प्रश्न—सार:
1—आप कहते
हैं, 'पूरब
में हम’ कृपया
इसका
अभिप्राय
समझाएं?
2—आप संसार
में उपदेश
देने क्यों
नहीं जाते?
3—कपटी
घड़ियाल की
चेतना के बारे
में कुछ कहिए?
4—परस्पर
निर्भरता और
पूर्ण
स्वार्थ में
क्या संबंध है?
5—समर्पण के
लिए किस भांति
कार्य करूं?
6—क्या परम
ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति भी
बच्चों को जन्म
देते हैं?
पहला
प्रश्न :
जब
आप बुद्धिमत्ता,
अंतदृष्टियों
और संबोधि के
बारे में बात
करते है तो बहुधा
‘पूरब में
हम’ कहते
है। कृपया इस
वाक्यांश का
अभिप्राय समझाए।
पूरब
का पूरब से
कोई संबंध
नहीं है। पूरब
तो बस
अंतराकाश, चेतना
के भीतरी
संसार का
प्रतीक है।
पूरब धर्म का
प्रतीक है, पश्चिम
विज्ञान का
प्रतीक है।
इसलिए पूरब
में भी यदि
कोई व्यक्ति
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
उपलब्ध कर
लेता है, तो
वह पश्चिमी हो
जाता है। हो सकता
है कि वह पूरब
में ही रहे, हो सकता है
उसका जन्म
पूरब में ही
हुआ हो—इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता है। या
जब कभी कोई
धार्मिक
चेतना को
उपलब्ध करता है—हो
सकता है कि
उसका जन्म
पश्चिम में
हुआ हो, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता है—वह
पूरब का भाग
होने लगता है।
जीसस, फ्रांसिस,
इकहार्ट, बोहेमे, विटगिस्टीन,
यहां तक कि
हेनरी थोरो, इमरसन, स्वीडनबर्ग—वे
सभी पूर्वीय
हैं। सदा
स्मरण रखो, पूरब
प्रतीकात्मक
है। मेरा
भूगोल से कोई
लेना—देना
नहीं है।
इसलिए जब कभी
मैं कहता हूं 'पूरब में हम'
तो मेरा
अभिप्राय
होता है, वे
सभी लोग
जिन्होंने
भीतर के सत्य
को जान लिया
है। और जब कभी
मैं कहता हूं 'पश्चिम में
तुम' तो
मेरा
अभिप्राय बस
यही होता है—वैज्ञानिक
मन, तकनीकी
मन, अरस्तुवादी
मन; तार्किक,
गणितीय
वैज्ञानिक, जो भाव—उन्मुख
नहीं है; विषय
उन्मुख है
लेकिन विषयी उन्मुख
नहीं है।
एक
बार तुम इसको
समझ लो, तब
कोई समस्या न
रहेगी। सभी
महान धर्मों
का जन्म पूरब
में हुआ है।
पश्चिम ने अभी
तक कोई महान
धर्म पैदा
नहीं किया है।
ईसाईयत, यहूदी
धर्म, इस्लाम,
हिंदु धर्म,
जैन धर्म, बौद्ध धर्म,
ताओ धर्म, ये सभी पूरब में
जन्में हैं।
यह एक स्त्रैण
मन के जैसा
कुछ है, और
इसको ऐसा ही
होना पड़ता है,
क्योंकि
प्रत्येक
स्तर पर यिन
और यांग का, पुरुष ऊर्जा
और स्त्री
ऊर्जा का
सम्मिलन होता
है। वर्तुल को
विभाजित होना
पड़ता है। पूरब
स्त्रैण भाग
की भांति
कार्य करता है
और पश्चिम
पुरुष भाग की
भांति कार्य
करता है।
पुरुष
मन आक्रामक
होता है; विज्ञान
आक्रामक है।
स्त्रैण मन
ग्रहणशील
होता है; धर्म
ग्रहणशील है।
विज्ञान
भरपूर प्रयास
करता है। यह
प्रकृति को
उसके रहस्य
खोलने के लिए
बाध्य करता है।
धर्म मात्र
प्रतीक्षा
करता है, प्रार्थना
करता है और
प्रतीक्षा
करता है, उकसाता
है किंतु
बाध्य नहीं
करता, पुकारता
है, चिल्लाता
है, रोता
है, फुसलाता
है, प्रकृति
को करीब—करीब
बहला कर इसको
रहस्य और
गोपनीयताए
प्रकट करने के
लिए राजी कर
लेता है, लेकिन
यह प्रयास
स्त्रैण है।
इसलिए ध्यान।
जब प्रयास, पुरुष का, आक्रामक
होता है तो
प्रयोगशाला
की भांति होता
है प्रकृति को
सताने के लिए,
प्रकृति को
अपने रहस्य
अनावृत करने
के लिए, कुंजी
सौंप देने के
लिए, भांति—
भांति के
उपकरण। पुरुष
का मन एक
आक्रमण है।
पुरुष का मन
एक बलात्कारी
मन है, और
विज्ञान एक
बलात्कार है।
धर्म प्रेम
करने वाले का
मन है; यह
प्रतीक्षा कर
सकता है यह
अनंतकाल तक
प्रतीक्षा कर
सकता है।
इसलिए
जब कभी मैं
कहता हूं 'पूरब
में हम' तो
मेरा
अभिप्राय है
सभी धार्मिक
लोग, चाहे
उनका जन्म
कहीं हुआ हो, चाहे उनका
पालन—पोषण
कहीं भी हुआ
हो। वे सारे
संसार में
फैले हुए हैं।
पूरब सारे
संसार में
फैला हुआ है, जैसे पश्चिम
सारे संसार
में फैला हुआ है।
जब कभी कोई
भारतीय अपनी वैज्ञानिक
खोजों के लिए
नोबल
पुरस्कार
पाता है, तो
उसके पास
पश्चिमी मन है।
वह पूरब का
भाग नहीं रहा
है, अब वह
पूर्वीय
परंपरा का
हिस्सा नहीं
रहा। उसने
अपना घर बदल
लिया है, उसने
अपना पता बदल
लिया है। वह
अब अरस्तु के
पीछे खड़े
लोगों की पंक्ति
में सम्मिलित
हो गया है।
पूरब
तुम्हारे
भीतर है, हम
इसको पूरब
कहते हैं, क्योंकि
पूरब और कुछ
नहीं बल्कि
उदित होता हुआ
सूर्य—सजगता,
चेतना, बोध
है।
इसलिए
जब कभी मैं
कहता हूं 'पूरब
में हम' तो
कभी
दिग्भ्रमित
मत हो। मेरा
अभिप्राय उन
सभी देशों से
नहीं है जो पूरब
में हैं, जरा
भी नहीं। मेरा
अभिप्राय है
वह चेतना जो
पूर्वीय है।
जब मैं भारत
शब्द का
प्रयोग करता
हूं तो मेरा अभिप्राय
भारत नहीं
होता है। मेरे
लिए यह एक बड़ी
चीज है, यह
दूसरे देशों
की भांति
मानचित्र में
छपा केवल
भौगोलिक
भूखंड भर नहीं
है। यह मात्र
उस विराट ऊर्जा
का प्रतीक है,
जिसको
भारतवर्ष ने
अंतस के
अनुसंधान में
लगाया है।
इसलिए
तुम्हारा जन्म
चाहे कहीं हुआ
हो यदि तुम
परमात्मा की
ओर आने लगते
हो तो तुम
भारतीय बन
जाते हो।
अचानक भारत के
लिए तुम्हारी
तीर्थयात्रा
आरंभ हो जाती
है। तुम भारत
आ सकते हो या
तुम भारत नहीं
आ सकते हो यह
बात
अर्थपूर्ण
नहीं है।
लेकिन तुमने
अपनी
तीर्थयात्रा
आरंभ कर दी है।
और जिस दिन
तुम समाधि
उपलब्ध कर
लेते हो अचानक
तुम गौतम
बुद्ध, जिन
महावीर
उपनिषद के
दृष्टाओं, वेदों
के ऋषियों, कृष्ण और
पतंजलि का भाग
हो जाते हो।
अचानक तुम
तकनीकविद मन,
तार्किक मन
का हिस्सा
नहीं रहते हो,
तुम
तर्कातीत हो
गए हो।
दूसरा
प्रश्न:
जीसस,
क्राइस्ट, बुद्ध,
महावीर,
लाओत्सु,
इन सभी
संबुद्ध
लोगों के बारे
में ज्ञात है
कि वे सारे
संसार में
उपदेश देन गये
थे। आप ऐसा नहीं
कर रहे,
इसका क्या
कारण है?
मैं भी
वही कर रहा
हूं किंतु
थोड़े विपरीत
ढंग से। मैं
सारे संसार को
अपने चारों ओर
आने दे रहा हूं।
यह मेरा ढंग
है। बुद्ध ने
अपना कार्य
किया, मैं
अपना कार्य कर
रहा हूं।
प्रश्न:
इसे
मा प्रेम
माधुरी ने
पूछा है: मैं
स्वयं को
बहुधा उन
घड़ियालों
में से एक
पाती हूं,
जिनका आप उल्लेख
करते है। आरे
निश्चित ही
स्वामी बोधि
महान
दार्शनिक
होने का प्रत्येक
लक्षण
प्रदर्शित
करता है। यह
सुंदर है,
लेकिन कपटी
घड़ियाल की
चेतना के बारे
में कुछ
कहेंगे ?
स्त्री ने
लंबे समय से
पीड़ा झेली है
क्योंकि
स्त्रैण मन ने
लंबे समय तक
दुख उठाया है।
स्त्री का
लंबे समय तक
दमन हुआ है
क्योंकि
स्त्रैण चित्त
को दीर्घकाल
से दमित किया
गया है। दमन, शोषण,
उत्पीड़न की
शताब्दियों
पर शताब्दिया
व्यतीत हो गई
हैं, स्त्री
के प्रति बहुत
हिंसा की गई
है। स्वभावत:
वह चालाक हो
गई है।
स्वभावत: वह
पुरुषों को
सताने के
सूक्ष्म
उपायों का आविष्कार
करने में अति
चतुर हो गई है।
यह स्वाभाविक
है। दुर्बल का
यही का है।
छिद्रान्वेषण,
दोष खोजना,
बकवास करना—कमजोर
का यही उपाय
है। जब तक कि
तुम इसे न समझ
लो, तुम
इसको छोड़ नहीं
पाओगी।
स्त्रियां
क्यों लगातार
पुरुषों की
कमियां खोजती
रहती हैं, क्यों
उनको सताने के
लिए लगातार
उपाय और
विधियां
तलाशती रहती
हैं? यह
उनके अवचेतन
में है। यह
शताब्दियों
का दमन है
जिसने उनके
अस्तित्व को
विषाक्त कर
दिया है, और
निःसंदेह वे
सीधा आक्रमण
नहीं कर सकतीं।
अनेक कारणों
से यह संभव
नहीं है। एक, वे पुरुष से
अधिक कोमल हैं।
वे कराटे, अकीदो,
खे सीख सकती
हैं, लेकिन
इससे कोई
विशेष अतर
नहीं पड़ेगा।
वे कोमल हैं, यही उनका
सौंदर्य है।
यदि वे बहुत
अधिक कराटे और
को और जु—जित्सु
और अकीदो सीख
लेती हैं और
वे बहुत बलिष्ठ
और शक्तिशाली
हो जाती हैं, तो वे कुछ खो
देंगी, और
उनको मिलेगा
कुछ नहीं। वे
अपनी
स्त्रैणता खो
देंगी, वे
अपनी फूल जैसी
कोमलता, नजाकत
खो देंगी। यह
प्रयास
मूल्यवान
नहीं है।
स्त्री
कोमल है। उसे
वैसा ही होना
है। उसमें
पुरुष से अधिक
गहरी
लयबद्धता है।
वह पुरुष से
अधिक संगीतमय, अधिक
लयपूर्ण, अधिक
गोलाई लिए हुए
है। एक बात, अपनी कोमलता
के कारण वह
उतनी आक्रामक
नहीं हो सकती
है। एक और बात,
पुरुष उसको
एक निश्चित
ढंग से
प्रशिक्षित
करता रहा है; पुरुष उसको
एक निश्चित
ढंग का मन
देता रहा है, जो उसको
उसके बंधनों
से बाहर
निकलने की
अनुमति नहीं
देता। यह इतने
लंबे समय से
चलता रहा है
कि यह उसकी गहराइयों
तक पहुंच गया
है।
उसने
इसे स्वीकार
कर लिया है।
किंतु
स्वतंत्रता
एक ऐसी चीज है
कि चाहे कुछ भी
होता हो तुम
स्वातंभ्य
उन्मुख रहती
हो। स्वतंत्र
होने की इच्छा
तुम कभी नहीं
खोती, क्योंकि
यह धार्मिक
होने की इच्छा
है, यह
दिव्य होने की
इच्छा है।
चाहे कुछ भी
हो जाए
स्वतंत्रता
लक्ष्य बनी
रहती है।
इसलिए
जब विद्रोह
करने का कोई
उपाय न हो, और
सारा समाज
पुरुष के
नियंत्रण का
है, तब
क्या किया जाए?
