योग—सूत्र:
(विभुतिपाद)
तद्वैराग्यादैपि
दोषबीणखूये
कैवस्युमू।। 51।।
इन
शक्तियों से
भी अनासक्त
होने से, बंधन का
बीज नष्ट हो
जाता है। तब
आता है कैवल्य,
मोक्ष।
स्थान्युपनिमन्त्रणे
सङ्गस्मयाकरणं
पुनरनिष्टप्रैसक्गात्।।
52।।
तब
विभिन्न तलों
की अधिष्ठाता, अधिभौतिक
सत्ताओं के
द्वारा भेजे
गए निमंत्रणों
के प्रति
आसक्ति या उन
पर गर्व से
बचना चाहिए, क्योंकि यह
अशुभ के
पुनर्जीवन की
संभावना लेकर
आएगा।
तद्वैराग्यादपि
दोषबीजक्षये
कैवल्यम्।
'इन
शक्तियों से
भी अनासक्त
होने से, बंधन
का बीज नष्ट
हो जाता है।
तब आता है
कैवल्य,
मोक्ष।
इस
संसार में ही
अनासक्त होना काफी
कठिन है लेकिन
जब
आध्यात्मिक
संसार अपने
द्वार खोलता
है तो अनासक्त
होना और भी
अधिक कठिन है।
दूसरी स्थिति
में कठिनाई
लाखों गुनी है, क्योंकि
सांसारिक
शक्तियां
वास्तविक
शक्तियां
नहीं हैं। वे
नपुंसक हैं और
वे तुम्हें
कभी संतुष्ट
नहीं करतीं, वे तुम्हें
कभी परितृप्त
नहीं करती।
वस्तुत: संसार
में की गई
प्रत्येक नई
उपलब्धि और
अधिक इच्छाएं
उत्पन्न करती
है। तुम्हें
संतुष्ट करने
के स्थान पर
यह तुम्हारे
मन को नये
अभियानों पर
भेजती है, इसलिए
संसार में तुम
कोई भी शक्ति
उपलब्ध कर लो,
तुम इसे नई
इच्छाएं
निर्मित करने
में ही प्रयोग
करते हो।
संसार
में तुम चाहे
जितना धन कमा
लो, तुम
इसका और अधिक
धन पाने के
लिए निवेश
करते हो। फिर
और धन आता है, तुम इसे और
धन के लिए
निवेश करते हो,
और इस भांति
यह चलता चला
जाता है। बस
साधन, साधन
और साधन और
साध्य कभी
निकट नहीं आता।
इसलिए एक मूढ़
व्यक्ति भी
कभी न कभी यह
जान लेता है
कि वह एक दुष्चक्र
में घूम रहा
है और इससे
बाहर आने का
कोई रास्ता
दृष्टिगोचर
नहीं होता—सिवाय
इसके कि इसे
छोड दिया जाए।
एक समझदार
व्यक्ति के
लिए—वह
व्यक्ति जो
जीवन के बारे
में सोच विचार
करता है, इस
पर चिंतन करता
है—यह बात
सुस्पष्ट है।
इसलिए
सांसारिक
चीजों में
अनासक्ति
इतनी कठिन
नहीं है, किंतु जब इन आंतरिक
शक्तियों, मानसिक
शक्तियों की
बात आती है, तो वे
तुम्हारे
अस्तित्व के
इतने निकट हैं,
इतनी अधिक
संतोषप्रद
हैं, कि
उनसे अनासक्त
रह पाना करीब—करीब
असंभव सा है।
लेकिन यदि तुम
अनसक्त नहीं
हो तो तुमने
पुन: एक संसार
निर्मित कर लिया
और तुम परम
मुक्ति से
बहुत ही दूर
बने रहोगे।
क्योंकि
जिस पर भी तुम
कब्जा करते हो, वही तुम
पर अधिकार कर
लेता है, अत:
त्याग
सम्पूर्ण, समग्र
रूप से
परिपूर्ण, होना
चाहिए।
तुम्हें
प्रत्येक वह
वस्तु जिस पर
भी तुम्हारा
स्वामित्व
संभव हो, अपने
निरावृत
स्वभाव के
अतिरिक्त, छोड़
देना पड़ेगी।
जिसका त्याग न
किया जा सके, केवल उसी को
शेष छोड़ा जा
सकता है।
जिसका बलिदान
किया जा सके
उसका बलिदान
कर देना चाहिए।
इस
सूत्र में
पतंजलि करीब———करीब
असंभव की मांग
कर रहे हैं, लेकिन
समझ के माध्यम
से यह भी संभव
हो जाता है।
आध्यात्मिक
शक्तियों से
संपन्न होना,
बहुत
संतोषप्रद और
महत्ता
प्रदान करने
वाला होता है,
यह अहंकार
को इतना
सूक्ष्म, इतना
शुद्ध आनंद
प्रदान करता
है कि तुम
इसमें कोई दंश
अनुभव न कर
पाओगे। यह
तुम्हें कभी
निराश नहीं
करता।
सांसारिक
वस्तुओं में
काफी कुछ
निराशा होती
है— वस्तुत:
निराशा के
अतिरिक्त और
कुछ होता भी नहीं।
लोग इसे देखने
से किस प्रकार
बच सकते हैं
यह भी एक
चमत्कार है।
लोग किस भांति
अपने आप को
धोखा देते रह
सकते हैं और
यह विश्वास
किए चले जाते
हैं कि अभी भी
कुछ आशा है, यह एक चमत्कार
है। बाहर का
संसार
निराशाजनक है,
यह
दुर्भाग्यपूर्ण
है।
तुम
चाहे जितना
बड़ा मकान बना
लो, या
राजनैतिक, आर्थिक,
सामाजिक
रूप से चाहे
जितने भी 'शक्तिशाली
हो जाओ, मृत्यु
तुमसे सभी कुछ
छीनने जा रही
है—इसे समझने
के लिए कोई
बहुत ज्यादा
बुद्धिमानी
की आवश्यकता
नहीं है—लेकिन
आंतरिक
शक्तियां, उन्हें
मृत्यु भी छीन
नहीं सकती। वे
मृत्यु के परे
हैं। और वे
कभी भी
तुम्हें
निराश नहीं
करतीं। वे
तुम्हारी
शक्तियां हैं,
तुम्हारी
साकार हुई
संभावनाएं
हैं। उन्हें
त्याग देने की
कोई आवश्यकता
प्रतीत नहीं
होती, उनको
छोड़ने की कोई
जरूरत नहीं है,
लेकिन
पतंजलि यह कह
रहे हैं कि
उनका भी त्याग
करना पड़ेगा।
अन्यथा तुम
दृश्यों के
संसार में—पुन
एक अहंकार के
खेल में जीना
आरंभ कर दोगे।
और धर्म कोई
अहंकार का खेल
नहीं है।
तुम
कोई अहंकार की
खोज में
संलग्न नहीं
हो, बल्कि
तुम तो समग्र
को उपलब्ध
करने का
प्रयास कर रहे
हो, और
समग्र तभी
संभव हो पाता
है जब अहंकार
के खेलों के
सारे प्रकार
छोड़ और त्याग
दिए जाएं, जब
तुम न बचो, बस
परमात्मा रहे।
मैं
तुम्हें एक
प्रसिद्ध
सूफी कहानी 'पवित्र
छाया' सुनाता
हूं।
एक बार
की बात— है, एक इतना
भला फकीर था
कि स्वर्ग से
देवदूत यह
देखने आते थे
कि किस प्रकार
sए एक
व्यक्ति इतना
देवतुल्य भी
हो सकता है।
यह फकीर अपने
दैनिक जीवन
में, बिना
इस बात ,को
जाने, सदगुणों
को इस प्रकार
से बिखेरता था
जैसे सितारे
प्रकाश और फूल
सुगंध फैलाते
हैं। उसके दिन
को दो शब्दों
में बताया जा
सकता था—बांटों
और क्षमा करो—फिर
भी ये शब्द
कभी उसके
होंठों पर
नहीं आए। वे
उसकी सहज
मुस्कान, उसकी
दयालुता, सहनशीलता
और सेवा से
अभिव्यक्त
होते थे।
देवदूतों नें
परमात्मा से
कहा : प्रभु, उसे चमत्कार
कर पाने की
भेंट दें।
परमात्मा
ने उत्तर दिया, उससे
पूछो वह क्या
चाहता है।
उन्होंने
फकीर से पूछा, क्या आप
चाहेंगे कि
आपके छूने
भरसे ही रोगी
स्वस्थ हो जाए।
नहीं, फकीर ने
उत्तर दिया, बल्कि मैं
तो चाहूंगा
परमात्मा ही
इसे करें।
क्या
आप दोषी
आत्माओं को
परिवर्तित
करना और राह
भटके दिलों को
सच्चे रास्ते
पर लाना पसंद
करेंगे?
नहीं, यह तो
देवदूतों का
कार्य है, यह
मेरा कार्य
नहीं कि किसी
को परिवर्तित
करूं।
क्या
आप धैर्य का
प्रतिरूप बन
कर लोगों को
अपने सदगुणों
के आलोक से
आकर्षित करते
हुए और इस प्रकार
परमात्मा का
महिमा मंडन
करना चाहेंगे?
नहीं, फकीर ने
कहा, यदि
लोग मेरी ओर
आकर्षित
होंगे तो वे
परमात्मा से
विमुख होने
लगेंगे। तब
आपकी क्या
अभिलाषा है? देवदूतों ने
पूछा।
मैं
किस बात की
अभिलाषा करूं? मुस्कुराते
हुए फकीर ने
पूछा, यह
कि परमात्मा
मुझे अपना
आशीष प्रदान
करे, क्या
इससे ही मुझको
सब कुछ नहीं
मिल जाएगा?
