दिनांक
2 अक्टूबर,
1970;
प्रात:,
मनाली (कुल्लू)
"एक
चर्चा में
आपने कहा है
कि श्रीकृष्ण
की आत्मा का
साक्षात्कार
हो सकता है, क्योंकि कुछ
मरता नहीं। तो
कृष्ण-दर्शन
को संभावितता
की हद में
लाने के लिए कौन-सी
"प्रासेस'
से गुजरना
पड़ेगा? और
साथ ही यह
बताएं कि
कृष्ण-मूर्ति
पर ध्यान, कृष्ण-नाम
का जप और
कृष्ण-नाम के
संकीर्तन से क्या
उपासना की
पूर्णता की ओर
जाया जा सकता
है?'
विश्व
अस्तित्व में
कुछ भी एकदम
मिट नहीं
जाता। और
विश्व
अस्तित्व में
कुछ भी एकदम
नया पैदा भी
नहीं होता है।
रूप बदलते हैं, आकृतियां
बदलती हैं, आकार बदलते
हैं, लेकिन
अस्तित्व गहनतम
रहस्यों में
जो है, वह
सदा वैसा ही
है। व्यक्ति
आते हैं, खो
जाते हैं, लहरें
उठती हैं सागर
पर, विलीन
हो जाती हैं, लेकिन जो
लहर में छिपा
था, जो लहर
में था, वह
कभी विलीन
नहीं होता।
कृष्ण
को हम दो तरह
से देखेंगे तो
समझ में आ जाएगा।
और अपने को भी
फिर हम दो तरह
से देख पाएंगे।
एक हमारा
लहर-रूप है, एक हमारा
सागर-रूप है।
लहर की तरह हम
व्यक्ति हैं,
सागर की तरह
हम ब्रह्म
हैं। कृष्ण का
जो चेहरा देखा
गया, कृष्ण
का जो शरीर
देखा गया, कृष्ण
की जो वाणी
सुनी गई, कृष्ण
के जो स्वर
सुने गए, वे
लहर-रूप हैं।
लेकिन जो इन
वाणियों, इन
नृत्यों, इस
व्यक्तित्व
के पीछे जो
खड़ा है, वह
सागर-रूप है।
वह सागर-रूप
कभी भी नहीं
खोता है। वह
सदा अस्तित्व
के प्राणों
में निवास करता
है, वह सदा
है ही। वह
कृष्ण नहीं
हुए थे तब भी
था और जब
कृष्ण नहीं
हैं तब भी है।
जब आप नहीं थे
तब भी था, आप
जब नहीं होंगे
तब भी होगा।
ऐसा समझें कि
जैसे कृष्ण एक
लहर की तरह
जागे हैं, नाचे
हैं सागर की
छाती पर, किरणों
में, सूरज
की हवाओं में
और फिर सागर
में खो गए
हैं।
हम सब
भी ऐसे ही
हैं। थोड़ा-सा
फर्क है।
कृष्ण जब लहर
की भांति नाच
रहे हैं, तब
भी वह जानते
हैं कि वह
सागर हैं। हम
जब लहर की
भांति नाच रहे
हैं, तब हम
भूल जाते हैं
कि हम सागर
हैं। तब हम
समझते हैं कि
लहर ही हैं।
चूंकि हम अपने
को लहर समझते
हैं, इसलिए
कृष्ण को भी
कैसे सागर समझ
सकते हैं! फिर
लहर जिस रूप
में प्रकट हुई
थी, जिस
आकृति और आकार
में प्रकट हुई
थी, उस
आकृति और आकार
का उपयोग किया
जा सकता है, उस लहर के पुनर्साक्षात्कार
के लिए। लेकिन
खेल सब
छाया-जगत का
है। दोत्तीन
बातें खयाल
में लेंगे तो
बात पूरी
स्पष्ट हो सकेगी।
कृष्ण
के सागर-रूप
से आज भी, अभी
भी
साक्षात्कार
किया जा सकता
है। महावीर के
सागर-रूप से
भी
साक्षात्कार
किया जा सकता
है, बुद्ध
के सागर-रूप
से भी
साक्षात्कार
किया जा सकता
है। जिस रूप
में वे प्रकट
हुए थे कभी, जो आकृति
उन्होंने ली
थी, उसका
उपयोग इस
सागर-रूप
साक्षात्कार
के लिए किया
जा सकता है।
वह माध्यम बन
सकता है।
मूर्तियां
सबसे पहले
पूजा के लिए
नहीं बनी थीं।
मूर्तियां
सबसे पहले "इजोटेरिक
साइंस' की
तरह बनी थीं।
एक
गुप्त-विज्ञान
की तरह बनी थीं।
उन मूर्तियों
में, जो
व्यक्ति उस
रूप में जिआ
था वह वायदा
किया था कि इस
मूर्ति पर यदि
ध्यान "फोकस' किया गया, इस मूर्ति
पर पूरी तरह
ध्यान किया
गया, तो
मेरे सागर-रूप
अस्तित्व से
संबंध हो
सकेगा।
कभी
रास्ते पर
आपने किसी
मदारी को
"हिप्नोसिस' का एक
छोटा-सा खेल
करते देखा
होगा। छोटा-सा
खेल है कि
किसी लड़के को
मदारी लिटा
देता है, उसकी
छाती पर एक
ताबीज रख देता
है, ताबीज
रखने से वह
बेहोश हो जाता
है। बेहोश होने
के बाद वह
मदारी उस लड़के
से बहुत-सी
बातें पूछता
है जो वह
बताना शुरू कर
देता है। आपके
पास वह मदारी
आता है और
कहता है, कान
में अपना नाम
बोल दें। आप
नाम बोलते हैं,
वह लड़का
वहां से
चिल्ला देता
है कि यह नाम
है इस आदमी
का। आप इतने
धीमे बोलते
हैं कि उस लड़के
को सुनने का
कोई उपाय नहीं,
क्योंकि
आपके बगल का
पड़ोसी भी नहीं
सुन पाया है।
वह मदारी कहता
है, आपके
खीसे में नोट
रखा हुआ है, इसका नंबर
कितना है? और
वह लड़का नोट
का नंबर बोल
देता है। वह
मदारी आपसे
कहेगा कि यह ताबीज
बड़ा अदभुत है।
इस ताबीज के
बदौलत इस लड़के
की इतनी
सामर्थ्य हो
गई। बस यहीं
वह धोखा देता
है। फिर वह
चार-आठ आने
में ताबीज बेच
भी लेता है।
आप घर लेकर आठ
आने का ताबीज
छाती पर रखकर
लेट जाते हैं,
लेकिन कुछ
नहीं होता।
नहीं होगा।
ताबीज से कोई
लेना-देना
नहीं था। लेकिन
उस लड़के के
संबंध में
लेना-देना था।
"पोस्ट
हिप्नोटिज्म'
की एक
छोटी-सी
प्रक्रिया यह
है कि यदि
किसी व्यक्ति
को गहरी
बेहोशी में
डाल दिया
जाए--जो कि बहुत
सरल है--उस
गहरी बेहोशी
की हालत में
यदि उसे कहा
जाए कि यह
ताबीज ठीक से
देख लो, और
जब भी इस
ताबीज को हम
तुम्हारी
छाती पर
रखेंगे तब तुम
पुनः बेहोश हो
जाओगे, तो
उसकी अचेतन की
गहराइयों में
यह सुझाव बैठ
जाता है। फिर
कभी भी उस
व्यक्ति के
ऊपर वह ताबीज
रखा जाए, वह
तत्काल बेहोश
हो जाएगा। और
बेहोशी में
हमारे
मस्तिष्क की
अचेतन
शक्तियां काम
करना शुरू कर
देती हैं; जो
हम होश में
नहीं कर पाते,
वह हम
बेहोशी में कर
लेते हैं।
जितना हम होश
में सुनते हैं,
उससे बहुत
तीव्रता से
बेहोशी में
सुनने लगते हैं।
जितना हम होश
में देखते हैं,
उससे बहुत
गहरा बेहोशी
में देखने
लगते हैं। लेकिन
वह ताबीज आपके
ऊपर काम नहीं
करेगा, क्योंकि
आपको वैसा
आपके अचेतन
में कोई गहरा
सुझाव नहीं
दिया गया है।
कृष्ण, महावीर, बुद्ध
और क्राइस्ट
जैसे लोग जब
पृथ्वी से विदा
होते हैं, तो
जो उन्हें
प्रेम करते
हैं, जिन्होंने
उन्हें चाहा
है, जिन्होंने
उनके निकट
बहुत कुछ पाया
है, वे अगर
उनसे निवेदन
करें कि फिर
आपके इस देह-रूप
के छूट जाने
के बाद अगर हम
आपको स्मरण करना
चाहें, और
संबंधित होना
चाहें, तो
हम क्या करें?
तो अत्यंत
गहरी ध्यान की
अवस्था में
कृष्ण अगर
उनसे कह दें
कि मेरी यह
रही प्रतिमा,
मेरा यह रहा
रूप, और जब
भी तुम इस पर
ध्यान करोगे
तो तुम तत्काल
मुझसे
संयुक्त हो
जाओगे, मेरे
सागर-रूप से।
ये ध्यान की
अवस्था में दी
गई प्रतिमाएं
हैं। ये ध्यान
की अवस्थाओं
में दिए गए
प्रतीक हैं।
ये सबके काम
के नहीं हैं। आप
कृष्ण की
मूर्ति के
सामने जिंदगी
भर चिल्लाते
रहें, कुछ
होगा नहीं। आप
महावीर की
मूर्ति के
सामने कितने नाचें-कूदें,
कुछ होगा
नहीं। ध्यान
की अवस्था में
पहले आपके पास
यह अंतर्सुझाव
चाहिए कि इस
मूर्ति के
द्वारा आपका
संबंध उस व्यक्ति
से हो सकेगा
जिसकी यह
मूर्ति है।
तो
पहली बार जब
बुद्ध, महावीर
और कृष्ण जैसे
लोग पृथ्वी से
विदा होते हैं,
तो उनके
निकटतम जो
वर्ग है, उसे
वे सूचनाएं दे
जाते हैं।
पहली पीढ़ी
जो उस वर्ग की
होती है, वह
तो उसका पूरा
लाभ उठाती है।
दूसरी पीढ़ी
में वे लोग
लाभ उठा सकते
हैं जिनको
पहली पीढ़ी
के द्वारा
पुनः वह सुझाव
ध्यान की
गहराइयों में
चित्त में डाल
दिया गया हो।
धीरे-धीरे
सुझाव खो जाता
है, मूर्ति
हाथ में रह
जाती है। जैसे
बाजार से आप
आते हैं, ताबीज
हाथ में ले
आते हैं और
सुझाव का कोई
पता नहीं
होता। फिर उस
मूर्ति को रखे
आप बैठे रहें
जिंदगी भर, उससे कुछ
होने का नहीं
है।
जैसा
मैंने मूर्ति
के लिए कहा, मूर्ति एक "इजोटेरिक
ब्रिज' है,
जिसके
माध्यम से
लहर-रूप
व्यक्ति ने वादा
किया है कि
उसके सागर-रूप
से पुनः संबंध
स्थापित किया
जा सकेगा, ठीक
उसी तरह नाम
भी है। नाम का
भी उपयोग किया
जा सकता है।
लेकिन वह भी
ध्यान की
गहराइयों में
दिया गया हो।
अब गुरु लोगों
के कान फूंकते
रहते हैं उससे
कुछ होता
नहीं।
क्योंकि सवाल
कान फूंकने
का नहीं है, सवाल तो
बहुत गहरे
ध्यान की
अवस्था में
कोई शब्द
प्रतीक रूप
देने से है कि
उस शब्द के
स्मरण करते ही,
उसका
उच्चारण करते
ही सारी चेतना
रूपांतरित हो
जाएगी। ऐसे
शब्दों को
"बीज शब्द' कहा
जाता है। वे
"सीड वर्ड्स'
हैं। उनमें
बड़ा कुछ भर
दिया गया है।
तो
कृष्ण का नाम
अगर बीज-शब्द
है, उसका
अर्थ यह हुआ
कि अगर ध्यान
की बहुत गहरी
अवस्था में
आपके चित्त के
अतल में उसे
छिपाया गया
है--और बीज सदा
ही गहरे और
नीचे जमीन के
छिपाए जाते
हैं; वृक्ष
तो ऊपर आते
हैं, बीज
सदा भूमि के
नीचे अंधेरे
गर्भ में होते
हैं--तो अगर
आपके चित्त के
गहरे गर्भ में
कोई शब्द डाला
गया है और उस
शब्द के साथ
सुझाव डाला
गया है, तो
उसके परिणाम
होने शुरू हो
जाएंगे।
रामकृष्ण बड़ी
दिक्कत में
थे। रामकृष्ण
सड़क से निकल नहीं
पाते थे। वह
सड़क से जा रहे
हैं और किसी
ने कह दिया, जयरामजी,
और
रामकृष्ण
वहीं गिर
जायेंगे और ध्यानस्थ
हो जायेंगे।
रामकृष्ण को
सड़क से ले जाना
बहुत मुश्किल
था। रामकृष्ण
सड़क से जा रहे हैं
तांगे में
बैठकर, किसी
मंदिर में कोई
रामधुन
चल रही है, वह
वहीं गए! वह
डूब गए वहीं।
किसी के घर
बैठकर बात कर
रहे हैं और
किसी ने राम
का नाम ले
दिया, वह
गए! वह शब्द
उनके लिए बीज
है। वह शब्द
पर्याप्त है
उनके लिए। लेकिन
हमें कठिन
होगा यह
मानना।
हमारे
लिए भी कुछ
बीज बातें हैं, वह हम समझ
लें तो खयाल
में आ जाए।
कोई आदमी चिंतित
होता है तो
फौरन माथे पर
हाथ रख लेता
है। आप उसका
हाथ नीचे रोक
लें, वह
बहुत बेचैनी
में पड़ जाएगा।
कोई आदमी
परेशान होता
है तो एक
विशेष आसन में
बैठ जाता है; आप उसको
उसमें न बैठने
दें, वह
बहुत मुश्किल
में पड़ जाएगा।
डा.हरिसिंह
गौर प्रिवी
कौंसिल में एक
मुकदमा लड़ते
थे। उनकी सदा
की आदत थी कि
वह अपनी कोट
का जो ऊपर बटन
होता था, जब
कभी कोई उलझन
का मामला हाता
और दलील करनी
कठिन होती, तो कोट के
ऊपर का बटन
घुमाते लगते
थे। जिन लोगों
ने भी उनके
साथ वकालत की
थी उन सबको
पता था कि
उनका कोट के
बटन पर हाथ
गया कि उनकी
वाणी प्रखर हो
जाती थी। और
वह इस तरह
बोलने लगते थे
जैसे कि इसके
पहले बोल ही
नहीं रहे थे।
एक बड़ा मुकदमा
था और विरोधी
वकील बड़ी
परेशानी में
पड़ा था। उसने डा.हरिसिंह
गौर के शोफर
को कहा कि
जितना पैसा
तुझे चाहिए, वे ले ले, लेकिन
कल जब तू कोट
कार से उतार
कर लाए, तो
उसकी ऊपर की
बटन तोड़कर
फेंक देना।
बटन उसने तुड़वाकर
फिंकवा
दी।
उस दिन
आखिरी पैरवी
थी। हरिसिंह
गौर ने अपना
कोट अपने गले
में डाल लिया, लटका लिया
और वह विवाद
करने को खड़े
हो गए। ठीक उस
क्षण पर, जबकि
उनका हाथ
खोजने लगा बटन
को, पाया
कि बटन वहां
नहीं है। वह
एकदम बेहोश
होकर गिर गए
कुर्सी पर।
उन्होंने
अपने
संस्मरणों में
लिखा है कि
मेरी जिंदगी
में पहली दफे
मेरे
मस्तिष्क ने
काम करना एकदम
बंद कर दिया।
मुझे ऐसा लगा
कि जैसे सब खो
गया, अब
मैं कुछ बोल
सकूंगा नहीं,
अब कुछ हो
सकता नहीं।
मजिस्ट्रेट