इससे
संघर्ष कैसे
करें? अपने
थोड़े से
सम्मान की
रक्षा कैसे की
जाए? इसलिए
स्त्री चालाक
और
कूटनीतिज्ञ
हो गई है। वह
ऐसे काम करना
आरंभ कर देती
है जो
प्रत्यक्ष
रूप से नहीं
बल्कि
अप्रत्यक्ष
आक्रमण है। वह
पुरुष से
सूक्ष्म
ढंगों से
संघर्ष करती
है। इसने उसे
करीब— करीब एक
घड़ियाल जैसा
बना दिया है।
वह बदला लेने
के लिए अपने
अवसर की सतत
प्रतीक्षा
करती रहती है।
वह किसी
विशिष्ट बात
के लिए जिसके
विरोध में वह
संघर्षरत है,
सजग नहीं भी
हो सकती है, लेकिन वह बस
एक स्त्री है
और वह पूरी
स्त्री—जाति
का
प्रतिनिधित्व
करती है।
गौरवहीनता और
अपमान की
शताब्दियों
पर शताब्दियां
वहां उसके
अवचेतन में
हैं। संभवत:
तुम्हारे
पुरुष—साथी ने
तुम्हारे साथ
कुछ भी गलत न
किया हो, लेकिन
वह सभी
पुरुषों का
प्रतिनिधित्व
करता है। इसको
तुम भूल नहीं
सकतीं। तुम
पुरुष से, इसी
पुरुष से
प्रेम करती हो,
लेकिन तुम
उस संगठन को
प्रेम नहीं कर
सकतीं जिसे
पुरुषों ने
बनाया है। तुम
इस पुरुष से
प्रेम कर सकती
हो, किंतु
पुरुष को जैसा
वह है तुम
क्षमा नहीं कर
सकती हो। और
जब कभी तुम इस
पुरुष को
देखती हो, तुम्हें
वहां पुरुष—मन
मिलता है, और
तुम प्रतिशोध
लेना शुरू कर.
देती हो।
यह
बहुत अवचेतन
है। इससे
स्त्रियों
में एक विशेष
प्रकार की
विक्षिप्तता
उत्पन्न हो
जाती है।
पुरुषों की
तुलना में
स्त्रियां
अधिक संख्या
में विक्षिप्त
हैं। यह
स्वाभाविक है, क्योंकि
वे एक पुरुष
निर्मित समाज
में जो पुरुषों
के लिए तैयार
किया गया है
रहती हैं, और
उनको इसके
अनुरूप होना
पड़ता है। यह
पुरुषों
द्वारा
पुरुषों के
लिए निर्मित किया
गया है, और
उन्हें इसमें
रहना पड़ता है,
उनको इसके
अनुरूप होना
पड़ता है। उनको
अपने बहुत से
भाग काटने
पड़ते हैं, अपने
हाथ—पैर, जीवित
हाथ—पैर—बस
पुरुषों
द्वारा उनको
दी गई
यांत्रिक
भूमिका के
अनुरूप होने
के लिए उन्हें
पंगु होग पड़ता
है। वे संघर्ष
करती हैं, वे
प्रतिरोध
करती हैं, और
इस सतत संघर्ष
से एक विशेष
प्रकार की
विक्षिप्तता
का जन्म होता
है। इसी को
बिचिंग, कुतियापन
कहा जाता है।
मैंने
सुना है, एक
भद्र वृद्ध
महिला पालतू
जानवरों की
दुकान में गई।
दुकान के
प्रवेश द्वार
के पास ही एक
बहुत सुंदर
कुत्ता था, और उसने
दुकान के
मालिक से कहा,
आपने वह
अच्छा सा, प्यारा
सा कुत्ता
वहां बिठा रखा
है? दुकानदार
बोला, जी हाँ,
महोदया, वह
एक बहुत सुंदर
कुतिया (बिच)
है। है न
सुंदर?
वह
महिला
क्रोधित हो
उठी,
उसने कहा
क्या! अपने
शब्दों पर गौर
करें, ऐसे
शब्दों का
उपयोग मत
करें! नगर का
संभ्रांत
क्षेत्र है यह
थोड़ा और
सुसंस्कृत
बनिए!
दुकान
का मालिक भी
जरा हैरान हुआ
और घबड़ाया, वह
बोला, मुझको
खेद है, किंतु
क्या आपने
पहले कभी यह
शब्द प्रयोग
होने नहीं
सुना है?
उस
महिला ने कहा :
मैने इसे
प्रयोग किए
जाते सुना है, लेकिन
किसी प्यारे,
प्यारे
कुत्ते के लिए
कभी नहीं।
इसको
सदैव
स्त्रियों के
लिए प्रयोग
किया गया है।
अभी
उस दिन ही मैं 'बिचिंग'
नाम की एक
पुस्तक पढ़ रहा
था, निःसंदेह
इसे एक स्त्री
ने ही लिखा है।
कुछ
ऐसा है जो
बहुत, बहुत ही
गलत हो गया है।
यह एक स्त्री
का प्रश्न
नहीं है, यह
स्त्रीपन का
प्रश्न है।
लेकिन बकझक और
कुतियापन और
लगातार झगड़ते
रहने से इसका
समाधान नहीं
हो सकता है।
यह इसका हल
नहीं है। समझ
की आवश्यकता
है।
प्रश्न
निश्चित रूप
से सही है।
माधुरी
घड़ियाल जैसी
है,
और बोधि के
साथ वह बकवास
और झगडा खूब
कर रही है।
निःसंदेह
बोधि इसके
द्वारा
विकसित हो रहा
है। उसमें
बहुत सारा
परिवर्तन हो
गया है। इसका
सारा श्रेय
माधुरी को
जाता है। जब
तुम्हें एक
लगातार झगड़ने
और बक—बक करने
वाली स्त्री
के साथ रहना
पड़ता है तो यह
निश्चित है कि
या तो तुम
पलायन कर जाते
हो या तुम
दार्शनिक बन
जाते हो। केवल
दो रास्ते ही
उपलब्ध हैं.
या तो तुम भाग
जाओ या तुम यह
सोचना आरंभ कर
दो कि यह बस
माया, स्वप्न,
भ्रम है : यह
माधुरी और कुछ
नहीं बल्कि एक
स्वप्न है...।
तुम अनासक्त
हो जाते हो।
यह भी भागने
का ही एक उपाय
है। तुम
शारीरिक रूप
से वहां रहते
हो लेकिन
आत्मिक रूप से
तुम बहुत दूर
चले जाते हो।
तुम एक दूरी
निर्मित कर
लेते हो। तुम
उन आवाजों को
सुनते हो
जिन्हें
माधुरी निकाल
रही होती है, लेकिन ये
किसी अन्य
ग्रह की
आवाजों की तरह
प्रतीत होती
हैं। उसे अपना
काम करने दो; धीरे— धीरे
तुम अनासक्त
हो जाते हो, धीरे' धीरे
तुम उपेक्षा
करने लगते हो।
बोधि के लिए
यह शुभ रहा है।
अब
माधुरी पूछ
रही है : 'बोधि
के लिए यह
सुंदर है
लेकिन कपटी
घड़ियाल की
चेतना के बारे
में क्या?'
वही
करो जो बोधि
कर रहा है। वह
क्या कर रहा
है?
वह और अधिक
दर्शक बन रहा
है। जो तुम कह
रही हो और कर
रही हो उससे
वह अपमानित नहीं
हो रहा है।
यदि तुम उसको
चोट भी पहुंचा
रही हो, तो
वह इसको
देखेगा, जैसे
कि कुछ
स्वाभाविक
घटित हो रहा हो
: वृक्ष से
पुरानी
पत्तियां गिर
रही हैं—करना
क्या है? एक
कुत्ता भौंक
रहा है—करना
क्या है? रात
है और अंधेरा
है—करना क्या
है? व्यक्ति
स्वीकार कर
लेता है, और
इस स्वीकृति
में जो कुछ भी
घट रहा है
व्यक्ति उसको
देखता है। वही
करो। जैसे कि
बोधि तुमको
देख रहा है, तुम भी अपने
आप को देखो।
क्योंकि वह
घड़ियाल
तुम्हारे
अंतस का सत्व
नहीं है। नहीं,
यह किसी का आंतरिक
सत्य नहीं है।
यह घड़ियाल
उन्हीं घावों
से जन्मा है
जिन्हें तुम
मन में लिए हुए
हो, और उन
घावों का बोधि
से कोई लेना—देना
नहीं है। वे
घाव किसी और
ने दिए होंगे,
या शायद
किसी व्यक्ति
ने नहीं बल्कि
समाज ने ही दिए
हों।
जब
भी तुम
विक्षिप्त
ढंग से, विक्षिप्त
शैली में
व्यवहार करने
लगो, स्वयं
को देखो। इस
व्यवहार को
देखो।
जैसे
कि बोधि तुमको
देख रहा है, तुम
भी अपने आपको
देखो।
और
इस देखने से
एक दूरी
उत्पन्न हो
जाएगी, और
तुम अपने मन
को अनावश्यक
परेशानी
निर्मित करते
हुए देखने में
समर्थ हो
जाओगी, तुमको
एक सजगता
प्राप्त होगी।
चीजों को सतत
देखते रहने से
व्यक्ति मन से
बाहर आ जाता
है, क्योंकि
देखने वाला मन
के पार है।
यदि
तुम ऐसा नहीं
करती हो, तो
संभावना यही
है कि बोधि और
और दार्शनिक
और समझदार
होता जाएगा और
तुम और अधिक
छिद्रान्वेषी
हो जाओगी, क्योंकि
तुम सोचोगी कि
वह उदासीन हुआ
जा रहा है, तुम
सोचोगी कि वह
दूर जा रहा है,
और तुम उसको
और कठोरता से
चोट मारना
आरंभ कर दोगी,
तुम और अधिक
कलह करना आरंभ
कर दोगी। यह
देख कर कि वह
कहीं और जा
रहा है, तुमको
छोड़ रहा है, तुम और अधिक
प्रतिशोध
लेने लगोगी।
इससे पहले कि
यह घटित हो, सजग हो जाओ।
मैंने
सुना है, एक
व्यक्ति ने
अपनी पत्नी के
अंतिम
संस्कार के
खर्चों को
किस्तों में
चुकाने की
व्यवस्था की,
किंतु कुछ
महीने बाद उसे
कुछ वित्तीय
परेशानियां आ
गईं और वह
भुगतान जारी
नहीं रख पाया।
अंततोगत्वा
व्यवस्थापक
ने उसको फोन
किया और कहा, देखो, या
तो मुझे तुमसे
तुरंत कुछ धन
मिल जाए या
तुम्हारी
पत्नी फिर लौट
कर आ रही है।
ऐसी
परिस्थिति मत
उत्पन्न करो
कि जो व्यक्ति
तुम्हें
प्रेम करता है
तुम्हारी
मृत्यु के बारे
में सोचना
आरंभ कर दे, वह
जिसने चाहा
होता कि तुम
अमर हो जाओ, आशा बांधना
आरंभ कर दे कि
तुम मर जाओ, तो बेहतर
यही है कि तुम
मर जाओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन
फिल्मों के
पीछे दीवाना था।
प्रत्येक रात
वह इस सिनेमा
घर में होता
या उसमें। एक
दिन उसकी
पत्नी बोली, मैं
सोचती हूं यदि
एक रात के लिए
भी तुम घर में
रुक गए, तो
मैं मर जाऊंगी।
मुल्ला ने
पत्नी की और
देखा और वह
बोला, मुझे
रिश्वत देने
की कोशिश मत
करो।
ऐसी
परिस्थिति मत
निर्मित करो।
क्लब
के सबसे
पुराने और
अधिक
सम्मानित
सदस्य की
पत्नी का अभी
कुछ दिन पहले
ही निधन हो
गया था। उसके
साथी सदस्य शोक—सभा
में अपनी
श्रद्धांजलि
व्यक्त कर रहे
थे,
और एक
व्यक्ति ने
कहा, अपनी
पत्नी को खो
देना कितना
कठिन है।
एक
और सदस्य स्वर
में कड़वाहट
घोलते हुए
फुसफुसाया, कठिन?