देवदूतों
ने कहा. आपको
चमत्कार
मांगना चाहिए
या किसी चमत्कार
की सामर्थ्य
आपको
बलपूर्वक दे
दी जाएगी।
बहुत
अच्छा, फकीर बोला, यह कि मैं
भलाई के महत्
कार्य उन्हें
जाने बिना कर
सकूं।
अब
देवदूत
परेशानी में
पड़ गए।
उन्होंने आपस
में विचार—विमर्श
किया और इस
योजना को
सुनिश्चित कर
दिया। फकीर की
छाया भले ही
उससे पीछे पड़े
या किसी एक ओर
पड़े, जिस
ओर भी पड़ेगी
उस को रोग—मुक्त
करने की, दर्द
को मिटाने की
और पीड़ा को
हरने की
क्षमता प्रदान
कर दी गई, जिससे
कि वह इसे जान
ही न सके।
जब भी
वह फकीर
रास्ते से
गुजरता, उसकी छाया
या तो उसके एक
तरफ पड़ती या
पीछे पड़ती तो
उससे सूखे
रास्ते
हरियाली से भर
जाते, इधर
उधर के वृक्ष
पुष्पित हो
जाते, सूखे
जल स्रोतों
में पानी की
स्वच्छ धार
बहने लगती, बच्चों के
मुरझाए हुए
चेहरे खिल
उठते, और
दुखी स्त्री—पुरुष
हर्षित हो
उठते।
लेकिन
वह फकीर तो बस
अपने दैनिक
जीवन में वैसे
ही सदगुणों को
बिखेरता रहा—जैसे
कि सितारे
प्रकाश और फूल
सुगंध
बिखेरते हैं, उसे पता
ही न लगता।
लोग उसकी
विनम्रता का
सम्मान करते
हुए शांतिपूर्वक
उसके पीछे
चलते, वे
उससे कभी उसके
चमत्कारों का
उल्लेख भी न
करते। जल्दी
ही वे उसका
नाम भी भूल गए
और उन्होंने
उसको 'पवित्र
छाया' नाम
दे दिया।
यही है
अंतिम बात, व्यक्ति
को पवित्र
छाया, परमात्मा
की छाया मात्र
बन जाना पड़ेगा।
केंद्र का
स्थानांतरित
हो जाना ही वह
बड़ी से बड़ी
क्रांति है, जो किसी
व्यक्ति के
साथ घट सकती
है। अब तुम
अपने केंद्र न
रहे, परमात्मा
तुम्हारा
केंद्र बन
जाता है। तुम
उसकी छाया की
भांति जीते हो।
तुम
शक्तिशाली
नहीं हो, क्योंकि
तुम्हारे पास
शक्तिशाली
होने के लिए
कोई केंद्र
नहीं है। तुम
सदगुणी नहीं
हो, तुम्हारे
पास सदगुणी
होने के लिए
कोई केंद्र नहीं
है। तुम तो
धार्मिक भी
नहीं हो, तुम्हारे
पास धार्मिक
होने के लिए
कोई केंद्र नहीं
है। तुम तो बस
नहीं हो, एक
विराट
रिक्तता है, जिसमें कोई
भी व्यवधान था
अवरोध नहीं, जिससे कि
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर से बिना
अवरोध के, अस्पर्शित,
अनिर्वचनीय
प्रवाहित हो
सके—ताकि
दिव्यता
तुम्हारे
भीतर से जैसी
वह है, वैसी
नहीं जैसी
तुम्हारी
अभिलाषा है कि
उसे होना
चाहिए, प्रवाहित
हो सके। वह
तुम्हारे
केंद्र से
होकर नहीं
गुजरता है, कोई केंद्र
है ही नहीं।
केंद्र खोया
हुआ है।
इस
सूत्र का यही
अर्थ है कि
अंतिम रूप से
तुम्हें अपने
केंद्र का भी
बलिदान करना
पडेगा जिससे
कि तुम पुन:
अहंकार की
भांति न सोच
सको तुम 'मैं' न
बोल सको, अपने
आपको पूर्णत:
विनष्ट करना
है, अपने
आपको पूर्णत:
मिटा डालना है।
तुम्हारा कुछ
भी नहीं है
बल्कि इसके
विपरीत तुम ही
परमात्मा के
हो। तुम
पवित्र छाया
बन जाते हो।
इसकी
कल्पना भी
कठिन है
क्योंकि
अनुपयोगी कूड़े—कबाड़
तक से अनासक्त
हो पाना भी
कठिन बात है।
तुम इस आशा
में इकट्ठा
करते चले जाते
हो कि जो कुछ
तुम एकत्रित
करते हो
तुम्हें
परितृप्त कर
सकता है। तुम
शान, धन, शक्ति, प्रतिष्ठा
एकत्रित किए
चले जाते हो।
तुम तो बस
संचय करते
जाते हो।
तुम्हारा
सारा जीवन
भरने में लगता
है। और
निःसंदेह अगर
तुम एक मुर्दा
बोझ बन जाते हो
तो इसमें कोई
हैरानी की बात
नहीं है। यही
तो तुम कर रहे
हो—धूल
एकत्रित कर
रहे हो और
सोचते हो जैसे
कि यह सोना है।
यदि
अहंकार की आख
से देखा जाए
दो कौड़ी की
चीज भी बहुत
मूल्यवान
मालूम होती है।
अहंकार सबसे
बड़ा धोखेबाज, सबसे बड़ा
छलिया है। यह
तुमसे झूठ
बोलता चला
जाता है, और
यह भ्रम, स्वप्न,
प्रक्षेपण
निर्मित करता
रहता है। इसका
निरीक्षण करो।
यह बहुत
सूक्ष्म है।
इसके ढंग बहुत
सूक्ष्म हैं,
और यह बेहद
चालाक है। यदि
एक दिशा में
तुम इसे रोकते
हो तब यह
दूसरी दिशा
में चला जाता
है। यदि तुम
एक रास्ता
रोको, तो
यह दूसरा
रास्ता खोज
लेता है, और
यह कार्य इतनी
चालाकी भरे
ढंग से करता
है कि तुम सोच
१नी नहीं सकते
कि यह दूसरा
रास्ता भी
अहंकार का ही
है।
मैंने
एक की औरत के
बारे में सुना
है, जिसने
सीढियों से
नीचे गिर कर
अपनी टांग तोड़
ली थी.
चिकित्सक ने
उसकी टांग पर
प्लास्टर चढ़ा
दिया और उसे
चेतावनी दी कि
वह सीढियों से
चढ़ना उतरना
बंद कर दे।
हड्डी जुड्ने
में छह महीने
लगे और तब
चिकित्सक ने
घोषणा की कि
अब प्लास्टर
हटाया जा सकता
है।
क्या
अब मैं
सीढ़ियों पर चढ़
सकती हूं? की
स्त्री ने
पूछा।
जी हां, चिकित्सक
ने कहा।
अरे
वाह, मुझे
खुशी हुई, वह
खिलाखिला कर
बोली, मैं
ड्रेन पाइप से
चढ़ उतर कर
परेशान हो
चुकी हूं।
अगर
तुम अहंकार का
जीने से आना
रोक दो तो यह
ड्रेन पाइप से
आ जाता है, लेकिन यह
आता है।
अपने
तथाकथित
धार्मिक
लोगों को देखो।
उन्होंने सब
कुछ त्याग
दिया है—लेकिन
उन्होंने
त्याग को नहीं
छोड़ा।
उन्होंने सब
कुछ त्याग
दिया है; अब वे अपने
त्याग से चिपक
रहे हैं। उनका
त्याग ही उनकी
संपदा, उनका
ड्रेन पाइप बन
गया है। अब भी
वे उसी अहंकार
पर आरूढ़ हो
रहे हैं, लेकिन
एक ज्यादा
चालाक और सूक्ष्म
ढंग से, इतना
सूक्ष्म कि न
सिर्फ दूसरे
धोखा खा रहे
हैं बल्कि वे
स्वयं भी धोखे
में हैं।
देखो, तुम एक
सांसारिक
व्यक्ति हो; फिर एकदिन
तुम्हें
निराशा अनुभव
होती है। हर
किसी को एक
दिन ऐसा ही
लगता है, इसमें
कोई विशेष बात
है भी नहीं।
फिर तुम
धार्मिक होने
लगते हो और
तुम इसके बारे
में बहुत
अहंकारी महसूस
करने लगते हों—तुम
धार्मिक हो
रहे हो। तुम
दूसरों को
पापियों, सांसारिक
व्यक्तियों
की तरह देखते
हो। तुम
धार्मिक हो, तुम तो
संन्यासी हो
गए हो, तुमने
त्याग कर दिया
है। जरा देखो
तो, शत्रु
दूसरे दरवाजे
से भीतर आ
चुका है।
संसार का
त्याग नहीं
किया जाना है;
अहंकार का
त्याग किया
जाना है।
इसलिए
व्यक्ति को
ऐसा न होने
देने के लिए
बहुत ही
ज्यादा
सावधान रहना
पड़ता है।
याद
रखना अहंकार
का दमन नहीं
किया जा सकता।
इसे तो बस समझ
की उष्मा के
माध्यम से, समझ की
अग्नि के
द्वारा
वाष्पित किया
जा सकता है।
यदि तुम इसका
दमन करो, तो
यह आसान है।
तुम विनम्र बन
सकते हो, तुम
सरल बन सकते
हो लेकिन यह
तुम्हारी
सरलता के पीछे
छिप जाएगा।
एक
महिला ने अपने
चिकित्सक से
कहा कि उसे
निश्चित तौर
से पता है कि
उसे कोई भयानक
बीमारी हो गई
है। चिकित्सक
ने उसे मूर्खतापूर्ण
बात करने से
रोकते हुए कहा
: उसे वह बीमारी
है या नहीं यह
जानना उसके
लिए संभव नहीं
हो सकता, क्योंकि 'इस बीमारी
में', वह
बोला, कहीं
कोई बेचैनी
नहीं होती है।
अत: .उस महिला
के पास इसे
जानने का: कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
डाक्टर साहब, वह
चिकित्सक से
कहने लगी, बिलकुल
यही तो मुझे
अनुभव होता है—कहीं
कोई बेचैनी ही
नहीं है।
बीमारी है।
तुम
अपने आपको
धोखा देते रह
सकते हो, और तुम उसके
लिए तर्क खोज
सकते हो और
ऊपरी सतह पर
वे बहुत
तर्कपूर्ण
दिखते हैं—ऊपर
से वे करीब—करीब
प्रमाण ही
लगते हैं—लेकिन
उनके भीतर
झांको तो।
और याद
रखना कि यह
किसी और का
काम नहीं है।
इसको देखना
तुम्हारा ही
काम है। भले
ही सारा संसार
इसे देख ले, लेकिन
यदि तुमने
इसको नहीं
देखा तो यह
व्यर्थ है।
अब
आधुनिक
मनोविज्ञान
धीरे— धीरे
व्यक्तिगत
चिकित्सा से
सामूहिक
चिकित्सा की
ओर अग्रसर हो
रही है, और उसका
एकमात्र कारण
यही है कि
मनोचिकित्सक के
लिए रोगी को, एक—एक आदमी
को, इस
बारे में समझा
पाना कि वह
अपने साथ क्या
कर रहा है, बेहद
कठिन है। रोगी
के बारे में
उसकी
मनोग्रथियों
के बारे में, उसके
तार्किक
निष्कर्षों, दमनों के
बारे में, उसके
आत्मभ्रमों
और मूढूताओं
के बारे में, एक—एक आदमी
को समझा पाना
कठिन है।
लेकिन एक समूह
में यह आसान
हो जाता है, क्योंकि
सारा समूह इस
मूर्खता को, इसके स्पष्ट
रूप को, देख
सकता है कि वह
किसी बात से
आसक्त है और
अनावश्यक रूप
से परेशान हुआ
जा रहा है।
सारा समूह इसे
देख सकता है, और सारे
समूह की समझ, उस आदमी की
समझ की तुलना
में जो
तुम्हारे ऊपर कार्य
करती, अधिक
गहरे, अधिक
व्यापक ढंग से
कार्य कर सकती
है। यही कारण
है कि सामूहिक
मनोचिकित्सा
बढ़ती जा रही
है और
व्यक्तिगत
मनोचिकित्सा
मिटती जा रही
है।
सामूहिक
मनोचिकित्सा
से व्यापक
स्तर पर लाभ
होता है। बीस
लोग एक समूह
में कार्य कर
रहे हैं तो
उन्नीस लोग इस
बात के प्रति
सचेत हो जाते
है कि तुम कुछ
ऐसा कर रहे हो
जो तुम करना
तो नहीं चाहते
थे लेकिन
जिससे तुम अभी
भी चिपके हुए
हो।
एक
संन्यासी
मेरे पास आया, बहुत भला
व्यक्ति है, लेकिन वह
खुशी से फूला
नहीं समा रहा
था। क्योंकि
मैंने उसे
सुंदर सा नाम
दिया था। मैं
तो प्रत्येक
को सुंदर—सुंदर
नाम देता हूं।
उसने इसी को
अहंकार का
उपाय बना लिया।
वह बोला : ओशो, आप तो अदभुत
हैं। आपने
मुझे इतना
सुंदर नाम
दिया है—यह तो
बिलकुल ठीक—ठीक
मुझे ही
परिभाषित
करता है।
तुम्हारे नाम
तुम्हारा
प्रतिनिधित्व
नहीं करते हैं।
ये मेरी आशाएं
हैं, वास्तविकताएं
नहीं। ये मेरे
सपने हैं, यथार्थ
नहीं हैं।
मैंने उस
संन्यासी को
पुकारा :
सत्यानंद— वह
आनंद जो सत्य
से, साक्षात
से आता है।
हूं......यह परम है।
लेकिन उसने
कहा : ओशो, सत्यानंद!
