतना मैं
जानता हूं कि
सुखी तो आप न
थे, लेकिन
जो भी दुख
चाहते थे, चुन
लेते थे। एक
गरीब आदमी जो
भी दुख चाहे, नहीं चुन
सकता। गरीब और
अमीर के दुख
में बहुत फर्क
नहीं होता, चुनाव में
फर्क होता है।
गरीब को उसी
स्त्री के साथ
दुख भोगना
पड़ता है जो
मिल गई। अमीर
वे स्त्रियां
चुन लेता है
जिनके साथ दुख
भोगना हो। लेकिन
यह भी कोई कम
सुख है।
जिनको
हम सुख-दुख
कहते हैं, बहुत गहरे
में जाएंगे तो
वे एक ही चीज
के दो रूप हैं,
एक ही चीज
के दो हिस्से
हैं, शायद
एक ही चीज की घनताएं, "डेंसिटीज'
हैं। फिर जो
दुख मेरे लिए
दुख है, वह
आपके लिए सुख
हो सकता है।
मेरे पास अगर करोड़
रुपये हैं और
अगर पचास लाख
रुपये मैं खो
दूं, तो
मेरे पास पचास
लाख रुपये
बचेंगे लेकिन
मैं दुखी हो जाऊंगा।
और आपके पास अगर
पचास लाख
रुपये नहीं
हैं और आपको
पचास लाख मिल
जाएं, तो
हम दोनों की
स्थिति एक
होगी--मेरे
पास भी पचास
होंगे और मैं
रोऊंगा छाती
पीटकर, आपके
पास भी पचास
होंगे और आप
नाचेंगे छाती
पीटकर। हम
दोनों की
स्थिति एक
होगी। पचास
मेरे पास भी
होंगे, लेकिन
मैंने पचास
खोए हैं। और
पचास आपके पास
भी होंगे, लेकिन
आपने पचास पाए
हैं। लेकिन
ध्यान रहे, आप कितनी
देर तक छाती
पीटकर
नाचेंगे, क्योंकि
जिसके पचास
लाख हो जाते
हैं उसके पास पचास
लाख खोने की
संभावना हो
जाती है। और
मैं कितनी देर
रोऊंगा पचास
लाख खो गए
उनके लिए? क्योंकि
जो पचास लाख
खोता है वह
फिर पचास लाख
पैदा करने में
लग जाता है, खोजने में
लग जाता है।
नहीं, न तो मेरा
सुख आपका सुख
बन सकता, न
मेरा दुख आपका
दुख बन सकता
और न ही मेरा
आज का दुख
मेरा कल का
सुख बन सकता।
न ही मेरा अभी
जो सुख है वह
क्षण भर बाद
भी सुख होगा
यह मैं कह सकता।
सुख और दुख
आकाश में आ गई
बदलियों जैसे
हैं--आते हैं, जाते
हैं--लेकिन
दोनों ही सत्य
हैं। दोनों ही
सत्य हैं, यह
भी कहना पड़ता
है क्योंकि
हमारी सारी
भाषा दो को
मानकर चलती
है। एक ही
सत्य है, जो
कभी सुख जैसा
दिखाई पड़ता है,
कभी दुख
जैसा दिखाई
पड़ता है। सुख
और दुख हमारे "इंटरप्रेटेशंस'
हैं। सुख और
दुख हमारी
व्याख्याएं
हैं। हम किस
चीज की
व्याख्या
करते हैं, इस
पर सब कुछ
निर्भर करता
है। हम क्या
व्याख्या
करते हैं? सुख
और दुख स्थितियां
कम, व्याख्याएं
ज्यादा हैं और
व्याख्याएं
हजारों चीजों
पर निर्भर
होती हैं, वह
हम पर निर्भर
होती हैं हजार
चीजें।
लेकिन
दोनों ही एक
साथ सत्य हैं
अगर यह स्मरण में
आ जाए, तो
फिर बुद्ध का
सत्य अधूरा
मालूम पड़ेगा,
"एम्फेटिक'
मालूम
पड़ेगा।
हालांकि
कारगर होगा।
बुद्ध को शिष्य
मिल जाएंगे, करोड़ों, कृष्ण
को नहीं मिल
सकेंगे।
चार्वाक को
अनुयायी मिल
जाएंगे, अरबों,
कृष्ण को
नहीं मिल
सकेंगे।
दोनों चुनाव
करते हैं, और
एक अति का
चुनाव करते
हैं, और
साफ कह देते
हैं कि चीजें
ऐसी हैं। और
जब हमें चीजें
वैसी दिखाई
पड़ती हैं तो
हम कहते हैं कि
बिलकुल ठीक
कहते हैं।
तुम्हें भी
बुद्ध हर हालत
में ठीक दिखाई
न पड़ेंगे।
तुम्हें भी उस
हालत में
दिखाई पड़ेंगे
जब तुम दुख
में हो। अगर
तुम दुख में
नहीं हो तो
बुद्ध ठीक
दिखाई मालूम
नहीं पड़ेंगे।
सुखी आदमी
बुद्ध की
उपेक्षा कर
जाएगा; जो
अभी सुखी अपने
को समझ रहा
है। दुखी होते
ही से बुद्ध
के वचन सार्थक
होने शुरू हो
जाएंगे। इसमें
बुद्ध सार्थक
हो रहे हैं कि
आप बुद्ध के
वचन के निकट आ
रहे हैं।
लेकिन
कृष्ण हमेशा
बेबूझ रहेंगे, आप चाहे दुख
में हों तो
बेबूझ रहेंगे,
आप चाहे सुख
में हों तो भी
बेबूझ
रहेंगे। कृष्ण
तो आप दोनों
में एक साथ, एक जैसे
राजी हो जाएं,
तब आपकी
सूझ-बूझ में
आना शुरू
होंगे। जिस
दिन आप कह सकें
कि दुख है तो
भी राजी, सुख
है तो भी राजी;
और जिस दिन
आप कह सकें कि
दुख है, यह
भी आने वाला
सुख है, सुख
है और यह भी
आने वाला दुख
है; और जिस
दिन आप कह
सकें कि हम इन
दोनों को अलग
नाम ही नहीं
देते, अब
हमने नाम देना
ही बंद कर
दिया है, अब
जो आ जाता है, आ जाता है, अब हम
व्याख्या ही
नहीं करते, उस दिन आप
कहां होंगे? उस दिन आप
आनंद में
होंगे। उस दिन
आप सुख में भी
नहीं होंगे, दुख में भी
नहीं
होंगे--आपने
व्याख्याएं
बंद कर दी
हैं। जिस आदमी
ने
व्याख्याएं
बंद कर दी हैं
घटनाओं की, वह आदमी
आनंद में
प्रविष्ट हो
जाता है। और
जो आनंद में
है वह कृष्ण
को समझ सकेगा।
वही समझ
सकेगा।
आनंद
का मतलब यह
नहीं है कि अब
दुख नहीं
आएंगे। आनंद
का मतलब यह है
कि अब आप ऐसी
व्याख्या नहीं
करेंगे जो
उन्हें दुख
बना दे। आनंद
का यह मतलब