से उन्हें प्रार्थना
करनी पड़ी कि
अब यह मुकदमा
आगे के लिए
टाल दिया जाए।
आज मेरी कोई
सामर्थ्य
नहीं है।
बड़ी
अजीब-सी बात
मालूम पड़ती
है। एक बटन इतना
अर्थ रख सकता
है? "एसोसिएशन'
का अर्थ है।
अगर सदा ही उस
बटन पर हाथ
रखकर मन सक्रिय
हो गया है, तो
आज उस बटन को न
पाकर मन एकदम
निष्क्रिय हो
जाएगा। यह "कंडीशन
रिफ्लेक्स' की बात है।
नाम का प्रयोग
भी इस भांति
किया गया है।
वह जो बटन था, हरिसिंह गौर के लिए
बीज हो गया।
साधारण बटन
नहीं रहा
जिससे सिर्फ
कोट लगाया और अटकाया
जाता है, इस
बटन से उनका
मन भी अटकने
और लगने लगा।
नाम का उपयोग
इस भांति किया
जा सकता है।
किया गया है।
लेकिन, खाली
शब्द का उपयोग
करने से कुछ
भी नहीं होता है।
खाली शब्द और
बीज-शब्द में
वही फर्क है।
बीज-शब्द का
अर्थ यह है कि
आपकी अचेतन
गहराइयों में
उसे डाला जाए
और इतने गहरे
में बिठा दिया
जाए कि उसके
स्मरण मात्र
से आप तत्काल
रूपांतरित हो
जाएं। तो वह
बीज बन जाता
है।
कृष्ण, राम, या
बुद्ध, या
महावीर, या
और तरह के
शब्द और मंत्र
बीज की तरह
उपयोग किए गए
हैं, लेकिन
अब लोग उनको
ऐसे ही दोहरा
रहे हैं। बैठे
हुए हजार दफे
राम-राम कह
रहे हैं, कुछ
भी नहीं होता।
बीज होता तो
एक बार में भी
होता है, हजार
बार कहने की
बात न थी। और
राम से ही
होगा, ऐसा
नहीं, कोई
भी अ, ब, स
शब्द को बीज
बनाया जा सकता
है और आपके
व्यक्तित्व
में गहरे में
डाला जा सकता
है। शब्द और
मंत्र बीज बन
जाए तो साधक
की गहराइयों
को रूपांतरित
करने में उपयोगी
होते हैं। हो
सकते हैं।
लेकिन हमारी कठिनाई
यह है कि मूल
सूत्र खो जाते
हैं, ऊपरी
बातें रह जाती
हैं। कोई भी
राम-राम जपता रहता
है, कोई भी
कृष्ण-कृष्ण
चिल्लाता
रहता है, उससे
कुछ हो सकता
नहीं। कभी
नहीं होगा।
जीवन भर
चिल्लाने से
भी नहीं होगा।
कीर्तन
के लिए पूछते
हैं। ध्यान का
जो उपयोग हम
कर रहे हैं, उसमें जो
दूसरा चरण है,
ठीक वही
उपयोग कीर्तन
का किया जा
सकता है। किया
जाता रहा है।
जो जानते हैं
उन्होंने
वैसा ही उपयोग
किया है। जो
नहीं जानते
हैं, वे
सिर्फ
चिल्लाते हैं,
नाचते हैं।
ध्यान का जो
दूसरा चरण है,
अगर ठीक
वैसा ही उपयोग
कीर्तन का, भजन का, नृत्य
का किया जा
सके, तो
उसके बड़े
व्यापक
परिणाम हैं।
पहला परिणाम तो
यह है कि जब आप
बहुत ही भाव
से नाचने लगे,
तो शरीर
आपको अलग
दिखाई पड़ने
लगेगा। शरीर
पृथक मालूम
होने लगेगा, आप अलग
मालूम होने
लगेंगे। आप
थोड़ी ही देर
में देखने
वाले हो
जाएंगे, नाचने
वाले नहीं। जब
शरीर पूरी
त्वरा में आएगा,
पूरी गति
में आएगा
नृत्य की, तब
आप अचानक एक
क्षण ऐसा है
जब आप पाएंगे
कि आप अलग हो
गए हैं। उस
क्षण को अलग
करने के लिए
उपाय किए गए
थे कि वह क्षण
अलग हो जाए और
आप अलग हो गए
हैं। उस क्षण
को अलग करने के
लिए उपाय किए
गए थे कि वह
क्षण अलग हो
जाए और आप
तत्काल टूट
जाएं, नृत्य
बाहर रह जाए
और आप अलग खड़े
हो जाएं। कील अलग
हो जाए, चाक
घूमता रहे। और
कील पहचान ले
कि मैं कील
हूं, और
घूमता हुआ जो
है वह चाक है।
नृत्य
का उपयोग चाक
की तरह किया
गया है। जोर से
घूमे, तो एक
घड़ी आ जाती है
जहां कील
दिखाई पड़ने
लगती है। यह
बड़े मजे की
बात है, अगर
चाक और कील
खड़े हों, तो
कील और चाक का
पता लगाना
मुश्किल है कि
कौन कील है और
कौन चाक है, क्योंकि
दोनों खड़े
हैं। चाक चले,
तो कील का
फर्क फौरन पता
चल जाता है।
जो नहीं चलेगी
वह पहचान में
आ जाएगी। नाचें
आप, आपके
पीछे भीतर कुछ
छूट जाएगा जो
नहीं नाच रहा
है। बस, वह
आपकी कील है।
वह आपका
"सेंटर' है।
जो नाच रहा है,
वह आपकी
परिधि है। वह
आपका चाक है।
इस क्षण में
अगर साक्षी हो
जाएं, तो
कीर्तन का
अदभुत उपयोग
हो गया। लेकिन
अगर साक्षी न
हुए और कीर्तन
ही करते रहे, तो बेकार
चली गई मेहनत,
उसका कोई
अर्थ न रहा।
प्रक्रियायें
पैदा होती हैं
और खो जाती
हैं। खो जाती
हैं इसीलिए कि
सब प्रक्रियायें
अनिवार्यरूपेण, मनुष्य का
जैसा स्वभाव
है, वह
उसमें जो
सार्थक है भूल
जाता है और जो
निरर्थक है
उसको पकड़ लेता
है। क्योंकि
जो सार्थक है,
वह गहरे में
होता है, जो
निरर्थक है, वह ऊपर होता
है। जो
निरर्थक है वह
वस्त्र की तरह
ऊपर होता है, जो सार्थक
है, वह
आत्मा की तरह
भीतर होता है।
जो भीतर है वह
दिखाई नहीं
पड़ता, धीरे-धीरे
ऊपर का ही रह
जाता है, भीतर
का भूल जाता
है। और इसलिए
ऐसे वक्त आ
जाते हैं, जैसे
मैं ही हूं, मुझसे कोई
पूछने आए कि
कीर्तन से कुछ
होगा तो मैं
सख्ती से मना
करता हूं कि
कुछ भी नहीं
होगा।
क्योंकि मैं
जानता हूं कि
अब कीर्तन मृत
परंपरा हो गई
है। अब मरा
हुआ ढांचा रह
गया है। वह
चाक ही है, कील
का पता लगाना
बहुत मुश्किल
है।
"चैतन्य का
नृत्य-कीर्तन
क्या "इंटॉक्सीकेशन'
था?'
नहीं, चैतन्य ने
जरूर कीर्तन
और भजन से वही
पा लिया, जिसके
पाने की मैं
बात कह रहा
हूं। चैतन्य
ने नाच कर उसे
पा लिया, जिसे
बुद्ध और
महावीर खड़े
होकर पाते
हैं।
ये
दोनों बातें
हो सकती हैं।
कील को पकड़ने
के दो रास्ते
हो सकते हैं।
एक रास्ता तो
यह हो सकता है
कि आप इतने
खड़े हो जाएं
कि आपमें कोई
कंपन ही न रह
जाए। कंपन ही
न रह जाए
कोई--इतने ठहरे
हो जाएं, इतने
थिर हो जाएं,
"जस्ट स्टैडिंग'
की हालत रह
जाए, तो उस
हालत में आप
कील पर पहुंच
जाएंगे। या दूसरा
रास्ता यह है
कि आप इतने
"मूवमेंट' में
हो जाएं, इतनी
गति में हो
जाएं कि चाक
पूरा चल पड़े
और कील पहचान
में आ जाए।
आसान दूसरा ही
होगा। चाक जोर
से चले तो कील
का पहचानना
आसान होगा।
बहुत कम लोग
हैं जो खड़े
हुए चाक में
और कील को
पहचान पाएं।
महावीर खड़े
होकर पहचानते
हैं, कृष्ण
नाचकर। और
चैतन्य तो
कृष्ण भी
जितना नहीं
नाचे हैं।
चैतन्य का तो
कोई मुकाबला
नहीं। चैतन्य
के नृत्य का
तो कोई हिसाब
ही नहीं है। शायद
पृथ्वी पर ऐसा
कोई नाचा ही
नहीं। और ध्यान
में लेने की
बात इतनी ही
है कि हमारे
भीतर दो--हमारी
परिधि है, गतिमान
है, परिवर्तन
है वहां; और
हमारे जो गहरे
में आत्मा है
वहां
शाश्वतता है,
"इटर्निटी'
है, वहां
कोई परिवर्तन
नहीं, वहां
सब चुप और
शांत सदा खड़ा
रहा है, वह
कील की भांति
है, वह थिर
है। उस थिर को,
उस परिवर्तन-अतीत
को किस भांति
पहचान लें।
ध्यान
का जो दूसरा
चरण है, उस
चरण में उस
बात का ही
गहरा प्रयोग
किया जा रहा
है; लेकिन
कीर्तन मैं
उसे नहीं कह
रहा, क्योंकि
कीर्तन शब्द
अब अपदस्थ हो
गया। कीर्तन
शब्द ने अब
अर्थ खो दिया
है। सभी शब्द
जैसे रुपये
चल-चल कर घिस
जाते हैं और
घिस-घिसकर
नकली हो जाते
हैं--असली
भी--वैसे ही
शब्द भी
चल-चलकर घिस
जाते हैं और
खराब हो जाते
हैं। और एक
वक्त आता है
कि टकसाल में
नए रुपये
ढालने पड़ते
हैं।
तो
मुझे समझने
में बहुत बार
दिक्कत पड़ेगी, क्योंकि मैं
नई टकसाल में
जो रुपये ढाल
रहा हूं वह
इसीलिए ढाल
रहा हूं जिस
कारण से और
जिस लिए
पुराने
सिक्के चलते
थे। लेकिन
पुराने सिक्के
बहुत चल चुके
और इतने हाथों
में चल चुके
कि बिलकुल घिस
गए हैं। उनमें
न चेहरा पहचान
में आता है, न क्या लिखा
है वह पहचान
में आता है। न
यही पता चलता
है कि वे
सिक्के हैं कि
ठीकरे हैं; क्या हैं, कुछ पता
नहीं चलता।
इसलिए सब फिर
से शुरू करना
पड़ता है हर
बार। और यह
जानते हुए
शुरू करना पड़ता
है कि ये नये
सिक्के जो आज
टकसाल से निकल
रहे हैं, कल
ये भी हाथ में
चल कर घिस
जाएंगे और
खराब हो जाएंगे
और फिर किसी
को नये सिक्के
ढालने
पड़ेंगे। और
नये सिक्के
ढालने वालों
के सामने बड़ी
कठिनाई आ जाती
है कि उसे
उन्हीं
सिक्कों से
लड़ना पड़ता है
जिनके लिए वह
जी रहा है।
उन्हीं
सिक्कों से
लड़ना पड़ता है
जिनके लिए वह
फिर से ढाल
रहा है। लड़ना
मजबूरी हो
जाती है। जब
नये सिक्के
बाजार में
लाने पड़ते हैं
तो पुराने सिक्के
वापिस टकसाल
में भेजने
पड़ते हैं। तो
मुझे वापस
सिक्के आपसे
छीनने पड़ते
हैं कि इनको
वापस टकसाल
में भेजो, अब
यह बेकार हो
गया, अब
तुम नये ले
लो। लेकिन
पुराने
सिक्के का मोह
होता है। बहुत
दिन साथ रहा
है। घिसा भी
है तो अपने ही
हाथों में
घिसा है। नये
सिक्के का एकदम
भरोसा नहीं
होता। धर्म के
साथ ऐसा रोज
होता है।
कीर्तन
का बड़ा उपयोग
किया जा सकता
है। समझ लिया
जाए तो कीर्तन
का बड़ा अदभुत
उपयोग है।
लेकिन अब
समझना बहुत
मुश्किल होगा, क्योंकि जब
मैं कीर्तन
कहूंगा, तब
आप वही कीर्तन
समझेंगे जो आप
समझ रहे हैं।
तब आप कहेंगे
कि बिलकुल ठीक
कहते हैं आप, हम तो कर ही
रहे हैं
कीर्तन। हम तो
राम-राम कर ही
रहे हैं, बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं आप। जब
आपका मन कहता
है, बिलकुल
ठीक कह रहे
हैं, तो
मुझे ऐसा लगता
है कि कहीं
मैंने कुछ
कहकर भूल तो
नहीं की। क्योंकि
आपको मैं ठीक
नहीं कहना
चाहूंगा।
क्योंकि आप
अगर ठीक होते
तब तो कोई बात
ही न थी। यह तो राम-राम
आप कह ही रहे
हैं। मैं आपके
राम-राम का समर्थन
नहीं कर रहा
हूं। और आप तो
कीर्तन करते
ही रहे हैं।
मैं आपके
कीर्तन का
समर्थन नहीं कर
रहा हूं।
क्योंकि अगर
आप कीर्तन से
पहुंच सकते
होते तो पहुंच
ही गए होते।
वह आप नहीं
पहुंचे। मैं
तो कीर्तन का
जो मूल है, उसकी
बात कह रहा
हूं, आपके
कीर्तन की बात
नहीं कर रहा
हूं। मूर्ति का
जो मूल है, उसकी
बात कर रहा
हूं, आपके
घरों में रखी
हुई
मूर्तियों की
चर्चा नहीं कर
रहा हूं। उनको
तो मैं
निकालूंगा और फिंकवा
दूंगा। उनको
तो नहीं रखा
जा सकता है।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि उन
सब सूत्रों के
पीछे कुछ भी
नहीं था। उन
सब सूत्रों के
पीछे बहुत कुछ
था। सच तो यह
है कि हम
सिर्फ उसी सूत्र
के नाम पर
हजारों साल तक
गलत सूत्रों
को खींच सकते
हैं जिसमें कुछ
हो रहा हो।
नहीं तो खींच
भी नहीं सकते।
अगर हम किसी
चीज को हजारों
साल तक खींचते
हैं बिना कुछ
पाए, तो उसका
मतलब इतना ही
है कि मनुष्य
की चेतना में
कहीं वह अदभुत
छिपा है कि
उससे पाया गया
था। नहीं तो
हम उसे खींच
नहीं सकते।
कचरे को भी अगर
कोई आदमी बहुत
दिन तक खींचता
है, तो
इसलिए खींचता
है कि उस कचरे
में भी कभी
हीरे के दर्शन
हुए हैं, किसी
अतीत क्षण
में। नहीं तो
उस कचरे को
कोई खींचेगा
कैसे! अगर गलत
चीजें भी चलती
हैं, तो
इसलिए चल पाती
हैं कि उन गलत
के पीछे कभी
कोई सत्य था
जो खो गया है।
अन्यथा गलत को
खींचा नहीं जा
सकता है।
"भगवान
श्री, चैतन्य
महाप्रभु का
जीव-जगत जो
जगदीश से भिन्न
भी है और
अभिन्न भी है,
वह अचिंत्य भेदाभेदवाद
है। वह आपके
कील और पहिये
के नजदीक आता
है?'