ऐसा हो पाना
करीब—करीब
असंभव है।
ऐसा
कोई कहता नहीं, किंतु
यही है वह
स्थिति जिसको
लोग निर्मित
कर लेते हैं—एक
बहुत कुरूप
स्थिति। और
मैं जानता हूं
कि तुम अनजाने
में इसे निर्मित
कर रही हो, और
मैं जानता हूं
कि तुम इसे
ठीक इसके उलटे
की आशा में
निर्मित कर
रही हो। कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि स्त्री
बस पुरुष की
शीतलता को
तोड्ने के लिए
उस पर प्रहार
करना आरंभ कर
देती है, बस
अवरोध हटाने
के लिए। वह
चाहती है वह
कम से कम थोड़ा
सा तो उत्तप्त
हो, कम से
कम क्रोधित ही
हो जाओ, किंतु
उत्तप्त तो हो।
वापस मुझ पर
चोट करो, लेकिन
कुछ करो तो! इस
प्रकार अलग
होकर मत खडे रहो।
लेकिन तुम ऐसी
स्थिति जितनी
अधिक बार
निर्मित
करोगी उतना ही
अधिक पुरुष को
अपने आप को
बचाना पड़ेगा
और बहुत दूर
जाना पड़ेगा।
धीरे— धीरे
उसको
अंतरिक्ष
यात्रा सीखनी
पड़ेगी, सूक्ष्म
शरीर की
यात्रा, जिससे
शरीर यहीं रहे
और वह बहुत
दूर चला जाए।
ये
दुष्चक्र
हैं। तुम
चाहती हो कि
वह तुम्हारे
निकट आए और
संबंधों में
उष्णता हो, वह
तुम्हारा
आलिंगन करे, किंतु तुम
ऐसी
परिस्थिति
निर्मित कर
देती हो जिसमें
ऐसा होना और—और
असंभव होता
जाता है। जरा
देखो, तुम
क्या कर रही
हो। और इस
व्यक्ति ने
विशेषत:
तुम्हारे साथ
कुछ नहीं किया
है। उसने
तुम्हें कोई
हानि नहीं
पहुंचाई है।
मुझे पता है
कि ऐसी
परिस्थितियां
होती हैं जब
दो व्यक्ति
सहमत नहीं
होते हैं, किंतु
यह असहमति
विकास का एक
भाग है। तुम
ऐसा कोई
व्यक्ति नहीं
पा सकतीं जो
तुम्हारे साथ
पूरी तरह राजी
होने जा रहा
हो। विशेषतौर
से स्त्रियां
और पुरुष सहमत
नहीं होते, क्योंकि
उनके पास अलग
तरह के मन
होते हैं, चीजों
के बारे में
उनके
दृष्टिकोण
भिन्न होते हैं।
वे भिन्न
केंद्रों के
माध्यम से
कार्य करते हैं।
इसलिए यह
नितांत
स्वाभाविक है
कि वे आसानी
से सहमत नहीं
होते, लेकिन
इसमें कुछ गलत
नहीं है। और
जब तुम किसी
व्यक्ति को
स्वीकार लेती
हो और तुम
किसी को प्रेम
करती हो, तब
तुम उसकी
असहमतियों को
भी प्रेम करती
हो। तुम लड़ाई—झगड़ा
आरंभ नहीं कर
देती हो, तुम
चालाकियां
करना नहीं
शुरू करती हो,
तुम दूसरे
का दृष्टिकोण
समझने का
प्रयास करती
हो। और यदि
तुम सहमत न भी
हो सको, तो
तुम असहमत
होने के लिए
सहमत हो सकती
हो। किंतु फिर
भी एक गहरी सहमति
बनी रहती है
कि ठीक है हम
असहमत होने के
लिए सहमत हैं।
इस मामले में
हम सहमत नहीं
होने जा रहे
हैं, ठीक
है लेकिन
संघर्ष की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
संघर्ष
तुम्हें और
निकट नहीं
लाने जा रहा
है, यह और
दूरी उत्पन्न
कर देगा। और
बहुत सा, तुम्हारा
करीब पचानवे
प्रतिशत झगड़ा
नितांत
आधारहीन होता
है, अधिकतर
यह गलतफहमी से
उत्पन्न होता
है। और हम
अपनी स्वयं की
खोपड़ियों में
इस कदर उलझे
हुए हैं कि हम
दूसरे
व्यक्ति को, उसके मन में
क्या है, इसको
प्रदर्शित
करने का अवसर
ही नहीं देते।
इस
मामले में भी
स्त्रियां
बहुत अधिक
भयभीत हैं।
फिर यह पुरुष
मन और स्त्रैण
मन की समस्या
है। पुरुष
अधिक
तर्कनिष्ठ है।
इतना तो
स्त्रियों ने
सीख ही लिया
है कि यदि तुम
तर्क से बात
करोगी तो
पुरुष विजयी
हो जाएगा।
इसलिए वे तर्क
नहीं करतीं, वे
झगड़ा करती हैं।
वे क्रोधित हो
जाती हैं और
जो वे तर्क से
नहीं कर सकतीं
उसे वे अपने
क्रोध के
द्वारा कर
लेती हैं। वे
तर्क के
विकल्प में
क्रोध से काम
लेती हैं और
निःसंदेह
पुरुष यह सोच
कर कि इतनी
छोटी सी बात
के लिए इतनी
झंझट क्यों' पैदा करना? राजी हो
जाता है।
लेकिन यह कोई
सहमति नहीं है,
और यह दोनों
के बीच एक
अवरोध की
भांति कार्य
करेगा।
उसके
तर्क को सुनो।
ऐसी
संभावनाएं
हैं कि वह ठीक
भी हो सकता है, क्योंकि
आधे संसार, बाहरी संसार,
वस्तुगत
संसार तक तर्क
से ही पहुंचा
जा सकता है।
इसलिए जब कभी
भी बाहरी
संसार का
प्रश्न हो, तो अधिक
संभावना यही
है कि पुरुष
सही हो सकता
है। लेकिन जब
कभी भी यह आंतरिक
संसार का
मामला हो, तो
इस बात की
अधिक संभावना
है कि स्त्री
सही हो सकती
है क्योंकि
वहां तर्क की
आवश्यकता नहीं
है। इसलिए यदि
तुम कार
खरीदने जा रही
हो तो पुरुष की
सुनो, और
यदि तुम किसी
चर्च, धर्म
के पंथ को
चुनने जा रहे
हो तो स्त्री
की सुनो।
लेकिन यह करीब—करीब
असंभव है। यदि
तुम्हारी
पत्नी है तो
तुम अपने लिए
कार नहीं चुन
सकते, लगभग
असंभव है यह
बात। वही इसे
चुनेगी। न
सिर्फ यह
बल्कि वह
पिछली सीट पर
बैठ जाएगी और
इसे चलाएगी भी।
पुरुष
और स्त्री को
एक निश्चित
समझ और सहमति
पर आना पड़ेगा
कि जहां तक
वस्तुओं और
पदार्थों का
संसार है
पुरुष उचित और
सही के लिए अधिक
ठीक है। वह
तर्क के
माध्यम से
कार्य करता है, वह
अधिक वैज्ञानिक
है, वह
अधिक
पाश्चात्य है।
जब कोई स्त्री
भावना से
कार्य करती है
तो वह अधिक
पूर्वीय, अधिक
धार्मिक है।
इस बात की
अधिक संभावना
है कि उसका
भावपक्ष उसको
ठीक रास्ते पर
लेकर जाएगा।
इसलिए यदि तुम
चर्च जा रहे
हो तो अपनी
स्त्री का
अनुगमन करो।
उसके पास उन
चीजों के लिए
अधिक सही अनुभूति
है जो भीतर के
संसार की हैं।
और यदि तुम
किसी व्यक्ति
को प्रेम करती
हो तो धीरे—
धीरे तुम उसकी
समझ तक पहुंच
जाती हो, और
दो प्रेमियों
के मध्य एक
मौन सहमति बन
जाती है. कौन
किस मामले में
ठीक होने वाला
है।
और
प्रेम सदैव
समझ से
परिपूर्ण
होता है।
बाह्य
अंतरिक्ष से
आए हुए दो
परग्रहीय
प्राणी एक सड़क
से गुजर रहे
थे,
कि
उन्होंने एक
यातायात
संकेत को देखा।’मुझे लगता
है कि वह
तुमको चाहती
है', पहले
प्राणी ने कहा।’एक तो
तुम्हें आख
मार रही है।’तभी संकेत
बदल कर जाओ से
रुको हो गया।’ठीक महिलाओं
की भांति', दूसरा
प्राणी
बड़बड़ाया, 'अपने
मन को एक क्षण
से अगले क्षण
तक स्थिर नहीं
रख सकतीं।’
एक
स्त्री के लिए
अपने मन को एक
राय पर कायम
रख पाना बहुत
मुश्किल है, क्योंकि
उसके मन में
अधिक तरलता है,
वह एक
प्रक्रिया
जैसा अधिक है,
उसमें
ठोसपन बहुत कम
है। यही उसका
सौंदर्य और
प्रसाद है। वह
नदी जैसी अधिक
है, परिवर्तित
होती चली जाती
है। पुरुष
अधिक ठोस, अधिक
वर्गाकार, अधिक
निश्चित, निर्णय
लेने में
सक्षम है।
इसलिए माधुरी
जहां फैसले
लेने हों, बोधि
की सुनो।
और
जब निर्णयों
की जरूरत न हो
बल्कि यूं, ही
उद्देशयविहीन
चहलकदमी करना
हो, तब तुम
बोधि को अपनी
बात बता कर
उसकी सहायता कर
सकती हो, और
वह सुनेगा।
स्त्रैण
मन अनेक
रहस्यों को
उदघाटित कर
सकता है; ऐसे
ही पुरुष का
मन कई रहस्यों
को उदघाटित कर
सकता है; लेकिन
जैसे कि धर्म
और विज्ञान
में संघर्ष है
ऐसे ही स्त्री
और पुरुष के
मध्य संघर्ष
है। ऐसी आशा
लगाई जा सकती
है कि किसी
दिन स्त्री और
पुरुष एक—दूसरे
के साथ संघर्ष
करने के बजाय
एक— दूसरे के
पूरक बन
जाएंगे, लेकिन
यह वही दिन
होगा जब
विज्ञान और
धर्म भी एक—दूसरे
के पूरक बन
जाएंगे।
विज्ञान
समझपूर्वक
सुनेगा कि
धर्म क्या कह
रहा है और
धर्म
समझपूर्वक
सुनेगा कि
विज्ञान क्या
कह रहा है। और
वहां कोई
अनाधिकार
हस्तक्षेप
नहीं होगा, क्योंकि
दोनों के
क्षेत्र
आत्यंतिक रूप
से भिन्न हैं।
विज्ञान बाहर
की ओर जाता है,
धर्म भीतर
की ओर जाता है।
स्त्रियां
अधिक
ध्यानपूर्ण
हैं,
पुरुष अधिक
मननशील हैं।
वे बेहतर ढंग
से विचार कर
सकते हैं।
अच्छी बात है,
जब सोच—विचार
की आवश्यकता
हो, पुरुष
की सुनो। स्त्रियां
बेहतर ढंग से
अनुभूति कर
सकती हैं।
जहां अनुभूति
की आवश्यकता
हो, स्त्री
की सुनो। और
अनुभूति तथा
विचार दोनों
मिल कर जीवन
को संपूर्ण
बनाते हैं।
इसलिए यदि तुम
वास्तव में
प्रेम में हो
तो तुम यिन—यांग
प्रतीक बन
जाओगी। क्या
तुमने चीन का
यिन—यांग
प्रतीक देखा है?