नहीं है कि अब
सुख-ही-सुख आए
चले जाएंगे, नहीं, आनंद
का इतना ही
मतलब है कि अब
आप वे
व्याख्याएं
छोड़ देंगे जो
उन्हें सुख
बनाती थीं, या, सुख
की सतत मांग
करवाती थीं।
अब चीजें जैसी
होंगी
होंगी--धूप
धूप होगी, छाया
छाया होगी।
कभी धूप होगी,
कभी छाया
होगी। और अब
आप उनसे
प्रभावित
होना बंद हो
जाएंगे, क्योंकि
अब आप जानते
हैं चीजें आती
हैं, चीजें
चली जाती हैं।
और आप पर सब
आता है और सब चला
जाता है, फिर
भी आप आप ही रह
जाते हैं। और
यह जो रह जाना
है, यह जो "रिमेनिंग',
यह जो पीछे
आपकी चेतना है,
यही
कृष्ण-चेतना
है। जो
"कृष्ण-कांशसनेस'
कहें, वह
यह घड़ी है जब
सुख और दुख
आते हैं और
जाते हैं और आप
देखते रहते
हैं; आप
कहते हैं, सुख
आया, सुख
गया, और यह
भी दूसरों की
व्याख्या है,
मेरी नहीं।
यह भी दूसरे
इसको सुख कहते
हैं, जो
आया; और
दूसरे इसको
दुख कहते हैं,
जो आया; यह
भी मेरी
व्याख्या
नहीं है। ऐसा
हो रहा है, मुझसे
गुजर रहा है।
तब आप आनंदित
होंगे।
कृष्ण के
लिए जो सार्थक
है जीवन का
शब्द, वह
आनंद है। दुख
और सुख दोनों
सार्थक नहीं
हैं। वह आनंद
को ही बांटकर
पैदा किए गए
हैं। जिस आनंद
को आप स्वीकार
करते हैं उसे
सुख कहते हैं
और जिस आनंद
को स्वीकार
नहीं करते
उसको दुख कहते
हैं। वह आनंद
को दो हिस्सों
में बांटकर
पैदा की गई
व्याख्या है।
इसलिए जब तक
आप उस आनंद को स्वीकार
करते हैं, वह
सुख है; और
जब स्वीकार
नहीं करते हैं,
वह दुख हो
जाता है। आनंद
सत्य है, पूर्ण
सत्य है।
इसलिए आनंद से
उलटा कोई शब्द
नहीं है। सुख
का उलटा दुख
है। प्रेम का
उलटा घृणा है।
बंधन का उलटा
मुक्ति है। आनंद
का कोई उलटा
शब्द नहीं है।
आनंद से उलटी कोई
अवस्था ही
नहीं है। आनंद
से उलटी भी
अगर कोई
अवस्था है तो
यह सुख-दुख की
ही कह सकते
हैं, और
कोई उलटी
अवस्था नहीं
है। इसलिए
स्वर्ग के खिलाफ
नर्क है, लेकिन
मोक्ष के
खिलाफ कुछ भी
नहीं है।
क्योंकि
मोक्ष आनंद की
अवस्था है।
उसके खिलाफ
कोई जगह बनाने
का उपाय नहीं
है। मोक्ष का
मतलब ही यही
है कि अब
सुख-दुख दोनों
के लिए एक-सा राजीपन आ
गया, एक-सी
स्वीकृति का
भाव आ गया।
अब तुम
आगे बढ़ो
नहीं तो
मुश्किल में
पड़ेंगे।
"कृष्ण को
पूर्णावतार
कहने के
क्या-क्या
कारण हैं? कुछ
और नए कारण
बताएं। और
चौंसठ कलाओं
के संदर्भ में
सविस्तार
प्रकाश
डालें।'
नहीं, पूर्ण को
कहने का और
कोई कारण नहीं
है। जो व्यक्ति
भी शून्य हो
जाता है, वह
पूर्ण हो जाता
है। शून्यता
पूर्ण की
भूमिका है।
अगर ठीक से
कहें तो शून्य
ही एकमात्र पूर्ण
है। इसलिए आप
आधा शून्य
नहीं खींच
सकते। ज्यामेट्री
में भी नहीं
खींच सकते। आप
अगर कहें कि
मैंने आधा
शून्य खींचा,
तो वह शून्य
नहीं रह जाएगा,
आधा शून्य
होता ही नहीं।
शून्य सदा
पूर्ण ही होता
है। पूरा ही
होता है।
अधूरे का कोई
मतलब ही नहीं
होता। शून्य
के दो हिस्से
कैसे करियेगा?
और जिसके दो
हिस्से हो
जाएं उसको
शून्य कैसे कहियेगा? शून्य कटता
नहीं, बंटता नहीं, "इंडिविजिबल'
है। विभाजन
नहीं होता।
जहां से
विभाजन शुरू होता
है, वहां
से संख्या
शुरू हो जाती
है। इसलिए
शून्य के बाद
हमें एक से
शुरू करना
पड़ता है। एक, दो, तीन, यह फिर
संख्या की
दुनिया है। सब
संख्याएं
शून्य से
निकलती और
शून्य में खो
जाती हैं। शून्य
एक मात्र
पूर्ण है।
शून्य
कौन हो सकता
है? वही
पूर्ण हो सकता
है। कृष्ण को
पूर्ण कहने का
अर्थ है।
क्योंकि यह
आदमी बिलकुल
शून्य है। शून्य
वह हो सकता है
जिसका कोई
चुनाव नहीं।
जिसका चुनाव
है, वह तो
कुछ हो गया।
उसने "समबडीनेस'
स्वीकार कर
ली। उसने कहा
कि मैं चोर
हूं, यह
कुछ हो गया।
शून्य कट गया।
उसने कहा मैं
साधु हूं, यह
कट गया, शून्य
कट गया। यह
आदमी कुछ हो
गया। इसने कुछ
होने को
स्वीकार कर
लिया, "समबडीनेस'
आ गई, "नथिंगनेस'
खो गई। अगर
कृष्ण से कोई
जाकर पूछे कि
तुम कौन हो, तो कृष्ण
कोई सार्थक
उत्तर नहीं दे
सकते हैं। चुप
ही रह सकते
हैं। कोई भी
उत्तर देंगे
तो चुनाव शुरू
हो जाएगा। वह
कुछ हो
जाएंगे। असल
में जिसको सब
कुछ होना है, उसे न-कुछ
होने की
तैयारी
चाहिए।
झेन फकीरों के
बीच एक कोड
है। वे कहते
हैं: "वन हू लांग्स
टु बी एवरीव्हेयर, मस्ट नॉट बी ऐनीव्हेयर'। जिसे सब
कहीं होना हो,
उसे कहीं
नहीं होना
चाहिए। या
न-कहीं होना
चाहिए। जो सब
होना चाहता है,
वह कुछ नहीं
हो सकता। कैसे
कुछ होगा? कुछ
और सबका क्या
मेल होगा? चुनाव
नहीं। "च्वाइसलेसनेस'
शून्यता ला
देती है। फिर
आप जो हैं, हैं।
लेकिन, कह
नहीं सकते कौन
हैं, क्या