आपने ठीक से, बिलकुल ठीक
से मुझे समझ
लिया है। मैं
आपकी समझ से
बहुत
प्रभावित हूं।
अब मैं
सचेत हुआ कि
यह तो बहुत ही
गलत हो गया है।
यह एक गलतफहमी
बन गया है।
मुझे उसको यह
नाम नहीं देना
चाहिए था। मैं
उसे उसकी
खुशफहमी से
वापस लाना
चाहता था।
इसीलिए जब कुछ
मिनटों के बाद
उसने कहना
आरंभ किया, 'मैं
क्रोध, लोभ
यह और वह नहीं
चाहता, ये
जानवरों जैसी
बाते हैं। मैं
बोला : 'कायर
मत बनो।’ अचानक
वह क्रोधित हो
गया। कायर! आप
मुझे कायर
कहते हैं? लगा
जैसे मुझे
पीटने को
तत्पर हो रहा
हो। वह
चिल्लाया—सत्यानंद
के बारे में
पूरी तरह भूल
चुका था—और
उसने अपना
बचाव शुरू कर
दिया। आपने
मुझे कायर
क्यों कहा? मैं कायर तो
नहीं। और
मैंने उससे
कहा : अगर तुम
कायर नहीं हो
तो तुम बचाव
क्यों कर रहे
हो? तब तुम
सरलता से कह
सकते हो आप
गलत हैं, या
इसकी भी जरूरत
नहीं है। तुम
कायर नहीं हो
तो तुम इसके
बारे में फिकर
क्यों कर रहे
हो? तुम
गुस्से से लाल—पीले
क्यों हो गए? तुम पूरी
आवाज में
क्यों चिल्ला
रहे हो? तुम
इस कदर पागल
क्यों हो गए? मैंने अवश्य
ही तुम्हारी
दुखती रग पर
हाथ रख दिया
है।
उस समय
वहां मौजूद
प्रत्येक
व्यक्ति इस
बात के प्रति
सचेत हो गया
कि वह व्यक्ति
किसी बात को
छुपा रहा है, और बहुत
उग्रतापूर्वक
उसका बचाव कर
रहा है, किंतु
केवल वही इसको
नहीं देख सका।
यदि तुम एक
समूह में लंबे
समय तक कार्य
करो तो धीरे
से तुम्हे
सचेत होना ही
पड़ेगा कि सारा
समूह देख रहा
है कि तुम कुछ
मूर्खतापूर्ण
मूढ़ता का
कृत्य कर रहे
हो। जो
तुम्हारे
इच्छाओं के
विपरीत है—तुम्हारी
अपनी
परितृप्ति के
विरोध में, तुम्हारे
अपने विकास के
प्रतिकूल है।
तुम एक बीमारी
से चिपक रहे
हो और तुम
कहते रहते हो—मैं
इससे छुटकारा
पाना चाहता
हूं।
तुम्हारे
अतिरिक्त
प्रत्येक
व्यक्ति जानता
है कि तुम गलत
कर रहे हो।
प्रत्येक
व्यक्ति
जानता है कि
तुम अहंकारी हो—सिवाय
तुम्हारे।
केवल तुम ही
सोचते हो कि
तुम एक विनम्र
व्यक्ति, एक सरल
व्यक्ति हो।
हर व्यक्ति
तुम्हारी
जटिलता को
जानता है। हर
व्यक्ति
तुम्हारे
दोहरे मापदंड
को जानता है।
तुम्हारे
अतिरिक्त
प्रत्येक, तुम्हारे
पागलपन को
जानता है। तुम
इसका बचाव
करते रहते हो।
और विनम्रता,
व्यवहारिकता
.और औपचारिकता
के कारण समाज
में कोई
तुम्हें
बताएगा भी
नहीं। इसलिए
समूह सहायक है—क्योंकि
यह विनम्र
नहीं होने
वाला है। यह
सत्यपूर्ण
होने जा रहा
है। और जब
बहुत सारे लोग
कहते हैं कि
यह रही
तुम्हारी
समस्या, और
इसे बिलकुल
ठीक से बता
दें, और
इसे इंगित
करें, और
तुम्हारे घाव
पर अपनी
अंगुलियां रख
दें और यह
दुखने लगे...।
तुम्हे सचेत
कर पाना, व्यक्ति
से व्यक्ति के
सम्पर्क
द्वारा बहुत कठिन
है क्योंकि
तुम सोच सकते
हो कि यह व्यक्ति
गलत हो सकता
है, लेकिन
बीस लोग? बीस
लोगों के गलत
होने की
संभावना कम है,
और तुम्हें
वापस अपने पर
लौट कर इस बात
को देखना पड़ता
है।
यही
कारण है कि
बुद्ध ने एक
बड़े संघ का, भिक्षुओं
के बड़े वर्ग
का, दस
हजार भिक्षु—निर्माण
किया। समूह
मनोचिकित्सा
का यह पहला
प्रयोग श्र।
यह एक महत्
प्रयोग था।
यही तो
मैं कर रहा
हूं। सोलह
हजार सन्यासी—मनोचिकित्सा
का एक महानतम
प्रयोग। एक
समुदाय, एक कम्यून, जिसमें
तुम्हें
बोधपूर्ण होस
ही पड़ेगा वरना
तुम इस कम्यून
के हिस्से
नहीं होगे, यहां हर कोई
तुम्हारी
गलती को देख
रहा है, समझ
रहा है और
तुम्हें इसे
दिखा रहा है।
क्योंकि
संन्यासी
औपचारिक या
विनम्र होने के
लिए नहीं बने
हैं। वह बकवास
जरा भी नहीं।
यहां पर
संन्यासी
स्वयं को
रूपांतरित
करने के लिए
और दूसरों के
रूपांतरण के
लिए परिस्थिति
निर्मित करने
के लिए है।
देखो, जब भी कोई
तुम्हारे
बारे में कोई
दोष इंगित करे
तो क्रोधित मत
हो जाओ। इससे
तुम्हें कोई
मदद नहीं
मिलने वाली है।
पागल मत बनो।
इससे
तुम्हारी कोई
सहायता नहीं
होगी। इस बात
को देखने की
कोशिश करो।
दूसरा सही भी
हो सकता है, और दूसरे के
सही होने की
संभावना अधिक
है क्योंकि वह
तुमसे इतना
अलग है, वह
तुमसे काफी
दूर है। वह
तुम्हारे साथ
संयुक्त नहीं
है। सदैव
लोगों की बात
सुनो कि वे
तुम्हारे
बारे में क्या
कह रहे हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत तो वे
सही होंगे, उनके गलत
होने की
संभावना
मात्र एक
प्रतिशत है।
वरना वे गलत
नहीं है। वे
गलत कैसे हो
सकते हैं
क्योंकि उनके
पास तुम्हारे
बारे में
अनासक्त
दृष्टिकोण है।
यही
कारण है कि
तुम्हारे
घावों को
दर्शाने के लिए
सदगुरु की
आवश्यकता
होती है। और
यह केवल तभी
संभव है जब
तुम्हारे
भीतर गहरा
सम्मान और
श्रद्धा हो।
यदि तुम
क्रोधित हो
जाओ और तुम
संघर्ष करना
आरंभ कर दो, तो
तुम्हारे
भीतर कोई
सम्मान और
श्रद्धा नहीं
है। यदि यहां
पर तुम अपनी
रुग्णता और
बीमारियों का
बचाव करने के
लिए हो, तो
यह तुम्हारे
लिए नहीं है—यहां
मत ठहरो। यहां
पर अपना समय
नष्ट करने में
क्या सार है?
यदि
मैं कहता हूं
कि तुम कायर
हो और तुम इस बात
को देख नहीं
सकते बल्कि
तुम संघर्ष
करो और मेरे
सामने यह
सिद्ध करो कि
तुम कायर नहीं
हो, तब
सीधी बात यह
है कि यहां पर
रुकने में कोई
सार नहीं।
मेरे साथ
संबंध समाप्त
हो गया है। अब
तुम्हारे लिए
मैं सहायक
नहीं हो सकता
हूं। जब मैं
तुमसे कोई बात
कहता हूं तो
तुम्हें उस
तथ्य में
देखना पड़ेगा।
मैं तुम्हें
क्यों कायर
कहूंगा? तुम्हारे
साथ मेरा कोई
लेन—देन नहीं
है और
तुम्हारे
कायरपन में भी
मेरा कुछ नहीं
जा रहा है।
मैं बस
करुणावश कहता
हूं क्योंकि
मैं देखता हूं
कि बीमारी
वहां है। और
जब तक तुम इसे
न जानो, जब
तक इसका निदान
न हो, तुम
इससे छुटकारा
कैसे पा सकते
हो?
यदि
चिकित्सक
तुम्हारी
नब्ज पर हाथ
रखता है और
कहता है कि
तुम्हें
बुखार है और
तुम उस डाक्टर
पर छलांग लगा
दो और लड़ना
आरंभ करो। आप
क्या कह रहे
हैं? मुझे
भला कैसे
बुखार हो सकता
है? नहीं, आप गलत है, मैं पूर्णत:
स्वस्थ हूं।
तो पहली बात
यह है कि तुम
चिकित्सक के
पास गए ही
क्यों थे? स्वास्थ्य
का
प्रमाणपत्र
लाने भर को?