दो मछलियां
परस्पर मिल
रही हैं और
करीब—करीब एक—
दूसरे में
विलीन हुई जा
रही हैं, वे
एक गहरी
गतिशीलता में
हैं और ऊर्जा
का वर्तुल
पूर्ण कर रही
हैं। स्त्री
और पुरुष, मादा
और नर, रात
और दिन, विश्राम
और श्रम, विचार
और अनुभूति ये
सभी एक—दूसरे
के
प्रतिद्वंद्वी
नहीं है, वे
पूरक हैं। और
यदि तुम किसी
स्त्री के या
पुरुष के साथ
प्रेम में हो
तो तुम दोनों
के अपने
अस्तित्वों में
आत्यंतिक रूप
से वृद्धि
होती है। तुम
पूर्ण हो जाते
हो।
यही
कारण है कि
मैं कहता हूं
कि परमात्मा
की हिंदुओं की
अवधारणा ईसाई, यहूदी,
इस्लामी या
जैन
अवधारणाओं की
तुलना में
अधिक
परिपूर्ण है;
किंतु
दोनों
अवधारणाएं ही
हैं। महावीर
अकेले खड़े हैं;
उनके चारों
और कोई स्त्री
नहीं दिखती।
यह बस एक
पुरुष का मन
है, अकेला;
पूरक वहां
नहीं है।
वर्तुल में
केवल एक ही
मछली है, दूसरी
मछली वहां
नहीं है। यह
आधा वर्तुल है।
और आधा वर्तुल
तो वर्तुल है
ही नहीं
क्योंकि किसी
वर्तुल को आधा
कहना करीब—करीब
बेतुकी बात है।
वर्तुल को
पूरा होना
चाहिए केवल तब
ही यह वर्तुल
है। वरना यह
वर्तुल जरा भी
नहीं है।
ईसाई
परमात्मा
अकेला है; उसके
पास किसी
स्त्री की
अवधारणा नहीं
है। कुछ चूक
रहा है। इसीलिए
ईसाई या यहूदी
ईश्वर इतना
अधिक पुरुष—सम
प्रतिशोधपूर्ण,
क्रोधित, छोटे—छोटे
पापों के लिए
विध्वंस करने
को तत्पर, लोगों
को हमेशा के
लिए नरक में
डाल देने को
आतुर है।
उसमें कोई
करुणा नहीं है,
बहुत कठोर,
चट्टान
जैसा है वह।
परमात्मा की
हिंदू
अवधारणा
वास्तविकता
के अधिक निकट
है; यह एक
वर्तुल है।
राम को तुम
सीता के साथ
देखोगी, शिव
को तुम देवी
के साथ देखोगी,
विष्णु को
तुम लक्ष्मी के
साथ देखोगी, पूरक सदैव
वहां होता है।
दूसरे
देवताओं की
तुलना में जो
करीब—करीब
अमानवीय हैं,
हिंदू
देवता अधिक
मानवीय हैं।
हिंदू देवता
लगभग ऐसे ही
हैं जैसे कि
वे तुम्हारे
बीच से बिलकुल
तुममें से ही
आए हों, ठीक
तुम्हारी तरह
अधिक शुद्ध, अधिक पूर्ण,
लेकिन
तुमसे जुड़े
हुए। वे
असंबधित नहीं
हैं, वे
तुम्हारे
जीवन के
अनुभवों से
जुडे हुए हैं।
प्रेम
को अपनी
प्रार्थना भी
बन जाने दो।
निरीक्षण करो, अपने
भीतर के
घड़ियाल का
निरीक्षण करो
और इसको त्याग
दो, क्योंकि
यह घड़ियाल
तुमको गहन
प्रेम में
खिलने नहीं
देगा। यह
तुम्हें
विनष्ट कर
डालेगा और
विध्वंस कभी किसी
को परितृप्त
नहीं करता।
विध्वंस हताश
करता है।
परितृप्ति
केवल गहरी
सृजनात्मकता
से फलित होती
है।
एक
विनम्र छोटा
आदमी अपनी
पत्नी के
अंतिम संस्कार
से लौट कर बस
अपने घर आ रहा
था। जैसे ही
वह अपने घर के
सामने वाले
दरवाजे पर पहुंचा
घर की छत से
चिमनी टूट कर
नीचे आई और
उसकी पीठ पर
धड़ाम से गिर
पडी। ऊपर
देखता हुआ वह
बड़बड़ाया, आह..
.वह वापस लौट
आईं। जो तुमको
प्रेम करता है,
उसकी अपने
मन में ऐसी
छवि मत
निर्मित करो।
और
पुरुष को
विकसित होने
के लिए स्त्री
से बहुत कुछ
चाहिए—उसका
प्रेम, उसकी
करुणा, उसकी—
उष्णता।
पुरुष और
स्त्री के
बारे में
पूर्वीय समझ
यह है कि
स्त्री मूलत
एक मां है। एक
छोटी सी बच्ची
भी अनिवार्यत:
एक मां है, एक
विकसित होती
हुई मां।
मातृत्व कोई
ऐसी बात नहीं
है जो आकस्मिक
घटना की भांति
घटती हो, यह
स्त्री में
होने वाला
विकास है।
पितृत्व बस एक
सामाजिक
औपचारिकता है;
यह
अनिवार्य
नहीं है।
वस्तुत:
स्वाभाविक
नहीं है यह।
इसका
अस्तित्व
केवल मानव समाज
में है, इसे
मनुष्य ने
निर्मित किया
है। यह एक
संस्था है।
मातृत्व कोई
संस्था नहीं
है, पितृत्व
है। पुरुष में
पिता बनने के
लिए कोई आंतरिक
अनिवार्यता
की अनुभूति
नहीं होती।
जब
कोई पुरुष
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ता है तो वह
प्रेमिका खोज
रहा है, जब
कोई स्त्री
किसी पुरुष के
प्रेम में
पड़ती है तो वह
किसी ऐसे को
खोज रही है जो
उसको मां बना
देगा। वह किसी
ऐसे को खोज
रही है जो
उसके बच्चों
का पिता बनना
चाहेगा। यही
कारण है कि जब
कोई स्त्री
किसी पुरुष को
पाने का
प्रयास करती
है तो उसकी
कसौटी अलग ढंग
की होती है।
शक्तिशाली, क्योंकि उसे
सुरक्षा की
आवश्यकता
होगी और उसके
बच्चों को
सुरक्षा की
आवश्यकता
पड़ेगी। धनवान,
क्योंकि
उसको सुरक्षा
की आवश्यकता
होगी और बच्चों
को सुरक्षा की
आवश्यकता
होगी। जब कोई
पुरुष किसी
स्त्री की खोज
करता है तो उसको
केवल पत्नी की
चाहत होती है।
उसे केवल एक सुंदर
स्त्री की
अभिलाषा होती
है जिसके साथ
वह आनंदित हो
सके और रह सके।
उसको पिता
होने की कोई
बहुत फिकर
नहीं रहती।
यदि वह पिता
बन जाता है तो
यह आकस्मिक
घटना है। यदि
वह इसे भी
पसंद करने
लगता है तो
ऐसा भी अकस्मात
होता है
क्योंकि वह उस
स्त्री को
प्रेम करता है,
और बच्चों
का आगमन उसी
के माध्यम से
हुआ है। वह
बच्चों को
स्त्री के
माध्यम से
प्रेम करता है,
और स्त्री
पुरुष को
बच्चों के
माध्यम से
प्रेम करती है।
निःसंदेह ऐसा
ही होना चाहिए;
वर्तुल
पूरा हो जाता
है। एक स्त्री
बुनियादी रूप
से एक मां है, मां होने की
खोज में है।
इसलिए
पूर्वीय
अवधारणा यह है
कि स्त्री मां
होने की खोज
में है और
पुरुष कहीं
गहरे में अपनी
खोई हुई मां
की खोज में है।
उसने मां के
गर्भ को, मां
की उष्णता को,
मां के
प्रेम को खो
दिया है। वह
पुन: उस
स्त्री को खोज
रहा है जो उसकी
मां बन सके।
पुरुष
आधारभूत रूप
से एक बच्चा
है। एक सत्तर
वर्ष या नब्बे
वर्ष की आयु
का का पुरुष
भी एक बच्चा
है। और एक
बहुत छोटी
बच्ची भी
मूलत: एक मां
है। इसी भांति
वर्तुल पूर्ण
हो जाता है।
पूरब
में,
उपनिषदों
के दिनों में,
ऋषिगण नव—दंपति
को एक नितांत
असंगत विचार
के साथ आशीष
दिया करते थे।
पश्चिम की
दृष्टि को
अतर्क्य
दिखेगा यह। वे
कहा करते थे, परमात्मा
तुम्हें दस
बच्चे प्रदान
करे और अंत
में तुम्हें
अपने पति की
मां बनने का
चरम सौभाग्य
भी प्राप्त हो।
इस प्रकार कुल
ग्यारह बच्चे;
दस बच्चे
पति के द्वारा
और अंततः पति
भी तुम्हारे
लिए एक बच्चा
बन जाए—ग्यारह
संताने हों
तुम्हारी। एक
स्त्री तभी
परितृप्त
होती है जब
उसका पति भी
उसके लिए
बच्चा बन जाता
है।
पुरुष
अपनी मां की
खोज करता रहता
है। जब कोई
पुरुष किसी
स्त्री के
प्रेम में
पड़ता है तो वह
पुन: अपनी मां
के प्रेम में
पड़ता है। किसी
भी भांति यह
स्त्री उसे
उसकी मां का
प्रतिभास
देती है। उसके
चलने का ढंग, उसका
चेहरा, उसकी
आंखों का रंग
या उसके बालों
का रंग, या
उसकी आवाज, कुछ ऐसी बात
जो उसको पुन:
उसकी मां का
खयाल दे देती
है। उसके शरीर
की उष्णता, उसकी कुशलता
की चिंता, जो
वह उसके बारे
में
प्रदर्शित
करती है, यही
उसकी खोई हुई
मां की तलाश
है। यह गर्भ
की खोज है।
मनोविश्लेषकों
का कहना है कि
स्त्री के
शरीर में
प्रवेश की
पुरुष की जो
अभिलाषा है वह
और कुछ नहीं
वरन पुन: गर्भ
में पहुंच
जाने की कामना
है। यह
अर्थपूर्ण है।
पुरुष के
द्वारा
स्त्री की देह
के भीतर
प्रविष्ट हो
जाने का कुल
प्रयास और कुछ
नहीं बल्कि
गर्भ तक
पहुंचने का
प्रयास है। एक
बार तुम समझ
लो कि
तुम्हारी
ऊर्जा और तुम्हारे
पुरुष साथी की
ऊर्जा के मध्य
क्या घटित हो
रहा है, वास्तव
में क्या चल
रहा है, इसका
निरीक्षण करो।
धीरे— धीरे
ऊर्जा एक वर्तुल
में घूमना
आरंभ कर देगी।
और
एक—दूसरे की
सहायता करो।
हम एक—दूसरे
की सहायता
करने के लिए
ही,
एक—दूसरे को
प्रसन्न और
आनंदित बनाने
को, और अंत
में स्त्री और
पुरुष के
सम्मिलन के
माध्यम से
परमात्मा को
घटित होने का
अवसर दिए जाने
के लिए ही साथ—साथ
हैं। प्रेम परिपूर्ण
ही तभी होता
है जब यह
समाधि बन जाए।
यदि अभी तक यह
समाधि नहीं है
और कलह और
संघर्ष और
छिद्रान्वेषण
जारी रहता है,
और लड़ाई—झगडा
और क्रोध, और
यह और वह, तब
तुम्हारा
प्रेम कभी
लयबद्ध
समग्रता नहीं बनेगा।
तुम्हें
परमात्मा कभी
नहीं मिलेगा,
उसको केवल
प्रेम में ही
पाया जा सकता
है।
चौथा
प्रश्न:
परस्पर
निर्भरता एक
उत्तम
अवधारणा है,
किंतु जब आप
हम सभी को पूर्ण
स्वार्थी होने
के लिए प्रोत्साहित
करते है तब यह किस
भांति संभव है?