हैं? इसलिए
अर्जुन उनसे
पूछता है कि
आप बताएं आप
कौन हैं? तो
उत्तर नहीं
देते, अपने
को ही बता
देते हैं।
उसमें वे सब
हैं। पूर्ण का
बहुत गहरा
कारण तो उनका
शून्य
व्यक्तित्व
है। जो कुछ है,
वह अड़चन में
पड़ेगा।
क्योंकि जिंदगी
ऐसी जगह उसको
ले जाएगी जहां
उसका कुछ होना
बंधन हो
जाएगा। अगर
मैंने कुछ भी
होने का तय किया,
तो जिंदगी
उन घड़ियों
को भी लाएगी
जब मेरा कुछ
होना ही मेरे
लिए मुश्किल
पड़ जाएगा।
कबीर
के घर बहुत
लोग रुकते थे
और कबीर सबको
कहते, खाना
खा जाओ। और एक
दिन बड़ी
मुश्किल हो
गई। कबीर के
बेटे ने कहा, कब तक यह
चलेगा? हम
उधारी से दबे
जाते हैं। तो
कबीर ने कहा, उधारी लेते
रहो । तो उसके
बेटे ने कहा, चुकाएगा कौन? कबीर
ने कहा, जो
देता है वही
चुका भी लेगा।
हम क्यों फिकिर
करें! लेकिन
बेटे की समझ
में न आया। वह
गणित और हिसाब-किताब
का आदमी! उसने
कहा कि इन
बातों से नहीं
चलेगा, यह
कोई अध्यात्म
नहीं है। यहां
जिनसे हम लेते
हैं, वे
मांगते हैं।
और न देंगे तो
चोर हो जाएंगे,
बेईमान
सिद्ध होंगे।
तो कबीर ने
कहा, सिद्ध
हो जाना।
इसमें हर्ज
क्या है। और
अगर लोगों ने
हमें बेईमान
कहा तो हमारा
क्या बिगड़ जाएगा।
लेकिन बेटे ने
कहा कि यह
हमारे बर्दाश्त
के बाहर है।
आप कृपा करके
इतने उपद्रव
में न डालकर, लोगों से
खाना खाएं
यहां यह आग्रह
करना बंद कर
दें। कबीर ने
कहा, होगा
तो हो जाएगा।
लेकिन
दूसरे दिन फिर
लोग आए और
कबीर ने कहा, खाना खाकर
जाना, और
लोगों ने खाया
और उनके लड़के
ने कहा कि वह
नहीं हुआ।
कबीर ने कहा कि
मैं कोई वचन
नहीं दे सकता,
क्योंकि
मैं कोई बंधन
में नहीं पड़
सकता। हो जाएगा
तो हो जाएगा।
किसी दिन नहीं
कहूंगा तो नहीं
कहूंगा, और
जब तक होता है,
कहना
निकलता है, तो कहता
हूं। उस लड़के
ने कहा, फिर
अब ज्यादा
नहीं चल सकती
बात। अब तो
मुझे चोरी ही
करनी पड़ेगी, उधार भी
देने को गांव
में कोई तैयार
नहीं है। तो
कबीर ने कहा, पागल, यह
पहले ही क्यों
न सोचा, उधारी
की झंझट से बच
जाते। लेकिन
बेटा बड़ी मुश्किल
में पड़ गया
क्योंकि कबीर,
साधु, सदा
अच्छी बात
कहता, यह
हो क्या गया
है? लेकिन
बेटे ने कहा
परीक्षा कर
लें, कहीं
यह मजाक तो
नहीं है।
तो रात
उसने कबीर को
उठाया कि मैं
चोरी को जाता
हूं, आप भी साथ
चलेंगे? कबीर
ने कहा, जब
उठा ही लिया
है तो चला
चलता हूं।
बेटे ने सोचा,
क्या सच में
ही यह चोरी को
राजी हो
जाएंगे! लेकिन
बेटा भी कबीर
का था। उसने
कहा कि इतनी
जल्दी लौट
जाना ठीक नहीं,
हो सकता है
मजाक ही हो।
वह गया, उसने
जाकर दीवाल तोड़नी
शुरू की, सेंध
लगाई। कबीर
किनारे खड़े
हैं। उसने
देखा कि अभी
भी कुछ नहीं
कहते कि अब बस
रुक जाओ, मजाक
बंद। लेकिन वह
डर रहा है।
कबीर उसे कहते
हैं, डरते
क्यों हो? वह
कहता है, डरें
न और! और मजे की
बात सुनिए वह
कहता है कि, चोरी कर रहे
हैं और डरें न!
कबीर ने कहा, डरते हो
इसलिए अपने को
चोर समझ रहे
हो। नहीं तो
और कारण ही
क्या है चोर
समझने का? डरो
मत, और ठीक
से खुदाई करो,
नहीं तो घर
के लोग...नाहक
नींद खराब हो
जाएगी। तो बेटे
ने किसी तरह
तो खुदाई की।
उसने सोचा कि
शायद मजाक
यहां खतम हो
जाएगी। उसने
कहा, अब
भीतर चलें? कबीर ने कहा,
चलो। वे
भीतर गए।
उन्होंने गेहूं
का एक...कोई धन
तो चुराना न
था, भोजन
की ही तकलीफ
थी, तो एक गेहूं का
बोरा खींचकर
बाहर निकाला।
जब बोरा बाहर
निकल आया, कबीर
ने कहा कि अब
तो सुबह भी
होने के करीब
हो गई, नींद
में कोई बाधा
भी न पड़ेगी, घर के लोगों
को जगाकर
कह आओ कि हम एक
बोरा चुराए
लिए जाते हैं।
तो उसके बेटे
ने कहा, चोरी
करने आए हैं
कि कोई
साहूकारी
करने आए हैं।
कबीर ने कहा, लेकिन घर के
लोगों को
परेशानी होगी
कि कहां गया, क्या हुआ, ढूंढ़ने की
मुसीबत होगी।
कबीर
की इस घटना को
कबीर को मानने
वाला छांट ही
जाता है।
क्योंकि यह तो
बेबूझ हो गई
बात। कबीर
साधु हैं कि
कबीर चोर हैं? तय करना
मुश्किल है।
चोर होने में
कोई कमी नहीं
है, चोरी
की गई है।
साधु होने में
जरा शक नहीं, क्योंकि
कहता है--डरता
क्यों है? क्योंकि
कहता है, जगाकर
घर के लोगों
को खबर कर दें,
उनको
परेशानी न हो,
वे खोजें न
कि कौन ले गया,
नाहक
मुसीबत में न
पड़ें। लड़का
कहता है, घर
में खबर
करूंगा जाकर
तो वे चोर
समझेंगे। कबीर
कहता है, चोरी
तो की है तो
चोर हैं।
इसमें वे समझेंगे
तो वे गलत तो न
समझेंगे। तो
ठीक ही समझेंगे।
तो वह लड़का
कहता है, गांव
भर में खबर
फैल जाएगी कि
तुम चोर हो।
कौन आएगा
तुम्हारे पास?