तुम
यहां हो, इसे याद रखो,
तुम यहां
अपनी
बीमारियों के
लिए पहचाने
जाने के लिए
और उनके न
होने का
प्रमाणपत्र
पाने के लिए
नहीं हो। तुम
यहां निदान, परीक्षण, रोग उन्मूलन
के लिए आए हो, ताकि
तुम्हारा
यथार्थ
स्वरूप उदित
हो सके, खिल
सके। लेकिन
यदि तुम बचाव
कर रहे हो—तो
बचाव करना
तुम्हारे हाथ
में है। यह
मेरा कार्य
नही, इसका
बचाव करो।
लेकिन तब तुम
पीड़ित होओगे।
फिर मेरे पास
मत आना और मत
कहना कि मैं
पीडा में हूं
मैं
तनावग्रस्त
हूं।
संसार
से भीतर की ओर
गतिमान हो
पाना बहुत
कठिन है, क्योंकि
अंदर तो तुमने
रुग्णताएं और
बीमारियां
छुपा रखी हैं।
वे तुम्हें
बाहर जाने को
बाध्य करती
हैं। यह ध्यान
हटाने का एक
उपाय है। यही
कारण है कि
इतने अधिक
सदगुरु
तुम्हें
सिखाते रहे
हैं कि भीतर
जाओ, स्वयं
को जानो।
लेकिन तुम
वहां कभी नहीं
जाते। तुम
इसके बारे में
बात करते हो, तुम इसके
बारे में पढ़ते
हो, तुम इस
विचार की
सराहना करते
हो, लेकिन
तुम भीतर कभी
नहीं जाते।
क्योंकि भीतर
तुम्हारे पास
केवल अंधकार
और घाव और
बीमारियां
हैं। तुम उन
चीजों को
छिपाए हुए थे
जो अच्छी नहीं
हैं, तुम्हारे
लिए
स्वास्थ्य
प्रदायक नहीं
हैं। लेकिन
तुम इसके
विपरीत
उन्हें नष्ट
करने के स्थान
पर उनकी
सुरक्षा करते
रहे हो। जब
तुम द्वार
खोलते हो...... और
तुम्हें इतनी
दुर्गंध, इतनी
धूल, इतनी
कुरूपता
अनुभव होती है
जैसे कि नरक
खुल गया है।
तुम तुरंत ही
द्वार बंद कर
देते हो और
तुम सोचना
आरंभ कर देते
हो कि आखिर
बात क्या है?
बुद्ध, कृष्ण, जीसस वे सभी
सिखाते रहे
हैं कि भीतर
जाओ और तुम
परम आनंद, शाश्वत
आनंद को
उपलब्ध होगे,
लेकिन तुम
द्वार खोलते
हो और तुम
दुखस्वप्न में
पहुंच जाते हो।
यह दुखस्वप्न
तुम्हारे
दमनी से
निर्मित हुआ है।
सतह पर तुम
सरल हो, गहरे
में तुम बहुत
जटिल हो। ऊपर
से तो
तुम्हारा
चेहरा एक बहुत
ही भोले व्यक्ति
का है, गहराई
में तुम बहुत
कुरूप हो।
इस
दमनात्मकता
के कारण तुम
भीतर नहीं देख
सकते, और
तुम्हें खुद
को लगातार
दूसरी ओर
मोड़ते रहना
पड़ता है—रेडियो
सुनना, टीवी.
देखना, अखबार
पढ़ना, दोस्तों
से मिलने जाना।
जब तक कि तुम
सो न जाओ तब तक
बस समय बरबाद
करते रहना।
जिस क्षण तुम
सोकर उठते हो,
फिर से तुम
दौड़ना आरंभ कर
देते हो। तुम
किससे भाग रहे
हो? तुम
अपने आप से
भाग रहे हो।
अपने
अस्तित्व में
झांकने के लिए
स्वयं को
अवकाश दो, तब अचानक
तुम देखोगे कि
वस्तुओं के
साथ कोई आसक्ति
नहीं है। यह
हो कैसे सकता
है? यह
असंगत है।
मैंने
एक बहुत सुंदर
कहानी, एक सूफी
कहानी सुनी है—स्वर्णिम—द्वार।
दो
लोगों ने
प्रार्थना की
और उनके
रास्ते अलग हो
गए। एक ने
संपत्ति और
शक्ति
एकत्रित की, लोगों का
कहना था कि वह
प्रसिद्ध तो
था, लेकिन
उसके मन में
शांति नहीं थी।
दूसरे ने
लोगों के
दिलों को, उनके
अपने छिपे हुए
भयों के
अंधकार में
दीयों की
भांति
जगमगाते हुए
देखा। उसे भी
समृद्धि और
शक्ति मिली और
उसकी संपदा, उसकी शक्ति,
प्रेम थी।
जब सरलता से
दयालुतापूर्वक,
कोमलता से
वह अपने
सहयात्रियों
को अपने प्रेम
की सारी संपदा
और क्षमता के
साथ स्पर्श
करता था तो
अंतस का
प्रकाश
सुस्पष्ट हो
जाता और साहस
और शांति से
दमकने लगता।
एक दिन
दोनों ही लोग
उस 'स्वर्णिम—द्वार'
के सम्मुख
खड़े थे, जिससे
होकर
प्रत्येक
व्यक्ति को उस
पार के विराट
जीवन हेतु
गुजरना पड़ता
था। देवदूत ने
प्रत्येक
आत्मा से पूछा
: तुम अपने साथ
क्या लेकर आए
हो? तुम्हारे
पास देने के
लिए क्या है?......
परमात्मा
सदैव पूछता
है. तुम अपने
साथ क्या लेकर
आए हो? तुम्हारे
पास देने के
लिए क्या है? परमात्मा
तुम्हें दिए
चला जाता है, लेकिन अंततः
अंतिम दिन, इसके पूर्व
कि तुम उसके
भवन में
प्रविष्ट हो वह
पूछता है, अब
तुम मेरे लिए
क्या लेकर आए
हो? मेरे
लिए तुम्हारी
क्या भेंट है?
.......उस
व्यक्ति ने जो
प्रसिद्ध था,
अपनी उपलब्धियों
को दुबारा
गिना।
क्योंकि न
जाने कितने
लोगों को वह
जानता था, जाने
कितने
स्थानों पर वह
गया था, जाने
कितने काम
उसने किए थे—और
न जाने कितनी
वस्तुएं उसने
एकत्रित कर
रखी थीं।
लेकिन
देवदूत ने
उत्तर दिया :
यह सब
स्वीकार्य
नहीं है, ये कार्य जो
तुमने किए हैं
तुमने अपने
लिए किए हैं, मुझे इनमें
कोई प्रेम
नहीं दिखाई
पड़ता।...
यदि
अहंकार है, तो प्रेम
नहीं हो सकता।
इसे याद रखो।
बाद में मैं
इस पर चर्चा
करूंगा, क्योंकि
यह सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
चीजों में से
ही एक है; यदि
अहंकार है, तो प्रेम
नहीं हो सकता
है।
…….और
वह प्रसिद्ध
व्यक्ति
स्वर्णिम—द्वार
के बाहर डूब
गया और रोया...
पहली
बार वह अपनी
सारी कोशिशों
की व्यर्थता को
देख पाया। यह
एक सपने जैसी
थी जो बीत गया
और उसके हाथ
खाली रह गए।
यदि तुम
वस्तुओं से
बहुत ज्यादा
भरे हुए हो तो
किसी न किसी
दिन तुम्हें
दिखेगा कि
तुम्हारे हाथ
खाली हैं। यह
स्वप्न ही था
जिसे तुम अपने
हाथों में उठाए
हुए थे; वे सदा से
खाली थे। तुम
तो बस स्वप्न
ही देख रहे थे
कि उनमें कुछ
है। क्योंकि
तुम खालीपन से
भयभीत थे, तुमने
किसी वस्तु की
कल्पना कर ली
थी, तुमने
विश्वास किया
था। तुमने कभी
गहराई से नहीं
देखा कि वास्तव
में वहां कुछ
है भी या नहीं।
... और
वह प्रसिद्ध
व्यक्ति
स्वर्णिम—द्वार
के बाहर डूब
गया और रोया।
वह दयालु हो
पाने के लिए
समय ही नहीं
निकाल पाया
था...
प्रेम
कर सकने के
लिए अति
व्यस्त रहा था, अरपने आप
में बेहद उलझा
रहा था, व्यर्थ
की चीजों की
उसे बहुत चिंता
रही थी, और
सार की चीजों
पर विचार नहीं
कर सका था।
…...तब
देवदूत ने
दूसरे की
आत्मा से पूछा
और तुम क्या
लेकर आए हो? तुम्हारे
पास देने के
लिए क्या है?
और
उसने उत्तर
देते हुए कहा.
कोई मेरा नाम
नहीं जानता।
लोग मुझे
घुमक्कड़, स्वप्नदर्शी
कहा करते थे।
मेरे दिल में
थोड़ा सा
प्रकाश था, और बस वही
मेरे पास था, मैंने उसे
लोगों की
आत्माओं के
साथ बांटा है...
पागलों
के इस संसार
में असली लोग स्वप्नदर्शी
जैसे लगते हैं।
संतों को सदैव
घुमक्कड़, स्वप्नदर्शी,
कवि, कल्पना—लोक
जीवी, कहीं
और रमने वाले,
जलज भक्षी,
नाभि
दृष्टा के रूप
में जाना गया
है।
असली
लोगों को इसी
प्रकार के नाम
दिए जाते हैं, क्योंकि
यह संसार
कागजी लोगों
का है। वे
असली नहीं हैं।
कागजी लोग जब
भी वे किसी
असली आदमी के
संपर्क में
आते हैं, उसे
स्वप्नदर्शी,
कवि कहते
हैं। उसकी
निंदा करने का
उनका यह उपाय
है, और
अपने आप को
बचाने की भी
यही तरकीब है।
... और
उसने उत्तर
देते हुए कहा.
मेरा नाम कोई
नहीं जानता, लोग मुझे
घुमक्कड़, स्वप्नदर्शी
कहा करते थे।
मेरे हृदय में
थोड़ी सी रोशनी
थी—और कुछ भी
नही, बस
दिल में थोड़ी
सी रोशनी—और
जो मेरे पास
थी उसे मैंने
लोगों की
आत्माओं के
साथ बांटा।
फिर
देवदूत ने कहा
: हे भाग्यवान!
तुम्हारे पास
सबसे अच्छी
भेंट है। यही
है प्रेम। सदा
और सदैव और—और
बांटने के लिए
पर्याप्त और
उपलब्ध रहता
है।’प्रविष्ट
हो जाओ...'
प्रेम
का यही
सौंदर्य है; जितना
अधिक तुम देते
हो उतना ही अधिक
यह तुम्हारे
पास होता है।
इसे अपने जीवन
की कसौटी बन
जाने दो। उसका
संचय मत करो
जो देने से
खोता हो, केवल
उसी का संचय
करो जो देने
से संचित होता
है। केवल उसी
को एकत्र करो
जो बांटने से
बढ़ता और विकसित
होता है। वही
मूल्यवान है
जिसे तुम बांट
सको और इसके बांटने
मात्र से ही
यह बढ़ता है और
तुम्हारे पास
पहले से भी
ज्यादा हो
जाता है।
'सदा
और सदैव और—और
बांटने के लिए
पर्याप्त और
उपलब्ध रहता
है। प्रविष्ट
हो जाओ।’
तब
घुमक्कड़ ने
कहा. लेकिन
पहले मुझे
अपने भाई के
साथ प्रेम
बांट लेने दो, ताकि हम
दोनों द्वार
से जा सकें।
देवदूत
खामोश रहा; उसी क्षण
उस सरल
घुमक्कड़ के
चारों ओर तेज
प्रकाश का
दीप्तिमान
आवरण प्रकट
हुआ, जिसने
उसे और उसके
मित्र दोनों
को आच्छादित कर
लिया।
स्वर्णिम—द्वार
पूरी तरह खुल
गया और वे
दोनों साथ साथ
उसके अंदर चले
गए।
उसने
अंतिम क्षण
में भी बांटा।
यही वास्तविक
समृद्धि है।
कोई कंजूस कभी
धनवान नहीं
होता। यदि तुम
सांसारिक
वस्तुओं से
आसक्त हो तो
तुम धनवान
नहीं हो।
समृद्धि हृदय
से उपजती है।
समृद्धि है
हृदय का गुण—प्रेम
से आलोकित
होना।
भारत
के गहनतम
कवियों में से
एक
रवींद्रनाथ टैगोर
ने एक कविता
लिखी है।’मेरे
हृदय का प्रिय'
संक्षेप
में वह कविता
इस प्रकार है।
एक बार
बंगाल के एक
छोटे से गांव
में पड़ोस की एक
तपस्विनी
महिला मुझसे
मिलने आई... और
यह केवल एक
कविता नहीं है; यह एक
सत्य घटना पर
आधारित है।
...उसका
नाम था, सर्वखिपी,
जो उसे गांव
वालों ने दिया
था। इसका अर्थ
है, 'वह
स्त्री जो सभी
बातों के बारे
में पागल है......’