पहली
बात,
परस्पर
निर्भरता
उत्तम नहीं है,
और यह कोई
अवधारणा भी
नहीं है।
यह
उत्तम तो जरा
भी नहीं है।
स्वनिर्भरता
उत्तम अनुभव
होती है, परनिर्भरता
बहुत, बहुत
कड्वी मालूम
देती है; परस्पर
निर्भरता न तो
उत्तम है और न
कड्वी। यह
बहुत संतुलन
बनाने वाली
चीज है; न
इस ओर और न उस
ओर। यह किसी
ओर नहीं झुकती,
यह एक
प्रशांति है।
और यह कोई
अवधारणा नहीं
है, यह एक
वास्तविकता
है। इसी भांति
है यह। जीवन
को जरा देखो
तो, और
तुम्हें कभी
कोई ऐसी वस्तु
न मिलेगी जो
परस्पर
निर्भर नहीं
है। प्रत्येक
वह वस्तु जो
अस्तित्व में
है परस्पर
निर्भरता के
सागर में ही
उसका
अस्तित्व है।
यह कोई
अवधारणा नहीं
है, यह कोई
सिद्धांत
नहीं है। तुम
बस सारे
सिद्धांतों, सारे
पूर्वाग्रहों
को छोड़ दो और
जीवन को देखो।
एक
छोटे से वृक्ष
को,
एक गुलाब की
झाड़ी को देखो
और तुम देखोगे
कि उस में
सारा
अस्तित्व
समाहित हो गया
है। पृथ्वी
द्वारा यह
सारे
अस्तित्व से
संबंधित है।
पृथ्वी के
बिना यह वहां
न होती। यह
वायु में
श्वास लेती
रहती है, यह
वायुमंडल से
संबंधित है।
सूर्य से इसे
ऊर्जा मिलती
रहती है।
गुलाब का
गुलाबपन
सूर्य के कारण
है, और ये
बहुत स्पष्ट
दीखने वाली
बाते हैं। वे
लोग जो इस
मामले में
गहरी छान—बीन
करने के लिए
कठिन परिश्रम
कर रहे हैं, उनका कहना
है कि कुछ
अदृश्य
प्रभाव भी
पड़ते हैं।
उनका कहना है
कि केवल यही
बात नहीं है
कि सूर्य
गुलाब को
ऊर्जा दे रहा
है, क्योंकि
जीवन में कुछ
भी एकतरफा
नहीं हो सकता।
वरना यह बहुत
अन्यायपूर्ण
जीवन होगा।
गुलाब लेता जा
रहा है और कुछ
दे नहीं रहा
है। नहीं, ऐसा
होना ही चाहिए
कि गुलाब भी
सूर्य को कुछ
दे रहा हो।
गुलाब के बिना
सूर्य भी किसी
बात से चूक
जाएगा। इसकी
खोज अभी भी
विज्ञान
द्वारा की
जानी शेष है, लेकिन गुह्य
विज्ञान
वादियों ने
सदैव अनुभव किया
है कि जीवन एक
आदान—प्रदान
है। यह
एकपक्षीय
नहीं हो सकता
है, अन्यथा
सारा संतुलन
खो जाएगा।
गुलाब अवश्य
ही कुछ दे रहा
होगा, शायद
एक विशेष
आह्लाद।
निश्चित रूप
से यह वायु को
सुगंध देता है,
और तय बात
है कि यह कुछ
सृजनात्मकता,
पृथ्वी के
लिए
सृजनात्मक
होने का एक
अवसर अवश्य
प्रदान करता
है। इसके
माध्यम से
पृथ्वी अवश्य
ही प्रसन्नता
का अनुभव कर
रही होगी कि
उसने एक गुलाब
का सृजन किया है।
यह अवश्य ही
परिपूर्णता
अनुभव कर रही
होगी। पृथ्वी
को एक गहरी
परितृप्ति और
संतुष्टि की अनुभूति
अवश्य हो रही
होगी।
प्रत्येक
वस्तु
संयुक्त है।
यहां पर कुछ
भी पृथक नहीं
है। इसलिए जब
मैं कहता हूं
परस्पर
निर्भरता, तो
मेरा यह
अभिप्राय
नहीं है कि यह
एक अवधारणा है,
एक
सिद्धांत है,
नहीं।
स्व
निर्भरता एक
अवधारणा है, क्योंकि
यह आत्यंतिक
रूप से झूठ है।
कभी किसी ने
कोई स्व
निर्भर चीज
नहीं देखी।
परम निर्भरता
भी झूठ है, क्योंकि
किसी ने कभी परम
निर्भर चीज
नहीं देखी है।
एक
बच्चे का जन्म
होता है, तुम
सोचते हो कि
वह पूर्णत:
असहाय और मां
पर निर्भर है?
क्या तुमको
दिखाई नहीं
पड़ता कि मां
को भी उससे
बहुत कुछ मिल
रहा है? वास्तव
में जिस दिन
बच्चे का जन्म
होता है, तभी
मां का भी एक
मां के रूप
में जन्म होता
है। इसके
पूर्व वह एक
साधारण
स्त्री थी। अब
बच्चे के जन्म
के साथ ही
उसके साथ कुछ
आत्यंतिक रूप
से नया घटित
हो गया है।
उसने मातृत्व
उपलब्ध कर
लिया है। केवल
ऐसा नहीं है
कि बच्चा मां
पर निर्भर है,
मां भी
बच्चे पर
निर्भर है। जब
कोई स्त्री
मां बनती है
तो तुमको उसमें
घटित होती हुई
एक विशेष
प्रकार की आभा,
उसमें घटित
होती हुई एक
विशेष प्रकार
की लयबद्धता,
दिखाई
पड़ेगी। यदि
मां की मृत्यु
हो जाती है, तो निःसंदेह
बच्चा जीवित
नहीं रह सकेगा।
किंतु यदि
बच्चे की
मृत्यु हो जाए,
तो क्या तुम
सोचते हो कि
मां बचने में
समर्थ हो पाएगी?
नहीं, मां
मर जाएगी।
पुन: स्त्री
शेष बच रहेगी,
मातृत्व
बच्चे के साथ
खो जाएगा। और
यह स्त्री
उससे कुछ कमतर
होगी जैसी वह
बच्चे के जन्म
से पूर्व थी।
वह सदैव किसी
बात से चूकती
रहेगी, बच्चे
के साथ उसके
अस्तित्व का
एक भाग खो गया है।
वह खोया हुआ
भाग लगातार एक
घाव की भांति
पीड़ा देता
रहेगा।
प्रत्येक
चीज परस्पर
निर्भर है।
वृक्ष
पृथ्वी से
पोषित होता
रहता है, वह
तुम्हें फल
दिए चला जाता
है, तुम फल
खाते रहते हो।
फिर तुम्हारा
देहावसान हो
जाता है और
पृथ्वी तुम्हें
अवशोषित कर
लेती है, और
पुन: वृक्ष
पृथ्वी से
आहार लेता है।
और फल? तुम्हारे
बच्चों के
बच्चे वृक्ष
के माध्यम से
तुमको खा रहे
होंगे।
प्रत्येक चीज
एक चक्र में
घूम रही है।
जिस समय तुम
एक सेब खा रहे
हो तो कौन
जानता है? तुम्हारे
दादा, तुम्हारी
दादी या
तुम्हारे पर—परदादा
उसी सेब में
हों; भलीभांति
चबा लो, अच्छी
तरह पचा लो, वरना
वयोवृद्ध
परदादा को
अच्छा
नहीं
लगेगा।
उन्हें पुन:
अपने
अस्तित्व का
हिस्सा बन
जाने दो। वे
सेब के माध्यम
से तुमको खोज
रहे हैं। वे
पुन: वापस लौट
आए हैं।
प्रत्येक
चीज परस्पर
निर्भर है।
इसलिए उत्तम
नहीं है यह, यह
कड़वा भी नहीं
है; यह एक
साधारण तथ्य
है। तुम इसका
मूल्यांकन
नहीं कर सकते,
क्योंकि
उत्तम और
कडुवापन
हमारे
मूल्यांकन हैं,
व्याख्याएं
हैं। और यह
कोई अवधारणा
नहीं है, यह
एक
वास्तविकता
है।
'किंतु जब आप
हम सभी को
पूर्ण
स्वार्थी
होने के लिए
प्रोत्साहन
करते हैं तब
यह किस भांति
संभव है?'