बिलकुल
आ जाएगा, बिलकुल
आ जाएगा।
चैतन्य कृष्ण
को प्रेम करने
वाले
यात्रियों
में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण हैं।
अचिंत्य भेदाभेद,
इसमें
कीमती शब्द
अचिंत्य है, "अनथिंकेबल'। जो सोचते
हैं, वे या
तो कहेंगे कि
जगत में जीवन
और जगत का भेद है,
तो भेदवाद
होगा। या वे
कहेंगे कि
जीवन और जगत एक
है, तो अभेदवाद
होगा। चैतन्य
कहते हैं, दोनों
हैं--भेद-अभेद
दोनों हैं। एक
भी हैं, भिन्न
भी हैं। जैसे
लहर भिन्न भी
है सागर से और
एक भी है।
निश्चित ही।
लहर भिन्न है
तब तो हमने
उसे नाम दिया
लहर का। और एक
तो है ही। अगर
सागर से एक न
हो तो होगी
कहां! तो लहर
एक भी है और
भिन्न है, भेद
भी है और अभेद
भी है। इतना
भी चिंतन में
आ जाता है कि
एक भी हो सकती
है, भिन्न
भी हो सकती
हैं। उस पर एक
शब्द और जड़
देते हैं वह, कहते हैं, अचिंत्य, "अनथिंकेबल'। वही शब्द
बड़ा अदभुत है।
वह यह कहते
हैं कि अगर यह
भी तुमने
चिंतन से पाया,
तो तुमने
कुछ पाया
नहीं। अगर यह
भी तुमने
सोच-सोच कर पाया
है, तो यह
सिर्फ
सिद्धांत है,
कुछ पाया
नहीं। अगर
सोचने के बाहर
पाया है, तो
फिर अनुभव में
पाया है।
इसे
समझना अच्छा
होगा।
जब तक
हम सोचकर पाते
हैं तब तक
शब्दों में ही
पाते हैं। और
जब हम जीकर
पाते हैं तब
हम शब्दों के
बाहर पाते हैं, वह अचिंत्य
हो जाता है।
जीवन पूरा ही
अचिंत्य है।
उसका कोई
चिंतन नहीं
होता। एक आदमी
प्रेम को समझे
और शास्त्रों
से समझ ले, तो
बहुत लिखा है
शास्त्रों
में। शायद
प्रेम के
संबंध में
जितना लिखा है,
किसी और चीज
के संबंध में
नहीं लिखा है।
विराट साहित्य
है प्रेम
का--काव्य हैं,
महाकाव्य
हैं, व्याख्यायें हैं, चर्चायें हैं, कोई
आदमी प्रेम को
समझ ले। तो
समझ लेगा, प्रेम
की व्याख्या
कर देगा।
लेकिन फिर भी प्र्रेम
को उसने जाना
नहीं। तो और
एक आदमी है, जिसने कि
प्रेम के
संबंध में कुछ
भी नहीं सुना,
कुछ भी नहीं
समझा, कुछ
भी नहीं जाना,
लेकिन
प्रेम जिआ है।
इन दोनों में
फर्क क्या होगा?
इनकी
जानकारी का
क्या भेद होगा?
एक की
जानकारी
चिंत्य है, एक की
जानकारी
चिंतन से
उपलब्ध हुई
है। एक की जानकारी
चिंत्य नहीं
है, अनुभव
है। अनुभव सदा
अचिंत्य है।
वह चिंतन से नहीं
आता, चिंतन
के पहले आ
जाता है। और
अनुभव के पीछे
चिंतन चलता
है। अनुभव
पहले आ जाता
है, चिंतन
सिर्फ
अभिव्यक्त
करता है।
इसलिए
चैतन्य कहते
हैं, अचिंत्य
है। और चैतन्य
के कहने का
अर्थ जरा ज्यादा
है। ऐसे तो
मीरा भी कहेगी
कि सोच-समझ के
परे है, लेकिन
मीरा कभी बहुत
सोच-समझ की
स्त्री थी ही नहीं।
लेकिन चैतन्य
तो महातार्किक
थे। चैतन्य की
जो खूबी है वह
यह है कि यह
आदमी तो महातार्किक
था। इसके तर्क
का तो कोई अंत
न था। इसने तो
चिंतन की
ऊंची-से-ऊंची
शिखर को छुआ
है। इसके साथ
विवाद करने की
सामर्थ्य न थी
किसी की।
विवाद में
जहां खड़ा होता
विजेता ही
होता। तो जब
यह चैतन्य
इतना सब विवाद
करके, इतना
सब पांडित्य
रचकर, इतना
सब तर्क और
ऊहापोह करके
एक दिन कहने
लगे कि अब मैं नाचूंगा
और अचिंत्य को
खोजूंगा,
तब इसका
अर्थ और हो
जाता है। मीरा
तो कभी कोई तार्किक
थी नहीं।
प्रेम उसका
जीवन था।
उसमें प्रेम
के फूल लगे, तो सहज थे।
यह आदमी उलटे
थे चैतन्य। यह
आदमी प्रेम के
आदमी न थे और
अगर प्रेम की
तरफ आए तो चिंतन
की पराजय से
आए। किसी और
से पराजित
होकर नहीं, अपने ही
भीतर चिंतन को
पराजित पाकर
कि वह जगह आ गई
जहां चिंतन
हार जाता है
और बाहर जीवन
आगे शेष रह
जाता है।
इसलिए
मैंने कहा कि
कृष्ण के
मार्ग पर चले
हुए लोगों में
चैतन्य का
मुकाबला नहीं
है। ध्यान में
है मेरे कि
मीरा भी उस
मार्ग पर है, लेकिन
चैतन्य से
मुकाबला नहीं
है। क्योंकि चैतन्य
जैसा आदमी नाच
नहीं सकता।
चैतन्य जैसा आदमी
मंजीरा ठोंककर
सड़कों पर भाग
नहीं सकता। और
जब चैतन्य
जैसा आदमी
मंजीरा ठोंकने
लगे और हरे
कृष्ण, हरे
राम कहकर
सड़कों पर
नाचने लगे, तो सोचने
जैसा है। तो
जरा विचारने
जैसा है। ऐसे
जैसे
बर्ट्रेंड
रसल नाचने
लगें। बस, वैसे
ही आदमी हैं
वह। इसके
वक्तव्य का
मूल्य बहुत
ज्यादा हो जाता
है। इसके
वक्तव्य का
मूल्य ही यही
है कि इस आदमी
का नृत्य में
उतर जाना और
झांझ-मंजीरा
पीटने लगना और
यह कह देना कि
अचिंत्य है वह
और अब हम
चिंतन छोड़ते
हैं और अचिंतन
से उसे पाएंगे,
इस बात की
खबर देता है
कि चिंतन के
पार भी केवल वे
ही जा सकते
हैं ठीक से, जो गहन
चिंतन में
उतरते हैं।
गहन चिंतन में
उतरते हैं वे
एक दिन जरूर
उस सीमारेखा
पर पहुंच जाते
हैं जहां वह "लिमिट' आ
जाती है, सीमांत
आ जाता है, जहां
पत्थर लगा है
और लिखा है कि
बुद्धि अब यहीं
तक चलती है, आगे नहीं
चलती। जगह है
ऐसी जहां
बुद्धि का सीमांत
आ जाता है। इसलिए
चैतन्य के
वक्तव्य का
बड़ा मूल्य है।
वह उस पत्थर
के आगे गया
मूल्य है।
मीरा उस पत्थर
तक कभी पहुंची
नहीं, उसने
उस पत्थर तक
कभी भी कोई
यात्रा नहीं
की।
"भगवान
श्री, अमेरिका,
इंग्लैंड, तथा अन्य
देशों में
आजकल
"कृष्ण-चेतना-आंदोलन'
बहुत तेजी
से चल रहा है
और वे
संकीर्तन
वगैरह का बहुत
उपयोग करते
हैं। इससे ऐसा
मालूम होता है
कि कोई नया "वेराइटी
आइटम' या
कोई
मनोवैज्ञानिक
चीज है, या
कोई नया "फैड'। या क्या आप
ऐसा कह सकते
हैं कि वहां
कृष्ण-जन्म की
कोई पूर्व
भूमिका बन रही
है?'
बड़े
गहरे "इंप्लीकेशंस' हैं।
कृष्ण-चेतना का
आंदोलन, "कृष्ण
कांशसनेस' का
आंदोलन
यूरोप-अमेरिका
में रोज जोर पकड़ता
जाता है। जैसे
किसी दिन
चैतन्य बंगाल
के गांवों में
नाचते हुए गूंजे
व निकले थे, वैसा आज
न्यूयार्क और
लंदन की सड़कों
पर भी हरिकीर्तन
सुनाई पड़ता
है। यह
आकस्मिक नहीं
है।
असल
में जहां
चैतन्य व्यक्तिगत
रूप से थक गए
थे वहां
पश्चिम
सामूहिक रूप
से थक रहा है।
चैतन्य
सोच-सोचकर
व्यक्तिगत
रूप से थक गए
थे और पाया था
कि सोचने से
पार नहीं है, और पश्चिम
सामूहिक रूप
से सोचने से
थक गया है।
सुकरात से
लेकर
बर्ट्रेंड
रसल तक पश्चिम
ने सिर्फ सोचा
ही है और
सोच-सोचकर ही
खोजने की
कोशिश की है
सत्य को। बड़ी
विराट साधना
थी यह भी, बड़ा
अनूठा प्रयोग
था कि पश्चिम
ने अपने पूरे
प्राण इस बात
पर लगा दिए
हैं, सुकरात
से लेकर रसल
तक, कि हम
सोचकर ही सत्य
को पा लेंगे
और सत्य को किसी-न-किसी
तरह "लाजिक' और तर्क की
सीमा में
उपलब्ध करना है।
और उस सत्य को
पश्चिम
निरंतर इनकार
करता रहा है
जो तर्क की
सीमा में नहीं
आता है। जो
अतक्र्य है, उसको उसने
कहा, नहीं
हम मानेंगे जब
तक हमारी
बुद्धि और
मस्तिष्क
स्वीकार नहीं
कर लेते।
इन
पच्चीस सौ साल
की यात्रा में
पश्चिम ने गहन
तर्क किया है।
पश्चिम
सामूहिक रूप
से थक गया और
सत्य की कोई
झलक नहीं
मिली। बार-बार
लगा कि यह रहा, यह रहा, अब
पास है, पास
है, और पास
पहुंचकर पाया
कि नहीं, फिर
"कांसेप्ट'
ही हाथ में
रह गए, सिद्धांत
ही हाथ में रह
गए, सत्य
नहीं है।
पश्चिम
की सामूहिक
चेतना, "कलेक्टिव
कांशसनेस' उस
जगह आ रही है
जहां चैतन्य
व्यक्तिगत
रूप से आ गए
हैं। इसलिए
पश्चिम में "एक्सप्लोज़न'
संभावी
है--जो हो रहा
है। वसंत के
पहले फूल आने शुरू
हो गए हैं।
जगह-जगह
विस्फोट हो
रहा है। पश्चिम
की युवा पीढ़ी
जगह-जगह टूट
रही है और
जगह-जगह उसने
अचिंत्य की
दिशा में कदम
उठाने शुरू कर
दिए हैं। और
अगर अचिंत्य
की दिशा में
कदम रखने हैं,
तो कृष्ण से
ज्यादा ठीक
प्रतीक दूसरा
नहीं है।
महावीर के
वक्तव्य बहुत
तर्कयुक्त
हैं। अगर
महावीर रहस्य
की बात भी
करते हैं तो
भाषा सदा तर्क
की है। अगर
महावीर कभी भी
कोई बात करते हैं,
तो विचार की
संगति कभी भी
टूटती नहीं।
बुद्ध अगर
पाते हैं कि
कोई बात रहस्य
की है, तो
चर्चा करने से
इनकार कर देते
हैं। उसकी चर्चा
नहीं करते। वह
कह देते हैं, अव्याख्येय।
इसकी बात नहीं
होगी। बात
वहीं तक
करेंगे, जहां
तक तर्क है।
पश्चिम
के चित्त में
आज जो तनाव है, वह चिंतन से
पैदा हुआ तनाव
है। जो "एंग्जाइटी'
है, जो
"मेंटल
एंग्विश' है,
जो संताप है,
वह परम तक
चिंतन को
खींचने का
परिणाम है।
"अल्टीमेट' तक चिंतन को
खींचा गया है,
जहां उसकी
दम टूटी जा
रही है। वहां
नई पीढ़ियां
बगावत
करेंगी। यह
बगावत बहुत
रूपों में
प्रकट होगी।
क्योंकि
चैतन्य एक
आदमी थे, एक
रूप में होगी।
एक पीढ़ी
जब बगावत करती
है, तो
बहुत रूपों
में प्रगट
होगी। उस
अचिंत्य में
यात्रा करने
के लिए कोई
भजन-कीर्तन
कहकर कृष्ण-नाम
जपने लगेगा, कोई उस
अचिंत्य में
प्रवेश करने
के लिए भारत चला
जाएगा और
हिमालय की
यात्रा करने
लगेगा। कोई उस
अचिंत्य की
खोज में झेन फकीरों के
पास जापान चला
जाएगा। वह
अचिंत्य की
खोज चल रही
है।
लेकिन, मुझे लगता
है कि कृष्ण
इस अचिंत्य की
खोज में धीरे-धीरे
पश्चिम के
निकट आते चले
जाएंगे। एल.एस.डी.