सर्वखिपी, जो सारी
बातों के बारे
में पागल है।
न सिर्फ एक
बात में वह
पागल है बल्कि
सभी मामलों
में वह पागल
है—पूरी तरह
पागल।
.. .उसने
अपनी सितारों
सी आंखें मेरे
चेहरे पर टिका
दीं और मुझ से
पूछने लगी, 'तुम वृक्षों
की छांव में
मुझसे मिलने
कब आ रहे हो।’ निश्चित रूप
से उसने मेरी
हालत दयनीय कर
दी, जो
उसके अनुसार
दीवालों के
पीछे कैद था, सभी के
विशाल मिलन
स्थल से जहां
उसका निवास था,
से दूर, निर्वासित।
ठीक
उसी क्षण मेरा
माली अपनी
टोकरी लेकर आ
गया, और
जब उस महिला
ने समझा, मेरी
मेज पर रखे
फूलदान में
रखे फूल ताजे
आए फूलों को
लगाने के लिए
फेंके जाने
वाले हैं, वह
दुखी दिखी और
मुझसे बोली, तुम सदैव
पढ़ने और लिखने
में व्यस्त
रहते हो, तुम
देखते नहीं हो,
फिर उसने
फेंके हुए
फूलों को अपनी
हथेलियों मे
उठाया, उन्हें
चूमा और
उन्हें अपने
मस्तक पर
लगाया, और
सम्मानपूर्वक
अपने—से
बुदबदाई, 'मेरे
हृदय के प्रिय।’
मैंने
अनुभव किया कि
इस स्त्री ने
प्रत्येक वस्तु
के हृदय में
व्याप्त असीम
व्यक्तित्व का
प्रत्यक्ष
दर्शन करके
पूरब की आत्मा
का वास्तव में
प्रतिनिधित्व
किया।
प्रेम पूरब
कं।— आत्मा है।
प्रेम मनुष्य
की आत्मा है।
प्रेम
परमात्मा की
आत्मा है।
यहां पर प्रेम
ही एक मात्र
समृद्धि है, एकमात्र
प्रसन्नता है।
अत: यदि
तुम वस्तुओं
से अत्यधिक
आसक्त हो, तो तुम
प्रेमी नहीं
हो सकते। केवल
अनासक्त मन ही
स्वयं को उस
आकाश की ओर उठा
सकता है जिसे
हम प्रेम कहते
हैं। इसके
बारे में काफी
गलतफहमियां
हैं।
वे लोग
जो संसार
त्यागते और
वैरागी बनते
हैं लगभग उसी
के साथ प्रेम—विहीन
भी हो जाते
हैं, तो
कुछ न कुछ
गड़बड़ है।
क्योंकि
प्रेम से ही
इसका निर्णय
होता है, यही
इसका परीक्षण,
इसकी कसौटी
है। यदि संसार
के प्रति
तुम्हारा
वैराग्य
तुम्हें
प्रेम—विहीन
बना रहा है, तो इसका
अर्थ है कि
कुछ खटास
उत्पन्न हुई
है। तुम्हारा
वैराग्य सत्य,
.प्रमाणिक,
सच्चा नहीं
है, यह
झूठा है।
क्योंकि तुम
प्रेम से
भयभीत हो। तो
यह प्रदर्शित
करता है कि
तुम संबंधित
होने से डरते
हो, इसलिए
तुम उन' सभी
परिस्थितियों
से बचाव कर
रहे हो जिनमें
प्रेम पुष्पित
हो सकता है—क्योंकि
गहरे में तुम
घबड़ा गए हो कि
यदि प्रेम
पुष्पित हो
गया तो तुम
पुन: आसक्त हो
जाओगे।
यही
कारण है कि
तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा प्रेम
से इतना अधिक
डरे हुए हैं।
वे एक स्थान
पर तीन दिन से
अधिक नहीं
ठहरेंगे।
इतना भय किस लिए? क्योंकि
यदि तुम एक
स्थान पर और
अधिक दिन रुके
रहे, तो
तुम लोगों के
प्रति प्रेम
अनुभव करने
लगोगे। कोई
प्रतिदिन
तुम्हारे
पांव दबाने
आएगा और तुम
उसके लिए
प्रेम अनुभव
करने लगोगे।
कोई स्त्री
प्रतिदिन
तुम्हारे लिए
भोजन लेकर आएगी
और तुम उसके
प्रति प्रेम
अनुभव करने
लगोगे। एक खास
किस्म का लगाव,
और पुन:
आसक्त हो जाने
का भय उठ खड़ा
होगा, अत:
इससे पूर्व कि
तुम आसक्त हो
जाओ वहां से
चले जाओ।
ये
तथाकथित
वैरागी लोग
मात्र भयभीत
लोग हैं। वे
एक गहरे आतंक
में जीते हैं।
जीवन के
वास्तविक तल
को वे कभी
स्पर्श नहीं कर
सकते हैं, क्योंकि
यह सदैव प्रेम
द्वारा
संस्पर्शित होता
है।
स्मरण
रहे, यदि
तुम्हारा
वस्तुओं से
वैराग्य
सच्चा है, समझ
से आया है, जागरूकता
से विकसित हुआ
है, तो तुम
और अधिक
प्रेमपूर्ण
हो जाओगे।
क्योंकि वही ऊर्जा
जो राग में
संलग्न थी
मुक्त हो
जाएगी। यह
जाएगी कहां? तुम्हारे
पास तुम्हारे
उपयोग हेतु
अधिक मात्रा
में ऊर्जा
रहेगी।
आसक्ति प्रेम
नहीं है; यह
अहंकार का—कज्जा
करने का, अधिकार
करने का, उपयोग
करने का ढंग
है। यह हिंसा
है; यह
प्रेम नहीं है।
जब यह ऊर्जा
मुक्त हो जाती
है, अचानक
तुम्हारे पास
प्रेम करने के
लिए ऊर्जा का
अतिरेक
उपलब्ध हो
जाता है। जो
सच में ही
अनासक्त है वह
प्रेम से
आपूरित होगा,
और उसके पास
बांटने के लिए
सदा ही और—और
रहेगा, और
उसे प्रेम के
नये स्रोत
मिलते चले
जाएंगे। उसका
स्रोत असीम है।
'इन
शक्तियों से
भी अनासक्त
होने से,.......'
और परम
अनासक्ति तभी
आती है जब
तुम्हें कुछ
चमत्कार, सिद्धियां,
शक्तियां
उपलब्ध हो
चुकी हों—जब
तुम कुछ कर
सको—कुछ ऐसा
जो चमत्कारी
हो, कुछ
ऐसा जो
अविश्वसनीय
हो। यदि तुम
उनसे आसक्त हो
गए, तो कभी
न कभी तुम पुन:
संसार में
वापस आ जाओगे।
सावधान हो जाओ।
अहंकार का, तुम पर यह
अंतिम आक्रमण
है; इसके
चंगुल में मत
फंसना। तुम पर
अहंकार अपना
अंतिम जाल
फेंक रहा है।
'इन
शक्तियों से
भी अनासक्त
होने से, बंधन
का बीज नष्ट
हो जाता है।...'
बंधन
का बीज है—आसक्ति!
और मुक्ति का
बीज है प्रेम।
और वे किस कदर
एक से दिखाई
पड़ते हैं। वे
नितांत
विपरीत हैं, आसक्ति
है प्रेम—विहीनता
और प्रेम सदा
अनासक्त है।
अंतर कहां है?