हां, यह
केवल तभी संभव
है यदि तुम
पूर्ण
स्वार्थी हो।
यदि तुम पूर्ण
स्वार्थी हो
तो ही तुम यह
देख पाओगे कि
यदि तुम
वास्तव में
प्रसन्न होना
चाहते हो तो तुमको
दूसरों को
प्रसन्न करना
पडेगा, क्योंकि
जीवन एक
परस्पर
निर्भरता है।
जब मैं कहता
हू स्वार्थी
बनो, तो
मैं कह रहा
हूं जरा अपनी
प्रसन्नता के बारे
में सोचो।
किंतु उस
प्रसन्नता
में बहुत कुछ
सम्मिलित है।
यदि तुम
स्वस्थ होना
चाहते हो, तो
तुमको स्वस्थ
लोगों के साथ
रहना पड़ता है।
यदि तुम
स्वच्छतापूर्वक
रहना चाहते हो,
तो तुमको
साफ—सुथरे
पड़ोस में रहना
पड़ता है। तुम
एक द्वीप की
भांति नहीं रह
सकते। यदि तुम
प्रसन्न होना
चाहते हो, तो
तुमको अपनी
प्रसन्नता
चारों और
बांटनी पड़ेगी।
ऐसा संभव ही
नहीं है कि
चारों और पीड़ा
का सागर हो और
तुम एक द्वीप
की भांति
प्रसन्न रहो,
असंभव। तुम
केवल एक
प्रसन्न
संसार में ही
प्रसन्न रह
सकते हो, तुम
केवल
प्रसन्नतापूर्ण
संबंधों में
प्रसन्न रह
सकते हो; तुम
सुंदर लोगों
के मध्य में
रह कर ही
सुंदर हो सकते
हो। इसलिए यदि
तुम वास्तव
में सुंदर
होने में रुचि
रखते हो तो
अपने चारों ओर
सौंदर्य
निर्मित करो।
वह
व्यक्ति जो
वास्तव में
स्वार्थी है, परोपकारी
बन जाता है।
वास्तविक रूप
से स्वार्थी
होना स्व के
पार जाना है।
वास्तविक
स्वार्थी
होना बुद्ध, जीसस बन
जाना है। ये
लोग नितांत
स्वार्थी लोग
हैं, क्योंकि
वे केवल आनंद
के बारे में
सोचते हैं।
किंतु अपने
आनंद के बारे
में सोचते हुए
उनको दूसरों
के आनंद के बारे
में भी सोचना
पड़ता है। मैं
नितांत
स्वार्थी हूं।
मैंने कभी
अपने स्वयं के
स्व के
अतिरिक्त किसी
के बारे में
कुछ नहीं सोचा।
लेकिन इसी सोच
में पिछले
दरवाजे से
प्रत्येक बात
आ जाती है।
मेरी
रुचि
तुम्हारी
प्रसन्नता
में,
तुम्हारे
आनंद में है।
मैं आनंदित
लोगों का एक
समुदाय
निर्मित करने
में उत्सुक
हूं। मैं
सुंदर लोगों
का एक उपवन
निर्मित करने
को उत्सुक हूं
क्योंकि यदि
तुम प्रसन्न
और आनंदित और
सुंदर हो तो
मैं आत्यंतिक
रूप से आनंदित
और प्रसन्न हो
जाऊंगा।
आनंद
बांटने से
बढ़ता है। यदि
तुम अपना आनंद
न बांटो तो यह
मर जाएगा, यदि
तुम अपनी
समाधि को नहीं
बांटते तो
शीघ्र ही तुम
पाओगे कि
तुम्हारे हाथ
रिक्त हैं।
इसलिए जब मैं
कहता हूं पूरी
तरह स्वार्थी
हो जाओ, तो
मेरा
अभिप्राय है,
यदि तुम
समझने का
प्रयास करते
हो कि
तुम्हारा स्व
क्या है, तुम्हारा
स्वार्थ क्या
है, तो तुम
देखोगे कि इसमें
प्रत्येक
व्यक्ति
सम्मिलित है,
संलग्न है।
और तुम्हारी
संलग्नता
महत् से
महत्तर, विशाल
से विशालतर हो
जाती है। एक
क्षण आता है
जब तुम इसको
एक तथ्य की
भांति देख
सकते हो कि
समग्र इसमें
संलग्न है।
बुद्ध
के बारे में
एक सुंदर
कहानी है।
वे
मोक्ष के
द्वार पर
पहुंच गए।
द्वार खोल
दिया गया, किंतु
उन्होंने
भीतर प्रवेश
नहीं किया।
द्वारपाल ने
कहा : सारी
तैयारियां हो
गई हैं, और
हम लाखों
वर्षों से
प्रतीक्षा कर
रहे थे। अब आप
आ गए हैं। यह
बहुत दुर्लभ
घटना है कि
कोई व्यक्ति
बुद्ध हो जाता
है। पधारिए।
आप वहां क्यों
खड़े हैं? और
आप इतने उदास
क्यों दिखाई
पड़ रहे हैं? बुद्ध ने
कहा : मैं कैसे
भीतर आ सकता
हूं? क्योंकि
लाखों लोग अभी
भी रास्ते पर
संघर्षरत हैं।
लाखों लोग हैं
जो अभी भी
पीड़ा में हैं।
मैं केवल तब
प्रवेश
करूंगा जब
अन्य सभी लोग
प्रविष्ट हो
चुके होंगे।
मैं यहीं खड़ा
रहूंगा और प्रतीक्षा
करूंगा।
अब
इस कहानी में
अनेक अर्थ हैं।
एक अर्थ यह है
कि जब तक कि
समग्र
ब्रह्मांड ज्ञान
को
उपल्यब्ध
नहीं हो जाता
कोई कैसे ज्ञानोपलब्ध
हो सकता है? क्योंकि
हम एक—दूसरे
के हिस्से हैं,
एक—दूसरे के
साथ संयुक्त
हैं, एक—दूसरे
के भाग हैं।
तुम मुझमें हो,
मैं तुममें हूं, इसलिए मैं
अपने आप को
अलग कैसे कर
सकता हूं? यह
असंभव है। यह
कहानी
आत्यंतिक रूप
से अर्थपूर्ण
और सच्ची है।
समग्र को ज्ञानोपलब्ध
होना पड़ेगा।
निःसंदेह, व्यक्ति
एक विशेष समझ
पा सकता है, लेकिन इस
समझ से
उदघाटित होगा
कि दूसरे भी
सम्मिलित हैं,
और चेतना एक
ही है।
स्वार्थी
होना समग्र
में पूरी तरह
से विलीन हो
जाना है, क्योंकि
केवल मूर्ख
लोग ही स्वयं
को बचाने की चेष्टा
करते रहते हैं।
और स्वयं को
बचाने की
चेष्टा में वे
स्वयं को विनष्ट
करते हैं।
जीसस कहते है :
स्वयं को बचाओ
और तुम खो
जाओगे। स्वयं
को खो द्रो।
स्वयं को बचाओ
और तुम खो
जाओगे! वे
तुमको स्वार्थी
होने की
सर्वश्रेष्ठ
विधियों में
से एक प्रदान
कर रहे हैं.
स्वयं को खो
दो और तुमको
मिलता है।
स्वयं को खोकर
तुम्हें
मिलता है।
चारों ओर
प्रसन्नता को
फैला कर तुम
प्रसन्न हो
जाते हो; चारों
ओर शांति फैला
कर तुम
शांतिपूर्ण
हो जाते हो।
'किंतु जब आप
हम सभी को
पूर्ण
स्वार्थी
होने के लिए
प्रोत्साहित
करते हैं, तब
यह किस भांति
संभव है।'
यह
केवल तब ही
संभव है जब
तुम पूर्ण
स्वार्थी हो।
तब तुम सदा
मतलब की बात
देख लोगे। यदि
तुम एक परिवार
में रहते हो, यदि
तुम पत्नी या
पति हो, तो
तुम यह देख
पाओगे कि यह
तुम्हारे
पक्ष में है
कि पति या
पत्नी
प्रसन्न हो।
बस यह स्वार्थ
ही है कि पति
प्रसन्न, गीत
गाता हुआ और
आह्लादित रहे,
क्योंकि
यदि वह उदास, अवसादग्रस्त,
क्रोधित हो
जाता है, तब
तुम भी लंबे
समय तक
प्रसन्न नहीं
रह सकोगी। वह
तुमको
प्रभावित
करेगा। सभी
कुछ संक्रामक
होता है। यदि
तुम प्रसन्न
होना चाहते हो,
तो तुम यही
पसंद करोगे कि
तुम्हारे
बच्चे भी प्रसन्न
और नृत्य मग्न
रहें, क्योंकि
यही एकमात्र
उपाय है जिससे
तुम्हारी
ऊर्जा
नृत्यमग्न
होगी। यदि वे
सभी उदास हैं,
बीमार हैं,
और अपने
कोने में
आभाहीन हुए
बैठे हैं, तो
तुम्हारी
ऊर्जा तुरंत
निम्नतर हो
जाएगी। जरा
निरीक्षण करो।
जब तुम ऐसे
लोगों के साथ
उठते—बैठते हो
जो प्रसन्न
हैं तो अचानक
तुम्हारी उदासी
खो जाती है, विलीन हो
जाती है! जब
तुम ऐसे लोगों
के साथ उठते—बैठते
हो जो उदास
हैं, तो
अचानक
तुम्हारी
ऊर्जा मंद हो
जाती है।
फिर
यह गणित आसान
है। यदि तुम
प्रसन्न होना
चाहते हो, लोगों
को प्रसन्न
करो। यदि तुम
वास्तव में ज्ञानोपलब्ध
होना चाहते हो,
तो लोगों की
ज्ञानोपलब्ध
होने में
सहायता करो।
यदि तुम
ध्यानपूर्ण
होना चाहते हो,
तो एक
ध्यानमय
संसार का सृजन
करो। यही कारण
है कि बुद्ध
ने
संन्यासियों
का विराट संघ,
एक महासागर
जैसा वातावरण,
जहां लोग
आकर स्वयं को
डुबा सकें, निर्मित
किया।
अभी
उस रात्रि. को
एक संन्यासी
मेरे पास आया
और वह बोला, मैं
संन्यास के
साथ बहुत असहज
अनुभव कद रहा
हूं क्योंकि
मुझको लगता है
कि मैं बस
किसी झुंड का
एक भाग बन गया
हूं। अब यह
बहुत अहंपूर्ण
दृष्टिकोण है।
बस भीड़ का एक
भाग? हर
व्यक्ति अलग
होना चाहता है,
हर व्यक्ति
स्व—निर्भर, स्वयं वही, एक शिखर की
भांति अकेला,
असंबंधित
होना चाहता है।
यही तो है अहंकार
की दौड। मैं
तुम्हें
गैरिक वस्त्र
देता हूं
तुम्हारे नाम
परिवर्तित कर
देता हूं और
धीरे— धीरे
तुम एक सागर
में खो जाते
हो जहां
तुम्हारा अलग
से कोई
अस्तित्व
नहीं रहता।
तुम स्वयं को
दूसरों के साथ
विलीन करना
आरंभ कर देते
हो। निःसंदेह
अहंकार आहत, असहज, असुविधापूर्ण
अनुभव करेगा।
लेकिन
तुम्हारा रोग
अहंकार है; इसे छोड
देना पड़ेगा।
और व्यक्ति को
अन—अस्तित्व
में: होने का, इतना
सामान्य, इतना
घुला—मिला
होने का, आनंद
लेने में
समर्थ होना
चाहिए कि आने
वाला कोई भी
व्यक्ति यह न
जान पाए कि
तुम दूसरों से
अलग हो, भिन्न
हो। किंतु
अहंकार के पास
बस एक ही
विचार होता
है. किस भांति
भिन्न और अलग
हुआ जाए।
मैंने
उस संन्यासी
से कहा नहीं।
मैं उससे कहना
तो चाहता था, परंतु
मैंने सोचा कि
शायद यह बात
उसे बुरी लगे।
ऐसा अहंकारी
जो सोचता है
कि बस गैरिक
में होना बहुत
असहज लगता है,
वह किसी
झुंड का
हिस्सा हो गया
है। मैं उससे
कहना चाहता था
कि बेहतर यही
रहेगा कि तुम
अपनी आधी मूंछ,
आधी दाढ़ी और
सिर के आधे
बाल साफ करा
लो, जिससे
तुम जहां कहीं
भी जाओ तुम
अलग रहोगे। और
अपने मस्तक पर
गोदने गुदवा
लो, और ऐसे
कार्य करो जो
कोई नहीं कर
रहा है। तुम
सदैव अच्छा और
बहुत
सुविधापूर्ण
अनुभव करोगे।
अहंकार वही कर
रहा है।
मैंने
एक व्यक्ति के
बारे में सुना
है जो बहुत
प्रसिद्ध
होना चाहता था, जो
समाचार
पत्रों में
अपनी
तस्वीरें
देखना चाहता
था। उसने अपने
सिर के आधे
भाग के बालों,
आधी मूंछें,
आधी दाढ़ी
साफ कर डाली, और वह नगर
में पैदल
घूमने लगा।
तीन दिन के
भीतर वह नगर
का सबसे
प्रसिद्ध व्यक्ति
हो गया। सभी
समाचार
पत्रों ने
उसकी
तस्वीरें
प्रकाशित कर
दीं, और
उसके चारों ओर
बच्चे शोर
मचाते और
चिल्लाते हुए
दौड़ने लगे, और उसने इस
सबका बहुत मजा
लिया। तुम भी
उसी ढंग से
वही कर सकते
हो।
अहंकार
भिन्न होना
चाहता है; और
इसीलिए
अहंकार झूठा
है, क्योंकि
भिन्नता झूठी
है। साथ—साथ
होना सच्चाई
है। प्रत्येक
विभाजन झूठा
और भ्रम है, और मिल—जुल
कर रहना सदैव
सच्चा और
वास्तविक है।
पांचवा
प्रश्न :
प्रवचन
के दौरान आप ‘प्रसन्नता
प्राप्त करना’ वाक्यांश का