दूरगामी साथी
नहीं हो सकता।
और कब तक लोग
भारत की
यात्रा करते
रहेंगे और
कितने लोग
यात्रा करते
रहेंगे? और
कब तक लोग
जापान में
जाकर झेन फकीरों
के चरणों में
बैठते रहेंगे?
पश्चिम को
अपनी ही चेतना
खोजनी पड़ेगी।
यह उधार बातें
ज्यादा देर
नहीं चल सकती
हैं।
तो
पश्चिम के
चित्त में वह
घटना टूट रही
है और बड़े मजे
की बात है अगर
हिंदुस्तान
में आप किसी
व्यक्ति को
भजन-कीर्तन
करते देखें, तो उसके
चेहरे पर वह
आनंद का भाव
नहीं होगा जो लंदन
के लड़के और लड़कियां
जब भजन-कीर्तन
करते हैं तो
उनके चेहरे पर
है। हमारे लिए
वह पिटा-पिटाया
क्रम है, घिसा
हुआ सिक्का
है। हम सब
भलीभांति
जानते हैं कि
क्या कर रहे
हैं। उनके लिए
बड़ा नया
सिक्का है। वह
उनके लिए
छलांग है।
हमारे लिए परंपरा
है, हमारे
लिए "ट्रेडीशन'
है, उनके
लिए बिलकुल
"एंटी-ट्रेडीशनल'
है। जब सड़क
से लंदन की
कोई गुजरता है
मंजीरे बजाते
हुए और नाचते
हुए, तो
ट्रैफिक का
पुलिस वाला भी
खड़ा होकर
सोचता है कि
दिमाग खराब हो
गया! हमारे मुल्क
में कोई नहीं
सोचेगा। नहीं
कोई करता है, उसी का
दिमाग खराब
है। जो करता
है, उसका
दिमाग तो
बिलकुल ठीक
है। लेकिन
दुनिया के
धर्म पागलों
से चलते हैं, बुद्धिमानों से नहीं।
दुनिया में
सारे-के-सारे,
जिनको
"ब्रेक थ्रू'
कहें हम, जहां चीजें
टूटती हैं और
बदलती हैं, वे पागलों
से होती हैं, दीवानों से
होती हैं।
हमारे मुल्क
में भजन-कीर्तन
करना दीवानगी
नहीं है। कभी
रही होगी। चैतन्य
जब बंगाल में
नाचा तो
दीवाना था।
लोगों ने समझा
कि पागल हो
गया। अब नहीं
है वह बात! "ट्रेडीशन'
सबको पचा
जाती है, बड़े-से-बड़े
पागलों को पचा
जाती है। उनको
भी जगह बना
देती है कि यह
रहा तुम्हारा घर,
तुम भी
विश्राम करो।
पश्चिम
में एक
विस्फोट की
हालत है।
इसलिए पश्चिम
का युवा-चित्त
जब नाचता है, तो उस नाच
में बड़ी
मोहकता है, बड़ी सरलता
है।
कृष्ण-जन्म की
कोई तैयारी
नहीं हो रही, लेकिन
कृष्ण-चेतना
के जन्म की
तैयारी जरूर
हो रही है।
कृष्ण-चेतना
का कोई संबंध
कृष्ण से नहीं
है।
कृष्ण-चेतना
प्रतीक शब्द है,
जिसका मतलब
है ऐसी चेतना
की संभावना
पश्चिम में हो
रही है कि लोग
काम को छोड़ेंगे
और उत्सव को पकड़ेंगे।
हां, "सिंबालिक',
प्रतीकात्मक
रूप से काम
बेमानी हो
गया। पश्चिम
बहुत काम कर
चुका, पश्चिम
बहुत चिंतन कर
चुका, पश्चिम
बहुत...मनुष्य
जो भी कर सकता
था मनुष्य की
सीमाओं में वह
सब कर चुका और
थक गया, बुरी
तरह थक गया।
या तो पश्चिम
मारेगा, या
कृष्ण-चेतना
में प्रवेश
करेगा। और
मरता तो कुछ
नहीं।
कृष्ण-चेतना
में प्रवेश
करना होगा।
क्राइस्ट
उतने
प्रतीकात्मक
आज पश्चिम को
नहीं मालूम
होते हैं।
उसका भी वही
कारण है, "ट्रेडीशन'। क्राइस्ट
अब "ट्रेडीशन'
हैं और
कृष्ण अब
"एंटी-ट्रेडीशन'
हैं। कृष्ण
जो हैं वह
चुनाव है; और
क्राइस्ट जो
हैं वह कोई
चुनाव नहीं है,
आरोपण है।
फिर क्राइस्ट
गंभीर हैं। और
पश्चिम
गंभीरता से ऊब
गया है। "टू मच
सीरियसनेस' अंततः "डिसीज्ड़'
हो जाती है।
बहुत ज्यादा
गंभीरता गहरे
में रुग्णता
बन जाती है।
तो पश्चिम
गंभीरता से
उठना चाहता
है। "क्रास' का बड़ा
गंभीर प्रतीक
है। "क्रास' पर लटका हुआ
जीसस बड़ा
गंभीर
व्यक्तित्व
है। पश्चिम
घबड़ा गया है। हटाओ
"क्रास' को,
लाओ
बांसुरी को।
और "क्रास' के
खिलाफ अगर कोई
भी प्रतीक
दुनिया में
खोजने जाएंगे
तो बांसुरी के
सिवा मिलेगा
भी क्या! इसलिए
कृष्ण की
"अपील' और
कृष्ण के निकट
आने की
संभावना
पश्चिम के चित्त
की रोज बढ़ती
चली जाएगी।
और भी
कारण हैं।
कृष्ण
के करीब सिर्फ
"एफ्युलेंट
सोसाइटी' हो
सकती है।
कृष्ण के करीब
सिर्फ
वैभव-संपन्न समाज
हो सकता है।
क्योंकि
बांसुरी
बजाने की चैन
गरीब, दीन-दरिद्र
समाज में नहीं
हो सकती।
कृष्ण जिस दिन
पैदा हुए उन
दिनों के
मापदंड से
कृष्ण का समाज
काफी संपन्न
समाज था।
खाने-पीने को
बहुत था। दूध
और दही
तोड़ा-फोड़ा जा
सकता था। दूध
और दही की मटकियां
सड़कों पर
गिराई जा सकती
थीं। उन दिनों
के हिसाब से, उन दिनों के
"स्टैंडर्ड
आफ लिविंग' से संपन्न
समाज था--संपन्नतम
समाज था। सुखी
लोग थे, खाने-पीने
को बहुत था।
पहनने-ओढ़ने
को बहुत था।
एक आदमी काम
कर लेता और
पूरा परिवार
बांसुरी बजा
सकता था। उस
संपन्न क्षण
में कृष्ण की
"अपील' पैदा
हुई थी।
पश्चिम
अब फिर आज के मापदंडों
के हिसाब से
संपन्न हो रहा
है। शायद भारत
में कृष्ण के
लिए अभी बहुत
दिन तक
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
अभी भारत के
मन में कृष्ण
बहुत ज्यादा गहरे
नहीं उतर
सकते।
क्योंकि
दीन-दरिद्र
समाज बांसुरी
बजाने की बात
नहीं सोचता, उसको तो
लगता है, क्राइस्ट
ही ठीक हैं।
जो खुद ही
सूली पर लटका
है रोज, उसके
लिए क्राइस्ट
ही ठीक मालूम
पड़ सकते हैं। इसलिए
यह बड़ी अनहोनी
घटना घट रही
है कि हिंदुस्तान
में रोज-रोज
क्राइस्ट का
प्रभाव बढ़ रहा
है और पश्चिम
में रोज
क्राइस्ट का
प्रभाव कम हो
रहा है। अगर
कोई यह सोचता
हो कि यह
"मिशनरी' लोगों
को बरगला
कर और ईसाई
बना रहा है, इतना ही
काफी नहीं है।
ईसा का प्रतीक
हिंदुस्तान
के दीन-दुखी
मन के बहुत
करीब पड़ रहा
है। सिर्फ
"मिशनरी' बरगला
नहीं सकता।
अगर वह बरगला
भी सकता है तो
सिर्फ इसीलिए
कि वह प्रतीक
निकट आ रहा
है। अब कृष्ण
की
स्वर्ण-मूर्ति
और राम के
वैभव में खड़ी
हुई
मूर्तियां
हिंदुस्तान
के गरीब मन के बहुत
विपरीत पड़ती
हैं। बहुत दूर
न होगा वह दिन
जिस दिन कि
हिंदुस्तान
का गरीब अमीर
पर ही न टूटे, कृष्ण और
राम पर भी टूट
पड़े। इसमें
बहुत कठिनाई
नहीं होगी।
क्योंकि ये
स्वर्ण-मूर्तियां
नहीं चल
सकतीं। लेकिन
क्राइस्ट का सूली
पर लटका हुआ
व्यक्तित्व
गरीब के मन के
बहुत करीब आ
जाता है।
हिंदुस्तान
के ईसाई होने
की बहुत
संभावनाएं
हैं, उसी
तरह, जैसे
पश्चिम के
कृष्ण के निकट
आने की
संभावनाएं
हैं।
पश्चिम
के मन में अब
"क्रास' का
कोई अर्थ नहीं
रहा है। न
पीड़ा है, न
दुख है। वे
दुख और पीड़ा
के दिन गए।
सचाई यह है कि
अब एक ही दुख
है कि संपन्नता
बहुत है, इस
संपन्नता के
साथ क्या
करें! सब कुछ
है, अब
इसके साथ क्या
करें! निश्चित
ही कोई नाचता हुआ
प्रतीक, कोई
गीत गाता
प्रतीक, कोई
नृत्य करता
प्रतीक
पश्चिम के
करीब पड़ जाएगा।
और इसलिए
पश्चिम का मन
अगर कृष्ण की
धुन से भर जाए,
तो आश्चर्य
नहीं है।
"भगवान
श्री, पश्चिम
में "कृष्ण
कांशसनेस' के
आंदोलन का
नेतृत्व "इर्रेशलन'
कवि एलन गिन्सबर्ग
ने लिया है।
चिंतक वर्ग पर
अभी तक कोई
प्रभाव पड़ा
नहीं लगता।
दूसरा आप "एफ्लुयेंट
सोसाइटी' की
कल ही बात
करते थे। वे चतुर्वर्ण
थे। गीता में
भी, भागवत
में भी सुदामा
का जो वर्णन
आता है उसमें
वह दारिद्रय
का प्रतीक है।
कृष्ण के
जमाने में भी
सुदामा "पावर्टी
का प्रतीक था।
गीता में "कलौ
केशव कीर्तनात्'
और "यज्ञानाम्
जपयज्ञस्मि'
का क्या
अर्थ है?'
नहीं, मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
उस दिन कोई
गरीब न था और न
मैं यह कह रहा
हूं कि आज
पश्चिम में
कोई गरीब नहीं
है। यह मैं
नहीं कह रहा
हूं। खोजने से
पश्चिम में
गरीब मिलेंगे ही।
गरीब तो हैं
ही। समाज गरीब
नहीं है। गरीब
उस दिन भी थे, सुदामा उस
दिन भी था।
लेकिन समाज
गरीब नहीं था।
समाज की गरीबी
और बात है, गरीब
व्यक्ति खोज
लेना और बात
है। आज हम
भारत के समाज
को गरीब कह
सकते हैं, हालांकि
बिड़ला भी
मिलेंगे।
लेकिन बिड़ला
के कारण भारत
का समाज अमीर
नहीं हो सकता।
सुदामा के
कारण उस दिन
समाज गरीब
नहीं हो सकता।
हिंदुस्तान
के इतने गरीब
समाज में अमीर
तो मिलेगा ही।
पश्चिम के, अमरीका के
संपन्न समाज
में भी गरीब
तो मिलेगा ही।
यह सवाल नहीं
है। सवाल यह
है कि बहुजन, समाज का
पूरा-का-पूरा
ढांचा संपन्न
था। जो उस दिन
जीवन की
सुविधा थी, वह अधिकतम
लोगों को
उपलब्ध थी। आज
अमरीका में जो
जीवन की
सुविधा है, वह अधिकतम
लोगों को उपलब्ध
है। संपन्न
समाज में
उत्सव प्रवेश
कर सकता है, गरीब समाज
में उत्सव
प्रवेश नहीं
कर सकता। गरीब
समाज में
उत्सव
धीरे-धीरे
विदा होता
जाता है। या
कि उत्सव भी
फिर एक काम बन
जाता है। गरीब
समाज उत्सव भी
मनाता है, दिवाली
भी मनाता है, तो कर्ज
लेकर मनाता
है। होली भी खेलता
है तो पिछले
वर्ष के
पुराने कपड़े
बचाकर रखता
है। होली के
दिन
फटे-पुराने
कपड़ों को सिलाकर
निकल आता है।
अब जब होली ही
खेलनी है तो
फटे-पुराने
कपड़ों से खेली
जा सकती है।
तो मत ही खेलो।
होली का मतलब
ही यह है कि
कपड़े इतने
ज्यादा हैं कि
रंग में भिगाए
जा सकते हैं।
गरीब आदमी भी
होली तो खेलेगा,
लेकिन वह
पुराने ढांचे
को ढो रहा है
सिर्फ। नहीं
तो होली के
दिन जो सबसे
अच्छे कपड़े थे
वही पहनकर
निकलते थे
लोग। उसका
मतलब ही यह था
कि इतने कपड़े
हैं, तुम
रंग डालो!