तुम
किसी स्त्री
या पुरुष से
प्रेम करते हो
और तुम आसक्ति
अनुभव करते हो।
तुम्हें
आसक्ति क्यों
अनुभव होती है? आसक्ति
का बस यही
अर्थ है—तुम
चाहोगे कि यह
स्त्री कल भी
तुम्हारे साथ
हो। कल और
उसके बाद आने
वाले अगले दिन
भी तुम इस स्त्री
को अपने कब्जे
में रखना
चाहोगे। यह बस
यही
प्रदर्शित
करता है कि
तुम आज प्रेम कर
पाने समर्थ
नहीं हो सके, अन्यथा कल
की अवश्यकता
ही न होती। कल
की चिंता कौन
करता है? कल
के बारे में कौन
जानता है? कल
कभी नहीं आता।
यह उसी मन में
आता है जो आज
जी नहीं रहा
है। तुमने आज
इस स्त्री को
प्रेम नहीं
किया इसलिए
तुम कल के आने
की प्रतीक्षा
कर रहे हो
ताकि तुम
प्रेम कर सको।
तुम्हारा
प्रेम अपूर्ण,
अधूरा है।
उस अधूरे
प्रेम के लिए आसक्ति
उपजती है। तब
यह स्वाभाविक
है, तर्क
युक्त है। तुम
कुछ चित्रित
कर रहे हो, और
चित्र अधूरा
है, तुम
चाहोगे कि
चित्र पूरा
करने के लिए
कल भी कैनवास
तुम्हारे पास
रहे।
जीवन
में एक बहुत
गहरा नियम है; यह हर बात
को पूर्ण करना
चाहता है। कली
फूल बनना चाहती
है; बीज
अंकुर बनना
चाहता है।
हर चीज
पूर्णता की ओर
जा रही है, इसलिए जो
कुछ भी तुम
अपूर्ण छोड़
देते हो वह मन में
अभिलाषा बन
जाता है और
कहता है : 'इस
स्त्री पर
कब्जा कर लो।
तुमने अभी
प्रेम किया ही
कहां है; अभी
तुम उसके
अस्तित्व के
इस छोर से उस
छोर तक गए ही नहीं,
अभी भी
उसमें बहुत
कुछ अनजाना
बचा हुआ है, अभी भी उसमे
काफी
संभावनाएं
हैं जो साकार
होना शेष हैं—अस्तित्व
के कई गीत हैं,
और नर्तन
करने को कई
नृत्य हैं।’ —आसक्ति उठ
खड़ी होती है।
कल की जरूरत
है, कल के
बाद परसों की
जरूरत है, भविष्य
की आवश्यकता
है। और यदि तुम
वर्तमान में
जीने के लिए
जरा भी समर्थ
नहीं हो, तो
भविष्य के
जीवन की भी
आवश्यकता है,
और लोग एक—दूसरे
से वादे किए
चले जाते हैं,
'हम अगले
जन्म में भी
पति—पत्नी बने
रहेंगे।’ यह
तो बस सही
प्रदर्शित
करता है कि
लोग जीने में
नितांत
असमर्थ हो गए
हैं। वरना आज
का दिन स्वयं
में पर्याप्त
है।
इस
क्षण में यदि
तुम अपना
प्रेम पूर्ण
कर लो, यदि
तुमने अपने
समग्र हृदय से
प्रेम किया
हैनरी तरह
समर्पित होकर,
इसमें डूब
कर, यदि
तुमने कुछ भी
पीछे बचा कर
नहीं रखा है—तब
कल का विचार
कभी नहीं उठता
है, कल का
विचार उठना
असंभव हो जाता
है। यह सदैव
तभी आता है जब
कि कुछ अतृप्त
रह गया हो, तभी
तुम भविष्य की
अभिलाषा रखते
हो। यदि तुमने
अपनी स्त्री
को आज प्रेम
कर लिया है और
मृत्यु आ जाती
है तो तुम इसे
स्वीकार कर लोगे।
या अगर स्त्री
किसी और के
प्रेम में पड़
जाती है, तो
तुम अलविदा
कहोगे—उदास
लेकिन दुखी
नहीं। और
उदासी में एक
सौंदर्य है, और दुख
कुरूप है।
उदास, आसक्ति
के कारण नहीं,
उदास इसलिए
कि तुम्हारा
प्रेम अब भी
तुम्हारे
भीतर उमड़ रहा
है लेकिन जो
व्यक्ति इसको
समझ सकता, दूर
जा रहा है।
उदास किंतु
परितृप्त।
वहां कोई
शिकायत नहीं
है, कोई
ईर्ष्या नहीं।
किंतु
यदि तुमने
पूरी तरह
प्रेम किया हो
तो ऐसा कभी नहीं
होता, कि
स्त्री जा सके,
या पुरुष जा
सके। यदि
तुमने
समग्रता से
प्रेम किया है
तो यह असंभव
है, क्योंकि
पूर्ण प्रेम
इतनी गहनता से
तृप्त करता है
कि कोई किसी
और के बारे
में सोच भी
नहीं सकता।
दूसरे का
स्वप्न देखना
भी असंभव है।
स्वप्न इस व्यक्ति
के साथ मिली
अतृप्ति के
कारण ही
जन्मता है।
तुम अन्य
स्त्रियों के
बारे में
सोचते हो क्योंकि
तुम्हारा
अपनी स्त्री
के साथ
तृप्तिदायी
संबंध नहीं
रहा है। तुम
अन्य पुरुषों
के बारे में
विचार करती हो
क्योंकि मन
स्वयं को उड़ेल
देना चाहता था
और यह इस
संबंध में
सम्भव नहीं हो
पाया। इसलिए
मन सारी जगह
में दौड़ता—फिरता
रहता है। कोई
स्त्री या
पुरुष जो सड़क
से होकर गुजर
रहा हो, तुम्हें
उसके प्रति
प्रेम अनुभव
होने लगता है।
और अगर
तुम्हारा
प्रेम इतना
अधिक हताश हो
चुका हो कि
तुम यह कल्पना
भी न कर सको कि
किसी व्यक्ति
से अब प्रेम
कर पाना संभव
है तो तुम कुत्तों
और बिल्लियों
से प्रेम करना
आरंभ कर देते
हो। यह थोड़ा
कम जटिल
प्रतीत होता
है—आलोक को यह
बात नोट कर
लेनी चाहिए।
यह थोड़ा कम
जटिल प्रतीत
होता है।
एक
कुत्ते को
प्रेम करना
सरल है......एक
बिल्ली को
प्रेम करना
कुछ अधिक कठिन
है। इसी कारण
से पुरुष' स्त्रियों
को बिल्लियां
कहते हैं।
बिल्ली के
बारे में
कुत्ते से कम
पूर्वानुमान
किया जा सकता
है, वह
कुत्ते से
अधिक चतुर है—उसके
पास अपना मन
होता है। तुम
कुत्ते को लात
मार सकते हो
और वह फिर
वापस आ जाएगा;
तुम बिल्ली
को लात मारो, वह पुन: कभी
नहीं आएगी।
समाप्त। सदैव
तलाक के लिए
तैयार।
लोग
पशुओं के
प्रेम में पड़
जाते हैं।
कैसा
दुर्भाग्य है।
मैं नहीं कह
रहा हूं कि
पशुओं को
प्रेम मत करो; मैं कह
रहा हूं कि
उन्हें
मनुष्य का
विकल्प मत
बनाओ। तुम्हें
मनुष्यों से
इतना गहरा
प्रेम करना
चाहिए कि
तुम्हारा
प्रेम अतिशय
होने लगे और
यह पशुओं तक
भी पहुंच जाए।
फिर यह पूरी
तरह भिन्न
होगा। तब यह
वृक्षों तक भी
पहुंच जाता है।
तब यह पूर्णत:
भिन्न होता है।
तब यह
चट्टानों तक
भी पहुंच जाता
है; क्योंकि
तुम
प्रेमातिरेक
में रहते हो।
प्रेम का एक
असीम स्रोत, किसी में भी
तुम्हारा
प्रेम समा
नहीं पाता। यह
अतिशय होता है,
उद्वेलित
होता है, उमड़ता
चला जाता है।
फिर यह पशुओं
तक पहुँच जाता
है, तो
इसमें बिल्कुल
ही भिन्न
गुणवत्ता
होती है।
लेकिन
मनुष्यों के
साथ द्वार बंद
हो, तो
तुम्हें प्रेम
के लिए किसी
को खोजना पड़ता
है, वरना
तुम बहुत अधिक
हताशा अनुभव
करोगे, संबंध
की आवश्यकता
होती है, तब
तुम कुत्तों,
बिल्लियों
से नाता जोड़ते
हो।
कभी—कभी
यह भी
असंतोषपूर्ण
सिद्ध होता है, क्योंकि
कुत्तों का
व्यक्तित्व
है, बिल्लियों
का भी
व्यक्तित्व
होता है—उनकी
भी अपनी निजी
विचारधारा, अपने निजी
विचार होते
हैं, वे
अपनी चीजें
करना चाहते
हैं। कोई
कुत्ता
तुम्हारी
इच्छाएं पूरी
करने के लिए
नहीं होता है।
जब तुम कुत्ते
को टहलाने ले
जा रहे हो तो
तुम सोच सकते
हो कि तुमने
कुत्ते को बस
में कर लिया है,
कि तुम उस
कुत्ते के मालिक
हो;, क्योंकि
तुमने कुत्ते
से कभी नहीं
पूछा कि वह क्या
सोचता है। वह
सोचता है कि
वह तुम्हारा
मालिक है, और
उसने इस
मनुष्य को
काबू में कर
रखा है। मैंने
कुत्तों को एक
दूसरे से बात
करते हुए सुना
है।
जब
पशुओं से भी
प्रेम करना
कठिन हो जाता
है तब लोग
वस्तुओं—मकान, कार, मोटर
साइकिल से
प्रेम करना
आरंभ कर देते
हैं। और वे इन
चीजों के बारे
में बेहद
रोमांटिक भी हो
जाते हैं।
मैंने
एक व्यक्ति को
देखा है, वह मेरे घर
के ठीक सामने
ही रहता था।
उसे अपने
स्कूटर से
इतना प्रेम था
कि मैंने उसे लगभग
रोमांटिक ढंग
से ही स्कूटर
साफ करते हुए जैसे
कि वह अपनी
स्त्री को साफ
कर रहा हो, देखा
है। इधर से, उधर से
देखना और इतनी
प्रसन्नता
अनुभव करना।
और वह कभी
उसका उपयोग भी
न करता, क्योंकि
वह गंदा हो
जाएगा। वह
अपनी पुरानी
मोटर साइकिल
पर ही सवारी
करता। मैंने
कई बार उससे
कहा : तुम यह
क्या कर रहे
हो? तुम्हारे
पास कितना
सुंदर स्कूटर
है। वह कहता, यह है, लेकिन
वर्षा आने की
संभावना है, आप देखते
हैं, बादल
छाए हुए हैं, या इस समय
तेज गर्मी है,
स्कूटर की
चमक फीकी पड़
सकती है। नहीं
मैंने उसे कभी
इसका उपयोग
करते नहीं
देखा। वह तो
बस इसे साफ
करता, इसकी
देखभाल करता।
स्कूटर ही
उसका प्रिय था।
यह
मानवीय चेतना
का अधोगमन है।
तुम जितना
आसक्त होते हो
उतना ही तुम
निम्नस्तरीय
हो जाते हो; जितनी कम
आसक्ति उतना
अधिक तुम उठते
हो, उड़ते
हो।
और
वहां पर वह पल
आता है जिसके
बारे में
पतंजलि तुमसे
बात कर रहे
हैं, जब
तुम
आध्यात्मिक
शक्तियों से
संपन्न हो जाते
हो। याद रहे, उनसे आसक्त
मत हो जाना, क्योंकि वे
वास्तव में
सुंदर हैं, बहुत
तृप्तिदायी
हैं। तुम
उन्हें बस में
रखना पसंद
करोगे। योग
में बहुत से
लोग योग के
कारण नहीं, कैवल्य, मोक्ष
के कारण नहीं,
बल्कि विभूतियों,
सिद्धियों
के कारण रुचि
रखते हैं। वे
योग का अध्ययन
करते हैं, वे
गुरुओं के पास
जाते हैं—वे
चमत्कार करना
चाहते हैं।
'इन
शक्तियों से
भी अनासक्त
होने से, बंधन
का बीज नष्ट
हो जाता है।...'
पुन:
बंधन में बंध
जाने की यह
अंतिम
संभावना है।
यदि तुम इसके
पार जा सको तो
बीज दग्ध हो
जाता है।
'…...तब
आता है कैवल्य,
मोक्ष।’ तभी
मिलता है
मोक्ष।
तब तुम
पूरी तरह
मुक्त हो—स्वतंत्रता, परिपूर्ण
स्वतंत्रता—किसी
चीज से भी
आसक्त नहीं और
प्रेम से
ओतप्रोत, समग्र
अस्तित्व पर
अपना प्रेम
बरसाते हुए.. .सारे
अस्तित्व के
लिए वरदान और
अपने लिए आशीष।
लेकिन
व्यक्ति को हर
कदम पर सचेत
रहना पड़ता है।
मन चालाक है।
और तुम सोचते
रह सकते हो, हां, जब
चमत्कार
आएंगे तो मैं
उनसे आसक्त
होने नहीं जा
रहा हूं।
दुबारा सोचो,
तुम अपने
भीतर कहीं एक
इच्छा को
सक्रिय पाओगे।
उन्हें आने दो,
फिर हम
देखेंगे, पहले
उनको आने तो
दो। किसे फिकर
पड़ी है कैवल्य,
मोक्ष की? वे तो
लक्ष्य मालूम
नहीं पड़ते। बस
मुक्त, स्वतंत्र
होने के लिए? इसमें भी
कोई बात है?
लोग
मेरे पास आते
हैं और वे
कहते हैं, इस ध्यान
से हमें
छुटकारा कैसे
मिलेगा? मैं
कहता हूं और अधिक
ध्यान करो। वे
कहते है, किंतु
बात है क्या? शांति? शांति
तो सही है, लेकिन
हमें इससे कौन
सी असली शक्ति
मिलने जा रही
है?