तो कबीर ने
कहा, तेरी
मुसीबत
मिटेगी; न
कोई आएगा, न
मैं खाने के
लिए कहूंगा।
मगर वह लड़के
के समझ में
नहीं आता, वह
सारी बात उलटी
होती चली जाती
है।
कृष्ण
के पूरे होने
का दूसरा अर्थ
है कि कृष्ण
के जीवन में
वह सब कुछ है
जो कि एक ही
जीवन में होना
मुश्किल है।
असंभव लगता
है। सब कुछ
है--विरोधी, ठीक विरोधी।
कृष्ण से
ज्यादा असंगत,
"इनकंसिस्टेंट'
व्यक्तित्व
नहीं है। जीसस
के
व्यक्तित्व
में एक संगति
है, महावीर
के
व्यक्तित्व
में एक संगति
है, बुद्ध
के
व्यक्तित्व
में एक तर्क
है, एक संगतिपूर्ण
व्यवस्था है,
एक "सिस्टम'
है। बुद्ध
का एक हिस्सा
समझ लो, तो
पूरे बुद्ध
समझ में आ
जाते हैं।
रामकृष्ण ने
कहा है कि एक
साधु समझ लो
तो सब साधु
समझ में आ जाते
हैं। यह कृष्ण
की बाबत न
लगेगा।
रामकृष्ण ने
कहा कि समुद्र
की एक बूंद
समझ लो तो
पूरा समुद्र समझ
में आ जाता
है। यह कृष्ण
की बाबत न
लगेगा। समुद्र
एकरस है, एक
बूंद चखो
तो खारी है, दूसरी बूंद चखो तो
खारी है--सब
नमक ही है।
लेकिन कृष्ण
में शक्कर भी
मिल सकती है; और पक्का
नहीं है कि
पड़ोस की बूंद
में शक्कर हो।
कृष्ण का
व्यक्तित्व
जो है, सब-रस
है।
ठीक
ऐसा ही उनके
व्यक्तित्व
में सारी
कलाएं हैं।
कृष्ण कलाकार
नहीं हैं, क्योंकि
कलाकार में एक
ही कला होती
है। कृष्ण कला
ही हैं। तब सब
पूरा हो जाता
है। और इसलिए
जिन्होंने
उनको देखा, जाना, पहचाना,
उनको सब तरह
की
अतिशयोक्ति
करनी पड़ी। हम
सब के बाबत "एक्जजरेशन'
से बच सकते
हैं या एक ही
दिशा में "एक्जजरेट'
कर सकते हैं,
कृष्ण के
साथ कठिनाई
खड़ी हो जाती
है। क्योंकि हमारे
पास जो अति
आखिरी शब्द
हैं वे हमें
उपयोग करने
पड़ेंगे। और
कठिनाई और बढ़
जाती है कि
इससे विपरीत
अति का शब्द
भी उपयोग करना
पड़ेगा। वे
ठंडे और गर्म
एक साथ हैं।
ऐसे पानी भी
ठंडा और गर्म
एक साथ ही
होता है।
हमारी व्याख्या
से कठिनाई खड़ी
हो जाती है।
हम ठंडे और
गर्म को
अलग-अलग कर
देते हैं। हम
बांट देते हैं
दो हिस्सों
में। लेकिन
अगर हम पानी
से पूछें कि
तुम ठंडे हो
या गर्म? तो
पानी क्या
कहेगा? पानी
कहेगा कि अपना
हाथ डालकर
देखिए तो आपको
पता चल सकता
है। क्योंकि
असली सवाल
मेरे ठंडे और
गर्म होने का
नहीं है, असली
सवाल आप ठंडे
हैं कि गर्म, इसका है।
अगर आप
गर्म हैं तो
पानी ठंडा
मालूम पड़ सकता
है, आप ठंडे
हैं तो पानी
गर्म मालूम पड़
सकता है। पानी
का गर्म और
ठंडा होना
आपके प्रति
"रिलेटिव' है,
आपके प्रति
सापेक्ष है।
इसलिए अगर आप
एक हाथ सिगड़ी
पर रखकर गर्म
कर लें और एक
बर्फ पर रखकर
ठंडा कर लें
और फिर एक ही
बालटी में डाल
दें तो आप उसी मुश्किल
में पड़ जाएंगे
जो कृष्ण के
साथ खड़ी होती
है। तब पानी
ठंडा-गरम
दोनों मालूम
पड़ेगा। एक हाथ
कहेगा ठंडा है,
एक हाथ
कहेगा गर्म
है। तब आप सिर
पीट लेंगे, आप कहेंगे
मेरे हाथ बड़ी
गड़बड़ खबर देते
हैं। हाथ ठीक
खबर दे रहे
हैं। हाथ ने
सदा ही ठीक
खबर दी है।
हाथ असल में
जो भी खबर
देता है वह
अपनी अपेक्षा
में, अपनी
सापेक्षता
में, अपनी "रिलेटीविटी'
में देता
है। वह यह
कहता है कि
मेरे और पानी
के बीच क्या
संबंध है।
तो अगर
आप किसी कृष्ण
को प्रेम करने
वाली राधा से
पूछेंगे तो वह
कुछ और खबर
देगी कि कृष्ण
कौन हैं। वह
इसे पूर्ण
भगवान शायद न
भी कहे। या शायद
कहे भी। उस पर
निर्भर होगा।
कृष्ण पर निर्भर
नहीं होगा।
राधा पर ही
निर्भर होगा, वह "रिलेटिव'
है। अगर
राधा ने किसी
और स्त्री के
साथ कृष्ण को
नाचते देख
लिया तो भगवान
कहना उसे बहुत
मुश्किल
पड़ेगा। अब यह
पानी बिलकुल
ठंडा मालूम पड़ेगा।
पानी भी न
मालूम पड़े, यह भी हो
सकता है।
लेकिन अगर
कृष्ण राधा के
साथ नाचे हैं
तो वह इतना
पूरा नाचते
हैं उसके साथ
भी कि उसे
लगता है कि
पूरे ही उसके
हैं। तब वह उन्हें
भगवान भी कह
सकती है। सभी राधाएं, जब कोई उनके
साथ पूरा
नाचता है तो
उसे भगवान कह
देती हैं, लेकिन
क्षण भर में
वह आदमी शैतान
भी हो सकता
है। लेकिन ये
सारे वक्तव्य
सापेक्ष
वक्तव्य हैं।
अर्जुन से पूछियेगा,
पांडवों से पूछियेगा,
तो कृष्ण
भगवान मालूम
होंगे, कौरवों
से पूछियेगा
तो यह आदमी
भगवान कैसे
मालूम होगा।
इस आदमी से
ज्यादा शैतान
और कौन होगा; यही तो उनकी
पराजय बनता है,
यही तो उनकी
मृत्यु बनता
है।
कृष्ण
कौन हैं, ये
हजार वक्तव्य
हो सकते हैं।
लेकिन बुद्ध
कौन हैं, इसके
बाबत वक्तव्य
हजार नहीं
होंगे।
क्योंकि
बुद्ध जो हैं
वह सब सापेक्ष
संबंधों में
अपने को अलग
कर लेते हैं, इसलिए वह
एकरस हैं।
उन्हें कहीं
से भी चखो,
वे खारे ही
हैं। इसलिए बुद्ध
के बाबत हमारे
"स्टेटमेंट'
का, वक्तव्य
का क्या अर्थ
हो सकता है।
कृष्ण हमारे "स्टेटमेंट'
को धोखा दे
जाएंगे। और
चूंकि
उन्होंने सभी
वक्तव्यों को
धोखा दिया, इसलिए मैं
कहता हूं कि
वह पूर्ण हैं।
कोई वक्तव्य
उनको पूरा
नहीं घेर पाता,
बाकी रह
जाता है और
उलटे वक्तव्य
से घेरना पड़ता
है। और सभी
वक्तव्य मिलकर
ही उनको घेर
पाते हैं, विरोधी
हो जाते हैं।
कृष्ण
की पूर्णता का
अर्थ सिर्फ
इतना ही है कि
कृष्ण के पास
अपने जैसा कोई
व्यक्तित्व
नहीं है। वह
खाली