प्रयोग करते है, और मेरा मन बीच
में कूद पड़ता
है, और अधिक
कार्य करो,
और कठोर श्रम करो।
किंतु मैं समर्पण
के लिए किस भांति
कार्य कर सकती
हूं? वह दीवानापन
लगता है।
यह
प्रश्न अमिदा
ने पूछा है।
उसके
पास एक बहुत
बड़ा कार्य—उन्मुख
मन है। कार्य
मूल्यवान है, खेल
मूल्यहीन है;
और जो कुछ
भी उपलब्ध
किया जाना है
उसे कार्य के
माध्यम से ही
उपलब्ध करना
पड़ता है। उसके
मन में यह
स्थायी आदत बन
चुकी है।
किंतु
प्रत्येक
व्यक्ति को
यही सिखाया
गया है। सारा
संसार कार्य
के इसी
नीतिशास्त्र
के अनुसार
जीया करता है।
खेल को तो
अधिक से. अधिक
बस सह लिया
जाता है।
कार्य की
प्रशंसा की
जाती है।
इसलिए
यहां भी जब
मैं समर्पण के
बारे में बात
कर रहा हूं जब
मैं ग्रहणशील
और स्त्रैण होने
की बात कर रहा
हूं तुम्हारा
कार्य—उन्मुख
मन बार—बार उठ
खड़ा होता। जब
कभी इसे थोड़ी
सी भी सहायता
मिलती है यह
तुरंत उठ खड़ा
होता है और
कहता है, ही।
इस शब्द 'उपलब्धि'
ने
तुम्हारे
भीतर विचारों
की श्रृंखला
आरंभ कर दी :
उपलब्धि? —कार्य,
कठोर श्रम
करना पड़ेगा।
बस एक शब्द ने
विचारों की
श्रृंखला को
उद्दीप्त कर
दिया, जैसे
कि मन बस
निरीक्षण कर
रहा था और
किसी ऐसी बात
की प्रतीक्षा
में था जिस पर
कूदने से इस को
सातत्य मिल
सके।
इसी
प्रकार से तुम
मुझको सुनते
हो। मुझे
शब्दों का
उपयोग करना
पड़ता है, शब्द
जो तुम्हारे
अर्थों से भरे
हुए हैं, वे
शब्द जिनको
तुमने
विभिन्न
ढंगों से समझ
रखा है, वे
शब्द जिनके
तुम्हारे साथ
विभिन्न
साहचर्य हैं,
संबंध हैं,
जिनके
तुम्हारे लिए
अर्थ भिन्न
हैं। मुझको
भाषा का उपयोग
करना पड़ता है,
और भाषा
बहुत खतरनाक
चीज है। बस
उपलब्धि शब्द
को सुन कर ही
पूरा कार्य—उन्मुख
मन सक्रिय हो
जाता है। तब
तुम मुझे नहीं
सुनते, वह
नहीं सुनते जो
मैं कह रहा
हूं। मैं कह
रहा हूं कि
उपलब्धि केवल
तभी संभव है जब
तुम उपलब्धि
का प्रयास
नहीं करते हो।
उपलब्धि केवल
तभी संभव है
जब उपलब्ध
करने का सारा
प्रयास त्याग
दिया जाता है,
क्योंकि
जिसको तुम
उपलब्ध करने
का प्रयास कर रहे
हो वह पहले से
ही वहां है।
इसे उपलब्ध
नहीं किया जा
सकता। इसको
उपलब्ध करने
का प्रयास ही
तुम और तुम्हारी
वास्तविकता
के मध्य अवरोध
निर्मित करना
जारी रखेगा।
किंतु मन
निरीक्षण
करता रहता है
और अपने लिए
कोई भी सहारा
पाने के लिए
सदैव तत्पर
रहता है।
मैं
तुम्हें एक
कहानी सुनाता
हूं।
एक
छोटे से गांव
में एक
पुलिसवाला
पिछले बीस वर्षों
से कार्यरत था
और स्थानीय
निवासियों में
वह कोई खास
लोकप्रिय
नहीं था।
स्थानीय गांव
का प्रिय
निवासी बनने
के स्थान पर, जैसे
कि वहां का
कसाई या वहां
का डाकिया था,
वह स्वयं को
किसी फिल्मी
नगर प्रमुख की
भांति समझता
था और बहुत
छोटे से मामले
को भी ऐसे निबटाता
था जैसे कि यह
स्काटलैंड
यार्ड की कोई
गुत्थी हो।
उसका अपनी
नौकरी के
प्रति लगाव का
परिणाम यह था
कि गांव के
प्रत्येक निवासी
को कोई न कोई
अभियोग पत्र
मिलना सिपाही
की शेखी और
गर्व का विषय
था। एक समय
ऐसा आया जब
उसे पता लगा
कि उसके गांव
के साथ जिसे
वह अपनी जागीर
समझा करता था,
छह गांवों
की चौकसी के
लिए वैकल्पिक
व्यवस्था कर दी
गई है, एक
पुलिस कार
वहां आ रही है।
उसे अचानक
स्मरण हो आया
कि उसने अभी
तक स्थानीय
पादरी के
खिलाफ कोई
मुकदमा दर्ज
नहीं किया है।
और उसका घमंड
उसे इस बात की
अनुमति नहीं
देता था कि इस
पादरी को
न्यायपीठ के
सम्मुख लाए
बिना वह अपनी
नौकरी से
अवकाश ग्रहण
कर ले। उसका
परिश्रम
व्यर्थ जा रहा
था। लेकिन
जैसे ही उसने
पादरी को
साइकिल से
गांव में
भ्रमण करते
हुए देखा, तो
उसने एक
जबरदस्त
योजना बनाई।
गांव की एक
मात्र पहाड़ी
की तलहटी में
खड़े हुए उसने
साइकिल चला
रहे पादरी को
ऊपर से आते
हुए देखो। जब
पादरी उससे
मात्र एक गज
दूर रह गया
तभी सिपाही
अचानक उसके
सामने आ खड़ा
हुआ, वह
सोच रहा था, यह मेरे पैर
पर साइकिल
अवश्य चढ़ा
देगा। मुझे
चोट लग जाएगी
और मैं साइकिल
के ब्रेक ठीक
न होने का
आरोप उस पर
लगा दूंगा।
पादरी ने
सामने खड़ी
समस्या को
भांप कर ब्रेक
लगा दिए और
पुलिस वाले के
बूटों से ठीक
आठ इंच पहले
उसकी साइकिल
रुक गई।
पुलिसवाले ने
हिचकिचाते
हुए अपनी
पराजय स्वीकार
कर ली और कहा, मैंने सोचा
था कि तुम्हें
इस बार फंसा
ही लूंगा, पादरी।
पादरी
ने कहा : जी ही, किंतु
परमात्मा
मेरे साथ था।
अब
पकड़े गए तुम
पुलिसवाले ने
कहा,
एक साइकिल
पर दो सवारी।
इसी
तरह मन चलता
चला जाता है—सतत
निरीक्षण।
कोई भी बहाना, तर्कयुक्त,
तर्क रहित,
कोई बहाना,
कोई भी
असंगति और मन
अचानक कूद
पड़ता है और
पुराने ढांचे
को जारी रखने
का प्रयास
करता है। मैं
तुमसे बहुत सी
बातें कह रहा
हूं और
निःसंदेह
मुझको भाषा का
प्रयोग करना
पड़ता है। सजग
हो जाओ, इस
चालाक मन के
प्रति सजग हो
जाओ जो ठीक
तुम्हारे
पीछे छिपा हुआ
है, और बस
किसी ऐसी बात
की प्रतीक्षा
कर रहा है जो इसके
और सबल होने
का बहाना बन
सके।
कार्य
अच्छा है, किंतु
कार्य कार्य
की भांति
कुरूप है, अच्छा
नहीं है।
कार्य अच्छा
है यदि यह भी
एक खेल हो।
कार्य अच्छा
है यदि इसमें
कोई आंतरिक
मूल्य निहित
हो। तुम
चित्रकारी
करते हो
क्योंकि
तुमको चित्रांकन
से प्रेम है, क्योंकि तुम
चित्रकला से
आनंदित होते
हो। निःसंदेह
यदि यह चित्र
बिक जाता है
और तुमको कुछ
धन प्राप्त हो
जाता है तो वह
गौण बात है, वह
महत्वपूर्ण
नहीं है, वह
मुख्य बात
नहीं है। यदि
तुमको धन मिल
जाता है, अच्छी
बात है, यदि
तुमको धन नहीं
मिलता, तो
तुम्हारा कुछ
खो भी नहीं
रहा है, क्योंकि
चित्रकारी
करते समय तुम
कितने आह्लादित
हो जाते हो।
तुम करीब—करीब
पुरस्कृत हो
जाते हो। तुम
अपने(प्रयास
से कहीं अधिक
पुरस्कृत हो
जाते हो। यदि
चित्र बिक सके
तो एक और
पुरस्कार, तुम
पर परमात्मा
अधिक दयालु हो
रहा है। लेकिन
जहां तक
तुम्हारे
पुरस्कार का
प्रश्न है, तुमको यह
पहले ही मिल
चुका है। जब
तुम अपना
चित्र बनाते
हो, जब तुम
अपना गीत
लिखते हो, जब
तुम बगीचे में
कार्य करते हो
और धूप में पसीना
बहाते हो, तुमको
तुम्हारा
पुरस्कार मिल
चुका है।
खेल
की भांति
कार्य करो, आनंद
की भांति
कार्य करो, पूजा की
भांति कार्य
करो, तभी
यह सुंदर हो
जाता है, इसमें
आह्लाद होता
है। एक आर्थिक
गतिविधि की
भांति कार्य
करना कुरूप है।
तब तुम बाजार
का एक हिस्सा
बन जाते हो।
तब तुम केवल
इसी बारे में
सोचते हो कि
ऐसा करके
तुमको क्या
मिलने जा रहा
है। तब तुम
कभी—अभी और
यहीं नहीं
होते। तब तुम
सदैव परिणाम
में होते हो, और परिणाम
भविष्य में
होता है। कभी
परिणाम
उन्मुख मत रहो,
मनुष्य के
मन का संताप
यही है, वर्तमान
उन्मुख रहो।
और कार्य के
माध्यम से
तुमको अपना
अंतर्तम अस्तित्व
नहीं मिलने जा
रहा है। तुमको
यह वर्तमान
में होकर सजग
होकर मिलने जा
रहा है। इसलिए
अपने कार्य का
भी एक
परिस्थिति की
भांति उपयोग
करो।
लेकिन
क्या होता है? तुम
मुझे सुनते हो,
तुम अपने मन
के भीतर जो मैं
कह रहा हूं
उसे संजो कर
रखते जाते हो।
तुम मुझे
वास्तव में
नहीं सुनते।
तुम संकेत
संकलित करते
रहते हो। तुम
समझ का संग्रह
नहीं करते, तुम संकेतों
का संकलन करते
हो, और यही
वह बात है जो
समस्याएं
उत्पन्न करती
है।
मैं
तुम्हें एक
कहानी और
सुनाता हूं।
पुराने
समय में
चिकित्सक लोग
रोगी देखने
जाते समय अपने
सहायक को भी
साथ ले जाया
करते थे। उस
आयरिश रोगी का
चेहरा लाल था
और उसका बुखार
बहुत तेज था।
डाक्टर ने उस
रोगी की पीठ
थपथपाई, उठ
खड़े होओ, और
थोड़ी गोभी के
साथ कॉर्न्ड
बीफ खा लो, उसने
रोगी से कहा।
अगले दिन वह
आयरिश व्यक्ति
पूर्ण स्वस्थ
होकर वापस काम
करने लगा।
सहायक ने नोट
कर लिया : लाल
चेहरा, तेज
बुखार, कॉर्न्ड
बीफ और गोभी।
इसके
थोड़े से समय
के बाद ही उस
डाक्टर की
अनुपस्थिति
में एक जर्मन
रोगी को देखने
के लिए इस नवयुवक
सहायक को
बुलाया गया, इस
रोगी का चेहरा
लाल था और उसे
तेज बुखार था।
सहायक ने उसे
कॉर्न्ड बीफ
और गोभी खाने
की सलाह दी।
ठीक अगले दिन
ही सहायक को
बताया गया कि
जर्मन रोगी का
निधन हो गया
है। उसने अपनी
नोट बुक में
तब यह बात
लिखी : कॉन्र्ड
बीफ और गोभी
आयरिश
व्यक्ति के
लिए अच्छे हैं,
जर्मनों को
मार डालते हैं।
यही
है जो तुम
मेरे साथ कर
रहे हो—संकेतों
का संकलन। जरा
समझने का
प्रयास करो कि
मैं क्या कह
रहा हूं।
संकेतों का
संकलन मत करो।
बस मुझको देखो, मैं
यहां क्या कर
रहा हूं। मेरे
और तुम्हारे
मध्य यहां ठीक
इसी क्षण में
क्या आदान—प्रदान
हो रहा है; अभी
इसी क्षण में
तुम्हारे और मेरे
मध्य ऊर्जा का
कैसा विनिमय
चल रहा है; इसका
निरीक्षण करो,
इसको अनुभव
करो और इसे
अपने
अस्तित्व में
घुल—मिल जाने
दो। नोट्स मत
बनाओ, वरना
तुम सदैव
परेशानी में
रहोगे।
अंतिम
प्रश्न....
और
यह बहुत गंभीर
प्रश्न है, कृपा
करके इसे मजाक
की तरह मत लेना।
चितानंद
ने पूछा है: यहां
पर केवल आप ही एक
मात्र व्यक्ति
है जो विक्षिप्त
नहीं है। आपने
बच्चों को जन्म
क्यों नहीं दिया? क्या
परम ज्ञान को उपलब्ध
व्यक्ति भी
कभी—कभार बच्चों
को जन्म देते
है?