शांति
लक्ष्य जैसी
मालूम नहीं
पड़ती। शक्ति—कुछ
ऐसा जिससे तुम
कुछ कर सको, कुछ ऐसा
जिसके द्वारा
तुम कुछ साबित
कर सको।
मैंने
एक कहानी सुनी
है, एक
बहुत अच्छी
कहानी।
मुझे
बताओ तो तुम
कैथेलिक लोग
कैथेड्रल्स
बनाने के लिए
इतना धन कहां
से पा जाते हो? एक रबाई
ने अपने मित्र
से पूछा।
अच्छा, एबी, देखो
हम कैथेलिकों
के पास एक
व्यवस्था है
जिसको
कन्फेशन, पश्चात्ताप
कहा जाता है।
जब कभी कोई
व्यक्ति कुछ
गलत करता है, वह चर्च आता
है, अपना
पाप स्वीकार
करता है, दान—पात्र
में कुछ डालता
है, और उसे
क्षमा कर दिया
जाता है, और
इस उपाय से हम'
धन की बड़ी
राशि एकत्रित
कर लेते हैं।
वास्तव
में, क्या
आश्चर्यजनक
व्यवस्था है।
हम शायद अपने
सिनागॉग में
इसे उपयोग कर
सकें। लेकिन
पहले आज की
रात मुझे अपने
साथ आने दो ताकि
तुम किस
प्रकार कार्य
करते हो मैं
उदाहरण सहित
समझ लूं।
ठीक है
एबी, एक
पादरी के रूप
में मेरे लिए
इसकी सख्त
मनाही है कि
तुमको मैं
अपने साथ रखूं
लेकिन यह देखते
हुए कि पिछले
कई सालों से
तुम मेरे इतने
अच्छे मित्र
रहे हो, मैं
तुम्हें बस, इस बार की
अनुमति दूंगा।
उसी
शाम वे
पश्चात्ताप
कक्ष में बैठ गए, पादरी
सामने बैठा था,
और एबी, अत्याधिक
उत्सुकतापूर्वक,
पीछे। उसी
समय पर्दे के
पीछे से एक
पुरुष की आवाज
सुनाई दी
फादर, मैंने
जघन्य पाप
किया है।
तुमने
क्या किया है, मेरे
बेटे?
पिछली
रात मैंने दो
औरतों के साथ
सहवास किया है।
ठीक है, तब तुम
दान—पात्र में
दो पाउंड रख
दो, तुम्हारे
पाप क्षमा कर
दिए जाएंगे।
एबी
बेहद
रोमांचित हो
गया। अब दूसरे
व्यक्ति की
आवाज सुनाई
पड़ी :
फादर, मैंने
घनघोर पाप
किया है
तुमने
क्या किया है, मेरे
बेटे?
पिछली
रात मैंने तीन
औरतों के साथ
समागम किया है
ठीक है, तब तीन
पाउंड दान—पात्र
में डाल दो, और तुम्हारे
पाप क्षमा कर
दिए जाएंगे, मेरे बेटे।
एबी अब
अपने आपको और
ज्यादा नहीं
रोक पाया :
धन
कमाने का क्या
तरीका है; कितनी
आश्चर्यजनक
व्यवस्था है।
मेरा एक काम
कर दो। अगला
मामला मुझे
सौंप दो, ताकि
मैं जरा थोड़ा
अभ्यास कर लूं।
ठीक है, एबी, कायदे
की बात तो यह
है कि इसकी
अनुमति नहीं
है, लेकिन
यह देखते हुए
कि तुम वर्षों
से मेरे दोस्त
रहे हो, मैं
तुम्हें केवल
इस मामले की
अनुमति देता
हूं।
अत:
उन्होंने
स्थान बदल लिए
और एबी सामने
प्रतीक्षा
में बैठ गया।
इस बार एक
महिला की आवाज
सुनाई दी :
फादर
मैंने भीषण
पाप किया है।
अब, अब यह
क्या है जो
तुमने कर डाला?
पिछली
रात मैंने चार
पुरुषों के
साथ संसर्ग किया
है।
अब
पांच पाउंड
दान पात्र में
डालो और मैं
तुम्हें एक और
पुरुष के
संसर्ग की
इजाजत देता
हूं।
देखो!
मन अत्यंत
लोभी है, अहंकार और
कुछ नहीं
बल्कि लोभ है।
पतंजलि
ने यह अध्याय
लिखा, अनेंक
लोगों का
अनुभव है कि
अगर वे इसे न
लिखते तो
उत्तम रहता।
लेकिन उनके
पास बहुत
वैज्ञानिक मन
है। वे संभव
हो सकने वाली
सारी बात का नक्शा
खींचना चाहते
थे, और
उन्होंने यह
अध्याय बस
लोगों को सचेत
करने के लिए
लिखा कि ऐसी
चीजें घटती
हैं। जहां तक
मेरा संबंध है,
मैं सोचता
हूं कि
उन्होंने इसे
सम्मिलित करके
बिलकुल उचित
कार्य किया है,
क्योंकि
अनभिज्ञता
में तुम पर
लोभ के हावी
होने की अधिक
संभावना है।
यदि तुम्हें
पता है और तुम
सारे मामले को
समझते हो और
तुम जानते हो
कि अहंकार का
अंतिम आक्रमण
कहां होने
वाला है, तो
तुम अधिक
सावधानीपूर्वक
तैयारी कर
सकते हो, और
जब यह होता है
तो तुम
असावधान होकर
नहीं फंस
सकोगे।
मैं
पूर्णत:
प्रसन्न हूं
कि उन्होंने 'विभूतिपाद'
सिद्धियों
और शक्तियों
के बारे में
यह अध्याय
लिखा है, क्योंकि
भले ही तुम
उनकी खोज में
न हो वे अपने आप
से घट सकती
हैं। जितना
तुम अंदर की
ओर विकास करते
हो बहुत सी चीजें
अपने आप से
घटने लगती हैं।
ऐसा नहीं है
कि तुम उनको
खोज रहे हो या
उनकी तलाश में
हो—वे तो
परिणाम हैं।
प्रत्येक
चक्र की अपनी
शक्तियां
होती हैं। जब
तुम उनसे होकर
गुजरते हो, वे तुम्हारे
लिए उपलब्ध हो
जाती हैं।
व्यक्ति जहां
जा रहा है, वहां
से जान कर
गुजरना और
सतर्क रहना
शुभ है।
'तब
विभिन्न तलों
की अधिष्ठाता,
अधिभौतिक
सत्ताओं के
द्वारा भेजे
गए निमंत्रणों
के प्रति
आसक्ति या उन
पर गर्व से बचना
चाहिए, क्योंकि
यह अशुभ के
पुनर्जीवन की
संभावना लेकर
आएगा।’
जब ये
शक्तियां
घटने लगती हैं
तुम्हें
उच्चतर
सत्ताओं से, अधिभौतिक
सत्ताओं से
निमंत्रण
मिलने लगते हैं।
तुमने थियोसोफिस्टों
के बारे में
अवश्य सुना
होगा या तुमने
अवश्य पढ़ा
होगा। उनका
सारा कार्य
इन्हीं
अधिभौतिक
सत्ताओं से
संबंध है। वे
उन्हें 'दि
मास्टर्स' कहा
करते थे। ऐसी
अधिभौतिक
सत्ताएं हैं
जो मनुष्यों
से संवाद करती
रहती हैं। और
जब कभी तुम
ऊपर उठते हो
तुम उनके लिए
उपलब्ध हो
जाते हो, तुम
उनके साथ और
लयबद्ध हो
जाते हो।
तुम्हें अनेक
निमंत्रण, अनेक
संदेश मिलते
हैं।
यही है
जिसको
मुसलमान
पैगाम, संदेश कहते
हैं, और वे
मोहम्मद को
पैगंबर, संदेश
प्राप्त करने
वाला व्यक्ति
कहते हैं। वे
उनको अवतार
नहीं कहते, वे उन्हें
ईश्वर का
अवतरण नहीं
कहते। वे
उन्हें बुद्ध,
वह व्यक्ति
जो
ज्ञानोपलब्ध
हो गया है
नहीं कहते; वे उन्हें
जिन, वह
जिसनें जीत
लिया है नहीं
कहते; वे
उन्हें मसीहा,
क्राइस्ट
भी नहीं कहते।
नहीं। उनके
पास इसके लिए
अति परिशुद्ध,
वैज्ञानिक
शब्दावली है;
वे उन्हें
संदेशवाहक, पैगंबर कहते
हैं। इसका
अभिप्राय बस
यही है कि वे
ऊंचे उठ गए
हैं और अब वे
कार्यरत नहीं
रहे, कुछ
और सत्ताएं, उच्चतर
सत्ताएं उन पर
अधिकार कर
चुकी हैं। वे
एक माध्यम बन
गए हैं।
और यही
है भी।
मोहम्मद अनपढ़
थे; यह
सोच पाना या
कल्पना कर
पाना करीब—करीब
असंभव ही है
कि उन्होंने
कुरान जैसे
सुंदर काव्य
का सृजन कर
लिया होगा। यह
अतुलनीय रूप
से सुंदर है।
यह महानतम
गीतों में से
एक है; और
यदि तुम किसी
को इसका गायन
करते सुन सको
तो तुम तुरंत
ही इससे
प्रभावित हो
जाओगे। भले ही
तुम इसका अर्थ
न समझो, इसमें
अतिशय शक्ति
है। इसकी
ध्वनि में ही
तुम्हें
प्रकंपित
करने की
अत्याधिक
शक्ति है।
मोहम्मद
अनपढ़ थे, जानते ही
नहीं थे कि
कैसे पढ़ा जाता
है, कैसे
लिखा जाता है,
साहित्य और
शब्दों के
संसार के बारे
में वे कुछ भी
नहीं जानते थे।
अचानक ही एक
पर्वत पर
ध्यान करते
समय वे उपलब्ध
हो गए, और
उन्हें सुनाई
पड़ा— 'पढ़ो।’
यह शब्द 'पढ़ो।’ लेकिन
उन्होंने कहा
मैं कैसे पढ
सकता हूं? 'कुरान'
शब्द का
अभिप्राय है— 'पढ़ो।’ मैं
कैसे 'पढ़' सकता हूं? मैं तो
जानता भी नहीं,
मोहम्मद ने
कहा, और वे
बहुत अधिक
घबड़ा गए।
किसने कहा यह?
उनको कहीं
कोई दिखाई भी
न पड़ा। दुबारा
आवाज आई— 'पढ़ो।’
यह उनके अपने
हृदय से आ रही
थी; वे एक
माध्यम बन गए
थे। और
निःसंदेह वे
अपने अतीत के
बारे में सोच
रहे थे, और
यह आवाज उनके
भविष्य के
बारे में कुछ
कह रही थी। यह
आवाज कह रही
थी, मैं पढ
सकता हूं
चिंता मत करो।
बस पढ़ो—मैं
तुम्हारे
माध्यम से पढ़
रहा होऊंगा।
तुम गाओ—मैं
तुम्हारे
माध्यम से गा
रहा होऊंगा।
तुम कहो, मैं
तुम्हारे
माध्यम से कह
रहा होऊंगा।
बस जरा अपने
आप को रास्ते
से हटा लो।
यह
इतना विचित्र, इतना
अप्रत्याशित
था कि उन्हें
तेज बुखार हो गया;
वे इतना
अधिक परेशान
जो थे। वे घर
आए, बीमार
पड़ गए। उनकी
पत्नी ने पूछा,
क्या हो गया
है? सुबह
तो आप बिलकुल
भले— चंगे थे, और इतना तेज
बुखार? वे
बोले, मैं
तुम्हें एक
बात कहता हूं :
या तो मैं
पागल हो गया
हूं या उस पार
से कुछ घटित
हुआ है। मुझे
विश्वास ही
नहीं होता कि
मैं किसी काम
के योग्य भी
हूं लेकिन
मैंने एक आवाज
सुनी है जो
कहती है, पढ़ो!