अस्तित्व हैं, "एक्जिस्टेंस'
हैं।
अस्तित्व हैं,
बस, खाली
हैं, कहें
कि दर्पण की
तरह हैं। जो
उनके सामने आ
जाता है, वही
उसमें दिखाई
पड़ता है। "ही जस्ट
मिरर्स'।
जो भी दिखाई
पड़ जाता है
वही दिखाई
पड़ता है। जब
आपको अपनी
शक्ल उसमें
दिखाई पड़ती है
तो आप सोचते
हैं, मेरे
जैसे हैं। और
आप हटे नहीं
कि वह शक्ल गई
नहीं, और
कृष्ण फिर
खाली हैं। और
जो भी सामने
आता है, वह
अपने जैसा बता
देता है। ये
सभी खबर देते
हैं कि कृष्ण
मेरे जैसे
हैं। गीता में
जिसने भी झांका
उसने कह दिया
कि गीता मेरी
जैसी है, इसलिए
हजार टीकाएं
हो गईं। बुद्ध
के वचनों की इतनी
टीकाएं नहीं
हैं। उसका
कारण है। जीसस
के वचनों की
इतनी टीकाएं
नहीं हैं।
दस-पांच
टीकाएं हैं, तो भी उनमें
फासले बहुत कम
हैं। असल में
हजार अर्थ
कृष्ण पर ही
थोपे जा सकते
हैं, बुद्ध
पर थोपे नहीं
जा सकते।
बुद्ध जो कहते
हैं, "डेफिनिट'
है, सुनिश्चित
है। वक्तव्य
पूरा-का-पूरा
है, साफ है,
सुथरा है, तर्कयुक्त
है। वह जो कहते
हैं उसमें
थोड़े-बहुत
फर्क हो सकते
हैं हमारी
बुद्धि के
अनुसार, लेकिन
बहुत फर्क
नहीं हो सकते।
अब महावीर पर
अगर कोई बहुत झगड़ा भी
हुआ है, तो
केवल दो पंथ
बन सके। उनमें
भी बहुत
ज्यादा झगड़ा
नहीं है, बहुत
छोटी बातों पर
झगड़ा
है--कि महावीर
नग्न थे या
नहीं थे, इस
पर झगड़ा
है, महावीर
के वक्तव्य पर
झगड़ा
नहीं है।
श्वेतांबरों दिगंबरों
में महावीर के
वक्तव्य पर
कोई झगड़ा
नहीं है।
महावीर का
वक्तव्य साफ
है। महावीर पर
पंथ नहीं खड़े
किए जा सकते, लेकिन कृष्ण
पर भी पंथ खड़े
नहीं किए जा
सकते, लेकिन
कारण बिलकुल
उलटा है।
कृष्ण पर पंथ
खड़े करो तो
लाख खड़े हो
जाएं। और फिर
भी कृष्ण पीछे
बाकी बच
जाएंगे कि नए
पंथ बनाना
चाहे कोई तो
नई भूमि
उपलब्ध हो
जाएगी।
इसलिए
कृष्ण पर पंथ
तो खड़े नहीं
हुए, व्याख्याएं
खड़ी हो गईं।
बहुत अनूठी
घटना घटी कृष्ण
पर। जीसस पर
पंथ खड़े हो गए,
व्याख्याएं
हो गईं, दो
या तीन
व्याख्याएं
हो गईं, दो
या तीन पंथ हो
गए। कृष्ण पर
पंथ खड़ा नहीं
हो सका इस
अर्थ में, व्याख्याएं
खड़ी हुईं।
गीता की हजार
व्याख्याएं
हैं, और एक
व्याख्या
दूसरी
व्याख्या की
बिलकुल दुश्मन
हो सकती है।
रामानुज जो
व्याख्या
करेंगे, शंकर
को कह सकते
हैं तुम
बिलकुल ही मूढ़
हो, तुम
कुछ जानते ही
नहीं, तुम्हें
कृष्ण का कुछ
पता ही नहीं।
शंकर जो व्याख्या
करेंगे, उसमें
रामानुज को कह
सकते हैं
बिलकुल नासमझ
हो, तुम्हें
कुछ पता ही
नहीं। और
दोनों सही हो
सकते हैं। कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन, कारण सिर्फ
इतना है कि
कृष्ण का
व्यक्तित्व
सुनिश्चित
नहीं है, अनिश्चित
है। उसकी
रूपरेखा नहीं
है, निराकार
है। इस अर्थों
में भी पूर्ण
हैं, क्योंकि
सिर्फ पूर्ण
ही निराकार हो
सकता है।
और जो
भी
व्याख्याएं
हैं, इसलिए
मैं कहता हूं
कि गीता की
कोई भी
व्याख्या
कृष्ण की
व्याख्या
नहीं है।
जिन्होंने
व्याख्या की
है, उनकी
ही
व्याख्याएं
हैं। शंकर जो
जानते हैं उसकी
व्याख्या
गीता में खोज
लेते हैं, मिल
जाती है। वह
शंकर खोज लेते
हैं कि जगत
माया है।
रामानुज खोज
लेते हैं कि
भक्ति मार्ग
है। तिलक खोज
लेते हैं कि
कर्म द्वार
है। गांधी गीता
में भी खोज
लेते हैं कि
अहिंसा सत्य
है। इसमें कोई
अड़चन नहीं आती
किसी को भी। कृष्ण
किसी को बाधा
नहीं देते, सबका स्वागत
है। दर्पण की
तरह हैं, अपनी
शक्ल देखो और
हट जाओ। बाकी
वहां कोई दर्पण
की अपनी कोई "फिक्स्ड
इमेज' नहीं
है।
फोटो-फिल्म की
तरह नहीं है।
फोटो-फिल्म भी
"मिरर' का
काम करती है, दर्पण का
काम, लेकिन
सिर्फ एक बार।
फिर "फिक्सड'
हो जाती है।
एक दफा आपकी
तस्वीर उसमें
झलकती है, फिर
खत्म हो जाती
है। फिल्म
खत्म हो जाती
है, तस्वीर
पकड़ जाती है।
इसलिए हम फोटो
की यह फिल्म
को कह सकते
हैं, यह
किसकी फिल्म
है, यह
किसकी फोटो है?
लेकिन
दर्पण किसका
है? जो झांकता
है उसका ही
है। और जब कोई
नहीं झांकता
तब दर्पण
किसका? तब
दर्पण खालीपन
को ही "मिरर' करता रहता
है। खालीपन को
ही दर्शाता
रहता है। खालीपन
को ही दिखाता
रहता है, खाली
कमरा ही झलकता
रहता है। कमरा
नहीं होगा, कुछ और होगा,
वह झलकता
रहेगा। शून्य
होगा, शून्य
झलकेगा।
जो होगा वह
झलकता रहेगा।
इन अर्थों में
कृष्ण को
पूर्ण कहता
हूं।
लेकिन
और बहुत
अर्थों में
धीरे-धीरे
रोज-रोज खयाल
आएगा कि और
बहुत-बहुत
अर्थों में वह
पूर्ण हैं। और
पूर्ण बहुत
अर्थों में ही
होंगे, क्योंकि
अगर एकाध
अर्थों में ही
पूर्ण हैं तो अपूर्ण
हो जाएंगे।
क्योंकि एक
अर्थ में जो
पूर्ण है, उस
अर्थ में तो
महावीर भी
पूर्ण हैं, एक अर्थ है।
जीसस भी पूर्ण
हैं, एक
अर्थ है। एक
व्यक्तित्व
की पूर्णता तो
जीसस हैं ही।
यानी, शायद
उस तरह के
व्यक्तित्व
में कुछ बचा
नहीं है जो कि
जीसस में नहीं
है। जैसे
गुलाब पूर्ण है।
चमेली की तरह
नहीं, गुलाब
की तरह। चमेली
की तरह गुलाब
कैसे पूर्ण हो
सकता है? चमेली
की तरह चमेली
ही पूर्ण होती
है। लेकिन चमेली
गुलाब की तरह
पूर्ण नहीं हो
सकती।
बुद्ध
पूर्ण हैं, महावीर
पूर्ण हैं, क्राइस्ट
पूर्ण हैं
बहुत और