लेकिन जिससे
हम रंग डलवाने
जा रहे हैं, उसको भी
धोखा दे रहे
हैं, कपड़ा पुराना, सी-सीकर
आ गए हैं, धुलवाकर आ गए हैं। वह
रंग डालने
वाले को भी
धोखा दे रहे हैं।
तो रंग डालने
का मतलब ही
क्या था? जिन
लोगों ने
कपड़ों पर रंग
डालने का खेल
खेला होगा, उसके पास
कपड़े जरूरत से
ज्यादा रहे
होंगे, अन्यथा
नहीं खेल सकते
हैं यह खेल।
हम भी खेल रहे
हैं, लेकिन
हमारा खेल
सिर्फ एक ढोना
है एक रूढ़ि
को। इसलिए दिल
दुखता है।
होली के दिन
कोई कपड़े पर रंग
डाल जाता है
तो दिल दुखता
है। दिल खुश
होना चाहिए कि
किसी ने रंग
डालने योग्य
माना, लेकिन
दिल दुखता है।
दुखेगा, क्योंकि
कपड़े भारी
महंगे पड़ गए
हैं, अब
कपड़े इतने
आसान नहीं रह
गए हैं। हां, पश्चिम में
होली खेली जा
सकती है। अभी
कृष्ण का
नृत्य चल रहा
है, आज
नहीं कल होली
पश्चिम में
प्रवेश करेगी,
इसकी घोषणा
की जा सकती
है। पश्चिम
होली खेलेगा।
अब उनके पास
कपड़े हैं, रंग
भी है, समय
भी है, फुर्सत
भी है, अब
वे खेल
सकेंगे। और
उनकी होली में
एक आनंद होगा,
उत्सव होगा,
जो हमारी
होली में नहीं
हो सकता है।
संपन्नता
से मेरा मतलब
है, "ऑन द होल'
पश्चिम का
समाज संपन्न
हुआ है। और जब
पूरा समाज
संपन्न होता
है, तो जो
उस समाज में
दरिद्र होता
है वह भी उस
समाज के
संपन्न से
बेहतर होता है,
जो समाज
दरिद्र होता
है। यानी आज
अमरीका का
दरिद्रतम
आदमी भी पैसे
पर उतना पकड़
वाला नहीं है,
जितना
हिंदुस्तान
का संपन्नतम
आदमी है।
हिंदुस्तान
के
अमीर-से-अमीर
आदमी की पैसे
पर पकड़ इतनी
ज्यादा
है--होगी
ही--क्योंकि चारों
तरफ
दीन-दरिद्र
समाज है। अगर
वह जोर से न पकड़े
तो कल वह भी
दीन-दरिद्र हो
जाएगा।
मैंने
सुनी है एक
घटना कि एक
भिखारी बहुत
मस्त, स्वस्थ,
तगड़ा
भिखारी एक घर
के सामने भीख
मांग रहा है। गृहणी ने
उसे दिया है
कुछ, दिल
खोलकर दिया
है। फिर उसकी
तरफ गौर से
देखा है कि वह
स्वस्थ है, सुंदर है।
उसने उससे
पूछा कि
तुम्हें देखकर
तो ऐसा नहीं
लगता कि गरीब
के घर में
पैदा हुए हो, लेकिन गरीब
कैसे हो गए? तो उसने कहा,
इसी भांति
जिस भांति तुम
हो जाओगी।
जितने मजे से
तुमने दिया है,
इतने मजे से
मैं देता रहा।
ज्यादा देर न
लगेगी कि तुम
सड़क पर आ
जाओगी।
जब
चारों तरफ
गरीब समाज हो
तो धन की पकड़
पैदा होती है।
अमीर-से-अमीर
आदमी धन को
पकड़ लेता है।
जब समाज
संपन्न हो तो
गरीब-से-गरीब
आदमी धन को
छोड़ पाता है।
क्योंकि कोई
डर नहीं है, कल फिर मिल
सकता है। कोई
असुरक्षा
नहीं है। कोई
भय नहीं है।
इस
अर्थ में
मैंने कहा। और
इस अर्थ में
भी कहा। दूसरी
बात जो पूछी
है, वह भी सोच
लेनी चाहिए।
वह यह पूछी है
कि पश्चिम में
एलन गिन्सबर्ग
और इस तरह के
लोगों से वह
जो "ब्रेक थ्रू'
है, वह
जो छलांग है, आ रही है। ये
सारे-के-सारे
लोग, चाहे "एक्जिस्टेंशियलिस्ट'
हों और चाहे
बीटल हों और
चाहे बीटनिक
हों और चाहे
हिप्पी हों और
चाहे इप्पी
हों, किसी
भी तरह के लोग
हों, ये
सारे-के-सारे
लोग "इर्रेशनलिस्ट'
हैं, ये
सारे-के-सारे
लोग अबुद्धिवादी
हैं।
पश्चिम
का कोई
बुद्धिवादी
अभी इन बातों
से प्रभावित
नहीं है। इसके
कारण हैं।
यह जो अबुद्धिवादी
पीढ़ी
पश्चिम में
पैदा हुई है, जो "इर्रेशनलिस्ट
जेनरेशन' पैदा
हुई है, यह
पिछली पीढ़ी
के अति
बुद्धिवाद से
पैदा हुई है।
यह उसकी प्रतिक्रिया
है। असल में
किसी समाज में
अबुद्धिवादी
तभी पैदा होते
हैं जब
बुद्धिवाद
चरम पर पहुंच
जाता है। नहीं
तो पैदा नहीं
होते। रहस्य
की बात तभी
शुरू होती है
जब तर्क
बिलकुल प्राण
लेने लगता है।
परमात्मा की
बात तभी शुरू
होती है जब पदार्थ
छाती पर पत्थर
होकर बैठ जाता
है। और ध्यान
रहे, गिन्सबर्ग,
या सार्त्र,
या कामू, या कोई और ये
सारे लोग
घूम-फिर कर
जहां "एब्सर्ड'
में खो जाते
हैं, अतक्र्य
में खो जाते
हैं, उससे
आप यह मत समझ
लेना कि ये
हमारे ग्रामीण
अबुद्धिवादी
जैसे लोग हैं।
ये अपने अबुद्धिवाद
में बड़े
बुद्धिवादी
हैं। इनका वह
जो अतक्र्य होना
है, अचिंत्य
होना है, वह
ऐसा नहीं है
जो श्रद्धालु
का है। वह
किसी श्रद्धालु
का अचिंत्य
होना नहीं है।
वह चैतन्य
जैसा ही है।
वह उसका ही
अचिंत्य होना
है जिसने
चिंतन कर-करके,
थक-थककर
पाया है कि
बेकार है। तो गिन्सबर्ग
के वक्तव्य, या उसकी
कविता अगर
"एब्सर्ड' है,
अगर
अतक्र्य है, या बुद्धि
के परे है, या
अबुद्धिवादी
है, या बुद्धिविरोधी
है, तो
ध्यान रखना, उसके इस अबुद्धिवादी
होने में भी
एक "सिस्टम' है, एक
व्यवस्था है।
नीत्से
ने कहीं कहा
है कि मैं
पागल हूं, "बट माइ मैडनेस हैज इट्स
ओन लाजिक'।
लेकिन मरे
पागल होने का
अपना तर्क है।
मैं कोई ऐसे
ही पागल नहीं
हूं। मैं कोई
ऐसा पागल नहीं
हूं जैसे पागल
होते हैं।
मेरे पागल
होने का भी
कारण है। मेरे
पागल होने की
भी "सिस्टम' है।
यह अबुद्धिवादी
जो है, जानकार
है।
होशपूर्वक
है। चेष्टापूर्वक
है। इस अबुद्धिवाद
का अपना आग्रह
है। इस अबुद्धिवाद
में
बुद्धिवाद का
स्पष्ट विरोध
है, खंडन
है। निश्चित
ही जब अबुद्धिवाद
खंडन करता है,
विरोध करता
है, तो
तर्कों से
नहीं करता है।
क्योंकि अगर
वह तर्कों से
करे, तो वह
खुद ही
बुद्धिवादी
हो जाता है।
नहीं, वह
अतक्र्य
जीवन-व्यवस्था
से करता है। गिन्सबर्ग
एक छोटी-सी "पोएट गेदरिंग'
में कविता
पढ़ रहा था। और
कविता उसकी
बेमानी है, "मीनिंगलेस'
है। एक कड़ी
की दूसरी कड़ी
से कोई संगति
नहीं है। पहली
कड़ी और दूसरी
कड़ी में कोई
तालमेल नहीं
है। प्रतीक सब
बेहूदे हैं।
प्रतीकों का
परंपरा से कोई
संबंध नहीं
है। बड़ा
दुस्साहस है। असंगत
दीखने से
बड़ा दुस्साहस
जगत में दूसरा
नहीं है। इसलिए
असंगत होने का
दुस्साहस
केवल वही कर
सकता है, जिसे
प्राणों के
बहुत गहरे में
संगति का भाव
हो। जो जानता
है कि मैं संगत
हूं ही। कितना
ही असंगत
वक्तव्य दूं,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। मेरी
संगति सुरक्षित
है।
जिनकी
संगति बहुत
आत्मिक नहीं
है, वे एक-एक
वक्तव्यों को तौलत्तौलकर
चलेंगे, एक-एक
वाक्य को तौलत्तौलकर
चलेंगे, क्योंकि
डर है कि अगर
दो वक्तव्य
असंगत हो गए, तो भीतर की असंगति
प्रगट न हो
जाए। जो भीतर
बिलकुल ही "कंसिस्टेंट'
है, "ही
कैन एफॅर्ड
टू बी
इनकंसिस्टेंट',
वह
"इनकंसिस्टेंट'
हो सकता है।
तो वह गिन्सबर्ग
बड़ी असंगत
कविता कह रहा
है। बड़ा
दुस्साहस है।
एक आदमी खड़े
होकर कहता है
कि बड़े
दुस्साहसी आदमी
मालूम पड़ते
हो। लेकिन, कविता करने
से क्या होगा?
कोई "एक्ट',
कोई "डीड',
कोई कृत्य
करके दिखाओ
साहस का। तो गिन्सबर्ग
सारे कपड़े
छोड़कर नंगा
खड़ा हो जाता
है। सारे कपड़े
छोड़ देता है, नंगा खड़ा हो
जाता है। वह
कहता है, यह
मेरी कविता की
आखिरी कड़ी है।
वह उस आदमी से कहता
है, कृपा
करो और तुम भी
नंगे खड़े हो
जाओ। वह आदमी
कहता है यह
मैं कैसे हो सकता
हूं! यह मैं
कैसे हो सकता
हूं! और वह हाल
सकते में आ
जाता है।
क्योंकि किसी
को खयाल न था कि
कविता का अंत
ऐसा हो सकता
है, या
कविता की ऐसी
कड़ी आखिरी हो
सकती है। उससे
लोग पूछते हैं,
गिन्सबर्ग,
तुमने ऐसा
क्यों किया? गिन्सबर्ग कहता है कि
हम सोचकर नहीं
करते हैं। ऐसा
हो गया। ऐसा
हो गया! मुझे
ऐसा लगा कि अब
क्या करूं? वह आदमी
पूछता है, कुछ
करके दिखाओ।
अब मैं क्या
करूं! यहां
कौन-सा साहस
करूं! यह कैसे
करूं! अब मैं
क्या करूं, यह आदमी
कहता है कि
साहस कुछ करके
दिखाओ, तो
अब कविता को
कहां अंत करूं?
मगर यह
"स्पांटेनियस' है, यह
कोई
सोचा-विचारा
नहीं है, लेकिन
अतक्र्य है।
कविता से इसका
कोई संबंध नहीं
है। कोई
कालिदास, कोई
भवभूति, कोई
रवींद्रनाथ
यह नहीं कर
सकते। वे कवि
हैं, परंपरा
से बंधे हुए
कवि हैं। यह
हम सोच ही नहीं
सकते कि कालिदास
ऐसा करेंगे।
यह सोच ही
नहीं सकते कि भवभूति
ऐसा करेंगे।
यह हम सोच ही
नहीं सकते कि
रवींद्रनाथ
ऐसा करेंगे।
यह नहीं हो
सकता। यह खयाल
में ही नहीं
हो सकता। यह
आदमी कर पा
रहा है। यह यही
कह रहा है कि
तर्क से
सोच-सोचकर कब
तक जियोगे?
कब तक तुम "सिलोजिज्म',
तुम्हारी
जिंदगी होगी?
कब तक तुम
दो और दो जोड़कर
जिंदा रहोगे?
कब तक तुम
हिसाब, खाते-बही
करोगे और
जिंदा रहोगे?
छोड़ो खाते-बही, छोड़ो हिसाब और
जिंदा रहो। अब
यह जिंदा रहना
कैसा होगा?
इसलिए गिन्सबर्ग
जैसे व्यक्ति
मेरे लिए गांव
के गंवार, ग्रामीण
श्रद्धालु
नहीं हैं। यह
एक बहुत पक्की
गहरी
बुद्धिवादी
परंपरा की
आखिरी कड़ी है।
और जब
बुद्धिवादी
परंपरा मरती
है, जब वह
सीमा पर पहुंच
जाती है, जब
उसे इनकार
करने वाले लोग
पैदा होते
हैं...मैं
मानता हूं, कृष्ण भी
बहुत बड़ी
बुद्धिवादी
परंपरा की आखिरी
कड़ी हैं।
हिंदुस्तान
बुद्धि के चरम
शिखर छुआ है।
हमने शब्दों
की खाल उधेड़
डाली है। हमने
बाल को काटने
की, बीच से
चीरने की
कोशिश की है।
हमारे पास
बहुत ऐसा
साहित्य है, जो दुनिया
की किसी भाषा
में अनुवादित
नहीं हो सकता,
क्योंकि
इतने बारीक
शब्द दुनिया
की किसी भाषा
के पास नहीं
हैं। हमारे
पास ऐसे शब्द
हैं, जो
पूरे पृष्ठ पर
एक ही शब्द
होता है।
क्योंकि हम
इतने विशेषण
लगाते हैं
उसमें और इतनी
शर्तें लगाते
हैं और इतनी
बारीकियां
करते हैं कि पूरे
पृष्ठ पर एक
ही शब्द फैल
जाता है।
कृष्ण भी एक
अत्यंत
बुद्धिवादी
परंपरा का
आखिरी छोर हैं,
जहां हम सोच
चुके हैं, जहां
हम वेद सोच
चुके हैं और
जहां हम
उपनिषद सोच
चुके हैं और
जहां हम
पतंजलि सोच
चुके हैं और
जहां हम कपिल
और कणादि
सोच चुके हैं
और जहां हमने
समस्त, वृहस्पति
से लेकर, सब
सोच डाला है
और सोच-सोचकर
हम बुरी तरह
से थक गए हैं, उसकी आखिरी
कड़ी में यह
आदमी कृष्ण
आता है। यह कहता
है, अब
बहुत सोचना हो
गया, अब हम
जीना शुरू
करें। "लेट अस
नाव लिव, इनफ
आफ थिंकिंग';
बहुत हो
चुका सोचना, अब जियेंगे
कब?