मैंने
इसके बारे में
कभी सोचा नहीं।
भले
ही तुम मेरे
उत्तरों से
कुछ न सीखो, किंतु
मैं तुम्हारे
उत्तरों से
कुछ न कुछ सीखता
रहता हूं बहुत
अच्छा खयाल है
यह। मैं इसको
स्मरण रखूंगा।
लेकिन एक
व्यवहारिक
समस्या है : एक
ऐसी स्त्री पाना
जो अ—विक्षिप्त
हो, बहुत
कठिन है।
पहली
बात,
एक ऐसा
व्यक्ति पाना
ही कठिन है जो
विक्षिप्त न
हो और फिर एक
स्त्री? करीब—करीब
असंभव है।
कठिनाई
बहुगुणित हो
जाती है।
मैं
तुम्हें एक
कहानी सुनाता
हूं।
एक
बहुत धनवान महाजनी
का व्यवसायी
स्टॉक
एक्सचेंज में
एक सफल उद्यमी
के रूप में
प्रतिष्ठित
था,
लेकिन
गोल्फ के
मैदान में
बहुत फिसड्डी
था। वह अपनी
खराब मनोदशा
के लिए अपनी
कैडी को कोसा
करता था। और
एक सुबह एक
खराब खेल के
बाद वह
चिल्लाया, तुम्हें
तो संसार की
सबसे बुरी
कैडी होना चाहिए।
ओह नहीं, महोदय,
कैंडी ने
उत्तर दिया, यह केवल
संयोग हो सकता
है। एक सबसे
खराब गोल्फ का
खिलाड़ी और
संसार की सबसे
बुरी कैडी? यह एक
दुर्लभ संयोग
है।
एक
ऐसी स्त्री को
खोज पाना बहुत
दुर्लभ संयोग होगा।
ऐसा पहले कभी
हुआ नहीं। और
मैं नहीं
सोचता कि ऐसा
भी हो सकता है।
ऐसा कभी पता
नहीं लगा कि
किसी— परम
ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति ने
बच्चों को जन्म
दिया हो। हां, तुमने
सुन रखा होगा
कि बुद्ध के
एक पुत्र था, किंतु ऐसा
तब हुआ था जब
वे परम ज्ञान
को उपलब्ध
नहीं हुए थे।
महावीर
के एक पुत्री
थी,
किंतु वह भी
उनके परम शान
को उपलब्ध
होने से पूर्व
की थी।
गुरजिएफ के कई
स्त्रियों से
अनेक बच्चे थे,
किंतु यह भी
उसके परम शान
को उपलब्ध
होने से पूर्व
घटित हुआ था।
और तुम्हें
भलीभांति
ज्ञात होना
चाहिए कि वे बच्चे,
यहां तक कि
बुद्ध का
पुत्र राहुल
भी, स्वयं
को बुद्ध का
पुत्र सिद्ध न
कर सका। महावीर
की पुत्री ने
किसी भी
प्रकार से
सिद्ध नहीं
किया कि वह
महावीर की
पुत्री है, वह सामान्य
सिद्ध हुई। वह
इतनी सामान्य
थी कि जैनों
का एक
संप्रदाय यह
विश्वास करता
है कि यह एक
पौराणिक
आख्यान है :
महावीर का कभी
विवाह नहीं
हुआ और उनके
घर में कभी
कोई संतान
नहीं हुई। वह
पुत्री इतनी
सामान्य थी
जैसे कि वह है
ही नहीं। क्या
तुमने कभी
किसी परम
ज्ञान को
उपलब्ध व्यक्ति
के पुत्र या
पुत्री को परम
शान को उपलब्ध
होते सुना है?
यह संयोग एक
बहुत दुर्लभ
संयोग है।
और
इसमें एक और
बात भी जुड़ी
हुई है। पहली, एक
अविक्षिप्त
व्यक्ति एक अविक्षिप्त
स्त्री को पा
ले, फिर वे
दोनों मिल कर
जन्म लेने के
लिए एक अविक्षिप्त
आत्मा की खोज
करें। यह
समस्या बहुत जटिल
है, क्योंकि
तुम स्त्री की
खोज इसलिए
करते हो क्योंकि
तुम
विक्षिप्त हो।
क्योंकि अभी
तक तुम अपने
भीतर की स्त्री
से नहीं मिले
हो, इसलिए
तुम स्त्री की
खोज करते हो।
स्त्री एक
पुरुष की खोज
करती है, क्योंकि
वह अभी तक
अपने भीतर के
पुरुष से नहीं
मिली है।
क्योंकि तुम
अपने भीतर एक
परिपूर्ण
समग्र नहीं हो
इसलिए तुम
बाहर खोजने
जाते हो।
पहली
बात,
जिस क्षण
तुम अपने भीतर
समग्र हो जाते
हो—होली, पवित्र
व्यक्ति होने
का यही अर्थ
है। वह
व्यक्ति जो
समग्र हो गया
है—फिर तुम
बाहर नहीं
खोजते। कोई
आवश्यकता न
रही। तुम
भागते भी नहीं
यदि कोई
स्त्री
तुम्हारे सामने
आ जाती है, तो
तुम दूर नहीं
भागते और तुम
पुलिस को खबर
नहीं करते कि
एक स्त्री सामने
आ रही है। यह
भी अच्छा है।
यदि कोई
स्त्री सामने
आ जाती है, बिलकुल
ठीक हैं। यदि
वह दूर चली
जाती है, यह
भी एकदम सही
है।
और
तुम बच्चों को
जन्म देते हो; यह
भी
विक्षिप्तता
का कृत्य है, क्योंकि
तुमको सदैव
उलझाव चाहिए,
उलझने के
लिए कुछ तो
चाहिए।
तुम्हारा
मूलभूत उलझाव
भविष्य के साथ
है, और
बच्चे
तुम्हारे लिए
भविष्य को
उपलब्ध करवा
देते हैं।
उनके माध्यम
से तुम्हारी
महत्वाकांक्षाएं
गतिशील होने
में समर्थ हो
जाएंगी। जब
तुम इस संसार
से विदा हो
चुके होंगे तब
तुम्हारे
बच्चे यहां
होगे। तुम
प्रधानमंत्री
होने का
प्रयास कर रहे
थे और तुम बन न
सके तो
तुम्हारे
बच्चे बन जाएंगे।
उनको तुम
तैयार करोगे
और सातत्य
चलता रहेगा।
जब
कोई मरता है, और
अपने पीछे कोई
संतान नहीं
छोडता, तो
उसे लगता है
कि सब कुछ
समाप्त हो गया
है, परम
अंत आ गया है।
किंतु जब तुम
अपने पीछे
बच्चे छोड़
जाते हो, तो
तुम्हें उनके
माध्यम से एक
प्रकार की
अमरत्व की
अनुभूइत होती
है : यह ठीक है; मैं मर रहा
हूं चिंता
करने की कोई
बात नहीं है।
लेकिन मेरा एक
भाग मेरे
बच्चे के
माध्यम से जीता
रहेगा। लोग
बच्चों में
बहुत अधिक
उत्सुक हैं
क्योंकि वे
मृत्यु से
बहुत अधिक
भयभीत हैं।
बच्चे तुम्हें
अमरत्व का एक
झूठा आभास, एक प्रकार
का सातत्य दे
देते हैं। एक
अविक्षिप्त
व्यक्ति कभी
बच्चों में
उत्सुक नहीं
होता, उसे
किसी प्रकार
के सातत्य में
उत्सुकता नहीं
होती। उसने
शाश्वत को पा
लिया है, और
वह मृत्यु के
बारे में
चिंतित नहीं
है।.
एक
अविक्षिप्त
स्त्री को
पाना क्यों
इतना असंभव है, इस
बारे में कुछ
कहानियां.......मैं
कुछ नहीं
कहूंगा, मैं
तो बस कुछ
किस्से पढ़
दूंगा।
श्रीमान
कोहेन कुछ धन
खर्च करना
चाहते थे, और
उन्होंने एक आंतरिक
सज्जाकार से
अपने मकान की
पुनर्सज्जा
के लिए कहा।
सज्जाकार
श्री जोंस ने
पूछा, श्रीमान
कोहेन, आपका
कार्य करके
मुझे
प्रसन्नता
होगी। क्या आप
अपनी पसंद की
कोई रूप—रेखा
बता सकते हैं?
क्या आपको
आधुनिक सज्जा
पसंद है? नहीं।
स्वीडन
की शैली?
नहीं।
इटली
की प्रांतीय
शैली?
नहीं।
मूर
शैली? स्पैनिश
शैली?
नहीं।
ठीक
है,
श्रीमान
कोहेन, आपको
मुझे अपनी
पसंद की शैली
का थोड़ा सा
संकेत तो देना
ही पड़ेगा, अन्यथा
मैं तो अपना
कार्य आरंभ तक
नहीं कर पाऊंगा।
आपके मन में
असल में है
क्या?
श्रीमान
सज्जाकार, जो
मैं चाहता हूं
वह यह है कि जब
मेरे मित्र यहां
आएं तो इसकी
सज्जा पर एक
नजर डालें और
कुढ़ कर मर
जाएं।
दूसरी
: एक युवा जोड़ा
होटल के एक
कमरे में बेहद
रोमांटिक मूड
में
आलिंगनबद्ध
था कि सामने
वाले दरवाजे
के ताले में
चाबी घुमाने
की आवाज आई।
युवती अचानक
चौंक कर
आलिंगन से
निकली और आगामी
खतरे को भांप
कर घबड़ाहट की
मुद्रा में
उसकी आंखें
फैल गईं। हाय
राम,
वह चिल्लाई,
यह मेरे पति
हैं। जल्दी
करो, खिड़की
से बाहर कूद
पड़ो।
युवक
भी उतना ही
घबडा कर खिड़की
की ओर लपका, फिर
गंभीरता से
बोला, मैं
कूद नहीं
सकता! हम
तेरहवीं
मंजिल पर हैं!
भगवान
के लिए, युवती
क्रोध से
चिल्ला कर
बोली, क्या
यह बहस करने
का वक्त है?
तीसरी
: पत्नी एक नया
हैट पहने हुए
वापस लौटी।
तुमको यह हैट
कहां मिल गया? उसके
पति ने पूछा, क्लीयरेंस
सेल में।
इसमें
जरा भी हैरानी
की बात नहीं
है कि वे इसे क्यों
बेच डालना
चाहते थे, उसने
कहा, इसे
लगा कर तुम
बेवकूफ जैसी
दिखाई पड़ती हो।
मुझे
पता है।
फिर
तुमने इसको
क्यों खरीद
लिया? उसने
जिज्ञासा की।
बताऊंगी
मैं तुम्हें, वह
बोली, जब
मैंने इसको
लगाया और
स्वयं .को
दर्पण में देखा
तो सेल्समैन
से विवाद करने
के लिए मैं
स्वयं को ही
काफी बेवकूफ
लगी। इसलिए
हैट लेकर मैं
खामोशी से चली
आई।
चौथी
: मुल्ला
नसरुद्दीन
मुझको बता रहा
था कि विवाह
उस प्रकार के
पुरुष की खोज
की प्रक्रिया
है जिस प्रकार
का पुरुष
तुम्हारी
पत्नी ने पसंद
किया होता।
इसी सुबह मेरी
पत्नी ने
मुझसे कहा, यदि
तुमने मुझसे
वास्तव में
प्रेम किया
होता तो तुमने
किसी और से
विवाह कर लिया
होता। मैंने
उसको भरोसा
दिलाया कि
उसके साथ
विवाह करके
मैं बहुत
प्रसन्न हूं
और मैंने कहा,
यदि मुझको
अपने स्थान पर
रिचार्ड
बर्टन को लाना
हो तो भी मैं
ऐसा न करूं।
उसने कहा : मैं
जानती हूं कि
तुम ऐसा नहीं
करोगे, मुझे
खुश रखने के
लिए तुम कभी
कुछ नहीं करते
हो।
आज
इतना ही।
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