अर्थों में, बहुत अपूर्ण
अर्थों में। एक
व्यक्तित्व
की दिशा को
उन्होंने
पूरा छू डाला
है। उस दिशा
में कुछ बाकी
नहीं छोड़ा।
लेकिन कृष्ण
की पूर्णता
बहुत भिन्न
है। वह
"वन-डायमेंशनल'
नहीं है, एक-आयामी
नहीं है।
"मल्टी-डायमेंशनल'
है। वह
बहु-आयामी
हैं। वह सभी
दिशाओं में
प्रवेश कर
जाते हैं। वह
चोर हैं तो
पूरे चोर हैं
आर साधु हैं
तो पूरे साधु
हैं। याद करते
हैं, तो
पूरा याद करते
हैं, भूलते
हैं तो पूरा
ही भूल जाते
हैं। इसलिए जब
छोड़कर चले गए
एक जगह को, तो
उस जगह को भूल
गए हैं। अब उस
जगह के लोग
परेशान हैं, रो रहे हैं, चिल्ला रहे
हैं और कृष्ण
को बहुत कठोर
ठहरा रहे हैं।
बाकी वह
बेचारा कठोर
जरा-भी नहीं
है। या, पूर्ण
है कठोरता
में। जरा भी
नहीं है इन
अर्थों में कि
जो पूरा याद
करता है, वह
आदमी पूरा भूल
जाता है। जो
आधा-आधा याद
करता है, वह
आधा-आधा याद
भी रखता है।
दर्पण आपको
पूरा झलका
देता है, मामला
खतम हो गया, बात निपट गई,
आप चले गए, खाली हो
गया। कृष्ण
जहां पहुंच गए
हैं, वहां
दर्पण बन रहा
है बन रहा है।
अब जो उसको दिखाई
पड़ रहा है, वह
दिखाई पड़ रहा
है; जिसको
प्रेम करना पड़
रहा है उसको
वह प्रेम कर रहे
हैं और जिससे
लड़ना पड़ रहा
है उससे लड़
रहे हैं। जो
उनके सामने है,
वह है। पर यह
"मल्टी-डायमेंशनल'
है।
तो
पूर्णता
कृष्ण की
बहु-आयामी है।
और एक आयाम
में पूर्ण
होना ही बहुत
कठिन है, "आरडुअस' है। एक आयाम
में पूर्ण
होना आसान
मामला नहीं है।
और बहु-आयाम
में पूर्ण
होना तो, कठिन
कहना भी उचित
नहीं है, कहना
चाहिए असंभव
है। लेकिन
असंभव भी घटित
होता है, और
तभी चमत्कार
हो जाता है।
जब असंभव घटित
होता है तो
"मिरेकल' हो
जाता है।
कृष्ण का
व्यक्तित्व
बिलकुल चमत्कार
है। वह बिलकुल
"मिरेकल' है।
हम सब
तरह के
व्यक्तियों
की तुलना खोज
सकते हैं।
महावीर और
बुद्ध के
व्यक्तित्व
बड़े निकट हैं--सन्निकट
हैं, बड़े पड़ोसी
व्यक्तित्व
हैं। हेर-फेर
बड़े छोटे हैं।
अगर महावीर और
बुद्ध के
व्यक्तित्व
में हम फर्क खोजने
जाएं तो बहुत
थोड़े फर्क
हैं। न के
बराबर हैं। जो
फर्क हैं, वह
भी कहना चाहिए
कि बाह्य
व्यक्तित्व
के फर्क हैं।
भीतरी
अंतरात्मा
बड़ी एक।
एक-जैसी। लेकिन
कृष्ण की
तुलना हम खोजने
जाएं तो
मुश्किल में
पड़ जाएंगे। इस
पृथ्वी पर अब
तक नहीं हो
सकी।
स्वभावतः
इस तरह के
असंभव
व्यक्तित्व
के कुछ फायदे
होंगे, कुछ
नुकसान
होंगे। जो
व्यक्ति सभी
आयामों में
पूर्ण होगा, वह किसी भी
एक आयाम में
पूर्ण
व्यक्तित्व
के सामने उस
आयाम में फीका
पड़ जाएगा।
स्वभावतः।
क्योंकि
महावीर की
सारी शक्ति एक
आयाम में लगती
है। अगर उस
आयाम में
कृष्ण महावीर
के साथ खड़े
होंगे, फीके
पड़ जाएंगे।
क्योंकि उनकी
शक्ति बहु-आयामी
है, वह सब
मैं फैली हुई
है। इसलिए अगर
एक-एक के सामने
कृष्ण को हम
खड़ा करें, तो
कृष्ण जीत न
पाएंगे।
क्राइस्ट के
साथ हार
जाएंगे, एक-साथ
अगर खड़ा करें।
अगर उसी आयाम
में खड़ा करें
तो कृष्ण जीत
नहीं सकते।
लेकिन अगर हम
समग्र
व्यक्तित्व
को सोचें, तो
बड़ी कठिनाई हो
जाएगी।
महावीर, बुद्ध
और क्राइस्ट
जीत नहीं
सकते।
बहु-आयामी व्यक्तित्व
हैं। एक ऐसे
फूल की हम
कल्पना करें
जो जुही भी हो
जाता है कभी, जो कमल भी हो
जाता है कभी, कभी गुलाब
भी हो जाता है;
कभी घास का
फूल भी हो
जाता है और
कभी आकाश-कुसुम
भी हो जाता है,
सब हो जाता
है, जब भी
हम जाते हैं
तब पाते हैं
कि वह कुछ और
हो गया। इस
फूल के
मुकाबले किसी
फूल को हम
रखेंगे तो वह
जीत जाएगा, क्योंकि
गुलाब गुलाब
ही है। उसे
गुलाब होने का...उसकी
सारी शक्ति, सारी ऊर्जा
गुलाब होने
में लग गई है।
इसको कभी
चमेली भी होना
पड़ता है, इसको
कभी जुही भी
होना पड़ता है।
इसके प्राण इतने
फैले हुए हैं,
इतने
विस्तीर्ण
हैं कि सघन
नहीं हो सकते।
तो कृष्ण के
व्यक्तित्व
में एक
विस्तार है, एक "एक्सटैंशन'
है, इसलिए
"डेंसिटी'
उतनी नहीं
हो सकती, जितनी
महावीर या
बुद्ध के
व्यक्तित्व
में है। घनत्व
नहीं हो सकता।
फैलाव है, अंतहीन
फैलाव है।
इसलिए कृष्ण
की पूर्णता का
अर्थ अनंतता
है। महावीर की
पूर्णता का
अर्थ एक दिशा
को पूरा उपलब्ध
कर लेना है।
उस दिशा में
उन्होंने कुछ
भी नहीं छोड़ा
है। अब कोई भी
साधु इस जगत
में कुछ भी पा
सकता है, तो
उतना ही पा
सकता है जितना
महावीर ने पा
लिया है, उससे
ज्यादा नहीं
पा सकता।
लेकिन, इसलिए कृष्ण
को पूर्ण
अनंतता के
अर्थ में, विस्तार
के अर्थ में, फैलाव के अर्थ
में समझेंगे,
"मल्टी-डायमेंशनल
के अर्थ में।
फिर जो व्यक्ति
एक "डायमेंशन'
में पूर्ण
होगा, स्वभावतः
दूसरे
"डायमेंशन' में बिलकुल
अपरिचित हो
जाएगा। दूसरे
आयाम में उसकी
कोई गति नहीं
होगी। कृष्ण
कुशलता से चोरी
भी कर सकते
हैं। महावीर
एकदम बेकाम
चोर साबित
होंगे। पकड़े
ही जाने वाले
हैं। कृष्ण
कुशलता से
युद्ध भी लड़
सकते हैं, बुद्ध
न लड़ सकेंगे।
जीसस की हम
कल्पना ही कर
सकते हैं कि
बांसुरी बजा
सकते हैं, लेकिन
कृष्ण सूली पर
चढ़ सकते हैं।
कृष्ण को सूली
पर चढ़ने
में दिक्कत न
आएगी। बिलकुल
मजे से चढ़
जाएंगे। इसकी
कल्पना करने
में कोई
आंतरिक