और
दूसरी बात भी
इस संदर्भ में
आपसे कहूं कि
चैतन्य भी
बंगाल में ऐसे
ही समय में
आते हैं। बंगाल
में "नव्व
न्याय' ने,
मनुष्यजाति
ने चिंतन की जो
आखिरी कड़ियां
छुई हैं, वह
छुई। जिस गांव
में चैतन्य
पैदा हुए, वह
हिंदुस्तान
के तार्किकों
का अन्यतम
गांव है। वह नवदीप, जहां
वे जन्मे, हिंदुस्तान
के श्रेष्ठतम
तार्किक नवदीप
में इकट्ठे
थे। वह काशी
थी तार्किकों
की। हिंदुस्तान
भर का तर्क नवदीप
में जन्म रहा
था और "नव्व
न्याय' वहां
पैदा हुआ।
वहां हमने
तर्क की नई ऊंचाइयां
छुईं, जो
अभी पश्चिम
छूने को है।
अभी पश्चिम के
पास जो भी
तर्क है सब
"ओल्ड' है,
नव्व नहीं है।
अभी अरस्तू
पश्चिम के लिए
तर्कशास्त्री
है। नवदीप
में हमने
अरस्तू के आगे
कदम बढ़ाया, नवदीप में हमने
तर्क को उसकी
आखिरी सीमा पर
पहुंचा दिया।
इतना ही कह
देना काफी था
कि कोई पंडित नवदीप से
आता है, फिर
उससे कोई
विवाद नहीं
करता था। उससे
विवाद करना
बेकार था।
उससे झगड़े में
पड़ना
बेकार था। वह नवदीप से
आता है, इतनी
गवाही काफी थी
कि वह जीत का
"सर्टिफिकेट'
लेकर आता
है। उससे तर्क
में जीतने का
कोई कारण नहीं,
लड़ने की
झंझट में पड़ना
उचित नहीं। उस
नवदीप
में चैतन्य
पैदा हुए हैं।
चैतन्य खुद भी
वैसे ही
तार्किक हैं।
उन्होंने बड़े
तार्किकों को उस
नवदीप
में हराया। उस
नवदीप
में जीतने के
लिए
हिंदुस्तान
से तार्किक
जाते थे और जो
आदमी नवदीप
में जाकर जीत
जाता था, उसकी
डुगडुगी सारे
देश में बज
जाती कि इससे
बड़ा बुद्धिशाली
कोई आदमी नहीं
है! नवदीप
जीत लिया, तो
समस्त संसार
जीत लिया। नवदीप
जीतकर लौटना
मुश्किल था।
अक्सर
ऐसा ही होता
था कि लोग
जीतने आते थे
और हारकर नवदीप
के शिष्य हो
जाते थे। वहां
कोई एकाध
तार्किक न था, वहां घर-घर
तार्किक थे।
वह पूरा गांव
तार्किकों का
था। वहां एक
से जीतिये
तो दूसरा खड़ा
था, वहां
दूसरे से जीतिये
तो तीसरा खड़ा
था। वहां सीढ़ियां-दर-सीढ़ियां
थीं। वहां
पूरे नवदीप
को जीतकर
लौटना असंभव
था। उस नवदीप
में चैतन्य
सबसे जीत गया।
उस नवदीप
में चैतन्य ने
झंडा गाड़
दिया और उससे
तर्क में कोई
जीतने को न
रहा और एक दिन
यही चैतन्य जब
झांझ-मंजीरा
लेकर सड़क पर नाचने
लगा और इसने
कहा, अचिंत्य
है सब, तब
इसकी बात का
बड़ा अर्थ है।
यह उसी तर्क
की आखिरी
परंपरा का
हिस्सा है। यह
चैतन्य उस
तर्क की गहनतम
चिंतना, खोज,
अन्वेषण, बारीक-से-बारीक
समझ के बाद यह
कहता है कि हम
नासमझ होने को
राजी हैं। अब
हम समझदार
नहीं होना
चाहते। अब
समझदारी हम
छोड़ते हैं और
नासमझ हम होते
हैं। अब हम
नाचेंगे
नासमझी से। अब
हम तर्क न
करेंगे। अब हम
तर्क से सत्य
को खोजेंगे न,
अब हम
जियेंगे।
तर्क की आखिरी
कड़ी पर जीवन
शुरू होता है।
"भगवान
श्री, चैतन्य
महाप्रभु और
उनके अचिंत्य भेदाभेद
की बात हुई, गिन्सबर्ग की भी बात
हुई। इसके
पहले शब्द के
मंत्र बन जाने
की विशिष्टता
भी आपने बताई।
और यही बात
नाम-कीर्तन पर
भी लागू होती
है। साथ ही
सुबह के प्रवचन
में आपने कहा
था कि शब्द का
उपयोग किया नहीं
कि द्वैत खड़ा
हो जाता है।
लेकिन कृष्ण
ने बड़े
विश्वास के
साथ कहा है कि
जो पुरुष ओम्
अक्षर जप
ब्रह्म का
उच्चारण करता
हुआ उसके अर्थस्वरूप
मेरा चिंतन
करता हुआ शरीर
त्याग करता है,
वह पुरुष
परमगति को
प्राप्त हो
जाता है। भगवान
श्री, कृष्ण
के शब्द ओम्
से अद्वैत का
बोध कैसे होता
है? ओम् "रेशेनल' है या "इर्रेशनल'
है? आपके
ध्यान-प्रयोग
में ओम् को
प्रवेश देने
में क्या-क्या
बाधाएं थीं?'
शब्द
सत्य नहीं
हैं। सत्य तो
निःशब्द में
ही उपलब्ध
होता है। और
सत्य को प्रगट
करना हो तो भी शब्द
से प्रगट किया
नहीं जा सकता
है। सत्य तो निःशब्द
में ही
अभिव्यक्त
होता है, मौन
में ही प्रगट
होता है। मौन
ही सत्य की मुखरता
है। मौन ही
सत्य के लिए
वाणी है, ऐसा
मैंने सुबह
कहा।
पूछा
जाता है, अगर
ऐसा है तो अभी
आप कहते हैं
कि शब्द बीज
बन सकता है, और शब्द
साधना के लिए
आधार बन सकता
है। दोनों में
कोई विरोध
नहीं है, दोनों
बात ही अलग
है। मैंने कहा
सुबह कि शब्द सत्य
नहीं हैं। लेकिन
जो असत्य में
घिरे हैं, सत्य
तक पहुंचने के
लिए असत्य के
सहारे ही चलते
हैं। या तो
छलांग लगाएं
तब सीधे शब्द
से मौन में
कूद जाएं। अगर
छलांग लगाने
की हिम्मत न
हो तो शब्द को
धीरे-धीरे
छोड़ते चलें।
बीज-शब्द का
मतलब है, सब
शब्द छोड़ो,
एक ही शब्द
पकड़ो। इसमें
सब शब्द छोड़ो
और एक शब्द
पकड़ो। नहीं
हिम्मत है सब
एक-साथ छोड़ने
की तो सब छोड़ो,
एक पकड़ो।
फिर अंततः उस
एक को भी
छोड़ना पड़ता है।
वह जो
बीज-शब्द है, वह सत्य तक
नहीं ले जाता,
सिर्फ
मंदिर के
द्वार तक ले
जाता है। जैसे
मंदिर के बाहर
जूते छोड़ देने
पड़ते हैं, ऐसे
उस बीज-शब्द को
भी बाहर ही
छोड़ देना पड़ता
है। मंदिर में
प्रवेश करते
वक्त वह साथ
नहीं जाता।
उतनी दुविधा
भी साथ नहीं
ले जाई जा
सकती। उतना
शोरगुल भी बाधा
है। सब शब्द
तो बाधा हैं, बीज-शब्द भी
अंततः बाधा
है।
इसीलिए
वे जो
बीज-शब्द की
बात किए हैं, वे भी कहे
हैं कि वह
क्षण आएगा जब
बीज-शब्द भी
खो जाएगा, तब
तुम समझना ठीक
हुआ। नाम जपना,
लेकिन फिर
अजपा नाम पर
पहुंच जाना।
जप से शुरू
करना और अजपा
पर पहुंच
जाना। एक घड़ी
आएगी, जप
छूटे और अजप
में कूद जाना।
यह सारा मामला
वही है--या
पहले छोड़ो,
या आखिरी छोड़ो।
कहीं छोड़ देना
पड़ेगा। जो
पहले छोड़ने की
हिम्मत रखते
हैं, वे
पहले छोड़ दें।
जो नहीं छोड़ने
की हिम्मत रखते
हैं, बाकी
शब्द छोड़ें, एक पकड़ लें।
और उसको अंत
में छोड़ दें।
मैं
छलांग का
आग्रह करता
हूं, इसलिए
साधना में
जहां तक बने
बीज-शब्द से
बचने की बात
करता हूं। उसे
पीछे छुड़वाना
पड़ेगा।
रामकृष्ण के साथ
ऐसा हुआ, उससे
समझ में आ
जाएगा।
रामकृष्ण
ने मां का
स्मरण करके ही, परमात्मा को
मां स्वरूप
मानकर ही
साधना की। फिर
ऐसा हो गया कि
वह उस जगह
पहुंच गए जहां
मंजिल की
आखिरी सीढ़ी आ
गई। मां के
साथ पहुंच गए।
लेकिन उस सीढ़ी
के बाद तो
अकेले ही
प्रवेश हो सकता
है। मां को भी
साथ नहीं लिया
जा सकता। वह
तो प्रतीक था,
वह तो शब्द
था, वह तो
रूप था, वह
तो लहर थी, अब
सागर में
प्रवेश करने
के पहले उसे
छोड़ देना
जरूरी था।
रामकृष्ण बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए। रामकृष्ण
की जिंदगी में
सबसे बड़ी
मुश्किल उस दिन
आती है जिस
दिन मां को
छोड़ने का सवाल
उठता है। अब
जिसको इतने
प्रेम से
संवारा हो, और जिसको
इतने आंसुओं
से सींचा
हो, और
इतना
नाच-नाचकर
जिसको रमाया
हो, और
पुकार-पुकार
कर जिसको
बसाया हो, और
श्वास-श्वास
और हृदय की
धड़कन-धड़कन में
जिसको लेकर
जिआ गया हो, अब आखिरी
क्षण सवाल
उठता है कि
इसे छोड़ दो।
तोतापुरी
के नाम के एक अद्वैतवादी
साधक के पास
वह सीखते हैं
इसका छोड़ना। तोतापुरी
उनसे कहता है
कि इस मां को छोड़ो। तोतापुरी
के लिए प्रतीक
का कोई मतलब
नहीं है। वह
कहता है, छोड़ो इस मां को।
इससे नहीं
चलेगा। अकेले
ही जा सकते
हो। रामकृष्ण
आंख बंद करते
हैं, फिर
आंख खोल लेते
हैं कि नहीं, यह नहीं हो
सकता। मैं
कैसे छोड़ सकता
हूं। मैं अपने
को छोड़ सकता
हूं, मां
को नहीं छोड़
सकता। तोतापुरी
कहते हैं, फिर
कोशिश करो, क्योंकि अगर
तुम अपने को
छोड़ दोगे तो
मंदिर के बाहर
रह जाओगे, मां
मंदिर के भीतर
चली जाएगी, उससे
तुम्हें क्या
होगा? उससे
कोई मतलब नहीं
है। तुम्हें
जाना है सत्य के
सागर में, तो
छोड़ो, यह
द्वैत नहीं
चलेगा, यह
दो नहीं
चलेंगे, यह
प्रेम की गली
बहुत संकरी है,
यह सत्य की
गली बहुत
संकरी है, यहां
आखिर में एक
ही बच जाता
है। छोड़ो।
नहीं
रामकृष्ण छोड़
पाते हैं, तीन
दिन तक तोतापुरी
मेहनत करते
हैं। फिर तोतापुरी
कहते हैं, तो
मैं जाऊं। तो
रामकृष्ण
कहते हैं, एक
बार और मेरे
साथ मेहनत कर
लो, क्योंकि
तड़फता तो
हूं उसके लिए
जो अनजाना रह
गया है, लेकिन
प्रतीक
जिन्हें बहुत
प्रेम किया, बड़े जोर से
भीतर बंध गए
हैं।
तो तोतापुरी
एक कांच का
टुकड़ा लेकर
आता है।
रामकृष्ण आंख बंद
करके बैठते
हैं, तोतापुरी कहता है कि
मैं तुम्हारे
माथे पर आज्ञाचक्र
जहां है, वहां
कांच से काट
दूंगा
तुम्हारी
चमड़ी को, जब
खून बहने लगे
और कटाई
तुम्हें कांच
की मालूम पड़ने
लगे, तब
तुम भीतर एक
तलवार उठाकर
मां को दो
टुकड़े कर
देना।
रामकृष्ण
कहते हैं, मां
को, और दो
टुकड़े, और
तलवार! क्या
कहते हैं आप!
अपने को कर
सकता हूं, मां
पर कैसे तलवार
उठाऊंगा? और
फिर वहां
तलवार लाऊंगा
कहां से? तो
वह तोतापुरी
कहता है, पागल
हो तुम, जो
मां नहीं थी
उसको तुम ले
आए, तो जो
तलवार नहीं है
उसको भी ले
आओ। जब इतना
बड़ा झूठ तुमने
सत्य कर लिया,
जो नहीं है
कहीं भी उसको
भी तुमने
साकार कर लिया,
तो अब एक
तलवार और
साकार कर लो, इसमें क्या
देर लगेगी!
तुम कुशल हो, तलवार भी आ
जाएगी। झूठी
तलवार काम
करेगी।
रामकृष्ण
आंख बंद करके
बैठते हैं, चूंकि तोतापुरी
ने कहा है कि
आज वह चला
जाएगा, वह
इस तरह बचकाने
खेल में नहीं
पड़ सकता। वह
पहले ही छलांग
लगा लेने वाले
लोगों में से
है। रामकृष्ण
आखिरी सीढ़ी पर
दिक्कत में
पड़े हैं। वह
कहता है, कहां
की बचकानी
बातें करते हो,
छोड़ो। शर्म नहीं
आती! फिर वह
कांच उठाकर
रामकृष्ण के
माथे को काट
देता है। इधर
वह माथे को
काटता है, उधर
रामकृष्ण
हिम्मत
जुटाकर तलवार
से दो टुकड़े
मां के कर
देते हैं।
मूर्ति गिर
जाती है, रामकृष्ण
परम समाधि में
खो जाते हैं, उठकर, वापस
लौटकर वे कहते
हैं, आखिरी
बाधा गिर गई,
"द लास्ट
बैरियर'।
तो वे
जो शब्द हैं, वे जो मंत्र
हैं, वे जो
बीज हैं, वे
सबके सब
"लास्ट
बैरियर' बनेंगे।
उनसे जो चलेगा,
एक दिन
तलवार उठाकर
उनको तोड़ना भी
पड़ेगा। फिर बड़ा
कष्ट पड़ता है।
इसलिए मैं
जहां तक कोशिश
करता हूं, उनको
जगह न बने, अन्यथा
पीछे मुझे और
एक झंझट होगी।
वह बात पहले
ही निबटा लेनी
अच्छी।
और दूसरा
सवाल पूछा है
कि कृष्ण कहते
हैं कि ओम्
रूप में मुझे
देखकर, जानकर,
जीकर, पहचानकर अंत क्षण
में तू मुझको
उपलब्ध हो
जाएगा। तो यह
ओम् शब्द है
या नहीं?