गाओ! और मैं
नहीं जानता कि
क्या गाऊं—और
यही नहीं, मैंने
गाना शुरू भी
कर दिया।
मैंने खुद को
वे बातें कहते
हुए सुना
जिनके बारे
में मैंने कभी
सोचा भी नहीं
था, और वे
परिपूर्ण
काव्य की
भांति, लय,
ताल और सब
कुछ के साथ
बाहर आ रही
थीं। मैं तो
इस पर विश्वास
ही नहीं कर
सकता। या तो
मैं पागल हो
गया हूं या
मुझ पर किसी
ने कब्जा कर
लिया है। अब
मैं तुम्हारा
वही पति नहीं
रहा जो सुबह
घर से गया था, दौड़ो और
किसी वैद्य को
बुला कर लाओ, मुझे उपचार
की आवश्यकता
है। मैं
लगातार पागल
होता जा रहा
हूं। और मुझे
अब भी यही
आवाज सुनाई पड़
रही है— गाओ! और
सुंदर
कविताएं मेरे
भीतर उतर रही
हैं और मेरे
हृदय को भरती
जा रही हैं।
पत्नी
उनकी पहली
शिष्या थी।
उसने उनके
चरणस्पर्श
किए। वह उनके
चारों ओर
प्रभामंडल
देख सकी। यह
ज्वर नहीं था; यह उनके
आभामंडल का
प्रथम
प्रस्फुटन था।
वे
ज्वरग्रस्त
महसूस कर रहे
थे, क्योंकि
यह इतना
उत्तप्त, इतना
नया था, और
वे परेशान हो
गए थे, क्योंकि
वे तैयार नहीं
थे, उन्हें
ऐसी कोई आशा
नहीं थी, उन्होंने
इसके लिए कोई
योजना नहीं
बनाई थी।
यदि
उन्हें
पतंजलि के
बारे में पता
होता तो ऐसा
नहीं हुआ होता।
पतंजलि ने हर
बात लिख दी है; उन्होंने
सारी यात्रा,
अंतर्यात्रा
का नक्शा बना
दिया है। तो
वे इस सूत्र
को समझ गए
होते। इस
सूत्र की
आवश्यकता थी।
'तब
विभिन्न तलों
की अधिष्ठाता,
अधिभौतिक
सत्ताओं के
द्वारा भेजे
गए निमंत्रणों
के प्रति
आसक्ति या उन
पर गर्व से
बचना चाहिए, क्योंकि यह
अशुभ के
पुनर्जीवन की
संभावना लेकर
आएगा।’
लेकिन
पतंजलि कहते
हैं, स्मरण
रखो, जब
तुम उच्चतर
तलों के वाहक
बन जाओ, गर्व
करना मत आरंभ
करो, अपने
आप को चुने
हुए कुछ में
या चयनित
अनुभव करना मत
आरंभ करो। ऐसा
मत अनुभव करने
लगो कि
तुम्हें
छांटा गया, चुना गया, चयनित किया
गया है और तुम
विशिष्ट हो।
अन्यथा यही
तुम्हारे पतन
का कारण बन
जाएगा।
एक
सूफी कहानी है
एक
मुर्शिद के
मुर्शिद का
मुर्शिद, जब कि अभी वह
युवा ही था, लोगों के एक
समूह में बोल
रहा था। इस
समूह में एक
बड़ी आंखों
वाला दरवेश
साधारण भूरे
वस्त्र पहने
बैठा हुआ था।
यह दरवेश
लगातार वक्ता
की ओर देखता
रहा। उसने ऐसी
जानने वाली
दृष्टि से उसे
देखा कि वक्ता
घबड़ा गया और
वहां से हट
गया। वक्तव्य
समाप्त होने
पर यह दरवेश
उसके पास गया
और उससे बोला
कि वह उसे दीक्षा
देने के लिए
भेजा गया है। ऐसा
नहीं हो सकता,
मेरे पिता
पहले से ही
मेरी दीक्षा
के लिए व्यवस्था
कर चुके हैं।
मैंने
तुम्हें
बताया कि मुझे
भेजा गया है, दरवेश ने
कहा।
कोई
बात नहीं, मुझे
अपने पिता की
इच्छा को पूरा
करना चाहिए, युवक के
द्वारा इस
प्रकार से जोर
देने पर दरवेश
वापस लौट गया।
उस रात
उस व्यक्ति ने
स्वप्न देखा
कि उसके पिता
उसे दरवेश
द्वारा
दीक्षित हो
जाने के लिए
कह रहे हैं।
प्रातःकाल
में वह दरवेश
उसके कमरे में
यह कहते हुए
आया कि उसे
दीक्षा देने
उसको भेजा गया
है। क्या तुम
एक दिन पहले
की बात भी याद
नहीं रख सकते? जाओ, मेरे
पिता मेरी दीक्षा
के लिए
व्यवस्था कर
रहे हैं।
दरवेश
ने उसको देखा, वह अपनी आंखों
में
मुस्कुराया
और बोला, क्या
तुम अपना सपना
भूल चुके हो?
इस पर
वह व्यक्ति
नतमस्तक हो
गया और दरवेश
द्वारा
दीक्षित हो
गया। इसके बाद
कई दिनों तक
यह व्यक्ति
जीवन और पवित्र
ग्रंथों के
बारे में, हर
प्रकार के
प्रश्न इस
दरवेश से
पूछता रहा, जिनको उसने
कंधे उचका कर
अनुत्तरित
छोड़ दिया। एक
रात वह युवक
अपने कमरे में
बैठा सोच रहा
था कि निश्चित
रूप से वह इस
शिक्षक के साथ
कहीं नहीं
पहुंचेगा जो
उसके
प्रश्नों के
मामले में अज्ञानी
प्रतीत होता
है। इसी विचार
के समय दरवेश
वहां
प्रविष्ट हुआ
और उसने
फुसफुसा कर
गहरे विश्वास
के साथ कहा : 'तुम्हारे
प्रश्नों का
उत्तर मैं हूं।’
अब ये
कहानियां बस
कहानियों
जैसी लगती हैं—पौराणिक, काल्पनिक,
रूपक जैसी,
या अधिक से
अधिक
प्रतीकात्मक।
ऐसा नहीं है।
वे वास्तविक
हैं। यदि तुम
तैयार हो, तुरंत
ही उच्चतर
तलों से
संदेशों पर
संदेश तुम पर
आना आरंभ हो
जाते हैं। वे
लंबे समय से
प्रतीक्षरत
थे कि कोई
व्यक्ति
ग्रहणशील
केंद्र बन जाए।
जब ऐसा घटे, तो उनको
इनकार मत करना।
जब ऐसा हो, तो
खुले और
उपलब्ध रहना।
पहली बात, अपने
हृदय को, श्रद्धा
को, खोल
देना। और
दूसरी बात, गर्व अनुभव
मत करना। यदि
तुम ये दो काम
कर सके, परमात्मा
तुम्हारे
माध्यम से
कार्य करना आरंभ
कर देता है।
तुम एक
बांसुरी, एक
पोला बांस बन
जाते हो, वह
तुम्हारे
माध्यम से
गाना आरंभ कर
देता है।
लेकिन
एक बार गर्व आ
गया, गीत
बंद हो जाता
है। एक बार
तुमने
श्रेष्ठ
समझना आरंभ
किया नहीं कि
गीत कमजोर
पड़ने लगता है।
यह अनेक लोगों
के साथ हो
चुका है। वे
श्रेष्ठतर
संसार, उच्चतर
संसार, अधिभौतिक
विश्व के
संपर्क में आए
और तभी उन्होंने
गर्व अनुभव
करना आरंभ कर
दिया; तुरंत
ही या कुछ समय
के अंतराल में
यह संपर्क पुन:
खो गया, वे
सामान्य हो गए।
किंतु
तब वे बहुत
बड़े धोखेबाज
बन गए, क्योंकि
वे यह स्वीकार
नहीं कर सकते
हैं कि अब
संपर्क खो
चुका है।
मैंने ऐसे कई
लोग देखे हैं
जिनके पास
वास्तव में
चमत्कारी
शक्तियां थीं,
लेकिन तब वे
अभिमानी हो गए।
तभी शक्ति खो
गई और फिर वे
सामान्य
जादूगर बन गए,
क्योंकि वे
यह विचार
स्वीकार नहीं
कर सकते कि अब
वे ऐसा नहीं
कर सकते हैं।
वे यह किया
करते थे, ऐसा
एक बार हो
चुका है।
यही तो
हुआ है सत्य
साईंबाबा के
साथ। वे
संपर्क में आए
थे। पहला काम
जो उन्होंने
किया था वह
उनसे नहीं हुआ
था, लेकिन
अब सब कुछ वे
ही कर रहे हैं।
पहली बात तो
बस घट गई थी, लेकिन फिर
उन्हें
चमत्कारों का
नशा, विशिष्टता
का अभिमान हो
गया। अब जो
कुछ भी वे कर
रहे हैं वह
मात्र
धोखाधड़ी है, अब उन्हें
अपनी
प्रतिष्ठा
कायम रखनी है।
अब वे एक आम
जादूगर से भी
निम्नस्तरीय
हैं, क्योंकि
कम से कम एक आम
जादूगर यह
मानता तो है कि
वह तरकीबें कर
रहा है।
किंतु
यह तर्कयुक्त
प्रतीत होता
है। एक बार
तुम कुछ कर
सकते थे, और अब तुम
उसे न कर सको, तब किया
क्या जाए? इसके
विकल्प में
तुम कुछ और
करते हो। तुम
कुछ सीखना और
कुछ करना आरंभ
कर देते हो, किसी भी
प्रकार से
अपना वह स्तर
यथावत रखना है,
जो तुमने
अपने
चतुर्दिक
निर्मित कर
लिया है, अपनी
छवि जो तुमने
अपने चारों ओर
बना रखी है।
जब कभी
तुम्हारे साथ
कुछ घटित हो—और
यह अनेक के
साथ होने वाला
है, क्योंकि
मैंने बहुत सी
विधियां
तुम्हारे लिए
उपलब्ध करवा
दी हैं; यदि
तुम उनमें
गहरे उतरते हो,
तो अनेक
चीजें
तुम्हारे लिए
उपलब्ध होने
जा रही हैं—पहली
बात यह कि
उपलब्ध रहो; दूसरी बात
यह इस पर गर्व
मत करो। इसे
एक तथ्य की
भांति ग्रहण
कर लो, इसका
प्रदर्शन कभी
मत करो।
और यदि
यह तुम पर
बलपूर्वक आए, तो
शक्तियों से
कहो कि तुम्हें
एक छाया मात्र
बना दे कि
तुम्हें किसी
प्रकार से पता
ही न लगे कि
तुम्हारे
माध्यम से क्या
घट रहा है।
क्योंकि अगर
तुम जान गए, तो पूरी
संभावना है कि
तुम्हारा पतन
हो जाए, तुम
अहंकार का
संचय आरंभ कर
दो—मैं यह कर
सकता हूं मैं
वह कर सकता
हूं—और तुम
निम्नतर की ओर
फिसलने लगो।
आज इतना ही।
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