कठिनाई न
पड़ेगी कि
कृष्ण को सूली
लग जाए। इसमें
कोई "इनहेरेंट',
कोई "इंट्रिसिक',
कोई भीतरी
तकलीफ नहीं
मालूम होगी।
लेकिन क्राइस्ट
बांसुरी
बजाएं, इसमें
बड़ा मुश्किल
है। कृष्ण
क्राइस्ट के
व्यक्तित्व
में सोचा ही
नहीं जा सकता।
ईसाई तो कहते
हैं कि "जीसस
नेवर लाफ्ड',
जीसस कभी
हंसे ही नहीं।
हंसे ही नहीं,
तो बांसुरी
बजाना तो
बहुत...और पैर
पर पैर रखकर और
ओंठ पर
बांसुरी रखकर,
मोर-मुकुट
बांधकर खड़े हो
जाना, क्राइस्ट
कहेंगे कि
इससे सूली
बेहतर! यह
सूली से कठिन
पड़ेगा। सूली
बिलकुल "ऐट ईज' है।
जीसस सूली पर
बड़े मजे से चढ़
गए। सूली पर लटककर वे
जितने खुश थे,
मैं समझता
हूं जिंदगी
में कभी नहीं
थे। सूली पर लटककर वह
कह सके, इन
सबको माफ कर
देना। सूली पर
लटककर वह
बड़ी शांति से
गुजर सके। यह
आयाम उनका
आयाम है, इस
आयाम में
उन्हें कोई
अड़चन न आई। यह
सिर्फ पूरा हो
रहा है। जो
घटना होने ही
वाली थी, जिस
दिशा में वे
यात्रा कर रहे
थे, वह
पूरी होने
वाली है। वह
एक बगावती हैं,
एक "रिबेलियस'
आदमी हैं, क्रांतिकारी
आदमी हैं। "रिबेलियन'
का यह अंत
हो सकता था।
जीसस कह भी
सकते थे कि सूली
लगेगी, और
न लगती तो जरा
ऐसे ही लगता कि
असफल हुए।
सूली लगेगी
ही।
कृष्ण
का मामला बहुत
मुश्किल है।
कृष्ण के मामले
में "प्रिडिक्शन' नहीं हो
सकता कि क्या
होगा। कुछ भी
नहीं कहा जा
सकता। यह आदमी
सूली पर मरेगा,
कि यह आदमी
फूल-हारों में
मरेगा, कि
यह आदमी बड़ी
भीड़ में मरेगा,
क्या होगा?...मरे तो वह एक
ऐसी जगह कि
चुपचाप एक
वृक्ष के नीचे
लेटे थे। कुछ
बात ही न थी
मरने की। और
किसी ने समझा
कि हिरण दिखाई
पड़ रहा है, उनका
पैर, और
किसी ने तीर
मार दिया, और
वह मर गए।
इतनी "एक्सिडेंटल'
मौत किसी की
भी नहीं है।
सबकी मौत में
भी एक निश्चय
है, कृष्ण
की मौत बिलकुल
अनिश्चित है।
और ऐसे मरते
हैं वह, बेकाम
ढंग से, कि
जिसकी कोई "यूटिलिटी'
नहीं मालूम
होती, कोई
उपयोगिता
नहीं मालूम
होती। और आदमी
की पूरी
जिंदगी भी
इसकी उपयोगिताहीन
थीं, "नॉन-युटिलिटेरियन'
थी, मौत
भी। जीसस की
मौत काम आई
है। सच तो यह
है कि अगर
जीसस को सूली
न लगी होती, तो दुनिया
में "क्रिस्चिएनटी'
होती ही
नहीं। जीसस की
वजह से नहीं
है, "क्रास'
की वजह से
है। इस आदमी
को कौन जानता
है, इसको
कोई खयाल में
भी नहीं था यह
आदमी। सूली महत्वपूर्ण
बनी। इसलिए
"क्रास' प्रतीक
बन गया ईसाइयत
का। क्योंकि
वही है घटना, जिसने
ईसाइयत को
जन्म दिया। आज
जीसस दुनिया
में हैं तो
उसका मतलब है,
वह "क्रूसीफिक्सन'
की वजह से
हैं।
लेकिन
कृष्ण की मौत
तो बड़ी बेमानी
है, बड़ी
अजीब-सी है।
यह भी कोई
मरने का ढंग
है। ऐसे भी
कोई आदमी मरते
हैं! आप लेटे
हैं वृक्ष के
नीचे, यह
भी कोई...मरना
चुनना चाहिए
ऐसा कि कोई
तीर मार दे, बिना कुछ
खबर सुने, बिना
कुछ बात हुए, अकारण। कोई
ऐतिहासिक
घटना नहीं
बनती मौत से कृष्ण
की। बस, ऐसे
ही आते हैं और
चले जाते हैं
जैसे फूल खिलते
हैं और मुर्झा
जाते हैं। कब
गिर जाते हैं
सांझ, कुछ
पता नहीं चलता;
कौन-सी हवा
का झोंका गिरा
जाता, उस
पर कोई सील नहीं
होती।
"मल्टी-डायमेंशनल'
होने के
कारण, बहु-आयामी
होने के कारण,
कुछ कहा
नहीं जा सकता
कि क्या हो
जाएगा, कृष्ण
के
व्यक्तित्व
में कौन-कौन
से फूल खिलेंगे,
नहीं कहा जा
सकता।
इसको
आखिरी बात इस
तरह सोचें कि
अगर महावीर और
पचास साल
जिंदा रहें तो
हम कह सकते
हैं कि जिंदगी
कैसी होगी।
अगर जीसस और
पचास साल जिंदा
रहते, तो
क्या होने
वाला है वह हम
कह सकते हैं। "प्रेडिक्टबिल'
है, ज्योतिषी
की पकड़ के
भीतर है। अगर
दस साल महावीर
को और मौका
दिया जाए
जिंदा रहने का
तो कठिनाई न
होगी कि हम
कहानी लिख दें
कि वह
क्या-क्या करेंगे।
कब सुबह
उठेंगे, कब
सांझ सो
जाएंगे, वह
भी तय किया जा
सकता है। क्या
खाएंगे, क्या
पिएंगे, उनका "मेनू'
तय हो सकता
है। क्या
बोलेंगे, क्या
नहीं बोलेंगे,
वह साफ
जाहिर है। दस
साल भी वह जो
करेंगे, वह
पिछले दस साल
की ही पुनरुक्त्ति
होने वाली है।
एकरस जो हैं, समुद्र के खारे
पानी की तरह
जो हैं। लेकिन
कृष्ण को अगर दस
दिन भी मिल
जाएं--दस साल
बहुत हैं--तो
इस दस दिन में
क्या-क्या
होगा इस
दुनिया में, बिलकुल नहीं
कहा जा सकता।
क्योंकि
पिछली कोई पुनरुक्ति
होने वाली
नहीं है। यह
आदमी किसी हिसाब
से जी ही नहीं
रहा है, गैर-हिसाब
से जी रहा है।
जो हो जाएगा
वह हो जाएगा।
इन अर्थों में
भी एक "इनफिनिटी'
है। कहीं
चीजें पूरी
होती नहीं
मालूम पड़तीं।
अब यह
आखिरी अर्थ
मैं देता हूं, पूर्ण सिर्फ
वही जो पूरा
होता मालूम
नहीं पड़ता। जो
पूरा हो जाता
है, वह
किसी अर्थ में
समाप्त हो
जाता है। अब
यह बहुत उलटा
लगेगा।
क्योंकि
हमारा आमतौर
से खयाल यह
होता है कि
पूर्ण का मतलब
यह है कि जो
समाप्त हो जाता
है। जिसके आगे
कुछ बचता
नहीं। अगर
आपका ऐसा अर्थ
है पूर्ण का, तो आपमें
"वन-डायमेंशनल
परफेक्शन'
का खयाल है
आपको। आपको एक
आयाम में
पूर्णता का
खयाल है।
कृष्ण की
पूर्णता ऐसी
नहीं है जो
समाप्त हो
जाती है।
कृष्ण की पूर्णता
का मतलब यह है
कि कितना ही
यह आदमी जिए और