यह ओम्
बड़ा अदभुत
शब्द है। यह
असाधारण शब्द
है। असाधारण
इसलिए कि
अर्थहीन शब्द
है। सब शब्दों
में अर्थ होते
हैं, इस शब्द
में कोई अर्थ
नहीं है।
इसलिए ओम् का
हम दुनिया की
किसी भाषा में
अनुवाद नहीं
कर सकते हैं।
कोई उपाय नहीं
है। अर्थ हो
तो अनुवाद हो
सकता है, क्योंकि
उसके अर्थ का
दूसरा शब्द
दुनिया की किसी
भाषा में मिल
जाएगा। लेकिन
ओम् का अनुवाद
नहीं कर सकते,
क्योंकि यह अर्थहीन
है, वह
"मीनिंगलेस' है। सब
शब्दों में "मीनिंग' होते हैं, इसमें कोई "मीनिंग' नहीं है, इसमें
कोई अर्थ नहीं
है।
यह
शब्द
जिन्होंने
बनाया, यह
उन्होंने
शब्द और
निःशब्द के
बीच में एक कड़ी
खोजी। शब्द है
अर्थपूर्ण, निःशब्द न
अर्थ है, न
अनर्थ है, पार
है। इस दोनों
के बीच में एक
"ब्रिज' बनाया
ओम् का। यह
भाषा की, शब्द
की ध्वनियों
की--तीन मूल
ध्वनियां हैं,
अ, उ, म--उन
तीनों को जोड़कर
बना लिया।
समस्त
शब्द-ध्वनियां
अ, उ, म
का विस्तार
हैं। ए, यू,
एक का
विस्तार हैं।
इन तीनों को जोड़कर इस
ओम् को बना
लिया। इसलिए
फिर इस ओम् को
शब्द की तरह
लिखा भी नहीं,
इसको "पिक्चोरियल'
बना लिया।
इसका चित्र
बना दिया
जिसमें कि यह
भी खयाल में न
रहे कि यह कोई
शब्द है। यह
एक चित्र है।
और वहां खड़ा
है जहां शब्द
समाप्त होते हैं
और निःशब्द
शुरू होते
हैं। यह
सीमांत का पत्थर
है। यह उस जगह
खड़ा है ओम्, जहां से आगे
फिर शब्द नहीं
है। जिसके इस
तरफ शब्द हैं।
यह बीच की कड़ी
है। इसलिए
कृष्ण कहते हैं
कि अगर तू
मुझे ओम् रूप,
ओम् रूप का
मतलब
है--अर्थहीन, शब्दातीत, भाषाकोष में नहीं
मिलता है जो, ऐसे शब्द
में मुझे सोच
सके अंत क्षण
में, तो तू
मुझे उपलब्ध
हो जाएगा। क्योंकि
यह सीमांत का
शब्द है। अंत
समय अगर, इस
सीमांत पर कोई
पहुंच सके, तो छलांग हो
जाएगी।
इस ओम्
शब्द में भारत
के मन ने बहुत
कुछ भरा है।
इसे बड़ा
विस्तीर्ण
अर्थ दिया है।
इतना विस्तीर्ण
अर्थ दिया है
कि अब इसमें
कोई अर्थ नहीं
है। इतना
फैलाया है, इतना फैलाया
है कि उसमें
कोई सीमा नहीं
रही। लेकिन, ओम् के पाठ
का सवाल नहीं
है, ओम् के
अनुभव का सवाल
है। और अगर
ध्यान में आप उतरेंगे,
तो जब सब
शब्द खो
जाएंगे, तब
आपके भीतर ओम्
की ध्वनि होने
लगेगी। यह आपको
करनी नहीं
पड़ेगी। अगर
करनी पड़ी तो
धोखा हो सकता
है, कि वह
आप ही कर रहे हों।
इसलिए
मैंने भी
ध्यान में ओम्
की जगह नहीं
बनाई है। अगर
हम अपनी तरफ
से ओम् की
ध्वनि करें, तो हो सकता
है वह
शब्द-ध्वनि ही
होगी। एक ओम्
की ध्वनि वह
भी है, जब
हमारे सब शब्द
खो जाते हैं
तो वह शेष रह
जाती है। उसको
कहना चाहिए वह
"कॉज्मिक
साइलेंस'
की ध्वनि
है। जब सब शेष
रह जाता है, सब मिट जाता
है, सब
शब्द, सब
बुद्धि, सब
विचार, तब
एक ध्वनि का
स्पंदन रह
जाता है, जिसको
इस देश में
ओम् की तरह
व्याख्या
किया गया है।
उसकी
व्याख्या और
भी हो सकती
है। वह हमारी
व्याख्या है।
कभी आप
रेलगाड़ी में
बैठकर अगर
चाहें, तो
चक्के की आवाज
की बहुत तरह
की व्याख्या
कर सकते हैं।
यह चक्का जब
आवाज करता है,
तो वह कुछ
आपके लिए आवाज
नहीं करता, न आपके लिए
कुछ करता है, लेकिन आप जो
चाहें आप
उसमें खोज
सकते हैं। वह आपकी
खोज होगी। जब
विराट शून्य
उत्पन्न होता है,
तो विराट
शून्य की अपनी
ध्वनि है, अपना
संगीत है।
"साउंड आफ कॉज्म?िक साइलेंस'। जब सब
शून्य हो जाता
है, तब
उसकी अपनी
ध्वनि है। उस
ध्वनि का नाम
अनाहत है। वह
किसी कारण से
पैदा नहीं
होती।
हम
ताली बजाते
हैं तो यह आहत
नाद है। दो
चीजों की
टक्कर से पैदा
होता है। आहत
नाद का अर्थ
है, दो चीजों
की टक्कर से पैदा
हो। ढोल पीटते
हैं, आहत
नाद है। बोलते
हैं तो ओंठ और
जीभ का आहत नाद
है। जब सब बंद
हो जाता है, जहां दो ही
नहीं रह जाते,
एक ही रह
जाता है, तब
अनाहत नाद
होता है। बिना
किसी चोट के, बिना किसी
चोट के, बिना
दो के टकराए
ध्वनि होती है;
वह जो ध्वनि
है अनाहत, उसे
इस देश के
मनीषियों ने
ओम् की तरह
व्याख्या की
है। दूसरे देश
के मनीषियों
ने भी उसकी
व्याख्या की
है, तो वह
करीब-करीब ओम्
के है। जैसे
क्रिश्चियन "अमीन'
कहते हैं।
वह ओमीन
की व्याख्या
है, वह ओम्
की व्याख्या
है। मुसलमान
भी "अमीन' कहते
हैं। उपनिषद
लिखा जाएगा तो
सब लिखने के
बाद आखिर में
ऋषि लिखेगा:
ओम् शांतिः
शांतिः
शांतिः।
मुसलमान आयत
पड़ेगा, शास्त्र
लिखेगा, तो
आखिर में सब
लिखने के बाद
लिखेगा: अमीन,
अमीन, अमीन।
उससे पूछो
अमीन का क्या
अर्थ है? अमीन
अर्थहीन है।
वह उसी "कॉज्म?िक' ध्वनि
की व्याख्या
है उसकी, ओम्
की व्याख्या
है।
क्रिश्चियन
भी अमीन का
उपयोग करता है।
अंग्रेजी
में कुछ शब्द
हैं: "ओमनीसियेंट', "ओमनीप्रेजेंट',
ओमनीपोटेंट'। ये बड़े
अजीब शब्द
हैं। इनका
अंग्रेजी
भाषाशास्त्र
के पास
व्युत्पत्ति
का सूत्र नहीं
है। ये सब ओम्
से बने शब्द
हैं। "ओमनीसियेंट'
का मतलब है,
जिसने ओम्
को देखा। यह
बहुत मुश्किल
मामला है। इसलिए
अंग्रेजी
भाषाशास्त्री
बड़ी कठिनाई
में पड़ता है
कि इसका मतलब
क्या है, इस
"ओमनीसियेंट'
का मतलब
क्या है? "वन हू हेज़
सीन द ओम्।
जिसने ओम् को
देखा, वह "ओमनीसियेंट'
है।
"ओमनीप्रेजेंट'
का क्या
मतलब है? जो
ओम् में उपस्थित
हो गया। "ओमनीपोटेंट'
का क्या
मतलब है? कि
जिसको उतनी ही
ऊर्जा मिल गई
जितनी ओम् की
है, जो
उतना ही
शक्तिशाली हो
गया जितना ओम्
है।
यह ओम्
की व्याख्या
बहुत-बहुत
रूपों में पकड़ी
गई। लेकिन, दुनिया के
दो बड़े धर्मस्रोतों
ने...यह बड़े मजे
की बात है, जैन
हिंदुओं का
कुछ स्वीकार न
करेंगे, लेकिन
ओम् को इनकार
न करेंगे। अगर
जैन, बौद्ध,
हिंदुओं के
बीच कोई एक
शब्द है जो
समान है, तो
वह ओम् है।
अगर हिंदू, बौद्ध, जैन,
ईसाई, मुसलमान,
सबके बीच
कोई एक शब्द
समान है, तो
वह ओम् है।
हां, उनकी
व्याख्या "ओमीन' की
है, "अमीन'
की है, ये
उसे ओम् कहते
हैं। वह हमारा
गाड़ी के चाक
में सुना गया
फर्क है।
पक्का नहीं
कहा जा सकता कि
वह "अमीन' है
या "ओम्' है।
इसमें पक्का
नहीं हुआ जा
सकता, वह
"अमीन' भी
हो सकता है, वह "ओम्' भी
हो सकता है।
लेकिन एक बात
पक्की है कि
अमीन में भी
और ओम् में भी
एक ही ध्वनि
की व्याख्या
की गई है। वह
ध्वनि अंतिम
है। जब हम सब
शब्दों के पार
पहुंचते हैं
तो एक ध्वनि
शेष रह जाती
है, जो कॉज्म?िक
साउंड' है।
झेन
फकीर कहते हैं
अपने साधक को
कि तुम उस जगह जाओ
और ऐसी बात
खोजकर लाओ
जहां एक हाथ
की ताली बजती
है। अब एक हाथ
की ताली! यह
झेन फकीरों
का अपना ढंग
है अनाहत को
कहने का।
उन्हें अनाहत
का कोई पता
नहीं है इस
शब्द का। वे
कहते हैं वह
जगह खोजो, वह स्थान
खोजो, जहां
एक हाथ की
ताली बजती है।
जहां एक हाथ
की ताली बजेगी,
वहां ओम् रह
जाएगा। जहां
तक दो हाथ की
ताली बजेगी, वहां तक
शब्द होंगे, ध्वनियां
होंगी।
मैंने
क्यों जानकर
ध्यान में ओम्
को बिलकुल जगह
नहीं दी है? जानकर नहीं
दी है।
क्योंकि अगर
आपने उच्चारण किया
ओम् का, तो
वह आपके
द्वारा पैदा
की हुई ध्वनि
होगी। वह आहत
नाद होगा। मैं
प्रतीक्षा
करता हूं उस
ओम् की जब आप
बिलकुल खो
जाएंगे और ओम्
प्रगट होगा, और आपके
भीतर से आएगा।
वह हुंकार
होगी, वह
अनाहत होगा।
वह "कॉज्म?िक
साउंड' होगी।
उस दिन, जैसा
कृष्ण कहते
हैं, ठीक
कहते हैं कि
अगर ओम् को
तुमने समझा और
जाना और जिआ
तो आखिरी क्षण
में तुम मुझे
उपलब्ध हो
जाओगे। वह ठीक
कहते हैं।
लेकिन वह आपके
द्वारा कहा
गया ओम् नहीं
है। मरते वक्त
आप अपने ओंठ
से ओम्-ओम्
कहते रहें, तो बेकार
मेहनत
करेंगे।
शांति से मर
सकते थे और
अशांति से
मरना हो
जाएगा।
ओम्
आना चाहिए, प्रगट होना
चाहिए, विस्फोट
होना चाहिए।
वैसा होता है।
अब हम
ध्यान के लिए
बैठे। देखें, उस ओम् की
तरफ यात्रा
करें।
बातचीत
न करें, दूर-दूर
बैठ जाएं... ...
...बातचीत न
करें, दूर-दूर
बैठ जाएं।
थोड़ा फासला
करके बैठें।...
... ...(जो लोग
देखने खड़े हैं
वे बाहर आ
जाएं, सड़क
पर खड़े हों, यहां
"कंपाउंड' में
खड़े न हों। आप
लोग बाहर
जाएं।)... ... ...
थोड़े
फासले पर बैठें, ताकि कोई
गिर जाए, लेट
जाए, तो
आपके ऊपर न पड़
जाए...काफी
पीछे जगह पड़ी
है, कंजूसी
न करें। थोड़े
दूर-दूर हट
जाएं। फिर कोई
गिर जाएगा
उतने ही में
बाधा हो जाती
है--और कई लोग
गिर
जाएंगे--इसलिए
हट जाएं। और
ऐसा मत सोचें
कि दूसरा
हटेगा, दूसरा
कभी हटता ही
नहीं। हटना हो
तो आप ही हट जाएं।
(जो
मित्र देखने
खड़े हैं, उनसे
प्रार्थना है
कि वे बिलकुल
चुपचाप खड़े होकर
देखेंगे, बात
न करेंगे, ताकि
हमें बाधा न
हो।)
दोत्तीन
बात समझ लें।
बैठकर प्रयोग
करना है, उसी
तरह परिणाम
होंगे। दस
मिनट तो हम
गहरी श्वास
लेते रहेंगे।
दस मिनट के
बाद बैठे-बैठे
ही शरीर डोलने
लगेगा, उसे
डुलाना
है--डोलने
देना है। आवाज
निकलने लगेगी,
रोना
निकलने लगेगा,
उसे निकलने
देना है। फिर
दस मिनट
पीछे--"मैं कौन
हूं', प्रक्रिया
वैसी ही रहेगी,
सिर्फ आपको
बैठकर करना है,
बस इतना
फर्क होगा। इस
बीच कोई गिर
जाएगा तो उसे
चिंता नहीं
लेनी, गिर
जाना है।
("कंपाउंड'
में कोई भी
आंख खोले हुए
नहीं होगा।)
दोनों
हाथ जोड़ लें, संकल्प कर
लें--
"प्रभु
को साक्षी
रखकर मैं
संकल्प करता
हूं कि ध्यान
में अपनी पूरी
शक्ति
लगाऊंगा।'
"प्रभु
को साक्षी
रखकर संकल्प
करता हूं कि
ध्यान में
अपनी पूरी
शक्ति
लगाऊंगा।'
"प्रभु
को साक्षी
रखकर संकल्प
करता हूं कि
ध्यान में अपनी
पूरी शक्ति
लगाऊंगा।'
आप
अपने संकल्प
का स्मरण रखना, प्रभु आपके
संकल्प का
स्मरण रखता ही
है।
अब दस
मिनट के लिए
बैठे-बैठे ही
तीव्र श्वास लें।
इसमें बहुत
जोर से शक्ति
उठेगी, खड़े
होने से भी
ज्यादा जोर से
उठेगी।... ... ...
...शक्ति
उठेगी ही, श्वास
की चोट करें।
...शरीर के भीतर
विद्युत दौड़ने
लगेगी ...शरीर
के भीतर "इलेक्ट्रीसिटी'
पैदा होने
लगेगी... ...जोर से
सांस लें...
शरीर कंपने
लगे, कंपने
दें; डोलने
लगे, डोलने
दें; हिलने
लगे, हिलने
दें।... ... ...
शक्ति
जाग रही है
उसे जागने दें, जोर से
श्वास लें, शक्ति को
जागने दें।... ...