चले और रहे, यह समाप्त
नहीं होने
वाला है। यह
सदा शेष रह जाएगा।
इसलिए
उपनिषदों ने
पूर्ण की जो
व्याख्या की
है, वही
ठीक है।
उपनिषद कहते
हैं, पूर्ण
से पूर्ण को
भी निकाल लो
तो भी पीछे
पूर्ण शेष रह
जाता है। अगर
हम कृष्ण से
हजार कृष्णों
को निकालते
चले जाएं तो
भी वह आदमी
पीछे शेष रह
जाएगा और फिर कृष्णों
को निकाल सकता
है। इसमें कोई
कठिनाई नहीं
पड़ेगी। उसे
कोई अड़चन न
आएगी, क्योंकि
वह कुछ भी हो
सकता है।
महावीर
को हम आज पैदा
नहीं कर सकते।
आज पैदा करना
मुश्किल हो
जाएगा महावीर
को। क्योंकि
महावीर एक
"सिचुएशन' में, एक
विशेष
परिस्थिति
में, एक
आयाम में
पूर्ण हुए
हैं। वह आयाम
उसी स्थिति
में पूर्ण हो
सकता है। जीसस
को आज पैदा
नहीं किया जा
सकता। अगर आज
जीसस को हम
पैदा करें, कोई सूली ही
नहीं लगाएगा,
पहली बात।
वह कितना ही
शोरगुल मचाएं,
लोग कहेंगे,
"निगलेक्स हिम'।
क्योंकि पहले
गलती की सूली
लगाकर तो "क्रिश्चिएनिटी',
आज एक अरब
आदमी ईसाई हो
गए हैं, अब
आज कोई यहूदी
सूली नहीं
लगाएगा जीसस
को। वह कहेगा,
अब झंझट में
मत पड़ो इस
आदमी के। इसको
जो कहना है
कहने दो, इसको
जो करना है
करने दो।
क्योंकि जीसस
जिंदा रहकर
बहुत थोड़े
लोगों को
उत्सुक कर
पाए। मरकर उन्होंने
उत्सुकता
बहुत पैदा की।
जीसस के वक्त
में जिस दिन
एक लाख आदमी
सूली लगाने
जीसस को
इकट्ठे हुए, तो सिर्फ
आठ-दस आदमी
ऐसे थे जो उनको
प्रेम करने
वाले थे--एक
लाख आदमियों
में। वे आठ-दस
भी इतने
हिम्मतवर
नहीं थे कि
अगर उनसे कोई
पूछता कि तुम
जीसस के साथी
हो तो वे कहते कि
हम साथी हैं!
वे कहते कि
नहीं, हम
जानते ही
नहीं। जीसस को
सूली लग जाने
के बाद जिसने
उनकी लाश नीचे
उतारी वह कोई
सज्जन, अच्छे
घर की महिला
नहीं थी, क्योंकि
अच्छे घर तक
जीसस का
प्रभाव
पहुंचना मुश्किल
था। वह एक
वेश्या थी। वह
हिम्मत जुटा सकी
कि अब मेरा और
क्या कोई बिगाड़ेगा।
तो इसलिए जीसस
की लाश तो एक
वेश्या ने
उतारी। किसी
भले घर की औरत
को यह मौका
नहीं था।
अभी
भी! मैं सोचता
हूं भले घर की
औरत जीसस को
अभी भी नहीं उतारेगी।
जीसस को आज "निगलेक्ट' किया जा
सकता है, क्योंकि
उनके वक्तव्य
बड़े "इनोसेंट'
हैं। और
दूसरा खतरा है
कि अगर "निगलेक्ट'
न किया जाए,
तो दूसरा
खतरा है कि हम
उनको पागल समझ
लें। क्योंकि
जिन बातों पर झगड़ा हुआ
है वह यह था कि
जीसस कहते हैं,
मैं ईश्वर
हूं। हम
कहेंगे, कहने
दो, बिगड़ता क्या है, इसमें
हर्ज क्या है?
कहो ईश्वर
हो। जीसस को
होने के लिए
वही "मॉमेंट'
चुनना पड़े
जो था। इसलिए
जीसस "हिस्टारिक'
हैं। इसलिए
आप ध्यान रखें
कि सिर्फ जीसस
को मानने वाले
लोगों ने
"हिस्ट्री' पैदा की
दुनिया में।
बाकी लोग
"हिस्ट्री' पैदा नहीं
कर सके।
इतिहास जीसस
से शुरू होता
है। इसलिए
आकस्मिक नहीं
है कि सन् और
सदी जीसस से
चलती है।
आकस्मिक नहीं
है। जीसस एक "हिस्टारिक'
घटना हैं और
एक खास "हिस्टारिक
मॉमेंट' में ही हो
सकते हैं।
कृष्ण
की हमने कोई
कहानी नहीं
लिखी। कोई
पक्का पता
नहीं है कि यह
आदमी किस
तारीख में हुआ
और किस तारीख
में मरा। इसका
पता रखना बेकार
है। यह किसी
भी तारीख में
हो सकता है। इसकी
कोई पक्की
तारीख रखना
बेकार है। यह
कभी भी हो
सकता है। यह
किसी भी
स्थिति में
काम आ जाएगा।
क्योंकि इसको
कोई झंझट ही
नहीं है अपने
होने की। किसी
भी स्थिति में
वही हो जाएगा।
इसका अपना कोई
आग्रह नहीं है
कि मैं ऐसा होऊंगा।
अगर आपका
आग्रह है कि
आप ऐसे होंगे
तो आपको एक
विशेष स्थिति
की जरूरत
पड़ेगी। अगर आपका
कोई आग्रह
नहीं है, आप
कहते हैं कि
चलेगा--महावीर
तो नग्न होने
का आग्रह
करेंगे।
कृष्ण जो हैं
वह पतली मोहरी
का फुलपैंट
भी पहन सकते
हैं; कोई
अड़चन न आएगी, बल्कि वह
कहेंगे कि यह
पहले क्यों
नहीं बनाया, उसी वक्त? हम उसी वक्त
पहने सकते थे।
इतना होने की
संभावना अनंत
है। उन्हें
अड़चन न आएगी।
उन्हें कोई युग
अड़चन नहीं दे
सकता। वे किसी
भी युग में
खड़े हो जाएंगे
और राजी हो
जाएंगे, उसी
युग के हो
जाएंगे। और
उसी युग में
उनका फूल खिल
सकता है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि
सभी--महावीर, बुद्ध या
जीसस "हिस्टारिक
पर्सनेलिटी',
ऐतिहासिक
व्यक्तित्व
हैं। इसका
मतलब यह नहीं
है कि वह हुए
हैं और कृष्ण
नहीं हुए। हुए
तो कृष्ण भी
हैं। लेकिन
कृष्ण इस अर्थ
में "हिस्टॉरिक'
नहीं हैं, इस अर्थ में
ऐतिहासिक
नहीं हैं।
कृष्ण पुराण-पुरुष
हैं, कथा-पुरुष
हैं, अभिनेता
हैं। वे कभी
भी हो सकते
हैं, उनका
चरित्र का कोई
मोह नहीं है।
वह विशेष राधा
को न मांगेंगे,
कोई भी राधा
कारगर हो सकती
है। विशेष समय
न मांगेंगे,
कोई भी समय
उनके लिए
अर्थपूर्ण हो
सकता है। जरूरी
नहीं कि वह
बांसुरी ही
बजाएं, किसी
भी युग का
वाद्य उन्हें
काम दे जाएगा।
इस
अर्थ में
पूर्ण हैं कि
हम उनमें से
कितना ही
निकाल लें, वह व्यक्ति
फिर शेष रह
जाता है, वह
फिर हो सकता
है।
और
प्रश्न होंगे
तो कल।
आज
दोपहर भी तीन
से चार तो
प्रश्न
होंगे। आपके
मन में जो भी
प्रश्न हों वे
लिखकर दें।
THANK YOU GURUJI
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