... ...बहुत ठीक, बहुत ठीक, अपना-अपना
खयाल कर लें, कोई पीछे न
रह जाए... शक्ति
जाग रही है, उसे जागने
दें... शरीर जो
करता हो
बैठे-बैठे करने
दें... ... ...गहरी
श्वास, गहरी
श्वास, गहरी
श्वास, गहरी
श्वास... शक्ति
जाग रही, सहयोग
करें, गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास लें... ...
गहरी
श्वास...बहुत
ठीक, बहुत
ठीक...अधिक
मित्रों की
शक्ति जाग रही
है, उसे
पूरा खुला छोड़
दें...गहरी
श्वास लें, चोट करें, आनंद से भर
जाएं, आनंद
से भर जाएं, गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास लें, आनंद से भर
जाएं, गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
लें।... ...
शरीर "इलेक्ट्रिफाइड' हो गया है, उसे होने
दें, आप
गहरी श्वास
लें, आनंद
से, आनंद
से, परिपूर्ण
आनंद से भर कर
गहरी श्वास
लें।... ...
जोर से, जोर से, आनंद
से, आनंद
से, पूरे
आनंद से गहरी
श्वास लें; पीछे न रह
जाएं, पूरी
शक्ति लगाएं,
फिर हम
दूसरे चरण में
प्रवेश
करेंगे, चार
मिनट बचे हैं,
पूरी ताकत
लगाएं।... ...
बहुत
ठीक, बहुत ठीक,
ठीक गति आ
रही है, आने
दें, आने
दें, आने
दें। कभी-कभी
जरा-से में
चूक जाते
हैं...ताकत, ताकत
पूरी लगा दें,
आनंद भाव से
पूरी ताकत लगा
दें।... ...
तीन
मिनट बचे
हैं...बढ़ें, बढ़ें, बढ़ें,
जोर से, भीतर
यात्रा करें,
गहरी
श्वास। शक्ति
जागने लगेगी,
शरीर अपना
नहीं मालूम
पड़ेगा, डोलने
लगेगा, बैठे-बैठे
नाचने लगेगा,
डोलने
लगेगा, कांपने
लगेगा।
कांपने दें, बैठे-बैठे
नाचने दें, आप गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
लें...बहुत ठीक,
डोलें,
डोलें,
कंपें...गहरी श्वास
लें।... ...
बहुत
ठीक, बहुत गति
ठीक आ रही है, आनंद से, आनंद
से। दो मिनट
बचे हैं, गहरी
श्वास, गहरी
श्वास, गहरी
श्वास, गहरी
श्वास।...जब
मैं कहूं एक, दो, तीन, तो पूरी
ताकत लगा
दें।...गहरी
श्वास, गहरी
श्वास, आनंद
से भर जाएं, डोलने दें
शरीर को, डोलने
दें, बैठे-बैठे
नाचने दें, कांपने
दें।... ...
एक, देखें कोई
पीछे न रह
जाए।
दो...तीन...पूरी
ताकत लगा लें,
फिर हम
दूसरे चरण में
प्रवेश
करेंगे।
शक्ति जाग गई
है, पूरी
ताकत लगा दें,
जो पूरी
ताकत लगाएगा
वह दूसरे में
शीघ्रता से
गति कर जाएगा।
बहुत ठीक, बहुत
ठीक, बहुत
ठीक, जोर
से, जोर से,
जोर से।... ...
अब
दूसरे चरण में
प्रवेश करें, शरीर को जो
करना है, करने
दें।
चिल्लाना है
चिल्लाने दें,
रोना है
रोने दें, डोलना
है डोलने दें,
हंसना है
हंसने दें, आनंद से भर
जाएं और शरीर
जो कर रहा है
उसका सहयोग
करें। हंसें,
चिल्लाएं, रोएं, डोलें।... ...
जोर से
रोएं, हंसें, चिल्लाएं, आनंदित हों।
शक्ति जाग गई
है, दिल
खोल कर हंसें।...
...
जोर से
आनंद से भर
जाएं, जोर
से आनंद से भर
जाएं, हंसें,
चिल्लाएं, जोर से
चिल्लाएं, शरीर
को जो हो रहा
है होने दें।... ...
सहयोग
करें, आनंद
से भर जाएं, डोलें, बैठे-बैठे नाचें, कांपें,
चिल्लाएं, हंसें, रोएं। संभालें
नहीं, जोर
से करें, संभालें नहीं।... ...
बहुत
ठीक, बहुत ठीक,
जोर से, जोर
से, जोर
से।... ...
दिल
खोल कर आनंद
से भर जाएं, हंसें, दिल खोल कर हंसें।
जोर से, जोर
से, पांच
मिनट बचे हैं,
पूरी ताकत
लगाएं। दिल
खोल कर
चिल्लाएं, पूरी
घाटी गूंज
जाए।... ...
चार
मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति
लगाएं, हंसें,
खिलखिलाएं,
रोएं, चिल्लाएं, आनंद से भर
जाएं, शरीर
जो कर रहा है
करने
दें।...जोर से, जोर से, चार
मिनट बचे हैं,
पूरी ताकत
लगा दें, शरीर
को कंपने दें,
डोलने दें,
नाचने दें,
जो हो रहा
है होने दें।... ...
तीन
मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति
लगाएं, फिर
हम दूसरे चरण
में प्रवेश
करें।... ...
दो
मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति
लगाएं, फिर
हम तीसरे चरण
में प्रवेश
करें। जोर से,
पूरी घाटी
गूंजने लगे।
चिल्लाएं, चिल्लाएं,
आनंद से
चिल्लाएं।
आनंद से
चिल्लाएं, हंसें, आनंद से
चिल्लाएं।... ...
मैं एक, दो, तीन
कहूं तब पूरी
शक्ति लगाएं।
एक, पूरी
शक्ति लगा
दें। दो, पूरी
शक्ति लगा दें,
अपने को
पूरा खाली कर
लें। तीन, पूरी
शक्ति लगा
दें।...चिल्लाएं,
हंसें,
जोर से, एक
दफा पूरी ताकत
लगा दें।...
अब
तीसरे चरण में
प्रवेश कर
जाएं। भीतर
पूछें, मैं
कौन हूं? डोलते
रहें, कांपते
रहें, पूछते
रहें, मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? भीतर
पूछें, मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? डोलते
रहें, डोलते
रहें, कांपते
रहें, नाचते
रहें, पूछें,
मैं कौन हूं?
कोई फिकर
नहीं आवाज
बाहर निकल जाए,
पूछें जोर
से, मैं
कौन हूं?...
नाचते
रहें, नाचते
रहें, पूछें,
मैं कौन हूं?
आनंद से
पूछें, मैं
कौन हूं? पूरे
आनंद से पूछें,
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
दस मिनट में
मन को बिलकुल
थका डालना है।
जोर से पूछना
हो जोर से
पूछें, मैं
कौन हूं?... ...
मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूछें,
पूछें, धीमे
नहीं, शक्ति
से पूछें, मैं
कौन हूं? आनंद
से पूछें, मैं
कौन हूं?...डोलें, नाचें, कांपें, जोर से
पूछें, मैं
कौन हूं?... ...
पूछें, पूछें, बाहर
भी आवाज निकले
फिकर न करें।
पूछें, मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?...थका
डालना है।
पूछें, मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?...मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूछें,
पूछें, डोलें, नाचें, कंपें; पूछें,
मैं कौन हूं?
थका डालना
है मन को, बिलकुल
थका डालना है।
पूछें, मैं
कौन हूं?...
जोर से, जोर से, ताकत
लगाएं, पूछें
परमात्मा से,
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?...
मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पांच
मिनट बचे हैं,
पूरी ताकत
लगाएं, फिर
हम आखिरी चरण
में प्रवेश
करेंगे। थका
डालें, बिलकुल
थका डालें, चिल्लाएं
जोर से, मैं
कौन हूं? चिल्लाएं,
चिल्लाएं
जोर से, मैं
कौन हूं? चिल्लाएं,
चिल्लाएं
जोर से, मैं
कौन हूं?... ...
चार
मिनट बचे हैं, पूछें, पूछें,
पूछें, पीछे
न रह
जाएं--बहुत
ठीक, पूछें
मैं कौन हूं? चिल्लाएं
जोर से, पूछें,
मैं कौन हूं?...
...
बहुत
ठीक, बहुत ठीक,
तीन मिनट
बचे हैं, पूरी
ताकत लगाएं, आनंद से पूछें,
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
पूरी तरह
कूद जाएं, पूछें,
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?...
...
दो
मिनट बचे हैं, अब पूरी
ताकत लगा दें।
पूछें जोर से,
मैं कौन हूं?...
...
मैं
कौन हूं? एक,
पूरी ताकत
लगाएं। दो, मैं कौन हूं?
पूरी ताकत
लगाएं। तीन, पूरी ताकत
लगाएं, मैं
कौन हूं? जोर
से पूछें, कुछ
सेकेंड के लिए
पूरी ताकत लगा
दें। बिलकुल पागल
हो जाएं। जोर
से पूछें, मैं
कौन हूं? जोर
से, कुछ
सेकेंड के लिए
पूरी ताकत लगा
दें। चीखें, जोर से
चिल्लाएं, मैं
कौन हूं?...जोर
से, जोर से,
जोर से।... ...
बस अब
आखिरी चरण में
प्रवेश कर
जाएं, शांत
हो जाएं, अब
सब छोड़ दें।
पूछना छोड़ दें,
पूछना छोड़
दें। कंपना
छोड़ दें, गहरी
श्वास लेना
छोड़ दें। जो
जहां है वैसा
ही रह जाए।
कोई गिर गया
गिरा हुआ, कोई
बैठा है बैठा
हुआ, जो
जैसा है वैसा
ही रह जाए। दस
मिनट के लिए
परिपूर्ण मौन
में प्रवेश कर
जाएं। जैसे
बूंद सागर में
खो जाए ऐसे खो
जाएं। सब
शून्य हो गया,
सब मौन हो
गया। जैसे हम
मर ही गए।
दस
मिनट के लिए
बिलकुल खो
जाएं, न हो
जाएं। इस न
होने में ही
उसका पता चलता
है जो है।
चारों तरफ वही
है, काश हम
शून्य हो जाएं
तो वह हमारे
भीतर प्रवेश
कर जाता है।
जैसे मिट ही
गए, जैसे
समाप्त हो गए।
परमात्मा ही
शेष रह गया है,
हम समाप्त
हो गए।... ...
प्रकाश
ही प्रकाश शेष
रह गया है, हम समाप्त
हो गए हैं।
आनंद ही आनंद
शेष रह गया है,
हम समाप्त
हो गए हैं।
देखें भीतर
प्रकाश ही प्रकाश
अनंत प्रकाश
है, देखें
भीतर आनंद की
वर्षा हो रही
है। रोएं-रोएं
में, पुलक-पुलक
में आनंद भर
गया है।
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
है। परमात्मा
के अतिरिक्त
और कोई भी
नहीं है, वही
है चारों ओर, वही है बाहर,
वही है
भीतर। पहचानें,
स्मरण करें,
पहचानें,
स्मरण
करें।... ...
स्मरण
करें, स्मरण
करें, वही
है बाहर, वही
है भीतर, वह
दीवाल गिर गई
जो बाहर और
भीतर को अलग
करती थी। सब
एक हो गया, बूंद
सागर में खो
गई।...बूंद
सागर में गिर
गई, खो गई, समाप्त हो
गई। परमात्मा
ही शेष रह
गया। परमात्मा
ही शेष रह गया,
परमात्मा
ही शेष रह
गया। वही है
बाहर, वही
है भीतर, वही
है सब ओर, पहचानें, स्मरण करें,
पहचानें।...
वही है, वही है, वही
है, स्मरण
करें। बीच की
दीवाल गिर गई,
उससे हम एक
हो गए, वह
हमसे एक हो
गया है। आनंद
ही आनंद, अमृत
ही अमृत, प्रकाश
ही प्रकाश
है।... ...
डूब
जाएं, डूब
जाएं, खो
जाएं, खो
जाएं, स्मरण
करें वही है, अपने को छोड़
दें, मिट
जाएं। आनंद ही
आनंद, प्रकाश
ही प्रकाश, परमात्मा ही
परमात्मा शेष
रह जाता है।
प्रकाश ही
प्रकाश शेष रह
गया। आनंद
रोएं-रोएं में
भर गया। पहचानें,
स्मरण करें,
स्मरण
करें।... ...
स्मरण
करें, स्मरण
करें, स्मरण
करें, पहचानें।...यही है वह
क्षण, जब
दर्शन हो सकता
है। यही है वह
क्षण, जब
मिलन हो सकता
है। यही है वह
क्षण, जब
उसके मंदिर
में प्रवेश हो
सकता है।
द्वार पर खड़े
हैं, पहचानें,
प्रकाश ही
प्रकाश, आनंद
ही आनंद, शांति
ही शांति रह
गई है।
परमात्मा ही
है, चारों
ओर वही है, वृक्षों
में, आकाश
में, हवाओं
में, बाहर-भीतर,
उसके
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
है। स्मरण
करें, स्मरण
करें।... ...
अब
दोनों हाथ जोड़
लें और उसे
धन्यवाद दे
दें, उसकी
अनुकंपा अपार
है। दोनों हाथ
जोड़ लें, सिर
झुका लें, उसे
धन्यवाद दे
दें, उसके
अज्ञात चरणों
में समर्पित
हो जाएं। दोनों
हाथ जोड़ लें, सिर झुका
लें, उसके
चरणों पर सिर
रख दें। उसकी
अनुकंपा अपार है।
उसकी अनुकंपा
अपार है। उसकी
अनुकंपा में नहा जाएं।
दोनों हाथ जोड़
लें, सिर
झुका लें, धन्यवाद
दे दें। प्रभु
की अनुकंपा
अपार है। प्रभु
की अनुकंपा
अपार है।
प्रभु की
अनुकंपा अपार
है।... ...
प्रभु की
अनुकंपा अपार
है। प्रभु की
अनुकंपा अपार
है। प्रभु की
अनुकंपा अपार
है।... ...
उसकी
अनुकंपा अपार
है। उसकी
अनुकंपा अपार
है। उसकी
अनुकंपा अपार
है। अब दोनों
हाथ छोड़ दें।
धीरे-धीरे आंख
खोल लें, ध्यान
से वापस लौट
आएं। जिनसे
आंख न खुले, वे दोनों
हाथ आंख पर रख
लें। जिनसे
उठते न बने, वे दो-चार
गहरी श्वास
लें और
धीरे-धीरे उठ
आएं।
ध्यान
से वापस लौट
आएं। दो-चार
गहरी श्वास ले
लें। उठते न
बने, दो-चार
गहरी श्वास
लें फिर
धीरे-धीरे उठ
आएं। आंख न
खुलती हो तो
दोनों हाथ आंख
पर रख लें और आंख
खोल लें।
ध्यान से वापस
लौट आएं।
हमारी
ध्यान की बैठक
पूरी हुई।
thank you guruji
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